प्यार की चाह: क्या रोहन को मिला मां का प्यार

लेखिका- वीना टहिल्यानी

झल्लाई हुई निशा ने जब गाड़ी गैरेज में खड़ी की तो रात आधी से ज्यादा बीत चुकी थी. ‘रवि का यह खेल पुराना है,’ वह काफी देर तक बड़बड़ाती रही, ‘जब भी घर में किसी सोशल गैदरिंग की बात होगी, वह बिजनैस ट्रिप पर भाग खड़ा होगा, अब भुगतो अकेले.’

‘तुम चिंता न करना, मेरा सैक्रेटरी सबकुछ देख लेगा.’

‘हूं,’ सैक्रेटरी सबकुछ देख लेगा. कार्ड बांटने और इनवाइट करने तो पर्सनली ही जाना पड़ता है न.’

‘न जाने पार्टी के नाम से उसे इतनी चिढ़ क्यों है? महेश ने विदेश जाने पर पार्टी दी थी तो अरविंद ने विदेश से लौटने की. राघव की बेटी रिंकी को फिल्मों में हीरोइन का चांस मिला तो पार्टी, भाटिया ने फिल्म का मुहूर्त किया तो पार्टी. अपनी सुधा तो कुत्तेबिल्लियों के जन्मदिन पर भी पार्टी देती है. इधर एकलौते बेटे का जन्मदिन मनाना भी खलता है. फिर इन्हीं पार्टियों की बदौलत सोशल स्टेटस बनता है. सोशल कौंटैक्ट्स बनते है,’ पर रवि के असहयोग से अपने किटी सर्किल में निशा पार्टीचोर के नाम से ही जानी जाती थी. इसी कारण वह तमतमा उठी.

‘‘मेमसाब, खाना गरम करूं?’’  मरिअम्मा ने पूछा.

‘‘नहीं, मैं खा कर आई हूं,’’ पर्स पलंग पर फेंक कर निशा बाथरूम में घुस गई.

‘इतना भी नहीं कि एक फोन ही कर दे. 1-1 बजे तक बैठे रहो इंतजार में,’ मन ही मन भुनभुनाते हुए रामआसरे ने टेबल पर रखा सामान हटाया, किचन साफ किया और पिछवाड़े अपने क्वार्टर में चला गया.

मरिअम्मा अपने कमरे में ऊंघ रही थी. रोहन का कमरा नाइटलैंप के नीले प्रकाश में नहाया था. दबेपांव जा कर निशा ने बड़ा सा चमकीला गुलाबी गिफ्टपैक रोहन की स्टडी टेबल पर रख दिया, फिर उस के ऊपर जन्मदिन का कार्ड भी लगा दिया, रोहन के बिस्तर के ठीक सामने.

‘उठते ही सामने उपहार देख कर वह कितना खुश होगा,’ उस ने सोचा.

एक बार तो निशा के दिल में आया कि सोते बेटे को सहलाए, पुचकारे, पर फिर कुछ सोच कर वह ठिठक गई. जाग गया, तो साथ सुलाने की जिद करेगा. साथ सोया तो सुबह मुझे भी उस के साथ जल्दी उठना पड़ेगा. नहीं, नहीं, कल रात तो पार्टी है. अभी नींद पूरी न की तो सिर भारी और चेहरा रूखारूखा सा लगेगा. देररात गए से ले कर सुबह सूरज उगने तक चलने वाली ये हाईफाई पार्टियां तो वैसे भी अघोषित सौंदर्र्य प्रतियोगिताओं सी होती हैं. निशा भला अकारण ही किसी से उन्नीस लगने का जोखिम क्यों उठाती. धीरे से बेटे के कमरे का दरवाजा बंद करती वह अपने कमरे में चली गई.

निशा थकान से चूर थी. पहले जागरूक महिला मंडल की मीटिंग, फिर क्लब में किटी, ऊपर से घरघर जा कर कार्ड बांटने का झमेला, सुबह से मुसकरातेमुसकराते उस के जबड़े दर्द करने लगे थे.

‘दरजी ने ब्लाउज आज भी नहीं दिया. कल बैंक से जड़ाऊ सैट भी निकालना था, ओह,’ तनाव से उस का सिर फटा जा रहा था. करवटें बदलतेबदलते वह उठ बैठी और एक सिगरेट सुलगा ली. फिर सोचने लगी.

‘यह रोहन भी दिनोंदिन कैसा घुन्ना होता जा रहा है. बिलकुल अपने बाप पर गया है, कार में स्कूल नहीं जाना, जिद कर के स्कूलबस लगवा ली है. खेलेगा तो कालोनी के बच्चों के साथ, साथ में मरिअम्मा को भी नहीं ले जाना. अब जन्मदिन पर भी न दोस्तों को बुलाना है न टीचरों को. कितना कहा, सब को एकएक कार्ड पकड़ा दो. अच्छीभली दावत, साथ में रिटर्न गिफ्ट्स भी. आने वाले तो उपकृत हो कर ही जाते. पर कहां, नहीं बुलाना तो नहीं बुलाया. किसी बात की ज्यादा जिद करो, तो बस, रोना शुरू.’

निशा ने सिगरेट का गहरा कश ले कर ढेर सारा धुआं उगला.

‘इस बार रवि पर भी नजर रखनी होगी. पीने की आदत नहीं, तो 2 पैग पी कर ही बहकने लगते हैं महाशय. पिछली बार कैसा तमाशा खड़ा किया था, उस के हाथ की सुलगी सिगरेट खींच कर बोला कि डार्लिंग, तुम्हारी गोलगोल बिंदी और लाल गुलाब जैसी साड़ी के साथ यह सिगरेट तो जरा भी मैच नहीं करती. हूं, मैच नहीं करती… मेहमानों के जाते ही मैं ने भी उस की वह खबर ली कि सारा नशा काफूर कर दिया. पर भरी सभा में उस की बेइज्जती को याद कर निशा आज भी तिलमिला जाती है. अंतिम लंबे कश के साथ उस ने अप्रिय यादों और तनावों को झटकने का प्रयास किया. सिगरेट को जोर से दबा कर बुझाया. नींद की गोली ली और चली सोने.

‘‘हैप्पी बर्थडे, सनी,’’ मरिअम्मा का स्वर सुनाई पड़ा. साथ ही ‘कुक्कू’ क्लाक के मधुर अलार्म का स्वर भी.

आंखें खुलते ही रोहन की नजर गिफ्टपैक पर रखे कार्ड पर पड़ी. नजरभर देखे बिना ही वह अलसा कर फिर से ऊंघने लगा.

‘‘उठो बाबा, उठो, स्कूल को देरी होगा,’’ आवाजें लगाती मरिअम्मा उस के कपड़े निकाल रही थी.

बाथरूम से निकल कर रोहन ने मां के कमरे में झांका ही था कि मरिअम्मा ने घेर लिया. दबी आवाज में समझाती बोली, ‘‘शशश, चलो बाबा, चलो, मम्मी जाग गया तो बहुत गुस्सा होगा. रात कितनी देर से सोया है. चलोचलो, तैयार हो, बस निकल जाएगा,’’ वह उस का हाथ पकड़ वापस अपने कमरे में ले आई.

कपड़े देख कर रोहन अड़ गया, ‘‘मैं ये नए कपड़े नहीं, स्कूल की यूनिफौर्म ही पहनूंगा.’’

‘‘क्यों बाबा, आज तो तुम्हारा हैप्पी बर्थडे है. स्कूल में भी नया कपड़ा पहन सकता है. मेमसाब बोला है. हम को भी 2 जोड़ा नया कपड़ा लाया है. एक, स्कूल में पहनने के वास्ते और दूसरा, रात की पार्टी के वास्ते,’’ प्यार से पुचकारती मरिअम्मा उसे मनाने लगी.

‘‘नहीं, नहीं, नहीं. बोला नहीं पहनूंगा. तो नहीं पहनूंगा,’’ नए कपड़ों को एक ओर पटक कर अलमारी से स्कूल की ड्रैस निकाल रोहन बाथरूम में घुस गया.

अब वह मरिअम्मा को कैसे समझाए कि नए कपड़े पहन कर स्कूल जाने से उस के सारे दोस्त समझ जाएंगे कि आज उस का बर्थडे है.

‘मैं ने तो उन्हें इनवाइट भी नहीं किया,’ रोहन ने सोचा.

पिछले साल की पार्टी की गड़बड़ रोहन को आज भी याद थी. पापा को नशा कुछ ज्यादा हो गया था. उन्होंने मम्मी के हाथ की सिगरेट छीनी तो रोहन का दिल धक से रह गया. ‘अब होगा झगड़ा,’ उस ने सोचा. लेकिन मम्मी मधु आंटी से बातें करती रही थीं. पर, पार्टी के बाद की वह जोरदार लड़ाई उफ…’

मां का सिगरेट पीना रोहन को भी असमंजस में डाल देता है.

वह सोचने लगता है, ‘विक्की की मम्मी तो सिगरेट नहीं पीतीं, रेनू की मां भी नहीं, शाहिद की अम्मी भी नहीं, फिर मम्मी ही क्यों. पापा मना करें तो लो, हो गया झगड़ा.’

‘आज तो मेरी बस निकल ही जाती, यह तो रेनू की मम्मी ने दूर से ही मुझे देख लिया और ड्राइवर को रोके रखा. आंटी कितनी अच्छी हैं, रोज रेनू का बैग उठा कर उसे बसस्टौप पर छोड़ने, फिर लेने भी आती हैं. कीर्ति के साथ उस के दादा आते हैं और निधि के साथ उस के पापा. लेकिन ये सब तो छोटे हैं. मैं, मैं तो कितना बड़ा हो गया हूं, फिर भी मम्मी मरिअम्मा को साथ भेज देती हैं.’

पहले तो रोहन का भी मन करता था कि मम्मी उस के साथ आएं बसस्टौप तक. बस, एक दिन के लिए ही सही. पर कहां? मम्मी को तो कितने काम होते हैं, कितनी सोशल सर्विस करनी पड़ती है. रेनू, छवि, पवन उन सब की मम्मियां तो सिर्फ हाउसवाइफ हैं, बस, घर का काम करो और आराम से रहो. सोशल क्लब जौइन करना पड़े तो पता चले. मम्मी ने ही सब समझाया था.

फिर भी रोहन सोचता, ‘काश, उस की मम्मी भी केवल हाउसवाइफ ही होतीं. या फिर उस के दादादादी ही उस के साथ रहते, जैसे कीर्ति और विक्की के रहते हैं. फिर तो मजा ही मजा होता. वे उस के साथ बाग में खेलते, बातें करते, बसस्टौप तक छोड़ने आते. पर दादादादी का आना मम्मी को जरा भी नहीं भाता. फिर वे हर समय गुस्से में रहती हैं. पापा से भी झगड़ती हैं, मुझे भी डांटती हैं.’

दादी तो उसे अपने साथ ही सुलाती थीं. सितारों और परियों की कहानियां भी सुनाती थीं, पर मम्मी कहती हैं, ‘बच्चों को अलग कमरे में सोना चाहिए. हर समय मां का आंचल पकड़े रहने वाले बच्चे कमजोर और दब्बू बन जाते हैं, जैसे तुम्हारे पापा हैं.’

रोहन को पापा का उदाहरण अखरता है, ‘पापा तो कितने स्मार्ट, कितने हैंडसम हैं, पर क्या वे सचमुच मम्मी से डरते हैं? क्या वे सच में दब्बू हैं?’

हर तरह की सोच से परे उस का मन फिर भी मचलता ही रहता है, मम्मीपापा के साथ उन के बीच सोने को. तकिया फेंकफेंक कर उन के साथ खेलने को, पर नहीं, अब तो वह कितना बड़ा हो गया है, पूरे 11 साल का. अब तो वह मम्मीपापा के साथ सोने की जिद भी नहीं करेगा, कभी नहीं.

रोहन स्कूल से लौटा तो लौन में शामियाना लग चुका था. पेड़पौधों पर बिजली के रंगबिरंगे छोटेछोटे बल्बों की कतारें झूल रही थीं. बरामदा और हौल रंगबिंरगे गुब्बारों व चमकतीदमकती झालरों से सजेधजे थे. रोहन ने दौड़ कर मम्मीपापा के कमरे में झांक कर कहा, ‘‘मरिअम्मा, पापा कहां हैं?’’

‘‘उन का फ्लाइट लेट है बाबा, अब वह तुम को सीधा पार्टी में ही मिलेगा,’’ मरिअम्मा ने कहा.

‘‘और मम्मी?’’ कहता हुआ रोहन रोने को हो उठा.

‘‘वह तो टेलर के पास गया है. वहां से फिर ब्यूटीपार्लर जाने का, देर से लौटेगा. अब तुम हाथमुंह धो कर खाना खाने का, फिर आराम कर के जल्दीजल्दी होमवर्क फिनिश करने का. फिर तुम्हारा हैप्पी बर्थडे होगा. बड़ाबड़ा केक कटेगा.’’

‘‘नहीं खाना मुझे खाना, नहीं करना होमवर्क,’’ मरिअम्मा को धकेलता रोहन धड़ाम से पलंग पर जा पड़ा. यह देख मरिअम्मा हैरान रह गई.

‘‘गुस्साता काहे रे. अरे, तू ने तो अपना गिफ्ट भी खोल कर नहीं देखा, खोलोखोलो. देखोदेखो, मम्मी रात तुम्हारे वास्ते क्या ले कर आया. अभी पापा भी अच्छाअच्छा खिलौना लाएगा,’’ मरिअम्मा ने राहुल को समझाया.

‘‘नहीं चाहिए मुझे खिलौने. मैं अब बड़ा हो गया हूं,’’ मरिअम्मा के हाथ से गिफ्टपैक छीन कर रोहन ने बाथरूम के दरवाजे पर दे मारा और सुबकने लगा.

डरी हुई मरिअम्मा पलभर तो शांत रही, फिर धीरेधीरे उस का सिर सहलाती उसे पुचकारनेमनाने लगी, ‘‘मेरा अच्छा बाबा. मेरा राजा बेटा. अब तो तू बड़ा हो गया रे, रोते नहीं. रोते नहीं बाबा. अपने जन्मदिन पर कोई रोता है क्या?’’ उसे समझातेमनाते मरिअम्मा की आवाज भी भर्रा गई, ‘‘उठ, उठ जा मुन्ना. मेरा अच्छा बच्चा, चल, खाना खाएं होमवर्क करें. देरी हुआ तो मेमसाब मेरे को गुस्सा करेगा कि हम तेरा ध्यान नहीं रखता.’’

रोहन का सुबकना थम गया. आंखें चुराता, मुंह छिपाता वह बाथरूम में चला गया.

एक मरिअम्मा ही है जो उसे प्यार करती है, उस का इतना ध्यान रखती है. फिर भी मम्मी उसे डांटती ही रहती हैं. पहले वाली वह रोजी, उफ, कितनी गंदी थी, चुपकेचुपके उसे चिकोटी काटती, उस का चौकलेट खा जाती. उस का दूध पी जाती और बसस्टौप पर रोज उस का बौयफ्रैंड भी उस से मिलने आता. मम्मी से शिकायत की, पापा को पता चला तो घर में कितना हंगामा हुआ था. पापा ने तो यहां तक कह दिया था, ‘तुम से एक बच्चा तो संभलता नहीं, करती हो समाजसेवा. रोहन को आज से तुम ही देखोगी, रोजी की छुट्टी है.’

मम्मी का क्लब, किटी आदि सब बंद हो गया. वे हर समय गुस्सातीझल्लाती रहतीं. घर में रोज लड़ाई होती. फिर एक दिन मरिअम्मा आ गईं.

मरिअम्मा सच में अच्छी हैं. उसे कहानियां सुनाती हैं, उस के साथ खेलती हैं, उसे प्यार भी करती हैं.

खाना खा कर रोहन लेटा तो जरूर, पर उस की सभी इंद्रियां मम्मीपापा के इंतजार में सचेत थीं.

‘पापा अभी तक नहीं आए. मम्मी अभी और कितनी देर लगाएंगी? मम्मीपापा हमेशा इतने बिजी क्यों रहते हैं?’

अचानक ही रोहन को बैग में रखी ‘जादू की पुडि़या’ की याद आई. उस दिन बस में 12वीं कक्षा के किशोर के दोस्तों की सभा जमी थी. झुरमुट में फुसफुसाते वे जोरजोर से ठहाके लगा रहे थे, ‘अरे, जादू है जादू, जबान पर रख लो तो मन की सभी मुरादें पूरी.’

‘एक पुडि़या मुझे भी दो न,’ बस में चढ़ते रोहन ने फुसफुसाते हुए फरमाइश की.

‘तू क्या करेगा रे, अभी तू मुन्ना है, मुन्ना, थोड़ा बड़ा हो ले, फिर मौज मारना,’ कह कर किशोर के दोस्तों ने ठहाका लगाया था.

‘अरे, दे दे न मुन्ना को, अपना क्या जाता है,’ राकेश ने आंख दबा कर रोहन की सिफारिश करते हुए कहा था.

‘चल, निकाल 25 रुपए, औरों के लिए 50-100 से कम नहीं, पर तू

तो अभी बच्चा है न, बिलकुल नयानवेला, नन्हामुन्ना. बच्चू, मजा न आए तो कहना.’

लेकिन रोहन न ही इतना नन्हामुन्ना था और न ही पूरा बेवकूफ.

किशोर उस के स्कूल का दादा था. उस ने किशोर और उस के साथियों को दरवाजे के पास खड़े आइसक्रीम वाले से बहुत सारी पुडि़याएं खरीदते देखा था. सफेद पाउडरभरी उन पुडि़याओं में कैसा जादू था, वह खूब जानता था. फिर भी उस ने वह पुडि़या खरीद ली. खरीदने के बाद लगा, वह उसे फेंक दे, पर नहीं फेंकी. संभाल कर बैग के अंदर वाली जिप में रख ली.

रोहन मम्मीपापा के बारे में सोच ही रहा था पर तभी उसे उस पुडि़या का ध्यान आया. उस ने उठ कर बैग खोल कर देखा. पुडि़या ज्यों की त्यों रखी थी. पुडि़या निकाल कर रोहन कुछ पल

उसे घूरता रहा, फिर उसे बैग में रख कर लेट गया.

‘‘बाबा, ओ बाबा, उठो. देखो शाम हो रही है,’’ मरिअम्मा ने रोहन को पुकारा.

रोहन ने आलस में आंखें खोलीं तो मरिअम्मा प्यार से मुसकरा उठी.

‘‘उठो बाबा, होमवर्क करना है. तैयार होना है. फिर मेहमान आना शुरू हो जाएगा.’’

रोहन तुरंत एक झटके में ही उठ बैठा और पूछा, ‘‘मम्मी आ गईं, मरिअम्मा?’’

‘‘आ गया, बाबा. वह तो सब से पहले तुम्हारे पास ही आया, पर तुम सोता था,’’ मरिअम्मा ने जवाब दिया.

रोहन ने दौड़ कर मां के कमरे में झांक कर कहा, ‘‘मम्मी तो नहीं हैं, मरिअम्मा.’’

‘‘वह नहाता होगा बाबा, पार्टी के लिए सजना है न. अब तुम भी जल्दी करो, देरी हुआ तो मेमसाब नाराज होगा.’’

होमवर्क खत्म कर रोहन फिर से मां के कमरे की ओर भागा, पर दरवाजा तो अंदर से बंद था. रोहन समझ गया मम्मी अब मेकअप कर रही होंगी और मेकअप करते समय कोई डिस्टर्ब करे, यह उन्हें बिलकुल भी पसंद नहीं. हारे कदमों से रोहन वापस आ गया.

‘‘अरे, रोहन बाबा, तुम अभी इधर ही बैठा है, चलोचलो, नहा लो, तैयार हो जाओ. देखो, तुम्हारा नया कपड़ा भी निकाल दिया,’’ मरिअम्मा ने कहा.

‘‘पापा अभी तक नहीं आए, मरिअम्मा?’’

‘‘आते ही होंगे बाबा,’’ मरिअम्मा ने बिलकुल सफेद रूमाल रोहन की जेब में रखते हुए कहा.

‘‘चलो बाबा, अब पार्टी का टाइम हो गया. मेमसाब वहीं मिलेगा.’’

‘‘तुम जाओ मरिअम्मा, मैं आ जाऊंगा.’’

‘‘देखो, देरी नहीं करना, जल्दी से पहुंच जाना,’’ जातेजाते मरिअम्मा ने एक बार फिर रोहन के बाल संवारे और उसे प्यारभरी नजरों से देखती बाहर चली गई.

शाम होते ही बंगला रंगारंग रोशनी में नहा उठा. रात गहराते ही रौनक बढ़

गई. मेहमान आने शुरू हो गए. चहकतेमहकते, मुसकराते, सजेधजे मेहमान, आंखों ही आंखों में एकदूसरे को आंकते मेहमान, बातों ही बातों में एकदूसरे को नापते मेहमान.

‘‘रवि आज भी नदारद है, निशा,’’ हरीश ने कहा.

‘‘उस के वही बिजनैस ट्रिप्स, फिर हमारी यह बेटाइम चलने वाली एअरलाइंस, बस, आता ही होगा,’’ मनमोहनी मुसकान के साथ निशा ने सफाई दी.

‘‘रोजरोज के ये बिजनैस ट्रिप्स. कहीं कोई गड़बड़ तो नहीं, निशा?’’ हरीश ने आंख दबा कर शिगूफा छोड़ा तो वातावरण में हंसी की फुलझडि़यां फूट गईं. निशा भी पूरी तरह मुसकरा उठी.

‘‘बर्थडे बौय कहां है भाई?’’ माला ने बड़ी नजाकत से हाथ में पकड़े उपहार के डब्बे को साथ वाली कुरसी पर रखते हुए कहा.

‘‘अब साहबजादे को भी बुलाइए जरा,’’ रमेश ने अपने हाथ में पकड़ा गिफ्टपैक राधिका को देते हुए कहा.

‘‘रोहन, रोहन, माई सन,’’ निशा की धीमी मीठी आवाज गूंज उठी.

‘‘रोहन, सनी?’’ निशा ने इधरउधर देखा, ‘‘रोहन कहां है मरिअम्मा?’’

‘‘इधर ही था मेमसाब, बाथरूम में होगा, अभी देखता,’’ कह कर वह उसे ढूंढ़ने लगी.

‘‘रोहन बाबा, रोहन बाबा,’’ मरिअम्मा ने कमरे में झांका, बाथरूम देखा, लौन में ढूंढ़ा, पिछवाड़े भी देखा पर वह न मिला. मरिअम्मा रोंआसी हो उठी, ‘कहां गया रोहन?’ वह सोचने लगी. फिर बोली, ‘‘मेमसाब, बाबा नहीं मिल रहा.’’

निशा की भौंहें तन गईं, ‘‘तुम किस मर्ज की दवा हो फिर?’’ उस ने दबी आवाज में मरिअम्मा को लताड़ते हुए कहा.

‘रोहन नहीं मिल रहा,’ ‘रोहन खो गया है,’ मेहमानों में अफरातफरी मच गई. बंगले का कोनाकोना छन गया.

‘‘पुलिस को फोन करिए, निशा,’’ मेहमानों ने कहा.

‘‘किडनैपिंग का केस लगता है?’’ सुन कर निशा के हाथपैर सुन्न पड़ गए, सिर चकरा गया.

‘‘मेमसाब, मेमसाब,’’ खुली छत की रेलिंग पर झुकी मरिअम्मा की भयभीत चीखपुकार सुन कर सब ऊपर की

ओर दौड़े.

‘‘देखिए, देखिए तो मेमसाब, रोहन बाबा को क्या हो रहा है?’’

छत के एक कोने में निढाल, बेसुध पड़े रोहन के मुंह पर तो एक मीठी मुसकान बिखरी हुई थी. जादू की पुडि़या का जादू उस पर चल चुका था. उसे अपना मनचाहा सबकुछ मिल चुका था.

पुचकारते पापा, दुलारती मम्मी. खेल खिलाते पापा. साथ सुलाती मम्मी…

उछलताकूदता, खिलखिलाता, फुदकता रोहन तो सीधा उन की गोद में ही जा बैठा था. दृश्य खयालों में चल रहे थे…

‘हैप्पी बर्थडे सनी.’

‘हैप्पी बर्थडे रोहन.’

‘थैंक यू पापा,’ कहता रोहन पिता के सीने से चिपक गया.

‘थैंक यू मम्मी,’ रोहन मां से लिपट गया. जोरजोर से ठहाके लगाता रोहन अचानक सुबकने लगा तो मरिअम्मा परेशान हो उठी. उस ने चुप बैठ कर उस का सिर अपनी गोद में रख लिया.

‘‘देखो न मेमसाब, हमारे बाबा को क्या हो रहा है. बाबा, बाबा, रोहन बाबा,’’ मरिअम्मा जोरजोर से उस के गाल थपथपाने लगी.

मेहमानों के चेहरे पर भय, आश्चर्य और जिज्ञासा के मिलेजुले भाव तैरने लगे.

‘‘इतना छोटा बच्चा और ड्रग एडिक्ट?’’ एक आश्चर्यभरा स्वर उभरा, ‘‘ये आजकल के बच्चे? माई गौड.’’

निशा की मुट्ठियां भिंच गईं, भौंहें तन गईं. उस की सारी इज्जत, सारा का सारा सोशल स्टेटस धूल में जा मिला.

सही डोज: भाग 2- आखिर क्यों बनी सविता के दिल में दीवार

काम करती हुई सविता सोच रही थी कि उस की मां ने घर को इतना साफसुथरा रखना सिखाया था. काम करने को अकेली मां ही तो थी, पर घर में हर चीज कायदे से अपनी जगह पर रखी होती थी. पिताजी, भैया और वे तीनों काम पर जाते थे, पर मजाल है कि किसी का अपना सामान इधरउधर बिखरा मिले. सब चीजों के लिए एक जगह निश्चित थी. यहां आज ठीक करो, कल फिर वैसा ही हाल. उस की ससुराल के लोग सीखते क्यों नहीं, समझते क्यों नहीं. देवर होस्टल में जरूर रहता है, पर घर आते ही वह भी इस घर के रंग में रंग जाता. ऐसा लगता था जैसे इस तरीके से रहना इन लोगों को कहीं से विरासत में मिला है.

अकसर शिकायत करती महरी की आवाज आई, ‘‘बरतन मेज से उठा कर सिंक में रख कर कुछ देर नल खोल दिया करो तो जल्दी साफ  हो जाते,’’ कह कर वह चली गई. 4 दिन बाद कोई और मिली थी तो रात को खाना खाने के बाद हमेशा की तरह सब लोग बैठक में बातें करने के इरादे से बैठा करते थे.

तभी सविता ने कहा, ‘‘बहुत खोज कर कपड़े धोने के लिए मैं एक नई औरत को इस शर्त पर लाई थी कि सिर्फ कपड़ों के नीचे पहनने वाले कपड़े ही धोने होंगे. बड़े कपड़े यानी पैंट, शर्ट, कमीज, धोतियां, चादरें तो धोबी धोता ही है. पर आज वह मुझसे कह रही थी कि अब बड़े कपड़े भी उसे दिए जाने लगे हैं. वह तो इस बात पर काम छोड़ रही थी. मैं ने किसी तरह उसे समझा दिया है. अब आप लोग सोच लें वह बड़े कपड़े धोऊंगी नहीं.’’

कोई कुछ नहीं बोला, नवीन ने बेचैनी से 1-2 बार कुरसी पर पहलू जरूर बदला. गप्पों का मूड उखड़ चुका था. सब उठ कर अपनेअपने कमरे में चल गए. तभी सविता ने फैसला किया था नवीन के साथ अलग रहना ही इस समस्या का हल है. दोनों की मुलाकात उसे याद हो आई…

दांतों के डाक्टर की दुकान की बात है. एक खूबसूरत सी लड़की बैठी थी. तभी एक युवक भी आ कर बैठ गया. और भी बहुत से लोग बैठे थे. इंतजार तो करना ही था. तभी भीतर से एक तेज दर्दभरी चीख सुनाई दी और साथ में डाक्टर की आवाज भी, ‘‘अगर आप इतना शोर मचाएंगे तो बाहर बैठे मेरे सब मरीज भाग जाएंगे.’’

और तो कोई नहीं भागा, पर 2 मरीज जरूर भाग रहे थे और भागने में यह खूबसूरत सी लड़की उस लड़के से दो कदम आगे ही थी. वह बड़ी तेजी से सीढि़यां उतरती गई. बाहर ही एक औटो खड़ा था. वह औटो में बैठ गई. तभी वह युवक भी जो दो कदम ही पीछे था, घुस गया. उन के शहर में औटो शेयर करने का रिवाज था. रिकशाचालक हिसाब से पैसे ले लेता था.

रिकशा वाले ने लड़की से पूछा, ‘‘बहनजी, कहां जाना है?’’

हांफतेहांफते लड़की ने कहा, ‘‘हजरतगंज.’’

लड़के से रिकशा वाले ने कुछ नहीं पूछा.

कुछ देर बाद दोनों ने एकदूसरे की तरफ देखा और मुसकरा दिए. वे दोनों अब काफी बेहतर महसूस कर रहे थे. तभी युवक ने डरतेडरते धीरे से अपनी दुखती दाढ़ को छुआ. एक गोल सी छोटी सी चीज हाथ में आ गई. उसे संभाल कर मुंह से बाहर निकाल कर उस ने खिड़की की तरफ कर के देखा, ‘‘निकल गया.’’

‘‘क्या?’’ लड़की ने चौंक कर पूछा.

‘‘कुछ नहीं, कंकड़, जो दाढ़ में फंसा था,’’ झेंपकर लड़का बोला, ‘‘शायद चावल में था.’’

लड़की ने कुछ नहीं कहा और युवक की आंख बचाकर अपने सामने के एक दांत पर उंगली फेरी और फिर ‘‘ओह’’ कर अपनी सीट से उछल पड़ी.

‘‘क्या हुआ,’’ युवक ने पूछा.

जवाब में लड़की ने उंगलियों में पकड़ा एक लंबा सा कांटा निकाल कर युवक के हाथ पर रख दिया और फिर नजरें झुका कर कहा, ‘‘मछलीका है, यही मेरे दांत में अटक गया था.’’

‘‘जरूर अटक गया होगा. आप हैं ही ऐसी, कोई भी अटक सकता है.’’ कुछ देर की खामोशी के बाद लड़की फिर बोली, ‘‘आप कहां जाएंगे?’’

‘‘आप हजरतगंज जाएंगी, मैं चिडि़याघर के पास रहता हूं, वहीं उतर जाऊंगा.’’

‘‘चिडि़याघर के भीतर नहीं,’’ लड़की ने कहा और दोनों हंसने लगे. यह नवीन और सविता की पहली मुलाकात थी. यादों में खोई वह खड़ी थी. तभी नवीन ने पीछे से आ कर उसे बांहों के घेरे में ले लिया.

‘‘अंधेरे में खड़ी हो.’’ ‘‘आदत पड़ गई थी, पर अब चांदनी की आदत डाल रही हूं.’’

‘‘सविता, हम ने प्रेम विवाह किया है. तुम्हें प्यार करता हूं, इसीलिए सब घर वालों को छोड़ कर आया हूं हालांकि सब से मेरा प्यार आज भी है.’’ ‘‘प्रेम विवाह हम ने जरूर किया था, पर बाद में प्रेम तो रहा नहीं, सिर्फ विवाह रह गया. प्रेम तो घर के चौकेचूल्हे और घर की चीजें उठानेरखने में न जाए किस अलमारी में बंद हो गया था.’’

‘‘सही कह रही हो सविता.’’ ‘‘गलती मेरी ही थी. शादी से पहले मैं ने तुम से यह जो नहीं पूछा था कि मु?ो कहां ले जा कर रखोगे.’’

‘‘मैं हमेशा तुम्हारी परेशानियों को समझता रहा हूं सविता.’’ ‘‘पर कुछ कर नहीं रहे थे. सब साथ रहते तो कितना अच्छा रहता. अब मुझे अकेलापन खलता है,’’ सविता ने कहा.

‘‘अब भी मेरी मजबूरी है तुम्हें.’’ ‘‘हां मुझे लगता है मैं ने तुम से कुछ छीन लिया है. मैं इतनी खुदगर्ज नहीं हूं नवीन.’’ ‘‘लगता है, तुम्हारी मजबूरी कभी खत्म नहीं होगी. जाओ, जा कर सो जाओ. मुझे सवेरे जल्दी उठना होगा.’’

जीवन लीला: क्या हुआ था अनिता के साथ

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वैलकम: भाग-2 आखिर क्या किया था अनुराग ने शेफाली के साथ

अभी तक तो शेफाली के अंदर साहस ही साहस था, लेकिन भाभी की बात और भाभी की घबराहट देख कर उसे भी पहली बार कुछ घबराहट सी हुई और जब वह बैठक के दरवाजे पर पहुंची तो कितना भी धैर्य रखने पर उस का मन आशंका से कांप उठा क्योंकि बैठक में बैठे सभी लोगों की नजरें उस के सैंडिलों पर ही थीं.

‘इन लोगों को मुझे देखना है या मेरी चाल अथवा सैंडिल को?’ यह प्रश्न उस के मन में हलचल मचा गया. फिर बरबस मुसकरा कर नमस्ते करने के बाद वह अनुराग की भाभी की बगल में बैठ गई. अनुराग से भी उस की यह फेस टू फेस पहली मुलाकात थी.

शेफाली प्रदर्शनी में सजी निर्जीव गुडि़या की तरह पलकें नीची किए बैठी थी. पुराने जमाने की लड़कियों की तरह उस के मन में अजीब सा संकोच था, जिस से उस के मुख का सौंदर्य फीका पड़ता जा रहा था. अनुराग की मां, छोटा भाई और बहन तीनों ही उस के अंगप्रत्यंग को नजरों से नापते हुए एकदूसरे को कनखियों से देखते हुए मुसकरा रहे थे. ‘‘रंग कैसा बताओगे? मेरे ही जैसा न? अच्छी तरह देख लो,’’ भाभी फुसफुसा कर

अपने देवर के कान में बोली, ‘‘रंग मु  झ से फीका नहीं होना चाहिए,’’ और फिर चश्मे के अंदर आंखें घुमाती हुई वह उस के मुख के और करीब आ गई. मगर तभी देवर ने अपनी भाभी को आंख मार कर हट जाने को कहा, जैसे कह रहा हो कि रंग की प्रतियोगिता में तो तुम हर तरह से पराजित हो भाभी. उसे अगर 100 से 90 मिलेंगे तो तुम्हें 10 भी नहीं मिलने के. ‘‘शेफाली, सुना है आप बहुत अच्छा गाती हैं. एक गाना सुना दीजिए न.’’

आंसू बह कर अपनी असमर्थता की पीड़ा खोल दें, इस से पूर्व ही शेफाली मुंह नीचा कर के कमरे से बाहर जाती हुई बोली, ‘‘मैं अभी आई,’’ उस का मन हुआ कि वह चीख-चीखकर कह दे कि वह ऐसे आदमी से शादी नहीं करना चाहती, जिस में इनसानियत का जरा भी मादा न हो, जिस के घर की महिलाओं को बात करने की भी तमीज न हो. किंतु होंठों तक आ कर भी शब्द रुक गए. उस के कानों में बारबार भाभी के ये शब्द गूंज रहे थे कि वे लोग कैसा भी व्यवहार करें, तू अपनी जबान न खोलना. सदा की तरह आज भी अपने भैया की लाज रखना. वह अपने कमरे में आ कर पलंग

पर गिर कर फूटफूट कर रोने लगी. वह 32 साल की होने लगी थी. उस ने कभी अपने दोस्त नहीं बनाए थे.  पहले भैया ने अपने आसपास वालों को कहा था पर बात नहीं बनीं. फिर साइटों पर जाकर प्रोफाइल डाला. तब जा कर अनुराग मिला. भैया उसे हाथ से निकलने नहीं देना चाहते थे.

अब भैया बहुत ही नाराज हो चुके थे. उन्होंने अनुराग की भाभी से साफसाफ कह दिया, ‘‘बहनजी, आप लोगों ने शेफाली के साथ जो व्यवहार किया, उस से मु  झे बड़ा दुख पहुंचा है. सच बात तो यह है कि अगर मु  झे पहले से यह ज्ञात होता कि आप शेफाली के साथ ऐसा व्यवहार करेंगे तो मैं शेफाली को अनुराग से रिश्ता करने की सलाह ही न नहीं देता.’’ इस के बाद उन लोगों ने रुखसत ले ली. वे लोग कानपुर के थे. कानपुर लौट गए. दूसरे ही दिन एफएम रेडियो पर शेफाली का कार्यक्रम था. यद्यपि इस घटना ने उसका मन खराब कर दिया था, पर इस मनोस्थिति के कारण गजल गाते समय उस के स्वर और दर्दीले हो उठे थे. अपनी नौकरी पर वापस जाने के लिए जब वह बैंगलुरु के एअरक्राफ्ट में चढ़ी तो सिर   झुकाए अपराधी की तरह भैया और भाभी के हाहाकार करते मन की बात जान कर उस का रोमरोम सिसक उठा. उस ने मन में यह निश्चय कर लिया कि अब वह कुंआरी ही रहेगी.

अचानक शेफाली के कानों में आवाज आई, ‘‘वी आर लैडिंग इन बैंगलुरु…’ शेफाली टैक्सी से उतर कर जब होस्टल में घुसी तब तक अंधेरा घिर आया था. उर्वशी ने अपने कमरे में उस के कुम्हलाए चेहरे को देखा तो उत्सुकता के बावजूद उस ने फिलहाल शेफाली से न मिलना ही उचित सम  झा. उस ने सोचा, सुबह जब शेफाली कुछ स्वस्थ हो जाएगी, तभी वह उस से सब जानने का प्रयत्न करेगी.

रात भर शेफाली को नींद नहीं आई. जीवन में पहली बार उसे महसूस हुआ कि प्राय: सभी दृष्टियों से अर्निद्य होते हुए भी उसे नीचा दिखाने का प्रयत्न किया गया है. देर से नींद आने के कारण वह सुबह देर तक सोती रही. ‘‘अरे शेफाली, उठ जल्दी… इसे कहते हैं दीवानापन. तू तैयार हो कर अपने दीवाने का स्वागत कर और मैं जाती हूं चाय बनाने,’’ गहरी नींद में सोती शेफाली को अचानक उर्वशी ने आ कर   झक  झोर दिया.

 

आखिरी पेशी: भाग-1 आखिर क्यों मीनू हमेशा सुवीर पर शक करती रहती थी

मीनू शक्की थी और अपने पति सुवीर पर अकसर शक करती रहती थी. उसका यही शक एक दिन दोनों में अलगाव की वजह बन गया. उस दिन कोर्ट में आखिरी पेशी थी…

उस दिन अदालत में सुवीर से तलाक के लिए चल रहे मुकदमे की आखिरी पेशी थी. सुबह से ही मेरा मन न जाने क्यों बहुत घबराया हुआ था. इतना समय बीत गया था, पर थोड़ी छटपटाहट और खीज के अलावा मेरा दिल इतना बेचैन कभी नहीं हुआ था.

शायद इस की वजह यह थी कि उस के ठीक 8 दिन बाद ही दीवाली थी. किसी को तो शायद याद भी न हो पर मुझे खूब याद था कि 4 साल पहले दीवाली से 8 दिन पहले ही सुवीर से रूठ कर मैं मायके चली आई थी.

क्या पता था कि जिस दिन मैं ससुराल की देहरी छोड़ूंगी, ठीक उसी दिन मेरे और सुवीर के तलाक के मुकदमे का फैसला होगा.

सुवीर से बिछुड़े मुझे पूरे 4 वर्ष हो चुके थे. साल के और दिन तो जैसेतैसे कट जाते थे परंतु दीवाली आते ही मेरे लिए वक्त जैसे रुक सा जाता था, रुलाई फूटफूट पड़ती थी. जब सब लोग खुशी और उमंग में डूबे होते तो मैं अपने ही खींचे दायरे में कैद हो कर छटपटाती रहती.

यह कहने में मुझे कोई हिचक नहीं कि सुवीर से बिछुड़ कर यह सारा वक्त मैं ने अजीब घुटन सी महसूस करते हुए काटा था. इस के बावजूद सुवीर से तलाक की अर्जी मैं किस निर्भीकता और जिद में दे आई थी, इस पर मुझे अभी भी अकसर आश्चर्य होता रहता है. शायद उस वक्त मैं ने सोचा था कि सुवीर तलाक की अर्जी पर अदालत का नोटिस मिलते ही कोर्टकचहरी के चक्करों से बचने के लिए अपनी गलती महसूस कर मुझे स्वयं आ कर मना कर ले जाएंगे पर यह मेरी भूल थी.

मुकदमे की पहली ही पेशी में सुवीर ने अपने जवाब में तलाक का विरोध न कर के अदालत से उन्होंने आपसी सहमति वाले तलाक के प्रावधान पर मेरे वकील के कहने पर हस्ताक्षर भी कर दिए थे. मेरे आवेदन को स्वीकार कर लेने का अनुरोध किया था. सुवीर के इस अप्रत्याशित रवैए से मेरे मन को बड़ा धक्का लगा था. मेरा मन खालीखाली सा हो गया था. अपने जीवन के अकेले, बोझिल और बासी क्षणों पर मैं कभीकभी बेहद खीज उठती थी. मन में अकसर यह विचार आता, यदि जिंदगी का सफर यों ही अकेले तय करना था तो शादी ही क्यों की मैं ने और फिर जब कर ही ली थी तो घर भर के कहे अनुसार एक बार लौट कर मुझे सुवीर के पास जरूर जाना चाहिए था. क्या पता, मुझे चिढ़ाने के लिए ही सुवीर उस लड़की के साथ घूमते रहे हों.

अब तक जितनी भी पेशियां हुई थीं उन में सुवीर मुझे बेहद उदास और टूटे हुए से दिखाई दिए थे. उन्होंने कभी अपने मुंह से वकील को कुछ  नहीं कहा था. बस, हर बार नजरें मिला कर और फिर  झुकाकर यही कहते रहे थे, ‘‘जैसा इन्हें मंजूर हो, मुझे भी मंजूर है.’’

जज हर बार मामले को 5-6 महीने के लिए टाल रहे थे,शायद इसलिए कि वे भांप गए थे कि यह आप का सिर्फ ईगो है.

कभी-कभी पेशियों से लौट कर मैं कितनी अनमनी हो जाती थी, सोचती, ‘क्या सुवीर नहीं चाहते कि मैं उन से अलग हो जाऊं? क्या सुवीर का उस लड़की से सचमुच ही कोई संबंध नहीं है? क्या सुवीर अभी भी मुझे प्यार करते हैं या यह सब नाटकबाजी है?’

बस, यहीं आ कर मैं हार जाती थी. पता नहीं क्यों मुझे लगता सुवीर नाटक कर रहे हैं. असल में वह खुद ही मुझसे छुटकारा पाना चाहते हैं और मैं सिर झटक कर सभी विचारों से मुक्ति पा लेती थी.

कचहरी 10 बजे तक पहुंचना था पर वक्त मानो रुका जा रहा था. पिताजी को मेरे  साथ जाने की वजह से उस दिन काम पर नहीं जाना था. वे बरामदे में बैठे थे.

मैं ऊबी सी कोई पत्रिका लेकर पलंग पर आ बैठी थी पर मन था कि बांधे नहीं बंध रहा था, उड़ा ही जा रहा था.

सुवीर से जब मेरा चट मंगनी पट ब्याह हुआ था तो मेरे सुनहलेरुपहले दिन न जाने कैसे पंख लगा कर उड़ जाते थे. कवियों की भाषा में यों कहूं कि मेरे दिन सोने के थे और रातें चांदी की तो कोई अतिशयोक्ति न होगी.

मुझे ऐसा घर मिला था कि मैं फूली न समाती थी. सुवीर अपने मांबाप के इकलौते बेटे थे. उन की 2 बहनें थीं, जिन की शादियां हो चुकी थीं. सासससुर साथ ही रहते थे और वे भी मु?ो खूब प्यार करते थे. सुवीर का प्यार पा कर तो मैं सब कुछ भूल ही गई थी. मैं ने भी स्कूल जाना शुरू कर दिया था जहां में शादी से पहले से ही पढ़ाती थी.

सुवीर एक फैक्टरी में प्रबंधक के पद पर थे. हर शाम को उन के लौटने तक मैं उन की पसंद की कोईर् चीज बनाया करती और सुंदर कपड़े पहन कर दरवाजे पर ही उन का स्वागत किया करती थी.

शाम की चाय हम इकट्ठे पी कर अकसर घूमने निकल जाया करते थे. कभी

कहीं, कभी कहीं. वैसे मेरी सास भी बहुत उदार दिल की थीं. हम न जाते तो वे सुवीर से कहतीं, ‘‘बहू सारा दिन काम कर के आई है. ऊब गई होगी. तू भी ऊब गया होगा. जा, कहीं इसे घुमा ला, बेटा. फिर यही दिन तो घूमनेफिरने के हैं. एक बार बच्चों और गृहस्थी के जंजाल में फंसोगे तो फिर चिंता ही चिंता.’’

और हम रोज ही शाम को बातें करतेकरते कहां के कहां पहुंच गए, यह हमें ध्यान ही नहीं रहता था. जब कुछ खापी कर घर लौटने लगते, तब कहीं रास्ते की दूरी का एहसास होता था. इसी तरह शादी हुए 8 महीने गुजर गए थे. एक दिन सुवीर की छुट्टी थी. हम पिकनिक मनाने के उद्देश्य से स्थानीय ?ाल गए थे. वहां काफी भीड़ थी.

घूमफिर कर हम एक जगह चादर बिछा कर बैठ गए थे. हम ने सस्ते में एक जगह से खाना पैक करा लिया था. खानेपीने की चीजें निकालने में व्यस्त हो गई थी और फिर सिर नीचा किएकिए ही मैं ने सुवीर से पूछा, ‘‘खाना निकालूं?’’

सुवीर ने कोई जवाब नहीं दिया. अपने ही विचारों में गुनगुनाते मैं ने यही सवाल दोबारा किया पर जवाब फिर नदारद था. अचानक मैं ने सिर उठा कर देखा तो सुवीर एक  बेहद सुंदर युवती को घूरघूर कर देख रहे थे और वह दबंग युवती भी सुवीर को बिना मेरी परवाह किए आंखों में आंखें डाल कर देखे जा रही थी.

मेरा मन नारी सुलभ ईर्ष्या से जल उठा. लाख सुंदर सही पर मेरे होते हुए

सुवीर का इस तरह उसे देखना मुझे फूटी आंख नहीं भाया. जी तो किया कि उसी समय उस लड़की का मुंह अपने लंबे नाखूनों से नोच लूं पर फिर न जाने क्या सोच कर मैं ने गुस्से में भर कर सुवीर को झकझोर दिया.

मेरे हिलाने से सुवीर मानो सम्मोहन की दुनिया से लौट आए थे. उधर वह युवती भी अचकचा कर चलती बनी थी. पर मैं ने सुवीर को खूब आड़े हाथों लिया, ‘‘क्यों, ऐसी क्या खास बात थी उस में जो भूखे शेर की तरह उसे घूर रहे थे? शर्म नहीं आती लड़कियों को इस तरह देखते हुए? बताओ, आखिर क्या देख रहे थे? क्या कोई पुरानी जानपहचान है?’’

इधर मैं तो गुस्से में आगबबूला हुई जा रही थी और उधर सुवीर अभी भी खोएखोए से थे. सिर्फ हांहूं कर रहे थे. आंखों की पुतलियां भले ही उस लड़की को नहीं देख पा रही थीं परंतु उन में नाचती तसवीर और आंखों का बावरापन साफ बता रहा था कि सुवीर अभी भी उसी के खयालों में डूबे बैठे हैं.

खिसिया कर मैं ने जोर से सुवीर को फिर झकझोरा तो एक बार फिर हां कह कर वे उसी ओर देखने लगे जिधर वह युवती गईर् थी.

मारे गुस्से के मैं पैर पटकती उठ खड़ी हुई और अकेली ही सारा सामान सुवीर के भरोसे छोड़ कर औटो कर के घर चल दी.

सास ने मुझे देखा तो आश्चर्य में पड़ गईं. बोली, ‘‘सुवीर कहां है? क्या अकेली आई हो? सामान कहां है?’’

न जाने वे क्याक्या पूछती रहीं. मैं ने आंखों के उमड़ते सैलाब को रोक कर कहा, ‘‘आएं तो उन्हीं से पूछिएगा.’’

और मैं फटाक से कमरे का दरवाजा बंद कर के पलंग पर गिर कर फूटफूट कर रोने लगी. सुवीर का बावरापन याद आते ही मुझे लगा कि जरूर इन दोनों में कोई गहरी सांठगांठ है और कोई बात मुझसे छिपाई गई है. बगैर जानपहचान के कोई भी लड़की इस तरह गैरमर्द को नहीं देख सकती. मेरे मन में तरहतरह के सवाल उठ रहे थे. क्या पता साथ पढ़ती रही हो? क्या पता सुवीर की प्रेमिका हो और शादी के बाद भी वह उन से प्यार करते हो? हो सकता है रखैल ही हो.

निर्णय: भाग 2- वक्त के दोहराये पर खड़ी सोनू की मां

कलेजा बर्फ हो गया था उस का. हाथपांव सुन्न हो गए थे. घरभर के ठंडे व उपेक्षित व्यवहार का कारण पलभर में उसे समझ आ गया था. उसे ट्रेन पर बिठाते ही नीलाभ ने इन लोगों के आगे वह सारा सच उगल दिया था जिसे वे दोनों आज तक अपनी परछाईं से भी छिपा कर रखते थे. मां ने क्या आग उगली, जिज्जी ने क्या दंश दिए, सब बेमानी हो गए थे नीलाभ के विश्वासघात के आगे. अपना वश नहीं चला तो उस पर घर वालों का दबाव बनाने की कोशिश कर रहे थे नीलाभ. यहीं चूक गए नीलाभ. पहचान नहीं पाए उसे. वह तो उसी क्षण उसी रात पूर्णरूपेण मां बन गई थी बेटे की. ममता भी कहीं आधीअधूरी होती है. अब शरर में कुछ दोष है तो है. इस नन्ही सी जान की सेवा के लिए परिवार या नीलाभ कौन होते हैं रोड़ा अटकाने वाले. अब यह तो नहीं हो सकता कि एक दिन अचानक से एक अनजान बालक को गोद में डाल दिया और कहा, ‘यह लो, बेटा बना लो. फिर कह दिया, नहीं, यह बेटा नहीं हो सकता, छोड़ आओ कहीं.’ वह हैरान थी कि कमी उजागर होते ही बेटे पर जान न्योछावर करने वाला पिता इतना कठोर हृदय कैसे हो सकता है.

भीतर की सारी उथलपुथल भीतर ही समेटे ऊपर से सामान्य दिखने की कोशिश में अपनी सारी ऊर्जा खर्च करती वह बूआ के घर में सब से मिलतीमिलाती रही थी. नामकरण से लौट कर रात को मां तथा जिज्जी ने उसे आ घेरा था. उन्हें हजम ही नहीं हो रहा था कि उस ने सब से इतना बड़ा झूठ बोला कैसे. शक तो पहले से ही था. न दिन चढ़ने की खबर लगने दी, न दर्द उठने की, सीधा छोरा जनने की खबर सुना दी थी. छोरा न हुआ, कुम्हड़ा हो गया कि गए और तोड़ लाए. ‘अब नीलाभ नहीं चाहता है तो तू क्यों सीने से चिपकाए है छोरे को. छोड़ क्यों नहीं देती इसे. पता नहीं किस जातकुजात का पाप है. अच्छा हुआ कि छोरा अपाहिज निकला वरना हमें कभी कानोंकान भनक न होती.’ बिफर तो सुबह से ही रही थीं दोनों, पर पता नहीं कैसे जब्त किए बैठी थीं. शायद उन्हें डर था कि ये सब बातें उठते ही क्लेश मच जाएगा घर में. उस के रोनेबिसूरने, विरोध तथा विद्रोह के स्वर इतने ऊंचे न हो जाएं कि उन की गूंज बूआ के घर एकत्र हुए मेहमानों तक पहुंच जाए. सब को पता था कि वह आई हुई है विशेष तौर पर समारोह में सम्मिलित होने. बिफर कर कहीं वहां जाने से इनकार कर देती तो बिरादरी में मां सब को क्या बतातीं उस के न आने का कारण.

सिर झुकाए बैठी वह सोच रही थी कि यदि सोनू की मां का कुछ अतापता होता तो नीलाभ अवश्य ही उसे वापस सौंप देते बच्चा. पर वह फिलहाल अनजान लड़की तो आसन्नप्रसवा थी जब नीलाभ के नर्सिंग होम में पहुंची थी. आधी रात का समय, स्टाफ और मरीज अधिक नहीं थे उस समय. बस, एक आपातकालीन मरीज की देखभाल करने के लिए रुके हुए थे नीलाभ. कुछ ही पलों में बच्चा जना और पता नहीं चुपचाप कब बच्चा वहीं छोड़ कर भाग निकली थी वह लड़की. पहले तो घबरा गए नीलाभ, पुलिस को सूचना देनी होगी. फिर अचानक उन की छठी इंद्रीय सक्रिय हो उठी. लड़का है. जो यों इसे पैदा कर के छोड़ कर भाग निकली है, वह वापस आने से तो रही. उन्होंने तुरंत उसे फोन किया तथा अस्पताल बुला लिया. एक बिस्तर पर लिटा कर पास ही पालने में वह नवजात शिशु लिटा दिया. सुबह  होतेहोते यह खबर चारों ओर फैल गई कि रात में पुत्र को जन्म दिया है डाक्टर साहब की पत्नी ने. सब हैरान थे. अच्छा, मैडम गर्भवती थी, पता ही न चला. अड़ोसपड़ोस भी हैरान था. सब को डाक्टर साहब ने अपनी बातों से संतुष्ट कर दिया. वैसे भी वह कहां ज्यादा उठतीबैठती थी पड़ोस में. छोटे शहरों में भी आजकल वह बात नहीं रही. कौन किस की इतनी खबर रखता है. बधाइयां दी गईं, मिठाइयां बांटी गईं, जश्न हुए. यही मां और जिज्जी बलाएं लेती न आघाती थीं. और अब इतना जहर. 5 बजे की ट्रेन थी उस की वापसी की. उस के निकलने से घंटा भर पहले सरिता आ पहुंची थी उस से मिलने. कोई और वक्त होता तो वह सौ गिलेशिकवे करती अपनी प्यारी ननद, अपनी बचपन की सखी सरिता से. पर जब से आई थी, इतने तनाव, क्लेश और परेशानियों में फंसी थी कि उसे स्वयं भी कहां याद रहा था एक बार सरिता को फोन ही कर लेना.

सरिता का ससुराल स्टेशन के पास ही रमेश नगर में  है. कुल आधे घंटे का रास्ता है यहां से. पर पता नहीं  क्यों वह कल बूआ के घर भी नहीं आई थी. आज आई है जब समय ही नहीं बचा है बैठ कर दो बातें करने का. सरिता आई तो जैसे उस की रुकी हुई सांसें भी चलने लगी थीं. बचपन में उस का मायका तथा ससुराल दोनों परिवार एक ही महल्ले में रहते थे. दोनों साथसाथ पढ़ती थीं एक ही कक्षा में. पक्की सहेलियां थीं दोनों. सूखे कुएं के पीछे, बुढि़या के घर से अमरूद तोड़ कर चुराने हों या पेटदर्द का बहाना कर स्कूल से छुट्टी मारनी हो, दोनों हमेशा साथ होती थीं. 7वीं-8वीं तक आतेआते तो इन दोनों की कारगुजारियां जासूसी एवं रूमानी उपन्यास पढ़ने तथा कभीकभार मौका पाते ही सपना टाकिज में छिप कर पिक्चर देख आने तक बढ़ गई थीं. क्या मजाल कि दोनों के बीच की बात की तीसरे को भनक तक लग जाए. उस के बाद साथ छूट गया था. सरिता के पिता का तबादला हो गया था. बाद में जब किसी बिचौलिए की सहायता से सरिता का रिश्ता नीलाभ के लिए आया तो सब ने स्वीकृति की मुहर इसीलिए लगाई थी कि कभी दोनों परिवार एकदूसरे के साथ, एक ही महल्ले में रहते थे. जानते हैं एकदूसरे को.

दूसरी ओर वह थी कि डाक्टर पति पाने से भी अधिक प्रसन्नता उसे सरिता को ननद के रूप में पाने की हुई थी. आज तक बदला नहीं है वह रिश्ता. यह बात छिपी तो नहीं किसी से फिर भी जिज्जी ने उस पर दबाव बढ़ाने के लिए सरिता को बुला भेजा था. उन्हें शायद लगा था कि इस विषय में सरिता अपनी सखी का नहीं बल्कि मां तथा जिज्जी का ही साथ देगी. आखिर उसे भी तो कुछ नहीं बताया गया था. वह धोखे में ही थी. आते ही सरिता उस के गले लग गई थी. 3 दिनों में पहली बार आंखें छलक आई थीं उस की. आंसू भी शायद तभी बहते हैं जब कोई पोंछने वाला हो सामने. उस ने इतना बड़ा सच छिपाया था सरिता से भी. पर उसे जरा भी बुरा नहीं लगा था. उस ने तो अहमियत ही न दी थी इस बात को. जिस बात को जानने का कोई कारण ही न हो, उसे न भी बताया जाए तो क्या हर्ज है. सब को सुना कर कहा था सरिता ने, ‘वे सब बड़े  हैं तो क्या दूसरों को सिर झुका कर उन की हर जायजनाजायज बात माननी पड़ेगी?’

 

मिलन: भाग 1- जयति के सच छिपाने की क्या थी मंशा

लेखक- माधव जोशी

जयंत आंगन में खड़े हो कर जोरजोर से पुकारने लगे, ‘‘मां, ओ मां, आप कहां हैं?’’

‘‘कौन? अरे, जयंत बेटे, तुम कब आए? इस तरह अचानक, सब खैरियत तो है?’’ अंदर से आती हुई महिला ने जयंत को अविश्वसनीय दृष्टि से देखते हुए पूछा.

‘‘जी, मांजी, सब ठीक है,’’ जयंत ने आगे बढ़ कर महिला के पैर छूते हुए कहा तो उन्होंने उस के सिर पर प्यार से हाथ रख दिया.

‘‘मां, जानती हैं, इस बार मैं अकेला नहीं आया. देखिए तो, मेरे साथ कौन है, आप की बहू, जयति,’’ कहते हुए जयंत ने मेरी ओर इशारा कर दिया.

‘‘क्या? तुम ने शादी कर ली?’’ मां हैरानी से मेरा मुआयना करते हुए बोलीं. और फिर ‘‘तुम यहीं ठहरो, मैं अभी आई,’’ कह कर अंदर चली गईं.

‘तो ये हैं, जय की मांजी,’ मैं मन ही मन बुदबुदा उठी. मेरे दिल की धड़कन बढ़ने लगी. घबरा कर जयंत की ओर देखा. वे मेरी तरफ ही देख रहे थे. उन्होंने मुसकरा कर मुझे आश्वस्त किया. तभी हाथ में थाली लिए मांजी आ गईं.

‘‘भई, मेरे घर बहू आई है…पहले इस का स्वागत तो कर लूं,’’ कहते हुए मांजी मेरे पास आ गईं और थाली को चारों तरफ घुमाने लगीं. मैं उन के पांव छूने को झुकी ही थी कि उन्होंने मुझे अपनी बांहों में थाम लिया और माथे को चूमने लगीं. क्षणभर पहले मेरे मन में जो शंका थी, वह अब दूर हो चुकी थी. वे हम दोनों को

सामने वाले कमरे में ले गईं. कमरा बहुत साधारण था. सामने एक दीवान लगा था. एक तरफ 2 कुरसियां, एक मेज और दूसरी तरफ लोहे की अलमारी रखी थी. मांजी ने हमें दीवान पर बैठाया और बीच में स्वयं बैठ गईं. फिर मुझे प्यार से निहारते हुए बोलीं, ‘‘जय बेटा, कहां से ढूंढ़ लाया यह खूबसूरत हीरा? मैं तो दीपक ले कर तलाशती, फिर भी ऐसी बहू न ला पाती.’’

‘‘मांजी, मुझे माफ कर दीजिए. मुझे आप को बिना बताए यह शादी करनी पड़ी,’’ जयंत रुके, मेरी तरफ देखा, मानो आगे बात कहने के लिए शब्द तलाश रहे हों. फिर बोले, ‘‘दरअसल, जयति के पिताजी को अचानक दिल का दौरा पड़ा और डाक्टर ने बताया कि उन का अंतिम समय निकट है. इसलिए उन का मन रखने के लिए हमें तुरंत शादी करनी पड़ी.’’ मैं जानती थी, जयंत अपराधबोध से ग्रस्त हैं. वे मां के कदमों के पास जा बैठे और उन की गोद में सिर रख कर बोले, ‘‘आप ने मेरी शादी को ले कर बहुत से सपने देखे होंगे…पर मैं ने सभी एकसाथ तोड़ दिए. मैं ने आप को बहुत दुख दिया है, मुझे माफ कर दीजिए,’’ कहते हुए वे रोने लगे.

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‘‘पगला कहीं का…अभी भी बच्चे की तरह रोता है. चल अब उठ, बहू क्या सोचेगी. तू मुंह धो, मैं चाय बना कर लाती हूं,’’ उन्होंने प्यार से इन्हें उठाते हुए कहा. मांजी के साथ मेरी यही मुलाकात थी. जयंत ने ठीक ही कहा था. मांजी सब से निराली हैं. उन के चेहरे पर तेज है और वाणी में मिठास है. वे तो सौंदर्य, सादगी व ममता की प्रतिमा हैं. शीघ्र ही मेरे मन में उन की एक अलग जगह बन गई. हमें मांजी के पास आए लगभग एक सप्ताह हो गया था. हमारी छुट्टियां समाप्त हो रही थीं. जयंत एक बड़ी फर्म में व्यवसाय प्रबंधक थे और मैं अर्थशास्त्र की व्याख्याता थी. हम दोनों ही चाहते थे कि मांजी हमारे साथ मुंबई चलें. जयंत अनेक बार प्रयत्न भी कर चुके थे, पर वे कतई तैयार न थीं. एक दिन चाय पीते हुए मैं ने ही बात प्रारंभ की, ‘‘मांजी, हम चाहते हैं कि आप हमारे साथ चलें.’’

‘‘नहीं बहू, मैं अभी नहीं चल सकती. मुझे यहां ढेरों काम हैं,’’ उन्होंने टालते हुए कहा.

‘‘ठीक है, आप अपने जरूरी काम निबटा लीजिए, तब तक मैं यहीं हूं. जयंत चले जाएंगे,’’ मैं ने चाय की चुसकी लेते हुए बात जारी रखी.

‘‘लेकिन जयति,’’ उन्होंने कहना चाहा, पर मैं ने बात काट कर बीच में ही कहा, ‘‘लेकिनवेकिन कुछ नहीं, आप को हमारे साथ मुंबई चलना ही होगा.’’ मैं दृढ़ता से, बिना उन्हें कुछ कहने का मौका दिए कहती गई, ‘‘मांजी, मेरी माताजी बचपन में ही चल बसीं. उन के बारे में मुझे कुछ भी याद नहीं. मुझे कभी मां का प्यार नहीं मिला. अब जब मुझे मेरी मांजी मिली हैं तो मैं किसी भी कीमत पर उन्हें खो नहीं सकती.

‘‘जय ने मुझे बताया कि आप मुंबई इसलिए नहीं जाना चाहतीं, क्योंकि वहां पिताजी रहते हैं,’’ मैं ने क्षणभर रुक कर जयंत को देखा. उन के चेहरे पर विषाद स्पष्ट देखा जा सकता था. पर मैं ने इसे नजरअंदाज करते हुए कहना जारी रखा, ‘‘मांजी, आप अतीत से भाग नहीं सकतीं. कभी न कभी तो उस का सामना करना ही पड़ेगा. खैर, कोई बात नहीं, यदि आप मुंबई न जाना चाहें तो जयंत कहीं और नौकरी देख लेंगे. लेकिन तब तक मैं आप के पास यहीं रहूंगी.’’ मैं ने उन के दिल पर भावनात्मक प्रहार कर डाला. मैं जानती थी कि उन को यह बरदाश्त नहीं होगा कि मैं जयंत से अलग रहूं. मांजी तड़प उठीं. मानो मैं ने उन की दुखती रग छेड़ दी हो. वे बोलीं, ‘‘जयति, मैं ने सदा तुम्हारे ससुर का बिछोह झेला है. जयंत 5 वर्ष का था, जब इस के पिता ने किसी दूसरी स्त्री की खातिर मुझे घर से निकाल दिया. तब से इस छोटे से शहर में अध्यापिका की नौकरी करते हुए न जाने कितनी कठिनाइयां उठा कर इसे पाला है. जो दर्द मैं ने 20 बरसों तक झेला है, उसे इतनी जल्दी नहीं भूल सकती. कभी भी अपने पति से दूर मत होना. मैं यहीं ठीक हूं,’’ उन के शब्दों में असीम पीड़ा व आंखों में आंसू थे.

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‘‘यदि आप हम दोनों को खुश देखना चाहती हैं तो आप को चलना ही होगा,’’ मैं ने उन की आंखों में झांकते हुए दृढ़ता से कहा. उस दिन मेरी जिद के आगे मांजी को झुकना ही पड़ा. वे हमारे साथ मुंबई आ गईं. यहां आते ही सारे घर की जिम्मेदारी उन्होंने अपने ऊपर ले ली. वे हमारी छोटी से छोटी जरूरत का भी ध्यान रखतीं. जयंत और मैं सुबह साथसाथ ही निकलते. मेरा कालेज रास्ते में पड़ता था, सो जयंत मुझे कालेज छोड़ कर अपने दफ्तर चले जाते. मेरी कक्षाएं 3 बजे तक चलती थीं. साढ़े 3 बजे तक मैं घर लौट आती. जयंत को आतेआते 8 बज जाते. अब मेरा अधिकांश समय मांजी के साथ ही गुजरता. हमें एकदूसरे का साथ बहुत भाता. मैं ने महसूस किया कि हालांकि मांजी मेरी हर बात में दिलचस्पी लेती हैं, लेकिन वे उदास रहतीं. बातें करतेकरते न जाने कहां खो जातीं. उन की उदासी मुझे बहुत खलती. उन्हें खुश रखने का मैं भरसक प्रयत्न करती और वे भी ऊपर से खुश ही लगतीं लेकिन मैं समझती थी कि उन का खुश दिखना सिर्फ दिखावा है.

एक रात मैं ने जयंत से इस बात का जिक्र भी किया. वे व्यथित हो गए और कहने लगे, ‘‘मां को सभी दुख उसी इंसान ने दिए हैं, जिसे दुनिया मेरा बाप कहती है. मेरा बस चले तो मैं उस से इस दुनिया में रहने का अधिकार छीन लूं. नहीं जयति, नहीं, मैं उसे कभी माफ नहीं कर सकता. उस का नाम सुनते ही मेरा खून खौलने लगता है.’’ जयंत का चेहरा क्रोध से तमतमाने लगा. मैं अंदर तक कांप गई. क्योंकि मैं ने उन का यह रूप पहली बार देखा था.

फिर कुछ संयत हो कर जयंत ने मेरा हाथ पकड़ लिया और भावुक हो कर कहा, ‘‘जयति, वादा करो कि तुम मां को इतनी खुशियां दोगी कि वे पिछले सभी गम भूल जाएं.’’ मैं ने जयंत से वादा तो किया लेकिन पूरी रात सो न पाई, कभी मां का तो कभी जयंत का चेहरा आंखों के आगे तैरने लगता. लेकिन उसी रात से मेरा दिमाग नई दिशा में घूमने लगा. अब मैं जब भी मांजी के साथ अकेली होती तो अपने ससुर के बारे में ही बातें करती, उन के बारे में ढेरों प्रश्न पूछती. शुरूशुरू में तो मांजी कुछ कतराती रहीं लेकिन फिर मुझ से खुल गईं. उन्हें मेरी बातें अच्छी लगने लगीं. एक दिन बातों ही बातों में मैं ने जाना कि लगभग 7 वर्ष पहले वह दूसरी औरत कुछ गहने व नकदी ले कर किसी दूसरे प्रेमी के साथ भाग गई थी. पिताजी कई महीनों तक इस सदमे से उबर नहीं पाए. कुछ संभलने पर उन्हें अपने किए पर पछतावा हुआ. वे पत्नी यानी मांजी के पास आए और उन से लौट चलने को कहा. लेकिन जयंत ने उन का चेहरा देखने से भी इनकार कर दिया. उन के शर्मिंदा होने व बारबार माफी मांगने पर जयंत ने इतना ही कहा कि वह उन के साथ कभी कोई संबंध नहीं रखेगा. हां, मांजी चाहें तो उन के साथ जा सकती हैं. लेकिन तब पिताजी को खाली लौटना पड़ा था. मैं जान गई कि यदि उस वक्त जयंत अपनी जिद पर न अड़े होते तो मांजी अवश्य ही पति को माफ कर देतीं, क्योंकि वे अकसर कहा करती थीं, ‘इंसान तो गलतियों का पुतला है. यदि वह अपनी गलती सुधार ले तो उसे माफ कर देना चाहिए.’

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आखिर क्यों: निशा का दिल टूटा, स्मृति बनी राज की जीवनसंगिनी

निशा को उस के पति नील ने औफिस में फोन किया और कहा उस के बचपन की मित्र स्मृति अपने पति के साथ दिल्ली में आई है. बेचारी का कैंसर लास्ट स्टेज पर है. प्लीज तुम उस से मिलने चलो मेरे साथ क्योंकि वह मेरी बचपन की मित्र है और हमारे ही शहर में बड़ी मुसीबत में है. बहुत सालों तक हम मिले ही नहीं. पापा का फोन आया था कि वह अपने पति के साथ इसी शहर में डाक्टर को दिखाने आ रही है. निशा को भी ठीक लगा कि उस का जाना जरूरी है. दोनों अस्पताल पहुंचे. वहा पहुंच कर निशा ने देखा राज को स्मृति के पति के रूप में.

उस के पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई. वह थोड़ी देर तक रुकी फिर स्मृति से कहा, ‘‘आप बिलकुल ठीक हो जाएंगी हौसल रखें और मैं शाम को फिर आप से मिलने आऊंगी. अभी मु झे निकलना होगा.’’ फिर उस ने अपने पति नील से कहा, ‘‘आप यहीं रुको. मैं गाड़ी से चली जाती हूं. शाम को हम दोनों साथ घर चलेंगे.’’ बाहर निकल कर निशा ने देखा कि आकाश में काले बादल छाए हुए हैं. निशा अपने औफिस लौट रही थी. सड़क खाली थी शायद बारिश की आशंका की वजह से लोग अभी बाहर नहीं निकल रहे थे. कार और मन दोनों तेज गति से दौड़ रहे थे… निशा का मन अपने बचपन में पहुंच गया था. वह स्कूल की होनहार विद्यार्थी थी. सभी टीचर्स उसे बहुत पसंद करती थीं.

सहपाठी भी उसे तवज्जो देते थे और निशा का जीवन अच्छा चल रहा था. वह अपने भविष्य की बहुत शानदार बुनियाद रख रही थी. वह जितनी तेज और कुशाग्रबुद्धि की थी उस की प्रिय सखी रोशनी उतनी ही सीधीसादी थी. शायद विपरीत गुणों में भी प्रगाढ़ मित्रता हो सकती है, उन दोनों को देख कर यह आसानी से सम झा जा सकता था. 12वीं कक्षा पास कर निशा आगे की पढ़ाई के लिए दिल्ली आ गई थी किंतु रोशनी का विवाह हो गया था जिस में निशा शामिल नहीं हो सकी थी. बाद में निशा रोशनी से मिलने पहुंची और वहां उस की मुलाकात रोशनी के पति के मित्र राज से हुई और दोनों एकदूसरे से प्रभावित हो गए.

राज सिविल सर्विस की तैयारी कर रहा था और निशा पढ़ाई के साथसाथ पार्टटाइम जौब भी कर रही थी. अत: रोशनी के साथसाथ निशा राज को भी कभीकभी गिफ्ट भेजती थी. उस को भी एसटीडी कौल लगा देती थी. निशा राज की हर छोटीबड़ी खुशी और दुख की सहभागी बनती थी. निशा राज के जीवन के महत्त्वपूर्ण दिनों को अपनी खुशी सम झ कर सैलिब्रेट करती थी. उस ने ऐसा कभी नहीं सोचा कि राज उस के लिए कभी कुछ नहीं करता क्योंकि शायद निशा प्रेम कर रही थी और प्रेम कभी प्रतिदान नही मांगता. समय बीत रहा था. निशा के पिता निशा का विवाह करना चाहते थे. एक अच्छा लड़का मिलते ही पिता ने निशा का रिश्ता तय कर दिया और ठीक इसी समय राज का भी चयन प्रशासनिक सेवा में हो गया. जब निशा ने राज को बताया कि उस की सगाई हो गई तो राज ने भरी आंखों से उसे बधाई दी और उस से मिलने दिल्ली आया. राज ने निशा से कहा कि वह उस के पिता से मिलना चाहता है.

बहुत अनुनयविनय कर निशा के पिता को राजी किया. निशा के पिता ने दोनों के प्रेम को देखते हुए ही शादी के लिए हां कर दी और निशा की सगाई तोड़ दी. कोई दिक्कत भी नहीं थी दोनों की धर्मजाति भी एक थी. किंतु कुछ महीनों के बाद राज जब ट्रेनिंग पर गया तो वहां उस की मुलाकात स्मृति से हुई. उस का भी चयन राज के साथ ही हुआ था. दोनों ने जीवनसाथी बन कर साथ रहने का फैसला किया. निशा राज के इस आकस्मिक बदलाव से बहुत आहत हुई. लेकिन उस की राज से अपने प्यार के लिए भीख मांगने की मंशा नहीं थी. किंतु वह सोचती थी आखिर राज ने ऐसा क्यों किया? क्या राज ने सफलता की चकाचौंध और शोर में अपने दिल की आवाज को दबा दिया? राज ने ट्रेनिंग से आने के बाद स्मृति से विवाह कर लिया. मगर निशा राज की स्मृति को मन से निकाल नहीं पा रही थी. खैर, वक्त कभी रुकता नहीं है. धीरेधीरे निशा भी जीवन में आगे बढ़ गई और उस का विवाह भी नील से हो गया.

नील एक आईटी कंपनी में सौफ्टवेयर इंजीनियर था. आज अचानक राज के बारे में सुना कि उस की पत्नी कैंसर से जू झ रही है और 2 साल से बिस्तर पर है. वह सम झ नहीं पा रही थी कि राज की गलती की सजा स्मृति को मिल रही है या राज को उस के किए की सजा मिल रही है. निशा दिनभर औफिस में भी राज के ही बारे में सोच रही थी और उन्हीं विचारों में डूबी हुई शाम को वह वापस अस्पताल पहुंची नील को लेने. उस के विचारों को विराम लग तब जब निशा के पति नील ने राज से उसे मिलवाया और कहा, ‘‘आप हैं राज मेरी बचपन की मित्र स्मृति के पति.’’ उस ने राज की आंखों में कुछ देखा.

वह क्या था पता नहीं. शायद पछतावा या शर्मिंदगी या कायरता. किंतु निशा की आंखों में राज के लिए एक ही सवाल बरसों से था, ‘‘आखिर क्यों…’’ स्मृति की तबीयत में कोई सुधार नहीं हुआ. वह अब शायद जीवन की आशा छोड़ चुकी थी. किंतु जब तक सांस है तब तक तो जीवन जीना ही होता है. वह सोच रही थी कि उस के पीछे राज कहीं अकेला न रह जाए. बस यही बात उसे दिनरात खा रही थी. नील भी स्मृति की देखभाल में लगा हुआ था. इसलिए निशा का भी आनाजाना होता रहता था. एक दिन निशा स्मृति के पास बैठी थी और थकावट के कारण उसे झपकी आ गई. तभी राज वहां आ गया. उस ने निशा से कहा, ‘‘आप बहुत थकी हुई लग रही हैं. ऐसे में ड्राइव कर के मत जाओ. इंतजार करो मैं नील को भी औफिस से यहीं बुला लेता हूं. आप दोनों साथ ही घर चले जाना.’’ निशा इतने सालों बाद अचानक नील को इस अधिकार वाले स्वर में अपने लिए कुछ कहते सुना तो असमंजस में पड़ गई कि राज की बात मान ले या टाल दे. खैर, जीत राज की हुई. अब दोनों चुप बैठे थे.

हालांकि अंदर भावनाओं का तूफान उठा था दोनों के ही. राज ने ही चुप्पी तोड़ी बोला, ‘‘निशा, मु झे माफ कर दो,’’ और फिर जो भावावेश में बोलना चालू हुआ तो उसे कुछ भी होश न रहा और उस ने अपनी गलती की स्वीकारोक्ति भी कर ली. उस ने मान भी लिया कि उस ने पदप्रतिष्ठा के लिए स्मृति से शादी की और शादी के बाद उसे पता चला कि उस की असली खुशी कहीं और थी. स्मृति जो पहले सो रही थी न जाने कब जाग गई थी और चुपचाप लेटी थी. उस ने सब सुन लिया और उसे लगा कि क्यों न मरते हुए भी वह एक अच्छा काम कर जाए और 2 सच्चे प्यार वाले दिलों को मिलवा कर इस दुनिया से जाए. बस वह मन ही मन कुछ सोचने लगी. नील जब शाम को निशा को लेने आया तो स्मृति ने उसे बातों में उल झा लिया. फिर राज से कहा कि वह निशा को घर ड्रौप कर दे. वह नील के साथ बचपन की बातें कर रही है… उसे कुछ राहत मिलती है अपने वर्तमान के दुखों से. निशा और राज के जाते ही स्मृति ने नील से कहा, ‘‘नील, तुम से कुछ मांगना चाहती हूं.’’ नील थोड़ा भावुक हो गया. उस ने कहा, ‘‘तुम क्या चाहती हो? बोलो मैं तुम्हें दूंगा.’’ स्मृति ने कहा, ‘‘नील मैं तुम से राज की खुशियां मांगती हूं,’’ और फिर उसे बताया, ‘‘राज और निशा बहुत पुराने प्रेमी हैं. राज ने पदप्रतिष्ठा के लिए मु झ से शादी की थी, किंतु प्रेम वह निशा से ही करता था. यह बात मु झे आज ही पता चली है.

देखो मैं तो इस दुनिया से जा रही हूं किंतु तुम निशा को वापस राज को दे देना, बस तुम से यही चाहिए.’’ नील के तो पैरों तले की जमीन खिसक गई. नील ने निशा की सहेली रोशनी से बात की तो उसे सारी सचाई पता चली. अब नील ने सोचा कि 2 सच्चे प्रेमियों को मिलाना ही होगा. उस ने जाते ही अपना रैज्यूम एक अमेरिकन आईटी कंपनी में भेजा जहां पर स्मृति का एक दोस्त पहले से ही काम कर रहा था. स्मृति के कहने पर नील का चयन उस कंपनी में हो गया. उसे 3 साल का कौंट्रैक्ट साइन करना था. नील ने निशा से कहा, ‘‘निशा, मु झे अमेरिका में जौब औफर हुई है.’’ निशा बहुत खुश हुई. किंतु नील ने कहा, ‘‘देखो निशा मु झे वहां अकेले ही बुलाया गया है. अब तुम जैसा कहो.’’ निशा ने कहा, ‘‘नील, मैं तुम्हारी खुशी में कभी रास्ते का रोड़ा नहीं बनूंगी. अगर तुम मु झ से दूर जा कर जिंदगी में कामयाबी हासिल करना चाहते हो तो मैं तुम्हें रोकूंगी नहीं.’’ इस पर नील ने कहा, ‘‘निशा, मैं भी तुम्हें किसी बंधन में बांध कर नहीं जाना चाहता हूं. 3 साल का समय बहुत लंबा होता है.

तुम भी मेरी तरफ से आजाद हो,’’ नील थोड़ा भावुक हो गया था. निशा भी कुछ सम झ नहीं पा रही थी कि यह सब अचानक से क्या हो रहा है. खैर, वह चुप रही. 10 दिन बाद नील का वीजा और टिकट आ गया और वह चला गया. नील के जाते ही निशा काफी अकेली हो गई. ऐसे में राज ने उसे संभाला. अपनेपन की उष्णता पाते ही पुरानी भावनाएं पिघलने लगीं. उधर स्मृति की हालत बहुत तकलीफदेह हो गई थी. उस ने डाक्टर से पूछा, ‘‘उसे अब कितने दिन यह दर्द झेलना पड़ेगा?’’ डाक्टर ने कोई जवाब नहीं दिया. अब उस ने नर्स से एक कागज और पैन मांगा और राज को एक पत्र लिखा और साथ ही निशा से भी निवेदन किया कि वह राज को अपना ले और नील की कुरबानी को जाया न करे. जैसे ही स्मृति ने पत्र पूरा कर अपने तकिए के नीचे रखा वह एक संतोष लिए हमेशा के लिए सो गई और हर दर्द से आजाद हो गई. निशा एक बार फिर सोचने लगी कि नील और स्मृति ने ऐसा किया आखिर क्यों? द्य

सलाइयां- कैसे मशहूर हुई मेघना

जैसेएक जमाने में वर्षा की पहली बूंद पड़ते ही किसान हल निकाल कर अपने खेतों की ओर चल देते थे, ठीक उसी प्रकार 20-25 साल पहले पहली छींक की आवाज के साथ ही हर घर में महिलाओं व युवतियों के हाथों में सलाइयां नजर आने लगती थीं. छोटीबड़ी, मोटीपतली, रंगबिरंगी सलाइयां लगभग 7-8 माह तक हर परिवार की स्त्रियों के हाथों में दिखाई देती थीं. बच्चा चाहे गोद से छूट कर गिर जाए, चूल्हे पर चढ़ा दूध उफन कर पतीले से निकल जाए, पति बिना खाना खाए दफ्तर को चल दें, पर ये सलाइयां हाथों में जैसे चिपक सी जाती थीं. आज की सलाइयों की जगह मोबाइलों और लैपटौप ने ले ली है.

सलाइयों में एक विशेषता थी. ये भाले के साथसाथ कवच का भी काम करती थीं. मान लीजिए, बच्चों ने पति की कीमती ऐशट्रे तोड़ दी है और पति आगबबूला बने पूछते हैं, ‘‘किस ने किया है यह?’’

आवाज की कड़क से पत्नी जान जाती है कि अब लल्लू की खैर नहीं. साथ ही आंख के कोने से लल्लू को थरथर करती पीछे खड़ा देखती है. उसे मात्र एक मिनट का समय चाहिए बाहर भाग जाने को. बस, आप सलाइयों का कवच सामने कर देती हैं.

अचानक कुछ फंदे सलाई से निकल जाते और चेहरे पर भयंकर गंभीरता ओढ़े पत्नी उन्हें उठा रही होती थी. गरदन एक ओर ?ाक जाती थी. मेघना को हाथ के स्वैटर बुनना आज भी पसंद हैं. उस ने उस जमाने की भी और आज की भी ढेरों पत्रिकाएं जमा कर रखी हैं जिन में से वह डिजाइन ले कर मिटन, वूलन कैप, नी कैप, सौक्स आदि बनाती रहती है. मृदुल को उस का यह ओल्ड फैशन बिलकुल नहीं सुहाता खासतौर पर जब वह रात को बिस्तर में घुसता और मेघना सलाइयों में फंदे डालने में व्यस्त रहती. वह बहुत खीजता और कई बार तकिया उठा कर ड्राइंगरूम में सोफे पर पसर जाता.

ऐसे ही एक रात को जब वह मेघना की सलाइयों से ऊब कर सोफे पर सो रहा था तो उसे एक आदमी की चीख बैडरूम से सुनाईर् दी. घर में केवल मेघना और मृदुल, फिर यह कौन चीखा. वह कपड़े पहनते हुए बैडरूम की ओर भागा और दरवाजा खोल कर देखा तो एक 16 साल का लड़का अपनी आंख दबाए खड़ा था और मेघना सलाई लिए उसे मारने के लिए हाथ उठा रही थी.

लड़के की आंख तो चोट खा चुकी थी ही, उस के एक गाल से भी खून बह रहा था. मृदुल

ने स्थिति संभाली. लड़के को पकड़ा, दोनों ने मिल कर उस के हाथ गोले के धागे से कस कर बांध दिए और सोसायटी के गार्डों को बुलाया. पता चला कि वह लड़का एक माली का था जो काम छोड़ कर जा चुका था और शायद पिछली 2-3 चोरियों में उसी का हाथ था जो सोसायटी के फ्लैटों में हुई थीं.

कुछ ही देर में रात के 2 बजे भी फ्लैट के सामने भीड़ जमा हो गई. दुबलीपतली ओल्ड फैशन्ड मानी जाने वाली मेघना के सब तारीफों के पुल बांध रहे थे. सब से बड़े आश्चर्य की बात थी कि 2 कौड़ी की माने जाने वाली सलाई अब हथियार बन चुकी थी मानो वह लड़की के हाथों में एके 47 हो.

लड़का थरथर कांप रहा था. 2-4 उस को लगाने के बाद उस ने उगल दिया कि पिछले

4 महीनों में उस ने 6 फ्लैटों में चोरी की थी. 2 में तो उसे देख औरत ही नहीं पति की भी घिग्गी बंध गई थी इसलिए वह मेघना के घर में घुसा तो कौन्फिडैंट था. उसे क्या मालूम था कि यहां वह रात को 2 बजे तक सलाइयां चलाते मिलेगी सीमित रोशनी में.

जब सब चले गए तो दरवाजे बंद कर के सब से पहले मृदुल ने सलाई को चूमा, फिर मेघना को हाथों को और फिर जब आंखें मूंदने लगीं तो मेघना की आंखों को.

सुबह घंटी बजी तो दोनों घबरा कर उठे. दोनों तृप्त थे. कपड़े पहन कर दरवाजा खोला था तो कामवाली बाई पुष्पा 2-3 और बाइयों के साथ खड़ी थी.

‘‘मेमसाब आज जल्दी आ गई क्योंकि ये सब आप को देखना चाहती थीं,’’ फिर सकुचा कर बोली, ‘‘सब आप की सलाइयों से बुनना सीखना चाहती हैं. इन सब की मांएं इन्हें तो उन से काबू में रखती थीं. इन के बाप को भी रखती थीं. अब निहत्थी बेचारियां मर्दों से मार खाती हैं. सलाई हाथ में होगी तो कुछ तो डरेगा मर्द.’’

मेघना के मुंह से हंसी फूट रही थी. यही पुष्पा पूरी सोसायटी में मेघना मेमसाब के इस दकियानूसीपन की खबरें फैलाती रही थी.

अब जब किसी घर, शादी में जाना हो, कोई बीमार हो, विष्णु के सुदर्शनचक्र की

तरह सलाइयां सदैव पर्स में साथ रहती हैं और आंखें नईनई डिजाइनों की पकड़ में व्यस्त रहती हैं कि मशीन के बने स्वैटरों को कैसे वह हाथ से बना सकती है.

अब पता चला कि यही नहीं और भी उपयोग हैं इन सलाइयों के. सर्दियों में नारियल का तेल जम जाए तो सलाई शीशी में डाली और निकाल लिया तेल. कौन गरम करने का ?ां?ाट मोल ले. कान में खुजली है तो मजे से सलाई डाल कर मैल निकाल लीजिए. पिंटू ऊधम मचा रहा हो तो बेंत की तरह उस का उपयोग कीजिए. कहीं वाशबेसन में कुछ फंस जाए तो सलाई हाजिर है. बेवजह सिर खुजाने के लिए तो इस से अच्छी और कोई वस्तु आज तक ईजाद ही नहीं हुई. अब तो मृदुल के हाथ में कई बार सलाई रहती है जिस से दूर लगा स्विच बंद करना आसान लगता.

पूरी सोसायटी में मेघना अब फेमस हो गई है. वह छोटीमोटी सैलिब्रिटी बन गई है. सलाई यानी सैल्फ डिफैंस, सर्दी से भी, चोर से भी.

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