Father’s day 2022: कुहरा छंट गया- रोहित क्या निभा पाया कर्तव्य

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Father’s Day 2022: अथ से इति तक- बेटी के विद्रोह ने हिला दी माता- पिता की दुनिया

‘‘चल न शांता, बड़ी अच्छी फिल्म लगी है ‘संगीत’ में. कितने दिन से घर से बाहर गए भी तो नहीं हैं…इन के पास तो कभी समय ही नहीं रहता है,’’ पति के कार्यालय तथा बच्चों के स्कूल, कालेज जाते ही शुभ्रा अपनी सहेली शांता के घर चली आई.

‘‘आज नहीं शुभ्रा, आज बहुत काम है. फिर मैं ने राजेश्वर को बताया भी नहीं है. अचानक ही बिना बताए चली गई तो न जाने क्या समझ बैठें,’’ शांता ने टालने का प्रयत्न किया.

‘‘लो सुनो, अरे, शादी को 20 वर्ष बीत गए, अब भी और कुछ समझने की गुंजाइश है? ले, फोन उठा और बता दे भाईसाहब को कि तू आज मेरे साथ फिल्म देखने जा रही है.’’

‘‘तू नहीं मानने वाली…चल, आज तेरी बात मान ही लेती हूं, तू भी क्या याद करेगी,’’ शांता निर्णयात्मक स्वर में बोली.

निर्णय लेने भर की देर थी, फिर तो शांता ने झटपट पति को फोन किया. बेटी प्रांजलि के नाम पत्र लिख कर खाने की मेज पर फूलदान के नीचे दबा दिया और आननफानन में तैयार हो कर घर की चाबी पड़ोस में देते हुए दोनों सहेलियां बाहर सड़क पर आ गईं.

‘‘अकेले घूमनेफिरने का मजा ही कुछ और है. पति व बच्चों के साथ तो सदा ही जाते हैं, पर यह सब बड़ा रूढि़वादी लगता है. अब देखो, केवल हम दोनों और यह स्वतंत्रता का एहसास, मानो हर आनेजाने वाले की निगाह हमें सहला रही हो,’’ शुभ्रा चहकते हुए बोली.

‘‘पता नहीं, मेरी तो इतनी उलटीसीधी बातें सोचने की आदत ही नहीं है,’’ शांता ने मुसकरा कर टालने का प्रयत्न किया.

‘‘अच्छा शांता, क्या ऐसा नहीं हो सकता कि कुछ समय के लिए हमारी किशोरावस्था हमें वापस मिल जाए. फिर वही पंखों पर उड़ते से हलकेफुलके दिन, सपनीली पलकें लिए झुकीझुकी आंखें…’’ शुभ्रा, अपनी ही रौ में बोलती चली गई.

‘‘शुभ्रा, हम सड़क पर हैं. माना कि तुझे कविता कहने का बड़ा शौक है, पर कुछ तो शर्म किया कर…अब हम किशोरियां नहीं, अब हम किशोरियों की माताएं हैं. कोई ऐसी बातें सुनेगा तो क्या सोचेगा?’’ शांता ने उसे चुप कराने के लिए कहा.

‘‘तू बड़ी मूर्ख है शांता, तू तो किशोरा- वस्था में भी दादीअम्मां की तरह उपदेश झाड़ा करती थी, अब तो फिर भी आयु हो गई, पर एक राज की बात बताऊं?’’

‘‘क्या?’’

‘‘कोई कह नहीं सकता कि तेरी 17-18 वर्ष की बेटी है,’’ शुभ्रा मुसकराई.

‘‘शुभ्रा, तू कभी बड़ी नहीं होगी, यह हमारी आयु है, ऐसी बातें करने की?’’

‘‘लो भला, हमारी आयु को क्या हुआ है…विदेशों में तो हमारे बराबर की स्त्रियां रास रचाती घूमती हैं,’’ शुभ्रा ने शरारत भरा उत्तर दिया.

इस से पहले कि शांता कोई उत्तर दे पाती, आटोरिकशा एक झटके के साथ रुका और दोनों सहेलियां वास्तविकता की धरती पर लौट आईं.

टिकट खरीदने के लिए लंबी कतार लगी थी. शुभ्रा लपक कर वहां खड़ी हो गई और शांता कुछ दूर खड़ी हो कर उस की प्रतीक्षा करने लगी. रंगबिरंगे कपड़े पहने युवकयुवतियों और स्त्रीपुरुषों को शांता बड़े ध्यान से देख रही थी. ऐसे अवसरों पर ही तो नए फैशन, परिधानों आदि का जायजा लिया जा सकता है.

फिल्म का शो खत्म हुआ. शांता भीड़ से बचने के लिए एक ओर हटी ही थी कि तभी भीड़ में जाते एक जोड़े को देख कर मानो उसे सांप सूंघ गया. क्या 2 व्यक्तियों की शक्ल, आकार, चालढाल इतनी अधिक मेल खा सकती है? युवती बिलकुल उस की बेटी प्रांजलि जैसी लग रही थी. ‘कहीं यह प्रांजलि ही तो नहीं?’ एक क्षण को यह विचार मस्तिष्क में कौंधा, पर दूसरे ही क्षण उस ने उसे झटक दिया. प्रांजलि भला इस समय यहां क्या कर रही होगी? वह तो कालेज में होगी. वह युवती कुछ दूर चली गई थी और अपने पुरुष मित्र की किसी बात पर खिलखिला कर हंस रही थी. शांता कुछ देर के लिए उसे घूर कर देखती रही, ‘नहीं, उस की निगाहें इतना धोखा नहीं खा सकतीं, क्या वह अपनी बेटी को नहीं पहचान सकती?’

पर तभी उसे खयाल आया कि प्रांजलि आज स्कर्टब्लाउज पहन कर गई थी और यह युवती तो नीले रंग के चूड़ीदार पाजामेकुरते में थी. शांता ने राहत की सांस ली, पर दूसरे ही क्षण उसे याद आया कि ऐसा ही चूड़ीदार पाजामाकुरता प्रांजलि के पास भी है. संशय दूर करने के लिए उस ने उस युवती को पुकारने के लिए मुंह खोला ही था कि शुभ्रा के वहां होने के एहसास ने उस के मुंह पर मानो ताला जड़ दिया. शुभ्रा लाख उस की सहेली थी पर अपनी बेटी के संबंध में शांता किसी तरह का खतरा नहीं उठा सकती थी. प्रांजलि के संबंध में कोई ऐसीवैसी बात शुभ्रा को पता चले और फिर यह आम चर्चा का विषय बन जाए, यह वह कभी सहन नहीं कर सकती थी. अत: वह चुपचाप खड़ी रह गई.

‘‘क्या बात है शांता, तबीयत खराब है क्या?’’ तभी शुभ्रा टिकट ले कर आ गई.

‘‘पता नहीं शुभ्रा, कुछ अजीब सा लग रहा है. चक्कर आ रहा है. लगता है, अब मैं अधिक समय खड़ी नहीं रह सकूंगी,’’ शांता किसी प्रकार बोली. सचमुच उस का गला सूख रहा था तथा नेत्रों के सम्मुख अंधेरा छा रहा था.

‘‘गरमी भी तो कैसी पड़ रही है…चल, कुछ ठंडा पीते हैं…’’ कहती शुभ्रा उसे शीतल पेय की दुकान की ओर खींच ले गई.

शीतल पेय पी कर शांता को कुछ राहत अवश्य मिली किंतु मन अब भी ठिकाने पर नहीं था. कुछ देर पहले के हंसीठहाके उदासी में बदल गए थे. फिल्म देखते हुए भी उस की निगाह में प्रांजलि ही घूम रही थी. किसी प्रकार फिल्म समाप्त हुई तो उस ने राहत की सांस ली.

अब उसे घर पहुंचने की जल्दी थी लेकिन शुभ्रा तो बाहर ही खाने का निश्चय कर के आई थी. पर शांता की दशा देख कर शुभ्रा ने भी अपना विचार बदल दिया और दोनों सहेलियां घर पहुंच गईं.

शांता घर पहुंची तो देखा, प्रांजलि अभी घर नहीं लौटी थी. उस की घबराहट की तो कोई सीमा ही नहीं थी. सोचने लगी, ‘लगभग 3 घंटे पहले प्रांजलि को देखा था, न जाने किस आवारा के साथ घूम रही थी? लगता है, यह लड़की तो हमें कहीं का न छोड़ेगी,’ सोचते हुए शांता तो रोने को हो आई.

जब और कुछ न सूझा तो शांता पति का फोन नंबर मिलाने लगी, लेकिन तभी द्वार की घंटी बज उठी. वह लपक कर द्वार तक पहुंची. घबराहट से उस का हृदय तेजी से धड़क रहा था. दरवाजा खोला तो सामने खड़ी प्रांजलि को देख कर उस की जान में जान आई, पर इस बात पर तो वह हैरान रह गई कि प्रांजलि तो वही स्कर्टब्लाउज पहने थी जो वह सुबह पहन कर गई थी. फिर वह नीले चूड़ीदार पाजामेकुरते वाली लड़की? क्या यह संभव नहीं कि उस ने प्रांजलि जैसी शक्लसूरत की किसी अन्य लड़की को देखा हो.

‘‘क्या बात है, मां? इस तरह रास्ता रोक कर क्यों खड़ी हो? मुझे अंदर तो आने दो.’’

‘‘अंदर? हांहां, आओ, तुम्हारा ही तो घर है,’’ शांता वहां से हटते हुए बोली, पर प्रांजलि के अंदर आते ही उस ने शीघ्रता से बेटी के कंधे पर लटकता बैग उतारा और सारा सामान उलट दिया.

नीला चूड़ीदार पाजामाकुरता बैग से बाहर पड़ा शांता को मुंह चिढ़ा रहा था. प्रांजलि भी मां के इस व्यवहार पर स्तब्ध खड़ी थी.

‘‘इस तरह छिपा कर ये कपड़े ले जाने की क्या आवश्यकता थी?’’ शांता का स्वर आवश्यकता से अधिक तीखा था.

‘‘मैं क्यों छिपा कर ले जाने लगी?’’ प्रांजलि अब तक संभल चुकी थी, ‘‘पहले से ही रखा होगा.’’

‘‘तुम अब भी झूठ बोले जा रही हो, प्रांजलि. कालेज छोड़ कर किस के साथ फिल्म देख रही थीं, ‘संगीत’ में? वह तो शुभ्रा मेरे साथ थी और मैं नहीं चाहती थी कि उस के सामने कोई तमाशा खड़ा हो, नहीं तो यह प्रश्न मैं तुम से वहीं करती,’’ शांता गुस्से से चीखी.

‘‘वहीं पूछ लेना था, मां. शुभ्रा चाची तो बिलकुल घर जैसी हैं. फिर एक दिन तो सब को पता चलना ही है.’’

‘‘अपनी मां से इस तरह बेशर्मी से बातें करते तुम्हें शर्म नहीं आती?’’

‘‘मैं ने ऐसा क्या किया है, मां? सुबोध और मैं एकदूसरे को प्यार करते हैं और विवाह करना चाहते हैं…साथसाथ फिल्म देखने चले गए तो क्या हो गया?’’

‘‘शर्म नहीं आती, ऐसा कहते? तुम क्या समझती हो कि तुम मनमानी करती रहोगी और हम चुपचाप देखते रहेंगे? आज से तुम्हारा घर से निकलना बंद…बंद करो यह कालेज जाना भी, बहुत हो गई पढ़ाई,’’ शांता ने मानो अपना आज्ञापत्र जारी कर दिया.

प्रांजलि पैर पटकती अपने कमरे में चली गई और स्तंभित शांता वहीं बैठ कर फूटफूट कर रो पड़ी.

Summer Special: ऐसे बनाए टेस्टी पनीर का चीला

पनीर का चीला स्‍वादिष्‍ट होने के साथ-साथ पौष्टिक भी होता है. इसमें बेसन का भी इस्‍तेमाल होता है, इसलिए बेसन पनीर चीला भी कहते हैं. तो आज आपको पनीर चीला बनाने की विधि बताते हैं. इसे जरूर ट्राई कीजिए.

हमें चाहिए:

– बेसन (200 ग्राम)

– पनीर (75 ग्राम)

– प्याज 2 (बारीक कटा हुआ)

– लहसुन 6-7 कली (बारीक कटा हुआ)

– हरी मिर्च  04 (बारीक कटी हुई)

– हरा धनिया ( 01 छोटा चम्मच)

– लाल मिर्च (01 छोटा चम्मच)

– सौंफ ( 01 छोटा चम्मच)

– अजवायन ( 01 छोटा चम्मच)

– तेल ( सेंकने के लिये)

– नमक ( स्वादानुसार)

– अदरक ( 01 छोटा चम्मच)

बनाने का तरीका

– सबसे पहले पनीर को कद्दूकस कर लें और इसके बाद बेसन को छान लें.

– फिर उसमें पनीर के साथ सारी सामग्री मिला लें.

– अब मिश्रण में थोड़ा-थोड़ा पानी डालते हुए उसका घोल बना लें.

– यह घोल पकौड़ी के घोल जैसा होना चाहिए, न ज्यादा पतला, न ज्यादा गाढ़ा.

– घोल को अच्छी तरह से फेंट लें और फिर उसे 15 मिनट के लिए ढ़क कर रख दें.

– अब एक नौन स्टिक तवा गरम करें और तवा गरम होने पर 1/2 छोटा चम्मच तेल तवा पर डालें और उसे पूरी सतह पर फैला दें.

– ध्यान रहे तेल सिर्फ तवा को चिकना करने के लिये इस्तेमाल करना है. अगर तवा पर तेल ज्यादा लगे,   तो उसे तवा से पोंछ दें.

– तवा गरम होने पर आंच कम कर दें और 2-3 बड़े चम्मच घोल तवा पर डालें और गोलाई में बराबर से        फैला दें. चीला की नीचे की सतह सुनहरी होने पर उसे पलट दें और उसे सेंक लें.

– इसी तरह सारे चीले सेंक लें, अब  आपकी पनीर चीला बनाने की विधि कम्‍प्‍लीट हुई.

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 (मॉडल और अभिनेता)

धारावाहिक ‘कोई अपना सा’ से अभिनय कैरियर की शुरुआत करने वाले अभिनेता ऋषिकेश पांडे आर्मी बैकग्राउंड से है. उन्हें सफलता CID धारावाहिक में इंस्पेक्टर सचिन की भूमिका से मिली. अभिनय से पहले वे एक एजेंसी में मार्केटिंग का काम किया करते थे. वहां आने वाले लोगों से ऋषिकेश की जान पहचान बढ़ी और उन्होंने मॉडलिंग शुरू की. थोड़े दिनों बाद उन्होंने धारावाहिक ‘कोई अपना सा’के लिए ऑडिशन दिया और काम मिल गया. इसके बाद उन्हें पीछे मुड़कर देखना नहीं पड़ा. उनके कुछ प्रमुख सीरियल इस प्रकार है, कहानी घर-घर की, विक्रम और गबराल, कामिनी दामिनी, हमारी बेटियों का विवाह, तारक मेहता का उल्टा चश्मा आदि कई है. अभी वे ‘ये रिश्ता क्या कहलाता है’ में मुकेश की भूमिका निभा रहे है. काम के दौरान उनका परिचय तृषा दबास से हुआ. प्यार हुआ, शादी की और एक बेटे दक्षय पांडे के पिता बने, लेकिन कुछ पर्सनल अनबन की वजह से 10 साल पहले ऋषिकेश औरतृषा एक दूसरे से अलग हो गए. इस साल उनकाकानूनी तौर पर डिवोर्स कुछ महीने पहले हो चुका है.

मुश्किल था बेटे को संभालना

 

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ऋषिकेश अपने बेटे दक्षय का पालन-पोषण खुद कर रहे है. काम के साथ बेटे की देखभाल कैसे करते है, पूछे जाने पर वे कहते है कि एक छोटे बच्चे के साथ काम बहुत कठिन और तनावपूर्ण था. शादी के बाद सब ठीक था, लेकिन कुछ सालो बाद हम दोनों में अनबन शुरू हो गयी. तृषा मुझे छोड़ अलग रहने लगी. मेरा जीवन हमेशा से बहुत सिंपल रहा है, मुझे पार्टी, नशा ये सब पसंद नहीं. काम के बाद घर पर आना ही मेरा उद्देश्य रहा. डिवोर्स के बाद अच्छी बात ये रही कि तृषा के पेरेंट्स, बहन और कजिन्स ने मेरा साथ दिया, इसलिए कई बार जरुरत पड़ने पर मैं बेटे को उसके नाना-नानी के घर छोड़ता था. वे लोग मेरातृषा से अलग होने की वजह जानते है. इस प्रकार मेरे लिए काम के साथ बच्चे को सम्हालना मुश्किल हो रहा था. कई बार पूरी रात शूटिंग करने के बाद 300 किमी गाड़ी चलाकर उसके स्कूल के फंक्शन में जाता था और टीचर से मिलकर उसे स्कूल पहुंचाकर मैं शूटिंग पर सुबह 11 बजे चला जाता था. बेटे के बीमार होने पर पूरी रात शूट कर उसके पास दिन में रहता था. तब मैंने सोचा कि मैं या तो बच्चा सम्हालूँ या काम करूँ. दोनों काम एक साथ करने में बहुत मुश्किल हो रहा था. जब हमारी अनबन चल रही थी, उस दौरान मेरे पिता की भी मृत्यु हो गयी थी. उस समय मेरा बेटा बहुत छोटा था और तीसरी कक्षा में पढता था. एक बार उसकी छुट्टियां शुरू होने पर उसे कहाँ रखूं उसकी समस्या हो रही थी. उसे मैं अपनी माँ के पास भी छोड़ नहीं सकता था, क्योंकि पिता की मृत्यु के बाद माँ बीमार रहने लगी थी. मैं सोचता था कि बेटे को हमारी बातें न बताई जाय, ताकि उसके मन पर गहरा चोट न लगे. इसलिए पहले की तरह ही बच्चे की देखभाल करता रहा. अभी मैंने उसे होस्टल में डाल दिया  है, क्योंकि अब वह 12 साल का हो चुका है. लॉकडाउन की वजह से अभी वह मेरे साथ मुंबई में है.

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रिश्ता दोस्ती का

ऋषिकेश का बेटे दक्षय के साथ दोस्ती का रिश्ता है. उसे वे ऐसा माहौल देना चाहते है, जिससे उनका बेटा उनसे कुछ न छुपा सकें. ऋषिकेश खुद भी कोई बात बेटे से छुपाते नहीं. कई बार अनुशासन में रखने के लिए थोड़ी कड़क व्यवहार करते है. वैसे दक्षय शांत बच्चा है, वह अपनी पढाई और खेल पर ही समय बिताता है.

होते है बच्चे परेशान

ऋषिकेश का आगे कहना है कि भारत में ऐसे कई घर है, जो आपसी मनमुटाव के बाद भी रिश्ते को सम्हालने की कोशिश करते है, क्योंकि वे परंपरा में बंधकर कर उस रिश्ते को निभाने के लिए मजबूर होते है. मेरा परिवार भी पारंपरिक विचारों वाला है, लेकिन कभी-कभी ऐसे रिश्ते को निभाना संभव नहीं होता. इसके अलावा हर इंसान को ख़ुशी से जीने का अधिकार है, फिर चाहे वह पुरुष हो या महिला. मैं किसी के साथ बदतमीजी करना, गाली-गलौज देना पसंद नहीं करता. मैंने कई सेलेब्रिटी को आपस में अनबन होने पर बदतमीजी करते हुए सुना है. मेरी कोशिश ये रही है कि बच्चा माता-पिता के व्यवहार से परेशान न हो और सारी चीजें पहले की तरह रहे, क्योंकि माता-पिता के अनबन में बच्चों को सबसे अधिक भुगतना पड़ता है, जबकि उनकी कोई गलती नहीं होती.

तलाश कुछ अलग काम की

आर्मी बैकग्राउंड से सम्बन्ध रखने वाले ऋषिकेश के माता-पिता चाहते थे कि वे मेडिकल फील्ड में जाए, लेकिन उन्हें कुछ अलग करने की इच्छा रही. अभिनय के बारें में सोचा नहीं था, क्योंकि मुंबई में रहना और खाना-पीना महंगा है और कोई रिश्तेदार भी वहां नहीं था. वे कहते है कि मुंबई आकर रहना मेरे लिए बहुत संघर्षपूर्ण था. मैंने शुरू में मुंबई आकर एक मार्केटिंग एजेंसी के लिए काम किया. वही परलोगों से मिलना शुरू हुआ. पहले मॉडलिंग शुरू की और एकता कपूर की धारावाहिक ‘कोई अपना सा’ के लिए ऑडिशन दिया और हीरो की भूमिका मिली. इसके बाद कहानी घर-घर की, कामिनी दामिनी, सी आईडी, पोरस आदि कई धारावाहिकों में मुख्य और सपोर्टिंग किरदार निभाया है. एकता कपूर की सीरियल करने के बाद मुझे पीछे मुड़कर नहीं देखना पड़ा. अभी मैं ‘ये रिश्ता क्या कहलाता है’ में काम कर रहा हूँ. इसके अलावा अजय देवगन की एक फिल्म भी कर रहा हूँ. जीवन में बहुत उतार-चढ़ाव रहे है, लेकिन जब मैं अर्ली ट्वेंटी में था, तो मैंने शादी कर ली.

अच्छी थी दोस्ती

ऋषिकेश की तृषा से मुलाकात एक दोस्त की वजह से हुई थी.तृषा ने भी एक म्यूजिक वीडियो में काम किया था और अपने पिता का व्यवसाय कफपरेड में सम्हालती थी. ऋषिकेश शुरू से ही कोलाबा में रहता है और उनके सामने वाला घर तृषा का था. कई सालों की परिचय के बाद दोनों ने शादी की और बेटा दक्षय हुआ.

लिया कस्टडी बेटे का

बच्चे की कस्टडी ऋषिकेश ने ली है, इसकी वजह पूछने पर वे कहते है कि बचपन से मैं उसकी देखभाल कर रहा हूँ. कहीं भी घूमने जाना हो या व्यायाम करने, मैं बेटे को अपने साथ लेकर जाता था. बचपन से ही मैंने उसका दायित्व लिया है. इसलिए उसकी कस्टडी मैंने लिया है, लेकिन मैं यह भी देखता हूँ कि जब उसका मन करें अपनी माँ से मिले. इसमें मुझे किसी प्रकार की समस्या नहीं है.अभी लॉकडाउन में मैंने खाना बनाने के अलावा घर की साफ़-सफाई सब किया है, उसे नॉन-वेज बहुत पसंद है, खासकर चिकन बहुत पसंद है.

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समझदार है बच्चे

दक्षय अभी 12 साल का है और ऋषिकेश ने उन्हें अपनी रिश्ते के बारें में कभी नहीं बताया, लेकिन बेटे की समझ को देखकर चकित हुए. उनका कहना है कि दक्षय छोटा होने की वजह से मैंने उसे कुछ नहीं कहा, जब भी जरुरत होती, मैं उसकी माँ से मिलवा देता था, ताकि उसे हम दोनों के अलग होने के बारें में पता न चले, लेकिन आज के बच्चे बहुत समझदार होते है. एक बार ट्रेवल करते वक्त वह मुझे तनाव न लेने की बात समझा रहा था. इसके बाद मैंने उसे सारी बातें खुलकर बता दिया, ताकि वह किसी दूसरे से जानने से पहले, मेरा बता देना जरुरी है.

 

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फुटबॉल खेलने का है शौक़ीन

अक्षय को फुटबॉल खेलना पसंद है, इसलिए वह फुटबॉलखिलाड़ी रोनाल्डो का फैन है. फुटबॉल खेलकर उसने गोवा में गोल्ड मैडल भी जीता है. ऋषिकेश कहते है कि उसे टीवी देखना पसंद नहीं और न ही मेरे किसी शो को देखता है. कई बार मैंने जानबूझकर टीवी लगाया पर वह देखता नहीं. शूटिंग पर भी साथ जाना पसंद नहीं करता. वह केवल रोनाल्डो से मिलना चाहता है. मैं अपने बेटे को एक अच्छा इंसान बनाना चाहता हूँ, क्योंकि आज के लोग चकाचौध की जिंदगी और मटेरियलिस्टिक अधिक हो चुके है. मैंने सालों से ये महसूस किया है कि जाति-पाति, धर्म-अधर्म, ऊँच-नीच सिर्फ लोगों को बाँटने का काम करती है और सबको उससे निकलकर जरुरतमंदों की सहायता करना चाहिए. अभिनय मेरा काम से अधिक कुछ भी नहीं और न ही मैं कुछ स्पेशल हूँ. नए जेनरेशन को सबको रेस्पेक्ट करने की बात समझ में आनी चाहिए, जिसे हम खो रहे है.

Father’s day Special: सोशलमीडिया छोड़ दें तो हर जगह संकट में पिता और पितृत्व

यक्ष-युधिष्ठिर संवाद में यक्ष, युधिष्ठिर से पूछता है, ‘आसमान से भी ऊंचा क्या है ?’ युधिष्ठिर कहते हैं, ‘पिता’ और यक्ष खुश हो जाता है. आगामी फादर्स डे पर सोशल मीडिया में भी हम पिता नामक प्राणी को कुछ ऐसे ही अलंकरणों से सुशोभित होते देख, सुन और पढ़ सकते हैं. इस दिन पिता का गुणगान करने वाले कुछ प्रकार के शेर भी पढ़ने को मिलेंगे-

लिखके वालिद की शान कागज पर रख दिया आसमान कागज पर लेकिन इन रस्मी बुलंदियों से पिता और पितृत्व को लेकर कोई भ्रम भले हम पाल लें हकीकत यह है कि पिता और पितृत्व दोनो ही संकट में हैं. यह कोई अपने देश की बात नहीं है पूरी दुनिया में इन पर ये संकट मंडरा रहा है.  अब अगर हम इस भूमंडलीय युग में भी यह कहें कि दुनिया से हमें क्या लेना देना तब तो अलग बात है नहीं तो हकीकत हमारी नींद उड़ा देगी. भारत सहित ज्यादातर एशियाई देशों में तो फिर भी अभी गनीमत है, लेकिन अमरीका और यूरोपीय देश तेजी से अनुपस्थित पिता वाले समाज बनते जा रहे हैं. अनुपस्थित पिता यानी जिनकी पिता के तौरपर भौतिक मौजूदगी संतान को हासिल नहीं है.

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अमरीका और यूरोप में बहुत तेजी से अनाथ बच्चों का समाज बन रहा है. इसकी वजह यही है अदृश्य या अनुपस्थित पिता. हालांकि समाजशास्त्री पिता के अस्तित्व पर इस संकट को कोई बहुत ताजा संकट नहीं मान रहे. उनके मुताबिक पिता नाम की संस्था पर संकट का यह सिलसिला तो औद्योगिक क्रांति के बाद से ही शुरू हो गया था.

लेकिन अभी तक यह बात दबी छुपी थी तो इसलिए कि जिंदगी को आमूलचूल ढंग से बदल देने वाली इतनी सारी और इतनी संवेदनशील तकनीकें नहीं थीं लेकिन हाल के दशकों में रोजमर्रा के जीवन में उन्नत तकनीकों की जो  बमबारी हुई है उससे पिता नाम की अथॉरिटी पूरी तरह से छिन्न-भिन्न हो गयी है. पितृत्व पर अपनी मशहूर किताब, ‘सोसायटी विदाउट द फादररू ए कंट्रीब्यूशन टू सोशियल साईकोलोजी’ में अलेक्जेंडर मित्सर्लिच ने पिछली सदी के नब्बे के दशक में ही कह दिया था कि परिवार में पिता की शक्ति का लगातार ह्रास हो रहा है. हालांकि यह सब कुछ  किसी साजिश के तहत नहीं हो रहा. यह होना एक किस्म से स्वाभाविक है. क्योंकि पिता नाम की संस्था ने सदियों तक अपने पास बहुत सारी सत्ताओं को समेट रखा था, उन्हें कभी न कभी तो हाथ से निकलना ही था. अब वे तमाम सत्ताएं धीरे-धीरे उसके हाथ से निकल रही हैं. मसलन पितृत्व की ताकत धीरे-धीरे पुरुषत्व की मुट्ठी से बाहर निकलती जा रही है.

रटगर्स यूनिवर्सिटी में समाजशास्त्र के एक प्रोफेसर डेविड पॉपिनो का कहना है कि अगर वर्तमान रुझान जारी रहता है तो इस सदी के अंत तक अमरीका में पैदा होने वाले 50 प्रतिशत बच्चे जैविक पिता की संतान होंगे कहने का मतलब यह कि ये अनुपस्थित पिता या स्पर्म बैंक से खरीदे गए स्पर्म की संतानें होंगी. पिता की अथॉरिटी को यह बहुत बड़ा झटका होगा. आज भी अमरीका में पैदा होने वाले करीबन 30 प्रतिशत बच्चों के या तो पिता ज्ञात नहीं होते या जैविक होते हैं. लेकिन रुकिए पिता नाम के जीव की शान पर यह कोई अकेला संकट नहीं है और भी तमाम संकट टूट पड़े हैं, मसलन-पूरी दुनिया में यहां तक कि पारंपरिक एशिया और अफ्रीका के समाजों तक में गार्जियनशिप पर अब अकेले पिता का दबदबा नहीं रहा. बड़े पैमाने पर बच्चों के प्रथम अभिभावक के रूप में अब मांओं का नाम दर्ज हो रहा है. वह जमाना गया जब स्कूल में एडमिशन के लिए पिता का नाम जरूरी था.

परिवारों में पिता की केन्द्रीय भूमिका तेजी से छीज रही है. बहुत तेजी से परिवार का केन्द्रीय ढांचा मांओं और बच्चों पर केंद्रित हो रहा है जैसे मान लिया गया हो परिवार का स्थाई ढांचा तो उन्हीं से बनता है, पुरुष तो इस ढांचे में आता जाता रहता है. कहने का मतलब वह महत्वपूर्ण है भी और नहीं भी है. पश्चिमी देशों में स्वास्थ्य देखभाल एजेंसियों को स्पष्ट निर्देश हैं कि वे परिवार के नाम पर वो मां और बच्चों की चिंता करें. धीरे-धीरे तमाम संगठनों द्वारा पिता की चिंता करना छोड़ा जा रहा है सिवाय उन कुछ देशों के जहां जनसंख्या की वृद्धि लगातार नकारात्मक होती जा रही है. आज पश्चिमी देशों में गर्भावस्था, श्रम और प्रसव के संदर्भ में तमाम नियुक्तियां मां को ध्यान में रखकर, उनकी सहूलियत के हिसाब से होती हैं. स्कूल रिकॉर्ड और परिवार सेवा संगठनों में फाइलें अक्सर बच्चे और मां के नाम पर होती हैं, पिता के नहीं. अस्पतालों में दीवारों के रंग हल्के होते हैं क्योंकि उन्हें महिलाओं और बच्चों की पसंद को  ध्यान में रखकर रंगा जाता है. अधिकांश परिवार कल्याणकारी दफ्तरों में, जब बैठकें  होती है तो उनमें पिता को आमंत्रित करना जरूरी नहीं समझा जाता है. ये सब बातें हैं जो बताती हैं कि पिता का अस्तित्व संकट में है.

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वैसे व्यवहारिक दुनिया में पिता इसलिए भी हाल के सालों में बैकफुट हुए हैंय क्योंकि दैनिक इस्तेमाल में आने वाले तमाम उपकरणों ने अचानक उन्हें अपने बच्चों से काफी पीछे कर दिया है. मानव इतिहास के किसी भी मोड़ में पिता और उनकी संतानों के बीच तकनीकी समझ और इस्तेमाल में इतना फासला पहले कभी नहीं रहा जितना हाल के सालों में देखा गया है. रहीस से रहीस घरों में भी पिताजी स्मार्ट फोन के इस्तेमाल में अपने बच्चों से पीछे हैं. अगर उन्हें इसकी समझ है भी तो भी वे अपने बच्चों से रफ्तार के मामले में बहुत धीमें हैं.

पिता अपने बच्चों के मुकाबले  तमाम उपकरणों के बहुत कम फीचरों का इस्तेमाल करना जानते हैं. आज की दैनिक जिंदगी में जीवनशैली के रूप में जितनी भी तकनीकों का इस्तेमाल हो रहा है, उन सबमें पिता अपनी संतानों से समझ और उनके संचालन में पिछड़ गया है. इसलिए आज के पिता के पास कई दशकों पहले वाले पिता की तरह अपनी संतान के हर सवाल का जवाब नहीं है. यह बात पिता को भी मालूम है और उसकी संतानों को भी. यही कारण है कि आज के बच्चे छूटते ही कह देते हैं अरे छोड़ो आपको क्या मालूम ? पहले ऐसा नहीं था. पहले कौशल के मामले में पिता और संतान के बीच इतना बड़ा जनरेशन गैप नहीं था. इसलिए अब पिता बच्चों के लिए आसमान से भी ऊंचे नहीं रहे.

हालांकि नई पीढी की यह अग्रता बहुत दिनों तक नहीं चलने वाली. अगले 15-20 सालों में पिता और उनकी संतानों के व्यवहारिक तकनीकी ज्ञान एक स्तर के हो जायेंगे. लेकिन सवाल है कि क्या तब तक पिता नाम के शख्स की अथॉरिटी बचेगी ?

Father’s day Special: जानें हुमा कुरैशी को अपने पिता से क्या सीख मिली

मॉडलिंग से अपने कैरियर की शुरुआत करने वाली अभिनेत्री हुमा कुरैशी दिल्ली की है. हुमा को अभिनय पसंद होने की वजह से उन्होंने दिल्ली में पढाई पूरी कर थिएटर ज्वाइन किया और कई डॉक्युमेंट्री में काम किया. वर्ष 2008 मेंएक फ्रेंड के कहने पर हुमा फिल्म ‘जंक्शन’ की ऑडिशन के लिएमुंबई आई,लेकिन फिल्म नहीं बनी. इसके बाद उन्हें कई विज्ञापनों का कॉन्ट्रैक्ट मिला. एक मोबाइल कंपनी की शूटिंग के दौराननिर्देशक अनुराग कश्यप ने उनके अभिनय की बारीकियों को देखकर फिल्म ‘गैंग्स ऑफ़ वासेपुर’ के लिए साइन किया. उन्होंने इस फिल्म की पार्ट 1 और 2 दोनों में अभिनय किया. फिल्म हिट हुई और हुमा को पीछे मुड़कर देखना नहीं पड़ा. हुमा की कुछ प्रसिद्ध फिल्में ‘एक थी डायन, डी-डे, बदलापुर, डेढ़ इश्कियां, हाई वे, जॉली एल एल बी आदि है. हुमा ने आजतक जितनी भी फिल्मे की है, उनके अभिनय को दर्शकों और आलोचकों ने सराहा है, जिसके फलस्वरूप उन्हें कई पुरस्कार भी मिले है. हिंदी फिल्म के अलावा हुमा ने हॉलीवुड फिल्म ‘आर्मी ऑफ़ द डेड’ भी किया है.

हुमा जितनी साहसी और स्पष्टभाषी दिखती है, रियल लाइफ में बहुत इमोशनल और सादगी भरी है. हुमा की दोस्ती सभी बड़े स्टार और निर्देशक से रहती है. हुमा को केवल एक फिल्म करने की इच्छा थी, लेकिन अब कई फिल्मों और वेब सीरीज उनकी जर्नी में शामिल हो चुकी है. हुमा की वेब सीरीज ‘महारानी’ ओटीटी प्लेटफॉर्म सोनी लाइव पर रिलीज हो चुकी है, जिसमें हुमा ने ‘रानी भारती’ की भूमिका निभाई है, जो बिहार की पूर्व मुख्यमंत्री लालूप्रसाद यादव की पत्नी राबड़ी देवी से प्रेरित है. इस वेब सीरीज की सफलता पर हुमा ने बात की, पेश है कुछ खास अंश.

सवाल-सफलता को हमेशा ही सेलिब्रेट किया जाता है, लेकिन इस कोविड महामारी में हर व्यक्ति अपने भविष्य को लेकर चिंतित है, आप इस माहौल में सफलता को कैसे सेलिब्रेट करना चाहती है?

सफलता और असफलता को मैं अपने जीवन में अधिक महत्व नहीं देती, क्योंकि सफलता के मूल में मैं वही लड़की हूँ, जो दिल्ली से अभिनय के लिए आई और सफल नहीं थी. मैं कोशिश करती हूँ कि मैं कभी न बदलूँ, जैसा पहली थी, अभी भी वैसी ही रहना चाहती हूँ. वेब सीरीज के सफल होने के पीछे अच्छी टीम, सही कहानी,सही निर्देशक,सही कैमरामैन,सही स्क्रिप्ट राइटर आदि सबकी समय और मेहनत का नतीजा है, जिसके फलस्वरूप कहानी में रियलिटी दिखी, जिसे दर्शक पसंद कर रहे है.

सवाल-इस भूमिका को निभाने में कितनी तैयारियां करनी पड़ी?

इसकी स्क्रिप्ट बहुत अच्छी तरह से लिखी गयी थी, इसलिए इसे पढ़ा, समझा और इसे छोटे-छोटे पार्ट में तैयारी की, क्योंकि ये महिला गांव की है और वहां से वह कभी पटना भी नहीं गयी है. गांव में वह कभी स्कूल नहीं गयी, साइन नहीं की है, काम में हमेशा फंसी रहती है. देखा जाय तो मेरी निजी जिंदगी इस भूमिका से बहुत दूर है. मेरे लिए सबसे बड़ी चुनौती जिसे आप जानते हो,उसे अभिनय में अनभिज्ञ रहने से था. मसलन मुझे हस्ताक्षर करना आता है, लेकिन अभिनय में कोशिश करने पर भी हस्ताक्षर नहीं कर पा रही हूँ. इस दृश्य को करना मेरे लिए बहुत चुनौती थी.

सवाल-क्या राजनीति में आपको आने की इच्छा है?

नहीं, मुझे कभी भी राजनीति पसंद नहीं. मैं दिल्ली की गार्गी कॉलेज में पढ़ती थी, जो लड़कियों की है. उस कॉलेज ने मुझे महिला सशक्तिकरण का सही अर्थ में सिखाया, क्योंकि लड़कियों से दोस्ती करना, उनके व्यवहार को समझना, फिमेल बोन्डिंग को देखना आदि सब महिला कॉलेज में अलग होता है. मुझे बेसिक ह्यूमैनिटी समझ में आती है, पर पॉलिटिक्स नहीं समझ में आती. कॉलेज में मैं ड्रामा सोसाइटी की प्रेसिडेंट थी, लेकिन उसमें कोई चुनाव नहीं होता था. (हंसती हुई) मैं कॉलेज की थोड़ी गुंडी अवश्य थी.

सवाल-कोविड महामारी में फिल्म इंडस्ट्री को बहुत अधिक लॉस हुआ है,थिएटर बंद है,ऐसे में ओटीटी प्लेटफॉर्म अच्छा साबित हो रही है, क्योंकि इस पर वेब सीरीज के साथ-साथ फिल्में भी रिलीज हो रही है, पर ओटीटी पर एक या डेढ़ घंटे की फिल्म को भी दर्शक देखना नहीं चाहते, जबकि वेब सीरीज, लंबी होने पर भी दर्शक उसे देखना पसंद करते है, इस बारें में आपकी सोच क्या है?

ये सही है कि कोरोना ख़त्म होने पर और सारे लोगों को वैक्सीन लगने के बाद ही हॉल खुल सकते है. थिएटर हॉल खुलने में अभी देर है, ऐसे में ओटीटी ही मनोरंजन का एकमात्र माध्यम रह गया है. ये सही है कि दर्शकों को आगे चलकर थिएटर हॉल में लाना मुश्किल होगा, लेकिन जिस तरह से माँ के हाथ का खाना सबको पसंद होता है, लेकिन कभी- कभी परिवार, दोस्तों और बॉय फ्रेंड के साथ, तैयार होकर बाहर जाने में भी अच्छा लगता है. असल में ये सब अलग-अलग अनुभव है, जो लाइफ में होना जरुरी है और लोग इसे एन्जॉय भी करते है. वैसे ही कभी घर पर बैठकर फिल्में देखना या कभी बाहर जाकर फिल्में देखने का अनुभव अलग होता है. दोनों ही अनुभव हमारे जीवन में अहमियत रखते है. मैं भी थिएटर हॉल खुलने का रास्ता देख रही हूँ, बड़े स्क्रीन पर एक बड़ा सा पॉपकॉर्न हाथ में लेकर खाते हुए बहुत सारे लोगों के साथ फिल्म देखने का मज़ा ही कुछ और है.

दो घंटे की फिल्म में कहानी के मुख्य पात्र को ऊपर-ऊपर से दिखाया जाता है. हीरो, हिरोइन दोनों मिले, गाना गाया, प्यार हो गया, मारपीट कुछ ऐसा ही चलता रहता है, लेकिन फिल्म के बाकी चरित्र, रीजन, कल्चर आदि को समझने का समय नहीं होता. सीरीज मजेदार लगने की वजह कहानी की भाषा, सहयोगी पात्र, संस्कृति, कलाकारों के भाव आदि सब दिखाने के लिए समय होता है. मसलन मैंने महारानी वेब सीरीज में वहां की रीतिरिवाज, संस्कृति, दही चिवडा आदि को मैंने नजदीक से देखा और अभिनय किया. असल में ऐसे किसी भी दृश्य से जब दर्शक खुद को जोड़ लेते है, तो उसे वह कहानी अच्छी लगने लगती है.

सवाल-आपने इंडस्ट्री में करीब 10 साल बिता चुकी है और बॉलीवुड, हॉलीवुड और साउथ की  फिल्मों में काम किया है, आप इस जर्नी को कैसे देखती है?

ये सही है कि मैंने एक सपना देखा है और अब वह धीरे-धीरे पूरा हो रहा है. मैंने हमेशा से अभिनेत्री बनना चाहती थी, लेकिन कैसे होगा पता नहीं था. समय के साथ-साथ मैं आगे बढ़ती गयी. मैं चंचल दिल की लड़की हूँ और अपने काम से अधिक संतुष्ट नहीं हूँ. मैं कलाकार के रूप में हर नयी किरदार को एक्स्प्लोर करना चाहती हूँ.

सवाल-क्या ओटीटी की वजह से आपको अधिक मौके मिल रहे है?

अभी तो थिएटर बंद है, ऐसे में ओटीटी ही एकमात्र माध्यम है. आगे मेरी फिल्में भी डिजिटल मिडिया पर रिलीज होंगी, क्योंकि अभी फिल्म बनाया जा सकता है, लेकिन थिएटर न खुलने से वह बेकार हो जाती है. मैंने दो सीरीज ही की है. लैला और महारानी, दोनों को करने में मुझे मज़ा बहुत आया. मुझे ही नहीं सभी कलाकारों को काम मिल रहा है.

सवाल-किसी भी महिला राजनेत्री अगर कम पढ़ीलिखी या अनपढ़ हो, तो उसे पुरुषों के मजाक कापात्र बनना पड़ता है, उनके काम को अधिक तवज्जों नहीं दी जाती,ऐसा आये दिन हर जगह महिलाओं के साथहोता रहता है, इसकी वजह क्या समझती है?

मेरे हिसाब से महिलाएं,चाहे किसी भी क्षेत्र में काम करती हो, पर्दे के सामने या पर्दे के पीछे हो, भेदभाव है, एक ग्लास सीलिंग है, सभी उसे तोड़ने की लगातार कोशिश कर रही है. कई बार ऐसा करने से समाज और दोस्त रोक देते है, तो कई बार महिला खुद अपनी सफलता से डर जाती है. ये एक प्रकार की कंडीशनिंग ही तो है. महिलाओं को ग्रो करने के लिए कहा जाता है, लेकिन एक दायरे के बाद उन्हें रोक दिया जाता है. वजह कुछ भी नहीं होती, लेकिन चल रहा है. वुमन एम्पावरमेंट में पुरुष और महिला में भेदभाव न करना,लड़के और लड़की को समान समझना आदि के बारें में बात की जाती है, लेकिन रिजल्ट कुछ खास नहीं दिखता. हालाँकि पहले से अभी कुछ सुधार हुआ है, लेकिन अभी और अधिक सुधार की जरुरत है. सभी महिलाएं यहाँ अपनी दादीयां, माँ, बहन, पड़ोसन आदि की वजह से ही आगे बढ़े है. मेरी जिंदगी में बहुत सारी औरतों ने मेरा साथ दिया है. महारानी शब्द को भी लोग. चिड में लड़की या महिला कहते है और ये नार्मल बात होती है.

 

सवाल-फादर डे के मौके पर पिता के साथ बिताये कुछ पल को शेयर करे, उनका आपके साथ बोन्डिंग कैसी रही?

मेरे पिता सलीम कुरैशी बहुत ही अच्छे सज्जन है, उन्होंने हमेशा मेहनत कर आगे बढ़ने की सलाह दी है. उन्होंने 4 साल पहले 10 रेस्तरां की श्रृंखला (Saleem’s) दिल्ली में खोला है. उन्होंने अपना व्यवसाय एक छोटे से ढाबे से शुरू किया था,लेकिन उनकी मेहनत और लगन से वह बड़ी हो चुकी है. उनके उस छोटे ढाबे की विश्वसनीय मुगलई पाकशैली सबको हमेशा पसंद आती थी. इन रेस्तरां की मुगलई भोजन आज भी प्रसिद्ध है.मेरी माँअमीना कुरैशी हाउसवाइफ है, लेकिन उन्होंने हमारे हर काम में सहयोग दिया है. मैंने अपनी पिता से कठिन श्रम, पैशन और अपने काम पर फोकस्ड रहने की सीख ली है.

सवाल-आपने दिल्ली में एक टेम्पररी हॉस्पिटल कोविड पेशेंट के लिए खोला है,ताकि कोरोना पेशेंट को सुविधा हो, उसके बारें में बतायें और एक नागरिक होने के नाते देश को क्या सीख मिली?

एक महीने पहले बहुत सारे लोग बीमार पड़ रहे थे और मुझे कईयों के फ़ोन बेड और ऑक्सीजन के लिए आ रहे थे, मैंने फंड इकठ्ठा किया और दिल्ली के तिलक नगर में 100 बेड कोरोना रोगियों के लिए और 70 ऑक्सीजन कंसन्ट्रेटर की व्यवस्था की है. अभी 50 प्रतिशत ही पैसा इकठ्ठा हुआ और कोशिश की जा रही है. इसके अलावा मैं वहां 40 बेड की एक सेटअप बच्चों के लिए करना चाहती हूँ, ताकि तीसरी लहर में बच्चों को सुरक्षित रखा जाय. मेरी समझ से मेडिकल के क्षेत्र में अब इन्वेस्ट करना चाहिए, ताकि जो लोग अस्पताल के बाहर एक बेड और ऑक्सीजन के लिए तड़प रहे थे, वो दृश्य वापस हमें देखने को न मिले.

महामारी जब आती है, तब वह पैसा, अमीरी-गरीबी, ऊँच-नीच आदि कुछ नहीं देखती, ऐसे में देश को अपने लोगों को सुरक्षित रखने के लिए हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर और वैज्ञानिक शिक्षा पर इन्वेस्ट करने की जरुरत है. इसके लिए एक प्लानिंग के द्वारा इन्वेस्ट करना चाहिए. इसके अलावा इस महामारी में अनाथ हुए बच्चों को सही तरह से एस्टाब्लिश करना है, ताकि उनकी शिक्षा और हेल्थ का ध्यान रखा जा सकें.

Father’s Day Special: पापा जल्दी आ जाना

पापा जल्दी आ जाना- भाग 1: क्या पापा से निकी की मुलाकात हो पाई?

‘‘पापा, कब तक आओगे?’’ मेरी 6 साल की बेटी निकिता ने बड़े भरे मन से अपने पापा से लिपटते हुए पूछा.

‘‘जल्दी आ जाऊंगा बेटा…बहुत जल्दी. मेरी अच्छी गुडि़या, तुम मम्मी को तंग बिलकुल नहीं करना,’’ संदीप ने निकिता को बांहों में भर कर उस के चेहरे पर घिर आई लटों को पीछे धकेलते हुए कहा, ‘‘अच्छा, क्या लाऊं तुम्हारे लिए? बार्बी स्टेफी, शैली, लाफिंग क्राइंग…कौन सी गुडि़या,’’ कहतेकहते उन्होंने निकिता को गोद में उठाया.

संदीप की फ्लाइट का समय हो रहा था और नीचे टैक्सी उन का इंतजार कर रही थी. निकिता उन की गोद से उतर कर बड़े बेमन से पास खड़ी हो गई, ‘‘पापा, स्टेफी ले आना,’’ निकिता ने रुंधे स्वर में धीरे से कहा.

उस की ऐसी हालत देख कर मैं भी भावुक हो गई. मुझे रोना उस के पापा से बिछुड़ने का नहीं, बल्कि अपना बीता बचपन और अपने पापा के साथ बिताए चंद लम्हों के लिए आ रहा था. मैं भी अपने पापा से बिछुड़ते हुए ऐसा ही कहा करती थी.

संदीप ने अपना सूटकेस उठाया और चले गए. टैक्सी पर बैठते ही संदीप ने हाथ उठा कर निकिता को बाय किया. वह अचानक बिफर पड़ी और धीरे से बोली, ‘‘स्टेफी न भी मिले तो कोई बात नहीं पर पापा, आप जल्दी आ जाना,’’ न जाने अपने मन पर कितने पत्थर रख कर उस ने याचना की होगी. मैं उस पल को सोचते हुए रो पड़ी. उस का यह एकएक क्षण और बोल मेरे बचपन से कितना मेल खाते थे.

मैं भी अपने पापा को बहुत प्यार करती थी. वह जब भी मुझ से कुछ दिनों के लिए बिछुड़ते, मैं घायल हिरनी की तरह इधरउधर सारे घर में चक्कर लगाती. मम्मी मेरी भावनाओं को समझ कर भी नहीं समझना चाहती थीं. पापा के बिना सबकुछ थम सा जाता था.

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बरामदे से कमरे में आते ही निकिता जोरजोर से रोने लगी और पापा के साथ जाने की जिद करने लगी. मैं भी अपनी मां की तरह जोर का तमाचा मार कर निकिता को चुप करा सकती थी क्योंकि मैं बचपन में जब भी ऐसी जिद करती तो मम्मी जोर से तमाचा मार कर कहतीं, ‘मैं मर गई हूं क्या, जो पापा के साथ जाने की रट लगाए बैठी हो. पापा नहीं होंगे तो क्या कोई काम नहीं होगा, खाना नहीं मिलेगा.’

किंतु मैं जानती थी कि पापा के बिना जीने का क्या महत्त्व होता है. इसलिए मैं ने कस कर अपनी बेटी को अंक में भींच लिया और उस के साथ बेडरूम में आ गई. रोतेरोते वह तो सो गई पर मेरा रोना जैसे गले में ही अटक कर रह गया. मैं किस के सामने रोऊं, मुझे अब कौन बहलानेफुसलाने वाला है.

मेरे बचपन का सूर्यास्त तो सूर्योदय से पहले ही हो चुका था. उस को थपकियां देतेदेते मैं भी उस के साथ बिस्तर में लेट गई. मैं अपनी यादों से बचना चाहती थी. आज फिर पापा की धुंधली यादों के तार मेरे अतीत की स्मृतियों से जुड़ गए.

पिछले 15 वर्षों से ऐसा कोई दिन नहीं गया था जिस दिन मैं ने पापा को याद न किया हो. वह मेरे वजूद के निर्माता भी थे और मेरी यादों का सहारा भी. उन की गोद में पलीबढ़ी, प्यार में नहाई, उन की ठंडीमीठी छांव के नीचे खुद को कितना सुरक्षित महसूस करती थी. मुझ से आज कोई जीवन की तमाम सुखसुविधाओं में अपनी इच्छा से कोई एक वस्तु चुनने का अवसर दे तो मैं अपने पापा को ही चुनूं. न जाने किन हालात में होंगे बेचारे, पता नहीं, हैं भी या…

7 वर्ष पहले अपनी विदाई पर पापा की कितनी कमी महसूस हो रही थी, यह मुझे ही पता है. लोग समझते थे कि मैं मम्मी से बिछुड़ने के गम में रो रही हूं पर अपने उन आंसुओं का रहस्य किस को बताती जो केवल पापा की याद में ही थे. मम्मी के सामने तो पापा के बारे में कुछ भी बोलने पर पाबंदियां थीं. मेरी उदासी का कारण किसी की समझ में नहीं आ सकता था. काश, कहीं से पापा आ जाएं और मुझे कस कर गले लगा लें. किंतु ऐसा केवल फिल्मों में होता है, वास्तविक दुनिया में नहीं.

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उन का भोला, मायूस और बेबस चेहरा आज भी मेरे दिमाग में जैसा का तैसा समाया हुआ था. जब मैं ने उन्हें आखिरी बार कोर्ट में देखा था. मैं पापापापा चिल्लाती रह गई मगर मेरी पुकार सुनने वाला वहां कोई नहीं था. मुझ से किसी ने पूछा तक नहीं कि मैं क्या चाहती हूं? किस के पास रहना चाहती हूं? शायद मुझे यह अधिकार ही नहीं था कि अपनी बात कह सकूं.

मम्मी मुझे जबरदस्ती वहां से कार में बिठा कर ले गईं. मैं पिछले शीशे से पापा को देखती रही, वह एकदम अकेले पार्किंग के पास नीम के पेड़ का सहारा लिए मुझे बेबसी से देखते रहे थे. उन की आंखों में लाचारी के आंसू थे.

मेरे दिल का वह कोना आज भी खाली पड़ा है जहां कभी पापा की तसवीर टंगा करती थी. न जाने क्यों मैं पथराई आंखों से आज भी उन से मिलने की अधूरी सी उम्मीद लगाए बैठी हूं. पापा से बिछुड़ते ही निकिता के दिल पर पड़े घाव फिर से ताजा हो गए.

जब से मैं ने होश संभाला, पापा को उदास और मायूस ही पाया था. जब भी वह आफिस से आते मैं सारे काम छोड़ कर उन से लिपट जाती. वह मुझे गोदी में उठा कर घुमाने ले जाते. वह अपना दुख छिपाने के लिए मुझ से बात करते, जिसे मैं कभी समझ ही न सकी. उन के साथ मुझे एक सुखद अनुभूति का एहसास होता था तथा मेरी मुसकराहट से उन की आंखों की चमक दोगुनी हो जाती. जब तक मैं उन के दिल का दर्द समझती, बहुत देर हो चुकी थी.

मम्मी स्वभाव से ही गरम एवं तीखी थीं. दोनों की बातें होतीं तो मम्मी का स्वर जरूरत से ज्यादा तेज हो जाता और पापा का धीमा होतेहोते शांत हो जाता. फिर दोनों अलगअलग कमरों में चले जाते. सुबह तैयार हो कर मैं पापा के साथ बस स्टाप तक जाना चाहती थी पर मम्मी मुझे घसीटते हुए ले जातीं. मैं पापा को याचना भरी नजरों से देखती तो वह धीमे से हाथ हिला पाते, जबरन ओढ़ी हुई मुसकान के साथ.

मैं जब भी स्कूल से आती मम्मी अपनी सहेलियों के साथ ताश और किटी पार्टी में व्यस्त होतीं और कभी व्यस्त न होतीं तो टेलीफोन पर बात करने में लगी रहतीं. एक बार मैं होमवर्क करते हुए कुछ पूछने के लिए मम्मी के कमरे में चली गई थी तो मुझे देखते ही वह बरस पड़ीं और दरवाजे पर दस्तक दे कर आने की हिदायत दे डाली. अपने ही घर में मैं पराई हो कर रह गई थी.

एक दिन स्कूल से आई तो देखा मम्मी किसी अंकल से ड्राइंगरूम में बैठी हंसहंस कर बातें कर रही थीं. मेरे आते ही वे दोनों खामोश हो गए. मुझे बहुत अटपटा सा लगा. मैं अपने कमरे में जाने लगी तो मम्मी ने जोर से कहा, ‘निकी, कहां जा रही हो. हैलो कहो अंकल को. चाचाजी हैं तुम्हारे.’

मैं ने धीरे से हैलो कहा और अपने कमरे में चली गई. मैं ने उन को इस से पहले कभी नहीं देखा था. थोड़ी देर में मम्मी ने मुझे बुलाया.

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‘निकी, जल्दी से फे्रश हो कर आओ. अंकल खाने पर इंतजार कर रहे हैं.’

मैं टेबल पर आ गई. मुझे देखते ही मम्मी बोलीं, ‘निकी, कपड़े कौन बदलेगा?’

‘ममा, आया किचन से नहीं आई फिर मुझे पता नहीं कौन से…’

‘तुम कपड़े खुद नहीं बदल सकतीं क्या. अब तुम बड़ी हो गई हो. अपना काम खुद करना सीखो,’ मेरी समझ में नहीं आया कि एक दिन में मैं बड़ी कैसे हो गई हूं.

‘चलो, अब खाना खा लो.’

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पापा जल्दी आ जाना- भाग 3: क्या पापा से निकी की मुलाकात हो पाई?

एक दिन मैं ने पापा को स्कूल की पार्किंग में इंतजार करते पाया. बस से उतरते ही मैं ने उन्हें देख लिया था. मैं उन से लिपट कर बहुत रोई और पापा से कहा कि मैं उन के बिना नहीं रह सकती. मम्मी को पता नहीं कैसे इस बात का पता चल गया. उस दिन के बाद वह ही स्कूल लेने और छोड़ने जातीं. बातोंबातों में मुझे उन्होंने कई बार जतला दिया कि मेरी सुरक्षा को ले कर वह चिंतित रहती हैं. सच यह था कि वह चाहती ही नहीं थीं कि पापा मुझ से मिलें.

मम्मी ने घर पर ही मुझे ट्यूटर लगवा दिया ताकि वह यह सिद्ध कर सकें कि पापा से बिछुड़ने का मुझ पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा. तब भी कोई फर्क नहीं पड़ा तो मम्मी ने मुझे होस्टल में डालने का फैसला किया.

इस से पहले कि मैं बोर्डिंग स्कूल में जाती, पता चला कि पापा से मिलवाने मम्मी मुझे कोर्ट ले जा रही हैं. मैं नहीं जानती थी कि वहां क्या होने वाला है, पर इतना अवश्य था कि मैं वहां पापा से मिल सकती हूं. मैं बहुत खुश हुई. मैं ने सोचा इस बार पापा से जरूर मम्मी की जी भर कर शिकायत करूंगी. मुझे क्या पता था कि पापा से यह मेरी आखिरी मुलाकात होगी.

मैं पापा को ठीक से देख भी न पाई कि अलग कर दी गई. मेरा छोटा सा हराभरा संसार उजड़ गया और एक बेनाम सा दर्द कलेजे में बर्फ बन कर जम गया. मम्मी के भीतर की मानवता और नैतिकता शायद दोनों ही मर चुकी थीं. इसीलिए वह कानूनन उन से अलग हो गईं.

धीरेधीरे मैं ने स्वयं को समझा लिया कि पापा अब मुझे कभी नहीं मिलेंगे. उन की यादें समय के साथ धुंधली तो पड़ गईं पर मिटी नहीं. मैं ने महसूस कर लिया कि मैं ने वह वस्तु हमेशा के लिए खो दी है जो मुझे प्राणों से भी ज्यादा प्यारी थी. रहरह कर मन में एक टीस सी उठती थी और मैं उसे भीतर ही भीतर दफन कर लेती.

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पढ़ाई समाप्त होने के बाद मैं ने एक मल्टीनेशनल कंपनी में नौकरी कर ली. वहीं पर मेरी मुलाकात संदीप से हुई, जो जल्दी ही शादी में तबदील हो गई. संदीप मेरे अंत:स्थल में बैठे दुख को जानते थे. उन्होंने मेरे मन पर पड़े भावों को समझने की कोशिश की तथा आश्वासन भी दिया कि जो कुछ भी उन से बन पड़ेगा, करेंगे.

हम दोनों ने पापा को ढूंढ़ने का बहुत प्रयत्न किया पर उन का कुछ पता न चल सका. मेरे सोचने के सारे रास्ते आगे जा कर बंद हो चुके थे. मैं ने अब सबकुछ समय पर छोड़ दिया था कि शायद ऐसा कोई संयोग हो जाए कि मैं पापा को पुन: इस जन्म में देख सकूं.

घड़ी ने रात के 2 बजाए. मुझे लगा अब मुझे सो जाना चाहिए. मगर आंखों में नींद कहां. मैं ने अलमारी से पापा की तसवीर निकाली जिस में मैं मम्मीपापा के बीच शिमला के एक पार्क में बैठी थी. मेरे पास पापा की यही एक तसवीर थी. मैं ने उन के चेहरे पर अपनी कांपती उंगलियों को फेरा और फफक कर रो पड़ी, ‘पापा तुम कहां हो…जहां भी हो मेरे पास आ जाओ…देखो, तुम्हारी निकी तुम्हें कितना याद करती है.’

एक दिन सुबह संदीप अखबार पढ़तेपढ़ते कहने लगे, ‘जानती हो आज क्या है?’

‘मैं क्या जानूं…अखबार तो आप पढ़ते हैं,’ मैं ने कहा.

‘आज फादर्स डे है. पापा के लिए कोई अच्छा सा कार्ड खरीद लाना. कल भेज दूंगा.’

‘आप खुशनसीब हैं, जिस के सिर पर मांबाप दोनों का साया है,’ कहतेकहते मैं अपने पापा की यादों में खो गई और मायूस हो गई, ‘पता नहीं मेरे पापा जिंदा हैं भी या नहीं.’

‘हे, ऐसे उदास नहीं होते,’ कहतेकहते संदीप मेरे पास आ गए और मुझे अंक में भर कर बोले, ‘तुम अच्छी तरह जानती हो कि हम ने उन्हें कहांकहां नहीं ढूंढ़ा. अखबारों में भी उन का विवरण छपवा दिया पर अब तक कुछ पता नहीं चला.’

मैं रोने लगी तो मेरे आंसू पोंछते हुए संदीप बोले थे, ‘‘अरे, एक बात तो मैं तुम को बताना भूल ही गया. जानती हो आज शाम को टेलीविजन पर एक नया प्रोग्राम शुरू हो रहा है ‘अपनों की तलाश में,’ जिसे एक बहुत प्रसिद्ध अभिनेता होस्ट करेगा. मैं ने पापा का सारा विवरण और कुछ फोटो वहां भेज दिए हैं. देखो, शायद कुछ पता चल सके.’?

‘अब उन्हें ढूंढ़ पाना बहुत मुश्किल है…इतने सालों में हमारी फोटो और उन के चेहरे में बहुत अंतर आ गया होगा. मैं जानती हूं. मुझ पर जिंदगी कभी मेहरबान नहीं हो सकती,’ कह कर मैं वहां से चली गई.

मेरी आशाओं के विपरीत 2 दिन बाद ही मेरे मोबाइल पर फोन आया. फोन धर्मशाला के नजदीक तपोवन के एक आश्रम से था. कहने लगे कि हमारे बताए हुए विवरण से मिलताजुलता एक व्यक्ति उन के आश्रम में रहता है. यदि आप मिलना चाहते हैं तो जल्दी आ जाइए. अगर उन्हें पता चल गया कि कोई उन से मिलने आ रहा है तो फौरन ही वहां से चले जाएंगे. न जाने क्यों असुरक्षा की भावना उन के मन में घर कर गई है. मैं यहां का मैनेजर हूं. सोचा तुम्हें सूचित कर दूं, बेटी.

‘अंकल, आप का बहुतबहुत धन्यवाद. बहुत एहसान किया मुझ पर आप ने फोन कर के.’

मैं ने उसी समय संदीप को फोन किया और सारी बात बताई. वह कहने लगे कि शाम को आ कर उन से बात करूंगा फिर वहां जाने का कार्यक्रम बनाएंगे.

‘नहीं संदीप, प्लीज मेरा दिल बैठा जा रहा है. क्या हम अभी नहीं चल सकते? मैं शाम तक इंतजार नहीं कर पाऊंगी.’

संदीप फिर कुछ सोचते हुए बोले, ‘ठीक है, आता हूं. तब तक तुम तैयार रहना.’

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कुछ ही देर में हम लोग धर्मशाला के लिए प्रस्थान कर गए. पूरे 6 घंटे का सफर था. गाड़ी मेरे मन की गति के हिसाब से बहुत धीरे चल रही थी. मैं रोती रही और मन ही मन प्रार्थना करती रही कि वही मेरे पापा हों. देर तो बहुत हो गई थी.

हम जब वहां पहुंचे तो एक हालनुमा कमरे में प्रार्थना और भजन चल रहे थे. मैं पीछे जा कर बैठ गई. मैं ने चारों तरफ नजरें दौड़ाईं और उस व्यक्ति को तलाश करने लगी जो मेरे वजूद का निर्माता था, जिस का मैं अंश थी. जिस के कोमल स्पर्श और उदास आंखों की सदा मुझे तलाश रहती थी और जिस को हमेशा मैं ने घुटन भरी जिंदगी जीते देखा था. मैं एकएक? चेहरा देखती रही पर वह चेहरा कहीं नहीं मिला, जो अपना सा हो.

तभी लाठी के सहारे चलता एक व्यक्ति मेरे पास आ कर बैठ गया. मैं ने ध्यान से देखा. वही चेहरा, निस्तेज आंखें, बिखरे हुए बाल, न आकृति बदली न प्रकृति. वजन भी घट गया था. मुझे किसी से पूछने की जरूरत महसूस नहीं हुई. यही थे मेरे पापा. गुजरे कई बरसों की छाप उन के चेहरे पर दिखाई दे रही थी. मैं ने संदीप को इशारा किया. आज पहली बार मेरी आंखों में चमक देख कर उन की आंखों में आंसू आ गए.

भजन समाप्त होते ही हम दोनों ने उन्हें सहारा दे कर उठाया और सामने कुरसी पर बिठा दिया. मैं कैसे बताऊं उस समय मेरे होंठों के शब्द मूक हो गए. मैं ने उन के चेहरे और सूनी आंखों में इस उम्मीद से झांका कि शायद वह मुझे पहचान लें. मैं ने धीरेधीरे उन के हाथ अपने कांपते हाथों में लिए और फफक कर रो पड़ी.

‘पापा, मैं हूं आप की निकी…मुझे पहचानो पापा,’ कहतेकहते मैं ने उन की गर्दन के इर्दगिर्द अपनी बांहें कस दीं, जैसे बचपन में किया करती थी. प्रार्थना कक्ष के सभी व्यक्ति एकदम संज्ञाशून्य हो कर रह गए. वे सब हमारे पास जमा हो गए.

पापा ने धीरे से सिर उठाया और मुझे देखने लगे. उन की सूनी आंखों में जल भरने लगा और गालों पर बहने लगा. मैं ने अपनी साड़ी के कोने से उन के आंसू पोंछे, ‘पापा, मुझे पहचानो, कुछ तो बोलो. तरस गई हूं आप की जबान से अपना नाम सुनने के लिए…कितनी मुश्किलों से मैं ने आप को ढूंढ़ा है.’

‘यह बोल नहीं सकते बेटी, आंखों से भी अब धुंधला नजर आता है. पता नहीं तुम्हें पहचान भी पा रहे हैं या नहीं,’ वहीं पास खड़े एक व्यक्ति ने मेरे सिर पर हाथ रख कर कहा.

‘क्या?’ मैं एकदम घबरा गई, ‘अपनी बेटी को नहीं पहचान रहे हैं,’ मैं दहाड़ मार कर रो पड़ी.

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पापा ने अपना हाथ अचानक धीरेधीरे मेरे सिर पर रखा जैसे कह रहे हों, ‘मैं पहचानता हूं तुम को बेटी…मेरी निकी… बस, पिता होने का फर्ज नहीं निभा पाया हूं. मुझे माफ कर दो बेटी.’

बड़ी मुश्किल से उन्होंने अपना संतुलन बनाए रखा था. अपार स्नेह देखा मैं ने उन की आंखों में. मैं कस कर उन से लिपट गई और बोली, ‘अब घर चलो पापा. अपने से अलग नहीं होने दूंगी. 15 साल आप के बिना बिताए हैं और अब आप को 15 साल मेरे लिए जीना होगा. मुझ से जैसा बन पड़ेगा मैं करूंगी. चलेंगे न पापा…मेरी खुशी के लिए…अपनी निकी की खुशी के लिए.’

पापा अपनी सूनी आंखों से मुझे एकटक देखते रहे. पापा ने धीरे से सिर हिलाया. संदीप को अपने पास खींच कर बड़ी कातर निगाहों से देखते रहे जैसे धन्यवाद दे रहे हों.

उन्होंने फिर मेरे चेहरे को छुआ. मुझे लगा जैसे मेरा सारा वजूद सिमट कर उन की हथेली में सिमट गया हो. उन की समस्त वेदना आंखों से बह निकली. उन की अतिभावुकता ने मुझे और भी कमजोर बना दिया.

‘आप लाचार नहीं हैं पापा. मैं हूं आप के साथ…आप की माला का ही तो मनका हूं,’ मुझे एकाएक न जाने क्या हुआ कि मैं उन से चिपक गई. आंखें बंद करते ही मुझे एक पुराना भूला बिसरा गीत याद आने लगा :

‘सात समंदर पार से, गुडि़यों के बाजार से, गुडि़या चाहे ना? लाना…पापा जल्दी आ जाना.’

पापा जल्दी आ जाना- भाग 2: क्या पापा से निकी की मुलाकात हो पाई?

मम्मी अंकल की प्लेट में जबरदस्ती खाना डाल कर खाने का आग्रह करतीं और मुसकरा कर बातें भी कर रही थीं. मैं उन दोनों को भेद भरी नजरों से देखती रही तो मम्मी ने मेरी तरफ कठोर निगाहों से देखा. मैं समझ चुकी थी कि मुझे अपना खाना खुद ही परोसना पड़ेगा. मैं ने अपनी प्लेट में खाना डाला और अपने कमरे में जाने लगी. हमारे घर पर जब भी कोई आता था मुझे अपने कमरे में भेज दिया जाता था. मैं टीवी देखतेदेखते खाना खाती रहती थी.

‘वहां नहीं बेटा, अंकल वहां आराम करेंगे.’

‘मम्मी, प्लीज. बस एक कार्टून…’ मैं ने याचना भरी नजर से उन्हें देखा.

‘कहा न, नहीं,’ मम्मी ने डांटते हुए कहा, जो मुझे अच्छा नहीं लगा.

खाने के बाद अंकल उस कमरे में चले गए तथा मैं और मम्मी दूसरे कमरे में. जब मैं सो कर उठी, मम्मी अंकल के पास चाय ले जा रही थीं. अंकल का इस तरह पापा के कमरे में सोना मुझे अच्छा नहीं लगा. जाने से पहले अंकल ने मुझे ढेर सारी मेरी मनपसंद चाकलेट दीं. मेरी पसंद की चाकलेट का अंकल को कैसे पता चला, यह एक भेद था.

वक्त बीतता गया. अंकल का हमारे घर आनाजाना अनवरत जारी रहा. जिस दिन भी अंकल हमारे घर आते मम्मी उन के ज्यादा करीब हो जातीं और मुझ से दूर. मैं अब तक इस बात को जान चुकी थी कि मम्मी और अंकल को मेरा उन के आसपास रहना अच्छा नहीं लगता था.

एक दिन पापा आफिस से जल्दी आ गए. मैं टीवी पर कार्टून देख रही थी. पापा को आफिस के काम से टूर पर जाना था. वह दवा बनाने वाली कंपनी में सेल्स मैनेजर थे. आते ही उन्होंने पूछा, ‘मम्मी कहां हैं.’

‘बाहर गई हैं, अंकल के साथ… थोड़ी देर में आ जाएंगी.’

‘कौन अंकल, तुम्हारे मामाजी?’ उत्सुकतावश उन्होंने पूछा.

‘मामाजी नहीं, चाचाजी…’

‘चाचाजी? राहुल आया है क्या?’ पापा ने बाथरूम में फे्रश होते हुए पूछा.

‘नहीं. राहुल चाचाजी नहीं कोई और अंकल हैं…मैं नाम नहीं जानती पर कभी- कभी आते रहते हैं,’ मैं ने भोलेपन से कहा.

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‘अच्छा,’ कह कर पापा चुप हो गए और अपने कमरे में जा कर तैयारी करने लगे. मैं पापा के पास पानी ले कर आ गई. जिस दिन पापा मेरे सामने जाते मुझे अच्छा नहीं लगता था. मैं उन के आसपास घूमती रहती थी.

‘पापा, कहां जा रहे हो,’ मैं उदास हो गई, ‘कब तक आओगे?’

‘कोलकाता जा रहा हूं मेरी गुडि़या. लगभग 10 दिन तो लग ही जाएंगे.’

‘मेरे लिए क्या लाओगे?’ मैं ने पापा के गले में पीछे से बांहें डालते हुए पूछा.

‘क्या चाहिए मेरी निकी को?’ पापा ने पैकिंग छोड़ कर मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए पूछा. मैं क्या कहती. फिर उदास हो कर कहा, ‘आप जल्दी आ जाना पापा… रोज फोन करना.’

‘हां, बेटा. मैं रोज फोन करूंगा, तुम उदास नहीं होना,’ कहतेकहते मुझे गोदी में उठा कर वह ड्राइंगरूम में आ गए.

तब तक मम्मी भी आ चुकी थीं. आते ही उन्होंने पूछा, ‘कब आए?’

‘तुम कहां गई थीं?’ पापा ने सीधे सवाल पूछा.

‘क्यों, तुम से पूछे बिना कहीं नहीं जा सकती क्या?’ मम्मी ने तल्ख लहजे में कहा.

‘तुम्हारे साथ और कौन था? निकिता बता रही थी कि कोई चाचाजी आए हैं?’

‘हां, मनोज आया था,’ फिर मेरी तरफ देखती हुई बोलीं, ‘तुम जाओ यहां से,’ कह कर मेरी बांह पकड़ कर कमरे से निकाल दिया जैसे चाचाजी के बारे में बता कर मैं ने उन का कोई भेद खोल दिया हो.

‘कौन मनोज, मैं तो इस को नहीं जानता.’

‘तुम जानोगे भी तो कैसे. घर पर रहो तो तुम्हें पता चले.’

‘कमाल है,’ पापा तुनक कर बोले, ‘मैं ही अपने भाई को नहीं पहचानूंगा…यह मनोज पहले भी यहां आता था क्या? तुम ने तो कभी बताया नहीं.’

‘तुम मेरे सभी दोस्तों और घर वालों को जानते हो क्या?’

‘तुम्हारे घर वाले गुडि़या के चाचाजी कैसे हो गए. शायद चाचाजी कहने से तुम्हारे संबंधों पर आंच नहीं आएगी. निकिता अब बड़ी हो रही है, लोग पूछेंगे तो बात दबी रहेगी…क्यों?’

और तब तक उन के बेडरूम का दरवाजा बंद हो गया. उस दिन अंदर क्याक्या बातें होती रहीं, यह तो पता नहीं पर पापा कोलकाता नहीं गए.

धीरेधीरे उन के संबंध बद से बदतर होते गए. वे एकदूसरे से बात भी नहीं करते थे. मुझे पापा से सहानुभूति थी. पापा को अपने व्यक्तित्व का अपमान बरदाश्त नहीं हुआ और उस दिन के बाद वह तिरस्कार सहतेसहते एकदम अंतर्मुखी हो गए. मम्मी का स्वभाव उन के प्रति और भी ज्यादा अन्यायपूर्ण हो गया. एक अनजान व्यक्ति की तरह वह घर में आते और चले जाते. अपने ही घर में वह उपेक्षित और दयनीय हो कर रह गए थे.

मुझे धीरेधीरे यह समझ में आने लगा कि पापा, मम्मी के तानों से परेशान थे और इन्हीं हालात में वह जीतेमरते रहे. किंतु मम्मी को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ा. उन का पहले की ही तरह किटी पार्टी, फोन पर घंटों बातें, सजसंवर कर आनाजाना बदस्तूर जारी रहा. किंतु शाम को पापा के आते ही माहौल एकदम गंभीर हो जाता.

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एक दिन वही हुआ जिस का मुझे डर था. पापा शाम को दफ्तर से आए. चेहरे से परेशान और थोड़ा गुस्से में थे. पापा ने मुझे अपने कमरे में जाने के लिए कह कर मम्मी से पूछा, ‘तुम बाहर गई थीं क्या…मैं फोन करता रहा था?’

‘इतना परेशान क्यों होते हो. मैं ने तुम्हें पहले भी बताया था कि मैं आजाद विचारों की हूं. मुझे तुम से पूछ कर जाने की जरूरत नहीं है.’

‘तुम मेरी बात का उत्तर दो…’ पापा का स्वर जरूरत से ज्यादा तेज था. पापा के गरम तेवर देख कर मम्मी बोलीं, ‘एक सहेली के साथ घूमने गई थी.’

‘यही है तुम्हारी सहेली,’ कहते हुए पापा ने एक फोटो निकाल कर दिखाया जिस में वह मनोज अंकल के साथ उन का हाथ पकड़े घूम रही थीं. मम्मी फोटो देखते ही बुरी तरह घबरा गईं पर बात बदलने में वह माहिर थीं.

‘तो तुम आफिस जाने के बाद मेरी जासूसी करते रहते हो.’

‘मुझे कोई शौक नहीं है. वह तो मेरा एक दोस्त वहां घूम रहा था. मुझे चिढ़ाने के लिए उस ने तुम्हारा फोटो खींच लिया…बस, यही दिन रह गया था देखने को…मैं साफसाफ कह देता हूं, मैं यह सब नहीं होने दूंगा.’

‘तो क्या कर लोगे तुम…’

‘मैं क्या कर सकता हूं यह बात तुम छोड़ो पर तुम्हारी इन गतिविधियों और आजाद विचारों का निकी पर क्या प्रभाव पड़ेगा कभी इस पर भी सोचा है. तुम्हें यही सब करना है तो कहीं और जा कर रहो, समझीं.’

‘क्यों, मैं क्यों जाऊं. यहां जो कुछ भी है मेरे घर वालों का दिया हुआ है. जाना है तो तुम जाओगे मैं नहीं. यहां रहना है तो ठीक से रहो.’

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और उसी गरमागरमी में पापा ने अपना सूटकेस उठाया और बाहर जाने लगे. मैं पीछेपीछे पापा के पास भागी और धीरे से कहा, ‘पापा.’

वह एक क्षण के लिए रुके. मेरे सिर पर हाथ फेर कर मेरी तरफ देखा. उन की आंखों में आंसू थे. भारी मन और उदास चेहरा लिए वह वहां से चले गए. मैं उन्हें रोकना चाहती थी, पर मम्मी का स्वभाव और आंखें देख कर मैं डर गई. मेरे बचपन की शोखी और नटखटपन भी उस दिन उन के साथ ही चला गया. मैं सारा समय उन के वियोग में तड़पती रही और कर भी क्या सकती थी. मेरे अपने पापा मुझ से दूर चले गए.

आगे पढ़ें- एक दिन मैं ने पापा को स्कूल की…

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