फाइब्रोमायल्जिया: इस दर्द से बचना है जरूरी

फाइब्रोमायल्जिया एक पुराने दर्द की स्थिति है, जिस वजह से पूरे शरीर में दर्द फैल जाता है. यह आमतौर पर 20 से 55 वर्ष की महिलाओं की मांसपेशियों और हड्डियों में होने वाले दर्द के कारण होता है. इस में कई महिलाएं थकान, नींद में व्यवधान, सिरदर्द, अवसाद तथा चिंता जैसी मानसिक तकलीफ भी अनुभव करती हैं. इस में थोड़ाबहुत मांसपेशियों का दर्द हमेशा बना रहता है. दर्द की तीव्रता कम ज्यादा होती रहती है. चिंता, तनाव, अनिद्रा, थकान, ठंड या नमी के कारण दर्द बढ़ जाता है.

करीब 90% महिलाओं को लगातार थकान के साथसाथ तरोताजा न रहने या पूरी नींद न लेने जैसी शिकायत रहती है. मरीज को बांहों तथा टांगों में सुन्नपन, सिहरन या असामान्य खिंचाव भी महसूस हो सकता है. इस स्थिति में माइग्रेन या मस्क्युलर सिरदर्द, पेट में गड़बड़ी या बारबार पेशाब आना जैसी समस्याएं आम हैं.

कैसे पहचानें इसे

फाइब्रोमायल्जिया के बारे में समझा जाता है कि यह दर्द के एहसास में होते रहने वाले बदलाव का परिणाम होता है. इस स्थिति को सैंट्रल सैंसेशन कहा जाता है, जो आनुवंशिक प्रवृत्ति, शारीरिक या भावनात्मक चोट सहित तनाव बढ़ाने वाले कारकों, अनिद्रा या अन्य चिकित्सा स्थितियों के कारण हो सकती है. फाइब्रोमायल्जिया की पहचान के लिए कोई विशेष लैबोरेटरी या इमेजिंग टैस्ट नहीं है, क्योंकि मांसपेशियों में कोई असामान्य स्थिति पकड़ में नहीं आती है.

इलाज

फाइब्रोमायल्जिया का इलाज संभव है. इस के इलाज का मकसद दर्द में कमी लाना, नींद में सुधार लाना, शारीरिक गतिविधियों को सुचारु बनाना, सामाजिक मेलजोल बरकरार रखना और भावनात्मक संतुलन स्थापित करना है. इन की प्राप्ति के लिए मरीज का सामाजिक सहयोग, शिक्षा, शारीरिक सुधार और दवा से इलाज किया जाता है.

इस के लिए जहां मरीज में सकारात्मक बदलाव लाने की जरूरत पड़ती है वहीं परिवार के सदस्यों, नियोक्ताओं, नीतिनिर्धारकों की मदद भी मरीज की स्थिति पर बड़ा प्रभाव डालती है. मरीजों को शिक्षित करना और यह समझाना जरूरी है कि उचित व्यवहार बनाए रखने और उपचारात्मक प्रक्रिया में सक्रिय भागीदारी करने से उन्हें लाभ मिल सकता है.

ऐरोबिक ऐक्सरसाइज से न सिर्फ हर किसी की सक्रियता बढ़ाई जा सकती है, बल्कि उन के दर्द में कमी, अच्छी नींद, संतुलित मिजाज, मानसिक स्थिति में सुधार लाया जा सकता है. हौट बाथ, हौट वाटर बोतल या इलैक्ट्रिक हीट पैड जैसी हीट प्रक्रिया मांसपेशियों को आराम पहुंचाती है, व्यायाम करने के योग्य बनाती है और बेहतर सेहत का एहसास कराती है. इस स्थिति से उबरने के लिए आजमाई गई कुछ नई चिकित्सा पद्घतियां भी उपलब्ध हो गई हैं, जिन में एनलजेसिक, ऐंटीडिप्रैजेंट की अल्प मात्रा दी जाती है. इस स्थिति से उबारने के लिए ऐंटीकनवल्सैंट दवा भी कारगर साबित हुई है.

इस प्रकार फाइब्रोमायल्जिया पीडि़तों को बहिष्कृत कर डायग्नोज नहीं करना चाहिए. प्रबंधन और मरीज के लिए बहुआयामी उपाय करते हुए परिवार को शिक्षित करना और उसे इस में भागीदार बनाना ही इस की सही डायग्नोसिस है. इस से मरीज को बेहतर जिंदगी जीने में मदद मिल सकती है.

-पुष्पेंदर सिंह मेहता

ऐसोसिएट कंसल्टैंट, पेन मैडिसिन,

इंडियन स्पाइनल इंजरीज सैंटर, नई दिल्ली

दोबारा हार्टअटैक आने के खतरे से बचने के तरीके बताएं?

सवाल-

मेरे पति को पिछले महीने हार्ट अटैक आया था. मैं ने सुना है कि एक बार अटैक आने के बाद दोबारा इस के आने का खतरा काफी बढ़ जाता है. मैं उन के खानपान का किस तरह ध्यान रखूं कि वे और उन का दिल दोनों स्वस्थ रहें?

जवाब-

एक बार हार्ट अटैक आने के बाद अगले 10 वर्षों में दूसरा हार्ट अटैक आने की आशंका 90-95% तक होती है. लेकिन दूसरे हार्ट अटैक के खतरे को कम करना संभव है, आप को उन की जीवनशैली और खानपान में बदलाव लाना होगा और उस बदलाव को बरकरार रखना होगा. दिल को दुरुस्त रखने के लिए पोषक और संतुलित भोजन का सेवन बहुत जरूरी है. उन के खानपान में हरी पत्तेदार और दूसरी सब्जियों, फलों, साबूत अनाज को अधिक से अधिक मात्रा में शामिल करें. वसारहित दूध और दुग्ध उत्पाद भी दें. दिन में

1-2 छोटे चम्मच से अधिक तेल न खाने दें. लाल मांस को उन के डाइट चार्ट से पूरी तरह निकाल दें. मछली और चिकन को ग्रिल्ड, बेक्ड या रोस्टेड रूप में दें. तला हुआ भोजन, पेस्ट्री, केक मिठाई, जंक फूड आदि न खाने दें  क्योंकि इन में सैचुरेटेड वसा अधिक मात्रा में होती है, जिस से धमनियां ब्लौक हो जाती हैं और हार्ट अटैक का खतरा बढ़ जाता है. नमक, चीनी, चाय, कौफी आदि थोड़ी मात्रा में दें.

ये भी पढ़ें- 

बिग बॉस 13 के विनर और टीवी एक्टर सिद्धार्थ शुक्ला का महज 40 साल की उम्र में हार्ट अटैक से निधन हो गया. जिससे हर कोई सदमे में हैं. उनके फैंस इसलिए भी दुखी और हैरान हैं क्योंकि वो एक हेल्दी पर्सन थे और फिटनेस का पूरा ख्याल रखते थे. फिर भी वो हार्ट अटैक का शिकार हो गए.

मौजूदा समय में बदलती लाइफस्टाइल और तनाव के बीच आम लोग भी इस समस्या से जूझ रहे हैं. ऐसे में कुछ खास बातों का ध्यान रखना बेहद जरूरी है. ताकी आपका दिल स्वस्थ रहे.

वो दौर गया जब सिर्फ 50 साल की उम्र के ही लोगों को हार्ट अटैक का खतरा होता था. आज की बदलती जीवनशैली के चलते अब 30 के उम्र के लोग भी इस खतरनाक बीमारी की चपेट में आने लगे हैं. जी हां, 30 से 40 उम्र के लोगों को दिल संबंधी बीमारियां होने लगी है. इन रोगों का कारण सिर्फ तनाव है और इससे मुक्ति पाने के लिए ये लोग धूम्रपान, नींद की दवाएं, शराब का सेवन करते हैं. जो उन्हें दिल की बीमारी की तरफ ले जा रही है. आपको ये बीमारी ना हो और आप इससे खुद को बचाने के लिए पहले से ही सतर्क रहें, इसीलिए हम आपको दिल की बीमारी के शुरुआती लक्षण बता रहे हैं जिन्हें समय से पहले जानकर गंभीर दिल की बीमारियों से बचा जा सकता है.

बढ़ रहा है हार्ट अटैक का खतरा, ऐसे रखें दिल का ख्याल

अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है तो हमें इस ईमेल आईडी पर भेजें- submit.rachna@delhipress.biz   सब्जेक्ट में लिखे…  गृहशोभा-व्यक्तिगत समस्याएं/ Personal Problem

जानलेवा साबित होती कौस्मैटिक सर्जरी

10मई, 2022 को बैंगलुरु में चेतना राज की एक क्लीनिक में दुखद मृत्यु तब हो गई जब वह वजन घटाने के लिए लाइपोसक्शन के लिए गई. वह कन्नड़ धारावाहियों में ऐक्टिंग करती थी और फैट रिमूव कराने के लिए साहेबगौडा शेट्टी के क्लीनिक में गई थी.

डाक्टरों ने उस की हालत बिगड़ने पर भी दूसरे बड़े अस्पताल में जाने की इजाजत नहीं दी. फैट फ्री प्लास्टिक सर्जरी वैसे बहुत सेफ है पर हर सर्जरी का अपना जोखिम भी होता है और डाक्टर सर्जरी से बचने की सलाह देते हैं. फिर भी युवतियां सर्जरी कराती हैं.

चेतना अपने मातापिता या किसी निकट संबंधी को बनाए बिना सर्जरी कराने पहुंची थी ताकि उस के पतले हो जाने का राज लोग न जान सकें. सर्जरी के दौरान उस के लंग्स में पानी भर गया जिस से उस की मृत्यु हो गई.

फैट फ्री सर्जरी में हिप्स, थाइज, आर्म्स आदि से फैट निकाल दिया जाता है. बदलते समय के साथ लोगों में खुद को सजानेसंवारने की चाह बढ़ी है. लोग सैलिब्रिटीज की तरह दिखना चाहते हैं. इस के लिए वे कोईर् भी कीमत चुकाने को तैयार हो जाते हैं. कौस्मैटिक सर्जनों का कहना है कि कई बार तो लोग ऐसी डिमांड कर बैठते है जिसे पूरा करना हमारे बस की बात नहीं होती. हालांकि बाहर के देशों में कौस्मैटिक सर्जरी बेहद आम है.

रिस्क के बावजूद क्रेज

प्लास्टिक सर्जरी हमेशा सफल हो यह जरूरी नहीं है. इस सर्जरी से आप को मनचाही खूबसूरती मिल ही जाए यह भी जरूरी नहीं है यह एक रिस्क है कई बार मनचाही खूबसूरती मिल जाती है तो कई बार इस के भयानक परिणाम भुगतने पड़ते हैं. कुछ सैलिब्रिटीज को तो सर्जरी के बाद कई तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ा. बहुतों की सर्जरी असफल रही और उन की शक्ल बिगड़ गई तो कुछ को इन्फैक्शन का सामना करना पड़ा. कौस्मैटिक सर्जरी मौत की वजह भी बन सकती है, इस के बावजूद लोगों में इस का क्रेज बरकरार है. चेहरे में तबदीली के अलावा ब्रैस्ट सर्जरी महिलाओं में ज्यादा लोकप्रिय है. नौनसर्जिकल में बोटोक्स सब से ज्यादा प्रचलित है.

आम लोग में भी लोकप्रिय

पहले चेतना राज जैसे ग्लैमर वर्ल्ड के गिनेचुने लोग ही प्लास्टिक सर्जरी कराते थे, लेकिन अब मनचाही शक्लसूरत पाने के लिए आम लोगों में भी यह काफी प्रचलित हो रही है. कौस्मैटिक सर्जन बताते हैं फैट कम करने के लिए लाइपोसक्शन कराने वालों की संख्या पुरुषों व स्त्रियों, दोनों में काफी तेजी से बढ़ी है. लड़कियों में स्लीमट्रिम रहने की चाहत बढ़ी है. कालेज जाने वाली आम लड़कियों में ब्रैस्ट इंप्लांटेशन सर्जरी, लाइपोसक्शन और पुरुषों में लार्ज मेल ब्रैस्ट रिडक्शन सर्जरी, राइनोप्लास्टी के मामले भी बढ़े हैं.

ज्यादा पसीना आने की समस्या को दूर करने के लिए लड़केलड़कियों में लेजर हेयर रिमूवल और बोटोक्स का क्रेज भी काफी बढ़ा है. 30 से 35 वर्ष की आयु के लोगों में यह ज्यादा प्रचलित है. अब कालेजगोइंग स्टूडैंट्स, प्रोफैशनल्स और आम लोग अधिकतर आते हैं जो अपनी शारीरिक बनावट से संतुष्ट नहीं होते. कौस्मैटिक सर्जरी कराने वाली अधिकतर स्त्रियां 35 से 50 वर्ष की होती हैं.

कौस्मैटिक सर्जरी हमेशा सफल नहीं होती

कई ऐसी नामीगिरामी हस्तियां है, जिन्होंने अपनी खूबसूरती को बढ़ाने के लिए प्लास्टिक सर्जरी कराई, लेकिन इस का परिणाम उलटा मिला. अपनी खूबसूरती बरकरार रखने की चाहत में मिस अर्जेंटीना रह चुकी सोलेग मेननेनो की मौत हो गई. सोलेग जुड़वां बच्चों की मां थी. प्रसव के बाद हर औरत की तरह उस के शरीर

में भी कुछ प्राकृतिक बदलाव आए, जिन से वह खुश नहीं थी. ऐसे में पहले सी काया पाने की चाहत में उस ने कूल्हों को शेप में लाने के लिए सर्जरी कराई. इस में उसे जो इंजैक्शन दिया गया, उस में से कुछ लिक्विड उस के फेफड़ों और मस्तिष्क में चला गया. सर्जरी के बाद अचानक हुई समस्या के कारण अस्पताल में भरती कराना पड़ा, जहां 2 दिन बाद उस की मौत हो गई.

महंगी पड़ी सर्जरी

हौलीवुड अभिनेत्री पैरिस हिल्टन ने भी अपनी खूबसूरती बढ़ाने के लिए प्लास्टिक सर्जरी कराई थी. उस ने राइनोप्लास्टी, लिप्स इनहैंसमैंट और ब्रैस्ट की प्लास्टिक सर्जरी कराई थी. उसे अपना उन का नया अवतार कितना अच्छा लगा यह तो वही जानती होगी, लेकिन बहुत से लोगों को उस की नाक पहले से ज्यादा खराब लगती है. लोगों का कहना कि पामेला एंडरसन खूबसूरत और आकर्षक थी, लेकिन न जाने उन्हें क्या सू?ा जो नाक, गाल, होंठ और ब्रैस्ट की सर्जरी कराई. अब उस की यह फिगर असफल सर्जरी का ही परिणाम है.

बौलीवुड ऐक्ट्रैस कोयना मित्रा पर भी अपनी नाक की सर्जरी करने की धुन सवार हुई पर उसे यह सर्जरी काफी महंगी पड़ी. अचानक उस के गाल फूल गए जिस से मुसकराने में भी तकलीफ होने लगी. इस के बाद 5 महीने तक इंजैक्शन लगवाने पड़े और उस दौरान 2 फिल्मों से हाथ भी धोने पड़े.

स्टार्स में प्लास्टिक सर्जरी का क्रेज

कई छोटेबड़े स्टार्स ने प्लास्टिक सर्जरी कराई है. पौप सिंगर माइकल जैक्सन तो इस मामले में काफी महशूर रहे. उन्होंने गोरे रंग के लिए अपनी त्वचा की सर्जरी कराई थी. नाम की भी कई बार सर्जरी कराई थी. काफी समय तक वे इंफैक्शन से परेशान रहे. फिर उन्हें स्किन कैंसर हो गया.

अमेरिकन अभिनेत्री व गायिका ब्रिटनी मर्फी तो कौस्मैटिक सर्जरी की दीवानी थीं. वहीं ऐंजलीना जौली, पामेला एंडरसन, पैरिस हिल्टन, विक्टोरिया बेखम जैसे तमाम स्टार्स ने प्लास्टिक सर्जरी कराई है.

ऐसे में बौलीवुड की अभिनेत्रियां भी भला कैसे पीछे रहतीं. लोगों का कहना है कि ऐश्वर्या राय की ब्यूटी फेक ब्यूट है. वहीं करीना की खूबसूरती निखारने में भी कौस्मैटिक सर्जरी की अहम भूमिका रही है. करीना ने अपनी नाक और चीकबोंस की प्लास्टिक सर्जरी कराई है, तो प्रियंका चोपड़ा ने भी स्किन लाइटनिंग ट्रीटमैंट कराया है, जिस से त्वचा का कलर साफ हो गया है. रानी मुखर्जी ने भी अपनी नाक की प्लास्टिक सर्जरीकराई है.

ग्लैमरस अभिनेत्री सुस्मिता सेन पहली अभिनेत्री है, जिन्होंने यह स्वीकार किया कि उन्होंने सिलिकौन इंप्लांट कराया है. शिल्पा शेट्टी, सुष्मिता सेन, करीना, बिपाशा, मल्लिका सहरावत, श्रुति हासन, राखी सावंत, कंगना रानावत आदि अभिनेत्रियों ने कौस्मैटिक सर्जरी कराई है.

कौस्मैटिक सर्जरी के नुकसान

कौस्मैटिक सर्जरी के जरीए खूबसूरती बढ़ाने के लिए सर्जरी और चिकित्सीय पद्धतियों का सहारा लिया जाता है. विशेषज्ञों का कहना है कि सर्जरी का हानिकारक प्रभाव नहीं होता, लेकिन कुछ सामान्य प्रभाव जैसे चोट लगना, धब्बा पड़ना आदि हो सकता है. इसे हेमाटोमा कहते हैं. इस में रक्तनलिकाओं के बाहर रक्त का जमाव हो जाता है. इस के अलावा सेरोमा जैसा दुष्प्रभाव भी हो हो सकता है.

क्या मल्टीविटामिन लेने से मुझे एनर्जी मिलेगी?

सवाल-

मैं 46 वर्षीय कामकाजी महिला हूं. पिछले कुछ दिनों से मैं खुद में ऊर्जा की बहुत कमी महसूस कर रही हूं. क्या मल्टीविटामिन लेने से मैं बेहतर महसूस करूंगी?

जवाब-

आज मल्टीविटामिन लेना बहुत सामान्य प्रचलन है. लोग शरीर में कमजोरी महसूस होने या खुद को फिट रखने के लिए बिना डाक्टर की सलाह के ही विटामिन या मिनरल के सप्लिमैंट्स लेना शुरू कर देते हैं. विटामिंस के अधिक सेवन से विटामिन पौइजनिंग हो जाता है. इसलिए डाक्टर की सलाह के बिना इन का सेवन करना आप की सेहत के लिए खतरा बढ़ा सकता है. आप किसी डाक्टर को दिखाएं. जरूरी जांच करने पर ही पता चलेगा कि आप को ऊर्जा की कमी क्यों महसूस हो रही है और आप को किस विटामिन की कितनी मात्रा में जरूरत है.

थकान और कमजोरी से बचने के लिए अपने खानेपीने का भी ध्यान रखें. अपनी डाइट में सूखे मेवे, दूध व दुग्ध उत्पादों, मौसमी फलों और सब्जियों को ज्यादा मात्रा में शामिल करें. हर 2-3 घंटे में कुछ खाती रहें. अगर आप अपने खानेपीने का ध्यान रखेंगी तो आप को गोलियां खाने की जरूरत नहीं पड़ेगी.

ये भी पढ़ें- 

वीगन डाइट जिसे वीगानिज़्म भी कहा जाता है, एक ऐसी डाइट है, जिसमें मांस, अंडा, दूध, दही या पशु से बनने मिलने वाले उत्पादों को नहीं खाया जाता. बल्कि वीगन डाइट में सबसे अधिक पेड़पौधों से मिलने वाले खाद्य पदार्थों को खाया जाता है.  इस डाइट में कच्चे ऑर्गेनिक आहार का अधिक सेवन किया जाता है. साबुत फल, सब्जियां और अनाज इस डाइट की विशेषता हैं.  इसे शुद्ध शाकाहारी आहार या प्लांट बेस्ड डाइट भी कहा जाता है.

अब ऐसे में सवाल उठता है कि वीगन डाइट में मांस, अंडा, दूध, दही जैसे खाद्य पदार्थ न होने की वजह से प्रोटीन की कमी को कैसे पूरा किया जाए? इस संबंध में पल्लवबिहानी बोल्डफ़िट के फाउंडर ऐसे सुपरफूड्स के बारे में बताएंगे, जिनके सेवन से आप वीगन डाइट को फॉलो करते हुए प्रोटीन का भरपूर सेवन कर सकते हैं.

पूरी खबर पढ़ने के लिए- Vegan Diet को हेल्दी बनाएंगे प्रोटीन से भरपूर ये 5 Food

गाइनेकोलौजिस्ट को ऐसे बताएं अपनी समस्या

सफल स्त्रीरोग विशेषज्ञा वह है जिस के मरीज उस से अपनी पारिवारिक समस्याएं, जीवनसाथी के साथ अपनी यौन समस्या व पतिपत्नी संबंधों आदि विषयों पर भी बातचीत कर सकें.

सैक्सुअल ऐजुकेशन ऐंड पेरैंटहुड के लिए ‘वर्ल्ड एसोसिएशन औफ हैल्थ ऐंड काउंसिल’ भी बनी हुई है क्योंकि यह यौनविज्ञान की समस्या हर जगह, हर नर्सिंगहोम में एक ही छत के नीचे यौन और प्रजनन दोनों की जानकारी मिलनी चाहिए.

सैक्सुअल मैडिसिन में यौन समस्याओं के साथ सभी निजी समस्याओं पर बातचीत जरूरी है. लोगों को बिना झिझक अपनी निजी समस्याओं पर बात करने का मौका मिलना चाहिए ताकि वे जानें कि उन की यौन समस्याएं भी दूसरी बीमारियों की ही तरह हैं जो शरीर से जुड़ी होने के कारण कष्ट देती हैं. यौन समस्याओं को प्राइवेट या गंदा समझना गलत है.

जांचें व उपचार

आजकल प्रसूति में नएनए आविष्कार हो रहे हैं और इन के बहुत लाभ हैं. अन्य सभी क्षेत्रों की तरह अब प्रसूति विज्ञान और स्त्रीरोग विज्ञान में भी तकनीकी उन्नति देखी जा सकती है. उत्तम दवाएं, नई मैडिकल मशीनें जांच करने व लैबोरटरी इनवैस्टीगेशंस में मददगार हैं. गर्भावस्था की नाजुक स्थितियों जैसे मधुमेह ब्लड प्रैशर आदि में तकनीक में नई उन्नति की सहायता से बच्चे को बचा सकते हैं.

न्यू बौर्न इंटैंसिव केयर यूनिट हर नर्सिंगहोम में होनी जरूरी है. 800, 900 ग्राम वजन वाले जन्मे बच्चों को भी बचाना अब संभव है.

कुछ कारणों से कई दंपतियों को बच्चा नहीं हो पाता. मगर अब नए मैडिकल आविष्कारों के द्वारा उन की सहायता करने के कई मौके मिलते हैं. अब कई तरह की जांचें व उपचार किए जा सकते हैं.

यदि नए साधनों से भी उन की प्रैगनैंसी न हो पाए या चांस कम नजर आएं तो डोनर सीमन, डोनर अंडे देने वालों और सैरोगेट मदर के द्वारा सहायता कराई जा सकती है.

अच्छी सलाह क्यों जरूरी

डाक्टर कुछ दंपतियों की मदद नहीं कर पाते तो उन के मन से बच्चा गोद लेने के प्रति गलत धारणा को निकाल कर उन्हें बच्चा गोद लेने की सलाह दी जाती है.

हालांकि हमारे कानून बहुत सख्त हैं जिस  वजह से बच्चा गोद लेने सालों तक इंतजार करते हैं. कई तो अब खरीदते तक हैं. इस से वे मातृत्व व पितृत्व का सुखद एहसास पाते हैं और बच्चे को भी अच्छा जीवन मिल जाता है.

तनावभरी जिंदगी, पर्यावरण, प्रदूषण, कैमिकल स्प्रे की हुई सब्जियां अनाज, फल आदि शारीरिक असंतुलन लाते हैं. हारमोंस की समस्या, अंडाणुओं के निकलने की समस्या, व्यावसायिक तनाव, पैसे की कमी इन सब कारणों से सीमन प्रभावित होता है. इस से बांझपन की दर बढ़ रही है.

सैरोगेट मदर की जरूरत तब पड़ती है जब यूटरस की सही ग्रोथ न हो. गर्भाशय के निष्कासन, स्त्री को तोड़ देने वाली बीमारियां जैसे कैंसर, हृदय रोग आदि में दंपती के अंडाणु और वीर्य को अन्य स्त्री के भ्रूण में विकसित कराया जाता है. यह कार्य करने वाली महिला ‘सैरोगेट मदर’ कहलाती है. उस की जिम्मेदारी गर्भधारण करने से ले कर डिलिवरी तक होती है और डिलिवरी हो जाने के बाद उसे वह बच्चा दंपती को देना पड़ता है. इस तरह ‘सैरोगेट मदर’ दंपती के जीन को विकसित करने में उन की मदद करती है. इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि कुछ हद तक यह व्यापारीकरण का नेतृत्व भी कर रहा है. भारत में अब तक इस के लिए जो नियमकानून बना है वह उसे ब्लैक मार्केट में धकेल रहा है.

समस्या आने के कम चांस

यह मैडिकल टूरिज्म में बहुत सहायक है. विदेशों मेें सैरोगेट मदर का बंदोबस्त करना महंगा पड़ता है, इसलिए विदेशी यहां भी आते हैं और गरीब लोग जो आर्थिक समस्या का सामना कर रहे होते हैं उन में से महिलाएं ‘सैरोगेट मदर’ बनने के लिए तैयार हो जाती हैं. विदेशियों के बच्चा साथ ले जाने में बहुत पापड़ बेलने पड़ते हैं. देशी मांओं को भी बर्थ सर्टिफिकेट मुश्किल से मिलता है. रिश्तेदार, दोस्त भी कटाक्ष करने से नहीं चूकते.

अब सीमन बैंक बहुत अच्छा काम कर रहे हैं. इन बैंकों में अच्छे नमूने उपलब्ध हैं. सीमनदाताओं का सीमन इन बैंकों में प्रिजर्व कर रखा जाता है और यह उन पुरुषों के लिए उपयोगी होता है जो सीमन की समस्या का सामना करते हैं. यह कृत्रिम गर्भाधान में भी सहायक है. सीमन बैंक इन नमूनों की जांच करते हैं इसलिए समस्या आने के बहुत कम चांस होते हैं.

दूसरी तरफ हमारे यहां कम जानकारी होने के बावजूद परिवार नियोजन में बहुत सुधार हुआ है. कौंट्रासैप्टिव पिल्स ने अपने 50 वर्ष पूरे कर लिए हैं. आज बाजार में कम हारमोंस और कम साइड इफैक्ट वाली दवाएं मौजूद हैं इसलिए इस के असफल होने की दर बहुत कम है. अब बचाव का नया रास्ता है इमरजैंसी कौंट्रासैप्टिव स्त्री कंडोम भी हैं.

शादी के बाद की दिक्कतें

साधारण बीमारियों में स्त्रीरोग विशेषज्ञों को महिलाओं में यूरिन इन्फैक्शन की सामान्य से बहुत जूझना पड़ता है. यूरिन इंफैक्शन होने की संभावना पुरुषों से ज्यादा महिलाओं में होती है क्योंकि औरत का गर्भाशय जननांग के बहुत पास होता है. इसलिए उन में मासिकधर्म, डिलिवरी या गर्भधारण के समय इन्फैक्शन होने का डर रहता है. महिलाओं में शादी के बाद उन के पहले सैक्सुअल इंटरकोर्स के दौरान भी इन्फैक्शन हो सकता है. सामान्यतया कम लिक्विड डाइट लेने पर इन्फैक्शन हो सकता है और जब मूत्राशय के विकास की समस्या, स्टोन इत्यादि हो तब भी परेशानी हो सकती है.

बहुत सी स्कूलों और कालेजों में शौचालय की अच्छी सुविधा न होने के कारण इस समस्या का सामना करती हैं. पेशाब रोकने से भी इन्फैक्शन होता है.

विदेशों में बहुत कम दूरी पर ही फूड आउटलेट्स देखे जा सकते हैं. वहां खाने की और शौचालयों की सुविधा ले सकते हैं, लेकिन हमारे यहां जो लोग लंबी यात्रा पर निकालते हैं उन्हें सुविधाओं की कमी के कारण बहुत समस्याओं का सामना करना पड़ता है. बसों, निजी तौर पर यात्रा करने वाले यात्रियों को यात्रा के दौरान कम से कम 2 या 3 बार रुकना चाहिए और सरकार को यात्रा के दौरान अच्छी शौचालय सुविधा मुहैया कराने की ओर पूरा ध्यान देना चाहिए.

विशेषज्ञता क्यों है अनिवार्य

आजकल लड़कियों को 9 वर्ष की उम्र में ही पीरियड्स होने लगे हैं. पर वे बहुत सी बातों को स्पष्टत: खोल कर रखने लगती हैं और इन की जानकारी का स्तर बढ़ने लगता है. इस उत्तेजन प्रक्रिया के मस्तिष्क में बहुत तेजी से होने के कारण हारमोंस बनने लगते हैं. पर्यावरणीय प्रदूषण से फैलने वाले कैमिकल्स शरीर में हारमोंस को प्रभावित करते हैं, जिस से जल्द ही मैच्योरिटी आ जाती है.

छोटी उम्र में पीरियड्स को मेनेज करना समस्या बन जाता है. मातापिता भी इस से चिंतित रहते हैं. पीरियड्स के शुरू होते ही प्रकृति शरीर को प्रजनन के लिए तो तैयार कर देती है पर रजोधर्म का समय घट रहा है और शादी की उम्र बढ़ती जा रही है. बिना शादी किए अनचाहे सैक्सुअल रिलेशन, अनचाहा गर्भ, गर्भपात तथा शादी से पहले गर्भधारण करने से बहुत सी समस्याएं उत्पन्न हो रही है. ये सब स्त्रीरोग विशेषज्ञा को जीवन में अनिवार्य बनाते हैं. ऐसे में उन से सैक्सुअलिटी पर खुली बातचीत की बहुत आवश्यकता होती है.

परंपरागत रूप से घर के बड़े इस विषय पर छिप कर बात करते हैं. बच्चों के सामने ऐसी बातें नहीं की जातीं. वहीं दूसरी तरफ फिल्मों और मीडिया के द्वारा इस का खुलासा किया जाता है. बच्चे इस उलझन में होते हैं कि आखिर सही क्या है? सैक्स की अधूरी व गलत जानकारी बच्चों को उत्तेजित करती है.

उपयुक्त जानकारी की जरूरत

आवश्यक है कि बच्चों को उन की उम्र के अनुसार उपयुक्त जानकारी, यौन शिक्षा दी जाए. यदि यह ज्ञान उन्हें उन के घर से मिलना शुरू हो और आगे स्कूलकालेज में भी मिले तो वे शादी के लिए, मातृत्व और अच्छे नागरिक बनने के लिए तैयार हो सकेंगे, लेकिन समाज में यह बड़ी ही गलत धारणा है कि सैक्स ऐजुकेशन तो इंटरकोर्स की ऐजुकेशन है. बच्चों को उन की छोटी उम्र में ही मानसिक और शारीरिक वृद्धि, यौवन, स्त्रीपुरुष संबंध, लिंग, समानता, लिंग भेद, पारस्परिक प्रेम आदि ये सभी यौन शिक्षा (सैक्स ऐजुकेशन) का हिस्सा हैं, इसलिए यह शिक्षा दी जानी जरूरी है. इस के लिए गाइनोकोलौजिस्ट सब से ज्यादा उपयोगी है.

विवाहपूर्ण काउंसलिंग इंटरकोर्स और उस से जुड़ी समस्याओं के विषय में गलत धारणाओं को दूर करती है. कई मामलों में सैक्स संबंध के विषय में जानकारी की कमी के कारण विवाह का पहला दिन ही आखिरी दिन बन जाता है. कुछ ही समय में तलाक हो जाता है.

आज के जमाने में लोगों के कितने ही वैकल्पिक संबंध बनते रहते हैं और चाहे किसी न किसी तरह ये विवाह व्यवस्था को भी प्रभावित करें पर इन्हें बंद नहीं करा जा सकता. जब कोई पुरुष और महिला जो एकसाथ काम करते हों या पास रहते हों अथवा पढ़ते हों तब वे दोनों एकदूसरे का ज्यादा साथ देना पसंद करेंगे. कुछ मकान का किराया बचाने के लिए एक ही मकान को भी शेयर करने लगते हैं. ऐसे में दोनों को सैक्स संबंधों में बहुत सी सावधानियां बरतनी होती हैं और इन में गाइनेकोलौजिस्ट का बड़ा रोल होता है.

क्या पौष्टिक खाना बच्चों के लिये टेस्टी हो सकता है?

यदि आप इस बारे में चर्चा कर रहे हैं कि आपके घर में बच्चों का पोषण एक अहम मुद्दा है तो फिर आप अकेले नहीं हैं. काफी सारे पेरेंट्स इस बात को लेकर चिंतित रहते हैं कि उनके बच्चों को क्या खाना चाहिए और क्या नहीं. लेकिन एक हफ्ते के दौरान, ज्यादातर बच्चे खाने में पर्याप्त वैराइटी और पोषण ले लेते हैं. खाने को लेकर मतभेद से बचने के लिये इन तरीकों का इस्तेमाल करें, यदि आपके बच्चे की पसंद अभी भी विकसित हो रही हो.

डॉ. अमित गुप्ता, सीनियर कंसल्टेंट पीडियाट्रिशियन एंड नियोनेटोलॉजिस्ट, बता रहे हैं खास तरीके-

1.भूख पर नजर रखे-

अपने बच्चे की भूख या उसकी कमी पर नजर रखें यदि आपका बच्चा भूखा नहीं है तो अपने बच्चे को जबरदस्ती खाना या स्नैक ना खिलाएं. ना ही अपने बच्चे को पूरी प्लेट खत्म करने या कोई खास चीज खाने का लालच दें या उन्हें मजबूर करें. इससे खाने को लेकर संघर्ष बढ़ सकता है.

2. शेड्यूल तय करें-

हर दिन, खाना और स्नैक्स एक ही समय पर दें. यदि आपका बच्चा नहीं खाना चाह रहा है तो स्नैक खाने का नियत समय बच्चे को हेल्दी खाने का मौका देगा. आप खाने के साथ, दूध या 100% जूस दे सकते हैं, लेकिन खाने और स्नैक्स के बीच केवल पानी ही देना चाहिए. यदि आप अपने बच्चे को ज्यादा मात्रा में पूरे दिन जूस या स्नैक्स देते हैं तो इससे उन्हें खाने के समय पर कम भूख लगेगी.

3.धैर्य रखें-

यदि आप कुछ नया देने की कोशिश कर रहें तो धैर्य रखें छोटे बच्चे अक्सर नए खाने को छूते या सूंघते हैं और उसे हटाने से पहले हो सकता है वे कुछ टुकड़े अपने मुंह में भी रख लें. पहला कौर लेने से पहले, आपके बच्चे को कई बार खाने की नई चीज से परिचय कराने की जरूरत हो सकती है.

4. शॉर्ट ऑर्डर शेफ बनने से बचें

आपके बच्चे द्वारा पहली बार खाने को मना करने पर, उसके लिये फिर दूसरा खाना तैयार करना, खाने में नखरे की आदत को बढ़ाता है. आपको अपने बच्चे को खाने के दौरान बैठने के लिये प्रेरित करना चाहिए, भले ही आपका बच्चा या बच्ची खाना ना खा रहे हों.

5. उसे मजेदार बनाएं

ब्रोकली और अपनी पसंद की सब्जियों के सॉस या डिप के साथ परोसें. खाने को अलग-अलग शेप देने के लिये कुकी कटर का इस्तेमाल करें. डिनर की चीजें ब्रेकफास्ट में परोसें. तरह-तरह के रंगों वाली वैराइटी वाले फूड दें.

6. अपने बच्चे की मदद लें

ग्रोसरी स्टोर में अपने बच्चे से फलों, सब्जियों और दूसरी पौष्टिक चीजों का चुनाव करने में मदद लें. ऐसी चीजें खरीदने से बचें जोकि आप नहीं चाहते कि आपका बच्चा खाए. बच्चे को घर पर सब्जियां धोने या बैटर को हिलाने में आपकी मदद करने के लिये प्रेरित करें.

7.एक अच्छा रोल मॉडल बनें

यदि आप तरह-तरह का हेल्दी खाना खाते हैं तो आपको बच्चा भी यह आदत सीखेग.

8. कल्पनाशील बनें

स्पेगेटी सॉस को थोड़ी कटी हुई ब्रोकली या हरी मिर्च, सीरियल पर फलों के स्लाइस की टॉपिंग या पुलाव और सूप में किसी हुई जुशिनी और गाजर से और बेहतर बनाया जा सकता है.

9.भटकाव कम करें

खाने के दौरान टेलीविजन और अन्य इलेक्ट्रॉनिक्स बंद कर दें. इससे आपका बच्चा ज्यादा ध्यानपूर्वक खाना खा सकेगा. इस बात को याद रखें कि टेलीविजन पर आने वाले विज्ञापनों की वजह से आपके बच्चे में मीठा या अनहेल्दी खाने की आदत आ सकती है.

10. इनाम के तौर पर मीठा देने से बचें

डेजर्ट सबसे अच्छे होते हैं, इसलिए उसे खाने से मना करना गलत संदेश देगा और इससे आपके बच्चे को मीठा खाने की क्रेविंग और ज्यादा होगी. आप हफ्ते में एक या दो रातें, डेजर्ट नाइट के तौर पर रख सकते हैं और बाकी रातों को डेजर्ट देने से बच सकते हैं, या फिर आप फल, दही या अन्य पौष्टिक विकल्पों को डेजर्ट के रूप में पेश कर सकते हैं.

यदि आपके बच्चे के खाने-पीने के नखरे की वजह से आपको उसके विकास के प्रभावित होने का डर सता रहा है तो अपने डॉक्टर से बात करें. वह आपके बच्चे के विकास के लिये चार्ट बनाने में मदद कर सकते हैं. पिछले तीन दिनों के दौरान आपका बच्चा क्या खा रहा है और कितनी मात्रा में खा रहा है इसको ध्यान में रखते हुए, वह ऐसा चार्ट बनाएंगे. एक फूड जर्नल, आपके बच्चे के साथ किसी भी प्रकार की समस्या की पहचान करने में डॉक्टर की मदद कर सकता है. इस बीच, इस बात को ध्यान में रखें कि आपके बच्चे के खाने की आदतें रातोंरात नहीं बदलेंगी; हर दिन आपके द्वारा उठाए गए छोटे-छोटे कदम पूरी जिंदगी हेल्दी खाने की आदत को प्रोत्साहित करेंगे.

अर्ली डिटेक्शन है ब्रैस्ट कैंसर का इलाज, जानें कैसे

नार्थ बंगाल की कूचबिहार में रहने वाली 40 साल की सुनीता को कभी पता नहीं चला कि उसे ब्रैस्ट कैंसर है, क्योंकि उन्हें किसी प्रकार की कोई असुविधा नहीं थी,लेकिन अचानक उनके बाई ब्रैस्ट में एक फोड़ी हुई. डॉक्टर ने भी फोड़ी समझ कर दवा दी, लेकिन वह ठीक नहीं हुई. कुछ दिनों बाद डॉक्टर ने कैंसर सेंटर जाने की सलाह दी, क्योंकि वह अब कमजोरी भी महसूस करने लगी थी. डॉक्टर ने ब्लड टेस्ट किया, तो पता चला कि उसकी हीमोग्लोबिन कम है. डॉक्टर ने उन्हें एडवांस टेस्ट किया और फिर पता चला कि उसे ब्रैस्ट कैंसर है. एक साल की इलाज के बाद उनकी मृत्यु हो गई, क्योंकि डॉक्टर के अनुसार उनके कैंसर की थर्ड स्टेज थी.पहले पता चलने पर शायद उन्हें बचाया जा सकता था, लेकिन सुनीता और उनके परिवार को कैसे भी पता नहीं चल पाया, कि उन्हें कैंसर है.

जागरूकता की कमी

यही वजह है कि हर साल पूरी दुनिया में अक्टूबर माह के दौरान विश्व ब्रैस्ट कैंसर जागरूकता माह मनाया जाता है. इस दौरान ब्रैस्ट कैंसर को लेकर जागरूकता पर काम किया जाता है, ताकि इस बीमारी का समय रहते पता चलने के साथ साथ उपचार के जरिए इससे छुटकारा भी मिल सके, दुनिया के विकसित और विकासशील दोनों ही देशों की महिलाओं में ब्रैस्ट कैंसर सबसे अधिक है.

गलत लाइफस्टाइल

दिल्ली के इन्द्रप्रस्थ अपोलो हॉस्पिटल के सर्जिकल ओंकोलोजिस्ट डॉ रमेश सरीन कहती है कि ब्रैस्ट कैंसर को लेकर अगर निम्न और मध्यम आय वर्गीय देशों की बात करें, तो यहां बीते कुछ सालों से लगातार इसके मामले बढ़ते जा रहे है, क्योंकि अब लाइफस्टाइलऔर शहरीकरण में वृद्धि के साथ साथ लोग सुस्त जीवन शैली अपना रहे हैं. हालांकि साल 2020 में आई कोरोना महामारी की वजह से ब्रैस्ट कैंसर की स्क्रीनिंग काफी पिछड़ी है, साथ ही अस्पताल तक पहुंचने में भी मरीजों को देर हुई.

अर्ली डिटेक्शन

डॉ, सरीन का आगे कहना है कि समय पर पहचान होने से ब्रैस्ट कैंसर की रोकथाम हो सकती है.साथ ही इसके ठीक होने की संभावना भी होती है. देर से इस बीमारी का पता चलने पर मरीज और उसका परिवार न सिर्फ पीड़ा का सामना करता है, बल्कि इससे उपचार पर भी प्रभाव पड़ता है. अब तो ब्रैस्ट कैंसर के उपचार को लेकर गाइडलाइन में भी बदलाव हो चुका है. इस कैंसर की बढ़ोतरी रोकने के लिए दवाओं के अलावा कीमोथेरेपी दी जाती है या फिर ऑपरेशन के जरिए इसे रोका जा सकता है.

जांच में न करे देर

डॉक्टर रमेशकहती है कि कोरोना महामारी या फिर किसी अन्य बीमारी और भ्रांतियों के डर से मरीज को जांच से दूरी नहीं बनानी चाहिए. लक्षणों पर ध्यान देने या फिर स्क्रीनिंग की मदद से  खुद को बचाया जा सकता है. अगर किसी भी तरह का संदेह रहता है, तो तत्काल एक्सपर्ट डॉक्टर से मिलकर चर्चा करनी चाहिए. ब्रैस्ट कैंसर के उपचार को लेकर किसी भी तरह का इंतजार करना जोखिम भरा हो सकता है.डॉक्टर्सआज सभी कोब्रैस्ट कैंसर के लक्षणों को नजरअंदाज न करने की सलाह दे रहे है, जो निम्न है,

लक्षणों पर रखें नजर

महिलाओं में ब्रैस्ट कैंसर के लक्षण एक जैसा होना जरूरी नहीं. ये अलग अलग भी हो सकते हैं. हालांकि अधिकांश मामलों में ब्रैस्ट या फिर निप्पल (ब्रैस्ट का अगला भाग) के रंग रूप में बदलाव होता है, ब्रैस्ट कैंसर के पांच सबसे आम चेतावनी के संकेत निम्न है,

  • ब्रैस्ट में गांठ, सूजन, या फिर उसके आकार में परिवर्तन,
  • ब्रैस्ट की त्वचा में डिंपल होना या मोटा होना,
  • निप्पल पर लाल चकत्ते या उसका धस जाना,
  • दूध के अलावा निप्पल से अन्य तरह का कोई तरल पदार्थ रिसाव होना, आदि है.

ये लक्षण ब्रैस्ट कैंसर के अलावा अन्य स्थितियों के कारण भी हो सकते हैं. ब्रैस्ट टिश्यू स्वाभाविक रूप से ढेले की तरह होते हैं, ऐसे में इनकी बनावट को लेकर कोई बदलाव एक संकेत हो सकता है. एक गांठ या फिर कुछ द्रव्य जो अन्य ब्रैस्ट ऊतक से अलग महसूस कराता है, तो वह ब्रैस्ट कैंसर का लक्षण हो सकता है. यह जानने के लिए निश्चित रूप से एकमात्र तरीका जल्द से जल्द निदान और तत्काल चिकित्सक द्वारा मूल्यांकन कराना है.

ब्रैस्ट कैंसर के जोखिम भरे कारण

ब्रैस्ट कैंसर की आशंका कोबढाने वाले ऐसे कई रिस्क फैक्टर है, जिसके बारें में जान लेना जरुरी है. कुछ निम्न है,

परिवार में किसी को ब्रैस्ट कैंसर का होना

अगर परिवार में किसी को मसलन माँ, दादी, बहन आदि को ब्रैस्ट कैंसर हुआ है, तो आगे आने वाले परिवारजन को भी ब्रैस्ट कैंसर का खतरा रहता है,

आयु

जैसे-जैसे आपकी उम्र बढ़ती है ब्रैस्ट कैंसर होने का खतरा भी बढ़ता है. अधिकांश मामले आमतौर पर 50 वर्ष से अधिक उम्र की महिलाओं में पाया गया है,

शराब पीना

अधिक मात्रा में शराब पीने से भी इसका खतरा बढ़ जाता है,

घने ब्रैस्ट ऊतक होना

डेंस ब्रैस्ट टिश्यू न केवल मैमोग्राम को कठिन बनाते हैं, बल्कि यह एक जोखिम कारक भी माना जाता है,

प्रारंभिक मासिक धर्म या देर से रजोनिवृत्ति

यदि आपकी पहली माहवारी 12 वर्ष की आयु से पहले और 55 वर्ष की आयु के बाद रजोनिवृत्ति हुई है, तो यह माना जा सकता है कि ब्रैस्ट कैंसर का खतरा बढ़ता है. ऐसी ‌स्थिति में चिकित्सीय परामर्श लेनी चाहिए,

अधिक उम्र में बच्चे को जन्म देना 

जिन महिलाओं का 35 वर्ष की आयु के बाद तक पहला बच्चा नहीं होता है, वे महिलाएं जो कभी गर्भवती नहीं हुईं या फिर कभी भी पूर्ण अवधि तक गर्भधारण नहीं किया हो, तो उनमें ब्रैस्ट कैंसर होने की आशंका अधिक होती है,

हार्मोन थेरेपी

जो महिलाएं मेनोपॉज के लक्षणों को कम करने के लिए पोस्टमेनोपॉज़ल एस्ट्रोजन और प्रोजेस्टेरोन जैसी दवाओं का सेवन कर रही हैं या फिर कर चुकी हैं. उनमें ब्रैस्ट कैंसर होने का खतरा अधिक होता है,

तनाव या स्ट्रेस लेना

शरीर में कैंसरकारक कोशिकाएं और जीन्स सुसुप्तावस्था में पड़े रहते हैं. कई बार कोई कैंसर कोशिका विभाजित होना शुरू होती है, तो हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली/इम्युनिटी उसे नष्ट कर देती है. स्ट्रेस और डिप्रेशन से इम्युनिटी कम होती है और हर तरह की बीमारियां सिर उठाने लगती हैं.

पिछला ब्रैस्ट कैंसर

यदि एक ब्रैस्ट में ब्रैस्ट कैंसर की शिकायत हुई है तो दूसरे ब्रैस्ट में भी इसके होने का खतरा बढ़ जाता है, इसलिए वार्षिक जांच आपके लिए बहुत जरूरी है.

करें खुद से जांच

डॉक्टर सरीन नेब्रैस्ट की खुद से जांच करने का तरीका बताया है, ताकि हर महीने यह जांच खुद महिलाएं कर सकें,इसे याद रखने का सबसे अच्छा तरीका है कि आप या तो अपने जन्मदिन की तारीख याद रखें या फिर मासिक धर्म के आखिरी दिन की तारीख को याद रखना है. अगर आपको इस दौरान कोई बदलाव मिलता है, तो आप तुरंत डॉक्टर के पास जाएँ. स्व-परीक्षा से भीअलग वार्षिक ब्रैस्ट परीक्षा होनी चाहिए.50 साल की उम्र के बाद सालाना मैमोग्राफी की जांच बहुत जरूरी है. इससे ब्रैस्ट कैंसर का जल्दी इलाजकिया जा सकता है और इसे फैलने से रोका जा सकता है.

घर पर खुद से जांच करने के नियम इस प्रकार है,

स्टेप 1:लेटना

  • सबसे पहले आप अपने दाहिने कंधे के नीचे एक तकिया रखें और उसके सहारे अपनी पीठ के बल लेट जाएं,
  • अपने दाहिने ब्रैस्ट की जांच के लिए अपने बाएं हाथ की तीन मध्यमा उंगलियों की युक्तियों यानी टिप्स का उपयोग करें,
  • त्वचा से अपनी अंगुलियों को हटाए बिना हल्के, मध्यम और थोड़ा दृढ़ दबाव का उपयोग करके गोलाकार गति में दबाएं
  • अब ऊपर और नीचे करते हुए गति का पालन करें
  • अपने कॉलर की हड्डियों के बीच और अपने स्तनों के नीचे और छाती की हड्डी की मध्य रेखा से अपनी बांह एवं उसके नीचे तक बदलावों को महसूस करें
  • अब इसे अपने दाहिने हाथ से अपने बाएं ब्रैस्ट पर दोहराएं
  • यह प्रक्रिया आप साबुन के हाथों से नहाते समय भी कर सकती हैं.

स्टेप 2: आईने के सामने

इन स्टेप्स के जरिए आप अपने ब्रैस्ट की जांच कर सकती हैं. हालांकि इस दौरान आपको अपना पूरा ध्यान लगाना होगा, ताकि सामान्य से किसी भी बदलाव के बारे में पता चल सके,

  • आईने के सामने खड़ी हो जाएँ,
  • पूरा कपडा उतार लें,
  • दोनों हाथों को पीछे ले जाकर हिप्स पर रखे, ब्रैस्ट में किसी प्रकार के बदलाव को नोटिस करें,
  • हाथों को अपने सिर के ऊपर रखकर ब्रैस्ट और बगल में किसी प्रकार के बदलाव को भी गौर करें,जरुरी नहीं कि ये कैंसर ही हो, लेकिन सावधान रहने की जरुरत है,
  • हाथोंसे कूल्हों को दबाएं और अपनी छाती की मांसपेशियों को कस लें
  • इस दौरान किसी ब्रैस्ट का छोटा लगना, रंग में फर्क दिखना आदि होने पर तुरंत डॉक्टर से संपर्क करें.

कैसे बांझपन का कारण बन सकता है गर्भाशय फाइब्रॉयड

अगर गर्भाशय में किसी भी तरह का  सिस्ट या फाइब्रॉएड है तो ऐसी स्थिति में माँ बनना सम्भव नहीं हो पाता . इसके अलावा ओवरी सिंड्रोम, खून की कमी आदि कई ऐसी बीमारियां है जो हमे देखने मे तो छोटी लगती है पर बच्चा पैदा करने के लिए यही सब समस्याएं बहुत बड़ी बन जाती है.

गर्भाशय में विकसित होने वाले गैर-कैंसरकारी (बिनाइन) गर्भाशय फाइब्रॉयड, महिलाओं के बांझपन के सबसे प्रमुख कारणों में से एक हैं. इस बारे में बता रही हैं डॉ रत्‍ना सक्‍सेना, फर्टिलिटी एक्‍सपर्ट, नोवा साउथेंड आईवीएफ एंड फर्टिलिटी, बिजवासन.

गर्भाशय फाइब्रॉयड, फैलोपियन ट्यूब को बाधित करके या निषेचित अंडे को गर्भाशय में प्रत्यारोपित करने से रोककर प्रजनन क्षमता को बिगाड़ सकता है. गर्भाशय में जगह कम होने के कारण, बड़े फाइब्रॉयड भ्रूण को पूरी तरह से विकसित होने से रोक सकते हैं. फाइब्रॉयड प्लेसेंटा के फटने के जोखिम को बढ़ा सकता है क्योंकि प्लेसेंटा फाइब्रॉयड द्वारा अवरुद्ध हो जाता है और गर्भाशय की दीवार से अलग हो जाता है, जिसकी वजह से भ्रूण को ऑक्सीजन और पोषक तत्व कम मात्रा में मिलते हैं. इससे, समय से पहले जन्म या गर्भपात की संभावना काफी बढ़ जाती है.

गर्भाशय फाइब्रॉयड, गर्भाशय की मांसपेशियों के ऊतकों के बिनाइन (गैर-कैंसरकारी) ट्यूमर हैं. उन्हें मायोमा या लेयोमायोमा के रूप में भी जाना जाता है. फाइब्रॉयड तब बनते हैं जब गर्भाशय की दीवार में एकल पेशी कोशिका कई गुना बढ़ जाती है और एक गैर-कैंसरयुक्त ट्यूमर में बदल जाती है.

फाइब्रॉयड छोटे दाने के आकार से लेकर बड़े आकार के हो सकते हैं, जो गर्भाशय को विकृत और बड़ा करते हैं. फाइब्रॉयड का स्थान, आकार और संख्या निर्धारित करती है कि क्या वे लक्षण पैदा करेंगे या इलाज कराने की जरूरत है.

गर्भाशय फाइब्रायॅड, उनके स्थान के आधार पर वर्गीकृत किये जाते हैं. फाइब्रॉयड को तीन बड़ी श्रेणियों में विभाजित गया है:

1-सबसेरोसल फाइब्रॉयड:

यह गर्भाशय की दीवार के बाहरी हिस्से में विकसित होता है. इस तरह के फाइब्रॉयड ट्यूमर बाहरी हिस्से में विकसित हो सकते हैं और आकार में बढ़ सकते हैं. सबसेरोसल फाइब्रॉयड, ट्यूमर आस-पास के अंगों पर दबाव बढ़ाने लगता है, जिसकी वजह से पेडू (पेल्विक) का दर्द शुरूआती लक्षण के रूप में सामने आता है.

2-इंट्राम्यूरल फाइब्रॉयड:

इंट्राम्यूरल फाइब्रॉयड गर्भाशय की दीवार के अंदर विकसित होता है और वहां बढ़ता है. जब इंट्राम्यूरल फाइब्रॉयड का आकार बढ़ता है तो उसकी वजह से गर्भाशय का आकार सामान्य से ज्यादा हो जाता है. जैसे-जैसे इन फाइब्रॉयड्स का आकार बढ़ता है, उसकी वजह से माहवारी में रक्तस्राव ज्यादा होता है, पेडू (पेल्विक) में दर्द और बार-बार पेशाब जाने की समस्या हो जाती है.

3-सबम्यूकोसल फाइब्रॉयड:

ये फाइब्रॉयड गर्भाशय गुहा की परत के ठीक नीचे बनते हैं. बड़े आकार के सबम्यूकोसल फाइब्रॉयड, गर्भाशय गुहा के आकार को बढ़ा सकता है और फेलोपियन ट्यूब को अवरुद्ध कर सकता है, जिसकी वजह से प्रजनन में समस्याएं होने लगती हैं. इससे जुड़े लक्षणों में शामिल है, माहवारी में अत्यधिक मात्रा में रक्तस्राव और लंबे समय तक माहवारी आना.

कैसे पहचान करें-

पेडू की जांच, लैब टेस्ट और इमेजिंग टेस्ट के जरिये गर्भाशय फाइब्रॉयड का पता लगाया जाता है. इमेजिंग टेस्ट का इस्तेमाल, गर्भाशय की असामान्यताओं का पता लगाने के लिये किया जाता है. इसमें पेट का अल्ट्रासाउंड, योनि का अल्ट्रासाउंड और हिस्टेरोस्कोपी शामिल होती है. हिस्टेरोस्कोपी के दौरान हिस्टेरोस्कोप नाम की एक छोटी, हल्की दूरबीन को सर्विक्स के जरिये गर्भाशय में डाला जाता है. स्लाइन इंजेक्शन के बाद, गर्भाशय गुहा फैल जाएगी, जिससे स्त्रीरोग विशेषज्ञ गर्भाशय की दीवारों और फेलोपियन ट्यूब के मुख की जांच कर पाती हैं. कुछ मामलों में एमआरआई जैसे इमेजिंग टूल्स की जरूरत पड़ सकती है.

उपचार

गर्भाशय फाइब्रॉयड की दवाएं,उन हॉर्मोन्स को लक्षित करती हैं जोकि मासिक चक्र को नियंत्रित करता है, ताकि माहवारी के अत्यधिक रक्तस्राव जैसे लक्षण का उपचार किया जा सके. वैसे तो दवाएं, फाइब्रॉयड को हटा नहीं पातीं, लेकिन उन्हें छोटा कर देती हैं. फाइब्रॉयड्स को हटाने की सर्जरी में पारंपरिक सर्जरी की प्रक्रिया और कम से कम चीर-फाड़ वाली सर्जरी शामिल होती है. “लेप्रोस्कोपिक गाइनकोलॉजिक सर्जरी” जैसी सर्जरी न्यूनतम चीर-फाड़ वाली प्रक्रियाएं होती हैं, जिन्हें बिना ओपन कट किए, गर्भाशय फाइब्रॉयड को सावधानीपूर्वक निकालने के लिये किया जाता है. कैमरे के साथ एक छोटी-सी ट्यूब वाले लेप्रोस्कोप जैसे सर्जरी के उपकरणों को डालने के लिये एक छोटा-सा चीरा लगाया जाता है. इससे स्त्रीरोग विशेषज्ञ को मॉनिटरिंग स्क्रीन पर गाइनेकोलॉजिक अंगों को हर तरफ से देखने में मदद मिलती है. छोटा-सा चीरा लगाकर लेप्रोस्कोपिक सर्जरी करने से दर्द कम होता है और सुरक्षा बढ़ती है, साथ ही साथ ऑपरेशन के बाद की समस्याएं जैसे संक्रमण का दर कम होता है, खून कम बहता है और कम से कम फाइब्रोसिस का निर्माण होता है. सर्जरी के बाद, रोगियों को गर्भधारण के बारे में सोचने से पहले कम से कम एक महीने तक गर्भनिरोधक गोलियां लेने की सलाह दी जाती है.

गर्भाशय फाइब्रॉयड, उच्च एस्ट्रोजन स्तर, गर्भाशय संकुचन, और ओव्यूलेशन डिसफंक्शन जैसी असामान्यताओं का कारण बनता है. इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि फाइब्रॉयड फैलोपियन ट्यूब को अवरुद्ध करके और निषेचित अंडे को गर्भाशय में प्रत्यारोपित करने से रोककर प्रजनन क्षमता को बिगाड़ सकता है. इसलिये, फाइब्रॉयड को खत्म करने के लिये उचित और समय पर उपचार महत्वपूर्ण है.

डाइट के नए फंडे

वजन घटाने और स्लिमट्रिम बने रहने के लिए न सिर्फ महिलाएं बल्कि पुरुष भी इन दिनों तरहतरह के प्रयोग कर रहे हैं. दुनिया भर के पोषण विशेषज्ञ एवं डाइटिशियन इस के लिए तरहतरह के डाइट फौर्मूलों का प्रयोग कर रहे हैं. यहां हम आप को कुछ ऐसी ही डाइट्स के बारे में बता रहे हैं.

अल्कलाइन डाइट

अल्कलाइन डाइट में वेट लौस प्रोग्राम के तहत मुख्य रूप से क्षारीय प्रकृति के भोज्यपदार्थ खाने पर जोर दिया जाता है. इस से बौडी का पीएच बैलेंस 7.35 से 7.45 के बीच बरकरार रखने की कोशिश की जाती है.

फायदे: अल्कलाइन डाइट के पैरोकारों का कहना है कि इस से न सिर्फ वजन घटाने में मदद मिलती है, बल्कि आर्थ्राइटिस, डायबिटीज और कैंसर सरीखी कई बीमारियों में भी राहत मिलती है. इतना ही नहीं यह डाइट ऐजिंग की प्रक्रिया को धीमा रखने में मददगार होती है.

थ्योरी क्या है: अल्कलाइन डाइट के समर्थकों के मुताबिक हमारा रक्त कुछ हद तक क्षारीय प्रकृति का होता है, जिस का पीएच लैवल 7.35 से 7.45 के बीच होता है. हमारी डाइट भी इसी पीएच लैवल को मैंटेन करने वाली होनी चाहिए. अम्ल उत्पादक भोजन जैसे अनाज, मछली, मांस, डेयरी प्रोडक्ट्स आदि खाने से यह संतुलन गड़बड़ा जाता है जिस से जरूरी खनिज जैसे पोटैशियम, मैग्नीशियम, सोडियम आदि का नुकसान हो जाता है. इस असंतुलन से शरीर में बीमारियों का रिस्क बढ़ जाता है और वजन बढ़ने लगता है. इसलिए जरूरी है कि 70% अल्कलाइन फूड खाया जाए और 30% ऐसिड फूड.

सैकंड ओपिनियन: ब्रिटिश डाईटेटिक ऐसोसिएशन के रिक मिलर कहते हैं, ‘‘अल्कलाइन डाइट का सिद्धांत है कि खास भोज्यपदार्थ खाने से शरीर का पीएच बैलेंस मैंटेन रहेगा, लेकिन सही यह है कि शरीर अपना पीएच बैलेंस मैंटेन रखने के लिए डाइट पर निर्भर नहीं है.’’

माना कि अल्कलाइन डाइट से कैल्सियम, किडनी स्टोन, औस्टियोपोरोसिस एवं ऐजिंग की समस्याओं में काफी राहत मिलती है, लेकिन ऐसा कोई प्रमाण नहीं है कि ऐसिड प्रोड्यूसिंग डाइट क्रोनिक बीमारी की वजह है.

मोनो मील डाइट

इस के तहत सुबह या शाम के भोजन में सिर्फ एक खाद्यसामग्री (वह भी फल या सब्जी) रहती है. हमारे प्रचलित भोजन की तरह इस में दालचावल या रोटीसब्जी का तालमेल नहीं रहता. जब कोई मोनो मील पर अमल कर रहा हो, तो वह लंच में सिर्फ केले और डिनर में सिर्फ गाजर या सेब ही खाएगा, दूसरी कोई भी खाद्यसामग्री नहीं. इस डाइट को कोई हफ्ता भर तो कोई 6 महीने तक भी आजमाता है.

फायदे: इस डाइट को अपनाना बेहद आसान है. इस में किसी प्रकार की कृत्रिम खाद्यसामग्री का इस्तेमाल न होने की वजह से इसे हैल्दी भी माना जाता है. एक ही प्रकार का भोजन और वह भी कुदरती होने की वजह से शरीर की पाचन प्रणाली को ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ती.

नुकसान: भोजन में महीने भर से ज्यादा समय तक सिर्फ एक फल या सब्जी पर निर्भर रहना सेहत पर प्रतिकूल असर डाल सकता है. इस से शरीर में ऊर्जा का स्तर भी गिरने लगता है.

ग्लूटेन फ्री डाइट

डाइट की दुनिया में इन दिनों एक ताजा ट्रैंड आया है- ग्लूटेन फ्री डाइट का. इस के पक्षधर अपनी थाली से गेहूं से बने उत्पाद दूर रखते हैं. उन के मुताबिक गेहूंरहित भोजन उन्हें कई बीमारियां से बचाने के साथसाथ उन का ऐनर्जी लैवल भी इंपू्रव करता है.

ग्लूटेन फ्री डाइट के पैरोकारों का मानना है कि ग्लूटेन पोषक तत्त्वों के शरीर में अवशोषण की प्रक्रिया में बाधक होता है. आजकल कई लोग सैलिएक डिजीज से परेशान हैं. यह ग्लूटेन की वजह से होने वाला औटोइम्यून डिसऔर्डर है, जिस की वजह से डायरिया, वजन घटने और औस्टियोपोरोसिस जैसी समस्याएं हो सकती हैं.

जेन डाइट

वेट मैनेजमैंट और गुड हैल्थ के लिए आप ने कई तरह की डाइट्स का नाम सुना होगा, लेकिन जापानी सिद्धांत काइजेन पर आधारित जेन डाइट के बारे में नहीं जानते होंगे. काइजेन का अर्थ है, इंप्रूवमैंट. यह वेट लौस प्लान लाइफस्टाइल की लौंग टर्म ओवरहौलिंग है, जिस में आप अपना भोजन बहुत समझदारी से चुनते और खाते हैं.

अपनी खानपान की आदतों में महत्त्वपूर्ण और स्थायी बदलाव ला कर जैसे, चीनी, प्रोसैस्ड फूड और तैलीय भोजन के त्याग या न्यूनतम सेवन से आप न सिर्फ अपना वजन घटाने में कामयाब हो सकते हैं, बल्कि स्वस्थ जीवन की नीव भी डाल सकते हैं.

शरीर का आदर करें: जेन डाइट में धीरेधीरे अपने भोजन को आनंदपूर्वक खाने की सलाह दी जाती है. आप को प्रेरित किया जाता है कि आप क्या खा रहे हैं उसे देखें, अच्छी नींद लें और आराम भी करें.

धीमी मगर प्रभावशाली: अपनी हैल्थ इंपू्रव करने की चाहत रखने वालों के लिए यह डाइट काफी प्रभावशाली है. इसे अपनाने से वेट लौस स्थायी होता है, लेकिन इस की गति धीमी होती है.

हीमोग्लोबिन की कमी को ऐसे करें पूरा

क्या आप आपके शरीर में हीमोग्लोबिन की पर्याप्त और सही मात्रा के बारे में जानते हैं. पुरुषों में हीमोग्लोबिन की सही मात्रा 14 से 17 ग्राम/100 मिली. रक्त होती है, वहीं स्त्रियों में ये मात्रा 13 से 15 ग्राम/100 मिली. रक्त होती है. शिशुओं के शरीर में हीमोग्लोबिन की मात्रा लगभग 14 से 20 ग्राम/100 मिली. रक्त होनी चाहिए.

यहां हम आपको एक बहुत ही साधारण सी बात बता देना चाहते हैं कि दिन में एक सेब अवश्य खाकर आप आपके शरीर में हीमोग्लोबिन स्तर को सामान्य बनाए रख सकते हैं. इसके अलावा इन बातों का ध्यान रख कर भी आप अपने शरीर में हीमोग्लोबिन की कमी होने से रोक सकते हैं.

स्वास्थ्यवर्ध्क गुणों से भरपूर लीची, रक्त कोशिकाओं के निर्माण और पाचन-प्रक्रिया में सहायक होती है. लीची में बीटा कैरोटीन, राइबोफ्लेबिन, नियासिन और फोलेट जैसे विटामिन बी उचित मात्रा में पाया जाता है. इसमें मौजूद विटामिन लाल रक्त कोशिकाओं के निर्माण के लिए आवश्यक है.

शरीर में हीमोग्लोबिन का स्तर बढ़ाने के लिए चुकंदर सबसे अच्छा खाद्य प्रदार्थ है. चुकंदर पोषक तत्वों की खान है. इसमें आयरन, फोलिक एसिड, फाइबर, और पोटेशियम ये सभी सही मात्रा में पाया जाता है. ये शरीर की लाल रक्त कोशिकाओं की संख्या में तेजी से वृद्धि करता है.

इनके अलावा अनार हीमोग्लोबिन बढ़ाने में बहुत लाभकारी होता है. अनार में आयरन और कैल्शियम के साथ-साथ प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट और फाइबर जैसे तत्व होता हैं, जिनसे शरीर में हीमोग्लोबिन की मात्रा बढ़ाने में मदद मिलती है.

गुड़ का सेवन करना भी एक बेहद उत्तम तरीका है. गुड़ में आयरन फोलेट और कई विटामिन बी शामिल हैं जो हीमोग्लोबिन स्तर को बढ़ाने के लिए और लाल रक्त कोशिकाओं के उत्पादन में मददगार होते हैं.

शरीर में हीमोग्लोबिन की कमी को रोकने के लिए नियमित व्यायाम करना चाहिए. जब आप व्यायाम करते हैं तब आपका शरीर खुद-ब-खुद हीमोग्लोबिन पैदा करता है.

हम आपको बता देना चाहते हैं कि कॉफ़ी, चाय, कोला, वाइन, बियर, ओवर-द-काउंटर एंटाएसिड, कैल्शियम युक्त खाद्य पदार्थ और डेयरी उत्पाद या कैल्शियम सप्लीमेंट्स वाली चीजें शरीर में आयरन सोखने की क्षमता को कम देते हैं. इसीलिए अगर आपका हीमोग्लोबिन स्तर कम हो गया है तो है तो आपको इन खाद्य प्रदार्थों के सेवन से बचना चाहिए.

विटामिन सी की कमी हो जाने के कारण भी हीमोग्लोबिन का स्तर कम हो जाता है. जब शरीर में विटामिन सी की कमी होती है तो इस कारण आपका शरीर सही मात्रा में आयरन को सोख नहीं पाता. इसीलिए विटामिन सी से भरपूर खाद्य प्रदार्थों के सेवन से आप हीमोग्लोबिन का स्तर सही कर सकते हैं.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें