Holi 2024: समानांतर- क्या सही था मीता का फैसला

रात का पहला पहर बीत रहा था. दूर तक चांदनी छिटकी हुई थी. रातरानी के फूलों की खुशबू और मद्धम हवा रात को और भी रोमानी बना रहे थे. मीता की आंखों में नींद नहीं थी. बालकनी में बैठी वह चांद को निहारे जा रही थी. हवाएं उस की बिखरी लटों से खेल रही थीं. तभी कहीं से भटके हुए आवारा बादलों ने चांद को ढक लिया तो मीता की तंद्रा भंग हुई. अब चारों और घुप्प अंधेरा था. मीता उठ कर अपने कमरे में चली गई. मोहन की बातें अभी भी उस के दिल और दिमाग दोनों को परेशान कर रही थीं. बिस्तर पर करवट बदलते हुए मीता देर तक सोने की कोशिश करती रही, लेकिन नींद नहीं आई. इतनी रात गए मीता राजन को भी फोन नहीं कर सकती थी. राजन दिन भर इतना व्यस्त रहता है कि रात में 11 बजते ही वह गहरी नींद में होता है. फिर तो सुबह 7 बजे से पहले उस की नींद कभी नहीं खुलती. दोनों के बीच बातों के लिए समय तय है. उस के अलावा कभी मीता का मन करता है बातें करने का तो इंतजार करना पड़ता है. पहले अकसर मीता चिढ़ जाया करती थी. अब मीता को भी इस की आदत हो गई है. यही सब सोचतेसोचते मीता बिस्तर से उठी और कमरे के कोने में रखी कुरसी पर बैठ गई. कुछ पढ़ने के लिए उस ने टेबल लैंप जला लिया. लेकिन आज उस का मन पढ़ने में भी नहीं लग रहा था. एक ही सवाल उस के दिमाग को परेशान कर रहा था. सिर्फ 5 महीने ही तो हुए थे मोहन से मिले हुए. क्या उम्र के इस पड़ाव पर आ कर सिर्फ 5 महीने की दोस्ती प्यार का रूप ले सकती है? उस पर तुर्रा यह कि दोनों शादीशुदा. मोहन की बातों ने उस के दिमाग को झकझोर कर रख दिया था. मीता फिर से बिस्तर पर आ कर लेट गई. मोहन के बारे में सोचतेसोचते कब उस की आंखें बंद हो गईं और वह नींद की आगोश में चली गई, उसे पता ही नहीं चला.

सुबह उस ने निश्चय किया कि आज मोहन को सीधेसीधे बोल देगी कि ऐसा बिलकुल भी संभव नहीं है. मेरी दुनिया अलग है और तुम्हारी अलग. इसलिए जो रिश्ता हमारे दरम्यान है वही सही है और उसे ही निभाना चाहिए. लेकिन मोहन के सामने उस की जबान बिलकुल बंद हो गई. ऐसा लगा जैसे किसी बाह्य शक्ति ने उस की जबान को बंद कर दिया हो. मोहन ने कौफी का घूंट भरते हुए मीता से पूछा, ‘‘फिर क्या सोचा है?’’ मीता ने थोड़ा झिझकते हुए कहा, ‘‘मोहन, ऐसा नहीं हो सकता. देखो, तुम भी शादीशुदा हो और मैं भी. यह बात और है कि हम दोनों ‘डिस्टैंस रिलेशनशिप’ में बंधे हुए हैं. न तुम्हारी पत्नी और बच्चा यहां रहते हैं और न ही मेरे पति, लेकिन हम दोनों ही अपनेअपने परिवार से बेहद प्यार करते हैं. फिर हमारे बीच दोस्ती का रिश्ता तो है ही.’’ मोहन ने मीता की ओर देखे बगैर कौफी का दूसरा घूंट लिया और बोला, ‘‘मीता, शादीशुदा होने से क्या हमारा मन, प्यार सब गुलाम हो जाते हैं? क्या हमारी व्यक्तिगत पसंदनापसंद कुछ नहीं हो सकती?’’

‘‘जो भी हो मोहन लेकिन दोस्ती तक ठीक है. उस से आगे न तो मैं सोच सकती हूं और न ही तुम्हें सोचने का हक दे सकती हूं,’’ मीता थोड़ा सख्त होते हुए बोली. मोहन ने कहा, ‘‘मीता तुम अपनी बात कह सकती हो, मेरी सोच पर तुम लगाम कैसे लगा सकती हो?’’ मोहन का स्वर अब भी बेहद संयत था.मोहन की कौफी खत्म हो चुकी थी और मीता की कौफी अब भी जस की तस पड़ी थी. मोहन ने याद दिलाया, ‘‘कौफी ठंडी हो चुकी है मीता, कहो तो दूसरी मंगवा दूं?’’

मीता ने ‘न’ में सिर हिलाया और ठंडी ही कौफी पीने लगी. पूरे वातावरण में एक सन्नाटा छा गया था. ऐसा लग रहा था जैसे कोई समुद्र जोरजोर से शोर मचाने के बाद थक कर बिलकुल शांत हो गया हो या फिर जैसे कोई तूफान आने वाला हो. काफी देर तक दोनों खामोश बैठे रहे. फिर चुप्पी को तोड़ते हुए मोहन ने मीता से कहा, ‘‘चलो, घर छोड़ देता हूं.’’

मीता ने मना कर दिया और फिर दोनों अलगअलग दिशा में चल पड़े. मीता रास्ते भर यही सोचती रही कि आखिर उस से कहां चूक हुई? मोहन ने ऐसा प्रस्ताव क्यों रखा? लेकिन हर बार उस के मन में उठ रहे प्रश्न अनुत्तरित रह जा रहे थे. अकसर ऐसा होता है कि अगर मनमुताबिक जवाब न मिले तो व्यक्ति आत्मसंतुष्टि के लिए अपने अनुसार जवाब खुद ही तय कर लेता है. मीता ने भी खुद को संतुष्ट करने के लिए एक जवाब तय कर लिया कि वही कुछ ज्यादा ही खुल कर बातें करने लगी थी मोहन से, इसीलिए ऐसा हुआ. घर आ कर मीता ने अपने पति राजन से फोन पर ढेर सारी बातें कीं. फिर निश्चिंत हो कर अपने मन में उठ रहे गैरजरूरी विचारों को झाड़ा. वह स्वयं से बोली जैसे खुद को समझाने और आश्वस्त करने की कोशिश कर रही हो, ‘मैं अपने परिवार से बहुत प्यार करती हूं. जो तुम ने कहा वैसा कभी नहीं हो सकता मोहन, तुम देखना, जिस आकर्षण को तुम प्यार समझ बैठे हो वह जल्द ही खत्म हो जाएगा.’

ऐसा सोचने के बाद मीता की कोशिश यही रही कि वह मोहन से कम से कम मिले. हालांकि एक ही संस्थान में दोनों शिक्षक थे, इसलिए एकदूसरे से मुलाकातें तो हो ही जाती थीं. वैसे समय में उन दोनों के बीच बातें होतीं प्रोफैशन की, साहित्य की, क्योंकि दोनों को साहित्य से गहरा लगाव था. लेकिन अब मीता थोड़ी चुपचुप सी रहती, खुल कर बातें नहीं करती. मोहन भी अपनी भावनाओं को छिपाता था. उस ने उस बारे में फिर कभी कुछ नहीं कहा. एक शाम एक पत्रिका में छपे मोहन के आलेख पर चर्चा हो रही थी. आलेख निजी संबंध पर था. कुछ चीजें मीता को खटक रही थीं जिस पर उस ने आपत्ति जताई. फिर दोनों में बहस शुरू हो गई. बाकी साथी मूकदर्शक बन गए. अपना पक्ष रखते हुए मोहन ने मीता से पूछा, ‘‘क्या आप ने प्यार किया है?’’ फिर खुद ही जवाब भी देने लगा, ‘‘अगर किया होता तो फिर इस आलेख की गहराई को समझतीं और आप को आपत्ति भी नहीं होती.’’

मीता ने तल्खी से जवाब दिया, ‘‘ये कैसा बेतुका सवाल है. मैं एक शादीशुदा औरत हूं. मेरे पति हैं जिन से मैं बहुत प्यार करती हूं. भले ही वे काम की वजह से मुझ से दूर रहते हों, लेकिन हम दोनों एकदूसरे के बेहद करीब हैं.’’ मोहन ने कहा, ‘‘फिर तो प्रेम की समझ आप में बेहतर होनी चाहिए थी.’’

मीता ने तंज कसा, ‘‘लगता है आप अपनी पत्नी से प्रेम नहीं करते.’’ मोहन ने जवाब दिया, ‘‘जी नहीं, हमारे संबंध बहुत अच्छे हैं. हम एक आदर्श पतिपत्नी हैं, लेकिन मैं ने उन्हें किसी और से प्रेम करने से नहीं रोका. देखो मीता, इश्क का इतिहास तहजीब की उम्र से पुराना है. विवाह करना और प्यार करना दोनों अलग चीजें हैं. मानव मन गुलाम बनने के लिए बना ही नहीं है. प्रकृति ने मनुष्य को आजाद पैदा किया है. ये सामाजिक बंधन तो हमारे बनाए हुए हैं. प्राकृतिक रूप से हम ऐसे नहीं हैं.’’ पहले तो मीता सुनती रही फिर कहा, ‘‘अपनी गलती को न्यायोचित सिद्ध करने के लिए कुछ भी तर्क दिया जा सकता है. मैं इसे प्यार नहीं मानती. मेरी समझ से यह सिर्फ अपनी जरूरत पूरी करने के लिए दिया गया एक तर्क भर है.’’

उस शाम मोहन ने अपने जीवन में आई लड़कियों की कहानियां, अपने तर्क को सच साबित करने के क्रम में सुनाईं, लेकिन मीता उस की कोई बात मानने को तैयार नहीं थी. हां, इस घटना के बाद फिर से दोनों आपस में पहले की तरह या यों कहें पहले से ज्यादा खुल कर बातें करने लगे. जाने कब वे दोनों एकदूसरे के इतने करीब आ गए कि जानेअनजाने दोनों की बातों में ज्यादातर दोनों का जिक्र होता. मीता को तो कई बार उस के पति राजन ने मजाक में फोन पर टोका था, ‘‘कहीं मोहन से तुम्हें प्यार तो नहीं हो गया मीता?’’ तब मीता खिलखिला देती, लेकिन राजन का यह मजाक कब गंभीर आरोप में बदल गया मीता समझ ही नहीं पाई और उस दिन तो सारी हदें पार हो गईं. मीता ने अभी क्लास खत्म ही की थी कि राजन का फोन आया. उस दिन राजन के स्वर से प्यार गायब था. ऐसा लग रहा था जैसे उस ने कुछ तय कर रखा हो. मीता हमेशा की तरह चहक रही थी. बातोंबातों में यह भी बोल गई कि आज दोपहर का खाना मोहन के साथ खाएगी. फिर तो जैसे शांत माहौल में तूफान आ गया.

राजन, जिस ने आज तक कभी उस से ऊंची आवाज में बात नहीं की थी, आज उस के चरित्र पर उंगली उठा रहा था. तब मीता अपनी सफाई में कुछ नहीं बोल सकी थी. हालांकि उस दिन के बाद इस के लिए राजन ने जाने कितनी बार माफी मांगी, लेकिन मीता के सीने में तो नश्तर चुभा था. जख्म भरना बड़ा ही मुश्किल था. वह अपनी ओर से बहुत कोशिश करती उन बातों को भुलाने की, लेकिन वे शब्द नासूर बन चुके थे. अकसर अकेले में रिसते रहते. मोहन जब तक साथ रहता मीता हंसती रहती, खुश रहती. लेकिन मोहन के जाते ही फिर से नकारात्मक सोच हावी होने लगता. इस दौरान जानेअनजाने मोहन ज्यादा से ज्यादा वक्त मीता के साथ गुजारने लगा. शायद दोनों को अब एकदूसरे का साथ अच्छा लगने लगा था. दोनों के रिश्ते की गरमाहट की आंच दोनों के परिवार वालों तक पहुंचने लगी. शुरुआत मीता के परिवार में हुई और अब मोहन के घर में भी मातम मनाया जाने लगा. मीता मोहन के करीब आती जा रही थी और राजन से दूरी बढ़ती जा रही थी. मोहन का भी हाल ऐसा ही था. एक शाम मोहन ने फिर से मीता के सामने प्रेम प्रस्ताव रखा साथ ही यह भी कहा, ‘‘जवाब देने की कोई हड़बड़ी नहीं है. कल रविवार है. सुबह तुम्हारे घर आता हूं. सोचसमझ लो, रात भर का समय है तुम्हारे पास.’’

मीता घर आ कर देर तक मोहन के प्रस्ताव के बारे में सोचती रही. फिर राजन के बारे में सोचा तो मुंह कसैला हो गया. यह सब सोचतेसोचते धीरेधीरे मीता की पलकें भारी होने लगीं. फिर वह यह सोचते हुए सो गई कि आखिर कल उसे मोहन को सब कुछ सचसच बताना है. मीता सूरज की पहली किरण के साथ जागी. वह बेहद ताजगी महसूस कर रही थी, क्योंकि आज उस की जिंदगी एक नई करवट ले रही थी. वह पुरानी सभी यादों को अपनी जिंदगी से मिटा देना चाहती थी. राजन की दी हुई जिस पायल की रुनझुन से उस का मन नाच उठता था आज वही उसे बेडि़यां लगने लगी थी. जिस कुमकुम की बिंदी लगा कर वह अपना चेहरा देर तक आईने में निहारा करती थी आज वही उसे दाग सी लगने लगी थी. मीता ने अपना लैपटौप खोला और राजन को सारी बातें लिख डालीं. यह भी लिखा कि जिस दिन तुम ने पहली बार मुझे शक की नजर से देखा था राजन, तब तक जिंदगी में सिर्फ तुम थे. लेकिन मेरे प्रति तुम्हारा अविश्वास और मेरे लिए वक्त नहीं होना, मुझे मोहन के करीब लाता गया. मुझे जब भी तुम्हारी जरूरत होती थी राजन, तुम मेरे पास नहीं होते थे. लेकिन मोहन हमेशा साथ रहा और इस के लिए मैं तुम्हारी हमेशा शुक्रगुजार रहूंगी, क्योंकि अगर तुम ऐसा नहीं करते तो मैं मोहन की अहमियत को कभी समझ नहीं पाती. मुझे ढूंढ़ने की कोशिश मत करना. मैं तुम्हारी दुनिया से बहुत दूर जा रही हूं.

इतना लिखने के बाद मीता ने गहरी सांस ली. आज सालों बाद वह अपने को तनावमुक्त और आजाद महसूस कर रही थी. उस ने अपने पांवों से पायल को उतार फेंका और कुमकुम की बिंदी मिटा कर उस की जगह काली छोटी सी बिंदी, जो वह कालेज के दिनों में लगाया करती थी, एक बार फिर से लगा ली. मोहन अपने अंदर चल रहे तूफान पर नियंत्रण रखने की कोशिश करता हुआ बैठक में मीता का इंतजार कर रहा था. इंतजार ने कौफी के स्वाद को फीका कर दिया था. लंबे इंतजार के बाद जब मीता मोहन के सामने आई तो बिलकुल पहचान में नहीं आ रही थी. ऐसा लग रहा था जैसे अभीअभी उस ने कालेज में एडमिशन लिया हो. अपनी उम्र से 20 साल छोटी लग रही थी वह. मोहन उत्सुकता से उस के चेहरे की ओर देख रहा था. उसे अपना जवाब चाहिए था और ऐसा लग रहा था जैसे उस का जवाब मीता के चेहरे पर लिखा है.

मीता ने मुसकरा कर मोहन से कहा, ‘‘मोहन, कभीकभी सोच साहित्यिक होने लगती है. ऐसा लगने लगता है कि हम किसी कहानी का हिस्सा भर हैं. लेकिन सच कहूं मोहन, तो ऐसा लगता है कि तुम जब पहली बार उस शिक्षिका साहिबा से इश्क कर रहे थे, मेरे पास ही थे. फिर तुम जबजब जितनी भी स्त्रियों के पास गए, हर बार मेरे और पास आते गए और अब जब सारी दूरियां खत्म हो गईं हम और तुम एक हो गए. क्या ऐसा नहीं हो सकता हम किसी ऐसी जगह चले जाएं, जहां न कोई हमें पहचाने, न हम किसी को जानें. जहां न राजन हो न तुम्हारी प्रिया. बोलो मोहन, क्या ऐसा हो सकता है?’’ मोहन ने कुछ नहीं कहा, सिर्फ मीता के आंसुओं से भीगे चेहरे को सांसों की गरमी देते हुए अपने हाथों में थाम लिया. थोड़ी देर बाद दोनों एकदूसरे के हाथ में हाथ डाले चल पड़े एक अनजाने सफर पर जहां थोड़ा दर्द लेकिन सुकून था. खुली हवा थी, उम्मीदों से भरापूरा जीवन था.

Holi 2024: राधेश्याम नाई- बेटे का क्या था फैसला

कहानी- रमेश कुमार

‘‘अरे भाई, यह तो राधेश्याम नाई का सैलून है. लोग इस की दिलचस्प बातें सुनने के लिए ही इस की छोटी सी दुकान पर कटिंग कराने या दाढ़ी बनवाने आते हैं. ये बड़ा जीनियस व्यक्ति है. इस की दुकान रसिक एवं कलाप्रेमी ग्राहकों से लबालब होती है, जबकि यहां आसपास के सैलून ज्यादा नहीं चलते. राधेश्याम का रेट भी सारे शहर के सैलूनों से सस्ता है. राधेश्याम के बारे में यहां के अखबारों में काफी कुछ छप चुका है.’’

राजेश तो राधेश्याम का गुण गाए जा रहा था और मुझे उस का यह राग जरा भी पसंद नहीं आ रहा था क्योंकि गगन टायर कंपनी वालों ने मुझे राधेश्याम का परिचय कुछ अलग ही अंदाज से दिया था.

गगन टायर का शोरूम राधेश्याम की दुकान के ठीक सामने सड़क पार कर के था. मैं उन के यहां 5 दिनों से बतौर चार्टर्ड अकाउंटेंट बहीखातों का निरीक्षण अपने सहयोगियों के साथ कर रहा था. कंपनी के अधिकारियों ने इस नाई के बारे में कहा था कि यह दिमाग से जरा खिसका हुआ है. अपनी ऊलजलूल हरकतों से यह बाजार का माहौल खराब करता है. चीखचिल्ला कर ड्रामा करता है और टोकने पर पड़ोसियों से लड़ता है.

इन 5 दिनों में राधेश्याम मुझे किसी से लड़ते हुए तो दिखा नहीं, पर लंच के समय मैं अपने कमरे की खिड़की से उस की हरकतें जरूर देख रहा था. उस की दुकान से लोगों की जोरदार हंसी और ठहाकों की आवाज मेरे लंच रूम तक पहुंचती थी.

इस कंपनी में मेरे निरीक्षण कार्य का अंतिम दिन था. मैं ने अपनी फाइनल रिपोर्ट तैयार कर के स्टेनो को दे दी थी. फोन कर के राजेश को बुलाया था. मुझे राजेश के साथ उस के घर लंच के लिए जाना था. राजेश मेरा मित्र था और मैं उस के  यहां ही ठहरा था.

राजेश मुझे लेने आया तो रिपोर्ट टाइप हो रही थी. अत: वह मेरे पास बैठ गया. राधेश्याम के बारे में राजेश के विचार सुन कर लगा जैसे मैं आसमान से नीचे गिरा हूं. तो क्या मैं अपनी आंखों से 5 दिनों तक जो कुछ देख रहा था वह भ्रम था.

पिछले दिनों काम करते हुए मेरा ध्यान नाई की दुकान की ओर बंट जाता तो मैं लावणी की तर्ज पर चलने वाले तमाशे को देखने लगता. तब एक दिन भल्ला साहब बोले थे, ‘साहब, मसखर नाई की एक्ंिटग क्या देख रहे हो, अपना जरूरी काम निबटा लो. यहां तो मटरगश्ती करने वाले लोग दिन भर बैठे रहते हैं.’

‘ऐसे लोगों के अड्डे की शिकायत पुलिस से करो,’ मैं ने सुझाव दिया.

‘हम ने सब प्रयास कर लिए,’ भल्ला साहब बोले, ‘इस की शिकायत पुलिस और यहां तक कि स्थानीय प्रशासन और मंत्री तक से कर दी है, पर इस उस्तरे वाले का बाल भी बांका नहीं होता. मीडिया के लोगों और स्थानीय नेताओं ने इस को सिर पर बैठा रखा है.’

अब राजेश ने तो मानो पासा ही पलट दिया था. रास्ते में राजेश को मैं ने टायर कंपनी के अधिकारियों की राय राधेश्याम के बारे में बताई. राजेश हंस कर बोला, ‘‘तुम इस शहर में नए हो न, इसलिए ये लोग बात को तोड़मरोड़ कर पेश कर रहे थे. दरअसल, राधेश्याम की चलती दुकान से उस के कई पड़ोसी दुकानदारों को ईर्ष्या है. वे राधेश्याम की दुकान हथिया कर वहां शोरूम खोलना चाहते हैं. अरे भई, बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है, यह कहावत तो तुम ने सुन रखी है न?’’

गाड़ी चलाते हुए राजेश ने एक पल को मुझे देखा फिर कहने लगा, ‘‘टायर कंपनी वालों ने पहले तो उसे रुपयों का भारी लालच दिया. जब वह उन की बातों में नहीं आया तो उस पर तरहतरह के आरोप लगा कर सरकारी महकमों और पुलिस में उस की शिकायत की और इस पर भी बात न बनी तो अब उस के खिलाफ जहर उगलते रहते हैं.’’

‘‘इस का मतलब यह हुआ कि वह नाई बहुत बड़ी तोप है?’’

‘‘नहीं…नहीं…पर नगर का बुद्धिजीवी वर्ग उस के साथ है.’’

‘‘परंतु राजेश, मुझे उस अनपढ़ नाई की हरकतें बिलकुल भी अच्छी नहीं लगीं,’’ मैं ने उत्तर दिया.

‘‘तुम तो अभी इस शहर में 2 महीने और ठहरोगे. किसी दिन उस की दुकान पर ग्राहक बन कर जाना और स्वयं उस के स्वभाव को परखना,’’ राजेश ने चुनौती भरे स्वर में कहा.

मैं चुप हो गया. राजेश को क्या जवाब देता? मैं कभी ऐसी छोटी सी दुकान पर कटिंग कराने के लिए नहीं गया. दिल्ली के मशहूर सैलून में जा कर मैं अपने बाल कटवाता था.

राजेश ने मुझे अपनी कार घूमनेफिरने और काम पर जाने के लिए सौंपी हुई थी. मैं भी राजेश की कंपनी का लेखा कार्य निशुल्क करता था. एक दिन मैं कार से नेहरू मार्ग से गुजर रहा था कि अचानक ही कार झटके लेने लगी और थोड़ी दूर तक चलने के बाद आखिरी झटका ले कर बंद हो गई. मैं ने खिड़की के बाहर झांक कर देखा तो गगन टायर कंपनी का शोरूम ठीक सामने था. मैं ने इस कंपनी का काम किया था, सोचा मदद मिलेगी. उन के दफ्तर में पहुंचा तो जी.एम. साहब नहीं थे. दूसरे कर्मचारी अपने कार्य में व्यस्त थे. एक कर्मचारी से मैं ने पूछा, ‘‘यहां पर कार मैकेनिक की दुकान कहां है?’’ उस ने बताया कि मैकेनिक की दुकान आधा किलोमीटर दूर है. मैं ने उस से कहा, ‘‘2-3 लड़के कार में धक्का लगाने के लिए चाहिए.’’

‘‘लेकिन सर, अभी तो लंच का समय चल रहा है. 1 घंटे बाद लड़के मिलेंगे. मैं भी लंच पर जा रहा हूं,’’ कह कर वह रफूचक्कर हो गया.

सड़क पर जाम लगता देख कर मैं ने किसी तरह अकेले ही गाड़ी को ठेल कर किनारे लगा दिया. इस के बाद पसीना सुखाने के लिए खड़ा हुआ तो देखता हूं कि राधेश्याम नाई की दुकान के आगे खड़ा हूं.

दुकान के ऊपर बड़े से बोर्ड पर लिखा था, ‘राधेश्याम नाई.’ इस के बाद नीचे 2 पंक्तियों का शेर था :

‘जाते हो कहां को, देखते हो किधर,

राधेश्याम की दुकान, प्यारे है इधर.’

मेरी निगाहें बरबस दुकान के अंदर चली गईं. 3-4 ग्राहक बेंच पर बैठे थे और बड़े से आईने के सामने रखी कुरसी पर बैठे एक ग्राहक की दाढ़ी राधेश्याम बना रहा था. आपस में हमारी आंखें मिलीं तो राधेश्याम एकदम से बोल पड़ा, ‘‘सेवा बताइए साहब, कोई काम है हम से क्या? यदि कटिंग करवानी है तो 1 घंटा इंतजार करना पड़ेगा.’’

‘‘कटिंग तो फिर कभी करवाएंगे, राधेश्यामजी. अभी तो मेरी कार खराब हो गई है और मैकेनिक की दुकान तक इसे पहुंचाना है, क्या करें,’’ मैं परेशान सा बोला.

‘‘गाड़ी कहां है?’’ राधेश्याम बोले.

‘‘वो रही,’’ मैं ने उंगली के इशारे से बताया.

‘‘आप जरा ठहर जाओ,’’ फिर दुकान से नीचे कूद कर, आसपास के लड़कों को नाम ले कर राधेश्याम ने आवाज लगाई तो 3-4 लड़के वहां जमा हो गए.

उन की ओर मुखातिब हो कर राधेश्याम गायक किशोर कुमार वाले अंदाज में बोला, ‘‘छोरां, मेरा 6 रुपैया 12 आना मत देना पर इन साहब की गाड़ी को धक्का मारते हुए इस्माइल मिस्त्री के पास ले जाओ. उस से कहना, राधेश्याम ने गाड़ी भेजी है, ज्यादा पैसे चार्ज न करे. और हां, गाड़ी पहुंचा कर वापस आओगे तो गरमागरम समोसे खिलाऊंगा.’’

राधेश्याम का अंदाज और संवाद मुझे पसंद आया. मैं ने 50 का नोट राधेश्याम के आगे बढ़ाया, ‘‘धन्यवाद, राधेश्यामजी… लड़कों के लिए समोसे मेरी तरफ से.’’

‘‘ये लड़के मेरे हैं साहब…समोसे भी मैं ही खिलाऊंगा. इन पैसों को रख लीजिए और अभी तो इस्माइल मैकेनिक के पास पहुंचिए. फिर कभी दाढ़ी बनवाने आएंगे तब हिसाब बराबर करेंगे,’’ राधेश्याम गंवई अंदाज में मुसकराते हुए बोला.

मेरी एक न चली. मैं मैकेनिक के पास पहुंचा. बोनट खोलने पर मालूम हुआ कि बैटरी से तार का कनेक्शन टूट गया था. उस ने तार जोड़ दिया पर पैसे नहीं लिए.

राधेश्याम से यह मेरी पहली मुलाकात थी जो मेरे हृदय पर छाप छोड़ गई थी. मैं ने शाम को राजेश से यह घटना बताई तो वह भी खूब हंसा और बोला, ‘‘राधेश्याम वक्त पर काम आने वाला व्यक्ति है.’’

मेरे मन का अहम कुछ छंटने लगा था इसलिए मैं ने मन में तय किया कि राधेश्याम की दुकान पर दाढ़ी बनवाने जरूर जाऊंगा.

रविवार के दिन राधेश्याम की दुकान पर मैं सुबह ही पहुंच गया. उस समय दुकान पर संयोग से कोई ग्राहक नहीं था. उस ने मुसकरा कर मेरा स्वागत किया, ‘‘आइए साहब, लगता है कि आप दाढ़ी बनवाने आए हैं.’’

‘‘तुम्हें कैसे पता?’’ मैं ने परीक्षा लेने वाले अंदाज में पूछा.

‘‘क्योंकि हर बार तो आप की कार खराब नहीं हो सकती न,’’ वह हंसने लगा.

‘‘राधेश्यामजी, पिछले दिनों मेरी कार में धक्का लगवाने के लिए शुक्रिया, पर मैं ने भी आप के यहां दाढ़ी बनवाने का अपना वादा निभाया,’’ मैं ने बात शुरू की.

‘‘बहुतबहुत शुक्रिया, हुजूर. खाकसार की दालरोटी आप जैसे कद्रदानों की बदौलत ही चल रही है. हुजूर, देखना, मैं आप की दाढ़ी कितनी मुलायम बनाता हूं. आप के गाल इतने चिकने हो जाएंगे कि इन गालों का बोसा आप की घरवाली बारबार लेना चाहेगी.’’

‘‘अरे, राधेश्यामजी अभी तो मेरी शादी ही नहीं हुई. घरवाली बोसा कैसे लेगी.’’

‘‘हुजूर, राधेश्याम से दाढ़ी बनवाते रहोगे तो इन गालों पर फिसलने वाली कोई दिलरुबा जल्दी ही मिल जाएगी.’’

‘‘हुजूर, खाकसार जानना चाहता है कि आप कहां रहते हैं, जिंसी, अनाज मंडी, छावनी या ग्वाल टोला…’’ राधेश्याम लगातार बोले जा रहा था.

‘‘मैं जूता फैक्टरी के मालिक राजेश वर्मा का मित्र हूं और उन्हीं के यहां ठहरा हूं.’’

‘‘तब तो आप इस खाकसार के भी मेहमान हुए हुजूर. राजेश बाबूजी ने आप को बताया नहीं कि मुझ से आप अपने सिर की चंपी जरूर करवाएं. दिलीप कुमार और देव आनंद तो जवानी में मुझ से ही चंपी करवाते थे,’’ यह बताते हुए राधेश्याम ने मेरे गालों पर झागदार क्रीम मलनी शुरू कर दी थी.

फिर राधेश्याम बोला, ‘‘किशोर दा, अहा, क्या गाते थे. आज भी उन की यादों को भुलाना मुश्किल है. मैं ने किशोर कुमार और अशोक कुमार की भी चंपी की है.’’

‘‘आप शायद मेरी बात को झूठ समझ रहे हैं. मैं ने फिल्मी दुनिया की बड़ी खाक छानी है और गुनगुनाना भी वहीं से सीखा है,’’ कहते हए वह ऊंचे स्वर में गाने लगा :

‘ओ मेरे मांझी, ले चल पार,

मैं इस पार, तू उस पार

ओ मेरे मांझी, अब की बार ले चल पार…’

मुझे लगा कि मेरे गालों पर लगाया साबुन सूख जाएगा अगर यह आदमी इसी तरह से गाता रहा. आखिर मैं ने उसे टोका, ‘‘राधेश्याम, पहले दाढ़ी बनाओ.’’

‘‘हां…हां… हुजूर साहब,’’ और इसी के साथ वह मेरे गालों पर उस्तरा चलाने लगा. पर अधिक देर तक चुप न रह सका. बोल ही पड़ा, ‘‘सर, आप को पता है कि आप की दाढ़ी में कितने बाल हैं?’’

‘‘नहीं,’’ मैं ने इनकार में सिर हिला दिया.

‘‘इसी तरह इस देश में कितनी कारें होंगी. किसी भी आम आदमी को नहीं पता. सड़कों पर चाहे पैदल चलने के लिए जगह न हो पर कर्ज ले कर लोग प्रतिदिन हजारों कारें खरीद रहे हैं और वातावरण को खराब कर रहे हैं,’’ राधेश्याम ने पहेली बूझी और मैं हंस पड़ा.

इस के बाद राधेश्याम अपने हाथ का उस्तरा मुझे दिखा कर बोला, ‘‘ये उस्तरा नाई के अलावा किसकिस के हाथ में है, पता है?’’

‘‘नहीं…’’ मैं अब की बार मुसकरा कर बोला.

‘‘सब से तेज धार वाला उस्तरा हमारी सरकार के हाथ में है. नित नए टैक्स लगा कर आम आदमी की जेब काटने में लगी हुई है,’’ राधेश्याम बोला.

अब तक राधेश्याम मेरी शेव एक बार बना चुका था. दूसरी बार क्रीम वाला साबुन मेरे गालों पर लगाते हुए बोला, ‘‘यह क्रीम जो आप की दाढ़ी पर लगा रहे हैं, इस का मतलब समझे हैं आप?’’

‘‘नहीं,’’ मैं बोला.

‘‘लोग आजकल बहुत चालाक और चापलूस हो गए हैं. जब अपना मतलब होता है तो इस क्रीम की तरह चिकना मस्का लगा कर दूसरों को खुश कर देते हैं किंतु जब मतलब निकल जाता है तो पहचानते भी नहीं,’’ राधेश्याम अपनी बात पर खुद ही ठहाका लगाने लगा.

मुझे राधेश्याम की इस तरह की उपमाएं बहुत पसंद आईं. वह एक खुशदिल इनसान लगा. मैं ने अपनी आंखें बंद कर लीं पर राधेश्याम चालू रहा और बताने लगा कि उस के घर में उस की बूढ़ी मां, पत्नी, 2 पुत्र और 1 पुत्री हैं.

पुत्री की वह शादी कर चुका था. उस का बड़ा बेटा एम.काम. कर चुका था और छोटा बी.ए. सेकंड ईयर में था. पर राधेश्याम को दुख इस बात का था कि उस का बड़ा बेटा एम.काम. करने के बाद भी पिछले 2 वर्षों से बेरोजगार था. वह सरकारी नौकरी का इच्छुक था पर उसे सरकारी नौकरी बेहद प्रयासों के बावजूद भी नहीं मिली.

अपनी दुकान से 5-6 हजार रुपए महीना राधेश्याम कमा रहा था. उस ने बेटे को सलाह दी थी कि वह दुकान में काम करे तो अभी जो दुकान 7 घंटे के लिए खुलती है उस का समय बढ़ाया जा सकता है. परंतु बेटे का तर्क था कि जब नाईगिरी ही करनी है तो एम.काम. करने का फायदा क्या था. पर राधेश्याम का कहना था कि नाईगिरी करो या कुछ और… पर काम करने की कला आनी चाहिए.

राधेश्याम की यह बात खत्म होतेहोते मेरी दाढ़ी बन चुकी थी. अब उस को अपनी असली कला मुझे दिखानी थी. उस ने अपनी बोतल से मेरे सिर पर पानी की फुहार मारी. फिर थोड़ी देर चंपी कर के सिर में कोई तेल डाला और मस्ती में अपने दोनों हाथों से मेरे सिर पर बड़ी देर तक उंगलियों से कलाबाजी दिखाता रहा.

मुझे पता नहीं सिर की कौनकौन सी नसों की मालिश हुई पर सच में आनंद आ गया. सारी थकान दूर हो गई. शरीर बेहद हलका हो गया था.

मैं राधेश्याम नाई को दिल से धन्यवाद देने लगा. उस का मेहनताना पूछा तो बोला, ‘‘कुल 20 रुपए, सरकार… यदि कटिंग भी बनवाते तो सब मिला कर 35 रुपए ले लेता.’’

मैं ने 100 का नोट निकाल कर कहा, ‘‘राधेश्याम, 20 रुपए तुम्हारी मेहनत के और शेष बख्शीश.’’

वह कुछ जवाब में कहता इस से पहले ही मैं बोल पड़ा, ‘‘देखो राधेश्याम, पहली बार तुम्हारी दुकान पर आया हूं… अनेक यादें ले कर जा रहा हूं इसलिए इसे रखना होगा. बाद में मिलने पर तुम्हारे फिल्मी दुनिया के अनुभव सुनूंगा.’’

अगले दिन ही मुझे दिल्ली लौटना पड़ा. इस के 6 माह बाद एक दिन राजेश का फोन आया कि उसे मेरी जरूरत पड़ गई है. मैं दिल्ली से राजेश के शहर में पहुंचा. 2 दिन में सारा काम निबटाया. इस के बाद दिल्ली लौटने से पहले सोचा कि राधेश्याम की दुकान पर 10 मिनट के लिए चल कर उस से मिल लूं, वह खुश हो जाएगा.

दुकान पर राधेश्याम का बड़ा लड़का मिला. वह कटिंग कर रहा था. मैं ने बड़ी व्याकुलता से पूछा, ‘‘राधेश्यामजी कहां हैं?’’

जवाब में वह फूटफूट कर रोने लगा. बोला, ‘‘पापा का पिछले महीने हार्ट अटैक के कारण निधन हो गया.’’

उस के रोते हुए बेटे को मैं ने अपने सीने से लगा कर दिलासा दी. जब वह थोड़ा शांत हुआ तो मैं ने उसे अपने पिता के व्यवसाय को अपनाते देख आश्चर्य प्रकट किया. कहा, ‘‘बेटे, तुम तो यह काम करना नहीं चाहते थे? क्या तुम्हारे लिए मैं नौकरी ढूंढूं. कामर्स पढ़े हो, मेरी किसी क्लाइंट की कंपनी में नौकरी लग जाएगी.’’

‘‘नहीं, अंकल, अब नौकरी नहीं करनी. पापा ठीक कहते थे कि पढ़ाई- लिखाई से आदमी का बौद्धिक विकास होता है पर सच्ची सफलता तो अपने काम को ही आगे बढ़ाने से मिलती है. नाई का काम करने से मैं छोटा नहीं बन जाऊंगा. छोटा बनूंगा, गलत काम करने से.’’

राधेश्याम के बेटे की आवाज में आत्मविश्वास झलक रहा था.

बोलती आंखे: क्यों परेशान रहती थी प्रतिमा ?

कम उम्र में ही जिम्मेदारियों तले दबी वह सिर्फ परिवार के लिए अपना कर्तव्य पूरा करती गई और शादी तक नहीं की. मगर ऐसा क्या हुआ उस के साथ कि एक समय वह खुद को ठगा हुआ महसूस करने ल   एकसमय था जब हर समय सितार के तारों की ?ांकार कानों में गूंजती रहती थी. बयार रोमरोम को सिहराती, सहलाती, अठखेलियां करती गुजरती थी.

खुले आकाश में पंक्तिबद्ध उड़ते पक्षियों को देख कर मेरा मन भी स्वच्छंद पंख फैलाए दूर आकाश में उड़ने को ललचाता था. हर सुबह एक सुखद नवजीवन का संदेश ले कर आती थी और हर रात सुनहरे सपनों के साथ नींद से बो?िल पलकों पर दस्तक देती थी.

दूर आकाश में दूधिया चांद बादलों की ओट से ?ांकता, मुसकराता और आने वाले जीवन के लिए शुभ आशीष देता प्रतीत होता था. जिंदगी की पुस्तक के पन्ने बड़ी तेजी से फड़फड़ाते हुए बदलते गए और एक किशोरी अपनी बड़ीबड़ी आंखों में तैरते हुए सपनों के साथ युवावस्था में प्रवेश कर के जिंदगी की सचाइयों को कुछकुछ सम?ाने लगी थी. युग का वह एक ऐसा दौर था जब मातापिता एक युवा लड़की के भविष्य के  धागों को बुन कर उसे एक ऐसा आवरण प्रदान करना चाहते हैं, जहां वह हर प्रकार के दुख की निशा के अंधकार से दूर रहे.

अब शुरू हुआ तरुणाई और इच्छाओं के सुंदर मेल के साथ जिंदगी का वह सफर जहां से आगे बढ़ने के बाद अपने शैशव और किशोर जीवन में जाना असंभव है. यह है कुदरत का नियम, नियति का कानून, जहां न चाहते हुए भी आगे बढ़ते जाना एक विडंबना ही है. मैं ने पीछे मुड़ कर देखने की कोशिश की तो 2 सुंदर मगर आंसुओं से भीगी आंखें मु?ा से कुछ कहने की कोशिश कर रही थीं. हां, शायद यही कि हम तुम्हारे शैशवकाल की आंखें हैं, जहां आंखों में जरा से आंसू आते ही मां का कोमल, प्यार से महकता आंचल हौले से उन आंसुओं की नमी को सुखा देता था.

हम तुम्हारे किशोरावस्था की आंखें हैं, जिंन्होंने जीवन के उस दौर में सबकुछ अच्छा ही देखा था. मु?ा में उन आंखों का सामना करने का बिलकुल साहस नहीं था.  अब मैं अपने जीवन में आगे बढ़ चुकी थी और एक युवा होने के नाते बहुत सी  जिम्मेदारियों और कायदेकानूनों से बंधी हुई थी. मेरी आंखों में सजीले सपने अभी भी तैरते थे, परंतु आकांक्षाओं के घने सायों में घिरे, कुछ सहमे तथा कुछ घबराए से, लगता था कि जीवन का कठोर धरातल, सपनों के कोमल कदमों को कुछ अधिक कर्कशता के साथ जख्म देने के लिए तैयार था. वह युवा जानती थी कि किशोरावस्था में उस ने जो हसीं व कोमल सपने देखे थे, वे कभी भी पूरे होने वाले नहीं हैं. फिर भी आशा की किरणों के प्रकाश ने प्रयास जारी रखा कि वास्तविकता का अंधकार जीवन से कुछ समय के लिए दूर ही रहे.

यह समाज, कू्रर समाज किसी भी लड़की को सपने देखने तक का अधिकार नहीं देता, सपने पूरे करना तो दूर की बात है. एक छोटे से शहर की यह लड़की अपने जीवन में कुछ ऐसा करना चाहती थी जिस से उस के मातापिता को सम्मान मिले तथा समाज में वह दूसरी लड़कियों के लिए प्रेरणा बन सके, उन्हें कुछ करने की दिशा दे सके, उन का मार्गदर्शन कर सके. अपनी ओर उठती सैकड़ों आंखों में मैं बस एक ही प्रश्न की परछाईं देखती थी कि क्या ऐसा संभव होगा? क्या यह निर्दयी समाज ऐसा होने देगा? फिर कुछ अन्य कुटिल आंखों में अपने लिए व्यंग्यात्मक घृणा के भावों का दर्शन करती थी, जो मु?ा से कह रहे थे कि लड़की को यह अधिकार हमारा समाज कभी नहीं दे सकता कि वह सुशिक्षित हो कर अपने स्वाभिमान की रक्षा करते हुए जीविकोपार्जन करे. उसे तो केवल एक ऐसे जीवनसाथी की प्रतीक्षा करनी चाहिए जो अपने अहं की संतुष्टि के लिए उस के जीवन में प्रवेश करेगा?

जिस के लिए मेरी कोमल भावनाओं की कोई कद्र नहीं होगी. वह आएगा किसी नृप के समान और उस के विचार से मु?ा जैसी तुच्छ, दीनहीन नारी पर दया कर के, मेरे द्वारा उस के लिए की गई हजारों सेवाओं के बदले वह मु?ो 2 वक्त की रोटी देने का एहसान करेगा. 2 वक्त की इन रोटियों के साथ सैकड़ों ताने तथा उलाहनों की तपन भी होगी, जिन्हें सुन कर वे रोटियां मेरे लिए स्वादिष्ठ भोजन नहीं बल्कि स्वयं को अपनी संतानों के लिए जीवित रखने का एक माध्यम मात्र होंगी. 22 वर्ष की अल्पायु में ही मु?ा से जीवन के सारे अधिकार छीन लिए गए. मैं सांस तो ले रही थी परंतु अपने लिए नहीं बल्कि अपने अनगिनत कर्तव्यों का पालन करने के लिए. मैं जी तो रही थी परंतु अपने लिए नहीं बल्कि कुछ ऐसे लोगों के लिए जो मु?ो इंसान भी नहीं सम?ाते थे.

मैं तो बस एक कठपुतली बन कर रह गई थी जो लोगों के इशारों पर, न चाहते हुए भी अनवरत, अथक नृत्य कर रही थी. कई जोड़ी आंखें मु?ा से दिनभर का हिसाब मांगती रहती थीं. मैं अपने कर्तव्यों को पूरा करतेकरते सारे दिन की थकान के बाद रात के अधंकार में अपने वजूद को तलाशने की कोशिश करती थी, पर हर बार नाकाम साबित होती थी. मेरा मस्तिष्क जो कभी वीणा के तारों की ?ांकार के समान हर दिन तरोताजा, सुमधुर तानें छेड़ता रहता था, आज वही लगता था कि हमेशा के लिए सो जाना चाहता है, चिरनिद्रा में लीन हो जाना चाहता है. रात के अंधकार में आईने के सामने खड़ी मैं खुद को निहार रही थी और स्तब्ध थी. आईने में यह छवि किस की है? कितनी सदियों के बाद आज मैं आईने के सामने खड़ी थी और आईने से बारबार यह प्रश्न करना चाहती थी कि वह मु?ो किस की छवि के दर्शन करा रहा है? यह तो मैं नहीं, नहीं… नहीं, यह तो मैं हो ही नहीं सकती.

मेरे तो काले, लंबे, घने बाल घुटनों को छूते थे. मेरे गोरे चेहरे पर 2 बड़ीबड़ी बोलती आंखें थीं, जो हर समय सपनों में खोई सी प्रतीत होती थीं. अधरों पर सुबह की ताजगी के समान खिली हुई एक मुसकराहट थी. कोमल लता के समान लचीला शरीर, जो प्राकृतिक रूप से सुंदर, सुगंधित छटा बिखेरता हुआ साक्षात अद्भुत स्वप्निल प्रतिमा सा दिखाई देता था. आईने वाली बूढ़ी औरत की आंखें तो धूमिल हैं. उन में सपने नहीं, केवल निराशा और आंसू हैं. इस के चेहरे पर तो ?ार्रियां ही ?ार्रियां हैं. माथे पर पड़ी गहरी लकीरें कह रही हैं कि इस औरत ने अपनी बेरौनक जिंदगी में बहुत उतारचढ़ाव देखे हैं. जिंदगीभर उस का सामना समस्याओं से ही होता रहा है. वह तो इस पूरे संसार में प्यार बांटना चाहती थी, अपनी अनथक सेवा से लोगों के दिलों को जीतना चाहती थी, पर इतने सब प्रयासों के बाद भी इस संसार में उसे नफरत, अपमान और दुत्कार के सिवा कुछ भी नहीं मिला.

उस के अपनों ने ही उसे दुखों के अंधकार में धकेल दिया.  एक समय था जब वह उन बोलती आंखों का इंतजार करती थी जो उस के जीवन  में आ कर उस के ऊपर अपार प्रेम की वर्षा कर के कहेंगी कि तुम्हारी छवि मु?ा में हर पल बसी है, जिन आंखों से जीवन जीने की दिशा मिलेगी, जो आंखें उठतीगिरती पलकों के साथ उस के हर सेवाभाव के लिए कृतज्ञतापूर्वक मुसकान बिखेरेंगी, जो उस के मन की बात बिना कहे ही पढ़ लेंगी, जिन आंखों में उस के लिए सम्मान होगा. मगर काश… काश ऐसा हो पाता. मैं ने तो जीवनभर हर तरफ से नफरत की बौछारों को ही ?ोला है. मैं आज आईने पर पड़ी धूल की तरह हो चुकी हूं, मैं समय की धारा से पूछना चाहती हूं कि मैं कहां गलत थी? मैं ने क्या गलत किया जिस की सजा मु?ो मिली? प्रियजनों के लिए सप्रेम कर्तव्यों का पालन किया, कोई अपेक्षित अंधकार तो था ही नहीं. तनमनधन अपने प्रियजनों पर निछावर किया.

मेरे शरीर के अंग ही मु?ो पीडि़त कर गए. क्या मु?ो लड़की होने की सजा जीवनभर मिलती रहेगी? क्या मेरे दुखों का अंत नहीं? मेरे सपनों की हत्या कर दी गई. मु?ा से हर सांस का हिसाब मांगा गया. मेरी सपनों से बो?िल आंखें अश्रुपूरित हो कर आज संसार से पूछना चाहती हैं कि क्या मेरे जीवन में आई दुखों, यातनाओं की आंधियों का उन के पास कोई जवाब है? मेरी दुखी आंखें कहना चाहती हैं कि काश इस जीवन में कोई उन की व्यथा को सम?ा पाता.

जब ये आंखें मुसकराना चाहती थीं तब लोगों ने इन में आंसू न भरे होते. जब ये सुख की नींद सोना चाहती थीं, तब इन में दर्द और तृष्णा न भरी गई होती. प्रेमप्यासी आंखें आज आंसुओं में डूबडूब कर इस सृष्टि के पालनहार से यह पूछ रही हैं कि इस दुखी जीवन का अंत कब होगा? अंतत: दूसरी दुनिया में प्रवेश करने के बाद भी क्या भावनात्मक असुरक्षा बनी रहेगी? क्या मेरे दुखों का अंत कभी होगा? जिंदगी की हर खुशी से रिक्त आंखें क्या कभी चैन की नींद सो पाएंगी? क्या मेरी बूढ़ी बोलती आंखों का दर्द कभी किसी को सम?ा में आएगा?

Holi 2024: अच्छा सिला दिया तूने मेरे प्यार का

‘‘वाह मां, ये झुमके तो बहुत सुंदर हैं, कब खरीदे?’’ रंजो ने अपनी मां प्रभा के कानों में झूलते झुमकों को देख कर कहा.

‘‘पिछले महीने हमारी शादी की सालगिरह थी न, तभी अपर्णा बहू ने मुझे ये झुमके और तुम्हारे पापा को घड़ी दी थी. पता नहीं कब वह यह सब खरीद लाई,’’ प्रभा ने कहा.

अपनी आंखें बड़ी कर रंजो बोली, ‘‘भाभी ने, क्या बात है.’’ फिर आह भरते हुए कहने लगी, ‘‘मुझे तो कभी इस तरह से कुछ नहीं दिया उन्होंने. हां भई, सासससुर को मक्खन लगाया जा रहा है, लगाओ,’ लगाओ, खूब मक्खन लगाओ.’’ उस का ध्यान उन झुमकों पर ही अटका हुआ था, कहने लगी, ‘‘जिस ने भी दिए हों मां, पर मेरा दिल तो इन झुमकों पर आ गया.’’

‘‘हां, तो ले लो न, बेटा. इस में क्या है,’’ कह कर प्रभा ने वे झुमके उतार कर तुरंत अपनी बेटी रंजो को दे दिए. उस ने एक बार यह नहीं सोचा कि अपर्णा को कैसा लगेगा जब वह जानेगी कि उस के दिए उपहारस्वरूप झुमके उस की सास ने अपनी बेटी को दे दिए.

प्रभा के देने भर की देरी थी कि रंजो ने झट से वे झुमके अपने कानों में डाल लिए, फिर बनावटी मुंह बना कर कहने लगी, ‘‘मन नहीं है तो ले लो मां, नहीं तो फिर मेरे पीठपीछे घर वाले, खासकर पापा, कहेंगे कि जब आती है रंजो, कुछ न कुछ ले कर ही जाती है.’’

‘‘कैसी बातें करती हो बेटा, कोई क्यों कुछ कहेगा. और क्या तुम्हारा हक नहीं है इस घर में? तुम्हें पसंद है तो रख लो न, इस में क्या है. तुम पहनो या मैं पहनूं, बात बराबर है.’’

‘‘सच में मां? ओह मां, आप कितनी अच्छी हो,’’ कह कर रंजो अपनी मां के गले लग गई. हमेशा से तो वह यही करती आई है, जो पसंद आया उसे रख लिया, यह कभी न सोचा कि वह चीज किसी के लिए कितना माने रखती है. कितने प्यार से और किस तरह से पैसे जोड़ कर अपर्णा ने अपनी सास के लिए वे झुमके खरीदे थे, पर प्रभा ने बिना सोचेसमझे उठा कर झुमके अपनी बेटी को दे दिए.

अरे, वह यह तो कह सकती थी कि ये झुमके तुम्हारी भाभी ने बड़े शौक से मुझे खरीद कर दिए हैं, इसलिए मैं तुम्हें दूसरे बनवा कर दे दूंगी. पर नहीं, कभी उस ने बेटी के आगे बहू की भावना को समझा है, जो अब समझेगी?

‘‘मां, देखो तो मेरे ऊपर ये झुमके कैसे लग रहे हैं, अच्छे लग रहे हैं न, बोलो न मां?’’ आईने में खुद को निहारते हुए रंजो कहने लगी, ‘‘वैसे मां, आप से एक शिकायत है.’’

‘‘अब किस बात की शिकायत है?’’ प्रभा ने पूछा.‘‘मुझे नहीं, बल्कि आप के जमाई को, कह रहे थे आप ने वादा किया था उन से ब्रेसलेट देने का, जो अब तक नहीं दिया.’’

‘‘ओ, हां, याद आया, पर अभी पैसे की थोड़ी तंगी है, बेटा. तुझे तो पता ही है कि तेरे पापा को कितनी कम पैंशन मिलती है. घर तो अपर्णा बहू और मानव की कमाई से ही चलता है,’’ अपनी मजबूरी बताते हुए प्रभा ने कहा.‘‘वह सब मुझे नहीं पता है मां, वह आप जानो और आप के जमाई. बीच में मुझे मत घसीटो,’’ झुमके अपने पर्स में सहेजते हुए रंजो ने कहा और चलती बनी.

‘‘बहू के दिए झुमके तुम ने रंजो को दे दिए?’’ हैरत से भरत ने अपनी पत्नी प्रभा से पूछा‘‘हां, उसे पसंद आ गए तो दे दिए,’’ बस इतना ही कहा प्रभा ने और वहां से जाने लगी, जानती थी वह कि अब भरत चुप नहीं रहने वाले.

‘‘क्या कहा तुम ने, उसे पसंद आ गए? हमारे घर की ऐसी कौन सी चीज है जो उसे पसंद नहीं आती है, बोलो? जब भी आती है कुछ न कुछ उठा कर ले ही जाती है. जरा भी शर्म नहीं है उसे. उस दिन आई तो बहू का पर्स, जो उस की दोस्त ने उसे दिया था, उठा कर ले गई. कोई कुछ नहीं कहता तो इस का मतलब यह नहीं कि वह अपनी मनमरजी करेगी,’’ गुस्से से आगबबूला होते हुए भरत ने कहा.

तिलमिला उठी प्रभा. अपने पति की बातों पर बोली, ‘‘ऐसा कौन सी जायदाद उठा कर ले गई वह, जो तुम इतना सुना रहे हो? अरे एक जोड़ी झुमके ही तो ले गई है. जाने क्यों रंजो, हमेशा तुम्हारी आंखों में खटकती रहती है?’’

भरत भी चुप नहीं रहे. कहने लगे, ‘‘किस ने मना किया तुम्हें जायदाद देने से, दे दो न जो देना है, पर किसी का प्यार से दिया हुआ उपहार यों ही किसी और को देना, क्या यह सही है? अगर बहू ऐसा करती तो तुम्हें कैसा लगता? कितने अरमानों से वह तुम्हारे लिए झुमके खरीद कर लाई थी और तुम ने एक मिनट भी नहीं लगाया उसे रंजो को देने में.’’‘‘किसी को नहीं, बेटी को दिए हैं, समझे, बड़े आए बहू के चमचे, हूं…’’

‘‘अरे, तुम्हारी बेटी तुम्हारी ममता का फायदा उठा रही है और कुछ नहीं. किस बात की कमी है उसे? हमारे बेटेबहू से ज्यादा कमाते हैं वे दोनों पतिपत्नी, फिर भी कभी हुआ उसे कि अपने मांबाप के लिए

2 रुपए का भी उपहार ले कर आए? और हमारी छोड़ो, क्या कभी उस ने अपनी भतीजी को एक खिलौना भी खरीद कर दिया है? नहीं, बस लेना जानती है. क्या मेरी आंखें नहीं हैं? देखता हूं मैं, तुम बहूबेटी में कितना फर्क करती हो. बहू का प्यार तुम्हें ढकोसला लगता है और बेटी का ढकोसला प्यार. ऐसे घूरो मत मुझे, पता चल जाएगा तुम्हें भी एक दिन.’’

‘‘कैसे बाप हो तुम, जो बेटी के सुख पर भी नजर लगाते रहते हो. पता नहीं क्या बिगाड़ा है रंजो ने आप का, जो हमेशा वह तुम्हारी आंखों की किरकिरी बनी रहती है?’’ अपनी आंखें लाल करते हुए प्रभा बोली.

‘‘ओ, कमअक्ल औरत, रंजो मेरी आंखों की किरकिरी नहीं बनी है बल्कि अपर्णा बहू तुम्हें फूटी आंख नहीं सुहाती है. पूरे दिन घर में बैठी आराम फरमाती रहती हो, हुक्म चलाती रहती हो. कभी यह नहीं होता कि बहू के कामों में थोड़ा हाथ बंटा दो और तुम्हारी बेटी, वह तो यहां आ कर अपना हाथपैर हिलाना भी भूल जाती है. क्या नहीं करती है बहू इस घर के लिए. बाहर जा कर कमाती भी है और अच्छे से घर भी संभाल रही है. फिर भी तुम्हें उस से कोई न कोई शिकायत रहती ही है. जाने क्यों तुम बेटीबहू में इतना भेदभाव करती हो?’’

‘‘कमा कर लाती है और घर संभालती है, तो कौन सा एहसान कर रही है हम पर. घर उस का है, तो संभालेगा कौन?’’ ‘‘अच्छा, सिर्फ उस का घर है, तुम्हारा नहीं? बेटी जब भी आती है उस की खातिरदारी में जुट जाती हो, पर कभी यह नहीं होता कि औफिस से थकीहारी आई बहू को एक गिलास पानी दे दो. बस, तानें मारना आता है तुम्हें. अरे, बहू तो बहू, उस की दोस्त को भी तुम देखना नहीं चाहती हो. जब भी आती है, कुछ न कुछ सुना ही देती हो. तुम्हें लगता है कहीं वह अपर्णा के कान न भर दे तुम्हारे खिलाफ. उफ्फ, मैं भी किस पत्थर से अपना सिर फोड़ रहा हूं, तुम से तो बात करना ही बेकार है,’’ कह कर भरत वहां से चले गए.

सही तो कह रहे थे भरत. अपर्णा क्या कुछ नहीं करती है इस घर के लिए. पर फिर भी प्रभा को उस से शिकायत ही रहती थी. नातेरिश्तेदार हों या पड़ोसी, हर किसी से वह यही कहती फिरती थी, ‘भाई, अब बहू के राज में जी रहे हैं, तो मुंह बंद कर के ही जीना पड़ेगा न, वरना जाने कब बहूबेटे हम बूढ़ेबूढ़ी को वृद्धाश्रम भेज दें.’ यह सुन कर अपर्णा अपना चेहरा नीचे कर लेती थी पर अपने मुंह से एक शब्द भी नहीं बोलती थी. पर उस की आंखों के बहते आंसू उस के मन के दर्द को जरूर बयां कर देते थे.

अपर्णा ने तो आते ही प्रभा को अपनी मां मान लिया था, पर प्रभा तो आज तक उसे पराई घर की लड़की ही समझती रही. अपर्णा जो भी करती, प्रभा को वह बनावटी लगता था और रंजो का एक बार सिर्फ यह पूछ लेना, ‘मां आप की तबीयत तो ठीक है न?’ सुन कर कर प्रभा खुशी से कुप्पा हो जाती और अगर जमाई ने हालचाल पूछ लिया, तो फिर प्रभा के पैर ही जमीन पर नहीं पड़ते थे.

उस दिन सिर्फ इतना ही कहा था अपर्णा ने, ‘मां, ज्यादा चाय आप की सेहत के लिए नुकसानदायक हो सकती है और वैसे भी, डाक्टर ने आप को चाय पीने से मना किया है. वुमन हौर्लिक्स लाई हूं, यह पी लीजिए.’ यह कह कर उस ने गिलास प्रभा की ओर बढ़ाया ही था कि प्रभा ने गिलास उस के हाथों से झटक लिया और टेबल पर रखते हुए तमक कर बोली, ‘तुम मुझे ज्यादा डाक्टरी का पाठ मत पढ़ाओ बहू, जो मांगा है वही ला कर दो,’ फिर बुदबुदाते हुए अपने मन में ही कहने लगी, ‘बड़ी आई मुझे सिखाने वाली, अच्छे बनने का नाटक तो कोई इस से सीखे.’ अपर्णा की हर बात उसे नाटक सरीखी लगती थी.

मानव औफिस के काम से शहर से बाहर गया हुआ था और अपर्णा भी अपने कजिन भाई की शादी में गई हुई थी. मन ही मन अपर्णा यह सोच कर डर रही थी कि अकेले सासससुर को छोड़ कर जा रही हूं, कहीं पीछे कुछ… यह सोच कर जाने से पहले उस ने रंजो को दोनों का खयाल रखने और दिन में कम से कम एक बार उन्हें देख आने को कहा. जिस पर रंजो ने आग उगलते हुए कहा, ‘‘आप नहीं भी कहतीं न, तो भी मैं अपने मांपापा का खयाल रखती. आप को क्या लगता हैख् एक आप ही हैं इन का खयाल रखने वाली?’’

पर अपर्णा के जाने के बाद वह एक बार भी अपने मायके नहीं आई वह इसलिए कि उसे वहां काम करना पड़ जाता. हां, फोन पर हालचाल जरूर पूछ लेती और साथ में यह बहाना भी बना देती कि वक्त नहीं मिलने के कारण वह उन से मिलने नहीं आ पा रही, पर वक्त मिलते ही आएगी.

एक रात अचानक भरत की तबीयत बहुत बिगड़ गई. प्रभा इतनी घबरा गई कि उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या करे. उस ने मानव को फोन लगाया पर उस का फोन विस्तार क्षेत्र से बाहर बता रहा था. फिर उस ने अपनी बेटी रंजो को फोन लगाया. घंटी तो बज रही थी पर कोई उठा नहीं रहा था. जमाई को भी फोन लगाया, उस का भी वही हाल था. जितनी बार भी प्रभा ने रंजो और उस के पति को फोन लगाया, उन्होंने नहीं उठाया. ‘शायद सो गए होंगे’ प्रभा के मन में यह खयाल आया. फिर हार कर उस ने अपर्णा को फोन लगाया. इतनी रात गए प्रभा का फोन आया देख कर अपर्णा घबरा गई. प्रभा कुछ बोलती, उस से पहले ही वह बोल पड़ी.

‘‘मां, क्या हुआ, पापा ठीक हैं न?’’ लेकिन जब उसे प्रभा की सिसकियों की आवाज आई तो वह समझ गई कि कुछ बात जरूर है. घबरा कर वह बोली, ‘‘मां, मां, आप रो क्यों रही हैं, कहिए न क्या हुआ?’’ अपने ससुर के बारे में सब जान कर कहने लगी, ‘‘मां, आ…आ…आप घबराइए मत, कुछ नहीं होगा पापा को. मैं कुछ करती हूं.’’ उस ने तुरंत अपनी दोस्त शोना को फोन लगाया और सारी बातों से उसे अवगत कराते हुए कहा कि तुरंत वह पापा को अस्पताल ले कर जाए, जैसे भी हो.

अपर्णा की जिस दोस्त को प्रभा देखना तक नहीं चाहती थी और उसे बंगालनबंगालन कह कर बुलाती थी, आज उसी की बदौलत भरत की जान बच पाई, वरना पता नहीं क्या हो जाता. डाक्टर का कहना था कि मेजर अटैक था. अगर थोड़ी और देर हो जाती मरीज को लाने में, तो वे इन्हें नहीं बचा पाते.तब तक अपर्णा और मानव आ चुके थे. फिर कुछ देर बाद रंजो भी आ गई. बेटेबहू को देख कर बिलखबिलख कर रो पड़ी प्रभा और कहने लगी, आज अगर शोना न होती, तो शायद तुम्हारे पापा जिंदा न होते.’’

अपर्णा के भी आंसू रुक नहीं रहे थे. उस ने अपनी सास को ढांढ़स बंधाया और अपनी दोस्त को तहेदिल से धन्यवाद दिया कि उस की वजह से उस के ससुर की जान बच पाई. अपनी भाभी को मां के करीब देख कर रंजो भी मगरमच्छ के आंसू बहाते हुए कहने लगी, ‘‘मां, मैं तो मर ही जाती अगर पापा को कुछ हो जाता. कितनी खराब हूं मैं जो आप की कौल नहीं देख पाई. वह तो सुबह आप की मिस्डकौल देख कर वापस आप को फोन लगाया तो पता चला, वरना यहां तो कोई कुछ बताता भी नहीं है.’’ यह कह कर अपर्णा की तरफ घूरने लगी रंजो.

तभी उस का 7 साल का बेटा बोल पड़ा, ‘‘मम्मी, आप झूठ क्यों बोल रही हो? नानी, मम्मी झूठ बोल रही हैं. जब आप का फोन आया था, हम टीवी पर ‘बाहुबली’ फिल्म देख रहे थे. मम्मी यह कह कर फोन नहीं उठा रही थीं कि पता नहीं कौन मर गया जो मां इतनी रात को हमें परेशान कर रही हैं. पापा ने कहा भी उठा लो, पर मां ने फोन नहीं उठाया और फिल्म देखती रहीं.’’ यह सुन कर तो सब हैरान हो गए.

?सचाई खुलने से रंजो की तो सिट्टीपिट्टी गुम हो गई. उसे लगा, जैसे उसे करंट लग गया हो. अपने बेटे को एक थप्पड़ लगाते हुए बोली, ‘‘पागल कहीं का, कुछ भी बकवास करता रहता है.’’ फिर हकलाते हुए कहने लगी, ‘‘अरे, वह तो कि…सी और का फोन आ रहा था, मैं ने उस के लिए कहा था,’’ दांत निपोरते हुए आगे बोली, ‘‘देखो न मां, कुछ भी बोलता है, बच्चा है न इसलिए.’’

प्रभा को अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था. कहने लगी, ‘‘इस का मतलब तुम उस वक्त जागी हुई थी और तुम्हारा फोन भी तुम्हारे आसपास ही था? तुम ने एक बार भी यह नहीं सोचा कि इतनी रात को तुम्हारी मां किसी कारणवश ही तुम्हें फोन कर रही होगी? अच्छा सिला दिया तू ने मेरे प्यार और विश्वास का, बेटा. आज मेरा सुहाग उजड़ गया होता, अगर यह शोना न होती. जिस बहू के प्यार को मैं ढकोसला और बनावटी समझती रही, आज पता चल गया कि वह, असल में, प्यार ही था. मैं तो आज भी इस भ्रम में ही जीती रहती अगर तुम्हारा बेटा सचाई न बताता तो.’’अपने हाथों से सोने का अंडा देने वाली मुरगी निकलते देख कहने लगी रंजो, ‘‘ना, नहीं मां, आप गलत समझ रही हैं.’’

‘‘समझ रही थी, पर अब मेरी आंखों पर से परदा हट चुका है. सही कहते थे तुम्हारे पापा कि तुम मेरी ममता का सिर्फ फायदा उठा रही हो, कोई मोह नहीं है तुम्हारे दिल में मेरे लिए,’’ कह कर प्रभा ने अपना चेहरा दूसरी तरफ फेर लिया और अपर्णा से बोली, ‘‘चलो बहू, देखें तुम्हारे पापा को कुछ चाहिए तो नहीं?’’ रंजो, ‘‘मां, मां’’ कहती रही. पर पलट कर एक बार भी नहीं देखा प्रभा ने, मोह टूट चुका था उस का.

मेरी एक परिचिता के बेटे का विवाह होने वाला था. शादी का जो कार्ड पसंद किया गया, वह काफी महंगा था. उन्होंने ज्यादा कार्ड न छपवा कर एक तरकीब आजमाई, जिस में उन्हें पूरी सफलता मिली. पति व बेटे के बौस और कुछ बहुत महत्त्वपूर्ण लोगों को तो कार्ड दे दिए, बाकी जिस के घर भी गईं, कार्ड पर उन्हीं के सामने नाम लिखने से पहले बोलतीं, ‘‘बस, क्या बताऊं, कैसे गलती हो गई, कार्ड्स कम हो गए.’’

सुनने वाला फौरन बोलता, ‘‘अरे, हमें कार्ड की जरूरत नहीं, हम आ जाएंगे.’’परिचिता पूछतीं, ‘‘सच, आप आ जाओगे? फिर आप को कार्ड रहने दूं?’’सामने वाला कहता है, ‘‘हां, हां, हम ऐसे ही आ जाएंगे.’’

सामने वाला भी अपने को उन का खास समझता कि वे ऐसी बात शेयर कर रही हैं. परिचिता ने सब को एक खाली कार्ड दिखाते हुए निबटा दिया.मैं उन के साथ 2 घरों में कार्ड देने गई थी, इसलिए इस कलाकारी की प्रत्यक्षदर्शी हूं. खैर, कार्ड मुझे भी नहीं मिला. मैं ने बाद में उन्हें छेड़ा, ‘‘जब सब को दिखा देना, तो आखिर में कार्ड मुझे चाहिए.’’  इस पर

वे खुल कर हंसीं, बोलीं, ‘‘नहीं मिलेगा, बहुत खर्चे हैं शादी के. चलो, कार्ड के तो

पैसे बचाए.’’मेरी मौसी ने एक दिलचस्प किस्सा बताया. वे रोडवेज की बस से बनारस जा रही थीं. उन की दूसरी तरफ की सीट पर एक बूढ़ी अम्मा आ कर बैठ गईं. कंडक्टर भला आदमी था, उस ने बूढ़ी अम्मा से टिकट के लिए पैसे भी नहीं लिए.बस चल पड़ी. थोड़ी देर में कंडक्टर ने देखा कि अम्मा कुछ परेशान सी हैं. उस ने पूछा तो वे बोलीं, ‘‘बेटा, इलाहाबाद आ जाए तो बता देना.’’

कंडक्टर ने हां बोला और चला गया. लेकिन बाद में वह भी भूल गया, तब तक बस इलाहाबाद से आगे निकल गई थी.कंडक्टर को अच्छा न लगा, उस ने बस वापस मुड़वाई. इलाहाबाद आया तो सोती हुई को जगाते हुए वह बोला, ‘‘अम्मा, इलाहाबाद आ गया.’’

‘‘अच्छा बेटा, चलो, अपनी दवाई खा लेती हूं.’’‘‘अरे अम्मा, यहां उतरना नहीं है क्या,’’ कंडक्टर बोला.‘‘मुझे तो बनारस जाना है. बेटी ने कहा था कि इलाहाबाद आने पर दवाई खा लेना,’’ अम्मा बोलींसवारियों का हंसहंस कर बुरा हाल हो गया और कंडक्टर की शक्ल देखने लायक थी.

Holi 2024: काले घोड़े की नाल- क्या चाहता था चंद्रिका

मुखियाजी को घोड़े पालने का बहुत शौक था. बताते हैं कि ये शौक उन को विरासत में मिला हुआ था. आज भी मुखियाजी के पास 5 घोड़े थे, जिन की देखभाल का काम उन्होंने चंद्रिका नाम के 35 साला एक शख्स को दे रखा था.

मुखियाजी की उम्र तकरीबन 50-55 उम्र के बीच, फिर भी बढ़ती उम्र का कोई असर नहीं पता चलता था. रोज सुबहशाम दूध पीते और लंबी सैर को जाते. अपनी जवानी के दिनों में आसपास के इलाकों में खूब दंगल जीते थे मुखियाजी ने.

पीठ पीछे कोई मुखियाजी को कुछ भी कहे, पर उन के सामने सभी नतमस्तक नजर आते थे.

मुखियाजी और उन की पत्नी के जीवन में एक बहुत भारी कमी थी कि दोनों के कोई औलाद नहीं थी. घरेलू नुसखों से कई बार उपचार करने की कोशिश भी की गई, पर कुछ नतीजा नहीं निकला. मुखियाइन की गोद हरी नहीं हो सकी और दोनों हार कर हाथ पर हाथ धर कर बैठ गए.

मुखियाजी को अपनी वंश बेल सूखने की कतई परवाह नहीं थी. उन्हें तो अपनी जिंदगी में अपनी सभी इंद्रियों से सुख उठाना अच्छी तरह आता था.

मुखियाजी कुल मिला कर 3 भाई थे, मुखियाजी से छोटा वाला संजय और सब से छोटा विनय, दोनों भाई मुखियाजी के प्रभाव में दबे हुए रहते थे. किसी की भी उन के सामने जबान खोलने की हिम्मत नहीं थी.

पिछले कुछ दिनों से मुखियाजी के मन में उन के किसी चमचे ने समाजसेवा का शौक लगा दिया था, तभी तो मुखियाजी हर किसी से यही कहते कि बड़े घर से तो हर कोई रिश्ता जोड़ना चाहता है, पर मैं तो संजय और विनय की शादी किसी गरीब घर की लड़की से ही करूंगा.

हां… पर लड़की खूबसूरत और सुशील होनी चाहिए, समाजसेवा भी होगी और किसी गरीब का भला भी हो जाएगा.

आसपास के गांव में कम पैसे वाले ठाकुर भी रहते थे. उन में से बहुत से लोग मुखियाजी के यहां अपनी लड़कियों का रिश्ता ले कर पहुंचे. मुखियाजी ने लड़कियों के फोटो रखवा लिए और बाद में संपर्क करने को कहा.

कुछ दिन बाद मुखियाजी ने उन सारे फोटो में से 2 खूबसूरत लड़कियों को पसंद किया. हैरानी की बात थी कि मुखियाजी ने जो 2 लड़कियां पसंद की थीं, वो अपेकक्षाकृत भरेपूरे बदन की थीं.

मुखियाजी ने उन दोनों के पिताजी को बुला भेजा और हर किसी से अकेले में बात की, “देखिए, हम अपने भाई संजय के लिए एक लड़की ढूंढ़ रहे हैं… पर हमारी 2 शर्तें हैं…

“पहली शर्त तो यह है कि फोटो देख कर लड़की की बुद्धिमत्ता का परिचय नहीं मिलता, इसलिए हम व्यक्तिगत रूप से लड़की से मिलना चाहेंगे… और दूसरी शर्त क्या होगी कि ये हम आप को रिश्ता तय होने के बाद बताएंगे.”

दूसरी शर्त वाली बात से लड़की का पिता थोड़ा घबराया, तो मुखियाजी ने उस से कहा कि ऐसी कोई शर्त नहीं होगी, जिसे वे पूरा न कर सकें. उन की इस बात पर लड़की के बाप को कोई आपत्ति नहीं हुई.

उन लोगों ने घर जा कर अपनी बेटियों को नैतिकता का पाठ पढ़ाना शुरू कर दिया कि मुखियाजी के सभी सवालों का उत्तर सही से देना और सासससुर की बात मानना एक अच्छी बहू के गुण होते हैं.

मुखियाजी को आखिरकार सीमा नाम की एक लड़की पसंद आ गई.

“देखो सीमा, संजय को हम ने ही पालपोस कर बड़ा किया है, इसलिए हमारी हर बात मानता है वह. यही उम्मीद हम तुम से भी करते हैं… मानोगी न हमारी बात,” सीमा की पीठ पर हाथ घुमाते हुए मुखियाजी ने कहा. सीमा ने सिर्फ हां में सिर हिला दिया.

मुखियाजी ने सीमा के बाप मोती सिंह को बुलाया और कहा कि उन की लड़की उन्हें पसंद आ गई है और सब से पास वाले मुहूर्त बमें वे सीमा और संजय की शादी कर दें और फिर मुखियाजी ने सीमा के बाप मोती सिंह को अपनी दूसरी शर्त के बारे में बताया, “हमारी दूसरी शर्त ये है कि तुम हमें अपनी लड़की दे रहे हो, इसलिए हमारा भी फर्ज है कि हम तुम्हें अपनी तरफ से कुछ भेंट दें,” ये कह कर मुखियाजी ने 50,00 रुपए मोती सिंह को पकड़ा दिए. मोती सिंह उन की दरियादिली पर खुश हो गया. उस ने मुखियाजी के सामने हाथ जोड़ लिए.

संजय और सीमा की शादी हो गई थी, पर मुखियाजी का सख्त आदेश था कि अभी संजय और सीमा की सुहागरात का उचित समय नहीं है, इसलिए संजय को अलग कमरे में सोना पड़ेगा.

मुखियाजी अपने दोनों भाइयों के गांवों में रहने के सख्त खिलाफ थे. उन का साफ कहना था कि अगर तुम लोग गांव में रुक गए, तो यहां के गंवार लड़कों के साथ तुम लोग भी नहर पर बैठ कर चिलम पीया करोगे और आवारागर्दी करोगे और ये बात मुखियाजी को मंजूर नहीं, इसलिए मेहमानों के जाते ही संजय और विनय को शहर चलता कर दिया गया. बेचारा संजय अभी अपनी पत्नी के साथ सैक्ससुख भी नहीं ले पाया था और उस से अलग हो जाना पड़ा.

सीमा ने संजय से न जाने की फरियाद भी की, पर मुखियाजी का आदेश संजय के लिए पत्थर की लकीर था, इसलिए वह कुछ न बोल सका.

इसी तरह पूरे 6 महीने हो गए थे संजय को गए हुए, सीमा ने एक मर्द के शरीर का सामीप्य अभी तक नहीं जाना था. वह अकसर सोचती कि ऐसी शादी से क्या फायदा कि दिनभर घर का काम करो और रात में बिस्तर पर करवटें बदलो…

बाहर बारिश हो रही थी. सीमा अपने बिस्तर पर लेटी हुई थी कि उसे अपने पैरों पर किसी के गरम हाथ की छुअन महसूस हुई. वे हाथ उस की जांघों तक पहुंच गए थे, कोई उस के सीने पर अपने हाथों का दबाव बढ़ा रहा था. सीमा की सांसें गरम हो गई थीं. उस का स्पर्श सीमा को बहुत अच्छा लग रहा था. सीमा को लगा कि उस का पति संजय ही वापस आ गया है. उस ने अपनी आंखें बंद कर लीं और आंनद लेना शुरू कर दिया. उस आदमी ने सीमा के सारे कपड़े हटा दिए और सीमा के स्त्री शरीर में प्रवेश कर गया.

सीमा को आज पहली बार मर्द की मर्दानगी का मजा मिला था. संभोग खत्म होते ही वह व्यक्ति सीमा से अलग हो गया.

सीमा ने उस की तरफ देख कर प्यारमनुहार करना चाहा और अपनी आंखें खोलीं…पर ये क्या, ये तो संजय नहीं था, बल्कि मुखियाजी थे… बिस्तर में पूरी तरह नग्न सीमा भला मुखियाजी का सामना कैसे करती. उस ने तुरंत ही चादर से अपने शरीर को ढकने की असफल कोशिश की और अस्फुट स्वर में बोली, “ये क्या किया मुखियाजी आप ने?”

“एक बात अच्छी तरह समझ ले सीमा… तुझे अब मुझे ही अपना पति समझना होगा, क्योंकि संजय का सारा खर्चा मैं उठाता आया हूं. मेरे सामने वह चूं तक नहीं करेगा. मैं उस के माल का मजा उड़ा सकूं, इसीलिए उस को मैं ने शहर भेज दिया है…

“और वैसे भी हम ने तेरे बाप को हमारी हर बात मानने के लिए पैसे दिए हैं,” नशे में बोल रहे थे मुखियाजी.

ऐसा सुन कर सन्न रह गई थी सीमा, पर मन ही मन उस ने अपनेआप को समझा लिया था, क्योंकि उसे मुखियाजी के रूप में उस के जिस्म को सुख पहुंचाने वाला मर्द जो मिल गया था.

फिर क्या था, मुखियाजी लगभग रोज ही सीमा के कमरे में आ जाते और दोनों सैक्स का जम कर मजा उठाते. मुखियाजी के चेहरे की लालिमा बढ़ गई थी. नई जवान लड़की के जिस्म का रस पी कर जैसे उन की जवानी ही वापस आ गई थी.

कभीकभी जब मुखियाजी अपनी पत्नी के पास ही सो जाते तो सीमा को जैसे सौतिया डाह सताने लगता. उसे अकेले नींद न आती, इसलिए कभी वह चूड़ियां खनकाती, तो कभी अपनी पायलें बजाते हुए मुखियाजी के कमरे के सामने से निकलती. हार कर मुखियाजी को उठ कर आना पड़ता और सीमा के जिस्म की आग को बुझाना पड़ता.

इस दौरान शहर से संजय वापस आया, तो मुखियाजी की त्योरियां चढ़ने लगीं और उन्होंने उसे किसी बहाने यहांवहां दौड़ा दिया, ताकि वह सीमा के साथ न रह पाए. फिर एक दिन उसे पैसावसूली के लिए दूसरे गांव भेज दिया और जब वह वापस आया, तब तक शहर से उस के ठेकेदार का बुलावा आ चुका था. बेचारा संजय अपनी पत्नी के संसर्ग को तरसता रह गया.

कुछ समय बीता तो मुखियाजी अपने छोटे भाई विनय की शादी के बारे में सोचने लगे. उन्होंने शहर से विनय को भी बुलवा लिया था और बहू ढूंढ़ने लगे. जल्दी ही उन्हें मुनासिब बहू मिल भी गई, जिस का पिता गरीब था और पहले की तरह ही उसे पूरे 50,000 रुपए देते हुए मुखियाजी ने लड़की के बाप से कहा कि बस अपनी लड़की से इतना कह दो कि विनय को पढ़ानेलिखाने में हम ने बहुत खर्चा किया है. हम ही उस के मांबाप हैं, इसलिए हमारी बात मान कर रहेगी तो सुखी रहेगी.

शादी के बाद सीमा को घर में मेहमानों के होने के कारण मुखियाजी से मिलने में बहुत परेशानी हो रही थी. ऐसे में उसे अपने पति संजय का साथ और सुख मिला. संजय भी बिस्तर पर ठीक ही था, पर मुखियाजी की ताकत के आगे वह फीका ही लगा था, इसीलिए सीमा मन ही मन सभी मेहमानों के जाने का इंतजार करने लगी, ताकि वह फिर से मुखियाजी के साथ रात गुजार सके.

सारे मेहमान चले गए थे. संजय और विनय को आज ही शहर जाना पड़ गया था.

अगले दिन से सीमा ने ध्यान दिया कि मुखियाजी उस के बजाय नई बहू रानी का अधिक मानमनुहार करते हैं. उन की आंखें रानी के कपड़ों के अंदर घुस कर कुछ तौलने का प्रयास करती रहती हैं. सीमा मुखियाजी की मनोभावना समझ गई थी.

‘‘तो क्या मुखियाजी ने अपने भाइयों को इसलिए पालापोसा है, ताकि वे हमारे पतियों को हम से दूर कर के हमें भोग सकें… पर मैं चाह कर भी कुछ नहीं कर सकती, क्योंकि मेरे पति ही अपने बड़े भाई के खिलाफ एक शब्द भी नहीं सुनना चाहते हैं…‘‘ ऐसा सोच कर सीमा को नींद न आ सकी.

रानी के कमरे से सीमा को कुछ आवाज आती महसूस हुई, तो आधी रात को वह उठी और नई बहू रानी के कमरे के बाहर जा कर दरवाजे की झिर्री में आंख गड़ा दी. अंदर रानी बेसुध हो कर सो रही थी, जबकि मुखियाजी उस के बिस्तर के पास खड़े हो कर उस के बदन को किसी भूखे भेड़िए की तरह घूरे जा रहे थे. अभी मुखियाजी रानी के सीने की तरफ अपना हाथ बढ़ाने ही जा रहे थे कि उन की हरकत देख कर सीमा को गुस्सा आया और उस ने पास में रखे बरतन नीचे गिरा दिए, जिस की आवाज से रानी जाग गई, “मु… मुखियाजी आप यहां… इस समय…”

“हां… बस जरा देखने चला आया था कि तुझे कोई परेशानी तो नहीं है,” इतना कह कर मुखियाजी बाहर निकल गए.

रानी भी मुखियाजी की नजर और उन के मनोभावों को अच्छी तरह समझ गई थी, पर प्रत्यक्ष में उस ने अनजान बने रहना ही उचित समझा.

“कल तो आप रानी के कमरे में ही रहे… हमें अच्छा नहीं लगा,” सीमा ने शिकायती लहजे में कहा, तो मुखियाजी ने बात बनाते हुए कहा, “दरअसल, अभी वह नई है… विनय शहर गया है, तो रातबिरात उस का ध्यान तो रखना ही है न.”

एक शाम को मुखियाजी सीधा रानी के कमरे में घुसते चले गए. रानी उन्हें देख कर सिर से पल्ला करने लगी, तो मुखियाजी ने उस के सिर से साड़ी का पल्ला हटाते हुए कहा, “अरे, हम से शरमाने की जरूरत नहीं है… अब विनय यहां नहीं है, तो उस की जगह हम ही तुम्हारा ध्यान रखेंगे… विश्वास न हो, तो अपने पिता से पूछ लेना. वो तुम से हमारी हर बात का पालन करने को ही कहेंगे,” रानी की पीठ को सहला दिया था मुखियाजी ने और मुखियाजी की इस बात पर रानी के पिताजी ने ये कह कर मोहर लगा दी थी कि ‘‘बेटी, तुम मुखियाजी की हर बात मानना. उन्हें किसी भी चीज के लिए मना मत करना.‘‘

एक अजीब संकट में थी रानी.नई बहू रानी ने आज खाना बनाया था. पूरे घर के लोग खा चुके तो घर के नौकरों की बारी आई. घोड़ो की रखवाली करने वाला चंद्रिका भी खाना खाने आया. उस की और रानी की नजरें कई बार टकराईं. हर बार चंद्रिका नजर नीचे झुका लेता.

खाना खा चुकने के बाद चंद्रिका सीधा रानी के सामने पहुंचा और बोला, “बहुत अच्छा खाना बनाया है आप ने… हम कोई उपहार तो दे नहीं सकते, पर ये हमारे काले घोड़े की नाल है… इसे आप घर के दरवाजे पर लगा दीजिए, बुरे वक्त और भूतप्रेत से आप की रक्षा करेगी ये,” सकुचाते हुए चंद्रिका ने कहा.

“अरे, ये सब भूतप्रेत, घोड़े की नाल वगैरह कोरा अंधविश्वास होता है… मेरा इन पर भरोसा नहीं है,” रानी ने कहा, पर उस ने देखा कि उस के ऐसा कहने से चंद्रिका का मुंह उतर गया है.

“अच्छा… ये तो बताओ कि तुम मुझे घुड़सवारी कब सिखाओगे?” रानी ने कहा, तो चंद्रिका बोला, “जब आप कहें.”

“ठीक है, 1-2 दिन में अस्तबल आती हूं.”

घर की छत से अकसर रानी ने चंद्रिका को घोड़ों की मालिश करते देखा था. 6 फुट लंबा शरीर था चंद्रिका का. जब वह अपने कसरती बदन से घोड़ों की मालिश करता, तो वह एकदम अपने काम में तल्लीन हो जाता, मानो पूरी दुनिया में एकमात्र यही काम रह गया हो.

2 दिन बाद रानी मुखियाजी के साथ अस्तबल पहुंची. चंद्रिका ने काला वाला घोड़ा एकदम तैयार कर रखा था. मुखियाजी वहीं खड़े हो कर रानी को घोड़े पर सवार हो कर घूमते जाते देख रहे थे. चंद्रिका पैदल ही घोड़े की लगाम थामे हौलहौले चल रहा था.

“तुम ने सवारी के लिए वो सफेद वाली घोड़ी धन्नो क्यों नहीं चुनी?”

“जी, क्योंकि धन्नो इस समय उम्मीद से है न (गर्भवती है)… ऐसे में हम घोड़ी पर सवार नहीं होते,” चंद्रिका का जवाब दिलचस्प लगा रानी को.

“अच्छा… तो वो धन्नो मां बनने वाली है, तो फिर उस के बच्चे का बाप कौन है?”

“यही तो है… बादल, जिस पर आप बैठी हुई हैं. बहुत प्रेम करता है ये अपनी धन्नो से,” चंद्रिका ने उत्तर दिया.

“प्रेम…?” एक लंबी सांस छोड़ी थी रानी ने.

“इस घोड़े को जरा तेज दौड़ाओ… जैसा फिल्मों में दिखाते हैं.”

“जी, उस के लिए हमें आप के पीछे बैठना पड़ेगा,” चंद्रिका ने शरमाते हुए कहा.

“तो क्या हुआ… आओ, बैठो मेरे पीछे.”

चंद्रिका शरमातेझिझकते रानी के पीछे बैठ गया और बादल को दौड़ाने के लिए ऐंड़ लगाई. बादल सरपट भागने लगा. घोड़े की लगाम चंद्रिका के मजबूत हाथों में थी. चंद्रिका और रानी के जिस्म एकदूसरे से रगड़ खा रहे थे. रानी और चंद्रिका दोनों ही रोमांचित हो रहे थे. एक अनकहा, अनदेखा, अनोखा सा कुछ था, जो दोनों के बीच में पनपता जा रहा था.

हां… पर, चंद्रिका के स्पर्श में कितनी पवित्रता थी, कितनी रूहानी थी उस की हर छुअन.

रानी ने महसूस किया कि मुखियाजी के हाथों में कितनी वासना और लिजलिजाहट महसूस होती है… बहुत अंतर था इन दोनों के स्पर्श में.

उस दिन रानी वापस तो आई, पर उस का मन जैसे कहीं छूट सा गया था. बारबार उस के मन में आ रहा था कि वह जा कर चंद्रिका से खूब बातें करे, उस के साथ में जीने का एहसास पहली बार हुआ था उसे.

इस बीच रानी कभीकभी अकेले ही अस्तबल चली जाती. एक दिन उस ने चंद्रिका का एक अलग ही रूप देखा.

“बस, कुछ दिन और बादल… मुझे बस इस माघ मेले में होने वाली दौड़ का इंतजार है, जिस में मुखिया से मेरा हिसाब बराबर हो जाएगा… मुझे इस मुखिया ने बहुत सताया है.”

”ये चंद्रिका आज कैसी बातें कर रहा है? कैसा हिसाब…? और मुखियाजी ने क्या सताया है तुम्हें?” एकसाथ कई सवाल सुन कर घबरा गया था चंद्रिका.

“जाने दीजिए… हमें कुछ नहीं कहना है.”

“नहीं, तुम्हें बताना पड़ेगा… तुम्हें हमारी कसम,” चंद्रिका का हाथ पकड़ कर रानी ने अपने सिर पर रखते हुए कहा था. न चाहते हुए भी चंद्रिका को बताना पड़ा कि वह अनाथ था. मुखियाजी ने उसे रहने की जगह और खाने के लिए भोजन दिया. उन्होंने ही चंद्रिका की शादी भी कराई और फिर चंद्रिका को बहाने से शहर भेज दिया और उस के पीछे उस की बीवी की इज्जत लूटने की कोशिश की, पर उस की बीवी स्वाभिमानी थी. उस ने फांसी लगा ली… बस, तब से मैं हर 8 साल बाद होने वाले माघ मेले का इंतजार कर रहा हूं, जब मैं बग्घी दौड़ में इसे बग्घी से गिरा कर मार दूंगा और इस तरह से अपनी पत्नी की मौत का बदला लूंगा.

रानी को समझते देर न लगी कि ऊपर से चुप रहने वाला चंद्रिका अंदर से कितना भरा हुआ है. वह कुछ न बोल सकी और लौट आई. रानी के मन में चंद्रिका की मरी हुई पत्नी के लिए श्रद्धा उमड़ रही थी. अपनी इज्जत बचाने के लिए उस ने अपना जीवन ही खत्म कर दिया.

इस के जिम्मेदार तो सिर्फ मुखियाजी हैं… तब तो उन्हें सजा जरूर मिलनी चाहिए… पर कैसी सजा…? किस तरह की सजा…? मुखियाजी को कुछ ऐसी चोट दी जाए, जिस का दंश उन्हें जीवनभर झेलना पड़े… और वे चाह कर भी कुछ न कर सकें… आखिरकार रानी को उस के पति से अलग करने का जुर्म भी तो मुखियाजी ने ही किया है.

एक निश्चय कर लिया था रानी ने. अगली सुबह रानी सीधा अस्तबल पहुंची और चंद्रिका से कुछ बातें कीं, जिन्हें सुन कर असमंजस में दिखाई दिया था चंद्रिका.

वापस आते हुए रानी चंद्रिका से काले घोड़े की नाल भी ले आई थी… ये कहते हुए कि देखते हैं कि तुम्हारे इस अंधविश्वास में कितनी सचाई है और वो काले घोड़े की नाल उस ने मुखियाजी के कमरे के बाहर टांग दी थी.

रात में रानी ने घर का सारा कीमती सामान और नकदी एक बैग में भरी और अस्तबल पहुंच गई. रानी और चंद्रिका दोनों बादल की पीठ पर बैठ कर शहर की ओर जाने वाले थे, तभी चंद्रिका ने पूछा, “पर, इस तरह तुम को भगा ले जाने से मेरे प्रतिशोध का क्या संबंध…?”

“मैं ने अपने पति को एक पत्र लिखा है, जिस में उसे अपनी पत्नी का ध्यान न रख पाने का जिम्मेदार ठहराया है… वह तिलमिलाया हुआ आएगा और मुखियाजी से सवाल करेगा… दोनों भाइयों में कलह तो होगी ही, साथ ही साथ पूरे गांव में मुखियाजी की बहू के उन के घोड़ों के नौकर के साथ भाग जाने से उन की आसपास के सात गांव में जो नाक कटेगी, उस का घाव जीवनभर रिसता रहेगा… ये होगा हमारा असली प्रतिशोध,” रानी की आंखें चमक रही थीं.

रानी ने उसे ये भी बताया कि माना कि मुखियाजी को चंद्रिका मार सकता है, पर भला उस से क्या होगा? एक झटके में वह मुक्त हो जाएगा और फिर चंद्रिका पर हत्या का इलजाम भी लग सकता है और फिर मुखिया भले ही बहुत बुरा आदमी है, पर मुखियाइन का भला क्या दोष? उस के जीवित रहने से उस का जीवन जुडा हुआ है और फिर उसे मार कर बेकार पुलिस के पचड़े में पड़ने से अच्छा है कि उसे ऐसी चोट दी जाए, जो उसे जीवनभर सालती रहे.

“और हां… अब तो मानते हो न कि तुम्हारी वो बुरे वक्त से बचाने वाली काले घोड़े की नाल वाली बात एक कोरा अंधविश्वास के अलावा कुछ भी नहीं है… क्योंकि मुखियाजी का बुरा वक्त तो अब शुरू हुआ है, जिसे कोई नालवाल बचा नहीं सकती,” रानी की बात सुन कर एक मुसकराहट चंद्रिका के चेहरे पर फैल गई. उस ने बड़ी जोर से ‘हां‘ में सिर को हिलाया और बादल को शहर की ओर दौड़ा दिया.

Holi 2024: संबंध- क्या शादी नहीं कर सकती विधवा

‘‘इस औरत को देख रही हो… जिस की गोद में बच्चा है?’’

‘‘हांहां, देख रही हूं… कौन है यह?’’

‘‘अरे, इस को नहीं जानती तू?’’ पहली वाली औरत बोली.

‘‘हांहां, नहीं जानती,’’ दूसरी वाली औरत इनकार करते हुए बोली.

‘‘यह पवन सेठ की दूसरी औरत है. पहली औरत गुजर गई, तब उस ने इस औरत से शादी कर ली.’’

‘‘हाय, कहां पवन सेठ और कहां यह औरत…’’ हैरानी से दूसरी औरत बोली, ‘‘इस की गोद में जो लड़का है, वह पवन सेठ का नहीं है.’’

‘‘तब, फिर किस का है?’’

‘‘पवन सेठ के नौकर रामलाल का,’’ पहली वाली औरत ने जवाब दिया.

‘‘अरे, पवन सेठ की उम्र देखो, मुंह में दांत नहीं और पेट में आंत नहीं…’’ दूसरी वाली औरत ने ताना मारते हुए कहा, ‘‘दोनों में उम्र का कितना फर्क है. इस औरत ने कैसे कर ली शादी?’’

‘‘सुना है, यह औरत विधवा थी,’’ पहली वाली औरत ने कहा.

‘‘विधवा थी तो क्या हुआ? अरे, उम्र देख कर तो शादी करती.’’

‘‘अरे, इस ने पवन सेठ को देख कर शादी नहीं की.’’

‘‘फिर क्या देख कर शादी की?’’ उस औरत ने पूछा.

‘‘उस की ढेर सारी दौलत देख कर.’’

आगे की बात निर्मला न सुन सकी. जिस दुकान पर जाने के लिए वह सीढि़यां चढ़ रही थी, तभी ये दोनों औरतें सीढि़यां उतर रही थीं. उसे देख कर यह बात कही, तब वह रुक गई. उन दोनों औरतों की बातें सुनने के बाद दुकान के भीतर न जाते हुए वह उलटे पैर लौट कर फिर कार में बैठ गई.

ड्राइवर ने हैरान हो कर पूछा, ‘‘मेम साहब, आप दुकान के भीतर क्यों नहीं गईं?’’

‘‘जल्दी चलो बंगले पर,’’ निर्मला ने अनसुना करते हुए आदेश दिया.

आगे ड्राइवर कुछ न बोल सका. उस ने चुपचाप गाड़ी स्टार्ट कर दी.

निर्मला की गोद में एक साल का बच्चा नींद में बेसुध था. मगर कार में बैठने के बाद भी उस का मन उन दोनों औरतों के तानों पर लगा रहा. उन औरतों ने जोकुछ कहा था, सच ही कहा था. निर्मला उदास हो गई.

निर्मला पवन सेठ की दूसरी ब्याहता है. पहली पत्नी आज से 3 साल पहले गुजर गई थी. यह भी सही है कि उस की गोद में जो लड़का है, वह रामलाल का है. रामलाल जवान और खूबसूरत है.

जब निर्मला ब्याह कर के पवन सेठ के घर में आई थी, तब पहली बार उस की नजर रामलाल पर पड़ी थी. तभी से उस का आकर्षण रामलाल के प्रति हो गया था. मगर वह तो पवन सेठ की ब्याहता थी, इसलिए उस के खूंटे से बंध गई थी.

यह भी सही है कि निर्मला विधवा है. अभी उस की उम्र का 34वां पड़ाव चल रहा है. जब वह 20 साल की थी, तब उस की शादी राजेश से कर दी गई थी. वह बेरोजगार था. नौकरी की तलाश जारी थी. मगर वह इधरउधर ट्यूशन कर के अपनी जिंदगी की गाड़ी खींच रहा था.

निर्मला की सास झगड़ालू थी. हरदम वह उस पर अपना सासपना जताने की कोशिश करती, छोटीछोटी गलतियों पर बेवजह चिल्लाना उस का स्वभाव बना हुआ था. मगर वह दिन काल बन कर उस पर टूट पड़ा, जब एक कार वाला राजेश को रौंद कर चला गया. अभी उन की शादी हुए 7 महीने भी नहीं बीते थे और वह विधवा हो गई. समाज की जरूरी रस्मों के बाद निर्मला की सास ने उसे डायन बता दिया. यह कह कर उसे घर से निकाल दिया कि आते ही मेरे बेटे को खा गई.

ससुराल से जब विधवा निकाली जाती है, तब वह अपने मायके में आती है. निर्मला भी अपने मायके में चली आई और मांबाबूजी और भाई के लिए बो झ बन गई. बाद में एक प्राइवेट स्कूल में टीचर बन गई. तब उसे विधवा जिंदगी जीते हुए 14 साल से ऊपर हो गए.

समाज के पोंगापंथ के मुताबिक, विधवा की दोबारा शादी भी नहीं हो सकती है. उसे तो अब जिंदगीभर विधवा की जिंदगी जीनी है. ऐसे में वह कई बार सोचती है कि अभी मांबाप जिंदा हैं लेकिन कल वे नहीं रहेंगे, तब भाई कैसे रख पाएगा? यही दर्द उसे हरदम कचोटता रहता था.

निर्मला कई बार यह सोचती थी कि वह मांबाप से अलग रहे, मगर एक विधवा का अकेले रहना बड़ा मुश्किल होगा. मर्दों के दबदबे वाले समाज में कई भेडि़ए उसे नोचने को तैयार बैठे हैं. कई वहशी मर्दों की निगाहें अब भी उस पर गड़ी रहती हैं. मां और बाबूजी भी उसे देख कर चिंतित हैं. ऐसी कोई बात नहीं है कि सिर्फ  वही अपने बारे में सोचती है.

मां और बाबूजी भी सोचते हैं कि निर्मला की जिंदगी कैसे कटेगी? वे खुद भी चाहते थे कि निर्मला की दोबारा शादी हो जाए, मगर समाज की बेडि़यों से वे भी बंधे हुए थे.

इसी कशमकश में समाज के कुछ ठेकेदार पवन सेठ का रिश्ता ले कर निर्मला के बाबूजी के पास आ गए.

बाबूजी को मालूम था कि पवन सेठ बहुत पैसे वाला है. उस का बड़ा भाई मनोहर सेठ के नाम से मशहूर है. मगर दोनों भाइयों के बीच 30 साल पहले ही घर की जायदाद को ले कर रिश्ता खत्म हो गया था. आज तक दोनों के बीच बोलचाल बंद है.

बाबूजी यह भी जानते थे कि पवन सेठ 64 साल के ऊपर है. यह बेमेल गठबंधन कैसे होगा? तब समाज के ठेकेदारों ने एक ही बात बाबूजी को सम झाने की कोशिश की थी कि यह निर्मला की जिंदगी का सवाल है. पवन सेठ के साथ वह खुश रहेगी.

तब बाबूजी ने सवाल उठाया था कि पवन सेठ नदी किनारे खड़ा वह ठूंठ है कि कब बहाव में बह जाए. फिर निर्मला विधवा की विधवा रह जाएगी. तब समाज के ठेकेदारों ने बाबूजी को सम झाया कि देखो, वह विधवा जरूर हो जाएगी, मगर सेठ की जायदाद की मालकिन बन कर रहेगी.

तब बाबूजी ने निर्मला से पूछा था, ‘निर्मला तुम्हारे लिए रिश्ता आया है.’

वह सम झते हुए भी अनजान बनते हुए बोली, ‘रिश्ता और मेरे लिए?’

‘हां निर्मला, तुम्हारे लिए रिश्ता.’

‘मगर बाबूजी, मैं एक विधवा हूं और विधवा की दोबारा शादी नहीं हो सकती,’ अपने पिता को सम झाते हुए निर्मला बोली थी.

‘हां, नहीं हो सकती है, मैं जानता हूं. मगर जब सोचता हूं कि तुम यह लंबी उम्र कैसे काटोगी, तो डर जाता हूं.’

‘जैसे, कोई दूसरी विधवा काटती है, वैसे ही काटूंगी बाबूजी,’ निर्मला ने जब यह बात कही, तब बाबूजी सोचविचार में पड़ गए थे.

तब निर्मला खुद ही बोली थी, ‘मगर बाबूजी, मैं आप की भावनाओं को भी अच्छी तरह सम झती हूं. आप बूढ़े पवन सेठ के साथ मेरा ब्याह करना चाहते हैं.’

‘हां बेटी, वहां तेरी जिंदगी अच्छी तरह कट जाएगी और विधवा की जिंदगी से छुटकारा भी मिल जाएगा,’ बोल कर बाबूजी ने अपने मन की सारी बात कह डाली थी. तब वह भी सहमति देते हुए बोली थी, ‘बाबूजी, आप किसी तरह की चिंता मत करें. मैं यह शादी करने के लिए तैयार हूं.’

यह सुन कर बाबूजी का चेहरा खिल गया था. फिर पवन सेठ के साथ निर्मला की बेमेल शादी हो गई.

निर्मला पवन सेठ के बंगले में आ गई थी. दुकान के नौकर अलग, घर के नौकर अलग थे. घर का नौकर रामलाल 20 साल का गबरू जवान था. बाकी तो वहां अधेड़ औरतें थीं.

जब पवन सेठ के साथ निर्मला हमबिस्तर होती थी, वह बहुत जल्दी ठंडा पड़ जाता था. राजेश के साथ जो रातें गुजारी थीं, पवन सेठ के साथ वैसा मजा नहीं मिलता था.

पवन सेठ ने कई बार उस से कहा था, ‘निर्मला, तुम मेरी दूसरी पत्नी हो. उम्र में बेटी के बराबर हो. अगर मेरी पहली पत्नी से कोई औलाद होती, तब वह तुम्हारी उम्र के बराबर होती. मैं तु झ से औलाद की आस रखता हूं. तुम मु झे एक औलाद दे दो.’

‘औलाद देना मेरे अकेले के हाथ में नहीं है,’ निर्मला अपनी बात रखते हुए बोली, ‘मगर, मैं देख रही हूं…’

‘क्या देख रही हो?’ उसे रुकते देख पवन सेठ ने पूछा.

‘हमारी शादी के 6 महीने हो गए हैं, मगर जितना जोश पैदा होता, वह पलभर में खत्म हो जाता है.’

‘अब मैं उम्र की ढलान पर हूं, फिर भी औलाद चाहता हूं,’ पवन सेठ की आंखों का इशारा वह सम झ गई. तब उस ने नौकर रामलाल से बातचीत करना शुरू किया.

निर्मला उसे बारबार किसी बहाने अपने कमरे में बुलाती, आंखों में हवस लाती. कभी वह अपना आंचल गिराती, कभी ब्लाउज का ऊपरी बटन खोल देती, तो कभी पेटीकोट जांघों तक चढ़ा लेती. मर्द कैसा भी पत्थरदिल हो, आखिर एक दिन पिघल ही जाता है.

रामलाल ने कहा, ‘मेम साहब, आप का मु झे देख कर बारबार आंचल गिराना मु झे अच्छा नहीं लगता. आप क्यों ऐसा करती हैं?’

‘अरे बुद्धू, इतना भी नहीं सम झता है,’ निर्मला मुसकरा कर बोली और उस के गाल को चूम लिया.

‘सम झता तो मैं सबकुछ हूं, मगर मालिक…’

‘मालिक कुछ भी नहीं कहेंगे,’ बीच में ही उस की बात काट कर निर्मला बोली, ‘मालिक से क्यों घबराता है?’

यह सुन कर रामलाल पहले तो हैरान हुआ, फिर धीरे से मुसकरा दिया. उस ने आव न देखा न ताव निर्मला को दबोच लिया और उस के होंठों पर अपने होंठ रख दिए.

निर्मला ने कुछ नहीं कहा. फिर क्या था, निर्मला की शह पा कर जब भी मौका मिलता, वे दोनों हमबिस्तर हो जाते. इस का फायदा यह हुआ कि निर्मला का जोश शांत होने लगा था और एक दिन वह पेट से हो गई.

पवन सेठ बहुत खुश हुआ और जब पहला ही लड़का पैदा हुआ, तब पवन सेठ की खुशियों का ठिकाना नहीं रहा.

निर्मला और बच्चे की देखरेख के लिए एक आया रख ली गई. जब भी बाजार या कहीं दूसरी जगह जाना होता, निर्मला अपने बच्चे को आया के पास छोड़ जाती है. मगर आज उस की ममता जाग गई थी, इसलिए साथ ले गई थी.

‘‘मेम साहब, बंगला आ गया,’’ जब ड्राइवर ने यह कहा, तब निर्मला पुरानी यादों से लौटी. जब वह कार से उतरने लगी, तब ड्राइवर ने पूछा, ‘‘मेम साहब, जिस दुकान पर आप खरीदारी करने पहुंची थीं, वहां से बिना खरीदारी किए क्यों लौट आईं?’’

‘‘मेरा मूड बदल गया,’’ निर्मला ने जवाब दिया.

‘‘मूड तो नहीं बदला मेम साहब, मगर मैं सब समझ गया,’’ कह कर ड्राइवर मुसकराया.

‘‘क्या सम झे मानमल?’’ गुस्से से निर्मला बोली.

‘‘इस बच्चे को ले कर उन औरतों ने…’’

‘‘देखो मानमल, तुम अपनी औकात में रहो,’’ बीच में ही बात काट कर निर्मला बोली.

‘‘हां मेम साहब, मैं भूल गया था कि मैं आप का ड्राइवर हूं,’’ माफी मांगते हुए मानमल बोला, ‘‘मगर, सच बात तो होंठों पर आ ही जाती है.’’

‘‘क्या सच बात होंठों पर आ जाती है?’’ निर्मला ने पूछा.

‘‘यही मेम साहब कि उन दोनों औरतों ने बच्चे को देख कर कहा होगा कि यह बच्चा सेठजी का खून नहीं है, बल्कि उन के नौकर रामलाल का है,’’ मानमल ने साफसाफ कह दिया.

तब निर्मला गुस्से से बोली, ‘‘देखो मानमल, तुम हमारे नौकर हो और अपनी हद में रहो. औरों की तरह हमारे संबंधों को ले कर बात करने की जरूरत नहीं है,’’ कह कर निर्मला कार से उतर गई.

अभी निर्मला दालान पार कर रही थी कि आया ने आ कर बच्चे को उस से ले लिया. मानमल फिर मुसकरा दिया.

मरजी की मालकिन: भाग 1 घर की चारदीवारी से निकलकर अपने सपनों को पंख देना चाहती थी रश्मि

रश्मि घर की चारदीवारी से बाहर निकल कर अपने सपनों को पंख देना चाहती थी. मगर वह लाख कोशिशों के बावजूद भी खुद और परिवार के मध्य संतुलन नहीं बैठा पा रही थी. इस से पहले कि वह कोई ठोस निर्णय लेती, घर में एक घटना घट गई…

‘‘मां,अनीता मौसी इज कालिंग यू,’’ 7 वर्षीय अक्षिता ने रश्मि को फोन ला कर दिया. उधर से अनीता की खनकती आवाज आई, ‘‘तू तो हीरोइन बन गई माई डियर… पूरे औफिस में बस तेरे ही चर्चे हैं.’’ ‘‘पर मैं ने ऐसा किया क्या है…’’ ‘‘वह तू कल आएगी तब देखना… अभी तो मैं इसे राज ही रहने देती हूं. बस इतना सम  झ ले कि तेरी 1 महीने की मेहनत सफल हो गई है और राज सर खुशी से फूले नहीं समा रहे हैं,’’ कह कर अनीता ने फोन रख दिया.

‘‘यह अनीता भी न सुरसुरी छोड़ने की अपनी आदत से बाज नहीं आएगी… आधी बात भी बताने की क्या जरूरत थी. अब खुद तो चैन की नींद सोएगी और मैं रातभर करवटें बदलूंगी,’’ बड़बड़ाते हुए रश्मि किचिन समेटने में लग गई. 8 बज रहे थे. अभी अक्षिता को पढ़ाना बाकी था.

औफिस से आने के बाद टीवी के सामने जमे पति अनुराग की बगल में बैठी अक्षिता को रश्मि ने आवाज लगाई. 1 घंटा पढ़ाने के बाद चैन की सांस ले कर बैड पर जैसे ही लेटी तो अनीता के शब्द उस के कानों में गूंजने लगे… उसे याद आ गया अपना औफिस जहां वह पिछले 1 साल से एज ए पार्ट टाइम वर्कर काम कर रही थी और हाल ही में एक बहुत महत्त्वपूर्ण प्रोजैक्ट उस के हाथ में था जिस का परिणाम आज ही आने वाला था. तबीयत ठीक नहीं होने के कारण वह पिछले 3 दिन से अवकाश पर थी. खैर, कल का कलदेखा जाएगी, यह सोच कर उस ने एक लंबी सांस ली और सोने का प्रयास करने लगी.

अगले दिन सुबह औफिस पहुंच कर रश्मि अपनी सीट पर आ कर बैठी ही थी कि चपरासी रामदीन ने आ कर बोला, ‘‘साहब आप को बुला रहे हैं.’’ जैसे ही रश्मि ने राज सर के कैबिन का दरवाजा खोला वे अपनी सीट से उठ खड़े हुए और उत्साह से भर कर बोले, ‘‘वाहवाह बधाईबधाई रश्मिजी आप ने तो कमाल ही कर दिया जिस प्रोजैक्ट की हम ने उम्मीद ही छोड़ दी थी उसे हासिल कर के आप ने दिखा दिया कि प्रतिभा किसी की मुहताज नहीं होती.’’ ‘‘नहीं सर ऐसा कुछ नहीं है मैं ने तो बस अपना काम ईमानदारी से किया है,’’ रश्मि ने विनम्रता से कहा.

‘‘वही तो लोग नहीं करते… मैं ने आप की काम के प्रति लगन देख कर ही यह प्रोजैक्ट आप को दिया था. फुल टाइम वाले भी इतनी ईमानदारी से काम नहीं करते जितना आप पार्ट टाइम में लर लेती हैं. अब आज से हमारी कंपनी की आप परमानैंट वर्कर हैं. कंपनी के सारे टैंडर वर्क आप ही देखेंगी. हां, हमेशा की तरह आप के लिए टाइम की कोई बंदिश अभी भी नहीं रहेगी. हमें तो बस काम चाहिए.’’

‘‘जी सर,’’ कह कर रश्मि आ कर अपनी सीट पर बैठ गई. तभी अनीता ने आ कर पीछे से उस की आंखें बंद कर लीं. अनीता के स्पर्श को वह बहुत अच्छी तरह जानती थी सो हाथ पकड़ कर उसे अपने सामने किया और शिकायती लहजे में बोली, ‘‘तु  झे तो मैं छोड़ूंगी नहीं कल सुरसुरी छोड़ कर खुद तो चैन से सोई और मैं सो ही नहीं पाई.’’

‘‘अब चल इतनी बड़ी खुशी को सैलिब्रेट भी करेगी या ऐसे ही बातें बनाती रहेगी. चल कैंटीन में कौफी पी कर आते हैं,’’ कह कर दोनों कैंटीन की तरफ बढ़ गईं. ‘‘रियली आई एम प्राउड औफ यू यार… राज सर तो क्या किसी को अंदाजा नहीं था कि यह 2 करोड़ का प्रोजैक्ट हमें मिल पाएगा. पर तूने क्या कैलकुलेशन लगा कर टैंडर डलवाया कि प्रोजैक्ट हमें मिल गया.’’

‘चल अब ज्यादा फूंस के   झाड़ पे मत चढ़ा… कौफी पी और चल अभी बहुत सारे काम बाकी हैं.’’ उस दिन अगले कुछ प्रोजैक्ट के भी टैंडर डलवाने थे सो उन की प्लानिंग उस ने अपनी 2 असिस्टैंट के साथ मिल कर की और 2 बजे औफिस से निकल कर घर आ गई. घर आ कर अक्षिता को खाना खिला कर जो सुलाने लेटी तो बंद पलकों में अतीत के कुछ पन्ने भी धीरेधीरे फड़फड़ाने लगे…

वह उस समय बीए की छात्रा थी जब एक दिन अपनी सहपाठियों से अर्थशास्त्र के कुछ नोट्स मांग रही थी और सभी उसे देने में अनाकानी कर रहे थे. तभी वर्तमान पति अनुराग ने उस की ओर अपनी नोट्स की कौपी बढाते हुए कहा, ‘‘आप मेरी कौपी ले लीजिए शायद आप का काम हो जाएगा.’’

रश्मि ने जैसे ही पलट कर देखा तो सामने एक लंबा, गौरवर्ण का नवयुवक खड़ा था जो उस की ही कक्षा का था. उसे याद आया कि वह क्लास के मेधावी छात्रों में गिना जाता है. आमतौर पर उस ने उसे दूसरों से कम बात करते ही देखा था बल्कि कई बार तो क्लास की कई लड़कियों ने उस की बुद्धिमत्ता को देखते हुए मेलजोल बढ़ाने की कोशिश भी की थी पर अंतर्मुखी प्रवृत्ति के अनुराग पर अपना जादू चलाने में सफलता प्राप्त नहीं कर पाई थीं.

ऐसे में आगे रह कर उसे कापी देना रश्मि को कुछ अजीब सा तो लगा परंतु अपना काम बनता देख वह धीरे से बोली, ‘‘जी बहुतबहुत धन्यवाद. मैं कल अवश्य ले आऊंगी वह मु  झे ज्वाइंडिस हो गया था तो मैं कुछ दिनों से आ नहीं पाई इसलिए…’’ रश्मि ने अपनी ओर से सफाई देते हुए कहा.

‘‘इट्स ओके नो प्रौब्लम,’’ कह कर अनुराग आगे बढ़ गया.

उस दिन के बाद से ही उस की और अनुराग की थोड़ीबहुत बातचीत प्रारंभ हो गई. दोनों युवा थे, प्रथम मुलाकात के आकर्षण का ही असर था कि वे परस्पर धीरेधीरे एकदूसरे को पसंद करने लगे परंतु यह पसंद कब प्यार में परिवर्तित हो गई दोनों ही नहीं जान पाए.

प्रारंभिक बातचीत में ही एक दिन अनुराग ने उसे बताया कि वह पटना का रहने वाला है. घर में मातापिता के अलावा एक छोटी बहन है जो अभी स्कूल में है. पिता एक सरकारी स्कूल में प्राथमिक शिक्षक हैं. घर के आर्थिक हालात भी बहुत अच्छे नहीं हैं सो वह यहां बनारस में अपनी पढ़ाई का खर्च भी ट्यूशन कर के निकालता है.

निर्णय: भाग 1 वक्त के दोहराये पर खड़ी सोनू की मां

रेलवे स्टेशन से बाहर निकल कर जब वह टैक्सी लेने लगी तो पलभर के लिए उस का मन हुआ कि घर न जा कर वह कहीं भाग जाए सोनू को ले कर. फिर उतनी ही त्वरित गति से उस की आंखों के सामने उस की अपनी तीनों मासूम बेटियों का चेहरा घूम गया. अपना घर, पति, बच्चे एक स्त्री का संपूर्ण संसार तो बस इन्हीं तानोंबानों में जकड़ा होता है. भाग सकने की गुंजाइश ही कहां छोड़ता है स्त्री का अपना मन. नहीं, हार मानने से नहीं चलेगा. स्त्री जब एक बार मातृत्व के गुरुगंभीर पद पर आसीन हो जाती है तो उस पद की रक्षा करने का दुर्दम्य साहस भी स्वयमेव ही चला आता है. अपनी सुषुप्त शक्ति को पहचानने भर की देर होती है, बस. नहीं, वह हार नहीं मानेगी.

भीतर ही भीतर स्वयं को दृढ़ता का पाठ पढ़ाती, तौलती, परखती वह टैक्सी में जा बैठी, रामबाग, अपने घर का पता बता कर उस ने सोनू को सीट पर बिठा दिया. बैग आगे की खाली सीट पर रख दिया. पर्स  से उस ने सोनू के दूध की बोतल निकाली और उसे पकड़ा दी. सोनू उस से टिक कर अधलेटा हो गया. खुद को उस ने सीट पर ढीला छोड़ दिया तथा आंखें बंद कर लीं. अपने 3 दिन के ससुराल प्रवास की एकएक बात उस के सिर पर हथौडे़ सी बज रही थी. विदा लेते समय छोटी ननद सरिता ने भावावेग में उस का हाथ कस कर पकड़ लिया था. उस ने कहा था, ‘अपनाया है तो रिश्तों को ईमानदारी से निभाओ. सचाइयों से घबरा कर संबंधों के प्रति बेईमान नहीं हुआ जा सकता, फिर मांबच्चे का संबंध किसी भी सहमति का मुहताज नहीं होता.’

‘ईमानदारी से भी अधिक जरूरी साहस है इस रिश्ते में.’ अपनी भर्राई हुई टूटती आवाज में कह कर वह कार में बैठ गई थी. सरिता वहीं, घर के गेट पर खड़ी उसे जाता हुआ देखती रही थी. वापसी के पूरे सफर में सरिता की कही बातें उस के दिमाग में घूमती रही थीं. वह रोना चाहती थी, चिल्लाचिल्ला कर अपने भीतर का सारा आक्रोश निकाल देना चाहती थी. क्यों उस के आसपास के सारे लोग इतने स्वार्थी हो कर सोच रहे हैं. क्यों सरिता के सिवा किसी अन्य को उस का दर्द दिखाई नहीं देता. इतना निर्मम तथा कठोर कैसे हो सकता है कोई. यों तो वह जब भी ससुराल से लौटी है, कभी खाली नहीं लौटी. मां तथा बड़ी ननद, सुषमा जिज्जी की तीखीकड़वी बातों से भरा दुखी, हताश दिलदिमाग ले कर ही लौटी है. पर डेढ़ साल पहले जब पहली बार नन्हे से सोनू को गोद में लिए ससुराल आई थी तो इन्हीं मां तथा जिज्जी ने हम दोनों को जैसे पलकों पर उठा लिया था. पोते को गोद में उठाए दादी पूरे महल्ले में घूम आई थीं. रोज शाम के वक्त उस की नजर उतारती थीं…और अब? एक सच ने मानो ममता, प्रेम, वात्सल्य सब पर डाका ही डाल दिया था. आने से पहले उसे तनिक भी अंदेशा नहीं था कि वहां ये सब हो जाएगा. अनमनी अवश्य थी, पहली बार अकेले जा रही थी, जबकि लड़कियों की परीक्षाएं सिर पर थीं. बूआ के पोते के नामकरण पर जाना कोई इतना जरूरी तो नहीं था, पर नीलाभ नहीं माने. दरअसल, उस का ससुराल और नीलाभ की बूआ का घर एक ही महल्ले में है. इसीलिए उन का तर्क था कि बूआ के घर की खुशी में सम्मिलित होने के बहाने वह अपने ससुराल वालों से भी मिल आएगी. साथ ही, सारी बिरादरी से भी मेलमुलाकात हो जाएगी. एक तरह से नीलाभ ने उसे जबरन ठेलठाल कर भेजा था.

उसे चिढ़ हो रही थी नीलाभ की बचकानी जिद पर. वह उस के पीछे छिपी उन की मंशा को भांप नहीं पाई थी. ट्रेन  4 घंटे लेट थी. ससुराल का ड्राइवर स्टेशन पर उस का इंतजार कर रहा था. घर पहुंची तो वहां की हवा में उसे कुछ भारीपन सा लगा था. मां व जिज्जी दोनों ही कुछ उखड़ीउखड़ी लग रही थीं. सोनू को भी दोनों में से किसी ने हुलस कर पहले की भांति गोद में उठा कर लाड़प्यार की बौछार नहीं की थी. उस का जी तो उसी समय हुड़क गया था. जेठानी प्रभा औपचारिक नमस्ते के बाद रसोई में जा घुसी थीं. कुछ देर बाद चायनाश्ता व सोनू का दूध रख कर फिर गायब  हो गई थीं. नौकर से कह कर मां ने उस का सामान ऊपर वाले छोटे कमरे में रखवा दिया था. शाम 5 बजे बूआ के घर के लिए निकलने व अभी ऊपर जा कर आराम करने की हिदायत दे कर दोनों उसे बैठक में अकेला छोड़ कर निकल गई थीं. उस का व सोनू का खाना भी जिज्जी ने ऊपर ही भिजवा दिया था, जिस का एक निवाला तक उस के गले नहीं उतरा था.

4 साढ़े 4 बजे वह नीचे आई तो देखा, मां ने पूरी तैयारी कर रखी है. अपनी ननद के घर जोजो नेग ले कर जाने हैं वे सब पलंग पर फैला रखे थे. उसे सब दिखाती हुई मां बोलीं, ‘छोरियां चाहे बूढ़ी ही क्यों न हों, रहेंगी छोरियां ही न घर की. माई, बापू और भाई का साया सिर पर से उठ गया तो क्या हुआ, भौजी तो जिंदा है न अभी. मेरे होते कभी मायके की कमी न अखरेगी तुम्हारी बूआ को. इतने दिनों के बाद आई है उस के घर में खुशी, सारी बिरादरी देखेगी, इसीलिए करना पड़े है ये सब.’ लहूलुहान कलेजे के बावजूद हंसी ने एक हिलोर ले ली थी, जिसे उस ने भीतर ही दबा लिया. दोहरी बातें करने में पारंगत हैं मां. तोहफे तो उस के पास भी थे. नीलाभ ने अपनी मां, जिज्जी, भाई, भाभी तथा बच्चों के लिए अलगअलग उपहार भेजे थे. सब ज्यों के त्यों रखे थे बैग में. जब बैग खोला तो सारे उपहार मुंह चिढ़ाते से लगे थे उसे. ये जो सब मिल कर उस की भावनाओं की, ममता की हत्या करने पर तुले हुए हैं, उन्हें किस कलेजे से जा कर थमाए उपहार.

फिर पता नहीं क्या सोच कर वह उठी और अपनी तरफ से बूआ को देने लाए हुए उपहार निकाल लाई. बूआ तथा उन की बहू की साड़ी व नवजात पोते के लिए चांदी के तार में काले मोतियों वाले कड़े लाई थी वह. मां को दिखा कर ये सामान भी  उस ने अन्य वस्तुओं के साथ पलंग पर रख दिया. कुछ भी हो, बिरादरी के सामने तो घर की बातों को ढक कर ही रखना पड़ता है. बहू हो कर वह अलग से कैसे करेगी लेनदेन.

मन की कड़वाहट मन में ही दबा ली थी उस ने इस समय. कुछ ही देर पहले तो मां ने छोरियां जनने वाली डायन कहा था उसे. ‘मुझे तो पहले से ही शक था कि यह इस का अपना जाया नहीं है,’ जिज्जी बोली थीं. दोनों आंगन में चारपाई डाले साग बीन रही थीं. उन्हें पता नहीं था कि वह आंगन के ठीक ऊपर लगे लोहे के जाल की मुंडेर पर खड़ी सुन रही है. अभी नहा कर निकली थी वह. सफर में पहने अपने व सोनू के कपड़े धो डाले थे उस ने. तार पर सूखने को डाल रही थी. ‘इस औरत ने पता नहीं क्या जादू कर रखा है. अपना नीलाभ तो ऐसा कभी नहीं था. इतने साल भनक तक न लगने दी सचाई की. अब जो भी है, इस अपाहिज से पीछा तो छुड़ाना ही होगा भाई का,’ जिज्जी की जहरीली फुफकार से उस का रोमरोम जल उठा था. कोई स्त्री इतनी कठोर कैसे हो सकती है. मां कहती हैं, उन का बेटा उस के बहकावे में आ गया है. बेशक, अलग गृहस्थी बसा कर बैठी है, पर बहू है घर की, बहू बन कर रहे. सिर पर चढ़ कर नाचने न देंगे. नीलाभ अनाथ नहीं है, उस के सिर पर मां का साया है अभी. बहू हो कर इतना बड़ा निर्णय लेने का उस अकेली को कोई हक नहीं.’

महकती विदाई: क्या था अंजू का राज

अम्मां की नजरों में शारीरिक सुंदरता का कोई मोल नहीं था इसीलिए उन्होंने बेटे राज के लिए अंजू जैसी साधारण लड़की को चुना. खाने का डब्बा और कपड़ों का बैग उठाए हुए अंजू ने तेज कदमों से अस्पताल का बरामदा पार किया. वह जल्द से जल्द अम्मां के पास पहुंचना चाहती थी. उस की सास जिन्हें वह प्यार से अम्मां कह कर बुलाती है, अस्पताल के आई.सी.यू. में पड़ी जिंदगी और मौत से जूझ रही थीं. एक साल पहले उन्हें कैंसर हुआ था और धीरेधीरे वह उन के पूरे शरीर को ही खोखला बना गया था. अब तो डाक्टरों ने भी उम्मीद छोड़ दी थी.

आज जब वह डा. वर्मा से मिली तो वह बोले, ‘‘आप रोगी को घर ले जा सकती हैं. जितनी सांसें बाकी हैं उन्हें आराम से लेने दो.’’

पापा मानने को तैयार नहीं थे. वह बोले, ‘‘डाक्टर साहब, आप इन का इलाज जारी रखें. शायद कोई चमत्कार हो ही जाए.’’

‘‘अब किसी चमत्कार की आशा नहीं है,’’ डा. वर्मा बोले, ‘‘लाइफ सपोर्ट सिस्टम उतारते ही शायद उन्हें अपनी तकलीफों से मुक्ति मिल जाए.’’

पिछले 2 माह में अम्मां का अस्पताल का यह चौथा चक्कर था. हर बार उन्हें आई.सी.यू. में भरती किया जाता और 3-4 दिन बाद उन्हें घर लौटा दिया जाता. डाक्टर के कहने पर अम्मां की फिर से घर लौटने की व्यवस्था की गई लेकिन इस बार रास्ते में ही अम्मां के प्राणपखेरू अलविदा कह गए.

घर आने पर अम्मां के शव की अंतिम यात्रा की तैयारी शुरू हुई. वह सुहागन थीं इसलिए उन के शव को दुलहन की तरह सजाया गया. अंजू ने अम्मां के खूबसूरत चेहरे का इतना शृंगार किया कि सब देखते ही रह गए.

अंजू जानती थी कि अम्मां को सजनासंवरना कितना अच्छा लगता था. वह अपने रूप के प्रति हमेशा ही सजग रही थीं. बीमारी की अवस्था में भी उन्हें अपने चेहरे की बहुत चिंता रहती थी.

उस दिन तो हद ही हो गई जब अम्मां को 4 दिन तक अस्पताल में रहना पड़ा था. कैंसर ब्रेन तक फैल चुका था इसलिए वह ठीक से बोल नहीं पाती थीं. अंजू जब उन के कमरे में पहुंची तो नर्स ने मुसकरा कर कहा, ‘दीदी, आप की अम्मां मुझ से कह रही थीं कि मैं पार्लर वाली लड़की को बुला कर लाऊं. पहले तो मुझे समझ में नहीं आया, फिर उन्होंने लिख कर बताया तो मुझे समझ में आया. आंटी मरने वाली हैं फिर भी पार्लर वाली को बुलाना चाहती हैं.’

यह बता कर नर्स कमरे से चली गई तो अंजू ने पूछा, ‘अम्मां, क्या चाहिए?’

अम्मां ने इशारे से बताया कि थ्रेडिंग करवानी है. जब से उन की कीमोथेरैपी हुई थी उन के सिर के बाल तो खत्म हो गए थे पर दाढ़ीमूंछ उगनी शुरू हो गई थी. घर में थीं तो वह अंजू से प्लकिंग करवाती रहती थीं पर अस्पताल जा कर उन्होंने महसूस किया कि 4-5 बाल चेहरे पर उग आए हैं इसलिए वह पार्लर वाली लड़की को बुलाना चाहती थीं.

अम्मां की तीव्र इच्छा को देख कर अंजू ने ही उन की थे्रडिंग कर दी थी. फिर उन के कहने पर भवों को भी तराश दिया था. एक संतोष की आभा उन के चेहरे पर फैल गई थी और थक कर वह सो गई थीं.

नर्स जब दोबारा आई तो उस ने अम्मां के चेहरे को देखा और मुसकरा दी. उस ने पहले तो अम्मां को गौर से देखा फिर एक भरपूर नजर अंजू पर डाल कर बोली, ‘दीदी, आप की लवमैरिज हुई थी क्या?’

‘नहीं.’

‘ऐसा नहीं हो सकता,’ नर्स बोली, ‘अम्मां तो इतनी गोरी और सुंदर हैं फिर आप जैसी साउथ इंडियन लगने वाली लड़की को उन्होंने कैसे अपनी बहू बनाया?’

ऐसे प्रश्न का सामना अंजू अब तक हजारों बार कर चुकी थी. सासबहू की जोड़ी को एकसाथ जिस किसी ने देखा उस ने ही यह प्रश्न किया कि क्या उस का प्रेमविवाह था?

यह तो आज तक अंजू भी नहीं जान पाई थी कि अम्मां ने उसे अपने बेटे राज के लिए कैसे पसंद कर लिया था. जितना दमकता हुआ रूप अम्मां का था वैसा ही राज का भी था, यानी राज अम्मां की प्रतिमूर्ति था. जब अंजू को देखने अम्मां अपने पति और बेटे के साथ पहुंची थीं तो उन्हें देखते ही अंजू और उस के मातापिता ने सोच लिया था कि यहां से ‘ना’ ही होने वाली है पर उन के आश्चर्य का तब ठिकाना नहीं रहा था जब दूसरे दिन फोन पर अम्मां ने अंजू के लिए ‘हां’ कह दी थी.

अम्मां कुंडली के मिलान पर भरोसा रखती थीं और परिवार के ज्योतिषी ने अम्मां को इतना भरोसा दिला दिया था कि अंजू के साथ राज की कुंडली मिल रही है. लड़की परिवार के लिए शुभ है.

अंजू कुंडली में विश्वास नहीं रखती थी. हां, कर्तव्य पालन की भावना उस के मन में कूटकूट कर भरी थी इसीलिए वह अम्मां के लिए उन की बेटी भी थी, बहू भी और सहेली भी. सच है कि दोनों ही एकदूसरे की पूरक बन गई थीं. उन के मधुर संबंधों के कारण परिवार में हमेशा ही खुशहाली रही.

अम्मां के रूप को देख कर अंजू के मन में कभी भी ईर्ष्या उत्पन्न नहीं हुई थी. कहीं पार्टी में जाना होता तो अम्मां, अंजू की सलाह से ही तैयार होतीं और अंजू को भी उन को सजाने में बड़ा आनंद आता था. अंजू खुद भी बहुत अच्छी तरह से तैयार होती थी. उस की सजावट में सादगी का समावेश होता था. अंजू की सरलता, सौम्यता और आत्म- विश्वास से भरा व्यवहार जल्दी ही सब को अपनी ओर खींच लेता था.

घर में भी अंजू ने अपनी सेवा से अम्मां को वशीभूत कर रखा था. जबजब अम्मां को कोई कष्ट हुआतबतब अंजू ने तनमन से उन की सेवा की. 10 साल पहले जब अम्मां का पांव टूट गया था और वह घर में कैदी बन गई थीं, ऐसे में अंजू 3 सप्ताह तक जैसे अम्मां की परछाई ही बन गई थी.

उन्हीं दिनों अम्मां एक दिन बहुत भावुक हो गईं और उन की आंखों में अंजू ने पहली बार आंसू देखे थे. उन को दुखी देख कर अंजू ने पूछा था, ‘अम्मां क्या बात है? क्या मुझ से कोई गलती हो गई है?’

‘नहींनहीं, तेरे जैसी लड़की से कोई गलती हो ही नहीं सकती है. मैं तो अपने बीते दिनों को याद कर के रो रही हूं.’

‘अम्मां, जितने सुंदर आप के पति हैं, उतना ही सुंदर और आज्ञाकारी आप का बेटा भी है. घर में कोई आर्थिक तंगी भी नहीं है फिर आप के जीवन में दुख कैसे आया?’

‘अंजू, दूर के ढोल सुहाने लगते हैं, यह कहावत तो तुम ने भी सुनी होगी. मेरी ओर देख कर सभी सोचते हैं कि मैं सब से सुखी औरत हूं. मेरे पास सबकुछ है. शोहरत है, पैसा है और एक भरापूरा परिवार भी है.’

‘अम्मां, साफसाफ बताओ न क्या बात है?’

‘आज तेरे सामने ही मैं ने अपना दिल खोला है. इस राज को राज ही बना रहने देना.’

‘हां, अम्मां, आप बताओ. यह राज मेरे दिल में दफन हो जाएगा.’

‘जानना चाहती है तो सुन. राज के पापा की बहुत सारी महिला दोस्त हैं जिन पर वे तन और धन दोनों से ही न्यौछावर रहते हैं.’

‘आप जैसी सुंदर पत्नी के होते हुए भी?’ अंजु हैरानी से बोली.

‘हां, मेरा रूप भी उस आवारा इनसान को बांध नहीं पाया. यही मेरी तकदीर है.’

‘आप को कैसे पता लगा?’

‘खुद उन्होंने ही बताया. शादी के 2 साल बाद जब एक रात बहुत देर से घर लौटे तो पूछने पर बोले, ‘राज की मां, औरतें मेरी कमजोरी हैं. पर तुम्हें कभी कोई कमी नहीं आएगी. लड़नेझगड़ने या धमकियां देने के बदले यदि तुम इस सच को स्वीकार कर लोगी तो इसी में हम दोनों की भलाई है.’

‘और जल्दी ही यह सचाई मुझे समझ में आ गई. मैं ने अपने इस दुख को कभी दुनिया के सामने जाहिर नहीं किया. आज पहली बार तुम को बता रही हूं. मैं उसी दिन समझ गई थी कि शारीरिक सुंदरता महत्त्वपूर्ण नहीं है इसीलिए जब तुम्हें देखा तो न जाने तुम्हारे साधारण रंगरूप ने भी मुझे इतना प्रभावित किया कि मैं तुम्हें बहू बना कर घर ले आई. राज भी इस सच को शायद जानता है इसीलिए उस ने भी तुम्हें स्वीकार कर लिया. यह बेहद अच्छी बात है कि बाप की कोई भी बुरी आदत उस में नहीं है.’

अम्मां की आपबीती सुन कर अंजू को इस घर की बहू बनने का रहस्य समझ में आ गया. राज अपनी मां से भावनात्मक रूप से इतना अधिक जुड़ा हुआ था कि उस की मां की पसंद ही उस की पसंद थी.

‘अरे, तू क्यों रो रही है पगली. इन्हीं विसंगतियों का नाम तो जीवन है. हर इनसान पूर्ण सुखी नहीं है. परिस्थितियों को जान कर उन्हें मान लेना ही जीवन है.’

‘अम्मां, आप ने यह सब क्यों बरदाश्त किया? छोड़ कर चली जातीं.’

‘सच जानने के बाद मैं ने अपने जीवन को अपने हाथों में ले लिया था. अपने दुखों के ऊपर रोते रहने के बदले मैं ने अपने सुखों में हंसना सीख लिया. मैं ने अपना ध्यान अपनी कला में लगा दिया. कला का शौक मुझे बचपन से था. मैं ने अपने चित्रों की प्रदर्शनियां लगानी शुरू कर दीं. जरूरतमंद कलाकारों को प्रोत्साहन देना शुरू कर दिया. कला और सेवा ने मेरे जीवन को बदल दिया.’

‘सच, अम्मां, आप ने सही कदम उठाया. मुझे आप पर गर्व है.’

‘मुझे स्वयं पर भी गर्व है कि एक आदमी के पीछे मैं ने अपना जीवन नरक नहीं बनाया,’ अम्मां बोलीं, ‘ऐसी बात नहीं थी कि वह मुझ से प्यार नहीं करते थे. जब एक बार मुझे टायफाइड और मलेरिया एकसाथ हुआ तो वे मेरे पास ही रहे. जैसे आज तुम मेरी सेवा कर रही हो वैसे ही 21 दिन इन्होंने दिनरात मेरी सेवा की थी.’

अब जब से अम्मां को कैंसर हुआ था तब से पापा ही दिनरात अम्मां की सेवा में लगे थे. आज उन की मृत्यु पर वे ही सब से ज्यादा रो रहे थे. उन के आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे. अम्मां के अंतिम दर्शन पर वे बोले, ‘‘अंजू बेटा, तुम ने अपनी मां को सजा तो दिया है पर एक बात तुम बिलकुल भूल गई हो.’’

‘‘पापा, क्या बात?’’

‘‘परफ्यूम लगाना भूल गई हो. वह बिना परफ्यूम लगाए कभी बाहर नहीं जाती थीं. आज तो लंबी यात्रा पर जा रही हैं. उन के लिए एक बढि़या परफ्यूम लाओ और उन पर छिड़क दो. मेरे लिए उन की यही पहचान थी. जब भी किसी बढि़या परफ्यूम की खुशबू आती तो मैं बिना देखे ही समझ जाता था कि मेरी पत्नी यहां से गुजरी है. आज भी जब वह जाए तो बढि़या परफ्यूम की खुशबू मुझ तक पहुंचे. मैं इसी महक के सहारे बाकी के बचे हुए दिन निकाल लूंगा,’’ इतना कह कर पापा फफकफफक कर रो पड़े. अंजू ने परफ्यूम की सारी शीशी अम्मां के शव पर छिड़क दी और 4 लोग उन की अर्थी को उठा कर अंतिम मुकाम की ओर बढ़ चले.

फ्लर्ट: क्यों परेशान थी मीता अपने पति से

नैना,माहा और दलजीत तीनों शैतान लड़कियों की आंखों में हंसतेहंसते पानी आ गया था. थोड़ी देर पहले तीनों चुपचाप अपनेअपने लैपटौप पर बिजी थीं. तीनों मुंबई के वाशी एरिया की इस सोसायटी में टू बैडरूम शेयर करती हैं. एक ही औफिस में हैं, बस से ही औफिस आतीजाती थीं पर अब तो ज्यादातर घर से ही काम कर रही हैं. तीनों बहुत ही बोल्ड ऐंड ब्यूटीफुल टाइप लड़कियां हैं, ‘वीरे दी वेडिंग’ मूवी की लड़कियों जैसी. खूब सम?ादार हैं, कोई इन्हें जल्दी बेवकूफ नहीं बना सकता.

इन के बौस अनिलजी भी यहीं रहते हैं. उन्होंने ही इन तीनों को यह फ्लैट दिलवा दिया था. थोड़े रसिक टाइप हैं. उन्होंने सोचा कि 3 हसीनाएं उन के अंडर में काम करती ही हैं, घर भी पास में हो जाएगा तो थोड़ीबहुत फ्लर्टिंग करता रहूंगा. असल में अनिलजी हर लड़की को प्यार कर सकते हैं. हर लड़की को यह यकीन दिला सकते हैं कि वही इस दुनिया की सब से खूबसूरत लड़की है और किसी भी लड़की से उन का बात करने का जो ढंग है, वह ऐसा कि लगता है जैसे डायलाग मारने की कहीं से ट्रेनिंग ली है.

कई लोगों को अनिलजी पर इस बात पर भी गुस्सा आता है कि ये सोसाइटी के सैक्रेटरी हैं और जरा भी अपनी जिम्मेदारी नहीं सम?ाते. इधरउधर खुद ही गंदा करते रहते हैं. कभी सिगरेट के टोटे रोड पर फेंकते हुए चलेंगे, कभी यों ही इधरउधर थूक देंगे और उन्हें लगता है कि उन्हें सब बहुत पसंद करते हैं.

पता है अनिलजी की सब से बड़ी खासीयत क्या है? फ्लर्ट करते हैं और सामने वाली लड़की को यह पता भी नहीं लग सकता कि फ्लर्टिंग हो रही है. एक तो उम्र में बड़े हैं ही, औफिस में भी सीनियर हैं. किसी भी लड़की से बात करते हैं तो इतनी ग्रेसफुली करते हैं कि तेज से तेज लड़की भी पकड़ नहीं सकती कि अनिलजी फ्लर्ट कर रहे हैं. उलटीसीधी बातें करते भी नहीं हैं.

‘‘आज आप को काम ज्यादा तो नहीं है? देर हो जाएगी तो मेरी कार में ही चलना. एक ही सोसाइटी में तो जाना है. मैं तो कहता हूं रोज मेरे साथ आ जा सकती हो.’’

‘‘मैं तो आज जो भी कुछ हूं, अपनी वाइफ की ही सपोर्ट से हूं. मेरी वाइफ बहुत अच्छी है.’’

‘‘आज आप बहुत अच्छी लग रही हैं, यह कलर आप को सूट करता है.’’

‘‘यह औफिस नहीं है, एक फैमिली है. आप को जब भी कोई प्रौब्लम हो तो मु?ो कह सकती हैं.’’

अब ऐसी बातों पर क्या औब्जैक्शन हो सकता है. असल में अनिलजी को

लड़कियों से बातें करने का, उन्हें जोक्स, कोई मैसेज फौरवर्ड करने का बहुत शौक है. अभी तक तीनों लड़कियों में से किसी ने आपस में उन के बारे में कुछ भी यह सोच कर नहीं बोला कि जाने दो, बौस हैं. शायद मु?ो स्पैशल सम?ाते हैं, इसलिए मु?ो जरा ज्यादा मानते हैं, इसलिए थोड़े स्पैशल नजरिए से देखते हैं, क्या बुरा है. कोई नुकसान तो पहुंचा नहीं रहे हैं. अब जो ये तीनों लड़कियां बुरी तरह हंस रही हैं न. वह इसलिए कि अभीअभी अपने फोन में अनिलजी का मैसेज देखते हुए दलजीत बोल पड़ी थी, ‘‘यार, अनिलजी कोरोना पौजिटिव हो गए हैं, हौस्पिटल में एडमिट हो गए हैं, इन के बच्चे तो विदेश में हैं, बेचारी वाइफ अकेली है.’’

नैना और माहा के हाथ में भी अपनाअपना फोन थे, दोनों ने एकसाथ कहा, ‘‘क्या, तुम्हें भी मैसेज भेजा? मु?ो भी भेजा और साथ में सैड इमोजी भी. है न?’’

नैना हंस पड़ी, ‘‘मतलब सब को फौरवर्ड कर दिया. और मैं सम?ाती थी कि मु?ो ज्यादा अटैंशन देते हैं. अरे, सुनो, सच्चीसच्ची बताना तुम लोगों को भी मैसेज भेजते रहते हैं क्या अनिलजी.’’

दोनों जोरजोर से हंस पड़ीं, ‘‘लो भई, ये तो सब को प्यार बांटते चलते हैं और हम सम?ा रही थीं कि हम ही स्पैशल हैं.’’

फिर तो तीनों अपनेअपने मैसेज एकदूसरी को बताने लगीं और अब इन की हंसी नहीं रुक रही है.

माहा ने कहा, ‘‘देखो, एक आइडिया है.’’

‘‘क्या? बोलोबोलो.’’

‘‘ये जो हम सब के साथ फ्लर्ट करते घूम रहे हैं यह आदत छुड़ाने की कोशिश करनी चाहिए न.’’

दलजीत ने कहा, ‘‘अरे, छोड़ो यार, हमें इन से क्या मतलब. मु?ो तो अपने हैरी से मतलब है. बस वह मु?ो और मैं उसे सच्चा प्यार करते हैं, इतना बहुत है.’’

माहा ने घुड़की मारी, ‘‘फिर शुरू कर दिया हैरी पुराण. आपस में प्यारव्यार करने को कौन मना कर रहा है, लौकडाउन है, घर में बोर हो रहे हैं, अनिलजी के साथ थोड़ा खेल नहीं सकते क्या?’’

दलजीत फिर मिनमिनाई, ‘‘हैरी सुनेगा तो उसे अच्छा नहीं लगेगा.’’

हैरी. कोई अंगरेज… न, न, तीनों लड़कियों ने अच्छेभले हरविंदर को हैरी बना दिया है. दलजीत का मंगेतर है.

दलजीत उस पर जिंदा है, कहती है, ‘‘मेरा हैरी तो सनी देओल लगता है बिलकुल.’’

यह अलग बात है कि नैना और माहा इस बात से तनिक सहमत नहीं.

हमेशा की तरह दलजीत को दोनों शैतान लड़कियों ने इस शरारत में शामिल कर ही लिया. अब इतने दिन से घर में बंद हैं, कितना काम करें. कितना कोरियन शोज देखें. आजकल तीनों पर कोरियन शोज देखने का भूत चढ़ा है. हां, तो बाकायदा मजेदार प्लानिंग हुई. अब अनिलजी जैसे चालू पुरजे के साथ थोड़ी मस्ती करना इन का भी तो हक है. यह क्या. सीधे बनबन कर क्या सिर्फ अनिलजी ही अपना टाइम पास करते रहें.

अनिलजी की पत्नी मीता इतनी सीधी भी कभी नहीं लगी जितनी अनिलजी बताते हैं. बढि़या टाइट रखती हैं इन्हें. चेहरे से ही रोब टपकता है. सब के फ्लैट में इंटरकौम है ही, माहा ने मीता को इंटरकौम पर फोन किया,

हालचाल पूछे, फिर कहा, ‘‘अनिलजी का मैसेज आया था, हौस्पिटल में हैं, तो भी मेरा कितना ध्यान रखते हैं. सर बहुत ही अच्छे हैं, इस बीमारी में भी दूसरों की चिंता करते हैं,’’ और बहुत सी शुभकामनाएं दे कर माहा ने फोन रख दिया.

मीता को ये शुभकामनाएं कुछ खास पसंद नहीं आईं. मन तो हुआ कि पति को फोन करे और कहे कि हौस्पिटल में हो, पहले कोरोना संभाल लो अपना, फिर दूसरों की चिंता कर लेना, पर इस समय तो पति को कुछ कहना पत्नी धर्म के खिलाफ हो जाता, घर आने दो, फिर देख लूंगी, सोच कर दिल को सम?ा लिया.

तीनों लड़कियां अनिलजी के हालचाल पूछ रही थीं. उन के मैसेज एकदूसरे को पढ़वा कर अपना अच्छा टाइम पास कर रही थीं. अनिलजी अपनी उखड़ती सांसों के साथ भी फ्लर्टिंग का यह मौका छोड़ना नहीं चाह रहे थे.

सोच रहे थे कि तीनों लड़कियां कितनी बेवकूफ हैं. मैं तो इन तीनों को ही क्या, जानपहचान की हर लड़की को ऐसे मैसेज कर रहा हूं और ये बेवकूफ अपने को खास सम?ा रही हैं. कभी इन की फेसबुक फ्रैंड्स की लिस्ट देखिए, 5 हजार दोस्त होंगे इन के, जिन में से 4 हजार महिलाएं ही होंगी. गजब रसिया टाइप बंदा है. औफिस की सारी लड़कियां, उन की सहेलियां, सहेलियों की सहेलियां, सब क फोटो और कमैंट देखते ही ऐसे लपक कर फ्रैंड रिक्वैस्ट भेजते हैं कि लड़कियों को पहले तो सम?ा नहीं आता कि कौन है, फिर बेचारी कौमन फ्रैंड्स को देख कर इन की रिक्वैस्ट ऐक्सैप्ट कर लेती हैं, सोचती हैं कि जाने दो, कोई उम्रदराज सीनियर है, क्या नुकसान पहुंचाएगा. बस यहीं भूल कर जाती हैं भोली लड़कियां. फिर तो उन की पोस्ट पर लाइक और कमैंट सब से पहले अनिलजी का ही आता है. एक और खास बात. जितनी सुंदर लड़की, उतना बड़ा कमैंट लिखते हैं.

मीता को सोशल मीडिया में इतना इंटरैस्ट है नहीं तो उन्हें पता ही नहीं चलता कि पति क्या कर रहा है. अनिलजी के बच्चे पिता की ऐक्टिविटीज को टाइम पास सम?ा कर इग्नोर कर देते हैं.

हां, तो अगले दिन मिनमिनाती दलजीत के कंधे पर जैसे बंदूक रख कर माहा और नैना ने दलजीत को स्क्रिप्ट लिख कर दी और बताया कि क्या बोलना है तो दलजीत ने मीता को फोन किया, कहा, ‘‘मैडम, अब कैसे हैं सर. उन के बीमार होने से हम तो परेशान हो गए. आतेजाते पूछ लेते थे कि मार्केट से तो कुछ नहीं चाहिए. इस लौकडाउन में तो उन्होंने हमारा बहुत ही ध्यान रखा है. बस अब जल्दी से ठीक हो कर आएं तो हमें भी कुछ आराम हो. अभी तो मैसेज पर ही उन से बात हो रही है. आप ठीक हैं न?’’

मीता का मन हुआ कि हौस्पिटल जा कर अभी पति से फोन छीन ले. पति की नसनस जानती थी पर अनिलजी भी तो चतुर, चालाक हैं, सीधेसीधे कभी कोई ऐसी हरकत नहीं की कि कोई उन के चरित्र पर एंगली उठा दे.

सरेआम पत्नी की तारीफ करते घूमते. कई बार तो इतनी तारीफ कर देते कि मीता भी हैरान रह जातीं कि क्या सचमुच मैं एक सर्वगुणसंपन्न पत्नी हूं.

अगले दिन नैना का नंबर था. मीता से सीधे पूछा, ‘‘अरे, मैडम सर कैसे हैं?

ठीक तो हैं न? सुबह से कोई मैसेज नहीं आया है उन का. चिंता हो रही है, अब तक तो गुडमौर्निंग के दसियों मैसेज आ जाते थे.’’

‘‘ठीक हैं, काफी ठीक हैं. घर आने ही वाले हैं.’’

‘‘शुक्र है… उन के मैसेज की इतनी आदत हो चुकी है कि क्या बताऊं. सारा दिन टच में रहते हैं. हम तो यहां अकेली पड़ी हैं. इतना बिजी होने के बाद भी वे हर समय हालचाल पूछते रहते हैं तो अच्छा लगता है.’’

अनिलजी घर आ गए हैं, उन्हें कमजोरी है, मीता उन का ध्यान रख रही हैं. अच्छी तरह से क्लास भी ले चुकी हैं. टीचर रही हैं. बिगड़े बच्चों को सुधारना उन्हें खूब आता है. और यहां तो बात पति की थी, पति को तो एक आम औरत भी सुधारने का दम रखती है. सब ठीक हो गया है. तीनों शैतान एकदूसरे से पूछती रहती हैं, बौस का कोई मैसेज आया क्या? जवाब हर बार ‘न’ में होता है अब.

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