लम्हों ने खता की थी: क्या डिप्रैशन से निकल पाई रिया

गुरमीत पाटनकर के 30 साल के लंबे सेवाकाल में ऐसा पेचीदा मामला शायद पहली दफा सामने आया था. इस बहुराष्ट्रीय कंपनी में पिछले वर्ष पीआरओ पद पर जौइन करने वाली रिया ने अपनी 6 वर्ष की बच्ची के लिए कंपनी द्वारा शिक्षण संबंधित व्यय के पुनर्भरण के लिए प्रस्तुत आवेदन में बच्ची के पिता के नाम का कौलम खाली छोड़ा था. अभिभावक के नाम की जगह उसी का नाम और हस्ताक्षर थे. उन्होंने जब रिया को अपने कमरे में बुला कर बच्ची के पिता के नाम के बारे में पूछा तो वह भड़क कर बोली थी, ‘‘इफ क्वोटिंग औफ फादर्स नेम इज मैंडेटरी, प्लीज गिव मी बैक माइ एप्लीकेशन. आई डोंट नीड एनी मर्सी.’’ और बिफरती हुई चली गई थी. पाटनकर सोच रहे थे, अगर इस अधूरी जानकारी वाले आवेदनपत्र को स्वीकृत करते हैं तो वह (रिया) भविष्य में विधिक कठिनाइयां पैदा कर सकती है और अस्वीकृत कर देते हैं तो आजकल चलन हो गया है कि कामकाजी महिलाएं किसी भी दशा में उन के प्रतिकूल हुए किसी भी फैसले को उन के प्रति अधिकारी के पूर्वाग्रह का आरोप लगा देती हैं.

अकसर वे किसी पीत पत्रकार से संपर्क कर के ऐसे प्रकरणों का अधिकारी द्वारा महिला के शारीरिक शोषण के प्रयास का चटपटा मसालेदार समाचार बना कर प्रकाशितप्रसारित कर के अधिकारी की पद प्रतिष्ठा, सामाजिक सम्मान का कचूमर निकाल देती हैं. रिया भी ऐसा कर सकती है. आखिर 2 हजार रुपए महीने की अनुग्रह राशि का मामला है. टैलीफोन की घंटी बजने से उन की तंद्रा भंग हुई. उन्होंने फोन उठाया, मगर फोन सुनते ही वे और भी उद्विग्न हो उठे. फोन उन की पत्नी का था. वह बेहद घबराई हुई लग रही थी और उन से फौरन घर पहुंचने के लिए कह रही थी.

घर पहुंच कर उन्होंने जो दृश्य देखा तो सन्न रह गए. रिया भी उन के ही घर पर थी और भारी डिप्रैशन जैसी स्थिति में थी. कुछ अधिकारियों की पत्नियां उसे संभाल रही थीं, दिलासा दे रही थीं, मगर उसे रहरह कर दौरे पड़ रहे थे. बड़ी मुश्किल से उन की पत्नी उन्हें यह बता पाई कि उस की 6 वर्षीय बच्ची आज सुबह स्कूल गई थी. लंचटाइम में वह पता नहीं कैसे सिक्योरिटी के लोगों की नजर बचा कर स्कूल से कहीं चली गई. उस के स्कूल से चले जाने का पता लंच समाप्त होने के आधे घंटे बाद अगले पीरियड में लगा. क्लासटीचर ने उस को क्लास में न पा कर उस की कौपी वगैरह की तलाशी ली. एक कौपी में लिखा था, ‘मैं अपने पापा को ढूंढ़ने जाना चाहती हूं. मम्मी कभी पापा के बारे में नहीं बतातीं. ज्यादा पूछने पर डांट देती हैं. कल तो मम्मी ने मुझे चांटा मारा था. मैं पापा को ढूंढ़ने जा रही हूं. मेरी मम्मी को मत बताना, प्लीज.’

स्कूल प्रशासन ने फौरन बच्ची की डायरी से अभिभावकों के टैलीफोन नंबर देख कर इस की सूचना रिया को दे दी और स्कूल से बच्ची के गायब होने की रिपोर्ट पुलिस में दर्ज करा दी. सभी स्तब्ध थे यह सोचते हुए कि क्या किया जाए. तभी कालोनी कैंपस में एक जीप रुकी. जीप में से एक पुलिस इंस्पैक्टर और कुछ सिपाही उतरे और पाटनकर के बंगले पर भीड़भाड़ देख कर उस तरफ बढ़े. पाटनकर खुद चल कर उन के पास गए और उन के आने का कारण पूछा. इंस्पैक्टर ने बताया कि स्कूल वालों ने जिस हुलिए की बच्ची के गायब होने की रिपोर्ट लिखाई है उसी कदकाठी की एक लड़की किसी अज्ञात वाहन की टक्कर से घायल हो गई. जिसे अस्पताल में भरती करा कर वे बच्ची की मां और कंपनी के कुछ लोगों को बतौर गवाह साथ ले जाने के लिए आए हैं.

इंस्पैक्टर का बयान सुन कर रिया तो मिसेज पाटनकर की गोदी में ही लुढ़क गई तो वे इंस्पैक्टर से बोलीं, ‘‘देखिए, आप बच्ची की मां की हालत देख रहे हैं, मुझे नहीं लगता कि वह इस हालत में कोई मदद कर पाएगी. हम सभी इसी कालोनी के हैं और वह बच्ची स्कूल से आने के बाद इस की मां के औफिस से लौटने तक मेरे पास रहती है इसलिए मैं चलती हूं आप के साथ.’’ अब तक कंपनी के अस्पताल की एंबुलैंस भी मंगा ली गई थी. इसलिए कुछ महिलाएं अचेत रिया को ले कर एंबुलैंस में सवार हुईं और 2-3 महिलाएं मिसेज पाटनकर के साथ पुलिस की जीप में बैठ गईं. अस्पताल पहुंचते ही शायद मातृत्व के तीव्र आवेग से रिया की चेतना लौट आई. वह जोर से चीखी, ‘‘कहां है मेरी बच्ची, क्या हुआ है मेरी बच्ची को, मुझे जल्दी दिखाओ. अगर मेरी बच्ची को कुछ हो गया तो मैं किसी को छोड़ूंगी नहीं, और मिसेज पाटनकर, तुम तो दादी बनी थीं न पिऊ की,’’ कहतेकहते वह फिर अचेत हो गई.

बच्ची के पलंग के पास पहुंचते ही मिसेज पाटनकर और कालोनी की अन्य महिलाओं ने पट्टियों में लिपटी बच्ची को पहचान लिया. वह रिया की बेटी पिऊ ही थी. बच्ची की स्थिति संतोषजनक नहीं थी. वह डिलीरियम की स्थिति में बारबार बड़बड़ाती थी, ‘मुझे मेरे पापा को ढूंढ़ने जाना है, मुझे जाने दो, प्लीज. मम्मी मुझे पापा के बारे में क्यों नहीं बतातीं, सब बच्चे मेरे पापा के बारे में पूछते हैं, मैं क्या बताऊं. कल मम्मी ने मुझे क्यों मारा था, दादी, आप बताओ न…’ कहतेकहते अचेत हो जाती थी. बच्ची की शिनाख्त होते ही पुलिस इंस्पैक्टर ने मिसेज पाटनकर को बच्ची की दादी मान कर उस के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि कुछ दिन पहले वे दोपहर को महिला कल्याण समिति की बैठक में जाने के लिए निकली थीं. तभी रिया की बच्ची, जो अपनी आया से बचने के लिए अंधाधुंध दौड़ रही थी, उन से टकरा गई थी. बच्ची ने उन से टकराते ही उन की साड़ी को जोर से पकड़ कर कहा था, ‘आंटी, मुझे बचा लो, प्लीज. आया मुझे बाथरूम में बंद कर के अंदर कौकरोच छोड़ देगी.’

बच्ची की पुकार की आर्द्रता उन्हें अंदर तक भिगो गई थी. इसलिए उन्होंने आया को रुकने के लिए कहा और बच्ची से पूछा, ‘क्या बात है?’ तो जवाब आया ने दिया था कि यह स्कूल में किसी बच्चे के लंचबौक्स में से आलू का परांठा अचार से खा कर आई है और घर पर भी वही खाने की जिद कर रही है. मेमसाब ने इसे दोपहर के खाने में सिर्फ बर्गर और ब्रैड स्लाइस या नूडल्स देने को कहा है. यह बेहद जिद्दी है. उसे बहुत तंग कर रही है, इस ने खाना उठा कर फेंक दिया है, इसलिए वह इसे यों ही डरा रही थी. मगर बच्ची उन की साड़ी पकड़ कर उन से इस तरह चिपकी थी कि आया ज्यों ही उस की तरफ बढ़ी वह उन से और भी जोर से चिपक कर बोली, ‘आंटी प्लीज, बचा लो,’ और उन की साड़ी में मुंह छिपा कर सिसक उठी तो उन्होंने आया को कह दिया, ‘बच्ची को वे ले जा रही हैं, तुम लौट जाओ.’

कालोनी में उन की प्रतिष्ठा और व्यवहार से आया वाकिफ थी, इसलिए ‘मेमसाब को आप ही संभालना’, कह कर चली गई थी. उन्होंने मीटिंग में जाना रद्द कर दिया और अपने घर लौट पड़ी थीं. घर आने तक बच्ची उन की साड़ी पकड़े रही थी. पता नहीं कैसे बच्ची का हाथ थाम कर घर की तरफ चलते हुए वे हर कदम पर बच्ची के साथ कहीं अंदर से जुड़ती चली गई थीं. घर आ कर उन्होंने बच्ची के लिए आलू का परांठा बनाया और उसे अचार से खिला दिया. परांठा खाने के बाद बच्ची ने बड़े भोलेपन से उन से पूछा था, ‘आंटी, आप ने आया से तो बचा लिया, आप मम्मी से भी बचा लोगी न?’

मासूम बच्ची के मुंह से यह सुन कर उन के अंदर प्रौढ़ मातृत्व का सोता फूट निकला था कि उन्होंने बच्ची को गोद में उठा लिया और प्यार से उस के सिर पर हाथ फेर कर बोलीं, ‘हां, जरूर, मगर एक शर्त है.’

‘क्या?’ बच्ची ने थोड़ा असमंजस से पूछा. जैसे वह हर समझौता करने को तैयार थी.

‘तुम मुझे आंटी नहीं, दादी कहोगी, कहोगी न?’

बच्ची ने उन्हें एक बार संशय की नजर से देखा फिर बोली, ‘दादी, आप जैसी होती है क्या? उस के तो बाल सफेद होते हैं, मुंह पर बहुत सारी लाइंस होती हैं. वह तो हाथ में लाठी रखती है. आप तो…’

‘हां, दादी वैसी भी होती है और मेरी जैसी भी होती है, इसलिए तुम मुझे दादी कहोगी. कहोगी न?’

‘हां, अगर आप कह रही हैं तो मैं आप को दादी कहूंगी,’ कह कर बच्ची उन से चिपट गई थी.

उस दिन शाम को जब रिया औफिस से लौटी तो आया द्वारा दी गई रिपोर्ट से उद्विग्न थी, मगर एक तो मिस्टर पाटनकर औफिस में उस के अधिकारी थे, दूसरे, कालोनी में मिसेज पाटनकर की सामाजिक प्रतिष्ठा थी, इसलिए विनम्रतापूर्वक बोली, ‘मैडम, यह आया बड़ी मुश्किल से मिली है. इस शैतान ने आप को पूरे दिन कितना परेशान किया होगा, मैं जानती हूं और आप से क्षमा चाहती हूं. आप आगे से इस का फेवर न करें.’ इस पर उन्होंने बड़ी सरलता से कहा था, ‘रिया, तुम्हें पता नहीं है, हमारी इस बच्ची की उम्र की एक पोती है. हमारा बेटा यूएसए में है इसलिए मुझे इस बच्ची से कोई तकलीफ नहीं हुई. हां, अगर तुम्हें कोई असुविधा हो तो बता दो.

‘देखो, मैं तो सिर्फ समय काटने के लिए महिला वैलफेयर सोसायटी में बच्चों को पढ़ाने का काम करती हूं. मैं कोई समाजसेविका नहीं हूं. मगर पाटनकर साहब के औफिस जाने के बाद 8 घंटे करूं क्या, इसलिए अगर तुम्हें कोई परेशानी न हो तो बच्ची को स्कूल से लौट कर तुम्हारे आने तक मेरे साथ रहने की परमिशन दे दो. मुझे और पाटनकर साहब को अच्छा लगेगा.’

‘मैडम, देखिए आया का इंतजाम…’ रिया ने फिर कहना चाहा तो उन्होंने बीच में टोक कर कहा, ‘आया को तुम रखे रहो, वह तुम्हारे और काम कर दिया करेगी.’ सब तरह के तर्कों से परास्त हो कर रिया चलने लगी तो उन्होंने कहा, ‘रिया, तुम सीधे औफिस से आ रही हो. तुम थकी होगी. मिस्टर पाटनकर भी आ गए हैं. चाय हमारे साथ पी कर जाना.’

‘जी, सर के साथ,’ रिया ने थोड़ा संकोच से कहा तो वे बोलीं, ‘सर होंगे तुम्हारे औफिस में. रिया, तुम मेरी बेटी जैसी हो. जाओ, बाथरूम में हाथमुंह धो लो.’

उस दिन से रिया की बेटी और उन में दादीपोती का जो रिश्ता कायम हुआ उस से वे मानो इस बच्ची की सचमुच ही दादी बन गईं. मगर जब कभी बच्ची उन से अपने पापा के बारे में प्रश्न करती, तो वे बेहद मुश्किल में पड़ जाती थीं. इंस्पैक्टर को यह संक्षिप्त कहानी सुना कर वे निबटी ही थीं कि डाक्टर आ कर बोले, ‘‘देखिए, बच्ची शरीर से कम मानसिक रूप से ज्यादा आहत है. इसलिए उसे किसी ऐसे अटैंडैंट की जरूरत है जिस से वह अपनापन महसूस करती हो.’’ स्थिति को देखते हुए मिसेज पाटनकर ने बच्ची की परिचर्या का भार संभाल लिया.

करीब 4-5 घंटे गुजर गए. बच्ची होश में आते ही, उसी तरह, ‘‘मुझे पापा को ढूंढ़ने जाना है, मुझे जाने दो न प्लीज,’’ की गुहार लगाती थी.

बच्ची की हालत स्थिर देखते हुए डाक्टर ने फिर कहा, ‘‘देखिए, मैं कह चुका हूं कि बच्ची शरीर की जगह मैंटली हर्ट ज्यादा है. हम ने अभी इसे नींद का इंजैक्शन दे दिया है. यह 3-4 घंटे सोई रह सकती है. मगर बच्ची की उम्र और हालत देखते हुए हम इसे ज्यादा सुलाए रखने का जोखिम नहीं ले सकते. बेहतर यह होगा कि बच्ची को होश में आने पर इस के पापा से मिलवा दिया जाए और इस समय अगर यह संभव न हो तो उन के बारे में कुछ संतोषजनक उत्तर दिया जाए. आप बच्ची की दादी हैं, आप समझ रही हैं न?’’

अब मिसेज पाटनकर ने डाक्टर को पूरी बात बताई तो वह बोला, ‘‘हम अपनी तरफ से पूरी कोशिश कर रहे हैं मगर बच्ची के पापा के विषय में आप को ही बताना पड़ेगा.’’ बच्ची को मिसेज सान्याल को सुपुर्द कर मिसेज पाटनकर रिया के वार्ड में आ गईं. रिया को होश आ गया था. वह उन्हें देखते ही बोली, ‘‘मेरी बेटी कहां है, उसे क्या हुआ है, आप कुछ बताती क्यों नहीं हैं? इतना कहते हुए वह फिर बेहोश होने लगी तो मिसेज पाटनकर उस के सिरहाने बैठ गईं और बड़े प्यार से उस का माथा सहलाने लगीं.

उन के ममतापूर्ण स्पर्श से रिया को कुछ राहत मिली. उस की चेतना लौटी. वह कुछ बोलती, इस से पहले मिसेज पाटनकर उस से बोलीं, ‘‘रिया, बच्ची को कुछ नहीं हुआ. मगर वह शरीर से ज्यादा मानसिक रूप से आहत है. अब तुम ही उसे पूरी तरह ठीक होने में मदद कर सकती हो.’’ मिसेज पाटनकर बोलते हुए लगातार रिया का माथा सहला रही थीं. रिया ने इस का कोई प्रतिवाद नहीं किया तो उन्हें लगा कि वह उन से कहीं अंतस से जुड़ती जा रही है.

थोड़ी देर में वह क्षीण स्वर में बोली, ‘‘मैं क्या कर सकती हूं?’’

‘‘देखो रिया, बच्ची अपने पापा के बारे में जानना चाहती है. हम उसे गोलमोल जवाब दे कर या उसे डांट कर चुप करा कर उस के मन में संशय व संदेह की ग्रंथि को ही जन्म दे रहे हैं. इस से उस का बालमन विद्रोही हो रहा है. मैं मानती हूं कि वह अभी इतनी परिपक्व नहीं है कि उसे तुम सबकुछ बताओ, मगर तुम एक परिपक्व उम्र की लड़की हो. तुम खुद निर्णय कर लो कि उसे क्या बताना है, कितना बताना है, कैसे बताना है. मगर बच्ची के स्वास्थ्य के लिए, उस के हित के लिए उसे कुछ तो बताना ही है. यही डाक्टर कह रहे हैं,’’ इतना कहते हुए मिसेज पाटनकर ने बड़े स्नेह से रिया को देखा तो उन्हें लगा कि वह उन के साथ अंतस से जुड़ गई है.

रिया बड़े धीमे स्वर में बोली, ‘‘अगर मैं ही यह सब कर सकती तो उसे बता ही देती न. अब आप ही मेरी कुछ मदद कीजिए न, मिसेज पाटनकर.’’

‘‘तुम मुझे कुछ बताओगी तो मैं कुछ निर्णय कर पाऊंगी न,’’ मिसेज पाटनकर ने रिया का हाथ अपने हाथ में स्नेह से थाम कर कहा.

रिया ने एक बार उन की ओर बड़ी याचनाभरी दृष्टि से देखा, फिर बोली, ‘‘आज से 7 साल पहले की बात है. मैं एमबीए कर रही थी. हमारा परिवार आम मध्य परिवारों की तरह कुछ आधुनिकता और कुछ पुरातन आदर्शों की खिचड़ी की सभ्यता वाला था. मैं ने अपनी पढ़ाई मैरिट स्कौलरशिप के आधार पर पूरी की थी. इसलिए जब एमबीए करने के लिए बेंगलुरु जाना तय किया तो मातापिता विरोध नहीं कर सके. एमबीए के दूसरे साल में मेरी दोस्ती संजय से हुई. वह भी मध्यवर्ग परिवार से था. धीरेधीरे हमारी दोस्ती प्यार में बदल गई. मगर आज लगता है कि उसे प्यार कहना गलत था. वह तो 2 जवान विपरीत लिंगी व्यक्तियों का आपस में शारीरिक रूप से अच्छा लगना मात्र था, जिस के चलते हम एकदूसरे के साथ ज्यादा से ज्यादा रहना चाहते थे.

‘‘5-6 महीने बीत गए तो एक दिन संजय बोला, ‘रिया, हमतुम दोनों वयस्क हैं. शिक्षित हैं और एकदूसरे को पसंद करते हैं, काफी दिन से साथसाथ घूमतेफिरते और रहते हुए एकदूसरे को अच्छी तरह समझ भी चुके हैं. यह समय हमारे कैरियर के लिए बेहद महत्त्वपूर्ण है. इस में क्लासैज के बाद इस तरह रोमांस के लिए मिलनेजुलने में समय बिताना दरअसल समय का ही नहीं, कैरियर भी बरबाद करना है. अब हमतुम जब एकदूसरे से इतना घुलमिल गए हैं तो होस्टल छोड़ कर किसी किराए के मकान में एकसाथ मिल कर पतिपत्नी बन कर क्यों नहीं रह लेते. आखिर प्रोजैक्ट में भी किसी पार्टनर की जरूरत होगी.’

‘‘‘मगर एमबीए के बीच में शादी, वह भी बिना घर वालों को बताए, उन की रजामंदी के…’ मैं बोली तो संजय मेरी बात बीच में ही काट कर बोला था, ‘मैं बैंडबाजे के साथ शादी करने को नहीं, हम दोनों की सहमति से आधुनिक वयस्क युवकयुवती के एक कमरे में एक छत के नीचे लिव इन रिलेशनशिप के रिश्ते में रहने की बात कर रहा हूं. इस तरह हम पतिपत्नी की तरह ही रहेंगे, मगर इस में सात जन्म तो क्या इस जन्म में भी साथ निभाने के बंधन से दोनों ही आजाद रहेंगे.’

‘‘मैं संजय के कथन से एकदम चौंकी थी. तो संजय ने कहा था, ‘तुम और्थोडौक्स मिडिल क्लास की लड़कियों की यही तो प्रौब्लम है कि तुम चाहे कितनी भी पढ़लिख लो मगर मौडर्न और फौरवर्ड नहीं बन सकतीं. तुम्हें तो ग्रेजुएशन के बाद बीएड कर के किसी स्कूल में टीचर का जौब करना चाहिए था. एमबीए में ऐडमिशन ले कर अपना समय और इस सीट पर किसी दूसरे जीनियस का फ्यूचर क्यों बरबाद कर दिया.’

‘‘उस के इस भाषण पर भी मेरी कोई प्रतिक्रिया नहीं देख कर वह मानो समझाइश पर उतर आया, बोला, ‘अच्छा देखो, आमतौर पर मांबाप लड़की के लिए अच्छा सा लड़का, उस का घरपरिवार, कारोबार देख कर अपने तमाम सगेसंबंधी और तामझाम जोड़ कर 8-10 दिन का वक्त और 8-10 लाख रुपए खर्च कर के जो अरेंज्ड मैरिज नाम की शादी करते हैं क्या उन सभी शादियों में पतिपत्नी में जिंदगीभर निभा पाने और सफल रहने की गारंटी होती है? नहीं होती है न. मेरी मानो तो मांबाप का अब तक का जैसेतैसे जमा किया गया रुपया, उन के भविष्य में काम आने के लिए छोड़ो. देखो, यह लिव इन रिलेशनशिप दकियानूसी शादियों के विरुद्ध एक क्रांतिकारी परिवर्तन है.

हम जैसे पढ़ेलिखे एडवांस्ड यूथ का समर्थन मिलेगा तभी इसे सामाजिक स्वीकृति मिलेगी. अब किसी को तो आगे आना होगा, तो हम ही क्यों नहीं इस रिवोल्यूशनरी चेंज के पायोनियर बनें. सो, कमऔन, बी बोल्ड, मौडर्न ऐंड फौरवर्ड. कैरियर बन जाने पर और पूरी तरह सैटल्ड हो जाने पर हम अपनी शादी डिक्लेयर कर देंगे. सो, कमऔन. वरना मुझे तो मेरे कैरियर पर ध्यान देना है. मुझे अपने कैरियर पर ध्यान देने दो.’ ‘‘एक तो संजय से मुझे गहरा लगाव हो गया था, दूसरे, मुझे उस के कथन में एक चुनौती लगी थी, अपने विचारों, अपनी मान्यताओं और अपने व्यक्तित्व के विरुद्ध. इसलिए मैं ने उस का समर्थन करते हुए उस के साथ ही अपना होस्टल छोड़ दिया और हम किराए पर एक मकान ले कर रहने लगे. ‘‘मकानमालिक एक मारवाड़ी था जिसे हम ने अपना परिचय किसी प्रोजैक्ट पर साथसाथ काम करने वाले सहयोगियों की तरह दिया. वह क्या समझा और क्या नहीं, बस उस ने किराए के एडवांस के रुपए ले व मकान में रहने की शर्तें बता कर छुट्टी पाई.

‘‘धीरेधीरे 1 साल बीत चला था. इस बीच हम ने कई बार पतिपत्नी वाले शारीरिक संबंध बनाए थे. इन्हीं में पता नहीं कब और कैसे चूक हो गई कि मैं प्रैग्नैंट हो गई. ‘‘मैं ने संजय को यह खबर बड़े उत्साह से दी मगर वह सुन कर एकदम खीझ गया और बोला, ‘मैं तो समझ रहा था कि तुम पढ़ीलिखी समझदार लड़की हो. कुछ कंट्रासैप्टिव पिल्स वगैरह इस्तेमाल करती रही होगी. तुम तो आम अनपढ़ औरतों जैसी निकलीं. अब फटाफट किसी मैटरनिटी होम में जा कर एमटीपी करा डालो. बच्चे पैदा करने के लिए और मां बनने के लिए जिंदगी पड़ी है. अगले महीने कुछ मल्टीनैशनल कंपनी के प्रतिनिधि कैंपस सिलैक्शन के लिए आएंगे इसलिए एमटीपी इस सप्ताह करा लो.’

‘‘मैं सन्न रह गई थी संजय की बातें सुन कर. क्या यही सब सुनने के लिए मैं मौडर्न, फौरवर्ड और बोल्ड बनी थी? आज कई साल पहले कालेज में एक विदुषी लेखिका का भाषण का एक वाक्य याद आने लगा, ‘हमें नारी मुक्ति चाहिए, मुक्त नारी नहीं,’ और इन दोनों की स्थितियों में अंतर भी समझ में आ गया.

‘‘मैं ने इस स्थिति में एक प्रख्यात नारी सामाजिक कार्यकर्ता से बात की तो वह बड़ी जोश में बोली कि परिवार के लोगों और युगयुगों से चली आ रही सामाजिक संस्था विवाह की अवहेलना कर के और वयस्क होने तथा विरोध नहीं करने पर भी शारीरिक संबंध बनाना स्वार्थी पुरुष का नारी के साथ भोग करना बलात्कार ही है. इस के लिए वह अपने दल को साथ ले कर संजय के विरुद्ध जुलूस निकालेगी, उस का घेराव करेगी, उस के कालेज पर प्रदर्शन करेगी. इस में मुझे हर जगह संजय द्वारा किए गए इस बलात्कार की स्वीकृति देनी होगी. इस तरह वह संजय को विवाह पूर्व यौन संबंध बनाने को बलात्कार सिद्ध कर के उसे मुझ से कानूनन और सामाजिक स्वीकृति सम्मत विवाह करने के लिए विवश कर देगी अथवा एक बड़ी रकम हरजाने के रूप में दिलवा देगी, मगर इस के लिए मुझे कुछ पैसा लगभग 20 हजार रुपए खर्च करने होंगे. सामाजिक कार्यकर्ता की बात सुन कर मुझे लगा कि मुझे अपनी मूर्खता और निर्लज्जता का ढिंढोरा खुद ही पीटना है और उस के कार्यक्रम के लिए मुझे ही एक जीवित मौडल या वस्तु के रूप में इस्तेमाल होने के लिए कहा जा रहा है.

‘‘इस के बाद मैं ने एक प्रौढ़ महिला वकील से संपर्क किया जो वकील से अधिक सलाहकार के रूप में मशहूर थीं. उन्होंने साफ कह दिया, ‘अगर संजय को कानूनी प्रक्रिया में घसीट कर उस का नाम ही उछलवाना है तो वक्त और पैसा बरबाद करो. अदालत में संजय का वकील तुम से संजय के संपर्क से पूर्व योनि शुचिता के नाम पर किसी अन्य युवक के साथ शारीरिक संबंध नहीं होने के बारे में जो सवाल करेगा, उस से तुम अपनेआप को सब के सामने पूरी तरह निर्वस्त्र खड़ा हुआ महसूस करोगी. मैं यह राय तुम्हें सिर्फ तुम से उम्र में बड़ी होने के नाते एक अभिभावक की तरह दे रही हूं.

‘अगर तुम किसी तरह अदालत में यह साबित करने में सफल भी हो गईं कि यह बच्चा संजय का ही है और संजय ने उसे सामाजिक रूप से अपना नाम दे भी दिया तो जीवन में हरदम, हरकदम पर कानून से ही जूझती रहोगी क्या. देखो, जिन संबंधों की नींव ही रेत में रखी गई हो उन की रक्षा कानून के सहारे से नहीं हो पाएगी. यह मेरा अनुभव है. तुम्हारा एमबीए पूरा हो रहा है. तुम्हारा एकेडैमिक रिकौर्ड काफी अच्छा है. मेरी सलाह है कि तुम अपने को मजबूत बनाओ और बच्चे को जन्म दो. एकाध साल तुम्हें काफी संघर्ष करना पड़ेगा. 3 साल के बाद बच्चा तुम्हारी प्रौब्लम नहीं रहेगा. फिर अपना कैरियर और बच्चे का भविष्य बनाने के लिए तुम्हारे सामने जीवन का विस्तृत क्षेत्र और पूरा समय होगा.’

‘‘‘मगर जब कभी बच्चा उस के पापा के बारे में पूछेगा तो…’ मैं ने थोड़ा कमजोर पड़ते हुए कहा था तो महिला वकील ने कहा था, ‘मैं तुम से कोई कड़वी बात नहीं कहना चाहती मगर यह प्रश्न उस समय भी अपनी जगह था जब तुम ने युगयुगों से स्थापित सामाजिक, पारिवारिक, संस्था के विरुद्ध एक अपरिपक्व भावुकता में मौडर्न तथा बोल्ड बन कर निर्णय लिया था. मगर अब तुम्हारे सामने दूसरे विकल्प कई तरह के जोखिमों से भरे हुए होंगे. क्योंकि प्रैग्नैंसी को समय हो गया है. वैसे अब बच्चे के अभिभावक के रूप में मां के नाम को प्राथमिकता और कानूनी मान्यता मिल गई है. बाकी कुछ प्रश्नों का जवाब वक्त के साथ ही मिलेगा. वक्त के साथ समस्याएं स्वयं सुलझती जाती हैं.’’’

इतना सब कह कर रिया शायद थकान के कारण चुप हो गई. थोड़ी देर चुप रह कर वह फिर बोली, ‘‘मुझे लगता है आज समय वह विराट प्रश्न ले कर खड़ा हो गया है, मगर उस का समाधान नहीं दे रहा है. शायद ऐसी ही स्थिति के लिए किसी ने कहा होगा, ‘लमहों ने खता की थी, सदियों ने सजा पाई,’’’ यह कह कर उस ने बड़ी बेबस निगाहों से मिसेज पाटनकर को देखा. मिसेज पाटनकर किसी गहरी सोच में थीं. अचानक उन्होंने रिया से पूछा, ‘‘संजय का कोई पताठिकाना…’’ रिया उन की बात पूरी होने के पहले ही एकदम उद्विग्न हो कर बोली, ‘‘मैं आप की बहुत इज्जत करती हूं मिसेज पाटनकर, मगर मुझे संजय से कोई मदद या समझौता नहीं चाहिए, प्लीज.’’

‘‘मैं तुम से संजय से मदद या समझौते के लिए नहीं कह रही, पर पिऊ के प्रश्न के उत्तर के लिए उस के बारे में कुछ जानना तो होगा. जो जानती हो वह बताओ.’’

‘‘उस का सिलेक्शन कैंपस इंटरव्यू में हो गया था. पिछले 4-5 साल से वह न्यूयार्क के एक बैंक में मैनेजर एचआरडी का काम कर रहा था. बस, इतना ही मालूम है मुझे उस के बारे में किसी कौमन फ्रैंड के जरिए से,’’ रिया ने मानो पीछा छुड़ाने के लिए कहा. रिया की बात सुन कर मिसेज पाटनकर कुछ देर तक कुछ सोचती रहीं, फिर बोलीं, ‘‘हां, अब मुझे लगता है कि समस्या का हल मिल गया है. तुम्हें और संजय को अलग हुए 6-7 साल हो गए हैं. इस बीच में तुम्हारा उस से कोई संबंध तो क्या संवाद तक नहीं हुआ है.

‘‘उस के बारे में बताया जा सकता है कि वह न्यूयार्क में रहता था. वहीं काम करता था. वहां किसी विध्वंसकारी आतंकवादी घटना के बाद उस का कोई पता नहीं चल सका कि वह गंभीर रूप से घायल हो कर पहचान नहीं होने से किसी अस्पताल में अनाम रोगी की तरह भरती है या मारा गया. अस्पताल के मनोचिकित्सक को यही बात पिऊ के पापा के बारे में बता देते हैं. वे अपनेआप जिस तरह और जितना चाहेंगे पिऊ को होश आने पर उस के पापा के बारे में अपनी तरह से बता देंगे और आज से यही औफिशियल जानकारी होगी पिऊ के पापा के बारे में.’’

‘‘लेकिन जब कभी पिऊ को यह पता चलेगा कि यह झूठ है तो?’’ कह कर रिया ने बिलकुल एक सहमी हुई बच्ची की तरह मिसेज पाटनकर की ओर देखा तो वे बोलीं, ‘‘रिया, वक्त अपनेआप सवालों के जवाब खोजता है. अभी पिऊ को नर्वस ब्रैकडाउन से बचाना सब से बड़ी जरूरत है.’’

‘‘ठीक है, जैसा आप ठीक समझें. पिऊ ठीक हो जाएगी न, मिसेज पाटनकर?’’ रिया ने डूबती हुई आवाज में कहा.

‘‘पिऊ बिलकुल ठीक हो जाएगी, मगर एक शर्त रहेगी.’’

‘‘क्या, मुझे आप की हर शर्त मंजूर है. बस, पिऊ…’’

‘‘सुन तो ले,’’ मिसेज पाटनकर बोलीं, ‘‘अस्पताल से डिस्चार्ज हो कर पिऊ स्वस्थ होने तक मेरे पास रहेगी और बाद में भी तुम्हारी अनुपस्थिति में वह हमेशा अपनी दादी के पास रहेगी. बोलो, मंजूर है?’’ उन्होंने ममतापूर्ण दृष्टि से रिया को देखा तो रिया डूबती सी आवाज में ही बोली, ‘‘आप पिऊ की दादी हैं या नानी, मैं कह नहीं सकती. मगर अब मुझे लग रहा है कि मेरे कुछ मूर्खतापूर्ण भावुक लमहों की जो लंबी सजा मुझे भोगनी है उस के लिए मुझे आप जैसी ममतामयी और दृढ़ महिला के सहारे की हर समय और हर कदम पर जरूरत होगी. आप मुझे सहारा देंगी न? मुझे अकेला तो नहीं छोड़ेंगी, बोलिए?’’ कह कर उस ने मिसेज पाटनकर का हाथ अपने कांपते हाथों में कस कर पकड़ लिया.

‘‘रिया, मुझे तो पिऊ से इतना लगाव हो गया है कि मैं तो खुद उस के बिना रहने की कल्पना कर के भी दुखी हो जाती हूं. मैं हमेशा तेरे साथ हूं. पर अभी इस वक्त तू अपने को संभाल जिस से हम दोनों मिल कर पिऊ को संभाल सकें. अभी मेरा हाथ छोड़ तो मैं यहां से जा कर मनोचिकित्सक को सारी बात बता सकूं,’’ कह कर उन्होंने रिया के माथे को चूम कर उसे आश्वस्त किया, बड़ी नरमी से अपना हाथ उस के हाथ से छुड़ाया और डाक्टर के कमरे की ओर चल पड़ीं.

प्रैशर प्रलय: पार्टी में क्या हुआ था

‘‘प्रैशर आया?’’ हाथी जैसी मस्त चाल से झूमते हुए अंदर आते ही जय ने पूछा. ‘‘अरे जय भैया आप को ही आया लगता है, जल्दी जाइए न वाशरूम खाली है,’’ प्रश्रय की छोटी बहन प्रशस्ति जोर से हंसी.

‘‘क्यों बिगाड़ता रहता है जय मेरे बेटे का सुंदर नाम. पहले ढंग से बोल प्रश्रय…’’ नीला, बेटे के नर्सरी के दोस्त संजय को आज भी दोस्त का सही नाम लेने के लिए सता कर खूब मजे लेती. बचपन में जय तोतला था तो उस के मुंह से अलग ही नाम निकलता. धीरेधीरे तो बोल जाता पर जल्दी में कुछ और ही बोल जाता. अब तो उस ने प्रश्रय को पै्रशर ही बुलाना शुरू कर दिया. अमूमन वह सीरियस बहुत कम होता. सीरियस होता तो भी प्रैशर सिंह ही पुकारता और प्रश्रय उसे तोतला. ‘‘अरे आंटीजी छोड़ो भी, कितनी बार कहा आसान सा नाम रख दो. इतना मुश्किल नाम क्यों रख दिया. अब हम ने सही नाम तो रख दिया प्रैशर सिन्हा… हा… हा… अरे मोदीजी की क्या खबर है. कुछ पता भी है, आज क्या नया इजाद कर डाला?’’

‘‘क्या?’’ सब का मुंह खुल गया, फिर कोई नई ‘बंदी’, ‘नोटबंदी’? सब सोच ही रहे थे कि वह मोदीजी… मोदीजी कहते हुए किचन में चला आया. ‘‘ओह… क्या जय भैया…’’ सब भूल ही जाते जय प्रश्रय की नईनवेली पत्नी मुदिता को मोदीजी कहना शुरू किया है.

‘‘अरे मुदिता भी नहीं कह पाता, सिंपल तो है. तो मोदीजी क्या भाभी ही कहा कर… कोई और भाभी तो है नहीं.’’ ‘‘मैं तो भैया मोदीजी ही कहूंगा, रोज नया ही कुछ देखने को मिल जाता है. कुछ नया फिर किया?’’ ‘‘किया है न तभी तो स्कूटी से प्रश्रय साथ दूध लेने गई है. बना रही थी हलवा उस में पानी इतना डाला कि वह लपसी बन गया. अब उसे सुधार कर फटाफट खीर बनाने का प्रोग्राम है. लो आ गए दोनों…’’ नीला मुसकरा कर बोलीं.

‘‘हमारे भैया भी तो महा कंजूस… कुछ वैस्ट नहीं करने देते…’’ ‘‘राम मिलाई जोड़ी… आगे नहीं बकूंगा वरना प्रैशर सिन्हा को प्रैशर आ जाएगा. बहुत मारेगा फिर…’’ कहते हुए उस ने प्रशस्ति के हाथ पर जोर से ताली मारी, हंसा और फिर उंगली से उसे चुप रहने का इशारा किया.

‘‘जल्दी भाभी… आप की नई ईजाद डिश ‘एग प्लस’ वह आमलेट में ब्रैड की फिलिंग वाले यम्मी नाश्ते से तो हमारा अभी आधा पेट ही भरा,’’ प्रशस्ति ने जानबूझ कर जबान होंठों पर फिराई, ‘‘आप चूक गए जय भैया उस स्पैशल नाश्ते को…’’ बहन प्रशस्ति छेड़ कर मुसकरा उठी. ‘‘क्याक्या वह ब्रैड में अंडे की स्टफिंग तो खाई है पर अंडे में ब्रैड की स्टफिंग? देखा तश्तरी, मैं ने सही नाम ही दिया है मोदीजी नमस्ते, मेरे लिए तो जरूर, जल्दी…’’ उस ने पेट सहलाते हुए भूखा होने का एहसास दिलाया.

मुदिता ने हंसते हुए प्रतिक्रिया दी, ‘‘मैं अभी सबकुछ, आप के लिए भी लाई…’’ और फिर किचन में चली गई. ‘‘क्यों मजाक बनाता है मेरी नईनवेली का तोतले? वह बुरा नहीं मानती. फिर इस का मतलब क्या?’’ प्रश्रय ने उस की पीठ पर हंसते हुए एक धौल जमा दी.

‘‘क्यों भई, प्रैशर सिन्हा तो प्रैशर में आ गया. तश्तरी तू उठ, उसे ठंडा हो कर बैठने

दे ढक्कन…’’ ‘‘लो अब एक और नामकरण मेरा… क्या है भैया,’’ वह रूठते हुए बोली.

‘‘ठीक ही तो है पर्यायवाची ही तो है तश्तरी का ढक्कन,’’ प्रश्रय हंस कर उसे सरकाते हुए बैठ गया.

‘‘यही तो काम होता है तश्तरी का,’’ दोनों हंसने लगे तो 15 साल की प्रशस्ति पीछे जा कर दोनों को हलकेहलके घूंसे बरसाने लगी. ‘‘अरे, रुकरुक ढक्कन… देख प्रैशर की तो डाई उतरने लगी है,’’ जय उस के बालों को निहारते हुए उन पर हाथ फिराने लगा.

‘‘अरे यार, मैं डाई लगाता कहां हूं जो छूटने लगेगी… पागल है क्या?’’ वह थोड़ा हैरानपरेशान हुआ, नवेली बहू मुदिता भी ध्यान लगा कर सुनने जो लगी थी. ‘‘बड़ी मार खाएगा, मेरी इज्जत का फालूदा क्यों निकालने पर लगा रहता है?’’

‘‘लो भई, प्रैशर सिन्हा तो जरा से में प्रैशर में आ गए.’’ ‘‘अबे समझ न, पैदा ही अच्छी डाई लगवा कर हुआ था, ऊपर वाले के सैलून से. अब और कितने सालों चलेगी आखिर. 30 का तू होने को आया…’’

‘‘ओए तू कितने का होने आया स्वीट सिक्सटीन?’’ वह चिढ़ कर बोला. ‘‘तुझे भी पता है शक्ल से तो स्वीट सिक्सटीन ही लगता है और दिल से ट्वैंटी वन और दिमाग से फोर्टी फोर…’’ कौलर ऊंचा करते हुए अकड़ से बोला.

‘‘मुझे तो तू हर तरह से फोर्टी फोर नहीं, फोरट्वैंटी लगता है.’’ ‘‘भई वकालत क्या यों ही चल जाएगी. इसीलिए तो ये विस्कर्स भी सफेद कलर कर रखे हैं कि लोग थोड़ा अनुभवी वकील समझें… वैसे मुझे तो तुझ से बढि़या डाई लगा कर भेजा है कुदरत ने और फिर प्रैशर सिन्हा तुझ से छोटा भी तो हूं,’’ बात मुदिता तक पहुंचाने के लिए वह तेज स्वर में बोला.

‘‘अच्छा?’’ मुदिता नाश्ते की ट्रे के साथ वहीं आ गई थी.

‘‘अच्छा क्या… केवल 4 दिनों का ही अंतर है महाराज. 1 ही महीना 1 ही साल दोनों पैदा हुए हैं…’’

‘‘तू फिर प्रैशर में आ गया, मजाक में भी सीरियस…’’ उस ने ऐसा चेहरा बनाया कि सभी हंस पड़े. फिर नाश्ते के लिए टेबल पर जा बैठे. मुदिता फिर कुछ लाने किचन में चली गई. तभी मुदिता का टेबल पर रखा मोबाइल बजने लगा.

‘‘देखना किस का है प्रश्रय… उठा लो, मैं आई.’’

‘‘दे भई,’’ प्रश्रय ने उसे मोबाइल पास करने को कहा. ‘‘गदाधर भीम…’’ कहते हुए उस ने मुसकरा कर मोबाइल उसे थमा दिया. मुदिता की बहन मुग्धा के नाम का सरलीकरण उस ने यही कर दिया था.

प्रश्रय ने उसे उंगली से चुप रहने का इशारा किया और बात करने लगा. ‘‘नमस्ते जीजू, जीजी कहां है? उस ने अपना मोबाइल जो मुझे दिया फिर उस में कुछ टाइप हो कर मेरे सिर को चला गया. अब मैं

क्या करूं. मेरा मूड बहुत औफ है जीजू, दीजिए उन को… अपना घटिया फोन मुझे हैल्प के लिए थमा दिया.’’ ‘‘देता हूं 1 सैकंड… किचन में है… पर अब क्या टाइप हो कर सैंड हो गया?’’

‘‘जीजू वह कैमिस्ट्री सर को मैं ने प्रश्न भेजने के लिए लिखा था ‘यू सैंड’

तो ई की जगह ए टाइप हो गया. फिर मैं ने ‘सौरी’ लिखा तो एस की जगह डब्ल्यू सैंड हो गया.’’ ‘‘क्याक्या मतलब…’’

‘‘यू सांड…वरी सर… अब क्या करूं जीजी के फोन ने तो कहीं का न छोड़ा… सर बहुत गुस्सा हो गए,’’ और उस का रोना शुरू हो गया. ‘‘अरे कौन वह विवेक शर्मा ही पढ़ाता है न तुम्हें…यहीं तो रहता है. मैं बात कर लूंगा. कोई गुस्सा नहीं रहेगा. अब रोना बंद करो और लो जीजी से बात करो.’’

‘‘सांड… वरी…’’ जय की हंसी छूट गई. वह पेट पकड़े हंसे जा रहा था. ‘‘मरवाएगा क्या पागल?’’

‘‘इसे बताया ही क्यों,’’ नीला के होंठों पर भी मुसकान खेलने लगी. ‘‘पहले ही बोला था मुझे दिया होता तो अब तक ठीक कर दिया होता,’’ जय किसी तरह हंसी कंट्रोल करते हुए बोला.

‘‘छांट कर ससुराल ढूंढ़ी है. सभी कलाकार हैं. हा… हा…’’ ‘‘ज्यादा मत हंस. तेरी भी शादी छांट कर ही करवाऊंगा, तोतले… जहां लड़की का तो ऐसा मुश्किल नाम होगा कि तू नाम ही सोचता रह जाएगा,’’ प्रश्रय जोर से हंसा.

‘‘ठीकवीक नहीं करना. से नया स्मार्ट फोन चाहिए अपने बर्थडे पर पहले ही वादा कर चुकी हूं. इसी 24 को तो है संडे को… मम्मी ने सब को बुलाया है. आप को भी आना है जय भैया… आंटी को भी लाना है,’’ मुदिता भी आ कर खाली सीट पर बैठ गई. ‘‘अरे बिलकुल. आप की आज्ञा शिरोधार्य.’’

‘‘यार, इतना महंगा फोन अभी बच्ची ही तो है… 11वीं क्लास कुछ होती है?’’ ‘‘लो प्रैशर सिन्हा का प्रैशर फिर बढ़ गया… अच्छा ही तो है रोजरोज गदाधर सायरन तुझे नहीं सुनना पड़ेगा.’’

‘‘अरे इतनी क्या कंजूसी. एक ही साली है, तेरी शादी के बाद उस का पहला जन्मदिन है. सही तो वादा किया है मुदिता ने,’’ नीला मुसकराई.

रविवार को मुदिता के घर जन्मदिन की खूब चहलपहल हो रखी थी. प्रश्रय और जय परिवार के साथ ठीक समय पर पहुंच गए. बर्थडे गर्ल मुग्धा बाकी मेहमानों को छोड़ उन की ओर लपकी और गिफ्ट का डब्बा मुदिता के हाथ से खींच लिया, ‘‘मेरा मोबाइल

है न…’’ ‘‘अरे रुकरुक, पहले सब से मिल… हम सब को विश तो कर लेने दे…’’

‘‘ओकेओकेओके… नमस्तेनमस्ते आंटी, आंटीजी, जीजू भैया दी… थैंकयू… थैंकयू… थैंकयू सब को,’’ उस ने गिफ्ट लेनेके उतावलेपन में इतनी जल्दीजल्दी कहा कि सभी हंस पड़े. ‘‘और मोहित कैसे हो यार? कैसी चल रही है तुम्हारी फाइनल ईयर की पढ़ाई? कभी तो मिलने आ जाया करो घर. कब हैं ऐग्जाम्स?’’ मोहित मुदिता का भाई जिसे जय मिसफिट, कभी लाल हिट कहता, घर भर में उसे वही तेज दिमाग व गोरा लगता था.

‘‘अरे छोड़ यार लाल हिट, सारे प्रश्न कौकरोचों को तुझे तो मार ही डालना है… आज के दिन भी पढ़ाई की बातें ही करेगा… बता आंटीअंकल कहां हैं? दोनों दिख नहीं रहे? नमकमिर्च… पेपरसाल्ट, मेरे अंकलआंटी तेरे मम्मीपापा रौनक कुछ कम लग रही है. मजा नहीं आ रहा,’’ जय ने कुतूहल से पूछा. तभी दोनों आ गए… सक्सेनाजी दोनों हाथों से पैंट संभालने में लगे हुए थे और गोलमटोल मैडम ने केक का डब्बा और एक पैकेट थामा हुआ था. सब से नमस्तेनमस्ते हुई पर दोनों की तूतू मैंमैं अभी भी चालू थी.

‘‘नाड़ा तेरा टूटा तो बैल्ट निकलवा मेरी आफत कर डाली. अब मेहमानों के सामने मेरी फजीहत… सब की तूही जिम्मेदार है…’’ ‘‘चुप करो अकेले तो कोई काम करते नहीं बनता. टेलर से ब्लाउज लेना न होता तो मैं जाती भी न आज तुम्हारे साथ.’’

‘‘तेरा सामान कौन लाता? कम खाया कर वरना नाड़ा न टूटता तेरा… वह तो शुक्र मना मेरा कि मैं ने तुम्हें अपनी बैल्ट मौके पर ही बांधने को दे दी.’’ ‘‘हांहां, क्यों नहीं. भूल गए पहली बार ससुराल कैसी पुरानी बैल्ट पहन कर पहुंच गए थे, जो पटाक से टूटी तो चुपके से मैं ने ही नाड़ा ला कर तुम्हारी इज्जत बचाई थी. बड़े हीरो की तरह शर्ट बिना खोंसे बाहर निकाल कर आए थे कि पुरानी बैल्ट दिखेगी नहीं… हां नहीं तो लो थामो अपना वालेट…’’

‘‘भगवान ने रात बनाई है वरना तो चौबीसों घंटे मुझ से लड़ाई ही करती रहो तुम…’’ मिसेज सक्सेना की साड़ी पर चमकती बैल्ट देख माजरा समझ सभी मुसकरा रहे थे. जय, प्रश्रय के कानों के पास मुंह ले जा कर बुदबुदा उठा, ‘‘राम मिलाए जोड़ी…’’

प्रश्रय ने उसे घूर कर देखा तो उस ने मुसकराते हुए अपने होंठों पर चुप की उंगली रख ली.

‘‘नमस्ते पापा,’’ प्रश्रय चरण छूने झुका था. ‘‘अरे रुकोरुको वरना हाथ उठा कर

आशीष दिया तो गड़बड़ हो जाएगी,’’ वे हंसे और बैठ गए.

‘‘हां अब ठीक है… खुश रहो,’’ उन्होंने दोनों हाथों से आशीर्वाद दिया.

‘‘भागवान, मौके की नजाकत समझो, जल्दी जा कर मेरी बैल्ट ला दो…’’ वे बैठ कर वालेट में नोट गिनगिन कर कुछ परेशान से दिखने लगे…

‘‘लगता है शौप में हजार के 2 नोट देने की जगह 3 नोट दे डाले मैडम ने. 10 होने चाहिए थे अब 9 ही हैं.’’ ‘‘अरे नहीं…’’

‘‘नमस्ते अंकल… लाइए मैं देखता हूं… होंगे इसी में, आंटीजी इतनी भी भुलक्कड़ नहीं… अरे, बहुत गड़बड़ कर दी है आप ने तभी तो… पिताजी की तसवीर उलटी रखेंगे तो क्या होगा. यह देखिए सारे पिताजी को सीधा कर दिया. अब गिन लीजिए पूरे हैं…’’ मिस्टर सक्सेना के साथ औरों का मुंह भी सोच में खुला रह गया था…

‘‘अरे पिताजी मतलब बापू, गांधीजी…’’ उस ने मुसकरा कर वालेट वापस थमा दिया, ‘‘अब गिनिए पूरे हैं ना?’’ ‘‘अच्छा ऐसा भी होता है क्या… मुझे तो मालूम ही नहीं था,’’ उन का मुंह अभी भी खुला हुआ था.

‘‘अरे पापा इस की तो मजाक करने की आदत है. आप को मालूम तो है…’’ प्रश्रय मुसकराया. ‘‘यह लो अपनी बैल्ट… मोहित जल्दी जा गाड़ी में मेरा चश्मा रह गया है उठा ला. नए चश्में के साथ मेरा फोटो सब से रोबदार आती है,’’ उन्होंने मिस्टर सक्सेना की ओर देखते हुए कहा.

‘‘मम्मी सिर पर लगा रखा है पहले देख तो लो…’’ ‘‘देखती कैसे इस की असली आंखें तो सर पर थीं…’’ मिस्टर सक्सेना चिढ़ कर चहक उठे.

‘‘आप भी न भाई साहब भाभी को छेड़ने का कोई मौका नहीं चूकते,’’ नीला मुसकराई. ‘‘सच में प्यारी सी हैं भाभीजी, चहकती

ही अच्छी लगती हैं,’’ जय की मम्मी शांता ने सहमति दर्शाई. ‘‘गजानन का हुक्म हो गया है, चलना ही पड़ेगा…’’ उन्होंने मुसकराते हुए जय, प्रश्रय की ओर देखा. हंसे तो हिल कर उन का शरीर भी साथ देने लगा.

‘‘जानते हो इन का असली नाम तो गजगामिनी था… नए नामकरण में क्या खाली तुम ही उस्ताद हो?’’ वह मुसकराए. ‘‘पर मैं कभी बुला ही नहीं पाया. इतने लंबे नाम से खाली गज कैसे कहता, मार ही डालती, तो गजानन पुकारने लगा,’’ वे ठठा कर हंस पड़े.

‘‘तभी तो आप के बिना माहौल जम नहीं रहा था.’’

‘‘बस 10-10 मिनट रुकिए, मम्मी वह वैशाली पहुंचने वाली है. 1 घंटा पहले एअरपोर्ट से निकली हैं… मुंबई से आ चुकी हैं. उस की दीदी और पापामम्मी भी साथ हैं… दी का कोई ऐग्जाम है. अभीअभी उस का फोन आया.’’

‘‘अरे वाह वैष्णवी… मेरी सहेली कितने सालों बाद हम मिलेंगे मम्मी…’’ मुदिता खुशी से चीखी और मम्मी के गले लिपट गई. डगमगा गया था संतुलन मम्मी का. किसी तरह मोटे शरीर को संभाला. ‘‘छोड़छोड़ मुदि, अभी तो मैं गिर जाती.’’

‘‘अच्छा… हिमांशु अंकल सपरिवार… सही मौके पर…’’ ‘‘तब तक आप लोग कुछकुछ खातेपीते रहो. कोल्ड ड्रिंक्स और लो, बहुत वैराइटी है…’’ गजगामिनी ने पास आ कर बोला.

शीतल बाल पेय बहुत हो लिया आंटीजी अब थोड़ा बड़ों का उष्णोदक मिल जाए तो… मीठा गरम पानी बढि़या… मतलब बींस पाउडर वाला या लीफ वाला…’’ ‘‘मतलब मम्मीजी कौफीचाय की तलब लग रही है इसे…’’ प्रश्रय ने मुसकराते हुए घबराई गजगामिनी को क्लीयर कर दिया.

‘‘आए, हय मैं तो घबरा ही गई कि कोई बीमारी हो गई क्या… अच्छाअच्छा मैं बनवाती हूं अभी,’’ वह मस्त लुढ़कती सी चली गई.

चाय का दौर चल ही रहा था कि मुग्धा की सहेली वैशाली, दीदी वैष्णवी, सुधांशु अंकल व ललिता आंटी आ गए. 3 साल पहले वे दिल्ली इसी कालोनी में रहते थे. बच्चों का स्कूल में भी साथ हो गया तो दोनों परिवारों में अच्छी दोस्ती हो गई थी. फिर सुधांशुजी का परिवार अहमदाबाद शिफ्ट हो गया. वहां प्रोफैसर पद

पर यूनिवर्सिटी में उन की नियुक्ति हो गई थी. सभी अपने पुराने दोस्तों से मिल कर प्रसन्न हो गए. सभी से उन का परिचय कराया जाने लगा. मुदिता वैष्णवी को ले कर प्रश्रय के पास

ले आई, ‘‘मिल, ये तेरे जीजाजी हैं, तू तो शादी में थी नहीं.’’

‘‘नमस्ते जीजाजी… मी वैष्णवी… हाऊ हैंडसम यू आर… हये बहुत लकी है मुदिता तू यार.’’

‘‘अब नजर न लगा मेरे पति को, क्या पता तू मुझ से भी लकी निकले, मुझ से सुंदर जो है.’’ ‘‘इन से मिलो ये हैं जय भैया. प्रश्रय के दोस्त बड़े मजाकिया स्वभाव के हैं. जानती हो प्रश्रय को ये प्रैशर सिन्हा और प्रश्रय इन्हें तोतला पुकारते हैं बचपन से.’’

‘‘हाय, माइसैल्फ वैष्णवी एलएलबी. मुदिता की टैंथ ट्वैल्थ की फ्रैंड,’’ वैष्णवी ने नमस्ते की. ‘‘नमस्ते, पर आप को बता दूं अब मैं तोतला बिलकुल नहीं हूं… वलना तोल्त में तेस तैसे ललता तिनियल लायल जो हूं.’’

वैष्णवी हंस पड़ी. ‘‘क्या मैं जान सकता हूं कौन सा मीठा साबुन चख कर आप आई हैं मुंबई से?’’

‘‘आप की उजली दंत कांति ने मुझे प्रश्न के लिए मजबूर कर दिया,’’ वह गंभीर होते

हुए बोला. ‘‘मीठा साबुन… मतलब?’’ वह सोचने लगी थी. साथ ही मुदिता भी. फिर बोली, ‘‘ओ गुड आप भी लौयर हैं. मेरी भी कानून में बहुत रुचि है, व्यक्ति को सिविलाइज्ड बनाता है कानून. इसीलिए मैं ने एलएलबी किया. अब सिविल जजी का ऐग्जाम ही देने आई हूं यहां.’’

‘‘अरे ठाट से वकालत कीजिए, ढेरों पैसे बनाइए, जजी में क्या रखा है? आप के पास जो केस आएगा समझो जीताजिताया है.’’ ‘‘वह कैसे?’’

‘‘ओ जय भैया, बातें बाद में बनाना. किस से बातें कर रहे हो… यह तो बताओ पहले… ‘वैष्णवी’ बोल के तो दिखाओ, तब मानेंगे हम वरना कुछ तो है बचपन का वह असर अभी भी हम तो यही कहेंगे… मालूम है अब बस आप नया नाम ही दे दोगे, चलो वही दे दो इसे भी,’’ वह मुसकराई.

‘‘मोदीजी माफी…’’ उस ने हंसते हुए हाथ जोड़ दिए. छोटी बहन वैशाली ने जय का प्रश्न सुन लिया था. पापा सुधांशु को पूछने भी चली गई. जहां पहले ही वैष्णवी की शादी के लिए सुधांशु और ललिता को चिंतित देख गजगामिनी नीला और जय की शादी के लिए परेशान शांता सभी अपने सुयोग्य ऐडवोकेट लड़के जय की तारीफ और उस के मजाकिया स्वभाव की भी चर्चा

किए बैठे थे. ‘‘ओ गौड मतलब मंजन टूथपेस्ट… मीठा साबुन? हा… हा… कोलगेट,’’ प्रोफैसर सुधांशु जवाब दे कर हंसे थे.

‘‘मुझे भी मिलाओ उस भैया से,’’ मुग्धा व वैशाली उसे बुलाने चलीं आईं. ‘‘चलचल हीरो बन रहा था न आज तेरी बात ही पक्की करवा देता हूं इसी वैष्णवी से… शांता आंटी की तेरी शादी की चिंता खत्म…

बेटा अब बोल के दिखा नाम या कोई और नाम रख,’’ प्रश्रय उस के कानों में फुसफुसा कर हंसे जा रहा था. वह जय को पकड़ कर वहां ले गया जहां सुधांशु और उस के ससुर मिस्टर सक्सेना पत्नियों के साथ बैठे थे.

हंसीमजाक चलता रहा. केक कटा, खानापीना, नाचगाना और

खूब मस्ती होती रही. बड़ों ने उसी बीच जय और वैष्णवी की रजामंदी ले कर उन की शादी भी तय कर दी. ‘‘जय भैया अब तो नाम लेना ही पड़ेगा, बोलिए वैष्णवी… या नाम बिगाडि़ए हमारे जैसा…’’

‘‘बेशोन दही या नवी मुंबई जो पसंद हो…’’ झट से बोल कर जय जोर से हंसा. सारे बच्चे, बड़े ‘बेशोन दही’ और ‘नवी मुंबई’ कह कर वैष्णवी को चिढ़ाने लगे. ये… ये… उस ने सोफे पर बैठे हुए एक कुशन से जय पर सटीक निशाना लगाया और फिर हंसते हुए कहा, ‘‘अरे ये जय नहीं प्रलय… और फिर कुशन में अपना मुंह छिपा लिया.’’

फिर तो सब का कुशन एकदूसरे पर फेंकने का खेल चल पड़ा. हुड़दंग का जंगल लौ अचानक वैष्णवी को सिविल लौ से और भी अच्छा लगने लगा था.

इतवार की एक शाम: कैसे बढ़ गई शैलेन के जीवन की खुशियां

शामहोने को थी. पहाड़ों के रास्ते में शाम गहरा रही थी. शैलेन गाड़ी में बैठा सोच रहा था कि कहां मुंबई की भीड़भाड़ और कहां पहाड़ की शुद्ध हवा. आज कई सालों के बाद वह अपने घर अपने मातापिता से मिलने जा रहा था. उस का घर कूर्ग में था. कूर्ग अपनी खूबसूरती और कौफी के बागानों के लिए मशहूर है. उस की बहन इरा, जो उस की बहन कम और दोस्त ज्यादा थी, अमेरिका से आई हुई थी. ज्यादातर तो उस के माता और पिता उस के  पास मुंबई में रहते थे, क्योंकि मल्टीनैशनल कंपनी में काम करने वाले शैलेन के पास समय की कमी थी. वह अपने परिवार के साथ मुंबई में रहता था. लेकिन इस बार इरा आई थी और वह अपना समय इस बार कूर्ग में बिताना चाहती थी. उसी से मिलने और अपने बचपन की यादें ताजा करने के लिए शैलेन 3 दिन के लिए अपने घर जा रहा था. मायसोर से आगे चावल के खेतों और साफसुथरे गांवों को पीछे छोड़ती उस की गाड़ी आगे बढ़ रही थी. उस के घर तक पहुंचने का रास्ता बहुत सुंदर था.

सहसा शैलेन को याद आया कि इरा ने उसे फोन पर बताया था कि इस बार वह अपनी बचपन की सहेलियों के साथ अपने स्कूल जाना चाहती है. इस बार इस के पास समय की कमी नहीं थी. इरा और उस की सहेलियां सब एक ही स्कूल में पढ़ती थीं. वे सब एकसाथ उस स्कूल को देखना चाहती थीं और कई सालों बाद आज आखिर वह मौका आ ही गया था.

‘चलो, ठीक ही है,’ शैलेन ने मन ही मन सोचा. वह भी तो उसी स्कूल में पढ़ता था. इरा और उस की सहेलियों से 3 क्लास सीनियर.

दोनों भाईबहन एकदूसरे के हमदर्द तो थे ही, हमराज भी थे. पढ़ाईलिखाई के मामले में एकदूसरे के राज छिपा कर रखते थे सब से.

यह सोचतेसोचते शैलेन मुसकरा उठा. उसे इरा

की सहेलियां याद आईं. वे सब भी इरा की

तरह हुल्लड़बाज थीं. कई बार वह इरा की सहेलियों को छोड़ने उन के घर गया था. उस ने इरा की कई सहेलियों को साइकिल चलाना भी सिखाया था.

इस बार शैलेन इरा से पूछेगा कि उस की वे सब शैतान सहेलियां कैसी हैं और कहां हैं? वैसे तो आजकल फेसबुक और व्हाट्सऐप के जमाने में सब ही एकदूसरे के बारे में जानते हैं. शैलेन को इरा की सहेलियों के नाम और चेहरे याद आने लगे. ये चेहरे और नाम वैसे तो कोई खास अहमियत उस के जीवन में नहीं रखते थे, लेकिन वह इन सब के साथ अपने बचपन का जुड़ाव महसूस करता था. शैलेन को याद आया कि जब उस की शादी मुंबई से होनी तय हुई थी तो इरा की सहेलियों को बहुत निराशा हुई थी. वे सब उस की शादी में शामिल होना चाहती थीं, क्योंकि हुल्लड़ मचाने का इस से अच्छा मौका और कहां मिलता? बाद में जब रिसैप्शन कूर्ग में तय हुआ तो सब के चेहरे की हंसी लौटी.

गाड़ी कौफी बागानों से होती हुई

गुजर रही थी और शैलेन के दिमाग में इरा की सहेलियों के नाम आ जा रहे थे. इन सब चेहरों

से परे एक चेहरा ऐसा भी था जिस की याद आते ही शैलेन का जीवन के प्रति उत्साह और लगन दोनों बढ़ जाते थे. यह चेहरा वेदा का था. वेदा भी इरा की खास सहेलियों में थी. वेदा की खासीयत यह थी कि वह अपने चेहरे की शैतानी को मासूमियत में बदल लेती थी. वैसे तो शैलेन

इरा की सभी सहेलियों से मिलताजुलता था, लेकिन एक इतवार की शाम कुछ ऐसा हुआ जिस के बाद से उसे वेदा से मिलने में हिचकिचाहट होने लगी.

शैलेन को वेदा से मिले अब 16 साल से भी ऊपर हो चुके हैं. वह शैलेन की रिसैप्शन में भी नहीं आ पाई थी. उस इतवार की शाम को कुछ ऐसा हुआ था जो शैलेन को आज भी जीने की प्रेरणा देता है. वैसे तो एक खुशनुमा जिंदगी जीने के लिए जो कुछ भी चाहिए वह सबकुछ शैलेन के पास था पर फिर भी इतवार की उस शाम के बिना सबकुछ अधूरा होता. आज से 16 साल पहले सोशल मीडिया नहीं था. उन दिनों चिट्ठियां यानी प्रेम पत्रों से काम चलाया जाता था. उस इतवार की शाम को ऐसी ही एक चिट्ठी शैलेन को भी मिली थी. उस चिट्ठी में शैलेन की बहुत तारीफ की गई थी और हर तरह की मदद के लिए (साइकिल सिखाने, होमवर्क में मदद करवाने आदि) शुक्रिया अदा करने के बाद अंत में यह लिखा था कि शैलेन उस रात 8 बजे उस के फोन का इंतजार करे. पत्र के अंत में वेदा का नाम लिखा था.

शैलेन चिट्ठी हाथ में लिए वहीं बैठे का बैठा रह गया. वैसे तो उस चिट्ठी में प्यार का इजहार बहुत साफ शब्दों में नहीं किया था पर यह निश्चित था कि चिट्ठी लिखने वाली लड़की वेदा थी. वह उसे पसंद करती थी. पहली और शायद आखिरी बार ऐसा हुआ था कि किसी महिला ने उस की यों तारीफ की हो. वैसे तो महानगर में और उस के विदेश प्रवास में अनेक महिला मित्रों ने और महिला सहकर्मियों ने उस की प्रशंसा की थी पर उन सब में बनावटीपन ज्यादा था. इस चिट्ठी और इस में व्यक्त भावनाएं शैलेन को ओस की बूंदों की तरह लगती थीं.

उन दिनों भावनाओं में गरमाहट होती थी, आजकल की तरह ठंडापन नहीं. आज भी वह चिट्ठी शैलेन के पास कहीं पड़ी होगी. जब कभी शैलेन को वह चिट्ठी और उस में लिखी बातें याद आती थीं तो उस की थकान का एक अंश गायब हो जाता था.

वह उस इतवार की रात को फोन का इंतजार करने लगा. मगर 8 बजे का समय गलत

सोचा था वेदा ने. इतवार की रात को शैलेन के पिताजी सब के साथ ही खाना खाते थे और

फोन वहीं डाइनिंगहौल में ही रखा था. वेदा किसी और दिन को फोन करने का रख सकती थी.

शैलेन रात को 8 बजने का इंतजार करने लगा. फोन आया और 8 बजे आया जैसाकि चिट्ठी में लिखा था. फोन पिताजी ने उठाया. जब वे घर में होते थे तो वही फोन उठाते थे. पर फोन कट गया और दोबारा नहीं आया.

आगे के कुछ दिन शैलेन ने वेदा के बारे में सोचते हुए बिताए. इस के बाद उस का वेदा से मिलना हुआ तो पर उन हालात में नहीं जहां चिट्ठी के बारे में कोई बात हो सके. इस के बाद सब अपने जीवन में धीरेधीरे आगे बढ़ते गए.

शैलेन मुंबई आ गया, इरा अमेरिका चली गई और वेदा बैंगलुरु. फिर बाद में सुना कि वेदा की शादी भी बैंगलुरु में हो गई. लेकिन शैलेन

उस चिट्ठी को भूल नहीं पाया. आज भी इतवार की ही शाम थी और शैलेन अपने घर अपने परिवार से मिलने जा रहा था. उस की गाड़ी अब घुमावदार रास्तों से हो कर घर की ओर जा रही थी. अचानक मोबाइल बज उठा. देखा तो इरा का फोन था.

‘‘और कितनी देर लगेगी? इरा ने बेताबी

से पूछा.’’

‘‘बस आधा घंटा और… कौफी तैयार रख… मैं पहुंच रहा हूं,’’ शैलेन ने जवाब दिया.

तभी इरा ने कहा, ‘‘गैस हु इज देअर

विद मी?’’

अचानक इस सवाल से शैलेन अचकचा उठा. भला कौन हो सकता है?

तभी इरा बोल पड़ी, ‘‘इट्स माई डियर

फ्रैंड, वेदा.’’

शैलेन का दिल धड़क उठा. उसे एक बार फिर उस चिट्ठी और इतवार की शाम की याद आ गई. वह मुसकरा उठा. उसे इस बात की खुशी थी कि वेदा यहां है. शाम गहरा चुकी थी और वह अपने घर के गेट पर पहुंच चुका था. अंदर पहुंच कर उस ने अपने मातापिता के पैर छुए.

तभी पीछे से आवाज आई, ‘‘हाय, हाऊ आर यू?’’

शैलेन ने पीछे घूम कर देखा तो वेदा

खड़ी थी.

‘‘हाय वेदा, कैसी है?’’ शैलेन ने जवाब में हंसते हुए कहा.

‘‘औल वैल,’’ वेदा का जवाब आया.

शैलेन ने देखा कि वेदा में बहुत ज्यादा अंतर नहीं आया है. वही आंखें, वही चेहरा, वही मासूमियत और इन सब के पीछे वही शरारती चेहरा. कुछ औपचारिक बातों और घरपरिवार के हालचाल लेने के बाद वे सब कौफी पीने लगे. शैलेन मन ही मन सोचने लगा कि क्या वेदा इतवार की उस शाम को भूल चुकी है? वैसे देखा जाए तो भूलने जैसा था भी क्या? एक चिट्ठी को तो बड़ी आसानी से भुलाया जा सकता है. पर आखिर कुछ भी हो वह चिट्ठी वेदा ने उसे खुद ही लिखी थी. अपनी खुद की लिखी चिट्ठी को वह एकदम कैसे भूल गई? वैसे भी आजकल फेसबुक की दुनिया में एक अदना सी चिट्ठी की औकात ही क्या? पर उन दिनों चिट्ठियों में ही दिल बसते थे.

उस चिट्ठी ने शैलेन को एक एहसास दिया था, पसंद किए जाने का एहसास,

स्वीकारे जाने का एहसास और इन सब से ऊपर एक अच्छे इंसान होने का एहसास.

ये एहसास जीवन में हवा और पानी की तरह जरूरी तो नहीं हैं, लेकिन इन का होना जीवन को और खूबसूरत बनाता है. पर कमाल है, वेदा को तो जैसे कुछ याद ही नहीं है. यह सही है कि  वेदा और शैलेन दोनों ही अपनीअपनी जिंदगी में व्यस्त हैं पर फिर भी बीते हुए समय के कुछ अंशों को तो याद किया ही जा सकता है. वेदा ने जिन भावनाओं को एक दिन चिट्ठी में उकेरा था वे शैलेन की न होते हुए भी उसे याद थीं, पर लगता है वेदा भूल चुकी थी.

पहली बार शैलेन को इस मामले में बेचैनी हुई. रात के 10 बजे थे और वह बालकनी में बैठा था. तभी इरा कौफी लिए बाहर आई. शैलेन वैसे तो इरा से कुछ नहीं छिपाता था पर न जाने क्या सोच कर वेदा की चिट्ठी की बात उसे नहीं बताई थी. आज सालों बाद शैलेन को लगा कि वेदा की चिट्ठी की बात इरा को बताई जाए. इरा वहीं बैठ कर कौफी पी रही थी और अपने मोबाइल में कुछ देख रही थी.

‘‘वेदा कहीं काम करती है?’’ शैलेन ने भूमिका बांधी.

‘‘हां,’’ छोटा सा उत्तर दे कर इरा फिर मोबाइल में व्यस्त हो गई.

‘‘कहां?’’ शैलेन ने बात आगे बढ़ाई.

‘‘उस का एनजीओ है बैंगलुरु में, वहीं,’’ इरा की निगाहें अपने मोबाइल पर ही थीं.

शैलेन ने आगे बात करने के लिए गला साफ किया, फिर बोला, ‘‘तुम्हें पता है, वेदा ने मुझे एक चिट्ठी लिखी थी बहुत पहले जब तुम लोग कालेज में थीं. मैं ने उस चिट्ठी का कोई जवाब नहीं दिया था.’’

इरा ने अब मोबाइल छोड़ कर भाई की तरफ देखा, ‘‘कौन सी चिट्ठी वही जो छोटू के हाथ से भिजवाई गई थी?’’ इरा ने उदासीनता से पूछा.

‘‘हांहां, वही… तुम्हें पता था?’’ शैलेन को अब इरा की उदासीनता पर गुस्सा आने लगा कि उसे छोड़ कर और सब लोग जो उस चिट्ठी से जुड़े हैं, इतने उदासीन क्यों हैं?

‘‘वह चिट्ठी वेदा ने नहीं लिखी थी,

मधू और चंदा ने लिखी थी,’’ इरा ने जम्हाई लेते हुए कहा.

‘‘क्या मतलब? मधु और वेदा ने लिखी थी? क्यों?’’ शैलेन ने इस अप्रत्याशित जानकारी के बाद सवाल किया. मधु और वेदा भी इरा की सहेलियां थीं और बहुत शरारती भी थीं.

शैलेन के इस सवाल पर इरा हंसने लगी, ‘‘अरे भाई, तू भूल गया उस दिन पहली अप्रैल थी.’’

मधु और चंदा का चेहरा शैलेन की आंखों के सामने घूम गया.

‘‘पर नीचे नाम तो वेदा का लिखा था?’’ शैलेन ने पूछा.

‘‘अब नीचे किसी न किसी का नाम तो लिखना ही था, तो वेदा का ही लिख दिया,’’ इरा ने जवाब दिया.

‘‘क्या वेदा को यह बात मालूम थी?’’ शैलेन ने हक्काबक्का होते हुए पूछा.

‘‘कौन सी बात? चिट्ठी वाली? पहले तो नहीं पर बाद में उन्होंने मुझे और वेदा को बता दिया था कि उन लोगों ने तुम्हें पहली अप्रैल पर वेदा के नाम से बेवकूफ बनाया है,’’ इरा ने अलसाते हुए कहा.

‘‘पर उन्हें वेदा का नाम नहीं लिखना चाहिए था,’’ शैलेन ने जैसे अपनेआप से कहा.

‘‘हां, लिखना तो नहीं चाहिए था, बट इट इज नौट मैटर, बिकौज दे न्यू दैट यू आर ए जैंटलमैंन,’’ इरा ने उनींदी आंखों से जवाब दिया.

शैलेन मन ही मन यह सोच कर मुसकरा उठा कि शायद पहली बार ऐसा हुआ होगा कि पहली अप्रैल पूरे 16 सालों तक मना हो. पर जो भी हो, इस वाकेआ ने उस के जीवन की खुशियों को बढ़ाया ही था भले वह उसे मूर्ख बनाने का प्रयास ही क्यों न रहा हो. अनजाने में ही उन लड़कियों ने कुछ ऐसा कर दिया था कि उस से शैलेन के जीवन की खुशियां बढ़ गई थीं.

श्रीमतीजी और प्याज लहसुन

संडे की छुट्टी को हम पूरी तरह ऐंजौय करने के मूड में थे कि सुबहसुबह श्रीमतीजी ने हमें डपटते हुए कहा, ‘‘अजी सुनते हो, लहसुन बादाम से महंगा हो गया और प्याज सौ रुपए किलोग्राम तक जा पहुंचा है.’’

इतनी सुबह हम श्रीमतीजी के ऐसे आर्थिक, व्यावसायिक और सूचनापरक प्रवचनों का भावार्थ समझ नहीं पा रहे थे. तभी अखबार एक तरफ पटकते हुए वे पुन: बोलीं, ‘‘लगता है अब हमें ही कुछ करना पड़ेगा. सरकार की कुंभकर्णी नींद तो टूटने से रही.’’

हम ने तनिक आश्चर्य से पूछा, ‘‘भागवान, चुनाव भी नजदीक नहीं हैं. इसलिए

फिलहाल प्याजलहसुन से सरकार गिरनेगिराने के चांस नहीं दिख रहे हैं. सो व्यर्थ का विलाप बंद करो.’’

श्रीमतीजी तुनक कर बोलीं, ‘‘तुम्हें क्या पता है, आजकल हो क्या रहा है. आम आदमी की थाली से कभी दाल गायब हो रही है तो कभी सब्जियां. सरकार को तो कभी महंगाई नजर ही नहीं आती.’’

व्यर्थ की बहस से अब हम ऊबने लगे थे, क्योंकि हमें पता है कि आम आदमी के रोनेचिल्लाने से कभी महंगाई कम नहीं होती. हां, माननीय मंत्री महोदय जब चाहें तब अपनी बयानबाजी और भविष्यवाणियों से कीमतों में उछाल ला सकते हैं. चीनी, दूध की कीमतों को आसमान तक उछाल सकते हैं. राजनीति का यही तो फंडा है- खुद भी अमीर बनो और दूसरों के लिए भी अमीर बनने के मौके पैदा करो. लूटो और लूटने दो, स्विस बैंक का खाता लबालब कर डालो.

श्रीमतीजी घर के बिगड़ते बजट से पूरी तरह टूट चुकी हैं. रोजमर्रा की वस्तुओं के बढ़ते दामों ने जीना मुहाल कर रखा है. इसलिए वे एक कुशल अर्थशास्त्री की तरह गंभीर मुद्रा में हमें सुझाव देने लगीं, ‘‘क्यों न हम अपने लान की जमीन का सदुपयोग कर के प्याजलहसुन की खेती शुरू कर दें?’’

हम भौचक्के से उन्हें निहारते हुए बोले, ‘‘खेती और लान में?’’

श्रीमतीजी ने तुरंत हमारी दुविधा भांपते हुए कहा, ‘‘फूलों से पेट नहीं भरता. जापान में तो लोग 2-4 फुट जमीन में ही पूरे घर के लिए सब्जियां पैदा कर लेते हैं.’’

हम श्रीमतीजी के असाधारण भौगोलिक ज्ञान के आगे नतमस्तक थे. हमें लगा जैसे मैनेजमैंट ऐक्स्पर्ट हमें प्रबंधन के गुर सिखा रहा है. उन्होंने अपना फाइनल निर्णय देते हुए घोषणा की, ‘‘अब अपने लान में सब्जियों की खेती की जाएगी. एक बार खर्चा तो होगा, लेकिन देखना शीघ्र ही मेरा आइडिया अपना ‘साइड बिजनैस’ बन जाएगा. आम के आम और गुठलियों के दाम.’’

 

हैरान थे हम उन की अक्लमंदी पर. शीघ्र ही हमें अपनी रजाई छोड़ कर कड़ाके की सर्दी में लान की खुदाई में जुटना पड़ा.

तभी एक सूटेडबूटेड सज्जन अपनी कार से उतर कर हमारे लान में तशरीफ लाए. हम कुछ समझ पाते, उस से पूर्व ही उन्होंने अपना परिचय देते हुए कहा, ‘‘मैं नवरंगी लाल, हौर्टीकल्चर ऐक्स्पर्ट. आप के यहां से मेरी विजिट के लिए डिमांड आई थी. मैं उसी सिलसिले में आया हूं.’’

लगभग 1 घंटे की मशक्कत के बाद उन्होंने एक फाइल बना कर हमारे समक्ष प्रस्तुत की, जिस में उस जमीन का ‘बैस्ट यूज’ कर के तरहतरह की सब्जियां उगाने का ‘ब्ल्यू प्रिंट’ तैयार किया गया था. उस में बड़ी तफसील से 1-1 इंच जमीन के उपयोग और सीजन के हिसाब से फसल तैयार करने का पूरा खाका समझाया गया था.

2 फुट में प्याज, 1 फुट में लहसुन, 2 फुट में आलू, 6 इंच में टमाटर… इत्यादि की तकनीकी जानकारी देख कर श्रीमतीजी फूली नहीं समा रही थीं. 10×10 फुट के लान से अब उन्हें उम्मीद हो गई कि शीघ्र ही इतनी सब्जियों का उत्पादन होने लगेगा कि ट्रक भरभर कर सब्जियां सप्लाई की जा सकेंगी.

मि. नवरंगी लाल ने जब अपनी विजिट का 5,000 रुपए का बिल हमें थमाया तो हमारा दिमाग घूम गया. जिस काम को एक साधारण सा माली 2-4 सौ रुपए में कर जाता, उस काम के 5,000 रुपए का भुगतान? सब्जियों के उत्पादन का हमारा चाव एक झटके में ही ठंडा पड़ने लगा.

श्रीमतीजी ने तुरंत हमें समझाते हुए फरमाया, ‘‘हमेशा बड़ी सोच रखो, तभी सफलता के शिखर को छू पाओगे. देखना, ये 5,000 रुपए कैसे 50,000 रुपयों में बदलते हैं.’’

अब धंधे की व्यावसायिक बातों को हम क्या समझते. हम ने तो इतनी उम्र कालेज में छात्रों को पढ़ा कर ही गंवाई थी. खैर, मि. नवरंगी लाल का पेमैंट कर के उन्हें विदा किया गया.

हमें अगले दिन कालेज से छुट्टी लेनी पड़ी, क्योंकि श्रीमतीजी के साथ सब्जियों के बीज, खाद आदि की खरीदारी जो करनी थी. उस दिन करीब 7 हजार रुपए का नश्तर लग चुका था, लेकिन श्रीमतीजी बेहद खुश नजर आ रही थीं.

घर आए तो एक नई समस्या ने दिमाग खराब कर दिया. अपने छोटे से खेत में बीजारोपण कैसे हो, क्योंकि खेतीबाड़ी का ज्ञान हम दोनों में से किसी को भी नहीं था. कृषि वैज्ञानिक महाशय तो ऐक्स्पर्ट राय दे गए थे, लेकिन उन के ‘ऐक्शन प्लान’ को अमलीजामा पहनाने के लिए अब एक अदद माली की सख्त जरूरत थी. इसलिए तुरंत माली की सेवाएं भी ली गईं. माली ने जमीन तैयार कर खाद, बीज डाल दिए. भांतिभांति की सब्जियों का बीजारोपण हो चुका था.

 

माली की जरूरत तो अब रोज पड़ने वाली थी, क्योंकि जब तक कृषि तकनीक में प्रवीणता, दक्षता हासिल न कर ली जाती, तब तक तो उस की सेवाएं लेना हमारी विवशता थी. इसलिए उसे 5,000 रुपए मासिक वेतन पर रख लिया गया. श्रीमतीजी की दिनचर्या भी अब बदल चुकी थी. अब उन का ज्यादातर समय अपने ‘खेत’ में उग रहे ख्वाबों को तराशने में ही व्यतीत होने लगा था. 10 दिन बीततेबीतते कुछ क्यारियों में कोंपलें फूटने लगीं. श्रीमतीजी उन्हें देख कर इस तरह तृप्त होतीं जैसे मां अपने बेटे की अठखेलियां देख कर वात्सल्यभाव में निहाल हो जाती हैं. धीरेधीरे प्याजलहसुन, आलू, टमाटर, पालक, मेथी की फसल बड़ी होने लगी. अब पूरी कालोनी में हमारी श्रीमतीजी के नए प्रयोग की चर्चा होने लगी. दूरदूर से लोग हमारे ‘कृषि उद्योग’ को देखने आने लगे. श्रीमतीजी उन के सामने बड़े गर्व से अपने कृषि हुनर का सजीव प्रदर्शन करतीं.

वह दिन हमारी श्रीमतीजी के लिए बड़ा खुशनसीब था, जिस दिन हमारी फसल पर फल आते नजर आने लगे. मटर की छोटीछोटी फलियां, गोभी, पालक, मिर्चें, बैगन व धनिया देखदेख कर मन पुलकित होने लगा. लेकिन तभी एक प्राकृतिक आपदा ने हमारी खुशी पर बे्रक लगा दिया. एक अनजाना संक्रमण बड़ी तेजी से फैला और हमारी फसल को पकने से पूर्व ही नष्ट करने लगा.

समझदार और अनुभवी माली ने तुरंत हमें कीटनाशकों की एक सूची थमा दी. हम तुरंत दौड़ेदौड़े पूरे 10,000 रुपयों के कीटनाशक ले आए. साथ ही, छिड़काव करने वाले उपकरण भी लाने पड़े.

चूंकि श्रीमतीजी पर सब्जियां उगाने का जनून सवार था, इसलिए वे कोई कसर नहीं छोड़ना चाहती थीं. कीटनाशकों के छिड़काव से संक्रमण पर रोक लगी और फसल पुन: तेजी से बढ़ने लगी. अब सब्जियों के उपभोग के दिन नजदीक आ रहे थे. परिवार में एक नया जोश, नई उमंग छाने लगी थी.

 

हमारे खर्चे की बात उठाते ही श्रीमतीजी तुरंत हमारी बात काटते हुए तर्क देतीं, ‘‘यह इनवैस्टमैंट है, जब आउटपुट आएगा तब देखना कितना फायदा होता है. वैसे भी रोज मंडी जा कर सब्जी लाने में कितना समय, धन और पैट्रोल खर्च होता है. उस लिहाज से तो हम अब भी फायदे में ही हैं.’’

उस दिन अचानक श्रीमतीजी की चीख सुन कर हमारी नींद टूटी. तुरंत बाहर दौड़े आए तो ज्ञात हुआ कि हमारे लान की चारदीवारी फांद कर कोई चोर हमारी नवजात प्याजलहसुन की फसल को चुरा कर चंपत हो गया है. क्यारियां खुदी पड़ी थीं, एकदम सूनी जैसे नईनवेली दुलहन के शरीर से सारे आभूषण और वस्त्र उतार लिए गए हों. हम हैरान रह गए. श्रीमतीजी पर जैसे वज्रपात हो गया हो. बेचारी इस सदमे से उबर नहीं पा रही थीं. वे बेहोश हो कर गिर पड़ीं. फसल पकती, उस से पूर्व ही चोर सब्जियों पर हाथ साफ कर गया था.

होश में आते ही श्रीमतीजी बोलीं, ‘‘चलो पुलिस थाने, रपट लिखवानी है.’’

हम ने कहा, ‘‘एफ.आई.आर.?’’

वे बोलीं, ‘‘और नहीं तो क्या? ऐक्शन तो लेना ही पड़ेगा वरना उस की हिम्मत और बढ़ेगी. वह फिर आ धमकेगा.’’

पुलिस भला हमारी श्रीमतीजी की भावनाओं को क्या समझती. उस ने हमारी शिकायत को बड़े मजाकिया ढंग से टालते हुए कहा, ‘‘सब्जियों की चोरी की एफ.आई.आर. भला कैसे लिखी जा सकती है? पुलिस के पास इतना वक्त ही कहां है? वी.आई.पीज की सुरक्षा से महत्त्वपूर्ण तो आप का लान है नहीं कि वहां पुलिस तैनात कर दी जाए.’’

हम निराश हो कर लौट आए. प्राइवेट सिक्युरिटी हायर करने की भी बात आई, लेकिन खर्चा बहुत ज्यादा था. हमें लगा 10-20 हजार रुपए सिक्योरिटी के नाम पर भी सही. शायद तभी हम अपनी उत्पादित सब्जियों का मजा लूट सकें वरना चोर छोड़ते कहां हैं फलसब्जियां.

अब हम ने एक चौकीदार रख लिया है. श्रीमतीजी पूर्ण मुस्तैदी से सब्जियों के पकने के इंतजार में हैं और हम 5-10 किलोग्राम प्याजलहसुन और आलूटमाटर के उत्पादन पर आए 30-35 हजार रुपए के खर्चे का हिसाब लगाने में बेदम हुए पड़े हैं.

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नए मोड़ पर: कुमुदिनी के मन में शंका के बीज

कुमुदिनी चौकाबरतन निबटा कर बरामदे में खड़ी आंचल से हाथ पोंछ ही रही थी कि अपने बड़े भाई कपूरचंद को आंगन में प्रवेश करते देख वहीं ठगी सी खड़ी रह गई. अर्चना स्कूल गई हुई थी और अतुल प्रैस नौकरी पर गया हुआ था.

कपूरचंद ने बरामदे में पड़ी खाट पर बैठते हुए कहा, ‘‘अतुल के लिए लड़की देख आया हूं. लाखों में एक है. सीधासच्चा परिवार है. पिता अध्यापक हैं. इटावा के रहने वाले हैं. वहीं उन का अपना मकान है. दहेज तो ज्यादा नहीं मिलेगा, पर लड़की, बस यों समझ लो चांद का टुकड़ा है. शक्लसूरत में ही नहीं, पढ़ाई में भी फर्स्ट क्लास है. अंगरेजी में एमए पास है. तू बहुत दिनों से कह रही थी न कि अतुल की शादी करा दो. बस, अब चारपाई पर बैठीबैठी हुक्म चलाया करना.’’

कुमुदिनी ने एक दीर्घ निश्वास छोड़ा. 6 साल हो गए उसे विधवा हुए. 45 साल की उम्र में ही वह 60 साल की बुढि़या दिखाई पड़ने लगी. कौन जानता था कि कमलकांत अकस्मात यों चल बसेंगे. वे एक प्रैस में प्रूफरीडर थे.

10 हजार रुपए पगार मिलती थी. मकान अपना होने के कारण घर का खर्च किसी तरह चल जाता था. अतुल पढ़ाई में शुरू से ही होशियार न था. 12वीं क्लास में 2 बार फेल हो चुका था. पिता की मृत्यु के समय वह 18 वर्ष का था. प्रैस के प्रबंधकों ने दया कर के अतुल को 8 हजार रुपए वेतन पर क्लर्क की नौकरी दे दी.

पिछले 3 सालों से कुमुदिनी चाह रही थी कि कहीं अतुल का रिश्ता तय हो जाए. घर का कामकाज उस से ढंग से संभलता नहीं था. कहीं बातचीत चलती भी तो रिश्तेदार अड़ंगा डाल देते या पासपड़ोसी रहीसही कसर पूरी कर देते. कमलकांत की मृत्यु के बाद रिश्तेदारों का आनाजाना बहुत कम हो गया था.

कुमुदिनी के बड़े भाई कपूरचंद साल में एकाध बार आ कर उस का कुशलक्षेम पूछ जाते. पिछली बार जब वे आए तो कुमुदिनी ने रोंआसे गले से कहा था, ‘अतुल की शादी में इतनी देर हो रही है तो अर्चना को तो शायद कुंआरी ही बिठाए रखना पड़ेगा.’

कपूरचंद ने तभी से गांठ बांध ली थी. जहां भी जाते, ध्यान रखते. इटावा में मास्टर रामप्रकाश ने जब दहेज के अभाव में अपनी कन्या के लिए वर न मिल पाने की बात कही तो कपूरचंद ने अतुल की बात छेड़ दी. छेड़ क्या दी, अपनी ओर से वे लगभग तय ही कर आए थे. कुमुदिनी बोली, ‘‘भाई, दहेज की तो कोई बात नहीं. अतुल के पिता तो दहेज के सदा खिलाफ थे, पर अपना अतुल तो कुल मैट्रिक पास है.’’

कपूरचंद ने इस तरफ ध्यान ही नहीं दिया था, पर अब अपनी बात रखते हुए बोले, ‘‘पढ़ाई का क्या है? नौकरी आजकल किसे मिलती है? अच्छेअच्छे डबल एमए जूते चटकाते फिरते हैं, फिर शक्लसूरत में हमारा अतुल कौन सा बेपढ़ा लगता है?’’

रविवार को कुमुदिनी कपूरचंद के साथ अतुल और अर्चना को ले कर लड़की देखने इटावा पहुंची. लड़की वास्तव में हीरा थी. कुमुदिनी की तो उस पर नजर ही नहीं ठहरती थी. बड़ीबड़ी आंखें, लंबे बाल, गोरा रंग, छरहरा शरीर, सरल स्वभाव और मृदुभाषी.

जलपान और इधरउधर की बातों के बाद लड़की वाले अतुल के परिवार वालों को आपस में सलाहमशवरे का मौका देने के लिए एकएक कर के खिसक गए. अतुल घर से सोच कर चला था कि लड़की में कोई न कोई कमी निकाल कर मना कर दूंगा. एमए पास लड़की से विवाह करने में वह हिचकिचा रहा था, पर निवेदिता को देख कर तो उसे स्वयं से ईर्ष्या होने लगी.

अर्चना का मन कर रहा था कि चट मंगनी पट ब्याह करा के भाभी को अभी अपने साथ आगरा लेती चले. कुमुदिनी को भी कहीं कोई कसर दिखाई नहीं दी, पर वह सोच रही थी कि यह लड़की घर के कामकाज में उस का हाथ क्या बंटा पाएगी?

कपूरचंद ने जब प्रश्नवाचक दृष्टि से कुमुदिनी की ओर देखा तो वह सहज होती हुई बोली, ‘‘भाई, इन लोगों से भी तो पूछ लो कि उन्हें लड़का भी पसंद है या नहीं. अतुल की पढ़ाई के बारे में भी बता दो. बाद में कोई यह न कहे कि हमें धोखे में रखा.’’

कपूरचंद उठ कर भीतर गए. वहां लड़के के संबंध में ही बात हो रही थी. लड़का सब को पसंद था. निवेदिता की भी मौन स्वीकृति थी. कपूरचंद ने जब अतुल की पढ़ाई का उल्लेख किया तो रामप्रकाश के मुख से एकदम निकला, ‘‘ऐसा लगता तो नहीं है.’’ फिर अपना निर्णय देते हुए बोले, ‘‘मेरे कितने ही एमए पास विद्यार्थी कईकई साल से बेकार हैं. चपरासी तक की नौकरी के लिए अप्लाई कर चुके हैं पर अधिक पढ़ेलिखे होने के कारण वहां से भी कोई इंटरव्यू के लिए नहीं बुलाता.’’

निवेदिता की मां को भी कोई आपत्ति नहीं थी. हां, निवेदिता के मुख पर पलभर को शिकन अवश्य आई, पर फिर तत्काल ही वह बोल उठी, ‘‘जैसा तुम ठीक समझो, मां.’’ शायद उसे अपने परिवार की सीमाएं ज्ञात थीं और वह हल होती हुई समस्या को फिर से मुश्किल पहेली नहीं बनाना चाहती थी.

कपूरचंद के साथ रामप्रकाश भी बाहर आ गए. समधिन से बोले, ‘‘आप ने क्या फैसला किया?’’

कुमुदिनी बोली, ‘‘लड़की तो आप की हीरा है पर उस के योग्य राजमुकुट तो हमारे पास है नहीं.’’

रामप्रकाश गदगद होते हुए बोले, ‘‘गुदड़ी में ही लाल सुरक्षित रहता है.’’

कुमुदिनी ने बाजार से मिठाई और नारियल मंगा कर निवेदिता की गोद भर दी. अपनी उंगली में से एक नई अंगूठी निकाल कर निवेदिता की उंगली में पहना दी. रिश्ता पक्का हो गया.

3 महीने के बाद उन का विवाह हो गया. मास्टरजी ने बरातियों की खातिरदारी बहुत अच्छी की थी. निवेदिता को भी उन्होंने गृहस्थी की सभी आवश्यक वस्तुएं दी थीं.

शादी के बाद निवेदिता एक सप्ताह ससुराल में रही. बड़े आनंद में समय बीता. सब ने उसे हाथोंहाथ लिया. जो देखता, प्रभावित हो जाता. अपनी इतनी प्रशंसा निवेदिता ने पूरे जीवन में नहीं सुनी थी पर एक ही बात उसे अखरी थी- अतुल का उस के सम्मुख निरीह बने रहना, हर बात में संकोच करना और सकुचाना. अधिकारपूर्वक वह कुछ कहता ही नहीं था. समर्पण की बेला में उस ने ही जैसे स्वयं को लुटा दिया था. अतुल तो हर बात में आज्ञा की प्रतीक्षा करता रहता था.

पत्नी से कम पढ़ा होने से अतुल में इन दिनों एक हीनभावना घर कर गई थी. हर बात में उसे लगता कि कहीं यह उस का गंवारपन न समझा जाए. वह बहुत कम बोलता और खोयाखोया रहता. 1 महीने बाद जब निवेदिता दोबारा ससुराल आई तो विवाह की धूमधाम समाप्त हो चुकी थी.

इस बीच तमाशा देखने के शौकीन कुमुदिनी और अतुल के कानों में सैकड़ों तरह की बातें फूंक चुके थे. कुमुदिनी से किसी ने कहा, ‘‘बहू की सुंदरता को चाटोगी क्या? पढ़ीलिखी तो है पर फली भी नहीं फोड़ने की.’’ कोई बोला, ‘‘कल ही पति को ले कर अलग हो जाएगी. वह क्या तेरी चाकरी करेगी?’’

किसी ने कहा, ‘‘पढ़ीलिखी लड़कियां घर के काम से मतलब नहीं रखतीं. इन से तो बस फैशन और सिनेमा की बातें करा लो. तुम मांबेटी खटा करना.’’

किसी ने टिप्पणी की, ‘‘तुम तो बस रूप पर रीझ गईं. नकदी के नाम क्या मिला? ठेंगा. कल को तुम्हें भी तो अर्चना के हाथ पीले करने हैं.’’

किसी ने कहा, ‘‘अतुल को समझा देना. तनख्वाह तुम्हारे ही हाथ पर ला कर रखे.’’

किसी ने सलाह दी, ‘‘बहू को शुरू से ही रोब में रखना. हमारीतुम्हारी जैसी बहुएं अब नहीं आती हैं, खेलीखाई होती हैं.’’

गरज यह कि जितने मुंह उतनी ही बातें, पड़ोसिनों और सहेलियों ने न जाने कहांकहां के झूठेसच्चे किस्से सुना कर कुमुदिनी को जैसे महाभारत के लिए तैयार कर दिया. वह भी सोचने लगी, ‘इतनी पढ़ीलिखी लड़की नहीं लेनी चाहिए थी.’ उधर अतुल कुछ तो स्वयं हीनभावना से ग्रस्त था, कुछ साथियों ने फिकरे कसकस कर परेशान कर दिया. कोई कहता, ‘‘मियां, तुम्हें तो हिज्जे करकर के बोलना पड़ता होगा.’’

कोई कहता, ‘‘भाई, सूरत ही सूरत है या सीरत भी है?’’

कोई कहता, ‘‘अजी, शर्महया तो सब कालेज की पढ़ाई में विदा हो जाती है. वह तो अतुल को भी चौराहे पर बेच आएगी.’’

दूसरा कंधे पर हाथ रख कर धीरे से कान में फुसफुसाया, ‘‘यार, हाथ भी रखने देती है कि नहीं.’’ निवेदिता जब दोबारा ससुराल आई तो मांबेटे किसी अप्रत्याशित घटना की कल्पना कर रहे थे. रहरह कर दोनों का कलेजा धड़क जाता था और वे अपने निर्णय पर सकपका जाते थे.

वास्तव में हुआ भी अप्रत्याशित ही. हाथों की मेहंदी छूटी नहीं थी कि निवेदिता कमर कस कर घर के कामों में जुट गई. झाड़ू लगाना और बरतन मांजने जैसे काम उस ने अपने मायके में कभी नहीं किए थे पर यहां वह बिना संकोच के सभी काम करती थी.

महल्ले वालों ने पैंतरा बदला. अब उन्होंने कहना शुरू किया, ‘‘गौने वाली बहू से ही चौकाबरतन, झाड़ूबुहारू शुरू करा दी है. 4 दिन तो बेचारी को चैन से बैठने दिया होता.’’

सास ने काम का बंटवारा कर लेने पर जोर दिया, पर निवेदिता नहीं मानी. उसे घर की आर्थिक परिस्थिति का भी पूरा ध्यान था, इसीलिए जब कुमुदिनी एक दिन घर का काम करने के लिए किसी नौकरानी को पकड़ लाई तो निवेदिता इस शर्त पर उसे रखने को तैयार हुई कि अर्चना की ट्यूशन की छुट्टी कर दी जाए. वह उसे स्वयं पढ़ाएगी.

अर्चना हाईस्कूल की परीक्षा दे रही थी. छमाही परीक्षा में वह अंगरेजी और संस्कृत में फेल थी. सो, अतुल ने उसे घर में पढ़ाने के लिए एक सस्ता सा मास्टर रख दिया था. मास्टर केवल बीए पास था और पढ़ाते समय उस की कई गलतियां खुद निवेदिता ने महसूस की थीं. 800 रुपए का ट्यूशन छुड़ा कर नौकरानी को 500 रुपए देना महंगा सौदा भी नहीं था.

निवेदिता के पढ़ाने का तरीका इतना अच्छा था कि अर्चना भी खुश थी. एक महीने में ही अर्चना की गिनती क्लास की अच्छी लड़कियों में होने लगी. जब सहेलियों ने उस की सफलता का रहस्य पूछा तो उस ने भाभी की भूरिभूरि प्रशंसा की.

थोड़े ही दिनों में महल्ले की कई लड़कियों ने निवेदिता से ट्यूशन पढ़ना शुरू कर दिया. कुमुदिनी को पहले तो कुछ संकोच हुआ पर बढ़ती हुई महंगाई में घर आती लक्ष्मी लौटाने को मन नहीं हुआ. सोचा बहू का हाथखर्च ही निकल आएगा. अतुल की बंधीबंधाई तनख्वाह में कहां तक काम चलता?

गरमी की छुट्टियों में ट्यूशन बंद हो गए. इन दिनों अतुल अपनी छुट्टी के बाद प्रैस में 2 घंटे हिंदी के प्रूफ देखा करता था. एक रात निवेदिता ने उस से कहा कि वह प्रूफ घर ले आया करे और सुबह जाते समय ले जाया करे. कोई जरूरी काम हो तो रात को घूमते हुए जा कर वहां दे आए. अतुल पहले तो केवल हिंदी के ही प्रूफ देखता था, अब वह निवेदिता के कारण अंगरेजी के प्रूफ भी लाने लगा.

निवेदिता की प्रूफरीडिंग इतनी अच्छी थी कि कुछ ही दिनों स्थिति यहां तक आ पहुंची कि प्रैस का चपरासी दिन या रात, किसी भी समय प्रूफ देने आ जाता था. अब पर्याप्त आय होने लगी.

अर्चना हाई स्कूल में प्रथम श्रेणी में पास हुई तो सारे स्कूल में धूम मच गई. स्कूल में जब यह रहस्य प्रकट हुआ कि इस का सारा श्रेय उस की भाभी को है तो प्रधानाध्यिपिका ने अगले ही दिन निवेदिता को बुलावा भेजा. एक अध्यापिका का स्थान रिक्त था. प्रधानाध्यिपिका ने निवेदिता को सलाह दी कि वह उस पद के लिए प्रार्थनापत्र भेज दे. 15 दिनों के बाद उस पद पर निवेदिता की नियुक्ति हो गई. निवेदिता जब नियुक्तिपत्र ले कर घर पहुंची तो उस की आंखों में प्रसन्नता के आंसू छलक आए.

निवेदिता अब दिन में स्कूल की नौकरी करती और रात को प्रूफ पढ़ती. घर की आर्थिक दशा सुधर रही थी, पर अतुल स्वयं को अब भी बौना महसूस करता था. प्यार के नाम पर निवेदिता उस की श्रद्धा ही प्राप्त कर रही थी. एक रात जब अतुल हिंदी के प्रूफ पढ़ रहा था तो निवेदिता ने बड़ी विनम्रता से कहा, ‘‘सुनो.’’ अतुल का हृदय धकधक करने लगा.

‘‘अब आप यह प्रूफ संशोधन छोड़ दें. पैसे की तंगी तो अब है नहीं.’’

अतुल ने सोचा, ‘गए काम से.’ उस के हृदय में उथलपुथल मच गई. संयत हो कर बोला, ‘‘पर अब तो आदत बन गई है. बिना पढ़े रात को नींद नहीं आती.’’

निवेदिता ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘वही तो कह रही हूं. अर्चना की इंटर की पढ़ाई के लिए सारी किताबें खरीदी जा चुकी हैं, आप प्राइवेट परीक्षार्थी के रूप में इंटर का फौर्म भर दें.’’

अतुल का चेहरा अनायास लाल हो गया. उस ने असमर्थता जताते हुए कहा, ‘‘इतने साल पढ़ाई छोड़े हो गए हैं. अब पढ़ने में कहां मन लगेगा?’’  निवेदिता ने उस के निकट खिसक कर कहा, ‘‘पढ़ते तो आप अब भी हैं. 2 घंटे प्रूफ की जगह पाठ्यक्रम की पुस्तकें पढ़ लेने से बेड़ा पार हो जाएगा. कठिन कुछ नहीं है.’’

अतुल 3-4 दिनों तक परेशान रहा. फिर उस ने फौर्म भर ही दिया. पहले तो पढ़ने में मन नहीं लगा, पर निवेदिता प्रत्येक विषय को इतना सरल बना देती कि अतुल का खोया आत्मविश्वास लौटने लगा था. साथी ताना देते. कोईकोई उस से कहता कि वह तो पूरी तरह जोरू का गुलाम हो गया है. यही दिन तो मौजमस्ती के हैं पर अतुल सुनीअनसुनी कर देता.

इंटर द्वितीय श्रेणी में पास कर लेने के बाद तो उस ने स्वयं ही कालेज की संध्या कक्षाओं में बीए में प्रवेश ले लिया. बीए में उस की प्रथम श्रेणी केवल 5 नंबरों से रह गई.

कुमुदिनी की समझ में नहीं आता था कि बहू ने सारे घर पर जाने क्या जादू कर दिया है. अतुल के पिता हार गए पर यह पढ़ने में सदा फिसड्डी रहा. अब इस की अक्ल वाली दाढ़ निकली है.

बीए के बाद अतुल ने एमए (हिंदी) में प्रवेश लिया. इस प्रकार अब तक पढ़ाई में निवेदिता से जो सहायता मिल जाती थी, उस से वह वंचित हो गया. पर अब तक उस में पर्याप्त आत्मविश्वास जाग चुका था. वह पढ़ने की तकनीक जान गया था. निवेदिता भी यही चाहती थी कि वह हिंदी में एमए करे अन्यथा उस की हीनता की भावना दूर नहीं होगी. अपने बूते पर एमए करने पर उस का स्वयं में विश्वास बढ़ेगा. वह स्वयं को कम महसूस नहीं करेगा.

वही हुआ. समाचारपत्र में अपना एमए का परिणाम देख कर अतुल भागाभागा घर आया तो मां आराम कर रही थी. अर्चना किसी सहेली के घर गई हुई थी. छुट्टी का दिन था, निवेदिता घर की सफाई कर रही थी. अतुल ने समाचारपत्र उस की ओर फेंकते हुए कहा, ‘‘प्रथम श्रेणी, द्वितीय स्थान.’’

और इस से पहले कि निवेदिता समाचारपत्र उठा कर परीक्षाफल देखती, अतुल ने आगे बढ़ कर उसे दोनों हाथों में उठा लिया और खुशी से कमरे में नाचने लगा.

उस की हीनता की गं्रथि चरमरा कर टूट चुकी थी. आज वह स्वयं को किसी से कम महसूस नहीं कर रहा था. विश्वविद्यालय में उस ने दूसरा स्थान प्राप्त किया है, यह गर्व उस के चेहरे पर स्पष्ट झलक रहा था.

निवेदिता का चेहरा पहले प्रसन्नता से खिला, फिर लज्जा से लाल हो गया. आज पहली बार, बिना मांगे, उसे पति का संपूर्ण प्यार प्राप्त हुआ था. इस अधिकार की वह कितने दिनों से कामना कर रही थी, विवाह के दिन से ही. अपनी इस उपलब्धि पर उस की आंखों में खुशी का सागर उमड़ पड़ा.

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कितने अजनबी: टूटते परिवार की कहानी

हम 4 एक ही छत के नीचे रहने वाले लोग एकदूसरे से इतने अजनबी कि अपनेअपने खोल में सिमटे हुए हैं.

मैं रश्मि हूं. इस घर की सब से बड़ी बेटी. मैं ने अपने जीवन के 35 वसंत देख डाले हैं. मेरे जीवन में सब कुछ सामान्य गति से ही चलता रहता यदि आज उन्होंने जीवन के इस ठहरे पानी में कंकड़ न डाला होता.

मैं सोचती हूं, क्या मिलता है लोगों को इस तरह दूसरे को परेशान करने में. मैं ने तो आज तक कभी यह जानने की जरूरत नहीं समझी कि पड़ोसी क्या कर रहे हैं. पड़ोसी तो दूर अपनी सगी भाभी क्या कर रही हैं, यह तक जानने की कोशिश नहीं की लेकिन आज मेरे मिनटमिनट का हिसाब रखा जा रहा है. मेरा कुसूर क्या है? केवल यही न कि मैं अविवाहिता हूं. क्या यह इतना बड़ा गुनाह है कि मेरे बारे में बातचीत करते हुए सब निर्मम हो जाते हैं.

अभी कल की ही बात है. मकान मालकिन की बहू, जिसे मैं सगी भाभी जैसा सम्मान देती हूं, मेरी नईनवेली भाभी से कह रही थी, ‘‘देखो जलज, जरा अपनी बड़ी ननद से सावधान रहना. जब तुम और प्रतुल कमरे में होते हो तो उस के कान उधर ही लगे रहते हैं. मुझे तो लगता है कि वह ताकझांक भी करती होगी. अरी बहन, बड़ी उम्र तक शादी नहीं होगी तो क्या होगा, मन तो करता ही होगा…’’  कह कर वह जोर से हंस दी.

मैं नहीं सुन पाई कि मेरी इकलौती भाभी, जिस ने अभी मुझे जानासमझा ही कितना है, ने क्या कहा. पर मेरे लिए तो यह डूब मरने की बात है. मैं क्या इतनी फूहड़ हूं कि अपने भाई और भाभी के कमरे में झांकती फिरूंगी, उन की बातें सुनूंगी. मुझे मर जाना चाहिए. धरती पर बोझ बन कर रहने से क्या फायदा?

मैं अवनि हूं. इस घर की सब से छोटी बेटी. मैं बिना बात सब से उलझती रहती हूं. कुछ भी सोचेसमझे बिना जो मुंह में आता है बोल देती हूं और फिर बाद में पछताती भी हूं.

मेरी हर बात से यही जाहिर होता है कि मैं इस व्यवस्था का विरोध कर रही हूं जबकि खुद ही इस व्यवस्था का एक हिस्सा हूं.

मैं 32 साल की हो चुकी हूं. मेरे साथ की लड़कियां 1-2 बच्चों की मां  बन चुकी हैं. मैं उन से मिलतीजुलती हूं पर अब उन के साथ मुझे बातों में वह मजा नहीं आता जो उन की शादी से पहले आता था.

अब उन के पास सासपुराण, पति का यशगान और बच्चों की किचकिच के अलावा कोई दूसरा विषय होता ही नहीं है. मैं चिढ़ जाती हूं. क्या तुम लोग  इतना पढ़लिख कर इसी दिमागी स्तर की रह गई हो. वे सब हंसती हुई कहती हैं, ‘‘बन्नो, जब इन चक्करों में पड़ोगी तो जानोगी कि कितनी पूर्णता लगती है इस में.’’

‘क्या सच?’ मैं सोचती हूं एक स्कूल की मास्टरी करते हुए मुझे अपना जेबखर्च मिल जाता है. खूब सजधज कर जाती हूं. अच्छी किस्म की लिपस्टिक लगाती हूं. बढि़या सिल्क की साडि़यां पहनती हूं. पैरों में ऊंची हील की सैंडिल होती हैं जिन की खटखट की आवाज पर कितनी जोड़ी आंखें देखने लगती हैं. पर मैं किसी को कंधे पर हाथ नहीं रखने देती.

क्या मुझ में पूर्णता नहीं है? मैं एक परफैक्ट महिला हूं और मैं ऐसा प्रदर्शित भी करती हूं, लेकिन जब कोई हंसताखिलखिलाता जोड़ा 2 छोटेछोटे भागते पैरों के पीछे पार्क में दौड़ता दिख जाता है तो दिल में टीस सी उठती है. काश, मैं भी…

मैं जलज हूं. इस घर के इकलौते बेटे की पत्नी. अभी मेरी शादी को मात्र 6 महीने हुए हैं. मेरे पति प्रतुल बहुत अच्छे स्वभाव के हैं. एकांत में मेरे साथ ठीक से रहते हैं. हंसतेमुसकराते हैं, प्यार भी जताते हैं और मेरी हर छोटीबड़ी इच्छा का ध्यान रखते हैं लेकिन अपनी दोनों बहनों के सामने उन की चुप्पी लग जाती है.

सारे दिन मुझे बड़ी दीदी रश्मि की सूक्ष्मदर्शी आंखों के सामने घूमना पड़ता है. मेरा ओढ़नापहनना सबकुछ उन की इच्छा के अनुसार होता है. अभी मेरी शादी को 6 महीने ही हुए हैं पर वह मुझे छांटछांट कर हलके रंग वाले कपड़े ही पहनाती हैं. जरा सी बड़ी बिंदी लगा लो तो कहेंगी, ‘‘क्या गंवारों की तरह बड़ी बिंदी और भरभर हाथ चूडि़यां पहनती हो. जरा सोबर बनो सोबर. अवनि को देखो, कितनी स्मार्ट लगती है.’’

मैं कहना चाहती हूं कि दीदी, अवनि दीदी अविवाहित हैं और मैं सुहागिन, लेकिन कह नहीं सकती क्योंकि शादी से पहले प्रतुल ने मुझ से यह वादा ले लिया था कि दोनों बड़ी बहनों को कभी कोई जवाब न देना.

मैं अपने मन की बात किस से कहूं. घुटती रहती हूं. कल रश्मि दीदी कह रही थीं, ‘‘भाभी, भतीजा होगा तो मुझे क्या खिलाओगी.’’

मैं ने भी हंसते हुए कहा था, ‘‘दीदी, आप जो खाएंगी वही खिलाऊंगी.’’

चेहरे पर थोड़ी मुसकराहट और ढेर सारी कड़वाहट भर कर अवनि दीदी बीच में ही बोल पड़ीं, ‘‘भाभी, हमें थोड़ा सल्फास खिला देना.’’

मैं अवाक् रह गई. क्या मैं इन्हें सल्फास खिलाने आई हूं.

अगर भाभी के बारे में सोच ऐसी ही थी तो फिर अपने भाई की शादी क्यों की?

मैं 3 भाइयों की इकलौती बहन हूं. मातापिता मेरे भी नहीं हैं इसलिए इन बहनों का दर्द समझती हूं. ऐसा बहुतकुछ मेरे जीवन में भी गुजरा है. जब मैं इंटर पास कर बी.ए. में आई तो महल्लापड़ोस वाली औरतें मेरी भाभियों को सलाह देने लगीं, ‘‘अरे, बोझ उतारो अपने सिर से. बहुत दिन रख लिया. अगर कुछ ऊंचनीच हो गई तो रोती फिरोगी. भाई लाड़ करते हैं इसलिए नकचढ़ी हो गई है.’’

सच में मैं नकचढ़ी थी लेकिन बड़ी भाभी मेरी मां बन गई थीं. उन्होंने कहा था, ‘‘आप लोग अपनाअपना बोझ संभालो. मेरे घर की चिंता मत करो. जब तक पढ़लिख कर जलज किसी काबिल नहीं हो जाती और कोई सुपात्र नहीं मिल जाता, हम शादी नहीं करेंगे.’’

और सचमुच भाभी ने मुझे एम.ए., बी.एड. करवाया और अच्छे रिश्ते की खोज में लग गईं. यद्यपि प्रतुल और मुझ में 10 साल का अंतर है लेकिन इस रिश्ते की अच्छाई भाभी ने यह समझी कि अपनी जलज, बिन मांबाप की है. भाईभाभियों के बीच रह कर पलीबढ़ी है. बिना मांबाप की बच्चियों का दर्द खूब समझेगी और प्रतुल को सहयोग करेगी.

मैं नहीं जानती थी कि मुझे ऐसा माहौल मिलेगा. इतनी कुंठा से ग्रस्त ननदें होंगी. अरे, अगर शादी नहीं हुई या नहीं हो रही है तो क्या करने को कुछ नहीं है. बहुतकुछ है.

एक बार मैं ने यही बात अवनि दीदी से धीरे से कही थी तो किचन के दरवाजे पर हाथ अड़ा कर लगभग मेरा रास्ता रोकते हुए वह बड़ी क्रूरता से कह गई थीं, ‘आज आप की शादी हो गई है इसलिए कह रही हैं. अगर न होती और भाईभाभी के साथ जीवन भर रहना पड़ता तो पता चलता.’ बताइए, मैं 6 महीने पुरानी विवाहिता आज विवाहित होने का ताना सुन रही हूं.

मैं प्रतुल हूं. इस घर का इकलौता बेटा और बुजुर्ग भी. मेरी उम्र 40 वर्ष है. मेरे पिता की मृत्यु को अभी 5 वर्ष हुए हैं. इन 5 सालों में मैं बहुत परिपक्व हो गया हूं. जब मेरे पिता ने अंतिम सांस ली उस समय मेरी दोनों बहनें क्रमश: 30 और 27 वर्ष की थीं. मेरी उम्र 35 वर्ष की थी. उन्होंने हम में से किसी के बारे में कुछ नहीं सोचा. पिताजी की अच्छीखासी नौकरी थी, परंतु जितना कमाया उतना गंवाया. केवल बढि़या खाया और पहना. घर में क्या है यह नहीं जाना. अम्मां उन से 5 वर्ष पहले मरी थीं. यानी 10 साल पहले भी हम भाईबहन इतने छोटे नहीं थे कि अपनाअपना घर नहीं बसा सकते थे. मेरे दोस्तों के बच्चे लंबाई में उन के बराबर हो रहे हैं और यहां अभी बाप बनने का नंबर भी नहीं आया.

नौकरी पाने के लिए भी मैं ने खूब एडि़यां घिसीं. 8 सालों तक दैनिक वेतनभोगी के रूप में रहा. दोस्त और दुश्मन की पहचान उसी दौर में हुई थी. आज भी उस दौर के बारे में सोचता हूं तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं.

अम्मां सोतेउठते एक ही मंत्र फूंका करती थीं कि बेटा, इन बहनों की नइया तुझे ही पार लगानी है. लेकिन कैसे? वह भी नहीं जानती थीं.

मैं ने जब से होश संभाला, अम्मां और पिताजी को झगड़ते ही पाया. हर बहस का अंत अम्मां की भूख हड़ताल और पिताजी की दहाड़ पर समाप्त होता था. रोतीकलपती अम्मां थकहार कर खाने बैठ जातीं क्योंकि पिताजी पलट कर उन्हें पूछते ही नहीं थे. अम्मां को कोई गंभीर बीमारी न थी. एक दिन के बुखार में ही वह चल बसीं.

रिटायरमेंट के बाद पिताजी को गांव के पुश्तैनी मकान की याद आई. सबकुछ छोड़छाड़ कर वह गांव में जा बैठे तो झक मार कर हम सब को भी जाना पड़ा. पिछले 15 सालों में गांव और

शहर के बीच तालमेल बैठातेबैठाते मैं न गांव का गबरू जवान रहा न शहर का

छैलछबीला.

बहनों को पढ़ाया, खुद भी पढ़ा और नौकरी की तलाश में खूब भटका. उधर गांव में पिताजी की झकझक अब रश्मि और अवनि को झेलनी पड़ती थी. वे ऊटपटांग जवाब देतीं तो पिताजी उन्हें मारने के लिए डंडा उठा लेते. अजीब मनोस्थिति होती जब मैं छुट्टी में घर जाता था. घर जाना जरूरी भी था क्योंकि घर तो छोड़ नहीं सकता था.

पिताजी के बाद मैं दोनों बहनों को शहर ले आया. गांव का मकान, जिस का हिस्सा मात्र 2 कमरों का था, मैं अपने चचेरे भाई को सौंप आया. उस का परिवार बढ़ रहा था और वहां भी हमारे घर की तरह ‘तानाशाह’ थे.

शहर आ कर अवनि को मैं ने टाइप स्कूल में दाखिला दिलवा दिया लेकिन उस का मन उस में नहीं लगा. वह गांव के स्कूल में पढ़ाती थी इसलिए यहां भी वह पढ़ाना ही चाहती थी. मेरे साथ काम करने वाले पाठकजी की बेटी अपना स्कूल चलाती है, वहीं अवनि पढ़ाने लगी है. जितना उसे मिलता है, पिताजी की तरह अपने ऊपर खर्च करती है. बातबात में ताने देती है. बोलती है तो जहर उगलती है लेकिन मैं क्या करूं? पिताजी के बाद जो खजाना मुझे मिला वह केवल उन की 1 महीने की पेंशन थी. जिस शहर में रहने का ताना ये दोनों मुझ को देती थीं वही शहर हमारी सारी कमाई निगल रहा है.

40 बरस की आयु में आखिर परिस्थितियों से ऊब कर मैं ने शादी कर ली. जलज अच्छी लड़की है. शांत स्वभाव और धैर्य वाली. उस की बड़ीबड़ी आंखों में दुख के बादल कुछ क्षण मंडराते तो जरूर हैं लेकिन फिर छंट भी बहुत जल्दी जाते हैं. जलज ने आज तक मेरी बहनों के बारे में मुझ से किसी प्रकार की कोई शिकायत नहीं की. क्या करूं, मेरे प्रारब्ध से जुड़ कर उसे भी सबकुछ सहन करना पड़ रहा है.

माना कि बहनें छोटी हैं लेकिन कहने वाले कब चूकते हैं, ‘‘खुद की शादी कर ली और बहनों को भूल गया. बहनें भी तड़ से कहती हैं, ‘‘तुम अपनी जिंदगी देखो, हम को कब तक संभालोगे या तुम्हारे पास इतना पैसा कहां है कि हमें बैठा कर खिला सको.’’

पिताजी ने अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाई. खुद खायापिया और मौज उड़ाई. इस में मेरा कुसूर क्या है? मैं कब कहता हूं कि बहनों का ब्याह नहीं करूंगा. अपनी जिम्मेदारी से मुंह नहीं मोड़ता पर मैं सब से कहता हूं, समय तो आने दो, धैर्य तो रखो.

एक तो कहीं बात नहीं बनती और कहीं थोड़ीबहुत गुंजाइश होती भी है तो ये दोनों मना करने लगती हैं. यह लड़का अच्छा नहीं है. गांव में शादी नहीं करेंगे. वास्तव में दोनों में निरंकुशता आ गई है. मुझे कुछ समझती ही नहीं. हैसियत मेरी बुजुर्ग वाली है लेकिन ये दोनों मुझे बच्चा समझ कर डपटती रहती हैं. मेरे साथ जलज भी डांट खाती है.

अम्मां पिताजी के उलझाव ने इन दोनों के स्वभाव में अजीब सा कसैलापन ला दिया है. पापा से उलझ कर अम्मां मुंह फुला कर लेट जातीं और यह तक न देखतीं कि रश्मि और अवनि क्या कर रही हैं, कैसे बोल रही हैं.

मैं अपनी दोनों बहनों और पत्नी के बीच सामंजस्य बैठाने की कोशिश में अपने ही खोल में सिमटता जा रहा हूं. न जाने कब समाप्त होगा हमारा अजनबीपन.

मिनी, एडजस्ट करो प्लीज: क्या हुआ था उसके साथ

देखते ही देखते गुबार उठा और आंधी चलने लगी. भाभी ने ड्राइंगरूम से आवाज दी, ‘मिनी, दरवाजेखिड़कियां बंद कर लेना, नहीं तो गर्द अंदर आ जाएगी.’ उस ने कहना चाहा, भाभी, तूफानी अंधड़ ने तो पहले ही से मेरे मन के दरवाजेखिड़कियों को बंद कर रखा है और मुझे अंधेरे कमरे में कैद कर रखा है.

कुछ देर बाद बारिश शुरू हो गई, तो बाहर का तूफान थम गया पर उस के मन के तूफान की रफ्तार वैसी ही थी. वह जानती थी, भैयाभाभी ड्राइंगरूम में मैट्रोमोनियल के जवाब में आई चिट्ठियां पढ़ रहे होंगे. 6 माह पहले जब भैया ने मैट्रोमोनियल विज्ञापन की बात कही थी तो मैं पत्थर हो गईर् थी. मैं दोबारा किसी के साथ जुड़ने की बात सोच भी नहीं सकती थी. पर भैया ने कहा था, ‘मिनी, सोच कर जवाब देना, सारी जिंदगी पड़ी है आगे.’

भैया ने तो ठीक ही कहा था पर अगले दिन जब उन्होंने मुझे अपनी डिगरियां निकालते देखा तो वे खामोश हो गए.2 कमरों के इस फ्लैट में मैं, भैया और भाभी 3 लोग ही थे पर वक्त ने जैसे हमें अजनबी बना दिया था.

यह अजनबियत पहले नहीं थी. मात्र एक साल ही तो गुजारा था नरेश के घर में. फिर मैं अपनी सूनी मांग ले कर भैया के घर वापस आ गई. नरेश के बाद किसी दूसरे के साथ जुड़ने का खयाल भी मन को झकझोर देता था.

फिर मैं अपनी डिगरियों के सहारे नौकरी की तलाश में लग गई. पर एक विधवा के प्रति लोगों का रुख देख कर मन कांप उठता था. एक विधवा, जवान और खूबसूरत कितने अवगुण थे मुझ में. आखिर, मैं ने हथियार डाल दिए. भैया ठीक ही कहते हैं. अकेले सारी जिंदगी गुजारना सचमुच मुश्किल था.

भैया ने फिर विज्ञापन देखने शुरू कर दिए. चिट्ठियां फिर से आने लगीं. मैं समझ गईर् कि एक न एक दिन मुझे इस घर से जाना ही होगा. इसी बीच एक दिन एक शख्स का पत्र आया. कोठी, कार, अच्छी नौकरी, अकेला घर सबकुछ था उस के पास, और क्या चाहिए किसी औरत को. हां, खलने वाली एक ही बात थी, कि उस की पत्नी जीवित थी और उस के साथ उस का बाकायदा तलाक अभी तक नहीं हुआ था. पर इस से क्या होता है, पत्नी का उस से कोई सरोकार नहीं था.

भैया ने उस शख्स को फोन कर घर आने को कह दिया. वह आया. भैया ने अपनी शंकाएं उस से जाहिर कीं. बदले में उस ने आश्वासनों का ढेर लगा दिया. भैया उस की बातों से संतुष्ट हुए और मुझे उस के हवाले कर दिया.

उस के गंभीर और गरिमामय व्यक्तित्व ने मुझे भी प्रभावित किया था. मुझे मालूम था कि किसी न किसी के गले बांध दी ही जाऊंगी, तो फिर तुम ही सही.

वह मुझे अपने घर ले गया. घर क्या था, पूरी हवेली थी. इस हवेलीनुमा घर के वैभव को छोड़ कर उस की पत्नी क्यों चली गई होगी, यह खयाल मेरे दिल में रहा. मेरे साथ रहते हुए तुम्हें अरसा बीत गया. अब तक तुम मुझे क्यों तड़पाती रहीं, ऐसा क्यों किया तुम ने?

उस के यह पूछने के जवाब में मैं ने पूरी कहानी सुना दी. ‘‘दरअसल, अपने हवेलीनुमा घर में ला कर तुम ने कहा, ‘अपना घर तुम्हें कैसा लगा, मिनी?’ इस के साथ तुम ने मुझे अपनी बांहों के घेरे में कैद कर लिया. मैं ने खुद को छुड़ाने की कोशिश की, तो तुम ने कहा, ‘क्यों, क्या बात है, अब तो तुम मेरी हो, मेरी पत्नी, यह घर तुम्हारा ही है?’

‘‘‘बिना किसी संस्कार के मैं तुम्हारी पत्नी कैसे हो गई,’ मैं ने प्रतिरोध करते हुए कहा. तुम्हारी बांहों का घेरा कुछ और तंग हो गया और तुम ने हंसते हुए कहा, ‘ओह, तो तुम उस औपचारिकता की बात करती हो, उस की कोई वैल्यू नहीं है, तुम्हारे भी बच्चे होगें, उन्हें मेरा नाम मिलेगा, प्यार मिलेगा, जायदाद में पूरा हिस्सा मिलेगा.’

‘‘कितनी आसानी से तुम ने मुझे सारा कुछ समझा दिया था पर तुम जिसे औपचारिकता कहते हो वही तो एक सूत्र होता है जिस के दम पर एक औरत रानी बन कर राज करती है मर्द के घर और उस के दिल पर.

‘‘महाराज चाय बना कर ले आया था. चाय के साथ उस ने ढेर सारी प्लेटें मेज पर लगा दी थीं. चाय पीने के बाद तुम औफिस के लिए तैयार हुए और जातेजाते मुझे बांहों में भरा. तुम्हारी बांहों में मैं मछली सी तड़प उठी. तुम कुछ समझे, कुछ नहीं समझे और औफिस चले गए. पर मैं अपने औरत होने की शर्मिंदगी में टूटतीबिखरती रही.

‘‘मैं क्या कहती, मुझे तो यह भी नहीं पता था कि तुम्हें क्याक्या पसंद था. मैं ने यह कह कर मुक्ति पा ली, ‘कुछ भी बना लो.’ तभी वीरो आ गई, घर की मेडसर्वेंट. महाराज ने चुपके से उसे मेरे बारे में बताया. वीरो ने कहा, ‘अच्छा तो ये हैं,’ और काम में लग गई. बीचबीच में वह मुझे कनखियों से तोलती रही.

‘‘शाम को तुम औफिस से लौटे तो काफी खुश थे. महाराज तुम्हारी गाड़ी में से कई बैग निकाल कर लाया और सोफे पर रख दिया. तुम ने कई खूबसूरत साडि़यां मेरे सामने फैला दीं, ‘मिनी, ये सब तुम्हारे लिए हैं.’ पर तुम्हारे स्वर का अपनत्व मेरे अंदर की जमी हुई बर्फ को पिघला नहीं सका. तुम्हारी इच्छा से मैं ने आसमानी रंग की साड़ी पहन ली. फिर तुम महाराज और वीरो के जाने का इंतजार करने लगे. उन के जाते ही तुम बेसब्रे हो गए और मुझे बिस्तर पर खींच लिया. तुम्हारे बिस्तर पर बैठते ही मुझे लगा जैसे हजारों बिच्छुओं ने मुझे डंक मार दिया हो. मैं तड़पने लगी. फिर कुछ समझते हुए तुम मेरी पीठ सहलाने लगे.

‘‘‘मिनी, नरेश को क्या हुआ था?’ तुम ने पहली बार इतने प्यार से पूछा कि तुम मुझे आत्मीय से लगने लगे. पिछले

6 महीनों से जो गुबार मन में रुका हुआ था वह अचानक फूट पड़ा. मैं तुम्हारे कंधे पर झुक गई. तुम मेरे आसुंओं से भीगते रहे. फिर मैं ने तुम्हें बताया कि नरेश के साथ मैं ने कितने खुशहाल दिन बिताए थे. लेकिन सुख के दिन ज्यादा देर न रहे और एक दिन औफिस से लौटते समय नरेश का ऐक्सिडैंट हो गया. उस की रीढ़ की हड्डी टूट गई जो इलाज के बावजूद ठीक से जुड़ नहीं पाई.

‘‘नरेश ने जो एक बार बिस्तर पकड़ा तो उठ नहीं पाया. जबजब वह मेरी ओर हाथ बढ़ाता तो उस की हड्डी में कसक उठती. कभीकभी तो वह दर्द से चीखने लगता.

‘‘नरेश अब बिस्तर पर पड़ापड़ा मुझे दयनीय नजरों से देखता रहता और मैं आहत हो जाती. नरेश के इलाज पर बहुत पैसा खर्च हो गया था. धीरेधीरे नरेश को लगने लगा कि उस के कारण मेरी जवान उमंगों का खून हो रहा है. यह अपराधबोझ उस के दिल में घर करने लगा. मैं ने हालात को अपनी नियति मान कर स्वीकार कर लिया था पर नरेश ने नहीं किया.

‘‘नरेश को अस्पताल से छुट्टी मिल गई थी. हम उसे घर ले आए थे. पर अब हालात काफी बदल चुके थे. परिवार वालों की नजर में मैं अपशकुनी थी. नरेश अपने मन की हलचलों से ज्यादा लड़ नहीं सका और न ही अपनी शारीरिक तकलीफ को झेल सका. एक दिन उस ने अपनी कलाई की नस काट ली और चला गया मुझे अकेला छोड़ कर.

‘‘नरेश के परिवार वालों को अब मैं कांटे सी खटकने लगी और एक दिन भैया मुझे घर ले आए.‘‘तुम ने ठंडी सांस ली और कहा, ‘मिनी, ऐडजस्ट करने का प्रयास करो.’ मैं तुम्हारे सीने पर फफक पड़ी. कैसे भूलूं उस सब को. नरेश की आंखें मेरा पीछा करती हैं. मैं ने उसे तिलतिल कर मरते हुए देखा है. उस की आंखों में छलकती प्यास मुझे जीने नहीं देती.

‘‘तुम देर तक मेरी पीठ सहलाते रहे. फिर बत्ती बुझाई और सो गए. पर मैं रातभर जागती रही. मुझे लगा जैसे मैं अंगारों पर लेटी हुई हूं. अगले दिन तुम एक पिंजड़ा ले आए. उस में एक तोता था. तुम ने हंसते हुए कहा, ‘मिनी, इस तोते को बातें करना सिखाना, तुम्हारा मन लगा रहेगा.’ महाराज ने तोते के लिए कटोरी में पानी और हरीमिर्च रख दी.

‘‘तोते ने कुछ भी छुआ नहीं. वह अपनी दुम में ही सिमटा रहा. तुम ने कहा, ‘मिनी, नई जगह आया है न, एकदो दिन में ऐडजस्ट कर लेगा.’

‘‘सचमुच 2 दिनों बाद तोते ने खानापीना शुरू कर दिया. अब वह पिंजड़े में उछलकूद करने लगा था. बीचबीच में आवाजें भी निकालने लगा था. तुम औफिस से आते ही तोते से बातें करते, फिर मुझ से कहते, ‘देखा, तोता अब हम से हिलनेमिलने लगा है.’

‘‘मैं तुम्हें कैसे बताती कि इंसान और पंछी में फर्क होता है. इंसान की अपनी ही कुंठाएं उसे खाती रहती हैं. मैं भावनात्मक रूप से नरेश से जुड़ी हुई थी. मुझ में और तोते में फर्क है.

‘‘तुम ने मुझे गहरी नजर से देखा और गले से लगा लिया. फिर गंभीर स्वर में कहा, ‘मिनी, मैं सरकारी नौकरी में हूं. एक पत्नी के जिंदा रहते दूसरी शादी करना कानूनन जुर्म है. मुझे जेल भी हो सकती है. पर मैं भी इंसान हूं. तनहा नहीं रह सकता. मेरी भी कुछ जिस्मानी जरूरतें हैं. मैं ने कई लड़कियां देखीं, पर कोई पसंद नहीं आई. फिर तुम्हारे भैया का निमंत्रण आया. तुम मुझे बेहद मासूम लगीं. मुझे लगा कि तुम्हारे साथ जीवन आसान हो जाएगा. क्या मैं ने तुम्हारे साथ कोई जबरदस्ती की है?’

‘नहींनहीं, तुम भला क्यों जबरदस्ती करते. पर मैं भैया के लिए एक भार ही थी न. बड़ी मुश्किल से उन्होंने मेरी शादी की थी. पर नरेश…’

‘‘‘उस सब को भूल जाओ, मिनी. गया वक्त कभी लौट कर नहीं आता. ऐडजस्ट करने की कोशिश करो.’

‘‘पर मैं क्या करूं, कुछ समझ नहीं आता. जानवर नहीं हूं, न ही पूंछी हूं, फिर भी जानती हूं आज नहीं तो कल, ऐडजस्ट करना ही होगा.

‘‘तुम्हारे साथ बिस्तर पर लेटते ही नींद आंखों से उड़ जाती. रातभर सोचती रहती, कितनी निष्ठुर होगी तुम्हारी पत्नी जो तुम्हें छोड़ कर चली गई. सोचतेसोचते जब ध्यान तुम्हारी ओर जाता तो लगता, तुम भी सोए नहीं हो. मेरे दिल और दिमाग में तूफानी कशमकश चलने लगती पर समझ में नहीं आता कि मैं क्या करूं.

‘‘अगले दिन तुम औफिस से आए तो काफी उदास थे. पर मैं तो अभी तक तुम्हारे साथ मन से जुड़ नहीं पाई थी. सो, कुछ पूछ नहीं पाई. खाना खा कर तुम पलंग पर लेट गए. तुम बहुत खामोश थे. मैं भी चुपचाप लेट गई. मेरे अंदर की जमी हुई बर्फ अब तुम्हारे व्यवहार से कुछकुछ पिघलने लगी थी. मैं ने देखा, तुम सो नहीं पा रहे थे. अचानक तुम्हारे मुंह से एक गहरी सांस निकली. मैं ने तुम्हारे कंधे पर हाथ रख दिया. तुम ने आंखें खोल कर मेरी ओर देखा और हाथ बढ़ा कर मुझे अपने करीब खींच लिया. मैं ने कोई विरोध नहीं किया.

‘‘मैं ने देखा, तुम्हारी आंखों में वही आदम भूख जाग उठी थी. तुम्हारी नजरों ने मुझे आहत कर दिया. मुझे लगा, मेरी नजदीकी ने बिस्तर पर लेटे नरेश को भी बहुत तड़पाया था और अब तुम्हें…

‘‘‘नहीं, मुझे कोई हक नहीं था तुम्हें तड़पाने का.’ मैं फफक पड़ी. तुम ने मुझे सहलाते हुए कहा, ‘क्या बात है मिनी, क्यों परेशान हो?’

‘‘मैं सरक कर तुम्हारे करीब आ गई. तुम्हारी सांसें अब मेरी सांसों से टकराने लगी थीं. मैं ने अपनी बांहें तुम्हारे गले में डाल दीं. तुम स्पर्श के इस भाव को समझ गए और तुम ने मुझे और अधिक कस कर सीने से लगा लिया और मैं ने अपने अंदर की औरत को समझाया कि आखिर कब तक एक पंछी और इंसान के फर्क में उलझी रहोगी. और मैं ने अपनेआप को तुम्हारे साथ ऐडजस्ट कर ही लिया.’’

एक नई शुरुआत: स्वाति का मन क्यों भर गया?

बिखरे पड़े घर को समेट, बच्चों को स्कूल भेज कर भागभाग कर स्वाति को घर की सफाई करनी होती है, फिर खाना बनाना होता है. चंदर को काम पर जो जाना होता है. स्वाति को फिर अपने डे केयर सैंटर को भी तो खोलना होता है. साफसफाई करानी होती है. साढ़े 8 बजे से बच्चे आने शुरू हो जाते हैं.

घर से कुछ दूरी पर ही स्वाति का डे केयर सैंटर है, जहां जौब पर जाने वाले मातापिता अपने छोटे बच्चों को छोड़ जाते हैं.

इतना सब होने पर भी स्वाति को आजकल तनाव नहीं रहता. खुशखुश, मुसकराते-मुसकराते वह सब काम निबटाती है. उसे सहज, खुश देख चंदर के सीने पर सांप लोटते हैं, पर स्वाति को इस से कोई लेनादेना नहीं है. चंदर और उस की मां के कटु शब्द बाण अब उस का दिल नहीं दुखाते. उन पराए से हो चुके लोगों से उस का बस औपचारिकता का रिश्ता रह गया है, जिसे निभाने की औपचारिकता कर वह उड़ कर वहां पहुंच जाती है, जहां उस का मन बसता है.

‘‘मैम आज आप बहुत सुंदर लग रही हैं,‘‘ नैना ने कहा, तो स्वाति मुसकरा दी. नैना डे केयर की आया थी, जो सैंटर चलाने में उस की मदद करती थी.

‘‘अमोल नहीं आया अभी,‘‘ स्वाति की आंखें उसे ढूंढ़ रही थीं.

याद आया उसे जब एडमिशन के पश्चात पहले दिन अमोल अपने पापा रंजन वर्मा के साथ उस के डे केयर सैंटर आया था.

अपने पापा की उंगली पकड़े एक 4 साल का बच्चा उस के सैंटर आया, जिस का नाम अमोल वर्मा और पिता का नाम रंजन वर्मा था. रंजन ही उस का नाम लिखा कर गए थे. उन के सुदर्शन व्यक्तित्व से स्वाति प्रभावित हुई थी.

‘‘पति-पत्नी दोनों जौब करते होंगे, इसलिए बच्चे को यहां दाखिला करा कर जा रहे हैं,‘‘ स्वाति ने उस वक्त सोचा था.

रंजन ने उस से हलके से नमस्कार किया.

‘‘कैसे हो अमोल? बहुत अच्छे लग रहे हो आप तो… किस ने तैयार किया?‘‘ स्वाति ने कई सारे सवाल बंदूक की गोली जैसे बेचारे अमोल पर एकसाथ दाग दिए.

‘‘पापा ने,‘‘ भोलेपन के साथ अमोल ने कहा, तो स्वाति की दृष्टि रंजन की ओर गई.

‘‘जी, इस की मां तो है नहीं, तो मुझे ही तैयार करना होता है,‘‘ रंजन ने कहा, तो स्वाति का चौंकना स्वाभाविक ही था.

‘‘4 साल के बच्चे की मां नहीं है,‘‘ यह सुन कर उसे धक्का सा लगा. सौम्य, सुदर्शन रंजन को देख कर अनुमान भी लगाना मुश्किल था कि उन की पत्नी नहीं होंगी.

‘‘कैसे?‘‘ अकस्मात स्वाति के मुंह से निकला.

‘‘जी, उसे कैंसर हो गया था. 6 महीने के भीतर ही कैंसर की वजह से उस की जान चली गई,‘‘ रंजन की कंपकंपाती सी आवाज उस के दिल को छू सी गई. खुद को संयत करते हुए उस ने रंजन को आश्वस्त करने की कोशिश की, ‘‘आप जरा भी परेशान न हों, अमोल का यहां पूरापूरा ध्यान रखा जाएगा.‘‘

रंजन कुछ न बोला. वहां से बस चला गया. स्वाति का दिल भर आया इतने छोटे से बच्चे को बिन मां के देख. बिन मां के इस बच्चे के कठोर बचपन के बारे में सोचसोच कर उस का दिल भारी हो उठा था. उस दिन से अमोल से उस का कुछ अतिरिक्त ही लगाव हो गया था.

रंजन जब अमोल को छोड़ने आते तो स्वाति आग्रह के साथ उसे लेती. रंजन से भी एक अनजानी सी आत्मीयता बन गई थी, जो बिन कहे ही आपस में बात कर लेती थी. रंजन की उम्र लगभग 40 साल के आसपास की होगी.

‘‘जरूर शादी देर से हुई होगी, तभी तो बच्चा इतना छोटा है,’’ स्वाति ने सोचा.

रंजन अत्यंत सभ्य, शालीन व्यक्ति थे. स्त्रियों के प्रति उन का शालीन नजरिया स्वाति को प्रभावित कर गया था, वरना उस ने तो अपने आसपास ऐसे ही लोग देखे थे, जिन की नजरों में स्त्री का अस्तित्व बस पुरुष की जरूरतें पूरी करना, घर में मशीन की तरह जुटे रहने से ज्यादा कुछ नहीं था.

स्वाति का जीवन भी एक कहानी की तरह ही रहा. मातापिता दोनों की असमय मृत्यु हो जाने से उसे भैयाभाभी ने एक बोझ को हटाने की तरह चंदर के गले बांध दिया.

शराब पीने का आदी चंदर अपनी मां पार्वती का लाड़ला बेटा था, जिस की हर बुराई को वे ऐसे प्यार से पेश करती थीं, जैसे चंदर ही संसार में इकलौता सर्वगुण सम्पन्न व्यक्ति है.

चंदर एक फैक्टरी में सुपरवाइजर के पद पर काम करता था और अपनी तनख्वाह का ज्यादातर हिस्सा यारीदोस्ती और दारूबाजी में उड़ा देता. मांबेटा मिल कर पलपल स्वाति के स्वाभिमान को तारतार करते रहते.

‘‘चल दी महारानी सज कर दूसरों के बच्चों की पौटी साफ करने,‘‘ स्वाति जब भी अपने सैंटर पर जाने को होती, पार्वती अपने व्यंग्यबाण छोड़ना न भूलतीं.

‘‘जाने दे मां, इस बहाने अपने यारदोस्तों से भी मिल लेती है,‘‘ चंदर के मुंह से निकलने वाली प्रत्येक बात उस के चरित्र की तरह ही छिछली होती.

स्वाति एक कान से सुन दूसरे कान से निकाल कर अपने काम पर निकल लेती.

‘‘उस की कमाई से ही घर में आराम और सुविधाएं बनी हुई थीं. शायद इसीलिए वे दोनों उसे झेल भी रहे थे, वरना क्या पता कहीं ठिकाने लगा कर उस का क्रियाकर्म भी कर देते,‘‘ स्वाति अकसर सोचती.

नीच प्रकृति के लोग बस अपने स्वार्थवश ही किसी को झेलते या सहन करते हैं. जरूरत न होने पर दूध में पड़ी मक्खी की तरह निकाल फेंकते हैं… स्वाति अपने पति और सास की रगरग से वाकिफ थी और कहीं न कहीं भीतर ही भीतर उन से सजग और सावधान भी रहती थी.

स्वाति ने अपना ‘डे केयर सैंटर‘ घर से कुछ दूर ‘निराला नगर‘ नामक पौश कालोनी में एक खाली मकान में खोल रखा था. घर की मालकिन मिसेज बत्रा का शू बिजनैस था और ज्यादातर समय वे कनाडा में ही रहती थीं. शहर में ऐसे उन के कई मकान पड़े थे. स्वाति से उन्हें किराए का भी लालच नहीं था. बस घर की देखभाल होती रहे और घर सुरक्षित रहे, यही उन के लिए बहुत था. साल में 1-2 बार जब वे इंडिया आतीं, तो स्वाति से मिल कर जातीं. अपने घर को सहीसलामत हाथों में देख कर उन्हें संतुष्टि होती.

मिसेज बत्रा से स्वाति की मुलाकात यों ही अचानक एक शू प्रदर्शनी के दौरान हुई थी. स्वाति का मिलनसार स्वभाव, उस की सज्जनता और अपने से बड़ों को आदर देने की उस की भावना लोगों को सहज ही उस से प्रभावित कर देती थी. वह जहां भी जाती, उस के परिचितों और शुभचिंतकों की तादाद में इजाफा हो जाता.

बातों ही बातों में मिसेज बत्रा ने जिक्र किया था कि उन का यह मकान खाली पड़ा है, जिसे वे किसी विश्वसनीय को सौंपना चाहती हैं जो उस की देखभाल भी कर सके और खुद भी रह सके.

स्वाति उस समय अपने वजूद को तलाश रही थी. उस के पास न कोई बहुत भारी रकम थी और न कोई उच्च या स्पैशल शैक्षिक प्रशिक्षण था. ऐसे में उसे डे केयर सैंटर चलाने का विचार सूझा.

स्वाति ने मिसेज बत्रा से बात की. उन्होंने सहर्ष सहमति दे दी. स्वाति ने घर वालों की हर असहमति को दरकिनार कर अपने इस सैंटर की शुरुआत कर दी.

सुबह से शाम तक स्वाति थक कर चूर हो जाती. उस के काम के कारण बच्चे उपेक्षित होते थे, वह जानती थी. पर क्या करे.

शादी के बाद जब इस घर में आई तो कितने सपने सजे थे उस की आंखों में. फिर एकएक, सब किर्चकिर्च होने लगे. चंदर पक्का मातृभक्त था और मां शासन प्रिय. परिवार का प्रत्येक व्यक्ति उन के दबाव में रहता. ससुर भी सास के आगे चूं न करते. हां, उन के धूर्त कामों में साथ देने को हमेशा तैयार रहते. चंदर जो भी कमाता या तो मां के हाथ में देता या दारू पर उड़ा देता.

स्वाति से उस का सिर्फ दैहिक रिश्ता बना, स्वाति का मन कभी उस से नहीं जुड़ा. उस ने कोशिश भी की, तो हमेशा चंदर के विचारों, कामों और आचरण से वह हमेशा उस से और दूर ही होती गई.

‘‘देखो तुम्हारी मां तुम्हारा ध्यान नहीं रख सकतीं और दूसरों के बच्चों की सूसूपौटी साफ करती है,” सास उस के दोनों बच्चों को भड़काती रहतीं.

राहुल 7 साल का था और प्रिया 5 साल की होने वाली थी. दोनों कच्ची मिट्टी के समान थे. स्वाति बाहर रहती और दादी जैसा मां के विरुद्ध उन्हें भड़काती रहती. उस से बच्चों के मन में मां की नकारात्मक छवि बनती जाती. यहां तक कि दोनों स्वाति की हर बात को काटते.

‘‘आप तो जाओ अपने सैंटर के बच्चों को देखो, वही आप के अपने हैं, हम तो पराए हैं. हमारे साथ तो दादी हैं. आप जाओ.‘‘

प्रिया और राहुल को आभास भी न होता होगा कि उन की बातों से स्वाति का दिल कितना दुखता था. ऊपर से चंदर, उसे खाना, चाय, जूतेमोजे, कच्छाबनियान सब मुंह से आवाज निकलते ही हाजिर चाहिए थे.

बिस्तर से उठते ही यदि चप्पल सामने न मिले तो हल्ला मचा देता. स्वाति को बेवकूफ, गंवार सब तरह की संज्ञाओं से नवाजता और खुद रोज शाम को बदबू मारता, नशे में लड़खड़ाता हुआ घर आता.

यही जिंदगी थी स्वाति की घर में. अपनी छोटीछोटी जरूरतों के लिए भी मोहताज थी वह. ऐसे में आत्मसम्मान किस चिड़िया का नाम होता है, ये उजड्ड लोग जानते ही न थे. तब स्वाति को मिसेज बत्रा मिलीं और उसे आशा की एक किरण दिखाई दी.

इन्हीं आपाधापियों में उस के ‘डे केयर‘ की शुरुआत हो गई. अब तो बच्चे भी बहुत हो गए हैं, जिन में अमोल से उसे कुछ विशेष लगाव हो गया था. उस के पिता रंजन वर्मा से भी. उस का एक आत्मीय रिश्ता बन गया था. जब से उसे पता चला था कि रंजन की पत्नी की कैंसर से मृत्यु हो चुकी है और अमोल एक बिन मां का बच्चा है, तब से अमोल और रंजन दोनों के ही प्रति उस के दिल में खासा लगाव पैदा हो गया था.

हालांकि रंजन के प्रति अपनी मनोभावनाओं को उस ने अपने दिल में ही छुपा रखा था, कभी बाहर नहीं आने दिया था.

अपनी सीमाओं की जानकारी उसे थी. यहां व्यक्ति का चरित्र आंकने का बस यही तो एक पैमाना है. मन की इच्छाओं को दबाते रहना. जो हो वह नहीं दिखना चाहिए बस एक पाकसाफ, आदर्श छवि बनी रहे तो कम से कम इस दोहरे मानदंडों वाले समाज में सिर उठा कर जी तो सकते हैं वरना तो लोग आप को जीतेजी ही मार डालेंगे.

शर्म, ग्लानि और अपराध बोध बस उन के लिए है, जो स्वाभिमानी हैं और अपने अस्तित्व की रक्षा करते हुए सम्मान से जीना चाहते हैं और चंदर जैसे दुर्गुणी, नशेबाज के लिए कोई मानमर्यादा नहीं है.

चंदर के मातापिता जैसे चालाक और धूर्तों के लिए भी कोई नैतिकता के नियम नहीं हैं. उन की बुजुर्गियत की आड़ में सब छुप जाता है.

पर हां, अगर स्वाति किसी भावनात्मक सहारे के लिए तनिक भी अपने रास्ते से डगमग हो गई तो भूचाल आ जाएगा और उस का सारा संघर्ष और मेहनत बेमानी हो जाएगी, यह स्वाति अच्छी तरह जानती और समझती थी. इसीलिए उस ने रंजन के प्रति अपनी अनुरक्ति को केवल अपने मन की परतों में ही दबा रखा था. पर यह भी उसे अच्छा लगता था. चंदर और उस के स्वार्थी परिवार से उस का यह मौन विद्रोह ही था, जो उसे परिस्थितियों का सामना करने की शक्ति देता था और उस का मनोबल बढ़ाता था.

राहुल और प्रिया का टिफिन तैयार कर उन्हें स्कूल के लिए छोड़ कर, घर के सब काम निबटा कर जैसे ही स्वाति घर से निकलने को हुई, सास की कर्कश आवाज आई, ‘‘चल दी गुलछर्रे उड़ाने महारानी… हम लोगों के साथ इसे अच्छा ही कहां लगता है.‘‘ चंदर भी मां का साथ देता.

आखिर स्वाति कितना और कब तक सुनती. दबा हुआ आक्रोश फूट पड़ा स्वाति का, ‘‘जाती हूं तो क्या… कमा कर तो तुम्हारे घर में ही लाती हूं. कहीं और तो ले जाती नहीं हूं.‘‘

‘‘अच्छा, अब हम से जबान भी लड़ाती है…’’ गाली देते हुए चंदर उस पर टूट पड़ा. सासससुर भी साथ हो लिए.

पलभर के लिए हैरान रह गई स्वाति… उसे लगा कि ये लोग तो उसे मार ही डालेंगे. उस के कुछ दिमाग में न आया, तो जल्दीजल्दी रंजन को फोन लगा दिया और खुद भी अपने सैंटर की ओर भाग ली.

‘‘अब इस घर में मुझे नहीं रहना है,‘‘ उस ने मन ही मन सोच लिया, ‘‘कैसे भी हो, अपने बच्चों को भी यहां से निकाल लेगी. सैंटर पर कमरा तो है ही. कैसे भी वहीं रह लेगी. मिसेज बत्रा को सबकुछ बता देगी. वे नाराज नहीं होंगी.‘‘

स्वाति के दिमाग में तरहतरह के खयाल उमड़घुमड़ रहे थे. सबकुछ अव्यवस्थित हो गया था. समझ नहीं आ रहा था कि अब क्या होगा…

सैंटर पहुंच कर कुछ देर में स्वाति ने खुद को व्यवस्थित कर लिया. उस के फोन लगा देने पर रंजन भी वहां आ गया था.

रंजन के आत्मीयतापूर्ण व्यवहार का आसरा पा कर वह कुछ छुपा न पाई और सबकुछ बता दिया…अपने हालात… परिस्थितयां, बच्चे… सब.

पहलेपहल तो रंजन को कुछ समझ ही न आया कि क्या कहे. एक शादीशुदा स्त्री की निजी जिंदगी में इस तरह दखल देना सही भी होगा या नहीं… फिर भी स्वाति की मनोस्थिति देख कर रंजन ने कहा, ‘‘कोई परेशानी या जरूरत हो तो वह उसे याद कर ले और अगर उस की जान को खतरा है, तो वह उस घर में वापस न जाए.‘‘

रंजन का संबल पा कर स्वाति का मनोबल बढ़ गया और उस ने सोच लिया कि अब वह वापस नहीं जाएगी. रहने का ठिकाना तो उस का यहां है ही. यहीं से रह कर अपना सैंटर चलाएगी. कुछ दिन नैना को यहीं रोक लगी अपने पास.

उस दिन स्वाति घर नहीं गई. उस का कुछ विशेष था भी नहीं घर में. जरूरत भर का सामान, थोड़ेबहुत कपड़े बाजार से ले लेगी. पक्का निश्चय कर लिया था उस ने. बस अपनेआप को काम में झोंक दिया स्वाति ने.

अपने डे केयर को प्ले स्कूल में और बढ़ाने का सोच लिया उस ने और कैसे अपने काम का विस्तार करे, बस इसी योजना में उस का दिमाग काम कर रहा था.

स्वाति के चले जाने से घर की सारी व्यवस्था ठप हो गई थी. स्वाति तो सोने का अंडा देने वाली मुरगी थी. वह ऐसा जोर का झटका देगी, ऐसी उम्मीद न थी. चंदर और उस की मां तो उसे गूंगी गुड़िया ही समझते थे, जिस का उन के घर के सिवा कोई ठौरठिकाना न था. आखिर जाएगी कहां? अब खिसियाए से दोनों क्या उपाय करें कि उन की अकड़ भी बनी रहे और स्वाति भी वापस आ जाए, यही जुगाड़ लगाने में लगे थे.

मां के चले जाने पर बच्चे राहुल और प्रिया को भी घर में उस की अहमियत पता चल रही थी. जो दादी दिनरात उन्हें मां के खिलाफ भड़काती रहती थी, उन्होंने एक दिन भी उन का टिफिन नहीं बनाया. 2 दिन तो स्कूल मिस भी हो गया.

स्कूल से आने पर न कोई होमवर्क को पूछने वाला और न कोई कराने वाला. बस चैबीस घंटे स्वाति की बुराई पुराण चालू रहता. उन से हजम नहीं हो रहा था कि स्वाति इस तरह उन सब को छोड़ कर भी जा सकती है. ऊपर से सारा घर अव्यवस्थित पड़ा रहता था.

स्वाति को गए एक हफ्ता भी न हुआ था कि दोनों बच्चों के सामने उन सब की सारी असलियत खुल कर सामने आ गई. उन का मन हो रहा था कि उड़ कर मां के पास पहुंच जाएं, पर दादादादी और पिता के डर से सहमे हुए बच्चे कुछ कहनेकरने की स्थिति में नहीं थे.

एक दिन दोनों स्कूल गए तो लौट कर आए ही नहीं, बल्कि स्कूल से सीधे अपनी मां के पास ही पहुंच गए. सैंटर तो उन्होंने देख ही रखा था. स्वाति को तो जैसे मुंहमांगी मुराद मिल गई. उस के कलेजे के टुकड़े उस के सामने थे. कैसे छाती पर पत्थर रख कर उन्हें छोड़ कर आई थी, यह वह ही जानती थी.

चंदर और स्वाति के सासससुर बदले की आग में झुलस रहे थे. सोने का अंडा देने वाली मुरगी और घर का काम करने वाली उन्हें पलभर में ठेंगा दिखा कर चली जो गई थी.

बेइज्जती की आग में जल रहे थे तीनों. चंदर किसी भी कीमत पर स्वाति को घर वापस लाना चाहता था. शहर के कुछ संगठन जो स्त्रियों के चरित्र का ठेका लिए रहते थे और वेलेंटाइन डे पर लड़केलड़कियों को मिलने से रोकते फिरते थे, उन में चंदर भी शामिल था. वास्तव में तो इन छद्म नैतिकतावादियों से स्त्री का स्वतंत्र अस्तित्व ही बरदाश्त नहीं होता और यदि खोजा जाए तो उन सभी के घरों में औरत की स्थिति स्वाति से बेहतर न मिलती.

स्वाति के चरित्र पर भद्दे आरोप लगाता हुआ अपने ‘स्त्री अस्मिता रक्षा संघ‘ के नुमाइंदों को ले कर चंदर स्वाति के डे केयर सैंटर पहुंच गया.

यह देख स्वाति घबरा गई. उस ने रंजन को, अपने सभी मित्रों, बच्चों के मातापिता को जल्दीजल्दी फोन किए. सैंटर के बाहर दोनों गुट जमा हो गए. रंजन भी पुलिस ले कर आ गया था. दोनों पक्षों की बातें सुनी गईं.

स्वाति ने अपने ऊपर हो रहे उत्पीड़न को बताते हुए ‘महिला उत्पीड़न‘ और ‘घरेलू हिंसा‘ के तहत रिपोर्ट लिखवा दी. रंजन, उस के दोस्त और बच्चों के मातापिता सभी स्वाति के साथ थे.

पुलिस ने चंदर को आगे से स्वाति को तंग न करने की चेतावनी दे दी और आगे ‘कुछ अवांछित करने पर हवालात की धमकी भी.‘ चंदर और उस के मातापिता अपना से मुंह ले कर चलते बने.

स्वाति ने सोच लिया था कि अब वह चंदर के साथ नहीं रहेगी. अपने जीवन के उस अध्याय को बंद कर अब वह एक नई शुरुआत करेगी.

शाम का धुंधलका छा रहा था. स्वाति अकेले खड़ी डूबते हुए सूरज को देख रही थी. सामने रंजन आ रहा था, अमोल का हाथ पकड़े.

अमोल ने आ कर अचानक स्वाति का एक हाथ थाम लिया और एक रंजन ने. राहुल और प्रिया भी वहीं आ गए थे. अब वे सब साथ थे एक परिवार के रूप में मजबूती से एकदूसरे का हाथ थामे हुए, ‘एक नई शुरुआत के लिए और हर आने वाली समस्या का सामना करने को तैयार.

जी उठी हूं मैं: क्या था एक मां की इच्छा

रिया ने चहकते हुए मुझे बताया, ‘‘मौम, नेहा, आ रही है शनिवार को. सोचो मौम, नेहा, आई एम सो एक्साइटेड.’’

उस ने मुझे कंधे से पकड़ कर गोलगोल घुमा दिया. उस की आंखों की चमक पर मैं निहाल हो गई. मैं ने भी उत्साहित स्वर में कहा, ‘‘अरे वाह, तुम तो बहुत एंजौय करने वाली हो.’’

‘‘हां, मौम. बहुत मजा आएगा. इस वीकैंड तो बस मजे ही मजे, 2 दिन पढ़ाई से बे्रक, मैं बस अपने बाकी दोस्तों को भी बता दूं.’’

वह अपने फोन पर व्यस्त हो गई और मैं चहकती हुई अपनी बेटी को निहारने में.

रिया 23 साल की होने वाली है. वह बीकौम की शिक्षा हासिल कर चुकी है. आजकल वह सीए फाइनल की परीक्षा के लिए घर पर है. नेहा भी सीए कर रही है. वह दिल्ली में रहती है. 2 साल पहले ही उस के पापा का ट्रांसफर मुंबई से दिल्ली हुआ है. उस की मम्मी मेरी दोस्त हैं. नेहा यहां हमारे घर ही रुकेगी, यह स्पष्ट है. अब इस ग्रुप के पांचों बच्चे अमोल, सुयोग, रीना, रिया और नेहा भरपूर मस्ती करने वाले हैं. यह ग्रुप 5वीं कक्षा से साथ पढ़ा है. बहुत मजबूत है इन की दोस्ती. बड़े होने पर कालेज चाहे बदल गए हों, पर इन की दोस्ती समय के साथसाथ बढ़ती ही गई है.

अब मैं फिर हमेशा की तरह इन बच्चों की जीवनशैली का निरीक्षण करती रहूंगी, कितनी सरलता और सहजता से जीते हैं ये. बच्चों को हमारे यहां ही इकट्ठा होना था. सब आ गए. घर में रौनक आ गई. नेहा तो हमेशा की तरह गले लग गई मेरे. अमोल और सुयोग शुरू से थोड़ा शरमाते हैं. वे ‘हलो आंटी’ बोल कर चुपचाप बैठ गए. तीनों लड़कियां घर में रंगबिरंगी तितलियों की तरह इधरउधर घूमती रहीं. अमित औफिस से आए तो सब ने उन से थोड़ीबहुत बातें कीं, फिर सब रिया के कमरे में चले गए. अमित से बच्चे एक दूरी सी रखते हैं. अमित पहली नजर में धीरगंभीर व्यक्ति दिखते हैं. लेकिन मैं ही जानती हूं वे स्वभाव और व्यवहार से बच्चों से घुलनामिलना पसंद करते हैं.  लेकिन जैसा कि रिया कहती है, ‘पापा, मेरे फ्रैंड्स कहते हैं आप बहुत सीरियस दिखते हैं और मम्मी बहुत कूल.’ हम दोनों इस बात पर हंस देते हैं.

तन्मय आया तो वह भी सब से मिल कर खेलने चला गया. नेहा ने बड़े आराम से आ कर मुझ से कहा, ‘‘हम सब डिनर बाहर ही करेंगे, आंटी.’’

‘‘अरे नहीं, घर पर ही बनाऊंगी तुम लोगों की पसंद का खाना.’’

‘‘नहीं आंटी, बेकार में आप का काम बढ़ेगा और आप को तो पता ही है कि हम लोग ‘चाइना बिस्ट्रो’ जाने का बहाना ढूंढ़ते रहते हैं.’’

मैं ने कहा, ‘‘ठीक है, जैसी तुम लोगों की मरजी.’’

डिनर के बाद सुयोग और अमोल तो अपनेअपने घर चले गए थे, तीनों लड़कियां घर वापस आ गईं. रीना ने भी अपनी मम्मी को बता दिया था कि वह रात को हमारे घर पर ही रुकेगी. हमेशा किसी भी स्थिति में अपना बैड न छोड़ने वाला तन्मय चुपचाप ड्राइंगरूम में रखे दीवान पर सोने के लिए चला गया. हम दोनों भी सोने के लिए अपने कमरे में चले गए. रात में 2 बजे मैं ने कुछ आहट सुनी तो उठ कर देखा, तीनों मैगी बना कर खा रही थीं, साथ ही साथ बहुत धीरेधीरे बातें भी चल रही थीं. मैं जानती थी अभी तीनों लैपटौप पर कोई मूवी देखेंगी, फिर तीनों की बातें रातभर चलेंगी. कौन सी बातें, इस का अंदाजा मैं लगा ही सकती हूं. सुयोग और अमोल की गर्लफ्रैंड्स को ले कर उन के हंसीमजाक से मैं खूब परिचित हूं. रिया मुझ से काफी कुछ शेयर करती है. फिर तीनों सब परिचित लड़कों के किस्से कहसुन कर हंसतेहंसते लोटपोट होती रहेंगी.

मैं फिर लेट गई थी. 4 बजे फिर मेरी आंख खुली, जा कर देखा, रीना फ्रिज में रखा रात का खाना गरम कर के खा रही थी. मुझे देख कर मुसकराई और सब के लिए उस ने कौफी चढ़ा दी. मैं पानी पी कर फिर जा कर लेट गई.

मैं ने सुबह उठ कर अपने फोन पर रिया का मैसेज पढ़ा, ‘मौम, हम तीनों को उठाना मत, हम 5 बजे ही सोए हैं और मेड को मत भेजना. हम उठ कर कमरा साफ कर देंगी.’

मैसेज पढ़ कर मैं मुसकराई तो वहीं बैठे अमित ने मुसकराने का कारण पूछा. मैं ने उन्हें लड़कियों की रातभर की हलचल बताते हुए कहा, ‘‘ये लड़कियां मुझे बहुत अच्छी लगती हैं, न कोई फिक्र न कोई चिंता, पढ़ने के समय पढ़ाई और मस्ती के समय मस्ती. क्या लाइफ है इन की, क्या उम्र है, ये दिन फिर कभी वापस नहीं आते.’’

‘‘तुम क्या कर रही थीं इस उम्र में? याद है?’’

‘‘मैं कुछ समझी नहीं.’’

‘‘तुम तो इन्हें गोद में खिला रही थीं इस उम्र में.’’

‘‘सही कह रहे हो.’’

20 वर्षीय तन्मय रिया की तरह मुझ से हर बात शेयर तो नहीं करता लेकिन मुझे उस के बारे में काफीकुछ पता रहता है. सालों से स्वाति से उस की कुछ विशेष दोस्ती है. यह बात मुझे काफी पहले पता चली थी तो मैं ने उसे साफसाफ छेड़ते हुए पूछा था, ‘‘स्वाति तुम्हारी गर्लफ्रैंड है क्या?’’

‘‘हां, मौम.’’

उस ने भी साफसाफ जवाब दिया था और मैं उस का मुंह देखती रह गई थी. उस के बाद तो वह मुझे जबतब उस के किस्से सुनाता रहता है और मैं भरपूर आनंद लेती हूं उस की उम्र के इन किस्सों का.

अमित ने कई बार मुझ से कहा है, ‘‘प्रिया, तुम हंस कर कैसे सुनती हो उस की बातें? मैं तो अपनी मां से ऐसी बातें करने की कभी सोच भी नहीं सकता था.’’

मैं हंस कर कहती हूं, ‘‘माई डियर हस- बैंड, वह जमाना और था, यह जमाना और है. तुम तो बस इस जमाने के बच्चों की बातों का जीभर कर आनंद लो और खुश रहो.’’

मुझे याद है एक बार तन्मय का बेस्ट फ्रैंड आलोक आया. तन्मय के पेपर्स चल रहे थे. वह पढ़ रहा था. दोनों सिर जोड़ कर धीरेधीरे कुछ बात कर रहे थे. मैं जैसे ही उन के कमरे में किसी काम से जाती, आलोक फौरन पढ़ाई की बात जोरजोर से करने लगता. जब तक मैं आसपास रहती, सिर्फ पढ़ाई की बातें होतीं. मैं जैसे ही दूसरी तरफ जाती, दोनों की आवाज धीमी हो जाती. मुझे बहुत हंसी आती. कितना बेवकूफ समझते हैं ये बच्चे बड़ों को, क्या मैं जानती नहीं सिर जोड़े धीरेधीरे पढ़ाई की बातें तो हो नहीं रही होंगी.

तन्मय फुटबाल खेलता है. पिछली जुलाई में वह एक दिन खेलने गया हुआ था. अचानक उस के दोस्त का फोन आया, ‘‘आंटी, तन्मय को चोट लग गई है. हम उसे हौस्पिटल ले आए हैं. आप परेशान मत होना. बस, आप आ जाओ.’’

अमित टूर पर थे, रिया औफिस में, उस की सीए की आर्टिकलशिप चल रही थी. मैं अकेली आटो से हौस्पिटल पहुंची. बाहर ही 15-20 लड़के खड़े मेरा इंतजार कर रहे थे. बहुत तेज बारिश में बिना छाते के बिलकुल भीगे हुए.

एक लड़के ने मेरे पूछने पर बताया, ‘‘आंटी, उस का माथा फट गया है, डाक्टर टांके लगा रहे हैं.’’

मेरे हाथपैर फूल गए. मैं अंदर दौड़ पड़ी. कमरे तक लड़कों की लंबी लाइन थी. इतनी देर में पता नहीं उस के कितने दोस्त इकट्ठा हो गए थे. तन्मय औपरेशन थिएटर से बाहर निकला. सिर पर पट्टी बंधी थी. डाक्टर साहब को मैं जानती थी. उन्होंने बताया, ‘‘6 टांके लगे हैं. 1 घंटे बाद घर ले जा सकती हैं.’’

तन्मय की चोट देख कर मेरा कलेजा मुंह को आ रहा था पर वह मुसकराया, ‘‘मौम, आई एम फाइन, डोंट वरी.’’

मैं कुछ बोल नहीं पाई. मेरी आंखें डबडबा गईं. फिर 5 मिनट के अंदर ही उस के दोस्तों का हंसीमजाक शुरू हो गया. पूरा माहौल देखते ही देखते बदल गया. मैं हैरान थी. अब वे लड़के तन्मय से विक्टरी का ङ्क साइन बनवा कर ‘फेसबुक’ पर डालने के लिए उस की फोटो खींच रहे थे. तन्मय लेटालेटा पोज दे रहा था. नर्स भी खड़ी हंस रही थी.

तन्मय ने एक दोस्त से कहा, ‘‘विकास, मेरा क्लोजअप खींचना. डैड टूर पर हैं. उन्हें ‘वाट्सऐप’ पर भेज देता हूं.’’

देखते ही देखते यह काम भी हो गया. अमित से उस ने बैड पर बैठेबैठे ही फोन पर बात भी कर ली. मैं हैरान थी. किस मिट्टी के बने हैं ये बच्चे. इन्हें कहां कोई बात देर तक परेशान कर सकती है.

रिया को बताया तो वह भी औफिस से निकल पड़ी. रात 9 बजे तन्मय के एक दोस्त का भाई अपनी कार से हम दोनों को घर छोड़ गया था. तन्मय पूरी तरह शांत था, चोट उसे लगी थी और वह मुझे हंसाने की कोशिश कर रहा था. तन्मय को डाक्टर ने 3 हफ्ते का रैस्ट बताया था. अमित टूर से आ गए थे. 3 हफ्ते आनेजाने वालों का सिलसिला चलता रहा. एक दिन उस ने कहा, ‘‘मौम, देखो, आप की फ्रैंड्स और मेरे फ्रैंड्स की सोच में कितना फर्क है. मेरे फ्रैंड्स कहते हैं, जल्दी ठीक हो यार, इतने दिन बिना खेले कैसे रहेगा और आप की हर फ्रैंड यह कह कर जाती है कि अब इस का खेलना बंद करो, बस. बहुत चोट लगती है इसे.’’

उन 3 हफ्तों में मैं ने उस के और उस के दोस्तों के साथ जो समय बिताया, इस उम्र के स्वभाव और व्यवहार का जो जायजा लिया, मेरा मन खिल उठा.

इन बच्चों की और अपनी उस उम्र की तुलना करती हूं तो मन में एक कसक सी होती है. मन करता है कि काश, कहीं से कैसे भी उस उम्र में पहुंच जाऊं. इन बच्चों के बेवजह हंसने की, खिलखिलाने की, छोटीछोटी बातों पर खुश होने की, अपने दर्दतकलीफ को भूल दोस्तों के साथ ठहाके लगाने की, खाने की छोटी से छोटी मनपसंद चीज देख कर चहकने की प्रवृत्ति को देख सोचती हूं, मैं ऐसी क्यों नहीं थी. मेरी तो कभी हिम्मत ही नहीं हुई कि घर में किसी बात को नकार अपनी मरजी बताऊं. जो मिलता रहा उसी में संतुष्ट रही हमेशा. न कभी कोई जिद न कभी कोई मांग.

13 साल की उम्र में पिता को खो कर, मम्मी और भैया के सख्त अनुशासन में रही. अंधेरा होने से पहले भैया का घर लौटने का सख्त निर्देश, ज्यादा हंसनेबोलने पर मम्मी की घूरती कठोर आंखें, मुझे याद ही नहीं आता मैं जीवन में कभी 6 बजे के बाद उठी होऊं, विशेषकर विवाह से पहले. और यहां मेरे बच्चे जब मैसेज डालते हैं, ‘उठाना मत.’ तो मुझे कभी गुस्सा नहीं आता. मुझे अच्छा लगता है.

मेरे बच्चे आराम से अपने मन की बात पूरी कर सकते हैं. मेरी प्लेट में तो जो भी कुछ आया, मैं ने हमेशा बिना शिकायत के खाया है और जब मेरे बच्चे अपनी फरमाइश जाहिर करकर के मुझे नचाते हैं, मैं खुश होती हूं. मेरी कोई सहेली जब अपने किसी युवा बच्चे की शिकायत करती है जैसे देर से घर आने की, ज्यादा टीवी देखने की, देर तक सोने की आदि तो मैं यही कहती हूं–जीने दो उन्हें, कल घरगृहस्थी की जिम्मेदारी संभालनी है, जी लेने दो उन्हें.

मुझे लगता है मैं तो बहुत सी बातों में हमेशा मन मार कर अब तक जीती आई थी पर इन बच्चों को निश्ंिचत, खुश, अपनी इच्छा पूरी करने के लिए बात मनवाते देख कर सच कहती हूं, जी उठी हूं मैं.

सहारा: कौन बना अर्चना के बुढ़ापे का सहारा

लेखक- रमणी मोटाना

‘‘अर्चना,’’ उस ने पीछे से पुकारा.

‘‘अरे, रजनीश…तुम?’’ उस ने मुड़ कर देखा और मुसकरा कर बोली.

‘‘हां, मैं ही हूं, कैसा अजब इत्तिफाक है कि तुम दिल्ली की और मैं मुंबई का रहने वाला और हम मिल रहे हैं बंगलौर की सड़क पर. वैसे, तुम यहां कैसे?’’

‘‘मैं आजकल यहीं रहती हूं. यहां घडि़यों की एक फैक्टरी में जनसंपर्क अधिकारी हूं. और तुम?’’

‘‘मैं यहां अपने व्यापार के सिलसिले में आया हुआ हूं. मेरी पत्नी भी साथ है. हम पास ही एक होटल में ठहरे हैं.’’

2-4 बातें कर के अर्चना बोली, ‘‘अच्छा…मैं चलती हूं.’’

‘‘अरे रुको,’’ वह हड़बड़ाया, ‘‘इतने  सालों बाद हम मिले हैं, मुझे तुम से ढेरों बातें करनी हैं. क्या हम दोबारा नहीं मिल सकते?’’

‘‘हांहां, क्यों नहीं,’’ कहते हुए अर्चना ने विजिटिंग कार्ड पर्स में से निकाला और उसे देती हुई बोली, ‘‘यह रहा मेरा पता व फोन नंबर. हो सके तो कल शाम की चाय मेरे साथ पीना और अपनी पत्नी को भी लाना.’’

अर्चना एक आटो-रिकशा में बैठ कर चली गई. रजनीश एक दुकान में घुसा जहां उस की पत्नी मोहिनी शापिंग कर तैयार बैठी थी.

‘‘मेरीखरीदारी हो गई. जरा देखो तो ये साडि़यां ज्यादा चटकीली तो नहीं हैं. पता नहीं ये रंग

मुझ पर खिलेंगे

या नहीं,’’ मोहिनी बोली.

रजनीश ने एक उचटती नजर मोहिनी पर डाली. उस का मन हुआ कि कह दे, अब उस के थुलथुल शरीर पर कोई कपड़ा फबने वाला नहीं है, पर वह चुप रह गया.

मोहिनी की जान गहने व कपड़ों में बसती है. वह सैकड़ों रुपए सौंदर्य प्रसाधनों पर खर्चती है. घंटों बनती-संवरती है. केश काले करती है, मसाज कराती है. नाना तरह के उपायों व साधनों से समय को बांधे रखना चाहती है. इस के विपरीत रजनीश आगे बढ़ कर बुढ़ापे को गले लगाना चाहता है. बाल खिचड़ी, तोंद बढ़ी हुई, एक बेहद नीरस, उबाऊ जिंदगी जी रहा है वह. मन में कोई उत्साह नहीं. किसी चीज की चाह नहीं. बस, अनवरत पैसा कमाने में लगा रहता है.

कभीकभी वह सोचता है कि वह क्यों इतनी जीतोड़ मेहनत करता है. उस के बाद उस के ऐश्वर्य को भोगने वाला कौन है. न कोई आसऔलाद न कोई नामलेवा… और तो और इसी गम में घुलघुल कर उस की मां चल बसीं.

संतान की बेहद इच्छा ने उसे अर्चना को तलाक दे कर मोहिनी से ब्याह करने को प्रेरित किया था. पर उस की इच्छा कहां पूरी हो पाई थी.

होटल पहुंच कर रजनीश बालकनी में जा बैठा. सामने मेज पर डिं्रक का सामान सजा हुआ था. रजनीश ने एक पैग बनाया और घूंटघूंट कर के पीने लगा.

उस का मन बरबस अतीत में जा पहुंचा.

कालिज की पढ़ाई, मस्तमौला जीवन. अर्चना से एक दिन भेंट हुई. पहले हलकी नोकझोंक से शुरुआत हुई, फिर छेड़छाड़, दोस्ती और धीरेधीरे वे प्रेम की डोर में बंध गए थे.

एक रोज अर्चना उस के पास घबराई हुई आई और बोली, ‘रजनीश, ऐसे कब तक चलेगा?’

‘क्या मतलब?’

‘हम यों चोरी- छिपे कब तक मिलते रहेंगे?’

‘क्यों भई, इस में क्या अड़चन है? तुम लड़कियों के होस्टल में रहती हो, मैं अपने परिवार के साथ. हमें कोई बंदिश नहीं है.’

‘ओहो…तुम समझते नहीं, हम शादी कब कर रहे हैं?’

‘अभी से शादी की क्या जल्दी पड़ी है, पहले हमारी पढ़ाई तो पूरी हो जाए…उस के बाद मैं अपने पिता के व्यापार में हाथ बंटाऊंगा फिर जा कर शादी…’

‘इस में तो सालों लग जाएंगे,’ अर्चना बीच में ही बोल पड़ी.

‘तो लगने दो न…हम कौन से बूढ़े हुए जा रहे हैं.’

‘हमारे प्यार को शादी की मुहर लगनी जरूरी है.’

‘बोर मत करो यार,’ रजनीश ने उसे बांहों में समेटते हुए कहा, ‘तनमनधन से तो तुम्हारा हो ही चुका हूं, अब अग्नि के सामने सिर्फ चंद फेरे लेने में ही क्या रखा है.’

‘रजनीश,’ अर्चना उस की गिरफ्त से छूट कर घुटे हुए स्वर में बोली, ‘मैं…मैं प्रेग्नैंट हूं.’

‘क्या…’ रजनीश चौंका, ‘मगर हम ने तो पूरी सावधानी बरती थी…खैर, कोई बात नहीं. इस का इलाज है मेरे पास, अबार्शन.’

‘अबार्शन…’ अर्चना चौंक कर बोली, ‘नहीं, रजनीश, मुझे अबार्शन से बहुत डर लगता है.’

‘पागल न बनो. इस में डरने की क्या बात है? मेरा एक दोस्त मेडिकल कालिज में पढ़ता है. वह आएदिन ऐसे केस करता रहता है. कल उस के पास चले चलेंगे, शाम तक मामला निबट जाएगा. किसी को कानोंकान खबर भी न होगी.’

‘लेकिन जब हमें शादी करनी ही है तो यह सब करने की जरूरत?’

‘शादी करनी है सो तो ठीक है, लेकिन अभी से शादी के बंधन में बंधना सरासर बेवकूफी होगी. और जरा सोचो, अभी तक मेरे मांबाप को हमारे संबंधों के बारे में कुछ भी नहीं मालूम. अचानक उन के सामने फूला पेट ले कर जाओगी तो उन्हें बुरी तरह सदमा पहुंचेगा.

‘नहीं, अर्चना, मुझे उन्हें धीरेधीरे पटाना होगा. उन्हें राजी करना होगा. आखिर मैं उन की इकलौती संतान हूं. मैं उन की भावनाओं को ठेस नहीं पहुंचाना चाहता.’

‘प्यार का खेल खेलने से पहले ही यह सब सोचना था न?’ अर्चना कुढ़ कर बोली.

‘डार्ल्ंिग, नाराज न हो, मैं वादा करता हूं कि पढ़़ाई पूरी होते ही मैं धूमधड़ाके से तुम्हारे द्वार पर बरात ले कर आऊंगा और फिर अपने यहां बच्चों की लाइन लगा दूंगा…’

लेकिन शादी के 10-12 साल बाद भी बच्चे न हुए तो रजनीश व अर्चना ने डाक्टरों का दरवाजा खटखटाया था और हरेक डाक्टर का एक ही निदान था कि अर्चना के अबार्शन के समय नौसिखिए डाक्टर की असावधानी से उस के गर्भ में ऐसी खराबी हो गई है जिस से वह भविष्य में गर्भ धारण करने में असमर्थ है.

यह सुन कर अर्चना बहुत दुखी हुई थी. कई दिन रोतेकलपते बीते. जब जरा सामान्य हुई तो उस ने रजनीश को एक बच्चा गोद लेने को मना लिया.

अनाथाश्रम में नन्हे दीपू को देखते ही वह मुग्ध हो गई थी, ‘देखो तो रजनीश, कितना प्यारा बच्चा है. कैसा टुकुरटुकुर हमें ताक रहा है. मुझे लगता है यह हमारे लिए ही जन्मा है. बस, मैं ने तो तय कर लिया, मुझे यही बच्चा चाहिए.’

‘जरा धीरज धरो, अर्चना. इतनी जल्दबाजी ठीक नहीं. एक बार अम्मां व पिताजी से भी पूछ लेना ठीक रहेगा.’

‘क्योें? उन से क्यों पूछें? यह हमारा व्यक्तिगत मामला है, इस बच्चे को हम ही तो पालेंगेपोसेंगे.’

‘फिर भी, यह बच्चा उन के ही परिवार का अंग होगा न, उन्हीं का वंशज कहलाएगा न?’

यह सुन कर अर्चना बुरा सा मुंह बना कर बोली, ‘वह सब मैं नहीं जानती. तुम्हारे मातापिता से तुम्हीं निबटो. यह अच्छी रही, हर बात में अपने मांबाप की आड़ लेते हो. क्या तुम अपनी मरजी से एक भी कदम उठा नहीं सकते?’

रजनीश के मांबाप ने अनाथाश्रम से बच्चा गोद लेने के प्रस्ताव का जम कर विरोध किया इधर अर्चना भी अड़

गई कि वह दीपू को गोद ले कर ही रहेगी.

‘‘रजनीश…’’ मोहिनी ने आवाज दी, ‘‘खाना खाने नीचे, डाइनिंग रूम में चलोगे या यहीं पर कुछ मंगवा लें?’’

यह सुन कर रजनीश की तंद्रा टूटी. एक ही झटके में वह वर्तमान में लौट आया. बोला, ‘‘यहीं पर मंगवा लो.’’

खाना खाते वक्त रजनीश ने पूछा, ‘‘कल शाम को तुम्हारा क्या प्रोग्राम है?’’

‘‘सोच रही थी यहां की जौहरी की दुकानें देखूं. मेरी एक सहेली मुझे ले जाने वाली है.’’

‘‘ठीक है, मैं भी शायद व्यस्त रहूंगा.’’

रजनीश ने अर्चना को फोन किया, ‘‘अर्चना, हमारा कल का प्रोग्राम तय है न?’’

‘‘हां, अवश्य.’’

फोन का चोंगा रख कर अर्चना उत्तेजित सी टहलने लगी कि रजनीश अब क्यों उस से मिलने आ रहा है. उसे अब मुझ से क्या लेनादेना है?

तलाकनामे पर हुए हस्ताक्षर ने उन के बीच कड़ी को तोड़ दिया था. अब वे एकदूसरे के लिए अजनबी थे.

‘अर्चना, तू किसे छल रही है?’ उस के मन ने सवाल किया.

रजनीश से तलाक ले कर वह एक पल भी चैन से न रह पाई. पुरानी यादें मन को झकझोर देतीं. भूलेबिसरे दृश्य मन को टीस पहुंचाते. बहुत ही कठिनाई से उस ने अपनी बिखरी जिंदगी को समेटा था, अपने मन की किरिचों को सहेजा था.

उस का मन अनायास ही अतीत की गलियों में विचरने लगा.

उसे वह दिन याद आया जब नन्हे दीपू को ले कर घर में घमासान शुरू हो गया था.

उस ने रजनीश से कहा था कि वह दफ्तर से जरा जल्दी आ जाए ताकि वे दोनों अनाथाश्रम जा कर बच्चों में मिठाई बांट सकें. आश्रम वालों ने बताया है कि आज दीपू का जन्मदिन है.

यह सुन कर रजनीश के माथे पर बल पड़ गए थे. वह बोला, ‘यह सब न ही करो तो अच्छा है. पराए बालक से हमें क्या लेना.’

‘अरे वाह…पराया क्यों? हम जल्दी ही दीपू को गोद लेने वाले जो हैं न?’

‘इतनी जल्दबाजी ठीक नहीं.’

‘तुम जल्दीबाजी की कहते हो, मेरा वश चले तो उसे आज ही घर ले आऊं. पता नहीं इस बच्चे से मुझे इतना मोह क्यों हो गया है. जरूर हमारा पिछले जन्म का रिश्ता रहा होगा,’ कहती हुई अर्चना की आंखें भर आई थीं.

यह देख कर रजनीश द्रवित हो कर बोला था, ‘ठीक है, मैं शाम को जरा जल्दी लौटूंगा. फिर चले चलेंगे.’

रजनीश को दरवाजे तक विदा कर के अर्चना अंदर आई तो सास ने पूछा, ‘कहां जाने की बात हो रही थी, बहू?’

‘अनाथाश्रम.’

यह सुन कर तो सास की भृकुटियां तन गईं. वह बोली, ‘तुम्हें भी बैठेबैठे पता नहीं क्या खुराफात सूझती रहती है. कितनी बार समझाया कि पराई ज्योति से घर में उजाला नहीं होता, पर तुम हो कि मानती ही नहीं. अरे, गोद लिए बच्चे भी कभी अपने हुए हैं, खून के रिश्ते की बात ही और होती है,’ फिर वह भुनभुनाती हुई पति के पास जा कर बोली, ‘अजी सुनते हो?’

‘क्या है?’

‘आज बहूबेटा अनाथाश्रम जा रहे हैं.’

‘सो क्यों?’

‘अरे, उसी मुए बच्चे को गोद लेने की जुगत कर रहे हैं और क्या. मियांबीवी की मिलीभगत है. वैद्य, डाक्टरों को पैसा फूंक चुके, पीरफकीरों को माथा टेक चुके, जगहजगह मन्नत मान चुके, अब चले हैं अनाथाश्रम की खाक छानने.

‘न जाने किस की नाजायज संतान, जिस के कुलगोत्र का ठिकाना नहीं, जातिपांति का पता नहीं, ला कर हमारे सिर मढ़ने वाले हैं. मैं कहती हूं, यदि गोद लेना ही पड़ रहा है तो हमारे परिवार में बच्चों की कमी है क्या? हम से तो भई जानबूझ कर मक्खी निगली नहीं जाती. तुम जरा रजनीश से बात क्यों नहीं करते.’

‘ठीक है, मैं रजनीश से बात करूंगा.’

‘पता नहीं कब बात करोगे, जब पानी सिर से ऊपर हो जाएगा तब? जाने यह निगोड़ी बहू हम से किस जन्म का बदला ले रही है. पहले मेरे भोलेभाले बेटे पर डोरे डाले, अब बच्चा गोद लेने का तिकड़म कर रही है.’

रजनीश अपने कमरे में आ कर बिस्तर पर निढाल पड़ गया. अर्चना उस के पास खिसक आई और उस के बालों में उंगलियां चलाती हुई बोली, ‘क्या बात है, बहुत थकेथके लग रहे हो.’

‘आज अम्मां व पिताजी के साथ जम कर बहस हुई. वे दीपू को गोद लेने के कतई पक्ष में नहीं हैं.’

‘तो फिर?’

‘तुम्हीं बताओ.’

‘मैं क्या बताऊं, एक जरा सी बात को इतना तूल दिया जा रहा है. क्या और निसंतान दंपती बच्चा गोद नहीं लेते? हम कौन सी अनहोनी बात करने जा रहे हैं.’

‘मैं उन से कह कर हार गया. वे टस से मस नहीं हुए. मैं तो चक्की के दो पाटों के बीच पिस रहा हूं. इधर तुम्हारी जिद उधर उन की…’

‘तो अब?’

‘उन्होंने एक और प्रस्ताव रखा है…’

‘वह क्या?’ अर्चना बीच में ही बोल पड़ी.

‘वे कहते हैं कि चूंकि तुम मां नहीं बन सकती हो. मैं तुम्हें तलाक दे कर दूसरी शादी कर लूं.’

‘क्या…’ अर्चना बुरी तरह चौंकी, ‘तुम मेरा त्याग करोगे?’

‘ओहो, पूरी बात तो सुन लो. दूसरी शादी महज एक बच्चे की खातिर की जाएगी. जैसे ही बच्चा हुआ, उसे तलाक दे कर मैं दोबारा तुम से ब्याह कर लूंगा.’

‘वाह…वाह,’ अर्चना ने तल्खी से कहा, ‘क्या कहने हैं तुम लोगों की सूझबूझ के. मेरे साथ तो नाइंसाफी कर ही रहे हो, उस दूसरी, निरपराध स्त्री को भी छलोगे. बिना प्यार के उस से शारीरिक संबंध स्थापित करोगे और अपना मतलब साध कर उसे चलता करोगे?’

‘और कोई चारा भी तो नहीं है.’

‘है क्यों नहीं. कह दो अपने मातापिता से कि यह सब संभव नहीं. तुम पुरुष हम स्त्रियों को अपने हाथ की कठपुतली नहीं बना सकते. क्या तुम से यह कहते नहीं बना कि मैं ने शादी से पहले गर्भ धारण किया था? यदि तुम ने अबार्शन न करा दिया होता तो…’ कहतेकहते अर्चना का गला भर आया था.

‘अर्चना डियर, तुम बेकार में भावुक हो रही हो. बीती बातों पर खाक डालो. मुझे तुम्हारी पीड़ा का एहसास है. दूसरी तरफ मेरे बूढ़े मांबाप के प्रति भी मेरा कुछ कर्तव्य है. वे मुझ से एक ही चीज मांग रहे थे, इस घर को एक वारिस, इस वंश को एक कुलदीपक.’

‘तो कर लो दूसरी शादी, ले आओ दूसरी पत्नी, पर इतना बताए देती हूं कि मैं इस घर में एक भी पल नहीं रुकूंगी,’ अर्चना भभक कर बोली.

‘अर्चना…’

‘मैं इतनी महान नहीं हूं कि तुम्हारी बांहों में दूसरी स्त्री को देख कर चुप रह जाऊं. मैं सौतिया डाह से जल मरूंगी. नहीं रजनीश, मैं तुम्हें किसी के साथ बांटने के लिए हरगिज तैयार नहीं.’

‘अर्चना, इतना तैश में न आओ. जरा ठंडे दिमाग से सोचो. यह दूसरा ब्याह महज एक समझौता होगा. यह सब बिना विवाह किए भी हो सकता है पर…’

‘नहीं, मैं तुम्हारी एक नहीं सुनूंगी. हर बात में तुम्हारी नहीं चलेगी. आज तक मैं तुम्हारे इशारों पर नाचती रही. तुम ने अबार्शन को कहा, सो मैं ने करा दिया. तुम ने यह बात अपने मातापिता से गुप्त रखी, मैं राजी हुई. तुम क्या जानो कि तुम्हारी वजह से मुझे कितने ताने सहने पड़ रहे हैं. बांझ…आदि विशेषणों से मुझे नवाजा जाता है. तुम्हारी मां ने तो एक दिन यह भी कह दिया कि सवेरेसवेरे बांझ का मुंह देखो तो पूरा दिन बुरा गुजरता है. नहीं रजनीश, मैं ने बहुत सहा, अब नहीं सहूंगी.’

‘अर्चना, मुझे समझने की कोशिश करो.’

‘समझ लिया, जितना समझना था. तुम लोगों की कूटनीति में मुझे बलि का बकरा बनाया जा रहा है. जैसे गायगोरू के सूखने पर उस की उपयोगिता नहीं रहती उसी तरह मुझे बांझ करार दे कर दूध में पड़ी मक्खी की तरह निकाल फेंका जा रहा है. लेकिन मुझे भी तुम से एक सवाल करना है…’

‘क्या?’ रजनीश बीच में ही बोल पड़ा.

‘समझ लो तुम मेें कोई कमी होती और मैं भी यही कदम उठाती तो?’

‘अर्चना, यह कैसा बेहूदा सवाल है?’

‘देखा…कैसे तिलमिला गए. मेरी बात कैसी कड़वी लगी.’

रजनीश मुंह फेर कर सोने का उपक्रम करने लगा. उस रात दोनों के दिल में जो दरार पड़ी वह दिनोंदिन चौड़ी होती गई.

रजनीश ने दरवाजे की घंटी बजाई तो एक सजीले युवक ने द्वार खोला.

‘‘अर्चनाजी हैं?’’ रजनीश ने पूछा.

‘‘जी हां, हैं, आप…आइए, बैठिए, मैं उन्हें बुलाता हूं.’’

अर्चना ने कमरे में प्रवेश किया. उस के हाथ में ट्रे थी.

‘‘आओ रजनीश. मैं तुम्हारे लिए काफी बना रही थी. तुम्हें काफी बहुत प्रिय है न,’’ कह कर वह उसे प्याला थमा कर बोली, ‘‘और सुनाओ, क्या हाल हैं तुम्हारे? अम्मां व पिताजी कैसे हैं?’’

‘‘उन्हें गुजरे तो एक अरसा हो गया.’’

‘‘अरे,’’ अर्चना ने खेदपूर्वक कहा, ‘‘मुझे पता ही न चला.’’

‘‘हां, तलाक के बाद तुम ने बिलकुल नाता तोड़ लिया. खैर, तुम तो जानती ही हो कि मैं ने मोहिनी से शादी कर ली. और यह नियति की विडंबना देखो, हम आज भी निसंतान हैं.’’

‘‘ओह,’’ अर्चना के मुंह से निकला.

‘‘हां, अम्मां को तो इस बात से इतना सदमा पहुंचा कि उन्होंने खाट पकड़ ली. उन के निधन के बाद पिताजी भी चल बसे. लगता है हमें तुम्हारी हाय लग गई.’’

‘‘छि:, ऐसा न कहो रजनीश, जो होना होता है वह हो कर ही रहता है. और शादी आजकल जन्म भर का बंधन कहां होती है? जब तक निभती है निभाते हैं, बाद में अलग हो जाते हैं.’’

‘‘लेकिन हम दोनों एकदूसरे के कितने करीब थे. एक मन दो प्राण थे. कितना साहचर्य, सामंजस्य था हम में. कभी सपने में भी न सोचा था कि हम एकदूसरे के लिए अजनबी हो जाएंगे. और आज मैं मोहिनी से बंध कर एक नीरस, बेमानी ज्ंिदगी बिता रहा हूं. हम दोनों में कोई तालमेल नहीं. अगर जीवनसाथी मनमुताबिक न हो तो जिंदगी जहर हो जाती है.

‘‘खैर छोड़ो, मैं भी कहां का रोना ले बैठा. तुम अपनी सुनाओ. यह बताओ, वह युवक कौन था जिस ने दरवाजा खोला?’’

यह सुन कर अर्चना मुसकरा कर बोली, ‘‘वह मेरा बेटा है.’’

‘‘ओह, तो तुम ने भी दूसरी शादी कर ली.’’

‘‘नहीं, मैं ने शादी नहीं की, मैं ने तो केवल उसे गोद लिया है.’’

‘‘क्या?’’

‘‘हां, रजनीश, यह वही बच्चा दीपू है, अनाथाश्रम वाला. तुम से तलाक ले कर मैं दिल्ली गई जहां मेरा परिवार रहता था. एक नौकरी कर ली ताकि उन पर बोझ न बनूं, पर तुम तो जानते हो कि एक अकेली औरत को यह समाज किस निगाह से देखता है.

‘‘पुरुषों की भूखी नजरें मुझ पर गड़ी रहतीं. स्त्रियों की शंकित नजरें मेरा पीछा करतीं. कई मर्दों ने करीब आने की कोशिश की. कई ने मुझे अपनी हवस का शिकार बनाना चाहा, पर मैं उन सब से बचती रही. 1-2 ने विवाह का प्रलोभन भी दिया, पर जहां मन न मिले वहां केवल सहारे की खातिर पुरुष की अंकशायिनी बनना मुझे मंजूर न था.

‘‘इस शहर में आ कर अपना अकेलापन मुझे सालने लगा. नियति की बात देखो, अनाथाश्रम में दीपू मानो मेरी ही प्रतीक्षा कर रहा था. इस ने मेरे हृदय के रिक्त स्थान को भर दिया. इस के लालनपालन में लग कर जीवन को एक गति मिली, एक ध्येय मिला. 15 साल हम ने एकदूसरे के सहारे काट दिए. इस आशा में हूं कि यह मेरे बुढ़ापे का सहारा बनेगा, यदि नहीं भी बना तो कोई गम नहीं, कोई गिला नहीं,’’ कहती हुई अर्चना हलके से मुसकरा दी.

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