फिल्म रिव्यू : मशीन

मशहूर फिल्म निर्देशक जोड़ी अब्बास मस्तान के अब्बास अपने बेटे मुस्तफा बर्मावाला को बौलीवुड में बतौर कलाकार पेश करने के लिए रोमांटिक रोमांचक फिल्म ‘‘मशीन’’ लेकर आए हैं, जो कि उनकी पिछली कई फिल्मों का मुरब्बा है.  फिल्म देखकर नहीं लगता कि एक पिता व चाचा ने अपने बेटे व भतीजे के करियर को संवारने के लिए फिल्म बनायी है.

फिल्म की कहानी के केंद्र में हिमाचल प्रदेश में रहने वाली सारा थापर (कियारा अडवाणी) हैं. सारा थापर दान करने में माहिर हैं. वह एक स्कूल के लिए आवश्यक धन जल्द मुहैया करने का वादा कर अपने घर की तरफ रवाना होती हैं, रास्ते में सड़क पर तेल पड़ा होता है, जिसके चलते सारा की कार खराब हो जाती है. वह रुकती हैं, पीछे से आ रही कार चालक को रुकने के लिए कहती है. यह कार चालक रंश (मुस्तफा बर्मावाला) है. रंश की कार से अपने घर तक पहुंचने के बाद सारा उसे कार रेस में आने का निमंत्रण देती हैं. जब वह कार रेस में जाती हैं, तो पता चलता है कि रंश भी एक प्रतियोगी है. उस दिन वह कार रेस रंश जीत जाता है और सारा हार जाती हैं. रंश, सारा से कहता है कि उसे डर नहीं लगता. क्योंकि उसके पास खोने को कुछ नहीं है. वह ब्रेक पर बिना पैर रखे कार चलाता है. पता चलता है कि रंश भी सारा के ही कालेज ‘वुडस्टाक’ का छात्र है. कालेज में आदित्य (ईशान शंकर) से सारा की अच्छी दोस्ती है. कालेज के एक छात्र विक्की की आदित्य से अनबन है. एक दिन जब प्यार के पुल के पास आदित्य से मिलने सारा जाती है, तभी एक कार आदित्य को कुचल देती है और कार नदी में गिर जाती है. पुलिस को नदी से विक्की की लाश मिलती है.

कालेज में रोमियो ज्यूलिएट नाटक में ज्यूलिएट के किरदार में सारा और रोमियो के किरदार में रंश है. नाटक के अंत में सारा की आंखों में देखते हुए रंश अपने प्यार का इजहार कर देता है. उसके बाद वह सारा व सारा के पिता (रोनित राय) के साथ ही उनके घर जाता है. चट मंगनी पट शादी हो जाती है. दोनों हनीमून के लिए निकलते हैं. हनीमून की रात के बाद सुबह रंश प्यार भरी बातें करते हुए सारा को उठाकर पहाड़ी से नीचे फेंक देता है. रंश व सारा के परिवार के लिए सारा की मौत हो चुकी है, पर उसे आदित्य के हमशक्ल भाई अजय (ईशान शंकर) ने बचा लिया होता है.

कुछ दिन अस्पताल में रहने के बाद वह स्वस्थ हो जाती है. अजय उसे बताता है कि रंश ने ही आदित्य को कार से कुचला था और विक्की की लाश गाड़ी में रखकर गाड़ी को नदी में गिराया था. यह राज सारा व आदित्य के दोस्त लक्की ने अजय को जो वीडियो भेजा था, उससे पता चलता है. अब अजय का मकसद रंश को सजा देना है. अजय के साथ सारा जब अपने घर पहुंचती है, तो उसकी मुंहबोली मां बताती है कि उसके पिता तो ऋषिकेश गए हैं.

उधर रंश जार्जिया में कार रेस का आयोजन करने वाले अरबपति इंसान क्रिश की बेटी सलीना के साथ रंगरेलियां मना रहा है. जिस तरह सारा को रंश ने अपने प्रेम जाल में फंसाया था, उसी तरह वह सलीना को भी अपने प्रेम जाल में फंसाता है. फिर सलीना के पिता क्रिश (दिलीप ताहिल) से मिलता है. दूसरे दिन क्रिश से उनकी पूरी संपत्ति का नब्बे प्रतिशत हिस्सा अपने नाम कराकर उन्हे मौत के मुंह में सुलाकर दुर्घटना का रंग दे देता है. सलीना इस बात पर यकीन कर लेती है.

फिर रंश अपने पिता(रोनित राय ) से मिलने जाता है. तब पता चलता है कि सारा के पिता वास्तव में रंश के पिता हैं. सारा के नाना थापर के यहां रंश के पिता नौकरी करते थे. थापर की दौलत हथियाने के लिए ही रंश के पिता ने सारा के माता पिता की हत्या करवा दी थी. थापर ने मरने से पहले रंश के पिता को सारा का पिता बना दिया था. पर वसीयत में लिख दिया था कि जब सारा 21 साल की होगी, तो सारी जायदाद उसके नाम हो जाएगी. 21 साल से पहले सारा को कुछ हो गया, तो सारी जायदाद ट्रस्ट में चली जाएगी. इसलिए रंश के पिता ने रंश को प्रषिक्षण देकर सारा से प्रेम करवाया. जिस दिन सारा इक्कीस साल की होती, उससे एक दिन पहले शादी करवा दी और फिर सारा की रंश के हाथों हत्या करवा दी. इतना ही नहीं रंश के पिता कभी क्रिश की बहन से क्रिश की दौलत के लिए प्यार करते थे. पर क्रिश ने रंश के पिता को फंसा दिया था. इसलिए क्रिश से बदला लेने व उसकी जयादाद हड़पने के लिए रंश को काम दिया, जिसे रंश ने पूरा किया. अब रंश के पिता खुश हैं कि वह और उनके बेटे रंश के पास अरबों की जायदाद है.

उधर रेस का फाइनल होना है. सारा व अजय अपनी योजना बनाते हैं. कार रेस में रंश को सारा हराती है. सलीना, रंश को बताती है कि उसे उसकी असलियत पता चल चुकी है. उधर सारा व अजय घर पहुंचकर रंश के पिता को गोली मारने के बाद पूरे मकान में आग लगा देते हैं. रंश अपने पिता को आग से बाहर निकालता है. पर अजय उसे घायल कर देता है. जबकि सारा कहती है कि वह जिससे प्यार करती है, उसे भूल नहीं सकती है. अंततः रंश की भी मौत हो जाती है.

फिल्म ‘‘मशीन’’ देखने के बाद एक ही सवाल उठता है कि अब्बास मस्तान अपने बेटे के लिए भी एक अच्छी फिल्म नहीं बना सके. ‘मशीन’ एक मौलिक फिल्म की बजाय अब्बास मस्तान निर्देशित ‘बाजीगर‘, ‘खिलाड़ी’, ‘रेस’ सहित कई फिल्मों का मिश्रण लगती है. जब फिल्म ‘मशीन’ शुरू होती है, कुछ समय तक वह अब्बास मस्तान की पुरानी फिल्म ‘बाजीगर’ की याद दिलाती है. उसके बाद ‘खिलाड़ी’, ‘रेस’…..इंटरवल से पहले फिल्म को बेवजह खींचा गया है. फिल्म की कहानी व पटकथा में दम नहीं है. फिल्म में जो घटनाक्रम हैं, उनका आपस में तालमेल नहीं है और उन घटनाक्रमों की कोई वजह या लाजिक भी समझ में नही आती. वही घिसी पिटी कहानी, वही पुराने रोमांचक व रहस्य के घटनाक्रम, जो दर्शकों को बोर ही करते हैं और दर्शक सोचता है कि कब तक इसे झेलना पड़ेगा? सिर्फ लोकेशन और कैमरामैन दिलशाद वी ए ही तारीफ के हकदार हैं. फिल्म के संवाद भी बहुत घटिया हैं. फिल्म का गीत संगीत भी अति साधारण दर्जे का है.

जहां तक अभिनय का सवाल है, तो कियारा अडवाणी कई सीन में काफी खूबसूरत लगी हैं. उनका अभिनय भी ठीक ठाक है, मगर वह फिल्म को बेहतर नहीं बना पाती. अभिनेता ईशान शंकर के हिस्से करने के लिए कुछ खास था ही नहीं. मगर जिनके लिए फिल्म ‘मशीन’ बनायी गयी है यानी कि फिल्म के हीरो मुस्तफा बर्मावाला प्रभावित नहीं करते. हर सीन में वह सपाट चेहरे के साथ नजर आते हैं. उनके चेहरे पर कहीं कोई भाव नहीं आता. उनके पिता ने इसीलिए उनके चेहरे पर दाढ़ी रखवा दी है, जिससे लोग यह न भांप सकें कि मुस्तफा का चेहरा हमेशा भावहीन रहता है. पर वह भूल गए कि कैमरा सब कुछ पकड़ लेता है. यदि मुस्तफा को अभिनय में आगे बढ़ना है, तो अभी उन्हे बहुत मेहनत करने व खुद को तैयार करने की जरुरत है. रोनित राय भी निराश करते हैं.

जार्जिया में फिल्मायी गयी फिल्म ‘‘मशीन’’ का प्रचार भी औसत दर्जे से कम रहा. शायद फिल्म के निर्माता व निर्देशक को पहले से ही फिल्म के भविष्य का अहसास था. फिल्म देखने के बाद इस बात का अहसास होता है कि कोई चमत्कार ही इस फिल्म की लागत को वापस दिला सकता है. अन्यथा यह फिल्म घाटे का सौदा है.

दो घंटे 28 मिनट की अवधि वाली फिल्म ‘‘मशीन’’ का निर्माण ‘‘अब्बास मस्तान प्रोडक्शन’’ और ‘‘पेन मूवीज’’ ने मिलकर किया है. फिल्म के  लेखक संजीव कौल, निर्देशक अब्बास मस्तान, कैमरामैन दिलशाद वी ए, संगीतकार तनिष्क बागची, कोमल शिवान व डां.जियुस तथा कलाकार हैं – मुस्तफा बर्मावाला, कियारा अडवानी, ईशान शंकर, रोनित राय, जानी लीवर व अन्य.

सिनेमाघरो में आईं एकसाथ कई फिल्में

मार्च का महीना, परीक्षाओं और होली के कारण सिनेमाघरों की कमाई की दृष्टी से ठंडा माना जाता है. हालांकि सिनेमाघर वाले इस बार ‘बद्रीनाथ की दुल्हनिया’ का बहुत शुक्रिया अदा कर रहे हैं क्योंकि फिल्म ने इस मार्च के महीने में उन्हें अच्‍छी कमाई करने का अवसर दिया है.

सिनेमाघरों के इस महीने को व्यवसाय के हिसाब को देखें तो मार्च के शुरुआत में आई ‘कमांडो 2’ ने सिंगल स्क्रीन को थोड़ी राहत तो दी थी, पर यह फिल्म पहले वीकेंड के बाद ही बैठ गई थी. फिल्म ‘बद्रीनाथ की दुल्हनिया’ ने सप्ताह भर से सिनेमाघरों को आबाद रखा है और अब दूसरे सप्ताह में भी यह फिल्म थोड़ी भीड़ को सिनेमाघरों की ओर खींच रही है.  

यूं तो कहा जाता है कि मार्च के महीने में छोटे बजट की फिल्मों और नये-नये कलाकारों को हर तरफ से लाभ मिलता है. इन फिल्मों को रिलीज होने का अच्छा-खासा अवसर मिल जाता है और इन्हें थिएटर भी आसानी से मिल जाते हैं.

लेकिन इस बार मामला ऐसा तो नजर नहीं आता. जी हां, हम आपको बता रहे हैं कि आज यानि कि 17 मार्च 2017 को एक-दो नहीं, छ: से ज्यादा फिल्में सिनेमाघरों में प्रदर्शित हो रही हैं. सभी फिल्मों के प्रचार-प्रसार से अब तक ऐसा तो कुछ भी प्रतीत नहीं हुआ कि ये फिल्में अपेक्षाकृत छोटी फिल्में हैं.

अब प्रदर्शित हो रही इन फिल्मों में कौन-किसका गला काटता है यह तो रिलीज होने और प्रदर्शन के बाद दर्शकों की प्रतिक्रियाएं ही बताएंगी और यह पता चलेगा कि एक साथ आने पर इन फिल्मों पर क्या प्रभाव पड़ेगा.

आज सिनेमाघरों में मशीन, आ गया हीरो, ट्रैप्ड, मंत्र, जुनून- वंस अपॉन ए टाइम इन कलकत्ता और डब की हुई फिल्में ‘ब्यूटी एंड द बीस्ट’ (यूके) रिलीज होने वाली है.

कई हिट फिल्मों के निर्माता अब्बास-मस्तान फिल्म ‘मशीन’ लेकर आ रहे हैं. उन्होंने इसका प्रचार-प्रसार भी किया लेकिन अब तक दर्शकों की इस फिल्म में कोई खास  दिलचस्पी नहीं देखने को मिली है. इस फिल्म से अभिनेता मुस्तफा बर्मावाला अपनी फिल्मी पारी की शुरूआत करने जा रहे हैं.

आपको बता दें कि फिल्म ‘आ गया हीरो’ के जरिये सुपरस्टार रहे अभिनेता गोविंदा फिल्मों में वापसी कर रहे हैं. गोविंदा की सालों से अटकी फिल्म आज 17 मार्च को प्रदर्शित हो रही है. लोगों को इस फिल्म से कितनी उम्मीदें हैं ये तो अब तक फिल्म के बारे में ना के बराबर होने वाली चर्चाओं से ही पता चल रहा है.

काफी चर्चा में रही फिल्म ‘ट्रैप्ड’ भी मल्टीप्लेक्स वालों के लिए कमाई का एक अच्छा जरिया बन सकती है. यह एक थ्रिलर फिल्म हैं, जिससे निर्माता अनुराग कश्यप और विक्रमादित्य मोटवाने साथ ही अभिनेता राजकुमार राव जुड़े हुए हैं, लिहाजा इस फिल्म से लोगों को उम्मीदें बंधती नजर आ रही हैं.

इसके अलावा आने वाली फिल्म ‘मंत्र’ और ‘जुनून- वंस अपॉन ए टाइम इन कलकत्ता’ के नाम तो आपने भी बहुत कम ही सुने होंगे. हॉलीवुड फिल्मों के शौकीनों लोगों के लिए ‘ब्यूटी एंड द बीस्ट’ भी आज ही आ रही है. ये बात तो तय है कि बड़े शहरों में इस फिल्म को निश्चित रूप से दर्शक मिलेंगे और फिल्म अच्छा प्रदर्शन कर सकती है.

कुल मिलाकर एक ही दिन में कई अलग-अलग मिजाज की फिल्में प्रदर्शित होने जा रही हैं. अब देखना ये है कि दर्शकों का झुकाव किस ओर होता है और लोग क्या देखना पसंद करते हैं.

अल्जाइमर्स सिर्फ ढलती उम्र का रोग नहीं

अल्जाइमर्स रोग मनोभ्रंश का सब से आम कारण है. शब्द मनोभ्रंश से ही इस के संकेतों का पता चल जाता है. पहली बार इस बीमारी को वर्णित करने वाले चिकित्सक अलोइस अल्जाइमर के नाम पर इस बीमारी का नाम अल्जाइमर्स हुआ. यह मस्तिष्क को प्रभावित करने वाला ऐसा रोग है जिस में इस की शक्ति दिनोंदिन क्षीण होने लगती है.

याददाश्त का कम होना, अल्जाइमर्स रोग के प्रमुख लक्षणों में से एक है. इस बीमारी का सब से प्रमुख लक्षण है हालिया जानकारियों को भूल जाना, दूसरा लक्षण है महत्त्वपूर्ण तारीखों या घटनाओं का याद न रहना, एक ही जानकारी को बारबार पूछना तथा उन्हें फिर भूल जाना, स्मृति सहयोगियों पर आश्रित रहना यानी रिमाइंडर नोट्स या किसी इलैक्ट्रौनिक यंत्र में प्रमुख तथा सामान्य जानकारियां फीड रखना जो कि सामान्यतया आराम से याद रखी जा सकती हैं. या परिवार के किसी सदस्य पर ऐसे कामों के लिए आश्रित रहना जो खुद से आसानी से किए जा सकते हैं.

इस बीमारी के कारण लोगों को ऐसे कार्यों को भी करने में तकलीफों का सामना करना पड़ता है जिन से वे भलीभांति परिचित हैं या काफी समय से नियमित करते आ रहे हैं. उदाहरण के तौर पर परिचित रास्तों को भूल जाना व पैसे संबंधी लेनदेन का समझ में न आना आदि.

यह बीमारी रोजमर्रा के हर एक ऐसे कामों को प्रभावित करती है जिसे लोग कई बरसों से करते आ रहे हैं. समय या स्थान के बारे में भ्रम, दृश्यचित्र और स्थानिक संबंधों को समझने में दिक्कतों तथा इन जैसे तमाम लक्षणों का सीधा संबंध अल्जाइमर्स रोग से है. इन सारे लक्षणों को लोग जानकारी के अभाव

में अनदेखा कर देते हैं. नतीजतन, इस बीमारी से पीडि़त व्यक्ति सामान्य मानसिक कार्यों को करने में असमर्थ होने की वजह से अपनेआप को समाज से तथा सामाजिक गतिविधियों से अलगथलग रखने लगता है.

बिगड़ते हालात

स्वभाव तथा व्यक्तित्व में परिवर्तन भी इस के अहम लक्षणों में से हैं. इस बीमारी से पीडि़त व्यक्तियों में स्वभाव तथा व्यक्तित्व में परिवर्तन आने लगता है. वे अकसर संदिग्ध, उदास, भयभीत या अनमने से रहने लगते हैं. चाहे अपने काम के प्रति हो या अपने परिजनों के प्रति, उन का बरताव अलग तथा अनमना सा होने लगता है. वे चिड़चिड़े से हो जाते हैं.

अल्जाइमर्स रोग के लक्षण समय के साथ बद से बदतर होने लगते हैं. इस बीमारी की शुरुआत होने के बाद यह कितने समय में क्या रूप लेगी, इस के बारे में भी कुछ सटीक कह पाना मुश्किल है. आमतौर पर इस बीमारी के होने के बाद पीडि़त 8 वर्षों तक जीवित रह सकता है. अगर सभी कारणों तथा इलाज पर गौर किया जाए तो उसे लगभग एक स्वस्थ जीवन 20 वर्षों के लिए प्रदान किया जा सकता है. यह भी गौरतलब है कि लक्षणों के सामने आने से पहले ही यह बीमारी ग्रसित लोगों के दिमाग पर अपना असर छोड़ने लगती है.

क्यों होता है अल्जाइमर्स

मस्तिष्क रोग अल्जाइमर्स से पीडि़त मस्तिष्क में पाए जाने वाले प्रोटीन की

मात्रा असामान्य रूप से एक स्वस्थ मस्तिष्क में पाए जाने वाले प्रोटीन की मात्रा से अधिक होती है. परिणामस्वरूप, न्यूरौन्स (मस्तिष्क की तंत्रिका कोशिका) क्षय होने लगती है. एक सामान्य मस्तिष्क की यह क्षमता होती है कि वह न्यूरौन्स के बीच पाए जाने वाले प्रोटीन फ्रैग्मैंट्स (आमिलोइड पेप्टाइड) को घुला सके लेकिन अल्जाइमर्स से ग्रसित मस्तिष्क में पाए जाने वाले आमिलोइड पेप्टाइड जम कर कठोर हो जाते हैं तथा न्यूरौन्स के बीच अघुलनशील टकड़ों की तरह रह जाते हैं.

एक प्रोटीन जिसे हम टाऊ के नाम से जानते हैं वह अपने प्राकृतिकरूप की तुलना में असामान्य हो जाता है तथा न्यूरौन्स के बीच टंगेल्स कहलाने वाले ट्विस्टैड फाइबर्स की रचना करता है.

ये टंगेल्स तथा अघुलनशील टुकड़े अल्जाइमर्स से ग्रसित मस्तिष्क में एक पैटर्न की रचना करते हैं तथा जैसेजैसे यह बीमारी बढ़ती है वैसेवैसे यह मस्तिष्क की तंत्रिका कोशिकाओं का क्षय करने लगती है. जिस के चलते स्नायु तंत्रिका सामान्य रूप से कार्य नहीं कर पाती है. इस के प्रभाव लोगों को अपने रोजमर्रा के जीवन में इस बीमारी के लक्षण के रूप में नजर आने लगते हैं.

चिंताजनक आंकड़े

अल्जाइमर्स रोग के आंकड़े बताते हैं कि दुनियाभर में डिमेंशिया से ग्रसित लोगों की कुल संख्या 2010 में 35.6 करोड़ के आसपास अनुमानित थी तथा यह आने वाले 20 वर्षों में दोगुनी हो जाएगी और वर्ष 2050 तक इस बीमारी से ग्रसित रोगियों की संख्या दुनिया में लगभग 115.4 करोड़ हो जाएगी. भारत में इस बीमारी के अध्ययन अभी शुरुआती चरण में हैं तथा दक्षिण भारत में हुए एक अध्ययन से जानकारी मिली है कि अल्जाइमर्स रोग के बढ़ते मामलों में प्रत्येक 1,000 लोगों में अल्जाइमर्स के रोगियों की संख्या औसतन 9.19 है.

हम प्रत्येक वर्ष अल्जाइमर्स रोग के अमूमन 30 से 35 मामले देखते हैं. इस बीमारी के शुरुआती लक्षण ऐसे हैं जिन्हें लोग अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में ध्यान नहीं देते हैं. इन लक्षणों की पूरी तरह डाक्टरी जांच होनी बहुत ही आवश्यक है. लापरवाही के कारण या इन्हें ढलती उम्र के मामूली लक्षण समझ कर नजरअंदाज कर देने से ये बीमारी को और भी गंभीर बना देते हैं. लोग जितना इस बीमारी के बारे में जागरूक होंगे तथा इस के शुरुआती लक्षणों के बारे में जानेंगे, उतना हमें इस के इलाज में आसानी होगी तथा हम मरीजों को इस बीमारी के गंभीर परिणामों से बचा सकेंगे.

सुरक्षा ही बचाव है, यह बात हर बीमारी के बारे में सही है. कुछ चीजों को ध्यान में रख कर इस लाइलाज बीमारी से बचा जा सकता है. स्वच्छ तथा स्वस्थ भोजन, सही मात्रा में शारीरिक तथा मानसिक व्यायाम किसी भी व्यक्ति को मानसिक रूप से स्वस्थ तथा सजग रखने में बहुत सहायक होते हैं. डिप्रैशन को नजरअंदाज न करें तथा सही समय पर सटीक इलाज लें.

(लेखक न्यूरोलौजिस्ट हैं.)

ऐक्टिंग से 6 महीने का ब्रेक ले रही हैं आलिया

आलिया को लगातार फिल्मों के ऑफर मिल रहे हैं और इन दिनों वह अपनी हालिया फिल्म बद्रीनाथ की दुल्हनियाकी सफलता को काफी इंजॉय कर रही हैं. हालांकि, आलिया के पास अब कुछ नया प्लान है और वह 6 महीने की छुट्टी पर जा रही हैं.

सूत्रों के मुताबिक, आलिया ने फैसला लिया है कि वह ऐक्टिंग से 6 महीने की फुर्सत लेंगी. उन्होंने बताया है कि अयान मुखर्जी की ड्रैगन सितंबर में शुरू होगी. तब तक वह अपनी कला को बेहतर बनाने, नए स्किल सीखने और कुछ नई चीजें सिखेंगी और करेंगी, जिसका अब तक कोई अनुभाव उन्होंने नहीं लिया.

आलिया अपने नई फिल्म की शूटिंग से पहले नए स्किल्स सीखना चाहती हैं. उन्होंने कहा है कि इस दौरान वह पियानो बजाने के अलावा कथक भी सीखना चाहती हैं. वह चाहती हैं कि एक ऐक्ट्रेस के रूप में उनमें सारी खूबियां हो.

आलिया का कहना है कि कैमरे के सामने आप जो करते हैं, वह केवल ऐक्टिंग नहीं होता, इसके साथ कई विचार एकसाथ होते हैं. इसलिए वह कई तरह के अलग-अलग अनुभवों को हासिल करना चाहती हैं.

इन सबके अलावा आलिया कुकिंग का काम भी सीखना चाहती हैं. अब उनका अपना अलग घर है और जब कोई गेस्ट उनके घर आता है तो उन्हें यह अच्छा नहीं लगता कि वह उनके लिए खाना नहीं बना पातीं. हालांकि, गेस्ट के अलावा वह खुद के लिए भी खाना बनाना सीखना चाहती हैं, क्योंकि इस चीज को वह अपनी जिंदगी का जरूरी हिस्सा मानती हैं.

15 फिल्में जो कभी नहीं हुई रिलीज

फिल्म इंडस्ट्री में हर शुक्रवार, हर त्योहार या विशेष अवसर के दिन फिल्में रिलीज होती हैं, लेकिन इन ढ़ेरों फिल्मों के साथ कई फिल्में ऐसी भी होती हैं. जो किसी कारण, रिलीज ही नहीं हो सकी.

1. यार मेरी जिन्दगी (1971)

यह फिल्म, इंडस्ट्री की अब तक की विलंबित मूवी है जो अमिताभ बच्चन के मशहूर होने से पहले की फिल्म थी. मगर शूटिंग होने के बाद भी यह फिल्म रिलीज नहीं हो सकी. इस फिल्म को अशोक गुप्ता ने निर्देशित किया था. और शत्रुघ्न सिन्हा, अमिताभ बच्चन के सह-अभिनेता थे.

2. अपना पराया (1972)

फिल्म “अपना पराया” में अमिताभ बच्चन और रेखा थे, यह फिल्म अमिताभ बच्चन और रेखा की स्ट्रगल के समय की फिल्म है. फिल्म के बारे में कहा जाता है कि फिल्म बनकर तैयार थी मगर रिलीज नहीं हो सकी.

3. गजब (1978)

फिल्म “गजब” के बारे में सूत्र बताते हैं कि फाइनेंस की वजह से फिल्म रुक गयी थी. हालांकि फिल्म में कई बड़े नाम थे. यह फिल्म मनमोहन देसाई द्वारा निर्देशित फिल्म थी.

4. टाइगर (1980)

अमिताभ बच्चन की एक अन्य फिल्म ‘टाइगर” जो रिलीज नहीं हो सकी थी. इसका कारण दो भाइयों की आपसी रंजिश, जिसका नुकसान फिल्म पर हुआ व फिल्म रिलीज नहीं हो सकी.

5. जमीन (1988)

यह बड़े बजट की फिल्म थी जिसमें विनोद खन्ना, श्रीदेवी, माधुरी दीक्षित, संजय दत्त के साथ कई नाम थे. मगर निर्देशक रमेश सिप्पी ने फिल्म बीच में छोड़ दी थी. क्योंकि फिल्म को पूरा करने के लिए बजट नहीं था.

6. बंधुआ (1989)

बॉर्डर फिल्म के निर्देशक जे.पी. दत्ता की पहली फिल्म बंधुआ, जो कभी रिलीज नहीं हो पायी थी. इस फिल्म में अमिताभ बच्चन, वहीदा रेहमान और धर्मेंद्र थे.

7. टाइम मशीन (1992)

फिल्म ‘टाइम मशीन” डायरेक्टर शेखर कपूर की फिल्म थी. जो इंग्लिश फिल्म “बैक टू द फ्यूचर” से प्रेरित थी. मगर फिल्म को तीन-चौथाई करने के बाद शेखर कपूर हॉलीवुड दुबारा चले गए थे. फिल्म में आमिर खान, रवीन टंडन और नसीरुद्दीन शाह की मुख्य भूमिका थी.

8. कलिंगा (1991)

यह फिल्म दिलीप कुमार के लिए टर्निंग प्वाइंट थी क्योंकि इससे वह निर्देशन की दुनिया में कदम रख रहे थे. मगर फिल्म में विलंब की वजह से कलिंगा के सह निर्माता सुधाकर बोकार्ड को समझ आ गया कि यह फिल्म बहुत समय लगाएगी और उन्होंने यह फिल्म छोड़ दी. इस वजह से यह फिल्म कभी पूरी नहीं हो सकी थी.

9. चोर मंडली (1983)

फिल्म “चोर मंडली” पूरी शूट और डब हो गयी थी मगर एक विवाद के कारण फिल्म कभी रिलीज नहीं हो पायी. इसमें राजकपूर, दादा मुनि और अशोक कुमार थे.

10. लंदन (1997)

यह फिल्म निर्माता सनी देऑल और हॉलीवुड निर्देशक गुरिंदर चड्ढा की आपस में मतभेद के कारण अटक गयी थी. इस वजह से फिल्म रिलीज नहीं हो सकी.

11. खबरदार (1984)

इस फिल्म को अधूरा ही छोड़ दिया था. क्योंकि ऐसा कहा जाता था कि फिल्म मे अमिताभ बच्चन और कमल हसन की वजह से फिल्म को विवाद का सामना करना पड़ेगा.

12. लेडीज ओनली (1998)

यह फिल्म हॉलीवुड की फिल्म नाइन टू फाइव पर आधारित थी. जिसमें रणधीर कपूर एक ठरकी बॉस की भूमिका में थे. मगर फिल्म को फाइनेंस का सामना करना पड़ा और यह फिल्म भी रिलीज नहीं हो पायी.

13. शिनाख्त (1998)

निर्देशक टीनू आनंद की फिल्म शिनाख्त इसलिए अधूरी रह गयी थी क्योंकि फिल्म की कहानी गंगा-जमुना से मिलती-जुलती थी.

14. देवा (1987)

देवा फिल्म में निर्देशक सुभाष घई और अभिनेता अमिताभ बच्चन की आपसी कहा-सुनी से फिल्म की शूटिंग बंद हो गयी. इस कारण फिल्म रिलीज नहीं हो सकी.

15. आलीशान (1988)

फिल्म “आलीशान” एक हफ्ते की शूटिंग के बाद बंद हो गयी थी. क्योंकि गीतकार जावेद अख्तर और अमिताभ बच्चन ने दुसरी फिल्म में काम करना शुरु कर दिया था.

इन 15 फिल्में जो रिलीज नहीं हुई की सूची देखकर आप अंदेशा लगा सकते हैं कि बॉलीवुड में जो फिल्म शुरू होती है कभी-कभी वे फिल्में अधूरी भी रह जाती हैं.

पैगोडाओं का देश म्यांमार

प्लेन जब म्यांमार की राजधानी यांगोन पहुंचने से पहले म्यांमार के पानी से भरे हुए खेतों के ऊपर विशाल घंटों के आकार के बने बौद्ध मंदिरों और पैगोडाओं के ऊपर से गुजर रहा था, तब मैं बाहरी दुनिया से लगभग कटे हुए और हर जगह सैनिकों से घिरे हुए लोगों की कल्पना कर रहा था. पर क्या मेरी यह कल्पना सही थी? म्यांमार में कुछ दिन रहने के बाद मेरी कल्पना गलत साबित हो गई.

कहने की आवश्यकता नहीं कि आज का म्यांमार (1989 में बर्मा का नाम बदल कर म्यांमार कर दिया गया) अपने पड़ोसी एशियाई देशों की तुलना में 20 या 21 भले ही न हो, उन के बराबर कदम मिलाने की दिशा में आगे अवश्य बढ़ रहा है. वहां भी शहरों में सैटेलाइट डिश जगहजगह दिखाई पड़ती हैं जिन से अमेरिकी सीएनएन के साथ ही कोरियाई सोप कार्यक्रम और सीरियलों का प्रसारण चौबीसों घंटे होता रहता है. इस के साथ ही उस के प्राकृतिक संसाधनों सोना, रूबी, पैट्रोल, गैस और लकड़ी आदि से तो अच्छीखासी विदेशी मुद्रा मिलती ही है, चीन से उस का व्यापार भी बराबर बढ़ रहा है.

राजधानी यांगोन (रंगून नाम बदल कर अब यांगोन कर दिया गया है) के साथ ही अन्य शहरों में भी व्यापारी व नौकरीपेशा लोग साफसुथरे सारोंग (म्यांमार की पोशाक) और धुली कमीज पहने मोबाइल पर बात करते नजर आते हैं. उपनिवेशकालीन विशाल भवनों के साथ ही फ्लैटों के आधुनिकतम बहुमंजिलीय ब्लौक भी जगहजगह दिख जाते हैं. पर यूरोपीय रंगढंग में रंगे आज के म्यांमार की राजधानी ठेठ एशियाई भी है, इस से इनकार नहीं किया जा सकता.

यांगोन के होटल में पहले ही दिन पता चल गया कि भारत के शहरों के समान वहां भी मच्छर हैं. सुबह नाश्ते के समय देखा कि होटल में इटली, स्पेन, फ्रांस, जरमनी और अमेरिका के साथ ही कोरिया, जापान, चीन, थाईलैंड, सिंगापुर आदि एशियाई देशों के लोग भी कम नहीं थे. सभी मच्छरों के संबंध में ही बातें कर रहे थे. कहने की आवश्यकता नहीं कि इन में से अधिकांश हमारे समान पर्यटक ही थे. उन्हें देख कर यह सोचा ही नहीं जा सकता था कि म्यांमार का यूरोपीय या एशियाई देशों ने बायकौट कर रखा है.

यांगोन, मंडाले और इराबादी नदी के आकर्षण के बावजूद म्यांमार की राजनीति से आप अछूते नहीं रह सकते. चाहेअनचाहे आप को इस से दोचार होना ही पड़ता है. सू की की आवाज दबाई जाती है, प्रजातीय अल्पसंख्यकों के साथ दुर्व्यवहार किया जाता है और सैंसरशिप व बेगार मजदूरी तो दिनप्रतिदिन की बातें हैं. एअरपोर्ट से बाहर निकलने के पहले ही एअरपोर्ट पर मोबाइल फोन ले लिए जाते हैं और यदि आप किसी प्रकार छिपा कर ले भी आए तो फोन कनैक्ट नहीं हो पाएगा.

आप अपने होटल में ब्रौडबैंड पर इंटरनैट कनैक्ट कर के देखिए, हौटमेल और याहू कभी नहीं जुड़ पाएंगे. म्यांमार सरकार का नैटवर्क बिना सिमकार्ड के ही हर जगह सक्रिय है. बाहर से मोबाइल फोन लाने पर भले ही रोक हो, पर वहां सप्ताहभर के लिए या महीनेभर के लिए मोबाइल फोन किराए पर मिल जाते हैं. अंतर्राष्ट्रीय रोमिंग सुविधा वहां नहीं है. इन्हीं सब बातों के कारण लोगों से कहा जाता है कि वे म्यांमार नहीं जाएं.

खास हैं पैगोडा

फिर भी कहना पड़ता है कि म्यांमार के लोगों में यदि कुछ ताकत बची है, उन की अंत:चेतना जागृत है तो बौद्ध धर्म में निष्ठा के कारण. इस छोटे से देश में सैकड़ों ही नहीं हजारों पैगोडा हैं, फिर भी नएनए पैगोडा बनते देर नहीं लगती. लोग हैं कि नएनए पैगोडा बनाते जा रहे हैं. आप किसी भी समय जाएं, मंदिरों में दानपात्र क्यात (म्यांमार की मुद्रा) से ऊपर तक भरे दिखेंगे.

1991 में नोबेल शांति पुरस्कार प्राप्त आंग सान सू की और ब्रिटिश प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर द्वारा पर्यटकों के लिए म्यांमार के बहिष्कार की घोषणा की गई थी. उस के बाद से इस के पक्षविपक्ष में दुनियाभर में पत्रपत्रिकाओं में बराबर लिखा गया और अभी भी लिखा जा रहा है. यद्यपि सू की ने पर्यटकों को न आने के लिए कहा है पर उन का यह भी मत है कि पर्यटक ही दुनिया को म्यांमार के संबंध में सही स्थिति बता सकते हैं और म्यांमार के लोग ही पर्यटकों को देश की सही स्थिति बता सकते हैं.

होशियारी से लें काम

पर्यटकों से म्यांमार की सरकार को कम से कम लाभ हो, इस के लिए ऐसा किया जा सकता है कि महंगे होटलों में न ठहर कर सस्ते गैस्ट हाउस और प्राइवेट जगहों में ठहरें. कोशिश यही करें कि किसी बर्मी परिवार में ठहरें. पहचान यही है कि सरकारी होटलों और अन्य स्थानों के बाहर म्यांमार के राष्ट्रीय ध्वज फहरे रहते हैं व उन के नाम भी खासतौर पर शहरों या दर्शनीय स्थानों के नाम पर होते हैं.

जिस होटल में ठहरें वहां खाना न खा कर बाहर किसी अन्य जगह खाएं और अलग अलग जगह खाएं. इसी प्रकार हस्तशिल्प की वस्तुएं बड़ी दुकानों से न ले कर छोटी दुकानों से या सीधे कारीगरों से लें. पैकेज टूर तो नहीं ही लें क्योंकि पैकेज टूर का सीधा नियंत्रण सरकार के हाथ में रहता है. इसी प्रकार होटल से टूर लेने की अपेक्षा स्वयं टैक्सी तय कर भ्रमण का कार्यक्रम बनाएं. इस से आप को बचत तो होगी ही, आप के द्वारा दिया गया पैसा सीधे जनता को ही मिलेगा.

म्यांमार आश्चर्यजनक रूप से अंतर्विरोधों का देश है जिस के लोगों ने शताब्दियों तक उत्पीड़न सहा है. (कुबला खान से ले कर जौर्ज छठे तक) वे आधुनिक समय में सैनिक शासन तक का डट कर सामना करते आ रहे हैं. यहां 1962 से सैनिक शासन है. 1987-1988 में देशभर में शांतिपूर्ण प्रदर्शन और सरकार विरोधी आंदोलन व अंतर्राष्ट्रीय दबाव के कारण 1990 में चुनाव कराए गए पर उस में उस समय आंग सान सू ची नजरबंदी के बावजूद उन की पार्टी ने 82 प्रतिशत मतों से विजय प्राप्त की पर जुंटा शासक ग्रुप ने सत्ता हस्तांतरण नहीं किया. शायद इसी कारण इस समय दक्षिणपूर्व एशिया के देशों में सब से कम पर्यटक म्यांमार में आते हैं.

अमेरिका और ब्रिटेन द्वारा 2003 में लगाए गए व्यापारिक प्रतिबंध के बावजूद पड़ोसी देश थाईलैंड, मलयेशिया, सिंगापुर, लाओस आदि ने इसे नहीं माना. सब से अधिक व्यापारिक संबंध तो चीन के साथ हैं. म्यांमार की अर्थव्यवस्था का 60 प्रतिशत से अधिक इस समय चीन के नियंत्रण में है. भारत से भी म्यांमार के व्यापारिक संबंध हैं, और तो और 2004 में म्यांमार के प्रधानमंत्री पहली बार राजकीय यात्रा पर भारत आए. बंगलादेश से भी म्यांमार की व्यापारिक संधि है.

1989 में बर्मा की सरकार ने देश का नाम तो बदला ही, बर्मा के कुछ शहरों के नाम भी बदल दिए गए. तर्क यह था कि पहले के नाम उपनिवेशवादी नाम थे यानी अंगरेजों द्वारा रखे गए थे और नए नाम मूल बर्मी नाम हैं जैसे बर्मा से बदल कर म्यांमार और राजधानी रंगून से बदल कर यांगोन कर दिया जाना. इसी प्रकार इरावदी का नाम अब अय्यारवादी है. शहरों में पेगू अब बागो है, पगान बागान है और सेंडावे थांडवे है. बर्मी लोग अब बमार, करेन लोग कायिन और अराकानीज लोग राखेंग कहलाते हैं. यद्यपि बर्मा का नाम बदल कर अब सरकारी तौर पर म्यांमार कर दिया गया है पर वहां की मुख्य विरोधी पार्टी इस परिवर्तन को स्वीकार नहीं करती.

भाषा वैज्ञानिकों की दृष्टि में दोनों ही नाम सही हैं. म्यांमार औपचारिक नाम है जो राजाओं के समय में प्रचलित था पर ऐतिहासिक दृष्टि से ‘बामा’, जिस से बर्मा बना, बोलचाल में अधिक आता है. ऐतिहासिक दस्तावेजों में दोनों ही नाम मिलते हैं.

वैसे भी आंग सान ने अपने स्वतंत्रता आंदोलन का नाम ‘दोह बामा एसोसिएशन’ रखा था क्योंकि उन की दृष्टि में ‘बामा’ शब्द में देश के प्रत्येक वर्ग के लोग आ जाते हैं जबकि म्यांमार शब्द में केवल बहुसंख्यक बामर लोग ही आते हैं. इसी कारण वहां की अल्पसंख्यक जातियां मोन, शान, चिन, कायिन, कचीन और कायाह म्यांमार नाम मानने से इनकार करती हैं. उन को भय है कि वहां की सैनिक सरकार म्यांमार नाम का प्रयोग कर उन की पहचान मिटा देना चाहती है.

दिलचस्प है इतिहास

म्यांमार में इतनी अधिक जातियों के लोग रहते हैं कि उन के संबंध में निश्चित रूप से कुछ भी कहना संभव नहीं है कि वे मूल रूप से बर्मी हैं या नहीं. स्वयं म्यांमार की सरकार ने ही कम से कम 135 अलगअलग वर्गों के लोगों को मान्यता दी है और इन में भी बामर या बर्मन लोगों की अधिकता है. इन्हीं लोगों की भाषा बर्मी, म्यांमार की राष्ट्रभाषा है. म्यांमार की पूरी आबादी के लगभग 70 प्रतिशत लोग बर्मन हैं. इन्हीं के हाथों में सत्ता और व्यापार है और इसी कारण अन्य लोगों द्वारा ये बराबर संदेह की दृष्टि से देखे जाते हैं.

म्यांमार में किसी समय भारतीय लोग भी काफी संख्या में थे. ब्रिटिश शासन में रंगून और मंडाले में 60 प्रतिशत से अधिक लोग भारतीय थे, पर अब यह संख्या घट कर काफी कम रह गई है.

इस समय पूरे म्यांमार में

2 प्रतिशत से भी कम भारतीय रह गए हैं. बर्मा में भारतीयों का आगमन 19वीं सदी में शुरू हुआ जब बर्मा ब्रिटिश साम्राज्य का एक भाग बना. ब्रिटिशकाल में भारतीय लोग प्रशासनिक पदों के साथ ही व्यापार में भी सक्रिय थे. काफी लोग श्रमिक के रूप में भी ब्रिटिश सरकार द्वारा वहां लाए गए.

धीरेधीरे बहुतों ने वहां जमीन खरीद ली, मकान बनवाए और साहूकारी का धंधा भी शुरू किया. बाद में बर्मा पर जापान के आक्रमण के बाद बहुतों को भारत लौटना पड़ा. उस के बाद जो बचे रहे वे बर्मा की स्वाधीनता के बाद लगभग नगण्य से रह गए. म्यांमार में अधिकांश भारतीय दक्षिण भारत से आए हैं. उन में यद्यपि हिंदुओं की प्रमुखता है पर मुसलमान भी कम नहीं हैं जिन के पूर्वज आजकल के पाकिस्तान, बंगलादेश और नेपाल से आए हुए हैं.

नया है अंदाज

यह कहना गलत नहीं होगा कि 35 वर्षों से भी अधिक समय तक बर्मा विदेशी पर्यटकों के लिए एक प्रकार से बंद ही रहा. पर अब वहां की सैनिक सरकार ने अंतर्राष्ट्रीय पर्यटन के लिए म्यांमार के दरवाजे खोल दिए हैं और अब आसानी से वीजा मिल जाता है. म्यांमार पहुंचने के बाद यांगोन आप्रवास कार्यालय में वीजा की अवधि बढ़वाने में भी कोई मुश्किल नहीं होती. म्यांमार पहुंचने के बाद सभी विदेशी पर्यटकों को पुलिस में रजिस्ट्रेशन कराना आवश्यक होता है.

यदि आप किसी होटल में ठहरते हैं तो वहां के रजिस्टर में तो रजिस्ट्रेशन होगा ही, इसलिए फिर से पुलिस में रजिस्ट्रेशन कराना आवश्यक नहीं होता. पर यदि किसी मठ या प्राइवेट मकान में या किसी मित्र या परिचित के यहां ठहरते हैं तो रजिस्ट्रेशन कराना आवश्यक है अन्यथा बाद में परेशानी हो सकती है. देश में कहीं आनेजाने पर भी विदेशियों पर अब कोई प्रतिबंध नहीं है. इसलिए कहा जा सकता है कि म्यांमार जाने के लिए इस से अच्छा समय कभी नहीं रहा.

यदि म्यांमार में कोई महंगी चीज खरीदनी हो तो टूरिस्ट डिपार्टमैंट स्टोर, एअरपोर्ट पर ड्यूटी फ्री दुकान या शहरों में आधिकारिक दुकानों से ही खरीद कर रसीद ले लेनी चाहिए अन्यथा बाहर ले जाने पर परेशानी हो सकती है. यद्यपि विदेशी मुद्रा लाने पर वहां रोक नहीं है. भारतीय रुपया भी दुकानों पर ले लिया जाता है पर सर्वश्रेष्ठ मुद्रा अमेरिकी डौलर ही है. यूरो और पाउंड भी कहीं भी स्वीकार किए जा सकते हैं पर उन का रेट वहां अच्छा नहीं मिलता.

आइस क्यूब का ऐसा इस्तेमाल कभी किया है आपने

अमेरिका के एक डॉक्टर जॉन गॉरी ने अपने पीतज्वर (yellow fever) के मरीजों के इलाज के लिए एक कूलिंग सिस्टम का आविष्कार किया था. जॉन गॉरी को ही ‘फादर ऑफ रेफ्रिजरेटर’ के नाम से जाना जाता है. जॉन ने ही आइस क्यूब ट्रे का भी आविष्कार किया था. जरा शुक्र अता करिए उनका जिनकी बदौलत आज आपकी वक्त बेवक्त की बर्फ की मांग पूरी हो जाती है.

आइस क्यूब के बिना तो गर्मियां बिताई ही नहीं जा सकती. पर क्या आप जानती हैं कि सिर्फ ड्रिंक्स या कोल्ड ड्रिंक में मिलाने के अलावा भी आइस क्यूब का इस्तेमाल किया जा सकता है. आइस क्यूब आपके बहुत सारे काम आसान कर देगा.

1. हाउस प्लांट्स को दें राहत

हाउस प्लांट्स आपके घर की खूबसूरती बढ़ाने के साथ ही आपके घर की हवा को भी शुद्ध करते हैं. पर हाउस प्लांट्स को भी देखभाल की जरूरत होती है. आपको कुछ करने की जरूरत नहीं है आपका ये काम आइस क्यूब ही कर देंगे. आप पौधों पर आइस क्यूब रख सकती हैं. बाकि काम रूम टेमप्रेचर से हो जाएगा. ये टिप आजमा कर अपने पौधों को फ्रेश फील दें

2. बोतल और वास चमकायें

छोटे मुंह वाले बोतल या वास को साफ करने में मेहनत लगती है. अगर आपके पास भी ऐसी कोई बोतल या वास है तो इसे बर्फ से आसानी से साफ किया जा सकता है. बोतल में नमक, नींबू और आइस क्यूब डालें. वास या बोतल को हिलाएं. अब आप बोतल या वास को आसानी से साफ कर सकती हैं.

3. कपड़ों से च्युइंग गम हटाए

कपड़ों से च्युइंग गम हटाना किसी जंग को जीतने से कम नहीं है. आपने च्युइंग गम हटाने के कई उपाय सुने होंगे. कपड़े को केरोसिन में डूबो कर रखने से लेकर कपड़े पर टूथपेस्ट लगाने तक जैसे आईडिया दिए जाते हैं. पर आइस क्यूब से ये काम आप आसानी से कर सकती हैं. जहां च्युइंग गम लगा हुआ हो, उस पर आइस क्यूब लगाएं, थोड़ी देर के लिए छोड़ दें. फिर च्युइंग गम को किसी चम्मच की मदद से आसानी से निकाल लें.

4. कपड़ों की सिलवटें हटाए

कपड़ों पर सिलवटें हटाने के लिए भी अच्छी खासी मेहनत लगती है. मुलायम कपड़ो में सिलवटें पड़ना अलग ही समस्या है. ऐसे कपड़ों को बड़ी ही सावधानी से इस्त्री करना पड़ता है. क्योंकि जरा सी हड़बड़ाहट और आपका कपड़ा जल सकता है. पर आइस क्यूब से ये काम भी आसानी से हो सकता है. एक कपड़े में आइस क्यूब को लपेटें और सिलवटों पर लगाएं. अब इस पर आराम से आयरन करें. सिलवटें भी सही हो जाएंगी और आपका कपड़ा भी नहीं जलेगा.

5. मिनटों में हटाये दाग

अगर आपके कपड़ों पर कॉफी, चटनी या जूस गिर जाता है तो आप उस पर पानी लगाती हैं. पर स्टेन पर आइस क्यूब लगाना ज्यादा कारगर होता है. दाग पर तुरंत आइस क्यूब लगाएं और बाद में होने वाली झंझट से आसानी से बचें.

6. चावल को आसानी से गर्म करें

माइक्रोवेव में चावल गर्म करने से चावल सूख जाते हैं और हल्के कड़े लगने लगते हैं. पर अगर आप राइस के बाउल में 3-4 आइस क्यूब डाल कर गर्म करेंगी तो चावल कड़े नहीं होंगे.

7. कार्पेट डेन्ट्स

कार्पेट डेन्ट्स, कार्पेट की रंगत बिगाड़ देते हैं. पर आइस क्यूब से आप अपने कार्पेट को ब्रैंड न्यू लुक दे सकती हैं. जहां डेन्ट बन गए हैं वहां आइस क्यूब रगड़ें. जब आइस मेल्ट हो जाए, तब ब्रश से झाड़ लें. आपका ब्रैंड न्यू कार्पेट हाजिर है.

8. कॉफी पॉट

ग्लास कॉफी पॉट में कॉफी जितनी रिफ्रेशिंग बनती है, कॉफी स्टेन उतने ही गंदे लगते हैं. स्क्रब करने पर भी ये दाग नहीं छूटते. आइस क्यूब की मदद से आप अपने कॉफी पॉट को नए जैसी चमक दे सकती हैं.

9. होम मेड एसी

आप आइस क्यूब की मदद से घर पर ही एसी का मजा ले सकती हैं, और वो भी बिना एसी के. एक बाउल में आइस क्यूब लें और उसे टेबल फैन के सामने रख दें. टेबल फैन ऑन करें और एसी का मजा लें.

10. दवाई की कड़वाहट को करें दूर

कड़वी दवाइयां असरदायक तो होती हैं, पर कुछ दवाइयां इतनी ज्यादा कड़वी होती है कि पीने वाले को उलटियां आने लगती है. नाक बंद कर के भी आप दवाई पी सकते हैं. पर इसके अलावा भी एक तरीका है जिससे दवाई की कड़वाहट कम की जा सकती है. दवाई खाने से पहले आप एक आइस क्यूब चूस लें. इससे दवाई की कड़वाहट कम हो जाएगी.

इन आसान से उपायों को अपनाकर अपनी लाइफ को आसान बनायें. वैसे भी दिन भर आप काम ही करती रहती हैं, जरा अपना काम आसान भी कर लीजिए.

सीड्स ऐंड ड्राईफ्रूटी बरफी

सामग्री

50 ग्राम अंजीर

100 ग्राम बीज रहित खजूर

50 ग्राम खूबानी बीज रहित

50 ग्राम बादाम

2 बड़े चम्मच सूरजमुखी के बीज

2 बड़े चम्मच कद्दू के बीज

2 बड़े चम्मच खीरे के बीज

2 बड़े चम्मच तरबूज के बीज

2 बड़े चम्मच खरबूजे के बीज

चुटकी भर जायफल पाउडर

1/2 छोटा चम्मच इलायची पाउडर

1 छोटा चम्मच घी

विधि

अंजीर, खजूर और खूबानी को पानी में डिप कर के छलनी में आधे घंटे के लिए रख दें. बादाम के बारीक टुकड़े करें. सभी बीजों को 30 सैकंड तक रोस्ट कर लें.

बीज ठंडे हो जाएं तो मिक्सी में दरदरा पीस लें. आधे घंटे बाद अंजीर, खजूर और खूबानी थोड़े मुलायम हो जाएंगे तो उन्हें भी मिक्सी में पीस कर पेस्ट बना लें.

एक नौनस्टिक कड़ाही में घी गरम कर के पहले अंजीर वाला पेस्ट डालें, फिर सीड्स का पाउडर, कटे बादाम, इलायची पाउडर व जायफल पाउडर. जब मिश्रण सूखने लगे तो एक चिकनाई लगी प्लेट में फैलाएं और ठंडा कर के मनचाहे आकार के काट लें.

-व्यंजन सहयोग: नीरा कुमार

पढाई से ज्यादा एक्टिंग मुश्किल : टीना फिलिप

एक्टिंग की फील्ड में करियर बनाने वालों को लगता है कि पढाई में ज्यादा मेहनत होती है. एक्टिंग कम मेहनत का काम होता है. स्टार प्लस के सीरियल एक आस्था ऐसी भी से अपने करियर की शुरूआत करने वाली टीना एन फिलिप कहती हैं कि मेरे लिए एक्टिंग मुश्किल काम था. अपना घर, परिवार, दोस्त सब छोड़कर मुम्बई आना पड़ा. यहां रहने के लिये फ्लैट ढूंढना, उसका रेंट देना, दूसरी बड़ी चीजें मैनेज करना मुश्किल काम था. ऑडिशन के लिए दिन भर लाइन में लगे रहना, जब यह दिखता था कि किसी जानने वाले का फेवर किया जा रहा है तो और गुस्सा लगता था. सब कुछ सहना बहुत मुश्किल भरा दौर था. 2 साल के बाद मुझे रोल मिला. पढाई भी मुश्किल होती है पर वहां बहुत कुछ आपकी मेहनत पर निर्भर करता है. एक्टिंग में अपनी मेहनत के साथ दूसरो पर भी बहुत कुछ निर्भर करता है. जब शो हिट होता है तभी पहचान बनती है. 12 से 14 घंटे तक काम करना पड़ता है.

सीरियल एक आस्था ऐसी भीकी कहानी के विषय में टीना कहती हैं कि धर्म के असली अर्थ को समझाने का प्रयास किया गया है. यह धर्म से अधिक सच्चाई में यकीन करना सिखाता है. किसी की भावनाओं को आहत किये बिना दूसरों की मदद करना भी एक धर्म का काम माना जा सकता है. आस्था के रूप में मेरे विचार आज की युवा पीढी जैसी ही है. मैं सहजता से उनसे जुड़ सकती हूं. मेरा मानना है कि मानव सेवा ही असल में भगवान की सेवा है. दिल्ली की रहने वाली टीना का बचपन दिल्ली में बीता. 6 साल की उम्र में वह परिवार के साथ लंदन चली गई. वहां से ही चार्टड अकाउनटेंसी की पढाई की. ऑडिटर के रूप में अपनी जौब शुरू की. कई कंपनियों के औडिट का काम किया.

टीना कहती हैं, मुझे एक्टिंग का शौक पहले से था. मैनचेस्टर में मैने एक थियेटर ग्रुप के साथ प्ले करना भी शुरू किया था. इंडियन होते हुये मेरे पास वहां एक्टिंग में कम अवसर थे. ऐसे में मैंने मुम्बई में एक्टिंग करियर की शुरूआत करने का फैसला किया. मेरे परिवार के लोग इस करियर को पहले पंसद नहीं करते थे. जब मैंने पढाई पूरी कर जौब कर अपने को साबित कर दिया तो मुझे इजाजत मिली कि अब एक्टिंग में करियर बना सकती हूं. मुझे भी लगता था कि इस फील्ड में बहुत सारे गलत लोग हो सकते हैं. असल में मुझे किसी से सामना नहीं हुआ. मुझे अच्छे लोग मिले.

टीना कहती हैं, मेरे लिये पैसों का महत्व बाद में था. पैसे मुझे अपनी जौब में भी मिलते थे. एक्टिंग में मुझे जो संतोष मिलता है वह बड़ी बात है. अपने को औन स्क्रीन देखना बहुत अच्छा लगा. पढाई से अधिक चैलेंज यहां मिला. पढाई में केवल एक बार अपने को प्रूफ करना पड़ता है. यहां बारबार अपनी मेहनत से दर्शकों के दिल में जगह बनानी पड़ती है. यह मेरा सपना था इसलिए अब यह सरल लगने लगा. मुझे बचपन से लोग ड्रामा क्वीन कहते थे. अब असल में वह सच साबित हो गया. मुझे खाने में भारतीय खाना बहुत पंसद है. लखनऊ की चाट मुझे बहुत अच्छी लगती है.

दें अपनों को तारीफ का तोहफा

नन्ही खुशी उदास बैठी थी. आज स्कूल में दौड़ प्रतियोगिता में भाग लेते समय वह गिर पड़ी थी. एक तो दौड़ से बाहर हो गई दूसरे सभी दोस्तों ने उस का खूब मजाक उड़ाया.

‘‘अरे मेरी परी, तू तो मेरी रानी बेटी है. बहादुर बच्चे ऐसे हिम्मत हार कर नहीं बैठते. अगली बार तुम पक्का फर्स्ट आओगी, मुझे पूरा विश्वास है,’’ मां के इन चंद प्यारे बोलों ने उस पर जादू सा असर किया और वह उछलतीकूदती फिर चल पड़ी बाहर खेलने.

15 वर्षीय होनहार छात्र मयंक अपना 10वीं कक्षा का रिजल्ट आने पर बहुत दुखी था. उस के उम्मीद के  मुताबिक 90% से कम मार्क्स आए थे. अपने पेरैंट्स और टीचर्स का प्यारा आज अकेले बैठे आंसू बहा रहा था. उसे अपने मम्मीपापा की आशाओं पर पूरा न उतर पाने का बहुत दुख था. वह हताशा के भंवर में पूरी तरह डूब चुका था.

तभी उस के दादाजी का उस के घर आना हुआ. अपने कमरे में उदास बैठे मयंक के कंधे पर जैसे ही दादाजी ने हाथ रखा वह चौंक गया. उस का मुरझाया चेहरा देख दादाजी ने बड़े प्यार से कारण पूछा, तो अपने दादा से लिपट कर रोने लगा और बोला कि उस जैसे हारे हुए लड़के को जिंदगी जीने का हक नहीं है. वह मर जाना चाहता है.

मासूम मयंक के मुंह से ऐसी बातें सुन कर दादाजी को बहुत हैरानी हुई. फिर बोले, ‘‘अरे तेरे 82% मार्क्स सुन कर ही तो मैं तुझे बधाईर् देने आया हूं और तू इस तरह की बातें कर रहा है. बेटा तूने बहुत अच्छे नंबर लिए हैं. हम सभी को तुझ पर गर्व है. आइंदा कभी ऐसे विचार मन में मत लाना,’’ कह कर दादाजी ने उसे गले से लगा लिया.

दादाजी की इतनी सी तारीफ ने मयंक में  एक नई ऊर्जा का संचार कर दिया. वह जिंदगी को सकारात्मक तरीके से जीने लगा. अगर उस वक्त मयंक अपने दादाजी से नहीं मिला होता तो निराशा और हताशा की उस स्थिति में शायद आत्महत्या ही कर लेता.

 ‘‘अरे मां, भाभी की बात का क्या बुरा मानना. वे दूसरे घर से आई हैं. आप को अभी अच्छी तरह जानती नहीं. मुझे पूरा विश्वास है धीरेधीरे आप उन्हें सब सिखा देंगी. मेरी मां हैं ही इतनी प्यारी, वे सब से तालमेल बैठा लेती हैं,’’ स्नेहा द्वारा कहे गए तारीफ के चंद शब्दों ने उस की मां अलका का खोया विश्वास वापस ला दिया.

इन सभी स्थितियों में जरा सी तारीफ या प्रशंसा भरे बोलों से इनसान में सकारात्मक बदलाव आते देखा. उम्र बचपन की हो या फिर 56 की अथवा युवावस्था आखिर प्रोत्साहन सभी को चाहिए. अपनों के स्नेह में पगे दो बोल व्यक्तिविशेष पर जादू सा असर करते हैं.

आज आधुनिकतम सुविधाओं और तकनीकों से लैस हमारा जीवन बहुत व्यस्त तथा प्रतिस्पर्धी हो चुका है. फलस्वरूप हमें कई बार बेहद जटिल परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है. इस के चलते हम अत्यधिक तनाव में जीने लगते हैं और निराशावादी हो जाते हैं. यदि कोई कार्य हमारे मनमुताबिक नहीं होता या किसी कार्य में मेहनत करने के बाद भी हमें आशातीत सफलता नहीं मिलती तो जीवन के प्रति हम उदासीन हो जाते हैं और कई बार यह उदासीनता आगे बढ़ कर विकराल रूप धारण कर लेती है, जो आत्महत्या जैसे दुखांत परिणाम के रूप में सामने आती है.

होता यों है कि जब नकारात्मकता हम पर पूरी तरह हावी हो जाती है, तो जिंदगी के प्रति हमारी सोच और नजरिया भी पूरी तरह बदल जाता है. अचानक जिंदगी से सभी खुशियां रूठी हुई सी लगती हैं. चारों ओर दुख व निराशा के बादल मंडराते से नजर आते हैं. दुखी मन नकारात्मक विचारों के प्रवाह को जन्म देता है. ये नकारात्मकता हमारे आसपास निराशा की एक ऐसी चादर बुन देती है, जिस से एक अनजाना सा भय पैदा हो जाता है और अपने आसपास की कोई भी खुशी हमें नजर नहीं आती. हम कुछ भी करने में अपनेआप को असमर्थ पाते हैं.

हम सभी के जीवन में कभी न कभी ऐसा एक पल जरूर आता है जब हम अपनेआप को अकेला महसूस करते हैं. खुद को दुनिया का सब से बेकार इनसान समझते हैं, जिस की जरूरत किसी को नहीं है. उस वक्त किसी के द्वारा की गई जरा सी तारीफ हमारे भीतर एक नया जोश भर देती है. प्रशंसा में कहे उस के शब्द संजीवनी बूटी का काम करते हैं, जिस से हमारे भीतर का डर नष्ट हो जाता है तथा आशा की किरण स्फुटित होती दिखाई देती है.

अपनों को जरा सा तारीफ का तोहफा दे कर हम उन्हें अवसाद में जाने से बचा सकते हैं. जिंदगी बहुमूल्य होती है, पर अवसाद में घिरा व्यक्ति इतना दुखी व व्यथित होता है कि उसे जीवन के दूसरे सकारात्मक पहलू दिखाई ही नहीं देते. वक्त के थपेड़ों से वह इतना भयक्रांत हो जाता है कि उसे जिंदगी जीने की तुलना में मौत को गले लगाना अधिक सरल लगता है.

कई लोगों को लगता है कि सिर्फ छोटे बच्चों को ही तारीफ या प्रोत्साहन की जरूरत होती है, जबकि सचाई यह है कि तारीफ और प्रोत्साहन किसी उम्र विशेष से संबंधित नहीं है, बल्कि हर उम्र के इनसान को इस की दरकार होती है. इस का सीधा सा कारण है कि हम कितने भी बड़े हो जाएं मन में भावनाएं ज्यों की त्यों ही रहती हैं. हां, बड़े हो कर हम कुछ हद तक उन पर काबू रखना अवश्य सीख जाते हैं. लेकिन कुछ विशेष परिस्थितियों में जब हम अपने को कमजोर व अकेला महसूस करते हैं तब हमारी तारीफ में कहे गए किसी के दो शब्द भी हमारी तकलीफ व तनाव को कम करने के लिए काफी होते हैं. उस से अवसाद की स्थिति उत्पन्न नहीं होती है. यहां तक कि भयंकर तनाव के बीच आत्महत्या करने का मन बना चुका व्यक्ति भी अगर किसी ऐसे व्यक्ति के संपर्क में आ जाए जो उसे पौजिटिव ऐनर्जी दे, तो वह बड़ी आसानी से उक्त विचार को त्याग सकता है.

सारिका के केस में ऐसा ही हुआ. 17 वर्षीय सारिका आधुनिक खयालात की मस्त बिंदास लड़की थी. उस के इसी खुले व्यवहार का फायदा उठा कर उस के क्लासमेट अंकित ने पहले तो उस से दोस्ती की और फिर उसी दोस्ती को प्यार का जामा पहना कर उसे फुसला कर उस से प्रेम संबंध बनाए. यही नहीं अपने बीच बने संबंधों का वीडियो बना कर उस ने उसे ब्लैकमेल करना शुरू कर दिया. हर समय हंसतीखिलखिलाती रहने वाली सारिका अचानक बुझीबुझी व उदास सी रहने लगी.

सारिका के स्वभाव में अचानक हुआ यह परिवर्तन उस की मां की अनुभवी आंखों से छिप न सका. उन के बहुत पूछने पर भी सारिका उन्हें उस हादसे के बारे में बताने की हिम्मत न जुटा सकी. ऐसे में उस की समझदार मां ने उस की तारीफ कर न सिर्फ अपनी बेटी का हौसला बढ़ाया, बल्कि उसे विश्वास भी दिलाया कि जिंदगी के हर कदम, हर परेशानी में वे उस के साथ खड़ी हैं.

मां से जरा सा स्नेह और सहारा मिलने पर सारिका बच्चों की तरह फफक पड़ी और उस ने अपनी मां को सारी हकीकत बता दी. उस की मां यह जान कर और भी हैरत से भर उठीं जब उन्हें सारिका ने बताया कि कोई और रास्ता न निकलता देख इस जिल्लत से तंग आ कर वह आत्महत्या जैसा कदम उठाने की सोच रही है.

तारीफ करनी होगी सारिका की मां की जिन्होंने अपनी बेटी पर नजर रख कर उसे आत्महत्या जैसा संगीन जुर्म करने से बचा लिया. और फिर अपनी कोशिशों से कुसूरवार अंकित को न सिर्फ सजा दिलवाई, बल्कि सारिका का खोया आत्मविश्वास भी लौटाया.

प्रसिद्ध मनोचिकित्सक डा. सुनील मित्तल के अनुसार हमारे देश में आज डिप्रैशन इतना आम हो चुका है कि लोग इसे बीमारी के तौर पर नहीं लेते. लेकिन समस्या अगर वाकई बड़ी हो तो काउंसलर के पास पीडि़त को ले जाने में ही भलाई होती है अन्यथा नतीजा घातक सिद्ध हो सकता है.

इसी बारे में मनोचिकित्सक डा. समीर कलानी कहते हैं कि आज के आधुनिक जीवन की जटिलताओं एवं सामाजिक व आर्थिक समस्याओं के कारण डिप्रैशन की स्थितियों में तेजी आई है. अत: आज जरूरत इस बात की है कि हम अपनों की समस्याओं को समझने के तौरतरीकों व दृष्टिकोण में बदलाव लाएं. साथ ही अपनों की तारीफ में कुछ बातें कह उन के साथ मस्ती के कुछ पल अवश्य बिताएं.

आप को जान कर आश्चर्य होगा कि अमेरिका और कनाडा जैसे देशों में तो हर साल 6 फरवरी का दिन तारीफ के लिए ही होता है. उन लोगों द्वारा यह दिन एक विशेष अंदाज में मनाया जाता है. इस दिन लोग अपनों को बाकायदा ग्रीटिंग कार्ड्स भेंट कर उन की तारीफ करते हैं. इतना ही नहीं कार्यालयों में भी इस दिन ऐसे कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं ताकि अधिकारी व अधीनस्थों के बीच संवाद और विश्वास की नींव मजबूत हो सके. तो अब किसी की तारीफ करने में कंजूसी क्यों? हम सब भी आज से ही बल्कि अभी से देना शुरू कर सकते हैं, अपनों को तारीफ का अनमोल तोहफा.

– पूनम पाठक

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