दिल के लिए खतरनाक है ज्यादा कैल्शियम

हमारे शरीर में हर तत्व की अपनी एक मात्रा होती है चाहे फिर वह विटामिन की हो या फिर कैल्शियम, फास्फोरस या फिर अन्य रसायनिक तत्वों की. इसी तरह कैल्शियम की अधिक मात्रा लेने से आपको कई बीमारी अपनी चपेट में ले सकती है. एक अध्ययन में के अनुसार अगर धमनियों में प्लेक (धमनियों का जाम होना) का कारण बन सकता है, जिससे हृदय को नुकसान पहुंचने का खतरा है. इस निष्कर्ष का उद्देश्य हालांकि आपको कैल्शियम युक्त खाद्य पदार्थ लेने से रोकना नहीं है. शोधकर्ताओं का कहना है कि इस तरह के आहार दिल के लिए फायदेमंद भी हैं.

मैरिलैंड के जान हॉपकिंस विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ मेडिसिन बाल्टीमोर में सहायक प्रोफेसर इरिन मिचोस ने कहा, “हमारा अध्ययन बताता है कि शरीर में पूरक खुराक के रूप में अतिरिक्त कैल्शियम का सेवन दिल और नाड़ी तंत्र को नुकसान पहुंचा सकता है.”

अध्ययन के निष्कर्ष पत्रिका ‘जर्नल ऑफ दी अमेरिकन हार्ट एसोसिएशन’ में प्रकाशित हुए हैं. यह विश्लेषण अमेरिका में 2,700 लोगों पर 10 सालों तक किए गए अध्ययन के बाद आया है.

अध्ययन के लिए चुने गए प्रतिभागियों की उम्र 45 से 84 साल के बीच थी. इसमें करीब 51 प्रतिशत महिलाएं थीं.

शोधकर्ताओं ने पाया कि जो प्रतिभागी भोजन में कैल्श्यिम की अधिकतम मात्रा प्रतिदिन करीब 1,022 मिलीग्राम लेते थे, उनमें 10 सालों के अध्ययन के दौरान हृदय रोग होने का जोखिम सामने नहीं आया.

लेकिन कैल्शियम को पूरक खुराक के रूप में सेवन करने वाले प्रतिभागियों के कोरोनरी धमनी में इन 10 वर्षो के दौरान 22 फीसदी तक प्लेक जमने का खतरा देखा गया. यह 10 सालों में शून्य से तेजी से बढ़ा. इससे दिल के रोग होने का संकेत मिलता है.

नॉर्थ कैरोलिना विश्वविद्यालय के चेपल हिल्स ग्लिनिंग्स स्कूल के सह लेखक जान एंडरसन ने कहा, “इस अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि भोजन के रूप में लिया गया कैल्शियम तथा पूरक खुराक के तौैर पर लिया गया कैल्शियम किस प्रकार हृदय को प्रभावित करता है.”

DNA टैस्ट खोलता है कई गहरे राज

2008 में रोहित एनडी तिवारी के खिलाफ अदालत पहुंचे थे. रोहित ने दावा किया था कि वह पूर्व कांग्रेस नेता और अपनी मां उज्ज्वला शर्मा का बेटा है. एनडी तिवारी ने दिल्ली हाई कोर्ट में इस मामले को खारिज करने की गुहार भी लगाई थी हालांकि कोर्ट ने 2010 में तिवारी की इस गुहार को खारिज कर दिया था.

23 दिसंबर, 2010 को हाई कोर्ट ने सचाई जानने के लिए दोनों को डीएनए टैस्ट कराने का आदेश दिया. हालांकि एनडी तिवारी ने इस के खिलाफ भी खूब हाथपांव मारे और सुप्रीम कोर्ट भी गए, लेकिन वहां से भी उन्हें खाली हाथ ही लौटना पड़ा था.

इस के बाद उन्होंने अपना खून तो दिया, लेकिन उस के रिजल्ट को सार्वजनिक न करने की सिफारिश की थी, जिसे कोर्ट ने नहीं माना और रोहित का दावा सही निकला. डीएनए टैस्ट के बाद रोहित को बेटे का हक मिला, लेकिन दुर्भाग्यवश 39 साल की उम्र में रोहित का हृदयगति रुकने से मौत हो गई.

इस के अलावा एक बार छत्तीसगढ़ के मुसाबनी में एक बेटे को पिता की पहचान जानने के लिए डीएनए टैस्ट कराना पड़ा क्योंकि पुलिस को एकसाथ 2 सड़ेगले शव छत्तीसगढ़ के मुसाबनी में मिले थे. परिवार वाले उसे पहचान नहीं पा रहे थे. यह जानने के लिए पुलिस ने मजिस्ट्रेट के सामने डीएनए टैस्ट करवाया और बाद में संबंधित शव परिवार को सौप दिया.

किया शोध

फ्रेडरिक मिशर ने 1869 में डीएनए की खोज की थी और उन्होंने इस का नाम न्यूक्लिन रखा. इस के बाद 1881 में अल्ब्रेक्ट कोसेल ने न्यूक्लिन को न्यूक्लिक एसिड की तरह पाया. तब इसे डीऔक्सीराइबोज न्यूक्लिन ऐसिड नाम दिया गया था और इसे ही डीएनए की फुलफौर्म कहा जाता है.

संरचना

डीएनए जीवित कोशिकाओं के गुणसूत्रों में पाए जाने वाले तंतुनुमा अणु को डीऔक्सीराइबोन्यूक्लिक अम्ल या डीएनए कहते हैं. इस में जैनेटिक कोड निबद्ध रहता है. डीएनए अणु की संरचना घुमावदार सीढ़ी की तरह होती है.

डरें नहीं डीएनए जांच से 

इस बारे में मुंबई के अपोलो स्पैक्ट्रा अस्पताल की जनरल फिजिशियन डा. छाया वजा कहती हैं कि असल में किसी भी बीमारी का पता लगाने के लिए कई प्रकार की जांचें की जाती हैं. इन में डीएनए जांच का नाम सुन कर अच्छेभले लोग भी डर जाते हैं. यह एक ऐसा टैस्टल है, जो हमारे जीन्स के बारे में एकदम सटीक जानकारी देता है. आज के बदलते जमाने में हत्या और बलात्कार जैसे कई अपराधों को सुलझने के लिए डीएनए परीक्षण का उपयोग किया जाता है. इसलिए ज्यादातर लोग इस के बारे में थोड़ाबहुत जानते हैं.

डीएनए क्या है

डाक्टर छाया कहती हैं कि हर व्यक्ति का डीएनए अलग होता है. डीएनए में 4 घटक होते हैं- एडेनिन (ए), थायमिन (टी), ग्वानिन (जी) और साइटोसिन (सी). यह डीएनए जांच के लिए किया जाता है. एक अपराधी का पता लगाने और मातापिता अपने हैं या नहीं यह जानने के लिए इस जांच को करना पड़ता है क्योंकि बच्चे का डीएनए उस के मातापिता से बनता है, लेकिन बच्चे और उस के मातापिता का डीएनए एकजैसा नहीं होता है, बल्कि कुछ हिस्सा मिलता हुआ हो सकता है.

एक डीएनए जांच द्वारा पितृत्व परीक्षण किया जाता है और यह लगभग 100% सटीक होता है कि कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति के बच्चे का पिता है या नहीं. डीएनए टैस्ट में चीक स्वैब या ब्लड टैस्ट का इस्तेमाल किया जा सकता है. यदि आप को कानूनी कारणों से परिणाम की आवश्यकता है, तो आप को चिकित्सा सैटिंग में परीक्षण करवाना चाहिए. प्रसवपूर्व पितृत्व परीक्षण, गर्भावस्था के दौरान पितृत्व का निर्धारण कर सकते हैं.

डीएनए है क्या

डीएनए एक बहुत ही साइंटिफिक टर्म है, इसलिए इसे आसान भाषा में समझते हैं. व्यक्ति के शरीर में एक डीएनए कोडिंग होती है और यह कोडिंग जिस तरह से होती है, शरीर उसी तरह से बनता है अर्थात कोडिंग ही तय करती है कि बच्चे की आंखों का रंग कैसा होगा, उस की स्किन का रंग कैसा होगा, लंबाईचौड़ाई कैसी होगी, मसल्स कितनी मजबूत होंगी, बाल कैसे होंगे, सीना कितने इंच का होगा और बच्चा भविष्य में किसी शारीरिक या मानसिक बीमारी का शिकार हो सकता है या नहीं आदि.

पितृत्व का निर्धारण

पितृत्व का परीक्षण बच्चे के जन्म के बाद किया जाता है, लेकिन गर्भावस्था में भी यह जांच की जा सकती है. इस के 3 अलगअलग तरीके हैं:

गैर-इनवेसिव प्रीनेटल पितृत्व परीक्षण (एनआईपीपी): यह परीक्षण पहली तिमाही के दौरान गर्भवती महिला के रक्त में पाए जाने वाले भू्रण के डीएनए से किया जाता है. इसे जांचने के लिए पिता के चिक सैल के नमूने को भू्रण के डीएनए से मिलाया जाता है.

कोरियोनिक विलस सैंपलिंग (सीवीएस): यह प्रक्रिया मां की गर्भाशय ग्रीवा या पेट के माध्यम से होती है. इस जांच के लिए मां और पिता का डीएनए मिलाया जाता है. सीवीएस आमतौर पर एक महिला के आखिरी मासिकधर्म के 10 से 13 सप्ताह के बीच होता है. इस प्रक्रिया में गर्भपात या गर्भावस्था के नुकसान का थोड़ा रिस्क होता है.

एमनियोसैंटेसिस: एमनियोसैंटेसिस के दौरान ऐक्सपर्ट थोड़ी मात्रा में एमनियोटिक फ्लूइड निकालते हैं. इस टैस्ट के लिए प्रैगनैंट मां के पेट में एक नीडल डाली जाती है, फिर प्रयोगशाला में इस फ्लूइड के सैंपल को मां और संभावित पिता के डीएनए से तुलना की जाती है. एमनियोसैंटेसिस गर्भधारण के 15 से 20 सप्ताह के बीच में किया जाता है. इस टैस्ट से मिस्कैरिज की संभावना थोड़ी बढ़ जाती है.

समय डीएनए रिपोर्ट आने का

जांच कराने के लगभग 1 हफ्ते बाद डीएनए की रिपोर्ट आती है और किसी बीमारी की जांच के लिए किए जाने वाली जांच में करीब 2 से 3 हफ्ते का समय लगता है.

तरीके डीएनए टैस्ट के

व्यक्ति के शरीर से खून की कुछ बूंदें ले कर इस टैस्ट को किया जाता है. इस के अलावा मुंह से स्वाब, हेयर, स्किन आदि से भी जांच की जा सकती है. डीएनए जांच देती है परिचय मातापिता का:

– इस टैस्ट से बच्चा संबंधित मातापिता का है या नहीं यह पता लगाया जा सकता है.

– मातापिता को कोई बायोलौजिकल बीमारी अगर है, तो इस बीमारी का बच्चे में जाने की संभावना है या नहीं.

– इस टैस्ट के द्वारा व्यक्ति सगेसंबंधी और ब्लड रिलेटिव्स का पता लगा सकता है.

– क्राइम की छानबीन और आरोपी को दबोचने के लिए डीएनए टैस्ट किया जाता है.

– डीएनए टैस्ट के जरीए किसी भी व्यक्ति को किस बीमारी से खतरा है इस का पता लगाया जा सकता है.

प्रैग्नेंसी में मूड स्विंग्स से काफी परेशान हो गई हूं, मैं क्या करुं?

सवाल-

मैं 26 साल की और 3 महीनों से प्रैगनेंट हूं. मुझे मूड स्विंग्स की समस्या हो रही है. अगर कोई मेरी बात न सुने या मेरे मन का न हो तो मुझे बहुत ज्यादा गुस्सा आता है और मैं किसी से भी लड़ने लगती हूं. यह हरकत मेरे लिए प्रौब्लम क्रिएट कर रही है. प्लीज, बताएं मैं क्या करूं?

जवाब-

प्रैगनैंसी के समय हारमोनल फ्लक्चुएशंस की वजह से मूड स्विंग्स होना नौर्मल है. आप अच्छी नींद लें, अपने को रैस्ट दें, माइल्ड ऐक्सरसाइजेज की मदद लें. तनाव बिलकुल न लें, अपने पार्टनर से बातें शेयर करें, उन की हैल्प लें और पौष्टिक खाना खाएं.

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आमतौर पर प्रैग्नेंसी के दौरान और बाद एक महिला के शरीर में कई बदलाव होते हैं. प्रैग्नेंसी के बाद स्तनों में बदलाव होता ही है. क्‍या आप जानते हैं, स्तन लोब्‍युल्‍स से बने होते हैं, जो दूध बनाने वाली ग्रंथियाँ होती है और इनमें नलिकाएँ  हुती हैं, जो दूध को निप्‍पल तक ले जाती हैं और उनके इर्द-गिर्द ग्रंथीय, नसों वाले और चर्बीदार ऊत्‍तक होते हैं. उम्र बढ़ने के साथ ग्रंथीय ऊत्‍तक का आकार घटता है. प्रैग्नेंसी के दौरान स्‍तन का विकास इस प्रक्रिया का एक महत्‍वपूर्ण हिस्‍सा है, क्‍योंकि उसे शिशु के लिये दूध बनाने के लिये बदलाव से गुजरना होता है. प्रैग्नेंसी से पहले के हॉर्मोन स्‍तन के ऊतकों में बदलाव लाते हैं. प्रैग्नेंसी के दौरान मिलने वाले शुरूआती संकेतों में स्‍तनों को संवेदी अनुभव होना शामिल है, जो शरीर में अतिरिक्‍त हॉर्मोन्‍स के बहने से होता है.

डॉ. तनवीर औजला, सीनियर कंसल्‍टेन्‍ट ऑब्‍स्‍टेट्रिशियन एवं गाइनेकलॉजिस्‍ट, मदरहूड हॉस्पिटल, नोएडा की बता रही हैं गर्भावस्था के दौरान स्तनों में क्या बदलाव होते है.

प्रैग्नेंसी के दौरान हमारे स्‍तनों में शिशु को दूध देने के लिये बदलाव होते हैं. प्रैग्नेंसी के दौरान होने वाले इन बदलावों में स्‍तनों का आकार बढ़ना और स्‍तनों तथा निप्‍पल का मुलायम या संवेदनशील होना शामिल है. इसमें निप्‍पलों और एरीयोला का रंग भी बदलता है और मोंटगोमरी ग्रंथियाँ स्‍पष्‍ट और बड़ी दिखाई देती हैं. स्‍तनों में ज्‍यादा खून आने लगता है, जिससे उनकी नसें गहरे रंग की हो जाती हैं. इस अवस्‍था में एस्‍ट्रोजेन और प्रोजेस्‍टेरॉन की मात्रा बढ़ जाती है और इन दोनों हॉर्मोन्‍स के मिलने से दूध बनने लगता है.

पूरी खबर पढ़ने के लिए- प्रैग्नेंसी के बाद आपके ब्रैस्ट में वास्तव में क्‍या होता है

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बेबी की पोषण से जुुड़ी जरुरतों के लिए मां के दूध की मात्रा कैसे बढ़ाएं?

मां के लिए अपने बेबी को ब्रैस्टफीडिंग कराना दुनिया का सबसे बड़ा सुख होता है. जो मां तथा बेबी दोनों के लिए ही आपार स्वास्थ्य लाभ प्रदान करने के रूप में जाना गया है. आपके बेबी के लिए मां का दूध जीवन के पहले छह महीनों में आवश्यक माना जाता है क्यूंकि इसमें सभी महत्वपूर्ण पोषण होते हैं. साथ ही इसमें बीमारियों से लड़ने के लिए कई आवश्यक तत्व होते हैं जो आपके बेबी के स्वास्थ्य को समस्याओं से बचने में मदद करते हैं. इसके आलावा इसमें एंटीबाॅडिज भी होते हैं जो आपके बच्चे को वायरस तथा बैक्टीरिया से लड़ने में मदद करते हैं.

बेबी स्वास्थ्य के लिए मां का दूध है सर्वोत्तम आहार-

बेबी के जीवन के पहले छह महीनों के लिए उसकी समस्त पोषण आवश्यकताओं के लिए मां का दूध सर्वोत्तम होता है. आपका बेबी ज्यादा से ज्यादा पोषण प्राप्त करें, इसके लिए यह आवश्यक है कि जन्म के तुरंत बाद से लेकर कम से कम छह महीने तक जबतक कि बेबी को अन्य आहार देना न शुरू कर दिया जाए, केवल मां का दूध ही दिया जाए.

डॉ अरुणा कालरा, वरिष्ठ स्त्री रोग विशेषज्ञ और प्रसूति रोग विशेषज्ञ बता रही हैं स्तन दूध की मात्रा बढ़ाने के खास उपाय.

बहुत सी महिलाओं को कई बार ऐसा लगता है की वे स्तन दूध का उत्पादन पर्याप्त मात्रा में नहीं कर पा रही हैं. एक नयी माँ के लिए ऐसा महसूस करना बहुत ही आम बात है. हालाँकि ऐसी बहुत ही काम महिलाएं होती हैं जो ज़्यादा स्तन दूध का उत्पादन नहीं कर पाती परन्तु यदि आपको लगता है की आप भी उनमे से एक हैं तो आप घबरायें नहीं. ऐसे कुछ बहुत ही आसान तरीकें हैं जिनसे आप अपने स्तन दूध की मात्रा बढ़ा सकती हैं.

आपके स्तन के दूध के उत्पादन को बढ़ाने के लिए निम्नलिखित कुछ तरीके हैं जो आप अपना सकती हैं.

आपके दूध की आपूर्ति को बढ़ाने में कितना समय लगेगा यह इस बात पर निर्भर करता है कि आपकी आपूर्ति की शुरुआत कितनी कम है और आपके कम स्तन दूध के उत्पादन की क्या वजह है. यदि ये तरीके आपके लिए काम करते हैं तो आप स्तन दूध कुछ ही दिनों में बढ़ने लगेगा.

1. बेबी को एक दिन में थोड़ा अधिक बार ब्रैस्टफीडिंग कराएं-

जब आप अपने बेबी को ब्रैस्टफीडिंग कराती हैं तब आपके शरीर में स्तन दूध बढ़ाने वाले होर्मोनेस रिलीज़ होते हैं. आप जितना अधिक ब्रैस्टफीडिंग करवाएंगी उतने अधिक आपके शरीर में ये होर्मोनेस रिलीज़ होंगे और आपके स्तन दूध की मात्रा बढ़ाएंगे.

2. पंप का इस्तेमाल-

ब्रैस्टफीडिंग करने के बीच के समय में पंप का इस्तेमाल करके स्तन दूध निकाले. ऐसा जाना जाता है कि ब्रैस्ट पंप के इस्तेमाल से स्तन दूध निकालने से आपके स्तन दूध की मात्रा बढ़ती है. जब भी आपको लगे की ब्रैस्टफीडिंग करवाने के बाद भी आपके स्तन में दूध बचा है या बेबी किसी कारणवश ब्रैस्टफीडिंग नहीं कर पाया है तब आप पंप का इस्तेमाल करके स्तन दूध निकाल लें.

3. दोनों स्तन से बेबी को ब्रैस्टफीडिंग करवाएं-

बेबी को पहले एक स्तन से ब्रैस्टफीडिंग करवाएं और जब वह दूध पीना काम कर दे  या रुक जाये तो उसे दूसरे स्तन से ब्रैस्टफीडिंग करवाएं. दोनों स्तन से ब्रैस्टफीडिंग करवाने से आपके स्तन दूध की मात्रा बढ़ती है.

4. दूध की मात्रा बढ़ाने वाला खाना खाएं-

निम्नलिखित कुछ ऐसे खाने कि चीज़ें हैं जिससे आपके स्तन दूध की मात्रा बढ़ सकती है. जैसे की-

–  मेथी

– लहसुन

– अदरक

– सौंफ

– ओट्स

– जीरा

– धनिया

– छुआरा

– पपीता, आदि.

जब भी आपको लगे कि इन् सब तरीकों से आपका स्तन दूध नहीं बढ़ पा रहा है तो आप अपने चिकित्सक की सलाह लीजिये.

स्पाइनल स्टेनोसिस के इलाज के औप्शन कौनसे हैं?

सवाल-

मैं 52 वर्षीय कामकाजी महिला हूं. मुझे स्पाइनल स्टेनोसिस डायग्नोज हुआ है. मैं जानना चाहती हूं कि यह समस्या क्या है और इस के उपचार के कौनकौन से विकल्प उपलब्ध हैं?

जवाब-

स्पाइन में स्पाइनल कार्ड और उस से निकलने वाली तंत्रिकाओं के लिए स्थान होते हैं. ये तंत्रिकाएं संकेतों और संदेशों को मस्तिष्क से शरीर में और शरीर के विभिन्न भागों से मस्तिष्क में पहुंचाती हैं. जब ये स्थान सिकुड़ जाते हैं तब हड्डियों के कारण ये तंत्रिकाएं दब सकती हैं. इस के कारण दर्द हो सकता है, झनझनी आ सकती है या सुन्नपन हो सकता है अथवा मांसपेशियों में कमजोरी आ सकती है. स्पाइनल स्टेनोसिस का सब से प्रमुख कारण औस्टियोअर्थ्राइटिस है. दवा और फिजियोथेरैपी से इसे ठीक करने का प्रयास किया जाता है. स्थिति गंभीर होने पर सर्जरी की आवश्यकता पड़ती है ताकि तंत्रिकाओं के लिए स्थान बनाया जा सके.

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स्पाइनल इंजरी किसी के भी जीवन की त्रासदपूर्ण घटना हो सकती है. इस से व्यक्ति एक तरह से लकवाग्रस्त हो सकता है. इंजरी जब गरदन में हो तो इस से टेट्राप्लेजिया हो सकता है. यदि इंजरी गरदन के नीचे हो तो इस से पाराप्लेजिया यानी दोनों टांगों और इंजरी से निचले धड़ में लकवा हो सकता है. केंद्रीय स्नायुतंत्र का हिस्सा होने के कारण स्पाइनल कौर्ड की सेहत पर ही पूरे शरीर की सेहत निर्भर करती है. इंजरी से यौन सक्रियता भी प्रभावित हो सकती है. स्पाइनल कौर्ड इंजरी ऊंचाई से गिरने, सड़क दुर्घटना, हिंसक या खेल की घटनाओं के कारण हो सकती है. स्पाइनल कौर्ड इंजरी के नौनट्रोमेटिक कारणों में स्पाइन और ट्यूमर के टीबी जैसे संक्रमण शामिल हैं.

यौन सक्रियता जरूरी

स्पाइनल इंजरी से पीडि़त व्यक्ति को यथासंभव आत्मनिर्भर बनाने की कोशिश होनी चाहिए. भारतीय समाज के एक बड़े हिस्से में यौन स्वास्थ्य पर चर्चा करना हमेशा वर्जित विषय माना जाता रहा है, इसलिए इस विषय पर बात करने से लोग कतराते हैं और मरीज खामोशी से इसे सहता रहता है. शिक्षा, ज्ञान और जागरूकता के अभाव में लोग ऐसे मरीजों के बारे में यह समझने लगते हैं कि वे यौनेच्छा एवं यौन उत्कंठा से पीडि़त हैं. लेकिन सच यह है कि सामान्य व्यक्ति की तरह ही स्पाइनल इंजरी से पीडि़त व्यक्ति के लिए भी यौन सक्रियता उतनी ही जरूरी है.

पूरी खबर पढ़ने के लिए- स्पाइनल इंजरी और मैरिड लाइफ

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ब्लड प्रैशर बढने से क्या स्ट्रोक का खतरा रहता है?

सवाल-

मेरी उम्र 62 साल है. मुझे 6-7 वर्षों से उच्च रक्तदाब की समस्या है. मैं ने सुना है उच्च रक्तदाब के कारण स्ट्रोक आने का खतरा बढ़ जाता है. ऐसे में मुझे क्या सावधानियां बरतनी चाहिए?

जवाब-

उच्च रक्तदाब के कारण रक्त का दाब बढ़ने से दिल की सामान्य कार्यप्रणाली गड़बड़ा जाती है, जिस से उसे दूसरे अंगों तक रक्त पहुंचाने के लिए अधिक मेहनत करनी पड़ती है. इस स्थिति के कारण दिल पर दबाव पड़ता है, जिस से रक्तनलिकाओं को नुकसान पहुंचता है और स्ट्रोक की चपेट में आने की आशंका बढ़ जाती है. एक बार जब रक्तनलिकाएं कमजोर हो जाती हैं तो वे आसानी से ब्लौक हो जाएंगी. इस में मस्तिष्क का रक्त का प्रवाह प्रभावित होता है. इस स्थिति से बचने के लिए आप अपने रक्तदाब को नियंत्रित रखें, अपनी दवा नियत समय पर लें, नियमित रूप से वर्कआउट करें, तनाव न लें, अपना वजन न बढ़ने दें और अपने खानपान का ध्यान रखें.

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ब्लडप्रैशर या हाइपरटैंशन की समस्या आज आम समस्या बन गई है, जो जीवन शैली से जुड़ी हुई है, लेकिन कहते हैं न कि भले ही समस्या कितनी ही बड़ी हो लेकिन समय पर जानकारी से ही बचाव संभव होता है. ऐसे में जब पूरी दुनिया पर कोविड-19 का खतरा है, तब आप अपने लाइफस्टाइल में बदलाव ला कर हृदय रोग और हाई ब्लडप्रैशर के खतरे को काफी हद तक कंट्रोल कर सकते हैं. इस संबंध में जानते हैं डा. के के अग्रवाल से:

हाइपरटैंशन क्या है

खून की धमनियों में जब रक्त का बल ज्यादा होता है तब हमारी धमनियों पर ज्यादा दबाव पड़ता है, जिसे हम ब्लडप्रैशर की स्थिति कहते हैं. ये 2 तरह के होते हैं एक सिटोलिक ब्लडप्रैशर और दूसरा डायास्टोलिक ब्लडप्रैशर. 2017 की नई गाइडलाइंस के अनुसार अगर ब्लडप्रैशर 120/80 से कम हो तो उसे उचित ब्लडप्रैशर की श्रेणी में माना जाता है. इस की रीडिंग मिलीमीटर औफ मरकरी में नापी जाती है.

130/80 एमएम एचजी से ऊपर हाई ब्लडप्रैशर होता है. अगर ब्लडप्रैशर 180 से पार है, तब तुरंत इलाज की जरूरत होती है. वरना स्थिति गंभीर हो सकती है.

पूरी खबर पढ़ने के लिए- ब्लडप्रैशर पर रखें नजर

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दिल को सेहतमंद रखेंगे ये 5 सुपर हैल्दी औयल

जब भी हम कुकिंग औयल खरीदने जाते हैं तो यही देखते हैं कि उस का प्राइस क्या है. जिस औयल का दाम हमें कम लगता है हम अकसर उसे ही खरीदते हैं बिना यह जाने कि यह हमारी हैल्थ के लिए ठीक है भी या नहीं. जबकि औयल का सीधा संबंध हमारी हैल्थ व हार्ट से जुड़ा होता है. इसलिए यह सम झना बहुत जरूरी है कि कुकिंग औयल का चयन सावधानी से करें ताकि आप का खाना टेस्टी बनने के साथसाथ आप के दिल की सेहत भी ठीक रहे.

आप को यह जान कर हैरानी होंगी कि भारत में हर साल 12 लाख के करीब यंगस्टर्स को हार्ट अटैक के कारण जान जान चली जाती है, जो काफी चिंताजनक आंकड़ा है. इसलिए समय रहते संभलने की जरूरत है.

तो आइए, जानते हैं कि कौन सा कुकिंग औयल हमारी सेहत के लिए अच्छा है:

सैचुरेटेडअनसैचुरेटेड औयल

हारवर्ड मैडिकल स्कूल की एक रिसर्च के अनुसार, अगर हमें अपने हार्ट को दुरुस्त रखना है, तो हमें अनसैचुरेटेड औयल यानी गुड फैट, जिसे पोली अनसैचुरेटेड फैट और मोनो अनसैचुरेटेड फैट में कहा जाता है, का सेवन कर सकते हैं. यह रूम टैंपरेचर पर लिक्विड होता है. ओमेगा 3 फैटी ऐसिड्स, जो अनसैचुरेटेड फैट्स होते हैं, वे हमारी हैल्थ के लिए काफी अच्छे माने जाते हैं. ये फैट्स हार्ट अटैक और स्ट्रोक के खतरे को काफी कम कर देते हैं, साथ ही ये शरीर में ट्रिग्लीसेरिडेस लैवल को भी काफी कम कर देते हैं.

इस के अलावा शरीर में बैड कोलैस्ट्रौल की मात्रा को कम कर के गुड कोलैस्ट्रौल की मात्रा को बढ़ाने का काम करते हैं. इस के साथ ही यह हमारे ब्लड प्रैशर लैवल को कंट्रोल करने व हमारी आर्टरीज को हार्ड नहीं होने देते. वहीं दूसरी तरफ सैचुरेटेड फैट्स, जिन्हें बैड फैट्स भी कहते हैं, हमें इन्हें खाने से परहेज करना चाहिए और अगर खाएं भी तो काफी कम मात्रा में खाएं क्योंकि ये हमारे कोलैस्ट्रौल को बढ़ाने का काम करते हैं.

ये फैट्स रूम टैंपरेचर पर सौलिड होते हैं. आप को आर्टिफिशियल ट्रांस फैट्स से एकदम दूरी बना कर रखनी चाहिए क्योंकि ये हार्ट अटैक, स्ट्रोक, कैंसर, मोटापा आदि को बढ़ाने का काम करते हैं.

इन्फौर्मेटिव फैक्ट

अगर आप के शरीर को रोजाना 2000 कैलोरीज की जरूरत है तो आप को उस की 20-25% कैलोरीज फैट से लेनी चाहिए और कोशिश करनी चाहिए कि यह फैट अनसैचुरेटेड फैट ही हो और अगर सैचुरेटेड फैट ले रहे हैं तो उस की लिमिट तय करे यानी सिर्फ 5-6% ही लें.

कौन सा औयल है हार्ट के लिए सेहतमंद

औलिव औयल:

विशेषज्ञ व न्यूट्रिशनिस्ट्स की सलाह के अनुसार औलिव औयल सेहत के लिए काफी फायदेमंद होता है. इसलिए आप इसे कुकिंग के लिए बिना सोचेसम झे चुन सकते हैं. असल में यह औयल मोनोअनसैचुरेटेड होता है और औलिव औयल में ओलिक ऐसिड नाम का प्रमुख फैटी ऐसिड होता है, जो शरीर में सूजन, कैंसर और हार्ट की बीमारी से बचाने में मदद करता है. साथ ही इस में बड़ी संख्या में पावरफुल ऐंटीऔक्सीडैंट्स होते हैं, जो आप के ब्लड कोलैस्ट्रौल को औक्सिडेशन से बचा कर दिल की बीमारी के खतरे को काफी हद तक कम करने का काम करते हैं.

दुनिया में स्ट्रोक से मृत्यु होना दूसरा बड़ा कारण है. एक रिसर्च में करीब डेढ़ लाख लोगों को शामिल किया गया, जिस में पाया गया कि जिन लोगों ने लगातार औलिव औयल का सेवन किया, उन में स्ट्रोक का खतरा काफी कम देखा गया.

औलिव औयल ब्लड प्रैशर व बैड कोलैस्ट्रौल को कंट्रोल करने के साथसाथ ब्लड वैसल्स के फंक्शन को इंपू्रव कर के आप के दिल को भी सेहतमंद बनाने का काम करता है. इस में एंटीकैंसर प्रौपर्टीज कैंसर के खतरे को भी काफी हद तक टालने में मददगार होती हैं. इसलिए कुकिंग में औलिव औयल का इस्तेमाल है फायदेमंद.

कैनोला औयल:

अगर आप हार्ट या कोलैस्ट्रौल की बीमारी से ग्रस्त हैं या फिर खुद को इस से बचाना चाहते हैं, तो केनोला औयल आप के लिए सब से सेफ व हैल्दी औप्शन है क्योंकि इस में है गुड फैट्स के साथसाथ विटामिन ए और विटामिन के की खूबियां और ये कोलैस्ट्रौल फ्री भी हैं. इन में अनसैचुरेटेड फैट्स होने के साथसाथ इन में बड़ी मात्रा में ओमेगा 3 फैटी ऐसिड अल्फा लिनोलेनिक ऐसिड होता है, जो आप के ब्लड प्रैशर, कोलैस्ट्रौल सूजन को कंट्रोल कर के आप के हार्ट का खास ध्यान रखने का काम करता है.

बहुत सारी हैल्थ और्गेनाइजेशन ने कैनोला औयल को हार्ट स्मार्ट औयल बताया है क्योंकि इस में 0% ट्रांस फैट होने के साथसाथ हाई लैवल औफ मोनोअनसैचुरेटेड फैट होता है, जो आप को दिल व डायबिटीज जैसी जानलेवा बीमारियों से दूर रखने का काम करता है.

एवोकाडो औयल:

इस में बहुत ज्यादा मात्रा में मोनोअनसैचुरेटेड फैट होता है यानी इस में हैल्दी फैट्स के साथसाथ ऐंटीऔक्सीडैंट्स होते हैं, जिन का सीधा संबंध बैड कोलैस्ट्रौल के लैवल को कम करने के साथसाथ गुड कोलैस्ट्रौल के लैवल को बढ़ाने का भी काम करता है. 70% एवोकाडो औयल में हार्ट की हैल्थ का ध्यान रखने वाला ओलिक एसिड होता है. कोलैस्ट्रौल का स्तर सामान्य रहने से हार्ट सही ढंग से कार्य करने में सक्षम हो पाता है.

साथ ही इस औयल की खासीयत यह है कि इस में काफी मात्रा में मोनोअनसैचुरेटेड फैट होता है, जो पोषण तत्त्वों के अवशोषण में मदद करता है, साथ ही इस में पौलीफिनोलिस नामक ऐंटीऔक्सीडैंट फ्री रैडिकल्स से शरीर को सुरक्षा प्रदान करने में भी सहायक होता है. यह औयल न सिर्फ हार्ट के लिए बल्कि आप की ओवरऔल हैल्थ के लिए फायदेमंद होता है.

सनफ्लौवर औयल:

अनेक स्टडीज में पाया गया है कि सनफ्लौवर औयल में 80% अनसैचुरेटेड फैट्स होते हैं, जो हार्ट के लिए काफी अच्छे माने जाते हैं. इस में सैचुरेटेड फैट्स नहीं होते हैं. जिन से ये शरीर में कोलैस्ट्रौल लैवल को भी कंट्रोल करने में मददगार होते हैं. ये सैचुरेटेड फैट्स के मुकाबले में तुरंत शरीर को ऊर्जा प्रदान करने का भी काम करते हैं. साथ ही इस में मौजूद ऐंटीऔक्सीडैंट्स इम्यून सिस्टम को मजबूती प्रदान करते हैं, जिस से बैक्टीरिया व वायरस आसानी से शरीर में प्रवेश नहीं कर पाते हैं. इस में मौजूद प्रोटीन टिशूज की रिपेयर करने व बनाने में सहायक होते हैं.

सीसम औयल:

सीसम औयल ऐंटीऔक्सीडैंट्स से लोडेड होने के साथसाथ इस में विटामिन ई, फीटोस्टेरोल्स होने, सेसमोल और सेसमिनोल तत्त्व होते हैं, जो आप के शरीर में फ्रीरैडिकल्स से लड़ने में मदद करते हैं. इस में संतुलित मात्रा में ओमेगा 3, ओमेगा 6 व ओमेगा 9 फैटी ऐसिड्स होते हैं. ये हार्ट डिजीज को बढ़ने से रोकने का काम करते हैं.

स्टडीज के अनुसार, सीसम औयल हाई कोलैस्ट्रौल लैवल को कम करता है, जिस से दिल से संबंधित बीमारियों का खतरा कम हो जाता है. इस में 41% पोलीअनसैचुरेटेड फैट 39% मोनोअनसैचुरेटेड फैट होता है. तभी इस औयल को दिल के लिए काफी अच्छा माना जाता है. साथ ही यह मैग्नीशियम का अच्छा स्रोत होने के कारण ब्लड प्रैशर को कंट्रोल करने का काम भी करता है.

मिरगी के दौरे का क्या कोई इलाज नहीं है?

सवाल-

मेरी बेटी की उम्र 8 साल है. उसे पिछले कुछ महीनों से मिरगी के दौरे पड़ रहे हैं. मैं बहुत परेशान हूं. मैं ने सुना है यह बीमारी लाइलाज है?

जवाब-

अब मिरगी लाइलाज बीमारी नहीं रही है. दवा और सर्जरी के द्वारा इस का उपचार संभव है. मिरगी के लगभग 80% मामलों को दवा से ठीक किया जा सकता है. बहुत ही कम मामलों में जहां दवा या दूसरे उपचारों से मरीज की स्थिति में सुधार नहीं आता तब सर्जरी की जरूरत पड़ती है. रीसैक्टिव सर्जरी मिरगी का उपचार करने के लिए सब से अधिक प्रचलित सर्जरी है. इस सर्जरी से दौरे पड़ने की संख्या में काफी कमी आ जाती है. डीप ब्रेन स्टिम्युलेशन (डीबीएस) थेरैपी एक अन्य सर्जिकल उपचार है. यह उन मरीजों के लिए इस्तेमाल की जाती है जिन्हें एक दिन में कई बार दौरे पड़ते हैं.

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मिरगी एक आम मस्तिष्क संबंधी विकार है, जिसका इलाज संभव है. कुल मिला कर प्रति 1000 लोगों में 7-8 लोगों को मिरगी का रोग बचपन में हो जाता है. अनुमान तो यह भी लगाया गया है कि दुनिया भर में 50 लाख लोग मिरगी के रोग से पीडि़त हैं.

मिरगी की अभिव्यक्ति के अलग अलग तरीके होते हैं, जिनमें से कुछ नाम नीचे दिए गए हैं:

शरीर के पूरे या आधे भाग में मरोड़ और अकड़न.

दिन में सपने देखना.

असामान्य अनुभूतियां जैसे डरना, अजीब सा स्वाद महसूस करना, गंध और पेट में झनझनाहट महसूस करना

अत्यधिक चौंकना

फिट आने के बाद रोगी नींद या उलझन महसूस करने लगता है, साथ उसे सिरदर्द की शिकायत भी हो सकती है

क्या हैं मिरगी के कारण?

मस्तिष्क कई तंत्रिका कोशिकाओं से मिल कर बना हुआ है, जो शरीर के विभिन्न कार्यों को विद्युत संकेतों द्वारा नियंत्रित करता है. यदि ये संकेत बाधित होते हैं, तो व्यक्ति मिरगी के रोग से पीडि़त हो जाता है (इसे ‘फिट’ या ‘आक्षेप’ कहा जा सकता है.) मिरगी के जैसे कई अन्य रोग भी होते हैं. मसलन, बेहोश (बेहोशी), सांस रोग और ज्वर आक्षेप.

पूरी खबर पढ़ने के लिए- बचपन में ही हो जाता है मिरगी का रोग

सिर दर्द और उलटियां क्या गंभीर बीमारी की संकेत है?

सवाल-

मैं 46 वर्षीय शिक्षिका हूं. पिछले कई दिनों से मुझे सिर में तेज दर्द हो रहा है. आराम करने और दवा लेने पर भी सिरदर्द ठीक नहीं होता. कई बार सिरदर्द के साथ उलटियां भी आती हैं. क्या यह किसी गंभीर बीमारी का संकेत है?

जवाब-

सिरदर्द एक बहुत ही सामान्य स्वास्थ्य समस्या है जो कई कारणों से हो सकता है. मामूली सिरदर्द को थोड़ी देर आराम कर के या पेन किलर ले कर ठीक किया जा सकता है. कभीकभी सिरदर्द हो तो कोई बात नहीं. लेकिन अगर सिरदर्द लगातार रहने लगे, रात में या सुबहसुबह तेज सिरदर्द होने से नींद खुल जाए, चक्कर आने लगे, सिरदर्द के साथ जी मिचलाना और उलटियां होने की समस्या हो तो सम?िए कि आप के मस्तिष्क में प्रैशर बढ़ रहा है. मस्तिष्क में प्रैशर बढ़ने का कारण ब्रेन ट्यूमर हो सकता है. अगर आप पिछले कुछ दिनों से इस तरह की स्थिति का सामना कर रहे हैं तो सतर्क हो जाएं और तुरंत डायग्नोसिस कराएं.

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सिर दर्द होना इतना सामान्य हो गया है कि अब हम इसे हेल्थ प्रॉब्लम की तरह देखते ही नहीं हैं. सिर दर्द होना, है तो सामान्य बात लेकिन अगर दर्द बढ़ जाए तो पूरा दिन बर्बाद हो जाता है.

हममें से ज्यादातर लोग सिर दर्द बर्दाश्त नहीं होने पर पेन-किलर ले लेते हैं लेकिन हर बार दवा लेना सही तो नहीं है. इसके कई साइड इफेक्ट्स हो सकते हैं. दर्द दबाने के लिए इन दवाओं में एस्टेरॉएड का इस्तेमाल किया जाता है. हो सकता है आपको शुरू में इन दवाओं से फायदा हो जाए लेकिन भविष्य में इसके खतरनाक परिणाम हो सकते हैं.

ऐसी स्थिति में बेहतर होगा कि आप घरेलू उपायों का रुख करें. सामान्य सिर दर्द के लिए ये उपाय बहुत ही फायदेमेद हैं लेकिन अगर सिर दर्द किसी मेडिकल कंडिशन की वजह से है तो डॉक्टर से सलाह जरूर लें.

1. विनेगर या सिरका

सिरका एक औषधि है. इसका इस्तेमाल पेट दर्द में भी किया जाता है और यह सिर दर्द में भी फायदेमंद है. हल्के गुनगुने पानी में एक चम्मच सिरका मिला लें. इसे पीकर कुछ देर के लिए लेट जाएं. सिर दर्द कम हो जाएगा और धीरे-धीरे गायब.

पूरी खबर पढ़ने के लिए- सिर दर्द दूर करने के लिए घरेलू उपाय

अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है तो हमें इस ईमेल आईडी पर भेजें- submit.rachna@delhipress.biz   सब्जेक्ट में लिखे…  गृहशोभा-व्यक्तिगत समस्याएं/ Personal Problem

40+ महिलाओं के लिए हैल्थ टिप्स

उम्र का एक ऐसा पड़ाव आता है जब महिलाएं प्रजनन की उम्र को पार कर रजोनिवृत्ति की ओर कदम बढ़ाती हैं. यह उम्र का नाजुक दौर होता है, जब शरीर कई बदलावों से गुजरता है. इस में ऐस्ट्रोजन हारमोन का लैवल कम होने से हड्डियों की कमजोरी, टेस्टोस्टेरौन हारमोन के कम होने के कारण मांसपेशियों की कमजोरी तथा वजन बढ़ने से मधुमेह व उच्च रक्तचाप होने की संभावना बढ़ जाती है.

ऐसे में चालीस पार महिलाएं कैसे अपने शरीर का ध्यान रखें? अपनी नियमित दिनचर्या में क्या बदलाव लाएं ताकि स्वस्थ जीवन व्यतीत कर सकें? ऐसे ही और कई प्रश्नों के उत्तरों के लिए स्त्रीरोग विशेषज्ञ डा. निर्मला से मुलाकात की:

40+ की उम्र में महिलाओं के अंदर क्या क्या बदलाव आते हैं?

40+ उम्र में शारीरिक बदलाव में प्रमुख है वजन का बढ़ना. महिलाओं के कूल्हों, जांघों के ऊपरी हिस्सों और पेट के आसपास चरबी जमा होने लगती है. वजन बढ़ने के कारण उच्च रक्तचाप व मधुमेह का खतरा भी बढ़ जाता है. इस के अलावा ऐस्ट्रोजन हारमोन का लैवल घटने से हड्डियां कमजोर होने लगती हैं, जिस से बचाव के लिए स्वस्थ आहार (कम कैलोरी का भोजन, प्रोटीन भोजन में शामिल करना, फल, सब्जियां, अंकुरित व साबूत अनाज) अपनाना चाहिए.

वजन पर नियंत्रण रखने के लिए कम से कम 30 मिनट तक नियमित व्यायाम जरूर करना चाहिए. व्यायाम कार्डियो ऐक्सरसाइज, ऐरोबिक्स आदि रूप में हो सकता है. टेस्टोस्टेरौन हारमोन स्राव की कमी मांसपेशियों पर असर डालती है, जिस के कारण फ्रोजन शोल्डर (कंधों में तेज दर्द होना व जाम की स्थिति) की परेशानी भी हो सकती है.

व्यायाम के द्वारा ही इस पर काबू पाया जा सकता है.

दूसरा बदलाव मानसिक तौर पर होता है, जिस में हारमोन की गतिविधियों के कारण मूड स्विंग होता है. कभीकभी चिड़चिड़ापन बढ़ने लगता है, गुस्से पर काबू खोने लगता है. ऐसे में यदि उन के साथ सहानुभूति, प्रेम का वातावरण स्थापित न हो तो कई महिलाएं डिप्रैशन की शिकार भी हो जाती हैं.

आजकल ब्रैस्ट कैंसर व गर्भाशयमुख कैंसर के केस बहुत आम हो गए हैं. इस से बचाव व स्वयं सतर्कता जांच कैसे करें?

स्तन कैंसर का इलाज मौजूद है, बशर्ते महिलाएं इस की शुरुआत होते ही इलाज शुरू कर दें. सर्वप्रथम स्नान के समय अपने एक हाथ को ऊपर उठा कर  दूसरे हाथ से स्तन की जांच स्वयं करनी चाहिए. किसी भी प्रकार की गांठ या स्राव निकलने पर तुरंत डाक्टर से संपर्क करना चाहिए.

इसी प्रकार योनि से किसी भी प्रकार का स्राव, मासिकचक्र के अतिरिक्त समय पर होने पर सजग हो जाना चाहिए. इसकी जानकारी डाक्टर को जरूर देनी चाहिए. जिन के परिवार में कैंसर के मरीज पूर्व में रहे हों जैसे नानी या मां को कैंसर हुआ हो, उन्हें नियमित तौर पर वीआईए टैस्ट, पीएपी टैस्ट जरूर करवाना चाहिए.

ऐनीमिया यानी महिलाओं में खून की कमी भी हो जाती है. इसके बचाव के क्या उपाय हैं?

हमारे देश में यह परेशानी बहुत आम हो गई है. इसके प्रमुख लक्षण हैं कमजोरी, शरीर पीला पड़ना, सांस फूलना. गर्भवती महिलाओं, स्तनपान कराने वाली महिलाओं में यह कमी ज्यादा देखने को मिलती है. सरकारी अस्पतालों में आयरन की गोलियां मुफ्त उपलब्ध कराई जाती हैं, अत: इनका सेवन कर आयरन की कमी पर काबू पाया जा सकता है, इस के अतिरिक्त हरी पत्तेदार सब्जियां, गुड़, काले चने, खजूर, सेब, अनार, अमरूद इत्यादि में आयरन की प्रचुर मात्रा होती है. लोहे के बरतनों में खाना पकाने से भी शरीर को आयरन की पूर्ति होती है. इसके अलावा 6 माह के अंतराल में कीड़ों की दवा जरूर लेनी चाहिए.

40+ महिलाओं में कैल्सियम की कमी क्यों बढ़ जाती है?

हां, स्तनपान कराने वाली महिलाओं, गर्भवती महिलाओं के अलावा यह कमी 40+ महिलाओं में ऐस्ट्रोजन हारमोन घटने के कारण भी होने लगती है. इसे दूर करने के लिए दूध, पनीर और दूध से बने पदार्थों का नियमित सेवन करना चाहिए. गर्भवती महिला को 3 माह के गर्भ के बाद से ही कैल्सियम की गोली रोज खानी शुरू कर देनी चाहिए. शिशु को स्तनपान कराने वाली मांएं 3-4 गिलास दूध का नियमित सेवन करें. 40+ महिलाओं को विटामिन डी युक्त कैल्सियम खाना चाहिए. धूप का सेवन भी लाभदायक रहता है. समयसमय पर कैल्सियम व विटामिन डी का टैस्ट भी करवाना चाहिए.

शुगर यानी डायबिटीज भी महामारी का रूप लेती जा रही है. इस से बचाव के क्या उपाय हैं?

गर्भावस्था में उन महिलाओं को मधुमेह होने की संभावना बढ़ जाती है, जिनके माता या पिता को यह पहले से हो या महिलाओं को पौलिस्टिक ओवेरियन सिंड्रोम की बीमारी हो. 40+ में भी यह उन महिलाओं को होती हैं, जिनके परिवार में यह बीमारी पहले से हो. इस के अलावा खानपान में लापरवाही और शारीरिक निष्क्रियता भी इस बीमारी के होने के प्रमुख कारणों में हैं. इस के लक्षणों में प्रमुख हैं- वजन बढ़ना, अधिक भूख व प्यास लगना और बारबार पेशाब जाना.

इस के बचाव के लिए 40+ होने पर वर्ष में एक बार अपना रूटीन चैकअप कराना चाहिए और खून की जांच (ब्लड शुगर फास्टिंग) और (ब्लड शुगर पीपी) खाना खाने के डेढ़ घंटे के बाद करवानी चाहिए.

इस समस्या के प्रकट होने पर अपने आहार एवं दिनचर्या में बदलाव ला कर इस बीमारी पर काबू पाया जा सकता है. नियमित व्यायाम व खाने में मीठी चीजों, शकरकंद, आलू, केला, आम, अरबी, चावल आदि का परहेज करना चाहिए. समस्या बढ़ने पर दवा व इंसुलिन के इंजैक्शन भी उपलब्ध हैं, जिन्हें डाक्टर की सलाह एवं निगरानी में लेना चाहिए.

थायराइड की समस्या उत्पन्न होने के क्या कारण हैं?

अकसर किशोरावस्था व गर्भवती महिलाओं में जो थायराइड की समस्या देखने को मिलती है उसे हाइपोथाइरोडिज्म कहते हैं. इसके लक्षणों में प्रमुख हैं गले में सूजन, वजन का बढ़ना, मासिकधर्म की अनियमितता आदि.

किशोर युवतियों को शारीरिक विकास के लिए आयोडीन की जरूरत होती है, जिसकी कमी होने से प्यूबर्टी गोइटर हो जाता है. इसके अलावा किसी विशेष क्षेत्रवासियों में भी यह कमी देखने को मिलती है. इसका कारण वहां की जमीन में ही आयोडीन की कमी होना है.

खून की जांच कराने पर इसकी कमी पता चल जाती है. आयोडीन नमक का प्रयोग एवं अपने डाक्टर की सलाह लेकर नियमित दवा का सेवन करना चाहिए. अकसर लड़कियों में यह कमी 20-21 वर्ष के बाद ठीक हो जाती है तो गर्भवती महिलाओं में प्रसव के बाद इस के लक्षण समाप्त हो जाते हैं.

मेनोपौज की शुरुआत किस उम्र से शुरू होती है?

मेनोपौज महिलाओं की उस अवस्था को कहते हैं जब अंडाशय में अंडाणुओं के बनने की क्रिया समाप्त होने लगती है और मासिक धर्म बंद हो जाता है. जब लगातार 12 महीने मासिकधर्म न आए तो इसे हम रजोनिवृत्ति कहते हैं. मेनोपौज होने का मतलब है प्रजनन क्षमता का खत्म हो जाना. यह 40 से 50 वर्ष के बीच की उम्र में हो सकती है.

सभी महिलाओं में अंडाणु के निर्माण होने और फिर इस चक्र के बंद हो जाने का एक अलग समय होता है. महिला के गर्भधारण करने के लिए प्रोजेस्टेरौन और ऐस्ट्रोजन हारमोन का बनना जरूरी होता है. जब ये दोनों हारमोन बनने बंद होने लगते हैं तो महिलाओं के मासिक धर्म और डिंबोत्सर्जन से नियंत्रण हट जाता है और मासिक धर्म अनियमितता व मासिक धर्म बंद होने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है. महिला की 40 से 50 वर्ष की उम्र भी एक कारक है.

मेनोपौज के कारण शरीर में निम्न परिवर्तन आते हैं जैसे गर्भाशय का आकार छोटा होना, शरीर में थकावट, अचानक तीव्र गरमी लगना, जोड़ों में दर्द होना, शरीर में अतिरिक्त वसा का जमाव, नींद में खलल बढ़ जाना आदि. इन लक्षणों के कारण व्यग्रता या अवसाद की स्थिति भी उत्पन्न हो जाती है.

मेनोपौज एक प्राकृतिक प्रक्रिया है, जिस के लिए किसी प्रकार की दवा की जरूरत नहीं होती है, किंतु योनि के सूखेपन या बारबार होने वाली तीव्र गरमी को कम करने के लिए डाक्टर से परामर्श ले सकती हैं.

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