एक बार फिर गांव की ओढ़नी ने शहर में परचम लहराने की ठान ली. गांव के स्कूल में 12वीं तक पढ़ी मेघा का जब इंजीनियरिंग में चयन हुआ तो घर भर में खुशी की लहर दौड़ गई थी. देश के प्रतिष्ठित प्रतिष्ठान में ऐडमिशन मिलना कोई कम बड़ी बात है क्या?
“लेकिन यह ओढ़नी शहर के आकाश में लहराना नहीं जानती, कहीं झाड़कांटों में उलझ कर फट गई तो?”
“हवाओं को तय करने दो. इस के बंधन खोल कर इसे आजाद कर दो, देखें अटती है या फटती है…”
“लेकिन एक बार फटने के बाद क्या? फिर से सिलना आसान है क्या? और अगर सिल भी गई तो रहीमजी वाले प्रेम के धागे की तरह क्या जोड़ दिखेगा नहीं? जबजब दिखेगा तबतब क्या सालेगा नहीं?”
“तो क्या किया जाए? कटने से बचाने के लिए क्या पतंग को उड़ाना छोड़ दें?”
न जाने कितनी ही चर्चाएं थीं जो इन दिनों गांव की चौपाल पर चलती थी.
सब के अपनेअपने मत थे. कोई मेघा के पक्ष में तो कोई उस के खिलाफ. हरकोई चाहता तो था कि मेघा को उड़ने के लिए आकाश मिले लेकिन यह भी कि उस आकाश में बाज न उड़ रहे हों. अब भला यह कैसे संभव है कि रसगुल्ला तो खाएं लेकिन चाशनी में हाथ न डूबें.
“संभव तो यह भी है कि रसगुल्ले को कांटे से उठा कर खाया जाए.”
कोई मेघा की नकल कर हंसता. मेघा भी इसी तरह अटपटे सवालों के चटपटे जवाब देने वाली लड़की है. हर मुश्किल का हल बिना घबराए या हड़बड़ाए निकालने वाली. कभी ओढ़नी फट भी गई ना, तो इतनी सफाई से रफू करेगी कि किसी को आभास तक नहीं होगा. मेघा के बारे में सब का यही खयाल था.
लेकिन न जाने क्यों, खुद मेघा को अपने ऊपर भरोसा नहीं हो पा रहा था पर आसमान नापने के लिए पर तो खोलने ही पडते हैं ना… मेघा भी अब उड़ान के लिए तैयार हो चुकी थी.
मेघा कालेज के कैंपस में चाचा के साथ घुसी तो लाज के मारे जमीन में गड़ गई. चाचाभतीजी दोनों एकदूसरे से निगाहें चुराते आगे बढ़ रहे थे. मेघा को लगा मानों कई जोड़ी आंखें उस के दुपट्टे पर टंक गई है. उस ने अपने कुरते के ढलते कंधे को दुरुस्त किया और सहमी सी चाचा के पीछे हो ली.
इस बीच मेघा ने जरा सा निगाह ऊपर उठा कर इधरउधर देखने की कोशिश की लेकिन आंखें कई टखनों से होती हुईं खुली जांघ तक का सफर तय कर के वापस उस तक लौट आईं.
उस ने अपने स्मार्टफोन की तरफ देखा जो खुद उस की तरह ही किसी भी कोण से स्मार्ट नहीं लग रहा था. हर तीसरे हाथ में पकड़ा हुआ कटे सेब के निशान वाला फोन उसे अपने डब्बे को पर्स में छिपाने की सलाह दे रहा था जिसे उस ने बिना किसी प्रतिरोध के स्वीकार कर लिया था.
कालेज की औपचारिकताएं पूरी करने और होस्टल में कमरा अलौट होने की तसल्ली करने के बाद चाचा उसे भविष्य के लिए शुभकामनाएं दे कर वापस लौट गए. अब मेघा को अपना भविष्य खुद ही बनाना था। गंवई पसीने की खुशबू को शहर के परफ्यूम में घोलने का सपना उसे अपने दम पर ही पूरा करना था.
कालेज का पहला दिन. मेघा बड़े मन से तैयार हुई. लेकिन कहां जानती थी कि जिस ड्रैस को उस के कस्बे में नए जमाने की मौडर्न ड्रैस कह कर उसे आधुनिका का तमगा दिया जाता था वही कुरता और प्लाजो यहां उसे बहनजी का उपनाम दिला देंगे. मेघा आंसू पी कर रह गई. लेकिन सिलसिला यहीं नहीं थमा था.
उस के बालों में लगे नारियल तेल की महक, हर कुरते के साथ दुपट्टा रखने की आदत, पांवों में पहनी हुई चप्पलें आदि उसे भीड़ से अलग करते थे. और तो और खाने की टेबल पर भी सब उसे चम्मच की बजाय हाथ से चावल खाते हुए कनखियों से देख कर हंसा करते थे.
“आदिमानव…” किसी ने जब पीछे से विशेषण उछाला तो मेघा को समझते देर नहीं लगी कि यह उसी के लिए है.
“यह सब बाहरी दिखावा है मेघा। तुम्हें इस में नहीं उलझना है,” स्टेशन पर ट्रैन में बैठाते समय पिता ने यही तो सीख की पोटली बांध कर उस के कंधे पर धरी थी.
‘पोटली तो भारी नहीं थी, फिर कंधे क्यों दुखने लगे?’ मेघा सोचने लगी.
हर छात्र की तरह मेघा का सामना भी सीनियर छात्रों द्वारा ली जाने वाली रैगिंग से हुआ. होस्टल के एक कमरे में जब नई आई लड़कियों को रेवड़ की तरह भरा जा रहा था तब मेघा का गला सूखने लगा.
“तो क्या किया जाए इस नई मुरगी के साथ?” छात्राओं से घिरी मेघा ने सुना तो कई बार देखी गई फिल्म ‘थ्री इडियट’ से कौपी आईडिया और डायलौग न जाने तालू के कौन से कोने में हिस्से में चिपक गए.
“भई, दुपट्टे बड़े प्यारे होते हैं इस के. चलो रानी, दुपट्टे से जुड़े कुछ गीतों पर नाच के दिखा दो. और हां, डांस प्योर देसी हो समझी?” गैंग की लीडर ने कहा तो मेघा जड़ सी हो गई.
एक सीनियर ने बांह पकड़ कर उसे बीच में धकेल दिया. मेघा के पांव फिर भी नहीं चले.
“देखो रानी, जब तक नाचोगी नहीं, जाओगी नहीं. खड़ी रहो रात भर,” धमकी सुन कर मेघा ने निगाहें ऊपर उठाईं.
“ओह, कहां फंसा दिया,” मेघा की आंखों में बेबसी ठहर गई.
‘अब घूमर के अलावा कोई बचाव नहीं,’ सोच कर मेघा ने अपने चिंदीचिंदी आत्मविश्वास को समेटा और अपने दुपट्टे को गले से उतार कर कमर पर बांध लिया.
‘हवा में उड़ता जाए, मेरा लाल दुपट्टा मलमल का…’, ‘इन्हीं लोगों ने ले लीन्हा दुपट्टा मेरा…’, ‘लाल दुपट्टा उड़ गया रे बैरी हवा के झौंके से…’ जैसे कई फिल्मी गीतों पर मेघा ने घूमर नाच किया तो सब के मुंह उस के मिक्स ऐंड मैच को देख कर खुले के खुले रह गए. फिरकी की तरह घूमती उस की देह खुद चकरी हो गई थी.
लड़कियां उत्तेजित हो कर सीटियां बजाने लगीं. उस के बाद वह ‘घूमर वाली लड़की’ के नाम से जानी जाने लगी.
मेघा किसी तरह नई मिट्टी में जड़ें जमाने की कोशिश कर रही थी लेकिन जब भी वह होस्टल में लड़कियों को गहरे गले और बिना बांहों वाली छोटी सी बनियाननुमा ड्रैस पहने बेफिक्री से घूमते देखती तो उसे अपना पूरी आस्तीन का कुरता रजाई सा लपेटा हुआ लगता.
मेघा की हालत त्रिशंकु सी हो गई. न तो उस से अपने संस्कार छोड़ते बनता और ना ही नए तौरतरीके अपनाते बन रहा था. फिर उस ने खुद को बदलने का निश्चय किया.
अब सवाल यह है वह अपनेआप को माहौल के अनुसार बदल भी ले लेकिन कोई उस की मदद करे तो सही, यहां तो कोई उसे दोस्त बनाने के लिए राजी ही नहीं था.
सब से आखिरी बेंच पर बैठने वाली मेघा ने अपनी तरफ से लाख कोशिश कर देखी लेकिन ऐसा लग रहा था जैसे जमीन पौधे को स्वीकार ही नहीं कर रही, पौधा था कि पनप ही नहीं रहा था.
इसी तरह पहले सेमेस्टर के टर्म पेपर आ गए. मेघा ने अपनी जान झौंक दी. नतीजा आया तो पहले नंबर पर मेघा का नाम देख कर सब की निगाहें क्लास में पीछे बैठी आदिमानव सी लड़की की तरफ उठ गई. प्रोफैसर ने उस का नाम ले कर पुकारा तो संकोच से भरी मेघा के कदम जमीन में धंस से गए.
मेघा को लगा जैसेकि अब उस के दिन बदल जाएंगे और हुआ भी यही. प्रोफैसर उसे नाम से जानने लगे. बहुत से लड़केलड़कियों ने उस से मोबाइल नंबर ऐक्सचैंज किए. कुछ से बातचीत भी होने लगी लेकिन इतना सब होने के बाद भी मेघा अकेली की अकेली ही रही.
लाइम लाइट में आने के बाद भी उस का आत्मविश्वास नहीं लौटा. उसे सब का व्यवहार चीनी चढ़ी कुनैन सा लगता. एकदम बनावटी क्योंकि अब भी लोग उसे शाम को होने वाली चाय पार्टी का हिस्सा नहीं बनाते थे. हां, अपनी रूममैट विधि से अवश्य उस की पटने लगी थी.
विधि ने उस के बाहरी पहनावे को थोड़ा सा बदल दिया. उस की लंबी चोटी अब स्टैप्स में कट गई थी. बालों के तेल की जगह जैल ने ले ली. सलवारकमीज की जगह अलमारी में जींसकुरती आ गई लेकिन हां, अब भी वह बनियान पहन कर होस्टल में नहीं घूम पाती थी. उसे नंगानंगा सा लगता था.
सब कुछ पटरी पर आ ही रहा था कि उस की जिंदगी को और अधिक आसान बनाने आ गया था विनोद. जितनी आधुनिक मेघा, उतना ही विनोद. फर्क बस इतना ही था कि मेघा राजस्थान के गांव से थी तो विनोद बिहार के गांव से. दोनों ही सकुचेसहमे और दिल्ली की तेज रोशनी से चुंधियाए हुए. मेघा को विनोद के साथ बहुत सहज लगता था. उस के साथ खाया लिट्टीचोखा उसे दालबाटी सा आनंद देता था. कभीकभी जब वह लंबा आलाप ले कर देसी तान छेड़ता तो मेघा का मन घूमर डालने को मचलने लगता.
परदेस में कोई अपनी सी फितरत का मिल जाए तो अपना सा ही लगने लगता है. मेघा को भी विनोद अपना ही अक्स लगने लगा. क्लास से ले कर कनाट प्लेस तक दोनों साथसाथ देखे जाने लगे. यह अलग बात है कि कनाट प्लेस जाने का मकसद दोनों का एक ही होता था. नए फैशन को आंखें फाड़फाड़ कर देखना और फिर उसे जीभर कोसना. दोनों को ही इस में आत्मिक तृप्ति सी मिलती थी गोया अपने स्टाइल को बेहतर साबित करने का यह भी एक तरीका हो.
घूमतेफिरते दिल्ली के ट्रैफिक से घबराए दोनों एकदूसरे का हाथ थाम कर सड़क क्रौस किया करते थे. हालांकि विनोद ने कभी इकरार तो नहीं किया लेकिन प्यार से हाथ पकड़ने को मेघा प्यार ही समझ बैठी.
‘मेरी ही तरह छोटी जगह से है ना बड़ी बातें नहीं बना पाता होगा’, मेघा उस के हाथ में अपना हाथ देख कर सपने बुनने लगती.
इधर पिछले कुछ दिनों से मेघा को विनोद पर भी नए रंग का असर दिखाई दे रहा था.
उस दिन बारिश के बाद जब दोनों कैंपस के बाहर लगे ठेले पर मक्के का भुट्टा खा रहे थे तो अचानक मेघा को विनोद के मुंह से अप्रिय सी गंध आई.
“विनोद, पी है क्या?” मेघा ने अपने वहम को यकीन में बदलने के खयाल से पूछा.
“ना, चखी है,” कहने के साथ ही उस के अंदाज की बेशर्मी मेघा को खल गई. उस ने आधा खाया भुट्टा डस्टबिन में फेंका और मुड़ गई. विनोद उसे जाते हुए देखता रहा लेकिन रोकने की कोशिश नहीं की. कौन जाने, हिम्मत ही ना हुई हो.
धीरेधीरे विनोद शहर के रंगों में डूबने लगा. इतना कि खुद अपना असली रंग खो दिया. रंगीनियत तो मेघा पर भी तारी थी लेकिन अभी तक उस की अपनी देसी रंगत बरकरार थी. शायद ये देसीपना संस्कार बन कर उस के भीतर जड़ें जमा चुका था. विनोद में ये जड़ें जरा कमजोर रह गई होंगी.
विनोद को यों पटरी से उतरते देख कर मेघा का दिल बहुत उदास हो जाता लेकिन वह कुछ कर नहीं पा रही थी. हालांकि उनका मिलनाजुलना अब भी जारी था लेकिन अब उस में पहले वाली गुनगुनाहट नहीं बची थी फिर भी मेघा को कभीकभी लगता था जैसेकि दोस्तों को यदि दोस्त ही गड्ढे में गिराते हैं तो उन्हें गिरने से बचाने की जिम्मेदारी भी दोस्तों की ही होती है. फिर वह तो प्यार करने लगी थी उस से. कौन जाने यह रिश्ता रिश्तेदारी में ही बदल जाए. इस नाते तो उस की जिम्मेदारी दोहरी हो जाती है.
“तुम्हें भी शहर की हवा लग गई लगती है,” एक रोज मेघा ने सिगरेट के छल्ले उड़ाते विनोद से पूछा.
“जैसा देस, वैसा भेष,” विनोद ने एक हिंदी फिल्म का नाम लिया और हंस दिया.
“बिना भेष बदले क्या उस देस में रहने नहीं दिया जाता?” मेघा ने फिर पूछा जिस का जवाब विनोद को नहीं सूझा. वह चुपचाप नाक से धुआं खींचता मुंह से निकालता रहा.
मेघा चाह तो रही थी कि उस के हाथ से सिगरेट खींच ले लेकिन किस अधिकार से? बेशक विनोद के प्रति उस की कोमल भावनाएं हैं लेकिन इकतरफा भावनाओं की क्या अहमियत. मेघा पराजित सी खड़ी थी.
कुछ खास मौके ऐसे होते हैं जो महानगरों में बड़े शोरशराबे के साथ मनाए जाते हैं, वही छोटे शहर के लोग इन्हें हसरत के साथ ताका करते हैं. वैलेंटाइन डे भी ऐसा ही खास दिन है जिस का युवा दिलों को सालभर से इंतजार रहता है. मेघा भी बहुत उत्साहित थी कि उसे भी यह सुनहरा मौका मिला है जब वह प्रत्यक्ष रूप से इस अवसर की साक्षी बनने वाली है. अन्य लड़कियों की तरह वह गुलाब इकट्ठे करने वाली भीड़ का हिस्सा तो नहीं बन रही थी लेकिन एक गुलाब की प्रतीक्षा तो उसे भी थी ही.
प्रेम दिवस पर पूरे कालेज में गहमागहमी थी. लड़कियां बड़े मनोयोग से सजीसंवरी थी तो लड़के भी कुछ कम नहीं थे. किसी के हाथ में गुलाब तो किसी के पास चौकलेट, कोई टैडीबीयर हाथ में थामे था तो कोई मंदमंद मुसकान के साथ कार्ड में लिखे जज्बात पढ़ रहा था.
कोई जोड़ा कहीं किसी कैंटीन में सटा बैठा था तो कोई किसी कार की पिछली सीट पर प्रेमालाप में मगन था. कुछ जोड़े मोटरसाइकिल पर ऐसे चिपक कर घूम रहे थे कि मेघा को झुरझुरी सी हो आई. मेघा की आंखें ये नजारे देखदेख कर चकाचौंध हुई जा रही थी.
सुबह से दोपहर होने को आई लेकिन विनोद का कहीं अतापता नहीं था.
‘मेरे लिए गुलाब या गिफ्ट लेने गया होगा,’ से ले कर ‘पता नहीं कहां चला गया’ तक के भाव आ कर चले गए. लेकिन नहीं आया तो केवल विनोद.
‘क्यों न चल कर मैं ही मिल लूं,” सोचते हुए मेघा ने कालेज के बाहर अस्थाई रूप से लगी फूलों की दुकान से पीला गुलाब खरीदा और विनोद की तलाश में डिपार्टमैंट की तरफ चल दी.
“अभीअभी विनय के साथ निकला है,” किसी ने बताया.
विनय उन दोनों का कौमन फ्रैंड है. असाइनमैंट बनाने के चक्कर में तीनों कई बार विनय के कमरे पर मिल चुके हैं. मेघा सोच में पड़ गई.
‘क्या किया जाए, इंतजार या फिर विनय के कमरे पर धावा…’ आखिर मेघा ने विनोद को सरप्राइज देना तय किया और विनय के रूम पर जाने के लिए औटो में बैठ गई.
दिल उछल कर बाहर आने की कोशिश में था. औटो की खड़खड़ भी धड़कनों के शोर को दबा नहीं पा रही थी. पीला गुलाब उस ने बहुत सावधानी के साथ पकड़ा हुआ था. कहीं हवा के झोंके से पंखुड़ियां क्षतिग्रस्त न हो जाएं. आज वह जो करने जा रही है वह उस ने कभी सोचा तक नहीं था.
‘पता नहीं मुझे यह करना चाहिए या नहीं. कहीं विनोद इसे गलत न समझ ले. मेरा यह अतिआधुनिक रूप कहीं विनोद को ना भाया तो?’ ऐसे कितने ही प्रश्न थे जो मेघा को 2 कदम आगे और 4 कदम पीछे धकेल रहे थे.
ऊहापोह में घिरी मेघा के हाथ कमरे के बाहर लगी घंटी के बटन की तरफ बढ़ गए. तभी अचानक भीतर से आ रही आवाजों ने उसे ठिठकने को मजबूर कर दिया.
“अरे यार, आज तूने किसी को कोई लाल गुलाब नहीं दिया,” विनय के प्रश्न का जवाब सुनने के लिए मेघा अधीर हुई जा रही थी. अपने नाम का जिक्र सुनने की प्रतीक्षा उस की आंखों में लाली सी उतर आई. उस ने कान दरवाजे से सटा दिए.
“कोई जमी ही नहीं. सानिया पर दिल आया था लेकिन उसे तो कोई और ले उड़ा,” विनोद का जवाब सुन कर मेघा को यकीन नहीं हुआ.
“सानिया? वह तो तेरेमेरे जैसों को घास भी ना डाले,” विनोद ने ठहाका लगाया.
“मैं तो मेघा के बारे में बात कर रहा था. तुम दोनों की तो खूब घुटती थी ना, इसीलिए मैंने अंदाजा लगाया,” विनय ने आगे कहा.
उस के मुंह से अपना जिक्र सुन कर मेघा फिर से उत्सुक हुई.
“कौन? वह गांवड़ी? अरे नहीं यार, यहां आ कर भी अपने लिए कोई गांवड़ी ही ढूंढ़ी तो फिर क्या खाक तीर मारा,” विनोद ने लापरवाही से कहा तो मेघा के कान सुन्न से हो गए. उसे यकीन नहीं हो रहा था कि जो उस ने सुना वह सच है.
उस ने एक निगाह अपने हाथ में सहेजे पीले गुलाब पर डाली. फूल भी उसे अपने किरदार सा बेरौनक लगा. मेघा वापस मुड़ गई.
‘दिल टूटा क्या?’ कोई भीतर से कुनमुनाया.
‘ना रे, बिलकुल भी नहीं. मेरा दिल इतना कमजोर थोड़ी है. वैसे भी मैं यहां दिल तोड़ने या जोड़ने नहीं आई हूं,’ अपने भीतर को जवाब दे कर वह जोर से खिलखिलाई और फिर अपना दुपट्टा हवा में लहरा दिया.
मेघा हंसतेहंसते बुदबुदा रही थी,’गांवड़ी।’
औटो में बैठी मेघा ने 1-2 बार पीले गुलाब को खुद ही सूंघा और फिर उसे औटो में ही छोड़ कर नीचे उतर गई.
फटी ओढ़नी बहुत नफासत के साथ रफू हो गई थी.
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