अनोखा रिश्ता- भाग 2: कौन थी मिसेज दास

जयशंकर के बुलाने पर मैं बरामदे से कमरे में पहुंचा और दरी पर पालथी मार कर बैठ गया. मिसेज दास सारा खाना कमरे में ही ले आईं और मेरे सामने अपने पैर पीछे की तरफ मोड़ कर बैठ गईं. जहां हम बैठे थे उस के ऊपर बहुत पुराना एक पंखा घरघरा रहा था. खाने के दौरान ही मिसेज दास ने कहना शुरू किया, ‘बेटा, हम तो गुवाहाटी में बस, अपनी इज्जत ढके बैठे हैं. 100-200 रुपए की सामर्थ्य भी हमारे पास नहीं है. मुझे दीदी को लिखना होगा. पैसे आने में शायद 8-10 दिन लग जाएं. तुम कल सुबह जयशंकर के साथ जा कर अपने घर पर एक टेलीग्राम डाल दो वरना तुम्हारे मातापिता चिंतित होंगे.’

मेरा मन भर आया. सहज होते ही मैं ने उन से कहा, ‘इतने दिनों में तो मेरे घर से भी पैसे आ जाएंगे. आप अपनी दीदी को कुछ न लिखें. मैं तो यह सोच कर परेशान हूं कि 8-10 दिन तक आप पर बोझ बना रहूंगा…’

‘तुम ऐसा क्यों सोचते हो,’ मिसेज दास ने बीच में ही मुझे टोकते हुए कहा, ‘जो रूखासूखा हम खाते हैं तुम्हारे साथ खा लेंगे.’

दूसरे दिन सुबह मैं जयशंकर के साथ पोस्टआफिस गया. मैं ने घर पर एक टेलीग्राम डाल दिया. जब हम वापस आए, मिसेज दास बरामदे में खाना बना रही थीं. मैं ने उन के हाथ पर टेलीग्राम की रसीद और शेष पैसे रख दिए. मैं इस परिवार में कुल 6 दिन रहा था. इन 6 दिन में एक बार मिसेज दास ने मीट बनाया था और एक बार मछली.

एक दिन शाम को जयशंकर ने ही मुझे बताया कि बाबा के गुजरने के बाद मेरे चाचा एक बार मां के पास शादी का प्रस्ताव ले कर आए थे पर मां ने उसे यह कह कर ठुकरा दिया कि मेरे पास जयशंकर है जिसे मैं बस, उस के बाबा के साथ ही बांट सकती हूं और किसी के साथ नहीं. जयशंकर को अगर आप मार्गदर्शन दे सकते हैं तो दें वरना मुझे ही सबकुछ देखना होगा. मैं अपने पति की आड़ में उसे एक ऐसा मनुष्य बनाऊंगी कि उसे दुनिया याद करेगी.

मिसेज दास का असली नाम मनीषा मुखर्जी था और उन के पति का नाम प्रणव दास. जब मैं उन से मिला था तब मेरी उम्र 21 साल की थी और वह 42 वर्ष की थीं. उन के कमरे की मेज पर पति की एक मढ़ी तसवीर थी. मैं अकसर देखता था कि बातचीत के दौरान जबतब उन की नजर अपने पति की तसवीर पर टिक जाती थी, जैसे उन्हें हर बात की सहमति अपने पति से लेनी हो.

यह गुवाहाटी में मेरा तीसरा दिन था. मिसेज दास स्कूल जा चुकी थीं. जयशंकर भी कालिज जा चुका था. मैं घर पर अकेला था सो शहर घूमने निकल पड़ा. घूमतेघूमते स्टेशन तक पहुंच गया. अचानक मेरी नजर एक होटल पर पड़ी, जिस का नाम रायल होटल था. कभी  बचपन में अपने ममेरे भाइयों से सुन रखा था कि बगल वाले गांव के एक बाबू साहब का गुवाहाटी रेलवे स्टेशन के समीप एक होटल है. मैं बाबू साहब से न कभी मिला था और न उन्हें देखा था. मैं तो उन का नाम तक नहीं जानता था. पर मुझे यह पता था कि शाहाबाद जिले के बाबू साहब अपने नाम के पीछे राय लिखते हैं.

होटल वाकई बड़ा शानदार था. मैं ने एक बैरे को रोक कर पूछा, ‘इस होटल के मालिक राय साहब हैं क्या?’

‘हां, हैं तो पर भैया, यहां कोई जगह खाली नहीं है.’

‘मैं यहां कोई काम ढूंढ़ने नहीं आया हूं. तुम उन से जा कर इतना कह दो कि मैं चिलहरी के कौशल किशोर राय का नाती हूं और उन से मिलना चाहता हूं.’

थोड़ी देर बाद वह बैरा मुझे होटल के एक कमरे तक पहुंचा आया, जहां बाबू साहब अपने बेड पर एक सैंडो बनियान और हाफ पैंट पहने नाश्ता कर रहे थे. गले में सोने की एक मोटी चेन पड़ी थी. बड़े अनमने ढंग से उन्होंने मुझ से कुछ पीने को पूछा और उतने ही अनमने ढंग से मेरे नाना का हालचाल पूछा.

मुझे ऐसा लग रहा था कि जग बिहारी राय को बस, एक डर खाए जा रहा था कि कहीं मैं उन से कोई मदद न मांग लूं. अब उस कमरे में 2 मिनट भी बैठना मुझे पहाड़ सा लग रहा था. संक्षेप में मैं अपने ननिहाल का हालचाल बता कर उन्हें कोसता कमरे से बाहर निकल आया.

जयशंकर के पास बस, 2 जोड़ी कपड़े थे. बरामदे के सामने वाले कमरे की मेज उस के पढ़नेलिखने की थी पर उस की साफसफाई मिसेज दास खुद ही करती थीं. मैं उन्हें मां कह कर भी बुला सकता था पर मैं उन की ममता का एक अल्पांश तक न चुराना चाहता था. वैसे तो जयशंकर थोड़े लापरवाह तबीयत का लड़का था पर उसे यह पता था कि उस की मां के सारे सपने उसी से शुरू और उसी पर खत्म होते हैं. मिसेज दास हमारी मसहरी ठीक करने आईं. मैं अभी भी जाग रहा था तो कहने लगीं. ‘नींद नहीं आ रही है?’

‘नहीं, मां के बारे में सोच रहा था.’

‘भूख तो नहीं लगी है, तुम खाना बहुत कम खाते हो.’

मैं उठ कर बैठ गया और बोला, ‘मिसेज दास, मेरा मन घबरा रहा है. मैं आप के कमरे में आऊं?’

‘आओ, मैं अपने और तुम्हारे लिए चाय बनाती हूं.’

फिर मैं उन्हें अपने और अपने परिवार के बारे में रात के एक बजे तक बताता रहा और बारबार उन्हें धनबाद आने का न्योता देता रहा.

अगले दिन गुवाहाटी के गांधी पार्क में मेरी मुलाकात एक बड़े ही रहस्यमय व्यक्ति से हुई. वह सज्जन एक बैंच पर बैठ कर अंगरेजी का कोई अखबार पढ़ रहे थे. मैं भी जा कर उन की बगल में बैठ गया. देखने में वह मुझे बड़े संपन्न से लगे. परिचय के बाद पता चला कि उन का पूरा नाम शिव कुमार शर्मा था. वह देहरादून के रहने वाले थे पर चाय का व्यवसाय दार्जिलिंग में करते थे. व्यापार के सिलसिले में उन का अकसर गुवाहाटी आनाजाना लगा रहता था.

2 दिन पहले जिस ट्रेन में सशस्त्र डकैती पड़ी थी, उस में वह भी आ रहे थे अत: उन्हें अपने सारे सामान से तो हाथ धोना ही पड़ा साथ ही उन के हजारों रुपए भी लूट लिए गए थे. उन्हें कुछ चोटें भी आईं, जिन्हें मैं देख चुका था. डकैतों का तो पता न चल पाया पर एक दक्षिण भारतीय के घर पर उन्हें शरण मिल गई जो गुवाहाटी में एक पेट्रोल पंप का मालिक था.

मैं ने उन की पूरी कहानी तन्मय हो कर सुनी. अब अपने बारे में कुछ बताने में मुझे बड़ी झिझक हुई. यह सोच कर कि जब मैं उन की बातों का विश्वास न कर पाया तो वह भला मेरी बातों का भरोसा क्यों करते? उन्हें बस, इतना ही बताया कि धनबाद से मैं यहां अपने एक दोस्त से मिलने आया हूं.

 

नीलोफर: क्या दोबारा जिंदगी जी पाई नीलू

लेखिका- शर्मिला चौहान

खिड़कीके सामने अशोक की झांकती टहनी पर छोटा सा आशियाना बना रखा था उस ने. जितनी छोटी वह खुद थी, उस के अनुपात से बित्ते भर का उस का घर. मालती जबजब शुद्ध हवा के लिए खिड़की पर आती, उसे देखे बिना वापस न जाती. वह थी ही इतनी खूबसूरत चिकनीचमकती, पीठ जहां खत्म होती वहीं से पूंछ शुरू. भूरे छोटे परों पर 2-4 नीले परों का आवरण चढ़ा था, यही नीला आवरण उसे दूसरी चिडि़यों से अलग करता था. उस छोटी सी मादा को भी अपनी सब से खूबसूरज चीज पर अभिमान तो जरूर ही था.

खाली समय में चोंच से नीले परों को साफ करती, अपनी हलकी पीलापन लिए भूरी आंखों से चारों ओर का जायजा लेती कि उस के सुंदर रूप को कोई निहार भी रहा है या नहीं. उस छोटी, नन्ही चिडि़या के परों के कारण मालती ने उस का नाम ‘नीलोफर’ रख दिया था.

‘‘मम्मी, नीलोफर ने शायद अंडे दिए हैं… वह उस घोंसले से हट ही नहीं रही,’’ मालती की 24 साल की बेटी नीलू ने उसी खिड़की के पास से मालती को आवाज दी.

‘‘मुझे भी ऐसा ही लगता है, इसलिए इतनी मेहनत कर के घर बनाया उस ने,’’ कहती हुई मालती भी खिड़की के  बाहर झांकने लगी.

नीलू को बाहर टकटकी बांधे देख कर मालती नीलू के बालों पर उंगलियों से कंघी

करने लगी.

‘‘आप ने इस चिडि़या का नाम नीलोफर क्यों रखा मम्मी?’’ नीलू अभी भी उस छोटी चिडि़या में गुम थी.

‘‘उस के नीले पर कितने प्यारे हैं, बस इसीलिए वह नीलोफर हो गई,’’ मालती ने मुसकराते हुए कहा.

‘‘मेरा नाम नीलू क्यों रखा?’’ नीले ने अगला सवाल किया.

‘‘इसलिए कि तुम्हारी नीली आंखें झील सी पारदर्शी हैं. तुम्हारे मन की बात आंखें कह देती

हैं तो तुम नीलू हो,’’ मालती ने कहा और फिर नीलू की ह्वीलचेयर को धकेल कर बैठक की ओर ले गई.

नीलू ने रिमोट से टैलीविजन चालू किया और कुछ पजांबी डांस वाले गानों का मजा लेने लगी. किसी त्योहार का दृश्य था और रंगबिरंगी पोशाकें पहने लड़कियां ढोल की थाप पर झूमझूम कर नाच रही थीं. मालती ने कनखियों से नीलू को देखा, वह तन्मय हो कर गाना गा रही थी और कमर के ऊपर के शरीर को नाचने की मुद्रा में ढालने में लगी थी.

उसे गाने के बोल और नत्ृय की मुद्राओं

में तल्लीन देख कर मालती उस के बचपन में

खो गई…

‘‘मम्मी, मुझे क्लासिकल डांस नहीं

सीखना है, मुझे तो डांस वाले फिल्मी गाने पसंद हैं,’’ 7 साल की नीलू ने जिद कर के बौलीवुड गानों पर नाचना शुरू किया था.

‘‘क्या है मम्मी, यह दिनभर बंदरिया की तरह उछलकूद मचाती रहती है… आईने के

सामने मटकती रहती है और कोई काम नहीं

है क्या इसे?’’ नीलू से 4 साल बड़ा शुभम झल्लाता रहता.

‘‘आप भी नाचो न, आप को तो आता ही नहीं,’’ कहती नीलू उसे और चिढ़ाती.

समय पंख लगा कर उड़ता गया और नीलू

9 साल की हो गई.

‘‘कल सबुह बस से शुभम की स्कूल पिकनिक जा रही है. हम उसे स्कूल बस तक छोड़ आएंगे,’’ मालती ने अपने पति से कहा.

‘‘मैं भी जाऊंगी भैया को छोड़ने,’’ नीलू ने रात को ही कह दिया था.

सुबह सब कार से शुभम को स्कूल बस

तक छोड़ कर वापस आ रहे थे.

‘‘पापा, रुको न, हम वहां रुक कर कुछ खाते हैं. मेरी फ्रैंड्स कहती हैं कि सुबह यहां वड़ा पाव, इडलीडोसा और सैंडविच बहुत अच्छे मिलते हैं,’’ स्कूल के रास्ते पर एक छोटे से रैस्टोरैंट के आगे नीलू ने कहा.

सब अभी उतर ही रहे थे कि नीलू दौड़ कर सड़क पार करने लगी.

‘‘नीलू… बेटा रुको…’’ मालती की आवाज बाजू से गुजरती कार के ब्रेक मारने में दब गई.

मिनटों में पासा पलट गया था. लहूलुहान नीलू अस्पताल में बेहोश पड़ी थी. तब से आज तक कभी खड़ी नहीं हो पाई. खेलताकूदता, दौड़ता, नाचता बचपन कमर के नीचे से शांत हो गया. ह्वीलचेयर में उस की दुनिया समा गई थी.

‘‘मम्मी, भैया को आज वीडियोकौल करेंगे तो मुझे उन से एक बैग मंगवाना है,’’ नीलू की आवाज से चौंक कर मालती वर्तमान में आ गई.

‘‘हां, आज करते हैं शुभम को कौल,’’ अमेरिका में जौब कर रहे बेटे शुभम के बारे में बात हो रही थी.

दूसरे दिन सुबहसुबह भाई से बात कर के अपने लिए एक मल्टीपर्पज बैग लाने को कह कर नीलू ह्वीलचेयर ले कर खिड़की पर आ गई.

पापा और भाई की सलाह से नीलू ने अपनी पढ़ाई तो चालू रखी ही, साथ ही हस्तकला की सुंदर चीजें भी बनाती रही. कुदरत ने उस के पैरों की सारी शक्ति मानो हाथों को दे दी. बारीक धागों, सीपियों, मोतियों, जूट से खूबसूरत बैग और वाल हैगिंग बनाती थी.

उस के काम में मदद करने के लिए मालती तो थी ही, साथ ही एक और लड़की को रखा था जो सामान उठाने, रखने में मदद करती थी. बड़ेबड़े बुटीक से और्डर आते थे और सब मिल कर उन्हें समय पर पूरा करते. धीरेधीरे जिंदगी अपनी गति फिर पकड़ने लगी थी.

‘‘मम्मी, आप को मेरी बहुत चिंता होती रहती है न?’’ एक चिरपरिचित से अंदाज में नीलू कहा करती थी.

‘‘नहीं तो, मैं क्यों करूंगी चिंता? तू

तो खुद समझदार है, अपने काम कर लेती है. बुटीक के और्डर भी संभालती है और पढ़ाई

भी कर रही है,’’ मालती हमेशा उसे प्रोत्साहित करती.

‘‘चेहरे पर इतनी झुर्रियां आ गई, आंखों के नीचे काले निशान हो गए. अब भी कहोगी कि कोई चिंता नहीं,’’ नीलू की गहरी नीली आंखें अंदर तक भेद जातीं.

नीलू की कमर से निचले अंगों की स्वच्छता, कपड़े पहनाने का काम मालती खुद करती थी. एक जवान लड़की को किसी दूसरे के हाथों से ये सब काम करवाने की स्थिति का सामना रोज ही दोनों करते थे.

अचानक, चींचीं, चींचीं की आवाज के साथ कांवकांव का शोर होने लगा.

‘‘मम्मी देखो. नीलोफर के घोंसले में एकसाथ 3-4 कौए आ गए. उसे परेशान कर रहे हैं. बचाओ मम्मी, नीलोफर को, उस के अंडों को,’’ नीलू की आवाज दर्दनाक थी जैसे कोई उस पर घात कर रहा हो.

मालती रसोई से भाग कर कमरे की खिड़की पर आ गई. नीलू की ओर देखा, वह पसीने से तरबतर हो रही थी.

‘‘मम्मी, प्लीज नीलोफर को बचा लो. ये कौए उसे मार डालेंगे. आप ने जैसे मुझे बचा लिया, इस को भी बचा लो मम्मा…’’ नीलू की आवाज कुएं से बाहर आने का प्रयास कर रही थी. एक अंधकार जिस में वह खुद जी रही थी, एक सन्नाटा जिस को वह झेल रही थी. दूरदूर तक आशाओं का क्षितिज था, जो हमेशा मुट्ठी से फिसलने को लालायित रहता.

‘‘बेटा, हरेक को अपनी लड़ाई खुद लड़नी पड़ती है. कोई दूसरा कुछ मदद तो कर सकता है पर जीवनभर साथ नहीं दे सकता,’’ मालती ने नीलू का हाथ थाम लिया, ‘‘नीलोफर की लड़ाई उस की अपनी है. हम सिर्फ कुदरत से प्रार्थना कर सकते हैं कि उसे शक्ति दे.’’

‘‘आप तो उन कौओं को भगा सकती हो न, मैं तो उठ कर उन्हें नहीं मार सकती,’’ नीलू की आवाज कंपकंपा रही थी.

‘‘अपने अंडों की चिंता हम से ज्यादा नीलोफर को खुद है. तुम देखो, वह कैसे अपनी लड़ाई लड़ेगी,’’ मालती ने बेटी को दिलासा तो दे दिया परंतु एक नन्ही सी चिडि़या की शक्ति पर उस को विश्वास नहीं था. अत: अंदर से एक बड़ी लकड़ी ले आई.

‘‘सामने देख कर हत्प्रभ रह गई कि

4 कौओं से अकेली नीलोफर पूरे विश्वास से

जूझ रही थी. अपनी छोटी परंतु नुकीली चोंच से, कौए की आंखों पर वार करकर के 2 कौओं को भगा दिया उस ने. एक नजर अपने अंडों पर डाली, पंख फड़फड़ा शक्ति का संचार किया,

परंतु यह क्या.. उस के नीले चमकीले पंखों में से 2 गिर गए.

एक भरपूर निगाह गिरे पंखों पर डाल कर वह तेजी से चींचीं, चींचीं करती हुई बचे दोनों कौओं पर वार करने लगी.

सांस थाम कर खिड़की से मालती और

नीलू उस नन्ही सी चिडिंया का हौसला

बढ़ा रहे थे. पक्षी मन की बात समझ लेते हैं

जिसे जुबान के रहते मनुष्य नहीं समझ पाते. संबल देती 4 आंखों ने नीलोफर को बिजली सी गति दे दी.

उड़उड़ कर वह अपनी चोंच से लगातार

वार करती रही. कौओं की बड़ी, मोटी चोंच से खुद को बचाना छोड़ दिया उस ने और आक्रामक हो गई.

आखिर एक मां के आगे वे दोनों हार गए और भाग खड़े हुए. लंबी सांस भर कर नीलोफर ने अपने घोंसले में सुरक्षित अंडों को प्रेम से जीभर देखा. उस की नजर खिड़की पर रुक गई, जहां दोनों मादा तालियां बजा कर उस का अभिनंदन कर रही थीं.

नीलोफर अपने क्षतिग्रस्त शरीर का मुआयना करने लगी. जगहजगह कौओं की चोंच से घाव हो गए थे.

उस के चमकीले, नीले पंख अब शरीर छोड़ कर नीचे गिर गए थे. उस की आखों में एक बंदू सी चमकने लगी.

‘‘नीलोफर, तुम दुनिया की सब से

खूबसूरत चिडि़या हो, तुम्हें नीले पंखों की जरूरत ही नहीं है. आज तुम्हारी खूबसूरती को मैं ने महसूस किया है,’’ नीलू की बात, उस छोटे से पंछी ने कितनी समझी पता नहीं पर खुशी से चिचियाने लगी.

नीलू ने घूम कर मालती की ओर देखा. मम्मी के दमकते चेहरे पर आज कोई झर्री आंखों के नीचे कोई कालापन नहीं दिखाई दिया.

अनोखा रिश्ता- भाग 1: कौन थी मिसेज दास

जयशंकर से गले मिल कर जब मैं अपनी सीट पर जा कर बैठा तो देखा मनीषा दास आंचल से अपनी आंखें पोंछे जा रही थीं. उन के पांव छूते समय ही मेरी आंखें नम हो गई थीं. धीरेधीरे टे्रन गुवाहाटी स्टेशन से सरकने लगी और मैं डबडबाई आंखों से उन्हें ओझल होता देखता रहा.

इस घटना को 25 वर्ष बीत चुके हैं. इन 25 वर्षों में जयशंकर की मां को मैं ने सैकड़ों पत्र डाले. अपने हर पत्र में मैं गिड़गिड़ाया, पर मुझे अपने एक पत्र का भी जवाब नहीं मिला. मुझे हर बार यही लगता कि श्रीमती दास ने मुझे माफ नहीं किया. बस, यही एक आशा रहरह कर मुझे सांत्वना देती रही कि जयशंकर अपनी मां की सेवा में जीजान से लगा होगा.

मेरे लिए मनीषा दास की निर्ममता न टूटी जिसे मैं ने स्वयं खोया, अपनी एक गलती और एक झूठ की वजह से. इस के बावजूद मैं नियमित रूप से पत्र डालता रहा और उन्हें अपने बारे में सबकुछ बताता रहा कि मैं कहां हूं और क्या कर रहा हूं.

एक जिद मैं ने भी पकड़ ली थी कि जीवन में एक बार मैं श्रीमती दास से जरूर मिल कर रहूंगा. असम छोड़ने के बाद कई शहर मेरे जीवन में आए, बनारस, इलाहाबाद, लखनऊ, दिल्ली, देहरादून फिर मास्को और अंत में बर्लिन. इन 25 वर्षों में मुझ से सैकड़ों लोग टकराए और इन में से कुछ तो मेरी आत्मा तक को छू गए लेकिन मनीषा दास को मैं भूल न सका. वह जब भी खयालों में आतीं  मेरी आंखें नम कर जातीं.

मां की तबीयत खराब चल रही थी. 6 सप्ताह की छुट्टी ले कर भारत आया था. मां को देखने के बाद एक दिन अनायास ही मनीषा दास का खयाल जेहन में आया तो मैं ने गुवाहाटी जाने का फैसला किया और अपने उसी फैसले के तहत आज मैं मां समान मनीषा दास से मिलने जा रहा हूं.

गुवाहाटी मेल अपनी रफ्तार से चल रही थी. मैं वातानुकूलित डब्बे में अपनी सीट पर बैठा सोच रहा था कि यदि श्रीमती दास ने मुझे अपने घर में घुसने नहीं दिया या फिर मुझे पहचानने से इनकार कर दिया तब? इस प्रश्न के साथ ही मैं ने मन में दृढ़ निश्चय कर लिया कि चाहे जो हो पर मैं अपने मन की फांस को निकाल कर ही आऊंगा.

मेरे जेहन में 25 साल पहले की वह घटना साकार रूप लेने लगी जिस अपराधबोध की पीड़ा को मन में दबाए मैं अब तक जी रहा हूं.

मैं गुवाहाटी मेडिकल कालिज में अपना प्रवेश फार्म जमा करवाने गया था. रास्ते में मेरा बटुआ किसी ने निकाल लिया. उसी में मेरे सारे पैसे और रेलवे के क्लौक रूम की रसीद भी थी. इस घटना से मेरी तो टांगें ही कांपने लगीं. मैं सिर पकड़ कर प्लेटफार्म की एक बेंच पर बैठ गया.

इस परदेस में कौन मेरी बातों पर भरोसा करेगा. मुझे कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था. तभी एक लड़का मेरे पास समय पूछने आया. मैं ने अपनी कलाई उस की ओर बढ़ा दी. वह स्टेशन पर किसी को लेने आया था. समय देख कर वह भी मेरे बगल में बैठ गया. थोड़ी देर तक तो वह चुप रहा फिर अपना परिचय दे कर मुझे कुरेदने लगा कि मैं कहां से हूं, गुवाहाटी में क्या कर रहा हूं? मैं ने थोड़े में उसे अपना संकट सुना डाला.

थोड़ी देर की खामोशी के बाद वह बोला, ‘धनबाद का किराया भी तो काफी होगा.’

‘हां, 100 रुपए है.’ यह सुन कर वह बोला कि यह तो अधिक है. पर तुम  अपना जी छोटा न करो. मां को आने दो उन से बात करेंगे.

तभी एक टे्रन आने की घोषणा हुई और वह लड़का बिना मुझ से कुछ कहे उठ गया. उस की बेचैनी मुझ से छिपी न थी. ट्रेन के आते ही प्लेट-फार्म पर ऐसी रेलपेल मची कि वह लड़का मेरी आंखों से ओझल हो गया.

15 मिनट बाद जब प्लेटफार्म से थोड़ी भीड़ छंटी तो मैं ने देखा कि वह लड़का अपनी मां के साथ मेरे सामने खड़ा था. मैं ने उठ कर उन के पांव को छुआ तो उन्होंने धीरे से मेरा सिर सहलाया और बस, इतना ही कहा, ‘जयशंकर बता रहा था कि तुम्हारा सूटकेस क्लौक रूम में है जिस की रसीद तुम गुम कर चुके हो. सूटकेस का रंग तो तुम्हें याद है न.’

मैं उन के साथ क्लौक रूम गया. अपना पता लिखवा कर वह सूटकेस निकलवा लाईं. जयशंकर ने अपनी साइकिल के कैरियर पर मेरा सूटकेस लाद लिया और मैं ने उस की मां का झोला अपने कंधे से लटका लिया. पैदल ही हम घर की तरफ चल पड़े.

आगेआगे जयशंकर एक हाथ से साइकिल का हैंडल और दूसरे से मेरा सूटकेस संभाले चल रहा था, पीछेपीछे मैं और उस की मां. जयशंकर का घर आने का नाम ही न ले रहा था. रास्ते भर उस की मां ने मुझ से एक शब्द तक न कहा, वैसे जयशंकर ने मुझे पहले ही बता दिया था कि मेरी मां सोचती बहुत हैं बोलती बहुत कम हैं. तुम इसे सहज लेना.

रास्ते भर मैं जयशंकर की मां के लिए एक नाम ढूंढ़ता रहा. उन के लिए मिसेज दास से उपयुक्त कोई दूसरा नाम न सूझा.

आखिरकार हम एक छोटी सी बस्ती में पहुंचे, जहां मिसेज दास का घर था, जिस की ईंटों पर प्लास्टर तक न था. देख कर लगता था कि सालों से घर की मरम्मत नहीं हुई है. छत पर दरारें पड़ी हुई थीं. कई जगहों से फर्श भी टूटा हुआ था पर कमरे बेहद साफसुथरे थे. दरवाजों और खिड़कियों पर भी हरे चारखाने के परदे लटक रहे थे. इन 2 कमरों के अलावा एक और छोटा सा कमरा था जिस में घर का राशन बड़े करीने से सजा कर रखा गया था.

मिसेज दास ने मुझे एक तौलिया पकड़ाते हुए हाथमुंह धोने को कहा. जब मैं बाथरूम से बाहर निकला तो संदूक पर एक थाली में कुछ लड्डू और मठरी देखते ही मेरी जान में जान आ गई.

मिसेज दास ने आदेश देते हुए कहा, ‘तुम जयशंकर के साथ थोड़ा नाश्ता कर लो फिर उस के साथ बाजार चले जाना. जो सब्जी तुम्हें अच्छी लगे ले आना. तब तक मैं खाने की तैयारी करती हूं.’

नाश्ता करने के बाद मैं जयशंकर के साथ सब्जी खरीदने के लिए बाजार चला गया. वापस लौटने तक मिसेज दास पूरे बरामदे की सफाई कर के पानी का छिड़काव कर चुकी थीं. दोनों चौकियों पर दरियां बिछी हुई थीं और वह एक गैस के स्टोव पर चावल बना रही थीं. घर वापस आते ही जयशंकर अपनी मां के साथ रसोई में मदद करने लगा और मैं वहीं बरामदे में बैठा अपनी वर्तमान दशा पर सोचता रहा. कब आंख लग गई पता ही न चला.

भटकाव के बाद: परिवार को चुनने की क्या थी मुकेश की वजह

संजीव का फोन आया था कि वह दिल्ली आया हुआ है और उस से मिलना चाहता है. मुकेश तब औफिस में था और उस ने कहा था कि वह औफिस ही आ जाए. साथसाथ चाय पीते हुए गप मारेंगे और पुरानी यादें ताजा करेंगे. संजीव और मुकेश बचपन के दोस्त थे, साथसाथ पढ़े थे. विश्वविद्यालय से निकलने के बाद दोनों के रास्ते अलग हो गए थे. मुकेश ने प्रतियोगी परीक्षाओं के माध्यम से केंद्र सरकार की नौकरी जौइन कर ली थी. प्रथम पदस्थापना दिल्ली में हुई थी और तब से वह दिल्ली के पथरीले जंगल में एक भटके हुए जानवर की तरह अपने परिवार के साथ जीवनयापन और 2 छोटे बच्चों को उचित शिक्षा दिलाने की जद्दोजहद से जूझ रहा था. संजीव के पिता मुंबई में रहते थे. शिक्षा पूरी कर के वह वहीं चला गया था और उन के कारोबार को संभाल लिया. आज वह करोड़ों में नहीं तो लाखों में अवश्य खेल रहा था. शादी संजीव ने भी कर ली थी, परंतु उस के जीवन में स्वच्छंदता थी, उच्छृंखलता थी और अब तो पता चला कि वह शराब का सेवन भी करने लगा था. इधरउधर मुंह मारने की आदत पहले से थी.

अब तो खुलेआम वह लड़कियों के साथ होटलों में जाता था. कारोबार के सिलसिले में वह अकसर दिल्ली आया करता था. जब भी आता, मुकेश को फोन अवश्य करता था और कभीकभार मौका निकाल कर उस से मिल भी लेता था, परंतु आज तक दोनों की मुलाकात मुकेश के औफिस में ही हुई थी. मुकेश की जिंदगी कोल्हू के बैल की तरह थी, बस एक चक्कर में घूमते रहना था, सुबह से शाम तक, दिन से ले कर सप्ताह तक और इसी तरह सप्ताह-दर-सप्ताह, महीने और फिर साल निकलते जाते, परंतु उस के जीवन में कोई विशेष परिवर्तन होता दिखाई नहीं पड़ रहा था. नौकरी के बाद उस के जीवन में बस इतना परिवर्तन हुआ था कि दिल्ली में पहले अकेला रहता था, शादी के बाद घर में पत्नी आ गई थी और उस के बाद 2 बच्चे हो गए थे परंतु जीवन जैसे एक ही धुरी पर अटका हुआ था. निम्नमध्यवर्गीय जीवन की वही रेलमपेल, वही समस्याएं, वही कठिनाइयां और रातदिन उन से जूझते रहने की बेचैनी, कशमकश और निष्प्राण सक्रियता, क्योंकि कहीं न कहीं उसे यह लगता था कि उस के पारिवारिक जीवन में कोई उल्लेखनीय परिवर्तन नहीं होने वाला है, सो जीवन के प्रति ललक, जोश और उत्तेजना दिनोंदिन क्षीण होती जा रही थी.

उधर से संजीव ने कहा था, ‘‘अरे यार, इस बार मैं तेरे औफिस नहीं आने वाला हूं. आज 31 दिसंबर है और तू मेरे यहां आएगा, मेरे होटल में. आज हम दोनों मिल कर नए साल का जश्न मनाएंगे. मेरे साथ मेरे 2 दोस्त भी हैं, तुझे मिला कर 4 हो जाएंगे. सारी रात मजा करेंगे. बस, तू तो इतना बता कि मैं तेरे लिए गाड़ी भेजूं या तू खुद आ जाएगा?’’ मुकेश सोच में पड़ गया. सुबह घर से निकलते समय उस के बच्चों ने शाम को जल्दी घर आने के लिए कहा था. वह दोनों शाम को बाहर घूमने जाना चाहते थे. घूमफिर कर किसी रेस्तरां में उन सब का खाना खाने का प्रोग्राम था. वह जल्दी से कोई जवाब नहीं दे पाया, तो उधर से संजीव ने अधीरता से कहा, ‘‘क्या सोच रहा है यार. मैं इतनी दूर से आया हूं और तू होटल आने में घबरा रहा है.’’

उस ने बहाना बनाया, ‘‘यार, आज बच्चों से कुछ कमिटमैंट कर रखा है और तू तो जानता है, मैं कुछ खातापीता नहीं हूं. तुम लोगों के रंग में भंग हो जाएगा.’’ ‘‘कुछ नहीं होगा, तू भाभी और बच्चों को फोन कर दे. बता दे कि मैं आया हुआ हूं. और सुन, एक बार आ, तू भी क्या याद करेगा. तेरे लिए स्पैशल इंतजाम कर रखा है.’’ उस की समझ में नहीं आया कि संजीव ने उस के लिए क्या स्पैशल इंतजाम कर रखा है. स्पैशल इंतजाम के रहस्य ने उस की निम्नमध्यवर्गीय मानसिकता की सोच के ऊपर परदा डाल दिया और वह ‘स्पैशल इंतजाम’ के रहस्य को जानने के लिए बेताब हो उठा. उस ने संजीव से कहा कि वह आ रहा है परंतु उस से वादा ले लिया कि उसे 10 बजे तक फ्री कर देगा. फिर पूछा, ‘‘कहां आना है?’’ संजीव ने हंसते हुए कहा, ‘‘तू एक बार आ तो सही, फिर देखते हैं. पहाड़गंज में होटल न्यू…में आना है. मेन रोड पर ही है.’’ मुकेश ने कहा कि वह मैट्रो से आ जाएगा और फिर फोन कर के पत्नी से कहा कि घर आने में उसे थोड़ी देर हो जाएगी. वह घर में ही खाना बना कर बच्चों को खिलापिला दे. आते समय वह उन के लिए चौकलेट और मिठाई लेता आएगा. उस की बात पर पत्नी ने कोई एतराज नहीं किया. वह जानती थी कि उस का पति एक सीधासादा इंसान है और बेवजह कभी घर से बाहर नहीं रहता. उसे अपनी पत्नी और बच्चों की बड़ी परवा रहती है.

मुकेश होटल पहुंचा तो संजीव उसे लौबी में ही मिल गया. बड़ी गर्मजोशी से मिला. हालचाल पूछे और कमरे की तरफ जाते हुए होटल के मैनेजर से परिचय कराया. मैनेजर बड़ी गर्मजोशी से मिला जैसे मुकेश बहुत बड़ा आदमी था. कमरे में उस के 2 दोस्त बैठे बातें कर रहे थे. संजीव ने उन से मुकेश का परिचय कराया. वे दोनों दिल्ली के ही रहने वाले थे. मुकेश से बड़ी खुशदिली से मिले, परंतु मुकेश शर्म और संकोच के जाल में फंसा हुआ था. होटल के बंद माहौल में वह अपने को सहज नहीं महसूस कर पा रहा था. इस तरह के होटलों में आना उस के लिए बिलकुल नया था. ऐसा कभी कोई संयोग उस के जीवन में नहीं आया था. कभीकभार पत्नी और बच्चों के साथ छोटेमोटे रेस्तराओं में जा कर हलकाफुलका खानापीना अलग बात थी. संजीव अपने दोस्तों की तरफ मुखातिब होते हुए बोला, ‘‘चलो, कुछ इंतजाम करो, मेरा बचपन का दोस्त आया है. आज इस की तमन्नाएं पूरी कर दो. बेचारा, कुएं का मेढक है. इस को पता तो चले कि दुनिया में परिवार के अतिरिक्त भी बहुतकुछ है, जिन से खुशियों के रंगबिरंगे महल खड़े किए जा सकते हैं.’’ फिर उस ने मुकेश की पीठ में धौल जमाते हुए कहा, ‘‘चल यार बता, तेरी क्याक्या इच्छाएं हैं, तमन्नाएं और कामनाएं हैं, आज सब पूरी करवा देंगे. यह मेरे मित्र का होटल है और फिर आज तो साल का अंतिम दिन है. कुछ घंटों के बाद नया साल आने वाला है. आज सारे बंधन तोड़ कर खुशियों को गले लगा ले.’’

संजीव कहता जा रहा था. ‘पहले तो कभी इतना अधिक नहीं बोलता था,’ मुकेश मन ही मन सोच रहा था. पहले वह भी मुकेश की तरह शर्मीला और संकोची हुआ करता था. दोनों एक कसबेनुमां गांव के रहने वाले थे. उन के संस्कारों में नैतिकता और मर्यादा का अंश अत्यधिक था. मुकेश दिल्ली आ कर भी अपने पंख नहीं फैला सका था. पिंजरे में कैद पंछी की तरह परिवार के साथ बंध कर रह गया था, जबकि संजीव ने मुंबई जा कर जीवन को खुल कर जीने के सभी दांवपेंच सीख लिए थे. सच कहा गया है, संपन्नता मनुष्य में बहुत सारे गुणअवगुण भर देती है, परंतु उस के अवगुण भी दूसरों को सद्गुण लगते हैं. जबकि गरीबी मनुष्य से उस के सद्गुणों को भी छीन लेती है. उस के सद्गुण भी दूसरों को अवगुण की तरह दिखाई पड़ते हैं. संजीव के एक दोस्त अमरजीत ने कहा, ‘‘आप के मित्र तो बड़े संकोची लगते हैं, लगता है, कभी घर से बाहर नहीं निकले.’’

मुकेश वाकई संकोच में डूबा जा रहा था. जिस तरह की बातें संजीव कर रहा था, उस तरह के माहौल से आज तक वह रूबरू नहीं हुआ था. वह किसी तरह के झमेले में पड़ने के लिए यहां नहीं आया था. वह तो केवल संजीव के जोर देने पर उस से मिलने के लिए आ गया था. उस ने सोचा था, कुछ देर बैठेगा, चायवाय पिएगा, गपशप मारेगा, और फिर घर लौट आएगा. रास्ते में बच्चों के लिए केक खरीद लेगा, वह भी खुश हो जाएंगे. दिसंबर की बेहद सर्द रात में भी मौसम इतना गरम था कि उसे अपना कोट उतारने की इच्छा हो रही थी. पर मन मार कर रह गया. सभी सोचते कि वह भी मौजमस्ती के मूड में है. उस ने संजीव के मुंह की तरफ देखा. वह उसे देख कर मुसकरा रहा था, जैसे उस के मन की बात समझ गया था. बोला, ‘‘सोच क्या रहा है? कपड़े वगैरह उतार कर रिलैक्स हो जा. अभी तो मजमस्ती के लिए पूरी रात बाकी है.’’ संजीव का एक दोस्त मोबाइल पर किसी से बात कर रहा था और दूसरा दोस्त इंटरकौम पर खानेपीने का और्डर कर रहा था. संजीव स्वयं मुकेश से बात करने के अतिरिक्त मोबाइल पर बीचबीच में बातें करता जा रहा था. गोया, उस कमरे में मुकेश को छोड़ कर सभी व्यस्त थे. उन की व्यस्तता में कोई चिंता, परेशानी या उलझन नहीं दिखाई दे रही थी. मुकेश व्यस्त न होते हुए भी व्यस्त था, उस के दिमाग में चिंता, उलझन और परेशानियों का लंबा जाल फैला हुआ था, जिस में वह फंस कर रह गया था. उस के जाल में उस की पत्नी फंसी हुई थी, उस के मासूम बच्चे फंसे हुए थे. उस के बच्चों की आंखों में एक कातर भाव था, जैसे मूकदृष्टि से पूछ रहे हों, ‘पापा, हम ने आप से कोई बहुत कीमती और महंगी चीज तो नहीं मांगी थी. बस, एक छोटा सा केक लाने के लिए ही तो कहा था. वह भी आप ले कर नहीं आए. पापा, आप घर कब तक आएंगे? हम आप का इंतजार कर रहे हैं.’

मुकेश के मन में एक तरह की अजीब सी बेचैनी और दिल में ऐसी घबराहट छा गई. जैसे वह अपने ही हाथों अपने बच्चों का गला घोंट रहा था, उन के अरमानों को चकनाचूर कर रहा था. पत्नी के साथ छल कर रहा था. वह उठ कर खड़ा हो गया और संजीव से बोला, ‘‘यार, मुझे घर जाना है, आप लोग एंजौय करो. वैसे भी मैं आप लोगों का साथ नहीं दे पाऊंगा.’’ ‘‘तो क्या हो गया? जूस तो ले सकता है, चिकन, मटन, फिश तो ले सकता है.’’

‘‘क्या 10 बजे तक फ्री हो जाऊंगा?’’ मुकेश ने जैसे हथियार डालते हुए कहा. ‘‘क्या यार, तुम भी बड़े घोंचू हो. बच्चों की तरह घर जाने की रट लगा रखी है. पत्नी और बच्चे तो रोज के हैं, परंतु यारदोस्त कभीकभार मिलते हैं. नए साल का जश्न मनाने का मौका फिर पता नहीं कब मिले,’’ संजीव थोड़ा चिढ़ते हुए बोला. थोड़ी देर में चिकनमटन की तमाम सारी तलीभुनी सामग्री मेज पर लग गई. मुकेश मन मार कर बैठा था, मजबूरी थी. अजीब स्थिति में फंस गया था. न आगे जाने का रास्ता उस के सामने था, न पीछे हट सकता था. संजीव उस की मनोस्थिति नहीं समझ सकता था. अपनी समझ में वह अपने दोस्त को जीवन की खुशियों से रूबरू होने का मौका भी प्रदान कर रहा था. परंतु मुकेश की स्थिति गले में फंसी हड्डी की तरह थी, जो उसे तकलीफ दे रही थी.

मुकेश के हाथ में जूस का गिलास था, परंतु जब भी वह गिलास को होंठों से लगाता, जूस का पीला रंग बिलकुल लाल हो जाता. खून जैसा लाल और गाढ़ा रंग देख कर उसे उबकाई आने लगती और बड़ी मुश्किल से वह घूंट को गले से नीचे उतार पाता. संजीव और उस के दोस्त बारबार उसे कुछ न कुछ खाने के लिए कहते और वह ‘हां, खाता हूं’ कह कर रह जाता, चिकनमटन के लजीज व्यंजनों की तरफ वह हाथ न बढ़ाता. उस के कानों में सिसकियों की आवाज गूंजने लगती, अपने बच्चों के सिसकने की आवाज… कितने छोटे और मासूम बच्चे हैं, अभी 7 और 5 वर्ष के ही तो हैं. इस उम्र में बच्चे मांबाप से बहुत ज्यादा लगाव रखते हैं. उन की उम्मीदें बहुत छोटी होती हैं, परंतु उन के पूरा होने पर मिलने वाली खुशी उन के लिए हजार नियामतों से बढ़ कर होती है.

तभी एक सुंदर, छरहरे बदन की युवती ने वहां कदम रखा. उस ने हंसते हुए संजीव के बाकी दोनों दोस्तों से हाथ मिलाया, फिर प्रश्नात्मक दृष्टि से मुकेश की तरफ देखने लगी. संजीव ने कहा, ‘‘मेरा यार है, बचपन का, थोड़ा संकोची है.’’ बीना ने अपना हाथ मुकेश की तरफ बढ़ाया. उस ने भी हौले से बीना की हथेली को अपनी दाईं हथेली से पकड़ा. बीना का हाथ बेहद ठंडा था. उस ने बीना की आंखों में देखा, वह मुसकरा रही थी. उस का चेहरा ही नहीं आंखें भी बेहद खूबसूरत थीं. चेहरे पर कोई मेकअप नहीं था, होंठों पर लिपस्टिक नहीं थी, बावजूद इस के वह बहुत सुंदर लग रही थी. मुकेश अपनी भावनाओं को छिपाते हुए बोला, ‘‘संजीव, अगर बुरा न मानो तो मुझे जाने दो. तुम लोग एंजौय करो. मैं कल तुम से मिलूंगा,’’ कह कर उठने का उपक्रम करने लगा. हालांकि यह एक दिखावा था, अंदर से उस का मन रुकने के लिए कर रहा था, परंतु मध्यवर्गीय व्यक्ति मानमर्यादा का आवरण ओढ़ कर मौजमस्ती करना पसंद करता है. बदनामी का भय उसे सब से अधिक सताता है, इसीलिए वह जीवन की बहुत सारी खुशियों से वंचित रहता है.

संजीव ने उस की बांह पकड़ कर फिर से कुरसी पर बिठा दिया, ‘‘बेकार की बातें मत करो.’’ संजीव की बात सुन कर मुकेश का हृदय धाड़धाड़ बजने लगा, जैसे किसी कमजोर पुल के ऊपर से रेलगाड़ी तेज गति से गुजर रही हो. वह समझ नहीं पाया कि यह खुशी के आवेग की धड़कन है या अनजाने, आशंकित घटनाक्रम की वजह से उस का हृदय तीव्रता के साथ धड़क रहा है? बीना ने मुकेश की तरफ देख कर आंख मार दी. वह झेंप कर रह गया.

संजीव बाहर निकलते हुए बोला, ‘‘चलो, जल्दी करो. मुकेश को घर जाना है.’’ संजीव बगल वाले कमरे में चला गया. मुकेश कमरे में अकेला रह गया, विचारों से गुत्थमगुत्था. उस ने अपने दिमाग को बीना के सुंदर चेहरे, पुष्ट अंगों और गदराए बदन पर केंद्रित करना चाहा, परंतु बीचबीच में उस की पत्नी का सौम्य चेहरा बीना के चंचल चेहरे के ऊपर आ कर बैठ जाता. उस के मन को बेचैनी घेरने लगती, परंतु यह बेचैनी अधिक देर तक नहीं रही. मुकेश चाहता था, वह बीना के शरीर की ढेर सारी खुशबू अपने नथुनों में भर ले, ताकि फिर जीवन में किसी दूसरी स्त्री के बदन की खुशबू की उसे जरूरत न पड़े. परंतु यहां खुशबू थी कहां? कमरे में एक अजीब सी घुटन थी. उस घुटन में मुकेश तेजतेज सांसें लेता हुआ अपने फेफड़ों को फुला रहा था और एकटक बीना के शरीर को ताक रहा था, जैसे बाज गौरैया को ताकता है. परंतु यहां बाज कौन था और गौरैया कौन, यह न मुकेश को पता था, न बीना को.

बीना तंदरुस्त लड़की थी और उस के हावभाव से लग रहा था कि वह किसी भले घर की नहीं थी. उस ने हाथ पकड़ कर मुकेश को खड़ा किया और बोली, ‘‘क्या खूंटे की तरह गड़े बैठे हो? कुछ डांसवांस नहीं करोगे? जल्दी करो. आज सारी रात जश्न मनेगा,’’ उस ने मुकेश के सामने खड़े हो कर अपने बाल संवारते हुए कुछ तल्खी से कहा. वह चुप बैठा रहा तो बीना ने बेताब हो कर अपने हाथों से उसे उठाते हुए कहा,  ‘‘आओ, अब डांस करो.’’ वह अचानक उठ खड़ा हुआ, जैसे उस के शरीर में कोई करंट लगा हो.

बीना बोली, ‘‘यह क्या? तुम्हें तो कुछ आता ही नहीं, वैसे के वैसे खड़े हो, खंभे की तरह…’’ परंतु मुकेश ने उस की तरफ दोबारा नहीं देखा. लपक कर वह बाहर आ गया. संजीव से भी मिलने की उस ने आवश्यकता नहीं समझी. गैलरी में आ कर उस ने इधरउधर देखा. इक्कादुक्का वेटर कमरों में आजा रहे थे. बाहर का वातावरण शांत था और हवा में हलकीहलकी सर्दी का एहसास था. वह होटल के बाहर आ गया. होटल के बाहर आ कर उसे चहलपहल का एहसास हुआ. उस ने समय देखा, 10 बजने में कुछ ही मिनट शेष थे. गोल मार्केट की दुकानें खुली होंगी, यह सोच कर वह गोल मार्केट की ओर चल दिया. साढ़े 10 बजे के लगभग जब हाथ में केक और मिठाई का डब्बा ले कर वह घर पहुंचा तो उस के मन में अपराधबोध था. आत्मग्लानि के गहरे समुद्र में वह डुबकी लगा रहा था. पत्नी ने जब दरवाजा खोला तो वह उस से नजरें चुरा रहा था. पत्नी को सामान पकड़ा कर वह अंदर आया. दोनों बच्चे उसे जगते हुए मिले. वे टीवी पर नए साल का कार्यक्रम देख रहे थे. उसे देख कर एकदम से चिल्लाए, ‘‘पापा आ गए, पापा आ गए. क्या लाए पापा हमारे लिए?’’

उस ने पत्नी की तरफ इशारा कर दिया. बच्चे मम्मी की तरफ देखने लगे तो उस ने लपक कर बारीबारी से दोनों बच्चों को चूम लिया. तब तक उस की पत्नी ने सामान ला कर मेज पर रख दिया, ‘‘वाउ, मिठाई और केक…अब मजा आएगा.’’ मुकेश के मन में एक बहुत बड़ी शंका घर कर गई थी. और वह शंका धीरेधीरे बढ़ती जा रही थी. उसे तत्काल दूर करना आवश्यक था. वह इंतजार नहीं कर सकता था. मुकेश दोनों बच्चों को नाचतागाता छोड़ कर पत्नी के पीछेपीछे किचन में आ गया. पत्नी ने उसे ऐसे आते देख कर कहा, ‘‘आप जूतेकपड़े उतार कर फ्रैश हो लीजिए. मैं पानी ले कर आती हूं.’’ ‘‘वह बाद मे कर लेंगे,’’ कह कर उस ने पत्नी को पीछे से पकड़ कर अपनी बांहों में भर लिया. पत्नी के हाथ से गिलास छूट गया. फुसफुसा कर बोली, ‘यह क्या कर रहे हैं आप?  ऐसा तो पहले कभी नहीं किया, बिना जूतेकपड़े उतारे और वह भी किचन में…’

‘‘पहले कभी नहीं किया, इसीलिए तो कर रहा हूं,’’ उस ने पूरी ताकत के साथ पत्नी के शरीर को भींच लिया. उस के शरीर में जैसे बिजली प्रवाहित होने लगी थी.

‘बच्चे देख लेंगे?’ पत्नी फिर फुसफुसाई. मुकेश के मन में हजार रंगों के फूल खिल कर मुसकराने लगे. उस के मन का भटकाव खत्म हो चुका था. अब उस के मन में कोई शंका नहीं थी, परंतु मुकेश को एक बात समझ में नहीं आ रही थी. कहते हैं कि आदमी को पराई औरत और पराया धन बहुत आकर्षित करता है. इन दोनों को प्राप्त करने के लिए वह कुछ भी कर सकता है. मुकेश को पराई नारी वह भी इतनी सुंदर, बिना किसी प्रयत्न के सहजता से उपलब्ध हुई थी, फिर वह उसे क्यों नहीं भोग पाया? यह रहस्य कोई मनोवैज्ञानिक ही सुलझा सकता था. मुकेश के लिए यह रहस्य एक बड़ा आश्चर्य था.

टकराती जिंदगी: क्या कसूरवार थी शकीला

लेखक- एच. भीष्मपाल

जिंदगी कई बार ऐसे दौर से गुजर जाती है कि अपने को संभालना भी मुश्किल हो जाता है. रहरह कर शकीला की आंखों से आंसू बह रहे थे. वह सोच भी नहीं पा रही थी कि अब उस को क्या करना चाहिए. सोफे पर निढाल सी पड़ी थी. अपने गम को भुलाने के लिए सिगरेट के धुएं को उड़ाती हुई भविष्य की कल्पनाओं में खो जाती. आज वह जिस स्थिति में थी, इस के लिए वह 2 व्यक्तियों पर दोष डाल रही थी. एक थी उस की छोटी बहन बानो और दूसरा था उस का पति याकूब.

‘मैं क्या करती? मुझे उन्होंने पागल बना दिया था. यह वही व्यक्ति था जो शादी से पहले मुझ से कहा करता था कि अगर मैं ने उस से शादी नहीं की तो वह खुदकुशी कर लेगा. आज उस ने ऐसी स्थिति पैदा कर दी है कि मैं अपना शौहर, घर और छोटी बच्ची को छोड़ने को मजबूर हो गई हूं. मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा कि मैं अब क्या करूं,’ शकीला मन ही मन बोली.

‘मैं ने याकूब को क्या नहीं दिया. वह आज भूल गया कि शादी से पहले वह तपेदिक से पीडि़त था. मैं ने उस की हर खुशी को पूरा करने की कोशिश की. मैं ने उस के लिए हर चीज निछावर कर दी. अपना धन, अपनी भावनाएं, हर चीज मैं ने उस को अर्पण कर दी. सड़कों पर घूमने वाले बेरोजगार याकूब को मैं ने सब सुख दिए. उस ने गाड़ी की इच्छा व्यक्त की और मैं ने कहीं से भी धन जुटा कर उस की इच्छा पूरी कर दी. मुझे अफसोस इस बात का है कि उस ने मेरे साथ यह क्यों किया. मुझे इस तरह जलील करने की उसे क्या जरूरत थी? अगर वह एक बार भी कह देता कि वह मेरे से ऊब गया है तो मैं खुद ही उस के रास्ते से हट जाती. जब मेरे पास अच्छी नौकरी और घर है ही तो मैं उस के बिना भी तो जिंदगी काट सकती हूं.

‘बानो मेरी छोटी बहन है. मैं ने उसे अपनी बेटी की तरह पाला है, पर उसे मैं कभी माफ नहीं कर सकती. उस ने सांप की तरह मुझे डंस लिया. पता नहीं मेरा घर उजाड़ कर उसे क्या मिला? मुझे उस के कुकर्मों का ध्यान आते ही उस पर क्रोध आता है.’ बुदबुदाते हुए शकीला सोफे से उठी और बाहर अपने बंगले के बाग में घूमने लगी.

20 साल पहले की बात है. शकीला एक सरकारी कार्यालय में अधिकारी थी. गोरा रंग, गोल चेहरा, मोटीमोटी आंखें और छरहरा बदन. खूबसूरती उस के अंगअंग से टपकती थी. कार्यालय के साथी अधिकारी उस के संपर्क को तरसते थे. गाने और शायरी का उसे बेहद शौक था. महफिलों में उस की तारीफ के पुल बांधे जाते थे.

याकूब उत्तर प्रदेश की एक छोटी सी रियासत के नवाब का बिगड़ा शहजादा था. नवाब साहब अपने समय के माने हुए विद्वान और खिलाड़ी थे. याकूब को पहले फिल्म में हीरो बनने का शौक हुआ. वह मुंबई गया पर वहां सफल न हो सका. फिर पेंटिंग का शौक हुआ परंतु इस में भी सफलता नहीं मिली. उस के पिता ने काफी समझाया पर वह कुछ समझ न सका. गुस्से में उस ने घर छोड़ दिया. दिल्ली में रेडियो स्टेशन पर छोटी सी नौकरी कर ली. कुछ दिन के बाद वह भी छोड़ दी. फिर शायरी और पत्रकारिता के चक्कर में पड़ गया. न कोई खाने का ठिकाना न कोई रहने का बंदोबस्त. यारदोस्तों के सहारे किसी तरह से अपना जीवन निर्वाह कर रहा था. शरीर, डीलडौल अवश्य आकर्षक था. खानदानी तहजीब और बोलने का लहजा हर किसी को मोह लेता था.

और फिर एक दिन इत्तेफाक से उसे शकीला से मिलने का मौका मिला. एक इंटरव्यू लेने के सिलसिले में वह शकीला के कार्यालय में गया. उस के कमरे में घुसते ही उस ने ज्यों ही शकीला को देखा, उस के तनबदन में सनसनी सी फैल गई. कुछ देर के लिए वह उसे खड़ाखड़ा देखता रहा. इस से पहले कि वह कुछ कहे, शकीला ने उस से सामने वाली कुरसी पर बैठने का अनुरोध किया. बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ. शकीला भी उस की तहजीब और बोलने के अंदाज से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकी. इंटरव्यू का कार्य खत्म हुआ और उस से फिर मिलने की इजाजत ले कर याकूब वहां से चला गया.

याकूब के वहां से चले जाने के बाद शकीला काफी देर तक कुछ सोच में पड़ गई. यह पहला मौका था

जब किसी के व्यक्तित्व ने उसे

प्रभावित किया था. कल्पनाओं के समुद्र में वह थोड़ी देर के लिए डूब गई. और फिर उस ने अपनेआप को झटक दिया और अपने काम में लग गई. ज्यादा देर तक उस का काम में मन नहीं लगा. आधे दिन की छुट्टी ले कर वह घर चली गई.

शकीला उत्तर प्रदेश के जौनपुर कसबे के मध्य-वर्गीय मुसलिम परिवार की कन्या थी. उस की 3 बहनें और 2 भाई थे. पिता का साया उस पर से उठ गया था. 2 भाइयों और 2 बहनों का विवाह हो चुका था और वे अपने परिवार में मस्त थे. विधवा मां और 7 वर्षीय छोटी बहन बानो के जीवननिर्वाह की जिम्मेदारी उस ने अपने ऊपर ले रखी थी. उस की मां को अपने घर से विशेष लगाव था. वह किसी भी शर्त पर जौनपुर छोड़ना नहीं चाहती थी. उस की गुजर के लिए उस का पिता काफी रुपयापैसा छोड़ गया था. घरों का किराया आता था व थोड़ी सी कृषि भूमि की आय भी थी.

शकीला के सामने समस्या बानो की पढ़ाई की थी. शकीला की इच्छा थी कि वह अच्छी और उच्च शिक्षा प्राप्त करे. वह उसे पब्लिक स्कूल में डालना चाहती थी जो जौनपुर में नहीं था. आखिरकार बड़ी मुश्किल से उस ने अपनी मां को रजामंद कर लिया और वह बानो को दिल्ली ले आई. शकीला बानो से बेहद प्यार करती थी. बानो को भी अपनी बड़ी बहन से बहुत प्यार था.

याकूब और शकीला के परस्पर मिलने का सिलसिला जारी रहा. कुछ दिन कार्यालय में औपचारिक मिलन के बाद गेलार्ड में कौफी के कार्यक्रम बनने लगे. शकीला ने न चाह कर भी हां कर दी. बानो के प्रति अपनी जिम्मेदारी महसूस करते हुए भी वह याकूब से मिलने के लिए और उस से बातचीत करने के लिए लालायित रहने लगी. उन दोनों को इस प्रकार मिलते हुए एक साल हो गया. प्यार की पवित्रता और मनों की भावनाओं पर दोनों का ही नियंत्रण था. परस्पर वे एकदूसरे के व्यवहार, आदतों और इच्छाओं को पहचानने लगे थे.

एक दिन याकूब ने उस के सामने हिचकतेहिचकते विवाह का प्रस्ताव रखा. यह सुन कर शकीला एकदम बौखला उठी. वह परस्पर मिलन से आगे नहीं बढ़ना चाहती थी. यह सुन कर वह उठी और ‘ना’ कह कर गेलार्ड से चली गई. घर जा कर वह अपने लिहाफ में काफी देर तक रोती रही. वह समझ नहीं पा रही थी कि वह जिंदगी के किस दौर से गुजर रही है. वह क्या करे, क्या न करे, कुछ सोच नहीं पा रही थी.

इस घटना का याकूब पर बहुत बुरा असर पड़ा. वह शकीला की ‘ना’ को सुन कर तिलमिला उठा. इस गम को भुलाने के लिए उस ने शराब का सहारा लिया. अब वह रोज शराब पीता और गुमसुम रहने लगा. खाने का उसे कोई होश न रहा. उस ने शकीला से मिलना बिलकुल बंद कर दिया. शकीला के इस व्यवहार ने उस के आत्मसम्मान को बहुत ठेस पहुंचाई.

उधर शकीला की हालत भी ठीक न थी. बानो के प्रति अपने कर्तव्य को ध्यान में रखते हुए वह याकूब को ‘ना’ तो कह बैठी, परंतु वह अपनी जिंदगी में कुछ कमी महसूस करने लगी. याकूब के संपर्क ने थोडे़ समय के लिए जो खुशी ला दी थी वह लगभग खत्म हो गई थी. वह खोईखोई सी रहने लगी. रात को करवटें बदलती और अंगड़ाइयां लेती परंतु नींद न आती. शकीला ने सोने के लिए नींद की गोलियों का सहारा लेना शुरू किया. चेहरे की रौनक और शरीर की स्फूर्ति पर असर पड़ने लगा. वह कुछ समझ नहीं पा रही थी कि वह क्या करे. वह इसी सोच में डूबी रहती कि बानो की परवरिश कैसे हो. यदि वह शादी कर लेगी तो बानो का क्या होगा?

अत्यधिक शराब पीने से याकूब की सेहत पर असर पड़ने लगा. उस का जिगर ठीक से काम नहीं करता था. खाने की लापरवाही से उस के शरीर में और कई बीमारियां पैदा होने लगीं. याकूब इस मानसिक आघात को चुपचाप सहे जा रहा था. धीरेधीरे शकीला को याकूब की इस हालत का पता चला तो वह घबरा गई. उसे डर था कि कहीं कोई अप्रिय घटना न घट जाए. वह याकूब से मिलने के लिए तड़पने लगी. एक दिन हिम्मत कर के वह उस के घर गई. याकूब की हालत देख कर उस की आंखों से आंसू बहने लगे. याकूब ने फीकी हंसी से उस का स्वागत किया. कुछ शिकवेशिकायतों के बाद फिर से मिलनाजुलना शुरू हो गया. अब जब याकूब ने उस से प्रार्थना की तो शकीला से न रहा गया और उस ने हां कर दी.

शादी हो गई. शकीला और याकूब दोनों ही मजे से रहने लगे. हर दम, हर पल वे साथ रहते, आनंद उठाते. 3 वर्ष देखते ही देखते बीत गए. बानो भी अब जवान हो गई थी. उस ने एम.ए. कर लिया था और एक अच्छी फर्म में नौकरी करने लगी थी.

शकीला ने बानो को हमेशा अपनी बेटी ही समझा था. शादी से पहले शकीला और याकूब ने आपस में फैसला किया था कि जब तक बानो की शादी नहीं हो जाती वह उन के साथ ही रहेगी. याकूब ने उसे बेटी के समान मानने का वचन शकीला को दिया था. शकीला ने कभी अपनी संतान के बारे में सोचा भी नहीं था. वह तो बानो को ही अपनी आशा और अपने जीवन का लक्ष्य समझती थी.

याकूब कुछ दिनों के बाद उदास रहने लगा. यद्यपि बानो से वह बेहद प्यार करता था परंतु उसे अपनी संतान की लालसा होने लगी. वह शकीला से केवल एक बच्चे के लिए प्रार्थना करने लगा. न जाने क्यों शकीला मां बनने से बचना चाहती थी परंतु याकूब के इकरार ने उसे मां बनने पर मजबूर कर दिया. फिर साल भर बाद शकीला की कोख से एक सुंदर बेटी ने जन्म लिया. प्यार से उन्होंने उस का नाम जाहिरा रखा.

शकीला और याकूब अपनी जिंदगी से बेहद खुश थे. जाहिरा ने उन की खुशियों को और भी बढ़ा दिया था. जाहिरा जब 3 वर्ष की हुई तो याकूब के पिता नवाब साहब आए और उसे अपने साथ ले गए. जाहिरा को उन्होंने लखनऊ के प्रसिद्ध कानवेंट में भरती कर दिया. याकूब और शकीला दोनों ही इस व्यवस्था से प्रसन्न थे.

कार्यालय की ओर से शकीला को अमेरिका में अध्ययन के लिए भेजने का प्रस्ताव था. वह बहुत प्रसन्न हुई परंतु बारबार उसे यही चिंता सताती कि बानो के रहने की व्यवस्था क्या की जाए. उस ने याकूब केसामने इस समस्या को रखा. उस ने आश्वासन दिया कि वह बानो की चिंता न करे. वह उस का पूरा ध्यान रखेगा. इन शब्दों से आश्वस्त हो कर शकीला अमेरिका के लिए रवाना हो गई.

शकीला एक साल तक अमेरिका में रही और जब वापस दिल्ली के हवाई अड्डे पर उतरी तो याकूब और बानो ने उस का स्वागत किया. कुछ दिन बाद शकीला ने महसूस किया कि याकूब कुछ बदलाबदला सा नजर आता है. वह अब पहले की तरह खुले दिल से बात नहीं करता था. उस के व्यवहार में उसे रूखापन नजर आने लगा. उधर बानो भी अब शकीला से आंख मिलाने में कतराने लगी थी. शकीला को काफी दिन तक इस का कोई भान नहीं हुआ परंतु इन हरकतों से वह कुछ असमंजस में पड़ गई. याकूब को अब छोटीछोटी बातों पर गुस्सा आ जाता था. अब वह शकीला के साथ बाहर पार्टियों में भी न जाने का कोई न कोई बहाना ढूंढ़ लेता. वह ज्यादा से ज्यादा समय तक बानो के साथ बातें करता.

एक दिन शकीला को कार्यालय में देर तक रुकना पड़ा. जब वह रात को अपने बंगले में पहुंची तो दरवाजा खुला था. वह बिना खटखटाए ही अंदर चली आई. वहां उस ने जो कुछ देखा तो एकदम सकपका गई. बानो का सिर याकूब की गोदी में और याकूब के होंठ बानो के होंठों से सटे हुए थे. शकीला को अचानक अपने सामने देख कर वे एकदम हड़बड़ा कर उठ गए. उन्हें तब ध्यान आया कि वे अपनी प्रेम क्रीड़ाओं में इतने व्यस्त थे कि उन्हें दरवाजा बंद करना भी याद न रहा.

शकीला पर इस हादसे का बहुत बुरा असर पड़ा. वह एकदम गुमसुम और चुप रहने लगी. याकूब और बानो भी शकीला से बात नहीं करते थे. शकीला को बुखार रहने लगा. उस का स्वास्थ्य खराब होना शुरू हो गया. उधर याकूब और बानो खुल कर मिलने लगे. नौबत यहां तक पहुंची कि अब बानो ने शकीला के कमरे में सोना बंद कर दिया. वह अब याकूब के कमरे में सोने लगी. दफ्तर से याकूब और बानो अब देर से साथसाथ आते. कभीकभी इकट्ठे पार्टियों में जाते और रात को बहुत देर से लौटते. शकीला को उन्होंने बिलकुल अलगथलग कर दिया था. शकीला उन की रंगरेलियों को देखती और चुपचाप अंदर ही अंदर घुटती रहती. 1-2 बार उस ने बानो को टोका भी परंतु बानो ने उस की परवा नहीं की.

शकीला की सहनशक्ति खत्म होती जा रही थी. रहरह कर उस को अपनी मां की बातें याद आ रही थीं. उस ने कहा था, ‘बानो अब बड़ी हो गई है. वह उसे अपने पास न रखे. कहीं ऐसा न हो कि वह उस की सौत बन जाए. मर्द जात का कोई भरोसा नहीं. वह कब, कहां फिसल जाए, कोई नहीं कह सकता.’

इस बात पर शकीला ने अपनी मां को भी फटकार दिया था, पर वह स्वप्न में भी नहीं सोच सकती थी कि याकूब इस तरह की हरकत कर सकता है. वह तो उसे बेटी के समान समझता था. शकीला को बड़ा मानसिक कष्ट  था, पर समाज में अपनी इज्जत की खातिर वह चुप रहती और मन मसोस कर सब कुछ सहे जा रही थी.

बानो के विवाह के लिए कई रिश्तों के प्रस्ताव आए. शकीला की दिली इच्छा थी कि बानो के हाथ पीले कर दे परंतु जब भी लड़के वाले आते, याकूब कोई न कोई कमी निकाल देता और बानो उस प्रस्ताव को ठुकरा देती. आखिर शकीला ने एक दिन याकूब से साफसाफ पूछ लिया. यह उन की पहली टकराहट थी. तूतू मैंमैं हुई. याकूब को भी गुस्सा आ गया. गुस्से के आवेश में याकूब ने शकीला को बीते दिनों की याद दिलाते हुए कहा, ‘‘शकीला, मैं यह जानता था कि तुम ने पहले रिजवी से निकाह किया था. जब वह तुम्हारे नाजनखरे और खर्चे बरदाश्त नहीं कर सका तो वह बेचारा बदनामी के डर से कई साल तक इस गम को सहता रहा. तुम ने मुझे कभी यह नहीं बताया कि तुम्हारे एक लड़के को वह पालता रहा. आज वह लड़का जवान हो गया है. तुम ने उस के साथ जैसा क्रूर व्यवहार किया उस को वह बरदाश्त नहीं कर सका. कुछ अरसे बाद सदा के लिए उस ने आंखें मूंद लीं.

‘‘तुम्हें याद है जब मैं ने तुम्हें उस की मौत की खबर सुनाई थी तो तुम केवल मुसकरा दी थीं और कहा था कि यह अच्छा ही हुआ कि वह अपनी मौत खुद ही मर गया, नहीं तो शायद मुझे ही उसे मारना पड़ता.’’

शकीला की आंखों से आंसू बहने लगे. फिर वह तमतमा कर बोली, ‘‘यह झूठ है, बिलकुल झूठ है. उस ने मुझे कभी प्यार नहीं किया. वह निकाह मांबाप द्वारा किया गया एक बंधन मात्र था. वह हैवान था, इनसान नहीं, इसीलिए आज तक मैं ने किसी से इस का जिक्र तक नहीं किया. फिर इस की तुम्हें जरूरत भी क्या थी? तुम ने मुझ से, मेरे शरीर से प्यार किया था न कि मेरे अतीत से.’’

‘‘शकीला, जब से मैं ने तुम्हें देखा, तुम से प्यार किया और इसीलिए विवाह भी किया. तुम्हारे अतीत को जानते हुए भी मैं ने कभी उस की छाया अपने और तुम्हारे बीच नहीं आने दी. आज तुम मेरे ऊपर लांछन लगा रही हो पर यह कहां तक ठीक है? तुम एक दोस्त हो सकती हो परंतु बीवी बनने के बिलकुल काबिल नहीं. मैं तुम्हारे व्यवहार और तानों से तंग आ चुका हूं. तुम्हारे साथ एक पल भी गुजारना अब मेरे बस का नहीं.’’

याकूब और शकीला में यह चखचख हो ही रही थी कि बानो भी वहां आ गई. बानो को देखते ही शकीला बिफर गई और रोतेरोते बोली, ‘‘मुझे क्या मालूम था कि जिसे मैं ने बच्ची के समान पाला, आज वही मेरी सौत की जगह ले लेगी. मां ने ठीक ही कहा था कि मैं जिसे इतनी आजादी दे रही हूं वह कहीं मेरा घर ही न उजाड़ दे. आज वही सबकुछ हो रहा है. अब इस घर में मेरे लिए कोई जगह नहीं.’’

बानो से चुप नहीं रहा गया. वह भी बोल पड़ी, ‘‘आपा, मैं तुम्हारी इज्जत करती हूं. तुम ने मुझे पालापोसा है पर अब मैं अपना भलाबुरा खुद समझ सकती हूं. छोटी बहन होने के नाते मैं तुम्हारे भूत और वर्तमान से अच्छी तरह वाकिफ हूं. तुम्हारे पास समय ही कहां है कि तुम याकूब की जिंदगी को खुशियों से भर सको. तुम ने तो कभी अपनी कोख से जन्मी बच्ची की ओर भी ध्यान नहीं दिया. आराम और ऐयाशी की जिंदगी हर एक गुजारना चाहता है परंतु तुम्हारी तरह खुदगर्जी की जिंदगी नहीं. याकूब परेशान और बीमार रहते हैं. उन्हें मेरे सहारे की जरूरत है.’’

बानो के इस उत्तर को सुन कर शकीला सकपका गई. अब तक वह याकूब को ही दोषी समझती थी परंतु आज तो उस की बेटी समान छोटी बहन भी बेशर्मी से जबान चला रही थी. अगले दिन ही उस ने उन के जीवन से निकल जाने का निर्णय कर लिया.

शकीला जब अगले दिन अपने कार्यालय में पहुंची तो उस की मेज पर एक कार्ड पड़ा था. लिखा  था, ‘शकीला, हम साथ नहीं रह सकते.

उसे किस ने मारा: क्या हुआ था आकाश के साथ

family story in hindi

उसे किस ने मारा- भाग 3: क्या हुआ था आकाश के साथ

इसी की आशंका जाहिर करते हुए मैं ने जबजब दीपाली को समझाना चाहा तबतब एक ही उत्तर मिलता, ‘यह बात मैं भी समझती हूं वसुधा, पर केवल दालरोटी से ही तो काम नहीं चलता. अभी बच्चे छोटे हैं, बड़े होंगे तो उन की पढ़ाई, शादीविवाह में भी तो खर्चा होगा, अगर अभी से कुछ बचत नहीं कर पाए तो आगे कैसे होगा.

रोधो कर जिंदगी घिसटती ही गई. पहला झटका आकाश को तब लगा जब उस के पिताजी को हार्ट अटैक आया. डाक्टर ने आकाश से पिता की बाईपास सर्जरी करवाने की सलाह दी. उस समय आकाश के पास इतने पैसे नहीं थे कि वह खुद के खर्चे पर उन का इलाज करवा पाता. उस के पिताजी उस पर ही आश्रित थे, अत: कानून के अनुसार उन की बीमारी का खर्चा आकाश को कंपनी से मिलना था. उस ने एडवांस के लिए आवेदन कर दिया, पर कागजी खानापूर्ति में ही लगभग 2 महीने निकल गए.

आकाश पिताजी को ले कर अपोलो अस्पताल गया. आपरेशन के पूर्व के टेस्ट चल रहे थे कि उन्हें दूसरा अटैक आया और उन्हें बचाया नहीं जा सका. डाक्टरों ने सिर्फ इतना ही कहा कि इन्हें लाने में देर हो गई.

मां पिताजी से बिछड़ने का दुख सह नहीं पाईं और कुछ ही महीनों के अंतर पर उन की भी मृत्यु हो गई.

आकाश टूट गया था. उसे इस बात का ज्यादा दर्द था कि पैसों के अभाव में वह अपने पिता का उचित उपचार नहीं करा पाया. जबजब इस बात से उस का मन उद्वेलित होता, पिताजी की सीख उस के इरादों को और मजबूत कर देती. अंगरेजी की एक कहावत है ‘ग्रिन एंड बियर’ यानी सहो और मुसकराओ, यही उस के जीने का संबल बन गई थी.

मांपिताजी को तो वह खो चुका था. पल्लव तो अभी छोटा था पर अब बड़ी होती अपनी बेटी की ठीक से परवरिश न कर पाने का दोष भी उस पर लगने लगा था. डोनेशन की मोटी मांग के लिए रकम वह न जुटा पाने के कारण उस स्कूल में बेटी स्मिता का दाखिला नहीं करा पाया जिस में कि दीपाली चाहती थी.

जिस राह पर आकाश चल रहा था उस पर चलने के लिए उसे बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ रही थी, दुख तो इस बात का था कि उस के अपने ही उसे नहीं समझ पा रहे थे. तनाव के साथ संबंधों में आती दूरी ने उसे तोड़ कर रख दिया. मन ही मन आदर्श और व्यावहारिकता में इतना संघर्ष होने लगा कि वह हाई ब्लडप्रेशर का मरीज बन गया.

अपने ही अंत:कवच में आकाश ने खुद को कैद कर लिया पर दीपाली ने उस की न कोई परवा की और न ही पति को समझना चाहा. उसे तो बस, अपने आकांक्षाओं के आकाश को सजाने के लिए धन चाहिए था. वह रोकताटोकता तो दीपाली सीधे कह देती, ‘अगर तुम अपने वेतन से नहीं कर पाते हो तो लोन ले लो. जिस समाज में रहते हैं उस समाज के अनुसार तो रहना ही होगा. आखिर हमारा भी कोई स्टेटस है या नहीं, तुम्हारे जूनियर भी तुम से अच्छी तरह रहते हैं पर तुम तो स्वयं को बदलना ही नहीं चाहते.’

यह वही दीपाली थी जिस ने मधुयामिनी की रात साथसाथ जीनेमरने की कसमें खाई थीं, सुखदुख में साथ निभाने का वादा किया था. पर जमाने की कू्रर आंधी ने उन्हें इतना दूर कर दिया कि जब मिलते तो लगता अपरिचित हैं. बस, एहसास भर ही रह गया था. बच्चे भी सदा मां का ही पक्ष लेते. मानो वह अपने ही घर में परित्यक्त सा हो गया था.

अपनी लड़ाई आकाश स्वयं लड़ रहा था. प्रमोशन के लिए इंटरव्यू काल आया. इंटरव्यू भी अच्छा ही रहा. पैनल में उस का नाम है, यह पता चलते ही कुछ लोगों ने बधाई देनी भी शुरू कर दी पर जब प्रमोशन लिस्ट निकली तो उस में उस का नाम नहीं था, देख कर वह तो क्या पहले से बधाई देने वाले भी चौंक गए. पता चला कि उस का नाम विजीलेंस से क्लीयर नहीं हुआ है.

उस पर एक सप्लायर कंपनी को फेवर करने का आरोप लगा है, इस के लिए चार्जशीट दायर कर दी गई है. वैसे तो आकाश फाइल पूरी तरह पढ़ कर साइन किया करता था पर यहां न जाने कैसे चूक हो गई. रेट और क्वालिटी आदि की स्कू्रटनी वह अपने जूनियर से करवाया करता था. उन के द्वारा पेश फाइल पर जब वह साइन करता तभी आर्डर प्लेस होता था.

इस फाइल में कम रेट की उपेक्षा कर अधिक रेट वाले को सामान की गुणवत्ता के आधार पर उचित ठहराते हुए आर्डर प्लेस करने की सिफारिश की गई थी. साइन करते हुए आकाश यह भूल गया था कि वह किसी प्राइवेट कंपनी में नहीं एक सरकारी कंपनी में काम करता है जहां सामान की क्वालिटी पर नहीं सामान के रेट पर ज्यादा ध्यान दिया जाता है.

नियम तो नियम है. इसी बात को आधार बना कर कम रेट वाले कांटे्रक्टर ने आकाश को दोषी ठहराते हुए एक शिकायती पत्र विजीलेंस को भेज दिया था.

नियमों के अनुसार तो गलती उन से हुई थी क्योंकि उन्होंने नियमों की अनदेखी की थी पर उस में उन का अपना कोई स्वार्थ नहीं था वह तो सिर्फ बनने वाले सामान की क्वालिटी में सुधार लाना चाहता था.

आफिस में कानाफूसी प्रारंभ हो गई, ‘बड़े ईमानदार बनते थे. आखिर दूध का दूध पानी का पानी हो ही गया न.’

‘अरे, भाई ऐसे ही लोगों के कारण हमारा विभाग बदनाम है. करता कोई है, भरता कोई है.’

दीपाली के कानों तक जब यह बात पहुंची तो वह तिलमिला कर बोली, ‘तुम तो कहते थे कि मैं किसी का फेवर नहीं करता. जो ठीक होता है वही करता हूं, फिर यह गलती कैसे हो गई. कहीं ऐसा तो नहीं है कि तुम मुझ से छिपा कर पैसा कहीं और रख रहे हो.’

उस के बाद उस से कुछ सुना नहीं गया, उसी रात उसे जो हार्ट अटैक आया. हफ्ते भर जीवनमृत्यु से जूझने के बाद आखिर उस ने दम तोड़ ही दिया.

खबर सुन कर वसुधा एवं सुभाष, आकाश के साथ बिताए खुशनुमा पलों को आंखों में संजोए आ गए. सदा शिकायतों का पुलिंदा पकड़े दीपाली को इस तरह रोते देख कर, आंखें नम हो आई थीं. पर बारबार मन में यही आ रहा था कि सबकुछ लुटा के होश में आए तो क्या किया?

मां को रोते देख कर मासूम बच्चे अलग एक कोने में सहमे से दुबके खड़े थे, शायद उन की समझ में नहीं आ रहा कि मां रो क्यों रही हैं तथा पापा को हुआ क्या है. मां को रोता देख कर बीचबीच में बच्चे भी रोने लगते. उन्हें ऐसे सहमा देख कर, दीपाली स्वयं को रोक नहीं पाई तथा उन्हें सीने से चिपका कर रो पड़ी. उसे रोता देख कर नन्हा पल्लव बोला, ‘आंटी, ममा भी रो रही हैं और आप भी लेकिन क्यों. पापा को हुआ क्या है, वह चुपचाप क्यों लेटे हैं, बोलते क्यों नहीं हैं?’

उस की मासूमियत भरे प्रश्न का मैं क्या जवाब देती पर इतना अवश्य सोचने को मजबूर हो गई थी कि बच्चों से उन की मासूमियत छीनने का जिम्मेदार कौन है? एक जिंदादिल, उसूलों के पक्के इनसान को किस ने मारा.

उसे किस ने मारा- भाग 2: क्या हुआ था आकाश के साथ

‘स्वयं देख लीजिए सर.’

पैकेट खोला तो उस के अंदर रखी रकम देख कर आकाश का खून जम गया.

‘तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई, यह रकम मुझे पकड़ाने की.’

‘सर, आप नए हैं, इसलिए जानते नहीं हैं, यह आप का हिस्सा है.’

‘पर मैं इसे नहीं ले सकता.’

‘यह आप की मर्जी सर, पर ऐसा कर के आप बहुत बड़ी भूल करेंगे. आखिर घर आई लक्ष्मी को कोई ऐसे ही नहीं लौटाता है.’

‘अब तुम यहां से जाओ वरना मैं पुलिस को बुलवा कर तुम्हें रिश्वत देने के आरोप में गिरफ्तार करवा दूंगा.’

‘ऐसी गलती मत कीजिएगा. यह आरोप तो मैं आप पर भी लगा सकता हूं,’ निर्लज्जता से मुसकराते हुए वह बोला.

अगले दिन आकाश ने अपने सहयोगी से बात की तो वह बोला, ‘इस में तुम या मैं कुछ नहीं कर सकते. यह तो वर्षों से चला आ रहा है. जो भी इस में अड़ंगा डालने का प्रयत्न करता है उस का या तो स्थानांतरण करवा देते हैं या फिर झूठे आरोप में फंसा कर घर बैठने को मजबूर कर देते हैं, वैसे भी घर आई लक्ष्मी को दुत्कारना मूर्खता है.’

उस ने उसी समय निर्णय लिया था कि लोग चाहे जो भी करें पर वह इस पाप की कमाई को हाथ नहीं लगाएगा. वैसे भी पहली बार नौकरी पर जाने से पहले जब वह पिताजी से आशीर्वाद लेने गया था, तो उन्होंने कहा था, ‘बेटा, जिंदगी की डगर बड़ी कठिन है, जो कठिनाइयों को पार कर के आगे बढ़ता जाता है निश्चय ही सफल होता है. कामनाओं की पूर्ति के लिए ऐसा कोई काम मत करना जिस के लिए तुम्हें शर्मिंदा होना पड़े. जितनी चादर हो उतने ही पैर फैलाना.’

वह उन की बातों को दिल में उतार कर जीवन की नई डगर पर नई आशाओं के साथ चल पड़ा था. अपनी पत्नी दीपाली को अपना फैसला सुनाया तो उस ने भी उस की बात का समर्थन कर दिया. तब उसे लगा था कि जीवनसाथी का सहयोग जीवन की कठिन से कठिन राहों पर चलने की प्रेरणा देता है.

काम को आकाश ने बोझ समझ कर नहीं बल्कि अपनी जिम्मेदारी समझ कर अपनाया था, इसलिए काम को संपूर्ण करने के लिए वह ऐसे जुट जाता था कि न दिन देखता न ही रात, इस के लिए उसे अपने परिवार से भी भरपूर सहयोग मिला.

सबकुछ ठीकठाक चल रहा था. ऊंचा ओहदा, सम्मान, सुंदर पत्नी, पल्लव और स्मिता जैसे प्यारे 2 बच्चे, बूढ़े मांबाप का सान्निध्य. अपने काम के साथ मातापिता की जिम्मेदारी भी वह सहर्ष निभा रहा था. आखिर उन्होंने ही तो उसे इस मुकाम पर पहुंचने में मदद की थी.

दीपाली और वसुधा साथसाथ पढ़ी थीं. यही कारण था कि विवाह हो जाने के बाद भी हमेशा वे एकदूसरे के संपर्क में रहीं. यहां तक कि वर्ष में एक बार दोनों परिवार मिल कर एकसाथ कहीं घूमने चले जाते. वसुधा के पति सुभाष को भी आकाश का साथ अच्छा लगता. जी भर कर बातें होतीं. लगता, समय यहीं ठहर जाए पर समय कभी किसी के लिए रुका है?

जैसेजैसे खर्चे बढ़ने लगे दीपाली अपने वादे से मुकरने लगी. महीने का अंत होता नहीं था कि हाथ खाली होने लगता था, उस पर बूढ़े मातापिता के साथ 2 बच्चों का खर्चा अलग से बढ़ गया था. दीपाली अकसर अपनी परेशानी का जिक्र वसुधा से करती तो वह उसे संयम से काम लेने के लिए कहती, पर उस पर तो जैसे कोई जनून ही सवार हो गया था, आकाश की बुराई करने का.

यह वही दीपाली है जो एक समय आकाश की तारीफ करते नहीं थकती थी और अब बुराई करते नहीं थकती है. इनसान में इतना परिवर्तन कब, क्यों और कैसे आ जाता है, समझ नहीं पा रही थी वसुधा. आखिर कोई औरत अपनी महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए पति से वह सबकुछ क्यों करवाना चाहती है जो वह करना नहीं चाहता. दीपाली और आकाश के बीच की दूरी बढ़ती जा रही थी और वसुधा चाह कर भी कुछ कर नहीं पा रही थी.

दीपाली कहती, ‘वसुधा, आखिर इन की ईमानदारी से किसी को क्या फर्क पड़ता है. जो इन की सचाई पर विश्वास करते हैं वह इन्हें गलत प्रोफेशन में आया कह कर इन का मजाक बनाते हैं और जो नहीं करते वे भी कह देते हैं कि भई, हाथी के दांत खाने के और, दिखाने के और. भला आज के जमाने में ऐसा भी कहीं हो सकता है.’

बाहर तो बाहर आकाश घर में भी शिकस्त खाने लगा था. पत्नी और बच्चों के चेहरे पर छाई असंतुष्टि अकसर सोचने को मजबूर करती कि कहीं वह गलत तो नहीं कर रहा है, पर आकाश के अपने संस्कार उस को कुछ भी गलत करने से सदा रोक देते.

वह बच्चों की किसी मांग को अगले महीने के लिए टाल देने को कहता तो उस की 5 वर्षीय बेटी स्मिता ही कह देती, ‘इस का मतलब आप खरीदवाओगे नहीं. अगले महीने फिर अगले महीने पर टाल दोगे.’

आकाश कभी दीपाली को उस का वादा याद दिलाता तो वह कह देती,  ‘वह तो मेरी नादानी थी पर अब जब दुनिया के रंगढंग देखती हूं तो लगता है कि तुम्हारे इस खोखले दंभ के कारण हम कितना सफर कर रहे हैं. तुम्हारे जैसे लोग जहां आज नई गाड़ी खरीदने में जरा भी नहीं सोचते, वहीं हमें रोज की जरूरतों को पूरा करने के लिए अगले महीने का इंतजार करना पड़ता है. कार भी खरीदी तो वह भी सेकंड हैंड. मुझे तो उस में बैठने में भी शर्म आती है.’

‘दीपाली, इच्छाओं की तो कोई सीमा नहीं होती. वैसे भी घर सामानों से नहीं उस में रहने वालों के आपसी प्यार और विश्वास से बनता है.’

‘प्यार और विश्वास भी वहीं होगा, जहां व्यक्ति संतुष्ट होगा, उस की सारी इच्छाएं पूरी हो रही होंगी.’

‘तो क्या तुम सोचती हो जिन्हें तुम संतुष्ट समझ रही हो, उन में कोई असंतुष्टि नहीं है. वहां जा कर देखो तो पता चलेगा कि वे हम से भी ज्यादा असंतुष्ट हैं.’

‘बस, रहने भी दीजिए…कोरे आदर्शों के सहारे दुनिया नहीं चलती.’

‘अगर ऐसा है तो तुम आजाद हो, अपनी नई दुनिया बसा सकती हो, जैसे चाहे रह सकती हो.’

तब तिलमिला कर उस ने कहा था, ‘बस, अब यही तो सुनने को रह गया था.’

यह कह कर दीपाली तो चली गई पर आकाश वहीं बैठाबैठा अपने सिर के बाल नोंचने लगा. उस बार उन दोनों के बीच लगभग हफ्ते भर अबोला रहा. उन के झगड़े अब इतने बढ़ गए थे कि बच्चे भी सहमने लगे थे, कभीकभी लगता कहीं इन दोनों की तकरार के कारण बच्चे अपना स्वाभाविक बचपन न गंवा बैठें.

उसे किस ने मारा- भाग 1: क्या हुआ था आकाश के साथ

आज आकाश चला गया…लोग कहते हैं, उस की मौत हार्ट अटैक से हुई है पर मैं कहती हूं कि उसे जमाने ने मौत के आगोश में धकेला है, उसे आत्महत्या के लिए मजबूर किया है. हां, आत्महत्या… आप लोग समझ रहे होंगे कि आकाश की मृत्यु के बाद मैं पागल हो गई हूं…हां…हां मैं पागल हो गई हूं…आज मुझे लग रहा है, इस दुनिया में जो सही है, ईमानदार है, कर्मठ है, वह शायद पागल ही है…यह दुनिया उस के रहने लायक नहीं है.

आज भी ऐसे पागल इस दुनिया में मौजूद हैं, जो अपने उसूलों पर चलते हुए शायद वे भी आकाश की तरह ही सिसकतेसिसकते मौत को गले लगा लें, इस से दुनिया को क्या फर्क पड़ने वाला है. वह तो यों ही चलती जाएगी. सिसकने के लिए रह जाएंगे उस बदनसीब के घर वाले.

दीपाली का प्रलाप सुन कर वसुधा चौंकी थी. दीपाली उस की प्रिय सखी थी. उस के जीवन का हर राज उस का अपना था. यहां तक कि उस के घर अगर एक गमला भी टूटता तो उस की खबर भी उसे लग ही जाती. उन में इतनी अंतरंगता थी.

लेकिन क्या आकाश की हालत के लिए वह स्वयं जिम्मेदार नहीं थी. वह आकाश की जीवनसाथी थी. उस के हर सुखदुख में शामिल होने का हक ही नहीं, उस का कर्तव्य भी था पर क्या वह उस का साथ दे पाई? शायद नहीं, अगर ऐसा होता तो इतनी कम उम्र में आकाश का यह हश्र न होता.

आकाश एक साधारण किसान परिवार से था. पढ़ने में तेज, धुन का पक्का, मन में एक बार जो ठान लेता उसे कर के ही रहता था. अच्छा खातापीता परिवार था. अभाव था तो सिर्फ शिक्षा का…उस के पिताजी ने उस की योग्यता को पहचाना. गांव में प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद उन्होंने अपने घर वालों के विरोध के बावजूद बेटे को उच्च शिक्षा के लिए शहर भेजा, तो शहर की चकाचौंध से कुछ पलों के लिए आकाश भ्रमित हो गया था.

यहां की तामझाम, गिटरपिटर अंगरेजी बोलते बच्चों के बीच उसे लगा था कि वह सामंजस्य नहीं बिठा पाएगा पर धीरेधीरे अपने आत्मविश्वास के कारण अपनी कमियों पर आकाश विजय प्राप्त करता गया और अव्वल आने लगा. जहां पहले उस के शिक्षक और मित्र उस के देहातीपन को ले कर मजाक बनाते रहते थे, अब उस की योग्यता देख कर कायल होने लगे. हायर सेकंडरी में जब वह पूरे राज्य में प्रथम आया तो पेपर में नाम देख कर घर वालों की छाती गर्व से फूल उठी.

उसी साल उस का इंजीनियरिंग कालिज इलाहाबाद में चयन हो गया. पिता ने अपनी सारी जमापूंजी लगा कर उस का दाखिला करवा दिया. बस, यही बात उस के बड़े भाइयों को खली, कुछ सालों से फसल भी अच्छी नहीं हो रही थी. भाइयों को लग रहा था, मेहनत वे करते हैं पर उन की कमाई पर मजा वह लूट रहा है.

कहते हैं न कि ईर्ष्या से बड़ा जानवर कोई नहीं होता. वह कभीकभी इनसान को पूरा निगल जाता है. उस के भाइयों का यही हाल था और उन के वहशीपन का शिकार उस के मातापिता बन रहे थे. छुट्टियों में जब आकाश घर गया तो उस की पारखी नजरों से घर में फैला विद्वेष तथा मां और पिताजी के चेहरे पर छाई दयनीयता छिप न सकी. मां ने अपने कुछ जेवर छिपा कर उसे देने चाहे तो उस ने लेने से मना कर दिया.

एक दृढ़ निश्चय के साथ आकाश इलाहाबाद लौट गया था. कुछ ट्यूशन कर ली, साथ ही इंजीनियरिंग के प्रथम वर्ष में प्रथम आने के कारण उसे स्कालरशिप भी मिलने लगी. अब उस का अपना खर्चा निकलने लगा. इंजीनियरिंग करते ही उसे सरकारी नौकरी मिल गई.

नौकरी मिलते ही वह अपने मातापिता को साथ ले आया. भाइयों ने भी चैन की सांस ली. पर पानी होते रिश्तों को देख कर आकाश का मन रोने लगा था.

सरकारी नौकरी मिली तो शादी के लिए रिश्ते भी आने शुरू हो गए. वैसे आकाश अभी कुछ दिन विवाह नहीं करना चाहता था पर मां की आंखों में सूनापन देख कर उस ने बेमन से ही विवाह की इजाजत दे दी.

मातापिता के साथ रहने की बात जान कर कुछ लोगों ने आगे बढ़ अपने कदम पीछे खींच लिए थे. रिश्तों में आती संवेदनहीनता को देख कर उस का मन बहुत आहत हुआ था. मातापिता को इस बात का एहसास हुआ तो वे खुद को दोषी समझने लगे, तब आकाश ने उन को दिलासा देते हुए कहा था, ‘आप स्वयं को दोषी क्यों समझ रहे हैं, यह तो अच्छा ही हुआ कि समय रहते उन की असलियत खुल गई, जो रिश्तों का सम्मान करना नहीं जानते. वे भला अन्य रिश्ते कैसे निभा पाएंगे. रिश्तों में स्वार्थ नहीं समर्पण होना चाहिए.’

आखिर एक ऐसा परिवार मिल ही गया. मातापिता के साथ में रहने की बात सुन कर लड़की का भाई विवेक बोला, ‘हम ने मातापिता का सुख नहीं भोगा. पर मुझे उम्मीद है कि आप के सान्निध्य में मेरी बहन को यह सुख नसीब हो जाएगा.’

विवेक और दीपाली के मातापिता बचपन में ही मर गए थे. उन के चाचाचाची ने उन्हें पाला था पर धीरेधीरे रिश्तों में आती कटुता ने उन्हें अलग रहने को मजबूर कर दिया. विवेक ने जैसेतैसे एक नौकरी तलाशी तथा बहन को ले कर अलग हो गया. नौकरी करतेकरते ही उस ने अपनी पढ़ाई जारी रखी, बहन को पढ़ाया और आज वह स्वयं एक अच्छी जगह नौकरी कर रहा था.

दीपाली आकाश को अच्छी लगी. अच्छे संस्कारिक लोग पा कर विवाह के लिए वह तैयार हो गया. दीपाली ने घर अच्छी तरह से संभाल लिया था. मातापिता भी बेहद खुश थे. घर में सुकून पा कर आफिस के कामों में भी मन रमने लगा. अभी तक तो उसे काम सिखाया जा रहा था पर अब स्वतंत्र विभाग उस को दे दिया गया.

आकाश ने जब अपने विभाग की फाइलों को पढ़ा और स्टोर में जा कर सामान का मुआयना किया तो सामान की खरीद में हेराफेरी को देख कर वह सिहर उठा. पेपर पर दिखाया कुछ जाता, खरीदा कुछ और जाता. कभीकभी आवश्यकता न होने पर भी सामान खरीद लिया जाता. सरप्लस स्टाक इतना था कि उस को कहां खपाया जाए, वह समझ नहीं पा रहा था. अपने सीनियर से इस बात का जिक्र किया तो उन्होंने कहा, ‘अभी नएनए आए हो, इसलिए परेशान हो. धीरेधीरे इसी ढर्रे पर ढलते जाओगे. जहां तक सरप्लस सामान की बात है, उसे पड़ा रहने दो, कुछ नहीं होगा.’

एक दिन आकाश अपने आवास पर आराम कर रहा था कि एक सप्लायर आया और उसे एक पैकेट देने लगा. उस ने पूछा, ‘यह क्या है?’

मायूस मुसकान: आजिज का क्या था फैसला

लेखिका- रोचिका अरुण शर्मा

 

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें