मां का साहस: क्या हुआ था वनिता के साथ

मां उसे सम झा रही थीं, ‘‘दामादजी सिंगापुर जा रहे हैं. ऐसे में तुम नौकरी पर जाओगी तो बच्चे की परवरिश ठीक से नहीं हो पाएगी. वैसे भी अभी तुम्हें नौकरी करने की क्या जरूरत है. दामादजी भी अच्छाखासा कमा रहे हैं. तुम्हारा अपना घर है, गाड़ी है…’’

‘‘तुम साफसाफ यह क्यों नहीं कहती हो कि मैं नौकरी छोड़ दूं. तुम भी क्या दकियानूसी बातें करती हो मां,’’ वनिता बिफर कर बोली, ‘‘इतनी मेहनत और खर्च कर के मैं ने अपनी पढ़ाई पूरी की है, वह क्या यों ही बरबाद हो जाने दूं. तुम्हें मेरे पास रह कर गुडि़या को नहीं संभालना तो साफसाफ बोल दो. मेरी सास भी बहाने बनाने लगती हैं. अब यह मेरा मामला है तो मैं ही सुल झा लूंगी. भुंगी को मैं ने सबकुछ सम झा दिया है. वह यहीं मेरे साथ रहने को राजी है.’’

‘‘ऐसी बात नहीं है वनिता…’’ मां उसे सम झाने की कोशिश करते हुए बोलीं, ‘‘अब हम लोगों की उम्र ढल गई है. अपना ही शरीर नहीं संभलता, तो दूसरे को हम बूढ़ी औरतें क्या संभाल पाएंगी. सौ तरह के रोग लगे हैं शरीर में, इसलिए ऐसा कह रही थी. बच्चे की सिर्फ मां ही बेहतर देखभाल कर सकती है.’’

‘‘मैं फिर कहती हूं कि मैं ने इतनी मेहनत से पढ़ाईलिखाई की है. मु झे बड़ी मुश्किल से यह नौकरी मिली है, जिस के लिए हजारों लोग खाक छानते फिरते हैं और तुम कहती हो कि इसे छोड़ दूं.’’

‘‘मांजी का वह मतलब नहीं था, जो तुम सम झ रही हो…’’ शेखर बीच में बोला, ‘‘अभी गुडि़या बहुत छोटी है. और मांजी अपने जमाने के हिसाब से बातें समझा रही हैं. गुडि़या की चंचल हरकतें बढ़ती जा रही हैं. 2 साल की उम्र ही क्या होती है.’’

‘‘तुम तो नौकरी छोड़ने के लिए बोलोगे ही… आखिर मर्द हो न.’’

‘‘अब जो तुम्हारे जी में आए सो करो…’’ शेखर पैर पटकते हुए वहां से जाते हुए बोला, ‘‘परसों मु झे सिंगापुर के लिए निकलना है. महीनेभर का कार्यक्रम है. बस, मेरी गुडि़या को कुछ नहीं होना चाहिए.’’

‘‘मेम साहब, मैं बच्ची देख लूंगी…’’ भुंगी पान चबाते हुए बीच में आ कर बोली, ‘‘आखिर हमें भी तो अपना पेट पालना है.’’

‘‘तुम्हें अपने बनावसिंगार से फुरसत हो तब तो तुम बच्ची को देखोगी…’’ वनिता की सास बीच में आ कर बोलीं, ‘‘हम जरा बीमार क्या हुए, फालतू हो गए. घर में सौ तरह के काम हैं. सब तरफ से भरेपूरे हैं हम. एक बच्चे की कमी थी, वह भी पूरी हो गई. हमें और और क्या चाहिए.’’

‘‘देखिए बहनजी, आप ही इसे सम झाएं कि ऐसे में कोई जरूरी तो नहीं कि यह नौकरी करे…’’ अब वे वनिता की मां से मुखातिब थीं, ‘‘4 साल तो नौकरी कर ली. अब यह  झं झट छोड़े और चैन से घर में रहे.’’

‘‘अब मैं आप लोगों के मुंह नहीं लगने वाली. मैं साफसाफ कहे देती हूं कि मैं नौकरी नहीं छोड़ने वाली. मु झे भी अपनी जिंदगी जीने का हक है. मु झे भी अपनी आजादी चाहिए. मैं आम औरतों की तरह नहीं जी सकती.’’

‘‘मु झे भी तो काम और पैसा चाहिए मेम साहब…’’ भुंगी खीसें निपोर कर बोली, ‘‘आप निश्चिंत हो कर चाकरी करो. मैं भी चार रोटी खा कर यहीं पड़ी रहूंगी. घर और गुडि़या को देख लूंगी.’’

‘‘भुंगी, मु झे तुम पर पूरा यकीन है…’’ वनिता चहकते हुए बोली, ‘‘ये पुराने जमाने के लोग हैं. आगे की क्या सोचेंगे. मु झ में हुनर है, तो मु झे इस का फायदा मिलना ही चाहिए. औफिस में मेरा नाम और इज्जत है. आखिर नाम कमाना किस को अच्छा नहीं लगता.’’

‘‘पता नहीं, कहां से आई है यह भुंगी…’’ वनिता की मां उस की सास से बोलीं, ‘‘न पता, न ठिकाना. मु झे इस के लक्षण भी ठीक नहीं दिखते. पता नहीं, क्या पट्टी पढ़ा दी है कि इस वनिता की तो मति मारी गई है.’’

भुंगी इस महल्ले में  झाड़ूपोंछे का काम करती थी. उस ने वनिता के घर में भी काम पकड़ लिया था. अब वह वनिता की भरोसेमंद बन गई थी. काम के बहाने वह ज्यादातर यहीं रह कर वनिता की हमराज भी बन गई थी. वनिता उसे पा कर खुश थी.

घर में बूढ़े सासससुर थे, मगर वे अपनी ही बीमारी के चलते ज्यादा चलफिर नहीं पाते थे. शेखर अपने संस्थान के खास इंजीनियर थे. सिंगापुर की एक नामी यूनिवर्सिटी में एक महीने की खास ट्रेनिंग के लिए उन का चयन किया गया था. इस ट्रेनिंग के पूरा होने के बाद उन की डायरैक्टर के पद पर प्रमोशन तय था. मगर उन का नन्ही सी गुडि़या को छोड़ कर जाने का मन नहीं हो रहा था. वे उस की हिफाजत और देखभाल के लिए आश्वस्त होना चाहते थे, इसलिए वनिता ने अपनी मां को यहां बुलाना चाहा था. मगर मां ने साफतौर पर मना कर दिया तो वनिता को निराशा हुई. अब वह भुंगी के चलते आश्वस्त थी कि सबकुछ ठीकठाक चल जाएगा.

दसेक दिन तो ठीकठाक ही चले. भुंगी के साथ गुडि़या हिलमिल गई थी और उस के खानपान और रखरखाव में अब कोई परेशानी नहीं थी.

एक दिन शाम को वनिता औफिस से घर लौटी तो उसे घर में सन्नाटा पसरा दिखा. आमतौर पर उस के घर आते ही गुडि़या उछल कर उस के सामने चली आती थी, मगर आज न तो उस का और न ही भुंगी का कोई अतापता था.

वनिता ने ससुर के कमरे में जा कर  झांका. वहां सास बैठी थीं और वे ससुर के तलवे पर तेल मल रही थीं.

‘‘आप ने गुडि़या को देखा क्या?’’ वनिता ने सवाल किया, ‘‘भुंगी भी नहीं दिखाई दे रही है.’’

‘‘वह अकसर उसे पार्क में घुमाने ले जाती है…’’ सास बोलीं, ‘‘आती ही होगी.’’

वनिता हाथमुंह धोने के बाद कपड़े बदल कर बाहर आई. अभी तक उन लोगों का कोई पता नहीं था. आमतौर पर औफिस से आने पर वह गुडि़या से बातें कर के हलकी हो जाती थी. तब तक भुंगी चायनाश्ता तैयार कर उसे दे देती थी.

वनिता उठ कर रसोईघर में गई. चाय बना कर सासससुर को दी और खुद चाय का प्याला पकड़ कर ड्राइंगरूम में टीवी के सामने बैठ गई.

थोड़ी देर बाद ही शेखर का फोन आया. औपचारिक बातचीत के बाद शेखर ने पूछा, ‘‘गुडि़या कहां है?’’

‘‘भुंगी उसे कहीं घुमाने ले गई है…’’ वनिता ने उसे आश्वस्त किया, ‘‘बस, वह आती ही होगी.’’

बाहर अंधेरा गहराने लगा था और अब तक न भुंगी का कोई पता था और न ही गुडि़या का. वनिता बेचैनी से उठ कर घर में ही टहलने लगी. पूरा घर जैसे सन्नाटे से भरा था. बाहर जरा सी भी आहट हुई नहीं कि वह उधर ही देखने लगती थी.

अब वनिता ने पड़ोस में जाने की सोची कि वहीं किसी से पूछ ले कि गुडि़या को साथ ले कर भुंगी कहीं वहां तो नहीं बैठी है कि अचानक उस का फोन घनघनाया.

वनिता ने लपक कर फोन उठाया.

‘तुम्हारी बच्ची हमारे कब्जे में है…’ उधर से एक रोबदार आवाज आई, ‘बच्ची की सलामत वापसी के लिए 30 लाख रुपए तैयार रखना. हम तुम्हें 24 घंटे की मोहलत देते हैं.’

‘‘तुम कौन हो? कहां से बोल रहे हो… अरे भाई, हम 30 लाख रुपए का जुगाड़ कहां से करेंगे?’’

‘हमें बेवकूफ सम झ रखा है क्या… 5 लाख के जेवरात हैं तुम्हारे पास… 10 लाख की गाड़ी है… तुम्हारे बैंक खाते में 7 लाख रुपए बेकार में पड़े हैं… और शेखर के खाते में 12 लाख हैं. घर में बैठा बुड्ढा पैंशन पाता है. उस के पास भी 2-4 लाख होंगे ही.

‘‘हम ज्यादा नहीं, 30 लाख ही तो मांग रहे हैं. तुम्हारी गुडि़या की जान की कीमत इस से कम है क्या…

वनिता को धरती घूमती नजर आ रही थी. बदमाशों को उस के घर के हालात का पूरा पता है, तभी तो बैंक में रखे रुपयों और जेवरात की उन्हें जानकारी है. उस ने तुरंत अपने मम्मीपापा को फोन किया. इस के अलावा कुछ दोस्तों को भी फोन किया.

देखते ही देखते पूरा घर भर गया. शेखर के दोस्त राकेश ने वनिता को सलाह दी कि उसे शेखर को फोन कर के सारी जानकारी दे देनी चाहिए, मगर वनिता के दफ्तर में काम करने वाली सुमन तुरंत बोली, ‘‘यह हमारी समस्या है, इसलिए उन्हें डिस्टर्ब करना ठीक नहीं होगा. हम औरतें हैं तो क्या हुआ, जब हम औफिस की बड़ीबड़ी समस्याएं सुल झा सकती हैं तो इसे भी हमें ही सुल झाना चाहिए. जरा सब्र से काम ले कर हम इस समस्या का हल निकालें तो ठीक होगा.’’

‘‘मेरे खयाल से यही ठीक रहेगा,’’ राकेश ने अपनी सहमति जताई.

‘‘तो अब हम क्या करें?’’ वनिता अब खुद को संतुलित करते हुए बोली, ‘‘अब मु झे भी यही ठीक लग रहा है.’’

‘‘सब से पहले हम पुलिस को फोन कर के सारी जानकारी दें…’’ सुमन बोली, ‘‘हमारे औफिस के ही करीम भाई के एक परिचित पुलिस में इंस्पैक्टर हैं. उन से मदद मिल जाएगी.’’

‘‘तो फोन करो न उन्हें…’’ राकेश बोला, ‘‘उन्हीं के द्वारा हम अपनी बात पुलिस तक पहुंचाएंगे.’’

वनिता ने करीम भाई को फोन लगाया तो वे आधी रात को ही वहां पहुंच गए.

‘‘मैं ने अपने कजिन अजमल को, जो पुलिस इंस्पैक्टर है, फोन कर दिया है. वह बस आता ही होगा,’’ करीम भाई ने कहा.

करीम भाई ने वनिता को हिम्मत बंधाते हुए कहा, ‘‘तुम चिंता मत करो. तुम्हारी बेटी को अजमल जल्द ही ढूंढ़ निकालेगा.’’

पुलिस इंस्पैक्टर अजमल ने आते ही वनिता से कुछ जरूरी सवाल पूछे. नौकरानी भुंगी की जानकारी ली और सब को पुलिस स्टेशन ले गए.

एफआईआर दर्ज करने के बाद इंस्पैक्टर अजमल बोले, ‘‘वनिताजी, इस समय यहां एक रैकेट काम कर रहा है. यह वारदात उसी की एक कड़ी है. हम उन लोगों तक पहुंचने ही वाले हैं. दिक्कत बस यही है कि इसे राजनीतिक सरपरस्ती मिली हुई है, इसलिए हमें फूंकफूंक कर कदम रखना है. अभी आप घर जाएं और जब अपहरण करने वालों का फोन आए तो उन से गंभीरतापूर्वक बात करें.’’

वनिता की आंखों में नींद नहीं थी. इतना बड़ा हादसा हो और नींद आए तो कैसे. रात जैसे आंखों में कट गई. इतनी छोटी सी बच्ची कहां, किस हाल में होगी, पता नहीं. सासससुर का भी रोतेरोते बुरा हाल था. मां उसे अलग कोस रही थीं, ‘‘और कर ले नौकरी. मैं कह रही थी न कि बच्चों की देखभाल मां ही बेहतर कर सकती है. मगर इसे तो अपने समाज की इज्जत और रोबरुतबे का ही खयाल था.’’

वनिता ने अपने कमरे में जा कर अटैची निकाली. अलमारी खोल कर पैसे देखने लगी कि उस का मोबाइल फोन बजने लगा.

‘क्या हुआ…’

‘‘रुपयों का इंतजाम कर रही हूं…’’ वह बोली, ‘‘तुम कहां हो? जल्दी बोलो कि मैं वहां आऊं.’’

‘अभी इतनी जल्दी क्या है,’ उधर से हंसने की आवाज आ कर बंद हो गई.

अचानक पुलिस इंस्पैक्टर अजमल उस के घर में आए और दोबारा जब उस से भुंगी के फोन और पते की बात पूछी तो वह घबरा गई.

‘‘वह तो इस महल्ले में कई साल से रहती थी.’’

‘‘आप के पास उस का जो पता था, वह गलत था. शहर की एक  झोंपड़पट्टी का उस ने जो पता दिया था, वह फर्जी निकला. वह कहीं और रहती थी.

‘‘अब यह बिलकुल आईने की तरफ साफ हो चुका है कि इस अपहरण में उस का ही हाथ है, तभी तो आप के जेवरात और बैंक खाते के बारे में बदमाशों को गहरी जानकारी थी.’’

पुलिस अब अगली कार्यवाही में जुट गई थी. उस ने अपना शिकंजा कसना शुरू कर दिया था.

मिनट घंटों में और घंटे दिन में बदल रहे थे. पुलिस भी पास के जिलों के जंगलपहाड़ों तक में खाक छान रही थी. 2 दिन बीत चुके थे और अभी तक गुडि़या का कोई सुराग, कोई अतापता नहीं था.

शाम के समय वनिता के पास फिर से बदमाशों का फोन आया. वह उलटे उन्हें ही डांटने लगी, ‘‘मैं रुपए ले कर बैठी हूं और तुम यहांवहां घूम रहे हो. मैं शाम को शहर के बौर्डर पर बागडि़या टैक्सटाइल फैक्टरी के पास बने आउट हाउस में अटैची ले कर अपनी एक सहेली के साथ रहूंगी.

‘‘और हां, तुम भी पुलिस को कुछ न बताना और मेरी बेटी को छोड़ कर रुपए ले जाना.’’

‘अरे, पुलिस को कुछ न बताने की बात तो मेरी थी.’

‘‘और, मु झे भी अपनी इज्जत प्यारी है, इसलिए कह रही हूं.’’

शहर के उस एरिया में एक पुराना इंडस्ट्रियल ऐस्टेट था जिस में पुरानी खंडहर उजाड़ फैक्टिरियां थीं. वनिता ने अपनी गाड़ी निकाली और सुमन के साथ अटैची ले कर बैठ गई.

कई एकड़ में फैली उस फैक्टरी में कोई आताजाता नहीं था. उस के ठीक नीचे नाला बह रहा था. वे दोनों वहीं एक दीवार की ओट में बैठ गईं, जहां से चारों तरफ का मंजर दिखता था.

अचानक उस उजाड़ फैक्टरी की एक बिल्डिंग के अंदर से 2 आदमी बाहर निकले. उन के पीछे नौकरानी भुंगी भी गुडि़या को लिए दिखाई दी.

उन दोनों में से एक के हाथ में पिस्तौल थी. वह पिस्तौल को जेब में रखते हुए बोला, ‘‘अब इस की कोई जरूरत नहीं है,’’ वह अटैची लेने के लिए आगे बढ़ा.

अचानक बिजली की तेजी से वनिता ने उसे अटैची देते वक्त जोरों का धक्का दिया तो वह आदमी अटैची को लिए हुए ही नाले में जा गिरा.

उसे गिरता देख कर दूसरा आदमी एकदम से भाग खड़ा हुआ. सुमन दौड़ कर गुडि़या की ओर लपकी, तो भुंगी उसे छोड़ कर भाग निकली.

वनिता और सुमन ने जल्दी गुडि़या के बंधन खोले. गुडि़या उन से चिपट कर रोने लगी.

‘‘आप ने तो कमाल कर दिया वनिताजी…’’ पुलिस इंस्पैक्टर अजमल उस की तारीफ करने लगा था, ‘‘हमें मालूम पड़ा कि आप इधर आ रही हैं, तो हम ने भी आप का पीछा किया और यहां तक आ पहुंचे.’’

थोड़ी देर में उस घायल मुजरिम के साथ पुलिस आती दिखी जो नाले में जा गिरा था. एक पुलिस वाले के हाथ में अटैची भी थी.

पुलिस इंस्पैक्टर अजमल ने अटैची खोली तो उसे हंसी आ गई. अटैची में पुरानी किताबें, पत्रिकाएं और अखबार भरे थे. उस भारी अटैची को समेट न पाने के चलते ही वह आदमी वनिता के एक धक्के से नाले में लुढ़क गया था.

‘‘आप के इस साहस से न सिर्फ आप को अपनी बेटी मिली है, बल्कि हमें भी एक खतरनाक मुजरिम मिला है. अब इस के जरीए सारे मुजरिम हवालात में होंगे. मैं आप के इस साहस की तारीफ करता हूं. फिलहाल तो आप अपनी बेटी को ले कर घर जाइए, बाकी औपचारिकताएं बाद में होंगी.’’

‘‘अरे भाई, वनिता के साहस के कायल हम भी हैं…’’ करीम भाई बोला, ‘‘तभी तो औफिस की खास फाइलें इन्हीं के पास आती हैं.’’

‘‘वनिता एक मां भी हैं करीमजी. और एक मां अपनी औलाद के लिए शेर को भी मात दे सकती है…’’ सुमन बोल पड़ी, ‘‘वनिता, अब घर चलो. गुडि़या को सामान्य करते हुए तुम्हें खुद भी सामान्य होना है. आगे का काम पुलिस पूरा कर लेगी.’’

पक्षाघात: क्या टूट गया विजय का परिवार

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कल्पवृक्ष: भाग 2- विवाह के समय सभी व्यंग्य क्यों कर रहे थे?

सुन कर मां का कलेजा करुणा से भर आया. उन्होंने अपनेअपने कमरों के दरवाजे पर खड़ी दोनों बड़ी बहुओं की ओर देख, फिर छोटी बहू की ओर आकंठ ममत्व में डूबे हुए वे कुछ कहने को होंठ खोल ही रही थीं कि मधु साड़ी के छोर से हाथ पोंछती बोली, ‘‘बाबूजी, एक बात कहनी थी, आज्ञा हो तो कहूं?’’

‘‘हां, हां, कह न बहू,’’ वे आर्द्र कंठ से बोले.

‘‘क्या मेरे मायके से जो रुपया नकद मिला था वह सब खर्च हो गया? यह न सोचें कि मु झे चाहिए. यदि जमा हो तो वह विभा के विवाह में लगा दें.’’

‘‘वह, वह तो निखिल ने आधा शायद तभी अपने खाते में जमा कर लिया था. वह तो…’’

निखिल वाशबेसिन में कुल्ला करते घूम कर खड़ा हो गया. उस ने घूर कर मधु की ओर देखा. मधु ने तुरंत उधर से पीठ घुमा ली. फिर वह बोली, ‘‘वह सब निकाल लें और सब लोग कम से कम 25-25 हजार रुपए दें, भरपाई हो जाएगी.’’

‘‘रुपए हुए तो इतना सामान कहां से आएगा बेटी?’’

‘‘वह मेरा सामान तो अभी नया ही सा है, वही सब दे दें. घर में 2-2 फ्रिजों का क्या करना है. न इतने टीवी ही चाहिए. बिजली का खर्च भी तो बचाना चाहिए. मु झे तो ढेरों सामान मिला था. कुछ आलतूफालतू बेच कर बड़ी चीजें ले लें. रंगीन टीवी, फ्रिज, कपड़े धोने की मशीन के बिना भी तो अब तक काम चल रहा था. वैसे ही फिर चल सकता है. आप को घरवर पसंद है तो यहीं संबंध करिए विभाजी का, यही घरबार ठीक है.’’

सब जैसे चकित रह गए. दोनों जेठजेठानियां मुंहबाए अचरज से देख रहे थे और निखिल तो जैसे पहले उबल रहा था, परंतु फिर लगा वह बिलकुल शांत हो गया पत्नी के सामने. पहले उस के मन में आया कि कहीं मधु उस की ससुराल में मिले नए स्कूटर के लिए न कह दे, परंतु अब वह जैसे पिघल रहा था. उस ने पिता से लड़ झगड़ कर विवाह के बाद ससुराल से मिले आधे रुपए  झटक कर बैंक बैलेंस बना लिया था. यह बात उस ने मधु से कभी नहीं कही थी. आज जैसे वह पूरे परिवार की नजरों में गिर गया था. रुपयों की बात पर वह बौखला कर कुछ कहने के शब्द संजो रहा था कि मधु की दानशीलता ने उसे गहराई तक गौण बना दिया.

‘‘मांजी, मेरे पास जेवर भी कई जोड़ी हैं. मैं सब से छोटी हूं न मायके में. इस से बड़े दोनों भाईभाभी व चाचाचाची तथा दोनों बेटेबहुओं ने भी काफी कुछ दिया है. चाची की तो मैं बहुत दुलारी हूं. उन्होंने अलग से कई जेवर दिए हैं, उन्हें बेच कर समस्या हल हो जाएगी. आप लोग चिंता न करें. बाबूजी रिटायर हो गए हैं तो अब यह भार उन का नहीं, उन के तीनों बेटेबहुओं का है. कोई तानाठेना क्यों देगा. क्या कोई पराया है. बहन उन की ननद हमारी, आप तो कुछ शर्तों पर हेरफेर कर हां कर दो. सब ठीक हो जाएगा. कुछ अच्छा काम हम लोग भी तो कर लें.’’

सुन कर बहुत रोकने पर भी नेत्र बरस पड़े. वे भर्राए कंठ से किसी प्रकार बोले, ‘‘छोटी बहू, क्या कहूं? तेरी जैसी तो कहीं मिसाल नहीं है रे, कहां से पाया तू ने ऐसा ज्ञान, उदारता. तू कहां से आ गई इस घर में.’’

‘‘न, न बाबूजी और कुछ नहीं. मैं सह नहीं सकूंगी,’’ कह कर वह आगे बढ़ी उन के मुख पर हाथ रखने को तो उन्होंने उसे कंधे से लगा लिया और फिर उस के सिर पर हाथ रख कर जैसे मन की सारी ममता लुटाने को आतुर हो उठे.

‘‘पता नहीं कौन से कर्म किए थे हम ने कि इस साधारण घर में बहू बन कर चली आई. अरे, धन्य हैं इस के मातापिता और परिवार वाले जो उन्होंने इस मणि को हमारी  झोली में डाल दिया. अरे, आ तो मधु. मैं तु झे छाती से लगा कर कलेजा ठंडा कर लूं. अरे, ऐसा तो मैं अपनी औलाद को भी न ढाल पाई.’’

मांजी ने उसे खींच कर कलेजे से लगा लिया. मधु ने लज्जा से अपना मुंह मांजी के आंचल में छिपा लिया. मुकेश, अखिलेश अपनी नम आंखें पोंछ कर उठ खड़े हुए. निखिल वहां से चल कर अपने कमरे में दरवाजे पर खड़ा हो कर मुड़ा और बोला, ‘‘बाबूजी, आप विभा के यहां मंजूरी का पत्र लिख दें, और हां, मेरा स्कूटर मेरा बहनोई चलाएगा. अब थोड़ी साफसफाई हो जाएगी, बस,’’ कह कर वह अंदर घुस गया.

पिता ने बड़े ही आश्चर्य से हठीलेजोशीले बेटे की ओर देखा, ‘क्या यही है 6 माह पूर्व का निखिल, जो ससुराल से मिले रुपयों के लिए कई दिन  झगड़ता रहा था और ले कर ही माना था.’

‘‘बाबूजी, जैसे आप की बहू ने आज्ञा दी है, हम सब वहीं विभा की शादी को तैयार हैं. हम दोनों भी जीपीएफ आदि निकाल लेंगे. शादी वहीं होगी,’’ दोनों ने अपना निर्णय सुनाया. तभी दोनों जेठानियां आगे आईं.

‘‘मांजी, हमारे मायके के जो भारी बरतन हों, आप उन्हें साफ कर विभा को दे सकती हैं. कुछ न कुछ हम दोनों के पास भी है.’’

‘‘नहीं, बड़ी दीदी. आप की बेटी शैली बड़ी हो रही है. आप बरतनभांडे कुछ नहीं देंगी. बड़े दादा रुपए भर देंगे. रुपए तो तब तक हम शैली के लिए जोड़ ही लेंगे. अभी जो समय की मांग है वही चाहिए, बस.’’

जो काम पूरे परिवार को पहाड़ काटने सा प्रतीत हो रहा था वह जैसे पलभर में सुल झ गया.

तभी विभा के कमरे से सिसकियों के स्वर बाहर तक गूंजते चले गए. सब उधर दौड़ते चले गए. देखा, विभा पड़ी सिसक रही है. मधु ने घबरा कर उस का सिर गोद में रख लिया. वह अपने पलंग पर पड़ी सिसक रही थी. ‘‘क्या हुआ विभा, क्या हुआ,’’ सब उसे घेर कर खड़े हो गए, विभा थी कि रोए जा रही थी.

‘‘बोल न विभा,’’ मां ने हिला कर पूछा.

‘‘मां, ये भाभियां क्या अभी से वैरागिनी बन जाएंगी? क्या इन का सब सामान संजो कर मैं सुखी हो पाऊंगी?’’ वह रो कर बोली.

‘‘पगली, इतनी सी बात पर ऐसे बिलख रही है, जैसे कुबेर का खजाना लुट गया हो. अरे, यह तो फिर जुड़ जाएगा. मैं नौकरी कर लूं तो क्या फिर न जुड़ पाएगा. फिर अभी कौन कंगाल है, सब चीजें हैं तो घर में, तू सब चिंता छोड़,’’ मधु ने उसे सम झाया.

‘‘मधु ठीक कहती है, विभा. अभी जो है उसे तो स्वीकार करना ही पड़ेगा. सामान तो हम फिर जोड़ लेंगे. छोटी भाभी की तू चिंता मत कर, वह तो जब से आई है वैरागिनी सी ही तो रहती है. इसी से तो वह राजरानी से बढ़ कर है घरभर के लिए,’’ मुकेश ने उसे सम झाया. तब वह बड़ी कठिनाई से शांत हुई.

फिर बाबूजी ने देर नहीं की. उन्होंने रकम कम करने की प्रार्थना के साथ उन की कुछ ऊंची मांग स्वीकार कर ली थी. कुछ के लिए अगली विदा पर देने की प्रार्थना भी की थी. उन्हें जैसे पूरा विश्वास था कि वे लोग कुछ हद तक मान जाएंगे, क्योंकि उन लोगों को भी लड़की सहित उन का मध्यवर्गीय परिवार पसंद था.

हुआ भी यही. एक माह पश्चात सब शर्तों के साथ शादी तय भी हो गई. रकम भी कम कर दी गई. सामान तो सारा मिल ही रहा था, सब प्रसन्न हो उठे.

तब तक विभा की परीक्षाएं भी हो गईं. फिर सगाई की रस्म हुई. विवाह की तिथि भी निश्चित हो गई. तब गई लग्न. पूरे 7 थाल भर कर गए. साड़ी, सूट, बच्चों के कपड़े व फल, मेवे, मिठाई, अच्छे बड़ेबड़े थाल देख कर घरभर खुश हो उठा. तभी मुकेश द्वारा हाथ पर थाल रखे जाने पर वर संजय की निगाह थाल पर लिखे नाम पर पड़ी जो मशीन द्वारा लिखा गया था. फिर उस ने सब थालों पर नजर डाली तो मन न जाने कैसा हो गया.

थालों पर नाम किस का लिखा है? वह पूछ बैठा.’’

‘‘छोटी बहू, मधु का. ये सब उसी के मायके के थाल हैं.’’

‘‘परंतु आप की बहन का नाम तो विभा है न?’’

‘‘हां, विभा ही तो है.’’

‘‘तो क्या यह उचित लगा आप लोगों को कि किसी के मायके की भेंट किसी को दी जाए?’’ वह थोड़ी तेज आवाज में बोला.

‘‘प्लीज, धीरे बोलिए, असल बात यह है कि 2 वर्र्ष पूर्व ही हम एक बहन के विवाह से निबटे हैं, फिर छोटे भाई निखिल का विवाह किया. लड़के के विवाह में भी तो पैसा लगता है.

‘‘आप के विवाह में भी लग रहा होगा, हम अभी ऐसी परिस्थिति में नहीं थे कि आप लोगों की सारी मांगें पूरी कर सकते. इसलिए ये सब लाना पड़ा. अब तक जितने भी संबंध आए, हम सब को और विभा को आप व आप का पूरा परिवार ही अच्छा लगा. और एक बात और बतलाऊं, छोटी बहू मधु ने ही खुशी से अपना बहुत सा सामान देने की हठ की है, वरना हम लोग तो यह रिश्ता शायद करने का साहस ही न कर पाते,’’ फिर उन्होंने जो घर पर घटित हुआ था, सारा कह सुनाया.

और आखिर में कहा, ‘‘और आप विश्वास करें तब से यह सब दहेज ऐसे ही रखा है, सिवा टीवी और स्कूटर के, सब नया ही है.’’

लड़का लगन की चौक पर बैठा था. घराती और मेहमान सब एक ओर और मुकेश आदि सहित सब दूसरी ओर. वर के निकट सामान के पास कुछ दबेदबे स्वर सुन कर सब पास आ गए. पिता चिंतित हो उठे, मन में कहा, ‘कुछ गड़बड़ हो गई लगती है,’ वे पास आ कर बैठ गए. अखिल और निखिल भी सरक आए, ‘‘क्या बात है, मुकेश?’’

मुकेश ने दबे शब्दों में सब कह दिया. तब तक वर के पिता, भाई तथा अन्य नातेदार भी आ जुटे.

‘‘क्या बात है, संजय?’’

‘‘पापा, ये देख रहे हैं थाल आदि, ये हैं तो नए परंतु इन की पत्नी मधु का नाम गुदा है इन में,’’ उस ने निखिल की ओर इशारा कर  के कहा.

‘‘तो इस में क्या हुआ, ऐसा तो चलता ही है, इधर का उधर दहेज का आदानप्रदान. तू तो पागल है बिलकुल.’’

आगे पढ़ें- सहसा निखिल का मुंह अपमान की भावना से…

प्रेम ऋण: क्या था पारुल का फैसला

‘‘दी  दी, आप की बात पूरी हो गई हो तो कुछ देर के लिए फोन मुझे दे दो. मुझे तानिया से बात करनी है,’’ घड़ी में 10 बजते देख कर पारुल धैर्य खो बैठी.

‘‘लो, पकड़ो फोन, तुम्हें हमेशा आवश्यक फोन करने होते हैं. यह भी नहीं सोचा कि प्रशांत क्या सोचेंगे,’’ कुछ देर बाद अंशुल पारुल की ओर फोन फेंकते हुए तीखे स्वर में बोली.

‘‘कौन क्या सोचेगा, इस की चिंता तुम कब से करने लगीं, दीदी? वैसे मैं याद दिला दूं कि कल मेरा पहला पेपर है. तानिया को बताना है कि कल मुझे अपने स्कूटर पर साथ ले जाए,’’ पारुल फोन उठा कर तानिया का नंबर मिलाने लगी थी.

‘‘लो, मेरी बात हो गई, अब चाहे जितनी देर बातें करो, मुझे फर्क नहीं पड़ता,’’ पारुल पुन: अपनी पुस्तक में खो गई.

‘‘पर मुझे फर्क पड़ता है. मैं मम्मी से कह कर नया मोबाइल खरीदूंगी,’’ अंशुल ने फोन लौटाते हुए कहा और कमरे से बाहर चली गई.

पारुल किसी विवाद में नहीं पड़ना चाहती थी. फिर भी अंशुल के क्रोध का कारण उस की समझ में नहीं आ रहा था. पिछले आधे घंटे से वह प्रशांत से बातें कर रही थी. उसे तानिया को फोन नहीं करना होता तो वह कभी उन की बातचीत में खलल नहीं डालती.

अंशुल ने कमरे से बाहर आ कर मां को पुकारा तो पाया कि वह उस के विवाह समारोह के हिसाबकिताब में लगी हुई थीं.

‘‘मां, मुझे नया फोन चाहिए. मैं अब अपना फोन पारुल और नवीन को नहीं दे सकती,’’ वह अपनी मां सुजाता के पास जा कर बैठ गई थी.

‘‘क्या हुआ? आज फिर झगड़ने लगे तुम लोग? तेरे सामने फोन क्या चीज है. फिर भी बेटी, 1 माह भी नहीं बचा है तेरे विवाह में. क्यों व्यर्थ लड़तेझगड़ते रहते हो तुम लोग? बाद में एकदूसरे की सूरत देखने को तरस जाओगे,’’ सुजाता ने अंशुल को शांत करने की कोशिश की.

‘‘मां, आप तो मेरा स्वभाव भली प्रकार जानती हैं. मैं तो अपनी ओर से शांत रहने का प्रयत्न करती हूं पर पारुल तो लड़ने के बहाने ढूंढ़ती रहती है,’’ अंशुल रोंआसी हो उठी.

‘‘ऐसा क्या हो गया, अंशुल? मैं तेरी आंखों में आंसू नहीं देख सकती, बेटी.’’

‘‘मां, जब भी देखो पारुल मुझे ताने देती रहती है. मेरा प्रशांत से फोन पर बातें करना तो वह सहन ही नहीं कर सकती. आज प्रशांत ने कह ही दिया कि वह मुझे नया फोन खरीद कर दे देंगे.’’

‘‘क्या कह रही है, अंशुल. लड़के वालों के समाने हमारी नाक कटवाएगी क्या? पारुल, इधर आओ,’’ उन्होंने क्रोधित स्वर में पारुल को पुकारा.

‘‘क्या है, मां? मेरी कल परीक्षा है, आप कृपया मुझे अकेला छोड़ दें,’’ पारुल झुंझला गई थी.

‘‘इतनी ही व्यस्त हो तो बारबार फोन मांग कर अंशुल को क्यों सता रही हो,’’ सुजाताजी क्रोधित स्वर में बोलीं.

‘‘मां, मुझे तानिया को जरूरी फोन करना था. मेरा और उस का परीक्षा केंद्र एक ही स्थान पर है. वह जाते समय मुझे अपने स्कूटर पर ले जाएगी,’’ पारुल ने सफाई दी.

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‘‘मैं सब समझती हूं, अंशुल को अच्छा घरवर मिला है यह तुम से सहन नहीं हो रहा. ईर्ष्या से जलभुन गई हो तुम.’’

‘‘मां, यही बात आप के स्थान पर किसी और ने कही होती तो पता नहीं मैं क्या कर बैठती. फिर भी मैं एक बात साफ कर देना चाहती हूं कि मुझे प्रशांत तनिक भी पसंद नहीं आए. पता नहीं अंशुल दीदी को वह कैसे पसंद आ गए.’’

‘‘यह तुम नहीं, तुम्हारी ईर्ष्या बोल रही है. यह तो अंशुल का अप्रतिम सौंदर्य है जिस पर वह रीझ गए, वरना हमारी क्या औकात थी जो उस ओर आंख उठा कर भी देखते. तुम्हें तो वैसा सौंदर्य भी नहीं मिला है. यह साधारण रूपरंग ले कर आई हो तो घरवर भी साधारण ही मिलेगा, शायद इसी विचार ने तुम्हें परेशान कर रखा है.’’

मां का तर्क सुन कर पारुल चित्रलिखित सी खड़ी रह गई थी कि एक मां अपनी बेटी से कैसे कह सकी ये सारी बातें. वह उन की आशा के अनुरूप अनुपम सुंदरी न सही पर है तो वह उन्हीं का अंश, उसे इस प्रकार आहत करने की बात वह सोच भी कैसे सकीं.

किसी प्रकार लड़खड़ाती हुई वह अपने कमरे में लौटी. वह अपनी ही बहन से ईर्ष्या करेगी यह अंशुल और मां ने सोच भी कैसे लिया. मेज पर सिर टिका कर कुछ क्षण बैठी रही वह. न चाहते हुए भी आंखों में आंसू आ गए. तभी अपने कंधे पर किसी का स्पर्श पा कर चौंक उठी वह.

‘‘नवीन भैया? कब आए आप? आजकल तो आप प्रतिदिन देर से आते हैं. रहते कहां हैं आप?’’

‘‘मैं, अशोक और राजन एकसाथ पढ़ाई करते हैं अशोक के यहां. वैसे भी घर में इतना तनाव रहता है कि घर में घुसने के लिए बड़ा साहस जुटाना पड़ता है,’’ नवीन ने एक सांस में ही पारुल के हर प्रश्न का उत्तर दे दिया.

‘‘भूख लगी होगी, कुछ खाने को लाऊं क्या?’’

‘‘नहीं, मैं खुद ले लूंगा. तुम्हारी कल परीक्षा है, पढ़ाई करो. पर पहले मेरी एक बात सुन लो. तुम्हारे पास अद्भुत सौंदर्य न सही, पर जो है वह रेगिस्तान की तपती रेत में भी ठंडी हवा के स्पर्श जैसा आभास दे जाता है. इन सब जलीकटी बातों को एक कान से सुनो और दूसरे से निकाल दो और सबकुछ भूल कर परीक्षा की तैयारी में जुट जाओ,’’ पारुल के सिर पर हाथ फेर कर नवीन कमरे से बाहर निकल गया.

अगले दिन परीक्षा के बाद पारुल तानिया के साथ लौट रही थी तो अंशुल को अशीम के साथ उस की बाइक पर आते देख हैरान रह गई.

‘‘अशीम के पीछे अंशुल ही बैठी थी न,’’ तानिया ने पूछ लिया.

‘‘हां, शायद…’’

‘‘शायद क्या, शतप्रतिशत वही थी. जीवन का आनंद उठाना तो कोई तुम्हारी बहन अंशुल से सीखे. एक से विवाह कर रही है तो दूसरे से प्रेम की पींगें बढ़ा रही है. क्या किस्मत है भौंरे उस के चारों ओर मंडराते ही रहते हैं,’’ तानिया हंसी थी.

‘‘तानिया, वह मेरी बहन है. उस के बारे में यह अनर्गल प्रलाप मैं सह नहीं सकती.’’

‘‘तो फिर समझाती क्यों नहीं अपनी बहन को? कहीं लड़के वालों को भनक लग गई तो पता नहीं क्या कर बैठें,’’ तानिया सपाट स्वर में बोल पारुल को उस के घर पर छोड़ कर फुर्र हो गई थी.

पारुल घर में घुसी तो विचारमग्न थी. तानिया उस की घनिष्ठ मित्र है अत: अंशुल के बारे में अपनी बात उस के मुंह पर कहने का साहस जुटा सकी. पर उस के जैसे न जाने कितने यही बातें पीठ पीछे करते होंगे. चिंता की रेखाएं उस के माथे पर उभर आईं.

सुजाता बैठक में श्रीमती प्रसाद के साथ बातचीत में व्यस्त थीं.

‘‘कैसा हुआ पेपर?’’ उन्होंने पारुल को देखते ही पूछा.

‘‘ठीक ही हुआ, मां,’’ पारुल अनमने स्वर में बोली.

‘‘ठीक मतलब? अच्छा नहीं हुआ क्या?’’

‘‘बहुत अच्छा हुआ, मां. आप तो व्यर्थ ही चिंता करने लगती हैं.’’

‘‘यह मेरी छोटी बेटी है पारुल. इसे भी याद रखिएगा. अंशुल के बाद इस का भी विवाह करना है,’’ सुजाता ने श्रीमती प्रसाद से कहा.

‘‘मैं जानती हूं,’’ श्रीमती प्रसाद मुसकराई थीं.

‘‘पारुल, 2 कप चाय तो बना ला बेटी,’’ सुजाताजी ने आदेश दिया था.

‘‘हां, यह ठीक है. एक बात बताऊं सुजाता?’’ श्रीमती प्रसाद रहस्यमय अंदाज में बोली थीं.

‘‘हां, बताइए न.’’

‘‘मैं तो लड़की के हाथ की चाय पी कर ही उस के गुणों को परख लेती हूं.’’

‘‘क्यों नहीं, यदि कोई लड़की चाय भी ठीक से न बना सके तो और कोई कार्य ठीक से करने की क्षमता उस में क्या ही होगी,’’ सुजाताजी ने उन की हां में हां मिलाई थी.

‘ओफ, जाने कहां से चले आते हैं यह बिचौलिए. स्वयं को बड़ा गुणों का पारखी समझते हैं,’ पारुल चाय देने के बाद अपने कक्ष में जा कर बड़बड़ा रही थी.

‘‘माना कि लड़के वालों की कोई मांग नहीं है पर आप को तो उन के स्तर के अनुरूप ही विवाह करना पड़ेगा. अंशुल के भविष्य का प्रश्न है यह तो,’’ उधर श्रीमती प्रसाद सुजाताजी से कह रही थीं.

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‘‘कैसी बातें करती हैं आप? हम क्या अपनी तरफ से कोई कोरकसर छोड़ेंगे? आप ने हर वस्तु और व्यक्ति के बारे में सूचना दे ही दी है. सारा कार्य आप की इच्छानुसार ही होगा,’’ सुजाताजी ने आश्वासन दिया.

श्रीमती प्रसाद कुछ देर में चली गई थीं. केवल सुजाताजी अकेली बैठी रह गईं.

‘‘इस विवाह का खर्च तो बढ़ता ही जा रहा है. समझ में नहीं आ रहा कि इतना पैसा कहां से आएगा,’’ वह मानो स्वयं से ही बात कर रही थीं. तभी उन के पति वीरेन बाबू कार्यालय से लौटे थे.

‘‘घर में बेटी की शादी है पर आप को तो कोई फर्क नहीं पड़ता. आप की दिनचर्या तो ज्यों की त्यों है. सारा भार तो मेरे कंधों पर है,’’ सुजाताजी ने थोड़ा नाराजगी भरे स्वर में कहा.

‘‘क्या कहूं, तुम्हें तो मेरे सहयोग की आवश्यकता ही नहीं पड़ती. मेरा किया कार्य तुम्हें पसंद भी तो नहीं आता,’’ वीरेन बाबू बोले थे.

‘‘आप को कार्य करने को कौन कह रहा है. पर कभी साथ बैठ कर विचारविमर्श तो किया कीजिए. हर चीज कितनी महंगी है आजकल. सबकुछ श्रीमती प्रसाद की इच्छानुसार हो रहा है. पर हम कर तो अपनी बेटी के लिए ही रहे हैं न. अब तक 15 लाख से ऊपर खर्च हो चुका है और विवाह संपन्न होने तक इतना ही और लग जाएगा.’’

‘‘पर इतना पैसा आएगा कहां से,’’ वीरेन बाबू चौंक कर बोले, ‘‘जब वर पक्ष की कोई मांग नहीं है तो जितनी चादर है उतने ही पैर फैलाओ,’’ वीरेन बाबू ने सुझाव दिया था.

‘‘मांग हो या न हो, हमें तो उन के स्तर का विवाह करना है कि नहीं. मैं साफ कहे देती हूं, मेरी बेटी का विवाह बड़ी धूमधाम से होगा,’’ सुजाताजी ने घोषणा की थी और वीरेन बाबू चुप रह गए थे. वह नहीं चाहते थे कि बात आगे बढ़े और घर में कोहराम मच जाए. वह शायद कुछ और कहते कि तभी धमाकेदार ढंग से अंशुल ने घर में प्रवेश किया.

‘‘कहां थीं अब तक? मैं ने कहा था न शौपिंग के लिए जाना था. श्रीमती प्रसाद आई थीं. तुम्हारे बारे में पूछ रही थीं.’’

‘‘आज मैं बहुत व्यस्त थी, मां. पुस्तकालय में काफी समय निकल गया. उस के बाद मंजुला के जन्मदिन की पार्टी थी. मैं तो वहां से भी जल्दी ही निकल आई,’’ सुजाताजी के प्रश्न का ऊटपटांग सा उत्तर दे कर अंशुल अपने कमरे में आई थी.

‘‘आइए भगिनीश्री, कौन से पुस्तकालय में थीं आप अब तक?’’ पारुल उसे देखते ही मुसकाई थी.

‘‘क्या कहना चाह रही हो तुम? इस तरह व्यंग्य करने का मतलब क्या है?’’

‘‘मैं व्यंग्य छोड़ कर सीधे मतलब की बात पर आती हूं. आज पूरे दिन अशीम के साथ नहीं थीं आप?’’

‘‘तो? अशीम मेरा मित्र है. उस के साथ एक दिन बिता लिया तो क्या हो गया?’’

‘‘अशीम केवल मित्र है, दीदी? मैं तो सोचती थी कि आप उस के प्रेम में आकंठ डूबी हुई हैं और किसी और के बारे में सोचेंगी भी नहीं. पर आप तो प्रशांत बाबू की मर्सीडीज देख कर सबकुछ भूल गईं.’’

‘‘कालिज का प्रेम समय बिताने के लिए होता है. मैं इस बारे में पूर्णतया व्यावहारिक हूं. अशीम अभी पीएच.डी. कर रहा है. 4-5 वर्ष बाद कहीं नौकरी करेगा. उस की प्रतीक्षा करते हुए मेरी तो आंखें पथरा जाएंगी. घर ढंग से चलाने के लिए मुझे भी 9 से 5 की चक्की में पिसना पड़ेगा. मैं उन भावुक मूर्खों में से नहीं हूं जो प्रेम के नाम पर अपना जीवन बरबाद कर देते हैं.’’

‘‘आप का हर तर्क सिरमाथे पर, लेकिन आप से इतनी अपेक्षा तो की ही जा सकती है कि आप अशीम को सब साफसाफ बता दें और उस के साथ प्यार की पींगें बढ़ाना बंद कर दें. फिर प्रशांतजी का परिवार इसी शहर में रहता है. किसी को भनक लग गई तो…’’

‘‘किसी को भनक नहीं लगने वाली. तुम्हीं बताओ, मांपापा को आज तक कुछ पता चला क्या? हां, इस के लिए मैं तुम्हारी आभारी हूं. पर मैं इस उपकार का बदला अवश्य चुकाऊंगी.’’

‘‘अंशुल दीदी, तुम इस सीमा तक गिर जाओगी मैं ने सोचा भी नहीं था,’’ पारुल बोझिल स्वर में बोली.

‘‘यदि अपने हितों की रक्षा करने को नीचे गिरना कहते हैं तो मैं पाताल तक भी जाने को तैयार हूं. तुम चाहती हो कि मैं अशीम को सब साफसाफ बता दूं, पर जरा सोचो कि जब सारे शहर को मेरे विवाह के संबंध में पता है पर केवल अशीम अनभिज्ञ है तो क्या यह मेरा दोष है?’’

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‘‘पता नहीं दीदी, पर कहीं कुछ ठीक नहीं लग रहा है.’’

‘‘व्यर्थ की चिंता में नहीं घुला करते मेरी प्यारी बहन, अभी तो तुम्हारे खानेखेलने के दिन हैं. क्यों ऊंचे आदर्शों के चक्कर में उलझती हो. अशीम को मैं सबकुछ बता दूंगी पर जरा सलीके से. अपने प्रेमी को मैं अधर में तो नहीं छोड़ सकती,’’ अंशुल ने अपने चिरपरिचित अंदाज में कहा.

पारुल चुप रह गई थी. वह भली प्रकार जानती थी कि अंशुल से बहस का कोई लाभ नहीं था. उस ने अपने अगले प्रश्नपत्र की तैयारी प्रारंभ कर दी.

परीक्षा और विवाह की तैयारियों के बीच समय पंख लगा कर उड़ चला था. सुजाताजी ने अपनी लाड़ली के विवाह में दिल खोल कर पैसा लुटाया था. वीरेन बाबू को न चाहते हुए भी उन का साथ देना पड़ा था. अंशुल की विदाई के बाद कई माह से चल रहा तूफान मानो थम सा गया था. पारुल ने सहेलियों के साथ नाचनेगाने और फिर रोने में बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया था. पर अब सूने घर में कहीं कुछ करने को नहीं बचा था.

धीरेधीरे उस ने स्वयं को व्यवस्थित करना प्रारंभ किया था. पर एक दिन अचानक ही अशीम का संदेश पा कर वह चौंक गई थी. अशीम ने उसे कौफी हाउस में मिलने के लिए बुलाया था.

अशीम से पारुल को सच्ची सहानुभूति थी. अत: वह नियत समय पर उस से मिलने पहुंची थी.

‘‘पता नहीं बात कहां से प्रारंभ करूं,’’ अशीम कौफी और कटलेट्स का आर्डर देने के बाद बोला.

‘‘कहिए न क्या कहना है?’’ पारुल आश्चर्यचकित स्वर में बोली.

‘‘विवाह से 4-5 दिन पहले अंशुल ने मुझे सबकुछ बता दिया था.’’

‘‘क्या?’’

‘‘यही कि मातापिता का मन रखने के लिए उसे इस विवाह के लिए तैयार होना पड़ा.’’

‘‘अच्छा, और क्या कहा उस ने?’’

‘‘वह कह रही थी कि उस के विवाह के लिए मातापिता को काफी कर्ज लेना पड़ा. घर तक गिरवी रखना पड़ा. वह मुझ से विनती करने लगी, उस का वह स्वर मैं अभी तक भूला नहीं हूं.’’

‘‘पर ऐसा क्या कहा अंशुल दीदी ने?’’

‘‘वह चाहती है कि मैं तुम से विवाह कर लूं जिस से कि तुम्हारे मातापिता को चिंता से मुक्ति मिल जाए. और भी बहुत कुछ कह रही थी वह,’’ अशीम ने हिचकिचाते हुए बात पूरी की.

कुछ देर तक दोनों के बीच निस्तब्धता पसरी रही. कपप्लेटों पर चम्मचों के स्वर ही उस शांति को भंग कर रहे थे.

‘तो यह उपकार किया है अंशुल ने,’ पारुल सोच रही थी.

‘‘अशीमजी, मैं आप का बहुत सम्मान करती हूं. सच कहूं तो आप मेरे आदर्श रहे हैं. आप की तरह ही पीएच.डी. करने के लिए मैं ने एम.एससी. के प्रथम वर्ष में जीतोड़ परिश्रम किया और विश्वविद्यालय में प्रथम रही. इस वर्ष भी मुझे ऐसी ही आशा है. आप के मन में अंशुल दीदी का क्या स्थान था मैं नहीं जानती पर निश्चय ही आप ‘पैर का जूता’ नहीं हैं कि एक बहन को ठीक नहीं आया तो दूसरी ने पहन लिया,’’ सीधेसपाट स्वर में बोल कर पारुल चुप हो गई थी.

‘‘आज तुम ने मेरे मन का बोझ हलका कर दिया, पारुल. तुम्हारे पास अंशुल जैसा रूपरंग न सही पर तुम्हारे व्यक्तित्व में एक अनोखा तेज है जिस की अंशुल चाह कर भी बराबरी नहीं कर सकती.’’

‘‘यही बात मैं आप के संबंध में भी कह सकती हूं. आप एक सुदृढ़ व्यक्तित्व के स्वामी हैं. इन छोटीमोटी घटनाओं से आप सहज ही विचलित नहीं होते. आप के लिए एक सुनहरा भविष्य बांहें पसारे खड़ा है,’’ पारुल ने कहा तो अशीम खिलखिला कर हंस पड़ा.

‘‘हम दोनों एकदूसरे के इतने बड़े प्रशंसक हैं यह तो मैं ने कभी सोचा ही नहीं था. तुम से मिल कर और बातें कर के अच्छा लगा,’’ अशीम बोला और दोनों उठ खड़े हुए.

अपने घर की ओर जाते हुए पारुल देर तक यही सोचती रही कि अशीम को ठुकरा कर अंशुल ने अच्छा किया या बुरा? पर इस प्रश्न का उत्तर तो केवल समय ही दे सकता है.

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तिनका तिनका घोंसला: क्या हुआ हलीमा के साथ

लेखक- अरशद हाशमी

हलीमा का सिर दर्द से फटा जा रहा था, लेकिन काम पर तो जाना ही था वरना नाजिया मैडम झट से उस की पगार काट लेतीं, और दस बातें सुनातीं अलग से. कल रात फिर से उस का शौहर अकरम आधी रात के बाद शराब पी कर लौटा था और आते ही हलीमा से बिना बात मारपीट करने लगा था. अब तो ये आए दिन की बात हो गई थी.

अकरम दिनभर रिकशा चला कर जो कमाता उस का एक बड़ा हिस्सा जुए में हार आता और कभी कुछ पैसे बच जाते तो अपने दोस्तों के साथ शराब पी लेता.

5 साल पहले वे जब अपने गांव कराल से दिल्ली आए थे तो वह कितनी खुश थी. दिल्ली में ज्यादा कमाई होगी, बच्चे अच्छे स्कूलों में पढ़ सकेंगे, और एक बेहतर जिंदगी के सपने देखे, लेकिन दिल्ली आते ही वह मानो आसमान से सीधे जमीन पर आ गिरी हो. रेलवे लाइन के किनारे बसी एक बस्ती में एक बेहद ही छोटी सी झुग्गी में पूरे परिवार को रहना था.

गांव के ही करीम चाचा ने अकरम को एक रिकशा किराए पर दिला दिया था. शुरूशुरू में अकरम बहुत मेहनत करता था. करीम चाचा ने ही उस को बताया था कि जैतपुर में काफी सस्ती जमीन मिल सकती है. हलीमा अपना घर बनाने के सपने देखने लगी और बड़ी मुश्किल से उस ने अकरम को इस बात के लिए मनाया कि वह बराबर वाली कालोनी में 1-2 घरों में काम करने लगे, ताकि वह भी कुछ पैसे जोड़ सके.

दोनों ने खूब मेहनत कर कुछ पैसे जोड़ भी लिए थे, लेकिन कुछ दिनों बाद अकरम का उठनाबैठना कुछ गलत लोगों के साथ हो गया. ज्यादा पैसे कमाने के लालच में अकरम ने उन के साथ जुआ खेलना शुरू कर दिया और इस चक्कर में अपनी सारी जमापूंजी भी लुटा बैठा. इतना ही नहीं, कभीकभी वह शराब भी पी लेता. हलीमा कितना रोई थी, कितना लड़ी थी उस से. शुरूशुरू में अकरम कसमें खाता कि अब जुए और शराब से दूर रहेगा, लेकिन कुछ दिनों बाद फिर वही सब शुरू हो जाता.

सुबहसवेरे निकल कर हलीमा कई घरों में काम करती और शाम को थक कर चूर हो जाने के बाद भी उस को कोई आराम नहीं था. घर आ कर सब के लिए खाना बनाना और बाकी काम भी करने होते थे. अब तो हाल यह था कि घर का खर्चा भी बस हलीमा ही चलाती थी. कभी कुछ पैसे बच जाते तो अकरम छीन कर उन को भी जुए में हार आता.

उस दिन उस का छोटा बेटा माजिद बारिश में भीगने की वजह से बीमार पड़ गया. बस्ती में ही रहने वाले एक झोलाछाप डाक्टर से उस की दवा भी कराई, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ, बल्कि बीमारी और बढ़ गई. फिर उस को ओखला में एक डाक्टर को दिखाया गया. इस सब में उस के पास बचे सारे पैसे खत्म हो गए और कितना ही उधार उस के सिर चढ़ गया था.

कितना रोई थी वह अकरम के सामने, लेकिन वह तो करवट बदल कर खर्राटें भरने लगा था.

“सुनो हलीमा, क्या तुम एक और घर में काम करोगी? पड़ोस में ही मेरी एक सहेली रहने आई हैं. अकेली रहती

हैं, बैंक में नौकरी करती हैं,” एक दिन शबाना मैडम ने हलीमा से पूछा.

“मैडमजी, मुझे तो दम लेने की भी फुरसत नहीं है. एक घर और काम करने लगी तो बीमार ही पड़ जाऊंगी… और मुझे तो बीमार पड़ने की भी फुरसत नहीं है,” हलीमा ने बेचारगी से कहा.

“देख लो, वह तुम्हें 1,000 रुपए दे सकती हैं. उन का काम ज्यादा नहीं है, तुम्हें बस आधा घंटा ही लगेगा उन के घर.

“दरअसल, उन को एक अच्छी मेड चाहिए और मैं ने उन को तुम्हारा नाम बता दिया है,” शबाना मैडम ने उस को समझाते हुए कहा, तो हलीमा सोच में पड़ गई.

अगर वह आधा घंटा निकाल पाए तो 1,000 रुपए ज्यादा कमा सकती है. फिर उस ने यह सोच कर हां कर दी कि वह सुबह आधा घंटा पहले उठ जाया करेगी.

शांति मैडम से मिल कर उस को काफी अच्छा लगा. इत्तेफाक से वे भी उस के ही जिला बिजनौर की रहने वाली थीं.

हलीमा उन से मिल कर काफी खुश हो गई. हलीमा काम तो बड़ी साफसफाई से करती ही थी, खाना भी अच्छा बनाती थी. एक बार शांति मैडम ने ही उस को घर पर अचार, चटनी वगैरह बनाने का सुझाव दिया.

हलीमा ने 2-3 तरह के अचार बना कर शांति मैडम को दिए, तो उन्होंने अपने बैंक में ही 1-2 लोगों से हलीमा के लिए और्डर ले लिए. इस से हलीमा को कुछ अतिरिक्त आय भी होने लगी.

“मैं तुम्हारे पैसे बैंक में डाल दूं या तुम्हें कैश चाहिए,” एक महीने बाद शांति मैडम ने उस की पगार देने के लिए पूछा, तो हलीमा की हंसी निकल गई.

“क्या मैडमजी, हम गरीबों के भी कोई बैंक में खाते होते हैं?” हलीमा ने हंसते हुए कहा.

“क्या तुम्हारा किसी बैंक में अकाउंट नहीं है,” शांति ने हैरानी से पूछा.

“नहीं मैडमजी,” हलीमा ने गंभीरता से जवाब दिया.

“अगर तुम चाहो तो मैं अपने बैंक में ही तुम्हारा खाता खुलवा दूं. अगर किसी बैंक में तुम्हारा खाता नहीं है, तो तुम चार पैसे कैसे बचा पाओगी?” शांति ने उस को समझाया.

बात कुछकुछ हलीमा की समझ में आ रही थी. फिर उस ने यह सोच कर शांति से बैंक में खाता खुलवाने के लिए हां कर दी कि वह किसी को भी इन पैसों के बारे में नहीं बताएगी. इन पैसों को वह अपने बच्चों के भविष्य के लिए सुरक्षित रखेगी. और सचमुच उस ने किसी को इन पैसों के बारे में नहीं बताया और न ही इन पैसों को खर्च किए.

फिर एक दिन जब शांति ने उस को बताया कि उस के खाते में 10,000 से भी ज्यादा रुपए हो गए हैं, तो उस की आंखों में खुशी के आंसू आ गए.

पर, यह खुशी ज्यादा देर तक नहीं टिकी. उस दिन पूरी रात भी जब अकरम घर नहीं आया, तो उस को कुछ फिक्र हुई. वह चाहे कितना भी जुआ या शराब करे, रात में घर जरूर आता था. फिर सुबहसुबह करीम चाचा ने उस को बताया कि कल रात पुलिस अकरम और कुछ लोगों को उठा कर थाने ले गई है.

सुनते ही मानो उस के पैरों के नीचे से जमीन निकल गई. करीम चाचा के साथ वह पुलिस थाने गई. उन को देखते ही अकरम दहाड़ें मार मार कर रोने लगा.

“मुझे बचा ले हलीमा. ये पुलिस वाले मुझे बिना बात पकड़ लाए. अरे, मैं तो राजेंदर और अनीस के साथ ठेके से घर ही आ रहा था, इन्होंने मुझे रास्ते में उठा लिया,” अकरम रोतेरोते बता रहा था.

“कितनी बार कहा तुम से कि ये सब छोड़ दो. न तुम्हें घर वालों की फिक्र है, न अल्लाह का डर, और अब पुलिस थाने भी शुरू हो गए. क्या करूंगी. मैं कहां जाऊंगी बच्चों को ले कर,” हलीमा भी जोरजोर से रो रही थी.

“बस, इस बार मुझे बचा ले. तेरी कसम… आगे से सब बुरे काम छोड़ दूंगा,” अकरम उस के आगे हाथ जोड़ रहा था.

“मैं इंस्पेक्टर साब से बात कर के देखता हूं,” करीम चाचा ने हलीमा से कहा, तो वह भी उन के साथ चल दी.

“साहब, मेरे आदमी को छोड़ दो. आगे से कभी जुआ नहीं खेलेगा,” हलीमा ने इंस्पेक्टर के आगे हाथ जोड़े.

“शराब पी कर ये सारे लोग चौक पर दंगा कर रहे थे और एक दुकान का ताला तोड़ रहे थे. ये तो जाएगा 2-3 साल के लिए अंदर,” इंस्पेक्टर ने बुरा सा मुंह बनाते हुए कहा.

“साहब, ये जुआरी और शराबी जरूर है, मगर चोर नहीं है. आप को कोई गलतफहमी हुई है,” हलीमा ने हाथ जोड़ेजोड़े विनती की.

“हम तो उधर से आ रहे थे. चोर तो पहले ही भाग गए थे. कोई नहीं मिला तो मुझे ही पकड़ लाए,” पीछे से अकरम की रोती हुई आवाज आई.

“अरे शहजाद, जरा लगा इस के दो हाथ… हमें हमारा काम सिखाता है,” इंस्पेक्टर ने भद्दी सी गाली देते हुए अपने कांस्टेबल से कहा, तो कांस्टेबल ने दो डंडे अकरम की कमर पर जड़ दिए. अकरम की चीखें पूरे थाने में गूंज गईं.

“अरे साहब, जाने दो न. गरीब आदमी है. आगे से ऐसा नहीं करेगा. कुछ सेवापानी कर देंगे,” करीम चाचा ने इंस्पेक्टर के आगे हाथ जोड़ कर कहा, तो इंस्पेक्टर ने उन को ऐसे घूरा मानो कच्चा ही चबा जाएगा.

“ठीक है, 10,000 रुपयों का इंतजाम कर लो, छोड़ देंगे इसे,” इंस्पेक्टर ने कुछ सोचते हुए कहा.

“10,000 रुपए…? इतने सारे रुपए कहां से लाएंगे सरकार. हम तो रोज कमानेखाने वाले लोग हैं. इतने सारे पैसे तो हम ने कभी एकसाथ देखे भी नहीं,” हलीमा ने रोते हुए इंस्पेक्टर से कहा.

“नहीं देखे तो अब इस को भी मत देखना कई साल. जा… जा कर कोई वकील कर, उस को हजारों रुपए फीस दे, अदालत में रिश्वत खिला, तब शायद ये 10 साल में घर वापस आ जाए,” इंस्पेक्टर दहाड़ा.

इतना सुन कर ही हलीमा की आंखों के आगे अंधेरा छा गया. अकरम कैसा भी था, था तो उस का शौहर ही.

“ठीक है, साहब. मैं पैसों का इंतजाम कर के लाती हूं,” हलीमा ने हार कर कहा.

हलीमा ने शांति से कह कर अपने खाते में पड़े 10,000 रुपए निकलवाए और इंस्पेक्टर को ला कर दिए.

रास्तेभर उस ने अकरम से कोई बात नहीं की. आंखों में आंसू भरे वह अपने बच्चों का भविष्य बरबाद होते देख रही थी.

अकरम रोरो कर उस से माफी मांग रहा था, लेकिन हलीमा ने उस से एक लफ्ज भी नहीं बोला. अकरम बच्चों के सिर पर हाथ रख कर कसमें खा रहा था, लेकिन हलीमा को उन कसमों पर जरा भी यकीन नहीं था.

लेकिन इस बार अकरम सचमुच बदल गया था. हवालात में बिताए कुछ घंटों ने उस की आंखें खोल दी थीं. आज वह हलीमा का कर्जदार हो गया था. दिनभर उस ने जीतोड़ मेहनत कर के जितने भी पैसे कमाए, सारे के सारे हलीमा के हाथ पर रख दिए.

“मुझे माफ कर दे हलीमा… मैं बुरी संगत में पड़ कर ये भी भूल गया था कि मेरे ऊपर तुम सब की जिम्मेदारी भी है. मेरा यकीन कर आगे से मैं ऐसा कोई काम नहीं करूंगा, जिस से तेरी आंखों में आंसू आएं,” अकरम ने हलीमा के आगे हाथ जोड़ दिए.

“याद करो, हम गांव से दिल्ली किसलिए आए थे. अपने बच्चों के अच्छे कल के लिए, लेकिन हम उन को कैसा कल दे रहे हैं. जरा सोचो,” हलीमा की आंखें डबडबा आईं.

“तू सच कह रही है. मैं तुम सब का गुनाहगार हूं. मुझे एक मौका दे दे, मैं अपने बच्चों के लिए खूब मेहनत करूंगा और उन को एक अच्छी जिंदगी दूंगा,” अकरम ने हलीमा के हाथ अपने हाथों में लेते हुए कहा.

“आ जाओ मेरे बच्चो, अब तुम्हें अपने अब्बा से डरने की कोई जरूरत नहीं है,” अकरम ने बच्चों से कहा, जो दूर कोने में डरेसहमे से खड़े थे.

फिर अकरम ने उन सब को अपने गले लगा लिया. हलीमा को भी उम्मीद की एक नई किरण नजर आ रही थी. मन ही मन वह शांति मैडम की भी शुक्रगुजार थी, जिन की वजह से वह कुछ पैसे बचा पाई थी और आज उस का परिवार फिर से एक हो गया था.

सही डोज: भाग 1- आखिर क्यों बनी सविता के दिल में दीवार

दीवारें  बन गई थीं. दिलों के भीतर बनी इन दीवारों के पीछे से घर का हर व्यक्ति एकदूसरे की हरकतों को देखता रहता था. सविता के दिल में दीवार की नींव तब पड़ी जब नवीन ने 1 साल पहले ही ब्याह कर आई अपनी पत्नी की सारी भारी-भारी साडि़यां, डैकोरेशन पीसेज, चांदी के बरतन सब उस को मना कर बहन की शादी में दे दिए थे. नवीन 2 बहनों का भाई था और अपनी जिम्मेदारियां संभालता था पर सविता की भावनाओं की कद्र उसने नहीं की. यह सारा सामान सविता चाहे इस्तेमाल नहीं करती थी पर मां-बाप की निशानी थी.

नवीन उठते तनाव को देख रहा था, पर वह चुप रहता था. वह मूक दर्शक था. पत्नी के व्यंग्य को तो बरदाश्त करता ही था, विवाहित और एक बची अविवाहित बहन की फरमाइशों को भी सुनता था. कभी-कभी मां फोन पर चिल्लाकर कहती, ‘‘अरे, तू कुछ बोलता क्यों नहीं?’’ तंग आ कर वह कहता, ‘‘क्या बोलूं, मम्मी आप लोग ही बोलने को काफी हैं.’’

सुबह 6 बजे से ही सविता की सास प्रमिला देवी को मैसेज नवीन के व्हाट्सऐप पर आने शुरू हो जाते. आज दफ्तर जाते समय 2 किलोग्राम आटा और 1 किलोग्राम चीनी देते जाना. तेरे पापा की दवाइयां खत्म हो गई हैं, शाम को लेते आना.

मगर वे अपनी बेटी रश्मि को कभी फोन नहीं लगाती थीं जो उन्हीं के साथ रहती थी. शायद उसी गुस्से से मैसेज देख लेने पर भी सविता करवट बदल कर फिर सो जाती थी. मम्मी के मैसेजों की टिनटिन आवाज से नींद नवीन की भी खुल जाती थी पर वह भी चुपचाप लेटा रहता था. वह सविता को भी उठने को नहीं कहता था.

उसके पापा नरेंद्रनाथ ने कभी चाय तक नहीं बनाई थी. जब से नवीन और सविता ने अलग रहना शुरू किया है उन्हें काम के लिए न जाने कितनी बार रसोई के चक्कर लगाने पड़ते हैं. प्रमिला 1 घंटा व्यायाम करने के बाद ही 1 प्याला चाय उन के सामने मेज पर रखती थीं. बेचारे चुपचाप उठा कर पीते. यह रोज की दिनचर्या जो थी, कहां तक बुरा मानते. नवीन व सविता ने सालभर यह देखा था या कहिए भुगता था. शादी के 10-15 दिन बाद घर की हालत कुछ ऐसी होती थी.

‘‘सवेरे-सवेरे उठ जाते हो, यह नहीं कि सब की तरह पड़े सोते रहो,’’ यह प्रमिला की आवाज होती थी.

‘‘क्या करूं, पुरानी आदत है, नींद जल्दी खुल जाती है और फिर 7 बजे उठा तो 9 बजे दफ्तर कैसे जा पाऊंगा,’’ कह कर नरेंद्रनाथ खाली प्याला पत्नी की ओर बढ़ाते हुए कहा, ‘‘1 प्याला और दे दो, आज कुछ ज्यादा ही थकावट लग रही है.’’

‘‘तुम्हारी तबीयत तो ठीक है न?’’ प्रमिला आखिर पत्नी ही तो थीं.

‘‘ऐसी कोई बात नहीं, अब उम्र का तकाजा है, प्रमिला,’’ कह कर उन्होंने प्यार से पत्नी के कंधे को छू लिया.

उधर युवा सविता उठी और उतरी सलवारकमीज को फिर से लपेट कर ऐसे बाहर जाने लगी जैसे कोई शेरनी शिकार के लिए निकल रही हो. ‘‘सविता, सुनो,’’ नवीन ने कुछ कहना चाहा, पर वह बिना जवाब दिए ही तेजी से कमरे से बाहर निकल गई. शादी के सपने इतने जल्दी धुल जाएंगे, उसे उम्मीद नहीं थी.

रोज की तरह रसोई में जा कर वह काम में जुट गई. नाश्ते से निबटने के बाद खाने की तैयारी शुरू हो गई. नरेंद्रनाथ बाहर का खाना नहीं खाते हैं, इसलिए पहले उन का ही डब्बा तैयार कर के रख दिया गया. नवीन का दफ्तर पास ही है, इसलिए वह घर आ कर खा लेता है. अगर किसी वजह से घर न आ सके तो कैंटीन में ही खा लेता है.

‘‘अब तुम बोलो, क्वीन, तुम्हारे डब्बे में क्या रख दूं?’’ सविता ने अपनी ननद रश्मि से पूछा.

‘‘कुछ भी रख दो, भाभी देर हो गई है. नहीं बना हो तो बिना लिए ही चली जाऊंगी और हां भाभी, मुझे क्वीन तो नहीं कहो.’’

‘‘बिना लिए क्यों जाएगी, क्या तेरी मां मर गई है,’’ प्रमिला दूर से अपनी बेटी की बात सुन कर बोलीं.

‘‘रश्मि, अम्मांजी हजारों साल जिंदा रहें पर तुम्हारा खाने का डब्बा मुझे लगाना है, इसलिए जल्दी बोलो क्या चाहिए,’’ सविता ने फुसफुसा कर रश्मि से कहा. सविता की आवाज की गरमी से प्रमिला झलस कर रह गईं.

‘‘मैं तो इस घर में बस भाड़ ?झोंक रही हूं,’’ सविता बड़बड़ा उठी. प्रमिला ने सुन लेने के बाद भी पूछा, ‘‘क्या मुझसे कुछ कहा सविता?’’

‘‘नहीं मम्मी, सवेरे देर से उठी थी इसलिए हनुमान चालीसा पढ़ रही हूं.’’

‘‘पढ़ो बहू जरूर पढ़ो.’’

अब जब से वे नए घर में शिफ्ट हुए हैं, प्रमिला को पता चल रहा है कि घर संभालना उम्र हो जाने के बाद कितना कठिन हो जाता है. अब सविता ने घर से निकलते हुए बैठक की ओर देखा, चारों तरफ चीजें ढंग से रखी थीं.

सास- ससुर के घर में बाबूजी का आधा पढ़ा अखबार कुरसी पर चिडि़या की तरह अपने पंख फड़फड़ा रहा होता था. पैंसिलें कालीन पर पड़ी होतीं. रश्मि की चप्पलें खाने की मेज के नीचे रखी होती थीं. खाने की मेज पर जूठे बरतन, प्याले पड़े होते थे. प्रतिमा आराम से चौकी पर बैठ कर अपनी टांगों में तेल की मालिश कर रही होतीं और ऊंचे स्वर में भक्ति गीत गा रही होतीं. हर सुबह सविता को यह दृश्य देखने को मिला करता.

  मरीचिका: क्यों परेशान थी इला – भाग 3

दूसरे दिन इला ने अपनेआप को बदलने का यत्न शुरू कर दिया. शाम को बालकनी में जब राजन के साथ बैठती तो उस की बातों में रुचि लेती. कभीकभार उस के दफ्तर के कामकाज के विषय में भी पूछती परंतु रात सोने के समय फिर कछुए की तरह अपनी खोल में सिमट जाती.

राजन इतने परिवर्तन से भी प्रसन्न था. सोचता था कि  आहिस्ताआहिस्ता इला अपनी ?ि?ाक से मुक्ति पा लेगी. इस बार राजन गंगटोक के दौरे पर जाने लगा तो एक छोटे से सूटकेस में 2-3 कपड़े ले कर इला भी कार में आ बैठी.

3-4 दिन में काम समाप्त कर राजन सिलीगुड़ी के लिए लौट पड़ा. इस बार राजन भी इतना खुश था कि  कार की टंकी भराने का भी उसे ध्यान न रहा. अभी वे लोग काली?ोरा तक ही पहुंचे थे कि कार बंद हो गई. रात होने लगी थी. किसी तरह कार ठेल कर वह काली?ोरा के रैस्टहाउस तक ले आया. पत्थरों पर उछलती, बहती पहाड़ी नदी के किनारे बना यह सुंदर रैस्टहाउस एक बड़ी चट्टान पर स्थित था.

गोलाकार सीढि़यां ऊपर तक चली गई थीं. रैस्टहाउस का चौकीदार राजन को पहचानता था. उस ने दोनों के लिए बड़ा वाला कमरा खोल दिया. राजन कार से एक ट्रक में लिफ्ट ले कर पैट्रोल लाने चला गया. जाने से पहले रात का खाना उस ने चौकीदार को बनाने को कह दिया था.

इला बरामदे के जंगले पर खड़ी नदी की ओर देखने लगी. वहां एक जोड़ा पानी के किनारे बैठा शायद पिकनिक मना रहा था. टिफिन एक किनारे पड़ा था. स्त्री की खनखनाती हंसी यहां तक सुनाई दे रही थी.

चौकीदार इला के पास आ कर खड़ा हो गया. उसे युगल जोड़े की ओर देखते पा कर बोला, ‘‘ये साहब लोग भी यहीं ठहरे हैं. छुट्टी पर आए हैं.’’

इला बोली, ‘‘मैं जरा नदी किनारे घूम

आती हूं.’’

जाने क्यों वह पुरुष उसे जानापहचाना लग रहा था. सीढि़यां उतर कर नदी का सूखा चौड़ा पाट पार कर के नदी किनारे तक पहुंचने में इला को काफी समय लग गया. इला की ओर उन दोनों की पीठ थी. तभी पुरुष बोला, ‘‘चलो, रैस्टहाउस में चल कर चाय पीएंगे.’’

‘‘नहीं, यहीं बना कर पिलाओ जैसे बाकी पिकनिक पर पिलाते हो.’’

इला अपने स्थान पर जड़ सी हो गई. रमण को पहचानने में वह कभी भी भूल नहीं कर सकती थी. तभी रमण पलटा व इला को सामने देख कर हत्प्रभ सा रह गया. बोला, ‘‘तुम.’’

रमण की पत्नी भी दोनों को देख रही थी.

‘‘आप एकदूसरे को जानते हैं क्या?’’

‘‘हां… आं… आं…’’  रमण संभला, ‘‘कालेज में हम एक साथ पढ़ते थे.’’

रमण ने दोनों का परिचय कराया. उस की पत्नी मीता ने रमण से फिर कहा, ‘‘जाइए न, लकडि़यां जमा कर के लाइए, अब तो इला को भी चाय पिलाएंगे.’’

रमण चला गया. मीता इला के साथ बातें करने लगी. बड़ी प्यारी सरल हृदया लड़की थी. 15 मिनट में ही चटाचट बोलती ढेरों बातें कर गई. अपने व रमण के हनीमून की बातें, प्यार?ागड़े का सारा ब्योरा उस ने इला को सुना डाला.

हंसतीखिलखिलाती, शर्म से दोहरी होती वह सब कहती गई. इला मुख पर मुसकराहट लिए उस की सब बातें सुनाती रही. तब तक रमण लकडि़यां जमा कर के ले आया. तीन बड़ेबड़े पत्थर जोड़ कर उस ने चूल्हा बना पतीले में चाय का पानी रख दिया. थोड़ी ही देर में उबलती चाय मगों में डाल कर उस ने दोनों को दे दी. स्वयं भी एक मग ले कर पास बैठ गया.

मीता नाक चढ़ा कर बोली, ‘‘एकदम कड़वी कर दी है. आज कैसी चाय बनाई है?’’

‘‘अच्छी तो है,’’ इला बोली.

‘‘नहीं इला, रोज सवेरे मु?ो बैड टी बना कर देते हैं. इतनी बढि़या बनाते हैं क्या बताऊं?’’

रमण शरमा सा गया, ‘‘क्या बेकार बातें कर रही हो, इला क्या सोचेगी?’’

इला हंस पड़ी. मीता रूठ कर मुंह फुला कर बैठ गई. दोनों ने मिल कर उसे मनाया, फिर सब सामान समेट कर रेस्ट हाउस की ओर चल पड़े.

‘‘तुम्हारे पति कहां हैं?’’

‘‘वह तो पैट्रोल लेने गए हैं.’’

तीनों सहज बातचीत करते हुए रेस्ट हाउस तक आ गए. मीता कपड़े बदलने चली गई तथा रमण व इला बरामदे में खड़े हो गए.

‘‘शादी कब की, रमण?’’ इला ने पूछा.

‘‘अभी 1 साल हुआ.’’

फिर चुप्पी छाई रही. जिस रमण के लिए इला इतनी उदासपरेशान रहती थी, आज सामने पा कर उसे उस से कोई बात करने के लिए नहीं सू?ा रही थी.

रमण ही बोला, ‘‘तुम्हारा कार्ड मिला था, उस से पहले पत्र भी मिला था.’’

‘‘तुम्हें मु?ा से कोई गिला तो नहीं रमण?’’ इला ने रुकरुक कर पूछा.

‘‘शुरू में बुरा लगा था परंतु तुम्हारे पत्र के बाद शादी का कार्ड मिलने पर मैं सम?ा गया. मैं तुम्हें किसी भी तरह दोष नहीं दे सका.’’

इला के हृदय से एक भारी बोे?ा सा उतर गया.

‘‘तुम्हारी शादी के बाद काफी समय तक खोया सा रहा. फिर मां ने मेरे लिए मीता को पसंद कर लिया. मां का दिल न दुखाने के लिए मैं ने भी हां कर  दी. तुम ने तो शादी कर ही ली थी. तुम्हारे वियोग में कब तक उदास बना बैठा रहता?’’ रमण हंसने लगा.

‘‘बहुत अच्छा किया रमण, मीता बहुत ही प्यारी लड़की है. वही तुम्हारा वर्तमान और भविष्य है. मैं और तुम एकदूसरे का अतीत हैं, जो मर चुका है.’’

‘‘हां इला, जीवन में कहीं कुछ खो देने पर जीवन वहीं तो समाप्त नहीं हो जाता. अपने समाज, परिवार, मातापिता के प्रति भी तो हमारा कुछ कर्तव्य होता है, जिसे भावनाओं की वेदी पर निछावर नहीं  किया जा सकता. टूटे तारों का जोड़ कर फिर प्यार का तारतम्य बैठाया जा सकता है. सुनने वाला बदल जाता है परंतु गीत तो वही रहता है.’’

‘‘अब आप इला के सामने क्या दर्शन ?ाड़ रहे हैं?’’ मीता अंदर से आते हुए बोली, ‘‘आप को तो दार्शनिक होना चाहिए था, फौज में कहां भरती हो गए फौजियों का नाम बदनाम करने.’’

कुछ देर बाद राजन भी पैट्रोल ले कर वापस आ गया. मीता व रमण से मिल कर वह बड़ा प्रसन्न हुआ. रात सब ने एकसाथ खाना खाया व देर तक बरामदे में कुरसियों पर बैठे गप्पें मारते रहे. सवेरे तड़के उन से विदा ले कर राजन व इला चल पड़े. रमण व मीता देर तक खड़े हाथ हिलाते रहे. वापसी में राजन ने उन से सिलीगुड़ी रुकने का वचन ले लिया.

राजन तेजी से कार चला रहा था. आज वह हर हालत में दफ्तर जाना चाहता था. उन का तो पिछली रात ही सिलीगुड़ी पहुंच जाने का कार्यक्रम था. आज उस ने एक जरूरी बैठक रखी हुई थी.

इला का तो एक रात में ही जैसे कायापलट हो गया था. जिस मरीचिका के पीछे वह कब से भाग रही थी, पिछली शाम उसे पा कर लगा कि वह तो सूखी जलती रेत के सिवा कुछ भी नहीं. उस का न खलिस्तान तो उस ने अपने घर में ही था, जिसे वह अपनी मूर्खता से अब तक मरुस्थल बनाए हुए थी. उसे अपने पर बड़ी ग्लानि हुई कि अब वह और नहीं भटकेगी.

अब वह राजन को कभी कुएं के पास से प्यासा नहीं जाने देगी. अपनी अनंत प्यास का भी उसे आज एहसास हो रहा था. रमण अपने वर्तमान से सम?ौता कर कितना प्रसन्न था. दोनों हाथों से मीता के साथ मिल कर जीवन की खुशियां बटोर रहा था, जबकि वह अपनी बेवकूफी से अपना आचंल रीता किए जा रही थी. पर अब वह कभी ऐसा नहीं होने देगी. उस ने अपना हाथ बढ़ा कर राजन की गोद में रख दिया. राजन ने एक हाथ से स्टीयरिंग संभालते हुए दूसरे हाथ से इला का हाथ दबाया, जैसे दोनों में नए कौल इकरार हुए हों.

  मरीचिका: क्यों परेशान थी इला – भाग 1

राजन शाम को घर में घुसते ही बोला, ‘‘इला, शनिवार को तैयार रहना, सब मित्रों के साथ मनाली जाने का कार्यक्रम बनाया है.’’

इला सुन कर भी रसोई में बैठी चुपचाप अपना काम करती रही. अब की बार राजन जरा जोर से बोला, ‘‘इला, सुन लिया न, शनिवार को मनाली जाने का कार्यक्रम है?’’

इला ? झल्ला सी गई, ‘‘हांहां, सुन लिया. लेकिन तुम्हीं जाना. तुम तो जानते ही हो कि मुझे पहाड़ पर आनेजाने में कितनी परेशानी होती है.’’

‘‘इस में परेशानी की क्या बात है. मतली रोकने के लिए खट्टीमीठी गोलियां चूसती रहना.’’

‘‘मुझे साथ घसीटने की तुक क्या है? तुम्हारा मन है, तुम्हीं चले जाना,’’ इला ने दो टूक शब्दों में कहा.

राजन खिन्न सा हो गया कि पता नहीं कैसी है इला. कोई भी कार्यक्रम बनाओ, कभी सिरदर्द तो कभी मूड खराब, सदा कोई न कोई बहाना लगा ही रहता है. वह गुस्से में पैर पटकता हुआ बिना चाय पीए ही बाहर चला गया. इतना जरूर कहता गया, ‘‘अकेले ही जाना होता तो शादी किसलिए की थी?’’

इला को बुरा भी लगा व अपने पर क्रोध भी आया. कितना दुख देती है राजन को वह. हर समय उस के पिकनिक या सैर के उत्साह पर पानी फेर देती है. वह उसे प्रसन्न करने का भरसक प्रयत्न करता है परंतु इला का मन सदा बुआबुआ ही रहता है. शादी को 2 साल होने का आए परंतु अब तक वह अपने अतीत को नहीं भुला पाई।

कालेज में पढ़ते समय अपने सहपाठी रमण के साथ इला की जानपहचान मित्रता की सीमाओं से काफी आगे बढ़ गई थी. बस में दोनों एकसाथ चढ़ कर विश्वविद्यालय जाते थे. शुरूशुरू में तो मुलाकात एकदूसरे की पहचान तक ही सीमित रही, फिर धीरेधीरे अनजाने ही दोनों एकदूसरे की प्रतीक्षा करने लगे. जब तक दूसरा न आ जाता, उन में से कोई बस में न चढ़ता. सुब्रत पार्क से विश्वविद्यालय तक कितना लंबा सफर था. एकडेढ़ घंटे तक दोनों गप्पें मारते रहते. समय कैसे कट जाता, पता ही न चलता.

विश्वविद्यालय में दोनों आर्ट्स फैक्लटी के स्टौप पर उतरते. कक्षा के बाद अकसर दोनों कैफे में जा बैठते. चारों ओर छात्रों की भीड़ रहती. रमण काउंटर पर पेमैंट कर खानेपीने का सामान ले आता. कभी कड़की होने पर दोनोें एकएक हौट डौग खरीद कर कहीं छाया में बैठ कर खा लेते. दोनों की मित्रता सहज भाव से चल रही थी.

पढ़ाई का मूड होता तो दोपहर भी लाइब्रेरी में बैठ कर दोनों नोट बनाते रहते. रमण खूब मेधावी था. उस के सारे नोट तैयार भी हो जाते और इला अभी किताबों में ही उल?ा होती. फिर वह तंग आ कर रमण के नोट ही ले लेती.

एम.ए. (प्रथम वर्ष) में रमण ने इला की खूब सहायता की. तभी इला के पिता का ट्रांसफर दिल्ली से बाहर हो गया. बिछुड़ने के समय इला और रमण को पता चला कि उन की मित्रता मात्र मित्रता न रह कर प्रेम में परिवर्तित हो चुकी है. दोनों में चैटिंग होती रहा. फिर रमण सेना में कमीशन ले कर सैनिक अधिकारी हो गया. उसे लगा यह नौकरी अच्छी एडवैंचरस होगी.

प्रशिक्षण के बाद वह मोरचे पर भेज दिया गया. वहां से भी इला को उस के मैसेज आते रहे. पर इला हर समय भय और आशंका से त्रस्त रहती. कहीं किसी टैररिस्ट घटना में कुछ अनिष्ट न घट जाए. जब कुछ दिन पौलिटिकल डिप्लोमेसी से संघर्ष विराम हुआ तो इला की जान में जान आई.

अब रमण इला से मिलने आया. अब तक इला एक पब्लिक स्कूल में टीचर बन चुकी थी. रमण स्कूल से ही इला को चाय के लिए बाहर ले गया व उस के मातापिता से मिलने की इच्छा प्रकट की.

‘‘अभी नहीं रमण, घर में मेरे ताऊजी आए हुए हैं. वे बहुत पुराने विचारों के हैं. यदि उन्हें पता चला कि मैं तुम से प्रेम करती हूं तो वे मु?ो जान से ही मार देंगे. पिताजी भी उन की बात कभी नहीं टालते. वे उन्हें मेरे और तुम्हारे विरुद्ध कर देंगे. पिताजी उन की बहुत सुनते है क्योंकि वही गांव में पुश्तैनी 100 एकड़ जमीन संभालते हैं. उन का गांव और पौलिटिक्स में दबदबा है. वे गांव की खाप के मुखिया भी हैं.

‘‘परंतु मु?ा में क्या दोष है?’’ रमण बोला.

‘‘इतनी बात भी नहीं सम?ाते? तुम ब्राह्मण हो और हम जाट.’’

‘‘ओह,’’ कुछ क्षण चुप रहने के बाद रमण ने पूछा, ‘‘तुम भी यह सब मानती हो क्या?’’

‘‘सवाल मेरे मानने या न मानने का नहीं परंतु बड़ों को हम कैसे सम?ाएं?’’

रमण इला के पिता से मिलना चाहता था परंतु इला के मना करने पर न मिला. 2 दिन

ठहर कर वह फिर चला गया. जाते समय इला को लगा जैसे कोई उस के शरीर का एक भाग काट कर ले गया हो. कितना फब रहा था रमण सेना के कैप्टेन की वर्दी में. बिलकुल अभिनेता जैसा. क्या जानती थी इला कि यही उस से अंतिम भेंट है. फिर अचानक बहुत कुछ घट गया. पिता का रक्तचाप बहुत बढ़ गया. वह अचानक एक दिन आंगन में चक्कर खा कर गिर पड़े. डाक्टर ने आ कर देखा और पूरे 1 महीने तक आराम करने को कहा. घर में सब को सम?ा दिया गया कि उन्हें किसी प्रकार का सदमा न पहुंचने दिया जाए.

मानसिक आघात से हृदय को आघात लगने का खतरा था. इला के बड़े भाई, जिन्हें उस के व रमण के संबंधों की भनक मिल चुकी थी, इला को सम?ाने लगे कि इन दिनों पिताजी को स्वप्न में भी गुमान न हो कि वह एक विजातीय लड़के से प्रेम करती है. इस से उन का जीवन खतरे में पड़ जाएगा. इला ने रमण को एक चैट में सब बता दिया और आगे से चैट करने से मना कर दिया.

2 महीने बाद इला के पिता अच्छे हो गए और दफ्तर जाने लगे. तभी राजन के घर से इला के लिए रिश्ता आया. राजन हर प्रकार से उपयुक्त था. अच्छी नौकरी थी. देखने में भी अच्छाखासा था. फिर वह अपनी बिरादरी का भी था. पिता को यह रिश्ता बहुत पसंद आया और फिर लड़के वाले स्वयं रिश्ता मांग रहे थे. इला उन की एक ही बेटी थी. आंगन में गिरने की घटना से वे बहुत आशंकित रहने लगे थे. सोचते, पता नहीं कब जीवन का अंत हो जाए, जितनी शीघ्र बेटी के हाथ पीले हो जाएं, अच्छा है. अब तो घर बैठे इतना बढि़या रिश्ता आया था. इला की मां को उन्होंने इला से बात करने को कहा.

 

मां ने जब इला से बात चलाई तो वह सम?ा न पाई कि क्या उत्तर दे. कैसे अंधविश्वासों में डूबी मां से रमण के विषय में कहे. इस छोटे से शहर में ‘प्रेम विवाह’ के नाम से कैसा बवंडर

उठ खड़ा होगा, यह वह अपनी सखी रमा के विवाह के समय जान चुकी थी. रमा ने एक विजातीय लड़के से अदालत में विवाह कर लिया था परंतु रमा तो पहले ही अपने चाचाचाची के दुर्व्यवहार से तंग थी. शादी के बाद उस ने अपने सब पुराने रिश्ते तोड़ डाले थे और अपना नया घर बसाने चली गई थी. मगर इला तो ऐसा नहीं कर सकती थी.

और फिर कहीं पिता को रमण के साथ प्रेम संबंधों का पता चलाने पर दिल का दौरा पड़ गया तो? छोटे भाई अभी स्कूल में पढ़ रहे थे. उन की भोली सूरतें उस की आंखों के आगे घूम जातीं. पिताजी के बाद कमाने वाले तो केवल बड़े भैया ही हैं. कैसे वह इतनी स्वार्थी बन जाए? अपने प्रेम के लिए मां का सुहाग व बच्चों से पिता कैसे छीन ले?

मां से उस ने सोचने के लिए 2 दिन का समय ले लिया. मां ने भी सोचा, पढ़ीलिखी, अपने पैरों पर खड़ी लड़की है, ?ाट से हां कैसे कर देगी. इला ने भाई से बात की. भाई पहले तो सोच में पड़े रहे, फिर बोले, ‘‘देख ले, इला, पिताजी के हैल्थ के

विषय में तो तू जानती ही है. अपने भाई का भविष्य अंधकारमय कर क्या तू स्वयं पितृविहीन हो कर प्रसन्न रह सकेगी? फिर राजन में भी तो कोई कमी नहीं है. रमण ऐसा तु?ो क्या खास दे देगा, जो राजन के पास नहीं है?’’

इला ने निश्चय कर लिया कि रमण को अपनी स्मृति से निकाल कर मांबाप का कहना मानने में ही सब का कल्याण है. सो उस ने मां से ‘हां’ कह दी. जीवन के कटु यथार्थ के सामने भावुकता का क्या मूल्य? विवाह का निमंत्रणपत्र अपने हाथों से नाम व पता लिख कर उसे कूरियर से रमण को भेज दिया.

 

रिश्ता दोस्ती का: क्या सास की चालों को समझ पाई सुदीपा

12 साल की स्वरा शाम में खेलकूद कर वापस आई. दरवाजे की घंटी बजाई तो
सामने किसी अजनबी युवक को देख कर चकित रह गई.

तब तक अंदर से उस की मां सुदीपा बाहर निकली और मुस्कुराते हुए बेटी से
कहा,” बेटे यह तुम्हारी मम्मा के फ्रेंड, अविनाश अंकल हैं . नमस्ते करो
अंकल को.”

“नमस्ते मम्मा के फ्रेंड अंकल ,” कह कर हौले से मुस्कुरा कर वह अपने कमरे
में चली आई और बैठ कर कुछ सोचने लगी. कुछ ही देर में उस का भाई विराज भी
घर लौट आया. विराज स्वरा से दोतीन साल ही बड़ा था.

विराज को देखते ही स्वरा ने सवाल किया,” भैया आप मम्मा के फ्रेंड से मिले?”

“हां मिला, काफी यंग और चार्मिंग हैं. वैसे 2 दिन पहले भी आए थे. उस दिन
तू कहीं गई हुई थी.”

“वह सब छोड़ो भैया. आप तो मुझे यह बताओ कि वह मम्मा के बॉयफ्रेंड हुए न ?”

” यह क्या कह रही है पगली, वह तो बस फ्रेंड है. यह बात अलग है कि आज तक
मम्मा की सहेलियां ही घर आती थीं. पहली बार किसी लड़के से दोस्ती की है
मम्मा ने.”

” वही तो मैं कह रही हूं कि वह बॉय भी है और मम्मा का फ्रेंड भी. यानी वह
बॉयफ्रेंड ही तो हुए न,” मुस्कुराते हुए स्वरा ने कहा.

” ज्यादा दिमाग मत दौड़ा. अपनी पढ़ाई कर ले,” विराज ने उसे धौल जमाते हुए कहा.

थोड़ी देर में अविनाश चला गया तो सुदीपा की सास अपने कमरे से बाहर आती हुए
थोड़ी नाराजगी भरे स्वर में बोलीं,” बहू क्या बात है, तेरा यह फ्रेंड अब
अक्सर ही घर आने लगा है.”

“अरे नहीं मम्मी जी वह दूसरी बार ही तो आया था और वह भी ऑफिस के किसी काम
के सिलसिले में ही आया था.”

” मगर बहू तू तो कहती थी कि तेरे ऑफिस में ज्यादातर महिलाएं हैं. अगर
पुरुष हैं भी तो वे अधिक उम्र के हैं. जब कि यह लड़का तो तुझ से भी छोटा
लग रहा था.”

” मम्मी जी हम समान उम्र के ही हैं. अविनाश मुझ से केवल 4 महीने छोटा है.
एक्चुअली हमारे ऑफिस में अविनाश का ट्रांसफर हाल में ही हुआ है. पहले उस
की पोस्टिंग हेड ऑफिस मुंबई में थी. सो इसे प्रैक्टिकल नॉलेज काफी ज्यादा
है. कभी भी कुछ मदद की जरूरत होती है तो यह तुरंत आगे आ जाता है. तभी यह
ऑफिस में बहुत जल्द सब का दोस्त बन गया है. अच्छा मम्मी जी आप बताइए आज
खाने में क्या बनाऊं?”

” जो दिल करे बना ले बहू, पर देख लड़कों को जरूरत से ज्यादा मेलजोल बढ़ाना
सही नहीं होता. तेरे भले के लिए ही कह रही हूं बहू.”

” अरे मम्मी जी आप निश्चिंत रहिए. अविनाश बहुत अच्छा लड़का है,” कह कर
हंसती हुई सुदीपा अंदर चली गई मगर सास का चेहरा बना रहा.

रात में जब सुदीपा का पति अनुराग घर लौटा तो खाने के बाद सास ने अनुराग
को कमरे में बुलाया और धीमी आवाज में उसे अविनाश के बारे में सब कुछ
बताने लगी.

अनुराग ने मां को समझाने की कोशिश की,” मां आज के समय में महिलाओं और
पुरुषों की दोस्ती आम बात है. वैसे भी आप जानती ही हो सुदीपा कितनी
समझदार है. आप टेंशन क्यों लेते हो मां ?”

” बेटा मेरी बूढ़ी हड्डियों ने इतनी दुनिया देखी है जितनी तू सोच भी नहीं
सकता. स्त्रीपुरुष की दोस्ती यानी घी और आग की दोस्ती. आग पकड़ते समय
नहीं लगता बेटे. मेरा फर्ज था तुझे समझाना सो समझा दिया.”

” डोंट वरी मां ऐसा कुछ नहीं होगा. अच्छा मैं चलता हूं सोने,” अविनाश मां
के पास से तो उठ कर चला आया मगर कहीं न कहीं उन की बातें देर तक उस के
जेहन में घूमती रहीं. वह सुदीपा से बहुत प्यार करता था और उस पर पूरा
यकीन भी था. मगर आज जिस तरह मां शक जाहिर कर रही थीं उस बात को वह पूरी
तरह इग्नोर भी नहीं कर पा रहा था.

रात में जब घर के सारे काम निपटा कर सुदीपा कमरे में आई तो अविनाश ने उसे
छेड़ने के अंदाज में कहा ,” मां कह रही थीं आजकल आप की किसी लड़के से
दोस्ती हो गई है और वह आप के घर भी आता है.”

पति के भाव समझते हुए सुदीपा ने भी उसी लहजे में जवाब दिया,” जी हां आप
ने सही सुना है. वैसे मां तो यह भी कह रही होंगी कि कहीं मुझे उस से
प्यार न हो जाए और मैं आप को चीट न करने लगूं. ”

” हां मां की सोच तो कुछ ऐसी ही है मगर मेरी नहीं. ऑफिस में मुझे भी
महिला सहकर्मियों से बातें करनी होती हैं पर इस का मतलब यह तो नहीं कि
मैं कुछ और सोचने लगूं. मैं तो मजाक कर रहा था.”

” आई नो एंड आई लव यू, ” प्यार से सुदीपा ने कहा.

” ओहो चलो इसी बहाने यह लफ्ज़ इतने दिनों बाद सुनने को तो मिल गए,”
अविनाश ने उसे बाहों में भरते हुए कहा.

सुदीपा खिलखिला कर हंस पड़ी. दोनों देर तक प्यार भरी बातें करते रहे.

वक्त इसी तरह गुजरने लगा. अविनाश अक्सर सुदीपा के घर आ जाता. कभीकभी
दोनों बाहर भी निकल जाते. अनुराग को कोई एतराज नहीं था इसलिए सुदीपा भी
इस दोस्ती को एंजॉय कर रही थी. साथ ही ऑफिस के काम भी आसानी से निबट
जाते. सुदीपा ऑफिस के साथ घर भी बहुत अच्छे से संभालती थी. अनुराग को इस
मामले में भी पत्नी से कोई शिकायत नहीं थी.

पर मां अक्सर बेटे को टोकतीं ,”यह सही नहीं है अनुराग. तुझे फिर कह रही
हूं, पत्नी को किसी और के साथ इतना घुलनमलने देना उचित नहीं.”

” मां एक्चुअली सुदीपा ऑफिस के कामों में ही अविनाश की हेल्प लेती है.
दोनों एक ही फील्ड में काम कर रहे हैं और एकदूसरे को अच्छे से समझते हैं.
इसलिए स्वाभाविक है कि काम के साथसाथ थोड़ा समय संग बिता लेते हैं. इस
में कुछ कहना मुझे ठीक नहीं लगता मां और फिर तुम्हारी बहू इतना कमा भी तो
रही है. याद करो मां जब सुदीपा घर पर रहती थी तो कई दफा घर चलाने के लिए
हमारे हाथ तंग हो जाते थे. आखिर बच्चों को अच्छी शिक्षा दी जा सके इस के
लिए सुदीपा का काम करना भी तो जरूरी है न. फिर जब वह घर संभालने के बाद
काम करने बाहर जा रही है तो हर बात पर टोकाटाकी भी तो अच्छी नहीं लगती
न. ”

” बेटे मैं तेरी बात समझ रही हूं पर तू मेरी बात नहीं समझता. देख थोड़ा
नियंत्रण भी जरूरी है बेटे वरना कहीं तुझे बाद में पछताना न पड़े,” मुंह
बनाते हुए मां ने कहा.

” ठीक है मां मैं बात करूंगा ,” कह कर अनुराग चुप हो जाता.

एक ही बात बारबार कही जाए तो वह कहीं न कहीं दिमाग पर असर डालती है. ऐसा
ही कुछ अनुराग के साथ भी होने लगा था. जब काम के बहाने सुदीपा और अविनाश
शहर से बाहर जाते तो अनुराग का दिल बेचैन हो उठता. उसे कई दफा लगता कि
सुदीपा को अविनाश के साथ बाहर जाने से रोक ले या डांट लगा दे. मगर वह ऐसा
कर नहीं पाता. आखिर उस की गृहस्थी की गाड़ी यदि सरपट दौड़ रही थी तो उस
के पीछे कहीं न कहीं सुदीपा की मेहनत ही तो थी.

इधर बेटे पर अपनी बातों का असर पड़ता न देख अनुराग के मांबाप ने अपने
पोते और पोती यानी बच्चों को उकसाना शुरू किया. एक दिन दोनों बच्चों को
बैठा कर वह समझाने लगे,” देखो बेटे आप की मम्मा की अविनाश अंकल से दोस्ती
ज्यादा ही बढ़ रही है. क्या आप दोनों को नहीं लगता कि मम्मा आप को या
पापा को अपना पूरा समय देने के बजाय अविनाश अंकल के साथ घूमने चली जाती
है? ”

” दादी जी मम्मा घूमने नहीं बल्कि ऑफिस के काम से ही अविनाश अंकल के साथ
जाती हैं, ” विराज ने विरोध किया.

” भैया को छोड़ो दादी जी पर मुझे भी ऐसा लगता है जैसे मम्मा हमें सच में
इग्नोर करने लगी हैं. जब देखो ये अंकल हमारे घर आ जाते हैं या मम्मा को
ले जाते हैं. यह सही नहीं.”

“हां बेटे मैं इसलिए कह रही हूं कि थोड़ा ध्यान दो. मम्मा को कहो कि अपने
दोस्त के साथ नहीं बल्कि तुम लोगों के साथ समय बिताया करें.”

उस दिन संडे था. बच्चों के कहने पर सुदीपा और अनुराग उन्हें ले कर वाटर
पार्क जाने वाले थे. दोपहर की नींद ले कर जैसे ही दोनों बच्चे तैयार होने
लगे तो मां को न देख कर दादी के पास पहुंचे, “दादी जी मम्मा कहां है दिख
नहीं रही?”

“तुम्हारी मम्मा गई अपने फ्रेंड के साथ.”

“मतलब अविनाश अंकल के साथ?”

“हां ”

” लेकिन उन्हें तो हमारे साथ जाना था. क्या हम से ज्यादा बॉयफ्रेंड
इंपॉर्टेंट हो गया ?” कह कर स्वरा ने मुंह फुला लिया. विराज भी उदास हो
गया.

लोहा गरम देख दादी मां ने हथौड़ा मारने की गरज से कहा, ” यही तो मैं कहती
आ रही हूं इतने समय से कि सुदीपा के लिए अपने बच्चों से ज्यादा
महत्वपूर्ण वह पराया आदमी हो गया है. तुम्हारे बाप को तो कुछ समझ ही नहीं
आता.”

” मां प्लीज ऐसा कुछ नहीं है. कोई जरुरी काम आ गया होगा,” अनुराग ने
सुदीपा के बचाव में कहा.

” पर पापा हमारा दिल रखने से जरूरी और कौन सा काम हो गया भला? ” कह कर
विराज गुस्से में उठा और अपने कमरे में चला गया. उस ने अंदर से दरवाजा
बंद कर लिया.

स्वरा भी चिढ़ कर बोली,” लगता है मम्मा को हम से ज्यादा प्यार उस अविनाश
अंकल से हो गया है.”

वह भी पैर पटकती अपने कमरे में चली गई. शाम को जब सुदीपा लौटी तो घर में
सब का मूड ऑफ था.

सुदीपा ने बच्चों को समझाने की कोशिश करते हुए कहा,” तुम्हारे अविनाश
अंकल के पैर में गहरी चोट लगी लग गई थी. तभी मैं उन्हें ले कर अस्पताल
गई.”

” मम्मा आज हम कोई बहाना नहीं सुनने वाले. आप ने अपना वादा तोड़ा है और
वह भी अविनाश अंकल की खातिर. हमें कोई बात नहीं करनी ,” कह कर दोनों वहां
से उठ कर चले गए.

स्वरा और विराज मां की अविनाश से इन नज़दीकियों को पसंद नहीं कर रहे थे.
वे अपनी ही मां से कटेकटे से रहने लगे. गर्मी की छुट्टियों के बाद बच्चों
के स्कूल खुल गए और विराज अपने हॉस्टल चला गया.

इधर सुदीपा के सासससुर ने इस दोस्ती का जिक्र उस के मांबाप से भी कर
दिया. सुदीपा के मांबाप भी इस दोस्ती के खिलाफ थे. मां ने सुदीपा को
समझाया तो पिता ने भी अनुराग को सलाह दी कि उसे इस मामले में सुदीपा पर
थोड़ी सख्ती करनी चाहिए और अविनाश के साथ बाहर जाने की इजाजत कतई नहीं
देनी चाहिए.

इस बीच स्वरा की दोस्ती सोसाइटी के एक लड़के सुजय से हो गई. वह स्वरा से
दोचार साल बड़ा था यानी विराज की उम्र का था. वह जूडोकराटे में चैंपियन
और फिटनेस फ्रीक लड़का था. स्वरा उस की बाइक रेसिंग से भी बहुत प्रभावित
थी. वे दोनों एक ही स्कूल में थे. दोनों साथ स्कूल आनेजाने लगे. सुजय
दूसरे लड़कों की तरह नहीं था. वह स्वरा को अच्छी बातें बताता. उसे सेल्फ
डिफेंस की ट्रेनिंग देता और स्कूटी चलाना भी सिखाता. सुजय का साथ स्वरा
को बहुत पसंद आता.

एक दिन स्वरा सुजय को अपने साथ घर ले आई. सुदीपा ने उस की अच्छे से आवभगत
की. सब को सुजय अच्छा लड़का लगा इसलिए किसी ने स्वरा से कोई पूछताछ नहीं
की. अब तो सुजय अक्सर ही घर आने लगा. वह स्वरा की मैथ्स की प्रॉब्लम भी
सॉल्व कर देता और जूडोकराटे भी सिखाता रहता.

एक दिन स्वरा ने सुदीपा से कहा,” मम्मा आप को पता है सुजय डांस भी जानता
है. वह कह रहा था कि मुझे डांस सिखा देगा.”

” यह तो बहुत अच्छा है. तुम दोनों बाहर लॉन में या फिर अपनी कमरे में
डांस की प्रैक्टिस कर सकते हो.”

” मम्मा आप को या घर में किसी को एतराज तो नहीं होगा ?” स्वरा ने पूछा.

” अरे नहीं बेटा. सुजय अच्छा लड़का है. वह तुम्हें अच्छी बातें सिखाता
है. तुम दोनों क्वालिटी टाइम स्पेंड करते हो. फिर हमें ऐतराज क्यों होगा?
बस बेटा यह ध्यान रखना सुजय और तुम फालतू बातों में समय मत लगाना. काम
की बातें सीखो, खेलोकूदो, उस में क्या बुराई है ?”

“ओके थैंक यू मम्मा,” कह कर स्वरा खुशीखुशी चली गई.

अब सुजय हर संडे स्वरा के घर आ जाता और दोनों डांस प्रैक्टिस करते. समय
इसी तरह बीतता रहा. एक दिन सुदीपा और अनुराग किसी काम से बाहर गए हुए थे.
घर में स्वरा दादीदादी के साथ अकेली थी. किसी काम से सुजय घर आया तो
स्वरा उस से मैथ्स की प्रॉब्लम सॉल्व कराने लगी. इसी बीच अचानक स्वरा को
दादी के कराहने और बाथरूम में गिरने की आवाज सुनाई दी.

स्वरा और सुजय दौड़ कर बाथरूम पहुंचे तो देखा दादी फर्श पर बेहोश पड़ी है.
स्वरा के दादा ऊंचा सुनते थे. उन के पैरों में भी तकलीफ रहती थी. वह अपने
कमरे में सोए पड़े थे. स्वरा घबरा कर रोने लगी तब सुजय ने उसे चुप कराया
और जल्दी से एंबुलेंस वाले को फोन किया. स्वरा ने अपने मम्मी डैडी को भी
हर बात बता दी. इस बीच सुजय जल्दी से दादी को ले कर पास के अस्पताल भागा.
उस ने पहले ही अपने घर से रुपए मंगा लिए थे. अस्पताल पहुँच कर उस ने बहुत
समझदारी के साथ दादी को एडमिट करा दिया और प्राथमिक इलाज शुरू कराया. उन
को हार्ट अटैक आया था. अब तक स्वरा के मांबाप भी हॉस्पिटल पहुंच गए थे.

डॉक्टर ने सुदीपा और अनुराग से सुजय की तारीफ करते हुए कहा,” इस लड़के ने
जिस फुर्ती और समझदारी से आप की मां को हॉस्पिटल पहुंचाया वह काबिलेतारीफ
है. अगर ज्यादा देर हो जाती तो समस्या बढ़ सकती थी और जान को भी खतरा हो
सकता था. ”

सुदीपा ने बढ़ कर सुजय को गले से लगा लिया. अनुराग और उस के पिता ने भी
नम आंखों से सुजय का धन्यवाद कहा. सब समझ रहे थे कि बाहर का एक लड़का आज
उन के परिवार के लिए कितना बड़ा काम कर गया. हालात सुधरने पर स्वरा की
दादी को अस्पताल से छुट्टी दे दी गई.

घर लौटने पर दादी ने सुजय का हाथ पकड़ कर गदगद स्वर में कहा,” आज मुझे
पता चला कि दोस्ती का रिश्ता इतना खूबसूरत होता है. तुम ने मेरी जान बचा
कर इस बात का एहसास दिला दिया बेटे की दोस्ती का मतलब क्या है.”

“यह तो मेरा फर्ज था दादी जी, ” सुजय ने हंस कर कहा.

तब दादी ने सुदीपा की तरफ देख कर ग्लानि भरे स्वर में कहा,” मुझे माफ कर
दे बहू. दोस्ती तो दोस्ती होती है, बच्चों की हो या बड़ों की. तेरी और
अविनाश की दोस्ती पर शक कर के हम ने बहुत बड़ी भूल कर दी. आज मैं समझ
सकती हूं कि तुम दोनों की दोस्ती कितनी प्यारी होगी. आज तक मैं समझ ही
नहीं पाई थी. ”

सुदीपा बढ़ कर सास के गले लगती हुई बोली,” मम्मी जी आप बड़ी हैं. आप को मुझ
से माफी मांगने की कोई जरूरत नहीं. आप अविनाश को जानती नहीं थीं इसलिए आप
के मन में सवाल उठ रहे थे. यह बहुत स्वाभाविक था. पर मैं उसे पहचानती हूं
इसलिए बिना कुछ छुपाए उस रिश्ते को आप के सामने ले कर आई थी. ”

तभी दरवाजे पर दस्तक हुई. सुदीपा ने दरवाजा खोला तो सामने हाथों में फल
और गुलदस्ता लिए अविनाश खड़ा था. घबराए हुए स्वर में उस ने पूछा,” मैं ने
सुना है कि अम्मां जी की तबीयत खराब हो गई है. अब कैसी हैं वह? ”

” बस तुम्हें ही याद कर रही थीं,” हंसते हुए सुदीपा ने कहा और हाथ पकड़
कर उसे अंदर ले आई.

मरजी की मालकिन: भाग-3 घर की चारदीवारी से निकलकर अपने सपनों को पंख देना चाहती थी रश्मि

औपचारिक बातचीत के बाद रश्मि ने पिछले दिनों अपने बेहोश होने की बात बताई. वर्षा के बताए कुछ टैस्ट्स की रिपोर्ट ले कर वह अगले दिन वर्षा के क्लीनिक पहुंची. उस की रिपोर्ट्स देखते ही वर्षा एकदम भड़क गई और गुस्से से बोली, ‘‘नौकरी के अलावा तु  झे कभी अपनी परवाह भी होती है बीपी, शुगर दोनों की शिकार हो चुकी है तू और हीमोग्लोबिन एकदम बाउंडरी पर है. ऐसे में तू बेहोश नहीं होगी तो और क्या होगा.

वर्षा से प्रिस्क्रिप्शन लेकर रश्मि घर आ गई. उन्हीं दिनों उस के मम्मीपापा अपनी बेटी से मिलने मुंबई आए. रश्मि की हालत देख कर उस की मां की आंखों में तो आंसू ही आ गए. बोलीं, ‘‘क्या हालत बना ली तूने बेटा… कितनी कमजोर हो गई है… अपना ध्यान क्यों नहीं रखती?’’

मां हमेशा से उस की सब से अच्छी दोस्त रही थीं सो मां के प्यार भरे शब्दों को सुनते ही वह फट पड़ी और रोंआसे स्वर में बोली, ‘‘मां थक गई हूं अब मैं औफिस, घर और अक्षिता को संभालतेसंभालते,’’ यह कह कर उस ने सारी आपबीती मां को कह सुनाई.

‘‘जब तुम दोनों ही कामकाजी हों तो सारी जिम्मेदारियों को भी मिल कर ही संभालना चाहिए. यदि एक इंसान ही घरबाहर दोनों मोरचे पर लड़ेगा तो पस्त तो होगा ही. यदि अनुराग तु  झे सपोर्ट नहीं कर पा रहे तो मेरी मान छोड़ दे तू नौकरी, अब तेरी बेटी बड़ी हो रही है उसे समय दे… और अपनी सेहत पर ध्यान दे. जब तेरी सेहत ही नहीं रहेगी तो नौकरी कर के भी क्या करेगी बेटा.’’

कुछ दिनों बाद मम्मीपापा तो चले गए पर अपनी बेटी और अपनी खातिर उस ने बैंक से इस्तीफा देने का मन बना लिया. 6 माह के मानसिक द्वंद्व के उपरांत आखिर एक दिन उस ने इस्तीफा अपने बौस को सौंप दिया. घर आ कर जैसे ही उस ने इस की सूचना अनुराग को दी वह बिफर पड़ा, ‘‘क्या करोगी घर में पड़ीपड़ी… इतना बड़ा निर्णय लेने से पहले एक बार मु  झ से पूछने की भी जरूरत नहीं सम  झी तुम ने. क्या जरूरत थी यह सब करने की? सब ठीक तो चल रहा था? इतनी महंगाई के जमाने में लगीलगाई नौकरी कोई छोड़ता है क्या? अपने खर्चे तुम्हें पता नहीं हैं क्या?’’ शायद उसे रश्मि के ऐसा करने की उम्मीद नहीं थी.

‘‘मेरी नौकरी, मेरी मरजी, जिस आत्मसम्मान के लिए मेरे मातापिता ने मु  झे आत्मनिर्भर बनाया वही नहीं है तो मेरे नौकरी करने का भी क्या लाभ… याद है जब मैं ने तुम्हें औफिस में बेहोश हो जाने की बात बताई थी तो तुम ने क्या कहा था, अपना ध्यान तो तुम्हें ही रखना पड़ेगा… कोई बात नहीं वर्षा को दिखा कर दवा ले लेना.’’

‘‘तुम्हारे बराबर कमाने के बाद भी अपने लिए एक साड़ी मैं नहीं खरीद सकती तो क्यों खटूं मैं घर, बैंक और बच्ची के बीच में.नौकरी मेरी मैं करूं या न करूं. मैं ने तो दसियों बार तुम से कहा था कि मु  झे मैनेज करने में परेशानी आ रही है पर शादी से पहले महिलापुरुष की बराबरी की बातें करने वाले तुम ने मेरी समस्या को समस्या ही नहीं सम  झा बल्कि हर बार यही कहा कि मैनेज नहीं कर पा रही तो छोड़ दो तो मैं ने छोड़ दी,’’ रश्मि ने कहा तो अनुराग वहां से उठ कर बैडरूम में चला गया और टीवी देखने में व्यस्त हो गया.

इस के बाद से रश्मि के और अनुराग के संबंधों में कुछ ठंडापन सा आ गया. कुछ दिनों तक नाराज रहने के बाद अनुराग एक दिन बड़े ही अच्छे मूड में था सो अंतरंग क्षणों में उस के बालों में अपनी उंगलियां फिरातेफिराते बोला, ‘‘रेषु क्या सच में तुम ने इस्तीफा दे दिया है?’’

‘‘हां अनुराग मैं मैनेज करने में स्वयं को असमर्थ पा रही थी… तुम से पूछती तो तुम निस्संदेह मना करते… जबजब मैं ने अपनी परेशानी तुम से शेयर की तुम ने बजाय हल बताने या मेरी मदद करने के एक ही बात कही, नहीं कर पा रही हो तो छोड़ दो नौकरी. घरबाहर सभी जगहों पर तुम्हारा सहयोग नगण्य था… 40 की उम्र में मैं शुगर और बीपी जैसी बीमारियों को अपने गले लगा बैठी हूं… अब मैं अपनी पसंद का काम करूंगी और जिंदगी के मजे लूंगी क्योंकि मु  झे लगता है जिंदगी जीने के लिए है ढोने के लिए नहीं.’’

अनुराग चुपचाप सुनता रहा फिर धीरे से बोला, ‘‘वैसे कौन सा पसंद का काम करोगी और कौन से मजे लोगी मैं भी तो सुनूं?’’ अनुराग ने हलके से तैश से कहा.

‘‘शांति की जिंदगी, अपने शौक, अपनी बिटिया का साथ और अपनी सेहत. हम महिलाओं की यही तो समस्या है कि सब से पहले अपनी सेहत से सम  झौता कर लेती हैं पर मेरे लिए मेरी सेहत सब से पहले है. जो भी करूंगी अपने मन का करूंगी और अपना एक नया वजूद बनाऊंगी. जरूरी तो नहीं कुछ करने के लिए घर से बाहर ही जाया जाए. आधी उम्र तो खटतेखटते ही निकल गई है पर अब और नहीं,’’ कह कर रश्मि करवट ले कर सो गई.

भले ही अनुराग को रश्मि का निर्णय पसंद नहीं आया था पर चुप रह कर स्वीकार करने के अलावा कोई चारा भी तो नहीं था.

अब रश्मि ने अपना पूरा ध्यान अपनी सेहत और अक्षिता पर केंद्रित कर दिया. उस की मेहनत का ही परिणाम था कि अक्षिता ने टैंथ में अपनी क्लास में टौप किया और वह खुद भी स्वयं को काफी सेहतमंद महसूस करने लगी थी.

उन्हीं दिनों उस की अभिन्न सखी अनीता का मुंबई आगमन हुआ. अनीता वनारस की ही थी और स्कूल से ले कर कालेज तक साथसाथ रहने के कारण दोनों की मित्रता बड़ी प्रगाढ़ थी. उस के पति अविनाश एक कंपनी में सौफ्टवेयर इंजीनियर थे और अब मुंबई में ही शिफ्ट हो गए थे.

अनीता ने स्वयं भी कंप्यूटर साइंस से इंजीनियरिंग की थी इसलिए जहां भी पति की सर्विस होती थी वहीं अपनी जौब भी ले लेती थी. सो यहां भी उस ने एक कंस्ट्रक्शन कंपनी में जौब जौइन कर ली थी. फोन पर तो अकसर दोनों की बातचीत होती ही रहती थी सो एक दिन जब रश्मि ने उसे अपनी नौकरी छोड़ने की बात बताई तो वह एकदम चौंक गई और अगले ही दिन उस के घर आ धमकी, ‘‘पागल हो गई है क्या, इतनी मेहनत से प्राप्त की नौकरी तूने छोड़ दी… तु  झे याद है कि तेरा पहली बार में ही चयन हुआ था और अनुराग का दूसरी बार में.’’

‘‘सब याद है माई डियर… तु  झे क्या लगता है मैं ने यों ही छोड़ दी होगी लगीलगाई नौकरी… एक नहीं हजारों बार सोचा मैं ने छोड़ने से पहले… बैंक और घर 2 मोरचों पर लड़तेलड़ते मैं पस्त होने लगी थी. इस का सीधा असर मेरी सेहत, बेटी अक्षिता और घर की शांति पर पड़ रहा था. हम दोनों में से कोई भी उसे वक्त नहीं दे पा रहा था. अनुराग घरबाहर कहीं भी सहयोग कर ही नहीं पा रहे थे. मैं उन की गलती भी नहीं मानती क्योंकि उन के घर में लड़कों को अपनी पत्नियों और बहनों का सहयोग करना सिखाया ही नहीं गया तो वे करें भी क्या… उन्हें तो अपने स्वयं के काम करने तक की आदत नहीं है. उन के घर में हमेशा से वित्तीय मामले अनुराग के पापा ने ही देखे हैं इसलिए उन्हें भी मेरी राय तक लेना ठीक नहीं लगता. इस के अलावा अपने कमाए पैसे को भी मु  झे. खर्च करने की आजादी तक नहीं थी… एक पैसा कमाने की मशीन बन कर जीना पसंद नहीं आ रहा था मु  झे हमारे पुरुषवादी समाज की यही तो खासीयत है कि नौकरी वाली पत्नी और बहू तो चाहिए पर अपेक्षाओं से कोई सम  झौता नहीं… और सहयोग लेशमात्र भी नहीं… और उस के कमाए पैसे को अपनी मरजी से खर्च करने का अधिकार भी नहीं. तु  झे पता है इतनी कमउम्र में बीपी और शुगर की मरीज बन गई हूं मैं. मेरी इकलौती बेटी अपनी कक्षा में पिछड़ने लगी थी. हम उसे जरा भी समय नहीं दे पा रहे थे. इस में उस का क्या दोष. इस स्थिति में मेरे पास 2 ही रास्ते थे या तो पूरी जिंदगी कलह और तनाव में गुजारूं या फिर नौकरी छोड़ अपनी मरजी से जीऊं.

‘‘तुझे आश्चर्य होगा कि नौकरी छोड़े मु  झे 8 माह से ऊपर हो गए पर एक दिन भी मु  झे अपने निर्णय पर पछतावा नहीं हुआ. अक्षिता की परफौर्मैंस में बहुत सुधार है. मेरी सेहत में भी काफी सुधार आ गया है. अपने घर को अपने मनमुताबिक संवारनासजाना और ढंग से चलाना क्या किसी नौकरी से कम है? इस के अलावा अपनी बेटी की कीमत पर मैं कुछ नहीं करना चाहती थी. देख मु  झ में अगर टेलैंट है तो मैं घर में रह कर भी चारों ओर अपनी छटा बिखेरूंगी,’’  रश्मि ने उत्साह से कहा.

‘‘मु  झे जहां तक याद है अनुराग तो कालेज में अपनी फेमनिस्ट विचारधारा के लिए जाना जाता था फिर अपने ही घर में उस का ऐसा व्यवहार कुछ सम  झ नहीं आ रहा,’’ अनीता आश्चर्य से बोली.

‘‘विचार बनाने और अपने घर में लागू करने में बहुत अंतर होता है मेरी जान. हमारे समाज में अनुराग ही नहीं अधिकांश पुरुष दोहरा व्यक्तित्व रखते हैं. बाहर बहुत उदार और आजाद खयालों वाले लोग अपने घर की महिलाओं को 7 परदों में कैद कर के रखना पसंद करते हैं और इसे कहते हैं थोथी फेमनिज्म और हमारे समाज के अधिकांश पुरुष इस थोथी फेमनिज्म से ही ओतप्रोत रहते हैं,’’ रश्मि ने व्यंग्य से कहा.

‘‘तु  झ से बात कर के तो लग रहा है कि तूने बिलकुल ठीक किया… पर हां मेरी मान खाली मत बैठ वरना फ्रस्टेड हो जाएगी… फुल टाइम नहीं तो तू कोई पार्ट टाइम जौब कर ले जिस से एक्जर्शन भी नहीं होगा और तू काम भी कर पाएगी क्योंकि अभी तो नयानया है इसलिए तू ऐंजौय कर रही है. कुछ दिनों बाद जब अक्षिता भी चली जाएगी तो तू फ्रस्टेड होने लगेगी.’’

‘‘चल ठीक है सोचूंगी इस बारे में… फिर तु  झे बताऊंगी.’’

इस के बाद अनीता चली गई. काफी सोचविचार और गूगल सर्चिंग के बाद रश्मि ने इग्नू से एमबीए करने का निश्चय किया और फौर्म भर दिया. इग्नू का चयन करने का लाभ यह था कि घर और अक्षिता को छोड़े बिना वह अपनी योग्यता बढ़ा सकती थी. इस तरह 2 वर्षों में उस ने अपनी एक डिगरी हासिल कर ली. अब तक अक्षिता भी 10वीं पास कर के 11वीं में आ गई थी और पहले से काफी मैच्योर हो गई थी. उन्हीं दिनों अनीता ने उसे बताया कि उस की ही कंपनी में एक इंप्लोई की जरूरत है. अगर इंट्रैस्टेड हो तो कल आ कर प्लेसमैंट औफिसर और कंपनी के मालिक से मिल ले.

उस दिन रात के खाने के समय रश्मि ने अनुराग से जौब जौइन करने के बारे में बताया तो अनुराग बोले, ‘‘देखो तुम ने छोड़ी भी अपनी मरजी से और अब पार्टटाइम फुल टाइम जो भी करना है अपनी मरजी से करो. मैं इस बारे में कुछ भी नहीं कह सकता,’’ कह कर अनुराग ने अपना पल्ला   झाड़ लिया.

काफी सोच-विचार के बाद अगले दिन जींसटौप पहन कर रश्मि अनीता की कंपनी जा पहुंची. उसे बैंकिंग का 15 साल का ऐक्सपीरियंस तो था ही, साथ ही अब उस ने एमबीए भी कर लिया था. सो उस की योग्यता से तो कंपनी के मालिक राज बेहद प्रभावित हो गए. दरअसल, उन की कंस्ट्रक्शन कंपनी थी, जिस के अंतर्गत वे सरकारी स्कीम्स के अंतर्गत आने वाले ओवरब्रिज और सड़कों का निर्माण करवाते थे. सरकारी स्कीम्स के अंतर्गत टैंडर प्राप्त करना सब से टेढ़ी खीर होती थी जिस के लिए ही उन्हें एक अनुभवी, फाइनैंशियल मामलों के जानकार और होशियार इंप्लोई की जरूरत थी जो उन्हें सरकारी टैंडर दिलवा सके.

रश्मि से बातचीत करने के बाद वे बोले, ‘‘रश्मिजी जैसाकि आप ने कहा कि आप औफिस आएं या न आएं काम पूरा करेंगी यह हमें मंजूर है. आप कल से काम कर सकती हैं.’’

उस दिन अति उत्साह से भर कर डिनर के समय जब रश्मि ने यह न्यूज अनुराग को बताई तो

वे बोले, ‘‘जब इतनी अच्छी सरकारी बैंक की नौकरी छोड़ दी थी तो अब फिर से यह नौकरी… तुम्हारा हिसाबकिताब मु  झे तो कुछ सम  झ नहीं आता.’’

‘‘अनु, जिंदगी में हमेशा सबकुछ एकजैसा नहीं होता. उस समय अगर मैं नौकरी नहीं छोड़ती तो अब तक अधमरी तो हो जाती दूसरे अक्षिता जो आज अपनी क्लास की टौपर है डफर में कन्वर्ट हो चुकी होती. अभी मैं ने जो जौब ली है वह अपनी शर्तों पर अपनी मरजी से ली है. अक्षिता जब स्कूल जाएगी तब मैं जाऊंगी और उस के आने से पहले आ जाऊंगी, बचा काम मैं घर से ही करूंगी. इस से मेरी सेहत भी प्रभावित नहीं होगी और कुछ न करने का मलाल भी नहीं रहेगा.’’

इस तरह रश्मि एक बार फिर से एक कंपनी की कर्मचारी हो गई. अभी काम करते हुए उसे 1 साल ही हुआ था और यह कंपनी का पहला टैंडर था जिस की जिम्मेदारी उसे दी गई थी. उस ने भी इस में अपनी पूरी जीजान लगा दी थी. उस ने इसे पूरे मार्केट का वैल्युएशन कर के बहुत अधिक मेहनत और कैलकुलेशन कर के डाला था और इस तरह पहली ही बार में उस ने अपनी सफलता के   झंडे गाढ़ दिए थे और इस तरह कुछ ही सालों में अपने टेलैंट के बल पर कंपनी के डाइरैक्टर के पद तक जा पहुंची. सब से बड़ी बात थी कि यहां वह अपनी मरजी की मालिक थी.

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