विमोहिता: कैसे बदल गई अनिता की जिंदगी

विमोहिता: भाग 3-कैसे बदल गई अनिता की जिंदगी

बहुत देर उस के पास मैं चुप बैठा रहा. वह इसे समझ रही थी. बाद में शायद दूसरी बार उस के हाथों को अपने हाथों में ले कर मैं ने कहा, ‘नहीं, कुछ ऐसा मत सोचो. सब ठीक हो जाएगा.’

पर वह फिर फफकफफक कर रोने लगी. मैं उसे देखता रहा और मैं कुछ कह नहीं सका. इस तरह बैठेबैठे जब बहुत रात हो गई तो उस ने ही कहा, ‘जाओ. घर पर रमा चिंता कर रही होगी. बहुत रात हो गई है.’

और जब घर आया तो रात के 2 बज रहे थे. रमा इंतजार कर रही थी. उस ने कहा, ‘बहुत देर कर दी. सब ठीक तो है न?’

मैं ने कहा, ‘अनिता से मिल कर आने में देरी हो गई.’

और फिर रमा को मैं ने अनिता के बारे में सब कुछ बताया. उस रात हम दोनों बिना कुछ खाए ही लेट गए. रात भर हमें नींद नहीं आई. मैं अनिता के बारे में ही सोचता रहा. उस के जीवन का अंत इस तरह होगा, इस की कभी मैं ने कल्पना तक नहीं की थी.

2 दिन बाद कुछ मित्रों की सहायता से उसे निर्मला अस्पताल में ऐडमिट करा जब चलने को हुआ तो उस ने मेरी ओर बड़ी करुणा से देखा. बहुत दर्द था उस में. मैं ने कहा, ‘इस ऐडवांस स्टेज में तुम जानती हो कुछ नहीं हो सकता. यहां रहोगी तो कोई पास तो होगा, कम से कम छोटीमोटी जरूरतों के लिए.’

उस ने कुछ नहीं कहा. धीरे से उस ने अपनी पलकें उठाईं. पलकें उठाते ही वहां से आंसू ढलकते देख मेरी आंखें भर आईं. मैं कुछ देर बैठा रहा. चलने को हुआ तो उस ने कहा, ‘अमित कैसा है?’

‘अच्छा है, बहुत चाहती हो उसे? अगली बार आऊंगा तो उसे लेता आऊंगा,’ मैं ने कहा.

‘नहीं, उसे मत लाना. वह बहुत छोटा है. यहां लाना ठीक नहीं होगा,’ कह कर उस ने अपनी आंखें दूसरी तरफ कर लीं.

‘ठीक है. अपना खयाल रखना. 1-2 दिन के अंतर पर मैं आता रहूंगा,’ कह कर मैं चलने के लिए दरवाजे की ओर बढ़ा. उस ने कुछ नहीं कहा.

वह मुझे ही देख रही थी. वह नजर बहुत कातर थी. मैं आगे नहीं बढ़ सका. लौट कर कुछ देर उस के हाथों को अपने हाथों में ले सहलाता रहा और फिर बिना कुछ कहे चला आया.

और आज जब हम आए तो वह जा चुकी थी सदा के लिए. सब कुछ छोड़ कर. नर्स ने कहा, ‘‘रात में वह आप लोगों के बारे में बारबार पूछ रही थी. ऐसा लगता है जैसे वह अपने जाने के बारे में जानती थी.’’

उस का सामने पड़ा चेहरा सरल था. वहां कोई विषाद या तनाव का चिह्न नहीं था और अपने हाथों में उस ने लाल चूडि़यां पहन रखी थीं. उसे देखते हुए मैं ने नर्स की ओर देखा.

उस ने कहा, ‘‘ये लाल चूडि़यां रोज पर्स से निकाल कर वह घंटों देखा करती थी और फिर पर्स में रख लेती थी. कल उस के आग्रह करने पर मैं ने इसे उस के हाथों में पहनाया था. रात मेरे कहने पर उस ने निकालने से मना कर दिया और कहा, ‘नहीं, आज की रात इसे पहन कर सोऊंगी.’’’

दाह संस्कार कर घर लौटने पर परेशान देख रमा ने कहा, ‘‘चलो, सो जाओ. वह चली गई अच्छा हुआ. वह बहुत दुख में थी.’’

मैं मौन रहा. वह कुछ देर सामने खड़ी रही और बाद मेरी ओर देखते हुए कहा, ‘‘उन चूडि़यों से तुम्हारा क्या संबंध था?’’

मैं ने कहा, ‘‘उस दिन जब हम हिल्टन के करीब बांद्रा में घूम रहे थे, उसे वे लाल चूडि़यां पसंद आ गई थीं. उस ने मुझ से कहा था, ‘अखिल, ये चूडि़यां तुम मुझे खरीद दो. आई प्रौमिस यू, उस रात इसे पहन कर तुम्हारा इंतजार करूंगी.’’’

‘‘और?’’

‘‘और कुछ नहीं. जीवन के अंतिम पलों में कदाचित वह अपनी व्यथा में भावुक हो गई थी हमारे उन संबंधों को ले कर.’’

दूसरे दिन एक रजिस्टर्ड पत्र मिला. पत्र अनिता के सौलिसिटर का था. वह अपनी सारी संपत्ति, जिस में 3 रूम का उस का कार्टर रोड का फ्लैट और करीब 1 करोड़ रुपए बैंक डिपौजिट था, अमित के नाम कर गई थी. साथ में उस का एक पत्र था. पत्र में उस ने लिखा था-

अखिल,

दुख के गहरे पलों से गुजर रही हूं इन दिनों और यह दुख समय के साथ कम नहीं हो रहा. बढ़ता ही जा रहा है.

मेरा किया हुआ सदा मेरे सामने होता है. मैं सदा उसे अपलक देखती रहती हूं. उस किए हुए में तुम भी होते हो और जब वहां तुम होते हो, तुम्हें पाने के लिए मन बेचैन हो उठता है. ये सब कुछ मैं ने कभी नहीं कहा तुम से. किस मुंह से कहती?

उस दिन तुम ने पूछा था, क्या मैं अमित को बहुत चाहती हूं? सच, बहुत चाहती हूं. जब भी मैं ने उस के बारे में सोचा है इस अवस्था में भी मेरी छाती में दूध उमड़ने लगा है. आज सोचती हूं, काश तुम्हारी दुलहन बनती. तुम्हारे लिए घंटों सजती और अमित मेरी छाती पर खेलता. पर ऐसा कुछ नहीं हुआ. और देखो, कहां जा फंसी. कहीं की नहीं रही और जाने का समय भी आ गया. असहनीय पीड़ा होती है आखिल. मन में, सब सोच कर.

वह मेरा जीवन के प्रति अज्ञान था. उस के नियमों के प्रति कोई विद्रोह नहीं. आज सोचती हूं हरसिंगार बन यों न फैलती और तुम्हारी निर्दोष दृष्टि को समझ पाती तो यह दुख तो आज नहीं भोगती.

तुम्हें दुख पहुंचाया है मैं ने, उस के लिए मेरा स्वयं मुझे कोसता रहता है. पर ऐसा कहना आज अर्थहीन होगा. जिंदगी का एक पल भी तुम्हें नहीं दे सकी और देखो आज लाश ढोने के लिए कह रही हूं.

इस जन्म में तो नहीं, मगर अगले जन्म में मुझे अवश्य साथ ले लेना. तुम जो भी कहोगे आई प्रौमिस यू, वही करूंगी. उस के सिवा कुछ नहीं करूंगी.

– तुम्हारी अनिता

और आज सुबह रमा को तैयार होते देख मैं ने कहा, ‘‘कहां जा रही हो सुबह सुबह?’’

‘‘मैं अनिता के सौलिसिटर के पास जा रही हूं. मैं सब कुछ निर्मला अस्पताल को गिफ्ट कर देना चाहती हूं.’’

और उस दिन निर्मला को गिफ्ट कर जब मैं घर लौट रहा था तो लगा, रमा नहीं अनिता साथ में है लौंग ड्राइव पर.

विमोहिता:भाग 2- कैसे बदल गई अनिता की जिंदगी

अभी उस ने अपनी बात पूरी नहीं की थी कि वह अचानक उठ खड़ी हुई, जैसा वह शुरू के दिनों में करती थी और कहा, ‘कुछ जरूरी काम याद आ गया है. अखिल, माफ करना मुझे जाना होगा,’ और अपना कार्ड मेरी ओर बढ़ाते हुए फोन करने के लिए कह कर चली गई.

अनिता से मैं सब से पहले नम्रता के घर पर मिला था. वह पिलानी से नई नई मुंबई आई थी. गोरीचिट्टी, छरहरी और बड़ीबड़ी काली आंखें. वैस्टर्न ड्रैस में, विशेषकर जींस और टौप में वह बहुत स्मार्ट लगती थी.

उस दिन जब मैं पहली बार उस से मिला तो अपलक अपने को मुझे देखते हुए उस ने कहा था, ‘क्या देख रहे हो? बहुत सुंदर लगती हूं?’

मैं ने हंसते हुए कहा था ‘हां, बहुत सुंदर लग रही हो. रंभा से भी अधिक सुंदर.’

‘झूठ.’

‘नहीं, यह सच है.’

और उस के बाद 1-2 बार मिलने पर मन में उस के पति प्रेम का भाव अंकुरित हो उठा. वह अस्वाभाविक नहीं था. वह सुंदर तो थी ही, पढ़ीलिखी भी थी. पिलानी से ग्रैजुएट थी और एक मल्टीनैशनल कंपनी में काम करती थी.

उस दिन घर आई तो मैं ने कहा, ‘चलो, आज कहीं बाहर घूमने चलते हैं. वहीं कहीं खाना खा लेंगे और तुम्हें घर भी छोड़ दूंगा.’

‘ठीक है, पर हम पहले लौंग ड्राइव पर जाएंगे और उस के बाद तुम जहां चाहो मुझे ले चल सकते हो.’

उस के बाद हम पहले लौंग ड्राइव पर गए. रास्ते में 1-2 जगह रुके. और बाद में बांद्रा के बैंड स्टैंड पर आ गए. वहां बहुत देर तक इधरउधर घूमते रहे. वह दिन रविवार था. बैंड वाला कोई मराठी धुन बजा रहा था.

कुछ समय घूमने के बाद हम समुद्र के किनारे एक पत्थर पर आ कर बैठ गए. वह समुद्र की लहरों की ओर देखने लगी. हवा तेज थी और लहरें बहुत ऊंची उठ रही थीं. पर दिन का उजाला सिमटने लगा था.

मैं ने कहा, ‘क्या देख रही हो? कुछ बातें करो अपने मन की.’

उस ने मेरी ओर देखते हुए कहा, ‘नहीं, आज तुम्हारे मन की बात सुनने के मूड में हूं.’

मेरे लिए यह अच्छा अवसर था. मैं कुछ कहने के लिए सोच ही रहा था कि बीच में डाभ वाला आ गया और बिना कुछ कहे एक डाभ और दो स्ट्रा रख कर चला गया.

एक स्ट्रा उसे देते हुए मैं ने पाया कि वह अपनी बड़ीबड़ी आंखों से मुझे देख रही थी और उस के होंठों पर मुसकराहट थी. बाद में हम स्ट्रा बदलबदल कर साथसाथ डाभ पीते रहे. डाभ खत्म होने पर स्ट्रा को पर्स में रखते हुए उस ने कहा, ‘इसे अपने पास रखूंगी. यह अधिकार मैं ने पहली बार किसी को दिया है.’

हम वहां बहुत देर बैठे रहे. उस के बाएं हाथ को अपने हाथों में ले उस की उंगलियों को सहलाते हुए मैं ने कहा, ‘कुछ कहो न.’

‘नहीं, आज और कुछ नहीं. तुम भी कुछ न कहना,’ कहती हुई वह मेरे कंधे से आ लगी और मेरी उंगलियों से खेलती रही. हम बीच खाली होने तक वहां ऐसे ही बैठे रहे. कोई बात नहीं हुई. मैं सिर्फ अपलक उसे देखता रहा और वह आंखें बंद किए मेरे कंधे से लगी रही.

उस के बाद हम एक रैस्टोरैंट में आ गए. खाने के समय हमारी कोई बात नहीं हुई. बस, एकदूसरे को देखते रहे और एकदूसरे के बारे में सोचते रहे. उसे घर छोड़ जब चलने को हुआ तो उस ने पास आ कर कहा, ‘पहुंच कर फोन करना.’

मैं उस दिन बहुत खुश था. खुशी संभल नहीं रही थी मुझ से. उस के कुछ दिनों के बाद वह दिल्ली चली गई. हमारा संपर्क शुरू के दिनों में रोज का था पर बाद में धीरेधीरे वह कम होने लगा और एक दिन उस ने फोन रिसीव करना बंद कर दिया. मन बेचैन हो उठा पर उन दिनों कंपनी के काम से मलयेशिया में था, इसलिए चाह कर भी उस से मिलने दिल्ली नहीं जा सका.

उधर मां की तबीयत ठीक नहीं चल रही थी. बहू देखने की उन की बहुत इच्छा थी. उन की बात मान ली और रमा से मेरी शादी हो गई. रमा बहुत सुंदर थी. उस की सुंदरता के आगे मैं अनीता को भूल गया.

2 महीने पहले एक दिन उस का फोन आया. कहने लगी, ‘तुम से मिलना चाहती हूं. कुछ जरूरी काम है. नहीं, न कहना.’

‘अभी तो मैं औफिस जा रहा हूं. कुछ जरूरी काम है आज. शाम को औफिस से लौटते वक्त अवश्य मिलने आऊंगा.’

उस दिन औफिस जाते हुए रमा से मैं ने कहा, ‘शाम लौटते हुए अनिता से मिलने की सोच रहा हूं. उस का फोन आया था. कह रही थी कुछ जरूरी काम है. आने में देरी हो सकती है, खाना खा लेना.’

औफिस से लौटते हुए उस दिन जब अनिता के फ्लैट पर पहुंचा तो अंधेरा छा चुका था. कौरीडोर में बहुत कम लाइट थी. किसी तरह उस के फ्लैट के दरवाजे तक पहुंच कर मैं ने बैल बजाई तो उस ने कहा, ‘भीतर आ जाओ. दरवाजा खुला है.’

भीतर गया तो देखा वह खिड़की के सामने खड़ी बाहर की ओर देख रही थी. मैं ने पूछा, ‘क्या देख रही हो?’

‘अंधेरे को.’

‘मैं समझा नहीं.’

उसी समय वह मेरी ओर मुड़ी. उस का शरीर गल कर आधा हो चुका था. मैं ने कहा, ‘क्या हुआ? तबीयत तो ठीक है न?’

‘नहीं ठीक नहीं है,’ उस ने कहा और कह कर सामने सोफे पर बैठ गई और कुछ देर बाद दुपट्टे को मुंह पर रख कर फफकफफक कर रोने लगी.

मैं ने कहा, ‘क्या हुआ? किसी फ्लैट वाले से झगड़ा हुआ है या और कुछ?’

‘कुछ दिनों से तबीयत ठीक नहीं चल रही थी,’ उस ने कहा, ‘डाक्टर बाखला के कहने पर एचआईवी टैस्ट के लिए गई थी. उस की रिपोर्ट आ गई है. वह पौजिटिव निकली है. डाक्टर कह रहा था, बहुत ऐडवांस स्टेज है, अब कुछ नहीं हो सकता. वैसे तकलीफ कम करने के लिए उस ने कुछ दवाएं दी हैं.’

उस समय मेरे पैरों के नीचे से जमीन खिसकती सी लगी. समझ नहीं आ रहा था उस से क्या कहूं? सब कुछ इतना दुखद था कि मैं कुछ कह नहीं पा रहा था.

विमोहिता: भाग 1- कैसे बदल गई अनिता की जिंदगी

अभी भी हम बिस्तर पर ही थे और यही कोई 6 बजे का समय होगा जब फोन की घंटी बज उठी. फोन रमा ने उठाया और मेरी ओर देखते हुए कहा, ‘‘निर्मला, अस्पताल से नर्स बोल रही है. कह रही है कोई जरूरी मैसेज तुम्हें देना है.’’

निर्मला का नाम सुनते ही नींद गायब हो गई और मन अनिता के बारे में सोच कर चिंतित हो उठा. नर्स ने वही कुछ कहा जो मैं सोच रहा था. वह रात को कोमा में चली गई थी.

मुझे चिंतित देख रमा ने पूछा, ‘‘क्या बात है? सब ठीक तो है न?’’

‘‘नहीं, सब ठीक नहीं है,’’ मैं ने कहा, ‘‘कल रात से वह कोमा में चली गई है. नर्स कह रही थी अब वह कुछ ही घंटों की मेहमान है.’’

वह मौन हो गई. उसे मौन देख कर मैं ने कहा, ‘‘क्या सोचने लगीं?’’

‘‘क्या यहां उस का कोई अपना नहीं है? लोग कह रहे थे कि उस की बड़ी बहन और जीजाजी यहां रहते हैं.’’

‘‘हां,’’ मैं ने कहा, ‘‘हम जब पहली बार मिले थे उस समय वह अपने जीजाजी और बड़ी बहन के साथ ही रह रही थी. पर इधर कुछ दिन हुए, उन लोगों के बारे में जब मैं ने जिक्र किया तो कह रही थी कि उस की बड़ी बहन नम्रता अब इस दुनिया में नहीं रही और उस के जीजाजी दूसरी शादी कर मौरिशस चले गए हैं. नम्रता को कोई बच्चा वगैरह नहीं था, इसलिए उस का अपने जीजाजी से अब कोई संबंध नहीं रहा है.’’

‘‘क्या सोचते हो?’’

‘‘सोचना क्या है? यहां उस का और कोई रिश्तेदार या जानने वाला है नहीं, इसलिए उस का अंतिम संस्कार हम लोगों को ही करना पड़ेगा, ऐसा लगता है,’’ कह कर मैं उस की ओर देखने लगा.

उस ने इस पर कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की.

कई वर्षों के बाद अनिता 6 महीने पहले गोरेगांव के ओबेराय मौल में मिली थी. लेकिन वह पहले वाली अनिता नहीं थी. पहले से बिलकुल अलग. उलझे सफेद बाल, सूखा चेहरा और धंसी हुई आंखें. मैं तो पहचान ही नहीं सका था उसे पर वह हैलो कह कर मेरे सामने आ कर खड़ी हो गई थी.

‘कैसी हो?’ मैं ने पूछा.

‘ठीक हूं, तुम कैसे हो?’

‘कुछ विशेष नहीं, कह सकती हो सब ठीक है,’ मैं ने कहा.

‘और बच्चे?’

‘एक 4 साल का लड़का है. अमित नाम है उस का. बहुत सुंदर है. बिलकुल अपनी मां पर गया है.’

सुन कर वह कुछ असहज हो गई. उसे असहज होते देख मैं दूसरी बातें करने लगा. थोड़ी देर बाद कौफी के लिए उस के ‘हां’ कहने पर उसे ले कर कैफेटेरिया में आ गया.

मैं ने पूछा, ‘साथ में कुछ लोगी?’

‘नहीं, और कुछ नहीं. सिर्फ कौफी.’

‘अभी भी चाय नहीं पीती हो?’

उस ने इस पर कुछ नहीं कहा. बस हलकी सी मुसकराहट उस के चेहरे पर आई.

वहां बैठते हुए मैं ने पूछा, ‘तुम तो आजकल दिल्ली में हो. यहां किसी काम से आई हो या किसी से मिलने?’

‘दिल्ली में थी, अब नहीं हूं. यही कोई 6 महीने पहले मुंबई लौट आई हूं,’ उस ने कहा.

‘वहां दिल नहीं लगा?’

‘नहीं, ऐसी कोई बात नहीं थी. तुम तो जानते हो पिलानी से जब मुंबई आई तो जीजाजी और दीदी के आग्रह को ठुकरा नहीं सकी और उन के साथ ही रहने लगी. तुम से पहली बार मैं दीदी के घर ही तो मिली थी,’ कह कर उस ने मेरी ओर देखा.

‘हां, तुम्हारी दीदी इंटर में मेरे साथ थी, इसलिए कभीकभार उस के पास चला जाया करता था. लेकिन घर आने के लिए उस ने कभी आग्रह नहीं किया, क्योंकि शायद तुम्हारे जीजाजी वैसा नहीं चाहते थे. पर बाद के दिनों में तुम से मिलने की इच्छा से आने लगा था,’ मैं ने मुसकराते हुए कहा.

उस ने एक पल के लिए मेरी ओर देखा फिर अपनी पलकें नीची कर कौफी के

कप की ओर देखने लगी. फिर बोली, ‘दीदी पढ़ीलिखी, सुंदर और अच्छे नाकनक्श की थीं. उन का रंग भी गोरा था. पर जीजाजी शायद दीदी के थुलथुले बदन से ऊब चुके थे और उन्होंने जब मुझे इतना करीब पाया तो मुझे आंखों में पालने लगे. कुछ दिन मैं देखती रही उन्हें और जब मेरे लिए उन्हें मैनेज करना मुश्किल हो गया तो अपना ट्रांसफर करा कर दिल्ली चली गई.

‘दिल्ली में अंजलि के कहने पर मैं उस के साथ रहने लगी. पिलानी के दिनों में वह मेरे साथ थी और हम बहुत अच्छे दोस्त भी थे. दिल्ली में वह किसी मल्टीनैशनल कंपनी में काम करती थी.

‘अंजलि खुले स्वभाव की और स्वतंत्र विचारों वाली थी और अपने मित्रों से, जिन में पुरुष अधिक थे वह सदा घिरी रहती थी. रात में वह बाहर ही रहती अथवा देर से आती. उस के जाने के बाद शुरू के दिनों में मैं अपने कमरे में बंद हो जाती.

‘वैसे उस ने कभी अपने साथ चलने के लिए मुझ से नहीं कहा पर मैं ही एक दिन अपने अकेलेपन से ऊब गई तो उस के साथ जाने लगी.

‘वहां की दुनिया बड़ी ही रंगीन थी. कुछ दिनों में ही मैं उस रंग में रंग गई. अच्छा खाना, बढि़या ड्रिंक और रोज एक नया चेहरा. फिर मेरे कब पंख निकल आए पता ही न चला. मैं खुले आसमान में उड़ने लगी. लेकिन शरीर पर जब कुछ चरबी चढ़ी तो कल तक मेरी मुसकराहट पर बिछने वाले मुझ से कतराने लगे. उस में कुछ अस्वाभाविक नहीं था. नए चेहरों की वहां कमी नहीं थी और हमारे संबंध कोई भावनात्मक तो थे नहीं, जो कोई किसी के बारे में सोचता या उस के लिए दुखी होती.

‘ये सब तब मेरी जरूरत बन चुकी थी. ऐसे में क्या करती? खरीदफरोख्त पर उतर आई. बाद में वह भी मुश्किल हो गया. शादी के बारे में सोच भी नहीं सकती थी. प्रौलैप्स की सर्जरी में सब पहले ही रिमूव करवा चुकी थी.

‘और कोई तो वहां था नहीं. अंजलि अपने बौयफ्रैंड के साथ आस्ट्रेलिया सैटल कर गई थी और जो वहां थे वे मुझे अच्छी नजरों से नहीं देखते थे. क्या करती और किसी जगह को जानती नहीं थी, इसलिए मुंबई लौट कर आ गई…’

दोस्त ही भले: प्रतिभा ने शादी के लिए क्यूं मना किया

‘‘तुम गंभीरतापूर्वक हमारे रिलेशन के बारे में नहीं सोच रहे,’’ प्रतिभा ने सोहन से बड़े नाजोअंदाज से कहा.

‘‘तुम किसी बात को गंभीरतापूर्वक लेती हो क्या?’’ सोहन ने भी हंस कर जवाब दिया.

दोनों ने आज छुट्टी के दिन साथ बिताने का निर्णय लिया था और अभी कैफे में बैठे कौफी पी रहे थे. दोनों कई दिनों से दोस्त थे और बड़े अच्छे दोस्त थे.

‘‘लेती क्यों नहीं, जो बात गंभीरतापूर्वक लेने की हो. तुम मेरे सब से प्यारे दोस्त हो, मैं तुम से प्यार करती हूं, तुम्हारे साथ जीवन बिताना चाहती हूं. यह बात बिलकुल गंभीरतापूर्वक बोल रही हूं और चाहती हूं कि तुम भी गंभीर हो जाओ,’’ प्रतिभा ने आंखें नचाते हुए जवाब दिया. सोहन को उस की हर अदा बड़ी प्यारी लगती थी और इस अदा ने भी उस के दिल पर जादू कर दिया पर उस ने एक बात नोट की थी प्रतिभा के बारे में कि उस ने कई पुरुष मित्रों से मित्रता की थी पर किसी से उस की मित्रता ज्यादा दिनों तक टिकी

नहीं थी.

‘‘देखो प्रतिभा, जहां तक दोस्ती का सवाल है तो तुम मेरी सब से अच्छी दोस्त हो. तुम्हारे साथ समय बिताना मुझे बहुत पसंद है. इसीलिए मैं तुम से समय बिताने के लिए अनुरोध करता हूं और जब कभी तुम साथ में समय बिताने का कार्यक्रम बनाती हो तो झट से तैयार हो जाता हूं. पर शादी अलग चीज है. दोस्त कोई जरूरी नहीं पतिपत्नी बनें ही. मेरी कई महिलाएं दोस्त हैं. तुम्हारे भी कई पुरुष दोस्त हैं. सभी से शादी तो नहीं हो सकती. हम दोस्त ही भले हैं,’’ सोहन ने समझया.

‘‘देखो, शादी तो किसी से करनी ही है, तो क्यों न उस से करें जिस से सब से ज्यादा विचार मिलते हों. मुझे लगता है कि इस मामले में हमारी सब से अच्छी जोड़ी है,’’ प्रतिभा ने उत्तर दिया.

‘‘प्रतिभा, मैं तुम्हें वर्षों से जानता हूं और यह भी जानता हूं कि कई पुरुषों से तुम्हारी दोस्ती हुई है पर किसी के साथ तुम्हारी बहुत दिनों तक नहीं निभी. फिर मु?ा से कैसे निभा पाओगी? शायद कुछ दिनों बाद तुम्हारा दिल किसी और पर आ जाए. फिर तुम्हारी गंभीरता धरी की धरी रह जाएगी,’’ सोहन ने हंसते हुए कहा.

‘‘ऐसा नहीं होगा. दूसरों की बात और है, तुम्हारी बात और है. मैं तुम्हें दिल से चाहती हूं. अन्य लोगों से बस परिचय है, दोस्ती है,’’ प्रतिभा ने गंभीरतापूर्वक कहा.

‘‘थोड़ा समय दो मुझे सोचने के लिए. और हां, तुम भी गंभीरतापूर्वक सोचो. शादी एक गंभीर मसला है और इसे गंभीरतापूर्वक ही सोचना चाहिए,’’ सोहन ने कौफी का अंतिम घूंट लिया और कप रखते हुए खड़ा हो गया. प्रतिभा पहले ही अपनी कौफी खत्म कर चुकी थी.

‘‘चलो, पार्क में टहलते हैं,’’ सोह

रिश्ते की बूआ: उस दिन क्यों छलछला उठीं मेरी आंखें?

इस बार मैं अपने बेटे राकेश के साथ 4 साल बाद भारत आई थी. वे तो नहीं आ पाए थे. बिटिया को मैं घर पर ही लंदन में छोड़ आई थी, ताकि वह कम से कम अपने पिता को खाना तो समय पर बना कर खिला देगी.

पिछली बार जब मैं दिल्ली आई थी तब पिताजी आई.आई.टी. परिसर में ही रहते थे. वे प्राध्यापक थे वहां पर 3 साल पहले वे सेवानिवृत्त हो कर आगरा चले गए थे. वहीं पर अपने पुश्तैनी घर में अम्मां और पिताजी अकेले ही रहते थे. पिताजी की तबीयत कुछ ढीली रहती थी, पर अम्मां हमेशा से ही स्वस्थ थीं. वे घर को चला रही थीं और पिताजी की देखभाल कर रही थीं.

वैसे भी उन की कौन देखरेख करता? मैं तो लंदन में बस गई थी. बेटी के ऊपर कोई जोर थोड़े ही होता है, जो उसे प्यार से, जिद कर के भारत लौट आने के लिए कहते. बेटा न होने के कारण अम्मां और पिताजी आंसू बहाने लगते और मैं उनका रोने में साथ देने के सिवा और क्या कर सकती थी.

पहले जब पिताजी दिल्ली में रहते थे तब बहुत आराम रहता था. मेरी ससुराल भी दिल्ली में है. आनेजाने में कोई परेशानी नहीं होती थी. दोपहर का खाना पिताजी के साथ और शाम को ससुराल में आनाजाना लगा ही रहता था. मेरे दोनों देवर भी बेचारे इतने अच्छे हैं कि अपनी कारों से इधरउधर घुमाफिरा देते.

अब इस बार मालूम हुआ कि कितनी परेशानी होती है भारत में सफर करने में. देवर बेचारे तो स्टेशन तक गाड़ी पर चढ़ा देते या आगरा से आते समय स्टेशन पर लेने आ जाते. बाकी तो सफर की परेशानियां खुद ही उठानी थीं. वैसे राकेश को रेलगाड़ी में सफर करना बहुत अच्छा लगता था. स्टेशन पर जब गाड़ी खड़ी होती तो प्लेटफार्म पर खाने की चीजें खरीदने की उस की बहुत इच्छा होती थी. मैं उस को बहुत मुश्किल से मना कर पाती थी.

आगरा में मुझे 3 दिन रुकना था, क्योंकि 10 दिन बाद तो हमें लंदन लौट जाना था. बहुत दिल टूट रहा था. मुझे मालूम था ये 3 दिन अच्छे नहीं कटेंगे. मैं मन ही मन रोती रहूंगी. अम्मां तो रहरह कर आंसू बहाएंगी ही और पिताजी भी बेचारे अलग दुखी होंगे.

पिताजी ने सक्रिय जिंदगी बिताई थी, परंतु अब बेचारे अधिकतर घर की चारदीवारी के अंदर ही रहते थे. कभीकभी अम्मां उन को घुमाने के लिए ले तो जाती थीं परंतु यही डर लगता था कि बेचारे लड़खड़ा कर गिर न पड़ें.

रेलवे स्टेशन पर छोटा देवर छोड़ने आया था. उस को कोई काम था, इसलिए गाड़ी में चढ़ा कर चला गया. साथ में वह कई पत्रिकाएं भी छोड़ गया था. राकेश एक पत्रिका देखने में उलझा हुआ था. मैं भी एक कहानी पढ़ने की कोशिश कर रही थी, पर अम्मां और पिताजी की बात सोच कर मन बोझिल हो रहा था.

गाड़ी चलने में अभी 10 मिनट बाकी थे तभी एक महिला और उन के साथ लगभग 7-8 साल का एक लड़का गाड़ी के डब्बे में चढ़ा. कुली ने आ कर उन का सामान हमारे सामने वाली बर्थ के नीचे ठीक तरह से रख दिया. कुली सामान रख कर नीचे उतर गया. वह महिला उस के पीछेपीछे गई. उन के साथ आया लड़का वहीं उन की बर्थ पर बैठ गया.

कुली को पैसे प्लेटफार्म पर खड़े एक नवयुवक ने दिए. वह महिला उस नवयुवक से बातें कर रही थी. तभी गाड़ी ने सीटी दी तो महिला डब्बे में चढ़ गई.

‘‘अच्छा दीदी, जीजाजी से मेरा नमस्ते कहना,’’ उस नवयुवक ने खिड़की में से झांकते हुए कहा.

वह महिला अपनी बर्थ पर आ कर बैठ गई, ‘‘अरे बंटी, तू ने मामाजी को जाते हुए नमस्ते की या नहीं?’’

उस लड़के ने पत्रिका से नजर उठा कर बस, हूंहां कहा और पढ़ने में लीन हो गया. गरमी काफी हो रही थी. पंखा अपनी पूरी शक्ति से घूम रहा था, परंतु गरमी को कम करने में वह अधिक सफल नहीं हो पा रहा था. 5-7 मिनट तक वह महिला चुप रही और मैं भी खामोश ही रही. शायद हम दोनों ही सोच रही थीं कि देखें कौन बात पहले शुरू करता है.

आखिर उस महिला से नहीं रहा गया, पूछ ही बैठी, ‘‘कहां जा रही हैं आप?’’

‘‘आगरा जा रहे हैं. और आप कहां जा रही हैं?’’ मैं ने पूछा.

‘‘हम तो आप से पहले मथुरा में उतर जाएंगे,’’ उस ने कहा, ‘‘क्या आप विदेश में रहती हैं?’’

‘‘हां, पिछले 15 वर्षों से लंदन में रहती हूं, लेकिन आप ने कैसे जाना कि मैं विदेश में रहती हूं?’’ मैं पूछ बैठी.

‘‘आप के बोलने के तौरतरीके से कुछ ऐसा ही लगा. मैं ने देखा है कि जो भारतीय विदेशों में रहते हैं उन का बातचीत करने का ढंग ही अनोखा होता है. वे कुछ ही मिनटों में बिना कहे ही बता देते हैं कि वे भारत में नहीं रहते. आप ने यहां भ्रमण करवाया है, अपने बेटे को?’’ उस ने राकेश की ओर इशारा कर के कहा.

‘‘मैं तो बस घर वालों से मिलने आई थी. अम्मां और पिताजी से मिलने आगरा जा रही हूं. पहले जब वे हौजखास में रहते थे तो कम से कम मेरा भारत भ्रमण का आधा समय रेलगाड़ी में तो नहीं बीतता था,’’ मेरे लहजे में शिकायत थी.

‘‘आप के पिताजी हौजखास में कहां रहते थे?’’ उस ने उत्सुकता से पूछा.

‘‘पिताजी हौजखास में आई.आई.टी. में 20 साल से अधिक रहे,’’ मैं ने कहा, ‘‘अब सेवानिवृत्त हो कर आगरा में रह रहे हैं.’’

‘‘आप के पिताजी आई.आई.टी. में थे. क्या नाम है उन का? मेरे पिताजी भी वहीं प्रोफेसर हैं.’’

‘‘उन का नाम हरीश कुमार है,’’ मैं ने कहा.

मेरे पिताजी का नाम सुन कर वह महिला सन्न सी रह गई. उस का चेहरा फक पड़ गया. वह अपनी बर्थ से उठ कर हमारी बर्थ पर आ गई, ‘‘जीजी, आप मुझे नहीं जानतीं? मैं माधुरी हूं,’’ उस ने धीमे से कहा. उस की वाणी भावावेश से कांप रही थी.

‘माधुरी?’ मैं ने मस्तिष्क पर जोर डालने की कोशिश की तो अचानक यह नाम बिजली की तरह मेरी स्मृति में कौंध गया.

‘‘कमल की शादी मेरे से ही तय हुई थी,’’ कहते हुए माधुरी की आंखें छलछला उठीं.

‘कमल’ नाम सुन कर एकबारगी मैं कांप सी गई. 12 साल पहले का हर पल मेरे समक्ष ऐसे साकार हो उठा जैसे कल की ही बात हो. पिताजी ने कमल की मृत्यु का तार दिया था. उन का लाड़ला, मेरा अकेला चहेता छोटा भाई एक ट्रेन दुर्घटना का शिकार हो गया था. अम्मां और पिताजी की बुढ़ापे की लाठी, उन के बुढ़ापे से पहले ही टूट गई थी.

कमल ने आई.आई.टी. से ही इंजीनियरिंग की थी. पिताजी और माधुरी के पिता दोनों ही अच्छे मित्र थे. कमल और माधुरी की सगाई भी कर दी गई थी. वे दोनों एकदूसरे को चाहते भी थे. बस, हमारे कारण शादी में देरी हो रही थी. गरमी की छुट्टियों में हमारा भारत आने का पक्का कार्यक्रम था. पर इस से पहले कि हम शादी के लिए आ पाते, कमल ही सब को छोड़ कर चला गया. हम तो शहनाई के माहौल में आने वाले थे और आए तब जब मातम मनाया जा रहा था.

मैं ने माधुरी के कंधे पर हाथ रख कर उस की पीठ सहलाई. राकेश मेरी ओर देख रहा था कि मैं क्या कर रही हूं.

मैं ने राकेश को कहा, ‘‘तुम भोजन कक्ष में जा कर कुछ खापी लो और बंटी को भी ले जाओ,’’ अपने पर्स से एक 20 रुपए का नोट निकाल कर मैं ने रोकश को दे दिया. वह खुशीखुशी बंटी को ले कर चला गया.

उन के जाते ही मेरी आंखें भी छलछला उठीं, ‘‘अब पुरानी बातों को सोचने से दुखी होने का क्या फायदा, माधुरी. हमारा और उस का इतना ही साथ था,’’ मैं ने सांत्वना देने की कोशिश की, ‘‘यह शुक्र करो कि वह तुम को मंझधार में छोड़ कर नहीं गया. तुम्हारा जीवन बरबाद होने से बच गया.’’

‘‘दीदी, मैं सारा जीवन उन की याद में अम्मां और पिताजी की सेवा कर के काट देती,’’ माधुरी कमल की मृत्यु के बाद बहुत मुश्किल से शादी कराने को राजी हुई थी. यहां तक कि अम्मां और पिताजी ने भी उस को काफी समझाया था. कमल की मृत्यु के 3 वर्ष बाद माधुरी की शादी हुई थी.

‘‘तुम्हारे पति आजकल मथुरा में हैं?’’ मैं ने पूछा.

‘‘हां, वे वहां तेलशोधक कारखाने में नौकरी करते हैं.’’

‘‘तुम खुश हो न, माधुरी?’’ मैं पूछ ही बैठी.

‘‘हां, बहुत खुश हूं. वे मेरा बहुत खयाल रखते हैं. बड़े अच्छे स्वभाव के हैं. मैं तो खुद ही अपने दुखों का कारण हूं. जब भी कभी कमल का ध्यान आ जाता है तो मेरा मन बहुत दुखी हो जाता है. वे बेचारे सोचसोच कर परेशान होते हैं कि उन से तो कोई गलती नहीं हो गई. सच दीदी, कमल को मैं अब तक दिल से नहीं भुला सकी,’’ माधुरी फूटफूट कर रोने लगी. मेरी आंखों से भी आंसू बहने लगे. कुछ देर बाद हम दोनों ने आंसू पोंछ डाले.

‘‘मुझे पिताजी से मालूम हुआ था कि चाचाचाची आगरा में हैं. इतने पास हैं, मिलने की इच्छा भी होती है, पर इन से क्या कह कर उन को मिलवाऊंगी? यही सोच कर रह जाती हूं,’’ माधुरी बोली.

‘‘अगर मिल सको तो वे दोनों तो बहुत प्रसन्न होंगे. पिताजी के दिल को काफी चैन मिलेगा,’’ मैं ने कहा, ‘‘पर अपने पति से झूठ बोलने की गलती मत करना,’’ मैं ने सुझाव दिया.

‘‘अगर कमल की मृत्यु न होती तो दीदी, आज आप मेरी ननद होतीं,’’ माधुरी ने आहत मन से कहा.

मैं उस की इस बात का क्या उत्तर देती. बच्चों को भोजन कक्ष में गए काफी देर हो गई थी. मथुरा स्टेशन भी कुछ देर में आने वाला ही था.

‘‘तुम को लेने आएंगे क्या स्टेशन पर,’’ मैं ने बात को बदलने के विचार से कहा.

‘‘कहां आएंगे दीदी. गाड़ी 3 बजे मथुरा पहुंचेगी. तब वे फैक्टरी में होंगे. हां, कार भेज देंगे. घर पर भी शाम के 7 बजे से पहले नहीं आ पाते. इंजीनियरों के पास काम अधिक ही रहता है.’’

?तभी दोनों लड़के आ गए. माधुरी का बंटी बहुत ही बातें करने लगा. वह राकेश से लंदन के बारे में खूब पूछताछ कर रहा था. राकेश ने उसे लंदन से ‘पिक्चर पोस्टकार्ड’ भेजने का वादा किया. उस ने अपना पता राकेश को दिया और राकेश का पता भी ले लिया. गाड़ी वृंदावन स्टेशन को तेजी से पास कर रही थी. कुछ देर में मथुरा जंक्शन के आउटर सिगनल पर गाड़ी खड़ी हो गई.

‘‘यह गाड़ी हमेशा ही यहां खड़ी हो जाती है. पर आज इसी बहाने कुछ और समय आप को देखती रहूंगी,’’ माधुरी उदास स्वर में बोली.

मैं कभी बंटी को देखती तो कभी माधुरी को. कुछ मिनटों बाद गाड़ी सरकने लगी और मथुरा जंक्शन भी आ गया.

एक कुली को माधुरी ने सामान उठाने के लिए कह दिया. बंटी राकेश से ‘टाटा’ कर के डब्बे से नीचे उतर चुका था. राकेश खिड़की के पास खड़ा बंटी को देख रहा था. सामान भी नीचे जा चुका था. माधुरी के विदा होने की बारी थी. वह झुकी और मेरे पांव छूने लगी. मैं ने उसे सीने से लगा लिया. हम दोनों ही अपने आंसुओं को पी गईं. फिर माधुरी डब्बे से नीचे उतर गई.

‘‘अच्छा दीदी, चलती हूं. ड्राइवर बाहर प्रतीक्षा कर रहा होगा. बंटी बेटा, बूआजी को नमस्ते करो,’’ माधुरी ने बंटी से कहा.

बंटी भी अपनी मां का आज्ञाकारी बेटा था, उस ने हाथ जोड़ दिए. माधुरी अपनी साड़ी के पल्ले से आंखों की नमी को कम करने का प्रयास करती हुई चल दी. उस में पीछे मुड़ कर देखने का साहस नहीं था. कुछ समय बाद मथुरा जंक्शन की भीड़ में ये दोनों आंखों से ओझल हो गए.

अचानक मुझे खयाल आया कि मुझे बंटी के हाथ में कुछ रुपए दे देने चाहिए थे. अगर वक्त ही साथ देता तो बंटी मेरा भतीजा होता. पर अब क्या किया जा सकता था. पता नहीं, बंटी और माधुरी से इस जीवन में कभी मिलना होगा भी कि नहीं? अगर बंटी लड़के की जगह लड़की होता तो उसे अपने राकेश के लिए रोक कर रख लेती. यह सोच कर मेरे होंठों पर मुसकान खेल गई.

राकेश ने मुझे काफी समय बाद मुसकराते देखा था. वह मेरे हाथ से खेलने लगा, ‘‘मां, भारत में लोग अजीब ही होते हैं. मिलते बाद में हैं, पहले रिश्ता कायम कर लेते हैं. देखो, आप को उस औरत ने बंटी की बूआजी बना दिया. क्या बंटी के पिता आप के भाई लगते हैं?’’

राकेश को कमल के बारे में विशेष मालूम नहीं था. कमल की मृत्यु के बाद ही वह पैदा हुआ था. उस का प्रश्न सुन कर मेरी आंखों से आंसू बहने लगे.

राकेश घबराया कि उस ने ऐसा क्या कह दिया कि मैं रोने लगी, ‘‘मुझे माफ कर दो मां, आप नाराज क्यों हो गईं? आप हमेशा ही भारत छोड़ने से पहले जराजरा सी बात पर रोने लगती हैं.’’

मैं ने राकेश को अपने सीने से लगा लिया, ‘‘नहीं बेटा, ऐसी कोई बात नहीं… जब अपनों से बिछड़ते हैं तो रोना आ ही जाता है. कुछ लोग अपने न हो कर भी अपने होते हैं.’’

राकेश शायद मेरी बात नहीं समझा था कि बंटी कैसे अपना हो सकता है? एक बार रेलगाड़ी में कुछ घंटों की मुलाकात में कोई अपनों जैसा कैसे हो जाता है, लेकिन इस के बाद उस ने मुझ से कोई प्रश्न नहीं किया और अपनी पत्रिका में खो गया.

नई सुबह : कैसे बदल गई नीता की जिंदगी

‘‘बदजात औरत, शर्म नहीं आती तुझे मुझे मना करते हुए… तेरी हिम्मत कैसे होती है मुझे मना करने की? हर रात यही नखरे करती है. हर रात तुझे बताना पड़ेगा कि पति परमेश्वर होता है? एक तो बेटी पैदा कर के दी उस पर छूने नहीं देगी अपने को… सतिसावित्री बनती है,’’ नशे में धुत्त पारस ऊलजलूल बकते हुए नीता को दबोचने की चेष्टा में उस पर चढ़ गया.

नीता की गरदन पर शिकंजा कसते हुए बोला, ‘‘यारदोस्तों के साथ तो खूब हीही करती है और पति के पास आते ही रोनी सूरत बना लेती है. सुन, मुझे एक बेटा चाहिए. यदि सीधे से नहीं मानी तो जान ले लूंगा.’’

नशे में चूर पारस को एहसास ही नहीं था कि उस ने नीता की गरदन को कस कर दबा रखा है. दर्द से छटपटाती नीता खुद को छुड़ाने की कोशिश कर रही थी. अंतत: उस ने खुद को छुड़ाने के लिए पारस की जांघों के बीच कस कर लात मारी. दर्द से तड़पते हुए पारस एक तरफ लुढ़क गया.

मौका पाते ही नीता पलंग से उतर कर भागी और फिर जोर से चिल्लाते हुए बोली,

‘‘नहीं पैदा करनी तुम्हारे जैसे जानवर से एक और संतान. मेरे लिए मेरी बेटी ही सब कुछ है.’’

पारस जब तक अपनेआप को संभालता नीता ने कमरे से बाहर आ कर दरवाजे की कुंडी लगा दी. हर रात यही दोहराया जाता था, पर आज पहली बार नीता ने कोई प्रतिक्रिया दी. मगर अब उसे डर लग रहा था. न सिर्फ अपने लिए, बल्कि अपनी 3 साल की नन्ही बिटिया के लिए भी. फिर क्या करे क्या नहीं की मनोस्थिति से उबरते हुए उस ने तुरंत घर छोड़ने का फैसला ले लिया.

उस ने एक ऐसा फैसला लिया जिस का अंजाम वह खुद भी नहीं जानती थी, पर इतना जरूर था कि इस से बुरा तो भविष्य नहीं ही होगा.

नीता ने जल्दीजल्दी अलमारी में छिपा कर रखे रुपए निकाले और फिर नन्ही गुडि़या को शौल से ढक कर घर से बाहर निकल गई. निकलते वक्त उस की आंखों में आंसू आ गए पर उस ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा. वह घर जिस में उस ने 7 साल गुजार दिए थे कभी अपना हो ही नहीं पाया.

जनवरी की कड़ाके की ठंड और सन्नाटे में डूबी सड़क ने उसे ठंड से ज्यादा डर से कंपा दिया पर अब वापस जाने का मतलब था अपनी जान गंवाना, क्योंकि आज की उस की प्रतिक्रिया ने पति के पौरुष को, उस के अहं को चोट पहुंचाई है और इस के लिए वह उसे कभी माफ नहीं करेगा.

यही सोचते हुए नीता ने कदम आगे बढ़ा दिए. पर कहां जाए, कैसे जाए सवाल निरंतर उस के मन में चल रहे थे. नन्ही सी गुडि़या उस के गले से चिपकी हुई ठंड से कांप रही थी. पासपड़ोस के किसी घर में जा कर वह तमाशा नहीं बनाना चाहती थी. औटो या किसी अन्य सवारी की तलाश में वह मुख्य सड़क तक आ चुकी थी, पर कहीं कोई नहीं था.

अचानक उसे किसी का खयाल आया कि शायद इस मुसीबत की घड़ी में वे उस की मदद करें. ‘पर क्या उन्हें उस की याद होगी? कितना समय बीत गया है. कोई संपर्क भी तो नहीं रखा उस ने. जो भी हो एक बार कोशिश कर के देखती हूं,’ उस ने मन ही मन सोचा.

आसपास कोई बूथ न देख नीता थोड़ा आगे बढ़ गई. मोड़ पर ही एक निजी अस्पताल था. शायद वहां से फोन कर सके. सामने लगे साइनबोर्ड को देख कर नीता ने आश्वस्त हो कर तेजी से अपने कदम उस ओर बढ़ा दिए.

‘पर किसी ने फोन नहीं करने दिया या मयंकजी ने फोन नहीं उठाया तो? रात भी तो कितनी हो गई है,’ ये सब सोचते हुए नीता ने अस्पताल में प्रवेश किया. स्वागत कक्ष की कुरसी पर एक नर्स बैठी ऊंघ रही थी.

‘‘माफ कीजिएगा,’’ अपने ठंड से जमे हाथ से उसे धीरे से हिलाते हुए नीता ने कहा.

‘‘कौन है?’’ चौंकते हुए नर्स ने पूछा. फिर नीता को बच्ची के साथ देख उसे लगा कि कोई मरीज है. अत: अपनी व्यावसायिक मुसकान बिखेरते हुए पूछा, ‘‘मैं आप की क्या मदद कर सकती हूं?’’

‘‘जी, मुझे एक जरूरी फोन करना है,’’ नीता ने विनती भरे स्वर में कहा.

पहले तो नर्स ने आनाकानी की पर फिर उस का मन पसीज गया. अत: उस ने फोन आगे कर दिया.

गुडि़या को वहीं सोफे पर लिटा कर नीता ने मयंकजी का नंबर मिलाया. घंटी बजती रही पर फोन किसी ने नहीं उठाया. नीता का दिल डूबने लगा कि कहीं नंबर बदल तो नहीं गया है… अब कैसे वह बचाएगी खुद को और इस नन्ही सी जान को? उस ने एक बार फिर से नंबर मिलाया. उधर घंटी बजती रही और इधर तरहतरह के संशय नीता के मन में चलते रहे.

निराश हो कर वह रिसीवर रखने ही वाली थी कि दूसरी तरफ से वही जानीपहचानी आवाज आई, ‘‘हैलो.’’

नीता सोच में पड़ गई कि बोले या नहीं. तभी फिर हैलो की आवाज ने उस की तंद्रा तोड़ी तो उस ने धीरे से कहा, ‘‘मैं… नीता…’’

‘‘तुम ने इतनी रात गए फोन किया और वह भी अनजान नंबर से? सब ठीक तो है? तुम कैसी हो? गुडि़या कैसी है? पारसजी कहां हैं?’’ ढेरों सवाल मयंक ने एक ही सांस में पूछ डाले.

‘‘जी, मैं जीवन ज्योति अस्पताल में हूं. क्या आप अभी यहां आ सकते हैं?’’ नीता ने रुंधे गले से पूछा.

‘‘हां, मैं अभी आ रहा हूं. तुम वहीं इंतजार करो,’’ कह मयंक ने रिसीवर रख दिया.

नीता ने रिसीवर रख कर नर्स से फोन के भुगतान के लिए पूछा, तो नर्स ने मना करते हुए कहा, ‘‘मैडम, आप आराम से बैठ जाएं, लगता है आप किसी हादसे का शिकार हैं.’’

नर्स की पैनी नजरों को अपनी गरदन पर महसूस कर नीता ने गरदन को आंचल से ढक लिया. नर्स द्वारा कौफी दिए जाने पर नीता चौंक गई.

‘‘पी लीजिए मैडम. बहुत ठंड है,’’ नर्स बोली.

गरम कौफी ने नीता को थोड़ी राहत दी. फिर वह नर्स की सहृदयता पर मुसकरा दी.

इसी बीच मयंक अस्पताल पहुंच गए. आते ही उन्होंने गुडि़या के बारे में पूछा. नीता ने सो रही गुडि़या की तरफ इशारा किया तो मयंक ने लपक कर उसे गोद में उठा लिया. नर्स ने धीरे से मयंक को बताया कि संभतया किसी ने नीता के साथ दुर्व्यवहार किया है, क्योंकि इन के गले पर नीला निशान पड़ा है.

नर्स को धन्यवाद देते हुए मयंक ने गुडि़या को और कस कर चिपका लिया. बाहर निकलते ही नीता ठंड से कांप उठी. तभी मयंक ने उसे अपनी जैकेट देते हुए कहा, ‘‘पहन लो वरना ठंड लग जाएगी.’’

नीता ने चुपचाप जैकेट पहन ली और उन के पीछे चल पड़ी. कार की पिछली सीट पर गुडि़या को लिटाते हुए मयंक ने नीता को बैठने को कहा. फिर खुद ड्राइविंग सीट पर बैठ गए. मयंक के घर पहुंचने तक दोनों खामोश रहे.

कार के रुकते ही नीता ने गुडि़या को निकालना चाहा पर मयंक ने उसे घर की चाबी देते हुए दरवाजा खोलने को कहा और फिर खुद धीरे से गुडि़या को उठा लिया. घर के अंदर आते ही उन्होंने गुडि़या को बिस्तर पर लिटा कर रजाई से ढक दिया. नीता ने कुछ कहना चाहा तो उसे चुप रहने का इशारा कर एक कंबल उठाया और बाहर सोफे पर लेट गए.

दुविधा में खड़ी नीता सोच रही थी कि इतनी ठंड में घर का मालिक बाहर सोफे पर और वह उन के बिस्तर पर… पर इतनी रात गए वह उन से कोई तर्क भी नहीं करना चाहती थी, इसलिए चुपचाप गुडि़या के पास लेट गई. लेटते ही उसे एहसास हुआ कि वह बुरी तरह थकी हुई है. आंखें बंद करते ही नींद ने दबोच लिया.

सुबह रसोई में बरतनों की आवाज से नीता की नींद खुल गई. बाहर निकल कर देखा मयंक चायनाश्ते की तैयारी कर रहे थे.

नीता शौल ओढ़ कर रसोई में आई और धीरे से बोली, ‘‘आप तैयार हो जाएं. ये सब मैं कर देती हूं.’’

‘‘मुझे आदत है. तुम थोड़ी देर और सो लो,’’ मयंक ने जवाब दिया.

नीता ने अपनी भर आई आंखों से मयंक की तरफ देखा. इन आंखों के आगे वे पहले भी हार जाते थे और आज भी हार गए. फिर चुपचाप बाहर निकल गए.

मयंक के तैयार होने तक नीता ने चायनाश्ता तैयार कर मेज पर रख दिया.

नाश्ता करते हुए मयंक ने धीरे से कहा, ‘‘बरसों बाद तुम्हारे हाथ का बना नाश्ता कर रहा हूं,’’ और फिर चाय के साथ आंसू भी पी गए.

जातेजाते नीता की तरफ देख बोले, ‘‘मैं लंच औफिस में करता हूं. तुम अपना और गुडि़या का खयाल रखना और थोड़ी देर सो लेना,’’ और फिर औफिस चले गए.

दूर तक नीता की नजरें उन्हें जाते हुए देखती रहीं ठीक वैसे ही जैसे 3 साल पहले देखा करती थीं जब वे पड़ोसी थे. तब कई बार मयंक ने नीता को पारस की क्रूरता से बचाया था. इसी दौरान दोनों के दिल में एकदूसरे के प्रति कोमल भावनाएं पनपी थीं पर नीता को उस की मर्यादा ने और मयंक को उस के प्यार ने कभी इजहार नहीं करने दिया, क्योंकि मयंक नीता की बहुत इज्जत भी करते थे. वे नहीं चाहते थे कि उन के कारण नीता किसी मुसीबत में फंस जाए.

यही सब सोचते, आंखों में भर आए आंसुओं को पोंछ कर नीता ने दरवाजा बंद किया और फिर गुडि़या के पास आ कर लेट गई. पता नहीं कितनी देर सोती रही. गुडि़या के रोने से नींद खुली तो देखा 11 बजे रहे थे. जल्दी से उठ कर उस ने गुडि़या को गरम पानी से नहलाया और फिर दूध गरम कर के दिया. बाद में पूरे घर को व्यवस्थित कर खुद नहाने गई. पहनने को कुछ नहीं मिला तो सकुचाते हुए मयंक की अलमारी से उन का ट्रैक सूट निकाल कर पहन लिया और फिर टीवी चालू कर दिया.

मयंक औफिस तो चले आए थे पर नन्ही गुडि़या और नीता का खयाल उन्हें बारबार आ रहा था. तभी उन्हें ध्यान आया कि उन दोनों के पास तो कपड़े भी नहीं हैं… नई जगह गुडि़या भी तंग कर रही होगी. यही सब सोच कर उन्होंने आधे दिन की छुट्टी ली और फिर बाजार से दोनों के लिए गरम कपड़े, खाने का सामान ले कर वे स्टोर से बाहर निकल ही रहे थे कि एक खूबसूरत गुडि़या ने उन का ध्यान अपनी तरफ आकर्षित किया, तो उन्होंने उसे भी पैक करवा लिया और फिर घर चल दिए.

दरवाजा खोलते ही नीता चौंक गई. मयंक ने मुसकराते हुए सारा सामान नीचे रख नन्हीं सी गुडि़या को खिलौने वाली गुडि़या दिखाई. गुडि़या खिलौना पा कर खुश हो गई और उसी में रम गई.

मयंक ने नीता को सारा सामान दिखाया. बिना उस से पूछे ट्रैक सूट पहनने के लिए नीता ने माफी मांगी तो मयंक ने हंसते हुए कहा, ‘‘एक शर्त पर, जल्दी कुछ खिलाओ. बहुत तेज भूख लगी है.’’

सिर हिलाते हुए नीता रसोई में घुस गई. जल्दी से पुलाव और रायता बनाने लग गई. जितनी देर उस ने खाना बनाया उतनी देर तक मयंक गुडि़या के साथ खेलते रहे. एक प्लेट में पुलाव और रायता ला कर उस ने मयंक को दिया.

खातेखाते मयंक ने एकाएक सवाल किया, ‘‘और कब तक इस तरह जीना चाहती हो?’’

इस सवाल से सकपकाई नीता खामोश बैठी रही. अपने हाथ से नीता के मुंह में पुलाव डालते हुए मयंक ने कहा, ‘‘तुम अकेली नहीं हो. मैं और गुडि़या तुम्हारे साथ हैं. मैं जानता हूं सभी सीमाएं टूट गई होंगी. तभी तुम इतनी रात को इस तरह निकली… पत्नी होने का अर्थ गुलाम होना नहीं है. मैं तुम्हारी स्थिति का फायदा नहीं उठाना चाहता हूं. तुम जहां जाना चाहो मैं तुम्हें वहां सुरक्षित पहुंचा दूंगा पर अब उस नर्क से निकलो.’’

मयंक जानते थे नीता का अपना कहने को कोई नहीं है इस दुनिया में वरना वह कब की इस नर्क से निकल गई होती.

नीता को मयंक की बेइंतहा चाहत का अंदाजा था और वह जानती थी कि मयंक कभी मर्यादा का उल्लंघन नहीं करेंगे. इसीलिए तो वह इतनी रात गए उन के साथ बेझिझक आ गई थी.

‘‘पारस मुझे इतनी आसानी से नहीं छोड़ेंगे,’’ सिसकते हुए नीता ने कहा और फिर पिछली रात घटी घटना की पूरी जानकारी मयंक को दे दी.

गरदन में पड़े नीले निशान को धीरे से सहलाते हुए मयंक की आंखों में आंसू आ गए, ‘‘तुम ने इतनी हिम्मत दिखाई है नीता. तुम एक बार फैसला कर लो. मैं हूं तुम्हारे साथ. मैं सब संभाल लूंगा,’’ कहते हुए नीता को अपनी बांहों में ले कर उस नीले निशान को चूम लिया.

हां में सिर हिलाते हुए नीता ने अपनी मौन स्वीकृति दे दी और फिर मयंक के सीने पर सिर टिका दिया.

अगले ही दिन अपने वकील दोस्त की मदद से मयंक ने पारस के खिलाफ केस दायर कर दिया. सजा के डर से पारस ने चुपचाप तलाक की रजामंदी दे दी.

मयंक के सीने पर सिर रख कर रोती नीता का गोरा चेहरा सिंदूरी हो रहा था. आज ही दोनों ने अपने दोस्तों की मदद से रजिस्ट्रार के दफ्तर में शादी कर ली थी. निश्चिंत सी सोती नीता का दमकता चेहरा चूमते हुए मयंक ने धीरे से करवट ली कि नीता की नींद खुल गई. पूछा, ‘‘क्या हुआ? कुछ चाहिए क्या?’’

‘‘हां. 1 मिनट. अभी आता हूं मैं,’’ बोलते हुए मयंक बाहर निकल गए और फिर कुछ ही देर में वापस आ गए, उन की गोद में गुडि़या थी उनींदी सी. गुडि़या को दोनों के बीच सुलाते हुए उन्होंने कहा, ‘‘हमारी बेटी हमारे पास सोएगी कहीं और नहीं.’’

मयंक की बात सुन कर नन्ही गुडि़या नींद में भी मुसकराने लग गई और मयंक के गले में हाथ डाल कर फिर सो गई. बापबेटी को ऐसे सोते देख नीता की आंखों में खुशी के आंसू आ गए. मुसकराते हुए उस ने भी आंखें बंद कर लीं नई सुबह के स्वागत के लिए.

मैं ने जरा देर में जाना

‘‘सुबहसे बारिश लगी है. औफिस जाते हुए मु?ो कार से सत्संग भवन तक छोड़ दो न,’’ अनुरोध के स्वर में एकता ने अपने पति प्रतीक से कहा तो उस के माथे पर बल पड़ गए.

‘‘सत्संग? तुम कब से सत्संग और प्रवचन के लिए जाने लगीं? जिस एकता को मैं 2 साल से जानता हूं वह तो जिम जाती है, सहेलियों के साथ किट्टी पार्टी करती है और मेरे जैसे रूखे

पति की प्रेमिका बन कर उस की सारी थकान दूर कर देती है. सत्संग में कब से रुचि लेने लगीं? घर पर बोर होती हो तो मेरे साथ औफिस चल कर पुराना काम संभाल सकती हो, मु?ो खुशी होगी. इन चक्करों में पड़ना छोड़ दो, यार,’’ एकता के गाल को हौले से खींचते हुए प्रतीक मुसकरा दिया, ‘‘अब मैं चलता हूं. शाम को मसाला चाय के साथ गोभी के पकौड़े खाऊंगा तुम्हारे हाथ के बने,’’ अपने होंठों को गोल कर हवा में चुंबन उछालता हुआ प्रतीक फरती से दरवाजा खोल बाहर निकल गया.

एकता ने मैसेज कर अपनी सहेली रुपाली को बता दिया कि वह आज सत्संग में नहीं आएगी. बु?ो मन से कपड़े बदलकर बैड पर बैठे हुए वह एक पत्रिका के पन्ने उलटने लगी और साथ ही अपने पिछले दिनों को भी. 2 वर्ष पूर्व प्रतीक को पति के रूप में पा कर जैसे उस का कोई स्वप्न साकार हो गया था. प्रतीक गुरुग्राम की एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में मैनेजर था और एकता वहां रिसैप्शनिस्ट. प्रतीक दिखने में साधारण किंतु अपने भीतर असीम प्रतिभा व अनेक गुण समेटे था.

एकता गौर वर्ण की नीली आंखों वाली आकर्षक युवती थी. जब कंपनी की ओर से एकता को प्रतीक का पीए बनाया गया तो दोनों को पहली नजर में इश्क सा कुछ लगा. एकदूसरे को जानने के बाद वे और करीब आ गए. बाद में दोनों के परिवारों की सहमति से विवाह भी हो गया.

प्रतीक जैसे सुल?ो व्यक्ति को पा कर एकता का जीवन सार्थक हो गया था. एक निम्न मध्यवर्गीय परिवार में पलीबढ़ी एकता के पिता की पूर्वी दिल्ली के लक्ष्मीनगर में परचून की दुकान थी. परिवार में एकता के अतिरिक्त मातापिता और भाई व भाभी थे. ग्रैजुएशन के बाद एकता ने औफिस मैनेजमैंट में डिप्लोमा कर गुरुग्राम की कंपनी में काम करना शुरू किया था.

प्रतीक एक मध्यवर्गीय परिवार से जुड़ा था, जिस में एक भाई प्रतीक से बड़ा और एक छोटा था. बहन इकलौती व उम्र में सब से बड़ी थी. प्रतीक का बड़ा भाई शेयर बेचने वाली एक छोटी सी कंपनी में अकाउंटैंट था और छोटा बैंक अधिकारी था. मातापिता अब इस दुनिया में नहीं थे. विवाह से पहले प्रतीक दिल्ली के पटेल नगर में बने अपने पुश्तैनी घर में रहता था. बाद में गुरुग्राम में 2 कमरों का मकान किराए पर ले कर रहने लगा था.

विवाह के बाद स्वयं को एक संपन्न पति की पत्नी के रूप में पा कर एकता जितनी प्रसन्न थी उतनी ही वह प्रतीक के इस गुण के कारण कि वह संबंधों के बीच अपने पद व रुपएपैसों को कभी भी नहीं आने देता. निर्धन हो या धनी सभी का वह समान रूप से सम्मान करता था.

एकता का सोचना था कि प्रतीक विवाह के बाद उसे नौकरी पर जाने के लिए मना कर देगा क्योंकि मैनेजर की पत्नी का उस के अधीनस्थ कर्मचारियों के साथ काम करना शायद प्रतीक को अच्छा नहीं लगेगा, लेकिन प्रतीक ने ऐसा नहीं किया. दफ्तर में एकता के प्रति उस का व्यवहार पूर्ववत था.

विवाह के 1 वर्ष बाद जीवन में नए मेहमान के आने की आहट हुई. अभी प्रैगनैंसी को 3 माह ही हुए थे कि एकता का ब्लड प्रैशर हाई रहने लगा. अपने स्वास्थ्य को देखते हुए एकता ने नौकरी छोड़ दी. घर पर काम करने के लिए फुल टाइम मेड थी, इसलिए उस का अधिकतर समय फेसबुक और व्हाट्सऐप पर बीतने लगा. प्रतीक उस की तबीयत में खास सुधार न दिखने पर डाक्टर से संपर्क के लिए जोर डालता रहा, लेकिन एकता किसी व्हाट्सऐप गु्रप में बताए देशी नुसखे आजमाती रही.

जब उस की तबीयत दिनबदिन बिगड़ने लगी तो प्रतीक अस्पताल ले गया. डाक्टर की देखरेख में स्वास्थ्य कुछ सुधरा, लेकिन समय से पहले डिलिवरी हो गई और बच्चे की जान चली गई. प्रतीक उसे अकेलेपन से जू?ाते देख वापस काम पर चलने को कहता लेकिन एकता तैयार न हुई.

पड़ोस में रहने वाली रुपाली ने एकता को सोसायटी की महिलाओं के गु्रप में शामिल कर लिया. वे सभी पढ़ीलिखी थीं. एकदूसरे का बर्थडे मनाने, किट्टी आयोजित करने और घूमनेफिरने के अलावा वे शंभूनाथ नामक पंडितजी के सत्संग में भी सम्मिलित हुआ करती थीं. पुराणों की कथा सुनाते हुए शंभूनाथजी मानसिक शांति की खोज के मार्ग बताते थे. सब से सुविधाजनक रास्ता उन के अनुसार विभिन्न अवसरों पर सुपात्र को दान देने का था. दान देने के इतने लाभ वे गिनवा देते थे कि एकता की तरह अन्य श्रोताओं को भी लगने लगा था कि थोड़ेबहुत रुपएपैसे शंभूनाथजी को दे देने से जीवन सफल हो जाएगा.

एक दिन प्रवचन सुनाते हुए शंभूनाथजी ने अनजाने में होने वाले पापों के दुष्परिणाम की बात की. सुन कर एकता सोच में पड़ गई. अंत में उस ने निष्कर्ष निकाला कि उसके नवजात की मृत्यु का कारण संभवत: उस से अज्ञानतावश हुआ कोई पाप होगा. पंडित शंभूनाथ की कुछ अन्य बातों ने भी उस पर जादू सा असर किया और उन के द्वारा दिखाए मार्ग पर चलना उसे सही लगने लगा.

आज प्रतीक का शुष्क प्रश्न कि वह कब से सत्संग में जाने लगी, उसे अरुचिकर लग रहा

था. सोच रही थी कि प्रतीक तो उस की प्रत्येक बात का समर्थन करता है, आज न जाने क्यों सत्संग जाने की बात पर वह अन्यमनस्क हो उठा. शाम को प्रतीक के लौटने तक वह इसी उधेड़बुन में रही.

रात का खाना खा कर बिस्तर पर लेटे हुए दोनों विचारमग्न थे कि प्रतीक बोल उठा, ‘‘अलमारी में पुराने कपड़ों का ढेर लग गया है. सोच रहा हूं मेड को दे देंगे.’’

‘‘हां, बहुत से कपड़े खरीद तो लिए हैं मैं ने, लेकिन पहनने का मौका नहीं मिला. नएनए पहन लेती हूं हर जगह. कल ही दे दूंगी. अच्छा सुनो, इस बात से याद आया कि कुछ पैसे चाहिए मु?ो. कल सत्संग भवन में हमारे गु्रप की ओर से दान दिया जाएगा.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘पंडितजी ने कहा था कि दान देने से न सिर्फ इस जीवन में बल्कि अगले जन्म में भी कष्ट पास नहीं फटकते.’’

‘‘देखो एकता, तुम अपने पर कितना भी खर्च करो मु?ो ऐतराज नहीं, ऐतराज तो छोड़ो बल्कि मैं तो चाहता हूं कि तुम मौजमस्ती करो और खूब खुश रहो. तुम्हारा यों पंडितजी की बातों में आ कर व्यर्थ पैसे लुटा देना सही नहीं लग रहा मु?ो तो.’’

‘‘गु्रप में फ्रैंड्स को क्या जवाब दूंगी?’’ मुंह बनाते हुए एकता ने पूछा.

‘‘मेरे विचार से तुम्हें उन लोगों को भी सही दिशा दिखानी चाहिए.’’

प्रतीक की इस बात को सुन एकता निरुत्तर हो गई.

गु्रप की महिलाएं रुपयेपैसे के अतिरिक्त फल, अनाज व मिठाई भी पंडितजी को दिया

करती थीं, लेकिन एकता मन मसोस कर रह जाती. एकता के बारबार कहने पर भी प्रतीक का दान देने की बात पर नानुकुर करना उसे रास नहीं आ रहा था. आर्थिक स्तर पर अपने से निम्न संबंधियों से प्रतीक का मैत्रीपूर्ण व्यवहार रखना, मेड को पुराने कपड़े, खाना व कंबल आदि देने को कहना तथा ड्राइवर के बेटे की पुस्तकें खरीदना एकता को असमंजस में डाल रहा था. दूसरों की मदद को सदैव तत्पर प्रतीक दानपुण्य के नाम से क्यों बिफर उठता है, इस प्रश्न का उत्तर उसे नहीं मिल पा रहा था.

शंभूनाथजी ने वट्सऐप ग्रुप बना लिया था. उस पर वे विभिन्न अवसरों, तीजत्योहारों आदि पर दान देने के मैसेज डालने लगे थे. प्रत्येक मैसेज के साथ दान की महत्ता बताई जाती. सुख, शांति व पापों से मुक्ति इन सभी के लिए दानदक्षिणा को अपनी दिनचर्या में सम्मिलित करना बताया जाता.

गु्रप की सभी महिलाओं के बीच होड़ सी लग जाती कि कौन शंभूनाथजी को अधिक से अधिक दान दे कर न केवल स्वयं को बल्कि परिवार को भी पापों से मुक्ति दिलवाने का महान प्रयास कर रहा है? एकता भी इस से अछूती न रही. प्रतीक से किसी न किसी बहाने पैसे मांग कर वह पंडितजी को दे देती थी. मन ही मन इस के लिए वह अपने को दोषी भी नहीं मानती थी क्योंकि उस का विचार था कि इस से प्रतीक पर भी कष्ट नहीं आएंगे. सत्संग में विभिन्न कथाएं सुनकर वह भयभीत हो जाती कि विपरीत भाग्य होने पर किसी व्यक्ति को कैसेकैसे कष्ट ?ोलने पड़ते हैं. मन ही मन वह उन सखियों का धन्यवाद करती जिन के कारण वह पंडितजी के संपर्क में आई थी वरना नर्क में जाने से कौन रोकता उसे.

उस दिन प्रतीक औफिस से लौटा तो चेहरे की आभा देखते ही एकता सम?ा गई कि कोई प्रसन्नता का समाचार सुनने को मिलेगा. यह सच भी था. प्रतीक को कंपनी की ओर से प्रमोशन मिली थी. शाम की चाय पीकर प्रतीक एकता को घर से दूर कुछ दिनों पहले बने एक फाइवस्टार होटल में ले गया.

कैंडल लाइट डिनर में एकदूसरे की उपस्थिति को आत्मसात करते हुए दोनों भविष्य के नए सपने बुन रहे थे. प्रतीक ने बताया कि अब वह एक आलीशान फ्लैट खरीदने का मन बना चुका है.

खुशी से एकता का अंगअंग मुसकराने लगा. खाने के बाद प्रतीक डिजर्ट मंगवाने के लिए मैन्यू देखने लगा तो एकता ने मोबाइल पर मैसेज पढ़ने शुरू कर दिए. सत्संग गु्रप में आज शंभूनाथजी ने जिस विषय पर पोस्ट डाली थी वह था कि किस प्रकार खुशियों को कभीकभी बुरी नजर लग जाती है और काम बनतेबनते बिगड़ने लगते हैं.

ऐसे में कुछ रुपए या सामान द्वारा नजर उतार कर दान कर देना चाहिए. इस से नजर का बुरा असर उस वस्तु के साथ दानपात्र के पास चला जाता है. गु्रप में कई महिलाओं ने अपने अनुभव बांटे थे कि कैसे जीवन में कुछ अच्छा होते ही अचानक उन के साथ अप्रिय घटना घट गई.

‘‘उफ, कब से आ रहा है बुखार. टेस्ट की रिपोर्ट कब तक मिलेगी,’’ प्रतीक की आवाज कानों में पड़ी तो एकता ने अपना मोबाइल पर्स में रख दिया. प्रतीक के मोबाइल पर बड़ी बहन प्रियंका ने कौल किया था, उस से ही बात हो रही थी प्रतीक की. प्रियंका आर्थिक रूप से बहुत संपन्न नहीं थी, लेकिन वह या उस का पति मुकेश अपनी स्थिति सुधारने के लिए कोई प्रयास भी करते तो वह केवल परिचितों से पैसे मांगने तक ही सीमित था.

पेशे से इलैक्ट्रिक इंजीनियर मुकेश की कुछ वर्षों पहले नौकरी चली गई थी. वह उस समय बिजली का सामान बेचने का व्यवसाय शुरू करना चाहता था, जिस में प्रतीक ने आर्थिक रूप से मदद कर व्यवसाय शुरू करवा दिया था. कुछ समय तक सब ठीक रहा, लेकिन मुकेश बाद में कहने लगा कि इस बिजनैस में खास कमाई नहीं हो रही और अब एक अंतराल के बाद नौकरी लगना भी मुश्किल है.

ऐसे में प्रियंका बारबार अपने को दयनीय स्थिति में बता कर पैसों की मांग करने लगती थी. प्रतीक के बड़े भाई की आमदनी अधिक नहीं थी और छोटे की तुलना में भी प्रतीक की सैलरी ही अधिक थी तो सारी आशाएं प्रतीक पर आ कर टिक जाती थीं. प्रतीक यथासंभव मदद भी करता रहता था.

आज प्रियंका का फोन आया तो एकता की सांस ठहर गई. वह सम?ा गई थी कि कोई नई मांग की होगी प्रियंका दीदी ने. उसे पंडितजी का मैसेज याद आ रहा था कि खुशियों को कभीकभी बुरी नजर लग जाती है. कुछ देर पहले वह फ्लैट लेने की योजना बनाते हुए कितनी खुश थी. अब प्रियंका की आर्थिक मदद करनी पड़ेगी तो पता नहीं प्रतीक फ्लैट लेने की बात कब तक के लिए टाल देगा.

उस ने घर पहुंच कर नजर उतार कुछ रुपए शंभूनाथजी को देने का मन बना लिया क्योंकि भोगविलास से दूर भक्ति में लीन साधारण जीवन जीने वाला उन जैसा व्यक्ति ही ऐसे दान का पात्र हो सकता है. शंभूनाथजी दान का पैसा कल्याण में ही लगा रहे होंगे इस बात पर पूरा भरोसा था उसे. प्रतीक को प्रियंका से बात करते देख एकता ने प्रतीक की पसंदीदा पान फ्लेवर की आइसक्रीम मंगवा ली.

‘‘दीदी ने की थी कौल?’’ आइसक्रीम का स्पून मुंह में रखते हुए एकता ने पूछा.

‘‘हां, घर चल कर बात करेंगे,’’ प्रतीक जैसे किसी निर्णय पर पहुंचने का प्रयास कर रहा था.

आइसक्रीम के स्वाद और विचारों में डूबे हुए अचानक एकता का ध्यान सामने वाली टेबल पर चला गया. उसे अपनी आंखों पर विश्वास ही नहीं हुआ कि वहां शंभूनाथजी विभिन्न व्यंजनों का आनंद ले रहे थे. सत्संग के दौरान दिखने वाले रूप से विपरीत वे धोतीकुरते के स्थान पर जींस और टीशर्ट पहने थे, चेहरे पर प्रवचन देते समय खिली हुई मंदमंद मुसकान जोरदार ठहाकों में बदली हुई थी. अपने को संयासी बताने वाले शंभूनाथजी के पास वाली कुरसी पर एक महिला उन से सट कर बैठी थी.

तभी वेटर ने महिला के सामने प्लेट में सजा केक रख दिया. शंभूनाथजी ने महिला का हाथ पकड़ कर केक कटवाया और हौले से ‘हैप्पी बर्थडे’ जैसा कुछ कहा. जब अपने हाथ से केक का टुकड़ा उठा कर शंभूनाथजी ने महिला के मुंह में डाला तो एकता की आंखें फटी की फटी रह गईं. उत्साह और अनुराग शंभूनाथ व महिला पर तारी था.

‘तो यह है कल्याणकारी काम जिस पर शंभूनाथजी दान का रूपयापैसा खर्च करते हैं.’ सोच कर एकता सकते में आ गई.

 

घर लौटने पर प्रतीक ने फोन के बारे में बताया. एकता का संदेह सच

निकला. प्रियंका ने इस बार बताया था कि मुकेश की अस्वस्थता के कारण वे मकान का किराया नहीं दे सके. मकान मालिक परेशान कर रहा है, माह का सारा वेतन दवाई में खर्च हो गया.

‘‘तो कितने पैसे भेजने पड़ेंगे उन लोगों को?’’ एकता न रानी सूरत बना कर पूछा.

‘‘बहुत हुआ बस. अब नहीं,’’ प्रतीक छूटते ही बोला.

‘‘मतलब इस बार आप कुछ पैसे नहीं…’’

‘‘हां, बहुत मदद की है मैंने दीदी, जीजाजी की. ये लोग स्वयं पर बेचारे का ठप्पा लगवा कर उस का फायदा उठा रहे हैं,’’ एकता की बात पूरी होने से पहले ही प्रतीक बोल उठा, ‘‘बुरे वक्त में किसी से मदद मांगना अलग बात है, लेकिन दूसरों की कमाई पर नजर रख अपने को असहाय दिखाते हुए दूसरों से पैसे ऐंठना और बात. पता है तुम्हें पिछले साल जब मैं औफिशियल टूर पर अहमदाबाद गया तो था प्रियंका के घर रुका था 1 दिन के लिए.’’

‘‘हां, याद है.’’ छोटा सा उत्तर दे कर एकता आगे की बात जानने के लिए टकटकी लगाए प्रतीक को देख रही थी.

‘‘मेरे वहां जाने से कुछ दिन पहले ही अपने बेटे कार्तिक की फीस और बुक्स खरीदने के बहाने पैसे मांगे थे मु?ा से उन लोगों ने, वहां जा कर देखा तो कार्तिक के लिए एक नामी ब्रैंड का महंगा मोबाइल फोन खरीदा हुआ था. मैं ने ऐतराज जताया तो प्रियंका दीदी बोलीं कि यह तो इसे गाने की एक प्रतियोगिता जीतने पर मिला है. मुकेश जीजाजी ने कार भी तभी खरीदी थी. क्या जरूरत थी कार लेने की जब फीस तक देने को पैसे नहीं थे उन के पास? मन ही मन मु?ो बहुत गुस्सा आया. मैं सम?ा गया कि इन्हें अपने सुखद जीवन के लिए जो पैसा चाहिए उसे ये दोनों इमोशनल ब्लैकमेल कर हासिल कर रहे हैं. उसी दिन मैं ने फैसला कर लिया कि रिश्तों को केवल सम्मान दूंगा भविष्य में.’’

‘‘आप ने यह मु?ो पहले क्यों नहीं बताया?’’

‘‘मैं सही समय की प्रतीक्षा में था.’’

‘‘मतलब?’’

‘‘देखो एकता मैं कुछ दिनों से देख रहा हूं कि तुम सत्संग में जाती हो. मैं जानता हूं कि वहां धर्म, कर्म के नाम से डराया जाता है. समयसमय पर दान का महत्त्व बता रुपएपैसे ऐंठने का चक्रव्यूह रचा जाता है. खूनपसीने की कमाई क्या निठल्ले लोगों पर उड़ानी चाहिए? फिर वह चाहे मेरी बहन हो या कोई साधू बाबा.’’

प्रतीक की बात सुन एकता किसी अपराधी की तरह स्पष्टीकरण देते हुए बोली, ‘‘मैं तो इसलिए दान देने की बात कहा करती थी कि सुना था इस से भला होता है.’’

‘‘कैसा भला? क्या उसी डर से दूर कर देना भला कहा जाएगा है जो डर जबरदस्ती पहले मन में बैठाया जाता है.’’

एकता सब ध्यान से सुन रही थी.

‘‘सोनेचांदी की वस्तुओं के दान से पाप धुल जाते हैं, रुपएपैसे व अन्य सामान का समयसमय पर दान किया जाए तो स्वर्ग मिलता है, ग्रहण लगे तो दान करो ताकि उस के बुरे प्रभावों से बचा जा सके, परिवार में जन्म हो तो भविष्य में सुख के लिए और मृत्यु हो तो अगले जन्म में शांति व समृद्धि के लिए दान पर खर्च करो. सत्संग में ऐसा ही कुछ बताया जाता होगा न,’’ प्रतीक ने पूछा तो एकता ने हां में सिर हिला दिया.

‘‘तो बताओ किसने देखा है स्वर्ग. क्या ऐसा नहीं लगता कि स्वर्गनर्क की अवधारणा ही व्यक्तिको डराए रखने के लिए की गई है, अगले जन्म की कल्पना कर के सुख पाने की इच्छा से इस जन्म की गाढ़ी कमाई लुटा देना कहां की सम?ादारी है? ग्रह, नक्षत्रों, सूर्य और चंद्रग्रहण का बुरा प्रभाव कैसे होगा जबकि ये केवल खगोलीय घटनाएं है? ये बेमतलब के डर मन में बैठाये गए हैं कि नहीं? तुम से एक और सवाल करता हूं कि यदि दान देने से पाप दूर हो जाते हैं तो इस का मतलब यह हुआ कि जितना जी चाहे बुरे कर्म करते रहो और पाप से बचने के लिए दान देते रहो, यह क्या सही तरीका है जीने का?’’

‘‘नहीं, यह रास्ता तो अनाचार को बढ़ा कर व्यक्ति को गलत दिशा में ले जा सकता है,’’ एकता के सामने सच की परतें खुल रही थीं.

‘‘मैं देखता हूं कि लोग पटरी पर धूप और ठंड में सामान बेचने वालों से पैसेपैसे का मोलभाव करते हैं, नौकरों को मेहनत के बदले तनख्वाह देने से पहले सौ बार सोचते हैं कि कहीं ज्यादा तो नहीं दे रहे. पसीने से लथपथ रिकशे वाले से छोटी सी रकम का सौदा करते हैं और वही लोग दानपुण्य संबंधी लच्छेदार बातों में फंस कर बेवजह धन लुटा देते हैं.’’

शंभूनाथ का होटल में बदला हुआ रूप देख कर एकता का मन पहले ही खिन्न था. इन सब बातों को सम?ाते हुए वह बोल उठी, ‘‘विलासिता का जीवन जीने की चाह में दूसरों को बेवकूफ बनाते हैं कुछ लोग. दान देना तो सचमुच निठल्लेपन को बढ़ाना ही है. किसी हृष्टपुष्ट को बिना मेहनत के क्यों दिया जाए? इस से हमारा तो नहीं बल्कि उस का जीवन सुखद हो जाएगा. देना ही है तो किसी शरीर से लाचार को, अनाथाश्रम या गरीब के बच्चे की पढ़ाई के लिए देना चाहिए और मैं ऐसा ही करूंगी अब.’’

प्रतीक मुसकरा उठा, ‘‘वाह, तुम कितनी जल्दी सम?ाती हो कि मैं कहना क्या चाह रहा हूं, इसलिए ही तो इतना प्यार करता हूं तुम्हें. जो अभी तुम ने कहा वही तो दीदी, जीजाजी को अब पैसे न भेजने का कारण है. जब वे लोग मुश्किल में थे मैं ने हर तरह से सहायता की. अब उन को गुजारे के लिए नहीं अपनी जिंदगी मजे से बिताने के लिए पैसे चाहिए. जहां धर्म में डर का जाल बिछा कर पैसे निकलवाए जाते हैं, वहां दीदी, जीजाजी अपनी बेचारगी का बहाना बना मु?ो बेवकूफ बना रहे हैं. मैं दान या मदद के नाम पर निकम्मेपन को बढ़ावा नहीं दूंगा, कभी नहीं.’’

‘‘सोच रही हूं व्हाट्सऐप के सत्संग गु्रप में जो फ्रैड्स हैं आज उन सब से बात करूं ताकि वे भी उस सचाई को जान सकें जिसे मैं ने जरा देर में जाना है,’’ प्रतीक की ओर मुसकरा कर देखने के बाद एकता अपना मोबाइल ले कर सखियों को कौल करने चल दी.

सिर्फ कहना नहीं है

अलकाऔर संदीप को कोरोना से ठीक हुए 2 महीने हो चुके थे पर अजीब सी कमजोरी थी जो जाने का नाम ही नहीं ले रही थी. कहां तो रातदिन भागभाग कर पहली मंजिल से नीचे किचन की तरफ जाने के चक्कर कोई गिन ही नहीं सकता था पर अब तो अगर उतर जाती तो वापस ऊपर बैडरूम तक आने में नानी याद आ जाती.

संदीप ने तो ऊपर ही बैडरूम में अपना थोड़ाथोड़ा वर्क फ्रौम होम शुरू कर दिया था. थक जाते तो फिर आराम करने लगते. पर अलका क्या करे. हालत संभलते ही अपना चूल्हाचौका याद आने लगा था. अलका और संदीप एक हौस्पिटल में 15 दिन एडमिट रहे थे. बेटे सुजय का विवाह रश्मि से सालभर पहले ही हुआ था. दोनों अच्छी  कंपनी में थे. अब तो काफी दिनों से वर्क फ्रौम होम कर रहे थे. सुंदर सा खूब खुलाखुला सा घर था, नीचे किचन और लिविंगरूम था, 2 कमरे थे जिन में से एक सुजय और रश्मि का बैडरूम था और दूसरा रूम अकसर आनेजाने वालों के काम आ जाता. सुजय से बड़ी सीमा जब भी परिवार के साथ आती, उसी रूम में आराम से रह लेती. सीमा दिल्ली में अपनी ससुराल में जौइंट फैमिली में रहती थी और खुश थी. अब तक किचन की जिम्मेदारी पूरी तरह से अलका ने ही संभाल रखी थी. वह अभी तक स्वस्थ रहती तो उसे कोई परेशानी भी नहीं थी. मेड के साथ मिल कर सब ठीक से चल जाता.

आज बहुत दिन बाद अलका किचन में आई तो आहट सुन कर जल्दी से रश्मि भागती सी आई, ‘‘अरे मम्मी, आप क्यों नीचे उतर आई, कल भी आप को चक्कर आ गया था… पसीना पसीने हो गई थीं. मु?ो बताइए, क्या चाहिए आप को?’’

‘‘नहीं, कुछ चाहिए नहीं, बहुत आराम कर लिया, थोड़ा काम शुरू करती हूं,’’ कहतेकहते अलका की नजर चारों तरफ दौड़ी, उसे ऐसा लगा जैसे यह उस की किचन नहीं वह किसी और की किचन में खड़ी है.

अलका के चेहरे के भाव सम?ा गई रश्मि, बोली, ‘‘मम्मी, आप सब तो बहुत लंबे हो. मैं तो आप सब से लंबाई में बहुत छोटी हूं, मेरे हाथ ऊपर रखे डब्बों तक पहुंच ही नहीं पाते थे… और भी जो सैटिंग थी वह मु?ो सूट नहीं कर रही थी.  अत: मैं ने अपने हिसाब से किचन नए तरीके से सैट कर ली. गलत तो नहीं किया न?’’

क्या कहती अलका… शौक सा लगा उसे किचन का बदलाव देख कर… उस की सालों की व्यवस्था जैसे किसी ने अस्तव्यस्त कर दी… जहां जीवन का लंबा समय बीत गया, वह जगह जैसे एक पल में पराई सी लगी. मुंह से बोल ही न फूटा.

रश्मि ने दोबारा पूछा, ‘‘मम्मी, क्या

सोचने लगीं?’’

अकबका गई अलका. बस किसी तरह इतना ही कह पाई, ‘‘कुछ नहीं, तुम ने तो बहुत काम कर लिया सैटिंग का… तुम्हारे सिर तो खूब काम आया न.’’

‘‘आप दोनों ठीक हो गए… बस, काम का क्या है, हो ही जाता है.’’

अलका थोड़ी देर जा कर सोफे पर बैठी रही. रश्मि उस के पास ही अपना लैपटौप उठा लाई थी. थोड़ी बातें भी बीचबीच में करती जा रही थी.

अनमनी हो आई थी अलका, ‘‘जा कर थोड़ा लेटती हूं,’’ कह कर चुपचाप धीरेधीरे चलती हुई अपने बैडरूम में आ कर लेट गई.

उस का उतरा चेहरा देख संदीप चौंके,

‘‘क्या हुआ?’’

अलका ने गरदन हिला कर बस ‘कुछ नहीं’ का इशारा कर दिया पर अलका के चेहरे के भाव देख संदीप उस के पास आ कर बैठ गए, ‘‘थकान हो रही है न ऊपरनीचे आनेजाने में? अभी यह कमजोरी रहेगी कुछ दिन… अभी किसी काम के चक्कर में मत पड़ो. पहले पूरी तरह  से ठीक हो जाओ, काम तो सारी उम्र होते ही रहेंगे.’’

अलका ने कुछ नहीं कहा बस आंखें बंद कर चुपचाप लेट गई. लड़ाई?ागड़ा, चिल्लाना, गुस्सा करना उस के स्वभाव में न था. उस ने खुद संयुक्त परिवार में बहू बन कर सारे दायित्व खुशीखुशी संभाले थे और सब से निभाया था. पर एक ही ?ाटके में किचन का पूरी तरह बदल जाना उसे हिला गया था.

कोरोना के शिकार होने के दिन तक जिस किचन का सामान वह अंधेरे में भी ढूंढ़ सकती थी, वहां तो आज कुछ भी पहचाना हुआ नहीं था, कैसे चलेगा? उस समय तो संदीप और उस की तबीयत बहुत गंभीर थी, दोनों को लग रहा था कि बचना मुश्किल है, सुजय और रश्मि ने रातदिन एक कर दिए थे. जब से हौस्पिटल से घर आए हैं, दोनों रातदिन सेवा कर रहे हैं. संदीप को तो कपड़े पहनने में भी कमजोरी लग रही थी. सुजय ही हैल्प करता है उन की. शरीर का दर्द दोनों को कितना तोड़ गया है, वही जानते हैं.

हौस्पिटल में बैड पर लेटेलेटे भी अलका को घरगृहस्थी की चिंता सता रही थी कि क्या होगा, कैसे होगा, रश्मि को तो कुछ आता भी नहीं… यह सच था कि रश्मि को कुकिंग ठीक से नहीं आती थी पर इन दिनों गूगल पर, यू ट्यूब पर देखदेख कर उस ने सब कुछ बनाया था, उन की बीमारी में उन की डाइट का बहुत ज्यादा ध्यान रखा था. अलका की पसंद का खाना सीमा को फोन करकर के पूछपूछ कर बनाया था. सीमा उस समय आ नहीं पाई थी. वह परेशान होती तो रश्मि ही उसे तसल्ली देती, वीडियो कौल करवा देती.

अचानक विचारों ने एक करवट सी ली. आज किचन में जो बदलाव देख कर मन में टूटा सा था, अब जुड़ता सा लगा जब ध्यान आया कि जब रश्मि बहू बन कर आई तो उसे अलका ने और बाकी सब लोगों ने यही तो कहा था कि यह तुम्हारा घर है, इसे अपना घर सम?ा कर आराम से बिना संकोच के रहो तो वह तो अपना घर सम?ा कर ही तो पूरे मन से हर चीज कर रही है.

ये जो किचन में उस ने सारे बदलाव कर दिए, अपना घर ही तो सम?ा होगा न… किसी दूसरे की किचन में कोई इस तरह से अधिकार नहीं जमा सकता न… बहू को सिर्फ यह कहने से थोड़े ही काम चलता है कि यह तुम्हारा घर है, जो चाहे करो, उसे करने देने से रोकना नहीं है… यह उस का भी तो घर है… अलका सोच रही थी कि उसे कुछ परेशानी होगी, वह प्यार से अपनी परेशानी बता देगी, नहीं तो सब ऐसे ही चलने देगी जैसे रश्मि घर चला रही है. सिर्फ कहना नहीं है, उसे पूरा हक देना है अपनी मरजी से जीने का, घर को अपनी सहूलियतों के साथ चलाने का.

अचानक अलका के मन में न जाने कैसी ताकत सी महसूस हुई.

वह फिर नीचे जाने के लिए खड़ी हो गई कि जा कर अब आराम से देखती हूं कि कहां क्या सामान रख दिया है बहू रानी ने… नए हाथों में नई सी व्यवस्था देखने के लिए अब की बार वह मुसकराते हुए सीढि़यां उतर रही थी.

मन का घोड़ा

‘‘अंकुरकी शादी के बाद कौन सा कमरा उन्हें दिया जाए, सभी कमरे मेहमानों से भरे हैं. बस एक कमरा ऊपर वाला खाली है,’’ अपने बड़े बेटे अरुण से चाय पीते हुए सविता बोलीं.

‘‘अरे मां, इस में इतना क्या सोचना? हमारे वाला कमरा न्यूलीवैड के लिए अच्छा रहेगा. हम ऊपर वाले कमरे में शिफ्ट हो जाएंगे,’’ अरुण तुरंत बोला.

यह सुन पास बैठी माला मन ही मन बुदबुदा उठी कि आज तक जो कमरा हमारा था, वह अब श्वेता और अंकुर का हो जाएगा. हद हो गई, अरुण ने मेरी इच्छा जानने की भी जरूरत नहीं सम?ा और कह दिया कि न्यूलीवैड के लिए यह अच्छा रहेगा. तो क्या 15 दिन पूर्व की हमारी शादी अब पुरानी हो गई?

तभी ताईजी ने अपनी सलाह देते हुए कहा, ‘‘अरुण, तुम अपना कमरा क्यों छोड़ते हो? ऊपर वाला कमरा अच्छाभला है. उसे लड़कियां सजासंवार देंगी. और हां, अपनी दुलहन से भी तो पूछ लो. क्या वह अपना सुहागकक्ष छोड़ने को तैयार है?’’ और फिर हलके से मुसकरा दीं.

पर अरुण ने तो त्याग की मूर्ति बन ?ाट से कह डाला, ‘‘अरे, इस में पूछने वाली क्या बात है? ये नए दूल्हादुलहन होंगे और हम 15 दिन पुराने हो गए हैं.’’

ये शब्द माला को उदास कर गए पर गहमागहमी में किसी का उस की ओर ध्यान न गया. ससुराल की रीति अनुसार घर की बड़ी महिलाएं और नई बहू माला बरात में नहीं गए थे. अत: बरात की वापसी पर दुलहन को देखने की बेसब्री हो रही थी. गहनों से लदी छमछम करती श्वेता ने अंकुर के संग जैसे ही घर में प्रवेश किया वैसे ही कई स्वर उभर उठे, वाह, कितनी सुंदर जोड़ी है.

‘‘कैसी दूध सी उजली बहू है, अंकुर की यही तो इच्छा थी कि लड़की चांद सी उजली हो,’’ बूआ सास दूल्हादुलहन पर रुपए वारते हुए बोलीं.

माला चुपचाप एक तरफ खड़ी देखसुन रही थी. तभी सविताजी ने माला को नेग वाली थाली लाने को कहा और इसी बीच कंगन खुलाई की रस्म की तैयारी होने लगी. महिलाओं की हंसीठिठोली और ठहाके गूंज रहे थे पर माला अपनी कंगन खुलाई की यादों में खो गई…

 

फूल और पानी भरी परात से जब माला ने

3 बार अंगूठी ढूंढ़ निकाली तब सभी ने

एलान कर डाला, ‘‘भई, अब तो माला ही राज करेगी और अरुण इस का दीवाना बना घूमेगा.’’

पर माला तो अरुण का चेहरा देखने को भी तरसती रही. भाई की शादी की व्यस्तता व मेहमानों, दोस्तों की गहमागहमी में माला का ध्यान ही नहीं आया. माला के कुंआरे सपने साकार होने को तड़पते और मन में उदासी भर देते, फिर भी माला सब के सामने मुसकराती

बैठी रहती.

शाम 4 बजे रीता ने आवाज लगाई, ‘‘जिसे भी चाय पीनी हो वह जल्दी से यहां आ जाए. मैं दोबारा चाय नहीं बनाऊंगी.’’

‘‘ला, मु?ो 1 कप चाय पकड़ा दे. फिर बाहर काम से जाना है,’’ अरुण ने भीतर आते हुए कहा.

‘‘ठहरो भाई, पहले एक बात बताओ. वह आप के हस्तविज्ञान व दावे का क्या रहा जब आप ने कहा था कि मेरी दुलहन एकदम गोरीचिट्टी होगी. यह बात तो अंकुर भाई पर फिट हो गई,’’ कह रीता जोरजोर से हंसने लगी.

‘‘अच्छा, एक बात बता, मन का लड्डू खाने में कोई बंदिश है क्या?’’ अरुण ने हंसते

हुए कहा.

तभी ताई सास ने अपनी बेटी रीता को डपट दिया, ‘‘यह क्या बेहूदगी है? नईनवेली बहुएं हैं, सोचसम?ा कर बोलना चाहिए… और अरुण तेरी भी मति मारी गई है क्या, जो बेकार की बातों में समय बरबाद कर रहा है?’’

शादी के बाद अंकुर और श्वेता हनीमून पर ऊटी चले गए ताकि अधिकतम समय एकदूसरे के साथ व्यतीत कर सकें, क्योंकि 20 दिनों के बाद ही अंकुर को लंदन लौटना था. श्वेता तो पासपोर्ट और वीजा लगने के बाद ही जा पाएगी. हनीमून पर जाने का प्रबंध अरुण ने ही किया था. ये सब बातें माला को पिछले दिन रीता ने बताई थीं. घर के सभी लोग अरुण की प्रशंसा के पुल बांध रहे थे पर माला के मन में कांटा सा गड़ गया. मन में अरुण के प्रति क्रोध की ज्वाला उठने लगी.

‘हमारा हनीमून कहां गया? अपने लिए इन्होंने क्यों कुछ नहीं सोचा? क्यों? रोऊं, लडं़ू… क्या करूं?’ ये सवाल, जिन्हें संकोचवश अरुण से स्पष्ट नहीं कर पा रही थी, उस के मन को लहूलुहान कर रहे थे.

 

समय का पहिया अंकुर को लंदन ले गया. ऐसे में श्वेता अकेलापन अनुभव न

करे, इसलिए घर का हर सदस्य उस का ध्यान रखने लगा था. भानजी गीता तो उसे हर समय घेरे रहती. माला तो जैसे कहीं पीछे ही छूटती जा रही थी. तभी तो माला शाम के धुंधलके में अकेली छत पर खड़ी स्वयं से बतिया रही थी कि मानती हूं कि श्वेता को अंकुर की याद सताती होगी. पर सारा परिवार उसी से चिपका रहे, यह तो कोई बात न हुई. मैं भी तो 2 माह से यहीं रह रही हूं और अरुण भी तो दिल्ली से सप्ताह के अंत में 1 दिन के लिए आते हैं. मु?ा से हमदर्दी क्यों नहीं?

तभी किसी के आने की आहट से उस की विचारधारा भंग हो गई.

‘‘माला, तुम यहां अकेली क्यों खड़ी हो? चलो, नीचे मां तुम्हें बुला रही हैं. और हां कल सुबह की ट्रेन से दिल्ली निकल जाऊंगा. तुम श्वेता का ध्यान रखना कि वह उदास न हो. वैसे तो सभी ध्यान रखते हैं पर तुम्हारा ध्यान रखना और अच्छा रहेगा…’’

अरुण आगे कुछ और कहता उस से

पहले ही माला गुस्से से चिल्ला पड़ी, ‘‘उफ, सब के लिए आप के मन में कोमल भावनाएं हैं पर मेरे लिए नहीं. क्या मैं इतनी बड़ी हो गई हूं कि

मैं सब का ध्यान रखूं और खुद को भूल जाऊं? मेरी इच्छाएं, मेरी कल्पनाएं, मेरा हनीमून उस

का क्या?’’

अरुण हैरान सा माला को देखता रह गया, ‘‘आज तुम्हें यह क्या हो गया है माला? तुम श्वेता से अपनी तुलना कर रही हो क्या? उस के नाम से तुम इतना अपसैट क्यों हो गईं?’’

‘‘नहीं, मैं किसी से तुलना क्यों करूंगी? मु?ो अपना स्थान चाहिए आप के दिल में… परसों कौशल्या बाई बता रही थी कि अरुण भैया तो ब्याह के लिए तैयार ही नहीं थे. वह तो मांजी

3 सालों से पीछे लगी थीं तब उन्होंने हामी भरी थी. तो क्या आप के साथ शादी की जबरदस्ती हुई है? और उस दिन रीता ने जो हस्तविज्ञान वाली बात कही थी, इस से लगता है कि आप की चाहत शायद कोई और थी पर…’’ माला ने बात अधूरी छोड़ दी.

‘‘उफ, तुम औरतों का दिमागी घोड़ा बिना लगाम के दौड़ता है. तुम इन छोटीछोटी व्यर्थ

की बातों का बतंगड़ बनाना छोड़ो और मन शांत करो. अब नीचे चलो. सब खाने पर इंतजार कर रहे हैं.’’

 

वह दिन भी आ गया जब माला अरुण के साथ दिल्ली आ गई. यहां अपना घर

सजातेसंवारते उस के सपने भी संवर रहे थे. अरुण के औफिस से लौटने से पहले वह स्वयं को आकर्षक बनाने के साथ ही कुछ न कुछ नया पकवान, चाय आदि बनाती. फिर दोनों की गप्पों व कुछ टीवी सीरियल देखतेदेखते रात गहरा जाती तो दोनों एकदूसरे के आगोश में समा जाते.

हां, एक बार छुट्टी के दिन माला ने दिल्ली दर्शन की इच्छा भी व्यक्त की थी तो, ‘‘ये रोमानी घडि़यां साथ बिताने के लिए हैं, हमारा हनीमून पीरियड है यह. फिर दिल्ली तो घूमना होता ही रहेगा जानेमन,’’ अरुण का यह जवाब गुदगुदा गया था.

शनिवार की छुट्टी में अरुण अलसाया सा लेटा था कि तभी मोबाइल बज उठा. अरुण फोन उठा कर बोला, ‘‘हैलो… अच्छा ठीक है, मैं कल स्टेशन पहुंच जाऊंगा. ओ.के. बाय.’’

‘‘किस का फोन था?’’ चाय की ट्रे ले कर आती माला ने पूछा.

‘‘श्वेता का. वह कल आ रही है. उसे मैं रिसीव करने जाऊंगा,’’ कह अरुण ने चाय का कप उठा लिया.

श्वेता के आने की खबर से माला का उदास चेहरा अरुण से छिपा न रह सका, ‘‘क्या हुआ? अचानक तुम गुमसुम सी क्यों हो गईं?’’ अरुण ने उस की ओर देखते हुए पूछा.

‘‘अभी दिन ही कितने हुए हैं हमें साथ समय बिताते कि…’’

‘‘अरे यार, उस के आने से रौनक हो जाएगी, कितना हंसतीबोलती है. तुम्हारा भी पूरा दिन मन लगा रहेगा. सारा दिन अकेले बोर होती हो,’’ माला की बात बीच में ही काटते हुए अरुण ने कहा.

माला चुपचाप चाय की ट्रे उठा कर रसोई की ओर बढ़ गई.

‘फिर वही श्वेता. क्या वह अपने मायके या ससुराल में नहीं रह सकती थी कुछ महीने? फिर चली आ रही है दालभात में मूसलचंद. ‘खैर, मुसकराहट तो ओढ़नी ही होगी वरना अरुण न जाने क्या सोचने लगें.’ मन ही मन सोच माला नाश्ते की तैयारी करने लगी.

 

छुट्टी के दिन अरुण श्वेता और माला को एक मौल में ले गया. वहां की

चहलपहल और भीड़ का कोई छोर ही न था. श्वेता की खुशी देखते ही बन रही थी, ‘‘भाभी, आप तो बस जब मन आए यहीं चली आया करो. यहां शौपिंग का मजा ही कुछ और है,’’ माला की ओर देख उस ने कहा.

‘‘मु?ो तो अरुण, पहले कभी यहां लाए ही नहीं. यह सब तो तुम्हारे कारण हो रहा है,’’ माला उदासी भरे स्वर से बोली.

‘‘अच्छा,’’ श्वेता का स्वर उत्साहित हो उठा.

वहीं मौल में खाना खाते हुए श्वेता की आंखें चमक रही थीं. बोली, ‘‘वाह, खाना कितना स्वादिष्ठ है.’’

इस पर अरुण ने हंस कर कहा, ‘‘मु?ो मालूम था कि श्वेता तुम ऐंजौय करोगी. तभी तो यहां लंच लेने की सोची.’’

‘‘और मैं?’’ माला ने अरुण से पूछ ही लिया.

‘‘अरे, तुम तो मेरी अर्द्धांगिनी हो, जो मु?ो पसंद वही तुम्हें भी पसंद आता है, अब तक मैं यह तो जान ही गया हूं. इसलिए तुम्हें भी यहां आना तो अच्छा ही लगा होगा.’’

बुधवार की सुबह अखबार थामे श्वेता बोली, ‘‘बिग बाजार में 50% की बचत पर सेल लगी है. भैया, मु?ो क्व5,000 दे देंगे? क्व2000 तो हैं मेरे पास. मैं और भाभी ड्रैसेज लाएंगी. ठीक है न भाभी? लंदन में यही ड्रैसेज काम आ जाएंगी.’’

‘‘हांहां, क्रैडिट कार्ड ले लेगी माला… दोनों शौपिंग कर लेना.’’

माला अरुण को मुंह बाए खड़ी देखती रह गई कि क्या ये वही अरुण हैं, जिन्होंने कहा था कि पहले शादी में मिली ड्रैसेज को यूज करो, फिर नई खरीदना. तो क्या श्वेता को ड्रैसेज का ढेर नहीं मिला है शादी में? ये छोटीबड़ी बातें माला का मन कड़वाहट से भरती जा रही थीं.

उस दिन तो माला का मन जोर से चिल्लाना चाहा था जब श्वेता बिस्तर में सुबह 9 बजे तक चैन की नींद ले रही थी और वह रसोई में लगी हुई थी. तभी अरुण ने श्वेता को चाय दे कर जगाने को कह दिया. वह जानती थी कि अरुण को देर तक बिस्तर में पड़े रहना पसंद नहीं. फिर श्वेता से कुछ भी क्यों नहीं कहा जाता? मन में उठता विचारों का ज्वार, सुहागरात की ओर बहा ले गया कि मु?ो तो प्रथम मिलन की रात्रि में प्यार के पलों से पहले संस्कार, परिवार के नियमों आदि का पाठ पढ़ाया था अरुण ने… फिर तभी चाय उफनने की आवाज उसे वर्तमान में ले आई.

 

मैं आज और अभी अरुण से पूछ कर ही रहूंगी, सोच माला बाथरूम में शेव करते अरुण के

पास जा खड़ी हुई.

‘‘क्या बात है? कोई काम है क्या?’’ शेविंग रोक अरुण ने पूछा.

‘‘क्या मैं जबरदस्ती आप के गले मढ़ी गई हूं? क्या मु?ा में कोई अच्छाई नहीं है?’’

अरुण हाथ में शेविंगब्रश लिए हैरान सा खड़ा रहा.

पर माला बोलती रही, ‘‘हर समय बस श्वेताश्वेता. मु?ा से तो परंपरा निभाने की बात करते रहे और इस का बिंदासपन अच्छा लगता है. आखिर क्यों?’’ माला का चेहरा लाल होने के साथसाथ आंसुओं से भी भीग चला था.

‘‘तुम्हारा तो दिमाग खराब हो गया है. तुम्हारे मन में इतनी जलन, ईर्ष्या कहां से आ गई? श्वेता के नाम से चिढ़ क्यों हो रही है? देवरानी तो छोटी बहन जैसी होती है और तुम तो न जाने…’’

‘‘बस फिर शुरू हो गया मेरे लिए आप का प्रवचन. उस की हर बात गुणों से भरी होती है और मेरी बुराई से,’’ कह पांव पटकती माला अपने कमरे में चली गई.

अरुण बिना नाश्ता किए व लंच टिफिन लिए औफिस चला गया.

उस दिन माला को माइग्रेन का अटैक पड़ गया. सिरदर्द धीरेधीरे बढ़ता उस की सहनशक्ति से बाहर हो गया. उलटियों के साथसाथ चक्कर भी आ रहा था. श्वेता ने मैडिकल किट छान मारी पर दर्द की कोई गोली नहीं मिली. उस ने अरुण को फोन किया तो सैक्रेटरी ने बताया कि वे मीटिंग में व्यस्त हैं.

इधर माला अपना सिर पकड़ रोए जा रही थी. तभी श्वेता 10 मिनट के अंदर औटो द्वारा मैडिकल स्टोर से दर्द की दवा ले आई और कुछ मानमनुहार तथा कुछ जबरदस्ती से माला को दवा खिलाई. माथे पर बाम मल कर धीरेधीरे सिरमाथे को तब तक दबाती रही जब तक माला को नींद नहीं आ गई.

करीब 2 घंटे बाद माला की आंखें खुलीं. तबीयत में काफी सुधार था. सिर हलका लग रहा था. उस ने उठ कर इधरउधर नजर दौड़ाई तो

देखा श्वेता 2 कप चाय व स्नैक्स ले कर आ रही है.

‘‘अरे भाभी, आप उठो नहीं… यह लो चाय और कुछ खा लो. शाम के खाने की चिंता मत करना, मैं बना लूंगी. हां, आप जैसा तो नहीं बना पाऊंगी पर ठीकठाक बना लूंगी,’’ कह उस ने चाय का प्याला माला को थमा दिया.

माला श्वेता के इस व्यवहार को देख उसे ठगी सी देखती रह गई.

‘‘क्या हुआ भाभी?’’

‘‘मु?ो माफ कर दो श्वेता, मैं ने तो न मालूम क्याक्या सोच लिया था… तुम्हें प्रतिद्वंद्वी के रूप में देख रही थी. और…’’

‘‘नहींनहीं भाभी, और कुछ मत कहिए आप, अब मैं आप से कुछ भी नहीं छिपाऊंगी. सच में ही मु?ो अपने रंगरूप पर अभिमान रहा है. मु?ा में उतना धैर्य नहीं जितना आप में है. इसीलिए मैं आप को चिढ़ाने के लिए अपने में व्यस्त रही… आप की कोई मदद नहीं करती थी. भाभी, आप मु?ो माफ कर दीजिए. आज से हम रिश्ते में भले ही देवरानीजेठानी हैं पर रहेंगी छोटीबड़ी बहनों की तरह,’’ और फिर दोनों एकदूसरे के गले से लग गईं.

‘‘सच श्वेता. मैं आज से अपने मन को गलत दिशा की तरफ भटकने से रोकूंगी और तुम्हारे भैया से माफी भी मांगूंगी.’’

अब श्वेता व माला एकदूसरे को देख कर मुसकरा रही थीं.

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