Sad Story : रिश्ते सूईधागों से – सारिका ने विशाल के तिरस्कार का क्या दिया जवाब

Sad Story : आजसारिका बहुत उदास थी. उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह अपने बिखरते घर को कैसे संभाले? चाय का कप ले कर बालकनी में खड़ी हो गई और अतीत के सागर में गोते लगाने लगी…

उस का विवाहित जीवन बहुत खुशमय बीत रहा था. विशाल उस का पति एक खुशमिजाज व्यक्ति था. 2 प्यारेप्यारे बेटों की मां थी सारिका. सबकुछ बहुत अच्छे से चल रहा था. मगर कहते हैं न खुशियों को ग्रहण लगते देर नहीं लगती. ऐसा ही सारिका के साथ हुआ.

अचानक एक दिन विशाल दफ्तर से आ कर गुमसुम बैठ गया तो सारिका ने पूछा, ‘‘क्या हुआ विशाल ऐसे चुप क्यों बैठे हो?’’

‘‘दफ्तर में कर्मचारियों की छंटनी हो रही है और उस में मेरा नाम भी शामिल है,’’ विशाल ने धीमी आवाज में जवाब दिया.

‘‘अरे ऐसा कैसे हो सकता है? तुम तो इतने पुराने और परिश्रमी कर्मचारी हो, दफ्तर के?’’ सारिका गुस्से में बोली.

‘‘यह प्राइवेट नौकरी है और यहां सब हो सकता है और तुम्हें आजकल के दफ्तरों में होने वाली राजनीति के बारे में पता नहीं शायद,’’ विशाल ने उत्तर दिया.

और सच में 3 महीने का नोटिस दे कर विशाल और अनेक कर्मचारियों को मंदी के चलते नौकरी से निकाल दिया गया. एक मध्यवर्गीय परिवार जिस में सिर्फ एक ही सदस्य कमाता हो उस की रोजीरोटी छिन जाने की पीड़ा एक भुग्तभोगी ही समझ सकता है.

उम्र के इस दौर में जहां विशाल 40 वर्ष को पार कर चुका था, अनुभव होने के बावजूद उस की सारी कोशिशें बेकार जा रही थीं. पूरे 2 महीने भटकने के बाद भी हताशा ही हाथ लगी.

आखिर हार कर सारिका ने ही विशाल को सुझव दिया कि कोई छोटामोटा अपना व्यवसाय शुरू करते हैं. स्वयं भी कहां अधिक पढ़ीलिखी थी सारिका. हंसतेखेलते परिवार को न जाने कैसे ग्रहण लग गया कि वह हर समय विशाल छोटीछोटी बातों पर झंझलाता या चिल्लाता.

‘‘सुनोजी, अपने महल्ले की मार्केट में एक दुकान किराए पर ले कर उस में बच्चों के खिलौने और महिलाओं के सौंदर्यप्रसाधन का सामान बेचना शुरू करते हैं. इस में यदि कमाई शुरू हुई तो फिर कुछ आगे बढ़ाने की सोचेंगे.’’

न चाहते हुए भी विशाल को सारिका की बात माननी पड़ी.

2 माह हो चुके थे दुकान खोले पर विशाल तो और चिडि़चिड़ा हो गया था. दोपहर को नौकर राजू विशाल का खाना लेने आया तो उस ने सारिका को बताया, ‘‘अभी फिर एक ग्राहक औरत से साहब ने दुकान में लड़ाई की और वह बिना सामान लिए चली गई,’’

सुन कर सारिका परेशान हो गई.

कहते हैं न औलाद चाहे कितनी भी दूर हो परंतु मां को उस के दुख, मन की थाह दूर बैठेबैठे ही हो जाती है. अभी अपने खयालो में सारिका डूबी हुई ही थी कि अचानक फोन की घंटी बजी. देखा तो उस की मां सरोज का फोन था. आवाज सुनते ही सारिका का रोना निकल गया.

‘‘बहुत दिनों से तू आई नहीं, कुछ देर के लिए मेरे से मिलने आ जा, फिर मांबेटी खूब बात करेंगे.’’

सरोज की बात सुन कर सारिका का भी मन मां से मिलने का कर गया. दोनों बच्चों को बता कर सारिका झटपट मां से मिलने निकल गई.

मायके पहुंचते ही मां की गोद में सिर रख कर फफक कर रो पड़ी. घर पर सिर्फ मां और भतीजा था, भाईभाभी तो अपने काम पर गए हुए थे. अनुभवी मां ने भी बेटी को जी भर कर रो लेने दिया. जानती थीं कि ऐसे ही उन की बेटी यों अचानक उन से मिलने नहीं आई है.

10 मिनट के बाद सरोज बोलीं, ‘‘चल अब बता क्या बात हुई जो मेरी बेटी इतनी परेशान है?’’

‘‘मां, पता नहीं विशाल को क्या हो गया है? हरदम खिलखिलाने वाला विशाल एकदम गुस्सैल व्यक्ति में तबदील हो गया है. आप को पता है कि दुकान पर ग्राहकों से भी गुस्से से बात करता है. अब ग्राहक चीज खरीदने आएंगे तो वे 2-4 तरह की चीजें देखेंगे और तभी खरीदेंगे न और पसंद न आने पर कितनी बार बिना खरीदे हुए भी जाएंगे. हम भी तो एक बार में चीज पसंद नहीं कर लेते न? परंतु विशाल तो ग्राहकों को ही भलाबुरा बोलने लगता है. भला दूसरी बार ग्राहक ऐसी दुकान पर सामान लेने क्यों आएंगे, फिर जहां उन का अपमान वहां?’’ सारिका ने सुबकते हुए कहा.

‘‘तुम ने भी तो दुकान पर जाना शुरू किया था, उस का क्या हुआ?’’ सरोज ने पूछा.

‘‘कुछ दिन मुझ को ले कर गए, फिर पता नहीं अचानक कहने लगे कि मैं अभी

तुम्हें बैठा कर खिला सकता हूं और दुकान पर एक नौकर रख लिया तथा मेरा दुकान पर जाना लगभग बंद कर दिया. अब बताओ आगे ही खर्चा पूरा नहीं पड़ता नौकर का खर्चा भी सिर पर बांध लिया, उस पर घर में रोज का कलहकलेश,’’ सारिका बोली.

‘‘देख बेटी, मेरी बात ध्यान से सुन. सब से पहले तो इस उम्र में नौकरी चले जाने से विशाल के अहं को बहुत बड़ी ठेस पहुंची है. माना उस की इस में कोई गलती नहीं थी, परंतु वह कहीं न कहीं इस के लिए स्वयं को जिम्मेदार मानता है.

‘‘वैसे भी पुरुष को अपनी हार स्वीकार नहीं होती. दूसरा तेरा पैसा कमाने में सहायता करना बरदाश्त नहीं हो रहा. कहां वह दफ्तर में फाइलों में उलझ रहने वाला व्यक्ति और कहां उसे ऐसे महिलाओं और बच्चों को सामान दिखा कर पैसा कमाना पड़ रहा है, इस से उस के आत्मसम्मान को ठेस पहुंच रही है. हालांकि कोई काम छोटाबड़ा नहीं होता, फिर भी उसे ये सब मजबूरी में करना पड़ रहा है.

‘‘सो सब से पहले तो आज जा कर प्यार से उसे समझ कि इस मुसीबत की घड़ी में तू उस के साथ है. इतने वर्ष उस ने तुझे किसी चीज की कमी नहीं होने दी सो अब तू भी उस के साथ कंधे से कंधा मिला कर चलना चाहती है. अगर हो सके तो अपनी भाभी का उदाहरण दे देना. दूसरी बात एक ही दिन में चीजें ठीक नहीं होंगी. विशाल के मन की कड़वाहट को मिठास में बदलने में समय लगेगा.

‘‘बेटा अगर विशाल आजकल सूई की तरह दूसरों को चुभने लगा है तो तू धागा बन जा अर्थात अकेली सूई की फितरत चुभने की होती है, परंतु धागे का साथ मिलते ही सूई की फितरत बदलने लगती है. दुकान पर ग्राहकों को सामान तू दिखा और पैसों के काउंटर पर विशाल को बैठा. तू प्रेमरूपी धागे से ग्राहकों को सामान बेच और विशाल ग्राहकों से मोलभाव कर के पैसों का आदानप्रदान करे. साथ ही साथ उस को नौकरी ढूंढ़ने के लिए भी प्रेरित करती रह.

‘‘देखना जब तेरा प्यारभरा साथ होगा तो विशाल अधिक दिन तक निराश नहीं रह पाएगा और हमें हमारा पुराना विशाल वापस मिल ही जाएगा. हर इंसान के वैवाहिक जीवन में कुछ कठिन दौर आते हैं पर यदि घर की औरत समझदारी से काम ले तो वह कठिन समय भी गुजर ही जाता है,’’ समझते हुए सरोज ने प्यार से अपनी बेटी सरोज के सिर पर हाथ फिराया.

अब सारिका के मुख से दुख के बादल छंट गए थे.

‘‘अरे, कहां चल दी?’’ सरोज ने अचानक खड़ी होती सारिका से पूछा.

‘‘इस से पहले मेरी सूई किसी और को चुभे उस का धागा बन कर अपने सपनों को बुनने,’’ सारिका मुसकराते हुए अपनी मां के गले लग कर बोली और चली गई.

आज उस के कदमों में एक नया उल्लास था. उसे उस की मां ने एक मूलमंत्र जो दे दिया था और उस को विश्वास था कि इस मूलमंत्र के साथ वह अपने पुराने विशाल को अवश्य पुन: प्राप्त कर लेगी.

‘‘क्या बात है? आज बहुत खुश लग रही हो?’’ रात को खाने के बाद विशाल ने पूछा.

‘‘आज मां से मिलने गई थी दोपहर को. बहुत दिनों बाद मां से मिल कर बहुत अच्छा लगा,’’ सारिका ने संक्षिप्त सा उत्तर दिया.

‘‘मुझ से बिना पूछे तुम मां से मिलने चली गई? अब तो नौकरी के बाद मेरी कोई कद्र ही नहीं रह गई इस घर में,’’ विशाल झल्लाया.

‘‘यह क्या हर रोज एक ही जुमला कसते रहते हो? पहले भी तो मां से मिलने चली जाती थी न तो आज क्या हुआ? और हां, कल से मैं भी तुम्हारे साथ दुकान पर चलूंगी… पहले भी तुम ने कभी मुझे नौकरी करने की इजाजत नहीं दी और अब तो अपना काम है और तुम्हारे साथ दुकान में बैठने में क्या हरज है? राजू को काम से हटा देंगे, फालतू के खर्चे अभी नहीं पालने हमें,’’ आज सारिका की आवाज में एक दृढ़ विश्वास था.

कसमसा कर रह गया विशाल… कुछ

बोला नहीं.

अगले दिन से सारिका ने भी दुकान पर जाना शुरू कर दिया. 2-3 दिन में

ही विशाल ने देखा कि सारिका के प्रेम और कुशलतापूर्वक व्यवहार से दुकान की बिक्री में अधिक वृद्धि हो रही है और ग्राहक एक सामान लेने आता है परंतु सारिका बड़ी चतुराई से दूसरे सामान की भी ऐसी प्रशंसा करती है कि ग्राहक उस सामान को भी लेने को ललचा जाता है.

‘‘देख रहा हूं आजकल दुकान पर बहुत सजसंवर कर आने लगी हो?’’ फिर से विशाल का पौरुष उछाल मारने लगा.

‘‘अपनी ही दुकान का सामान पहन कर खड़ी होती हूं तो तुम ने देखा नहीं कि कल एक महिला ग्राहक ने मेरी पहनी बालियां देख कर खरीद लीं… इस से एक तो दुकान की बिक्री बढ़ती है दूसरा अपनी दुकान पर सजसंवर कर भी न बैठूं क्या? तुम्हारे दफ्तर में क्या औरतें यों ही उठ कर चली आती थीं?’’

सारिका के कहते ही विशाल को गुस्सा चढ़ गया. बहुत तेज गुस्से से बोला, ‘‘आजकल देख रहा हूं बहुत जबान चलने लगी है तुम्हारी. औरत हो औरत बन कर ही रहो, मर्द बन कर सिर पर नाचने की कोशिश न करो. 2-4 दिन से दुकान पर क्या आने लगी हो सोचती हो सारी कमाई तुम ही कर रही हो,’’ विशाल आवेश में बोलता चला जा रहा था उसे इतना भी ध्यान नहीं था कि कब से दरवाजे पर खड़ा उन का सप्लायर आकाश विशाल की सारी बातें सुन रहा था?

जैसे ही विशाल की निगाह उस पर पड़ी एकदम बात पलटते हुए बोला, ‘‘कितने दिनों से फोन कर रहे हैं तुम्हें आज फुरसत मिली, पता है तुम्हें कितना सामान खत्म हुआ पड़ा है और ग्राहक लौट कर जा रहे हैं.’’

विशाल की बात पर आकाश मौन रहा, परंतु सारिका की आंखों में आए आंसू आकाश से न छिप सके.

इतने में विशाल का फोन बजा जो बच्चों के विद्यालय से था कि आज स्कूल बस

नहीं आ पाएगी सो उसे बच्चों को अचानक उन के स्कूल ले जाना पड़ा.

‘‘मैडम आप ठीक तो हैं न?’’ आकाश ने विशाल के जाते ही सारिका से पूछा.

आंखों में आए आंसुओं को पोंछते हुए धीमे से सारिका ने सिर हिलाया. तुरंत सामने की दुकान से जा कर 2 कोल्ड ड्रिंक की बोतल ले आया और सारिका के आगे रख दी.

‘‘जी मैं ठीक हूं, आप ने क्यों तकलीफ की,’’ सारिका ने हिचकिचाहट से कहा.

‘‘आप रोने में व्यस्त थीं और मुझे प्यास लगी थी सो आप तो मुझे पानी पिलाने से रहतीं, इसलिए मैं ले आया और तकल्लुफ कैसा दुकानदार को मैं ने कह दिया है कि इस की पेमैंट सामने खड़ी वह खूबसूरत सी महिला करेगी, जो फिलहाल अपनी दुकान पर बाढ़ लाने में व्यस्त है.’’

आकाश के इस मजाक से सारिका खिलखिला कर हंस पड़ी.

ध्यान से देखा करीब 30 साल के आसपास की उम्र होगी आकाश की, देखने में भी अच्छाखासा था और मुख्य बात थी उस के बातचीत करने का लहजा. आज पहली बार मिलने से ही सारिका को लगा जैसे कोई पुराना दोस्त मिल गया हो और फिर दुकान का सामान खरीदतेखरीदते दोनों ने अपने फोन नंबर आदानप्रदान कर लिए.

जातेजाते आकाश मुड़ते हुए बोला, ‘‘इस बार की कोल्ड ड्रिंक मेरी तरफ से थी परंतु हमारी कौफी आप पर उधार है, सो जब कभी दिल करे एक फोन घुमा देना बंदा हाजिर हो जाएगा. और हां, इतनी खूबसूरत आंखों में आंसू अच्छे नहीं लगते और ऐसे व्यक्ति के कारण आंसू बहाना जिस को औरतों की इज्जत करना न आता हो बिलकुल उचित नहीं, मुझे नहीं मालूम आप ऐसे इंसान के साथ इतने बरसों से कैसे रह रही हैं.’’

आकाश के ये शब्द सारिका के दिल में बस गए. कितने बरसों बाद अपनी खूबसूरती की प्रशंसा सुनी थी. उसे याद ही नहीं था कब विशाल ने उस के साथ आखिरी बार प्यार से बात की थी. सच एक औरत यही तो चाहती है अपने पति से स्नेह भरे शब्द और सम्मान.

पूरी रात सारिका के जेहन में आकाश घूमता रहा. धीरेधीरे दोनों की घनिष्ठता बढ़ती चली गई. स्नेह को तरसी सारिका को उस समय आकाश की दोस्ती रास आने लगी. धीरेधीरे दोनों ने वह अदृश्य सामाजिक रेखा भी लांघ ली.

‘‘तुम क्यों होल सेल मार्केट जा रही हो, अकेले? यहां दुकान पर ही सप्लायर को बुला लेते हैं,’’ विशाल बोला. सारिका में आए परिवर्तन को वह भी देख रहा था.

काफी खुश रहने लगी थी आजकल और विशाल की कही बातों का अब उस पर असर भी नहीं होता था. कुसूर सारिका का नहीं था… जब पुरुष बेवजह के बंधन बांधने लगे, बातबात पर घर की स्त्री का तिरस्कार करने लगे तो औरत के कदम किसी और दिशा का रुख कर ही लेते हैं.

‘‘दुकान पर सप्लायर सिर्फ गिनाचुना सामान ही दिखाते हैं और होल सेल मार्केट में मैं स्वयं अपने यहां आने वाले ग्राहकों की पसंद के अनुरूप सामान खरीद सकती हूं. सौंदर्यप्रसाधनों की तुम्हें क्या पहचान और समझ सो मेरा जाना ही जरूरी है और हां आने वालों ग्राहकों से प्यार से बात करना नहीं तो कोई बिक्री नहीं होगी आज,’’ कहते हुए सारिका पर्स उठा कर चली गई.

विशाल ने गौर किया सारिका कि न केवल उस से सस्ता सामान लाती है बल्कि अधिकतर सप्लायर उसे अधिक समय तक उधारी भी देने को तैयार थे जबकि विशाल की आए दिन उन के साथ बहस होती रहती थी. यदि कुछ देर के लिए सारिका दुकान पर न होती थी तो ग्राहक बिना कुछ खरीदे ही वापस लौट जाते थे.

धीरेधीरे दुकान के कार्यों पर विशाल की पकड़ कम होती जा रही थी. बाहर का सारा कार्य सारिका ने ही संभाला हुआ था. विशाल की भूमिका नगण्य होती जा रही थी. विशाल भीतर ही भीतर सुलगता जा रहा था. सब से अधिक तकलीफ तो उसे उस दिन हुई जब विशाल के मना करने के बावजूद सारिका ने बेटी को पैसे दे कर उसे स्कूल ट्रिप पर भेज दिया. उस जैसे अहं में डूबे हुए इंसान के लिए यह स्वीकार करना बहुत मुश्किल था कि घर के फैसले खासतौर पर बच्चों के भविष्य के लिए एक मां भी निर्णय ले सकती है.

‘‘सुनो मैं 2 दिनों के लिए मुंबई जा रही हूं,’’ सारिका ने कहा.

‘‘मुंबई क्यों जाना है और किस के साथ?’’ आंखों में आए गुस्से को नियंत्रित करते हुए विशाल ने पूछा.

‘‘मैं ने आर्टिफिशियल आभूषणों का व्यापार शुरू करने की सोची है. आकाश वहां कुछ लोगों को जानता है तो उस के साथ वहां से जा कर खरीद कर लाने हैं. परसों सुबह की फ्लाइट से जाएंगे और अगले दिन रात तक वापस आ जाएंगे,’’ सारिका ने जवाब दिया.

‘‘किसी पराए मर्द के साथ तुम्हें जाना शोभा देता है? मैं चलता हूं तुम्हारे साथ,’’ विशाल बोला.

‘‘कमाल करते हो विशाल तुम भी. एक तो तुम वहां किसी को जानते नहीं हो, जबकि आकाश की वहां जानपहचान है और दूसरा यहां बच्चों का खयाल कौन रखेगा? डार्लिंग, यह बिसनैस टूर है कोई घूमनेफिरने थोड़ा जा रही हूं. आप भी तो कितने बिजनैस टूर पर जाते थे… मैं ने तो हमेशा कोऔपरेट किया आप से. बच्चों और ग्राहकों से प्यार से बात करना… पता चले मेरे आने तक बच्चे नानी के घर पहुंच गए और ग्राहक किसी और दुकान के ग्राहक बन गए. चलो अब सोने दो कल तैयारी भी करनी है और परसों सुबह मुझे निकलना है,’’ सारिका ने मुंह फेर कर लेटते हुए कहा.

अपनी ओर से विशाल ने सारिका को अप्रत्यक्ष रूप से रोकने की बहुत

कोशिश की परंतु इस बार विशाल की एक न चली. वह सारिका के इस बदले रूप से हैरान भी था और भयभीत भी.

2 दिन तक जहां सारिका आकाश के साथ मुंबई की सैर में मस्त तो वहीं ये 2 दिन विशाल की आंखें खोलने के लिए पर्याप्त थे. अभीअभी दुकान पर एक पुरानी महिला ग्राहक से विशाल की झड़प हो गई और गुस्से में उस महिला ने सब के सामने कहा, ‘‘भाई साहब बुरा न मानिएगा, आप को तो गर्व होना चाहिए जो सारिकाजी आप के साथ निभा रही है… मेरे जैसी होती तो आप जैसे कर्कश स्वभाव वाले पति से कब का तलाक ले चुकी होती.’’

उस महिला की बात ने विशाल को झकझर दिया. आत्मचिंतन करने पर उसे अपनी गलती का एहसास हुआ. सच ही तो था उस के बुरे बरताव के कारण ही तो सब लोग उस से दूर होते जा रहे थे… बच्चे, सारिका, ग्राहक, सप्लायर सभी… कहीं सारिका भी तो मुझ से तलाक लेने की नहीं सोच रही? नहींनहीं मैं ऐसा नहीं होने दूंगा… मैं अपने व्यवहार को तुरंत बदल कर अपनी सारिका के बहकते कदमों को रोक लूंगा… बस मन में यही दृढ़ निश्चय विशाल ने कर लिया कि वह आज से सभी के साथ प्रेमपूर्वक व्यवहार करेगा और सारिका को भरपूर प्यार और सम्मान देगा. आज जीवन में प्रथम बार उसे सारिका के बजाय अपनी गलती दिखाई दी थी.

होंठों पर एक मुसकराहट ला कर अच्छे मन से विशाल सारिका के वापस आने का इंतजार करने लगा ताकि वह अपनी खोई हुई खुशियां वापस ला सके.

Interesting Hindi Stories : गलतफहमियां

Interesting Hindi Stories : सुबह औफिस के लिए घर से निकली पाखी रात के 8 बजे तक घर नहीं लौटी थी. उस का फोन भी आउट औफ कवरेज बता रहा था. इसलिए उस की मां विशाखा को उस की चिंता सताने लगी. वैसे बोल कर वह यही गई थी कि कालेज से सीधे अपनी दोस्त प्रार्थना के घर चली जाएगी.क्योंकि उस की तबीयत ठीक नहीं है. कुछ देर उस के साथ रहेगी तो उसे अच्छा लगेगा लेकिन इतनी देर. और फोन क्यों नहीं लग रहा उस का. चलो, एक बार प्रार्थना को फोन लगा कर देखती हूं, अपने मन में ही सोच विशाखा ने प्रार्थना को फोन लगा दिया. ‘‘हैलो प्रार्थना, अब तुम्हारी तबीयत कैसी है बेटा? पाखी तो वहीं होगी न, तुम्हारे साथ? जरा बात तो कराओ उस से.’’

‘‘मेरी तबीयत को क्या हुआ है. मैं तो बिलकुल ठीक हूं,’’ आंटी ‘‘प्रार्थना हंसी और बोली, ‘‘मैं तो देहरादून अपनी मौसी की बेटी की शादी में आई हुई है.’’

प्रार्थना की बात सुन कर विशाखा बुरी तरह चौंक पड़ी कि फिर पाखी ने उस से ?ाठ क्यों कहा कि इस की तबीयत खराब है और वह इसे देखने जा रही है.

‘‘उफ, शायद मुझ से ही सुनने में गलती हुई होगी. कोई बात नहीं, ऐंजौय करो तुम,’’ कह कर विशाखा ने फोन रख दिया. लेकिन उस का दिमाग झनझना उठा यह सोच कर कि उस की बेटी ने उस से ?ाठ कहा. पर क्यों?

तभी कौलबैल बजी, तो उसे लगा पाखी ही आई होगी लेकिन सामने अपने पति रजत को देख कर उस के मुंह से निकल गया, ‘‘अरे तुम हो?’’

‘‘क्यों, किसी और का इंतजार कर रही थी?’’ रजत हंसा.

‘‘नहीं, वह… मुझे लगा पाखी आई है. वैसे आने के पहले फोन क्यों नहीं किया तुम ने?’’

‘‘अब अपने घर आने के लिए भी फोन करना पड़ेगा मुझे,’’ अपनी आदतानुसार रजत हंस पड़ा और कहने लगा, ‘‘कल गुरुनानक जयंती की छुट्टी है तो सोचा घर जाकर तुम्हें सरप्राइज दूं. लेकिन तुम्हें देख कर तो लग रहा है मेरे आने की तुम्हें जरा भी खुशी नहीं हुई.’’

‘‘नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है. अच्छा तुम फ्रैश हो जाओ, तब तक मैं तुम्हारे लिए चाय बना लाती हूं.’’

‘‘नहीं, चाय की जरूरत नहीं है मुझे. तुम यहां आ कर बैठो,’’ विशाखा का गंभीर चेहरा देख कर रजत ने अंदाजा लगाया कि कोई बात जरूर है, ‘‘क्या हुआ सब ठीक है? और पाखी अभी तक औफिस से नहीं आई है क्या?’’

‘‘अब पता नहीं औफिस में है कि कहां है. क्योंकि घर से तो यही बोल कर गई थी कि उस की दोस्त प्रार्थना की तबीयत खराब है इसलिए औफिस से सीधे उस के घर चली जाएगी पर वह वहां भी नहीं है. फोन किया था मैं ने.’’

‘‘अरे, तो होगी अपनी किसी दूसरी दोस्त के घर, आ जाएगी. बेकार में टैंशन मत लो.’’ रजत ने कह तो दिया पर पता है उसे कि विशाखा फिर भी टैंशन लेगी ही क्योंकि आदत जो है उस की हर छोटीछोटी बात पर टैंशन लेने की. लेकिन रजत को नहीं पता कि वह फालतू में टैंशन नहीं ले रही है. रजत तो महीनेपंद्रह दिन पर मुश्किल से 5-6 दिन के लिए घर आता है, तो वह क्या जाने कि उस की बेटी पाखी क्या कर रही है. रोज कोई न कोई बहाना बना कर, अपनी मां से झूठ बोल कर वह उस लड़के रोहित से मिलने जाती है, जबकि जानती है विशाखा को वह लड़का जरा भी पसंद नहीं है. अरे, वह है ही नहीं पाखी के लायक. लेकिन जाने उस रोहित ने कौन सा मंत्र फूंक दिया है पाखी के कानों में कि वह उसी का नाम जपती रहती है. रोहित को देखते ही विशाखा को चिढ़ हो आती है क्योंकि शक्ल से ही चालबाज लगता है वह.

‘‘अच्छा, अब ज्यादा ओवरथिंकिंग करना बंद करो, समझ. बेकार में कुछ भी सोचती रहती हो और मेरा भी दिमाग खराब करती हो. अरे, दोस्त हैं दोनों, तो मिलने चली गई होगी. इस में कौन सी बड़ी बात हो गई,’’ विशाखा को गुम बैठे देख रजत बोला.

‘‘अरे, कोई दोस्तवोस्त नहीं है दोनों. प्यार करती है वह उस लफंगे से. अगर जाना ही था तो ?ाठ बोल कर जाने की क्या जरूरत थी?’’ विशाखा विफर उठी.

‘‘अब तुम जैसी हिटलर मां हो तो बेचारे बच्चे तो झूठ ही बोलेंगे न. वैसे सच कहूं तो मुझे भी तुम से बहुत डर लगता है,’’ बोल कर रजत ठहाके लगा कर हंसा तो विशाखा को जोर का गुस्सा आ गया.

‘‘तुम्हें हर बात में बस खीखी करना आता है. तुम ने ही बिगाड़ रखा है अपनी लाडली को. तुम्हारे कारण ही उस की नजरों में मैं एक बुरी मां साबित हो गई हूं क्योंकि मैं उस की मनमानी नहीं सहती न. तुम्हारी तरह उस की हर आलतूफालतू बात में हां बेटा हां बेटा नहीं करती न. तो मैं तो उस की दुश्मन लगूंगी ही.’’

विशाखा का गुस्सा देख रजत कहने लगा कि वह तो बस मजाक कर रहा था. और क्यों वह बेकार में इतनी टैंशन लेती है. पाखी कोई बच्ची थोड़े ही है. अपना भलाबुरा खूब समझती है वह. और विशाखा का कहना था कि बेवकूफ है वह लड़की. नहीं समझती कि वह लड़का केवल उसे यूज कर रहा है.

तभी गाड़ी रुकने की आवाज से विशाखा बालकनी में भागी तो देखा पाखी रोहित की गाडी से बाहर निकल रही है. दोनों को एकदूसरे को किस करते देख विशाखा के तनबदन में आग लग गई. मन तो किया उस का कि अभी नीचे जा कर उस लड़के को 2-4 थप्पड़ लगा दे और कहे कि पाखी को छूने की उस की हिम्मत भी कैसे हुई. मगर जब यहां अपना ही सिक्का खोटा है तो किसी और को क्या कहा जाए.

‘‘कहां थी तुम?’’ दरवाजा खोलते ही विशाखा फट पड़ी.

‘‘कहां थी का क्या मतलब है? अरे, बोल कर तो गई थी कि प्रार्थना की तबीयत ठीक नहीं है इसलिए औफिस से सीधे उस के घर चली जाऊंगी.’’

‘‘अरे, और कितना झूठ बोलोगी,’’ पाखी का कंधा पकड़ कर उस ने जोर से धकेला, तो वह हिल गई.

‘‘तुम्हें क्या लगा, तुम हमारी आंखों में धूल झांकती रहोगी और हमें कुछ दिखाई नहीं देगा? तुम फिर उस लफंगे रोहित से मिलने गई थी न? मैं ने तुम्हें उस से मिलने को मना किया था न? फिर क्यों गई उस से मिलने?’’ विशाखा चीख पड़ी.

‘‘ज्यादा चिल्लाओ मत,’’ पाखी ने भी आंखें तरेरीं, ‘‘हां, गई थी उस से मिलने तो? तो क्या कर लेंगी आप? आप सुन लो कान खोल कर. मैं रोहित से प्यार करती हूं और आप मुझे उस से मिलने से नहीं रोक सकतीं. वैसे भी आप होती कौन हो मुझे रोकने वाली?’’ पाखी की बात पर रजत ने उसे डांटा कि वह अपनी मम्मी से ऐसे कैसे बात कर रही है. तमीज नाम की कोई चीज है कि नहीं उस में?

‘‘और मम्मी में तमीज है कोई? हर समय जो वे, ‘वह लफंगा वह लफंगा’ कहती रहती हैं क्या उस का कोई नाम नहीं है? पापा आप ही बताओ, क्या मैं कोई मुजरिम हूं जो रोजरोज इन के सवालों के जबाव देने पड़े मुझे? जरा कभी औफिस से आने में देर क्या हो जाती है, पुलिस की तरह सवाल पर सवाल दागने लगती हैं. इन्हें क्यों लगता है कि रोहित आवारा, लफंगा लड़का है? मुझ में भी दिमाग है. मुझे पता है कि मेरे लिए कौन सही और कौन गलत है.’’

दोनों मांबेटी को यों लड़तेझगड़ते देख कर रजत परेशान हो उठा. किसी तरह पाखी को समझाबुझा कर उसे उस के कमरे में भेज कर विशाखा को भी चुप रहने को कह वह भी अपने कमरे में चला गया. समझ ही नहीं आ रहा था उसे कि यहां कौन सही है और कौन गलत. पाखी कोई 2 साल की बच्ची तो है नहीं न जो उसे हर बात के लिए रोकाटोका जाए. रस्सी को उतना ही खींचना चाहिए, जितना जरूरी हो वरना वह टूट जाएगी. विशाखा को यह बात समझासमझा कर हार गया था वह, पर वह समझती ही नहीं थी. जवान लड़की है, कहीं कुछ ऐसावैसा कर लिया तो क्या करेगी फिर?

‘‘नहीं, बहुत हो गया अब तो. मुझे अब इस घर में रहना ही नहीं है,’’ भुनभुनाती हुई पाखी अपने कमरे में जा कर अपना कपड़े अटैची में डालने लगी क्योंकि अपनी मां की रोजरोज के रोकटोक से वह तंग आ चुकी थी. अभी वह घर से बाहर निकलने ही लगी कि विशाखा ने उस का हाथ जोर से पकड़ लिया, ‘‘कहां जाओगी?’’ विशाखा को लगा कहीं बेटी सच में ही घर से चली न जाए. भले ही वह अपनी बेटी पर रोकटोक लगाती थी, मगर प्यार भी वह उस से बहुत करती थी. विशाखा को इसी बात की चिंता लगी रहती थी कि उस की मासूम बेटी कहीं किसी मुसीबत में न फंस जाए उस लफंगे के चक्कर में. जमाना ठीक नहीं है. किसी पर भी भरोसा नहीं किया जा सकता है. मगर पाखी को तो अपनी मां दुश्मन ही नजर आती.

‘‘कहीं भी, लेकिन इस घर से और आप से बहुत दूर. छोड़ो मुझे,’’ विशाखा का हाथ जोर से ?ाटकते हुए वह बोली, ‘‘मैं पूछती हूं आप मेरी जिंदगी में दखल देने वाली होती कौन हो?’’

‘‘तेरी जिंदगी. अब यह तेरी जिंदगी है? मैं ने तुम्हें 9 महीने अपनी कोख में रखा, पालापोसा, बड़ा किया और अब यह तुम्हारी जिंदगी हो गई. हम तुम्हें किसी मुसीबत में नहीं फंसने देना चाहते हैं, यह बात क्यों नहीं समझती तू? वह लड़का तेरे लिए कहीं से भी ठीक नहीं है. तू उस के साथ कभी खुश नहीं रह पाएगी. उस के साथ तेरी जिंदगी बरबाद हो जाएगी बेटा,’’ एक मां होने के नाते उस ने पाखी को समझना चाहा. लेकिन पाखी कहां समझने वाली थी. उसे तो अपनी मां की कोई भी बात अच्छी नहीं लग रही थी.

‘‘सब से बड़ी मुसीबत तो आप हो मेरी जिंदगी में. आप बरबाद कर रही हैं मेरी जिंदगी. आप ने मुझे पैदा कर के कोई बहुत बड़ा एहसान नहीं किया है. बेटा यह मत करो, बेटा वह मत करो, यहां मत जाओ, वहां मत जाओ. अरे, थक चुकी हूं मैं आप से और आप के इन बेतुके सवालों से. मैं कह रही हूं आप निकल जाओ मेरी जिंदगी से,’’ पाखी चीख पड़ी, ‘‘नहीं आप मत निकलो, मैं ही निकल जाती हूं आप की जिंदगी से हमेशाहमेशा के लिए, खुश?’’

अपनी बेटी के व्यवहार को देख विशाखा की आंखों से आंसू गिर पड़े.

पाखी बाहर जानेलगी तो रजत ने उसे रोका कि इस तरह इतनी रात गए बाहर जाना उचित नहीं है, इसलिए वह अपने कमरे में जाए.

रजत का कहा मान कर वह अपने कमरे में जा कर उस ने इतनी जोर से दरवाजा लगाया कि अपने पापा का भी लिहाज नहीं किया कि उन्हें बुरा लगेगा.

पाखी का ऐसा व्यवहार देख कर रजत को बहुत दुख हुआ. लेकिन गुस्सा उसे विशाखा पर भी आ रहा था कि जरूरत ही क्या उसे कुछ बोलने की. वह अब बच्ची थोड़े है.

‘‘क्या फायदा हुआ बोलने का बोलो? तुम और उस की नजरों में बुरी बनती जा रही हो,’’ रजत ने अपनी पत्नी को समझाना चाहा.

‘‘फायदा? यह तुम्हारा बैंक नहीं है रजत जो हर चीज में लौस और प्रौफिट देखा जाए. पाखी हमारी बेटी है. जानबूझ कर उसे गड्ढे में गिरने नहीं दे सकते. हम उसे सही रास्ता नहीं दिखाएंगे तो और कौन दिखाएगा?’’

विशाखा सही ही कह रही थी, रोहित अच्छा लड़का नहीं है. लड़कियों के साथ घूमना, शराबसिगरेट और ड्रग्स पीना उस की आदत में शामिल है. यह भी सच है कि पहले उस की एक शादी हो चुकी है. लेकिन शादी के 2 महीने बाद ही उस की बीवी एक ऐक्सीडैंट में मर गई. अब पता नहीं ऐक्सीडैंट हुआ या करवाया गया.

विशाखा को यह सारी बातें अपनी एक किट्टी की फ्रैंड से पता चलीं जो उसी सोसायटी में रहती है जिस सोसायटी में रोहित और उस की मां रहती है. उस की दोस्त ने यह भी बताया कि रोहित के मातापिता का वर्षों पहले तलाक हो चुका है और वह सिंगल मदर है. रोहित की मां एलआईसी में जौब करती है और ज्यादातर वह अपने घर से बाहर ही रहती है. बेटा क्या करता है, कहां रहता है इस बात की उसे कोई खबर नहीं होती है.

ऐसा नहीं है कि रोहित अनपढ़ गंवार है. इंजीनियरिंग की है उस ने. जौब भी लगी पर वह जौब उस ने छोड़ दी क्योंकि उसे वहां मजा नहीं आ रहा था. वह बिजनैस करना चाहता था. मगर बिजनैस में भी वह फिसड्डी निकला. अभी वह फिर किसी छोटीमोटी प्राइवेट कंपनी में जौब कर रहा है. लेकिन उसे बहुत पैसा चाहिए, इसलिए उस ने पैसे वाली पाखी को अपने जाल में फंसाया, उस से प्यार का नाटक किया और अब उस से शादी करना चाहता है ताकि पूरी जिंदगी उस की आराम से कट सके. खैर, उन की निजी जिंदगी से विशाखा को कोई लेनादेना नहीं है. लेकिन वह इसलिए उस के बारे में जांचपड़ताल करती रहती है क्योंकि उस की बेटी रोहित के चक्कर में फंसी है.

विशाखा ने कई बार समझाया अपनी बेटी को कि रोहित उस से नहीं बल्कि उस के पैसों से प्यार करता है. जानता है कि पाखी इतनी बड़ी कंपनी में नौकरी करती है. पाखी के पापा यानी रजत भी बड़े सरकारी बैंक में ऊंचे ओहदे पर हैं. इस के अलावा उन की जितनी भी संपत्ति है, उन के बाद पाखी की ही होने वाली है. मगर पाखी यह बात मनाने को तैयार ही नहीं है कि रोहित उस से नहीं बल्कि उस के पैसों से प्यार करता है. पता नहीं क्या घुट्टी पिला दी है उस लड़के ने पाखी को कि उस के बारे में एक शब्द नहीं सुनना चाहती वह. उलटे अपनी मां से ही लड़ने लगती है जैसे वह उस की सब से बड़ी दुश्मन हो.

उस रात विशाखा बोलतेबोलते सुबक उठी कि कहीं उस लड़के ने उस की बेटी के साथ कुछ ऐसावैसा कर दिया तो क्या करेंगे वे? एक ही तो बेटी है उन की. कैसे जीएंगे उस के बिना?

‘‘एक मां होने के नाते तुम्हारी चिंता जायज है लेकिन यह भी तो हो सकता है तुम जो सोच रही हो वह निरधार हो? चलो अब सो जाओ, रात बहुत हो गई है,’’ अपने सिर पर हाथ रख रजत ऊपर छत की तरफ देखते हुए न जाने क्या सोचने लगा और फिर उस की आंख लग गई.

27 साल की पाखी कौरपोरेट जौब करती है. मोबाइल शौप में उस की मुलाकत रोहित से हुई थी. दोनों अकसर मिलने लगे तो उन की दोस्ती हो गई जो धीरेधीरे प्यार में बदल गई. दोनों 2 साल से रिलेशनशिप में हैं और अब वह अपने इस रिश्ते को एक नाम देना चाहते हैं. लेकिन हाल तो यह है कि विशाखा इस रिश्ते के खिलाफ है और पाखी है कि रोहित के अलावा और किसी से शादी के बारे में सोच भी नहीं सकती.

‘‘अब हमारे पास एक ही रास्ता बचता है और वह यह कि हम भाग कर शादी कर लें,’’ पार्क में घास पर लेटे रोहित ने सुझाया.

‘‘भाग कर? नहींनहीं मैं ऐसा नहीं कर सकती.’’

‘‘तो फिर जाओ, कर लो अपने मांपापा

के पसंद के लड़के से शादी,’’ रोहित जरा चिढ़ते हुए बोला.

‘‘और तुम क्या करोगे फिर?’’ पाखी मुसकराई.

‘‘मैं? मैं भी अपनी मां की पसंद की लड़की से शादी कर लूंगा और क्या. लेकिन एक बात सुनो. हम दोनों एकदूसरे की शादी में जरूर आएंगे, यह वादा करो,’’ रोहित की बात पर पाखी को हंसी आ गई.

रोज की तरह आज भी पाखी औफिस जाने के लिए तैयार हो रही थी. मगर उस के दिमाग में ढेरों उल?ानें चल रही थीं. सम?ा नहीं आ रहा था उसे कि बात कैसे और कहां से शुरू करे. वह अपनी मां विशाखा से उल?ाना नहीं चाहती थी बेकार में. लेकिन बात तो करनी ही होगी, अपनेआप में भुनभुनाते हुए जब उस की नजर घड़ी पर पड़ी तो घबरा उठी कि आज रोहित ने उसे जल्दी बुलाया है. तभी विशाखा ने आवाज लगाई कि वह आ कर नाश्ता कर ले, रोहित से ध्यान हट कर अपनी मां की बातों पर चला गया.

‘‘देखो, आज मैं ने तुम्हारी पसंद के छोलेभठूरे बनाए हैं,’’ प्लेट में उस के लिए नाश्ता परोसते हुए विशाखा बोली. कल की बात को ले कर विशाखा भी गिल्ट फिल कर रही थी कि पाखी को कितना कुछ सुना दिया उस ने. पाखी ने अजीब तरह से नाश्ते की तरफ देखा और यह कह कर कुरसी से उठ खड़ी हुई कि इतना औयली नाश्ता उस के गले से नहीं उतरेगा.

‘‘तो तो मैं तुम्हारे लिए उपमा या पोहा बना देती हूं न, अभी 2 मिनट में बन जाएगा.’’

‘‘नहीं, कुछ नहीं चाहिए. वैसे भी मुझे देर हो रही है,’’ कह कर वह घर से निकल गई. न कोई बाय न यह बताया कि घर कब आएगी. किसी से फोन पर बात करते हुए बाहर निकल गई. अजीब व्यवहार होता जा रहा था उस का अपने मातापिता के प्रति और यह बात रजत भी अब नोटिस करने लगा था.

दरअसल, कल रात पाखी और उस के पापा के बीच शादी की बात को लेकर जरा अनबन हो गई. पाखी का कहना था कि वह रोहित से प्यार करती और उस से ही शादी करना चाहती है. लेकिन रजत का कहना था कि पहले वह जान तो ले कि रोहित उस के लायक है भी या नहीं. उस पर पाखी कहने लगी कि उसे पता है रोहित उस के लायक है. और कोई क्या सोचता है उन के रिश्ते के बारे, इस बात से उसे कोई फर्क नहीं पड़ता है.

पाखी का इशारा अपनी मां की तरफ था. उस की बात पर रजत को गुस्सा आ गया और उस ने कह दिया कि वे उस के मातापिता हैं. इसलिए उस का भला बुरा सोचना भी उन का ही काम है. वह अभी नासमझ है. उसे नहीं पता है कि दुनिया में कितने धोखेबाज इंसान, शराफत का चोला ओढ़े घूम रहे हैं

‘‘ठीक है आप लोगो को जो समझना है समझते रहिए. लेकिन रोहित मेरे लिए सही है और यही सच है. और मेरा फैसला अब भी वही है पापा की शादी तो मैं रोहित से ही करूंगी वरना उम्रभर कुंआरी रह जाऊंगी.’’

जवान बेटी से ज्यादा मुंह लगाना रजत को अच्छा नहीं लगा, इसलिए चुप रहने में ही भलाई समझ. पाखी को जिद पर अड़े देख कर रजत को अब डर लगने लगा था कि कहीं यह लड़की किसी मुसीबत में न फंस जाए. वह स्वयं तो 15 दिन पर मुश्किल से 2 रोज के लिए घर आ पाता है. बाकी के दिन तो वह दूसरे शहर में अपनी नौकरी में व्यस्त रहता है.

रजत ने जानबूझ कर बैंक से हफ्तेभर की छुट्टी ले ली ताकि उस रोहित के बारे में पर्सनली जानकारी जुटा सके. देखना चाहता था वह कि क्या सच में रोहित का कई लड़कियों से चक्कर है और यह भी कि वह कुछ कमाता भी है या यों ही डींगे मारता है.

मगर विशाखा ने जोजो बातें उस रोहित के बारे में बताईं वे सब सच निकलीं. रोहित एक बिगड़ा हुआ लड़का है. रोज नईनई लड़कियों के साथ घूमनाफिरना और ऐश करना उस की आदतों में शामिल है. शराबसिगरेट का भी आदी है वह. सब से बड़ी बात की उन का अपना कोई घर नहीं है. दोनों मांबेटे एक किराए के घर में रहते हैं, जिसे वह सब से अपना बताते फिरता है, जबकि उस मकान का मालिक कोई और ही है. हां, उस की पहले भी एक शादी हो चुकी है. इस के अलावा रोहित की मां का अपने पति से वर्षों पहले तलाक हो चुका है और रोहित के पिता दुबई में रहते हैं.

रोहित ने खूब सोचसमझ कर पाखी को अपने प्यार के जाल में फंसाया ताकि उस की जिंदगी आराम से गुजार सके. लेकिन रजत यह बात पाखी को बताएगा कैसे? और क्या वह रजत की बातों पर विश्वास करेगी. लेकिन बताना हो पड़ेगा.

मगर वही हुआ जिस का रजत को डर था. अपने पापा की बात समझने के बजाय वह उन से ही लड़ पड़ी और गुस्से में अपना सामान उठा कर रोहित के घर रहने चली गई. रोहित की मां का दूसरे शहर में ट्रांसफर हो गया तो रोहित यहां अकेले ही रह रहा था. अब पाखी भी उस के साथ उस के घर में रहने लगी. वहां से वह रोज औफिस आनेजाने लगी.

आज महीना हो चुका था पाखी को इस घर से गए. इस बीच न तो उस ने अपने मांपापा को कोई फोन किया न ही उन का फोन उठाया. एक रोज रजत और विशाखा जब उस से मिलने उस के औफिस पहुंचे तो उस ने अपने मातापिता से मिलने से यह कहते हुए इनकार कर दिया कि वे उन के कुछ नहीं लगते. बेचारे दोनों रोंआसे से हो कर घर लौट आए. जो मांबाप अपने बच्चों के लिए क्याक्या नहीं करते हैं उन की खुशियों को पहले देखते हैं वही बच्चे इतने स्वार्थी और पत्थर दिल कैसे बन जाते हैं. खैर, रजत और विशाखा ने भी अब अपने दिल पर पत्थर रख लिया था.

उधर रोहित के साथ रहते हुए पाखी का दिन सोने के और रातें चांदी की हो गई थीं.

रोज वह उस के साथ घूमफिर और मौज कर रही थी. उसे तो अब अपने मांपापा की याद भी नहीं आती थी. जो भी था बस रोहित ही था उस के लिए. दोनों ने कोर्ट मैरिज करने का फैसला कर लिया था और इस के लिए उन्होंने कोर्ट में अर्जी में डाल दी थी.

कल रोहित का जन्मदिन था और पाखी ने उस के लिए कुछ सरप्राइज प्लान किया था. सुबह वह यह कह कर अपने औफिस के लिए निकल गई कि आज शायद उसे घर आने में थोड़ी देर हो जाए. इसलिए वह खाने पर उस का इंतजार न करे. लेकिन असल में उस ने 2 दिन की छुट्टी ले रखी थी ताकि रोहित का जन्मदिन अच्छे से सैलिब्रेट कर सके. मगर यह बात उस ने रोहित को बताई नहीं थी क्योंकि उसे सरप्राइज जो देना चाहती थी.

मौल जा कर उस ने रोहित के लिए ढेर सारी शौपिंग की. बढि़या होटल बुक किया. उस के लिए ऐक्पैंसिव गिफ्ट खरीदा. 4-5 घंटे तो उस के इसी सब में निकल गए. बहुत थक चुकी थी. इसलिए घर जा कर थोड़ा आराम करना चाहती थी क्योंकि फिर शाम की पार्टी की भी तैयारी करनी थी उसे. डुप्लिकेड चाबी से दरवाजा खोल कर जब वह घर के अंदर गई और जो उस ने देखा, उस के पांवों तले की जमीन खिसक गई. रोहित एक लड़की के साथ हमबिस्तर था. गुस्से के मारे वह थरथर कांपने लगी. वह कमरे के अंदर जा ही रही थी कि उन दोनों की बातों ने उस के कदम वहीं रोक लिए.

‘‘अब तो तुम उस पाखी से शादी करने जा रहे हो, फिर मुझे तो भूल ही जाओगे,’’ अपनी ऊंगली रोहित के बदन पर फिराते हुए वह लड़की बोली.

‘‘हां शादी तो करने जा रहा हूं पर उस से नहीं, बल्कि उस के पैसों से.’’

‘‘मतलब?’’

‘‘मतलब यह कि शादी मैं किसी बंधन में बंधने के लिए नहीं कर रहा हूं बल्कि लग्जरी लाइफ जीने के लिए कर रहा हूं. पाखी तो बस एक जरीया है मेरी ऐशोंआराम के साधन का,’’ और रोहित ठहाके लगा कर हंसा, ‘‘बेवकूफ लड़की. उसे लगा वह कोई हूर की परी है और मैं उस की सुंदरता पर मर मिटा हूं. लेकिन उस की जैसी कितनी आई और गईं मेरी जिंदगी से और सब को मैं ने यों ही मसलमसल कर फेंक दिया. वह तो पाखी बहुत पैसे वाली बाप की एकलौती बेटी है इसलिए उस के साथ बेइंतहा प्यार का नाटक करना पड़ रहा है मु?ो और यह शादी भी एक नाटक ही है मेरी जान,’’ कह कर उस ने उस लड़की को अपनी आगोश में भर लिया और उसे यहांवहां चूमने लगा, जो पाखी से देखा नहीं गया. रोहित की बात सुन कर पाखी का खून खौल उठा. उस ने तो सपने में भी नहीं सोचा था कि रोहित इतना घटिया इंसान है.

‘‘और तुम्हें क्या लगता है पाखी तुम्हें इतने आराम से अपनी दौलत लुटाने देगी?’’ वह लड़की बोली.

‘‘हां, लेकिन उस के बाद तो उस की सारी संपत्ति का मालिक मैं ही होऊंगा न.’’

‘‘पर कैसे?’’ उस लड़की ने पूछा.

‘‘अब रोज कितने ही ऐक्सीडैंट होते हैं तो एक और सही.’’

रोहित की बात सुन कर पाखी की रूह कांप उठी. एकाएक उसे अपनी मां की कही बातें याद आने लगीं कि रोहित की पहले भी एक शादी हो चुकी है और उस की बीवी एक ऐक्सीडैंट में मर गई. तो क्या इस रोहित ने ही अपनी बीवी का… और क्या यह सिर्फ मेरे पैसों से प्यार करता है मुझ से नहीं? कितना सम?ाया मां ने, पापा ने मुझे कि रोहित अच्छा लड़का नहीं है. लेकिन मैं पागल उन्हें ही अपना दुश्मन सम?ा बैठी,’’ पाखी ने अपने बाल नोच लिए कि यह क्या कर लिया उस ने. कैसे नहीं समझ पाई इस रोहित को  और इस के नापाक इरादों को?

पाखी ने अपने आंसू पोंछे और रोहित की 1-1 बात अपने मोबाइल में रिकौर्ड कर ली और वहां से निकल गई क्योंकि अब यहां रुकना उस की जान के लिए खतरा था.

रात के 11 बजे दरवाजे की घंटी की आवाज से रजत और विशाखा दोनों घबरा उठ बैठे, ‘‘इतनी रात गए कौन हो सकता है?’’

‘‘पता नहीं, देखते हैं,’’ बोल कर जब विशाखा ने दरवाजा खोला और सामने पाखी को खड़े देखा तो हैरान रह गई.

कुछ बोलती उस से पहले ही पाखी अपनी मां के गले लग फूटफूट कर रोने लगी. कहने लगी कि उस की मां सही थी. रोहित अच्छा लड़का नहीं है. उस ने उस से चीट किया. उस से बहुत बड़ी गलती हो गई उसे पहचाने में. अपने मांपापा को ले कर जो गलतफहमियां उस ने अपने मन में पाल रखी थीं वे सब दूर हो चुकी थीं.

मगर सारी बातें जानने के बाद रजत का खून खौल उठा. सोच लिया कि वह रोहित को छोड़ेगा नहीं. उसे पुलिस में देगा. लेकिन विशाखा ने उसे शांत करते हुए कहा कि जो हुआ उस बात पर मिट्टी डालो. खुश हो जाओ कि हमारी बेटी हमारे पास वापस आ गई. लेकिन पाखी उस रोहित को सबक सिखाना चाहती थी.

उस के कई बार फोन करने के बाद भी जब पाखी ने उस का फोन नहीं उठाया तो रोहित खुद उस से मिलने उस के घर पहुंच गया और कहने लगा कि उसे पाखी की बहुत चिंता होने लगी कि कहीं उसे कुछ हो तो नहीं गया.

‘‘नहीं, कुछ नहीं हुआ है मुझे बल्कि मेरे साथ अनहोनी होतेहोते रह गई.’’

‘‘क्यों, क्या हुआ तुम्हें? तुम ठीक तो हो?’’ पाखी के करीब जाते हुए रोहित बोला.

‘‘अब अपना यह नाटक बंद करो समझे?’’ कह उस ने रोहित के गाल पर तड़ातड़ 3-4 थप्पड़ जड़ दिए और उस की रिकौर्डिंग की हुई सारी बात उसे सुना दी, जिसे सुन कर वह सन्न रह गया.

‘‘तुम भी सोच रहे होंगे कि यह क्या हो गया? बात बनतेबनते रह गई. अब तुम्हारी ऐशोआराम का क्या होगा? नहीं, कोई सफाई देने की जरूरत नहीं है क्योंकि तुम्हारा असली चेहरा अब मेरे सामने है. इसलिए जाओ यहां से और कभी मुझे अपनी यह मनहूस शक्ल मत दिखाना नहीं तो सीधे जेल जाओगे,’’ कह उस ने रोहित को अपने घर से धक्का दे कर बाहर निकाल दिया और दरवाजा बंद कर दिया. मांबेटी के बीच जो भी गलतफहमियां थीं वे सब दूर हो चुकी थीं.

Love Stories : प्रीत का गुलाबी रंग

Love Stories : पुणे शहर के पौश इलाके में बनी रेशम नाम की आलीशान कोठी आज दुलहन की तरह सजी थी. मौका था कोठी के इकलौते वारिस विहान की सगाई का. उस की मंगेतर लता भी सम्मानित घराने से थी. विहान की मां वैदेही जिन्हें विहान मांजी कहता था, बेहद गरिमामय, उच्च विचारों वाली और शांत स्वभाव की महिला थीं. वे लता को बेहद पसंद करती थीं और उन की पसंद ही विहान की पसंद भी बनी इस बात की उन्हें बेहद खुशी थी.

रौयल ब्लू डिजाइनर सूट में विहान और रानी पिंक लहंगे में सजी लता को देख कर ऐसा लग रहा था जैसे दोनों एकदूजे के लिए ही बने हैं. आयोजन में शामिल सभी मेहमानों ने इस खूबसूरत जोड़े की भूरीभूरी प्रशंसा की. वर्तमान समय में भी लता की नज़रें विहान को देखते हुए शरमा रही थीं और चेहरा सुर्ख हो रहा था.

‘‘भाभी,क्या बात है आप तो ऐसे शामा रही हैं जैसे विहान भैया को पहली बार देख रही हैं पर आप दोनों का प्रेम तो जन्मोंजन्मों से है,’’ वर्षा ने लता को शरारत भरे स्वर में छेड़ते हुए कहा.

‘‘क्या करूं वर्षा, पता नहीं क्या हो रहा

है आज, देख न दिल किस कदर जोरजोर से धड़क रहा है,’’ लता वर्षा की ओर देखते हुए धीमे से बोली.

वर्षा ने उसे गले से लगा लिया. वर्षा जानती थी लता पिछले कितने ही सालों से विहान को चाहती थी और आज उस के जीवन की सब से बड़ी इच्छा पूरी होने जा रही थी.

सगाई धूमधाम से संपन्न हो गई. आधी रात को जब लता बैड पर लेटी तो अपनी सगाई की अंगूठी देखतेदेखते विहान के खयालों में गुम हो गई…

आज से 10 साल पहले वैदेहीजी विहान और वर्षा के साथ लता की साथ वाली कोठी में रहने आईं थीं. लता के मम्मीपापा विवेक और अरुणा से उन के मधुर संबंध बन गए थे. वैदेहीजी अपने पति की असमय मृत्यु के पश्चात उन की फैक्टरी को बेहतर तरीके से संभाल रही थीं. इस की वजह से वे विहान और वर्षा पर थोड़ा कम ध्यान दे पाती थीं पर दोनों बच्चे छोटी आयु में ही समझदारी का परिचय दे रहे थे.

वे हालात को समझते थे और जितना भी वक्त उन्हें वैदेही के साथ मिलता उस में ही बेहद खुश रहते.

वर्षा और लता समान आयुवर्ग की थीं सो दोनों में अच्छी दोस्ती हो गई थी. विहान उन दोनों से 2 साल बड़ा था और इस बात का फायदा भी वह बखूबी उठाता था. वर्षा और लता से अधिकतर आदेशात्मक स्वर में ही बात करता था.

लता पर तो खूब अधिकार जमाता था. घर में सहायक होते हुए भी उस का खयाल लता ही करे, ऐसी इच्छा रखता था और लता भी हंसतेमुसकराते उस के सारे काम करती जाती थी. न जाने ये सब कर के उस के दिल को एक अलग ही सुकून प्राप्त होता था.

यह वह तब सम?ा जब विहान था कालेज के लास्ट ईयर में और लता फर्स्ट ईयर में. रैंगिंग करते हुए कुछ लड़के लड़कियों का ग्रुप उस के नजदीक आया तो लता घबरा सी गई. तभी किसी की आवाज उस के कानों में पड़ी कि अरे, यह तो विहान भाई की दोस्त है, चलोचलो, यहां से. कह रखा था उन्होंने कि इसे कोई परेशान न करे.

‘‘तो इस के चेहरे पर क्या इस का नाम लिखा है जो तूने इसे पहचान लिया?’’ दूसरी आवाज आई.

‘‘अपने मोबाइल में इस का फोटो दिखाया था उन्होंने, अब छोड़ो इसे और सामने देखो, विहान भाई इधर ही आ रहे हैं.’’ सभी वहां से चले गए.

‘‘किसी ने कुछ कहा तो नहीं,’’ विहान ने उस के करीब पहुंच कर उस से पूछा.

लता ने उसे देखते हुए न में सिर हिला दिया.

‘‘गुड चलो, मैं चलता हूं, तुम्हारी क्लास यहां से सीधा फिर राइट हैंड पर पहली वाली है. चलो, औल द बैस्ट,’’ विहान सीधा वहां से निकल गया और लता उसे जाते हुए देखती रही.

कालेज की छुट्टी के वक्त लता ने गाड़ी वापस भेज दी और पैदल ही अपने घर चल पड़ी.

तभी अचानक बारिश शुरू हो गई. मिट्टीकी सोंधी खुशबू उसे जैसे किसी और ही दुनिया में ले गई. अचानक सब कितना खिलाखिला लगने लगा था. हर तरफ बारिश की फैली बूंदों में उसे एक ही चेहरा नजर आने लगा था और वह था विहान का.

‘‘कमाल है,अब जब एक ही कालेज में जाना है तो एक साथ ही जाओ न,’’ वर्षा ने विहान से कहा.

‘‘स्ट्रीम अलग, क्लासेज का टाइम अलग, साथ कैसे जा सकते हैं? जानती तो है कि मैं बाइक पर जाना ज्यादा पसंद करता हूं तो उसे कैसे ले जाऊंगा, बेकार ही सब लोग गलत सोचेंगे और मैं नहीं चाहता कि कोई उस और मेरे बारे में कोई उलटासीधा अनुमान लगाएं.’’

‘‘फिर भैया उसे रैगिंग से क्यों बचाया?’’ वर्षा भी सवाल दागे जा रही थी.

‘‘इतना तो कर ही सकता हूं उस के लिए,’’ कह कर विहान वहां से चला गया.

‘जानती हूं भैया कि आप क्याक्या कर सकते हैं लता के लिए, सिर्फ लता के लिए या लता भाभी के लिए,’ यह सोच कर वर्षा मन ही मन खुशी से झूम गई.

इधर लता अब विहान के सामने पड़ती तो नजरें चुराने लगती. उस का कमरा संभाल रही होती तो विहान के अंदर आते ही वह कमरे के बाहर जाने को मचलने लगती.

ऐसे ही एक दिन जब लता उस की अलमारी में कपड़े रख रही थी तो पीछे से विहान ने उस के बालों को पकड़ कर खींच दिया.

‘‘उई… मम्मी,’’ लता चिल्ला दी.

‘‘क्या मम्मी, आंटी कहां से आ गईं यहां…’’ विहान चिढ़ता हुआ सा बोला.

‘‘पहले बाल तो छोड़ो, दर्द हो रहा है,’’ लता अपने बाल उस की गिरफ्त से आजाद करने की कोशिश करते हुए बोली.

‘‘पहले यह बताओ कि आजकल मुझ से दूर क्यों भागती रहती हो? क्या लुकाछिपी खेल रही हो?’’ विहान ने उस के बालों को छोड़ते हुए कहा.

‘‘ऐसी तो कोई बात नहीं, कालेज के बाद तो अकसर मांजी और वर्षा के पास आ जाती हूं,’’ लता ने अलमारी बंद कर दी थी.

‘‘मांजी तो देर शाम ही मिलती होंगी पर वर्षा के साथ पहले तो बड़ा मुझसे लड़ाझगड़ा करती थी, बड़ी डिमांड होती थी तुम्हारी पिजाबर्गर पार्टी की और अब तो जैसे उपवास पर हो, बात क्या है आखिर?’’ कह कर विहान उस के चेहरे के आगे आ कर उस की आंखों में झांकने लगा.

लता का जिस्म जैसे हरारत से भर गया हो. विहान का इतने करीब आना उस के होशोहवास गुम कर रहा था. माथे पर पसीने की बूंदें उभरने लगी थीं. लता के मुंह से बोल नहीं निकल पा रहे थे. वह उलटे पांव वहां से भागी और नीचे जाने को सीढि़यां उतरने लगी.

‘‘मत बोलो कुछ, जा रहा हूं अब देश छोड़ कर, विदेश से अब तुम्हें और परेशान करने नहीं आऊंगा. लंदन जा रहा हूं अगले हफ्ते,’’ विहान तेज स्वर में बोला.

सीढि़यां उतरती लता के पांव जैसे वहीं जम गए हों. वह वापस भागती हुई विहान के पास आई और उस के हाथ से मोबाइल ले कर पलंग पर फेंकती हुई बोली, ‘‘क्या कहा तुम ने, तुम लंदन जा रहे हो, कब, क्यों?’’ लता बदहवास सी हो उठी.

‘‘ओ इंस्पैक्टर साहिबा, आराम से. पहले हम विश्वाम फरमाएंगे फिर पूरी बात बताएंगे,’’ विहान मस्ती के मूड में था.

‘‘उफ विहान, जल्दी बोलो न, क्यों सता रहे हो?’’  लता बहुत उतावली हो रही थी.

‘‘अरे बाबा,  बिजनैस मैनेजमैंट और क्या, मांजी चाहती हैं  और तुम भी तो समझती हो न कि इतने सालों से मांजी अकेले सारा कारोबार संभाले हुए हैं और अब उन की जिम्मेदारी उठाने के लिए मुझे और अधिक मजबूत बनना होगा, इतना सक्षम बनाना होगा खुद को कि मेरे कांधे समस्त जिम्मेदारियों को बोझ नहीं बल्कि पापा और मांजी के सपनों को पूरा करने वाले और उन्हें हर कदम पर गौरवान्वित महसूस कराने वाले आशीर्वाद समझें,’’ विहान की आंखों में भविष्य को ले कर एक अलग ही चमक उभरी थी.

लता की रुलाई फूट पड़ी.

‘‘अरे, इस में रोने की क्या बात है, हमेशा के लिए जा रहा हूं क्या?’’ विहान प्यार भरे स्वर में उस से बोला.

‘‘यह मोबाइल भी बहुत बढि़या चीज है लता, मुट्ठी में समाने वाले इस उपकरण ने पूरी दुनिया को मुट्ठी में कर रखा है, जाहिर है जब चाहें बात कर सकते हैं, एकदूसरे को देख सकते हैं, तो रोना बंद और मेरी पैकिंग शुरू कर देना मैडम वरना अगर अपनी पैकिंग मैं ने खुद की तो सूटकेस में सब्जीतरकारी ही जाएंगी,’’ विहान हंसता हुआ बोला.

उस की बात सुन कर लता भी रोते से हंस दी. जानती थी कि विहान कभीकभी किचन में अपने हाथ का जादू दिखाता था जिस के लिए लता और वर्षा न जाने उस की कितनी ही मिन्नतें करते थे और फिर विहान की बनाई डिशेज की दोनों जीभर कर तारीफ करती थीं. उन पलों को याद करते ही लता की आंखें एक बार फिर भर आईं.

‘‘लता, जानता हूं कि मांजी बेहद मजबूत हैं पर फिर भी सब से पहले एक मां हैं, मुझे जाता देख भीतर से जरूर कमजोर पड़ेंगी पर दर्शाएंगी नहीं, वादा करो कि उन का पूरा ध्यान रखोगी,’’ विहान ने गंभीर होते हुए लता से कहा.

‘‘बेफिक्र हो कर जाओ विहान, विश्वास रखो, मांजी का पूरा ध्यान रखूंगी,’’ लता ने अपने आंसू पोंछ लिए.

विहान ने मुसकराते हुए उस के सिर पर धीरे से हाथ फेर दिया.

वैदेहीजी और वर्षा के साथ लता भी एअरपोर्ट गई थी विहान को रवाना करने. विहान और लता की तब ज्यादा बातें तो न हो सकी थीं पर जिस क्षण भी दोनों की नजरें मिलतीं लता की आंखें भर जाती थीं.

वर्षा लता की हालत अच्छी तरह समझ रही थी. उस की सब से प्यारी सहेली ही उस की भाभी बने इस बात की उसे काफी खुशी हो रही थी. वह चाहती थी कि विहान और लता कुछ मिनटों के लिए ही सही पर अकेले में कुछ बातें कर सकें पर न जाते वक्त कार में और न ही एअरपोर्ट पर ऐसा कोई मौका मिल पाया.

एक दिन वर्षा ने लता से पूछा कि क्या वह अगले दिन फ्री है उस के साथ शौपिंग जाने के लिए?

‘‘शौपिंग किसलिए, अभी कौन सा फंक्शन आ रहा है?’’

‘‘औरों के लिए न सही तेरे लिए तो बहुत बड़ा मौका है सजने का, तैयार होने का, खुबसूरत लगने का,’’ वर्षा चंचल हो उठी थी.

‘‘क्या पहेलियां बुझाए जा रही है?’’ लता खिड़की से बाहर देखते हुए बोली.

‘‘कल विहान भैया आ रहे हैं, पूरे 2 हफ्तों के लिए.’’

‘‘क्या, विहान कल आ रहे हैं, मुझे क्यों नहीं बताया उन्होंने? अभी कल रात ही हमारी बात…’’ कहते हुए लता अचानक चुप हो गई.

‘‘चल  हट, जा रही हूं मैं अब,’’ लता का चेहरा गुलाबी हो उठा था.

‘‘हां भई, अब मेरे साथ क्यों दिल लगेगा, वह तो बल्लियों उछल कर लंदन जा पहुंचा था, अब कल वापस आ जाएगा कुछ दिनों के लिए, 4 दिन की चांदनी होने वाली है हमारी बन्नो की रातें.’’

लता उस की बात सुनते न सुनते अपनी रौ में भागती चली गई.

उसे ऐसे भागते देख वर्षा जोर से हंस पड़ी.

विहान सवेरे 5 बजे घर पहुंचा. वैदेहीजी और वर्षा को एअरपोर्ट आने के लिए पहले ही मना कर दिया था. घर पहुंचा तो दोनों ही खुशी से फूली नहीं समा रही थीं.

‘‘अरे, मांजी यह क्या हर दूसरे दिन तो वीडियो चैट करते हैं हम, फिर ये आंखें क्यों छलछला आईं हैं,’’ विहान ने वैदेहीजी के गले लगते हुए कहा.

‘‘क्या भैया, स्क्रीन पर क्या छू सकते हैं, मिल सकते हैं, ऐसे गले लग सकते हैं क्या?’’ वर्षा चहकती हुई बोली.

‘‘वे मांजी हैं और तू दादी मां है,’’ विहान ने उस के सिर पर हलकी सी चपत लगाते हुए कहा.

फिर तीनों ही एकसाथ अंदर चले आए.

लंच टाइम हो चला था जब वैदेहीजी ने विहान को उठाया.

कुनमुनाता सा उठा वह तो सामने वैदेहीजी को देख कर हैरान हो उठा, ‘‘मांजी, आप फैक्टरी नहीं गईं?’’

‘‘फैक्टरी कहां भागी जा रही है, सालभर बाद तुझे देख रही हूं, चाहती तो उड़ कर तेरे पास आ जाती पर बस तुझे देख कर न तुझे कमजोर चाहती थी और न खुद कमजोर पड़ना चाहती थी. अब कुछ वक्त तो बिताऊं तेरे साथ,’’ वैदेहीजी ने उस के बालों में हाथ फेरते हुए कहा.

‘‘सच मांजी,  मां का प्यार ही सब से

बड़ा स्वर्ग है,’’ विहान उन की गोद में सिर रखते हुए बोला.

लंच टाइम भी बीत गया और शाम की चाय भी समाप्त हो गई.

वैदेहीजी कोई फाइल देखने के लिए अपने कमरे में पहुंचीं तो विहान ने वर्षा से पूछा, ‘‘अभी तक लता नहीं आई, शहर में नहीं है क्या?’’

‘‘हां भैया, वे सब लोग यह शहर छोड़ कर जा चुके हैं.’’

‘‘क्या बकबक कर रही है, अभी 2 दिन तक ऐसी कोई बात नहीं थी, रातोंरात शहर छोड़ दिया?’’ विहान उसे अजीब सी नजरों से घूरता हुआ बोला.

‘‘अरे तो जब पूरी खबर है उस के बारे में तो क्यों पूछ रहे हैं आप फिर, आप को क्या मतलब अब लता से, उसे बताया तक तो नहीं आप ने कि आप आने वाले हैं,’’ वर्षा बनावटी गुस्से से बोली.

‘‘अरे, सरप्राइज शब्द सुना है, है तेरी डिक्शनरी में?’’

‘‘हां है, और शौक शब्द भी है, सरप्राइज की जगह शौक दे देंगे आप तो उसे.’’

‘‘पहले तो तेरी खबर लेता हूं,’’ कह कर विहान ने पास पड़ा कुशन उठा कर वर्षा की ओर फेंका तो उसी पल वह कुशन लता के चेहरे से जा टकराया.

‘‘लो भैया, सच में शौक ही लग गया लता को तो,’’ वर्षा जोर से हंसती हुई वहां से चली गई.

‘‘सौरी लता, लगी तो नहीं?’’ विहान ने उस के नजदीक आते हुए पूछा.

कुशन हटा कर लता ने जब विहान को देखा तो कुछ पल को पलकें ?ापकाना भूल गई.

साक्षात अपने सामने उसे देख कर जैसे उस की जबान तालू से चिपक गई हो.

विहान ने उस की आंखों के आगे चुटकी बजाई तो जैसे लता होश में आई. पूछा, ‘‘कैसे हो विहान?’’

‘‘देख लो खुद ही, जैसा गया था बिलकल वैसा ही हूं. अच्छा लता, 2 हफ्तों के लिए आया हूं, कभी अपनों से दूर रहा नहीं तो रुका न गया पर अब शायद एक बार कोर्स पूरा कर के ही वापस आऊंगा, तो इन 2 हफ्तों को यादगार बना देना चाहता हूं ताकि ढेर सारी यादों के साथ वहां अपना वक्त गुजार सकूं. कल अब हम तीनों मौल चल रहे हैं और तुम बिना ननुकुर के आ रही हो, समझ, फिर एक दिन पिकनिक भी प्लान करते हैं, ठीक है?’’

‘‘जैसा तुम कहो,’’ लता तो उस की हर खुशी में खुश हो जाती थी.

‘‘मौल, अरे लंदन में पढ़ने वाला अब यहां क्या घूमेगा?’’ डिनर टाइम पर विवेक बोले.

‘‘अपना देश अपना ही होता है, मौल घूमने का तो सिर्फ बहाना है, असली बात तो साथ वक्त गुजारने की है,’’ अरुणा विवेक को सही बात सम?ाते हुए बोली और आंखों ही आंखों में उन्होंने विवेक को लता की ओर देखने को कहा जिस का खाने की ओर बिलकुल ध्यान नहीं था.

‘‘लता, खाना खाओ बेटे, कहां खोई हुई हो?’’

‘‘कहीं भी तो नहीं पापा,’’ कह कर लता रोटी का कौर तोड़ने लगी.

विवेक और अरुणा भी आपस में एकदूजे को देख कर मुसकरा दिए.

2 हफ्ते जैसे पलक झपकते गुजर गए. लता एक बार फिर विहान का बैग पैक करने में लगी हुई थी. यह सोच सोच कर कि अब की बार विहान जल्दी नहीं आएगा उस की आंखें बारबार छलक रही थीं.

परिस्थिति कुछ ऐसी बनी कि वैदेहीजी को एक महत्त्वपूर्ण मीटिंग के लिए जाना पड़ गया तो उन्होंने वर्षा और लता को कहा कि विहान को वे दोनों ही एअरपोर्ट सी औफ कर आएं.

‘‘मम्मी, मेरा तो आज प्रैक्टिकल है, मैं तो आज चाह कर भी छुट्टी नहीं कर सकती.’’

‘‘तो क्या सिर्फ लता जाएगी?’’

‘‘मांजी, आप क्यों चिंता कर रही हैं, ऐसा क्या हो गया कि मैं अकेला नहीं जा सकता.’’

‘‘घर का कोई साथ जाए तो कुछ प्रौब्लम है तुम्हें, लता तुम ही चली जाना.’’

वैदेहीजी का विहान के प्रति ऐसा क्रोध मिश्रित प्रेम देखसुन कर वर्षा की हंसी छूट गई और उस ने लता की ओर देखते हुए चुपके से एक आंख दबा दी.

एअरपोर्ट पर जब विहान और लता कार से उतरे तो विहान ने लता की ओर देख कर गुनगुनाते हुए कहा, ‘‘तो चलूं, तो चलूं, तो चलूं,’’ और फिर खुद ही हंस पड़ा.

‘‘विहान,’’ लता ने उसे एकटक देखते हुए उस का नाम लिया.

‘‘जल्दी बोलो मैडम, फ्लाइट न छूट जाए कहीं.’’

‘‘ विहान, मैं तुम्हें, मैं तुम से…’’ लता खुल कर कुछ नहीं कह पा रही थी.

‘‘क्या कहना चाह रही हो लता, क्या बात है?’’ विहान कुछ भी सम?ा नहीं पा रहा था.

कुछ पलों की खामोशी के बाद आखिरकार लता के होंठों से 3 शब्द निकले, ‘‘आई लव यू विहान.’’

विहान हैरानी से उसे देखता रह गया.

‘‘लता,’’ विहान के मुख से निकला.

‘‘विहान, मैं तुम से बहुत प्यार करती हूं, तुम्हारे बिना नहीं रह सकती,’’ लता ने अपने दिल की बात विहान के सामने खुल कर कह दी.

पहले तो विहान हैरान हुआ और अब उस ने एक नजर भर लता को देखा फिर बिना कुछ कहे ऐंट्री गेट की ओर बढ़ गया.

लता की आंखों से आंसू बहते रहे और कुछ पलों बाद वह भी लौट चली.

अब लता और विहान की बातें न के बराबर हो गईं थीं. लता लाख चाह कर भी विहान से दोबारा उस बारे में बात न कर सकी. वर्षा भी कुछ पूछती तो मुसकरा कर टाल जाती.

वक्त गुजरता गया और विहान भी लौट आया.

वैदेहीजी अब जीवन के इस मोड़ पर आराम चाहती थीं और विहान ने भी अब उन्हें फैक्टरी की हर जिम्मेदारी से मुक्त कर दिया था. सारा कारोबार अब वही संभालता था.

लता से औपचारिक बातें होती थीं पर विहान और लता ने किसी के भी समक्ष कुछ भी जाहिर नहीं होने दिया.

इसी बीच वर्षा का भी विवाह हो गया.

‘‘अब तो वर्षा भी अपने घर की हो गई, अब वैदेहीजी से लता और विहान की बात करें क्या?’’ विवेक अरुणा से बोले.

‘‘ठीक है, मैं कल ही उन से बात छेड़ती हूं.’’

लता ने उन की बातें सुन ली थीं. वह कुछ कहना चाहती थी पर उस का दिलोदिमाग उस का साथ नहीं दे रहा था पर अगले दिन उस के लिए जैसे कुछ चमत्कार हुआ.

अरुणा ने उसे बताया कि वैदेहीजी तो शुरू से ही उसे विहान के लिए पसंद करती थीं और कुछ दिन पहले उन्होंने विहान ने उस की शादी की बात भी की और लता का जिक्र भी किया.

विहान ने खुशी से उन का मान रखा और इस रिश्ते को स्वीकार कर लिया.

लता को तो अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था. उस का दिल चाह रहा था कि अभी उड़ कर विहान के पास पहुंच जाए और पूछे कि अगर वह भी उसे चाहता था तो उसे इतना क्यों सताया उसने पर अगले ही पल उस ने यह खयाल हवा में उड़ा दिया और आने वाले वक्त का बेसब्री से इंतजार करने लगी.

और आखिरकार लता की जिंदगी में वह खास दिन आ ही पहुंचा जिस का उसे हर पल से इंतजार था.

तभी सुबह की पहली किरण उस के कमरे में आई तो लता भी जैसे अपनी यादों के सफर से वापस वर्तमान की मंजिल पर लौट आई.

शादी की तैयारियां जोरोंशोरों से होने लगीं. वर्षा लगभग 10 दिन पहले आ गई थी. दोनों सहेलियां ऐसे मिलीं तो लगा जैसे पुराना वक्त जी रही हों. वर्षा लता के साथ शौपिंग करती तो विहान उसे छेड़ते हुए कहता कि ओ दल बदलू, भूल गई, तू लड़के वालों की तरफ से है.’’

‘‘मैं तो दोनों तरफ से हूं, आप भूलिए मत

कि आप की बीवी बनने से पहले लता भाभी

मेरी सहेली है और भाभी बनने के बाद भी वह पहले मेरी सहेली ही रहेगी,’’ वर्षा प्यार भरे स्वर

में बोला.

‘‘समझ गया वकील साहब.’’

‘‘अब हमारे पति वकील हैं तो कुछ असर तो हम पर भी पड़ेगा न,’’ वर्षा इतराते हुए बोली.

विवाह का दिन भी आ पहुंचा. यों तो लता बेहद खूबसूरत थी पर दुलहन के लिबास में जितनी सुंदर वह उस दिन लग रही थी उतनी उस से पहले कभी नहीं लगी. जो उसे देखता, देखता ही रह जाता.

वैदेहीजी भी उस दिन बहुत खुश थीं. वर्षा तो जीभर नाची भाई की शादी में.

जयमाला पूरी हुई तो विहान और लता के जोड़े पर से नजरें नहीं हटती थीं.

फेरे हो रहे थे तो ऐसा लगा जैसे आज आसमां भी उन पर अपना प्यार निछावर करने को पुष्पवर्षा कर रहा हो. मंत्रो की ध्वनि पूरे वातावरण को अपने मोहपाश में बांध लेने को आतुर थी.

लता का गृहप्रवेश हो गया था. विहान के घर में भी और उस की जिंदगी में भी.

सुहागरात का कमरा गुलाब के फूलों की खुशबू से सराबोर हो रहा था. बैड पर बैठी लता गठरी सी बनी खुद में ही सिमटी जा रही थी.

मौडर्न युग में भी नववधू होने का एहसास कितना प्यारा और शारमोहया से भरपूर होता है इस का अंदाजा लता को देख कर सहज ही लगाया जा सकता था.

विहान अंदर आया तो एकबारगी फिर से लता की खूबसूरती में खो सा गया. गुलाब की फूलों की लडि़यों के बीच बैठी लता खुद एक गुलाब प्रतीत हो रही थी.

लगभग 1 दशक साथ बिताने के बाद भी आज वे दोनों एकदूजे के साथ ऐसे पेश आ रहे थे जैसे 2 अजनबी एक कमरे में बंद हो गए हों.

विहान ने ही लता के पास बैठ कर कमरे की चुप्पी को तोड़ा, ‘‘लता, कभी सोचा न था तुम्हें अपने सामने इस रूप में भी देखूंगा, कब मेरी सब से प्यारी फ्रैंड मेरी लाइफ पार्टनर बन गई, पता ही नहीं चला,’’

लता धीमे से मुसकरा दी.

तभी विहान ने एक गिफ्ट बौक्स में से खूबसूरत कंगन निकाल कर लता की कलाई अपने हाथ में थाम कर कहा, ‘‘सोचा, तुम्हें अपनी पसंद का कुछ तो दूं,’’ पर जैसे ही उस ने कलाई देखी तो आश्चर्य से भर उठा.

लता ने कलाई पर उस के नाम का खूबसूरत टैटू बनवा रखा था.

‘‘यह कब करवाया तुम ने?’’ विहान ने हैरानी से पूछा.

‘‘उसी दिन जिस दिन तुम्हें अकेली एअरपोर्ट छोड़ने गई थी. तुम तो प्यार के इजहार में खामोश हो कर चले गए थे, सोचा अगर तुम मना भी करोगे तो तुम्हारे नाम की निशानी तो हमेशा मेरे साथ रहेगी,’’ लता का स्वर भीग रहा था.

अपने प्रति लता का इतना प्रेम देख कर विहान का दिल भर आया था पर तभी उस ने

लता को छेड़ने वाले अंदाज में कहा कि अच्छा तो कोई और तुम्हें ले जाता तब क्या करतीं तुम इस टैटू का, क्या बताती उसे कि कौन है ये?’’

‘‘ऐसा कभी नहीं होता, तुम्हारे अलावा तो मैं किसी और की होने की कल्पना भी नहीं कर सकती थी, मर जाती पर…’’

तभी विहान ने उस के होंठों पर उंगली रख कर उसे शांत करा दिया.

‘‘आज नई जिंदगी की शुरुआत है, आज ऐसी कोई बुरी बात नहीं, न आज न कल और न ही कभी भी,’’ कह कर विहान ने उसे अपने सीने से लगा लिया.

तब खिड़की से दिखता चांद भी बादलों की ओट में छिप गया.

देखते ही देखते 4 साल बीत गए. वर्षा भी मां बन चुकी थी. प्यारा सा बेटा हुआ था उसे.

जब भी मायके आती थी तो लता तो कबीर को छोड़ती ही नहीं थी. इतना मन लगता था उस का कबीर के साथ.

‘‘भाभी, यहां आती हूं न तो तुम से यह इतना घुल मिल जाता है कि वापस जाने पर मु?ो मम्मी नहीं मामी कहना शुरू कर देता है.’’

उस की बात सुन कर हौल में बैठी वैदेहीजी, विहान और लता सभी जोर से हंस पड़े.

‘‘तू बूआ बन जा बस फिर मम्मी मामी को भूल कर अपने भाईबहन में रम जाएगा,’’ वैदेहीजी लाड जताते हुए बोलीं.

यह सुन कर लता हंसतेहंसते चुप सी हो गई. 4 साल बाद भी मां न बन पाने का गम उसे घुन की तरह भीतर से खोखला कर रहा था.

औलाद न होने के अवसाद की छाया लता के चेहरे पर पड़ी तो विहान ने बातों का रुख मोड़ दिया.

बहुत इलाज करवाया. एक बच्चे की खातिर. विहान ने अपनी और लता की हर किस्म की जांच करवाई. आईवीएफ प्रोसीजर से भी लता गुजर चुकी थी पर अभी तक उसे असफलता ही हाथ लगी थी.

दवा फिलहाल नाकामयाब साबित हो रही थी पर कभी भी वैदेहीजी या विहान ने लता को भूले से भी कुछ इस विषय में कड़वा नहीं सुनाया.

वे इस संवेदनशील मुद्दे को समझते थे और सब से बड़ी बात ये थी कि वे जानते थे कि इस में लता का कोई दोष नहीं. कोई नारी मन ऐसा नहीं होता जो मातृत्व का सुख न भोगना चाहे. उन लोगों को तो अपनेआप से ज्यादा लता के लिए मलाल होता था.

लता मन ही मन सब समझती थी. विहान का बच्चों के प्रति प्रेम उस से छिपा हुआ नहीं था पर वक्त के आगे वह बेबस पड़ चुकी थी और विहान ने उस से बच्चा गोद लेने की भी बात की थी लेकिन लता दिल से उस का यह आग्रह स्वीकर न कर सकी.

विहान ने कारोबार को नई ऊंचाइयां दी थीं. उस ने एक और फैक्टरी खोल ली थी.

नई फैक्टरी के मुहूर्त के बाद वैदेहीजी विवेकजी और अरुणा जी के साथ चार धाम की यात्रा पर चली गईं.

लता को मांजी के बिना कोठी बहुत खाली लग रही थी. उस ने सोचा कल अचानक फैक्टरी पहुंच कर विहान को चौंका देगी और लंच उसके साथ कहीं बाहर जा कर करेगी.

अगले दिन लता फैक्टरी पहुंची तो उसे पता लगा कि विहान दूसरी फैक्टरी का दौरा करने करने गया है.

‘‘अच्छा, सुबह तो उन्होंने ऐसी कोई बात नहीं की थी.’’

‘‘सर तो अकसर ऐसे दूसरी फैक्टरी जाते ही रहते हैं,’’ मैनेजर कमल ने लता को बताया.

‘‘इट्स ओके, उन का मोबाइल भी नहीं मिल रहा है इसलिए जैसे ही यहां लौटे मु?ा से बात करने को कहिएगा,’’ कह कर लता बाहर आई तो देखा कि ड्राइवर कार का बोनट खोल कर कुछ ठीक करने की कोशिश कर रहा है.

कार ठीक नहीं हुई तो लता ने पास के टैक्सी स्टैंड से टैक्सी कर ली. कुछ आगे चलने पर दिखाई दिया कि किसी जुलूस की वजह से ट्रैफिक बुरी तरह जाम है. टैक्सी ड्राइवर ने टैक्सी दूसरे रास्ते पर घुमा ली.

टैक्सी अपने गंतव्य पर जा ही रही थी कि लता को ऐसा लगा कि उस के साथ वाली कार में विहान है और वह अकेला नहीं. उस ने मुड़ कर देखा, कार आगे जा चुकी थी.

नहीं यह नजरों का धोखा नहीं है. वह विहान ही था.

‘‘ड्राइवर, टैक्सी मोड़ो जल्दी,उस सफेद कार के पीछे चलो,’’ लता कुछ बेचैन सी हो उठी.

‘‘अरे, पीछा क्यों करना है, कुछ गड़बड़ वाला काम है क्या?’’ ड्राइवर शंकित सा हो

कर बोला.

‘‘अरे, नहीं भैया, बस मेरी सहेली है उस कार में, उस से ही मिलना है.’’

टैक्सी ड्राइवर सावधानी से कार के पीछे जाने लगा. सफेद कार एक साधारण से घर के आगे रुक गई.

लता ने टैक्सी पेड़ों की ओट में रुकवा ली, ‘‘बस भैया, कुछ मिनट, उस से अचानक मिलूंगी,’’ लता ने ड्राइवर को अपनी ओर देखते हुए सफाई दी.

कार में से जो उतरा वह विहान ही था और यह उस के साथ कौन है.

विहान के साथ एक लड़की थी. गोरा रंग, सुनहरे घुंघराले बाल, मध्यम कद, जितना बालों में छिपा चेहरा लता देख सकी उस से यही दिखाई दिया कि लड़की अच्छी शक्लसूरत की है पर उदासी और कमजोरी उस के चेहरे से झलक रही थी.

विहान ने उसे उस के कंधे पर हाथ लगा कर कार से उतारा और घर की डोरबैल बजाई.

दरवाजा एक बुजुर्ग महिला ने खोला, दिखने में वे काफी कमजोर थीं

और शायद उन की एक टांग भी समस्याग्रस्त थी. वे छड़ी के सहारे थीं और तभी जो हुआ उस पर विश्वास करना लता के लिए नामुमकिन था.

बुजुर्ग महिला के पीछे से एक लगभग 4 वर्ष का गोराचिट्टा सा बच्चा भागता हुआ आया और उस ने विहान को डैड कह कर पुकारा और उस लड़की को देख कर मौम कहा.

विहान ने भी उसे गोदी में उठा लिया और उस पर चुंबनों की बारिश कर दी. फिर सभी अंदर चले गए.

लता जैसे किसी गहरी खाई में गिरी हो.

चह तो काटो तो खून नहीं वाली स्थिति में पहुंच गई थी.

‘‘मेमसाहब, अभी और कितनी देर

यहां खड़ा रहना होगा… उस का ऐक्स्ट्रा पैसा लगेगा.’’

ड्राइवर की बात से उसे होश आया, ‘‘ह… क्या… हां वापस चलो,’’ लता जैसे खुद से ही कह रही हो.

घर पहुंचते ही वो आदमकद आइने के सामने जा खड़ी हुई और खुद को देखने लगी. आंखों के सामने एक ही दृश्य बारबार घूमने लगा, ‘‘डैड… डैड… डैड…’’ बच्चे का भागता हुआ आना और विहान का उसे अपनी बांहों में भर लेना.

जब लता की बरदाश्त से बाहर हो गया तो उस ने सामने रखी परफ्यूम की बौतल से आईना चकनाचूर कर दिया.

Kahaniyan : वह चालाक लड़की – क्या अंजुल को मिल पाया उसका लाइफ पार्टनर

Kahaniyan : रोज की तुलना में अंजुल आज जल्दी उठ गई. आज उस का औफिस में पहला दिन है. मास मीडिया स्नातकोत्तर करने के बाद आज अपनी पहली नौकरी पर जाते हुए उस ने थोड़ा अधिक परिश्रम किया. अनुपम देहयष्टि में वह किसी से उन्नीस नहीं.

सभी उस की खूबसूरती के दीवाने थे. अपनी प्रखर बुद्धि पर भी पूर्ण विश्वास है. अपने काम में तीव्र तथा चतुर. स्वभाव भी मनमोहक, सब से जल्दी घुलमिल जाना, अपनी बात को कुशलतापूर्वक कहना और श्रोताओं से अपनी बात मनवा लेना उस की खूबियों में शामिल है. फिर भी उस ने यह सुन रखा है कि फर्स्ट इंप्रैशन इज द लास्ट इंप्रैशन. तो फिर रिस्क क्यों लिया जाए भले?

मचल ऐडवर्टाइजिंग ऐजेंसी का माहौल उसे मनमुताबिक लगा. आबोहवा में तनाव था भी और नहीं भी. टीम्स आपस में काम को ले कर खींचातानी में लगी थीं किंतु साथ ही हंसीठिठोली भी चल रही थी. वातावरण में संगीत की धुन तैर रही थी और औफिस की दीवारों पर लोगों ने बेखौफ ग्राफिटी की हुई थी.

अंजुल एकबारगी प्रसन्नचित्त हो उठी. उन्मुक्त वातावरण उस के बिंदास व्यक्तित्व को भा गया. उस की भी यही इच्छा थी कि जो चाहे कर सकने की स्वतंत्रता मिले. आज तक  अपने जीवन को अपने हिसाब से जीती आई थी और आगे भी ऐसा ही करने की चाह मन में लिए जीवन के अगले सोपान की ओर बढ़ने लगी.

बौस रणदीप के कैबिन में कदम रखते हुए अंजुल बोली, ‘‘हैलो रणदीप, आई एम अंजुल, योर न्यू इंप्लोई.’’ उस की फिगर हगिंग यलो ड्रैस ने रणदीप को क्लीन बोल्ड कर दिया. फिर ‘‘वैलकम,’’ कहते हुए रणदीप का मुंह खुला का खुला रह गया.

अंजुल को ऐसी प्रतिक्रियाओं की आदत थी. अच्छा लगता था उसे सामने वाले की ऐसी मनोस्थिति देख कर. एक जीत का एहसास होता था और फिर रणदीप तो इस कंपनी का बौस है. यदि यह प्रभावित हो जाए तो ‘पांचों उंगलियां घी में और सिर कड़ाही में’ वाली कहावत को चिरतार्थ होते देर नहीं लगेगी. वैसे रणदीप करीब 40 पार का पुरुष था, जिस की हलकी सी तोंद, अधपके बाल और आंखों के नीचे काले घेरे उसे आकर्षक की परिभाषा से कुछ दूर ही रख रहे थे.

अंजुल अपना इतना होमवर्क कर के आई थी कि उस का बौस शादीशुदा है. 1 बच्चे का बाप है, पर जिंदगी में तरक्की करनी है तो कुछ बातों को नजरअंदाज करना ही होता है, ऐसी अंजुल की सोच थी.

अपने चेहरे पर एक हलकी स्मित रेखा लिए अंजुल रणदीप के समक्ष बैठ गई. उस का मुखड़ा जितना भोला था उस के नयन उतने ही चपल दिल मोहने की तरकीबें खूब आती थीं.

रणदीप लोलुप दृष्टि से उसे ताकते हुए कहने लगा, ‘‘तुम्हारे आने से इस ऐजेंसी में और भी बेहतर काम होगा, इस बात का मुझे विश्वास है. मुझे लगता है तुम्हारे लिए मीडिया प्लानिंग डिपार्टमैंट सही रहेगा. अपने ए वन ग्रेड्स और पर्सनैलिटी से तुम जल्दी तरक्की कर जाओगी.’’

‘‘मैं भी यही चाहती हूं. अपनी सफलता के लिए आप जैसा कहेंगे, मैं वैसा करती जाऊंगी,’’ द्विअर्थी संवाद करने में अंजुल माहिर थी. उस की आंखों के इशारे को समझाते हुए रणदीप ने उसे एक सरल लड़के के साथ नियुक्त करने का मन बनाया. फिर अपने कैबिन में अर्पित को बुला कर बोला, ‘‘सीमेंट कंपनी के नए प्रोजैक्ट में अंजुल तुम्हें असिस्ट करेंगी. आज से ये तुम्हारी टीम में होंगी.’’

‘‘इस ऐजेंसी में तुम्हें कितना समय हो गया?’’ अंजुल ने पहला प्रश्न दागा.

अर्पित एक सीधा सा लड़का था. बोला, ‘‘1 साल. अच्छी जगह है काम सीखने के लिए. काफी अच्छे प्रोजैक्ट्स आते रहते हैं. तुम इस से पहले कहां काम करती थीं?’’

अर्पित की बात का उत्तर न देते हुए अंजुल ने सीधा काम की ओर रुख किया, ‘‘मुझे क्या करना होगा? वैसे मैं क्लाइंट सर्विसिंग में माहिर हूं. मैं चाहती हूं कि मुझे इस सीमेंट कंपनी और अपनी क्रिएटिव टीम के बीच कोऔर्डिनेशन का काम संभालने दिया जाए.’’

अगले दिन अंजुल ने फिर सब से पहले रणदीप के कैबिन से शुरुआत की, ‘‘हाय रणदीप, गुड मौर्निंग,’’ कर उस ने पहले दिन सीखे सारे काम का ब्योरा देते हुए रणदीप से कुछ टिप्स लेने का अभिनय किया और बदले में रणदीप को अपने जलवों का भरपूर रसास्वादन करने दिया. रणदीप की मधुसिक्त नजरें अंजुल के सुडौल बदन पर इधरउधर फिसलती रहीं और वह बेफिक्री से मुसकराती हुई रणदीप की आसक्ति को हवा देती रही.

जल्द ही अंजुल ने रणदीप के निकट अपनी जगह स्थापित कर ली. अब यह रोज का क्रम था कि वह अपने दिन की शुरुआत रणदीप के कैबिन से करती. रणदीप भी उस के यौवन की खुमारी में डुबकी लगाता रहता.

उस सुबह कौफी देने के बहाने रणदीप ने अंजुल के हाथ को हौले से छुआ. अंजुल ने इस की प्रतिक्रिया में अपने नयनों को झाका कर ही रखा. वह नहीं चाहती थी कि रणदीप की हिम्मत कुछ ढीली पड़े. फिर काम दिखाने के बहाने वह उठी और रणदीप के निकट जा कर ऐसे खड़ी हो गई कि उस के बाल रणदीप के कंधे पर झालने लगे. इशारों की भाषा दोनों तरफ से बोली जा रही थी.

तभी अर्पित बौस के कैबिन में प्रविष्ट हुआ तो दोनों संभल गए. उफनते दूध में पानी के छींटे लग गए. किंतु अर्पित के शांत प्रतीत होने वाले नयनों ने अपनी चतुराई दर्शाते हुए वातावरण को भांप लिया.

इस प्रकरण के बाद अर्पित का अंजुल के प्रति रवैया बदल गया. अब तक अंजुल को नई

सीखने वाली मान कर अर्पित उस की हर मुमकिन मदद कर रहा था, परंतु आज के दृश्य के बाद वह समझा गया कि इस मासूम दिखने वाली सूरत के पीछे एक मौकापरस्त लड़की छिपी है. कौरपोरेट वर्ल्ड एक माट्स्करेड पार्टी की तरह हो सकता है जहां हरकोई अपने चेहरे पर एक मास्क लगाए अपनी असली सचाई को ढकते हुए दूसरों के सामने अपनी एक छवि बनाने को आतुर है.

आज लंच में अर्पित ने अंजुल को टालते हुए कहा, ‘‘आज मुझे कुछ काम है. तुम लंच कर लो,’’ वह अब अंजुल से बहुत निकटता नहीं चाह रहा था. उस की देखादेखी टीम के अन्य लोगों ने भी अंजुल को टालना आरंभ कर दिया. इस से अंजुल को काम समझाने और करने में दिक्कत आने लगी.

‘‘जो नई पिच आई है, उस में मैं तुम्हारे साथ चलूं? मुझे पिच प्रेजैंटेशन करना आ जाएगा,’’ अंजुल ने अपनी पूरी कमनीयता का पुट लगा कर अर्पित से कहा. अपने कार्य में दक्ष होते हुए भी उस ने अर्पित की ईगो मसाज की.

‘‘उस का सारा काम हो चुका है. तुम्हें अगली पिच पर ले चलूंगा. आज तुम औफिस में दूसरी प्रेजैंटेशन पर काम कर लो,’’ अर्पित ने हर प्रयास करना शुरू कर दिया कि अंजुल केवल औफिस में ही व्यस्त रहे.

अपने हाथ से 2 पिच के अवसर निकलते ही अंजुल भी अर्पित की चाल समझाने लगी, ‘उफ, बेवकूफ है अर्पित जो मुझे इतना सरलमति समझा रहा है. क्या सोचता है कि यदि यह मुझे अवसर नहीं प्रदान करेगा तो मैं अनुभवहीन रह जाऊंगी,’ सोचते हुए अंजुल ने सीधा रणदीप के कैबिन में धावा बोल दिया.

‘‘रणदीप, क्या मैं आप के साथ आज लंच कर सकती हूं? आप के साथ मेरे इंडक्शन की फीडबैक बाकी है,’’ अंजुल ने अपने प्रस्ताव को इस तरह रखा कि वह आवश्यक कार्य प्रतीत हुआ. अत: रणदीप ने सहर्ष स्वीकारोक्ति दे दी.

लंच के दौरान अंजुल ने अपने काम का ब्योरा दिया और साथ ही दबेढके शब्दों में एक स्वतंत्र क्लाइंट लेने की पेशकश कर डाली, ‘‘टीम में सभी इतने व्यस्त रहते हैं कि किसी से काम सीखना मुझे उन के काम में रुकावट बनना लगता है और फिर अपनी शिक्षा, प्रशिक्षण व अनुभव के बल पर मुझे पूर्ण विश्वास है कि एक क्लाइंट मैं हैंडल कर सकती हूं, यदि आप अनुमति दें तो?’’

बातचीत के दौरान अंजुल के नयनों का मटकना, उस के भावों का अर्थपूर्ण चलन उस के अधरों पर आतीजाती स्मितरेखा, कभी पलकें उठाना तो कभी झाकाना, सबकुछ इतना मनमोहक था कि रणदीप के पुरुषमन ने उसे एक अवसर देने का निश्चय कर डाला, ‘‘ठीक है, सोचता हूं कि तुम्हें किस अकाउंट में डाल सकता हूं.’’

उस शाम अंजुल ने आर्ट गैलरी में कुछ समय व्यतीत करने का सोची. जब से जौब लगी तब से उस ने कोई तफरी नहीं की. दिल्ली आर्ट गैलरी शहर की नामचीन जगहों में से एक है सो वहीं का रुख कर लिया. मंथर गति से चलते हुए अंजुल वहां सजी मनोरम चित्रकारियां देख रही थी कि अगली पेंटिंग पर प्रचलित लौंजरी ब्रैंड ‘औसम’ के मालिक महीप दत्त को खड़ा देखा. ऐजेंसी में उस ने सुना था कि पहले महीप दत्त का अकाउंट उन्हीं के पास था, किंतु पिछले साल से उन्होंने कौंट्रैक्ट रद्द कर दिया, जिस के कारण ऐजेंसी को काफी नुकसान हुआ. स्वयं को सिद्ध करने का यह स्वर्णिम अवसर वह जाने कैसे देती. उस ने तुरंत महीप दत्त की ओर रुख किया.

‘‘आप महीप दत्त हैं न ‘औसम’ ब्रैंड के मालिक?’’ अपने मुख पर उत्साह के सैकड़ों दीपक जला कर उस ने बात की शुरुआत की.

‘‘यस. आप हमारी क्लाइंट हैं क्या?’’ महीप अपने ब्रैंड को प्रमोट करने का कोई मौका नहीं चूकते थे.

‘‘मैं आप की क्लाइंट हूं और आप मेरे.’’

‘‘मैं कुछ समझा नहीं?’’

‘‘दरअसल, मैं आप के ब्रैंड की लौंजरी इस्तेमाल करती हूं और एक हैप्पी क्लाइंट हूं. मेरा नाम अंजुल है और मैं मचल ऐडवर्टाइजिंग ऐजेंसी में कार्यरत हूं, जिस के आप एक हैप्पी क्लाइंट नहीं हैं. सही कहा न मैं ने?’’ वह अपना हाथ आगे बढ़ाते हुए बोली.

‘‘तो आप यहां मचल की तरफ से आई हैं?’’ महीप ने हैंड शेक करते हुए कहा, परंतु उन के चेहरे पर तनाव की रेखाएं सर्वविदित थीं, ‘‘मैं काम की बात केवल अपने औफिस में करता हूं,’’ कहते हुए वे आगे बढ़ गए.

‘‘काम की बात तो यह है महीप दत्तजी कि मैं आप को वह फीडबैक दे सकती हूं, जो आप के लिए सुननी जरूरी है और वह भी फ्री में. मैं यहां आप से मचल की कार्यकर्ता बन कर नहीं, बल्कि आप की क्लाइंट के रूप में मिल रही हूं. विश्वास मानिए, मुझे आइडिया भी नहीं था कि मैं यहां आप से मिल जाऊंगी,’’ अंजुल के चेहरे पर मासूमियत के साथ ईमानदारी के भाव खेलने लगे. वह अपने चेहरे की अभिव्यक्ति को स्थिति के अनुकूल मोड़ना भली प्रकार जानती थी.

बोली, ‘‘मैं जानती हूं कि अब आप अपने विज्ञापन किसी एजेंसी के द्वारा नहीं, बल्कि सोशल मीडिया पर इन्फ्लुऐंसर के जरीए करते हैं. किंतु एक इन्फ्लुऐंसर की पहुंच केवल उस के फौलोअर्स तक सीमित होती है. मेरा एक सुझाव है आप को- आप का प्रोडक्ट प्रयोग करने वाली महिलाएं आम गृहिणियां या कामकाजी महिलाएं अधिक होती हैं, उन की फिगर मौडल की दृष्टि से बिलकुल अलग होती है.

‘‘मौडल का शरीर एक आदर्श फिगर होता है, जबकि आम महिला की जरूरत भिन्न होती है. तो क्यों न आप अपने विज्ञापन में मौडल की जगह आम महिलाओं से अपनी बात कहलवाएं. यदि वे कहेंगी तो यकीनन अधिक प्रभाव पड़ेगा,’’ अपनी बात कह कर अंजुल महीप दत्त की प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा करने लगी.

कुछ क्षण मौन रह कर महीप ने अंजुल के सुझाव को पचाया. फिर अपनी कलाई पर

बंधी घड़ी देख कहने लगे, ‘‘तुम से मिल कर अच्छा लगा, अंजुल. आल द बैस्ट,’’ और महीप चले गए.

उन के चेहरे पर कोई भाव न पढ़ने के कारण अंजुल असमंजस में वहीं खड़ी रह गई.

अगले दिन अंजुल औफिस में अपने कंप्यूटर पर कुछ काम कर रही थी कि रणदीप का फोन आया, ‘‘क्या मेरे कैबिन में आ सकती हो?’’

अंजुल तुरंत रणदीप के कैबिन में पहुंची. वहां उन के साथ महीप दत्त को बैठा देख कर उस के आश्चर्य का ठिकाना न रहा. सिर हिला कर हैलो किया. रणदीप ने उसे बैठने का इशारा किया.

‘‘महीप हमारे साथ दोबारा जुड़ना चाहते हैं और साथ ही यह भी कि उन का अकाउंट तुम हैंडल करो,’’ कहते हुए रणदीप के मुख पर कौंटै्रक्ट वापस मिलने की प्रसन्नता थी तो अंजुल के चेहरे पर अपनी जीत की दमक. अब उस के रास्ते में कोई रोड़ा न था. उस ने साधिकार अपना स्वतंत्र अकाउंट प्राप्त किया था.

‘‘इस कौंट्रैक्ट की खुशी में क्या मैं आप को एक डिनर के लिए इन्वाइट कर सकती हूं?’’ अचानक अंजुल ने पूछा.

यह सुन कर रणदीप चौंक गया. फिर बोला, ‘‘कल चलते हैं. आज मुझे अपनी पत्नी के साथ बाहर जाना है,’’ रणदीप ने जानबूझा कर अपनी पत्नी का जिक्र छेड़ा ताकि अंजुल भविष्य की कोई कल्पना न करने लगे और फिर फ्लर्ट किसे बुरा लगता है खासकर तब जब सबकुछ सेफजोन में हो.

‘औसम’ के औफिस में जब अंजुल मीडिया प्लानिंग डिपार्टमैंट की तरफ से क्रिएटिव दिखाने पहुंची तो वहां उसे करण मिला. करण ‘औसम’ की ओर से अंजुल को काम समझाने के लिए नियुक्त किया गया था. आज एक लौंजरी ब्रैंड के साथ मीटिंग के लिए अंजुल बेहद सैक्सी ड्रैस पहन कर गई. उसे देखते ही करण, जोकि लगभग उसी की उम्र का अविवाहित लड़का था, अंजुल पर आकृष्ट हो उठा. जब उसे ज्ञात हुआ कि अंजुल के यहां आने का उपलक्ष्य क्या है, तो उस के हर्ष ने सीमा में बंधने से इन्कार कर दिया.

‘‘हाय अंजुल,’’ करण की विस्फारित आंखें उस के मन का हाल जगजाहिर कर रही थीं, ‘‘मैं तुम्हारा मार्केटिंग क्लाइंट हूं.’’

होंठों को अदा से भींचती हुई अंजुल ने जानबूझा कर अपना हाथ बढ़ा कर मिलाते हुए कहा, ‘‘और मैं तुम्हें सर्विस दूंगी, पर कोई ऐसीवैसी सर्विस न मांग लेना वरना…’’ कहते हुए अंजुल ने उस के कंधे पर आहिस्ता से अपना हाथ रखा और हंस पड़ी.

उस के शरारती नयन करण के अंदर एक सुरसुरी पैदा करने लगे. मन ही मन वह बल्लियों उछलने लगा. आज से पहले उस ने कभी इतनी हौट लड़की के साथ काम नहीं किया था. बहुत जल्दी दोनों में दोस्ती हो गई. करण ने अंजुल को अगले हफ्ते अपने औफिस की पार्टी का न्योता दे डाला.

‘‘इतनी जल्दी पार्टी इन्वाइट? हम आज ही मिले हैं,’’ अंजुल ने करण की गति को थामने का नाटक करते हुए कहा.

‘‘मैं टाइम वेस्ट करने में विश्वास नहीं करता,’’ वह अपने पूरे वेग से दौड़ना चाह रहा था.

‘‘दिन में सपने देख रहे हो…’’

‘‘दिन में सपने देखने को प्लानिंग कहते हैं, मैडम,’’ अंजुल की खुमारी पहले ही दिन से करण के सिर चढ़ कर बोलने लगी.

पार्टी में अंजुल काली चमकदार ड्रैस में कहर ढा रही थी. करण तो उस के पास से हटने का नाम ही नहीं ले रहा था. कभी दौड़ कर स्नैक्स लाता तो कभी ड्रिंक.

‘‘क्या कर रहे हो करण. मैं खुद ले लूंगी जो मुझे चाहिए होगा,’’ उस की इन हरकतों से मन की तहों में पुलकित होती अंजुल ने ऊपरी आवरण ओढ़ते हुए कहा.

‘‘ये सब मैं तुम्हारे लिए नहीं, अपने लिए कर रहा हूं. मुझे पता है किस को खुश करने से मैं खुश रहूंगा,’’ करण फ्लर्ट करने का कोई अवसर नहीं गंवाना चाहता था.

पार्टी में सब ने बहुत आनंद उठाया. खायापीया, थिरकेनाचे. पार्टी खत्म होने

को थी कि अंजुल के पास अचानक महीप आ पहुंचे. इसी बात की राह वह न जाने कब से देख रही थी.

औसम की पार्टी में आने का एक कारण यह भी था.

‘‘तुम्हें यहां देख कर अच्छा लगा,’’ संक्षिप्त सा वाक्य महीप के मुख से निकला.

‘‘तुम महीप दत्त को कैसे जानती हो?’’ उन की मुलाकात से करण अवश्य अचरज में पड़ गया, ‘‘बहुत ऊंची चीज लगती हो.’’

‘‘हैलो, चीज किसे बोल रहे हो?’’ अंजुल ने अपनी कोमल उंगलियों से एक हलकी सी चपत करण के गाल पर लगाते हुए कहा, ‘‘आफ्टर औल, महीप दत्त हमारे क्लाइंट हैं,’’ उस ने इस से अधिक कुछ बताने की आवश्यकता नहीं समझा.

अंजुल हर दूसरे दिन औसम के औफिस पहुंच जाती. करण से फ्लर्ट करने से उस के कई काम बन जाते, यहां तक कि जब उस की ऐड कैंपेन डिजाइन में कुछ कमी रह जाती तब भी उसे काम करवाने के लिए फालतू समय मिल जाता. ‘औसम’ के फाइनैंस सैक्सशन से भी अंजुल एकदम समय पर पेमैंट निकलवाने में कारगर सिद्ध होती.

‘‘हमारे यहां एक फाइनैंस डिपार्टमैंट पेमैंट को ले कर बहुत बदनाम है, पर देखता हूं कि तुम्हारी हर पेमैंट टाइम से हो जाती है. वहां भी अपना जादू चलाती हो क्या?’’ एक दिन करण के पूछने पर अंजुल खीसें निपोरने लगी. अब उसे क्या बताती कि अपनी सैक्सी बौडी पर मर्दों की लोलुप्त नजरों को झेलना उस की कोई मजबूरी नहीं, अपितु कई नफे हैं. जरा अदा से हंस दिए, एकाध बार हाथ से हाथ छुआ दिया, आंखों की गुस्ताखियों वाला खेल खेल लिया और बन गया अपना मन चाहा काम.

कुछ माह बीतने के बाद इतने दिनों की जानपहचान, हर मुलाकात में फ्लर्ट, दोनों का लगभग एक ही उम्र का होना, ऐसे कारणों की वजह से अंजुल को आशा थी कि संभवतया करण उस के साथ लिवइन में रहने की पेशकश कर सकता है. तभी तो वह हर बार अपने मकानमालिक के खड़ूस होने, अधिक किराया होने, कमरा अच्छा न होने जैसी बातें किया करती, ‘‘काश, मैं किसी के साथ अपना किराया आधा बांट सकती.’’

‘‘तुम अपना रूम शेयर करने को तैयार हो? मैं तो कभी भी शेयर न करूं. मुझे अपनी प्राइवेसी बहुत प्यारी है,’’ करण की ऐसी फुजूल की बातों से अंजुल का मनोबल गिर जाता.

‘‘जरा मेरे कैबिन में आना, अंजुल,’’ रणदीप ने इंटरकौम पर कहा.

अंजुल ने उस के कैबिन में प्रवेश किया तो हर ओर से ‘हैप्पी बर्थडे टु यू’ के सुर गुंजायमान होने लगे.

रणदीप आज उस का जन्मदिन खास अपने कैबिन में औफिस के सभी लोगों को बुला कर मना रहा था, ‘‘अंजुल, हमारे औफिस में जब से आईं हैं तब से इन की मेहनत और लगन ने हमारी ऐजेंसी को कहां से कहां पहुंचा दिया…’’, रणदीप सब को संबोधित करते हुए कहने लगा.

‘‘ऐसा लग रहा है जैसे हम तो यहां काम करने नहीं तफरी करने आते हैं,’’ लोगों में सुगबुगाहट होने लगी.

‘‘हमारा तो कभी जन्मदिन नहीं मनाया गया,’’ अर्पित फुंका बैठा था. आखिर उस के नीचे आई अंजुल आज औफिस में उस से अधिक धूम मचा रही थी.

‘‘आप अंजुल हैं क्या जो रणदीप आप की तरफ यों मेहरबान हों?’’ दबेढके ठहाकों के स्वर अंजुल के कानों में चुभने लगे.

औफिस में शानदार पार्टी फिर कभी रणदीप तो कभी करण तो कभी फाइनैंस डिपार्टमैंट के अनिल साहब… अंजुल ने कहां नहीं अपने तिलिस्म का जादू बिखेरने का प्रयास किया. किंतु हाथ क्या लगा. केवल दफ्तर के लोगों की खुसपुसाहट. पुरुष सहकर्मियों की लार टपकाती निगाहें या फिर महिला सहकर्मियों की घृणास्पद हेय दृष्टि.

आज अंजुल पूरे 32 वर्ष की हो गई थी, परंतु इतनी खूबसूरती और इतनी हौट फिगर होते हुए भी कोई उस का हाथ थामने को तैयार नहीं था. सब को केवल उस की कमर में अपनी बांह की चाहत थी. व्यग्र मन और निद्राहीन नयन लिए अंजुल कई घंटे बिस्तर पर लेटी अपने कमरे की छत ताकती रही.

जब पिछले महीने वह अपना रूटीन चैकअप करवाने डाक्टर के पास गई थी तब उस लेडी डाक्टर ने भलमनसाहत में सलाह दी थी कि देखिए अंजुल, स्त्रियों का शरीर एक जैविक घड़ी के हिसाब से चलता है. मां और बच्चे की अच्छी सेहत के लिए 30 वर्ष की आयु से पहले बच्चा हो जाए तो सर्वोत्तम रहता है किंतु 35 वर्ष से देर करना श्रेयस्कर नहीं रहता. आप की बायोलौजिकल क्लौक चल रही है. आप को सैटल होने के बारे में सोचना चाहिए. इन विचारों में घिरी अंजुल के कानों में घड़ी की टिकटिक का शोर बजने लगा. व्याकुलता से उस ने तकिए से अपने कान ढक लिए.

अगले दिन अंजुल ने औफिस में एक नए प्रोजैक्ट की पिच के बारे में सुना तो रणदीप से उसे मांगने पहुंच गई.

‘‘परंतु यह प्रोजैक्ट मुंबई में है और तुम दिल्ली का ‘औसम’ अकाउंट हैंडल कर रही हो,’’ रणदीप के सुरों में हिचकिचाहट थी.

‘‘सो वाट, रणदीप, मैं दोनों को हैंडल कर सकती हूं. मुंबई में भी तो हमारा एक औफिस है. मैं वहां विजिट करती रहूंगी और ‘औसम’ तो जाती ही रहती हूं,’’ अंजुल ने रणदीप को अपनी बात मानने हेतु राजी कर लिया.

मुंबई पहुंच कर अंजुल औफिस के गैस्ट हाउस में ठहरी. कमरा एकदम साधारण

था, किंतु उस के यहां आने का लक्ष्य कुछ और था. अंजुल डरने लगी थी कि कहीं ऐसा न हो जाए कि उस के हाथों से उस की उम्र तेजी से रेत की मानिंद फिसल जाए और वह खाली हथेलियों को मलती रह जाए. अपनी सैक्सी बौडी की बदौलत उस ने कई अवसर पाए थे, जिन्हें उस ने अपनी बुद्धि व चपलता के बलबूते बखूबी भुनाया था.

उस का अनुमान रहा था कि इसी आकर्षण के कारण उसे अपना जीवनसाथी मिल जाएगा, परंतु अब बढ़ती उम्र ने उसे डरा दिया था. हो सकता है करण बात आगे बढ़ाए, मगर अभी तक उस ने ऐसा कोई इशारा नहीं दिया, केवल फ्लर्ट करता रहता है.

इसलिए समय रहते उसे अपने लिए एक जीवनसाथी तो खोजना ही पड़ेगा. मुंबई में 2 दफ्तरों में जा कर हो सकता है उसे अपने औफिस या फिर क्लाइंट औफिस में कोई मिल जाए…

जब अंजुल मुंबई में क्लाइंट के औफिस पहुंची तो उसे एक लड़के से मिलवाया गया. लड़का बेहद खूबसूरत लगा. उसे देख कर अंजुल के मन में सुनहरे ख्वाब सजने लगे.

‘‘माई नेम इस ऋषि. मैं इस औफिस की तरफ से आप का कौंटैक्ट पौइंट रहूंगा,’’ ऋषि ने अपना परिचय दिया.

‘‘आप का नाम, आप का व्यक्तित्व, सबकुछ शानदार है. आप से मिल कर बेहद प्रसन्नता हुई,’’ अंजुल ने अपने दिल में उठ रही हिलोरों को बाहर बहने से बिलकुल नहीं रोका.

उस की बात सुन कर ऋषि हौले से हंस पड़ा. काम पर अपनी पकड़ से अंजुल ने उसे पहली ही मीटिंग में प्रभावित कर दिया. फिर लंच के समय ऋषि ने अंजुल से पूछा कि औफिस की तरफ से उस के लिए क्या मंगवाया जाए?

‘‘कुछ भी चलेगा बस साथ में आप की कंपनी जरूर चाहिए,’’ अंजुल अब समय बरबाद नहीं करना चाहती थी.

पहले ही दिन से दोनों में अच्छी मित्रता हो गई. अपने बचपन, शिक्षा, कैरियर, परिवार संबंधी काफी बातें साझा करने के बाद दोनों ने शाम को एकदूसरे से विदा ली. गैस्ट हाउस लौट कर अंजुल ने कपड़े बदले और निकल गई गेटवे औफ इंडिया की सैर करने. ‘कल ऋषि से कहूंगी कि मुंबई की सैर करवाए,’ वह सोचने लगी. आज इसलिए नहीं कहा कि कहीं वह डैसपरेट न लगे. सुबह जो कमरा उसे बहुत साधारण लगा था, अब वहीं उसे उजले सपनों ने घेर लिया.

अगले दिन क्लाइंट औफिस जाते हुए रास्ते में करण का फोन आया, ‘‘हाय जानेमन, कैसा लग रहा है मुंबई?’’

‘‘फर्स्ट क्लास, शहर भी और यहां के लोग भी,’’ अंजुल ने चहक कर उत्तर दिया.

Short Story : नाम की केंचुली

Short Story :  होटल सिटी पैलेस के रेस्तरां से बाहर निकलते समय पीहू की चाल जरूर धीमी थी मगर उस के कदमों में आत्मविश्वास की कमी नहीं थी. चेहरे पर उदासी की एक परत जरूर थी लेकिन पीहू ने उसे अपने मन के भीतर पांव नहीं पसारने दिया.

घर आ कर बिस्तर पर लेटी तो अखिल के साथ अपने रिश्ते को अंतिम विदाई देती उस की आंखें छलछला आईं.

पूरे 5 साल का साथ था उन का. ब्रेकअप तो खलेगा ही लेकिन इसे ब्रेकअप कहना शायद इस रिश्ते का अपमान होगा. इसे टूटा हुआ तो तब कहा जाता जब इस रिश्ते को जबरदस्ती बांधा जाता.

अखिल के साथ उस के बंधन में तो जबरदस्ती वाली कोई बात ही नहीं थी. यह तो दोनों का अपनी मरजी से एकदूसरे का हाथ थामना था जिसे अनुकूल न लगने पर उस ने बहुत हौले से छुड़ा लिया था, अखिल को भावी जीवन की शुभकामनाएं देते हुए.

पीहू और अखिल कालेज के पहले साल से ही अच्छे दोस्त थे. आखिरी बरस में आतेआते दोस्ती ने प्रेम का चोला पहन लिया. लेकिन यह प्रेम किस्सेकहानियों या फिल्मों वाले प्रेम की तरह अंधा नहीं बल्कि समय के साथ परिपक्व और समझदार होता गया था. यहां चांदतारे तोड़ कर चुनरी में टांकने जैसी हवाई बातें नहीं होती थीं, यहां तो अपने पांवों पर खड़ा हो कर साथ चलने के सपने देखे जा रहे थे.

कालेज खत्म होने के बाद पीहू और अखिल दोनों ही जौब की तलाश में जुट गए ताकि जल्द से जल्द अपने सपनों को हकीकत में ढाल सकें. हालांकि अखिल का अपना पारिवारिक व्यवसाय था लेकिन वह खुद को जमाने की कसौटी पर परखना चाहता था इसलिए एक बार कोई स्वतंत्र नौकरी करना चाहता था जो उसे विरासत में नहीं बल्कि खुद अपनी मेहनत से मिली हो.

प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने के लिए दोनों दिल्ली आ गए. एक ही कोचिंग में साथसाथ तैयारी करने और घर के अनुशासन से दूर रहने के बावजूद दोनों ने अपनी परिधि तय कर रखी थी. जब भी अकेले में कोई एक बहकने लगता तो दूसरा उसे संभाल लेता. कई जोड़ियों को लिवइन में रहते देख कर उन का मन अपने लक्ष्य से कभी नहीं भटका.

“यार जब हम ने शादी करना तय कर ही लिया है तो अभी क्यों नहीं? सिर्फ एक बार…” कई बार उतावला पुरुष मन हठ पर उतर आता.

“शादी के बाद यही सब तो करना है. एक बार कैरियर बन जाए बस. फिर तो सदा साथ ही रहना है…” संयमी स्त्री उस के बढ़े हाथ हंस कर परे सरका देती. वहीं कभी जब सधे हुए नाजुक कदम अरमानों की ढलान पर फिसलने लगते तो दृढ़ मजबूत बांहें उन्हें सहारा दे कर थाम लेती और गर्त में गिरने से बचा लेती.

आज ऊपर तो कल नीचे, कोलंबस झूले से रिश्ते में दोनों झूल रहे थे. इसी बीच पीहू की बैंक में नौकरी लग गई और उस ने दिल्ली छोड़ दिया.

हालांकि दोनों फोन के माध्यम से बराबर जुड़े हुए थे लेकिन अब अखिल के लिए दिल्ली में अकेले रह कर परीक्षा की तैयारी करना जरा मुश्किल हो गया था. मन उड़ कर बारबार पीहू के पास पहुंच जाता लेकिन फिर भी वह खुद को एक मौका देने का मानस बनाए हुए वहां टिका रहा.

2 साल मेहनत करने के बाद भी अखिल का कहीं चयन नहीं हुआ तो वह वापस आ कर अपने परिवार के पुश्तैनी बिजनैस में हाथ बंटाने लगा. भागदौड़ खत्म हुई, स्थायित्व आ गया. जिंदगी एक तय रास्ते पर चलने लगी.

जैसाकि आम मध्यवर्गीय परिवारों में होता है, बच्चों के जीवन में स्थिरता आते ही घर में उन के लिए योग्य जीवनसाथी की तलाश शुरू हो जाती है. अखिल के घर में भी उस की शादी की बात चलने लगी. उधर पीहू के लिए भी लड़के की तलाश जोरशोर से जारी थी. जहां अखिल के परिवार की प्राथमिकता घरेलू लड़की थी, वहीं पीहू के घर वाले उस के लिए कोई बैंकर ही चाहते थे ताकि दोनों में आसानी से निभ जाए.

अखिल संयुक्त परिवार में तीसरी पीढ़ी का सब से बड़ा बेटा है. उस के द्वारा उठाया गया कोई भी अच्छाबुरा कदम भावी पीढ़ी के लिए लकीर बन सकता है. पारंपरिक मारवाड़ी परिवार होने के कारण अखिल के घर में बड़ों की बात पत्थर की लकीर मानी जाती है. दादा ने जो कह दिया वही फाइनल होता है. इस के बाद पापा या चाचा की एक नहीं चलने वाली. दूसरी तरफ पीहू का परिवार इस मामले में जरा तरक्कीपसंद है. उन्हें पीहू की पसंद पर कोई ऐतराज नहीं था बशर्ते कि उस का चयन व्यावहारिक हो.

परिवार की परिपाटी से भलीभांति परिचित अखिल घर वालों के सामने अपनी बात कहने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था, उधर पीहू इस मामले में एकदम शांत थी. वह अखिल की पहल की प्रतीक्षा कर रही थी. उस ने ना तो अखिल पर शादी करने का कोई दबाव बनाया और ना ही अपनी असहमति जताई.

“पीहू मैं बहुत परेशान हूं यार. क्या करूं समझ में नहीं आ रहा. घर वाले चाहते हैं कि मेरी शादी किसी सजातीय मारवाड़ी खानदान की लड़की से हो यानी यह शादी सिर्फ 2 लोगों का नहीं बल्कि 2 व्यापारिक घरानों का मिलन हो ताकि यह संबंध दोनों परिवारों के बिजनैस को भी आगे बढ़ाए, लेकिन तुम तो जानती हो ना मैं ने तो तुम्हारे साथ के सपने देखे हैं. तुम्हीं बताओ, मैं कैसे अपने दादाजी को राजी करूं?” एक दिन अखिल ने कहा.

“इतनी हिम्मत तो तुम्हें जुटानी ही होगी अखिल. यदि आज हिम्मत नहीं करोगे तो सोच लो, बाद में पछताना ना पड़े,” पीहू ने गंभीर हो कर कहा.

“तो क्या तुम कुछ नहीं करोगी?” अखिल ने आश्चर्य से पूछा.

“तुम्हारे परिवार के मामले में मैं क्या कर सकती हूं? मैं अपनेआप में साफ हूं और जानती हूं कि मुझे तुम से शादी करनी है. इस के लिए मेरे घर वाले भी राजी हो जाएंगे लेकिन पहले तुम तो अपने घर वालों को राजी करो. लेकिन एक बात ध्यान रहे अखिल, मैं जैसी हूं मुझे इसी रूप में स्वीकार करना होगा. मुझ से मेरी पहचान छीनने की कोशिश मत करना. ना अभी, ना बाद में,” पीहू ने अपना फैसला सुनाया तो अखिल सोच में पड़ गया.

आधुनिक और आत्मनिर्भर पीहू की छवि उस के दादाजी की पसंद से एकदम विपरीत है. वैसे भी उन के परिवार में आजतक कोई विजातीय बहू या दामाद नहीं आए. उन्हें पीहू के लिए तैयार करना आसान नहीं होगा.

अखिल अपनी चाची से थोड़ा खुला हुआ था. उस ने उन से बात की. पहले तो चाची ने अखिल को ही समझाने का प्रयास किया लेकिन जब वह नहीं माना तो उन्होंने अखिल के चाचा से उस की पसंद का जिक्र किया. जैसाकि अंदेशा था, सुनते ही वे उखड़ गए.

“दिमाग खराब हो गया क्या लड़के का? अपने समाज में लड़कियों का अकाल पड़ गया क्या? अरे मैं तो उसे दिल्ली भेजने की उस की जिद पूरी करने के फैसले के ही खिलाफ था. फिर सोचा था जवानी की जिद है, सालदो साल में उतर जाएगी लेकिन यहां तो एक जिद के साथ दूसरी जिद भी साथ उठा लाया. एक तो बिजनैस में 2 साल पिछड़ गया, दूसरा यह प्रेम का चक्कर… समझाओ उसे कि नौकरी करने वाली लड़कियां हमारे यहां नहीं चल सकतीं,” चाचा ने अखिल को दिल्ली भेजने के बड़े भाई के फैसले का गुस्सा चाची पर उतारा.

लेकिन अखिल ने हौसला बनाए रखा. पिता को राजी करने का उस का प्रयास जारी रहा. इधर वह पीहू को भी जौब छोड़ने के लिए राजी कर रहा था ताकि कम से कम लड़की के घरेलू होने की शर्त तो पूरी हो सके. अखिल का प्रस्ताव पीहू के जरा भी गले नहीं उतरता था.

“तुम मुझे क्यों समझा रहे हो अखिल? मैं अपनी नौकरी जारी रखूंगी, बस इतना ही तो चाह रही हूं. देखो, समझने की जरूरत तुम्हें है. तुम्हारे सामने 2 विकल्प हैं. एक तुम्हारे परिवार की परंपरा और दूसरा तुम्हारा प्यार यानी मैं और मैं भी बिना अपनी पहचान खोए. जानते हो ना कि जब हमें 2 में से किसी 1 विकल्प का चुनाव करना होता है तो फैसला बहुत सोचसमझ कर करना पड़ता है. तुम तय करो कि तुम्हें क्या चाहिए,” पीहू ने दृढ़ता से कहा.

एक तरह से उस ने अपना निर्णय अखिल के सामने साफ कर दिया. बुझा हुआ अखिल एक बार फिर से अपने घर वालों को मनाने में जुट गया. इस बार उस ने दादाजी को चुना.

कहते हैं कि मूल से प्यारा सूद होता है. दादाजी पोते के आग्रह पर पिघल गए. थोड़ी नानुकुर के बाद उन्होंने विजातीय पीहू के साथ उस का गठजोड़ करने के लिए हरी झंडी दिखा दी. अपनी कुछ शर्तों के साथ वे पीहू के परिवार से मिलने को तैयार भी हो गए.

अखिल इसे अपनी जीत समझते हुए खुशी से उछलने लगा. उस ने फोन पर पीहू को यह खुशखबरी दी और आगे की प्लानिंग करने के लिए उसे उसी होटल सिटी पैलेस में मिलने के लिए बुलाया जहां वे अकसर मिला करते थे. हालांकि पीहू अभी भी थोड़ी आशंकित थी.

“तुम ने उन्हें बता तो दिया ना कि मैं शादी के बाद जौब नहीं छोडूंगी?” पीहू ने अखिल को एक बार फिर से आगाह किया.

“जौबजौब… यह कैसी जिद पकड़ कर बैठी हो तुम? अरे हमारे परिवार को कहां कोई कमी है जो अपनी बहूबेटियों से नौकरी करवाएंगे…” पीहू की बात सुनते ही अखिल बिफर गया.

पीहू की आशंका सही साबित हुई. उस ने अखिल की तरफ अविश्वास से देखा तो उसे अपनी गलती का एहसास हुआ. उस ने पीहू का हाथ कस कर पकड़ लिए और अपने स्वर को भरसक मुलायम किया.

“हमारे यहां बहुएं सिर्फ हुक्म चलाती हैं, हुक्म बजाती नहीं,” कहते हुए अखिल ने प्यार से पीहू के गाल खींच दिए. पीहू ने उस के हाथ झटक दिए.

“हमारे समाज में बहुओं के नखरे तब तक ही उठाए जाते हैं जब तक वे सिर पर पल्लू डाले, आंखें नीची किए सजीधजी गुड़िया सी घर में पायल बजाती घूमती रहें.”

“मुझ से यह उम्मीद मत रखना,” पीहू ने कहा.

“अरे यार गजब करती हो. एक बार शादी तो हो जाने दो फिर कर लेना अपने मन की. मैं बात करूंगा ना अपने घर वालों से,” अखिल ने उसे मनाने की कोशिश की.

“मेरे लिए भी यही बात तुम ने अपने घर में कही होगी कि एक बार शादी हो जाने दो, फिर छुड़वा देंगे नौकरी. मैं बात करूंगा ना पीहू से. है ना?”अखिल की आंखों में झांक कर पीहू ने उस की नकल उतारते हुए कहा.

बात सच ही थी. उस ने अपने दादाजी को यही कह कर पीहू से शादी करने के लिए राजी किया था. अखिल के पास पीहू के सवालों का कोई जवाब नहीं था. वह नजरें चुराने लगा.

“अच्छा बताओ, मेरी मां का नाम क्या है?” पीहू के अचानक दागे गए इस सवाल से अखिल अचकचा गया. उस ने इनकार में अपने कंधे उचका दिए.

“नहीं पता ना? पता होगा भी कैसे क्योंकि लोग उन्हें उन के नाम से जानते ही नहीं. वे बाहर के लोगों के लिए मिसेज सक्सेना और रिश्तेदारों के लिए पीहू की मम्मी हैं. और सिर्फ वे ही क्यों, ऐसी न जानें कितनी ही औरतें हैं जो अपना असली नाम भूल ही गई होंगी. वे या तो मिसेज अलांफलां या फिर गुड्डू, पप्पू की मम्मी के नाम से पहचानी जाती हैं. मैं ने देखा है अपने आसपास. अपने घर में भी. बहुत बुरा लगता है,” कहती हुई पीहू आवेश में आ गई.

“लड़कियों को अपने पैरों पर खड़ा होना बहुत जरूरी है. मैं तुम्हें प्यार करती हूं लेकिन सिर्फ इसी वजह से तुम्हारे घर में शोपीस बन कर नहीं रह सकती. तुम तो मेरे संघर्ष के साथी हो. सब जानते हो. मैं ने कितनी मुश्किल से अपनी पहचान बनाई है. इतनी मेहनत से हासिल इस मुकाम को मैं घूंघट की ओट में नहीं छिपा सकती. अपने नाम की पहचान को ऐशोआराम के लालच की आग में नहीं झोंक सकती,” पीहू ने अखिल का चेहरा पढ़ते हुए कहा.

“इस का मतलब तुम्हारे लिए तुम्हारी अपनी पहचान मुझ से अधिक जरूरी है. क्या तुम नहीं चाहतीं कि तुम्हारा नाम मेरे नाम से जुड़ कर पहचाना जाए, हमारे नाम एक हो जाएं? जरा सोचो, पीहू अखिल लखोटिया… आहा… सोच कर ही कितना अच्छा लग रहा है,” अखिल के स्वर में अभी भी एक उम्मीद शेष थी.

“नहीं, मैं नहीं चाहती कि मेरी पहचान तुम्हारे नाम की केंचुली में छिप जाए. पीहू अखिल सक्सेना या पीहू सक्सेना लखोटिया जैसा कुछ बन कर इतराने की बजाय मैं सिर्फ पीहू सक्सेना कहलाना अधिक पसंद करूंगी. सक्सेना ना भी हो तो भी चलेगा. मैं तो सिर्फ पीहू बन कर भी खुश रहूंगी. बल्कि मैं तो कहती हूं कि दुनिया की हर लड़की के लिए उस की अपनी पहचान बहुत जरूरी है,” पीहू ने भावुक होते हुए अखिल का हाथ थाम लिया.

“यानी तुम्हारी ना समझूं? हमारे सपनों का क्या होगा पीहू?” अखिल रुआंसा हो गया.

“हमारे सपने जुड़े हुए जरूर थे लेकिन उस के बावजूद भी वे स्वतंत्र थे, एकदूसरे से अलग थे. मुझे तुम से कोई शिकायत नहीं. मैं यह भी नहीं चाहती कि तुम मेरे लिए अपने परिवार से बगावत करो, लेकिन माफ करना, मैं अपनी पहचान नहीं खो सकती. इसे तुम मेरा आखिरी फैसला ही समझो,” पीहू ने अपना आत्मविश्वास से भरा फैसला सुना दिया और स्नेह से अखिल का कंधा थपथपाती हुई उठ खड़ी हुई.

पीहू नहीं जानती थी कि वह अपने इस निर्णय को कितनी सहजता से स्वीकार कर पाएगी लेकिन यह भी तो आखिरी सच है कि हमारे हरेक कठोर निर्णय के समय मन के तराजू में एक तरफ निर्णय और दूसरी तरफ उस की कीमत रखी होती है.

आज भी पीहू के मन की तुला पर एक तरफ उस की निज पहचान थी तो दूसरी तरफ उस का प्रेम और सुविधाओं से भरा भविष्य. पीहू ने प्रेम की जगह अपनी पहचान को चुना. वह अखिल के नाम की केंचुली पहनने से इनकार कर अपने गढ़े हुए रास्ते पर बढ़ गई.

अखिल नम आंखों से उस आत्मविश्वास की मूरत को जाते हुए देख रहा था.

Hindi Kahani : कैसा मोड़ है यह

Hindi Kahani : ‘‘अदालतसे गुजारिश है कि मेरी मुवक्किला को जल्दी न्याय मिले ताकि वह अपनी एक नई जिंदगी शुरू कर सके,’’ माला के वकील ने अपनी दलीलें पेश करने के बाद जज साहब से कहा. जज साहब ने मामले की गंभीरता को समझते हुए अगली तारीख दे दी. तलाक के मामलों में बहुत जल्दी फैसला लेना मुश्किल ही होता है, क्योंकि अदालत भी चाहती है कि तलाक न हो. यही वजह थी कि हमेशा की तरह आज भी अदालत में कोई फैसला नहीं हुआ. दोनों ही पक्षों के वकील अपनीअपनी दलीलें पेश करते रहे, पर जज साहब ने तो तारीख बढ़ाने का ही काम किया.

वल्लभ और माला दोनों उदास और खिन्न मन से अदालत से बाहर निकल आए, लेकिन बाहर निकलते वक्त उन्हें नेहा और भानू की घूरती नजरों का सामना करना पड़ा. उन दोनों की नफरत, क्रोध और धोखा देने के आक्रोश का सामना वे दोनों पिछले 5 सालों से कर रहे हैं और अब तो जैसे आदत ही हो गई है. वल्लभ उस नफरत और आक्रोश के साए में जीतेजीते टूट सा गया है. अफसोस और अपराधभाव उस के चेहरे के भावों से परिलक्षित होने लगे हैं. सच तो यह भी है कि अदालत के चक्कर काटतेकाटते वह थक गया है. हालत तो माला की भी कुछ ऐसी ही है, क्योंकि पिछले 5 सालों से वह भी अपनेपरायों सब की नफरत झेल रही है. यहां तक कि उस के बच्चे भी उस से दूर हो गए हैं. आखिर क्या मिला उन्हें इस तरह का कदम उठा कर?

‘‘चलो तुम्हें घर छोड़ देता हूं,’’ वल्लभ ने माला से कहा, तो थकी हुई आवाज में उस ने कहा, ‘‘मैं चली जाऊंगी, तुम्हें तो वैसे ही देर हो चुकी है.’’

‘‘बैठो,’’ वल्लभ ने कार का दरवाजा खोलते हुए कहा. फिर माला को उस के घर छोड़ कर जहां वह बतौर पेइंग गैस्ट रहती थी, वल्लभ औफिस की ओर चल दिया.

लंच टाइम हो चुका था. आज भी हाफ डे लगेगा. इस केस के चक्कर में हर महीने छुट्टियां या हाफ डे लेने पड़ते हैं. कितनी बार तो वह विदआउट पे भी हो चुका है. निजी कंपनियों में सरकारी नौकरी जैसे सुख नहीं हैं कि जब चाहे छुट्टी ले लो. यहां तो काम भी कस कर लेते हैं और समय देख कर काम करने वालों को तो पसंद ही नहीं किया जाता है. माला की तो इस वजह से 2 नौकरियां छूट चुकी थीं. अदालत में आतेजाते और वकील की फीस देतेदेते उन की आर्थिक स्थिति भी बिगड़ गई थी. बेशक माला और वल्लभ एकदूसरे का पूरा साथ दे रहे थे और उन के बीच के प्यार में इन 5 सालों में कोई कमी भी नहीं आई थी, पर कहीं न कहीं दोनों को लगने लगा था कि ऐसा कदम उठा कर उन से कोई भूल हो गई है. उन्हें अभी भी अलग ही रहना पड़ रहा था. समाज, परिवार और दोस्तों, सब की नाराजगी सहते हुए वे जी रहे थे, सिर्फ इस आशा से कि एक दिन अदालत का फैसला उन के हक में हो जाएगा और वे दोनों साथसाथ रहने लगेंगे.

वल्लभ औफिस में भी सारा दिन तनाव में ही रहा. वह काम में मन ही नहीं लगा पा रहा था. ‘‘कोई बात बनी?’’ कुलीग रमन ने पूछा तो उस ने सिर हिला दिया, ‘‘माला के लिए भी कितना मुश्किल है न यह सब. लेकिन फिर भी वह तेरा साथ दे रही है. वह सचमुच तुझ से प्यार करती है यार वरना कब की भानू के पास चली जाती.’’

‘‘रमन तू सही कह रहा है. पर माला और मैं अब दोनों ही बहुत थक गए हैं. अब तो लगता है कि 5 साल पहले जैसे जिंदगी चल रही थी, वही ठीक थी. न माला मेरी जिंदगी में आती और न यह तूफान आता. 42 साल का हो गया हूं, पर अभी भी परिवार बनाने के लिए भाग रहा हूं. माला भी अब 40 की है. कभीकभी गिल्टी फील करता हूं कि मेरी वजह से उसे भानू को छोड़ना पड़ा,’’ वल्लभ भावुक हो उठा.

‘‘संभाल अपनेआप को यार. प्यार कोई सोचसमझ कर थोड़े ही करता है. वह तो बस हो जाता है. तू अपने आप को दोष मत दे. सब ठीक हो जाएगा,’’ रमन ने उसे तसल्ली तो दे दी. पर वह भी जानता था कि मामला इतनी आसानी से सुलझने वाला नहीं है.

‘‘कैसे ठीक हो जाएगा? अब तक तो तू समझ ही गया होगा कि नेहा मुझे कभी तलाक नहीं देगी और अदालत के चक्कर लगवाती रहेगी. वह उन लोगों में से है, जो न खुद चैन से जीते हैं और न दूसरों की जीने देते हैं.’’

वल्लभ को मायूस देख रमन ने उस का कंधा थपथपाया. हालांकि वह जानता था कि उस की तसल्ली भी उस के काम नहीं आएगी. औफिस से लौट कर अपने घर का दरवाजा खोल वल्लभ बिना लाइट जलाए ही सोफे पर पसर गया. शरीर और मन जब दोनों ही थक जाएं तो इंसान बिलकुल टूट जाता है. बीते पल उसे बारबार झकझोर रहे थे. 15 साल पहले उस की और नेहा की शादी हुई थी. उस समय वह नौकरी करता था. पर उस का वेतन इतना नहीं था कि नेहा के शाही खर्चों को वह उठा सके. उस के ऊपर छोटी बहन का भी दायित्व था और अपनी मां की भी वह सहायता करना चाहता था, क्योंकि पिता थे नहीं. नेहा को उस के घर के हालात पता थे, फिर भी उस के  मांबाप ने उस की उस से शादी की तो कुछ देखा ही होगा. पर नेहा बहुत गुस्सैल और कर्कश स्वभाव की थी. वह बातबात पर उस से लड़ने लगती और मां से भी बहस करने लगती. बहन को ताने देती कि उस की वजह से उसे अपनी छोटीछोटी खुशियों को भी दांव पर लगाना पड़ता है.

नेहा चाहती थी कि सारा दिन घूमे या शौपिंग करे. घर का काम करना तो उसे पसंद ही नहीं था. वल्लभ उसे समझाने की कोशिश करता तो वह मायके चली जाती और बहुत मिन्नतों के बाद वापस आती. रोजरोज की किचकिच से वह तंग आ गया था. शादी के 2 साल बाद जब उन का बेटा हुआ तो उसे लगा कि अब शायद नेहा सुधर जाएगी. पर वह तो वैसी लापरवाह बनी रही. मां या बहन को ही बेटे को संभालना पड़ता. बेटा बीमार होता तो भी उसे छोड़ सहेलियों के साथ पिक्चर देखने चली जाती. एक बार बेटे को निमोनिया हुआ और नेहा ने उसे ठंडे पानी से नहला दिया. नन्ही सी जान ठंड सह नहीं पाई और बुखार बिगड़ गया. 2 दिन बाद उस की मौत हो गई. कुछ दिन नेहा रोई, शांत बनी रही, पर फिर वापस अपने ढर्रे पर लौट आई.

परेशान वल्लभ ने घर में रहना ही कम कर दिया. मां बहन को ले कर गांव चली गई. नेहा कईकई दिनों तक खाना नहीं बनाती थी. घर गंदा पड़ा रहता, पर वह तो बस घूमने निकल जाती. वल्लभ उस समय इतना परेशान था कि वह घंटों पार्क में बैठा रहता. ‘‘क्यों आजकल घर में दिल नहीं लगता? क्या कोई और मिल गई है?’’ नेहा का कटाक्ष उसे आहत कर जाता. उस ने बहुत बार उसे प्यार से समझाना चाहा, पर वह अपनी मनमानी करती रही. मांबहन के जाने के बाद से जैसे वह और आजाद हो गई थी. वल्लभ का जिस बिल्डिंग में औफिस था, उसी की दूसरी मंजिल पर माला का औफिस था. लिफ्ट में आतेजाते उन की मुलाकातें हुईं और फिर बातें होने लगीं. धीरेधीरे एकदूसरे के प्रति उन का आकर्षण बढ़ने लगा. वल्लभ तो वैसे भी प्यार के लिए तरसरहा था और माला भी अपने वैवाहिक जीवन से दुखी थी. उस के पति भानू को शराब की लत थी और नशे में वह उसे मारता था. अपने दोनों बच्चों की खातिर वह उसे सह रही थी. धीरेधीरे वे दोनों कब एकदूसरे को चाहने लगे, उन्हें पता नहीं चला. दोनों ही अपनेअपने साथी से छुटकारा पा एक खुशहाल जीवन जीने के सपने देखने लगे. पर उस के लिए दोनों का तलाक लेना जरूरी था. नेहा तो अपने बच्चों को भी अपने साथ रखना चाहती थी, जिसे ले कर वल्लभ को कोई आपत्ति नहीं थी, क्योंकि वह खुद बच्चों के लिए तरस रहा था.

उन दोनों के रिश्ते के बारे में लोगों को पता चलते ही जैसे बम फूटा था. नेहा तो जैसे रणचंडी बन गई थी, ‘‘तुम चाहते होगे कि तुम्हें तलाक दे दूं ताकि तुम उस कलमुंही के साथ गुलछर्रे उड़ा सको. कभी नहीं. अब समझ आया कि मुझ से क्यों भागते रहते हो. मुझे छोड़ तुम दूसरी शादी करने का सपना देख रहे हो. सारी उम्र अदालत के चक्कर काटते रहना, पर मैं तुम्हें तलाक देने वाली नहीं.’’

माला के साथ तो भानू ने और भी बुरा व्यवहार किया, शर्म नहीं आई तुझे, किसी और के साथ मुंह काला करते हुए…’’ यह तो उस ने कहा ही इस के अलावा उस ने पासपड़ोस वालों के सामने क्याक्या नहीं कहा. उस के बाद वह उसे रोज ही मारने लगा. बच्चे कुछ समझ नहीं पा रहे थे, इसलिए सहमे से रहते. जब कभी माला से मिलने वल्लभ घर जाता तो बच्चे कहते, ‘‘मम्मी, ये अंकल हमारे घर क्यों आते हैं? हमें अच्छा नहीं लगता. हमारे स्कूल फैं्रड्स कहते हैं कि आप दूसरी शादी करने वाली हो. मम्मी, पापा जैसे भी हैं हमें उन्हीं के साथ रहना है.’’

फिर एक वक्त ऐसा आया जब भानू तो तलाक देने को तैयार हो गया. पर उस की शर्त थी कि वह उसे तलाक और बच्चों को कस्टडी तभी देगा जब वह उसे क्व20 लाख देगी. माला कहां से लाती इतनी बड़ी रकम. तब से यानी पिछले 5 सालों से माला और वल्लभ दोनों तलाक पाने के लिए लड़ रहे हैं, पर कोई फैसला ही नहीं हो पा रहा है. समय के साथसाथ पैसा भी खर्च हो रहा है और माला और वह साथसाथ नहीं रह सकते, इसलिए दोनों अलगअलग रह रहे हैं.मोबाइल बजा तो वल्लभ की तंद्रा भंग हुई. 9 बज गए थे. उस ने लाइट जलाई. फोन पर माला थी. ‘‘वल्लभ, मैं तो अदालत के चक्कर लगातेलगाते तंग आ गई हूं. भानू ने आज तो मुझे धमकी दी है कि जल्दी ही मैं ने उसे पैसे नहीं दिए तो वह बच्चों को ले कर कहीं दूर चला जाएगा. कुछ समझ में नहीं आ रहा कि क्या करूं,’’ कहते हुए माला रो रही थ, लेकिन आज वल्लभ के पास कुछ कहने के लिए शब्द ही नहीं थे. कैसे कहे वह कि माला सब ठीक हो जाएगा, तुम चिंता मत करो. मैं तुम्हारे साथ हूं. कहां कुछ ठीक हो पा रहा है? ‘‘कल मिल कर बात करते हैं,’’ कह कर वल्लभ ने फोन काट दिया.

इन 5 सालों में उस के बालों की सफेदी चमकने लगी थी. काम में ध्यान नहीं लगा पाने के कारण प्रमोशन हर बार रुक जाता था. मां अलग नाराज थीं कि चाहे बीवी जैसी हो उस के साथ निभाना ही पड़ता है. इस चक्कर में बहन की शादी भी नहीं हो पा रही थी. सारे रिश्तेदारों ने उस से मुंह मोड़ लिया था. समाज से कट गया था वह पूरी तरह और औफिस में भी वह मजाक का पात्र बन गया था.

माला से प्यार करने की उसे इतनी बड़ी सजा मिलेगी उस ने कहां सोचा था. कहां तो उस ने सोचा था कि नेहा से तलाक ले कर माला के साथ एक खुशहाल जिंदगी बिताऊंगा, पर यहां तो सब उलटा हो गया था. इतनी मुसीबतें झेलने से तो अच्छा था कि वह कर्कशा बीवी के साथ ही जिंदगी गुजार लेता. उस का तो अब यह हाल है कि न माया मिली न राम. ‘‘आखिर हमें क्या मिला वल्लभ? माना कि भानू के साथ मैं कभी सुखद जीवन जीने की बात तो छोड़ो उस के सपने भी नहीं देख पाई, पर उस से अलग हो कर भी कहां सुखी हूं? मेरे बच्चे तक अब मुझ से मिलना नहीं चाहते हैं और तुम से भी दूर ही तो रहना पड़ रहा है. समाज मुझे ऐसे देखता है मानो पति को छोड़ मैं ने कोई बड़ा अपराध किया है. 40 साल की हो गई हूं और कुछ सालों में बुढ़ापा छा जाएगा, तब मेरा क्या होगा? दिनरात की भागदौड़ में कैरियर भी ठीक से बन नहीं पाया है और मेरे मांबाप तक ने मेरा साथ देने के लिए मना कर दिया है,’’ वल्लभ से मिलते ही जैसे माला के अंदर भरा गुबार बाहर निकल आया.

‘‘मेरी भी हालत कुछ ऐसी ही है माला, पर अब कर भी क्या सकते हैं?’’ वल्लभ ने एक आह भरी.

‘‘जानते हो जिन के घर में मैं बतौर पेइंग गैस्ट रहती हूं, वे अकसर कहती हैं कि जैसे आप पेरैंट्स चूज नहीं कर सकते हो, वैसे ही पार्टनर के बारे में अपनी तरफ से कोई फैसला नहीं ले सकते हो. जिस से एक बार शादी हो जाए, वह जैसा है उसे वैसा ही ऐक्सैप्ट कर लो. यही प्रैक्टिकल ऐप्रोच मानी जाती है.’’

वल्लभ को लगा कि वे माला से ठीक ही कह रही थीं. आखिर माला और उसे शादी के बाद प्यार में पड़ कर क्या मिला? तलाक न जाने कब मिले और कोई गारंटी भी नहीं कि मिलेगा भी कि नहीं. एक हफ्ते बाद फिर उन के केस की सुनवाई हुई. नेहा अड़ी हुई थी कि वह तलाक नहीं देगी और भानू पैसे मांग रहा था. अदालत की सीढि़यां उतरते हुए माला और वल्लभ ने एकदूसरे को इस तरह देखा कि मानों पूछ रहे हों कि अब क्या करें? दोनों के पास इस का कोई उत्तर नहीं था पर शायद भीतर ही भीतर दोनों समझ गए थे कि तलाक लेने का उन का फैसला गलत था. शादीशुदा हो कर प्यार करना और उसे निभाना उतना आसान नहीं है, जितना कि उन्होंने सोचा था. दोनों चुपचाप एक बैंच पर जा कर बैठ गए. जिंदगी उन्हें जिस मोड़ पर ले आई थी वहां से लौटना क्या अब आसान होगा? थोड़ी देर बाद माला उठी और बिना कुछ कहे चल दी. हर बार की तरह वल्लभ ने उस से न घर तक छोड़ आने की बात कही और न ही उस ने कार में बैठते हुए अदालत की उन सीढि़यों को देखा, जिन पर चलतेचलते उन दोनों के पैर ही नहीं दिलोदिमाग भी थक गया था.

Stories : खौफ – क्या था स्कूल टीचर अवनि और प्रिंसिपल मि. दास के रिश्ते का सच

Stories : प्रिंसिपल दास की नजरें आजकल अक्सर ही अवनि पर टिकी रहती थीं. अवनि स्कूल में नई आई थी और दूसरे टीचर्स से काफी अलग थी. लंबी, छरहरी, गोरी, घुंघराले बालों और आत्मविश्वास से भरपूर चाल वाली अवनि की उम्र 30- 32 साल से अधिक की नहीं थी. उधर 48 साल की उम्र में भी मिस्टर दास अकेले थे. बीवी का 10 साल पहले देहांत हो गया था. तब से वे स्कूल के कामों में खुद को व्यस्त रखते थे. मगर जब से स्कूल में टीचर के रूप में अवनि आई है उन के दिल में हलचल मची हुई है. वैसे अवनि विवाहिता है पर कहते हैं न कि दिल पर किसी का जोर नहीं चलता. प्रिंसिपल दास का दिल भी अवनि को देख बेकाबू रहता था.

” अवनि बैठो,” प्रिंसिपल दास ने अवनि को अपने केबिन में बुलाया था.

उन की नजरें अवनि के बालों में लगे गुलाब पर टिकी हुई थीं. अवनि के बालों में रोज एक छोटा सा गुलाब लगा होता था जो अलगअलग रंग का होता था. प्रिंसिपल दास ने आज पूछ ही लिया,” आप के बालों में रोज गुलाब कौन लगाता है?”

“कोई भी लगाता हो सर वह महत्वपूर्ण नहीं. महत्वपूर्ण यह है कि आप की नजरें मेरे गुलाब पर रहती हैं. जरा अपनी मंशा तो जाहिर कीजिए,”
शरारत से मुस्कुराते हुए अवनि ने पूछा तो प्रिंसिपल दास झेंप गए.

हकलाते हुए बोले,” नहीं ऐसा नहीं. दरअसल मेरी नजरें तो… आप पर ही रहती हैं.”

अवनि ने अचरज से प्रिंसिपल दास की तरफ देखा फिर मीठी मुस्कान के साथ बोली,” यह बात तो मुझे पता थी जनाब बस आप के मुंह से सुनना चाहती थी. वैसे मानना पड़ेगा आप हैं काफी दिलचस्प.”

“थैंक्स,” अवनि के कमेंट पर प्रिंसिपल दास थोड़े शरमा गए थे.

पानी का गिलास बढ़ाते हुए बोले,” आप के लिए क्या मंगाऊं चाय या कॉफी?”

“नहीं नहीं पानी ही ठीक है. आज तो आप की बातों ने ही चायकॉफ़ी का सारा काम कर दिया,” कहते हुए अवनि हंस पड़ी.

ऐसी ही दोचार छोटीमोटी मुलाकातों के बाद आखिर प्रिंसिपल दास ने एक दिन हिम्मत कर के कह ही दिया,” आप मुझे बहुत अच्छी लगती हो. वैसे मैं जानता हूं एक विवाहित स्त्री से मेरा ऐसी बातें कहना उचित नहीं पर बस एक बार कह देना चाहता था.”

“मिस्टर दास हर बात जुबां से कहनी जरूरी तो नहीं होती. वैसे भी आप की नजरें यह बात कितनी ही दफा कह चुकी हैं.”

“तो क्या आप भी नजरों की भाषा पढ़ लेती हैं?”

“बिल्कुल. मैं हर भाषा पढ़ लेती हूं.”

“आप के पति भी आप से बहुत प्यार करते होंगे न,” प्रिंसिपल ने उस के चेहरे पर निगाहें टिकाते हुए पूछा.

“देखिए मैं यह नहीं कहूंगी कि वह प्यार नहीं करते. प्यार तो करते हैं पर बहुत बोरिंग इंसान हैं. न कहीं घूमने जाना, न रोमांटिक बातें करना और न हंसनाखिलखिलाना. वैरी बोरिंग. घर में पति के अलावा केवल सास हैं जो बीमार हैं. ससुर हैं नहीं. पूरे दिन घर में बोर हो जाती थी इसलिए स्कूल जॉइन कर लिया. मुझे घूमनाफिरना, दिलचस्प बातें करना, दुनिया की खुशियों को अपनी बाहों में समेट लेना यह सब बहुत पसंद है. आप जैसे लोग भी पसंद हैं जिन के अंदर कुछ अट्रैक्शन हो. मेरे पति में कोई अट्रैक्शन नहीं है.”

प्रिंसिपल दास को अवनि की बातें सुन कर गुदगुदी हो रही थी. अवनि जैसी महिला उन्हें अट्रैक्टिव कह रही थी और क्या चाहिए था. उन्हें दिल कर रहा था अपनी महबूबा यानी अवनि को बाहों में भर लें पर कैसे? कोई पृष्ठभूमि तो बनानी पड़ेगी.

मिस्टर दास ने इस का भी उपाय निकाल लिया.

“अवनि क्यों न आप की क्लास के बच्चों को ले कर हम पिकनिक पर चलें. स्पोर्ट्स डे के दौरान आप की क्लास के बच्चों ने बेहतरीन परफॉर्मेंस दी. उन के रिजल्ट भी काफी अच्छे आए हैं.”

“ग्रेट आइडिया सर. बताइए न कब चलना है और कहां जाना है?” खुश हो कर अवनि ने कहा.

अवनि क्लास 7 की क्लास टीचर थी. अगले संडे ही कक्षा 7 के बच्चों को शहर के सब से खूबसूरत पार्क में ले जाया गया. पूरे दिन बच्चे एक तरफ खेलते रहे और पार्क के दूसरे कोने में मिस्टर दास अवनि के साथ रोमांस की पींगे बढ़ाने में व्यस्त रहे.

अब तो अक्सर बहाने ढूंढे जाने लगे. प्रिंसिपल और अवनि कभी कोई मीटिंग अटैंड करने बाहर निकल जाते तो कभी किसी सेलिब्रेशन के नाम पर, कभी स्कूल के दूसरे बच्चे और टीचर की शामिल होते तो कभी दोनों अकेले ही जाने का प्रोग्राम बना लेते. प्रिंसिपल को हर समय अवनि का साथ पसंद था तो अवनि को इस बहाने घूमनाफिरना, खानापीना और मस्ती मारना. दोनों ही एकदूसरे की इच्छा पूरी कर अपना मतलब निकाल रहे थे. ऐसे ही वक्त गुजरता रहा. उन का यह अवैध रिश्ता वैध रास्तों से आगे बढ़ता रहा.

अब तो अवनि अक्सर अपने हाथ का बना खाना और पकवान आदि प्रिंसिपल के लिए ले कर आती. सब की नजरें बचा कर दोनों एकदूसरे में खो जाते. पर कहते हैं न इश्क और मुश्क छिपाए नहीं छिपता. धीरेधीरे स्टाफ रूम में दूसरे टीचर इन के रिश्ते पर कानाफूसी करने लगे. मगर अवनि इन बातों के लिए तैयार थी. वह बड़ी कुशलता से इन बातों को अफवाह बता कर आगे बढ़ जाती.

एक दिन अवनि स्कूल आई तो उसे खबर मिली कि साधारण टीचर के रूप में हाल ही में आई मिस श्वेता गुलाटी को प्रमोशन दे कर क्लास 10th की क्लास टीचर बना दिया गया है. इस बात से हर कोई अचंभित था. स्कूल के सब से सीनियर क्लास की क्लास टीचर बनना और वह भी इतने कम दिनों में, किसी को भी सहजता से कुबूल नहीं हो रहा था. अवनि तो बौखला ही गई.

वह पहले से ही यह बात गौर कर रही थी कि प्रिंसिपल दास आजकल श्वेता गुलाटी पर काफी मेहरबान रहने लगे हैं. 20 साल की श्वेता काफी खूबसूरत थी जैसे अभीअभी किसी कमसिन कली ने पंखुड़ियां खोली हों. वह जब इंग्लिश में गिटिरपिटिर करती तो दूसरे टीचर इनफीरियरिटी कंपलेक्स से ग्रस्त हो जाते. उस पर श्वेता के कपड़े भी काफी बोल्ड होते. कभी ऑफशोल्डर्ड ड्रेस तो कभी स्लीवलैस, कभी बैकलेस तो कभी शौर्ट स्कर्ट. वैसे तो उस की अदाओं के दीवाने स्कूल के ज्यादातर पुरुष थे मगर सब से ज्यादा पावरफुल प्रिंसिपल दास ही थे. सो श्वेता उन के केबिन के आसपास मंडराने लगी थी.

अवनि गुस्से में आगबबूला हो कर प्रिंसिपल के केबिन में पहुंची पर वे वहां नहीं थे. पूछने पर पता चला कि वे मिस गुलाटी के साथ लाइब्रेरी में हैं. अवनि का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच गया. उस ने बैग उठाया और बिना किसी को इन्फॉर्म किए घर चली आई. बाद में उस के मोबाइल पर प्रिंसिपल का फोन आया तो अवनि ने फोन उठाया ही नहीं.

अगले दिन भी वह स्कूल नहीं पहुंची तो प्रिंसिपल ने उसे मैसेज किया,’ मैं तुम्हारे घर के सामने कार ले कर पहुँच रहा हूं. मुझ से नाराज हो तो भी एक बार हमें बात करनी चाहिए. आज हम बाहर ही लंच करेंगे. मैं 20 -25 मिनट में पहुंच जाऊँगा, तैयार रहना. ‘

अवनि तैयार हो कर बाहर निकली. तब तक प्रिंसिपल की कार पहुंच चुकी थी. वह कार में पीछे जा कर बैठ गई. दोनों शहर से दूर एक रेस्टोरेंट पहुंचे. कोने की एक खाली सीट पर बैठते हुए प्रिंसिपल ने बात शुरू की,” अब आप कुछ बताएंगी इस नाराज़गी की वजह क्या है?”

“वजह भी बतानी पड़ेगी? आप इतने नादान तो नहीं.”

“ओके बाबा मैं ने श्वेता को प्रमोशन दी इसी बात पर नाराज़ हो न?” प्रिंसिपल ने अपनी गलती मानी.

“मैं जान सकती हूं उस में ऐसे कौन से सुर्खाब के पंख लगे हैं जो मुझ में नहीं?” गुस्से में अवनि ने कहा.

“ऐसा कुछ नहीं है डार्लिंग…..मैं… ”

“डोंट टेल मी डार्लिंग. अब तो नई डार्लिंग मिल गई है जनाब को.”

“अरे ऐसी बात नहीं अवनि. ऐसा क्यों कह रही हो?”

“सच ही कह रही हूं. जरूर उस ने खुश कर दिया होगा आप को. तभी तो इतने कम समय में…, ” अवनि ने सीधा इल्जाम लगा दिया था.

“जुबान संभाल कर बात करो अवनि. मैं ऐसा नहीं कि हर किसी को इसी नजर से देखूं. खबरदार जो ऐसी बातें कीं. मैं प्रिंसिपल हूं, मेरे पास ऑथोरिटी है. जो मुझे काबिल लगेगा उसे प्रमोशन दूंगा. इस में तुम्हें बीच में आने का कोई हक नहीं.” प्रिंसिपल ने भी तेवर में कहा.

“हक तो वैसे भी कुछ डिसाइड नहीं हुए हैं मेरे. अब बता देना कि मैं कहां फेंक दी जाऊंगी? अब मेरी जरुरत तो रही नहीं आप को ”

“शट अप अवनि कैसी बातें कर रही हो? ”

“बातें ही नहीं काम भी करूंगी. आप खुद को सीनियर मोस्ट मत समझो. आप के ऊपर भी मैनेजमेंट है. मैं मैनेजमेंट से आप की शिकायत करूंगी.”

“अच्छा तो इतनी सी बात के लिए तुम मुझे धमकी दे रही हो? अवनि मेरे प्यार का यही बदला दोगी? ठीक है मैं भी देख लूंगा. तुम्हारे भी तो अमीर पति हैं न जिन्हें धोखा दे रही हो. मेरे पास भी बहुत से सबूत हैं अवनि जिन्हें तुम्हारे पति को दिखा दूं तो अभी हाथ में तलाक के कागजात मिल जाएंगे,” प्रिंसिपल ने धमकी दी.

“तो मिस्टर दास आप भी सावधान रहना. मेरे साथ आप की बहुत सी तस्वीरें, मैसेज और चैटिंग हैं जिन्हें मैनेजमेंट को दिखा कर अभी आप को नौकरी से निकलवा सकती हूं. आप को लूज करेक्टर साबित कर इज्जत पानी में मिला सकती हूं. पर मैं ऐसा करूंगी नहीं. मैं ने भी प्यार किया है आप को. भले ही आज कोई और पसंद आ गई हो.”

“ऐसा नहीं है अवनि. श्वेता पसंद नहीं आई बल्कि मेरे छोटे भाई की फ्रेंड है और फिर काबिल भी है. नॉलेज अच्छी है उस की. अगर तुम्हें बुरा लगा तो सॉरी पर मेरा मकसद तुम्हें हर्ट करना नहीं था,” प्रिंसिपल की आवाज नर्म पड़ गई थी.

“इट्स ओके सर. शायद मैं ने भी कुछ ज्यादा ही कह दिया आप को,”

अवनि ने भी झगड़ा बढ़ाना उचित नहीं समझा. झगड़ा बढ़ता इस से पहले ही दोनों ने पैचअप कर लिया. दोनों ही जानते थे कि उन के हाथ में एकदूसरे की कमजोर कड़ी है. नुकसान दोनों का ही होना था. बात आई गई हो गई. दोनों फिर से एकदूसरे के रोमांस में डूबते चले गए.

मगर इस बार दोनों की ही तरफ से सावधानी बरती जा रही थी. मिल कर तस्वीरें और सेल्फी लेने की परंपरा बंद कर दी गई. दोनों घूमने भी जाते तो साथ में तस्वीरें कम से कम लेते. चैटिंग के बजाय व्हाट्सएप कॉल करते और मैसेज करना भी बंद कर दिया गया. दोनों को ही डर था कि सामने वाला कभी भी उस की पोल पट्टी खोल कर उसे नंगा कर सकता है. उन के बीच पतिपत्नी का रिश्ता तो था नहीं जो हक के साथ रोमांस करें. यहां रोमांस भी छिपछिप कर करना था और एकदूसरे पर कोई हक भी नहीं था.

अवनि ने अपने मोबाइल ‘में से वे सारी तसवीरें निकाल कर लैपटॉप में एक जगह इकट्ठी कर लीं जिन तस्वीरों में दोनों एकदूसरे के बहुत करीब नजर आ रहे थे. यही नहीं सारी चैटिंग और मैसेज भी एक जगह स्टोर कर के रख लिए. वह कभी भी मौके पर चौका मारने के लिए तैयार थी. उसे पता था कि प्रिंसिपल भी ऐसा ही कुछ कर सकता है. इसलिए वह इस रिश्ते को खत्म कर उस की नाराजगी भी बढ़ाना नहीं चाहती थी.

अब उन के बीच जो रोमांस था उस में मजा तो था पर एकदूसरे से ही खौफ भी था. प्यार के साथ डर की यह भावना दोनों के लिए ही नई थी. मगर अब यही खौफ उन की जिंदगी का हिस्सा बन चूका था. दोनों ही एकदूसरे को प्यार भरी नजरों से देखते थे पर दोनों के दिमाग का एक हिस्सा समझ रहा था कि एक शख्स मेरी तबाही की वजह बन सकता है.

Interesting Hindi Stories : बेटी के लिए – क्या वर ढूंढ पाए शिवचरण और उनकी पत्नी

Interesting Hindi Stories : शिवचरण अग्रवाल बाजार से लौटते ही कुरसी पर पसर गए. मलीन चेहरा, शिथिल शरीर देख पत्नी माया ने घबरा कर माथा छुआ, ‘‘क्या हुआ… क्या तबीयत खराब लग रही है. भलेचंगे बाजार गए थे…अचानक से यों…’’

कुछ देर मौन रख वह बोले, ‘‘लौटते हुए अजय की दुकान पर उस का हालचाल पूछने चला गया था. वहां उस ने जो बताया उसे सुन कर मन खट्टा हो गया.’’

‘‘ऐसा क्या बता दिया अजय ने जो आप की यह हालत हो गई?’’ माया ने पंखा झलते हुए पूछा.

‘‘वह बता रहा था कि कुछ दिन पहले उस की दुकान पर समधीजी का एक रिश्तेदार आया था…उसे यह पता नहीं था कि अजय मेरा भांजा है. बातोंबातों में मेरा जिक्र आ गया तो वह कहने लगा, ‘अरे, उन्हें तो मैं जानता हूं…बड़े चालाक और घटिया किस्म के इनसान हैं… दरअसल, मेरे एक दूर के जीजाजी के घर उन की लड़की ब्याही है…जीजाजी बता रहे थे कि शादी में जो तय हुआ था उसे तो दबा ही लिया, साथ ही बाद में लड़की के गहनेकपडे़ भी दाब लेने की पूरी कोशिश की…क्या जमाना आ गया है लड़की वाले भी चालू हो गए…’ रिश्तेदारी का मामला था सो अजय कुछ नहीं बोला मगर वह बेहद दुखी था…उसे तो पता ही है कि मैं ने मीनू की शादी में कैसे दिल खोल कर खर्च किया है, जो कुछ तय था उस से बढ़चढ़ कर ही दिया, फिर भी मीनू के ससुर मेरे बारे में ऐसी बातें उड़ाते फिरते हैं… लानत है….’’

तभी उन की छोटी बेटी मधु कालिज से वापस आ गई. उन की उतरी सूरत देख उस का मूड खराब न हो अत: दोनों ने खुद को संयत कर किसी दूसरे काम में उलझा लिया.

आज का मामला कोई नया नहीं था. साल भर ही हुआ था मीनू की शादी को मगर आएदिन कुछ न कुछ फेरबदल के साथ ऐसे मामले दोहराए जाते पर शिवचरण चाह कर भी कुछ नहीं कर पा रहे थे…इन हालात के लिए वह स्वयं को ही दोषी मानते थे.

आज शिवचरण की आंखों के सामने बारबार वह दृश्य घूम रहा था जब कपूर साहब ने उन से अपने बड़े बेटे के लिए मीनू का हाथ मांगा था.

रजत कपूर उन के नजदीकी दोस्त एवं पड़ोसी दीनदयाल गुप्ता के बिजनेस पार्टनर थे. बेहद सरल, सहृदय और जिंदादिल. दीनदयाल के घर शिवचरण की उन से आएदिन मुलाकातें होती रहीं. जैसे वह थे वैसा ही उन का परिवार था. 2 बेटों में बड़ा बेटा कंप्यूटर इंजीनियर था और छोटा एम.बी.ए. पूरा कर अपने पिता का बिजनेस में हाथ बंटा रहा था. एक ऐसा हंसताखेलता परिवार था जिस में अपनी लड़की दे कर कोई भी पिता अपनी जिंदगी को सफल मानता. ऐसे परिवार से खुद रिश्ता आया था मीनू के लिए.

कपूर साहब भी अपने बड़े बेटे के लिए देखेभाले परिवार की लड़की चाह रहे थे और उन की नजर मीनू पर जा पड़ी. उन्होंने बड़ी विनम्रता से निवेदन किया था, ‘शिवचरण भाईसाहब, बेटी जैसे अब तक आप के घर रह रही है वैसे ही आगे हमारे घर रहेगी. बस, तन के कपड़ों में विदा कर दीजिए, मेरे घर में बेटी नहीं है, उसे ही बेटी समझ कर दुलार करूंगा.’

इतना अपनापन से भरा निवेदन सुन कर शिवचरण गद्गद हो उठे थे. कितनी धुकधुक रहती है पिता के मन में जब वह अपनी प्यारी बेटी को पराए हाथों में सौंपता है. मन आशंकाओं से भरा रहता है. रातदिन यही चिंता लगी रहती है कि पता नहीं बेटी सुखी रहेगी या नहीं, मानसम्मान मिलेगा या नहीं…मगर इस आग्रह में सबकुछ कितना पारदर्शी… शीशे की तरह साफ था.

शिवचरण ने जब इस बात पर अपनी पत्नी के साथ बैठ कर विचार किया तो धीरेधीरे कुछ प्रश्न मुखरित हो उठे. मसलन, ‘परिवार और लड़का तो वाकई लाखों में एक है मगर… हम वैश्य और वह पंजाबी…घर वालों को कैसे राजी करेंगे…’

यह सचमुच एक गंभीर समस्या थी. शिवचरण का भरापूरा कुटुंब था जिस में इस रिश्ते का जिक्र करने का मतलब था सांप की पूंछ पर पैर रखना. वैसे तो सभी तथाकथित पढे़लिखे समकालीन भद्रजन थे मगर जब किसी के शादीब्याह की बात आती तो एकएक पुरातन रीतिरिवाज खोजखोज कर निकाले जाते. मसलन, जाति, गोत्र, जन्मपत्री, मांगलिक-अमांगलिक…और यहां तो बात विजातीय रिश्ते की थी.

बेटी के सुखद भविष्य के लिए शिवचरण ने तो एक बार सब को दरकिनार करने की सोच भी ली थी मगर माया नहीं मानी.

‘शादीब्याह के मसले पर घरपरिवार को साथ ले कर चलना ही पड़ता है. अगर अभी नजरअंदाज कर दिया तो सारी उम्र ताने सुनते रहेंगे…तुम्हें कोई कुछ न बोले मगर मैं तो घर की बड़ी बहू हूं. तुम्हारी अम्मां मुझे नहीं बख्शेंगी.’

और अम्मां से पूछने पर जो कुछ सुनने को मिला वह अप्रत्याशित नहीं था.

‘क्या हमारी बिरादरी में कोई अच्छा लड़का नहीं मिला जो दूसरी बिरादरी का देखने चल दिया.’

‘नहीं, अम्मां, खुद ही रिश्ता आया था. बेहद भले लोग हैं. कोई दानदहेज भी नहीं लेंगे.’

‘तो क्या पैसे बचाने को ब्याह रहा है वहां? तेरे पास न हों तो मुझ से ले लेना…अरे, बेटी के ब्याह पर तो खर्च होता ही है…और मीनू घर की बड़ी लड़की है, अगर उसे वहां ब्याह दिया तो सब यही समझेंगे कि लड़की तेज होगी, खुद से पसंद कर ब्याह कर बैठी. फिर छोटी को कहीं ब्याहना भी मुश्किल हो जाएगा.’

अम्मां ने तिवारीजी को भी बुलवा लिया. लंबा तिलक लगाए वह आए तो अम्मां ने खुद ही उन के पांव नहीं छुए, सब से छुआए. 4 कचौड़ी, 6 पूरी और 2 रसगुल्लों का नाश्ता करने के बाद समस्या पर विचार कर के वह बोले, ‘यजमान, यह आप की मरजी है कि आप विवाह कहां करें पर आप ने जाति के बाहर विवाह किया तो मैं आप के घर में पैर नहीं रखूंगा. आखिर सनातन प्रथा है यह जाति की. आप जैसे नए लोग तोड़ते हैं तभी तो तलाक होते हैं. न कुंडली मिली, न अपनी जाति का, न घर के रीतिरिवाज का पता. आप सोच भी कैसे सकते हैं.’

अम्मां और तिवारीजी के आगे शिवचरण के सभी तर्क विफल हो गए और उन्हें इस रिश्ते को भारी मन से मना करना पड़ा. दीनदयाल ने यह बात विफल होती देख वहां अपनी भतीजी की बात चला दी और आज वह कपूर साहब के घर बेहद सुखी थी.

जब शिवचरण मीनू के लिए सजातीय वर खोजने निकले तो उन्हें एहसास हुआ कि दूल्हामंडी में से एक अदद दूल्हा खरीदना कितना कठिन कार्य था. जो लड़का अच्छा लगता उस के दाम आसमान को छूते और जिस का दाम कम था वह मीनू के लायक नहीं था. कपूर साहब के रिश्ते पर चर्चा के समय जिन सगेसंबंधियों ने मीनू के लिए सुयोग्य वर खोज लाने और हर तरह का सहयोग देने की बात की थी इस

समय वे सभी पल्ला झाड़ कहीं गायब हो गए थे.

भागदौड़ कर के अंत में एक जगह बात पक्की हुई. रिश्ता तय होते समय लड़के के मातापिता का रवैया ऐसा था जैसे लड़की पसंद कर उन्होंने लड़की वालों पर एहसान किया है. उस समय शिवचरण को कपूर साहब का नम्र निवेदन बहुत याद आ रहा था. उस दिन जो उन के कंधे झुके तो आज तक सीधे नहीं हुए थे.

अतीत की यादों में खोए शिवचरण को तब झटका लगा जब पत्नी ने आ कर कहा कि दीनदयाल भाई साहब आए थे और आप के लिए एक निमंत्रण कार्ड दे गए हैं.

उस दिन दीनदयाल के घर एक पारिवारिक समारोह में शिवचरण की मुलाकात उन के बड़े भाई से हो गई जो अब कपूर साहब के समधी थे. उन की बात चलने पर वह गद्गद हो कर बोले, ‘‘बस, क्या कहें, हमारी बिटिया को तो बहुत अच्छा घरवर मिल गया. ऐसे सज्जन लोग कहां मिलते हैं आजकल…उसे हाथों पर उठा कर रखते हैं…बेटी ससुराल में खुश हो, एक बाप को और क्या चाहिए भला…’’ शिवचरण के चेहरे पर एक दर्द भरी मुसकान तैर आई.

घर आ कर मन और अधिक अपराधबोध से ग्रसित हो गया. वह खुद पर बेहद नाराज थे. बारबार स्वयं को कोस रहे थे कि क्यों मैं उस समय जातिवाद की ओछी मानसिकता से उबर नहीं पाया…क्यों सगेसंबंधियों और बिरादरी की कहावत से डर गया…अपनी बेटी का भला देखना मेरी अपनी जिम्मेदारी थी, बिरादरी की नहीं. दीनदयाल भी तो हमारी जाति के ही हैं. उन्हें तो कोई फर्क नहीं पड़ा वहां रिश्ता करने से…उन का मानसम्मान उसी तरह बरकरार है…सच तो यह है कि आज के भागदौड़ भरे जीवन में किसी के पास इतना समय नहीं कि रुक कर किसी दूसरे के बारे में सोचे…‘लोग क्या कहेंगे’ जैसी बातें पुरानी हो चुकी हैं. जो इन्हें छोड़ आगे नहीं बढ़ते, आगे चल कर वे मेरी ही तरह रोते हैं.

शिवचरण अखबार पढ़ रहे थे तभी दीनदयाल उन से मिलने आए तो बातोंबातों में वह अपनी व्यथा कह बैठे, ‘‘क्या बताऊं भाईजी, कपूर साहब जैसा समधी खोने का दर्द अभी तक दिल में है…एक विचार आया है मन में…अगर उन के छोटे बेटे के लिए मधु का रिश्ता ले कर जाऊं तो…जब वह आए थे तो मैं ने इनकार कर दिया था, न जाने अब मेरे जाने पर कैसा बरताव करेंगे, यही सोच कर दिल घबरा रहा है.’’

‘‘नहीं, भाई साहब, उन्हें मैं अच्छी तरह जानता हूं, दिल में किसी के लिए मैल नहीं रखते…वह तो खुशीखुशी आप का रिश्ता स्वीकारते मगर आप ने यह फैसला लेने में जरा सी देर कर दी. अभी 2 दिन पहले ही उन के छोटे बेटे का रिश्ता तय हुआ है.’’

एक बार फिर शिवचरण खुद को पराजित महसूस कर रहे थे.

वह अपनी गलती का प्रायश्चित्त करना चाह रहे थे मगर उन्हें मौका न मिला. सच ही है, कुछ भूलें ऐसी होती हैं जिन को भुगतना ही पड़ता है.

‘‘फोन की घंटी बज रही थी. शिवचरण ने फोन उठाया, ‘‘हैलो.’’

‘‘नमस्ते, मामाजी,’’ दूसरी ओर से अजय की आवाज आई, ‘‘वह जो आप ने मधु के लिए वैवाहिक विज्ञापन देने को कहा था, उसी का मैटर कनफर्म करने को फोन किया है…पढ़ता हूं…कोई सुधार करना हो तो बताइए :

‘‘अग्रवाल, उच्च शिक्षित, 23, 5 फुट 4 इंच, गृहकार्य दक्ष, संस्कारी कन्या हेतु सजातीय वर चाहिए.’’

‘‘बाकी सब ठीक है, अजय. बस, ‘अग्रवाल’ लिखना जरूरी नहीं और ‘सजातीय’ शब्द की जगह लिखो, ‘जातिधर्म बंधन नहीं.’’’

‘‘मगर मामाजी, क्या आप ने सगेसंबंधियों से इस बारे में…’’

‘‘सगेसंबंधी जाएं भाड़ में….’’ शिवचरण फोन पर चीख पडे़.

‘‘और मामीजी…’’

‘‘तेरी मामी जाए चूल्हे में…अब मैं वही करूंगा जो मेरी बेटी के लिए सही होगा.’’

शिवचरण ने फोन रख दिया…फोन रख कर उन्हें लगा जैसे आज वह खुल कर सांस ले पा रहे हैं और अपने चारों तरफ लिपटे धूल भरे मकड़जाल को उन्होंने उतार फेंक दिया.

Latest Hindi Stories : सीप में बंद मोती

Latest Hindi Stories : फोटो में अरुणा के सौंदर्य को देख कर आलोक बहुत खुश था. लेकिन शादी के बाद अरुणा के सांवले रंग को देख कर उस के भीतर हीनभावना घर कर गई. जब उसी सांवलीसलोनी अरुणा के गुणों का दूधिया उजाला फूटने लगा तो उस की आंखें चौंधिया सी गईं.

टन…टन…दफ्तर की घड़ी ने साढ़े 4 बजने की सूचना दी तो सब एकएक कर के उठने लगे. आलोक ने जैसे यह आवाज सुनी ही नहीं.

‘‘चलना नहीं है क्या, यार?’’ नरेश ने पीठ में एक धौल मारी तो वह चौंक गया, ‘‘5 बज गए क्या?’’

‘‘कमाल है,’’ नरेश बोला, ‘‘घर में नई ब्याही बीवी बैठी  है और पति को यह भी पता नहीं कि 5 कब बज गए. अरे मियां, तुम्हारे तो आजकल वे दिन हैं जब लगता है घड़ी की सुइयां खिसक ही नहीं रहीं और कमबख्त  5 बजने को ही नहीं आ रहे, पर एक तुम हो कि…’’

नरेश के व्यंग्य से आलोक के सीने में एक चोट सी लगी. फिर वह स्वयं को संभाल कर बोला, ‘‘मेरा कुछ काम अधूरा पड़ा है, उसे पूरा करना  है. तुम चलो.’’

नरेश चल पड़ा. आलोक गहरी सांस ले कर कुरसी से टिक गया और सोचने लगा. वह नरेश को कैसे बताता कि नईनवेली बीवी है तभी तो वह यहां बैठा है. उस  के अंदर की उमंग जैसे मर सी गई है. पिताजी को भी न जाने क्या सूझी कि उस के गले में ऐसी नकेल डाल दी जिसे न वह उतार सकता है और न खुश हो कर पहन सकता है. वह तो विवाह करना ही नहीं चाहता था. अकेले रहने का आदी हो गया था…विवाह की इच्छा ही नहीं होती थी.

उस ने कई शौक पाले हुए थे. शास्त्रीय संगीत  के महान गायकों के  कैसटों का  अनुपम खजाना था उस के पास जिन्हें सुनतेसुनते वह न जाने कहां खो जाता था. इस के अलावा अच्छा साहित्य पढ़ना, शहर में आयोजित सभी चित्रकला प्रदर्शनियां देखना, कवि सम्मेलनों आदि में भाग लेना उस के प्रिय शौक थे और इन सब में व्यस्त रह कर उस ने विवाह के बारे  में कभी सोचा भी न था.

ऐसे में पिताजी का पत्र आया था,  ‘आलोक, तुम्हारे लिए एक लड़की देखी है. अच्छे खानदान की, प्रथम श्रेणी में  एम.ए. है. मेरे मित्र की बेटी है. फोटो साथ भेज रहा हूं. मैं तो उन्हें हां कर चुका हूं. तुम्हारी स्वीकृ ति का इंतजार है.’

अनमना सा हो कर उस ने फोटो उठाया और गौर से देखने लगा था. तीखे नाकनक्श की एक आकर्षक मुखाकृति थी. बड़ीबड़ी भावप्रवण आंखें जैसे उस के सारे वजूद पर छा गई थीं और जाने किस रौ में उस ने वापसी डाक से ही पिताजी को अपनी स्वीकृति  भेज  दी थी.

पिताजी ने 1 माह बाद ही विवाह की तारीख नियत कर दी थी. उस के दोस्त  नरेश, विपिन आदि हैरान थे और उसे सलाह दे रहे थे  कि सिर्फ फोटो देख कर ही वह विवाह को कैसे राजी हो गया. कम से कम एक बार लड़की से रूबरू तो हो लेता. पर जवाब में वह हंस कर बोला था, ‘फोटो तो मैं ने देख ही लिया है. अब पिताजी लंगड़ीलूली बहू तो चुनेंगे नहीं.’

पर कितना गलत सोचा था उस ने. विवाह की प्रथम रात्रि को ही उस ने अरुणा के चेहरे पर  प्रथम दृष्टि डाली तो सन्न रह गया था. अरुणा की रंगत काफी सांवली थी. फिर तो वे बड़ीबड़ी भावप्रवण आंखें, जिन में वह अकसर कल्पना में डूबा रहता था, वे तीखे नाकनक्श जो धार की तरह सीधे उस के हृदय में उतर जाते थे, सब जैसे कपूर से  उड़ गए थे और रह गया था अरुणा का सांवला रंग.

अरुणा से तो उस ने कुछ नहीं कहा, पर सुबह पिताजी से लड़ पड़ा था, ‘कैसी लड़की देखी है आप ने मेरे लिए? आप पर भरोसा कर  के मैं ने बिना देखे ही विवाह के लिए हां कर दी थी और आप ने…’

‘क्यों, क्या कमी है लड़की में? लंगड़ीलूली है क्या?’ पिताजी टेढ़ी  नजरों से उसे देख कर बोले थे.

‘आप ने तो बस, जानवरों की तरह सिर्फ हाथपैरों की सलामती का ही ध्यान रखा. यह नहीं देखा कि उस का रंग कितना काला है.’

‘बेटे,’ पिताजी समझाते हुए बोले थे, ‘अरुणा अच्छे घर की सुशील लड़की है.

प्रथम श्रेणी में एम.ए. है. चाहो तो नौकरी करवा लेना. रंग का सांवला होना कोई बहुत बड़ी कमी नहीं है. और फिर अरुणा सांवली अवश्य है, पर काली नहीं.’

पिताजी और मां दोनों ने उसे अपने- अपने ढंग से समझाया था पर उस का आक्रोश कम न हुआ था. अरुणा के कानों में भी शायद इस वार्तालाप के  अंश पड़ गए थे. रात को वह धीमे स्वर में बोली थी, ‘शायद यह विवाह आप की इच्छा के विरुद्ध हुआ है…’

वह खामोश रहा था. 15 दिन बाद ही वह काम पर वापस आ गया था. अरुणा भी उस के साथ थी. कानपुर आ कर अरुणा ने उस की अस्तव्यस्त गृहस्थी को सुचारु रूप से समेट लिया था.

‘‘साहब, घर नहीं जाना क्या?’’

चपरासी दीनानाथ का स्वर कान में पड़ा तो उस की विचारतंद्रा टूटी. 6 बज चुके थे. वह उठ खड़ा हुआ . घर जाने का भी जैसे कोई उत्साह नहीं था उस के अंदर. उसे आए 15 दिन हो गए हैं. अभी तक उस के दोस्तों ने अरुणा को नहीं देखा है. जब भी वे घर आने की बात करते हैं वह कोई  न कोई बहाना बना कर टाल जाता है.

आखिर वह करे भी क्या? नरेश की बीवी सोनिया कितनी सुंदर है और आकर्षक भी. और विपिन की पत्नी कौन सी कम है. राजेश की पत्नी लीना भी कितनी गोरी और सुंदर है. अरुणा तो इन सब के सामने कुछ भी नहीं. उस के दोस्त तो पत्नियों को बगल में सजावटी वस्तु की तरह लिए घूमते हैं. एक वह है कि दिन के समय भी अरुणा को साथ ले कर बाहर नहीं निकलता. न जाने कैसी हीन ग्रंथि पनप रही है उस के अंदर. कैसी बेमेल जोड़ी है उन की.

घर पहुंचा तो अरुणा ने बाहर कुरसियां निकाली हुई थीं. तुरंत ही वह चाय और पोहा बना कर ले आई. वह खामोश चाय की चुसकियां ले रहा था. अरुणा उस के मन का हाल काफी हद तक समझ रही थी. उस ने छोटे से घर को तो अपने कुशल हाथों और कल्पनाशक्ति से सजा  रखा था पर पति के मन की थाह वह नहीं ले पा सकी थी.

छोटे से बगीचे से फूलपत्तियां तोड़ कर वह रोज पुष्पसज्जा करती. कई बार तो आलोक भी सजे हुए सुंदर से घर को देख कर हैरान रह जाता. तारीफ के बोल  उस के मुंह से निकलने को ही होते पर वह उन्हें अंदर ही घुटक लेता.

पाक कला में निपुण अरुणा रोज नएनए व्यंजन बनाती. उस की तो भूख जैसे दोगुनी हो गई थी. नहाने जाता तो स्नानघर में कपड़े, तौलिया, साबुन सब करीने से सजे मिलते. यह सब देख कर  मन ही  मन अरुणा के प्रति प्यार और स्नेह के अंकुर से फूटने लगते, पर फिर उसी क्षण वही पुरानी कटुता उमड़ कर सामने आ जाती और वह सोचता, ये काम तो कोई नौकर भी कर सकता है.

एक दिन वह दफ्तर से आ कर बैठा ही था कि नरेश, विवेक, राजेश सजीधजी  पत्नियों के साथ उस के घर आ धमके. नरेश बोला, ‘‘आज पकड़े गए, जनाब.’’

उन सब के चेहरे देख कर एक बार तो आलोक सन्न सा रह गया. क्या सोचेंगे ये सब अरुणा को देख कर? क्या यही रूप की रानी थी, जिसे अब तक उस ने छिपा कर रखा हुआ था? पर मन के भाव छिपा कर वह चेहरे पर मुसकान ले आया और बोला, ‘‘आओआओ, यार, धन्यवाद जो तुम सब इकट्ठे आए.’’

‘‘आज तो खासतौर से भाभीजी से मिलने आए हैं,’’ विवेक  बोला और फिर सब बैठक में आ गए. सुघड़ता और कलात्मकता से सजी बैठक में आ कर सभी नजरें घुमा कर सजावट देखने लगे. राजेश बोला, ‘‘अरे वाह, तेरे घर का तो कायाकल्प हो गया है, यार.’’

तभी अंदर से अरुणा मुसकराती हुई आई और सब को नमस्ते कर के बोली, ‘‘बैठिए, मैं आप लोगों के लिए चाय लाती हूं.’’

‘‘आप भी क्या सोचती होंगी कि आप के पति के कैसे दोस्त हैं जो अब तक मिलने भी नहीं आए पर इस में हमारा कुसूर नहीं है. आलोक ही बहाने बनाबना कर हमें आने से रोकता रहा.’’

‘‘अरुणा, तुम्हारी पुष्पसज्जा तो गजब की है,’’ सोनिया प्रंशासात्मक स्वर में बोली, ‘‘हमारे बगीचे में भी फूल हैं पर   मुझे सजाने का तरीका ही नहीं आता. तुम सिखा देना मुझे.’’

‘‘इस में सिखाने जैसी तो कोई बात ही नहीं,’’ अरुणा संकुचित हो उठी. वह रसोई में चाय बनाने चली गई.  कुछ ही देर में प्लेटों में गरमागरम ब्रेडरोल और गुलाबजामुन ले आई.

‘‘आप इनसान हैं या मशीन?’’ विवेक हंसते हुए बोला, ‘‘कितनी जल्दी सबकुछ तैयार कर लिया.’’

‘‘अब आप लोग गरमागरम खाइए मैं ब्रेडरोल तलती जा रही हूं.’’

1 घंटे बाद जब सब जाने लगे तो नरेश आलोक को कोहनी मार कर बोला, ‘‘वाकई यार, तू ने बड़ी सुघड़ और अच्छी बीवी पाई है.’’

आलोक समझ नहीं पाया, नरेश सच बोल रहा है या मजाक कर रहा है. जाते समय सब आलोक और अरुणा को आमंत्रित करने लगे  तो आलोक बोला, ‘‘दिन तय मत करो, यार, जब फुरसत होगी आ जाएंगे और फिर  खाना खा कर ही आएंगे.’’

‘‘फिर तो तुम्हें फीकी मूंग की दाल और रोटी ही मिलेगी,’’ विवेक हंसता हुआ बोला, ‘‘हमारी पत्नी का तो लगभग रोज का यही घिसापिटा मीनू है.’’

‘‘और कहीं हमारे यहां खिचड़ी  ही न बनी हो. सोनिया जब भी थकी होती है खिचड़ी ही बनाती है. वैसे अकसर यह थकी ही रहती है,’’ नरेश टेढ़ी नजरों से सोनिया को देख कर बोला.

सब चले गए तो अरुणा बिखरा घर सहेजने लगी और आलोक आरामकुरसी पर पसर गया. उस ने कनखियों से अरुणा को देखा, क्या सचमुच उसे  सुघड़ और बहुत अच्छी पत्नी मिली है? क्या सचमुच उस के दोस्तों को उस के जीवन पर रश्क है? उस के मन में अंतर्द्वंद्व सा चल रहा था. उसे अरुणा पर दया सी आई. 2 माह होने को हैं. उस ने अरुणा को कहीं घुमाया भी नहीं है. कभी घूमने निकलते भी हैं तो रात को.

एक दिन शाम को आलोक दफ्तर  से आया तो बोला, ‘‘अरुणा, झटपट तैयार हो जाओ, आज नरेश के घर चलते हैं.’’

अरुणा ने हैरानी से उसे देखा और फिर खामोशी से तैयार होने चल पड़ी.  थोड़ी देर में ही वह तैयार हो कर आ गई. जब वे नरेश के घर पहुंचे तो अंदर से जोरजोेर से आती आवाज से चौंक कर दरवाजे पर ही रुक गए. नरेश चीख रहा था, ‘‘यह घर है या नरक, मेरे जरूरी कागज तक तुम संभाल कर नहीं रख सकतीं. मुन्ने ने सब फाड़ दिए हैं. कैसी जाहिल औरत हो, कौन तुम्हें पढ़ीलिखी कहेगा?’’

‘‘जाहिल हो तुम,’’ सोनिया का तीखा स्वर गूंजा, ‘‘मैं तुम्हारी नौकरानी नहीं हूं जो तुम्हारा बिखरा सामान ही सारा दिन सहेजती रहूं.’’

बाहर खड़े अरुणा और आलोक संकुचित से हो उठे. ऐसे हालात में वे कैसे अंदर जाएं, समझ नहीं पा रहे थे. फिर आलोक ने  गला खंखार कर दरवाजे पर लगी घंटी बजाई. दरवाजा सोनिया ने खोला. बिखरे बाल, मटमैली सी सलवटों वाली साड़ी और  मेकअपविहीन चेहरे  में वह काफी फूहड़ और भद्दी लग रही थी. आलोक ने हैरानी से सोनिया को देखा. सोनिया संभल कर बोली, ‘‘आइए… आइए, आलोकजी,’’ और वह अरुणा का हाथ थाम कर अंदर ले आई.

उन्हें सामने देख नरेश झेंप सा गया और वह सोफे पर बिखरे कागजों  को समेट कर बोला, ‘‘आओ…आओ, आलोक, आज कैसे रास्ता भूल गए?’’

आलोक और अरुणा सोफे पर बैठ गए. आलोक ने नजरें घुमा कर देखा, सारी बैठक अस्तव्यस्त थी. बच्चों के खिलौने, पत्रिकाएं, अखबार, कपड़े इधरउधर पड़े थे. हालांकि नरेश के घर आलोक पहले भी आता था, पर अरुणा के आने के बाद वह पहली बार यहां आया था. इन 2 माह में ही अरुणा  के कारण व्यवस्थित रूप से सजेधजे घर में रहने से उसे नरेश का घर बड़ा ही बिखरा और अस्तव्यस्त लग रहा  था.

अनजाने ही वह सोनिया और अरुणा की तुलना करने लगा. सोनिया नरेश से किस तरह जबान लड़ा रही थी. घर भी कितना गंदा रखा हुआ है. स्वयं भी किस कदर फूहड़ सी बनी हुई है. क्या फायदा ऐसे मेकअप और लीपापोती का जिस के उतरते ही औरत कलईर् उतरे बरतन सी बेरंग, बेरौनक नजर आए.

इस  के विपरीत अरुणा कितनी सभ्य और सुसंस्कृत है. उस के साथ कितनी शालीनता से बात करती है. अपने सांवले रंग पर फबने वाले हलके रंग के कपड़े कितने सलीके से पहन कर जैसे हमेशा तैयार सी रहती है. घर भी कितना साफ रखती है. लोग जब उस के घर की तारीफ करते हैं तब गर्व से उस का सीना  भी फूल जाता है.

तभी सोनिया चाय और एक प्लेट में भुजिया लाई तो नरेश बोला, ‘‘अरे, आलोक और उस की पत्नी पहली बार घर आए हैं, कुछ खातिर करो.’’

‘‘अब घर में तो कुछ है नहीं. आप झटपट जा कर बाजार  से ले आओ.’’

‘‘नहीं…नहीं,’’ आलोक बोला, ‘‘इस समय कुछ खाने की इच्छा भी नहीं है,’’ मन ही मन वह सोच रहा था, अरुणा मेहमानों के सामने हमेशा कोई न कोई घर की बनी हुई चीज अवश्य रखती है. जो खाता है, तारीफ किए बिना नहीं रहता. कुछ देर बैठ कर आलोक और अरुणा ने उन से विदा ली. बाहर आ कर आलोक बोला, ‘‘रास्ते में विवेक का घर भी पड़ता है. जरा उस के यहां भी हाजिरी लगा लें.’’

चलतेचलते उस ने अरुणा का हाथ अपने हाथों में ले लिया. अरुणा हैरानी से उसे देखने लगी. सदा उस की उपेक्षा करने वाले पति का यह अप्रत्याशित व्यवहार उस की समझ में नहीं आया.

विवेक के घर जब वे पहुंचे तो दरवाजा खटखटाने पर तौलिए से हाथ पोंछता विवेक रसोई  से निकला और उन्हें  देख कर शर्मिंदा सा हो कर बोला, ‘‘अरे वाह, आज तो जाने सूरज कहां से निकला जो तुम  लोग हमारे घर आए हो.’’

विवेक  के घर का भी वही हाल था.  बैठक इस तरह से अस्तव्यस्त थी  जैसे  अभी तूफान आ कर गुजरा हो. विवेक पत्रिकाएं समेटता हुआ बोला, ‘‘आप लोग बैठो, मैं चाय बनाता हूं. नीलम तो लेडीज क्लब गई हुईर् है.’’

पत्नी क्लब में पति रसोई में. आलोक को मन ही मन हंसी आ गई. तभी अरुणा खड़े हो कर बोली, ‘‘आप बैठिए भाई साहब, मैं चाय बना कर लाती हूं,’’ कह कर अरुणा रसोई में चली गई.

तभी विवेक का 1 साल का बेटा भी उठ कर रोने लगा. विवेक उसे हिलाडुला कर चुप कराने का प्रयास करने लगा.

कुछ ही देर में अरुणा ट्रे में चाय और दूध की बोतल ले आई और बोली, ‘‘आप लोग चाय पीजिए, मैं मुन्ने  को दूध पिलाती हूं,’’ और विवेक के न न करते भी उस ने मुन्ने को अपनी गोद में लिटा लिया और बोतल से दूध पिलाने लगी. विवेक धीमे स्वर में आलोक से बोला, ‘‘यार, बीवी हो तो तुम्हारे जैसी, दूसरों  का घर भी कितनी अच्छी तरह संभाल लिया. एक हमारी मेम साहब हैं, अपना घर भी नहीं संभाल सकतीं. घर आओ तो पता चलता है किट्टी पार्टी  में गई हैं या क्लब में. मुन्ना आया के भरोसे रहता है.’’

उस दिन आलोक देर रात तक सो नहीं सका. वह सोच में निमग्न था. उसे तो अपनी पत्नी के सांवले रंग पर शिकायत थी पर यहां तो उस के दोस्तों को अपनी गोरीचिट्टी बीवियों से हर बात पर शिकायत है.

इतवार के दिन सभी दोस्तों ने आलोक की शादी की खुशी में पिकनिक का आयोजन  किया था. विवेक, राजेश, नरेश, विपिन सभी शरीक थे इस पिकनिक में.

खानेपीने का सामान आलोक के दोस्त लाए थे. आलोक को उन्होंने कुछ भी लाने से मना कर दिया था, पर फिर भी अरुणा ने मसालेदार छोले बना लिए  थे. सभी छोलों को  चटकारे लेले कर खा रहे थे. आलोक हैरानी से देख रहा था कि अरुणा ही सब के आकर्षण का केंद्र बनी हुई थी. सोनिया उस से बुनाई डालना सीख रही थी तो नीलम उस  के घने लंबे बालों का राज पूछ रही थी. राजेश की पत्नी लीना उस से मसालेदार छोले बनाने की विधि पूछ रही थी. तभी विवेक बोला, ‘‘अरुणा भाभी, चाय तो आप के हाथ की ही पिएंगे. उस दिन आप की बनाई चाय का स्वाद अभी तक जबान पर है.’’

लीना, सोनिया, नीलम आदि ताश खेलने लगीं और अरुणा स्टोव जला कर चाय बनाने लगी. विवेक भी उस का हाथ बंटाने लगा. चाय की चुसकियों के साथ एक बार फिर  अरुणा की तारीफ शुरू हो गई. चाय खत्म होते ही विवेक बोला, ‘‘अब अरुणा भाभी एक गाना सुनाएंगी.’’

‘‘मैं…मैं…यह आप क्या कह रहे हैं, भाई साहब?’’

‘‘ठीक कह रहा हूं,’’ विवेक बोला, ‘‘आप बेध्यानी में चाय बनाते समय गुनगुना रही थीं. मैं ने पीछे से सुन लिया था. अब कोईर् बहाना नहीं चलेगा. आप को गाना ही पड़ेगा.’’

‘‘हां…हां…’’ सब समवेत स्वर में बोले. मजबूरन अरुणा को गाने के लिए हां भरनी पड़ी. उस ने एक गाना गाना शुरू कर दिया. झील का खामोश किनारा उस की मीठी आवाज से गूंज उठा. सभी मंत्रमुग्ध से उस का गाना सुन रहे थे. आलोक भी हैरान था. अरुणा इतना अच्छा गा लेती है, उस ने कभी सोचा भी नहीं था. बड़े ही मीठे स्वर में वह गा रही थी. गाना खत्म हुआ तो सब ने तालियां बजाईं. अरुणा संकुचित हो उठी. आलोक गहराई से अरुणा को देख रहा था.

उसे लगा अरुणा इतनी सांवली नहीं  है जितनी वह सोचता है. उस की आंखें काफी बड़ी और भावपूर्ण हैं. गठा हुआ बदन, सदा मुसकराते से होंठ एक खास किस्म की शालीनता से भरा हुआ व्यक्तित्च. वह तो सब से अलग है. उस की आंखों पर अब तक जाने कौन सा परदा पड़ा हुआ था जिस के आरपार वह देख नहीं पा रहा था. उस की गहराई में तो गया ही नहीं था जहां अरुणा अपने इस रूपगुण के साथ मौजूद थी, सीप में बंद मोती की तरह.

एक उस के सांवले रंग की ही आड़ ले कर बाकी सभी गुणों को वह अब तक नजरअंदाज करता रहा था. अगर गोरा रंग ही खुशी और सुखमय वैवाहिक जीवन का आधार होता तो उस के दोस्त शायद खुशियों के सैलाब में डूबे होते, पर ऐसा कहां है?

पिकनिक के बाद थकेहारे शाम को वे  घर लौटे तो आलोक क ो अपेक्षाकृत प्रसन्न और मुखर देख कर अरुणा विस्मित सी थी. घर में खामोशी की चादर ओढ़ने  वाला आलोक  आज खुल कर बोल रहा था. कुछ हिम्मत कर के अरुणा बोली, ‘‘क्या बात है? आज आप काफी प्रसन्न नजर आ रहे हैं.’’

Famous Hindi Stories : लूडो की बाजी – जब एक खेल बना दो परिवारों के बीच लड़ाई की वजह

Famous Hindi Stories :  सुबीर और अनु लूडो खेल रहे थे. सुबीर की लाल गोटियां थीं और अनु की नीली. पर पता नहीं क्या बात थी कि सुबीर की गोटियां बारबार अनु की गोटियों से पिट रही थीं. जैसे ही कोई लाल गोटी जरा सा आगे बढ़ती, नीली गोटी झट से आ कर उसे काट देती. जब लगातार 5वीं बार ऐसा हुआ तो सुबीर चिढ़ गया, ‘‘तू हेराफेरी कर रहा है,’’ वह अनु से बोला.

‘‘वाह, मैं क्या कर रहा हूं…तुझे ठीक से खेलना ही नहीं आता, तभी तो हार रहा है. ले बच्चू, यह गई तेरी एक और गोटी,’’ अनु ताली बजाता हुआ बोला.

सुबीर का धैर्य अब समाप्त हो गया. लाख कोशिश करने पर भी उस की आंखों में आंसू आ ही गए.

‘‘रोंदू, रोंदू,’’ अनु उसे अंगूठा दिखाता हुआ बोला, ‘‘यह ले, मेरी दूसरी गोटी भी पार हो गई. यह ले, अब फिर से आ गए 6.’’

सुबीर उठ कर खड़ा हो गया, ‘‘मैं नहीं खेलता तेरे साथ, तू हेराफेरी करता है.’’

जीतती बाजी का ऐसा अंत होते देख कर अनु को भी क्रोध आ गया. उस ने सुबीर को एक घूंसा दे मारा.

अब घूंसा खा कर चुप रहने वाला सुबीर भी नहीं था. सो हो गई दोनों की जम कर हाथापाई. सुबीर ने अनु के बाल नोचे तो अनु ने उस की कमीज फाड़ दी. दोनों गुत्थमगुत्था होते हुए कोने में पड़ी हुई मेज से जा टकराए. सुबीर की तो पीठ थी मेज की ओर, सो उसे अधिक चोट नहीं आई, पर अनु का सिर मेज के नुकीले कोने पर जा लगा. उस के सिर में घाव हो गया और खून बहने लगा. खून देखते ही अनु चीखने लगा, ‘‘मां, मां, सुबीर मुझे मार रहा है.’’

खून देख कर अनु की मां घबरा गईं, ‘‘क्या हुआ मेरे बच्चे?’’

‘‘मां, सुबीर ने मेरी लूडो फाड़ दी और मुझे मारा भी है. मां, सिर में बहुत दर्द हो रहा है,’’ अनु सिसकता हुआ बोला.

यह सब सुन कर अनु की मां सुबीर पर बरस पड़ीं, ‘‘जंगली कहीं का…मांबाप ने घर पर कुछ नहीं सिखाया क्या? खबरदार, इस ओर दोबारा कदम रखा तो…’’

सुबीर को बहुत गुस्सा आया कि अपने बेटे को तो कुछ कहा नहीं और मुझे डांट दिया. वह गुस्से से बोला, ‘‘आप का बेटा जंगली है. आप भी जंगली हैं. सारी कालोनी वाले कहते हैं कि आप झगड़ालू हैं.’’

‘‘बड़ों से बात करने तक की तमीज नहीं तुझे,’’ अनु की मां अपनी निंदा सुन कर चीखीं और उन्होंने सुबीर के गाल पर एक तमाचा दे मारा.

गाल पर हाथ रख कर सुबीर सीधा अपनी मां के पास गया. उस ने खूब बढ़ाचढ़ा कर सारा किस्सा सुनाया. सुन कर सुबीर की मां को भी क्रोध आ गया. उन्होंने भी अपने बेटे से कह दिया, ‘‘ऐसे लोगों के घर जाने की कोई आवश्यकता नहीं है.’’

इस के बाद दोनों घरों की बोलचाल बंद हो गई.

वार्षिक परीक्षाएं आने वाली थीं, सो सुबीर और अनु ने सारा समय पढ़नेलिखने में लगा दिया. पर इस के बाद जब छुट्टियां आरंभ हुईं तो दोनों ऊबने लगे. अनु अपनी मां के साथ लूडो खेलने का प्रयत्न करता, पर वैसा मजा ही नहीं आता था जो सुबीर के साथ खेलने में आता था.

सुबीर अपने पिताजी के साथ क्रिकेट खेलता तो उसे भी बिलकुल आनंद नहीं आता था. वे स्वयं ही जानबूझ कर जल्दी ‘आउट’ हो जाते, परंतु सुबीर का शतक अवश्य बनवा देते.

सुबीर और अनु दोनों ही अब पछताने लगे कि नाहक बात बढ़ाई. एक दिन अनु ने देखा कि सुबीर दोनों घरों के बीच बनी बाड़ के पास बैठ कर कंचे खेल रहा है. अनु भी चुपचाप अपने कंचे ले कर अपनी बाड़ के पास बैठ कर खेलने लगा. कुछ देर दोनों चुपचाप खेलते रहे. फिर अनु ने देखा सुबीर का एक कंचा उस के बगीचे में आ गया है. उस ने कंचा उठा कर सुबीर को देते हुए कहा, ‘‘यह तुम्हारा है.’’

सुबीर भी बात करने का बहाना ढूंढ़ रहा था, तपाक से बोला, ‘‘कंचे खेलोगे?’’

अनु ने एक क्षण इधरउधर देखा. मैदान साफ पा कर वह बाड़ में से निकल कर सुबीर के बगीचे में पहुंच गया. थोड़ी देर बाद जब सुबीर की मां ने पुकारा तो वह चुपचाप वहां से खिसक कर अपने बगीचे में आ गया.

यह तरीका दोनों को ठीक लगा. अब जब भी अवसर मिलता, दोनों एकसाथ खेलते. मित्र के साथ खेलने का आनंद ही कुछ और होता है. अब बस, एक ही परेशानी थी कि उन्हें डरडर कर खेलना पड़ता था.

‘‘कितना अच्छा हो यदि हमारे माता- पिता भी फिर से मित्र बन जाएं,’’ एक दिन अनु बोला.

‘‘पर यह कैसे संभव होगा, समझ में नहीं आता. मैं तो अपने मातापिता के सामने तेरा नाम लेने से भी डरता हूं,’’ सुबीर उदास हो कर बोला.

एक दिन सुबह का समय था. सुबीर घर पर अकेला था. वह एक पुस्तक ले कर पेड़ पर चढ़ गया और पढ़ने लगा.

अचानक ‘धड़ाम’ की आवाज हुई. अनु ने आवाज सुनी तो वह तेजी से बाहर भागा. उस ने देखा कि सुबीर जमीन पर पड़ा कराह रहा है. वह तेजी से उस के पास गया और उसे खड़ा करने का प्रयत्न करने लगा.

‘‘अनु, मेरी पीठ में जोर की चोट लगी है. बहुत दर्द हो रहा है,’’ सुबीर दर्द से परेशान हो कर बोला.

अनु ने एक क्षण इधरउधर देखा, फिर जल्दी से बोला, ‘‘तुम हिलना मत, मैं सहायता के लिए अभी किसी को बुला कर लाता हूं.’’

अनु सीधा अपनी मां के पास गया और बोला, ‘‘मां, जल्दी चलो, सुबीर को बहुत चोट लगी है. उस की मां भी घर पर नहीं हैं…उसे बहुत दर्द हो रहा है.’’

अनु की मां सुबीर को गोद में उठा कर अंदर ले गईं. फिर उस की टांगों और बांहों की खरोंचों को साफ कर उन पर दवा लगा दी. अभी वे उस की पीठ पर मरहम लगा ही रही थीं कि सुबीर की मां बाजार से लौट आईं.

सुबीर के इर्दगिर्द कई लोगों को देख कर वे घबरा गईं. अनु उन को देखते ही बोला, ‘‘चाचीजी, सुबीर को बहुत दर्द हो रहा है, इसे जल्दी से अस्पताल ले चलिए,’’ उस की आंखों में आंसू तैर रहे थे.

सुबीर की मां अनु के सिर पर प्यार से हाथ फेरती हुई बोलीं, ‘‘अरे, बेटा, रोते नहीं…सुबीर दोचार दिन में बिलकुल ठीक हो जाएगा. तुम इसे देखने आया करोगे न?’’

अनु की आंखों में चमक आ गई. वह उत्सुकता से मां की ओर देखने लगा.

‘‘हां, यह अवश्य आएगा. अनु पास रहेगा तो सुबीर भी अपना दर्द भूल जाएगा,’’ अनु की मां बोलीं.

सुबीर की मां अनु की मां की बात सुन कर बहुत प्रसन्न हुईं. फिर बोलीं, ‘‘आप ने सुबीर की इतनी देखभाल की. उस के लिए बहुतबहुत धन्यवाद.’’

‘‘सुबीर भी तो मेरा ही बेटा है…जैसा अनु वैसा सुबीर. अपने बेटे के लिए कुछ करने के लिए धन्यवाद कैसा,’’ अनु की मां ने उत्तर दिया. थोड़ी देर बाद अनु और सुबीर जब अकेले रह गए तो अनु बोला, ‘‘तू पुस्तक पढ़तापढ़ता सो गया था क्या, एकदम से गिर कैसे गया?’’

‘‘जानबूझ कर गिरा था.’’

‘‘क्या?’’ अनु की आंखें आश्चर्य से फैल गईं, ‘‘जानता है, हड्डीपसली भी टूट सकती थी.’’

‘‘जानता हूं,’’ सुबीर गंभीरता से बोला, ‘‘पर मुझे उस का भी दुख न होता. अब हम सब फिर से मित्र बन गए हैं. तेरी मां ने मुझे कितना प्यार किया…’’

‘‘और तेरी मां ने मुझे…अब हम कभी झगड़ा नहीं करेंगे,’’ अनु भी गंभीर हो कर बोला.

‘‘हां, और क्या…खेल में हारजीत तो लगी ही रहती है. वास्तव में जीतने का मजा आता ही हारने के बाद है,’’ सुबीर बोला.

अनु को अब हंसी आ गई, ‘‘बड़ी बुद्धिमानी की बातें कर रहा है. अब कभी हारने पर रोएगा तो नहीं?’’

‘‘नहीं,’’ सुबीर भी हंसने लगा, ‘‘और न ही जीतने पर तुम्हें चिढ़ाऊंगा.’’

दोनों मित्र एक बार फिर मिल कर लूडो खेलने लगे.

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