Hindi Story Collection : मां से मायका – क्या हुआ था ईशा के साथ

Hindi Story Collection :  रात का घना अंधेरा पसरा था. रात की चादर तले इंसानों के साथसाथ अब तो सारे सितारे भी सो चुके थे पर ईशा की आंखों में नींद कहां… वह अजीब सी बेचैनी महसूस कर रही थी. अंकुर नींद के आगोश में डुबे थे. घड़ी की सूई की टिकटिक से भी उसे झंझलाहट महसूस हो रही थी. पता नहीं क्यों कुछ छूटता हुआ महसूस हो रहा था.

अंशु भाभी का थोड़ी देर पहले ही फोन आया था, ‘‘नानाजी नहीं रहे.’’

‘‘कब?’’

‘‘थोड़ी देर पहले उन्होंने अंतिम सांस ली.’’

दिल में कहीं कुछ चटक सा गया. शायद ननिहाल से जुड़ा हुआ वह अंतिम धागा क्योंकि उन के जाने के साथ ही ननिहाल शब्द जीवन से खत्म हो गया. ईशा को ननिहाल हमेशा से बहुत पसंद था. यह वह जगह थी जहां लोग उस की मां को उन के नाम से पहचानते थे. यहां वे राम गोपालजी की बहू नहीं, रमेश की पत्नी नहीं और न ही ईशा की मां थीं. यहां वो कमला थी सिर्फ कमला जहां उन के आगमन का लोगों को इंतजार रहता था, जिन की वापसी के नाम पर लोगों के चेहरे पर उदासी पसर जाती थी.

‘‘इतनी जल्दी कितने दिनों बाद आई हो, कुछ दिन तो रुको.’’

मां का चेहरा जितनी तेजी से खुशी से चमकता उतनी ही तेजी से धप्प भी पड़ जाता. खुशी इस बात की कि कुछ लोग आज भी उन के आने का इंतजार करते हैं, गम इस बात का कि जो दूसरे ही पल इस बात का इजहार कर देता है कि अब वह पराई हो चुकी है. सिर्फ अपनों के लिए ही नहीं इस शहर के लिए भी…

‘‘क्या सोचा है आप ने… कब चलेंगी?’’ उन की बहू कह रही थी, ‘‘बीमार चल रहे थे… सब का इंतजार करेंगे तो कैसे चलेगा… मिट्टी खराब हो जाएगी.’’

मिट्टी… एक जीताजागता इंसान पलभर में मिट्टी हो गया. महीनों तक गरमी की छुट्टियों का इंतजार करने वाले नानाजी को आखिरी बार देखना भी संभव न होगा. मां के जाने के बाद उन्होंने ही तो सहेजा था हम दोनों भाईबहन को… मां जब इस दुनिया से गईं बच्चे नहीं थे हम पर प्यार के दो मीठे बोल, ममताभरा हाथ तो हर उम्र में चाहिए होता है. मां बहुत कष्ट में थीं, हर बार की कीमियोथेरैपी निराशा की ओर धकेल रही थी… डाक्टर हर बार कहते अब वे ठीक हैं पर मां जानती थीं सबकुछ ठीक नहीं है.

डाक्टर से मिलने के बाद पापा हमेशा हम भाईबहन के सामने मुसकराने का प्रयत्न करते, ‘‘सबकुछ ठीक है चिंता की कोई बात नहीं.’’

पर हर बार पापा के माथे की लकीरों को अनपढ़ मां न जाने कैसे पढ़ लेती थीं. आज सोचती हूं तो लगता है पापा के लिए कितना मुश्किल रहा होगा सबकुछ… हम सब के चेहरे पर खुशी के कुछ हसीन पल देखने के लिए वे मुसकराने का प्रयत्न करते थे… पर मुसकराते रहना कोई आसान बात नहीं. बहुत दर्द से गुजरती थी उन की वह हंसी हम सब के चेहरे पर खुशी के चंद लम्हे देखने के लिए…

ईशा को आज वह दिन बारबार याद आ रहा था. मां का शरीर कैंसर से दिनबदिन कमजोर होता जा रहा था पर उस से ज्यादा कमजोर होती जा रही थी उन के जीने की इच्छाशक्ति. पर न जाने क्यों मायके की दहलीज उन्हें बारबार खींच रही थी. पापा के बारबार मना करने के बावजूद मां हमें समेटे नानानानी से मिलने चली गई थीं.

नानाजी ने बारबार कहा भी था,’’ तुम चिंता न करो हम तुम से मिलने आएंगे.’’

मगर उस दहलीज, उन दीवारों का मोह उन से छूट नहीं रहा था. छूटता भी क्यों जीवन की न जाने कितनी यादें जुड़ी थीं उन दीवारों से, उन गलियारों से… उन्हें हमेशा लगता था शहर के चौराहे, नुक्कड़ उन की राह आज भी तक रहे हैं.

एकएक चीज का हिसाब रखने वाली मां नानी के घर जा कर न जाने क्यों भुलक्कड़ बन जाती थीं. नानी के बारबार कहने पर भी कुछ न कुछ सामान हर बार छूट ही जाता था. हर समय हर चीज को सहेजने वाली मां खुद को सहेजना भूल जाती थीं, जिन की उंगलियों पर एकएक चीज होती वे न जाने क्यों मायके से लौटते समय चीजें रख कर भूल जातीं. शायद वे उस घर में अपने वजूद की खुशबू बनाए रखना चाहती थीं पर उस बार वे सामान नहीं शायद अपनेआप को भूल आई थीं.

कभीकभी इंसान मौत से पहले ही मर जाता है… मां शायद अपना अंत जानती थीं हमेशा बोलने वाली मां अचानक चुप हो जातीं या फिर बहुत बोलने लगतीं. बहुत कुछ कहना था उन्हें पर शायद हम ही उन्हें सुन नहीं पाए. कुछ था जो मां के साथ ही अनकहा रह गया. अब की बार वे लौट कर आईं तो कुछ था जो उन से छूट रहा था पर मां मुंह से कुछ भी न कहतीं. रिश्तों और संबंधों को हमेशा सहेजने और समेटने वाली मां सूख रही थीं.

मां हमेशा कहती थीं, ‘‘वृक्षों से हमें संबंधों को गहराई की कला सीखनी चाहिए, कुल्हाड़ी की एक चोट से सिर्फ जड़ें ही नहीं मरतीं पेड़ भी मर जाता है.

‘‘नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावक:,

न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुत:..’’

अंतिम आहुति के साथ पूजा संपन्न हुई. ईशा अपनी सोच के दायरे से बाहर आ

गई. नानाजी तसवीर में मुसकरा रहे थे. स्वागत करने वाले हाथ, दुलारने वाले हाथ आज तारीफ बन चुके थे. सभी लोग प्रसाद ग्रहण कर आंगन में ही बैठ गए. बड़े मामाजी के लड़के ने नानाजी के जीवन पर एक छोटा सी वृत्तचित्र बनाया था. ईशा हर कोने में बिखरी बचपन की यादों को आंचल में समेट रही थी. पता नहीं अब कब आना हो. हो भी या शायद… नानाजी का मुसकराता चेहरा आंखों में समा गया. औफिस जाते नानाजी, पोते की शादी में नाचते नानाजी परिवार के साथ खाना खाते नानाजी, ईशा की आंखों के आंसू रुक नहीं रहे थे. अंशु भाभी ने धीरे से उस के हाथों पर हाथ रखा पर स्नेह और आश्वासन का स्पर्श भी उन आंसुओं को रोक न सका. अंकुर ने धीरे से रूमाल ईशा की तरफ सरक दिया.

कुछ था जो ईशा किसी से भी बांट नहीं पा रही थी. पूजा संपन्न हो चुकी थी. धीरेधीरे घर से सभी पड़ोसी, दोस्त और रिश्तेदार प्रसाद ले कर अपनेअपने घर लौटने लगे.

अंकुर ने भी धीरे से इशारा किया, ‘‘अगर अभी निकल लेंगे तो रात तक घर पहुंच जाएंगे.’’

रुकने का कोई मतलब भी नहीं था और रोकने वाला भी दूरदूर तक कोई नहीं था. रोकने और मनुहार करने वाले हाथ तो न जाने कब का हाथ छुड़ा कर इस दुनिया से जा चुके थे. ईशा ने सब से इजाजत मांगी. मामीजी ने अंकुर और ईशा का टीका किया और घर के लोगों के लिए डब्बे में प्रसाद बांध कर दे दिया. ईशा ने एक भरपूर नजर घर पर डाली, कितना कुछ समेट लेना चाहती थी वह… शायद रिश्ते, शायद घर या फिर शायद यह शहर सबकुछ तो छूट रहा था. गाड़ी धूल उड़ाती आगे बढ़ गई.

रास्तेभर ईशा ने किसी से कोई बात नहीं की पर अंशु कुछकुछ समझ रही थी. वह उस के चेहरे को पढ़ने का प्रयास कर रही थी. उम्र में उस से छोटी ही थी पर दुनिया की उसे बड़ी अच्छी समझ थी, ‘‘जीजाजी, बड़ी देर से गाड़ी चल रही है, कहीं ढाबा देख कर गाड़ी रोक लीजिए. चाय पीने का मन कर रहा है.’’

अंशु समझ चुकी थी, कुछ ऐसा था जो ईशा को चुभ रहा था. ईशा बेचैन है अंशु यह अच्छी तरह समझ रही थी. नाना के घर से हमेशा के लिए नाता कहीं न कहीं टूट रहा था, सब लोग ढाबे की ओर चल पड़े. ईशा भरे कदमों से कुरसी की तरफ बढ़ ही रही थी कि अंशु ने हाथ पकड़ कर उसे रोक लिया, ‘‘दीदी, आप बुरा न माने तो एक बात कहूं?’’

‘‘हां बोल न.’’

‘‘नानाजी का जाना हम सब के जीवन में एक खालीपन भर गया है पर इस दुनिया में जो आया है उसे एक दिन तो जाना ही है. नानाजी अपनी सारी जिम्मेदारियां पूरी कर के गए हैं. मुझे ऐसा लगा आप के आंसुओं का कारण सिर्फ नानाजी का जाना नहीं है. ऐसा कुछ है जो आप को कचोट रहा है, आप के आंसू थम नहीं रहे हैं.’’

ईशा चुपचाप अंशु के चेहरा देखती रही. अंशु न जाने कैसे उस के दिल के दर्द को समझ गई थी.

‘‘अंशु, तुम से आज तक कुछ भी छिपा नहीं है. आज भी तुम से मैं कुछ भी नहीं छिपाऊंगी. जिस घर में मेरी मां पलीबढ़ीं जिन की हर सांस मायके से शुरू होती थी और मायके पर ही खत्म होती थी. आज नानाजी के घर जब वह वृत्तचित्र चला तो मामाजी के बेटेबहू, नातीपोते सब की तसवीरें थीं पर मेरे पापा और मेरी मां की एक तसवीर भी नहीं थी. नानाजी की संतान, मेरी मां उस घर की बेटी भी थीं, किसी की बहन, किसी की बूआ भी थीं.

आज न जाने क्यों मुझे यह महसूस हुआ.

‘‘मां का वजूद उन की मृत्यु के साथ ही खत्म नहीं हुआ बल्कि उस घर में तो उन का अस्तित्व कब का खत्म हो चुका था. मां से जुड़ा हुआ यह नाता शायद उसी दिन खत्म हो गया था, जिस दिन मां मरीं पर इस का एहसास मुझे आज हुआ. अंशु लोगों की थोड़ी सी अनदेखी सिर्फ रिश्ते को ही ठंडा नहीं करती इंसान को भी ठंडा कर देती है. आज मैं ने महसूस किया, कुछ साल पहले मेरी मां मरीं तो सिर्फ उन का शरीर मरा था पर लोगों की नजरों में उन का अस्तित्व तो बहुत पहले ही मर गया था.

‘‘जानती हो अंशु छोटी चाची गरीब परिवार से थीं, दादी ने उन की सुंदरता देख कर चाचा से शादी की थी. मां बताती थीं, चाची के मायके वाले इस रिश्ते के लिए तैयार नहीं हो रहे थे क्योंकि उन्हें लगता था जीवनभर वे इतने संपन्न परिवार के साथ अपने कर्तव्यों का निर्वाह नहीं कर पाएंगे.’’

‘‘कर्तव्य?’’

‘‘कर्तव्य मतलब लेनदेन. भारतीय परिवारों में हर मौके, तीजत्योहार पर आने वाला नेग बहू के घर वालों और समधियाने का कर्तव्य ही तो है.’’

ईशा की बात सुन अंशु मुसकरा दी.

‘‘अंशु, उस पर से तुर्रा यह कि इस में नया क्या है, दुनिया करती है. दादी ने चाची की सुंदरता पर मोहित हो कर उन्हें दो कपड़ों में लाना मंजूर तो किया था पर शादी होते ही दादी यह बात भूल चुकी थीं कि चाची के परिवार के लोगों की ऐसी स्थिति नहीं है कि वे हर मौके पर नेग भेजते रहें पर चाची ने अपने मायके वालों की इज्जत रखने के लिए न जाने कितनी बार चाचाजी से बचाबचा कर रखे पैसों से कभी मिठाई तो कभी कपड़े खरीद कर मायके की इज्जत रखी. दादी इंसान के तौर पर बहुत अच्छी थीं पर सासदादी समझ जाती थीं कि यह सारा सामान किस तरह से एकत्र किया गया हैं. ‘सैंया का दाम और भैया का नाम’ दादी का यह एक वाक्य चाची को नश्तर की तरह चुभता पर बेचारी क्या करतीं.

‘‘घर में जेठानी भी थीं. एक अनदेखी सी प्रतिद्वंद्विता बनी ही रहती. आश्चर्य की बात यह प्रतिद्वंदिता उन दोनों के मन में कभी नहीं उपजती. मां के चाची से हमेशा से अच्छे संबंध रहे पर दादी, बूआ और नातेरिश्तेदार तुलना कर ही देते थे.

‘‘एक बार चाची ने मन की गांठों को मां के सामने खोल कर रख दिया था.

उन्होंने रोतेरोते मां को बताया था कि भाईभाभी के आने के बाद बिलकुल ही बदल गए हैं पर मायके की इज्जत रखने के लिए मन पर पत्थर रख कर वहां जाना ही पड़ता है. औरत का जीवन कभी ससुराल में मायके की इज्जत रखने तो कभी मायके में ससुराल की इज्जत रखने में ही बीत जाता है.

‘‘मां अच्छी तरह से समझती थीं कि विदाई में मिली चाची की साडि़यां उन की खुद की खरीदी हुई होती हैं पर आज समझ में आता है कहीं न कहीं मां भी तो मायके की इज्जत ही रख रही थीं. नानानानी अपनी सामर्थ्य अनुसार सबकुछ कर ही रहे थे पर आज मामा के परिवार का व्यवहार देख कर यह महसूस हुआ कि मायके की दहलीज मां के हाथ से कब की निकल चुकी थी. जिस परिवार के पास नाना के परिवार के नाम पर उन की बेटी और उस के परिवार की एक तसवीर भी उपलब्ध न हो सकी, वह भला मां से जुड़े हुए रिश्तों की क्या कद्र करेगा. मां बस नानानानी का मुंह देख कर आतीजाती रहीं. शायद ससुराल में मायके का सम्मान बचाए रखने के लिए.’’

अंशु ईशा के चेहरे को देख रही थी और ईशा आसमान में बिखरे उन बादलों के बीच डूबते सूरज को… रिश्तों की भीड़ में आज एक रिश्ता कहीं डूब गया था.

Latest Hindi Stories : नीला दीप

Latest Hindi Stories : सुनीला गहरी नींद में थी कि उसे कुछ आवाजें सुनाई देने लगीं. नींद की बेसुधी में उसे समझ ही नहीं आ रहा था कि वह कहां है. फिर उसे हलकेहलके स्वर में ‘नीलानीला’ सुनाई देने लगा तो अचकचा कर नाइट लैंप जला दिया. तब उसे महसूस हुआ कि वह तो गोवा के एक होटल में है घर पर नहीं. पर किस की आवाज थी? कौन रात के 2 बजे थपथप कर रहा है?

मोबाइल में टाइम देखते हुए सुनीला ने सोचा, फिर थपथप की आवाज आई. आवाज की दिशा में उस ने घूम कर देखा कि बड़ी सी कांच की खिड़की को कोई बाहर से ठोक रहा है. सुनीला के बदन में सिहरन सी दौड़ गई जब देखा कि परदे खिसके हुए हैं और उस पार वही लड़का है जो उसे बीच पर मिला था.

‘‘हाऊ डेयर यू?’’ कहती सुनीला अपनी अस्तव्यस्त नाइटी को संभालने लगी, ‘‘गोगो… हैल्पहैल्प,’’ चिल्लाने लगी.

खिड़की के उस पार वह खड़ा कैसे है? यह सोच कर उस की धड़कनें तेज हो गईं. जल्दी से उस ने अपना चश्मा पहना और रिसैप्शन को फोन करने लगी.

इस बीच वह शीशे के पार से कुछ कह रहा था मानो कुछ इशारे भी कर रहा था और वही शौर्ट्स पहने हुए था जो शाम को उस ने पहना था. तभी दरवाजे पर बेल बजी, हलकी आवाज में कोई बोल रहा था, ‘‘आप ठीक तो हैं मैडम?’’

सुनीला ने जल्दी से दरवाजा खोल दिया. होटल का कोई कर्मचारी था. सुनीला ने आंख बंद कर खिड़की की तरफ इशारा किया.

‘‘यहां तो कोई नहीं है मैम, आप को कोई गलतफहमी हुई है. फिर वहां तो किसी के खड़े होने की जगह ही नहीं है,’’ कहते हुए होटल कर्मचारी ने परदे खींच दिए और न डरने की हिदायत दे कर चला गया.

सुनीला की आंखों से नींद उड़ चुकी थी. वह अब भी रहरह कर परदे खींचे खिड़की की तरफ देख रही थी और सहम रही थी. उसे महसूस हो रहा था कि वह अब भी वहीं खड़ा है. फिर चादर खींच, आंखें भींच सोने की असफल कोशिश करने लगी.

आज ही सुबह तो वह रांची से यहां अपनी दोस्त रमणिका के साथ पहुंची थी. गोवा आने का प्रोग्राम भी तो अचानक ही बना था. कुछ ही दिनों पहले रमणिका उस के घर आई हुई थी, घर में बहुत सारे मेहमान आए हुए थे जिन्हें सुनीला जानती भी नहीं थी. रमणिका को देखते ही वह खुश हो उठी.

‘‘अच्छा हुआ तुम आ गईं. मैं बिलकुल परेशान थी. न जाने कौनकौन लोग आए हुए हैं

2 दिनों से. बारबार मुझ से पूछ रहे हैं मुझे पहचाना बेटा? तंग हो कर मैं दरवाजा बंद कर बैठी हुई थी.’’

‘‘हां, मुझे तेरी मम्मी का फोन आया था कि तू परेशान है.’’

रमणिका ने कहा, ‘‘चल कहीं घूम कर आते हैं, तेरा मन बहल जाएगा.’’

‘‘हूं, रांची में अब क्या बचा है देखने को, बचपन से कई बार हर स्पौट पर जा चुकी हूं,’’ सुनीला ने रोंआसी हो कर कहा.

‘‘गोवा चलेगी?’’

रमणिका का ऐसा कहना था कि सुनीला खुशी से उछल पड़ी, ‘‘हां, वह तो सपना रहा है कि कभी गोवा जाऊंगी. मेरा तो मन था जब शादी होगी तो हनीमून मनाने वहीं जाऊंगी. चल अब जब शादी होगी तब की तब देखी जाएगी, अभी तो घर के इस दमघोटू माहौल से मुझे रिहाई चाहिए.’’

शाम होतेहोते उसी दिन होटल, हवाई टिकट सब बुक हो गए.

आज सुबह ही दोनों सहेलियां गोवा पहुंची थीं. होटल में सामान रख कर दोनों बीच पर गई ही थीं कि रमणिका को कोई जरूरी फोन आ गया. उस की मम्मी की तबीयत अचानक खराब हो गई और वह तुरंत रांची वापस जाना चाहती थी. सुनीला

का भी चेहरा उतर गया, पर रमणिका भी और सुनीला की मम्मी ने भी समझाया कि वह अकेले ही घूम ले.

‘‘बुकिंग बरबाद हो जाएगी, तू अकेले ही घूम ले. अपनी ही देश में है कोई विदेश में थोड़ी न हो. याद है क्वीन मूवी में तो कंगना ने अकेले ही घूम लिया था,’’ कहती हुई रमणिका वापस चली गई.

सच कहा जाए तो सुनीला को यह पसंद नहीं आया था पर सबकुछ इतनी जल्दीजल्दी हुआ कि वह विमुख सी खड़ी रह गई बीच पर.

कुछ देर समुद्र किनारे टहलने के बाद वह किनारों पर बने एक अच्छे से रेस्तरां की खुली जगह पर लगी कुरसी पर बैठ गई.

वहां से समुद्र का सुंदर नजारा दिख रहा था. उस का सिर अब तक भन्ना रहा था. न जाने कुछ महीनों से उसे क्यों ऐसा ही हर वक्त महसूस हो रहा था जैसे कुछ खो गया हो और दिल बेचैन सा रहता.

‘‘अरे आप अकेली क्यों बैठी हैं?’’ किसी की आवाज आई तो सुनीला ने पलट कर देखा.

एक हैंडसम सा लड़का यों कहें युवा रंगबिरंगे फूलों वाला शौर्ट्स पहन कर बड़ी धृष्टता से सामने की कुरसी खींच बैठ चुका था.

‘‘वह मेरी सहेली… अभीअभी कहीं गई है, आती ही होगी,’’ अचकचाते हुए सुनीला के मुंह से निकल पड़ा, फिर खुद को संभालते हुए बोल्ड फेस बनाते हुए कहा, ‘‘आप कौन हैं? यहां मेरे साथ क्यों बैठ रहे हैं?’’ उस के माथे पर पसीना छलछला गया था.

‘‘अरे आप घबरा क्यों रही हैं, बैठिएबैठिए. दरअसल, मैं आप की फ्रैंड को जानता हूं. मेरा नाम अनुदीप है आप चाहें तो दीप बुला सकती हैं. सुनीला क्या मैं तुम को नीला कह कर पुकारूं?’’

अचानक सुनीला के माथे पर सैकड़ों हथौडि़यां चलने लगीं और वह पीड़ा से छटपटाने लगी. जब होश आया तो खुद को उसी की बांहों में पाया जो पानी के छींटे मारते हुए बदहवास सा, ‘‘नीला… नीला…’’ कह रहा था.

खुद को संभालते हुए सुनीला उठ बैठी और अजनबियत निगाहों से तथाकथित अनुदीप को घूरते हुए अपने को उस से अलग किया और जाने का उपक्रम करने लगी.

‘‘नीला एक कप कौफी तो पीते जाओ, बेहतर महसूस करोगी.’’

सुनीला ने उस की यह बात मान ली. भयभीत हिरनी सी उस की आंखें अब भी सशंकित थीं.

‘‘नीला प्लीज डरो मत, मुझे ध्यान से देखो. क्या हम पहले कभी नहीं मिले हैं, ऐसा तुम्हें नहीं लग रहा?’’

सुनीला नजरें नीची कर कौफी पीती रही, ‘हूं…  बीच पर दारू पी कर खुद के होशहवास गुम हैं जनाब के और मजनूं बन रहे हैं, पर मेरा नाम इसे कैसे पता है? बातें गडमड होने लगीं, कहीं रमणिका ने…’ उस ने मन ही मन सोचा.

शाम की बातें सोचतेसोचते जाने कब वह फिर सो गई. सुबह देर तक सोती रही कौंप्लीमैंट्री ब्रेकफास्ट का वक्त निकल गया था.

रैस्टोरैंट में फिर वही सामने था, ‘‘नीला, लगता है तुम भी देर तक सोती रह गईं मेरी तरह.’’

व्हाइट शर्ट और ब्लू डैनिम में वह वाकई अच्छा दिख रहा था. सुनीला ने कनखियों से देखा. सहसा उसे रात की बात याद आ गई.

‘‘आप रात के वक्त मेरी खिड़की के सामने क्यों खड़े थे? मुझे तो लगा कि…’’ सुनीला ने बात अधूरी छोड़ दी.

‘‘मैं तो तुम्हारा हाल पूछने आया था, पर तुम चिल्लाने क्यों लगीं और तुम्हें क्या लगा?’’

‘‘लगे तो तुम मुझे भूत थे और अब भी लग रहा है जैसे कोई भूत पीछे पड़ गया हो… हर जगह दिखाई दे रहे हो,’’ कहतेकहते सुनीला की आंखों में भय के डोरे पड़ने लगे क्योंकि सहसा ही वह वहां से गायब हो चुका था.

अगले कुछ क्षणों में सुनीला होटल के चौकीदार से गोआनी भूतों के किस्से सुन रही थी. डर से उस का रोआंरोआं कांप रहा था, भूतप्रेत पर वह पहले भी विश्वास करती ही थी. जब वह चौकीदार से बातें कर रही थी तो उसे दूर वह फिर फोन पर बाते करते हुए टहलता दिखा. अजीब असमंजस में सुनीला पड़ गई. उस ने चौकीदार से पूछा, ‘‘क्या आप को उधर सफेद शर्ट वाला व्यक्ति दिखाई दे रहा है?’’ उंगलियों से इंगित करते हुए उस ने पूछा, पर तब तक उस की ही आंखों से ओझल हो गया.

उसे सम?ा नहीं आ रहा था कि क्या करे. इस बीच मम्मी के कई फोन आ चुके थे. दिन में क्या कर रही हो, किधर घूमने जा रही हो?

‘‘याद है न बेटा डाक्टर ने क्या कहा था,’’ मम्मी बोल रही थी.

इधर कुछ दिनों से रांची के कई चिकित्सकों से वह मिल चुकी थी. उस की पैर की हड्डी टूटी थी सो अस्पतालों के कई चक्कर लगे थे. कुछ दिन ऐडिमट भी रही थी, दिनभर तरहतरह के डाक्टर आते और उस से बातें करते. सुनीला कहती भी थी हड्डी टूटने पर इतने डाक्टर की क्या जरूरत. ठीक होने पर एक डाक्टर ने ही कहा था.

‘‘सुनीला कुछ दिन कहीं बाहर घूम आओ, मन को अच्छा लगेगा.’’

‘‘पर डाक्टर मैं कालेज में पढ़ाती हूं, ऐसे कैसे जा सकती हूं?’’

फिर घर में लोगों के जमघट से परेशान हो आखिर निकल ही गई. काश, रमणिका साथ होती.

सुनीला अपने कमरे की तरफ जाने लगी… तभी मैनेजर ने पूछा, ‘‘हमारी एक टूरिस्ट बस नौर्थ गोवा के पुराने पुर्तगाली घर घुमाने जाने वाली है, एक सीट ही खाली है. सोचा आप से पूछ लूं.’’

अनमनी सी सुनीला बस में चढ़ गई. बैठने से पूर्व उस ने अच्छे से मुआयना किया कि कहीं वह तो नहीं. न पा कर तसल्ली से बैठ गई और बाहर के सुंदर दृश्यों का आनंद लेने लगी.

एक के बाद एक कई पुराने पुर्तगाली घर घुमाया गया, हर घर के साथ एक रहस्यमयी रोमांचकारी या कोई भूतिया कहानी जुड़ी हुई थी. वह तो अच्छा था कि ढेरों टूरिस्ट साथ थे वरना सुनीला की हालत पतली ही थी.

एक बंगला घूमते वक्त सुनीला एक आदमकद शीशे के समक्ष खड़ी थी कि पीछे से उसी का अक्स दिखाई दिया. व्हाइट शर्ट और ब्लू डैनिम में. डर के मारे सुनीला चिल्लाने लगी, ‘‘भूतभूत… चेहरा का रंग पीला पड़ गया और थरथर कांपने लगी.

बेचारा गाइड घबरा गया, ‘‘मैडम ये सब कहानियां सुनीसुनाई हैं, पर्यटकों के मनोरंजन के लिए हम इन्हें सुनाते हैं,’’ बेचारा गाइड सफाई देते नहीं थक रहा था.

कुछ महिलाओं की मदद से उसे बस में बैठा दिया गया और फिर सब घूमने लगे. खड़ी बस में वह अकेले सामने वाली सीट पर झुक कर विचारों में मगन हो गई. क्यों वह बारबार उसे दिख रहा? क्या किसी और को भी दिखता है या सिर्फ उसे ही.

‘क्या सचमुच भूत है या पूर्व जन्म का नाता? फिर वह नीलानीला क्यों बोलता है?’

सुनीला जैसे किसी किसी चक्रव्यूह में फंस गई थी. अभी 2 दिन गोवा में और रहना है पर उस का मन ऊब चल था. शादी के बाद ही आना सही रहता, बेकार में घूम भी लिया और उस भूत के चलते मजा भी किरकिरा हो गया. कुछ देर के बाद आंसुओं से सिना चेहरा उस ने ऊपर किया तो उसे जैसे करंट लग गया. वह उस की सीट के बिलकुल सामने उस की ओर देखते हुए नारियल पानी पी रहा था. सुनीला इतनी बेबस कभी नहीं हुई थी. खाली बस वह अकेली, डर से उस का गला भी बंद हो गया. उस ने लगभग घिघयाते हुए बमुश्किल पूछा, ‘‘कौन हो तुम? क्या चाहते हो मुझ से?’’

वह बस मुसकराता रहा. टूरिस्ट बस में आने लगे थे. उस ने कहा, ‘‘मैं बस तुम को देखना चाहता हूं.’’

ड्राइवर से कुछ बात कर वह सुनीला की बगल वाली सीट पर बैठ गया. सुनीला को तो जैसे काटो तो खून नहीं. वह उठ कर जाने लगी तभी बस चल पड़ी.

‘‘यानी यह भूत तो कतई नहीं है, इस ने बातें करी दूसरों से.’’

सुनीला मन ही मन गुथ रही थी. भूतिया डर जाने के बाद उस का मन हलका हो गया था.

‘वैसे है हैंडसम यह,’ उस ने मन ही मन सोचा. फिर तो बातों का सिलसिला ही निकल चला.

‘‘आप मेरी फ्रैंड को कैसे जानते हैं?’’

‘‘क्योंकि वह मेरे ही शहर की है.’’

‘‘यानी आप रांची से हैं? मैं भी तो… ’’

‘‘हां, मैं तुम्हें जानता हूं, तुम्हारे पूरे परिवार को भी.’’

अब चौंकने की बारी सुनीला की थी.

वह 2 दिन जिन्हें काटने में उसे परेशानी हो रही थी जैसे फुर्र हो गए. अपने शहर का लड़का और कई समानताएं उसे आकर्षित कर रही थीं. आखिरी शाम सुनीला ने उस का हाथ थाम कर पूछ ही लिया, ‘‘क्या मुझ से शादी करोगे अनुदीप?’’

‘‘जरूरजरूर पर कितनी बार मुझ से शादी करोगी?’’ अनुदीप ने हंसते हुए पूछा.

‘‘हर जन्म में,’’ सुनीला ने भावुकता से कहा.

‘‘मैं इसी जन्म की बात कर रहा हूं.’’

सुनीला फिर चकित हो उसे देखने लगी. तभी रमणिका एक फोटो अलबम हाथ में लिए आते दिखी.

‘‘तुम कब आईं?’’ सुनीला ने पूछा.

‘‘मैं गई ही कब थी? मैं तुम्हें अपनी जिम्मेदारी पर यहां लाई थी. परंतु अब जरा ध्यान से सारी बातें सुनो. तुम्हारी शादी 1 साल पहले अनुदीप से हो चुकी है. यहीं गोवा में तुम ने हनीमून भी मनाया है. पर रांची लौटने के पश्चात पतरातू घाटी में एक दिन तुम्हारा ऐक्सीडैंट हो गया. कार में तुम दोनों ही थे. चोटें तुम दोनों को आईं पर तुम्हें कुछ अधिक आघात पहुंचा जिस में तुम अपनी शादी की बात बिलकुल भूल गई. कहीं गोआ में तुम्हें अपना विगत याद आ जाए, यही सोच हम ने यह प्लान बनाया. यह अलबम देखो,’’ उस ने कहा.

सुनीला पन्ने पलटने लगी, हां यह अनुदीप ही है और यह मैं. वह चकित थी.

घर पर उस दिन आए हुए लोग भी हैं इस में. सामने अश्रुसिक्त नयनों से अनुदीप बैठा था.

‘‘अनुदीप जब अस्पताल से डिस्चार्ज हो कर लौटा, तब तक वह तुम्हारे लिए अजनबी हो चुका था. वह कई बार तुम से मिला भी, तुम्हारी अजनबियत निगाहें उस का हृदय तोड़ देती थीं. रांची के प्रसिद्ध मनोचिकित्सकों ने तुम्हारा कई महीने इलाज किया. तुम पहले से अब काफी बेहतर हो, अनुदीप ने फिर से तुम्हारे दिल को जीतने के लिए यह ड्रामा रचा.’’

‘‘पर तुम ने तो उसे भूत ही बना दिया. वह अकसर मुझ से या तुम्हारी मम्मी से बातें करने के लिए तुम से अलग होता था. अब तुम जब उस से शादी करने के लिए राजी हो गई तो हम ने सोचा कि अब पटाक्षेप किया जाए. आंटी से बातें करो बहुत कठिन दिन गुजारे हैं उन्होंने’’

सुनीला अपनी मम्मी की बातें सुन रही थी साथ ही साथ सामने बैठे अनुदीप के चेहरे के बनतेबिगड़ते भावों को महसूस कर रही थी.

‘‘याद तो मुझे अब भी नहीं है पर मुझे अनुदीप पसंद है और यही बात मेरे लिए माने रखती है. तुम आधिकारिक तौर पर मेरे पति हो पर तुम ने कभी ऐसा कोई अधिकार नहीं जताया. आई लव यू.’’

‘‘मैं तुम्हें नीला और तुम मुझे दीप कहती थी,’’ भर्राए गले से अनुदीप ने कहा.

‘‘आधी रात को तुम खिड़की पर आखिर लटके कैसे थे, तभी तो तुम्हें भूत समझती रही?’’ हंसती हुई सुनीला ने पूछा, ‘‘मैं तुम्हारी बगल वाले कमरे में था, दोनों की बालकनी

जुड़ी हुई थी, सिंपल. मुझे नींद नहीं आ रही थी और मैं तुम्हें देखना चाहता था, वह कर्मचारी शायद उनींदा था.’’

फिजां में लाखों दीप जलने लगे और आसमान से नीले फूलों की बरसात होने लगी.

Famous Hindi Stories : मझधार – हमेशा क्यों चुपचाप रहती थी नेहा ?

Famous Hindi Stories :  पूरे 15 वर्ष हो गए मुझे स्कूल में नौकरी करते हुए. इन वर्षों में कितने ही बच्चे होस्टल आए और गए, किंतु नेहा उन सब में कुछ अलग ही थी. बड़ी ही शांत, अपनेआप में रहने वाली. न किसी से बोलती न ही कक्षा में शैतानी करती. जब सारे बच्चे टीचर की गैरमौजूदगी में इधरउधर कूदतेफांदते होते, वह अकेले बैठे कोई किताब पढ़ती होती या सादे कागज पर कोई चित्रकारी करती होती. विद्यालय में होने वाले सारे कार्यक्रमों में अव्वल रहती. बहुमखी प्रतिभा की धनी थी वह. फिर भी एक अलग सी खामोशी नजर आती थी मुझे उस के चेहरे पर. किंतु कभीकभी वह खामोशी उदासी का रूप ले लेती. मैं उस पर कई दिनों से ध्यान दे रही थी. जब स्पोर्ट्स का पीरियड होता, वह किसी कोने में बैठ गुमनाम सी कुछ सोचती रहती.

कभीकभी वह कक्षा में पढ़ते हुए बोर्ड को ताकती रहती और उस की सुंदर सीप सी आंखें आंसुओं से चमक उठतीं. मेरे से रहा न गया, सो मैं ने एक दिन उस से पूछ ही लिया, ‘‘नेहा, तुम बहुत अच्छी लड़की हो. विद्यालय के कार्यक्रमों में हर क्षेत्र में अव्वल आती हो. फिर तुम उदास, गुमसुम क्यों रहती हो? अपने दोस्तों के साथ खेलती भी नहीं. क्या तुम्हें होस्टल या स्कूल में कोई परेशानी है?’’

वह बोली, ‘‘जी नहीं मैडम, ऐसी कोई बात नहीं. बस, मुझे अच्छा नहीं लगता. ’’

उस के इस जवाब ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया जहां बच्चे खेलते नहीं थकते, उन्हें बारबार अनुशासित करना पड़ता है, उन्हें उन की जिम्मेदारियां समझानी पड़ती हैं वहां इस लड़की के बचपन में यह सब क्यों नहीं? मुझे लगा, कुछ तो ऐसा है जो इसे अंदर ही अंदर काट रहा है. सो, मैं ने उस का पहले से ज्यादा ध्यान रखना शुरू कर दिया. मैं देखती थी कि जब सारे बच्चों के मातापिता महीने में एक बार अपने बच्चों से मिलने आते तो उस से मिलने कोई नहीं आता था. तब वह दूर से सब के मातापिता को अपने बच्चों को पुचकारते देखती और उस की आंखों में पानी आ जाता. वह दौड़ कर अपने होस्टल के कमरे में जाती और एक तसवीर निकाल कर देखती, फिर वापस रख देती.

जब बच्चों के जन्मदिन होते तो उन के मातापिता उन के लिए व उन के दोस्तों के लिए चौकलेट व उपहार ले कर आते लेकिन उस के जन्मदिन पर किसी का कोई फोन भी न आता. हद तो तब हो गई जब गरमी की छुट्टियां हुईं. सब के मातापिता अपने बच्चों को लेने आए लेकिन उसे कोई लेने नहीं आया. मुझे लगा, कोई मांबाप इतने गैर जिम्मेदार कैसे हो सकते हैं? तब मैं ने औफिस से उस का फोन नंबर ले कर उस के घर फोन किया और पूछा कि आप इसे लेने आएंगे या मैं ले जाऊं?

जवाब बहुत ही हैरान करने वाला था. उस की दादी ने कहा, ‘‘आप अपने साथ ले जा सकती हैं.’’ मैं समझ गई थी कोई बड़ी गड़बड़ जरूर है वरना इतनी प्यारी बच्ची के साथ ऐसा व्यवहार? खैर, उन छुट्टियों में मैं उसे अपने साथ ले गई. कुछ दिन तो वह चुपचाप रही, फिर धीरेधीरे मेरे साथ घुलनेमिलने लगी थी. मुझे ऐसा महसूस हो रहा था जैसे मैं किसी बड़ी जंग को जीतने वाली हूं. छुट्टियों के बाद जब स्कूल खुले वह 8वीं कक्षा में आ गई थी. उस की शारीरिक बनावट में भी परिवर्तन होने लगा था. मैं भलीभांति समझती थी कि उसे बहुत प्यार की जरूरत है. सो, अब तो मैं ने बीड़ा उठा लिया था उस की उदासी को दूर करने का. कभीकभी मैं देखती थी कि स्कूल के कुछ शैतान बच्चे उसे ‘रोतली’ कह कर चिढ़ाते थे. खैर, उन्हें तो मैं ने बड़ी सख्ती से कह दिया था कि यदि अगली बार वे नेहा को चिढ़ाते पाए गए तो उन्हें सजा मिलेगी.

हां, उस की कुछ बच्चों से अच्छी पटती थी. वे उसे अपने घरों से लौटने के बाद अपने मातापिता के संग बिताए पलों के बारे में बता रहे थे तो उस ने भी अपनी इस बार की छुट्टियां मेरे साथ कैसे बिताईं, सब को बड़ी खुशीखुशी बताया. मुझे ऐसा लगा जैसे मैं अपनी मंजिल का आधा रास्ता तय कर चुकी हूं. इस बार दीवाली की छुट्टियां थीं और मैं चाहती थी कि वह मेरे साथ दीवाली मनाए. सो, मैं ने पहले ही उस के घर फोन कर कहा कि क्या मैं नेहा को अपने साथ ले जाऊं छुट्टियों में? मैं जानती थी कि जवाब ‘हां’ ही मिलेगा और वही हुआ. दीवाली पर मैं ने उसे नई ड्रैस दिलवाई और पटाखों की दुकान पर ले गई. उस ने पटाखे खरीदने से इनकार कर दिया. वह कहने लगी, उसे शोर पसंद नहीं. मैं ने भी जिद करना उचित न समझा और कुछ फुलझडि़यों के पैकेट उस के लिए खरीद लिए. दीवाली की रात जब दिए जले, वह बहुत खुश थी और जैसे ही मैं ने एक फुलझड़ी सुलगा कर उसे थमाने की कोशिश की, वह नहींनहीं कह रोने लगी और साथ ही, उस के मुंह से ‘मम्मी’ शब्द निकल गया. मैं यही चाहती थी और मैं ने मौका देख उसे गले लगा लिया और कहा, ‘मैं हूं तुम्हारी मम्मी. मुझे बताओ तुम्हें क्या परेशानी है?’ आज वह मेरी छाती से चिपक कर रो रही थी और सबकुछ अपनेआप ही बताने लगी थी.

वह कहने लगी, ‘‘मेरे मां व पिताजी की अरेंज्ड मैरिज थी. मेरे पिताजी अपने मातापिता की इकलौती संतान हैं, इसीलिए शायद थोड़े बदमिजाज भी. मेरी मां की शादी के 1 वर्ष बाद ही मेरा जन्म हुआ. मां व पिताजी के छोटेछोटे झगड़े चलते रहते थे. तब मैं कुछ समझती नहीं थी. झगड़े बढ़ते गए और मैं 5 वर्ष की हो गई. दिनप्रतिदिन पिताजी का मां के साथ बरताव बुरा होता जा रहा था. लेकिन मां भी क्या करतीं? उन्हें तो सब सहन करना था मेरे कारण, वरना मां शायद पिताजी को छोड़ भी देतीं.

‘‘पिताजी अच्छी तरह जानते थे कि मां उन को छोड़ कर कहीं नहीं जाएगी. पिताजी को सिगरेट पीने की बुरी आदत थी. कई बार वे गुस्से में मां को जलती सिगरेट से जला भी देते थे. और वे बेचारी अपनी कमर पर लगे सिगरेट के निशान साड़ी से छिपाने की कोशिश करती रहतीं. पिताजी की मां के प्रति बेरुखी बढ़ती जा रही थी और अब वे दूसरी लड़कियों को भी घर में लाने लगे थे. वे लड़कियां पिताजी के साथ उन के कमरे में होतीं और मैं व मां दूसरे कमरे में. ‘‘ये सब देख कर भी दादी पिताजी को कुछ न कहतीं. एक दिन मां ने पिताजी के अत्याचारों से तंग आ कर घर छोड़ने का फैसला कर लिया और मुझे ले कर अपने मायके आ गईं. वहां उन्होंने एक प्राइवेट स्कूल में नौकरी भी कर ली. मेरे नानानानी पर तो मानो मुसीबत के पहाड़ टूट पड़े. मेरे मामा भी हैं किंतु वे मां से छोटे हैं. सो, चाह कर भी कोई मदद नहीं कर पाए. जो नानानानी कहते वे वही करते. कई महीने बीत गए. अब नानानानी को लगने लगा कि बेटी मायके आ कर बैठ गई है, इसे समझाबुझा कर भेज देना चाहिए. वे मां को समझाते कि पिताजी के पास वापस चली जाएं.

‘‘एक तरह से उन का कहना भी  सही था कि जब तक वे हैं ठीक है. उन के न रहने पर मुझे और मां को कौन संभालेगा? किंतु मां कहतीं, ‘मैं मर जाऊंगी लेकिन उस के पास वापस नहीं जाऊंगी.’

‘‘दादादादी के समझाने पर एक बार पिताजी मुझे व मां को लेने आए और तब मेरे नानानानी ने मुझे व मां को इस शर्त पर भेज दिया कि पिताजी अब मां को और नहीं सताएंगे. हम फिर से पिताजी के पास उन के घर आ गए. कुछ दिन पिताजी ठीक रहे. किंतु पिताजी ने फिर अपने पहले वाले रंगढंग दिखाने शुरू कर दिए. अब मैं धीरेधीरे सबकुछ समझने लगी थी. लेकिन पिताजी के व्यवहार में कोई फर्क नहीं आया. वे उसी तरह मां से झगड़ा करते और उन्हें परेशान करते. इस बार जब मां ने नानानानी को सारी बातें बताईं तो उन्होंने थोड़ा दिमाग से काम लिया और मां से कहा कि मुझे पिताजी के पास छोड़ कर मायके आ जाएं. ‘‘मां ने नानानानी की बात मानी और मुझे पिताजी के घर में छोड़ नानानानी के पास चली गईं. उन्हें लगा शायद मुझे बिन मां के देख पिताजी व दादादादी का मन कुछ बदल जाएगा. किंतु ऐसा न हुआ. उन्होंने कभी मां को याद भी न किया और मुझे होस्टल में डाल दिया. नानानानी को फिर लगने लगा कि उन के बाद मां को कौन संभालेगा और उन्होंने पिताजी व मां का तलाक करवा दिया और मां की दूसरी शादी कर दी गई. मां के नए पति के पहले से 2 बच्चे थे और एक बूढ़ी मां. सो, मां उन में व्यस्त हो गईं.

‘‘इधर, मुझे होस्टल में डाल दादादादी व पिताजी आजाद हो गए. छुट्टियों में भी न मुझे कोई बुलाता, न ही मिलने आते. मां व पिताजी दोनों के मातापिता ने सिर्फ अपने बच्चों के बारे में सोचा, मेरे बारे में किसी ने नहीं. दोनों परिवारों और मेरे अपने मातापिता ने मुझे मझधार में छोड़ दिया.’’ इतना कह कर नेहा फूटफूट कर रोने लगी और कहने लगी, ‘‘आज फुलझड़ी से जल न जाऊं. मुझे मां की सिगरेट से जली कमर याद आ गई. मैडम, मैं रोज अपनी मां को याद करती हूं, चाहती हूं कि वे मेरे सपने में आएं और मुझे प्यार करें.

‘‘क्या मेरी मां भी मुझे कभी याद करती होंगी? क्यों वे मुझे मेरी दादी, दादा, पापा के पास छोड़ गईं? वे तो जानती थीं कि उन के सिवा कोई नहीं था मेरा इस दुनिया में. दादादादी, क्या उन से मेरा कोई रिश्ता नहीं? वे लोग मुझे क्यों नहीं प्यार करते? अगर मेरे पापा, मम्मी का झगड़ा होता था तो उस में मेरा क्या कुसूर? और नाना, नानी उन्होंने भी मुझे अपने पास नहीं रखा. बल्कि मेरी मां की दूसरी शादी करवा दी. और मुझ से मेरी मां छीन ली. मैं उन सब से नफरत करती हूं मैडम. मुझे कोई अच्छा नहीं लगता. कोई मुझ से प्यार नहीं करता.’’ वह कहे जा रही थी और मैं सुने जा रही थी. मैं नेहा की पूरी बात सुन कर सोचती रह गई, ‘क्या बच्चे से रिश्ता तब तक होता है जब तक उस के मातापिता उसे पालने में सक्षम हों? जो दादादादी, नानानानी अपने बच्चों से ज्यादा अपने नातीपोतों पर प्यार उड़ेला करते थे, क्या आज वे सिर्फ एक ढकोसला हैं? उन का उस बच्चे से रिश्ता सिर्फ अपने बच्चों से जुड़ा है? यदि किसी कारणवश वह बीच की कड़ी टूट जाए तो क्या उन दादादादी, नानानानी की बच्चे के प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं? और क्या मातापिता अपने गैरजिम्मेदार बच्चों का विवाह कर एक पवित्र बंधन को बोझ में बदल देते हैं? क्या नेहा की दादी अपने बेटे पर नियंत्रण नहीं रख सकती थी और यदि नहीं तो उस ने नेहा की मां की जिंदगी क्यों बरबाद की, और क्यों नेहा की मां अपने मातापिता की बातों में आ गई और नेहा के भविष्य के बारे में न सोचते हुए दूसरे विवाह को राजी हो गई?

‘कैसे गैरजिम्मेदार होते हैं वे मातापिता जो अपने बच्चों को इस तरह अकेला घुटघुट कर जीने के लिए छोड़ देते हैं. यदि उन की आपस में नहीं बनती तो उस का खमियाजा बच्चे क्यों भुगतें. क्या हक होता है उन्हें बच्चे पैदा करने का जो उन की परवरिश नहीं कर सकते.’ मैं चाहती थी आज नेहा वह सब कह डाले जो उस के मन में नासूर बन उसे अंदर ही अंदर खाए जा रहा है. जब वह सब कह चुप हुई तो मैं ने उसे मुसकरा कर देखा और पूछा, ‘‘मैं तुम्हें कैसी लगती हूं? क्या तुम समझती हो मैं तुम्हें प्यार करती हूं?’’ उस ने अपनी गरदन हिलाते हुए कहा, ‘‘हां.’’ और मैं ने पूछ लिया, ‘‘क्या तुम मुझे अपनी मां बनाओगी?’’ वह समझ न सकी मैं क्या कह रही हूं. मैं ने पूछा, ‘‘क्या तुम हमेशा के लिए मेरे साथ रहोगी?’’

जवाब में वह मुसकरा रही थी. और मैं ने झट से उस के दादादादी को बुलवा भेजा. जब वे आए, मैं ने कहा, ‘‘देखिए, आप की तो उम्र हो चुकी है और मैं इसे सदा के लिए अपने पास रखना चाहती हूं. क्यों नहीं आप इसे मुझे गोद दे देते?’’

दादादादी ने कहा, ‘‘जैसा आप उचित समझें.’’ फिर क्या था, मैं ने झट से कागजी कार्यवाही पूरी की और नेहा को सदा के लिए अपने पास रख लिया. मैं नहीं चाहती थी कि मझधार में हिचकोले खाती वह मासूम जिंदगी किसी तेज रेले के साथ बह जाए.

Interesting Hindi Stories : नहीं बचे आंसू

Interesting Hindi Stories : सुधा का पति राम सजीवन दूरसंचार महकमे में लाइनमैन था. एक दिन काम के दौरान वह खंभे से गिर गया. उसे गहरी चोट लगी. अस्पताल ले जाते समय रास्ते में उस ने दम तोड़ दिया.

सुधा की जिंदगी में अंधेरा छा गया. वह कम पढ़ीलिखी देहाती औरत थी. उस के 2 मासूम बच्चे थे. बड़ा बेटा पहली क्लास में पढ़ता था और छोटा 2 साल का था.

पति का क्रियाकर्म हो गया, तो सुधा ससुराल से मायके चली आई. वहां उस के बड़े भाई सुखनंदन ने कहा, ‘‘बहन, जो होना था, वह तो हो ही गया. गम भुलाओ और आगे की सोचो. बताओ कि नौकरी करोगी? बहनोई की जगह तुम्हें नौकरी मिल जाएगी. एक नेता मेरे जानने वाले हैं. उन से कहूंगा तो वे जल्दी ही तुम्हें नौकरी पर रखवा देंगे.’’

‘‘कुछ तो करना ही होगा भैया, वरना इन बच्चों का क्या होगा? लेकिन, मैं 8वीं जमात तक ही तो पढ़ी हूं. क्या मुझे नौकरी मिल जाएगी?’’ सुधा ने पूछा.

‘‘चपरासी की नौकरी तो मिल ही जाएगी. मैं आज ही नेता से मिलता हूं,’’ सुखनंदन बोला.

सुखनंदन की दौड़धूप काम आई और सुधा को जल्दी ही नौकरी मिल गई.

‘‘बहन, तुम बच्चों को ले कर शहर में रहो. मैं वहां आताजाता रहूंगा. कोई चिंता की बात नहीं है. तुम्हारी तरह बहुत सी औरतें हैं दुनिया में, जो हिम्मत से काम ले कर अपनी और बच्चों की जिंदगी संवार रही हैं,’’ सुखनंदन ने बहन का हौसला बढ़ाया.

सुधा शहर आ गई और किराए के मकान में रह कर चपरासी की नौकरी करने लगी. उस ने पास के स्कूल में बड़े बेटे का दाखिला करा दिया.

सुखनंदन सुधा का पूरा खयाल रखता था. वह बीचबीच में गांव से राशन वगैरह ले कर आया करता था. फोन पर तो रोज ही बात कर लिया करता था.

सुधा खूबसूरत और जवान थी. महकमे के कई अफसर और बाबू उसे देख कर लार टपकाते रहते थे. उस से नजदीकी बनाने के लिए भी कोई उस के प्रति हमदर्दी जताता, तो कोई रुपएपैसे का लालच देता.

सुधा का मकान मालिक भी रसिया किस्म का था. वह नशेड़ी भी था. सुधा पर उस की नीयत खराब थी. कभीकभी शराब के नशे में वह आधी रात में उस का दरवाजा खटखटाया करता था. आतेजाते कई मनचले भी सुधा को छेड़ा करते थे.

किसी तरह दिन कटते रहे और सुधा खुद को बचाती रही. उस के साथ राजू नाम का एक चपरासी काम करता था. वह उस का दीवाना था, लेकिन दिल की बात जबान पर नहीं ला पा रहा था.

राजू बदमाश किस्म का आदमी था और शराब का नशा भी करता था. वह अकसर लोगों के साथ मारपीट किया करता था, लेकिन सुधा से बेहद अच्छी बातें किया करता था.

राजू उसे भरोसा दिलाता था, ‘‘मेरे रहते चिंता बिलकुल मत करना. कोई आंख उठा कर देखे तो बताना… मैं उस की आंख निकाल लूंगा.’’

सुधा को राजू अकसर घर भी छोड़ दिया करता था. कुछ दिनों बाद राजू सुधा को घुमानेफिराने भी लगा. सुधा को भी उस का साथ भाने लगा. वह राजू से खुल कर हंसनेबोलने लगी.

जल्दी ही दोनों के बीच प्यार हो गया. अब तो राजू उस के घर आ कर उठनेबैठने लगा. सुधा के बच्चे उसे ‘अंकल’ कहने लगे. वह बच्चों के लिए खानेपीने की चीजें भी लाया करता था. सुधा के पड़ोस में एक और किराएदार रहता था. राजू ने उस से दोस्ती कर ली.

एक दिन वह किराएदार अपने गांव जाने लगा, तो राजू ने उस से मकान की चाबी मांग ली. दिन में उस ने सुधा से कहा, ‘‘आज रात मैं तुम्हारे साथ गुजारूंगा.’’

‘‘लेकिन, कैसे? बच्चे भी तो हैं,’’ सुधा ने समस्या रखी.

‘‘उस की चिंता तुम बिलकुल न करो…’’ यह कह कर उस ने जेब से चाबी निकाली और कहा, ‘‘यह देखो, मैं ने सुबह ही इंतजाम कर लिया है. आज तुम्हारा पड़ोसी गांव चला गया है. रात को मैं आऊंगा और उसी के कमरे में…’’

सुधा मुसकराई और फिर शरमा कर उस ने सिर झुका लिया. उस की भी इच्छा हो रही थी और वह राजू की बांहों में समा जाना चाहती थी.

राजू देर रात शराब के नशे में आया. उस ने सुधा के पड़ोसी के मकान का दरवाजा खोला. आहट मिली तो सुधा जाग गई. उस के दोनों बेटे सो रहे थे. उस ने आहिस्ता से अपना दरवाजा बंद किया और पड़ोसी के कमरे में चली गई.

राजू ने फौरन दरवाजा बंद कर लिया. उस के बाद जो होना था, वह देर रात तक होता रहा. लंबे अरसे बाद उस रात सुधा को जिस्मानी सुख मिला था. वह राजू की बांहों में खो गई थी. तड़के राजू चला गया और सुधा अपने कमरे में आ गई.

सुधा और पड़ोसी के मकान के बीच जो दीवार थी, उस में दरवाजा लगा था. पहले जो किराएदार रहता था, उस ने दोनों कमरे ले रखे थे. वह जब मकान छोड़ कर गया, तो मालिक ने दोनों कमरों के बीच का दरवाजा बंद कर दिया और ज्यादा किराए के लालच में 2 किराएदार रख लिए. अब उसे एक हजार की जगह 2 हजार रुपए मिलने लगे.

उस रात के बाद राजू अकसर सुधा के घर देर रात आने लगा. कई बार सुधा का भाई सुबहसुबह ही आ जाता और राजू अंदर. ऐसी हालत में बीच का दरवाजा काम आता था. राजू उस दरवाजे से पड़ोसी के मकान में दाखिल हो जाता था.

सुधा के भाई को कभी शक ही नहीं हुआ कि बहन क्या गुल खिला रही है. वह तो उसे सीधीसादी, गांव की भोलीभाली औरत मानता था.

राजू का अपना भी परिवार था. बीवी थी, 4 बच्चे थे. परिवार के साथ वह किसी झुग्गी बस्ती में रहता था. बीवी उस से बेहद परेशान थी, क्योंकि वह पगार का काफी हिस्सा शराबखोरी में उड़ा दिया करता था.

बीवी मना करती, तो राजू उस के साथ मारपीट भी करता था. पैसों के बिना न तो ठीक से घर चल रहा था और न ही बच्चे पढ़लिख पा रहे थे.

पहले तो राजू कुछ रुपए घर में दे दिया करता था, लेकिन जब से उस की सुधा से नजदीकी बढ़ी, तब से पूरी तनख्वाह ला कर उसे ही थमा दिया करता था.

सुधा उस के पैसों से अपना शहर का खर्च चलाती और अपनी तनख्वाह बैंक में जमा कर देती. वह काफी चालाक हो गई थी. राजू डालडाल तो सुधा पातपात थी.

उधर राजू की बीवी घर चलाने के लिए कई बड़े लोगों के घरों में नौकरानी का काम करने लगी थी. वह खून के आंसू रो रही थी. लेकिन उस ने कोई गलत रास्ता नहीं चुना, मेहनत कर के किसी तरह बच्चों को पालती रही.

कुछ साल बाद रकम जुड़ गई, तो सुधा ने ससुराल में अपना मकान बनवा लिया. ससुराल वालों ने हालांकि उस का विरोध किया कि वह गांव में न रहे, वे उस का हिस्सा हड़प कर जाना चाहते थे, लेकिन पैसा मुट्ठी में होने से सुधा में ताकत आ गई थी. उस ने जेठ को धमकाया, तो वह डर गया. सुधा का बढि़या मकान बन गया.

‘‘भैया, तुम मेरा पास के टैलीफोन के दफ्तर में ट्रांसफर करा दो नेता से कह कर. इस से मैं घर और खेतीबारी भी देख सकूंगी,’’ एक दिन सुधा ने भाई से कहा.

‘‘मैं कोशिश करता हूं,’’  सुखनंदन ने उसे भरोसा दिलाया.

कुछ महीने बाद सुधा का तबादला उस के गांव के पास के कसबे में हो गया. यह जानकारी जब राजू को हुई, तो वह बेहद गुस्सा हुआ और बोला, ‘‘मेरे साथ इतनी बड़ी गद्दारी? तुम्हारे चलते मैं ने अपने बालबच्चे छोड़ दिए और तुम मुझे छोड़ कर चली जाओगी? ऐसा कतईर् नहीं होगा. या तो मैं तुम्हें मार डालूंगा या खुद ही जान दे दूंगा. तुम्हारी जुदाई मैं बरदाश्त नहीं कर पाऊंगा.’’

‘‘राजू, तुम मरो या जीओ, इस से मेरा कोई मतलब नहीं. यह मेरी मजबूरी थी कि मैं ने तुम से संबंध बनाया. तमाम लोगों से बचने के लिए मैं ने तुम्हारा हाथ पकड़ा. अब मेरा सारा काम बन चुका है. मुझे हाथ उठाने के बारे में सोचना भी नहीं, वरना जेल की हवा खाओगे. आज के बाद मुझ से मिलना भी नहीं,’’ सुधा ने धमकाया.

राजू डर गया. वह सुधा के सामने रोनेगिड़गिड़ाने लगा, लेकिन सुधा का दिल नहीं पसीजा. अगले ही दिन वह मकान खाली कर गांव चली गई.

प्यार में पागल राजू सुधा का गम बरदाश्त नहीं कर सका. कुछ दिन बाद उस ने फांसी लगा कर खुदकुशी कर ली.

जब राजू की पत्नी को उस के मरने की खबर मिली, तो वह बोली, ‘‘मेरे लिए तो वह बहुत पहले ही मर गया था. उस ने मुझे इतना रुलाया कि आज उस की मिट्टी के सामने रोने के लिए मेरी आंखों में आंसू नहीं बचे हैं,’’ यह कह कर वह बेहोश हो कर गिर पड़ी.

राजू के घर के सामने लोगों की भीड़ लग गई. लोग पानी के छींटे मार कर उस की पत्नी को होश में लाने की कोशिश कर रहे थे.

लेखक- राजकुमार धर द्विवेदी

Hindi Kahaniyan : दिल का बोझ – क्या मां की इच्छा पूरी हो पाई

Hindi Kahaniyan :  मंजू के मातापिता एक छोटे से शहर में रहते थे. उस के घर के आगे दुकानें बनी हुई थीं. उन में से कई दुकानें किराए पर चढ़ी हुई थीं. मंजू अपनी मां के साथ फर्स्ट फ्लोर पर रहती थी. वह अपने फ्लैट के नीचे वाली दुकान से दूध लाने गई थी. वह जैसे ही दूध ले कर आई, अपने साथ एक नन्हा सा गोलमटोल बच्चा भी गोद में ले आई थी.

‘‘अरे, यह किस का बच्चा उठा लाई?’’ मां ने हैरानी से देख कर पूछा.

‘‘विनोद अंकल की दुकान पर खेल रहा था. उन्हीं के घर का कोई होगा… मैं ज्यादा नहीं जानती,’’ मंजू ने हंसते हुए अपनी मां को सफाई दी.

विनोद ने मंजू के घर के नीचे मोटर पार्ट्स की दुकान खोल रखी है. दुकान में भीड़ कम ही रहती है.

बच्चा बहुत खूबसूरत था. मां की भी ममता जाग गई. उन्होंने उसे गोद में

ले लिया.

बच्चा घंटाभर वहां खेलता रहा. बच्चे की किलकारी से मंजू की मां के चेहरे पर खुशी की लकीरें उभर आई थीं. वे उस का खास खयाल रख रही थीं. बच्चा एक कटोरी दूध भी पी गया था.

एक घंटे बाद मां मंजू से बोलीं, ‘‘जा कर बच्चे को दुकान पर पहुंचा दे.’’

मंजू बच्चे को विनोद अंकल की दुकान पर छोड़ आई. इस तरह से वह बच्चा कई दिन तक मंजू के घर आता रहा. उस की मां बच्चे का ध्यान रखतीं. बच्चा वहां खेलता, घंटे 2 घंटे बाद मंजू दुकान में छोड़ आती. कई दिनों से यह सिलसिला चल रहा था.

उस दिन रात के 10 बज रहे थे. मंजू अपनी मां के बगल में सोई हुई थी. मंजू को नींद नहीं आ रही थी. वह सोच रही थी कि कैसे बात को शुरू करे.

‘‘बच्चा कितना खूबसूरत है न मां?’’ मंजू बोली.

‘‘अरे, तू किस की बात कर रही है?’’

‘‘उसी बच्चे की मां जो विनोद अंकल की दुकान से लाई थी.’’

‘‘सो जा. क्या तु झे नींद नहीं आ रही है? अभी भी तेरा ध्यान उस बच्चे पर अटका है?’’ मां ने मंजू को हिदायत दी.

‘‘दीदी का बच्चा भी ऐसा ही होता न मां?’’ मंजू अचानक बोली.

यह सुन कर मां गुस्से में बिफर पड़ीं, इसलिए वे बिस्तर से उठ कर बैठ गईं.

‘‘तेरे बड़े चाचा ने मना किया था न कि दीदी का नाम कभी मत लेना? वह हम लोगों के लिए मर गई है…’’ मां गुस्से में बोलीं.

अब तक मंजू भी चादर फेंक कर उठ कर बैठ गई थी और बोली, ‘‘मानती हूं कि दीदी हम लोगों के लिए मर गई हैं, लेकिन सचमुच में तो नहीं मरी हैं न?’’ उस ने मां से सवाल किया.

मां के पास कोई जवाब नहीं था. वे मंजू का मुंह ताकती रह गईं.

मंजू का दिल तेजी से धड़क रहा था. वह सोच नहीं पा रही थी कि जो कहने वाली है, उस का क्या नतीजा होने वाला है? अपना दिल मजबूत कर के वह मां से बोली, ‘‘मां, वह जो बच्चा रोज आ रहा है न, वह अपनी दीदी का ही बच्चा है. तुम उस की नानी हो और वह तुम्हारा नाती है. तुम्हारी अपनी बेटी का बेटा है,’’ मंजू हिम्मत कर के सबकुछ एक ही सांस में बोल गई.

मां को यह सुन कर ऐसा लगा, जैसे वे आसमान से जमीन पर गिर गई हैं. वे कुछ भी नहीं बोल पा रही थीं, सिर्फ मंजू को देखे जा रही थीं. मंजू अपनी मां के चेहरे के भावों को पढ़ने की कोशिश कर रही थी.

मां पुरानी यादों में खोने लगी थीं.

3 साल पहले की घटी हुई वह घटना. उन की बड़ी बेटी सोनी कालेज में पढ़ती थी. कालेज आतेजाते वह अमर डिसूजा नाम के एक ईसाई लड़के के इश्क में पड़ गई थी.

अमर बहुत खूबसूरत था. वह सोनी से बहुत प्यार करता था. दोनों घंटों एकदूसरे से मोबाइल पर बात किया करते थे. सोनी उस के प्यार में पागल हो गई थी. उसे इस बात का कहां ध्यान रहा कि वह एक हिंदू ब्राह्मण परिवार से ताल्लुक रखती है, जबकि अमर एक ईसाई परिवार से था.

जैसे ही सोनी के बड़े चाचा और उस के पिता को मालूम हुआ, सोनी को काफी भलाबुरा सुनना पड़ा था. घर के लोगों के साथसाथ बाहर के लोगों ने भी उसे खूब जलील किया था. लोग यही कह रहे थे कि सोनी को कोई हिंदू लड़का नहीं मिला था? उस ने अपना धर्म भ्रष्ट कर दिया था, इसीलिए उस के बड़े चाचा ने उसे घर से बाहर निकलने से मना कर दिया था. अमर से भी दूर रहने की हिदायत दे दी थी.

उस के चाचा ने चेतावनी दी थी, ‘अब से तुम्हारी पढ़ाईलिखाई बंद रहेगी. बहुत हो गया पढ़नालिखना.’

सोनी की शादी की तैयारी जोरशोर से चल रही थी. कई जगह लड़के देखे जा रहे थे, लेकिन वह पढ़ना चाहती थी. उस ने अपनी मां और अपने पिता से काफी गुजारिश की थी. कुछ दिन बाद उस के पिता ने सिर्फ कालेज में एडमिशन लेने और फार्म भरने की इजाजत दी थी. धीरेधीरे सोनी कालेज आनेजाने लगी थी.

एक दिन अचानक थाने से खबर आई कि सोनी अमर के साथ थाने में पहुंच गई है. दोनों ने एकदूसरे से प्यार करने की बात स्वीकार ली थी.

सोनी 18 साल की हो चुकी थी और अमर भी 21 साल का था. दोनों की पहले से ही गुपचुप तरीके से शादी करने की तैयारियां चल रही थीं, वे सिर्फ बालिग होने का इंतजार कर रहे थे.

सोनी के बड़े चाचा और उस के पिता ने शादी रुकवाने की कई तरह से कोशिश की, लेकिन वे ऐसा नहीं कर पाए. जब लड़कालड़की ही राजी थे, तो भला उन्हें कौन रोक सकता था. थानेदार की मदद से दोनों की शादी करवा दी गई थी. प्रशासन ने उन्हें प्रोटैक्शन दे कर अमर के घर तक पहुंचाया था.

बड़े चाचा ने गुस्से में आ कर सोनी का पुतला बना कर दाह संस्कार करवा दिया. पिता ने खास हिदायत दी थी, ‘वह हमारे लिए मर गई है. घर में कोई अब उस का नाम तक नहीं लेगा.’

तब से ले कर आज तक किसी ने भी सोनी का नाम इस घर में नहीं लिया था. आज जब मंजू उस के बच्चे की बात कर रही थी, तो मां सुन कर सन्न रह गई थीं.

मां मन ही मन सोनी से रिश्ता खत्म हो जाने के चलते दुखी रहती थीं. वे इस दुख को किसी के साथ जाहिर भी नहीं कर पाती थीं. आज वे अपने नाती को अनजाने में ही दुलार चुकी थीं.

जब मंजू ने मां को जोर से  झक झोरा, तो वे अपनी यादों से बाहर आ गईं, ‘‘ऐसा तू ने क्यों किया मंजू?’’ मां गुस्से में बोलीं.

‘‘तुम दीदी के जाने के बाद क्या कभी उन्हें भुला पाई हो मां? अपने दिल पर हाथ रख कर सच बताना?’’

मां के चेहरे पर बेचैनी देखी जा सकती थी. उन के पास कोई जवाब नहीं था. जैसे वे सच का सामना कर ही नहीं सकती थीं. वे मंजू से नजरें नहीं मिला पा रही थीं. ऐसा लग रहा था जैसे उन की चोरी पकड़ी गई है. चोरी पकड़ने वाला कोई और नहीं, बल्कि उन की अपनी बेटी की थी.

यह तो सच था कि जब से सोनी चली गई थी, मां दुखी थीं. वे कैसे जिंदा बेटी को मरा मान सकती थीं? उसे जितना भी भुलाने की कोशिश की थी, वे अपनी बेटी की यादों में खो जाती थीं. उन्होंने अपनी दोनों बेटियों को खूब प्यार दिया था.

बड़ी बेटी के गम में पिता उदास रहने लगे थे. कुछ दिन बाद उन्हें दिल का दौरा पड़ा और वे चल बसे. तब से मां अकेली हो गई थीं. वे चाहती थीं कि किसी तरह मंजू की भी शादी हो जाए.

‘‘मंजू, तुम कब से यह सब जानती हो?’’ मां ने सवाल किया.

‘‘एक दिन अचानक दीदी बाजार में मिल गई थीं. दीदी ने मु झ से नजरें फेर ली थीं, लेकिन मैं ने ही उन का पीछा किया था. बात करने पर उन्हें मजबूर कर दिया था. वे कहने लगी थीं कि मैं तो तुम्हारे लिए मर गई हूं. मैं ने उन्हें बहुत सम झाया, तब जा कर वे बात करने के लिए तैयार हुई थीं.

‘‘दीदी भी यह जान कर बहुत दुखी थीं कि हम सब ने उन्हें मरा सम झ लिया है. दीदी के गम में पिताजी नहीं रहे, उन्हें यह जान कर काफी दुख हुआ. लेकिन मैं ने उन्हें बताया कि यह सब बड़े चाचा का कियाधरा है. पिताजी तो उन की हां में हां मिलाते रहे. मां तो कुछ सम झ ही नहीं पाई थीं. वे आज भी आप के लिए दुखी रहती हैं.

‘‘यह सुन कर दीदी रोने लगी थीं. वे आप को बहुत याद करती हैं. मैं उन से लगातार फोन पर बातचीत करती रहती हूं. तभी मैं जान पाई थी कि दीदी को एक बच्चा हुआ है और यह मेरी ही योजना थी कि किसी तरह से आप को और दीदी को मिला दूं. दीदी का बच्चा उन का देवर ले कर आता है. वह विनोद अंकल की दुकान पर सेल्समैन है.’’

मां मंजू के सिर पर हाथ फेरने लगीं. उन की आंखों से आंसू बहने लगे. ऐसा लग रहा था, दिल का बो झ आंखों से बाहर निकल रहा था.

मंजू अपनी मां से आज ये सब बातें कर के हलका महसूस कर रही थी. वह बहुत खुश थी. रात के 11 बज गए थे, इसलिए वह अपनी दीदी को परेशान नहीं करना चाहती थी, वरना यह खुशखबरी दीदी तक अभी पहुंचा देती, पर वह खुश थी कि अब उस की दीदी मां से बात कर सकेंगी. अब उस के घर में एक नन्हा बच्चा खेलेगा. वह सालों से 2 परिवारों में आई दरार को पाटने में कामयाब हो गई थी.

Moral Stories in Hindi : लेडी डौक्टर कहां है

Moral Stories in Hindi :  सुबह से ही मीरा बहुत घबराहट महसूस कर रही थी. शरीर में भी भारीपन था और मन तो खैर… न जाने कब से उस के ऊपर अपराधबोध के बोझ लदे हुए हैं. काम छोड़ कर आराम करने का तो सवाल ही नहीं उठता था. बवाल मच जाएगा घर में. सब की दिनचर्या में अस्तव्यस्तता फैल जाएगी. वैसे भी कोरोना के चलते घर में माहौल हर समय गंभीर रहता है. सासससुर घर में हर समय पड़े रहने से खीझ चुके हैं तो वहीं देवर औनलाइन क्लासेस से परेशान है. घर में तंगी न हो, इसलिए पति समर को औफिस जाना पड़ता है जिस से उन का मूड हमेशा ही खराब रहता है. कुछ नहीं बदला है तो वह है मीरा और उस के काम. अगर वह समय से काम नहीं करेगी तो सासुमां को अपने लड्डू गोपाल की सेवा को बीच में छोड़ना पड़ेगा, पति समर औफिस जाने के लिए लेट हो जाएंगे, देवर रोहन बिना कुछ खाए पढ़ने बैठ जाएगा और ससुरजी शोर मचाएंगे कि हर आधे घंटे में उन्हें चाय कौन देगा. इसलिए उसे बीमार पड़ने या आराम करने का हक नहीं है इस हालत में भी. शुक्र है कि जेठ दूसरे शहर में रहते हैं अपने परिवार के साथ, वरना उन के बच्चों के भी नखरे उठाने पड़ते.

पेट में तेज दर्द उठा. इतनी भयानक पीड़ा, पर अभी तो मात्र 7 महीने ही हुए हैं. यह लेबरपेन तो नहीं हो सकता, शायद थकान से हो रहा हो. उलटी का एक गोला अंदर बनने लगा तो वह बाथरूम की ओर भागी. सुबह चाय के साथ सिर्फ एक बिस्कुट खाया था, सो, वही निकल गया. डाक्टर ने सख्त हिदायत दी थी कि तुम्हारा शरीर इतना कमजोर है कि उसे ताकत के लिए पौष्टिक भोजन की जरूरत है. हर एक घंटे बाद उस के लिए कुछ खाते रहना आवश्यक है, खासकर सुबह बिस्तर से उठते ही एक सेब तो वह खा ही ले. इस से उलटियां नहीं होंगी. डाक्टर के निर्देश और हिदायतें केवल उस के परचे तक ही सीमित हैं. घर में न तो उस की बातों को कोई मानता है और न ही उसे अपने ऊपर ध्यान देने का समय मिल पाता है. डाक्टर ने तो यह भी कहा था कि कोरोना का संक्रमण उस के और उस के होने वाले बच्चे के लिए घातक हो सकता है, जितनी ज्यादा हो सके उतनी कोशिश करे कि उसे अस्पताल न आना पड़े. लेकिन, यहां तो बाहर से जो कुछ आता उसे सैनिटाइज करने का काम भी मीरा के हिस्से था.

इतनी पढ़ीलिखी तो वह भी है कि प्रैग्नेंसी में कैसे केयर रखनी चाहिए, इस की जानकारी रखती है. पर वह कुछ करना भी चाहे तो सासुमां फट से ताना मारती हैं, “पता नहीं इतनी नाजुक क्यों है, मैं ने भी बच्चे पैदा किए हैं, वे भी बेटे, और तू है कि लड़कियों को कोख में रखने पर भी इतनी मरियल सी रहती है.”

वह अकसर सोचती है सासुमां का इतनी पूजा और भक्ति का क्या फायदा जब उन के अंदर सहनशीलता का एक कण तक नहीं. हर समय गुस्से से उबलती रहती हैं. उन की बात न मानो तो चिल्लाने लगती हैं. वह मानती है कि दूसरों के दर्द समझो और जितना हो सके, दूसरों के काम आ सको, वही सच्ची पूजा. इस बात से भी उन्हें बहुत आपत्ति है.

“न जाने कैसी कुमति बहू मिली है. अरी, कभी भगवान के सामने खड़े हो कर हाथ भी जोड़ लिया कर. हे राम, न जाने क्या अनिष्ट हो इस की वजह से,” वे आरती करती जातीं और यह भी बोलती जातीं. उसे उन पर हंसी आती और दया भी. बहू को बेटी कैसे समझ सकते हैं ऐसे लोग, जिन के अंदर ममता का सोता बहता ही नहीं है. विडंबना तो देखो, एक औरत हो कर भी दूसरी औरत की पीड़ा नहीं समझतीं.

“सत्यानाश, दूध उबल कर गिर रहा है. सुबहसुबह कैसा अपशकुन करने पर तुली है, मीरा,” सासुमां की कठोर और तीव्र आवाज पूरे घर में गूंज गई.

“वह मां… उलटी आ गई थी,” सहमे स्वर में मीरा ने कहा. वह जल्दीजल्दी गैस साफ करने लगी. “पेट में भी दर्द हो रहा है, और काफी थकान महसूस कर रही हूं,” थोड़ी हिम्मत कर उस ने कह ही दिया.

“पेट में दर्द हो रहा है तो थोड़ी अजवायन निगल जा पानी के साथ. हो सकता है गैस बन गई हो पेट में. अभी तो 2 महीने बाकी हैं, और हां, खयाल रख अपनी कोख में पल रहे बच्चे का. जांच से पता लग ही गया है कि इस बार लड़का है. पता चले जांच के लिए अस्पताल ले कर गए और वहां से कोरोना ले आई. अपने साथसाथ पूरे घर को ले कर डूबेगी. अच्छा, ऐसा कर नाश्ता कर ले. रसोई का सारा काम तो निबट ही चुका है,” सासुमां ऐसे बोलीं मानो कोई एहसान कर रही हों.

साढ़े 11 बज चुके थे, और भूख तो उसे भी सता रही थी. शायद न खाने से गैस बन गई हो, मीरा ने सोचा.

नाश्ता कर, कमरे में आ कर लेट गई मीरा. दर्द अभी भी हो रहा था. पेट से होतेहोते नीचे तक पहुंच रहा था. अजीब सी ऐंठन और बेचैनी थी. सोने की कोशिश करने लगी, पर सोच के ऊपर तो अनगिनत परछाइयां मंडरा रही थीं. क्या होगा जब घर में सब को पता लगेगा कि इस बार भी उस की कोख में लड़की ही है. डाक्टर से अनुरोध कर उस ने ही उन से यह झूठ बोलने को कहा था. हालांकि लड़का है या लड़की, इस की जांच कराना अवैधानिक है, पर फिर भी सबकुछ होता है. छोटे क्लीनिकों में पैसे खिला कर और अपनी जानपहचान निकाल कर समर ने इस का बंदोबस्त कर लिया था. 2 लड़कियों को गर्भ में आते ही मारने का अपराधबोध एक बोझ की तरह उस के सीने से लिपटा रहता है. कितना मना किया था उस ने, रोई थी, गिड़गिड़ाई थी, पर न समर माना था और न ही सासुमां ने उस की बात सुनी थी.

“लड़कियां हमें चाहिए ही नहीं. बस, बेटे होने चाहिए. लड़की को पढ़ाओ, खर्च करो, उस की शादी करो और उस का फायदा उठाए उस की ससुराल वाले. ससुराल वालों के नखरे सहो, सो अलग. बेकार में सारी जिंदगी खपाने का कोई शौक नहीं हमें. मैं नहीं चाहती कि मेरा समर पूरी जिंदगी लड़कियों की वजह से खटता रहे,” सासुमां के तर्क उसे भयभीत कर गए थे.

“मां, आप भी तो लड़की हैं. आप ऐसा कैसे कह सकती हैं? आप भी तो ब्याह कर इस घर में आई हैं और अपने बेटे के लिए भी तो आप भी लड़की को ही ब्याह कर लाई हैं. अगर आप के मांबाप ने आप को भी कोख में ही मार दिया होता या मुझे भी जन्म नहीं लेने दिया होता तो न ससुरजी की शादी होती और न ही समर की. लड़कियां नहीं होंगी तो लड़के कुंआरे ही रह जाएंगे. सोचिए मां, अगर आप को जन्म नहीं दिया गया होता तो… यह खयाल ही कितना पीड़ादायक है,” मीरा के ऐसा कहते ही घर में भूचाल आ गया था.

“वार्निंग दे रहा हूं तुम्हें, मां से कभी बहस करने की कोशिश मत करना,” समर की आंखों में उठती ज्वालाओं ने उस के थोड़ेबहुत साहस को राख कर दिया था. 2 बेटियां अजन्मी ही मार दी गईं और वह अपनी बेबसी पर केवल कराह ही पाई. अपनी ही कोख पर अधिकार नहीं था उसे, अपने रक्तमांस को सांस लेनेदेने का अधिकार नहीं था उसे. कोई इतना क्रूर कैसे हो सकता है वह भी जब हर तरफ बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ का शोर है. बेटियां बेटों से कहीं ज्यादा टेलेंटेड साबित हो रही हैं और हर क्षेत्र में आगे बढ़ रही हैं. यही नहीं, बेटों से कही ज्यादा पेरेंट्स का ख्याल रखती हैं, फिर भी इन लोगों की ऐसी सोच है.

मां तो चलो पुराने खयालात रखती हैं, पर समर, वे तो ऐजुकेटेड इंसान हैं, मल्टीनेशनल कंपनी में काम करते हैं जहां लड़कियों की संख्या लड़कों से कम नहीं है, वे किस तरह लड़कीलड़के में भेद कर सकते हैं यहां तक कि लिंग परीक्षण करा गर्भपात करवा सकते हैं. समर कंजर्वेटिव हैं, यह तो मीरा शादी के शुरुआती दिनों में ही जान गई थी. उस का उन्हीं के पुरुषमित्रों से बात करना या आसपड़ोस के किसी पुरुष से बात करना उन्हें अखरता था, यहां तक कि रिश्तेदारों में भी पुरुषों से उस का हंसीमजाक करना उन्हें चुभता था.

कैसे दोहरे मापदंड हैं, मीरा अकसर सोचती. एक तरफ लड़की को जन्म न दो और दूसरी ओर पुरुषों से दूरी बना कर रखो.

पर कहीं जन्म लेने के बाद उस की बेटी को मार डाला गया तो क्या होगा… मीरा कांप गई. अजन्मी बेटियां तो चली गईं, पर उस की गोद में आई बेटी अगर उस से छीन ली गई तो अपराधबोध के बोझों को क्या कभी वह अपने से अलग कर पाएगी? साहस तो जुटाना ही होगा मीरा को इस बार. उस ने जैसे खुद ही अपना मनोबल बढ़ाने की कोशिश की.

“दोपहर के खाने का वक्त हो गया है, आज हमें भूखा ही रखने का इरादा है क्या?” सासुमां दरवाजे पर खड़ी थीं. अपनी गीली आंखों को पोंछा नहीं मीरा ने. नहीं उठा जा रहा है उस से.

“मां, अस्पताल ले चलिए मुझे, लगता है समय से पहले ही बेबी हो जाएगा,” मीरा के पीले पड़ते चेहरे और उखड़ती सांस के कंपन को सुन सहम गईं कमला. कहीं इसे कुछ हो गया तो अपने वंश से भी हाथ धोने पड़ेंगे. मीरा उन्हें इस समय कुछ ज्यादा ही कमजोर लगी. शरीर से जैसे किसी ने सारा रक्त ही चूस लिया हो.

“मैं समर को फोन करती हूं,” वे बाहर भागीं.

“मैं कैब बुला लेता हूं, समर को औफिस से ही घर के सब से पास जो सरकारी अस्पताल है उस में आने को कहो,” ससुरजी की आवाज मीरा के कानों में पड़ी. वह जानती थी कि मांबेटे के सामने चाहे कुछ न बोलें, पर उस के प्रति उन के मन में कोमल संवेदनाएं थीं. कुछ जरूरी सामान रखने में सासुमां ने उस की मदद की.

कैब में बैठे वे पूरे रास्ते बड़बड़ाते रहे कि आखिर अस्पताल में मीरा को भरती किया जाएगा भी या नहीं. कोरोना के चलते अस्पताल में किसी को भी भरती नहीं किया जा रहा था. जिसे किया आ रहा था उस से बड़ी कीमत वसूली जा रही थी. दिल्ली के हालात तो वैसे भी त्रस्त थे. ऐसे में मन में कई सवाल भी उठ रहे थे और डर भी था.

घर के सब से पास वाले अस्पताल में मीरा को भरती करने से मना कर दिया गया. मीरा दर्द से कराह रही थी, तब भी उस की हालत को नजरंदाज करते हुए कहा गया कि यहां केवल कोरोना मरीजों को भरती किया जा रहा है और एक भी बैड खाली नहीं है.

वहीं समर भी आ चुका था. समर मीरा और मातापिता को ले कर दूसरे अस्पताल गया. वहां भी उन्हें यह कह कर लौटा दिया गया कि बैड खाली नहीं है.

“अरे, भगवान की दया से ही बहू को भरती कर लो, हालत तो देखो इस की,” मीरा की सास रिसेप्शन पर कहने लगीं.

““मां जी, यहां भगवान की नहीं, डाक्टर की दया चलती है. वेंटिलेटर और अन्य सवास्थ सुविधाओं से जान बचती है, भगवान का नाम जपने से नहीं. देर मत कीजिए और किसी दूसरे अस्पताल जाइए, यहां कोरोना के कई गंभीर केसेस पहले ही आए हुए हैं,” रिसेप्शनिस्ट ने कहा.

मारेमारे वे लोग तीसरे अस्पताल पहुंचे जहां किसी तरह मीरा को अस्पताल में भरती कर लिया गया. मशीन लगा कर डाक्टर ने टेस्ट किया. बच्चे की सांस चल रही थी, पर वह रिस्पौंड नहीं कर रहा था.

“तुरंत सिजेरियन करना होगा, वी कांट टेक चांस, इट्स ए प्रीमेच्योर डिलीवरी, इसलिए हो सकता है थोड़ी कौंप्लीकेटेड हो, वैसे भी, इन की मेडिकल हिस्ट्री बता रही है कि पहले 2 अबौर्शन कराए हैं आप ने,” डा. मजूमदार, जो उस समय ड्यूटी पर थे, सारी रिपोर्ट्स ध्यान से पढ़ रहे थे. हैरानी थी उन के चेहरे पर.

समर ने दबी आवाज में वहां खड़ी सिस्टर से पूछा, “कोई लेडी डाक्टर नहीं है क्या इस समय? गाइनी तो लेडी डाक्टर को ही होना चाहिए. डिलीवरी वही तो करवा सकती है. अब तक तो चेकअप लेडी डाक्टर ही करती आई है. क्या कोई लेडी डाक्टर नहीं आ सकती क्या?”

““आप का दिमाग ठिकाने तो है? कैसी बातें कर रहे हैं आप. क्या आप ने आसपास का हाल देखा है, लोग भरती होने के लिए यहांवहां भटक रहे हैं, कोरोना से पीड़ित तड़प रहे हैं. और एक तरफ आप हैं जो लेडी डाक्टर की मांग कर रहे हैं, जरा सोचसमझ कर तो बात कीजिए,”” पास खड़ी नर्स ने कहा.

यह सुन समर के चेहरे पर शर्मिंदगी के भाव झलकने लगे. वह असमंजस में पड़ गया. पास खड़े उस के पिता ने कहा, ““बेटा, इतनी मुश्किल से बहू को अस्पताल में बैड मिला है, बनीबनाई बात मत बिगाड़ो.”

मीरा की हालत बिगड़ रही थी, जिसे देख डाक्टर जल्दीजल्दी उस की रिपोर्ट देखने लगे.

“कोई प्रौब्लम थी जो वन मंथ की प्रेगनेंसी में ही दोनों बार अबौर्शन कराया गया?” डा. मजूमदार ने समर से पूछा.

“असल में बोथ वेयर गर्ल्स,” हिचकिचाहट का गोला जैसे समर के गले में फंस गया था. सच बताना और उस का सामना करना दोनों ही मुश्किल होते हैं. समर तो डा. मजूमदार को उस का चेकअप करते देख वैसे ही झल्ला रहा था. एक पुरुष जो थे वह. पर इस समय वह मजबूर था, इसलिए इस बारे में कोई शोर नहीं मचाया.

“व्हाट रबिश,” आवाज की तेजी से सकपका गए समर. 40 वर्ष के होंगे डा. मजूमदार, सांवली रंगत, आंखों पर चौकोर आकार का चश्मा, मुंह पर प्रौपर मास्क व शील्ड, और ब्लूट्राउजर व व्हाइट शर्ट के ऊपर डाक्टर वाला कोट पहना हुआ था उन्होंने. बंगाली होते हुए भी हिंदी का उच्चारण एकदम स्पष्ट व सधा हुआ था. बालों में एकदो सफेद बाल चांदी की तरह चमक रहे थे. अकसर लोगों को कहते सुना है मीरा ने कि अगर डाक्टर स्मार्ट और वेलड्रेस्ड हो तो आधी बीमारी उसे देखते ही गायब हो जाती है. यह सोच ऐसे माहौल और ऐसी हालत में भी उस के होंठों पर मुसकान थिरकी, पर मुंह पर मास्क लगे होने से किसी को दिखाई नहीं पड़ा.

“सिस्टर, औपरेशन की तैयारी करो. इन्हें अभी लेबररूम में ले जाओ और ड्रिप लगा दो. शी इज वैरी वीक एंड एनीमिक औल्सो.”

सिस्टर को हिदायत देने के बाद वे समर से बोले, “हालांकि, अभी इन बातों का टाइम नहीं है, बट आई एम शौक्ड कि आप जैसे पढ़ेलिखे लोग अभी भी लड़कालड़की में अंतर करते हैं. शादी करने के लिए आप को लड़की चाहिए, घर संभालने के लिए लड़की चाहिए और बच्चे पैदा करने के लिए. वहीं, वंश चलाने के लिए, बेटा पैदा करने के लिए भी लड़की चाहिए तो उन्हें मारते क्यों हो? जो कोख जन्म देती है, उसी की कोख में मर्डर भी कर देते हो. बहुत दुखद बात है. आई एम सरप्राइज्ड एंड शौक्ड बोथ, मिस्टर समर. इस से भी बढ़ कर वर्तमान में लोगों की हालत देखते हुए आप को अपनी पत्नी के कोरोना संक्रमित होने या बच्चे के संक्रमित होने का डर नहीं है, बल्कि इस बात की फिक्र है कि लेडी डाक्टर है या नहीं, पेट में लड़का है या नहीं.”

समर जैसे कुछ समझ नहीं रहा था या समझना नहीं चाहता था. उसे विचारशून्य सा खड़ा देख सासुमां बोलीं, “डाक्टर साहब, इस का औपरेशन तो लेडी डाक्टर से ही कराएंगे, आप उन्हें ही बुला दो. कोई तो होगी इस समय ड्यूटी पर.”

“इस समय लेडी डाक्टर कोई नहीं है, और इंतजार करने का हमारे पास समय नहीं है. आप को तो शुक्र मनाना चाहिए कि आप की बहू को ट्रीट करने के लिए कोई है. दूसरा अस्पताल ढूंढने की कोशिश या लेडी डाक्टर का वेट करने के चलते आप मांबच्चे दोनों की जान को अगर खतरे में डालना चाहते हैं तो चौयस इज योअर, पर मैं इस की इजाजत नहीं दे सकता. और मांजी, अगर आप इसी तरह लड़कियों को मारती रहेंगी तो लेडी डाक्टर कैसे होंगी? डाक्टर ही क्या, किसी भी पेशे में कोई महिला होगी ही नहीं. इट्स शेमफुल. आई डोंट अंडरस्टेंड कि एक तरफ तो आप ने बेटी को पैदा होने से पहले ही मार दिया और दूसरी ओर लेडी डाक्टर से ही डिलीवरी करवाना चाहती हैं,” डा. मजूमदार का चेहरा सख्त हो गया था.

“पर डाक्टर साहब, सुनिए तो, थोड़ी देर रुक सकें तो रुक जाएं. हो सकता है किसी लेडी डाक्टर की ड्यूटी हो. हमें तो लेडी डाक्टर से ही बहू का औपरेशन करवाना है. क्या गजब हो रहा है समर, यह…तू कुछ कह क्यों नहीं रहा और आप क्यों चुप खड़े हैं?” सासुमां कभी अपने बेटे को तो कभी अपने पति की ओर देखते हुए बड़बड़ाए जा रही थीं.

वहां मौजूद डाक्टर और नर्स समर और उस की मां के इस नाटक को देख हतप्रभ थे. देश में लोगों को यह नहीं पता कि कोरोना के कारण वे कल सुबह का सूरज देखेंगे भी या नहीं, और एक यह मांबेटे हैं जिन्हें लेडी डाक्टर का राग अलापने से फुरसत नहीं.

मीरा यह सब सुन रही थी और अंदर ही अंदर टूट रही थी, पर उसे टूटना नहीं था बल्कि मजबूत बनना था. अभी तो उसे एक और लड़ाई लड़नी थी, अपनी आने वाली बेटी की रक्षा करनी थी. जन्म होने से पहले तो मरने से उसे बचा लिया था, पर जन्म के बाद मिलने वाली पीड़ा, अवहेलना और तिरस्कार से उसे बचाना था. स्नेह, प्यार और सम्मानसब देते हुए उसे ही परवरिश करनी होगी. किसी और से उम्मीद रखना व्यर्थ है.

फिर भी, लेबररूम की ओर जाते हुए मीरा ने सांत्वना और प्यारभरे स्पर्श की उम्मीद में बड़ी आशा से समर की ओर देखा. पर वह तो चारों ओर नजरें घुमाता हुआ एक ही बात कह रहा था, “लेडी डाक्टर कहां है? उसे बुलाओ, जल्दी, हमें लेडी डाक्टर ही चाहिए.”

Best Hindi Stories : इधर उधर – क्यो पिता और भाभी के कहने पर शादी के लिए राजी हुई तनु

Best Hindi Stories : “देखो तनु, शादीब्याह की एक उम्र होती है.  कब तक यों टालमटोल करती रहोगी. यह घूमनाफिरना, मस्तीमटरगश्ती एक हद तक ही ठीक रहती है. उस के आगे ज़िंदगी की सचाइयां रास्ता देख रही होती हैं. सभी को उस रास्ते पर जाना होता है,”  जयनाथ अपनी बेटी को रोज की तरह समझाने का प्रयास कर रहे थे.

“ठीक है पापा.  बस, यह आख़िरी बार, कालेज का ग्रुप है, अगले महीने से तो कक्षाएं ख़त्म  हो जाएंगी, फिर इम्तिहान और बाद में आगे की पढाई…”

जयनाथ ने बेटी तनु की बात को सुन कर अनसुना कर दिया. वे हर रोज़ अपना काफी वक़्त तनु के लिए रिश्ता ढूंढने में बिताते. जिस गति से जयनाथ रिश्ते ढूंढढूंढ कर लाते, उस से दुगनी रफ़्तार से तनु रिश्ते ठुकरा देती.

“ये 2 लिफ़ाफ़े हैं, इन में 2 लड़कों के फोटो और बायोडाटा हैं, देख लेना.  और हां, दोनों ही तुम से मिलने इस इतवार को आ रहे हैं. मैं ने तुम से बिना पूछे ही दोनों को घर बुला लिया है. पहला लड़का अम्बर दिन में 11 बजे और दूसरा आकाश शाम को 4 बजे.” जयनाथ ने लिफ़ाफ़े टेबल पर रखते हुए कहा, ”इन दोनों में से तुम्हें एक को चुनना है.”

तनु ने अनमने ढंग से लिफ़ाफ़े खोले और एक नज़र डाल कर लिफ़ाफ़े वहीं पटक दिए. सामने देखा, भाभी खड़ी थीं. तनु बोली,  “लगता है भाभी,  इन दोनों में से एक के चक्कर में पड़ना ही पड़ेगा. आप लोगों ने बड़ा जाल बिछाया है. अब और टालना मुश्किल सा लग रहा है.”

“बिलकुल सही सोच रही हो तनु. हमें बहुत जल्दी है तुम्हें यहां से भगाने की. ये दोनों रिश्ते बहुत ही अच्छे हैं.  अब तुम्हें फैसला करना है, अम्बर या आकाश. पापामम्मी ने पूरी तहकीकात कर के ही तुम तक ये रिश्ते पहुंचाए हैं. आख़िरी फैसला तुम्हारा ही होगा.”

“अगर दोनों ही पसंद आगए तो?” तनु ने हंसते हुए कहा तो भाभी मुसकराए बगैर नहीं रह पाईं, बोलीं,  “तो कर लेना दोनों से.”

तनु सैरसपाटे और मौजमस्ती करने में विश्वास रखती थी. मगर साथ ही, वह पढ़ाईलिखाई और अन्य गतिविधियों में  भी अव्वल थी. कई संजीदा मसलों पर उस ने डिबेट के जरिए अपनी आवाज़ सरकार तक पहुंचाई थी. घर में भी देशविदेश के कई चर्चित विषयों पर अपने भैया और जयनाथ से बहस करती व अपनी बात मनवा के ही दम लेती . यह भी एक कारण था कि उस ने कई रिश्ते नामंजूर कर दिए थे.

उसे लगता था कि उस के सपनों का राजकुमार किसी फिल्म के नायक से कम नहीं होना चाहिए. हैंडसम, डैशिंग, व्यक्तित्व ऐसा कि चलती हवा भी उस के दीदार के लिए रुक जाए. ऐसी ही छवि लिए वह हर रात को सोती.  उसे यकीन था कि उस के सपनों का राजकुमार एक दिन ज़रूर उस के सामने होगा.

रविवार को भाभी ने जबरदस्ती उठा कर उसे 11 बजे तक तैयार कर दिया. लाख कहने के बावजूद, उस ने न कोई मेकअप किया न कोई ख़ास कपडे पहने. तय समय पर ड्राइंगरूम में बैठ कर सभी मेहमानों का इंतज़ार करने लगे. करीब आधे घंटे के इंतज़ार के एक गाडी आ कर रुकी और उस में से एक बुज़ुर्ग दंपती उतरे.

तनु ने फ़ौरन सवाल दाग दिया, “आप लोग अकेले ही आए हैं, अम्बर कहां है?” तनु के इस सवाल ने जयनाथ व अन्य को सकते में डाल दिया. इस के पहले कि कोई कुछ जवाब देता, एक आवाज़ उभरी, “मैं यहां हूं, मोटरसाइकिल यहीं लगा दूं?”

तनु ने देखा, तो उसे अपलक  देखते रह गई.  इतना  खूबसूरत बांका नौजवान बिलकुल उस के सपने से मिलताजुलता. उसे लगा, कहीं वह ख्वाब तो नहीं देख रही. इतना बड़ा सुखद आश्चर्य और वह भी इतना ज़ल्दी… तनु की तंद्रा तब भंग हुई जब युवक मोटरसाइकिल पार्क करने की इज़ाज़त मांग रहा था.”

“हां बेटा, जहां इच्छा हो, लगा दो,” जयनाथ ने कहा.

अम्बर ने मोटरसाइकिल लगाई और सभी घर के अंदर दाखिल हो गए. इधरउधर की औपचारिक वार्त्तालाप के बाद तनु बोल पडी, “अगर आप लोग इज़ाज़त दें तो मैं और अम्बर थोड़ा बाहर घूम आएं?”

“गाडी में चलना चाहेंगी या…” अम्बर ने पूछना चाहा, तनु फ़ौरन बोल पड़ी, “मोटरसाइकिल पर, मेरी फेवरेट सवारी है.”

थोड़ी ही देर में अम्बर की मोटरसाइकिल हवा से बातें कर रही थी. समंदर के किनारे फर्राटे से दौड़ती मोटरसाइकिल में बैठ कर तनु खुद को किसी अन्य दुनिया में महसूस कर रही थी. “नारियल पानी पीना है,”  तनु ने जोर से कहा. “पूछ रही हैं या कह रही हैं?”

“कह रही हूं, तुम्हें पीना हो तो पी सकते हो.”

अम्बर ने फ़ौरन मोटरसाइकिल घुमा दी. विपरीत दिशा से आती गाड़ियों के बीच मोटरसाइकिल को कुशलता से निकालते हुए दोनों नारियल पानी वाले के पास पहुंच गए. अम्बर ने एक सांस में ही नारियल पानी ख़त्म कर दिया और नारियल वाले को उछल कर जेब से पर्स निकाल कर पैसे दे दिए, “मैं ने अपने नारियल के पैसे दे दिए, आप अपने दे दीजिए.

तनु अवाक हो कर अम्बर को ताकने लगी.

“बुरा मत मानिएगा तनु जी, आप का मेरा अभी कोई रिश्ता नहीं है, मैं क्यों आप पर खर्च करूं?”

तनु हार मानने वालों में से नहीं थी, “और जो आप के मातापिता हमारे घर पर काजू, किशमिश और चायकौफी उड़ा रहें हैं, उस का क्या?”

“बात तो सही है. हम दिल्ली वाले हैं, मुफ्त के माल पर हाथ साफ़ करना हमें खूब आता है,” अम्बर ने हंसते हुए कहा, “चिंता न करें, मैं दोनों के पैसे दे चुका हूं, नारियल वाला छुट्टा करवाने गया है.“ अम्बर की इस बात पर तनु हंसे बगैर नहीं रह पाई.

अम्बर के जूते मिटटी में सन गए थे. उस ने पौलिश वाले बच्चे से जूते पौलिश करवाए. तब तक नारियल वाला आ चुका था.

“आप ने देशविदेश में कहां की सैर की है?” तनु ने पूछा तो मानो अम्बर के पास जवाब हाज़िर थे, “यह पूछिए कहां नहीं गया.  नौकरी ही ऐसी है, पूरा एशिया और यूरोप का कुछ हिस्सा मेरे पास है. आनाजाना लगा रहता है.”

“क्या फर्क लगता है आप को अपने देश में और परदेस में?

“इस का क्या जवाब दूं, सभी जानते हैं, हम हिंदुस्तानी कानून तोड़ने में विश्वास करते हैं. नियम न मानना हमारे लिए गर्व की बात है. वहां के तो जानवर भी कायदेकानून की हद से बाहर नहीं जाते.”

“फिर क्या होगा अपने देश का?”

“जहां तक देश का सवाल है, सबकुछ चल ही रहा है और चलता रहेगा. युवा विदेशों की तरफ भाग रहे हैं और सरकार उन्हें रोकने का कोई ठोस कार्यक्रम नहीं बना रही. अब मुंबई को ही देख लीजिए, नेता सरकार बनाने के लिए अपनी सोच और अपना दल बदलते रहते हैं और लोग अपना दिल.” एक पल के लिए रुक कर अम्बर ने एक नज़र घुमाई और फिर बोला, “ फिलहाल तो यह सोचिए कि हमारा क्या होगा, आसमान पर बादल छा रहे हैं और मेरे 10 तक की गिनती गिनने तक बरसात हमें अपनी आगोश में ले लेगी.”

‘घर तो जाना ज़रूरी है. मेरी दूसरी शिफ्ट भी है,’  तनु मन ही मन बुदबुदाई और फिर ऊंची आवाज़ में बोली, “चलते हैं. और अगर भीग भी गए तो मुझे फर्क नहीं पड़ता, मुझे बरसात में भीगना पसंद है.”

“मुझे भी,” अम्बर ने मोटरसाइकिल स्टार्ट करते हुए कहा, “ मगर, यों भीगने से पहले थोड़ा इंतजार करना अच्छा नहीं रहेगा? चलिए, पास में ही ताज के रेस्तरां में एक कप कौफ़ी हो जाए, यह मेरा रोज़ का सिलसिला है.”

तनु ने मुसकरा कर हामी भर दी. अगले चंद ही मिनटों में वे दोनों ताज के रेस्तरां में थे. अम्बर ने ऊंची आवाज़ में वेटर को आवाज़ दी और जल्दी से 2 कप कौफ़ी लाने का और्डर दिया. कौफ़ी ख़त्म कर के अम्बर ने एक बड़ा नोट बतौर टिप वेटर को दिया और दोनों बाहर आ गए. बारिश रुकने के बजाय और भी उग्र हो चुकी थी.

पूरे रास्ते तेज बरसात में भीगते हुए तनु को बहुत आनंद आ रहा था. घर पहुंचतेपहुंचते दोनों तरबतर हो चुके थे. अम्बर के मातापिता मानो उन का इंतजार ही कर रहे थे. उन के आते ही औपचारिक बातचीत कर के सभी वहां से चल पड़े.

“कैसा लगा लड़का?”  भाभी ने उतावलेपन से पूछा तो तनु ने स्पष्ट कर दिया, “भाभी, दूसरे लड़के को मना ही कर दो, कह दो मेरी तबीयत ठीक नहीं है. मुझे अम्बर पसंद है.”

“तनु, अब अगर वे आ ही रहे हैं, तो आने दो.  कुछ समय गुजार कर उन्हें रुखसत कर देना. कम से कम हमारी बात रह जाएगी.”

“लेकिन भाभी, जब मुझे अम्बर पसंद है तो इस स्वयंबर की क्या ज़रूरत है?

ठीक 4 बजे एक लंबीचौड़ी गाडी आ कर रुकी. गाडी में से एक संभ्रांत उम्रदराज़ जोड़ा और एक नवयुवक उतरा. पूरे परिवार ने बड़े ही सम्मान से उन का स्वागत किया.

तनु ने एक नज़र लड़के पर डाली और उस के मुंह से अनायास ही निकल गया, “आप सूटबूट में तो ऐसे आए हैं, मानो किसी इंटरव्यू में आए हों?” जयनाथ ने इशारे से तनु को हद में रहने को कहा.

जवाब में सब ने एक ठहाका लगाया और युवक ने बिना झिझके कहा, “आप सही कह रही हैं, एक तरह से मैं एक इंटरव्यू से दूसरे इंटरव्यू में आया हूं. दरअसल, हम यहां का कामा होटल खरीदने का इरादा बना रहे हैं. अभी उन के निदेशकों से मीटिंग थी. वह किसी इंटरव्यू से कम नहीं थी. और यह भी किसी इंटरव्यू से कम नहीं.”

तनु को कोई उत्तर नहीं सूझा. मगर, इधरउधर की औपचारिक बातें करने के वह मुख्य मुद्दे पर आ गई और उस ने कह दिया, “अगर आप लोग इज़ाज़त दें तो मैं और आकाश थोड़ा समय घर से बाहर…”

“हां ज़रूर,” लगभग सब ने एकसाथ कहा.

आकाश ने ड्राइवर से चाबी ली और तनु के लिए गाडी का दरवाज़ा खोल कर बैठने का आग्रह किया. तनु की फरमाइश पर गाड़ी ने गेटवे औफ़ इंडिया का रुख किया.  “यहां से एक शौर्टकट है, आप चाहें, तो ले सकते हैं, 15-20 मिनट बच जाएंगे.” “तनु जी, आप भूल रही हैं कि इधर नो एंट्री है,”  आकाश ने कहा. फिर, मानो उसे कुछ याद आया, बोला, “अगर आप बुरा न मानें, तो मैं रास्ते में सिर्फ 10 मिनटों के लिए होटल कामा में रुक जाऊं. वहां के निर्दशकों का मैसेज आया है, वे मुझ से मिलना चाहते हैं.”

तनु ने अनमने मन से हां कर दी. आकाश ने तनु को कौफी शौप में बिठाया. वेटर को आवाज़ दे कर कौफी और चिप्स का और्डर दिया और खुद माफी मांग कर बोर्डरूम की तरफ चला गया. ठीक 10 मिनट के बाद जब आकाश आया तो उस के चेहरे पर खुशी और विजय के भाव थे. “मेरा पहला इंटरव्यू कामयाब हुआ. यहां की डील फाइनल हो गई है. तनु जी,  आप हमारे लिए बहुत लकी साबित हुईं,” यह कह कर अम्बर ने वेटर से बिल लाने को कहा. मैनेजर ने बिल बनाने से इनकार कर दिया, बोला, “यह हमारी तरफ से.”

“नहीं मैनेजर साहब, अभी हम इस होटल के मालिक बने नहीं हैं. और बन भी जाएं, तो भी मैं नहीं चाहूंगा कि हमें या किसी और को कुछ भी मुफ्त में दिया जाए. मेरा मानना है की मुफ्त में सिर्फ खैरात बांटी जाती है और खैरात इंसान की अगली नस्ल तक को बरबाद करने के लिए काफी होती है.”

होटल के बाहर निकल कर आकाश ने तनु की ओर नज़र डाली और कहा, “बहुत दिनों से लोकल  में सफ़र करने की इच्छा थी, आज छुट्टी का दिन है, भीड़भाड़ भी कम होगी. क्यों न हम यहां से लोकल ट्रेन में चलें, फिर वहां से टैक्सी…” तनु ने अविश्वास से आकाश की ओर देखा और दोनों स्टेशन की तरफ चल पड़े.

“आप तो अकसर विदेश जाते रहते होंगे,  क्या फर्क लगता है हमारे देश में और विदेशों में?

“सच कहूं तो लंदन स्कूल औफ़ इकोनौमिक्स से डिग्री लेने के बाद मैं विदेश बहुत कम बार गया हूं. आजकल के जमाने में इंटरनैट पर सबकुछ मिल जाता है और जहां तक घूमने की बात है, यूरोप की छोटीमोटी भुतहा इमारतें, जिन्हें वे कैशल के नमूने कहते हैं और प्रवेश के लिए बीसों यूरो ले लेते हैं, उन के मुकाबले बीकानेर या जैसलमेर के महल और किले मुझे ज्यादा भव्य लगते हैं. स्विट्ज़रलैंड से कहीं अच्छा हमारा कश्मीर है, सिक्किम है, अरुणाचल है.  बस, ज़रूरत है सफाई की, सुविधाओं की और ईमानदारी की.”

“जो हमारे यहां नहीं है, है न?” तनु ने प्रश्न किया.

“आप इनकार नहीं कर सकतीं कि बदलाव आया है और अच्छी रफ़्तार से आया है. जागरूकता बढ़ी है, देश की प्रतिष्ठा बढी है, हमारे पासपोर्ट की इज्ज़त होनी शुरू हो गई है. आज का भारत कल के भारत से कहीं अच्छा है और कल का भारत आज के भारत से लाख गुना अच्छा होगा.”

“आप तो नेताओं जैसी बात करने लगे आकाश जी,” तनु को उस की बातों में कोई दिलचस्पी नहीं थी.

गेटवे के किनारे तनु ने नारियल पानी पीने की इच्छा जाहिर कर दी. दोनों ने नारियल पानी पिया.  इसी दौरान आकाश ने पास में फुटबौल खेल रहे बच्चों के साथ कुछ समय गुजारा. “बड़े दिनों बाद आज फुटबौल  पर हाथ साफ़ किया है, या यों कहूं कि पैर साफ़ किया है. हमारे क्लब में तो गोल्फ, स्क्वाश, टेनिस आदि खेल कर ही लोग खुश होते रहते हैं. शायद, यही खेल उन का परिचय है. इन्हीं खेलों की ट्रौफी उन की पहचान है,” यह कहने के साथ आकाश के चेहरे पर मुसकान थी. आकाश के जूते मिटटी से सन गए थे.  पौलिश करने वाले दोतीन बच्चों ने उसे घेर लिया और पौलिश करवाने का आग्रह करने लगे. आकाश उन सब को ले कर कोने में गया मानो उन से कोई ज़रूरी मंत्रणा करनी हो.

सही कहा गया है कि इंसान के हालात का और मुंबई की बरसात का कोई भरोसा नहीं. एक बार फिर बादलों ने पूरे माहौल को अपनी आगोश में कर लिया और चारों ओर रात जैसा अंधेरा छा गया. अगले ही पल मोटीमोटी बूंदों ने दोनों को भिगोना शुरू कर दिया. दोनों ने भाग कर पास की एक छप्परनुमा दुकान में घुस कर गरमगरम भुट्टों पर अपना हाथ साफ़ कर दिया. आकाश ने जेब से पैसे निकाले और भुट्टे वाली बुज़ुर्ग महिला के हाथ में थमा दिए. उस की नज़र उमड़ते बादलों पर ही थी. प्रश्नवाचक दृष्टि से उस ने तनु की ओर देखा और दोनों बाहर निकल गए.  टैक्सी लेने की तमाम कोशिशें नाकामयाब होने के बाद दोनों स्टेशन की ओर पैदल ही निकल पड़े. रास्ते में आकाश ने ड्राइवर को फ़ोन कर के कामा होटल से गाड़ी ले कर स्टेशन पर आने को कह दिया .

घर पहुंचतेपहुंचते रात हो चुकी थी. आकाश और उस के परिवार वालों ने इज़ाज़त मांगी. उन के जाते ही जयनाथ कुछ कहने के लिए मानो तैयार ही थे, “कितने पैसे वाले लोग हैं, मगर कोई मिजाज़ नहीं, कोई घमंड नहीं.  हम जैसे मिडिल क्लास वालों की लड़की लेना चाहते हैं. दहेज़ की मांग नहीं, यहां तक कि…”

“तो मुझे क्या करना चाहिए, अम्बर के बजाय आकाश को पसंद कर लेना चाहिए क्योंकि आकाश करोड़पति है. उस के मातापिता घमंडी नहीं हैं. वे धरातल से जुड़े हैं. और सब से बड़ी बात कि उन्हें हम, हमारा परिवार,  हमारी सादगी पसंद हैं. मेरी पसंद मैं भाभी को सुबह ही बता चुकी हूं. आकाश से मिलने के बाद मेरी पसंद में  कोई तबदीली नहीं आई है.”

“ठीक है, इस बारे में हम बाकी बातें कल करेंगे,” जयनाथ ने लगभग पीछा छुडाते हुए कहा.

रात के करीब 2 बजे तनु ने भाभी को फ़ोन मिलाया, “भाभी, मुझे आप से मिलना है. भैया तो बाहर गए हैं. ज़ाहिर है आप भी जग रही होंगी. मुझे अम्बर के बारे में कुछ बात करनी है. मै आ जाऊं?”

“तनु, मैं गहरी नींद में हूं. हम सुबह मिलें?”

“मैं तो आप के दरवाज़े पर ही हूं. गेट खोलेंगी या खिड़की से आना पड़ेगा?”

अगले ही पल तनु अंदर थी. बातों का सिलसिला शुरू करते हुए भाभी ने तनु से पूछा, “तुम मुझे अपना फैसला सुना चुकी हो. अब इतनी रात मेरी नींद क्यों खराब कर रही हो?”

“भाभी, अम्बर को फ़ोन कर के कहना है कि मैं उस से शादी नहीं कर सकती.”

“क्या?”  भाभी को लगा कि वह अभी भी नींद में ही है. पलक झपकते ही तनु ने अम्बर को फ़ोन लगा दिया, “हेलो अम्बर, मैं तनु बोल रही हूं. मैं इधरउधर की बात करने के बजाय सीधा मुद्दे पर आना चाहती हूं.”

“ठीक है, जल्दी बता दो. मैं इधर हूं या उधर.”

“इधरउधर की छोड़ो और सुनो, सौरी यार, मैं तुम से शादी नहीं कर सकती.”

“ठीक है, मगर इतनी रात को क्यों बता रही हो, सुबह बतातीं?”

“सुबह तक मेरा दिमाग बदल गया तो…? तुम हो ही ऐसे कि तुम्हें मना करना बहुत मुश्किल है.”

“अच्छा, औल द बेस्ट. अब सो जाओ और मुझे भी सोने दो. किसी उधर वाले से शादी तय हो जाए तो जगह, तारीख वगैरह बता देना, मैं आ जाऊंगा, मुफ्त का खाना खा कर चला आऊंगा.”

“मुफ्ती साहब, गिफ्ट लाना पड़ेगा.  शादी में खाली लिफ़ाफ़े देने का रिवाज़ दिल्ली में होगा, मुंबई में नहीं.”

“ठीक है, दोचार फूल ले आऊंगा. अब मुझे सोने दो. सुबह मेरी फ्लाइट है.”

भाभी, सकते में थीं.”  यह सब क्या है तनु? तुम तो अम्बर पर फ़िदा हो गई थीं. क्या आकाश का पैसा तुम्हें आकर्षित कर गया, क्या उस की बड़ी गाड़ी अम्बर की मोटरसाइकिल से आगे निकल गई?”

“भाभी, अम्बर पर फ़िदा होना स्वाभाविक है. ऐसे लड़के के साथ घूमनाफिरना मजे करना अच्छा लगेगा.  मगर शादी ऐसा बंधन है जिस में एक गंभीर, संजीदा इंसान चाहिए न कि कालेज से निकला हुआ एक हीरोनुमा लड़का. हम घर से बाहर निकले, आकाश ने पूरी शिद्दत के साथ ट्रैफिक के सारे नियमों का पालन किया. मेरे लाख कहने के बावजूद उस ने गाड़ी नो एंट्री में नहीं घुमाई.  अपने देश के बारे में उस के विचार सकारात्मक थे. उसे देश से कोई शिकायत न थी. रेस्तरां में वेटर से इज्ज़त से बात की, न कि उसे वेटर कह कर आवाज़ दी. मुफ्त का खाने के बजाय उस ने पैसे देने में अपनी खुद्दारी समझी.  बड़ी गाड़ी छोड़ कर लोकल ट्रेन में जाने में उसे कोई परहेज नहीं.  नारियल पानी पी कर उस ने नारियल एक ओर उछाला नहीं, बल्कि डस्टबिन की तलाश की. पौलिश करने वाले बच्चों को कोने में ले गया और उन्हें स्कूल जाने के लिए प्रेरित किया. सब को कौपीपेंसिल खरीदने के लिए पैसे दिए. भुट्टे वाली माई को उस ने जब मुट्ठीभर के पैसे दिए तो उस का सारा ध्यान इस पर था कि मैं कहीं देख न लूं. इतने पैसे उस भुट्टे वाली ने एकसाथ कभी नहीं देखे होंगे… इतने  संवेदनशील व्यक्तित्व के मालिक के सामने मै एक प्यारे से हीरो को चुन कर जीवनसाथी बनाऊं, इतनी बेवकूफ मैं लगती ज़रूर हूं मगर हूं नहीं..”

भाभी, सिर पर हाथ रख कर बैठ गईं.

“क्या सिरदर्द हो रहा है?”

“ नहीं, बस, चक्कर से आ रहे हैं.”

“रुको, अभी सिरदर्द भी हो जाएगा,” तनु ने कहा तो भाभी बोल पड़ीं, “अब क्या बाकी है?”

तनु ने फ़ोन उठाया और एक नंबर मिलाया, “हेलो आकाश,  मैं ने फैसला कर लिया है, मुझे आप पसंद हैं. मैं आप से शादी करने को तैयार हूं. मुझे पूरा यकीन है कि मैं भी आप को पसंद हूं.”

“तुम ने फैसला ले कर मुझे बताने का समय जो चुना वह वाकई काबिलेतारीफ़ है,” दूसरी ओर से आवाज़ आई.

“है न, मगर भाभी इस बात को मानती ही नहीं. देखो, मुझे धक्के मार कर अपने कमरे से बाहर निकालने को उतारू हैं…”

Moral Stories in Hindi : नासमझी

Moral Stories in Hindi :  घड़ी पर नजर पड़ते ही नाइशा बैग उठा कर तुरंत घर से बाहर निकल गई. तभी पीछे से विवान ने आवाज दी, ‘‘लौटते समय घर का कुछ सामान लाना है.’’

‘‘विवान कितनी बार कहा है जाते समय  यह सब मत बताया करो.’’

‘‘तुम्हें फुरसत ही कहां रहती है बात करने की,’’ विवान बोला.

नाइशा इस समय इन बातों में उलझना नहीं चाहती थी. अत: बोली, ‘‘ठीक है मुझे मैसेज कर लिस्ट भेज देना आते हुए ले आऊंगी,’’ और गाड़ी स्टार्ट कर घर से निकल गई.

नाइशा को विवान पर झुंझलाहट हो रही थी जो अकसर घर से निकलते हुए उसे इसी तरह से सामान के बहाने रोक दिया करता था. उसे यह जरा भी अच्छा न लगता. रास्तेभर वह विवान पर झुंझलाती रही. गनीमत थी वह सही समय पर औफिस पहुंच गई. पार्किंग में गाड़ी खड़ी कर वह सीधे अपने कैबिन में पहुंची. उस की सांसें अभी तक फूल रही थी. उस ने बैग मेज पर रखा और सीट पर आराम से पसर गई.

सामने की सीट पर बैठी रूही उसे ध्यान से देख रही थी. रूही उस की सीनियर थी. थोड़ी देर बाद रिलैक्स हो कर उस ने बैग खोल कर चश्मा निकाला और अपने काम पर लग गई.

तभी विवान ने उसे मैसेज कर दिया. घर के कुछ जरूरी सामान के अलावा उस में उस का अपना भी कुछ सामान लिखा हुआ था. उसे पढ़ कर उस की खीज और बढ़ गई. वह बड़बडाई, ‘‘हद होती है.विवान अपने लिए रेजर तक भी खुद नहीं ला सकता. वह भी उसे ही ले कर जाना होता है.’’

रूही कई दिनों से नोटिस कर रही थी कि नाइशा हमेशा इसी तरह भागती दौड़ती औफिस आती और यहां आते ही थोड़ी देर के लिए कुरसी पर पसर जाती फिर उस के बाद काम शुरू करती.

तभी मोहन चाय ले कर आ गया. रूही ने उसे अपना कप भी नाइशा की मेज पर रखने का इशारा किया और उठ कर उस के पास आ गई.

‘‘सबकुछ ठीक तो है नाइशा? देख रही हूं औफिस में घुसते हुए तुम्हारे चेहरे पर बड़ा तनाव रहता है. ऐसी हालत में तुम गाड़ी चला कर आती हो. तुम्हें अपना खयाल रखना चाहिए.’’

रूही बोली तो नाइशा अपने को रोक नहीं सकी, ‘‘पता नहीं क्यों हमेशा औफिस आते हुए विवान मु?ो किसी ने किसी काम के बहाने रोक देते हैं. इस से मु?ो देर हो जाती है और मेरी खीज भी बढ़ जाती है.’’

‘‘उन की बात का बुरा नहीं मानना चाहिए. छोटीछोटी बातों पर इसी तरह ब्लड प्रैशर बढ़ाओगी तो काम कैसे चलेगा?’’

‘‘विवान दिनभर घर पर रहते हैं. वर्क फ्रौम होम करते हैं. मुझे औफिस आना होता है. उस के बावजूद घर के सब काम मुझे ही देखने होते हैं. वे काम में मेरा जरा भी हाथ नहीं बंटाते. यहां तक कि दोपहर का लंच भी मुझे ही बना कर आना होता है.’’

‘‘आज के समय में गृहस्थी पतिपत्नी दोनों मिल कर चलाते हैं. तुम दोनों एकदूसरे को कब से जानते हो?’’

‘‘हम एकसाथ कालेज में पढ़ते थे. हमारी दोस्ती बहुत पुरानी है. इंजीनियरिंग करते ही हम ने घर वालों की मरजी के खिलाफ शादी कर ली. वे अपने घर का इकलौता बेटे हैं. मैं 3 भाईबहनों में सब से छोटी हूं. मुझे घर पर मम्मी के साथ काम करने की आदत थी लेकिन विवान को नहीं. शुरूशुरू में मैं ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया और सब काम खुद ही निबटा लेती थी. मुझे उन के लिए काम करना अच्छा लगता था. नौकरी की शुरुआत के साथ ही कोरोना आ गया और हम दोनों वर्क फ्रौम होम करने लगे. घर पर रह कर मैं औफिस के काम के साथ घर को भी अच्छे से देख लेती थी. अब जब महामारी खत्म हो गई तो मुझे औफिस आना पड़ता है. वे अभी भी घर से काम करते हैं. इस से मेरी भागदौड़ काफी बढ़ गई है. यह बात वे नहीं समझते.’’

‘‘थोड़ा सब्र रखो नाइशा. कुछ समय बाद वे भी औफिस जाने लगेंगे तो तुम्हारी जिंदगी फिर से पटरी पर आ जाएगी और तुम्हारी परेशानी दूर हो जाएगी,’’ रूही बोली.

उस की बातों से नाइशा को थोड़ी तसल्ली मिली. वे दोनों हमउम्र तो नहीं थीं लेकिन रूही उस का काफी खयाल रखती थी. नाइशा औफिस से घर जाते हुए बाजार की खरीदारी करती हुई जाती. सागसब्जी से ले कर घर का दूसरा सारा सामान उसे ही लाना पड़ता था. इस के अलावा विवान को जो कुछ चाहिए होता उसे लेने भी वह घर से बाहर न निकलता. उस ने कई बार यह बात उठाई भी लेकिन उस ने इस पर ध्यान नहीं दिया.

‘‘नाइशा तुम जानती हो घर से काम करते हुए मैं जरा देर के लिए भी कंप्यूटर के आगे से हट नहीं सकता. कम से कम तुम औफिस के बहाने घर से बाहर तो निकल जाती हो और 4 लोगों से मिल कर अपना मन भी हलका कर लेती हो. मुझे दिनभर स्क्रीन के सामने बैठे रहना होता है. तुम मार्केट से हो कर आती हो. यह काम भी कर लोगी तो क्या फर्क पड़ जाता है.’’

‘‘समझा करो विवान सुबह नाश्ते से ले कर रात डिनर तक सबकुछ मुझे ही देखना पड़ता है.’’

‘‘मैं ने तो कहा था किसी बाई को खाना बनाने के लिए रख लेते हैं लेकिन तुम इस के लिए राजी नहीं हुईं. तुम्हें काम भी अपने सामने ही चाहिए और वह भी तुम्हारे हिसाब से. भला ऐसे में कैसे काम चलेगा? दूसरे से काम लेना है तो भरोसा तो करना होगा. तुम्हें किसी पर भरोसा भी नहीं रहता. न मुझ पर न काम वालों पर.’’

विवान बोला तो नाइशा चुप हो गई. यह बात सच थी कि वह पीठ पीछे किसी और औरत को घर पर नहीं आने देना चाहती थी. कौन जाने दूसरे की नियत कैसी हो? यही सोच कर उसने किसी कामवाली को खाना बनाने के लिए नहीं रखा था. विवान स्वभाव से थोड़ा चंचल भी था. हर किसी से घुलमिल कर बात करता. यह बात उसे पसंद नहीं थी. घर पर बरतन धोने और साफसफाई के लिए मुन्नी सुबह 7 बजे आ जाती थी और उस के जाने से पहले काम खत्म कर लेती थी. वह उसे भी केवल एक समय सुबह अपने सामने बुलाती.

घर और नौकरी के चक्कर में नाइशा पर काफी बोझ पड़ रहा था. विवान को बचपन से काम की आदत नहीं थी. वह अभी भी इस परिपाटी को निभा रहा था. वे दोनों बराबर कमाते थे. घर के काम उस की हर खुशी के बीच रुकावट बने हुए थे. जब उस का मन शाम को घर पर काम करने का न होता तो वे दोनों किसी रैस्टोरैंट में खाना खाने चले जाते. उन दोनों के पेमैंट के काम बंटे हुए थे .घर का किराया और उस से संबंधित बिल विवान देखते थे और खानेपीने का सारा खर्चा नाइशा उठाती थी. रोजरोज बाहर खाना उस के बजट से बाहर था. उसे समझ नहीं आ रहा था वह अपनी समस्या कैसे सुलझाए?

इस बात को ले कर उन के बीच का आपसी प्यार भी कम होता जा रहा था. नाइशा को औफिस से लौट कर घर के कामों से फुरसत न मिलती और विवान उस की समस्या को कोई तवज्जो नहीं दे रहा था. नाइशा चाहती थी उस के औफिस में भी काम शुरू हो जाए तो कम से कम वह भी घर से बाहर निकल कर उस के कुछ कामों में हाथ बंटा दे लेकिन अभी वह स्थिति नहीं आई थी. पता नहीं कितने समय तक यह सब और चलने वाला था. कभीकभी वह रूही से अपने मन की बात कह कर थोड़ा हलका हो जाती थी. इस के अलावा उसने अपनी परेशानी किसी और के साथ शेयर नहीं की थी.

एक दिन औफिस के काम से रूही और नाइशा को दूसरे औफिस जाना था. उन्हें लंच तक लौटने की उम्मीद थी लेकिन वक्त थोड़ा ज्यादा लग गया.

लौटते हुए रास्ते में रूही बोली, ‘‘मेरा घर पास में ही है. वहां से होते हुए चलते हैं. कुछ खा लेंगे वरना पूरा दिन औफिस में भूखा रहना पड़ेगा.’’

नाइशा ने उस की बात का विरोध नहीं किया. फ्लैट में पहुंचते ही घंटी की एक आवाज पर दरवाजा खुल गया. सामने एक दुबलापतला स्मार्ट आदमी खड़ा था. औपचारिकतावश उस ने हाथ जोड़ दिए. वह उन के लिए पानी ले आया.

‘‘हमें जल्दी वापस जाना है.’’

‘‘मैं ने डाइनिंगटेबल पर खाना लगा दिया है. आप दोनों आराम से लंच कर सकते हैं.’’

दोनों जल्दी से हाथ धो कर लंच करने लगीं. खाना बहुत स्वादिष्ठ था. रूही ने घड़ी पर नजर डाली और बोली, ‘‘चलते हैं वरना औफिस पहुंचने में देर हो जाएगी.’’

कुछ ही देर में वे औफिस में पहुंच गए. जरूरी डौक्यूमैंट सबमिट कर वे अपने कैबिन में आ गए.

नाइशा असमंजस मे थी कि दोपहर में रूही के घर पर कौन था? बात आगे बढ़ाने के लिए बोली, ‘‘लंच बहुत लजीज बना था.’’

‘‘पार्थ बहुत अच्छा खाना बनाते हैं.’’

‘‘आप ने घर में कुक रखा है,’’

यह सुन कर रूही हंसने लगी, ‘‘शायद तुम ने पहचाना नहीं पार्थ मेरे पति हैं.’’

यह सुन कर नाइशा सकपका गई. उसे सपने में भी उम्मीद नहीं थी कि भरे बदन की रूही के पति दुबले, पतले और स्मार्ट होंगे.

‘‘तुम ने परिचय ही नहीं कराया इसलिए धोखा हो गया.’’

‘‘जल्दबाजी में भूल गई. मैं ने उन्हें सुबह ही बता दिया था कि अगर मीटिंग में टाइम लगा तो हम दोनों खाना खाने दोपहर में घर आएंगे. बस उन्होंने हमारे लिए अच्छा लंच तैयार कर दिया.’’

इस से ज्यादा कुछ पूछने की नाइशा की हिम्मत नहीं हो रही थी.

रूही बोली, ‘‘यह तो तुम भी जानती हो पार्थ एक मल्टी नैशनल कंपनी में काम करते हैं. आजकल वे भी वर्क फ्रौम होम कर रहे हैं. वे मेरा बहुत खयाल रखते हैं. घर का सारा काम वही देखते हैं. मु?ो घर की कोई परवाह नहीं रहती.’’

‘‘एक इंजीनियर हो कर उन्होंने यह सब कहां सीखा?’’

‘‘मेरी सासूमां ने पार्थ को यह सब सीखने के लिए प्रेरित किया. वे एक सम?ादार महिला हैं. वे जानती हैं जब पतिपत्नी दोनों नौकरी करते हैं तो घर के काम भी दोनों को मिल कर करने चाहिए. जब हम दोनों वर्क फ्रौम होम कर रहे थे तब वे हमारे साथ थीं. उन्होंने ही पार्थ को यह सब करना सिखाया. उसी की बदौलत आज हमारी गृहस्थी बहुत अच्छी चल रही है.’’

‘‘आप ने यह सब पहले नहीं बताया?’’

‘‘इस की जरूरत ही नहीं पड़ी. मैं अपनी नौकरी और परिवार दोनों से संतुष्ट हूं.’’

‘‘मेरे ओर से उन से माफी मांग लीजिएगा. मैं उन्हें पहचान नहीं पाई.’’

‘‘अकसर लोगों को धोखा हो जाता है इसलिए मैं ने भी इस की जरूरत नहीं समझ.’’

थोड़ी देर बातें करने के बाद वे अपने काम में मशगूल हो गए. नाइशा सोच भी नहीं सकती थी कि जिस के सामने वह अपने हालात का दुखड़ा रोती थी उन के घर में ठीक उस के विपरीत परिस्थितियां हैं. वहां काम को ले कर कोई तनाव ही नहीं.

नाइशा अब अपनी तुलना रूही से करने लगी. दोनों के हालात में जमीनआसमान का अंतर था. उसे अफसोस हो रहा था कि वह बेकार में ही अपनी रोज की परेशानी रूही को बताती. उसे इन सब से कुछ भी लेनादेना नहीं था. वह उस के दर्द का एहसास कर ही नहीं सकती थी. फिर भी उस ने अपनी ओर से कभी यह बात उसे महसूस नहीं होने दी.

उस दिन से नाइशा ने अपने घर की बातें रूही के साथ बांटना कम कर दिया. यह बात रूही को अच्छी नहीं लग रही थी लेकिन वह उसे कुरेद कर कुछ पूछने के पक्ष में नहीं थी. वह चाहती थी नाइशा और विवान की गृहस्थी ठीक से पटरी पर आ जाए लेकिन परिस्थितियां उस का साथ नहीं दे रही थीं.

एक दिन घर से निकलते हुए जब विवान ने नाइशा को टोका तो वह अपने को काबू में न रख सकी और फट पड़ी, ‘‘बहुत हो गया विवान. अब मेरी सहनशक्ति जवाब देने लगी है.’’

‘‘ऐसा क्या कर दिया मैं ने?’’

‘‘अपनेआप से पूछो. तुम और मैं दोनों बराबर कमाते हैं. इस के बावजूद इस घर में मेरी स्थिति क्या है और तुम्हारी क्या?’’

‘‘मुझे तो कोई अंतर नजर नहीं आता. जो कुछ तुम पहले करती थीं वही आज भी कर रही हो. कोई नई बात तो नहीं है. मैं ने अपने परिवार वालों का बोझ भी तुम पर नहीं डाला हुआ है,’’ विवान बोला.

नाइशा बोलना तो बहुत कुछ चाहती थी लेकिन उसे औफिस के लिए देर हो रही थी.

‘‘शाम को बात करती हूं,’’ कह कर वह एक झटके में कमरे से बाहर निकल गई.

आज उस का मूड बहुत ज्यादा खराब था. औफिस जा कर भी वह उस के चेहरे पर साफ दिखाई दे रहा था. उस का जी रोने का कर रहा था लेकिन कोई ऐसा कंधा नहीं था जिस पर सिर रख कर वह अपने अंदर का गुबार निकाल सके.

उस की हालत देख कर रूही से न रहा गया. वह उस के पास आ कर बोली, ‘‘बड़ी अपसैट लग रही हो नाइशा?’’

‘‘अब मेरे हालात बरदाश्त की सीमा से बाहर हो रहे हैं. सबकुछ सहना मुश्किल होता जा रहा है. सम?ा नहीं आ रहा क्या करूं?’’

‘‘मेरी एक सलाह है. कुछ दिनों के लिए तुम दोनों कहीं घूमने चले जाओ. एकसाथ समय बिताओगे और पुराने समय को याद करोगे तो तुम्हें अच्छा महसूस होगा. तुम्हारे रिश्ते में फिर से ताजगी आ जाएगी.’’

‘‘पता नहीं विवान इस के लिए राजी होंगे या नहीं.’’

‘‘छुट्टी की प्रौब्लम है तो शनिवार और रविवार 2 दिन ऐंजौय कर सकती हो. दूर नहीं नजदीक चली जाओ. माहौल बदलेगा तो तुम्हारे अंदर की कुंठा भी दूर हो जाएगी.’’

‘‘तुम ठीक कहती हो रूही. मैं बात कर के देखती हूं.’’

‘‘अगर पास में जाना है तो यहां से 100 किलोमीटर दूर मेरा कजिन डेली लाइट होटल में मैनेजर है. मैं उस से कह कर बड़ा डिस्काउंट भी दिलवा दूंगी. तुम दोनों आराम से कुछ समय साथ बिताना. देखना तुम्हारा मन पहले की तरह खिल उठेगा.’’

नाइशा को रूही की सलाह अच्छी लगी.

‘‘मैं कोशिश करती हूं कि विवान 2 दिन के लिए ही सही इस माहौल से दूर घूमने के लिए राजी हो जाएं.’’

‘‘तुम प्यार से कहोगी तो वे मान जाएंगे. मैं आरव को फोन कर के बता दूंगी. तुम बिलकुल चिंता मत करना. अच्छी जगह पर रह कर क्वालिटी टाइम बिताना. सबकुछ ठीक हो जाएगा.’’

रूही की बातों से उसे बड़ा सहारा मिला. काम के दौरान वह सुबह वाली बात भूल गई. शाम को घर आ कर रोज की तरह काम निबटाते हुए बोली, ‘‘बहुत दिनों से हम कहीं बाहर नहीं गए. इस वीकैंड पर दूसरे शहर चलते हैं.’’

‘‘मैं भी सोच रहा था हमें एकदूसरे के साथ वक्त बिताना चाहिए. घर पर रह कर माहौल दूसरा ही हो जाता है. यहां काम के अलावा कुछ दिखाई नहीं देता. कल शुक्रवार को निकल पड़ते हैं.’’

नाइशा की उम्मीद के विपरीत विवान तुरंत जाने के लिए तैयार हो गया. उस ने भी भले काम में देर नहीं की और रूही के बताए हुए होटल में 2 दिन बिताने का मन बना लिया. उस ने होटल में फोन कर कमरा बुक कर दिया. आरव ने उस की खबर रूही को दे दी. यह सुन कर वह खुश हो गई.

‘‘पार्थ चलो हम आरव से मिल कर आते हैं.’’

‘‘अचानक तुम्हें यह क्या सूझ?’’

‘‘वह कई दिनों से कह रहा था. सोच रही हूं इस वीकैंड पर मिलने चलते हैं.’’

पार्थ रूही की इच्छा का हमेशा आदर करता. वह बोला, ‘‘तुम चाहती हो तो मैं अभी से तैयारी कर देता हूं.’’

दोनों ने वहां जाने की तैयारी कर ली. रूही ने यह बात नाइशा को नहीं बताई. शनिवार सुबह रूही और पार्थ को होटल के लान में बैठा देख कर नाइशा चौंक गई, ‘‘रूही तुम यहां?’’

‘‘आरव बहुत समय से बुला रहा था. कल उस का बर्थडे था. मैं ने सोचा उसे सरप्राइज दे दूंगी. तुम ने भी तुरंत प्रोग्राम बना लिया.’’

‘‘हां विवान तैयार हो गए थे. मैं ने भी देर करना ठीक नहीं सम?ा.’’

वे दोनों बात करने लगे. तभी रूही बोली, ‘‘पार्थ ये नाइशा के हस्बैंड हैं विवान और ये मेरे.’’

दोनों का परिचय करा कर वह एक तरफ हो गईं.

थोड़ी देर में उन के लिए आरव ने चाय और स्नैक्स लान में ही भिजवा दिए. वे चाय के साथ स्नैक्स का मजा लेने लगे.

तभी पार्थ बोले, ‘‘मुझे स्नैक्स में कौर्न फ्लोर ज्यादा लग रहा है.’’

यह सुन कर विवान चौंक गया.

‘‘लगता है तुम्हारी खाने पर बड़ी अच्छी पकड़ है.’’

‘‘होगी क्यों नहीं. आखिर घर में कई डिशेज मैं ही बनाता हूं. तुम ने कभी कुछ किचन में ट्राई किया है?’’

‘‘मैं इस ?ामेले से दूर ही रहता हूं.’’

‘‘झमेला कैसा? मुझे खाना बनाने में बड़ा मजा आता है. मैं दिनभर घर पर रह कर औफिस का काम करता हूं. थोड़ी देर दिमाग शांत करने के लिए अपने लिए नईनई डिशेज बनाता हूं और जो अच्छी बन जाती है उसे वह रूही को भी खिलाता हूं. मैं पूछना भूल गया आप कहां काम करते हैं?’’

‘‘मैं भी एक मल्टीनैशनल कंपनी में इंजीनियर हूं. आजकल वर्क फ्रौम होम कर रहा हूं.’’

‘‘तब तो हम दोनों की बहुत अच्छी जमेगी. हमारी पत्नियां औफिस में जा कर काम करती हैं और हम दोनों घर से.’’

उन दोनों को घुलमिल कर बात करते देख कर रूही नाइशा के साथ एक तरफ आ गई. रूही बोली, ‘‘तुम्हारा जब मन करे यहां आ सकती हो. आरव बहुत नेक इंसान है. वह तुम्हारा भी वैसा ही खयाल रखेगा जैसे हमारा रखता है.’’

थोड़ी देर बातें करने के बाद वे अपने रूम में आ गए थे. विवान को पार्थ से मिल कर अच्छा लगा. दोपहर में लंच के समय वे सब फिर इकट्ठा हो गए और साथ मिल कर लंच का मजा ले रहे थे.विवान को एहसास हो रहा था कि पार्थ उसी की तरह घर से काम करते हुए भी रूही का बहुत खयाल रखते हैं. उसे लगा जैसे वह नाइशा के साथ नाइंसाफी कर रहा है. वह बोला, ‘‘पार्थ तुम ने यह सब कहां से सीखा?’’

‘‘मम्मी ने सिखाया है.’’

‘‘आंटी को बुरा नहीं लगता जब तुम किचन में काम करते हो?’’

‘‘बिलकुल नहीं. वे कहती हैं घरगृहस्थी तभी ठीक चलती है जब उस के दोनों पहियों पर बराबर बो?ा हो. एक पर ज्यादा भार पड़ेगा तो गृहस्थी की गाड़ी लड़खड़ाने लगेगी. इसीलिए उन्होंने मु?ो यह सब करने के लिए प्रेरित किया. मेरी गृहस्थी बहुत अच्छी चल रही है. रूही भी खुश है और हमारे घर वालों को हम से कोई अपेक्षा नहीं है. वे हमें खुश देख कर बहुत संतुष्ट रहते हैं.’’

‘‘आंटी की सोच वक्त से बहुत आगे

की है.’’

‘‘एक राज की बात बताऊं. वे ज्यादा पढ़ीलिखी नहीं है लेकिन दुनियादारी अच्छी तरह समझती हैं. उन्होंने मुझे साधारण खाना बनाना सिखाया था. उस के बाद मैं ने औनलाइन कुकिंग क्लास जौइन की और आज देखो इंजीनियरिंग के साथसाथ कुकिंग में भी ऐक्सपर्ट बन गया.’’

‘‘मेरा ध्यान कभी इस तरफ गया ही नहीं.’’

‘‘तो अब ले जाओ. जानते हो यह पार्टनर को खुश रखने का मूल मंत्र है. खुशी का रास्ता पेट से हो कर जाता है.’’

‘‘मैं तुम्हारी बात का ध्यान रखूंगा.’’

‘‘तुम नाइशा के साथ ज्यादा समय बिताओ वरना उसे लगेगा  नया दोस्त मिलते ही तुम उसे इग्नोर कर रहे हो.’’

‘‘वह ऐसी नहीं है. सब की भावनाओं की कद्र करती है.’’

‘‘तुम्हें भी उस की भावनाओं की इज्जत करनी चाहिए,’’ पार्थ बोला.

लंच कर के वे अपने रूम में आ गए. रूही ने भी नाइशा को यही सलाह दी कि विवान के साथ ज्यादा से ज्यादा समय बिताए जिस से उन के बीच की गलतफहमियां दूर हो सकें.

2 दिन कब बीत गए पता ही नहीं चला. इतवार की शाम वे वापस अपने घर आ गए. रूही और पार्थ अगली सुबह आने वाले थे. नाइशा को खुश देख कर विवान को अच्छा लग रहा था. रूही भी घर से बाहर 2 दिन बिता कर खुश थी. पार्थ ने अपने तरीके से विवान को गृहस्थी को पटरी पर लाने का मूल मंत्र दे दिया था. रूही ने इस बारे में पार्थ को कुछ नहीं बताया था.

घर आ कर नाइशा किचन में डिनर की तैयारी करने लगी तो विवान बोला, ‘‘मैं तुम्हारी क्या मदद कर सकता हूं नाइशा?’’

यह सुन कर वह चौंक गई. इस समय पुरानी बात छेड़ कर उस की भावनाओं को ठेस पहुंचाना उस ने ठीक नहीं समझ.

‘‘ज्यादा कुछ नहीं फ्रिज से निकाल कर सलाद काट दो. तब तक मैं कुछ बना लेती हूं.’’

‘‘हलकाफुलका बनाना. अभी

ज्यादा खाने की कुछ इच्छा भी नहीं है,’’ विवान बोला.

वह बड़ी देर तक पार्थ और रूही की बातें करता रहा. उसे पार्थ का व्यक्तित्व बहुत अच्छा लगा और वह उस से प्रभावित भी था. नाइशा भी इस समय अपनेआप को सहज महसूस कर रही थी. रोज घर और औफिस के रूटीन से 2 दिन के लिए बाहर निकल कर उसे अच्छा लगा था. आरव ने इतने अच्छे होटल के उन से बहुत कम चार्ज लिए. यह भी उन के लिए एक अच्छी बात थी.

‘‘मुझे लगता है रूही तुम्हारी बहुत अच्छी फ्रैंड है. तुम्हें अच्छी तरह समझती है.’’

‘‘वह मेरी सीनियर है. इसे संयोग ही कहेंगे कि वह भी तुम्हें वहां मिल गई.’’

‘‘मैं ने उसे अपने प्रोग्राम के बारे में कुछ नहीं बताया था. अचानक वह भी आरव से मिलने वहां आ गई. इसी बहाने तुम्हारी पार्थ से भी मुलाकात हो गई.’’

‘‘वह बहुत जिंदा दिल इंसान है. जिंदगी को बहुत बारीकी से समझता है. उसे सब को खुश रखने की कला आती है,’’ विवान बोला.

डिनर खत्म कर वे आराम करने लगे. अगली सुबह नाइशा को औफिस जाना था. सुबह अलार्म के साथ उठी. वह यह देख कर चौंक गई जब विवान उस के लिए बैड टी मेज पर रख गए थे. अभी तक वही रोज सुबह उस के लिए  नहाधो कर बैड टी बनाती थी. विवान को देर से उठने की आदत थी.

‘‘तुम कब उठे?’’

‘‘थोड़ी देर पहले उठा हूं. सोचा तुम्हारे लिए चाय बना दूं तुम्हें अच्छा लगेगा. मुझे ज्यादा कुछ करना नहीं आता है लेकिन विश्वास रखो धीरेधीरे सब सीख जाऊंगा.’’

विवान में आए परिवर्तन को देख कर नाइशा अचकचा गई थी. चाय खत्म कर वह किचन में आ कर नाश्ते की तैयारी करने लगी.

विवान बोले, ‘‘दोपहर में लंच मैं खुद बना लूंगा. उस की चिंता मत करना.’’

‘‘लेकिन.’’

‘‘इंजीनियर हूं. बहुत कुछ बना लेता हूं. खाना बनाना कौन सा मुश्किल काम है कोई परेशानी आएगी तो पार्थ से पूछ लूंगा. वह इस काम में माहिर है.’’

विवान के कहने पर नाइशा ने इत्मीनान से नाश्ता किया और औफिस के लिए तैयार होने लगी. आज विवान ने उसे जाते समय टोका नहीं. वह समय से औफिस पहुंच गई. उस का खिला हुआ चेहरा देख कर रूही को बड़ा अच्छा लगा.

आते ही वह बोली, ‘‘रूही गजब हो गया. आउटिंग से आ कर विवान एकदम बदल गए हैं,’’ इतना कह कर उस ने सुबह और कल शाम की घटनाएं उसे बता दीं.

‘‘तुम निश्चिंत रहो. धीरेधीरे वे तुम्हारी हरसंभव मदद करने लगेंगे. वे अच्छे इंसान हैं लेकिन उन्हें जिंदगी का अनुभव थोड़ा कम है इसीलिए वे तुम्हारी भावनाओं को नहीं समझ सके.’’

‘‘मैं तुम्हारा धन्यवाद कैसे करूं. इतनी अच्छी सलाह दे कर तुम ने मेरी जिंदगी बदल दी.’’

‘‘धन्यवाद मुझे नहीं पार्थ को दो जिस ने उन का ब्रेन वाश किया है.’’

‘‘तो क्या तुम ने उसे सबकुछ बता दिया था?’’

‘‘नहीं नाइशा मैं ने उसे कुछ नहीं बताया लेकिन वह गृहस्थी और जिंदगी दोनों को बहुत अच्छे से हैंडल करना जानता है. उस ने अपनी खुशी का मूल मंत्र उसे भी समझाया और विवान समझ गए.’’

‘‘सच में बड़ी बहन की तरह तुम ने मेरी बहुत बड़ी समस्या हल कर दी रूही.’’

‘‘ऐसा नहीं सोचते,’’ कह कर रूही अपने काम पर लग गई.

शाम को उस के घर पहुंचने से पहले घड़ी देख कर विवान ने चाय तैयार कर दी

थी और साथ में ब्रैड सेंक कर रख दिए.

‘‘तुम ने परेशानी क्यों उठाई विवान?’’

‘‘इस में परेशानी कैसी? मुझे माफ कर दो नाइशा मैं पहले तुम्हारी परेशानी नहीं समझ सका. किसी ने मुझे इतने अच्छे ढंग से बताया ही नहीं जैसे पार्थ ने समझाया. उन की खुशहाल गृहस्थी देख कर मुझे लगा कि वह धरती का सब से खुशहाल जोड़ा है. मैं भी अपनी जिंदगी को खुशहाल बनाना चाहता हूं. अनजाने में मैं ने तुम्हारे ऊपर घर का सारा बोझ डाल रखा था. कोशिश करूंगा वह जल्दी कम हो जाए.’’

यह सुन कर नाइशा भावुक हो कर विवान केसीने से लग गई. उस की आंखों से आंसू बहने लगे थे. विवान उन्हें प्यार से पोंछने लगा.

नाइशा बोली, ‘‘शायद मुझे तुम्हें समझना नहीं आया वरना यह समस्या बहुत पहले खत्म हो जाती.’’

‘‘कोई बात नहीं. हम दोनों ने अपनी नासमझ की वजह से जो वक्त खराब किया है उस की कसर जल्दी पूरी कर देंगे,’’ विवान बोला.

नाइशा के सारे शिकवेशिकायत दूर हो गए थे. वह मन ही मन रूही और पार्थ का धन्यवाद कर रही थी जिन्होंने इतनी सहजता से उस की जिंदगी की सब से बड़ी मुश्किल हल कर दी थी.

 राइटर-   डा. के. रानी

Famous Hindi Stories : मैली लाल डोरी – अपर्णा ने गुस्से में मां से क्या कहा?

Famous Hindi Stories :  रविवार होने के कारण अपर्णा सुबह की चाय का न्यूज पेपर के साथ आनंद लेने के लिए बालकनी में पड़ी आराम कुरसी पर आ कर बैठी ही थी कि उस का मोबाइल बज उठा. उस के देवर अरुण का फोन था.

‘‘भाभी, भैया बहुत बीमार हैं. प्लीज, आ कर मिल जाइए,’’ और फोन

कट गया.

फोन पर देवर अरुण की आवाज सुनते ही उस के तनबदन में आग लग गई. न्यूजपेपर और चाय भूल कर वह बड़बड़ाने लगी, ‘आज जिंदगी के 50 साल बीतने को आए, पर यह आदमी चैन से नहीं रहने देगा. कल मरता है तो आज मर जाए. जब आज से 20 साल पहले मेरी जरूरत नहीं थी तो आज क्यों जरूरत आन पड़ी.’ उसे अकेले बड़बड़ाते देख कर मां जमुनादेवी उस के निकट आईं और बोलीं, ‘‘अकेले क्या बड़बड़ाए जा रही है. क्या हो गया? किस का फोन था?’’

‘‘मां, आज से 20 साल पहले मैं नितिन से सारे नातेरिश्ते तोड़ कर यहां तबादला करवा कर आ गई थी और मैं ने फिर कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा. तब से ले कर आज तक न उन्होंने मेरी खबर ली और न मैं ने उन की. तो, अब क्यों मुझे याद किया जा रहा है?

‘‘मां, आज उन के गुरुजी और दोस्त कहां गए जो उन्हें मेरी याद आ रही है. अस्पताल में अकेले क्या कर रहे हैं. आश्रम वाले कहां चले गए,’’ बोलतेबोलते अपर्णा इतनी विचलित हो उठी कि उस का बीपी बढ़ गया. मां ने दवा दे कर उसे बिस्तर पर लिटा दिया.

50 वर्ष पूर्व जब नितिन से उस का विवाह हुआ तो वह बहुत खुश थी. उस की ससुराल साहित्य के क्षेत्र में अच्छाखासा नाम रखती थी. वह अपने परिवार में सब से छोटी लाड़ली और साहित्यप्रेमी थी. उसे लगा था कि साहित्यप्रेमी और सुशिक्षित परिवार में रह कर वह भी अपने साहित्यज्ञान में वृद्धि कर सकेगी. परंतु, वह विवाह हो कर जब आई तो उसे मायके और ससुराल के वातावरण में बहुत अंतर लगा.

ससुराल में केवल ससुरजी को साहित्य से लगाव था, दूसरे सदस्यों का तो साहित्य से कोई लेनादेना ही नहीं था. इस के अलावा मायके में जहां कोई ऊंची आवाज में बात तक नहीं करता था वहीं यहां घर का हर सदस्य क्रोधी था. ससुरजी अपने लेखन व यात्राओं में इतने व्यस्त रहते कि उन्हें घरपरिवार के बारे में अधिक पता ही नहीं रहता था. सास अल्पशिक्षित, घरेलू महिला थीं. वे अपने शौक, फैशन व किटी पार्टीज में व्यस्त रहतीं. घर नौकरों के भरोसे चलता. हर कोई अपनी जिंदगी मनमाने ढंग से जी रहा था. सभी भयंकर क्रोधी और परस्पर एकदूसरे पर चीखतेचिल्लाते रहते. इन 2 दिनों में ही नितिन को ही वह कई बार क्रोधित होते देख चुकी थी. यहां का वातावरण देख कर उसे डर लगने लगा था.

सुहागरात को जब नितिन कमरे में आए तो वह दबीसहमी सी कमरे में बैठी थी. नितिन उसे देख कर बोले, ‘क्या हुआ, ऐसे क्यों बैठी हो?’

‘कुछ नहीं, ऐसे ही,’ उस ने दबे स्वर में धीरे से कहा.

‘तो इतनी घबराई हुई क्यों हो?’

‘नहीं…वो… मुझे आप से डर लगता है,’ अपर्णा ने घबरा कर कहा.

‘अरे, डरने की क्या बात है,’ कह कर जब नितिन ने उसे अपने गले से लगा लिया तो वह अपना सब डर भूल गई.

विवाह को कुछ ही दिन हुए थे कि एक दिन डाकिया एक पीला लिफाफा लैटरबौक्स में डाल गया. जब नितिन ने खोल कर देखा तो उस में केंद्रीय विद्यालय में अपर्णा की नियुक्ति का आदेश था जिस के लिए उस ने विवाह से पूर्व आवेदन किया था. खैर, समस्त परिवार की सहमति से अपर्णा ने नौकरी जौइन कर ली. घर और बाहर दोनों संभालने में तकलीफ तो उठानी पड़ती, परंतु वह खुश थी कि उस का अपना कुछ वजूद तो है.

तनख्वाह मिलते ही नितिन ने उस का एटीएम कार्ड और चैकबुक यह कहते हुए ले लिया कि ‘मैं पैसे का मैनेजमैंट बहुत अच्छा करता हूं, इसलिए ये मेरे पास ही रहें तो अच्छा है. कहां कब कितना इन्वैस्ट करना है, मैं अपने अनुसार करता रहूंगा.’

मेरे पास रहे या इन के पास, यह सोच कर अपर्णा ने कभी इस ओर ध्यान ही नहीं दिया. इस बीच वह एक बेटे की मां भी बन गई. एक दिन जब वह घर आई तो नितिन मुंह लटकाए बैठा था. पूछने पर बोला कि वह जिस कंपनी में काम करता था वह घाटे में चली गई और उस की नौकरी भी चली गई.

अपर्णा बड़े प्यार से उस से बोली, ‘तो क्या हुआ, मैं तो कमा ही रही हूं. तुम क्यों चिंता करते हो. दूसरी ढूंढ़ लेना.’

‘अच्छा तो तुम मुझे अपनी नौकरी का ताना दे रही हो. नौकरी गई है, हाथपैर नहीं टूटे हैं अभी मेरे,’ नितिन क्रोध से बोला.

‘नितिन, तुम बात को कहां से कहां ले जा रहे हो. मैं ने ऐसा कब कहा?’

‘ज्यादा जबान मत चला, वरना काट दूंगा,’ नितिन की आंखों से मानो अंगारे बरस रहे थे.

उसे देख कर अपर्णा सहम गई. आज उसे नितिन के एक नए ही रूप के दर्शन हुए थे. वह चुपचाप दूसरे कमरे में जा कर अपना काम करने लगी. नौकरी चली जाने के बाद से अब नितिन पूरे समय घर में रहता और सुबह से शाम तक अपनी मरजी करता. एक दिन अपर्णा को घर आने में देर हो गई. जैसे ही वह घर में घुसी.

‘इतनी देर कैसे हो गई.’

‘आज इंस्पैक्शन था.’

‘झूठ बोलते शर्म नहीं आती, कहां से आ रही हो?’

‘तुम से बात करना बेकार है. खाली दिमाग शैतान का घर वाली कहावत तुम्हारे ऊपर बिलकुल सटीक बैठती है,’ कह कर अपर्णा गुस्से में अंदर चली गई.

पूरे घर पर नितिन का ही वर्चस्व था. अपर्णा को घर की किसी बात में दखल देने की इजाजत नहीं थी. वह कमाने की मशीन और मूकदर्शक मात्र थी. एक दिन जब वह घर में घुसी तो देखा कि पूरा घर फूलों से सजा हुआ है. पूछने पर पता चला कि आज कोई गुरुजी और उन के शिष्य घर पर पधार रहे हैं. इसीलिए रसोई में खाना भी बन रहा है.

अपर्णा ने नितिन से पूछा, ‘यह सब क्या है नितिन? सुबह मैं स्कूल गई थी, तब तो तुम ने कुछ नहीं बताया?’

‘तुम सुबह जल्दी निकल गई थीं, सूचना बाद में मिली. आज गुरुजी घर आने वाले हैं. जाओ तुम भी तैयार हो जाओ,’ कह कर नितिन फिर जोश से काम में जुट गया.

उस दिन देररात्रि तक गुरुजी का प्रोग्राम चलता रहा. न जाने कितने ही लोग आए और गए. सब को चाय, खाना आदि खिलाया गया. अपर्णा को सुबह स्कूल जाना था, सो, वह अपने कमरे में आ कर सो गई. दूसरे दिन शाम को जब स्कूल से लौटी तो नितिन बड़ा खुश था. ट्रे में चाय के 2 कप ले कर अपर्णा के पास ही बैठ गया और कल के सफल आयोजन के लिए खुशी व्यक्त करने लगा. तभी अपर्णा ने धीरे से कहा, ‘नितिन, आप खुश हो, इसलिए मैं भी खुश हूं परंतु मेहनत की गाढ़ी कमाई की यों बरबादी ठीक नहीं.’

‘तुम क्या जानो इन बाबाओं की करामात? और जगदगुरु तो पहुंचे हुए हैं. तुम्हें पता है, शहर के बड़ेबड़े पैसे वाले लोग इन के शिष्य बनना चाहते हैं परंतु ये घास नहीं डालते. अपना तो समय खुल गया है जो गुरुजी ने स्वयं ही घर पधारने की बात कही. तुम्हारी गलती भी नहीं है. तुम्हारे घर में कोई भी बाबाओं के प्रताप में विश्वास नहीं करता. तो तुम कैसे करोगी? व्यंग्यपूर्वक कह कर नितिन वहां से चला गया. शाम को फिर आया और कहने लगा, ‘देखो, यह लाल डोरी. इसे सदा हाथ में बांधे रखना, कभी उतराना नहीं, गुरुजी ने दी है. सब ठीक होगा.’

कलह और असंतोष के मध्य जिंदगी किसी तरह कट रही थी. बिना किसी काम के व्यक्ति की मानसिकता भी बेकार हो जाती है. उसी बेकारी का प्रभाव नितिन के मनमस्तिष्क पर भी दिखने लगा था. अब उस के स्वभाव में हिंसा भी शामिल हो गई थी. बातबात पर अपर्णा व बच्चों पर हाथ उठा देना उस के लिए आम बात थी. घर का वातावरण पूरे समय अशांत और तनावग्रस्त रहता. लगातार चलते तनाव के कारण अपर्णा को बीपी, शुगर जैसी कई बीमारियों ने अपनी गिरफ्त में ले लिया.

एक दिन घर पर नितिन से मिलने कोई व्यक्ति आया. कुछ देर की बातचीत

के बाद अचानक दोनों में हाथापाई होने लगी और वह आदमी जोरजोर से चीखनेचिल्लाने लगा. कालोनी के कुछ लोग गेट पर जमा हो गए और कुछ अपने घरों में से झांकने लगे. किसी तरह मामला शांत कर के नितिन आया तो अपर्णा ने कहा, ‘यह सब क्या है? क्यों चिल्ला रहा था यह आदमी?’

‘शांत रहो, ज्यादा जबान और दिमाग चलाने की जरूरत नहीं है,’ बेशर्मी से नितिन ने कहा.

‘इस तरह कालोनी में इज्जत का फालूदा निकालते तुम्हें शर्म नहीं आती?’

‘बोला न, दिमाग मत चलाओ. इतनी देर से कह रहा हूं, चुप रह. सुनाई नहीं पड़ता,’ कह कर नितिन ने एक स्केल उठा कर अपर्णा के सिर पर दे मारा.

अपर्णा के सिर से खून बहने लगा. अगले दिन जब वह स्कूल पहुंची तो उस के सिर पर लगी बैंडएड देख कर पिं्रसिपल ऊषा बोली, ‘यह क्या हो गया, चोट कैसे लगी?’

उन के इतना कहते ही अपर्णा की आंखों से जारजार आंसू बहने लगे. ऊषा मैडम उम्रदराज और अनुभवी थीं. उन की पारखी नजरों ने सब भांप लिया. सो, उन्होंने सर्वप्रथम अपने कक्ष का दरवाजा अंदर से बंद किया और अपर्णा के कंधे पर प्यार से हाथ रख कर बोलीं, ‘क्या हुआ बेटा, कोई परेशानी है, तो बताओ.’

कहते हैं प्रेम पत्थर को भी पिघला देता है, सो ऊषा मैडम के प्यार का संपर्क पाते ही अपर्णा फट पड़ी और रोतेरोते उस ने सारी दास्तान कह सुनाई.

‘मैडम, आज शादी के 20 साल बाद भी मेरे घर में मेरी कोई कद्र नहीं है. पूरा पैसा उन तथाकथित बाबाजी की सेवा में लगाया जा रहा है. बाबाजी की सेवा के चलते कभी आश्रम के लिए सीमेंट, कभी गरीबों के लिए कंबल, और कभी अपना घर लुटा कर गरीबों को खाना खिलाया जा रहा है. यदि एक भी प्रश्न पूछ लिया तो मेरी पिटाई जानवरों की तरह की जाती है. सुबह से शाम तक स्कूल में खटने के बाद जब घर पहुंचती हूं तो हर दिन एक नया तमाशा मेरा इंतजार कर रहा होता है. मैं थक गई हूं इस जिंदगी से,’ कह कर अपर्णा फूटफूट कर रोने लगी.

ऊषा मैडम अपनी कुरसी से उठीं और अपर्णा के आगे पानी का गिलास रखते हुए बोलीं, ‘बेटा, एक बात सदा ध्यान रखना कि अन्याय करने वाले से अन्याय सहने वाला अधिक दोषी होता है. सब से बड़ी गलती तेरी यह है कि तू पिछले

20 सालों से अन्याय को सह रही है. जिस दिन तेरे ऊपर उस का पहला हाथ उठा था, वहीं रोक देना था. सामने वाला आप के साथ अन्याय तभी तक करता है जब तक आप सहते हो. जिस दिन आप प्रतिकार करने लगते हो, उस का मनोबल समाप्त हो जाता है. आत्मनिर्भर और पूर्णतया शिक्षित होने के बावजूद तू इतनी कमजोर और मजबूर कैसे हो गई? जिस दिन पहली बार हाथ उठाया था, तुम ने क्यों नहीं मातापिता और परिवार वालों को बताया ताकि उसे रोका जा सकता. क्यों सह रही हो इतने सालों से अन्याय? छोड़ दो उसे उस के हाल पर.’

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‘मैं हर दिन यही सोचती थी कि शायद सब ठीक हो जाएगा. मातापिता की इज्जत और लोकलाज के डर से मैं कभी किसी से कुछ नहीं कह पाई. लगा था कि मैं सब ठीक कर लूंगी. पर मैं गलत थी. स्थितियां बद से बदतर होती चली गईं.’ अपर्णा ने रोते हुए कहा.

अब ऊषा मैडम बोलीं, ‘जो आज गलत है, वह कल कैसे सही हो जाएगा. जिस इंसान के गुस्से से तुम प्रथम रात्रि को ही डर जाती हो और जिस इंसान को अपनी पत्नी पर हाथ उठाने में लज्जा नहीं आती. जो बाबाओं की करामात पर भरोसा कर के खुद बेरोजगार हो कर पत्नी का पैसा पानी की तरह उड़ा रहा है, वह विवेकहीन इंसान है. ऐसे इंसान से तुम सुधार की उम्मीद लगा बैठी हो? क्यों सह रही हो? तोड़ दो सारे बंधनों को अब. निर्णय तुम्हें लेना है,’ कह कर मैडम ने दरवाजा खोल दिया था.

बाहर निकल कर उस ने भी अब और न सहने का निर्णय लिया और अगले ही दिन अपने तबादले के लिए आवेदन कर दिया. 6 माह बाद अपर्णा का तबादला दूसरे शहर में हो गया.

नितिन को जब तबादले के बारे में पता चला, तो क्रोध से चीखते हुए बोला, ‘यह क्या मजाक है मुझ से बिना पूछे ट्रांसफर किस ने करवाया?’

‘मैं ने करवाया. मैं अब और तुम्हारे साथ नहीं रह सकती. तुम्हारे उन तथाकथित गुरुजी ने तुम्हारी बसीबसाई गृहस्थी में आग लगा दी. आज और अभी से ही तुम्हारी यह दुनिया तुम्हें मुबारक. अब और अधिक सहने की क्षमता मुझ में नहीं है.’

‘हांहां, जाओ, रोकना भी कौन चाहता है तुम्हें? वैसे भी कल गुरुजी आ रहे हैं. तुम्हारी तरफ देखना भी कौन चाहता है. मैं तो यों भी गुरुजी की सेवा में ही अपना जीवन लगा देना चाहता हूं,’ कह कर भड़ाक से दरवाजा बंद कर के नितिन बाहर चला गया.

बस, उस के बाद से दोनों के रास्ते अलगअलग हो गए थे. बेटे नवीन ने पुणे में जौब जौइन कर ली थी. परंतु आज आए इस एक फोन ने उस के ठहरे हुए जीवन में फिर से तूफान ला दिया था. तभी अचानक उस ने मां का स्पर्श कंधे पर महसूस किया.

‘‘क्या सोच रही है, बेटा.’’

‘‘मां, कुछ नहीं समझ आ रहा? क्या करूं?’’

‘‘बेटा, पत्नी के नाते नहीं, केवल इंसानियत के नाते ही चली जा, बल्कि नवीन को भी बुला ले. कल को कुछ हो गया, तो मन में हमेशा के लिए अपराधबोध रह जाएगा. आखिर, नवीन का पिता तो नितिन ही है न,’’ अपर्णा की मां ने उसे समझाते हुए कहा.

अगले दिन वह नवीन के साथ दिल्ली के सरकारी अस्पताल के बैड नंबर 401 पर पहुंची. बैड पर लेटे नितिन को देख कर वह चौंक गई. बिखरे बाल, जर्जर शरीर और गड्ढे में धंसी आंखें. शरीर में कई नलियां लगी हुई थीं. मुंह से खून की उलटियां हो रही थीं. पूछने पर पता चला कि नितिन को कोई खतरनाक बीमारी है. उसे आया देख कर नितिन के चेहरे पर चमक आ गई.

वह अपनी कांपती आवाज में बोला, ‘‘तुम आ गईं. मुझे पता था कि तुम जरूर आओगी. अब मैं ठीक हो जाऊंगा,’’ तभी डाक्टर सिंह ने कमरे में प्रवेश किया. नवीन की तरफ मुखातिब हो कर वे बोले, ‘‘इन्हें एड्स हुआ है. अंतिम स्टेज में है. हम अपनी तरफ से पूरी कोशिश कर रहे हैं.’’

‘‘आज आप के तथाकथित गुरुजी कहां गए. आप की देखभाल करने क्यों नहीं आए वे. जिन के कारण आप ने अपनी बसीबसाई गृहस्थी में आग लगा दी. आज उन्होंने अपनी करामात क्यों नहीं दिखाई? मुझ से क्या चाहते हैं आप. क्यों मुझे फोन किया गया था?’’ अपर्णा आवेश से भरे स्वर में बोली. तभी देवर अरुण आ गया. उस ने जो बताया, उसे सुन कर अपर्णा दंग रह गई.

‘‘आप के जाने के बाद भैया एकदम निरंकुश हो गए. गुरुजी के आश्रम में कईकई दिन पड़े रहते. घर पर ताला रहता और भैया गुरुजी के आश्रम में. गुरुजी के साथ ही दौरों पर जाते. गुरुजी के आश्रम में सेविकाएं

भी आती थीं. गुरुजी सेविकाओं से हर प्रकार की सेवा करवाते थे. कई बार गुरुजी के कहने पर भैया ने भी अपनी सेवा करवाई. बस, उसी समय कोई इन्हें तोहफे में एड्स दे गई. गुरुजी और उन के आश्रम के लोगों को जैसे ही भैया की बीमारी के बारे में पता चला, उन्होंने इन्हें आश्रम से बाहर कर दिया. और आज 3 साल से कोई खैरखबर भी नहीं ली है.’’

अपर्णा मुंह खोले सब सुन रही थी. उस ने नितिन की ओर देखा तो उस ने अपने दोनों हाथ जोड़ दिए मानो अब तक की सारी काली करतूतों को एक माफी में धो देना चाहता हो.

अपर्णा कुछ देर सोचती रही, फिर नितिन की ओर घूम कर बोली, ‘‘नितिन, मेरातुम्हारा संबंध कागजी तौर पर भले ही न खत्म हुआ हो पर दिल के रिश्ते से बड़ा कोई रिश्ता नहीं होता. जब मेरे दिल में ही तुम्हारे लिए कोई जगह नहीं है, तो कागज क्या करेगा? जहां तक माफी का सवाल है, माफी तो उस से मांगी जाती है जिस ने कोई गुनाह किया हो. तुम ने आज तक जो कुछ भी मेरे साथ किया, उसे भुलाना तो मुश्किल है, पर हां, माफ करने की कोशिश करूंगी. पर अब तुम मुझ से कोई उम्मीद मत रखना.

मैं तुम्हारे लिए कुछ नहीं कर सकती. हां, इंसानियत के नाते तुम्हारी बीमारी के इलाज में जो पैसा लगेगा, मैं देने को तैयार हूं. बस, अब और मुझे कुछ नहीं कहना. मैं तुम्हें सारे बंधनों से मुक्त कर के जा रही हूं,’’ यह कह कर मैं ने पर्स में से एक छोटा पैकेट, वह मैली लाल डोरी निकाल कर नितिन के तकिए पर रख दी, ‘‘लो अपनी अमानत, अपने पास रखो.’’

यह कह कर अपर्णा तेजी से कमरे से बाहर निकल गई. नितिन टकटकी लगाए उसे जाते देखता रहा.

Famous Hindi Stories : तबादला – क्या सास के व्यवहार को समझ पाई माया

Famous Hindi Stories : टैक्सी दरवाजे पर आ खड़ी हुई. सारा सामान बंधा हुआ तैयार रखा था. निशांत अपने कमरे में खड़ा उस चिरपरिचित महक को अपने अंदर समेट रहा था जो उस के बचपन  की अनमोल निधि थी.

निशांत के 4 वर्षीय बेटे सौरभ ने इसी कमरे में घुटनों के बल चल कर खड़े होना और फिर अपनी दादी की उंगली पकड़ कर पूरे घर में घूमना सीखा. निशांत की पत्नी माया एक विदेशी कंपनी में काम करती थी. वह सुबह 9 बजे निकलती तो शाम को 6 बजे ही वापस लौटती. ऐसे में सौरभ अपनी दादी के हाथों ही पलाबढ़ा था.  नौकर टिक्कू के साथ उस की खूब पटती थी, जो उसे कभी कंधे पर बिठा कर तो कभी उस को 3 पहियों वाली साइकिल पर बिठा कर सैर कराता. अकसर शाम को जब माया लौटती तो सौरभ घर में ही न होता और माया बेचैनी से उस का इंतजार करती. किंतु जब टिक्कू के कंधे पर चढ़ा सौरभ घर लौटता तो नीचे कूद कर सीधे दादी की गोद में जा बैठता और तब माया का पारा चढ़ जाता. दादी के कहने पर सौरभ माया के पास जाता तो जरूर किंतु कुछ इस तरह मानो अपनी मां पर एहसान कर रहा हो. ऐसे में माया और भी चिढ़ जाती, मन ही मन इसे अपनी सास की एक चाल समझती.

लगभग 7 वर्ष पूर्व जब माया इस घर में बहू बन कर आई थी तो जगमगाते सपनों से उस का आंचल भरा था. पति के हृदय पर उस का एकछत्र साम्राज्य होगा, हर स्त्री की तरह उस का भी यही सपना था. किंतु उस के पति निशांत के हृदय के किसी कोने में उस की मां की मूर्ति भी विराजमान थी, जिसे लाख प्रयत्न करने पर भी माया वहां से निकाल कर फेंक न सकी. माया के हृदय की कुढ़न ने घर में छोटेमोटे झगड़ों को जन्म देना शुरू कर दिया, जिन्होंने बढ़तेबढ़ते लगभग गृहकलह का रूप ले लिया. इस सारे झगड़ेझंझटों के बीच में पिस रहा था निशांत, जो सीधासादा इंसान था. वह आपसी रिश्तों को शालीनता से निभाने में विश्वास रखता था. अकसर वह माया को समझाता कि ‘मां भावुक प्रकृति की हैं, केवल थोड़े मान, प्यार से ही संतुष्ट हो जाएंगी.’

किंतु माया ने सास को अपनी मां के रूप में नहीं, प्रतिद्वंद्वी के रूप में स्वीकारा. इन 7 वर्षों ने निशांत की मां को एक हंसतेबोलते इंसान से एक मूर्ति में परिवर्तित कर दिया. अपने चारों ओर मौन का एक कवच सा लपेटे मां टिक्कू की मदद से सारे घर की साजसंभाल करतीं. उन के हृदय के किसी कोने में आशा का एक नन्हा दीप अभी भी जल रहा था कि शायद कभी माया के नारी हृदय में छिपी बेटी की ममता जाग उठे और वह उन के गले लग जाए.

किंतु माया की बेरुखी मां के हृदय पर नित्य कोई न कोई नया प्रहार कर जाती  और वे आंतरिक पीड़ा से तिलमिला कर अपने कमरे में चली जातीं. भरी आंखें छलकें और बेटा उन्हें देख ले, इस से पहले ही वे उन्हें पोंछ डालतीं और एक गंभीर मुखौटा चेहरे पर चढ़ा लेतीं. समय इसी तरह बीत रहा था कि एक दिन निशांत को स्थानांतरण का आदेश मिला. शाम को मां के पास बैठ उन के दोनों हाथ अपने हाथों में थाम उस ने खिले चेहरे से मां को बताया, ‘‘मां, मेरी तरक्की हुई है और तबादला भी हो गया है.’’

मां चौंक उठीं, ‘‘बदली भी हो गई है?’’

‘‘हां,’’ निशांत उत्साह से भर कर बोला,  ‘‘मुंबई जाना होगा. दफ्तर की तरफ से मकान भी मिलेगा और गाड़ी भी. तुम खुश हो न, मां?’’

‘‘हां, बहुत खुश हूं,’’ निशांत के सिर पर मां ने हाथ फेरा. आंखें मानो वात्सल्य से छलक उठीं और निशांत संतुष्ट हो कर उठ गया. किंतु शाम को जब माया लौटी तो यह खबर सुन कर झुंझला उठी, ‘‘क्या जरूरत थी यह प्रस्ताव स्वीकार करने की? हमें यहां क्या परेशानी है…मेरी नौकरी अच्छीभली चल रही है, वह  छोड़नी पड़ेगी. तुम्हारी तनख्वाह जितनी बढ़ेगी, उस से कहीं ज्यादा नुकसान मेरी नौकरी छूटने का होगा. फिर मुंबई नया शहर है, आसानी से वहां नौकर नहीं मिलेगा. टिक्कू हमारे साथ जा नहीं सकेगा क्योंकि दिल्ली में उस के मांबाप हैं. मेरी तो कुछ समझ में नहीं आ रहा कि क्या करूं, कैसे उलटेसीधे फैसले कर के बैठ जाते हैं आप.’’

पर्स वहीं मेज पर पटक परेशान सी माया सोफे पर ही पसर गई. थोड़ी देर बाद टिक्कू चाय ले आया.

‘‘मां को चाय दी?’’ निशांत के पूछने पर टिक्कू बोला, ‘‘जी, साहब. मांजी अपनी चाय कमरे में ले गईं.’’

‘‘सुन टिक्कू,’’ माया बोल उठी, ‘‘साहब की बदली मुंबई हो गई है, तू चलेगा न हमारे साथ? सौरभ तेरे बिना नहीं रहेगा.’’

‘‘साहब मुंबई जा रहे हैं?’’ टिक्कू का चेहरा उतर गया, ‘‘फिर मैं क्या करूंगा? मेरा बाप मुझे इतनी दूर नहीं भेजेगा.’’

‘‘तेरी पगार बढ़ा देंगे,’’ माया त्योरी चढ़ा कर बोली, ‘‘फिर तो भेजेगा न तेरा बाप?’’

‘‘नहीं बीबीजी, पगार की बात नहीं, मेरी मां भी बीमार रहती है.’’

‘‘तो ऐसा कह, कि तू ही जाना नहीं चाहता,’’ माया गुस्से से भरी वहां से उठ गई.

फिर अगले कुछ दिन बड़ी व्यस्तता के बीते. निशांत को 1 महीने बाद ही मुंबई पहुंचना था. सो, यह तय हुआ कि माया 1 महीने का जरूरी नोटिस दे कर नौकरी से इस्तीफा दे दे और निशांत के साथ ही चली जाए, जिस से दोबारा आनेजाने का चक्कर न रहे. निशांत ने पत्नी को समझाया, ‘‘सौरभ अभी छोटा ही है, वहां किसी स्कूल में दाखिला मिल जाएगा. मांजी तो साथ होंगी ही, जैसे यहां सबकुछ संभालती हैं, वहां भी संभाल लेंगी. बाद में कोई नौकर भी ढूंढ़ लेंगे, जिस से कि मां पर ही सारे काम का बोझ न पड़े.’’

इन्हीं सारे फैसलों के साथ दिन गुजरते गए. घर में सामान की पैकिंग का काम शुरू हो गया. निशांत के औफिस की ओर से एक पैकिंग कंपनी को आदेश दिया गया था कि वे लोग सारा सामान पैक कर के ट्रक द्वारा मुंबई भेजेंगे. घर की जरूरतों का लगभग सारा सामान पैक हो चुका था. फर्नीचर, डबलबैड, रसोई का सामान, फ्रिज, टीवी आदि बड़ेबड़े लकड़ी के बक्सों में बंद हो कर ट्रक में लादा जा रहा था. अब बचा था तो केवल अपनी निजी जरूरत कासामान, जैसे पहनने के कपड़े आदि, जो उन्हें अपने साथ ही ले जाने थे. कुछ ऐसा सामान भी था जो अब उन के काम का नहीं था, जैसे मिट्टी के तेल का स्टोव, लकड़ी का तख्त, कुछ पुराने बरतन आदि. इन्हें वे टिक्कू के लिए छोड़े जा रहे थे. गृहस्थी में चाहेअनचाहे न जाने ऐसा कितना सामान इकट्ठा हो जाता है, जो इस्तेमाल न किए जाने पर भी फेंकने योग्य नहीं होता. ऐसा सारा सामान वे टिक्कू को दे रहे थे. आखिर 6 साल से वह उन की सेवा कर रहा था, उस का इतना हक तो बनता ही था.

माया की इच्छा थी कि मकान किराए पर चढ़ा दिया जाए. किंतु निशांत ने मना कर दिया, ‘‘दिल्ली में मकान किराए पर चढ़ा कर किराएदार से वापस लेना कितना कठिन होता है, मैं अच्छी तरह समझता हूं. इसीलिए अपने एक मित्र के भतीजे को एक कमरा अस्थायी तौर पर रहने के लिए दे रहा हूं, जिस से मकान की देखभाल होती रहे.’’ उस लड़के का नाम विपिन था, भला सा लड़का था. 2 महीने पहले ही पढ़ाई के लिए दिल्ली आया था. बेचारा रहने की जगह ढूंढ़ रहा था, साफसुथरा कमरा पा कर खुश हो गया. इन सब झंझटों से छुट्टी पा कर निशांत मां के कमरे में गया और बोला, ‘‘लाओ मां, तुम्हारा सामान मैं पैक करता हूं.’’ किंतु मां किसी मूर्ति की तरह गंभीर बैठी थीं, शांत स्वर में बोलीं, ‘‘मैं नहीं जाऊंगी, बेटा.’’

‘‘क्या?’’ निशांत मानो आसमान से गिरा, ‘‘क्या कहती हो मां? हम तुम्हें यहां अकेला छोड़ कर जाएंगे भला?’’

‘‘अकेली कहां हूं बेटा,’’ मां भरेगले से बोलीं, ‘‘टिक्कू है, विपिन है.’’

‘‘लेकिन, वे सब तो गैर हैं. अपने तो हम हैं, जिन्हें तुम्हारी देखभाल करनी है. हम तुम्हें कैसे अकेला छोड़ दें?’’

‘‘अपना क्या और पराया क्या?’’ मां की आवाज मानो हृदय की गहराइयों से फूट रही थी, ‘‘जो प्यार करे, वही अपना, जो न करे, वह पराया.’’

‘‘नितांत सादगी से कहे गए मां के इस वाक्य की मार से निशांत मानो तिलमिला उठा. वह बोझिल हृदय से बोला, ‘‘माया के दोषों की सजा मुझे दे रही हो, मां?’’

‘‘नहीं रे, ऐसा क्यों सोचता है? मैं तो तेरे सुख की राह तलाश रही हूं.’’

‘‘तुम्हारे बिना कैसा सुख, मां?’’ और निशांत कमरे से बाहर निकल गया. माया को जब यह पता चला तो अपने चिरपरिचित व्यंग्यपूर्ण अंदाज में बोली, ‘‘अब यह आप का कौन सा नया नाटक शुरू हो गया?’’

‘‘किस बात का नाटक?’’ मां का स्वर दृढ़ था, ‘‘सीधी सी बात है, मैं नहीं जाना चाहती.’’

‘‘लेकिन क्यों?’’

‘‘क्या मेरी इच्छा का कोई मूल्य नहीं?’’

‘‘यह इच्छा की बात नहीं है, मुझे परेशान करने की आप की एक और चाल है. आप खूब समझती हैं कि टिक्कू साथ जा नहीं रहा, सौरभ आप के बिना रहता नहीं. उस नई जगह में मुझे अकेले सब संभालने में कितनी परेशानी होगी, इसीलिए आप मुझ से बदला ले रही हैं.’’

‘‘बदला तो मैं गैरों से भी नहीं लेती माया, फिर तुम तो मेरी अपनी हो, बेटी हो मेरी. जिस दिन तुम्हारी समझ में यह बात आ जाए, मुझे लेने आना. तब चलूंगी तुम्हारे साथ,’’ इतना कह कर मां कमरे से बाहर चली गईं. रात को निशांत के कमरे से माया की ऊंची आवाज बाहर तक सुनाई दे रही थी, ‘‘सारी दुनिया को दिखाना है कि हम उन को साथ नहीं ले जा रहे…हमारी बदनामी होगी, इस का भी खयाल नहीं.’’ माया का व्यवहार अब निशांत की सहनशक्ति की सीमाएं तोड़ रहा था. आखिर उस ने साफ बात कह ही डाली, ‘‘दरअसल, तुम्हें चिंता मां की नहीं, बल्कि इस बात की है कि वहां नौकर भी नहीं होगा और मां भी नहीं. फिर घर का सारा काम तुम कैसे संभालोगी. तुम्हारी सारी परेशानी इसी एक बात को ले कर है.’’

अंत में तय यह हुआ कि अगले दिन सुबह जब सौरभ सो कर उठे तो उसे समझाया जाए कि दादी को साथ चलने के लिए राजी करे. उन की उड़ान का समय शाम 5 बज कर 40 मिनट का था और मां के सामान की पैकिंग के लिए इतना समय काफी था. दूसरे दिन सुबह होते ही अपनी उनींदी आंखें मलतामलता सौरभ दादी की गोद में जा बैठा, ‘‘दादीमां, जल्दी से तैयार हो जाओ.’’

‘‘तैयार हो जाऊं, भला क्यों?’’ सौरभ के दोनों गाल चूमचूम कर मां निहाल हुई जा रही थीं.

‘‘मैं तुम्हें मुंबई ले जाऊंगा.’’ मां की समझ में सारी बात आ गई. धीरे से सौरभ को गोद से नीचे उतार कर बोलीं, ‘‘पहले जा कर मंजन करो और दूध पियो.’’ सौरभ उछलताकूदता कमरे से बाहर भाग गया. थोड़ीथोड़ी देर में निशांत व माया किसी न किसी बहाने से मां के कमरे में यह देखने के लिए आतेजाते रहे कि वे अपना सामान पैक कर रही हैं या नहीं. किंतु मां के कमरे में सबकुछ शांत था. वे तो रसोई में मिट्टी के तेल वाले स्टोव पर उन लोगों के लिए दोपहर का खाना बनाने में व्यस्त थीं. वे निशांत और सौरभ की पसंद की चीजें टिक्कू की मदद से तैयार कर रही थीं. जो थोड़ेबहुत पुराने बरतन उन लोगों ने छोड़े थे, उन्हीं से वे अपना काम चला रही थीं. मां को पता भी न चला कि कितनी देर से निशांत रसोई के दरवाजे पर खड़ा उन्हें देख रहा है. माया भी उसी के पीछे खड़ी थी. सहसा मां की दृष्टि उन पर पड़ी और एक पल को मानो उन का उदास चेहरा खिल उठा.

‘‘ऐसे क्यों खड़े हो तुम दोनों?’’ मां पूछ बैठीं.

‘‘क्या आप माया को माफ नहीं कर सकतीं? ’’ बुझे स्वर में निशांत ने पूछा.

‘‘आज तक और किया ही क्या है, बेटा?’’ मां बोलीं, ‘‘लेकिन बिना किसी प्रयत्न के अनायास मिला प्यार मूल्यहीन हो जाता है. इस तथ्य को समझो बेटा. तुम्हारे और सौरभ के बिना रहना मेरे लिए भी आसान नहीं है, लेकिन इस समय शायद इसी में हम सब की भलाई है. अकेले घर संभालने में माया को परेशानी तो होगी, लेकिन धीरेधीरे सीख जाएगी.’’ टिक्कू के हाथ में खाने की प्लेटें दे कर मां रसोई से बाहर आईं. हाथ धो कर उन्होंने अपने कमरे में बिछे लकड़ी के तख्त पर खाना लगा दिया. आलू, पूरी देखते ही सौरभ खुश हो गया. मीठे में मां ने सेवइयां बनाई थीं, जो निशांत और माया दोनों को पसंद थीं. सब लोग एकसाथ खाना खाने बैठे. मां के हाथ का खाना अब न जाने कब मिले, यह ध्यान आते ही मानो निशांत के गले में पूरी का कौर अटकने लगा. किसी तरह 2-4 कौर खा कर वह पानी का गिलास ले कर उठ गया.

टैक्सी में सामान रखा जा रहा था. मां निर्विकार भाव से मूर्ति बनी बैठी थीं. उन के पैरों के पास टिक्कू बैठा हुआ था. कभी वह अपने साहब को देखता और कभी मांजी को, मानो समझना चाह रहा हो कि जो कुछ भी हो रहा है, वह अच्छा है या बुरा. मां के पांव छूते समय निशांत के हृदय की पीड़ा उस के चेहरे पर साफ उभर आई. वह भरे गले से बोला, ‘‘मैं हर महीने आऊंगा मां, चाहे एक ही दिन के लिए आऊं.’’ मां ने उस के सिर पर हाथ फेरा, ‘‘तुम्हारा घर है बेटा, जब जी चाहे आओ, लेकिन मेरी चिंता मत करना.’’

‘‘क्या आप सचमुच ऐसा सोचती हैं कि यह संभव है?’’ कहतेकहते निशांत का स्वर भर्रा उठा.

मां के पैरों के पास बैठा टिक्कू उठ कर निशांत के सामने आ गया और दोनों हाथ जोड़ कर बोला, ‘‘आप मांजी की चिंता न करें साहब, मैं हूं न, सब संभाल लूंगा. आप हर महीने खुद ही आ कर देख लेना.’’ एक भरपूर नजर टिक्कू पर डाल सहसा निशांत ने उसे अपने से चिपटा लिया. उस पल, उस घड़ी माया उस की दृष्टि में नगण्य हो उठी.

लेखिका- प्रमिला बहादुर

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