होली स्पेशल : ठंडई

ठंडई के बिना होली अधूरी है. वैसे तो आजकल बाजार में रेडीमेड ठंडई भी मिल जाती है, लेकिन उसमें कुछ मिलावट होने की भी संभावना रहती है. इसलिए घर की बनी ठंडई ही सही मायने में फायदेमंद होती है. आइए जानते हैं इसे बनाने का तरीका.

सामग्री

पानी – 1 कप

दूध – आधा लीटर

चीनी – आवश्यकतानुसार

खरबूजे के बीज – 2 बड़े चम्मच

सौंफ – 1/2 बड़ा चम्मच

सौंफ के बीज – 100 ग्राम

गुलाब की पंखुड़ियां – 8 से 10

गुलाब जल – 1/2 चम्मच

काली मिर्च – 1 छोटा चम्मच

हरी इलायची – 1/2 बड़ा चम्मच

खसखस – 100 ग्राम

बादाम – 2 बड़े चम्मच

विधि

ठंडई बनाने के लिये सबसे पहले एक बर्तन में चीनी और पानी मिला कर उबाल लगा लीजिए और उसे 5-6 मिनट पका कर ठंडा कर लीजिए.

अब सौंफ, काली मिर्च, बादाम, खरबूजे के बीज, इलायची के दाने और खसखस को साफ कीजिए और धोकर 1 घंटे के लिये पानी में भिगो कर रख दीजिए.

अब पानी निकाल कर बादाम को छील लीजिए और मिक्सी में ये छिले हुए बादाम और बाकी सारे मेवा-मसाले डाल कर बारीक पीस लीजिए. अब इस मिश्रण को दूध में मिला दीजिए.

अब दूध में चीनी की चाशनी और केसर मिलाकर, इसे धीमी आंच पर करीब 5 मिनट पकाएं.

बाद में इसे ठंडा कर लें. गुलाब की पंखुड़ियों और बादाम के साथ इसे गार्निश करके सर्व करें.

चाय पीने के शौकीन हैं तो सेहतमंद हैं आप

ये बात तो आपको बताने की जरूरत नहीं है कि चाय बहुत समय से चली आ रही है. कुछ लोग तो ये भी कहते हैं कि चाय सदियों से लोगों का प्रिय पेय है. हमारे देश की तो करीब 80 से 90 फीसदी आबादी सुबह उठने के साथ ही चाय पीना पसंद करती है और बेड-टी का कल्चर तो न केवल शहरों में बल्कि देश के गांव-देहातों में भी प्रचलित है. लोग सुबह उठकर दिन की शुरुआत चाय से ही करना पसंद करते हैं.

इस वजह से लोग पीते हैं चाय

कई लोग चाय को सेहत के लिए अच्छा मानते हैं. अब आधुनिक वैज्ञानिक अनुसंधान ने भी चाय को स्वास्थ्य के लिए लाभकारी बता दिया है. कुछ समय पहले तक लोग चाय किन्हीं कारणों वश पीते थे, जैसे डायबिटीज नियंत्रण के लिए, सर्दी में कमी करने के लिए, वजन कम करने के लिए और हैंगओवर रोकथाम के लिए आदि.

चाय में होती हैं ये खासियत

चाय चाहे काली चाय हो या ग्रीन चाय या किसी और फ्लेवर की हो, सभी प्रकार की चाय में एंटीऑक्सीडेंट्स, एंटी कैटेचिन्स और पोलीफेनॉल्स तत्व होते है जो हमारे शरीर को सकारात्मक रूप से प्रभावित करते हैं.

अलग-अलग तरह की चाय

आइये आज हम आपको बताते हैं कि किस प्रकार अलग-अलग तरह की चाय रंग के अनुसार आपकी सेहत को प्रभवित करती हैं. ये हैं कुछ खास तरह के रंगों की चाय और उनकी खास बातें..

1. ग्रीन टी

आजकल कॉफी प्रचलित, हरी चाय धमनियों के क्लोग्गिंग रोकने, वसा कम करने में, मस्तिष्क परऑक्सीडेटिव तनाव प्रतिक्रिया को कम करने, अल्जाइमर और पार्किंसंस रोग जैसी मस्तिष्क संबंधी बीमारियों के खतरे को कम करने, स्ट्रोक का खतरा कम करने और कोलेस्ट्रॉल के स्तर में सुधार में मदद करती है.

2. लेमन टी

आपके मूत्राशय, स्तन, फेफड़े, पेट, अग्नाशय के लिए एंटीऑक्सीडेंट का काम करती है. ग्रीन टी कोलोरेक्टल कैंसर के विकास की रोकथाम में बहुत फायदा करती है.

3. ब्लैक टी

काली चाय में सबसे ज्यादा कैफीन सामग्री है. अध्ययनों से पता चला है काली चाय सिगरेट के धुएं के संपर्क की वजह से फेफड़ों को नुकसान से रक्षा करती है. यह स्ट्रोक का खतरा भी कम करती है.

आइए जानते हैं क्या-क्या हैं चाय पीने के फायदे..

1. प्रदूषण के प्रभाव को करती है कम

चाय में एंटीऑक्सीडेंट तत्व शामिल होता है, जो कि उम्र बढ़ाने और प्रदूषण के प्रभाव के प्रकोपों से आपके शरीर की रक्षा करती है. कॉफी में कैफीन की मात्रा अधिक होती है. चाय में कॉफी के मुकाबले कम कैफीन होती है.

2. स्ट्रोक और हार्ट अटैक का खतरा कम

चाय पीने से आपको आने वाला दिल का दौरा और स्ट्रोक के जोखिम कम हो सकता है. चाय पीने की वजह से आपके शरीर की धमनियां चिकनी और कोलेस्ट्रॉल से मुक्त हो जाती हैं. एक अध्ययन में पाया गया है कि चाय पीने वाले लोगों की हड्डियां अधिक उम्र, अधिक वजन, व्यायाम, धूम्रपान और शरीर के अन्य जोखिमों के बावजूद भी अपेक्षाकृत मजबूत होती हैं.

3. प्रतिरोधक क्षमता होती है मजबूत

चाय पीने से आपके शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली को संक्रमण के विरुद्ध लड़ने में बहुत मदद मिलती है. सर्दी-जुखाम जैसी आम बीमारियां चाय पीने से कॉफी हद तक गायब हो जाती हैं.

बड़ा भाई करे छोटे की मदद

आज के व्यस्त महानगरीय जीवन में हर व्यक्ति के पास समय का अभाव है. ऐसे में यदि बड़ा भाई घर के छोटेछोटे कामों में मातापिता का हाथ बंटाए, तो कामकाजी पेरैंट्स को सहारा तो मिलता ही है साथ ही युवा हो रहे बच्चों में जिम्मेदारी का भाव भी पैदा होता है.

9वीं में पढ़ने वाले रोहित  का छोटा भाई मोहित 5वीं कक्षा में दूसरे स्कूल में पढ़ता है. रोहित स्कूल के लिए तैयार होने में तो उस की मदद करता ही है साथ ही साइकिल से उसे उस के स्कूल भी छोड़ता हुआ अपने स्कूल जाता है. इस प्रकार उस के कामकाजी मातापिता का काफी समय बचता है और वे भी समय से अपने औफिस जाते हैं.

अंकुर के पापा बैंक में हैं. उन का ट्रांसफर हर 3 साल के लिए दूसरे शहर में होता रहता है, ऐसे में 9वीं कक्षा में पढ़ने वाला अंकुर अपने छोटे भाई मधुर की देखभाल में मां का सहयोग करता है.

अंकुर ने तीसरी कक्षा में पढ़ने वाले अपने छोटे भाई को होमवर्क कराने की जिम्मेदारी खुद ले रखी है. रात को वह दोनों भाइयों की किताबें बस्ते में रखने व दोनों के जूते पौलिश करने जैसे काम भी करता है. इस से मां को बड़ा आराम मिलता है.

वास्तव में ये छोटेछोटे काम किशोरों को आत्मविश्वासी बनाते हैं और उन के व्यक्तित्व के चहुंमुखी विकास में सहायता करते हैं. किशोरों को भी छोटे भाईबहनों के काम बढ़चढ़ कर करने चाहिए. इस प्रकार मातापिता की सहायता कर सकते हैं.

पड़ोस में रहने वाली राधा जब शाम को औफिस से थकीहारी घर लौटी तो साफसुथरा घर देख कर हैरान रह गई, क्योंकि उन की बाई 2 दिन की छुट्टी पर थी. उन के 11वीं तथा 10वीं में पढ़ने वाले दोनों बेटों ने पूरे घर की साफसफाई करने के साथसाथ मम्मी के लिए टेस्टी पास्ता भी तैयार कर रखा था. पूछने पर उन्होंने बताया कि उन के बच्चे अपनी जिम्मेदारी समझते हैं.

12वीं में पढ़ रहा शरद 9वीं कक्षा में पढ़ने वाले अपने छोटे भाई अक्षय की सभी विषय समझने में मदद करता है. इस से उस के खुद के भी कौन्सैप्ट क्लियर हो जाते हैं और उस के उस खाली समय का भी सदुपयोग हो जाता है.

– डा. ममता रानी बडोला

प्यार की भाषा से बड़ी कोई भाषा नहीं : डा. सुचेता धामणे

40 वर्षीय डा. सुचेता बताती हैं, ‘‘मैं और मेरे पति डा. राजेंद्र धामणे पेशे से डाक्टर हैं. हम दोनों के मन में शुरुआत से ही दूसरों के लिए कुछ करने की ख्वाहिश थी. हम अकसर फ्री मैडिकल कैंप के जरीए लोगों का इलाज करते थे. बात आज से 10 साल पहले की है. डा. साहब मुझे अपनी बाइक से कालेज जहां मैं लैक्चर लेने जाती थी छोड़ने जा रहे थे. रास्ते में हमें मानसिक रूप से पीडि़त एक आदमी दिखाई पड़ा, जो कूड़ेदान के पास बैठा कुछ कर रहा था. हम उस के पास गए. वह अर्धनग्न था. उस के बाल बहुत लंबे थे, जिस्म से बदबू आ रही थी. वह वहां विष्ठा खा रहा था और नाले का पानी पी रहा था. यह देख कर कुछ पल के लिए हम दोनों सन्न रह गए. यकीन नहीं हुआ कि ऐसा भी हो सकता है. मैं ने उसे अपना टिफिन और पानी का बोतल दी. कई घंटे उसी बारे में सोचने के बाद हम ने ऐसे लोगों के लिए कुछ करने की सोची.’’

शुरुआत की अन्नपूर्णा योजना की

डा. सुचेता आगे कहती हैं, ‘‘मानसिक रूप से पीडि़त ये लोग कम से कम विष्ठा और कूड़ा न खाएं, इसलिए हम दोनों ने अन्नपूर्णा योजना की शुरुआत की, जिस के तहत मैं रोज 40-50 लोगों के लिए टिफिन बनाती थी. मैं और मेरे पति रोजाना सुबह एकसाथ बाइक पर निकलते और अहमदनगर से सटे 20 किलोमीटर के हाईवे पर घूम कर ऐसे लोगों तक खाना पहुंचाते थे. 2 साल हम ने यही किया. लेकिन एक रोज हमें उसी हाईवे पर 25-30 साल की एक युवती मिली, जो मानसिक रूप से पीडि़त और अर्धनग्न थी. उसे हम ने खाना खिलाया, लेकिन उसे अकेला छोड़ कर जाने का मन नहीं हुआ, इस डर से कि कहीं उस के साथ कुछ गलत न हो जाए.’’

स्थापित किया माउली सेवा प्रतिष्ठान

‘‘हम उस औरत को अपने साथ घर ले आए. हम ने 2010 में ‘माउली सेवा प्रतिष्ठान’ की स्थापना कर कमरे बनवाने का काम शुरू किया. इस में कई लोगों ने हमारी आर्थिक मदद भी की. जब तक काम चलता रहा, तब तक मानसिक रूप से पीडि़त 3-4 महिलाएं हमारे साथ हमारे घर में रहती थीं. आज इस संस्था में कुल 107 महिलाएं और 17 बच्चे हैं. ये बच्चे उन्हीं के हैं, इन में से कुछ महिलाएं हमें बच्चों के साथ मिली थीं, तो कुछ गर्भवती मिली थीं, जिन्होंने बच्चों को जन्म दिया. ये बच्चे उन के हैं, जिन्होंने मानसिक रूप से बीमार महिलाओं को अपनी हवस का शिकार बनाया था.

‘‘एक बार इसी तरह हमें पंढरपुर में पूरी तरह से निर्वस्त्र और 6 माह से गर्भवती स्त्री मिली थी, जिसे हम अपने साथ ले आए थे. यह किस्सा मैं इसलिए बता रही हूं ताकि लोग इस बात को समझें कि इन स्त्रियों के साथ जो अत्याचार हो रहा है उस का जिम्मेदार कौन है और इन की हिफाजत किस की जिम्मेदारी है?’’

माउली सेवा प्रतिष्ठान ऐसे करता है काम

‘‘मुझ से कई लोग पूछते हैं कि आप ऐसी औरतों को कैसे संभालती हैं? तब मेरा जवाब यही होता है कि प्यार की भाषा से बड़ी भाषा और कोई नहीं. अगर इनसान, इनसान की तरह ही व्यवहार करे तो सब कुछ मुमकिन है. हमारे यहां जब ऐसी महिलाएं आती हैं, तब वे पूरी तरह से शून्य होती हैं, उन्हें मंजन करने से ले कर नहानाधोना हम सिखाते हैं. लेकिन साल भर बाद कई औरतें खुद ही ये सब करने लगती हैं. संस्था में इन्हें सुबह 9 बजे उठाया और नहलाया जाता है फिर 10 बजे तक चायनाश्ता करा कर ट्रीटमैंट और काउंसलिंग का काम होता है.’’

कुछ ऐसा है मेरा परिवार

निजी जिंदगी के बारे में डा. सुचेता बताती हैं, ‘‘मैं, मेरे पति, मेरा बेटा, मेरे ससुरजी और 2 बेटियां यह है हमारा परिवार. मेरे ससुरजी पेशे से प्रिंसिपल रहे हैं. अब हमारे साथ भी हमारा हाथ बंटाते हैं. मेरा बेटा अभी कक्षा 12वीं में है. दरअसल, जो 2 बेटियां मेरे घर में हैं वे मेरी नहीं, उन महिलाओं की हैं जो हमें तब मिली थीं जब उन की दिमागी हालत ठीक नहीं थी. इसलिए मैं ने इन को अपने पास रख कर अपनी बेटी की तरह पाला. अब एक लड़की कक्षा 7वीं में दूसरी कक्षा 8वीं में है.

यो होती है मेरी दिनचर्या शुरू में

मैं सुबह उठ कर पहले अपने घर का सारा जरूरी काम निबटाती हूं, उस के बाद 8 बजे माउली संस्था की ओर निकल जाती हूं. वहां लोगों को खाना खिलाने के बाद दोपहर 3 बजे तक घर आती हूं. उस के बाद अपने बेटे पर

ध्यान देती हूं, चूंकि वह अब 12वीं कक्षा में है, इसलिए उसे मैं खुद पढ़ाती हूं. हमारी तरह हमारा बेटा भी डाक्टर बनाना चाहता है. हमें भी उस से काफी उम्मीदें हैं ताकि हम उस के साथ और भी अच्छे और नए प्रोजैक्ट्स पर काम कर सकें.’’

पति के संग होती हैं बस पल भर बातें

डा. सुचेता ने मुसकराते हुए बताती हैं, ‘‘शादी के शुरुआती दिनों में भले हम ने बाइक से सैर की हो, लेकिन अब वक्त नहीं मिलता है. इच्छा होती है एकसाथ समय बिताने की, लेकिन काम की वजह से समय नहीं मिल पाता. हमारे बीच खास और लंबी बातचीत भी तब होती है जब हम एकसाथ किराने का सामान, पीडि़तों के लिए दवाएं और सब्जियां लेने जाते हैं. उसी दौरान हम एकदूसरे के साथ दोनों से जुड़ी बातें शेयर कर पाते हैं.

समाज के लिए कुछ करना हमारा दायित्व है : निर्मला जोगदंडल

48 वर्षीया निर्मला जोगदंड से हमारी मुलाकात जोगेश्वरी (मुंबई) स्थित उन के फ्लैट में हुई. लैविश फर्नीचर से लैस उन का घर बहुत ही खूबसूरत नजर आ रहा था. नीले सूट के साथ काले रंग का जैकेट पहने निर्मला भी सुंदर लग रही थीं. दया, करुणा और प्रेम के भाव उन के चेहरे पर साफ नजर आ रहे थे. पैसों का घमंड और समाज सेवा करने का गर्व उन से कोसों दूर था. पूरे साक्षात्कार में मधुर बोली, दया भाव के साथ निर्मला अपने शुद्ध विचार साझा करती दिखीं. आइए, उन के बारे में और विस्तार से जानें.

शुरुआत से थी कुछ करने की इच्छा

एमए, बीएड निर्मला कहती हैं कि मैं ने अपने बचपन में गरीबी से ले कर अकाल की स्थिति भी देखी है, इसलिए मेरी इच्छा थी कि मैं गरीबों के लिए कुछ करूं. उन की स्थिति को सुधारने के लिए शिक्षा से बेहतर विकल्प और कोई नहीं. इसलिए मैं ने आदिवासी बच्चों को पढ़ाने की जिम्मेदारी ली. जिन के लिए प्राइवेट स्कूल की भारी फीस भरना नामुमकिन था और पालिका स्कूल में जाना न जाने के बराबर, क्योंकि वहां शिक्षक और शिक्षा का घोर अभाव था. इसलिए मैं रोजाना अपने घर से कुछ किलोमीटर दूर (आरे कालोनी) आदिवासी गांव में जा कर बच्चों को पढ़ाने लगी. शुरुआत में कुछ 5-6 बच्चे ही आते थे, लेकिन आज उनकी संख्या 30-35 हो गई है. बालवाड़ी से लेकर दसवीं तक के बच्चे पढ़ने आते हैं. मैं ने काउंसलिंग में डिप्लोमा भी किया है, इसलिए मैं इन आदिवासी बच्चों के साथ उन के मातापिता की भी काउंसलिंग करती हूं ताकि उन्हें शिक्षा की अहमियत बता सकूं.

मुश्किलें कभी खत्म नहीं होतीं

निर्मला बताती हैं कि जंगल में जहरीले सांप, बिच्छू और खतरनाक जानवरों के बीच जाकर आदिवासी बच्चों को शिक्षित करना मेरे लिए तब भी बहुत मुश्किल था और आज भी मुश्किल है. वहां न तो बिजली है न पहुंचने की सही सुविधा. मैंने वहां पढ़ाने की अनुमति और एक छोटा सा कमरा मांगा लेकिन मुझे ये कहकर नहीं दिया गया कि वहां पहले से पालिका का स्कूल है, लेकिन वो एक ऐसा स्कूल था, जहां न तो शिक्षक थे और न ही शिक्षा दी जाती थी. इसलिए मैं बच्चों को पेड़ के नीचे तो कभी आंगन में बैठा कर पढ़ाने लगी. मैं तो रोजाना जैसेतैसे पहुंच जाती लेकिन बच्चे गायब हो जाते. उन के मातापिता को भी कोई फर्क नहीं पड़ता था कि बच्चे पढ़ें या न पढ़ें. बच्चों की पढ़ाई में दिलचस्पी बढ़ाने के लिए मैं खाने की सामग्री के साथ खिलौने ले कर जाने लगी और उन्हें खेलखेल में पढ़ाने लगी. आप पढ़ोगे तभी आगे बढ़ोगे का नारा मैं उन के दिलोदिमाग में बैठाने लगी.

शिक्षा की अहमियत ने शिक्षक बनाया

अपने बचपन को याद कर निर्मला कहती हैं कि मेरा बचपन बहुत संघर्षपूर्ण था. 1970 में हमारे गांव में अकाल पड़ा था. इस दौरान मेरे मातापिता हमें ले कर मुंबई आ गए. दोनों अनपढ़ थे, यहां आ कर मजदूरी (बांधकाम) करने लगे. मेरे पिता को 6 और मां को 4 रुपये तनख्वाह मिलती थी. हम सड़क पर ही रहते थे. हमें व्यस्त रखने के लिए हमारा दाखिला सरकारी स्कूल में किया गया. जहां शिक्षक के साथ शिक्षा का भी अभाव था, जैसेतैसे मैं ने सातवीं तक पढ़ाई की फिर मेरी शादी हो गई. शुक्र है कि मेरे पति बहुत पढ़ेलिखे थे. शादी के वक्त वे एमफील कर रहे थे. उन के साथ मैं गांव से कोल्हापुर, औरंगाबाद, पुणे जैसे शहरों में पढ़ेलिखे लोगों के साथ रहने लगी और तब मुझे एहसास हुआ कि शिक्षा गरीबों की जमापूंजी है, इसलिए एक बेटी की मां होते हुए भी मैं ने फिर से पढ़ाई शुरू की.

अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति से जारी है जागरूकता

निर्मला के अनुसार, ‘‘अपने लिए तो सब जीते हैं, लेकिन हमारा दायित्व बनता है कि हम समाज के लिए भी कुछ करें. हम से जितना हो सकता है हम उतना योगदान दें, इस सोच के साथ आदिवासी और गरीब लोगों में जागरूकता लाने के लिए मैं अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति और प्रेरणा संघठन जैसी संस्थाओं से जुड़ी हूं. इन के जरिये मैं आदिवासी महिलायों को स्वच्छता के साथसाथ स्वास्थ्य के प्रति भी जागरूक रखने का प्रयास करती हूं.’’

बहुत छोटा है मेरा परिवार

अपने निजी जीवन के बारे में निर्मला कहती हैं कि मेरा परिवार बहुत छोटा है. घर में मेरे पति और मेरी छोटी बेटी रहती है. मेरी बड़ी बेटी की शादी हो चुकी है. छोटी बेटी प्रोफेसर है और मेरे पति प्रहलाद जोगदंड मुंबई यूनिवर्सिटी से हाल ही में डीन की पो स्ट से रिटायर हुए हैं.

कुछ ऐसी है मेरी दिनचर्या

दिनचर्या के विषय में निर्मला ने बताया कि मैं हर रोज सुबह उठ कर पहले मार्निंग वौक पर जाती  हूं. उस के बाद सब के लिए चायनाश्ता और फिर खाना बना कर पढ़ाने (आदिवासी गांव) चली जाती हूं. एक गांव के बाद दूसरा गांव और फिर तीसरा इस तरह बच्चों को पढ़ाकर मैं शाम 6 बजे घर आती हूं. फिर खाना बनाना और अगले दिन बच्चों को किस प्रोजेक्ट के जरिये क्या पढ़ाना है, इस की तैयारी करती हूं. हां, रविवार का दिन परिवार के लिए होता है.

इस के अलावा खाली समय में किताबें पढ़ना और लिखना भी मुझे बहुत खुशी देता है. डिनर के वक्त पति और बेटी से बातचीत करना, अकेले में पति से अपनी बातें शेयर करना सुकून का एहसास दिलाता है.

प्राकृतिक है मासिक धर्म, अपवित्र नहीं

मासिक धर्म पर जितने आडंबर अपने देश में हैं दुनिया में शायद कहीं नहीं हैं. युवतियों और औरतों की हर महीने वाली यह ‘समस्या’ को समाज के सत्ताधारियों ने ही समस्या घोषित कर दिया है. गौरतलब है कि ऐसे नियम बनाने वालों को खुद पीरियड्स नहीं होते. इन नियमों को यथासंभव पालन हमारी माताएं और बहनें भी निश्चित करतीं हैं. मासिक धर्म कोई ‘समस्या’ या अपवित्रता नहीं है जैसा कि धर्म के ठेकेदारों ने फैला रखा है. विज्ञान ने मासिक धर्म के कारणों को बहुत पहले ही सिद्ध कर दिया था. मगर धर्म के नाम पर अंधे हो चुके समाज को यह दिखाई नहीं देता.

मासिक धर्म के समय महिलाएं कई शारीरिक, मानसिक और हॉरमोनल बदलावों से गुजरती हैं. हमारे देश में बहुत सी लड़कियों और महिलाओं को रजोधर्म या मासिक धर्म के बारे में सटिक और सही जानकारी ही नहीं है. जानकारी के अभाव में लड़कियां और महिलाएं अपनी साफ-सफाई का ठीक से ध्यान नहीं रख पातीं और इसका खामियाजा उन्हें बाद में भुगतना पड़ता है.

मासिक धर्म को लेकर हमारे समाज में कई कुरीतियां हैं. कई परिवारों में आज भी इन नियमों का पालन किया और करवाया जाता है. कई घरों में मासिक धर्म के दौरान महिलाओं को रसोई घर में और तथाकथित ‘पूजा घर’ में प्रवेश नहीं करने दिया जाता. यही नहीं, कुछ परिवारों में तो मासिक धर्म के दौरान महिलाओं को घर के कोने में रखा जाता है और परिवार के दूसरे लोगों को स्पर्श करना वर्जित कर दिया जाता है. अलग थाली में खाने से लेकर एक वक्त के खाने तक, यह सब चोंचले हमारे समाज में विद्यमान हैं. अगर यह सब पढ़कर आप चौंक गए हैं, तो यह भी जान लीजिए कि मासिक धर्म के दौरान कुछ महिलाओं का श्रृंगार करना भी वर्जित होता है. देश में पैठ बनाकर बसे हुए कई धर्म की दुकानों(सबरीमाला मंदिर, केरल) में भी मासिक धर्म वाली महिलाओं का जाना मना है.

सोचने वाली बात यह कि इन सब ड्रामेबाजी का महिलाओं के मन मस्तष्कि पर क्या प्रभाव पड़ता होगा. न चाहते हुए भी वे खुद को अलग-थलग और अपवित्र महसूस करती होंगी. समाज में व्याप्त इन नियमों का बोलबाला है. इसका मुख्य कारण है प्युबर्टी, रिप्रोड्कटिव हेल्थ, मासिक धर्म के बारे में सही जानकारी का अभाव. इस समस्या का समाधान सही प्लैनिंग से ही मिल सकता है. 

अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर ट्रैफिक जैम कम्युनिकेशन (दिल्ली में स्थापित एक इन्टीग्रेटेड मार्केटिंग कम्युनिकेशन्स ऐजेंसी) ने डबल बैरल कम्युनिकेशन के साथ मिलकर #IAmUp कैंपेन शुरु किया है. इस कैंपेन का मुख्य उद्देश्य महिलाओं, युवतियों और लड़कियों से जुड़ी गंभीर समस्याओं पर बातचीत करना और उनके सशक्तिकरण के लिए यथोचित समाधान निकालना है. इसी अवसर पर #IAmUp कैंपेन के नाम से एक वीडियो भी रिलीज किया गया. इस कैंपेन के अंतर्गत भविष्य में कई वीडियो रिलीज किए जाएंगे.

ट्रैफिक जैम कम्युनिकेशन्स प्राइवेट लिमिटेड के को-फाउंडर हितेश छाबरा ने कहा, ‘हमें समाज पर कठोर प्रश्न उठाने होंगे. हमें यह पूछना होगा कि आज भी हम पुराने समय में क्यों जी रहे हैं और मासिक धर्म को अपिवत्र क्यों मानते हैं. कुछ समय पहले इन्सटाग्राम ने एक महिला की पीरियड्स वाली तस्वार को हटा लिया था. यह गलत है. अधिकतर मामलों में एक औरत ही दूसरे औरत को मासिक धर्म को लेकर असहज महसूस करवाती हैं.’

वहीं डबल बैरल कम्युनिकेशन प्राइवेट लिमिटेड के फाउंडर निलेश फड़निस ने कहा, ‘हमें इस बात पर विचार करना होगा कि जब एक औरत ही दूसरे औरत को नीचा दिखाना चाहती हो, तो क्या महिला सशक्तिकरण संभव है? हमें यह समझना बहुत जरूरी है कि मासिक धर्म एक सामान्य प्रक्रिया है.’

महिलाएं बेझिझक बढ़ें आगे

धर्म और उस के ठेकेदार भले ही मासिकधर्म से गुजर रही महिलाओं को दुत्कारने और कोसने का अपना धर्म निभाते रहें लेकिन महिलाओं में कतई यह निराशा, हताशा, अवसाद या कुंठा की बात नहीं होनी चाहिए. उन्हें सेनेटरी नेपकिंस के उत्साहभर देने वाले विज्ञापनों से सबक लेना चाहिए जिन में पूरे आत्मविश्वास से बताया जाता है कि उन 5 दिनों में वे कैसे बगैर किसी झंझट या परेशानी के न केवल अपने रोजमर्रा के कामकाज कर सकती हैं बल्कि खेलकूद में भी झंडे गाड़ सकती हैं. यानी दिक्कत की बात गीलापन या चिपचिप नहीं, बल्कि धर्म है जो मासिकधर्म से भी पैसा बनाने के जुगाड़ में है.

प्राकृतिक है मासिकधर्म

अगर वाकई भगवान नामक कोई शक्ति है तो कम से कम उस ने तो लड़केलड़की का भेद नहीं किया. अगर करता तो आज तथाकथित रूप से उस की यह सृष्टि ही नहीं होती. वैसे इस भेदभाव के लिए अकेले पुरुषवर्ग जिम्मेदार नहीं है. महिलाएं भी बड़ी संख्या में ऐसे अंधविश्वास का समर्थन करती हैं कि महीने के 5 दिनों तक लड़कियों का शरीर अपवित्र रहता है. लगभग हर घर में कुछ महिलाएं हैं जो आंखें मूंदे खुद तो परंपरा के नाम पर इन नियमों का पालन करती ही हैं, अपने बच्चों पर भी यह कुसंस्कार थोपती रहती हैं.

हॉलीवुड फिल्मों से मुकाबला करने के लिए विक्रमादित्य यह करना चाहते हैं

इन दिनों जिस तरह से हॉलीवुड फिल्में भारतीय भाषाओं में डब होकर भारत में प्रदर्शित हो रही है और बॉलीवुड फिल्मों के मुकाबले कॉफी ज्यादा अच्छा व्यवसाय सिर्फ भारत में ही कर रही हैं, उससे बॉलीवुड के फिल्मों से करोड़ों के चेहरे पर हताशा के चिन्ह साफ नजर आ रहे हैं. साल 2016 में भारतीय सिनेमाघरों से धन कमाने के मामले में हॉलीवुड फिल्म ‘जंगल बुक’ तीसरे नंबर पर रही थी. इतना ही तीन मार्च को ‘‘कमांडो 2’’ के साथ ही प्रदर्शित हुई हॉलीवुड फिल्म ‘लोगन’ भी ‘कमांडो 2’ से कहीं ज्यादा व्यवसाय कर रही है. इससे बॉलीवुड के फिल्मकार खतरा महसूस कर रहे हैं. मशहूर फिल्म निर्देशक तथा फिल्म प्रोडक्शन कंपनी ‘‘फैंटम’’ से जुड़े विक्रमादित्य मोटावाणी तो इसे बॉलीवुड के फिल्मकारों के लिए चेतावनी मानते हैं.

इसी खतरे के संदर्भ में ‘‘सरिता’’ पत्रिका से खास बातचीत करते हुए विक्रमादित्य मोटवाणी ने कहा ‘‘हम लोगों के लिए यह वेक-अप कॉल है. ये हम लोगों को जगाने वाला एक संदेशा है. ‘जंगल बुक’ ने बॉक्स ऑफिस पर जो कमाई की है, वह तीसरे नंबर पर है. यह बहुत बड़ी बात है. तो साफ तौर पर ये आंकडे़ हमसे कह रहे हैं कि जाग जाओ और थिएटर के लायक कोई फिल्म बनाओ. ‘जंगल बुक’ एक ऐसी फिल्म थी, जिसे सभी ने थिएटर में जाकर देखा था, तो अब हमें ऐसी फिल्में बनानी पडेंगी, जिन्हें थिएटर में जाकर देखने में ही मजा हो. तो अब मेरा भी ध्यान इस बात पर है कि हमें ऐसी फिल्में बनानी हैं, जिन्हें दर्शक थिएटर में जाकर देखें और उनका टीवी पर आने का इंतजार ना करें. ‘दंगल’ भी एक थिएटर फिल्म है.’’

नोटबंदी करेला तो बैंकिंग है नीम

नोटबंदी के ऐलान के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने घोषणा की थी कि जनता उन्हें सिर्फ 50 दिन दे दे, उस के बाद उस की सारी समस्याएं खत्म हो जाएंगी. लेकिन 50 दिनों की समयसीमा खत्म होने के बाद दिन और महीने बीते, देश और जनता को महसूस हुआ कि नकली करैंसी और कालेधन के खिलाफ अभियान के तौर पर कोई तैयारी किए बिना की गई नोटबंदी से सिर्फ उस की परेशानी ही बढ़ी.

जिस बैंकिंग प्रणाली के बल पर ब्लैकमनी के खात्मे का अंदाजा लगाया गया था, वह न केवल मुंगेरीलाल के हसीन सपने जैसा साबित हुई, बल्कि नकली करैंसी की रोकथाम का मंसूबा भी धरा रह गया. इस की तसदीक 24 जनवरी को भारतीय रिजर्व बैंक ने यह स्वीकारते हुए की कि नोटबंदी के 11 हफ्ते बाद भी उस के पास इस का कोई आंकड़ा नहीं है कि नकली नोटों का क्या हुआ.

नोटबंदी का एक उलटा असर यह जरूर हुआ कि बैंक में बैठे बाबुओं ने इसे अपनी अवैध कमाई का जरिया बना लिया. बैंकिंग के भ्रष्टाचार ने एक तरफ सरकार को चूना लगा दिया, तो दूसरी तरफ जनता को लाइनों में धक्के खाने को मजबूर कर दिया. इस दौरान कई ऐसी घटनाएं सामने आईं जिन के चलते बैंकों पर दशकों से जनता का कायम भरोसा टूट कर बिखर गया.

नोटबंदी के जो दुखदर्द थे, वे तो अपनी जगह थे ही, पर धीरेधीरे यह भी साफ हुआ कि बिना विचारे लिए गए इस फैसले की कितनी बड़ी कीमत देश व उस की अर्थव्यवस्था को चुकानी पड़ी है. मोदी सरकार ने ऐलानिया अंदाज में कहा था कि नोटबंदी से देश को कई फायदे एकसाथ होने जा रहे हैं. आतंकवाद का पोषण करने वाली नकली करैंसी थमेगी और ब्लैकमनी बाहर आ जाएगी.

नकली करैंसी कितनी बाहर आई, इस की जानकारी जब एक आरटीआई कार्यकर्ता अनिल वी गलगली ने आरटीआई दाखिल कर आरबीआई से जवाब मांगा तो 24 जनवरी को जवाब मिला कि बैंक के पास नोटबंदी के बाद से नकली नोटों की संख्या का कोई आंकड़ा उपलब्ध नहीं है.

आरबीआई के मुद्रा प्रबंधन विभाग (जाली नोट सतर्कता प्रभाग) ने आरटीआई के जवाब में लिखित रूप में कहा कि हमारे पास इस का कोई आंकड़ा उपलब्ध नहीं है. गलगली ने आरबीआई से पूछा था कि वह 8 नवंबर से 10 दिसंबर, 2016 के बीच जब्त किए गए नकली नोटों, बैंकों के नाम, तारीख आदि की जानकारी साझा करे. गलगली ने आरबीआई के जवाब का हवाला देते हुए कहा कि नकली नोटों के खिलाफ नोटबंदी को एक हथियार की तरह इस्तेमाल करने के सरकार के दावे खोखले साबित हुए.

बेमकसद फैसला

यही नहीं, इसी तारीख को बंगाल में 2 हजार रुपए के नकली नोटों की एक खेप एक बंगलादेशी नागरिक के पास से बरामद हुई. यह घटना साबित करती है कि पड़ोसी देशों से नकली करैंसी की आमद रोकने का उपाय वह नहीं है जो सरकार ने नोटबंदी के रूप में सोचा, बल्कि इस के लिए उसे दूसरे तौरतरीकों पर गौर करना होगा.

नोटबंदी से सरकार का एक अहम मकसद कालेधन पर अंकुश लगाना था. उस का दावा था कि 500 व 1,000 रुपए के नोटों के रूप में अर्थव्यवस्था में प्रचलित 84 प्रतिशत रकम बैंकों में वापस लाई जाएगी, वे लोग जो अपना पैसा बैंकों में जमा नहीं कराएंगे वो असल में कालाधन है. आरबीआई और सरकार का अनुमान था कि यह कुल रकम 15.44 लाख करोड़ रुपए है पर इस में से 12.44 लाख करोड़ रुपए तो 10 दिसंबर, 2016 तक ही रिजर्व बैंक के पास वापस पहुंच पाए.

इस से पहले यह अनुमान लगाया गया कि कालेधन की रोकथाम के रूप में सरकार की अमीरी सिर्फ 1 लाख करोड़ रुपए ही बढ़ेगी जबकि उस का अंदाजा 3-4 लाख करोड़ रुपयों का था जिसे ब्लैकमनी माना गया था और यह अनुमान लगाया गया था कि नोटबंदी के असर से यह रकम सिस्टम में वापस नहीं आएगी.

लेकिन जनवरी 2017 बीतते बीतते आरबीआई यह बताने में नाकाम रहा कि असल में कितनी रकम वापस आई. इस से यह संदेह जगा कि संभवतया सारी रकम सिस्टम में वापस आ गई, यानी जितना भी कालाधन लोगों के पास मौजूद था, बैंककर्मियों की मिलीभगत और कई दूसरे तरीकों से उन्होंने वह पैसा सिस्टम में वापस धकेल दिया यानी सरकार अपने दूसरे उद्देश्य में भी नाकाम रही. इस से यह एक बड़ा सवाल पैदा हुआ कि आखिर नोटबंदी का मकसद ही क्या था, क्या सिर्फ जनता को परेशान करना?

इस में संदेह नहीं कि नोटबंदी के बाद से सिर्फ करैंसी बदलने की वजह से ही नहीं, रोजगार गंवाने से ले कर पूंजी गंवाने तक के कई कष्ट जनता ने भुगते हैं. आम जनता सालोंसाल बैंकों को अपनी पूंजी सौंप कर यह सपना देखती रही है कि मुसीबत के वक्त बैंक उस के काम आएंगे, उन्हीं बैंकों और उन के कर्मचारियों ने उस से दगाबाजी की. लोग यह देख कर हैरान रह गए कि नोटबंदी की घोषणा के बाद से देश के कई सारे बैंकों के छोटे और मझोले स्तर के अधिकारीकर्मचारी कालेधन को सफेद बनाने के काम में जुट गए.

देश की राजधानी से ले कर झारखंड के नक्सल प्रभावित इलाकों और बंगाल में बंगलादेश की सीमा के पास मौजूद बैंकों के अधिकारियों की वे काली करतूतें टीवी चैनलों द्वारा कराए गए स्ंिटग औपरेशन में सामने आईं कि कैसे वे दलालों के जरिए पुराने 500 व 1,000 रुपए के नोटों को 30-35 फीसदी कमीशन के बदले चोरीछिपे बदलते रहे और जनता बैंक शाखाओं व एटीएम के बाहर कैश मिलने का इंतजार करती रही.

इस से साबित हुआ कि नोटबंदी से देश को कोई विशेष लाभ नहीं, बल्कि कई गुना नुकसान जरूर हो गया. जाहिर है, इस के लिए दोष सरकार का है कि उस ने कोई गणित बिठाए बिना, नोटबंदी का फरमान सुना दिया. उतना ही दोष भ्रष्ट बैंकिंग प्रणाली का है जो ब्लैकमनी के पोषण में ही संलिप्त पाई गई.

समस्या यह है कि सरकार ने इसी बैंकिंग के माध्यम से डिजिटल लेनदेन की कामयाबी का सपना पाल रखा है. ऐसे में सोचना होगा कि कहीं यह डिजिटल प्रबंध आम लोगों की दिक्कतों में और इजाफा तो नहीं करने जा रहे हैं.

काली करतूतों की फेहरिस्त

बैंकों में मनीलौंड्रिंग (कालेधन को सफेद करने) के लिए जो नुसखे आजमाए गए, उन में सब से अहम था फर्जी खातों में बड़ी रकम जमा कराना और इस के लिए जनधन खातों तक का इस्तेमाल किया गया.

एक गड़बड़ी उस समय पकड़ में आई जब दिल्ली स्थित ऐक्सिस बैंक की चांदनी चौक शाखा के 44 फर्जी खातों में 100 करोड़ रुपए जमा कराए गए. कुछ और बैंकों में भी अवैध तरीके से रखी हुई भारी रकमें पकड़ी गईं. जैसे, नोएडा में एक केबल औपरेटर के कर्मचारी के खाते में 13 करोड़ रुपए की रकम जमा कराई गई.

इसी तरह जयपुर में द इंटीग्रल अर्बन कोऔपरेटिव बैंक से आयकर विभाग ने 156.59 करोड़ रुपए कैश बरामद किया. इस के अलावा 1.38 करोड़ रुपए 2,000 के नोट की शक्ल में बरामद हुए. बैंक के एक खाली लौकर में 2 किलो सोना भी मिला. 2,000 रुपए के नए नोटों से बनी करोड़ों की गड्डियां चेन्नई और बेंगलुरु समेत देश के कई शहरों से बरामद हुईं.

दिल्ली में ही, जिस तरह एक बड़े वकील रोहित टंडन ने उद्यमी पारसमल लोढ़ा और रेड्डी आदि रसूखदारों की ब्लैकमनी को सफेद करने की कोशिश की, पता चला कि उस में भी कुछ बैंककर्मियों की भूमिका थी. रोहित टंडन मामले में खुलासा हुआ कि उस के 38 करोड़ रुपए की ब्लैकमनी को सफेदधन में बदलने के लिए कोटक महिंद्रा बैंक के मैनेजर आशीष कुमार ने सहयोग किया और इस के लिए उस ने 13 करोड़ रुपए की दलाली ली.

प्रवर्तन निदेशालय के अनुसार, कालेधन को सफेद करने के लिए आशीष ने कोटक महिंद्रा बैंक की कस्तूरबा गांधी मार्ग शाखा में कई फर्जी कंपनियों के खाते खोले और उन में 38 करोड़ रुपए जमा कराए. रुपए जमा कराने के तत्काल बाद उन से फर्जी कंपनियों के नाम ड्राफ्ट बना लिए गए थे और इरादा यह था कि नोटबंदी की सीमा खत्म होने के बाद इन डिमांड ड्राफ्टों को रद्द करवा कर उन्हें नए नोटों में निकलवा लिया जाएगा. आयकर विभाग ने आशीष के पास से ऐसे 76 डिमांड ड्राफ्ट पकड़े थे.

ऐसे गोरखधंधे में सिर्फ आशीष अकेला शामिल नहीं रहा. देश के हर कोने से कई अन्य बैंकों के कर्मचारियों ने इसी तरह अमीरों और कमीशन के बदले नए नोट की मांग करने वाले व्यापारियों का कालाधन रातोंरात सफेद कर दिया. वैसे तो नोटबंदी के फौरन बाद भारी मात्रा में सोना (एक ही रात में 15 टन सोने की खरीद हुई, जिस की कीमत करीब 3 हजार करोड़ रुपए होती है), महंगी कारों और बीमा पौलिसियों की भी जम कर खरीदारी की गई और सैकड़ों लोगों ने वर्षों से चले आ रहे कर्ज का एकमुश्त भुगतान पुराने नोटों में कर दिया और इस तरह ब्लैकमनी वापस सिस्टम में खपा दी गई. लेकिन इन में सब से ज्यादा अफसोसनाक रवैया बैंकों (असल में उन के कर्मचारियों व अधिकारियों) का रहा जिन पर जनता भरोसा करती आई है. इस का तकलीफदेह पक्ष यह था कि एक तरफ जनता नए नोटों के लिए तरस रही थी, तो दूसरी तरफ बैंक शाखाओं में आई नई करैंसी चोर रास्तों से अमीरों का कालाधन सफेद करने में खपाईर् जा रही थी.

हैरानी यह थी कि अकसर सभी निजी व सरकारी बैंकों के शीर्ष अधिकारी रिजर्व बैंक औफ इंडिया की मदद से जनता की सहूलियत के लिए नई करैंसी जल्दी से जल्दी पहुंचाने का दावा कर रहे थे, लेकिन उन के कई कर्मचारी व मैनेजर दूसरों के कालेधन को खपाने में तल्लीन थे. आयकर विभाग ने ऐसे 1.14 लाख बैंक खातों का पता लगाया है जिन में 10 नवंबर से 17 दिसंबर के बीच प्रत्येक खाते में औसतन 80 लाख रुपए से अधिक पुराने नोट जमा किए गए. इन में से 5 हजार खाताधारकों को आयकर विभाग ने नोटिस भी भेजे.

इसी तरह 51 हजार ऐसे खातों की पहचान भी की गई जिन में 8 नवंबर के बाद 1 करोड़ से ज्यादा पुराने नोट जमा किए गए. सिर्फफर्जी ही नहीं, बंद पड़े लाखों खातों में बड़ी रकम जमा करवा कर कालेधन को सफेद करने का गोलमाल किया गया. आयकर विभाग ने देश में ऐसे 1.23 लाख खातों का पता लगाया जो 2 साल से बंद पड़े थे, लेकिन अचानक उन में 15,398 करोड़ रुपए की भारीभरकम धनराशि जमा कराई गई.

जनधन खातों से भी गोलमाल

नोटबंदी प्रकरण में एक हैरान करने वाला पहलू जनधन खातों से भी जुड़ा है जिन्हें खोलने के लिए सरकार ने यह सुविधा दी थी कि वे शून्य राशि के आधार पर भी खोले और चालू रखे जा सकते हैं. प्रधानमंत्री जनधन योजना की वैबसाइट के आंकड़ों के अनुसार 21 दिसंबर, 2016 को देश में 26 करोड़ से ज्यादा जनधन खाते चालू हालत में थे और इन में जमा रकम 74,123 करोड़ रुपए थी. यह उल्लेखनीय है कि अगस्त 2014 में योजना की शुरुआत से नवंबर 2016 तक इन खातों में जमा रकम कुल 45 हजार करोड़ रुपए थी.

तकनीकी रूप से इन खातों में 50 हजार रुपए से ज्यादा रकम 1 साल में जमा नहीं कराई जा सकती, लेकिन नोटबंदी के बाद के पहले 15 दिनों में ही इन में 27 हजार करोड़ रुपए जमा कराए गए. जनधन खातों के दुरुपयोग की आशंका के मद्देनजर ही रिजर्व बैंक औफ इंडिया को यह प्रावधान करना पड़ा कि बिना केवाईसी (नो योर कस्टमर) वाले जनधन खातों से अधिकतम 5,000 रुपए ही निकाले जा सकेंगे.

जनधन खातों में संदिग्ध जमाओं का एक सीधा मतलब यह निकलता है कि उन खातों में जमा रकम किसी और की है और यह एक प्रकार से टैक्सचोरी का मामला बनता है. यही वजह है कि सरकार ने ऐलान किया कि जनधन खातों के दुरुपयोग के मामलों में बेनामी लेनदेन से रोकने से जुड़े कानून को लागू किया जाएगा और इस के तहत जमा रकम की जब्ती के साथ रकम के मूल मालिक (खाताधारक नहीं) को 7 साल की सजा भी दी जा सकती है.

गौरतलब है कि सख्ती की इस घोषणा के बाद भी जनधन खातों से पैसा निकालने में तेजी आई. 21 दिसंबर तक इन खातों से करीब 2,600 करोड़ रुपयों की निकासी की गई, जिस से संदेह और बढ़ा.

फर्जी खातों, बंद खातों और जनधन खातों के दुरुपयोग के अलावा कमीशन के बदले पुराने नोटों को नए से बदलने में कई बैंककर्मियों की तत्परता से 2 बातें साफ हुईं. एक तो यह कि नोटबंदी से कालाधन जमा होने की प्रक्रिया पर कोई करारी चोट नहीं पड़ सकी, और दूसरी यह कि बैंकों द्वारा आम लोगों की तकलीफों की साफ अनदेखी करते हुए ताकतवर लोगों को नए नोटों की शक्ल में भारी रकम मुहैया कराई गई. हालांकि, ऐसी घटनाओं से चिंतित सरकार ने देश के विभिन्न बैंकों के करीब 500 दलालों को पकड़ा.

सरकार ने दावा किया कि हर दोषी व्यक्ति पर कार्यवाही की जाएगी. उधर, जिन बैंकों के कर्मचारी-अधिकारी गोरखधंधे में संलिप्त पाए गए, उन बैंकों की तरफ से आश्वस्त किया गया कि ऐसे लोगों को बख्शा नहीं जाएगा. पर इस दौरान यह लगभग साफ ही हुआ कि बैंकों का स्वरूप इतना अमीरपरस्त हो चुका है कि सारा खेल ऊपर ही ऊपर हो जा रहा है.

उदारीकरण के बाद से बैंकों ने बिजनैस क्लास के साथ अपना मजबूत रिश्ता बनाया है, लेकिन यही रिश्ता अब समस्या पैदा कर रहा है. कई बैंक अपने मालदार ग्राहकों को खोने के डर से उन्हें अनुचित लाभ पहुंचा रहे हैं. आम आदमी के पास तो कोई विकल्प नहीं है.

नियमों की अनदेखी

सरकार जिस बैंकिंग प्रणाली के बूते कालेधन के खिलाफ अभियान चला रही है, लगभग हर दिन उसी में भारी भ्रष्टाचार के मामले सामने आए. बात सिर्फ जनधन खातों में ही करोड़ों रुपए जमा होने की नहीं है, बल्कि हर ग्राहक की पहचान सत्यापित करने वाले केवाईसी नियम की खुल्लम खुल्ला अनदेखी हुई और बड़े वित्तीय लेनदेन या संदिग्ध लेनदेन की जानकारी एफआईयू (फाइनैंशियल इंटैलिजैंस यूनिट) को देने के नियमों को भी ताक पर रख दिया गया. आयकर विभाग, सीबीआई और ईडी (इनफौर्समैंट डायरैक्टोरेट) की तरफ से हुई छापेमारी में किसी बैंक में सैकड़ों करोड़ रुपए फर्जी खातों में जमा कराने के मामले पकड़े गए, तो किसी में अवैध तरीके से लौकरों में रखी गईर् भारी रकम पकड़ में आई.

ऐसा नहीं है कि मनीलौड्रिंग यानी कालेधन को सफेद करने में बैंकों की यह भूमिका पहली बार सामने आई हो. इस से पहले भी कई बार घटनाएं पकड़ में आई हैं, जब निजी और कुछ सरकारी बैंकों ने व्यवसायी वर्ग को कर्ज मुहैया कराने, उन की ब्लैकमनी को खपाने और नियमों को तोड़मरोड़ कर उसे फायदा पहुंचाने की कोशिश की है.

रिजर्व बैंक के आंकड़ों के मुताबिक, वर्ष 2009 से 2013 के बीच बैंककर्मियों की मिलीभगत से की गई मनीलौंड्रिंग के कारण बैंकों को 6 हजार करोड़ रुपए का नुकसान हुआ है और इस से उन के एनपीए (नौन परफौर्मिंग ऐसेट) में लगातार इजाफा हुआ है. दिसंबर 2013 में तत्कालीन वित्तमंत्री पी चिदंबरम ने लोकसभा में बताया था कि सिर्फ एक साल में कालेधन को सफेद करने के अवैध हवाला कारोबार के 143 मामले दर्ज किए गए थे.

दिल्ली स्थित एक बैंक ने जिस तरह चावल के निर्यात के नाम पर सैकड़ों करोड़ रुपए हौंगकौंग के बैंकों में पहुंचा दिए थे, वह मनीलौंड्रिंग और हवाला कारोबार का एक बड़ा उदाहरण था. इन घटनाओं के बारे में बैंक आमतौर पर यह तर्क देते हैं कि मालदार ग्राहकों को खोने के डर से वे कई बार उन्हें कुछ नियमों में छूट प्रदान करते हैं.

पर नोटबंदी के बाद साबित हुआ है कि असल में कई बैंकों के अफसरों-कर्मचारियों को जनता की समस्याओं की नहीं, सिर्फ अपनी ऊपरी अवैध कमाई की चिंता है जिस के बेशुमार मौके उन्हें इस बार मिल गए हैं. ऐसा करते वक्त वे यह भूल गए कि जिस भरोसे के बल पर खास ही नहीं, आम जनता ने अपनी जमापूंजी को संभालने का जिम्मा उन्हें सौंपा था, वह विश्वास अब पूरी तरह खंडित हो जाएगा, जो कि हो गया है.

बैंकों से आम लोगों का भरोसा खत्म होना कई गंभीर नतीजे सामने ला सकता है. पर सवाल है कि मौजूदा स्थितियों में क्या किया जाए, खासतौर से यह देखते हुए कि सरकार जिस डिजिटल बैंकिंग की व्यवस्था बनाने पर जोर दे रही है, उस में धोखाधड़ी की किसी भी गुजांइश को खत्म करने की और भी ज्यादा जरूरत है. असल में, इस वक्त सरकार की प्राथमिकता बैंकिंग सिस्टम को नकारा बनाने में संलग्न लोगों की धरपकड़ करना और भ्रष्ट कर्मचारियोंअधिकारियों को तत्काल दंडित करना होना चाहिए.

अपनी जिम्मेदारी निभाना छोड़ सरकार व जनता, दोनों से छल करने वालों को दंडित कर के ही पुराना भरोसा वापस लाया जा सकता है. इस के अलावा बैंकों की कार्यप्रणाली को पारदर्शी बनाना और उस में कायम खामियां (लूपहोल्स) को दूर करना भी जरूरी है ताकि मनुष्य में बैंक कालेधन को सफेद में बदलने वाली मशीनरी के रूप में काम न कर सकें.

यह ध्यान रखना जरूरी है कि साफसुथरी बैंकिंग प्रणाली के बिना लोगों की जरूरतें पूरी नहीं होंगी और अर्थव्यवस्था आगे नहीं बढ़ सकेगी. नोटबंदी को ले कर प्रधानमंत्री का दावा था कि इस से गरीब चैन की नींद सोएंगे जबकि अमीरों की नींद हराम हो जाएगी. पर अभी ऐसा लग रहा है कि अमीरों ने बैंकों से मिलीभगत कर के अपनी काली कमाई को सफेद कर लिया, जबकि गरीब की रोजीरोटी पर भी आफत आ गई.

बिपाशा तूने यह क्या किया?

बिपाशा बसु को लेकर लंदन से जो खबरे आयी हैं, वह न सिर्फ चैंकाने वाली हैं, बल्कि फिल्म स्टार किस तरह अनप्रोफेशनल रवैया अपनाते हुए लोगों को नुसान पहुंचाने से बाज नहीं आते हैं.

वास्तव में लंदन में 25 वर्षीय गुरबानी कौर ने एक फैशन शो का आयोजन किया था. इस फैशन शो का लाइव प्रसारण बीबीसी चैनल पर होना था. इसके लिए गुरबानी कौर ने बिपाशा बसु का काम देखने वाली कंपनी ‘‘क्वान’’ के माध्यम से बिपाशा बसु को मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित किया था. बिपाशा बसु ने इसके लिए मुंह मांगी कीमत वसूल की और लंदन गुरबानी कौर के ही पैसे से अपने साथ-साथ अपनी मैनेजर सना कपूर व अपने पति करणसिंह ग्रोवर को भी लेकर गयीं. यहां तक तो गुरबानी कौर ने सहन कर लिया. लेकिन लंदन एअरपोर्ट पर उतरने के बाद बिपाशा बसु ने अपना असली रंग दिखाते हुए गुरबानी कौर को करोड़ों की चपत तो लगाने के साथ ही फैशन शो में शिरकत करने की बजाय अपने पति के साथ लंदन घूमते हुए उनकी तस्वीरें सोशल मीडिया ‘इंस्टाग्राम’ पर डालती रहीं. बेचारी गुरबानी कौर को बिना बिपाषा बसु के ही अपना फैशन शो करना पड़ा.

एक वेबसाइट ने गुरबानी कौर, सना कपूर और गुरबानी कौर की सहयोगी रोनिता शर्मा रेखी से जो बात की है, और रोनिता शर्मा रेखी ने लगातार दो दिन तक फेसबुक पर जो लंबे-लंबे पोस्ट किए हैं, उनके आधार पर बॉलीवुड से जुड़े लोग बिपाशा बसु को न सिर्फ घटिया अभिनेत्री बल्कि इंसानियत के नाम पर कलंक बता रहे हैं. क्योंकि यह बात उभरकर आयी है कि बिपाशा बसु ने एक औरत होते हुए भी दो औरतों को नुकसान पहुंचाया. बिपाशा बसु पर यह भी आरोप लगा है कि उन्होने अपनी बिजनेस मैनेजर सना कपूर, जो कि एक महिला हैं, को भी प्रताड़ित किया. बिपाशा बसु ने सना कपूर की बाजुओं पर अपने नाखूनों से चोट पहुंचाई और सना कपूर रोने के अलावा कुछ नहीं कर सकी. खैर, भारत में तो वैसे भी प्रचलित है कि औरत ही औरत की दुश्मन होती है. बिपाशा बसु ने अपने कृत्य से इसी बात को साबित किया है.

गुरबानी कौर के फैशन शो में मुख्य अतिथि के रूप में गुरबानी के खर्च पर अपने पति के साथ लंदन पहुंची बिपाशा बसु को एअरपोर्ट पर लेने के लिए गुरबानी कौर की सहयोगी रोनिता शर्मा रेखी पहुंची, तो बिपाशा बसु ने एअरपोर्ट पर ही अपना रंग दिखाते हुए आयोजकों द्वारा दिए गए मोबाइल के सिम कार्ड को जमीन पर फेंकते हुए रोनिता को खूब जली कटी सुनायी. उसके बाद बिपाशा बसु ने ऐलान कर दिया कि वह लंदन में  होटल क्रेंज में नहीं रूकेंगी, जबकि इसी होटल में शाहरुख खान खुशी-खुशी रूकते रहे हैं. बहरहाल, बिपाशा बसु की जिद के आगे झुकते हुए गुरबानी ने बिपाशा बसु को मोटीक्लेम होटल में ‘‘पार्कलेंड सुइट’’ बुक कराया, जिसके चलते हर दिन 1500 पौंड का खर्च बढ़ा. इसके अलावा पहले बिपाशा को दो दिन रूकना था, पर अब सात दिन के लिए सुइट बुक करवाया. यह अलग बात है कि आयोजकों ने पूरा पैसा होटल में जमा नहीं कराया. गुरबानी पैसे का इंतजाम कर होटल पहुंची, तो बिपाशा ने गुरबानी को गंदी-गंदी गालियां बकी. फिर ऐलान कर दिया कि वह फैशन शो में नहीं जाएंगी. जब बिपाशा की मैनेजर सना कपूर ने उन्हें समझाना चाहा, तो उन्होंने उसे प्रताड़ित किया. उसके बाद वह अपने पति के साथ लंदन घूमने निकल गयीं. मजबूरन गुरबानी को अपना फैशन शो बिना बिपाशा के ही शुरू करना पडा. उसके बाद रोनिता शर्मा रेखी ने इस प्रकरण का ब्यौरा फेसबुक पर लिख डाला. जिसके जवाब में बिपाशा बसु ने ट्वीटर पर बहुत कुछ गलत लिखा. पर रोनिता ने हार नहीं मानी. और उसका भी जवाब फेसबुक पर लंबी पोस्ट लिखकर दिया.

गुरबानी कौर ने बिपाशा बसु का काम देखने वाली कंपनी ‘‘क्वान’’ को नोटिस भेजकर 48 घंटे में जवाब मांगा है, मगर अभी तक किसी ने कोई जवाब नहीं दिया. गुरबानी का दावा है कि उनके पास ईमेल, सीसीटीवी फुटेज, होटल लॉबी के सीसीटीवी फुटेज के अलावा फोन की रिकार्डिंग मौजूद है.

बहरहाल, इस प्रकरण ने कई सवाल खड़े कर दिए हैं. देखना है कि इन सवालों के जवाब क्या निकलकर आते हैं और बॉलीवुड इस तरह के कलाकारों के प्रति क्या रवैया अपनाता है?

हृषिता भट्ट ने गुप चुप रचाई शादी

‘हासिल’, ‘द अशोका’, ‘अब तक छप्पन’, ‘मिस टनकपुर हाजिर हो’, ‘पेज 3’ सहित कई फिल्मों में अपने अभिनय का जलवा दिखा चुकी अदाकारा हृषिता भट्ट ने सात मार्च को बिना किसी शोरशराबे के दिल्ली में अपने कई वर्ष पुराने प्रेमी आनंद तिवारी के संग विवाह रचा लिया. सूत्र बताते हैं कि हृषिता भट्ट के प्रेमी से पति बन चुके आनंद तिवारी युनाइटेड नेशन में वरिष्ठ डिप्लोमेट हैं.

सूत्रों की मानें तो मेंहदी, संगीत सहित शादी की सभी रस्में दिल्ली में एक ही दिन में संपन्न हुई. मेंहदी समारोह के लिए पूरी डिजाइनिंग सृष्टि कपूर ने की. जबकि हृषिता भट्ट की शादी का गाउन प्रेमल बदियानी व प्रीति सिंहल ने डिजाइन किया. जबकि इंगेजमेंट के वक्त की हृषिता भट्ट की पोषाक मालविका बजाज ने डिजाइन की.

आम बॉलीवुड कलाकारों की परंपरा को तोड़ते हुए हृषिता भट्ट ने अपनी शादी में बॉलीवुड से किसी को भी निमंत्रित नहीं किया था. शादी की सभी रस्मों के वक्त दोनों के पारिवारिक सदस्य ही मौजूद थे.

अपनी शादी को लेकर हृषिता भट्ट ने कहा है, ‘‘हम दोनों के पारिवारिक सदस्य चाहते थे कि शादी की सभी रस्में बहुत निजी स्तर पर ही संपन्न हों. अब हमें अपनी नई जिंदगी शुरू करने के लिए आप सभी की शुभकामानाएं चाहिए.’’

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