‘‘मैं सिंगल कहां हूं’’ पाओली दाम

29 बांग्ला फिल्मों में अभिनय कर सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का राष्ट्रीय पुरस्कार के साथसाथ गोल्डन पिकौक अवार्ड भी पा चुकीं अदाकारा पाओली दाम ने खुद को किसी सीमा में नहीं बांधा. वे 2012 में विक्रम भट्ट की असफल हिंदी फिल्म ‘हेट स्टोरी’ में काव्या कृष्णा के अतिबोल्ड किरदार में नजर आई थीं. तब माना जाने लगा था कि वे बौलीवुड में इसी तरह के जिस्म नुमाइश वाले किरदार निभाती नजर आएंगी. लेकिन उस के 1 साल साल बाद ही वे फिल्म ‘अंकुर अरोड़ा मर्डर केस’ में ऊपर से ले कर नीचे तक कपड़ों से ढकी काजोली सेन नामक वकील के किरदार में लोगों को चौंका गई.

इन दिनों पाओली एक तरफ इस साल की सर्वश्रेष्ठ फिल्म के राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित कोंकणी भाषा की फिल्म ‘बागा बीच’ को ले कर चर्चा में हैं, जिस में उन्होंने सब्सटैंस औफ ओमन का जबरदस्त किरदार निभाया है, तो दूसरी तरफ सुभाष सहगल की फिल्म ‘सारा सिल्लीसिल्ली’ को ले कर चर्चा में हैं, जिस में उन्होंने बांग्ला के सुपरस्टार परमब्रता के साथ रोमांटिक किरदार निभाया है. इन दिनों वे मुंबई में एक बांग्ला फिल्म ‘आरोनी ताखोन’ को ले कर भी चर्चा में हैं, जिस में वे एक मुसलिम लड़की का किरदार निभा रही हैं.

पेश हैं, पाओली दाम से हुई गुफ्तगू के कुछ अहम अंश:

क्या वजह है कि हिंदी फिल्में कम करती हैं?

ऐसा कुछ नहीं है. पर यह तय है कि मैं बांग्ला फिल्मों को कभी अलविदा नहीं कह सकती. मुझे हिंदी या अन्य किसी भी भाषा की अच्छी फिल्म करने से परहेज नहीं है.

आप की हिंदी फिल्म ‘अंकुर अरोड़ा मर्डर केस’ बेहतरीन फिल्म है. पर बौक्स औफिस पर नहीं चली. इस से आप को बहुत तकलीफ हुई होगी?

तकलीफ तो होती ही है, क्योंकि हम हर फिल्म में पूरी मेहनत के साथ काम करते हैं. फिर ‘अंकुर अरोड़ा मर्डर केस’ तो डाक्टरी लापरवाही पर एक बोल्ड फिल्म है. हम चाहते हैं कि इस तरह के विषयों वाली फिल्में ज्यादा से ज्यादा दर्शकों तक पहुंचें. मगर जब यह फिल्म नहीं चली, तो बहुत दुख हुआ. पर मेरी राय में इस फिल्म को सही तरीके से डिस्ट्रीब्यूट नहीं किया गया. इसे बहुत कम थिएटरों में रिलीज किया गया. पब्लिसिटी में भी गड़बड़ थी. आम लोगों को तो पता ही नहीं चला कि फिल्म कब रिलीज हुई. बाद में इस फिल्म को लोगों ने बहुत पसंद किया.

मेरी कोंकणी फिल्म ‘बागा बीच’ भी अभी तक रिलीज नहीं हुई है, जबकि उसे सर्वश्रेष्ठ फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुका है. इस तरह की पुरस्कृत फिल्में जब रिलीज नहीं होतीं, तब तो आप को बहुत तकलीफ होती होगी? हम जिस फिल्म में काम करते हैं, यदि वह दर्शकों तक नहीं पहुंचती है, तो तकलीफ होती ही है. राष्ट्रीय पुरस्कार मिल जाने के बाद यह साफ हो जाता है कि फिल्म अच्छी है. लेकिन मैं उम्मीद करती हूं कि यह फिल्म रिलीज होगी.

फिल्म ‘बागा बीच’ में आप का क्या किरदार है?

इस फिल्म में मैं ने बीड बेचने वाली का किरदार निभाया है, कर्नाटक से आ कर गोवा के बीच पर बीड बेचती है. वह गोवा से नहीं है, इसलिए गोवा के लोग उसे पसंद नहीं करते हैं. इस वजह से उसे कई तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ता है. यहां तक कि उस की जिंदगी को भी खतरा होता है.

शायद आप पहली बांग्ला अभिनेत्री है जिन्होंने कोंकणी फिल्म में काम किया?

जी हां, वास्तव में 2011 में कांस फिल्म फैस्टिवल में मेरी मुलाकात फिल्मकार लक्ष्मीकांत शेटगांवकर से हुई थी. वहां से आते ही उन्होंने मुझे एक स्क्रिप्ट सुनाई जो मुझे बहुत पसंद आई. फिर मुझे बताया गया कि वे इसे कोंकणी, हिंदी व अंगरेजी भाषा में बनाने जा रहे हैं. मुझे किसी भी भाषा की फिल्म करने से परहेज नहीं था. लिहाजा मैं ने यह फिल्म की. फिल्म बहुत अच्छी बनी. इसलिए इसे राष्ट्रीय पुरस्कार मिला. मगर अफसोस कि अब तक यह रिलीज नहीं हो पाई है. यह फिल्म गोवा की पृष्ठभूमि पर बनी है और पूरी फिल्म गोवा में ही फिल्माई गई है. इस में गोवा को आम गोवा की तरह नहीं दिखाया गया है, बल्कि लोग इस में एक कलरफुल गोवा देख सकेंगे.

फिल्म ‘आरोनी ताखोन’ में आप का क्या किरदार है?

मेरा रूना रेजा नामक एक मुसलिम लड़की का किरदार है. जैसे आम लड़कियां होती हैं, वैसी ही फुल औफ लाइफ लड़की है. उसे एक हिंदू लड़के से प्यार हो जाता है. कहानी की पृष्ठभूमि 1990 है, जब कुछ धार्मिक दंगे हुए थे. उसी दौरान यह लड़की अपने प्रेमी के साथ किसी दंगे में फंस जाती है. फिर उन की जिंदगी में क्याक्या होता है, वह देखने लायक है. यह एक वंडरफुल किरदार है. मेरी राय में इस तरह के किरदार फिल्मों में बहुत कम नजर आते हैं. इस में हमारे साथ इंद्रनील, प्रतीक, प्रसन्नोजीत चटर्जी सहित कई दूसरे कलाकार भी हैं.

फिल्म ‘आरोनी ताखोन’ में जिस तरह से धार्मिक दंगों की बात की जा रही है, क्या निजी जिंदगी में कभी आप का इस तरह के दंगों से सामना हुआ?

नहीं. आम आदमी जिन का इन दंगों से कोई लेनादेना नहीं होता है, वह कैसे प्रभावित होता है, उस की जिंदगी कैसे प्रभावित होती है, उसी की कहानी है. निजी स्तर पर मुझे कभी इस तरह की समस्या का सामना नहीं करना पड़ा. इसलिए इस किरदार को निभाना मेरे लिए बहुत बड़ी चुनौती है, क्योंकि जिन चीजों का सामना मैं ने निजी जिंदगी में नहीं किया है, उन्हीं से इस किरदार को गुजरना है. इस में रूना रेजा की जिंदगी बहुत रोचक है.

फिल्म के निर्देशक सौरव चक्रवर्ती को ले कर क्या कहेंगी?

सौरव चक्रवर्ती की स्वतंत्र निर्देशक के रूप में यह पहली फिल्म है. पर वे इस से पहले आशुतोष गोवरीकर के साथ बतौर सहायक निर्देशक काम कर चुके हैं. वे बहुत ही फोकस्ड निर्देशक हैं. जब उन्होंने स्क्रिप्ट सुनाई, तभी मेरी समझ में आ गया था कि उन्होंने इस विषय पर कितनी बड़ी तैयारी कर रखी है.

जब भी दंगों पर आधारित फिल्में बनती हैं, तो उन में प्रेम कहानी को ही भुनाया जाता है. ऐसा क्यों?

हमारी इस फिल्म में दूसरे ऐंगल भी हैं. फिल्म में कई ऐलीमैंट हैं. यह कोई आम फिल्म नहीं है.

धीरेधीरे आप ग्लैमरस व बोल्ड अदाकारा की ईमेज से दूर होती जा रही हैं?

मैं ने कभी कोई भी किरदार किसी खास ईमेज में बंधने के लिए नहीं निभाया. मैं ने हमेशा स्क्रिप्ट व किरदार की मांग को ही पूरा करने का प्रयास किया. मेरे अंदर अभिनय क्षमता कूटकूट कर भरी हुई है. मुझे ड्रामैटिक किरदार निभाने में ज्यादा मजा आता है. मैं ने अपने अब तक के कैरियर में अलगअलग तरह की फिल्में और अलगअलग तरह के किरदार निभाए हैं. यदि मैं ने कुछ फिल्मों में सिर्फ डांस किया है, तो वहीं कुछ फिल्मों में चुनौतीपूर्ण अभिनय भी किया और राष्ट्रीय पुरस्कार हासिल किए.

बांग्ला फिल्म इंडस्ट्री और बौलीवुड में बहुत फर्क है. आप अपनेआप को कहां सहज महसूस करती हैं?

मैं हर जगह सहज हूं. मुझे हर जगह काम करना है. हर तरह व हर भाषा की फिल्में करनी हैं, क्योंकि मुझे अच्छा सिनेमा करना है. जब मैं ‘बागा बीच’ कर रही थी. तब मैं पूरा 1 माह गोवा में थी. अलगअलग लोगों से मिलना, अलगअलग फिल्म की यूनिट से मिलना अच्छा लगता है. हम हर इंसान से कुछ न कुछ सीखते हैं.

इन दिनों हर कलाकार हौलीवुड की फिल्मों में काम करने के लिए जोड़तोड़ कर रहा है. आप भी ऐसा कुछ करना चाहती हैं?

मैं ने कोई योजना नहीं बनाई है. पर मैं भी हौलीवुड की फिल्म करना चाहूंगी. एक कलाकार के तौर पर मैं अपनी अंतर्राष्ट्रीय पहचान बनाना चाहती हूं.

मल्टीप्लैक्स के आने के बाद हौलीवुड की फिल्में भारतीय भाषाओं में डब हो कर रिलीज होने लगी हैं. इस से भारतीय सिनेमा को चुनौती मिल रही है?

मुझे तो लगता है कि लोग धीरेधीरे इस का विरोध करने लगे हैं. हौलीवुड की फिल्मों के भारत में रिलीज होने से भारतीय फिल्मों के लिए नई चुनौती पैदा हो रही है.

जब हिंदी फिल्में क्षेत्रीय भाषा में डब कर के दिखाई जाती है, तो लोग उस का विरोध करते हैं. हर क्षेत्रीय भाषा में न सिर्फ कलाकार, बल्कि तकनीशियन भी काम करते हैं. आप जब डब कर के फिल्म रिलीज करते हैं, तो इस का असर उन पर पड़ता है, मैं डब फिल्मों या रीमेक फिल्मों को कभी सही नहीं मानती.

पाओली दाम अभी भी सिंगल हैं?

मैं सिंगल कहां हूं. मेरे ढेर सारे दोस्त हैं.

बड़े काम का मैडिकल बैंक

70वर्षीय पंकज साहा कोलकाता के एक गरीब परिवार का है. आज से 10 साल पहले जब उस की हृदयगति धीमी पड़ गई, तो डाक्टर ने उसे पेसमेकर लगवाने की सलाह दी. उस ने परिवार वालों की मदद से पैसे इकट्ठा कर पेसमेकर लगवाया. 10 साल बाद जब पेसमेकर ने काम करना बंद कर दिया तो नया लगवाने के लिए उस के पास पैसे नहीं थे. वह बहुत परेशान था. तभी उसे किसी व्यक्ति ने मैडिकल बैंक की जानकारी दी. पंकज साहा वहां गया तो उसे वहां से मुफ्त में पेसमेकर मिल गया. अभी वह फिर से नौर्मल जिंदगी जी रहा है.

दरअसल, 1980 के शुरू में 24 वर्षीय डी. आशीष ने 4-5 लोकल छात्रों के साथ मिल कर कोलकाता के हाटखोजा में मैडिकल बैंक की स्थापना की. पहले इस बैंक में उन दवाओं को इकट्ठा किया जाता था. जिन्हें लोग बिना खाए फेंक देते थे. वे दवाएं इकट्ठा कर के उन मरीजों में बांटी जाने लगीं जो गरीब थे. इस काम में उन्हें लोगों की मदद काफी मिली जिस से गरीबों का इलाज संभव होने लगा. इस के साथसाथ उन्होंने चश्मे भी इकट्ठा करने शुरू किए. इन चश्मों में सही पावर डाल कर उन्हें जरूरतमंद गरीबों को दिया जाने लगा. ऐसे ही समाजसेवा करतेकरते उन की नजर पेसमेकर पर पड़ी.

मुफ्त इलाज

उन की संस्था में 50 डाक्टर भी अलगअलग क्षेत्र और विभाग के हैं. ये सभी डाक्टर गरीबों का मुफ्त में इलाज करते हैं. उन की मदद से पेसमेकर उन अमीर मरीजों से इकट््ठा किया जाने लगा, जो पेसमेकर लगाने के बाद अधिक दिनों तक जीवित नहीं रहते. उन की मृत्यु के बाद पेसमेकर को या तो पानी में बहा दिया जाता है या मिट्टी में गाड़ दिया जाता है.

डी. आशीष ने इस काम के लिए श्मशान, अस्पताल आदि सभी स्थानों से संपर्क किया और अब जब भी ऐसी डैडबौडी श्मशान आती है, तो वहां के लोग उन्हें सूचित करते हैं. इस के अलावा अस्पतालों में भी मृत व्यक्ति के परिवारजनों को समझा कर डाक्टर उस का पेसमेकर निकाल लेते हैं और डी. आशीष को दे देते हैं.

डी. आशीष ऐसे पेसमेकर्स की जांच करा उन्हें जरूरतमंदों को देते हैं. अभी तक उन बैंक में करीब 600 पेसमेकर आए हैं, जिन में से 200 लोगों को लग चुके हैं. इसे लगवाने वाले लोग अधिकतर 24 परगना, बीरभूम, बांकुड़ा, हावड़ा, हुगली और कोलकाता के हैं.

डाक्टरों का सहयोग

इसे लगवाने से पहले मरीज को अपनी आर्थिक कमजोरी का प्रमाणपत्र किसी डाक्टर, पंचायत, प्रमुख या जनप्रतिनिधि से लिखवा कर मैडिकल बैंक को देना पड़ता है. इस के बाद मैडिकल बैंक उसे पेसमेकर मुफ्त में देता है. इसे लगवाने में लगने वाले खर्चे को भी मैडिकल बैंक स्पौंसर करवाने की कोशिश करता है, जो 10 से 12 हजार होता है.

डी. आशीष दिल्ली, झारखंड, असम और बिहार में मैडिकल बैंक खोलने की योजना बना रहे हैं. मुंबई के ग्लोबल हौस्पिटल के कार्डियोलौजिस्ट डा. प्रवीण कुलकर्णी कहते हैं कि इस अभियान की हर प्रदेश में होने की जरूरत है, क्योंकि एक पेसमेकर का मूल्य क्व60 से 70 हजार होता है. इसे लगवाने की फीस मिला कर इस पर करीब 1 लाख का खर्चा आता है, जो गरीब व्यक्ति नहीं कर सकता.

सरकार भी इस दिशा में कोई काम नहीं करती. मुंबई में के ई.एम. में ऐसा बैंक खोला गया था पर उपयुक्त व्यवस्था न होने की वजह से वह बंद पड़ा है. डा. कुलकर्णी कहते हैं कि मीडिया और एनजीओ को भी इस दिशा में काम करना चाहिए, ताकि पेसमेकर देने वाले और लेने वाले दोनों आपस में जुड़ सकें.

कोलकाता का मैडिकल बैंक पेसमेकर सेवा के अलावा वरिष्ठ नागरिकों को मुफ्त स्वास्थ्य सेवा भी मुहैया करवाता है और थैलिसीमिया और हीमोफीलिया से पीडि़त गरीब बच्चों के लिए ब्लड की व्यवस्था करता है.

मंडप के नीचे

बात मेरी सहेली की शादी की है. जब उस की शादी तय हुई तब वह बीडीएस कर रही थी. उस का कालेज टाइम 8 से 4 बजे का था. रिश्ता अच्छा मिल जाने के कारण उस के घर वालों ने तुरंत शादी करने का निर्णय लिया. पढ़ाई के बीच में ही शादी की डेट निकल आई. शादी के बाद ससुराल में रसोई छुआई की रस्म हुई, तो घर के सभी लोगों ने उसे कोई न कोई उपहार दिया.

सहेली के पति यह देख कर बोले, ‘‘मैं तो इस रस्म के हिसाब से तुम्हारे लिए कुछ नहीं लाया हूं. बोलो तुम्हें क्या गिफ्ट चाहिए?’’

‘‘3 दिन बाद मुझे फिर कालेज जाना है. अत: मुझे नई यूनीफौर्म, पानी की बोतल, टिफिन बौक्स व फ्लोटर चाहिए. साथ में यदि नया बैग भी मिल जाए तो और अच्छा,’’ सहेली बोली.

सहेली की बात सुन कर उस के पति बोले, ‘‘मुझे तुम्हारी बातों से ऐसा लग रहा है कि ये सारी चीजें मुझे अपनी पत्नी के लिए नहीं, बल्कि पहली बार स्कूल जाने वाली बच्ची के लिए खरीदनी हैं.’’ उन की बात सुन कर सभी जोरजोर से हंसने लगे. यह घटना हम सब के लिए यादगार बन गई.

-ज्योत्सना अग्रवाल

सर्वश्रेष्ठ संस्मरण बात मेरी शादी की है. रात्रिभोज के बाद सभी बरातीघराती शादी की बाकी रस्मों की तैयारी में जुटे हुए थे. वहीं पर एक मासूम सी दिखने वाली एक युवती थी, जो हर काम में आगे बढ़ कर सहयोग करना चाहती थी. पर घर के बड़ेबुजुर्ग उसे बारबार अपमानित कर वधू से दूर रहने को कह रहे थे.

यह सब देख कर मेरे दोस्त को अच्छा नहीं लगा. जब दोस्त ने इस का कारण जानना चाहा तो पता चला कि वह युवती विधवा है अत: उस का किसी भी मांगलिक कार्य में सहयोग करना अशुभ होगा. यह सुन कर मेरे दोस्त ने वहां उपस्थित सभी लोगों को बहुत समझाने की कोशिश की कि उस लड़की के विधवा होने पर उसे अशुभ मानना अमानवीय है. पर किसी ने उस की बात न मानी. उलटे उस युवती के साथसाथ मेरे दोस्त को भी अपमानित करना शुरू कर दिया. तभी मेरे दोस्त ने मंडप में एक कटोरी में रखे सिंदूर में से थोड़ा सा सिंदूर ले कर उस युवती की मांग में भर दिया और कहा कि अब यह भी सुहागिन हो गई है. अब इसे भी सभी मांगलिक कार्यों में शामिल किया जाए. यह देख कर वहां उपस्थित लोग हैरान रह गए.

-इशिका भारद्वाज

बात कुछ महीने पहले की है. मैं अपनी बचपन की सहेली की बेटी की शादी में गई थी. हम दोनोंएकदूसरे की हर बात शुरू से ही जानती आई हैं. मेरी सहेली की शादी संयुक्त परिवार में हुई थी. कुछ अनबन हो जाने पर शादी के 3 वर्ष बाद 1 साल की बेटी को ले कर मायके आ गई थी.

पूरे 20 वर्षों के बाद फिर खुशी का मौका आया था. बेटी की शादी में धूमधड़ाका, सभी मेहमानों का आना. बेटी भी खुश थी कि मां ने मनपसंद घरवर ढूंढ़ दिया. मेरी बात मान कर सहेली ने अपनी ससुराल बेटी की शादी का कार्ड भेज दिया था. शादी में सिर्फ जीजाजी ही आए थे.

सभी रस्में निभाई जा रही थीं. मैं बराबर जीजाजी की तरफ देखे जा रही थी. वे पूरे समय उदास रहे. मैं उन के स्वभाव से परिचित थी, अत: बिना संकोच उन्हीं के पास कुरसी रख कर बैठ गई.

उन से बातें कर के पता चला कि वे बेहद दुखी हैं. मेरी सहेली भी कम दुखी नहीं थी. बात बस पहल करने की थी. अत: मैं ने सहेली को भी पास बैठाया और जीजाजी से बात कराई. सहेली के आंसू बहते ही जा रहे थे. वह कुछ बोल नहीं पाई. मैं ने भी उसे चुप नहीं कराया, क्योंकि हमेशा मैं ही उसे चुप कराती थी.

आज सोचा कि ये काम शायद जीजाजी करें और ऐसा ही हुआ. फिर क्या था. बेटी के फेरे पूरे हुए. उसी मंडप के नीचे हम सभी ने एक बार फिर से जयमाला की तैयारी की. एक तरफ बेटी की विदाई तो दूसरी तरफ सहेली की एक बार फिर विदाई. वातावरण बिलकुल शांत था. कुछ लोग रो रहे थे तो कुछ चौंक रहे थे.

सच, जैसे शादी के समय 2 परिवार व समाज मिल कर सभी रस्में निभाते हैं यदि वैसे ही वे शादी के बाद अगर पतिपत्नी में थोड़ी सी अनबन होने पर भी उन्हें समझाएं तो कोई जोड़ा अलग न हो.

-रेखा गुप्ता

बात मेरी सहेली की शादी की है. हम सभी सहेलियां जीजाजी के जूते चुराने में सफल रही थीं और इस पर खुशी से इतरा रही थीं. जीजाजी का एक दोस्त काफी देर से मेरे इर्दगिर्द घूम रहा था, इसलिए मैं ने जूते अपनी चुनरी के नीचे छिपा दिए. तभी वह मेरे कान के पास आ कर धीरे से बोला, ‘‘आप ने तो सिर्फ जूते चुराए हैं. हम ने तो आप की बहुत कीमती चीज चुराई है और वह है आप का दिल.’’

उस की यह बात सुन कर मैं जूते वहीं छोड़ कर भाग गई. 1 साल बाद वह लड़का अपने मातापिता के साथ हमारे घर शादी का प्रस्ताव ले कर आया और फिर हमारी भी शादी हो गई.

-संगीता देशपांडे

सऊदी अरब की सोमाया का संघर्ष

उसे अपनी मातृभूमि में खुली सांस भी बड़ी मुश्किल से मिलती है. उस का पूरा वजूद ही जैसे काले कपड़ों के पीछे कस कर बांध दिया गया है. बुनियादी हक होते हैं, आज भी उसे यह एहसास नहीं है. बहुत ही मामूली सुखसुविधाओं के लिए भी उसे खुली सड़क पर चाबुक के वार झेलने पड़ते हैं. सिपाहियों के अत्याचार सहने पड़ते हैं.

लेकिन फिर भी वह हारती नहीं है, थकती नहीं है, पीछे नहीं हटती है. उस का विद्रोह कायम रहता है. कठोर राह पर, अंधेरी राह पर, लगातार.

सऊदी अरब अमीर देश है. इस खाड़ी देश में संपन्नता आई, लेकिन संस्कृति पीछे ही रही. ज्ञान, विकास के दरवाजे कभी खुले ही नहीं. संस्कृति संस्कार से ही आती है. शिक्षा का संस्कार, ज्ञान का संस्कार, आचारविचारों का संस्कार. इसी संस्कार से संस्कृति समृद्ध होती है, खिलती है, फूलती है. जिस देश में समृद्धि के साथसाथ संस्कृति भी टिकती है उस देश के विकास को कोई भी नहीं रोक सकता.

यह संस्कृति हमेशा से ही स्त्रीशक्ति के हाथों में हाथ डाल कर चलती है. जिस देश में, जिस घर में स्त्री का सम्मान होता है, उस की इच्छाओं का मान रखा जाता है, उस के विचारों को स्थान दिया जाता है, उस की आजादी का खयाल रखा जाता है उस घर का, उस समाज का अर्थात पूरे देश का विकास होता है. इसी एक चीज के अभाव के कारण देश की अमीरी को, संस्कृति को ठोस चेहरा नहीं मिल पाया. फिर भी एक चमकता सितारा इस घने अंधेरे को भेद कर चमकने का प्रयास करता है. खुद का वजूद ढूंढ़ने का प्रयास करता है और वह चेहरा है सोमाया जबरती का, जिस का सऊदी अरब के ‘सऊदी गजेट’ नामक अखबार के प्रमुख संपादक के रूप में चयन हुआ. इस देश में महिलाओं पर जिस तरह की बंदिशें हैं उन्हें देखते हुए यह चयन वास्तव में सोमाया के लिए बहुत बड़ी उपलब्धि है.

समर बदावी

आज 21वीं सदी में जहां दुनिया की महिलाओं के हुनर को आकाश की सीमाएं भी नहीं रोक पाईं, वहीं इस देश की महिलाओं को आज भी मोटरकार चलाने के लिए उलझना पड़ रहा है. मोटरकार चलाने के लिए लड़ने वाली एक महिला थी समर बदावी. उन के घर से शुरू हुआ यह संग्राम सामाजिक आंदोलन में तबदील हुआ. समर ने शोषण करने वाले पिता के खिलाफ मुकदमा दाखिल किया, जो सऊदीअरब के तथाकथित धर्म के सौदागरों को किसी भी हाल में बरदाश्त न था. समर के पास पिताजी के अत्याचार का सुबूत तो था, लेकिन अपने अभिभावकों के खिलाफ दगाबाजी करने के आरोप में समर को कैदखाने में डाल दिया गया.

लेकिन समर की लड़ाई तब भी थमी नहीं. 2010 में उस ने अपना मुकदमा अपने वकील की मदद से जीता. 2011 में समर सऊदी अरब में महिलाओं के मतदान के मुद्दे पर आवाज उठाई. बहरहाल, वहां के अब्दुला के शासन ने 2015 में होने वाले चुनावों में महिलाओं को मतदान का अधिकार देने की बात मान ली है.

मनल अल शरीफ

उसे अपनी सहूलत के लिए गाड़ी चलानी थी. लेकिन सऊदी अरब में गाड़ी चलाने वाली महिला की समाज में आलोचना होती थी. उस ने गाड़ी चलाई, इसलिए उसे जेल जाना पड़ा. फिर मनल ने उस के खिलाफ सोशल मीडिया के माध्यम से ‘वूमन टू ड्राइव’ संघर्ष शुरू किया और महिलाओं से इस अभियान में शामिल होने का आग्रह किया. इस पर उसे बहुत सी प्रतिकूल प्रतिक्रियाएं भी मिलीं. मनल के साथ उस के पूरे परिवार को हिरासत में लिया गया. पूछताछ के बाद उस के दोनों भाइयों को छोड़ दिया गया. लेकिन मनल कैदखाने में ही रही. उस के पिताजी ने सऊदी अरब के राजे अब्दुल्ला को क्षमायाचना पत्र लिख कर उसे माफी देनी की विनती करते हुए कहा कि मनल आगे कभी गाड़ी को हाथ भी नहीं लगाएगी.

आज मनल अपने पति के साथ दुबई में रहती है. लेकिन उस की लड़ाई अभी भी समाप्त नहीं हुई है, उलटा और बढ़ गई है.

‘सौदी गजेट’ की संपादक सोमाया को भी गाड़ी चलाने की इजाजत नहीं. 10 साल पहले उपसंपादक के पद पर काम करने वाली सोमाया का काम दिनबदिन बढ़ता गया.

समाचार पत्र की जिम्मेदारियां संभालने के साथसाथ अन्याय के विरोध में महिलाओं को अपना वजूद के लिए, विचारविमर्शकरने के लिए इकट्ठा किया.

इस कोशिश की जीत यानी ‘वूमंस इंडिया फोरम’ चर्चा सत्र का उपक्रम में हुई. इस उपक्रम में भाग लेने वाली महिलाओं की संख्या दिन ब दिन बढ़ती गई. लिखने की चाहत, कुछ नया सीखने और औरों को भी संघटित करने के गुणों की वजह से ही सोमाया इतनी आगे बढ़ी है.

अपनी इस सफलता के बारे में बात करते हुए सोमाया ने कहा, ‘‘मेरे संपादक बनने से सऊदी अरब की सभी गलत प्रथाओं को एक धक्का लगा. मुझे विश्वास है कि इसी से हम महिलाओं के लिए विकास के दरवाजे खुलेंगे. संपादक की जिम्मेदारी के साथसाथ अपनी सभी सऊदी बहनों के लिए कुछ करने की जिम्मेदारी भी मैं ने स्वीकार की है.’’

सोमाया को इस बात का गर्व है कि आज जिस अखबार में वह काम कर रही है वहां 20 लड़कियां और काम कर रही हैं और इस में पुरुषों की संख्या केवल 3 है.

सोमाया का संपादक बनना यकीनन एक सकारात्मक घटना है. लेकिन अभी राहें और भी हैं. मगर मुश्किल कुछ नहीं बस कुछ कर गुजरने की दृढ़ इच्छाशक्ति होनी चाहिए.

इसी दृढ़ इच्छाशक्ति की वजह से ही हम भारतीय महिलाओं ने बहुत बड़ी कामयाबी हासिल की है. फिर भी एक बात तो कहनी ही है.

आज हम भारतीय महिलाओं ने प्रगति के शिखर को तो छू लिया है. लेकिन अपने ही देश की मुसलिम महिलाओं के हालात भी सुधरे हुए हैं, ऐसा नहीं कह सकते हैं. धर्म के जाल, अनिष्ट प्रथाओं की पकड़ से भारतीय मुसलिम महिलाओं को बाहर आना ही होगा. इस के लिए शिक्षा, आधुनिक और सजग विचारों का चयन करना जरूरी है. प्रगतिशीलता तो हमारे देश की नींव है. मलाला, मनल, सोमाया प्रतिकूल परिस्थितियों में खुद को सिद्ध कर के दिखाती हैं, तो अपने देश का आकाश तो खुला है, बस उड़ान भरने की जिद मन में उतारनी है.

नई कोरोला में क्या है खास

विश्व की बड़ी कार उत्पादन कंपनियों में शुमार टोयोटा कंपनी काफी उतारचढ़ाव देखने के बाद एक बार फिर अपनी नई कोरोला अल्टिस कार के लौंच से चर्चा में है. माना कि टोयोटा एक विश्वसनीय कार कंपनी है, लेकिन फन ड्राइव की बात आते ही लोगों की फेवरेट कारों की लिस्ट में इस का नाम नीचे चला जाता है. इसीलिए तो कंपनी के चेयरमैन आकियो टोयोडा ने, जो खुद भी रेसर रह चुके हैं, इस नई कोरोला अल्टिस कार में फन फैक्टर को शामिल करने की पूरीपूरी कोशिश की है.

टोयोटा ने कोरोला अल्टिस की 11वीं जैनरेशन की कार भारतीय मार्केट में भी लौंच कर दी है. जापान की इस कंपनी ने अपनी इस नईर् कार के पैट्रोल और डीजल दोनों वर्जन लौंच किए हैं. इस कार की कीमत क्व13 लाख से शुरू हो कर क्व18 लाख तक है.

कार का आउटर लुक

अगर बात कार के आउटर लुक की की जाए तो कोरोला पहले से ज्यादा शेपर, स्लीकर और कंटैंपेरिरी लुक में नजर आएगी. अब यह पिछली कार से ज्यादा स्टाइलिश लुक में पेश की गई है. इस का नया लुक यकीनन युवाओं को अपील करेगा, क्योंकि आकर्षक डिजाइन के साथसाथ इस में एलईडी हैडलाइट एवं प्रोजैक्टर्स और क्रोम ग्रिल का बेहतरीन तालमेल दिखाई देता है. साथ ही इस में क्लीरियंस लैंप भी लगे हैं. इस का लंबाचौड़ा बोनट कार को स्पोर्टी लुक देता है. कार की ऐरोडायनेमिक्स और संतुलन को बेहतर बनाने के लिए कंपनी ने इस की ऊंचाई 5 एमएम कम की है.

इंटीरियर भी है खास

कंपनी ने कार के इंटीरियर पर भी काम किया है. टोयोटा कोरोला अल्टिस में 3 स्पोक का स्टेयरिंग व्हील लगा है, जिस पर लैदर लपेटा गया है. इस के अलावा साइबर कार्बन पियानो ब्लैक इंस्ट्रूमैंट पैनल कार के इंटीरियर को प्रीमियम लुक देता है. यकीनन यह लुक आप की आंखों को सुकून देगा. दरवाजों के हैंडल्स क्रोम हैं, जो कार को शाही लुक देते हैं. पिछली सीट भी रिक्लाइन है, जो इस श्रेणी की कारों में पहली बार देखी गई है.

पावरफुल इंजन

नई कोरोला अल्टिस में लगे इंजन पर गौर किया जाए तो आप इस में 2 टाइप के इंजन पाएंगे. पहला- 4 सिलैंडर 1.4 लिटर का डी-4 डी टर्बोचार्ज्ड डीजल और दूसरा-1.8 लिटर 4 सिलैंडर पैट्रोल वीवीटी-आई इंजन. नई कोरोला मैनुअल और औटोमैटिक गियरबौक्स के साथ मिलेगी. इस में 1.4 लिटर डी-4 डीजल इंजन ज्यादा लोकप्रिय रहेगा, जोकि 90 पीएस की पीक पावर बनाता है और 205 एनएम का पीक टार्क प्रोड्यूस करता है. 1,800 आरपीएम का पीक टार्क देने वाली डीजल कोरोला फ्यूल ऐफिशंट होने का दावा करती है. दोनों ही वैरिएंट 6 स्पीड मैनुअल ट्रांसमिशन के साथ आएंगे. जबकि पैट्रोल वैरिएंट में 7 स्पीड सीवीटी गियरबौक्स भी लगा होगा.

रंग ही रंग

टोयोटा ने अपनी इस नई कोरोला अल्टिस को सिल्वर मीका मेटैलिक, कैंपेन मीका मेटैलिक, ग्रे मेटैलिक, ब्लू मेटैलिक और सुपर व्हाइट आदि रंगों में उतारा है.

सुरक्षा उपकरण

इस कार में सुरक्षा के लिए कई नए उपकरण जोडे़े गए हैं. इस में एबीएस और ईबीडी जैसी सुविधाएं हैं. इस के साथ ही ब्रेक ऐसिस्ट, ड्यूल एसआरएस एयरबैग्स, इमोबलाइजर और जीआईए बौडी होगी. इस में एक रियर कैमरा भी है और 7 इंच की एलईडी स्क्रीन भी लगी है.

-मौटरिंग मासिक से

गृहशोभा इवेंट

शादियों का सीजन चल रहा है, इसलिए हर ब्यूटीशियन से ‘न बाबा न, मैं तो नहीं आ रही’ यही सुनने को मिल रहा था. लेकिन 26 जून को वर्ल्ड ब्यूटीशियन डे के आयोजन पर माहौल एकाएक बदला. ब्यूटीशियंस को जब यह पता चला कि गृहशोभा पत्रिका द्वारा इस आयोजन में अपने हुनर को साबित करने के कंपीटिशन रखे गए हैं, तो उन की भीड़ इकट्ठा हो गई.

आयोजन वाले दिन खचाखच भरे हौल में उम्मीद से ज्यादा ब्यूटीशियंस का जमावड़ा था. सभी ब्यूटीशियंस को ड्रैस कोड दिया गया. ब्यूटीशियंस पार्टियों में दूसरों का ऐसा मेकअप करती हैं कि वे रोज से बिलकुल अलग दिखें पर आज मौका था उन्हें खुद को सजाने और संवारने का.

ब्यूटीशिंयस के बीच प्रतियोगिता की शुरुआत कैटवाक से हुई. सैलिब्रेशन में शामिल हर ब्यूटीशियन अपने अलग ही अंदाज और क्रिएटिविटी के साथ नजर आई. कुछ ने अपने बालों को गुलाबी, सुनहरे और सिल्वर फूलों से सजाया, तो कुछ ने शिमर मेकअप से खुद को सब से अलग और खूबसूरत दिखाया. कुछ के बिलकुल अलग ढंग के मेकअप ने लोगों को खूब आकर्षित किया, तो कुछ ने सिर्फ अपनी सादगी से जज पैनल का दिल जीत लिया. इस के बाद सभी ब्यूटीशियंस ने एक से बढ़ कर एक मनमोहक प्रस्तुतियां दे कर सब को थिरकने पर मजबूर कर दिया. उन्होंने फेमस गीतों पर ग्रुप डांस किया और माहौल को खुशनुमा बना दिया. एक और आकर्षण बैलून डांस था. प्रतियोगिता में बैस्ट मेकअप के लिए दीप्ति यादव व पुनीत भाटिया, बैस्ट हेयरस्टाइल के लिए स्वाति खिलरानी व राधा कुशवाहा, बैस्ट ड्रैस के लिए इला द्विवेदी व आशा ठाकुर, बैस्ट कैटवाक के लिए बलवीर ठकराल व कल्पना टोपीवाला और बैस्ट हेयरकट के लिए मनीषा नथानी को विजेता घोषित किया गया.

इस अवसर पर गृहशोभा पत्रिका की वार्षिक सदस्यता ब्यूटीशियंस द्वारा भारी संख्या में ली गई. बने सदस्यों के बीच गृहशोभा लकी ड्रा निकाला गया, जिस में सीमा सिंह और रोहनी मराठे विजेता रहीं.

ब्यूटीपार्लर ऐसोसिएशन, भोपाल की अध्यक्ष डा. सरिता श्रीवास्तव व आईवा की अध्यक्ष इला द्विवेदी ने इस आयोजन को सफल बनाने में गृहशोभा की भूमिका पर प्रकाश डालते हुए आभार व्यक्त किया. सचिव आशा ठाकुर व स्वाति खिलरानी ने आगे भी इसी तरह के आयोजन का आग्रह किया. कार्यक्रम में वरिष्ठ ब्यूटीशियन नीता द्विवेदी और वंदना जैन की उपस्थिति गरिमामय रही.

जीवनशैली में सुगंध की अहमियत

बदलते समय के साथ हमारी जिंदगी में सुगंध भी कई तरीके से प्रवेश कर चुकी है. वह जमाना गया जब लोग सिर्फ पूजापाठ के लिए ही अगरबत्ती का इस्तेमाल करते थे. पश्चिमी धारणा ने हमारी जिंदगी को इस कदर प्रभावित किया है कि अब हम अगरबत्तियों का इस्तेमाल घरों को सुगंधित करने में भी करने लगे हैं. इस से हमारे आसपास का माहौल भी सुखद हो जाता है.

कला और विज्ञान दोनों बताते हैं कि सुगंध हमारी जिंदगी में अत्यंत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है. यह हमारी ज्ञानेंद्रियों को उत्तेजित करती है और हमारे व्यवहार व कार्यों में सकारात्मक बदलाव लाती है. शोध में खुलासा हुआ है कि जो लोग नियमित रूप से सुगंध का प्रयोग करते हैं, जिंदगी के प्रति उन का नजरिया सुगंध का इस्तेमाल न करने वालों की तुलना में ज्यादा सकारात्मक होता है तथा वे सामाजिक रूप से अधिक कुशल होते हैं.

भारत में सुगंध उद्योग की बात करें तो यह अभी भी हमारे वैश्विक समकक्षों की तुलना में बहुत शुरुआती अवस्था में है. फिर भी इस ने विभिन्न क्षेत्रों में सफलतापूर्वक अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है. इन में होम केयर सेगमैंट, कार फ्रैशनर, पर्सनल केयर जैसे क्षेत्र शामिल हैं. यह उद्योग उभरते ट्रैंड के साथ लगातार वृद्धि कर रहा है.

सुगंध यानी परफ्यूम की उत्पत्ति किंग लुईस 15 के वक्त हुई थी. उस वक्त इस के लिए कुछ खास सुगंधित पौधे उगाए जाते थे. जिन से तेल का अर्क निकाला जाता था और उस का इस्तेमाल सुगंध के लिए किया जाता था. आधुनिक सुगंध का कारोबार इस तरीके से काफी आगे निकल चुका है. मौजूदा समय में परफ्यूम या सुगंध के निर्माण के पीछे छिपा विज्ञान काफी विस्तृत हो चुका है. अब ग्राहकों की जरूरत के मुताबिक सुगंध का निर्माण किया जाता है और इस में आयु, क्षेत्र, प्राथमिकता और सांस्कृतिक जुड़ाव जैसी विभिन्न बातों पर ध्यान दिया जाता है. इस के बाद उन्हें पर्याप्त सुगंध बनाने के लिए प्राकृतिक अर्क को ऐरोमैटिक रसायनों के साथ मिलाया जाता है.

प्रत्येक सुगंध का दिमाग, भावनाओं और व्यवहार पर सीधा असर पड़ता है. आइए, जानते हैं कुछ ऐसी ही सुगंध की खूबियों को जिन का प्रचलन खूब है:

लैवेंडर: लैवेंडर की ताजा सुगंध शरीर को उत्तेजित करने के साथ ही उसे आराम भी प्रदान करती है. साथ ही यह जोश को सुकून देने के साथ ही ऊर्जा भी प्रदान करती है. इस के अलावा लैवेंडर की सुगंध शरीर को शांति प्रदान करने के साथ निराशा, चिड़चिड़ाहट, पैनिक हिस्टीरिया और अनिद्रा जैसी समस्याओं को संतुलित करती है.

औरेंज ब्लौसम: इस की सुगंध थकी हुई नसों को ताजगी प्रदान करती हैं और माहौल में उमंग लाती है.

जैसमीन : जैसमीन की सुगंध शांति के साथसाथ ऊर्जा और संतुलन प्रदान करती है. जैसमीन की सुगंध व्यक्ति में उम्मीद व आत्मविश्वास का संचार भी करती है.

संदल: संदल की सुगंध व्यक्ति को धरातल पर रखने के साथ ही डर के दौरान उस की मदद करती है.

बेसिल (तुलसी): भारत में तुलसी बहुत पवित्र पौधा माना जाता है. इस की सुगंध दिल को खोलने के साथसाथ दिमाग को संतुलित करती है. इस का भावनाओं पर गहरा प्रभाव पड़ता है. जब हम दुख में डूबे होते हैं तो यह मजबूती का स्रोत बनता है.

सुगंध उद्योग ने सुगंध का कई फैमिलीज में वर्गीकरण किया है, यानी स्त्रीपुरुषों और युवाओं के लिए अलगअलग.

अपने लिए अच्छी सुगंध का चयन करते वक्त आमतौर पर होता यह है कि परीक्षण के दौरान हर कोई एक के बाद एक कई परफ्यूम की सुगंध लेता है. ऐसा करने से नाक 2 सुगंधों के बीच अंतर करना बंद कर देती है. इसलिए व्यक्ति को एक बार में 4 एकसमान अथवा 5-6 अलगअलग सुगंधों का परीक्षण नहीं करना चाहिए. इस के अलावा त्वचा के प्रकार एवं शरीर के रसायन के अनुसार भी परफ्यूम की सुगंध अलगअलग होती है. तनाव, हारमोनल बदलाव, आहार अथवा मैडिटेशन भी परफ्यूम की सुगंध प्रभावित करते हैं, क्योंकि इस दौरान व्यक्ति के शरीर की प्राकृतिक सुगंध बदलती रहती है.

इस वक्त बाजार में सुगंध की विविध शृंखलाएं उपलब्ध हैं, जो घर की सजावट को श्रेष्ठ बनाने के साथ ही सकारात्मक ऊर्जा का भी संचार करती हैं. आप के लिए तो वे उम्मीद और आत्मविश्वास की ऊर्जा ले कर आती हैं, तो चिड़चिड़ाहट, चिंता और दर्द जैसी नकारात्मक भावनाओं को भी कम करती हैं. बस जरूरत होती है अपने घर और अपने लिए सही सुगंध चुनने की.

-किरण वी. रंगा द्य
प्रबंध निदेशक और मास्टर फ्रैंगरेंस क्रिएटर, रिपल फ्रैंगरेंसेस प्राइवेट लिमिटेड

भारतीय नर्सों की वापसी कितनी सुखद

नीनूजोंस जैसे ही कोच्चि हवाईअड्डे के परिसर में पहुंचती हैं, ढेरों लोग उन्हें उन के 23वें जन्मदिन की बधाइयां देने लगते हैं. नीनू लंबी सी मुसकराहट के साथ सब को धन्यवाद कहती हैं और राहत की सांस ले कर अपने परिवार के साथ आगे बढ़ जाती हैं. दरअसल, नीनू पेशे से नर्स हैं और युद्घ से जर्जर हो चुके इराक में तकरीबन 1 माह सांसत में बिताने के बाद वतन लौटी 46 नर्सों में से एक हैं.

गौरतलब है कि इराक में इसलाम धर्म के 2 समुदायों सुन्नी और शियाओं के बीच छिड़े संघर्ष की वजह से आतंकवादी गुट इसलामिक स्टेट औफ इराक एवं अलशाम ने सैकड़ों भारतीयों को बंदी बना लिया. इन बंदियों में भारत के केरल राज्य की कई नर्सें भी शामिल हैं. ये सभी नर्सें इराक के तिकरित शहर के एक अस्पताल में नर्सिंग का काम करती थीं. आतंकवादियों द्वारा अस्पताल को कब्जे में लेने के बाद ये नर्सें वापस वतन लौटने की उम्मीद ही छोड़ चुकी थीं. ऐसे में इराक से सुरक्षित वापस आ जाने पर वे बेहद खुश तो हैं, लेकिन इस खुशी के साथसाथ अब उन्हें जीविका से जुड़ी कठोर सचाइयों का भी सामना करना पड़ेगा.

दरअसल, तिकरित से वापस लौटी कई नर्सों के मांबाप ने उन्हें भारी कर्ज ले कर नर्सिंग की शिक्षा पूरी करवाई थी. बाद में विदेश भेजने के लिए दलालों को भी कर्ज ले कर मोटी रकम दी थी, जिसे अदा करने के लिए अब इन्हें कोई विकल्प नजर नहीं आ रहा है.

भारत में आमतौर पर क्व6 हजार से क्व10 हजार कमाने वाली नर्सों को इराक जैसे देशों में क्व40 से क्व50 हजार तक कमा लेने का मौका मिलता है, जो नर्सों और उन के परिवार वालों के लिए किसी ख्वाब के पूरा होने जैसा है. लेकिन तिकरित में शियासुन्नी टकराव के बाद से कई नर्सों को पूरी तनख्वाह नहीं मिली है. कुछ तो ऐसी भी हैं जिन्हें काम करते 4 से 5 माह हो चुके हैं, लेकिन पहली तनख्वाह भी नहीं मिली है. फिर भी अब ज्यादातर नर्सों के मांबाप उन्हें नौकरी के लिए वापस इराक भेजने को तैयार नहीं हैं.

नीनू की मां एलिक इस बाबत कहती हैं कि कुछ लाख कमाने के लिए हम अब अपनी बेटी को मौत के मुंह में कभी नहीं ढकेलेंगे. हमें हमारी बेटी सहीसलामत वापस मिल गई, हमें इस से ज्यादा खुशी किसी बात की नहीं हो सकती.

नीनू की ही तरह अलापुझा की 24 वर्षीय ओ.वी. जयलक्ष्मी भी भारत लौटी नर्सों के दल में शामिल हैं. जयलक्ष्मी बताती हैं कि उन्हें तिकरित टीचिंग अस्पताल में काम करते हुए 10 महीने हो चुके थे, जहां उन्हें क्व1,50,000 तनख्वाह मिल रही थी.

इराक में मचे संघर्ष की वजह से उन्हें वतन वापस लौटना पड़ा, लेकिन वे आतंकवादी गुट इसलामिक स्टेट औफ इराक एवं अलशाम को जान बख्शने के लिए शुक्रिया अदा करते हुए कहती हैं कि मरीजों और अस्पताल के स्टाफ को मिला कर हम तकरीबन 500 लोग थे. आईएसआईएस आतंकवादियों के कब्जे के बाद हम सभी डरे हुए थे. बचने की हमें कोई उम्मीद नहीं थी. लेकिन हम तब हैरान रह गए जब उन लोगों ने हमारे साथ अच्छा बरताव किया और हमें हिफाजत से हमारी मंजिल तक पहुंचा दिया. बावजूद इस के अभी भी इराक में 100 से अधिक नर्सें बंदी बनी हुई हैं.

आइए जानते हैं, नीनू और जयलक्ष्मी की ही तरह वतन वापस लौटी अन्य नर्सों के अनुभव:

हमें दूसरी जिंदगी मिली है: वीना औैर सोना

वीना और सोना जुड़वां बहने हैं. हमलों की गूंज और आतंक को दोनों अभी तक भूल नहीं पाई हैं. दोनों ही तिकरित के एक अस्पताल में नर्स थीं.

अपने अनुभव को साझा करते हुए वीना कहती हैं कि वहां हमें रात में भी गोलियों की आवाज सुनाई देती थी, इसलिए हम सो भी नहीं पाती थीं. फिलहाल उन के वापस वतन लौट आने पर परिवार खुश तो है, लेकिन इन की एक औैर बहन डोना अभी भी बगदाद में फंसी हुई है. पूरे परिवार को जहां एक तरफ सोना और वीना के सुरक्षित वापस लौटने की खुशी है, तो वहीं डोना केइराक में फंसे होने की फ्रिक भी उन्हें सता रही है.

जोखिम भरा सफर था: विंसी सेबस्टियन और मरीना एम. जोंस

विंसी और मरीना बताती हैं कि वे 10 महीने  से इराक में थीं. इन 10 महीनों में काम के दौरान उन्हें अस्पताल से बाहर नहीं निकलने दिया जाता था. अस्पताल के अंदर ही 2 फ्लोर पर नर्सों के रहने का इंतजाम था. लेकिन 12 जून को छिड़े संघर्ष के बाद सब कुछ बदल गया.

वे आगे बताती हैं कि हर वक्त गोलियों और धमाकों की आवाजें सुनाईर् देती थीं, लेकिन कुछ समय बाद हमारे अस्पताल को ही आतंकवादियों ने कब्जे में लिया. अस्पताल को कब्जे में लेने के बावजूद आतंकवादियों ने हमें कोई नुकसान नहीं पहुंचाया. फिर एक दिन अस्पताल को खाली करने के लिए कहा गया क्योंकि वे लोग अस्पताल में ब्लास्ट करना चाहते थे. हम सभी को आतंकवादियों ने एक बस में बैठाया और मुसुल ले गए. रास्ते में कई बार हमें खाने का सामान भी दिया और किसी भी तरह की बदसलूकी नहीं की.

डरडर कर तय किया 240 किलोमीटर तक सफर: श्रुथी शशीकुमार

तिकरित के एक अस्पताल में नर्स रहीं श्रुथी अपना अनुभव बताते हुए कहती हैं कि 12 जून को ही अस्पताल का इराकी स्टाफ अस्पताल छोड़ कर अपनेअपने घर चला गया था, लेकिन मैं 13 जून तक अस्पताल गई थी. वहां न तो मरीज बचे थे न ही कोई डाक्टर दिख रहा था. अस्पताल को आतंकवादियों ने घेर रखा था.

आतंकवादियों ने मुझे वापस हौस्टल लौट जाने को कहा. अस्पताल की ऐडमिनिस्ट्रेशन टीम को भी मेरे साथ हौस्टल भेज दिया गया. हम से यह भी कहा गया कि हम अभी भी अस्पताल में नौकरी कर सकते हैं, लेकिन उन की शर्तों पर काम करना होगा. लेकिन 1 जुलाई के दिन आतंकवादियों ने जबरन हम से अस्पताल खाली करवा लिया. हम में से बहुत लोग वापस केरल नहीं लौटना चाहते थे, लेकिन फिर भी आतंकवादियों ने जान से मारने की धमकी दे कर हमें एअरपोर्ट पहुंचवा दिया जहां पहले से ही कुछ भारतीय नर्सें हमारा इंतजार कर रही थीं. रास्ते भर आतंकवादियों ने हमारे खानेपीने का ध्यान रखा. वे हम लोगों से बारबार कह रहे थे कि हमें उन से डरने की जरूरत नहीं है.

सब को शुक्रिया: ऐंसी जोसेफ

ऐंसी अपना अनुभव बताते हुए कहती हैं कि मुझे लगता है कि यह मेरा नया जन्म है. वे 10 महीने पहले क्व2 लाख का लोन ले कर इराक आई थीं. तब उन्हें यह नहीं पता था कि वे यहां फंस जाएंगी.

वे आगे बताती हैं कि उन्हें 2 महीने से सैलरी भी नहीं मिली है. जिंदगी तो बच गई है लेकिन कर्जे के पैसे चुकाने के लिए कोई विकल्प नहीं मिल रहा.

मुझे लगा सब खत्म होने वाला है: सलीजा जोसेफ

केरल की थोडुपुझा निवासी 32 वर्षीय सलीजा बताती हैं कि ज्यादा पैसे कमाने और परिवार की आर्थिक जरूरतों को पूरा करने के लिए मैं इराक गईर् थी. लेकिन यहां के हमलों ने दिल दहला दिया है. आतंकवादियों ने हमारे साथ कोई बुरा बरताव नहीं किया, लेकिन हमें शिकायत है कि भारतीय दूतावास के अधिकारियों से हमें ज्यादा मदद नहीं मिल सकी.

-विनोद कृष्णा, एम.के. गीथा, आर. जयदेवन, प्रीथा के.जी.

एक मुसकान बनाए जीवन आसान

आज की भागतीदौड़ती जिंदगी ने लोगों के चेहरों से हंसी छीन ली है और उन्हें दुख, निराशा व तनाव ने घेर लिया है. पर क्या आप जानते हैं कि इन सब परेशानियों की एक ही दवा है और वह दवा है मुसकान.

खूबसूरत मुसकान खूबसूरती को भी बढ़ाती है और व्यक्तित्व भी निखारती है. सामान्य से सामान्य चेहरा भी एक खूबसूरत मुसकान से खिल उठता है. मुसकान स्वास्थ्य को भी बेहतर बनाती है. आप के आत्मविश्वास और मैत्रीपूर्ण व्यक्तित्व से भी लोगों को अवगत कराती है. मुसकान का यह खजाना हर किसी के पास होता है. बस जरूरत होती है इसे अपनाने की.

आइए, जानते हैं कि स्वस्थ रहने व तनाव से उबारने में मुसकान लोगों की किस तरह मदद करती है.

मनोचिकित्सक प्रांजलि मल्होत्रा का कहना है, ‘‘मुसकान रिश्तों को मजबूत बनाती है, क्योंकि कभीकभी राह चलता कोई अजनबी चेहरा भी जब हमें देख कर स्माइल देता है, तो उस से कोई रिश्ता न होते हुए भी एक अनकहा रिश्ता बन जाता है. लेकिन मुसकान तभी पूरी होती है जब वह दिल से शुरू हो कर आंखों से झलके और किसी के भी चेहरे पर रोशनी बन कर चमके.’’

मुसकान कैसीकैसी

मुसकान कैसी हो? मुसकान सच्ची और मन से हो. मुसकराहट का हमारे विचारों और भावनाओं से गहरा रिश्ता होता है. हमेशा दूसरों के अच्छे गुणों पर ध्यान दें. तब हमें उन्हें देख कर मुसकराने में कोई परेशानी नहीं होगी, क्योंकि यह सच्ची मुसकान होगी.

हमेशा मुसकराने से पहले सहज होने की कोशिश कीजिए वरना मुसकान नकली लगेगी. जब मुसकान मन से निकलेगी तो आंखों में चमक होगी और तब दूसरों को भी यह समझते देर नहीं लगेगी कि यह मुसकान सच्ची और मन से है.

ऐसे भी लोग

मगर कुछ लोगों के लिए मुसकराना आसान नहीं होता. ऐसा नहीं है कि उन्हें मुसकराना नहीं आता, पर वे गंभीर माहौल में पलेबढ़े होते हैं और उन्हें वैसा ही बने रहने पर जोर दिया जाता है. तभी तो वे मन में प्यार होने के बावजूद मुसकरा कर बात नहीं कर पाते.

इस के अलावा कुछ लोग शर्मीले स्वभाव के होते हैं. इस वजह से मुसकराना उन के लिए आसान नहीं होता. फिर इंसानों का स्वभाव भी अलगअलग होता है. कोई ज्यादा मुसकराता है तो कोई कम. पर एक छोटी सी कोशिश तो की ही जा सकती है. अगर आप मुसकरा कर किसी को हायहैलो कहेंगे तो वह भी आप की कद्र करेगा और ऐसा करने की आदत डाल लेगा. तब मुसकराना आप के लिए आसान हो जाएगा.

ऐसी मुसकराहट से रहें सावधान

कहते हैं कि हर मुसकान सच्ची नहीं होती है और यह सच भी है. मक्कार, मतलबी, धोखेबाज लोग लुभाने के लिए गजब की मुसकान बिखेरते हैं लेकिन उन की मुसकराहट खोखली होती है.

इसलिए हर मुसकान का अर्थ समझें और यह भी समझें कि सामने वाला किसलिए मुसकरा रहा है. कहीं यह कुटिल मुसकान आप को अपमानित, जलील करने या फिर आप का उपहास उड़ाने के लिए तो नहीं? ऐसी मुसकान से हमेशा सावधान रहें.

मुसकान की खासीयत

मुसकान की यह खासीयत है कि इस से आप बिना कुछ कहे अपने मन की भावनाएं दूसरों के सामने व्यक्त कर सकते हैं. वहीं किसी का गुस्से वाला चेहरा देख कर आप को घबराहट होने लगेगी और आप निराश हो जाएंगे. इस का असर सिर्फ आप पर ही नहीं होगा, बल्कि उस पर भी होगा जिसे देख कर आप मुसकराए थे.

अगर हम दूसरों के साथ बात करते समय तनाव महसूस कर रहे हैं, तो एक मुसकान से उसे दूर किया जा सकता है. मुसकान से हम निराशा या तनाव का आसानी से सामना कर सकते हैं.

अगर कोई आप को मुसकान के साथ सलाह या नसीहत दे तो आप उसे खुशीखुशी मान लेंगे जबकि गुस्से में दी गई सलाह का असर विपरीत ही होगा. तनाव भरे माहौल में मुसकराहट से बहुत सी गलतफहमियां दूर हो जाती हैं.

मुसकराने के बहाने

– खुश रहने के लिए आप ऐसे लोगों के संपर्क में रहें, जो हंसमुख हों.

– हमेशा लड़ाईझगड़ों से बचें.

– पौजिटिव सोच रखें. इस से तनाव दूर रहेगा.

– कहीं घूमने जाएं. इस से रिलैक्स और ऊर्जावान फील करेंगे.

बेहतर खानपान

शरीर को पोषक तत्त्वों की बहुत आवश्यकता होती है, अत: दिन में 1-2 बार एकसाथ ज्यादा भोजन करने के बजाय 5-6 बार थोड़ाथोड़ा खाएं. खाना हमेशा संतुलित व पौष्टिक खाएं, क्योंकि खुश रहने के लिए खाने से अच्छा कोई टौनिक नहीं है. इस के अलावा भरपूर नींद लें.

स्वास्थ्य की दृष्टि से

सफदरजंग अस्पताल के मैडिकल औफिसर डाक्टर अशोक रामपाल का कहना है, ‘‘खुश रहना स्वास्थ्य के लिए बहुत जरूरी है. मन से हंसना तनाव को कम करता है और शरीर को रिलैक्स्ड रखता है. हंसने से स्ट्रैस हारमोन जैसे कार्टिसोल और एड्रीनलीन का स्तर कम होता है. हंसी शरीर की इम्यूनिटी को बढ़ाती है, दिल की बीमारियों से बचाती है.

‘‘मुसकान उत्तेजना और भय से दूर रखती है. खुल कर हंसने से धमनियों में फैलाव आता है, जिस से खून तेजी से शरीर के अन्य हिस्सों में पहुंचता है. हंसी हमारी रोगप्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाती है.

‘‘अगर किसी को बहुत टैंशन रहती हो या बुरे खयाल आते हों तो उस के बीमार पड़ने का खतरा ज्यादा रहता है. इस के विपरीत, जो लोग खुश रहते हैं, ठहाके लगा कर हंसते हैं उन में बीमारियों से लड़ने की ताकत बढ़ जाती है.’’ 

स्माइल बनाए खूबसूरत

खूबसूरत स्माइल के लिए खूबसूरत दांतों का होना बेहद जरूरी है और यह तभी संभव है जब आप के दांत सफेद व सुंदर दिखें. इस के लिए टूथपेस्ट अच्छा होना चाहिए. यों तो बाजार में कई टूथपेस्ट मौजूद हैं पर बेहतर रिजल्ट के लिए थोड़ा ज्यादा खर्च करने में कोई बुराई नहीं. क्लोजअप का नया उत्पाद ‘क्लोजअप डायमंड अट्रैक्शन’ सही मापदंड को पूरा करता है. कंपनी के अनुसार यह टूथपेस्ट कौस्मैटिक डैंटिस्ट के साथ मिल कर बनाया गया है, जिस का न सिर्फ फ्लेवर अच्छा है, बल्कि प्रथम इस्तेमाल से ही फर्क महसूस किया जा सकता है.

तो स्माइल को बनाइए खूबसूरत और रहिए आत्मविश्वास से भरपूर.

इस से अच्छा क्या तरीका

सस्ती पर टिकाऊ शादी के लिए भारत में बहुत जगह बहुविवाह सम्मेलन होते हैं. मुंबई में तो एक में सभी धर्मों के लड़केलड़कियों को बुलाया गया कि दूल्हादुलहन ढूंढ़ो, शादी करो और सुख से रहो. जब घर वाले न हों या बहुत चूंचूं कर रहे हों तो इस से अच्छा क्या तरीका है.

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