घर आ कर मेरे कुछ भी कर जाने की धमकी के आगे झुक कर पापा ने मां को बुलवा लिया. अब शठे शाठ्यम समाचरेत यानी जिस ने लाठी का प्रयोग किया उस के लिए लाठी का ही तो प्रयोग करना पड़ेगा, समान आचरण से ही क्रूर इंसान को सीख मिल सकेगी.
एक तरफ मुझे ट्रेनिंग में वापस जाने की हड़बड़ी थी. दूसरी ओर शादी वाले युवक से पीछा छुड़ाना था. और तो और, प्रबाल के लिए हमारे परिवार में एक स्थान बनाना था ताकि मुझे ले कर उस की कोशिश को महत्त्व मिल सके.
सब से पहले मैं ने प्रबाल से बात की. वह सहर्ष तैयार हो गया कि नाना और पापा की कड़ी को जोड़ने में वह मुख्य भूमिका में आएगा. धीरेधीरे उस की पहल पर नाना की प्रबाल के साथ जहां अच्छी ट्यूनिंग हो गई वहीं मेरे पापा के स्वभाव के प्रति भी उन में नर्म रुख आया.
इधर, एचआर मैनेजर मैम को उन की बात की याद दिलाते हुए मैं ने उन से मुझे जल्द ट्रेनिंग में वापस बुलाने को कहा. मैम मेरी आत्मनिर्भरता की सोच का स्वागत करती थीं और उन्होंने पापा पर जोर डाला कि वे मेरी ट्रेनिंग को पूरी करने दें. अड़ी तो मैं भी थी. उन्होंने भी सोचा कि एक बार यह पारंपरिक बिजनैसमैन फैमिली में चली गई तो यों ही इस का बेड़ा गर्क होने ही वाला है. कहीं ज्यादा रोक से बिगड़ गई तो लड़के वालों के सामने हेठी हो जाएगी. पापा ने मुझे ट्रेनिंग में जाने दिया. प्रबाल मुझ पर लगातार नजर रखे था.
एक दिन बड़ी घुटी सी महसूस कर रही थी मैं. माइग्रेन से सिर फटा जा रहा था मेरा. प्रबाल पास आया और मुझे देखता रहा, फिर कहा, ‘‘व्यर्थ ही परेशान होती हो. मैं हूं तुम्हारा दोस्त, क्यों इतना सोचती हो. तुम मेरे साथ होती हो तो मुझे खुशी होती है, और मैं यह तुम से कह कर और ज्यादा खुश होना चाहता हूं. तुम भी कहो, अगर मैं तुम्हारे किसी काम आ सकूं तो. इस से मुझे बेहद खुशी होगी. विचारों को खुला छोड़ो. इतना घुटती क्यों हो?’’
मैं, बस, रो पड़ी. मेरी स्थिति भांप कर प्रबाल ने आगे कहा, ‘‘मैं तुम्हारे साथ हूं अभ्रा, तुम चाहो तब भी और न चाहो, तब भी. जरूरी नहीं कि हम सामाजिक रीति से पतिपत्नी बनें कभी, लेकिन साथ होने का एहसास, जो समझे जाने का एहसास है, वह अनमोल है. अगर मेरा तुम से जुड़े रहना तुम्हें पसंद नहीं, तो बेझिझक तुम वह भी कह दो. हां, मैं तुम्हें भूलने की गारंटी तो नहीं दे सकूंगा, लेकिन तुम जैसा चाहोगी वैसा ही होगा.’’
आंखों में आंसू थे मेरे जरूर, लेकिन दिल में सुकून के फूल खिल उठे थे. सच, प्रबाल की सोच मेरी सोच के कितने करीब थी.
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जब तुम्हें कोई पसंद आता है तो तुम अपनी मरजी से उसे पसंद करते हो. फिर बंधन के नाम पर प्रेम की जगह उम्मीदों, आदेशों, निर्देशों और खुद की मनमानी की जंजीरों से क्यों बांध देते हो उसे? यह तो सामने वाले के दायरे को संकरा करना हुआ.
परिवार में पिता कमा कर लाता है, अपना दायित्व निभाता है. यह उस का बड़प्पन है. लेकिन बदले में परिवार के अन्य सदस्यों के विचारों और इच्छाओं का मान न करना, अपनी मनमानी करना, न्यायसंगत नहीं है. पैसे के बदले उसे ऐसे अधिकार तो नहीं मिल सकते. बच्चे पैदा करने में आप ने किसी पर दया तो नहीं की थी. विचारों के उथलपुथल के बीच मैं सुन्न सी पड़ गई थी.
प्रबाल ने कहा, ‘‘जो भी परेशानी हो, मुझे बताना. मैं हल निकालूंगा.’’
शादी वाले युवक का फोन नंबर कुछ सोच कर मैं ने पापा से यह कह कर रख लिया था कि शादी से पहले परिचय कर लूंगी फोन पर. बाद में मैं ने यह नंबर प्रबाल को दिया और हम ने इस पर मंथन करना शुरू किया.
प्रबाल इस बीच नाना के साथ अपनेपन की जमीन तैयार कर चुका था. अब वह वहां जा कर मेरे उन विचारों से मेरे घर वालों को अवगत करा रहा था जिन में अब तक किसी की दिलचस्पी नहीं थी. उस ने नाना से अपनी बात पूरी करते हुए कहा, ‘‘अहंकार पर मत लो नाना. मैं समझता हूं उसे, क्योंकि मैं ने समझने की कोशिश की है. आप लोग उस के ज्यादा करीबी जरूर हो, लेकिन बात किसी को महत्त्व देने की है. आप लोग खुद को और खुद की सोचों को ज्यादा महत्त्व देते हो और मैं अभ्रा को. इसलिए, मैं ज्यादा आसानी से उसे समझ पाता हूं.’’
नाना इतने भी अडि़यल नहीं थे, वे समझ गए और मुझे मदद देने को तैयार हो गए. शादी वाले युवक को फोन कर नाना ने कहा, ‘‘बेटा, आप का बहुत ही परंपरावादी परिवार है, लेकिन यह शादी आप को कोई सुख नहीं दे पाएगी. लड़की के पिता सिर्फ बेटी को सजा देने के लिए यह शादी करवा रहे हैं. लेकिन बेटी किसी दबाव या मनमानी सह कर नहीं जिएगी. वह स्वतंत्र सोच वाली आधुनिक लड़की है. शादी के बाद आप सब की जगहंसाई न हो. बाकी, आप की इच्छा.’’
लड़के ने तुरंत फोन रखने की कोशिश में कहा, ‘‘मैं नहीं करने वाला यह शादी, मुझे शुरू से ही शक था.’’
‘‘सुनो बेटे, सुनोसुनो, यह तुम मत कहना कि हम ने आगाह किया तुम्हें, क्योंकि लड़की के पापा के डर से हमें यह कहना पड़ेगा हम ने ऐसा नहीं कहा. और तुम प्रमाण देने लगे तो हमें फिर और दूसरा रास्ता अपनाना पड़ेगा. आप लोग लड़के वाले हो, लड़की के बारे में पता करना आप का हक है. इसी लिहाज से कह देना कि आप को लड़की जमी नहीं.’’
‘‘हां, कह दूंगा.’’
बात शांति से खत्म. पापा को जब सुनने में आया कि होटल मैनेजमैंट पढ़ने वाली लड़की खानदानी बहू नहीं बन सकती और इसलिए रिश्ता खत्म, तो पापा ने खूब लानत भेजी मुझे. मैं ने भी कह दिया, ‘‘अब तो कहीं ऊंची नौकरी कर लूं तभी आप की कटी नाक फिर से निकले. फीस जारी रखिए ताकि अपने पैरों पर खड़ी हो कर आप का नाम रोशन करूं.’’
‘‘और लड़कों के साथ जो भाग जाती हो?’’
‘‘एक दोस्त है मेरा प्रबाल, लड़की की शक्ल नहीं है उस की. बस, इतना ही कुसूर है. थोड़ा तो आगे बढि़ए पापा.’’
इस बीच, प्रबाल नाना की पुरानी सोचों में काफी बदलाव ले आया था. वे अब नई पीढ़ी को समझने को तैयार रहने लगे थे. मैं ट्रेनिंग में ही थी और होटल का बंकर ही फिलहाल मेरा ठिकाना था.
मेरे जन्मदिन पर नाना ने अपने घर में एक छोटा सा आयोजन रखा और कुछ परिचितों को बुलाया. पार्टी के खास आकर्षण मेरे मांपापा थे जिन्हें नाना ने अपनी वाकपटुता से आने के लिए राजी कर लिया था. निसंदेह इस में प्रबाल की दक्षता भी कम नहीं थी.
प्रबाल का मानना था कि तोड़ने में हम जितनी ऊर्जा गंवाते हैं, जोड़ने में उतनी ही ऊर्जा क्यों न गंवा कर देखा जाए. जिंदगी को खूबसूरती से जिया जाए तो दुनिया की सुंदरता को हम शिद्दत से महसूस कर सकते हैं.
प्रबाल और मेरी उपस्थिति में जब एक अच्छी पार्टी रात गए खत्म हुई तो नाना ने प्रबाल को रात हमारे साथ ही रुक जाने को कहा.
पापा का पहला सवाल, ‘‘अभी तक यहां क्यों है?’’ इशारा प्रबाल की ओर था उन का.
नाना ने कहा, ‘‘ताकि हम सब साथ हो सकें. कुछ देर रुक कर मेरी बात सुनो आकाश, किसी की कुछ न सुनना और अपना फरमान दूसरों पर थोप देना, तुम्हारी यह आदत तुम्हें दूसरों की नजर में गिरा रही है.’’
‘‘मैं आप का कोई ज्ञान नहीं सुनूंगा. आप बेटी के बाप हैं, उतना ही रहें.’’
‘‘बस पापा,’’ मैं कूद पड़ी थी बीच में, ‘‘पुराने ढकोसलों से पटी पड़ी आप की सोच और उन निरर्थक सोचों पर आप की दूसरों की जिंदगी चलाने की कोशिश हमें ले डूबेगी. आप बुरी तरह अहंकार की चपेट में हैं, पैसे और रुतबे की धौंस से आप अपने परिवार को बांधे नहीं रख सकते. जिंदगीभर आप तानाशाही नहीं चला सकते. आप मेरा खर्च उठा कर अपना कर्तव्य निभा रहे हैं, बदले में लेने की कुछ फिक्र न करें. बेटी का पिता कह कर किसे नीचे दिखा रहे हैं? आप क्या हैं?’’
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मेरी मां अवाक मुझे देख रही थीं. अचानक बोल उठीं, ‘‘यह प्रबाल की संगत का असर है, वरना सोच तो कब से थी हम में, लेकिन बोलने की हिम्मत कहां थी.’’
‘‘यही तो चाहते रहे पापा कि उन के आगे किसी की हिम्मत नहीं पड़े. उन्हें कभी हिम्मत हुई कि अपने अंदर के अहंकार के शिलाखंड को तोड़ें? कोशिश ही नहीं की कभी खुद को गलत कहने की, खुद की सोचों को मथने की.’’
पापा सिर झुकाए बैठे रहे जैसे सिर से पैर तक ज्वालामुखी पिघल कर गिरतेगिरते बर्फ सा जमता जा रहा था. धीरेधीरे उन्होंने सिर उठाया और प्रबाल की ओर देखा और देखते रह गए. 6 फुट की हाइट, गोरा, शांत, सुंदर चेहरा, समझदार ऐसा कि सब को साथ लिए चलने का हुनर हो जिस में, अच्छा परिवार, लेकिन नौकरीकैरियर? होटल? नहींनहीं.
पापा अभी कुछ नकारात्मक कह पड़ते, इस से पहले मैं ने कमान संभाल ली, ‘‘पापा, अभी मुझे काफी कुछ करना है, दुनिया को अपने सिरे से ढूंढ़ना है, इसलिए नहीं कि मैं मनमानी करना चाहती हूं, बल्कि इसलिए क्योंकि मुझे खुद को खुद के अनुसार गढ़ना है किसी अन्य के अनुसार नहीं.
‘‘मेरे खयाल से प्रबाल अगर होटल लाइन में है तो यह उस की खुद की मरजी है, किसी और की मरजी की गुलामी कर के आप के अनुसार किसी खानदानी लाइन जैसे कि डाक्टरी या इंजीनियरिंग में जाता और अपना परफौर्मैंस खराब करता तो क्या वह किसी काम का होता?’’
तुरंत मां ने कहा, ‘‘हम प्रबाल को अपना समझते हैं. यह हमेशा हमारे परिवार के साथ खड़ा रहा है. मेरे हिसाब से आकाश, आप भी समझ रहे होंगे. हम इसे अपने लिए बांध कर रख लेते हैं. अभ्रा को पढ़ने देते हैं.’’
पापा ने पहली बार खुलेदिल से प्रबाल की ओर देखा, फिर मां से कहा, ‘‘ठीक है.’’
ये दो शब्द उपस्थित सारे लोगों की सांसों में सुगंधित, मीठी बयार भर गए.
प्रबाल समझ गया था कि उसे राजगद्दी मिल चुकी है लेकिन उसे राजगद्दी से ज्यादा ‘मैं’ चाहिए थी. वह मेरी भावनाओं को अच्छी तरह समझता था.
उस ने कहा, ‘‘मां, मैं वचन देता हूं मैं आप सब का ही हूं और रहूंगा. मैं अभ्रा को छोड़ कर कहां जाऊंगा? मगर उसे खुल कर जीने दें. उसे जब जैसे मेरे साथ आना हो, आए. यह मुक्ति का बंधन है, टूटेगा नहीं.’’
मैं प्रबाल की आंखों से उतर कर जाने कहां खो कर भी प्रबाल में ही समा गई. हां, यह मुक्ति का ही बंधन था जिस ने मुझे अदृश्य डोर में बांधे रखे था, बिना बंधन का एहसास दिए.