Kahaniyan : अजनबी – आखिर कौन था उस दरवाजे के बाहर

Kahaniyan : ‘‘नाहिद जल्दी उठो, कालेज नहीं जाना क्या, 7 बज गए हैं,’’ मां ने चिल्ला कर कहा. ‘‘7 बज गए, आज तो मैं लेट हो जाऊंगी. 9 बजे मेरी क्लास है. मम्मी पहले नहीं उठा सकती थीं आप?’’ नाहिद ने कहा.

‘‘अपना खयाल खुद रखना चाहिए, कब तक मम्मी उठाती रहेंगी. दुनिया की लड़कियां तो सुबह उठ कर काम भी करती हैं और कालेज भी चली जाती हैं. यहां तो 8-8 बजे तक सोने से फुरसत नहीं मिलती,’’ मां ने गुस्से से कहा. ‘‘अच्छा, ठीक है, मैं तैयार हो रही हूं. तब तक नाश्ता बना दो,’’ नाहिद ने कहा.

नाहिद जल्दी से तैयार हो कर आई और नाश्ता कर के जाने के लिए दरवाजा खोलने ही वाली थी कि किसी ने घंटी बजाई. दरवाजे में शीशा लगा था. उस में से देखने पर कुछ दिखाई नहीं दे रहा था क्योंकि लाइट नहीं होने की वजह से अंधेरा हो रहा था. इन का घर जिस बिल्ंि?डग में था वह थी ही कुछ इस किस्म की कि अगर लाइट नहीं हो, तो अंधेरा हो जाता था. लेकिन एक मिनट, नाहिद के घर में तो इन्वर्टर है और उस का कनैक्शन बाहर सीढि़यों पर लगी लाइट से भी है, फिर अंधेरा क्यों है? ‘‘कौन है, कौन,’’ नाहिद ने पूछा. पर बाहर से कोई जवाब नहीं आया.

‘‘कोई नहीं है, ऐसे ही किसी ने घंटी बजा दी होगी,’’ नाहिद ने अपनी मां से कहा. इतने में फिर घंटी बजी, 3 बार लगातार घंटी बजाई गई अब.

?‘‘कौन है? कोई अगर है तो दरवाजे के पास लाइट का बटन है उस को औन कर दो. वरना दरवाजा भी नहीं खुलेगा,’’ नाहिद ने आराम से मगर थोड़ा डरते हुए कहा. बाहर से न किसी ने लाइट खोली न ही अपना नाम बताया. नाहिद की मम्मी ने भी दरवाजा खोलने के लिए मना कर दिया. उन्हें लगा एकदो बार घंटी बजा कर जो भी है चला जाएगा. पर घंटी लगातार बजती रही. फिर नाहिद की मां दरवाजे के पास गई और बोली, ‘‘देखो, जो भी हो चले जाओ और परेशान मत करो, वरना पुलिस को बुला लेंगे.’’

मां के इतना कहते ही बाहर से रोने की सी आवाज आने लगी. मां शीशे से बाहर देख ही रही थी कि लाइट आ गई पर जो बाहर था उस ने पहले ही लाइट बंद कर दी थी. ‘‘अब क्या करें तेरे पापा भी नहीं हैं, फोन किया तो परेशान हो जाएंगे, शहर से बाहर वैसे ही हैं,’’ नाहिद की मां ने कहा. थोड़ी देर बाद घंटी फिर बजी. नाहिद की मां ने शीशे से देखा तो अखबार वाला सीढि़यों से जा रहा था. मां ने जल्दी से खिड़की में जा कर अखबार वाले से पूछा कि अखबार किसे दिया और कौनकौन था. वह थोड़ा डरा हुआ लग रहा था, कहने लगा, ‘‘कोई औरत है, उस ने अखबार ले लिया.’’ इस से पहले कि नाहिद की मां कुछ और कहती वह जल्दी से अपनी साइकिल पर सवार हो कर चला गया.

अब मां ने नाहिद से कहा बालकनी से पड़ोस वाली आंटी को बुलाने के लिए. आंटी ने कहा कि वह तो घर में अकेली है, पति दफ्तर जा चुके हैं पर वह आ रही हैं देखने के लिए कि कौन है. आंटी भी थोड़ा डरती हुई सीढि़यां चढ़ रही थी, पर देखते ही कि कौन खड़ा है, वह हंसने लगी और जोर से बोली, ‘‘देखो तो कितना बड़ा चोर है दरवाजे पर, आप की बेटी है शाजिया.’’ शाजिया नाहिद की बड़ी बहन है. वह सुबह में अपनी ससुराल से घर आई थी अपनी मां और बहन से मिलने. अब दोनों नाहिद और मां की जान में जान आई.

मां ने कहा कि सुबहसुबह सब को परेशान कर दिया, यह अच्छी बात नहीं है.

शाजिया ने कहा कि इस वजह से पता तो चल गया कि कौन कितना बहादुर है. नाहिद ने पूछा, ‘‘वह अखबार वाला क्यों डर गया था?’’ शाजिया बोली, ‘‘अंधेरा था तो मैं ने बिना कुछ बोले अपना हाथ आगे कर दिया अखबार लेने के लिए और वह बेचारा डर गया और आप को जो लग रहा था कि मैं रो रही थी, दरअसल मैं हंस रही थी. अंधेरे के चलते आप को लगा कि कोई औरत रो रही है.’’

फिर हंसते हुए बोली, ‘‘पर इस लाइट का स्विच अंदर होना चाहिए, बाहर से कोई भी बंद कर देगा तो पता ही नहीं चलेगा.’’ शाजिया अभी भी हंस रही थी. आंटी ने बताया कि उन की बिल्ंिडग में तो चोर ही आ गया था रात में. जिन के डबल दरवाजे नहीं थे, मतलब एक लकड़ी का और एक लोहे वाला तो लकड़ी वाले में से सब के पीतल के हैंडल गायब थे.

थोड़ी देर बाद आंटी चाय पी कर जाने लगी, तभी गेट पर देखा उन के दूसरे दरवाजे, जिस में लोहे का गेट नहीं था, से पीतल का हैंडल गायब था. तब आंटी ने कहा, ‘‘जो चोर आया था उस का आप को पता नहीं चला और अपनी बेटी को अजनबी समझ कर डर गईं.’’ सब जोर से हंसने लगे.

Story In Hindi : नींद- मनोज का रति से क्या था रिश्ता

Story In Hindi : उस ने दो, तीन बार पुकारा रमा… रमा, पर कोई जवाब नहीं.

‘‘हुंह… अब यह भी कोई समय है सोने का,‘‘ वह मन ही मन बड़बड़ाया और किचन की तरफ चल दिया. वहां देखा कि रमा ने गरमागरम नाश्ता तैयार कर रखा था. सांभर और इडली बन कर तैयार थीं.

‘‘कमाल है, कब बनाया नाश्ता?‘‘ वह सोचने लगा. तभी उसे याद आया कि रति का फोन आया था और वह बात करताकरता छत पर चला गया था. उस ने फोन उठा कर काल टाइम चैक किया. एक घंटा दस मिनट. उस ने हंस कर गरदन हिलाई और मुसकराते हुए अपना नाश्ता ले कर टेबल पर आ गया.

रमा ने लस्सी बना कर रखी थी. उस ने बस एक घूंट पिया ही था कि भीतर से रमा की आवाज आई, ‘‘मनोज, मेरे फिर से तीखा पीठदर्द शुरू हो गया है. मैं दवा ले कर सो रही हूं. फ्रिज से नीबू की चटनी जरूर ले लो.‘‘

‘‘हां… हां, बिलकुल खा रहा हूं,‘‘ कह कर मनोज ने उस को आश्वस्त किया और चटखारे लेले कर इडलीसांभर खाता रहा. वह मन ही मन बुदबुदाया, ‘‘चलो कोई बात नहीं. अगर सो भी रही है तो क्या हुआ, कम से कम सुबहरात थाली तो लगी मिल ही रही है. बाकी अपनी असली जिंदगी में रति जिंदाबाद.‘‘ अपनेआप से यह कह कर मनोज नीबू की चटनी का मजा लेने लगा.

समय देखा, दोपहर के पौने 12 बज रहे थे. अब उसे तुरंत फैक्टरी के लिए निकलना था. उस ने जैसे ही कार की चाबी उठाई, उस आवाज से चौकन्नी हो कर रमा ने कहा, ‘‘बाय मनोज हैव ए गुड डे.‘‘

‘‘बाय रमा, टेक केयर,‘‘ चलताचलता वह बोलता गया और सोचता भी रहा कि कमाल की नींद है इस की. मनोज कभी अपनी आंखें फैला कर तो कभी होंठ सिकोड़ कर सोचता रहा. पर, इस समय न वह भीतर जाना चाहता था और न ही उस की कमर में हाथ फिरा कर कोई दर्द निवारक मलहम लगाना चाहता था. उस ने खुद को निरपराध साबित करने के लिए अपने सिर को झटका दिया और सोचा कि अब यह सब ठेका उस ने ही तो नहीं ले रखा है, बाहर के काम भी करो, रोजीरोटी के लिए बदन तोड़ो और घर आ कर रमा के दुखते बदन में मलहम भी लगाओ. यह सब एक अकेला कब तक करे.

मनोज खुद अपना वकील और जज भी दोनों ही बन रहा था, पर सच बात तो यह थी कि वह यह सब नहीं करना चाहता था और जल्दी से जल्दी रति का चेहरा देखना चाहता था.

गाड़ी निकाल कर मनोज फैक्टरी के रास्ते पर था. मोबाइल पर नजर डाली तो उस में रति का संदेश आ रहा था.

वह हंसने लगा. कम से कम यह रति तो है उस की जिंदगी में. चलो रमा अब 50 की उम्र में बीमार है. अवसाद में है. जैसी भी है, पर निभ ही जाती है. जीवन चल ही रहा है.

यों भी पूरे दिन में मनोज का रमा से पाला ही कितना पड़ता है. पूरे दिन तो रति साथ रहती है. जब वह नहीं रहती, तब उस के लगातार आने वाले संदेश रहते हैं. रति है तो ऐसा लगता है जीवन में आज भी ताजगी ही ताजगी है, बहार ही बहार है. एक लौटरी जैसी रति उस को कितनी अजीज थी. पिछले 3 महीने से रति उस के साथ थी.

रति अचानक ही उस के सामने आ गई थी. वह अपनी फैक्टरी के अहाते में पौधे लगवा रहा था, तभी वह गेट खोल कर आ गई. वह रति को देख कर ठिठक गया था. ऐसे तीखे नैननक्श, इतनी चुस्त पोशाक और हंसतामुसकराता चेहरा. वह आई और आते ही पौधारोपण की फोटो खींचने लगी, तो मनोज को लगा कि शायद प्रैस से आई है. और यों भी पूरी दोपहर उस की खिलौना फैक्टरी में लोगों का तांता लगा रहता था, कभी शिशु विकास संस्थान, तो कभी बाल कल्याण विभाग. कभी ये गैरसरकारी संगठन, तो कभी वो समूह, यह सब लगा रहता था.

मनोज ने रति को भी सहज ही लिया. पौधारोपण पूरा होतेहोते शहर के लगभग 10 अखबारों से रिपोर्टिंग करने वाले प्रतिनिधि आ गए थे. मनोज ने देखा कि रति कोई सवाल नहीं पूछ रही थी. वह बस यहांवहां इधरउधर घूम रही थी, बल्कि रति ने चाय, कौफी, नाश्ता कुछ भी नहीं लिया था.

मनोज को कुछ उत्सुकता सी होने लगी कि आखिर यह कौन है और उस से चाहती क्या है?

कुछ देर बाद चाय, नाश्ता हो गया. फोटो, खबर और सूचना ले कर एकएक कर के सभी प्रैस रिपोर्टर विदा ले कर चले भी गए. पर रति तो अब भी वहीं पर थी. अब मनोज को अकेला पा कर वह उस के पास आई और बेबाक हो कर बोली, ‘‘आप से बस 2 मिनट बात करनी है.”

‘‘हां… हां, जरूर कहिए,‘‘ कह कर मनोज ने पूरी सहमति दी.

‘‘जी, मेरा नाम रति है और मुझे आप की फैक्टरी में काम चाहिए.‘‘

‘‘काम चाहिए, पर अभी तो यहां स्टाफ एकदम पूरा है,‘‘ मनोज ने जवाब दिया.

‘‘जी, किसी तरह 4-5 घंटे का काम दे दीजिए. आप अगर चाहें तो मैं एक आइडिया दूं.‘‘

‘‘हां… हां, जरूर,‘‘ मनोज ने उत्सुकता से कहा, तो वह झट से बोली थी, ‘‘आप अपनी फैक्टरी और इस गोदाम की छत पर सब्जियांफूल उगाने का काम दे दीजिए.‘‘

‘‘अरे… अरे, ओह्ह,‘‘ कह कर मनोज हंसने लगा. वह रति की देह को बड़े ही गौर से देख कर यह प्रतिक्रिया दे बैठा, क्योंकि उस का मन यह मानने को तैयार नहीं था कि रति यह सब कर सकती है.

‘‘हां… हां, क्यों नहीं,” मनोज ने कहा.

“आप इतने मनमोहक पौधों का पौधारोपण करा रहे हो. प्रकृति से तो आप को खूब प्यार होगा. मेरा मन तो यही कहता है,‘‘ ऐसा बोलते समय रति ने भांप लिया था कि मनोज खुश हो गया है.

अब उस के इसी खुश मूड को ताड़ कर वह बोली, ‘‘जी, आप मेरा भरोसा कीजिए. मैं बाजार में बिकवा कर इन की लागत भी दिलवा सकती हूं. और तो और यह तो पक्का है कि आप को मुनाफा ही होगा.‘‘

रति ने कुछ ऐसी कशिश के साथ यह बात कही कि मनोज मान गया.

मनोज को इतना भी पैसे का लालच नहीं था, पर रति का आत्मविश्वास और उस की मनमोहक अदा ने मनोज को उसी समय उस का मुरीद बना दिया था.

उस ने अगले दिन रति को फिर बुलाया और कुछ नियमशर्तों के साथ काम दे दिया. 3 सहायक उस के साथ लगा दिए गए.

बस वह दिन और आज का दिन, रति कभी बैगन, कभी लाल टमाटर, हरी मिर्च, पालक, धनिया वगैरह ला कर दिखाती रहती.

मनोज भी खुश था कि जरा सी लागत में खूब अच्छी सब्जी और फूल खिल रहे थे.

पिछले दिनों रति के इसी कारनामे के कारण मनोज को पर्यावरण मित्र पुरस्कार से भी नवाजा जा चुका था. पूरे शहर में आज बस उस की ही फैक्टरी थी, जो हरियाली से लबालब थी. आएदिन कोई न कोई फोटोग्राफी की वर्कशौप भी वहीं छत पर होने लगी थी.

रति तो उस के लिए बहुत काम की साबित हो रही थी. यही बात उस ने रति की पीठ पर इत्र की बोतल उडे़लते हुए एक दिन उस से कह दी थी. उस पल अपने अनावृत बदन को उस के सीने में छिपाते हुए रति ने आंखें बंद कर के कहा था, ‘‘बस ये मान लो मनोज कि जिंदगी को जुआ समझ कर खेल रही हूं.

‘‘यह जो मन है ना मनोज, इस के सपने खंडित होना नहीं चाहते. खंडित सपने की नींव पर नया सपना अंकुरित हो जाता है. मैं करूं भी तो क्या. तुम हो तो तुम्हारे दामन में निश्चिंत हूं, आने वाले पल में कब क्या होगा, मैं खुद भी नहीं जानती.’’

उस दिन रति ने उस के सामने अपनी देह के साथ जीवन के भी राज खोल दिए थे. सूखे कुएं की मुंडेर पर अपने मटके लिए वो 7 साल से किसी अभिशाप को ढो रही थी.

पहलेपहले तो पति बाहर कहीं भी जाते थे, तो रति को ताला लगा कर बंद कर के जाते थे. फिर उस ने उन को उन के तरीके से जीतना शुरू किया. वह उन के इस दो कौड़ी के दर्शन को बारबार सराहने लगी. उन को उकसाने लगी कि आप को सारी दुनिया में अपनी बातें फैलानी चाहिए.

दार्शनिक और सनकी पति को सुधारने में समय तो जरूर लगा, पर रति का काम बन गया. इसलिए अब वही हो रहा है जो रति चाहती है. पति बाहर ही रहते हैं और रति को आजादी वापस मिल गई है. कितनी प्यारी है ये आजादी. जितनी सांसें हैं अपने तरीके से जीने की आजादी.

रति को एक हमदर्द चाहिए था. एक अपना जो रोते समय उस की गरदन को कंधा दे सके.

दिन बीतते रहे. हौलेहौले वह जान गया था कि रति को नौकरी नहीं बस मनोज चाहिए था. एक पागल और जिद्दी पति और उस के चिंतन से आजिज आ चुकी रति ने एक बार एक चैनल के साक्षात्कार में मनोज को देखा तो बस उस को हासिल करने की ठान ही ली थी.

पति के दर्शन और ज्ञानभरी बातों से वह दिनभर ऊब जाती थी. नौकरी तो बहाना था. उस को अब इस जीवन में कुछ घंटे हर दिन मनोज का साथ चाहिए था.

मनोज को वह दिन रहरह याद आ रहा था, जब पहली बार रति उस को अपने घर ले गई थी. उस दिन रति के पति नहीं थे, पर वहां नौकरचाकर थे. सबकुछ था. कितनी सुखसुविधाओं से लवरेज था उस का आलीशान बंगला. मगर, उस के घर पर अजीब सी खामोशी थी. पर, मनोज को इस से कुछ खास फर्क नहीं पड़ता था. रति उसे बिंदास अपने घर पर भी उतना ही हक दे रही थी, जितना वह मनोज को अपनी नशीली, मादक देह पर कुछ दिन पहले दे चुकी थी.

उस दिन जब वह रति से उस के घर पर मिल कर लौट रहा था, तब यही सोच रहा था कि उस की भी तो कोई चाहत है, कोई रंग उस को भी तो चाहिए ही. अब वह और रमा हमउम्र हैं, ठीक है. रमा को जीवन में आराम चाहिए, करे. पूरी तरह आराम कर. पर उस को तो रंगीन और जवान जिंदगी चाहिए. इधर रति खुद एक लता सी किसी शाख का सहारा चाहती थी ना. बस हो गया. एक तरह से वह रति पर अहसान कर रहा था और उस का काम भी चल रहा था.

यही सोचतसोचता वह घर पहुंच गया था. वह जैसे ही भीतर आया, किसी पेनकिलर मलहम की तेज महक उस की नाक में घुसी और उस के कदम की आहट सुन कर रमा की आवाज आई, ‘‘मनोज आ गए तुम. खाना रखा है. प्लीज, खा लो. मैं तो बस जरा लेटी हूं. अब इस दर्द में बिलकुल उठा नहीं जा रहा.‘‘

‘‘हां… हां रमा, ठीक है. तुम आराम करो, सो जाओ,‘‘ कह कर वह बाथरूम में घुस गया.

मनोज बखूबी जानता है कि रमा की नींद रूई से भी हलकी है. कभी लगता है कि उस की नींद में भाप भरी होती है. रमा कभी बेसुध नहीं रहती, कभी चैन की नींद नहीं सोती. ज्यों ही खटका होता है, उस के होने के पहले ही जाग उठती है.
रमा भी अजीब है. इस की यह चेतना सदैव चौकन्नी रहती है. उस को याद है, जब बेटा स्कूल में पढ़ रहा था. परीक्षा के लिए रमा ही उस के साथ रातबिरात जागती थी. तब भी वह बेखबर सोया रहता. पर, रमा उस की एक आहट से जाग जाती और उस को चायकौफी बना कर दे देती थी. तब भी वो कमसिन रमा को झट से जागते, काम करते केवल चुपके से देखता था, दूर से उस को एकटक निहारता था. पर बिस्तर से जाग कर खुद काम नहीं करता था. कभी नहीं.

अब बेटा विदेश में पढ़ रहा है, नौकरी कर के वहीं बस जाएगा, ऐसा उस का फैसला है.

रमा और मनोज दोनों ही अपने बेटे का यह संकल्प जानते हैं. यही सोचता हुआ मनोज बाथरूम से तरोताजा हो कर बाहर आया, तो उस ने परदे की आड़ से कमरे में झांका, रमा सो गई थी.
मनोज ने देखा कि नींद में उस की यह सुंदरता कितनी रहस्यमयी है. उस की नींद और सपनों के कितने कथानक होंगे, क्या वह भी शामिल होगा उन में, शायद नहीं. कहीं ऐसा तो नहीं कि कोई भय हो, जो कहीं से इस के मन में भरा हो? इसीलिए जब भी मनोज आता है, रमा सोई मिलती है.

वह चुपचाप सांस रोक कर और बारबार परदे के उस तरफ मुंह तिरछा कर के सांस ले कर उस की नींद का अवलोकन करता रहा.
कुछ पल बाद मनोज ने खाना लगाया और मोबाइल पर रति से चैट करते हुए खाना खाने लगा.

“मनोज डार्लिंग 10 लाख रुपए चाहिए.” अचानक ही रति का संदेश आया. मनोज के लिए यह रकम बड़ी तो थी, पर बहुत मुश्किल भी नहीं थी. मगर वह सकपका गया. वह रति से इतना आसक्त हो गया था कि सवाल तक नहीं कर पा रहा था कि क्यों चाहिए, किसलिए… वो कुछ मिनट खामोश ही रहा. दोबारा संदेश आया. अब न जाने क्या हुआ कि मनोज ने रति का नंबर ब्लौक कर दिया. आज वह बौखला रहा था.
हद है, वह समझ गया कि आखिर कौन सा खेल खेला जा रहा था उस के साथ. अब उस ने तुरंत अपने एक सोशल मीडिया विशेषज्ञ मित्र को रति की तसवीर भेज कर कुछ सवाल पूछे. प्रमाण सहित उत्तर भी आ गए. वह अपनी नादानी पर शर्म से पानीपानी हो रहा था. एक बाजारू महिला के झांसे में.

उफ, उस ने अपना सिर पीट लिया यानी वो उस दिन जिस घर पर ले गई थी, वह न रति का था, न उस के पति का. सच तो यह है कि इस का कोई पति है ही नहीं. यही उस ने आननफानन में खाना खत्म किया और फोन एक तरफ रख कर रमा के पास आ कर लेट गया. अब वह रति से कोई संबंध नहीं रखना चाहता था.

‘‘मनोज खाना खा लिया,‘‘ रमा हौले से फुसफुसा कर पूछ रही थी.

‘‘हां,‘‘ कह कर मनोज अभीअभी लेटा ही था. अचानक करवट ले कर वह बिस्तर पर बैठ गया. अब उस ने आसपास हाथ फिराया, तो मलहम मिल गई. मलहम ले कर वह रमा की पीठ पर मलने लगा और बहुत देर तक मलता रहा. रमा को मीठी नींद आ रही थी. वह हिम्मत नहीं कर पा रहा था कि उस के कानों तक अपना अधर पहुंचा सकता तो दिलासा देता कि तुम निश्चिंत हो, सोती रहो, मैं कोई हानि नहीं पहुंचाऊंगा. मैं कैसे तुम्हारे भरोसे के योग्य बनूं कि तुम अपनी नींद मुझे सौंप दो? मुझे इतना हक कैसे मिले?

मैं कैसे तुम्हारे बसाए घर पर ऐसे चलूं कि कोई दाग ना लगे, तुम को मेरी सांसों के कोलाहल से कोई संशय न हो. तुम निडर हो कर जीती रहो- जैसे सब जीते हैं. इस विश्वास के साथ रहो कि यह घर संपूर्ण रूप से तुम्हारा है. तुम यहां सुरक्षित हो. वह आज यह सोच रहा था कि एक रमा है जो उस से कुछ नहीं मांगती. बस, बिना शर्त प्यार करती है. अगर वह उस का विश्वास जीतने में भी जो विफल रहा, उस ने फिर दुनिया भी जीत ली तो क्या जीता. यह सोचतासोचता वह भी गहरी नींद में सो गया.

अगले दिन रति फैक्टरी नहीं आई. वह उस के बाद फिर कभी नहीं आई.

Best Short Story : अनमोल मंत्र

Best Short Story :  दिल्ली एअरपोर्ट पर सुधाको देखते ही नीला जोर से चिल्लाई, ‘‘अरे सुधा तू, कहां जा रही है?’’

‘‘अहमदाबाद और तू?’’

‘‘तेरे पड़ोस में, वडोदरा. भूल गई मेरी शादी ही वहीं हुई थी. तू कब से है अहमदाबाद में?’’

‘‘पिछले महीने ही इन की बदली वहां हुई है. मैं तो पहली बार जा रही हूं. कितना अच्छा होता अगर वडोदरा के बजाय तू भी अहमदाबाद में होती.’’

‘‘मैं न सही शिखा तो वहीं है. अकसर याद करती है तुझे, बहुत खुश होगी तुझ से मिल कर. वैसे मेरा चक्कर भी अकसर लग ही जाता है अहमदाबाद का, क्योंकि ऋषभ तो अपने काम के सिलसिले में वहां जाते ही रहते हैं.’’

‘‘सच, तब तो बहुत मजा आएगा. शिखा कब आई अमेरिका से?’’

‘‘कई साल हो गए. लड़कियों के किशोरावस्था में पहुंचते ही उन लोगों ने वापस आना बेहतर समझा था. शादी कर दी है दोनों बेटियों की और संयोग से अहमदाबाद में रहने वाले लड़के ही मिल गए. तू बता तेरे बालबच्चे कहां हैं?’’

‘‘मेरी तो एक ही बेटी है. वह डाक्टर है दिल्ली में. और तेरा परिवार कितना बड़ा है?’’

‘‘बस हम 2 हमारे 2. अब उन 2 का परिवार बढ़ रहा है. बेटी नोएडा में ब्याही है, लड़का हुआ है कुछ सप्ताह पहले. उसी सिलसिले में उस के पास आई थी. बेटा और बहू वडोदरा में ऋषभ के साथ बिजनैस संभालते हैं और मैं उन की बेटी.’’

‘‘तेरा समय तो मजे से कट जाता होगा?’’

‘‘हां, वैसे भी कई साल हो गए यहां रहते इसलिए काफी जानपहचान है. शिखा के वहां रहने से तेरा भी दिल लगा रहेगा वरना नई जगह में मुश्किल होती है.’’

‘‘वह तो है. मेरी एक रिश्ते की भाभी भी हैं अहमदाबाद में. तू भी आती रहेगी तो अच्छा लगेगा.’’

प्लेन में भी दोनों साथ ही बैठीं और नीला ने उसे शिखा का फोन नंबर दे कर कहा कि तू उसे जाते ही फोन कर ले. वह बहुत खुश होगी. पिछले महीने ही शादी की है छोटी बेटी की तो फुरसत में है.

 

लेकिन इतने दिन बाद पति से मिलने और नया बंगला देखने के उल्लास में सुधा शिखा को फोन नहीं कर सकी. अगले रोज भी सुबह का समय बंद सामान खोलने और बाजार से सामान लाने में निकल गया और दोपहर आराम करने में. शाम को उस ने शिखा को फोन करने की सोची फिर यह सोच कर कि वह अपनी बेटियों की शादी के बाद अकेलेपन का रोना रो कर उस का अच्छाखासा मूड खराब कर देगी, उस ने पहले शीला भाभी को फोन करना बेहतर समझा. शीला उस के चचेरे भाई मनोहर की पत्नी थीं. 2 छोटेछोटे बच्चों और एक नई लगाई फैक्टरी की जिम्मेदारी शीला पर डाल कर मनोहर एक सड़क हादसे में चल बसा था. शीला भाभी ने बड़ी हिम्मत से फैक्टरी चलाई थी और बच्चों को पढ़ायालिखाया था. उन्होंने कभी अकेलेपन या उदासी का रोना नहीं रोया. समयाभाव के कारण वे दिल्ली अधिक नहीं आ पाती थीं लेकिन संपर्क सभी से रखती थीं. कुछ रोज पहले ही उन्होंने अपने छोटे बेटे की शादी की थी. तब सुधा को भी निमंत्रण भेजा था.

सुधा ने शीला भाभी का नंबर मिलाया. फोन नौकरानी ने उठाया, ‘‘मांजी तो अभी व्यस्त हैं. आप अपना नंबर दे दीजिए.’’

‘‘मैं खुद ही दोबारा फोन कर लूंगी.’’

‘‘मगर 7 बजे के बाद करिएगा.’’

अभी 6 ही बजे थे. रवि के आने में भी देरी थी, इसलिए उस ने शिखा का नंबर मिलाया. शिखा उस की आवाज सुनते ही चहकी, ‘‘मैं अभी तुझ से मिलने आ जाती लेकिन क्या करूं मेरी छोटी बेटी और दामाद अपने कुछ दोस्तों के साथ मेरे हाथ का बना खाना खिलाने ला रहे हैं…’’

‘‘अरे वाह, तू इतना बढि़या खाना बनाने लगी है?’’ सुधा ने कहा.

‘‘यह तो तू खाने के बाद ही बताना. असल में बच्चों ने यह पार्टी मेरा दिल बहलाने के लिए रखी है. वरुण आजकल बाहर गए हुए हैं, मुझे अकेलापन न लगे, इसलिए मुझे इस तामझाम में उलझा रहे हैं.’’

‘‘यह तो बहुत अच्छा है. मैं तो सोच रही थी कि बेटियों की शादी के बाद तू एकदम अकेली हो गई होगी.’’

‘‘अरे नहीं. पहले 2 बेटियां थीं अब 2 बेटे भी मिल गए. एक बात बताऊं सुधा, पहले जब वरुण बाहर जाते थे तो लड़कियों के साथ अकेले बहुत डर लगा करता था. रात को ठीक से सो भी नहीं पाती थी. पर पिछली बार जब वरुण गए तो मेरी बड़ी बेटी और दामाद मेरे पास थे. मैं इतनी गहरी नींद में सोई कि मेरी बेटी को सुबह नाक पर हाथ रख कर देखना पड़ा कि मेरी सांस चल रही है या नहीं.’’

‘‘एक दामाद को घरजंवाई क्यों बना लेतीं?’’

‘‘न बाबा न, सब अपनेअपने घर सुखी रहें. फुरसत मिलने पर मुझ से मिल लें, मैं इसी में खुश हूं. यह बता कल क्या कर रही है?’’

‘‘कुछ बंद सामान खोलूंगी.’’

‘‘वह परसों खोल लेना. कल मेरे पास आ जा.’’

‘‘अच्छा, रवि से पूछूंगी कि कब गाड़ी भेजवाएंगे.’’

‘‘गाड़ी तो मैं भेज दूंगी.’’

‘‘उस गाड़ी में बैठ कर तू ही क्यों नहीं आ जाती?’’

‘‘चल यही सही, तो फिर मिलते हैं कल,’’ कह कर शिखा ने फोन रख दिया.

कुछ देर बाद सुधा ने शीला भाभी को फोन  किया. कुशलक्षेम के बाद सुधा ने कहा, ‘‘कमाल है भाभी, पहले आप के पास वक्त नहीं होता था…’’

अब अनीष व मनीष सब संभाल लिया है. मैं तो बस आधे दिन के लिए फैक्टरी जाती हूं, उस के बाद घर आ कर अनीष के बेटे से खेलती हूं. शाम को वह अपने मम्मीपापा के पास खेलता है.’’

‘‘उस के बाद?’’

‘‘टीवी देखती हूं फिर खाना खा कर सो जाती हूं.’’

‘‘बहूबच्चों के साथ नहीं खातीं?’’

‘‘अगर वे लोग घर में हों तब तो सब साथ ही खाते हैं वरना मैं अपने वक्त पर खा लेती हूं, और सुना दिल्ली में कैसे हैं सब?’’

‘‘वह सब मिलने पर बताऊंगी भाभी. कब मिल रही हो?’’

‘‘जब तुम कहो. कल आ जाऊं?’’

‘‘कल तो मुझे कुछ काम है भाभी.’’

‘‘कोई बात नहीं. इतमीनान से काम निबटा लो फिर मुझे फोन कर देना, मैं आ जाऊंगी.’’

‘‘ठीक है भाभी, वैसे आना तो मुझे चाहिए आप के पास.’’

‘‘मैं इस ‘चाहिए’ के चोंचले में विश्वास नहीं करती सुधा. तुम अभीअभी इस शहर में आई हो, व्यवस्थित होने में व्यस्त होगी. मेरे पास तो फुरसत भी है और गाड़ी भी, इसलिए जब तुम कहोगी आ जाऊंगी.’’

अगले रोज शिखा अपनी नवविवाहित बिटिया के साथ आई.

‘‘यह मेरी छोटी बेटी नन्ही है. तेरे बारे में सुनते ही कहने लगी कि मैं भी मौसी से मिलने चलूंगी…’’

‘‘मम्मी और नीला आंटी जब भी मिलती हैं न आप को बहुत याद करती हैं. जैसे, सुधा होती तो मजा आ जाता या सुधा होती तो यह कहती. और कल तो मम्मी की खुशी संभाले नहीं संभल रही थी. तो आप ही बताइए, ऐसी मौसी से मिले बगैर मैं कैसे रह सकती थी?’’ सुधा को भी चुलबुली नटखट नन्ही बहुत प्यारी लगी.

‘ससुराल में भी तू ऐसी ही शैतानी करती है?’’ सुधा ने पूछा.

‘‘इस से भी ज्यादा,’’ जवाब शिखा ने दिया, ‘‘वहां इस का साथ देने को हमउम्र जेठानी जो है. जब ये दोनों साथ होती हैं तो खूब ठहाके लगाती हैं.’’

‘‘मैं चलती हूं मौसी,’’ कह कर नन्ही चली गई.

‘‘बड़ी प्यारी बच्ची है…’’

‘‘चुन्नी को देखेगी तो वह इस से भी ज्यादा प्यारी लगेगी तुझे,’’ शिखा ने बात काटी, ‘‘आजकल दोनों मियांबीवी सिंगापुर गए हुए हैं. अगले हफ्ते आ जाएंगे.’’

‘‘तो फिर हम भी अगले हफ्ते ही आएंगे तेरे घर.’’

दोनों सहेलियों को गप्पें मारने में समय का पता ही नहीं चला. नन्ही घूमफिर कर मां को लेने आ गई. शिखा के जाने के बाद उस ने शीला भाभी को फोन किया. वह अगले रोज शाम को आना मान गईं.

शीला भाभी से वह कई साल के बाद  मिल रही थी. उन के चेहरे की झुर्रियां थोड़ी बढ़ गई थीं, लेकिन अब चेहरे पर थकान और फिक्र की जगह स्फूर्ति और आत्मतुष्टि की गरिमा थी.

‘‘इस से पहले कि तुम मुझ से कुछ पूछो, मुझे दिल्ली के समाचार दो, अरसा हो गया सब से मिले हुए इसलिए सब के बारे में जानने की बेचैनी हो रही है,’’ शीला भाभी सब के बारे में पूछती रहीं.

‘‘अब जब फैक्टरी बच्चों ने संभाल ली है और घर की देखभाल के लिए बहुएं आ गई हैं तो आप दिल्ली हो आओ न भाभी. छोटे चाचाजी ने कहा भी था आप से कहने के लिए,’’ सब बताने के बाद सुधा ने कहा.

शीला भाभी हंसने लगीं, ‘‘फुरसत तो जरूर हो गई है लेकिन अब बच्चों को खास कर पोते को छोड़ कर जाने को दिल नहीं करता. खैर, अंशु स्कूल जाने लगे और नई बहू दिव्या को भी कुछ दिन तक मौजमस्ती करवा दूं फिर जाऊंगी. अभी तो उस पर औफिस के काम का ज्यादा भार नहीं डाला मैं ने.’’

‘‘और बड़ी बहू?’’

‘‘रजनी इंजीनियर है. पहले तो सारा दिन फैक्टरी में ही रहती थी लेकिन बच्चा होने के बाद अब दोपहर को जाती है. जितने अच्छे अनीषमनीष हैं उतनी अच्छी ही दोनों की बीवियां भी हैं. बहुत स्नेह है सब का आपस में और मुझ पर तो सब जान छिड़कते हैं. मेरा घर अब बच्चों के ठहाकों से गूंजता रहता है.’’

‘‘यह तो बड़ी खुशी की बात है भाभी. एक रोज आऊंगी आप के घर.’’

‘‘तुम्हारा घर है जब चाहो आ जाओ लेकिन घर पर कौनकौन मिलेगा इस की गारंटी मैं नहीं लूंगी. बच्चों से पूछ कर बुलाऊंगी तुम्हें और रवि जी को. अनीष और रजनी तो ज्यादातर घर पर ही रहते हैं, लेकिन मनीष और दिव्या की नईनई शादी हुई है तो वे कहीं न कहीं निकल जाते हैं. फिर ससुराल भी शहर में ही है, इसलिए वहां भी जाना पड़ता है. इसीलिए मैं यह हुक्मनामा जारी नहीं करना चाहती कि फलां दिन मैं दावत कर रही हूं घर पर रहना. वैसे मैं ने तुम्हारे बारे में बताया तो मनीष बहुत खुश हुआ कि चलो शहर में हमारा कोई अपना भी आ गया. ऐसा है सुधा कि अगर बच्चों से प्यार पाना है तो अपनी मरजी उन पर मत थोपो.’’

‘‘आप बिलकुल ठीक कह रही हैं भाभी,’’ सुधा बोली, ‘‘मेरी एक सहेली है शिखा. उस की 2 बेटियां हैं. दोनों की शादी हो गई है. वह खूब इतराती है अपने दामादों पर.’’

‘‘शिखा की बात कर रही हो न?’’ शीला भाभी हंसी, ‘‘जिस किट्टी पार्टी की मैं मेंबर हूं उसी की वह भी है, इसलिए हर महीने उस का इतराना देखने को मिल जाता है. असल में शिखा ने दामाद बड़ी होशियारी से चुने हैं. बड़े वाले की नौकरी यहां है लेकिन परिवार चंडीगढ़ में, इसलिए बीवी के परिवार को अपना मानेगा ही. छोटे वाला बिखरे घर से है यानी मांबाप का अलगाव हो चुका है. मां डाक्टर है, पैसे की तो कोई कमी नहीं है, लेकिन व्यस्त एकल मां के बच्चे को शिखा के घर का उष्मा भरा घरेलू वातावरण तो अच्छा लगेगा ही. तुम ने यह भी सुना होगा कि विवाह के बाद बेटा तो पराया हो जाता है, लेकिन बेटी अपने साथ एक बेटा भी ले आती है. ऐसा क्यों होता है?’’

‘‘आप ही बताओ.’’

‘‘क्योंकि ससुराल में दामाद को बहुत मानसम्मान और लाड़प्यार मिलता है. उसे आप कह कर बुलाया जाता है. इतनी इज्जत की चाह किसे नहीं होगी?’’ शीला भाभी हंसीं, ‘‘किसी सासससुर को कभी बहू को ‘आप’ कहते सुना सुना है तुम ने? कोई भूलाभटका अगर कभी बहू को आप कह देता है तो कोई न कोई उसे जरूर टोक देता है कि क्या गैरों की तरह आप कह रहे हो. यह तुम्हारी बेटी जैसी है. जैसे बेटे को तुम या तू कहते हो इसे भी कहो. दामाद अगर आप की बेटी के आगेपीछे घूमता है तो आप उस पर वारिवारि जाती हैं और ऐसा ही जब आप का बेटा बहू के साथ करता है तो आप जलभुन जाती हैं. उस पर व्यंग्य कसती हैं. जाहिर है, बेटा पहले तो आप से खिंचाखिंचा रहेगा और धीरेधीरे दूर होता जाएगा. इसलिए बेहतर है कि याद रखिए आप का बेटा भी आप के दामाद की तरह ही जवान है. उस की भी उमंगें हैं, अरमान हैं. उसे भी अपना जीवन अपनी सहचरी के साथ बांटने दीजिए उस के निजी जीवन में हस्तक्षेप कदापि मत करिए. मेरा तो प्यार व सम्मान से जीने का यही मंत्र है.’’

‘‘मेरा तो बेटा नहीं है शीला भाभी, लेकिन जिन के हैं उन्हें आप का यह अनमोल मंत्र अवश्य बताऊंगी,’’ सुधा ने सराहना के स्वर में कहा.

Kahaniyan : इशी- आर्यन ने कौन सी गलती कर दी थी

Kahaniyan : ‘‘आर्यन, मैं पढ़तेपढ़ते बोर हो गई हूं, चलो न थोड़ी देर के लिए बाहर घूम कर आते हैं.’’ ‘‘नो डियर, कल मेरा एग्जाम है, इसलिए पढ़ाई करनी जरूरी है. परेशान तो मैं भी बहुत हूं, गरमी के कारण पसीने से भीगा हुआ हूं लेकिन कल के टैस्ट में पूरे नंबर लाने हैं. इसलिए ऐक्सक्यूज मी यार. कल टैस्ट हो जाने दे. अब मैं मोबाइल औफ कर रहा हूं.’’

‘‘प्लीज औनलाइन रहो. थोड़ी देर चैटिंग कर के मूड फ्रैश हो जाएगा,’’ इशिता का प्यारा सा चेहरा उस की आंखों के सामने तैर गया था.

‘‘इशी, डिस्टर्ब मत करो. कल शाम को टैस्ट के बाद मिलते हैं?’’

‘‘कहां?’’ इशिता बोली.

‘‘वहीं, सैंटर के गेट पर,’’ आर्यन ने कहा. लिखने के बाद उस ने फोन बंद किया और पढ़ाई में मशगूल हो गया.

आर्यन और इशिता दोनों कोचिंग कर रहे थे. आर्यन आईआईटी में ऐडमिशन ले कर इंजीनियर बनना चाहता था, तो इशिता पीएमटी की तैयारी कर रही थी. उसे डाक्टर बनना था. उस के मम्मीपापा दोनों डाक्टर थे और शहर में उन का अपना नर्सिंगहोम भी था. वे अपनी बेटी को डाक्टर बना कर नर्सिंगहोम उस के हवाले कर देना चाहते थे.

आर्यन साधारण परिवार से था, उस के पिता बैंक में क्लर्क थे तो मां प्राइवेट ट्यूशन पढ़ा कर घरखर्च चला रही थीं? दोनों ने बेटे को इंजीनियर बनाने का सपना देखा था, उस के लिए दोनों रातदिन मेहनत करते थे.

आर्यन समझदार लड़का था. वह ईमानदारी से पढ़ाई कर रहा था. उस की एक छोटी बहन भी थी, जिसे वह बहुत प्यार करता था. उस ने भी पिछले वर्ष एंट्रैंस पास कर लिया था, लेकिन प्राइवेट कालेज की महंगी फीस देना उस के मांबाप के लिए संभव नहीं है. इसलिए इस वर्ष उसे हर हाल में आईआईटी में ऐडमिशन के लिए जेईई का टैस्ट पास करना था.

उस को इस बात का अच्छी तरह एहसास था कि उस के मातापिता कितनी परेशानियों में उस की कोचिंग का खर्च वहन कर पा रहे हैं. कोचिंग वाले इस डर से कि बच्चे बीच में ही न छोड़ जाएं, सालभर की फीस जो लाखों में होती है, जमा करवा कर निश्चिंत हो जाते हैं. और तो और पीजी वाली आंटीजी भी कंसेशन का लालच दे कर पूरे साल के लिए बच्चों को अपने पिंजरे में कैद कर अत्याचार करने का लाइसैंस ले लेती हैं.

अगली शाम आर्यन टैस्ट अच्छा होने से रिलैक्स हो कर अपने दोस्तों के साथ पेपर डिस्कस कर रहा था कि उसे इशिता आती दिखी. उस का दूध सा गोरा रंग, गोल चेहरे पर खुशी से चमकती बड़ीबड़ी कजरारी आंखें, काले घुंघराले बाल उस की पेशानी को चूम रहे थे. जींस और टौप उस की खूबसूरती में चारचांद लगा रहे थे.

उस के ब्रैंडेड कपड़े और खूबसूरत चेहरे की रौनक देख आर्यन भी खुश हुआ था, लेकिन अपनी आर्थिक स्थिति के बारे में सोच कर वह तुरंत ही मायूस भी हो गया.

वह स्कूटी से उतर कर बोली, ‘‘आओ, तुम पीछे बैठोगे?’’

‘‘नहीं इशी, स्कूटी मैं ड्राइव करूंगा, तुम पीछे बैठोगी. पीछे बैठ कर मुझे अच्छा नहीं लगता,’’ आर्यन ने कहा.

‘‘इस में अच्छा न लगने की भला क्या बात है?’’ इशी बोली.

‘‘तुम मेरी फीलिंग को नहीं समझ सकती इशी. खैर छोड़ो, चलो, कहां चलना है?’’

‘‘मेरा मन तो कैफे डे में कोल्ड कौफी पीने का था,’’ इशी बोली.

‘‘मेरे पास बिल देने के लिए पैसे नहीं हैं.’’

‘‘मैं दूंगी बिल न, यार तू क्यों परेशान हो रहा है.’’

‘‘तुम्हीं तो हमेशा बिल देती हो और यही मुझे अच्छा नहीं लगता,’’ आर्यन ने कहा.

‘‘इस से क्या फर्क पड़ता है, बिल मैं दूं या तुम दो?’’

‘‘तुम मेरे मन की बात को नहीं समझ सकती इशी. मौल ही चलो, अपनी उसी फेवरेट जगह सन्नाटे में बैठेंगे, जहां से हम लोग सब को देखेंगे लेकिन लोग हमें नहीं देख पाएंगे,’’ आर्यन बोला.

दोनों उस जगह पहुंच कर खाली बैंच पर बैठ गए. आर्यन स्वीटकौर्न का एक कप ले कर आया और दोनों खाने लगे.

‘‘क्या आर्यन, क्या चल रहा है तुम्हारे और आन्या के बीच में? मैं ने कई बार देखा है आजकल उस से काफी देर तक बातें करते रहते हो. अगर वह तुम्हें अच्छी लगती है, तो उस के पास जाओ और उस से आई लव यू कह दो.’’

‘‘ओफ इशी, वह तो एक प्रश्न मुझ से पूछ रही थी. लेकिन मुझे उस की स्माइल बहुत अच्छी लगती है.’’

आर्यन का यह जवाब सुन कर इशिता नाराज हो गई उस की आंखें डबडबा उठीं.

‘‘अरे, मैं तो तुम्हें चिढ़ाने के लिए ऐसा कह रहा था, बस, इसी पर रो पड़ीं. चलो, व्हाट्सऐप वाली बड़ी सी स्माइली दो.’’

‘‘आर्यन, मैं तुम्हें न किसी दिन बहुत पीटूंगी,’’ उस की पीठ पर एक हलकी सी धौल जमाती हुई इशिता बोली. आर्यन गंभीर सा चेहरा बना कर एकदम से चुप हो गया था.

‘‘एकदम चुप हो और चेहरा भी उदास है, क्या हुआ? मेरी बात का बुरा मान गए क्या, मेरी तरफ से बड़ी वाली सौरी,’’ इशिता मजाकिया अंदाज में बोली.

‘‘इशी,? मैं तुम्हारी बात पर नाराज नहीं हूं. मुझे जेईई का टैस्ट क्लीयर करने का टैंशन है. यदि मेरी अच्छी रैंक नहीं आई तो क्या होगा? पापा ने तो मेरी कोचिंग के लिए अपने प्रौविडैंट फंड का पैसा भी खर्च कर दिया है. पीजी और कोचिंग की फीस वे कैसे देते हैं, यह तो मैं ही समझता हूं.

‘‘पापा जबतब मुझ से मिलने आ जाते हैं और मेरी मुट्ठी में रुपए रखते हुए आशाभरी निगाहों से मेरी ओर देखते हैं. मैं उन का सामना करने से घबराता हूं. मुझे लगता है कि कहीं मैं उन के सपने पर पानी तो नहीं फेर दूंगा. टीचर हर समय कहते हैं, थोड़ी मेहनत और करो.’’

‘‘तुम्हीं बताओ इशी, सुबह सूरज निकलने से पहले ही घर से कोचिंग के लिए निकल जाता हूं. कोई लाइफ है मेरी, मशीन बन कर रह गई है जिंदगी. सुबह से रात तक बस कोचिंग, नोट्स, रिवीजन, पेपर सौल्व करना, टैस्ट देना. लाइफ एकदम बोर हो चुकी है.

‘‘मां के दुलारभरे स्पर्श की मुझे इतनी याद आती है कि लगता है कि सबकुछ छोड़छाड़ कर घर मां के पास चला जाऊं, लेकिन फिर पापा की उम्मीदभरी आंखें मेरे सामने घूमने लगती हैं. अपना छोटा शहर, वहां की मस्ती, अपने दोस्त सब बहुत याद आते हैं.

‘‘इशी, मैं यहां बिलकुल अकेला हूं, यदि मुझे तुम जैसी दोस्त यहां न मिलती तो मेरा न जाने क्या होता?’’

‘‘आर्यन, इतने सैंटिमैंटल मत हो यार, इस साल तुम जेईई का ऐंट्रैंस जरूर क्लीयर कर लोगे. इतनी मेहनत कर रहे हो, भला क्यों नहीं क्लीयर होगा.

‘‘मुझे देखो, मम्मीपापा शहर के जानेमाने डाक्टर हैं. यदि मैं ऐंट्रैंस पास कर नहीं कर पाई तो उन के लिए कितनी शर्म की बात होगी. कैमेस्ट्री है कि मेरे सिर के ऊपर से निकल जाती है. यदि तुम मेरी मदद न करते तो शायद मेरा फेल होना निश्चित था. तुम्हारे कारण ही कैमेस्ट्री अब मेरा फेवरेट सब्जैक्ट बन गया है और साथ ही तुम्हारी दोस्ती की वजह से मुझे अब दुनिया बहुत प्यारी लगने लगी है. मुझे तो इन मोटीमोटी किताबों के बीच बारबार तुम्हारा मुसकराता चेहरा नजर आता है.’’

‘‘इशी, पिछले साल मनचाहा कालेज और स्ट्रीम न मिलने का कारण मेरा मैथ का पेपर था. मैं ने पापा से कौपी रीचैक करवाने को कहा था, लेकिन उन्होंने कहा कि इस से कोई फायदा नहीं है. इस साल फिर से तैयारी कर लो.

‘‘मुझे खुद काफी कोफ्त होती है कि लाखों की फीस और पीजी का खर्च, यदि पास हो गया होता तो आईआईटी के फर्स्ट ईयर में होता.’’

‘‘आर्यन, इतना परेशान मत हो डियर, तुम्हें इस साल जरूर सरकारी कालेज और मनचाही स्ट्रीम मिल जाएगी. मुझे देखो, पढ़ाई करती हूं, मेहनत कर रही हूं और ये तो सभी जानते हैं कि मेहनत का फल मीठा होता है.’’

‘‘देखो इशी, तुम्हारी बात अलग है. यदि तुम्हें अच्छी रैंक न भी मिली तो तुम्हारे पापा डोनेशन दे कर किसी भी अच्छे कालेज में तुम्हारा ऐडमिशन करवा देंगे, फिर तुम बन जाओगी डा. इशिता, और तुम्हारे नर्सिंगहोम में एक नेमप्लेट बढ़ जाएगी.’’

‘‘नहीं आर्यन, मुझे गरीबी के कारण बच्चों को मरते देख बड़ा दुख होता है. मैं उन के मुफ्त इलाज के लिए अपना जीवन समर्पित करना चाहती हूं.

‘‘आर्यन, तुम तो आईआईटी से इंजीनियरिंग पूरी करते ही विदेश चले जाओगे. पूरी दुनिया की सैर करोगे, फिर भला मुझे तुम क्या पहचानोगे कि कोई इशिता नाम की लड़की थी.’’

आर्यन ने उस के मुंह पर अपना हाथ रख दिया था, ‘‘इशी, तुम गलत सोच रही हो और मुझे बड़ेबड़े सपने दिखा रही हो. मैं भले ही सारी दुनिया घूम लूं, लेकिन रहूंगा अपने प्यारे देश भारत में ही, जहां मेरे मांपापा और गुडि़या जैसी प्यारी सी बहन है.’’

इशी बोल पड़ी, ‘‘और मैं कहीं नहीं हूं, तुम्हारे जीवन में?’’

‘‘इशी, मेरा तुम्हारा भला क्या मेल. तुम्हारे पापा को तो अपनी लाडली बेटी के लिए डाक्टर दामाद चाहिए.’’ आर्यन उदास स्वर में सिहर कर बोला, ‘‘यदि मैं जेईई नहीं क्लीयर कर पाया तो तुम मुझे भूल जाओगी.’’

‘‘आर्यन, मैं मम्मीपापा का आदर अवश्य करती हूं, लेकिन अपनी जिंदगी का फैसला तो मैं स्वयं करूंगी.’’

स्वीटकौर्न का कप खाली हो चुका था. इशिता उसे डस्टबिन में डालने गई और थोड़ी देर में एक आइसक्रीम ले कर आ गई. फिर दोनों बारीबारी से उसे खाने लगे.

‘‘इशी, मुझे देर हो गई है, जल्दी चलो, नहीं तो आंटी गेट बंद कर देंगी. फिर शुरू हो जाएगी उन की लंबी पूछताछ, जिस से मैं बचना चाहता हूं.’’

‘‘हां आर्यन, तुम्हारी आंटी तो पूरी विलेन लगती हैं, उस दिन हमें देर हो गई थी न, स्कूटी से तुम्हें उतार कर बाय कर रही थी, और उन्होंने देख लिया बस, शुरू हो गईं, ‘तुम लोग रोज मिलते हो, कहां मिलते हो, कब से एकदूसरे को जानते हो?

‘‘मैं तो किसी तरह वहां से जान बचा कर भागी थी. हां, परेशान तो करती हैं, लेकिन अच्छी भी हैं. उन्हें भी तो बच्चों के पेरैंट्स को जवाब देना पड़ता है. कोई लफड़ा होता है तो सब से पहले उन्हीं को दोष दिया जाता है.’’

‘‘परेशानी तो मुझे भी होती है, वे प्रैस नहीं करने देतीं, इमर्शन रौड नहीं लगाने देती हैं, जिस दिन जरा देर से आंख खुलती है, उस दिन ठंडे पानी से नहाना पड़ता है. दूध में पानी मिला देती हैं. सुबह नाश्ता देर से बनाती हैं, इसलिए अकसर घर से खाली पेट निकलना पड़ता है. कभी खाना इतना स्पाइसी बनाती हैं कि आंखनाक से पानी टपकने लगता है.’’

‘‘फिर क्या ऐसे ही भूखे रह कर दिन बिताते हो?’’

‘‘नहीं यार, कभी आलू के परांठे, कभी सैंडविच तो कभी समोसे से काम चला लेता हूं.

‘‘आंटी, एकसाथ पूरे साल का पैसा जमा करवा लेती हैं, ताकि बीच में कोई छोड़ न सके.’’

‘‘तुम से कितनी बार तो कहती हूं कि मैं तुम्हारे लिए टिफिन ले आया करूंगी, लेकिन तुम तो राजी ही नहीं होते.’’

‘‘हां डियर, मुझे इंजीनियर बन जाने दो और तुम डाक्टर बन जाओ, फिर हम दोनों रोज साथ खाना खाया करेंगे.’’ उस ने अपनी हथेलियों से उस के होंठों को छू कर चूम लिया था.

‘‘मेरी इशी, तुम बहुत प्यारी, भावुक और समझदार हो. मैं खुद को धनी समझता हूं. जो मुझे तुम जैसी फ्रैंड मिली है.’’

मौल की भीड़ छंट चुकी थी. रात्रि की नीरवता एवं रंगबिरंगी रोशनी की मादकता के कारण आर्यन भावनाओं में बहक कर भूल गया कि इशी और वह केवल अच्छे दोस्त हैं.

उस ने जवानी के आवेश में इशी को अपनी बांहों में जकड़ लिया था. अपने अंगारे जैसे होंठों को इशी के होंठों से लगा कर इशी को अपनी बांहों में जकड़ लिया था. इशी इस का विरोध करती रही पर आर्यन की पकड़ मजबूत हो चुकी थी. थोड़ी देर के लिए इशी भी बहक चुकी थी पर समय रहते वह संभल गई.

आर्यन को अपनी गलती का एहसास होते ही वह सहम उठा था.

‘‘इशी, मुझे माफ कर दो, मैं अपना होश खो बैठा था.’’

‘‘आर्यन, आज तुम ने मेरे विश्वास को धोखा दिया है,’’ इशी ने संभलते हुए गुस्से में कहा.

‘‘इशी, आई एम सौरी. फ्यूचर में अब ऐसी गलती नहीं करूंगा. पता नहीं यह सब कैसे हो गया. हम दोनों को अपने पेरैंट्स के सपने को साकार करना है,’’ आर्यन विनती करते हुए बोला.

इशी आर्यन की बातों को अनसुना कर स्कूटी स्टार्ट कर चुकी थी. मन में कुछ सोचती हुई वह धीरेधीरे आगे बढ़ती जा रही थी. आर्यन उस को जाते हुए देख रहा था. उस के चेहरे से ऐसा लग रहा था कि मानो उस की दुनिया ही उजड़ गई हो.

‘‘इशी, इतनी बड़ी सजा मुझे मत दो,’’ वह रो पड़ा था.

लेकिन यह क्या?

इशी लौट कर आ गई थी. वह स्कूटी से उतर कर उस के सामने खड़ी हो गई थी.

‘‘आर्यन, तुम्हें आगे बैठ कर ड्राइव करना पसंद हैं न… ‘‘ मैं पीछे बैठूंगी.’’

सबकुछ भूल कर आर्यन खुश हो कर सपने बुनने में लग गया था. जब वह अपनी गाड़ी में अपनी इशी को बैठा कर लौंग ड्राइव पर जाया करेगा.

Short Story : चलो खुसरो अपने घर

Short Story : सिद्धार्थ और प्रीति में आज फिर तूतू मैंमैं हो गई थी. ये इस घर की दरोदीवार के लिए कोई नई बात नहीं थी. दूसरे कमरे में सिद्धार्थ के मम्मीपापा और बड़ी बहन प्रगति चुपचाप बैठे हुए, ना चाहते हुए भी इस तमाशे का हिस्सा बने हुए थे.

सिद्धार्थ की मम्मी वीनू बोलीं, ‘‘ना जाने किस घड़ी में इस महारानी से शादी हुई थी. एक दिन भी मेरा बेटा सुकून की सांस नहीं ले सकता है.‘‘

बहन प्रगति बोली, ‘‘मम्मी तब तो सिद्धार्थ की आंखों में प्रीति की खूबसूरती और प्यार की पट्टी बंधी हुई थी. सच बात तो यह है, जो लड़की अपने मम्मीपापा की ना हुई, वह क्या किसी की होगी?‘‘

तभी भड़ाक से दरवाजा खुला और प्रीति मुंह फुलाए घर से बाहर निकल गई. क्याक्या सपने संजो कर उस ने शादी की थी, पर विवाह के पहले ही साल में रोमांस उन की शादी से काफूर हो गया था, जब प्रीति की बड़ी ननद प्रगति अपने पति का घर छोड़ कर आ गई थी.

प्रीति और सिद्धार्थ की हंसीठिठोली, छेड़छाड़ ना तो प्रगति को और ना ही वीनू को भाती थी. प्रीति क्या करे, उस के तो रिश्ते की अभी शुरुआत ही थी. पर प्रगति की खराब शादी, उन के प्रेमविवाह पर भारी पड़ती जा रही थी.
देखते ही देखते सारे प्यार के वादे शिकायतों में बदल गए थे. रहीसही कसर सिद्धार्थ की नौकरी जाने के बाद हो गई थी. सिद्धार्थ तो नौकरी जाने के कारण वैसे ही हताश हो गया था. साथ ही, घर पर बैठेबैठे वह रातदिन नकारात्मक विचारों से घिरा रहता था.

प्रीति अपने दफ्तर चली जाती थी, तो प्रगति ना जाने क्याक्या जहर सिद्धार्थ के जेहन में भरती रहती थी.
सिद्धार्थ को भी ये ही लगने लगा था कि प्रीति को लगता है कि वह उस के टुकड़े पर पल रहा है. अब वह भी प्रीति को कहता, ‘‘घर के काम को तो तुम हाथ भी नहीं लगाती हो? मेरी मम्मी और बहन तुम्हारी नौकरानी नही हैं.‘‘

अब प्रीति ने बस ये किया कि अपना खाना खुद बनाना शुरू कर दिया था. रातदिन की किचकिच से प्रीति तंग आ गई थी. उसे समझ आ गया था कि उस से एक गलत फैसला हो गया है. पर वह आज की व्यावहारिक लड़की थी, रोने के बजाय उस ने ऐसे रिश्ते से अलग होने का निर्णय ले लिया था. इसलिए प्रीति ने अपने दफ्तर के पास ही एक छोटा सा फ्लैट किराए पर ले लिया था.

जैसे ही प्रीति ने अलग घर में शिफ्ट होने की बात की, तो सिद्धार्थ के चेहरे पर आए राहत के भाव उस से छिपे ना रह सके. प्रीति थोड़ी सी आहत हो गई थी. उधर सिद्धार्थ की मम्मी को भी इस बार अपनी पसंद की लड़की लाने का मौका मिल गया था.

प्रीति के घर छोड़ने के एक हफ्ते बाद ही सिद्धार्थ की नौकरी लग गई थी. सिद्धार्थ की मम्मी ने खुश होते हुए कहा, ‘‘बेटा देखा तुम दोनों एकदूसरे के लिए बने ही नहीं थे. उस के जिंदगी से निकलते ही तुम्हारी नौकरी भी लग गई है.‘‘

प्रीति के घर छोड़ने के बाद सिद्धार्थ की जिंदगी सूनी, मगर शांत हो गई थी. उधर प्रीति की जिंदगी मे मयंक एक ठंडी हवा के झोंके की तरह ना जाने कहां से आ गया था. दोनों की मुलाकात एक कौमन फ्रैंड के यहां हुई थी. मयंक की शादी तो नहीं हुई थी, पर उस का दिल बहुत बुरी तरह टूटा हुआ था.

दोनों को धीरेधीरे एकदूजे का साथ भाने लगा था.
मयंक और प्रीति को साथ घूमतेफिरते देख कर, प्रीति की भाभी ने ही पहल की और प्रीति से कहा, ‘‘प्रीति, जब तुम्हें सिद्धार्थ के पास वापस नहीं जाना है तो उस रिश्ते को खत्म कर के ही आने वाली जिंदगी का स्वागत करो.‘‘

प्रीति सवालिया नजरों से भाभी से बोली, ‘‘भाभी, अगर इस बार भी मेरा चुनाव गलत निकला तो…?‘‘

भाभी बोली, ‘‘प्रीति, अगर तुम्हें सिद्धार्थ के पास वापस नहीं जाना है, तो क्यों ना उस रिश्ते से नजात पा लो.‘‘

प्रीति को भी भाभी की बात सही लगी. सिद्धार्थ के पास एक प्रेमी के रूप में दम तो था, पर पति के रूप में उस के पास रीढ़ की हड्डी नहीं थी. चाहे वह अकेली रहे, पर उस के पास वापस नहीं जाएगी.

मयंक प्रीति के फैसले को सुन कर खुश हो गया और बोला, ‘‘सोच तो मैं भी रहा था, पर फिर लगा कि हो सकता है, तुम उस रिश्ते को फिर से चांस देना चाहती हो, इसलिए चुप लगा गया.‘‘

सिद्धार्थ का परिवार भी लगातार उस पर तलाक लेने के लिए दबाव बना रहा था, पर सिद्धार्थ को समझ नहीं आ रहा था कि बात को मुद्दा बना कर प्रीति से डाइवोर्स ले.

उधर, सिद्धार्थ के परिवार ने पूरे जोरशोर से उस की दूसरी शादी की तैयारी शुरू कर दी थी. उन के अनुसार प्रीति अब उस की जिंदगी का बंद अध्याय है. सिद्धार्थ भी जिंदगी की नई शुरुआत करना चाहता था, इसलिए अपने दोस्त की सलाह पर वकील से मशवरा करने पहुंच गया था.

वकील कमलकांत 50 साल के अनुभवी वकील थे. सिद्धार्थ की बात सुन कर वे हंसते हुए बोले, ‘‘मसला भी क्या है… मसला तो कुछ खास नहीं है बरखुरदार. वैसे भी बिना किसी ठोस वजह के हमारे देश में तलाक नहीं होते हैं.‘‘

सिद्धार्थ बोला, ‘‘वकील साहब, कोई तो हल होगा.‘‘

वकील साहब बोले, ‘‘आपसी सहमति से तलाक हो सकता है या फिर कोई ऐसे सुबूत जुटाने पड़ेंगे, जो तुम्हारी पत्नी के खिलाफ इस्तेमाल कर सके.‘‘

सिद्धार्थ ये सब सोच ही रहा था कि प्रीति के वकील का तलाक का नोटिस आ गया. सिद्धार्थ ने चैन की सांस ली.

भले ही प्रीति उस की जिंदगी का हिस्सा नहीं थी, पर फिर भी वह कोई ऐसी बात नहीं करना चाहता था, जिस से प्रीति के आत्मसम्मान को ठेस लगे.

सिद्धार्थ के परिवार ने लड़की देखनी भी शुरू कर दी थी. उधर प्रीति ने भी नए घर के सपने सजाने शुरू कर दिए थे. दोनों ही पक्ष के वकीलों ने पूरी तसल्ली दी थी कि पहली ही तारीख में मामला हल हो जाएगा.

सिद्धार्थ ने अपने वकील को इस बात के लिए अच्छीखासी रकम दी थी. उधर प्रीति के वकील ने भी अपनी जेब गरम कर रखी थी.

पहली तारीख आई, परंतु जज नहीं बैठा और वह तारीख ऐसे ही चली गई. अब दूसरी तारीख पूरे 2 माह बाद की पड़ी थी. प्रीति को लगा था कि पहली तारीख पर जब कुछ हुआ ही नहीं, तो वकील को दोबारा फीस नहीं देनी पड़ेगी, परंतु वकील ने खींसे निपोरते हुए कहा, ‘‘मैडम, अपना बड़ा केस छोड़ कर, आप की समस्या को देखते हुए आप को डेट दिया हूं.‘‘

प्रीति ने फिर से 10,000 रुपए दिए. हालांकि उसे इस बार पैसा देना बहुत खल रहा था.

प्रीति और सिद्धार्थ पिछले 4 घंटे से प्रतीक्षा कर रहे थे. 4 घंटे बाद उन का नंबर आया, मगर जज ने फैसला नहीं सुनाया और आगे की तारीख दे दी थी.

जज ने अब 4 महीने बाद की नई तारीख दे दी थी. आज प्रीति और सिद्धार्थ दोनों ही बहुत हताश हो गए थे.

जब सिद्धार्थ घर पहुंचा, तो उस की मम्मी बोलीं, ‘‘अरे, कुछ लेदे कर एक महीने बाद की तारीख ले लो… आज ही तो तुम्हारी शादी की तारीख निकलवा कर आई हूं पंडितजी से.‘‘

उधर मयंक आतुर हो कर बोला, ‘‘प्रीति, घर वाले रातदिन शादी के लिए दबाव बना रहे हैं. अब कब तक बहाने बनाता रहूं?‘‘

उधर सिद्धार्थ ने इधरउधर से जज से जानपहचान निकलवानी शुरू कर दी थी. इस चक्कर में दलालों की जेब भी गरम करनी पड़ रही थी.

उधर मयंक और प्रीति भी दौड़धूप कर रहे थे. दोनों ही पक्ष जल्द से जल्द इस रिश्ते से छुटकारा चाहते थे, पर कानून के मसले भी अजीब थे.

4 माह में चक्कर काटकाट कर प्रीति और सिद्धार्थ दोनों के होश फाख्ता हो गए थे.

प्रीति तो एक दिन बोल भी उठी, ‘‘अगर मुझे पता होता कि आपसी सहमति से तलाक लेने में भी इतने झंझट हैं, तो मैं कभी ऐसा कदम नहीं उठाती.‘‘

मयंक प्रीति की बात सुन कर गुस्से में बोला, ‘‘मतलब, मैं ही बेवकूफ हूं.‘‘

सिद्धार्थ की मम्मी ने किसी तरह से शादी की तारीख आगे बढ़वा दी थी और उधर मयंक ने भी अपने परिवार से बस 4 महीने का समय मांगा था.

आज दोनों ही पक्ष को अधिक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी थी. दोनों वकील की जिरह सुनने के पश्चात जज महोदय बोले, ‘‘अगर ऐसी छोटीछोटी बातों पर विवाह टूटने लगे, तो वैवाहिक संस्था से लोगों का विश्वास ही उठ जाएगा.‘‘

फैसला आ गया था. दोनों को एकसाथ 6 माह तक एकसाथ रहने की सलाह दी गई थी. अगर 6 माह बाद भी विचार नहीं मिलते, तो फिर इस पर विचार किया जाएगा.

जज महोदय बोले, ‘‘अब आप लोग अपने घर जा कर दोबारा से नई शुरुआत करें.‘‘

प्रीति और सिद्धार्थ दोनों ही सोच रहे थे कि वो जिंदगी में इतना आगे बढ़ चुके हैं कि अब कौन से घर जाएं?
वह घर, जो कानून की बैसाखियों के सहारे लड़खड़ा रहा है या वह घर, जो अब इस फैसले के पश्चात बसने से पहले ही उजड़ गया था.

दूर कहीं से आवाज आ रही थी, ‘‘चलो खुसरो घर अपने.‘‘

दोनों ही जन उस दोराहे पर खड़े थे, जहां से उन्हें आगे जाने की राह ही नहीं सूझ रही थी.

Stories : नई चादर – कोयले को जब मिला कंचन

Stories : शरबती जब करमू के साथ ब्याह कर आई तो देखने वालों के मुंह से निकल पड़ा था, ‘अरे, यह तो कोयले को कंचन मिल गया.’

वैसे, शरबती कोई ज्यादा खूबसूरत नहीं थी, थोड़ी ठीकठाक सी कदकाठी और खिलता सा रंग. बस, इतनी सी थी उस की खूबसूरती की जमापूंजी, मगर करमू जैसे मरियल से अधेड़ के सामने तो वह सचमुच अप्सरा ही दिखती थी.

आगे चल कर सब ने शरबती की सीरत भी देखी और उस की सीरत सूरत से भी चार कदम आगे निकली. अपनी मेहनतमजदूरी से उस ने गृहस्थी ऐसी चमकाई कि इलाके के लोग अपनीअपनी बीवियों के सामने उस की मिसाल पेश करने लगे.

करमू की बिरादरी के कई नौजवान इस कोशिश में थे कि करमू जैसे लंगूर के पहलू से निकल कर शरबती उन के पहलू में आ जाए. दूसरी बिरादरियों में भी ऐसे दीवानों की कमी न थी. वे शरबती से शादी तो नहीं कर सकते थे, अलबत्ता उसे रखैल बनाने के लिए हजारों रुपए लुटाने को तैयार थे.

धीरेधीरे समय गुजरता रहा और शरबती एक बच्चे की मां बन गई. लेकिन उस की देह की बनावट और कसावट पर बच्चा जनने का रत्तीभर भी फर्क नहीं दिखा. गांव के मनचलों में अभी भी उसे हासिल करने की पहले जैसे ही चाहत थी.

तभी जैसे बिल्ली के भाग्य से छींका टूट पड़ा. करमू एक दिन काम की तलाश में शहर गया और सड़क पार करते हुए एक बस की चपेट में आ गया. बस के भारीभरकम पहियों ने उस की कमजोर काया को चपाती की तरह बेल कर रख दिया था.

करमू के क्रियाकर्म के दौरान गांव के सारे मनचलों में शरबती की हमदर्दी हासिल करने की होड़ लगी रही. वह चाहती तो पति की तेरहवीं को यादगार बना सकती थी. गांव के सभी साहूकारों ने शरबती की जवानी की जमानत पर थैलियों के मुंह खोल रखे थे, मगर उस ने वफादारी कायम रखना ही पति के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि समझते हुए सबकुछ बहुत किफायत से निबटा दिया.

शरबती की पहाड़ सी विधवा जिंदगी को देखते हुए गांव के बुजुर्गों ने किसी का हाथ थाम लेने की सलाह दी, मगर उस ने किसी की भी बात पर कान न देते हुए कहा, ‘‘मेरा मर्द चला गया तो क्या, वह बेटे का सहारा तो दे ही गया है. बेटे को पालनेपोसने के बहाने ही जिंदगी कट जाएगी.’’

वक्त का परिंदा फिर अपनी रफ्तार से उड़ चला. शरबती का बेटा गबरू अब गांव के प्राइमरी स्कूल में पढ़ने जाने लगा था और शरबती मनचलों से खुद को बचाते हुए उस के बेहतर भविष्य के लिए मेहनतमजदूरी करने में जुटी थी.

उन्हीं दिनों उस इलाके में परिवार नियोजन के लिए नसबंदी कैंप लगा. टारगेट पूरा न हो सकने के चलते जिला प्रशासन ने आपरेशन कराने वाले को एक एकड़ खेतीबारी लायक जमीन देने की पेशकश की.

एक एकड़ जमीन मिलने की बात शरबती के कानों में भी पड़ी. उसे गबरू का भविष्य संवारने का यह अच्छा मौका दिखा. ज्यादा पूछताछ करती तो किस से करती. जिस से भी जरा सा बोल देती वही गले पड़ने लगता. जो बोलते देखता वह बदनाम करने की धमकी देता, इसलिए निश्चित दिन वह कैंप में ही जा पहुंची.

शरबती का भोलापन देख कर कैंप के अफसर हंसे. कैंप इंचार्ज ने कहा, ‘‘एक विधवा से देश की आबादी बढ़ने का खतरा कैसे हो सकता है…’’

कैंप इंचार्ज का टका सा जवाब सुन कर गबरू के भविष्य को ले कर देखे गए शरबती के सारे सपने बिखर गए. बाहर जाने के लिए उस के पैर नहीं उठे तो वह सिर पकड़ कर वहीं बैठ गई.

तभी एक अधेड़ कैंप इंचार्ज के पास आ कर बोला, ‘‘सर, आप के लोग मेरा आपरेशन नहीं कर रहे हैं.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘कहते हैं कि मैं अपात्र हूं.’’

‘‘क्या नाम है तुम्हारा? किस गांव में रहते हो?’’

‘‘सर, मेरा नाम केदार है. मैं टमका खेड़ा गांव में रहता हूं.’’

‘‘कैंप इंचार्ज ने टैलीफोन पर एक नंबर मिलाया और उस अधेड़ के बारे में पूछताछ करने लगा, फिर उस ने केदार से पूछा, ‘‘क्या यह सच है कि तुम्हारी बीवी पिछले महीने मर चुकी है?’’

‘‘हां, सर.’’

‘‘फिर तुम्हें आपरेशन की क्या जरूरत है. बेवकूफ समझते हो हम को. चलो भागो.’’

केदार सिर झुका कर वहां से चल पड़ा. शरबती भी उस के पीछेपीछे बाहर निकल आई.

उस के करीब जा कर शरबती ने धीरे से पूछा, ‘‘कितने बच्चे हैं तुम्हारे?’’

‘‘एक लड़का है. सोचा था, एक एकड़ खेत मिल गया तो उस की जिंदगी ठीकठाक गुजर जाएगी.’’

‘‘मेरा भी एक लड़का है. मुझे भी मना कर दिया गया… ऐसा करो, तुम एक नई चादर ले आओ.’’

केदार ने एक नजर उसे देखा, फिर वहीं ठहरने को कह कर वह कसबे के बाजार चला गया और वहां से एक नई चादर, थोड़ा सा सिंदूर, हरी चूडि़यां व बिछिया वगैरह ले आया.

थोड़ी देर बाद वे दोनों कैंप इंचार्ज के पास खड़े थे. केदार ने कहा, ‘‘हम लोग भी आपरेशन कराना चाहते हैं साहब.’’

अफसर ने दोनों पर एक गहरी नजर डालते हुए कहा, ‘‘मेरा खयाल है कि अभी कुछ घंटे पहले मैं ने तुम्हें कुछ समझाया था.’’

‘‘साहब, अब केदार ने मुझ पर नई चादर डाल दी है,’’ शरबती ने शरमाते हुए कहा.

‘‘नई चादर…?’’ कैंप इंचार्ज ने न समझने वाले अंदाज में पास में ही बैठी एक जनप्रतिनिधि दीपा की ओर देखा.

‘‘इस इलाके में किसी विधवा या छोड़ी गई औरत के साथ शादी करने

के लिए उस पर नई चादर डाली जाती है. कहींकहीं इसे धरौना करना या घर बिठाना भी कहा जाता है,’’ उस जनप्रतिनिधि दीपा ने बताया.

‘‘ओह…’’ कैंप इंचार्ज ने घंटी बजा कर चपरासी को बुलाया और कहा, ‘‘इस आदमी को ले जाओ. अब यह अपात्र नहीं है. इस की नसबंदी करवा दें… हां, तुम्हारा नाम क्या है?’’

‘‘शरबती.’’

‘‘तुम कल फिर यहां आना. कल दूरबीन विधि से तुम्हारा आपरेशन हो जाएगा.

‘‘लेकिन साहब, मुझे भी एक एकड़ जमीन मिलेगी न?’’

‘‘हां… हां, जरूर मिलेगी. हम तुम्हारे लिए तीसरी चादर ओढ़ने की गुंजाइश कतई नहीं छोड़ेंगे.’’

शरबती नमस्ते कह कर खुश होते हुए कैंप से बाहर निकल गई तो उस जनप्रतिनिधि ने कहा, ‘‘साहब, आप ने एक मामूली औरत के लिए कायदा ही बदल दिया.’’

‘‘दीपाजी, यह सवाल तो कायदेकानून का नहीं, आबादी रोकने का है. ऐसी औरतें नई चादरें ओढ़ओढ़ कर हमारी सारी मेहनत पर पानी फेर देंगी. मैं आज ही ऐसी औरतों को तलाशने का काम शुरू कराता हूं,’’ उन्होंने फौरन मातहतों को फोन पर निर्देश देने शुरू कर दिए.

दूसरे दिन शरबती कैंप में पहुंची तो वहां मौजूद कई दूसरी औरतों के साथ उस का भी दूरबीन विधि से नसबंदी आपरेशन हो गया. कैंप की एंबुलैंस पर सवार होते समय उसे केदार मिला और बोला, ‘‘शरबती, मेरे घर चलो. तुम्हें कुछ दिन देखभाल की जरूरत होगी.’’

‘‘मेरी देखभाल के लिए गबरू है न.’’

‘‘मेरा भी तो फर्ज बनता है. अब तो हम लिखित में मियांबीवी हैं.’’

‘‘लिखी हुई बातें तो दफ्तरों में पड़ी रहती हैं.’’

‘‘तुम्हारा अगर यही रवैया रहा तो तुम एक बीघा जमीन भी नहीं पाओगी.’’

‘‘नुकसान तुम्हारा भी बराबर होगा.’’

‘‘मैं तुम्हें ऐसे ही छोड़ने वाला नहीं.’’

‘‘छोड़ने की बात तो पकड़ लेने के बाद की जाती है.’’

शरबती का जवाब सुन कर केदार दांत पीस कर रह गया.

कुछ साल बाद गबरू प्राइमरी जमात पास कर के कसबे में पढ़ने जाने लगा. एक दिन उस के साथ उस का सहपाठी परमू उस के घर आया.

परमू के मैलेकुचैले कपड़े और उलझे रूखे बाल देख कर शरबती ने पूछा, ‘‘तुम्हारी मां क्या करती रहती

है परमू?’’

‘‘मेरी मां नहीं है,’’ परमू ने मायूसी से बताया.

‘‘तभी तो मैं कहूं… खैर, अब तो तुम खुद बड़े हो चुके हो… नहाना, कपड़े धोना कर सकते हो.’’

परमू टुकुरटुकुर शरबती की ओर देखता रहा. जवाब गबरू ने दिया, ‘‘मां, घर का सारा काम परमू को ही करना होता है. इस के बापू शराब भी पीते हैं.’’

‘‘अच्छा शराब भी पीते हैं. क्या नाम है तुम्हारे बापू का?’’

‘‘केदार.’’

‘‘कहां रहते हो तुम?’’

‘‘टमका खेड़ा.’’

शरबती के कलेजे पर घूंसा सा लगा. उस ने गबरू के साथ परमू को भी नहलाया, कपड़े धोए, प्यार से खाना खिलाया और घर जाते समय 2 लोगों का खाना बांधते हुए कहा, ‘‘परमू बेटा, आतेजाते रहा करो गबरू के साथ.’’

‘‘हां मां, मैं भी यही कहता हूं. मेरे पास बापू नहीं हैं, तो मैं जाता हूं कि नहीं इस के घर.’’

‘‘अच्छा, इस के बापू तुम्हें अच्छे लगते हैं?’’

‘‘जब शराब नहीं पीते तब… मुझे प्यार भी खूब करते हैं.’’

‘‘अगली बार उन से मेरा नाम ले कर शराब छोड़ने को कहना.’’

इसी के साथ ही परमू और गबरू के हाथों दोनों घरों के बीच पुल तैयार होने लगा. पहले खानेपीने की चीजें आईंगईं, फिर कपड़े और रोजमर्रा की दूसरी चीजें भी आनेजाने लगीं.

फिर एक दिन केदार खुद शरबती के घर जा पहुंचा.

‘‘तुम… तुम यहां कैसे?’’ शरबती उसे अपने घर आया देख हक्कीबक्की रह गई.

‘‘मैं तुम्हें यह बताने आया हूं कि मैं ने तुम्हारा संदेश मिलने से अब तक शराब छुई भी नहीं है.’’

‘‘तो इस से तो परमू का भविष्य संवरेगा.’’

‘‘मैं अपना भविष्य संवारने आया हूं… मैं ने तुम्हें भुलाने के लिए ही शराब पीनी शुरू की थी. तुम्हें पाने के लिए ही शराब छोड़ी है शरबती,’’ कह कर केदार ने उस का हाथ पकड़ लिया.

‘‘अरे… अरे, क्या करते हो. बेटा गबरू आ जाएगा.’’

‘‘वह शाम से पहले नहीं आएगा. आज मैं तुम्हारा जवाब ले कर ही जाऊंगा शरबती.’’

‘‘बच्चे बड़े हो चुके हैं… समझाना मुश्किल हो जाएगा उन्हें.’’

‘‘बच्चे समझदार भी हैं. मैं उन्हें पूरी बात बता चुका हूं.’’

‘‘तुम बहुत चालाक हो. कमजोर रग पकड़ते हो.’’

‘‘मैं ने पहले ही कह दिया था कि मैं तुम्हें छोड़ूंगा नहीं,’’ केदार ने उस की आंखों में झांकते हुए कहा. शरबती की आंखें खुद ब खुद बंद हो गईं.

उस दिन के बाद केदार अकसर परमू को लेने के बहाने शरबती के घर आ जाता. गबरू की जिद पर वह परमू के घर भी आनेजाने लगी. जब दोनों रात में भी एकदूसरे के घर में रुकने लगे तो दोनों गांवों के लोग जान गए कि केदार ने शरबती पर नई चादर डाल दी है.

परमू, गबरू और केदार बहुत खुश थे. खुश तो शरबती भी कम नहीं थी, मगर उसे कभीकभी बहुत अचंभा होता था कि वह अपने पहले पति को भूल कर केदार की पकड़ में आ कैसे गई?

Love Story : प्यार का पहला खत – एक ही नजर में सौम्या के दिल में उतर गया आशीष

Love Story : मेरे हाथ में किताब थी और मैं इधरउधर देखे जा रही थी क्योंकि वह मेरे हाथ में किताब पकड़ा कर गायब हो चुका था या यों कहें वह कहीं छिप गया या वहां से दूर भाग चुका था. शायद मेरी मति मारी गई थी जो मैं ने उस से किताब ले ली थी. सच कहूं तो वह काफी समय से मुझे इंप्रैस करने में लगा हुआ था. हालांकि कभी कुछ कहा नहीं था और आज जब उसे पता चला कि मुझे इस सब्जैक्ट की किताब की जरूरत है तो न जाने कहां से फौरन उस किताब को अरेंज कर के मेरे हाथों में पकड़ा कर चला गया था.

मैं ने उस समय तो वह किताब पकड़ ली थी लेकिन अब उस के छिप जाने या गायब हो जाने से मेरा दिमाग बहुत परेशान हो रहा था. कुछ समझ ही नहीं आ रहा था कि मैं क्या करूं. मैं इस तरह परेशान हाल ही उस पार्क में पड़ी हुई एक बैंच पर बैठ गई. वहां पर कुछ लोग जौगिंग कर रहे थे और वे मेरे आसपास ही घूम रहे थे. मुझे लगा कि शायद मेरी परेशान हालत देख कर वे सब मेरे और करीब आ रहे हैं. खैर, हर तरफ से मन हटा कर मैं ने किताब का पहला पन्ना खोला, सरसराता हुआ एक सफेद प्लेन पेपर मेरे हाथों के पास आ कर गिर पड़ा. न जाने क्यों मेरा मन एकदम से घबरा गया, समझ ही नहीं आया क्या होगा इस में. फिर भी झुक कर उसे उठाया और खोल कर चैक किया, कहीं कुछ भी नहीं लिखा था.

मैं खुद को ही गलत कहने लगी. वह तो एक समझदार लड़का है और मेरी हैल्प करना चाहता है, बस. मैं ने दूसरा पन्ना पलटा तो एक और सफेद प्लेन पन्ना सरक कर गिर पड़ा. इस समय मैं अनजाने में ही जोर से चीख पड़ी. पार्क में मौजूद आधे लोग पहले से ही मेरी तरफ देख रहे थे और बचेखुचे लोग भी अपनी सेहत पर ध्यान देने के बजाय मेरी ओर निहार रहे थे.

‘‘क्या हुआ सौम्या?’’ अचानक से आशीष दौड़ कर मेरे पास आ गया. वह मेरे चीखने की आवाज सुन कर काफी घबराया हुआ लग रहा था.

‘‘कुछ नहीं, बस इस घास के कीड़े से डर गई थी. यह मेरे पैर पर चढ़ने की कोशिश कर रहा था,’’ उस ने घास पर चल रहे हरे रंग के एक छोटे से कीड़े को दिखाते हुए कहा.

‘‘तुम बहुत डरती हो सौम्या. इस नन्हे से कीड़े से ही डर गईं. देखो, वह तुम्हारी जरा सी चीख से कैसे दुबक गया,’’ आशीष मुसकराते हुए बोला. सौम्या भी थोड़ा झेंपते हुए मुसकरा दी.

‘‘तुम अभी तक कहां थे आशीष? मेरी एक चीख पर दौड़ते हुए अचानक कहां से आ गए?’’

‘‘अरे पागल, मैं तो यहीं पर था, जौगिंग कर रहा था.’’

‘‘ओह, तो क्या तुम यहां रोज आते हो?’’

‘‘हां और क्या. तुम्हें क्या लगा आज तुम्हारी वजह से पहली बार आया हूं?’’

‘‘नहींनहीं. ऐसा नहीं है, मैं ने यों ही पूछा.’’

‘‘चलो, अब मैं घर आ जा रहा हूं. तुम आराम से इस किताब को पढ़ कर वापस कर देना,’’ आशीष बिना कुछ कहे व रुके वहां से चला गया.

‘कितना बुरा है आशीष, बताओ उस ने एक बार भी यह नहीं पूछा कि तुम साथ चल रही हो?’ उसे ऐसा महसूस हुआ जैसे वह किताब दे कर उस पर कोई एहसान कर के गया है.

मैं उदास होे घर की तरफ वापस चल पड़ी. मन में उस के लिए न जाने क्याक्या सोच रही थी और वह एकदम से उस का उलटा ही निकला.

घर आ कर भी बिलकुल मन नहीं लगा. कमरे में बैड पर लेट कर उस के बारे में ही सोचती रही, आखिर ऐसा क्यों होता है? क्या है यह सब? मन उस की तरफ से हट क्यों नहीं रहा? क्या वह भी मेरे बारे में सोच रहा होगा?

ओह, यह आज मेरे मन को क्या हो गया है. उस ने हलके से सिर को झटका दिया, पर दिमाग था कि उस की तरफ से हटने का नाम ही नहीं ले रहा था. चलो, थोड़ी देर मां के पास जा कर बैठती हूं. अब तो वे स्कूल से आ गई होंगी. थोड़ी देर उन से बातें करूंगी तो उधर से दिमाग हट जाएगा.

वह मां के पास आ कर बैठ गई.

‘‘तुम आ गई सौम्या बेटा?’’

‘‘हां मा.’’

‘‘बेटा, एक कप चाय बना लाओ. आज मेरे सिर में बहुत दर्द हो रहा है. स्कूल में बच्चों की कौपियां चैक करना बहुत दिमाग का काम है. वह बिना कुछ बोले चुपचाप किचन में आ कर चाय बनाने लगी. 2 कप चाय बना कर वापस मां के पास आ कर बैठ गई.

लेकिन आज मां ने कोई बात नहीं की. उन्होंने चुपचाप चाय पी और आंखें बंद कर के लेट गईं. शायद वे आज बहुत थकी हुई थीं.

सौम्या वहां से उठ कर अपने कमरे में आ गई. इसी तरह 10 दिन गुजर गए.

आज कालेज में फेयरवेल पार्टी थी. येलो कलर की साड़ी पहन कर वह कालेज पहुंची. वहां सब उसे ही देख रहे थे. उसे लगा आज तो पक्का आशीष उस से बात करेगा. लेकिन पूरी पार्टी निकल गई पर आशीष ने एक बार भी उस की तरफ नजर उठा कर नहीं देखा. अब सच में उसे बहुत गुस्सा आने लगा था.

गुस्से और रोने के समय अकसर सौम्या के चेहरे पर लालिमा आ जाती है जो उस की सुंदरता में इजाफा कर देती है. वह यों ही कालेज गेट से बाहर निकल कर आ गई. अचानक से लगा कि कोई उस के पीछे आ रहा है. कौन हो सकता है, मन में थोड़ी घबराहट का भाव आया और दिल तेजी से धड़कने लगा.

वह एकदम से सौम्या के सामने आ गया.

‘‘ओह आशीष तुम, मैं तो एकदम घबरा ही गई थी,’’ उस का दिल वाकई में घबराहट के कारण तेजी से धड़कने लगा था.

वह कुछ नहीं बोला, फिर थोड़ी देर ऐसे ही खड़े रहने के बाद एक खूबसूरत सा लिफाफा देते हुए कहा, ‘‘यह सर ने आप के लिए भिजवाया है.’’

‘‘क्या है इस में?’’

‘‘आप की ड्रैस के लिए शायद बैस्ट कौंप्लिमैंट्स हैं.’’

उस के चेहरे को पढ़ते हुए लगा कि वह सच ही कह रहा है, क्योंकि उस के चेहरे पर कोई भी भाव ऐसा नहीं था जिस से लगे कि वह मजाक कर रहा है. उस वक्त अचानक से उस के मन में यह खयाल आया कि यह अपने मुंह से नहीं कह पा रहा तो शायद लिख कर दिया हो.

‘‘सौम्या, अगर तुम कहो तो आज मैं तुम्हें तुम्हारे घर तक छोड़ दूं? आज मैं अपने पापा की कार ले कर आया हूं,’’ आशीष ने उसे जाते देख कर कहा.

उस ने बिना देर किए फौरन सिर हिला दिया था क्योंकि वह आशीष के साथ थोड़ी सी देर का साथ भी गंवाना नहीं चाहती थी. ड्राइविंग सीट पर बैठे आशीष के चेहरे को सौम्या बराबर पढ़ती रही पर उस पर ऐसा कोई भाव नहीं था जिस से अनुमान भी लगाया जा सके कि उस के दिल में कोई कोमल भावना भी है.

सौम्या का घर आ गया था और वह उतर गई. उस ने आशीष से कहा, ‘‘आशीष घर के अंदर नहीं आओगे?’’

‘‘नहीं, आज नहीं फिर कभी. आज तो मुझे जल्दी घर पहुंचना है.’’

‘ओह, कितना खड़ूस है यह, इस की नजर में उस की कोई वैल्यू ही नहीं. मैं ही पागल हूं, जो इस से एकतरफा प्यार कर रही हूं. आज से इस के बारे में सोचना बिलकुल बंद.’ उस ने मन ही मन एक कठोर निर्णय लिया था. चाहे कैसे भी हो, मुझे अपने मन को समझाना ही पड़ेगा.

चलो, अब कभी उस का नाम ले कर उसे याद नहीं करूंगी. मैं मुसकराती गुनगुनाती अपने कमरे में आ गई. आईने के सामने खड़े हो कर खुद को निहारा. मन में उदासी का भाव आया. उस की वजह से ही तो इतना सजसंवर के गई थी. खैर, अब छोड़ो. उस ने हाथ में पकड़े लिफाफे को बैड पर रखा और कपड़े चेंज करने के लिए अलमारी से कपड़े निकालने लगी.

‘चलो, पहले इस लिफाफे को ही खोल कर देख लूं, सर ने न जाने क्या लिखा होगा?’ बेमन से उस को खोला.

उस में से सफेद रंग का प्लेन पेपर निकल कर नीचे गिर पड़ा. ओह, यह तो आशीष की बदतमीजी है. आज उसे फोन कर के कह ही देती हूं कि उसे इस तरह का मजाक पसंद नहीं है.

गुस्से में आ कर वह फोन मिला ही रही थी कि लिफाफे के अंदर रखे एक कागज पर नजर चली गई.

वह निकाल कर पढ़ने के लिए खोला ही था कि मम्मी के कमरे में आने की आहट सी हुई. मम्मी को भी अभी ही आना था.

‘‘बेटा, जरा मार्केट तक जा रही हूं, कुछ मंगाना तो नहीं है?’’

‘‘नहीं मम्मी, कुछ नहीं चाहिए.’’

‘‘चलो, ठीक है.’’

मम्मी के जाते ही उस ने उस पेपर को पढ़ना शुरू कर दिया, ‘प्रिय सौम्या, के संबोधन के साथ शुरू हुआ वह पत्र तुम्हारा आशीष के साथ खत्म हुआ. उस के बीच में जो लिखा था वह उसे खुशी से झुमाने के लिए काफी था. वह भी मुझे उतना ही प्यार करता था. वह भी मेरे लिए इतना ही बेचैन था. वह भी कुछ कहने को तरसता था. वह भी मेरा साथ पाना चाहता था. लेकिन मेरी ही तरह इस डर का शिकार था कि कहीं मैं मना न कर दूं. उस के प्यार को अस्वीकृत न कर दूं.

वाकई वह मुझे सच्चा प्यार करता है, तभी तो कभी उस ने मेरे हाथ तक को एक बार भी टच नहीं किया वरना कितने मौके आए थे. वह खुशी से झूम उठी. एक बार खुद को आईने में निहारा और अब वह खुद पर ही मोहित हो गई और उस के मुंह से निकल पड़ा, ‘‘आई लव यू, आशीष.’’

उस की आंखों के सामने आशीष का मुसकराता चेहरा था और अब वह शरमा के अपनी नजरें नीचे की तरफ कर के जमीन को देखने लगी थी. आखिर, उस के सच्चे मन की दुआ सफल जो हो गई थी.

Hindi Kahani : करो ना क्रांति – राजकुमारी को क्या मिला था सबक

Hindi Kahani :  आज़ादी का दिन जब पहली बार आयोजित किया गया होगा, कितना उल्लास रहा होगा हर भारतीय के मन में. परन्तु आज आज़ादी के ७० वर्ष बाद यह कोरोना का लौकडाउन महज़ छुट्टी का एक दिन भर रह गया हैं. पुरुष पूरा दिन आदेश देने में व्यतीत करते हैं और स्त्रियाँ उसे पूरा करने में. प्रकृति ने भी स्त्री और पुरुष की रचना करते समय अंतर किया था. सारी पीड़ा तो स्त्री के हिस्सें मे डाल दी और पुरुष को दे दिया कठोर संवेदनहीन दिल. स्त्रियाँ तो १५ अगस्त १९४७ के पूर्व भी पराधीन थीं, और आज भी हैं. स्त्रियाँ भी अपनी इस दशा के लिए कम उत्तरदायी नहीं हैं क्योंकि पराधीनता को अपनी नियति मान स्वीकार भी तो उन्होंने ही किया है, शायद धर्म के धुरंधर प्रचार के कारण.

“भाभी हल्वे में चीनी कितनी डालूँ ?” विराज के तेज़ी से दोड़ते सोच के घोड़ों को अदिति की आवाज़ के चाबुक ने लगाम लगा कर रोक दिया था.जमीनी हकीकत जानते हुए भी, पता नहीं क्यों उसके मन के भीतर सोयी हुई एक्टिविस्ट गाहे-बगाहे जाग उठती थी.अमर की आदेशों की लिस्ट लंबी होती जा रही थी. घर के काम में उसकी सहायता के लिये आने वाली बाई विमला को भी संक्रमण के खतरे की वजह से उसने छुट्टी दे दी थी. पता नहीं वह कैसे गुजारा कर रही होगी. कहा भी था कि उसे घर पर ही रहने दें, कुछ आराम हो जाएगा और उसको वेतन भी दिया जा सकेगा.

इन्हें ही लगा थाकि न जाने कहां से कोरोना लें आई हो. मेरी एक नहीं चली. सब ने कहा कि वे खुद काम कर लेंगे. पर अब घर के सभी कामों की जिम्मेदारी विराज और उसकी ननद अदिति के ऊपर आ गयी थी. अदिति दिल्ली यूनिवर्सिटी से ग्रैजुवेशन कर रही थी. विराज का प्रयास था कि अदिति पर भी कम से कम काम का दबाव पड़े. इसलिये वो अधिकतर काम स्वयं ही निबटा ले रही थी. उसके दोनों बच्चें १० साल की आन्या और १२ साल का मानव अपने कमरे में वीडियो गेम खेलने में व्यस्त थे. पति अमर अपने कमरे में अधलेटे हुए चाय की चुस्कियां ले रहे थें.

अचानक वहीं से चीख कर बोलें,“सुनो आज नेटफलिक्स पर एक नयी फिल्म आयी है. सब साथ ही देखेंगे.” फिर थोड़ा रुककर बोलें, “ये तुम्हारे बच्चें इतना शोर क्यों कर रहे हैं? देखो जरा !”अन्य दिन तो वर्क फ्रौम होम होता था तो फिर भी अमर समय पर नहा लिया करते थें. लेकिन शनिवार होने के कारण महाशय छुट्टी मोड में चले गये थें. बच्चों की तो खैर, छुट्टियाँ ही थी. “बाबू साहेब सुबह से लेटे-लेटे हुक्म दे रहे हैं. मैं घर के रोजमर्या के कार्यों के साथ बढ़े हुये कामों को भी निबटाने में लगी हूँ, यह नहीं दिख रहा हैं जनाब को. जब कुछ गलत करे तो बच्चें मेरे, परन्तु जब यही बच्चें कुछ अच्छा करते हैं, तो इनके हो जाते हैं.”

सोच तो इतना कुछ लिया विराज ने परन्तु प्रत्यक्ष में इतना भर कह पाई, “जी, बस अभी देखती हूँ.”
सभी काम निबटाने में बारह बज गये थें. पूरा परिवार फिल्म देखने बैठ गया. विराज ने सोचा थोड़ा सुस्ता ले, तभी अमर की आवाज कानों में पड़ी. “अरे विराज कहाँ हो भई?”“थोड़ा थक गयी थी. सोचा लेट लेती हूँ !” विराज अनमनी सी हो गयी थी. “अरे इतनी मुश्किल से तो फैमिली टाइम मिला है. उसमें भी इन्हें सोना है !”
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अमर की बात सुनकर विराज को ऐसा मालूम हुआ जैसे गुस्से की एक लहर तनबदन में रेंग गयी हो. मन में आया कि कह दे, “फॅमिली टाइम या पैर फैलाकर ऑर्डर देने का टाइम.” वैसे आम दिनों में भी अमर घर का कोई काम नहीं करते थें. लेकिन विमला और अदिति की सहायता से काम हो जाता था. फिर विराज को थोड़ा मी टाइम भी तो मिल जाया करता था. लेकिन अब तो विराज के पास दो घड़ी बैठकर चाय पीने का भी समय नहीं था.

“अरे कहाँ रह गयी !?” अमर ने जब दुबारा बुलाया विराज को मन मारकर जाना ही पड़ा. फिल्म वाकई में अच्छी थी. विराज को भी अच्छा लग रहा था कि पूरा परिवार एक साथ बैठा था. तभी अचानक अमर ने फरमान सुनाया, “विराज पकोड़े बना लो. फिल्म के साथ सभी को मजा आ जायेगा.”“सभी को या तुम्हें !” विराज के इस अचानक पूछे गये प्रश्न पर अमर चौंक गया था. फिर थोड़ा गुस्से में बोला, “मैं तो सभी के लिये कह रहा था. तुम्हारा मन नहीं तो मत बनाओ.”

“मम्मी प्लीज” अब तो बच्चें भी चिल्लाने लगे थें. विराज उठ कर रसोई में चली गयी थी.
थोड़ी देर बाद अदिति को वहाँ बैठी देखकर, अमर बोल पड़े थे,” अरे तुम कहाँ  बैठ रही हो, अंदर रसोई में जाओ भाभी के साथ.”अदिति के चेहरे पर एक पल की झेंप को पहचान लिया था विराज ने. दोनों की नज़रें मिली और हालें दिल बयां हो गया था. विराज ने इशारे से अदिति को अंदर बुला लिया था.
अंदर रसोई में भी कुर्सियां लगी हुई थी, उनमें से एक पर अदिति को बैठने का इशारा करके विराज ने अपना सारा ध्यान गैस पर रखी हुई कढ़ाई पर लगा दिया था.

“कितनी गर्मी हैं आज!” अदिति ने बात शुरू करने के लिए यह जुमला कहा था शायद.
“हमम! चाहो तो वापस कमरे में जाकर बैठ जाओ, वहां तो ए सी लगा है.”
“नही-नहीं, मैं ठीक हूँ.”“भाभी आपको क्या लगता है, यह लॉकडाउन कब तक रहेगा?” अदिति फिर बोली थी.“देखो कब तक चलता है ! बस देश में सब ठीक रहें !” विराज ने दार्शनिक के अंदाज़ में कहा.
“भाभी मुझे आपके साथ बातें करना बहुत पसंद है.” अदिति ने बात बदल दी थी.

“आजकल हमें समय भी बहुत मिल रहा है. तुम्हारे साथ कितनी विषयों पर बातें हो जाती हैं” विराज ने उसकी बात का अनुमोदन किया था.“आप तो मेरी प्यारी भाभी है !” अदिति ने पीछे से विराज को अपने अंक में भर कर कहा था. “इसी बात पर मेरी तरफ से तुम्हें ट्रीट.” विराज ने मुस्कुराते हुए कहा.
“क्या मिलेगा ट्रीट में ?” अदिति ने पूछा था.“तुम पहले ये पकौड़े दे आओ. खाना तो तैयार ही है. तुम्हें अच्छी सी चाय पिलाती हूँ?”“भाभी आप चाय लेकर बालकोनी में चलो, मैं पकोड़े देकर आती हूँ.” अदिति ने बड़े प्यार से विराज को कहा था.

“लॉकडाउन में भी इन्हें पाँच दिन का काम और दो दिन की छुट्टी मिल रही है, परन्तु हमें कब मिलती हैं छुट्टी? यदि कुछ कहूँगी तो एक ही उत्तर मिलेगा, तुम तो सारा दिन घर में आराम ही करती हो. हमें तो बड़ी मुश्किल से छुट्टियाँ मिलती हैं. उस समय दिल करता हैं की कह दूँ, यह आराम एक दिन के लिए तुम भी लेकर देखो .” “तो कहती क्यों नहीं ?” विराज को पता ही नहीं चला था कि कब उसके मन की आवाज जबान से निकलने लगी थी. अदिति ने सब सुन लिया था. उसके प्रश्न का उत्तर सोचने में विराज को समय लगा. अदिति भी पास आकर बैठ गयी और अपना प्रश्न दोहरा दिया था. इस बार विराज बोली थी.
“अब बात तो उनकी भी पूरी तरह से गलत नहीं हैं. ऑफिस में परेशानी तो कई तरह की होती ही हैं.” अब विराज का स्वर बदल गया था.

“पुरुषों से अपने कार्य के लिए सम्मान की अपेक्षा हम तभी कर सकते हैं जब स्वयं हम अपने कार्य को सम्मानित महसूस करे.” अदिति की आँखों में चमक थी. “हमारे कार्य का कोई आर्थिक महत्व नहीं हैं, सम्मान इस दुनिया में द्रव्य सम्बन्धी हैं.” विराज ने एक आह भरकर अपनी बात रखी थी.
“मैं ऐसा नहीं मानती. कामकाजी स्त्रियों को कौन सा सम्मान ज्यादा मिल जाता हैं? घर आकर उन्हें भी चूल्हा-चौकी की इस आग में जलना ही पड़ता हैं. बाहर से थक कर दोनों ही आते हैं, परन्तु पुरुष के हिस्से आती हैं टीवी का रिमोट और सोफे का आराम. स्त्री के हिस्से आती हैं रसोई और बच्चों की पढाई.” अदिति ने उसकी इस बात का खंडन किया था.

विराज उनकी बातों को अनमने भाव से सुन रही थी कि अनायास ही नीचे की फ्लैट से आ रही एक स्त्री की आवाज ने उसका ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर लिया था. विराज उसे नहीं जानती थी. कभी मिलने का समय ही नहीं मिल पाया था. वो और उसके पति दोनों ही इंजीनियर थें. कभी-कभी बालकोनी से उनके मध्य एक मुस्कान का आदान-प्रदान हो जाया करता था.

वो किसी से फोन पर बात कर रही थी-“मेरी राय में इसमें मर्दों से ज्यादा औरतों की गलती हैं. दोष पुरुष पर डाल कर औरत अपना पल्ला नहीं झाड़ सकती. बचपन से मर्द को यह बताया जाता हैं की तेरे सारे काम करने के लिए घर में एक स्त्री हैं. उसकी परवरिश ही ऐसी होती हैं की वो स्वभाववश ही आराम पसंद हो जाता हैं. कभी माँ, कभी बहन, कभी बीवी बन कर हम औरतें ही उन्हें आलसी बना देती हैं. अब जब मर्द को यह पता हो की, घर में औरत हैं उसका काम करने को तो फिर वो क्यों अपने शरीर को कष्ट देगा. आराम किसे बुरा लगता हैं? इसलिए वो तो काम नहीं करेगा, तुझे काम करवाना पड़ेगा. उसे समझाने से पहले तुझे खुद समझना होगा की तू भी इन्सान हैं और तुझे भी आराम की उतनी ही जरुरत हैं. तुझे क्या लगता हैं रवि  हमेशा से घर के काम में मेरी मदद करता था ! नहीं, उसे खाना बनाना मैंने सिखाया हैं. अब देख मुझे से भी अच्छी खीर बनाता है. चल अब फ़ोन रखती हूं, रवि बुला रहा है.”

फ़ोन रख कर न मालूम किस भावना के वशीभूत होकर उसने ऊपर देखा. वहाँ दो जोड़ी आँखों को अपनी ओर घूरता पाया. उन आँखों में इर्ष्या और सम्मान का भाव एक साथ मौजूद था. इर्ष्या इसलिए कि जो बात वे अभी तक सोच भी नहीं पाई थी, उसे वो इतने अच्छे से समझ गयी थी. सम्मान इसलिए कि न केवल समझी थी अपितु अपने जीवन में सकारात्मक परिवर्तन भी ले आई थी.उन दोनो की खामोशी ने एक दूसरे से संवाद कर लिया, और एक छोटी सी चिंगारी उसकी आँखों से विराज की आँखों में प्रवेश कर गयी थी. बिना किसी शोर के एक मूक क्रांति का जन्म हुआ था.वो अंदर चली गयी थी. अदिति और विराज दोनों चुप थें.

“मध्यम वर्ग की सोच में बदलाव एक क्रांति ही ला सकती हैं.” अदिति ने चुप्पी तोड़ी थी.“तब तक …” विराज ने प्रश्न ऐसे पूछा था जैसे उत्तर उसे पहले से पता हो.“जो जैसे चल रहा है, वैसे ही चलता रहेगा.” अदिति जैसे स्वयं को समझा रही थी.उसकी बात सुनकर विराज एक मुस्कान के साथ बोली, “ बात किसी वर्ग की नहीं हैं. बात सिर्फ इतनी है कि, जो तू कहता है, बात सही लगती हैं; पर वो मेरे नहीं तेरे होठों पर सजती है.”“आप कहना क्या चाहती हैं !?” अदिति के स्वर में उत्सुकता थी.

“समाज में सकारात्मक परिवर्तन के हम सभी पक्षधर हैं. परन्तु पहला कदम उठाने से डरते हैं.  बदलाव केवल क्रांति ही ला सकती हैं, यह एक भ्रान्ति हैं. आत्मविश्वास के साथ बढे हुए छोटे-छोटे कदम भी परिवर्तन ला सकते हैं.” “जैसे की …” अदिति को विराज की बातों ने जैसे सम्मोहित कर लिया था.
“बच्चों को खाने के लिए बुला लेते हैं.” विराज ने अनायास ही बातों का रुख बदल दिया.
दोनों ही वर्तमान में लौट आये थें.“हाँ, मैं आन्या को बुला लाती हूँ. खाना लगाने में मदद कर देगी.”
“क्यों?” विराज ने अदिति की तरफ बिना देखे पूछ लिया था.??? अदिति के चेहरे पर प्रश्न था.
“मानव क्या करेगा ? पुरुष होने की उत्कृष्टता का लाभ लेगा ! बदलाव अपनी परवरिश में लाना होगा. अपने बेटों को हुक्म देने वाला नहीं, साथ देने वाला पुरुष बनाना होगा, और अपनी बेटियों को गलत का विरोध करना सिखाना होगा. तुम समझ रही हो ना !?”

विराज के इन शब्दों ने जैसे अदिति पर जादू कर दिया था. पहला कदम लेना उतना मुश्किल भी नहीं था.
“भाभी, मैं अभी मानव और आन्या को बुला कर लाती हूँ. आज उन्हें मेज़ पर खाना लगाना सिखाते हैं” लगभग उछलती हुई अदिति अंदर की तरफ चली गयी थी. कुछ सोचकर विराज भी उस तरफ चल दी थी, आखिर बड़े बच्चे को भी तो उसका नया पाठ समझाना था.

जब विराज बैठक में पहुंची तो अमर किसी से फोन पर बात कर रहे थें. टी वी बंद था. बच्चें भी अपने कमरे में जा चुके थें. अमर की स्त्री स्वतंत्रता और सशक्तिकरण पर चर्चा अभी-अभी समाप्त हुई थी. पुरुष बॉस और स्त्री बॉस में कौन ज्यादा प्रभावी होता हैं; इस प्रिय विषय पर वाद-विवाद कई घंटों तक चला था. स्त्रियों की मानसिक क्षमता का भी आंकलन हो चुका था. अभी शेरों-शायरी का दौर जारी था और श्रीमान अमर जी एक शेर सुना रहे थें.

“एक उम्र गुजार दी तेरे शहर में, अजनबी हम आज भी हैं.तेरी ख्वाहिशों के नीचे, मेरे दम तोड़तें ख्वाब आज भी हैं….”अमर ने अपनी पंक्तियाँ अभी समाप्त ही की थी की विराज ने उन्ही पंक्तियों के साथ अपने शब्द जोड़ दिए थें …. “तेरे दर्वाज़ाऐ क़ल्ब पर दस्तक देते मेरे हाँथों को देखा हैं कभी
तेरी गर्म रोटी की चाह में झुलसे मेरे हाथ तब भी थे और आज भी हैं …”

अमर चौंक कर पलट गये थें. अपने स्वप्न में भी विराज से इस तरह के व्यवहार की उम्मीद उन्होंने नहीं की थी. उन्होंने कंधे उचका कर विराज से कारण पूछा. बेपरवाह विराज ने उनके कान पर से फोन हटाया और कॉल काट दी. कमरे में तूफान के बाद वाली शांति पसर गयी थी.अपनी दम्भी आवाज़ में अमर ने पूछा था, “यह क्या हो रहा है विराज !?

“कुछ नहीं! इस कोरोना फीवर ने मुझे दो बातें समझा दी हैं.”“अच्छा ! जरा मैं भी तो सुनूँ कौन-कौन सी !” अमर के स्वर में तल्खी थी. विराज सामने पड़े सोफ़े पर आराम से बैठकर बोली, “पहली तो ये कि सही शिक्षा किसी भी उम्र में दी जा सकती है; मात्र एक मंत्र पढ़ना है, तुम भी करो ना. दूसरी, फॅमिली टाइम घर की स्त्रियों के लिये भी होता है. घर सभी का तो घर के काम मात्र स्त्री के क्यों ! मुसीबत तो सब पर आयी है, तो उसका सामना भी तो सबको मिलकर ही करना होगा.”

इतना कहकर विराज ने पलट कर पीछे देखा. आन्या और अदिति मेज पर खाना लगा रहे थें और मानव ग्लासों में पानी भर रहा था. अमर की नजर भी विराज की नजर का पीछा करते हुये उधर ही चली गयी थी.
“सुनो !” विराज की आवाज पर अमर ने उसकी तरफ देखा.“खाना तैयार हैं, मेज़ पर लगा दिया हैं. अदिति अपना और मेरा खाना यहीं ले आयेगी.”

अमर चुपचाप अंदर की तरफ जाने लगा था कि विराज ने फिर पुकारा-“सुनो ! बड़े बर्तन तो मैंने धो दिये थें. अपने और बच्चों के बर्तन धोकर अलमारी में रख देना.” इतना कहकर बिना अमर की तरफ देखे, विराज टी वी खोलकर अपना धारावाहिक देखने में तल्लीन हो गयी थी. घर में करो ना क्रांति का बिगुल बज चुका था. टीवी से आवाज़ आ रही थी.

राजकुमार कुछ देर तक राजकुमारी के विचार परिवर्तन की राह देखता रहा. वह उनके कोमल ह्रदय को लेकर विश्वस्त था. परन्तु राजकुमारी की अनभिज्ञता उसे व्यग्र कर रही थी. उसकी निर्निमेष दृष्टि से अविचलित राजकुमारी अपनी सखियों के साथ आखेट में व्यस्त थी. राजकुमारी की ना को हाँ में बदलने का दम्भ जो उसने अपने मित्रों के सामने भरा था, वह दम तोड़ रहा था. थके क़दमों से वह आगे बढ़ गया था. इस परिवर्तन को उसने अनमने भाव से स्वीकार कर लिया था. अपनी गले में लटकती माला से खेलती हुयी राजकुमारी भी जानती थी कि यह पहला सबक था, पूरी शिक्षा अभी शेष थी.

Stories : अपरिमित – अमित और उसकी पत्नी के बीच क्या हुई थी गलतफहमी

Stories : ” दरवाज़ा खुलने की आवाज़ के साथ ही हवा के तेज़ झोंके के संग बरबैरी पर्फ़्यूम की परिचित ख़ुशबू के भभके ने मुझे नींद से जगा दिया .” तुम औफ़िस जाने के लिए तैयार भी हो गए और मुझे जगाया तक नहीं .” मैने मींची आँखों से अधलेटे ही अमित से कहा .” तुम्हें बंद आँखों से भी भनक लग गई की मैं तैयार हो गया हूँ .” अमित ने चाय का कप मेरी और बढ़ाते हुए कहा . भनक कैसे ना लगती ..यह ख़ुशबू मेरे दिलो दिमाग़ पर छा मेरे वजूद का हिस्सा बन गई है . मैंने मन ही मन कहा.

” थैंक्स डीयर !”

” अरे , इसमें थैंक्स की क्या बात है . रोज़ तुम मुझे बेड टी देती हो , एक दिन तो मैं भी अपनी परी की ख़िदमत में मॉर्निंग टी पेश कर ही सकता . “उसके इस अन्दाज़ से मेरे लबों पर मुस्कुराहट आ गई .
” बुद्धू चाय के लिए नहीं कह रही .. थैंक्स फौर एवरीथिंग .. जो कुछ आज तक तुमने मेरे लिए किया है .” कहते हुए सजल आँखों से मैं अमित के गले लग गई . चाय पीकर वो मुझे गुड बाय किस कर ऑफ़िस के लिए निकल गया . उसके जाने के बाद भी मैं उसकी ख़ुशबू को महसूस कर पा रही थी . मैंने एक मीठी सी अंगड़ाई ली और खिड़की से बाहर की ओंर देखने लगी .कल रात देर तक काम करते हुए मुझे अपने स्टडी रूम में ही नींद लग गई .

अगले हफ़्ते राजस्थान एम्पोरीयम में मेरी पैंटिंग्स और मेरे द्वारा बने हैंडीक्राफ़्ट्स की एग्ज़िबिशन थी . साथ में मैं अपनी पहली किताब भी लॉंच करने जा रही थी . कल रात देर तक काम करते हुए मुझे अपने स्टडी रूम में ही नींद लग गई .अमित ने मेरे स्टडी रूम के तौर पर गार्डन फ़ेसिंग रूम को चुना था . उसे पता है मुझे खिड़कियों से कितना लगाव है . ये खिड़कियां ही हैं जिनके द्वारा मैं अपनी दुनिया में सिमटी हुए भी बाहर की दुनिया से और मेरी प्रिय सखी प्रकृति से जुड़ी रहती हू . बादलों के झुरमुट से , डेट पाम की झूलती टहनियों से , अरावली की हरीभरी पहाड़ियों से मेरा एक अनजाना सा रिश्ता हो गया है . ‘अपरिमित ‘ ये ही तो नाम रखा है , मैंने अपनी पहली किताब का. अतीत की वो पगली सी स्मृतियां आज अरसे बाद मेरे ज़ेहन में सजीव होने लगी .

हम तीन भाई बहन है . अन्वेशा दीदी , अनुराग भैया और फिर सबसे छोटी मैं यानि परी . दीदी और भैया शाम को स्कूल से लौटने के बाद अपना बैग पटक आस – पड़ौस के बच्चों के साथ खेलने के लिए निकल जाते वहीं मुझे अपने रूम की खिड़की से उन सबको खेलते हुए निहारने में ही ख़ुशी मिलती . मैं हम तीनों का ख़याल रखने के लिए रखी गई लक्ष्मी दीदी के आगेपीछे घूमती रहती . कभी वो मेरे साथ लूडो , स्नेक्स एंड लैडर्स खेलती तो कभी हम दोनों मिलकर मेरी बार्बी को सजाते . अन्वेशा दीदी बहुत ही चुलबुली स्वभाव की थी और उसका सेन्स औफ ह्यूमर भी कमाल का था जिससे वह किसी को भी अपनी तरफ़ आकर्षित कर लेती थी . स्कूल , घर और आस – पड़ौस में सबकी चहेती थी . अनुराग भैया और मैं ट्विन्स थे . वे खेल – कूद , पढ़ाई सब में अव्वल रहते. उन्होंने कभी नम्बर दो रहना नहीं सीखा था . उन्होंने जन्म के समय भी मुझसे बीस मिनट पहले इस दुनिया में क़दम रख मेरे बड़े भाई होने का ख़िताब हासिल कर लिया था . मैं उन दोनों के बीच मिस्मैच सी लगती . मैं उन्हें देखकर अक्सर सोचती मैं ऐसी क्यों नहीं हो सकती . मम्मी – डैडी मुझे भी उन दोनों के जैसा बनाने के लिए विशेष रूप से प्रयत्नशील रहते .” आज तो मेरी छोटी गुड़िया ही अंकल को वो नई वाली पोयम सुनाएगी .” डैडी आने वाले मेहमानों के सामने प्रस्तुति के लिए मुझे ही आगे करते . पर मेरा सॉफ़्टवेर विंडो ६ था जिससे मेरी प्रोग्रैमिंग बहुत स्लो थी .जबकि मेरे दोनों भाई – बहन विंडो टैन थे , बहुत ही फ़ास्ट आउट्पुट और मैं कुछ सोच पाती उससे पहले पोयम हाज़िर होती और मैं मुँह नीचा किए अपने नाख़ून कुरेदती रह जाती .

एक दिन मैंने मम्मा को टीचर से फ़ोन पर बात करते सुना ,” मैम इस बार इंडेपेंडेन्स डे की स्पीच अनामिका से बुलवाइए , मैं चाहती हूं उसका स्टेज फीयर ख़त्म हो .” टीचर के डर से मैंने स्पीच तो तैयार कर ली पर स्पीच देने से एक रात पहले मैं अपनी दोनों बग़ल में प्याज का टुकड़ा दबाए सो गई ( मैंने कहीं पर पढ़ रखा था कि प्याज़ को बग़ल में डालने से फ़ीवर हो जाता है. जिससे दूसरे दिन मैं स्कूल ना जा पाऊँ .पर मेरी युक्ति असफल रही और दूसरे दिन ना चाहते हुए भी मुझे स्कूल जाना पड़ा . जिस समय मैंने स्पीच बोल रही थी वातावरण में सर्दियों की गुलाबी धूप खिल रही थी . स्टेज पर चढ़ते ही मेरे हाथ – पैर काँपने लगे थे , सर्दी की वजह से नहीं भय और घबराहट के मारे .

शाम को टीचर का फ़ोन आया था , कह रही थी आपकी बेटी ने कमाल कर दिया .”सुनकर मम्मा ने मुझे गले से लगा लिया . प्याज़ के असर से तो नहीं पर स्टेज फीयर से मुझे तेज़ फ़ीवर ज़रूर हो गया था .
मम्मा लैक्चरार थी . दोपहर को घर आकर थोड़ी देर आराम कर दूसरे दिन के लैक्चर की तैयारी में लग जाती .रात में अक्सर मैंने डैडी को मम्मा से कहते सुना था ,” अनामिका दिन ब दिन डम्बो होती जा रही है जब देखो गुमसुम सी घर में घुसी रहती है . उन दोनों को देखो घर , स्कूल दोनों में नम्बर वन .”

मैं उन लोगों से कहना चाहती थी मैं गुमसुम नहीं रहती हूँ … मैं अपने आप में बहुत ख़ुश हूँ . बस मेरी दुनिया आप लोगों से थोड़ी अलग है .धीरे – धीरे मुझ पर ‘डम्बो ‘ का हैश टैग लगने लगा था . जाने अनजाने मेरी तुलना दीदी और भैया से हो ही जाती थी . पर डैडी भी हार मानने वालों में से नहीं थे . उन्होंने मुझे हॉस्टल भेजने का फ़ैसला कर लिया .माउंट आबू के सोफ़िया बोर्डिंग स्कूल में मेरा अड्मिशन करवा दिया गया . वहाँ मैं सबसे ज़्यादा लक्ष्मी दीदी को मिस करती थी पर अब मैंने छिपकर रोना भी सीख लिया था . अब वह लाल छत वाला हॉस्टल ही मेरा नया आशियाना बन गया था . मुझे एक बात की तसल्ली भी थी की अब मैं गाहे बगाहे दीदी भैया से मेरी तुलना से तो बची .

वहां रहते हुए मुझे पांच साल हो गए थे . मुझमें अंतर सिर्फ़ इतना आया था कि अब मेरा हैश टैग डंबो से बदलकर घमंडी और नकचढ़ी हो गया . जहाँ पहले मेरी अंगुलियां एकांत में किसी टेबल , किताब या अन्य किसी सतह पर टैप करती रहती थी वो अंगुलियाँ घंटों पीयानो पर चलने लगी . आराधना सिस्टर ने ही मुझे पीयानो बजाना सिखाया था . मुझे वो बहुत अच्छी लगती थी . जब कभी मै अकेले में बैठी अपने विचारों में डूबी रहती तो वे एक किताब मेरे आगे कर देती . उन्होंने ही मुझमे विश्वास जगाया था तुम जैसी हो , अपने आप को स्वीकार करो . मुझे अपनी ज़िंदगी में ‘कुछ’ करना था .. पर उस कुछ की क्या और कैसे शुरुआत करूँ और कैसे अपनी ज़िंदगी को बेहतर बनाऊँ यह पहेली सुलझ ही नहीं पाती थी .

मेरे अंतर्मुखी स्वभाव के चलते मैं अपने द्वारा बुने कोकुन से बाहर आने की हिम्मत ही नहीं कर पा रही थी । यही नहीं औरों के सामने स्वयं को अभिव्यक्त करना और अपनी बात रखना मेरे लिए लोहे के चने चबाने के बराबर था. इसी कश्मकश में मै स्कूल पूरी कर कॉलेज में आ गई . आगे की पढ़ाई के लिए मुझे बाहर जाना था पर मैं माउंट आबू छोड़कर नहीं जाना चाहती थी . सिस्टर की प्रेरणा से ही ,मैंने कॉरसपॉन्डन्स से ग्रैजूएशन कर लिया और स्कूल में ही लायब्रेरीयन की जॉब करने लगी थी .

इसी दरमियान मेरी मुलाक़ात अमित से हो गई . हमारी स्कूल में कन्सट्रक्शन का काम चल रहा था वह सिविल इन्जिनियर था . इसी सिलसिले में अक्सर उसका हॉस्टल आना होता था . उसने आज तक कसकर बंद किए मेरे दिल के झरोखों को खोलकर उसके एक कोने में अपने लिए कब जगह बना ली मुझे पता ही नहीं चला.

” क्या आप मेरे साथ कौफ़ी शौप चलेंगी ?” वीकेंड पर वह अक्सर मुझसे पूछता . उसकी आँखों में मासूम सा अनुनय होता जिसे मैं ठुकरा नहीं पाती थी . हम दोनों एक – दूसरे के साथ होते हुए भी अकेले ही होते क्योंकि उस समय भी मैं ख़ुद में ही सिमटी होती बिल्कूल ख़ामोश .. कभी टेबल पर अंगुली से आड़ी – टेडी लकीरें खींचते हुए तो कभी मेन्यू कार्ड में पढ़ने की असफल कोशिश करते हुए.

“तुम अमित से शादी कर लो ,अच्छा लड़का हैं तुम्हें हमेशा ख़ुश रखेगा .” एक शाम सिस्टर ने मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए कहा . सारी रात मैं सो नहीं पाई थी . बाहर तेज़ हवाओं के साथ बारिश हो रही थी और एक तूफ़ान सारी रात मेरे मन के भीतर भी घुमड़ता रहा था . मैंने सुबह होते ही अमित को वॉट्सैप कर दिया ,” मैं धीमी , मंथर गति से चलती सिमटी हुई सी नदी के समान हूँ और तुम अलमस्त बहते वो दरिया जिसका अनंत विस्तार हैं . हम दोनों बिलकुल अलग है . तुम मेरे साथ ख़ुश नहीं रह पाओगे . ”

” नदी की तो नियति ही दरिया में मिल जाना है और दरिया का धर्म है नदी को अपने में समाहित कर लेना . बस तुम्हारी हाँ की ज़रूरत है बाक़ी सब मेरे ऊपर छोड़ दो .” तुरंत अमित का मैसेज आया . जैसे वो मेरे मेसिज का ही इंतज़ार कर रहा था . मम्मा पापा को भी इस रिश्ते से कोई ऐतराज़ नहीं था . सादगीपूर्ण तरीक़े से हमारी शादी करवा दी गई.

मे के महीने में गरमी और क्रिकेट फ़ीवर अपने शबाब पर थे . अमित सोफ़े पर औंधे लेटे हुए चेन्नई सुपर किंग्स और मुंबई इंडीयंज़ की मैच का मज़ा ले रहे थे . इतने में मोबाइल बजने लगा . रंग में भंग पड़ जाने से अमित ने कुछ झुँझलाते हुए कुशन के नीचे दबा फ़ोन निकाला पर मैंने स्पष्ट रूप से महसूस किया कि स्क्रीन पर नज़र पड़ते ही उसके चेहरे के भाव बदल गए और वह बात करने दूसरे रूम में चला गया . मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ कि इतना ज़रूरी फ़ोन किसका है कि वो धोनी की बैटिंग छोड़कर दूसरे बात करने चला गया वो भी अकेले में.

“ किसका फ़ोन था ?” उसके आते ही मैंने उत्सुकता से पूछा . “ ऐसे ही .. बिन ज़रूरी फ़ोन था .” संक्षिप्त सा उत्तर दे वो फिर से टीवी में मगन हो गया . मैंने फ़ोन उठाकर रीसेंट कॉल्ज़ लिस्ट देखी , उस पर मनन नाम लिखा हुआ था . स्क्रीन पर कई सारे अन्सीन वॉट्सैप मेसजेज़ भी थे . मैंने वाँट्सैप अकाउंट खोला वो सब मेसजेज़ ‘ पार्टी परिंदे ग्रूप ‘ पर थे . मुझे बड़ा रोचक नाम लगा.

“ अमित ये पार्टी परिंदे क्या है ? ”

“ कुछ नही .. हमारा फ़्रेंड्ज़ ग्रूप है जो वीकेंड पर क्लब में मिलते है .”

“ मनन का फ़ोन क्यों आया था ?”

“ मै लास्ट संडे नहीं गया था तो पूछ रहा था कि शाम को आऊँगा की नहीं .”

“ तो तुमने क्या जवाब दिया ?”

“ मैंने मना कर दिया . अब प्लीज़ मुझे मैच देखने दो .”

“ तुमने मना क्यों कर दिया ? तुम मुझे अपने दोस्तों से नहीं मिलवाना चाहते ..”

“ वहां सब लोग तेज म्यूज़िक पर डान्स फ़्लोर पर होते हैं .. मुझे लगा तुम्हें ये सब अच्छा नहीं लगेगा . “ इतनी देर में पहली बार अमित ने टीवी पर से नज़रें हटाकर मुझपर टिकाई थी . मैं भावुक हो गई . और मन ही मन सोचने लगी मैं तो आजतक यही सुनती आई हूं कि शादी के बाद लड़की को अपनी पसंद – नापसंद , शौक़ , अरमान ताक पर रखने पड़ते हैं पर यहां तो फ़िज़ाओं का रुख़ बदला हुआ सा था.

“ कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है , और जब इतना क़ीमती तोहफ़ा हो तो जान भी हाज़िर है . एनीथिंग फ़ॉर यू .. जाना ,”कहते हुए उसने मेरी आँखों से ढुलकते आंसूओं को अपनी हथेली में भर लिया .
शाम छः बजे तैयार होकर मैं अमित के सामने खड़ी हो गई . ब्लैक ईव्निंग गाउन में ग्लैमरस लुक में वो मुझे अपलक देखता ही रह गया.

“ मै पूछ सकता हूँ , बेमौसम कहां बिजली गिराने का इरादा है ? कहते हुए वह मुझे अपनी बाँहों में भरने लगा तो मैंने हँसते हुए उसे पीछे धकेल दिया.

“ रात को मैं करूँ शर्मिंदा .. मैं हूं पार्टी परिंदा ..” मैंने अदा से डान्स करते हुए कहा . मेरे इस नए अन्दाज़ से वो बहुत ख़ुश लग रहा था.

राजपूताना क्लब हाउस में बनाव श्रिंगार से तो मैं अमित के दोस्तों से मैच कर रही थी जिसमें कई लड़कियाँ भी थी ,पर मन को कैसे बदलती . वहाँ सब लोग लाउड म्यूज़िक के साथ डान्सिंग फ़्लोर पर थिरक रहे थे . कुछ देर तो मैं भी उन जैसा बनने की कोशिश करती रही. फिर थोड़ी देर बाद खिड़की के पास लगी कुर्सी पर जाकर बैठ गई और अपने स्लिंग की चैन को अपनी अंगुलियों पर घुमाने लगी . उस दिन के बाद मुझे दुबारा उस क्लब में जाने की हिम्मत नहीं कर पाई ना कभी अमित ने मुझे चलने के लिए कहा.

शादी के कुछ दिनों बाद ही अमित की बर्थडे थी . मैं बहुत दिनों से उसकी एक पेंटिंग बनाने में लगी हुई थी. मैंने वह पेंटिंग और एक छोटी सी कविता बना उसके सिरहाने रख दी .सुबह उठकर मै किचन में अमित की पसंद का ब्रेकफ़ास्ट बनाने में जुटी हुई थी.

“ ये पेंटिंग तुमने बनाई है ?” अमित ने पीछे से आकर मुझे बाँहों में भरते हुए पूछा .
“ हाँ .. कोई शक ?”

“ नहीं तुम्हारी क़ाबिलियत पर कोई शक नहीं , पर स्वीटी मुझे लगता है तुम्हारे हाथ ये चाकू नहीं बल्कि पैन और ब्रश पकड़ने के लिए बने है . उसने मेरे हाथ से चाकू लेते हुए कहा.

” मम्मा का फ़ोन आया था वो दो – तीन दिन के लिए मुझे अपने पास बुला रही हैं .” एक दिन उसके ऑफ़िस से आते ही मैंने कहा.

“ मेरी जान के चले जाने से मेरी तो जान ही निकल जाएगी . ” ज़्यादा रोमांटिक होने की ज़रूरत नहीं है . टीवी , लैपटॉप और वेबसिरीज़ .. इतनी सौतन है तो मेरी तुम्हारा दिल लगाने के लिए .” मैंने बनावटी ग़ुस्सा दिखाते हुए कहा.

” ओके! पर प्रॉमिस मी , अपने बर्थ्डे के दिन ज़रूर आ जाओगी . .” उसकी बर्थडे के अगले हफ़्ते ही मेरी बर्थडे थी . शादी के बाद अमित से बिछुड़ने का ये पहला मौक़ा था . किसी ने सही कहा है इंसान की क़ीमत उससे दूर रहकर ही होती है . तीन दिन मम्मा के पास बिता मैं मेरे बर्थडे वाली शाम को वापिस आ गई . मेरे घर पहुंचने से पहले ही अमित मुझे रिसीव करने के लिए बड़ा सा लाल गुलाब का गुलदस्ता लिए लौन में खड़ा था .

मुझे देखते ही मुझे बाँहों में भर लिया और फिर गोदी में उठा मुझे गेस्ट रूम तक लेकर गए . वहाँ का नज़ारा देखकर मुझे अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हो रहा था .. वहाँ होम थीएटर की जगह स्टडी टेबल ने और अमित के मिनी बार की जगह बुक शेल्व्स ने ले ली थी . मैं इन सब बदलावों को छूकर देखने लगी कि कहीं मैं सपना तो नहीं देख रही .

“ सरप्राइज़ कैसा लगा ?”

मैं निशब्द थी . समझ नहीं आ रहा था कैसे रीऐक्ट करूं. जब कभी भावनाओं को अभिव्यक्ति देने में ज़ुबान असक्षम हो जाती है तो आँखें इस काम को बखूबी अंजाम देती है . मेरी आंखें अविरल बहने लगी .
“ तो ये तुम्हारी और मम्मी की मिली भगत थी ना ? बट ऐनीवेज़ …! आई ऐम फ़ीलिंग ब्लेस्ड़ …”

बस उस दिन के बाद मैंने कभी मुड़कर नहीं देखा . मैंने अपनी कला को अपने जुनून और करीयर में बदल दिया. मैंने हौबी क्लासेस शुरू कर दी . मेरी शुरुआत दो तीन बच्चों से हुई थी , बढ़ते – बढ़ते यह संख्या सौ के पास आ गई . ख़ाली समय में मैं पैंटिंग्स बनाने लगी और बरसों से घुमड़ती मेरी भावनाओं को शब्दों का रूप देने के लिए मैंने एक किताब लिखनी भी शुरू कर दी .

अगर आज मैं आत्मनिर्भर बन पाई ख़ुद की एक पहचान बना पाई तो उसका पूरा श्रेय अमित को जाता है . नहीं तो मैं ख़ुद अपने अंदर की खूबियों को कभी जान ही नहीं पाती. हम दोनो नितांत अलग व्यतित्व थे . वह आईफ़ोन टेन की तरह , स्मार्ट और फ़ास्ट जिसका कवरेज एरिया अनंत में फैला था . और मैं नब्बे के दशक का कॉर्डलेस फ़ोन जिसका सिमटा हुआ सा कवरेज एरिया है. मैं स्वयं ही अपनी डिजिटल उपमा पर मुस्कुरा उठी . यह अमित की सौहबत और मौहब्बत का ही तो असर था.

मैं जैसी भी थी उसने मुझे स्वीकार किया . हमेशा मेरी भावनाओं को समझा , ख़ुद को मुझमें ढालने की कोशिश की कभी मुझे बदलने की कोशिश नहीं की . बल्किं मेरी कमियों को मेरी ताक़त बनाया .
हवा के तेज झोंके से विंड चाइम की घंटियों की आवाज़ से मैं विचारों की दुनिया से बाहर लौट आई . एग्ज़िबिशन की सारी तैयारियां पूरी हो चुकी थी . सारी आइटम्स को फ़िनिशिंग टच देने में मुझे समय का पता ही नहीं चला.

शाम घिरने को आई थी और अमित ऑफ़िस से लौटकर आ चुके थे . मैं बहुत खुश थी . उसे देखते ही मैं उसके गले से लग गई.

“ ये सब तुम्हारी वजह से ही मुमकिन हुआ है . तुम्हारे बिना मैं बिलकुल अधूरी हूं. अब हम अमित और परी नहीं रह गए हैं . एक दूसरे में गुंथ कर ‘अपरिमित’ बन गए हैं .” मैंने उसके कान में फुसफुसाते हुए कहा .
अमित ने अपनी बांहों के घेरे को थोड़ा ओंर मज़बूत कर लिया . मुझे लग रहा था मैं उसमें , उसके अहसासों में , उसके प्यार में सरोबार हो उसमें समाती चली जा रही हूं.

किसी ने सच ही तो कहा है , विवाह की सफलता इसी में है कि शादी के बाद पति – पत्नी एक दूसरे की कमज़ोरियों को परे रख और एकदूसरे के लिए अपनेअपने कम्फर्ट ज़ोन से निकलकर ही तो मैं और तुम से हम बन जाते हैं.

Storytelling : सपने देखने वाली लड़की

Storytelling :  देवांश उसे दूर से एकटक देख रहा था. देख क्या रहा था,नजर पड़ गई और बस आंखें ही अटक गई उसपर !विश्वास नहीं होता – यह वही है या उस जैसी कोई दूसरी?

मुंबई के छत्रपति शिवाजी टर्मिनल  स्टेशन पर पीठ पर एक बैग लादे वह अकेली खड़ी है !

देवांश का ध्यान अपने काम से भटक गया था.सवारी गई तेल लेने! पहले यह शंका तो निवारण कर ले! बिहार के समस्तीपुर से यहां मुंबई में अकेले! लग रहा है,अभी अभी ट्रेन से उतरी है.

चाहता है उसे अनदेखा कर सवारी ढूंढे, कहीं वह नहीं हुई तो थप्पड़ भी पड़ सकता है.

आजकल की स्टंटमैन लड़कियां! देवांश इनसे दूर ही रहता है!

लेकिन अगर वही हुई तो? यह जरूर उसका फिर नासमझी में उठाया  गया कदम होगा !

वह इसके घरवालों को जानता है, वे ऐसे बिलकुल नहीं कि बेटी को अकेले मुंबई आने दें! इसके पापा का साइकिल में हवा भरने, पंक्चर बनाने की एक छोटी सी दुकान है. एक बड़ा भाई है जो पहिए वाले ठेले पर माल ढुलाई करता है. इससे दो बड़ी बहनें हैं जिनकी जैसे तैसे शादी हुई थी.

आज से पांच साल पहले जब देवांश मुंबई भाग आया था तब यह शायद बारह साल के आसपास की रही होगी.उस वक्त देवांश बीस वर्ष का था. शिप्रा उस समय सरकारी स्कूल में पढ़ रही थी .सजने का बड़ा शौक था  इसे. इस कारण हरदम इसकी मां इस पर टिक टिक करती रहती.दुकान से लगे छोटे से घर में ये अपने भाई, मां, पप्पा के साथ रहती थी .

अब तक वह इधर उधर देखती ,कुछ सोचती, थोड़ा थोड़ा चलती देवांश से अनजान उसकी ओर ही बढ़ी चली आ रही थी.

देवांश भी अब तक उसके नजदीक आ चुका था.

“तुम शिप्रा हो न? यहां कैसे?”

पहले शिप्रा ने खुद को छिपाने का प्रयत्न किया लेकिन देवांश का अपनी बात पर भरोसा देख उसे मानना पड़ा कि वह समस्तीपुर के फुलचौक की शिप्रा ही है.

अपनी बात को टालने की गरज से शिप्रा ने प्रतिप्रश्न किया – “तुम यहां कैसे?”

“बीस साल की उम्र में मुंबई भाग आया था. हीरो बनना था. सालभर खूब एड़ियां घिसी, फिल्मी स्टूडियो के बाहर कतारें लगाई, प्रोड्यूसर डायरेक्टर के पीछे भागता रहा, लेकिन रात ?

वह तो पिशाचिनी की तरह भूखी प्यासी मुझे निगलने को आती थी.

स्टूडियो के बाहर नए लड़के लड़कियों की इतनी भीड़ कि कौन किसे पूछे? उनमें जिनके पहचान के  निकल जाते, उन्हें  किसी तरह अन्दर जाने का मौका मिल जाता.लेकिन इतना तो काफी नहीं होता न! मंजे हुए कलाकारों के सामने खड़े होने की भी कुबत कम लोगों में ही होती है! फिर गिड़गिड़ाना भी आना चाहिए, इज्जत पर बाट लगाकर काम के लिए हाथ फैलाना भी आना चाहिए! मैंने तो साल भर में हाथ जोड़ लिए! मेरा औटो जिंदाबाद! पहले भाड़े पर लेकर चलाता था, अब अपना है, मीरा रोड पर अपनी खोली भी है!  मगर तुम यहां क्यों आ गई? बारहवीं बोर्ड दिया?” एक साथ इतनी बातें कहने के पीछे देवांश की एक ही मंशा थी कि वो मुंबई की जिंदगी और अपने सपनों की वास्तविकता को समझे!

“देकर ही आई हूं! मुझे एक हीरो से मिलना है, उसके साथ मुझे हीरोइन का रोल करना है! मै ठान कर आई हूं, हार नहीं मानूंगी.”

अब तक शिप्रा अपने नए स्मार्ट फोन पर किसी का नंबर ढूंढने में लगी थी.

देवांश ने कहा-” तुम्हारे पप्पा मेरी साइकिल कई बार ऐसे ही ठीक कर दिया करते थे .कुछ तो मेरा भी फर्ज बनता है, अपने जगह की हो, कहां मारी मारी फिरोगी! अच्छा हुआ जो मै तुम्हे मिल गया! चलो मेरे घर. वहीं रहकर काम ढूंढ़ लेना.”

इस बीच शिप्रा की उससे बात हो जाती है जहां वह फोन लगा रही थी. बात समाप्त होते ही शिप्रा का रुख थोड़ा बदल सा जाता है. वह अब जल्दी निकलना चाहती है.

“देवांश जी मुझे जल्दी निकलना होगा, हरदीप जी से बात हो गई, उन्हीं के कहने पर यहां आई हूं . वे मुझे अपने स्टूडियो में बुला रहे हैं, इंटरव्यू करेंगे, और फोटो शूट भी!”

“ये सब पक्का है? देखो, मुंबई है ,सही गलत की पहचान जरूरी है, ठगी न जाओ!”

“देवांश जी मुझे अभी जाना है, आपको बाद में बताऊंगी .

आप भैया के साथ स्कूल पढ़े हो, मेरे घरवालों को पहचानते हो, अभी कुछ बताना मत उन्हें, पता चला तो मेरी जबरदस्ती शादी कर देंगे. मै बड़ी स्टार बनना चाहती हूं, दीदियों की तरह गृहस्थी में अभी से नहीं पीसना मुझे!”

जाना कहां है? चलो छोड़ देता हूं तुम्हे.”

“करजत नाम की कोई जगह है- वहीं कहीं बता रहे हैं”

“मेरा फोन नंबर रख लो, रात को वापिस आ जाना, अपना नंबर दे दो, मै अपना पता तुम्हे लिख भेजूंगा. मुंबई अनजान नई लड़कियों के लिए ठीक नहीं, शोषण हो सकता है!”

“मुझे जल्द पहुंचाइए देवांश जी, कहीं देर न हो जाए!”

औटो भीड़ को काटते जैसे तैसे गंतव्य की ओर दौड़ रहा था.

शिप्रा को अपने सपनों के आगे जिंदगी की चुनौतियां तुच्छ नजर आ रही थी.देवांश समझ चुका कि यह चट्टानों से टकराए बिना नहीं मानेगी.

देवांश भी तो ऐसा ही था. कितनी रातें उसने आंखों में काटी, कितने दिन फाकों में! और जब काम मिलने को हुआ तो जैसे सर दीवार से जा टकराया! गीगोलो! अमीर औरतों के ऐश के लिए खरीदा गया गुलाम; उसे धोखा देकर ले जाने की पूरी तैयारी हो चुकी थी कि अचानक जैसे उसे दो कदम पीछे आकर फिर से सोच लेने की मति आई, उसके तो होश ही उड़ गए! किसी तरह बच कर निकला था वह! औटो दौड़ाते वह बेचैन हो गया.

लड़की को पता नहीं कहां पहुंचाने जा रहा है वह!

“हरदीप जी को कैसे जानती हो?”

“फेसबुक से, मेरी सुन्दरता देख उन्होंने फेसबुक पर फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजी थी. बाद में मुझे समझाया कि मै आसानी से हीरोइन बन सकती हूं अगर किसी तरह मुंबई पहुंच जाऊं!  वे मुझे स्टार बना देंगे. जोखिम तो लेना पड़ता है सपने पूरे करने के लिए!”

“पैसे हैं तुम्हारे पास?”

“घर में रखे दो हजार उठा लाई हूं, मां के चांदी के पायल भी,जब तक चले, फिर तो रुपए मिल ही जाएंगे.”

“कई बार नई लड़कियों का शोषण होता है, सावधान रहना!”

मतलब?”

“कोई तुम्हारा नाजायज फायदा उठा कर तुम्हे ठग सकता है,जैसे कोई कहे कि हम तो तुम्हे नाम पैसा सब देंगे, बदले में तुम क्या दोगी,तो -”

” जो कहेंगे वही करने का कहूंगी!”

“अरे! तुम्हारी उम्र कितनी है! तुम्हे समझ नहीं आती क्या बात!”

“अठारह साल!”

” छोड़ो, इससे आगे और क्या क्या समझाऊं तुम्हे! अगर रात को वापिस मेरे पास आने का मन हो तो फोन कर लेना मुझे.”

उस रात तो क्या महीने भर देवांश को शिप्रा का पता नहीं लग पाया.

और एक रात अभी वह अपने कमरों की बत्ती बुझाकर सोने चला ही था कि उसके दरवाजे पर किसी ने आवाज दी .

थोड़ा झल्लाया, दिन भर के खटे मरे, नींद से बोझिल आंखों में स्वागत सत्कार का आल्हाद कहां से लाए? झल्लाहट में दरवाजा खोला और सामने शिप्रा को देख अवाक रह गया.

सुंदर सजीली,एक ही नजर में भा जाने वाली लडकी जैसे अचानक कोयले के खदान से उठ आई हो! आंखों के नीचे गहरी कालिख!तनाव से चेहरा सूखा सा! विषाद के गहरे बादल जैसे अभी बरस पड़ेंगे!

“आओ आओ, फोन कर देती तो लेने चला आता! कहां रही अब तक?

“अंदर आ जाने दो देवांश जी! सब बताती हूं!”

पहले से  ज्यादा समझदार लगी शिप्रा.

रात के दस बज रहे थे, देवांश ने अपना डिनर ले लिया था.सो उस ने बिहारी स्टाईल में दाल भात आलू चोखा ,पापड़, सलाद लगाकर शिप्रा को खिलाया, और  अपने छोटे से पलंग पर उसका बिस्तर लगा दिया.

देवांश बगल वाले छोटे कमरे में अपनी खटिया बिछा कर अभी जाने को हुआ कि शिप्रा ने उसकी कलाई पकड़ ली.

“यहीं इसी कमरे में सो जाओ.अलग मत सोओ !”

“अरे क्यों ?” देवांश को आश्चर्य हुआ.

शिप्रा ने अपना सर झुका लिया.

“कहो!” देवांश ने जोर दिया.

रात कोई दूसरे कमरे से आकर मुझ पर सोते वक्त हमला न कर दे इसका डर लगता है, अच्छा है कोई साथ ही सो रहे, किसी के दरवाजे खोल कर अंदर आ जाने के डर से मै रात को सो ही नहीं पाती!”

“क्या हुआ था, मुझे बताओ, मै तुम्हारा हर डर दूर कर दूंगा .”

उसके स्नेह भरे स्वर में अपनेपन की ऐसी आश्वस्ति थी कि शिप्रा का तनाव कुछ कम होने लगा.

देवांश के पलंग पर दोनो आसपास बैठे थे, शिप्रा कहने लगी-”

उस दिन प्रोड्यूसर हरदीप जी के स्टूडियो के बाहर वेटिंग हौल में रात के आठ बजे तक बैठी मै इंतजार करती रही, आपने मुझे वहां करीब दोपहर के एक बजे छोड़ा था. सोच रही थी आपको फोन कर ही लूं, कि पियोन आकर मुझे बुला ले गया. मुझे एक आलीशान बड़े से कमरे में ले आया वह. यहां सोफे से लेकर पलंग तक सब कुछ मेरी कल्पना से परे की बेहतरीन चीजें थीं.सब कुछ अब जैसे जल्दी होने लगा था. मै घबराई भी थी और उत्सुक भी!

बाहर से मै लौक कर दी गई थी, मुझे अच्छा नहीं लगा, मगर इंतजार करती रही.

कुछ देर बाद हरदीप जी आए.पचपन के आसपास की उम्र होगी उनकी .आराम से बात की, मुझे कुछ छोटे विकनी टाईप के कपड़े दिए और उसे पहन कर आने को कहा. मै झिझक गई, तो आंखें इस तरह तरेरी कि मुझे बदलने जाना पड़ा .बाथरूम से वापिस आई तो देखा तीन लोग शूट के लिए आ पहुंचे थे. जैसा कहा गया वैसा कर दिया, शूटिंग पूरी होने पर  हरदीप जी ने मुझसे कॉन्ट्रैक्ट पर हस्ताक्षर करवाये. बाकी लोगों के जाने के बाद हरदीप जी ने मुझे नजदीक बिठा कर शाबासी दी और उनके साथ सहयोग करने पर जल्द मुझे स्टार बनाकर मेरे पसंद के हीरो के साथ रोल देने का वादा किया. डिनर आ गया था, और वो बहुत लाजवाब था. हरदीप जी को मैंने अनुरोध किया कि वे बाहर से दरवाजा मत लगाएं,”

“ये तुम्हारा मामला नहीं है” कहकर वे बाहर से बन्द कर चले गए.

फिर ये सिलसिला चल निकला . कभी बाहर भी शूट को ले जाते तो उनकी वैन में, काम ख़तम होते ही मुझ पर ताला जड़ दिया जाता. कितना भी समझा लूं,  वे मुझे सांस लेने की इजाजत नहीं देते!”

“सोते हुए तुम पर कभी हमला हुआ था? क्या वजह है तुम्हारे डर की?”

“यूं तो जैसे मै उनकी खरीदी गुलाम थी. कभी साज सज्जा के नाम पर, कभी दृश्य और संवाद के कारण वे सभी मेरी देह को खिलौना ही समझते. लेकिन इसके बाद की वो रात मेरे लिए बुरा सपना था! मुझे सपनों से डर लगने लगा है!”

“कहोगी क्या हुआ था?”अनायास ही अधिकार का स्वर मुखर हो गया था देवांश में, लेकिन वह तुरंत संभल गया.

“इस तरह उनके कहे पर उठते बैठते बीस दिन हो गए थे. थकी हारी रात को मै सो रही थी.मध्य रात्रि में जैसे मेरे कमरे को किसी ने बाहर से खोला, मुझे अंदर से बन्द करने की सख्त मनाही थी.

नींद में होने की वजह से जब तक संभल पाती किसी ने अजगर की तरह मुझ पर कब्जा कर लिया, मै उसके पंजो में छटपटाती सी शिथिल पड़ गई. फिर तो यह सिलसिला ही चल पड़ा. लेकिन सुबह सब कुछ सामान्य रहता  जैसे किसी को कुछ मालूम ही न हो. मै पागल सी होने लगी. मै वहां से निकलना चाहती थी, हरदीप जी से कहा तो सबके सामने मेरा कांट्रैक्ट पेपर दिखा दिया. मुझे हस्ताक्षर करते वक़्त उसे पढ़ना चाहिए था. तीन महीने के मुझे पचास हजार मिलने थे,और एक दिन भी पहले छोड़ना चाहूं तो प्रति दिन दो सौ के हिसाब से जितना बने. मेरे सपनों पर काली स्याही फैल गई थी, मै स्टार बनने के लिए  तिल तिल कितना मरती! शायद पचास हजार का शिकंजा कसकर वे कई को रोक रखते थे और मनमानी करते थे, मुझे लगा आखिर तक शायद वे खुद ही ऐसे हालात पैदा कर दें कि मै तीन महीने से पहले ही छोड़ने को बाध्य हो जाऊं! फिर क्यों नहीं अभी ही निकल जाऊं! मैंने तय किया कि अब और नहीं!

मुझे उन्होंने छह हजार पकड़ा दिए, और मै अपना सबकुछ खो कर निकल आई.”

सब कुछ खोकर से क्या मतलब है तुम्हारा? क्या तुम इज्जत की बात कर रही हो? तुमने आगे बढ़ने और सपनों को पूरा करने के लिए जोखिम उठाया, इस जोखिम उठाने को इसलिए गलत नहीं कह सकते क्योंकि तुम एक लड़की हो और सपने बेचने वाले लोग गिद्ध है ! वे जो गिद्घ बने बैठे हैं, उन्हें अपनी इज्जत बचाने के लिए सभ्य होना चाहिए! हां तुम्हारी गलती इतनी है कि जब तुम्हे मैंने आगाह किया, सतर्क होने को समझाया तुमने अपनी धुन में मेरे अनुभव को तवज्जो नहीं दी, सपने देखना और उसके पीछे दौड़ना फिर भी आसान है, लेकिन सपनों को हकीकत में बदलने के लिए जुनून के साथ धीरज की जरूरत होती है, और यह जरा कठिन है!”

“क्या मुझे वापिस समस्तीपुर जाना चाहिए?”

“क्यों? जीवन में कुछ अच्छा सोचने के लिए देहरी तो लांघना ही पड़ता है. मुझे सपने देखना पसंद है, और सपने देखने वाली लड़की भी! अब चलो शुरू से शुरू करते हैं. तुम्हे अब आगे बढ़ाने में मै मदद करूंगा. जिंदगी मसाला चाय नहीं – कि बना और पीया, सपने अच्छे हैं, लेकिन उन्हें हासिल करने में समझदारी चाहिए! समझी !”देवांश ने उसकी आंखों में अपने नजर की मुस्कुराहट बिखेर कर हलके से शिप्रा की हथेली को दबाया. विश्वास और संवेदना से भरी लजाती सी मुस्कान शिप्रा के दिल का हाल बता रही थी.

“सपने पूरे हो जाएं और मुझे भी अपनी जिंदगी में शामिल करना चाहो तो बन्दा हमेशा हाजिर है ! कभी बता नहीं पाया मगर हमेशा चाहता था कि तुमसे दोस्ती हो जाय!”देवांश मन को धीरे धीरे खोल रहा था.

“देवांश तुम जैसे प्यारे इंसान क्या सचमुच के होते हैं? क्या यह भी तो कोई सपना नहीं ! ”

शिप्रा ने देवांश के कंधे पर अपना सर टिका दिया था.मन का बोझ पिघलने लगा था.सपने देखने का अपराध बोध जाता रहा, शिप्रा फिर से हसीन सपनों को सच करने का सपना देखने लगी थी.

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