Father’s Day Special: पापा जल्दी आ जाना

दूरी- भाग 3 : समाज और परस्थितियों से क्यों अनजान थी वह

लेखक- भावना सक्सेना

बस चल पड़ी थी, वह दूर तक हाथ हिलाती रही. मन में एक कसक लिए, क्या वह फिर कभी इन परोपकारियों से मिल पाएगी? नाम, पता, कुछ भी तो न मालूम था. और न ही उन दोनों ने उस का नामपता जोर दे कर पूछा था. शायद जोर देने पर वह बता भी देती. बस, राह के दोकदम के साथी उस की यात्रा को सुरक्षित कर ओझल हो रहे थे.

बस खड़खड़ाती मंथर गति से चलती रही. वह 2 सीट वाली तरफ बैठी थी और उस के साथ एक वृद्धा बैठी थी. वह वृद्धा बस में बैठते ही ऊंघने लगी थी, बीचबीच में उस की गरदन एक ओर लुढ़क जाती. वह अधखुली आंखों से बस का जायजा ले, फिर ऊंघने लगती. और वह यह राहत पा कर सुकून से बैठी थी कि सहयात्री उस से कोई प्रश्न नहीं कर रहा. स्कूल के कपड़ों में उस का वहां होना ही किसी की उत्सुकता का कारण हो सकता था.

वह खिड़की से बाहर देखने लगी थी. किनारे के पेड़ों की कतारें, उन के परे फैले खेत और खेतों के परे के पेड़ों को लगातार देखने पर आभास होता था जैसे कि उस पार और इस पार के पेड़ों का एक बड़ा घेरा हो जो बारबार घूम कर आगे आ रहा हो. उसे सदा से यह घेरा बहुत आकर्षक लगता था. मानो वही पेड़ फिर घूम कर सड़क किनारे आ जाते हैं.

खेतों के इस पार और उस पार पेड़ों की कतारें चलती बस से यों लगतीं मानो धरती पर वृक्षों का एक घेरा हो जो गोल घूमता जा रहा हो. उसे यह घेरा देखते रहना बहुत अच्छा लगता था. वह जब भी बस में बैठती, बस, शहर निकल जाने का बेसब्री से इंतजार करती ताकि उन गोल घूमते पेड़ों में खो सके. पेड़ों और खयालों में उलझे, अपने ही झंझावातों से थके मस्तिष्क को बस की मंथर गति ने जाने कब नींद की गोद में सरका दिया.

आंख खुली तो बस मथुरा पहुंच चुकी थी. बिना किसी घबराहट के उस ने अपनेआप को समेट कर बस से नीचे उतारा. एक पुलकभर आई थी मन में कि नानीमामी उसे अचानक आया देख क्या कहेंगी, नाराज होंगी या गले से लगा लेंगी, वह सोच ही न पा रही थी. रिकशेवाले को देने के पैसे नहीं थे उस के पास, पर नाना का नाम ही काफी था.

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इस शहर में कदम रखने भर से एक यकीन था शंकर विहार, पानी की टंकी के नजदीक, नानी के पास पहुंचते ही सब ठीक हो जाएगा. नानीनाना ने बहुत लाड़ से पाला थाउसे. बचपन में इस शहर की गलियों में खूब रोब से घूमा करती थी वह. नानाजी कद्दावर, जानापहचाना व बहुत इज्जतदार नाम थे. शहरभर में नाम था उन का. तभी आज बरसों बाद भी उन का नाम लेते ही रिकशेवाले ने बड़े अदब से उसे उस के गंतव्य पर पहुंचा दिया था.

रिकशेवाले से बाद में पैसे ले जाने को कह कर वह गली के मोड़ पर ही उतर गई थी और चुपचाप चलती हमेशा की भांति खुले दरवाजे से अंदर आंगन में दाखिल हो गई थी. शाम के 4 बज रहे थे शायद, मामी आंगन में बंधी रस्सी पर से सूखे कपड़े उतार रही थीं. उसे देखते ही कपड़े वहीं पर छोड़ कर उस की ओर बढ़ीं और उसे अपनी बांहों में कस कर भींच लिया और रोतेरोते हिचकियों के बीच बोलीं, ‘‘शुक्र है, तू सहीसलामत है.’’ वे क्यों रो रही हैं, उस की समझ में न आया था.

वह बरामदे की ओर बढ़ी तो मामी उस का हाथ पकड़ कर दूसरे कमरे में ले जाते हुए बोलीं, ‘‘जरा ठहर, वहां कुछ लोग बैठे हैं.’’ नानी को इशारे से बुलाया. उन्होंने भी उसे देखते ही गले लगा लिया, ‘‘तू ठीक तो है? रात कहां रही? स्कूल के कपड़ों में यों क्यों चली आई?’’ न जाने वो कितने सवाल पूछ रही थीं.

उसे बस सुनाई दे रहा था, समझ नहीं आ रहा था. शायद एकएक कर के पूछतीं तो वह कुछ कह भी पाती. आखिरकार मामा ने सब को शांत किया और उस से कपड़े बदलने को कहा. वह नहाधो कर ताजा महसूस कर रही थी. लेकिन एक अजीब सी घबराहट ने उसे घेर लिया था. घर में कुछ बदलाबदला था. कुछ था जो उसे संशय के घेरे में रखे था.

आज वह यहां एक अजनबी सा महसूस कर रही थी, मानो यह उस का घर नहीं था. ऐसा माहौल होगा, उस ने सोचा नहीं था. सब के सब कुछ घबरा भी रहे थे. वह नानी के कमरे में चली गई. पीछेपीछे मामी चाय और नाश्ता ले कर आ गईं. तीनों ने वहीं चाय पी. मामी और नानी शायद उस के कुछ कहने का इंतजार कर रहे थे और वह उन के कुछ पूछने का. कहा किसी ने कुछ भी नहीं.

मामी बरतन वापस रखने गईं तो वह नानी की गोद में सिर टिका कर लेट गई. सुकून और सुरक्षा के अनुभव से न जाने कब वह सो गई. आंख खुली तो बहुत सी आवाजें आ रही थीं. और उन के बीच से मां की आवाज, रुलाईभरी आवाज सुनाई दे रही थी. वह हड़बड़ा कर उठ बैठी, लगता था उस की सारी शक्ति किसी ने खींच ली हो. काश, वह यहां न आ कर किसी कब्रिस्तान में चली गई होती.

मां और मामा उस के व्यवहार और चले आने के कारणों का विश्लेषण कर रहे थे. उसे उठा देख मां जोरजोर से रोने लगी थी और उसे उठा कर भींच लिया था. तेल के लैंप की रोशनी के रहस्यमय वातावरण में सब उसे समझाने लगे थे, वापस जाने की मनुहार करने लगे थे. वह चीख कर कहना चाहती थी कि वापस नहीं जाएगी लेकिन उस के गले से आवाज नहीं निकल रही थी.

कस कर आंखें मींचे वह मन ही मन से मना रही थी कि काश, यह सपना हो. काश, तेल का लैंप बुझ जाए और वे सब घुप अंधेरे में विलीन हो जाएं. उस की आंख खुले तो कोई न हो. लेकिन वह जड़ हो गई थी और सब उसे समझा रहे थे. हां, सब उसे ही समझा रहे थे. वह तो वैसे भी अपनी बात समझा ही नहीं पाती थी किसी को. सब ने उस से कहा, उसे समझाया कि मां उस से बहुत प्यार करती है.

सब कहते रहे तो उस ने मान ही लिया. उस के पास विकल्प भी तो न था. वह मातापिता के साथ लौट आई. अब मां शब्दों में ज्यादा कुछ न कहती. बस, एक बार ही कहा था, हम तो डर गए हैं तुम से, तुम ने हमारा नाम खराब किया, सब कोई जान गए हैं. वह घर में कैद हो गई. कम से कम स्कूल में कोई नहीं जानता. प्रिंसिपल जानती थी, उसे एक दिन अपने कमरे में बुलाया था.

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अपने को दोस्त समझने को कहा था. वह न समझ सकी. दिन गुजरते रहे. बरस बीतते रहे. जिंदगी चलती रही. पढ़ाई पूरी हुई. नौकरी लगी. विवाह हुआ. पदोन्नति हुई. और आज जब उस के दफ्तर में काम करने वाली एक महिला कर्मचारी ने छुट्टी मांगते हुए बताया कि वह अपनी एक वर्ष की बिटिया को नानी के घर में छोड़ना चाहती है तो ये बरसों पुरानी बातें उस के मस्तिष्क को यों झिंझोड़ गईं जैसे कल की ही बातें हों.

आज एक बड़े ओहदे पर हो कर, बेहद संजीदा और संतुलित व्यवहार की छवि रखने वाली, वह अपना नियंत्रण खोती हुई उस पर बरस पड़ी थी, ‘‘तुम ऐसा नहीं कर सकती, सुवर्णा. यदि तुम्हारे पास बच्चे की देखभाल का समय नहीं था तो तुम्हें एक नन्हीं सी जान को इस दुनिया में लाने का अधिकार भी नहीं था. और जब तुम ने उसे जन्म दिया है तो तुम अपनी जिम्मेदारी से मुंह नहीं मोड़ सकती.

‘‘नानी, मामी, दादी, बूआ सब प्यार कर सकती हैं, बेइंतहा प्यार कर सकती हैं पर वे मां नहीं हो सकतीं. आज तुम उसे छोड़ कर आओगी, वह शायद न समझ पाए. वह धीरेधीरे अपनी परिस्थितियों से सामंजस्य बिठा लेगी. खुश भी रहेगी और सुखी भी. तुम भी आराम से रह सकोगी. लेकिन तुम दोनों के बीच जो दूरी होगी उस का न आज तुम अंदाजा लगा सकती हो और न कभी उसे कम कर सकोगी. ‘‘जिंदगी बहुत जटिल है, सुवर्णा, वह तुम्हें और तुम्हारी बच्ची को अपने पेंचों में बेइंतहा उलझा देगी. उसे अपने से अलग न करो.’’ वह बिना रुके बोलती जा रही थी और सुवर्णा हतप्रभ उसे देखती रह गई.

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पतझड़ में वसंत- भाग 2 : सुषमा और राधा के बनते बिगड़ते हालात

लेखिका- मृदुला नरुला

आज जब राधा को, सुषमा का मेल आया तो वह लाइब्रेरी में ही थी. ट्रस्ट के मैनेजर कई बार उस से कह चुके हैं ‘मैडम, हमें कोई लाइब्रेरियन बताएं. हमारे पास कोई लाइब्रेरियन नहीं है.’ वह सोच रही थी, ‘काश, आज सुषमा होती…’ ईमेल फिर से पढ़ कर सोचने लगी, ‘क्या जवाब दूं?’

‘प्रिय सुषमा

‘तेरी तरह मैं भी तुझे कभी नहीं भूली. यह दिल, घर का यह दरवाजा हमेशा ही तेरे स्वागत में खुला है. यह हिंदुस्तान है, यहां लोग किसी के घर पूछबता कर नहीं आते. फिर तू ने क्यों पूछा? शायद, विदेशी सभ्यता में ढल गई है. आएगी तो कान खींचूंगी, भला अपनी सभ्यता क्यों भूली.

‘तेरी अपनी राधा.’

एक दिन सुबहसुबह दरवाजे पर सुषमा को देख राधा चौंक पड़ी

‘‘अरे, यह कैसा सुखद संयोग.’’

‘‘लो, तूने ही तो मुझे याद दिलाया था कि यह हिंदुस्तान है. बस, मुंह उठाए चली आई. कोई शक?’’

‘‘नहीं, कोई शक नहीं,’’ राधा ने देखा, दोनों के मिलनसुख में सुषमा के नयन कटोरे छलछला रहे हैं. राधा भी अपने को रोक न सकी. दोनों सहेलियां बहुत देर तक अनकहे दुख से एकदूसरे को भिगोती रहीं. पतियों की बातें, उन की मृत्यु का दुखद आगमन, फिर बच्चे. बच्चों की बात पर सुषमा चुप हो गई. राधा को कुछ अजीब सा लगा.

सो, आगे कुछ भी न बोली. सोचा, थकी है शायद, जैटलैग उतरेगा, तभी सामान्य हो पाएगी. बच्चों की बातें फिर कभी.

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सुषमा को आए डेढ़ महीना गुजर गया था. पर चेहरे की उदासी न गई. हंसताखिलखिलाता चेहरा जैसे वह अमेरिका में ही छोड़ आई थी.

‘‘क्या तुझे यहां मेरे घर में कुछ परेशानी है?’’ राधा के मन में कहीं अपराधबोध भी था.

‘‘अरे नहीं, बस यों ही,’’ सुषमा बात को टालना चाहती थी.

एक दिन एनजीओ से लौटी तो देखा सुषमा फूटफूट कर रो रही थी.

उसे रोता देख राधा घबरा गई, ‘‘क्या हुआ? बताती क्यों नहीं. मुझ से तो कहती है, मैं तेरी सहेली हूं. फिर क्यों अंदर ही अंदर घुट रही है?’’

यह सुन कर सुषमा का रोना और तेज हो गया.

राधा ने उसे झकझोर कर कहा, ‘‘मैं जो समझ पा रही हूं वह शायद यह है कि कोई ऐसी बात तो जरूर है जो तू मुझ से छिपा रही है. वैसे, मैं होती कौन हूं यह सब पूछने वाली? मैं तेरी कलीग ही तो हूं. बहुत बदल गईर् है, तू.’’

‘‘राधा, नहीं ऐसा मत कह, तू ही तो है जिस से आज तक मैं ने हर बात साझा की है,’’ वह बताने लगी, ‘‘10 साल पहले हम ने इंडिया छोड़ने से पहले देहरादून में फ्लैट खरीदा था. यह सोच कर कि कभी इंडिया आएंगे तो ठाठ से रहेंगे. जाते समय फ्लैट की चाबी जेठ के बेटे रवि को दे गई थी. यहां आने से पहले मैं ने रवि से फोन पर कहा, साफसफाई करा कर रखना. मैं इंडिया आ रही हूं. काफी समय से मैं उस के संपर्क में हूं. कुछ दिनों पहले कहता था, घर तैयार नहीं है.

‘‘आज फोन किया तो बताया, ‘आंटी, वह मकान मैं ने बेच दिया है. जल्दी दूसरा खरीद दूंगा. मुझे एक महीने का समय दो.’ राधा, मैं तो कहीं की नहीं रही. पहले तो मेरे बच्चों ने दुत्कार दिया, अब यहां ये सब…’’

‘‘क्या? बेटों ने तुझे दुत्कारा? मुझे कुछ अंदाजा तो था कि आज डेढ़ महीने से अंदर ही अंदर किसी दर्द को ले कर तू तड़प रही है,’’ राधा ने मन की बात कह दी.

‘‘हां, आज मैं तुझे सारी कहानी सुनाऊंगी, 10 वर्षों पहले मेरे बेटों ने खूबसूरत साजिश रची थी. हम दोनों को इमोशनल ब्लैकमेल कर के, हमें अमेरिका आने का निमंत्रण दिया. हम ने निमंत्रण स्वीकार कर लिया तो कहा, ‘आप दोनों के नाम से हम एक होटल खोलना चाहते हैं. इस में आप का शेयर भी होगा.’ रमेश को लगा, बच्चों ने ठीक सोचा है. घर का पैसा घर में ही रहेगा. कुछ पैसे से हम ने देहरादून में फ्लैट खरीद लिया. जिस के बारे में बच्चों को आज भी जानकारी नहीं है. हां, कुछ पैसे हम ने यहां बैंक में भी छोड़ दिए थे.

‘‘अमेरिका पहुंच कर हम दोनों की खुशी दूनी हो गई जब पता लगा हम दोनों दादादादी बनने वाले हैं. बड़े बेटे विशाल के घर मेहमान आने वाला है. सोच कर मैं ने बहू को अपने गले की चेन देने का मन बना लिया था. बहू के घर बेटा हुआ. मेरा दिल बल्लियों उछल रहा था. बहू की सेवा में मैं दिनरात लगी रहती थी.

‘‘बच्चा 6 महीने का हो गया तो बहू औफिस जाने लगी. दिनभर बच्चा मेरे पास रहता, रात को बहू के आने पर मैं रसोई में घुस जाती. पर अब तक मैं थक कर चूर हो चुकी होती थी. बच्चा 2 साल का हो गया तो नर्सरी जाने लगा. मैं ने राहत की सांस ली. तभी एक दिन छोटी बहू का फोन आया, ‘मांजी, आप फिर से दादी बनने वाली हैं. मैं आप को आ कर ले जाऊंगी.’

‘‘ठीक है, बहू की बात सुन कर मन तो खुश हुआ पर याद आया, कुछ दिनों पहले इसी के पति (मेरे बेटे) ने बताया था. ‘इंडिया से मेरी सास आई हैं. कुछ महीने रहेंगी.’ क्या बहू अपनी मां को प्रसव तक रोक नहीं सकती थी?

‘‘पहली बार लगा, मुझे इन लोगों ने फालतू समझा है? चुप रही. छोटे के घर बेटी ने जन्म लिया. मैं पिछला सब भूल कर फिर अपनी पुरानी फौर्म में आ गई. सोचने लगी, मेरे पास और काम ही क्या है, ये तो अपने बच्चे हैं. मैं जब नौकरी करती थी, तब मेरी सास बच्चों को संभालती थीं. मैं कुछ अनोखा तो कर नहीं रही. हां, यह जरूर था अब मैं पहले की अपेक्षा थकने लगी थी. मेरी थकान से जिसे सब से ज्यादा तकलीफ होती थी, मेरे पति थे. वे कहते, ‘क्यों सारा दिन खटती हो. बिलकुल नौकरमाई बन गई हो. छोड़ोे सब.’ मैं जानती थी. मेरी तकलीफ पति के सिवा कोई नहीं समझता.

‘‘एक दिन रमेश को दिल का दौरा पड़ा. बहुत कोशिशों के बावजूद उन्हें बचाया न जा सका. मेरी तो जैसे दुनिया ही उजड़ गईर् थी. दिनरात अकेले पड़ी रोती रहती. कभी कोई बेटा या बहू पूछने भी न आते. कभीकभार छोटी बिटिया मेरे आंसू पोंछ कर तोतली भाषा में पूछ लेती, ‘दादी मम्मा, आप क्यों रो रही हो?’ मन करता खूब चिल्लाचिल्ला कर रोऊं. कितनी दुखी और बेबस हूं मैं. इन सब से तो यह 5 वर्ष की बिटिया भली है जो मेरे आंसू देख कर बेचैन हो जाती है. राधा, मैं बिलकुल टूट चुकी थी. तब मुझे यहां की बहुत याद आई. जी करता पंख लगा कर उड़ जाऊं, इंडिया पहुंच जाऊं.

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‘‘एक रोज बीच वाली बहू ने फोन किया, ‘मम्मी, अब आप मेरे पास रहेंगी.’

‘‘‘नहीं बेटा, मुझे माफ करो. अब मैं तुम लोगों की सेवा न कर पाऊंगी.’

‘‘‘क्यों?’

‘‘मैं रुलाई रोक न पाई. उधर से बहू ने फोन पलट दिया. मैं रोती रही. उस दिन मुझे यकीन हो गया कि इन बच्चों ने मुझे आयानौकर से ज्यादा कुछ भी नहीं समझा. ये बच्चे मेरे दुख को क्यों नहीं समझते? पति को गए सिर्फ 6 महीने हुए हैं. मुझे तो दोशब्द संवेदना के चाहिए. ये फोन पटक कर अपना गुस्सा दिखा रहे हैं.

‘‘राधा, इस घटना के बाद सब के चेहरे का नकाब उतरने लगा. मुझे ले कर बहूबेटों में खुसरफुसुर होने लगी. परोक्ष से कई बार सुना. ‘मम्मी, हम तीनों के पास 4-4 महीने रहेंगी.’ एक बहू बोली, ‘न, न, न.’ दूसरी ने कहा, ‘तो क्या करें?’

‘‘राधा, बस, मैं ने समझ लिया था कि यहां रुकना ठीक नहीं हैं. किंतु जाऊंगी कहां? कोई न कोई रास्ता तो निकालना होगा.

‘‘एक दिन बड़े बेटे विशाल ने कहा, ‘मम्मी, हम नया हौस्पिटल खोल रहे हैं. हमें कुछ पैसा चाहिए. पापा के जो 20 लाख रुपए जमा हैं, उन में से 15 लाख रुपए दे दो.’

‘‘‘सोचूंगी.’

‘‘मैं ने सोच रखा था, इन्हें तो अब एक कौड़ी न दूंगी. एक दिन छोटे बेटे विभव ने कहा, ‘मम्मी, एक  और बात, हम लोगों का छोटे फ्लैट में शिफ्ट होने का इरादा है. ऐसे में हम तीनों के साथ आप रह न सकोगी. सो, 6 महीने के लिए आप ओल्डएज होम में रह लो. नया घर बनते ही हम आप को ले आएंगे.’

‘‘मैं निशब्द, लगा, सारे शरीर का खून निचुड़ गया है. मैं ने हिम्मत दिखाई. मन के भीतर जो उमड़ रहा था, सब कह देना चाहती थी. सो, ‘ठीक है बेटा, तुम सब ने मिल कर बढि़या खेल रचा है. पहले हमें इमोशनल ब्लैकमेल कर के बच्चे पालने के लिए यहां बुला लिया. 10 वर्षों तक तुम हम से काम लेते रहे. जब मैं ने मानसिक व शारीरिक असमर्थता दिखाई, तो ओल्डएज होम का रास्ता दिखा दिया. अरे, गोरों के साथ रह कर तुम्हारे तो खून भी सफेद हो गए हैं. लानत है मुझ पर, मेरी कोख पर, जिस ने ऐसी निकम्मी औलादें पैदा कीं.’

‘‘‘कहां गए वे संस्कार, वे भारतीयों के जीवन मूल्य? थू है तुम पर, तुम्हारी शिक्षा पर.’ मेरी तीखी आवाज सुन कर बेटे इधरउधर हो गए थे. बहुएं तो पहले ही खिसक गई थीं. मैं बड़ी देर तक अकेली रोती रही. कमरे से बाहर आ कर किसी ने संवेदना के दोशब्द भी न कहे.

‘‘राधा, विश्वास नहीं होता था ये हमारे बेटे हैं. मैं ने तय कर लिया था, मैं इंडिया वापस जाऊंगी, यहां रही तो घुटघुट कर मर जाऊंगी. पर सवाल यह था, जाऊंगी कहां, रहूंगी कहां? मन अतीत के पन्ने पलटने लगा.

‘‘मन की लिस्ट में सब से ऊपर तेरा नाम था. इसीलिए मेल डाला था, ‘इंडिया पहुंच कर क्या मैं तेरे पास रुक सकती हूं? शुक्र है, अंतिम समय, अपनी धरती तो नसीब हो गई. नहीं तो किसी ओल्डएज होम की दीवारों से टक्कर मारमार कर मर जाती.’’

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पापा जल्दी आ जाना- भाग 1: क्या पापा से निकी की मुलाकात हो पाई?

‘‘पापा, कब तक आओगे?’’ मेरी 6 साल की बेटी निकिता ने बड़े भरे मन से अपने पापा से लिपटते हुए पूछा.

‘‘जल्दी आ जाऊंगा बेटा…बहुत जल्दी. मेरी अच्छी गुडि़या, तुम मम्मी को तंग बिलकुल नहीं करना,’’ संदीप ने निकिता को बांहों में भर कर उस के चेहरे पर घिर आई लटों को पीछे धकेलते हुए कहा, ‘‘अच्छा, क्या लाऊं तुम्हारे लिए? बार्बी स्टेफी, शैली, लाफिंग क्राइंग…कौन सी गुडि़या,’’ कहतेकहते उन्होंने निकिता को गोद में उठाया.

संदीप की फ्लाइट का समय हो रहा था और नीचे टैक्सी उन का इंतजार कर रही थी. निकिता उन की गोद से उतर कर बड़े बेमन से पास खड़ी हो गई, ‘‘पापा, स्टेफी ले आना,’’ निकिता ने रुंधे स्वर में धीरे से कहा.

उस की ऐसी हालत देख कर मैं भी भावुक हो गई. मुझे रोना उस के पापा से बिछुड़ने का नहीं, बल्कि अपना बीता बचपन और अपने पापा के साथ बिताए चंद लम्हों के लिए आ रहा था. मैं भी अपने पापा से बिछुड़ते हुए ऐसा ही कहा करती थी.

संदीप ने अपना सूटकेस उठाया और चले गए. टैक्सी पर बैठते ही संदीप ने हाथ उठा कर निकिता को बाय किया. वह अचानक बिफर पड़ी और धीरे से बोली, ‘‘स्टेफी न भी मिले तो कोई बात नहीं पर पापा, आप जल्दी आ जाना,’’ न जाने अपने मन पर कितने पत्थर रख कर उस ने याचना की होगी. मैं उस पल को सोचते हुए रो पड़ी. उस का यह एकएक क्षण और बोल मेरे बचपन से कितना मेल खाते थे.

मैं भी अपने पापा को बहुत प्यार करती थी. वह जब भी मुझ से कुछ दिनों के लिए बिछुड़ते, मैं घायल हिरनी की तरह इधरउधर सारे घर में चक्कर लगाती. मम्मी मेरी भावनाओं को समझ कर भी नहीं समझना चाहती थीं. पापा के बिना सबकुछ थम सा जाता था.

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बरामदे से कमरे में आते ही निकिता जोरजोर से रोने लगी और पापा के साथ जाने की जिद करने लगी. मैं भी अपनी मां की तरह जोर का तमाचा मार कर निकिता को चुप करा सकती थी क्योंकि मैं बचपन में जब भी ऐसी जिद करती तो मम्मी जोर से तमाचा मार कर कहतीं, ‘मैं मर गई हूं क्या, जो पापा के साथ जाने की रट लगाए बैठी हो. पापा नहीं होंगे तो क्या कोई काम नहीं होगा, खाना नहीं मिलेगा.’

किंतु मैं जानती थी कि पापा के बिना जीने का क्या महत्त्व होता है. इसलिए मैं ने कस कर अपनी बेटी को अंक में भींच लिया और उस के साथ बेडरूम में आ गई. रोतेरोते वह तो सो गई पर मेरा रोना जैसे गले में ही अटक कर रह गया. मैं किस के सामने रोऊं, मुझे अब कौन बहलानेफुसलाने वाला है.

मेरे बचपन का सूर्यास्त तो सूर्योदय से पहले ही हो चुका था. उस को थपकियां देतेदेते मैं भी उस के साथ बिस्तर में लेट गई. मैं अपनी यादों से बचना चाहती थी. आज फिर पापा की धुंधली यादों के तार मेरे अतीत की स्मृतियों से जुड़ गए.

पिछले 15 वर्षों से ऐसा कोई दिन नहीं गया था जिस दिन मैं ने पापा को याद न किया हो. वह मेरे वजूद के निर्माता भी थे और मेरी यादों का सहारा भी. उन की गोद में पलीबढ़ी, प्यार में नहाई, उन की ठंडीमीठी छांव के नीचे खुद को कितना सुरक्षित महसूस करती थी. मुझ से आज कोई जीवन की तमाम सुखसुविधाओं में अपनी इच्छा से कोई एक वस्तु चुनने का अवसर दे तो मैं अपने पापा को ही चुनूं. न जाने किन हालात में होंगे बेचारे, पता नहीं, हैं भी या…

7 वर्ष पहले अपनी विदाई पर पापा की कितनी कमी महसूस हो रही थी, यह मुझे ही पता है. लोग समझते थे कि मैं मम्मी से बिछुड़ने के गम में रो रही हूं पर अपने उन आंसुओं का रहस्य किस को बताती जो केवल पापा की याद में ही थे. मम्मी के सामने तो पापा के बारे में कुछ भी बोलने पर पाबंदियां थीं. मेरी उदासी का कारण किसी की समझ में नहीं आ सकता था. काश, कहीं से पापा आ जाएं और मुझे कस कर गले लगा लें. किंतु ऐसा केवल फिल्मों में होता है, वास्तविक दुनिया में नहीं.

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उन का भोला, मायूस और बेबस चेहरा आज भी मेरे दिमाग में जैसा का तैसा समाया हुआ था. जब मैं ने उन्हें आखिरी बार कोर्ट में देखा था. मैं पापापापा चिल्लाती रह गई मगर मेरी पुकार सुनने वाला वहां कोई नहीं था. मुझ से किसी ने पूछा तक नहीं कि मैं क्या चाहती हूं? किस के पास रहना चाहती हूं? शायद मुझे यह अधिकार ही नहीं था कि अपनी बात कह सकूं.

मम्मी मुझे जबरदस्ती वहां से कार में बिठा कर ले गईं. मैं पिछले शीशे से पापा को देखती रही, वह एकदम अकेले पार्किंग के पास नीम के पेड़ का सहारा लिए मुझे बेबसी से देखते रहे थे. उन की आंखों में लाचारी के आंसू थे.

मेरे दिल का वह कोना आज भी खाली पड़ा है जहां कभी पापा की तसवीर टंगा करती थी. न जाने क्यों मैं पथराई आंखों से आज भी उन से मिलने की अधूरी सी उम्मीद लगाए बैठी हूं. पापा से बिछुड़ते ही निकिता के दिल पर पड़े घाव फिर से ताजा हो गए.

जब से मैं ने होश संभाला, पापा को उदास और मायूस ही पाया था. जब भी वह आफिस से आते मैं सारे काम छोड़ कर उन से लिपट जाती. वह मुझे गोदी में उठा कर घुमाने ले जाते. वह अपना दुख छिपाने के लिए मुझ से बात करते, जिसे मैं कभी समझ ही न सकी. उन के साथ मुझे एक सुखद अनुभूति का एहसास होता था तथा मेरी मुसकराहट से उन की आंखों की चमक दोगुनी हो जाती. जब तक मैं उन के दिल का दर्द समझती, बहुत देर हो चुकी थी.

मम्मी स्वभाव से ही गरम एवं तीखी थीं. दोनों की बातें होतीं तो मम्मी का स्वर जरूरत से ज्यादा तेज हो जाता और पापा का धीमा होतेहोते शांत हो जाता. फिर दोनों अलगअलग कमरों में चले जाते. सुबह तैयार हो कर मैं पापा के साथ बस स्टाप तक जाना चाहती थी पर मम्मी मुझे घसीटते हुए ले जातीं. मैं पापा को याचना भरी नजरों से देखती तो वह धीमे से हाथ हिला पाते, जबरन ओढ़ी हुई मुसकान के साथ.

मैं जब भी स्कूल से आती मम्मी अपनी सहेलियों के साथ ताश और किटी पार्टी में व्यस्त होतीं और कभी व्यस्त न होतीं तो टेलीफोन पर बात करने में लगी रहतीं. एक बार मैं होमवर्क करते हुए कुछ पूछने के लिए मम्मी के कमरे में चली गई थी तो मुझे देखते ही वह बरस पड़ीं और दरवाजे पर दस्तक दे कर आने की हिदायत दे डाली. अपने ही घर में मैं पराई हो कर रह गई थी.

एक दिन स्कूल से आई तो देखा मम्मी किसी अंकल से ड्राइंगरूम में बैठी हंसहंस कर बातें कर रही थीं. मेरे आते ही वे दोनों खामोश हो गए. मुझे बहुत अटपटा सा लगा. मैं अपने कमरे में जाने लगी तो मम्मी ने जोर से कहा, ‘निकी, कहां जा रही हो. हैलो कहो अंकल को. चाचाजी हैं तुम्हारे.’

मैं ने धीरे से हैलो कहा और अपने कमरे में चली गई. मैं ने उन को इस से पहले कभी नहीं देखा था. थोड़ी देर में मम्मी ने मुझे बुलाया.

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‘निकी, जल्दी से फे्रश हो कर आओ. अंकल खाने पर इंतजार कर रहे हैं.’

मैं टेबल पर आ गई. मुझे देखते ही मम्मी बोलीं, ‘निकी, कपड़े कौन बदलेगा?’

‘ममा, आया किचन से नहीं आई फिर मुझे पता नहीं कौन से…’

‘तुम कपड़े खुद नहीं बदल सकतीं क्या. अब तुम बड़ी हो गई हो. अपना काम खुद करना सीखो,’ मेरी समझ में नहीं आया कि एक दिन में मैं बड़ी कैसे हो गई हूं.

‘चलो, अब खाना खा लो.’

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दूरी- भाग 2 : समाज और परस्थितियों से क्यों अनजान थी वह

लेखक- भावना सक्सेना

वह समझ नहीं पाती थी कि मां उस से इतनी नफरत क्यों करती है. वह जो भी करती है, मां के सामने गलत क्यों हो जाता है. उस ने तो सोचा था मां को आश्चर्यचकित करेगी. दरअसल, उस के स्कूल में दौड़ प्रतियोगिता हुई थी और वह प्रथम आई थी. अगले दिन एक जलसे में प्रमाणपत्र और मैडल मिलने वाले थे. बड़ी मुश्किल से यह बात अपने तक रखी थी.

सोचा था कि प्रमाणपत्र और मैडल ला कर मां के हाथों में रखेगी तो मां बहुत खुश हो जाएगी. उसे सीने से लगा लेगी. लेकिन ऐसा हो न पाया था. मां की पड़ोस की सहेली नीरा आंटी की बेटी ऋतु उसी की कक्षा में पढ़ती थी. वह भूल गई थी कि उस रोज वीरवार था. हर वीरवार को उन की कालोनी के बाहर वीर बाजार लगता था और मां नीरा आंटी के साथ वीर बाजार जाया करती थीं.

शाम को जब मां नीरा आंटी को बुलाने उन के घर गई तो ऋतु ने उन्हें सब बता दिया था. मां तमतमाई हुई वापस आई थीं और आते ही उस के चेहरे पर एक तमाचा रसीद किया था, ‘अब हमें तुम्हारी बातें बाहर से पता चलेंगी?’

‘मां, मैं कल बताने वाली थी मैडल ला कर.’

‘क्यों, आज क्यों नहीं बताया, जाने क्याक्या छिपा कर रखती है,’ बड़ी हिकारत से मां ने कहा था.

वह अपनी बात तो मां को न समझा सकी थी लेकिन 13 बरस के किशोर मन में एक प्रश्न बारबार उठ रहा था- मां मेरे प्रथम आने पर खुश क्यों नहीं हुई, क्या सरप्राइज देना कोई बुरी बात है? छोटा रवि तो सांत्वना पुरस्कार लाया था तब भी मां ने उसे बहुत प्यार किया था. फिर अगले दिन तो मैडल ला कर भी उस ने कुछ नहीं कहा था. और कल तो हद ही हो गई थी.

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स्कूल में रसायन विज्ञान की कक्षा में छात्रछात्राएं प्रैक्टिकल पूरा नहीं कर सके थे तो अध्यापिका ने कहा था, ‘अपनाअपना लवण (सौल्ट) संभाल कर रख लेना, कल यही प्रयोग दोबारा दोहराएंगे.’ सफेद पाउडर की वह पुडि़या बस्ते के आगे की जेब में संभाल कर रख ली थी उस ने. कल फिर अलगअलग द्रव्यों में मिला कर प्रतिक्रिया के अनुसार उस लवण का नाम खोजना था और विभिन्न द्रव्यों के साथ उस की प्रतिक्रिया को विस्तार से लिखना था. विज्ञान के ये प्रयोग उसे बड़े रोचक लगते थे.

स्कूल में वापस पहुंच कर, खाना खा कर, होमवर्क किया था और रोजाना की तरह, ऋतु के बुलाने पर दीदी के साथ शाम को पार्क की सैर करने चली गई थी. वापस लौटी तो मां क्रोध से तमतमाई उस के बस्ते के पास खड़ी थी. दोनों छोटे भाई उसे अजीब से देख रहे थे. मां को देख कर और मां के हाथ में लवण की पुडि़या देख कर वह जड़ हो गई थी, और उस के शब्द सुन कर पत्थर- ‘यह जहर कहां से लाई हो? खा कर हम सब को जेल भेजना चाहती हो?’ ‘मां, वह…वह कैमिस्ट्री प्रैक्टिकल का सौल्ट है.’ वह नहीं समझ पाई कि मां को क्यों लगा कि वह जहर है, और है भी तो वह उसे क्यों खाएगी. उस ने कभी मरने की सोची न थी. उसे समझ न आया कि सच के अलावा और क्या कहे जिस से मां को उस पर विश्वास हो जाए. ‘मां…’ उस ने कुछ कहना चाहा था लेकिन मां चिल्लाए जा रही थी, ‘घर पर क्यों लाई हो?’ मां की फुफकार के आगे उस की बोलती फिर बंद हो गई थी.

वह फिर नहीं समझा सकी थी, वह कभी भी अपना पक्ष सामने नहीं रख पाती. मां उस की बात सुनती क्यों नहीं, फिर एक प्रश्न परेशान करने लगा था- मां उस के बस्ते की तलाशी क्यों ले रही थी, क्या रोज ऐसा करती हैं. उसे लगा छोटे भाइयों के आगे उसे निर्वस्त्र कर दिया गया हो. मां उस पर बिलकुल विश्वास नहीं करती. वह बचपन से नानी के घर रही, तो उस की क्या गलती है, अपने मन से तो नहीं गई थी.

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13 बरस की होने पर उसे यह तो समझ आता है कि घरेलू परिस्थितियों के कारण मां का नौकरी करना जरूरी रहा होगा लेकिन वह यह नहीं समझ पाती कि 4 भाईबहनों में से नानी के घर में सिर्फ उसे भेजना ही जरूरी क्यों हो गया था. जिस तरह मां ने परिवार को आर्थिक संबल प्रदान किया, वह उस पर गर्व करती है.

पुराने स्कूल में वह सब को बड़े गर्व से बताती थी कि उस की मां एक कामकाजी महिला है. लेकिन सिर्फ उस की बारी में उसे अलग करना नौकरी की कौन सी जरूरत थी, वह नहीं समझ पाती थी और यदि उस के लालनपालन का इतना बड़ा प्रश्न था तो मां इतनी जल्दी एक और बेबी क्यों लाई थी और लाई भी तो उसे भी नानी के पास क्यों नहीं छोड़ा. काश, मां उसे अपने साथ ले जाती और बेबी को नानी के पास छोड़ जाती. शायद नानी का कहना सही था, बेबी तो लड़का था, मां उसे ही अपने पास रखेगी, भोला मन नहीं जान पाता था कि लड़का होने में क्या खास बात है.

वह चाहती थी नानी कहें कि इसे ले जा, अब यह अपना सब काम कर लेती है, बेबी को यहां छोड़ दे, पर न नानी ने कहा और न मां ने सोचा. छोटा बेबी मां के पास रहा और वह नानी के पास जब तक कि नानी के गांव में आगे की पढ़ाई का साधन न रहा. पिता हमेशा से उसे अच्छे स्कूल में भेजना चाहते थे और भेजा भी था.

वह 5 बरस की थी, जब पापा ने उसे दिल्ली लाने की बात कही थी. किंतु नानानानी का कहना था कि वह उन के घर की रौनक है, उस के बिना उन का दिल न लगेगा. मामामामी भी उसे बहुत लाड़ करते थे. मामी के तब तक कोई संतान न थी. उन के विवाह को कई वर्ष हो गए थे. मामी की ममता का वास्ता दे कर नानी ने उसे वहीं रोक लिया था. पापा उसे वहां नए खुले कौन्वैंट स्कूल में दाखिल करा आए थे. उसे कोई तकलीफ न थी. लाड़प्यार की तो इफरात थी. उसे किसी चीज के लिए मुंह खोलना न पड़ता था. लेकिन फिर भी वह दिन पर दिन संजीदा होती जा रही थी. एक अजीब सा खिंचाव मां और मामी के बीच अनुभव करती थी.

ज्योंज्यों बड़ी हो रही थी, मां से दूर होती जा रही थी. मां के आने या उस के दिल्ली जाने पर भी वह अपने दूसरे भाईबहनों के समान मां की गोद में सिर नहीं रख पाती थी, हठ नहीं कर पाती थी. मां तक हर राह नानी से गुजर कर जाती थी. गरमी की छुट्टियों में मांपापा उसे दिल्ली आने को कहते थे. वह नानी से साथ चलने की जिद करती. नानी कुछ दिन रह कर लौट आती और फिर सबकुछ असहज हो जाता. उस ने ‘दो कलियां’ फिल्म देखी थी. उस का गीत, ‘मैं ने मां को देखा है, मां का प्यार नहीं देखा…’ उस के जेहन में गूंजता रहता था. नानी के जाने के बाद वह बालकनी के कोने में खड़ी हो कर गुनगुनाती, ‘चाहे मेरी जान जाए चाहे मेरा दिल जाए नानी मुझे मिल जाए.’

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…न जाने कब आंख लग गई थी, भोर की किरण फूटते ही पूनम ने उसे जगा दिया था. शायद, अजनबी से जल्दी से जल्दी छुटकारा पाना चाहती थी. ब्रैड को तवे पर सेंक, उस पर मक्खन लगा कर चाय के साथ परोस दिया था और 4 स्लाइस ब्रैड साथ ले जाने के लिए ब्रैड के कागज में लपेट कर, उसे पकड़ा दिए थे. ‘‘न जाने कब घर पहुंचेगी, रास्ते में खा लेना.’’ पूनम ने एक छोटा सा थैला और पानी की बोतल भी उस के लिए सहेज दी थी. उस की कृतज्ञतापूर्ण दृष्टि नम हो आई थी, अजनबी कितने दयालु हो जाते हैं और अपने कितने निष्ठुर.

जागते हुए कसबे में सड़क बुहारने की आवाजों और दिन की तैयारी के छिटपुट संकेतों के बीच एक रिकशा फिर उन्हें बसअड्डे तक ले आया था. उस अजनबी, जिस का वह अभी तक नाम भी नहीं जानती थी, ने मथुरा की टिकट ले, उसे बस में बिठा दिया था. कृतज्ञ व नम आंखों से उसे देखती वह बोली थी, ‘‘शुक्रिया, क्या आप का नाम जान सकती हूं?’’ मुसकान के साथ उत्तर मिला था, ‘‘भाई ही कह लो.’’

‘‘आप के पैसे?’’

‘‘लौटाने की जरूरत नहीं है, कभी किसी की मदद कर देना.’’

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दिशा की दृष्टिभ्रम- भाग 1 : क्या कभी खत्म हुई दिशा के सच्चे प्यार की तलाश

लेखक- राम महेंद्र राय

खुशी से दिशा के पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे थे. फ्रैंड्स से बात करते हुए वह चिडि़यों की तरह चहक रही थी. उस की आवाज की खनक बता रही थी कि बहुत खुश है. यह स्वाभाविक भी था. मंगनी होना उस के लिए छोटी बात नहीं थी.

मंगनी की रस्म के लिए शहर के नामचीन होटल को चुना गया था. रात के 9 बज गए थे. सारे मेहमान भी आ चुके थे. फ्रैंड्स भी आ गई थीं. लेकिन मानस और उस के घर वाले अभी तक नहीं आए थे.

देर होते देख उस के पापा घबरा रहे थे. उन्होंने दिशा को मानस से पूछने के लिए कहा तो उस ने तुरंत उसे फोन लगाया. मानस ने बताया कि वे लोग ट्रैफिक में फंस गए हैं. 20-25 मिनट में पहुंच जाएंगे.

दिशा ने राहत की सांस ली. मानस के आने में देर होते देख न जाने क्यों उसे डर सा लगने लगा था. वह सोच रही थी कि कहीं उसे उस के बारे में कोई नई जानकारी तो नहीं मिल गई. लेकिन उस ने अपनी इस धारणा को यह सोच कर पीछे धकेल दिया कि वह आ तो रहा है. कोई बात होती तो टै्रफिक में फंसा होने की बात क्यों बताता.

अचानक उस के मोबाइल की घंटी बज उठी. उस ने ‘हैलो’ कहा तो परिमल की आवाज आई, ‘‘2 दिन पहले ही जेल से रिहा हुआ हूं. तुम्हारा पता किया तो जानकारी मिली कि आज मानस से तुम्हारी मंगनी होने जा रही है. मैं एक बार तुम्हें देखना और तुम से बात करना चाहता हूं. होटल के बाहर खड़ा हूं. 5 मिनट के लिए आ जाओ, नहीं तो मैं अंदर आ जाऊंगा.’’

दिशा घबरा गई. जानती थी कि परिमल अंदर आ गया तो उस की फजीहत हो जाएगी. मानस को सच्चाई का पता चल गया तो वह उस से मंगनी नहीं करेगा.

उसे परिमल से मिल लेने में ही भलाई नजर आई. लोगों की नजर बचा कर वह होटल से बाहर चली गई.

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गेट से थोड़ी दूर आगे परिमल खड़ा था. उस के पास जा कर दिशा गुस्से में बोली, ‘‘क्यों परेशान कर रहे हो? बता चुकी हूं कि मैं तुम से किसी भी हाल में शादी नहीं कर सकती.’’

‘‘तुम ने मेरी जिंदगी बरबाद की है, फिर भी मैं तुम्हें परेशान नहीं कर सकता. मैं तो तुम से सिर्फ यह जानना चाहता हूं कि मेरी दुर्दशा करने के बाद तुम्हें कभी पछतावा हुआ या नहीं?’’

दिशा ने रूखे स्वर में जवाब दिया, ‘‘कैसा पछतावा? जो कुछ भी हुआ उस में सारा दोष तुम्हारा था. मैं ने तो पहले ही आगाह किया था कि मुझे बदनाम मत करो. आज के बाद अगर तुम ने मुझे फिर कभी बदनाम किया तो याद रखना पहली बार 3 साल के लिए जेल गए थे. अब उम्र भर के लिए जाओगे.’’

अपनी बात कह कर दिशा बिना परिमल का जवाब सुने होटल के अंदर आ गई. उस की फ्रैंडस उसे ढूंढ रही थीं. एक ने पूछ लिया, ‘‘कहां चली गई थी? तेरे पापा पूछ रहे थे.’’स्थिति संभालने के लिए दिशा ने बाथरूम जाने का बहाना कर दिया. पापा को भी बता दिया. फिर राहत की सांस ले कर सोफे पर बैठ गई.

उसे विश्वास था कि परिमल अब कभी परेशान नहीं करेगा और वह मानस के साथ आराम की जिंदगी गुजारेगी. परिमल से दिशा की पहली मुलाकात कालेज में उस समय हुई थी, जब वह बीटेक कर रही थी. परिमल भी उसी कालेज से बीटेक कर रहा था. वह उस की पर्सनैल्टी पर मुग्ध हुए बिना नहीं रह सकी थी. लंबी चौड़ी कद काठी, आकर्षक चेहरा, गोरा रंग, स्मार्ट और हैंडसम.

मन ही मन उस ने ठान लिया था कि एक न एक दिन उसे पा कर रहेगी, चाहे कालेज की कितनी भी लड़कियां उस के पीछे पड़ी हों. दरअसल, उसे पता चला था कि कई लड़कियां उस पर जान न्योछावर करती हैं. यह अलग बात थी कि उस ने किसी का भी प्रेम प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया था.

प्यार मोहब्बत के चक्कर में वह अपनी पढ़ाई खराब नहीं करना चाहता था. पढ़ाई में वह शुरू से ही मेधावी था. एक ही कालेज में पढ़ने के कारण दिशा उस से पढ़ाईलिखाई की ही बात करती थी. कई बार वह कैंटीन में उस के साथ चाय भी पी चुकी थी.

एक दिन कैंटीन में परिमल के साथ चाय पीते हुए उस ने कहा, ‘‘इन दिनों बहुत परेशान हूं. मेरी मदद करोगे तुम्हारा बड़ा अहसान होगा.’’

‘‘परेशानी क्या है?’’ परिमल ने पूछा. ‘‘कहते हुए शर्म आ रही है पर समाधान तुम्हें ही करना है. इसलिए परेशानी तो बतानी ही पडे़गी. बात यह है कि पिछले 4-5 दिनों से तुम रातों में मेरे सपनों में आते हो और सारी रात जगाए रहते हो.

‘‘दिन में भी मेरे दिलोंदिमाग में तुम ही रहते हो. शायद इसे ही प्यार कहते हैं. सच कहती हूं परिमल तुम मेरा प्यार स्वीकार नहीं करोगे तो मैं जिंदा लाश बन कर रह जाऊंगी.’’

परिमल ने तुरंत जवाब नहीं दिया. उस ने कुछ सोचा फिर कहा, ‘‘यह तो पता नहीं कि तुम मुझे कितना चाहती हो, पर यह सच है कि तुम मुझे बहुत अच्छी लगती हो.’’

दिशा के चेहरे की मुसकान का सकारात्मक अर्थ निकालते हुए उस ने आगे कहा, ‘‘मैं भी तुम्हारा प्यार पाना चाहता हूं. लेकिन मैं ने इस डर से कदम आगे नहीं बढ़ाए कि तुम अमीर घराने की हो. तुम्हारे पापा रिटायर जज हैं. भाई पुलिस में बड़े अधिकारी हैं. धनदौलत की कमी नहीं है.’’

दिशा उस की बातों को बडे़ मनोयोग से सुन रही थी. परिमल ने अपनी बात जारी रखी, ‘‘मैं गरीब परिवार से हूं. पिता मामूली शिक्षक हैं. ऊपर से उन्हें 2 जवान बेटियों की शादी भी करनी है. यह  सच है कि तुम अप्सरा सी सुंदर हो. कोई भी अमीर युवक तुम से शादी कर के अपने आप को भाग्यशाली समझेगा. तुम्हारे घर वाले तुम्हारा हाथ भला मेरे हाथ में क्यों देंगे?’’

दिशा तुरंत बोली, ‘‘इतनी सी बात के लिए डर रहे हो? मुझ पर भरोसा रखो. हमारा मिलन हो कर रहेगा. हमें एक होने से दुनिया की कोई ताकत नहीं रोक सकती. तुम केवल मेरा प्यार स्वीकार करो, बाकी सब कुछ मेरे ऊपर छोड़ दो.’’

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दिशा ने समझाया तो परिमल ने उस का प्यार स्वीकार कर लिया. उस के बाद दोनों को जब भी मौका मिलता कभी पार्क में, कभी मौल में तो कभी किसी रेस्तरां में जा कर घंटों प्यारमोहब्बत की बातें करते.

सारा खर्च दिशा की करती थी. परिमल खर्च करता भी तो कहां से? उसे सिर्फ 50 रुपए प्रतिदिन पौकेट मनी मिलती थी. उसी में घर से कालेज आनेजाने का किराया भी शामिल था.

2 महीने में ही दोनों का प्यार इतना अधिक गहरा हो गया कि एकदूसरे में समा जाने के लिए व्याकुल हो गए. अंतत: एक दिन दिशा परिमल को अपनी फ्रैंड के फ्लैट पर ले गई.

दिशा का प्यार पा कर परिमल उस का दीवाना हो गया. दिनरात लट्टू की तरह उस के आगेपीछे घूमने लगा. नतीजा यह हुआ कि पढ़ाई से मन हट गया और उसे दिशा के साथ उस की फ्रैंड के फ्लैट पर जाना अच्छा लगने लगा.

सहेली के मम्मीपापा दिन में औफिस में रहते थे. इसलिए उन्हें परेशानी नहीं होती थी. फ्रैंड तो राजदार थी ही.

इस तरह दोनों एक साल तक मौजमस्ती करते रहे. फिर अचानक दिशा को लगा कि परिमल के साथ ज्यादा दिनों तक रिश्ता बनाए रखने में खतरा है. वजह यह कि वह उस से शादी की उम्मीद में था.

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दिशा की दृष्टिभ्रम: क्या कभी खत्म हुई दिशा के सच्चे प्यार की तलाश

अपनी ही दुश्मन- भाग 3 : कविता के वैवाहिक जीवन में जल्दबाजी कैसे बनी मुसीबत

अब उस के पुराने आशिकों ने आना कम कर दिया था. एक अखिलेंद्र ही ऐसा था, जो अभी तक उस की जरूरतों को पूरा कर रहा था. लेकिन वह भी अब कम ही आता था. फोन पर जरूर बराबर बातें करता रहता था. अलबत्ता इस बात की कोई गारंटी नहीं थी कि वह कब तक साथ निभाएगा.

इस बीच कविता की सहेली सुनीता अपनी दोनों बेटियों को ले कर मुंबई शिफ्ट हो गई थी. वह अपनी बेटियों को मौडलिंग के क्षेत्र में उतारना चाहती थी. उस ने अपना मकान 75 लाख में बेच दिया था.

जो परिवार कविता का पड़ौसी बन कर सुनीता के मकान में आया, उस में मुकुल का ही हमउम्र लड़का सौम्य और उस से एक साल छोटी बेटी सांभवी थी. परिवार के मुखिया सूरज बेहद व्यवहारकुशल थे. उन की पत्नी सरला भी बहुत सौम्य स्वभाव की थीं. पतिपत्नी में तालमेल भी खूब बैठता था. सूरज सरकारी नौकरी में अच्छे पद पर तैनात थे.

पतिपत्नी ने अपने बच्चों को अच्छी परवरिश दी थी. उन के घर रिश्तेदारों, मित्रों और परिचितों का आनाजाना लगा रहता था. सरला सब की आवभगत करती थी. अब उस घर में खूब रौनक रहने लगी थी. घर में खूब ठहाके गूंजते थे.

कविता कभीकभी मन ही मन अपनी तुलना सरला से करती तो उसे अपने हाथ खाली और जिंदगी सुनसान नजर आती. उसे लगता कि वह जिंदगी भर अंधी दौड़ में दौड़ती रही, लेकिन मिला क्या? सुरेश के साथ रहती तो बेटे को भी पिता का साया मिल जाता और उस की जिंदगी भी आराम से कट जाती.

वह सोचती कितना अभागा है मुकुल, जो पिता के संसार में होते हुए भी उस से दूर है. यह तक नहीं जानता कि उस के पिता कौन हैं और कहां हैं? वह तो सब से यही कहती आई थी कि मुकुल के पिता हमें छोड़ कर विदेश चले गऐ हैं और वहीं बस गए हैं. वह अखिलेंद्र को ही मुकुल का पिता साबित करने की कोशिश करती, क्योंकि वह ज्यादातर विदेश में ही रहता था और साल में एकदो बार आया करता था.

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कालोनी में किसी को भी कविता का सच मालूम नहीं था. कोई जानना भी नहीं चाहता था. देखतेदेखते 2 साल और बीत गए. पड़ोसन की बिटिया की शादी थी. तमाम मेहमान आए हुए थे. सरला विशेष आग्रह कर के कविता को सभी रस्मों में शामिल होने का निमंत्रण दे गई. कविता इस बात को ले कर बेचैन थी. वह खुद को सब के बीच जाने लायक नहीं समझ रही थी. इसलिए चुपचाप लेटी रही.

अखिलेंद्र विदेश से आ रहा था. एयरपोर्ट से उसे सीधे उसी के घर आना था. मुकुल उसे लेने एयरपोर्ट गया हुआ था.

पड़ोस में मंगल गीत गाए जा रहे थे, बड़े ही हृदयस्पर्शी. सुन कर कविता की आंखें भर आईं. उस की शादी भी भला कोई शादी थी. सच तो यह था कि शादी के नाम पर उसे उस की गलतियों की सजा सुनाई गई थी. जिस सुरेश को कभी वह मोतीचूर का लड्डू समझ रही थी, उस के हिसाब से वह गुड़ की ढेली भर नहीं निकला था.

‘‘मां कहां हो तुम, देखो हम आ गए.’’ मुकुल की आवाज सुन कर वह चौंकी. मुकुल अखिलेंद्र को एयरपोर्ट से ले आया था. कैसा अभागा लड़का था यह, लोगों के सामने अखिलेंद्र को न पापा कह सकता था, न अंकल. हां, उस के समझाने पर घर में वह जरूर उन्हें पापा कह कर पुकार लेता था.

कविता अनायास आंखों में उतर आए आंसू पोंछ कर अखिलेंद्र के सामने आ बैठी. ऐसा पहली बार हुआ था, जब वह अखिलेंद्र को देख कर खुश नहीं हुई थी. अखिलेंद्र और कविता की उम्र में काफी बड़ा अंतर था. फिर भी सालों से साथ निभता रहा था.

‘‘क्या बात है, बीमार हो क्या कविता?’’ अखिलेंद्र ने पूछा तो कविता धीरे से बोली, ‘‘नहीं, बीमार तो नहीं हूं, टूट जरूर गई हूं भीतर से. ये झूठी दोहरी जिंदगी अब जी नहीं पा रही हूं. सोचती हूं, हम दोनों के संबंध भी कब तक चल पाएंगे.’’

‘‘हूं, तो ये बात है.’’ अखिलेंद्र ने गहरी सांस ली.

कविता अपनी धुन में कहे जा रही थी, ‘‘मैं भी औरतों के बीच बैठ कर मंगल गीत गाना चाहती हूं. अपने पति के बारे में दूसरी औरतों को बताना चाहती हूं. चाहती हूं कि कोई मेरे बेटे का मार्गदर्शन करे, उसे सही राह दिखाए. पर हम दोनों की किस्मत ही खोटी है.’’

‘‘और…?’’

‘‘एक दिन उस का भी घर बनेगा. कोई तो आएगी उस की जिंदगी में. फिर मैं रह जाऊंगी अकेली. क्या किस्मत है मेरी, लेकिन इस सब में दोष तो मेरा ही है.’’

तब तक मुकुल चाय बना लाया था. ट्रे से चाय के कप रख कर वह जाने लगा तो अखिलेंद्र ने उसे टोका, ‘‘यहीं बैठो बेटा, तुम्हारी मां और तुम से कुछ बातें करनी हैं. पहले मेरी बात सुनो, फिर जवाब देना.’’

कविता और मुकुल चाय पीते हुए अखिलेंद्र के चेहरे को गौर से देखने लगे. अखिलेंद्र ने कहना शुरू किया, ‘‘मेरी पत्नी पिछले 15 सालों से कैंसर से जूझ रही थी. मैं उसे भी संभालता था, बिजनैस को भी और दोनों बच्चों को भी. भागमभाग की इस नीरस जिंदगी में कविता का साथ मिला. सुकून की तलाश में मैं यहां आने लगा. मेरी वजह से मुकुल के सिर से पिता का साया छिन गया और कविता का पति. मैं जब भी आता, मुझे तुम दोनों की आंखों में दरजनों सवाल तैरते नजर आते, जो लंदन तक मेरा पीछा नहीं छोड़ते. इसीलिए मैं बीचबीच में फोन कर के तुम लोगों के हालचाल लेता रहता था.’’

अखिलेंद्र चाय खत्म कर के प्याला एक ओर रखते हुए बोला, ‘‘6 महीने पहले मेरी पत्नी का देहांत हो गया. उस के बाद मैं ने धीरेधीरे सारा बिजनैस दोनों बेटों को सौंप दिया. दोनों की शादियां पहले ही हो गई थीं और दोनों अलगअलग रहते थे. धीरेधीरे उन का मेरे घर आनाजाना भी बंद हो गया. फिर एक दिन मैं ने उन्हें अपना फैसला सुना दिया, जिसे उन्होंने खुशीखुशी मान भी लिया.’’

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‘‘कैसा फैसला?’’ कविता और मुकुल ने एक साथ पूछा.

‘‘यही कि मैं तुम से शादी कर के अब यहीं रहूंगा.’’ अखिलेंद्र ने कविता की ओर देख कर एक झटके में कह दिया.

मुकुल का मुंह खुला का खुला रह गया. उसे लगा कि मां के दोस्त के रूप में जो सोने का अंडा देने वाली मुर्गी थी, अब वह सिर पर आ बैठेगी. पक्की बात है कि अगर अखिलेंद्र घर में रहेगा तो मां को और मर्दों से नहीं मिलने देगा और उन लोगों से जो पैसा मिलता था, वह भी मिलना बंद हो जाएगा.

मुकुल को नेतागिरी में आड़ेटेढे़ हाथ आजमाने आ गए थे. वह रसोई से लंबे फल का चाकू उठा लाया और पीछे से अखिलेंद्र की गरदन पर जोरों से वार कर दिया. जरा सी देर में खून का फव्वारा फूट निकला और वह वहीं ढेर हो गया. कविता आंखें फाड़े देखती रह गई. जब उसे होश आया तो देखा, मुकुल लाश को उठा कर बाहर ले जा रहा था.

मुकुल ने पता नहीं ऐसा क्या किया कि वह तो बच गया, लेकिन कविता फंस गई. पुलिस ने मुकुल से पूछताछ की और घर की तलाशी भी ली, लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला. मुकुल के प्रयासों से 4-5 महीने बाद कविता को जमानत मिल गई. कविता और मुकुल फिर से एक छत के नीचे रहने लगे, लेकिन दोनों ही एकदूसरे को दोषी मानते रहे?

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बंदिनी: रेखा ने कौनसी कीमत चुकाई थी कीमत

शरशय्या- भाग 3 : त्याग और धोखे के बीच फंसी एक अनाम रिश्ते की कहानी

लेखक- ज्योत्स्ना प्रवाह

‘‘दूसरा रिश्ता पति का था, वह भी सतही. जब अपना दिल खोल कर तुम्हारे सामने रखना चाहती तो तुम भी नहीं समझते थे क्योंकि शायद तुम गहरे में उतरने से डरते थे क्योंकि मेरे दिल के आईने में तुम्हें अपना ही अक्स नजर आता जो तुम देखना नहीं चाहते थे और मुझे समझने में भूल करते रहे…’’

‘‘देखो, तुम्हारी सांस फूल रही है. तुम आराम करो, इला.’’

‘‘वह नवंबर का महीना था शायद, रात को मेरी नींद खुली तो तुम बिस्तर पर नहीं थे, सारे घर में तुम्हें देखा. नीचे से धीमीधीमी बात करने की आवाज सुनाई दी. मैं ने आवाज भी दी मगर तब फुसफुसाहट बंद हो गई. मैं वापस बैडरूम में आई तो तुम बिस्तर पर थे. मेरे पूछने पर तुम ने बहाना बनाया कि नीचे लाइट बंद करने गया था.’’ ‘‘अच्छा अब बहुत हो गया. तुम इतनी बीमार हो, इसीलिए मैं तुम्हें कुछ कहना नहीं चाहता. वैसे, कह तो मैं पूरी जिंदगी कुछ नहीं पाया. लेकिन प्लीज, अब तो मुझे बख्श दो,’’ खीज और बेबसी से मेरा गला भर आया. उस के अंतिम दिनों को ले कर मैं दुखी हूं और यह है कि न जाने कहांकहां के गड़े मुर्दे उखाड़ रही है. उस घटना को ले कर भी उस ने कम जांचपड़ताल नहीं की थी. विभा ने भी सफाई दी थी कि वह अपने नन्हे शिशु को दुलार रही थी लेकिन उस की किसी दलील का इला पर कोई असर नहीं हुआ. उसे निकाल बाहर किया, पता नहीं वह कैसे सच सूंघ लेती थी.

‘‘उस दिन मैं कपड़े धो रही थी, तुम मेरे पीछे बैठे थे और वह मुझ से छिपा कर तुम्हें कोई इशारा कर रही थी. और जब मैं ने उसे ध्यान से देखा तो वह वहां से खिसक ली थी. मैं ने पहली नजर में ही समझ लिया था कि यह औरत खूब खेलीखाई है, पचास बार तो पल्ला ढलकता है इस का, तुम को तो खैर दुनिया की कोई भी औरत अपने पल्लू में बांध सकती है. याद है, मैं ने तुम से पूछा भी था पर तुम ने कोई जवाब नहीं दिया था, बल्कि मुझे यकीन दिलाना चाहते थे कि वह तुम से डरती है, तुम्हारी इज्जत करती है.’’

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तब शिखा ने टोका भी था, ‘मां, तुम्हारा ध्यान बस इन्हीं चीजों की तरफ जाता है, मुझे तो ऐसा कुछ भी नहीं दिखता.’

मां की इन ठेठ औरताना बातों से शिखा चिढ़ जाती थी, ‘कौन कहेगा कि मेरी मां इतने खुले विचारों वाली है, पढ़ीलिखी है?’ उन दिनों मेरे दफ्तर की सहकर्मी चित्रा को ले कर जब उस ने कोसना शुरू किया तो भी शिखा बहुत चिढ़ गई थी, ‘मेरे पापा हैं ही इतने डीसैंट और स्मार्ट कि कोई भी महिला उन से बात करना चाहेगी और कोई बात करेगा तो मुसकरा कर, चेहरे की तरफ देख कर ही करेगा न?’ बेटी ने मेरी तरफदारी तो की लेकिन उस के सामने इला की कोसने वाली बातें सुन कर मेरा खून खौलने लगा था. मुझे इला के सामने जाने से भी डर लगने लगा था. मन हुआ कि शिखा को एक बार फिर वापस बुला लूं, लेकिन उस की भी नौकरी, पति, बच्चे सब मैनेज करना कितना मुश्किल है. दोपहर में खाना खिला कर इला को लिटाया तो उस ने फिर मेरा हाथ थाम लिया, ‘‘तुम ने मुझे बताया नहीं. देखो, अब तो मेरा आखिरी समय आ गया है, अब तो मुझे धोखे में मत रखो, सचसच बता दो.’’

‘‘मेरी समझ में नहीं आ रहा है, पूरी जिंदगी बीत गई है. अब तक तो तुम ने इतनी जिरह नहीं की, इतना दबाव नहीं डाला मुझ पर, अब क्यों?’’

‘‘इसलिए कि मैं स्वयं को धोखे में रखना चाहती थी. अगर तुम ने दबाव में आ कर कभी स्वीकार कर लिया होता तो मुझे तुम से नफरत हो जाती. लेकिन मैं तुम्हें प्रेम करना चाहती थी, तुम्हें खोना नहीं चाहती थी. मैं तुम्हारे बच्चों की मां थी, तुम्हारे साथ अपनी पूरी जिंदगी बिताना चाहती थी. तुम्हारे गुस्से को, तुम्हारी अवहेलना को मैं ने अपने प्रेम का हिस्सा बना लिया था, इसीलिए मैं ने कभी सच जानने के लिए इतना दबाव नहीं डाला.

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‘‘फिर यह भी समझ गई कि प्रेम यदि किसी से होता है तो सदा के लिए होता है, वरना नहीं होता. लेकिन अब तो मेरी सारी इच्छाएं पूरी हो गई हैं, कोई ख्वाहिश बाकी नहीं रही. फिर सीने पर धोखे का यह बोझ ले कर क्यों जाऊं? मरना है तो हलकी हो कर मरूं. तुम्हें मुक्त कर के जा रही हूं तो मुझे भी तो शांति मिलनी चाहिए न? अभी तो मैं तुम्हें माफ भी कर सकती हूं, जो शायद पहले बिलकुल न कर पाती.’’ ओफ्फ, राहत का एक लंबा गहरा उच्छ्वास…तो इन सब के लिए अब ये मुझे माफ कर सकती है. वह अकसर गर्व से कहती थी कि उस की छठी इंद्रिय बहुत शक्तिशाली है. खोजी कुत्ते की तरह वह अपराधी का पता लगा ही लेती है. लेकिन ढलती उम्र और बीमारी की वजह से उस ने अपनी छठी इंद्रिय को आस्था और विश्वास का एनेस्थिसिया दे कर बेहोश कर दिया था या कहीं बूढ़े शेर को घास खाते हुए देख लिया होगा. इसी से मैं आज बच गया

सच और विश्वास की रेशमी चादर में इत्मीनान से लिपटी जब वह अपने बच्चों की दुनिया में मां और नानी की भूमिका में आकंठ डूबी हुई थी, उन्हीं दिनों मेरी जिंदगी के कई राज ऐसे थे जिन के बारे में उसे कुछ भी पता नहीं. अब इस मुकाम पर मैं उस से कैसे कहता कि मुझे लगता है यह दुनिया 2 हिस्सों में बंटी हुई है. एक, त्याग की दुनिया है और दूसरी धोखे की. जितनी देर किसी में हिम्मत होती है वह धोखा दिए जाता है और धोखा खाए जाता है और जब हिम्मत चुक जाती है तो वह सबकुछ त्याग कर एक तरफ हट कर खड़ा हो जाता है. मिलता उस तरफ भी कुछ नहीं है, मिलता इस तरफ भी कुछ नहीं है. मेरी स्थिति ठीक उसी बरगद की तरह थी जो अपनी अनेक जड़ों से जमीन से जुड़ा रहता है, अपनी जगह अटल, अचल. कैसे कभीकभी एक अनाम रिश्ता इतना धारदार हो जाता है कि वह बरसों से पल रहे नामधारी रिश्ते को लहूलुहान कर जाता है. यह बात मेरी समझ से परे थी.

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