उसकी गली में : आखिर क्या हुआ उस दिन

Family story in hindi

नया द्वार: मनोज की मां ने कैसे बनाई बहू के दिल में जगह

एक दिन रास्ते में रेणु भाभी मिल गईं.

बड़ी उदास, दुखी लग रही थीं. मैं

ने कारण पूछा तो उबल पड़ीं. बोलीं, ‘‘क्या बताऊं तुम्हें? माताजी ने तो हमारी नाक में दम कर रखा है. गांव में पड़ी थीं अच्छीखासी. इन्हें शौक चर्राया मां की सेवा का. ले आए मेरे सिर पर मुसीबत. अब मैं भुगत रही हूं.’’

भाभी की आवाज कुछ ऊंची होती जा रही थी, कुछ क्रोध से, कुछ खीज से. रास्ते में आतेजाते लोग अजीब नजरों से हमें घूरते जा रहे थे. मैं ने धीरे से उन का हाथ पकड़ कर कहा, ‘‘चलो न, भाभी, पास ही किसी होटल में चाय पी लें. वहीं बातें भी हो जाएंगी.’’

भाभी मान गईं और तब मुझे उन का आधा कारण मालूम हुआ.

रेणु भाभी मेरी रिश्ते की भाभी नहीं हैं, पर उन के पति मनोज भैया और मेरे पति एक ही गांव के रहने वाले हैं. इसी कारण हम ने उन दोनों से भैयाभाभी का रिश्ता जोड़ लिया है.

मनोज भैया की मां मझली चाची के नाम से गांव में काफी मशहूर हैं. बड़ी सरल, खुशमिजाज और परोपकारी औरत हैं. गरीबी में भी हिम्मत से इकलौते बेटे को पढ़ाया. तीनों बेटियों की शादी की.

अब पिछले कुछ वर्षों से चाचा की मृत्यु के बाद, मनोज भैया उन्हें शहर लिवा लाए. कह रहे थे कि वहां मां के अकेली होने के कारण यहां उन्हें चिंता सताती रहती थी. फिर थोड़ेबहुत रुपए भी खर्चे के लिए भेजने पड़ते थे.

‘‘तभी से यह मुसीबत मेरे पल्ले पड़ी है,’’ रेणु भाभी बोलीं, ‘‘इन्हीं का खर्चा चलाने के लिए तो मैं ने भी नौकरी कर ली. कहीं इन्हें बुढ़ापे में खानेपीने, पहनने- ओढ़ने की कमी न हो. पर अब तो उन के पंख निकल आए हैं,’’

‘‘सो कैसे?’’

‘‘तुम ही घर आ कर देख लेना,’’ भाभी चिढ़ कर बोलीं, ‘‘अगर हो सके तो समझा देना उन्हें. घर को कबाड़खाना बनाने पर तुली हुई हैं. दीपक भैया को भी साथ लाएंगी तो वह शायद उन्हें समझा पाएंगे. बड़ी प्यारी लगती हैं न उन्हें मझली चाची?’’

चाय खत्म होते ही रेणु भाभी उठ खड़ी हुईं और बात को ठीक तरह से समझाए बिना ही चली गईं.

मैं ने अपने पति दीपक को रेणु भाभी के वक्तव्य से अवगत तो करा दिया था, लेकिन बच्चों की परीक्षाएं, घर के अनगिनत काम और बीचबीच में टपक पड़ने वाले मेहमानों के कारण हम लोग चाची के घर की दिशा भूल से गए.

तभी एक दिन मेरी मौसेरी बहन सुमन दोपहर को मिलने आई. उस ने एम.ए., बी.एड कर रखा था, पर दोनों बच्चे छोटे होने के कारण नौकरी नहीं कर पा रही थी. हालांकि उस के परिवार को अतिरिक्त आय की आवश्यकता थी. न गांव में अपना खुद का घर था, न यहां किराए का घर ढंग का था. 2 देवर पढ़ रहे थे. उन का खर्चा वही उठाती थी. सास बीमार थी, इसलिए पोतों की देखभाल नहीं कर सकती थी. ससुर गांव की टुकड़ा भर जमीन को संभाल कर जैसेतैसे अपना काम चलाते थे.

फिर भी सुमन की कार्यकुशलता और स्नेह भरे स्वभाव के कारण परिवार खुश रहता था. जब भी मैं उसे देखती, मेरे मन में प्यार उमड़ पड़ता. मैं प्रसन्न हो जाती.

उस दिन भी वह हंसती हुई आई. एक बड़ा सा पैकेट मेरे हाथ में थमा कर बोली, ‘‘लो, भरपेट मिठाई खाओ.’’

‘‘क्या बात है? इस परिवार नियोजन के युग में कहीं अपने बेटों के लिए बहन के आने की संभावना तो नहीं बताने आई?’’ मैं ने मजाक में पूछा.

‘‘धत दीदी, अब तो हाथ जोड़ लिए. रही बहन की बात तो तुम्हारी बेटी मेरे शरद, शिशिर की बहन ही तो है.’’

‘‘पर मिठाई बिना जाने ही खा लूं?’’

‘‘तो सुनो, पिछले 2 महीने से मैं खुद के पांवों पर खड़ी हो गई हूं. यानी कि नौ…क…री…’’ उस ने खुशी से मुझे बांहों में भर लिया. बिना मिठाई खाए ही मेरा मुंह मीठा हो गया. तभी मुझे उस के बच्चों की याद आई, ‘‘और शरद, शिशिर उन्हें कौन संभालता है? तुम कब जाती हो, कब आती हो, कहां काम करती हो?’’

‘‘अरे…दीदी, जरा रुको तो, बताती हूं,’’ उस ने मिठाई का पैकेट खोला, चाय छानी, बिस्कुट ढूंढ़ कर सजाए तब कुरसी पर आसन जमा कर बोली, ‘‘सुनो अब. नौकरी एक पब्लिक स्कूल में लगी है. तनख्वाह अच्छी है. सवेरे 9 बजे से शाम को 4 बजे तक. और बच्चे तुम्हारी मझली चाची के पास छोड़ कर निश्ंिचत हो जाती हूं.’’

‘‘क्या?’’

‘‘जी हां. मझली चाची कई बच्चों को संभालती हैं. बहुत प्यार से देखभाल करती हैं.’’

खापी कर पीछे एक खुशनुमा ताजगी में फंसे हुए प्रश्न मेरे लिए छोड़ कर सुमन चली गई. मझली चाची ऐसा क्यों कर रही थीं? रेणु भाभी क्या इसी कारण से नाराज थीं?

‘‘बात तो ठीक है,’’ शाम को दीपक ने मेरे प्रश्नों के उत्तर में कहा, ‘‘फिर भैयाभाभी दोनों कमाते हैं. मझली चाची के कारण उन्हें समाज की उठती उंगलियां सहनी पड़ती होंगी. हमें चाची को समझाना चाहिए.’’

‘‘दीपक, कभी दोपहर को बिना किसी को बताए पहुंच कर तमाशा देखेंगे और चाची को अकेले में समझाएंगे. शायद औरों के सामने उन्हें कुछ कहना ठीक नहीं होगा,’’ मैं ने सुझाव दिया.

दीपक ने एक दिन दोपहर को छुट्टी ली और तब हम अचानक मनोज भैया के घर पहुंचे.

भैयाभाभी काम पर गए हुए थे. घर में 10 बच्चे थे. मझली चाची एक प्रौढ़ा स्त्री के साथ उन की देखभाल में व्यस्त थीं. कुछ बच्चे सो रहे थे. एक को चाची बोतल से दूध पिला रही थीं. उन की प्रौढ़ा सहायिका दूसरे बच्चे के कपड़े बदल रही थी.

चाची बड़ी खुश नजर आ रही थीं. साफ कपड़े, हंसती आंखें, मुख पर संतोष तथा आत्मविश्वास की झलक. सेहत भी कुछ बेहतर ही लग रही थी.

‘‘चाचीजी, आप ने तो अच्छीखासी बालवाटिका शुरू कर दी,’’ मैं ने नमस्ते कर के कहा.

चाची हंस कर बोलीं, ‘‘अच्छा लगता है, बेटी. स्वार्थ के साथ परमार्थ भी जुटा रही हूं.’’

‘‘पर आप थक जाती होंगी?’’ दीपक ने कहा, ‘‘इतने सारे बच्चे संभालना हंसीखेल तो नहीं.’’

‘‘ठहरो, चाय पी कर फिर तुम्हारी बात का जवाब दूंगी,’’ वह सहायिका को कुछ हिदायतें दे कर रसोईघर में चली गईं, ‘‘यहीं आ जाओ, बेटे,’’ उन्होंने हम दोनों को भी बुला लिया.

‘‘देखो दीपक, अपने पोतेपोती के पीछे भी तो मैं दौड़धूप करती ही थी? तब तो कोई सहायिका भी नहीं थी,’’ चाची ने नाश्ते की चीजें निकालते हुए कहा, ‘‘अब ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ की उम्र है न मेरी? इन सभी को पोतेपोतियां बना लिया है मैं ने.’’

फिर मेरी ओर मुड़ कर कहा, ‘‘तुम्हारी सुमन के भी दोनों नटखट यहीं हैं. सोए हुए हैं. दोपहर को सब को घंटा भर सुलाने की कोशिश करते हैं. शाम को 5 बजे मेरा यह दरबार बरखास्त हो जाता है. तब तक मनोज के बच्चे शुचि और राहुल भी आ जाते हैं.’’

‘‘पर चाची, आप…आप को आराम छोड़ कर इस उम्र में ये सब झमेले? क्या जरूरत थी इस की?’’

‘‘तुम से एक बात पूछूं, बेटी? तुम्हारे मांपिताजी तुम्हारे भैयाभाभी के साथ रहते हैं न? खुश हैं वह?’’

मेरी आंखों के सामने भाभी के राज में चुप्पी साधे, मुहताज से बने मेरे वृद्ध मातापिता की सूरतें घूम गईं. न कहीं जाना न आना. कपड़े भी सब की जरूरतें पूरी करने के बाद ही उन के लिए खरीदे जाते. वे दोनों 2 कोनों में बैठे रहते. किसी के रास्ते में अनजाने में कहीं रोड़ा न बन जाएं, इस की फिक्र में सदा घुलते रहते. मेरी आंखें अनायास ही नम हो आईं.

चाची ने धीरे से मेरे बाल सहलाए. ‘‘बेटी, तू दीपक को मेरी बात समझा सकेगी. मैं तेरी आंखों में तेरे मातापिता की लाचारी पढ़ सकती हूं, लेकिन जब तुझ पर किसी वयोवृद्ध का बोझ आ पड़े, तब आंखों की इस नमी को याद रखना.’’

दीपक के चेहरे पर प्रश्न था.

‘‘सुनो बेटे, पति की कमाई या मन पर जितना हक पत्नी का होता है उतना बेटे की कमाई या मन पर मां का नहीं होता. इस कारण से आत्मनिर्भर होना मेरे लिए जरूरी हो गया था. रही काम की बात तो पापड़बडि़यां, अचारमुरब्बे बनाना भी तो काम ही है, जिन्हें करते रहने पर भी करने वालों की कद्र नहीं की जाती. घर में रह कर भी अगर ये काम हम ने कर भी लिए तो कौन सा शेर मार दिया? बहू कमाएगी तो सास को यह सबकुछ तो करना ही पड़ेगा,’’ चाची ने एक गहरी सांस ली.

‘‘कब आते हैं बच्चे?’’ दीपक ने हौले से पूछा.

‘‘9 बजे से शुरू हो जाते हैं. कोई थोड़ी देर से या जल्दी भी आ जाते हैं कभीकभी. मेरी सहायिका पार्वती भी जल्दी आ जाती है. उसे भी मैं कुछ देती हूं. वह खुशी से मेरा हाथ बंटाती है.’’

‘‘और भी बच्चों के आने की गुंजाइश है?’’ मैं ने पूछा.

‘‘पूछने तो आते हैं लोग, पर मैं मना कर देती हूं. इस से ज्यादा रुपयों की मुझे आवश्यकता नहीं. सेहत भी संभालनी है न?’’

चाय खत्म हो चुकी थी. सोए हुए बच्चों के जागने का समय हो रहा था. इसलिए ‘नमस्ते’ कह कर हम चलना ही चाहते थे कि चाची ने कहा, ‘‘बेटी, दीवाली के बाद मैं एक यात्रा कंपनी के साथ 15 दिन घूमने जाने की बात सोच रही हूं. अगर तुम्हारे मातापिता भी आना चाहें तो…’’

मैं चुप रही. भैयाभाभी इतने रुपए कभी खर्च न करेंगे. मैं खुद तो कमाती नहीं.

चाची को भी मनोज भैया ने कई बहानों से यात्रा के लिए कभी नहीं जाने दिया था. उन की बेटियां भी ससुराल के लोगों को पूछे बिना कोई मदद नहीं कर सकती थीं. अब चाची खुद के भरोसे पर यात्रा करने जा रही थीं.

‘‘सुनीता के मातापिता भी आप के साथ जरूर जाएंगे, चाची,’’ अचानक दीपक ने कहा, ‘‘आप कुछ दिन पहले अपने कार्यक्रम के बारे में बता दीजिएगा.’’

रेणु भाभी और मनोज भैया की नाराजगी का साहस से सामना कर के मझली चाची ने एक नया द्वार खोल लिया था अपने लिए, देखभाल की जरूरत वाले बच्चों के लिए और सुमन जैसी सुशिक्षित, जरूरतमंद माताओं के लिए.

हरेक के लिए इतना साहस, इतना धैर्य, इतनी सहनशीलता संभव तो नहीं. पर अगर यह नहीं तो दूसरा कोई दरवाजा तो खुल ही सकता है न?

जीवन बहुत बड़ा उपहार है हम सब के लिए. उसे बोझ समझ कर उठाना या उठवाना कहां तक उचित है? क्यों न अंतिम सांस तक खुशी से, सम्मान से जीने की और जिलाने की कोशिश की जाए? क्यों न किसी नए द्वार पर धीरे से दस्तक दी जाए? वह द्वार खुल भी तो सकता है.

स्मृति चक्र: रेत के घरोंदे की तरह जब सपने हुए तहसनहस

विभा ने झटके से खिड़की का परदा एक ओर सरका दिया तो सूर्य की किरणों से कमरा भर उठा.

‘‘मनु, जल्दी उठो, स्कूल जाना है न,’’ कह कर विभा ने जल्दी से रसोई में जा कर दूध गैस पर रख दिया.

मनु को जल्दीजल्दी तैयार कर के जानकी के साथ स्कूल भेज कर विभा अभी स्नानघर में घुसी ही थी कि फिर घंटी बजी. दरवाजा खोल कर देखा, सामने नवीन कुमार खड़े मुसकरा रहे थे.

‘‘नमस्कार, विभाजी, आज सुबहसुबह आप को कष्ट देने आ गया हूं,’’ कह कर नवीन कुमार ने एक कार्ड विभा के हाथ में थमा दिया, ‘‘आज हमारे बेटे की 5वीं वर्षगांठ है. आप को और मनु को जरूर आना है. अच्छा, मैं चलूं. अभी बहुत जगह कार्ड देने जाना है.’’

निमंत्रणपत्र हाथ में लिए पलभर को विभा खोई सी खड़ी रह गई. 6-7 दिन पहले ही तो मनु उस के पीछे पड़ रही थी, ‘मां, सब बच्चों की तरह आप मेरा जन्मदिन क्यों नहीं मनातीं? इस बार मनाएंगी न, मां.’

‘हां,’ गरदन हिला कर विभा ने मनु को झूठी दिलासा दे कर बहला दिया था.

जल्दीजल्दी तैयार हो विभा दफ्तर जाने लगी तो जानकी से कह गई कि रात को सब्जी आदि न बनाए, क्योंकि मांबेटी दोनों को नवीन कुमार के घर दावत पर जाना था.

घर से दफ्तर तक का बस का सफर रोज ही विभा को उबा देता था, किंतु उस दिन तो जैसे नवीन कुमार का निमंत्रणपत्र बीते दिनों की मीठी स्मृतियों का तानाबाना सा बुन रहा था.

मनु जब 2 साल की हुई थी, एक दिन नाश्ते की मेज पर नितिन ने विभा से कहा था, ‘विभा, जब अगले साल हम मनु की सालगिरह मनाएंगे तो सारे व्यंजन तुम अपने हाथों से बनाना. कितना स्वादिष्ठ खाना बनाती हो, मैं तो खाखा कर मोटा होता जा रहा हूं. बनाओगी न, वादा करो.’

नितिन और विभा का ब्याह हुए 4 साल हो चुके थे. शादी के 2 साल बाद मनु का जन्म हुआ था. पतिपत्नी के संबंध बहुत ही मधुर थे. नितिन का काम ऐसी जगह था जहां लड़कियां ज्यादा, लड़के कम थे. वह प्रसाधन सामग्री बनाने वाली कंपनी में सहायक प्रबंधक था. नितिन जैसे खूबसूरत व्यक्ति के लिए लड़कियों का घेरा मामूली बात थी, पर उस ने अपना पारिवारिक जीवन सुखमय बनाने के लिए अपने चारों ओर विभा के ही अस्तित्व का कवच पहन रखा था. विभा जैसी गुणवान, समझदार और सुंदर पत्नी पा कर नितिन बहुत प्रसन्न था.

विलेपार्ले के फ्लैट में रहते नितिन को 6 महीने ही हुए थे. मनु ढाई साल की हो गई थी. उन्हीं दिनों उन के बगल वाले फ्लैट में कोई कुलदीप राज व सामने वाले फ्लैट में नवीन कुमार के परिवार आ कर रहने लगे थे. दोनों परिवारों में जमीन- आसमान का अंतर था. जहां नवीन कुमार दंपती नित्य मनु को प्यार से अपने घर ले जा कर उसे कभी टौफी, चाकलेट व खिलौने देते, वहीं कुलदीप राज और उन की पत्नी मनु के द्वारा छुई गई उन की मनीप्लांट की पत्ती के टूट जाने का रोना भी कम से कम 2 दिन तक रोते रहते.

एक दिन नवीन कुमार के परिवार के साथ नितिन, विभा और मनु पिकनिक मनाने जुहू गए थे. वहां नवीन का पुत्र सौमित्र व मनु रेत के घर बना रहे थे.

अचानक नितिन बोला, ‘विभा, क्यों न हम अपनी मनु की शादी सौमित्र से तय कर दें. पहले जमाने में भी मांबाप बच्चों की शादी बचपन में ही तय कर देते थे.’

नितिन की बात सुन कर सभी खिलखिला कर हंस पड़े तो नितिन एकाएक उदास हो गया. उदासी का कारण पूछने पर वह बोला, ‘जानती हो विभा, एक ज्योतिषी ने मेरी उम्र सिर्फ 30 साल बताई है.’

विभा ने झट अपना हाथ नितिन के होंठों पर रख उसे चुप कर दिया था और झरझर आंसू की लडि़यां बिखेर कर कह उठी थी, ‘ठीक है, अगर तुम कहते हो तो सौमित्र से ही मनु का ब्याह करेंगे, पर कन्यादान हम दोनों एकसाथ करेंगे, मैं अकेली नहीं. वादा करो.’

बस रुकी तो विभा जैसे किसी गहरी तंद्रा से जाग उठी, दफ्तर आ गया था.

लौटते समय बस का इंतजार करना विभा ने व्यर्थ समझा. धीरेधीरे पैदल ही चलती हुई घंटाघर के चौराहे को पार करने लगी, जहां कभी वह और नितिन अकसर पार्क की बेंच पर बैठ अपनी शामें गुजारते थे.

सभी कुछ वैसा ही था. न पार्क बदला था और न वह पत्थर की लाल बेंच. विभा समझ नहीं पा रही थी कि उस दिन उसे क्या हो रहा था. जहां उसे घर जाने की जल्दी रहती थी, वहीं वह जानबूझ कर विलंब कर रही थी. यों तो वह इन यादों को जीतोड़ कोशिशों के बाद किसी कुनैन की गोली के समान ही सटक कर अपनेआप को संयमित कर चुकी थी.

हालांकि वह तूफान उस के दांपत्य जीवन में आया था, तब वह अपनेआप को बहुत ही कमजोर व मानसिक रूप से असंतुलित महसूस करती थी और सोचती थी कि शायद ही वह अधिक दिनों तक जी पाएगी, पर 3 साल कैसे निकल गए, कभी पीछे मुड़ कर विभा देखती तो सिर्फ मनु ही उसे अंधेरे में रोशनी की एक किरण नजर आती, जिस के सहारे वह अपनी जिंदगी के दिन काट रही थी.

उस दिन की घटना इतना भयानक रूप ले लेगी, विभा और नितिन दोनों ने कभी ऐसी कल्पना भी नहीं की थी.

एक दिन विभा के दफ्तर से लौटते ही एक बेहद खूबसूरत तितलीनुमा लड़की उन के घर आई थी, ‘‘आप ही नितिन कुमार की पत्नी हैं?’’

‘‘जी, हां. कहिए, आप को पहचाना नहीं मैं ने,’’ विभा असमंजस की स्थिति में थी.

उस आधुनिका ने पर्स में से सिगरेट निकाल कर सुलगा ली थी. विभा कुछ पूछती उस से पहले ही उस ने अपनी कहानी शुरू कर दी, ‘‘देखिए, मेरा नाम शुभ्रा है. मैं दिल्ली में नितिन के साथ ही कालिज में पढ़ती थी. हम दोनों एकदूसरे को बेहद चाहते थे. अचानक नितिन को नौकरी मिल गई. वह मुंबई चला आया और मैं, जो उस के बच्चे की मां बनने वाली थी, तड़पती रह गई. उस के बाद मातापिता ने मुझे घर से निकाल दिया. फिर वही हुआ जो एक अकेली लड़की का इस वहशी दुनिया में होता है. न जाने कितने मर्दों के हाथों का मैं खिलौना बनी.’’

विभा को तो मानो सांप सूंघ गया था. आंखों के आगे अंधेरा सा छा गया था. उस ने झट फ्रिज से बोतल निकाल कर पानी पिया और अपने ऊपर नियंत्रण रखते हुए अंदर से किवाड़ की चटखनी चढ़ा कर उस लड़की से पूछा, ‘‘तुम ने अभी- अभी कहा है कि तुम नितिन के बच्चे की मां बनने वाली थीं…’’

‘‘मेरा बेटा…नहीं, नितिन का बेटा कहूं तो ज्यादा ठीक होगा, वह छात्रावास में पढ़ रहा है,’’ युवती ने विभा की आंखों में झांकते हुए कहा.

‘‘तुम अब क्या चाहती हो? मेरे विचार से बेहतर यही होगा कि तुम फौरन  यहां से चली जाओ. नितिन तुम्हें भूल चुका होगा और शायद तुम से अब बात भी करना पसंद नहीं करेगा. तुम्हें पैसा चाहिए? मैं अभी चेक काट देती हूं, पर यहां से जल्दी चली जाओ और फिर कभी इधर न आना?’’ विभा ने 10 हजार रुपए का चेक काट कर उसे थमा दिया.

‘‘इतनी आसानी से चली जाऊं. कितनी मुश्किल से तो अपने एक पुराने साथी से पैसे मांग कर यहां तक पहुंची हूं और फिर नितिन से मुझे अपने 6 साल का हिसाब चुकाना है,’’ युवती ने व्यंग्य- पूर्वक मुसकराते हुए कहा.

थोड़ी देर बाद घंटी बजी. विभा ने दौड़ कर दरवाजा खोला. नितिन ने अंदर कदम रखते हुए कहा, ‘‘शुभ्रा, तुम…तुम यहां कैसे?’’

विभा की तो रहीसही शंका भी मिट चुकी थी. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे और क्या न करे. युवती ने अपनी कहानी एक बार फिर नितिन के सामने दोहरा दी थी.

विभा के अंदर जो घृणा नितिन के प्रति जागी थी, उस ने भयंकर रूप ले लिया था. नितिन बारबार उसे समझा रहा था, ‘‘विभा, यह लड़की शुरू से आवारा है. मेरा इस से कभी कोई संबंध नहीं था. हर पुराने सहपाठी या मित्र को यह ऐसे ही ठगती है. विभा, नासमझ न बनो. यह नाटक कर रही है.’’

पर विभा ने तो अपना सूटकेस तैयार करने में पलभर की भी देरी नहीं की थी. वह नितिन का घर छोड़ कर चली गई. कोशिश कर के नवीन कुमार के दफ्तर में उसे नौकरी भी मिल गई. कुछ समय मनु के साथ एक छोटे से कमरे में गुजार कर बाद में विभा ने फ्लैट किराए पर ले लिया था.

घर छोड़ने के 5-6 माह बाद ही विभा को पता चला कि वह लड़की धोखेबाज थी. उस ने डराधमका कर नितिन से बहुत सा रुपया ऐंठ लिया था. उस हादसे से वह एक तरह से अपना मानसिक संतुलन ही खो बैठा था. चाह कर भी विभा फिर नितिन से मिलने न जा सकी.

नवीन कुमार के बेटे के जन्मदिन की पार्टी में विभा नहीं गई. जब विभा घर पहुंची तो मनु सो चुकी थी. विभा कपड़े बदल कर निढाल सी पलंग पर जा लेटी. उस दिन न जाने क्यों उसे नितिन की बेहद याद आ रही थी.

रात के 11 बजे कच्ची नींद में विभा को जोरजोर से किवाड़ पर दस्तक सुनाई दी. स्वयं को अकेली जान यों ही एक बार तो वह घबरा उठी. फिर हिम्मत जुटा कर उस ने पूछा, ‘‘कौन है?’’

बाहर से कुलदीप राज की आवाज पहचान उस ने द्वार खोला. पुलिस की वर्दी में एक सिपाही को देख एकाएक उस के पैरों के नीचे से जमीन ही निकल गई.

‘‘आप ही विभा हैं?’’ सिपाही ने पूछा.

‘‘ज…ज…जी, कहिए.’’

‘‘आप के पति का एक्सीडेंट हो गया है. नशे की हालत में एक टैक्सी से टकरा गए हैं. उन की जेब में मिले कागजों व आप के पते तथा फोटो से हम यहां तक पहुंचे हैं. आप तुरंत हमारे साथ चलिए.’’

‘‘कैसे हैं वह?’’

‘‘घबराएं नहीं, खतरे की कोई बात नहीं है,’’ सिपाही ने सांत्वना भरे स्वर में कहा.

विभा का शरीर कांप रहा था. हृदय की धड़कन बेकाबू सी हो गई थी. एक पल में ही विभा सारी पिछली बातें भूल कर तुरंत मनु को पड़ोसियों को सौंप कर अस्पताल पहुंची.

नितिन गहरी बेहोशी में था. काफी चोट आई थी. डाक्टर के आते ही विभा पागलों की भांति उसे झकझोर उठी, ‘‘डाक्टर साहब, कैसे हैं मेरे पति? ठीक तो हो जाएंगे न…’’

डाक्टर ने विभा को तसल्ली दी, ‘‘खतरे की कोई बात नहीं है. 2-3 जगह चोटें आई हैं, खून काफी बह गया है. लेकिन आप चिंता न करें. 4-5 दिन में इन्हें घर ले जाइएगा.’’

विभा के मन को एक सुखद शांति मिली थी कि उस के नितिन का जीवन खतरे से बाहर है.

5वें दिन विभा नितिन को ले कर घर आ गई थी. अस्पताल में दोनों के बीच जो मूक वार्त्तालाप हुआ था, उस में सारे गिलेशिकवे आंसुओं की नदी बन कर बह गए थे.

बचपन में विभा के स्कूल की एक सहेली हमेशा उस से कहती थी, ‘विभा, एक बार कुट्टी कर के जब दोबारा दोस्ती होती है तो प्यार और भी गहरा हो जाता है.’ उस दिन विभा को यह बात सत्य महसूस हो रही थी.

नितिन ने विभा से फिर कभी शराब न पीने का वादा किया था और उन की गृहस्थी को फिर एक नई जिंदगी मिल गई थी.

इतने वर्ष कैसे बीत गए, पता ही नहीं चला था. उस दिन विभा की बेटी मनु की शादी हो रही थी.

‘‘नितिन, वह ज्योतिषी कितना ढोंगी था, जिस ने तुम्हें फुजूल मरनेजीने की बात बता कर वहम में डाला था. चलो, मनु का कन्यादान करने का समय हो रहा है,’’ विभा ने मुसकराते हुए कहा.

विदाई के समय विभा ने मनु को सीख दी थी, ‘‘मनु, कभी मेरी तरह तुम भी निराधार शक की शिकार न होना, वरना हंसतीखेलती जिंदगी रेगिस्तान के तपते वीराने में बदल जाएगी.’’

आईना: क्यों सुंदर सहगल को मंजूर नहीं था बेटी का चुना रास्ता

मस्ती में कंधे पर कालिज बैग लटकाए सुरुचि कान में मोबाइल का ईयरफोन लगा कर एफएम पर गाने सुनती हुई मेट्रो से उतरी. स्वचालित सीढि़यों से नीचे आ कर उस ने इधरउधर देखा पर सुकेश कहीं नजर नहीं आया. अपने बालों में हाथ फेरती सुरुचि मन ही मन सोचने लगी कि सुकेश कभी भी टाइम पर नहीं पहुंचता है. हमेशा इंतजार करवाता है. आज फिर लेट.

गुस्से से भरी सुरुचि ने फोन मिला कर अपना सारा गुस्सा सुकेश पर उतार दिया. बेचारा सुकेश जवाब भी नहीं दे सका. बस, इतना कह पाया, ‘‘टै्रफिक में फंस गया हूं.’’

सुरुचि फोन पर ही सुकेश को एक छोटा बालक समझ कर डांटती रही और बेचारा सुकेश चुपचाप डांट सुनता रहा. उस की हिम्मत नहीं हुई कि फोन काट दे. 3-4 मिनट बाद उस की कार ने सुरुचि के पास आ कर हलका सा हार्न बजाया. गरदन झटक कर सुरुचि ने कार का दरवाजा खोला और उस में बैठ गई, लेकिन उस का गुस्सा शांत नहीं हुआ.

‘‘जल्दी नहीं आ सकते थे. जानते हो, अकेली खूबसूरत जवान लड़की सड़क के किनारे किसी का इंतजार कर रही हो तो आतेजाते लोग कैसे घूर कर देखते हैं. कितना अजीब लगता है, लेकिन तुम्हें क्या, लड़के हो, रास्ते में कहीं अटक गए होगे किसी खूबसूरत कन्या को देखने के लिए.’’

‘‘अरे बाबा, शांत हो कर मेरी बात सुनो. दिल्ली शहर के टै्रफिक का हाल तो तुम्हें मालूम है, कहीं भी भीड़ में फंस सकते हैं.’’

‘‘टै्रफिक का बहाना मत बनाओ, मैं भी दिल्ली में रहती हूं.’’

‘‘तुम तो मेट्रो में आ गईं, टै्रफिक का पता ही नहीं चला, लेकिन मैं तो सड़क पर कार चला रहा था.’’

‘‘बहाने मत बनाओ, सब जानती हूं तुम लड़कों को. कहीं कोई लड़की देखी नहीं कि रुक गए, घूरने या छेड़ने के लिए.’’

‘‘तुम इतना विश्वास के साथ कैसे कह सकती हो?’’

‘‘विश्वास तो पूरा है पर फुरसत में बताऊंगी कि कैसे मुझे पक्का यकीन है…’’

‘‘तो अभी बता दो, फुरसत में…’’

‘‘इस समय तो तुम कार की रफ्तार बढ़ाओ, मैं शुरू से फिल्म देखना चाहती हूं. देर से पहुंचे तो मजा नहीं आएगा.’’

सिनेमाहाल के अंधेरे में सुरुचि फिल्म देखने में मस्त थी, तभी उसे लगा कि सुकेश के हाथ उस के बदन पर रेंग रहे हैं. उस ने फौरन उस के हाथ को झटक दिया और अंधेरे में घूर कर देखा. फिर बोली, ‘‘सुकेश, चुपचाप फिल्म देखो, याद है न मैं ने कार में क्या कहा था, एकदम सच कहा था, जीताजागता उदाहरण तुम ने खुद ही दे दिया. जब तक मैं न कहूं, अपनी सीमा में रहो वरना कराटे का एक हाथ यदि भूले से भी लग गया तो फिर मेरे से यह मत कहना कि बौयफें्रड पर ही प्रैक्टिस.’’

यह सुन कर बेचारा सुकेश अपनी सीट पर सिमट गया और सोचने लगा कि किस घड़ी में कराटे चैंपियन लड़की पर दिल दे बैठा. फिल्म समाप्त होने पर सुकेश कुछ अलगअलग सा चलने लगा तो सुरुचि ने उस का हाथ पकड़ा और बोली, ‘‘इस तरह छिटक के कहां जा रहे हो, भूख लगी है, रेस्तरां में चल कर खाना खाते हैं,’’ और दोनों पास के रेस्तरां में खाना खाने चले गए.

कोने की एक सीट पर बैठे सुकेश व सुरुचि बातें करने व खाने में मस्त थे. तभी शहर के मशहूर व्यापारी सुंदर सहगल भी उसी रेस्तरां में अपने कुछ मित्रों के साथ आए और एक मेज पर बैठ कर बिजनेस की बातें करने लगे. आज के भागदौड़ के समय में घर के सदस्य भी एकदूसरे के लिए एक पल का समय नहीं निकाल पाते हैं, सुरुचि के पिता सुंदर सहगल भी इसी का एक उदाहरण हैं. आज बापबेटी आमनेसामने की मेज पर बैठे थे फिर भी एकदूसरे को नहीं देख सके.

लगभग 1 घंटे तक रेस्तरां में बैठे रहने के बाद पहले सुरुचि जाने के लिए उठी. वह सुंदर की टेबल के पास से गुजरी और उस का पर्स टेबल के कोने से अटक गया. जल्दी से पर्स छुड़ाया और ‘सौरी अंकल’ कह कर सुकेश के हाथ में हाथ डाले निकल गई. उसे इस बात का एहसास ही नहीं हुआ कि वह टेबल पर बैठे अंकल और कोई नहीं उस के पिता सुंदर सहगल थे.

लेकिन पिता ने देख लिया कि वह उस की बेटी है. अपने को नियंत्रण में रख कर वह बिजनेस डील पर बातें करते रहे. उन्होंने यह जाहिर नहीं होने दिया कि वह उन की बेटी थी. रेस्तरां से निकल कर सुंदर सीधे घर पहुंचे. उन की पत्नी सोनिया कहीं बाहर जाने की तैयारी कर रही थीं. मेकअप करते हुए सोनिया ने पति से पूछा, ‘‘क्या बात है, दोपहर में कैसे आना हुआ, तबीयत तो ठीक है न?’’

‘‘हां, ठीक है.’’

‘‘तबीयत ठीक है तो इतनी जल्दी? कुछ बात तो है…आप का घर लौटने का समय रात 11 बजे के बाद ही होता है. आज क्या बात है?’’

‘‘कहां जा रही हो?’’

‘‘किटी पार्टी में और कहां जा सकती हूं. एक सफल बिजनेसमैन की बीवी और क्या कर सकती है.’’

‘‘किटी पार्टी के चक्कर कम करो और घर की तरफ ध्यान देना शुरू करो.’’

‘‘आप तो हमेशा व्यापार में डूबे रहते हैं. यह अचानक घर की तरफ ध्यान कहां से आ गया?’’

‘‘अब समय आ गया है कि तुम सुरुचि की ओर ध्यान देना शुरू कर दो. आज उस ने वह काम किया है जिस की मैं कल्पना नहीं कर सकता था.’’

‘‘मैं समझी नहीं, उस ने कौन सा ऐसा काम कर दिया…खुल कर बताइए.’’

‘‘क्या बताऊं, कहां से बात शुरू करूं, मुझे तो बताते हुए भी शर्म आ रही है.’’

‘‘मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा है कि आप क्या बताना चाहते हैं?’’ सोनिया, जो अब तक मेकअप में व्यस्त थी, पति की तरफ पलट कर उत्सुकतावश देखने लगी.

‘‘सोनिया, तुम्हारी बेटी के रंगढंग आजकल सही नहीं हैं,’’ सुंदर सहगल तमतमाते हुए बोले, ‘‘खुल्लमखुल्ला एक लड़के के हाथों में हाथ डाले शहर में घूम रही है. उसे इतना भी होश नहीं था कि उस का बाप सामने खड़ा है.’’

कुछ देर तक सोनिया सुंदर को घूरती रही फिर बोली, ‘‘देखिए, आप की यह नाराजगी और क्रोध सेहत के लिए अच्छा नहीं है. थोड़ी शांति के साथ इस विषय पर सोचें और धीमी आवाज में बात करें.’’

इस पर सुंदर सहगल का पारा सातवें आसमान पर पहुंच गया. चेहरा लाल हो गया और ब्लडप्रेशर ऊपर हो गया. सोनिया ने पति को दवा दी और सहारा दे कर बिस्तर पर लिटाया. खुद का किटी पार्टी में जाने का प्रोग्राम कैंसल कर दिया.

सुंदर को चैन नहीं था. उस ने फिर से सोनिया से सुरुचि की बात शुरू कर दी. अब सोनिया, जो इस विषय को टालना चाहती थी, ने कहना शुरू किया, ‘‘आप इस बात को इतना तूल क्यों दे रहे हैं. मैं सुकेश से मिल चुकी हूं. आजकल लड़कालड़की में कोई अंतर नहीं है. कालिज में एकसाथ पढ़ते हैं. एकसाथ रहने, घूमनेफिरने में कोई एतराज नहीं करते और फिर मुझे अपनी बेटी पर पूरा भरोसा है कि वह कोई गलत काम कर ही नहीं सकती है. मैं ने उसे पूरी ट्रेनिंग दे रखी है. आप को मालूम भी नहीं है, वह कराटे जानती है और 2 बार मनचलों पर कराटे का इस्तेमाल भी कर चुकी है…’’

‘‘सोनिया, तुम सुरुचि के गलत काम में उस का साथ दे रही हो,’’ सुंदर सहगल ने तमतमाते हुए बीच में बात काटी.

‘‘मैं आप से बारबार शांत होने के लिए कह रही हूं और आप हैं कि एक ही बात को रटे जा रहे हैं. आखिर वह है तो आप की ही बेटी. तो आप से अलग कैसे हो सकती है.

‘‘आप अपनी जवानी के दिनों को याद कीजिए. 25 साल पहले, आप क्या थे. एक अमीर

बाप की बिगड़ी औलाद जो महज मौजमस्ती के लिए कालिज जाता था. आप ने कभी कोई क्लास भी अटैंड की थी, याद कर के बता सकते हैं मुझे.’’

‘‘तुम क्या कहना चाहती हो?’’

‘‘वही जो आप मुझ से सुनना चाह रहे थे…आप का ज्यादातर समय लड़कियों के कालिज के सामने गुजरता था. आप ने कितनी लड़कियों को छेड़ा था शायद गिनती भी नहीं कर सकते, मैं भी उन्हीं में से एक थी. आतेजाते लड़कियों को छेड़ना, फब्तियां कसना ही आप और आप की मित्रमंडली का प्रिय काम था. छटे हुए गुंडे थे आप सब, इसलिए हर लड़की घबराती थी और मेरा तो जीना ही हराम कर दिया था आप ने. मैं कमजोर थी क्योंकि मेरा बाप गरीब था और कोई भाई आप की हरकतों का जवाब देने वाला नहीं था. इसलिए आप की हरकतों को नजरअंदाज करती रही.

‘‘हद तो तब हो गई थी जब मेरे घर की गली में आप ने डेरा जमा लिया था. आतेजाते मेरा हाथ पकड़ लेते थे. कितना शर्मिंदा होना पड़ता था मुझे. मेरे मांबाप पर क्या बीतती थी, आप ने कभी सोचा था. मेरा हाथ पकड़ कर खीखी कर पूरी गुंडों की टोली के साथ हंसते थे. शर्म के मारे जब एक सप्ताह तक मैं घर से नहीं निकली तो आप मेरे घर में घुस आए. कभी सोचने की कोशिश भी शायद नहीं की होगी आप ने कि क्या बीती होगी मेरे मांबाप पर और आज मुझ से कह रहे हैं कि अपनी बेटी को संभालूं. खून आप का भी है, कुछ तो बाप के गुण बच्चों में जाएंगे लेकिन मैं खुद सतर्क हूं क्योंकि मैं खुद भुगत चुकी हूं कि इन हालात में लड़की और उस के मातापिता पर क्या बीतती है.

‘‘इतिहास खुद को दोहराता है. आज से 25 साल पहले जब उस दिन सब हदें पार कर के आप मेरे घर में घुसे थे कि शरीफ बाप क्या कर लेगा और अपनी मनमानी कर लेंगे तब मैं अपने कमरे में पढ़ रही थी और कमरे में आ कर आप ने मेरा हाथ पकड़ लिया था. मैं चिल्ला पड़ी थी. पड़ोस में शकुंतला आंटी ने देख लिया था. उन के शोर मचाने पर आसपास की सारी औरतें जमा हो गई थीं…जम कर आप की धुनाई की थी, शायद आप उस घटना को भूल गए होंगे, लेकिन मैं आज तक नहीं भूली हूं.

‘‘महल्ले की औरतों ने आप की चप्पलों, जूतों, झाड़ू से जम कर पिटाई की थी, सारे कपड़े फट गए थे, नाक से खून निकल रहा था और आप को पिटता देख आप के सारे चमचे दोस्त भाग गए थे और उस अधमरी हालत में घसीटते हुए सारी औरतें आप को इसी घर में लाई थीं. ससुरजी भागते हुए दुकान छोड़ कर घर आए और आप की करतूतों के लिए सिर झुका लिया था, लिखित माफी मांगी थी, कहो तो अभी वह माफीनामा दिखाऊं, अभी तक संभाल कर रखा है.’’

सुंदर सहगल कुछ नहीं बोल सके और धम से बिस्तर पर बैठ गए. सोनिया ने उन के अतीत का आईना सामने जो रख दिया था. सच कितना कड़वा होता है शायद इस बात का अंदाजा उन्हें आज हुआ.

आज इतिहास करवट बदल कर सामने खड़ा है. खुद अपना चेहरा देखने की हिम्मत नहीं हो रही है, सुधबुध खो कर वह शून्य में गुम हो चुके थे. सोनिया क्या बोल रही है, उन के कान नहीं सुन रहे थे, लेकिन सोनिया कहे जा रही थी :

‘‘आप सुन रहे हैं न, चोटग्रस्त होने की वजह से एक हफ्ते तक आप बिस्तर से नहीं उठ सके थे. जो बदनामी आप को आज याद आ रही है, वह मेरे पिता और ससुरजी को भी आई थी. बदनामी लड़के वालों की भी होती है. एक गुंडे के साथ कोई अपनी लड़की का ब्याह नहीं कर रहा था. चारों तरफ से नकारने के बाद सिर्फ 2 ही रास्ते थे आप के पास या तो किसी गुंडे की बहन से शादी करते या कुंआरे रह कर सारी उम्र गुंडागर्दी करते.

‘‘जिस बाप की लड़की के पीछे गुंडा लग जाए, वह कर भी क्या सकता था. ससुरजी ने जब सब रास्ते बंद देख कर मेरा हाथ मेरे पिता से मांगा तो मजबूरी से दब कर एक गुंडे को न चाहते हुए भी उन्हें अपना दामाद स्वीकार करना पड़ा,’’ कहतेकहते सोनिया भी पलंग का पाया पकड़ कर सुबक कर रोने लगी.

बात तो सच है, जवानी की रवानी में जो कुछ किया जाता है, उस को भूल कर हम सभी बच्चों से एक आदर्श व्यवहार की उम्मीद करते हैं. क्या अपने और बच्चों के लिए अलग आदर्श होने चाहिए, कदापि नहीं. पर कौन इस का पालन करता है. सुंदर सहगल तो केवल एक पात्र हैं जो हर व्यक्ति चरितार्थ करता है.

प्रैगनैंसी: भाग 1- अरुण को बड़ा सबक कब मिला

शिखा के पास क्या नहीं था. जितना उस ने सोचा भी नहीं था. उस से कहीं अधिक उसे मिला था. लंबाचौड़ा फ्लैट, जिस के छज्जे से समुद्र की लहरें अठखेलियां करती दिखाई पड़ती थीं. उस पर रखे सीमेंट के गमलों में उस ने खूब सारी लताएं लगाई थीं, जो सदाबहार फूलों से लदी रहती थीं. इन सब का सुख लेने के लिए उस ने छज्जे पर सफेद बेंत की कुरसियां डलवा रखी थीं. अकसर वह और उस का पति चांदनी रातों में वहां बैठ कर समुद्र की लहरों को मचलते देखा करते थे. ऐसे में किलकारी मारती उन की बच्ची रूपा उन्हें बारबार धरती पर खींच लाया करती थी.

शिखा का ड्राइंगरूम भी कम खूबसूरत नहीं था. ड्राइंगरूम में लगे बड़ेबड़े शीशे के दरवाजे छज्जे पर ही खुलते थे. उन में से भी समुद्र साफ दिखाई देता था. दीवारों पर लगी बड़ीबड़ी मधुबनी कलाकृतियां आने वाले अतिथियों का मन मोह लेती थीं. बढि़या रैक्सीन का सफेद सोफा तो जैसे ड्राइंगरूम की शान था. उस पर वह इधरउधर गुलदस्ते सजा देती थी. नीली लेस लगे सफेद परदों से पूरा ड्राइंगरूम बहुत भव्य लगता था.

इसी तरह शिखा ने अपना शयनकक्ष भी सजाया हुआ था. पूरा हलका गुलाबी. उस की हर चीज में गुलाबी रंग का स्पर्श था. उस से लगा स्नानघर समूचा संगमरमर से बना था. फ्लैट बनवाते समय उस ने स्नानघर और रसोई पर ज्यादा ध्यान दिया था. उस का खयाल है कि यही दोनों चीजें किसी फ्लैट की जान होती हैं. अगर ये दोनों चीजें अच्छी न हों तो सबकुछ बेकार. इसीलिए उस ने अपने बाथरूम का टब सफेद संगमरमर का बनवाया था. उस के एक तरफ हलके रंगों के प्लास्टिक के परदे थे. जब शिखा उस में नहाती थी तो अपने को रानीमहारानी से कम नहीं समझती थी.

अब तो कहते हुए भी शर्म आती है, पर शुरू में उस ने सोचा था कि उस के 4-5 बच्चे होंगे. इसीलिए उस के उस फ्लैट में 5 कमरे थे. पर वह केवल एक ही बच्ची की मां बन कर रह गई. एक बच्ची के साथ यह फ्लैट उस को बहुत बड़ा लगता था. इसलिए उस ने केवल 3 कमरे अपने लिए सजाए थे, शेष 2 को आने वाले मेहमानों के लिए खाली रख छोड़ा था.

जब से शिखा के पति ने ‘शिपिंग’ कंपनी खोली थी तब से तो वह और भी अकेली हो गईर् थी. उस के पति को अकसर बाहर जाना पड़ता था. कुछ कपड़ों तथा जरूरत के सारे छोटेमोटे सामान के साथ उस के पति की अटैची सदा तैयार रहती. उस की बेटी रूपा कुछ साल बाद बड़ी हो गई थी. कालेज में पढ़ने लगी थी. मां के लिए उस के पास ज्यादा टाइम नहीं था. 4 चौकरों के बीच खिलौनों की तरह चक्कर काटती रहती थी. शिखा क्या करे. करने को कुछ काम ही नहीं था.

कभी कुछ भी करने को न होता तो वह नौकरों से पूरा फ्लैट धुलवा डालती. वह सफाई की शुरू से ही शौकीन थी. इस सफाई में उस का आधा दिन निकल जाता था. कभीकभी वह ड्राइंगरूम के शीशे स्वयं साफ करने लगती थी. उस के नौकर जो पुराने हो चुके थे, उसे काम करने से रोकते रहते थे. पर मन लगाने के लिए उसे कुछ काम तो करना चाहिए ही था. वह उपन्यास पढ़पढ़ कर ऊब गई थी क्योंकि उस के पति का स्टेटस देखते हुए उसे इस आयु में कोई जौब नहीं देगा. वैसे भी वह नौकरी करने की बात सोच भी नहीं सकती थी. पैसों कीकोई कमी नहीं थी.

जब मन बिलकुल न लगता तो दोनों मांबेटी कार ले कर खरीदारी के लिए निकल जाती थीं. थोड़े दिन उसी खरीदारी को व्यवस्थित करने में निकल जाते थे. कुछ दिन तो रूपा की पोशाक के लिए नई डिजाइन सोचने तथा कुछ अलट्रेशन कराने की बताने में ही निकल जाते थे. शिखा को बहुत अच्छा लगता जब उस की डिजाइन पर सिला कपड़ा रूपा पर खूब फबता.

पूरी रौनक तो उन दिनों आती थी, जब उस का पति अरुण दौरे से लौट कर घर आता. नौकरों में भी चहलपहल बढ़ जाती थी. 2 नौकर तो रसोई में जुटे रहते थे. अरुण को जोजो चीजें पसंद होतीं वे सब बनतीं. ऐसे में खाने की मेज पर डोंगों और प्लेटों की एक बाढ़ सी आ जाती. तब शिखा सजीसंवरी घूमती रहती थी.

मगर रूपा तब भी अपने में मस्त रहती. उसे अपनी सहेलियों और मित्रों के साथ इतना अच्छा लगता था कि वह घर को भूल ही जाती थी. उसे पता था, पिताजी जैसे आए हैं, वैसे ही चले जाएंगे. शाम को तो उन से मिलना ही है. बस और क्या चाहिए. फिर बड़ों के साथ बैठ कर उसे क्या मिलेगा. केवल प्यार भरी कोई नसीहत कि ऐसा करो, वैसा न करो, लड़कियों को खाना बनाना आना ही चाहिए, लड़कियों का बाहर बहुत नहीं रहना चाहिए आदिआदि.

जब से रूपा कालेज में पढ़ने लगी थी उसे यह सुनना बहुत बुरा लगने लगा था. शिखा जब उस मोबाइल पर फोन कर के कहती कि रूपा घर आने में देर न किया करो तो रूपा झंझाला उठती और कहती कि बताइए, घर आ कर मैं क्या करूं. यहां तो मेरा मन ही नहीं लगता. इसलिए थोड़ा शीला के घर चली जाती हूं.

जब शिखा उस से कहती कि बेटी, लड़कियों का ज्यादा देर बाहर रहना ठीक नहीं है तो रूपा कहती कि मां, पिताजी तो कभी ऐसा नहीं कहते. तुम हो कि सदा मुझे रोकती ही रहती हो. मां, अब दुनिया पहले से बहुत बदल गई है. लड़केलड़कियों में कोई अंतर नहीं होता आदि  कहती हुई दनादन सीढि़यां उतर जाती.

शिखा यह सब सुन कर भी चुप रह जाती थी. वह सोचने लगती कि क्या सचमुच जमाना बदल गया है. अपने जमाने में उसे अपनी मां और दादी से कितना डर लगता था. उसे स्कूल भी घर का नौकर छोड़ने जाता था. छुट्टी होते ही नौकर स्कूल के दरवाजे पर खड़ा मिलता था. एक दिन स्कूल से सीधे वह सहेली के घर चली गई थी. घर आते ही देखा पिता छड़ी ले कर दरवाजे पर चक्कर लगा रहे थे. मां अंदर अलग परेशान हो रह थी. वह डर के मारे सहम गई थी. बस इतना ही कह पाई थी, ‘‘मां, उस सहेली की तबीयत ठीक नहीं थी, इसलिए चली गई थी.’’

मगर आगे के लिए रास्ता बंद हो गया था. पिता बोले थे, ‘‘यदि तुम्हें जाना ही था तो पूछ कर जाती. अब आगे से कभी कहीं नहीं जाना.’’

दादी तो सीधे गालियां ही देने लगी थीं, ‘‘आजकल की लड़कियों को लोकलाज तो है नहीं. जहां चाहे घूमती फिरती हैं.’’

चाहे जो भी हो, वह जमाना था बड़ा अच्छा. लड़कियों में एक सलीका था, लिहाज था. छोटे बड़ों की इज्जत करते थे. पर अब तो हर बात का जवाब उन के पास मौजूद है. वह कैसे सम?ाए रूपा को. उसे लगता है जवानी के तूफान में रूपा बहकती जा रही है. वह कैसे रोके उसे.

एक दिन शिखा ने अरुण से भी कहा, ‘‘अरुण, रूपा को समझओ. तुम तो

बाहर रहते हो, वह दिनभर घर से बाहर रहती है. मेरी एक नहीं सुनती. तुम ने उसे प्यार में सिर पर चढ़ा रखा है. कालेज से भी देर से आने लगी हैं.’’

उत्तर में अरुण ने कहा, ‘‘शिखा, सच कहता हूं तुम अपने दकियानूसी विचारों को छोड़ नहीं पाईं. जमाना देखो, लड़कियां दुनिया नहीं देखेंगी तो सीखेंगी कैसे. फिर तुम किस की पत्नी हो,’’ उस के पति सिर ऊंचा कर के थोड़ा सीना तान कर कहते, ‘‘शिपिंग कंपनी के मालिक की, जिस के 3-3 कारखाने भी हैं. तुम्हें किसी बात की चिंता नहीं करनी चाहिए,’’ अरुण शिखा के कंधे पकड़ मुसकरा दिया.

अरुण उन की बातों से थोड़ा मुसकराने लगती. फिर सोचती, ये सुख के क्षण बेकार की बातों में चले जाएंगे. अरुण 4 दिन के लिए आए हैं, उन को सुख ही सुख देना चाहिए. यह सोच कर वह उन का हाथ पकड़ कर कहने लगती, ‘‘तुम आ जाते हो तो मुझ में नई ताकत आ जाती है. मन कहता है कि तुम से सबकुछ कह डालूं. मेरी आदत तो तुम समझाते ही हो, अकेले में घबरा जाती हूं,’’ कहते हुए वह चुपचाप अपना सिर अरुण के सीने पर रख देती और सुख का एहसास करने लगती.

अरुण भी धीरेधीरे उस के बाल सहलाने लगता और कहता, ‘‘तुम खुश रहती हो तो मुझे भी अच्छा लगता है.’’

मगर शिखा सोचती रहती, कभी आदमी अपना मन खोल कर नहीं रख सकता. रूपा के प्रति हो सकता है वह गलत हो, पर उस की आदतों में जो खुलापन आ रहा है, उसे वह कैसे रोके. अगर उस ने अरुण से कह भी दिया तो उस का क्या अर्थ निकलेगा. इस बात को सोच कर वह सबकुछ भूल कर अरुण के स्पर्श के सुख में खो जाती.

वैवाहिक विज्ञापन वर चाहिए : मेरी बेटी के लिए वर चाहिए

मेरी 25 वर्षीय बेटी कौन्वैंट एजुकेटेड डिगरीधारी है. एक एमएनसी यानी मल्टीनैशनल कंपनी के मैनेजिंग डायरैक्टर की पर्सनल सैक्रेटरी है. उस का सालाना पैकेज 15 लाख रुपए है. रंग गोरा, सुडौल, कदकाठी आकर्षक नयननक्श, कद 5 फुट 5 इंच के लिए गृहकार्य में दक्ष, सरकारी नौकरी करने वाला (प्राइवेट नौकरी वाले कृपया क्षमा करें), पढ़ालिखा, आधुनिक विचारों वाला, सहनशील, गौरवर्ण और कम से कम 5 फुट 9 इंच कद वाला आज्ञाकारी वर चाहिए. जो निम्न शर्तें पूरी करता हो वही संपर्क करें :

–       मेरी बेटी को देररात तक अपने पसंदीदा सीरियल देखने की आदत है. उसे ऐसा करने से रोका न जाए. रविवार या छुट्टी के दिन उसे जीभर कर सोने दिया जाए और उसे डिस्टर्ब न किया जाए.

–       पति स्वयं सुबह की गरमागरम चाय बनाने के बाद ही उसे जगाए.

–       जब वह निवृत्त हो कर बाथरूम से डैसिंगरूम में जाए तो डायनिंग टेबल पर  नाश्ता सर्व करना शुरू कर दिया जाए.

–       नाश्ता करने के बाद औफिस जाते समय उसे लंचबौक्स तैयार मिलना चाहिए.

–       औफिस में बहुत काम होते हैं, इसलिए वापसी में देर होने पर पूछताछ न की जाए.

–       उस का वेतन उस का अपना है, उस पर किसी तरह का अधिकार न जमाया जाए. साथ ही, पति अपना पूरा वेतन उस के हाथ में ला कर देगा क्योंकि पति के वेतन पर पत्नी का ही अधिकार होता है, अन्य किसी का नहीं.

–       हमारी लाड़ली बेटी को खाना बनाना नहीं आता है, इसलिए वह खाना नहीं बनाएगी. उसे खाना बनाने की कला सिखाने के लिए भी बाध्य न किया जाए. वहीं, यह ध्यान रखें कि घर में खाना उसी की पसंद का बनाया जाए.

–       साफसफाई का घर में पूरा ध्यान रखा जाए क्योंकि उसे गंदगी से सख्त नफरत है.

–       उस का बाथरूम कोई अन्य इस्तेमाल न करे. यदि प्रयोग किया है तो उसे पूरी तरह वायपर से रगड़ कर और पोंछा लगा कर साफ किया जाए.

–       हमारी बेटी व्हाट्सऐप और फेसबुक की फैन है. फोन पर व्यस्त रहते समय उसे बिलकुल भी डिस्टर्ब न किया जाए. उस की स्किल के कारण ही सैकड़ों लोग फ्रैंडरिक्वैस्ट भेज रहे हैं और उस की मित्रता पाने को तरस रहे हैं.

–       भूल कर भी उस के मोबाइल फोन को कोई हाथ न लगाए वरना दुष्परिणाम भुगतने के लिए परिवार को ही जिम्मेदार ठहराया जाएगा.

–       वह जो भी सूट या साड़ी पसंद करे उसे पति ही खरीद कर देगा. कोई नानुकुर सहन नहीं होगी.

–       जब भी कभी वह बच्चे को जन्म देगी तो बच्चे के लालनपालन की जिम्मेदारी बच्चे के पिता की ही होगी, मसलन नहलाना, डायपर्स बदलना, कपड़े पहनाना, दूध पिलाना, झूले पर झुलाना आदि. रात के समय बच्चे के रोने के कारण यदि उस की नींद डिस्टर्ब होगी तो इस के लिए सीधेसीधे बच्चे का पिता जिम्मेदार होगा और उसे ही कोपभाजन का शिकार होना पड़ेगा.

–       सास या ननद को उस की निजी जिंदगी में हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं होगा.

–       परिवार के किसी भी सदस्य को उस से जिरह करने और किसी तरह का ताना देने का हक नहीं होगा.

शेष शर्तें लड़का पसंद आने पर बता दी जाएंगी.

नोट : हम ने अपनी बेटी को राजकुमारी की तरह पाला है और साथ ही, आधुनिक संस्कार भी दिए हैं. हम दावा तो नहीं करते लेकिन वादा जरूर करते हैं कि यह जिस घर में भी जाएगी वह परिवार ऐसी संस्कारवान वधू पा कर धन्य हो जाएगा.

सुरंग में कुरंग : शमशेर के सामने कैसे आई स्वामी की सच्चाई

स्वामीजी के आने से पहले ही सारी तैयारियां पूरी कर ली गई थीं. मकान में स्थित बड़े कमरे से सारा सामान निकाल कर उसे खाली कर दिया गया था. स्वामीजी के आदेशानुसार दीवारों पर लगे चित्र भी हटा दिए गए थे. अनुष्ठान रात में 8 बजे के आसपास निकले मुहूर्त में स्वामीजी द्वारा प्रारंभ होना था.

स्वामीजी समय से आ गए थे और उचित समय पर एकांत कमरे में उन्होंने पूजा प्रारंभ कर दी. यह अनुष्ठान सुबह 4 बजे तक अनवरत चलना था और इस दौरान किसी को भी कमरे में आने की इजाजत नहीं थी.

स्वामी करमप्रिय आनंद का आश्रम मुख्य राष्ट्रीय मार्ग के दक्षिण में शहर से 10 किलोमीटर की दूरी पर था. आश्रम में बरगद के विशाल वृक्षों के अलावा नीम, बेल और आम आदि के वृक्ष थे, जिन पर लंगूरबंदरों का वास था.

स्वामीजी के आश्रम में भक्त जब भी जाते, बंदरों के खाने के लिए केले, चने, गुड़ आदि जरूर ले जाते. भक्तों के हाथ की उंगली पकड़ कर गदेली पर रखे चने, गुड़ आदि बंदर खाते और सफेद दांत दिखा कर उन को घुड़कते भी रहते. बाबा के संकेत पर यदि कोई बंदर किसी भक्त को अपनी पूंछ मार देता तो वह अपने को धन्य समझता कि उस आशीर्वाद से उस का कार्य निश्चित ही सफल हो जाएगा.

स्वामीजी के भक्तों की सूची बहुत लंबी थी, जिस में अतिसंपन्न लोगों से ले कर सामान्यजन तक सभी समानभाव से हाथ जोड़ कर आशीर्वाद लेते थे. ऐसा भक्तों में प्रचारित था कि आश्रम में स्थित मंदिर में दर्शन कर के मनौती मांगने से इच्छित फल की प्राप्ति होती है. कोई भी विघ्नबाधा हो, स्वामीजी के बताए उपाय से संकट का समाधान जरूर हो जाता था. स्वामीजी विधिविधान से पूजा, अनुष्ठान आदि कर के भक्त की समस्या का हल निकाल ही लेते थे.

शमशेर बहादुर व उन के परिवार की श्रद्धा स्वामीजी पर शुरू से ही थी. वे शिक्षा विभाग में उच्च अधिकारी थे. मोटी आमदनी और अच्छे वेतन के बावजूद वे लालच से मुक्त नहीं थे. गलत काम कर के कमाई करने को स्वामीजी पाप की कमाई बताते और इस से बचने के तमाम उपाय भी पुजारीपंडों ने बता रखे थे. इसी क्रम में स्वामी करमप्रिय आनंद के दर्शन लाभ के बाद उन की व्यवस्था ने शमशेर बहादुर को इतना चमत्कृत किया कि वे सपरिवार स्वामीजी के अनन्य भक्त हो गए. जम कर कमाओ और जम कर स्वामीजी की सेवा करो, पापबोध से मुक्त हो कर पुण्यलाभ अर्जन का आशीर्वाद स्वामीजी से प्राप्त करते रहो, यही उन का जीवनदर्शन हो गया था.

नौकरी से रिटायर होने के बाद शमशेर सिंह ने आमदनी का जरिया बनाए रखने के लिए एक राइस मिल लगा दी. मिल घाटे में चलने लगी. जब तक अधिकारी थे, तमाम व्यापारी झुकझुक कर उन्हें सलाम करते थे. अब अधिकारी के पद से रिटायर हो कर व्यापारी बने तो किसी को झुक कर सलाम करना उन्हें गवारा नहीं हुआ. अत: व्यापार में घाटा होना शुरू हो गया. इस विपरीत आर्थिक स्थिति का कारण और उपाय जानने के लिए वे स्वामीजी की शरण में गए. तमाम तरह के फल, लाई, चना और गुड़ आदि खिलाने के बाद भी किसी बंदर ने अपनी पूंछ से उन की पिटाई नहीं की. सभी बंदर पुरानी जानपहचान होने के कारण उन्हें पीटना ठीक नहीं समझते थे. बिगड़ी अर्थव्यवस्था को सुधारने और घाटे को मुनाफे में बदलने के लिए पूरा परिवार स्वामीजी के चरणों में लोट गया.

पुराने और संपन्न भक्त के परिवार की समस्या का समाधान तो स्वामीजी को करना ही था. ज्योतिष से गणना कर के ग्रहनक्षत्र की स्थिति देख कर उन्होंने बताया कि शनिमंगल आमनेसामने हैं. षडष्टक योग बन रहा है. मेष राशि में उच्च के सूर्य की स्थिति बनी हुई है. अत: प्रचंड अग्नि में धनवैभव का जलना स्वाभाविक है. सूर्य के घर सिंह राशि में शनि होने के कारण सूर्य आगबबूला हो रहे हैं.

इस विकट परिस्थिति से राहत पाने के लिए ग्रह शांति के अनेक उपाय करने पड़ेंगे. इस का अनुष्ठान आज रात्रि से शुरू कर दिया जाएगा और समापन तुम्हारे भवन के किसी कक्ष में पूजन के बाद होगा.

अत: आश्रम में विधिपूर्वक विभिन्न प्रकार के पूजापाठ व अनुष्ठान करने के बाद शमशेरजी के घर के एक कमरे में स्वामी ने रात 8 बजे से सुबह 4 बजे तक लगातार मंत्रों का जाप कर विधिवत पूजा कर के अनुष्ठान का समापन किया.

प्रात:काल स्वामी ने परम संतुष्ट भाव से बताया कि इस कमरे में ही मुसीबत की जड़ तथा भाग्योदय के उपकरण छिपे हैं. अत: कमरे का फर्श 4-4 फुट गहरे तक खोदा जाए. जिस स्तर पर कच्ची मिट्टी मिल जाए उस स्तर पर पहुंचने पर ही आगे की कार्यवाही होगी.

नतीजतन, संगमरमर का फर्श उखाड़ दिया गया और फर्श की खुदाई शुरू कर दी गई. 4 फुट खुदाई के बाद कच्ची मिट्टी के स्तर पर पहुंचने पर 4 छोटीछोटी सुरंगें दृष्टिगोचर हुईं, जिन्हें शायद चूहों ने बनाया होगा. कमरे के ठीक बीच में से एक सुरंग दक्षिण दिशा की ओर गई थी और दूसरी उत्तरपूर्व दिशा में. भक्तजनों ने सुरंगों का यह चमत्कार देख कर स्वामीजी को पुन: सादर प्रणाम किया व जिज्ञासा जाहिर की.

स्वामीजी ने उत्तर दिया, ‘‘अनुष्ठान सफल हुआ पुत्र…पूजा के समय ही मुझे संकेत मिल गया था कि इस कमरे में स्वर्णकलश दबा पड़ा है, जिस में सोने की असंख्य मोहरों का खजाना छिपा है. पूजा के बाद उस की प्राप्ति का योग तुम्हारे लिए बन गया है. इस अतुल धनराशि से तुम्हारे सारे आर्थिक संकट दूर हो जाएंगे.’’

सभी परिवारजनों के चेहरे खिल गए. शमशेर अति उत्साह में खुद फावड़ा उठा लाए और आगे किस सुरंग की खुदाई करनी है, स्वामी से पूछा. वे स्वयं गड्ढा खोद कर स्वर्णकलश निकालना चाहते थे जिस से मजदूरों को या बाहर के किसी व्यक्ति को इस की जानकारी न हो.

स्वामीजी ने संकेत किया कि उत्तरपूर्व दिशा में जाने वाली सुरंग के नीचे कलश दबा पड़ा है पर अभी इधर फावड़ा न चलाना. इस में अभी बाधा है. इस भयंकर व्यवधान को दूर करना पड़ेगा. इस कलश का रक्षक दक्षिण दिशा में जाने वाली सुरंग में मणिधारी नाग के रूप में रहता है, जो अति विषैला और भयंकर है. प्रत्येक अमावस्या को वह आधी रात में इस कमरे में प्रकट होता है और अपनी मणि उत्तरपूर्व की सुरंग के दहाने पर रख कर उस के प्रकाश में अपना आहार प्राप्त करता है.

अत: तुम्हें अमावस्या तक प्रतीक्षा करनी पड़ेगी. अमावस्या की रात को मैं आ कर स्वयं नाग देवता की आराधना कर के उन्हें अपने वश में कर लूंगा और फिर उन्हें अपने आश्रम में स्थापित कर दूंगा. उस के बाद उन से अनुमति ले कर इस स्वर्णकलश को हासिल करने की कार्यवाही करूंगा.

तुम्हें ज्ञात होगा कि बंदर सांप के फन को कौशल से पकड़ लेता है और उसे भूमि पर तब तक रगड़ता है जब तक वह मर नहीं जाता. यहां के नागराज अजेय हैं पर वानरों के सान्निध्य में जीवनरक्षा की प्राणीसुलभ चेष्टा के कारण निष्क्रिय हो जाएंगे और तब उन्हें मंत्रों द्वारा वश में कर लेना आसान हो जाएगा.

शमशेर सिंह और उन का परिवार यह जान गया था कि स्वर्णकलश मिलने में अभी देरी है पर निराशा की भावना पर विजय पाते हुए उन्होंने स्वामी से कहा कि हम सब उचित समय की प्रतीक्षा करेंगे. स्वामी ने कमरे को ठीक से बंद करा कर बड़ा सा ताला लगवा दिया.

एकादशी को स्वामी के आश्रम पर एक महायज्ञ का आयोजन था जिस में भंडारा भी होना था. यज्ञ 10 दिन तक चलना था. उस में पूजनहवन आदि में जो व्यय होना था वह भक्तों द्वारा दिए गए सामान और दान की धनराशि से संपन्न होना था.

शमशेर अति श्रद्धावान थे. भंडारे के लिए स्वामी को सवा लाख रुपए नकद दान में दिए. जहां करोड़ों की धनराशि मिलनी हो वहां सवा लाख दे कर स्वामी को प्रसन्न रखने में क्या बुराई है.

महायज्ञ के आयोजन में भक्तों द्वारा लगभग 3 लाख का सामान और नकद चढ़ावा आ गया. सभी कार्यक्रम आनंद से संपन्न हो गए. इस आयोजन के बाद स्वामीजी का 3 माह का तीर्थयात्रा का और अपने गुरुदर्शन का कार्यक्रम बना, जिस के लिए उन्होंने सब को आशीर्वाद देते हुए प्रस्थान किया.

शमशेर के कमरे पर अभी भी मोटा ताला लटक रहा था. हर अमावस्या को वे खिड़कीदरवाजों की झिरी (दरार) से झांक कर नाग देवता द्वारा छोड़ी गई मणि के प्रकाश को देखने का प्रयास करते थे.

अमावस्या की रात बीत गई. स्वामी तो अभी तीर्थयात्रा पर थे. उन का कड़ा निर्देश था कि कमरे का ताला न खोला जाए और न ही कमरे में कोई जाए. अमावस्या की सुबह शायद अपनेआप नाग के या मणि के दर्शन हो जाएं, इस आशा से खिड़की की झिरी से झांका तो देखा कि चोरों ने सेंध लगा कर 10-10 फुट तक फर्श खोद डाला है और मिट्टी का ढेर बाहर लगा है.

स्वर्णकलश की बात छिपाते हुए शमशेर ने पुलिस में चोरी की रिपोर्ट लिखाई. तेजतर्रार दारोगा को पटाया. सेंधमार चोर पकड़ा गया. रोते हुए उस ने बताया कि उसे किसी तरह खजाने की खबर लग गई थी. वह भी स्वामी का चेला था. रात भर फर्श को 10-10 फुट गहरा खोद कर मिट्टी का ढेर बाहर लगा दिया. अमावस्या की रात थी पर न तो स्वर्णकलश दिखाई दिया न नागमणि. रात भर खुदाई की मजदूरी भी मिट्टी में मिल गई.

अस्तित्व : पहली किस्त

घड़ीका अलार्म एक अजीब सी कर्कशता के साथ कानों में गूंजने लगा तो ल्लाहट के साथ मैं ने उसे बंद कर दिया. सोचा कि क्या करना है सुबह 5 बजे उठ कर. 9 बजे का दफ्तर है लेकिन 10 बजे से पहले कोई नहीं पहुंचता. करवट बदल कर मैं ने चादर को मुंह तक खींच लिया.

‘‘क्या करती हो ममा उठ जाओ. 7 बजे स्कूल जाना है. बस आ जाएगी,’’ साथ लेटे सोनू ने हिला कर कहा.

मैं उठी, ‘‘जाना मुझे है कि तुझे ? चल तू भी उठ. रोज कहती हूं कि 5 बजे के बजाय 6 बजे का अलार्म लगाया कर, लेकिन तू मुझे 5 बजे ही उठाता है और खुद 6 बजे से पहले नहीं उठता.’’

‘‘सोनू…सोनू…स्कूल नहीं जाना क्या?’’

‘‘आप पागल हो मम्मा,’’ कह कर उस ने चादर चेहरे पर खींच लिया. फिर बोला, ‘‘मुझे 10 मिनट भी नहीं लगेंगे तैयार होने में. लेकिन आप ने सारा घर सिर पर उठा लिया.’’

‘‘तू ऐनी को देख. तु से छोटा है पर तुझे से पहले उठ चुका है. जबकि उस का स्कूल 8 बजे का है,’’ मैं ने कहा.

‘‘आप बस नाश्ता तैयार कर लो. चाहे 7 बजे मुझे जाना हो और 8 बजे ऐनी को,’’ वह चिल्ला कर बोला.

मैं मन मार कर उठी और चाय बनाने लगी. फिर बालकनी में बैठ कर चाय की चुसकियां लेते हुए अखबार की सुर्खियों पर नजरें दौड़ा ही रही थी कि अंदर से आवाज आई, ‘‘मम्मी, पापा अखबार मांग रहे हैं.’’

मैं ने बुझे मन से अखबार के कुछ पन्ने पति को पकड़ाए और पेज थ्री पर छपी फिल्मी खबरें पढ़ने लगी. अभी खबरें पूरी पढ़ नहीं पाई थी कि पति ने आ कर झटके से वे पेज भी मेरे सामने से उठा लिए. खबर पूरी न पढ़ पाने की वजह से मजा किरकिरा हो गया.

मैं ने चाय का अंतिम घूंट लिया और रसोई में आ गई. बच्चे स्कूल जाने की तैयारी कर रहे थे. जल्दीजल्दी 2 परांठे सेंके  और गिलास में दूध डाल बच्चों को नाश्ता दे उन का टिफिन तैयार करने लगी.

‘‘मम्मी, मेरी कमीज नहीं मिल रही,’’ ऐनी ने आवाज लगाई.

‘‘तुझे कभी कुछ मिलता भी है?’’ फिर कमरे में आ कर अलमारी से कमीज निकाल कर उसे दी.

‘‘मम्मी दूध ज्यादा गरम है. प्लीज ठंडा कर दो,’’ सोनू ने टाई की नौट बांधते हुए हुक्म फरमा दिया.

दूध ठंडा कर वापस जाने लगी तो सोनू मेरा रास्ता रोक कर खड़ा हो गया, ‘‘मम्मी प्लीज 1 मिनट,’’ कह कर वह जल्दीजल्दी स्कूल बैग से कुछ निकालने लगा. फिर मिन्नतें करने लगा कि मम्मी, मेरा रिपोर्टकार्ड साइन कर दो…प्लीज मम्मी.’’

‘‘जरूर मार्क्स कम आए होंगे. इस बार तो मैं बिलकुल नहीं करूंगी. बेवकूफ समझ रखा है क्या तू ने मुझे जा, अपने पापा से करवा साइन. और तू ने मुझे कल क्यों नहीं दिखाया अपना रिपोर्टकार्ड?’’

‘‘मम्मा, प्लीज धीरे बोलो, पापा सुन लेंगे,’’ उस के चेहरे पर याचना के भाव उभर आए. हाथ पकड़ कर प्यार से मुझे पलंग पर बैठाते हुए उस ने पेन और रिपोर्टकार्ड मुझे पकड़ा दिया.

‘‘जब भी मार्क्स कम आते हैं तो मुझे कहते हैं और जब ज्यादा आते हैं तो सीधे पापा के पास जाते हैं,’’ मैं बड़बड़ाती हुई रिपोर्टकार्ड खोल कर देखने लगी. साइंस में 100 में से 89, हिंदी में 85, मैथ्स में 92. मेरी आंखें चमकने लगीं. चेहरे पर मुसकान दौड़ गई. उसे शाबासी देने के लिए मैं ने नजरें उठाई तो देखा कि आईने में बाल संवारता हुआ वह शरारत भरी निगाहों से मुझे ही देख रहा था. मेरे कुछ कहने से पहले ही वह बोल उठा, ‘‘जल्दी से साइन कर दो न मम्मा, इतनी देर से मार्क्स ही देखे जा रही हो.’’

बेकाबू होती खुशी को नियंत्रित करते हुए मैं ने पेन का ढक्कन खोला. रिपोर्टकार्ड के दायीं ओर देखा तो ये पहले ही साइन कर चुके थे. दोनों फिर मुझे देख कर हंसने लगे तो मैं खिसिया गई.

‘‘घर की चाबी रख ली है न? कहीं ऐसा न हो कि आज मुझे बाहर गमले के पीछे छिपा कर जाना पड़े,’’ मैं ने अपनी झेप मिटाते हुए कहा.

बच्चों के काम से फारिग हुई ही थी कि पति ने दोबारा चाय की फरमाइश कर दी. ‘‘पत्ती जरा तेज डालना. सुबह जैसी चाय न बनाना. तुम्हें 16 सालों में चाय बनानी नहीं आई.’’

‘‘तुम अपनी चाय खुद क्यों नहीं बना लेते? कभी पत्ती कम तो कभी दूध ज्यादा. हमेशा मीनमेख निकालते रहते हो,’’ मैं ने भी अपना गुबार निकाल दिया.

आज दफ्तर को देर हो कर रहेगी. अभी सब्जी भी बनानी है और दूध भी उबालना है. क्याक्या करूं.

‘‘क्यों, तू समय पर  नहीं आ सकती? ये कौन सा वक्त है आने का? तेरी वजह से क्या मैं दफ्तर जाना छोड़ दूं?’’ मैं ने काम वाली पर सारा गुस्सा उतार दिया. सारा काम निबटा कर नहाने गई तो देखा बाथरूम बंद.

‘‘तुम रोज जल्दी क्यों नहीं नहाते? जबकि तुम्हें पता है कि इस वक्त ही मेरा काम खत्म हो पाता है. अब जल्दी बाहर निकलो,’’ मैं बाथरूम का दरवाजा खटखटाते हुए लगभग चिल्ला दी.

‘‘जब तक मैं नहा कर निकलूं प्लीज मेरा रूमाल और मोजे पलंग पर रख दो,’’ शौवर के शोर को चीरती उन की मद्धिम पड़ गई आवाज सुनाई दी.

‘‘तुम मुझे 2 मिनट भी चैन से जीने मत देना,’’ मैं ने अपना तौलिया और गाउन वहीं पटका और रूमाल और मोजे ढूंढ़ने कमरे में चली गई.

यह इन का रोज का काम था. बापबेटे मुझ पर हुक्म चलाते.

‘चाय कड़क बनाना’

‘अखबार कहां है?’

‘मम्मी, दूध में मालटोवा नहीं डाला?’

‘आमलेट कच्चा है.’

‘मम्मी, ब्रैड में मक्खन नहीं लगाया?’

‘कभी बहुत गरम दूध दे देती हो तो कभी बिलकुल ठंडा. मम्मी, आप को हुआ क्या है?’

‘‘अब किस सोच में खड़ी हो? जाओ नहा लो,’’ पति बाथरूम से बाहर निकल कर बोले.

मैं पैर पटकती बाथरूम में घुस गई.

घर पर ही 10 बज गए. जल्दीजल्दी तैयार हो कर दफ्तर पहुंची. सोचा कि आज बौस से फिर डांट खानी पड़ेगी. लेकिन अपने सैक्शन में पहुंचने पर पता चला कि आज बौस छुट्टी पर हैं. दिमाग कुछ शांत हुआ.

‘रोज का काम यदि रोज न निबटाओ तो काम का ढेर लग जाता है,’ मैं मन ही मन बुदबुदाई.

कोर्ट केस की फाइल पूरी कर बौस की मेज पर पटकी और अपनी दिनचर्या का विश्लेषण करने लगी. कभी अपने बारे में सोचने की फुरसत ही नहीं मिलती. घरदफ्तर, पतिबच्चों के बीच एक कठपुतली की तरह दिन भर नाचती रहती हूं. कभी सोचा भी नहीं था कि जिंदगी इतनी व्यस्त हो जाएगी. कल से सुबह ठीक 5 बजे उठा करूंगी. ऐनी को आमलेट पसंद नहीं है तो उसे नाश्ते में दूध ब्रैड या परांठा दूंगी. सोनू को आमलेट और फिर अखबार के साथ इन्हें दोबारा कड़क सी चाय.

‘‘किस सोच में बैठी हो मैडम? आज चाय पिलाने का इरादा नहीं है क्या?’’ साथ बैठी सहयोगी ने ताना मारा.

‘‘अरे नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है. चलो कैंटीन चलते हैं,’’ मैं थोड़ा सामान्य हुई.

‘‘आज बड़ी उखड़ीउखड़ी लग रही हो.

क्या बात है? सुबह से कोई बात भी नहीं की,’’ उस ने कैंटीन में इधरउधर नजरें दौड़ाते हुए कोने में एक खाली मेज की तरफ चलने का इशारा करते हुए कहा.

‘‘यार, बात तो कोई नहीं. लेकिन आजकल काम का बहुत बोझेहै. जिंदगी जैसे रेल सी बन गई है. बस भागते रहो, भागते रहो,’’ कह कर मैं ने चाय की चुसकी ली.

‘‘तुम ठीक कहती हो. कल मेरे बेटे के पैर में चोट लग गई तो डाक्टर के पास 2 घंटे लग गए. मेरे साहब के पास तो फुरसत ही नहीं है. सब काम मैं ही करूं,’’ अब उस के चेहरे पर भी आ गई.

‘‘लगता है आज का दिन ही बोझल है. चलो छोड़ो, कोई दूसरी बात करते हैं. ये भी क्या जिंदगी हुई कि बस सारा दिन बिसूरते रहो,’’ मैं हंस दी.

‘‘मैं ने एक नया सूट लिया है, लेटैस्ट डिजाइन का,’’ वह मुसकराते हुए बोली.

‘‘अच्छा, तुम ने पहले तो नहीं बताया?’’

‘‘दफ्तर के काम की वजह से भूल गई.’’

‘‘कितने का लिया?’’

‘‘700 का. उन्हें बड़ी मुश्किल से मनाया. मेरे नए कपड़े खरीदने से बड़ी परेशानी होती है उन्हें. बच्चे भी उन्हीं के साथ मिल जाते हैं.’’

मेरी हंसी निकल गई, ‘‘मेरे साथ भी तो यही होता है.’’

‘‘कब पहन कर आ रही हो?’’ मैं ने बातों में रस लेते हुए पूछा.

‘‘अभी तो दर्जी के पास है. शायद 3-4 दिन में सिल कर दे दे,’’ उस ने कहा.

‘‘अरे, अगले महीने 21 तारीख को तुम्हारा जन्मदिन भी तो है, तभी पहनना,’’ मैं ने जैसे अपनी याददाश्त पर गर्व करते हुए कहा.

‘‘तुम्हें कैसे याद रहा?’’

‘‘हर साल तुम्हें बताती हूं कि मेरे छोटे बेटे का बर्थडे भी उसी दिन पड़ता है, भुलक्कड़ कहीं की.’’

‘‘हां यार, मैं हमेशा भूल जाती हूं,’’ वह खिसिया गई.

कुछ देर इधरउधर की बातें होती रहीं. फिर, ‘‘चलो अब अंदर चलते हैं. बहुत गप्पें मार लीं. थोड़ाबहुत काम निबटा लें. आज शर्माजी की सेवानिवृत्ति पार्टी भी है,’’ मैं एक ही सांस में कह गई.

दिन भर फाइलों में सिर खपाती रही तो समय का पता ही नहीं चला. ओह 5 बज गए… मैं ने घड़ी पर नजर डाली और दफ्तर के गेट के बाहर आ गई.

पति पहले ही मेरे इंतजार में स्कूटर ले कर खडे़ थे. उन्हें देख मैं मुसकरा दी.

रास्ते में इधरउधर की बातें होती रहीं.

‘‘आज बढि़या सा खाना बना लेना.’’

‘‘क्यों, आज कोई खास बात है?’’

‘‘नहीं, कई दिनों से तुम रोज ही दालचावल बना देती हो.’’

‘‘तो तुम सब्जी ला कर दिया करो न.

सब्जी मंडी जाने के नाम पर तुम्हें बुखार चढ़ जाता है.’’

‘‘रोज रेहड़ी वाले गली में घूमते हैं. उन से सब्जी क्यों नहीं लेतीं?’’

‘‘खरीद कर तो तुम्हीं लाओ. चाहे रेहड़ी वाले से, चाहे मंडी से. मुझे तो बस घर में सब्जी चाहिए वरना आज भी दालचावल…’’

‘‘अच्छा मैं तुम्हें घर के पास छोड़ कर सब्जी ले आता हूं. अब तो खुश?’’

‘‘हां, बड़ा एहसान कर रहे हो,’’ कहती हुई मैं घर की सीढि़यां चढ़ने लगी.

‘‘मेरे गुगलूबुगलू क्या कर रहे हैं?’’ मैं ने लाड़ जताते हुए बच्चों से पूछा.

‘‘मम्मी कैंटीन से खाने के लिए क्या लाई हो?’’ ऐनी ने मेरे गले में बांहें डाल दीं.

‘‘यहां सब्जी बड़ी मुश्किल से आती है, तुझे अपनी पड़ी है,’’ मैं ने पर्स खोलते हुए कहा.

‘‘सब के मम्मीपापा रोज कुछ न कुछ लाते हैं. जस्सी का फ्रिज तो तरहतरह की चीजों से भरा रहता है,’’ सोनू ने उलाहना दिया.

‘‘तो अपने पापा को बोला कर न बाजार से ले आया करें. मैं कहांकहां जाऊं. ये लो,’’ मैं ने एक पैकेट उन की तरफ उछाल दिया.

‘‘ये क्या है?’’

‘‘मिठाई है. औफिस में पार्टी हुई थी. मैं तुम्हारे लिए ले आई.’’

मैं ने पर्स अलमारी में रखा, जल्दीजल्दी कपड़े बदले और टीवी चालू कर दिया. थोड़ी देर में मेरा मनपसंद धारावाहिक आने वाला था.

‘‘आज चाय कौन बनाएगा?’’ मैं ने आवाज में रस घोलते हुए थोड़ी ऊंची आवाज में कहा.

कोई उत्तर नहीं मिला तो मैं उठ कर उन के कमरे में गई. देखा दोनों बच्चे कंप्यूटर पर गेम खेलने में मस्त थे.

‘‘रोज खुद चाय बनाओ. इन लड़कों का कोई सुख नहीं. लड़की होती तो कम से कम मां को 1 कप चाय तो बना कर देती,’’ मैं बड़बड़ाती हुई रसोई में आ गई.

‘‘मम्मी, कुछ कह रही हो क्या?’’

‘‘नहीं,’’ मैं चिल्ला दी.

रोटी का डब्बा खोल कर देखा तो लंच के लिए बनाए परांठों में से 2 परांठे अभी भी उस में पड़े थे.

‘‘दोपहर का खाना किस ने नहीं खाया?’’ मैं ने कमरे में दोबारा आ कर पूछा.

‘‘मैं ने तो खा लिया था,’’ सोनू बोला.

मैं ने ऐनी की तरफ देखा.

‘‘मम्मी आप के बिना खाना अच्छा नहीं लगता…अपने हाथ से खिला दो न,’’ उस ने स्क्रीन पर नजरें गड़ाए हुए ही लाड़ से कहा मेरा मन द्रवित हो उठा. खाना गरम कर अपने हाथों से उसे खिलाया और वापस रसोई में आ कर चाय बनाने लगी.

ट्रिंगट्रिंग…

शायद ये आ गए. बच्चों ने जल्दी से कंप्यूटर बंद कर किताबें खोल लीं. मेरी हंसी निकल गई.

‘‘कुंडी खोलने में बड़ी देर लगा दी. कितनी देर से वजन उठाए खड़ा हूं,’’ सब्जी और दूध के लिफाफे रसोई की तरफ लाते हुए ये भुनभुनाए.

‘‘अरे चाय बना रही थी इसीलिए.’’

‘‘जरा ढंग से बना लेना. मेरी चाय में अलग से चाय की पत्ती डाल कर कड़क कर देना. सुबह की चाय फीकीफीकी थी.’’

‘‘अरे सुबह तो मैं ने दोबारा कड़क चाय बनाई थी. किसी दिन पत्ती का सारा डब्बा उड़ेल दूंगी,’’ मैं ने नाराजगी दिखाते हुए कहा. फिर जल्दीजल्दी सुबह का बचा दूध गरम कर बच्चों को दे आई और ताजा दूध को गैस सिम कर उबलने के लिए रख दिया. चाय ले कर कमरे में आई तो मेरा पसंदीदा धारावाहिक शुरू हो चुका था.

-क्रमश:

सोने की सास: क्यों बदल गई सास की प्रशंसा करने वाली चंद्रा

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