मतलब खोती शिक्षा

आजकल बहुत सा पैसा टैक्नोलौजी से चल रही पढ़ाई में लगाया जा रहा है और इस का अर्थ है कि सीमेंट और ईंटों से बने स्कूलकालेजों में 40-50 साल पहले तय की गई शिक्षा अब अपना मतलब खोती जा रही है. जैसे फैक्टरियों में मजदूरों को नई टैक्नोलौजी बुरी तरह निकाल रही है, उसी तरह टैक्नोलौजी न जानने वाले युवाओं का भविष्य और ज्यादा धूमिल होता जा रहा है.

जिस तरह का पैसा बैजू जैसी कंपनियों में लग रहा है उस से साफ है कि कंप्यूटर पर बैठ कर ऊंची शिक्षा पाने वाले ही अब देशदुनिया में छा जाएंगे पर यह शिक्षा बहुत महंगी है और साधारण घर इसे अफोर्ड भी नहीं कर पाएंगे.

अमेरिका में किए गए एक सर्वे में पाया गया कि 30 हजार डौलर (लगभग क्व18 लाख) कमाने वाले परिवारों में से 64% के पास स्मार्ट फोन, 1 से ज्यादा कंप्यूटर, वाईफाई, ब्रौडबैंड कनैक्शन, स्मार्ट टीवी हैं जबकि 30 हजार डौलर से कम कमाने वाले घरों में 16% के पास ही ये सुविधाएं हैं.

इस का अर्थ है कि गरीब मांबाप के बच्चे गरीबी में ही रहने को मजबूर रहेंगे क्योंकि न तो वे महंगे स्कूलकालेजों में जा पाएंगे और न ही महंगी चीजें खरीद पाएंगे.

आज हाल यह है कि पिछले सालों में कम तकनीक जानने वालों के वेतनों में 2-3% की वृद्धि हुई है जबकि ऊंची तकनीक जानने वालों का वेतन 20-25% बढ़़ा है.

ये भी पढ़ें- लोकतांत्रिक सरकारों को समझना होगा

भारत में यह स्थिति और ज्यादा उग्र हो रही है क्योंकि यहां भेदभाव को जन्म व जाति से भी जोड़ा हुआ है. यहां जिस तरह पूरे रोज के विज्ञापन कोचिंग क्लास चलाने वाले अखबारों में लेते हैं, उस से साफ है कि नौनटैक्नोलौजी शिक्षा भी महंगी हो गई है और टैक्नोलौजी की शिक्षा तो न जाने कहां से कहां जाएगी.

टैक्नोलौजी से चलने वाली शिक्षा का एक बड़ा असर औरतों की शिक्षा पर पड़ रहा है. उन्हें ऊंची पोस्ट मिलने में कठिनाई होने लगी है क्योंकि सारी पढ़ाई का खर्च लड़कों पर किया जा रहा है जो अब और ज्यादा हो गया है.

हाल यह है कि भारत के विश्वविद्यालयों और कालेजों में ही, जहां पर अभी तक टैक्नोलौजी का राज नहीं है, केवल 7% प्रमुख पोस्ट औरतों के पास हैं और इन में से भी ज्यादा ऐसे संस्थानों में हैं जहां केवल लड़कियां पढ़ रही हैं.

टैक्नोलौजी न केवल गरीब और अमीर का भेद बढ़ा रही है, अमीरों में भी यह जैंडर यानी लड़केलड़की का भेद बढ़ा रही है. टैक्नोलौजी को समाज और दुनिया को बचाने वाला समझ जाता है पर यह बुरी तरह से कुछेक के हाथों में पूरी ताकत सौंप रही है.

अमीर घरों के लड़के खर्चीली पढ़ाई कर के ऊंची कमाई करेंगे और मनचाही लड़की से शादी करेंगे पर उस लड़की पर मनचाहे ढंग से राज भी करेंगे. घर, कपड़ों, छुट्टियों, गाड़ी के लालच में पत्नियों की दशा राजाओं की रानियों की तरह हो जाएगी जो गहनों से लदी होती थीं पर राजा की निगाहों में बस आनंद देने वाली गुडि़या होंगी.

इस समस्या का निदान आसान नहीं है और धर्म की मारी, अपने भाग्य पर निर्भर लड़कियां न तो भारत में और न ही बाकी दुनिया में कहीं कभी इस स्थिति में लड़़ पाएंगी. वे टैक्नो गुलाम रहेंगी और टैक्नो गुलामों से काम कराने में फख्र करेंगी.

ये भी पढ़ें- बच्चों का बचपन तो न छीनो

लोकतांत्रिक सरकारों को समझना होगा

उपचुनावों में राजस्थान, महाराष्ट्र, हिमाचल प्रदेश और पश्चिमी बंगाल में पिटाई होने के बाद भारतीय जनता पार्टी सरकार को समझ आया है कि घरों को लूटना महंगा पड़ सकता है और परिणामों के अगले दिन ही पैट्रोल व डीजल के दाम घटा दिए गए हैं. यह कटौती कोई संतोषजनक नहीं है पर साबित करती है कि सरकार को अब भरोसा हो गया है कि राममंदिर और ङ्क्षहदूमुस्लिम कर के वे ज्यादा दिन तक घरों को बहलफुसला नहीं सकते.

धर्म के नाम पर लूट तो सदियों से चली आ रही है पर पहले राजा पहले अपने पराक्रम से शासन शुरू करता था और फिर अपना मनचाहा धर्म जनता पर थोपता था. आज धम्र का नाम लेकर शासन हथियाना जा रहा है और समझा जा रहा है कि मूर्ख जनता को सिर्फ पाखंड, पूजापाठ, मंदिर और विधर्मी का भय दिखाना ही सरकार का काम है. सरकार बड़ेबड़े मंदिर और भवन बना ले जिन में चाहे काल्पनिक देवीदेवता बैठें या हाड़मांस के चुनकर आए नेता, जनता खुश रहेगी.

ये भी पढ़ें- बच्चों का बचपन तो न छीनो

आम घरों से निकला छीनने की पूरी तैयारी हो रही है. नोटबंदी के दिनों से जो देश की अर्थव्यवस्था का सत्यानाथ किया जाना शुरू किया है, वह आज भी चल रहा है और बेरहमी से जैसे ईस्ट इंडिया कंपनी सरकार ने अकाल के दिनों में लगाम वसूला था, आज की सरकार कोविड की मार खाए व्यापार को पैट्रोल व डीजल के दाम हर दूसरे दिन बढ़ा कर कर रही है. चुनावों में मार खाए पर समझ आया कि यह भारी पड़ सकता है.

लोकतांत्रिक सरकारों को समझना होगा कि वे अपनी मनमानी ज्यादा दिन नहीं थोप सकते. जनता का गुस्सा आज जरूरी नहीं सडक़ों पर उतरे. जनता के पास वोट का हक भी है. भारतीय जनता पार्टी जनता को बहकाने में दक्ष है क्योंकि वह लाखों की भीड़ को कुंभ, धारधाम, मेलों, मंदिरों, तीर्थों में ले जाना जानती है जहां उन को जम कर धर्म के नाम पर लूटा जाता है पर यह नहीं भूलना चाहिए कि यही भीड़ वोट देने भी पहुंचती है जहां सरकार से जवाब वसूली की जाती है.

ये भी पढ़ें- धब्बा तो औरत पर ही लगता है

उपचुनावों में टूटीफूटी कांग्रेस ने हिमाचल प्रदेश और राजस्थान में व अंदर तक मजबूत तृणमूल कांग्रेस ने पश्चिमी बंगाल में भारतीय जनता पार्टी को हिला दिया और पहले कदम में उन को पैट्रोल डीजल के दाम कुछ करने पड़े है.

अब यह जनता पर निर्भर है कि वह धर्म के झूठ की रोटी खाने में संतुष्ट रहना चाहती है या एक कुशल सरकार चाहती है.

बच्चों का बचपन तो न छीनो

धारावाहियों की जानीमानी ऐक्ट्रैस श्वेता तिवारी के मामले में मुंबई उच्च न्यायालय ने कहा है कि यद्यपि श्वेता तिवारी एक बिजी ऐक्टै्रस है पर वह अपने 5 साल के  छोटे बेटे का ध्यान अकेले नहीं रख सकती है, गलत है. श्वेता तिवारी का अपने पति अभिनव कोहली से कस्टडी का विवाद चल रहा है और दोनों में तलाक का मुकदमा चल रहा है. बेटा अभी श्वेता तिवारी के पास रह रहा है और अभिनव उस से मिल तक नहीं पाता.

अभिनव का कहना था कि उस के पास बच्चे को संभालने का काफी टाइम है जबकि श्वेता अपनी शूटिंगों में बिजी रहती है. हाई कोर्ट के जजों एसएस शिंदे और एन.जे. जामदार ने अभिनव को बेटे से सप्ताह में 2 घंटे मिलने और 30 मिनट की वीडियो कौल का हक दिया, उस से ज्यादा नहीं.

जिन विवादों में झगड़ा हो जाता है उन में पति की संपत्ति से ज्यादा जो दर्द देने वाला मामला होता है वह छोटे से या बड़े होते बच्चों की कस्टडी या उन से मिलने के अवसरों का होता है.

मांएं अकसर केवल पूर्व पति को तंग करने के लिए बच्चे पर संपूर्ण हक जमाने की कोशिश करती हैं, वे तरहतरह के आरोप लगा कर पति का पिता का हक भी छीन लेना चाहती हैं. यही विवाह की सब से बड़ी ट्रैजेडी है.

ये भी पढ़ें- धब्बा तो औरत पर ही लगता है

एक बार बच्चा हो जाने के बाद एक स्वाभाविक व प्राकृतिक लगाव पिता के मन में बच्चे के प्रति पैदा हो जाता है. वह दुनिया के सारे दुख भूल कर, संपत्ति दे कर बच्चे का साथ चाहता है और मां को परपीड़न सुख मिलता है. जब वह मां होने के नाते, जिस ने 9 महीने बच्चे को गर्भ में रखा, जिस ने अपनी ब्रैस्ट से दूध पिलाया, जिस ने रातरात भर जाग कर नैपी बदलीं, बच्चे पर पूरा हक मांगती है और पिता को सताती है.

जहां पैसे का मामला हो वहां तो थोड़ाबहुत लिहाज रहता है पर जहां पत्नी काफी कमा रही हो, वह वह पति के पैसे के बदले बच्चे के साथ रहने का हक नहीं छोड़ना चाहती जबकि संतान वह दोनों की होती है.

बच्चे क्या चाहते हैं यह आमतौर पर स्पष्ट नहीं होता क्योंकि स्वाभाविक लगाव तो हर बच्चे का मां के साथ ही होता है. 30-40-50 साल का बेटा भी जो बातें मां से शेयर कर सकता है, वह पिता से नहीं. पिता और बच्चों में प्यार तो होता है पर संवाद के खुलेपन पर एक अदृश्य सा परदा पड़ा रहता है.

पिता दो टूक बात कहता है,  दो टूक सुनता है. मां पूरी कहानी सुनने को तैयार है, शुरू से आखिर तक. मां का प्रेम वात्सल्य वाला होता है, पिता का तार्किक, व्यावहारिक और थोड़ा रूखा. पिता के साथ रहते बच्चे भी भागभाग कर मां के पास पहुंचते हैं चाहे मां ने भले ही दूसरी शादी कर ली हो और दूसरे पति से उस के और बच्चे भी हो गए हों. बेटियों का लगाव तो पिताओं से बहुत देर में पनपता है जब उन्हें एक संरक्षक की जरूरत पड़ती है.

ये भी पढ़ें- आखिर भारत चीन से पीछे क्यों है

मुंबई हाई कोर्ट की राय अपनेआप में ठीक है कि व्यस्त मां भी बच्चे का खयाल रख सकती है. मां के पास यदि पैसा है तो वह सुरक्षा व देखभाल करने वालों को जमा कर सकती है. यदि पतिपत्नी में बन रही हो और दोनों कामकाजी हों तो भी बच्चे तो कुकों और आयों के हाथों ही पलते हैं. आज की तो दादीनानी भी देखभाल करने को मना कर देती हैं.

धब्बा तो औरत पर ही लगता है

हर देश को अपनी सेना पर गर्व होता है और उस के लिए देश न केवल सम्मान में खड़ा होता है वरन उसे खासा पैसे की सुविधा भी दे दी जाती है. एक सुविधा दुनियाभर के सैनिक खुद ले लेते हैं, जबरन रेप करनी की. आमतौर पर हमेशा से राजाओं ने सेनाओं में भरती यही कह कर की होती है कि तुम मेरे साथ लड़ो, तुम्हें लूट में माल भी मिलेगा, औरतें भी. युगों से दुनियाभर में हो रहा है.

कोएंबटूर के एअरफोर्स एडमिनिस्ट्रेटिव कालेज में एक कोर्स में एक आईएएस फ्लाइट लैफ्टीनैंट और एक 26 वर्षीय युवती साथ में पढ़ रहे थे. एक शाम ड्रिंक्स लेते समय युवती को बेहोशी छाने लगी तो उसे उस के होस्टल के कमरे में ले जाया गया और युवती का कहना है कि वहां उस युवा अफसर ने उस के साथ रेप किया.

आमतौर पर इस तरह के रेप का फैसला सामान्य अदालतें करती हैं और इस मामले में सेना अड़ गई कि यह केस कोर्टमार्शल होगा यानी सैनिक अदालत में चलेगा. युवती को इस पर आपत्ति है कि उसे न्याय नहीं मिलेगा. कठिनाई यह है कि सेना पर निर्भर देश और कानून सैनिकों को नाराज करने का जोखिम नहीं लेता.

ये भी पढ़ें- आखिर भारत चीन से पीछे क्यों है

कोर्टमार्शल में सेना के अफसर ही जज का काम करते हैं और वे सैनिकों की प्रवृत्ति को अच्छी तरह समझते ही नहीं, उस

पर मूक स्वीकृति की मुहर भी लगाते हैं. वे जानते हैं कि बेहद तनाव में रह रहे सैनिकों को कुछ राहत की जरूरत होती है और इस तरह के मामलों को अनदेखा करते हैं. सैनिकों को घरों से दूर रहना पड़ता है और वे सैक्स भूखे हो जाते हैं. इसलिए हर कैंटोनमैंट के आसपास सैक्स वर्करों के अड्डे बन जाते हैं.

ऐसे हालात में रेप विक्टिम को सैनिक अदालत से पूरा न्याय मिलेगा, यह कुछ पक्का नहीं है पर असल में तो सिविल कोर्टों में भी रेप के दोषी आमतौर पर छूट ही जाते हैं. हां, उन्हें जमानत नहीं मिलती और चाहे अदालतें बरी कर देती हों, वे लंबी कैद अंडर ट्रायल के रूप में काट आते हैं और रेप विक्टिम के लिए यही काफी होता है.

सिविल कोर्टों में अकसर पीडि़ता अपना बयान वापस ले लेती है, चाहे लंबे खिंचते मामले, वकीलों की जिरह के कारण या लेदे कर फैसले के कारण. यह पक्का है कि जो धब्बा औरत पर लगता है वह टैटू की तरह गहरा होता है और रेपिस्ट पर लगा निशान चुनाव आयोग की स्याही जैसा.

ये भी पढ़ें- क्या यही है लोकतंत्र

आखिर भारत चीन से पीछे क्यों है

भारत की औरतों को चीन से ज्यादा चीनी के दामों की चिंता रहती है पर चीन का खतरा और उस से कंपीटिशन हम सब के सिर पर हर समय सवार है. वैसे तो चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने अपना कार्यकाल रूसी राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन की तरह असीमित करा लिया है पर अभी

वे अपने देश और दुनिया की नजरों में खलनायक नहीं बने हैं, जबकि तुर्की के रजब तैयब एर्दोगन और रूसी राष्ट्रपति पुतिन इसी तरह के बदलाव पर लोकतंत्र के हत्यारे और दुनिया के लिए खतरा घोषित कर दिए गए हैं.

पुतिन के विपरीत शी जिनपिंग की छवि एक बेहद सौम्य व सरल से नेता की है जो संरक्षक ज्यादा लगता है, मालिक कम. चीनी नीतियां भी ऐसी ही हैं. शी जिनपिंग के रोड और बैस्ट योजना का लक्ष्य सारे देशों को एक मार्ग से जोड़ना, बहुत देशों को पसंद आया है क्योंकि बहुत से अलगथलग पड़े देश व बड़े देशों के दूर वाले इलाकों से यह मार्ग गुजरने लगा है. यह पिछले 7-8 सालों से बन रहा है और बहुत जगह असर दिख रहा है.

ये भी पढ़ें- क्या यही है लोकतंत्र

चीन की प्रगति इन सालों में बेहद अच्छी रही है और चीन चाहे सैनिक तेवर दिखा रहा हो, उस की सेनाओं ने भारत के अलावा कहीं पैर नहीं पसारे हैं. साउथ सी में वह अपना प्रभुत्व जमा रहा है पर अभी तक शांतिपूर्वक है.

अब शी जिनपिंग ने पिछले 3 दशकों में सरकारी छूटों का लाभ उठा कर धन्ना सेठ बने चीनियों पर नकेल कसनी शुरू की है. चीन में भी अंबानियों और अदानियों की कमी नहीं है, जिन्होंने सिर्फपहुंच और खातों के हेरफेर से पैसा कमाया है और कम्युनिस्ट देश में कैपिटलिस्ट मौज मना रहे हैं. अलीबाबा कंपनी के जैक मा का उदाहरण सब से बड़ा है जिस के पर हाल में कुतरे गए. एक भवन निर्माण कंपनी को भी डूबने से नहीं रोका गया क्योंकि उस ने बेहद घपला कर हजारों मकान बना डाले थे. हम तो पुरानी परंपराओं को खोदखोद कर निकाल कर सिर पर मुकुट में लगा रहे हैं.

चीनी नेता अब फिर से पार्टी राज ला रहे हैं जो अच्छा साबित होगा या नहीं अभी नहीं कह सकते पर यह पक्का है कि सिरफिरे ही सही कट्टरवादी माओत्सेतुंग ने ही चीन को पुरानी परंपराओं से निकालने के लिए हर पुरानी चीज को ध्वस्त कर डाला था. जो चीन तैयार हुआ वह दुनियाभर के लिए चुनौती बन गया है.

चीन अपनी सेना को भी मजबूत कर रहा है और अपने विमानों, पनडुब्बियों, एअरक्राफ्ट कैरियरों के बेड़े तैयार कर रहा है. भारत को डराए रखने के लिए चीन भारत सीमा के निकट हवाईअड्डे और सड़कें बना रहा है बिना विदेशी यानी पश्चिमी देशों की सहायता से.

अमेरिका शी जिनपिंग के चीन से भयभीत है और इसलिए आस्ट्रेलिया, जापान और भारत के साथ एक क्वैड संधि की गई है ताकि चारों देश मिल कर चीन का सामना कर सकें. इन चारों को यह तो पक्का भरोसा है कि वे चीन को अपनी तकनीक, बाहुबल या चालबाजी से बहका नहीं सकेंगे. जापान को मालूम है कि वह अब चीन पर कब्जा नहीं कर सकता जैसा उस ने 100 साल पहले किया था.

ये भी पढ़ें- आत्मनिर्भर होना है जरुरी – जय भारती (बाइक राइडर)

शी जिनपिंग का लैफ्ट टर्न वही टर्न है जो कांग्रेस अब राहुल गांधी की पहल में कर रही है. जब तक किसी देश का आम आदमी भरपेट खाना नहीं खाएगा और उसे बराबरी का एहसास नहीं होगा, वह उन्नति में सहायक नहीं होगा, अलीबाबा या अदानी या अंबानी किसी देश की उन्नति की नींव नहीं बन सकते हैं, ये परजीवी हैं जो आम जनता की रगों से खून चूसते हैं. हमारी मंदिर, हिंदूमुसलिम नीति भी वही है. शी जिनपिंग अलग दिख रहे हैं, कितने हैं, पता नहीं. हां, एक मजबूत चीन भारत के लिए लगातार खतरा रहेगा जब तक हम भी उतने ही मजबूत न हों. हमारी पूंजी तो फिलहाल प्रधानमंत्री के सपनों के संसद परिसर और राममंदिर में लग रही है.

क्या यही है लोकतंत्र

धर्म व राजसत्ता का गठजोड़ फासीवाद व अंधवाद पैदा करता है. धर्म को सत्ता से दूर करने के लिए ही लोकतंत्र का उद्भव हुआ था. रोम को धराशायी करने में सब से बड़ा योगदान समानता, संप्रभुता व बंधुत्व का नारा ले कर निकले लोगों का था. ये लोग धर्म के दुरुपयोग से सत्ता पर कब्जा कर के बैठे लोगों को उखाड़ कर फेंकने को मैदान में उतरे थे व राजशाही को एक महल तक समेट कर ब्रिटेन में लोकतंत्र की ओर आगे बढ़े.

बहुत सारे यूरोपीय देश इस से भी आगे निकल कर राजतंत्र को दफन करते हुए लोकतंत्र की ओर बढ़े और धर्म को सत्ता के गलियारों से हटा कर एक चारदीवारी तक समेट दिया, जिसे नाम दिया गया वैटिकन सिटी.

आज किसी भी यूरोपीय देश में धर्मगुरु सत्ता के गलियारों में घुसते नजर नहीं आएंगे. ये तमाम बदलाव 16वीं शताब्दी के बाद नजर आने लगे, जिसे पुनर्जागरण काल कहा जाने लगा अर्थात पहले लोग सही राह पर थे, फिर धार्मिक उन्माद फैला कर लोगों का शोषण किया गया और अब लोग धर्म के पाखंड को छोड़ कर उच्चता की ओर दोबारा अग्रसर हो चुके हैं.

सोच में बदलाव

आज यूरोपीय समाज वैज्ञानिक शिक्षा व तर्कशीलता के बूते दुनिया का अग्रणी समाज है. मानव सभ्यता की दौड़ में कहीं ठहराव आता है तो कहीं विरोधाभास पनपता है, लेकिन उस का तोड़ व नई ऊर्जा वैज्ञानिकता के बूते हासिल तकनीक से हासिल कर ली जाती है.

आज हमारे देश में सत्ता पर कब्जा किए बैठे लोगों की सोच 14वीं शताब्दी में व्याप्त यूरोपीय सत्ताधारी लोगों से ज्यादा जुदा नहीं है. मेहनतकश लोगों व वैज्ञानिकों के एकाकी जीवन व उच्च सोच के कारण कुछ बदलाव नजर तो आ रहे हैं, लेकिन धर्मवाद व पाखंडवाद में लिप्त नेताओं ने उन को इस बात का कभी क्रैडिट नहीं दिया.

ये भी पढ़ें- आत्मनिर्भर होना है जरुरी – जय भारती (बाइक राइडर)

जब किसी मंच पर आधुनिकता की बात करने की मजबूरी होती है तो ये इन लोगों की मेहनत व सोच को अपनी उपलब्धि बताने की कोशिश करने लगते हैं. यही लोग दूसरे मंच पर जाते हैं तो रूढि़वाद व पाखंडवाद में डूबे इतिहास का रंगरोगन करने लग जाते हैं.

धर्मगुरुओं का चोला पहन कर इन बौद्धिक व नैतिक भ्रष्ट नेताओं के सहयोगी पहले तो लोगों के बीच भय व उन्माद का माहौल पैदा करते हैं और फिर सत्ता मिलते ही अप्रत्यक्ष रूप से सत्ता के केंद्र बन बैठते हैं.

सरकारें किसी भी दल की हों, यह कारनामा करने से कोई नहीं हिचकता. पंडित नेहरू से ले कर नरेंद्र मोदी तक हर प्रधानमंत्री की तसवीरें धर्मगुरुओं के चरणों में नतमस्तक होते नजर आ जाएंगी.

गौरतलब है कि जब धर्मगुरु जनता द्वारा चुने गए प्रधानमंत्री से ऊपर होते हैं तो लोकतंत्र सिर्फ दिखावे से ज्यादा कुछ नहीं होता और बेईमान लोग इसी लोकतंत्र नाम की दुहाई दे कर मखौल उड़ाते नजर आते हैं.

लोकतंत्र अपने पतन की ओर

इसी रोगग्रस्त लोकतंत्र की चौपाई का जाप करतेकरते अपराधी संसद में बैठने लगते हैं तो धर्मगुरु लोकतंत्र के संस्थानों को मंदिर बता कर पाखंड के प्रवचन देने लग जाते हैं और नागरिकों का दिमाग चकरघिन्नी की तरह घूमने लग जाता है. नागरिक भ्रमित हो कर संविधान भूल जाते हैं और टुकड़ों में बंटी सत्ता के टीलों के इर्दगिर्द भटकने लग जाते है. जहां जाने के दरवाजे तो बड़े चमकीले होते हैं, लेकिन लौटने के मार्ग मरणासन्न तक पहुंचा देते हैं.

इस प्रकार लोकतंत्र समर्थक होने का दावा करने वाले लोग प्राचीनकालीन कबायली जीवन जीने लग जाते हैं, जहां हर 5-7 परिवारों का मुखिया महाराज अधिराज कहलाता था. आजकल लोकतंत्र में यह उपाधि वार्ड पंच, निगम पार्षद व लगभग हर सरकारी कर्मचारी ने हासिल कर ली है. जिन को नहीं मिली वे कोई निजी संगठन का मनगढ़ंत निर्माण कर के हासिल कर लेता है. इस प्रकार मानव सभ्यता वापस पुरातनकाल की ओर चलने लग गई व लोकतंत्र अपने पतन की ओर.

ये भी पढ़ें- हिमालय की पहाडिय़ों का नुकसान

निराशाजनक रवैया

जहां सत्ता धर्म के सहारे की उम्मीद करने लगे व धर्म सत्ता के सहारे की तो लोकतंत्र का पतन नजदीक होता है. अब हर अपराधी, भ्रष्ट, बेईमान, धर्मगुरु, लुटेरे आदि हरकोई अपनेअपने हिसाब से लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं का इस्तेमाल करने लग गया है. संवैधानिक प्रावधान चमत्कार का रूप ले चुके हैं, जिन्हें सुना जाए तो बहुत ही सुहावने लगते हैं, लेकिन कभी हकीकत में नहीं बदल सकते.

किसान आंदोलन के प्रति राजनीतिक व धार्मिक दोनों सत्ता के केंद्रों का रवैया दुश्मनों जैसा है. अपने ही देश के नागरिकों व अपने ही धर्म के अनुयायियों के प्रति यह निर्लज्ज क्रूरता देख कर प्रतीत होता है कि अब लोकतंत्र नहीं रहा.

आत्मनिर्भर होना है जरुरी – जय भारती (बाइक राइडर)

पिछले कुछ सालों से ट्रेवल करना मेरे लिए जरुरी हो गया था. आर्किटेक्ट होने की वजह से मुझे जॉब के साथ ही बहुत ट्रावेल करना पड़ता था. मैं हर साल किसी न किसी क्षेत्र में ट्रेवल करती रही. जब मैं हैदराबाद वापस आई, तो मुझे GoUNESCO चैलेंज में भाग लेने के लिए कहा गया, जिसमें पूरे भारत में 28 UNESCO साइट्स को एक साल में पूरा करना था. मैने इस चैलेज को लिया और इसे जीतने के बाद ट्रेवलिंग की उत्कंठा और अधिक बढ़ गयी. इन बातों को हंसती हुई कह रही थी,39 वर्ष की हैदराबाद की‘मोवो संस्था’ की संस्थापक बुलेट बाइकर जय भारती.

मिली प्रेरणा

जय भारती ने छोटी अवस्था से ही पिता प्रसाद रावकी छोटी लूना मोपेड चलाना सीख लिया था. उनका कहना है कि मेरे भाई और मुझमें, पिता ने कभी अंतर नहीं समझा. इसके बाद से मुझे गाडी चलाने का शौक बढ़ा और जो भी मोटरसाइकिल मेरे घर आती थी, मैं उसे चलाती थी. पहले मैंने शौक से चलाया, लेकिन पिछले 10 सालों से मैं सीरियसली बाइक चला रही हूँ, जिसमें केवल भारत ही नहीं इंडोनेशिया, वियतनाम, अमेरिका आदि कई जगहों पर एक मिशन के साथ बाइक चला चुकी हूँ. ये सही है कि मैंने बाइक चलाना फैशन के रूप में सीखा, लेकिन बहुत सारी महिलाओं को भी गाड़ी चलने का शौक होता है,पर उन्हें कोई सीखाने वाला नहीं होता. मैंने अपनी संस्था की तरफ से कम आय वाली 1500 महिलाओं को गाड़ी चलाना मुफ्त में सिखाया है. कुछ प्राइवेट गाडी चलाती है, तो कुछ रोज की चीजों को मार्केट से लाकर बेचती है या फिर कहीं आने जाने के लिए चलाती है. इसमें मैं उन्हें लाइसेंस अपने पैसे से लेने के लिए कहती हूँ, ताकि परिवार के लोग इसमें शामिल हो, क्योंकि कई बार लड़कियां घर पर बिना बताये गाडी सिखती है, इसलिए ऐसा करना पड़ा. मेरी इस टीम में 10 संस्था की और 10 फ्री लांस काम करते है. इसके अलावा मेरी कोशिश रहती है कि महिला को महिला इंस्ट्रक्टर ही सिखाएं, इससे वे अधिक जल्दी सीख लेती है, क्योंकि उनका कम्फर्ट लेवल अधिक अच्छा होता है.

ये भी पढ़ें- हिमालय की पहाडिय़ों का नुकसान

मिलता है कॉन्फिडेंस

बाइक राइडिंग सीखने के बाद जीवन में आये परिवर्तन के बारें में जय भारती कहती है कि मैं कई सालों से बाइक चला रही हूँ. मैने देखा है कि बाइक पर बैठते ही मुझे एक कॉन्फिडेंस आ जाता है, क्योंकि किसी भी गाडी को चलाना, उसे कंट्रोल करना आसान नहीं होता, इसे कंट्रोल कर लेने के बाद व्यक्ति बहुत अधिक आत्मविश्वास पा लेता है, जो आगे चलकर उनके जीवन की किसी भी कठिनाई को सॉल्व कर सकती है.कैम्पेन ‘मूविंग बाउंड्रीज’भी एक ऐसी ही मिशन है, जिसमें दुनियाभर में महिलाओं को अपने आवागमन को लेकर कई अड़चनों का सामना करना पड़ता है. वे अच्छी पढ़ाई या किसी कामके लिए घर से ज्यादा दूर नहीं जा पातीं, क्योंकि वे गाड़ी चला नहीं सकती और असुरक्षित यात्रा नहीं करना चाहती, ऐसे में उनके पास रोज़गार के काफी सीमित मौके ही रह जाते है, मैंअपनी मोटरबाइक पर इन 40 दिनों की यात्रा को लेकर बेहद उत्साहित हूँ. इस दौरान मुझे देश भर में सभी वर्गों की महिलाओं से मिलने और वर्कशॉप करने का मौका मिलेगा. जहां मैं उन्हें यह बता सकती हूं कि ड्राइविंग एक ऐसा काम है, जो न सिर्फ उनके लिए संभव है, बल्कि वे इसे रोज़गार के रूप में चुन सकती है. एक सुरक्षित माहौल निर्माण करना बेहद ज़रूरी है, जहां महिलाओं को न सिर्फ यात्रा करने के लिए भरोसेमंद ट्रांसपोर्टेशन की सुविधा मिले, बल्कि वे अपने वाहन खरीदकर आजीविका भी कमा सकें. यह एक शानदार तरीका है, जिसमें रोजगार के साथ-साथ सुरक्षा की भी गारंटी होती है और महिलाओं को पुरुषों पर निर्भर होना कम हो सकेगा. मेरे यहाँ तक पहुँचने में मेरी पिता का सबसे बड़ा हाथ है, उन्होंने कभी मुझे किसी काम से मना नहीं किया, इसके बाद मेरी दो भाइयों ने भी सपोर्ट दिया.

होते है आश्चर्य चकित

क्या महिला होकर बाइक चलाने को लेकर किसी प्रकार के ताने सुनने पड़े, पूछे जाने पर जय भारती कहती है कि शुरू में कई बार ताने सुनने पड़ते थे. इसके अलावा मोटरसाइकिल चलाते वक्त सबको ड्रेस पहनने पड़ते है, हेलमेट लगाना पड़ता है, इससे वे अच्छी तरह से पहचान नहीं पाते है कि लड़की है या लड़का. हाँ ऐसा जरुर होता है कि जब मैं बाइक रोकती हूँ, तो लोग मुझे देखकर चौक जाते है. कुछ लोग उसे पोजिटिव रूप में भी लेते है और खुश होकर अपनी बेटियों को भी सिखाने की इच्छा जाहिर करते है. 40 दिन की ये सफ़र 11 अक्तूबर कोयानि ‘इंटरनेशनल गर्ल चाइल्ड डे’ के दिन हैदराबाद से शुरू होकर बंगलुरु, चेन्नई,कोचीन, गोवा, पुणे, मुंबई, अहमदाबाद, दिल्ली, श्रीनगर आदि जगहों पर होते हुए हैदराबाद में अंत हो जाएगा. ये सफ़र पूरे भारतवर्ष का है. इसमें मुझे सनराइज सेशुरू कर, सनसेट के बाद कही रुकना पड़ता है. इसमें 4 या 5 महिलाएं मेरे साथ भाग लेती है, जो उनकी व्यक्तिगत इच्छा पर निर्भर करता है.इस दौरान मैं हर जगह की महिला ट्रेनिंग सेंटर्स सेमिलने की कोशिश करुँगी और कुछ महिलाओं की कहानियों को दूसरे शहरों में फैलाना चाहती हूँ, क्योंकि चेन्नई में 200 से अधिक ऑटो ड्राईवर महिला है, स्टेचू ऑफ़ लिबर्टी के पास 50 प्रतिशत से अधिक महिला इलेक्ट्रिक ऑटो ड्राईवर है. इसलिए मैं दूसरे शहर की महिलाओं को प्रेरित करना चाहती हूँ, क्योंकि अगर मुंबई, अहमदाबाद, चेन्नई, दिल्ली आदि शहरों में महिलाये पब्लिक ट्रांसपोर्ट चला सकती है, तो बाकी शहरों में क्यों नहीं चला सकती. अधिक से अधिक महिला ड्राईवर देश में होने चाहिए.

ये भी पढ़ें- भारतीय जनता परिवार में पुरोहिताई को जोर

जरुरी है आत्मनिर्भर होना

जय भारती को इस काम में मुश्किल अधिक कुछ भी नहीं लगता है, क्योंकि बाइक चलाना मुश्किल नहीं होता, लेकिन सही संस्था के साथ जुड़ना आवश्यक है, क्योंकि हमारे देश में कई संस्थाएं है, जहाँ महिलाओं को ट्रेनिंग दी जाती है, पर वे इसे रोजगार के रूप में नहीं ले पाती, इन संस्थाओं में अधिक से अधिक महिलाओं को ड्राइविंग की ट्रेनिंग देकर उन्हें आत्मनिर्भर बनाना है. इसके लिए इच्छुक महिलाओं को ढूढ़ निकालना भी बहुत मुश्किल होता है.

अनदेखा न करें ट्राफिक नियम

पेशे से मैं आर्किटेक्ट हूँ, लेकिन 2 साल पहले मैंने इसे छोड़ सोशल काम करना शुरू किया. इस काम में उम्र सीमा नहीं होती, पहले तो महिलाएं किसी की बाइक लेकर सीखती थी. पिछले 10 सालों में बहुत बदलाव आया है. आज तो किसी के बर्थडे पर बाइक गिफ्ट की जाती है. बाइक चलाना सीखते वक्त सबका सहयोग होता है, लेकिन सबसे अधिक सपोर्ट पुणे में मिला है. कुछ जगहों पर महिलाएं बिना बताये ड्राइविंग सीखने आ जाती है और कॉंफिडेंट होने पर घरवालों को बताती है. ड्राइविंग में सबसे जरुरी है, ट्राफिक के नियमों का पालन करना, लाइसेंस लेना, स्पीड लिमिट सही रखना, ताकि आप सुरक्षित ड्राइव कर सकें.

हिमालय की पहाडिय़ों का नुकसान

शहरी लोगों की अब से छुटकारा पाने की इच्छा और धर्म के दुकानदारों की भक्ति के नाम पर लूटने की लालची आदत का मिलाजुला असर हिमालय में विकास के नाम पर बनती सडक़ें और पेड़ों की कटाई है जिस में जरा सी ज्यादा बारिश में भूस्खलन हो जाते है और पहाड़ों की ढलानों  को काट कर बनाई सडक़ें बंद हो जाती है. टूरिज्म को डेवेलप करने की इच्छा हर पहाड़ी राज्य की है क्योंकि इस से अतिरिक्त आय होती है जो पहाड़ी इलाकों की खेती या छोटे धंधों से संभव नहीं है.

आज का टूरिस्ट चाहे सैरसपार्ट के लिए आए धर्म प्रचार के चलते पाप धोने और पुण्य कमाने के लिए आए, हजार तरह की सुविधाएं चाहता है. उसे अपने होटल तक भी सडक़ चाहिए और धर्म की हर साल आलीशान और फैलती दुकान के दरवाजे तक भी. नतीजा यह है कि पेड़ काट कर, जमीन समतल कर के निरंतर पहाड़ों की शक्ल खराब की जा रही है. जहां पहले रात को पहाड़ों पर घना अंधकार होता था अब सब जगह बिजली की रोशनी दिखती है. पहाड़ों का प्राकृतिक सौंदर्य तो अब सिर्फ पुराने फोटोग्राफी में मिलेगा.

ये भी पढ़ें- भारतीय जनता परिवार में पुरोहिताई को जोर

शिमला, नैनीताल, मसूरी, दाजीङ्क्षलग अब दिल्ली, मुंबई जैसे लगने लगे है जिन से भाग कर लोग इन पर्यटन स्थलों में पहुंचते हैं. इसी का लाभ उठाने के लिए धर्म के दुकानदारों ने वैष्णोदेवी, केदारनाथ, बद्रीनाथ, चारधाम यात्रा, गंगोत्री जमुनोत्री डेवलप कर दिया ताकि शहरी थकान से भागे लोगों से धर्म के नाम पर मोटी दक्षिणा वसूली जा सके. भारतीय जनता पार्टी परिवार इस दुकानदारी को बढ़ावा देने के लिए वहां भी सडक़ें बनवा रहा है, जहां नहीं बननी चाहिए, उन पहाड़ों में सुरंगे बनवा रहा है, जो कमजोर हैं, वहां पेड़ कटवा रहा है, जहां से पीने को पानी साल भर मैदानी इलाकों को मिला करता था. अब नतीजा यह है कि पर्यटन के केंद्र शहरी इलाके ठसाठस भर गए हैं और पहाड़ों में रिजौर्ट बनने लगे हैं. मंदिर भी ढूंढ़े जाने लगे हैं और पहाड़ी देवीदेवताओं को ठोकपीट कर पैसा उगलने वाली मशीन बनाया जाने लगा है.

भाजपा परिवार की सरकारें मंदिर मठ पर्यटन के नाम पर हिमालय की पहाडिय़ों को जो नुकसान पहुंचा रही हैं, प्रकृति उस का बदला लेने लगी है. वर्षा अब रिकार्ड तोड़ होने लगी है और बारिश अपने साथ पहाड़ों को ढहाने लगी है. जहां पतली नाली सीजनल नदी का रास्ता बना कर वहां समुद्र का सा तूफान आने लगा है.

पर्यटन अच्छा है. घर से निकल कर कहीं जाना सेहत के लिए जरूरी है पर अब पर्यटन केंद्र सेहत के लिए नुकसानदेय और जान के लिए खतरा बनते जा रहे हैं. सडक़ों पर जाना, होटलों का अभाव और ऊपर से बारिश की मार का डर.

ये भी पढ़ें- ठकठक गैंग की खतरे की टैक्नीक

भारतीय जनता परिवार में पुरोहिताई को जोर

हर संयुक्त परिवार की तरह कांग्रेस परिवार में सब कुछ अच्छा नहीं है. कभी कोई बहू नखरे दिखा कर अपना घर अलग बसा लेती है तो कभी कोई बेटीबेटा विधर्मी, विजातीय से शादी कर के प्यार का संबंध तोड़ देता है. कभी तो भाई अलग दुकान खोल कर संयुक्त परिवार को ही चुनौती देने लगता है. संयुक्त परिवार चलाना उतना ही कठिन है जितना एक राजनीतिक पार्टी खासतौर पर कांग्रेस की तरह जो हवेलियों का एक समूह है और जिस के पांव तरहतरह से फैले पड़े हैं और जर्जर हालत में हैं पर नाम अभी भी है.

पंजाब में अमरींद्र ङ्क्षसह को मुख्यमंत्री पद से निकालना या गोवा में पूर्व मुख्यमंत्री का जाना या उत्तर भारत के व्यापार पर भारतीय जनता पार्टी को कब्जा हो जाना इस संयुक्त परिवार के लिए चुनौती है पर अगर मैं इस में कुछ गोंद लगी है तो वह है कि यह संयुक्त परिवार बाजार को हर समय आश्वस्त करता है कि जब तक वह है कुछ न कुछ होगा और नए लोग बाजार पर कब्जा नहीं कर पाएंगे. इस संयुक्त परिवार में जाति और धर्म के भेदभाव भी नहीं है.

आजकल कांग्रेस का भविष्य इतना खराब नहीं लग रहा है क्योंकि दूसरे संयुक्त परिवार जिस ने मंदिर बनवा कर बाजार लूटा है, आगे है पर मंदिर तो पैसा खाता है, देता नहीं.

ये भी पढ़ें- ठकठक गैंग की खतरे की टैक्नीक

भारतीय जनता परिवार में पुरोहिताई का इतना जोर है कि वहां या तो महापुरोहित की चलती या उस के 2, केवल 2 महाशिष्यों की. बाकी सब परिवार के व्यापार के मुनाफे का फायदा उठा सकते हैं पर यूं की नहीं कि उन्हें मेनका गांधी की तरह बाहर वाले कमरे में बैठा दिया जाएगा.

इस भारतीय जनता परिवार की देन भी कुछ नहीं है. यह चिट फंड कंपनियों की तरह मोटे ब्याज के सपने दिखाती रहती है और उस के  बल पर कहीं हवाई जहाज, कहीं, ऊंचे भवन बनवा लिए पर पीछे से घर की जमीनें जायदाद बेच रही है. इस दुकान के ग्राहक ज्यादा है पर अच्छी पैङ्क्षकग में उन्हें बासी, खराब या न चलने वाला माल मिल रहा है और किसी को भी व्यापार चलाना आता नहीं, सब सिर्फ भजन पूजन में लगे रहते हैं.

चूंकि भारतीय जनता परिवार ने खूब पाॢटयां दीं, खूब रंग रोगन करा कर मकान चमकाया, नाम तो हुआ पर कांग्रेसी हवेली की तरह दरारें वाली ही सहीं, मोटी दीवारें नहीं बन पाईं. 1707 के बाद जब मुगल साम्राज्य का पतन हुआ तो भी लालकिला 1857 देश की धुरी बना रहा, कोलकाता, मुंबई में वह दम नहीं रहा.

कांग्रेसी परिवार और भारतीय जनता परिवार में दोनों में आज नेतृत्व की कमी है. एक में पढ़ेलिखे है और दूसरे में अमीर अंधभक्त. बाजार में दोनों की दुकानें हैं, व्यापार है, पर ग्राहक दोनों से संतुष्ट नहीं है.

कांग्रेसी परिवार आजकल अपने पुनॢनर्माण में लग रहा है पर उस परिवार से छिटके ही इसे बड़ा प्रतियोगिता दे रहे हैं. इस के मुखिया सोनिया गांधी समझदार, उदार, अनुभवी है और संभल कर चलने वालों में से है पर बिमार है. बच्चे प्रियंका और राहुल अब हाथपैर मार रहे हैं.

ये भी पढ़ें- टैक्नोलौजी और धर्म

भारतीय जनता परिवार की अंदरूनी हालत और बुरी है, वहां पुरोहित जी तो दूर बैठे हुक्म देते रहते है और मुखियां को बोलना ही बोलना आता है. दूसरे नंबर के मुखियां रौबिले हैं, लखीमपुर खीरी के सांसद और उन के बेटे की तरह उग्र.

आप भी अगर संयुक्त परिवार में हैं और उस में दरारे दिख रही हैं तो इन पाॢटयों पर नजर डाल लें. इन से बहुत कुछ सीखने को मिल जाएगा जो न तो तिलकधारी बता पाएंगे न काले कोर्ट वाले. नजर छोटी दुकानों पर भी डाल लें कि अलग घर में रहना सही है या भरे पूरे घर में जहां अंत तक कोई साथ बना रहता है.

ठकठक गैंग की खतरे की टैक्नीक

चौराहों पर खड़ी बंद गाडिय़ों के शीशे ठकठका कर भीख मांगना या सामान बेचना एक आम बात है पर यह ठकठक गैंग की खतरे की टैक्नीक है. वे इतनी बार ठकठक कर के आपका ध्यान बटाते हैं कि न चाह कर भी आप का ध्यान बंट जाता है. पैट्रोल लीक कर रहा है, डिग्गी खुली है, टायर फ्लैट हो गया है जैसे इशारें अक्सर स्कूटर या बाइक पर सवार लोग कार ड्राइवरों को करते है और अगर 10 में से 1-2 सही हो तो 8-9 गलत इरादे वाले ही होते हैं. यह बात दूसरी उन के शिकार कुछ ही बनते है क्योंकि अब इतना ज्यादा प्रचार हो चुका है कि लोग होशियार रहने लगे हैं.

बेइमान हमेशा नएनए तरीके ढूंढ़ते रहते हैं एक जगह दिल्ली में स्कूटर पर सवार 2-3 गैंगों ने गुट बना लिया. एक ने ठकठक कर के पीछे की ओर ईशारा किया. सतर्क महिला कार ड्राइवर ने तुरंत गाड़ नहीं रोकी और काफी दूर तक चलती रही कि वे ठकठक करने वाले जा चुके होंगे. नहीं, उन के दूसरे साथी पीछे से आ रहे थे. महिला ने सावधानी के लिए उतरने से पहले अपना पर्स कंध्धेे पर टांग लिया कि कोई गाड़ी में से निकाल न ले जाए. तब वह उतर कर पीछे की ओर चैक करने लगी.

ये भी पढ़ें- टैक्नोलौजी और धर्म

पीछे से तभी वह दूसरा गुट आया और उस के कंधे से बैग छीन कर भागने लगा. औरत ने बैग को मजबूती से पकड़ लिया और 100 मीटर तक उसे घसीटा तब उन के हाथों में आया. उस में चाहे ज्यादा पैसे नहीं थे पर औरत की बहादुरी में बहुत बड़ा रिस्म भी था.

ज्यादा गंभीर बात यह है कि दिल्ली की हर सडक़ पर चालान करने वाले पुलिस वाले खड़े रहते हैं, जगहजगह कैमरे लगे हैं. बैरीयर हैं. ट्रैफिक जाम आम हैं. ऐसे में इस तरह के ठकठक गैंग के लोग बारबार एक ही रास्ते पर गुजरते हुए चालान काटने के लिए खड़े पुलिस वालों की नजर में नहीं आएं यह नहीं माना जा सकता.

ठकठक गैंग में जो शामिल होते हैं उन की चौराहे या सडक़ पर बारबार देखकर वहां घंटों खड़े पुलिस वाले की निगाह में आ ही जाने चाहिए. अगर फिर भी ये लोग वारदात कर देते हैं तो पक्का है कि उस में पुलिस की या तो भागीदारी है या उसका निक्मापन है.

जो पुलिस चालान करती है वह सडक़ पर हो रहे अपराध से पल्ला नहीं झाड़ सकती कि यह उस का काम नहीं है. जब वे किसी भी वाहन को बेबात में रोक कर पील्यूशन, फिटनैस, रजिस्ट्रेशन, लाईसैंस चैक कर सकते हैं तो उन के राज में ठकठक गैंग हैं और औरतों को निशाना बना रहे हैं तो वे पूरी तरह जवाबदेह हैं. दिल्ली पुलिस या कहीं की भी पुलिस जो चालान करने और बैरीयर लगाने में मुस्तैद है, सडक़ों की ठकठक गैंग से मुक्ति दिलाने को जिम्मेवार हैं. जिस सडक़ पर भी यह घटना हो वहां तैनात सभी पुलिसमैंन 5-7 दिन के लिए लाइन हाजिर तो होने चाहिए ताकि नागरिक सुरक्षित रहें.

ये भी पढ़ें- नारकोटिक्स की समस्या है बड़ी और विशाल

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें