चालू बहू के सासू मंत्र

इस दुनिया में सास से इतना डरने की क्या जरूरत है? आखिरकार वे भी तो कभी बहू थीं और बहू को भी देरसवेर सास तो बनना ही है. लेकिन ससुराल में अपना वर्चस्व कायम करना है तो सास को पटाना जरूरी है. इस के लिए घर की इस लाइफलाइन को सही ढंग से पकड़ना है, उस के हर उतारचढ़ाव पर नजर रखनी है और उस पर कितना दबाव डालना है इस का भी सहीसही अनुमान लगाना है. पेश हैं सास को पटाने के लिए आजमाए हुए कुछ नुसखे, जो एक बहू की जिंदगी को खुशियों से भर देंगे.

नुसखा नं. 1: आप सही कहती हैं सासू मौम. इस अद्वितीय मंत्र का जाप आप दिन में 10-15 बार करो. वे अगर दिन को रात कहें तो रात कहो. पर ध्यान रखो कि सास भी कभी बहू थी.

नुसखा नं. 2: चाणक्य नीति. सास का

मूड देख कर बात करो. अगर उन का मूड अच्छा है तो माने जाने की संभावना से अपने मन की बात कही जा सकती है. अगर वे मना कर दें तो तुरंत पलट जाओ, हां मम्मीजी, मैं भी यही सोच रही थी.

नुसखा नं. 3: भोली सूरत चालाक मूरत. सब से पहले इस में आप को करना यह है कि अपनेआप को ऐसा दिखाना है कि जैसे आप को कुछ आता ही नहीं है. सहीगलत की समझ ही नहीं है. एकदम भोंदू हैं आप. ऐसे लोगों को सिखाने में सिखाने वालों को बड़ा मजा आता है. यह तो सीखने वाला ही जानता है कि उस ने कितने घाट का पानी पिया है. सास अगर घर की प्रधानमंत्री हैं तो रहने दो. आप बस प्रैसिडैंट वाली कुरसी पर नजर रखो. इस बात को एक उदाहरण से समझे:

द्य सुबह जल्दी उठने के बजाय अपने टाइम पर उठो और जल्दीजल्दी पल्लू संभालते हुए सासू मौम के पास जा कर ऐसे दिखाओ कि आप तो जल्दी उठना चाहती थीं पर… आप का दिल आप का साथ नहीं देता, बस दगा ही देता है.

‘देखो मां अलार्म ही नहीं बजा, मोबाइल की बैटरी भी आज ही डाउन होनी थी,’ इस वाक्य को अच्छे से कंठस्थ कर लो, क्योंकि यह बहुत काम आएगा. सास को भला आजकल का स्मार्ट फोन चलाना कहां आता है. एक हफ्ता ऐसे ही बहाने बना लो और जरूरत पड़े तो नैट पर बहाने सर्च कर लो. एक हफ्ते बाद देखना सास टोकना बंद कर देंगी. फिर बहू का मोबाइल चार्जिंग के लिए लगाना शुरू कर देंगी.

नुसखा नं. 4: बारीक निरीक्षण. इस में आप को देखना है कि किस कैटेगरी की सास आप को मिली हैं, धार्मिक या मौडर्न.

धार्मिक हैं तो थोड़ी मुस्तैदी दिखा कर 2-4 भजन याद कर लो. गूगल है न आप की मदद के लिए. आप को कोई संगीत अवार्ड थोड़े ही जीतना है. आप को तो बस अपनी सास के दिल में जगह बनानी है. फिर क्या? उन की कीर्तन मंडली में थोड़ी नानुकर कर के अपनी आवाज का जादू बिखेरो. फिर देखो लोग कैसे आप की वाहवाही करते हैं. बहू के ऐसा करने पर सास का सीना तो गर्व से फूल जाता है. वे वारीवारी जाती हैं अपनी बहू पर. पर आप को इसे अपने ऊपर हावी नहीं होने देना है. हाथ जोड़ कर ‘कहां मैं, कहां सासूमां’ वाली चाणक्य नीति अपनाए रखनी है.

नुसखा नं. 5: तारीफ पर तारीफ. बस यही एक अच्छी बहू की निशानी है. उसे सास की दबी इच्छाओं को नए सिरे से उभारना है. वे जो भी बनाएं जैसा भी बनाएं उन की पाक कला पर उंगली उठाने की कोशिश नहीं करनी है. वरना बतौर इनाम आप को ही रसोई में पिसना पड़ेगा.

नुसखा नं. 6: अपनी तारीफ को कभी सीरियसली न लें. आप के बनाए खाने की चाहे कितनी भी तारीफ हो उसे नजरअंदाज ही करें. वरना घर को एक परमानैंट कुक मिल जाएगा और घर के सभी सदस्य उस की तारीफ कर के उस शैफ बहू को रसोई में अपनी फरमाइशों में ही उल?ाए रखेंगे.

आप को जबतब ‘मम्मीजी आप के खाने का जवाब नहीं. काश, मैं ऐसा खाना बना पाती,’ सिर्फ कहना है करना नहीं है. ‘आप तो मेरी मम्मी से भी ज्यादा अच्छा खाना बनाती हैं,’ आप के यह कहने पर तो आप की सास फूल कर कुप्पा हो जाएंगी और आप को रसोई से छुट्टी मिल जाएगी. ऐसा होने पर अकसर होता यही है कि सास का बस चले तो बहू को खिलाखिला कर ही मार डाले.

नुसखा नं. 7: स्मार्ट बनें. इस में आप को अपने ज्ञान को कदमकदम पर इस्तेमाल करना है. सारे ब्यूटी ट्रीटमैंट सास पर आजमाने हैं. कहीं जाने से पहले उन का फेशियल कर दें. उन्हें अच्छे से तैयार कर दें. सुंदर सा जूड़ा बना दें. इन सब कामों में तो हर बहू परफैक्ट होती ही है.

नुसखा नं. 8: खर्चा करें. सास को बहू का उन पर खर्चा करना अच्छा लगता है. इसलिए मौकों पर अगर बहू सास को उपहार दे तो सास तो बहू पर वारीवारी जाएगी.

नुसखा नं. 9: वाचाल बनो. वक्त देख कर सही बात करने का हुनर विकसित करो. औफिस में काम करती हो तो आराम से दोस्तों के साथ तफरीह कर के आओ और घर में घुसते ही ऐसे दिखाओ जैसे औफिस से घर पहुंच कर पता नहीं कितनी बड़ी जंग जीत ली या कोई किला फतह कर लिया.

रोनी सूरत और भोली मूरत दर्शाते हुए, इस से पहले कि कोई आप पर चढ़े आप शुरू हो जाएं, ‘‘हाय राम आज फिर देर हो गई. सौरी मम्मीजी ये ट्रैफिक भी न… कोई साइड ही नहीं देता. अगर वह गाड़ी वाला थोड़ा रुक जाता तो क्या हो जाता उस का… आदिआदि.’’

नुसखा नं. 10: गुरुघंटाल बनो. यानी बातें ज्यादा काम कम. एक बात को बारबार दोहराओगे तो वह भी सही लगने लगेगी. कुछ भी पकाओ तो पहले ही बोलना शुरू कर दो, ‘‘मुझे पता है कि आज खाना स्वादिष्ठ नहीं बना है. मम्मीजी (सास) तो बहुत टेस्टी खाना बनाती हैं. मैं जाने कब सीख पाऊंगी? शायद इस जनम में तो नहीं.’’

चेहरे पर ऐसे भाव लाओ कि सब की दयादृष्टि आप की झोली में ही गिरे. सास तो अपनी तारीफ सुन कर फूल कर कुप्पा हो जाएंगी और कहेंगी, ‘‘बेटा, मैं तुझे सिखाऊंगी.’’

बस यह मौका हाथ से नहीं जाने देना है. खुशीखुशी उन की विद्यार्थी बन जाओ. रसोई में जा कर बस थोड़ा हाथ हिला दो और तारीफ खूब बटोर लो. अगर पति खाने में कोई कमी निकालें तो साफ मुकर जाओ यह बोल कर कि मम्मी ने बनाया है. अब बेचारे पति अपनी मां से थोड़े ही कुछ कहेंगे.

आप में से कई लोग सोचेंगे कि क्या ये नुसखे काम आएंगे? जी हां शतप्रतिशत काम आएंगे. यह बात और है कि सब बहुओं की किस्मत इतनी अच्छी नहीं होती कि उन्हें गाइड करने वाला मिल जाए.

अंत में गुरु मंत्र: विपक्षी पार्टी को कमजोर समझने की भूल नहीं करनी है. अगर आप की चालाकी पकड़ी जाए तो दांत दिखा कर हंसते

हुए कहना है, ‘‘मम्मीजी मैं तो मजाक कर रही थी. मेरा वह मतलब नहीं था, जो आप सम?ा रही हैं. पर देखो आप ने मेरी चोरी पकड़ ली. आप महान हैं. आप ने तो सीआईडी वालों को भी पीछे छोड़ दिया आदिआदि. बस तारीफ पर तारीफ.’’

डरने की क्या बात है सास से? ये नुसखे जान कर कोई बहू नहीं डरती अपनी सास से. बस इतनी सी गुजारिश है बहुओं आप से कि इन्हें अपनी सासों से छिपा कर रखना वरना… वरना कुछ भी हो सकता है.

दो बूंद आंसू: सुनीता ने अंजान की मदद क्यों की

‘कुमारी सुनीता, आप की पूरी फीस जमा है. आप को फीस जमा करने की आवश्यकता नहीं है,’’ बुकिंग क्लर्क अपना रेकौर्ड चैक कर के बोला.‘‘मगर मेरी फीस किस ने जमा कराई है. वह भी पूरे 50 हजार रुपए,’’ सुनीता हैरानी से पूछ रही थी.

‘‘मैडम, आप की फीस औनलाइन जमा की गई है,’’ क्लर्क का संक्षिप्त सा उत्तर था.वह हैरानपरेशान कालेज से वापस लौट आई. उस की मां बेटी का परेशान चेहरा देख कर पूछ बैठी, ‘‘क्या बात है बेटी?’’

‘‘मां, किसी व्यक्ति ने मेरी पूरी फीस जमा करा दी है,’’ वह हैरानी से बोली.‘‘किस ने और क्यों जमा कराई?’’ सुनीता की मां भी परेशान हो उठी. ‘‘पता नहीं मां, कौन है और बदले में हम से क्या चाहता है?’’ बेटी की परेशानी इन शब्दों में टपक रही थी.

उस की मां सोच में पड़ गई. आजकल मांगने के बाद भी मुश्किल से 5-10 हजार रुपए कोई देता है वह भी लाख एहसान जताने के बाद. इधर ऐसा कौन है जिस ने बिना मांगे 50 हजार रुपए जमा करा दिए. आखिर, बदले में उस की शर्त क्या है?‘‘खैर, जाने दो जो भी होगा दोचार दिनों में खुद सामने आ जाएगा,’’ मां ने बात को समाप्त करते कहा.दोनों मांबेटी खाना खा कर लेट गईं.

सुनीता की मां एक प्राइवेट हौस्पिटल में 4 हजार रुपए मासिक पर दाई की नौकरी करती है. आज से 15 साल पहले एक रेल ऐक्सिडैंट में वह पति को खो चुकी थीं. तब सुनीता मुश्किल से 5-6 साल की रही होगी. तब से आज तक दोनों एकदूसरे का सहारा बन जी रही हैं.

सुनीता को पढ़ाना उस का एक फर्ज है. बेटी बीए कर रही थी.सुनीता ने अपने पिता को इतनी कम उम्र में देखा था कि उसे उन का चेहरा तक ठीक से याद नहीं है. कोई नातेरिश्तेदार इन से मिलने नहीं आता था. ऐसे में यह कौन है जो उस की फीस भर गया?दोनों मांबेटी की आंखों में यह प्रश्न तैर रहा था.

पिता के नाम के स्थान पर दिवंगत रामनारायण मिश्रा लिखा था मगर वे कौन थे और कैसे थे, इस की चर्चा घर में कभी नहीं होती थी.

मगर आज…सुनीता के चाचा, मामा, मौसा या किसी दूसरे रिश्तेदार ने आज तक कभी एक रुपए की मदद नहीं की, ऐसी स्थिति में इतनी बड़ी रकम की मदद किस ने की.

बहरहाल, सुनीता उत्साह के साथ पढ़ाई में जुट गई. दोचार वर्षों में वह बैंक, रेलवे या कहीं भी नौकरी कर के घर की गरीबी दूर कर देगी. वह मां को इस तरह खटने  नहीं  देगी. मां ने विधवा की जिंदगी में काफी कष्ट झेला है.

सुनीता उस दिन अचकचा गई जब उस के प्राचार्य  ने उसे एक खत दिया. और कहा, ‘‘बेटी, आप के नाम यह पत्र एक सज्जन छोड़ गए हैं, आप चाहें तो इस पते पर उन से संपर्क कर सकती हैं या फोन पर बात कर सकती हैं.’’‘‘जी, धन्यवाद सर,’’ कह कर वह उन के कैबिन से बाहर आ गई और सीधा घर जा कर खत पढ़ा. उस में लिखा था, ‘‘बेटी, आप की फीस मैं ने भरी है, बदले में मुझे तुम से कुछ भी नहीं चाहिए, न ही तुम्हें यह पैसा लौटाना है.’’

नीचे उन के हस्ताक्षर और मोबाइल नंबर था.सुनीता की मां ने जब वह नंबर डायल किया तो तुरंत जवाब मिला, ‘‘जी, आप सुनीता या उस की मां?’’‘‘मैं उस की मां बोल रही हूं. आप ने मेरी बेटी की फीस क्यों भरी?’’‘‘जी, इसलिए कि मुझे इन के पिता का कर्ज चुकाना था.’’ वह संक्षिप्त उत्तर दे कर चुप हो गया.‘‘ऐसा कीजिए आप मेरे घर आ जाइए.‘‘‘‘ठीक है, रविवार को दोपहर 1 बजे मैं आप के घर आऊंगा,’’ कह कर उस व्यक्ति ने फोन काट दिया.

रविवार को वह समय पर हाजिर हो गया. करीब 28-30 वर्ष का वह नौजवान आकर्षक व्यक्तित्व का स्वामी था. वह बाइक से आया और सुनीता की मां को मिठाई का डब्बा दे कर नमस्कार किया.सुनीता ने भी उसे नमस्कार किया और पास में बैठते हुए अपना प्रश्न दोहराया.

‘‘मैं ने फोन पर बताया तो था कि आप का ऋण चुकता किया है,’’ वह सरल स्वर में बोला था.‘‘कैसा ऋण? दोनों मांबेटी चौंकी थीं.‘‘ऐसा है कि रामनारायणजी ने मेरे पिताजी की 3 हजार रुपए की मदद की थी. उस के बाद मेरे पिताजी जब तक वह पैसा लौटाते तब तक रामनारायणजी गुजर चुके थे.

परिवार का कोई ठिकाना नहीं था. मेरे पिताजी ने आप लोगों को बहुत ढूंढ़ा पर खोज नहीं पाए,’’ वह स्पष्ट स्वर में जवाब दे रहा था, मैं पढ़लिख कर नौकरी में आ गया और स्टेट बैंक की उसी शाखा में आ गया जहां आप लोगों का खाता है.

साथ ही, वहीं सुनीता के कालेज का भी खाता है. मुझे यहीं आप का परिचय और आप की माली हालत का पता चला. मैं ने आप की मदद का निश्चय किया और फीस भर दी.’’‘‘मगर आप अपनेआप को छिपा कर क्यों रखना चाहते थे,’’ यह सुनीता का प्रश्न था.‘‘वह इसलिए कि मुझे बदले में कुछ भी नहीं चाहिए था और जमाने को देखते हुए मुझे चलना था.’’

‘‘फिर सामने क्यों आए?’’ यह सुनीता की मां का प्रश्न था.‘‘जब आप लोगों को परेशान देखा, खास कर आप का यह डर की पता नहीं इस आदमी की छिपी शर्त क्या है? मैं ने आप का ऋण चुकाया था, डराना मेरा पेशा नहीं है. सो, सामने आ गया.’’

अब उस के इस जवाब से वे दोनों मांबेटी, आश्चर्य से भर उठीं.‘‘मैं अब निकलना चाहूंगा. आप लोग चिंता न करें. मैं ने अपने पिताजी का ऋण चुकाया है,’’ वह उठते ही बोला.‘‘ऐसे कैसे? वह भी 3 हजार के 50 हजार रुपए?’’ अभी भी सुनीता की मां समझ नहीं पा रही थी.‘‘3 हजार रुपए नहीं, उन 3 हजार रुपए से मेरे पिता ने मेरी जान बचाई, मेरा इलाज कराया.

मैं जीवित हूं, तभी आज बैंक में काम कर रहा हूं. गरीबी की हालत में मेरे पिताजी की रामनारायणजी ने मदद की थी. आज मेरे पास सबकुछ है, बस, पिताजी नहीं हैं,’’ वह भावुक हो कर बोल रहा था.‘‘फिर तुम यह पैसा वापस क्यों नहीं लेना चाहते?’’ यह सुनीता की मां का प्रश्न था.‘‘उपकार के बदले प्रत्युपकार हो गया. सो कैसा पैसा?’’ वह स्पष्ट बोला.‘‘फिर भी…’’ सुनीता की मां समझ नहीं पा रही थी कि क्या कहे?‘‘कुछ नहीं आंटीजी, आप ज्यादा न सोचें. अब मुझे इजाजत दें,’’ इतना कह कर वह चल दिया.

दोनों मांबेटी उसे जाता देख रही थीं. इन की आंखों से खुशी के आंसू झर रहे थे.‘‘मां, आज भी ऐसे लोग हैं,’’ सुनीता बोली.‘‘हां, तभी तो वह हमारी मदद कर गया.’’‘‘मैं नौकरी कर के उन का पैसा वापस कर दूंगी,’’ वह भावुक हो कर बोली.‘‘बेटी, ऐसे लोग बस देना जानते हैं, लेना नहीं. सो, फीस की बात भूल जाओ. हां, बैंक में मेरा परिचय हो गया है, काम जल्दी हो जाएगा,’’ मां के बोल दुनियादारी भरे थे.

दोनों मांबेटी की आंखों में आंसू थे जो एक ही वक्त में 2 अलग सोच पैदा कर रहे थे. मां जहां पति को याद कर रो रही थी जिन के दम पर आज 50 हजार रुपए की मदद मिली, वहीं बेटी को यह व्यक्ति फरिश्ता नजर आ रहा था. काश, वह भी किसी की मदद कर पाती. 50 हजार रुपए कम नहीं होते.अब बस, दोनों की आंखों से आंसू बह रहे थे.

 

अंधविश्वास की दलदल: भाग 2- प्रतीक और मीरा के रिश्ते का क्या हुआ

हमारे पिछले रिलेशन के बारे में कुछ न बता कर, हम ने एकदूसरे का परिचय सब के सामने रखा. वरुण, प्रतीक से हाथ मिलाते हुए बातें करने लगे और मैं प्रतीक की पत्नी नंदा से बातें करने लगी. थोड़ी देर में ही पता चल गया कि वह कितनी तेजतरार्र औरत है. बस अपनी ही हांके जा रही थी और बीचबीच में मेरे हाथों में डायमंड जड़ी चूडि़यां भी निहारे जा रही थी.

कुछ देर बाद जैसे ही हम चलने को हुए, अपनी आदत के अनुसार वरुण कहने लगे, ‘‘अब ऐसे सिर्फ हायहैलो से काम नहीं चलेगा. परसों क्रिसमस की छुट्टी है. आप सब हमारे घर खाने पर आमंत्रित हैं.’’ प्रतीक के न करने पर वरुण ने उस की एक न सुनी. मुझे वरुण पर गुस्सा भी आ रहा था. क्या जरूरत थी तुरंत किसी को अपने घर बुलाने की? प्रतीक मुझे देखने लगा, क्योंकि मुझे पता था वह भी मेरे घर नहीं आना चाह रहा होगा. पर वरुण को कौन समझाए. मजबूरन मुझे भी कहना पड़ा, ‘‘आओ न बैठ कर बातें करेंगे.’’

याद करना तो दूर, अब प्रतीक कभी भूलेबिसरे भी मेरे खयालों में नहीं आता था. पर आज अचानक उसे देख जाने मेरे मन को क्या हो गया. वरुण ने अपने फोन नंबर के साथ घर का पता भी प्रतीक को मैसेज कर दिया.

रास्ते भर मैं प्रतीक और उस की फैमिली के बारे में सोचती रही. मां ने ही तो बताया था मुझे. मेरे बाद प्रतीक के लिए कितने रिश्ते आए और कुंडली न मिलने के कारण लौट गए. हां, यह भी बताया था मां ने कि प्रतीक की जिस लड़की से शादी तय हुई है उस से प्रतीक के 28 गुणों का मिलान हुआ है. लेकिन प्रतीक और उस की पत्नी को देख कर लग नहीं रहा था कि दोनों के एक भी गुण मिल रहे हों. खैर, मुझे क्या. माना हमारा रिश्ता न हो पाया पर वरुण जैसा इतना प्यार करने वाला पति तो पाया न मैं ने.

घर आ कर हम ने थोड़ी बहुत इधरउधर

की बातें की और सो गए. सुबह उठ कर बच्चों को स्कूल भेज कर हमेशा की तरह हम जौगिंग पर निकल गए. वरुण बातें करते रहे और मैं उन की बातों पर सिर्फ हांहूं करती रही. मेरे मन में बारबार यही सवाल उठ रहे थे कि जन्मपत्री मिलान के बावजूद प्रतीक खुश था अपनी पत्नी के साथ? क्या सच में दोनों का मन मिल रहा था? चाय पीते हुए भी बस वही सब बातें चल रही थी मेरे दिमाग में. वरुण ने टोका भी कि क्या सोच रही हो, पर मैं ने अपना सिर हिला कर इशारों में कहा, ‘‘कुछ नहीं.’’ वरुण को औफिस भेज कर मैं भी अपने बैंक के लिए निकल गई.

रात में खाना खाते वक्त वरुण कहने लगे, ‘‘मीरा, कल मुझे औफिस जाना पड़ेगा. जरूरी मीटिंग है और हो सकता है लेट आऊं. मेरी तरफ से प्रतीक और उस के परिवार को सौरी बोल देना.’’

मुझे वरुण पर बहुत गुस्सा आया. मुझे गुस्सा होते देख कहने लगे, ‘‘सौरी… सौरी… अब इतना गुस्से से भी मत देखो. क्या बच्चे की जान लोगी?’’ और बच्चों के सामने ही मेरे गालों को चूमने लगे. वरुण की यह आदत भी मुझे नहीं पसंद थी. वे बच्चों के सामने ही रोमांस शुरू कर देते और बच्चे भी ‘हो… हो… पापा’ कह कर मजे लेने लगे.

दूसरे दिन वरुण अपने औफिस के लिए निकल गए और थोड़ी देर बाद बच्चे भी यह कह कर घर से निकल गए कि उन्होंने अपने दोस्तों के साथ मिल कर फिल्म जाने का प्रोग्राम बनाया है. अब मैं क्या करूंगी? सोचा चलो खाने की तैयारी ही कर लेती हूं क्योंकि अकेली हूं तो खाना बनाने में वक्त भी लगेगा और घर को भी व्यवस्थित करना था, तो लग गई अपने कामों में.

दोपहर के करीब 1 बजे वे लोग हमारे घर आ गए. मैं ने उन्हें बैठाया और पहले सब को जूस सर्व किया. फिर कुछ सूखा नाश्ता टेबल पर लगा दिया. प्रतीक ने वरुण और बच्चों के बारे में पूछा तो मैं ने उसे बताया, ‘‘उन्हें किसी जरूरी मीटिंग में जाना था इसलिए… लेकिन सामने वरुण को देख कर मुझे आश्चर्य हुआ, ‘‘वरुण, आप तो…?’’

‘‘हां, मीटिंग कैंसिल हो गई और अच्छा ही हुआ. बोलो कोई काम बाकी है?’’ वरुण ने कहा.

‘‘नहीं सब तैयार है,’’ मैं ने कहा.

खानापीना समाप्त होने के बाद हम बाहर लौन में ही कुरसी लगा कर बैठ गए. हम बातें कर रहे थे और बच्चे वहीं लौन में खेल रहे थे. लेकिन मेरा ध्यान प्रतीक के बेटे पर चला जाता जो कभी झूला झूलता तो कभी झूले को ही झुलाने लगता. उस की प्यारी शरारतों पर मैं मंदमंद मुसकरा रही थी. फिर मुझ से रहा नहीं गया तो मैं उस के पास जा कर उस से बातें करने लगी, ‘‘क्या नाम है तुम्हारा?’’ मैं ने पूछा तो उस ने तुतलाते हुए कहा, ‘‘अंछ है मेला नाम.’’

‘‘अंश, अरे वाह, बहुत ही सुंदर नाम है तुम्हारा तो.’’ उस की तोतली बातों पर मुझे हंसी आ गई. लेकिन अचानक से जब मेरी नजर प्रतीक पर पड़ी तो मैं सकपका गई. पता नहीं कब से वह मुझे देखे जा रहा था. मुझे लगा शायद वह मुझ से बहुत कुछ कहना चाह रहा था, कुछ बताना चाह रहा था, लेकिन अपने मन में ही दबाए हुए था.

‘‘ठीक है अब चलते हैं,’’ कह कर प्रतीक उठ खड़ा हुआ पर वरुण ने यह कह कर उन्हें रोक लिया कि एकएक कप चाय हो जाए. जिसे प्रतीक ठुकरा नहीं पाया. मैं चाय बनाने जा ही रही थी कि नंदा भी मेरे पीछेपीछे आ गई और कहने लगी, ‘‘हमारे आने से ज्यादा काम बढ़ गया न आप का?’’

‘‘अरे ऐसी बात नहीं नंदाजी. अच्छा अपने बारे में कुछ…?’’ अभी मैं बोल ही रही थी कि मेरी बात बीच में काटते हुए कहने लगी, ‘‘मैं अपने बारे में क्या बताऊं मीराजी, मेरा तो मानना है आप जैसी नौकरी करने वाली औरतें ज्यादा खुश रहती हैं, वरना हम जैसी गृहिणी तो बस काम और परिवार में पिसती रह जाती हैं. अब हमें ही देख लीजिए, दिन भर बस घर और बच्चों के पीछे पागल रहती हूं. ऊपर से मेरी सास, कुछ भी कर लो उन्हें मुझ से शिकायत ही लगी रहती है. कुछ तो काम है नहीं, बस दिन भर बकबक करती रहती हैं. अरे, मैं ने तो प्रतीक से कितनी बार कहा जा कर इन्हें गांव छोड़ आइए, आखिर हमारी भी तो जिंदगी है कब तक ढोते चलेंगे इस माताजी को पर नहीं, इन्हें मेरी बात सुननी ही कहा है.’’

बाबाजी का ठुल्लू

बाहर गली में लाउडस्पीकर बज रहा था. धूलमिट्टी उड़ाते औटो पर रखे लाउडस्पीकर से आवाज आ रही थी, ‘‘आप सभी को बाबाजी के समागम में आमंत्रित किया जाता है. जहां विशेष कृपा के तौर पर बाबाजी का ठुल्लू दिया जाएगा.

ज्यादा से ज्यादा संख्या में पहुंच कर बाबाजी की कृपा का लाभ उठाएं.’’ठुल्लू शब्द उल्लू ज्यादा सुनाई पड़ रहा था पर फिर भी मैसेज जा चुका था कि कोई विशेष कार्यक्रम ही होगा तभी इतनी जोरशोर से प्रचार हो रहा है.

जो ‘कौमेडी नाइट विद कपिल’ देखते हैं वे तो समझ गए पर जो नहीं देखते थे वे कार्यक्रम का हिस्सा बन गए.भव्य पंडाल सजा था. आसपास श्रद्धा की दुकानें सजी थीं, जिन में धूप, मालाएं, धार्मिक ग्रंथ, हवन सामग्री आदि मिल रही थी और साथ ही सजी थीं खानेपीने की दुकानें.

बाहर से तो ऐसा लग रहा था जैसे कोई शादीब्याह का आयोजन हो. एक बार को लगा कहीं गलत जगह तो नहीं आ गए पर पता तो यही था. बाबाजी का आने का समय 4 बजे का था. 7 बज रहे थे पर उन का अभी तक कोई अतापता न था. भीड़ बढ़ती जा रही थी.

8 बजे 4 गाडि़यां धूलमिट्टी उड़ाती मैदान में पहुंचीं. उन में एक औडी थी, जिस में गेरुआ चोला पहने बाबाजी अपनी धोती संभालते उतरे. उम्र यही कोई 50-55 वर्ष. बाल मिलेजुले सफेदकाले. चेहरे की चमक किसी महंगे ब्यूटीपार्लर का इश्तिहार लग रही थी जैसे अभी वहां से फेशियल करवा कर आए हों.‘‘बाबाजी की जय हो,’’ समर्थकों ने जोरजोर से नारे लगाने शुरू कर दिए.

लोग उत्सुकतावश बाबाजी की ओर ऐसे देख रहे थे जैसे वे कोई अजूबा हों.बाबाजी हाथ उठा कर बहुत आत्मविश्वास के साथ बोले, ‘‘मैं कुछ नहीं करता, भगवान मुझ से करवाता है. जब तक उस का हुक्म न हो तब तक मैं यहां आ ही नहीं सकता.’’पूरी बात जनता के पल्ले नहीं पड़ी. पर जोरदार तालियों से आभास हो गया शायद कोई बहुत बड़ी बात कही है.

‘‘बाबाजी आज आप सब को एक विशेष कृपा प्रदान करेंगे. ज्यादा से ज्यादा संख्या में पहुंच कर आप ने जो विश्वास बाबाजी पर जताया है वह काबिलेतारिफ है.’’समर्थक 1-1 कर के बाबाजी की प्रशंसा के पुल बांधते हुए अपनी बात आगे रखने लगे.तभी एक तरफ खुसुरफुसुर शुरू हो गई.‘‘कृपया शांत बैठें…जो कुछ कहना चाहते हैं कृपया माइक पर कहें.’’कुछ श्रोता आपस में लड़ रहे थे, ‘‘मैं बोलूंगा, मैं बोलूंगा.’’‘‘सभी को मौका दिया जाएगा,’’ ऐसा कह कर एक समर्थक ने माइक एक स्मार्ट, पढ़ेलिखे दिखने वाले सज्जन को पकड़ा दिया.‘‘गुरुदेव आप की सेवा में मेरा कोटिकोटि प्रणाम स्वीकार हो.

मुझे कई सालों से शुगर और ब्लडप्रैशर की बीमारी थी, जो आप की विशेष कृपा से ठीक हो गई.’’शुगर और ब्लडप्रैशर वाले मरीज खुश थे कि हम यहां आ गए तो हमारी भी बीमारी ठीक हो जाएगी.इस के साथ ही समर्थक फिर ‘बाबाजी की जय हो’ दोहराने लगे.‘‘मुझ में ऐसा कुछ नहीं है. परमात्मा परम ज्ञानी हैं,’’ बाबाजी का इतना बोलना था कि लोग फिर जोरजोर से तालियां बजाने लगे.कई लोग जो पहली बार आए थे, थोड़े कनफ्यूज दिखे कि ऐसा कैसे हो गया? यह तो शुरुआत थी.

फिर एक महिला ने माइक पकड़ा और कहा, ‘‘बाबाजी, गृहस्थी चलानी बहुत मुश्किल हो गई है…इतनी महंगाई है कि प्याज तो अब सपने की बात हो गई है और टमाटर तो कीमत से और लाल हुए पड़े हैं,’’ बाबाजी हाथ उठाते हुए बोले, ‘‘प्याज खाना कोई फायदे की बात नहीं है. इसे छीलो तो आंसू निकलते हैं और काटो तो जेब कटती है. मुझे देखो मैं ने इस की तरफ कभी आंख उठा कर भी नहीं देखा.’’समर्थक बोले, ‘‘बाबाजी के नक्शेकदम पर चलो, आंखें भी खुश रहेंगी और जेब भी.’’इस के साथ ही वही तालियां, वही नारा और वही समर्थकों का जोश.

माइक वाली महिला कुछ समझ कुछ नहीं और फिर बगले झंकते हुए बैठ गई. तालियों से शायद उसे अंदाजा हो गया था कि बाबाजी बहुत पहुंचे हुए हैं.तभी माइक एक बच्चे को दिया गया. बोला, ‘‘बाबाजी, मैं पेपरों से पहले बीमार पड़ गया था और यह आप की कृपा ही होगी कि मैं ने 20 नंबर का प्रश्नपत्र हल कर लिया और मेरे 40 नंबर आ गए.’’जनता फिर उल्लू की तरह कभी इधर देखती तो कभी उधर, पर उसे समझ नहीं आया कि यह कैसे हो गया.

जो इन सब बातों की सचाई जानना चाहते थे उन्हें कोई माइक नहीं दे रहा था.रात का 1 बज गया. बाबाजी को नींद आने लगी, तो समागम के समापन की घोषणा हो गई और लाउडस्पीकर पर ‘बजरंगी हमारी सुध लेना भुला नहीं देना, विनय तोहे बारबार है…’ भजन चलाया गया और समर्थक स्टेज पर हाथ उठाउठा कर नाचने लगे.

सब अपने आसपास के लोगों की देखादेखी नाचने लगे. उन के बजरंगी जा चुके थे अपने नए अवतार में, जिस में उन्होंने एक पैर जमीन पर रखा हुआ है और एक लोगों के दिल पर. और अपने बलशाली हाथों पर लोगों का दिमाग रख कर अपनी औडी में उड़ गए.

जिन्होंने माइक पर बोला था स्टेज के पीछे उन्हें पैसे बांटे जा रहे थे. पंडाल वाला भी खुश था कि अगली बार ज्यादा कमाई हो जाएगी. बड़ा पंडाल जो लगाना है.खाने के खोमचे वालों की चांदी हो गई. बाबा के इंतजार में लोगों ने खा कर ही टाइमपास किया.अंत में एक समर्थक ने माइक पर घोषणा की कि अगला कार्यक्रम 15 दिन बाद होगा. अपने साथ अपने पूरे परिवार को लाएं और बाबाजी के उल्लू उफ, सौरी ठुल्लू का सीक्वल पाएं.

अंधविश्वास की दलदल: भाग 1- प्रतीक और मीरा के रिश्ते का क्या हुआ

आजरविवार की छुट्टी होने के कारण होटल में काफी भीड़ थी. हमें भी डिनर और्डर किए काफी वक्त हो चुका था पर अभी तक आया नहीं था. हम बैठेबैठे आपसी बातचीत में मशगूल थे. लेकिन मेरा ध्यान बारबार उस टेबल पर जा अटकता जहां एक फैमिली बैठी थी.

उन का टेबल हमारे टेबल को छोड़ तीसरा टेबल था, जिस में मातापिता और 3 बच्चे बैठे हुए थे. 2 बेटियां और एक बेटा. बेटियां अपनेअपने मोबाइल में व्यस्त थीं और मातापिता आपस में ही बातें कर रहे थे. पति का चेहरा तो नहीं दिख रहा था, क्योंकि उस का चेहरा दूसरी तरफ था, पर पत्नी के हावभाव से लग रहा था, उन में किसी बात को ले कर बहस चल रही थी, क्योंकि पत्नी अपनी आंखें बड़ी करकर के कुछ बोले जा रही थी और पति अपना हाथ उठा कर उसे शांत रहने को कह रहा था.

उन का बेटा, जिस की उम्र करीब 3-4 साल होगी, सब बातों से बेफिक्र अपनेआप में ही मगन, कभी कांटाचम्मच से खेलता तो कभी उसी कांटाचम्मच से प्लेट बजाने लगता. कभी टेबल पर रखे नमक और पैपर पाउडर को अपनी हथेली पर गिरा कर उंगली से चाटने लगता तो कभी टिशू पेपर निकाल कर अपना चेहरा खुद ही पोंछने लगता. जब उस की मां उसे आंखें दिखा कर इशारों से कहती कि बैठ जाओ तो वह बैठ भी जाता, पर फिर थोड़ी देर में वही सब शुरू कर देता. उस की छोटीछोटी शरारतें देख कर मुझे उस मासूम पर बड़ी हंसी आ रही थी और प्यार भी.

सच, बच्चे कितने मासूम होते हैं. उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता कि उन की हरकतों को कौन देख रहा है कौन नहीं. उस की शरारतें मुझे अपने बचपन की याद दिलाने लगीं. आखिर हम ने भी तो इसी तरह की शरारतें की होंगी कभी. बीचबीच में वह मुझे भी देखता कि मैं उसे देख रही हूं और फिर शांत खड़ा हो जाता और जब मैं उसे देख कर मुसकरा देती तो वह फिर शुरू हो जाता.

तभी मेरे पति वरुण बोले कि खाना आ गया. जहां मेरे बेटे ने पिज्जा और्डर किया था, वहीं बेटी ने पावभाजी और हम ने सिंपल दालरोटी और सब्जी मंगवाई थी. अभी हम ने खाना शुरू ही किया था कि वह बच्चा हमारे टेबल के सामने आ कर खड़ा हो गया. मैं उसे देख कर मुसकराई और उस के नरम गालों को छू कर प्यार भी किया, लेकिन उस का ध्यान तो बस पिज्जा पर ही अटका हुआ था. एकटक वह पिज्जा को देखे जा रहा था. लग रहा था अभी बोलूंगी और खाने लगेगा. ‘‘थोड़ा सा खिला दें क्या?’’ मैं ने वरुण की तरफ देखते हुए कहा.

‘‘नहीं मीरा, ऐसे किसी अनजान बच्चे को कुछ खिलानापिलाना ठीक बात नहीं है. पता नहीं उस के मांबाप क्या बोल दें.’’

तभी उस की मां ने आंखें दिखाते हुए उसे आने का इशारा किया. मां के डर से वह चला तो गया, लेकिन फिर वापस आ कर हमारे टेबल के सामने खड़ा हो गया. लग रहा था अभी पिज्जा उठा कर खाने लगेगा. हमें थोड़ा अजीब भी लग रहा था.

‘‘थोड़ा सा खिला देते हैं न इस में क्या हरज है? मेरा बेटा जिगर, पिज्जा का एक पीस उस बच्चे की तरफ  बढ़ाते हुए कहने लगा तो वरुण ने झट से उस का हाथ पकड़ लिया और कहने लगा, ‘‘मैं ने मना किया न. अरे, दूसरों के बच्चे को ऐसे कैसे कुछ खिला सकते हैं. अगर इस के मांबाप बुरा मान गए तो?’’

पर वो बच्चा तो वहां से हिलने का नाम ही नहीं ले रहा था. खातेखाते यह सोच कर मेरा हाथ रुक गया कि शायद बच्चा बहुत भूखा है और मैं उस से कुछ पूछती कि उस की मां ने आवाज दे कर उसे बुला लिया, क्योंकि उस के टेबल पर भी खाना लग चुका था.

सच में बच्चा भूखा था. जल्दीजल्दी वह पापड़ पर ही टूट पड़ा. उस की मां आंखें दिखाते हुए उसे बोल रही थी, ‘‘आराम से खाओ आराम से.’’ हमारा खाना तो बस हो ही चुका था और वेटर बिल के साथ सौंफ, चीनी भी ले कर आ गया.

हम रैस्टोरैंट से निकलने लगे, पर हमारी आदत ऐसी होती है कि अगर हम किसी चीज को बारबार देख रहे होते हैं तो जातेजाते भी लगता है कि एक बार मुड़ कर और देख लें. इसलिए मेरी नजर फिर एक बार उस बच्चे पर जा टिकी पर उस बच्चे के बगल वाली कुरसी पर प्रतीक को देख कर हैरान रह गई. लगा कहीं मेरी आंखों का धोखा तो नहीं.

हां धोखा ही होगा क्योंकि यहां प्रतीक कैसे हो सकता है और यह तो सिर्फ प्रतीक सा दिखता है. मैं ने अपने मन में कहा कि तभी पीछे से अपना नाम सुन कर मैं चौंक गई.

वह झटकते हुए मेरे पास आया और कहने लगा, ‘‘मीरा… तुम और यहां?’’

‘‘प्रतीक… तुम?’’ मैं आश्चर्यचकित रह गई उसे यहां देख कर.

तो क्या यह प्रतीक की फैमिली है? और प्रतीक कैसा हो गया? यह तो ठीक से पहचान में भी नहीं आ रहा है. सिर के आधे बाल उड़े हुए, आंखों पर मोटा सा चश्मा, चेहरे पर कोई रौनक नहीं, न वह हंसी न मुसकान. अपनी उम्र से करीब 10 साल बड़ा लग रहा था वह. उसे देख कर मेरे दिल में फिर से वही भावना जाग उठी.

‘‘मीरा… मीरा कहां खो गई? क्या पहचाना नहीं मुझे?’’ प्रतीक की आवाज से मेरा ध्यान भंग हुआ.

अपनेआप को भावनाओं के जाल से मुक्त कर और संभलते हुए मैं ने कहा, ‘‘प्रतीक तुम और यहां? और यह तुम्हारी फैमिली है क्या? मुझे उस की फैमिली के बारे में सामने से नहीं पूछना चाहिए था, पर अनायास ही मेरे मुंह से निकल गया.’’

प्रतीक अपनी फैमिली से मिलवाते हुए कहने लगा, ‘‘हां, मेरी फैमिली है. मेरी पत्नी नंदा, बड़ी बेटी कोयल, छोटी बेटी पिंकी और बेटा अंश. अभी कुछ महीने पहले ही मेरा तबादला यहां मुंबई में हुआ है.’’

मैं ने अपने मन में ही कहा, ‘अच्छा तो ये हैं प्रतीक की जीवनसंगिनी? आखिर प्रतीक की मां को अपने मन की बहू मिल ही गई. वैसे बहुत खास तो नहीं है देखने में. हो सकता है उन की नजर में हो.’

मैं ने भी अपने परिवार से प्रतीक को मिलवाते हुए कहा, ‘‘प्रतीक, ये हैं मेरे पति वरुण और ये है बेटा जिगर और बेटी साक्षी.’’

प्रतीक बड़े गौर से मेरे पति और बच्चों को देखे जा रहा था.

वरुण कहने लगे, ‘‘क्या आप दोनों पहले से एकदूसरे को जानते हैं?’’

‘‘हां वरुण, हम ने एकसाथ ही प्रोबेशनरी औफिसर की ट्रैनिंग ली थी और तब से हम एकदूसरे को जानते हैं.’’

प्रैगनैंसी: भाग 3- अरुण को बड़ा सबक कब मिला

दूसरे दिन अरुण पहुंच गया. सभी नौकरों ने सूचना दी कि रूपा का ऐक्सीडैंट हुआ है जब वह 3-4 दोस्तों के साथ थी. उसे चोट तो नहीं लगी पर एक दोस्त बुरी तरह घायल है जिस की वजह से वह शौक में है.

शिखा खामोश थी. वह अरुण को सीधे अपने कमरे में ले गई. अरुण बहुत घबराया

हुआ था. शिखा ने उसे अपने कमरे में ला कर धीरे से कहा, ‘‘आप घबराइए नहीं, कोई

ऐक्सीडैंट नहीं हुआ है. रूपा का मन ठीक है, किसी लड़के ने उसे प्यार में धोखा दे कर छोड़ दिया है,’’ कहते हुए उस की आंखों में आंसू आ गए.

अरुण सारी स्थिति समझ गया. पर करता क्या. धीरे से शिखा से बोला, ‘‘अगर कहो तो उस लड़के से बात करूं?’’

शिखा ने समझते हुए कहा, ‘‘क्या बात करोगे. वह लड़का साफ झूठ बोल जाएगा. पहले तो किसी लेडी डाक्टर को दिखा कर यह पता लगाओ कि कहीं रूपा को गर्भ तो नहीं ठहर गया है.’’

यह सुन कर अरुण भी परेशान हो उठा. पर पुरुष होने के नाते उस ने शिखा से कहा,

‘‘तुम घबराओ नहीं, मैं कल ही इंतजाम कर दूंगा. किसी को पता भी नहीं लगेगा.’’

यह सुन कर शिखा की घबराहट थोड़ी कम हो गईर्. फिर अरुण रूपा के कमरे में आया. उस का रूपा से मिलने का उत्साह थोड़ा ठंडा हो गया था. पर उस ने यह जाहिर नहीं किया. बोला, ‘‘रूपा बेटी, कैसी हो?’’

रूपा ने अपना चेहरा झुका लिया. उस की आंखों में लाचारी के आंसू तैरने लगे. वह कुछ बोल नहीं पा रही थी.

अरुण ने ही उस के बाल सहलाते हुए कहा, ‘‘बेटी, तुम बिलकुल न घबराओ. अब तो मैं आ ही गया हूं.

वैसे भी घबराने से काम नहीं चलेगा. हिम्मत से काम लो. तुम अब बड़ी भी हो गई हो,’’ कह कर वह शिखा के साथ अपने कमरे में चला गया. शिखा ने बताया कि होम टैस्ट से पता चला है कि वह प्रैगनैंट है.

अरुण शिखा से बोला, ‘‘कल ही जा कर इसे डाक्टर मीना को दिखा देता हूं. वह सबकुछ संभाल लेगी,’’ कहते हुए उस ने अपने कपड़े बदले. खाना पहले से ही तैयार था, सभी ने रूपा के कमरे में ही खाना खाया ताकि नौकरों को पता न लगे कि रूपा के साथ क्या हुआ है.

दूसरे दिन सुबह 9 बजते ही अरुण शिखा और रूपा के साथ गाड़ी में बैठ कर डाक्टर मीना के नर्सिंगहोम में पहुंचा. अरुण ने पहले ही फोन कर दिया था, इसलिए डाक्टर मीना उन का इंतजार कर रही थी.

शिखा ने बहुत धीरे से उन से कहा, ‘‘आप रूपा को जरा देख लीजिए.’’

डाक्टर मीना अनुभवी डाक्टर थी. स्थिति समझते देर नहीं लगी. कहा, ‘‘आप घबराइए नहीं, मैं ऐसे कितने ही मामले ठीक कर चुकी हूं. अगर कुछ होगा भी तो मैं सब संभाल लूंगी,’’ कहते हुए डाक्टर ने अरुण की तरफ देखा.

अरुण कुछ खोया हुआ था, बोला, ‘‘डाक्टर अब आप जानें.’’

डाक्टर मीना रूपा को कमरे में ले गई. शिखा भी उन के साथ चली गई. डाक्टर ने रूपा को पूरी तरह देखा. शिखा को जिस बात का डर था,  रूपा के पेट में 2 महीने का बच्चा पल रहा था.

रूपा चुपचाप आंखें बंद किए रो रही थी. शिखा ने डाक्टर की तरफ देखा और बोली, ‘‘कोई इंजैक्शन दे कर इस को समाप्त कर दीजिए.’’

डाक्टर मीना बोली, ‘‘नहीं, शिखाजी, अब तो अबौर्शन ही करना होगा. अगर आप चाहें तो मैं आज ही यह कर सकती हूं. किसी को कानोंकान खबर भी नहीं होगी. ऐसे मामले मैं कितने ही कर चुकी हूं. फिर आप तो अपने हैं.’’

यह सुनते ही शिखा बोली, ‘‘मुझ से ज्यादा तो डाक्टर आप सम?ाती हैं. आप जैसा चाहें करें, मैं उन को जा कर बताती हूं.’’

डाक्टर मीना के साथ शिखा बाहर वाले कमरे में आ गई जहां अरुण बैठा हुआ कमरे की हर चीज बड़े ध्यान से देख रहा था. डाक्टर मीना ने आ कर अपनी मेज से एक रजिस्टर निकाला. उस पर कुछ लिखा और फिर अरुण से बोली, ‘‘इस में आप अपने दस्तखत कर दीजिए.’’

इस बीच शिखा ने अरुण को सबकुछ बता दिया था. दस्तखत करते हुए अरुण के हाथ कांपने लगे. उस ने शिखा की तरफ देखा, जिसे वह हमेशा दकियानूसी विचारों की समझता था. उस के आधुनिक विचार कहां गए. शिखा भी अपने पति की तरफ देख रही थी. एक क्षण को उसे लगा कि आज वह अपने पति से जीत गई. कितनी बार वह अपने अंदर की बात अपने पति से कहना चाहती थी.

उस का मन कर रहा था कि वह खूब जोर से हंसे और अरुण से कहे, ‘‘तुम ने मेरी बात कभी नहीं मानी, आज तुम्हारी लड़की ही तुम्हें शिक्षा दे रही है.’’

अरुण से यह सब बरदाश्त नहीं हो पा रहा था. वह जिंदगी में कभी हारना नहीं चाहता था. उस ने शिखा की आंखों की चमक को जैसे पढ़ लिया था. उस ने एकदम जेब से पैन निकाला और दस्तखत कर दिए.

अपना घर: क्यों तलाक लेनी चाहती थी सुरेखा

विजय की गुस्से भरी आवाज सुनते ही सुरेखा चौंक उठी. उस का मूड खराब था. वह तो विजय के आने का इंतजार कर रही थी कि कब विजय आए और वह अपना गुस्सा उस पर बरसाए क्योंकि आज सुबह औफिस जाते समय विजय ने वादा किया था कि शाम को कहीं घूमने चलेंगे. उस के बाद खरीदारी करेंगे. खाना भी आज होटल में खाएंगे. शाम को 6 बजे से पहले घर पहुंचने का वादा किया था.

4 बजे के बाद सुरेखा ने कई बार विजय के मोबाइल फोन पर बात करनी चाही तो उस का फोन नहीं सुना था. हर बार उस का फोन काट दिया गया था. वह समझ नहीं पा रही थी कि आखिर क्या बात है? जल्दी नहीं आना था तो मना कर देते. बारबार फोन काटने का क्या मतलब?

सुरेखा तो शाम के 5 बजे से ही जाने के लिए तैयार हो गई थी. पता नहीं, औफिस में देर हो रही है या यारदोस्तों के साथ सैरसपाटा हो रहा है. बस, उस का मूड खराब होने लगा था. उसे कमरे की लाइट औन करना भी ध्यान नहीं रहा.

सुरेखा ने विजय की ओर देखा. विजय का चेहरा गुस्से से तमतमा रहा था. 2 साल की शादीशुदा जिंदगी में आज वह पहली बार विजय को इतने गुस्से में देख रही थी.

सुरेखा अपना गुस्सा भूल कर हैरान सी बोल उठी, ‘‘यह क्या कह रहे हो? मैं कब से तुम्हारा इंतजार कर रही हूं. तुम्हारा फोन मिलाया तो हर बार तुम ने फोन काट दिया. आखिर बात क्या है?’’

‘‘बात तो बहुत बड़ी है. तुम ने मुझे धोखा दिया है. तुम्हारे मातापिता ने मुझे धोखा दिया है.’’

‘‘धोखा… कैसा धोखा?’’ सुरेखा के दिल की धड़कन बढ़ती चली गई.

‘‘तुम्हारे धोखे का मुझे आज पता चल गया है कि तुम शादी से पहले विकास की थी,’’ विजय ने कहा.

यह सुन कर सुरेखा चौंक गई. वह विजय से आंख न मिला पाई और इधरउधर देखने लगी.

‘‘अब तुम चुप क्यों हो गई? शादी को 2 साल होने वाले हैं. इतने दिनों से मैं धोखा खा रहा था. मुझे क्या पता था कि जिस शरीर पर मैं अपना हक समझता था, वह पहले ही कोई पा चुका था और मुझे दी गई उस की जूठन.’’

‘‘नहीं, आप यह गलत कह रहे हो.’’

‘‘क्या तुम विकास से प्यार नहीं करती थी? तुम उस के साथ पता नहीं कहांकहां आतीजाती थी. तुम दोनों को शादी की मंजूरी भी मिल गई थी कि अचानक वह कमबख्त विकास एक हादसे में मर गया. यह सब तो मुझे आज पता चल गया नहीं तो मैं हमेशा धोखे में रहता.’’

यह सुन कर सुरेखा की आंखें भर आईं. वह बोली, ‘‘तुम्हें किसी ने धोखा नहीं दिया है, मेरी किस्मत ने ही मुझे धोखा दिया है जो विकास के साथ ऐसा हो गया था.’’

‘‘तुम ने मुझे अब तक बताया क्यों नहीं?’’

सुरेखा चुप रही.

‘‘अब तुम यहां नहीं रहोगी. मैं तुम जैसी चरित्रहीन और धोखेबाज को अपने घर में नहीं रखूंगा.’’

‘‘विजय, मैं चरित्रहीन नहीं हूं. मेरा यकीन करो.’’

‘‘प्रेमी ही तो मरा है, तुम्हारे मांबाप तो अभी जिंदा हैं. जाओ, वहां दफा हो जाओ. मैं तुम्हारी सूरत भी नहीं देखना चाहता. अपने धोखेबाज मांबाप से कह देना कि अपना सामान ले जाएं.’’

सुरेखा सब सहन कर सकती थी, पर अपने मातापिता की बेइज्जती सहना उस के वश से बाहर था. वह एकदम बोल उठी, ‘‘तुम मेरे मम्मीपापा को क्यों गाली देते हो?’’

‘‘वे धोखेबाज नहीं हैं तो उन्होंने क्यों नहीं बताया?’’ कहते हुए विजय ने गालियां दे डालीं.

‘‘ठीक है, अब मैं यहां एक पल भी नहीं रहूंगी,’’ कहते हुए सुरेखा ने एक बैग में कुछ कपड़े भरे और चुपचाप कमरे से बाहर निकल गई.

सुरेखा रेलवे स्टेशन पर जा पहुंची. रात साढ़े 10 बजे ट्रेन आई.

3 साल पहले एक दिन सुरेखा बाजार में कुछ जरूरी सामान लेने जा रही थी. उस के हाथ में मोबाइल फोन था. तभी एक लड़का उस के हाथ से फोन छीन कर भागने लगा. वह एकदम चिल्लाई ‘पकड़ो… चोरचोर, मेरा मोबाइल…’

बराबर से जाते हुए एक नौजवान ने दौड़ लगाई. वह लड़का मोबाइल फेंक कर भाग गया था. जब उस नौजवान ने मोबाइल लौटाया, तो सुरेखा ने मुसकरा कर धन्यवाद कहा था.

वह युवक विकास ही था जिस के साथ पता नहीं कब सुरेखा प्यार के रास्ते पर चल दी थी.

एक दिन सुरेखा ने मम्मी से कह दिया था कि विकास उस से शादी करने को तैयार है. विकास के मम्मीपापा भी इस रिश्ते के लिए तैयार हो गए हैं.

पर उस दिन अचानक सुरेखा के सपनों का महल रेत के घरौंदे की तरह ढह गया जब उसे यह पता चला कि मोटरसाइकिल पर जाते समय एक ट्रक से कुचल जाने पर विकास की मौत हो गई है.

सुरेखा कई महीने तक दुख के सागर में डूबी रही. उस दिन पापा ने बताया था कि एक बहुत अच्छा लड़का विजय मिल गया है. वह प्राइवेट नौकरी करता है.

सुरेखा की विजय से शादी हो गई. एक रात विजय ने कहा था, ‘तुम बहुत खूबसूरत हो सुरेखा. मुझे तुम जैसी ही घरेलू व खूबसूरत पत्नी चाहिए थी. मेरे सपने सच हुए.’

जब कभी सुरेखा विजय की बांहों में होती तो अचानक ही एक विचार से कांप उठती थी कि अगर किसी दिन विजय को विकास के बारे में पता चल गया तो क्या होगा? क्या विजय उसे माफ कर देगा. नहीं, विजय कभी उसे माफ नहीं करेगा क्योंकि सभी मर्द इस मामले में एकजैसे होते हैं. तब क्या उसे बता देना चाहिए? नहीं, वह खुद अपने पैरों पर कुल्हाड़ी क्यों मारे?

आज विजय को पता चल गया और जिस बात का उसे डर था, वही हुआ. पर वह शक, नफरत और अनदेखी के बीच कैसे रह सकती थी?

सुबह सुरेखा मम्मीपापा के पास जा पहुंची थी.

सुरेखा के कमरे से निकल जाने

के बाद भी विजय का गुस्सा बढ़ता

ही जा रहा था. वह सोफे पर पसर गया. धोखेबाज… न जाने खुद को क्या समझती है वह? अच्छा हुआ आज पता चल गया, नहीं तो पता नहीं कब तक उसे धोखे में ही रखा जाता?

2-3 दिन में ही पासपड़ोस में सभी को पता चल गया. काम वाली बाई कमला ने साफसाफ कह दिया, ‘‘देखो बाबूजी, अब मैं काम नहीं करूंगी. जिस घर में औरत नहीं होती, वहां मैं काम नहीं करती. आप मेरा हिसाब कर दो.’’

विजय ने कमला को समझाते हुए कहा, ‘‘देखो, काम न छोड़ो, 100-200 रुपए और बढ़ा लेना.’’

‘‘नहीं बाबूजी, मेरी भी मजबूरी है. मैं यहां काम नहीं करूंगी.’’

‘‘जब तक दूसरी काम वाली न मिले, तब तक तो काम कर लेना कमला.’’

‘‘नहीं बाबूजी, मैं एक दिन भी काम नहीं करूंगी,’’ कह कर कमला चली गई.

4-5 दिन तक कोई भी काम वाली बाई न मिली तो विजय के सामने बहुत बड़ी परेशानी खड़ी हो गई. सुबह घर व बरतनों की सफाई, शाम को औफिस से थका सा वापस लौटता तो पलंग पर लेट जाता. उसे खाना बनाना नहीं आता था. कभी बाजार में खा लेता. दिन तो जैसेतैसे कट जाता, पर बिस्तर पर लेट कर जब सोने की कोशिश करता तो नींद आंखों से बहुत दूर हो जाती. सुरेखा की याद आते ही गुस्सा व नफरत बढ़ जाती.

रात को देर तक नींद न आने के चलते विजय ने शराब के नशे में डूब

कर सुरेखा को भुलाना चाहा. वह जितना सुरेखा को भुलाना चाहता, वह उतनी ज्यादा याद आती.

एक रात विजय ने शराब के नशे में मदहोश हो कर सुरेखा का मोबाइल नंबर मिला कर कहा, ‘‘तुम ने मुझे जो धोखा दिया है, उस की सजा जल्दी ही मिलेगी. मुझे तुम से और तुम्हारे परिवार से नफरत है. मैं तुम्हें तलाक दे दूंगा. मुझे नहीं चाहिए एक चरित्रहीन और धोखेबाज पत्नी. अब तुम सारी उम्र विकास के गम में रोती रहना.’’

उधर से कोई जवाब नहीं मिला.

‘‘सुन रही हो या बहरी हो गई हो?’’ विजय ने नशे में बहकते हुए कहा.

‘यह क्या आप ने शराब पी रखी है?’ वहां से आवाज आई.

‘‘हां, पी रखी है. मैं रोज पीता हूं. मेरी मरजी है. तू कौन होती है मुझ से पूछने वाली? धोखेबाज कहीं की.’’

उधर से फोन बंद हो गया.

विजय ने फोन एक तरफ फेंक दिया और देर तक बड़बड़ाता रहा.

औफिस और पासपड़ोस के कुछ साथियों ने विजय को समझाया कि शराब के नशे में डूब कर अपनी जिंदगी बरबाद मत करो. इस परेशानी का हल शराब नहीं है, पर विजय पर कोई असर नहीं पड़ा. वह शराब के नशे में डूबता चला गया.

एक शाम विजय घर पर ही शराब पीने की तैयारी कर रहा था कि तभी दरवाजे पर दस्तक हुई. विजय ने बुरा सा मुंह बना कर कहा, ‘‘इस समय कौन आ गया मेरा मूड खराब करने को?’’

विजय ने उठ कर दरवाजा खोला तो चौंक उठा. सामने उस का पुराना दोस्त अनिल अपनी पत्नी सीमा के साथ था.

‘‘आओ अनिल, अरे यार, आज इधर का रास्ता कैसे भूल गए? सीधे दिल्ली से आ रहे हो क्या?’’ विजय ने पूछा.

‘‘हां, आज ही आने का प्रोग्राम बना था. तुम्हें 2-3 बार फोन भी मिलाया, पर बात नहीं हो सकी.’’

‘‘आओ, अंदर आओ,’’ विजय ने मुसकराते हुए कहा.

विजय ने मेज पर रखी शराब की बोतल, गिलास व खाने का सामान वगैरह उठा कर एक तरफ रख दिया.

अनिल और सीमा सोफे पर बैठ गए. अनिल और विजय अच्छे दोस्त थे, पर वह अनिल की शादी में नहीं जा पाया था. आज पहली बार दोनों उस के पास आए थे.

विजय ने सीमा की ओर देखा तो चौंक गया. 3 साल पहले वह सीमा से मिला था अगरा में, जब अनिल और विजय लालकिला में घूम रहे थे. एक बूढ़ा आदमी उन के पास आ कर बोला था, ‘‘बाबूजी, आगरा घूमने आए हो?’’

‘‘हां,’’ अनिल ने कहा था.

‘‘कुछ शौक रखते हो?’’ बूढ़े ने कहा.

वे दोनों चुपचाप एकदूसरे की तरफ देख रहे थे.

‘‘बाबूजी, आप मेरे साथ चलो. बहुत खूबसूरत है. उम्र भी ज्यादा नहीं है. बस, कभीकभी आप जैसे बाहर के लोगों को खुश कर देती है,’’ बूढ़े ने कहा था.

वे दोनों उस बूढ़े के साथ एक पुराने से मकान पर पहुंच गए. वहां तीखे नैननक्श वाली सांवली सी एक खूबसूरत लड़की बैठी थी.

अनिल उस लड़की के साथ कमरे में गया था, पर वह नहीं.

वह लड़की सीमा थी, अब अनिल की पत्नी. क्या अनिल ने देह बेचने वाली उस लड़की से शादी कर ली? पर क्यों? ऐसी क्या मजबूरी हो गई थी जो अनिल को ऐसी लड़की से शादी करनी पड़ी?

‘‘भाभीजी दिखाई नहीं दे रही हैं?’’ अनिल ने विजय से पूछा.

‘‘वह मायके गई है,’’ विजय के चेहरे पर नफरत और गुस्से की रेखाएं फैलने लगीं.

‘‘तभी तो जाम की महफिल सजाए बैठे हो, यार. तुम तो शराब से दूर भागते थे, फिर ऐसी क्या बात हो गई कि…?’’

‘‘ऐसी कोई खास बात नहीं. बस, वैसे ही पीने का मन कर रहा था. सोचा कि 2 पैग ले लूं…’’ विजय उठता हुआ बोला, ‘‘मैं तुम्हारे लिए खाने का इंतजाम करता हूं.’’

‘‘अरे भाई, खाने की तुम चिंता न करो. खाना सीमा बना लेगी और खाने से पहले चाय भी बना लेगी. रसोई के काम में बहुत कुशल है यह,’’ अनिल ने कहा.

विजय चुप रहा, पर उस के दिमाग में यह सवाल घूम रहा था कि आखिर अनिल ने सीमा से शादी क्यों की?

सीमा उठ कर रसोईघर में चली गई. विजय ने अनिल को सबकुछ सच बता दिया कि उस ने सुरेखा को घर से क्यों निकाला है.

अनिल ने कहा, ‘‘पहचानते हो अपनी भाभी सीमा को?’’

‘‘हां, पहचान तो रहा हूं, पर क्या यह वही है… जब आगरा में हम दोनों घूमने गए थे?’’

‘‘हां विजय, यह वही सीमा है. उस दिन आगरा के उस मकान में वह बूढ़ा ले गया था. मैं ने सीमा में पता नहीं कौन सा खिंचाव व भोलापन पाया कि मेरा मन उस से बातें करने को बेचैन हो उठा था. मैं ने कमरे में पलंग पर बैठते हुए पूछा था, ‘‘तुम्हारा नाम?’’

‘‘यह सुन कर वह बोली थी, ‘क्या करोगे जान कर? आप जिस काम से आए हो, वह करो और जाओ.’

‘‘तब मैं ने कहा था, ‘नहीं, मुझे उस काम में इतनी दिलचस्पी नहीं है. मैं तुम्हारे बारे में जानना चाहता हूं.’

‘‘वह बोली थी, ‘मेरे बारे में जानना चाहते हो? मुझ से शादी करोगे क्या?’

‘‘उस ने मेरी ओर देख कर कहा तो मैं एकदम सकपका गया था. मैं ने उस से पूछा था, ‘पहले तुम अपने बारे में बताओ न.’

‘‘उस ने बताया था, ‘मेरा नाम सीमा है. वह मेरा चाचा है जो आप को यहां ले कर आया है. आगरा में एक कसबा फतेहाबाद है, हम वहीं के रहने वाले हैं. मेरे मातापिता की एक बस हादसे में मौत हो गई थी. उस के बाद मैं चाचाचाची के घर रहने लगी. मैं 12वीं में पढ़ रही थी तो एक दिन चाचा ने आगरा ला कर मुझे इस काम में धकेल दिया.

‘‘चाचा के पास थोड़ी सी जमीन है जिस में सालभर के गुजारे लायक ही अनाज होता है. कभीकभार चाचा मुझे यहां ले कर आ जाता है.’

‘‘मैं ने उस से पूछा, ‘जब चाचा ने इस काम में तुम्हें धकेला तो तुम ने विरोध नहीं किया?’

‘‘वह बोली थी, ‘किया था विरोध. बहुत किया था. एक दिन तो मैं ने यमुना में डूब जाना चाहा था. तब किसी ने मुझे बचा लिया था. मैं क्या करती? अकेली कहां जाती? कटी पतंग को लूटने को हजारों हाथ होते हैं. बस, मजबूर हो गई थी चाचा के सामने.’

‘‘फिर मैं ने उस से पूछा था, ‘इस दलदल में धकेलने के बजाय चाचा ने तुम्हारी शादी क्यों नहीं की?’

‘‘वह बोली, ‘मुझे नहीं मालूम…’

‘‘यह सुन कर मैं कुछ सोचने लगा था. तब उस ने पूछा था, ‘क्या सोचने लगे? आप मेरी चिंता मत करो और…’

‘‘कुछ सोच कर मैं ने कहा था, ‘सीमा, मैं तुम्हें इस दलदल से निकाल लूंगा.’

‘‘तो वह बोली थी, ‘रहने दो आप बाबूजी, क्यों मजाक करते हो?’

‘‘लेकिन मैं ने ठान लिया था. मैं ने उस से कहा था, ‘यह मजाक नहीं है. मैं तुम्हें यह सब नहीं करने दूंगा. मैं तुम से शादी करूंगा.’

‘‘सीमा के चेहरे पर अविश्वास भरी मुसकान थी. एक दिन मैं ने सीमा के चाचा से बात की. एक मंदिर में हम दोनों की शादी हो गई.

‘‘मैं ने कभी सीमा को उस की पिछली जिंदगी की याद नहीं दिलाई. वह मेरा कितना उपकार मानती है कि मैं ने उसे ऐसे दलदल से बाहर निकाला जिस की उसे सपने में भी उम्मीद नहीं थी.’’

यह सुन कर विजय हैरान रह गया. वह अनिल की ओर एकटक देख रहा था. न जाने कितने लोग सीमा के जिस्म से खेले होंगे? आखिर यह सब कैसे सहन कर गया अनिल? क्या अनिल के सीने में दिल नहीं है? अनिल के सामने कोई मजबूरी नहीं थी, फिर भी उस ने सीमा को अपनाया.

अनिल ने कहा, ‘‘यार, भूल तो सभी से होती है. कभी किसी को माफ भी कर के देखो. भूल की सजा तो कोई भी दे सकता है, पर माफ करने वाला कोईकोई होता है. किसी गिरे हुए को ठोकर तो सभी मार सकते हैं, पर उसे उठाने वाले दो हाथ किसीकिसी के होते हैं.’’

तभी सीमा एक ट्रे में चाय के कप व कुछ खाने का सामान ले कर आई और बोली, ‘‘चाय लीजिए.’’

विजय सकपका गया. वह सीमा से आंखें नहीं मिला पा रहा था. वह खुद को बहुत छोटा महसूस कर रहा था. उसे लग रहा था कि सचमुच उस ने सुरेखा को घर से निकाल कर बहुत बड़ी भूल की है. शक के जाल में वह बुरी तरह उलझ गया था. आज उस जाल से बाहर निकलने के लिए छटपटाहट होने लगी. उसे खुद से ही नफरत हो रही थी.

विजय चुपचाप चाय पी रहा था. अनिल ने कहा, ‘‘अब ज्यादा न सोचो. कल ही जा कर तुम भाभीजी को ले आओ. सब से पहले यह शराब उठा कर बाहर फेंक देना. भाभीजी के आने के बाद तुम्हें इस की जरूरत नहीं पड़ेगी.

‘‘शराब तुम्हें खोखला और बरबाद कर देगी. भाभीजी की याद में जलने से जिंदगी दूभर हो जाएगी. जिस का हाथ थामा है, उसे शक के अंधेरे में इस तरह भटकने के लिए न छोड़ो.

‘‘कुछ त्याग भी कर के देखो यार. वैसे भी इस में भाभीजी की जरा भी गलती नहीं है.’’

विजय को लग रहा था कि अनिल ठीक ही कह रहा है. वह एक भूल तो कर चुका है सुरेखा को घर से निकाल कर, अब तलाक लेने की दूसरी भूल नहीं करेगा. कुछ दिनों में ही उस की और घर की क्या हालत हो गई है. अभी तो जिंदगी का सफर बहुत लंबा है.

‘‘हम 4 दिन बाद लौटेंगे तो भाभीजी से मिल कर जाएंगे,’’ अनिल ने कहा.

विजय ने मोबाइल फोन का स्विच औन किया और दूसरे कमरे में जाता हुआ बोला, ‘‘मैं सुरेखा को फोन कर के आता हूं.’’

अनिल और सीमा ने मुसकुरा कर एकदूसरे की ओर देखा.

विजय ने सुरेखा को फोन मिलाया. उधर से सुरेखा बोली, ‘हैलो.’

‘‘कैसी हो सुरेखा?’’ विजय ने पूछा.

‘मैं ठीक हूं. कब भेज रहे हो तलाक के कागज?’

‘‘सुरेखा, तलाक की बात न करो. मुझे दुख है कि उस दिन मैं ने तुम्हें घर से निकाल दिया था. फिर फोन पर न जाने क्याक्या कहा था. मुझे उस भूल का बहुत पछतावा है.’’

‘पी कर नशे में बोल रहे हो क्या? मुझे पता है कि अब तुम रोज शराब पीने लगे हो.’

‘‘नहीं सुरेखा, अब मैं नशे में नहीं हूं. मैं ने आज नहीं पी है. तुम्हारे बिना यह घर अधूरा है. अब अपना घर संभाल लो. मैं तुम्हें लेने कल आ रहा हूं.’’

उधर से सुरेखा का कोई जवाब

नहीं मिला.

‘‘सुरेखा, तुम चुप क्यों हो?’’

सुरेखा के रोने की आवाज सुनाई दी.

‘‘नहीं, सुरेखा नहीं, अब मैं तुम्हें रोने नहीं दूंगा. मैं कल ही आ कर मम्मीपापा से भी माफी मांग लूंगा. बस, एक रात की बात है. मैं कल शाम तक तुम्हारे पास पहुंच जाऊंगा.’’

‘मैं इंतजार करूंगी,’ उधर से सुरेखा की आवाज सुनाई दी.

विजय ने फोन बंद किया और अनिल व सीमा को यह सूचना देने के लिए मुसकराता हुआ उन के पास आ गया.

ठूंठ से लिपटी बेल : रूपा को आखिर क्या मिला

रूपा के आफिस में पांव रखते ही सब की नजरें एक बारगी उस की ओर उठ गईं और तुरंत सब फिर अपनेअपने काम में व्यस्त हो गए. सब की नजरों में छिपा कौतूहल दूर अपनी मेज पर बैठे मैं ने देख लिया था. मेरे पास से निकल कर अपनी मेज तक जाते रूपा ने मेरे कंधे पर हलके हाथ से दबाव दे कर कहा, ‘हैलो, स्वीटी.’ उस की इस शरारत पर मैं भी मुसकरा दी.

रूपा में आया परिवर्तन मुझे भी दिखाई पड़ रहा था पर मैं चाहती थी वह खुद ही खुले. मैं जानती थी वह अधिक दिनों तक अपना कोई भी सुखदुख मुझ से छिपा नहीं सकती. हमेशा बुझीबुझी और उदास रहने वाली रूपा को मैं वर्षों से जानती थी. उसे किसी ने हंसतेचहकते शायद ही कभी देखा हो. हंसने, खुश रहने के लिए उस के पास था ही क्या? छोटी उम्र में मां का साया उठ गया था. मां के रहने का दुख शायद कभी भुलाया भी जा सकता था, पर जिस हालात में मां मरी थीं वह भुलाना बहुत ही मुश्किल था.

शराबी बाप के अत्याचारों से मांबेटी हमेशा पीडि़त रहती थीं. मां स्कूल में पढ़ाती थीं और जो तनख्वाह मिलती उस से तो पिताजी की पूरे महीने की शराब भी मुश्किल से चलती थी. पैसे न मिलने पर रूपा के पिता रतनलाल घर का कोई भी सामान उठा कर बेच आते थे. जरा सा भी विरोध उन्हें आक्रामक बना देता. मांबेटी को रुई की तरह धुन कर रख देते.

धीरेधीरे रूपा की मां भूख, तनाव और मारपीट सहतेसहते एक दिन चुपचाप बिना चीखेचिल्लाए चल बसीं. उस वक्त रूपा 9वीं कक्षा में पढ़ती थी. बिना मां की किशोर होती बेटी को एक दिन मौसी आ कर उस को अपने साथ ले गईं. मौसी तो अच्छी थीं, पर उन के बच्चों को रूपा फूटी आंखों न भाई.

मौसी के घर की पूरी जिम्मेदारी धीरेधीरे रूपा पर आ गई. किसी तरह वहीं रह कर रूपा ने ग्रेजुएशन किया. ग्रेजुएशन करते ही रतनलाल आ धमके और सब के विरोध के बावजूद रूपा को अपने साथ ले गए. इतने दिनों बाद उन की ममता उमड़ने का कारण जल्दी ही रूपा की समझ में आ गया. उन्होंने उस के लिए एक नौकरी का प्रबंध कर रखा था.

रूपा की नौकरी लगने के बाद कुछ दिनों तक तो रतनलाल थोड़ेथोड़े कर के शराब के लिए पैसे ऐंठते रहे फिर धीरेधीरे उन की मांग बढ़ती गई. पैसे न मिलने पर चीखतेचिल्लाते और गालियां बकते थे. रूपा 2-3 साडि़यों को साफसुथरा रख कर किसी तरह अपना काम चलाती. चेहरे पर मेघ छाए रहते. सारे सहयोगी उस की जिंदगी से परिचित थे. सभी का व्यवहार उस से बहुत अच्छा था. लंच में चाय तक के लिए उस के पास पैसे न रहते. मैं कभीकभार ही चायनाश्ते  के लिए उसे राजी कर पाती. पूछने पर वह अपनी परेशानियां मुझे बता भी देती थी.

इधर करीब महीने भर से रूपा में एक खास परिवर्तन आया था, जो तुरंत सब की नजरों ने पकड़ लिया. 33 साल की नीरस जिंदगी में शायद पहली बार उस ने ढंग से बाल संवारे थे. उदास होंठों पर एक मदहोश करने वाली मुसकराहट थी. आंखें भी जैसे छलकता जाम हों.

मैं ने सोचा शायद आजकल रूपा के पिता सुधर रहे हों…यह सब इसी कारण हो. करीब 1 माह पहले ही तो रूपा ने एक दिन बताया था कि कैसे चीखतेचिल्लाते और गालियां बकते पिता को रवि भाई समझाबुझा कर बाहर ले गए थे. करीब 1 घंटे बाद पिताजी नशे में धुत्त खुशीखुशी लौटे थे और बिना शोर किए चुपचाप सो गए थे. रवि भाई उस के मौसेरे भाई के दोस्त हैं. पहले 1-2 बार मौसी के घर पर ही मुलाकात हुई थी. अब इसी शहर में बिजनेस कर रहे हैं.

ऐसे ही रूपा ने बातचीत के दौरान बताया था कि अब पिताजी चीखते-चिल्लाते नहीं, क्योंकि रवि भाई की दुकान पर बैठे रहते हैं. काफी रात गए वहीं से पी कर आते हैं और चुपचाप सो जाते हैं.

2 महीने बाद अचानक एक दिन सुबहसुबह रूपा मेरे घर आ पहुंची. बहुत खुश नजर आ रही थी. जैसे जल्दीजल्दी बहुत कुछ बता देना चाहती हो पर मुझे व्यस्त देख उस ने जल्दीजल्दी मेरे काम में मेरा हाथ बंटाना शुरू कर दिया. नाश्ता मेज पर सजा दिया. मुन्ने को नहला कर स्कूल के लिए तैयार कर दिया. पति व बच्चों को भेज कर जब हम दोनों नाश्ता करने बैठीं तो आफिस जाने में अभी डेढ़ घंटा बचा था. रूपा ने ऐलान कर दिया कि आज आफिस से छुट्टी करेंगे. मैं ने आश्चर्य से कहा, ‘‘क्यों भई, छुट्टी किसलिए. डेढ़ घंटे में तो पूरा नावेल पढ़ा जा सकता है…सुना भी जा सकता है.’’

पर वह डेढ़ घंटे में सिर्फ एक लाइन ही बोल पाई, ‘‘मैं रवि से शादी कर लूं, रत्ना?’’ मैं जैसे आसमान से गिरी, ‘‘रवि से? पर वह तो…’’

‘‘शादीशुदा है, बच्चों वाला है, यही न?’’ मैं आगे सुनने के लिए चुप रही. रूपा ने अपनी छलकती आंखें उठाईं, ‘‘मेरी उम्र तो देख रत्ना, इस साल 34 की हो जाऊंगी. पिताजी मेरी शादी कभी नहीं करेंगे. उन्होंने तो आज तक एक बार भी नहीं कहा कि रूपा के हाथ पीले करने हैं. मुझे…एक घर…एक घर चाहिए, रत्ना. रवि मुझे बहुत चाहते हैं. मेरा बहुत खयाल रखते हैं. आजकल रवि के कारण पिताजी ऊधम भी नहीं करते. रवि के कारण ही मैं चैन की सांस ले पाई हूं. शादी के बाद मैं रवि के पास रहूंगी. पिताजी यहीं अकेले रहें और चीखेंचिल्लाएं.’’

मुझे उस की बुद्धि पर तरस आया. मैं ने कहा, ‘‘यहां तो अकेले पिताजी हैं, वहां सौत और उस के बच्चों के बीच रह कर किस सुख की कल्पना की है तू ने? जरा मैं भी तो सुनूं?’’

उस ने मेरे गले में बांहें डाल दीं, ‘‘ओह रत्ना, तुम समझती क्यों नहीं. वहां मेरे साथ रवि हैं फिर मुझे नौकरी करने की भी जरूरत नहीं. रवि की पत्नी बिलकुल बदसूरत और देहाती है. रवि मेरे बिना रह ही नहीं सकते.’’

इस के बाद की घटनाएं बड़ी तेजी से घटीं. रूपा से तो मुलाकात नहीं हुई, बस, उस की 1 महीने की छुट्टी की अर्जी आफिस में मैं ने देखी. एक दिन सुना दोनों ने कहीं दूसरी जगह जा कर कोर्ट मैरिज कर ली है. इस बीच मुझे दूसरी जगह अच्छी नौकरी मिल गई. जहां मेरा आफिस था वहां से बच्चों का स्कूल भी पास था. इसलिए मेरे पति ने भागदौड़ कर उसी इलाके में मकान का इंतजाम भी कर लिया. इस भागमभाग में मुझे रूपा के बारे में उठती छिटपुट खबरें ही मिलीं कि रूपा उसी आफिस में नौकरी कर रही है, फिर सुना रूपा 1 बेटी की मां बन गई है.

एक ही शहर में रहते हुए भी हमारी मुलाकात एक शादी में 10 साल बाद हुई. करीब 9 साल की बेटी भी उस के साथ थी. देखते ही आ कर लिपट गई. मैं ने पूछा, ‘‘रवि नहीं आए?’’

ठंडा सा जवाब था रूपा का, ‘‘उन्हें अपने काम से फुरसत ही कहां है.’’

रूपा का कुम्हलाया चेहरा यह कहते और बेजान हो गया. उस की बेटी का उदास चेहरा भी झुक गया. मैं ने पूछा, ‘‘रूपा, तुम्हारे पिताजी आजकल कैसे हैं?’’

‘‘वैसे ही जैसे थे,’’ वह बोली.

‘‘कहां रहते हैं?’’ मैं ने पूछा.

‘‘कभी मेरे पास, कभी गांव में जमीनजायदाद बेचते हैं. पीते रहते हैं, शहर आते हैं तो मैं हूं ही पैसे देने के लिए. महीने में 8-10 दिन यहीं मेरे पास रहते हैं. गांव में पिक्चर हाल जो नहीं है. वहां बोर हो जाते हैं.’’

‘‘पैसे देने से मना क्यों नहीं कर देतीं.’’

‘‘मना करती हूं तो ऐसी भद्दी और गंदी गालियां देते हैं कि सारा महल्ला सुनता है. मेरी बेटी डर कर रोती है. पढ़- लिख नहीं पाती.’’

‘‘घर के बाकी लोग कुछ नहीं कहते. रवि कुछ नहीं कहते?’’

‘‘बाकी कौन से लोग हैं? मैं तो अपने उसी घर में रहती हूं. रात को रवि 10 बजे आते हैं, 12-1 बजे चले जाते हैं. वह भी एक दिन छोड़ कर. बस, हमारा पतिपत्नी का नाता यही 2-3 घंटे का है. घर खर्च देना नहीं पड़ता, कारण, मैं कमाती हूं न.’’

‘‘भई, कुछ तो खर्चा देते ही होंगे. तुझे न सही अपनी बेटी को ही.’’

‘‘और क्या देंगे जब शाबाशी तक तो दे नहीं सकते. नीलूहर साल फर्स्ट आती है. कभी टौफी तक ला कर नहीं दी.’’

नीलू का चेहरा और बुझ गया था. उस का सिर झुक गया. मेरा मन भर आया. बोली, ‘‘पागल, मैं ने तो तुझे पहले ही समझाना चाहा था पर…’’

रूपा की आंखें छलक गईं, ‘‘क्या करती, रत्ना? मुझ जैसी बेसहारा बेल के लिए तो ठूंठ का सहारा भी बड़ी बात थी. फिर वह तो…’’

इतने में हमारे पास 2-3 महिलाएं और आ बैठीं. मैं ने बात बदल दी, ‘‘भई, तेरी बेटी 9 साल की हो गई, अब तो 1 बेटा हो जाना चाहिए था,’’ फिर धीरे से कहा, ‘‘1 बेटा हो जाए तो तुम दोनों का सहारा बने, और नीलू को भाई भी मिल जाए.’’

अचानक नीलू हिचकियां ले कर रोने लगी, ‘‘नहीं चाहिए मुझे भाई, नहीं चाहिए.’’

मैं सहम गई, ‘‘क्या हो गया नीलू बेटे…क्या बात है मुझे बताओ?’’ नीलू को मैं ने गोद में समेट लिया. उस ने हिचकियों के बीच जो कहा सुन कर मैं सन्न रह गई.

‘‘मौसी, वह भी नाना और पापा की तरह मां को तंग करेगा. वह भी लड़का है.’’

मैं हैरान सी उसे गोद में समेटे बैठी उस के भविष्य के बारे में सोचती रह गई. इस नन्ही सी उम्र में उस ने 2 ही पुरुष देखे, एक नाना और दूसरा पापा. दोनों ने उस के कोमल मन पर पुरुष मात्र के लिए एक खौफ और नफरत पैदा कर दी थी.

हम चलने लगे तो रूपा भी चल दी. गेट के बाहर निकले तो रवि को एक महिला के साथ अंदर जाते देखा. समझते देर नहीं लगी कि यह उस की पहली पत्नी है. सेठानियों जैसी गर्वीली चाल, कमर से लटकता चाबियों का गुच्छा और जेवरों से लदी उस अनपढ़ सांवली के चेहरे की चमक के सामने रूपा का गोरा रंग, सुंदर देह, खूबसूरत नाकनक्श, कुम्हलाया सा चेहरा फीका पड़ गया. एक के चेहरे पर पत्नी के अधिकारों की चमक थी तो दूसरी का चेहरा, अपमान और अवहेलना से बुझा हुआ. मैं नहीं चाहती थी कि रूपा और नीलू की नजर भी उन पर पड़े, इसलिए मैं ने जल्दी से कार का दरवाजा खोला और उन्हें पहले अंदर बैठा दिया.

कितनी रंजिश: मोनू को क्यों पाना चाहता था वह

मेरा एक मित्र था गजलों का बड़ा शौकीन. हर जुमले पर वह झट से कोई शेर पढ़ देता या मुहावरा सुनाने लगता. मुझे कई बार हैरानी भी होती थी उस की हाजिरजवाबी पर. इतना बड़ा खजाना कहां सहेज रखा है, सोच कर हैरत होती थी. कभी किसी चीज को लेने की चाह व्यक्त करता तो अकसर कहने लगता, ‘‘हजारों ख्वाहिशें ऐसी हर ख्वाहिश पे दम निकले…’’

‘‘ऐसी भी क्या ख्वाहिश पाल ली है यार, हर बात पर तुम्हारा प्रवचन मुझे पसंद नहीं,’’ मैं टोकता था.

‘‘चादर अनुसार पैर पसारो, बेटा.’’

‘‘कोई ताजमहल खरीदने की बात तो की नहीं मैं ने जो लगे हो भाषण देने. यही तो कह रहा हूं न, नया मोबाइल लेना है, मेरा मोबाइल पुराना हो गया है.’’

‘‘कहां तक दौड़ोगे इस दौड़ में. मोबाइल तो आजकल सुबह खरीदो, शाम तक पुराना हो जाता है. यह तो अंधीदौड़ है जो कभी खत्म नहीं हो सकती. पूर्णविराम या अर्धविराम तो हमें ही लगाना पड़ेगा न,’’ वह बोला.

उस की हाजिरजवाबी के आगे मेरे सार तर्क समाप्त हो जाते थे. बेहद संतोषी और ठंडी प्रकृति थी उस की. एक बार मेरी उस से कुछ अनबन सी हो गई. हमारे एक तीसरे मित्र की वजह से कोई गलतबयानी हुई जिस पर मुझे बुरा लगा. उस मामले में मैं ने कोई सफाई नहीं मांगी, न ही दी. बस, चुप रहा और उसी चुप्पी ने बात बिगाड़ दी.

आज बहुत अफसोस होता है अपनी इस आदत पर. कम से कम पूछता तो सही. उस ने कई बार कोशिश भी की थी मगर मेरा ही व्यवहार अडि़यल रहा जो उसे नकारता रहा. सहसा एक हादसे में वह संसार से ही विदा हो गया और मैं रह गया हक्काबक्का. यह क्या हो गया भला. ऐसा क्या हो गया जो वह चला ही गया. चला वह गया था और नाराज था मैं. रो नहीं पा रहा था. रोना आ ही नहीं रहा था. ऐसा बोध हो रहा था जैसे उसे नहीं मुझे जाना चाहिए था. आत्मग्लानि थी जिसे मैं समझ नहीं पा रहा था. जिंदा था वह और मैं नकारता रहा. और अब जब वह नहीं है तो कहां जाऊं मैं उसे मनाने. जिस रास्ते वह चला गया उस रास्ते का नामोनिशान है ही कहां जो पीछेपीछे जाऊं और उस की बात सुन, अपनी सुना पाऊं.

आज कल में बदल गया और जो कल चला गया वह कभी नहीं आता. गया वक्त बहुत कुछ सिखा गया मुझे. उन दिनों हम जवान थे, तब इतना तजरबा नहीं होता जो उम्र बीत जाने के बाद होता है. आज बालों में सफेदी छलकने लगी है और जिंदगी ने मुझे बहुतकुछ सिखा दिया है. सब से बड़ी बात यह है कि रंजिश हमारे जीवन से बड़ी कभी नहीं हो सकती. कोई नाराजगी, कोई रंजिश तब तक है जब तक हम हैं. हमारे बाद उस की क्या औकात. हमारी जिद क्या हमारी जिंदगी से भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण है कि उसे हम जिंदगी से ऊपर समझने लगें.

मन में आया मैल इतना बलवान कभी न हो कि रिश्ते और प्यारमुहब्बत ही उस के सामने गौण हो जाएं. प्रेम था मुझे अपने मित्र से, तभी तो उस का कहा मुझे बुरा लगा था न. किस संदर्भ में उस ने कहा था, जो भी कहा था, तीसरे इंसान ने उसे क्या समझा और मुझे क्या बना कर बताया होगा, कम से कम विषय की गहराई में तो मुझे ही जाना चाहिए था न. मेरा मित्र इतना भी बचकाना, इतना नादान तो नहीं था जो मेरे विषय में इतनी हलकी बात कर जाता जिस का मुझे बेहद अफसोस हुआ था. उसी अफसोस को मैं ने नाजायज नाराजगी का जामा पहना कर इतना खींचा कि मेरा प्रिय मित्र समय से भी आगे निकल गया और मेरे सफाई लेनेदेने का मौका हाथ से निकल गया.

हमारा जीवन इतना भी सस्ता नहीं है कि इसे बेकार, बचकानी बातों पर बरबादकर दिया जाए. रंजिश हो तो भी बात करने की गुंजाइश बंद कर देने की भला क्या जरूरत है. मिलो, कुछ कहो, कुछ सुनो, बात को समाप्त करो और आगे बढ़ो. गजल सम्राट मेहंदी हसन की गाई एक गजल मेरा मित्र बहुत गाया करता था-

‘‘रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ,

तू मुझ से खफा है तो जमाने के लिए आ,

आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ…’’

छोटेछोटे अहंकार, छोटेछोटे दंभ हमें कभीकभी उस रसातल पर ला कर पटक देते हैं जहां से ऊपर आने का कोई रास्ता ही नहीं होता. अगर हमें अपनी गलती का बोध हो जाए तो इतना अवश्य हो कि किसी और को समझा सकें. जिसे स्वयं भोग कर सीखा जाए उस से अच्छा तजरबा और क्या होगा. समझदार लोग अकसर समझाते हैं, या जान कर चलो या मान कर चलो.

जीवन पहले से ही फूलों की सेज नहीं है. हर किसी के मन पर कहीं न कहीं, कोई न कोई बोझ रहता है. जरा से बच्चे की भी कोई न कोई प्यारी सी, सलोनी सी समस्या होती है जिस से वह जूझता है. नन्हे, मेरा प्यारा पोता है. बड़ा उदास सा मेरे पास आया.

‘‘आज मोनू मेरे से बोला ही नहीं,’’ रोंआसा सा हो गया नन्हे.

‘‘तो आप बुला लेते बेटा. वैसे, बात क्या हुई थी? कोई झगड़ा हो गया था क्या?’’

‘‘उस ने मेरी कौपी पर लकीरें डाल दी थीं. मेरा इरेजर भी नीचे फेंक दिया. मेरी ड्राइंगशीट भी फाड़ दी.’’

‘‘वह तुम्हारा दोस्त है न. बैस्ट फ्रैंड है तो उस ने ऐसा क्यों किया. आप ने पूछा नहीं?’’

‘‘वह कहता है उस ने नहीं किया. वह तो लंचब्रैक में क्लास में आया ही नहीं था. झूले पर था.’’

‘‘और तुम कहां थे? तब तुम उस के साथ थे न?’’

‘‘हां, मैं उस के साथ था.’’

‘‘फिर तुम क्यों कहते हो? उसी ने सब किया है. तुम्हें किस ने बताया?’’

‘‘मुझे राशि ने बताया कि उस ने देखा था मोनू को मेरा बैग खोलते हुए.’’

‘‘राशि भी तुम्हारी फ्रैंड है, तुम्हारे साथ ही बैठती है.’’

‘‘नहीं, वह पीछे बैठती है. मोनू की उस से कट्टी है न, इसलिए मोनू उस से बोलता नहीं है,’’ नन्हे ने झट जवाब दिया.

सारा माजरा समझ गया था मैं. छोटेछोटे बच्चे भी कैसीकैसी चालें चल जाते हैं.

‘‘कल सुबह जब जाओगे न, मोनू को गले से लगा लेना, सौरी कह देना. झगड़ा खत्म हो जाएगा.’’

मेरे पोते नन्हे के चेहरे पर ऐसी मुसकान चली आई जिस में एक विश्वास था, एक प्यारा सा, मीठा सा भाव.

दूसरी दोपहर स्कूल से आते ही नन्हे झट से मेरे पास चला आया. ‘‘दादू, आज मोनू मेरे साथ बोला, हम ने खाना भी साथ खाया, झूला भी झूला. थैंक्यू दादू, आप ने मेरी समस्या हल कर दी. मैं ने मोनू को गले से भी लगाया, किस भी किया,’’ नन्हे ने खुश होते हुए बताया.

सारे संसार का सुख नन्हें की आंखों में था जिन में कल उदासी छाई थी. बच्चे का छोटा सा संसार उस का स्कूल, उस का मित्र और उस की मासूम सी चाह थी कि मोनू उस से बात करे. मोनू को नन्हे खोना नहीं चाहता था, वह उदास था. आज मोनू मिल गया तो उसे लग रहा है सारी कायनात की खुशी मोनू के मिलने से उसे मिल गई. मेरे चाचा मेरे अच्छे मित्र भी थे. उन्होंने समझाया था मुझे, कभी जीवन में एकतरफा फैसला न करो. फांसी पर चढ़ने वाले को भी कानून एक बार तो बोलने का अवसर देता है न. मैं अपने पोते नन्हे जैसा मासूम होता तो शायद चाचा का कहना मान लेता. बढ़ती उम्र शीशे से मन पर मैल के साथसाथ जिद भी ले आती है. धुंधले शीशे में कुछ भी साफ नहीं दिखता. क्यों जिद पर अड़ा रहा मैं और झूठा दंभ पालता रहा. आज सोचता हूं कि क्या मिला मुझे. हर पल कलेजे में एक फांस सी धंसी रहती है, बस.

प्रैगनैंसी: भाग 2- अरुण को बड़ा सबक कब मिला

4-5 दिन बाद शिखा अपने पति अरुण को फिर हवाईअड्डे पर छोड़ने गई. इस बार वह कंपनी के कुछ अधिकारियों के साथ अकेली थी. रूपा को उस ने कालेज जाने से रोका था और कहा था कि उस के पिताजी अब की बार लंबे दौरे पर जा रहे हैं, उन को विदा करने के लिए चलना है.

पर रूपा ने स्वयं पिता से जा कर कह दिया, ‘‘पिताजी, आप तो जानते ही हैं, कालेज कितना जरूरी होता है. एक छुट्टी का मतलब है 2 दिन तक लड़कियों से नोट्स मांगते फिरो. फिर आप तो कार से उतरते ही हवाईअड्डे के सुरक्षित भाग में चले जाएंगे. इस से अच्छा है आप हमें यहीं मोटी सी पप्पी दे दो.’’

अरुणा रूपा के सामने कुछ नहीं बोल पाया. रूपा के गाल पर प्यार किया और कंधा थपथपाते हुए बस इतना ही कहा, ‘‘तुम्हारी मां अकेले थोड़ा परेशान हो जाती है, उन का खयाल. रखना मैं अब की बार डेढ़ महीने बाद आऊंगा.’’

रूपा के इस तरह के व्यवहार से अरुण भी थोड़ा हिल गया था. एक क्षण को सोचा भी कि आजकल के बच्चे कितने हृदनहीन होते जा रहे हैं. फिर पुरुष होने के नाते दृढ़ता आ गई और फिर कंपनी के अधिकारियों से बात करने लगा.

इस बार अरुण को भी दुख हो रहा था कि वह शिखा को डेढ़ महीने के लिए अकेली छोड़े जा रहा है पर कर भी क्या सकता था. काम की जिम्मेदारियों का भी जीवन में अलग हिस्सा होता है. आदमी उन में उलझता है तो घर की जिम्मेदारी छोटी लगने लगती है.

अरुण के जाने के बाद शिखा अकेली ही गाड़ी में बैठ कर घर लौट आई. ड्राइंगरूम के सोफे पर वह निढाल सी बैठ गई. उसे को लगा समय जैसे एक क्षण को ठहर गया हो. करने को कुछ काम ही नहीं है. रूपा कालेज चली गई थी.

अरुण के उन शब्दों को याद कर के कि तुम खुश रहोगी तो मुझे भी ताकत मिलेगी, वह थोड़ा संभली. बाहर छज्जे पर जा कर गहरे नीले समुद्र की तरफ देखती रही और सोचती रही कि उसे भी समुद्र की तरह सबकुछ बरदाश्त कर लेना चाहिए. एकाएक उसे समुद्र की लहरों में संगीत की ध्वनि सुनाई देने लगी. वह अरु ण की याद के सुख में खो गई…

एक दिन शिखा अपने पलंग पर लेटी हुई रूपा का इंतजार कर रही थी, 4 बज चुके थे, अकसर रूपा 4 बजे तक कालेज से वापस आ जाती थी. वैसे उस की छुट्टी तो डेढ़ बजे ही हो जाती थी, पर घर पर आतेआते 4 बज जाते थे. शिखा शाम की चाय के लिए बराबर उस का इंतजार करती थी पर उस दिन 4 कभी के बज चुके थे.

वैसे रूपा को लेने के लिए वह गाड़ी भी भेज सकती थी, पर यह रूपा को पसंद नहीं था. उस का कहना था, ‘‘हर समय मेरे पीछे ड्राइवर भागता रहे, यह मुझे पसंद नहीं.’’

शिखा हर तरफ से जैसे मजबूर हो गई थी. दरवाजे की घंटी जैसे उस के कानों में आ कर फिट हो गई थी. हर आवाज उसे दरवाजे की घंटी जैसी लगती. पर फिर वह उदास हो जाती और सोचने लगती कि पति के बिना भी औरत कितनी मजबूर हो जाती है. इस समय कुछ हो जाए तो वह क्या कर सकती है. उस का मन किसी काम में नहीं लग रहा था. छज्जे पर जा

कर वह घूमने लगी. पता नहीं क्यों समुद्र को देख कर  उस के मन में एक अजीब सा साहस आ जाता था.ऐसे घूमतेघूमते 7 बज गए. अंधेरा छाने लगा था, पर रूपा का कहीं पता नहीं था. उस का मोबाइल लगातार बिजी जा रहा था. एक बार मैसेज आया, ‘‘आई बिल वी लेट डौंट वरी लव यू.’’

शिखा नहीं चाहती थी कि नौकरों व ड्राइवर से रूपा को ढूंढ़ने के लिए कहे. उस के मन में घर की इज्जत का पूरा खयाल था. पूरे 8 बजे दरवाजे की घंटी बजीं तो शिखा भाग कर दरवाजे पर पहुंची. वैसे दरवाजा नौकर ही खोलता था, पर आज जैसे उस से रहा नहीं गया.

दरवाजा खोलते ही शिखा ने देखा कि रूपा बहुत उदास है. बिना उस से कुछ बोलेचाले अपने कमरे में चली गई. शिखा को जैसे भय ने डस लिया. किसी तरह अपने को संभाल कर वह चुपचाप रूपा के पीछेपीछे उस के कमरे में आ गई. अंदर आ कर उस ने दरवाजा बंद कर दिया. रूपा किताबें रख कर पलंग पर जा लेटी.

शिखा से नहीं रहा गया. वह उसी के पास पलंग पर बैठ गई. रूपा का उदासी भरा चेहरा देख कर उस का गुस्सा समाप्त हो गया. वह उस की पीठ पर हाथ फेरते हुए बहुत ही प्यार से बोली, ‘‘रूपा बेटी, क्या तुम्हारी तबीयत ठीक

नहीं है? मैं तो कितनी देर से तुम्हारी राह देख रही थी?’’

उत्तर में रूपा ने ठंडी और लंबी सांस ले कर कहा, ‘‘मैं बिलकुल ठीक हूं मां,’’ कह कर उस ने  अपना सिर शिखा की गोदी में रख दिया.

शिखा को एहसास हुआ कि वह रो रही है. शिखा ने उस का चेहरा अपनी तरफ करते हुए पूछा, ‘‘कुछ तो जरूर है. सचसच बताओ?’’

रूपा रोते हुए बोली, ‘‘मां, मैं तुम्हें कैसे बताऊ,’’ कह कर वह फिर रोने लगी.

शिखा के मन में शंका सी उभर आई. वह थोड़ा गुस्से से बोली, ‘‘रूपा, मैं तो पहले ही डरती थी. तू मेरा कहना मानती तो आज ऐसा नहीं होता.’’

‘‘मां, मेरे साथ क्या हुआ, यह आप कैसे जान गईं.’’

‘‘तुम्हारी शक्ल बता रही है कि तुम्हें किसी लड़के ने धोखा दिया है. है न?’’

रूपा कुछ न बोली.

शिखा को भीतर ही भीतर गुस्सा आ रहा था. वह समझ गई थी कि जरूर किसी लड़के ने पहले तो इसे खूब सब्जबाग दिखाए होंगे, विश्वास दिलाया होगा कि जीवनभर प्यार करता रहूंगा. यह भोली लड़की उस पर सबकुछ लुटा बैठी होगी. लड़का जब मन भर गया होगा तो किसी और लड़की के साथ घूमने लगा होगा. पर वह रूपा के ऊपर गुस्सा दिखा भी तो नहीं सकती थी. वह इस समय एक ऐसे मोड़ पर खड़ी है, जहां एक जरा सी गलती उस का सारा जीवन बरबाद कर सकती है.

आखिर शिखा ने झंझलाते हुए कहा, ‘‘मैं तुम्हारे पिताजी को फोन करती हूं, वही आ कर संभालेंगे.’’

रूपा ने रोते हुए कहा, ‘‘मां, मैं क्या करूं. मुझे नहीं मालूम था कि संजय मुझे इस तरह धोखा दे जाएगा.’’

संजय का नाम सुन कर शिखा बोली, ‘‘क्या यह संजय तेरे साथ पढ़ता था? तुम ने मुझे पहले तो कभी नहीं बताया?’’

‘‘मां, मैं क्या बताती. मुझे तुम से बड़ा डर लगता था,’’ रूपा की आवाज में बहुत नर्मी थी.

‘‘फिर उस ने तुम्हारे साथ क्या किया?’’

‘‘मां, मैं उसे बिलकुल अपना समझती थी. पर आज उस ने मुझ से मिलने से इनकार कर दिया. वह 2-3 दिन से ऐनी के साथ घूमने लगा है. अब मुझ से बात भी नहीं करता. तुम नहीं जानती मां, वह ऐनी को भी मेरी तरह बरबाद कर देगा. आज ऐनी ने भी मुझ से बात नहीं की.’’

‘बरबाद’ शब्द सुनते ही शिखा के शरीर में जैसे कांटे चुभने लगे. उस का मन किया कि रूपा को जोर से तमाचा मारे और कहे कि जब तुम्हें यह सब मालूम था, फिर उस के साथ तुम इतनी बढ़ी ही क्यों? पर उस के सामने घर की इज्जत का सवाल आ गया.

शिखा सोचने लगी, यदि वह चीखीचिल्लाई तो घर के सभी नौकर उस के कमरे के बाहर जमा हो जाएंगे और घर की बदनामी बाहर तक फैल जाएगी. थोड़ी देर के लिए उस ने अपनी आंखें बंद कर लीं जैसे जहर का घूंट अंदर ही अंदर पी रही हो.

शिखा ने रूपा के पिता को फोन कर के लौटने के लिए कहने का फैसला किया. जब उस ने रूपा को यह बताया तो रूपा फिर रोने लगी. कालेज में जाने के बाद वह पहली बार अपनी मां से कुछ कह नहीं पा रही थी. वह कांटे में फंसी मछली की तरह तड़प रही थी. उस ने कहा, ‘‘मां, मैं तब तक कालेज नहीं जाऊंगी… तुम पिताजी को बुला लो.’’

शिखा को थोड़ा साहस मिला. वह धीरे से उठी और बड़ी मेज पर रखे फोन को उठा लाई. अरुण को फोन किया जो दार्जिलिंग में ही गार्डन सैट करने में लगा था.

अरुण ने फोन तुरंत काट दिया. 12 बजे अरुण का फोन आया.

शिखा ने घबराते हुए कहा, ‘‘सुनो, रूपा के साथ कोई दुर्घटना हो गई है. मैं बहुत घबरा गई हूं, जल्दी चले आओ.’’

दुर्घटना का नाम सुनते ही उस का पति बोला, ‘‘शिखा, घबराना नहीं, मैं आ रहा हूं. कल सुबह बाग डीगरा से जाऊंगा. तुम उस की पूरी तरह देखभाल करना.’’

कौल करने के बाद शिखा को जैसे राहत मिल गई. वह रूपा से बोली, ‘‘अब तुम कुछ खा लो.’’

शिखा ने रूपा का खाना अपने कमरे में ही मंगा लिया था. वह नहीं चाहती थी कि कोई बात उस के नौकरों तक पहुंचे. वैसे नौकरों से उस ने कह दिया कि रूपा का साथ कार ऐक्सीडैंट हो गया है.

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