बुल्लीबाई एप: इंटरनेट का दुरुपयोग

बुल्लीबाई एप बना कर 18-20 साल के लडक़ेलड़कियों ने साबित कर दिया है कि देश की औरतें सोशल मीडिया की वजह से कितनी अनसेफ हो गई है. सोशल मीडिया पर डाली गई अपने दोस्तों के लिए फोटो का दुरुपयोग कितनी आसानी से हो सकता है और उसे निलामी तक के लिए पेश कर फोटो वाली की सारी इज्जत धूल में मिटाई जा सकती है.

सवाल यह है कि अच्छे मध्यम वर्ग के पढ़ेलिखे युवाओं के दिमाग में इस तरह की खुराफातें करना सिखा कौन रहा है. सोशल मीडिया एक यूनिवॢसटी बन जाता है जहां ज्ञान और तर्क नहीं बंटता, जहां सिर्फ गालियां दी जाती है और गालियों को सोशल मीडिया के प्लेटफार्मों के फिल्टरों (…..) से कैसे बचा जाए यह सिखाया जा रहा है.

उम्मीद थी कि सारी दुनिया जब धाएधाए हो जाएगी, दुनिया में भाईचारा फैलेगा और देशों के बार्डर निरर्थक हो जाएंगे. वल्र्ड वाइड वेब, डब्लूडब्लूडब्लू, से उम्मीद की कि यह देशों की सेनाओं के खिलाफ जनता का मोर्चा खोलेगी और लोगों के दोस्त, सगे, जीवन साथी अलगअलग धर्मों के, अलगअलग रंगों और अलगअलग बोलियों के होंगे. अफसोस आज यह इंटरनेट खाइयों खोद रहा है, अपने देशों में, एक ही शहर में, एक ही मोहल्ले में और यहां तक कि आपसी रिश्तों में भी. अमेरिका में गोरों ने कालों और हिप्सैनिकों को जम कर इंटरनेट के माध्यम से बुराभला कहा जिसे पिछले राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने खुल्लमखुल्ला बढ़ावा दिया. फेसबुक और ट्विटर को उन्हें, एक भूतपूर्व राष्ट्रपति को, बैन करना पड़ा.

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बुल्लीबाई में इधरउधर से चुराई गई औरतों की तस्वीरें मुसलिम वेशभूषा में हैं और उन की निलामी की गई यह कौन चला रहा था – एक 18 साल की लडक़ी, एक 21 साल का लडक़ा और एक और लडक़ा 24 साल का. इतनी छोटी उम्र में बंगलौर, उत्तराखंड और असम के ये बच्चे से मुसलिम समाज की बेबात में निंदा में लगे थे क्योंकि इंटरनेट के माध्यम से अपनी बात कुछ हजार तक पहुंचाना आसान है और वे हजार लाखों तक पहुंचा सकते हैं, घंटों में. अपने सही नाम छिपा कर या दिखा कर किया गया यह काम इन बच्चों का तो भविष्य चौपट कर ही देगा. क्योंकि ये पकड़े गए पर इन्होंने समाज में खाइयों की एक और खेप खोद डाली.

इन की नकल पर बहुत छोटे और बहुत बड़े पैमाने पर काम किया जा सकता है, राहुल गांधी को बदनाम करने के लिए उस के भाषणों का आगापीछा गायब कर के प्रसारित करने वाले ही उसे बुल्लीबाई के लिए जिम्मेदार हैं जो साबित करना चाहता है कि इस देश में एक धर्म चले. उन्हें यह समझ नहीं कि कभी किसी देशों में कोई राजा, क्रूरता भरे कामों से भी पूरी तरह न विरोधियों को, न दूसरी नसल वालों को, न दूसरे धर्म वालों को, न दूसरी भाषा वालों को खत्म कर गया. बुद्धिमान राजाओं ने तो उन्हें सम्मान दिया ताकि उन के देश दुनिया भर के योग्य लोग जमा हों.

एक शुष्क कैसी युवती चाहती है? जो हिंदूमुसलिम नारे लगाने में तेज हो या प्यार करने में? एक युवती कैसा शुष्क चाहती है? जो समझदार हो, उसे समझता हो, उस की देखभाल कर सके या ऐसा जो पड़ोसी का सिर फोडऩे को तैयार बैठा रहें. हिंदूमुसलिम 100 साल से साथ रह रहे हैं. पाकिस्तान और बांग्लादेश बनने के बाद भी वहां भी ङ्क्षहदू हैं चाहे और अपने दमखम पर जीते हैं. ये छोकरेछोकरी इंटरनेट को ढाल समझ कर बरबादी की बातें सुनसुन कर पगला गए हैं और उन्होंने जो किया है वह लाखों कर रहे हैं जब वे विधर्मी का मखौल उड़ाते मैसेज फौरवर्ड करते हैं. इसका नतीजा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देख लिया जब किसान बिल ही वापिस नहीं लेने पड़े, पंजाब में जनवरी के पहले सप्ताह में रैली रद्द करके लौटना पड़ा. बहाना चाहे कोर्ई हो, यह पक्का है कि रैली स्थल पर 70000 कुॢसयां उस समय भरी हुई नहीं थी जब प्रधानमंत्री एक फ्लाई ओवर पर 20 मिनट तक 12 करोड़ की गाड़ी में बैठे सोच रहे थे कि क्या करना चाहिए. इंटरनेट ने पंजाब में किसानों के प्रति खूब जहर भरा है क्योंकि किसान आंदोलन की शुरुआत वहीं से हुई थी और तब जहर भरे मैसेज इधरउधर फेंके गए थे. बदले में दिल्ली को घेराव मिला और अब प्रधानमंत्री मोदी को मजा चखना पड़ा.

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बेबात में इंटरनेट का दुरुपयोग लोगों को एकदूसरे से दूर कर रहा है. लोग पुरानी दोस्तियां तोड़ रहे हैं, रिश्तों में दरारें आ रही हैं, पति पत्नी के अंतरंग फोटो जनता में उनका मखौल उड़ा रहे हैं. आई लव यू अब कम इंटरनेट पर पौपुलर हो रहा है, अब आई हेट यू, आई हेट योर फैमिली, आई हेट और रिजिलन हो रहा है. व्हाट्सएप शटअप में बदल रहा है, फेसबुक अगली फेस में. इंटरनेट इंटरफीयङ्क्षरग हो गया है.

कब रुकेगा यह सिलसिला

‘‘हद हो चुकी है इंसानियत की. ऐसा लगता है जैसे हम आदिम युग में जी रहे हैं. महिलाओं को अपने तरीके से जीने का अधिकार ही नहीं है. बेचारियों को सांस लेने के लिए भी अपने घर के मर्दों की इजाजत लेनी पड़ती होगी,’’ विनय रिमोट के बटन दबाते हुए बारबार न्यूज चैनल बदल रहा थे और साथ ही साथ अपना गुस्सा जाहिर करते हुए बड़बड़ा भी रहे थे. उन्हें भी टीवी पर दिखाए जाने वाले समाचार विचलित किए हुए हैं. वे अफगानी महिलाओं की जगह अपने घर की बहूबेटी की कल्पनामात्र से ही सिहर उठे.

‘‘अफगानी महिलाओं को इस का विरोध करना चाहिए. अपने हक में आवाज उठानी चाहिए,’’ पत्नी रीमा ने उन्हें चाय का कप थमाते हुए अपना मत रखा. उन्हें भी उन अपरिचित औरतों के लिए बहुत बुरा लग रहा था.

‘‘अरे, वैश्विक समाज भी तो मुंह में दही जमाए बैठा है. मानवाधिकार आयोग कहां गया? क्यों सब के मुंह सिल गए?’’ विनय थोड़ा और जोश में आए.

तभी उन की बहू शैफाली औफिस से घर लौटी. कार की चाबी डाइनिंगटेबल पर रखती हुई वह अपने कमरे की तरफ चल दी.

विनय और रीमा का ध्यान उधर ही चला गया. लंबी कुरती के साथ खुलीखुली पैंट और गले में झलता स्कार्फ… विनय को बहू का यह अंदाज जरा भी नहीं सुहाता.

‘‘कम से कम ससुर के सामने सिर पर पल्ला ही डाल ले, इतना लिहाज तो घर की बहू को करना ही चाहिए,’’ विनय ने रीमा की तरफ देखते हुए नाखुशी जाहिर की.

रीमा मौन रही. उस की चुप्पी विनय

की नाराजगी पर अपनी सहमति की मुहर लगा रही थी.

‘‘अब क्या कहें? आजकल की लड़कियां हैं. अपनी मरजी जीती हैं,’’ कहते हुए रीमा ने मुंह सिकोड़ा.

सवालिया निशान

शैफाली के कानों में शायद उन की बातचीत पड़ गई थी. वह अपने सासससुर के सामने सवालिया मुद्रा में जा खड़ी हुई. बोली, ‘‘आप को क्या लगता है तालिबानी सिर्फ किसी मजहब या कौम का नाम है?’’ कहते हुए शैफाली ने अपना प्रश्न अधूरा छोड़ दिया.

बहू का इशारा समझ कर विनय गुस्से में तमतमाता हुए घर से बाहर निकल गए. रीमा भी बहू के सवालों से बचने का प्रयास करती हुई रसोई में घुस गईं.

यह कोई कपोलकल्पित घटना नहीं है बल्कि हकीकत है. यदि गौर से देखें तो हम पाएंगे कि हमारे आसपास भी अनेक छद्म तालिबानी मौजूद हैं. चेहरे और लिबास बेशक बदल गए हों, लेकिन सोच अभी भी वही है.

इन दिनों हर तरफ एक ही मुद्दा छाया हुआ है और वह है अफगानिस्तान पर तालिबानियों का कब्जा. चाहे किसी समाचारपत्र का मुखपृष्ठ हो या किसी न्यूज चैनल पर बहस हर समाचार, हर दृश्य सिर्फ एक ही तसवीर दिखासुना रहा है और वह है अफगानिस्तान में तालिबानी शासन के बाद महिलाओं की दुर्दशा.

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बुद्धिजीवी और विचारक केवल एक ही बात पर मंथन कर रहे हैं कि वहां महिलाओं पर हो रही अमानवीयता को कैसे रोका जाए? सोशल मीडिया पर तालिबानियों को खूब कोसा जा रहा है. महिलाओं को उन के ऊपर हो रहे अत्याचारों के विरोध में आवाज बुलंद करने के लिए जगाया जा रहा है. सिर्फ मीडिया ही नहीं बल्कि आम घरों के लिविंगरूम में भी यही खबरें माहौल को गरम किए हुए हैं.

कहां है बराबरी

कहने को भले ही हमारे संविधान ने महिलाओं को प्रत्येक स्तर पर बराबरी का दर्जा दिया हो, लेकिन समाज आज भी उसे स्वीकार नहीं कर पाया है. महिलाओं और लड़कियों को स्वतंत्रता देना अभी भी उसे रास नहीं आता.  किसी और का उदाहरण क्या दें, खुद कानून बनाने वाले और संविधान के तथाकथित रखवाले भी महिलाओं को ले कर कितने ओछे विचार रखते हैं इस की बानगी देखिए:

‘‘महिलाएं ऐसे तैयार होती हैं कि उस से लोग उत्तेजित हो जाते हैं,’’ भाजपा नेता कैलाश विजयवर्गीय.

‘‘लड़के लड़के होते हैं, उन से गलतियां हो जाती हैं. लड़कियां ही लड़कों से दोस्ती करती हैं, फिर लड़ाई होने पर रेप हो जाता है,’’ सपा नेता मुलायम सिंह यादव.

‘‘अगर 2 मर्द एक औरत का रेप करें तो इसे गैंगरेप नहीं कह सकते,’’ जेके जौर्ज.

‘‘शादी के कुछ समय बाद औरतें अपना चार्म खो देती हैं. नईनई जीत और नई शादी का अपना महत्त्व होता है. वक्त के साथ जीत की याद पुरानी हो जाती है. जैसेजैसे वक्त बीतता है, बीवी पुरानी होती जाती है और वह मजा नहीं रहता,’’ कांग्रेस नेता श्रीप्रकाश जायसवाल.

अभद्र बयान

सिर्फ बड़े नेता ही नहीं बल्कि स्वयं देश के प्रधानमंत्री पर भी महिलाओं को ले कर दिए गए अभद्र बयान के छींटे हैं. 2012 में उन्होंने एक चुनाव सभा में शशि थरूर की पत्नी सुनंदा थरूर को ‘50 लाख की गर्लफ्रैंड’ कह कर विवाद को जन्म दिया था.

इस के अतिरिक्त महिलाओं को ‘टचमाल’ कह कर दिग्विजय सिंह, ‘परकटी’ कह कर शरद यादव, और ‘टनाटन’ कह कर बंशीलाल महतो भी विवादों में घिर चुके हैं.

आज भी केवल भाई, पति, पिता और बेटा ही नहीं बल्कि हर पुरुष रिश्तेदार के लिए स्त्री की आजादी एक चुनौती बनी हुई है.

‘‘फलां की लड़की बहुत तेज है. फलां ने अपनी बहू को सिर पर चढ़ा रखा है. सिर पर नाचने न लगे तो कहना,’’ जैसे जुमले किसी भी आधुनिक पोशाक पहनी, कार चलाती या फिर बढि़या नौकरी करती अपने मन से जीने की कोशिश करती महिला के लिए सुने जा सकते हैं.

धर्म या समुदाय चाहे कोई भी क्यों न हो, महिलाओं को सदा निचली सीढ़ी ही मिलती है. एक उम्र के बाद खुद महिलाएं भी इसे स्वीकार कर लेती हैं और फिर वे भी महिलाओं के प्रतिद्वंद्वी पाले में जा बैठती हैं. यह स्थिति संघर्षरत महिला बिरादरी के लिए बेहद निराशाजनक होती है.

जानवर जिंदा है

हर व्यक्ति मूल रूप से एक जानवर ही होता है जिसे समाज में रहने के लिए विशेष प्रकार से प्रशिक्षित किया जाता है. अवसर मिलते ही व्यक्ति के भीतर का जानवर खूंख्वार हो उठता है जिस की परिणति बलात्कार, हत्या, लूट जैसी घटनाओं होती है. यही पाशविक प्रवृत्ति उसे महिलाओं के प्रति कोमल नहीं होने देती.

धर्म और संस्कृति के नाम पर सदियों से महिलाओं के साथ कायरता व्यवहार किया जाता रहा है. विभिन्न धर्मों में इसे भिन्नभिन्न नाम से परिभाषित किया जाता है, किंतु मूल में सिर्फ एक ही तथ्य है और वह यह कि महिलाओं की उत्पत्ति पुरुषों को खुश रखने और उन की सेवा करने के लिए ही हुई है. महिलाओं की यौनेच्छा को भी बहुत हेय दृष्टि से देखा जाता है. यहां तक कि विभिन्न प्रयासों से इस नैर्सिगक चाह को दबाने पर भी बल दिया जाता है.

गलत प्रथा

मुसलिम समुदाय की खतना प्रथा यानी फीमेल जेनिटल म्यूटिलेशन को इन प्रयासों में शामिल किया जा सकता है. 2020 में यूनिसेफ द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार दुनियाभर में करीब 20 करोड़ बच्चियों और महिलाओं के जननांगों को नुकसान पहुंचाया गया है. हाल ही में ‘इक्विटी नाऊ’ द्वारा जारी नई रिपोर्ट के अनुसार खतना प्रथा विश्व के 92 से अधिक देशों में जारी है. इस प्रथा के पीछे धारणा यह रहती है कि ऐसा करने से स्त्री की यौनेच्छा खत्म हो जाती है.

महिलाओं को अपनी संपत्ति सम?ो जाने के प्रकरण आदिकाल से सामने आते रहे हैं. बहुपत्नी प्रथा इसी का एक उदाहरण है. मुसलिम पर्सनल ला के अनुसार मुसलमानों को 4 शादियां करने की छूट है. हिंदू और ईसाइयों में हालांकि बहुपत्नी प्रथा को कानूनन प्रतिबंधित कर दिया गया है, लेकिन यदाकदा इस की सूचनाएं आती रहती हैं.

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गुजरात प्रांत में ‘करार’ नामक प्रथा प्रचलित थी जो कहींकहीं लुकेछिपे आज भी जारी है. इस में स्त्रीपुरुष बाकायदा करार कर के साथ रहना स्वीकार करते थे. यह करार ‘लिव इन रिलेशनलशिप’ जैसा ही होता है. फर्क सिर्फ इतना है कि इस में लिखित में करार होने के कारण शायद महिलाएं मानसिक दबाव में रहती हैं और पुरुष के खिलाफ किसी तरह की कोई शिकायत कहीं दर्ज नहीं कराती होंगी. मैत्री प्रथा में पुरुष हमेशा शादीशुदा होता है. हालांकि गुजरात के उच्च न्यायालय ने मीनाक्षी जावेरभाई जेठवा मामले में इसे शून्य आदित घोषित कर दिया था.

स्त्रीपुरुष संबंधी मूल क्रिश्चियन मान्यता के अनुसार गौड ने मैन को अपनी इमेज से बनाया और वूमन को उस की पसली से. पुरुष को यह चाहिए कि वह महिला को दबा कर रखे और उस से खूब आनंद प्राप्त करे.

दोषी कौन

ताजा हालात के अनुसार अफगानिस्तान की महिलाएं पूरे विश्व के लिए सहानुभूति और दया की पात्र बनी हुई हैं क्योंकि तालिबानियों द्वारा लगातार उन की स्वतंत्रता को कैद करने वाले फरमान जारी किए जा रहे हैं. उन पर विभिन्न तरह की पाबंदियां लगाईं जा रही हैं.

तालिबान शासन में लड़कियों को पढ़ने की इजाजत तो दी गई है, लेकिन इस पाबंदी के साथ कि वे लड़कों से अलग पढ़ेंगी और उन से किसी तरह का कोई संपर्क नहीं रखेंगी.

यों देखा जाए तो इस तरह की व्यवस्था भारत सहित अन्य कई देशों में भी है, लेकिन यहां इसे महिलाओं के लिए की गई विशेष व्यवस्था के नाम पर देखा और इसे महिला शिक्षा को बढ़ावा देने के रूप में प्रचारित किया जाता है.

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुमान के अनुसार तालिबान में 90% महिलाएं हिंसा का शिकार हैं और 17% ने यौन हिंसा ?ोली है. मगर मात्र अफगानिस्तान ही नहीं बल्कि विश्व के प्रत्येक कोने से लड़कियों और युवा महिलाओं के लिए इस तरह की आचार संहिता या फतवे जारी होने की खबरें अकसर पढ़नेसुनने में आती रहती हैं.

वैश्विक समुदाय के परिपेक्ष में देखें तो राष्ट्रीय अपराध रिकौर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार भारत में महिलाओं के खिलाफ हर घंटे लगभग 39 अपराध होते हैं, जिन में 11% हिस्सेदारी बलात्कार की है.

यौन हिंसा की शिकार

यूरोप में महिलाओं के खिलाफ हिंसा पर हुए ताजा सर्वे बताते हैं कि लगभग एकतिहाई यूरोपीय महिलाएं शारीरिक या यौन हिंसा की शिकार हुई हैं.

पैरिस स्थित एक थिंक टैंक फाउंडेशन ‘जीन सौरेस’ के मुताबिक देश की करीब 40 लाख महिलाओं को यौन हिंसा का शिकार होना पड़ा. यह कुल महिला आबादी का 12% है यानी देश की हर 8वीं महिला अपनी जिंदगी में रेप का शिकार हुई है.

जनवरी, 2014 में व्हाइट हाउस की एक रिपोर्ट में खुलासा हुआ था कि दुनिया के सब से विकसित कहे जाने वाले देश में भी महिलाओं की स्थिति कुछ खास अच्छी नहीं है. यहां भी हर 5वीं महिला कभी न कभी रेप की शिकार हुई है. चौंकाने वाली बात यह है कि इन में से आधी से अधिक महिलाएं 18 वर्ष से कम उम्र में रेप का शिकार हुई हैं.

न्याय विभाग द्वारा 2000 के अध्ययन में पाया गया कि जापान में केवल 11% यौन अपराधों की सूचना ही दी जाती है और बलात्कार संकट केंद्र का मानना है कि 10-20 गुना अधिक मामलों की रिपोर्ट के साथ स्थिति बहुत खराब होने की संभावना है.

कहीं खतना, कहीं खाप तो कहीं ओनर किलिंग हर तरफ से मरना तो केवल स्त्री को ही है. यह भी गौरतलब है कि इस तरह के फरमान अधिकतर युवा महिलाओं के लिए ही जारी किए जाते हैं और इन का विरोध भी इसी पीढ़ी द्वारा ही किया जाता है. तो क्या उम्रदराज महिलाएं इन फरमानों या शोषण किए जाने वाले रीतिरिवाजों से सहमत होती हैं? क्या उन्हें अपनी आजादी पर पहरा स्वीकार होता है या फिर 40-50 तक आतेआते उन की संघर्ष करने की शक्ति समाप्त हो चुकी होती है?

उम्रदराज महिला नेत्रियों के उदाहरण देखें तो बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भी बलात्कार के मामलों में लड़कों पर अधिक दोषारोपण नहीं करतीं. वहीं दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री दिवंगत शीला दीक्षित भी लड़कियों को ही नसीहत देती नजर आई थीं कि उन्हें ऐडवैंचर से दूर रहना चाहिए.

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उत्तर कोई नहीं

अमूमन घर की बड़ीबूढि़यां समाज के ठेकेदारों द्वारा निर्धारित इन नियमों को लागू करवाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं. एक प्रकार से वे अपनेअपने घर में इन फैसलों का पालन करवाने के लिए अघोषित जिम्मेदारी भी लेती हैं. कहीं यह युवा पीढ़ी के प्रति उन की ईर्ष्या  तो नहीं? कहीं यह विचार तो उन से यह सब नहीं करवाता कि जो सुविधाएं या आजादी भोगने में वे नाकामयाब रहीं वह स्वतंत्रता आने वाली पीढ़ी को क्यों मिले? ठीक वैसे ही जैसे आम घरों में सासबहू के बीच तनातनी देखी जाती है.

सास ने अपने समय में अपनी सास की हुकूमत मन मार कर ?ोली थी, वह यों ही बिना किसी एहसान के अपनी बहू को सत्ता कैसे सौंप दे या फिर उम्रदराज महिलाओं के इस आचरण के पीछे भी कोई गहरा राज तो नहीं? कहीं ऐसा तो नहीं कि पुरुषप्रधान समाज का कोई डर उन के अवचेतन मन में जड़ें जमाए बैठा है और वही डर महिलाओं से अपनी ही प्रजाति के खिलाफ खड़ा कर रहा हो?

प्रश्न बहुत से हैं और उत्तर कोई नहीं. जितना अधिक गहराई में जाते हैं उतना ही अधिक कीचड़ है. चाहे किसी भी धर्म की तह खंगाल लो, स्त्री को सदा ‘नर्क का द्वार’ या फिर ‘शैतान की बेटी’ ही समझ जाता रहा है और उस के सहवास को महापाप. सदियां गुजर चुकी हैं, लेकिन अभी भी कोई तय तिथि नहीं है जिस पर स्त्री की दशा पूरी तरह से सुधरने का दावा किया जा सके. हजारों सालों से जिस व्यवस्था में कोई परिवर्तन नहीं आ सका उस की उम्मीद क्या आने वाले समय में की जा सकती है?

उम्मीद पर दुनिया कायम है या आशा ही जीवन है जैसे वाक्य मात्र छलावा ही दे सकते हैं कोई उम्मीद नहीं.

ओटीटी प्लेटफॉर्म का प्रभाव

बीते पिछले कुछ सालों में ऑनलाइन मनोरंजन इंडस्ट्री में बहुत ज्यादा वृद्धि देखी गयी है. नेटफ्लिक्स, अमेज़ॅन प्राइम, डिज़नी होस्टस्टार, आदि जैसी ऑनलाइन स्ट्रीमिंग सेवाओं के मिलने और तेज़, सस्ती इंटरनेट सेवाओं की शुरूआत होने से भारत में ओटीटी कंटेंट की बहुत बड़ी मात्रा खपत हो रही है. डॉ. प्रकृति पोद्दार, मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ, निदेशक पोद्दार वेलनेस के मुताबिक यहाँ पर बहुत सारे लोग ओटीटी कंटेंट के उपयोगकर्ता  बन गए है. पीडब्ल्यूसी के मीडिया एंड एंटरटेनमेंट आउटलुक 2020 के अनुसार भारत का ओटीटी बाजार 2024 तक दुनिया का छठा सबसे बड़ा बाजार बनने की ओर अग्रसर है.

 ओटीटी प्लेटफॉर्म पर डार्क और वायलेंट शो लोगों के मानसिक स्वास्थ्य को किस प्रकार प्रभावित कर रहे हैं?

जबकि ओटीटी प्लेटफार्मों की बाजार हिस्सेदारी में भी बढ़ोत्तरी जारी है. इन स्ट्रीमिंग प्लेटफॉर्मों की मुख्य समस्या इनका डार्क और वायलेंट कंटेंट रहा है. यह दर्शकों के मानसिक स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकता है. स्क्वीड गेम, हाउस ऑफ सीक्रेट्स, यू और अन्य जैसे वेब सीरीज शो लोगों के बीच कौतुहल का विषय बने हुए हैं, लेकिन वे हिंसा, ड्रग्स, सेक्स और अपराध की संवेदनशीलता को बढ़ा रहे हैं जिससे लोगों का मानसिक स्वास्थ्य नकारात्मक रूप से प्रभावित हो रहा है और सोशल स्किल में गिरावट हो रही हैं.

वायलेंट (हिंसक) और डार्क शो से नस्लीय हिंसक व्यवहार

ओटीटी प्लेटफॉर्म की लोकप्रियता के पीछे सबसे बड़ा कारण मनोरंजन है. स्मार्टफोन, लैपटॉप आदि जैसे गैजेट्स की उपलब्धता और इंटरनेट सेवाओं की पहुंच आसान होने से ओटीटी कंटेंट को कभी भी, कहीं भी देखने की सुविधा मिल जाती है. युवा, विशेष रूप से फ्रेश कंटेंट, दिलचस्प प्लॉट्स और किरदारों और परिस्थितियों की यथार्थवादी प्रस्तुतियों (रियल रिप्रजेंटेशन) के प्रतिनिधित्व से ओटीटी कंटेंट को ज्यादा देख रहे हैं, इन कंटेंट के साथ वे खुद को जोड़ कर देखते हैं. जबकि कुछ कंटेंट शिक्षित और सूचनात्मक है, कुछ हिंसक, अश्लील सामग्री को इस तरह से दिखाया जा रहा है जो दर्शकों के मानसिक स्वास्थ्य को गहराई से प्रभावित कर रहे है.

जब लोग सामूहिक गोलीबारी और अन्य हिंसा के हिंसक वीडियो देखते हैं, तो उनमे प्रत्यक्ष रूप से ट्रामा के होने की संभावना बढ़ जाती हैं. इससे एंग्जाइटी, डिप्रेशन, क्रोनिक स्ट्रेस और अनिद्रा की संभावना बढ़ जाती है. जिन लोगों को PTSD है, उनके लिए इन वीडियो को देखने से फ्लैशबैक जैसे लक्षणों में वृद्धि हो सकती है.

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क्रूर, हिंसक शो या फिल्मों को बार-बार देखने से दर्शकों में भय और चिंता बढ़ सकती है, और यहां तक कि इससे लोगों को स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं भी हो सकती हैं. अध्ययनों के अनुसार आपदाओं, विशेष रूप से आतंकवाद को देखने से PTSD, डिप्रेशन, स्ट्रेस, एन्ग्जाईटी और यहां तक कि नशीलें पदार्थों के सेवन के मामलों में वृद्धि हो सकती है.

युवाओं और बच्चों में किसी के व्यवहार को खुद में नकल करने की ज्यादा संभावना होती है क्योंकि वे आसानी से ऑनलाइन वेब शो और अन्य वीडियो सामग्री पर दिखाई जाने वाली चीज़ों से जुड़े हो सकते हैं. इसका असर यह हो रहा है कि आज के युवाओं में बहुत सारे व्यवहार परिवर्तन लक्षण पैदा हो रहे है. यह न केवल उन्हें उनके व्यवहार और उनके विचारों दोनों में आक्रामक बनाता है, बल्कि उनमे धूम्रपान, शराब पीने, ड्रग्स, न्यूडिटी और अश्लीलता जैसी नियमित रूप से देखी गई चीज़ों से भी प्रभावित होने की संभावना को बढ़ा देता है. ये सब चीजें कई ऑनलाइन वेब शो में अक्सर दिखाए जाते हैं. ये कंटेंट आगे चलकर कम उम्र के लोगों में अस्वस्थ आदतों को विकसित कर सकते हैं.

कई स्टडी में पाया गया है कि हिंसक शो देखने और बच्चों द्वारा हिंसक व्यवहार में वृद्धि के बीच संबंध है. इस बात की पुष्टि 1000 से ज्यादा अध्ययनो में हो चुकी है. बहुत ज्यादा हिंसक चीजें देखने से व्यवहार आक्रामक हो जाता है, यह चीजें खासकर लड़कों में ज्यादा देखने को मिलती है.

बिंज-वाचिंग (किसी कंटेंट को लगातार देखना) से चिंता बढ़ जाती है

बिंज-वाचिंग अपेक्षाकृत एक नई घटना है, लेकिन निश्चित रूप से पिछले कुछ सालों में ओटीटी दर्शकों के बीच यह एक लोकप्रिय ट्रेंड बन गया है. कई स्टडी से पता चला है कि जो लोग बिंज-वाचिंग करते हैं, उनमें ख़राब वाली नींद और अनिद्रा से पीड़ित होने की संभावना ज्यादा होती है. बिंज-वाचिंग करना सर्कैडियन लय को बाधित कर सकता है, जिससे सोना मुश्किल हो जाता है.

मनोवैज्ञानिक रूप से एक वेब सीरीज एक व्यक्ति को घंटों तक बांधे रह सकती है, इस दौरान वह व्यक्ति सोना भी भूल  सकता है. ओटीटी शोज के ड्रामा, टेंशन, सस्पेंस और एक्शन को लोग खूब एन्जॉय करते हैं, लेकिन ये हार्ट रेट रुकने, ब्लडप्रेशर और एड्रेनालाईन को भी बढ़ाते हैं. जब कोई व्यक्ति इन्हे देखने के बाद सोने की कोशिश करता है तो यह अनुभव  एक तनावपूर्ण या हल्का दर्दनाक जैसा महसूस हो सकता है, जो सोने में परेशानी पैदा कर सकता है. नींद में यह व्यवधान व्यक्ति के मानसिक स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो सकता है.

कई अध्ययनों में पाया गया है कि नींद की कमी की समस्या ध्यान, काम करने की याददाश्त और भावनात्मक व्यवहार जैसे मानसिक कामों को आसानी से नुक़सान पहुंचा सकते है. लंबे समय तक अनिद्रा से पीड़ित रहने पर  डिप्रेशन और एंग्जाइटी डिसऑर्डर का ज्यादा खतरा पैदा हो सकता है. बहुत ज्यादा बैठे रहना और स्नैकिंग भी मोटापे और इससे संबंधित समस्याओं जैसे डायबिटीज और हृदय की बीमारियों के खतरे को बढ़ाता है.

 सावधानी और निष्कर्ष

कोई भी जॉनर (शैली) का कंटेंट सबसे उपयुक्त की श्रेणी में नहीं आता है, लोगों को ऐसे किसी भी कंटेंट को देखने से बचना चाहिए जो उन्हें ट्रिगर करने वाला लगे और उन्हें समाज से अलग रखने को प्रेरित करें. एक व्यक्ति को यह समझने की जरूरत है कि कंटेंट को देखने के लिए कोई प्रिसक्रिप्शन (नुस्खा) नहीं है. एक संतुलित जीवन जीने के लिए सही नुस्खा डिजिटल चीजों को ज्यादा देखना नहीं है. जो लोग डिजिटल कंटेंट को ज्यादा देखते हैं, उनके लिए जीवन और काम के बीच संतुलन नहीं रह पाता है इससे उनका स्वास्थ्य नकारात्मक रूप से प्रभावित होता है. दरअसल बार-बार डिजिटल डिटॉक्स करना भी उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना एक्सरसाइज, कला या सामाजिककरण होता है.

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बेबस औरत का दर्द

जीवनसाथी के अचानक चले जाने का गम तो हरेक को होता है और कोविड-19 के कारण लाखों मौतों ने एकदम बहुतों को बिना साथी के समझौते करने पर मजबूर कर दिया है पर उस औरत की त्रासदी का तो कोई अंत ही नहीं है, जिस के पति का पता ही नहीं कि वह मौत के आगोश में गया तो कब और कहां. दिल्ली की एक औरत महिला आयोग के दरवाजे खटखटा रही है कि दिल्ली पुलिस और अस्पताल बता तो दें कि उस के पति की कब कहां मृत्यु हुई या वह कहीं आज भी जिंदा है.

अप्रैल में पुलिस के अनुसार उस के पति को सड़क के किनारे कहीं बेहोश पड़ा पाया गया था और एक अस्पताल में भरती करा दिया गया था. वहां से उसे दूसरे अस्पताल भेजा गया जहां कोई रिकौर्ड नहीं है और अब पत्नी को नहीं मालूम कि उन का क्या हुआ. खुद कैंसर की मरीज पत्नी पति की मृत्यु का प्रमाणपत्र पाने के लिए भटक रही है.

जीवनसाथी के चले जाने के बाद भी उस के हिसाबकिताब करने के लिए बहुत से प्रमाणों की जरूरत होती है. मृत्यु प्रमाणपत्र इस देश में बहुत जरूरी है. उस के बिना तो विरासत का कानून चालू ही नहीं हो सकता. धर्मभीरुओं को लगता है कि वे अगर सारे पाखंड वाले रीतिरिवाज नहीं करेंगे तो मृतक को स्वर्ग नहीं मिलेगा और आत्मा भटकती रहेगी. बहुत मामलों में घर वाले जब तक मृतक का शव न देख लें, यह स्वीकार करने को तैयार ही नहीं होते कि मौत हो चुकी है.

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जैसे उत्तर प्रदेश, बिहार में बहुत से लोगों के मृत्यु प्रमाणपत्र उन के जिंदा रहते जारी कर दिए जाते हैं और वे अपने को जिंदा होने का प्रमाणपत्र खोजते दफ्तरों के चक्कर काटते रहते हैं, वैसे ही जो मर गया उसे खोया गया मान कर कुछ अधूरा मान लिया जाता है जो अपनेआप में एक बहुत ही दुखद स्थिति होती है.

कोविड-19 के भयंकर प्रहार के दिनों में लोगों को अपने प्रियजन का शव देखने तक का अवसर नहीं मिला था पर उन्हें प्रमाणपत्र मिल गया था इसलिए संतोष कर लिया गया. इस मामले में जीवनसाथी

का अभाव, अपनी बीमारी और कागजी काररवाई सरकारी लापरवाही के कारण पूरी न होने के कारण तीहरा दुख सरकार एक बेबस औरत को दे रही है.

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औरत की जिम्मेदारी और सरकार

मंहगाई बढऩे की एक बड़ी वजह सरकार का आम आदमी पर टैक्स बढ़ाना है. सरकार को अब पैट्रोल, डीजल और गैस की शक्ल में एक अनूठा हथियार मिल गया है जिस के सहारे मनमाना टैक्स वसूला जा सकता है. सरकार को जहां 2014 में मनमोहन ङ्क्षसह के जमाने में एक लीटर पैट्रोल पर 9.48  रुपए अब मोदी सरकार 3 गुना 27.90 रुपए वसूल रही है. गैस और डीजल पर भी ऐसा सा ही हाल है.

मोदी सरकार की मनमानी इतनी है कि जहां 2014 में राज्यों को पैट्रोल पर टैक्स से 38 पैसे मिलने में अब 2021 में बढ़ कर सिर्फ 57 पैसे हुए है और भारतीय जनता पार्टी सारे देश में हल्ला मचा रही है कि विपक्षी राज्य सरकारें टैक्स कम नहीं कर रहीं.

2021 में मोदी सरकार ने पैट्रोलियम पदार्थों पर 3.72 लाख करोड़ रुपए जनता से वसूले जबकि पिछले साल 2.23 लाख करोड़ रुपए मिले थे और बहाना बना दिया कि विश्व बाजारों में कच्चे तेल के दाम बढ़ गए हैं. अगर सिर्फ कच्चे तेल के बढ़े दाम जनता से बसूले जाते तो पैट्रोल, डीजल, गैस 5-7 रुपए प्रति लीटर या किलोग्राम बढ़ते.

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केंद्र सरकार जानती है कि इस देश की औरतों को जितना चाहे लूट लो, वे चूं न करेंगी. उन्हें बचपन से ही यह पाठ पढ़ा दिया जाता है कि जो भी आफत आए उसे भगवान की मर्जी मान लो और पूजापाठ कर के बचने की कोशिश करो. फिर भी कुछ न हो तो इसे अपने पिछले जन्मों के कर्मों का फल मान लो. आम जनता को भी कहा जाता है कि तुम बस कर्म करो, फली की ङ्क्षचता न करो. कृष्ण का पाठ बारबार यूं ही नहीं दोहराया जाता. इस में हर युग में राजाओं और शासकों का मतलब छिपा रहा है.

लोकतंत्र में उम्मीद थी कि लोगों के टैक्स का पैसा उन कामों में इस्तेमाल होगा जो अकेले बना नहीं कर सकते. स्कूल बनेंगे, सडक़ें बनेंगी, बिजली के कारखाने लगेंगे, बाग बनेंगे, अस्पताल बनेंगे. ये बने भी पर अब सब बनना कम हो गया है.

अब अगर सडक़ें बन रही है तो वे जिन पर 25-30 लाख से मंहगी गाडिय़ां दौड़ सके. बाग बन रहे हैं तो वहां जहां धन्ना सेठ रहते हैं या मंदिर है. स्कूल बनाने का काम जनता पर छोड़ दिया गया है. सरकारी मुफ्त स्कूल न के बराबर रह गए है और वहा जाता है कि वहां पढ़ाई नहीं हो या उनको सुधारने के लिए पैसा नहीं है.

जनता का टैक्स तो देना पड़ ही रहा है अब बदले में उसे न चिकित्सा मिल रही है, न सस्ती पढ़ाई मिल रही है, न मुफ्त सडक़ें मिल रही हैं, न सुरक्षा मिल रही है. एक बड़ी रकम तो हर जगह चौकीदारों, सिक्योंरिटी पर खर्च करनी पड़ रही है क्योंकि पुलिस को तो क्राउड मैनेजमैंट के लगाना पड़ रहा है, उस क्राउड को पीटने के लिए जो टैक्स वसूलने वाली सरकार का विरोध करने जमा हो रही है.

इस मोदी सरकार आमदनी से कुछ सौ लोगों की चांदी ही चांदी हो रही है. शेयर बाजार ऊंचा जा रहा है, अडानी अंबानी जैसे उद्योगपति सरकार के साथ रहने की वजह से और अमीर हो रहे हैं. आम औरत गरीब हो रही है.

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आज देश की लाखों औरतों को घर चलाने के लिए मुथुट जैसी कंपनियों के दरवाजों पर कर्ज के लिए सिर पटकना होता है जहां जेवर रख कर पैसे मिल जाते हैं. हर थोड़े दिन बाद इन कंपनियों के पूरे पेज के विज्ञापन छपते हैं कि बारीक शब्दों में छपे नंबरों के खातेदारों का जमा सोना निलाम किया जा रहा है. टैक्स वसूली के साथ कर्ज वसूली का धंधा भी जोरों से चमचमा रहा है.

औरतें जब तक अपने हकों के लिए असली गुनाहगारों को नहीं पहचानेंगी, उन्हें लूटा जाएगा, घरों में मातापिता, भाई, पति, सास, ससुर लूटते हैं, बाहर सरकार उन्हें बचाने नहीं आती उन के घर की कमाई को छीनने आती है. हर टैक्स औरत पर टैक्स है क्योंकि घर तो उसे ही चलाना होता है.

‘बुके नहीं बुक उपहार में दीजिये’- मुकेश मेश्राम, प्रमुख सचिव, पर्यटन एवं संस्कृति

किताबों के पढने से जीवन में क्रांतिकारी बदलाव आता है. इससे न केवल अच्छी सोंच का विकास होता है बल्कि जीवन में आने वाली कठिनाईयों का मुकाबला कैसे किया जाय इसकी क्षमता का भी विकास होता है. वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी (आईएएस) और उत्तर प्रदेश  के पर्यटन एवं संस्कृति विभाग के प्रमुख सचिव के रूप में कार्यरत मुकेश मेश्राम के करियर को देखे तो जीवन में किताबों के महत्व का पता चलता है. मुकेश मेश्राम मध्य प्रदेश  के बालाघाट जिले के वनग्राम बोरी गांव के रहने वाले है. इनके पिता प्राइमरी स्कूल में अध्यापक और मां खेतों में काम करती थी. मुकेश मेश्राम अपने घर से 5 किलोमीटर दूर स्कूल में पढने जाते थे. पढाई में अच्छे होने के कारण ग्रामीण प्रतिभा खोज परीक्षा की छात्रवृत्ति में तीसरी रैंक पाकर अच्छे स्कूल में दाखिला मिला. वहां से शिक्षा के क्षेत्र में आगे बढे.

भोपाल के मौलाना आजाद टेक्नलौजी कालेज से आर्किटेक्ट में बीआर्क किया. आईआईटी रूढकी से एमआर्क करने के बाद इसरों में सांइटिस्ट के रूप में अपना कैरियर शुरू किया. वहां से भोपाल के मौलाना आजाद कालेज औफ टेक्नॉलौजी में प्राध्यापक के रूप में तैनात हो गये. जहां से उन्होने सिविल सर्विसेज की तैयारी की. पहली बार असफल होेने के बाद हार नही मानी. 1995 में वह सविल सर्विसेज में चुने गये. जम्मू-कश्मीर  कैडर मिला. 1998 में वह उत्तर प्रदेश आये और यहां विभिन्न प्रशासनिक पदों पर रहते खुद की एक अलग पहचान बनाई. आज भी उनके जीवन में बेहद सरलता और सहजता है. वे घूमने फिरने, कविताएं लिखने व किताबे पढने का शौक  रखते है. चिडियों के कलरव व नदियो के कलकल ध्वनि को सबसे अच्छा संगीत मानते है. मुकेश मेश्राम का व्यकितत्व इंजीनियरिग और कला साहित्य का अदभुत संगम है. पेश है उनके साथ एक खास बातचीत के प्रमुख अंश :-

सवाल  – आपका बचपन बहुत संघर्षपूर्ण और रोमांचक रहा है. आगे बढने में किन चीजों ने मदद की?

जवाब- हमारे पिता जी स्कूल टीचर थे. वह घर से 10-12 किलोमीटर दूर पढाने के लिये जाते थे. उस समय स्कूल टीचर का वेतन बहुत नहीं होता था. हम 5 भाई और 4 बहने थे. ऐसे में बहुत परेशानी थी. मेरी मां खेतों में काम करने जाती थी जिससे घर की आर्थिक मदद हो सके. हमने मेहनत से पढाई की. 8 कक्षा के बाद स्कालरशिप के लिये ग्रामीण प्रतिभा खोज परीक्षा पास की. वहां से खुद से आत्मनिर्भर बनाना षुरू किया. हम स्कूल में पढाई के साथ ही साथ दूसरे काम करते थे. प्रकृति से लगाव था तो गांव में ‘प्रेरणा बाल सभा’ बनाई. जिसके जरिये पौधे लगाने और कल्चरल कार्यक्रम करने लगे. मुझे कहानी और कविता लेखन का शोक था. इसमें मुझे राज्यस्तरीय पुरस्कार भी मिले. किताबों और अपने मातापिता का सहयोग आगे बढाने मे मददगार रहा.

सवाल  – स्कूल से जब आप कालेज पहंुचे तो वहां पत्रिका का प्रकाशन भी शुरू किया?

जवाब- आर्किटैक्चर की पढाई के पहले साल में ही 16 वर्ष की उम्र में हमने एक पत्रिका ‘सुबास’ नाम से शुरू की. जिसमें विज्ञान, साहित्य, क्विज के साथ ही साथ युवाओं और बच्चों को लेकर जो भी फैसले सरकार करती थी उसको प्रकाशित किया जाता था. इसका आरएनआई रजिस्ट्रेशन भी कराया था. हमने तमाम बडे साहित्यकारों से संपर्क किया. इसके लिये उन सबने लिखा. 3 साल यह पत्रिका प्रकाशित हुई. हमारे साथी इसमें सहयोग देते थे. जब बीआर्क के 4 साल में पहुंचे पढाई में ज्यादा वक्त देने लगे तो यह पत्रिका बंद हो गई. इस पत्रिका को लोग बहुत पसंद करते थे. संपादक के नाम इतने पत्र आते थे कि पोस्ट ऑफिस वालों ने हमारे लिये अलग बॉक्स लगवा दिया था.

सवाल  – ‘आर्किटेक्ट’ से सिविल सर्विसेज मेे कैसे जाना हुआ?

जवाब- बीआर्क के बाद एमआर्क करने के बाद मैं जॉब करने लगा. पहले दिल्ली में फिर इसरों में. इसके बाद भोपाल में रीजनल इंजीनियरिंग कालेज में पढाते वक्त मुझे साथियों ने प्रोत्साहित किया कि सिविल सर्विस की परीक्षा मुझे देनी चाहिये. पहली बार सफल नहीं हुये. हमने इतिहास विषय लिया था. तैयारी पूरी नहीं थी. इसके बाद दूसरी बार में सफल हुये और 1995 में सिविल सर्विस में आ गया. वहा से बहुत सारे पदो पर काम करने का मौका मिला. समाज को अलग तरह से देखने और समझने के साथ ही साथ उनके लिये कुछ करने का मौका मिला. जिससे मन को सुकून मिलता है.

सवाल  – आमतौर पर कहा जाता है कि हिंदी बोलने और लिखने वाले लोग इस परीक्षा में बहुत सफल नहीं होते. आपकी क्या राय है?

जवाब- ऐसा नहीं है. अगर हम आंकडों को देखे तो अब तक सिलेक्ट हुए  26 फीसदी लोग उत्तर प्रदेश और बिहार से आते है. जो हिंदी बेल्ट कही जाती है. सिविल सर्विस में हर किसी को भी अवसर मिलता है. अगर वह अपने विषय का अच्छा जानकार हो. अच्छे से पढने वाले इस परीक्षा को पास कर लेते है. किताबों और अनुभव से जो ज्ञान मिलता है. वह इस कैरियर में आगे बढाने में मदद करता है. हमंेे लगता है कि लोगो को उपहार में बुके की जगह बुक देनी चाहिये. इससे लोग पढेेगे और समझदार बनेगे.

सवाल  – आप पतिपत्नी दोनो ही प्रशासनिक सेवा में है. कैसे तालमेल होता है?

जवाब- हम घर में कभी ऑफिस का काम नहीं ले जाते. एक दूसरे के काम का सम्मान करते है. इस तरह से जब समझदारी से काम होता है तो कोई दिक्कत नहीं आती है.

सवाल  – आपकी और हॉबीज क्या है?

जवाब- पर्यटन, स्केचिंग, म्यूजिक सुनने का शौक  है. मैं अक्सर इसके लिये प्राकृतिक जगहों पर पर्यटन करता हॅू.

दहेज माने क्या

लेखक -अमन दीप   

दहेज कहूं या सरेआम दी जाने वाली रिश्वत, बात तो एक ही है. चलिए, सारी लड़ाई ही खत्म कर देते हैं आज. आज सवाल भी खुद कर लेते हैं और उस का जवाब भी खुद दे देते हैं.

तर्क : शादी एक सम  झौता है.

जवाब : चलिए, मान लिया कि शादी एक ‘सम  झौता’ है. ‘डील’ कह लीजिए. सम  झौता करने में शर्म आए न आए, सम  झौता बोलने में शर्म जरूर आती है.

तो भैया, यह कौन सी डील हुई? डील में तो एक हाथ से लेना, एक हाथ से देना होता है. आप तो लड़की भी दे रहे और उस के साथ उस का ‘पेमैंट’ भी आप कर रहे. ऐसे कैसे चलेगा मायके वालो?

तर्क : लड़की पराया धन होती है.

जवाब : भई, जब लड़की है ही उन की, जिन को आप सौंप आए तो किस बात की ‘भुगतान राशि’ भर आए भाईसाहब?

लड़की है कि आप की पौलिसी? भरे जा रहे हैं बिना सोचेसम  झे?

अपना धन भी आप देंगे, पराए लोगों का धन भी आप देंगे और   झुकेंगे भी आप ही जीवनभर? खुद के लिए तालियां भी खुद ही बजा लेंगे न?

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तर्क : हम यह सब सामान अपनी बेटी की सुखसुविधा के लिए दे रहे हैं.

जवाब : एक बात बताइए, जब सुखसुविधा का सामान आप को ही जुटा कर देना पड़ रहा है, तब या तो आप ने लड़का ही ऐसा देखा है जिस के पास खुद का कुछ सामान नहीं है तब तो ठीक है क्योंकि अपनी जिंदगी में लड़का पैदा कर के बस उन्होंने आप ही के ट्रक भर सामान भेजने का इंतजार किया है.

और अगर आप कहेंगे, लड़का तो संपन्न है, तो भैया, दोदो बार फ्रिज, डबलबैड, डाइनिंग सैट दे कर क्या करिएगा?

तर्क : देना पड़ता है, सामने वाले क्या सोचेंगे?

जवाब : एक काम करिए, सामने वाले की सोच की ही चिंता कर लीजिए आप. अपने बच्चे की खुशी, स्वाभिमान आदि सब बाद में. सब से पहले समाज और ससुराल.

बेहतर होगा, आप सामने वाली ‘पार्टी’ ही बदल लें. हो सकता है इस से अच्छी ‘डील’ आप को मिल जाए.

तर्क : लोग क्या कहेंगे?

जवाब : सब से बड़ा रोग, क्या कहेंगे लोग!

यह बताइए, जो कुछ सामग्री आप वहां डिस्प्ले में लगाने वाले हैं, उन में से कितने का पेमैंट आप के ‘लोग’ करने वाले हैं?

या उन में से कुछ भी उन के घर जाने वाला है? नहीं न. तो वे क्या सोचेंगे, इस से फर्क पड़ने की एक वजह बता दीजिए, बस.

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सचाई यह है कि- दहेज न उपहार है न उपकार.

समय आ गया है, सच अपनाने की हिम्मत रखें.

सरासर गलत इस परंपरा को अपने रिवाज, समाज, लिहाज, मुहताज जैसे शब्दों की दीवार के पीछे छिपाना बंद कीजिए.

सरकारी मकान और औरतों का फैसला

एक जमाना था जब किसी भी तरह की पक्की छत लोगों को स्वीकार थी या आज लाइफ स्टाइल के साथ मजबूती और टिकाऊ भी मकान में होना जरूरी हो गया है. जहां पहले दिल्ली डेवलेपमैंट अथौरिटी के मकानों को अलाट कराने के लिए हजार तरह की सिफारिशें लगाई जाती थीं और रिश्वतें दी जाती थीं अब ये मकान लौटाए जा रहे हैं और हाल में 27′ लोगों ने अपने मकान लेने से इंकार कर दिया.

ये सरकारी मकान अब सस्ते तो नहीं रह गए थे उलटे इन की बनावट खराब है और यह पक्का है कि इनकी रखरखाव पर डीडीए कोई ध्यान न देगा क्योंकि डीडीए अपने लिए जीता है, चलता है, काम करता है. जनता के लिए नहीं. घरों के चलाने वाली औरतों ने अब खराब मकान लेने से इंकार कर दिया चाहे वे वर्षों इन का इंतजार कर चुकी हो.

आज की औरत को डीडीए ही नहीं देश भर की सरकारें कम न समझें. शिक्षा और आजादी ने उन्हें इतनी समझ दे दी है कि अकेलेे होते घरों में वे पहली धुरी हैं और उन के पति. पिता या बेटे बाद में आते हैं. घर को चलाने के लिए आवश्यकताओं की समझ उन्हें है और घर ही चुनौतियों का सामना उन्होंने ही करना है. अब वे इंकार करना जानती है और डीडीए यह सब करोड़ों का नुकसान सह कर समझ रही है.

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आज की औरतें मकान के रखरखाव पर बहुत ज्यादा चूजी होती जा रही हैं और अब जैसा है चलेगा की भावना खत्म होती जा रही है. मकानों में प्राइवेट बिल्डरों की बाढ़ आ गई है और डीडीए जैसे सरकारी संस्थाएं अब निरर्थक हो गई हैं. औरतों को अब सरकारी बाबू नहीं चाहिए जिस के सामने वे गिड़गिड़ाएं, उन्हें अब सप्लायर चाहिए जो उन की मर्जी से काम करे, जो उन की सुने और उन की शिकायत दूर करे.

सरकारी मकान तो एक उदाहरण है कि किसी की भी मोनोपोंली असल में भीषण में होती है आज यही टैक्नोलौजी में हो रहा है जिस में कुछ कंपनियों ने एकाध्धिककार कर के दिमाग और जानकारी पर वैसा ही कब्जा कर लिया है जैसा भवनों और मकानों की जमीनों पर 30 साल पहले सरकार का था. आम जनता और विशेषत औरतों की एक पीढ़ी ने बहुत बुरे मकानों में अपने जीवन के कीमती साल बर्बाद करें क्योंकि सरकार को अपनी चलाने की पड़ी थी.

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आज सरकार सुधरी है, ऐसी नहीं लगता. सरकार आज भी घरों के आसपास में ऐसा ढंग से नहीं रख पा रही है और शहर में कुछ वीआईपी इलाकों को छोडक़र सब दूसरी जगहों को बुरी तरह निग्लैक्ट किया जा रहा है क्योंकि औरतों ने राकेश टिकैत की तरह धरने देने शुरू नहीं किए हैं. अगर शाहीन बाग और किसान मोर्चो की तरह कालोनी सुधार मोर्चे लगने शुरू हो जाएं तो ही शहरी जीवन सुधरेगा. कुछ हफ्तों की मेहनत बाकी जीवन को सुधार देगी.

लोकतंत्र और धर्म

धर्म और संस्कृति के नाम पर जो शोषण सदियों से औरतों का हुआ है वह जनतंत्र या लोकतंत्र के आने के बाद ही रुका था पर अब फिर षड्यंत्रकारी धर्म के दुकानदार अपनी विशिष्ट अलग प्राचीन संस्कृति के नाम पर पुरातनी सोच फिर शोप रहे हैं जिस में औरतें पहली शिकार होती है. अफगानिस्तान में तालिबानी शासन में तो यह साफ ही है. पर भारत में भी अनवरत यत्र, हवन, प्रवचनों, तीर्थ यात्राओं, पूजाओं, श्री, आरतियों, धाॢमक त्यौहारों के जरिए लोकतंत्र की दी गई स्वतंत्रता को जमकर छीना जा रहा है. अमेरिका भी आज बख्शा नहीं जा रहा जहां चर्चा की जमकर वकालत की वजह गर्भधत पर नियंत्रण लगाया जा रहा है जो असल में औरत के सेक्स सुख का नियंत्रण है और जो औरत को केवल बच्चे पैदा करने की मशीन बनाता है, एक कर्मठ नागरिक नहीं.

कल्चरल रिवाइवलिज्म के नाम पर भारत में देशी पोशाक, देशी त्यौहार, जाति में विवाह, कुंडली, मंगल देव, वास्तु, आरक्षण के खिलाफ आवाज उठाई जा रही है जो धर्म के चुंगल से निकालने वाले लोकतंत्र को हर कमजोर कर रही है और मंदिरमसजिद गुरुद्वारे धर्म को मजबूर कर रही हैं. इन सब धर्म की दुकानों में औरतों को पल्ले की कमाई तो चढ़ानी ही होती है उन्हें हर बार अपनी लोकतांत्रिक संपत्ति का हिस्सा भी धर्म के दुकानदार को देकर अपना पड़ता है. यह चाहे दिखवा नहीं है क्योंकि ये सारे धर्म की दुकानें पुरुषों द्वारा अपने बनाए नियमों और तौरतरीकों से चलती है और इस में मुख्य जना जो पूजा जाता है. वह या तो पुरुष होता है या हिंदू धर्म किसी पुरुष की संतान या पत्नी होने के कारण पूजा जाता है. भाभी औरत का वजूद नहीं रहता और यह मतपेटियों तक पहुंचता है.

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लोकतंत्र सिर्फ वोट देने का अधिकार नहीं है. लोकतंत्र का अर्थ है सरकार और समाज को चलाने का पुरुष के बराबर का सा अधिकार. इस देश में इंदिरा गांधी, जयललिता और ममता बैनर्जी जैसी नेताओं के बावजूद देश का लोकतंत्र पुरुषों को गुलाम रहा है और धर्म के आवरण में फिर उसी रास्ते पर हर रोज बढ़ रहा है.

नरेंद्र मोदी की सरकार में औरतों की उपस्थिति न के बराबर है. 2014 में सुषमा स्वराज ने प्रधानमंत्री पर ये चाह रखी थी तो उन्हें न चुने जाने के बाद उन को विदेश मंत्री की जगह वीजा मंत्री बना कर दर्शा दिया गया कि औरतों की कोई जगह नहीं है. वित्तमंत्री निर्मला सीतारमन अपने हर वाक्य में जय श्री राम नहीं जय नरेंद्र मोदी बोलती हैं ताकि उन की गद्दी बची रहे. यह एक पढ़ीलिखी, सुघड़, सुंदर, स्मार्ट और हो सकता है कमाऊ पत्नी की तरह जो हर बात में उन से पूछ कर बताऊंगी का उत्तर देती हैं. लोकतंत्र का आखिरी अर्थ है कि हर औरत चाहे दफ्तर में हो, राजनीति में हो, स्कूल में हो या घर में आप फैसले खुद ले सकें.

लोकतंत्र का लाभ औरतों को मिले इस की लंबी लड़ाई स्त्री और पुरुष विचारकों ने 18वीं व 19वीं शताब्दी में लड़ी पर 20वीं के अंत में व 21वीं के प्रारंभ की शताब्दी में यह लड़ाई कमजोर हो गई है. आज अमेरिका की औरतें गर्भपात केंद्रों पर धरने दे रही हैं और भारत की कर्मठ आजाद गुजराती औरतें अपना सकें. पुरुष गुरुओं के नव रही हैं.

लोकतंत्र का अर्थ आॢथक आजादी भी है जो शून्य होती जा रही है. हर उस औरत की महिमा गाई जाती है जिस ने ऊंचा स्थान पाया हो पर यह भी बता दिया जाता है कि यह उस के पिता या पत्नी के कारण मिला है. जिन महिला अधिकारियों के खिलाफ  आजकल कुछ आॢथक अपराध के मामले चल रहे हैं उन की परतें खोलने पर साफ दिख रहा है कि असल बागडोर तो पतियों के हाथों में ही थी.

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लोकतंत्र की भावना को कुचलने में धर्म का ही बड़ा स्थान है क्योंकि पूंजीवाद तो औरतों को बड़ा ग्राहक मानता है. इज्जत देता है और इसलिए लोकतंत्र की रक्षा करता है. धर्म को वेवकूद औरतें चाहिए जिन्हें हांका जा सके और वे अपने एजेंट धरधर भेजते है. लोकतंत्र का कोई एजेंट नहीं है, लोकतंत्र को छलनी करने के सैनिकों की पूरी फौज है. कब तक बचेगा लोकतंत्र और कब तक आजाद रहेंगी औरतें, देखने की बात है. अभी तो क्षितिज पर अंधियारे बादल दिख रहे हैं.

जीवन की चादर पर आत्महत्या का कलंक क्यों?

रीना की बेटी रिया एक होनहार स्टूडेंट थी एक दिन ग्रुप स्टडी का बोल कर रात भर घर से बाहर रही ऐसे में जब घर मे बात पता चली तो रीना ने उसे खूब डाँटा और बात करना बंद कर दी क्योंकि माँ होने के नाते उसे लगा कि इस से रिया को अपनी गलती का अहसास होगा और आगे कभी बिना बताए ऐसा नहीं करेगी किंतु उसे क्या पता था कि रिया इतनी सी बात पर बजाय अपनी माँ से बात करने के अठारहवें माले से कूदकर अपने जीवन का ही अंत कर लेगी और रीना के जीवन मे अंतहीन अंधकार छोड़ जाएगी.इसी तरह रोहन पढ़ाई के लिए मुम्बई आया और गलत संगत में पड़ गया घर में कहता रहा कि मन लगाकर पढ़ रहा है किंतु जब रिजल्ट आया तो वो फेल हो गया था घर मे ये बताने की उसे हिम्मत न हुई उसे लगा कि किस मुँह से माता पिता का सामना करेगा इस से सरल उसे मौत को गले लगाना लगा और वो फाँसी पर झूल गया ये दो किस्से तो इस भयावह समस्या की बानगी भर है .ऐसी खबरें दिल दिमाग को झकझोर के रख देती हैं.किस तरह युवाओं और किशोरों के मन में इस तरह के विध्वंसक विचार आ सकते हैं.मोबाइल फ़ोन  न मिलना और दोस्तों के साथ बाहर जाने की इजाज़त न मिलना से लेकर एकतरफा प्रेम या घर में मनपसंद खाना न मिलने जैसी कई छोटी छोटी सी बातों पर युवाओं की आत्महत्या के किस्से सुनकर दिल दहल जाता है फिर भी ये हमें सोचने पर मजबूर करता है कि ऐसा क्या है जो ये इतनी कम उम्र में इस तरह आत्महत्या जैसा गंभीर कदम उठा लेते हैं.

कुछ समय पहले तक जब वैयक्तिक जीवन इतना कठिन नहीं था, मनुष्य की इच्छाएं और आवश्यकताएँ भी सीमित थीं तब आत्महत्या जैसे मामले कम ही देखने को मिलते थे, किंतु पिछले कुछ वर्षों में जीवन की विषमताओं से तंग आकर व्यक्ति का अपने जीवन को अंत करने की प्रवृत्ति में इज़ाफ़ा हुआ है.

वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनाइजेशन की माने तो दुनिया में हर चालीस सेकंड में एक मृत्यु आत्महत्या के चलते होती है .ऐसी क्या मनःस्थिति हो जाती है इंसान की जो वो ये कर बैठता है.नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो(एन सी आर बी) के अनुसार पिछले दस सालों में देश में आत्महत्या के मामले 17.3 %तक बढ़े हैं.हर 10 सितंबर को वर्ल्ड सुसाइड प्रीवेंशन डे मनाया जाता है जिस से आत्महत्या के कारणों को समझा जा सके और लोगों को ऐसा करने से रोका जा सके.आत्महत्या का कारण तो कोई भी हो सकता है विशेषकर युवाओं की अगर बात करें तो आंकड़ों से यह साफ पता चलता है कि पिछले दस वर्षों में 15-24 साल के युवाओं में आत्महत्या के मामले सौ प्रतिशत से अधिक बढ़े हैं, ये मान्यता थी कि पारिवारिक आर्थिक संकट और पैसों की परेशानी ही व्यक्ति को आत्महत्या करने के लिए मजबूर करती है लेकिन अब आर्थिक कारणों से कहीं अधिक कॅरियर की चिंता या विफलता युवाओं को आत्महत्या करने के लिए विवश कर रही है. इसके अलावा एक तरफ अभिभावकों व अध्यापकों का पढ़ाई के लिए बनाया जाने वाला मानसिक दबाव तो दूसरी ओर साधन संपन्न दोस्तों की तरह जीवन शैली अपनाने का दबाव उनमें आत्महत्या करने जैसी प्रवृत्ति को बढ़ावा दे रहा है. इसके इतर कम उम्र के भावुक प्रेम संबंधों में कटुता या असफलता भी युवाओं के आत्महत्या करने का एक बड़ा कारण है किंतु फिर भी अभिभावकों का उनसे अत्यधिक अपेक्षाएँ उन्हें मानसिक रूप से कमजोर बना देती हैं और अंत में उनके पास अपना जीवन समाप्त करने के अलावा अन्य कोई विकल्प नहीं रह जाता.कोटा(राजस्थान) जो कि एक एजुकेशन हब के रूप में प्रसिद्ध हो गया है वहाँ देश भर के बच्चे आईआई टी की कोचिंग लेने आते हैं वहाँ बच्चे पढ़ाई के दबाव या अपने सहपाठियों से पीछे रह जाने के दुख में आत्महत्या करने के लिए प्रेरित होते हैं.

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मनोवैज्ञानिकों की मानें तो कोई भी व्यक्ति अचानक आत्महत्या करने के बारे में नहीं सोच सकता, उसे इतना बड़ा कदम उठाने के लिए खुद को तैयार करना पड़ता है और पहले से ही योजना भी बनानी पड़ती है. तनावपूर्ण जीवन, घरेलू समस्याएं, मानसिक रोग आदि जैसे कारण युवाओं को आत्महत्या करने के लिए विवश करते हैं.युवाओं के पास कई बार अपनी बात शेयर करने को कोई अनुभवी या बड़ा व्यक्ति नहीं होता जो उनकी बात धैर्य से सुनकर समस्या का समाधान कर सके इस अभाव के चलते भी युवाओं के द्वारा की जाने वाली आत्महत्याओं की संख्या अधिक है.विशेषज्ञ कहते हैं कि आत्महत्या मनोवैज्ञानिक के साथ-साथ एक आनुवंशिक समस्या भी है, जिन परिवारों में पहले भी कोई व्यक्ति आत्महत्या कर चुका होता है उसकी आगामी पीढ़ी या परिवार के अन्य सदस्यों के आत्महत्या करने की संभावना बहुत अधिक रहती है. वहीं दूसरी ओर वे युवा जो आत्महत्या के बारे में बहुत अधिक विचार करते हैं या उस से संबंधित सामग्री देखते पढ़ते हैं उनके आत्महत्या करने की आशंका काफी हद तक बढ़ जाती है इसे  सुसाइडल फैंटेसी कहा जाता है.

पर युवा ये कदम अक़्सर ये मानसिक आवेग के चलते ही उठाते हैं.आमतौर पर जब मन में स्वयं को ख़त्म कर लेने की बात मन में आती है कहीं न कहीं वो परिस्थितियों से हार कर अवसाद में घिरे होते हैं.उनकी मानसिक स्थिति ऐसी होती है कि उन्हें लगता है कि उनके जीवन का कोई मतलब नहीं है और जिस समस्या के वो शिकार हैं उसका कोई हल नहीं हो सकता. उनका मन नकारात्मक विचारों से भरा होता है अपने दर्द से मुक्ति का उन्हें कोई रास्ता नहीं सूझता है.कुछ युवा गुस्से ,निराशा और शर्मिन्दगी में ये कदम उठा लेते हैं दूसरों के सामने वे सामान्य व्यवहार करते हैं जिस से उनकी मानसिक स्थिति का अंदाज नहीं लगाया जा सकता है. युवा ही नहीं अधिकाँशतः सभी लोग अपने जीवन में कभी न कभी आत्महत्या का विचार अवश्य करते हैं किसी किसी में ये भावना बहुत तीव्र होती हैं कुछ में ये क्षणिक होती है जो बाद में आश्चर्य करते हैं कि हम ऐसा सोच कैसे सकते हैं.हालाँकि ऐसे लोगों को आप पहचान नहीं सकते पर कुछ लक्षण इनमें होते हैं जैसे ठीक से खाना न खाना अपने मनोभावों को ये ठीक तरह व्यक्त नहीं कर पाते हैं. विशेषज्ञों के मुताबिक किसी व्यक्ति में आत्महत्या का विचार कितना गंभीर है, इसकी जांच ज़रूरी है और इसके लिए मेंटल हेल्थ काउंसलिंग हेल्पलाइन की मदद लेनी चाहिए या फिर डॉक्टर को दिखाना चाहिए .युवाओं में अगर ये लक्षण दिखाई दें तो अवश्य ही ध्यान देने की जरूरत है मनोचिकित्सकों के अनुसार व्यवहार में इस तरह के संकेत मिलें तो आत्महत्या का विचार आ सकता है.

अवसाद,मानसिक स्थिति का एकसमान नहीं रहना,बेचैनी और घबराहट का होना,जिस चीज़ में पहले खुशी मिलती थी, अब उसमें रुचि ना होना,हमेशा नकारात्मक बातें करना, उदास रहना.मनोचिकित्सकों की मानें तो,इस तरह की “मानसिक स्थिति वाले लोग आत्महत्या का खयाल आने पर खुद को नुक़सान पहुंचा सकते हैं,इसलिए उनका तुरंत इलाज करना ज़रूरी है,”परंतु कई बार आत्महत्या का विचार आने पर मनोचिकित्सक के पास जाना सरल नही होता ऐसे में कई जगह जैसे मुम्बई के केईएम अस्पताल में इसके लिए एक हेल्पलाइन चलाई जा रही है जिस से फोन पर बात करके अपनी समस्याओं का समाधान किया जा सकता है

हमारी आधुनिक जीवनशैली इसके लिए बहुत हद तक उत्तरदायी है.आज जीवन जिस तरह से भागदौड़ और प्रतिस्पर्धा से भरा हुआ है उसमें हम नई पीढ़ी को सुविधाएँ तो दे रहे हैं पर उन्हें मानसिक रूप से सुदृढ़ बनाने में असफल हो रहे हैं.उनको हम जीवन में जीतना तो सिखाते हैं पर हार को स्वीकारना नहीं सिखा पा रहे.जीवन मे उतार चढ़ाव अच्छा बुरा सभी कुछ देखना पड़ता है उस सब के लिए मानसिक तैयारी होनी ही चाहिए .एक असफलता पर अपनी हार मान लेना या अगर कोई ग़लती हो गयी तो उसे जीवन से बड़ा मान लेना कोई समझदारी तो नहीं है .ऐसी कोई समस्या नहीं बनी है जिसका कोई समाधान न हो यदि ये बात समझ ली जाए तो आत्महत्या रोकी जा सकती है.यदि परिवार के बड़े इनकी भावनाओं को समझें इनको समय दें इनकी समस्याओं को सुने इनका नज़रिया समझने का प्रयत्न करें तो शायद ऐसी स्थिति से बचा जा सकता है.कई बार युवाओं के मन मे इस तरह की धारणा बन जाती है कि माता पिता किसी भी बात पर नाराज़ हो जाएंगे या उनकी प्रतिष्ठा को ठेस पहुँचेगी इसलिए वो इस बात के लिए उन्हें माफ नहीं करेंगे जबकि ऐसे में उन्हें याद रखना चाहिए कि उनकी कोई भी ग़लती, कोई भी असफलता माता पिता के लिए उनके जीवन से अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं है ,उनका होना उनका बने रहना अधिक मायने रखता है .पर अभिभावकों पास भी समय का अभाव है उनकी अपनी समस्याएँ हैं इसलिए वो ये सोच ही नहीं पाते और उनका बच्चा दूर अवसाद की दुनिया में चला जाता है और जब कोई अनहोनी घट जाती है तब वो जागते हैं और तब तक देर हो चुकी होती है. जीवन अपने आप मे बहुत अमूल्य है इस तरह से जीवन से पलायन सही नहीं होता हमारे धर्मग्रंथों में भी लिखा है कि आत्महत्या करने पर मुक्ति नहीं होती इसलिए मानसिक रूप से सबल बनना चाहिए.कई बार जिस छद्म प्रतिष्ठा को बचाने के प्रयास में युवा इस तरह का कठौर कदम उठा लेते हैं वास्तव में उनके इस कदम के बाद माता पिता को और भी अधिक मानसिक यातनाओं और अपमान से गुजरना पड़ता है.

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आजकल संयुक्त परिवार की व्यवस्था समाप्त होने से युवाओं को वो मानसिक सुरक्षा मिलना बंद हो गयी है जो उन्हें अपने दादा दादी या नाना नानी के साथ रहने पर स्वाभाविक तौर पर मिला करती थी.कई बार अपनी कोई भी परेशानी जो वो माता पिता से शेयर नही कर पाते थे वो दादा दादी से आसानी से शेयर कर लेते थे और अपनी समस्या का आसान समाधान उन्हें मिल जाता था और माता पिता की अनुपस्थिति में उनकी गतिविधियों पर एक स्नेहपूर्ण दृष्टि भी बनी रहती थी जिस से ऐसी अनहोनी कम घटित होती थीं.ऐसे में माता पिता की जिम्मेदारी इस बात के लिए बढ़ जाती है कि वो अपने युवावस्था में कदम रख चुके बच्चों को ये समझा सकें कि कल्पनाओं से इतर जीवन के कठोर पक्ष को वो  सहजता से स्वीकार सकें.उनको ये समझाना कि छोटी छोटी परेशानियों में आहत होने जैसा कुछ भी नहीं है ना ही शर्मिंदगी वाली कोई बात ज़रूरी नहीं कि जीवन में सब कुछ मन मुताबिक हो.मनोचिकित्सकों की माने तो कई बार ये एक तरह की मानसिक बीमारी भी होती है जिस से युवा इस तरह के कदम उठा लेते हैं.इस तरह का मानसिक विकार आने के बाद अचानक वो अपने को अकेला महसूस करने लगते हैं.खाना पीना भी कम हो जाता है और उन्हें बेचैनी सी रहती है.ऐसे में तुरंत मनोचिकित्सक की राय लेना चाहिए परंतु इसके लिए जरूरी है कि मानसिक स्वास्थ्य पर ध्यान बना रहे.आज की पीढ़ी का जीवन के प्रति सकारात्मक नज़रिया बनाना बहुत ज़रूरी है तभी इस समस्या से उबर पाना मुमकिन है.

गौरतलब है कि शेक्सपीयर ने भी लिखा है कि-” जीवन अपने निकृष्टतम रूप में भी मृत्यु से बेहतर है.”

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