कहानी : भारत के रत्न

सुबह सुबह घर पर लगी घंटी की आवाज से नींद खुली तो बहुत गुस्सा आया. पता नहीं कौन नामुराद छुट्टी के दिन भी चैन से सोने नहीं देता. अलसाते हुए दरवाजा खोला तो हंसी आ गई. एक व्यक्ति कार्टून बना सामने खड़ा था. उस की पैंट व टीशर्ट पर जगहजगह विभिन्न कंपनियों के नाम लिखे थे. एक आस्तीन पर मोबाइल की एक कंपनी का नाम तो दूसरी पर उस की प्रतिस्पर्धी कंपनी का नाम लिखा था. सीने पर एक शीतल पेय तो पेट पर एक सीमेंट कंपनी, पीठ पर एक एअरलाइंस का नाम यानी कुल मिला कर दर्जनभर से अधिक ब्रांड के नाम उस के कपड़ों पर लिखे थे.

मैं कुछ पूछता उस से पहले ही वह खीसें निपोर कर बोला, ‘‘सर, यह इन्वर्टर ले लीजिए. बहुत बढि़या क्वालिटी का है.’’

मुझे अब हंसी के बजाय गुस्सा आने लगा तो बोल उठा, ‘‘क्यों ले लूं यह इन्वर्टर?…और तुम हो कौन?’’

‘‘अरे सर, आप मुझे नहीं पहचानते? मुझे?’’ वह ऐसे बोला जैसे उसे न पहचानना गुनाह हो. फिर बोला, ‘‘मैं, मैं भारतरत्न.’’

मैं हैरान व अचंभित सा उसे देखता रह गया. भला मैं इसे क्यों पहचानूं? उसे ऊपर से नीचे तक गौर से देखा. न तो वह स्वतंत्रता संग्राम सेनानी सा लगा और न ही कोई समाजसुधारक. फिर भी भारतरत्न जैसे ख्यातिप्राप्त अलंकरण का प्रभाव था, इसलिए कुछ नरम हो कर मैं पूछ बैठा, ‘‘अरे भाई, नहीं पहचाना तभी तो पूछ रहा हूं. वैसे, आप हैं क्या कि आप को भारतरत्न जैसे अलंकरण से नवाजा गया है?’’

‘‘लगता है आप टैलीविजन नहीं देखते वरना मुझे जरूर पहचानते. हम ने पाकिस्तान व बंगलादेश तक को हराया है. हां, यह बात दूसरी है कि हम आस्ट्रेलिया से हारे भी हैं,’’ उस की बात से मेरी हैरानी और भी बढ़ गई.

मैं ने उसे गौर से देखा. वह कहीं से भी सैनिक नहीं लग रहा था तो मैं ने पूछ ही लिया, ‘‘पाकिस्तान व बंगलादेश तो ठीक, पर भारत का युद्ध आस्ट्रेलिया से तो कभी हुआ ही नहीं?’’

‘‘अरे, हम फालतू के युद्धवुद्ध नहीं लड़ते, खेल में हराते हैं,’’ उस ने सीना फुला कर ऐसे कहा जैसे खिलाड़ी होना सारे देशभक्तों से ऊपर होने का प्रमाण हो.

मुझे लगा जैसे मन में भारतरत्न की छवि टूट सी गई, ‘‘वैसे आप को भारतरत्न बनाया किस ने?’’ न चाहते हुए भी मेरा स्वर कटु हो ही गया.

‘‘इस देश की जनता ने और किस ने. तभी तो सारा देश हमें हीरो मानता है.’’

‘‘किस खुशी में?’’ मैं ने पूछा, तो वह बोला, ‘‘देश की सेवा के लिए.’’

‘‘देश की सेवा, वह कैसे?’’ न जाने क्यों मुझे उस की बातों पर विश्वास नहीं हो रहा था.

पहले तो उस ने मुझे ऐसे देखा जैसे मेरे अल्पज्ञ होने की पुष्टि कर रहा हो, फिर बोला, ‘‘अरे भाई, देशवासियों की खरीदारी में विशेषज्ञ सहायता व परामर्श दे कर. अच्छा जरा बताइए तो, देश में बिकने वाले दर्जनों टूथपेस्ट में से कौन सा अच्छा है, यह आप को कौन बताता है? क्या आप को पता है कि किस कोल्ड डिं्रक से बच्चे स्वस्थ रहेंगे या कौन सा बिसकुट खा कर वे बिना पढ़े ही स्कूल में टौप करेंगे, जान सकते हैं आप?

‘‘नहीं न. कौन सी चाय आप को ताजगी से भर देगी या किस कंपनी का च्यवनप्राश आप को जवान बना देगा, यह समझना कोई बच्चों का खेल नहीं है. तो हम और हमारी टीम इन्हीं सब बातों के लिए दिनरात रिसर्च करती रहती है और परिणामों से टैलीविजन के माध्यम से सारे देश को बता कर प्रोडक्ट खरीदने में हैल्प करते रहते हैं. बताइए, है यह आसान काम?’’

मैं निरुत्तर हो गया.

‘‘हां भाई, आसान काम तो नहीं,’’ मैं धीमे स्वर में बोला ही था कि तभी मेरी निगाह एक लकड़ी के पटरे पर गई जिसे वह बड़े गर्व से अपने कंधे पर रखे था. मैं पूछ बैठा, ‘‘यह लकड़ी का पटरा किसलिए है, भाई?’’

‘‘अरे, प्रोडक्ट रिसर्च जैसे गंभीर काम से जब बोरियत होती है तो कभीकभी समय निकाल कर मन बहलाने के लिए हम लोग इसी से खेलते हैं,’’ वह ऐसे बोल रहा था जैसे मध्यकाल में राजपूत तलवार पकड़ते रहे होंगे.

‘‘आप टैलीविजन नहीं देखते तभी पूछ रहे हैं. वरना जब हमारी टीम खेलती है तो आधा देश अपना कामधंधा छोड़ कर टैलीविजन के आगे तालियां बजाता है और जीतने पर सब सैलिब्रेट करते हैं.’’

उस की बात सुन कर मैं पूछ बैठा, ‘‘अच्छा, कहां है आप की टीम?’’

‘‘यहीं तो है, आप के शहर में. पद्मश्री सैक्टर-5 में चिप्स, चाय व टायर बेच रहे हैं. पद्मभूषण सैक्टर-9 में मोटरसाइकिल, मोबाइल और एक शराब कंपनी का सोडा तो पद्मविभूषण सैक्टर-12 में सीएफएल, पंखे व गीजर बेच रहे हैं. हमारी टीम के कुछ जूनियर लोग जो इस प्रकार के अलंकरण पाने से रह गए हैं उन को काम कम मिल पाता है, पर बेचारे वे भी कुछ न कुछ बेच कर देशसेवा कर ही रहे हैं,’’ उस ने कहा.

‘‘और क्याक्या बेचते हो?’’ मैं ने पूछा तो उस ने वेटर के मैन्यू की तरह एक सांस में लैपटौप, फ्रिज, एसी, कैमरा, एअरलाइंस, बाम जैसे अनेक ब्रांड गिना दिए.

‘‘अच्छा, एक बात बताओ. कितना कमा लेते हो इस धंधे में?’’ मैं ने यों ही जिज्ञासावश पूछ लिया.

‘‘बस समझ लीजिए, अरबपति हो गया हूं. कुछ दिन और देशसेवा करने का मौका मिला तो बस…’’ वह गर्व से बोला तो उस के स्वर में आजीवन देशसेवा न कर पाने की कसक थी. यह न केवल देशभक्ति का पूरा प्रमाण थी बल्कि भारतरत्न का औचित्य और सार्थकता को भी सिद्ध कर रही थी.

वह मुझे फिर समझाने लगा, ‘‘सर, अभी एक विशेष स्कीम है. पहले 100 ग्राहकों को मेरा औटोग्राफ किया इन्वर्टर मिलेगा. तो सर, आप का इन्वर्टर बुक कर लूं?’’

‘‘रहने दो. जब पूरा देश अंधेरे में डूबा हो तो हमारे जैसे दोचार लोग इन्वर्टर से कितनी रोशनी कर लेंगे,’’ कह कर मैं ने धड़ाक से दरवाजा बंद कर दिया.

वह लगातार घंटी बजाबजा कर चिल्ला रहा था, ‘‘अच्छा सर, कुछ और ले लीजिए. बोहनी का समय है, कुछ तो ले लीजिए.’’

मैं ने जोर से दरवाजा बंद किया तो 12 साल का बेटा उठ गया. आंख मलते हुए वह बोला, ‘‘पापा, क्या आप जानते हैं कल भारतरत्न ने क्या धांसू छक्के लगाए? मैं तो रातभर सो नहीं पाया. उस की बैटिंग के सपने देखता रहा.’’

यह सुन कर मैं सन्न रह गया.

– अनूप श्रीवास्तव

आप भी हैं हील्स पहनने के शौकीन तो सावधान!

अगर आपको हील्स पहनना बहुत है और आप रोजाना हील्स पहनती हैं तो सावधान हो जाइऐ क्योंकि ये आपकी सेहत के लिए खतरनाक हो सकता है.

रोजाना हील्स पहनने से आपकी सेहत पर कुछ होने वाले नकारात्मक प्रभावों से आप अभी तक अनजान पड़ते हैं. आज हम आपको हील्स से होने वाले इन्हीं नेगेटिव हेल्थ इफेक्ट्स के बारे में बताने जा रहे हैं..

पैरों पर पड़ता है गलत प्रभाव

जब आप हील्स पहनते हैं तो आपके पंजे जमीन पर सीधे नहीं पड़ते और लंबे समय तक ऊंची हील्स पहनने से आपका रक्त संचार रूक जाता है, जिसकी वजह से पैरों में दर्द औऱ कई गहरी और आंतरिक क्षति तक हो सकती है. आपके पैर के अंगूठे पर पूरे शरीर का वजन रहता है. ऐसे में पैर और अंगूठे की हड्डियों को भी क्षति पहुंच सकती है.

रीढ़ की हड्डी पर पड़ता है बुरा प्रभाव

कदम रखते वक्त जब आपके पैर मैदान या नीचे रखे होते हैं तो आपकी रीढ़ की हच्ची पर दवाब नहीं पड़ता. पर हील्स पहनने पर हड्डी में कर्व्स नहीं पड़ते और आपके तलबे पर दवाब बढ़ता है जो कि प्रकृतिक नहीं है. ऐसे में बैक-पेन होने लगता है या फिर गंभीर समस्याऐं जैसे स्पाइनल कोर्ड इंजरी होने की आशंकाएं बढ़ जाती हैं.

घुटनों पर पड़ता है हानिकारक प्रभाव

बहुत से लोग जो रेगुलर हील्स पहनते हैं उन्हें अक्सर घुटनों में दर्द की शिकायत रहती है. दरअसल, जब लोग हील्स पहनते हैं तो घुटने अप्राकृतिक स्थति में आ जाते हैं और साथ ही घुटनों पर बहुत ज्यादा दवाब भी पड़ता है. हाई हील्स पहनने वालों को ऑस्टियोअर्थराइटिस यानि कि घुटने में आर्थ्राइटिस की दिक्कत भी हो जाती है.

2 युवतियों का साथ रहना ज्यादा सुखद

पुलिस ने परिवारों की शिकायतों पर 2 युवतियों को 2 साल तक लापता रहने के बाद साथ रहते पाया और पता चला कि दोनों ने मरजी से परिवारों के खिलाफ जा कर साथ रहने का फैसला किया था. एक जयपुर में अकाउंटैंट का काम कर रही है तो दूसरी रिसैप्शनिस्ट है.

दोनों में शारीरिक संबंध हैं या नहीं, यह तो जांचा नहीं गया पर पुलिस बीच में इसलिए पड़ी कि परिवारों ने उन के अपहरण की आशंका जताई थी. गनीमत है कि पुलिस ने बयान ले कर उन्हें छोड़ दिया और परिवारों को कहा कि वे अपनी बेटियों को समझाना चाहें तो समझाएं.

2 युवतियों का साथ रहना अब धीरेधीरे बहुत आम होता जाएगा. लिव इन रिलेशनशिप में युवक के साथ रहना युवती पर बहुत भारी पड़ता है. उसे हर समय गर्भवती होने का डर तो रहता ही है, पड़ोसियों और सहयोगियों के मजाक का भी पात्र बनना पड़ता है. 2 लड़कियां साथ रहें तो आमतौर पर आपत्तियां नहीं उठतीं और समाज उलटे थोड़ा सहयोगी बना रहता है. लोग उन्हें छेड़ने वालों से बचाते हैं, चाहे बंद दरवाजे के पीछे वे कैसे भी रहती हों.

अगर कसबों, गांवों से आ कर शहरों में रहना पड़े तो 2-3 लड़कियों का साथ रहना सब से ज्यादा सुखद व सरल है. उन के बीच अगर यौन संबंध हों तो शायद लड़कों का दखल भी न हो और वे आराम से वर्षों साथ रह सकती हैं. हां, पैसे को ले कर विवाद खड़े हो सकते हैं पर ये विवाद तो स्त्रीपुरुष विवादों में भी खड़े होते हैं.

घरों से दूर रह रही लड़कियों के मातापिताओं के लिए भी यह स्थिति सुखद है, क्योंकि इस में जो बहनापा या मित्रता पनपती है, वह ज्यादा स्थाई, सुरक्षित व स्नेहभरी होती है. लड़कियां एकदूसरे को अच्छी तरह समझती हैं.

इस मामले में लड़कियां लापता हुईं या परिवारों को बता कर गईं अभी पता नहीं है पर यह पक्का है कि घर वाले जानते थे कि वे कहां और कैसी हैं वरना 2 साल तक हल्ला मचाते रहते.

वे खुद नहीं चाहते होंगे कि लोग बातें बनाएं. असल में तो परिवारों को इस तरह के संबंधों को विवाह से पहले प्रोत्साहन देना चाहिए, क्योंकि 2 लड़कियां जब बहनें न

हो कर साथ रहें तो ही जान पाती हैं कि साथ रहने में कैसा लेनदेन और कैसी अपेक्षाएं होती हैं. यही ज्ञान विवाह बाद काम आता है. 2 लड़कियों को साथ रहने पर जमीनी हकीकत पता चल जाती है और वे बेहतर पत्नियां बन सकती हैं.

अब छूना है आसमान

‘ना’ और ‘हां’ ये दोनों ऐसे शब्द हैं, जिन के प्रयोगमात्र से बिना किसी स्पष्टीकरण के मन की भावना को व्यक्त किया जा सकता है. लेकिन हमारे समाज ने भाषा को भी अपने सांचे में ढाल लिया है जैसे स्त्री की ना को हां ही माना जाता है. कहा जाता है कि लज्जावश स्त्री अपनी हां को हां नहीं कह पाती, इसलिए ना कहती है. दरअसल, उस ना का अर्थ हां ही है और जब स्त्री किसी बात का समर्थन कर हां कहती है, तो उसे अनेक उपनामों जैसे घमंडी, मौडर्न, बेहया आदि कहा जाता है. पर पुरुष की हां या ना को ले कर ऐसी कोई कहावत नहीं है. मतलब समाज में भाषा भी पितृसत्तात्मक संपत्ति है.

हिंदी सिनेमा कभी इस बात से अछूता नहीं रहा. सिनेमा, सीरियल, समाचार, विज्ञापन आदि हर जगह स्त्री आज या तो चमत्कारिक उत्तेजना को प्रस्तुत करती नजर आ रही है या फिर लाचारी. लेकिन जीवन न तो चमत्कार से चलता है और न ही लाचारी से. मध्यमार्ग को ले कर चलने वाली स्त्रियों का जीवन असल में स्त्री विमर्श की भारीभरकम परिभाषाओं के नीचे दब गया है.

स्त्री विमर्श के अंतर्गत कहा जाता है, ‘‘पूरा आसमान स्त्री का है. उसे सब अधिकार मिलने चाहिए. सैक्स से ले कर छोटे कपड़े पहनने तक का अधिकार.’’

कब्जा नहीं अधिकार

मगर पूरा आसमान कभी किसी का नहीं हो सकता. आसमान में उड़ने वाले परिंदों को भी जमीन पर उतरना ही पड़ता है. फिर स्त्री हो या पुरुष कैसे पूरे आसमान पर कब्जा कर सकते हैं? लेकिन यहां बात कब्जे की नहीं, बल्कि अधिकार की है. कम से कम आसमान में उड़ने की आजादी तो होनी ही चाहिए स्त्रियों को.

आज शहरी जिंदगी में स्त्रीपुरुष का चुनाव, उन का मतभेद, टूटते परिवार, स्थायित्व की कमी जैसी अनगिनत समस्याएं हैं. अगर गांवों की बात करें, तो आज भी लड़कियां वहां मौडर्न होने की कोशिश ही कर रही हैं. पर अपने पुराने आवरण को अभी भी उतार फेंकने में नाकामयाब हैं. साथ ही वे आज तक यह नहीं समझ पाईं कि आधुनिक बनने के लिए उन्हें कितना आगे बढ़ना है और घरगृहस्थी चलाने के लिए कितना पीछे हटना है, क्योंकि इस तरह का कोई व्यावहारिक ज्ञान तो उन्हें कहीं भी नहीं मिलता. मां अपने हाथों से बेटी को खूंटे से बंधी गाय बनाती है. यदि पुरुष रो दे, तो वह हंसी का पात्र है और यदि स्त्री की आंखों से आंसू नहीं निकले तो वह स्त्री कहलाने योग्य नहीं रहती. वह बेहया है.

यह ऐसा समाज है जहां स्त्री के कौमार्य परीक्षण का दायित्व सफेद चादर को मिलता है और पहली रात बिल्ली मार लेने वाली कहावत को पढ़ेलिखे लोग भी समर्थन प्रदान करते हैं. ऐसे समाज में बलात्कार, मादा भू्रणहत्या, दहेज उत्पीड़न, तेजाबी हमला जैसे घटिया कांड नहीं होंगे तो क्या होगा?

महज चोचलेबाजी

कैसे, कब, कहां, कितना हंसना, रोना, गाना है इत्यादि सब मातापिता अपनी बेटियों को सिखाते हैं, लेकिन यही बातें हम बेटों को सिखाना भूल जाते हैं. जब कभी घर में मेहमानों का आगमन होता है, तो लड़की से कहा जाएगा पानी लाने को, बेटे से नहीं. क्यों? अति सभ्य, सुशिक्षित पुरुषों को आज भी इस बात का ज्ञान

है ही नहीं कि बंदर की तरह खुजलाने और मनुष्य की तरह खुजलाने के बीच का अंतर क्या है? पत्नी, बेटी, मां, घर का कोई भी सदस्य पानीखाना कुछ भी दे तो उन्हें धन्यवाद कहना, उन के प्रति हमारे प्रेम सम्मान आदि को दर्शाता है. लेकिन नहीं ये सब तो हमारी मानसिकता के अनुसार चोचलेबाजी है.

दूसरी ओर सिनेमा जगत हो या विज्ञापन यहां औरत को एक उत्पादकता के रूप में ही पेश किया जाता है, जहां वह सिर्फ बाजार के एक प्रोमोटर के रूप में मौडल बन कर रह गई है.

स्त्री अपने व्यक्तित्व को जीती है

बाजार स्त्रियों को फिल्मों के माध्यम से आजादी तो दे रहा है, परंतु वह सिर्फ देह के प्रति लाज का भाव दूर करने तक सीमित है. दरअसल, सिनेमा का संसार भी पुरुष वर्चस्व वाला संसार है. यह वर्चस्व उन के संख्या बल के कारण नहीं, बल्कि सिनेमा के संसार में जारी मूल व्यवस्था के कारण है. अगर हम शुरू से देखें तो अब तक के नारी जीवन के सफर की कहानी साफ आईने सी दिखती है. हिंदी फिल्मों में भी प्रारंभ से अब तक नारी के कई चित्र उभर कर आते हैं, जिन में कहीं मां, बहन, पत्नी, कार्यकर्ता आदि के रूप में दिखती है, तो कहीं सशक्त लड़ती हुई दिखाई पड़ती है. कहीं वह आसमान छू लेना चाहती है. यही नहीं, कहींकहीं तो वह अबला भी प्रतीत होती है.

जब सिनेमा शुरू ही हुआ था तब भारतीय समाज में व्याप्त नारी जीवन की परेशानियों को ले कर कई फिल्में बनाई गईं,

जिन में ‘दुनिया न माने’ (1937), ‘अछूत कन्या’ (1936), ‘आदमी’ (1939), ‘देवदास’ (1935) आदि कुछ फिल्में हैं. इस तरह की फिल्मों में नारी जीवन से संबंधित जिन समस्याओं को उजागर किया गया उन में ‘बाल विवाह’, ‘अनमेल विवाह’, ‘अशिक्षा’, ‘परदा प्रथा’ आदि थीं.

50 और 60 के दशक में विमल, गुरुदत्त और राजकपूर जैसे फिल्मकारों ने नारी के कई रूप जैसे पत्नी, मां, प्रेमिका का सही चित्र प्रस्तुत किया, जिस ने यह साबित किया कि किस तरह स्त्री अपने व्यक्तित्व को जीती है.

70 से 90 के दशक में स्त्री पक्ष को ले कर गजब का बदलाव आया. इन दशकों में बहुत सी फिल्में आईं जैसे ‘अनुभव’, ‘गृहक्लेश’, ‘श्रीमानश्रीमति’ आदि. इन फिल्मों में नारी के नौकरी करने, उस के विदेशी संस्कृति को अपनाने आदि रवैए को भी दिखाया गया.

नई परिभाषा

वहीं केतन मेहता की ‘मिर्च मसाला’ फिल्म में नारी उभर कर समाज की नारियों में जागृति लाने का काम करती है. इस ने समाज में पल रही नारीवादी विचारधारा को भी तोड़ा कि  नारी सिर्फ घर की चारदीवारी में रह कर घर का कामकाज और बच्चों को पालने के लिए होती है.

1993 में जब ‘दामिनी’ फिल्म आई तब उस में नारी एक सशक्त चरित्र के रूप में उभर कर आई, जो अपने पति से अलग रह कर भी समाज में हो रहे अत्याचार के विरुद्ध खड़ी होती है, बेबाक हो कर हाथ में कुदाल ले कर गुंडों का सामना करती है. वहीं ‘सलाम नमस्ते’ फिल्म में लिव इन रिलेशनशिप के मुद्दे को उठाया गया, जिस में स्त्री पुरुष की ही भांति स्वतंत्रता चाहती है. वह प्रेम सूत्र में बंधना तो चाहती है, परंतु स्वतंत्र रूप में.

उस के बाद 21वें दशक में कई ऐसी फिल्में आईं जैसे ‘नो वन किल्ड जैसिका’, ‘बैंड बाजा बरात’, ‘अनजानाअनजानी’, ‘पा’, ‘पीकू’ आदि ने नारी के नए चरित्रों को नया आयाम और नई परिभाषा दी.

विचारधारा में बदलाव

‘पिंक’ फिल्म की नायिकाएं चमत्कारिक स्त्रियां नहीं दिखतीं, तो लाचार भी नहीं पर उन्हें अपने स्त्रीत्व पर गर्व है. इस फिल्म ने एक अहम मुद्दा यह भी उठाया कि स्त्री के चरित्र को नापने का पैमाना वस्त्र या पुरुषों से मिलाना नहीं होना चाहिए. कहीं न कहीं समाज में स्त्रियों के चरित्रों, उन की वेदनाओं, भावों का दोहन आज भी हो रहा है.

भारत में आज भी 50% औरतें गांव के परिवेश की हैं, जहां सुविधाओं की कमी है और इस के लिए हमारा घरपरिवार, समाज, मीडिया आदि ही जिम्मेदार हैं. वैसे तो समाज में कई तरह के परिवर्तन समयसमय पर आए, जिन्होंने सामाजिक धरातल पर लड़कियों और औरतों संबंधी विचारधारा को बदला.

पहले अपने जीवन में जहां स्त्री सिर्फ घर तक सीमित थी, अब वह बाहर निकल कर मीडिया, प्रबंधन, चिकित्सा, खेलकूद, राजनीति, कानून, मार्केटिंग, बैंकिंग, सिनेमा आदि हर क्षेत्र में अपने पांव फैला चुकी है. यही नहीं उस ने नए विचारों का आदानप्रदान भी किया.

बढ़ता दायरा

अब लड़कियां एवं औरतें विभिन्न क्षेत्रों में पदार्पण करने लगी हैं. शादी या पारिवारिक मामलों में उन की राय बदलने लगी है. अब वे अपना कैरियर अपनी इच्छानुसार बनाना चाहती हैं. अपने डिसीजन खुद लेना चाहती हैं. वे

पुरुषों की भांति अपनी पहचान बनाना चाहती हैं. अब वे अपना जीवन खुल कर जीती हैं, बिना इस बात की परवाह किए कि लोग क्या कहेंगे. उन की सीमाएं सिमटी नहीं हैं, बल्कि विस्तृत हो गई हैं, इसलिए औरतों को बुनियादी सांस्कृतिक और शैक्षणिक अधिकारों पर हिस्सेदारी मिलनी ही चाहिए.

वैसे तो आज भी स्त्री समाज के लिए भोग्या ही है, सब को याद भी रखना है कानून सजा दे सकता है लेकिन कानून किसी भी जुर्म को खत्म नहीं कर सकता. हमारी मानसिकता और घरपरिवार से शुरू होने वाले प्रयास ही समाज को बदल सकते हैं, बदलते कानूनों को सार्थक बना सकते हैं. 

सपने पूरे हो सकते हैं

‘‘यह सही है कि आज की महिलाएं पुरुषों के कंधे से कंधा मिला कर चल रही हैं और सफल हैं. मगर पुरुष मानसिकता अब भी उन्हें अपने पीछे ही देखना चाहती है. हर स्त्री के सपने पूरे हो सकते हैं, बशर्ते वह समाज में व्याप्त रुढिवादी परंपराओं से बाहर निकले. महिलाओं को अंधविश्वास से भी बाहर निकल कर वैज्ञानिक सोच के साथ आगे बढ़ना चाहिए.’’

– मनी बंसल, जिला उपाध्यक्ष, भाजपा महिला मोरचा, उत्तरपूर्व दिल्ली

बराबरी का दर्जा मिले

‘‘सामाजिक उत्थान में महिलाओं का बराबरी का योगदान है, मगर पुरुष वर्ग इस बात को स्वीकार नहीं करता. आज भी महिलाओं को पुरुषों की तरह बराबरी के अवसर नहीं मिल पाते. जो महिलाएं आज किसी मुकाम तक पहुंच चुकी हैं, उन्हें भी अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए संघर्ष करना पड़ता है. इस में कोई दोराय नहीं कि महिलाएं पुरुषों को हर क्षेत्र में कड़ी टक्कर दे रही हैं, पर यहां बात महिलाओं को पुरुषों से आगे बढ़ाने की नहीं, बल्कि बराबरी का दर्जा देने की है.’’

– स्वाति बेडकर, सोशल ऐंटरप्रेन्योर, साइंस ऐक्टिविस्ट

– मोनिका अग्रवाल

बेहतरीन परफौर्मैंस को अपना प्रतिद्वंद्वी मानती हूं : कंगना रनौत

भंबला हिमाचल प्रदेश जैसे छोटे शहर से मायानगरी में आना और इंडस्ट्री में आ कर बिना किसी सपोर्ट के अभिनेत्री के रूप में अपनी एक अलग पहचान बनाना सब के बस की बात नहीं है, लेकिन कंगना ने धीरे धीरे ही सही खुद को प्रूव करने के साथ सफलता का खिताब भी पाया है. आज वे छोटे शहरों की लड़कियों के लिए मिसाल बन चुकी हैं. आइए, कंगना के फिल्मी सफर और विचारों को और करीब से जानते हैं:

इंडस्ट्री में आप की ऐंट्री कैसी रही और आप के आने के बाद कितनी बदली है इंडस्ट्री?

कह सकते हैं कि मैं ने इंडस्ट्री में बतौर बागी कदम रखा, क्योंकि मैं अपने घर से बगावत कर के और भाग कर यहां आई थी. परिवार में कोई नहीं चाहता था कि मैं फिल्म इंडस्ट्री में काम करूं. लेकिन मेरे घर वाले जानते थे कि मैं जिद्दी हूं और मुंबई जा कर ही दम लूंगी. जब मैं ने इंडस्ट्री में ऐंट्री की थी उस वक्त इंडस्ट्री कुछ खास अच्छी नहीं थी. बहुत ऐसी फिल्में थीं, जिन का कंटैंट अच्छा था, लेकिन उन्हें देखने वाला कोई नहीं था. कह सकते हैं कि अच्छी फिल्मों के लिए मार्केट ही नहीं थी. 2004 से इंडस्ट्री में बदलाव आने लगे. फिल्मों का कलैक्शन अचानक बढ़ने लगा. मल्टीप्लैक्स सिनेमा जाने वालों की रुचि भी फिल्मों की ओर बढ़ने लगी. लोग जैसी फिल्में देखना चाहते थे वैसी फिल्में बनने लगीं. उसी वक्त मेरी फिल्म ‘क्वीन’ आई. तब मुझे लगा कि यह फिल्म नहीं चलेगी और मेरा कैरियर खत्म हो जाएगा. क्योंकि तब उस टाइप की फिल्म नहीं चलती थी, लेकिन ‘क्वीन’ के हिट होने के बाद ऐसी फिल्मों का चलन बढ़ गया.

पुरुष प्रधान समाज में अपने लिए स्थान बनाने में मुश्किल आई?

मुश्किल तो काफी थी, लेकिन मैं ने भी खुद को साबित करने की ठान ली थी. यह कहना गलत नहीं होगा कि ‘क्वीन’ जैसी फिल्म का हिस्सा बन कर मैं ने वूमन सैंट्रिक फिल्म का दौर लाई, जिस के बाद विद्या बालन की ‘कहानी, दीपिका की ‘पीकू’ जैसी फिल्में आती गईं और वे सफल भी साबित हुईं. फिल्म ‘दंगल’ भी वूमन ऐंपावरमैंट पर बनी है, जो काफी सराही गई. मैं ने अभिनेत्रियों की फीस बढ़ाने का ट्रैंड चलाया. दरअसल, ऐक्ट्रैस जितना काम करती हैं, उन्हें उतना पैसा नहीं मिलता. मेरे अनुसार जब दोनों की मेहनत समान है, तो पैसा भी समान मिलना चाहिए. जो बात गलत है मैं उस के लिए हमेशा खड़ी रही हूं. मुझे लगता है अगर लड़कियां अपने लिए लड़ेंगी और सही राह पर चलेंगी तो पुरुषप्रधान समाज में रहते हुए भी वे अपना हक हासिल कर सकती हैं.

आप के व्यक्तित्व को निखारने में पिता की क्या भूमिका रही है?

मेरे पिता की सोच एक टिपिकल इंडियन मैन की रही है. गलत के खिलाफ बिना किसी डर के आवाज उठाना मैं ने अपने पापा से ही सीखा है. उन्होंने कभी पीठ दिखाना नहीं सिखाया. मुझे खुशी है कि आज मेरे पिता मुझ पर गर्व महसूस करते हैं.

इंडस्ट्री में प्रतियोगिता बढ़ने से आप किस तरह के चैलेंजेस फेस कर रही हैं?

प्रतिद्वंद्विता बढ़ने से प्रतिद्वंद्वी बढ़ गए हैं, लेकिन मैं अपना प्रतिद्वंद्वी किसी इनसान को नहीं, बल्कि एक बेहतरीन परफौर्मैंस को मानती हूं. मेरी हमेशा कोशिश होती है कि मैं बेहतरीन परफौर्मैंस दूं, जिस से लगे कि मैं ने बहुत अच्छा काम किया है और मैं ने जो काम किया है उसे कोई नहीं कर सकता. मैं ने आज तक तीनों खानों के साथ काम नहीं किया, क्योंकि उन की फिल्में पूरी तरह से उन पर केंद्रित होती हैं और मैं अच्छी फिल्म और अच्छा परफौर्मैंस देने में यकीन रखती हूं. जब मेरे लिए ‘रंगून’, ‘सिमर’, ‘रानी लक्ष्मीबाई’ जैसी फिल्में बन रही हैं तो मैं वैसी फिल्मों के पीछे क्यों जाऊं?

इंडस्ट्री में जब आप को ले कर विवादास्पद मामले आते हैं, तो आप उन्हें कैसे हैंडल करती हैं?

मैं ने बताया न कि मैं गलत के खिलाफ बोलने से कभी पीछे नहीं हटती. जब लोग मेरे बारे में गलत कहते हैं, तो उस वक्त मैं उन्हें नजरअंदाज करती हूं. सही वक्त आने का इंतजार करती हूं ताकि उन्हें जवाब दे सकूं.

अपनी सफलता का श्रेय किसे देती हैं?

अपनी मेहनत, लगन और जिद्दी स्वभाव को. अपनी जिस की बदौलत ही मैं आज यहां तक पहुंच पाई हूं.

सफलता सिर के ऊपर नहीं जाने दी : शुभांगी अत्रे पूरे

‘कसौटी जिंदगी की’, ‘कस्तूरी’, ‘दो हंसों का जोड़ा’, ‘चिडि़याघर’ आदि कई धारावाहिकों में सफल भूमिका निभाने वाली अभिनेत्री शुभांगी अत्रे पूरे अब ऐंड टीवी के चर्चित धारावाहिक ‘भाभीजी घर पर हैं’ में अंगूरी भाभी की भूमिका निभा रही हैं. शुभांगी को धारावाहिक ‘भाभीजी घर पर हैं’ से पहचान मिली.

इस धारावाहिक में उन के किरदार का जिंदादिल अंदाज और  बोलचाल का तरीका दर्शकों को काफी पसंद आ रहा है. शुभांगी भी अपने इस किरदार को काफी ऐंजौय कर रही हैं.

शुभांगी स्वभाव से शांत और हंसमुख हैं. मराठी परिवार में जन्मी शुभांगी इंदौर की है. एमबीए की पढ़ाई पूरी करने के बाद उन की शादी पियूष पूरे से हुई, जो एक विज्ञापन कंपनी में काम करते हैं. उन की 11 वर्ष की 1 बेटी आशी है. शुभांगी के पति पियूष भी काफी हंसमुख स्वभाव के हैं.

शुभांगी को बचपन से ही कुछ अलग करने की इच्छा थी. उन्होंने कत्थक डांस भी सीखा है. उन के यहां तक पहुंचने में उन के मातापिता और पति पियूष पूरे का बहुत सहयोग रहा है. आइए, उन्हीं से जानें उन की सफलता का राज:

आप की नजर में सफलता क्या है?

सफलता जीवन की सब से हाई पौइंट होती है. इस में जरूरी होता है कि आप ग्राउंडेड रहें. उसे ऐंजौय करें, पर सिर के ऊपर से न जाने दें. सफलता क्षणिक होती है. इस इंडस्ट्री में तो सफलता को आप कभी प्रिडिक्ट नहीं कर सकते. मुझे जब यह शो मिला, तो मैं थोड़ी नर्वस थी, पर मेहनत और लगन से दर्शकों का दिल जीत पाने में सफल रही. आगे भी यही कोशिश रहेगी कि अपने काम को पूरी ईमानदारी से करूं और ऐसे किरदार निभा सकूं जो दर्शकों को लंबे समय तक मेरी याद दिलाते रहें.

आप की कामयाबी में परिवार का खास कर पिता का कितना सहयोग रहा है?

पिता की ट्रांसफर वाली जौब थी, लेकिन जहां जो सुविधा मिली मैं करती गई. मैं ने पढ़ाई के साथसाथ डांस भी सीखा. पिता कहते रहते हैं कि हमेशा आगे बढ़ते रहो. अगर पानी भी एक जगह ठहर जाए तो सड़ जाता है. हम 3 बहनें हैं.

पिता ने हम तीनों को महत्वाकांक्षी बनाया है. उन्होंने हमे मानसिक और भावनात्मक रूप से बहुत स्ट्रौंग बनाया है. पिता की दी हुई सीख आज भी मेरे बहुत काम आ रही है.

यहां तक पहुंचने में आप को कैसी चुनौतियों का सामना करना पड़ा?

यहां तक पहुंचने के लिए अनुशाषित होना, निष्ठापूर्वक काम करना और ईमानदार होना बहुत जरूरी है. यह सब कुछ अगर आप के पास है तो कोई आप को आगे बढ़ने से नहीं रोक सकता. यहां आप को बहकाने वाले बहुत मिल जाएंगे. पर आप को समझना होगा कि कौन सही है और कौन गलत. पिछले 10-11 सालों में मैं यह समझ चुकी हूं. इस इंडस्ट्री में अपनी जगह बनाने के लिए यह बहुत जरूरी है कि कोई भी निर्णय लेने से पहले धैर्य के साथ सही समय का इंतजार करें.

क्या आप को लड़की होने का कोई मलाल है?

नहीं, मैं हर जन्म में लड़की ही होना चाहती हूं. अपनेआप को कंप्लीट मानती हूं, क्योंकि मैं इस धरती की सब से खूबसूरत क्रिएशन हूं. मुझे ऐसा लगता है कि जो काम खूबसूरती से एक लड़की कर सकती है वह और कोई नहीं कर सकता.

टीवी की दुनिया में अपनी जगह बनाने के लिए कितना संघर्ष करना पड़ा?

संघर्ष इस बात का रहा कि मुझे यहां तक का रास्ता पता नहीं था. मैं पुणे में पति और बेटी के साथ रहती थी. वहां एक छोटा सा एड करने पर मुझे 2500 रुपए मिले थे. उस एड के फोटोग्राफर ने ही मुझे पोर्टफोलियो बनाने की सलाह दी थी, क्योंकि मेरा चेहरा इंडियन लुक में फिट बैठता है. उस फोटोग्राफर की सलाह मान कर मैं ने अपना पोर्टफोलियो बनवा लिया और सभी प्रोडक्शन हाउसों में दे दिया. और फिर एक दिन मेरी मेहनत रंग लाई. जानीमानी निर्मातानिर्देशक एकता कपूर ने मुझे धारावाहिक ‘कसौटी जिंदगी की’ में काम करने का मौका दिया. सही मायनों में इस धारावाहिक में काम मिलना ही मेरे जीवन का टर्निंग पौइंट रहा.

विमेंस डे स्पेशल : चॉकलेट बनाना आइसक्रीम

इस विमेंस डे अपने डेसर्ट में चॉकलेट बनाना आइसक्रीम को शामिल करें. यह आइसक्रीम काफी हेल्‍दी है. चॉकलेट बनाना आइसक्रीम एक ऐसा डेजर्ट है जिसमें चीनी नहीं डलता.

इस आइसक्रीम को बनाने के लिये आपको फ्रिजर में रखे हुए केले ही यूज करने हैं. इसके अलावा आपको ब्‍लैक कॉफी का प्रयोग करना है, जिससे वह केले के साथ अच्‍छी तरह से मिक्‍स हो सके.

सामग्री

केले- 3

ठंडा कोकोआ पाउडर- 5 चम्‍मच

कॉफी- 2 चम्‍मच

बादाम- गार्निश करने के लिये

विधि

फूड प्रोसेसर में केले डाल कर कुछ सेकेंड के लिये चलाएं. इसके बाद इस मिश्रण में कोकोआ पाउडर, कॉफी और वैनीला डाल कर तब तक चलाएं जब तक कि यह क्रीमी ना हो जाए. इसे सर्व करने के लिये ऊपर से स्‍लाइस किये हुए बादाम डालें.

कर्नाटक : शिल्प, संस्कृति और सौंदर्य का प्रतीक

अच्छा होता यदि भारत में देशाटन की परंपरा को महज धार्मिक भावनाओं की नींव पर रख कर विकसित न किया गया होता. फिर इस निर्धन देश के छोटे छोटे शहरों से ले कर सुदूर गांवों तक में रहने वाले नागरिक सैलानीपन के नाम पर अपने मन में केवल चारों धाम की यात्रा के सपने न संजोते. धर्म के दुकानदारों ने रामेश्वरम से ले कर कैलास पर्वत तक और द्वारका से ले कर गंगासागर तक तीर्थस्थलों को बेच कर सैलानियों की सोच को परंपरागत तीर्थस्थानों तक सीमित रख दिया.

आज का समृद्ध और शिक्षित वर्ग पर्यटन के आनंद को धार्मिक अंधविश्वास के अलावा अंगरेजों द्वारा विकसित किए हुए पर्वतीय हिल स्टेशनों को छोड़ कर अन्य रमणीक स्थलों को अनदेखा कर देता है क्योंकि ऐसी हर जगह में जहां प्रकृति ने उन्मुक्त सुंदरता तो लुटाई है पर पहुंचने, रुकने और ठहरने की साधारण सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं. पर्यटन सुविधाओं के अभाव ने एक भेड़चाल वाली मनोवृत्ति को बढ़ावा दिया है जिस के वशीभूत इस वर्ग के सैलानी को गरमी में केवल शिमला, मसूरी, नैनीताल, मनाली, कश्मीर और दार्जिलिंग जैसे हिल स्टेशन ही दिखते हैं और सर्दियों में गोवा के समुद्रतट.

मनमोहक सौंदर्य

रमणीक स्थल यदि कोई खोजना चाहे जिन के प्राकृतिक सौंदर्य के आगे हमारे ख्यातिप्राप्त पर्यटन स्थल भी फीके लगें तो उत्तरी कर्नाटक के समुद्रतट पर बिखरे हुए अनमोल रत्नों की तरफ उसे उन्मुख होना चाहिए.

गोवा के खूबसूरत समुद्रतट तक को तो बहुत सारे लोग पहुंचते हैं पर वहां उमड़ी भारी भीड़ उत्साह फीका कर देती है. सैलानी यदि दक्षिण दिशा में गोवा से थोड़ा ही अर्थात केवल डेढ़-दो सौ किलोमीटर और आगे जाएं तो उत्तर कर्नाटक के रमणीक समुद्रतट पर बिखरे हुए बेहद खूबसूरत छोटे छोटे शहर, कसबे और गांव अपने अद्भुत सौंदर्य से उन्हें सम्मोहित कर देंगे.

चांदी सी चमकती रेत वाले समुद्रतट जिन्हें उद्योगजन्य प्रदूषण का अभिशाप नहीं झेलना पड़ा है, इन तटों के विस्तार को बीच बीच में तोड़ती हुई छोटी छोटी नदियां जो समुद्र तक गजगामिनी सी मंथर गति से आ कर उस में निस्तब्ध हो कर विलीन हो जाती हैं और अचानक कहींक हीं इस धरातली एकरसता को भंग करते हुए अकेले निर्जन में प्रहरी की तरह तना खड़ा हुआ कोई प्रकाश स्तंभ (लाइट हाउस), ये सब कुल मिला कर एक ऐसे अछूते सौंदर्य की संरचना करते हैं जिन से अनूठी शांति का एहसास होता है. इन्हीं के बीचबीच में मछुआरों के छोटेछोटे गांव अचानक याद दिला देते हैं कि बिना बाजारवाद के दंश का अनुभव कराने वाले बाजार भी हो सकते हैं.

ठहरने, रहने, खाने-पीने की 2-3 सितारों वाली भी सुविधाएं कोई खोजे तो निराशा हाथ लगेगी. पर अनेक छोटे से ले कर मध्यम श्रेणी के शहर ऐसे रमणीक स्थलों से दूर नहीं हैं. वहां ठहर कर समुद्रतट के राजमार्ग से पर्यटक आसानी से ऐसे शांत स्थानों तक आ सकते हैं और थोड़ा भी पैदल सैर करने वालों के लिए तो असीम संभावनाओं से भरा हुआ है यह क्षेत्र.

आंखें चुंधिया जाएं

उत्तरी कर्नाटक का तटीय क्षेत्र कारवार से ले कर उडुपी तक इतने ठिकानों से भरा हुआ है कि प्रकृति प्रेमी पर्यटकों की आंखें चुंधिया जाएं. दिसंबर के अंत और जनवरी के प्रथम सप्ताह में तटीय कर्नाटक का मौसम गोवा के जैसा ही गुलाबी होता है और यह ही आदर्श मौसम है इस क्षेत्र में पर्यटन के लिए. समुद्रतट पर धूप में पसरे रहने वाला मौसम, अलस्सुबह और देर शाम को ठंडी हवा में हलकी सी झुरझुरी महसूस करने वाला मौसम, रात में तारों भरे आकाश को निहारते हुए मीठी यादों में खो जाने वाला मौसम.

अप्रैल, मई के महीनों में इस क्षेत्र में सुबह 10-11 बजे से ले कर सूर्यास्त तक तो दिन गरम होते हैं पर समुद्रतट पर सुबह सुहानी ही रहती है और शाम होते ही समुद्र की तरफ से आने वाली पछुवा हवाएं दिन के ताप को दूर भगा देती हैं. जून का महीना आते ही मानसूनी हवाएं और बादलों से भरा आकाश, बारिश की झड़ी, एक अनोखा सौंदर्य भर देती हैं.

लुभावना कारवार

गोवा से कर्नाटक की सीमा में प्रवेश करने के 15 किलोमीटर के अंदर ही कारवार आ जाता है. इतने महत्त्वपूर्ण समुद्री और तटीय मार्ग पर बसा है यह शहर कि इब्न बतूता की यात्रा वृत्तांत में भी इस का जिक्र है. अरब, डच, पुर्तगाली, फ्रांसीसी और अंग्रेज सभी इस से गुजरे. आज भी कारवार एक महत्त्वपूर्ण बंदरगाह है. भारतीय नौसेना का एक महत्त्वपूर्ण ठिकाना होने के अतिरिक्त गोवा से ले कर चिकमंगलूर क्षेत्र की खदानों से लौह अयस्क भेजने के लिए भी कारवार के बंदरगाह की महत्ता है.

सैलानियों के लिए इस नितांत व्यापारिक शहर के तट से थोड़ी ही दूर पर कुरुम गढ़ द्वीप है. इस द्वीप पर श्वेत बालू के विस्तृत तट पर समुद्रस्नान और तैराकी के अतिरिक्त सैलानी मोटरबोट में भी घूम सकते हैं. सागर के अंदर मोटरबोट आप को निकट से डौल्फिन के जल में अठखेलियां करते हुए समूहों के भी कभीकभार दर्शन करा सकती है.

पश्चिमी घाट के पर्वतों से उतर कर कारवार पहुंच कर काली नदी अरब सागर में जिस स्थान पर विलीन हो कर अपनी यात्रा समाप्त करती है उसी के निकट सदाशिव गढ़ के पुराने दुर्ग में इतिहास के पन्ने आज के सूनेपन में फड़फड़ाते हुए से लगते हैं. काली नदी में मछली के शिकार के शौकीनों को अपना शौक पूरा करने के अवसर खूब मिलते हैं.

कारवार से लगभग 100 किलोमीटर आगे मुर्देश्वर के समुद्रतट पर ऊंची शिवमूर्ति स्थापित है. इस के विशाल आकार को प्रतिबंधित करता है बीसमंजिला गोपुरम जो शिवमूर्ति के नीचे प्रतिष्ठित शिवमंदिर का प्रवेशद्वार है.

अद्भुत है मुर्देश्वर

मुर्देश्वर में आप केवल प्रकृति के सान्निध्य में अपने नित्यप्रति के मानसिक तनाव भूल कर कुछ उन्मुक्त आनंद के क्षण खोजते हुए आए हैं. एक अच्छा होटल, वातानुकूलित कमरे, स्वादिष्ठ शाकाहारी और मांसाहारी दोनों तरह के भोजन इत्यादि भी चाहिए तो मुर्देश्वर में वे सभी सुविधाएं मिल जाती हैं.

मुर्देश्वर का समुद्रतट, स्नान करने और किनारे रेत में लेटने का मजा लेने के लिए किसी भी अच्छे रिजोर्ट से पीछे नहीं. यही नहीं, यदि आप साइकिल से या पैदल 10-15 किलोमीटर की दूरी तय कर के वनाच्छादित सह्याद्रि पर्वत की चढ़ान तक पहुंच सकते हैं तो फिर ट्रैकिंग के लिए कई सुरम्य चढ़ाइयां आप को मिल जाएंगी.

मुर्देश्वर तक कोई आए और वहां से केवल 70-80 किलोमीटर दूर जा कर भारत का सब से विशाल और ऊंचा प्रपात जोग फौल्स देखे बिना वापस जाए, यह कैसे संभव है. कर्नाटक के पूरे तटीय क्षेत्र का पर्यटन भले ही सर्दियों में अधिक आनंद दे पर जोग प्रपात का अद्वितीय सौंदर्य सिर्फ बारिश के मौसम में ही अपने चरमोत्कर्ष पर होता है. लेकिन बारिश में सड़कें इतनी अच्छी दशा में नहीं रहतीं और घूमने-फिरने का आनंद सिमट जाता है.

जोग प्रपात की भव्यता कम ही दिखे पर कुछ तो होगी ही, इसलिए हम ने जनवरी के महीने में भी जोग प्रपात देखने का निर्णय ले लिया. पर वहां जा कर निराशा ही हाथ लगी. श्मशान में जैसे बहुत दुनियादार व्यक्ति भी कुछ देर के लिए दार्शनिक बन जाता है वैसे ही जोग प्रपात के संकुचित असहाय से लगते स्वरूप को देख कर मन में एक अवसाद सा उठा.

जोग प्रपात की भव्यता

बारिश के मौसम में इतनी ऊंचाई से इतनी विशालकाय, चौड़ी छाती वाला प्रपात कितना भीषण निनाद करता हुआ नीचे गिरता होगा, कैसा अविस्मरणीय प्रभाव डालता होगा, इस की कल्पना करना कठिन नहीं था, पर अपनी निराशा से कहीं अधिक दुख हुआ उन कुछ विदेशी पर्यटकों को देख कर जिन्हें पर्यटन व्यवसाय में लगी कंपनियां जोग प्रपात के वर्षा ऋतु का स्वरूप चित्रों में दिखा कर यहां तक खींच लाई थीं. वे सिर्फ ठगा सा महसूस ही नहीं कर रहे थे बल्कि स्पष्ट शब्दों में कहने से भी हिचक रहे थे कि उन्हें बेवकूफ बनाया गया था.

यदि समय हो तो 100 किलोमीटर और दक्षिण जा कर उडुपी भी घूम आएं, समुद्र तट तो वहां है ही पर उत्सुकता यह जानने की भी होती है कि आखिर क्या है वहां जो डोसा, इडली, वडा, सांभर सबकुछ खा कर अघाने वाला पारखी भी एक बार कहता जरूर है कि उडुपी के रैस्टोरैंट्स की बात ही कुछ और है.

जरा सी आजादी: भाग-2

पिछले अंक में आप ने पढ़ा कि सबकुछ होने के बावजूद न जाने क्यों नेहा खुल कर सांस नहीं ले पाती थी. कई बार उस के मन में आत्महत्या करने तक का खयाल आया. पढि़ए अब आगे…

नेहा के ढेर सारे प्रतिरोध थे जिन्हें शुभा ने माना ही नहीं. हाथ पकड़ कर अपने साथ अपने घर ले आई और ड्राइंगरूम में बैठा दिया. नेहा ने देखा कमरा पूरी तरह से व्यवस्थित था.

‘‘आराम से बैठो. आजकल मेरे पतिदेव भी किसी काम से शहर से बाहर गए हुए हैं. मैं भी अकेली ही हूं. अगर भाईसाहब ज्यादा देर से आएं तो तुम यहीं सो जाना.’’

‘‘सोना क्या है, दीदी. मुझे तो सोए हुए हफ्तों बीत चुके हैं. जागना ही है. यहां जागूं या वहां जागूं.’’

‘‘तो अच्छी बात है न. हम गपशप करेंगे.’’ शुभा ने हंस कर उत्तर दिया.

उस के बाद शुभा ने टीवी चालू कर दिया पर नेहा ने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई. किताबें लगी थीं रैक में. उस का ध्यान उधर ही था. नेहा की कटी कलाई पर शुभा की पूरी चेतना टिक चुकी थी. अगर वह उस के घर न गई होती तो क्या नेहा अपनी कलाई काट चुकी होती? उस के पति तो शायद रात 12 बजे आ कर उस का शव ही देख पाते. संयोग ही तो है हमारा जीवन.

वह भी आराम करने के लिए लेट ही चुकी थी. पता नहीं क्या हुआ था उसे जो वह सहसा उस के घर जाने को उठ पड़ी थी. शायद वक्त को नेहा को बचाना था इसलिए शुभा तुरंत उठ कर नेहा के घर पहुंच गई. शुभा ने घंटी बजा दी. शायद उसी पल नेहा का क्षणिक उन्माद चरम सीमा पर था.

क्षणिक उन्माद ही तो है जो मानवीय और पाशविक दोनों ही तरह के भावों के लिए जिम्मेदार है. क्षणिक सुख की इच्छा ही बलात्कारी बना डालती है और क्षणिक उन्माद ही हत्या और आत्महत्या तक करवा डालता है. कितना अच्छा हो अगर मनुष्य चरमसीमा पर पहुंच कर भी स्वयं पर काबू पा ले और अमूल्य जीवन नष्ट न हो. न हमारा न किसी और का.

रात 11:30 बजे नेहा के पति आए और उसे ले गए. विचित्र धर्मसंकट में थी शुभा. नेहा की हरकत उस के पति को बता दे तो शायद वे उस की मनोस्थिति की गंभीरता को समझें. कैसे समझाए वह उस के पति को कि उस की पत्नी की जान को खतरा है. किसी के घर का निहायत व्यक्तिगत मसला अनायास ही उस के सामने चला आया था जिस से वह आंखें नहीं मूंद पा रही थी. जीवनमरण का प्रश्न हो जहां वहां क्या अपना और क्या पराया.

दूसरे दिन करीब 11-12 बजे शुभा ने नेहा के घर पर कई बार फोन किया पर नेहा ने फोन नहीं उठाया. विचित्र सी कंपकंपी उस के शरीर में दौड़ गई. किसी तरह अपना घर बंद किया और भागीभागी नेहा के घर पहुंची. बेतहाशा उस के घर की घंटी बजाई.

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दरवाजा खुला और सामने उस के पति खड़े थे. अस्तव्यस्त कपड़ों में. नाराजगी थी उन के चेहरे पर. शायद उस ने ही बेवक्त खलल डाल दिया मगर सच तो सच था जिसे वह छिपा नहीं पाई थी.

‘‘आप घर पर होंगे, मुझे पता नहीं था. फोन क्यों नहीं उठाते आप? मैं समझी उस ने कुछ कर लिया. आप उस का खयाल रखिएगा. माफ कीजिएगा, कहां है नेहा?’’

सांस धौंकनी की तरह चल रही थी शुभा की. मन भर आया  था. पता चला, नेहा को नींद की दवा दे कर सुलाया है. आदि से अंत तक शुभा ने सब बता दिया ब्रजेश को. काटो तो खून नहीं रहा ब्रजेश में.

‘‘इसीलिए मैं कल अपने साथ ले गई थी. आप ने उस का घाव देखा क्या?’’

‘‘हां, देखा था मगर हैरान था कि सोने की चूड़ी से हाथ कैसे कट गया. कांच की चूड़ी तो उस ने कभी पहनी ही नहीं,’’ धम्म से बैठ गए ब्रजेश, ‘‘क्या करूं मैं इस का?’’

नजर दौड़ाई शुभा ने. सब खिड़कियां बंद थीं, जिन्हें कल खोला था.

‘‘बुरा न मानें तो मैं एक सुझाव दूं. आप उसे उस की मरजी से जीने दें कुछ दिन. जैसा वह चाहे उसे करने दें.’’

‘‘मैं ने कब मना किया है उसे. वह जो चाहे करे.’’

‘‘ये खिड़कियां कल खुलवाई थीं मैं ने, आप ने शायद आते ही पहला काम इन्हें बंद करने का किया होगा. क्या आप ने सोचा, शायद उसे ताजी हवा पसंद हो?’’

‘‘अरे, खुली खिड़की से अंदर का नजर आता है.’’

‘‘क्या नजर आता है. आप की पत्नी कोई अपार सुंदरी है क्या जिसे देखने को सारा संसार खिड़की से लगा खड़ा है. अरे, जिंदा इंसान है वह, जिसे इतना भी अधिकार नहीं कि ताजी हवा ही ले सके. परदे हैं न…उसे उस के मन से करने दीजिए कुछ दिन. वह ठीक हो जाएगी. उस का दम घुट रहा है, जरा समझने की कोशिश कीजिए. नींद की दवा खिलाखिला कर सुलाने से उस का इलाज नहीं होगा. उसे जागी हालत में वह करने दीजिए जिस से उसे खुशी मिले,’’ स्वर कड़वाहट से भर उठा था शुभा का, ‘‘उस के मालिक मत बनिए. साथी बनिए उस के.’’

ब्रजेश सकपका से गए शुभा के शब्दों पर.  शुभा बोलती रही, ‘‘आप समझदार हैं. 55 साल तक पहुंचा इंसान बच्चा नहीं होता, जिसे कान पकड़ कर पढ़ाया जाए. अपनी गृहस्थी उजाड़ना नहीं चाहते तो एक बार नेहा का चाहा भी कर के देखिए. बताना मेरा फर्ज था और इंसानी व्यवहार भी. मैं चाहती हूं आप का घर फलेफूले. मैं चलती हूं.’’

ब्रजेश सकपकाए से खड़े रहे और शुभा घर लौट आई, पूरा दिन न कुछ खापी सकी न ठीक से सो सकी. नेहा एक प्रश्न बन कर सामने चली आई है जिस का उत्तर उसे पता तो है मगर लिख नहीं सकती. किसी का जीवन उस के हाथ का पन्ना नहीं है न, जिस पर वह सही या गलत कुछ भी लिख सके. उत्तर उसे शायद पता है मगर अधिकार की स्याही नहीं है उस के पास. क्या होगा नेहा का?

आत्महत्या का प्रयास भी तो एक जनून है जिसे अवसादग्रस्त इंसान बारबार कार्यान्वित करता है. बच जाने की अवस्था में उसे और अफसोस होता है कि वह बच क्यों गया? जीने में भी असफल रहा और अब मरने में भी असफल. जब वह फिर प्रयास करता है तब असफल हो जाने के सारे कारण बड़ी समझदारी से निबटा देता है. शुभा को डर है कि अब अगर नेहा ने कोई दुस्साहस फिर किया तो शायद सफल हो जाए.

पिछली बालकनी में खड़ी रही शुभा देर तक. नजर नेहा के घर पर थी. रोशनी जल रही थी. वहां क्या हाल है क्या नहीं, यह उसे बेचैन कर रहा था. तभी उस के पतिदेव विजय का फोन आया तो सहसा सारा किस्सा उन्हें सुना दिया.

‘‘मुझे बहुत डर लग रहा है, विजय. अगर नेहा ने कुछ…’’

‘‘ब्रजेश को सब बताया है न तुम ने. अब वह देख लेगा न.’’

‘‘नहीं देखेगा. मुझे लगता है उसे पता ही नहीं कि उसे क्या करना चाहिए.’’

‘‘देखो शुभा, तुम अपना दिमाग खराब मत करो. तुम्हारा ब्लड प्रैशर बढ़ जाएगा और मैं भी वहां नहीं हूं. तुम कोई झांसी की रानी नहीं हो जो किसी की भी जंग में कूदना चाहती हो.’’

‘‘सवाल उस के जीनेमरने का है, विजय. अगर मेरे कूदने से वह बच जाती है तो मेरे मन पर कोई बोझ नहीं रहेगा और अगर उस ने कुछ कर लिया तो जीवनभर अफसोस रहेगा.’’

‘‘तुम ने ठेका ले रखा है क्या सब का? न जान न पहचान.’’

‘‘हम जिंदा इंसान हैं, विजय. क्या मरने वाले को लौटा नहीं सकते? मुझे लगता है मैं उसे मरने से रोक सकती हूं. आप एक बार ब्रजेश से बात कीजिए न. उस का फोन नंबर है मेरे पास, मैं आप को लिखवा देती हूं.’’

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मंदमंद मुसकराने लगे विजय. जानते हैं अपनी पत्नी को. समस्या को सुलझाए बिना मानेगी नहीं और सच भी तो कह रही है. खिलौना टूट जाने के बाद कोई कर भी क्या लेगा? प्रयास का कोई भी औचित्य तभी तक है जब तक प्राण हैं. पखेरू के उड़ जाने के बाद वास्तव में उन्हें भी अफसोस होगा. शुभा का कहा मान लेना चाहिए, किसी के जीवन से बड़ा क्या होगा भला?

‘‘अच्छा बाबा, तुम जैसे कहो. नंबर दे दो, मैं एक बार ब्रजेश से बात करता हूं. शायद कोई रास्ता निकल ही आए.’’

विजय ने आश्वासन दिया और उस का रंग उसे दूसरी सुबह नजर भी आ गया. पूरे 10 बजे ब्रजेश नेहा को उस के पास छोड़ते गए.

‘‘आप पर भरोसा करना चाहता हूं जिस में मेरा ही फायदा होगा.’’

नेहा भीतर जा चुकी थी और जातेजाते कहा ब्रजेश ने, ‘‘शायद कहीं मैं ही सही नहीं हूं. आप मेरी बहन जैसी हैं. वह भी इसी तरह अधिकार से कान मरोड़ देती है. आप जैसा चाहें करें. मैं दखल नहीं दूंगा. बस, मेरा घर बच जाए. मेरी नेहा जिंदा रहे.’’

आभार व्यक्त किया ब्रजेश ने और यह भी बता दिया कि नेहा ने नाश्ता नहीं किया है अभी. एक पीड़ा अवश्य नजर आई उसे ब्रजेश के चेहरे पर और एक बेचारगी भी. ब्रजेश चले गए और शुभा भीतर चली आई.

‘‘नाश्ता क्यों नहीं किया तुम ने?’’

‘‘आप ने कर लिया क्या?’’

‘‘अभी नहीं किया. बोलो, क्या खाएं? तुम्हारा क्या मन है, वही खाते हैं.’’

‘‘मैं बनाऊं क्या? आप पसंद करेंगी?’’

‘‘अरे बाबा, नेकी और पूछपूछ. ऐसा करती हूं, मैं जरा अपनी अलमारी ठीक कर लेती हूं. तुम्हारा मन जो चाहे बना लो.’’

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जन्म जन्म का साथ

भारतीय हिंदू समाज में वैवाहिक संबंधों को जन्मजन्मांतर का संबंध माना जाता है. लेकिन परिवार न्यायालयों में बढ़ते तलाक के मामले बताते हैं कि वर्तमान समय में न तो प्रेम विवाह सफल हैं और न ही परंपरागत विवाह. अब सवाल यह उठता है कि बिना पछतावे के किसी के साथ आजीवन रहने के लिए क्या किया जाए? प्रस्तुत हैं, इस संबंध में कुछ युगलों और विशेषज्ञों की सलाह:

2015 में किए गए एक सर्वे में पाया गया कि प्रति हजार दंपतियों में से 13 दंपती आपसी तालमेल के कठिन दौर से गुजर रहे हैं, लेकिन आश्चर्य कि उन में से ज्यादातर आज भी साथ जीवन गुजार रहे हैं.

एक जानेमाने मनोवैज्ञानिक व विवाह सलाहकार का कहना है कि पुरानी विचारधारा के अनुसार विवाह जीवनभर का साथ होता था. लेकिन आजकल के युगल साथ रहने की कोई ठोस योग्यता नहीं रखते. वे युगल जो कई दशकों से बिना किसी मनमुटाव के साथ रह रहे हैं, उन के जीवन में भी शादी से बढ़ कर कई अन्य मामले हैं.

समझदारी जरूरी है

सरोद वादक अमजद अली खान और उन की पत्नी सुब्बालक्ष्मी खान सितंबर, 2016 में अपनी शादी के 40 साल पूरे कर चुके हैं. जब उन से यह पूछा गया कि शादी को स्थाई बनाने के लिए कौनकौन से कदम उठाए जाएं? तो सुब्बालक्ष्मी का कहना था कि विवाह को सफल बनाना व्यक्ति के अपने हाथ में है. इस हेतु धैर्य, सहनशक्ति और समझदारी की आवश्यकता होती है. विवाह कोई क्षणिक आनंद नहीं, जिसे भोगा और भुला दिया जाए. नई पीढ़ी एकदूसरे को छोड़ने में बहुत जल्दबाजी करती है, जबकि विवाह के अपने उतारचढ़ाव होते हैं. उन का सामना करना चाहिए.

त्याग की भावना

जानीमानी रोमांस लेखिका, प्रीति शिनौय का कहना है कि विवाह को स्थाई बनाने के लिए सर्वप्रथम हमें अपने अंदर त्याग की भावना पैदा करनी चाहिए तथा सब से पहले हमें अपने क्रोध पर नियंत्रण करना चाहिए. क्रोध में बोले गए शब्द हमारे मानस पटल पर स्थाई प्रभाव छोड़ते हैं. यदि आप आवेश में तनावग्रस्त हैं तो मुंह पर टेप लगा कर कम से कम 5 किलोमीटर की दौड़ लगाएं. तर्कवितर्क का स्वागत करें लेकिन वह विषय से संबंधित हो. कभी व्यक्तिगत दोषारोपण न करें और न ही एकदूसरे के  मातापिता पर दोषारोपण करें.

जब भी आप विवाह बंधन में बंधने का मन बनाएं तो स्वयं को भविष्य में आने वाली समस्याओं से दोचार होने के लिए तैयार रखें.

लेखक रविंदर सिंह का कहना है कि आप की किसी भी विषय में समान रूचि माने नहीं रखती, बल्कि यह बात महत्त्वपूर्ण होती है कि आप एकदूसरे की भिन्नता और समानता की परवाह किए बिना एकदूसरे में रूचि लें. ऐसे लोगों की भी लंबी सूची है, जो कई दशकों से सफलतापूर्वक साथ हैं. ‘जनरल औफ सौशल साइकोलौजी ऐंड पर्सनैलिटी साइंस’ के अनुसार जीवनसाथी के बारे में सकारात्मक सोच रखना सफल शादी का मूलमंत्र है.

सहानुभूति

एकदूसरे के प्रति सहानुभूति रखना प्रेम की उम्र बढ़ाता है. टीवी कलाकार रोहित राय जोकि अपनी पत्नी मानसी के साथ 17 सालों से हैं, का कहना है कि एकदूसरे के प्रति सहानुभूति रखना प्रेम को बढ़ाता है.

मनोवैज्ञानिक, गीतांजलि शर्मा का कहना है कि यदि आप अपने विवाह को दीर्घकालिक व सफल बनाना चाहते हैं तो बिना किसी आवेश और आलोचना के एकदूसरे को सहयोग करना तथा एकदूसरे की कमियों को स्वीकारना होगा.

अभिनेत्री शिल्पा शेट्टी का कहना है, ‘‘हमारे अभिभावकों का सफल वैवाहिक जीवन था, क्योंकि उन की मानसिक धारणा भिन्न थी. आज समझौता शब्द ने संबंधों का मजाक बना दिया है, किंतु मेरे लिए समझौते का मतलब आपसी समझदारी है.’’

प्रतिबद्धता के नियम

वे युगल जो अपने विवादों को समझदारी के साथ सुलझाते हैं, उन का दांपत्य लंबे समय तक चलता है. हो सकता है कि इन्हें झुंझलाहट होती हो, पर इन का विवाह क्रोध की भेंट नहीं चढ़ता. युगलों को एकदूसरे की असमानताओं को स्वीकारना चाहिए और समझना चाहिए कि कोई भी व्यक्ति संपूर्ण नहीं होता.

– डा. प्रेमपाल सिंह वाल्यान

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