खुले में शौच का शिकार कौन

डकैत समस्या के चलते कभी दुनियाभर में कुख्यात रहे ग्वालियर व चंबल संभागों के इलाकों की हालत यह हो गई है कि यहां के लोग अब लाइसैंसी हथियारों का इस्तेमाल डकैती डालने या खुद के बचाव के लिए नहीं, बल्कि इत्मीनान से खुले में शौच करने के लिए करने लगे हैं. इन इलाकों के कई गांवों के लोग सुबह जंगल में जाते वक्त एक हाथ में लोटा या पानी की बोतल और दूसरे हाथ में हथियार ले कर शौच के लिए जाते हैं.

इन्हें खतरा दुश्मनों या फिर जंगली जानवरों से नहीं, बल्कि उन सरकारी मुलाजिमों से है जिन्होंने खुले में शौच रोकने का बीड़ा उठाया हुआ है, जिस से कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की 2 साल पहले शुरू की गई स्वच्छ भारत मुहिम को अंजाम तक पहुंचाया जा सके.

ग्वालियर जिला पंचायत के सीईओ नीरज कुमार को अपर जिला दंडाधिकारी शिवराज शर्मा से झक मार कर यह सिफारिश करनी पड़ी थी कि आधा दर्जन गांवों के तकरीबन 55 बंदूकधारियों के लाइसैंस रद्द किए जाएं क्योंकि ये बंदूक के दम पर खुले में शौच जाते हैं और अगर सरकारी मुलाजिम इन्हें रोकते हैं तो ये गोली चला देने की धौंस देते हैं. मजबूरन सरकारी अमले को उलटे पांव वापस लौटना पड़ता है. ये लोग बदस्तूर खुले में शौच करते रहते हैं.

10 जनवरी को ऐसी ही शिकायत एक ग्राम रोजगार सहायक घनश्याम सिंह दांगी ने उकीता गांव के निवासी अजय पाठक के खिलाफ दर्ज कराई थी. इस बारे में जनपद पंचायत मुरार के सीईओ राजीव मिश्रा की मानें तो गांव में स्वच्छ भारत मुहिम के तहत सुबहसुबह निगरानी करने के लिए टीम गठित की गई थी. उकीता गांव में अजय खुले में शौच कर रहा था. जब उसे खुले में शौच न करने की समझाइश दी गई तो उस ने जान से मारने की धमकी दे दी.

कार्यवाही या ज्यादती

खुले में शौच से लोगों को रोकने के लिए सरकारी मुलाजिम किस कदर मनमानी करने पर उतारू हो गए हैं, यह अब आएदिन उजागर होने लगा है. मध्य प्रदेश के ही उज्जैन से एक वीडियो बीते दिनों वायरल हुआ था जिस में सरकारी मुलाजिम खुले में शौच करते एक बेबस, बूढ़े आदमी से उठकबैठक लगवा रहे हैं और उसे अपना मैला हाथ से उठा कर फेंकने को मजबूर भी कर रहे हैं.

वायरल हुए इस वीडियो पर खूब बवाल मचा था पर इस बिगड़ैल सरकारी मुलाजिम का कुछ नहीं बिगड़ा था. इस से यह जरूर साबित हुआ था कि स्वच्छ भारत अभियान अब एक ऐसे खतरनाक मोड़ पर जा पहुंचा है जिस के शिकार वे गरीब दलित ज्यादा हो रहे हैं, जिन के यहां शौचालय इसलिए नहीं हैं कि उन का अपना कोई घर ही नहीं है.

जिन गरीबों के पास अपने घर हैं भी, तो उन्हें मजबूर किया जा रहा है कि वे जैसे भी हो, पहले घर में शौचालय बनवाएं जिस के पीछे छिपी मंशा यह है कि जिस से गांवदेहातों के रसूखदार लोगों को बदबू व बीमारियों का सामना न करना पड़े.

ग्वालियर और उज्जैन के मामलों में फर्क इतनाभर है कि ग्वालियर के लोग हथियारों के दम पर ही सही, सरकारी मुलाजिमों से जूझ पा रहे हैं लेकिन उज्जैन और देश के दूसरे देहाती व शहरी इलाकों के लोग न तो दबंग हैं और न ही उन के पास शौच करने जाने के लिए हथियार हैं. इसलिए वे खामोशी से ऊंचे वर्गों व सरकारी मुलाजिमों की गुंडागर्दी बरदाश्त करने को मजबूर हैं. उज्जैन का वायरल वीडियो इस की एक उजागर मिसाल थी, जिस में एक गरीब, कमजोर, बूढ़े के साथ जानवरों से भी ज्यादा बदतर बरताव किया गया.

जाहिर है जान पर नहीं बन आती तो ग्वालियर व चंबल संभागों के इलाकों में भी उज्जैन सरीखा शर्मनाक वाकेआ दोहराया जाता. हथियारों से निबटते बीते साल अगस्त में ग्वालियर प्रशासन ने यह फरमान जारी किया था कि जो लोग खुले में शौच करते पाए जाएंगे उन के हथियारों के लाइसैंस रद्द कर दिए जाएंगे. इस पर भी बात न बनी तो प्रशासन ने जुर्माने का रास्ता अख्तियार कर लिया.

इस साल जनवरी के दूसरे हफ्ते में ग्वालियर की घाटीगांव जिला पंचायत के 2 गांवों सुलेहला और आंतरी के 21 लोगों पर प्रशासन ने 7 लाख 95 हजार रुपए की भारीभरकम राशि का जुर्माना ठोका था, तो भी खूब बवाल मचा था कि यह तो सरासर ज्यादती है. इतनी भारी रकम गरीब लोग कहां से लाएंगे जो पिछड़े और दलित हैं. यह तो इन पर जुल्म ही है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने सरकारी अफसरों व मुलाजिमों के हाथ में एक कानूनी डंडा थमा दिया है जिस के आगे दूसरे हथियार ज्यादा दिनों तक टिक पाएंगे, ऐसा लगता नहीं क्योंकि खुले में शौच पर जुर्माने की रकम अब मजिस्ट्रेटों के जरिए वसूली जाएगी. अगर जुर्माने की राशि नकद नहीं भरी गई तो शौच करने वालों की जमीनजायदाद कुर्क करने का हक भी सरकार को है. जिस के पास जमीनजायदाद नहीं होगी, उसे जेल में ठूंस दिया जाएगा.

बात अकेले ग्वालियर, चंबल या उज्जैन संभागों की नहीं है, बल्कि देशभर में सरकारी मुलाजिम शौच की आड़ में गरीब, दलित और पिछड़ों पर तरहतरह के जुल्म ढा रहे हैं. दिलचस्प बात यह है कि जिन राज्यों में भाजपा का राज है वहां ऐसा ज्यादा हो रहा है. कुछ पीडि़तों को 1975 वाली इमरजैंसी याद आ रही है जब गरीब नौजवानों को पकड़पकड़ कर उन की नसबंदी कर दी गई थी. इंदिरा गांधी और नरेंद्र मोदी में फर्क नहीं रह गया जिन के मुंह से निकली ख्वाहिश ही कानून बन जाती है.

होना तो यह चाहिए था कि प्रशासन हर जगह लोगों में पल्स पोलियो मुहिम की तरह जागरूकता पैदा कर खुले में शौच के नुकसान गिनाते लोगों को उन की सेहत के बाबत आगाह करता, उन्हें शौचालय में शौच करने के फायदे गिनाता. पर, हो उलटा रहा है. सरकारी तंत्र 1975 की तरह बेलगाम हो कर कार्यवाही कर रहा है जिस की बड़ी गाज गांवदेहातों के गरीबों, दलितों और पिछड़ों पर गिर रही है.

खुलेतौर पर खुले में शौच और जाति का कोई सीधा ताल्लुक नहीं है पर यह हर कोई जानता है कि अधिकांश दलित गरीब हैं, उन के पास रहने को पक्के तो दूर, कच्चे घर भी नहीं हैं. इसलिए वे खुले में शौच करने को मजबूर होते हैं. ऐसे में इसे जुर्म मानना, उन के साथ नाइंसाफी नहीं तो क्या है?

शौचालय बनवाने के नाम पर हर जगह हेरफेर और घोटाले सामने आने लगे हैं तो लगता है कि भ्रष्टाचार और मनमानी का लाइसैंस सरकारी मुलाजिमों के साथ उन दबंगों को भी मिल गया है जिन का समाज पर खासा दबदबा है. ये दोनों मिल कर शौच के नाम पर कार्यवाही नहीं, बल्कि गुंडागर्दी कर रहे हैं. दिक्कत यह है कि कोई इन के खिलाफ आवाज नहीं उठा रहा. लोगों का पहला अहम काम जुर्माने और सजा से खुद को बचाना है. हालात नोटबंदी जैसे शौच के मामले में भी हो चले हैं कि अगर नए नोट चाहिए तो बदलने के लिए बैंक की लाइनों में खामोशी से खड़े रहो वरना मेहनत से कमाए नोट रद्दी हो जाएंगे. जो भी किया जा रहा है वह तुम्हारे उस भले के लिए है जिसे तुम नहीं जानतेसमझते. यज्ञ, हवन, उपवास, दान, दक्षिणा क्यों कराए जाते हैं? ताकि तुम्हारा यह जन्म व अगला जन्म सुधरे. कैसे सुधारोगे, यह हम कुछ विशेष लोग जानते हैं, आम दलित, गरीब को जानने की जरूरत नहीं. वह पिछले जन्मों के पाप का दंड भोगता रहे.

नोटबंदी और खुले में शौच का दिलचस्प कनैक्शन यह है कि अब बैंकों की तरह सार्वजनिक और सुलभ शौचालयों में भीड़ उमड़ने लगी है. कार्यवाही के डर से खुले में शौच करने वाले एक बार पेट हलका करने के लिए 5 रुपए खर्च कर रहे हैं जिस से उन का रोजाना का एक खर्च बढ़ गया है. अगर एक परिवार में 4 सदस्य हैं तो वह  20 रुपए की मार भुगत रहा है जबकि उस की कमाई ज्यों की त्यों है. बल्कि, अब तो नोटबंदी के बाद कमाई और कम हो गई है.

भोपाल के कारोबारी इलाके एमपी नगर में आधा दर्जन सुलभ कौंपलैक्स हैं. इस इलाके में झुग्गीझोंपडि़यों की भी भरमार है. कुछ दिनों पहले तक झुग्गी के लोग 2-4 किलोमीटर दूर जा कर रेल पटरियों के किनारे या सुनसान में मुफ्त में पेट हलका कर आते थे पर अब सरकारी टीमें कभी सीटियां, तो कभी कनस्तर बजा कर उन्हें ढूंढ़ने लगी हैं. ये लोग अब सुलभ और सार्वजनिक शौचालयों की लाइनों में खड़े नजर आने लगे हैं. अगर सहूलियत से और समय पर शौच करना है तो सुलभ कौंपलैक्स में 5 रुपए इन्हें देने पड़ते हैं. मुफ्त वाले शौचालयों में हफ्तों सफाई नहीं होती, गंदगी और बदबू की वजह से इन के आसपास मवेशी भी नहीं फटकते. पर, वे गरीब जरूर कभीकभार हिम्मत कर इन में चले जाते हैं जिन की जेब में 5 रुपए भी नहीं होते.

एमपी नगर इलाके में ही सरगम टाकीज के पास एक झुग्गीझोंपड़ी बस्ती के बाशिंदे गजानंद, जो महाराष्ट्र से मजदूरी करने यहां आए, का कहना है कि उस के परिवार में 6 लोग हैं जो शौच के लिए अब हबीबगंज रेलवे स्टेशन के सुलभ कौंप्लैक्स में जाते हैं जिस से 30 रुपए रोज अलग से खर्च होते हैं. अगर शाम को भी जाना पड़े तो यह खर्च दोगुना हो जाता है. गजानंद बताता है, हम जैसे गरीबों पर यह दोहरी मार है. सरकार हल्ला तो बहुत मचा रही है पर मुफ्त वाले शौचालय बहुत कम हैं.

यहां है गड़बड़झाला

खुले में शौच करने वाले आज स्थानीय निकायों की आमदनी का एक बड़ा जरिया बन गए हैं. पंचायतों से ले कर नगरनिगमों तक ने फरमान जारी कर दिए हैं कि जो भी खुले में शौच करता पाया जाएगा, उस से जुर्माना वसूला जाएगा. यह जुर्माना राशि 50 रुपए से ले कर 5 हजार रुपए तक है. मध्य प्रदेश के तमाम नगरनिगम, नगरपालिकाएं, नगरपंचायतें और ग्रामपंचायतें रोज खुले में शौच करने वालों से जुर्माना वसूलते अपनी आमदनी बढ़ा रहे हैं.

स्थानीय निकायों को ऐसे नियम, कायदे व कानून बनाने के हक होने चाहिए कि नहीं, यह अलग और बड़ी बहस का मुद्दा है पर प्रधानमंत्री को खुश करने की होड़ में यह कोई नहीं सोच रहा कि जिस की जेब में जुर्माना देने लायक राशि होती, वह भला खुले में शौच करने जाता ही क्यों. यह मान भी लिया जाए कि कोई 8-10 फीसदी लोगों की खुले में शौच करने की ही आदत पड़ गई है जबकि उन के घर पर शौचालय हैं तो इस की सजा बाकी 90 फीसदी लोगों को क्यों दी जा रही है?

परेशानियां तरहतरह की

जो लोग जुर्माना नहीं भर पा रहे हैं, उन के खिलाफ तरहतरह की दिलचस्प लेकिन चिंताजनक कार्यवाहियां की जा रही हैं. इन्हें देख लगता है कि देश में लोकतंत्र और उसे ले कर जागरूकता नाम की चीज कहीं है ही नहीं. इन वाकेओं को देख ऐसा लगता है कि खुले में शौच करने वालों को जागरूक नहीं, बल्कि जलील किया जा रहा है.

कुछ दिनों पहले मध्य प्रदेश के ही सागर जिले में बसस्टैंड पर सुबहसुबह एक ड्राइवर और बसकंडक्टर को नगरनिगम के मुलाजिमों अशोक पांडेय व वसीम खान ने मुरगा बनाया. बसकंडक्टर और ड्राइवर का गुनाह इतना भर था कि वे खुले में शौच करते पकड़े गए थे.

इतना ही नहीं, सागर के ही लेहदरा नाके के इलाके में तो बेलगाम हो चले मुलाजिमों ने खुले में शौच करने वालों को पकड़ कर उन्हें राक्षस का मुखौटा पहना कर उन के साथ मोबाइल फोन से सैल्फी ली. महाराष्ट्र के बुलढाना जिले में प्रशासन ने फरमान जारी किया था कि जो भी खुले में शौच करने वालों के साथ सैल्फी खींच कर लाएगा, उसे इनाम में नकद 5 सौ रुपए दिए जाएंगे. इस का नतीजा यह हुआ कि लोग सुबहसुबह अपना मोबाइल फोन हाथ में ले कर झाडि़यों में झांकते फिरे ताकि कोई शौच करता मिल जाए तो उस के साथ सैल्फी ले कर 5 सौ रुपए कमाए जा सकें.

मनमानी और ज्यादती का आलम यह है कि रतलाम के मैदानों में नगरपरिषद हैलोजन लैंप और बल्ब लगा कर रोशनी के इंतजाम कर रही है जिस से खुले में शौच करने वालों पर नकेल डाली जा सके. हैलोजन बल्ब को लगाने का पैसा है पर गांवों, गंदी बस्तियों में सीवर लगाने का पैसा नहीं है ताकि घरों में ढंग के शौचालय बन सकें.

इस से भी एक कदम आगे चलते सागर नगरनिगम के कमिश्नर कौशलेंद्र विक्रम सिंह ने आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं को हुक्म दिया हुआ है कि खुले में शौच को रोकने के लिए वे कलशयात्राएं निकालें, शाम को भजन गाएं और जगहजगह तुलसी के पौधे लगाएं. तुलसी को हिंदू पवित्र पौधा मानते हैं, इसलिए उस के आसपास शौच करने में हिचकिचाएंगे, ऐसा इन साहब का सोचना था.

जाति और धर्म से गहरा नाता

कोई अगर यह सोचे कि भला खुले में शौच से जाति और धर्म से क्या वास्ता, तो यह खयाल नादानी और गलतफहमी ही है. हकीकत यह है कि खुले में शौच का उम्मीद से ज्यादा और गहरा ताल्लुक जाति व धर्म से है जो अधिकांश लोगों की समझ में नहीं आ रहा. 2014 के लोकसभा चुनावप्रचार के दौरान नरेंद्र मोदी ने साफ कहा था कि देवालयों यानी मंदिरों से ज्यादा जरूरी शौचालय हैं.

तब गरीब लोग यह समझ कर खुश हुए थे कि मोदी सरकार जगहजगह पक्के शौचालय बनवाएगी और उन्हें जिल्लत व जलालत से छुटकारा मिल जाएगा.

केंद्र सरकार ने जैसे ही यह फरमान जारी किया कि खुले में शौच करने वालों पर 5 हजार रुपए तक का जुर्माना लगाया जाए तो सब से पहले जैन समुदाय के लोग चौकन्ना हुए. क्योंकि जैन मुनि हिंसा के अपने उसूल का पालन करते खुले में ही शौच करते हैं. जगहजगह से मांग उठी कि जैन मुनियों को खुले में शौच की छूट दी जाए.

ये लाइनें लिखे जाने तक केंद्रीय मंत्री वेंकैया नायडू ने खुलेतौर पर इस बात की  घोषणा नहीं की थी पर चर्चा है कि केंद्र सरकार ने जैन मुनियों को खुले में शौच करने की छूट देने का मन बना लिया है. दरअसल, भाजपा जैन वोटरों को नाराज नहीं करना चाहती. अगर सरकार इस तरह की किसी छूट का ऐलान करेगी तो तय है देशभर में बवाल मच जाएगा क्योंकि फिर गरीब, दलित भी अपने लिए इस तरह की छूट की मांग करते आसमान सिर पर उठा लेंगे.

बात अकेले जैन मुनियों की नहीं है, बल्कि लाखों की तादाद में नदियों के किनारे रह रहे हिंदू साधुसंतों की भी है जिन का कोई घर नहीं होता. ये साधु मंदिरों में रहते हैं और धड़ल्ले से खुले में शौच करते हैं.

अभी तक एक भी मामला ऐसा सामने नहीं आया है जिस में निगरानी टीमों या सरकारी मुलाजिमों ने किसी साधु, संत या मुनि पर खुले में शौच करने के जुर्म के एवज में जुर्माना लगाया हो या समझाइश दी हो.

असल मार इन पर

आजादी के समय देश की 70 फीसदी आबादी खुले में शौच के लिए जाती थी. इस में से अधिकतर लोग दलित, पिछड़े और आदिवासी होते थे. हालात अब और बदतर हैं. अब खुले में शौच जाने वाले 90 फीसदी लोग इन्हीं जातियों के हैं. इन्हें आज कानून के नाम पर तंग किया व हटाया जा रहा है.

दलित, आदिवासी तबके के लोगों को मुद्दत तक शौचालयों से दूर रखा गया क्योंकि खुले में शौच जाना इन की एक अहम पहचान होती थी. ठीक वैसे ही, जैसे गले में लटकता जनेऊ ब्राह्मण की पहचान होती थी, जो आज भी है.

यह कड़वा सच आजादी के बाद आज तक कायम है कि अभी भी 85 फीसदी दलित गरीब ही हैं जो झुग्गीझोंपड़ी बना कर रहते हैं. पढ़ेलिखे होने के बावजूद ये शौचालय की अहमियत नहीं समझते थे. अब आरक्षण के जरिए जो लोग सरकारी नौकरी पा गए हैं, वे घरों में शौचालय बनवा रहे हैं. इस सच का एक दूसरा पहलू यह है कि वे घर बनाने लगे हैं.

अब न केवल सियासी बल्कि सामाजिक तौर पर यह हो रहा है कि पैसे वाले दलितों को सवर्णों के बराबर माना जाने लगा है. वे पूजापाठ कर सकते हैं और दानदक्षिणा भी पंडों को दे सकते हैं. जाहिर है सवर्ण जैसे हो गए इन्हीं दलितों के यहां शौचालय हैं. इन की तादाद तकरीबन 10 फीसदी है. इन्हें देखदेख कर ही ऊंची जाति वाले चिल्लाचिल्ला कर यह जताने की कोशिश करते हैं कि देखो, जातिवाद और छुआछूत खत्म हो गई क्योंकि दलित अब खुलेआम मंदिर में जा रहा है. पूजापाठ भी कर रहा है और तो और, उस के यहां शौचालय भी है जो पहले नहीं हुआ करता था.

दरअसल, हकीकत सामने आ न जाए, इस का नया टोटका खुले में शौच का मुद्दा है. बढ़ते शहरीकरण के चलते अब जंगल और जमीन कम हो चले हैं जिस सेपक्के मकानों में रहने वाले ऊंची जाति वालों को खुले में शौच जाने वालों से परेशानी होने लगी थी. गांवों में भी जमीनें कम हो चली हैं. गरीब, मजदूर और किसान अपनी जमीनें बेच कर शहरों

की तरफ भाग रहे हैं. गांवों में पहले सार्वजनिक जमीन बहुत होती थी जो अब न के बराबर हो गई है. कुछ सरकार या ग्राम सभाओं ने बेच खाई तो कुछ पर कब्जा हो गया. आम गरीब, जिन में दलित ज्यादा हैं, के लिए शौचालय न गांव में था और न ही शहर में है. कश्मीर से ले कर कन्याकुमारी तक बिछी रेल की पटरियां इस की गवाह हैं जहां रोज करोड़ों लोग हाथ में पानी की बोतल ले कर उकड़ूं बैठे देखे जा सकते हैं. चूंकि रेल की जमीन सरकारी है, कोई स्थानीय दबंग रेलवे की जमीन पर शौच करते किसी को धमका नहीं सकता.

जिन के पास 5 रुपए शौच के लिए सुलभ कौंप्लैक्स में जाने के नहीं हैं उन की जेब से खुले में शौच के जुर्माने के नाम पर 5 सौ या 5 हजार रुपए निकालना लोकतंत्र तो दूर, इंसानियत की बात भी नहीं कही जा सकती.

धर्म और जाति के नाम पर अत्याचार खत्म हो गए हैं, यह नारा पीटने वालों को एक दफा खुले में शौच के लिए जाने वालों की हालत देख लेनी चाहिए कि वे जस के तस हैं. बस, अत्याचार करने का तरीका बदल गया है. दलित की जगह गरीब शब्द इस्तेमाल किया जाने लगा है जिस से जाति छिपी रहे. भोपाल नगरनिगम के एक मुलाजिम का नाम न छापने की गुजारिश पर कहना है कि यह सच है कि लोग खुले में शौच करते पकड़े जा रहे हैं, इन में 70 फीसदी दलित,

20 फीसदी पिछड़े और 10 फीसदी सवर्ण, मुसलमान व दूसरी जाति के लोग हैं.

दरअसल, सारा खेल वे दबंग लोग खेल रहे हैं जिन के हाथ में समाज और राजनीति की डोर है. उन्होंने अब खुले में शौच को अत्याचार करने का हथियार बना डाला है. मंशा पहले की तरह समाज और राजनीति पर खुद का दबदबा बनाए रखने की है. और अगर कोई भेदभाव नहीं हो रहा, तो यह बताने को कोई तैयार नहीं

कि साधुसंतों और मुनियों के खिलाफ कार्यवाही क्यों नहीं की जाती. साफ है कि सिर्फ इसलिए कि वे धर्म के ठेकेदार हैं. उन्हें कोई रोकेगा तो तथाकथित पाप का भागीदार हो जाएगा.

गरीबी का सच और शौच

लोगों को साफसफाई की अहमियत कानून के डंडे से सिखाया जाना न तो मुमकिन है और न ही तुक की बात है. इस की जिम्मेदार एक हद तक सरकार की नीतियां भी हैं. ग्वालियर व चंबल संभागों के लोगों के पास हथियार हैं पर शौचालय नहीं, इस का राज क्या है? कुछ लोग घर में शौचालय बनाने की माली हैसियत रखते हैं पर नहीं बनवा रहे, तो इस की वजह क्या है?

राज और वजह यह है कि अधिकतर दलित आदिवासी और अति पिछड़े बीपीएल कार्ड वाले हैं. स्वच्छ भारत मुहिम ने इन के गरीब होने के माने और पैमाने बदल दिए हैं. बीपीएल सूची में शामिल लोगों को काफी सरकारी सहूलियतें और रियायती दामों पर राशन वगैरा खरीदने की छूट मिली हुई है.

सरकार गरीब उसे ही मानती है जिस के बीपीएल ग्रेडिंग सिस्टम में 14 या उस से कम नंबर हों. जिस के घर में शौचालय होता है उसे सर्वे में 4 अंक दे दिए जाते हैं. जिन के 10 या 12 अंक हैं, उन में से अधिकतर लोग शौचालय इसलिए नहीं बनवा रहे कि अगर ये 4 अंक भी जुड़ गए तो वे 14 अंक पार कर जाएंगे और गरीब नहीं माने जाएंगे यानी उन से सारी सहूलियतें छिन जाएंगी.

ऐसे में सरकारी इमदाद से ही सही, शौचालय बनवा कर गरीब लोग अगर अपनी गरीबी नहीं छोड़ना चाह रहे हों तो इस में उन की गलती क्या, गलती तो सरकारी योजनाओं की खामियों और पैमाने की है.

अभी, खुले में शौच के लिए जाने वालों को जीरो अंक दिया जाता है. जो लोग सामूहिक शौचालय में जाते हैं उन्हें एक या दो अंक पानी मुहैया होने न होने की बिना पर दिए जाते हैं. अब सरकार जबरदस्ती गरीबों को उन के छोटेतंग घरों में शौचालय, जिस की लागत 4-6 हजार रुपए आती है, बनवाने के साथ उन्हें 4 अंक दे कर उन की गरीबी का तमगा छीनना चाह रही है. ऐसा होने से उन से सस्ता राशन, प्रधानमंत्री आवास योजना वगैरा जैसी दर्जनों सहूलियतें छिन जाएंगी. ऐसे में उन का घबराना स्वाभाविक है.

जीवन का मध्यांतर ठहराव से नहीं बदलाव से होगा

औरत की 40-50 साल की आयु यानी जीवन के सफर का अजीब दौर. एक लंबी थकानभरी जिंदगी के बाद विश्राम या फिर एक नई शुरुआत? वह भी उस मोड़ पर, जब औरत कई शारीरिक व मानसिक बदलावों का सामना कर रही हो.

अकसर महिलाएं जीवन के मध्यांतर को ही आखिरी पड़ाव मान कर निष्क्रिय हो जाती हैं. बच्चों की पढ़ाई, शादी व अन्य जिम्मेदारियों से फारिग होतेहोते 40-50 साल की उम्र की दहलीज पार हो जाती है, इस का यह मतलब नहीं कि जिंदगी के सारे माने खत्म हो गए.

दरअसल, उम्र का यह मध्यांतर एक नई शुरुआत ले कर आता है. यह जीवन के शुरुआती पहरों में अधूरे बचे कामों, ख्वाहिशों व सपनों को पूरा करने का मौका देता है. अगर अब भी उन सपनों को नई उड़ान न दी तो फिर जिंदगी के आखिरी पल अफसोस व उदासी में ही गुजरेंगे. जीवन में रंग, कला, रचनात्मकता व रुचियों के इतने आयाम हैं कि जिन से हमारी जिंदगी के उदास कैनवास में रंगों की बौछार हो सकती है.

अगर शरीर साथ नहीं देता और बदलते हार्मोन रास्ते की रुकावट बनते हैं तो भी न हार मानें. इस का भी समाधान है.

जिस वेग से हार्मोंस एक उम्र में शरीर में प्रवेश करते हैं, उसी वेग से बढ़ती उम्र के साथसाथ कम भी होते जाते हैं और जाते हैं तो लगता है, जैसे शरीर की पूरी ऊर्जा व उत्साह निचोड़ कर जा रहे हैं. पर यह तभी होता है, जब हम उन्हें ऐसा करने देते हैं.

क्या हम किसी के वश में आ कर जीवन से हार मान लेंगे? कतई नहीं. मिडलाइफ क्राइसिस यानी मध्यांतर संकट के इस दुश्मन से निबटें.

मुश्किलें तन की

यह मेनोपौज की अवस्था है. स्त्री के स्त्रीत्व के लिए एक विशेष हार्मोन, ऐस्ट्रोजन, जो अब तक प्रचुर मात्रा में था, कम होने लगता है. मासिकधर्म अनियमित होते हुए बंद होने के कगार पर पहुंच जाता है.

हार्मोन की कमी का असर पूरे शरीर पर दिखना शुरू हो जाता है. कहां इस का क्या असर होता है, एक निगाह इस पर भी डालें. ऐस्ट्रोजन की कमी से हार्ट अटैक की आशंका बढ़ जाती है. ऐसी अवस्था में अमूमन कमरदर्द बना रहता है.

सब से बड़ा खतरा फ्रैक्चर का होता है. जरा सी चोट से हड्डी चटक जाती है और जुड़ने की प्रक्रिया भी लंबी व मुश्किल हो जाती है. त्वचा सिकुड़ कर अपनी चमक खोने लगती है. इसी दौरान झुर्रियां पड़ने लगती हैं. नजर कमजोर होने लगती है क्योंकि मोतियाबिंद अब रफ्तार से आंखों में उतरना शुरू हो जाता है.

धीरेधीरे मस्तिष्क को मिलने वाली औक्सीजन की मात्रा कम होने लगती है, जिस के कारण भूलने की प्रक्रिया तेज होने लगती है. समझनेबूझने की क्षमता भी कम होने लगती है. पेट का घेरा बढ़ने लगता है. रात में अनिद्रा की स्थिति आम हो जाती है.

मन की उलझन

सब से ज्यादा समस्या तब आती है जब परिवार वाले आप की मनोस्थिति से अनजान रहते हैं. आप का चिड़चिड़ापन, थकावट, मूड के उखड़े रहने की वजह कोई समझ नहीं पाता है. शिथिल, बोझिल काया और उस पर थका मन, आग में घी का काम करता है.

मन और विचलित हो जाता है. किसी के पास आप के लिए समय नहीं है. लंबा जीवन जिन घरवालों के लिए आप ने होम कर दिया, क्या उन्हें आप की परवा नहीं है? समस्या बढ़ती जाती है, गुत्थी है कि सुलझने का नाम नहीं लेती. पर हिम्मत हमें खुद ही जुटानी होगी और अपने शरीर व मन को बांधना होगा. यह अवस्था सब स्त्रियों के जीवन में आती है.

यह ध्यान रखें कि परिवार में सब को आप की जरूरत है. परवा है. बस, यह बताने के लिए शायद उन के पास वक्त की कमी हो. इस स्थिति को स्वीकार करें. बच्चों को उन की जिंदगी जीने दें. अपने फैमिली डाक्टर से कहें कि वे आप के जीवन में आ रहे बदलावों और उन के असर के बारे में घरवालों को बताएं, ताकि वे आप की मनोस्थिति को समझ सकें  और बेहतर ढंग से पेश आएं.

खानपान पर ध्यान

सब से पहले खानपान पर ध्यान दें. आप जानती हैं कि आप को अब चरबी परेशान करने वाली है, तो अपने आहार में वसा की मात्रा बिलकुल हटा दें. मीठे पर नियंत्रण रखें. प्रोटीन का सेवन अधिक मात्रा में करें. फलों में अनार के दाने रोज लें. मीठे फल जैसे केला, सेब लें, तो अच्छा है. पपीता सेहत के लिए फायदेमंद होता है, उसे नियमित लें. 2 गिलास गुनगुना पानी सुबहशाम लेने से चरबी घटती है और पेट साफ रहता है.

नियमित व्यायाम : तंदुरुस्त रहने के लिए यह बहुत अहम भूमिका अदा करता है. रोज सुबह नियमित रूप से व्यायाम करें. इस उम्र में सुबह सैर से बढि़या कोईर् व्यायाम नहीं है. सैर से पूरे दिन के लिए शरीर मे ऊर्जा भरती है, नई ताजगी मिलती है और दिन की शुरुआत यदि अच्छी हो तो दिन पूरा अच्छा बीतता है. हमउम्र साथियों से कुछ पल हंसबोल कर मन हलका हो जाता है.

सलाह डाक्टर की : इस पड़ाव पर नियमित मैडिकल चैकअप जरूरी है. रक्तचाप, मधुमेह, हृदय रोग आदि पर नजर रखें. जिस पल आप को डाक्टरी सलाह, दवाई वगैरा की जरूरत पड़े, तो देर न करें.

डाक्टर कहें तो हार्मोनल थेरैपी लेने में भी कोई हर्ज नहीं है. कैल्शियम आप की हड्डियों के लिए बहुत जरूरी है. 40 की उम्र से ही हड्डियों के प्रति सजग हो जाएं और दूध, दही का भरपूर सेवन करें.

समय का सही इस्तेमाल

इतने सालों की व्यस्तता के बाद अब आप के पास खाली समय है. अब आप वह सब कर सकती हैं, जो करना चाहती थीं. निरर्थक, दिशाहीन जीवन को सार्थक दिशा देने के कई तरीके हो सकते हैं. आप किताबें पढ़ सकती हैं, आसपास के जरूरतमंद बच्चों को पढ़ा सकती हैं, दृष्टिहीन बच्चों के स्कूल में जा कर

उन्हें कहानियां पढ़ कर सुना सकती हैं, अनाथाश्रम जा कर बच्चों की देखभाल

में मदद कर सकती हैं, कालोनी की साफसफाई, बगीचों का रखरखाव, वृक्षारोपण आदि कर समाज में योगदान दे सकती हैं. संगीत सीखना सिखाना बहुत सुकून देता है.

आप चाहें तो उदास, निरीह, एकाकी जीवन अपना सकती हैं या फिर एक नए सार्थक व उद्देश्यभरे जीवन की नींव रख सकती हैं. इस दोराहे पर आ कर फैसला आप का है.               

(स्त्री रोग विशेषज्ञ डा. विमला जैन, डा अर्चना गुप्ता और डा. अनुपमा जोरवाल से हुई बातचीत पर आधारित)

धार्मिक विरोध झेलते खिलाड़ी

भारतीय क्रिकेट टीम के तेज गेंदबाज मोहम्मद शमी ने अपनी मौडल पत्नी के साथ फोटो क्या शेयर की कि वे अचानक कट्टरपंथियों के निशाने पर आ गए. धर्म के नाम पर उन को ले कर शर्मनाक टिप्पणियां होने लगीं, दूसरे क्रिकेटर मोहम्मद कैफ अपने कसरत करने के तरीके को ले कर धर्मगुरुओं का शिकार हो गए. खिलाडि़यों की व्यक्तिगत जिंदगी में, दकियानूसी सोच के शिकार कट्टरपंथी, जबतब अपनी टांग अड़ाते रहते हैं. कई खिलाड़ी उन के फतवों का शिकार हुए. कुछ कट्टरपंथी इस अंदाज में हस्तक्षेप करते हैं. जैसे उन्होंने ही खिलाडि़यों को जिंदगी जीने, खानेपीने, पहननेओढ़ने और संस्कृति का सलीका सिखाने का ठेका ले लिया हो. दरअसल, ऐसे ठेकेदार धर्म की आड़ में अपनी पहचान को कायम रखने और जम्हूरियत को भड़काने के लिए ही ऐसे कृत्य करते हैं.

इस आजादनुमा हकीकत से भला कोईर् कैसे अंजान हो सकता है कि लोग अपनी पसंद का खानपान कर सकते हैं, पहनावा अपना सकते हैं और अपने अंदाज में जिंदगी बसर कर सकते हैं. आधुनिक युग में सभी करते भी ऐसा ही हैं. अपनी प्रतिभा से लाखों लोगों को फैन बनाने वाले भारतीय क्रिकेट टीम के तेज गेंदबाज मोहम्मद शमी भी इस से जुदा नहीं थे. शोहरत की बुलंदियों व अपने परिवार से वे खुश थे. सोशल साइट पर उन्होंने अपने साथ पत्नी व मासूम बेटी की कुछ तसवीरें पोस्ट कर के खुशियों का इजहार किया. लेकिन उन्हें झटका तब लगा जब उन की ये खुशियां कट्टरपंथियों को खटक गईं. धर्म के नाम पर उन्होंने तीखे बयानों के चुभते तीर चला दिए.

दकियानूसी सोच

मोहम्मद शमी ने 25 दिसंबर, 2016 को जो फोटो पोस्ट किए थे उन में मौडल रह चुकी उन की पत्नी हसीन जहां ने लाल रंग का आकर्षक स्लीवलैस गाउन पहना हुआ था. भला किसी के पहनावे से किसी का क्या लेना, लेकिन दकियानूसी सोच के शिकार कट्टरपंथियों ने तमाम टिप्पणियां कर डालीं. किसी ने धर्म का वास्ता दिया, किसी ने शर्म करने, धर्म की इज्जत करने, तो किसी ने पर्दानशीं होने की नसीहत दे डाली.

तुर्रा यह था कि तसवीरें धर्म के खिलाफ थीं. शमी को अपनी पत्नी को परदे में रखना चाहिए था. इस विवाद में धर्म के नाम पर कुछ भी बोलने की छूट की मानसिकता के शिकार लोगों को मुंह की खानी पड़ी, क्योंकि शमी ने जवाब दिया कि वे अपनी जिंदगी में क्या करते हैं, यह वे जानते हैं. बुराई करने वालों को अपने अंदर देखना चाहिए. कई खिलाडि़यों के साथसाथ बौलीवुड गीतकार जावेद अख्तर और अभिनेता फरहान अख्तर भी शमी के पक्ष में खड़े हो गए.

जावेद अख्तर ने साफ भी किया, ‘‘जो पोशाक मिसेज शमी ने पहनी है वह बेहद सलीके की और खूबसूरत है. अगर किसी को दिक्कत है तो यह उस की सोच का छोटापन है.’’

उत्तर प्रदेश के अमरोहा में रहने वाले शमी के पिता तौसीफ अहमद ने कहा कि दुनिया कहां से कहां पहुंच गई लेकिन ऐसे कट्टर लोग दूसरों के मामले में दखलंदाजी करने से आगे नहीं बढ़ पाए. ऐसे लोगों को अपना मन साफ रखना चाहिए. शमी को आज दर्द है कि कट्टरपंथियों ने उन्हें निशाना बनाया.

बेतुके तर्क

शमी कोई पहले या आखिरी खिलाड़ी नहीं थे जो कट्टरपंथियों के निशाने पर आए थे. क्रिकेटर मोहम्मद कैफ को शमी का समर्थन करना भारी पड़ गया. जब धर्म के ठेकेदार शमी को ले कर पाठ पढ़ा रहे थे, तो कैफ ने इसे शर्मनाक बताते हुए कह दिया था कि ‘देश में अन्य बड़े मुद्दे भी हैं. उम्मीद करता हूं ऐसे लोगों को समझ आएगी.’ कैफ के शब्दों में यों तो कुछ गलत नहीं था, बल्कि नसीहत थी उन लोगों के लिए जो धर्म के नाम पर लोगों की सोच को गुलाम बना कर उन्हें अपने तरीके से चलाए रखना चाहते हैं, लेकिन उन की बात शायद धार्मिक ठेकेदारों को कांटे की तरह चुभ कर राह में रोड़े जैसी लगी थी.

ज्यादा वक्त नहीं बीता और चंद दिनों बाद ही 2 जनवरी को उन्हें ले कर भी मुसलिम समाज की रहनुमाई का दंभ भरने वाले धर्मगुरु मैदान में उतर आए. उन्होंने एक बयान जारी कर दिया. वैसे, कैफ का गुनाह इतना था कि उन्होंने अपनी कसरत करते हुए कुछ फोटो सोशल साइट्स पर डाल दीं. जिसे सूर्य नमस्कार की संज्ञा दी गई.

इसलामिक संस्था दारुल उलूम देवबंद ने बयान में कहा, ‘‘इसलाम इस की इजाजत नहीं देता. यह तरीका नाजायज है. कैफ ने गलत किया और उन्हें तोबा करनी चाहिए. एक धर्मगुरु का तर्क हास्यास्पद था जिस में उन्होंने कहा, ‘जो फोटो में दिख रहा है वह कैफ ने कसरत समझ कर किया है, तो भी यह धर्म में नकारा जाएगा.’ तंदुरुस्त रहने की और भी कसरतें हैं.’’

वैसे इन सब बातों से न मोहम्मद कैफ का खेल बिगड़ा, न सेहत. कैफ के चाहने वालों ने भी उलेमा के खिलाफ जम कर हल्ला बोला. अब ऐसे लोगों को कौन समझाए कि जब खिलाड़ी कसरत ही नहीं करेगा, तो वह अच्छा प्रदर्शन कैसे करेगा.

कट्टरपंथी जबतब टांग अड़ाते रहते हैं. एक मामले में तो उन्होंने ऐसा किया कि महिला खिलाडि़यों को निराशा का सामना करना पड़ा.

दरअसल, 1 साल पहले पश्चिम बंगाल के मालदा जिले के चांचल इलाके में स्थित एक स्थानीय क्लब के 50वें स्थापना दिवस के मौके पर लड़कियों की कोलकाता एकादश व उत्तर बंगाल एकादश नामक 2 टीमों के बीच आयोजक रजा आमिर आदि द्वारा एक फुटबौल मैच का आयोजन किया जाना था. इस मैच में कई राष्ट्रीय महिला खिलाड़ी भी शामिल होनी थीं. इस का पता स्थानीय कट्टरपंथियों को लगा, तो उन्होंने यह कहते हुए तुगलकी फतवा जारी कर दिया कि इस दौरान महिला छोटे कपड़े पहनती हैं. चुस्त व छोटे कपड़े पहन कर खेलना व देखना दोनों ही शरीयत कानून के खिलाफ हैं. इसलाम इस बात की इजाजत नहीं देता कि महिलाएं छोटे कपड़े पहन कर मैदान में मैच खेलें. लिहाजा, मैच पर प्रतिबंध लगाया जाए.

खामोशी क्यों

स्थानीय प्रशासन ने कट्टरपंथी ताकतों के आगे घुटने टेक दिए और अशांति की आशंका में मैच पर पाबंदी लगा दी. एक खिलाड़ी नौसबा आलम ने हैरानी से सवाल खड़ा किया कि उसे विश्वास नहीं हो रहा कि क्या यही 21वीं सदी का भारत है. नौसबा का सवाल जायज था, लेकिन देश की कड़वी सचाई यह भी है कि कट्टरपंथियों से कोईर् उलझना नहीं चाहता. लोग भी खोमाश रहना बेहतर समझते हैं, क्योंकि धर्म के नाम पर बहुतकुछ हो जाता है और धर्म के ठेकेदार अपनी दुकानें आबाद रखने के लिए उकसाने को तैयार रहते हैं. और धर्मगुरुओं की भी कमी नहीं जो उन के इशारों पर बिना सोचेसमझे कुछ भी करने को तैयार हो जाते हैं.

वर्ष 2005 में भारतीय महिला टैनिस स्टार सानिया मिर्जा को ले कर भी कुछ कट्टरपंथियों ने उन के खिलाफ फतवा जारी कर दिया था कि वे स्कर्ट मतलब छोटे कपड़े पहन कर मैच न खेलें. इस पर सानिया ने करारा पलटवार कर के ऐसे धार्मिक गुरुओं की बोलती बंद कर दी कि वे लोग स्कर्ट नहीं, उन का खेल देखें. सानिया ने धर्मगुरुओं को किनारे किया और अपने खेल पर ध्यान दिया. यह तय करना मुश्किल हो गया कि क्या फतवा धर्म के नाम पर प्रतिभाशाली खिलाड़ी को दबाने, पीछे घसीटने की कोशिश थी या कुछ और?

बेवजह के फतवे

बुलंदियां हासिल करने वाली सानिया इस तरह की ताकतों के कब्जे में नहीं आईं. इस बात को धर्म के ठेकेदार शायद भूले नहीं और उन्होंने सानिया को निकाह के समय फिर घेरे में लेने की कोशिश की. दरअसल, पाकिस्तानी क्रिकेटर शोएब मलिक निकाह के लिए आए थे और बतौर मेहमान उन्हें सानिया के परिवार द्वारा ठहराया गया था. इस पर फतवा जारी कर के कहा गया कि दोनों खिलाड़ी निकाह से पहले नजदीक रह कर अपनी गतिविधियों के जरिए धर्म को बदनाम कर रहे हैं जोकि हराम है.

इतना ही नहीं, उन्होंने लोगों से होने वाली शादी से भी दूर रहने को कहा. लोगों ने इस फतवे को एक कान से सुना और दूसरे से निकाल दिया.

ऐसे मामलों पर सामाजिक कार्यकर्ता ताहिरा हसन कहती हैं कि देश कानून से चल रहा है. कुछ लोग मुसलमानों के ठेकेदार बने रहना चाहते हैं, इसलिए वे ऐसी बातें करते हैं. मुसलिम समाज में तमाम कुरीतियां हैं और लोग बदतर जिंदगी बसर करते हैं, उन पर कट्टरपंथी कभी आवाज नहीं उठाते, जबकि खुद मलाई खाते हैं. इसलाम की परिभाषा को अपने हिसाब से गढ़ लेना कहां की अक्लमंदी है.

वहीं, डा. फरीदा खान कहती हैं कि ऐसे लोग परिवार, समाज और देश की तरक्की की बात करें, तो अच्छा है. समाज आज काफी आगे बढ़ चुका है और अब, उन की बंदिशों को झेलना हर किसी की मजबूरी नहीं है. सब को पूरी आजादी से अपनी जिंदगी जीने का हक है

संबंध कुबूले, तो मौडल को मिला फतवा

बौलीवुड नगरी मुंबई में रहने वाली मौडल अर्शी खान सोशल मीडिया पर पाकिस्तानी क्रिकेटर शाहिद अफरीदी से अपने संबंधों को उजागर कर के पाकिस्तान के मौलवी के निशाने पर आ गईं. मौलवी ने अर्शी के खिलाफ शर्मनाक फतवा जारी कर दिया. हालांकि अर्शी ने इस फतवे को ठेंगा दिखा दिया.

दरअसल नवंबर 2015 में अर्शी खान तब चर्चा में आ गईं जब उन्होंने ट्वीट कर के लिखा कि उन्होंने अफरीदी के साथ सैक्स संबंध स्थापित किया है. यह ट्वीट वायरल हो गया. इस के बाद सरहद पार के एक मदरसा चलाने वाले धार्मिक ठेकेदार का फतवा आ गया. फतवा भी ऐसा जो सुर्खियों में आ गया. उस ने कहा कि अर्शी ने धर्म का अपमान किया है, इसलिए उन्हें सबक सिखाना चाहिए. इस मौडल को भीड़ के सामने न्यूड फोटोशूट की सजा दी जानी चाहिए. अर्शी के ट्वीट में कितना सच था, यह तो वही जानें, लेकिन फतवा देने वाले को जरूर सोचना चाहिए था कि मामला निजी स्वतंत्रता से जुड़ा था.

इमरान हाशमी : सिर मुड़ाते ही ओले पड़े

बॉलीवुड में सफलता की राह इतनी आसान नहीं होती है, जितनी लोग समझते हैं. कई असफल फिल्मों के निर्देशक, टोनी डिसूजा के संग जब इमरान हाशमी ने क्रिकेटर मो.अजहरुद्दीन की बायोपिक फिल्म ‘‘अजहर’’ की, तो वह टोनी डिसूजा से इस कदर प्रभावित हुए कि उन्होने ‘अजहर’ के प्रदर्शन से पहले ही ऐलान कर दिया कि वह अब बतौर निर्माता अपनी फिल्म प्रोडक्शन कंपनी ‘‘इमरान हाशमी फिल्म्स’’ की शुरूआत कर रहे हैं. उस वक्त इमरान हाशमी ने कहा था कि उनकी कंपनी के तहत बनने वाली पहली फिल्म में वह अभिनय भी करेंगे, जबकि निर्देशक होंगे टोनी डिसूजा. उसके बाद हवा में उड़ते हुए टोनी डिसूजा ने भी बड़ी-बड़ी डींगे हांकी थी. टोनी डिसूजा ने दावा किया था कि फिल्म की पटकथा तैयार है, पर वह इसके कथानक को लेकर कुछ भी नहीं बताएंगे. उस वक्त इमरान हाशमी और टोनी डिसूजा ने दावा किया था कि वह जून 2016 में फिल्म की शूटिंग शुरू करेंगे.

मगर 13 मई 2016 को फिल्म ‘‘अजहर’’ प्रदर्शित होते ही स्थितियां बदल गयीं, क्योंकि ‘अजहर’ की बाक्स ऑफिस पर उसकी बड़ी दुर्गति हो गयी. जिसके चलते इमरान हाशमी की टोनी डिसूजा के निर्देशन वाली यह फिल्म अब तक शुरू नहीं हो पायी. मजेदार बात यह है कि इमरान हाशमी या टोनी डिसूजा भी इस फिल्म को लेकर चर्चा नहीं करना चाहते. बॉलीवुड के बिचौलिए मानते हैं कि ‘अजहर’ के असफल होने के बाद सभी का टोनी डिसूजा पर से विश्वास उठ गया. बॉलीवुड के सूत्र मानते हैं कि अब यह फिल्म कभी नही बनेगी. ध्यान देने वाली बात यह है कि ‘अजहर’ के असफल होने के बाद से इमरान हाशमी के करियर पर भी ग्रहण लग गया है. उन्हें कोई नई फिल्म नहीं मिली. जबकि अजय देवगन के साथ वह एक फिल्म ‘‘बादशाहों’’ कर रहे हैं. इसकी भी शूटिंग खत्म होने का नाम नहीं ले रही है.

मध्य प्रदेश : प्रेम, प्रकृति, परंपरा का अद्वितीय संगम

भारत की हृदयस्थली कहे जाने वाले मध्य प्रदेश में शेरों की दहाड़ से ले कर पत्थरों में उकेरी गई प्रेम की मूर्तियों का सौंदर्य वहां जाने वाले के मन में ऐसी यादें छोड़ जाता है कि दोबारा जाने के लिए उस का मन ललचाता रहता है.

बांधवगढ़ नैशनल पार्क में टाइगर देखने से ले कर ओरछा के महलों व खजुराहो के मंदिरों की मूर्तियों में आप वास्तविक भारत को खोज सकते  हैं. इस राज्य का इतिहास, भौगोलिक स्थिति, प्राकृतिक सुंदरता, सांस्कृतिक विरासत और यहां के लोग इसे भारत के सर्वश्रेष्ठ पर्यटन स्थलों में से एक बनाते हैं.

यहां आने वाले सैलानियों के लिए प्रदेश का टूरिज्म विभाग विशेष तौर पर मुस्तैद रहता है ताकि पर्यटकों को किसी तरह की असुविधा न हो. इस बार मध्य प्रदेश को नैशनल टूरिज्म अवार्ड से सम्मानित किया गया है. मध्य प्रदेश के पर्यटन राज्यमंत्री सुरेंद्र पटवा को दिल्ली के विज्ञान भवन में आयोजित समारोह में केंद्रीय मंत्री शशि थरूर ने सर्वोत्तम पर्यटन प्रदेश का राष्ट्रीय पुरस्कार दिया.  

दर्शनीय स्थल

मांडू

खंडहरों के पत्थर यहां के इतिहास की कहानी बयां करते हैं. यहां के हरियाली से भरे बाग, प्राचीन दरवाजे, घुमावदार रास्ते बरबस ही पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित कर लेते हैं.

रानी रूपमती का महल एक पहाड़ी की चोटी पर बना हुआ है जो स्थापत्य का एक बेहतरीन नमूना है. यहां से नीचे स्थित बाजबहादुर के महल का दृश्य बड़ा ही विहंगम दिखता है, जोकि अफगानी वास्तुकला का बेजोड़ नमूना है. मांडू विंध्य की पहाडि़यों पर 2 हजार फुट की ऊंचाई पर स्थित है. यहां के दर्शनीय स्थलों में जहाज महल, हिंडोला महल, शाही हमाम और नक्काशीदार गुंबद वास्तुकला के उत्कृष्टतम रूप हैं.

नीलकंठ महल की दीवारों पर अकबरकालीन कला की नक्काशी भी काबिलेतारीफ है. अन्य स्थलों में हाथी महल, दरियाखान की मजार, दाई का महल, दाई की छोटी बहन का महल, मलिक मुगीथ की मसजिद और जाली महल भी लोगों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं.

धार से 33 और इंदौर से 99 किलोमीटर दूर स्थित मांडवगढ़ (मांडू) पहुंचने के लिए इंदौर व रतलाम नजदीकी रेलवे स्टेशन हैं. बसों से भी मांडू जाया जा सकता है. नजदीकी एअरपोर्ट (99 किलोमीटर) इंदौर है.

ओरछा

16वीं व 17वीं शताब्दी में बुंदेला राजाओं द्वारा बनवाई गई ओरछा नगरी के महल और इमारतें आज भी अपनी गरिमा बनाए हुए हैं. स्थापत्य का मुख्य विकास राजा बीर सिंहजी देव के काल में हुआ. उन्होंने मुगल बादशाह जहांगीर की स्तुति में जहांगीर महल बनवाया जो खूबसूरत छतरियों से घिरा है. महीन पत्थरों की जालियों का काम इस महल को एक अलग पहचान देता है.

इस के अतिरिक्त राय प्रवीन महल देखने योग्य है. ईंटों से बनी यह दोमंजिली इमारत है. इस महल की भीतरी दीवारों पर चित्रकला की बुंदेली शैली के चित्र मिलते हैं. राजमहल और लक्ष्मीनारायण मंदिर व चतुर्भुज मंदिर की सज्जा भी बड़ी कलात्मक है. फूल बाग, शहीद स्मारक, सावन भादों स्तंभ, बेतवा के किनारे बनी हुई 14 भव्य छतरियां भी देखने योग्य स्थल हैं.

यह ग्वालियर से 119 किलोमीटर और खजुराहो से 170 किलोमीटर की दूरी पर है. यहां छोटा रेलवे स्टेशन है.

सांची

भारत में बौद्धकला की विशिष्टता व भव्यता सदियों से दुनिया को सम्मोहित करती आई है. सांची के स्तूप विश्व विरासत में शुमार हैं. स्तूप, प्रतिमाएं, मंदिर, स्तंभ, स्मारक, मठ, गुफाएं, शिलाएं व प्राचीन दौर की उन्नत प्रस्तर कला की अन्य विरासतें अपने में समाए हुए सांची को वर्ष 1989 में यूनैस्को की विश्व विरासत सूची में शमिल किया गया है. बौद्ध धर्म का प्रमुख केंद्र होने के कारण यहां देशी व विदेशी पर्यटक प्रतिदिन हजारों की संख्या में पहुंचते हैं.

सांची में सुपरफास्ट रेलें नहीं रुकतीं, इसलिए भोपाल आ कर यहां आना उपयुक्त रहता है. सांची देश के लगभग सभी नगरों से सड़क व रेल मार्ग से जुड़ा हुआ है.

खजुराहो

खजुराहो के मंदिर पूरे विश्व में आकर्षण का केंद्र हैं. पर्यटक यहां स्थापित भारतीय कला के अद्भुत संगम को देख कर दांतों तले उंगली दबाने से अपने को नहीं रोक पाते. मंदिरों की दीवारों पर उकेरी गई  विभिन्न मुद्राओं की प्रतिमाएं भारतीय कला का अद्वितीय नमूना प्रदर्शित करती हैं. यहां काममुद्रा में मग्न मूर्तियों के सौंदर्य को देख कर  खजुराहो को प्यार का प्रतीक पर्यटन स्थल कहना भी अनुचित नहीं होगा. काममुद्रा के साक्षी इन मंदिरों में प्रतिवर्ष असंख्य जोड़े अपनी हनीमून यात्रा पर यहां आते हैं.

किसी समय इस क्षेत्र में खजूर के पेड़ों की भरमार थी. इसलिए इस स्थान का नाम खजुराहो हुआ. मध्यकाल में ये मंदिर भारतीय वास्तुकला के प्रमुख केंद्र माने जाते थे. वास्तव में यहां 85 मंदिरों का निर्माण किया गया था, किंतु वर्तमान में 22 ही शेष रह गए हैं.

मंदिरों को 3 भागों में बनाया गया है. यहां का सब से विशाल मंदिर कंदरिया महादेव मंदिर है. उसी के पास ग्रेनाइट पत्थरों से बना हुआ चौंसठ योगनी मंदिर, लक्ष्मण मंदिर, घंटाई मंदिर, आदिनाथ और दूल्हादेव मंदिर प्रमुख हैं. मंदिरों की प्रतिमाएं मानव जीवन से जुड़े सभी भावों आनंद, उमंग, वासना, दुख, नृत्य, संगीत और उन की मुद्राओं को दर्शाती हैं. ये शिल्पकला का जीवंत उदाहरण हैं.

शिल्पियों ने कठोर पत्थरों में भी ऐसी मांसलता और सौंदर्य उभारा है कि देखने वालों की नजरें उन प्रतिमाओं पर टिक जाती हैं. ये कला, सौंदर्य और वासना के सुंदर व कोमल पक्ष को दर्शाती हैं. खजुराहो तो अद्वितीय है ही, इस के आसपास भी अनेक दर्शनीय स्थान हैं जो आप की यात्रा को पूर्णता प्रदान करते हैं. इन में राजगढ़ पैलेस, गंगऊ डैम, पन्ना राष्ट्रीय उद्यान एवं हीरे की खदानें आदि हैं.

खजुराहो के लिए दिल्ली व वाराणसी से नियमित फ्लाइट उपलब्ध हैं व खजुराहो रेलवे स्टेशन सभी प्रमुख रेल मार्गों से जुड़ा है.

पचमढ़ी

प्राकृतिक सौंदर्य के कारण सतपुड़ा की रानी के नाम से पहचाने जाने वाले पर्यटन स्थल पचमढ़ी की खोज 1857 में की गई थी. यकीन मानिए, आप मध्य प्रदेश के एकमात्र पर्वतीय पर्यटन स्थल पचमढ़ी जाएंगे तो प्रकृति का भरपूर आनंद उठाने के साथसाथ तरोताजा भी हो जाएंगे.  सतपुड़ा के घने जंगलों का सौंदर्य यहां चारों ओर बिखरा हुआ है. यहां का वाटर फौल, जिसे जमुना प्रपात कहते हैं, पचमढ़ी को जलापूर्ति करता है.

सुरक्षित पिकनिक स्पौट के रूप में विकसित अप्सरा विहार का जलप्रपात देखते ही बनता है. प्रियदर्शनी, अप्सरा विहार, रजत प्रपात, राजगिरि, डचेस फौल, जटाशंकर, हांडी खोह, धूपगढ़ की चोटी और पांडव गुफाएं यहां के प्रमुख स्थल हैं. यहां का निकटतम रेलवे स्टेशन पिपरिया है. यहां भोपाल और पिपरिया से सड़क मार्ग द्वारा भी जाया जा सकता है. निकटतम हवाई अड्डा भोपाल 210 किलोमीटर की दूरी पर है.

बांधवगढ़

राजशाहों का पसंदीदा शिकारगाह रहा है बांधवगढ़. प्रमुख आकर्षण जंगली जीवन, बांधवगढ़ नैशनल पार्क में शेर से ले कर चीतल, नीलगाय, चिंकारा, बारहसिंगा, भौंकने वाले हिरण, सांभर, जंगली बिल्ली, भैंसे से ले कर 22 प्रजातियों के स्तनपायी जीव और 250 प्रजातियों के पक्षियों के रैन बसेरे हैं.

448 स्क्वायर किलोमीटर में फैला बांधवगढ़ भारत के नैशनल पार्कों में अपना प्रमुख स्थान रखता है. यहां पहाड़ों पर 2 हजार साल पुराना बना किला भी देखने लायक है. बांधवगढ़ प्रदेश के रीवा जिले में स्थित है. यहां आवागमन के सभी साधन देश भर से उपलब्ध हैं.

नजदीकी हवाई अड्डा जबलपुर में है. यह रेल मार्ग से भी जबलपुर, कटनी, सतना से जुड़ा हुआ है.

कान्हा किसली

940 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में विकसित कान्हा टाइगर रिजर्व राष्ट्रीय उद्यान है. इसे देखने के लिए किराए पर जीप मिल जाती है. कान्हा में वन्यप्राणियों की 22 प्रजातियों के अलावा 200 पक्षियों की प्रजातियां हैं. यहां बामनी दादर एक सनसैट पौइंट है. यहां से सांभर, हिरण, लोमड़ी और चिंकारा जैसे वन्यप्राणियों को आसानी से देखा जा सकता है.  जबलपुर, बिलासपुर और बालाघाट से सड़क मार्ग से कान्हा पहुंचा जा सकता है. नजदीकी विमानतल जबलपुर में है.

बढ़ती उम्र थम सी जाए

उम्र के हर पड़ाव पर जिस तरह जिंदगी करवटें बदलती रहती है, वैसे ही हमारे रूपरंग में भी बदलाव आता रहता है. खासकर 16 से 26 और 26 से 30 की उम्र कब हो जाती है पता ही नहीं चलता. बढ़ती उम्र का अंदाजा तब होता है जब चेहरा उम्र की चुगली करने लगता है. इस के बाद शुरू हो जाता है बेचैनी का दौर. यह दौर महिलाओं के लिए सब से दुखद होता है, क्योंकि कोई भी महिला कभी भी अपनी उम्र से अधिक नहीं दिखना चाहती.

क्यों दिखते हैं लोग उम्रदराज

हाल ही में किए गए एक शोध से पता चला है कि बढ़ती उम्र के साथसाथ शरीर की कार्यक्षमता कम होने लगती है. जिस की वजह से शरीर के लिए जरूरी तत्त्व माइलिन में कमी आने लगती है और इंसान उम्रदराज दिखने लगता है. लेकिन जब खराब जीवनशैली के चलते कम उम्र में ही माइलिन में कमी आने लगे तो भी इंसान उम्रदराज दिखने लगता है. यहीं से शुरू होती है ऐजिंग की प्रौब्लम.

ऐजिंग साइन की पहचान

यह भ्रम है कि ऐजिंग साइन यानी मार्क्स या चिह्न 30 की उम्र पार करते ही चेहरे पर दिखने लगते हैं. त्वचा विशेषज्ञों की मानें तो सूर्य की तेज किरणें त्वचा को डैमेज कर देती हैं. ये डैमेजेज उम्र बढ़ने पर त्वचा पर काले धब्बों के रूप में उभर कर सामने आते हैं. ऐसे में अकसर महिलाएं बाजार में उपलब्ध तमाम सनस्क्रीन में से कोई खरीद कर इस्तेमाल करने लगती हैं. लेकिन ध्यान देने वाली बात यह है कि सनस्क्रीन लेते वक्त एसपीएफ के लैवल पर गौर करना चाहिए और उसे अपनी त्वचा की जरूरत के हिसाब से ही लेना चाहिए. वैसे ऐजिंग साइन स्किन में फाइबर्स की मात्रा बढ़ने से भी दिखाईर् देने लगते हैं. कई बार त्वचा के छिद्र इतने खुल जाते हैं कि उन में व्हाइट हैड्स और ब्लैक हैड्स पड़ जाते हैं. यह भी एक तरह से ऐजिंग साइन है. नई दिल्ली स्थित इंद्रप्रस्थ अपोलो हौस्पिटल के कौस्मैटिक सर्जन डा. अनूप धीर कहते हैं कि उम्र के साथ ऐजिंग प्रौब्लम का होना आम बात है, लेकिन सही लाइफस्टाइल से खुद को ज्यादा उम्र का होने पर भी कम उम्र का दिखाया जा सकता है.

जानिए ऐसी डाइट के बारे में, जिस के इस्तेमाल से उम्रदराज दिखने पर नियंत्रण रखा जा सकता है.

ऐंटी ऐजिंग डाइट

टमाटर और तरबूज में लाइकोपेन होता है, जो फ्री रैडिकल्स को न्यूट्रिलाइज करता है और त्वचा को कैंसर से बचाता है.

लहसुन और प्याज भी ऐजिंग प्रौब्लम को दूर करने के मजबूत हथियार हैं. ये शरीर के इम्यून सिस्टम को भी मजबूत बनाते हैं.

स्प्राउट्स और हरी सब्जियों को अपने आहार में शामिल करें. खासकर बंदगोभी और फूलगोभी में ऐंटीऔक्सीडैंट्स मौजूद होते हैं, जो त्वचा कैंसर से बचाते हैं.

चाय और डार्क चौकलेट में भी ऐंटीऔक्सीडैंट्स होते हैं, जो शरीर को फिट रखते हैं.

अधिक से अधिक पानी का सेवन भी बहुत जरूरी है. दिन भर में कम से कम 6 से 8 गिलास पानी जरूर पीना चाहिए. पानी से त्वचा में नमी बनी रहती है.

शहद, लैमन औैर ग्रीन टी के नियमित सेवन से बौडी का ऐक्स्ट्रा फैट कम होता है.

अपने आहार में विटामिन सी का प्रयोग करें. इस से स्किन यंगर लगती है. सभी तरह के ड्राईफ्रूट्स और साइट्रिक फ्रूट्स जैसे मौसंबी और संतरे में विटामिन सी की भरपूर मात्रा होती है.

डाइट में शुगर और साल्ट दोनों की संतुलित मात्रा होनी चाहिए ताकि ब्लडप्रैशर कंट्रोल में रहे. दरअसल, नमक के अधिक सेवन से युरिन आउटपुट रुक जाता है और शरीर में पानी इकट्ठा होने लगता है.

लाइफस्टाइल सुधारें

असंतुलित खानपान

ऐजिंग प्रौब्लम में सब से बड़ा हाथ असंतुलित खानपान का होता है, क्योंकि अब लोग हरी सब्जियों या फलों की जगह फास्ट फूड खाना ज्यादा पसंद करते हैं. ऐसे में वे स्वाद के चक्कर में सेहत को भूल जाते हैं. इस बाबत डाइटीशियन डाक्टर चारू का कहना है कि जंक फूड के ज्यादा सेवन से शरीर में पोषक तत्त्वों को ग्रहण करने की क्षमता नहीं रहती और शरीर फैट ज्यादा कंज्यूम करने लगता है, जिस से बौडी बैलेंस खत्म हो जाता है. इस के लिए खाने में सलाद और हरी सब्जियों को शामिल करना चाहिए. इस से शरीर में माइक्रोन्यूट्रैंट बढ़ते हैं, जो त्वचा के लिए बेहद फायदेमंद हैं. व्यायाम की कमी: शरीर को स्वस्थ रखने के लिए व्यायाम जरूरी है. व्यायाम करने से रक्तसंचार सही रहता है, जिस से त्वचा में चमक आ जाती है साथ ही शरीर को नुकसान पहुंचाने वाले तत्त्व भी पसीने के जरीए बाहर निकल जाते हैं.

अधूरी नींद

आज की फास्ट ट्रैक लाइफ में लोग सब से पहले अपनी नींद से समझौता कर लेते हैं. लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि अधूरी नींद डार्क सर्कल्स को न्योता देती है. ऐसा इसलिए होता है क्योंकि अधूरी नींद से शरीर में पीएच बैलेंस्ड नहीं रहता और गंदे ऐंजाइम्स शरीर में ही स्टोर रह जाते हैं. कुछ कौस्मैटोलौजिस्ट का यह भी कहना है कि सोते वक्त हमारी आंखों के आसपास मौइश्चराइजर बनता है, जो डार्क सर्कल्स को बनने से रोकता है. लेकिन अधूरी नींद के कारण यह मौइश्चराइजर नहीं बन पाता तो आंखों के नीचे काले घेरे बनने लगते हैं.

तनाव

तनाव की वजह से शरीर में स्टै्रस हारमोंस बढ़ जाते हैं जिन की वजह से चेहरे पर झुर्रियां पड़ने लगती हैं.

पानी की कमी

ऐजिंग की समस्या को रोकने पानी बहुत सहायक है, लेकिन अगर इस के सेवन में असावधानी बरती जाए तो शरीर से डीटौक्सिफिकेशन होना बंद हो जाता है, जिस से त्वचा सांस लेना बंद कर देती है. शरीर में पानी की संतुलित मात्रा जाती रहे, इस के लिए पानी के अलावा ग्रीन टी, नीबू पानी, मिंट वाटर और कोकोनट वाटर पीते रहना चाहिए.

डाइटीशियन डाक्टर चारू बताती हैं कि कम फैट वाले व फाइबर से भरपूर फूड ऐंटीऔक्सीडैंट्स के स्रोत होते हैं. वे औक्सीडेशन या ऐजिंग की उस प्रक्रिया को रोक देते हैं, जो फ्री रैडिकल्स के कारण होती है. इसलिए डाइट वैसी ही लेनी चाहिए, जो इन खूबियों से भरपूर हो.

बॉलीवुड में अपनी जगह ढूंढ ली है : राज कुमार राव

फिल्म ‘लव सेक्स धोखा’ से लेकर ‘अलीगढ़’ तक राज कुमार राव ने अपने अभिनय के नित नए आयाम पेश किए हैं. ‘शाहिद’ के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का राष्ट्रीय पुरस्कार हासिल करने के बाद उन्हें पीछे मुड़कर देखने की जरुरत नहीं पड़ी. हाल ही में उनकी फिल्म ‘न्यूटन’ को बर्लिन फिल्म फेस्टिवल में काफी सराहा गया. बहरहाल इन दिनों वह 17 मार्च को प्रदर्शित हो रही अपनी फिल्म ‘ट्रैप्ड’ को लेकर काफी रोमांचित हैं.

अपनी अभिनय यात्रा को लेकर क्या सोचते हैं?

मेरी अब तक की यात्रा कंटेंट ओरिएंटेड रही है. मुझे हर प्रतिभाशाली निर्देशक के साथ काम करने का मौका मिला. कलाकार के तौर पर मुझे बहुत प्रयोगात्मक काम करने का मौका मिला. मुझे तो इस यात्रा में बहुत मजा आया. मुझे लगता है कि मैंने बॉलीवुड में बहुत सही समय पर कदम रखा, जब सिनेमा बदल रहा था, नए नए फिल्मकार आ रहे थे. मुझे लगता है कि मैंने अपनी एक जगह ढूंढ़ ली है.

डॉली की डोली को सफलता नहीं मिली?

ऐसा भी हो सकता है. ‘डॉली की डोली’ में मैं पूरी फिल्म में नहीं था. कुछ दृष्यों में ही था. मैं फिर कहूंगा कि हम कलाकार हैं. फिल्म के भविष्य का एहसास नहीं कर सकते. हमारे हाथ में मेहनत करना होता है, वह मैं ईमानदारी के साथ करता हूं. बाकी तो दर्शकों पर निर्भर करता है. वैसे मैंने तो लोगों के कई भ्रम तोड़े हैं. लोगों को भ्रम था कि मैं कभी डांस नहीं कर सकता. पर मैंने डांस करके दिखाया. और इस साल बहुत कुछ होगा.

यानी कि 2017 में आप कब्जा करने वाले हैं?

मैं ऐसी सोच नही रखता. यह सच है कि इस वर्ष मेरी कई फिल्में एक साथ प्रदर्शित होंगी. कुछ फिल्में पिछले वर्ष प्रदर्शित होने वाली थी, पर किन्हीं कारणों से वह पिछले वर्ष प्रदर्शित न हो सकीं. तो अब इस वर्ष कई फिल्में प्रदर्शित होंगी. इस वर्ष ‘बहन होगी तेरी’, ‘शिमला मिर्ची’, ‘ओमार्टा’ ‘ट्रैप्ड’ व ब्लैक कॉमेडी फिल्म ‘न्यूटन’ प्रदर्शित होंगी. ट्रैप्ड एक सर्वाइवल ड्रामा है. रमेश सिप्पी के निर्देशन में हास्य फिल्म ‘शिमला मिर्ची’ कर रहा हूं. एक बंगला फिल्म कर रहा हूं. इंडो अमरीकन निर्देशक अमृता सिंह गुजराल की कॉमेडी फिल्म ‘फाइव वेडिंग’ में नरगिस फाखरी के साथ काम कर रहा हूं. इसकी शूटिंग हमने चंडीगढ़ में की है. इसमें मैंने भारतीय अफसर हरभजन सिंह का किरदार निभाया है. यह फिल्म भारतीय शादी, प्यार, मौत और पुनर्जन्म की बात करती है. इसमें कुछ विदेशी कलाकार हैं. नरगिस फाखरी के साथ चंडीगढ़ घूमने का भी मौका मिला. पर सबसे पहले ट्रैप्ड प्रदर्शित होगी.

फिल्म ट्रैप्ड क्या है?

यह फिल्म एक सर्वाइवल ड्रामा है. कैसे शौर्य नामक युवक एक ऐसी इमारत के एक मकान के अंदर फंस जाता है, जहां पानी, बिजली व खाने पीने का कोई सामान नहीं है. कैसे वह सर्वाइव करता है. यानी कि खुद को जीवित रखने में सफल होता है. उसी की कहानी है. इस किरदार को निभाना एक कलाकार के तौर पर मेरे लिए शारीरिक और मानसिक दोनों ही स्तर पर काफी चुनौतीपूर्ण रही. मैं शौर्य का किरदार निभा रहा था, तो मैंने कुछ दिन पहले से ही वह जिंदगी निभानी शुरू कर दी थी. मैंने खुद खाना पीना छोड़ दिया था. बीस दिन तक एक गाजर और एक ब्लैक कॉफी ही लेता रहा. शारीरिक तौर पर काफी चुनौती थी, पर मजा भी आया. इस तरह का किरदार निभाने का मौका पता नहीं दुबारा कब मिलेगा.

इस किरदार को निभाते समय आपने उनके बारे में सोचा जो कि भुखमरी के शिकार होकर मौत के मुंह में समा जाते हैं?

कई बार सोचा. मुझे एहसास हुआ कि वह कितने असहाय होते होंगे. क्योंकि हमारे शरीर को भोजन, पानी, बिजली, प्रकाष, हवा सब कुछ चाहिए. इंसान कुछ दिन बिना भोजन किए तो गुजार सकता है, मगर बिना पानी के खुद को जीवित रखना बहुत मुश्किल है. अब मैं बहुत आसानी से उन लोगों के दर्द, तकलीफ को समझ सकता हूं, जिन क्षेत्रों में सूखा पड़ता है, लोगों को पीने का पानी भी नसीब नहीं होता है. इस फिल्म को करते समय मैंने महसूस किया कि हमारे शरीर को पानी की बहुत ज्यादा जरुरत होती है. एक कलाकार व राज कुमार के रूप में भी मेरे अंदर फ्रस्ट्रेशन का एहसास इस बात को लेकर बना रहता था कि शरीर को जो चाहिए वह नहीं मिल रहा है.

कभी आपने सोचा कि भुखमरी के शिकार या सूखाग्रस्त क्षेत्र के लोगों के लिए क्या किया जाना चाहिए?

सच कहूं तो ऐसे लोगों की स्थिति सोचकर मुझे बहुत तकलीफ होती है. बहुत बुरा लगता है. यदि किसी इंसान को पीने का पानी न नसीब हो तो हमारे लिए इससे अधिक शर्मनाक बात कोई नहीं हो सकती.

कमरे के अंदर बंद इंसान की कहानी है, तो फिर इसमें हीरोइन क्या कर रही है?

फिल्म में एक प्रेम कहानी भी है. अब इस प्रेम कहानी को लेखक व निर्देशक ने किस तरह से बुना है, वही इस फिल्म की खूबी है. मगर नब्बे प्रतिशत फिल्म कमरे के अंदर है.

आपको राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार मिले. आपकी फिल्में अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में धूम मचा रही है. इसके बावजूद भारत में आपकी फिल्मों के प्रदर्शन में काफी समस्याएं आ रही है?

ऐसा कुछ नहीं है. देखिए, फिल्म ‘ट्रैप्ड’ को लेकर हम सभी ने योजना बनायी थी कि हम पहले इस फिल्म को अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में ले जाएंगे, उसके बाद भारत के सिनेमाघरों में प्रदर्शित करेंगे. अक्टूबर 2016 में ‘ट्रैप्ड’ को मामी अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में प्रदर्शित किया गया, जिसे काफी सराहना मिली. उसके बाद हमने इसके प्रदर्शन की बात सोची. अब हम 17 मार्च को इसे प्रदर्शित कर रहे हैं.

जब आपको फिल्म ट्रैप्ड की कहानी सुनायी गयी थी, तब किस बात ने आपको इंस्पायर किया था?

मैं विक्रमादित्य मोटावणे का बहुत बड़ा प्रशंसक हूं. मैं उनके साथ फिल्म करना चाहता था और यह फिल्म वही निर्देशित कर रहे थें. मैंने उनकी फिल्में ‘उड़ान’ व ‘लुटेरा’ देखी थी. जब ‘मसान’ की स्क्रीनिंग के दौरान विक्रमादित्य ने मुझसे इस कहानी का जिक्र किया, तो मैंने खुद उनसे पूछा कि कब करनी है. इस कहानी से प्रभावित होने की वजह यह रही कि मैं सर्वाइवल ड्रामा का बहुत बड़ा फैन हूं. मुझे इस तरह की फिल्में देखकर उत्साह आता था कि कैसे आपको पूरी फिल्म को लेकर चलना है. फिल्म में आपके किरदार का पूरा एक ग्राफ है. तो मुझे लगा कि मेरे लिए इस किरदार को निभाना चुनौतीपूर्ण रहेगा. मैंने पहले इस तरह का किरदार निभाया नहीं था. भारत में इस तरह की फिल्म भी नहीं बनी है.

बॉलीवुड के कई कलाकार हॉलीवुड में काम कर अच्छा नाम कमा रहे है. इंटरनैशनल फिल्म फेस्टिवल में आपकी फिल्मों ने धूम मचायी और अंततरराष्ट्रीय स्तर पर आपकी भी एक पहचान बन गयी है. ऐसे में आप हॉलीवुड फिल्में नहीं करना चाहते हैं?

यदि किसी अच्छी फिल्म का ऑफर मिले, तो मैं जरूर करूंगा. वैसे मैंने एक फिल्म ‘लव सोनिया’ की है, जो कि इंडो अमरीकन फिल्म है. इसके अलावा मैंने एक फिल्म ‘‘फाइव वेंडिंग’’ की है. देखिए, मेरी राय में हर कलाकार को अंग्रजी फिल्म करनी चाहिए. क्योंकि अंग्रेजी भाषा की पहुंच पूरे विश्म में है. मैं हाल ही में यूरोप गया था, वहां मैंने पाया कि लोग हॉलीवुड फिल्में ही देखना चाहते हैं. तो हॉलीवुड फिल्में करने से कलाकार के तौर पर हमारी पहुंच बढ़ जाती है. हम ज्यादा दर्शक वर्ग तक पहुंच जाते हैं. पर इन दिनों हमारा करियर बॉलीवुड में बहुत अच्छा चल रहा है. इसलिए मेरा सारा ध्यान यहीं पर है. पर जब भी कोई अच्छी हॉलीवुड फिल्म मिलेगी, तो जरूर करना पसंद करुंगा.

फिल्म लव सोनिया में महिलाओं की तस्करी का मुद्दा उठाया गया है. इस फिल्म को करने के बाद इस समस्या पर आपकी अपनी सोच क्या बनी?

इस फिल्म को करते समय मैंने बहुत दर्दनाक कहानियां सुनी. मैं कई ऐसी लड़कियों से मिला, जिन्हें इस तरह के चंगुल से मुक्त कराया जा चुका है. इनकी कहानी सुनने के बाद मैंने अपने आपको बेबस पाया. क्योंकि मैं इनके लिए कुछ कर नहीं पा रहा था. मुझे लगा कि कम से कम सिनेमा के माध्यम से हम इस कहानी को कह तो रहे हैं. इससे लोगों में जागरूकता आएगी. हो सकता है कि इस पर कोई बहस छिडे़.

फिल्म ‘फाइव वेडिंग’ में आपने पहली बार नरगिस फाखरी के साथ काम किया है?

जी हां! वह स्वयं अमरीकन हैं. उनके अंग्रेजी बोलने का लहजा अलग है.

तो उनके साथ काम करने के आपके अनुभव क्या रहे?

फिल्म ‘फाइव वेडिंग’ में नरगिस का किरदार अमरीकन लड़की का ही है. फिल्म अंग्रेजी भाषा की है. उनके साथ ही इस फिल्म में मुझे भी अंग्रेजी बोलने का मौका मिला. उनके साथ काम करने में मजा आया. वह बहुत फनी हैं. मेरी अच्छी दोस्त हैं. वह सेट पर वीडियो भी बना रही थी.

मैं ‘एबीवीपी’ पर यकीन नहीं करती : स्वरा भास्कर

दक्षिण भारत के तेलगू भाषी नेवल ऑफिसर व रक्षा विशेषज्ञ उदय भास्कर और ईरा भास्कर की बेटी स्वरा भास्कर की शिक्षा दिक्षा दिल्ली के जे एन यू विश्वविद्यालय में हुई है. उनकी मां ईरा भी ‘जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय’ दिल्ली में सिनेमा की प्रोफेसर हैं.

‘जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से समाजशास्त्र में एमए करने वाली स्वरा भास्कर एक बेहतरीन अदाकारा हैं. उन्होंने शिक्षा के महत्व पर बात करने वाली फिल्म ‘निल बटे सन्नाटा’ में अभिनय कर काफी पुरस्कार बटोरे. अब उनकी नई फिल्म ‘अनारकली ऑफ आरा’ 24 मार्च को प्रदर्शित होने वाली है.

‘निल बटे सन्नाटा’ के प्रदर्शन से पहले जेएनयू में कन्हैया व उमर खालिद का मुद्दा गर्माया था. तब स्वरा भास्कर ने उमर खालिद के पक्ष में खुला पत्र लिखा था. उस वक्त स्वरा भास्कर ने भाजपा सरकार व छात्र संगठन ‘एबीवीपी’ के खिलाफ मोर्चा खोला था. अब जबकि उनकी फिल्म ‘अनारकली ऑफ आरा’ प्रदर्शित हो रही है, तो दिल्ली विश्वविद्यालय फिर से सूखिर्यों में है.

एक बार फिर स्वरा भास्कर ने छात्र संगठन ‘एबीवीपी’ के खिलाफ और छात्र संगठन ‘आइसा’ के पक्ष में मुहीम चला रखी है. ‘जे एन यू’ की छात्रा रही स्वरा भास्कर के दिमाग में यह बात बैठी हुई है कि ‘जे एन यू’ से जुड़ा कोई भी शख्स या छात्र गलत बात नहीं कर सकता. वह छात्र संगठन ‘आइसा’ को सबसे ज्यादा इमानदार व संस्कारी मानती हैं. जबकि उनकी नजर में ‘एबीवीपी’ महज गुंडई करता है.

हाल ही में ही हमारी मुलाकात स्वरा भास्कर से हुई.  

शिक्षा की बात करने वाली फिल्म निल बटे सन्नाटा के प्रदर्शन के बाद किस तरह की प्रतिक्रियाएं मिली?

बॉक्स ऑफिस के साथ साथ लोगों की तरफ से भी बहुत अच्छा रिस्पांस मिला. फिल्म हिट रही. फिल्म दस सप्ताह चली, पैसे कमा लिए. छोटी फिल्मों के लिए यह सब बहुत जरुरी है. लोगों ने कल्पना नहीं की थी कि लोगों के घरों में काम करने वाली बाई और शिक्षा को लेकर इस तरह की फिल्म भी बन सकती है. यह मां व बेटी की कहानी लोगों के दिल में बसने के साथ ही एक मिसाल बन गयी है. 

कुछ लोगों ने पत्र लिखकर कहा कि फिल्म ‘निल बटे सन्नाटा’ देखने के बाद उनकी बेटी ने इंटरनेट से आई ए एस का फॉर्म निकालकर भरा और परीक्षा की तैयारी कर रही है. इस तरह की कम से कम दो पत्र तो मुझे याद हैं. अभी कुछ दिन पहले मैं दिल्ली हाट बाजार में खरीददारी कर रही थी, तब एक पिता ने अपनी बेटी से मिलवाते हुए बताया कि मेरी फिल्म देखकर उनकी बेटी आई ए एस बनने की लिए पढ़ाई कर रही है. जब हम छोटे थे, तब मेरे घर काम करने आती थीं चंद्रा, अब वह काम नहीं करती है, मैंने दिल्ली में दूसरी महिलाओं के साथ उन्हें भी बुलाकर अपनी यह फिल्म दिखायी. फिल्म देखने के बाद पांच मिनट तक मुझसे चिपककर वह रोयीं. इन दिनों दिल्ली में मेरे घर पर गीता दीदी काम करती हैं, उन्होंने मुझसे कहा कि उन्हें यह बात अच्छी लगी कि हमने उनकी कहानी को फिल्म में दिखाया.

फिल्म निल बटे सन्नाटा शिक्षा और अपने बच्चों को कुछ बनाने के सपनों की बात करती हैं. इन दिनों जो कुछ विश्वविद्यालयों में हो रहा है, क्या उससे लोगों के सपने पूरे होंगे? क्या यही सही शिक्षा है?

मुझे लगता है कि विश्वविद्यालयों में लोगों का आपस में वाद विवाद होना, उनका आपस में राजनीतिक मतभेद होना बुरी बात नहीं है. विश्वविद्यालय इसी के लिए बनती हैं. मगर हिंसा का होना बहुत बुरी बात है. एक खास गुट का दूसरे छात्रों पर अपनी सोच, अपने एजंडे को लागू करना, अपनी फिलोसफी को थोपना ठीक नहीं है. मैं एबीवीपी की बात कर रही हूं. एबीवीपी हमेशा गलत ढंग से लोगों को बरगलाना और धमकाता है. दिल्ली पुलिस का हिंसा की जगह पर मूक दर्शक बने रहना गलत है.

सरकार का इस पर प्रतिक्रिया न देना अथवा जो पिट रहे हैं, उन्हीं पर आरोप लगाना भी गलत है. मैं तो एबीवीपी की किसी भी कही हुई बात पर यकीन नहीं करती. मेरी राय में एबीवीपी के लोग सिर्फ झूठ बोलते हैं. मेरी समझ में नहीं आता कि जब से इनकी सरकार आयी है, तभी से सारे भारत विरोधी नारे लग गए. इस सरकार से पहले भी वामपंथी, कांग्रेसी,कश्मीरी लोग जेएनयू में पढ़ते रहे हैं.

पर इस सरकार के आते ही भारत के विनाश की योजना बननी शुरू हो गयी. यह तर्कहीन बाते हैं. मैं जेएन यू की छात्रा रही हूं. मैं उनकी हरकतें जानती हूं. इसलिए मुझे एबीवीपी की बातों पर भरोसा नहीं है. उनका सारा काम झूठ पर चलता है. वह छात्रों की राजनीति करते हैं, पर एबीवीपी ने कभी छात्रों के मुद्दे को नहीं उठाया. उन्हें सिर्फं गुंडई, दबंगई व अनावश्यक विवाद फैलाने में ही रूचि रहती है. आप अपने अध्यापकों के साथ सम्मान से पेश नहीं आते हैं. आप अपने गुरू की इज्जत नहीं कर सकते, तो फिर आप क्या लोगों को देशप्रेम सिखाओगे. एबीवीपी के लोग अपने गुरूओं का सम्मान नहीं करते हैं, वह देश का क्या खाक सम्मान करेंगे.

मान लो कि इस तरह के नारे लगे हों, तो उसका मुकाबला तर्क से करें, हिंसा से न करें. यदि वह कुछ बोल रहे हैं,तो उसका मुकाबला आप बोली से करिए,हाथ क्यों उठा रहे हैं?हाथ वही इंसान उठाता है, जिसके पास कोई तर्क न बचा हो. मैं आपसी झगड़े या आत्मरक्षा की बात नहीं कर रही. मैं सामाजिक वाद विवाद की बात कर रही हूं.

सामाजिक वार्तालाप में जो इंसान हिंसा का रास्ता अपनाता है, इसके मायने हैं कि उसके पास तर्क नहीं है. यही हमारे विश्वविद्यालयों में हो रहा है. जिनके पास तर्क खत्म हो चुके हैं, वही हाथ उठा रहे हैं. देखिए,मैं देशभक्त हूं. मुझे मेरे देश से प्यार है. मैं हर नारे का तर्कसंगत जवाब दे सकती हूं. लेकिन मुझे हाथ उठाने की जरुरत नहीं पड़ेगी. मैंने कश्मीरी विद्यार्थियों से ही नहीं बल्कि जो लोग वास्तव में अलगाव वादी हैं, उनसे भी बात की है. उनसे बात करते समय मुझे कभी भी हाथ उठाने की जरुरत नहीं पड़ी, तो फिर आपको हाथ उठाने की जरुरत क्यों पड़ रही हैं.

पर हाल में दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कालेज में जो कुछ हुआ, उसमें एबीवीपी और आइसा दोनों ने एक दूसरे पर लड़कियों के साथ छेड़छाड़ करने को लेकर कई तरह के आरोप लगाए हैं?

मैं एबीवीपी की किसी भी बात पर यकीन नहीं करती हूं. वह जहां भी जाते हैं, मारपीट ही करते हैं. मेरी समझ में नहीं आता कि जहां जहां भारत के खिलाफ नारे लग रहे हैं, वहां वहां एबीवीपी कैसे पहुंच जाता है. यह आष्चर्य जनक बात है. जहां जहां हिंसा शुरू होती है, वहां भी एबीवीपी पहुंच जाता है. ऐसा कैसे हो जाता है?

आइसा की तरफ से हैदराबाद में कार्यक्रम कराया जाता है, वहां भी एबीवीपी की वजह से पुलिस को हाथ उठाना पड़ा. तो आप देख लीजिए, एबीवीपी का इतिहास है, जहां हिंसा होगी, वहां एबीवीपी होगा. मैं दुःख के साथ कहती हूं कि मेरे मन में एबीवीपी के प्रति सहानुभूति होना दूर की बात है, मैं उन पर विश्वास ही नहीं करती. सबसे बड़ी बात यह है कि एबीवीपी खुद हिंसा शुरू करते हैं और दूसरों पर लड़कियों के साथ छेड़खानी करने व हिंसा करने का आरोप लगा देते हैं.

इंटरनेट पर सत्येन्द्र के वीडियो हैं, यह 2016 का वीडियो हैं, जिसमें वह अपने शिक्षक से बदतमीजी से बात कर रहा है. उसके भाई पर दहेज का आरोप लगा हुआ है. उसकी भाभी ने उसके परिवार पर घरेलू हिंसा का आरोप लगा रखा है. इसलिए मैं इन लोगों पर विश्वास नहीं करती. जब वह कहते हैं कि आइसा के लोगों ने लड़कियों के साथ छेड़खानी की,तो वह साफ झूठ बालते हैं.

मेरी समझ में यह नहीं आ रहा है कि किसी भी पक्ष को लड़कियो के साथ छेड़खानी करने की जरूरत क्यों पड़ जाती है?

यह एबीवीपी की मानसिकता है. दो साल में एबीवीपी की तरफ से यह चौथा घटनाक्रम है. इससे पहले दिल्ली में औरतें एक आंदोलन चला रही थीं, जिसमें दिल्ली विश्वविद्यालय की छात्राएं नुक्कड़ नाटक कर रही थी, उन पर भी एबीवीपी ने ही हमला किया था. हमारे देश में जबसे भारतीय जनता पार्टी की सरकार आयी है, तब से तमाम छोटे छोटे गुट उभरकर आ गए हैं. फिर चाहे वह बजरंगदल हो या गौरक्षक संगठन हो संजय लीला भंसाली की पिटाई करने वाला राजपूत करणी सेना हो.

भाजपा की सरकार बनने से पहले मैंने गौ रक्षक का नाम ही नहीं सुना था. मगर लोगों ने दो साल में ही गायों की सुरक्षा की बात सोचना शुरू किया. अचानक आपको पर्यावरण और जानवरों की सुरक्षा याद आने लगी है. इससे यह साफ जाहिर होता है कि ढाई साल पहले तक जो लोग अपने आपको हाशिए पर पाते थे, उन्हें अब लग रहा है कि हमारी सरकार है, तो हम कुछ भी कर सकते हैं.

आप मेरे सवाल का जवाब नहीं दे रही हैं. मेरा सवाल है कि आइसाछात्र संघठन हो या एबीवीपी’. क्या विश्वविद्यालय के अंदर हिंसा करना या लड़कियों के साथ छेड़खानी करना जायज है?

मैंने कब कहा कि जायज है. अगर दिल्ली पुलिस एबीवीपी के खिलाफ एफआइआर लिखने से मना कर दे तो क्या करें. हो यह रहा है कि जो लोग गुंडागर्दी कर रहे हैं. पर आप उन्हें जाने दे रहे हो. उसके बाद आप लोग गुरमेहर सहित दूसरों मुद्दों पर सोशल मीडिया व टीवी चैनलों पर बहस छेड़ते हैं, जिसका इस घटनाक्रम से कोई लेना देना नहीं है.

मजेदार बात यह है कि बहस में कौन किसका पिता था. किसने क्या किया. जैसी चर्चाएं शुरू कर दी और जिसने गुंदागर्दी की उसके खिलाफ एफआईआर दर्ज नहीं की. इससे आप क्या संदेश दे रहे हैं. आप खुद विश्वविद्यालय में हिंसा को बढ़ावा दे रहे हैं. दिल्ली पुलिस उन्हें पूरी छूट देते हुए कह रही है कि आओ आपको जो कुछ करना हो, करो, आपकी सरकार है. हम दिल्ली पुलिस के लोग चुपचाप खड़े रहेंगे. इससे आप विश्वविद्यालय में किस तरह की शिक्षा को बढ़ावा देंगे.

आप भूल जाते हैं.जेएनयू का तीन माह से नजीब नामक छात्र गायब है. उसे एबीवीपी के लोगों ने मारा. आज तक मिला नहीं. इसका जवाब दिल्ली पुलिस या दिल्ली की सरकार के पास नहीं है. एबीवीपी के लोग ‘भारत माता की जय’ चिल्लाने के अलावा कोई जवाब नहीं दे सकते.

दुःख के साथ कहना चाहूंगी कि यह बहुत चिंता जनक स्थिति है. यदि आपको लगता है कि मैं जान बूझकर किसी खास पक्ष की बात कर रही हूं, तो आप सोचते रहिए, मुझे फर्क नहीं पड़ता. अगर आपको लगता हैं कि मैं आइसा छात्रसंघ की समर्थक हूं, तो इससे मेरी सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ता. आप देख लीजिए, पिछले ढाई साल से केंद्र में भाजपा सरकार के आने के बाद से ही एबीवीपी की हिंसात्मक गतिविधियां बढ़ी हैं.

नजीब को ढूंढ़ने के लिए जेएनयू के छात्र लगातार आंदोलन व मुहीम चला रहे हैं. लेकिन हमारे देश की मीडिया भी इस आंदोलन/मुहीम की चर्चा नहीं कर रहा है. यह छात्र सोशल मीडिया पर नजीब की तलाश की मुहीम चला रहे हैं. पर छात्रों के पास इतना धन नहीं होता कि वह कुछ कर सकें. उनके पास मीडिया की तरह कलम की ताकत नहीं है. जिस ढंग की शक्ति एबीवीपी के पास है, वैसी शक्ति भी उनके पास नही है. पर वह सब जगह सवाल कर रहे हैं. मुझे लगता है कि नजीब मारा गया.

मेरा सीधा सवाल यह है कि विश्वविद्यालयों में शुक्षा क्या हो रहा है?

मैं यह कहूंगी कि यदि आप विश्वविद्यालय में सवाल पूछने की आजादी खत्म कर देंगे, तो शिक्षा अपने आप बंद हो जाएगी.

आखिर क्या वजह है कि छात्र आंदोलन व हिंसा की घटनाएं जेएनयू व दिल्ली विष्वविद्यालय में ही होती हैं. मुंबई विश्विविद्यालय में इस ढंग की घटनाएं नहीं सुनायी देती?

आप जेएनयू को दोश ना दें. हैदराबाद विश्वविद्यालय में बहुत बड़ा कांड हुआ. एक छात्र ने आत्महत्या कर ली, जिसको लेकर बवाल भी हुआ, पर कोई परिणाम नहीं निकला. यूं तो मुझे मुबंई विष्वविद्यालय के बारे में जानकारी नहीं है. शायद मुंबई में बॉलीवुड, मीडिया व कॉरपोरेट हावी हैं. दूसरी बात मुंबई विश्वविद्यालय में लिबरल आर्ट की बजाय सबसे ज्यादा कॉमर्स पढ़ाया जाता है. फिर विज्ञान पढ़ाया जाता है.

जबकि दिल्ली विष्वविद्यालय व जेएनयू लिबरल आर्ट के केंद्र हैं. यहां सामाजिक इतिहास, समाजशास्त्र और राजनीति विज्ञान पढ़ाया जाता है. हैदराबाद व इलहाबाद विश्वविद्यालयों में भी यही विषय ज्यादा पढ़ाई जाते हैं. इलहाबाद विश्वविद्यालय में भी बड़े बड़े कांड हुए हैं. पर जेएनयू बदनाम है, इसलिए लोग वहां कि हर छोटी बड़ी घटना को बड़ा बनाकर पेश करते हैं. दूसरी बात दिल्ली देय की राजधानी है. केंद्र सरकार का दबदबा है. दिल्ली पुलिस, केंद्र सरकार के अधीन काम करती है.

तो आप भारत विरोधी नारों को जायज ठहराती है?

मेरी नजर में जब भारत विरोधी नारे लगते हैं, तो उससे बातचीत शुरू होती है, जिससे नई बातें सामने आती हैं. जब वार्तालाप होगा, बहस होगी,तभी समाज व देश प्रगति करता है. महात्मा गांधी जी ने बात बात कर कर के देष को आजाद कराया था. गांधी जी को हिंसा का रास्ता अपनाने की जरूरत नहीं पड़ी. देखिए,उस जमाने में भगतसिंह जैसे हिंसावादी नेता भी थे,पर सफलता तो अहिंसावादी और बातचीत करने वाले गांधी ने ही दिलायी.

आपको नहीं लगता कि एबीवीपी को उन लोगों से समस्या है,जो आम जगहों यानी कि पब्लिक प्लेस पर द्विअर्थी गाने गाते हैं या अश्लील बातें करते हैं?

क्या समाज सुधार का ठेका एबीवीपी को मिला है? आप समाज के ठेकेदार नही हैं. देश कानून व संविधान से चलता है. देश के कानून ने ही तय किया है कि पब्लिक प्लसे में क्या क्या किया जा सकता है. कानून में कहीं नही लिखा हैं कि दो लोग हाथ पकड़कर पब्लिक प्लेस में साथ में नही चल सकते. यदि आपको किसी के किसी काम से समस्या है, तो आप उसके खिलाफ कानून का सहारा लीजिए.

मैं लिखकर देती हूं कि यदि दो लोग पब्लिक प्लेस में किसिंग कर रहे हैं और आप पुलिस के पास जाएंगें, तो पुलिस आपको ही भगाएगी. क्योंकि पुलिस को कानून की समझ है. यह अदालत तय करेगी कि क्या सही है व क्या गलत. आप किसी को गलत मानकर उसका मुंह काला कर दें, उसकी पिटाई करें, यह सब गलत है.

आप किसी के साथ जबरदस्ती नहीं कर सकते. हिंसा का रास्ता नही अपना सकते.आप संविधान के खिलाफ काम नहीं कर सकते. आप उसके ठेकेदार नहीं बन सकते हैं. किसी इंसान को अछूत मानना भी अपराध है.

क्या वजह है कि जब आपकी फिल्म रिलीज होने वाली होती है, तभी दिल्ली विश्वविद्यालय या जेएनयू में बवाल हो जाता है?

मुझे भी नहीं पता. मेरे निर्माता भी यही सवाल मुझसे पूछ रहे थे. पर हो यही रहा है कि मेरी फिल्म के रिलीज से पहले कोई न कोई भारत का राजनीतिक मुद्दा गर्मा जाता है. मेरी फिल्म ‘निल बटे सन्नाटा’ के रिलीज से दो माह पहले जेएनयू में कन्हैया और उमर खालिद का मुद्दा गर्माया था. मैंने उमर खालिद के पक्ष में खुला पत्र लिख दिया था. अब ‘अनारकली ऑफ आरा’ 24 मार्च को प्रदर्शित होने वाली है, तो दिल्ली विश्वविद्यालय का मुद्दा गर्मा गया है. जहां एबीवीपी ने आग लगा रखी है. अब मैं सोचती हूं कि मैं अपना फेक ट्वीटर एकाउंट खोल लूं. जहां मैं राजनीतिक बातें किया करूं,जिससे मेरी फिल्मों पर असर ना पड़े.

उमर खालिद के पक्ष में आपने खुला पत्र लिखा था. इस बार आपने कोई पत्र नहीं लिखा?

पिछली बार मेरे खुले पत्र को लेकर बहुत बवाल हो गया था. इस बार भी लिखना चाहती थी. पर समय नहीं मिला. मैं फिल्म के प्रमोशन में व्यस्त हूं.

रिटायरमैंट प्लान ताकि बुढ़ापा आराम से गुजरे

महिलाओं की जिंदगी पुरुषों की तुलना में अधिक होती है. अध्ययन बताता है कि पति की तुलना में पत्नी अधिक उम्र तक जीती है. इस का मतलब पैंशन पर आश्रित जिंदगी, जीवनसाथी के साथ बिताई जाने वाली जिंदगी से लंबी होती है. इसलिए एक घरेलू महिला को अपने पति के रिटायरमैंट प्लान के बारे में जानना बेहद जरूरी है. यदि कोई रिटायरमैंट प्लान नहीं है तो उस के बारे में फैसला करने का यह सब से सही समय है. यदि आप के पति वैतनिक कर्मचारी हैं तो सभी की तरह उन का भी एक कर्मचारी भविष्य निधि यानी ईपीएफ खाता होगा. लेकिन अगर आप के पति यह सोचते हैं कि ईपीएफ उन के रिटायरमैंट के बाद की जरूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त है तो उन्हें दोबारा सोचने के लिए मजबूर करें.

सच यह भी है कि यदि कोई रिटायरमैंट की जरूरतों के लिए सिर्फ भविष्य निधि के सहारे है तो उसे रिटायरमैंट के बाद पैसों की कमी से जूझना पड़ सकता है.

ईपीएफ, यहां तक कि लोक भविष्य निधि भी, सौ फीसदी डेट आधारित होने की वजह से महंगाई का असर रोकने में कामयाब नहीं होते. इन पर मिलने वाला वास्तविक रिटर्न, महंगाई समायोजित रिटर्न से कम होता है. इस तरह ये महज बचत को संरक्षित रखने का काम कर पाते हैं. इस समय महंगाई दर 8-9 फीसदी के आसपास है, वहीं फिक्स्ड इनकम निवेश पर मिलने वाला रिटर्न 9 फीसदी के करीब है. डेट असेट यानी ऋण आधारित स्कीमें आप की पूंजी को संरक्षित करने का माध्यम हैं. इन का इस्तेमाल लघु या मध्यम अवधि के लक्ष्यों को पूरा करने में ही किया जा सकता है.

बेहतर विकल्प

लंबी अवधि के लक्ष्यों को हासिल करने के लिए इक्विटी में निवेश आवश्यक है. इस के पीछे की धारणा यह है कि निवेश पर रिटर्न महंगाई की दर से 3-4 फीसदी अधिक होना चाहिए. रिटर्न में एक छोटा सा अंतर मैच्योरिटी पर मिलने वाली राशि पर बड़ा असर डालता है. लंबी अवधि के दौरान संपत्तियों के निर्माण में वास्तविक रिटर्न माने रखता है, न कि टोकन यानी सांकेतिक रिटर्न.

पहले के अध्ययन बताते हैं कि एक लंबी अवधि में इक्विटी अन्य साधनों जैसे सोना, डेट या रीयल एस्टेट की तुलना में अधिक रिटर्न देता है. यदि आप गौर करेंगे तो पता चलेगा कि पिछले 10-15-20 सालों में सैंसेक्स का संयोजित वार्षिक रिटर्न क्रमश: 17 फीसदी, 12 फीसदी, 11.23 फीसदी रहा है और रिटायरमैंट का लक्ष्य अकसर इतना ही लंबा होता है. ऐसे में इक्विटी एक सुरक्षित और बेहतर विकल्प हो सकता है.

म्यूचुअल फंड

रिटायरमैंट की जरूरतों को पूरा करने के लिए इक्विटी म्यूचुअल फंड एक बेहतर विकल्प है क्योंकि लंबी अवधि में अधिक रिटर्न के साथ यह महंगाई के असर को खत्म करने का माद्दा रखता है. लंबी अवधि का फायदा हासिल करने के लिए निवेश को लगातार बनाए रखना चाहिए. इस से भी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि ऐसे म्यूचुअल फंड का चुनाव करना चाहिए जिन का सौ फीसदी एक्सपोजर इक्विटी में हो और जो आगे चल कर आप को डेट फंड में स्विच करने का विकल्प प्रदान करें. इक्विटी और डेट में शिफ्ट होने की ऐसी अंतर्निहित विशेषता संपत्तियों के निर्माण में मददगार साबित होती है.

इन से रहें सतर्क

इक्विटी से मिलने वाला रिटर्न बेहद अस्थिरता भरा होता है क्योंकि यह बाजार के उतारचढ़ावों पर निर्भर करता है. बाजार विभिन्न आर्थिक व गैरआर्थिक कारणों से प्रभावित होता है. लघु अवधि में अस्थिरता ज्यादा होती है जबकि लंबी अवधि में यह कमोबेश पहले जैसी हो जाती है. इसलिए दिनप्रतिदिन होने वाली और गैरप्रासंगिक घटनाओं को अनदेखा कर निवेश को कायम रखना ही बेहतर होता है.    

क्या करें

संपत्तियों के निर्माण करने के लिए एसआईपी यानी सिस्टमैटिक इन्वैस्टमैंट प्लान का सहारा लें. एसआईपी के जरिए एक तय राशि नियमित अंतराल पर निवेश करें. ऐसा करने से बाजार में होने वाली घटबढ़ से बचा जा सकता है. परिणामस्वरूप लंबे समय तक आप के निवेश की एक औसत लागत बनी रहेगी.

एसआईपी का लब्बोलुआब यह है कि जब बाजार में गिरावट होती है तो आप को निवेश पर अधिक यूनिट मिल जाते हैं लेकिन जब बाजार चढ़ता है तो यूनिट कम मिलते हैं. रिटायरमैंट का समय नजदीक आने पर इक्विटी में संचित सारी निधि को डेट फंड में शिफ्ट कर दें ताकि पूंजी को संरक्षित किया जा सके. रिटायरमैंट के बाद जरूरत के हिसाब से फंड में से रकम निकालें और शेष राशि को बाजार में लगी रहने दें.

रिटायरमैंट के लिए बचत करना आप के जीवन में न सिर्फ अनुशासन लाता है, बल्कि रिटायरमैंट के बाद आप के स्वर्णिम वर्षों को बेहतर भी बनाता है.         

(लेखक बजाज कैपिटल के ग्रुप सीईओ और डायरैक्टर हैं)

ये कदम उठाएं

– 2-3 इक्विटी म्यूचुअल फंड का चुनाव करें और ऐसे रिटायरमैंट फोकस्ड फंड को प्राथमिकता दें जो सौ फीसदी इक्विटी में हों.

– निवेश को जारी रखें. बोनस, विंडफौल गेन आदि को उसी एसआईपी में फिर से निवेश करें.

– रिटायरमैंट का समय नजदीक आने पर एसआईपी की राशि को बढ़ा दें.

– रिटायरमैंट से 3 साल पहले अपने निवेश को जोखिम से दूर रखें.

– रिटायरमैंट के बाद एसडब्लूपी यानी सिस्टमैटिक विदड्रौल प्लान का विकल्प अपना कर पैंशन प्राप्त करना शुरू कर दें.

– फंड्स को रिटायरमैंट से जोड़ें.

– जल्दी शुरुआत करें.

अब क्या करेंगी बिपाशा बसु

गुरबानी कौर व रोनिता शर्मा रेखी के लंदन फैशन शो में रैम्प पर  चलने के लिए हामी भरने, पैसा वसलूने व आयोजकों के खर्च पर अपने पति करण ग्रोवर संग लंदन पहुंची बिपाशा बसु ने अनप्रोफेशनल रवैया अपनाते हुए फैशन शो में रैम्प चलने से इंकार कर पति के साथ लंदन घूमने की तस्वीरें सोशल मीडिया पर डालते हुए बिपाशा बसु खुद को विजेता मान रही थी. लेकिन अब उनका यह अनप्रोफेशनल रवैया उनके लिए सबसे बड़ा संकट बन गया है.

वास्तव में जब रोनिता शर्मा रेखी ने बिपाशा के इस अनप्रोफेशनल रवैए पर एक लेख फेसबुक पर लिखा, तो गुस्से में बिपाशा ने ट्वीटर पर उसे गाली दी. तब रोनिता रेखी ने बिपाशा की सारी हकीकत सामने लाने वाला एक लेख फेसबुक पर डाला. तथा बिपाशा बसु का काम देखने वाली कंपनी ‘क्वान’ को कानूनी नोटिस भी भेजी. पर ‘क्वान’ व बिपाशा के कानों पर जॅूं नही रेंगी. उलटे बिपाशा बसु ने गुरबानी कौर व रोनिता शर्मा रेखी से बातचीत कर मामला सुलझाने की बजाय ट्वीटर पर इनके खिलाफ एक खुला पत्र लिखकर धमकाने का असफल प्रयास किया. यहीं पर बिपाशा बसु ने बड़ी गलती कर दी.

बिपाशा के इस कदम के बाद गुरबानी कौर ने सबसे पहले बिपाशा बसु और उनके पति करण सिंह ग्रोवर के लंदन से मुंबई वापसी के टिकट रद्द करा दिए. अब गुरबानी कौर ने बिपाशा से कहा है कि बिपाशा की वजह से उन्हे बीस लाख रूपए का नुकसान हुआ है, जिसकी भरपाई यानी कि बीस लाख रूपए तुरंत बिपाशा बसु चुकाएं अन्यथा वह उनके खिलाफ कानूनी कारवाही करेंगी. तो वहीं रोनिता शर्मा ने कहा है कि यदि बिपाशा बसु ने जल्दी बीस लाख रूपए नहीं चुकाए, तो वह उनके खिलाफ सारे सबूत, वीडियो रिकार्डिंग, फोन पर बातचीत की रिकार्डिंग, होटल लॉबी की सीसी टीवी फुटेज सहित सारे सबूत सोशल मीडिया की हर साइट पर डालने के साथ ही पूरे विश्व की मीडिया को देने के साथ ही कानूनी काररवाही करेंगी.

अब बिपाशा बसु क्या करेंगी, यह तो वही जाने..

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