धर्म के हिसाब से पहनावा क्यों

हम क्या पहनें और क्या खाएं, क्या यह तय करने वाला कोई और होना चाहिए. आमतौर पर एक समाज में सब एक से कपड़े पहनते हैं. आदमियों के कपड़े एक से तय हैं, खास दिनों के लिए एक से. जब से संचार क्रांति हुई है और न केवल फोटो और विडियों इधर से उधर घूम रहे हैं. पहनावे में फर्क आने लगा है पर हर बार पायनियरों को, शुरुआत करने वालों को विद्रोही माना जाता रहा है.

उस का कारण यह है कि तय परंपरा लागू  करने में धर्म की भूमिका बड़ी रहती है. हर धर्म ने दूरदूर तक अपनी पहचान बनाई तो पहनावे से. अगर ईसाई हो तो इस तरह का पहने. मुसलिम हो तो इस तरह का और हिंदू हो तो इस तरह का. क्षेत्रीय प्रभाव रहा है पर उस में धर्म का रौव फिर रहा है. इस से धर्म को लाभ यह रहता है कि जैसे ही कोई बिचकने लगे, वे उसे घेर सकते हैं. लोगों को इकट्ठा कर के उसे धर्म के हिसाब से पहनने को तो मजबूर करते ही हैं. उस की सोच में तर्क का कोई कीड़ा घुसने लगे तो उस पर तुरंत वार करो और उसे मार डालो. धर्म जानता है कि कपड़ों से शुरू हो कर बात धाॢमक रीतिरिवाजों तक जाएगी और फिर सवालजवाब शुरू हो जाएंगे.

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विधवा सफेद पहने यह हिंदू धर्म आज भी अपनाया जा रहा है. अच्छी भली पढ़ीलिखी औरतें भी पति को खोने के बाद जो पहनती हैं उस में सफेद कुछ ज्यादा होता है. अगर वे न पहनें तो तुरंत पंडे टोकने लगते हैं. माहौल की भारी बेचारी विधवा अब विद्रोह करे तो कैसे करे. उसे अपने तन और धन को बचाना हो मुश्किल होता है, मन की कैसे चलाए.

भारत सरकार ने सेंसर बोर्ड बना रखा है जो वर्षों तक फिल्मों में नग्नता व फुहड़ता की आड़ में औरतों की पोशाकों को धार्मिक नियमों में दबाता रहा है. ईसाई एक तरह की पहनें, मुसलिम एक तरह की, हिंदू एक तरह की. पश्चिम में जब मानसिक क्रांति ने बिकनी का हक दिया और सैंकड़ों की संख्या में औरतें समुद्र बीच में बिकनी में घूमने लगीं तो फिल्मों में छूट मिली. उस से पहले तो केवल खलनायिका ही इसे पहन सकती थी.

आज भी हर रोज विवाद उठते हैं. हैडलाइनें दिखती है कि फला एक्ट्रेस की कोल्ड तस्वीरें आई हैं. बोल्ड का मतलब सिर्फ कम कपड़े क्यों? कम कपड़ों  का मतलब बोल्डनेस क्यों? इसलिए कि हैडलाइन लिखने वाला आज भी कहता है कि समझदार लडक़ी कंधे, पेट और पैर ढंक कर रखेगी. मुसलिम है तो सिर भी ढकेगी. यह अन्याय है जो असल में मानसिक सोच के हक को कुंद करता है. औरतें स्वतंत्र है कि वे मौसम के हिसाब से चाहे जो पहनें. ड्रेस फार्मूले स्कूलों तक या फौज तक रहें तो ही अच्छा है.

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हर औरत का अपना आत्मसम्मान है

औरतों के सदियों से शिक्षा दी जाती रही है कि उन्हें सहनशीलता अपनानी चाहिए और अगर कोई उन के विरुद्ध कुछ कहे तो वे उसे चुपचाप सुन लें. इस सहनशीलता की आड़ में औरतों पर अत्याचार किए जाते रहे हैं और सासससुर, पति ही नहीं, देवर, जेठजेठानी और दूर के रिश्तेदार हर औरत, खासतौर पर नई बहू के खिलाफ एक मोर्चा बना लेते और रातदिन न केवल औरत के कामकाज की आलोचना का अधिकार रहता है, उस के घरवालों, बहन, पिता, भाई के चरित्र व व्यवहार को बखिया उधडऩे का जन्मसिद्ध अधिकार रहता है.

आजकल वे कानूनों ने और नई बहूओं की कमाई ने इस पर थोड़ा अंकुश लगाया है पर यह बिमारी समाप्त नहीं हुई है. यह तब है जब सरकार और धर्म के मालिक अपने खिलाफ बोले 2 शब्दों पर भी बेचैन हो उठते हैं. देश में कानूनों की भरमार है जिसमें धर्म या सरकार को सही या गलत कुछ कहने पर पुलिस वाले रात 12 बजे भी किसी को घर में उठा सकते हैं. जब से टिवट्र और इंस्टाग्राम जैसे एप बने हैं और कोई भी कुछ भी बड़ी संख्या में लोगों तक अपने विचार पहुंचा सकता है, सरकार और धर्म सत्ता औरतों से भी ज्यादा तुनकमिजाज हो गई है.

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सुप्रीम कोर्ट के अवकाश प्राप्त जज रोहिंदन नरीमन ने कहा है कि इस देश में, युवाओं, छात्रों, स्टेंडअप कौमेडियनों, समाचारपत्रों, वेबसाइटों पर बोले शब्दों पर राष्ट्रद्रोह के मुकदमे चला दिए जाते हैं और बहुत बार उन्हें महिनों जेलों में सडऩे को मजबूर किया जाता है. अब तक शायद ही कोई मामला हुआ तो जिसमें इन छात्रों, युवाओं, कौमेडियनों को देश के कानूनों के अनुसार अंतिम न्यायालय से अपराधी माना गया हो पर ट्रायल के दौरान ही उन्हें यातनाएं जेलों में मिल जाती है और उनके परिवार अदालतों और वकीलों पर पैसा बरसाते थकते रहते हैं. जो सहनशीलता औरतों में होने का उदपदेश दिया जाता है वह असल में सरकार व धर्म के मालिकों को दिया जाना चाहिए.

औरतों को भी हेट स्पीच का मुकाबला करना पड़ता है. शादी के तुरंत बाद से लेकर 10-20 साल तक उस के पीहर को लेकर टीका टिप्पणी चलती रहती है. वे ही लोग जो अपने धर्म या अपनी प्रिय पार्टी की सरकार के खिलाफ 4 शब्द नहीं सुन सकते, घर की सदस्या बनी बहू को वर्षों तक नहीं छोड़ते. सहनशीलता को जो सलाह औरतों को दी जाती है असल में सरकार और धर्मों को चलाने वालों को दी जानी चाहिए.

जहां बात औरतों के बारे बोलने का हक है, यह स्पष्ट है कि यह हक किसी को नहीं है, पति को भी नहीं. हर औरत का अपना आत्मसम्मान है, अपना परिवार है, पैतृर्क संबंध हैं और किसी को कुछ कहने का हक है और न उस से कुछ मिलता है. औरतों को दासी समझ कर उन्हें ताउम्र का अधिकारी मानना धर्मग्रंथों में लिखा है तो उस धर्म को घर में नहीं घुसने देना चाहिए.

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समाज नियमों से चलता है धर्म से नहीं

दिसंबर के अंत में हरिद्वार में धर्म संसद में यदि नरसिहानंद को हिंदूमुसलिम संबंधों पर ही नहीं औरतों पर भी गहरा कटाक्ष असल में उन भक्त औरतों के कारण गया जो धर्म की दुकानदारी को चलाती है. हर धर्म में सब से बड़ी ग्राहक औरतें होती हैं और उन्हें  लगता है कि यदि उन्होंने धर्म की शरण ली तो उन का यह जन्म तो ठीक रहेगा ही मरने के बाद अगला जन्म मिलेगा या स्वर्ग में स्थान मिलेगा. औरतों को पैदा होते ही जो पट्टी पढ़ा दी जाती है कि उन को जो मिल रहा है वह पूजापाठ के कारण ही मिल सकता है और यही पति नरिसहानंद जैसों को बकबक करने का साहस देता है.

सवाल तो यह है कि यह धर्म संसद आयोजित कैसे होती हैं? कैसे देश के दूरदूर से लोग हवाई जहाज, रेल या गाडिय़ों से अकेले नहीं अपने शिष्य और शिष्याओं के साथ पहुंच जाते हैं.

धर्म संसद का आयोजन मुफ्त में नहीं हो जाता. इस के लिए स्थान, पंडाल, रहने की जगह, खाने की व्यवस्था सब करनी होती है खासतौर पर जब इस तरह ही संसद 3 दिन की होने वाली हो. जब तक पैसा नहीं होगा यह नहीं हो सकती. यह पैसा चंदे से आता है और चंदा एक तरह से या सीधे औरतों से ही मिलता है. यदि पुरुष देते हैं तो वे घर की आय काट कर देते हैं. औरतें देती है तो अपनी बचत में से भी घर की कुछ सुविधाएं काट कर देती है. किसलिए?

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उन्हें यही बताया जाता है कि धर्म के कारण ही वे समाज टिका है और वे सुरक्षित है. ये दोनों बातें  झूठी हैं, समाज समाज के नियमों से टिकता है, धर्म के नियमों से नहीं. किसी भी धार्मिक प्रवचन को सुन लीजिए, किसी धार्मिक पुस्तक को उठा कर पढ़ लीजिए, उस में व्रत, उपवास, पूजा, प्रार्थना, दानदक्षिणा की बातें होंगी, कहींकहीं उपदेश होंगे कि औरतों को मति अपना कर पति की सेवा करने चाहिए पर उस के साथ पुछल्ला लगा होगा कि चाहे पति कैसा भी हो.

धर्म की चलती है पर पूजापाठ और दानदक्षिणा के मामले में, धर्म न तो औरतों पर बलात्कार रोक पाना, न विधवाओं को आदर दे पाया, न लड़कियों के लिए आफत दहेज को रोक पाया, न दहेज हत्याओं को रोक पाया. कोई धर्म औरतों का व्यापार नहीं रोक पाया बल्कि हर धर्म नगरी में वेश्याओं के इलाके बड़े जोरशोर से फलते चलते हैं. धर्म औरतों को बराबरी नहीं दे पाया. औरतों को ही सारी प्राकृतिक आपदओं का कारण पौराणिक युगों से चला जाता रहा है. औरतों को नंगा कर के उन से हल चलवा कर बारिश कराने के इंद्र देवता को खुश करने के काम भी धर्म के ईशारों पर होते हैं.

धर्म ही यति नरसिहानंद जैसे को खुली छूट देता है क्योंकि धर्म की आड़ में ही सीता को घर निकाला मिला था, राम को ब्राहमण के श्राप के कारण पिता को सेना पड़ा था, आहिल्या को पत्थर बनना पड़ा था. यही औरतें धर्म के दुकानदारों की सब से बड़ी स्पोर्टर और फाइनेंनसर हैं और आज अगर देश ोराहे पर खड़ा है और जाति व धर्म की कशमकश में फंसा है तो इसलिए औरतों से मिलने वाली आर्य को झपटने के लिए सब बुरी तरह बेचैन हैं.

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अगर धर्म या जाति के कारण कहीं दंगे, फसाद, हत्याएं हुईं तो सब से बुरी हालत लड़कियां अनाथ होंगी तो धर्म उन्हें सहारा नहीं देगा. वे विधवा होंगी तो धर्म उन्हें संरक्षण नहीं देगा, उन के घर जलेंगे तो धर्म बनवा कर नहीं देगा. धर्म तो आग लगवा कर हाथ झाड़ कर खड़ा हो जाएगा और भक्तों को कहेगा कि और भार चाहे खुद भर जाए और अपने पीछे घर में इंतजार करने बालियों को भूल जा. वही औरतें धर्म संसद को पैसा देती हैं, यह न भूलें.

कब जागेगी जनता

अहमदाबाद म्यूनिसिपल कौरपोरेशन को फटकार लगाते हुए गुजरात उच्च न्यायालय ने कहा है कि नगर निगमों का काम यह तय करना नहीं है कि कौन क्या खाता है. कट्टर हिंदू लोग सड़कों पर मीट बेचने वालों की दुकानों को बंद करने के लिए अहमदाबाद म्यूनिसिपल कौरपोरेशन का सहारा ले रहे हैं और कमिश्नर से एक आदेश ले कर उन्होंने कई रेहडि़यों को जब्त करा दिया है.

हम क्या पहनें, क्या खाएं, क्या उत्सव मनाएं, क्या देखें, क्या न बोलें, कैसे पूजापाठ करें यह ठेका अब भगवा मंडली ने ले लिया है और हर राज्य, शहर, गांव में कुछ खाली बैठे लोग इस बात की ताक में रहते हैं कि कैसे मुसलिमों और ईसाइयों को परेशान किया जाए और कैसे सभी हिंदुओं को एक कतार में खड़ा कर के उन से एक सी ड्रिल कराई जाए. इस काम में हिंदू राज करेगा की भावना तो रहती है, साथ ही हिंदू धर्म की दुकानदारी भी चमकती है और उस के पीछे गुंडागर्दी, वेश्यावृत्ति, औरतों को उठाना, बलात्कार, लूटखसोट सब छिप जाते हैं.

गुरुग्राम में मुसलमान शुक्रवार की नमाज सड़क पर न पढ़ें, इस का लगातार आंदोलन चलाया जा रहा है जो उन लोगों द्वारा शहर की सड़कों को जन्माष्टमी, रामलीला, दुर्गापूजा, दशहरे, कांवड़ यात्रा पर बंद रखने का हक रखते हैं. कई शहरों में नवरात्रों के दिनों में मीट की ब्रिकी बंद हो जाती है, कहीं शराब की बिक्री दिखावे के लिए भी बंद करा दी जाती है. इस सब को कराने के लिए खाली बैठे निक्कमे पंडेपुजारी किस्म के लोग कुछ भक्तों को जमा कर के हल्ला करने लगते हैं और जब से राममंदिर का सुप्रीम कोर्ट का अतार्तिक फैसला रंजन गोगोई ने दिया है उन के हौसले बढ़े हुए हैं कि कानून भी उन की मुट्ठी में ही है, व्यवस्था भी.

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इस का खमियाजा हर आम घर को भुगतना पड़ता है. मीट खाना सेहत के लिए सही है या नहीं यह तो नहीं कह सकते पर लगभग 99% दुनिया की आबादी सदियों से मीट खा कर जिंदा रही है. शाकाहारी फैशन तो भारत में कहीं अहिंसा के नाम पर अपनाने को थोपा गया है या अब पर्यावरण के नाम पर कहा जा रहा है.

हिंदूवादियों ने इसे धर्म का हथियार बना लिया और साल के 365 दिनों में से सिर्फ 9 दिन मीट न खाने वाले भी अहमदाबाद में रेहडि़यों के खिलाफ एकजुट हो जाते हैं ताकि सत्ता की धांधली जमती रहे.

ये वही लोग हैं जो कहते हैं कि लड़कियां टौपजींस न पहनें, जाति और धर्म के बाहर प्रेम व विवाह न करें, वैलेंटाइन डे न मनाएं, करवाचौथ पर कुंआरियों, विधवाओं, तलाकशुदाओं को अलग रखें, शुभ कामों में विधवाओं और निपूतियों का साया न पड़ने दें. मीट या नमाज के खिलाफ हल्ला कर के तो धर्म को ही जीवनपद्धति स्रोत मानने को मजबूर करते हैं और हर थोड़े दिनों में घरों के सामने चंदे की रसीदबुक ले कर खड़े हो जाते हैं. जिस ने नहीं दिया वह पापी है, समाज का गुनहगार है. घर की औरतों को समाज में रहने के लिए उन उद्दृंडियों की बातें माननी पड़ती हैं जो गले में भगवा दुपट्टा डाले, तिलक लगा कर हर कानून की अवहेलना करने का हक रखते हैं.

अहमदाबाद म्यूनिसिपल कौरपोरेशन को पड़ी डांट सही है. उम्मीद करें कि अब जनता खुद खड़ी होगी इन धर्म के लुटेरों के खिलाफ.

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दोषी मातापिता ही क्यों

सरकार शादी की आयु में लड़कों और लड़कियों का भेद खत्म करने वाली है और शादी की आयु दोनों के लिए न्यूनतम 21 वर्ष होगी. इस का अर्थ होगा कि यदि किसी ने अपनी मरजी से 21 साल से पहले साथ रहना शुरू भी कर दिया तो इसे लिवइन कहा जाएगा, विवाह नहीं चाहे पंडित, काजी या पादरी ने धार्मिक क्रियाकलापों से शादी करा दी हो.

यह कहना गलत नहीं है पर भारत जैसे देश में जहां लड़कियों की सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं होती है, बहुत से गरीब मांबापों के लिए अविवाहित बेटी आफत होती है. 21 साल तक घर पर रख कर उसे सुरक्षा देना देश के गरीब वर्ग के लिए संभव नहीं है.

एक तरफ लड़कियों को पीरियड्स 13-14 की जगह 10-11 में शुरू हो रहे हैं और दूसरी ओर शादी में देर हो रही है. अगर माहौल ऐसा हो जिस में घर का दरवाजा टाट का परदा हो, छत कच्ची हो, पानी लेने मीलों जाना हो, शौचालय न हो वहां 10-11 से ले कर 21 साल तक लड़की की सुरक्षा करना कितने गरीब मांबापों के बस की है?

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पुलिस वाले हैं पर वे तो खुद ही ऐसी लड़कियां की ताक में रहते हैं. अगर किसी के साथ सिर्फ छींटाकशी हो तो वह डर जाती है पर शिकायत तक नहीं कर सकती क्योंकि मांबाप के पास सिवा उसे घर में बंद कर के जाने के और कोई उपाय नहीं होता.

21 साल की आयु तक लड़कियों को समझ आ जाती है और वे घरगृहस्थी का बोझ संभालने में ज्यादा सक्षम हो जाती हैं, यह सोच ठीक है पर जब तक शारीरिक जरूरत जो प्रकृति ने दी है, का कोई जवाब न हो, कानून से कुछ भी करना लड़कियों के साथ खिलवाड़ हो सकता है.

शादी की आयु का कानून बनाना हो तो इस में सजा पंडित, काजी, मुल्ला और पादरी को देने का भी प्रावधान हो कि अगर वे इस आयु से कम की लड़की की शादी कराएंगे तो उन्हें जेल भेजा जाएगा. आजकल दोषी मातापिता ठहराए जाते हैं जो गलत है.

अगर 21 से ज्यादा का लड़का किसी 21 साल से कम उम्र की लड़की से सामाजिक, धार्मिक तरीके से शादी कर ले तो भी दोषी लड़कालड़की नहीं, उन के मातापिता नहीं, शादी कराने वाले होने चाहिए क्योंकि यदि वे शादी की रस्में नहीं कराएंगे तो कानून की नजरों में शादी होगी ही नहीं.

अफसोस यह है कि किसी सरकार, भाजपा सरकार में तो खासतौर पर पंडितों और दूसरे धर्म के दुकानदारों को सजा देने का कानून बनाने की हिम्मत नहीं है.

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हर टैक्स औरत पर टैक्स है

महंगाई बढ़ने की एक बड़ी वजह सरकार का आम आदमी पर टैक्स बढ़ाना है. सरकार को अब पैट्रोल, डीजल, गैस की शक्ल में अनूठे हथियार मिल गए हैं, जिन के सहारे मनमाना टैक्स वसूला जा सकता है.

सरकार जहां 2014 में मनमोहन सिंह के जमाने में जहां 1 लिटर पैट्रोल पर 9 रुपए 48 पैसे टैक्स वसूल रही थी वहीं अब मोदी सरकार 3 गुना ज्यादा यानी 27 रुपए 90 पैसे टैक्स वसूल रही है. गैस और डीजल पर भी ऐसा ही हाल है.

मोदी सरकार की मनमानी इतनी है कि जहां 2014 में राज्यों को पैट्रोल पर टैक्स से 38 पैसे मिलते थे वहीं अब 2021 में बढ़ कर सिर्फ 57 पैसे हुए हैं और भारतीय जनता पार्टी सारे देश में हल्ला मचा रही है कि विपक्षी राज्य सरकारें पैट्रोल व डीजल पर टैक्स कम नहीं कर रहीं.

2021 में मोदी सरकार ने पैट्रोलियम पदार्थों पर 3.72 लाख करोड़ रुपए जनता से वसूले जबकि 2020 में 2.23 लाख करोड़ रुपए मिले थे और बहाना बना दिया कि विश्व बाजारों में कच्चे तेल के दाम बढ़ गए हैं. अगर सिर्फ कच्चे तेल के बढ़े दाम जनता से वसूले जाते तो पैट्रोल, डीजल, गैस पर क्व5-5 प्रति लिटर या किलोग्राम बढ़ते.

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केंद्र सरकार जानती है कि इस देश की औरतों को जितना चाहे लूट लो, वे चूं नहीं करेंगी. उन्हें बचपन से ही यह पाठ पढ़ा दिया जाता है कि जो भी आफत आए उसे भगवान की मरजी मान लो और पूजापाठ कर के बचने की कोशिश करो. फिर भी कुछ न हो तो इसे अपने पिछले जन्मों के कर्मों का फल मान लो. आम जनता से भी कहा जाता है कि वह बस कर्म करे, फल की चिंता न करे. कृष्ण का पाठ बारबार यों ही नहीं दोहराया जाता. इस में हर युग में राजाओं और शासकों का मतलब छिपा रहा है.

लोकतंत्र में उम्मीद थी कि लोगों के टैक्स का पैसा उन कामों में इस्तेमाल होगा. जो अकेले घर नहीं बना सकते उन के लिए सामूहिक घर बनेंगे. स्कूल बनेंगे, सड़कें बनेंगी, बिजली के कारखाने लगेंगे, बाग बनेंगे, अस्पताल बनेंगे. ये पहले बने भी पर अब सब बनना कम हो गया है.

अब अगर सड़कें बन रही हैं तो वे जिन पर क्व25-30 लाख से महंगी गाडि़यां दौड़ सकें. बाग बन रहे हैं तो वहां जहां धन्ना सेठ रहते हैं या मंदिर हैं. स्कूल बनाने का काम जनता पर छोड़ दिया गया है. सरकारी मुफ्त स्कूल न के बराबर रह गए हैं और कहा जाता है कि वहां पढ़ाई नहीं हो रही या उन्हें सुधारने के लिए पैसा नहीं है.

जनता को टैक्स तो देना पड़ ही रहा है पर अब बदले में उसे न चिकित्सा मिल रही है, न सस्ती पढ़ाई मिल रही है, न मुफ्त सड़कें मिल रही हैं और न ही सुरक्षा मिल रही है. एक बड़ी रकम तो हर जगह चौकीदारों, सिक्युरिटी पर खर्च करनी पड़ रही है क्योंकि पुलिस को तो क्राउड मैनेजमैंट के लिए लगाना पड़ रहा है, उस क्राउड को पीटने के लिए जो टैक्स वसूलने वाली सरकार का विरोध करने जमा हो रही है.

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इस मोदी सरकार की आमदनी से कुछ सौ लोगों की चांदी ही चांदी हो रही है. शेयर बाजार ऊंचा जा रहा है, अडानीअंबानी जैसे उद्योगपति सरकार के साथ रहने की वजह से और अमीर हो रहे हैं. आम औरतें गरीब हो रही हैं.

आज देश की लाखों औरतों को घर चलाने के लिए मुथुठ जैसी कंपनियों के दरवाजों पर कर्ज के लिए सिर पटकना होता है जहां जेवर रख कर पैसे मिल जाते हैं. हर थोड़े दिनों बाद इन कंपनियों के बारीक शब्दों में पूरे पेज के विज्ञापन छपते हैं कि छपे नंबरों के खातेदारों का जमा सोना नीलाम किया जा रहा है. टैक्स वसूली के साथ कर्ज वसूली का धंधा भी जोरों से चमचमा रहा है.

औरतें जब तक अपने हकों के लिए असली गुनहगारों को नहीं पहचानेंगी, उन्हें तब तक लूटा जाएगा. घरों में मातापिता, भाई, पति, सासससुर लूटते हैं. सरकार उन्हें बचाने नहीं आती, उन के घर की कमाई को छीनने आती है. हर टैक्स औरत पर टैक्स है क्योंकि घर तो उसे ही चलाना होता है.

न उड़े मर्दानगी का मजाक तो घटे रेप की वारदात

आए दिन बलात्कार की घटनाएं हमें झंझोड़ कर रख देती हैं, पर हम इन्हें  रोकने के लिए कुछ कर नहीं पाते. सरकारे और पुलिस कुछ मेजर स्टैप्स लेने के बाद भी इन्हें घटने से रोक नहीं पा रही. जाहिर है सरकार को और भी सख्त कानून लाना होगा, साथ ही सुरक्षा व्यवस्था भी तगड़ी करनी होगी. सरकार के साथसाथ हम सब का दायित्व भी कम नहीं. टीवी चैनलों पर शायद ही कोई ऐसा दिन जाता हो, जिस में रेप की खबर न शामिल हुई हो. हमारे समाज की यह बहुत ही शर्मनाक स्थिति है. आखिर ऐसा क्यों हो रहा है?

स्थिति का सूक्ष्मता से अवलोकन करने पर बहुत कारण प्रकाश में आते हैं जैसे गूगल, यूट्यूब पर बेशुमार वल्गर वीडियोज, फिल्म, घटिया, विज्ञापन,्र गलत परवरिश, मर्दानगी साबित करने की बलवती इच्छा, बदला, दुश्मनी, जगहजगह नशे की दुकानें मौडर्न सोच दिख कर लडक़ों पर अंधा भरोसा करती लड़कियां, सार्वजनिक स्थलों पर उत्तेजक पहनावा, हावभाव दोहरे अर्थ वाले संवाद घटिनया सोच, घटती इंसानियत इत्यादि. एक और बहुत बड़ा और महत्त्वपूर्ण कारण है लडक़ों की मर्दानगी का मजाक उड़ाना या उन्हें उकसाना, जिस में कभी दोस्त, कभी रिश्तेदार तो कभी खुद लड़कियां शामिल होती हैं. ‘अरे यह तो मूंछों वाला बच्चा है’, ‘इस के तो अभी दूध के भी दांत नहीं टूटे’, ‘कहीं तीसरा जैंडर तो नहीं’, आदि. घृणित वाक्यों से लडक़ों की मर्दानगी को ठेस पहुंचते हैं जो उन के लिए असहनीय हो जाती हैं. इस से आहत हो कर वे अपनी मर्दानगी साबित करने के लिए बलात्कार जैसा अनैतिक, घृणित कदम उठा लेते हैं.

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बचपन से ही लडक़ों के दिमाग में ये बातें अच्छी तरह बैठा दी जाती हैं कि ‘तुम लडक़ी थोड़े ही हो? मर्द हो, ताकत वर हो’, ‘लडक़े रोते थोड़े ही हैं, रोती तो लड़कियां है’, ‘मतलब यह कि तुम ज्यादा भावुक, जज्बाती भी नहीं हो सकतें’, ‘मर्द को दर्द नहीं होता’, ‘मर्द हो. मतलब तुम्हें फौलाद सा कठोर होना है’, ‘किसी आघात चोट का जल्दी तुम्हारे तनमन पर असर नहीं होगा, जल्दी असर तो लड़कियों पर होता है.’

लडक़े घर में भी बहन, मां, बूआ, चाची, लड़कियों को देखते हैं कि उन्हें देर रात बाहर नहीं जाने दिया जाता, क्योंकि बाहर उन्हें मर्दों से खतरा रहता है, कोई उन से जोरजबरदस्ती कर सकता है. पर लडक़ों को कोई डर नहीं, क्योंकि वे मर्द है. समाज में उन का बलात्कार अथवा यौन शोषण हो जाए तो उसे कलंक की भी संज्ञा नहीं दी जाती.

सामाजिक दृष्टि से लडक़े अपने भविष्य के लिए भी निङ्क्षश्चत होते हैं, क्योंकि उसी घरपरिवार में इज्जत से उन्हें हमेशा रहना है. उन्हें मालूम है उन्हें विदा हो कर कहीं और नहीं जाना. वे ही घरपरिवार के वारिस हैं. वे दिल से हिम्मती और शरीर से बलवान भी अतएव जन्म से ही शारीरिक, मानसिक और सामाजिक सभी स्थितियों से मजबूत, स्वतंत्र वे भारतीय समाज में शुरू से ही लड़कियों से ऊंची पोजीशन पर रखे जाते हैं. यह बात उन्हें घुट्टी में पिलाई जाती है, जो उन के मनमस्तिष्क में घर कर लेती है जो उन में कुछ ज्यादा ही आत्मविश्वास भर अपने को उच्चतम मान लेने की सोच देती है. ऐसे में वे जब किशोर, जवान होने लगते हैं तब किसी ने भी यदि उन की मर्दानगी पर शब्दों के प्रहार किए तो वे बेहद आहत हो उठते हैं. तब चोट खाए वे अपनी मर्दानगी साबित करने के लिए कुछ भी कर डालते हैं. यहां तक कि किसी भी उम्र की किसी भी लडक़ी, महिलाका बलात्कार जैसे कुकृत्य भी कर डालते है. कभीकभी तो बलात्कार पीडि़ता की हत्या तक भी कर देते हैं.

आज के समाज में कई तरह के वर्गों का आपस में मेलजोल शुरू हो गया है. पहले पिछड़े लोग ऊंचे घरों को डर की नजर से देखते थे. पिछड़ों की लड़कियों को तो बलात्कार किया जाना आम था पर अब उलटा भी होने लगा है और पैसा पातीं और पौवर वाली पिछड़ी जातियां बिना जाति पूछे मौके का काम उठा लेती हैं. लड़कियों को भी एकदूसरे वर्ग के तौरतरीकों का ज्यादा पता नहीं होता. वे सोचती है कि हर लडक़ा उन के घर सा होगा पर कुछ घरों में बहुत कुछ छिपा हुआ चलता है चाहे उसे हमेशा नकारा जाता है.

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आज के समय में स्वार्थ, सुख, मजा, पैसा ही जब सर्वोपरि रह गया है तो ऐसे में दूसरे के दर्द, पीड़ा के वैसे ही कोई माने नहीं रह गए हैं. पैसा, सुविधा, स्वार्थ और अपना मजा हवस आदमी को मशीनी बना रही है. भावनाएं निर्मोल होती जा रही है. दूसरे की भावनाओं से खिलवाड़ कभीकभी बहुत महंगा भी पड़ जाता है. अत: किशोर से युवा बन रहे अथवा बन चुके लडक़ों की कोमल मनोस्थिति को समझें, उन की भावनाओं से खिलवाड़ कर उन का मजाक उड़ाने से बचें. उन की मर्दानगी का मजाक महिलाओं के बल, बुद्धि योग्यता और साहस का महत्त्व भी समझाना होगा. साथ ही यह भी कि लड़कियां भी लडक़ों की ही तरह बुद्धिमान विचारवान इंसान हैं, जो आज हर क्षेत्र में, परिवार, समाज, राष्ट्र क्या विश्व स्तर तक प्रगति मं अपना भरपूर योगदान दे रही हैं. उन्हें सम्मान देना ही होगा.

बलात्कार जैसे कुकृत्य से भले लडक़े अपने ईगो को संतुष्ट कर लें पर जब ऐसी घटनाएं खुद उन के अपनों पर घटती हैं तो वे उन के लिए भी असहनीय होती हैं. अत: लडक़ों की मर्दानगी का मजाक उड़ाने पर अंकुश लगने से यकीनन रेप की घटनाओं में कमी आएगी.

क्या फायदा ऐसे धर्म का

महंगे परिधानों और गहनों से लदी महिलाएं जब बड़ीबड़ी गाडि़यों से राजाओं की तरह सजेधजे अपने पतियों के संग उतरीं तो सभी की नजरें उसी ओर घूम गईं.

उन के स्वागत और सम्मान में हाल के मुख्यद्वार पर कुछ लोग फूलमालाएं ले कर खड़े थे और उन्हें सब से आगे की तरफ ले जा रहे थे. सब से आगे उन के लिए महंगे सोफे लगे थे जिन पर जा कर वे लोग विराजमान हो गए.

पीछे बैठे लोग भी समझ गए थे कि वे जरूर बड़ी हस्ती के लोग हैं. दरअसल, आज जो महान विभूति यहां प्रवचन देने आए हैं, ये उन के उच्च स्तरीय शिष्यों के परिवार के लोग हैं, जिन्हें यहां खास स्थान मिला है.

ऐसा नजारा देश के किसी भी कोने में चले जाएं हर जगह देखने को मिल जाएगा. अब प्रवचन भी तो एयरकंडीशंड कमरों में होते हैं जहां एअरकंडीशंड लंबी गाडि़यों में आने वालों का खास ध्यान रखा जाता है.

सत्संग की महिमा

नेहा जब विवाह कर अपनी ससुराल में गई तो उस के यहां इष्ट देव को पूजने जाने का रिवाज है. सब बड़ी गाड़ी ले कर वहां पहुंच गए, गरमी बहुत तेज थी और लंबी कतार में खड़े होने के बाद दर्शन हो रहे थे. नेहा ने मन ही मन सोचा आज तो गरमी में शरीर का बेहाल हो जाएगा. किंतु कतार छोड़ आगे भेज दिया गया और

जल्दी से दर्शन कर बड़ी रकम भेंट चढ़ा कर वे लौट आए.

उस के सास व ससुर बहुत प्रसन्न थे कि झट से काम हो गया. किंतु नेहा की तीसरी आंख खुल गई थी, उस से रहा न गया तो अपनी अफसर सास से पूछ, ‘‘बैठी कि मां यह क्या हम इष्ट देव के यहां भी अपनी पहचान और रूतबे से दूसरों को पीछे छोड़ आग निकल जाते हैं? क्या फायदा ऐसे धर्म का? कम से कम वहां तो सभी को बराबरी का दर्जा मिलना चाहिए?

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‘‘बेटी यह तो पिछले जन्म के संस्कार हैं जिन के कारण आज हमें यह पद और रुतबा मिला है सो इस में कोई बुराई नहीं.’’

नेहा को बात कुछ हजम नहीं हुई, किंतु अपने पद की धौंस और रुतबा दिखाने वाली सास के आगे चुप रहने में ही समझदारी लगी.

इसी तरह सौफ्टवेयर प्रोफैशनल रीता अपने गुरु के सत्संग में हर रविवार जाती है और अपने आसपास रहने वाले व दफ्तर के लोगों के सामने इस सत्संग की महिमा का बखान करते नहीं थकती. यहां तक कि वह लोगों को इस समूह से जोड़ने के लिए खूब कोशिश भी करती है ताकि उस के गुरु के समक्ष उस का रुतबा बढ़ सके.

धर्म का हथियार

दफ्तर में उस के उच्च पद पर आसीन होने के कारण उस के नीचे कार्यरत कई लोग इस समूह से सिर्फ इसलिए जुड़े कि बौस अन्यथा न लें. इस में उन गुरु के प्रति उन की कोई भावना नहीं थी, किंतु नौकरी में तरक्की की लालसा उन्हें यहां तक खींच लाई थी.

समझ में नहीं आया कि शिक्षित हो कर रीता यह सब क्यों कर रही थी. हो सकता है उसे भी अंदर ही अंदर कोई अन्य लाभ हो या फिर यह सिर्फ उस की अंधविश्वासी प्रवृत्ति हो जिस की चपेट में उस के संपर्क में आने वाले लोग भी आए और वह भी सिर्फ उस की धौंस के कारण.

इसी तरह के न जाने कितने उदाहरण हमारे आसपास मिल जाएंगे जिन से महसूस होता है कि इतना पढ़लिख कर भी जाति, वर्ण, अमीरी, धर्म का असर और गहरा हो रहा है, कमजोर नहीं हो रहा. शिक्षा से तर्क का कोई वास्ता नहीं रहा. अमीरों को अपनी अमीरी बनाए रखने के लिए धर्म का हथियार मिल गया है. पूजापाठ और कर्मों का फल कह कर गरीबों का मुंह बंद रखने को तैयार तरीका किया गया है.

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चुनाव और औरतों का अधिकार

5 राज्यों की जनता को फरवरी, मार्च में फैसला करना है कि उन्हें शासन से क्या चाहिए. वे धर्म की रक्षा, मंदिर, चारधार्म यात्रा, आरतियां, ङ्क्षहदूमुसलिम विवाद और बढऩा पैट्रोल टैक्स, मंहगी होती गैस, दंगे, आंदोलन में से किसे चुने. जिसे भी चुना जाएगा वह रातोंरात न तो ङ्क्षहदू राष्ट्र बना पाएगा न महंगाई कम कर के सामाजिक मेलजेल को पटरी पर ले पाएगा. चुनाव शासकों की हर समय अधर में लटकाए रखते हैं पर अफसोस यह है कि चुनावों से सही सरकारों का जन्म नहीं हो पा रहा. हर चुनाव एक विक्षिप्त एक बच्चा पैदा कर रहा है और लोग सोचते हैं कि अगले चुनाव में कोई समझदार कमाऊ संतान पैदा होगी जो उन का भविष्य बनाएगी पर ऐसा नहीं हो रहा.

अब यह दोष किस का है कहना कठिन है पर इतना जरूर दिख रहा है कि लोकतंत्र की बेसिक समझ इस देश से गायब हो गर्ई है. जैसे शादीब्याहों में कुंडलियों, पूजापाठों, मन्नतों पर संबंध तय किए जाते हैऔर जैसे सफल सुखी वैवाहिक जीवन के लिए दुआएं और आरतियों पर निर्भर रहा कम रहा है वैसे ही राजनीति में टोटकों और जपतप पर चुनाव लडक़े जा रहे हैं. यह लोकतंत्र के लिए खतरा है, यह किसी भी देश की जनता को अंधकार भरे कमरे में धकेलने के जैसा है.

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आज मतदाता 18वीं सदी की निरीह की तरह हो गया है जिसे सुनीसुनाई बातों के आधार पर कुंडली के बलबूते पर किसी के पल्ले बांध दिया जाता था और  वह किया जाता था कि तेज भाग्य अच्छा होगा तो पति राजकुमार निकलेगा, भाग्य खराब होगा तो वह भी होगा. मतदाता जिसे चुनता है, वह कैसा होगा, अब पता नहीं.

पिछले चुनावों से देखें तो सब से ज्यादा शिकार औरतें रही हैं. 18वीं 19वीं सदी तक कि औरतों की तरह वे बरक वधू बन कर संतानें पैदा कर के, विचार, असहाय, जल्लाद सासों, बेरुखे पति के जुल्मों के शिकार हैं. आज की औरत को मंहगाई से निपटना पड़ रहा है. घर व काम की जगह भेदभाव सहना पड़ रहा है, असुरक्षा ने घेरा रखा है. कब उस पर राजनीतिक कहर आन पड़े कहा नहीं जा सकता. आज भारी टैक्स देकर भी न उसे साफ सडक़ मिल रही है, न साफ पानी, न साफ हवा, न अफोर्टेबल अच्छी पढ़ाई व चिकित्सा और न भविष्य की कोई गांंटी फिर भी उसे चुनावों के पंडितों, मौलवियों, पादरियों की शरण में जाना पड़ेगा और जो मिलेगा उसी से संतोष करना होगा.

इस का बड़ा कारण है कि औरतें अपने हकों और अपनी आवश्यकताओं के बारे में चुप रहती हैं, वे बढ़चढ़ कर सरकार चुनने में आगे नहीं आतीं और न ही अपनी सम्मानित घरेलू ङ्क्षजदगी की मांग को पहली जरूरत के रूप में प्रस्तुत करती है. वे ये फैसले पिताओं और पतियों पर छोड़ रही हैं और इसलिए जब कोविड जैसी महामारी आती है तो परेशान हैरान में फ्रंट में वे ही होती है. शासन उस समय दुबक कर बैठ जाता है. वह टीवी स्क्रीन पर दिखता है, पड़ोस में नहीं.

अब एक और मौका है जब अपना विरोध इस्तेमाल करें. वोट घर को दें, धर्म, धंधे, धन या धमाकेदार भाषणों को नहीं. उन्हें चुनें जो औरतों को समझें. समाज औरतों पर चलता है, आदमियों पर नहीं यह साबित करें. जिसे वोट देने के अवसर मिल रहा है वोट अपने मन से दें पति, पिता या भाई के कहने पर नहीं.

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गर्भपात की गोलियां: औरत की आजादी की निशानी

बीते 20 सालों में औरत होने के माने काफी बदल गए हैं. इस का एक अहम और सीधा नाता गर्भधारण की स्वतंत्रता और इच्छा से भी है. निजी और सरकारी क्षेत्र में कई दशकों से औरतों का नौकरियों में आने का सिलसिला जो शुरू हुआ वह थमने का नाम नहीं ले रहा है.

अब हर कहीं औरत दिख रही है तो इस की बड़ी वजह उस की आर्थिक निर्भरता की सम?ा है. जब तक वह पैसों और जीवनयापन के लिए पुरुषों की मुहताज थी तब तक उसे पुरुष की मरजी से किए गए सैक्स संबंध के परिणामस्वरूप हुए गर्भ को धारण करना पड़ता ही था.

इस दबाव में धर्म की भूमिका भी अहम रही है जिस के तहत स्त्री बच्चा पैदा करना अपना फर्ज सम?ाती रही. गर्भधारण से बचने के पहले ज्यादा उपाय नहीं थे और ऐसी कोई सहूलियत भी उपलब्ध नहीं थी कि वह अपनी मरजी से उस से बच सके. आज अमीर और गरीब सभी वर्गों की औरतों ने गर्भधारण को नियंत्रित करने के उपाय जान लिए हैं और इसीलिए जनसंख्या वृद्धि तेजी भी से घट रही है.

दिलचस्प इत्तफाक

यह बेहद दिलचस्प इत्तफाक है कि गर्भधारण से बचने या गर्भपात करने के लिए गोलियों का चलन भी 90 के दशक से ही शुरू हुआ. शुरुआती दौर में हिचकने के बाद औरतें इन्हें बड़े पैमाने पर इस्तेमाल कर रही हैं और उन्हें रोकने की हिम्मत कोई नहीं कर पा रहा. सहमति से स्थापित हुए यौन संबंधों को लोग व्यभिचार के दायरे के बाहर रखने लगे हैं.

सुप्रीम कोर्ट ने लिव इन रिलेशनशिप को मान्यता दे कर बहुतों की उल?ान को दूर कर दिया है. एक दबी सामाजिक क्रांति अब स्वीकृत हो चुकी है कि औरत को गर्भधारण करने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता उलटे गर्भपात के लिए उसे प्रोत्साहित किया जा रहा है. जिन समाजों में गर्भपात को ईश्वर की मरजी के खिलाफ सम?ा जाना है, जिन में अमेरिका के गोरे कट्टरपंथी चर्च जाने वाले भी हैं, औरतें बेहद तनाव में रहने को मजबूर हैं.

समाज तेजी से बदल रहा है. शारीरिक संबंधों के मामले में पूर्वाग्रह भी छोड़े जा रहे हैं, जिस की बड़ी वजह आज की औरत में आती जागरूकता है. अपने स्वास्थ्य, कैरियर और अधिकारों के प्रति वह सचेत है और कोई सम?ौता करने को तैयार नहीं है तो इस के पीछे उन गोलियों और उपचारों का बड़ा योगदान है जो उसे बेहद सरलतापूर्वक गर्भधारण से बचाते हैं.

लापरवाही की सजा

बात विवाहितों की ही नहीं है बल्कि युवतियों की भी है. भोपाल की एक वरिष्ठ स्त्रीरोग विशेषज्ञा के अनुसार बड़ी संख्या में युवतियां गर्भपात कराने के लिए नर्सिंगहोम्स में आती हैं. उन में छात्राएं भी हैं और नौकरीपेशा भी होती हैं जो मां नहीं बनना चाहतीं. इन में से अधिकांश ने लापरवाही वक्त पर कौंट्रासैप्टिव पिल्स न लेने की की थी पर उस की पहले की तरह उन्हें कीमत बहिष्कृत या शर्मिंदा हो कर नहीं चुकानी पड़ती.

बकौल क्षमा अगर गर्भनिरोधक और गर्भपात वाली गोलियां बड़े पैमाने पर नहीं अपनाई जातीं तो प्रसव से कई गुना ज्यादा मामले गर्भपात के आते.

जाहिर है, यह वाकई हाहाकार वाली स्थिति होती. एक अंदाजे के मुताबिक भोपाल जैसे बी श्रेणी के शहर में 12 से 19 आयुवर्ग की 100 और दिल्ली में 1000 लड़कियां रोजाना गर्भपात कराती हैं. अधिकांश अबौर्शन बगैर किसी खतरे के हो जाते हैं क्योंकि पहली के बाद दूसरी गलती लड़कियां नहीं करतीं.

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असुरक्षित सहवास के बाद पहली माहवारी वक्त पर न आने के बाद वे खुद प्रैंगनैंसी टैस्ट कराती हैं और बिना वक्त गवाएं गर्भपात करा लेती हैं. उन का बौयफ्रैंड साथ दे न दे उन्हें फर्क नहीं पड़ता यानी सहूलियत युवकों को भी हुई है कि उन पर कोई पारिवारिक, नैतिक या कानूनी दबाव नहीं पड़ता, जिस से पुरुष सदियों से कतराते रहे हैं.

शुचिता बीते कल की बात

लड़के या पुरुष जेब में कंडोम रखें न रखें पर युवतियां और औरतें पर्स में लिपस्टिक और फेस पाउडर के साथसाथ गर्भ से बचाने वाली गोलियां जरूर रखती हैं. यौन शुचिता बीते कल की बात हो गई है. विवाहित और अविवाहित का फर्क सहवास के मामले में कहने भर को रह गया है.

यह हालत किसी के लिए चिंतनीय नहीं है सिवा धर्म और संस्कृति के ठेकेदारों के जिन की औरत को गुलाम बनाए रखने की दलीलें और टोटके इन गोलियों के आगे दम तोड़ रहे हैं. हिंदू राष्ट्र की बात करने वाले और जनसंख्या नियंत्रण की वकालत करने वाले लोग एक ही हैं जो विरोधाभासी बातें करते हैं.

तनाव और अवसाद

यह ठीक है कि अब आप किसी महिला को सहवास से रोक नहीं सकते. भोपाल की एक ब्यूटीशियंस कहती हैं कि नए जमाने की स्त्री की सोच को सम?ाना होगा और मुद्दा कतई सहवास की स्वतंत्रता न हो कर एक ऐसी जिम्मेदारी को बेवक्त न उठाने का है जिस में कोई बेईमानी औरत नहीं कर सकती. जब वह अपनी मरजी से मां बनती है तो पूर्णता के साथ बनती है.

वह बच्चे की परवरिश में कोई कोताही नहीं बरतती उलटे पहले की स्त्री के मुकाबले ज्यादा गंभीरता से इसे निभाती है. मगर अविवाहिताओं के मामले में मैं गर्भपात की विरोधी हूं. वजह लड़कियों को ही सारे तनाव और अवसाद का सामना करना पड़ता है. भ्रूण हत्या या गर्भ न ठहरने देना हमारी संस्कृति के खिलाफ है.

इस विरोधाभासी कथन के माने भी बेहद  साफ हैं कि अब औरत अपनी मरजी से सहवास कर मां बनना चाहती है पुरुष की मरजी से नहीं और इस के लिए मैडिकल अबौर्शन पिल्स मौजूद हैं तो कोईर् खास दिक्कत भी उसे पेश नहीं आती. मगर उसे सावधान भी रहना चाहिए.

गर्भपात की आजादी हरज की बात नहीं पर यह किन शर्तों पर मिल रही है इस पर बहस की खासी गुंजाइश मौजूद है.

कुंआरी मांओं को मान्यता

अनाथाश्रमों में आने वाले लावारिस बच्चे अधिकांश लापरवाही से पैदा हुए लगते हैं. वजह कोई भी स्त्री बच्चा यों छोड़ देने के लिए या शर्त पर मां नहीं बनती. एक मां ने स्वीकारा था कि वह पिल्स लेना भूल गई थी, इसलिए मजबूरी में जन्म देना पड़ा. गर्भ का पता उसे देर से चला. अभी समाज इतना भी आधुनिक नहीं हुआ है कि कुंआरी मांओं को मान्यता देने लगे. अनवैड मदर्स को आज भी कोई मकान किराए पर नहीं देगा, कोई नौकरी नहीं देगा, कोई भाई अपने घर नहीं रखेगा.

ऐसी हालत से बचने के लिए गर्भपात कराने में देर नहीं करनी चाहिए. सहवास के पहले या 72 घंटों बाद तक गोलियों का कोर्स पूरा करने से 99% मामलों में गर्भ नहीं ठहरता. आमतौर पर 20 सप्ताह तक का गर्भ गिराया जा सकता है पर भ्र्रूण को बढ़ने न दिया जाए तो खतरा भी कम होता है. उस से भी ज्यादा बेहतर है गोलियों का सेवन और जानकारी जो विज्ञापनों में बिस्तार से बताई जाती है. 13-14 वर्ष की लड़कियों को यह जानकारी पूरी तरह सम?ा लेनी चाहिए क्योंकि सैक्स उत्तेजक मैटीरियल आज ज्यादा सुलभ है.

निहायत व्यक्तिगत बात

ऐस्ट्रोजन और प्रोजेस्टेरौन हारमोंस से बनी ये गोलियां जो विभिन्न नामों से बाजार में उपलब्ध हैं वीर्य को गाढ़ा कर देती हैं जिस से वह गर्भाशय में प्रवेश नहीं कर पाता. शुक्राणु और अंडाणु नहीं मिलते तो गर्भ नहीं ठहरता. ये गोलियां सुरक्षित हैं और कोई शंका होने पर डाक्टर से सलाह लेने में हरज नहीं. भ्रूण बड़ा होता है तो कई बार उस के अंश गर्भाशय में रह जाते हैं जो रक्तस्राव की वजह बनते हैं.

ऐसा तभी होता है जब समय पर गोलियां न ली जाएं. एक अविवाहित सरकारी अधिकारी की मानें तो इन गोलियों ने उन जैसी महिलाओं को जो पारिवारिक जिम्मेदारियों या दूसरी वजहों के चलते शादी नहीं कर पातीं आजादी से जीना और सम्मानजनक तरीके से रहना सिखाया है. इस में हरज क्या है? इस कथन से जाहिर है गर्भधारण निहायत व्यक्तिगत बात है और ये गोलियां एक अनुशासित स्वतंत्रता देती हैं.

पुरुष की तरह सहवास महिला का भी अधिकार और जरूरत है. पर चूंकि गर्भधारण महिला को ही कराना होता है, इसलिए इस से बचाव भी उस का प्राकृतिक अधिकार है.

एक इंजीनियरिंग कालेज की छात्रा बेहिचक जरूरत पड़ने पर इन गोलियां के सेवन को स्वीकारते हुए कहती हैं, ‘‘मैं अभी 5 साल और शादी नहीं करना चाहती. मेरा बौयफ्रैंड भी नामी कंपनी में नौकरी करता है. हम दोनों अलगअलग पैसा इकट्ठा कर रहे हैं. माह में 2-3 बार शारीरिक संबंध स्थापित हो ही जाते हैं और ऐसा 2-3 दफा ही हुआ कि हम कंडोम का इस्तेमाल नहीं कर पाए. तब अप्रिय स्थिति से बचने के लिए मैं ने गर्भनिरोधक गोलियां लीं.

ऐसी युवतियां इन गोलियों की वजह से आजादी की जिंदगी जी रही हैं और यह आजादी खुद के भविष्य और सुरक्षा के लिए है. विलासिता के लिए नहीं जैसाकि आमतौर पर सोचा और प्रचारित किया जाता है.

आज परिवारिक संरचना बेहद तेजी से बदल रही है. हमें उस में बच्चों को ढालना होगा. खतरा या मुद्दा शारीरिक संबंध नहीं रह जाता है बल्कि नादानी में गर्भ ठहर जाना है. ऐसे में घर से दूर या घर में ही रहते अभिभावकों से दूर होती लड़कियों को मालूम होना चाहिए कि वे कैसे गर्भधारण से बच सकती हैं. ये गोलियां काफी प्रचारित हो चुकी हैं और शादीशुदा औरतों के लिए भी वरदान हैं जो पति की जिद या जोरजबरदस्ती के कारण खुला विरोध नहीं कर पातीं.

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औरत की आजादी

भारतीय सामाजिक परिवेश बड़ा दिलचस्प है और मर्यादित भी. भाई या पिता जानता है कि बहन या बेटी सैनिटरी नैपकिन की तरह अबौर्शन पिल्स का इस्तेमाल करती होगी पर इस बाबत न वह कुछ पूछ सकता न टोकने का जोखिम बगावत के डर से मोल ले सकता.

परिवार बने रहें यह हर शर्त पर सभी को मंजूर है. औरत की आजादी इन में से एक है, इसलिए अबौर्शन पिल्स के नाम पर नाकभौं सिकोड़ने वालों की तादाद कम हो रही है. औरत अपनी पहचान बना रही है, पैसा कमा रही है और तमाम वे काम कर रही है जिन पर कल तक मर्दों का दबदबा था तो अब उस पर गर्भ थोपा नहीं जा सकता. अबौर्शन या कौंट्रासैप्टिव पिल्स ने उसे सहूलियत और मजबूती ही दी है. होना तो यह चाहिए कि इन पिल्स को ओटीसी घोषित कर के इन के प्रचार की इजाजत दी जाए.

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