हो जाने दो- भाग 1: कनिका के साथ क्या हुआ

“सुनो, तुम वापस आ जाओ, जलज. मुझे तुम्हारी जरूरत है. और हमारे बच्चे को भी. तुम लौट आओ, प्लीज.” विलाप करती कनिका पति जलज के पार्थिव शरीर से लिपट गई. बड़ी ननद राखी ने उसे खींच कर अलग करने की कोशिश की, लेकिन कनिका ने जलज का हाथ नहीं छोड़ा.

राखी ने लाचारी से अपनी मां माधवी की तरफ देखा. माधवी शोक संतप्त महिलाओं की भीड़ में से उठ कर आई और पति को अंतिम पलों में निहारती कनिका को झटके से खींच कर उस से अलग कर दिया. कनिका को लगभग घसीटती हुई माधवी भीतर ले आई.

हमेशा चहकने वाला जलज आज कितना शांत लेटा हुआ है मानो उसे किसी से कोई मतलब ही नहीं. कनिका और उस के गर्भ में पल रहे 2 माह के अपने बच्चे से भी कैसे उस का मोह एक झटके में ही भंग हो गया. अभी 5 साल भी नहीं हुए थे उस की शादी को और ये वज्रपात…

30 वर्ष की उम्र में तो कनिका की कई सहेलियों की शादी तक नहीं हुई थी और उस ने इसी उम्र में इश्क के लाल से ले कर वैधव्य के सफ़ेद रंग तक, सबकुछ देख लिया. कनिका कैसे स्वीकार कर ले नियति के इस कठोर फैसले को. लेकिन स्वीकार करने के अलावा दूसरा चारा भी तो नहीं है.

जलज की पार्थिव देह की अंतिमयात्रा की तैयारी हो चुकी थी. पंडित जी अपना काम कर चुके थे. उन के कहे अनुसार, चचेरे छोटे भाई पंकज ने अपना सिर मुंडवा कर बड़े भाई को आखिरी भेंट दी. माधवी और राखी बारबार बेसुध होती कनिका को पकड़ कर पति के अंतिम दर्शनों के लिए लाईं, तो कनिका का दारुण क्रंदन सुन कर उपस्थित जनसमुदाय भी अपने आंसू नहीं रोक पाया.

बिंदी तो आंसुओं के साथ पहले ही बह कर जा चुकी थी. राखी ने निर्ममता से भाभी के हाथ की चूड़ियां भाई के सिरहाने फोड़ दीं. माधवी ने पांव की बिछिया निकाल कर फेंक दी. कनिका चाह कर भी विरोध नहीं कर पाई. नहीं कह पाई कि जलज को बहुत शौक था उसे भरभर हाथ चूड़ियां पहने देखने का, कोई जा कर देखे तो सही कि उस की ड्रैसिंग टेबल कैसे अटी पड़ी है रंगबिरंगी चूड़ियों से. लेकिन, शब्द भी निशब्द हो चुके थे.

अंतिमयात्रा के लिए जैसे ही घर के आंगन ने अपने जवान लाडले को विदा दी, हर आंख नम हो आई. कनिका दहाड़ मार कर नीम बेहोशी की हालत में गिर पड़ी.

लगभग 2 घंटे बाद कनिका को होश आया तो उस ने खुद को महिलाओं से घिरा पाया. उस ने घबरा कर अपनी आंखें फिर से बंद कर लीं. वह इस भयावह हकीकत का सामना करने से कतरा रही थी.

“ओके, बाय, अपना खयाल रखना और हमारे बच्चे का भी,” जलज ने हमेशा की तरह मुसकरा कर कहा था.

“हां बाबा. और हां, तुम भी पहुंचते ही फोन कर देना,” जवाब में कनिका भी मुसकराई और जलज ने अपनी बाइक आगे बढ़ा दी. कनिका अपनी सीट पर आ कर बैठ गई.

बरसों से चला आ रहा यह संवाद आज भी दोनों के बीच रिपीट हुआ था. लेकिन तब कनिका कहां जानती थी कि यह उन का आखिरी संवाद होगा. इस से पहले कि रोज की तरह जलज का औफिस पहुंचने का फोन आता, कनिका के मोबाइल पर एक अनजान नंबर से फोन आया.

“हेलो, जी, मैं मयंक बोल रहा हूं. क्या आप जलज जी को जानती हैं?” उधर से आई आवाज की गंभीरता से कनिका सहम गई.

“जी, वे मेरे पति हैं. आप कौन हैं और क्यों पूछ रहे हैं?” कनिका की छठी इंद्रिय उसे अशुभ संकेत दे रही थी.

“उन का ऐक्सिडैंट हो गया है. मैं उन्हें ले कर संजीवनी हौस्पिटल आया हूं. आप तुरंत यहां आ जाइए. कुछ फौरमैलिटी करनी हैं,” मयंक ने एक सांस में सब कह डाला.

कनिका तुरंत हौस्पिटल की तरफ भागी. औटो में बैठते ही उस ने पंकज को फोन कर दिया और तुरंत आने को कहा. भागतेदौड़ते वह हौस्पिटल पहुंची, पता चला कि सबकुछ ख़त्म हो चुका है. कनिका पथराई सी हौस्पिटल की फौरमैलिटी करती रही.

अब तक बात सब जगह फ़ैल गई थी. जलज के कुछ स्टाफ मैम्बर्स भी हौस्पिटल पहुंच गए और उन की मदद से जलज की बौडी को एम्बुलैंस से घर लाने की कवायद हुई. कुछ महिलाएं कनिका को घर ले आईं और फिर जो कुछ हुआ वह तो अब तक कनिका की आंखों से रिस ही रहा है.

“वो लोग आ गए, चलो. पहले कनिका नहा ले, फिर एकएक कर बाकी तुम लोग भी नहा लो,” माधवी ने राखी को इशारा कर के कनिका को बाथरूम में ले जाने को कहा.

कनिका अपनी अलमारी में से कपड़े निकालने लगी.“पक्के रंग की साड़ी पहनना. कोई लेसवेस या गोटाकिनारी न लगी हो, यह जरूर देख लेना,” माधवी का यह स्वर सुन कर कनिका सोच में डूब गई. कच्चापक्का तो कभी सोचा ही नहीं. जलज तो उसे हर रंग के कपड़े ला कर देता था. काले से ले कर सफ़ेद तक. किसी रंग से उसे कोई परहेज नहीं था. माधवी ने आ कर एक बैगनी रंग की प्लेन साड़ी निकाल कर उस के हाथ में थमा दी. कनिका बाथरूम की तरफ चल दी.

शीशे में अपना चेहरा देख कर कनिका डर गई. सूनी मांग-माथे का चेहरा कितना डरावना लग रहा था. उस ने घबरा कर अपनी आंखें बंद कर लीं और शीशे पर तोलिया डाल कर उसे ढक दिया.

किसी तरह रात हुई. आसपड़ोस के लोग जा चुके थे. माधवी और राखी किसी खास मंत्रणा में मशगूल थीं. कनिका किसी मूर्ति सी लौबी में जड़ हुई बैठी थी. वह रोतेरोते थक चुकी थी. उस का शरीर अब आराम करना चाहता था. लेकिन माधवी ने कहा था- “बिना मुझ से पूछे कोई काम न करना. ऐसा न हो कि किसी की नासमझी के कारण दिवंगत आत्मा को कष्ट हो.” इसलिए कनिका सास की आज्ञा की प्रतीक्षा कर रही थी.

“सो जाओ तुम लोग भी.” माधवी की आवाज सुन कर कनिका अपने कमरे की तरफ चली.“बैड पर नहीं, तुम यहीं लौबी में बिछी दरी पर सोना. यही रिवाज है,” माधवी ने कहा.

कनिका की कुछ भी कहनेसुनने या विरोध करने की शक्ति चुक चुकी थी. उस ने सूनीसूनी आंखों से सास की तरफ देखा और बिना तकिया ही दरी पर लुढ़क गई.

सुबह आंख खुलते ही कनिका का जी मिचलाने लगा. ‘मौर्निंग सिकनैस है. कुछ दिन रहेगी, फिर अपनेआप ठीक हो जाएगी. बस, आप सुबह उठते ही 2 बिस्कुट चाय के साथ खा लेना, इस से आप को बेहतर लगेगा,’ लेडी डाक्टर की कही हिदायत याद आते ही कनिका रसोई की तरफ चली.

“अरे, रुको, हाथ मत लगाना किसी भी चीज को. गऊ ग्रास से पहले कोई कुछ नहीं खाएगा,” सास की कड़कती आवाज सुनते ही बिस्कुट का डब्बा उठाती कनिका के हाथ कांप गए.

“क्या ये वही मां जी हैं जो कल तक खुद अपने हाथ से उसे मनुहार कर के चायबिस्कुट खिलाती थीं.” सास का यह रूप देख कर कनिका विस्मित थी. वह चुपचाप रसोई से बाहर आ गई और लौबी में बिछी दरी पर बैठ गई. रसोई धोई गई. फिर खाना बना. पहले गऊ ग्रास, फिर पिंडदान, फिर पंडित जी को भोजन. ये सब करतेकरते दोपहर हो गई.

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फिर सुहागन हो गई: क्या थी अंकित और रूमी की कहानी

10 मिनटों में नितिन की कहानी खत्म हो गई. वह जमशेदपुर में एक कर्तव्यनिष्ठ और होनहार बैंक अधिकारी था. मध्यरात्रि के अंधेरे में टाटारांची हाइवे पर उस की मोटरसाइकिल की सामने से आती हुई स्कौर्पियो से टक्कर हो गई. वह गिर पड़ा, लुढ़कते हुए उस का सिर माइलपोस्ट से जा टकराया और ब्रेन हैमरेज हो गया. रक्त अधिक बहने के कारण 10 मिनटों में ही उस के प्राण पखेरू उड़ गए. स्कौर्पियो वाला वहां से सरपट भाग गया. 38 वर्षीय नितिन की 25 वर्षीया पत्नी रूमी विवाह के 2 वर्षों के भीतर पति खो बैठी.

ऐक्सिडैंट और मौत की खबर रात को जमशेदपुर पहुंचते ही घर के सभी सदस्य दहाड़ें मारमार कर रोने लगे. किसी को भी सुध नहीं थी. नितिन की मां और रूमी की तो रोरो कर हालत खराब हो गई.

सुबह हो चुकी थी. महल्ले वालों ने शोक समाचार सुना और वे मातमपुरसी के लिए आने लगे. नितिन के पिता विरेंद्र बाबू अपनी पत्नी को सांत्वना दे रहे थे, गले लगा रहे थे. लेकिन रूमी अकेली पड़ गई थी, किसी को उसे समझाने की सुध नहीं रही. आने वाले कईर् पड़ोसी फुसफुसाहट में बातें कर रहे थे, उन के हावभाव से ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो रूमी ही नितिन की मृत्यु का कारण हो.

समय बीता, वर्ष बीते, विरेंद्र बाबू और उन की पत्नी रूमी का खयाल बेटी जैसा रख रहे थे.

एक दिन दोनों ने रूमी को जिंदगी की हकीकत से रूबरू कराया. विरेंद्र बाबू रूमी से बोले, ‘‘बेटे, तुम स्नातक की पढ़ाई पूरी कर लो, जो होना था हो गया, तुम अपने पैरों पर खड़ी होने का प्रयास करो.’’

‘‘पापाजी, मैं प्राइवेट से बीए करने को तैयार हूं. आप किताबें और कुछ जरूरी सामान मंगवा दें.’’

इंटैलिजैंट तो थी ही, रूमी ने 3 वर्षों में ग्रैजुएशन कर लिया, नंबर अच्छे आए. उस ने 18 महीनों का कंप्यूटर डिप्लोमा कोर्स भी कर लिया. उसे फिर अच्छा रैंक मिला. प्लेसमैंट सेल ने कई आईटी  कंपनियों को रूमी के लिए अनुमोदन भी किया.

एक आईटी कंपनी से वौक इन इंटरव्यू का कौल आया. रूमी स्मार्ट थी, उस में दृढ़ आत्मविश्वास भी था. उस का चयन एनालिस्ट के लिए हो गया.

कंपनी के इंजीनियरों के बीच उस के काम की प्रशंसा होने लगी. सहकर्मीगण उसे आ कर बधाई भी देते. रूमी चुपचाप उन के अभिवादन को स्वीकार करती और मौनिटर में लग जाती. वह अपने काम से वास्ता रखती, किसी से ज्यादा बातें या हंसीमजाक से अपने को दूर ही रखती.

औफिस में अब तक उम्रदराज सीनियर मैनेजर हुआ करते थे, लेकिन एक नए इंजीनियर ग्रैजुएट ने सीनियर मैनेजर की पोस्ट पर जौइन किया. औफिस में एक नौजवान बौस के रूप में आए अंकित ने पदभार ग्रहण के बाद औफिस के सभाकक्ष में सभी कर्मचारियों को संबोधित किया और समय की पाबंदी व कार्यलक्ष्य का दृढ़ता से पालन करने का आग्रह किया.

सभी को खबर हो गई कि 27 वर्षीय अंकित श्रेष्ठ कुंआरा है. बारीबारी से अंकित ने सभी को अपने कक्ष में बुला कर परिचय किया, रूमी से भी.

राउंड के दौरान अंकित कभीकभी रूमी के पास आ कर कुछ सवालजवाब करता. ऐसा सिलसिला चलता रहा. अंकित राउंड में कर्मचारियों से मिल कर उन की कार्यप्रगति के बारे में जानकारी लेता रहता था.

इस बीच कंपनी को एक बड़ा प्रोजैक्ट मिला. अंकित को एक टीम बनानी पड़ी और टीम लीडर के लिए रूमी का चयन किया गया. अंकित ने रूमी को अपने कक्ष में बुलाया और कहा, ‘‘आप के काम को देख कर मैं ने आप को टीम लीडर बनाया है. मैसेज कर रहा हूं, टीम मैंबर की लिस्ट भी भेज रहा हूं. आप काम संभाल लीजिए. कभी कठिनाई हो तो मुझ से संपर्क करें.’’

‘‘जी, सर.’’

रूमी को इस बात का जरा भी एहसास नहीं था कि अंकित पहली नजर में उसे दिल दे बैठा था.

प्रोजैक्ट का काम जोरशोर से शुरू हो चुका था. इस सिलसिले में रूमी की अंकित के कक्ष में जाने की तीव्रता भी बढ़ चुकी थी. ऐसे ही एक दिन रूमी ने कक्ष में प्रवेश किया तो अंकित फोन पर बातें कर रहा था. रूमी वापस लौटने लगी तो अंकित ने हाथ से कक्ष में बैठने का इशारा किया. रूमी बैठ गई.

बातें खत्म होते ही अंकित भी सीट पर बैठ गया और बोला, ‘‘रूमी, काम की बातें तो रोज होती हैं, अब यह बताओ कि कहां रहती हो, पेरैंट्स कहां रहते हैं, इस कंपनी में कब, कैसे आईर्ं?’’ रूमी को थोड़ा अटपटा लगा पर इतने दिनों में रूमी भी अंकित को थोड़ाबहुत जान चुकी थी. इसलिए उस ने अपनी कहानी सुना दी. सुन कर अंकित थोड़ा गंभीर हो गया. बाद में मुसकराते हुए बोला, ‘‘प्रोजैक्ट जल्द तैयार हो जाना चाहिए, अभी तक प्रोग्रैस संतोषजनक है.’’ रूमी जितनी देर बैठी रही, अंकित की आंखें कुछ कहती नजर आईं.

ऐसा सिलसिला चलता रहा. रूमी महसूस कर चुकी थी कि अंकित उस में काफी दिलचस्पी ले रहा है और रूमी ने पाया कि वह भी अंकित की ओर आकर्षित हो रही है. एक अन्य मुलाकात में अंकित ने आखिर कह ही डाला, ‘‘रूमी, आज लंच हम लोग साथ करेंगे, यदि आप को कोई आपत्ति न हो तो.’’

रूमी मना नहीं कर पाई. रैस्तरां पास ही था.

लंच में बातें चलती रहीं. रैस्तरां में हलका संगीत भी चलता रहा. डिम लाइट में दोनों की एकदूसरे से आंखें मिल जातीं और लंच के बाद तो अंकित ने रूमी का हाथ पकड़ लिया. रूमी ने कोई प्रतिरोध नहीं किया, लेकिन बोली, ‘‘देखिए, मैं विडो हूं. आप की जौइनिंग रिपोर्ट देखी है, आप से उम्र में 3 साल बड़ी भी हूं.’’

‘‘मैं सब जानता हूं. मैं ने तुम्हारा बायोडाटा देखा है. मुझे मालूम है, मैं तुम से 3 वर्ष छोटा हूं. फिर भी मैं तुम्हें अपनाना चाहता हूं.’’

‘‘आप के घरवाले राजी होंगे?’’

इस प्रश्न का उत्तर अंकित के पास नहीं था, लेकिन वह खुश था कि रूमी की स्वीकृति मिल गई है.

प्रोजैक्ट रिपोर्ट बन गई थी. रूमी का अंकित के चैंबर में जाना नहीं के बराबर हो गया था. लेकिन राउंड के दौरान अंकित रूमी के कियोस्क में कुछ ज्यादा समय दे रहा था.

औफिस में कानाफूसी होने लगी थी. लोग समझ चुके थे कि अंकित और रूमी के बीच कुछ चल रहा है.

रूमी ने अपनी जेठानी को अंकित के बारे में बताया.

‘‘देखो, रूमी, मुझे इस में कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन कुछ बातें ठीक से समझ लेना. कहीं अंकित तुम्हारे साथ खिलवाड़ तो नहीं कर रहा है, उस के पेरैंट्स की क्या प्रतिक्रिया हो सकती है, यहां पापाजी, मम्मीजी के क्या विचार हैं, यह सब तुम्हें पहले ही जान लेना चाहिए. वैसे, मैं तुम्हारे साथ हूं, मैं जानती हूं कि तुम गलत फैसला नहीं ले सकती हो.’’

कंपनी कार्यालय की स्थापना के 5 वर्ष पूरे होने पर कौर्पोरेट औफिस से सभी कर्मचारियों को पार्टी देने का निर्देश आया, मुनाफा भी हुआ था. तय हुआ, शहर से दूर ‘डाउन टाउन रिजौर्ट’ में लंच होगा. रविवार का दिन चुना गया. लग्जरी बस किराए पर की गई और निर्धारित समय पर एक अच्छी पार्टी हुई. पार्टी के बाद सभी बस से वापस चल पड़े. अंकित अपनी गाड़ी से गया था.

‘‘रूमी, तुम रुक जाओ, मैं गाड़ी से तुम्हें छोड़ दूंगा. चलो, कौफी पी लेते हैं,’’ अंकित ने सुझाव दिया.

दोनों वापस रिजौर्ट से रैस्तरां में आ गए और कौफी पीने लगे. अंकित इस बार फैसला कर चुका था कि फाइनल बात करेगा. रूमी के हाथों को अपने हाथों में ले कर उस ने दोहराया, ‘‘मैं तुम्हें अपना बनाना चाहता हूं. मैं शादी करना चाहता हूं.’’

रूमी ने सिर झुका लिया और शरमा सी गई. उस में एक आत्मविश्वास भी था, वह जानती थी अपने बारे में उसे स्वयं फैसला लेना है लेकिन पारिवारिक बंधनों का खयाल भी था.

रूमी तुरंत कुछ बोल नहीं पाई. बस, मुसकरा भर दिया.

दोनों वापस चल पड़े.

रूमी जिस प्रोजैक्ट की टीम लीडर थी, उसे क्लाइंट के बोर्ड औफ डायरैक्टर्स के सामने प्रेजैंटेशन देने का कार्यक्रम बना. क्लाइंट का कार्यालय पटना में था.

‘‘तुम टीम लीडर हो, प्रोजैक्ट रिपोर्ट प्रेजैंटेशन देने के लिए तुम्हें पटना चलना होगा,’’ अंकित ने कहा.

‘‘पापाजी से पूछना होगा, मैं कल बताऊंगी.’’

‘‘एयर टिकट बुक हो चुका है, मैं भी साथ चल रहा हूं. तुम अपने पेपर्स और लैपटौप अपडेट कर लो. परसों जाना है, जाना तो होगा ही,’’ अंकित ने जोर देते हुए कहा.

विरेंद्र बाबू, रूमी के पटना टूर के बारे में सुन कर चिंतित हो गए.

‘‘बड़ी बहू को साथ ले जाना, वह भी थोड़ा बाहर घूम आएगी,’’ उन्होंने कहा.

‘‘ऐसा नहीं हो सकता, पापाजी, मेरी यात्रा प्लेन से फिक्स है. आप को चिंता नहीं करनी चाहिए. यह सब तो चलता रहेगा.’’

पटना की यात्रा सफल रही, रूमी ने बहुत सुंदर ढंग से प्रोजैक्ट रिपोर्ट का प्रेजैंटेशन दिया. बोर्ड औफ डायरैक्टर्स ने रिपोर्ट को पास कर दिया.

पटना के मौर्य होटल में रात्रिविश्राम था. रूमी और अंकित थोड़ी शौपिंग कर के होटल आ गए. दोनों के अलग कमरे थे.

‘‘रात का खाना कमरे में ही साथ खाएंगे, मैं ने और्डर कर दिया है. खाना तुम्हारे कमरे में आ रहा है,’’ अंकित ने कहा.

दोनों ने साथ खाना खाया. रात देर तक बातें होती रहीं. दोनों की समीपता बढ़ती गई और वह हो गया जो एकांत में रात के पहर बंद कमरे में हो सकता था.

तड़के सुबह अंकित अपने कमरे में चला गया. वापसी की तैयारी होने लगी. रास्तेभर दोनों एक तरह से खामोश रहे लेकिन विदा लेते समय अंकित ने कहा, ‘‘रूमी, अब हमें शादी की तैयारी करनी चाहिए.’’

रूमी यह सुनने को बेताब थी. उस ने भी शादी का मन बना लिया था. अपने बारे में तो वह आश्वस्त थी कि वह अपना फैसला खुद ले सकती थी लेकिन अंकित के पेरैंट्स का क्या रुख हो सकता है, सोच कर चिंतित थी.

अगले दिन लंच के लिए औफिस से बाहर जाना हुआ. ‘‘अंकित, यदि तुम्हारे पेरैंट्स तैयार नहीं हुए तो क्या होगा, तुम उन से बात करो,’’ रूमी ने कहा, ‘‘अगर नहीं माने तो भी क्या तुम मुझ से शादी करोगे?’’

यह अगरमगर दोनों के दिमाग में चलती रही और इस बीच दीवाली की छुट्टियां आईं.

4 दिनों की छुट्टियों में अंकित अपने घर दुर्गापुर चला गया.

बहुत हिम्मत कर के उस ने अपनी मां को सारी बातें बताईं और अपना फैसला भी बता दिया.

‘‘शादी मैं रूमी से ही करूंगा. आप लोगों की ‘हां’ चाहिए.’’

मां यह सुन कर सन्न रह गईं, पापा ने सुना तो स्पष्ट शब्दों में कहा, ‘‘रूमी से विवाह की मंजूरी नहीं दी जा सकती, तुम नौकरी छोड़ दो और पारिवारिक बिजनैस में लग जाओ, यह मेरा आखिरी फैसला है.’’

यहां भी अगरमगर होती रही.

दीवाली के दूसरे दिन भी अंकित की छुट्टी थी लेकिन सुबह मौर्निंगवौक के लिए निकला और टैक्सी से जमशेदपुर ड्यूटी जौइन करने चल पड़ा. हां, उस ने मां के नाम एक पत्र लिख छोड़ा था. मां ने कई बार फोन किया. एक बार पापा ने भी फोन किया लेकिन अंकित ने कोईर् जवाब नहीं दिया.

अगले दिन औफिस जाते ही उस ने रूमी को बुलवाया और साफ शब्दों में कहा, ‘‘हमें कोर्टमैरिज करनी है.’’

‘‘मुझे एक बार पापाजी को बताना होगा. वे राजी हों या नहीं, मैं शादी के लिए तैयार हूं. लेकिन एक बार बताना जरूरी है.’’

शाम को घर लौट कर रूमी ने पापाजी और जेठानी को कोर्टमैरिज की बात बताई. दोनों ने प्रोत्साहित किया, लेकिन मम्मीजी और 3 देवरों ने इस का घोर विरोध किया.

फिर एक अड़चन. लेकिन पूरे आत्मविश्वास और दृढ़ता से रूमी डटी रही. उस के तेवर को देखते हुए पापाजी ने अपनी पत्नी और बेटों को समझाया, ‘‘विरोध करने का कुछ लाभ नहीं होगा, घर में ड्रामा होना अच्छा नहीं.’’

पापाजी के हस्तक्षेप से सभी मान गए. पापाजी ने अंकित से एक बार खुद बात करने की इच्छा जताई. रूमी ने हामी भर दी.

पापाजी ने अंकित से कहा, ‘‘तुम लोगों की शादी से हमें कोई आपत्ति नहीं है. तुम्हारी? कोर्टमैरिज से भी हम सहमत हैं. अपने परिवार वालों से बात करने की जिम्मेदारी तुम्हारी है. मुझे सिर्फ 2 बातें करनी हैं, एक, रूमी के सुख और सुरक्षा की गारंटी होनी चाहिए, दूसरे, इसे हम ने बेटी की तरह माना है और बेटी का पूरा प्यार दिया है, कोर्टमैरिज के बाद हम इसे अपने घर ले जाएंगे और एक दिन बाद इसे बेटी की तरह अपने घर से विदा करेंगे.’’

‘‘मुझे दोनों शर्तें मंजूर हैं,’’ अंकित ने विनम्रता से कहा.

पापाजी ने घर वापस आ कर बड़ी बहू को रूमी की शादी का जोड़ा, चूडि़यां, सिंदूर और आवश्यक कपड़े अंकित के लिए गिफ्ट और सूट के कपड़े बाजार से लाने को कहा.

वैधानिक औपचारिकता के बाद दोनों की शादी हो गई. पापाजी, बड़ी बहू और अंकित का एक दोस्त शादी के गवाह बने, मिठाइयां बांटी गईं.

विदाई का दिन आ गया. समयानुसार अंकित और उस के 4 दोस्त 3 गाडि़यों में आ गए. रूमी को लाल लहंगा, लाल चोली और लाल दुपट्टे के साथ पूरी दुलहन की तरह सजाया गया और विदाई गीत शुरू हो गए.

विदाई गीत शुरू होते ही पापाजी बहुत सैंटीमैंटल हो गए और फफकफफक कर रोने लगे. रूमी ने भीगी पलकों से पापाजी को प्रणाम किया और सीने से लग कर कहा, ‘‘पापाजी, आप क्यों रोते हैं? मैं आप लोगों से मिलती रहूंगी. आप ने मुझे बेटी माना है, मुझे आते रहने का हक देते रहिए. आप लोग अपना खयाल रखें. आप आंसू मत बहाइए, मैं तो फिर सुहागन हो गई.’’

अंकित और रूमी को मम्मीजी और बड़ी बहू ने नम आंखों से गाड़ी तक पहुंचाया. गाड़ी में बैठते ही अंकित ने ड्राइवर से कहा, ‘‘दुर्गापुर चलो.’’

और सड़क के रास्ते गाड़ी दुर्गापुर के लिए चल पड़ी.

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पटाक्षेप- भाग 4: क्या पूरी हुई शरद और सुरभी की प्रेम कहानी

अनंत और नेहा का रिसैप्शन सचमुच बड़ा ही शानदार था. सभी नातेरिश्तेदार व सगेसंबंधी इकट्ठे हुए थे. सुरभि गेट पर सभी का स्वागत कर रही थी. तभी शरद अपनी पत्नी के साथ आता दिखा. उस ने हाथ जोड़ कर दोनों का स्वागत किया. उस के होंठों पर मुसकराहट थी, वह ऐसा प्रदर्शित कर रही थी मानो वह शरद को पहचानती ही नहीं है. लेकिन शरद उसे देख कर अचकचा गया, धीरे से बोला, ‘‘सुरभि, तुम?’’ वह शरद की बात को अनसुना कर के दूसरे मेहमानों की ओर बढ़ चली. खिसियाया हुआ शरद उसे बराबर आतेजाते देख रहा था. लेकिन वह उस से किनारा कर रही थी. शरद को बात करने का वह कोई मौका ही नहीं दे रही थी.

अनंत नेहा के साथ घूमफिर कर सभी मेहमानों से मिल रहा था. सुरभि भी सब से अपनी बहू का परिचय करा रही थी, साथ ही, उस की तारीफों के पुल भी बांधती जा रही थी. सभी मेहमान विदा हो गए. रह गए बस शरद और उस की पत्नी सोमा. अब वह उन की ओर मुखातिब हुई, ‘‘कहिए, कैसा लगा सारा इंतजाम आप लोगों को? अपनी ओर से तो मैं ने कोई भी कसर नहीं छोड़ी.’’

‘‘बहुत ही अच्छा प्रबंध था. आप को देख कर ऐसा लगता है कि मेरी बेटी को बहुत ही समझदार सास मिली है. आइए हम लोग गले तो मिल लें,’’ कह कर सोमा उस के गले लग गई.

सुरभि ने कनखियों से शरद को देखा, उस का चेहरा सियाह हो रहा था. शायद उसे इस बात का एहसास हो रहा था कि सुरभि उसे न पहचानने का बहाना कर रही है, उसे इस बात का तो अंदाजा था कि वह नाराज है किंतु उसे कुछ कहने का मौका तो दे, कहीं ऐसा न हो कि उस की बेवफाई का बदला नेहा से ले, वह इन्हीं विचारों में डूबउतरा रहा था. उन लोगों के रुकने की व्यवस्था सुरभि ने अपने घर के गैस्टरूम में ही की थी.

रात्रि के 2 बज रहे थे. सुरभि की आंखों में नींद नहीं थी. वह अतीत के सागर में गोते लगा रही थी,  क्यों किया शरद ने मेरे साथ ऐसा और इन 25 वर्षों में उस ने एक बार भी यह जानने की कोशिश नहीं की, कि मेरा हश्र क्या हुआ, मैं जीवित भी हूं या नहीं. जिस प्रकार समाज में मेरा अपमान हुआ था उस से तो मर जाना ही उचित था. वह तो पापा की सूझबूझ से अवलंब जैसे पति मिले, तो जीवन में फिर एक बार आशा का संचार हुआ. लेकिन शरद की यादें हमेशा ही तो मन में उथलपुथल मचाती रहीं. अपने अतीत को अपने सामने पा कर वह विह्लल हो रही थी. इतना गहरा रिश्ता बन गया है, कैसे निभेगा, अब तो बारबार ही शरद से आमनासामना होगा. तब?

वह बेचैन हो कर अपने घर के लौन में टहल रही थी. तभी, ‘‘सुरभि,’’ शरद ने पीछे से आ कर उसे चौंका दिया. ‘‘आप यहां, इस समय, क्यों आए हैं?’’ वह पलटी, उस का स्वर कठोर था.

‘‘सुरभि, एक बार, बस एक बार मुझे अपना पक्ष साफ करने दो, फिर मैं कभी भी तुम से कुछ भी नहीं कहूंगा. मैं तुम से क्षमा भी नहीं मांगूगा क्योंकि जो मेरी मजबूरी थी उसे मैं अपना अपराध नहीं मानता हूं.’’

‘‘कैसी मजबूरी? कौन सी मजबूरी? मैं कुछ भी सुनना नहीं चाहती हूं. जो हुआ, अच्छा ही हुआ. आप के इनकार ने मुझे अवलंब जैसा पति दिया जो वास्तव में अवलंब ही थे और इस के लिए मैं आप की आभारी हूं,’’ सुरभि ने अपने कमरे की ओर कदम बढ़ाए.

‘‘रुको सुरभि, एक बार मेरी बात तो सुन लो, मेरे सीने पर जो ग्लानि का बोझ है वह उतर जाएगा. हमारे रास्ते तो अलग हो ही चुके हैं, एक मौका, बस, एक मौका दे दो,’’ शरद ने सुरभि की राह रोकते हुए कहा.

सुरभि ठिठक कर खड़ी हो गई, ‘‘कहिए, क्या कहना है?’’

‘‘कहां से शुरू करूं, कुछ समझ में नहीं आ रहा है,’’ शरद झिझक रहा था.

‘‘देखिए, आप को जो भी कहना हो, जल्दी से कह दीजिए, कोई आ जाएगा तो आप की किरकिरी हो जाएगी,’’ सुरभि ने कदम आगे बढ़ाने का उपक्रम किया.

‘‘हूं, तो सुनो, यहां से जाने के बाद मैं बहुत ही उल्लसित था. स्वप्न में मैं हर रोज तुम्हारे साथ अपना जीवन बिता रहा था. हर ओर मुझे तुम ही तुम नजर आती थीं. मेरे सभी सहयोगी बहुत ही खुश थे. मेरे एमडी मिस्टर अनिल रेड्डी ने भी ढेरों मुबारकबाद दीं. जब विवाह के 15 दिन ही बचे थे, मेरे साथियों ने एक फाइवस्टार होटल में बड़ी ही शानदार पार्टी का आयोजन किया. मिस्टर रेड्डी भी अपनी पत्नी व बेटी सोमा, जो मेरी सहयोगी भी थी, के साथ मेरी पार्टी में शामिल हुए. डिं्रक्स के दौर चल रहे थे. किसी को कुछ भी होश नहीं था.

‘‘डांसफ्लोर पर सभी थिरक रहे थे कि अचानक मैं लड़खड़ा कर गिरने लगा. सोमा, जो उस समय मेरी ही डांस पार्टनर थी, ने मुझे संभाल लिया. नशा गहरा रहा था और उस पर उस के शरीर की मादक सुगंध में मैं खोने लगा. एक पल को मुझे ऐसा लगा जैसे तुम ही मुझे अपनी ओर आमंत्रण दे रही हो. मैं ने सोमा को अपनी बांहों में भर लिया और सामने वाले कमरे में ले कर चला गया.

‘‘सोमा ने भी कुछ ज्यादा ही पी ली थी. उन्हीं नाजुक पलों में संयम के सारे बांध टूट गए और वो हो गया जो नहीं होना चाहिए था. हम दोनों एकदूसरे की आगोश में लिपटे पड़े थे कि अचानक, ‘‘व्हाट हैव यू डन रास्कल? यू हैव स्पौएल्ड माई डौटर्स लाइफ, नाऊ यू आर सैक्ड फ्रौम योर जौब,’’ चीखते हुए मिस्टर रेड्डी अपनी पुत्री सोमा को एक तरह से घसीटते हुए ले कर चले गए. मैं परेशान भी था और शर्मिंदा भी. यह मैं ने क्या कर दिया. तुम्हें पाने को मैं इतना आतुर था कि सोमा को तुम समझ बैठा और पतन के गर्त में जा गिरा.

दूसरे दिन मिस्टर रेड्डी ने मुझे

दोबारा जौब, इस शर्त पर वापस

की कि मैं सोमा से शादी कर लूं क्योंकि इस घटना का सभी को पता चल चुका था. सोमा के सम्मान का भी सवाल था. बस, मैं मजबूर हो गया और इस प्रकार उस से मुझे विवाह करना ही पड़ा. मैं तुम लोगों को क्या मुंह दिखाता. बस, एक इनकार की सूचना अपने पापा को दे दी. बाद में मिस्टर रेड्डी ने मुझे अपना पार्टनर बना लिया. अब तुम जो भी चाहो, समझो. मैं ने तुम्हें सबकुछ हूबहू बता दिया. हो सके तो क्षमा कर देना.

‘‘नेहा मेरी एकलौती बेटी है, उसे अपनी बेटी ही समझना. मेरा बदला उस से न लेना.’’ इतना कह कर शरद चुप हो गया.

‘‘ठीक है शरद, जो हुआ सो हुआ. नेहा आप की बेटी ही नहीं, मेरी बहू भी है. मेरी कोई बेटी नहीं है, उस ने मेरी यह साध पूरी की है. अब आप अपने कमरे में सोने जाइए. सोमाजी जाग जाएंगी, आप को न पा कर परेशान हो जाएंगी. मैं भूल चुकी हूं कि कभी आप से मिली भी थी और आप भी भूल जाइए,’’ कह कर सुरभि अपने कमरे की ओर मुड़ गई. शरद भी चुपचाप अपने कमरे की ओर चला गया.

इस प्रकार एक बिसरी हुई कहानी का पटाक्षेप हो गया. पर शरद के मन में आज भी अपराधबोध था. सुरभि 25 वर्षों से जिस हलकी आंच पर सुलग रही थी, वह आज बुझ गई. शरद नहीं तो क्या, उस की बेटी तो अब उस ने बहू के रूप में पा ही ली न.

पटाक्षेप- भाग 3: क्या पूरी हुई शरद और सुरभी की प्रेम कहानी

सगाई के बाद तो शरद अकसर ही उस के घर आनेजाने लगा था, अब उसे अपनी ससुराल में कभी भी आने का परमिट जो मिल गया था. इस एक महीने में वह सुरभि के साथ एक पूरा जीवन जीना चाहता था. अधिक से अधिक समय वह अपनी मंगेतर के साथ बिताना चाहता था. दोनों कभी मूवी देखने चले जाते, कभी दरिया के किनारे हाथों में हाथ डाले घूमते नजर आते, भविष्य के सुंदर सपने संजोते अपनी स्वप्नों की दुनिया में विचरण करते थे. पहले तो सुरभि को शर्म सी आती थी लेकिन अब घूमनेफिरने का लाइसैंस मिल गया था. सभी लोग बेफ्रिक थे कि ठीक भी है, दोनों एकदूसरे को अच्छी तरह समझ लेंगे तो जिंदगी आसान हो जाएगी.

वह दिन भी आ गया जब शरद को बेंगलुरु वापस जाना था. वह भावविह्वल हो रही थी. शरद उसे अपने से लिपटाए दिलासा दे रहा था. बस, कुछ ही दिनों की तो बात है, फिर हम दोनों एक हो जाएंगे. जहां मैं वहां तुम. हमारे ऊपर कोई बंधन नहीं होगा. और सुरभि ने उस के सीने में अपना मुंह छिपा लिया. शरद उस का मुंह ऊपर उठा कर बारबार उस के होंठों पर अपने प्यार की मुहर अंकित कर रहा था. शरद चला गया उसे अकेला छोड़ कर यादों में तड़पने के लिए.

विवाह जाड़े में होना था और अभी तो कई माह बाकी थे. फोन पर बातों में वह अपने विरह का कुछ इस प्रकार बखान करता था कि सुरभि के गाल शर्म से लाल हो उठते थे. वह उस की बातों का उत्तर देना चाहती थी किंतु शर्म उस के होंठों को सी देती थी. नीमा अकसर उसे छेड़ती और वह शरमा जाती.

अक्तूबर का महीना भी आ गया था. घर में जोरशोर से शादी की तैयारियां चल रही थीं. मांपापा पूरेपूरे दिन, उसे इस मौल से उस मौल टहलाते थे. उस की पसंद की ज्वैलरी और साडि़यां आदि खरीदने के चलते क्लासेज छूट रही थीं. जब वह कुछ कहती तो मां बोलतीं, ‘अब ससुराल में जा कर ही पढ़ाई करना.’ वह चुप रह जाती थी.

नवंबर का महीना भी आ गया. तैयारियों में और भी तेजी आ गई थी. निमंत्रणपत्र भी सब को जा चुके थे कि तभी उन पर गाज गिरी. शरद ने अपने पापा को सूचना दी कि उस ने अपने साथ ही कार्यरत किसी सोमा रेड्डी से विवाह कर लिया है.

सुरभि टूट गई. उसे शरद पर बेहद यकीन था. शरद उसे इस प्रकार धोखा देगा, यह तो उस ने सपने में भी नहीं सोचा था. वह शरद, जो उसे अपनी आंखों से ओझल भी नहीं होने देना चाहता था. उस के बालों से अठखेलियां करता, कभी कहता, तुम्हारी झील सी गहरी आंखों में मैं डूबडूब जाता हूं, सागर की लहरों सा लहराता तुम्हारा बदन मुझे अपने में समेटे लिए जा रहा है. ऐसे कैसे धोखा दे सकता है वह उसे? वह खुद से ही सवाल करती.

शरद के पापा बहुत ही लज्जित थे और हाथ जोड़ कर सुरभि के परिवार से अपने बेटे के धोखे की माफी मांग रहे थे. और नीमा…वह तो सुरभि से नजरें मिलाने की हिम्मत ही नहीं जुटा पा रही थी. लेकिन अब इन बातों से फायदा भी क्या था? निराशा के अंधकार में वह नई राह तलाशने की कोशिश करती, लेकिन हर राह शरद की ओर ही जाती थी. उस के आगे तो सड़क बंद ही मिलती थी. और वह अंधेरों में भटक कर रह जाती थी.

कहीं से प्रकाश की एक भी किरण नजर नहीं आती थी. अब वह नातेरिश्तेदारों व मित्रों से नजरें चुराने लगी थी. जबकि मां उसे समझाती थी, ‘बेटा, तेरा कोई दोष नहीं है, दोष तो हमारा है जो हम ने उस धोखेबाज को पहचानने में भूल की.’

2 माह बाद ही पापा ने उस का विवाह अवलंब से कर दिया. अवलंब इनकम टैक्स औफिसर थे और बहुत ही सुलझे हुए व्यक्तित्व के थे. पापा ने उन से शरद और सुरभि की कोई भी बात नहीं छिपाई थी और परिवार के सम्मान की खातिर ही उस ने इस विवाह को स्वीकार कर लिया था. अवलंब सही माने में अवलंब थे. उन्होंने कभी भी उसे इस बात का आभास तक न होने दिया कि वे उस के अतीत से परिचित हैं और उन्होंने उसे अपने प्यार से लबरेज कर दिया. अब उसे शरद की याद भी न के बराबर ही आती थी. वह अवलंब का साया बन गई थी.

2 वर्षों बाद ही उस के जीवन की बगिया में अवलंब के प्यार का एक फूल खिला, अनंत, उस का बेटा. वह अपनेआप को दुनिया की सब से खुशनसीब स्त्री समझने लगी थी. अवलंब का बेशुमार प्यार और अनंत की किलकारियों से वह अपने अतीत के काले अध्याय को भूल चुकी थी, लेकिन नियति उस पर हंस रही थी. तभी तो 2 दिनों के दिमागी बुखार से अवलंब उसे अलविदा कह कर उस के जीवन से बहुत दूर चला गया और अब वह अपने बेटे के साथ अकेली रह गई.

अवलंब के औफिस में ही उसे नौकरी मिल गई. वह अकेली ही चल पड़ी उस डगर पर जो नियति ने उस के लिए चुनी थी. उसे अपने पति के हर उस सपने को पूरा करना था जो उन्होंने अनंत के लिए देखे थे. उसे अनंत का भविष्य संवारना था. उसे आकाश की अनंत ऊंचाइयों तक पहुंचाना था. अनंत था भी बड़ा ही मेधावी, सदा अव्वल रहने वाला. पीछे पलट कर उस ने कभी देखा ही नहीं और लगातार तरक्की की ओर बढ़ता गया.

सिडनी में अनंत को फैलोशिप मिल गई थी और उस के उज्जवल भविष्य के लिए सुरभि ने बिना नानुकुर किए उसे विदेश भेज दिया, वहां उसे नेहा मिली, जिस से वह विवाह करना चाहता था. और जिस की मंजूरी सुरभि ने फौरन ही दे दी. उस का मन उसे भटका रहा था. यदि वास्तव में नेहा शरद की ही बेटी हुई, तो क्या वह शरद का सामना कर सकेगी? क्यों उस ने यह रिश्ता स्वीकार कर लिया, अब क्या वह अनंत को मना कर दे इस शादी के लिए, लेकिन सबकुछ इतना आसान भी तो नहीं था. अब यदि अनंत ने इनकार का कारण पूछा तब क्या वह अपने ही मुंह से अपने अतीत को बयां कर सकेगी जिस ने उस के जीवन के माने ही बदल दिए थे, शरद की बेटी को क्या वह दिल से स्वीकार कर सकेगी, कहीं ऐसा न हो कि शरद के प्रति उस के प्रतिकार का शिकार वह मासूम बच्ची बने. नहींनहीं, शरद का बदला वह नेहा से कैसे ले सकती थी. वह बेटे का दिल भी तो नहीं तोड़ सकती थी. वरना, वह भी नेहा की नजरों में शरद के समान ही गिर जाएगा.

उस ने अनंत को फोन किया. ‘‘हैलो,’’ दूसरी तरफ से अनंत का स्वर उभरा.

‘‘बेटा, तुम नेहा से वहीं शादी कर के इंडिया आ जाओ. मैं यहां एक ग्रैंड रिसैप्शन दे दूंगी ताकि सभी रिश्तेदारों से बहू का परिचय भी हो जाए और हां, नेहा के मांपापा को विशेष निमंत्रण दे देना.’’

पटाक्षेप- भाग 2: क्या पूरी हुई शरद और सुरभी की प्रेम कहानी

नीमा तो कह रही थी कि शरद बेंगलुरु में है तो फिर यहां क्या कर रहा है, फौरन ही उस का मन जवाब देता, हो सकता है आजकल यहीं हो और अपनी बहन को पहले दिन यूनिवर्सिटी छोड़ने आया हो. रहरह कर शरद का मुसकराता चेहरा उस की आंखों के सामने आ कर मुंह चिढ़ाने लगता था, क्यों, झकझोर दिया न मैं ने तुम को, हो रही हो न मुझ से मिलने को बेचैन?

‘हांहां, मैं बेचैन हो रही हूं तुम से मिलने के लिए, क्या तुम भी?’ वह अनायास ही बुदबुदा उठी.

‘क्या हुआ दीदी, तुम नींद में क्या बुदबुदा रही हो?’ बगल में सोई हुई उस की छोटी बहन ऋ तु ने पूछा.

‘क्या हुआ, कुछ भी तो नहीं. तूने कोई सपना देखा होगा,’ सुरभि ने खिसिया कर चादर में अपना मुंह ढांप लिया और सोने की कोशिश करने लगी.

दूसरे दिन हजारों मनौतियां मनाते हुए वह घर से निकली, काश कि आज भी शरद से मुलाकात हो जाए तो कितना अच्छा होगा. पूरे दिन दोनों सहेलियां साथ ही रहीं किंतु वह नहीं आया. चाह कर भी वह  नीमा से कुछ भी नहीं पूछ सकी, शर्म ने उसे जकड़ रखा था. उस का मन शरद से मिलने को बेचैन हो रहा था पर संस्कारों के चाबुक की मार से उस ने खुद को साधे रखा था. इन्हीं विचारों में डूबउतर रही थी कि तभी शरद आता दिखा.

‘क्या बात है दादा, आज आप फिर यहां. आज तो मेरा दूसरा दिन है और मैं कोई अकेली भी नहीं हूं,’ नीमा ने शरद को छेड़ा.

‘नहींनहीं, ऐसी कोई बात नहीं है. मैं कल सुबह की फ्लाइट से वापस चला जाऊंगा, सोचा आज तुझे थोड़ा घुमाफिरा दूं, इत्मीनान से बातें करते हैं, तुझे कोई प्रौब्लम तो नहीं. फिर तो अरसे बाद ही मुलाकात होगी,’ शरद ने सुरभि की ओर देखते हुए कहा.

नीमा मन ही मन में मुसकरा रही थी, जबकि सुरभि का चेहरा आरक्त हो रहा था और बड़ी ही सरलता से उस के मन के भावों की चुगली कर रहा था. ‘अच्छा दादा, आप सुरभि से बातें करिए, मैं अभी कौमन हौल से हो कर आती हूं.’ नीमा यह कहने के साथ सुरभि की ओर देख कर मुसकराती हुई चली गई.

सुरभि की समझ में नहीं आ रहा था कि क्या बोले, तभी शरद बोल उठा, ‘तुम्हें कुछ कहना तो नहीं है, मैं कल सुबह चला जाऊंगा.’

‘नहीं, मुझे क्या कहना है,’ सुरभि नर्वस हो रही थी.

‘ठीक है, फिर यह न कहना कि मैं ने तुम्हें कुछ कहने का मौका नहीं दिया,’ शरद ने तनिक ढिठाई से कहा. तभी नीमा आते हुए दिखी. नीमा ने आ कर बताया, ‘आज क्लासेज सस्पैंड हो गई हैं.’ यह कहने के साथ उस ने आगे कहा, ‘चलो न दादा, कहीं घूमफिर आएं, तू चलेगी न सुरभि?’

सुरभि पसोपेश में पड़ गई, क्या करे, जाने का मन तो है पर यदि घर में यह बात पता चली, तब? मांपापा कुछ गलत न समझ बैठें. वैसे भी जब उस के दाखिले की बात हुई, तभी मामाजी ने टोका था, ‘जीजाजी, लड़की को विश्वविद्यालय भेज कर आप गलती कर रहे हैं, कहीं हाथ से निकल न जाए.’ लेकिन उस का मन चंचल हो रहा था, क्या हुआ यदि थोड़ी देर और शरद का साथ मिल जाए…और वह तैयार हो गई. तीनों ने खूब घुमाईफिराई की. शाम को नीमा और शरद ने अपनी कार से उसे उस के घर छोड़ा. उस के मांपापा भी उन दोनों से मिल कर बहुत प्रभावित हुए.

दूसरे दिन उस का मन बहुत अशांत

था. आज शरद चला जाएगा, न

जाने अब कब मुलाकात हो. वह बड़े ही अनमने ढंग से क्लासेज के लिए तैयार हो कर यूनिवर्सिटी के लिए निकल गई. सामने से नीमा आते दिखी. सुरभि को देखते ही वह चहक कर बोली, ‘पता है, दादा आज भी नहीं गए. एक माह के लिए अपनी छुट्टियां बढ़ा ली हैं. असल मे दादा के जाने के नाम से ही मम्मी परेशान होने लगती हैं. बस, दादा को रुकने का बहाना मिल गया. उन्होंने अपना जाना कैंसिल कर दिया.’ लेकिन सुरभि अच्छी तरह समझती थी कि वह क्यों नहीं गया.

अब अकसर ही दोनों की मुलाकातें होने लगीं और उस ने अपना दिल शरद के हवाले कर दिया बिना यह जाने कि शरद भी उस को प्यार करता है या नहीं. लेकिन जब शरद ने बिना किसी लागलपेट के सीधेसादे शब्दों में अपने प्यार का इजहार कर दिया तो वह झूम उठी. ऐसा लग रहा था मानो पूरा सतरंगी आसमान ही उस की मुट्ठी में सिमट आया हो. वह अरमानों के पंखों पर झूला झूलने लगी.

एक रविवार को शरद अपने पेरैंट्स और नीमा को ले कर उस के घर आ धमका. उस ने अपने कमरे की खिड़की से देखा. उसे अपनी आंखों पर यकीन ही नहीं हा रहा था. उस का दिल जोरजोर से धड़क रहा था. ‘चलो दीदी, मां ने तुम्हें ड्राइंगरूम में बुलाया है,’ ऋ तु ने आ कर उसे चौंका दिया. वह अचकचाई सी मां के बुलाने पर सब के बीच पहुंच गई. शरद के पेरैंट्स उस के पेरैंट्स से बातों में मग्न थे. उसे देखते ही शरद की मां ने उस के दोनों हाथों को पकड़ कर अपनी बगल में बिठा लिया, ‘हमें आप की बेटी बहुत ही पसंद है. हम इसे अपने घर की बहू बनाना चाहते हैं अगर आप को एतराज न हो.’

वह शर्म से लाल हो रही थी. मांपापा इसी बात पर निहाल थे कि उन्हें घर बैठे ही इतना अच्छा रिश्ता मिल गया. उन्होंने फौरन हां कर दी. उस की भावी सास ने पर्स से अंगूठी निकाली और शरद से उसे पहनाने के लिए कहा. शरद ने लपक कर उस का हाथ पकड़ लिया और उस की अनामिका में अंगूठी पहना कर अपने प्यार की मुहर लगा दी. उस ने भी मां द्वारा दी गई अंगूठी शरद को पहना कर अपनी स्वीकृति दे दी.

उसे यह सब स्वप्न सा महसूस हो रहा था. आखिर इतनी जल्दी उस का प्यार उसे मिलने वाला था. वह इस अप्रत्याशित सगाई के लिए तैयार न थी. क्या सच में जो प्यार उस के दिल के दरवाजे पर अब तक दस्तक दे रहा था, वह उस की झोली में आ गिरा. तभी, ‘भाभी’, कह कर नीमा उस से लिपट गई. लज्जा के मारे उस से वहां बैठा भी नहीं जा रहा था. वह नीमा को ले कर अपने कमरे में आ गई.

 

पटाक्षेप- भाग 1: क्या पूरी हुई शरद और सुरभी की प्रेम कहानी

‘‘मां, मैं नेहा से विवाह करना चाहता हूं,’’ अनंत ने सिडनी से फोन पर सुरभि को सूचना दी. ‘‘कौन नेहा?’’ सुरभि चौंक उठी, उसे यकीन ही नहीं हो रहा था. अनंत तो अभी

25 वर्ष का ही था. उस ने इतना बड़ा फैसला कैसे ले लिया. सुरभि के दिमाग में तो उस का अनंत अभी वही निर्झर हंसी से उस के वात्सल्य को भिगोने वाला, दौड़ कर उस के आंचल में छिपने वाला, नन्हामुन्ना बेटा ही था. अब देखते ही देखते इतना बड़ा हो गया कि विवाह करने का मन ही नहीं बनाया, बल्कि लड़की भी पसंद कर ली.

पति अवलंब की मृत्यु के बाद उस ने कई कठिनाइयों को झेल कर ही उस की परवरिश की और जब अनंत को अपने प्रोजैक्ट के लिए सिडनी की फैलोशिप मिली तब उस ने अपने दिल पर पत्थर रख कर ही अपने जिगर के टुकड़े को खुद से जुदा किया. वह समझती थी कि बेटे के उज्ज्वल भविष्य के लिए अपनी ममता का त्याग करना ही होगा. आखिर कब तक वह उसे अपने आंचल से बांध कर रख सकती थी. अब तो उस के पंखों में भी उड़ान भरने की क्षमता आ गई थी. अब वह भी अपने जीवन के महत्त्वपूर्ण फैसले लेने में समर्थ था. उस ने अपने बेटे की पसंद को वरीयता दी और फौरन हां कर दी.

अनंत को अपनी मां पर पूरा यकीन था कि वे उस की पसंद को नापसंद नहीं करेंगी. नेहा भी सिडनी में उसी के प्रोजैक्ट पर काम कर रही थी. वहीं दोनों की मुलाकात हुई जो बाद में प्यार में बदल गई और दोनों ने विवाह करने का मन बना लिया. नेहा के पेरैंट्स ने इस रिश्ते को स्वीकार कर लिया.

सुरभि ने अनंत से नेहा की फोटो

भेजने को कहा जो उसे जल्द ही

मिल गई. फोटो देख कर वह निहाल हो गई, कितनी प्यारी बच्ची है, भंवरें सी कालीकाली आंखें, आत्मविश्वास से भरी हुई, कद 5 फुट 5 इंच, होंठों पर किसी को भी जीत लेने वाली हंसी, सभीकुछ तो मनभावन था.

नेहा की हंसी ने सुरभि के बिसरे हुए अतीत को जीवंत कर दिया था, कितनी प्यारी पहचानी हुई हंसी  है. यह हंसी तो उस के खयालों से कभी उतरी ही नहीं. इसी हंसी ने तो उस के दिन का चैन, रातों की नींद छीन ली थी. इसी हंसी पर तो वह कुरबान थी. तो क्या नेहा शरद की बेटी है? नहींनहीं, ऐसा कैसे हो सकता है. हो सकता है यह मेरा भ्रम हो. उस ने फोटो पलट कर देखा, नेहा कोठारी लिखा था, उस का शक यकीन में बदल गया.

वह अचंभित थी. नियति ने उसे कहां से कहां ला कर खड़ा कर दिया. किस प्रकार वह प्रतिदिन नेहा के रूप में शरद को देखा करेगी? लेकिन वह अनंत को मना भी तो नहीं कर सकती थी क्योंकि नेहा शरद का प्यार है जिसे छीनने का उसे कोई हक भी नहीं है. सो, इस शादी को मना करने का कोई समुचित आधार भी तो नहीं था. वह बेटे को क्या कारण बताती. धोखा तो शरद ने उसे दिया था. उस का बदला नेहा से लेने का कोई औचित्य भी नहीं बनता था. आखिर उस का अपराध भी क्या है? नहींनहीं. अनंत और नेहा एकदूसरे के लिए तड़पें, यह उसे मंजूर नहीं था.

शादी के बाद पता ही न चला कि शरद कहां है और उस ने कभी जानने का प्रयास भी नहीं किया. अब उस का मन उस से छलावा कर रहा था. नेहा की फोटो देखते ही लगता मानो शरद ही सामने खड़े मुसकरा रहे हों.

शरद ने न जाने कब चुपके से उस के जीवन में प्रवेश किया था. शरद जिस ने उस की कुंआरी रातों को चाहत के कई रंगीन सपने दिखाए थे. कैसे भूल सकती थी वह दिन जब उस ने विश्वविद्यालय में बीए (प्रथम वर्ष) में ऐडमिशन लिया था.

भीरु प्रवृत्ति की सहमीसहमी सी लड़की जब पहले दिन क्लास अटैंड करने पहुंची तो बड़ी ही घबराई हुई थी. जगहजगह लड़केलड़कियां झुंड बना कर बातें कर रहे थे. वह अचकचाई सी कौरिडोर में इधरउधर देख रही थी. उसे अपने क्लासरूम का भी पता नहीं था. कोई भी ऐसा नहीं दिख रहा था, जिस से वह पूछ सके. तभी एक सौम्य, दर्शनीय व्यक्तित्व वाला युवक आता दिखा.

उस ने तनिक हकलाते हुए पूछा, रूम नंबर 40 किधर पड़ेगा? उस लड़के ने उसे अचंभे से देखा, फिर तनिक मुसकराते हुए बोला, ‘आप रूम नंबर 40 के सामने ही खड़ी हैं.’ ‘ओह,’ वह झेंप गई और क्लास में जा कर बैठ गई.

‘हाय, आई एम नीमा कोठारी.’ उस ने पलट कर देखा. उस की बगल में एक प्यारी सी उसी की समवयस्क लड़की आ कर बैठ गई. उस ने सुरभि की ओर मैत्री का हाथ बढ़ाया. कुछ ही देर में दोनों में गहरी दोस्ती हो गई.

क्लास समाप्त होते ही दोनों एकसाथ बाहर आ गईं. ‘दादा,’ नीमा चिल्ला उठी. सुरभि ने चौंक कर देखा, वही युवक उन की ओर बढ़ा चला आ रहा था. ‘क्यों रे, क्लास ओवर हो गईर् थी या यों ही बंक कर के भाग रही है?’ उस ने नीमा को छेड़ा.

‘नहीं दादा, क्लास ओवर हो गई थी. और आप ने यह कैसे सोच लिया कि हम क्लास बंक कर के भाग रहे हैं?’

उस के स्वर में थोड़ी नाराजगी थी.

‘सौरी बाबा, अब नहीं कहूंगा,’ उस ने अपने कान पकड़ने का नाटक किया. नीमा मुसकरा उठी. फिर उस ने पलट कर सुरभि से उसे मिलवाया, ‘दादा, इन से मिलो, ये हैं सुरभि टंडन, मेरी क्लासमेट. और सुरभि, ये हैं मेरे दादा, शरद कोठारी, सौफ्टवेयर इंजीनियर, बेंगलुरु में पोस्टेड हैं.’ उस ने दोनों का परिचय कराया.

सुरभि संकोच से दोहरी हुई जा रही थी. बड़ी मुश्किल से उस ने नमस्कार की मुद्रा में हाथ जोड़े.

‘मैं इन से मिल चुका हूं. क्यों, है न?’ उस ने दृष्टता से मुसकराते हुए सुरभि की ओर देखा. ‘अच्छा,’ नीमा ने शोखी से कहा.

घर आ कर सुरभि उस पूरे दिन के घटनाक्रम में उलझी रही. ‘यह क्या हो रहा है, ऐसा तो पहले कभी नहीं हुआ, न जाने कितने लोगों से प्रतिदिन मुलाकात होती रहती थी लेकिन इतनी बेचैनी तो पहले कभी नहीं हुई.’ मन में कई सवाल उमड़घुमड़ रहे थे.

 

हाय हैंडसम: क्या हुआ था गौरी के साथ

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वक्त की साजिश- भाग 1: क्या अभिषेक को मिला सच्चा प्यार

आज भी वह नौकरी न मिलने की हताशा के साथ घर लौटा. कल ही गांव से खत आया कि आर्थिक स्थिति बिगड़ रही है. पिताजी से अब काम नहीं होता. वहां कुछ जल्दी करो वरना यहीं आ जाओ. जो 3-4 बीघा जमीन बची है उसी पर खेती करो, उसी को संभालो. आखिर बिट्टी की शादी भी तो करनी है. अब जल्दी कुछ भी करो.

उस की कुछ समझ में नहीं आ रहा था. 3-4 बीघा जमीन में क्या होगा? कितनी हसरतों से इधरउधर से कर्ज ले कर उस के पिता ने उसे शहर भेजा था कि बेटा पढ़लिख जाएगा तो कोई नौकरी कर लेगा और फिर बिट्टी की शादी खूब धूमधाम से करेंगे…पर सोचा हुआ कभी पूरा होता है क्या?

‘आखिर मेरी भी कुछ अपने परिवार के प्रति जिम्मेदारियां हैं. मैं उन से मुंह तो नहीं मोड़ सकता न. और कब तक यहां नौकरी की तलाश में भटकता रहूंगा. कुछ करना ही पडे़गा.’ वह सोचने लगा, ‘मैं कल ही घर चला जाऊंगा.’

‘पर रंजना?’ खयालों में यह नाम आते ही वह कांप सा गया, ‘क्या कहूंगा रंजना से? क्या मैं उस से अलग रह पाऊंगा?’

‘अलग रहने की जरूरत क्या है, वह भी मेरे साथ चलेगी,’ मन ने सहज उत्तर दिया.

‘साथ चलेगी?’ जैसे उस के मन ने प्रतिप्रश्न पूछा, ‘तुम उसे क्या दे पाओगे. एक उदास, बोझिल सी जिंदगी.’

‘तो क्या उसे छोड़ दूं?’ यह सवाल मन में आते ही वह सिहर सा गया, पर यह तो करना ही पड़ेगा. आखिर मेरे पास है ही क्या जो मैं उसे दे सकता हूं. उसे अपने से अलग करना ही पडे़गा.’

‘पर कैसे?’

वह कुछ समझ नहीं पा रहा था.

इन्हीं खयालों में डूबतेउतराते उसे अपनी छाया से डर लगने लगा था.

कितनी अजीब बात थी कि वह अपनेआप से ही भयभीत था. उसे ऐसा लगने लगा था कि खोना ही उस की नियति है. जो इच्छा उस के मन में पिछले 7 सालों से कायम थी, आज उसी से वह डर रहा था.

कोई नदी अविरल कितना बह सकती है, अगर उस की धारा को समुद्र स्वीकार न करे तो? हर चीज की एक सीमा होती है.

उसे लगा कि वह कमरे में नहीं बल्कि रेत के मैदान पर चल रहा हो. दिमाग में रेगिस्तान याद आते ही उसे वह कहानी याद आ गई.

एक मुसाफिर रास्ता भटक कर रेगिस्तान में फंस गया. उस का गला प्यास से सूखा जा रहा था. वह यों ही बेदम थके कदमों से अपने को घसीटता हुआ चला जा रहा था. वह प्यास से बेहाल हो कर गिरने ही वाला था कि उसे लगा कोई सोता बह रहा है. उस के कदम पुन: शक्ति के साथ उठे दूर कहीं पानी था वह तेजी से उस तरफ बढ़ चला. पास जाने पर पता चला कि वह तो मरीचिका थी.

निराश, थकाहारा वह तपती रेत पर घुटनों के बल बैठ गया. तभी दूर उसे एक झोंपड़ी दिखाई दी. उस ने सोचा शायद उस की प्यास वहां बुझ जाए. वह झोंपड़ी तक पहुंचतेपहुंचते गिरने ही वाला था कि तभी किसी के कोमल हाथ उसे सहारा दे कर झोंपड़ी के अंदर तक ले आए और पूछा, ‘ऐ अजनबी, तू क्यों भटक रहा है? और तुझे किस की चाह है?’

उस के मुंह से केवल 2 शब्द निकले,  ‘पानी, प्यासा.’ इन्हीं शब्दों के साथ वह गिर पड़ा.

उस कोमल हाथ वाले व्यक्ति ने अपनी अंजलि में जल भर कर उसे पिलाया. पानी की चंद बूंदों से उसे होश आ गया पर उस की प्यास अभी बुझी नहीं थी. वह अभी और पानी पीना चाहता था. तभी एक वहशी आवाज उस के कानों में गूंज उठी :

‘कौन है, और यहां क्या कर रहा है? तू किसे पानी पिला रही है? क्या तुझे पता नहीं है कि यह पानी कितनी मुश्किल से यहां तक आता है?’ इतना कह कर उस वहशी आवाज के मालिक ने उस अजनबी को झोपड़ी से बाहर धकेल दिया, और वह फिर उसी रेगिस्तान में भटकने लगा. कहते हैं मरते वक्त उस भटके युवक के होंठों पर यही बात थी कि ऐ अजनबी, जब तुझे प्यासा ही मारना था तो फिर दो घूंट भी क्यों पिलाया?

इस कहानी की तरह ही उसे अपना हाल भी लगा. कहीं वही तो उस कहानी के 2 पात्र नहीं हैं? और वे कोमल हाथ रंजना ही के तो नहीं जो दो घूंट पी कर फिर प्यासा मरेगा इस जन्म में.

उस का मन उस के वश में नहीं हो पा रहा था. वह अपने मन को शांत करने के लिए रैक से कोई पुस्तक तलाशने लगा. एक पुस्तक निकाल कर वह बिस्तर पर लेट गया और किताब के पन्नों को पलटने लगा. तभी पुस्तक से एक सूखा फूल उस की छाती पर गिरा, वह जैसे अपनेआप से ही चीख उठा, ‘यार, यादें भी मधुमक्खियों की तरह होती हैं जो पीछा ही नहीं छोड़तीं.’

अतीत की एक घटना आंखों में साकार हो उठी.

रंजना का हाथ उस की तरफ बढ़ा और उस ने मुसकरा कर उसे सफेद गुलाब यह कहते हुए पकड़ा दिया, ‘मिस्टर अभिषेक, आप के जन्मदिन का तोहफा.’

उस ने हंसते हुए रंजना से फूल ले लिया.

‘जानते हो अभि, मैं ने तुम्हें सफेद गुलाब क्यों दिया? क्योंकि इट इज ए सिंबल आफ प्योर स्प्रिचुअल लव.’

उस ने मुड़ कर बिस्तर पर देखा तो वही फूल पड़ा था. पर अब सफेद नहीं, सूख कर काला हो चुका था.

‘इस ने भी रंग बदल दिया,’ यह सोच कर वह हंसा, ‘प्योरिटी चेंज्ड वोन कलर. काला रंग अस्तित्वविहीनता का प्रतीक है. प्रेम के अस्तित्व को शून्य करने के लिए…जाने क्यों रातें काली ही होती हैं, जाने क्यों उजाले का अपना कोई रंग नहीं होता और कितनी अजीब बात है कि उजाले में ही सारे रंग दिखाई देते हैं. मुझे भी तो रंजना की आंखों में अपने सारे रंग दिखाई देते हैं, क्योंकि वह सुबह के उजाले की तरह है. और मैं…काली रात की कालिमा की तरह हूं.’

‘मिस्टर अभिषेक, यू आर एलोन विद योर ग्रेट माइंड’ जैसे शब्दों के सहारे उस ने खुद अपनी ही पीठ थपथपाई पर हर जगह दिमाग काम नहीं आता. बहुत कुछ होता है प्योर हार्टिली. मैं क्यों नहीं कर पाता ऐसा.

मैं क्यों समझ रहा हूं स्थितियों को. क्यों नहीं बन पाता एक अबोध शिशु, जो चांद को भी खिलौना समझ कर लेने की जिद कर बैठता है.

‘मेरा घर आने वाला है, कब तक साथ चलते रहोगे?’ रंजना ने पूछा.

‘तुम्हारे साथ चलना कितना अच्छा लगता है.’

‘हां, अभी तक तो.’

‘क्या कहा, अभी तक, इस का क्या मतलब?’

‘कुछ नहीं ऐसे ही,’ वह हंसी.

‘मैं तुम्हारे साथ सदियों तक बिना रुके चल सकता हूं, समझी.’

‘कौन जाने,’ रंजना ने माथे पर बल डाल कर कहा.

वह यह सोच कर कांप सा गया, क्या रंजना अपने भविष्य को जानती थी?

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घोंसले के पंछी- भाग 3: क्या मिल पाए आदित्य और ऋचा

अंकिता ने जब शिवम को बताया कि उस की मम्मी को उस के प्रेम के बारे में सब पता चल गया है तो वह घबरा गया.

‘‘इस में घबराने की क्या बात है? मम्मी ने तुम्हारे डैडी का फोन नंबर व पता मांगा है. वह तुम्हारे घर वालों से हमारी शादी की बात करना चाहती हैं.’’

‘‘अरे मर गए, क्या तुम्हारे पापा को भी पता है?’’ उस के माथे पर पसीने की बूंदें छलक आईं.

‘‘जरूर पता होगा. मम्मी ने बताया होगा उन को. परंतु तुम इतना परेशान क्यों हो रहे हो? हम एकदूसरे से प्रेम करते हैं, शादी करने में क्या हरज है? कभी न कभी करते ही, कल के बजाय आज सही,’’ अंकिता बहुत धैर्य से यह सब कह रही थी.

‘‘अरे, तुम नहीं समझतीं. यह कोई शादी की उम्र है. मेरे डैडी जूतों से मेरी खोपड़ी गंजी कर देंगे. शादी तो दूर की बात है,’’ वह हाथ मलते हुए बोला.

‘‘अच्छा,’’ अंकिता की अक्ल ठिकाने आ रही थी. वह समझने का प्रयास कर रही थी. बोली, ‘‘तुम मुझ से प्रेम कर सकते हो तो शादी क्यों नहीं. प्रेम मांबाप से पूछ कर तो किया नहीं था. अगर वे हमारी शादी के लिए तैयार नहीं होते, तो शादी भी उन से बिना पूछे कर लो. आखिर हम बालिग हैं.’’

‘‘क्या बकवास कर रही हो, शादी कैसे कर सकते हैं?’’ वह झल्ला कर बोला, ‘‘अभी तो हम पढ़ रहे हैं. मांबाप से पूछे बगैर हम इतना बड़ा कदम कैसे उठा सकते हैं?’’

‘‘अच्छा, मांबाप से पूछे बगैर तुम जवान कुंआरी लड़की को बरगला सकते हो. उस को झूठे प्रेमजाल में फंसा सकते हो. शादी का झांसा दे कर उस की इज्जत लूट सकते हो. यह सब करने के लिए तुम बालिग हो परंतु शादी करने के लिए नहीं,’’ वह रोंआसी हो गई.

उसे मम्मी की बातें याद आ गईं. सच कहा था उन्होंने कि इस उम्र में लड़कियां अकसर बहक जाती हैं. लड़के उन को बरगला कर, झूठे सपनों की दुनिया में ले जा कर उन की इज्जत से खिलवाड़ करते हैं. शिवम भी तो उस के साथ यही कर रहा था. समय रहते उस की मम्मी ने उसे सचेत कर दिया था. वह बच गई. अगर थोड़ी देर होती तो एक न एक दिन शिवम उस की इज्जत जरूर लूट लेता. कहां तक अपने को बचाती. वह तो उस के लिए पागल थी.

शिवम इधरउधर ताक रहा था. अंकिता ने एक प्रयास और किया, ‘‘तुम अपने घर का पता और फोन नंबर दो. तुम्हारे मम्मीडैडी से पूछ तो लें कि वे इस रिश्ते के लिए राजी हैं या नहीं.’’

‘‘क्या शादीशादी की रट लगा रखी है,’’ वह दांत पीस कर बोला, ‘‘हम कालेज में पढ़ने के लिए आए हैं, शादी करने के लिए नहीं.’’

‘‘नहीं, प्यार करने के लिए…’’ अंकिता ने उस की नकल की. वह भी दांत पीस कर बोली, ‘‘तो चलो, नाचेगाएं और खुशियां मनाएं,’’ अब उस की आवाज में तल्खी आ गई थी, ‘‘कमीने कहीं के, तुम्हारे जैसे लड़कों की वजह से ही न जाने कितनी लड़कियां अपनी इज्जत बरबाद करती हैं. मैं ही

बेवकूफ थी, जो तुम्हारे फंदे में फंस गई. थू है तुम पर.. भाड़ में जाओ. सब कुछ खत्म हो गया. अब कभी मेरे सामने मत पड़ना. गैरत हो तो अपना काला मुंह ले कर मेरे सामने से चले जाओ.’’

उस दिन शाम को अंकिता जल्दी घर पहुंच गई. बहुत दिनों बाद ऐसा हुआ था. ऋचा और आदित्य ने भेदभरी नजरों से एकदूसरे की तरफ देखा. अंकिता चुपचाप अपने कमरे में चली गई थी. आदित्य ने ऋचा को इशारा किया. वह पीछेपीछे अंकिता के कमरे में पहुंची. आदित्य भी बाहर आ कर खड़े हो गए थे.

‘‘आज बहुत जल्दी आ गईं बेटी,’’ ऋचा अंकिता से पूछ रही थी.

‘‘हां मम्मी, आज मैं अपने मन का बोझ उतार कर आई हूं. बहुत हलका महसूस कर रही हूं,’’ फिर उस ने एकएक बात मम्मी को बता दी.

मम्मी ने उसे गले से लगा लिया. उसे पुचकारते हुए बोलीं, ‘‘बेटी, मुझे तुम पर गर्व है. तुम्हारी जैसी बेटी हर मांबाप को मिले.’’

‘‘मम्मी यह सब आप की समझदारी की वजह से हुआ है. समय रहते आप ने

मुझे संभाल लिया. मैं आप की बात समझ गई और पतन के गर्त में जाने से बच गई. आप थोड़ा सी देर और करतीं तो मेरी बरबादी हो चुकी होती. मैं आप से वादा करती हूं कि मन लगा कर पढ़ाई करूंगी. आप की नसीहत और मार्गदर्शन से एक अच्छी बेटी बन कर दिखाऊंगी.’’

‘‘हां बेटी, तुम्हारे सिवा हमारा और कौन है? तुम चली जातीं तो हमारे जीवन में क्या बचता?’’

‘‘मम्मी, ऐसा क्यों कह रही हैं? मैं आप के साथ हूं और भैयाभाभी भी तो हैं.’’

ऋचा ने अफसोस से कहा, ‘‘वे अब हमारे कहां रहे? हम ने एकदूसरे को नहीं समझा और वे हम से दूर हो गए.’’

‘‘ऐसा नहीं है मम्मी, वे पहले भी हमारे थे और आज भी हमारे हैं.’’

‘‘ये क्या कह रही हो तुम?’’

‘‘मम्मी, मैं आप को राज की बात बताती हूं. भैया और भाभी से मैं रोज बात करती हूं. भाभी खुद फोन करती हैं. मैं ने उन्हें देखा नहीं है परंतु वे बातें बहुत प्यारी करती हैं. वे हम सब को देखना चाहती हैं. भैया तो एक दिन भी बिना मुझ से बात किए नहीं रह सकते. वे और भाभी यहां आना चाहते हैं लेकिन डैडी से डरते हैं, इसीलिए नहीं आते. मम्मी, आप एक बार…सिर्फ एक बार उन से कह दो कि आप ने उन्हें माफ किया, वे दौड़ते हुए आएंगे.’’

‘‘सच…’’ ऋचा ने उसे अपने सीने से लगा लिया, ‘‘बेटी, आज तू ने मुझे दोगुनी खुशी दी है,’’ वह खुशी से विह्वल हुई जा रही थी.

‘‘हां, मम्मी, आप उन्हें फोन तो करो,’’ अंकिता चहक रही थी, ‘‘मैं भाभी से मिलना चाहती हूं.’’

‘‘अभी करती हूं. पहले उन को बता दूं. सुन कर वे भी खुशी से पागल हो जाएंगे. हम लोगों ने न जाने कितनी बार उन को बुलाने के बारे में सोचा. बस हठधर्मिता में पड़े रहे. बेटे के सामने झुकना नहीं चाहते थे परंतु आज हम बेटे के लिए और उस की खुशी के लिए छोटे बन जाएंगे. उसे फोन करेंगे.’’

वह बाहर जाने के लिए मुड़ी. कमरे के बाहर खड़े आदित्य अपनी आंखों से आंसू पोंछ रहे थे. आज उन्हें खोई हुई खुशी मिल रही थी. बेटी भी वापस अंधेरी गलियों में भटकने से बच गई थी. वह सहीसलामत घर लौट आई थी. बेटा भी मिल गया था. आज उन की हठधर्मिता टूट गई थी. उन्हें अपनी गलती का एहसास हो चुका था.

ऋचा ने आदित्य को बाहर खड़े देखा. वे समझ गईं कि अब कुछ कहने की जरूरत नहीं थी. वे सब सुन चुके थे. उन के पास जा कर भरे गले से बोली, ‘‘चलिए, बेटे को फोन कर दें और बहू के स्वागत की तैयारी

करें. आज हमें दोगुनी खुशी मिल रही है.

ऐसा लग रहा है, जैसे घोंसले के पंछी वापस आ गए हैं. अब हमारा आशियाना वीरान

नहीं रहेगा.’’

‘‘हां, ऋचा,’’ आदित्य ने उसे बांहों के घेरे में लेते हुए कहा, ‘‘घोंसले के पंछी घोंसले में ही रहते हैं, डाल पर नहीं. प्रतीक को वापस आना ही था. हमारी बगिया के फूल यों ही हंसतेमुसकराते रहें. उन की सुगंध चारों ओर फैले और वे अपनी महक से सब के जीवन को गुलजार कर दे.

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