सही डोज: भाग 3- आखिर क्यों बनी सविता के दिल में दीवार

उन दिनों घर का बढ़ता हुआ तनाव दिनबदिन और बढ़ता जा रहा था. सविता हरेक की बात सुनने पर भी नहीं सुनती थी. दिन में कभी भी कमरे में लेट कर उपन्यास पढ़ती रहती थी. सब के जाने के बाद सवेरे ही वह भी घर से निकल पड़ती थी. एक महिला क्लब की सदस्य बन गई थी. दोपहर देर तक ताश खेलती थी. किट्टी पार्टियों में भी जाती थी. कोई कुछ नहीं कह सकता था. नौकरी छुड़वाई थी, सो फिर से कर सकती थी. अलग रहने को बोल दिया था. उस के अलग रहने से घर पर क्या असर पड़ेगा, इतना तो घर वाले सम?ा सकते थे. जब भी सविता मां के घर जाती थी तो यही कह कर कि शाम तक लौट आएगी, पर 3-4 दिनों तक नहीं आती थी. अब उस की इस घर में कोई दिलचस्पी नहीं रह गई.

एक दिन जब वह घर में थी. रश्मि कुछ ढूंढ़ रही थी, ‘‘भाभी, तुम ने मेरी कापी देखी है कहीं. उस में मेरे कुछ जरूरी नोट्स है. इधर घर में धूल इतनी है कि खोजने में सारे कपड़े गंदे हो गए हैं.’’

सविता बरस पड़ी, ‘‘रश्मि, तुम अपनी चीजों को तो संभाल कर रख नहीं सकतीं, ऊपर से कहती हो सारे घर में धूल की परतें जमी रहती हैं. इतवार को तो तुम घर की सफाई कर सकती हो. कालेज की पढ़ाई मैं ने भी की है पर घर के कामों में अपनी मां का हाथ जरूर बंटाती थी. एक तुम हो कि  पढ़ाई के नाम पर उपन्यास पढ़ती रहती हो. बहुत हो चुका, अब उठो और घर की सफाई करो. महरी भी आती होगी. बरतन सिंक में रख कर नल खोल दो. मैं अपनी एक सहेली के घर जा रही हूं,’’ कह कर सविता चली गई.

क्षुब्ध रश्मि ने पहले अम्मां की ओर देखा. फिर बारीबारी से बाबूजी और भाई की तरफ देखा. कोई कुछ नहीं बोला. नवीन उठ कर अपने कमरे में चला गया. सविता 2 घंटे बाद लौटी. कमरे में जा कर साड़ी बदल रही थी, तभी नवीन आ गया, ‘‘सविता, मैं तुम से कुछ कहना चाहता हूं.’’

‘‘मुझे मालूम है कि तुम क्या कहना चाहते हो, उसी का तो इंतजाम करने गई थी.’’

‘‘क्या मतलब? कैसा इंतजाम?’’

‘‘सब समझाजाओगे,’’ कहकर उस ने एक छोटे से सूटकेस में 2-4 कपड़े डाल लिए, फिर बाहर की ओर चल पड़ी.

‘‘बहू, कहां जा रही हो?’’ सास ने ही पूछा.

‘‘भाभी…’’ रश्मि इतना ही कह सकी. बाबूजी ने अखबार मेज पर रख कर अपना चश्मा उतार लिया. इसी बीच नवीन भी आ खड़ा हो गया.

‘‘मैं और नवीन जा रहे हैं. मुझे नौकरी मिल गई है. हैंडलूम हाउस में. नवीन भी मान गया है. मैं ने तो भरसक कोशिश की है इस घर में कुछ व्यवस्था ला सकूं पर मैं अकेली कुछ नहीं कर सकी, घर में काम बहुत होता है, अगर सारा काम एक के ऊपर डाल कर सब लोग निश्चिंत हो जाएं तो कैसे हो सकता है.’’

जातेजाते दरवाजे के पास रुक कर उस ने कहा, ‘‘थोड़ाबहुत सामान है, 2-4 मामूली सी साडि़यां हैं, फिर कभी आ कर दे जाऊंगी.’’

‘‘बहू, हम ने तो तुम से कहा था कि…’’

बात काट कर सविता ने कहा, ‘‘3 साल से ज्यादा हो गया कहे हुए. खैर, अम्मां कोई बात नहीं, मेरा सामान शुभकार्य में लग गया,’’ कह कर वह घर के बाहर निकल गई. नवीन भी तेजी से उस के साथसाथ चलने लगा. पीछे से बाबूजी बोले, ‘‘मुझे पहले ही मालूम था कि एक दिन यह सब होगा.’’

‘‘जाते-जाते, बहुत सुना गई,’’ प्रमिला ने चेहरे में पसीना पोंछते हुए कहा.

‘‘सविता ने ठीक ही सुनाया है. मैं ने तो

तुम्हें उसी समय कहा था कि अपनी हैसियत के अनुसार सामान दो पर तुम ने बहू की सब बढि़या साडि़यां, चांदी के इतने सुंदर बरतन जो उस ने शौक से खरीदे होंगे और स्टील के सारे बरतन बेटी की शादी में दे डाले. ऊपर से उस के हाथों के सोने के दोनों कड़े भी उतरवाकर बेटी को दे दिए.

सविता भी तो हमारी बेटी है. एक बेटी से सामान छीन कर दूसरी बेटी को देना कहां की बुद्धिमानी थी?’’ उधर नवीन ने सविता के साथसाथ चलते हुए कहा, ‘‘मेरी एक बात तो सुन लो, तुम वहां नहीं जाओगी जहां की तुम ने योजना बनाई थी. मैं तुम्हें कुछ दिखाना चाहता हूं.’’

‘‘अब क्या दिखाओगे? अच्छी बात है, जो दिखाना चाहता हो वह भी देख लेती हूं.’’ नवीन ने एक टैक्सी रोकी और दोनों बैठ गए. नवीन ने टैक्सी चालक को पता बताया. टैक्सी शहर की भीड़भाड़ से बाहर एक खूबसूरत सी नई कालोनी में जा कर रुक गई.

‘‘उतरो,’’ नवीन ने हाथ से सहारा दे कर सविता को बाहर उतारा, फिर वे एक छोटे से खूबसरत बंगले के बाहर जा कर खड़े हो गए. बाहर ताला लगा था. नवीन ने जेब से चाबी निकाल कर सविता के हाथों पर रख दी, ‘‘खोलो, यह छोटी सी कौटेज तुम्हारी ही है.’’

‘‘क्या कह रहे हो?’’ आश्चर्यचकित हो सविता ने ताला खोला.

‘‘अब भीतर चल कर अपना घर तो देख लो.’’ सपनों में खोई सविता ने नवीन का हाथ पकड़ेपकड़े घर के भीतर प्रवेश किया.

‘‘बहुत खूबसूरत है, क्या सचमुच यह हमारा है? क्या आज से हम यहीं रहेंगे?’’

तन से सविता अपने घर की साजसंवार कर रह रही पर उस के मन में एक पश्चात्ताप था, दुख था. उस ने नवीन को मांबाप और बहन से अलग कर दिया. कुछ दिनों बाद वे दोनों घर गए. घर अब काफी ठीक था. रश्मि का सामान फैला नहीं था. सास ही नहीं ससुर भी घर को साफ रखने में हाथ बंटाते थे. कामवाली बाई लौट आई थी. सविता को देख कर चहक कर बोली, ‘‘मेम साहब, अब तो सब ठीक हो गए हैं. घर का काम करने में कुछ भी देर नहीं लगती. सही डोज दे गई हैं. डोज दे गई हैं.

 

आखिरी पेशी: भाग-2 आखिर क्यों मीनू हमेशा सुवीर पर शक करती रहती थी

अंधेरे भविष्य के काले बादल मेरी आंखों के आगे गरजतेघुमड़ते रहे और मेरी आंखें बरसती रहीं. करीब 2 घंटे बाद जब दरवाजा खटखटाने की आवाज आईर् मेरी तंद्रा टूटी.

उठ कर मैं ने दरवाजा खोल दिया. सामने सुवीर खड़े थे और उन के बाल बिखरे हुए थे. जी तो हुआ कि उन्हें बाहर ही रहने दूं और एक ?ाटके से दरवाजा बंद कर दूं पर तभी सुवीर कमरे में आ गए थे और उन्होंने दरवाजा बंद कर दिया.

सुवीर पहले तो मेरे गुस्से भरे चेहरे और अस्तव्यस्त वेशभूषा को देखते रहे. फिर बोले, ‘‘माफ करना, मीनू, मुझसे आज गलती हो गई. असल में मैं उसे जानता था. उस का नाम सविता है. तुम से पहले मैं सविता को बहुत प्यार करता था, उस से शादी भी करना चाहता था. वह हमारे पड़ोस में ही रहती थी. अकसर हमारे घर आयाजाया करती थी.

‘‘किंतु मैं अपना प्यार उस पर जाहिर करता, शादी का पैगाम भिजवाता, उस से पहले ही उस के पिताजीका यहां से तबादला हो गया और वह कहीं चली गई —-बिना मिले, बिना कुछ कहे ही. मैं कितनी रातें तड़पा, कितनी रातें मैं ने जागजाग कर काटीं, यह मैं ही जानता हूं.

‘‘जी तो चाहता था कि आत्महत्या कर लूं पर मांबाप का खयाल कर के रह गया. मु?ो

हर वक्त लगता जैसे उस के बिना मेरी जिंदगी बेकार हो गई है. ‘‘सोचा था, कभी शादी नहीं करूंगा, जब वह मिलेगी तभी करूंगा पर मांबाप ने शादी कर लो… शादी कर लो की इतनी रट लगाई कि मैं चुप लगा गया.

‘‘और फिर मैं ने सोचा जब मैं लड़की को पसंद ही नहीं करूंगा तो कैसे शादी होगी पर तभी तुम पसंद आ गईं. तुम्हें देख कर मु?ो लगा कि तुम्हारी जैसी पढ़ीलिखी, कामकाजी और सुंदर लड़की के साथ मैं फिर से जीवन शुरू कर सकूंगा और वास्तव मैं तुम ने मेरे बिखरे जीवन को समेट लिया, मेरे घाव भर दिए.

‘‘शादी के बाद मैं तुम्हें बताना भी चाहता था पर यही सोच कर नहीं बताया कि इस से शायद तुम्हें दुख होगा, जीवन में व्यर्थ ही कड़वाहट आ जाएगी, सो टाल गया और आज अचानक उसे देख कर…’’

और सुवीर मानो इतना ही कह कर हलके हो गए थे. वाक्य अधूरा छोड़ कर पलंग पर बैठ कर यों जूते खोलने लगे जैसे मैं ने उन की बात पर विश्वास कर लिया हो.

सुवीर के एक ही सांस में बिना रुके इतना कुछ कह जाने की मु?ो आशा नहीं थी. उन की शक्ल देख कर उन की बात पर विश्वास कर लेना भी कोई बड़ी बात नहीं थी. पर मुझे अभिमानिनी के दिल के एक पक्ष ने धीमे से मुझसे से कहा था कि सब बकवास है. 2 घंटे में सुवीर कोई कहानी गढ़ लाए हैं और तुझे भोली समझ कर ठग रहे हैं. यदि इतनी ही बात थी तो ? सवाल पर ही मुझे हाथ पकड़ कर रोक क्यों नहीं लिया? वहीं सारी दास्तां क्यों नहीं सुना दी?

और पता नहीं कैसे मेरे मुंह से यह विष भरा वाक्य निकल गया, ‘‘ज्यादा सफाई देने की जरूरत नहीं. ऐसी कई कहानियां मैं ने सुन रखी हैं.’’

मेरे यह कहते ही सुवीर मुझे घूर कर फिर से जूते पहन कर कमरे से बाहर चले गए थे. उस पूरी रात न सुवीर मुझसे बोले और न मैं. बस अनकहे शब्द हम दोनों के बीच तैरते रहे. मुझे लगा था सुवीर अभी हाथ बढ़ा कर मुझे अपने पास बुला लेंगे और मुझे मना कर ही छोडे़ंगे पर जैसे ही सुवीर ने खर्राटे लेने शुरू किए तो मेरा गुस्सा और भी भड़क उठा. यह भी कोई बात हुई? फिर से बातों का क्रम जोड़ कर मुझे  मना तो सकते थे या अपनी एकतरफा प्रेमकथा की सचाई का कोई सुबूत तो दे सकते थे.

मगर नहीं सुवीर को अकेले सोते देखकर मेरा विद्रोही भावुक मन तरह-तरह की कुलांचें भरने लगा. पूरी रात आंखों में ही कट गई. सुबह कहीं जाकर आंख लगी तो बड़ी देर बाद नींद खुली. सुवीर फैक्टरी जा चुके थे. मन के कोने ने फिर कोंचा, देखा, तेरी जरा भी परवाह नहीं. रात को भी नहीं मनाया और अब भी मिल कर नहीं गए. मन तो वैसे ही खिन्न हो रहा था. देर से सोने और धूप चढ़े उठने की वजह से सिर भी भारी हो रहा था.

मैं ने चुपचाप कैंटीन से 1 कप चाय मंगाई और स्कूल पहुंचतेपहुंचते देर हो गई. एक बार मन में आया था कि जो हुआ, अब मुझे सुवीर को संभालना चाहिए पर दूसरे ही पल कमजोर मन का पक्ष बोलने लगा कि यदि यह बात सच थी तो सुवीर ने या सास ने बातोंबातों में मुझे पहले क्यों नहीं बताया? आखिर छिपा कर क्यों रखा? जब भेद खुल गया तब कहीं… और इस विचार के आते ही मन फिर अजीब सा हो गया.

शाम को मैं सुवीर का बेचैनी से इंतजार कर रही थी पर सुवीर रोज शाम के 5 बजे के स्थान पर रात के 9 बजे आए और बजाय देर से आने का कोई बहाना बनाने या कुछ कहने के वे सीधे अपने कमरे में चले गए और पलंग पर लेट गए. उन की लाललाल आंखों ने मुझे भयभीत कर दिया और मेरा शक ठीक निकला. वे पीकर आए थे. पहले कभी उन्होंने पी थी मुझे मालूम नहीं. हमारे दोस्त उन्हें हमेशा कहते पर वे कभी हाथ नहीं लगाते थे.

सुवीर के मांबाप भी परेशान थे और मैं तो थी ही. एक ही दिन में मेरी दुनिया इस तरह बदल जाएगी, इस का मुझे कभी खयाल भी न आया था. मैं कुछ कहने के लिए भूमिका बांध ही रही थी कि सुवीर के खर्राटों की आवाजें आने लगीं. मेरी रुलाई फूट कर वह निकली. दिनभर के उपवास और मौन ने मुझे तोड़ दिया. मैं भाग कर दरवाजे पर खड़ी सास के गले जा लगी और खूब रोई.

सास ने इतना ही कहा, ‘‘मेरे बेटे की खुशी में ही सारे घर की खुशी है. हां, एक बात का खयाल रखना, सुवीर बेहद जिद्दी है, उसे प्यार से ही जीता जा सकता है और किसी चीज से नहीं,’’ और यह कह कर उन्होंने जबरन मु?ो अपने कंधे से अलग कर दिया. मैं कंधे से अलग हो कर कुछ निश्चय करती हुई गुसलखाने में जा कर हाथमुंह धो आई.

सुवीर जूतों समेत ही सोए थे. उन के जूते, मोजे खोले, टाई की गांठ खोली और चादर डाल कर चुपचाप बिस्तर पर आ कर न जाने कब सो गई. सुबह उठी तो सुवीर लगभग तैयार ही थे. मैं यंत्रवत उन के बचे हुए काम करती रही और उन के चलते समय बोली, ‘‘शाम को वक्त पर घर आ जाना.’’ सुन कर सुवीर मु?ो कुछ देर देखते रहे, फिर चले गए. उन के जाने के बाद मुझे लगा कि मेरे कहने का ढंग प्रार्थना वाला न हो कर आदेश वाला था. और सुवीर वास्तव में ही शाम को वक्त पर नहीं लौटे. इंतजार करतेकरते मु?ो लगने लगा कि  ऊंचीऊंची दीवारों के बीच मैं कैद हूं और ये दीवारें बेहद संकरी होहो कर मुझे दबा देंगी.

सुवीर पिछले दिन से भी ज्यादा देर से लौटे, पीकर रात के 10 बजे और पिछले दिन की ही तरह बिस्तर पर जूतों समेत सो गए. मन किस कदर बिखर गया था तब. मैं माफी मांगने के कितने-कितने शब्दजाल दिनभर बुनती रहती और सुवीर थे कि बात भी करना पसंद नहीं कर रहे थे. मैं क्लास में भी ढंग से पढ़ा नहीं सकी और बेमतलब में 1-2 स्टूडैंट्स को डांट दिया.

मैं सोचा करती, यदि उस लड़की को उस के चले जाने के कारण वे पहले नहीं पा सके तो अब मैं क्या कर सकती हूं? ऊपर से शराब पी कर और नजारे पेश कर रहे हैं. इस का साफ मतलब है कि अभी भी उसी को चाहते हैं और यदि मैं चली जाऊं तो उसी को ला कर अपनी भूल का प्रायश्चित्त करेंगे. अचानक लगने लगा कि हमारा संबंध बहुत उथला है और इन चुकते जाते संबंधों को जोड़ने के लिए स्वयं को टुकड़ों में बांटने की आवश्यकता नहीं. सुवीर के रवैए ने मुझे निरपेक्ष बने रहने के लिए मजबूर कर दिया. मन के उसी कोने ने फिर कहा,  यदि उस लड़की को ये भुलाना ही चाहते तो मेरे साथ ऐसा व्यवहार कदापि न करते और फिर क्या पता फैक्टरी के बाद का तमाम समय कहां बिताते हैं?

मन की रिक्तता ने मेरी अजीब दशा कर दी थी. दिनभर मेरी जबान पर ताला जड़ा रहता और मन ही मन मेरे और सुवीर के बीच की खाई चौड़ी होती रहती.

उतरन: क्यों बड़े भाई की उतरन पर जी रहा था प्रकाश

लेखिका- रेखा विनायक नाबर

भैया अमेरिका जाने वाले हैं, यह जान कर मैं फूला न समाया. भैया से भी ज्यादा खुशी मुझे हुई थी. जानते हो क्यों? अब मुझे उन के पुराने कपड़े, जूते नहीं पहनने पड़ेंगे. बस, यह सोच कर ही मैं बेहद खुश था. आज तक मैं हमेशा उन के पुराने कपड़े, जूते, यहां तक कि किताबें भी इस्तेमाल करता आया था. बस, एक दीवाली ही थी जब मुझे नए कपड़े मिलते थे. पुरानी चीजों का इस्तेमाल करकर के मैं ऊब गया था.

मां से मैं हमेशा शिकायत करता था, ‘मां, मैं क्या जिंदगीभर पुरानी चीजें इस्तेमाल करूं?’

‘बेटे, वह तुम से 2 साल ही तो बड़ा है. तुम बेटे भी न जल्दीजल्दी बड़े हो जाते हो. अभी उसे तो एक साल में कपड़े छोटे होते हैं. उसे नए सिलवा देती हूं. लेकिन ये कपड़े मैं अच्छे से धो कर रखती हूं, देखो न, बिलकुल नए जैसे दिखते हैं. तो क्या हर्ज है? जूतों का भी ऐसे ही है. अब किताबों का पूछोगे तो हर साल कहां सिलेबस बदलता है. उस की किताबें भी तुम्हारे काम आ जाती हैं. देखो बेटे, बाइंडिंग कर के अच्छा कवर लगा कर देती हूं तुम्हें. क्यों फुजूल खर्च करना. मेरा अच्छा बेटा. तेरे लिए भी नई चीजें लाएंगे,’ मां शहद में घुली मीठी जबान से समझती थीं और मैं चुप हो जाता था.

मुझे कभी भी नई चीजें नहीं मिलती थीं. स्कूल के पहले दिन दोस्तों की नईर् किताबें, यूनिफौर्म, उन की एक अलग गंध, इन सब से मैं प्रभावित होता था. साथ ही बहुत दुख होता था. क्या इस खुशी से मैं हमेशा के लिए वंचित रहूंगा? ऐसा सवाल मन में आता था. पुरानी किताबें इस्तेमाल कर के मैं इतना ऊब गया था कि 10वीं कक्षा पास होने के बाद मैं ने साइंस में ऐडमिशन लिया. भैया तब 12वीं कौमर्स में थे. 11वीं कक्षा में मुझे पहली बार नई किताबें मिलीं. कैमिस्ट्री प्रैक्टिकल में मुझे चक्कर आने लगे. बदन पर धब्बे आने लगे. कुछ घर के उपाय करने के बाद पिताजी डाक्टर के पास ले गए.

‘अरे, इसे तो कैमिकल की एलर्जी है. कैमिस्ट्री नहीं होगी इस से.’

‘इस का मतलब यह साइंस नहीं पढ़ पाएगा?’

‘बिलकुल नहीं.’

डाक्टर के साथ इस बातचीत के बाद पिताजी सोच में पड़ गए. आर्ट्स का तो स्कोप नहीं. फिर क्या, मेरा भी ऐडमिशन कौमर्स में कराया गया, और फिर से उसी स्थिति में आ गया. भैया की वही पुरानी किताबें, गाइड्स. घर में सब से छोटा करने के लिए मैं मन ही मन मम्मीपापा को कोसता रहा. भैया ने बीकौम के बाद एमबीए किया और मैं सीए पूरा करने में जुट गया. सोचा, चलो पुरानी किताबों का झमेला तो खत्म हुआ. एमबीए पूरा होने के बाद भैया कैंपस इंटरव्यू में एक विख्यात मल्टीनैशल कंपनी में चुने गए. यही कंपनी उन्हें अमेरिका भेज रही थी. भैया भी जोरशोर से तैयारी में जुटे थे और मैं भी मदद कर रहा था. वे अमेरिका चले गए. समय के साथ मेरा भी सीए पूरा हुआ. इंटरव्यू कौल्स आने लगे.

‘‘मां, इंटरव्यू कौल्स आ रहे हैं, सोचता हूं कुछ नए कपड़े सिलवाऊं.’’

मां ने भैया की अलमारी खोल कर दिखाई, ‘‘देखो, भैया कितने सारे कपड़े छोड़ गया है. शायद तुम्हारे लिए ही हैं. नए ही दिख रहे हैं. सूट भी हैं. ऐसे लग रहे हैं जैसे अभीअभी खरीदे हैं. फिर भी तुम्हें लगता हो, तो लौंड्री में दे देना.’’

मां क्या कह रही हैं, मैं समझ गया. मैं पहले ही इंटरव्यू में पास हो गया. मां खुश हुईं और बोलीं, ‘‘देखो, भैया के कपड़े की वजह से पहले ही इंटरव्यू में नौकरी मिल गई. वह बड़ा खुश होगा.’’ एक तो पुराने कपड़े पहन कर मैं ऊब गया था और मां जले पर नमक छिड़क रही थीं. क्या मेरी गुणवत्ता का कोई मोल नहीं? मां का भैया की ओर झकाव मुझे दिल ही दिल में खाए जा रहा था. पहली सैलरी में कुछ अच्छे कपड़े खरीद कर मैं ने इस चक्रव्यूह को तोड़ा था. भैया के कपड़े मैं ने अलमारी में लौक कर डाले. मैं अपने लिए नईनई चीजें खरीदने लगा.

भैया अमेरिका में सैटल हो गए. अब उन्हें शादी के लिए उच्चशिक्षित, संपन्न रिश्ते आ रहे थे. भैया के कहेअनुसार हम लड़की देखने जा रहे थे. आखिरकार हम ने भैया के लिए 4 लड़कियां चुनीं. एक महीने बाद भैया इंडिया लौटे. सब लड़कियों से मिले और शर्मिला के साथ रिश्ता पक्का किया. शर्मिला ने बीकौम किया था, मांबाप की वह इकलौती लड़की थी. उस के पिता देशमुख का स्पेयरपार्ट का कारखाना था. शर्मिला सुंदर व सुशील थी.

‘‘क्यों पक्या, भाभी पसंद आई तुझे?’’ भैया ने पूछा.

‘‘क्यों नहीं, शर्मिला टैगोर भी मात खाएगी, इतनी सुंदर और शालीन मेरी भाभी हैं. ऐसी भाभी किस को अच्छी नहीं लगेंगी. जोड़ी तो खूब जंच रही है आप की.’’

जल्दी ही सगाई हुई और 3 हफ्ते बाद शादी की तारीख तय हुई. बाद में एक महीने बाद दोनों अमेरिका जाने वाले थे. यह सब भैया ने ही तय किया था. दोनों साथसाथ घूमने लगे थे. सब खुशी में मशगूल थे. दोनों ओर शादी की शौपिंग चल रही थी.

‘‘चल पक्या, मेरे साथ शौपिंग को. सूट लेना है मुझे.’’

‘‘मैं? सूट तो आप को लेना है. तो भाभी को ले कर जाओ न.’’

‘‘भाभी? ओह शर्मिला, ये क्या पुराने लोगों जैसा भाभी बुलाते हो. शर्मिला बुलाओ, इतना अच्छा नाम है.’’

‘‘तो उन्हें बताइए मुझे प्रकाश नाम से बुलाए.’’

‘‘ओफ्फो, तुम दोनों भी न…बताता हूं उसे, लेकिन हम दोनों आज शौपिंग करने जा रहे हैं. नो मोर डिस्कशन.’’

हम शौपिंग करने गए. उन्होंने मेरे लिए भी अपने जैसा सूट खरीदा. यह मेरे लिए सरप्राइज था. शादी के दिन पहनने की शेरवानी भी दोनों की एकजैसी थी.

‘‘भैया शादी तुम्हारी है. मेरे लिए इन सब की क्या जरूरत थी?’’

‘‘अरे तेरी भी तो जल्दी शादी होगी. उस वक्त जल्दबाजी नहीं होनी चाहिए.’’

‘‘लगता है जेब गरम है आप की.’’

‘‘पूरी तैयारी के साथ आया हूं. शर्मिला के लिए अमेरिकन डायमंड का सैट भी ले कर आया हूं. मम्मीडैडी को भी शौपिंग करवाने वाला हूं. मेरे पुराने कपड़े तुझे पहनने पड़ते थे. चल, आज तुझे खुश कर देता हूं.’’

हमें कहां मालूम था कि यह खुशी दो पल की ही है. भैया के लिए मेरे मन में कृतज्ञता थी. कितने बड़े दिल के हैं भैया. उन्हें पूरा सहकार्य देने का मैं ने मन ही मन प्रण कर लिया. हम सब खुशी के 7वें आसमान पर थे, तब नियति हम पर हंस रही थी.

शादी का नजारा तो पूछो ही मत. शर्मिला सोलह सिंगार कर के मंडप में आई थी. सब की नजरें उस पर ही टिकी थीं. लड़की वालों ने शादी में किसी बात की कमी नहीं की. हम सब खुशी की लहर पर सवार थे.

ऐसे में बूआ ने मां को सलाह दी, ‘‘भाभी, प्रसाद के लिए शर्मिला तो ले आईं, अब प्रकाश के लिए उर्मिला ले आओ.’’ मैं ने तय किया अपनी पत्नी का नाम मैं उर्मिला ही रखूंगा, शर्मिला की मैचिंग. शादी की रस्में चल रही थीं. बीचबीच में दोनों की कानाफूसी चल रही थी. शर्मिला की मुसकराहट देख कर लग रहा था मानो दोनों मेड फौर ईच अदर हैं.’’ शर्मिला के आने से घर में एक अजीब सी सुगंध फैल गई. बहुत ही कम समय में वह सारे घर में घुलमिल गई. शादी के बाद सब रस्में पूरी कर नवविवाहित जोड़ा हनीमून के लिए बेंगलुरु रवाना हुआ. वे दोनों एक हफ्ते बाद लौटने वाले थे. उस के 2 हफ्ते बाद वे अमेरिका जाने वाले थे. भैया ने ही यह सारा प्रोग्राम तय किया था.

‘‘देखो न, कितनी जल्दी दिल जीत लिया. 8 दिनों के लिए गईर् तो घर सूनासूना लग रहा है. हमेशा के लिए गई, तो क्या हाल होगा? मां ने फोन पर भैया को कहा?’’ मगर मां घर तो नहीं रख सकते हैं न,’’ भैया बोले. उस के बाद 2 दिन दोनों लगातार फोन पर संपर्क में थे. लेकिन फिर वह काला दिन आया. छुट्टी का दिन था, इसलिए मैं घर पर ही था. दोपहर 3 बजे मेरा मोबाइल बजा.

‘‘हैलो मैं…मैं…शर्मिला, प्रकाश, एक भयंकर घटना घटी है,’’ वह रोतेरोते बोल रही थी. घबराईर् लग रही थी. मैं भी सहम सा गया.

‘‘शर्मिला, शांत हो जाओ, रोना बंद करो. क्या हुआ, ठीक से बताओ. भैया कैसे हैं? आप कहां से बोल रही हो?’’

‘‘प्रसाद नहीं हैं.’’

वह सिसकसिसक कर रोने लगी. तनाव और डर से मैं अपना संयम खो बैठा और जोर से चिल्लाया.

‘‘नहीं हैं, मतलब? हुआ क्या है? प्लीज, जल्दी बताओ. मेरी टैंशन बढ़ती जा रही है. पहले रोना बंद करो.’’

अब तक कुछ विचित्र हुआ है, यह मांबाबूजी के ध्यान में आ गया था. वे भी हक्केबक्के रह गए थे.

‘‘प्रकाश, प्रसाद अमेरिका चले गए.’’

‘‘कुछ भी क्या बोल रही हो, आप को छोड़ कर कैसे गए? और आप ने जाने कैसे दिया? सब डिटेल में बताओ. कुछ तो सौल्यूशन निकालेंगे. हम सब तुम्हारे साथ हैं. चिंता मत करो. मगर हुआ क्या है यह तो बताओ. खुद को संभालो और बताओ, क्या हुआ?’’

वह धीरज के साथ बोली, ‘‘प्रसाद सुबह 10 बजे कोडाइकनाल की टिकटें निकालने के लिए बाहर गए. 2 दिन उधर रह कर मुंबई वापस आने का प्लान था. अगर उन्हें आने में देर हुई तो खाना खाने को कह गए थे. मैं ने 2 बजे तक उन का इंतजार किया. उन का मोबाइल स्विचऔफ है. खाना खाने का सोच ही रही थी तो रूमबौय एक लिफाफा ले कर आया. मुझे लगा बिल होगा. खोल कर देखा तो ‘मैं अमेरिका जा रहा हूं’ ऐसा चिट्ठी में लिखा था और प्रसाद ने नीचे साइन किया था. मेरे ऊपर मानो आसमान टूट पड़ा. बेहोश ही होना बाकी था. जैसेतैसे हिम्मत जुटाई. बाद में देखा तो मेरे गहने भी नहीं थे जो रात को मैं ने अलमारी में रखे थे. मेरे पास पैसे भी नहीं हैं. मैं बहुत असहाय हूं. क्या करूं मैं अब पिताजी को भी नहीं बताया है.’’

वह फिर से रोने लगी. मैं भी अंदर से पूरा हिल गया. खुद को संभाल कर उसे धीरज देना आवश्यक था. ‘‘आप ने अपने पिताजी को नहीं बताया, यह अच्छा किया. शर्मिला, रोओ मत. आप अकेली नहीं हो. आप के पिताजी को कैसे बताना है, यह मैं देखता हूं. बहुत कठिन परिस्थिति है, लेकिन कोई न कोईर् हल जरूर निकालेंगे. आप होटल में ही रुको. कुछ खा लो. मैं सब से बात कर के उधर आप को लेने आता हूं. आज रात नहीं तो सुबह तक हम लोग पहुंच जाएंगे. फोन रखता हूं.’’

मां-बाबूजी को सारी कहानी सुनाई. बाबूजी बहुत शर्मिंदा थे. मां तो फूटफूट कर रोने लगीं.

‘‘मांबाबूजी, शर्मिला के पिता को कुछ नहीं मालूम. उन्हें बताना चाहिए. मैं खुद जा कर बताता हूं.’’

‘‘मैं भी आता हूं.’’

‘‘नहीं बाबूजी, मां अभी आने की स्थिति में नहीं हैं. उन्हें अकेला भी छोड़ना ठीक नहीं. मैं अकेले ही हो आता हूं. कठिन लग रहा है, लेकिन यह घड़ी मुझे ही संभालनी होगी.’’

मैं दबेपांव भाभी के घर गया.

‘‘आओ बेटा, और प्रसाद कब आ रहे हैं?’’

‘‘नहीं, मैं किसी और काम से आप के यहां आया हूं.’’

‘‘हांहां, बोलो, कुछ प्रौब्लम है क्या?’’

‘‘हां…हां, बहुत कठिन समस्या है. भैया अमेरिका चले गए.’’

‘‘क्या? लेकिन कल रात ही शमु का फोन आया था, उस ने तो कुछ नहीं कहा. यों अचानक कैसे तय किया?’’

‘‘नहीं, वे अकेले ही चले गए.’’

‘‘और शमु?’’

फिर मैं ने उन्हें सारी हकीकत बयान की. वे क्रोध से लाल हो गए. क्रोध से उन का शरीर कांप रहा था. उन्हें भी मैं ने गहनों के बारे में कुछ नहीं बताया.

‘‘हरामखोर, मेरी इकलौती बेटी की जिंदगी बरबाद कर दी. सामने होता तो गोली से उड़ा देता. मैं छोड़ं ूगा नहीं उसे.’’

उन को संभालने के लिए शर्मिला की मां आगे आईं, ‘‘आप शांत हो जाइए. यह लीजिए पानी पीजिए. संकट की घड़ी है. हमें पहले शमु को संभालना चाहिए. यह कैसा पहाड़ टूट पड़ा मेरी बेटी पर. है कहां है वह?’’

‘‘वे बेंगलुरु में होटल में हैं, मैं उन्हें लेने जा रहा हूं.’’

‘‘नहीं, हम दोनों उसे ले कर आते हैं. शमु से एक बार बात कर लेते हैं.’’

मैं ने शर्मिला के मोबाइल पर फोन लगाया.

‘‘मैं प्रकाश बोल रहा हूं, आप के घर से. आप कैसी हो? लो, बात करो उन से.’’

‘‘शमु, रो मत, धीरज रख. देख मैं उस के साथ ऐसा खेल खेलूंगा कि उसे फूटफूट कर रोना पड़ेगा. हम दोनों आ रहे हैं तुझे लेने. आखिरी फ्लाइट से निकलते हैं. तब तक खुद का ध्यान रख,’’ शर्मिला के पिताजी बोले.

क्रोध की जगह करुणा ने ले ली. शर्मिला की आंखों से आंसू छलक रहे थे. शर्मिला की मां भी व्याकुल थीं, लेकिन झठमूठ का धीरज दे रही थीं. मेरी मां ने तो बिस्तर पकड़ लिया था. उन के आंसू थम नहीं रहे थे. सब को इतने बड़े दुख में धकेलने वाले निर्दयी भैया से मुझे घृणा आने लगी. शर्मिला के अपने घर आने पर हम वहां पहुंचे.

‘‘शर्मिला, यह क्या हुआ बेटा,’’ यह बोल कर मां बेहोश हो गईं. बाबूजी शर्मिंदा हो कर उस के सामने हाथ जोड़ रहे थे.

‘‘हम आप के कुसूरवार हैं. ऐसा कुलक्षणी बेटा जना, मुझे शर्म आती है.’’

शर्मिला के पापा अब तक शांत हो गए थे.

शर्मिला की मां और शर्मिला मेरी मां को समझ रहे थे.

‘‘हम सब को यह दुख भोगना था शायद, लेकिन आप खुद को कुसूरवार न समझें. मैं उसे पाताल से भी ढूंढ़ कर लाऊंगा और सजा दूंगा. प्रकाश उसे अमेरिका में संपर्क करने का कोई रास्ता है क्या?’’ ‘‘हां पापा, प्रसाद का औफिस का नंबर तो नहीं है पर जहां रहता है वहां का नंबर ट्रेर्स करता हूं.’’

‘‘फोन लगाया था तो पता चला भैया 3 महीने पहले ही अपार्टमैंट छोड़ चुके थे.’’

‘‘हरामखोर, पहले से ही प्लान कर चुका था. उस ने मेरी बेटी की जिंदगी बरबाद कर दी. नया बिजनैस शुरू करने के बहाने मेरे पास से 5 लाख रुपए ले गया था.’’

‘‘हां, मुझे भी यही कारण बता कर पैसे मांगे, मैं ने पीएफ से 2 लाख रुपए निकाल कर दिए, शर्मिला के गहने भी गायब हुए हैं.’’ मैं ने बताया.

‘‘नीच अमानुष. अब मैं यह हकीकत अखबार में छपवाने वाला हूं. अमेरिका में मेरे कुछ रिश्तेदार हैं, उन को भी खबर दूंगा. सब जगह उस की बदनामी करूंगा.’’

अब बदनामी होगी, इस कारण बाबूजी डर गए.

‘‘देखिए, हमारे बेटे से अक्षम्य अपराध हुआ है. लेकिन जरा धीरज से काम लीजिए. ऐसी घड़ी में सोचविचार कर के निर्णय लीजिए, आप देख ही रहे हो हालात कितने नाजुक हैं और शर्मिला के भविष्य की दृष्टि से भी सोचना चाहिए. बस, एक हफ्ते का समय दीजिए हमें. देखते हैं कुछ हल निकलता है क्या. नहीं तो मानहानि सहने के सिवा और कोई चारा नहीं.’’

वे एक हफ्ता रुकने को राजी हो गए. बड़ी कृपा हुई थी हम पर. गए हफ्ते खुशी की तरंगों पर तैरने वाले हम, आज दुख के सागर में डूब चुके थे. केवल भैया की इस घिनौनी हरकत की वजह से फूल जैसी शर्मिला मुरझ कर सांवली पड़ गईर् थी. उस ने जैसे न बोलने का प्रण लिया था. हम दोनों सहारा बने, इसलिए मां थोड़ी संभल गईं, वरना उन के लिए सदमा असहनीय था.

‘‘कलमुंहा, बच्ची की जिंदगी की होली कर डाली.’’

‘‘सही कहती हो आप. हम उस के अपराधी हैं. कभी न भरने वाला जख्म है यह.’’ शर्मिला मां से मिल कर गई. आश्चर्य यह था कि दोनों संयम से काम ले रही थीं. एक दिन मैं औफिस से आया तो मांबाबूजी अभीअभी शर्मिला के घर से लौटे थे.

‘‘बाबूजी, उन्होंने बुलाया था क्या?’’

‘‘नहीं, ऐसे ही मिल कर आए, काफी दिन हुए, मिले नहीं थे. शर्मिला को भी देखने को दिल कर रहा था.’’

‘‘सब कुछ ठीक है न?’’

‘‘हां, ठीक ही कहना चाहिए, लेकिन भविष्य के बारे में सोचना जरूरी है.’’

‘‘प्रकाश अभीअभी आए हो न? हाथपांव धो आओ. मैं चाय बनाती हूं. कुछ खा भी लो.’’ मुझे मां का यह बरताव अजीब लगा.

चायनाश्ता हो गया. हम तीनों वहीं बैठे बातें कर रहे थे. मां मुझ से कुछ कहना चाहती हैं, ऐसा मैं महसूस कर रहा था. वे बहुत टैंशन में लग रही थीं.

‘‘मां, क्या हुआ, कुछ कहना है क्या, टैंशन में लग रही हो. बताओ अभी, क्यों टैंशन बढ़ा रही हो?’’

‘‘प्रकाश, देखो…हमें ऐसा लगता है, इसलिए सुझाव दे रही हूं. लेकिन सोच कर ही बताना.’’

‘‘क्या सोचना है? क्या सुझाव  दे रही हो? और ऐसे हकला कर क्यों बोल रही हो?’’

आखिरकार बाबूजी ने बड़ी हिम्मत कर बोल ही दिया, ‘‘प्रकाश, हमें लगता है कि तुम शर्मिला को पत्नी के रूप में स्वीकार करो.’’

ऐसे लग रहा था मानो सारे बदन में बिजली दौड़ रही है. मैं जोर से चिल्लाया. ‘‘यह कैसे हो सकता है? भाभी और पत्नी? नहीं, मैं सोच भी नहीं सकता. आप मुझे  ऐसा सुझाव कैसे दे सकते हो?’’

‘‘प्रकाश बेटे, यह कहते हुए हमें भी अच्छा नहीं लग रहा. हम जानते हैं कि तुम्हारे भी अपने वैवाहिक जीवन के कुछ सपने होंगे. तुम अच्छे पढ़ेलिखे हो, अच्छी तनख्वाह मिलती है तुम्हें. तुम्हें अच्छी लड़की मिल सकती है. लेकिन, हमें शर्मिला के बारे में भी तो सोचना चाहिए. उस की कोई गलती न होते हुए भी उस की जिंदगी यों बरबाद हो गई, और हमें यह देखना पड़ रहा है. अनजाने में हम ही इस के जिम्मेदार हैं न?’’

मां फिर से सिसकसिसक कर रोने लगीं.

‘‘मां, मुझे सोचने के लिए वक्त चाहिए. यही बोलने के लिए आप उन के यहां हो आए? क्या कहा उन्होंने?’’

‘‘हम ने बात की उन से. कुछ कहा नहीं उन्होंने. उन्हें भी वक्त चाहिए. फोन करेंगे वे. तुम्हारा कहना क्या है, यह पूछने को कहा है.’’

मेरे पांवतले जमीन खिसक रही थी. जेहन ने काम करना बंद कर दिया था.

‘‘मैं जरा घूम कर आता हूं.’’

‘‘इस वक्त?’’

‘‘हां.’’

दूर बगीचे तक घूम कर आया. तब कहीं थोड़ा सुकून महसूस हुआ. मेरे लौटने तक मांबाबूजी चिंता कर रहे थे. खाना गले के नीचे नहीं उतर रहा था. उठ कर बिस्तर पर लेटा. नींद आने का सवाल ही नहीं था. मेरी वैवाहिक जिंदगी शुरू होते ही खत्म होने वाली थी. भैया के पुराने कपड़े, किताबें इस्तेमाल करने वाला मैं अब उन की त्यागी पत्नी… नहीं, यह नहीं हो सकता. इस प्रस्ताव को नकारना चाहिए. मैं बहुत बेचैन था. लेकिन आंखों के सामने आंसू निगलती मां, शर्मिंदा बाबूजी, क्रोधित शर्मिला के पिता, उन को संभालने की कोशिश करती हुई शर्मिला की मां और जिंदगी के वीरान रेगिस्तान की बालू की तरह शुष्क शर्मिला दिखने लगी. इन सब की नजरें बड़ी आशा से मुझे  देख रही हैं, ऐसा लगने लगा. फिर से एक बार मेरे नसीब में उतरन ही आईर् थी. इस कल्पना से दिल जख्मी हो रहा था. ऐसी स्थिति में मुझे बचपन की एक घटना याद आई.

भैया की ड्राइंग अच्छी थी, वे बहुत अच्छे चित्र बनाते थे, और पूरे होने के बाद दोस्तों को दिखाने जाते थे. सारा सामान वैसे ही रखते थे. घर साफ होना चाहिए, इस पर बाबूजी का ध्यान रहता था. फिर मां मुझे मनाती थीं, ‘प्रकाश, ये सामान जरा उठा कर रख बेटे. वो देखेंगे तो बिगड़ेंगे. मैं ने लड्डू बनाए हैं. मैं लाती हूं तेरे लिए.’

‘मां भैया अपना सामान क्यों खुद नहीं रखते? लड्डू का लालच दे कर आप मुझे  से काम करवाती हो. भैया बिगाड़ेंगे और मैं संवारूंगा, यह अलिखित नियम बनाया है क्या आप ने.’

मां का यह अलिखित नियम मेरे पीछे हाथ धो कर पड़ा था. जिंदगी के इस मोड़ पर उस के किए अक्षम्य अपराध को मुझे ही सही करना था, मुझे ही अब शर्मिला से शादी करनी थी.

क्यों, क्योंकि वह सिर्फ मेरा बड़ा भाई है, इसलिए.

कल्पवृक्ष: भाग 1- विवाह के समय सभी व्यंग क्यों कर रहे थे?

छोटी ननद की शादी की बात वैसे तो कई जगह चल रही थी, किंतु एक जगह की बात व संबंध सभी को पसंद आई. लड़की देख ली गई और पसंद भी कर ली गई. परंतु लेनदेन पर आ कर बात अटक गई. नकदी की लंबीचौड़ी राशि मांगी गई और महंगी वस्तुओं की फरमाइश ने तो जैसे छक्के छुड़ा दिए. घर पर कई दिनों से इसी बात पर बहस छिड़ी हुई थी. सब परेशान से बैठे थे. पिता सहित तीनों भाई, दोनों भाभियां तरहतरह के आरोपों से जैसे व्यंग्य कस रहे थे.

लड़का कोई बड़ा अधिकारी भी नहीं था. उन्हीं लोगों के समान मध्यम श्रेणी का विक्रय कर लिपिक था, परंतु मांग इतनी जैसे कहीं का उच्चायुक्त हो. कई लाख रुपए नकद, साथ ही सारा सामान, जैसे स्कूटर, फ्रिज, वाश्ंिग मशीन, रंगीन टैलीविजन, गैस चूल्हा, मशीन, वीसीआर और न जाने क्या क्या.

‘‘बाबूजी, यह संबंध छोडि़ए, कहीं और देखिए,’’ बड़े बेटे मुकेश ने तो साफ बात कह दी. बड़ी बहू ने भी इनकार ही में राय दी. म झले अखिलेश व उस की पत्नी ने भी यही कहा. छोटा निखिलेश तो जैसे तिलमिला ही गया. वह बोला, ‘‘ऐसे लालचियों के यहां लड़की नहीं देनी चाहिए. अपनी विभा किस बात में कम है. हम ने भी तो उस की शिक्षा में पैसे लगाए हैं. शुरू से अंत तक प्रथम आ रही है परीक्षाओं में, और देखना, एमएससी में टौप करेगी, तो क्या वह नौकरी नहीं कर सकेगी कहीं?’’

‘‘ये सब तो बाद की बातें हैं निखिल. अभी तो जो है उस पर गौर करो. कहीं भी बात चलाओ, मांग में कमी होगी क्या. एक यही घर तो सब को सही लगा है. और जगह बात कर लो, मांग तो होगी ही. आजकल नौकरीपेशा लड़के के जैसे सुरखाब के पर निकल आते हैं. यह लड़का सुंदर है, विभा के साथ जोड़ी जंचेगी. परिवार छोटा है, 2 भाईबहन, बहन का विवाह हो गया. बड़ा भाई भी विवाहित है. छोटा होने से छोटे पर अधिक दायित्वभार नहीं होगा. बहन सुखी रहेगी तुम्हारी,’’ पिताजी दृढ़ स्वर में बोले.

‘‘यह तो ठीक है बाबूजी. 2 लाख रुपए नकद, फिर इतना साजोसामान हम कहां से दे सकेंगे. आभा के विवाह से निबटे 2 ही बरस तो हुए हैं, वहां इतनी मांग भी नहीं थी,’’ अनिल बोला.

‘‘अब सब एक से तो नहीं हो सकते. 2 बरस में समय का अंतर तो आ ही गया है. सामान कम कर दें, तो शायद बात बन जाए. रुपए भी एक लाख तक दे सकते हैं. यदि सामान खरीदना न पड़े तो कुछ निखिल की ससुराल का नया रखा है. अभी 6 माह ही तो विवाह को हुए हैं,’’ बाबूजी बोले.

‘‘तो क्या छोटी बहू को बुरा नहीं लगेगा कि उस के मायके का सामान कैसे दे रहे हैं? कई स्त्रियों को मायके का एक तिनका भी प्रिय होता है,’’ बड़ा बेटा मुकेश बोला.

‘‘नहीं.’’ ‘‘बिलकुल नहीं, बाबूजी, फालतू का तनाव न पैदा करें. बहुओं में बड़ी और म झली क्या दे देगी अपना कुछ सामान. कोई नहीं देने वाला है, जानते तो हैं आप, जब छोटी का दहेज देंगे तो क्या वह नहीं चाहेगी कि ये दोनों भी कुछ दें, अपने मायके का कौन देगा, टीवी, फ्रिज, अन्य सामान?’’ अखिल बोला.

‘‘न भैया, मैं खुद नहीं चाहता कि मधु के मायके का सामान दें. जब हमें मिला है तो हम कैसे न उस का उपयोग कर पाएं, यह कहां की शराफत की बात हुई? फिर बड़ी व म झली भाभियों का नया सामान है कहां कि वह दिया जा सके,’’ निखिल उत्तेजित हो खीझ कर बोला.

‘‘रहने दो भैया. कोई कुछ मत दो. मना कर दो कि हम इतने बड़े रईस नहीं हैं, न धन्ना सेठ कि उन की इतनी लंबीचौड़ी फरमाइश पूरी कर सकें. हमें नहीं देनी ऐसी कोई चीज जो बहुओं के मायके की हो. कौन सुनेगा जनमभर ताने और ठेने? इसी से आभा को किसी का कुछ नहीं दिया,’’ मां सरोज बोलीं.

‘‘तब और बात थी. मुकेश की मां, अब रिटायर हो चुका हूं मैं. बेटी क्या, बेटोें के विवाह में भी तो लगती है रकम, और लागत लगाई तो है मैं ने. तीनों बेटों के विवाह में हम ने इतना बड़ा दानदहेज कब मांगा था, बेटों की ससुराल वालों से? अपने बेटे भी तो नौकरचाकर थे. हां, छोटे निखिल के समय अवश्य थोड़ाबहुत मुंह खोला था, परंतु इतना नहीं कि सुन कर देने वाले की कमर ही टूट जाए,’’ बाबूजी गर्व से बोले.

‘‘तो ऐसा करो, छोड़ो सर्विस वाला लड़का, कोई बिजनैस वाला ढूंढ़ो, जो इतना मुंह न फाड़े कि हम पैसे दे न सकें,’’ मां बोलीं.

‘‘लो, अभी तक कहती थीं कि लड़का नौकरीपेशा चाहिए. अब कहती हो कि व्यापारी ढूंढ़ो. लड़की की उम्र 21 बरस पार कर गई है. व्यापारी या कैसा भी ढूंढ़तेढूंढ़ते अधिया जाएगी. समय जाते देर लगती है क्या?’’

‘‘तो कर्ज ले लो कहीं से.’’

बाबूजी खिसिया कर बोले, ‘‘कर्ज ले लो. कौन चुकाएगा कर्ज? तुम चुकाओगी?’’

‘‘मैं चुकाऊंगी, क्या भीख मांगूंगी,’’ वे रोंआसी हो कर बोलीं.

‘‘तुम लोग कितनाकितना दे पाओगे तीनों,’’ वे तीनों बेटों की ओर देख कर बोले.

बाबूजी, आप जानते तो हैं कि क्लर्क, शिक्षकों की तनख्वाह होती कितनी है. तीनों ही भाईर् लगभग एक ही श्रेणी में तो हैं, वादा क्या करें. निखिल को छोड़ तीनों पर 3-3 बच्चों का भार है. पढ़ाईलिखाई आदि से ले कर क्या बचता है, आप जानते तो हैं क्या दे पाएंगे. हिसाब लगाया कहां है. पर जितना बन पड़ेगा देंगे ही. आप अभी तो उन्हीं को साफ लिख दें कि हम केवल 50 हजार नकद और यह सामान दे सकेंगे, यदि उन्हें मंजूर है तो ठीक, वरना मजबूरी है. एक लाख तो नकद किसी प्रकार नहीं दे पाएंगे, न इतना सामान ही,’’ मुकेश ने कहा तो जैसे दोनों भाइयों ने सहमति से सिर हिला दिया. बड़ी व म झली बहू कब से कमरे में घुसी खुसरफुसर कर रही थीं. छोटी मधु रसोई में थी, चारों जनों को गरमगरम रोटियां सेंक कर खिला रही थी. 6 माह हुए जब वह ब्याह कर आई थी. तब से वह रसोई की जैसे इंचार्ज बन गई थी. बच्चों सहित पूरे घर को परोस कर खिलाने में उसे न जाने कितना सुख मिलता था.

उस से छोटी हमउम्र विभा जैसे उस की सगी छोटी बहन सी ही थी. गहरा लगाव था दोनों में. विभा विज्ञान ले कर इस बरस स्नातक होने जा रही थी. घर वालों की अनुमति ले कर प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रही थी, जो विषय उस का था पहले वही ननद विभा का था. इस से वह उसे खुद पढ़ाती, बताती रहती. पूरा घर उस पर जैसे जान छिड़कता.

जब से वह आई थी, बड़ी और म झली की  झड़पें कम हो गईर् थीं. सासननद का मानसम्मान जैसे बढ़ गया था. बातबात पर उत्तेजित होने वाले तीनों भाई शांत पड़ चले थे. रोब गांठने वाले ससुरजी का स्वर धीमा पड़ गया था. सासुमां की ममता बहुओं पर बेटियों के समान लहरालहरा उठती. कटु वाक्यों के शब्द अतीत में खोते चले जा रहे थे. क्रोध तो जैसे उफन चुके दूध सा बैठ गया था.

‘‘छोटी बहू, यह बाबूजी की दूधरोटी का कटोरा लगता है, मेरे आगे भूल से रख गई हो, यह रखा है.’’

‘‘अरे, मेरे पास तो रखा है, शायद भूल गई.’’

तभी मधु गरम रोटी सेंक कर म झले जेठ के लिए लाई, बोली, ‘‘बड़े दादा, यह दूधरोटी आप ही के लिए है.’’

‘‘परंतु मेरे तो अभी पूरे दांत हैं, बहू.’’

‘‘तो क्या हुआ, बिना दांत वाले ही दूधरोटी खा सकते हैं. देखते नहीं हैं, आप कितने दुबले होते जा रहे हैं. अब तो रोज बाबूजी की ही भांति खाना पड़ेगा. तभी तो आप बाबूजी जैसे हो पाएंगे और देखिए न, बाल कैसे सफेद हो चले हैं अभी से.’’

वे जोर से हंसते चले गए. फिर स्नेह से छलके आंसू पोंछ कर बोले, ‘‘पगली कहीं की. यह किस ने कहा कि दूधरोटी खाने से मोटे होते हैं व बाल सफेद नहीं होते.’’

‘‘बाबूजी को देखिए न. उन के तो न बाल इतने सफेद हैं न वे आप जैसे दुबले ही हैं.’’

‘‘तब तो मधु, मु झे भी दूधरोटी देनी होगी. बाल तो मेरे भी सफेद हो रहे हैं,’’ म झला अखिल बोला.

‘‘म झले भैया, आप को कुछ साल बाद दूंगी.’’

‘‘पर छोटी बहू, बच्चों को तो पूरा नहीं पड़ता, तू मु झे देगी तो वहां कटौती

न होगी.’’

‘‘नहीं, बड़े भैया. मैं चाय में से बचा कर दूंगी आप को. अब केवल 2 बार चाय बना करेगी. पहले हम सब दोपहर में पीते थे. फिर शाम को आप सब के साथ. अब हम सब की भी साथ ही बनेगी और आप चुपचाप रोज बाबूजी की तरह ही खाएंगे.’’

आगे पढ़ें- विभा की परीक्षाएं भी हो गईं. फिर सगाई की…

परिचय: वंदना को क्यों मिला था भरोसे के बदले धोखा

कहानी- नंदिनी मल्होत्रा

मैंअपने केबिन में बैठी मुंशीजी से पेपर्स टाइप करवा रही थी. मन काम में नहीं लग रहा था. पिछले 1 घंटे से मैं कई बार घड़ी देख चुकी थी, जो लंच होने की सूचना शीघ्र ही देने वाली थी. दरअसल, मुझे वंदना का इंतजार था. पूरी वकील बिरादरी में एक वही तो थी, जिस से मैं हर बात कर सकती थी. इधर घड़ी ने 1 बजाया,

उधर वंदना अपना काला कोट कंधे पर टांगे और अपने चेहरे को रूमाल से पोंछती हुई अंदर दाखिल हुई. मेरे चेहरे पर मुसकान दौड़ गई. ‘‘बहुत गरमी है आज,’’ कहती हुई वंदना कुरसी खींच कर बैठ गई. मुंशीजी खाना खाने चले गए. मेरा चेहरा फिर गंभीर हो गया. वंदना एक अच्छी वकील होने के साथ ही मन की थाह पा लेने वाली कुशाग्रबुद्धि महिला भी है.

‘‘आज फिर किसी केस में उलझ गई हैं श्रीमती सुनंदिता सिन्हा,’’ उस ने प्रश्नसूचक दृष्टि मेरे चेहरे पर टिका दी.

‘‘नहीं तो.’’

‘‘इस ‘नहीं तो’ में कोई दम नहीं है. तुम कोई बात छिपाते वक्त शायद यह भूल जाती हो कि हम पिछले 3 साल से साथ हैं और अच्छी दोस्त भी हैं.’’

मैं उत्तर में केवल मुसकरा दी.

‘‘चलो, चल कर लंच करें, मुझे बहुत भूख लगी है,’’ वंदना बोली.

‘‘नहीं वंदना, यहीं बैठ जाओ. एक दिलचस्प केस पर काम कर रही हूं मैं.’’

‘‘किस केस पर काम चल रहा है भई?’’ वह उतावली हो कर बोली.

मैं उसे नम्रता के बारे में बताने लगी.

‘‘आज नम्रता मेरे पास आई थी. वह सुंदर, मासूम, भोलीभाली, बुद्धिमान युवती है. 4 साल पहले उस की शादी मुकुल दवे के साथ हुई थी. दोनों खुश भी थे. किंतु शादी के तकरीबन 2 साल बाद उस का परिचय एक अन्य लड़की के साथ हुआ. उन दोनों के बारे में नम्रता को कुछ ही दिन पहले पता चला है. मुकुल, जो एक 3 साल के बेटे का पिता है, उस ने गुपचुप ढंग से उस लड़की से 2 साल पहले विवाह कर रखा है. लड़की उसी के महल्ले में रहती थी. अजीब बात है.’’

‘‘ऐसा तो हर रोज कहीं न कहीं होता रहता है. तुम और मैं, वर्षों से देख रहे हैं. इस में अजीब बात क्या है?’’ वंदना बोली.

‘‘अजीब यह है कि लड़की उसी महल्ले में रहती थी, जिस में नम्रता. बल्कि नम्रता उस लड़की को जानती थी. हैरानी तो इस बात की है कि उन दोनों के पास रहते हुए भी वह यह कैसे नहीं जान पाई कि उस के पति के इस औरत के साथ संबंध हैं.’’

वंदना मेरी इस बात पर ठहाका लगा कर हंस पड़ी, ‘‘भई, मुकुल क्या नम्रता को यह बता कर जाता था कि वह फलां लड़की से मिलने जा रहा है और वह उसे रंगे हाथों आ कर पकड़ ले. वैसे नम्रता को उस के बारे में पता कैसे चला?’’

‘‘उस बेचारी को खुद मुकुल ने बताया कि वह उसे तलाक देना चाहता है. नम्रता उसे तलाक देना नहीं चाहती. उस का उस के पति के सिवा इस दुनिया में कोई नहीं है. कोई प्रोफेशनल टे्रनिंग भी नहीं है उस के पास कि वह आत्मनिर्भर हो सके,’’ मैं ने लंबी सांस छोड़ी.

‘‘क्या वह दूसरी औरत छोड़ने के लिए तैयार  होगा? तुम तो जानती हो ऐसे संबंधों को साबित करना कितना कठिन होता है,’’ वंदना घड़ी देख उठती हुई बोली.

‘‘मुश्किल तो है, लेकिन लड़ना तो होगा. साहस से लड़ेंगे तो जरूर जीतेंगे,’’ मेरे चेहरे पर आत्मविश्वास था.

‘‘अच्छा चलती हूं,’’ कह कर वंदना चली गई.

मैं दिन भर कचहरी के कामों में उलझी रही. शाम 5 बजे के लगभग घर लौटी तो शांतनु लौन में मेघा के साथ खेल रहे थे. मेरी गाड़ी घर में दाखिल होते ही मेघा मम्मीमम्मी कह कर मेरी तरफ दौड़ी. मैं मेघा को गोद में उठाने को लपकी. शांतनु हमें देख मंदमंद मुसकरा रहे थे. उन्होंने झट से एक खूबसूरत गुलाब तोड़ कर मेरे बालों में लगा दिया.

‘‘कब आए?’’ मैं ने पूछा.

‘‘आधा घंटा हो गया जनाब,’’ कह कर शांतनु मेरे लिए चाय कप में उड़ेलने लगे.

‘‘अरे अरे, मैं बना लेती हूं.’’

‘‘नहीं, तुम थक कर लौटी हो, तुम्हारे लिए चाय मैं बनाता हूं,’’ वह मुसकरा कर बोले. तभी फोन की घंटी बजी और अंदर चले गए. मैं आंखें मूंदे वहीं कुरसी पर आराम करने लगी.

शांतनु का यही स्नेह, यही प्यार तो मेरे जीवन का सहारा रहा है. घर आते ही शांतनु और मेघा के अथाह प्रेम से दिन भर की थकान सुकून में बदल जाती है. अगर शांतनु का साथ न होता तो शायद मैं कभी भी इतनी कामयाब वकील न होती कि लोग मुझे देख कर रश्क कर सकें.

दिन बीतते गए. यही दिनचर्या, यही क्रम. पता नहीं क्यों मैं नम्रता के केस में अधिक ही दिलचस्पी लेने लगी थी और हर कीमत पर उस के पति को सबक सिखाना चाहती थी, जो अपनी  पत्नी को छोड़ किसी अन्य पर रीझ गया था.

मुझे नम्रता के केस में उलझे हुए लगभग 1 साल बीत गया. दिन भर की व्यस्तता में वंदना की मुसकराहट मानसिक तनाव को कम कर देती थी. उस दिन भी कोर्ट में नम्रता के केस की तारीख थी. मैं जीजान से जुटी थी. आखिर फैसला हो ही गया.

मुकुल दवे सिर झुकाए कोर्ट में खड़ा था. उस ने जज साहब के सामने नम्रता से माफी मांगी और जिंदगी भर उस लड़की से न मिलने का वादा किया. नम्रता की आंखों में खुशी के आंसू थे. मैं भी बहुत खुश थी. घर लौट कर यही खुशखबरी मैं शांतनु को सुनाना चाहती थी.

उस दिन शांतनु पहली बार लौन में नहीं बल्कि अपने कमरे में मेरा इंतजार कर रहे थे. इस से पहले कि मैं कुछ कह पाती वह बोले, ‘‘बैठो सुनंदिता, मुझे तुम से कुछ जरूरी बातें करनी हैं.’’

उन की मुखमुद्रा गंभीर थी. मैं कुरसी खींच कर पास बैठ गई. मैं ने आज तक उन्हें इतना गंभीर नहीं देखा था.

वह बोले, ‘‘हमारी शादी को 6 साल हो गए हैं सुनंदिता और इन 6 सालों में मैं ने यह महसूस किया है कि तुम एक संपूर्ण स्त्री नहीं हो, जो मुझे पूर्णता प्रदान कर सके. तुम में कुछ अधूरा है, जो मुझे पूर्ण होने नहीं देता.’’

मैं अवाक् रह गई. मेरा चेहरा आंसुओं से भीग गया.

वह आगे बोले, ‘‘मुझे तुम से कोई शिकायत नहीं है सुनंदिता. तुम एक चरित्रवान पत्नी, अच्छी मां और अच्छी महिला भी हो. मगर कहीं कुछ है जो नहीं है.’’

शब्द मेरे गले में घुटते चले गए, ‘‘तो इतना बता दो शांतनु, वह कौन  है, जिस के तुम्हारे जीवन में आने से मैं अधूरी लगने लगी हूं?’’

‘‘तुम चाहो तो मेघा को साथ रख सकती हो. उसे मां की जरूरत है.’’

‘‘मुझे मेरे प्रश्न का उत्तर दो, शांतनु, कौन है वह?’’

वह खिड़की के पास जा कर खड़े हो गए और अचानक बोले, ‘‘वंदना.’’

मुझ पर वज्रपात हुआ.

‘‘हां, एडवोकेट वंदना प्रधान.’’

मैं बेजान हो गई. यहां तक कि एक सिसकी भी नहीं ले सकी. जी चाह रहा था कि पूछूं, कब मिलते थे वंदना से और कहां? सारा दिन तो वह कोर्ट में मेरे साथ रहा करती थी. तभी वंदना के वे शब्द मेरे कानों में गूंज उठे, ‘क्या मुकुल नम्रता को बता कर जाता होगा कि कब मिलता है उस पराई स्त्री से. ऐसा तो रोज ही होता है.’

‘मैं नम्रता से कहा करती थी कि कैसी बेवकूफ स्त्री हो तुम नम्रता, पति के हावभाव, उठनेबैठने, बोलनेचालने से तुम इतना भी अंदाजा नहीं लगा सकीं कि उस के दिल में क्या है.’ मैं खुद भी तो ऐसा नहीं कर पाई.

मैं ने कस कर अपने कानों पर हाथ टिका लिए. जल्दीजल्दी सामान अपने सूटकेस में भरने लगी. शांतनु जड़वत खड़े रहे. मैं मेघा की उंगली थामे गेट से बाहर निकल आई.

अगले दिन मैं कोर्ट नहीं गई. दिमाग पर बारबार अपने ही शब्द प्रहार कर रहे थे, ‘एक महल्ले में रह कर भी नम्रता कुछ न जान पाई’ और मैं दिन में वंदना और शाम को शांतनु इन दोनों के बीच में ही झूलती रही थी फिर भी…गिला करती तो किस से. पराया ही कौन था और अपना ही कौन निकला. एक पल को मन चाहा कि मुकुल की तरह शांतनु भी हाथ जोड़ कर माफी मांग ले. लेकिन दूसरे ही पल शांतनु का चेहरा खयालों में उभर आया. मन वितृष्णा से भर उठा. मैं शायद उसे कभी माफ न कर सकूं?

मैं नम्रता नहीं हूं. अगले दिन मुंशी जी टाइपराइटर ले कर बैठे और बोले, ‘‘जी, मैडम, लिखवाइए.’’

‘‘लिखिए मुंशीजी, डिस्साल्यूशन आफ मैरिज बाई डिक्री ओफ डिवोर्स सुनंदिता सिन्हा वर्सिज शांतनु सिन्हा,’’ टाइपराइटर की टिकटिक का स्वर लगातार ऊंचा हो रहा था.

चिराग : करुणा को क्यों बहू नहीं मान पाए अम्मा और बापूजी

कानपुर रेलवे स्टेशन पर परिवार के सभी लोग मुझ को विदा करने आए थे, मां, पिताजी और तीनों भाई, भाभियां. सब की आंखोें में आंसू थे. पिताजी और मां हमेशा की तरह बेहद उदास थे कि उन की पहली संतान और अकेली पुत्री पता नहीं कब उन से फिर मिलेगी. मुझे इस बार भारत में अकेले ही आना पड़ा. बच्चों की छुट्टियां नहीं थीं. वे तीनों अब कालेज जाने लगे थे. जब स्कूल जाते थे तो उन को बहलाफुसला कर भारत ले आती थी. लेकिन अब वे अपनी मरजी के मालिक थे. हां, इन का आने का काफी मन था परंतु तीनों बच्चों के ऊपर घर छोड़ कर भी तो नहीं आया जा सकता था. इस बार पूरे 3 महीने भारत में रही. 2 महीने कानपुर में मायके में बिताए और 1 महीना ससुराल में अम्मा व बाबूजी के साथ.

मैं सब से गले मिली. ट्रेन चलने में अब कुछ मिनट ही शेष रह गए थे. पिताजी ने कहा, ‘‘बेटी, चढ़ जाओ डब्बे में. पहुंचते ही फोन करना.’’ पता नहीं क्यों मेरा मन टूटने सा लगा. डब्बे के दरवाजे पर जातेजाते कदम वापस मुड़ गए. मैं मां और पिताजी से चिपट गई. गाड़ी चल दी. सब लोग हाथ हिला रहे थे. मेरी आंखें तो बस मां और पिताजी पर ही केंद्रित थीं. कुछ देर में सब ओझल हो गए. डब्बे के शौचालय में जा कर मैं ने मुंह धोया. रोने से आंखें लाल हो गई थीं. वापस आ कर अपनी सीट पर बैठ गई. मेरे सामने 3 यात्री बैठे थे, पतिपत्नी और उन का 10-11 वर्षीय बेटा. लड़का और उस के पिता खिड़की वाली सीटों पर विराजमान थे. हम दोनों महिलाएं आमनेसामने थीं, अपनीअपनी दुनिया में खोई हुईं.

‘‘आप दिल्ली में रहती हैं क्या?’’ उस महिला ने पूछा.

‘‘नहीं, लंदन में रहती हूं. दिल्ली में मेरी ससुराल है. यहां पीहर में इतने सारे लोग हैं, इसलिए बहुत अच्छा लगता है. दिल्ली में सासससुर के साथ रहने का मन तो बहुत करता है पर वक्त काटे नहीं कटता. वहां बस खरीदारी में ही समय खराब करती रहती हूं,’’ अब मेरा मन कुछ हलका हो गया था, ‘‘आप मुझे आशा कह कर पुकार सकती हैं,’’ मैं ने अपना नाम भी बता दिया.

‘‘मेरा नाम करुणा है और यह है हमारा बेटा राकेश, और ये हैं मेरे पति सोमेश्वर.’’ करुणा के पति ने हाथ जोड़ कर नमस्कार किया. राकेश अपनी मां के कहने पर नमस्ते के बजाय केवल मुसकरा दिया. लेकिन सोमेश्वर ने नमस्ते के बाद उस से आगे बात करने में दिलचस्पी नहीं दिखाई. मैं ने अनुमान लगाया कि शायद वे दक्षिण के थे. करुणा और मैं तो हिंदी में ही बातें कर रही थीं. शायद सोमेश्वर को हिंदी में बातें करने में परेशानी महसूस होती थी, इसलिए वे चुप ही रहे. ‘‘गाड़ी दिल्ली कब तक पहुंचेगी?’’ मैं ने पूछा, ‘‘वैसे पहुंचने का समय तो दोपहर के 3 बजे का है. अभी तक तो समय पर चल रही है शायद?’’ ‘‘यह गाड़ी आगरा के बाद मालगाड़ी हो जाती है. वहां से इस का कोई भरोसा नहीं. हम तो साल में 3-4 बार दिल्ली और कानपुर के बीच आतेजाते हैं, इसलिए इस गाड़ी की नसनस से वाकिफ हैं,’’ करुणा बोली, ‘‘शायद 5 बजे तक पहुंच जाएगी. आप दिल्ली में कहां जाएंगी?’’

‘‘करोलबाग,’’ मैं बोली.

‘‘आप को स्टेशन पर कोई लेने आएगा?’’ करुणा ने पूछा, ‘‘हमें तो टैक्सी करनी पड़ेगी, हम छोड़ आएंगे आप को करोलबाग, अगर कोई लेने नहीं आया तो…’’ ‘‘मुझे लेने कौन आएगा. बेचारे सासससुर के बस का यह सब कहां है,’’ मैं ने संक्षिप्त उत्तर दिया. सोमेश्वर ने अंगरेजी में कहा, ‘‘आप फिक्र न कीजिए, हम छोड़ आएंगे.’’

‘‘हम तो हौजखास में रहते हैं. कभी समय मिला तो आप से मिलने आऊंगी,’’ करुणा बोली. न जाने क्यों वह मुझे बहुत ही अच्छी लगी. ऐसे लगा जैसे बिलकुल अपने घर की ही सदस्य हो. ‘‘हांहां, जरूर आ जाना…परसों तो इंदू भी आ जाएगी. हम तीनों मिल कर खरीदारी करेंगी.’’ करुणा की आंखों में प्रश्न तैरता देख कर मैं ने कहा, ‘‘इंदू मेरी ननद है. मेरे पति से छोटी है. कलकत्ता में रहती है.’’

‘‘कहीं इंदू के पति का नाम वीरेश तो नहीं?’’ करुणा जल्दी से बोली.

‘‘हांहां, वही…तुम कैसे जानती हो उसे?’’ मैं उत्साह से बोली. अचानक शायद कोई धूल का कण सोमेश्वर की आंखों में आ गया. उस ने तुरंत चश्मा उतार लिया और आंख रगड़ने लगा.

करुणा बोली, ‘‘आप से कितनी बार कहा है कि खिड़की के पास वाली सीट पर मत बैठिए. खुद बैठते हैं, साथ ही राकेश को भी बिठाते हैं. अब जाइए, जा कर आंखों में पानी के छींटे डालिए.’’ सोमेश्वर सीट से उठ खड़ा हुआ. उस के जाने के बाद करुणा ने राकेश को पति की सीट पर बैठने को कहा और खुद मेरे पास आ कर बैठ गई.

‘‘आशाजी, आप मुझे नहीं पहचानतीं, मैं वही करुणा हूं जिस की शादी हरीश से हुई थी.’’

‘‘अरे, तुम हो करुणा?’’ मेरे मुंह से चीख सी निकल गई. करुणा ने मेरी ओर देखा फिर राकेश को देखा. वह अपने में मस्त बाहर खिड़की के नजारे देख रहा था. करुणा का नाम लेना भी हमारे घर में मना था. हम सब के लिए तो वह मर गई थी. मेरे देवर से उस की शादी हुई थी, 12 वर्ष पहले. शादी अचानक ही तय हो गई थी. हरीश 2 वर्ष के लिए रूस जा रहा था, प्रशिक्षण के लिए. साथ में पत्नी को ले जाने का भी खर्चा मिल रहा था.अम्मा और बाबूजी तो हमारे आए बिना शादी करने के पक्ष में नहीं थे. इन का औ?परेशन हुआ था, डाक्टरों ने मना कर दिया था यात्रा पर जाने के लिए, इसलिए हम में से तो कोई आ नहीं पाया था. शादी के कुछ दिनों बाद हरीश और करुणा रूस चले गए. लेकिन 2 महीने के भीतर ही हरीश की कार दुर्घटना में मृत्यु हो गई. मेरे पति लंदन से मास्को गए थे हरीश का अंतिम संस्कार करने. बेचारी करुणा भी भारत लौट गई. दुलहन के रूप में भारत से विदा हुई थी और विधवा के रूप में लौटी थी.

अम्मा और बाबूजी के ऊपर तो दुख का पहाड़ टूट पड़ा था. उन का बेटा भरी जवानी में ही उन को छोड़ कर चला गया था. वे करुणा को अपने पास रखना चाहते थे, लेकिन वह नागपुर अपने मातापिता के पास चली गई. कभीकभार करुणा के पिता ही बाबूजी को पत्र लिख दिया करते थे. अम्मा और बाबूजी की खुशी की सीमा नहीं रही, जब उन्हें पता चला कि उन के बेटे की संतान करुणा की कोख में पनप रही है. कुछ महीनों बाद करुणा के पिता ने पत्र द्वारा बाबूजी को उन के पोते के जन्म की सूचना दी. अम्मा और बाबूजी तो खुशी से पागल ही हो गए. दोनों भागेभागे नागपुर गए, अपने पोते को देखने. लेकिन वहां पहुंचने पर पता चला कि करुणा ने बेटे को जन्म अपने पीहर में नहीं बल्कि अपने दूसरे पति के यहां बंबई में दिया था. दोनों तुरंत नागपुर से लौट आए. बाद में करुणा के 1 या 2 पत्र भी आए, परंतु अम्मा और बाबूजी ने हमेशाहमेशा के लिए उस से रिश्ता तोड़ लिया. हरीश की मृत्यु के बाद इतनी जल्दी करुणा ने दूसरी शादी कर ली, इस बात के लिए वे उसे क्षमा नहीं कर पाए. जब उन्हें इस बात का पता चला कि करुणा का दूसरा पति उस समय मास्को में ही था, जब हरीश और करुणा वहां थे तो अम्माबाबूजी को यह शक होने लगा कि क्या पता करुणा के पहले से ही कुछ नाजायज ताल्लुकात रहे हों. क्या पता यह संतान हरीश की है या करुणा के दूसरे पति की? कहीं जायदाद में अपने बेटे को हिस्सा दिलाने के खयाल से इस संतान को हरीश की कह कर ठगने तो नहीं जा रही थी करुणा? ‘‘राकेश एकदम हरीश पर गया है. एक बार अम्माबाबूजी इस को देख लें तो सबकुछ भूल जाएंगे,’’ मुझ से रहा न गया. ‘‘भाभीजी, आप ने मेरे मुंह की बात कह दी. यह बात कहने को मैं बरसों से तरस रही थी लेकिन किस से कहती. बेचारा सोमेश्वर तो राकेश को ही अपना बेटा मानता है. शायद हरीश भी कभी राकेश से इतना प्यार नहीं कर पाता जितना सोमेश्वर करता है.’’

करुणा ने बात बीच में ही रोक दी. सोमेश्वर लौट आया था. उस के बैठने से पहले ही राकेश उठ खड़ा हुआ, ‘‘चलिए पिताजी, भोजनकक्ष में. कुछ खाने को बड़ा मन कर रहा है.’’ सोमेश्वर का मन तो नहीं था, परंतु करुणा द्वारा इशारा करने पर वह चला गया. उन के जाने पर करुणा ने चैन की सांस ली. हम दोनों चुप थीं. समझ में नहीं आ रहा था कि क्या बात करें. ‘‘करुणा, अम्मा और बाबूजी को बहुत बुरा लगा था कि तुम ने हरीश की मृत्यु के बाद इतनी जल्दी दूसरी शादी कर ली,’’ मैं ने चुप्पी तोड़ने के विचार से कहा. शायद करुणा को इस प्रश्न का एहसास था. वह धीरे से बोली, ‘‘क्या करती भाभीजी, सोमेश्वर हमारे फ्लैट के पास ही रहता था. वह उन दिनों बंबई की आईआईटी में वापस जाने की तैयारी कर रहा था. उस ने हरीश की काफी मदद की थी. हर शनिवार को वह हमारे ही यहां शाम का खाना खाने आ जाया करता था. जिस कार दुर्घटना में हरीश की मृत्यु हुई थी, उस में सोमेश्वर भी सवार था. संयोग से यह बच गया.

‘‘भाई साहब तो हरीश का अंतिम संस्कार कर के तुरंत लंदन वापस चले गए थे परंतु मैं वहां का सब काम निबटा कर एक हफ्ते बाद ही आ पाई थी. सोमेश्वर भी उसी हवाई उड़ान से मास्को से दिल्ली आया था. वह अम्मा और बाबूजी का दिल्ली का पता और हमारे घर का नागपुर का पता मुझ से ले गया,’’ कहतेकहते करुणा चुप हो गई. ‘‘तुम दिल्ली भी केवल एक हफ्ता ही रहीं और नागपुर चली गईं?’’ मैं ने पूछा.‘‘क्या करती भाभी, सोमेश्वर दिल्ली से सीधा नागपुर गया था, मेरे मातापिता से मिलने. उस से मिलने के बाद उन्होंने तुरंत मुझे नागपुर बुला भेजा, भैया को भेज कर. फिर जल्दी ही सोमेश्वर से मेरी सिविल मैरिज हो गई,’’ करुणा की आंखों में आंसू भर आए थे. ‘‘तुम ने सोमेश्वर से शादी कर के अच्छा ही किया. राकेश को पिता मिल गया और तुम्हें पति का प्यार. तुम्हारे कोई और बालबच्चा नहीं हुआ?’’

‘‘भाभीजी, राकेश के बाद हमारे जीवन में अब कोई संतान नहीं होने वाली. कानूनी तौर पर राकेश सोमेश्वर का ही बेटा है. सोमेश्वर ने तो मुझ को पहले ही बता दिया था कि युवावस्था में एक दुर्घटना के कारण वह संतानोत्पत्ति में असमर्थ हो गया था. मेरे मातापिता ने यही सोचा कि इस समय उचितअनुचित का सोच कर अगर समय गंवाया तो चाहे उन की बेटी को दूसरा पति मिल जाएगा, परंतु उन के नवासे को पिता नहीं मिलने वाला. मैं शादी के बाद बंबई में रहने लगी. जब राकेश हुआ तो किसी को तनिक भी संदेह नहीं हुआ.’’ वर्षों से करुणा के बारे में हम लोगों ने क्याक्या बातें सोच रखी थीं. अम्मा और बाबूजी तो उस का नाम आते ही क्रोध से कांपने लगते थे. परंतु अब सब बातें साफ हो गई थीं. बेचारी शादी के बाद कितनी जल्दी विधवा हो गई थी. पेट में बच्चा था. फिर एक सहारा नजर आया, जो उस की जीवननैया को दुनिया के थपेड़ों से बचाना चाहता था. ऐसे में कैसे उस सहारे को छोड़ देती? अपने भविष्य को, अपनी होने वाली संतान के भविष्य को किस के भरोसे छोड़ देती? मैं ने करुणा के सिर पर हाथ रख दिया. वह मेरी ओर स्नेह से देखने लगी. अचानक वह झुकी और मेरे पांवों को हाथ लगाने लगी, ‘‘आप तो रिश्ते में मेरी जेठानी लगती हैं. आप के पांव छूने का अवसर फिर पता नहीं कभी मिलेगा या नहीं.’’

मैं ने उस को अपने पांवों को छूने दिया. चाहे अम्मा और बाबूजी ने करुणा को अपनी पुत्रवधू के रूप में अस्वीकार कर दिया था, परंतु मुझे अब वह अपनी देवरानी ही लगी. कुछ ही देर में सोमेश्वर और राकेश लौट आए. भोजनकक्ष से काफी सारा खाने का सामान लाए थे. हम सभी मिलजुल कर खाने लगे. दिल्ली जंक्शन आ गया. सामान उठाने के लिए 2 कुली किए गए. सोमेश्वर ने मुझे कुली को पैसे देने नहीं दिए. टैक्सी में सोमेश्वर आगे ड्राइवर के साथ बैठा था. मैं, करुणा और राकेश पीछे बैठे थे. कुछ ही देर बाद हमारा घर आ गया. सोमेश्वर डिक्की से मेरा सामान निकालने लगा. ‘‘बेटा, ताईजी को नमस्ते करो, पांव छुओ इन के,’’ करुणा ने कहा तो राकेश ने आज्ञाकारी पुत्र की तरह पहले हाथ जोड़े फिर मेरे पांव छुए. मैं ने उन दोनों को सीने से लगा लिया. सोमेश्वर ने मेरा सामान उठा कर बरामदे में रख कर घंटी बजाई. मैं ने करुणा और राकेश से विदा ली. चलतेचलते मैं ने 100 रुपए का 1 नोट राकेश की जेब में डाल दिया. अम्मा और बाबूजी तो मेरी ही प्रतीक्षा कर रहे थे, तुरंत दरवाजा खोल दिया. मेरे साथ सोमेश्वर को देख कर तनिक चौंके, परंतु मैं ने कह दिया, ‘‘अम्माजी, ये अपनी टैक्सी में मुझे साथ लाए थे, कार में इन की पत्नी और बेटा भी हैं.’’

‘‘चाय वगैरा पी कर जाइएगा,’’ बाबूजी ने आग्रह किया.

‘‘नहीं, अब चलता हूं,’’ सोमेश्वर ने हाथ जोड़ दिए. अम्मा और बाबूजी मुझ को घेर कर बैठ गए. वे सवाल पर सवाल किए जा रहे थे, सफर के बारे में, मेरे पीहर के बारे में परंतु मेरा मन तो कहीं और भटक रहा था. लेकिन उन से क्या कहती.

मैं कहना तो चाहती थी कि आप यह सब मुझ से क्यों पूछ रहे हैं? अगर कुछ पूछना ही चाहते हैं तो पूछिए कि वह आदमी कौन था, जो यहां तक मुझे टैक्सी में छोड़ गया था? टैक्सी में बैठी उस की पत्नी और पुत्र कौन थे? शायद मैं साहस कर के उन को बता भी देती कि उन के खानदान का एक चिराग कुछ क्षण पहले उन के घर की देहरी तक आ कर लौट गया है. वे दोनों रात के अंधेरे में उसे नहीं देख पाए थे. शायद देख पाते तो उस में उन्हें अपने दिवंगत पुत्र की छवि नजर आए बिना नहीं रहती.

परिवार: क्या हुआ था सत्यदेव के साथ

कहानी- संजय दुबे

सत्यदेव का परिवार इन दिनों सफलता की ऊंचाइयां छू रहा था. बड़ा बेटा लोक निर्माण विभाग में जूनियर इंजीनियर, मझला बेटा बिल्डर और छोटा बेटा अपने बड़े भाइयों का सहयोगी. लगातार पैसे की आवक से सत्यदेव के परिवार के लोगों के रहनसहन में भी आश्चर्यजनक ढंग से बदलाव आया था. केवल 3 साल पहले सत्यदेव का परिवार सामान्य खातापीता परिवार था. बड़ा बेटा समीर प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में लगा था तो मझला बेटा सुजय, एक बिल्डर के यहां सुपरवाइजर बन कर ढाई हजार रुपये की नौकरी करता था. छोटा बेटा संदीप कालिज की पढ़ाई पूरी करने में लगा था. सत्यदेव सरकारी विभाग में अकाउंटेंट के पद से रिटायर हुए थे. उन्होंने अपने जीवन के पूरे सेवाकाल में कभी रिश्वत नहीं ली थी इस कारण उन्हें अपनी ईमानदारी पर गुमान था.

2 साल के अंतराल में समीर लोक निर्माण विभाग में जूनियर इंजीनियर बन गया तो सुजय बैंक वालों की मदद से कालोनाइजर बन गया. उधर संदीप का बतौर कांटे्रक्टर पंजीयन करा कर समीर उस के नाम से अपने विभाग में ठेके ले कर भ्रष्टाचार से रकम बटोरने लगा. उधर कालोनाइजिंग के बाजार में एडवांस बुकिंग कराने वालों में सुजय ने अपनी इमेज बनाई तो घर में पैसा बरसने लगा.

पैसा आया तो दिखा भी. पहले घर फिर कार और फिर ऐशोआराम के साधन जुटने लगे. सत्यदेव अपने परिवार की समाज में बढ़ती प्रतिष्ठा को देख फूले नहीं समाते. दोनों बेटों, समीर व सुजय का विवाह भी उन्होंने हैसियत वाले परिवारों में किया था. संयुक्त परिवार में 2 बहुओं के आने के बावजूद एकता बनी रही तो कारण दोनों भाइयों की समझबूझ थी.

शाम के समय सत्यदेव पार्क मेें अपने दोस्तों के साथ बैठे राजनीतिक चर्चा में मशगूल थे तभी बद्रीप्रसाद ने कहा, ‘‘आजकल आप के बेटों की चर्चा बहुत हो रही है सत्यदेवजी, आप को पता है कि नहीं?’’

सत्यदेव ने तुनक कर कहा, ‘‘चलो, मुझे पता नहीं तो अब आप ही बता दो.’’

‘‘अरे, आजकल आप के बड़े बेटे द्वारा घटिया सामग्री से बनवाई सड़क की खूब चर्चा है. लोक निर्माण मंत्री दौरे पर आए थे तो जांच के आदेश दे कर गए हैं.’’

‘‘मेरा बेटा ऐसा नहीं कर सकता है,’’ सत्यदेव ने नाराजगी जाहिर की, ‘‘वह मेहनती है इसलिए लोग उस से जलते हैं.’’

‘‘सत्यदेवजी, बड़े मियां तो बड़े मियां छोटे मियां सुभान अल्लाह,’’ ओंकारनाथ बोले, ‘‘कल कुछ लोग कलेक्टर के पास आप के मझले बेटे की शिकायत ले कर गए थे. जनाब ने एक प्लाट को 2 लोगों को बेच दिया है.’’

‘‘ओंकारनाथजी, मेरे परिवार की तरक्की लोगों के गले से नीचे नहीं उतर रही है, इस कारण कुछ लोग फुजूल की बातें करते रहते हैं,’’ यह कहते हुए सत्यदेव पैर पटकते घर की ओर चल पड़े.

रात के 9 बज रहे थे. शाम को हुई बातों से सत्यदेव का मन खिन्न था. बड़ा बेटा समीर मोटरसाइकिल से आया और उसे खड़ा कर घर के भीतर जाने लगा तो सत्यदेव बोले, ‘‘बेटा, 5 मिनट तुम से अकेले में बात करनी है.’’

‘‘हांहां, क्यों नहीं. कहिए, बाबूजी.’’

‘‘बेटा, आज पार्क में बद्रीप्रसाद बता रहा था कि तुम ने जो सड़क बनवाई है उस की जांच तुम्हारे विभाग के मंत्री ने की है.’’

‘‘यह सच है बाबूजी. मैं सर्किट हाउस से ही लौट कर आ रहा हूं. मुझे मैनेज करना पडे़गा. मैं सर्किट हाउस फिर जा रहा हूं क्योंकि रात 12 बजे मंत्रीजी ने मिलने के लिए कहा है.’’

‘‘इतनी रात को क्यों बुलाया है?’’

‘‘बाबूजी, आप परेशान मत हों. अच्छा, मैं चलता हूं.’’

सत्यदेव फिर घूमने लगे. थोड़ी देर बाद सुजय कार से घर पहुंचा और तेजी से अंदर जाने लगा.

सत्यदेव, सुजय के पीछेपीछे अंदर आए तो देखा वह कहीं फ ोन कर रहा था.

‘‘हैलो कलेक्टर साहब…सर, आप से मिलना था. जी सर…जी सर….थैंक्यू वेरीमच.’’

सुजय ने फोन रखा तो सामने सत्यदेव खड़े थे.

‘‘बेटा, बिल्डिंग के काम में कलेक्टर क्या करते हैं?’’

‘‘बाबूजी, कुछ लोग कलेक्टर के पास मेरी शिकायत ले कर गए थे…’’

सत्यदेव ने बेटे की बात को बीच में काट कर कहा, ‘‘एक जमीन को 2 लोगों के नाम रजिस्ट्री की बात को ले कर?’’

‘‘हां, पर आप को कैसे पता चला, बाबूजी? खैर, मैं मैनेज कर लूंगा,’’ कह कर सुजय अंदर चला गया.

‘क्या बात है, समीर भी कहता है मंत्री को मैनेज कर लेगा. सुजय भी कलेक्टर को मैनेज कर लेगा,’ सत्यदेव मन ही मन विचार करने लगे.

थोड़ी देर बाद सत्यदेव ने देखा कि समीर एक छोटा ब्रीफकेस ले कर निकला. 10 मिनट बाद सुजय भी एक ब्रीफकेस ले कर जाते दिखा.

‘लगता है, बद्रीप्रसाद और ओंकार नाथ ठीक बोल रहे थे,’ सत्यदेव मन ही मन बुदबुदाए.

रात के 3 बज रहे थे. सत्यदेव के कान मोटरसाइकिल और कार की आवाज सुनने के लिए बेचैन थे. अचानक जीप रुकने की आवाज आई. उन्होंने लपक कर दरवाजा खोला. सामने पुलिस इंस्पेक्टर और 4 सिपाहियों के साथ सुजय खड़ा था.

‘‘बेटा सुजय, यह सब क्या है?’’

‘‘मैं बताता हूं आप को,’’ इंस्पेक्टर ने कहा, ‘‘जनाब ने एक एडिशनल कलेक्टर को प्लाट बेचा था. एक सप्ताह पहले वह अपना प्लाट देखने गए तो वहां किसी और का मकान बन रहा था. उन्होंने अपने कलेक्टर मित्र को खबर कर दी. यह जनाब कलेक्टर को रिश्वत देने चले थे. रंगेहाथ पकड़े गए हैं. यह रहा सर्च वारंट और हमें अब आप के घर की तलाशी लेनी है,’’ कहते हुए इंस्पेक्टर और चारों सिपाही घर में घुस कर तलाशी लेने लगे.

‘‘बाबूजी, मुझे बचा लीजिए.’’

‘‘सुजय, यह गलत काम करने की जरूरत क्या थी?’’

‘‘बाबूजी, गलती तो हो गई है. आप समीर को बुलाइए, उस की बहुत जानपहचान है. वह सबकुछ कर सकता है.’’

सत्यदेव ने समीर को फोन कर शीघ्र घर आने को कहा.

थोड़ी ही देर में समीर घर पहुंच गया. सत्यदेव ने पुलिस के घर में होने की जानकारी दी.

‘‘बाबूजी, इंस्पेक्टर साहब कहां हैं?’’

‘‘अंदर हैं बेटा.’’

समीर अंदर दाखिल हुआ. इंस्पेक्टर को देख कर बोला, ‘‘एक्सक्यूज मी, सर, मैं समीर, सुजय का बड़ा भाई. आप से कुछ कहना है.’’

‘‘क्या घूस देना चाहते हो? एक भाई तो इसी में पकड़ा गया है. चले थे कलेक्टर को रिश्वत देने.’’

‘‘सर, जमाना ही ऐसा है. हम गलती मान रहे हैं. आप कोई रास्ता तो बताइए.’’

‘‘काफी समझदार हो. देखो दोस्त, सर्च में कमी कर देंगे. उस का अलग लेंगे. आप के भाई को जमानत कोर्ट से मिलेगी. इस काम के लिए 2 पेटी लगेंगी.’’

‘‘2 मिनट रुकिए.’’

‘‘सुनो मिस्टर, 2 मिनट से ज्यादा नहीं, समझे,’’ इंस्पेक्टर ने अकड़ दिखाई.

समीर ने कमरे से बाहर आ कर सुजय को बताया, ‘‘सुजय, इंस्पेक्टर 2 पेटी जांच न करने की मांग रहा है. बाकी तुम्हारी जमानत कोर्ट से होगी.’’

‘‘मेरे को बचाने के लिए भी पूछ. रास्ता बता दे तो एक पेटी और दे देंगे.’’

सत्यदेव दोनों बेटों की बात सुन रहे थे. वह भयभीत और सशंकित थे. तभी दोनों बहुएं और बच्चे भी उठ कर ड्राइंगरूम में आ गए. तभी समीर उठ कर अंदर गया.

‘‘सर, पैसा तैयार है, कहां लेंगे?’’

‘‘कल बताऊंगा. और हां, सुनो, इस घर के कागजात और पैसे आधे घंटे में कहीं और भेज दो, समझे.’’

‘‘सर, सुजय मेरा छोटा भाई है. उस को गिरफ्तार नहीं करते तो…’’

‘‘देखो भाई, उस के खिलाफ तो कलेक्टर गवाह है. उसे जमानत कोर्ट से ही मिलेगी.’’

‘‘सर, बहुत बदनामी होगी. कैसे भी कुछ कीजिए.’’

‘‘आप बिलकुल भोले हैं. आप के भाई को अब 10-20 लाख रुपए भी छुड़ा नहीं सकते.’’

‘‘हां, एक रास्ता मैं बताता हूं. जमानत कराने के लिए जज को मैनेज कर लो. रामधन गुप्ता एडवोकेट हैं. सुबह बात कर लो. सुनो, घर से बाहर के 2 लोगों को बुलाइए, पंचनामा बनाना है.’’

कागजी काररवाई कर पुलिस सुजय को ले कर चली गई. समीर भी उन के साथ चला गया.

सत्यदेव धम्म से सोफे पर बैठ गए. आंखें जो अब तक नम थीं वे बह निकलीं. आंखों के सामने लाचार सुजय का चेहरा घूम गया.

रश्मि, सत्यदेव के बाजू में सिसक रही थी. बड़ी बहू उसे ढाढ़स बंधा रही थी.

सत्यदेव की समझ में नहीं आ रहा था कि कल सुबह किस मुंह से लोगों के सामने जाएंगे. सुबह होते ही यह बात सब जगह फैलेगी. महल्ले के लोग मजे लेने आएंगे.

‘‘रश्मि बेटा और सुजाता, तुम दोनों बच्चों को ले कर सुबह होने से पहले अपनेअपने मायके चली जाओ. जैसे ही सबकुछ ठीक होगा वापस आ जाना.’’

‘‘बाबूजी, इस मुसीबत में मैं मायके चली जाऊं, खबर तो वहां भी पहुंचेगी,’’ रश्मि ने परेशानी के साथ कहा, ‘‘बाबूजी, जब पैसा आ रहा था तो सब को अच्छा लग रहा था, अब परेशानी आई है तो यहीं रह कर झेलेंगे.’’

‘‘ठीक है, जाओ, बच्चों को सुला दो. हां, इन्हें कल स्कूल मत भेजना, समझी.’’

सुबह की पहली किरन फूटी तो पैर में चप्पल डाल कर सत्यदेव, सोमनाथ वकील के यहां चल पड़े. दरवाजे पर पहुंच कर कालबेल दबाई तो अंदर से आवाज आई, ‘‘ठहरो, भगोना ले कर आ रही हूं.’’

दरवाजा खुला. सामने सत्यदेव को खड़ा देख कर मिसेज सोमनाथ झेंप गईं.

‘‘दरअसल, भाई साहब, दूध वाला इसी समय आता है. माफ करेंगे, मैं इन को बुलाती हूं.’’

अंदर से अधिवक्ता सोमनाथ बाहर आए.

‘‘अरे, सत्यदेव, इतनी सुबहसुबह. क्या कोई खास बात है?’’

‘‘हां, आफिस खोलो. वहीं बताता हूं.’’

सोमनाथ ने आफिस खोला. सत्यदेव आफिस के सोफे पर धम्म से बैठ गए. उन के माथे पर पसीने की बूंदें उभर आईं.

‘‘क्या बात है, सत्यदेव, बहुत घबराए हुए हो?’’

‘‘सोमनाथ, मेरे बेटे सुजय को बचा लो. मैं तुम्हारे पैर पड़ता हूं,’’ इतना कह कर सत्यदेव ने एक सांस में रात की सारी बातें बता दीं. फिर बोले, ‘‘सोमनाथ, इंस्पेक्टर बता रहा था कि कोई रामधन गुप्ता वकील हैं, वही जज को मैनेज कर सकते हैं.’’

‘‘सत्यदेव, यह सब फालतू की बात है. फिर भी अगर वह मैनेज कर लेता है तो अच्छा ही है. हां, उस से अगर काम नहीं होता है तो जेल में डाक्टर किशोर मेरा भतीजा है. उसे कह कर सुजय को अस्पताल में 2 दिन के लिए शिफ्ट कराने की कोशिश करेंगे, और सोमवार को तो तुम्हारे बेटे की जमानत हो ही जाएगी. ऐसा मैं कर सकता हूं. तुम रामधन गुप्ता के यहां जाओ.’’

‘‘कहां रहते हैं वह?’’

‘‘शंकर टावर के फ्लैट नं. 117 में.’’

‘‘ठीक है. मैं वहां काम होने के बाद तुम्हें फोन करता हूं.’’

सत्यदेव आटो से जब रामधन के घर पहुंचे तो वहां की भीड़ देख कर वह हतप्रभ रह गए. आफिस में घुसने लगे तो सामने बैठे व्यक्ति ने उन्हें रोक कर पूछ लिया, ‘‘क्या अपाइंटमेंट है?’’

‘‘नहीं, मुझे इंस्पेक्टर घोरपड़े ने भेजा है.’’

‘‘अरे, तब तो आप खास व्यक्तियों में हैं. आप बस, मेरे पीछेपीछे चले आइए.’’

सत्यदेव उस आदमी के साथ पिछले दरवाजे से एक सुसज्जित ड्राइंगरूम में दाखिल हुए.

‘‘आप बैठिए. रामधनजी आधे घंटे में यहां आएंगे.’’

सत्यदेव कुरसी पर बैठ गए. आंखें बंद कीं तो रात की घटनाएं किसी चलचित्र की तरह उन की आंखों के सामने घूमती रहीं और उन से भयभीत हो कर उन्होंने जब आंखें खोलीं तो सामने काले कपड़ों में कोई वकील खड़ा था.

‘‘आप मिस्टर सत्यदेवजी. हैलो, मैं रामधन गुप्ता. इंस्पेक्टर घोरपड़े का फोन मेरे पास आया था. देखिए, जमानत के लिए 1 लाख रुपए एडवांस लेता हूं. लोवर कोर्ट से साढ़े 12 बजे जमानत रद्द होगी. सी.जी.एम. के यहां प्रार्थनापत्र लगाएंगे और शाम 7 बजे तक आप का बेटा आप के घर. मंजूर है?’’

‘‘काम नहीं हुआ तो?’’ सत्यदेव बोले.

‘‘रुपए 25 हजार काट कर रकम वापस, क्योंकि कभीकभी जज का मूड ठीक नहीं होता.’’

सत्यदेव ने तुरंत समीर को फोन लगाया.

‘‘हैलो समीर, मैं बाबूजी.’’

‘‘बाबूजी, आप हैं कहां? मैं कब से आप को खोज रहा हूं.’’

‘‘बेटा, मैं रामधन वकील साहब के यहां से बोल रहा हूं. इंस्पेक्टर साहब ने इन से मिलने के लिए कहा था न. बेटा, एक लाख रुपए एडवांस मांग रहे हैं. यदि काम नहीं हुआ तो 25 हजार रुपए काट कर 75 हजार रुपए वापस करेंगे.’’

‘‘बाबूजी, आप उन को बताइए कि मैं रकम ले कर आ रहा हूं,’’ समीर ने कहा और फोन कट गया.

सत्यदेव ने रामधन वकील को बताया कि मेरा बेटा रकम ले कर आ रहा है.

‘‘ठीक है, तो आप वकालतनामे पर दस्तखत कर दीजिए. आप के बेटे के आने तक पेपर तैयार हो जाएंगे. आप के लिए चाय भेजता हूं. परेशान मत होइए.’’

सत्यदेव कमरे में अकेले रह गए.

क्या जमाना आ गया है. यहां तो न्याय भी बिकने के लिए तैयार है. पैसा पानी हो गया है. इंस्पेक्टर 2 लाख, जज 1 लाख.

समीर ब्रीफकेस ले कर अंदर दाखिल हुआ तो सत्यदेव को खामोश आंखें बंद किए कुरसी पर बैठा पाया. सामने रखी चाय ठंडी हो गई थी.

तभी रामधन भी कमरे में आ गए.

‘‘सर, यह 1 लाख रुपए हैं.’’

‘‘ठीक है, आप 11 बजे कोर्ट आ जाइएगा. और सुनिए, बाबूजी को मत लाइएगा.’’

‘‘वकील साहब, मेरा बेटा मुसीबत में है,’’ सत्यदेव ने मिन्नत की.

‘‘बाबूजी, आप घर जाइए. मैं कोर्ट चला जाऊंगा. आप को मोबाइल से खबर करता रहूंगा,’’ समीर बोला.

आटो में बैठ कर सत्यदेव बोले, ‘‘गांधी उद्यान चलो.’’

सत्यदेव पार्क में बैठ कर आतेजाते लोगों को देख रहे थे. देखतेदेखते शाम हो आई. वह उठ कर पास के पी.सी.ओे. पहुंचे और समीर को फोन लगाया.

‘‘हैलो, समीर बेटा.’’

‘‘बाबूजी, सुजय की जमानत नहीं हुई. उसे जेल भेज दिया गया है. 2 दिन छुट््टी है. सोमवार को ही जमानत होगी. आप हैं कहां? घर पर मैं कब से मोबाइल लगा रहा हूं.’’

सत्यदेव आगे कुछ बोले नहीं. फोन रख कर पैसे दिए और पी.सी.ओ. से बाहर निकल कर सोच में पड़ गए कि इस समय घर जाऊंगा तो सब दुकानें खुली होंगी. वहां लोग बैठे होंगे. सब एक ही प्रश्न पूछेंगे. इस से तो अच्छा है पहले सोमनाथ वकील के यहां चलता हूं, फिर घर जाऊंगा.

सत्यदेव जब सोमनाथ वकील के कार्यालय पहुंचे तो अंदर कई लोगों को बैठा देख कर वे वहीं खड़े हो कर सब के जाने का इंतजार करने लगे. अंतिम व्यक्ति जब बाहर निकला तो वह अंदर घुसे.

‘‘सोमनाथ, सुजय की जमानत नहीं हुई?’’

‘‘मैं ने तो पहले ही कहा था. खैर, प्रयास तो किया,’’ कहते हुए सोमनाथ ने जेल के डाक्टर को फोन मिला कर कहा, ‘‘हैलो, किशोर, मैं तुम्हारा चाचा बोल रहा हूं. बेटा, एक काम था. जेल में सुजय नाम का एक आरोपी गया है. वह अपने दोस्त सत्यदेव का बेटा है. किसी तरह उसे लोहिया अस्पताल में शिफ्ट करा दो, बेटा,’’ सोमनाथ ने फोन बंद करते हुए सत्यदेव की ओर देखा. बोले, ‘‘सत्यदेव, आधे घंटे बाद लोहिया अस्पताल चलेंगे. किशोर ने कहा है, वह तब तक सुजय को शिफ्ट करा देगा.’’

थोड़ी देर में मिसेज सोमनाथ चायनाश्ता ले कर आईं.

‘‘भाई साहब, आप नाश्ता कर लीजिए.’’

‘‘धन्यवाद,’’ सत्यदेव नाश्ते को देखते रहे और सोचते रहे पता नहीं सुजय ने क्या खाया होगा? आधे घंटे बाद सोमनाथ अंदर से तैयार हो कर सत्यदेव के पास आए तो देखा, चायनाश्ता ज्यों का त्यों पड़ा है. वह बोले, ‘‘अरे, तुम ने तो कुछ भी नहीं लिया.’’

‘‘सोमनाथ, चलो अस्पताल चलते है,’’ इतना कहते हुए सत्यदेव उठ गए तो सोमनाथ ने भी मनोस्थिति को समझते हुए आगे कुछ नहीं कहा.

अस्पताल पहुंचते ही सोेमनाथ को पता चला कि सुजय कैदी वार्ड नंबर 7 के बेड नंबर 14 पर है. दोनों वार्ड नं. 7 में पहुंचे. वार्ड के सामने 4 पुलिस वाले बैठे थे. उन के सामने से हो कर सोमनाथ 14 नंबर बेड के पास पहुंचे. सुजय के हाथ में हथकड़ी लगी हुई थी. हथकड़ी का दूसरा सिरा लोहे के पलंग से बंधा था. उसे छिपाने के लिए सुजय ने चादर डाल रखी थी.

सुजय, सत्यदेव को देख कर रो पड़ा. वह असहाय खड़े रह गए. उन्हें कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था. अचानक आगे बढ़ कर सुजय से लिपट कर वह फफक कर रो पडे़.

‘‘बाबूजी, जिंदगी में कोई गलत काम नहीं करूंगा. मेरे कारण आज सब परेशान हैं. सब की इज्जत मिट्टी में मिल गई. बाबूजी, पैसा कमाने के चक्कर में मैं बेईमानी करने लगा था. खुद बेईमान बना तो सब को बेईमान समझ लिया. सोचता था, सब बिकते हैं परंतु मेरा सोचना गलत था. ईमानदारी के सामने पैसा कुछ भी नहीं है. मुझे माफ कर दो, बाबूजी.’’

‘‘काश, बेटा, पैसे बटोरने की अंधी दौड़ से बचने की कोशिश करते. अब तो पता नहीं कौनकौन से शब्द सुनाएंगे लोग. बात करेंगे तो विषय यही होगा. मैं तो पिता हूं, माफ ही कर सकता हूं लेकिन दूसरे लोग तो इस बात का मजा ही लेंगे,’’ इतना कह कर वह सोमनाथ को साथ ले कर वार्ड से बाहर हो गए.

सीढ़ी उतरतेउतरते सत्यदेव की आंखों के सामने अंधेरा छाने लगा. रेलिंग पकड़ कर संभलने की कोशिश करते कि उन्हें सीने में तेज दर्द उठा और उन का शरीर निढाल हो कर सीढ़ी से लुढ़क गया. जब तक सोमनाथ कुछ समझते और उन्हें संभालने का प्रयास करते सत्यदेव की सांसें थम चुकी थीं. उन की आंखें बेबस खुली हुई थीं.

अभियुक्त: सुमि ने क्या देखा था

family story in hindi

  मरीचिका: क्यों परेशान थी इला – भाग 2

सब्जी जलने की गंध से इला का ध्यान टूटा. शिमलामिर्च जल कर कोयला हो गई थी. फ्रिज खोल कर देखा तो एक बैगन के सिवा कुछ भी नहीं था. वही काट कर छौंक दिया और दाल कुकर में डाल कर चढ़ा दी. वैसे वह जानती थी कि  यह खाना राजन को जरा भी पसंद नहीं. कितने चाव से सवेरे शिमलामिर्च मंगवाई थी.

इला व राजन हिल कोर्ट रोड के 2 मंजिले मकान की ऊपरी मंजिल पर रहते थे व नीचे के तल्ले पर कंपनी का गैस्टहाउस था. वहीं का कुक जब अपनी खरीदारी करने जाता तो इला भी उस से कुछ मंगवा लेती थी. कभी खाना बनाने का मन न होने पर नीचे से ही खाना मंगवा लिया जाता जो खास महंगा न था. कभी कुछ अच्छा खाने का मन होता तो स्विगी और जोमैटो थे ही.

कमरों के आगे खूब बड़ी बालकनी थी, जहां शाम को इला अकसर बैठी रहती. पहाड़ों से आने वाली ठंडी हवा जब शरीर से छूती तो तन सिहरसिहर उठता. गहरे अंधेरे में दूर तक विशालकाय पर्वतों की धूमिल बाहरी रेखाएं ही दिखाईर् देतीं, बीच में दार्जिलिंग के रास्ते में ‘तिनधरिया’ की थोड़ी सी बत्तियां जुगनू की जगह टिमटिमाती रहतीं.

राजन अकसर दौरे पर दार्जिलिंग, कर्लिपौंग, गंगटोक, पुंछीशिलिंग या कृष्णगंज जाता रहता. इला को कई बार अकेले रहना पड़ता. वैसे नीचे गैस्टहाउस होने से कोई डर न था.

इला ने चाय बनाई व प्याला ले कर बालकनी में आ बैठी. शाम गहरा गई थी. हिल कोर्ट रोड पर यातायात काफी कम हो गया था. अकेली बैठी, हमेशा की तरह इला फिर अपने अतीत में जा पहुंची.

शादी के  बाद राजन की बदली सिलीगुड़ी में हो गई थी. कंपनी की ओर से उसे फ्लैट मिल गया था. राजन के साथ शादी के बाद भी इला रमण को नहीं भूला पाई थी. तन जरूर राजन को समर्पित कर दिया था परंतु मन को वह सम?ा नहीं पाती थी. वह भरसक अपने को घरगृहस्थी में उल?ा कर रखती.

इला का घर शीशे की तरह चमकता रहता. चाय, नाश्ता, खाना सब ठीक समय पर बनता. राजन के बोलने से पहले ही वह उस की सब आवश्यकताएं सम?ा जाती थी परंतु रात आते ही वह चोरों  की तरह छिपने लगती. राजन के गरम पानी के सोते की तरह उबलते प्रेम का वह कभी उतनी गरमजोशी से प्रतिदान न कर पाती. ऐसे में राजन अकसर ?ाल्ला कर बैठक में सोने चला जाता. इला ठंडी शिला की तरह पड़ी रोने लगती. राजन कई तरह से उस का मन बहलाने का प्रयत्न करता.

कभी दौरे पर अपने साथ ले जाता, कभी घुमाने. कभी उसे कई विदेशी साड़ी इत्र और सौंदर्यप्रसाधन मंगवा देता परंतु इला थी कि पसीजना ही भूल गई थी.

जीवन की सब खुशियां उस के हाथों से, मुट्ठी से फिसलती रेत की तरह खिसकती जा रही थीं. राजन भी इसे अपनी नियति सम?ा कर चुप बैठ गया था. मगर कभीकभी मित्रों के परिवारों के साथ बाहर की सैर का कार्यक्रम बनने पर इला के इस अनोखे मूड के कारण उसे बड़ा दुख होता.

पुरुष एक कार्य एक कार्यकुशल गृहिणी ही नहीं, प्रेमिका, पूर्ण सहयोगी और काफी हद तक बिस्तर पर एक वेश्या की सी भूमिका अदा करने वाली पत्नी चाहता है. मगर इला न जाने किस मृग मारीचिका के पीछे भटक रही थी. एक कुशल गृहिणी की भूमिका निभा कर ही वह अपने पत्नीत्व को सार्थक और अपने कर्तव्यों की इतिश्री सम?ा रही थी.

कभीकभी इला को अपने पर क्रोध भी आता. क्या दोष है बेचारे राजन का? क्यों वह उसे हमेशा निराश करती है? क्यों वह दूसरी औरतों की तरह हंस और खिलखिला नहीं सकती? क्यों वह अन्य पत्नियों की तरह राजन को कभी डांट नहीं पाती? क्यों उन दोनों का कभी ?ागड़ा नहीं होता? ?ागड़े के बाद मानमनौअल का मीठा स्वाद तो उस ने शादी के बाद आज तक चखा ही न था.

इला की बात से राजन कितना खिन्न हो गया था. जब से मनाली में एक नया रिजोर्ट बना था, कई लोग वहां जाने को उत्सुक थे. कितने दिनों से राजन अपने दोस्तों के साथ वहां जाने का कार्यक्रम बना रहा था और इला ने उस के सारे उत्साह पर एक ही मिनट में पानी फेर दिया था. राजन ने ही सब के लिए वहां कमरे बुक करवाए थे, पर अब इला के न जाने से उस की स्थिति कितनी खराब होगी.

रात को राजन आया तो कपड़े बदल कर चुपचाप लेट गया. खाना भी नहीं खाया. इला ने धीरे से मनाली की बात चलानी चाही तो उस ने कह दिया, ‘‘मैं ने सब को कह दिया है कि एक आवश्यक कार्य के कारण मैं न जा सकूंगा. अब तुम क्यों परेशान हो रही हो?’’ कह कर उस ने करवट बदल कर आंखें बंद कर ली थीं जैसे सो गया हो.

‘‘लेकिन प्रोग्राम तो तुम ने ही बनाया था, तुम्हारे न जाने से सब को कितना बुरा लगेगा?’’ इला धीरे से बोली.

‘‘अच्छा या बुरा लगने से तुम्हें तो कुछ अंतर पड़ने वाला नहीं है. जो होगा मैं देख लूंगा. तुम तो वहीं अपनी रसोई, सब्जी, घरगृहस्थी के चक्कर में उल?ा रहो.’’

इला रोने लगी. राजन कुछ पिघला. करवट बदल कर कुहनी के बल लेट कर बोला, ‘‘इला, क्यों तुम मेरे साथ कहीं भी जा कर खुश नहीं होतीं? क्यों हर समय उदास रहती हो? इस घर में  तुम्हें क्या कमी है या मैं तुम्हें क्या नहीं दे पाया, जो अन्य पति अपनी पत्नियों को देते हैं?’’

इला कुछ बोल नहीं पाई. कहती भी क्या?

राजन फिर बोला, ‘‘हमारे घर में सुखसुविधा के कौन से साधन नहीं हैं? हम बहुत धनी न सही परंतु मजे में तो रह ही रहे हैं. फिर भी तुम में किसी बात के लिए उत्साह नहीं. मेरे मित्रों की पत्नियां पति द्वारा एक  साधारण साड़ी ला कर देने पर ही खुशी से उछल पड़ती हैं परंतु तुम तो हंसी, खुशी की सीमा से कहीं बहुत दूर हो. हिमखंड जैसी ठंडी. तुम अपने इस ठंडेपन से मेरी भावनाओं को भी सर्द कर देती हो.’’

इला को उस ने अपनी बांहों के घेरे में ले लिया, ‘‘क्या तुम किसी और को चाहती

हो, जो मेरा प्यार सदा प्यासा ही लौटा देती हो?’’

इला ने ?ाट से अपनी आंखें पोंछ डालीं, ‘‘कैसी बहकीबहकी बातें कर रहे हो?’’

‘‘फिर क्या विवाह से पहले किसी को चाहती थीं?’’ राजन ने गहरी नजर डालते हुए पूछा.

‘‘तुम आज क्या बेकार की बातें ले बैठे

हो? यदि ऐसा होता तो मैं तुम से विवाह ही क्यों करती?’’

बात भी ठीक थी. इला कोई अनपढ़, भोलीभाली लड़की तो थी नहीं कि उसकी शादी जबरदस्ती कहीं कर दी जाती. सगाई से पहले 2-3 बार राजन उस से मिला था, उस समय कभी नहीं लगा था कि विवाह के लिए उस से जबरन हां कराई गई है.

जब राजन की मां उसे अपनी पसंद की ड्रैसें, लहंगे खरीदने के लिए बाजार ले गई थीं तो उस ने बड़े शौक से अपनी पसंद के कपड़े खरीदे थे. फिर बाद में रेस्तरां में भी सहज भाव से गपशप करती रही थी. प्रारंभ से ही इला उसे सम?ादार लड़की लगी थी, आम लड़कियों की तरह खीखी कर के लजानेशरमाने व छुईमुई हो जाने वाली नहीं.

अपने एक खास मित्र के कहने से वह जब उस की मंगेतर से मिलने गया था तो वह कमसिन छोकरी मुंह पर हाथ रखे सारा समय अपनी हंसी ही दबाती रही थी. बारबार उस के गाल और कान लाल हो जाते थे. राजन ने सोचा था, ‘यह पत्नी बन कर घर संभालने जा रही है या स्कूल की अपरिपक्व लड़की पिकनिक मनाने जा रही है?’

इसी से इला की गंभीरता ने उसे आकृष्ट किया था. स्वयं भी उस की आयु एकदम कम न थी, जो किसी अल्हड़ लड़की को ढूंढ़ता. उस ने सोचा था कि परिपक्व मस्तिष्क की लड़की से अच्छी जमेगी. मगर इला का मन तो न जाने कौन सी परतों में छिपा पड़ा था, जिस की थाह वह अभी तक नहीं पा सका था. विवाह के प्रारंभिक दिनों में उस ने सोचा था कि शायद नया माहौल होने से ऐसा है परंतु अब तो यहां उन दोनों के सिवा घर में कोई न था, जिस के कारण इला इस तरह दबीघुटी सी रहती. किसी तरह भी वह गुत्थी नहीं सुल?ा पा रहा था.

 

कई औरतें ऐसी ही शुष्क होती हैं, किसी तरह अपने मन को सम?ा कर वह संतोष कर लेता. बिना मतलब गृहस्थी उजाड़ने का क्या लाभ? आज भी इला को बांहों में लिएलिए ही वह सो गया. किसी तरह की मांग उस ने इला के सामने नहीं रखी.

इला मन ही मन स्वयं को कोसती रही और निश्चय करती रही कि  अब वह अपने को बदलने का प्रयत्न करेगी. मगर वह स्वयं भी जानती थी कि अगले दिन से फिर पहले वाला ही सिलसिला शुरू हो जाएगा.

वैसे अपने जीवन का यह निश्चय उस ने स्वयं किया था. इस के लिए वह किसी को भी दोषी नहीं ठहरा सकती थी. प्रेम कहानी के इस त्रिकोण में न किसी ने दगा की थी, न कोई दुष्ट बीच में आया था. जीवन की एक कड़वी सचाई थी और पात्र यथार्थ के धरातल पर जीने वाले इसी दुनिया के जीव थे. सिनेमा में गाते, नाचते, पियानो बजाते, बिसूरते नायकनायिका नहीं थे.

मगर अब अपने साथसाथ वह राजन को भी सजा दे रही थी. सचाई से पहले व बाद में वह उस से साधारण रूप में मिलती थी, जिस में सहज मित्रता थी परंतु शादी के बाद अपने उत्तरदायित्व को वह संभाल नहीं पा रही थी.

फूलप्रूफ फार्मूला: क्या हो पाई अपूर्वा औऱ रजत की शादी

family story in hindi

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें