तुम्हारी मरजी : जब बीवी की मरजी का न खाना खाए पति

रविवार की दोपहर का वक्त है, एक औसत मध्यवर्गीय परिवार का घर.

सुष्मिता: भई, कितनी बार कह चुका हूं कि आज रविवार दोपहर में खाने में क्या और्डर करना है., कम से कम यह तो बता दो.

‘‘अच्छा तुम कहो तो सांभरबड़ा और मसाला डोसा मंगा लेती हूं.’’

‘‘हां, यही और्डर कर दो,’’ भुनेंद्र ने कहा.

फिर सुष्मिता ने सांभरबड़ा और मसाला डोसा और्डर कर दिया.

शाम का समय

‘‘सुष्मिता, अब शाम का तो बता दो कि खाना क्या बनाऊं? सुबह तो तुम्हारी पसंद का सांभरबड़ा और मसाला डोसा खाया था. भई, सम?ा में नहीं आता कि कैसी होममेकर हो तुम. यह सब तुम्हारा काम है… मुझे इतनी सारी फाइलें देखनी हैं. तुम्हारी जौब में होमवर्क नहीं है, मेरी जौब में तो है. इन्हें आज ही निबटाना है मु?ो.’’

‘‘इन्हें तो जैसे घर से कोईर् मतलब ही नहीं है. जब देखो दफ्तर का काम,’’ सुष्मिता बड़बड़ाई.

मंगलवार की प्रात:

‘‘क्या औफिस के लिए खाने में कुछ तैयार है? मु?ो आज दफ्तर जरा जल्दी जाना है.’’

‘‘अभी कहां, मैं तो बस तुम से पूछने ही

आ रही थी कि  औफिस लंच के लिए कल के पिज्जा स्लाइस रखूं या फिर आलू के परांठे बनाऊं?

‘‘उफ, फिर वही ?ागड़ा. कुछ अपने दिमाग का भी इस्तेमाल किया करो. मु?ो तो तुम अगर तैयार हो तो वही दे दो नहीं तो मैं चला. आज कैंटीन में ही खा लूंगा.’’

‘‘ठीक है फिर कैंटनी में खा लेना…. तुम्हारी मरजी ही चलेगी.’’

शाम

‘‘आज तो घर आने में बड़ी देर कर दी, कहां भटक गए थे? 4 घंटे से अकेले घर में

पड़ी हूं.’’

‘‘दफ्तर में काम ज्यादा था. अच्छा, लाओ खाना, बड़े जोरो की भूख लगी है.’’

‘‘बस, अभी 5 मिनट में बना देती हूं. तुम्हारी पसंद की ही सब्जी बनाने के लिए रुकी हुई थी.’’

‘‘अच्छा तो कोफ्ते बना लो.’’

‘‘कोफ्तों में तो बहुत टाइम लगता है. बहुत भूख है तो शाही पनीर का रैडीमेड पैकेट रखा है. तुम्हारी मरजी हो तो खोल दूं?’’

बुधवार की सुबह

‘‘बताओ, आलूपालक की सब्जी बनाऊं या कद्दू की? तुम्हें ही बताना पड़ेगा… तुम्हारी मरजी से ही चलेगा न.’’

‘‘तो फिर आलू, शिमलामिर्च, पालक ही बना लो.’’

‘‘ठीक है तुम्हारी मरजी तो यही बना

देती हूं.’’

‘‘पर पालकआलू, शिमलामिर्च साफ करतेकरते तो बड़ी देर हो जाएगी. आप की बस न निकल जाए कहीं. ऐसा करती हूं ?ाटपट कद्दू काट कर छौंक देती हूं.’’

‘‘अच्छी बात है, फिर कद्दू ही बना लो.’’

‘‘ठीक तुम्हारी मरजी तो कद्दू ही बना

देती हूं.’’

शाम

‘‘क्या बात है आज तुम ने पूछा नहीं कि कौन सी सब्जी बनानी है? आज मेरी चटपटा खाना खाने की बड़ी इच्छा हो रही है. मसालेदार छोले बनाओ तो मजा आ जाए.’’

‘‘आज रमा के साथ चायपकौड़े खा कर आ रही हूं. थक गईर् हूं. सिर भी थोड़ा दुख रहा है. आज तुम ही अपने और मेरे लिए थोड़ी सी रैडीमेड नूडल्स बना लो.’’

‘‘अच्छा तो मैं टोस्ट से पैटी बना लेता हूं.’’

‘‘ठीक है तुम्हारी मरजी.’’

गुरुवार की प्रात:

‘‘आज क्या बनाऊं?’’

‘‘मेरे खयाल में कद्दू कैसा रहेगा? आता है न? वैसा बनाना जैसा मेरी मां बनाती है.’’

‘‘कद्दू, कल ही तो खाया था कद्दू. मु?ा से नहीं खाया जाता रोजरोज यह कद्दू. मैं तो आलूपरवल बनाने जा रही हूं.’’

‘‘ठीक है आलूपरवल बना लो.’’

‘‘तुम्हारी मरजी है न तो ?ाटपट बना लेती दूं वरना दोनों को देर हो जाएगी.’’

शाम

‘‘सुबह आलूपरवल में थोड़ा नमक क्या

तेज हो गया सारी सब्जी ही वापस ले आए.

इस महंगाई के जमाने में यह बरबादी ठीक है क्या? मैं ने उसी बची हुई सब्जी में टमाटर डाल कर मिक्सी में चला कर सूप बना दिया है.’’

‘‘तुम जानती हो, मु?ो परवल वैसे ही पसंद नहीं हैं. फिर भी सुबहशाम वही खिलाती हो.’’

‘‘लो तुम्हारी मरजी थी तो ही तो आलूपरवल बनाए थे.’’

शुक्रवार की प्रात:

‘‘जल्दी से बताओ, क्या सब्जी बनाऊं नहीं तो थोड़ी देर में ही हायतोबा मचाना शुरू कर दोगे?’’

‘‘भई, मेरी मरजी तो आज गोभीमटर की सब्जी खाने की है.’’

‘‘बड़ी शान से बोल दिया, गोभीमटर की सब्जी बनाओ. जानते हो इन दोनों का मौसम

नहीं है?’’ फिर बेमौसम सब्जी का भाव भी मालूम है?’’

‘‘तो फिर बैगन ही बना लो.’’

‘‘तुम तो सम?ाते ही नहीं, आजकल बैगन कड़वे आ रहे हैं. तुम्हारी मरजी हो तो मैं लौकी बना लेती हूं.’’

‘‘अच्छा, वही सही तुम ने मु?ा से पूछा

तो मैं ने बता दिया. लौकी भरवां बना सकती हो?’’

‘‘भरवां लौकी 2 जनों के लिए सिर्फ? न बाबा. मैं तो तुम्हारी मरजी की रसे की लौकी बना देती हूं.’’

शाम

‘‘कुछ बताओ तो सब्जी क्या बनेगी या कुछ बाहर से मंगाओगे?’’

‘‘ठीक सम?ो तो भरवां आलू बना लो.’’

‘‘तुम्हें तो हमेशा ?ां?ाट की चीजें ही

सू?ाती हैं. अब कौन बैठ कर मसाला पीसेगा?

मैं आलू यों ही काट कर भून लेती हूं या

तुम्हारी मरजी हो तो चनादाल मंगवा लूं?

वही और्डर कर देती हूं तुम्हारी मरजी की

ब्लैक दाल.’’

शनिवार की प्रात:

‘‘हरी सब्जी घर पर नहीं है.’’

‘‘आलू तो होंगे वही बना लो.’’

‘‘आलू हैं तो मगर खाली आलू की सब्जी खाने में बिलकुल मजा नहीं आता. मैं बेसन की पकौडि़यों की सब्जी बना लूं? तुम्हारी मां ने सिखाई थी.’’

‘‘ठीक है, वह भी चलेगा.’’

‘‘अच्छा तो तुम्हारी मरजी है तो पकौड़ी की सब्जी बना लेती हूं.’’

शाम

‘‘अब क्या बना रही हो?’’

‘‘हफ्ते में एक शाम तो मु?ो भी छुट्टी मिलनी चाहिए. आज कहीं बाहर चलें क्या?’’

‘‘हांहां… क्यों नहीं. एक नया जौयंट खुला है डिफैंस ऐनक्लेव में.’’

‘‘ठीक है तुम्हारी मरजी तो वहीं चलते हैं.’’

‘‘आज ब्रेकफार्स्ट क्या बनाऊं?’’

रविवार की प्रात:

‘‘आज छुट्टी के दिन तो चैन से सोने दो. सबेरे से ही खाने का राग अलापने लगती हो… जो चाहो बना लो.’’

शाम

‘‘आज मैं ने नमक, कालीमिर्च भर कर

शुद्ध घी में परवल बनाए हैं, देखो तो कैसे बने हैं?’’

?ां?ाला कर, ‘‘तुम्हें मालूम है कि मु?ो परवल पसंद नहीं हैं. फिर भी जानबू?ा कर बारबार परवल क्यों बनाती हो? आगे से घर में परवल नहीं बनने चाहिए.’’

‘‘रोज सुबहशाम तुम्हारी मरजी का खाना मिलता है. आज एक बार अपनी मरजी से परवल क्या बना लिए लगे चिल्लाने- इस घर में तो मेरी कुछ पूछ ही नहीं. अपनी पसंद की सब्जी तक नहीं बना सकती,’’  सुष्मिता की आंखों से टपाटप आंसू गिरने लगते हैं. भुनेंद्र हत्प्रभ उसे देखता रह जाता है.

काश : अभिनय और उसकी पत्नी के बीच क्यों बढ़ रही थी दूरियां

Writer- भावना ठाकर ‘भावु’

आज हलकीहलकी बारिश और खुशनुमा मौसम ने अभिनय के मिजाज को रोमांटिक बना दिया. अभिनय ने अपनी पत्नी संगीता की कमर में हाथ डालते हुए ‘टिपटिप बरसा पानी, पानी ने आग लगाई…’ गाना गुनगुनाते थोड़ा रोमांस करना चाहा.

मगर ‘‘हटिए भी… जब देखो आप को बस रोमांस ही सू?ाता है,’’ कह कर नीरस और ठंडे मिजाज वाली संगीता ने अभिनय का हाथ ?ाटक कर उसे खुद से अलग कर दिया. अभिनय आहत होते चुपचाप बैडरूम में चला गया और म्यूजिक सिस्टम पर गुलाम अली खान साहब की गजलें सुनते व्हिस्की का पैग बनाने लगा. एक पैग पीने के पश्चात अभिनय ने आंखें बंद कर लीं और गजल सुनने लगा…

‘‘चुपकेचुपके रातदिन आंसू बहाना याद है, हम को अब तक आशिकी का वो जमाना याद है…’’

गुलाम अली साहब की गहरी आवाज में गजल चल रही हो तो कोई नीरस इंसान ही होगा जिसे जवानी के मस्ती भरे दिन और इश्क का रंगीन जमाना याद न आए. अभिनय को भी वह जमाना याद आ गया जब शीतल के साथ पहली बार लिव इन रिलेशनशिप में रहने लगा था. भरपूर जवानी थी, जोश था और पहलेपहले इश्क का सुरूर था ऊपर से बैंगलुरु की हवाओं में गजब का खुमार था.

अभिनय का मन अतीत की गलियों में आवाजाही करने लगा कि शीतल के साथ बिताया हुआ हर लमहा मु?ो रोमांटिक बना देता था. कहां संगीता ठंडे चूल्हे सी जब प्यार करने जाता हूं तब हटिए कह कर पूरे मूड का सत्यानाश कर देती है. कहां अपने नाम से विपरित मिजाज रखने वाली लबालब उड़ते शोले जैसी शीतल, जो अभिनय के हलके स्पर्श पर धुआंधार बरस पड़ती थी. जब दोनों एकदूसरे में खो जाते थे तो शीतल के अंगअंग में इतना नशा होता था कि उस नशे में मैं पूरी तरह डूब जाता था. शीतल बालों में उंगलियां घुमाती थी और मैं नींद की आगोश में सो जाता था. उस के साथ समय बिताने में हर पल मु?ो एक नया अनुभव होता था और हर बार नया आकर्षण.

शीतल अभिनय का प्यार पा कर कहती, ‘‘अभि, तुम से मु?ो बहुत संतुष्टि मिलती है. ऐसा लगता है जैसे मैं ने स्वर्ग का सुख पा लिया हो. कभी मेरा साथ मत छोड़ना. तुम्हारे बिना मैं जी नहीं पाऊंगी.’’

अभिनय की आंखें भर आईं. सोचने लगा कि शीतल से अलग हो कर अकेला रह कर मैं ने 1-1 पल उसे ही याद कर कर के जीया है. क्या शीतल भी मु?ो याद करती होगी?

अभिनय के खयालों की जंजीरों को तोड़ते पीछे से संगीता ने अनमने लहजे में पूछा, ‘‘खाना लगा दूं या बाद में खाएंगे? मु?ो नींद आ रही है. बाद में खाना है तो खुद परोस लेना,’’ और अभिनय का जवाब सुने बिना ही संगीता सोने के लिए चली गई.

इसी बात से जुड़ा कोई वाकेआ अभिनय को याद आ गया. ‘मु?ो भूल नहीं जाना’ कहने पर शीतल का अपनी कसम दे कर अपने हाथों से खाना खिलाना याद आते ही अभिनय अतीत की गलियों में पहुंच गया…

आईटी इंजीनियरिंग पास करते ही अभिनय को बैंगलुरु में एक अमेरिकन कंपनी में अच्छी जौब मिल गई. एक साल अच्छे से बीत गया. घर से मांपापा बारबार फोन पर जोर डाल कर कहते कि अभि अब तो तू सैटल हो गया है शादी के लिए हां कर दे तो लड़कियां देखना शुरू करें लेकिन अभिनय को फिलहाल बैचलर लाइफ ऐंजौय करनी थी तो हर बार बहाना बना कर टाल देता.

एक दिन कंपनी में शीतल नाम की नई लड़की ने जौइन किया. देखने में हीरोइन की टक्कर की. गोरा रंग, छरहरा बदन, कर्ली हेयर, बादामी आंखें किसी भी लड़के को घायल करने वाले सारी भावभंगिमाओं की मालकिन शीतल

को पाने के सपने औफिस के सारे लड़के देखने लगे. शीतल की नजर में आने के लिए हरकोई पापड़ बेलने लगा. मगर शीतल किसी को भाव नहीं देती. एक अभिनय ऐसा था जो अपने काम से मतलब रखता. उस की शीतल को पाने में

कोई दिलचस्पी नहीं थी. अभिनय शीतल को रिझाने के लिए न कोई हथकंडा अपनाता न बगैर काम के बात करता और अभिनय का यही ऐटिट्यूड शीतल को घायल कर गया.

देखने में अभिनय भी बांका जवान था. 6 फुट लंबा, हलका

डार्क रंग, घुंघराले बाल और फ्रैंच कट दाढ़ी में कहर ढाता कामदेव का रूप

लगता था. शीतल जैसी तेजतर्रार लड़की के

जेहन में बस गया. हर छोटीबड़ी बात के लिए अभिनय की सलाह लेने शीतल जानबू?ा कर

पहुंच जाती.

आहिस्ताआहिस्ता 2 जवां दिल एकदूसरे से आकर्षित होते करीब आने लगे. अब तो औफिस के बाद अभिनय और शीतल कभी मूवी देखने, कभी पिकनिक, कभी शौपिंग तो कभी डिनर के लिए निकल जाते. बैंगलुरु की हर फेमश जगह दोनों प्रेमियों के मिलन की गवाह बन गई.

एक दिन शीतल ने कहा, ‘‘अभि, मु?ो

2 दिन में पीजी छोड़ना होगा क्योंकि जहां में

रहती हूं वह बिल्डिंग रिडैवलपमैंट में जा रही है इसलिए रूम खाली करवा रहे हैं. अब इतने शौर्ट टाइम में कैसे मैनेज होगा. क्या तुम कुछ कर सकते हो?’’

अभिनय ने कहा, ‘‘बुरा न मानो तो एक

बात कहूं?’’

शीतल ने कहा, ‘‘यार… येह औपचरिकता मत करो सीधा बोल दो इतना हक तो मैं तुम्हें दे चुकी हूं.’’

अभिनय ने शीतल का हाथ अपने हाथ में ले कर कहा, ‘‘जब दोनों एक ही मंजिल के मुसाफिर हैं तो क्यों न एक छत के नीचे रैन बसेरा करें. मैं जिस फ्लैट में रहता हूं वह काफी बड़ा है. आ जाओ अपना सारा सामान ले कर मेरे घर में. आजकल हरकोई लिव इन रिलेशनशिप में रहता है. इस से एक बात और भी होगी कि हम दोनों को एकदूसरे को अच्छे से जानने का मौका भी मिल जाएगा और कंपनी भी बनी रहेगी. पर अगर तुम चाहो तो.’’

शीतल खुशी से उछलते हुए बोली, ‘‘अरे नेकी और पूछपूछ, मैं कल ही बोरियाबिस्तर उठा कर आ रही हूं तुम्हारी सियासत पर कब्जा करने.’’

दूसरे दिन संडे था तो दोनों ने मिलकर

सारा सामान सेट कर लिया. दोनों खुश थे. शुरुआत में साथसाथ रहते हुए दोनों का प्यार परवान चढ़ने लगा. अभिनय शीतल की हर जरूरत पर जान छिड़कता था. अब तो औफिस भी साथसाथ आनाजाना होता. दोनों एकदूसरे का साथ पा कर बेहद खुश थे. दोनों ने अपने आने वाले भविष्य तक की प्लानिंग बना ली. कितना समय लिव इन में रहेंगे, कब शादी करेंगे और कब फैमिली प्लानिंग होगी सब फिक्स हो गया. दोनों को लगने लगा कि अपनीअपनी तलाश पूरी हो गई. जीवनसाथी के रूप में जैसी कल्पना की थी वैसा ही पार्टनर मिल गया. मानसिक तौर पर दोनों ने एकदूसरे को भावी पतिपत्नी के रूप में भी स्वीकार कर लिया. अब दोनों बिंदास एकदूसरे पर हक जताते प्यार करने लगे.

रोज औफिस से आने के बाद शीतल

कौफी बनाती और दोनों बालकनी में बैठ कर आराम से लुत्फ उठाते. आहिस्ताआहिस्ता

2 बिस्तर सिंगल में तबदील हो गए. शीतल की मुसकान पर फिदा होते अभिनय शीतल को कमर से पकड़ कर अपनी ओर खींचता और अपने अंगारे जैसे लब शीतल के लबों पर रख देता. उस स्पर्श की कशिश से उन्मादित हो शीतल जंगली बिल्ली की तरह अभिनय पर प्रेमिल हमला करते लिपट जाती और फिर दोनों एकदूसरे पर मेघ जैसे बरस जाते.

शीतल अभिनय के घुंघराले बालों में उंगलियों को घुमाते अभिनय का चेहरा चूम

लेती उस पर अभिनय शीतल को बांसुरी सा उठा कर तन से लगा लेता. यों दोनों ने प्रिकौशंस के साथ कई बार शारीरिक संबंध की सारी हदें पार कर लीं.

मगर कहते हैं न कि ‘दूर से पर्वत सुहाने’  कभीकभार मिलना हमेशा लुभाता है लेकिन साथ रह कर जब एकदूसरे की कमियां और खूबियां पता चलती है तब असल में प्रेम की सही परख होती है. किसी भी चीज में तुष्टिगुण का नियम लागू होता ही है. इंसान को जो आनंद खाने का पहला निवाला देता है वह तीसरा, चौथा या

10वां नहीं देता. शुरुआत में अभिनय और

शीतल को लगता था कि कुदरत ने दोनों को एकदूसरे के लिए ही बनाया है लेकिन जब जिम्मेदारियां बांटने और घर चलाने की बात

आती है वहां प्यार का वाष्पीकरण हो जाता है. अभिनय और शीतल के रिश्ते में जीवन की जरूरी चीजों पर पैसे खर्च करने से ले कर घर को साफसुथरा रखने जैसी हर छोटीबड़ी बात पर तूतू, मैंमैं होने लगी. कल तक दोनों को अकेले अपनी मनमरजी से जीने की आदत थी और आज एकदूसरे की पसंदनापसंद और तौरतरीकों से सम?ाता करने की नौबत आ गई.

अभिनय टिपीकल बैचलर लाइफ जीने का आदी था इसलिए अपनी चीजें जैसे कपड़े, जूते, टौवेल, लैपटौप लगभग सारी चीजें इधरउधर

फैला कर कहीं भी रख देता. पहलेपहल तो

शीतल खुद प्यार से सब बरदाश्त करते सहज लेती और अभिनय को सुधारने की कोशिश करती. लेकिन जब ये सब रोज का हो गया तो चिड़ने लगी और बहस करतेकरते दोनों के बीच छोटेमोटे ?ागड़े भी होने लगे. उस से विपरीत शीतल को अपनी सारी चीजें सुव्यवस्थित और सहेज कर रखने की आदत थी. उसे हर काम में परफैक्शन चाहिए होता जिस की वजह से दोनों में कभीकभी तनाव पैदा हो जाता.

जैसेतैसे दोनों एकदूसरे के साथ एडजस्ट करते जीने की कोशिश कर रहे थे. ऐसे में चुनाव नजदीक आ रहे थे तो एक दिन कौनसी पार्टी देश के लिए सही है और कौन देश के लिए हानिकर उस पर चर्चा करते दोनों के बीच जंग छिड़ गई. दोनों ही पढ़ेलिखे अपने विचार का समर्थन करते अपनी दलीलों पर डटे रहे. नतीजन वैचारिक असमानता का सब से मजबूत पहलू दोनों के सामने आ गया. दोनों में से कोई भी समाधान के मूड में नहीं था. शीतल का कहना था कि कांग्रेस पार्टी में छोटी उम्र के पढ़ेलिखे नेता आजकल की टैक्नोलौजी को सम?ाते देश को नई दिशा देने में सक्षम हैं. वहां अभिनय का कहना था भाजपा पार्टी के उम्रदराज, शक्तिशाली और अनुभवी नेता ही देश की बागडोर संभालने में काबिल हैं. दोनों एकदूसरे पर अपनी चुनी सरकार को वोट देने के लिए दबाव तक डालने लगे.

तभी इस वाकयुद्ध को अलग ही मोड़ देते हुए शीतल ने कहा, ‘‘देखो अभिनय मैं कोई 18वीं सदी की लड़की नहीं जो मर्द की बातों को पत्थर की लकीर सम?ा कर सिरआंखों पर चढ़ाती रहूंगी और न हर सहीगलत बात में तुम्हारी हां में हां मिलाती रहूंगी. मैं 21वीं सदी की लड़की हूं मेरे अपने स्वतंत्र विचार हैं, अपना अस्तित्व है, अपनी मरजी है. मु?ो दबाने की कोशिश हरगिज मत करना… तुम अपनी सोच अपने पास रखो. मैं

24 साल की बालिग लड़की हूं. संविधान ने मु?ो सरकार चुनने का अधिकार दिया है, तो जाहिर सी बात है मैं अपनी मरजी से देशहित में फैसला ले कर ही अपने नेता को वोट दूंगी. और सुनो, मैं किस की प्रेमिका या बीवी बन सकती हूं गुलाम कतई नहीं. अभी भी सोच लो. मैं अपने रहनसहन में कोई बदलाव नहीं करूंगी, इन्फैक्ट तुम्हें कुछेक मामलों में सुधरना होगा तभी हम भविष्य में साथ रह पाएंगे.’’

शीतल की बातों से अभिनय भड़क गया और ताव में आ कर उस ने भी

बोल दिया, ‘‘सुधरना होगा? मैं किसी के भी लिए अपनेआप को नहीं बदलूंगा ओके और तुम भी सुन लो, मैं भी तुम्हारे जैसी अकड़ू लड़की के साथ जिंदगी नहीं बिता सकता. दुनिया में लड़कियों की कमी नहीं. मु?ो सम?ाने वाली

और मेरे विचारों के साथ तालमेल बैठाने वाली मु?ो भी मिल जाएगी. हर बात पर टोकाटोकी

और बहस करने वाली लड़की के साथ मैं पूरी जिंदगी नहीं बीता सकता. तुम चाहो तो इस रिलेशनशिप से आजाद हो सकती हो. 1 हफ्ते

का समय देता हूं अपना इंतजाम कहीं और

कर लेना.’’

अभिनय का फैसला सुन कर शीतल के दिमाग का पारा चढ़ गया. अभिनय का कौलर पकड़ते शीतल दहाड़ उठी क्या मतलब है तुम्हारा? अभिनय तुम रिश्ते को गुड्डेगुड्डियों

का रोल सम?ाते हो क्या? सुनो अभिनय मैं ने

मन के साथ अपना तन भी तुम्हें सौंपा है और

वह भी एक भरोसे के साथ, तुम तो रिश्ता

तोड़ने पर उतर आए. मेरे तन के साथ खेलते हुए तो मैं परी लगती हूं. आज इतनी सी बात पर छोड़ने पर उतारू हो गए? तुम किसी लड़की के भरोसे के लायक ही नहीं. मानसिक तौर पर नपुंसक हो नपुंसक.’’

नपुंसक शब्द सुनते ही अभिनय को अपने वजूद पर किसी ने तेज धार वाली शमशीर से प्रहार किया हो ऐसा महसूस हुआ. अत: उस ने अपनाआपा खोते हुए शीतल के गाल पर जोर से थप्पड़ जड़ दिया, ‘‘बदतमीज लड़की मैं तुम्हारे तन से खेला हूं तो सैटिस्फाइड तुम भी हुई हो सम?ा और जो होता था हम दोनों की मरजी से होता था, कोई बलात्कार नहीं किया मैं ने.’’

अभिनय ने जो तमाचा मारा वह शीतल के मन पर लगा था. अत: वह यह घरेलू हिंसा कैसे सह लेती. पास ही टेबल पर पड़ा फ्लौवर वाज उठा कर अभिनय के सिर पर दे मारा और यू बिच मु?ा पर हाथ उठाने की तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई कहते शीतल ने एक पल भी अभिनय के साथ रहना मुनासिब नहीं सम?ा. उसी पल अपना सामान ले कर अपनी फ्रैंड रूही के घर चली गई.

यों एकदूसरे को बेइंतहा प्यार करने वाले 2 प्रेमियों का प्यारा सा रिश्ता तूतू, मैंमैं से आगे बढ़ते हुए असमान विचारधारा की बलि चढ़ गया.

अभिनय को अपनी गलती का एहसास और पश्चात्ताप होने लगा.

आज संगीता के रूखे व्यवहार को कड़वे घूंट की तरह पी जाने वाला अभिनय शीतल के सख्त व्यवहार पर बिफर पड़ता था क्योंकि शीतल पत्नी नहीं प्रेमिका थी जिस का अभिनय पर कोई कानूनी हक तो था नहीं. आज अभिनय सोच रहा है जब संगीता ऐसा व्यवहार करती है तो मन मार कर सह लेता हूं क्योंकि वह बीवी है, न उगल सकता हूं. न निगल सकता हूं इसलिए एक अनमना रिश्ता भी ढो रहा हूं. अगर शीतल की बातों को सम?ा कर, उस के विचारों का सम्मान करते हुए रिश्ते को एक मौका दिया होता तो शायद जिंदगी कुछ और होती. प्यार तो दोनों के बीच बेशुमार था, बस अपनेअपने अहं और स्वतंत्र विचारधारा का सामने वाले की विचारधारा के साथ तालमेल नहीं बैठा पाने की वजह से दोनों ने रिश्ते का गला घोट दिया.

हर रिश्ता स्वतंत्रता चाहता है. सब की अपनी सोच और जिंदगी जीने का तरीका होता है.

क्यों मैं ने शीतल को सम?ा नहीं और शीतल ने क्यों मु?ो अपने सांचे में ढालने की कोशिश की? अगर शीतल अपनी जिंदगी अपने तौरतरीके से जीना चाहती थी तो क्या गलत था और मैं भी अपनी कुछ आदतें बदल लेता तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ता? क्या एकदूसरे को स्पेस दे कर अपनेअपने स्वतंत्र विचारों का पालन करते

जिंदगी नहीं काट सकते थे? सैकड़ों कपल्स असमान विचारधारा के बावजूद एकदूसरे को आजादी देते हुए जिंदगी आसानी से काट लेते हैं. यहां तक कि आपस में बगैर प्रेम के कई जोड़े मांबाप भी बन जाते हैं. फिर मैं और शीतल छोटेछोटे मुद्दों को अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाते क्यों अलग हो गए?

इंसान का स्वभाव ही इंसान का दुश्मन

होता है या शायद वह उम्र ही ऐसी होती है जो ऐसी बातों को सम?ाने के लिए छोटी पड़ती है. आज जब सारी बातें, सारी गलती सम?ा में आ रही है तब चिडि़या चुग गई खेल वाली गत है. काश, मैं ने और शीतल ने उस वक्त सम?ादारी दिखाई होती तो आज यों पश्चात्ताप की आग में जलना नहीं पड़ता.

‘‘वक्त करता जो वफा आप हमारे होते,’’ गुनगुनाते हुए अभिनय नम आंखों से खिड़की

के पास जा कर दूर आकाश में ताकने लगा

जैसे सैकड़ों सितारों के बीच किसी अपने को ढूंढ़ रहा हो.

मशीन : खुद को क्यों नौकरानी समझती थी निशा

Writer- कुलदीप कौर बांगा ‘गोगी’

ट्रिन… ट्रिन… अलार्म की आवाज के साथ ही निशा की आंख खुल गई. यह कोई आज की बात नहीं, रोज ही तो उसे इस आवाज के साथ उठना पड़ता है. फिर यह तो उठने के लिए बहाना मात्र है. रातभर में न जाने कितनी बार वह बत्ती जला कर समय देखती है.

रात्रि की सुखद नीरवता एवं शांति को भंग करते प्रात:कालीन वेला में इस का बजना आज उसे कुछ ज्यादा ही अखर गया. उस ने अलार्म का बटन दबा कर उसे शांत कर दिया.

निशा रोज ही उठ कर मशीन की तरह घर के कामों में लग जाती है, पर न जाने क्यों आज उस  का मन कर रहा है कि वह पड़ी रहे. ‘ओह, सिर कितना भारी हो रहा है,’ सोचते हुए उस ने रजाई को कस कर और अपने इर्दगिर्द लपेट लिया. ‘आज शायद ठंड कुछ ज्यादा ही है,’ उस ने सोचा.

‘आखिर यों कब तक चलेगा,’ वह सोचने लगी. अब और खींच पाना उस के बस का नहीं है पर क्या वह नौकरी छोड़ दे? तब घर की गाड़ी कैसे चलेगी?

कैसी विडंबना है. जिस नौकरी को पाने के लिए वह रोरो कर सिर फोड़ लेती थी, जिसे पाने के लिए उस ने जमीनआसमान एक कर दिया था आज वही नौकरी कर पाना उस के बस का नहीं रहा है.

निशा ने एक ठंडी आह भरी और न चाहते हुए भी वह उठी और स्नानघर में घुस गई. आज उस का मन बरबस ही बचपन की दहलीज पर जा पहुंचा. मां उसे जगाजगा कर थक जाती थी, तब कहीं बड़ी मुश्किल से वह उठती थी. तैयार होती नाश्ता करती और स्कूल चली जाती. घर वापस आने पर किसी न किसी सहेली के यहां का कार्यक्रम बन जाता था.

सर्दियों की दोपहरी में टांगें फैला कर 5-6 सखियां घंटों बैठी रहतीं. रेवड़ी, मूंगफली से भरी ट्रे कब खत्म हो जाती और चाय के कितने प्याले पीए जाते हंसीठिठोली के बीच पता ही न चलता. फिर कालेज में आने पर मुकेश की गजलें, गीत सुन कर मन जाने कहां भटक जाता और हाथ की सलाइयां रुक जातीं.

‘‘कहां खो गई निशा?’’ किरण चुटकी लेती और इस के साथ सब सखियों का सम्मिलित ठहाका गूंज उठता. पढ़ाई के बाद उस ने नौकरी शुरू कर ली थी और उसी की वजह से अमित से मिलना हुआ, प्रेम हुआ, फिर विवाह हो गया. अब 2 गुना काम करना पड़ रहा था.

कितना मन करता है उन आलमभरी दोपहरियों की तरह पड़े रहने का. धूप सेंके तो मानो बरसों हो गए हैं. अमित कम से कम रविवार को तो धूप सेंक लेते हैं, उसे तो उस दिन भी यह नसीब नहीं.

‘अरे, अमित को तो अभी तक जगाया ही नहीं, पारुल और स्मिता को भी स्कूल के लिए देर हो जाएगी,’ निशा ने सोचा और फिर तेजी से आंच पर कुकर चढ़ा कर अमित को जगाने चली गई.

अमित को जगा कर जैसे ही निशा पारुल को जगाने लगी वह

चौंक पड़ी, ‘‘अरे, इसे तो बुखार लग

रहा है.’’

‘‘क्या?’’ अमित भी घबरा सा गया. उस ने पारुल को छूआ और आहिस्ता से बोला, ‘‘आज तो तुम छुट्टी कर लो निशु.’’

‘‘छुट्टी कैसे करूं रोजरोज? अभी उस दिन जब छूट्टी ली थी तो पता है बौस ने क्या कहा था?’’

‘‘क्या?’’

‘‘यही कि महिलाओं को शादी और बच्चों के बाद नौकरी देने का मतलब है रोज की सिरदर्दी. आज यह काम तो कल वह काम. रहता हैं तो नौकरी करती ही क्यों हो.’’

उसे अचानक याद आए वे दिन जब उस की नौकरी लगी ही थी. तब तो वह छुट्टी ही नहीं लेती थी. उसे जरूरत ही नहीं पड़ती थी इस की. आराम से तैयार होना. रोज एक से एक बढि़या सूट या साड़ी पहनना और 4 इंच की हील वाले सैंडल पहन कर खटखट करते हुए निकल जाना. अब तो शादी और बच्चों के बाद किसी तरह उलटीसीधी साड़ी लपेटी और कभीकभी तो बस निकल जाने के डर से चप्पल बदलने का भी ध्यान नहीं रहता.

‘‘चलो, आज मैं छुट्टी ले लेता हूं. पारू

को डाक्टर के पास तो ले जाना ही पड़ेगा?’’ अमित ने कहा तो निशा थोड़ी सहज हो कर रसोई में चली गई. चाय के लिए पानी चढ़ाने लगी तो देखा गैस खत्म हो चुकी थी. वह रोंआसी सी हो गई. एक तो महरी सप्ताहभर के लिए बाहर गई हुई है, ऊपर से गैस खत्म- अगर उसे दफ्तर न जाना होता तो वह इत्मीनान से सारा काम कर लेती, पर अब?

8 बज चुके हैं और उसे सवा 9 बजे वाली बस पकड़नी है. क्यों ?ां?ाट मोल लिया, उस ने

नौकरी के बाद शादी करने का? कालेज के दिनों में कितनी छुट्टियां होती थीं. परीक्षाएं खत्म होने पर तो बस मजा ही आ जाता था. पढ़ाई की चिंता भी खत्म. गरमी की लंबी दोपहरियों में अपने कमरे के सारे परदे गिरा कर ठाट से ट्रांजिस्टर सुनती थी. एसी की ठंडी हवा कभी कोई पेंटिंग बनाती तो कभी खर्राटे लेते हुए शाम तक पड़ी रहती. शाम होते ही किरण, मधु, शशि सब पहुंच जाती थीं. फिर उन की सरपट भागती स्कूटियां होतीं और वे कभी फिल्म तो कभी किसी मौल में फूड कोर्ट में लंच.

‘‘निशा, तु?ो बांधने का

कोई खूंटा ढूंढ़ना ही पड़ेगा, यह नौकरी पूरा खूंटा नहीं है,’’ पड़ोस वाली रीता भाभी अकसर उसे

छेड़ा करतीं.

‘‘देखो भाभी, मैं तुम्हारी तरह खूंटे से यों ही बंधने की नहीं, नौकरी के साथ शादी करूंगी तो भी वह खूंटा नहीं देगी. आजादी कायम रहे. जो घरेलू ?ां?ाट मिलबांट कर पूरे हो जाएंगे अपने बस के नहीं,’’ और किसी नन्हे बच्चे की तरह भाभी को चिढ़ा कर भाग जाती थी वह.

‘‘क्या बात है निशा, चाय नहीं बनी अभी? भई, स्मित को स्कूल छोड़ने भी जाना है, उसे भी दूध दे दो,’’ कहतेकहते अमित रसोई में आ गए. इलैक्ट्रिक चूल्हे पर खाना धीमे पकता था. निशा के आंसू टपटप गिर रहे थे.

‘‘अरे, क्या गैस खत्म हो गई? तुम तो रो रही हो? निशा, तुम्हीं तो कहा करती हो, जहां संघर्ष खत्म हो जाता है वहां जिंदगी ठहर जाती है. पगली चलो उठो, मैं बरतन कर देता हूं,’’ अमित मुसकराते हुए बोले, पर उन की आवाज में खीज निशा से छिपी न रह सकी.

बच्चों की बीमारी, मेड की छुट्टियां, कभी अपनी तबीयत खराब तो कभी मेहमानों का आना यह  तो गृहस्थी में हमेशा ही चलता रहता है पर जाने क्यों कई दिनों से निशा बड़ी अनमनी सी हो गई है. शायद रोज ही इस भागदौड़ से वह अब थक सी गई है. रोज 5 बजे उठना, घर भर की सफाई करना, बच्चों को दूध, नाश्ता करा कर और लंच दे कर स्कूल भेजना. फिर अपना तथा अमित का नाश्ता व साथ ले जाने के लिए दोपहर का खाना तैयार करना, 9 बजने का पता ही नहीं चलता था और जब कभी महरी न आए तो बरतनों का ढेर भी उस के जिम्मे था. वह अकसर भाग कर ही बस पकड़ पाती थी. देर होने पर बौस की खा जाने वाली निगाहें, फाइलों का ढेर और दोपहरी में सुबह का बना ठंडा खाना. घर लौटतेलौटते 6 बज जाते. थकान से टूटता बदन और घिसटते कदम. दिनभर अकेले रहे बच्चों पर उसे डेर सा प्यार उमड़ आता और वह उन्हें प्यार करतेकरते खुद रो पड़ती.

एक रविवार आता तो अनेक ?ां?ाट रहते. पड़ोस में किसी के बच्चा हुआ है, बधाई देने जाना है. कोई रिश्तेदार अस्पताल में दाखिल है, उसे देखने जाना है. कहीं से शादी का कार्ड आया है, जाना तो पड़ेगा ही. किसकिस को अपनी परेशानी सुनाई जाए और फिर कपड़ों का ढेर तो रविवार के लिए निश्चित है ही. किसी का बटन टूटा है, तो किसी कमीज की सिलाई उधड़ी है. कभी दालों को धूप दिखानी है तो कभी अचार खराब होने के आसार नजर आ रहे हैं.

‘‘आप जाइए, दफ्तर,’’ निशा ने नाश्ते की प्लेट अमित को पकड़ाते हुए कहा, ‘‘मैं ही ले लूंगी छुट्टी, आज. मेरा सिर भी आज भारीभारी सा हो रहा है. और हां, आज खाना भी कैंटीन में ही खा लेना,’’ कहतेकहते वह कमरे में जा कर पलंग पर पड़ गई.

मन कर रहा था कि  2 घंटे चुपचाप पड़ी रहे तथा कुछ न सोचे पर आज वह स्वयं को बड़ा अशांत अनुभव कर रही थी. उसे शादी से पहले डायरी में लिखे वे शब्द याद आ रहे थे, हम

कोई भी कार्य उत्साह से शुरू करते हैं पर अंत भी उसी उत्साह से होगा या नहीं, कोई नहीं जानता. उस के अनुभव ने उसे आज सही साबित किया है. हो सकता है, आने वाला कल उसे गलत साबित कर दे पर आज यह एकदम सही है. अब डायरियां भी कहां रह गईं. मोबाइलों पर घिसेपिटे मैसेज आते. इस देवता को पूज लो उस देवी की मन्नत मान लो.

यही तो हुआ है उस के साथ. जब वह एमए कर चुकी थी तो नौकरी के लिए उत्सुक थी. चाहती थी एक क्षण भी न लगे और उसे नौकरी मिल जाए पर 2-3 साक्षात्कार दे कर ही वह नौकरी पा गई.

शादी के बाद वह सोचती थी कि 2 वेतनों से उस के दुखों का अंत हो जाएगा पर अब अकसर निशा सोचती, वह उस के दुखों का अंत नहीं बल्कि शुरुआत थी. कितना घृणित होता है पुरुषों का साथ?

अनिल को ही देखो. जब भी कोई फाइल लेने आएगा तो सिगरेट का धुआं जानबू?ा कर मुंह पर ही छोड़ेगा और रमेश तो जानबू?ा कर किसी मोबाइल के मैसेज के शीर्षक को भी इतनी जोर से पढ़ेगा कि वह सुन ले. अभी कल भी तो कुछ पढ़ रहा था. हां, याद आया, ‘‘युवतियों से छेड़छाड़ के लिए युवतियां दोषी हैं?’’

‘‘अरे वाह, क्या सही बात लिखी है लेखक ने,’’ कहते हुए कितनी भद्दी हंसी हंसा था वह.

उस के बदन पर निगाहें टिका कर सुरेश कितनी ही बार दिनेश से कह चुका है,

‘‘यार, कुछ औरतें तो 2 बच्चों की मां हो कर भी लड़की सी लगती हैं. पता नहीं क्या खाती हैं.’’

हुंह क्या खाक कंधा मिलाएं इन पुरुषों से. बड़ी इच्छा होती है अब तो कोई कह दे, निशू, नौकरी छोड़ दो. पर जब सब मना करते थे तो वह रोती थी, अब वह नहीं चाहती तो कोई मना नहीं करता. काश, अमित एक बार आग्रह कर दे कि निशू नौकरी छोड़ दो, अब तुम्हारी हालत मु?ा से देखी नहीं जाती.

हुंह, उसे अपने घर की हालत का पता नहीं. अमित के 25 हजार रुपए से क्या होता है. इन दोनों के 45 हजार रुपए से तो मुश्किल से गुजारा होता है. मकान का किराया, दूध का बिल, फल, सब्जी, कपड़े, मेहमान, बच्चों की प्राइवेट स्कूलों में पढ़ाई, बीमारी आखिर किसकिस में कमी करेगी वह. देखा जाए तो कितना अच्छा लगता है यह सब, कितना सुकून मिलता है जब वह संघर्ष से अर्जित आय से घर चलाती है.

हर महीने कुछ न कुछ बचा कर जब वह कोई वस्तु खरीदती है तो इतनी खुशी मिलती है मानो सबकुछ मिल गया हो. ‘अगले महीने यह खरीदूंगी,’ की कल्पना ही कितनी सुखद होती है. बचत कर के कुछ न कुछ खरीदने का मजा भी कुछ और ही है. उसे अपने घर की हर वस्तु से संतोष की ?ालक और मेहनत की खुशबू आती है और फिर घर तो चलाना ही है. क्यों न खुशीखुशी से यह सब किया जाए.

हां, घर तो चलाना ही है. सहसा उसे याद आ जाता है कि आज मेड नहीं आएगी और

रसोई में रात के जूठे बरतनों का ढेर लगा है जबकि आधे तो अमित धो गया था. वह तेजी से उठ जाती है और मशीन की तरह घूमने लगती है. वह सोचती है कि मशीन बन जाना ही उस की नियति है.

राज: कैसे समधन की मददगार बनीं नेहा की सास

हम तीनों बहनों की शादियां हो चुकी हैं. कोई बेटा न होने के कारण मां अकेली रहती हैं. इसलिए 4 दिन बाद होने वाले मोतियाबिंद के आपरेशन के पश्चात मां की देखभाल करने की समस्या का हल ढूंढ़ना जरूरी था. इस विषय पर मैं ने अपनी मझली बहन नीरजा से फोन पर बात की.

‘‘डाक्टर गुप्ता ने मां की आंख का आपरेशन करने के लिए 4 दिन बाद की डेट दे दी है. मेरे लिए तो 1 दिन से ज्यादा छुट्टी लेना असंभव है, क्योंकि आफिस में सालाना क्लोजिंग का काम चल रहा है,’’ वार्त्तालाप के आरंभ में ही मैं ने यह बात साफ कर दी कि मैं मां की देखभाल के लिए उन के साथ नहीं रह पाऊंगी.

‘‘फिर मां की देखभाल कैसे होगी? तुम्हें तो पता है कि मेरी तबीयत ठीक नहीं रहती है,’’ नीरजा की आवाज में फौरन चिढ़ व गुस्से के भाव उभरे.

‘‘मां की देखभाल के नाम पर तुझे एकदम से अपनी बीमारी याद आ गई. और सब जगह घूमनेफिरने में तेरी बीमारी रुकावट क्यों नहीं डालती?’’

‘‘मजबूरी में तो तुम भी छुट्टी ले ही सकती हो. पिछले साल

इन्हीं क्लोजिंग के दिनों में तुम जीजाजी के साथ मलयेशिया घूम कर

आईं न.’’

‘‘मलयेशिया घूमने का मौका तो इन के आफिस वालों की तरफ से मुफ्त में मिला था. उसे छोड़ देना तो नासमझी होती बहना.’’

‘‘मैं तुम से झगड़ी तो मेरे सिर का दर्द जानलेवा हो जाएगा. क्या तुम्हारी इस बारे में नेहा से बात हुई है?’’ नीरजा ने वार्त्तालाप को हमारी छोटी बहन की तरफ मोड़ दिया.

‘‘मैं उसे अभी फोन करूंगी, पर क्या फायदा होगा उस से इस बारे में कोई बात करने का? तुझे लगता है कि उस की सास उसे मां की देखभाल के लिए मायके आने की इजाजत देंगी?’’

‘‘बिलकुल नहीं देंगी. नेहा को भेजने की बात वही उन से कहे जिसे अपनी बेइज्जती कराने का शौक हो. वे तो बहुत मुंहफट औरत हैं.’’

नेहा की सास के साथ करीब 3 महीने पहले हमारा एक अनुभव बहुत खराब रहा था. तब नेहा और कपिल की शादी हुए 1 महीना ही बीता था.

नीरजा और मैं उस शाम पहली दफा नेहा की ससुराल में मिठाई और फल ले कर पहुंचे.

‘मौसीजी, कुछ देर के लिए हम नेहा को अपने साथ बाजार घुमाने ले

जाएं?’ कुछ देर बैठने के बाद मैं ने अपनी आवाज में भरपूर मिठास भर कर नेहा की सास से उसे साथ ले जाने की इजाजत मांगी थी.

‘नेहा तो घूमने नहीं जा सकेगी. बड़ी बहू के दोनों बच्चों की परीक्षाएं 2 दिन बाद शुरू हो रही हैं और उन की तैयारी कराने की सारी जिम्मेदारी नेहा के सिर पर है. ऐसे में 1 दिन भी जाया करना उन का रिजल्ट बिगाड़ देगा,’ बड़े रूखे से अंदाज में मौसीजी ने नेहा को साथ भेजने से इनकार कर दिया था.

‘प्जीज, थोड़ी देर के लिए भेज दीजिए न, मौसीजी,’ नीरजा ने तो उन की खुशामद करने को हाथ भी जोड़ दिए थे.

‘अपनी जिम्मेदारी को नजरअंदाज कर के वह नहीं जा सकेगी,’ वे नाराज नजर आतीं हमारे पास से उठीं और घर के भीतरी भाग में चली गईं.

हम दोनों बहनों की एक तरह से उन के हाथों बहुत बेइज्जती हुई थी. हम ने जब उन के खराब व्यवहार की शिकायत नेहा से की तो वह उलटा हमें ही समझाने लगी थी.

‘मम्मीजी की बातों का आप दोनों बुरा न मानो, क्योंकि वे दिल

की बहुत अच्छी हैं. आप के लिए गरमगरम समोसे और जलेबियां उन्होंने ही मंगाई हैं.’

नेहा का उन की तरफदारी करना हमारा गुस्सा और ज्यादा बढ़ा गया था, ‘मां ने जल्दबाजी दिखाते हुए बहुत गलत घर में तेरी शादी कर दी है. ऐसे दमघोंटू वातावरण में तू जी कैसे रही है?’ नीरजा ने सहानुभूति प्रकट की थी.

‘मैं तो यहां बहुत खुश हूं. मेरी ससुराल के सब लोग जबानके कड़वे पर दिल के अच्छे हैं,’’ नेहा का यह जवाब सुन कर हम दोनों बहनें उस का मुंह हैरानी से ताकने लगी थीं.

उस की जिंदगी में खुशी देने वाली कोई बात हमें तो नजर नहीं आई थी. घर में सास का हिटलरी हुक्म पूरी तरह से चलता था. जब वे गुस्से में होतीं तो नेहा के ससुरजी या दोनों बेटों की भी उन के सामने कुछ कहने की हिम्मत नहीं होती थी.

मौसीजी ने घर के सारे काम दोनों बहुओं के बीच बांटे हुए थे.

नेहा पढ़ाने के लिए स्कूल जाती थी पर इस कारण उसे अपने हिस्से के काम करने में कोई छूट नहीं मिली थी. मौसीजी का अपना मन होता तो घर के कामों में हाथ बंटातीं, नहीं तो जबान हिला कर बस, हुक्म सुनाती रहती थीं.

नेहा को सुबह 6 बजे उठ कर रोज सुबह का नाश्ता तैयार करना होता था. रात को चपातियां वही सेंकती. आज के समय में भी जब मौसीजी का मन करता तो वे दोनों बहुओं से पैर दबवा लेती थीं.

नेहा के जेवर भी उस की सास ने अपने पास

दबा कर रख लिए थे. बाहर वालों के सामने उसे सिर पर पल्ला रखना पड़ता था. इतनी तेज सास के साथ रहते हुए भी नेहा खुश है, यह बात हम दोनों बड़ी बहनों की समझ में बिलकुल नहीं आती थी. हमारी नजरों में तो वे बददिमाग और बेहद घमंडी स्त्री थीं.

नीरजा से बातें करने के बाद मैं ने कपिल को फोन कर मां के आपरेशन के बारे में जानकारी दे दी. फिर मां से कहा, ‘‘मां, तुम्हारे आपरेशन के लिए मैं अकेली 25 हजार रुपए खर्च कर रही हूं. नीरजा तो फ्लैट की किस्त का बहाना बना कर 1 धेला देने को तैयार नहीं है और नेहा से रुपए मांगना अच्छा नहीं लगेगा. जब सारा खर्च मैं ही कर रही हूं तो तुम्हारी देखभाल की पूरी जिम्मेदारी नीरजा की रहेगी,’’ मेरी तीखी बात सुन कर मां ने नाराजगी भरे अंदाज में आंखें मूंद लीं.

करीब घंटे भर के बाद कपिल नेहा के साथ वहां आ गया.

‘‘कहां आपरेशन हो रहा है इन का?’’

कपिल ने मां के आपरेशन के बारे में बातें

करनी शुरू कीं.

‘‘यहां पास में डाक्टर गुप्ता के आंखों के अस्पताल में 4 दिन बाद आपरेशन होगा,’’ बड़ी मुश्किल से ही मैं अपनी आवाज को सहज रख पा रही थी.

‘‘शहर के सब से नामी और काबिल

आई सर्जन डाक्टर कैलाश से आपरेशन क्यों नहीं करातीं?’’

‘‘क्योंकि वह मरीजों को लूटता है, कपिल,’’ मैं ने चिढ़ कर जवाब दिया.

‘‘वह कैसे?’’ कपिल हैरान नजर आने लगा.

‘‘करीब डेढ़ गुना ज्यादा खर्च आएगा डाक्टर कैलाश के यहां आपरेशन कराने का. यहां 25 हजार में काम हो जाएगा और वहां

35 हजार लगेंगे.’’

‘‘मैं समझता हूं कि आंख के मामले में हमें सब से अच्छी जगह ही जाना चाहिए.’’

‘‘25 हजार से ज्यादा खर्च करना मेरे बजट से बाहर होगा. कपिल, तुम तो मुझे यह बताओ कि क्या कुछ दिन के लिए नेहा मां की देखभाल के लिए यहां आ सकती है?’’ मैं ने वार्त्तालाप की दिशा बदल दी.

‘‘मैं इस बारे में मम्मी से बात करता हूं,’’ सीधा जवाब देना टाल कर उस ने फिर चुप्पी साध ली.

कुछ देर बाद अकेले में नेहा ने मुझे अपनी मजबूरी बता दी, ‘‘मैं मां की देखभाल के लिए नहीं आ सकती हूं, निशा दीदी. सासूमां आने की इजाजत नहीं देंगी, क्योंकि जेठानी के दोनों बच्चों की आजकल वार्षिक परीक्षाएं चल रही हैं.’’

‘‘तू तो उस घर के रंग में पूरी तरह रंग कर निर्मोही हो गई है,’’ नेहा से यह चुभती बात कह कर मैं अपने घर आने को निकल पड़ी.

अगले दिन 11 बजे के करीब मैं मां से मिलने पहुंची तो वे घर में नहीं थीं. पड़ोस वाली कमला आंटी से पता लगा कि कपिल डाक्टर कैलाश के यहां उन की आंख का चैकअप कराने के लिए उन्हें साथ ले गया है.

शाम को मां ने मुझे बताया कि अब उन की

आंख का आपरेशन डाक्टर कैलाश ही करेंगे. मैं ने फौरन फोन कर नेहा से कह दिया कि 25 हजार से ज्यादा होने वाला खर्च कपिल को ही वहन करना पड़ेगा.

फिर 4 दिन के बाद सारा घटनाक्रम बड़ी तेजी से घूमा.

‘‘हम नेहा को तो आप की देखभाल करने के लिए नहीं भेज पा रहे हैं, पर आप को तो अपने यहां बुला सकते हैं न? आप अपनी बेटी की ससुराल में नहीं बल्कि अपनी बहन के घर रहने जा रही हैं,’’ ऐसी दलील दे कर नेहा की सास मेरी मां को आपरेशन होने के 1 दिन पहले अपने घर ले गई थीं.

इस कारण नीरजा ने तो बड़ी राहत की सांस ली पर मुझे यों महसूस हुआ जैसे मैं ठगी गई हूं. अब नीरजा को न आपरेशन के लिए कुछ खर्च देना था और न ही मां की देखभाल करने की जहमत उठानी थी.

‘‘आप इनसान नहीं, देवी हो,’’ आपरेशन थिएटर में जाने से पहले मां के मुंह से नेहा की सास की प्रशंसा में यह वाक्य कई बार निकला.

‘‘आपरेशन पूरी तरह से सफल रहा है,’’

डाक्टर कैलाश के मुंह से यह खबर सुन कर हम सब बहुत खुश हो गए.

‘‘निशा , हम सारा हिसाब बाद में कर लेंगे,’’ ऐसा कह कर मौसीजी ने आपरेशन का पूरा बिल भी खुद ही चुका दिया. आपरेशन होने के बाद मां पूरे 10 दिन नेहा की ससुराल में ही रहीं. मौसीजी ने उन को अपने कमरे में रखा. नेहा के ससुरजी ड्राइंगरूम में सोने लगे थे. मां की पूरी देखभाल मौसीजी कर रही थीं. उन्हें डाक्टर को दिखा लाने की जिम्मेदारी कपिल या उस के बड़े भाई ने निभाई.

मां को उन के यहां से विदा करा लाने

के लिए मैं अपनी कार से अकेली उन के घर पहुंची. नीरजा कमर दर्द का बहाना बना कर

मेरे साथ नहीं आई पर मुझे लगा कि वह आपरेशन में हुए खर्चे का अपना हिस्सा

सब के सामने न दे पाने की शर्मिंदगी से बचना चाहती थी.

‘‘निशा, आपरेशन पर कुल 30 हजार का खर्च आया है, जोकि तुम तीनों बहनों को

आपस में बांटना होगा. ऐसे मामलों में हिसाब से चलना ठीक रहता है,’’ मौसीजी ने मुझे अपने पास बिठा कर अस्पताल का बिल मेरे हाथ में पकड़ा दिया.

मैं तो कुल मिला कर फायदे में ही रही. 25 हजार की जगह अब मुझे नीरजा व अपने हिस्से के 20 हजार रुपए ही देने पड़े. बाद में मां की देखभाल के लिए मुझे जो आया की पगार देनी पड़ती, मेरा वह खर्चा भी बच गया.

विदा के समय मां ने भावुक हो कर मौसीजी से कहा, ‘‘बहनजी, आप ने मेरी इतनी अच्छी तरह देखभाल कर के जो एहसान मेरे सिर पर चढ़ा दिया है, वह मैं इस जिंदगी में नहीं उतार पाऊंगी.’’

‘‘एहसान शब्द को मुंह से निकाल कर आप हमें शर्मिंदा न करें, बहनजी. आप की देखभाल में अगर कुछ कमी रह गई हो तो अपनी इस बहन को माफ कर देना,’’ मौसीजी ने अपना बड़प्पन दिखाते हुए मां से उम्र में बड़ी होने के बावजूद उन के सामने हाथ जोड़ दिए.

‘‘आखिरी सांस तक मैं यह प्रार्थना जरूर

करूंगी कि आप के संयुक्त परिवार में सब की अच्छी सेहत, मन की हंसीखुशी और सुखशांति बनी रहे,’’ यह आशीर्वाद दे कर मां आंखों में आंसू लिए कार में बैठ गईं.

मुझे मौसीजी को नजदीक से देखनेसमझने का मौका मिला तो उन के बारे में मेरी राय पूरी तरह बदल गई थी. मौसीजी की जबान कड़वी व तीखी होने के बावजूद घर का हर सदस्य उन का पूरा मानसम्मान क्यों करता है, इस का राज भी मेरी समझ में आ गया था.

उन के पास सोने का दिल था. वे स्वभाव की तेज जरूरी थीं, पर उन की बातें किसी को अपमानित नहीं करती थीं. अपने परिवार की खुशहाली के लिए पूरी तरह से समर्पित ये बुजुर्ग महिला बड़ी कुशलता से घर चलाते हुए परिवार के हर सदस्य के सुखदुख का पूरा ध्यान रख रही थीं. अपने दिल में उन के प्रति श्रद्धा व सम्मान के भाव रख कर मैं ने विदा के समय उन के पैर छुए तो उन्होंने मुझे छाती से लगा कर ढेर सारे आशीष दे डाले.

एक बिंदास लड़की : शादी के बाद क्यों बदलती है लड़की की ज़िन्दगी

बुजुर्गों की तरफ से तो रिश्ता तय हो चुका था. कुंडली मिलान, लेनदेन सब कुछ. बस, अब सब लड़कालड़की की आपसी बातचीत पर निर्भर था. बुजुर्गों ने तय किया कि लड़कालड़की आपस में बात कर एकदूसरे को समझ लें. कुछ पूछना हो तो आपस में पूछ लें. उन्हें एकांत दिया गया.

लड़के को शांत देख लड़की ने कहा, ‘‘आप कुछ पूछना चाहते हैं?’’ लड़का शरमीला था. मध्यमवर्गीय परिवार से था. उस ने कहा, ‘‘नहीं, बुजुर्गों ने तो सब

देखपरख लिया है. उन्होंने तय किया है तो सब ठीक ही होगा. आप दिखने में अच्छी हैं. मुझे पसंद हैं, बस इतना पूछना था कि…’’ लड़का पूछने में लड़खड़ाने लगा तो उस पढ़ीलिखी सभ्य लड़की ने कहा, ‘‘पूछिए, निस्संकोच पूछिए, आखिर हमारीआप की जिंदगी का सवाल है.’’

लड़के ने पूछा, ‘‘यह शादी आप की मरजी से… मेरे कहने का अर्थ यह है कि आप राजी हैं, आप खुश हैं न.’’

‘‘हां, लड़की ने बड़ी सरलता और सहजता से कहा. नहीं होती तो पहले ही मना कर देती.’’ लड़का चुप रहा. अब लड़की ने कहा, ‘‘मैं भी कुछ पूछना चाहती हूं आखिर मेरी भी जिंदगी का सवाल है. उम्मीद है कि आप बुरा नहीं मानेंगे.’’

‘‘नहींनहीं, निस्संकोच पूछिए,’’ लड़के ने कहा. वह मन ही मन सोचने लगा, ‘लड़की पढ़ीलिखी है तो तेज तो होगी ही लेकिन इतनी बिंदास और बेबाक.’

‘‘आप का शादी के पहले कोई चक्कर, मेरा मतलब कोई अफेयर था क्या?’’

‘‘क्या,’’ लड़के ने लड़की की तरफ देखा.

‘‘अरे, आप घबरा क्यों गए? कालेज में पढ़े हो. इश्क वगैरा हो जाता है. इस में आश्चर्य की क्या बात है? सच बताना. एकदूसरे से क्या छिपाना?’’

‘‘जी, वह एक लड़की से. बस, यों ही कुछ दिन तक. अब सब खत्म है,’’ लड़के ने झेंपते हुए कहा.

‘‘मेरा भी था,’’ लड़की ने बेझिझक कहा.

‘‘अब नहीं है.’’

लड़का लड़की का मुंह ताकने लगा.

‘‘क्यों, क्या हुआ? जब आप ने कहा तब मैं ने तो ऐसा रिएक्ट नहीं किया जैसा आप कर रहे हैं. आप ने तो पूछने पर बताया, मैं ने तो ईमानदारी से बिना पूछे ही बता दिया.’’

‘‘अच्छा, यह बताओ कि महीने में कितना कमा लेते हो?’’ लड़की ने आगे पूछा.

‘‘जी, 10 हजार रुपए.’’

‘‘मैं ने वेतन नहीं पूछा, टोटल कमाई पूछी है.’’

‘‘जी, मैं घूस नहीं लेता,’’ लड़के ने ताव से कहा.

‘‘अच्छा, पैदाइशी हरिश्चंद्र हो या अन्ना आंदोलन का असर है या फिर, डरते हो’’ लड़की हंस कर बोली.

‘‘यह क्या कह रही हैं आप?’’

‘‘तो आप ईमानदार हैं.’’

‘‘जी, बिलकुल.’’

‘‘फिर घर कैसे चलाएंगे 10 हजार रुपए में, खासकर शादी के बाद. कम से कम 5 हजार रुपए तो मेरे ऊपर ही खर्च होंगे. क्या शादी के बाद अपनी पत्नी को घुमाने नहीं ले जाएंगे. बाजार, सिनेमा, कपड़े, जेवर वगैरावगैरा.’’

लड़के बेचारे के तो होश गुम थे. अच्छाखासा इंटरव्यू हो रहा था उस का. अब उसे लड़की बड़ी बेशर्म और उजड्ड मालूम हुई.

लड़की ने कहा, ‘‘देखो, शादी के बाद मुझे कोई झंझट नहीं चाहिए. अपनी मांबहन को पहले ही समझा कर रखना. मुझे सुबह आराम से उठने की आदत है और हां, शादी के बाद अकसर लड़झगड़ कर लड़के अलग हो जाते हैं. और सारी गलती बहुओं की गिना दी जाती है. सो अच्छा है कि हम पहले ही तय कर लें कि किसी भी बहाने से बिना लड़ाईझगड़े के अलग हो जाएं. तुम्हारा तो सरकारी जौब है, ट्रांसफर करा लेना. दूसरी बात रही पहनावे की तो मुझे साड़ी पहनने की आदत नहीं है. कभी शौक से, कभी मजबूरी में पहन ली तो और बात है. मैं सलवारसूट, जींस पहनती हूं और घर में बरमूड़ा, रात में नाइटी. बाद की टैंशन नहीं चाहिए, यह मत पहनो, वह मत करो, पहले ही बता देती हूं कि पूजापाठ मैं करती नहीं.’’

लड़की कहे जा रही थी और लड़का सुने जा रहा था. लड़के को लगा कि वह भी क्या समय था कि जब लड़की लजाते, शरमाते उत्तर देती थी, हां या न में. लड़का पूछता था, खाना बनाना आता है, गाना गाना जानती हो, कोई वाद्ययंत्र गिटार, सितार वगैरा बजा लेती हो, सिलाईबुनाई आती है, मेरे मातापिता का ध्यान रखना होगा और लड़की जीजी, हांहां करती रहती थी और अब जमाना इतना बदल गया.

उसे तो यह लगा मानो वह साक्षात्कार दे रहा हो. यह भी सही है कि अधिकतर जोड़े शादी के बाद अलग हो जाते हैं. दुल्हनें अपनी मांगों पर अड़ कर परिवार के 2 टुकड़े कर देती हैं. फिर अपनी मनमरजी का ओढ़नेपहनने से ले कर खाने में नमक, मिर्च कम ज्यादा होने पर सासबहू की खिचखिच शुरू हो जाती है. यह कह तो ठीक ही रही है, लेकिन शादी से पहले ही इतनी बेखौफ और निडर हो कर बात कर रही है तो बाद में न जाने क्या करेगी? यह तो नीति और मर्यादा के विरुद्ध हो गया. अभी पत्नी बनी नहीं और पहले से ही ये रंगढंग. लड़का तो फिर लड़का था. उस ने भी कहा, ‘‘शादी से पहले का भी बता दिया और शादी के बाद का भी. तुम से शादी करने का मतलब मांबाप, भाईबहन सब छोड़ दूं, तुम्हारे शौक पूरे करता रहूं. कर्तव्य एक भी नहीं और अधिकार गिना दिए. यह क्या बात हुई?’’

लड़की ने कहा, ‘‘जो होता ही है वह बता दिया तो क्या गुनाह किया. सच ही तो कहा है, इस में क्या जुर्म हो गया.’’

‘‘यह कोई तरीका है कहने का. यह कहती कि तुम्हारा घर संभालूंगी, बड़ेबूढ़ों का आदर करूंगी, सब का ध्यान रखूंगी तो अच्छा लगता.’’

‘‘ये सब तो आया के काम हैं. बाई है घर पर काम वाली या हमेशा मुझ से ही सब करवाने के चक्कर में हो. धोबिन भी मैं, बरतन, झाड़ूपोंछा वाली भी मैं. पत्नी चाहिए या नौकरानी,’’ लड़का भी उत्तर देने लगा, ‘‘क्या जो पत्नियां अपने घर का काम करती हैं वे नौकरानी होती हैं?’’

‘‘अरे, आप तो नाराज हो गए,’’ लड़की ने अपनी हंसी दबाते हुए कहा. सरकारी नौकरी में हो, ऊपरी कमाई तो होगी ही. फिर मेरे पिता दहेज में वाशिंग मशीन तो देंगे ही, कपड़े धुलाई का काम आसान हो जाएगा. मैं तो कुछ बातें पहले से ही स्पष्ट कर रही हूं जैसे मुझे 3-4 सीरियल देखने का शौक है और उन्हें मैं कभी मिस नहीं करती. अब ऐसे में कोई काम बताए तो मैं तो टस से मस नहीं होने वाली, अपने दहेज के टीवी पर देखूंगी. चिंता मत करना. किसी और के मनपसंद सीरियल के बीच में नहीं घुसूंगी.

लड़के के चेहरे के बदलते रंग को देख कर लड़की ने कहा, ‘‘आप को बुरा तो लग रहा होगा, लेकिन ये सब नौर्मल बातें हैं जो हर घर में होती हैं. मेरी ईमानदारी और साफगोई पर आप को खुश होना चाहिए और आप हैं कि नाराज दिख रहे हैं.’’

‘‘नहीं, मैं नाराज नहीं हूं मुझे कुछ कहना है,’’ लड़के ने कहा.

‘‘हां, मुझे गोलगप्पे, चाट, पकोड़ी खाने का बड़ा शौक है, कम से कम हफ्ते में एक बार तो ले ही जाना होगा.’’

लड़की बोले जा रही थी, बोले जा रही थी. बेवकूफ थी, कमअक्ल थी. समझ नहीं आ रहा था लड़के को.

लड़की ने फिर पूछा, ‘‘सुनो, तुम शराब, सिगरेट तो नहीं पीते. तंबाकू तो नहीं खाते.’’

‘‘जी…जी…’’ लड़के की जबान फिर लड़खड़ाई.

‘‘जी…जी, क्या हां या नहीं,’’ लड़की ने थोड़े तेज स्वर में पूछा.

अब आप ने इतना सच बोला है तो मैं भी क्यों झूठ बोलूं. कभीकभी दोस्तों के साथ पार्टी वगैरा में.

‘‘देखो, मुझे शराब और सिगरेट से सख्त नफरत है. इस की बदबू से जी मिचलाने लगता है. तंबाकू खा कर बारबार थूकने वालों से तो मुझे घिन आती है. सब छोड़ना होगा. पहले सोच लो. तुम्हारे मातापिता को ये सब पहले बताना चाहिए था, वे तो कह रहे थे कि लड़का बड़ा शरीफ और सज्जन है. झूठ बोलने की क्या जरूरत थी?’’

‘‘आप मेरे मातापिता को अभी से झूठा कह रही हैं,’’ लड़के ने गुस्से में कहा. आप में शर्म नाम की कोई चीज ही नहीं है. लड़की भी गुस्से में बोली, ‘‘शराबीकबाबी, तुम झूठे और तुम्हारे मांबाप भी. शर्म तुम्हें आनी चाहिए कि मुझे. तगड़ा दहेज भी चाहिए. लड़की भी ऐसी चाहिए कि तुम कुछ भी करो. लड़की मुंह बंद कर के रहे. कल शराब पी कर हाथ भी उठाओगे. फिर सुबह माफी मांगोगे कि नशे में हो गया. ये सब मैं सहने वाली नहीं. सीधा रिपोर्ट करूंगी. सब के सब अंदर हो जाओगे. नए जमाने की पढ़ीलिखी लड़की हूं. अपने राइट्स जानती हूं.’’

इस से ज्यादा सुनना लड़के के बस में नहीं था. वह गुस्से से बाहर निकल आया. मांबाप कुछ समझतेपूछते कि उस ने कहा, ‘‘यह शादी नहीं हो सकती. फौरन वापस चलिए,’’ लड़का गाड़ी में बैठ गया.

‘‘क्या हुआ? क्या हुआ?’’ कहते हुए लड़की के परिवार वाले दौड़े.

लड़के ने कहा, ‘‘अपनी लड़की से पूछ लेना.’’

लड़का अपने परिवार के साथ गाड़ी में बैठ कर उड़नछू हो गया.

‘‘अरे, अभागिन, क्या कह दिया तूने,’’ लड़की की मां ने गुस्से से लड़की से कहा. इतना अच्छा रिश्ता हाथ से निकल गया. जन्मपत्री भी मिल रही थी. सरकारी नौकरी वाला लड़का मिलता कहां है आजकल.

लड़की ने अपने बचाव में कह दिया लागलपेट कर, ‘‘अरे मां, अच्छा हुआ, बात करवा दी आप ने. लड़का एक नंबर का शराबीकबाबी है. किसी लड़की से अफेयर की बात भी कह रहा था और भी न जाने क्याक्या बताया मां उस ने.’’

लड़की के मांबाप ने मान भी लिया. जब अपनी ही लड़की बताए तो मांबाप विश्वास क्यों नहीं करेंगे. फिर कौन सी लड़की होगी जो अपनी शादी अपने हाथ से तोड़ कर अपना भविष्य बरबाद करेगी.

रात को लड़की ने अपने कमरे में जा कर मोबाइल लगाया.

‘‘हाय, जानेमन कैसे हो?’’

‘‘क्या हुआ?’’

‘‘होना क्या था. उलटे पांव भगा दिया साले को.’’

‘‘वैरी गुड डार्लिंग, लेकिन अब आगे?’’

‘‘आगे क्या? प्यार करते हो तो आ कर बात करो मेरे मांबाप से.’’

‘‘नहीं माने तो.’’

‘‘नहीं माने तो हमें कौन सा लैलामजनूं बन कर भटकना है. कोर्ट मैरिज कर लेंगे.’’

‘‘लेकिन उस में 1 महीना लगता है. उस के पहले कोई और आ गया तो.’’

‘‘तो ठीक है यार, मंदिर में कर लेंगे.’’

‘‘लेकिन यह बताओ, आखिर तुम ने कहा क्या उस लड़के से जो वह भाग गया.’’

‘‘सच कहा, केवल सच.’’

‘‘सच सुन कर भाग गया.’’

‘‘अरे, आजकल सच बरदाश्त कौन करता है.’’

‘‘और तुम्हारा सच बरदाश्त कर लेता तो.’’

‘‘तो कर लेती.’’

‘‘क्या…क्या…कहा?’’

‘‘हां, कर लेती यार, आजकल सच्चा आदमी मिलता कहां है?’’

‘‘और मेरा क्या होता?’’

‘‘तुम कौन से देवदास बने घूमते. ढूंढ़ लेते कोई और.’’

‘‘बहुराष्ट्रीय कंपनियों में काम करतेकरते हम सचमुच कितने प्रैक्टिकल हो गए हैं. दिल तो जैसे है ही नहीं. न आत्मा, न मन, न जमीन, बस मुनाफा मोटी तनख्वाह, कितनी बेशर्म और बेहया हो गई है हमारी सोच. बिलकुल मशीन हो गए हैं हम लोग,’’ उधर से पे्रमी का दार्शनिक स्वर सुनाई दिया.

लड़की ने कहा, ‘‘ओए, ज्यादा जज्बातजमीर की बातें मत कर. जल्दी से कंपनी का टारगेट पूरा कर. 4 भोलेभाले, भविष्य की चिंता करने वालों को सपने दिखा, कमा, लूट और अपनी जगह पक्की कर.’’

‘‘मान लो, मैं किसी वजह से तुम से शादी न कर सकूं, मना कर दूं किसी मजबूरी के कारण या कोई और पसंद आ जाए, तब क्या होगा तुम्हारा,’’ पे्रमी का स्वर गंभीर था.

‘‘तो क्या होगा कुछ नहीं, मुझे पुरानी फिल्मों की मीनाकुमारी समझ रखा है क्या? तुम नहीं तो और सही, नहीं तो…’’

‘‘अच्छा, ठीक है. अब यह बकवास बंद कर. रात बहुत हो गई है. आई लव यू बोल और फोन रख,’’ लड़का हंसते हुए बोला.

‘‘ओ के कल मिलते हैं.’’

‘‘ओ के, बाय गुडनाइट.’’

‘‘बाय, स्वीट ड्रीम्स’’

‘‘और दोनों तरफ से मोबाइल बंद हो गया.’’

जोरू का गुलाम : रोहिणी और सासूमां का कैसा था रिश्ता

दफ्तर से आज आधे दिन की छुट्टी ले कर रोहिणी घर आ गई. वह चाहती तो थी कि सीधे डाक्टर के पास चली जाए लेकिन दोपहर का वक्त था और इस वक्त उस लेडी डाक्टर की डिस्पैंसरी बंद होती है जिसे रोहिणी दिखाना चाहती थी. वैसे भी कल्याण में जहां रोहिणी का घर है वहां से डिस्पैंसरी ज्यादा दूर नहीं है इसलिए उस ने सोचा कि वह अपने पति अलंकार के दफ्तर से लौटने के पश्चात उस के साथ चली जाएगी.

पिछले कुछ दिनों से रोहिणी को सुबह उठने में काफी तकलीफ हो रही थी. उसे बहुत ज्यादा आलसपन भी महसूस होने लगा था और कभीकभी सुबह के वक्त हलका बुखार भी रहता. वह किचन में भी ठीक से खाना नहीं बना पा रही थी. किचन में मसालों की गंध उसे असहनीय लगने लगे थी. पहले तो रोहिणी को लगा कि शायद मौर्निंग सिकनैस की वजह से उसे ऐसा हो रहा है लेकिन आज तो औफिस में भी उसे काम करने में बड़ी तकलीफ होने लगी तो वह घर आ गई और आते वक्त अलंकार को भी फोन पर बता दिया ताकि वह भी घर जल्दी आ जाए और वे दोनों डाक्टर के पास जा सके.

वी.टी से कल्याण की दूरी ट्रेन से लगभग 2 घंटे की है, जिस की वजह से घर आते हुए रोहिणी पूरी तरह से थक चुकी थी. वैसे तो वह रोज ही थक जाती थी पर आज उसे कुछ ज्यादा ही थकान महसूस हो रही थी. रोहिणी ने सोचा कि घर जाते ही वह पहले थोड़ी देर आराम करेगी उस के बाद ही घर के कामों को हाथ लगाएगी लेकिन यहां घर पहुंची तो उस ने देखा सासूमां संपदा सोफे पर लगभग लेटी हुई हैं और ससुरजी किचन में हैं. आमतौर पर ससुरजी किचन में कम ही दिखाई देते थे. रोहिणी कुछ कहती उस से पहले ही उसे दफ्तर से जल्दी आया देख संपदा कहने लगीं, ‘‘अरे रोहिणी तुम जल्दी आ गई हो. चलो अच्छा हुआ. मेरे सिर में काफी दर्द है, मेरे बहुत मना करने पर भी तुम्हारे बाबा मेरे लिए चाय बना रहे हैं, जरा तुम जा कर देख लो वे ठीक से चाय बना भी रहे हैं या नहीं. तुम तो जानती हो मैं ने कभी दूसरी औरतों की तरह इन्हें जोरू का गुलाम बना कर नहीं रखा, कभी इन से घर का कोई काम नहीं कराया इसलिए तो इन्हें ठीक से चाय बनाना भी नहीं आता. अब तुम आ ही गई हो तो जा कर जरा चाय बना लाओ और सुनो मेरे लिए पानी की गरम थैली भी ले आना. न जाने क्यों आज सुबह से मेरे घुटनों में भी दर्द है.’’

रोहिणी कोई प्रतिक्रिया व्यक्त करती उस से पहले ही रोहिणी के ससुर चाय और गरम पानी की थैली ले कर आ गए. रोहिणी को जल्दी आया देख कर बोले, ‘‘अरे बेटा तुम कब आई? पता होता तो तुम्हारे लिए भी चाय बना देता. लो तुम मेरी चाय ले लो. मैं अपने लिए दूसरी बना लेता हूं.’’

यह सूनते ही संपदा भड़क गई और कहने लगी, ‘‘ये कैसी बातें कर रहे हैं आप? घर में

बहू के होते हुए आप चाय बनाएंगे शोभा देगा क्या? आप चाय पीजिए, यह अपने लिए चाय खुद बना लेगी. तुम जाओ रोहिणी कुछ खाने के लिए भी बना कर ले आओ और अपने लिए चाय भी बना लेना.’’

रोहिणी की आंखें नम हो गईं. वह चिल्ला कर कहना चाहती थी कि उस की तबीयत ठीक नहीं है, उसे किचन से आने वाले मसाले की स्मैल बरदाश्त नहीं हो रही है और वह इस वक्त आराम करना चाहती है लेकिन उस ने ऐसा कुछ नहीं कहा क्योंकि वह जानती थी कि यदि अभी वह कुछ भी कहेगी तो घर पर महाभारत छिड़ जाएगा और वह न डाक्टर के पास चैकअप के लिए जा पाएगी और न ही अभी आराम कर पाएगी इसलिए रोहिणी चुपचाप किचन में जा कर परेशानी होते हुए भी पकौड़े बना कर ले आई और संपदा के सामने रख कर अपने कमरे में चली गई.

संपदा नहीं चाहतीं कि रोहिणी के रहते कोई और घर के काम करे क्योंकि उन का मानना था कि घर की बहू को ही घर के सारे काम करने चाहिए, इसी में सास का मान और शान है. यदि अलंकार कभी रोहिणी की किचन में या किसी और काम में हाथ बंटाने की कोशिश भी करता तो वे अपने बेटे को जोरू का गुलाम कहने से नहीं चूकतीं. यह जुमला अलंकार के पुरुषत्व को ठेस पहुंचाता. यह बात संपदा बखूबी जानती थी. अलंकार इसलिए संपदा या घर के किसी अन्य सदस्य की उपस्थिति में रोहिणी की किसी भी प्रकार से मदद करने से कतराता. थोड़ी देर आराम करने के बाद भी रोहिणी की थकान दूर नहीं हुई.

तभी संपदा की आवाज आई, ‘‘रोहिणी… रोहिणी तुम्हारा आराम फरमाना हो गया हो तो रात के खाने की तैयारी शुरू कर दो, आज आनंद और संगीता आ रहे हैं. दोनों रात का खाना खा कर ही जाएंगे. कुछ अच्छा बना लेना.’’

रोहिणी सम?ा गई अब आराम कर पाना संभव नहीं क्योंकि जब भी उस की ननद संगीता और ननदोई आनंद घर आते हैं कोई अपनी जगह से हिलता तक नहीं है. पानी भी सब के हाथों में ले कर पकड़ाना पड़ता है.

संगीता और संपदा दोनों मांबेटी रूम में ऐसे जम कर बैठ जाती हैं जैसे बात करने के अलावा घर पर कुछ और काम ही न हो. ससुरजी और अलंकार भी बस आनंद के साथ ही बैठे रहते हैं और हर थोड़ी देर में चाय और उस के साथ

कुछ न कुछ खाने की फरमाइश का यह सिलसिला तब तक चलता रहता है जब तक संगीता और आनंद घर वापस नहीं लौट जाते और बेचारी रोहिणी दौड़दौड़ कर सब की फरमाइशें भी पूरी करती और संगीता के 2 साल के बेटे मोनू को

भी संभालती.

जब भी रोहिणी इस विषय में अलंकार से कुछ कहती तो उस का बस एक ही जवाब होता, ‘‘तुम क्या चाहती हो तुम्हारे रहते आनंद के सामने मां घर का काम करें या कुछ घंटों के लिए आई मेरी बहन तुम्हारा हाथ बंटाए? अपनी ससुराल में तो वह बेचारी काम करती ही है. अब यहां भी करे या फिर तुम यह चाहती हो कि मैं तुम्हारे आगेपीछे घूमूं, किचन में तुम्हारा हाथ बटाऊं ताकि लोग मु?ो जोरू का गुलाम कहें.’’

 

इतना सब सुनने के बाद रोहिणी के पास कुछ कहने को रह ही नहीं जाता और

उस की जबान पर बस यह बात आ कर ठहर जाती कि इतना पढ़नेलिखने के बाद आज भी लोगों की मानसिकता वहीं के वहीं है. अब भी उन की सोच में कोई बदलाव नहीं है. यदि कोई पति घर के काम करता है या फिर अपनी पत्नी का किसी काम में हाथ बंटाता है तो वह जोरू का गुलाम और पत्नी घर से बाहर जा कर अपने कार्य क्षेत्र में पूरा दिन काम करती है, अपने पति का आर्थिक रूप से सहयोग करती है, घर का पूरा काम करती है, घर के हर सदस्य के जरूरतों का खयाल रखती है तो वह क्या है? घर की बहू है या घर की गुलाम. रोहिणी अपने ही विचारों में खोई हुई थी कि संपदा ने फिर आवाज लगाई और रोहिणी तबीयत ठीक न होने के बावजूद किचन में आ कर काम करने लगी. उस ने सारा खाना आनंद और संगीता की पसंद अनुसार ही बनाया ताकि उसे यह सुनने को न मिले कि अरे यह क्या बना दिया, यह तो आनंद को पसंद नहीं या फिर यह तो संगीता नहीं खाती उस की पसंद का कुछ और बना दो.

खाना बनतेबनते ही अलंकार भी दफ्तर से लौट आया और थोड़ी देर में संगीता भी अपने पति और बेटे के साथ आ पहुंची. सभी को चायनाश्ता कराने के बाद जब रोहिणी ने अलंकार से कहा, ‘‘चलो हम डाक्टर के पास चलते हैं. तुम तो जानते हो मेरी तबीयत बिलकुल भी ठीक नहीं चल रही है, खाने के वक्त तक हम लौट आएंगे.’’

रोहिणी के ऐसा कहते पर अलंकार कहने लगा, ‘‘अरे यह तुम क्या कह रही हो? अभी संगीता और आनंद आए हुए हैं उन्हें इस तरह छोड़ कर जाना अच्छा नहीं लगेगा और फिर आनंद क्या सोचेगा मेरे बारे में. एक काम करते हैं कल चलते हैं.’’

आनंद से यह सब सुन रोहिणी से रहा नहीं गया और वह बोल पड़ी, ‘‘कोई क्या सोचेगा, कौन क्या कहेगा इस बात की चिंता है तुम्हें लेकिन बीवी की सेहत खराब है, वह उसी हालत में घर और बाहर के काम रह रही है इस बात का खयाल नहीं है क्योंकि तुम्हें तो सिर्फ और सिर्फ अपनी इमेज की ही चिंता है. यदि मेरे साथ चले जाओगे तो कहीं कोई तुम पर यह व्यंग्य न कस दे कि देखो जोरू का गुलाम अपनी बीवी का पल्लू पकड़ कर चला गया, तो ठीक है तुम अपनी इमेज संभालो मैं मम्मीजी से बात कर लेती हूं और डाक्टर को दिखा आती हूं,’’ कह कर रोहिणी वहां से चली गई.

 

शादी के 1 साल बाद आज पहली बार रोहिणी ने इस प्रकार अलंकार से

बात की. इस से पहले उस ने कभी न अलंकार से और न ही घर के किसी दूसरे सदस्य से इस तरह ऊंची आवाज में बात

की थी.

रोहिणी गुस्से में तमतमाती हुई संपदा के कमरे की ओर बढ़ी, जहां संगीता और संपदा बातें कर रहे थे. जब रोहिणी कमरे के करीब पहुंची तो उस ने सुना संगीता अपने पति आनंद की शिकायत संपदा से कर रही है. वह कह रही थी, ‘‘मम्मी ये आनंद मेरी कोई बात नहीं सुनते और न ही मानते हैं, घर के किसी भी काम में मेरा हाथ नहीं बंटाते. घर का सारा काम और उस पर छोटे बच्चे को संभालना. मैं सुबह से ले कर शाम तक काम कर के थक जाती हूं. अगर मैं आनंद से कुछ करने को कहती हूं तो उलटा वे मु?ा से नाराज हो कर कहने लगते हैं कि मैं कोई जोरू का गुलाम नहीं हूं जो तुम्हारे इशारे पर काम करूं और यदि कभी आनंद हैल्प करना भी चाहें तो सासूमां इन्हें जोरू का गुलाम कह कर ताने देने लगती हैं. एक दिन तो सासूमां मु?ा से कहने लगीं कि तुम्हारे मायके में भी तुम्हरी भाभी ही सारा काम करती है जबकि वह तो जौब भी करती हैं फिर तुम क्यों नहीं कर सकती. मम्मी मैं तो तंग आ गई हूं, कुछ सम?ा ही नहीं आ रहा क्या करूं.’’

‘‘अरे तुम परेशान क्यों होती हो, तुम आनंद को सम?ाने की कोशिश करो. घरगृहस्थी अकेले से नहीं चलती पतिपत्नी दोनों को मिल कर इस गृहस्थीरूपी गाड़ी को चलाना पड़ता है. आनंद जरूर सम?ा जाएगा और तुम सब के सामने आनंद से कभी कुछ काम करने को मत कहा करो. तुम ने कभी देखा है, मैं तुम्हारे पापा से कभी किसी के सामने कुछ काम करने को कहती हूं नहीं न? ऐसा नहीं है तुम्हारे पापा चाय नहीं बनाते या घर का कोई काम नहीं करते, सब करते हैं लेकिन अकेले में इसलिए जब तुम दोनों अकेले में होते हो तभी आनंद से कुछ काम करने को कहा करो. इस से तुम्हारी सास को ताने मारने का मौका ही नहीं मिलेगा सम?ा?’’ संपदा सम?ाती हुई संगीता से कह रही थीं.

सारी बातें सुनने के बाद रोहिणी ने कमरे में यों प्रवेश किया जैसे उस ने कुछ सुना ही न हो. रोहिणी को कमरे में देख संपदा और संगीता ऐसे घबरा गई जैसे उन की कोई चोरी पकड़ी गई हो.

रोहिणी बढ़ी विनम्रतापूर्वक बोली, ‘‘मम्मीजी आज मेरी डाक्टर से अपौइंटमैंट है, मु?ो जाना है, मैं जल्दी ही लौट आऊंगी खाने के पहले.’’

समय की नजाकत को देखते हुए संपदा ने रोहिणी को जाने की इजाजत दे दी. जब रोहिणी घर लौटी तो अलंकार की आंखों में पछतावा और दुख था. वह जानता था कि रोहिणी को उस की जरूरत है. वैसे रोहिणी आत्मनिर्भर है. वह अकेले जा सकती है लेकिन रोहिणी के साथ जाना उस का फर्ज था और वे लोग क्या कहेंगे कि मायाजाल में फंस कर रह गया.

रोहिणी को देखते ही संपदा ने कहा, ‘‘सब ठीक तो है न? डाक्टर ने क्या कहा?’’

रोहिणी गहरी सांस भरती हुई बोली, ‘‘मम्मीजी फिक्र की कोई बात नहीं है सब ठीक है बस कल एक टैस्ट करवाना है,’’ कह कर रोहिणी सब के लिए खाना परोसने लगी.

सभी के खाना खाने और संगीता व आनंद के जाने के पश्चात रोहिणी ने अलंकार को सम?ाया कि परेशान होने वाली कोई बात नहीं है क्योंकि अलंकार टैस्ट की बात सुन कर घबरा गया था. उस के चेहरे से यह बात साफ ?ालक रही थी.

दूसरे दिन जब शाम को रोहिणी की रिपोट आई तो पता चला कि रोहिणी मां बनने वाली है.

यह सुन कर सभी के चेहरे पर खुशी

की लहर दौड़ गई. रोहिणी को मां बनने की खुशी तो थी लेकिन वह यह बात भी जानती थी कि बच्चे के आने के बाद उस की जिम्मेदारियां और काम दोगुना हो जाएंगा क्योंकि अब भी रोहिणी की परिस्थितियों में कोई परिवर्तन नहीं था.

रोहिणी मां बनने वाली है यह जानने के बावजूद न संपदा घर के कामों में उस का हाथ बंटा रही थीं और न अलंकार. संपदा को घर के कामों में रोहिणी का हाथ बंटाना सास की शान के खिलाफ लगता और अलंकार जोरू का गुलाम नहीं कहलाना चाहता था. अब तो संपदा के ताने की लिस्ट में कुछ और ताने भी जुड़ गए थे जैसे आजकल की बहुएं तो पति को उंगलियों पर नचाना चाहती हैं, अरे भई हम ने भी तो 2-2 बच्चे जने हैं और उन्हें बिना किसी की मदद से बड़ा किया है. हमें तो कभी किसी की मदद की जरूरत नहीं पड़ी और आजकल की लड़कियां तो बस ससुराल वालों से काम कराने के मौके ढूंढ़ती रहती हैं.

रोहिणी घर के काम, दफ्तर के काम और अपनी प्रैगनैंसी की वजह से स्वास्थ्य में हो रहे उतारचढ़ाव से परेशान होने लगी थी लेकिन उसे कोई रास्ता ही नजर नहीं आ रहा था. वह अलंकार को सम?ा ही नहीं पा रही थी कि घर का काम करना या पत्नी का हाथ बंटाने का अर्थ जोरू का गुलाम नहीं होता.

 

अचानक रविवार की एक सुबह संगीता रोती हुई अपने बेटे मोनू के

साथ घर पहुंची. संपदा बेटी को इस हाल में देख कर घबरा गई. अलंकार और उस के पिता भी परेशान हो गए. संगीता लगातार बिना कुछ कहे रोए जा रही थी.

तभी रोहिणी संगीता को शांत कराती हुई बोली, ‘‘आखिर बात क्या है जो तुम इस तरह आ गई हो? कुछ तो बताओ?’’

तब संगीता रोती हुई कहने लगी, ‘‘भाभी, आनंद मेरी कोई हैल्प नहीं करते. आज सुबह मैं किचन में थी और मोनू ने अपनी ड्रैस गीली कर ली और जब मैं ने आनंद से कहा कि वे मोनू की ड्रैस चेंज कर दें तो वे मु?ा से ?ागड़ने लगे और कहने लगे कि यह तुम्हारा काम है, तुम संभालो और जब मैं ने कहा कि मैं किचन में इंगेज हूं तो आनंद मु?ा से कहने लगे कि मैं कोई जोरू का गुलाम नहीं जो तुम्हारे इशारे पर नाचूं और इतना ही नहीं आज तो आनंद ने मु?ा पर हाथ भी उठा दिया. अब आप ही बताइए भाभी अपने बच्चे के कपड़े बदलने से क्या कोई जोरू का गुलाम हो जाता है? ऊपर से यदि किसी दिन आनंद मेरी कोई हैल्प करना भी चाहें तो सासूमां उन्हें जोरू का गुलाम कह कर रोक देती हैं.’’

संगीता का इतना कहना था कि संपदा संगीता को डांटते हुए कहने लगीं, ‘‘मैं ने तुम से कितनी बार कहा है सब के सामने आनंद से काम करने को मत कहा कर. जो कहना है अकेले में कहा कर. तु?ो सम?ा नहीं आती क्या मेरी बात?’’

संपदा का इतना कहना था कि रोहिणी के संयम का बांध टूट गया और वह संपदा से कहने लगी, ‘‘क्यों अकेले में कहेंगी, पति जब चाहे सब के सामने अपनी पत्नी को थप्पड़ जड़ सकता है, जो मन में आए कह सकता है और पत्नी अपने पति से एक काम नहीं कह सकती. छोटी सी हैल्प की उम्मीद नहीं रख सकती क्यों? यह सब आप जैसे लोगों की दोहरी व निम्न मानसिकता का नतीजा है.

‘‘जब एक पत्नी, पति का हर छोटे से छोटा काम करती है तो वह पत्नी धर्म कहलाता है और पति का पत्नी के प्रति कोई धर्म नहीं है. मम्मीजी यदि आप संगीता को यह सम?ाने के बजाय कि अपने पति से अकेले में काम के लिया कहा कर आनंद को यह सम?ातीं कि पत्नी का हाथ बंटाने से पति जोरू का गुलाम नहीं होता तो यह नौबत नहीं आती. किसी ने बिलकुल ठीक ही कहा है बोया पेड़ बबूल का तो आम कहां से पाएं.’’

जब रोहिणी यह सब कह ही रही थी आनंद भी वहां आ गया था और सिर ?ाकाए खड़ा था. अलंकार की आंखें भी शर्म और पछतावे से ?ाकी हुई थीं. संपदा को भी इस बात का दुख था कि वह स्वयं एक नारी हो कर नारी के दर्द को सम?ाने में चूक गई.

अभी यह सब चल ही रहा था कि रोहिणी के ससुर सब के लिए चाय बना कर ले आए.

यह देख कर संपदा ने कहा, ‘‘चाय के साथ नमकीन भी हो जाए.’’

यह सुन कर रोहिणी किचन की ओर मुड़ी ही थी कि अलंकार ने कहा, ‘‘तुम आराम से बैठो नमकीन मैं ले आता हूं क्योंकि अब मैं सम?ा चुका हूं कि पत्नी का हाथ बंटाने से पति जोरू का गुलाम नहीं हो जाता.’’?

यह सुन कर पूरा हौल ठहाकों से गूंज उठा.

प्यार की झंकार : लव मैरिज के बावजूद भी मृगया और राज के बीच क्यों बढ़ने लगी दूरियां ?

Writer- Savi Sharma

‘‘मृगया कहां हो? कुछ चैक साइन करने हैं,’’ राज ने फोन कर मृगया से कहा. वह आज औफिस नहीं आई थी कुछ काम था.

‘‘थोड़ी देर में आ जाऊंगी,’’ मृगया बोली.

अब अकसर राज मृगया से चैक साइन करवाने में ?ां?ालाने लगा. उस ने मृगया से कहा कि चैक साइन करने की पावर मु?ो भी दो. मगर वह इस विषय पर खामोश हो जाती. उस के लिए यह निर्णय आसान नहीं था वह अभी भी राज पर इतना यकीन नहीं कर पाई थी कि उसे पावर दे या बिजनैस में हिस्सेदार बनाए.

अब राज मृगया से छोटीछोटी बातों पर ?ागड़ा करता. राज के स्वभाव में चिड़चिड़ापन आने लगा.

‘‘मृगया कहां हो?’’ राज बाहर से आ कर रात 10 बजे घर में घुसते हुए चिल्लाया.

मृगया जो कृश को सुलाने की कोशिश कर रही थी कमरे से निकल बाहर आई, ‘‘क्यों चिल्ला रहे हो?’’

‘‘राज, मैं ने तुम्हें कितनी बार फोन मिलाया तुम ने नहीं उठाया. आज दोस्त भी हंस रहे थे कि मेरी औकात कुछ नहीं है. बिल ज्यादा हो गया तो मैनेजर ने भी बिन तुम से बात किए पैसे देने से मना कर दिया,’’ अपमान और ग्लानि से राज का चेहरा तमतमा रहा था, ‘‘मेरी हैसियत ही क्या है. तुम मालकिन और मैं क्या?’’

मृगया पलभर को सकते में आ गई कि कहीं उसे राज को सम?ाने में कोई गलती तो नहीं हुई. उसे याद आने लगा राज का भोला चेहरा, भोली सी बच्चे जैसी मुस्कान और उस का मृगया के लिए सोचना. वह अतीत के बादलों पर पिघलने लगी…

राज ने देखा आज मृगया औफिस पहले आ गई. पूछा, ‘‘अरे आज आप इतनी जल्दी? पहले रोज देर हो जाती थी?’’ राज ने मुसकरा कर कहा.

‘‘मृगया ने एक नजर राज को देखा और फिर अपने कैबिन की ओर बढ़ गई. उस के पास समय ही नहीं होता है कि फालतू किसी की बात पर ध्यान दे.

पहले घर देखो भले ही कितने काम वाले हों फिर भी देखना तो पड़ता ही है. एक छोटा बेटा, बिस्तर पर पड़ी सास और इतना बड़ा घर. गार्डन भी खूब बड़ा और खूबसूरत, पति मृदुल को कितना शौक था फूलों का. दिन चांदी के रातें सोने की थीं.

रात के 11 बजे अचानक फोन आया. अभी 2 घंटे पहले मृदुल बिजनैस के सिलसिले में अमेरिका की फ्लाइट में बैठे थे टेक औफ के पहले बात हुई थी निश्चिंत हो वह सो गई थी. एक साल का कृश उस के पास सो रहा था.

‘‘हैलो आप को खेद के साथ सूचित कर रहे हैं जो फ्लाइट अमेरिका के लिए उड़ी थी. वह तकनीकी खराबी के कारण इमरजैंसी लैंडिंग में क्षतिग्रस्त हो गई है यात्रियों को काफी चोटें आई हैं, पूरी डीटेल बाद में दी जाएगी.’’

सपनों को वक्त का बाज इस तरह भी नोचता है यह कल्पना मृगया की सोच से परे थी.

जिंदगी ने आसमान से अचानक जमीन पर ला पटका. मृदुल उस के जीवन में सुख के हस्ताक्षर कर वाष्प बन न जाने कहां अंतरिक्ष में छिप गया. मृदुल तो चले गए रह गया बड़ा बिजनैस, मां और छोटा बेटा. मृगया की सोचने की शक्ति ही खत्म हो गई.

मां ने तो बेटे के गम में बिस्तर ही पकड़ किया. मृगया जो खिलाती चुपचाप खातीं. चुपचाप शून्य में निहारती रहतीं. वक्त ने दूसरी बार यह घाव दिया था. मृदुल के पिता भी जब मृदुल 8वीं में था तभी छोड़ गए थे. अब दोबारा यह घाव उन्हें पत्थर बना गया.

मृगया ने वक्त के साथ संभलना शुरू किया. शायद जिंदगी के साथ चलतीफिरती मशीन बन गई थी.

राज को मृगया की पूरी स्थिति पता थी. यह भी जानता था कि इस के पति का बहुत बड़ा बिजनैस था.

अभी कुछ दिनों पहले ही मृगया ने औफिस शुरू किया था पर अब वह नौकरी छोड़ने का निर्णय कर रही थी.

राज ने नौक कर पूछा, ‘‘क्या मैं आ सकता हूं?’’

मृगया ने सपाट स्वर में जवाब दिया, ‘‘आइए,’’ फिर सीट की तरफ इशारा किया, बैठिए.’’

‘‘राज,’’ अगर आप नाराज न हों तो आप से एक सवाल पूछना चाहता हूं?’’

‘‘पूछिए.’’

‘‘आप नौकरी छोड़ रही हैं?’’

‘‘हां, अब पति का काम संभालना है, पहले यह नौकरी अपने शौक के लिए करती थी, अब समय नहीं है.’’

औपचारिक बातें कर राज मृगया के सामने प्रस्ताव रख गया कि यदि उसे बिजनैस में किसी सहायता की आवश्यकता हो तो वह ख़ुशी से करेगा.

आज 8 महीने हो गए. मृगया पति के बिजनैस को संभाल रही है. पति के रहते कभी उसने बिजनैस स्किल सम?ाने की कोशिश ही नहीं की या उसे यह एक आफत ही लगता था. हां कंपनी में जौब करना अलग बात है पर पूरा बिजनैस संभालना अलग बात है. दिनोंदिन उस की उल?ान बढ़ती जा रही थी.

‘‘हैलो राज क्या तुम मेरे औफिस आ

सकते हो?’’

‘‘हां, बताइए कब आना है?’’

‘‘कल 1 बजे मेरे औफिस आ कर मिलो.’’

‘‘ओके.’’

अगले दिन राज मृगया के औफिस आया. औपचारिक बातों के बाद मृगया ने उसे अपना औफिस जौइन करने के लिए कहा.

राज ने हामी भर दी. उस की भोली सूरत पर छाई चिंता की लकीरें उसे अपनी ओर खींचती थीं. फिर मृगया का औफर भी अच्छा था.

अब कभीकभी मृगया के घर भी राज को जाना पड़ता. कुछ काम के बारे में जल्दी निर्णय लेना होता तो घर चला जाता.

घर जा कर कभी मां का हाल लेता कभी आया के साथ खेल रहे बच्चे से बात करता.

अब बिना फोन किए भी राज मृगया के घर चला जाता. अभी तक उस की शादी भी नहीं हुई थी. मातापिता गांव में रहते थे.

एक रोज काम के बारे में बात करते रात के 10 बज गए.

‘‘अरे, आज तो बहुत देर हो गई है. अब खाना खा कर जाना,’’ मृगया बोली.

राज भी मान गया.

औपचारिक से कब अनौपचारिक हो गए राज और मृगया पता ही नहीं चला.

एक रात सोते में राज ने सपना देखा कि उस की और मृगया की शादी हो रही है. अचानक हड़बड़ाहट में उठ बैठा. पूरा पसीने में भीग था. न जाने कितने सवालों ने आ घेरा. खुद भी तो यही चाह रहा था फिर यह बेचैनी क्यों? पूरी रात आंखों में निकल गई. एक पल न सो सका.

एक दिन इतवार को राज ने मृगया को फोन किया, ‘‘मृगया, मैं बहुत दिनों से तुम से कुछ कहना चाह रहा हूं.’’

‘‘कहो.’’

‘‘अगर हम बंधन में बंध जाएं तो? देखो कृश भी मु?ा से घुलमिल गया है और मैं भी तुम को…’’

‘‘मैं भी क्या?’’ मृगया ने ठंडे स्वर में पूछा.

‘‘मैं भी तुम से प्यार करता हूं,’’ राज हकलाते हए कह गया.

‘‘तुम जानते हो मैं विधवा हूं और एक बच्चा है. अभी तुम भावावेश में कह रहे हो… फिलहाल अभी मैं ने कुछ सोचा नहीं है.’’

‘‘मृगया कहां हो? सब काम निबट गया हो तो जरा आना,’’ मां ने मृगया को आवाज लगाई.

मृगया आई तो मां ने स्नेह से पास बैठाया और सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए  कहा, ‘‘मृगया… बेटा राज अच्छा इंसान है. देख ले, सोच ले जल्दी नहीं है. मैं जानती हूं तू मृदुल को बहुत प्यार करती है. पर मैं कब तक जिंदा रहूंगी. कृश और तुम्हारा पूरा जीवन पड़ा है. तेरा सारा बिजनैस संभालने में भी मदद कर रहा है. भला इंसान है.’’

‘‘ठीक है मां सोचती हूं पर कहीं धोखा दिया तो? अगर मन में पैसों का लालच हुआ तो? अभी कुंआरा है फिर एक विधवा से शादी?’’

‘‘बेटा, तुम शुरू में बिजनैस में सां?ा मत करना. कुछ समय देखना फिर जो ठीक लगे करना.’’

आखिर कुछ दिन बाद मृगया ने राज से शादी के लिए हां कह दी. राज और मृगया विवाह बंधन में बंध गए. मृगया ने तमाम उल?ानें मन में समेटे राज के साथ नए वैवाहिक जीवन में कदम रखा.

दोनों साथ मिल कर औफिस जाते. काम को और बेहतर तरीके से करने लगे. अब मृगया राज पर कुछकुछ विश्वास करने लगी थी. शादी को साल होने को आया. अगले महीने ही तो ऐनिवर्सरी है.

मगर आज राज का यह रूप अचानक उस की सोच को विराम लगा. मृगया जैसे अतीत से वर्तमान में लौट आई. एक अनिश्चितता ने उसे परेशान कर दिया. वह सीधे अपनी सासूमां के पास जा कर गमसुम बैठ गई.

मां ने देखा कि मृगया परेशान है. बोलीं, ‘‘यहां आओ बेटा, कोई दुविधा है?’’ कहते हुए उन्होंने उसे पास बैठा लिया.

मृगया फूटफूट कर रो पड़ी ‘‘क्या हुआ, ऐसे क्यों रो रही हो बेटा?’’

‘‘मां जिस का डर था वही हुआ, राज कह रहे हैं उन्हें शादी कर के क्या मिला. आज चिल्ला रहे थे कि 1-1 पैसे के लिए हाथ फैलाना पड़ता है. मां मैं ने गलती की राज से शादी कर के.’’

‘‘नहीं मृगया ऐसी बात नहीं. सोच राज अच्छा नौजवान व पढ़ालिखा लड़का है. उसे लड़कियों की कमी नहीं थी. वह तेरे पास आया. तु?ो अपनाया. कृश को भी पिता का प्यार दिया, अपना नाम दिया. लेकिन सोच उस के पास सबकुछ दे कर अधिकार क्या है? वह ठीक कह रहा है अगर अब भी उसे हर बार पैसे के लिए मैनेजर को फोन करना पड़े तो उस का अपमान ही होगा और तेरा भी. मृगया उसे अब पूरी तरह अपना ले उसे उस के अधिकार दे कर.’’

मृगया सोचने लगी मां ठीक कह रही हैं मृदुल के बाद उस का जीवन कितना

नीरस हो गया था. जीवन मशीन की तरह चल रहा था. उस नीरस जीवन में राज ने ही रंग भरे हैं. कृश को भी पिता का प्यार मिला. राज ने उसे अपना जीवन दे दिया और वह खुद अब तक भ्रम में ही खड़ी है. कहीं ऐसा न हो वह प्यार की ?ांकार अब न सुन पाए तो पूरा जीवन बिन प्यार खाली ही गुजरेगा? मृदुल तो उस का अतीत था. उस का आज सिर्फ और सिर्फ राज है. अब पूरा हक दे कर उसे अपनाएगी. उस ने मुसकरा कर दूर से आते राज को देखा और समर्पण, प्यार और विश्वास से उस की आंखों में सतरंगी धनुष खिलने लगे.

काश… यह मेरी बहू बन जाए

राइटर-  डा. अनिता राठौर मंजरी

मैं 21वीं मंजिल से लिफ्ट में चढ़ी और ग्राउंड फ्लोर का बटन दबा दिया. मैं ईवनिंग वाक पर लगभग इसी समय निकलती हूं. 20वीं मंजिल पर लिफ्ट रुकी एक सुंदर सी लंबी, गोरी और आकर्षक नैननक्श वाली प्यारी सी लड़की चढ़ी. उसे देख कर मन का पक्षी चहक उठा कि काश यह मेरी बहू बन जाए. पिछले 1 वर्ष से मैं पूरे जोरशोर से अपने आकर्षक एवं स्मार्ट इंजीनियर बेटे के लिए एक प्यारी सी बहू की तलाश में हूं. कुछ सोच कर उस से बोली, ‘‘बेटा, आप इसी टावर में रहते हो?’’

‘‘जी,’’ उस ने संक्षिप्त जवाब दिया और मोबाइल पर नजर गड़ा दी.

मुझे बहुत गुस्सा आया कि अजीब है बस जी कह दिया और मेरी बात को आगे बढ़ाने से पहले ही विराम दे दिया. ग्राउंड फ्लोर पर आते ही वह तेज कदमों से चल पड़ी. शायद वह भी वाक पर निकली थी. कानों में इयर फोन लगाए बातों में मशगूल हो गई. मैं ने भी वाक शुरू कर दी. वह आगेआगे और मैं पीछेपीछे. मु?ो एक पेड़ के फूल बहुत अच्छे लगते थे और रोज 5 मिनट वहां बैठ कर खुशबू का आनंद लेती थी. आश्चर्य वह भी उसी पेड़ के पास रुकी. फोन सुनते हुए खुशबू का मजा लिया. मेरा ध्यान पेड़ और उस के फूलों में कम लड़की की तरफ ज्यादा था. मैं चल पड़ी लेकिन वह देर तक फोन करती खड़ी रही. अब वह मेरे पीछे और मैं उस के आगे. मैं जानबू?ा कर पीछे नहीं देखा कि कहीं वह यह न सम?ो मैं उसे देख रही हूं.

मेरा मन हुआ मैं भी मोबाइल चलाऊं हालांकि मु?ो पता था कि मेरा नैट नहीं चलेगा क्योंकि घर में वाईफाई से कनैक्ट है.  बेटा कहता है मम्मी रिचार्ज करवा लो लेकिन मैं ही मना कर देती हूं. मैं घर में ही तो रहती हूं फिर रिचार्ज करवाने से क्या फायदा?

तभी ओपन जिम आ गया. मैं साइकिल चलाने लगी. वह भी व्यस्त हो गई. जब वह बैंच पर बैठी तो मैं भी उस की बगल में बैठ गई. मु?ो उस से बात करने की तरकीब सू?ा, ‘‘बेटा, देखना मेरा नैट नहीं चल रहा है.’’

वह कानों से इयर फोन निकाल कर बोली, ‘‘आंटी, आप ने कुछ कहा?’’

उस की शहद जैसी मीठी आवाज सुन कर मन में गुदगुदी हुई काश यह मेरी बहू बन जाए.

‘‘बेटा, देखना मेरा नैट क्यों नहीं चल

रहा है?’’

उस ने तुरंत मेरा मोबाइल देखा और बोली, ‘‘आंटी, लगता है आप का प्लान खत्म हो गया है. रिचार्ज करवाना होगा.’’

मु?ो मौका मिल गया हालांकि मैं रिचार्ज करा सकती थी फिर भी अनजान बन कर बोली, ‘‘प्लीज बेटा, आप मेरा रिचार्ज करवा दो. मेरा बेटा बाहर गया हुआ है. उस का फोन भी नहीं लग रहा. अपना नंबर दे देना. बेटे के आते ही मैं पेटीएम करवा दूंगी. मैं तुम्हारे ही टावर के 21वें फ्लोर पर रहती हूं.’’

‘‘ओके, आंटी कोई बात नहीं,’’ कहते हुए उस ने मेरा फोन रिचार्ज करवा दिया और मेरा नैट तुरंत चालू हो गया.

उस का नंबर मैं ने ले लिया. उस का नंबर पा कर मैं खुश हो गई. फिर एक बार लगा काश यह मेरी बहू बन जाए. अपनी वाक अधूरी छोड ़कर अपने टावर में आ कर जल्द ही लिफ्ट से ऊपर पहुंच गई और फ्लैट का ताला खोला. जल्दी से उस प्यारी सी बच्ची का नंबर सेव करने लगी. अरे, उस का नाम तो पूछा ही नहीं तो किस नाम से सेव करूं? फिर मन में मुसकान तैर गई और ‘प्यारी बहू’ के नाम से उस का नंबर सेव कर लिया. डर लगा अगर बेटे ने देख लिया तो चिल्लाएगा कि ये सब क्या है मम्मी? किस का नंबर इस नाम से सेव कर लिया है? फिर सोचा अपने फोन में कुछ भी करने के लिए उसे फोन ही  नहीं दूंगी.

व्हाट्सऐप पर जल्दी सर्च किया, ‘‘हैलो बेटा, मैं आर टावर के 21वें फ्लोर वाली…’’ एक  मुसकराहट वाली इमोजी डाल दी जानबू?ा कर आंटी नहीं लिखा. फिर जल्दी से उसे पेटीएम किया. उस का नाम परी था. सच में वह परी जैसी ही तो है. फिर मनमयूर नृत्य करने लगा काश यह मेरी बहू बन जाए…

जल्द ही कागजकलम ले कर परी के लिए कविता लिखने लगी. कविता लिखने में इतनी मशगूल हो गई कि पता ही नहीं चला बाहर घंटी बज रही है. गेट खोला.

बेटा आया. बोला, ‘‘मम्मी मु?ो पता है आप लिखने में इतना खो जाते हो कि आप घंटी तो दूर ढोलनगाड़े की आवाज भी नहीं सुनते,’’ और फिर जोर से हंस पड़ा, ‘‘क्या लिख रहे हो आप?’’

‘‘अपनी बहू के लिए कविता.’’

‘‘क्या कह रहे हो आप?’’

‘‘अरे मजाक कर रही हूं,’’ कह जल्द

ही उसे खाना दे कर मैं ने व्हाट्सऐप खोल

लिया. मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा. परी औनलाइन थी.

‘‘हैलो बेटा, मैं ने पेटीएम कर दिया है,’’ और फिर मैसेज कर के उसे स्क्रीन शौट भेज दिया.

‘‘थैंक्स आंटी, इतनी जल्दी क्या थी?’’ फिर वह औफलाइन हो गई.

रात में उस का स्टेटस देखा, ‘‘लोग कहते हैं कि जिद अच्छी नहीं होती मगर मेरी जिद है नफरत मिटाने और प्यार फैलाने की.’’

अरे ये तो मेरी स्वरचित पंक्तियां हैं. तो क्या परी ने चोरी करी हैं. तुरंत मैसेज किया, ‘‘बेटा, क्या यह आप ने लिखा है?’’

‘‘नो आंटी, मैं चोरी नहीं करती किसी का लिखा अच्छा लगता है तो कौपी पेस्ट कर लेती हूं लेकिन रचना के नीचे मूल रचनाकार का नाम जरूर लिखती हूं.’’

मैं ने जल्दबाजी में नीचे रचनाकार का तो नाम देखा ही नहीं था. वहां अपना नाम देख कर गौरवान्वित हो उठी.

मैं उस के विषय में जानने के लिए उत्सुक थी. सो बोली, ‘‘बेटा, आप को वैसे ये पंक्तियां मिली कहां से?

‘‘बस यों ही फेसबुक पर दिखीं तो अच्छी लगीं और अपने स्टेटस पर डाल दीं.’’

‘‘तो आप उस रचनाकार को फेसबुक पर सर्च कर के फ्रैंड रिक्वैस्ट भेज दो न,’’ मैं उसे अपना फेसबुक फ्रैंड बनाना चाहती थी यह सोच कर उसे मैसेज कर दिया.

‘‘अरे आंटी… औफिस की वजह से टाइम ही नहीं मिलता… थोड़ाबहुत फेसबुक चला लेती हूं,’’ मैसेज सैंड कर के तुरंत गुड नाइट मैसेज कर दिया.

मैं मन मसोस कर रह गई. मैं चैटिंग के मूड में थी. मन मार कर शुभरात्रि लिखना पड़ा.

सुबहसुबह जी चाहा सुंदर सी कुछ पंक्तियां लिखते हुए उसे कोई अच्छा सा सुप्रभात संदेश भेजूं लेकिन फिर यह सोच कर नहीं किया कि कहीं वह यह न सम?ो कि मैं जबरदस्ती उस से चिपक रही हूं.

दूसरे दिन मौर्निंग वाकके लिए जैसे ही लिफ्ट में चढ़ी और लिफ्ट 20वीं मंजिल पर रुकी तो वह लिफ्ट में आई. मेरी खुशी का ठिकाना न रहा. सुबहसुबह फूल जैसे खिले खूबसूरत चेहरे को देख कर मेरा दिल खुशगवार हो उठी लेकिन उस ने मु?ो देखा तक नहीं. किसी से फोन पर व्यस्त थी. मु?ो गुस्सा तो बहुत आया पर क्या कर सकती थी मैं.

ग्राउंड फ्लोर पर आते ही वह तेज कदमों से सुसायटी के गेट से बाहर निकल गई. इतनी सुबह सोसाइटी गेट से बाहर निकलने की क्या जरूरत है जब सोसाइटी में वाककरने की इतनी जगह है? मैं यह क्या सोचने लगी. गई होगी किसी काम से. उस की चिंता सी होने लगी क्योंकि कुछ दिनों पहले ही सुना था सोसाइटी के बाहर दूसरी तरफ वाले रोड पर कुछ बदमाशों ने एक महिला की चेन छीन ली थी. वाक के बाद जब टावर पहुंची तो उसे लिफ्ट का इंतजार करते पाया. एक हाथ में दूध की थैली और ब्रैड थी और दूसरे हाथ में सब्जी की थैली थी. अच्छा तो ये लेने गई थी. जैसे ही लिफ्ट ग्राउंड फ्लोर पर रुकी हम दोनों एकसाथ अंदर चले गए. मैं ने ही 20-21 फ्लोर का बटन दबा दिया.

‘‘बेटा, आप अकेले रहते हो?’’

‘‘जी आंटी.’’

‘‘खाना खुद बनाते हो या मेड से बनवाते हो?’’

‘‘मैं खाना खुद बनाती हूं. मेड सफाई और बरतन के लिए रखी हुई है. सब लोग सोचते हैं कि जौब वाली लड़कियां काम नहीं करतीं लेकिन मैं ऐसी नहीं हूं. मैं सब काम कर लेती हूं. सफाई भी छुट्टी वाले दिन अपने हिसाब से करती हूं. कपड़े भी छुट्टी वाले दिन धोती हूं.’’

उस का फ्लोर आ गया. मैं ने मन में सोचा कितनी अच्छी लड़की है साफ

और स्पष्ट बोलती है. खाना भी खुद बनाती है, सफाई भी करती है और कपड़े भी धोती है. नहीं तो जौब वाली लड़कियां कहां करती

हैं ये सब काम. ऊपर से उन के मातापिता का डायलौग. क्या? मैं मन ही मन

मुसकराई कि काश यह मेरी बहू बन जाए तो खूब जमेगी हम दोनों की जब सासबहू साथसाथ बैठेंगी.

अब धीरेधीरे हम दोनों की

सुबहशाम नियमित मुलाकात होने लगी.

हम दोनों की खूब जमने लगी. अब हम एकदूसरे की आदतों, पसंदनापसंद और व्यवहार सम?ाने लगे थे. इसलिए एकदूसरे

से कुछ कहे बिना एकदूसरे की बात सम?ा जाते थे. अच्छी अंडरस्टैंडिंग हो गई थी हमारी आपस में. फोन पर खूब बातें भी होने लगी थीं.

जब भी उसे औफिस से आने में देर

हो जाती तो मैं चिंतित हो उठती और उसे फोन करती तो वह ?ाल्ला कर बोलती कि आप भी न… मैं कोई छोटी बच्ची थोड़े ही हूं.

और जब मु?ो कभी कोई तकलीफ हो जाती और वह मेरी चिंता करती तो मैं भी गुस्से से कहती कि मैं कोई छोटी बच्ची थोड़ी हूं जो मेरी चिंता कर रही हो? मु?ो लिखने का शौक था उसे पढ़ने का.

बस उस की एक आदत मु?ो बुरी लगती थी. उस का देर रात तक जागना. जब मैं कुछ कहती तो वह बोलती, ‘‘आंटी, दिन में तो औफिस की वजह से टाइम नहीं मिलता इसलिए रात में व्हाट्सऐप, फेसबुक और इंस्टाग्राम ने हमें देर रात जागने पर मजबूर कर दिया है. आप इन मुए तीनों को कोसिए. आप के भी तो ये दोस्त हैं,’’ जब वह हंस कर यह कहती तो मैं भी अपनी हंसी रोक नहीं पाती थी कि बात तो वह सही कह रही है. मैं भी तो देर रात घुसी रहती हूं फेसबुक और व्हाट्सऐप में.

उसे मेरी एक आदत पसंद नहीं थी और वह थी बेवजह की टोकाटाकी. मैं ने कहा, ‘‘तुम बच्चों में अभी इतनी सम?ा नहीं है इसलिए सम?ाना जरूरी होता है जिस का तुम लोग गलत अर्थ लगा कर उसे टोकाटाकी कहते हो.’’

बात तो आप की सही है लेकिन हर वक्त टोकाटाकी… ऐसा लगता है जैसे

24 घंटे कोई सिर पर सवार है.’’

उस की बात सुन कर लगा सही कह रही है यह. धीरेधीरे 1 महीना गुजर गया. एक सुबह वह उदास स्वर में बोली, ‘‘आंटी, मु?ो जल्द ही यह फ्लैट छोड़ना होगा क्योंकि मेरा बौयफ्रैंड चाहता है कि मैं उस के साथ किसी दूसरी सोसाइटी में रहूं.’’

यह सुन कर मेरा दिल टूट गया साथ ही उसे बहू बनाने का सपना भी.

‘‘बेटा, बुरा नहीं मानो तो एक बात बोलूं?’’

‘‘जी जरूर बोलिए.’’

‘‘शादी से पहले इस तरह साथ रहना गलत है.’’

‘‘आंटी, वह चाहता है कि कुछ समय हम साथ गुजारें जो यहां संभव नहीं है.’’

‘‘उसे यहां क्या परेशानी है?’’

‘‘मालूम नहीं कल शाम को वह मु?ो एक कौफीहाउस में मिलेगा. आप भी वहां आइए और उसे यह बात समझना कि वह जल्दी शादी करे क्योंकि मैं भी इस तरह अब मिल नहीं सकती.’’

‘‘नहीं बेटा मैं कौन होती हूं सम?ाने वाली. मैं क्यों टोकाटाकी करूं? तुम ने ही तो टोकाटाकी के लिए मना किया है.’’

‘‘आंटी, जब बच्चे गलत राह पर जा रहे हों तब बड़ों की टोकाटाकी जायज है.’’

‘‘ठीक है वह कब आ रहा है?’’

‘‘कल आप शाम 8 बजे कौफीहाउस आ जाइए. मैं आप को लोकेशन भेज दूंगी.’’

शाम के खाने की तैयारी कर के कौफीहाउस जाने के लिए कैब बुक कर ही रही थी कि बेटे का फोन आ गया, ‘‘मम्मी देर से घर आऊंगा. एक दोस्त के साथ कहीं जा रहा हूं.’’

कैब में बैठते ही मन में एक हूक उठी कि काश यह मेरी बहू बन जाए.

कौफीहाउस पहुंचते ही वहां अपने

बेटे को देख कर मैं खुशी के अतिरेक से चिल्ला पड़ी, ‘‘तू यहां? तू ही परी का बौयफ्रैंड है क्या?’’

‘‘परी… हां पर माते… मगर आप यहां क्या कर रही हैं? आप को परी के बारे में…’’ वह सकपकाया.

जब तक परी भी आ गई, ‘‘आप इसे जानती हैं आंटी?’’ वह हकलाते हुए बोली.

‘‘इसे क्या इस के पूरे खानदान को जानती हूं मैं. इस ने ही मेरी कोख से जन्म ले कर मु?ो मां बनने का गौरव प्रदान किया है.’’

‘‘लेकिन आप ने कभी जिक्र नहीं किया अपने साहबजादे का?’’ परी मुसकरा कर बोली.

‘‘हां मां, आप ने भी कभी मु?ो नहीं बताया कि यह आप की दोस्त है,’’ बेटा भी अचरज भरे स्वर में बोला.

‘‘बेटा, मां हूं तुम्हारी. तुम धीरेधीरे देर रात जो फोन पर बतियाते

थे मु?ो तभी शक हो गया था कि कुछ तो है? थोड़ी सी मशक्कत करने पर मैं ने तुम दोनों की प्रेम कहानी जान ली और भविष्य में अपनी बहू के साथ तालमेल स्थापित करने के लिए यह सब नाटक रचा और तुम दोनों को भनक भी नहीं होने दी.’’

‘‘जय हो माते, आप को तो सीआईडी में होना चाहिए,’’ कहते हुए वह मेरे कदमों में ?ाक गया.

परी भी बोली, ‘‘मान गए आप को होने वाली सासूमां उर्फ सीआईडी प्रदुमन,’’ और मेरे गले से लग गई.

काश मेरी यह बहू बन जाए का मेरा सपना पूरा हो गया था. मेरा बेटा अब तक मामला छिपा रहा था क्योंकि परी की जाति कुछ और थी और हमारी ऊंची थी. बेटा घबरा रहा था कि मैं इनकार न कर दूं मगर मैं तो उसे कब की बहू मान चुकी थी और फिर असली मुहर लगाने के लिए मैं ने उस के मातापिता को जल्दी ही अपने घर आने के लिए निमंत्रित कर दिया.

समझौता : रवि और नेहा के बीच कौनसा समझौता हुआ था

Writer- पुष्णा सक्सेना

रवि  का फोन देख कर नेहा को कुछ आश्चर्य हुआ. ने खुद फोन पर कहा, ‘‘कुछ इंपौर्टैंट बातें करनी हैं, 5 बजे शाम को तैयार रहना. मैं स्वयं लेने आ जाऊंगा,’’ और फिर फोन काट दिया.

‘क्या इंपौर्टैंट बातें होंगी,’ सोच कर नेहा मुसकरा पड़ी. अपने कालेज की साहसी स्टूडैंट्स में नेहा का नाम टौप पर था. शायद इसीलिए रवि का इनवाइट ऐक्सैप्ट करने में उसे अधिक देर नहीं लगी.

ठीक 5 बजे रवि की कार का हौर्न सुन कर नेहा बाहर आ गईर्. समय की पाबंदी नेहा का गुण था. पीछे से मां ने कहा भी, ‘‘अरे, घर में तो बुलातीं,’’ लेकिन तब तक नेहा बाहर निकल चुकी थी. रवि कार से बाहर निकल कर उस की प्रतीक्षा कर रहा था. नीली ब्रैंडेड जैकेट व जींस में रवि का व्यक्तित्व निखर उठा था.

‘‘हाय,’’ के साथ ही कार का दरवाजा खोल रवि ने नेहा को अपने साथ की अगली सीट पर बैठा लिया. कार के रवाना होते ही एक अजीब सी पुलक से नेहा अभिभूत हो उठी. फिर भी रवि का अनयूजुअल साइलैंस नेहा को कुछ परेशान कर रहा था.

रेस्तरां के एकांत कैबिन में पहुंचते ही साहसी नेहा का मन भी धड़कने लगा. बेहद रवि ने शालीनता के साथ कुरसी आगे खींच कर नेहा के बैठने का वेट किया.

‘‘क्या पसंद करेंगी, कोल्ड या हौट?’’ रवि ने बैठते हुए पूछा.

रवि के प्रश्न पर हलके स्मित के साथ नेहा ने कहा, ‘‘जो आप पसंद करें.’’

रवि गंभीरता से बोला, ‘‘देखो नेहा, तुम से कुछ बातें स्पष्ट करनी थीं. विश्वास है तुम मेरा मतलब सम?ा जाओगी.’’

कुछ सरप्राइज के साथ नेहा ने जैसे ही रवि की ओर देखा, वह बोला, ‘‘मां तुम्हें अपनी डौटर इन ला मान चुकी हैं. हर क्षण तुम्हारी प्रशंसा करती रहती हैं. तुम ने उन्हें पूरी तरह अपने मोहपाश में बांध लिया है पर मेरी प्रौब्लम कुछ और है. मैं कहीं और कमिटेड हूं.’’

रवि के अंतिम शब्दों ने नेहा को बुरी तरह चौंका दिया कि ओह वह किस इंद्रधनुषी स्वप्नजाल में फंस रही.

‘‘तो प्रौब्लम क्या है? आप वहां विवाह करने को स्वतंत्र हैं. मैं ने तो कोई बंधन नहीं लगाया. फिर प्रपोजल भी तो तुम्हारी तरफ से ही आया था. हम तो गए नहीं थे,’’ कहतेकहते नेहा का स्वर कुछ हद तक तीखा हो आया था.

‘‘यही तो प्रौब्लम है नेहा. मैं मां का एकमात्र बेटा हूं. बिना जाने मां की बात मानने का वचन दे बैठा हूं और अब अगर वचन तोड़ता हूं तो मां घर छोड़ कर गोवा चली जाएंगी. वहां हमारा एक फ्लैट है. उन की जिद तो तुम मु?ा से अधिक अच्छी तरह जानती हो. पिताजी के न रहने पर मां ने तुम्हें भी मेरी तरह इस बंधन को स्वीकार करने के लिए विवश किया था. मां कह रही थीं तुम इंडिपैंडैंट जीवन बिताना चाहती थीं. क्या यह सच नहीं है?’’

रवि के बात की सीरियसनैस पर नेहा हंस पड़ी, ‘‘क्या स्ट्रेंज बात है. मैं मैरिज कमिटमैंट में बंधना नहीं चाहती, यह आप की खुशी का मामला है.’’

रवि पूरे उत्साह से बोला, ‘‘बिलकुल यही बात है नेहा. हम दोनों विवश किए गए हैं. अब परिस्थिति यह है कि  अगर हम विवाह करते हैं तो मेरे मन के अलावा मेरा सबकुछ पत्नी के नाते तुम्हारा. तुम्हारी हर आवश्यकता का मैं ध्यान रखूंगा. बदले में तुम से कोई अपेक्षा नहीं रखूंगा. हां, कभीकभी पार्टियों में हमें कपल की सफल एक्टिंग भी करनी होगी. इन सब कष्टों के बदले मैं तुम्हें प्रतिमाह क्व40 हजार जेबखर्च के रूप में दूंगा. कहिए, क्या खयाल है तुम्हारा?’’

‘‘बहुतबहुत धन्यवाद,’’ नेहा के स्वर में उत्साह था या व्यंग्य रवि ठीक से सम?ा नहीं सका.

‘‘धन्यवाद किसलिए?’’

‘‘क्व40 हजार की रकम जो तुम दे रहे हो. क्या थैंक्स भी न दूं? फिर ये सब इतने स्पष्ट रूप से जो बताया है आप ने.’’

‘‘अगर न बताता तो?’’

‘‘आप से नफरत करती.’’

‘‘और अब?’’

‘‘अब कोशिश करूंगी आप का दृष्टिकोण सम?ा सकूं.’’

रवि ने आश्वस्त हो नेहा की ओर हलके से मुसकरा कर देखा, फिर कहा, ‘‘नेहा तुम सोच लो. तुम भी स्वतंत्र विचारों वाली लड़की हो. तुम्हें मैं हर संभव इंडिपैंडैंस दूंगा. हां, बदले में अपने लिए भी इंडिपैंडैंस चाहूंगा. 2 अच्छे फ्रैंड्स की तरह हम साथ रह सकते हैं न?’’

‘‘रवि इतने इंडिपैंडैंट हो कर भी आप

अपना मनचाहा पार्टनर नहीं पा सके, यह क्या कम आश्चर्य की बात नहीं है? मैं आप की मां

से सिफारिश करूंगी. शायद वे मेरी बात मान

लें. तब तो आप मेरे औवलाइज्ड रहेंगे न?’’

कह कर नेहा अपनी परिचित स्माइल के साथ उठने लगी.

‘‘नहीं… नहीं… नेहा ऐसा अनर्थ न कर बैठिएगा. मां का पूजापाठ, छुआछूत तुम

जानती हो क्या एक विदेशी, विधर्मी, मांसाहारी को वे इस जीवन में कभी अपना सकेंगी? उन का सपना तोड़ मृत्यु से पूर्व ही मैं उन्हें समाप्त नहीं कर सकता.’’

कुछ कटु हो कर नेहा ने तिक्त स्वर में कहा, ‘‘फिर आप कुछ और वर्ष मैरिज टाल

क्यों नहीं देते? मु?ा से आप क्या ऐक्सपैक्ट करते हो? मेरा अपना जीवन है, सपने हैं, मैं आज के लिए सैक्रिफाइस क्यों करूंगी?’’

रवि के उठते ही नेहा रेस्तरां से बाहर निकल आई और मन ही मन में बोली, ‘हूं क्या सरोगैंस है. मैं इन के पक्ष में निर्णय दूंगी. क्या सम?ाते हैं अपने को?’

नेहा को घर के दरवाजे पर छोड़ कर रवि चला गया. पर्स को एक ओर फेंक नेहा पलंग पर पड़ गई. उस की कुछ सोचनेसम?ाने की शक्ति चुक गई थी, ‘पाखंडी कहीं का, इस की मां के लिए मैं बलि चढ़ जाऊं,’ पर हर विरोध के बावजूद रवि का आकर्षक व्यक्तित्व बारबार स्मृति में आ उसे चिढ़ा जाता. अपने मृत धनी पिता का एकमात्र उत्तराधिकारी, विदेश से सौफ्टवेयर इंजीनियरिंग की डिगरी प्राप्त रवि का आकर्षण क्या कम था?

मध्यवर्गीय परिवार की नेहा के लिए जब रवि की मां ने प्रस्ताव रखा था तो मां, पिता,

छोटा भाई सब गर्व और उल्लास से भर गए थे. घर की बेटी इतने बड़े परिवार में जाएगी, इस

से बड़ा सुख और क्या हो सकता था? रवि का घर नेहा के घर के एकदम पास था. नेहा का परिवार एक फ्लैट में किराए पर रहता था. रवि

का पूरा बड़ा हाउस था. 4-5 लोग घर में काम करते थे. एकमात्र बेटे के विदेश चले जाने पर

रवि की मां अपना सारा स्नेह नेहा पर ही लुटाती थीं, हर छोटेबड़े काम के लिए वे नेहा पर ही निर्भर थीं. उस घर की डौटर इन ला बनने का स्वप्न नेहा ने कभी नहीं देखा था. पर रवि की बातें सुन कर नेहा को लगता जैसे वह उसे युगों से जानती हो.

रवि की पसंदनापसंद क्या है, यह रवि की मां नेहा को सुनाया करती थीं. नेहा डाक्टर

बन कर गांव में जाना चाहती थी. वह आजीवन विवाह न करने का निर्णय रवि की मां के प्रस्ताव और अनुरोध पर ही नहीं ले सकी थी. रवि की मां ने सु?ाव दिया था कि वह शहर में ही क्लीनिक खोल कर गरीबों की सेवा कर सकती है. हो सकता है वे लोग एक हौस्पिटल बनवा दें और यह योजना नेहा को भा गई थी.

मगर अब वह क्या करे? छोटा भाई

समन्वय बारबार हंस रहा था, मां का उत्सुक चेहरा उस से कुछ पूछ रहा था. एक बार नेहा

की इच्छा हुई कि अपनी मां को सबकुछ बता दे पर अपमान से मन तिलमिला उठा. सिरदर्द का बहाना कर वह सारी रात करवटें बदलती रही. कालेज के जीवन में नेहा ने हर चुनौती खुशी से

स्वीकार की थी पर यह चुनौती जीवनभर का

प्रश्न थी. सुंदर, सरल दिखने वाली नेहा के

मन की दृढ़ता सब जानते थे. अब वही नेहा असमंजस में पड़ गई थी कि क्या करे? सुबह

8 बजे रवि को उसे अपना निर्णय देना था. यह निर्णय उस के पक्ष में नहीं होना चाहिए. उस का दंभ टूटना ही चाहिए, यह सोचतेसोचते नेहा न जाने कब सो गई.

सुबह समन्वय ने ?ाक?ोर कर जगाया, ‘‘दी, क्या पूरी रात सपने देखती रहीं? जीजाजी की मां आई हैं.’’

हड़बड़ा कर नेहा ने रजाई फेंक दी. अस्तव्यस्त सी नेहा के उठने से पूर्व ही रवि की मां ने आ कर उस का माथा छुआ और परेशान हो कर बोलीं, ‘‘बुखार तो नहीं है वरना मेरी नेहा तो कभी इतनी देर तक नहीं सोती, 8 बजने वाले हैं.’’

रवि की मां अकसर वाक पूरी कर के नेहा की मां से मिलने आ जाती थीं और बिना संकोच के चाय पी कर जाती थीं. कई बार तो खुद किचन में चाय बना लेतीं जबकि अपने घर में कभी किचन में नहीं घुसती थीं.

तभी मोबाइल की घंटी सुन नेहा का मन धड़कने लगा. समन्वय ने शैतानी से मुसकरा कर फोन थमा दिया. उधर से रवि की सधी आवाज कानों में पड़ी, ‘‘कहिए नेहा, ठीक से सो सकी हो न? क्या निर्णय लिया तुम ने? क्या मैं बधाई दे सकता हूं तुम्हें?’’

‘‘जी, थैंक्स,’’ कह कर नेहा एकदम हड़बड़ा गई.

उधर से रवि का पूर्ण आश्वस्त स्वर कानों में बज उठा, ‘‘शुक्रिया, आई एम औब्लाइज्ड नेहा,’’ कह कर रवि ने फोन काट दिया.

इधर रवि की मां   के चेहरे पर प्रसन्नता ?ालक उठी थी. वे नेहा की मां से बोलीं, ‘‘देखा, सुबह होते ही फोन कर रहा है, एक हमारे दिन थे,’’ कह कर वे जोर से हंस दीं.

उस के बाद नेहा बहुत व्यस्त हो गई. रवि की मां खरीदारी करने के लिए नेहा को भी साथ ले जाती और रवि तो साथ होता ही था. नेहा

को कभीकभी आश्चर्य होता कि रवि कितनी सहज ऐक्टिंग कर लेता है. सगाई के मौके पर

रवि ने जिद की कि नेहा अपनी पसंद की अंगूठी स्वयं ले.

रवि के साथ अंगूठी खरीदने के लिए खड़ी नेहा ने किंचित व्यंग्य से कहा, ‘‘आप को तो पहले भी अनुभव होगा, अब फिर अंगूठी खरीदने के लिए उल्लास क्यों जता रहे हैं?’’

किंतु रवि ने नेहा की स्वीकृति की मुहर लगवा कर ही अंगूठी खरीदी. अंगूठी पहनाते समय रवि बड़ा सहज रहा. किंतु उस के हाथ के स्पर्श से जब नेहा के तार ?ान?ाना उठे तो वह बुरी तरह ?ां?ाला उठी.

विवाह भी तय हो गया. नेहा को अपने पर कौन्फिडैंस था. उस ने रवि की

बात नहीं बताई किसी को. ब्राइडगू्रम के रूप में रवि का मोहक व्यक्तित्व सब की प्रशंसा और कुछ की ईर्ष्या का कारण बन गया. विवाह की प्रथम रात्रि को न चाहते हुए भी वह संस्कारशील, लज्जाशील वधू बन कर बैठी रही.

कमरे में घुसते ही रवि ने परिहासपूर्ण

स्वर में कहा, ‘‘अरे, यह क्या? आप तो सचमुच ही न्यू ब्राइड लग रही हैं. हम दोनों मित्र हैं, याद है न?’’

लज्जा से नेहा का मन रोने को हो आया.

‘‘खैर, लीजिए जब तम रीति निभा रही हो तो मैं भी उपहार दे कर तुम्हारा घूंघट हटाऊंगा.’’

हाथों में बहुमूल्य हीरे के कंगन पहनाने के प्रयास पर नेहा चिढ़ गई, ‘‘आप के इस उपहार के लिए मैं ने यह वेश धारण नहीं किया. यह तो मां की जिद थी. मेरी ओर से ये कंगन आप अपनी उसी प्रियतमा को दे दीजिए.’’

रवि ने मुसकराते हुए हाथ जबरन पकड़ कर उन में कंगन पहना दिए, ‘‘उस की चिंता तुम्हें नहीं करनी होगी, नेहा. मैं उस की चिंता स्वयं

कर लूंगा.’’

जलती अग्निशिखा सदृश रवि का यह वाक्य नेहा के मन व प्राण को ?ालसा गया. क्रोध से कंगन उतार नेहा नीचे बिछे कालीन पर जा लेटी.

रवि ने स्नेह से पुकारा, ‘‘नेहा, हमारे सम?ौते में ऐसा तो कुछ नहीं था. पलंग काफी बड़ा है.’’

‘‘जी नहीं, मेरी नीचे सोने की आदत है,’’ नेहा बोली.

मगर रवि ने उसे बड़ी सहजता से उठा कर पलंग पर लिटा दिया, ‘‘मेरे यहां तुम्हें कष्ट हो, यह मैं स्वप्न में भी नहीं सोच सकता नेहा.’’

दूसरे दिन प्राय: घर में रवि की मौसी, मामी उत्सुकता से नेहा का मुख निहार रही थीं. उस का अपमान व लज्जा से आरक्त चेहरा और रवि का प्रसन्न मुख उन्हें आश्वस्त कर गया. उन के परिहास नेहा के अंतर में गड़ जाते. अपने को सहज बनाए रख कर नेहा सब छोटेबड़े रीतिरिवाज पूरे करती गई.

इन सब रस्मों में रवि का सहयोग देख नेहा जल रही थी. वह सोच रही थी, पुरुष कितने पाखंडी होते हैं, ऊपर से आज्ञाकारी बनते हैं और अंदर से धूर्त होते हैं. अगर वह रवि की मां को सब बता दे तो? फिर रवि के भयभीत चेहरे को याद कर के नेहा चेष्टापूर्वक होंठों पर आई मुसकान दबा गई.

घर में सबकुछ सहज, सामान्य चल रहा था. मां ने रवि से कहा, ‘‘नेहा को मालदीव

घुमा ला.’’

भयभीत नेहा एकांत की कल्पना से सिमट मां से याचनापूर्ण शब्दों में बोली, ‘‘नहीं मां, मैं तुम्हें यहां अकेले छोड़ कर नहीं जाऊंगी.’’

रवि की दुष्ट मुसकान पर नेहा का सर्वांग जल उठा. वह चाहती थी कि रवि की प्रिया के विषय में कुछ जाने पर रवि ने कभी नेहा से उस विषय में बात ही नहीं की.

फिर भी रवि की अज्ञात प्रिया नेहा के साथ हर पल जीती थी. रात में रवि ने पूछा, ‘‘अच्छा नेहा क्या मैं तुम्हारे लिए सचमुच इतना असाध्य हूं कि  मेरे साथ घूमने जाने की कल्पना मात्र से जाड़ों में भी तुम्हें पसीना आ गया?’’

नेहा ने शांत रह कहा, ‘‘अगर यह सच है तो क्या गलत था? क्या मेरे साथ रहते हुए भी आप हर पल किसी और के साथ नहीं रहते? फिर हमारे सम?ौते में इस तरह के दिखावोें की बात तो आप ने की नहीं थी?’’ कह कर नेहा करवट बदल सोने का अभिनय करने लगी.

नेहा के एक मित्र डाक्टर आनंद उस से मिलने आया. नेहा के विवाह के समय डाक्टर आनंद एक कौन्फ्रैंस में भाग लेने अमेरिका गया था. नेहा उस की बहुत प्रशंसिका थी. रवि का परिचय करा नेहा डाक्टर आनंद से बातों में इस तरह व्यस्त हो गई मानो रवि का अस्तित्व ही

न हो.

डाक्टर आनंद के जाते ही रवि एकदम रिक्त कंठ से बोला, ‘‘अगर तुम्हें उन से इतना लगाव था तो उन से विवाह क्यों नहीं कर लिया?’’

नेहा बड़े शांत स्वर में बोली, ‘‘जिस से बहुत लगाव हो उसी से विवाह किया जाए, यह जरूरी तो नहीं.’’

जैसे ही रवि ने यह सुना वह तिलमिला कर बाहर चला गया.

आनंद प्राय: आता रहता. उस का विनोद स्वभाव रवि की मां को बहुत प्रिय था. इसीलिए मां के आग्रह पर हस्पताल जाने के पूर्व डाक्टर आनंद प्राय: उन के घर आता और रवि की मां

व नेहा के साथ ही कौफी पीता था. वापस जाते समय डाक्टर आनंद को कभीकभी रवि भी

मिल जाता.

रवि आश्चर्यजनक रूप से दफ्तर से जल्दी वापस आने लगा था. उधर नेहा ने परिस्थितियों से सम?ौता कर लिया था. उत्सव, समारोहों में नेहा की लोकप्रियता बढ़ती जा रही थी. कभीकभी पार्टियों में प्रशंसकों से घिरी नेहा को खोज पाना रवि के लिए समस्या हो जाती. जब डांस पार्टियां होती थीं तो अकसर नेहा रवि को छोड़ कर किसी और के साथ नाचना शुरू कर देती.

नेहा का कंठ मधुर था. अब तो मानो उस के गीतों में वेदना साकार हो जाती थी. एक दिन पार्टी में उस ने गाया भी.

रवि उस से बोला, ‘‘तुम इतना अच्छा गा लेती हो, इस का मु?ो पता नहीं था.’’

अपने लिए पहली बार प्रशंसा सुन कर नेहा को अच्छा लगा. संयत, सधी आवाज में बोली, ‘‘मैं क्या हूं यह जानना तो हमारे सम?ौते की शर्त नहीं थी, फिर यह दुख क्यों?’’

उत्तर में कोई व्यंग्य न था पर रवि क्षुब्ध

हो उठा.

रवि के दफ्तर जाते समय नेहा बोली, ‘‘रवि, अगर में क्लीनिक न खोल किसी बड़े अस्पताल में नौकरी कर लूं तो आप को आपत्ति तो नहीं होगी?’’

रवि ने बहुत ही कठोर शब्दों में कहा, ‘‘क्यों घर पर डाक्टर आनंद से मिलने में कोई असुविधा है क्या? पर तुम तो शायद उसी के साथ काम करना चाहोगी. अगर जेबखर्च अपर्याप्त है तो और बढ़ जाएगा पर तुम्हारा अस्पताल में नौकरी करना मु?ो कभी स्वीकार न होगा.’’

‘‘ठीक है, मैं पास ही क्लीनिक खोल

लूंगी. और हां, आप का दिया जेब खर्च मैं ने कभी छुआ भी नहीं है. पर वक्त काटना मु?ो कठिन लगता है,’’ कहती हुई नेहा तीर सी कमरे से बाहर चली गई.

दूसरे दिन दफ्तर से आते ही रवि ने मां से कहा, ‘‘10 दिनों का अवकाश ले आया हूं. नेहा से कह दो मालदीव जाना है.’’

सुनते ही नेहा ने उत्तर दिया, ‘‘कल से क्लीनिक खोलने की व्यवस्था करनी है, इसलिए जाना असंभव है.’’

एकांत पाते ही रवि ?ाल्ला उठा, ‘‘हमें

जाना ही होगा, क्लीनिक बाद में खोला जा

सकता है.’’

‘‘आप की स्वतंत्रता में मैं कभी बाधा नहीं बनी. फिर आप ने मेरी स्वतंत्रता का भी आश्वासन दिया था.’’

आवेश में नेहा को जबरदस्ती आलिंगन में ले रवि बोला, ‘‘तुम मेरी पत्नी हो, मैं पति के नाते तुम्हें आज्ञा देता हूं कि तुम्हें चलना है.’’

आश्चर्य से नेहा का मुख खुला का खुला रह गया, ‘‘आप की पत्नी होने

के नाते क्या मैं केवल आप की आज्ञा पालन करने के लिए हूं? कहां गया आप का वादा? जब जी चाहा, पत्नी बना लिया, जब चाहा दूर धकेल दिया,’’ नेहा एकदम फूट पड़ी. कई दिनों का बांध एकसाथ टूट गया.

रवि ने हंसते हुए बड़े स्नेह से नेहा का सिर अपने सीने से चिपका लिया और स्नेहिल हाथों से उस के मुख पर बिखरी जुलफों को हटाते हुए बोला, ‘‘बस हार गईं? आखिर निकलीं न बुद्धू. अरे भई, जब मां ने कहा था कि तुम मु?ा से विवाह करने को उत्सुक नहीं हो तो मेरा अहं आहत हुआ था. मेरा संबंध न किसी और से था न है न होगा. मैं तो मां की तरह बस तुम्हारा पुजारी हूं और रहूंगा. क्या इतना सा सत्य भी तुम मेरी आंखों में नहीं पढ़ पाईं?’’

नेहा आश्चर्य से सिर उठा कर बोली, ‘‘क्या इतने दिनों तक आप मु?ा से भी ऐक्टिंग करते रहे?’’ कहते वह शर्म से लाल हो उठी.

‘‘हां, सच इतने दिन बेकार जरूर गए पर इस रोमांस में क्या मजा नहीं आया नेहा?’’ फिर एक पल रुक रवि ने पूछा, ‘‘सच बताना नेहा, क्या डाक्टर आनंद से तुम्हें कुछ ज्यादा ही

लगाव है?’’

‘‘धत्, वे तो मु?ो बड़े भाई जैसे पूज्य हैं. उन्होंने ही तो मु?ो डाक्टर बनने की प्रेरणा दी थी.’’

नेहा को अपनी बांहों में समेट स्नेह चुंबन अंकित कर रवि ने पूछा, ‘‘अब मालदीव चलना है या क्लीनिक खोलोगी?’’

नेहा ने लजाते हुए पूछा, ‘‘इतना तंग क्यों किया रवि?’’

‘‘एक नए अनुभव के लिए. अगर उसी पुरातनपंथी ढंग से विवाह कर लेते तो क्या तुम्हारे लिए इतनी चाहत होती? कितनी बार ईर्ष्या से डाक्टर आनंद को पीटने को जी चाहा था.’’

नेहा की चढ़ती भृकुटि देख रवि हंस पड़ा, ‘‘माफी चाहता हूं भूल गया था कि वे पूजनीय हैं. सच, कितनी बार अपने में समेट लेने के लिए जी मचला था पर जब विदेश में था तभी सोच लिया था कि जब तक तुम्हारे मन में अपने लिए चाह नहीं जगा लूंगा, तब तक मात्र आम भारतीयों की तरह पति बन कर अधिकार नहीं लूंगा,’’ फिर हंस कर नेहा को छेड़ा, ‘‘क्यों, कैसा रहा हमारा घर वाला हनीमून?’’

‘‘तुम्हारे हनीमून की ऐसी की तैसी. मां न जाने क्या सोचती होंगी,’’ कहते हुए नेहा अपने को छुड़ा कर नीचे भाग गई.

रीते मन की उलझन

शाम के 7 बज चुके थे. सर्दियों की शाम का अंधेरा गहराता जा रहा था. बस स्टैंड पर बसों की आवाजाही लगी हुई थी. आसपास के लोग भी अपनेअपने रूट की बस का इंतजार कर रहे थे. ठंडी हवा चल पड़ी थी. हलकीफुलकी ठंड शालू के रोमरोम में हलकी सिहरन पैदा कर रही थी. वह अपनेआप को साड़ी के पल्लू से कस कर ढके जा रही थी.

शालू को सर्दियां पसंद नहीं है. सर्दियों में शाम होते ही सन्नटा पसर जाता है. उस पसरे सन्नाटे ने ही उस के अकेलेपन को और ज्यादा पुख्ता कर दिया था. सोसाइटी में सौ फ्लैट थे. दूर तक आनेजाने वालों की हलचल देख दिन निकल जाता लेकिन शाम होतेहोते वह अपनेआप को एक कैद में ही पाती थी. उस कैदखाने में जिस में मखमली बिस्तर व सहूलियत के साजोसामान से सजा हर सामान होता था. वह अकेली कभी पलंग पर तो कभी सोफे पर बैठी मोबाइल पर उंगलियां चलती तो कभी बालकनी में खड़ी यू आकार में बने सोसाइटी के फ्लैटों की खिड़कियों की लाइटें देखती जो कहीं डिम होतीं तो कहीं बंद होतीं. चारों तरफ सिर्फ सन्नाटा होता था.

सोसाइटी के लौन में दोपहर बाद बच्चों के खेलनेकूदने के शोर से उस सन्नाटे में जैसे हलचल सी नजर आती. वह भी रोजाना लौन में वाक के लिए चली जाती और कुछ देर हमउम्र पास पड़ोसिनों के साथ अपना वक्त गुजार आती. फिर भी शाम की चहलपहल के बाद सिर्फ सन्नाटा ही होता. अपने शाम के खाने की तैयारी के बाद भी उस के पास होता सिर्फ रोहन का इंतजार. वह जैसेजैसे अपनी उन्नति की सीढि़यां चढ़ रहा था वैसेवैसे उस का घर के लिए वक्त कम होता जा रहा था. कई बार उस ने शिकायत की लेकिन रोहन उसे एक ही बात कहता, ‘‘शालू, तुम नहीं सम?ागी बौस बनना आसान नहीं है. प्राइवेट सैक्टर है इतनी सहूलियत हमें कंपनी इसीलिए ही देती है कि हम टाइम पर काम करें.’’

रोहन की बातों पर शालू चुप हो जाती थी और उस छोटी सी बहस के बाद दोनों के बीच कोई वार्त्तालाप न होता. रात रोहन अपने लैपटौप पर कुछ न कुछ औफिशियल काम करने लगता. न जाने कब सोता. रोज की यही दिनचर्या थी, उस की. उस के बाद कभीकभी तो रोहन हफ्ते 15 दिन के टूर से लौटता और कभी विदेश जा कर महीनेभर बाद लौटता. इस दौरान शालू अकेली ही रहती. कभीकभी अपनी सहेलियों से, पासपड़ोसियों से मिल आती लेकिन इन सब से कब तक उस का वक्त गुजरता. उसे अपनी सहेलियों को उन के परिवार व पति के साथ देख खुशी तो होती साथ ही जलन भी होती. उस के घर की चारदीवारी में तनहाई और अकेलापन उस के मन को रीता किए जा रहा था.

आजकल दोनों में काम की बात ही होती थी. पहले सी आपसी नोक?ांक, हंसीमजाक भी अब बंद हो गया था. कभीकभी रोहन उसे पार्टी में व बाहर ले कर जाता था. वह कभी गलत राह पर भी नहीं था यह शालू को विश्वास था लेकिन उस के पास उस के लिए भी तो वक्त नहीं था.

एक दिन शालू ने रोहन को अपनी सहेली की ऐनिवर्सरी पार्टी में चलने को कहा. रोहन के साथ चलने की हां भरने पर ही वह बड़े शौक से रोहन की पसंद की शिफौन की गुलाबी साड़ी पहन तैयार हुई. बाल भी खुले रखे साथ में पर्ल सैट पहन उस ने उस दिन अपनेआप को दर्पण में बारबार निहारा. आज काफी अरसे बाद वह रोहन के साथ अपनी सहेलियों के बीच जा रही थी वह बहुत खुश थी लेकिन धीरेधीरे शाम से रात हो गई. वह रोहन का इंतजार करती रही. फोन करती तो स्विच्ड औफ. न जाने कब रोहन का इंतजार करतेकरते उस की सोफे पर ही आंख लग गई.

रात 12 बजे रोहन ने घर की बैल बजाई तो उस ने अपनी सूजी हुई लाल आंखों को छिपाते हुए गेट खोल दिया. अपने सामने शालू को तैयार देख रोहन को याद आया कि उसे तो आज शालू की फ्रैंड की ऐनिवर्सरी में जाना था. वह शालू को देखते ही बोला, ‘‘ओह सौरी शालू, मीटिंग लंबी चली… मैं तुम्हे कौल भी नहीं कर पाया.’’

रोहन को उस दिन शालू ने कुछ न कहा. गेट खोलकर वह कमरे में चली गई और चेंज कर बिस्तर पर औंधे मुंह लेटी रही. न जाने कितनी बार रोहन ने बात करने की कोशिश की लेकिन शालू आज बुत बनी थी.

सुबह शालू चुपचाप नाश्ता बना कर पैकिंग में लग गई. रोहन औफिस के लिए

निकलने लगा तो उस ने पूछा, ‘‘यह पैकिंग… तुम कहीं जा रही हो?’’

शालू ने कहा, ‘‘हां, मायके.’’

रोहन रात की बात याद कर बोला, ‘‘सौरी, वह कल टाइम ही नहीं मिला. शालू प्लीज.’’

‘‘रोहन अब तुम्हारी सौरी और प्लीज से मैं थक चुकी हूं. मु?ो जाने दो,’’ उस दिन वह रोहन के घर से अकेले निकल पड़ी थी. उस ने बहुत रोका लेकिन अब शायद उस की बरदाश्त से बाहर था वहां रुकना.

मायके पहुंची तो अचानक उसे देख कर सब हैरान थे लेकिन वह सरप्राइज विजिट का नाम दे 15 दिन रुक गई. मगर धीरेधीरे मां को सब सम?ा आने लगा. उन्होंने शालू से पूछा तो वह हंस कर अपने दर्द को छिपा इतना ही कह पाई, ‘‘क्या, मैं यहां कुछ दिन अपनी मरजी से नहीं रुक सकती?’’

मां ने शालू की नजरों को पढ़ते हुए कहा, ‘‘बेटा रह तो सकती हो पर अब तुम्हारी मरजी के साथ रोहन की मंजूरी भी जरूरी है.’’

मां के इतना कहते ही शालू का छिपा दर्द उभर उठा और वह अपनी आंखों में भरे आंसुओं को मां के आगे रोक न सकी. अपनी उदासी व अपना अकेलापन बयां कर गई.

तब मां ने उसे बताया, ‘‘तुम्हारे आने के दूसरे दिन ही रोहन ने मु?ो फोन पर सब बता दिया. वह अपनी नौकरी के कारण तुम्हें समय नहीं दे पाता. उस का उसे भी दुख है लेकिन वह तुम्हारे बिना परेशान है. कुछ निर्णय जल्दबाजी में सही नहीं होते. बेटा. रात ही मेरी उस से बात हुई. तुम ने इतने दिनों में उसे फोन भी नहीं किया और उस का फोन भी अटैंड नहीं किया.

‘‘इतनी नाराजगी भी अच्छी नहीं. वह तुम्हें लेने आना चाहता है. वह जो कुछ कर रहा है पैसा कमाने के लिए ही तो कर रहा है. अभी तुम्हारी शादी को सालभर हुआ है तुम दोनों की पूरी जिंदगी पड़ी है. गृहस्थी में बहुत से त्याग करने पड़ते हैं… रोहन को कुछ समय दो बेटा, एकदूसरे का साथ दो.’’

कुछ देर बात कर मां उस के कमरे की मूनलाइट का स्विच औन कर जातेजाते उसे फिर एक बार सोचने के लिए कह गई. मूनलाइट की सफेद रोशनी में वह बिस्तर पर लेटी रोहन के साथ बीते पल याद करने लगी…

जब उसे बुखार हुआ तो रोहन ने औफिस की जरूरी मीटिंग भी कैंसिल कर दी थी और दिनरात उस का खयाल रखा था जैसे कोई किसी बच्चे का रखता है. उस वक्त जब वायरल फीवर से उस की नसनस में दर्द था उसे टाइमटाइम पर दवा, जूस सब देता. कितना खयाल रखता था और एक बार वह 10 दिन की कह कर मां के पास आई थी तो रोहन 5 दिन बाद ही आ कर उसे सरप्राइज दे शिमला ट्रिप प्लान कर आया था. दोनों बांहों में बांहें डाले शिमला की वादियों में घूमते रहे. तब दिनरात कब बीतते थे पता ही न चलता.

रोहन ने शालू की नाराजगी पर कभी जोर से बात नहीं की. वह हर बार उसे समझाने की कोशिश करता और सौरी भी कह देता लेकिन न जाने उसे ही धीरेधीरे क्या हो गया. उस ने चुप्पी साध ली. शालू रोहन की थकान को उस की बेरुखी सम?ाती थी जब वह कमरे में आ कर सो जाता. कभी सोचा ही नहीं कि घर से बाहर आराम कहां है और मैं ने उसे घर आने के बाद अपने प्यार के सहारे की जगह नाराजगी और चुप्पी ही दी. उस ने कभी कुछ न कहा. वह जिस प्यार को भूल बैठी थी वह फिर आज उस के दिल की परतों को हटा सहलाने लगा था. उस का रिश्ता प्यार के एहसास को बटोरने लगा था. उसे अपनी गलती का एहसास हो गया था. न जाने कैसे आहिस्ताआहिस्ता उस ने रोहन को अपनेआप से इतना दूर कर दिया. अब वह रोहन को और इंतजार नहीं करवाना चाहती थी.

‘‘यह लो, चाय पी लो. तुम्हें ठंड लग जाएगी बस आने वाली है. आधा घंटा बाकी है,’’ रोहन की आवाज से वह एकाएक वर्तमान में लौट आई. सामने 2 चाय के कप लिए रोहन मुसकरा रहा था. उसे देख कर वह भी मुसकरा दी. उस समय ऐसा लग रहा था जैसे दोनों के बीच कोई दूरी न हो, दोनों ने एकदूसरे को माफ कर दिया हो.

पास की बैंच पर बैठ कर दोनों ने चाय पी. शालू रोहन के हाथ में हाथ डाले उस के कंधे पर सिर रख बस का इंतजार करने लगी. कुछ ही देर में बस आ गई. रोहन ने बस में सामान रखा और बस में चढ़ने के लिए शालू का हाथ थाम लिया. बस चल पड़ी. दोनों एकदूसरे में खोए सफर तय कर रहे थे.

अब वे कभी न खत्म होने वाली राह पर चल पडे़ थे. रोहन के चेहरे पर शालू की बिखरी लटें अपना आधिपत्य जता रही थीं. शालू रोहन की अदा पर मंदमंद मुसकरा रोहन के आगोश में सिमटी जा रही थी. वह खुश थी कि आज रोहन ने उस के रीते मन की उल?ान को अपने प्रेम भरे साथ से सुल?ा दिया.

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