Romantic Story: कैसा यह प्यार है -भाग 1

लेखिका- प्रेमलता यदु 

आज कक्षा 12वीं की बोर्ड परीक्षा का अंतिम पेपर था. मैं ने सारे पेपर बहुत अच्छे सौल्व किए. और तो और, मेरा फिजिक्स का पेपर भी उम्मीद से ज्यादा ही अच्छा रहा जिसे ले कर मैं वर्षभर परेशान रही, कभी समझ ही न पाई कि आखिर फिजिक्स में इतने सारे थ्योरम क्यों हैं. आज सफलतापूर्वक मेरी परीक्षा समाप्त हो गई जिस का मुझे बेसब्री से इंतजार था परंतु एग्जाम हौल से बाहर निकलते ही मेरा मन बेचैन हो उठा क्योंकि आज स्कूल में हमारा आख़री दिन था.

अब हम सभी संगीसाथी छूट जाएंगे, यह सोच कर ही हृदय की व्याकुलता बढ़ गई. क‌ई वर्षो का साथ एक क्षण में छूट जाएगा. सभी फ्रैंड अपनेअपने सपनों को पूरा करने अलगअलग दिशाओं में बंट जाएंगे. लेकिन, यह तो होना ही था. हर किसी को अपने जीवन में कुछ बनना था, एक मुकाम हासिल करना था. लेकिन मेरा सपना…मेरा सपना तो कुछ और ही था.

मैं बचपन से दादी की परियों वाली कहानियां सुनती आई थी जिन में परीलोक से सफेद घोड़े पर सवार सपनों का एक राजकुमार आता है जो राजकुमारी को अपने संग परियों के देश ले जाता है. मैं भी, बस, एक ऐसे ही राजकुमार को अपने नयनों में बसाए बैठी थी.

एक आम लड़की की भांति मैं खुली आंखों से यह सपना देखा करती, यही सोचा करती कि ग्रेजुएशन कंपलीट होते ही मेरे सपनों का राजकुमार आएगा, जिस के संग ब्याह रचा कर मैं एक हैप्पी मैरिड लाइफ़ गुजारूंगी.

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हम सभी फ्रैंड्स जुदा होने वाले थे. सभी एकदूसरे के गले लग रहे थे, टच में रहने का वादा कर रहे थे, स्लैम बुक में अपने फेवरेट हीरो, हीरोइन, फेवरेट डिशेस से ले कर अपने फास्ट और क्लोज फ्रैंड का नाम लिख रहे थे. मैं भी लिख रही थी और अपनी क्लोज फ्रेंड रूही के स्लैम बुक पर उस का नाम लिखते ही मैं रो पड़ी और वह भी अपना नाम देख मुझ से लिपट गई. फिर न जाने कितनी देर हम यों ही एकदूसरे से गले लग कर रोते रहे. फिर धीरे से रूही ने मेरे कानों में कहा- “आई होप, तेरे सपनों का राजकुमार तुझे जल्दी मिले.”

उस का इतना कहना था कि मुझे हंसी आ गई और फिर हम दोनों रोतेरोते हंस पड़े.

आज रात की ही ट्रेन से रूही अपने घर लौट रही थी क्योंकि वह होस्टलर थी और अब आगे की पढ़ाई रूही अपने ही शहर से करने वाली थी. हम कब मिलेंगे, इस बात का हमें कोई इल्म नहीं था. इसलिए रूही ने मुझ से वादा लिया कि जब भी मुझे मेरे ख्वाबों का शहजादा मिल जाएगा, मैं सब से पहले उसे ही इन्फौर्म करूंगी.

उस रोज़ हम ने सारा दिन साथ बिताया. स्कूल के सामने लगे चाट के ठेले पर हम ने मेरी पसंदीदा कटोरी चाट खाई, फिर रूही की मनपसंद तीखी वाली भेलपूरी, जिसे खाते ही कानों से धुआं और आंखों से पानी निकलने लगता लेकिन हमें तो भेल यही अच्छी लगती. उस के बाद आया पानीपूरी का नंबर और हम दोनों ने जीभर कर कभी खट्टी, कभी तीखी, कभी मीठी, कभी पुदीने वाली तो कभी दही वाली सभी प्रकार की पानीपूरियों का पूरापूरा लुत्फ़ उठाया.

घर जाने से पूर्व हम अपने स्कूल से लगे चर्च पर चले ग‌ए जहां हम अकसर जाया करते थे. वहां चर्च के भीतर जा कर मैं हमेशा की तरह रूही का नाम पुकारने लगी और उस का नाम इको होने लगा. साउंड का इस प्रकार इको होना मेरे मन को प्रफुल्लित करता और रूही को परेशान, वह बारबार मुझे ऐसा करने से रोकती और मैं उस का नाम दोहराती. जब भी हम चर्च आते, ऐसा ही करते और आज भी वही कर रहे थे. थोड़ी देर ऐसा करने के पश्चात हम घुटने टेक प्रेयर की मुद्रा में बैठ ग‌ए. एकदूसरे के लिए प्रण लिया कि सदा हमारी दोस्ती यों ही बरकरार रहे. फिर चर्च कंपाउंड में आ हम मदर मरियम के बुत को देखते रहे. मदर मरियम की गोद में यीशु को देख कर हम दोनों मंत्रमुग्ध हो गए.

चर्च से निकलने के बाद सामने ही बर्फ के गोले वाला दिख गया लेकिन तब तक हमारे पास पैसे खत्म हो चुके थे. रूही के पास केवल एक रुपए ही शेष बचा था, सो उस ने एक बर्फ का कालाखट्टा गोले का चुस्की ले लिया और हम दोनों ने मिल कर उस चुस्की का आनंद लिया. शाम होने वाली थी, मुझे घर लौटना था और रूही को होस्टल, एक बार फिर हम दोनों ने एकदूजे को गले लगा लिया और फिर हमारी आंखें नम हो गईं.

भारीमन से मैं घर लौटी तो मैं ने देखा, मेरा छोटा भाई जय अपना बैग पैक कर रहा है और अम्मा मिठाइयां बना रही है. तभी अम्मा मुझे देखते ही बरस पड़ी- “पीहू, तू अभी आ रही, मैं ने तुझ से कहा था न, एग्जाम खत्म होते ही सीधे घर आना लेकिन तुझे सुनना कहां है. ज़रूर तू अपनी उस बेस्ट फ्रैंड रूही के साथ घूम रही होगी. अच्छा अब जल्दीजल्दी मुंहहाथ धो कर किचन में आ के मेरा हाथ बंटा, कल मुंहअंधियारे ही हमें गांव निकलना है.”

यह सुनते ही मैं खुशी से उछल पड़ी और “जी अम्मा, अभी आती हूं” कह फौरन हाथमुंह धो किचन में आ अम्मा का हाथ बंटाने लगी. हर साल स्कूल की परीक्षाएं समाप्त होते एवं गरमी की छुट्टियां लगते ही हम दादी के पास गांव बलिया चले जाते. वहां चाचा का परिवार दादी के साथ रहता था. चाचा के 2 बच्चे हैं. हमारी बूआ भी अपने दोनों बच्चों के संग वहीं गांव आ जातीं. पूरा परिवार इकट्ठा होता.

सुबहसवेरे गांव के लिए निकलना है इस कल्पना मात्र से ही मन रोमांचित हो उठा और मैं सारी रात करवटें बदलते हुए सुबह होने का इंतजार करने लगी. गांव में बिताए सुनहरे लमहों को स्मरण कर आज भी वही आनंद की अनुभूति हो रही थी.

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हर साल गरमी की छुट्टियों में हम सभी बच्चे गांव में पूरा दिन धमाचौकड़ी मचाते, कभी भरी दोपहरी में बेर तोड़ने निकल जाते तो कभी किसी आम के बागीचे में घुस कर कच्चेपक्के, खट्टेमीठे, छोटेबड़े जो भी हमारे पहुंच के भीतर होता सब तोड़ लेते. कभीकभी तो पेड़ पर भी चढ़ जाते. और तो और. कच्चे रास्तों पर जानबूझ कर धूल उड़ाते हुए ऐसे चलते जैसे कोई पराक्रमी कार्य कर रहे हों.

खेतों की मेड़ों पर बनी पगडंडियों में अपने दोनों हाथों को ऊपर उठा बैलेंस करते हुए गिरने से बचने का प्रयत्न करते और एकदूसरे से आगे निकल जाने की होड़ होती. मैं हमेशा सब से आगे निकल जाती. जिस दिन हम घर से बाहर नहीं जा पाते, उस रोज़ तो पूरा दिन छत पर पतंगबाजी में बीतता. दिन चाहे जैसे भी बीते लेकिन रात होते ही हम सभी बच्चे दादी को घेर कर बैठ जाते और उन से राजकुमारी, राजकुमार और परियों की कहानियां अवश्य सुनते. इन्हीं सब बातों को याद करते हुए न जाने मैं कब निद्रा की आगोश में चली गई.

खटरपटर की आवाज़ से नींद खुली तो देखा अम्मा, बाबूजी और जय सब जाग गए है. तभी अम्मा ने पुकार लगाई- “पीहू, जल्दी उठो. औटोरिकशा बस आने ही वाला है. जैसे ही मेरे कानों में यह वाक्य पड़ा, मैं फटाफट उठ कर तैयार हो गई. थोड़ी ही देर में कालोनी के चौक से औटो रिकशा भी आ गया. रिकशा चल पड़ा.

भोर की ठंडीठंडी सुहावनी पुरवा फिज़ा को खुशगवार बना रही थी. सूर्य उदय और चंद्रमा का बादलों में धीरेधीरे छिपने का यह वक्त व दो वेलाओ के संगम का यह दृश्य बड़ा ही अलौकिक और मनभावन प्रतीत हो रहा था. सिंदूरी रंग लिए हुए आसमां आकर्षक लग रहा था. कुदरत की यह चित्रकारी अद्भुत, अद्वितीय है, इस बात का एहसास मुझे इसी क्षण हुआ.

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टेसू के फीके लाल अंगार: क्या था सिमरन के अतीत की यादों का सच

टेसू के फीके लाल अंगार- भाग 1 : क्या था सिमरन के अतीत की यादों का सच

लेखक- शोभा बंसल

सिमरन के पांव आज जमीन पर नहीं पड़ रहे थे. उस के होमस्टे को 15 दिन के लिए बुक जो कर लिया गया था.

वैसे तो यह उत्साह उस में हमेशा से ही बना रहता है, क्योंकि पुडुचेरी में सिम्मी होमस्टे अपनेपन और पंजाबियत के लिए जो प्रसिद्ध है.

चंडीगढ़ से कोई डाक्टर राजीव यहां कौंफ्रेंस पर आ रहे थे और वह कुछ दिन यहां पर अपनी पत्नी के साथ रहने वाले थे, सो होमस्टे में स्पेशल तैयारियां चल रही थीं.

वैसे भी सिमरन का चंडीगढ़ से पुराना नाता रहा है, तो उस का उत्साह देखते ही बनता था. वजह, इस चंडीगढ़ से कितनी खट्टीमीठी यादें जुड़ी हैं. अतीत के पन्ने फड़फड़ा उठे.

पंजाब के नाभा की रहने वाली सिमरन कभी अपने दारजी और बेबे की आंखों का तारा थी. सिमरन, मतलब जिसे इज्जत से याद किया जाए. पर उस ने तो ऐसा कारनामा किया है कि शायद पीढ़ियों तक कोई भी उस के खानदान में सिमरन का नाम भूल कर भी नहीं लेगा. उस का तो जीतेजी उस की यादों के साथ और उस के नाम के साथ शायद पिंडदान कर दिया गया था. उस ने लंबी सांस खींचते सोचा, क्यों कट्टरपंथी होते हैं परिवार वाले?

सिमरन के स्कूल पास करने के बाद उस के मातापिता ने बड़े अरमानों और नसीहतों के साथ उसे आगे की पढ़ाई के लिए चंडीगढ़ भेज दिया.

खुलेखुले माहौल ने भोलीभाली सिमरन को अलग ही दुनिया में ला पटका. यह तो पहला पड़ाव था. पता नहीं ऐसे कितने ही पड़ाव उसे अभी देखने थे.

अब कालेज उस के लिए पढ़ाई के साथ आजादी और मौजमस्ती का अड्डा भी था. तब लड़कियों का इज्जत व मान भी था. अगर रैगिंग और छेड़छाड़ होती भी थी तो हेल्दी तरीके से. आज की तरह अनहेल्दी एटमोस्फेयर न था.

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अकसर जब उस की खूबसूरती पर लड़के फब्ती कसते तो ऊपर से तो वह बेपरवाह रहती, पर अंदर ही अंदर उसे अपने रूप पर फख्र महसूस होता.

एक दिन जब वह अपने रूममेट स्नेहा के साथ लाल फुलकारी दुपट्टा पहन कालेज पहुंची, तो अचानक
‘लाल छड़ी मैदान में खड़ी…’
का कोरस बज उठा.

गुस्से में उस ने जो पलट कर देखा तो सब शरारती लड़के सीटियां मारने लगे. तभी एक सीनियर ने सब को हाथ के इशारे से रोका. उस हरी आंखों वाले नौजवान ने आगे बढ़ कर डायलौग मारा, “कुड़िए तेरी मंगनी हो गई, तो फिर चाय पार्टी दे.”

यह सुन सिमरन के गाल शर्म से लाल हो उठे और उस ने फुलकारी से अपना मुंह ढक लिया.

यह देख उस सीनियर ने बड़ी अदा से फिल्मी अंदाज में गाना शुरू कर दिया, “रुख से जरा नकाब हटा दो मेरे हुजूर, जलवा फिर एक बार दिखा दो मेरे हुजूर…”

सिमरन ने गुस्से में पैर पटक कर जो जाना चाहा, तो उस ने सिमरन के पैरों में झुक कर अदा से बैठते हुए नया तराना शुरू किया, “अभी ना जाओ छोड़ कर, के दिल अभी भरा नहीं…”

और कुछ सीनियर लड़केलड़कियां स्नेहा, सिमरन और उस हरी आंखों वाले सीनियर के चारों तरफ घेरा डाल इस छेड़छाड़ का मजा लेने लगे और मिल कर गाने लगे, “कहां चल दिए इधर तो आओ हमारे दिल को यूं ना तड़पाओ.”

तभी किसी ने कहा, “पैट्रिक, भागो. प्रिंसिपल सर इधर ही आ रहे हैं.”

ऐसा सुनते ही सारे सीनियर खिसक लिए.

उस हरी आंखों वाले पैट्रिक की शरारत अकसर सिमरन के जेहन में आ कर उसे गुदगुदा जाती.

फिर एक दिन वह रिकशे में बैठ कर सैक्टर 17 जा रही थी, तभी एक मोटरसाइकिल उस की बगल से गुजरी और हेलमेट पहने किसी नौजवान ने फब्ती कसी, “अगर चुन्नी लेने का इतना ही शौक है तो ढंग से लिया करो. नहीं तो किसी दिन गले में फांसी का फंदा बन जाएगी…”

जब तक वह कुछ रिएक्ट करती और अपनी चुन्नी संभालती, तब तक उस के गले से चुन्नी फिसल कर रिकशे के पहिए में फंस गई.

यह सब इतनी जल्दी और अचानक हुआ कि उस की चीख निकल गई. लोग जब तक इकट्ठे होते, तब तक पैट्रिक ने अपना हेलमेट उतार उस की चुन्नी को पहिए से अलग किया और रिकशे वाले को पैसे दे रफादफा होने को कहा. फिर आंखें तरेर कर सिमरन को अपने साथ मोटरसाइकिल पर बैठा होस्टल वापस ले आया.

सिमरन को याद हो आया,
“बेबे सही कहती थी, चुन्नी जमीन को छूनी नहीं चाहिए. चुड़ैल चिमट जाती हैं.”

शायद उस की चुन्नी के सहारे इश्क चुड़ैल उस से चिपट चुकी थी.

वह तो बस पैट्रिक की हरी आंखों में डूबने को उतावली थी. जितना वह पैट्रिक को पाने की, छूने की कोशिश करती, उतना ही वह पता नहीं क्यों परेशान हो जाता और शादी से पहले ऐसे संबंधों को गलत बताता. वह उस के इस व्यवहार पर वारीवारी हो जाती.

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आज वह महसूस कर रही है कि सच में कुछ इनसान अंदर और बाहर से कितने अलग होते हैं. पता नहीं, कब गिरगिट की तरह रंग बदल ले. वक्त भी तो गिरगिट की तरह रंग बदलता है.

उन दिनों धीरेधीरे उन दोनों के बीच दोस्ती परवान चढ़ने लगी. अब पढ़ाई के साथ सिमरन और पैट्रिक कल्चर क्लब के एक्टिव मेंबर बन चुके थे.

उस की रूममेट स्नेहा ने उसे कई बार पैट्रिक के साथ ज्यादा नजदीकियां न बढ़ाने का इशारा भी किया. पर उसे उस की ईर्ष्या समझ सिमरन ने अनसुना कर दिया, क्योंकि सिमरन पर तो जैसे पैट्रिक की हरी आंखों का सम्मोहन छाया था. उस में आए बदलाव को उस की बेबे ने भी महसूस किया और उस की शादी के लिए दारजी पर दबाव डालना शुरू कर दिया.

इधर समय ने करवट ली. उन के कालेज के इंटर कालेज फेस्टिवल में उन दोनों का ‘हीररांझा’ नाटक देख एक प्रोड्यूसर ने उन्हें अपनी अगली पिक्चर में नायकनायिका बनाने का औफर दिया और अपना विजिटिंग कार्ड थमा दिया.

अब वे दोनों इस विजिटिंग कार्ड के पंखों पर सवार हो यथार्थ की दुनिया से सपनों की दुनिया में विचरने लगे.
इधर दोनों के फाइनल्स हुए, उधर सिमरन की शादी कपूरथला की जानीमानी अमीर पार्टी से पक्की हो गई.

पैट्रिक को भी केरल वापस आ कर चाय बागान संभालने का हुक्ममनामा मिला. दोनों के ही नायकनायिका बन दुनिया के दिलों पर राज करने के सपने चकनाचूर हो गए.
न तो सिमरन पक्की गृहस्थन बनना चाहती थी और न ही पैट्रिक चाय बागान का मालिक – एक ठेठ व्यापारी.

तभी जैसे उस की तंद्रा को तोड़ते नीचे रिसेप्शन से मैसेज मिला कि मिस्टर और मिसेज राजीव पहुंच गए हैं. अपने को एक बार शीशे में निहार सिमरन नीचे भागी.

होमस्टे का स्टाफ अतिथियों के लिए फ्रेश ड्रिंक्स और आरती का थाल ले कर स्वागत की पूरी तैयारी के साथ खड़ा था. पहला इंप्रेशन अगर अच्छा रहा तो खुदबखुद उस के होमस्टे की पब्लिसिटी हो जाएगी.

यह सोच कर सिमरन के होठों पर स्मित मुसकान आ गई. पर, जैसे ही उस ने राजीव दंपती को देखा तो लगा मानो पैरों तले जमीन निकल गई हो और उस के होठों पर आई मुसकान मानो वहीं जम गई. उस के सामने तो उस की कालेज के जमाने की रूममेट स्नेहा अपने पति डाक्टर राजीव के साथ खड़ी थी.

इधर स्नेहा भी सिमरन को यों यहां पुडुचेरी में होमस्टे की मालकिन देख ठगी सी रह गई. यह तो पैट्रिक के साथ मुंबई भाग गई थी. फिर यहां कैसे…?

इधर सिमरन ने भी वक्त की नब्ज देख गर्मजोशी से स्नेहा का हाथ पकड़ा और उस के गले लग गई.

डाक्टर राजीव ने स्नेहा की तरफ सवालिया निगाहों से देखा, तो उस ने इशारे से सब बाद में बताने को कहा. शायद वो यह नहीं देख पाए कि उस का इशारा करना सिमरन की निगाह से नहीं छुप पाया था.

एकबारगी तो सिमरन के चेहरे का रंग उड़ गया. कहीं उस का अतीत उस के सुखद और शांत वर्तमान और भविष्य पर हावी हो कर उथलपुथल न कर दे. फिर जब डाक्टर राजीव रिसेप्शन पर पेपर वर्क पूरा कर रहे थे, तो सिमरन ने स्नेहा का हाथ दबाते हुए उस के कान में कहा, “डा. राजीव को मेरे बारे में कुछ भी बताने से पहले मेरे से मिल लेना, प्लीज.”

उस दिन डा. राजीव की पुडुचेरी के एक आश्रम में कौंफ्रेंस थी, तो स्नेहा पुरानी सखी सिमरन से मिलबैठ बातें करने का बहाना बना वहीं होमस्टे में रुक गई. क्योंकि सिमरन का अतीत जानने की उस को भी उत्सुकता थी.

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उधर पुडुचेरी के सूर्यास्त की लालिमा सदैव ही सिमरन को उदास और एकाकी करती आई है. आज वह अपने कमरे में बैठ चाह कर भी अपनी इस अवसाद भरी सोच से बाहर नहीं निकल पा रही थी.

स्नेहा ने उसे अतीत के गहरे अंधेरे कुएं में जो धकेल दिया था. तभी स्नेहा ने हौले से दरवाजा थपथाया. अपने व्यथित मन को सहेज सिमरन ने प्रोफेशनल होस्ट और दोस्त की इमेज पहन ली.

स्नेहा ने कमरे में इधरउधर झांकते हुए पूछा, “पैट्रिक कहां है?”

सिमरन ने फीकी मुसकान के साथ कहा कि वह यहां अपनी बेटी के साथ अकेली ही रहती है और यह होमस्टे उस का ही है.

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आईना- भाग 1 : रिश्तों में संतुलन ना बनाना क्या शोभा की एक बढ़ी गलती थी

आंखें फाड़फाड़ कर मैं उस का चेहरा देखती रह गई. शोभा के मुंह से ऐसी बातें कितनी विचित्र और बेतुकी सी लग रही हैं, मैं सोचने लगी. जिस औरत ने पूरी उम्र दिखावा किया, अभिनय किया, किसी भी भाव में गहराई नहीं दर्शा पाई उसी को आज गहराई दरकार क्यों कर हुई? यह वही शोभा है जो बिना किसी स्वार्थ के किसी को नमस्कार तक नहीं करती थी.

‘‘देखो न, अभी उस दिन सोमेश मेरे लिए शाल लाए तो वह इतनी तारीफ करने लगी कि क्या बताऊं…पापा इतनी सुंदर शाल लाए, पापा की पसंद कितनी कमाल की है. पापा यह…पापा वह,’’ शोभा अपनी बहू चारू के बारे में कह रही थी, ‘‘सोमेश खुश हुए और कहने लगे कि शोभा, तुम यह शाल चारू को ही दे दो. मैं ने कहा कि इस में देनेलेने वाली भी क्या बात है. मिलबांट कर पहन लेगी. लेकिन सोमेश माने ही नहीं कहने लगे, दे दो.

‘‘मेरा मन देने को नहीं था. लेकिन सोमेश के बारबार कहने पर मैं उसे देने गई तो चारू कहने लगी, ‘मम्मी, मुझे नहीं चाहिए, यह शेड मुझ पर थोड़े न जंचेगा, आप पर ज्यादा जंचेगा.’

‘‘मैं उस की बातें सुन कर हैरान रह गई. सोमेश को खुश करने के लिए इतनी तारीफ कर दी कि वह भी इतराते फिरे.’’

भला तारीफ करने का अर्थ यह तो नहीं होता कि आप को वह चीज चाहिए ही. मुझे याद है, शोभा स्वयं जो चीज हासिल करना चाहती थी उस की दिल खोल कर तारीफ किया करती थी और फिर आशा किया करती थी कि हम अपनेआप ही वह चीज उसे दे दें.

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हम 3 भाई बहन हैं. सब से छोटा भाई, शोभा सब से बड़ी और बीच में मैं. मुझे सदा प्रिय वस्तु का त्याग करना पड़ता था. मैं छोटी बहन बन कर अपनी इच्छा मारती रही पर शोभा ने कभी बड़ी बहन बन कर त्याग करने का पाठ न पढ़ा.

अनजाने जराजरा मन मारती मैं इतनी परिपक्व होती गई कि मुझे उसी में सुख मिलने लगा. कुछ नया आता घर में तो मैं पुलकित न होती, पता होता था अगर अच्छी चीज हुई तो किसी भी दशा में नहीं मिलेगी.

‘‘एक ही बहू है मेरी,’’ शोभा कहती, ‘‘क्याक्या सोचती थी मैं. मगर इस के तो रंग ही न्यारे हैं. कोई भी चीज दो, इसे पसंद ही नहीं आती. एक तरफ सरका देगी और कहेगी नहीं चाहिए.’’

शोभा मेरी बड़ी बहन है. रक्त का रिश्ता है हम दोनों में मगर सत्य यह है कि जितना स्वार्थ और दोगलापन शोभा में है उस के रहते वह अपनी बहू से कितना अपनापन सहेज पाई होगी मैं सहज ही अंदाजा लगा सकती हूं.

चारू कैसी है और उसे कैसी चीजें पसंद आती हैं यह भी मैं जानती हूं. मैं जब पहली बार चारू से मिली थी तभी बड़ा सुखद सा लगा था उस का व्यवहार. बड़े अपनेपन से वह मुझ से बतियाती रही थी.

‘‘चारू, शादी में पहना हुआ तुम्हारा वह हार और बुंदे बहुत सुंदर थे. कौन से सुनार से लिए थे?’’

‘‘अरे नहीं, मौसीजी, वे तो नकली थे. चांदी पर सोने का पानी चढ़े. मेरे पापा बहुत डरते हैं न, कहते थे कि शादी में भीड़भाड़ में गहने खो जाने का डर होता है. आप को पसंद आया तो मैं ला दूंगी.’’

कहतीकहती सहसा चारू चुप हो गई थी. मेरे साथ बैठी शोभा की आंखों को पढ़तीपढ़ती सकपका सी गई थी चारू. बेचारी कुशल अभिनेत्री तो थी नहीं जो झट से चेहरे पर आए भाव बदल लेती. झुंझलाहट के भाव तैर आए थे चेहरे पर, उस से कहां भूल हुई है जो सास घूर रही है. मौसी अपनी ही तो हैं. उन से खुल कर बात करने में भला कैसा संकोच.

‘‘जाओ चारू, उधर तुम्हारे पापा बुला रहे हैं. जरा पूछना, उन्हें क्या चाहिए?’’ यह कहते हुए शोभा ने चारू को मेरे पास से उठा दिया था. बुरा लगा था चारू को.

चारू के उठ कर जाने के बाद शोभा बोली, ‘‘मेरी दी हुई सारी साडि़यां और सारे गहने चारू मेरे कमरे में रख गई है. कहती है कि बहुत महंगी हैं और इतनी महंगी साडि़यां वह नहीं पहनेगी. अपनी मां की ही सस्ती साडि़यां उसे पसंद हैं. सारे गहने उतार दिए हैं. कहती है, उसे गहनों से ही एलर्जी है.’’

शोभा सुनाती रही. मैं क्या कहती. एक पढ़ीलिखी और समझदार बहू को उस ने फूहड़ और नासमझ प्रमाणित कर दिया था. नाश्ता बनाने का प्रयास करती तो शोभा सब के सामने बड़े व्यंग्य से कहती, ‘‘नहीं, नहीं बेटा, तुम्हें हमारे ढंग का खाना बनाना नहीं आएगा.’’

‘‘हर घर का अपनाअपना ढंग होता है, मम्मी. आप अपना ढंग बताइए, मैं उसी ढंग से बनाती हूं,’’ चारू शालीनता से उत्तर देती.

‘‘नहीं बेटा, समझा करो. तुम्हारे पापा  और अनुराग मेरे ही हाथ का खाना पसंद करते हैं.’’

अपने चारों तरफ शोभा ने जाने कैसी दीवार खड़ी कर रखी थी जिसे चारू ने पहले तो भेदने का प्रयास किया और जब नहीं भेद पाई तो पूरी तरह उसे सिरे से ही नकार दिया.

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‘‘कोई भी काम नहीं करती. न खाना बनाती है न नाश्ता. यहां तक कि सजतीसंवरती भी नहीं है. अनुराग शाम को थकाहारा आता है, सुबह जैसी छोड़ कर जाता है वैसी ही शाम को पाता है. मेरे हिस्से में ऐसी ही बहू मिलने को थी,’’ शोभा कहती.

‘‘कल चारू को मेरे पास भेजना. मैं बात करूंगी.’’

‘‘तुम क्या बात करोगी, रहने दो.’’

‘‘किसी भी समस्या का हल बात किए बिना तो नहीं निकलेगा न.’’

शोभा ने साफ शब्दों में मना कर दिया. वह यह भी तो नहीं चाहती थी कि उस की बहू किसी से बात करे. मैं जानती हूं, चारू शोभा के व्यवहार की वजह से ही ऐसी हो गई है.

‘‘बस भी कीजिए, मम्मी. मुझे भी पता है कहां कैसी बात करनी चाहिए. आप के साथ दम घुटता है मेरा. क्या एक कप चाय बनाना भी मुझे आप से सीखना पड़ेगा. हद होती है हर चीज की.’’

चारू एक बार हमसब के सामने ही बौखला कर शोभा पर चीख उठी थी. उस के बाद घर में अच्छाखासा तांडव हुआ था. जीजाजी और शोभा ने जो रोनाधोना शुरू किया कि उसी रात चारू अवसाद में चली गई थी.

अनुराग भी हतप्रभ रह गया था कि उस की मां चारू को कितना प्यार करती हैं. यहां तक कि चाय भी उसे नहीं बनाने देतीं. नाश्ता तक मां ही बनाती हैं. बचपन से मां के रंग में रचाबसा अनुराग पत्नी की बात समझता भी तो कैसे.

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बबूल का पौधा : अवंतिका ने कौनसा चुना था रास्ता

बबूल का पौधा- भाग 1 : अवंतिका ने कौनसा चुना था रास्ता

रात के लगभग 2 बजे अवंतिका पानी पीने के लिए रसोई में गई तो बेटे साहिल के कमरे की खिड़की पर हलकी रोशनी दिखाई दी. रोशनी का कभी कम तो कभी अधिक होना जाहिर कर रहा था कि साहिल अपने मोबाइल पर व्यस्त है. गुस्से में भुनभुनाती अवंतिका ने धड़ाक से कमरे का दरवाजा खोल दिया.

साहिल को मां के आने का पता तक नहीं चला क्योंकि उस ने कान में इयरफोन ठूंस रखे थे और आंखें स्क्रीन की रोशनी में उलझ हुई थीं.

‘‘क्या देख रहे हो इतनी रात गए? सुबह स्कूल नहीं जाना क्या?’’ अवंतिका ने साहिल को झकझरा.

मां को देखते ही वह हड़बड़ा गया, लेकिन उसे मां की यह हरकत जरा भी पसंद नहीं आई.

‘‘यह क्या बदतमीजी है? प्राइवेसी क्या सिर्फ आप लोगों की ही होती है, हमारी नहीं? मैं तो कभी इस तरह से आप के कमरे में नहीं घुसा,’’

साहिल जरा जोर से बोला. बेटे की तीखी प्रतिक्रिया से हालांकि अवंतिका सकते में थी, लेकिन उस ने किसी तरह खुद को संयत किया.

‘‘क्या देख रहे थे मोबाइल पर?’’ अवंतिका ने सख्ती से पूछा.

‘‘वैब सीरीज,’’ साहिल ने जवाब दिया.

अवंतिका ने मोबाइल छीन कर देखा. सीरीज सिक्सटीन प्लस थी.

‘‘बारह की उम्र और वैब सीरीज. अभी तो तुम टीन भी नहीं हुए और इस तरह की सीरीज देखते हो,’’ अवंतिका पर गुस्सा फिर हावी होने लगा.

साहिल ने कुछ नहीं कहा, लेकिन बिना कहे भी उस ने जाहिर कर दिया कि उसे मां की यह दखलंदाजी जरा भी नहीं सुहाई. अवंतिका उसे इसी हालत में छोड़ कर अपने कमरे में आ गई. पानी से भरी आंखें बारबार उसे रोने के लिए मजबूर कर रही थीं, मगर वह उन्हें रोके बैठी थी. रोए भी तो आखिर किस के कंधे पर सिर रख कर.

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कोई एक कंधा थोड़ी नियत किया था उस ने अपनी खातिर. सुकेश का कंधा जरूर कहने को अपना था, लेकिन उस के अरमान थे ही इतने ऊंचे कि उसे कंधा नहीं आसमान चाहिए था.

अवंतिका ने आंखों को तो बहने से रोक लिया, लेकिन मन को बहने से भला कौन रोक सका है. इस बेलगाम घोड़े पर लगाम कोई बिरला ही लगा सकता है. अवंतिका ने भी मन के घोड़े की लगाम खोल दी. घोड़ा सरपट दौड़ता हुआ 15 बरस पीछे जा कर ठहर गया. यहां से अवंतिका को सबकुछ साफसाफ नजर आ रहा था…

अवंतिका को वह सब चाहिए था जो उस की निगाहों में ठहर जाए, फिर कीमत चाहे जो हो. कीमत की परवाह वह भला करती भी क्यों, हर समय कोई न कोई एटीएम सा उस की बगल में खड़ा जो होता था और उस एटीएम की पिन होती थी उस की अदाएं, उस की शोखियां.

जब वह अदा से अपने बाल झटक कर अपनी मनपसंद चीज पर उंगली रखती, तो क्या मजाल कि एटीएम काम न करे.

अवंतिका 24 की उस उम्र में महानगर आई थी जिसे वहां लोग बाली उम्र कहते थे. शादी के बाद छोटे शहर से महानगर में आई इस हसीन लड़की को अपनी खूबसूरती का बखूबी अंदाजा था. इस तरह का अंदाजा अकसर खूबसूरत लड़कियों को स्कूल छोड़तेछोड़ते हो ही जाता है.  कालेज छोड़तेछोड़ते तो यह पूरी तरह से पुख्ता हो जाता है. भंवरे की तरह मंडराते लड़कों का एक मुख्य काम यह भी तो होता है.

अवंतिका ने कालेज करने के बाद डिस्टैंस लर्निंग से एमबीए किया था. एक तो महानगर की ललचाती जिंदगी और दूसरे पति सुकेश के औफिस जाने के बाद काटने को दौड़ता अकेलापन… अवंतिका ने भी नौकरी करने का मानस बनाया. सुकेश ने भी थोड़ी हिचक के बाद अपनी रजामंदी दे दी तो हवा पर सवार अवंतिका अपने लिए काम तलाश करने लगी.

2-4 जगह बायोडाटा भेजने का बाद एक जगह से इंटरव्यू के लिए बुलावा आया. सुकेश के जोर देने पर वह साड़ी पहन कर इंटरव्यू देने के लिए गई. अवंतिका ने महसूस किया कि इंटरव्यू पैनल की दिलचस्पी उस के डौक्यूमैंट्स से अधिक उस की आकर्षक देहयष्टि में थी.

‘साड़ी से कातिल कोई पोशाक नहीं. तरीके से पहनी जाए तो कमबख्त बहुत कमाल लगती है,’ यह खयाल आते ही डाइरैक्टर के साथसाथ अवंतिका की निगाह भी साड़ी से झंकते अपनी कमर के कटाव पर चली गई. वह मुसकरा दी.

न जाने क्यों अवंतिका अपने चयन को ले कर आश्वस्त थी. और हुआ भी वही. अवंतिका का चयन डाइरैक्टर रमन की पर्सनल सैक्रेटरी के रूप में हो गया.

औफिस जौइन करने के लगभग 3 महीने बाद कंपनी की तरफ से उसे रिफ्रैशर कोर्स करने के लिए दिल्ली हैड औफिस भेजा गया. पहली बार घर से बाहर अकेली निकलती अवंतिका घबराई तो जरूर थी, लेकिन अंतत: वह अपना आत्मविश्वास बनाए रखने में कामयाब हुई.

इस कोर्स में कंपनी की अलगअलग शाखाओं से करीब 10 कर्मचारी आए थे. रोज शाम को क्लास के बाद कोई अकेले तो कोई किसी के साथ इधरउधर घूमने निकल जाता.

यह एक सप्ताह का कोर्स था. 5 दिन की ट्रेनिंग के बाद आज छठे दिन परीक्षा थी. अवंतिका सुखद आश्चर्य से भर उठी जब उस ने परीक्षक के रूप में अपने बौस रमन को देखा. 2 घंटे की परीक्षा के बाद पूरा दिन खाली था. अवंतिका की फ्लाइट अगले दिन सुबह की थी. रमन ने उस के सामने आउटिंग का प्रस्ताव रखा जिसे अवंतिका ने एक अवसर की तरह स्वीकार कर लिया.

मौल में घूमतेघूमते अवंतिका ने महसूस किया कि रमन उस की हर इच्छा पूरी करने को तत्पर लग रहा है. पहले तो अवंतिका ने इसे महज एक संयोग समझ, लेकिन फिर मन ही मन अपना वहम दूर करने का निश्चय किया.

टहलतेटहलते दोनों एक साडि़यों के शोरूम के सामने से गुजरे तो अवंतिका जानबूझ कर वहां ठिठक कर खड़ी हो गई. उस ने शरारत से साड़ी लपेट कर खड़ी डमी के कंधे से पल्लू उतारा और अपने कंधे पर डाल लिया. अब इतरा कर रमन की तरफ देखा. रमन ने अपनी अनामिका और अंगूठे को आपस में मिला कर ‘लाजवाब’ का इशारा किया. अवंतिका शरमा गई.

इस के बाद उस ने प्राइज टैग देखा और आश्चर्य से अपनी आंखें चौड़ी कीं. अवंतिका ने साड़ी का पल्लू वापस डमी के कंधे पर डाला और निराश सी वहां से हट गई. इस के बाद वे एक कैफे में चले गए.

अवंतिका अनमनी सी मेन्यू कार्ड पर निगाहों को सैर करवा रही थी और रमन की आंखें उस के चेहरे पर चहलकदमी कर रही थीं.

‘‘तुम और्डर करो, मैं अभी आता हूं,’’ कह कर रमन कैफे से बाहर निकल गया.

15 मिनट बाद रमन वापस आया. अब तक अवंतिका कौफी और सैंडविच और्डर कर चुकी थी. खापी कर दोनों गैस्ट हाउस चले गए.

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रात लगभग 10 बजे रमन का कौल देख कर अवंतिका को जरा भी आश्चर्य नहीं हुआ.  लेकिन जब उस ने उसे अपने कमरे में आने को कहा तब वह अवश्य चौंकी. ‘इतनी रात गए क्या कारण हो सकता है,’ सोच कर अवंतिका ने अपने टू पीस पर गाउन डाला और बैल्ट कसती हुई रमन के रूम की तरफ चल दी. रमन उसी का इंतजार कर रहा था.

‘‘हां, कहिए हुजूर, कैसे याद फरमाया?’’ अवंतिका ने आंखें नचाईं. एक शाम साथ बिताने के बाद अवंतिका उस से इतना तो खुल ही गई थी कि चुहल कर सके. अब उन के बीच औपचारिक रिश्ता जरा सा पर्सनल हो गया था.

‘‘बस, यों ही. मन किया तुम से बातें करने का,’’ रमन उस के जरा सा नजदीक आया.

‘‘वे तो फोन पर भी हो सकती थीं,’’ अवंतिका उस की सांसें अपनी पीठ पर महसूस कर रही थी. यह पहला अवसर था जब वह सुकेश के अतिरिक्त किसी अन्य पुरुष के इतना नजदीक खड़ी थी. वह सिहर कर सिमट गई.

‘‘फोन पर बातें तो हो सकती हैं लेकिन यह नहीं,’’ कहते हुए रमन ने अवंतिका को उस साड़ी में लपेटते हुए अपनी बांहों में कस लिया. साड़ी को देखते ही अवंतिका खुशी से उछलती हुई पलटी और रमन के गले में बांहें डाल दी.

‘‘वाऊ, थैंक्स सर,’’ अवंतिका ने कहा.

‘‘सरवर औफिस में, यहां सिर्फ रमन,’’ कह कर रमन ने दोनों के बीच से पहले साड़ी की और उस के बाद गाउन की दीवार भी हटा दी.

यही वह पल था जिस ने अवंतिका के इस विश्वास को और भी अधिक मजबूत कर दिया था कि हुस्न चाहे तो क्या कुछ हासिल नहीं हो सकता. संसार का कोई सुख नहीं जो उस के चाहने पर कदमों में झक नहीं सकता. दुनिया में ऐसा कोई पुरुष नहीं जो बहकाने पर बहक नहीं सकता.

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Romantic Story: सार्थक प्रेम- भाग 2- कौन था मृणाल का सच्चा प्यार

कहानी- मधु शर्मा

मृणाल ने इस बार बहुत धीमी और डरी आवाज में पूछा, ‘तो फिर आप मुझे कैसे जानते हैं?’ उस ने इस बार भी मृणाल के प्रश्न का कोई जवाब नहीं दिया. उस की इस खामोशी और गंभीरता ने मृणाल के दिमाग में एक द्वंद्व पैदा कर दिया कि यह व्यक्ति कैसे जानता है मुझे, मैं कहां मिली हूं इस से. फिर खुद को संभालते हुए बड़ी भद्रता के साथ फिर बात शुरू की. ‘सर, प्लीज आप बताइए न, आप मुझे कैसे जानते हैं, अगर आप मुझ से कभी मिले ही नहीं.’

‘मैं ने कब कहा कि मैं आप से कभी नहीं मिला.’

अरे, अभी तो कहा आप ने.’

‘आप ने शायद ठीक से सुना नहीं. मैं ने कहा, आप मुझ से कभी नहीं मिलीं.’

‘हां, तो एक ही बात है.’

‘एक  बात नहीं है.’ उस ने फिर से गंभीरता से जवाब दिया और मृणाल उस के चेहरे को पढ़ने की कोशिश करने लगी.

उसे समझ नहीं आ रहा था कि कैसे वह जाने कि वह कौन है और उस व्यक्ति के चेहरे के भावों ने मृणाल के मन और दिमाग में जो अंतर्द्वंद्व पैदा कर दिया था, वह उन पर भी नियंत्रण नहीं रख पा रही थी. फिर अचानक उस के मुंह से निकल गया, ‘क्या करते हैं सर, आप यह तो बता दीजिए?’

और बहुत देर बाद उस ने फिर मुसकराहट के साथ जवाब दिया, ‘कुछ खास नहीं. आजकल कुछ लिखना शुरू किया है.’

‘मतलब आप किसी पत्रिका या फिर किसी तरह के लेख लिखते हैं. कुछ बताइए न अपने बारे में? दरअसल, मुझे भी पढ़नेलिखने का काफी शौक है.’

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‘मैं जानता हूं,’ उस व्यक्ति ने कहा. मृणाल ने इस बार चौंकते हुए ऊंची आवाज में कहा, ‘क्या आप यह भी जानते हैं. अब तो आप को अपने बारे में बताना ही पड़ेगा, नहीं तो मैं आप का पीछा नहीं छोड़ने वाली.’ मृणाल एक अबोध बच्चे की तरह जिद करने लगी. वह भूल गई कि वह एक अजनबी से बात कर रही है.

वह मृणाल की ओर प्रेम, स्नेह और वात्सल्य के भाव से गौर से देख कर हलके से मुसकराए जा रहा था और मृणाल ने भी अब तक अपने जीवन में किसी को भी अपने लिए इन तीनों भावों को एकसाथ लिए नहीं देखा था. फिर मृणाल ने खुद को संभालते और परिपक्वता दिखाते हुए पूछा, ‘बताइए न सर, जब तक आप बताएंगे नहीं, मेरे दिमाग के घोड़े दौड़ते रहेंगे.’

‘अरेअरे, आप परेशान मत होइए, मैं आप को परेशान बिलकुल नहीं करना चाहता. दरअसल, मैं एक लेखक हूं, छोटीमोटी कहानियां लिख लेता हूं. जैसे शायद आप ने पढ़ी हों और अपनी लिखी हुई कुछ कहानियों के शीर्षक वह मृणाल को बताने लगा.’

‘अच्छा, आप अनय शुक्ला हैं. सर, मैं तो आप की बहुत बड़ी फैन हूं. आप के लिखे कुछ उपन्यास मैं ने पढ़े हैं और आप का लिखा ‘एकतरफा प्रेम’ तो मुझे बहुत पसंद है.

‘लेकिन सर आप इतने बड़े सैलिब्रिटी हैं आप को कौन नहीं जानता पर आप मुझे कैसे जानते हैं. मैं तो एक सामान्य सी महिला हूं, जिसे घरपरिवार और अपने कार्यस्थल के चुनिंदा लोग ही जानते हैं. कभी किसी सामाजिक गतिविधि में भी मैं भाग नहीं लेती. मेरे लिए तो मेरा काम और मेरा घर बस यही मेरा जीवन है. बहुत सीमित सा दायरा है मेरा. फिर आप मुझे कैसे?’ कहते हुए मृणाल वहीं रुक गई. अपनी बात को पूरी किए बिना और इंतजार करने लगी उस के जवाब का पर वह कुछ सैकंड बोला नहीं, फिर उस ने बोलना शुरू किया.

‘देखिए मैडम, दरअसल आप मुझे नहीं जानतीं और अगर आज मेरे बारे में पता चला है तो मेरे काम से, यह काम भी मैं ने पिछले कुछ वर्षों से शुरू किया है. आप को याद है करीब 10 साल हुए होंगे आप उदयपुर में रहती थीं.’ उस की बातचीत काटते हुए मृणाल बोली, ‘हां, मेरे पति की 10 साल पहले उदयपुर में पोस्टिंग थी.’ फिर वह चुप हो गई. उसे लगा जैसे बीच में बात काट कर उस ने ठीक नहीं किया. उस व्यक्ति ने फिर से बोलना शुरू किया, ‘आप को याद है आप जहां रहती थीं वहां आप के बिलकुल बगल में एक बंगला था…’

‘हां, उस के मालिक पुणे में रहते थे,’ मृणाल ने कहा.

‘जी, उस समय मैं एक आर्किटैक्ट था. उस बंगले के रीकंस्ट्रक्शन का काम मैं ने ही करवाया था. इसलिए कुछ महीने मैं वहां रहा था. बगल वाले बंगले में मैं ने आप को अकसर बरामदे में बैठ कर कुछ पढ़तेलिखते या यों कह सकते हैं कि शायद आप की कुछ गतिविधियां जो मैं देख पाता था, देखता था.’

‘सर, इतने साल बाद भी मैं आप को याद हूं. ऐसे तो हम कितने लोगों को रोज देखा करते हैं. मुझे तो कोई ऐसे याद नहीं रहता. आप की याददाश्त तो कमाल की है, सर, तभी आप आज यहां हैं.’ मृणाल ने कहा.

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‘नहीं, ऐसा नहीं है. हर कोई मुझे भी याद नहीं रहता पर…’ कहतेकहते वह चुप हो गया. मृणाल उस की तरफ देखने लगी कि शायद वह कुछ और बोले पर वह नहीं बोला. इतने में पायलट ने अनांउस किया कि फ्लाइट लैंडिंग की ओर है.

फ्लाइट थोड़ी देर में लैंड कर चुकी थी. सभी यात्री एयरपोर्ट से बाहर जा रहे थे. मृणाल भी टैक्सी का इंतजार करने लगी. इतने में एक टैक्सी आ कर उस के सामने रुकी पर उस में कोई पहले से ही बैठा हुआ था. देखा तो वह अनय शुक्ला ही थे. उन्होंने टैक्सी का दरवाजा खोला और बाहर आ कर मृणाल से बोले, ‘कहां जाना है आप को, मैडम, मैं छोड़ देता हूं.’

‘पर आप को कहीं और जाना होगा,’ मृणाल ने कहा.

‘नहीं, कोई बात नहीं, आप को छोड़ते हुए निकल जाऊंगा. ऐसी कोई जल्दी नहीं है मुझे.’

‘दरअसल, मुझे रेलवे स्टेशन जाना है. साढ़े 5 बजे की ट्रेन है मेरी अलवर के लिए,’ मृणाल ने कहा.

‘पर अभी तो 2 बजे हैं और शायद आप ने अभी लंच भी नहीं किया है, अगर आप को एतराज न हो तो हम क्या साथ में लंच कर सकते हैं.’

मृणाल की तो खुशी का ठिकाना नहीं था. इतने बड़े उपन्यासकार ने आज उसे अपने साथ लंच के लिए इनवाइट किया है. मृणाल सोचने लगी, प्रणय को जा कर सब बताएगी क्योंकि जब भी वह उस के नोवल पढ़ती, प्रणय गुस्सा करने लगता और मजाक में तंज कस देता कि जितनी गहराई से इस अनय शुक्ला को पढ़ती हो कभी हमें भी पढ़ लिया करो.

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Romantic Story: कैसे कैसे मुखौटे-भाग 4- क्या दिशा पहचान पाई अंबर का प्यार?

 दिशा अब चुप नहीं रह सकी. थरथरायी आवाज़ में ग़ुबार निकालते हुए बोली, “मुझे आज बहुत हैरत हो रही है. आप सब कितने स्वार्थी हैं. अम्बर को क्या एक खिलौना समझ रखा है आपने कि जब ज़रूरत पड़ी बेटी के हाथ में थमा दिया और जब बेटी को उससे दूर करना था तो तोड़-मरोड़ कर फेंकने के लिए पूरा ज़ोर लगा दिया. जब मैं अम्बर को चाहती थी तब आपको सिर्फ़ उसकी नीची जाति दिखाई दे रही थी, उसके गुण नहीं. यह कैसे हो सकता है कि पहले मेरी भलाई अम्बर से रिश्ता तोड़ने में थी और अब अम्बर से रिश्ता जोड़ने में? कहां गया अब वह ऊंची जाति का दंभ? आप में अचानक आया यह बदलाव तो वह मुखौटा है जो आज अपनी तलाकशुदा बेटी पर उठ रही समाज की उंगलियों से बचने के लिये आपको लगाना पड़ रहा है. बोलो यही सच है ना?” बात पूरी होते-होते दिशा फूट-फूट कर रोती हुई अपने कमरे में चली गयी.

रात को सोने से पहले अम्बर को ‘सब ठीक है’ का मैसेज भेज वह सोचने लगी, ‘कितना अच्छा होता कि परिवार वाले उसी समय मान गए होते ! आज वह सबको बोझ तो न लगती और अम्बर उसका होता.’ अपने ज़ख्मों पर अम्बर की यादों की मरहम लगाते हुए उसे कब नींद आ गयी पता ही नहीं लगा.

अगले दिन औफ़िस में बैठे हुए भी अम्बर की याद उसे बेचैन कर रही थी. बार-बार कुणाल की शादी का कार्ड निकाल वह गणना करने लगती कि कितने दिनों बाद वह अम्बर के साथ एक सुकून भरी लम्बी शाम बिता सकेगी. दिशा को आज वह पल बहुत याद आ रहा था जब समुद्र किनारे पहली बार दोनों ने प्यार का इज़हार किया था. उसके मन में कुछ पंक्तियां गूंजने लगीं. पर्स में से पेन और कुणाल वाला कार्ड निकालकर उसने भावों को लिपिबद्ध कर दिया…..

समन्दर किनारे बीता भीगा पल याद आता है,

एक-दूजे को यूं ही सा चाहना याद आता है!

मेरा वो ठहरा सा बचपन और नदी सा अल्हड़पन,

किनारा बनकर तुम्हारा समेटे रखना याद आता है!

रेत पर लिखकर नाम दोनों का उंगलियों से अपनी,

घरौंदा छोटा सा पैरों पर बनाना याद आता है!

महक कुछ अलग सी आयी थी उन फूलों से,

बालों में तुम्हारा उनको लगाना याद आता है!

सहारे बहुत ज़िन्दगी ने यूं तो दिए हैं मुझको भी,

जाने क्यों कांधे पर तेरे सिर टिकाना याद आता है!

कार्ड और पेन पर्स में वापिस रख दिशा ने मेज़ पर सिर टिका डबडबायी आंखों को मूंद लिया.

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कुणाल की शादी के दिन दिशा ने आधे दिन की छुट्टी ले ली थी. शाम को अम्बर का मैसेज आते ही वह घर से निकल पडी. अम्बर बाहर कार में प्रतीक्षा कर रहा था. दिशा बहुत दिनों बाद किसी फ़ंक्शन के लिए तैयार हुई थी. अम्बर चांद से चमकते उसके चेहरे को देखता ही रह गया. कढ़ाई वाली गुलाबी नैट की साड़ी के साथ कुंदन और मोतियों से बने नैकलेस सैट में वह किसी अप्सरा सी दिख रही थी. अम्बर को आसमानी कुर्ते और फ्लोरल प्रिंट की जैकेट में देख दिशा का मन भी रीझे जा रहा था. वहां पहुंचकर दोनों दूल्हा-दुल्हन को बधाई देने एक साथ स्टेज पर गये, दोनों ने खाना भी साथ-साथ खाया और रौनक भरे माहौल का एक साथ आनंद लेते रहे. रात को दिशा को घर छोड़ते समय अम्बर ने बताया कि कल वे शाम को नहीं मिल सकेंगे क्योंकि औफ़िस से वह सीधा घर जायेगा. एक लड़की से इन दिनों रिश्ते की बात चल रही है, वही अपने मम्मी-पापा के साथ आएगी. मोबाइल में अम्बर ने दिशा को उसकी तस्वीर भी दिखाई. एक ख़ूबसूरत लड़की से अम्बर के रिश्ते की बात चलती देख दिशा अन्दर ही अन्दर मायूस हो रही थी, किन्तु बेबसी को छुपाते हुए बोली, “इस बार हां कर ही देना अम्बर. लड़की अच्छी लग रही है और जौब भी नोएडा में कर रही है. तुम दोनों को किसी तरह की परेशानी नहीं होगी.” अम्बर मुस्कुरा कर रह गया.

अगले दिन सुबह औफ़िस के लिए निकलने से पहले अम्बर अपनी कार साफ़ कर रहा था. सीट पर कुणाल की शादी का कार्ड रखा था जो कल उसने दिशा से ऐड्रेस देखने के लिए मांगा था. अम्बर कार्ड फाड़कर फेंक ही रहा था कि दिशा के लिखे शब्दों पर उसका ध्यान चला गया. हाथ में कार्ड ले उसने पूरी कविता एक सांस में पढ़ डाली. पढ़कर अम्बर को ऐसा लगा जैसे किसी कुशल चितेरे ने कूची से समुद्र किनारे सालों पहले बीते उस अमूल्य पल को जीवंत कर दिया हो. शब्द-शब्द से प्रेम छलक रहा था. उसे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि दिशा अब भी उससे इतना प्यार करती है. अम्बर तो दिशा का साथ हमेशा से ही पाना चाहता था, लेकिन उसे लगता था कि वह किस्सा तो कब का खत्म हो चुका है. उसने बिना देर किये दिल की धड़कनों पर काबू रख दिशा को लंच में मिलने का मैसेज कर दिया.

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लंच टाइम से पहले ही वह कौफ़ी-शॉप में बैठकर अधीरता से दिशा की प्रतीक्षा करने लगा.

“अरे, अच्छा हुआ कि तुमने लंच में मिलने का कार्यक्रम बना लिया. मैं सुबह से बोर हो रही थी. औफ़िस में भी कुछ ख़ास करने को नहीं था आज.” आते ही दिशा मुस्कुराकर बोली.

अम्बर तो जैसे सोचकर ही बैठा था कि उसे क्या कहना है. दिशा की ओर एक मिनट तक चुपचाप मुस्कुराकर देखने के बाद उसने बोलना शुरू किया, “दिशा, कुछ सालों पहले कितना प्यारा था हमारा जीवन. दोनों निश्छल, एक-दूजे में खोये रहते थे. फिर हमें मजबूर होकर दुनिया के बनाये नियमों का मुखौटा लगाना पडा और हम एक-दूसरे के लिए अजनबी से बन गए. तुम्हारी जिंदगी में विक्रांत आया जो शराफ़त का मुखौटा लगाये था. उससे तुम कितनी आहत हुईं, लेकिन अपने अन्दर की घायल दिशा को छुपाने के लिए तुमने दुनिया के सामने एक नौर्मल इंसान बने रहने का और फिर घरवालों को खुश देखने के लिए एक हंसती-खेलती लड़की का मुखौटा लगा लिया. और मैं…..लाख चाहकर भी तुम्हें अपने मन से कभी निकाल नहीं पाया, लेकिन जब तुम मिलीं तो एक दोस्त का मुखौटा लगाकर मिलता रहा तुमसे. कल तुम्हारी लिखी कविता ने मेरी आंखें खोल दीं. मुझे एहसास हुआ कि मेरे सामने तुम भी दोस्ती का मुखौटा लगाकर आती हो. कहीं ऐसा न हो कि मुखौटे चढ़ाते-चढ़ाते हम अपने असली किरदार को ही भूल जाएं. मन में जो प्रेम है वह खो जाये. दिशा, मैं तो उतार देना चाहता हूं आज अपना मुखौटा….प्लीज़ तुम भी उतार दो. अब मैं उस दिशा से मिलना चाहता हूं जिसके सिर चढ़कर मेरे इश्क़ का जादू बोलता था. असली दिशा से मिलना चाहता हूं मैं आज !”

“अम्बर, विक्रांत से शादी और फिर तलाक़. इन बातों ने मुझे अन्दर तक छलनी कर दिया था. गोआ में तुम क्या मिले कि एक बार फिर मेरी ज़िंदगी गुलज़ार हो गयी. यह अहसान ही क्या कम था कि फिर से दोस्त बनकर मेरा दुःख बांटा तुमने. किस मुंह से कहती कि किसी की पत्नी बनने के बाद भी तुमसे प्यार करती हूं ?” अंतिम वाक्य बोलते हुए दिशा की रुलाई फूट पड़ी.

“दिशा, किसी की पत्नी क्या तुम अपनी मर्ज़ी से बनी थीं? समाज के जो लोग जाति-पाति का भेद मन में रखते हैं, वे स्वयं तो आडम्बर का मुखौटा पहनकर रखते ही हैं, हम जैसे लोगों को भी ऐसे मुखौटे पहनने को मज़बूर कर देते हैं. लेकिन वे भूल जाते हैं कि मुखौटा केवल चेहरे पर पहनाया जा सकता है, मन पर नहीं. दिल से हमेशा मैं तुम्हारा था और तुम मेरी. अब दुनिया के सामने भी एक हो जायेंगे हम.”

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“अम्बर, क्या तुम्हारे घरवाले एक तलाकशुदा से…..”

“परवाह नहीं मुझे.” दिशा की बात बीच में काटते हुए अम्बर बोला. “आज हम दोनों इस समाज के बनाये हर उस उसूल को ठुकरा देंगे जो एक प्यार को बेसिर पैर के नियमों से बने मुखौटे पहनने को विवश करता है. तुम्हारा साथ चाहिए बस.”

दिशा ने गीली आंखों से अम्बर को देखा और उसकी हथेली को अपने लरज़ते गर्म होंठों से छू लिया.

बन्धनों का मुखौटा उतार वे एक-दूजे का हाथ थामे कौफ़ी-शॉप से बाहर निकल पड़े.

Romantic Story: सार्थक प्रेम- भाग 3- कौन था मृणाल का सच्चा प्यार

कहानी- मधु शर्मा

मृणाल विचारों में डूबी ही थी कि अनय ने कहा, ‘मैं आप का नाम जान सकता हूं, मैम.’

‘जी, मृणाल, मृणाल जोशी नाम है मेरा.’

‘वैरी नाइस, आप के जितना नाम भी खूबसूरत है आप का.’

‘ओह, थैंक्यू सर’ तो आप को फ्लर्ट करना भी आता है? मैं तो सोचती थी आप बहुत गंभीर और संजीदा व्यक्ति होंगे. पर आप तो…’ और बीच में रुक गई.

‘पर आप तो कुछ लंफगे टाइप के हो, फ्लर्ट करते हो,’ कहते हुए अनय ने मृणाल के वाक्य को पूरा करने की कोशिश की.

‘नहींनहीं सर, मेरा वह मतलब नहीं था.’ दोनों जोर से हंसने लगे.

‘सर, सच में मैं आप को बता नहीं सकती मुझे आप से मिल कर कितना अच्छा लग रहा है.’

‘पर मुझ से ज्यादा नहीं,’ अनय ने कहा और एक बार फिर दोनों की हंसी ठहाकों में बदल गई.

‘सर, आप फिर फ्लर्ट कर रहे हैं.’

‘नहीं, मैं फ्लर्ट नहीं कर रहा, मृणाल.’ और कुछ सैकंड के लिए रुक कर अनय बोला, ‘मैं आप का नाम ले सकता हूं.’

‘जी, बिलकुल.’

‘मुझे अच्छा लगेगा अगर आप भी मुझे अनय कहेंगी.’

‘जी, मैं कोशिश करूंगी.’ अनय ने भी सिर हिला कर उस की बात को स्वीकार किया. क्योंकि अनय जानता था कि किसी भद्र महिला का एकदम से किसी अनजान व्यक्ति को नाम से बुलाना आसान नहीं होता.

बातें करतेकरते दोनों एक रैस्तरां में पहुंच गए और लंच और्डर कर दिया. जब तक लंच आता, मृणाल ने अनय से पूछा, ‘सर, आप को आप के लिखे उपन्यास में सब से पसंदीदा कौन सा है?’

‘जो आप को,’ अनय ने बिना कुछ सोचे तपाक से जवाब दिया.

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‘यानी एकतरफा प्रेम’, मृणाल बोली.

‘जी,’ अनय ने जवाब दिया.

फिर अनय ने मृणाल से पूछा, ‘अच्छा बताइए, वह आप को इतना पसंद क्यों है?’ मृणाल कुछ सैकंड के लिए रुकी, फिर बोली, ‘सर, दरअसल, उस में प्रेम का जो रूप आप ने अपने लेखन में चित्रित किया है मुझे वह बहुत पसंद आया कि नायिका को पता नहीं कि कोई उसे कितना प्रेम करता है. असल जिंदगी में तो हम अगर किसी को छोटी सी वस्तु भी देते हैं तो उम्मीद करते हैं कि बदले में हमें भी उस से कुछ मिले. पर वहां तो नायक का गहरा प्रेम है, बिना किसी शर्त के और बदले में किसी प्रकार की कोई चाहत नहीं. बस, प्रेम किए जा रहा है और नायिका को पता ही नहीं.

‘पर सर, एक बात मैं आप से कहूंगी कि उपन्यास का अंत अगर आप इस बात से करते कि किसी भी तरह नायिका को पता चल जाता कि कोई उसे कितना प्रेम करता है तो मेरे हिसाब से बात कुछ और ही होती.’

‘क्या बात, कुछ और होती. मैं कुछ समझा नहीं.’

‘नहीं सर, मेरा मतलब शायद कुछ लोग इस बात को ज्यादा पसंद करते.’

‘हो सकता है,’ अनय ने कहा.

‘अच्छा सर, आप ने नहीं बताया. आप को यह उपन्यास सब से पसंद क्यों है? और आप को कुछ भी लिखने की प्रेरणा कहां से मिली है?’

अनय कुछ देर के लिए रुका और फिर मुसकराते हुए बोलने लगा, ‘सच बताऊं या झूठ?’

मृणाल बोली, ‘सच ही बताइए,’

‘अच्छा सुनिए, मैं ने जो कुछ भी आज तक लिखा वह बहुत हद तक मेरी कल्पना या जो कुछ भी मेरे आसपास घटित होता था उसे अपनी लेखनी में उतारा पर यह उपन्यास मेरे जीवन की वास्तविकता है.’ यह कह कर अनय चुप हो गया और गौर से मृणाल के चेहरे के भावों को पढ़ने लगा. मृणाल स्तब्ध सी रह गई.

‘मतलब सर, इस कहानी के नायक आप हैं. यह सब कुछ आप के जीवन में घटित हो चुका है.’

‘हां, आप कह सकती हैं.’

मृणाल को समझ नहीं आ रहा था कि अब वह क्या बोले. उस ने अनय की तरफ देखा. वह ऐसे सिर झुकाए बैठा था जैसे प्रेम में असफल हाराथका एक प्रेमी है जो आज भी यह चाहता है कि कैसे भी वह अपनी प्रेमिका का बता पाए कि उस ने उसे कितना और किस हद तक प्रेम किया. यह सब देख कर मृणाल खुद को रोक नहीं पाई. और उस ने बोलना शुरू किया.

‘माफ कीजिए सर, मुझे आप की जिंदगी में दखलंदाजी का कोई अधिकार नहीं है पर वास्तविक जीवन और एक उपन्यास में फर्क होता है. आप को नहीं लगता कि इंसान की अपने मन के प्रति भी एक जिम्मेदारी बनती है. उसे संतुष्ट करना भी उस का कर्तव्य है, जब तक कि आप के किसी कृत्य से किसी को कोई नुकसान न हो. आप जिस से प्रेम करते हैं कम से कम उसे बता तो देना चाहिए.’

‘हां, कोशिश तो कर रहा हूं,’ बहुत धीमी आवाज में अनय बोला. बीच में ही वेटर ने टेबल पर लंच रख दिया और बोला, ‘मैम, मैं सर्व करूं.’

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‘नहीं, हम कर लेंगे,’ कह कर मृणाल लंच सर्व करने लगी. अनय भी उस की मदद करने लगा और दोनों ने लंच किया. लंच करते हुए अनय बोला, ‘पता है मृणाल, कभी नहीं सोचा था कि जीवन में आप से यों फिर मुलाकात होगी और आप के साथ लंच भी कर पाऊंगा.’

‘आप ने कहा न कि नायक को भी तो आखिर इतने प्रगाढ़ प्रेम के बदले कुछ मिलना चाहिए. मैं ने सुना था कि इंसान अगर कुछ भी साफ नीयत और सच्चे मन से अपने जीवन में करता है तो उस का सकारात्मक परिणाम उसे जरूर मिलता है अपने जीवन में.

‘तुम सच कहती हो, सौरी, आप सच कहती हैं.’

‘नहीं सर, आप मुझे तुम कह सकते हैं,’ मृणाल ने अनय को टोकते हुए कहा.

‘थैंक्यू,’ बोल कर अनय ने बोलना शुरू किया, ‘जिस से हमें प्रेम हो जाए उस की परिस्थितियां ऐसी न हों कि वह हमारे प्रेम को स्वीकार कर पाए और हमारे साथ जीवन में आगे बढ़ सके, तो फिर क्या किया जाए? इसलिए मैं ने अब तक उसे नहीं बताया. पर अब सोचता हूं कि कह दूं उस से.’

मृणाल एकटक स्तब्ध सी अनय की तरफ देखे जा रही थी. उस की आंखों में कुछ सवाल थे जो उस के होंठों पर नहीं आ पा रहे थे. पर अनय ने उस की आंखों को पढ़ लिया और कहने लगा, ‘हां मृणाल, तुम ही हो जिसे मैं उस वक्त चाहने लगा था. उन दिनों सुबह से शाम तक जब भी तुम बाहर आतीजातीं, मैं तुम्हें देखता था. सच बताऊं तो मुझे नहीं पता मुझे तुम्हारी कौन सी बात, कौन सी खूबी इतनी भा गई पर जिस साथी की मैं ने अपने जीवन में कल्पना की थी, तुम बिलकुल वैसी थीं. और मैं ने जब भी तुम्हें अपने परिवार के साथ देखा, तुम बहुत खुश लगती थीं अपने जीवन में. इसलिए जब उस बंगले का काम खत्म हो गया तो बहुत टूटे मन से तुम्हें बिना कुछ बोले नैतिकता को ध्यान में रखते हुए वहां से चला आया.

‘और ऐसा नहीं कि मैं ने कोशिश नहीं की खुद को रोकने की तुम से प्रेम करने से पर मैं नाकाम रहा और तुम्हारे प्रेम में बहता ही चला गया. तुम्हारा प्रेम हमेशा मेरी आंखों से विरह के आंसू बन कर  बहता था. खुद को संभालना बहुत मुश्किल हो रहा था मेरे लिए. इसलिए अपने प्रेम को अभिव्यक्त करने का यह सब से अच्छा तरीका मुझे लगा और तुम्हारे प्रति जो कुछ भी मैं ने महसूस किया उसे कागज पर अपनी कलम से उतार दिया.

‘एक दिन मेरे एक मित्र के हाथ मेरी वह डायरी लग गई और मुझ से बिना पूछे उस ने अपने एक प्रकाशक मित्र से बात की. उसे यह कहानी बहुत पसंद आई और उस ने इसे छाप दिया और लोगों को भी यह बहुत पसंद आई.

‘इस तरह तुम्हारा प्रेम मेरे लिए प्रेरणा बन गया और मेरे लिए उसे व्यक्त करने का जरिया. और इस तरह एक आर्किटैक्ट लेखक बन गया.’ झूठी मुसकराहट के साथ आंखों में आ रहे आंसुओं को रोकने की कोशिश करते हुए अनय ने अपनी बात पूरी की.

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सामने मृणाल सिर झुकाए मुजरिम की तरह बैठी थी और कोशिश कर रही थी अनय उस के आंसू न देख पाए. थोड़ी देर दोनों खामोशी में बैठे रहे, फिर अनय ने चुप्पी तोड़ते हुए कहा, ‘चलो मृणाल, तुम्हारी ट्रेन का वक्त हो गया है, मैं तुम्हें स्टेशन छोड़ देता हूं.’ मृणाल खड़ी हो गई और दोनों अपनीअपनी मंजिल की तरफ चल दिए.

मृणाल खयालों की दुनिया से निकल कर यथार्थ के धरातल पर खड़ी थी. आज उस के सामने अनय नहीं, सिर्फ प्रणय है, सिर्फ प्रणय.

उसका सच- भाग 2 : क्यों दोस्त को नहीं समझ पाया हरि

‘सुनो, भाभी से जिक्र मत करना. तुम्हें तो पता है, औरतें ही सदा हमदर्दी का पात्र बनती हैं. हर तरफ औरतों की ताड़नाओं, अत्याचारों के चर्चे होते रहते हैं. ऐसी बात नहीं कि पुरुष औरतों के अत्याचारों के शिकार नहीं होते. जबान के खंजर पड़ते रहते हैं उन पर और वे चुप्पी साधे हृदय की व्यथा लिए अंधेरों में विलीन हो जाते हैं. न ही कोई उन्हें सुनता है और न ही विश्वास करता है.’

‘धर्मवीर, चिंता मत करो, समय के साथ सब ठीक हो जाएगा. स्थिति को सुधारने की कोशिश करते रहो. चलता हूं, जल्दी मिलेंगे.’

हरि मित्तर से मिल कर धर्मवीर का मन थोड़ा हलका हुआ. घर की दहलीज पार करते ही धर्मवीर की पत्नी ने प्रश्नों की बौछार कर दी.

‘कहां गए थे? बोलते क्यों नहीं? उसी से मिलने गए होगे? शर्म नहीं आती इस उम्र में? पता नहीं क्या जादू कर दिया है उस नामुराद कलमुंही ने?’

‘देखो विमला, तुम चाहती हो तो मैं फिर बाहर चला जाता हूं. तुम्हें जो कहना है, कहो. किसी और को बीच में घसीटने की कोई आवश्यकता नहीं,’ इतना कह कर मैं अपने कमरे में चला गया.

हरि मित्तर से मिले केवल 3 दिन ही हुए थे. धर्मवीर का मन हरि से बातें करने को बेचैन था. उस ने हरि को फोन किया. वह घर पर नहीं था. धर्मवीर ने संदेश छोड़ दिया.

शाम को फोन की घंटी बजी.

‘हां, बोलो हरि?’

‘धर्म, कल क्या कर रहे हो? चलना है कहीं?’

‘कल? कल नहीं, परसों ठीक रहेगा, तुम्हारी भाभी कहीं बाहर जाने वाली है.’

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‘ठीक है, परसों जैक्सन हाइट में, वह ‘पायल’ वाला डोसे बहुत अच्छे बनाता है. वहीं मिलेंगे 12 बजे.’

डोसा खातेखाते हरि ने पूछा, ‘धर्मवीर, घर पर हालात कुछ सुधरे या नहीं?’

‘नहीं यार, क्या बताऊं. तुम्हारी भाभी को शंका का घुन लग गया है. उस की सोच अपाहिज हो गई है जो मेरे घर को बरबाद कर के ही रहेगी. निशा अपना काम करती जा रही है.’

‘लगभग 5 दशक दिए हैं इस घर और पत्नी को. शिकायत का कभी अवसर नहीं दिया. अब वही घर जेल लगता है. जहां अब सांस भी आजादी से नहीं ले सकता. अपनी इच्छानुसार वस्तु यहां से वहां नहीं टिका सकता. किसी से खुल कर बात नहीं कर सकता. जहां वर्षों की वफादारी पर विश्वास न कर के, खोखले, ओछे लोगों की बातें पत्थर की लकीर मानी जाती हैं. अब तो उन की ताड़ना के दायरे केवल हम दोनों के बीच ही नहीं रहे, बल्कि सामाजिक स्थलों में, परिचित लोगों के बीच हमें लताड़ना उन का मनोरंजन बन गया है. अब तुम्हीं बताओ, क्या साझेदारी इसे कहते हैं? क्या यही सुखी जीवन है? हरि, तुम भी तो शादीशुदा हो?’

‘धर्मवीर, भाभी तो बहुत पढ़ीलिखी और समझदार हैं, फिर इतनी असुरक्षित भावनाएं क्यों?’

‘हां, सो तो है, किंतु सोच सिमट गई है. क्या फायदा ऐसी पढ़ाई का, जिस की रोशनी में जीवन का रास्ता साफसाफ नजर आने के बावजूद आदमी उस पर चल न सके. घूमफिर कर शक की आग में खुद और दूसरों को भस्म करने की ठान ले.’

‘विश्वास नहीं होता. आज तक जब भी कहीं आदर्श दंपती का संदर्भ आता है, वहां तुम दोनों का उदाहरण दिया जाता है. स्थिति नाजुक है, बहुत समझदारी से काम लेना होगा. इतने वर्षों की साधना को हाथों से फिसलने मत देना. प्यार से समझाने का प्रयत्न करो.’

‘समझाऊं? किसे समझाऊं? जो सुनने को तैयार नहीं? जिस के लिए अर्थों की सारी ऊहापोह अब बासी हो गई है. स्थिति अब यह है कि मैं मुंह तक आए शब्द निगलने लगा हूं. किस के पक्ष में हथियार डालूं? सचाई के या उस झूठ के, जो मेरे घर में अशांति पैदा कर रहे हैं? सखी निशा का तो यह हाल है, अंगूर नहीं मिले तो खट्टे हैं. निशा की उकसाने की खुराकें तुम्हारी भाभी के चित्र पर पत्थर की लकीरें बन गई हैं, जैसे परमानैंट मार्कर से लिखी हों. निशा की बातों को ले कर उन के मन और मस्तिष्क को कुंठा की धुंध घेरने लगती है. उसी धुंध में झूठ का पल्ला भारी हो जाता है और सच दब जाता है. तुम तो जानते हो, झूठ से हमें कोई हमदर्दी नहीं.’

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‘परेशान तो भाभी भी होंगी? पूछो उन से कि ऐसा उन्होंने क्या देखा, या तुम ने क्या किया? हर पल तो उन्हीं के पास बैठे रहते हो?’

‘जरूर होती होगी. कुछ देखा हो तो बताएं. कभीकभी तो अचानक उस के भीतर तूफानी तूफान करवटें ले बैठता है. तब वह जहान भर का अनापशनाप बोलने लगती है. कहीं का सिर, कहीं का धड़, मनगढ़ंत किस्से-लोग बातें करते हैं, तुम्हारी छवि खराब होती है, वगैरावगैरा. बस, मुंह खोलते ही चुभते कटाक्ष, काल्पनिक गंभीर इल्जाम मुझ पर थोपने आरंभ कर देती है. उस समय उस की बातों के गुलाब कम और कांटे अधिक मेरे दिल पर खरोंचें छोड़ जाते हैं.

‘मैं एक बार फिर चुप्पी साध लेता हूं. फिर कभी पास आ कर बैठ जाती है. कभी आधी रात को मेरे कमरे में आ कर पूछती है, आप ने बात करना क्यों छोड़ दिया? मुझे अच्छा तो नहीं लगता. पर बात भी क्या करूं, उन्हें मेरे शब्दों की अपेक्षा ही कहां है?  हजार बार कह चुका हूं, विमला, तुम्हारे सिवा कभी किसी को नहीं चाहा. मैं रिश्तों की अहमियत जानता हूं. पूरा जीवन तुम्हें दिया है. अब बचा ही क्या है मेरे पास?

‘कहती है, झूठ बोलते हो. अब तो वही है तुम्हारी सबकुछ? बदनाम कर देगी, तुम्हें? इस्तेमाल कर के छोड़ देगी तुम्हें? तुम नहीं जानते…आदमखोर है आदमखोर.

‘उस दिन मैं ने भी कह दिया, विमला, यह सबकुछ कहने की आवश्यकता नहीं. कैनवास तुम्हारे पास है. रंग तुम्हारे दिमाग में. जैसी चाहो तसवीर बना लो.

‘मैं गुस्से से बड़बड़ाता बाहर चला गया. हरि मित्तर, तुम्हीं बताओ, 70 से ऊपर आयु हो गई है. वैसे भी वर्षों से अलगअलग कमरों में बिस्तर हैं. क्या शोभा देती हैं ऐसी बातें? इस उम्र में अश्लील वाहियात तोहमतें सहता हूं. मेरी पत्नी होते हुए क्या वह नहीं जानती मेरी क्षमता? ऐसी घिनौनी बातें मुझे अंधेरी सुरंग में धकेल देती हैं.’

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‘यार, स्थिति गंभीर है. तुम दोनों कहीं छुट्टियों पर क्यों नहीं चले जाते. बच्चों के पास चले जाओ…इस वातावरण से दूर.’

‘सभी उपाय आजमा चुका हूं. मेरे साथ कहीं चलने को तैयार ही नहीं होती. जबर्दस्ती तो कर नहीं सकता. एक आत्मनिर्भर स्वतंत्र अमेरिकी भारतीय नारी है. कुछ पूछते ही बौखला सी जाती है. मेरी हर बात, हर हावभाव, मेरे हर काम में मुझे अपमानित करने के लक्षण ढूंढ़ती रहती है.

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