Father’s day 2023: पिताजी- जब नीला को ‘प्यारे’ पिताजी के दर्शन हो गए

‘‘जब देखो सब ‘सोते’ रहते हैं, यहां किसी को आदत ही नहीं है सुबह उठने की. मैं घूमफिर कर आ गया. नहाधो कर तैयार भी हो गया, पर इन का सोना नहीं छूटता. पता नहीं कब सुधरेंगे ये लोग. उठते क्यों नहीं हो?’’ कहते हुए पिताजी ने छोटे भाई पंकज की चादर खींची. पर उस ने पलट कर चादर ओढ़ ली. हम तीनों बहनें तो पिताजी के चिल्लाने की पहली आवाज से ही हड़बड़ा कर उठ बैठी थीं.

सुबह के साढ़े 6 बजे का समय था. रोज की तरह पिताजी के चीखनेचिल्लाने की आवाज ने ही हमारी नींद खोली थी. हालांकि पिताजी के जोरजोर से पूजा करने की आवाज से हम जाग जाते थे, पर साढ़े 5 बजे कौन जागे, यही सोच कर हम सोए रहते.

पिताजी की तो आदत थी साढ़े 4 बजे जागने की. हम अगर 11 बजे तक जागे रहते तो डांट पड़ती थी कि सोते क्यों नहीं हो, तभी तो सुबह उठते नहीं हो. बंद करो टीवी नहीं तो तोड़ दूंगा. पर आज तो मम्मी भी सो रही थीं. हम भी हैरानगी से मम्मी का पलंग देख रहे थे. मम्मी थोड़ा हिलीं तो जरूर थीं, पर उठी नहीं.

पिताजी दूर से ही चिल्लाए, ‘‘तू भी क्या बच्चों के साथ देर रात तक टीवी देखती रही थी? उठती क्यों नहीं है, मुझे नाश्ता दे,’’ कहते हुए पिताजी हमेशा की तरह रसोई के सामने वाले बरामदे में चटाई बिछा कर बैठ गए. सामने भले ही डायनिंग टेबल रखी हुई थी पर पिताजी ने उसे कभी पसंद नहीं किया. वे ऐसे ही आराम से जमीन पर बैठ कर खाना खाना पसंद करते थे. मम्मी भले ही 55 की हो गई थीं पर पिताजी के लिए नाश्ता मम्मी ही बनाती थीं.

बड़ी भाभी अपने पति के लिए काम कर लें, यही गनीमत थी. वैसे भी उन की रसोई अलग ही थी. पिताजी उन से किसी काम की नहीं कहते थे. पिताजी के 2 बार बोलने पर भी जब मम्मी नहीं उठीं तो मैं तेजी से मम्मी के पास गई, मम्मी को हिलाया, ‘‘मम्मीजी, पिताजी नाश्ता मांग…अरे, मम्मी को तो बहुत तेज बुखार है,’’ मेरी बात सुनते ही विनीता दीदी फौरन रसोई में पिताजी का नाश्ता तैयार करने चली गईं. हम सब को पता है कि पिताजी के खाने, उठनेबैठने, घूमने जाने का समय तय है. अगर नाश्ते का वक्त निकल गया तो लाख मनाते रहेंगे पर वे नाश्ता नहीं करेंगे. उस के बाद दोपहर के खाने के समय ही खाएंगे, भले ही वे बीमार हो जाएं.

विनीता दीदी ने फटाफट परांठे बना कर दूध गरम कर पिताजी को परोस दिया. पिताजी ने नाश्ता करते समय कनखियों से मम्मी को देखा तो, पर बिना कुछ बोले ही नाश्ता कर के उठ गए और अपने कमरे में जा कर एक किताब उठा कर पढ़ने लगे. मम्मी की एक शिकायत भरी नजर उन की तरफ उठी पर वे कुछ बोली नहीं. न ही पिताजी ने कुछ कहा.

मम्मी को बहुत तेज बुखार था. मैं पिताजी को फिर मम्मी का हाल बताने उन के कमरे में गई तो वे बोले, ‘‘नीला, अपनी मां को अंगरेजी गोलियां मत खिलाना, तुलसी का काढ़ा बना कर दे दो, अभी बुखार उतर जाएगा,’’ पर वे उठ कर मम्मी का हाल पूछने नहीं आए.

मुझे पिताजी की यही आदत बुरी लगती है. क्यों वे मम्मी की कद्र नहीं करते? मम्मी सारा दिन घर के कामों में उलझी रहती हैं. पिताजी का हर काम वे खुद करती हैं. अगर पिताजी बीमार पड़ जाएं या उन्हें जरा सा भी सिरदर्द हो तो मम्मी हर 10 मिनट में पिताजी को देखने उन के कमरे मेें जाती हैं. मैं ने अपनी जिंदगी में हमेशा मम्मी को उन की सेवा करते और डांट खाते ही देखा है. मम्मी कभी पलट कर जवाब नहीं देतीं. अपने बारे में कभी शिकायत भी नहीं करतीं. एक बार मुझे गुस्सा भी आया कि मम्मी, आप पिताजी को पलट कर जवाब क्यों नहीं दे देतीं, तो वे मेरा चेहरा देखने लगी थीं.

‘ऐसे पलट कर पति को जवाब नहीं देना चाहिए. तेरी नानी ने भी कभी नहीं दिया. तेरी ताई और चाची जवाब देती थीं इसलिए कोई भी रिश्तेदार उन्हें पसंद नहीं करता. कोई उन के घर नहीं जाना चाहता.’

मुझे गुस्सा आया, ‘इस से हमें क्या फायदा है? जिस का दिल करता है वही मुंह उठाए यहां चला आता है. जैसे हमारे घर खजाने भरे हों.’

मम्मी हंस पड़ीं, ‘तो हमारे पास कौन से खजाने भरे हैं लुटाने के लिए. कभी देखा है कि मैं ने किसी पर खजाने लुटाए हों. जो है बस, यही सबकुछ है.’

‘पर पिताजी तो किसी के भी सामने आप को डांट देते हैं. मुझे अच्छा नहीं लगता. कितनी बेइज्जती कर देते हैं वे आप की.’

मम्मी ने प्यार से मुझे देखा, ‘तुम लोग करते हो न मुझ से प्यार, क्या यह कम है?’

उस समय मेरा मन किया कि फिल्मी हीरोइनों की तरह फौरन मम्मी के गले लग जाऊं, पर ऐसा कर नहीं सकी. शायद कहीं पिताजी का स्वभाव जो कहीं न कहीं मेरे भीतर भी था, वही मेरे आड़े आ गया.

मैं पिताजी के कमरे से फौरन मम्मी के पास आ गई. क्या एक बार पिताजी चल कर मम्मी का हाल पूछने नहीं जा सकते थे? फिर सोचा अच्छा है, न ही जाएं. जा कर भी क्या करेंगे? बोलेंगे, तू भी वीना लेटने के बहाने ढूंढ़ती है. जरा सा सिरदर्द है, अभी ठीक हो जाएगा. और फिर मस्त हो कर किताबें पढ़ने लगेंगे जबकि वे भी जानते हैं कि मम्मी को नखरे दिखाने की जरा भी आदत नहीं है. जब तक शरीर जवाब न दे जाए वे बिस्तर पर नहीं लेटतीं. कभी मैं सोचती, काश, मेरी मम्मी पिताजी की इस किताब की जगह होतीं. मैं विनीता दीदी को पिताजी की बात बताने जा रही थी, तभी देखा कि वे काढ़ा छान रही हैं. विनीता दीदी ने शायद पहले ही पिताजी की बात सुन ली थी. वे तुलसी का काढ़ा ले कर मम्मी को देने चली गईं.

दोपहर हो गई, फिर शाम और फिर रात, पर मम्मी का बुखार कम होने का नाम ही नहीं ले रहा था. रात को डाक्टर बुलाना पड़ा. उस ने बुखार उतारने का इंजेक्शन लगा दिया और अस्पताल ले जाने के लिए कह कर चला गया.

अस्पताल का नाम सुनते ही मेरे तो हाथपांव ही फूल गए. मैं ने लोगों के घरों में तो देखासुना था कि फलां आदमी बीमार हो गया कि उसे अस्पताल ले जाना पड़ा. पूरा घर उथलपुथल हो गया. मुझे  समझ में नहीं आता था कि एक आदमी के अस्पताल जाने से घर उथलपुथल कैसे हो जाता है?

सुबहसुबह ही पंकज और मोहन भैया मम्मी को अस्पताल ले गए. मैं अनजाने डर से अधमरी ही हो गई. विनीता दीदी मुझे ढाढ़स बंधाती रहीं कि कुछ नहीं होगा, तू घबरा मत. मम्मी जल्दी ही चैकअप करवा कर लौट आएंगी. पर ऐसा कुछ नहीं हुआ. चैकअप तो हुआ पर मम्मी को डाक्टर ने अस्पताल में ही दाखिल कर लिया. घर आ कर दोनों भाइयों ने पिताजी को बताया तो भी पिताजी को न तो कोई खास हैरानगी हुई और न ही उन के चेहरे पर कोई परेशानी उभरी. मैं पिताजी के पत्थर दिल को देखती रह गई. मुझ से न तो खाना खाया जा रहा था न ही किसी काम में मन लग रहा था.

विनीता दीदी ने डाक्टर के कहे अनुसार मम्मी के लिए पतली सी खिचड़ी बनाई, चाय बनाई, भैया के लिए खाना बनाया और पैक कर के मोहन भैया को वापस अस्पताल भेज दिया. पिताजी घर पर ही बैठे रहे. विनीता दीदी ने पूरे घर के लिए खाना बनाया और खिलाया. मैं घर के काम में उन का हाथ बंटाती रही.

कालेज जाने का मन नहीं किया. एक बार पिताजी से डर भी लगा कि जरूर डांटेंगे कि कालेज क्यों नहीं गई. छोटी बहन पूर्वी तो स्कूल चली गई थी. पिताजी की नजर मुझ पर पड़ी, उन के बिना बोले ही मैं ने दीदी को कहा, ‘‘आज मेरा मन कालेज जाने का नहीं है. आप मुझे कुछ मत कहना,’’ कहते ही मैं दूसरे कमरे में चली गई. दीदी ने मुझे हैरानगी से देखा पर पिताजी की तरफ नजर पड़ते ही वे समझ गईं कि मैं क्यों ऐसा बोल रही हूं. पिताजी भी कुछ नहीं बोले.

स्कूल से लौट कर पूर्वी को मम्मी के अस्पताल दाखिल होने का पता चला तो वह रोने लगी. मेरा भी मन कर रहा था कि उस के साथ रोने लगूं, पर यह सोच कर आंसू पी गई कि पिताजी डांटेंगे कि क्या तुम सब पागल हो गए हो जो रो रहे हो. बीमार ही तो हुई है, एकदो दिन में ठीक हो जाएगी.

मम्मी कभी इतनी बीमार तो पड़ी ही नहीं थीं कि उन्हें अस्पताल जाना पड़ता. पिताजी अपने कमरे में किताब पढ़तेपढ़ते दोपहर को सो गए, फिर शाम को पार्क में सैर करने निकल गए. पंकज भैया की प्राइवेट नौकरी थी इसलिए आफिस में खबर करनी थी. मोहन भैया की सरकारी नौकरी थी. सो उन्होंने फोन कर के आफिस में बता दिया था.

विनीता दीदी भी आफिस नहीं गईं. उन्होंने भी फोन कर दिया था. पिताजी ने तो भैया के कहने से कब से काम करना छोड़ दिया था. विनीता दीदी मुझे रात की रसोई का काम समझा कर मम्मी के पास अस्पताल चली गईं.

अब घर पर मैं, पिताजी और पूर्वी थे. पंकज भैया भी आफिस से सीधे अस्पताल चले गए. बड़े भैया जगदीश और भाभी तो अलग ही थे. वे हम लोगों से कम ही वास्ता रखते थे, ऐसे में उन्हें कोई काम कहा ही नहीं जा सकता था. पापा बोलते थे कि जगदीश जोरू का गुलाम हो गया है, वह किसी काम का नहीं अब.

दीदी कभीकभी पिताजी को सुना दिया करती थीं कि अगर पति अपनी पत्नी का हर कहना मानता है तो इस में हर्ज ही क्या है? इस पर पिताजी कहते, ‘ऐसा आदमी कमजोर होता है. मैं उसे मर्द नहीं मानता.’ वैसे भी बड़े भैया के बदले हुए स्वार्थभाव को देख कर उन का होना न होना एक बराबर ही था.

मैं ने खाना बनाया, पूर्वी मेरी सहायता करती रही. पिताजी पार्क से आ कर चुपचाप कमरे में बैठे किताब पढ़ते रहे. कुछ नहीं बोले. शाम की चाय के साथ क्या खाएंगे, इस के जवाब में उन्होंने कोई मांग नहीं की.

भैया के आते ही पिताजी बिना कुछ बोले भैया के सामने बैठ गए. भैया ने बताया कि डाक्टर ने चैकअप किया है उस की परसों रिपोर्ट आएगी, तभी पता चल पाएगा कि असल बीमारी क्या है. यानी कि कम से कम 2 दिन तो और मम्मी को अस्पताल में रहना ही होगा. मेरी हवाइयां उड़ने लगीं. पंकज मेरी सूरत भांप गया, बोला, ‘‘तू क्यों घबरा रही है. वहां मम्मी को अच्छी तरह रखा हुआ है. डाक्टर जानपहचान की मिल गई थीं. उन्होंने एक नर्स को खासतौर पर मम्मी की तबीयत देखने के लिए हिदायत दे दी है. अलग से कमरा भी दिलवा दिया है.’’

मैं ने पिताजी के चेहरे पर आश्वासन की लकीरें देखीं पर फिर तुरंत गायब होते भी देखीं. एक?दो दिन बीते. पता चला मम्मी को ‘यूरिन इन्फेक्शन’ हो गया है. डाक्टर ने कहा कि पूरा उपचार करना होगा, एक सप्ताह तो लगेगा ही. पूरे घर का रुटीन ही गड़बड़ा गया. कौन अस्पताल भाग रहा है, कौन मम्मी के पास बैठ रहा है, कौन रात को मम्मी के पास रहेगा, कौन घर संभालेगा. कुछ समझ में नहीं आ रहा था. जिस को जो काम दिख जाता वह कर लेता था.

जो मोहन भैया कभी एक गिलास पानी उठा कर नहीं पीते थे वे सुबहसुबह मम्मी के लिए चाय बना कर थर्मस में डाल कर भागते दिखते. पूर्वी को किचन की एबीसीडी नहीं पता थी मगर वह बैठ कर सब्जी काट रही होती, कभी दाल चढ़ा रही होती, कभी दूध गरम कर रही होती.

पिताजी का तो सारा रुटीन ही बदल गया था. वे सुबह उठते, सैर कर के आते तो सब के लिए चाय बना देते. फिर बिना चिल्लाए सब को उठाते और बिना नाश्ते की मांग किए ही अस्पताल चले जाते. एक बार तो अच्छा लगा कि पिताजी मम्मी के पास जा रहे हैं पर फिर यह सोच कर डर लगा कि कहीं अस्पताल में जा कर भी तो मम्मी को डांटते नहीं हैं कि तू दवा क्यों नहीं पी रही, तू उठ कर बैठने की कोशिश क्यों नहीं करती. तू अपने आप हिला कर ताकि जल्दी ठीक हो. सौ सवाल थे जेहन में पर जवाब एक का भी नहीं मिल पाता था. मुझे कभीकभी यह भी समझ में नहीं आता था कि मैं मम्मी को ले कर इतनी परेशान क्यों होती हूं? क्यों लगता है कि पिताजी उन्हें डांटें नहीं, उन्हें परेशान न करें. मैं मन ही मन पिताजी से नाराज हूं या आतंकित हूं, यह भी समझ में नहीं आता था.

मैं तो पूरी तरह घरेलू महिला ही बन गई थी. पूरे घर की सफाई, कपड़े और रसोई का काम. रात अस्पताल में रह कर दीदी सुबह लौटतीं तो उन के आने से पहले अधिकतर काम मैं निबटा चुकी होती थी. वे भी मुझे देख कर हैरान होतीं. दीदी रात की जगी होतीं तो नाश्ता करते ही बिस्तर पर सो जातीं. थोड़ा काम करवा पातीं कि फिर से उन के अस्पताल जाने का वक्त हो जाता.

दोनों भाई बारीबारी से छुट्टी ले रहे थे. एकदो बार तो यों भी हुआ कि पिताजी रात को करवटें बदलते रहे और उन की नींद सुबह खुली ही नहीं. वे भी 6 बजे हमारे साथ जागे. मुझे यही लगा कि पिताजी को आदत है हर समय मम्मी को डांटते रहने की. अब मम्मी सामने नहीं हैं तो परेशान हो रहे हैं कि किसे डांटूं. हमें डांटतेडांटते भी चुप हो जाते.

उस दिन शाम को पिताजी घर लौटे तो बोले, ‘‘नीला, कितने दिन हो गए तेरी मां को अस्पताल गए हुए?’’ मैं ने बिना उन्हें देखे चाय देते हुए जवाब दिया, ‘‘10 दिन तो हो ही गए हैं.’’

पिताजी बोले, ‘‘तेरा मन नहीं किया अपनी मां से मिलने को?’’

मैं इतने दिनों से मम्मी की कमी महसूस कर रही थी पर बोल नहीं पा रही थी. पिताजी की इस बात से मेरे मन के भीतर कुछ उबाल सा उठने लगा. इस से पहले कि मैं कोई जवाब देती, पिताजी सपाट शब्दों में फिर बोले, ‘‘तेरी मां तुझे याद कर रही थी.’’ मैं भीतर के उबाल को रोक नहीं पाई, तेजी से रसोई में जा कर काम करतेकरते रोने लगी.

‘आप को क्या पता कि मैं कितनी परेशान हूं, हर पल मम्मी के घर आने की खबर का इंतजार कर रही हूं. वहां जाऊंगी और देखूंगी कि आप फिर मम्मी को ही हर बात के लिए दोष दे रहे हो, उन्हें डांट रहे हो तो और भी दुख होगा. वैसे भी आप को क्या फर्क पड़ता है कि मम्मी घर पर रहें या अस्पताल में.

‘अस्पताल में जा कर भी क्या करते होंगे, मुझे पता है? आप से दो शब्द तो प्रेम के बोले नहीं जाते, मम्मी को टेंशन ही देते होंगे, तभी मम्मी 10 दिन अस्पताल में रहने के बावजूद अभी तक ठीक नहीं हो पाई हैं. हम बच्चों से पूछिए जिन्हें हर पल मां चाहिए. भले ही वे हमारे लिए कोई काम करें या न करें. मम्मी भी मुझे याद कर रही हैं. सभी तो मम्मी से मिलने अस्पताल चले गए, एक मैं ही नहीं गई.’ मैं रोतेरोते मन ही मन हर पल पिताजी को कोसती रही.

सोचतेसोचते मेरे हाथ से दूध भरा पतीला फिसल कर जमीन पर गिर गया. पूरी रसोई दूध से नहा गई और मैं यह सोच कर घबरा गई कि पिताजी अभी जोर से डांटेंगे और चिल्लाएंगे. सोचा ही था कि पिताजी हाथ में चाय का कप लिए सामने आ गए. पूर्वी और मोहन भैया भी आ गए.

पिताजी चुपचाप खड़े रहे. मोहन भैया घबरा कर बोले, ‘‘तेरे ऊपर तो गरम दूध नहीं गिरा?’’ मैं कसमसाई, ‘‘नहीं, पर सारा दूध गिर गया.’’ पूर्वी पोछा लेने दौड़ी. पिताजी ने बहुत ही शांत स्वर में कहा, ‘‘मोहन, बाजार से और दूध ले आओ,’’ और वापस अपने कमरे में चले गए. मैं पिताजी की पीठ ही देखती रह गई. मोहन भैया भी शांति से बोले, ‘‘तू अपना ध्यान रखना, कहीं जला न बैठना, मैं और दूध ले आता हूं.’’ पता नहीं क्यों फिर मम्मी की याद आ गई और मैं रोने लगी.

अगले दिन विनीता दीदी ने भी कहा कि आज रात तू मम्मी के पास रहना, मम्मी याद कर रही थीं. वैसे भी मेरी रात की नींद पूरी नहीं हो पा रही, कहीं मैं भी बीमार न हो जाऊं. मेरा मन भी मम्मी से मिलने का हो रहा था. मैं जानबूझ कर ज्यादा देर से जाना चाहती थी ताकि पिताजी अपने समय से निकल कर घर आ जाएं और मैं मम्मी के गले लग कर खूब रो सकूं. सब दिनों की कसर पूरी हो जाए.

मैं अस्पताल के आंगन में बिना वजह आधा घंटा बरबाद कर के मम्मी के स्पेशल वार्ड में पहुंची कि अब तो पिताजी निकल ही गए होंगे, पर जैसे ही अंदर जाने लगी पिताजी की आवाज सुनाई दी तो मेरे कदम वहीं रुक गए.

‘‘वीना, तू कह तो रही है मुझे जाने के लिए, लेकिन मेरा मन नहीं मानता कि तुझे अकेला छोड़ कर जाऊं. तेरे बिना मुझे घर काटने को दौड़ता है. मुझे तेरे बिना जीने की आदत नहीं है,’’ पिताजी का स्वर रोंआसा था.

‘‘आप तो इतने मजबूत दिल के हो, फिर क्यों रो रहे हो?’’

‘‘हां, हूं मजबूत दिल का, दुनिया के सामने अपनी कमजोरी दिखा नहीं सकता, मर्द हूं न, लेकिन मेरा दिल जानता है कि पत्थर बनना कितना मुश्किल होता है. तू जल्दी से ठीक हो जा, अब बरदाश्त नहीं हो रहा मुझे से,’’ पिताजी बच्चों की तरह फफक रहे थे.

‘‘आप ऐसे रोएंगे तो बच्चों को कौन संभालेगा. जाइए न. बच्चे भी तो घर पर अकेले होंगे,’’ मम्मी का स्वर भी रोंआसा था.

‘‘तू हाथ मत छुड़ा. अगर अस्पताल वाले मुझे इजाजत देते रात भर यहां रहने की तो दिनरात तेरी सेवा कर के तुझे साथ ले कर ही घर जाता. बच्चे भी तुझ पर गए हैं. मुझ से बोलते नहीं, पर सब तेरे घर आने का ही इंतजार कर रहे हैं. कोई अब शोर नहीं मचाता, न ही कोई टीवी देखता है,’’ पिताजी के शब्द आंसुओं में फिसलने लगे थे. मम्मी भी उसी में पिघल रही थीं.

आंसुओं से मेरी भी आंखें धुंधला गई थीं. मुझे कुछ दिखाई नहीं दे रहा था. पिताजी के पत्थर दिल के पीछे प्रेम की अमृतधारा का इतना बड़ा झरना बह रहा है, यह तो मैं कभी देख ही नहीं पाई. मैं ने तो अपनी मम्मीपापा को एकसाथ बिस्तर पर हाथ में हाथ डाले बैठे नहीं देखा था लेकिन आज जो मेरे कानों ने मुझे नजारा दिखाया वह मेरी आंखें भी देखना चाह रही थीं. प्यार से लबालब भरे पिताजी की इस सूरत को देखने के लिए मैं तेजी से वार्ड में प्रवेश कर गई.

मेरे सामने आते ही पिताजी ने मम्मी के हाथ से अपना हाथ तेजी से हटा लिया. मैं एकदम मम्मी के गले लग कर जोर से रो पड़ी. मम्मी भी रो पड़ी थीं, ‘‘पागल है, रो क्यों रही है? मैं तो एकदो दिन में आ रही हूं.’’

वे नहीं जानती थीं कि मेरे इन आंसुओं में पिताजी की ओर से मेरा हर रोष धुल गया था. मैं ने पिताजी को कनखियों से देखा. पिताजी का चेहरा आंसुओं से खाली था पर अब मुझे वहां पत्थर दिल नहीं ‘प्यारे’ पिताजी दिख रहे थे, जो हमसब को खासतौर पर मम्मी को, बहुतबहुत प्यार करते थे.

Father’s day 2023: निदान- कौनसे दर्द का इलाज ढूंढ रहे थे वो

आने वाला कल हमें हजार बार रुला सकता है, सैकड़ों बार शरम से झुका सकता है और न जाने कितनी बार यह सोचने पर मजबूर कर सकता है कि कल हम ने जो फैसला लिया था वह वह नहीं होना चाहिए था जो हुआ था.

‘‘आप क्या सोचने लगे, डाक्टर सुधाकर. भीतर चलिए न, चाय का समय समाप्त हो गया.’’

मैं सेमिनार में भाग लेने मुंबई आया हूं. आया तो था अपना कल, अपना आज संवारने, अपने पेशे में सुधार करने, कुछ समझने, कुछ जानने लेकिन अब ऐसा लगने लगा है कि जिसे पहले नहीं जानता था और शायद भविष्य में भी न जान पाऊं… उस में जाननेसमझने के लिए बहुत कुछ है.

अपने ही समाज में जड़ पकड़े कुछ विकृतियां क्यों पनप कर विशालकाय समस्या बन गईं और क्यों हम उन्हें काट कर फेंक नहीं पाते? क्यों हम में इतनी सी हिम्मत नहीं है कि सही कदम उठा सकें? कुछ अनुचित जो हमारी जीवन गति में रुकावट डालता है. उसे हम क्यों अपने जीवन से निकाल नहीं पाते? मेरा आज क्या हो सकता था उस का अंदाजा आज हो रहा है मुझे. मैं ने क्या खो दिया उस का पता आज चला मुझे जब उसे देखा.

‘‘आप की आंखें बहुत सुंदर हैं और बहुत साफ भी.’’

‘‘मैं चश्मा लगाती हूं पर आज लैंस लगाए हैं,’’ एक पल को चौंका था मैं.

‘‘आप के पापा से मेरे पापा ने बात की थी कि मैं चश्मा लगाती हूं, आप को पता है न.’’

‘‘हां, पापा ने बताया था.’’

याद आया था मुझे. मुसकरा दी थी वह. मानो चैन की सांस आई हो उसे. अच्छी लगी थी वह मुझे. महीने भर हमारी सगाई की बात चली थी. तसवीरों का आदानप्रदान हो चुका था जिस कारण वह अपनीअपनी सी भी लगने लगी थी.

‘‘डाक्टरी के पेशे में एक चीज बहुत जरूरी है और वह है हमारी अपनी अंतरात्मा के प्रति जवाबदेही…’’

ऐसी ही तो मानसिकता पसंद थी मुझे. सोच रहा था कि जीवनसाथी के रूप में मेरे ही पेशे की कोई मेधावी डाक्टर साथ हो तो मैं जीवन में तरक्की कर सकता हूं.

एक दिन मेरे पिताजी ने अखबार में शादी का विज्ञापन देखा तो झट से फोन कर दिया था. दूरी बहुत थी हमारे और उस के शहर में. हम कानपुर के थे और वह जम्मू की.

पिताजी ने फोन करने के बाद मुझे बताया था कि उन्होंने अपना फोन नंबर दे दिया है. शाम को लड़की के पापा आएंगे तो अपना पता देंगे ऐसा उत्तर उस की मां ने दिया था.

बात चल पड़ी थी. बस, आड़े थी तो जाति की सभ्यता और दहेज को ले कर हमारी खुल्लमखुल्ला बातें. महीने भर में हमारे बीच कई बार विचारों का आदानप्रदान हुआ था.

मेरे पिता ने पूरा आश्वासन दिया था कि दहेज की बात न होगी और उस के बाद ही वे हमारे शहर आने को मान गए थे. बहुत अच्छा लगा था हमें उस का परिवार. उन को देखते ही लगा था मुझे कि बस, ऐसा ही परिवार चाहिए था.

बड़े ही सौम्य सभ्य इनसान. हम से कहीं ज्यादा अच्छा जीवनस्तर होगा उन का, यह उन्हें देखते ही हम समझ गए थे आज 7 साल बाद वही सेमिनार में वही लड़की भाषण दे रही थी :

‘‘एक अच्छा होम्योपैथ सब से पहले एक अच्छा इनसान हो यह उस की सफलता के लिए बहुत जरूरी है. जो इनसान अपने पेशे के प्रति ईमानदार नहीं है वह अपने पेशे की उस ऊंचाई को कभी नहीं छू सकता जिस ऊंचाई को डाक्टर क्रिश्चियन फिड्रिक सैम्युल हैनेमन ने छुआ था. एक सफल डाक्टर को उस के बैंक बैलेंस से कभी नहीं नापा जाना चाहिए क्योंकि डाक्टरी का पेशा किसी बनिए का पेशा कभी नहीं हो सकता.’’

ऐसा लगा, उस ने मुझे ही लक्ष्य किया हो. आज सुबह से परेशान हूं मैं. तब से जब से उसे देखा है.

नजर उठा कर मैं सामने नहीं देख पा रहा हूं क्योंकि बारबार ऐसा लग रहा है कि उस की नजर मुझ पर ही टिकी है.

मैं अपने पेशे के प्रति ईमानदार नहीं रह पाया और न ही अपनी अंतरात्मा के प्रति. मैं एक अच्छा इनसान नहीं बन पाया. क्या सोचा था क्या बन गया हूं. 7-8 साल पहले मन में कैसी लगन थी. सोचा था एक सफल होम्योपैथ बन पाऊंगा.

उस के शब्द बारबार कानों में बज रहे हैं. क्या करूं मैं? इनसान को जीवन में बारबार ऐसा मौका नहीं मिलता कि वह अपनी भूल का सुधार कर पाए.

मेरी जेब में पड़ा मोबाइल बज उठा. मैं बाहर चला आया. मेरी पत्नी का फोन है. पूछ रही है जो सामान उस ने मंगाया था मैं ने उसे खरीद लिया कि नहीं. एक ऐसी औरत मेरे गले में बंध चुकी है जिसे मैं ने कभी पसंद नहीं किया और जिसे मेरा पेशा कभी समझ में नहीं आया. वास्तव में आज मैं केवल बनिया हूं, एक डाक्टर नहीं.

‘कैसे डाक्टर हो तुम? डाक्टरों की बीवियां तो सोनेचांदी के गहनों से लदी रहती हैं. मेरे पिता ने 10 लाख इसलिए नहीं खर्च किए थे कि जराजरा सी चीज के लिए भी तरसती रहूं.’ कभीकभार वह प्यार भरी झिड़की दे कर कहती.

सच है यह, उस के पिता ने 10 लाख रुपए मेरे पिता की हथेली पर रख कर एक तरह से मुझे खरीद लिया था. यह भी सच है कि मैं ने भी नानुकुर नहीं की थी, क्योंकि हमारी बिरादरी का यह चलन ही है जिसे पढ़ालिखा या अनपढ़ हर युवक जानेअनजाने कब स्वीकार कर लेता है पता नहीं चलता.

हमारे घरों की लड़कियां बचपन से लेनदेन की यह भाषा सुनती, बोलती  जवान होती हैं जिस वजह से उन के संस्कार वैसे ही ढल जाते हैं. हमारी बिरादरी में भावनाएं और दिल नहीं मिलाए जाते, जेब और औकात मिलाई जाती है.

जेब और औकात मिलातेमिलाते कब हम अपनी राह से हट कर किसी की भावनाओं को कुचल गए थे हमें पता ही नहीं चला था.

मुझे याद है, जब उस के मातापिता 7 साल पहले उसे साथ ले कर आए थे.

मेरे पिता ने पूछा था, ‘आप शादी में कितना खर्च करना चाहते हैं. यह हमारा आखिरी सवाल है, आप बताइए ताकि हम आप को बताएं कि 5 लाख रुपए कहांकहां और कैसेकैसे खर्च करने हैं.’

सबकुछ तय हो गया था पर पिताजी द्वारा पूछे गए इस अंतिम प्रश्न ने उस रिश्ते को ही अंतिम रूप दे दिया जो अभी नयानया अंकुरित हो रहा था.

‘आप ने अपनी बेटी को क्याक्या देने के बारे में सोच रखा है?’

मेरी मौसी ने भी हाथ नचा कर पूछा था. भौचक रह गए थे उस के मातापिता. एक कड़वी सी हंसी चली आई थी उन के होंठों पर. कुछ देर हमारे चेहरों को देखते रहे थे वे दोनों. हैरान थे शायद कि मेरे पिता अपने कहे शब्दों पर टिके नहीं रह पाए थे. सब्र का बांध मेरे पिता टूट जाने से रोक नहीं पाए थे’, ‘आखिर बेटी पैदा होती है तो मांबाप सोचना शुरू करते हैं. आप ने क्या सोचा है?’ पुन: पूछा था मेरी मौसी ने.

‘हम अपने लड़कों का सौदा नहीं करते और न यह बता सकते हैं कि बेटी को क्याक्या देंगे. यह तो हमारा प्यार है जिसे हम सारी उम्र बेटी पर लुटाएंगे. अपने प्यार का खुलासा हम आप के सामने कैसे करें?’

‘बहुएं भी तब आप के घरों में ही जला कर मारी जाती हैं. न आप लोग खुल कर मांगते हैं न ही आप के मन की मंशा सामने आती है. हमारी बिरादरी में तो सब बातें पहले ही खोल ली जाती हैं. बेटी के बाप की हिम्मत होगी तो माथा जोड़े नहीं तो रास्ता नापे.’ मौसी ने फिर अपना अक्खड़पन दर्शाया था.

अवाक् रह गए थे उस के मातापिता. मेरे पिता कोशिश कर रहे थे सब संभालने की. किसी तरह खिसिया कर बोले थे, ‘बहनजी ने फोन पर बताया था न… 5 लाख तक आप खर्च…’

‘अपनी इच्छा से हम 50 लाख भी खर्च कर सकते हैं. माफ कीजिएगा, आप की मांग पर एक पैसा भी नहीं.’

शीशे सा टूट गया था वह रिश्ता जिस के पूरा होने पर मैं क्याक्या करूंगा, सब सोच रखा था. मेरे क्लीनिक में उस की कुरसी कहां होगी और मेरी कहां. कुछ नहीं कर पाया था मैं. पिता के आगे जबान खोल ही न पाया था.

शायद यह हमारी कल्पना से भी परे था कि वह लोग इतनी लंबीचौड़ी प्रक्रिया के बाद इनकार भी कर सकते हैं. हमारा व्यवहार इतना अशोभनीय था कि कम से कम उस का क्षोभ मुझे सदा रहा. अपनी मुंहफट मौसी का व्यवहार भी सालता रहता है मुझे. क्या जरूरत थी उन्हें ऐसा बोलने की.

उस के पिता कुछ देर चुप रहे. फिर बोले थे, ‘आप का एक ही बेटा है. अच्छा होगा आप अपनी बिरादरी में ही कहीं कोई योग्य रिश्ता देखें. मुझे नहीं लगता हमारी बच्ची आप के साथ निभा पाएगी. देखिए साहब, हम तो शुरू से ही आप से कह रहे थे कि आप के और हमारे रिवाजों में जमीनआसमान का अंतर है तब आप ने कहा था, आप को डाक्टर बहू चाहिए. और अब हम देख रहे हैं कि आप की नजर हमारी बेटी पर कम हमारी जेब पर ज्यादा है.

‘हमारी बिरादरी में लड़के वाला मुंह फाड़ कर मांगता नहीं है, लड़की वाला अपनी यथाशक्ति सदा ज्यादा ही करने का प्रयास करता है क्योंकि अपनी बच्ची के लिए कोई  कमी नहीं करता. शरम का एक परदा हमेशा लड़के वाले और लड़की वालों में रहता है. यह भी सच है, बहुएं जल कर मर जाती हैं. उन में भी दहेज के मसले इतने ज्यादा नहीं होते जितने दिखाने का आजकल फैशन हो गया है.’

मुझे आज भी अपनी मां का चेहरा याद है जो इस तरह मना करने पर उतर गया था. हालात इतनी सीधीसादी चाल चल रहे थे कि अचानक पलट जाने की किसी को आशंका न थी.

‘मुझे कोई मजबूरी तो है नहीं जो अपनी बच्ची इतनी दूर ब्याह कर सदा के लिए सूली पर चढ़ जाऊं. अच्छे लोगों की तलाश में हम इतनी दूर आए थे, वह भी बारबार आप लोगों के बुलाने पर वरना ऐसा भी नहीं है कि हमारी अपनी बिरादरी में लड़के नहीं हैं. क्षमा कीजिएगा हमें.’

लाख हाथपैर जोड़े थे तब मेरे पिता ने. कितना आश्वासन दिया था कि हम कभी दहेज के बारे में बात नहीं करेंगे लेकिन बात निकल गई थी हाथ से.

आज मैं जब सेमिनार में चला आया हूं तो कुछ सीखा कब? पूरा समय अपना ही कल और आज बांचता रहा हूं. 3 दिन में न जाने कितनी बार मेरा उस से आमनासामना हुआ लेकिन मेरी हिम्मत ही नहीं हुई उस से बात करने की.

तीसरा दिन आखिरी दिन था. उस ने मुझे फोन किया. कहा, समय हो तो साथ बैठ कर एक प्याला चाय पी लें.

उस के सामने बैठा तो ऐसा लगा  जैसे 7-8 साल पीछे लौट गया हूं जब पहली बार मिलने पर अपने पेशे के बारे में क्याक्या बातें की थीं हम ने.

‘‘कैसे हैं आप, डाक्टर सुधाकर?’’

आत्मविश्वास उस का आज भी वैसा ही है जिस से मैं प्रभावित हुए बिना रह न पाया था.

‘‘आप मुझ से बात करना चाहते हैं न?’’

उस के इस प्रश्न पर मैं अवाक् रह गया. मुझे तो याद नहीं मैं ने कोई एक भी प्रयास ऐसा किया था. कर ही नहीं पाया था न.

‘‘एक अच्छा डाक्टर वह होता है जो सामने वाले के हावभाव देख कर ही उस की दवा क्या होगी, उस का पता लगा ले. नजर भी तेज होनी चाहिए.’’

चुप रहा मैं. क्या पूछता.

‘‘आप बिना वजह अपनेआप को कुसूरवार क्यों मान रहे हैं, डाक्टर सुधाकर?’’ उस ने कहा, ‘‘नियम यह है कि बिना जरूरत इनसान को दवा न दी जाए. एक स्वस्थ प्राणी अगर दवा खा लेगा तो उसी दवा का मरीज हो जाएगा.’’

मैं ने गौर से उस का चेहरा देखा. चश्मे से पार उस की आंखों में आज भी वही पारदर्शिता है.

‘‘पुरानी बातें भूल जाइए, हम अच्छे दोस्त बन कर बात कर सकते हैं. मैं जानती हूं कि आप एक बेहद अच्छे इनसान हैं. क्या सोच रहे हैं आप? प्रैक्टिस कैसी है आप की? आप की पत्नी भी…’’

‘‘कुछ भी…कुछ भी अच्छा नहीं है मेरा,’’ बड़ी हिम्मत की मैं ने इतनी सी बात स्वीकार करने में. इस के बाद जो झिझक खुली तो शुरू से अंत तक सब कह सुनाया उसे.

‘‘मैं हर पल घुटता रहता हूं. ऐसा लगता है चारों तरफ बस, अंधेरा ही है.’’

‘‘आप की प्रकृति ही ऐसी है. आप जिस इनसान की ओर से सब से ज्यादा लापरवाह हैं वह आप खुद हैं. आप अपने परिवार को दुखी नहीं कर सकते, सब को सम्मान देना चाहते हैं लेकिन अपने आप को सम्मान नहीं देते.

‘‘8 साल पहले भी आप के जूते जगहजगह से उधड़े थे और आज भी. अपने कपड़ों का खयाल आप को तब भी नहीं था और आज भी नहीं है. क्या आप केवल पैसे कमाने की मशीन भर हैं? पहले मांबाप के लिए एक हुंडी और अब परिवार के लिए? क्या आप के लिए कोई नहीं सोचता, अपनी इच्छा का सम्मान कीजिए, डाक्टर सुधाकर. दबी इच्छाएं ही आप का दम हर पल घुटाती रहती हैं.

‘‘इतने साल पहले आप पिता या मौसी के सामने सही निर्णय न कर पाए, उस का भी यही अर्थ निकलता है कि आप के जीवन में आप से ज्यादा दखल आप के रिश्तेदारों का है. आप अपने लिए जी नहीं पाते इसीलिए घुटते हैं. अपने घर वालों को अपने मूल्य का एहसास कराएं. यह एक शाश्वत सत्य है कि बिना रोए मां भी बच्चे को दूध नहीं पिलाती.’’

मुझ में काटो तो खून नहीं. क्या सचमुच मेरे जूते फटे हैं? क्या 8 साल पहले जब हम मिले थे तब भी मेरा व्यक्तित्व साफसुथरा नहीं था?

‘‘आप के अंदर एक अच्छा इनसान तब भी था और आज भी है. जो नहीं हो पाया उसे ले कर आप दुखी मत रहिए. भविष्य में क्या सुधार हो सकता है इस पर विचार कीजिए. पत्नी ज्यादा पढ़ीलिखी नहीं है तो अब आप क्या कर सकते हैं. उसी में सुख खोजने का प्रयास कीजिए. दोनों बेटों को अच्छा इनसान बनाइए.’’

‘‘उन में भी मां के ही संस्कार हैं.’’

‘‘कोशिश तो कीजिए, आप एक अच्छे डाक्टर हैं, मर्ज का इलाज तो अंतिम सांस तक करना चाहिए न.’’

‘‘मर्ज वहां नहीं, मर्ज कहीं और है. मर्ज हमारे रिवाजों में है, बिरादरी में है.’’

‘‘मैं ने कहा न कि जो नहीं हो पाया उस का अफसोस मत कीजिए. वह सब दोबारा न हो इस के लिए अपने बच्चों से शुरुआत कीजिए जिस की कोशिश आप के पिता चाह कर भी न कर पाए थे.’’

‘‘आप को मेरे पिता भी याद हैं?’’ हैरान रह गया मैं. मुझे याद है मेरे पिता ने तो इन से बात भी कोई ज्यादा नहीं की थी.

‘‘हां, मेरी याददाश्त काफी अच्छी है. वह बेचारे भी अंत तक डाक्टर बहू की चाह और बिरादरी को जवाबदेही कैसे देंगे, इन्हीं दो पाटों में पिसते नजर आ रहे थे. ऐसा नहीं होता तो वह मेरे पापा से क्षमा नहीं मांगते. वह भी बिरादरी की जंजीरों को तोड़ नहीं पाए थे.’’

‘‘आप सब समझ गई थीं तो अपने पिता को मनाया क्यों नहीं था.’’

हंस पड़ी थी वह. उस के सफेद मोतियों से दांत चमक उठे थे.

‘‘जो इनसान अपने अधिकार की रक्षा आज तक नहीं कर पाया वह मेरे मानसम्मान का क्या मान रख पाता? शक हो गया था मुझे. आप मेरे लिए योग्य वर नहीं थे.

‘‘रुपयापैसा आज भी मेरे लिए इतना महत्त्व नहीं रखता. मैं भी आप के योग्य नहीं थी. अलगअलग शैलियों के लोग एकसाथ खुश नहीं न रह सकते थे. भावनाओं को महत्त्व देने वालों का बैंक बैलेंस इतना नहीं होता जितना शायद आप को अच्छा लगता. बेमेल नाता निभ न पाता. बस, इसीलिए…’’

8 साल पहले का वह सारा प्रकरण किसी कथा की तरह मेरे सामने था.

‘‘संजोग में शायद ऐसा ही था. मैं ने कहा न, आप दोषी तब भी नहीं थे और आज भी नहीं हैं. बस, जरा सा अपना खयाल रखिए, अपने मन की कीजिए. सब अच्छा हो जाएगा.’’

डा. विजयकर के सेमिनार में मैं कितने प्रश्न ले कर आया था, कितने ही मरीजों के बारे में पूछना चाहता था लेकिन क्या पता था कि सब से बड़ा बीमार तो मैं खुद हूं जो कभी अपने अधिकार, अपनी इच्छा का सम्मान नहीं कर पाया…तभी मौसी की आवाज काट देता, पिता की इच्छा को नकार देता तो बनती बात कभी बिगड़ती नहीं. आज अनपढ़ अक्खड़ पत्नी के साथ निभानी न पड़ती.

पता नहीं कब वह उठ कर चली गई. सहसा होश आया कि मैं ने उस के बारे में कुछ पूछा ही नहीं. कैसा परिवार है उस का? उस के पति कैसे हैं? पर गले का मंगलसूत्र, कीमती घड़ी और कानों में दमकते हीरे उसे मुझ से इक्कीस ही दर्शाते हैं. आत्मविश्वास और दमकती सूरत बताती है कि वह बहुत सुखी है, बहुत खुश है. एक अच्छे इनसान की खोज में वह अपने मातापिता के साथ इतनी दूर आई थी न, मैं ही पत्थर निकला तो वह भी क्या करती.

कितना सब हाथ से निकल गया न. उठ पड़ा मैं. मन भारी भी था और हलका भी. भारी यह सोच कर कि मैं ने क्या खो दिया और हलका यह सोच कर कि अभी भी पूरा जीवन सामने पड़ा है. अपने बेटों का जीवन संवार कर शायद अपनी पीड़ा का निदान कर पाऊं.

Father’s day 2023: क्या आप पिता बनने वाले हैं

दृश्य1: दिल्ली मैट्रो रेल का एक कोच

यात्रियों से खचाखच भरे दिल्ली मैट्रो के एक कोच में एक आदमी चढ़ता है. उस के एक कंधे पर लंच बैग तो दूसरे कंधे पर लैपटौप बैग टंगा है. उस के हाथ में एक मोटी किताब भी है जिस पर लिखा है, ‘गर्भावस्था में पत्नी का कैसे रखें खयाल.’ उसे किताब पढ़ता देख कर बगल में खड़ा दूसरा आदमी पूछ ही लेता है, ‘‘कृपया बुरा न मानें मैं यह जानना चाहता हूं कि क्या आप पिता बनने वाले हैं?’’ इस पर किताब वाले आदमी का जवाब होता है, ‘‘हां.’’

दृश्य2: फरीदाबाद स्थित एक अस्पताल

फरीदाबाद स्थित एक अस्पताल में जहां शिशु की देखभाल संबंधी ट्रेनिंग चल रही है, वहां कुछ पुरुष छोटे बच्चों के खिलौने थामे खड़े हैं, तो कोई बच्चे को सुलाने की प्रैक्टिस कर रहा है. कोईर् डाइपर बदलने की तैयारी में है, तो कुछ बच्चे को नहलाना तो कुछ उसे तौलिए में लपेटना सीख रहे हैं. कुछ डाक्टर पुरुषों को बच्चे के जन्म के बाद उस की देखरेख करने के टिप्स बता रहे हैं.

ये कुछ ऐसे दृश्य हैं जिन को देख कर महिलाएं भले ही आश्चर्यचकित हों पर आज पुरुषों द्वारा बच्चे को संभालने की ट्रेनिंग लेना और गर्र्भावस्था पर आधारित किताबें पढ़ना बदलती सोच को उजागर करता है. दरअसल, भारतीय समाज की कईर् कुरीतियों में से एक कुरीति यह भी है कि बच्चे को पैदा करने के बाद उस की देखरेख की और अन्य सारी जिम्मेदारियां महिलाओं के सिर पर ही मढ़ दी जाती हैं. पुरुषों का काम सिर्फ बच्चे की परवरिश के लिए आर्थिक सहयोग देने तक ही सिमट कर रह जाता है.

पति की जिम्मेदारी

एशियन इंस्टिट्यूट औफ मैडिकल साइंस के गाइनेकोलौजिस्ट विभाग की एचओडी डा. अनीता कांत, जो ऐेसे दंपतियों की काउंसलिंग भी करती हैं और उन्हें ट्रेनिंग भी देती हैं, का कहना है, ‘‘देखिए, यह एक परंपरा बन चुकी है. और इसे बनाने वाले घर के बड़ेबुजुर्ग ही होते हैं. दरअसल, लड़कों को शुरू से ही इतना पैंपर किया जाता है कि उन्हें घरेलू कार्यों में कतई दिलचस्पी नहीं रहती. पिता बनने के बाद भी उन में उतनी परिपक्वता नहीं आ पाती जितनी कि महिलाओं में आती है. वे जीवन में होने वाले इस बदलाव को उतनी जिम्मेदारी के साथ महसूस नहीं कर पाते जितना एक महिला कर पाती है. पत्नी और बच्चे की देखभाल की बात आती है तो वे अपने कदम पीछे कर लेते हैं. इस में भी बड़ेबुजुर्गों खासतौर पर लड़के की मां का तर्क होता है कि वह खुद अपनी देखभाल नहीं कर सकता तो पत्नी या बच्चे की कैसे करेगा? जबकि यह सरासर गलत है. बच्चे को जन्म देना पति और पत्नी दोनों का आपसी निर्णय होता है. ऐसे में गर्भावस्था के दौरान और उस के बाद पति की जिम्मेदारी बनती है कि वह हर कदम पर पत्नी को सहयोग दे. यह सहयोग केवल आर्थिक रूप से नहीं, बल्कि मानसिक और शारीरिक रूप से भी हो, तो ज्यादा बेहतर है.

‘‘इतना ही नहीं घर के कामकाज में भी पति को पत्नी का हाथ बंटाना चाहिए. यह कह कर पीछे नहीं हटना चाहिए कि ये तो औरतों के काम हैं. अगर महिला कामकाजी है तो खासतौर पर पति को इस बात का खयाल रखना चाहिए कि पत्नी को इस अवस्था में घर पर ज्यादा से ज्यादा आराम मिले.

‘‘गर्भावस्था के दौरान महिलाओं में कई शारीरिक बदलाव आते हैं. इन बदलावों के कारण उन्हें कोई न कोई तकलीफ जरूर होती है. ऐसे में जब पत्नी यह कहे कि उस का फलां काम करने का मन नहीं है, तो उसे बहाना न समझें, क्योंकि गर्भावस्था में महिलाएं बहुत थकावट महसूस करने लगती हैं.

पतियों का रवैया

कुछ पुरुषों को बंधन में बंधना बिलकुल रास नहीं आता. शादी के बाद भी वे बैचलरहुड का ही मजा लेना चाहते हैं और कई पुरुष ऐसा करने में सफल भी रहते हैं. लेकिन पत्नी के गर्भधारण करने और बच्चे के जन्म के बाद वे खुद बंधन में बंधा महसूस करने लगते हैं. डाक्टर के पास पत्नी को नियमित चैकअप के लिए ले जाना या गर्भधारण से जुड़ी पत्नी की समस्या को सुनना उन्हें बोरिंग लगने लगता है. यही नहीं, कुछ पति गर्भावस्था के दौरान पत्नी के बढ़े वजन और बेडौल होते शरीर की वजह से भी पत्नी को नजरअंदाज करना शुरू कर देते हैं.

पत्नी को अपने साथ कहीं बाहर ले जाने में भी उन्हें शर्म आती है. पति के इस व्यवहार से पत्नी खुद को उपेक्षित महसूस करने लगती है. कई बार महिलाएं अपने शरीर और बढ़ते वजन को देख अवसाद में आ जाती हैं. जबकि गर्भवती महिलाओं के लिए अवसाद की स्थिति में आना बहुत नुकसानदायक है.

भावनात्मक सपोर्ट जरूरी

बालाजी ऐक्शन मैडिकल इंस्टिट्यूट की सीनियर कंसल्टैंट और गाइनेकोलौजिस्ट डा. साधना सिंघल कहती हैं, ‘‘प्रसव के बाद महिलाओं के वजन और शरीर दोनों को ठीक करने के उपाय हैं. बस, पतियों को यह समझने की जरूरत है कि उन की पत्नी उन्हें संतान देने के लिए गर्भवती हुई है. इस दौरान पत्नी के शरीर के आकारप्रकार पर ध्यान देने की जगह पति को उस की सेहत और उसे खुश रखने पर ध्यान देना चाहिए, क्योंकि यदि पत्नी किसी भी वजह से अवसाद में आती है तो इस का सीधा असर उस पर और होने वाले बच्चे के स्वास्थ्य पर पड़ता है. इस के अलावा कई बार पति काम का बहाना बना कर चैकअप के लिए पत्नी के साथ नहीं जाते. ऐसा नहीं होना चाहिए. पति इस बात को समझे कि बच्चा सिर्फ पत्नी का ही नहीं है. जब पत्नी गर्भावस्था के दौरान होने वाली सारी पीड़ा सहती है, तो पति का भी फर्ज है कि वह अपनी पत्नी के लिए समय निकाले और उस की हर परेशानी से उबरने में मदद करे. चैकअप के लिए खासतौर पर डाक्टर के पास पत्नी के साथ जाए, क्योंकि डाक्टर मां और पिता दोनों की काउंसलिंग करती हैं. चैकअप के दौरान सिर्फ पत्नी को मैडिकल ट्रीटमैंट नहीं दिया जाता, बल्कि पति को भी मानसिक रूप से पिता बनने के लिए तैयार किया जाता है.

गर्भावस्था के दौरान एक पत्नी को पति का भावनात्मक सपोर्ट बेहद जरूरी होता है. विशेषज्ञ मानते हैं पति का यह सपोर्ट पत्नी को शारीरिक व मानसिक मजबूती देता है, जिस का अच्छा असर आने वाले शिशु पर भी पड़ता है.

पति भी सीखे सभी काम

इन सब के अलावा प्रसव को आसान बनाने के लिए गर्भवती को डाक्टर की सलाह से जो व्यायाम वगैरह करने होते हैं, उन में पति को पत्नी का पूरा सहयोग करना चाहिए.

बच्चे की देखभाल के लिए मैडिकल संस्थाओं द्वारा आयोजित विभिन्न ट्रेनिंग कार्यक्रमों में भी पत्नी के साथ हिस्सा लेना चाहिए. इन ट्रेनिंग कार्यक्रमों में कई जानकारियां ऐसी होती हैं, जो खासतौर पर पिता के लिए ही होती हैं. जैसे पिता को बच्चे को गोद में लेना, मां की अनुपस्थिति में बच्चे को फीड कराना, वैक्सिनेशन के लिए बच्चे को हौस्पिटल ले जाना आदि.

इन ट्रेनिंग कार्यक्रमों में सिर्फ इमोशनल थेरैपी ही नहीं, टच थेरैपी के फायदे भी बताए जाते हैं. दरअसल, गर्भावस्था में गर्भवती महिला को न सिर्फ उचित खानपान की जरूरत पड़ती है, उसे समयसमय पर हलकी मालिश की भी जरूरत पड़ती है. इन ट्रेनिंग कैंपों में पतियों को यह बताया जाता है कि वे कैसे अपनी गर्भवती पत्नी की हलकी मालिश कर यानी टच थेरैपी से राहत पहुंचा सकते हैं.

डा. साधना कहती हैं, ‘‘बच्चे के  सभी काम मां ही करे, यह किसी किताब में नहीं लिखा है. बच्चे से मां की जितनी बौंडिंग होनी चाहिए उतनी ही पिता की भी. इसलिए पिता को बच्चे की देखभाल के वे सारे काम आने चाहिए, जो मां को आते हैं. जिस तरह पिता की गैरमौजूदगी में मां बच्चे को संभाल लेती है, उसी तरह पिता को भी मां की गैरमौजूदगी में बच्चे को संभालना आना चाहिए. खासतौर पर वर्किंग महिलाओं को बच्चों की परवरिश में यदि पति का सहयोग मिल जाए तो वे दफ्तर और घर दोनों के कार्यों को आसानी से संभाल सकती हैं.’’

कामकाजी पतिपत्नी के लिए गर्भावस्था का समय जहां आनंद और कुतूहल का समय होता है, वहीं चुनौतियां भी कम नहीं होतीं. ऐसे समय में पति को पत्नी के घर व औफिस के कामकाज पर भी ध्यान रखना चाहिए. एक समय के बाद डाक्टर सार्वजनिक ट्रांसपोर्ट से न जानेआने, ज्यादा न चलनेफिरने, भारी सामान न उठाने, ज्यादा काम का बोझ न उठाने की सलाह देते हैं. ऐसे समय में यदि पति पत्नी को औफिस ले जाए और ले आए, घर में केयर करे तो यह जच्चाबच्चा दोनों के स्वास्थ्य के लिए सही होता है.

पिता बनना है तो बदलें लाइफस्टाइल

बच्चा पैदा करने का प्लान करने से पहले पतियों को यह तय कर लेना चाहिए कि उन्हें सब से पहले अपनी लाइफस्टाइल में बदलाव लाना होगा. इस बदलाव की शुरुआत होगी किसी भी तरह के नशे से खुद को दूर रखने से. दरअसल, गर्भवती महिला पर शराब, सिगरेट, पानमसाला आदि चीजों का खराब प्रभाव पड़ सकता है. इसलिए यदि इन में से कोई भी लत पति में है तो उसे त्यागना होगा. साथ ही देर से घर आने और ज्यादा वक्त दोस्तों के साथ बिताने की आदत को भी सुधारना होगा, क्योंकि इस वक्त पत्नी को आप की सब से ज्यादा जरूरत है.

डा. साधना कहती हैं, ‘‘गर्भवती महिला को अकेलेपन से घबराहट होती है. इस अवस्था में उसे हमेशा किसी का साथ चाहिए, जिसे वह अपनी भावनाएं और तकलीफें बता सके. ऐसे में पति से बेहतर उस के लिए और कोई नहीं हो सकता.’’

समझें क्या चाहती है पत्नी

बच्चे के वजन और शरीर में आने वाले परिवर्तन के कारण इस दौरान पत्नी चिड़चिड़ी हो जाती है. ऐसी स्थिति में पति प्रसव से पहले पत्नी को हर तरह से सपोर्ट करे ताकि उसे गुस्सा या झल्लाहट न आए. पति के स्नेह और प्यार से वह बच्चे को आसानी से जन्म दे पाएगी.

डा. अनीता बताती हैं, ‘‘गर्भावस्था के दौरान हारमोन में परिवर्तन होते हैं और मानसिक अवस्था में भी बदलाव आता है. ऐसे में पति की थोड़ी सी भी मदद पत्नी के लिए बड़ा सहारा बन सकती है. पति का प्यार, पत्नी औैर इस दुनिया में आने वाले बच्चे के लिए दवा का काम करेगा.’’

गर्भावस्था के दौरान पत्नी का पलपल मूड बदलता रहता है. ऐसे में पति कतई गुस्सा न करे वरन पत्नी की दिक्कतों को समझने की कोशिश करे. उस का बढ़ा पेट कई कार्यों को करने में दिक्कत पैदा करता है. कुल मिला कर बैस्ट हसबैंड और बैस्ट फादर बनना है तो पत्नी की गर्भावस्था के दौरान वह धैर्य रखे और हर स्थिति में पत्नी का साथ निभाए.

Father’s Day 2023: अंतराल

25 साल बाद जरमनी से भेजा सोफिया का पत्र मिला तो पंकज आश्चर्य से भर गए. पत्र उन के गांव के डाकखाने से रीडाइरेक्ट हो कर आया था. जरमन भाषा में लिखे पत्र को उन्होंने कई बार पढ़ा. लिखा था, ‘भारतीय इतिहास पर मेरे शोध पत्रों को पढ़ कर, मेरी बेटी जूली इतना प्रभावित हुई है कि भारत आ कर वह उन सब स्थानों को देखना चाहती है जिन का शोध पत्रों में वर्णन आया है, और चाहती है कि मैं भी उस के साथ भारत चलूं.’

‘तुम कहां हो? कैसे हो? यह वर्षों बीत जाने के बाद कुछ पता नहीं. भारत से लौट कर आई तो फिर कभी हम दोनों के बीच पत्र व्यवहार भी नहीं हुआ, इसलिए तुम्हारे गांव के पते पर यह सोच कर पत्र लिख रही हूं कि शायद तुम्हारे पास तक पहुंच जाए. पत्र मिल जाए तो सूचित करना, जिस से भारत भ्रमण का ऐसा कार्यक्रम बनाया जा सके जिस में तुम्हारा परिवार भी साथ हो. अपने मम्मीपापा, पत्नी और बच्चों के बारे में, जो अब मेरी बेटी जूली जैसे ही बडे़ हो गए होंगे, लिखना और हो सके तो सब का फोटो भी भेजना ताकि हम जब वहां पहुंचें तो दूर से ही उन्हें पहचान सकें.’

पत्नी और बेटा अभिषेक दोनों ही उस समय कालिज गए हुए थे. पत्नी हिंदी की प्रोफेसर है और बेटा एम.बी.ए. फाइनल का स्टूडेंट है. शनिवार होने के कारण पंकज आज बैंक से जल्दी घर आ गए थे. इसलिए मन में आया कि क्यों न सोफिया को आज ही पत्र लिख दिया जाए.

पंकज ने सोफिया को जब पत्र लिखना शुरू किया तो उस के साथ की पुरानी यादें किसी चलचित्र की तरह उन के मस्तिष्क में उभरने लगीं.

तब वह मुंबई के एक बैंक में प्रोबेशनरी अधिकारी के पद पर कार्यरत थे. अभी उन की शादी नहीं हुई थी इसलिए वह एक होस्टल में रह रहे थे.

सोफिया से उन की मुलाकात एलीफेंटा जाते हुए जहाज पर हुई थी. वह भारत में पुरातत्त्व महत्त्व के स्थानों पर भ्रमण के लिए आई थी और उन के होस्टल के पास ही होटल गेलार्ड में ठहरी थी. सोफिया को हिंदी का ज्ञान बिलकुल नहीं था और अंगरेजी भी टूटीफूटी ही आती थी. उन के साथ रहने से उस दिन उस की भाषा की समस्या हल हो गई तो वह जब भी ऐतिहासिक स्थानों को घूमने के लिए जाती, उन से भी चलने का आग्रह करती.

सोफिया को भारत के ऐतिहासिक स्थानों के बारे में अच्छी जानकारी थी. उन से संबंधित काफी साहित्य भी वह अपने साथ लिए रहती थी, इसलिए उस के साथ रहने पर चर्चाओं में उन को आनंद तो आता ही था साथ ही जरमन भाषा सीखने में भी उन्हें उस से काफी मदद मिलती.

साथसाथ रहने से उन दोनों के बीच मित्रता कुछ ज्यादा बढ़ने लगी. एक दिन सोफिया ने अचानक उन के सामने विवाह का प्रस्ताव रख उन्हें चौंका दिया, और जब वह कुछ उत्तर नहीं दे पाए तो मुसकराते हुए कहने लगी, ‘जल्दी नहीं है, सोच कर बतलाना, अभी तो मुझे मुंबई में कई दिनों तक रहना है.’

यह सच है कि सोफिया के साथ रहते हुए वह उस के सौंदर्य और प्रतिभा के प्रति अपने मन में तीव्र आकर्षण का अनुभव करते थे पर विवाह की बात उन के दिमाग में कहीं दूर तक भी नहीं थी, ऐसा शायद इसलिए भी कि सोफिया और अपने परिवार के स्तर के अंतर को वह अच्छी तरह समझते थे. कहां सोफिया एक अमीर मांबाप की बेटी, जो भारत घूमने पर ही लाखों रुपए खर्च कर रही थी और कहां सामान्य परिवार के वह जो एक बैंक में अदने से अधिकारी थे. प्रेम के मामले में सदैव दिल की ही जीत होती है, इसलिए सबकुछ जानते और समझते हुए भी वह अपने को सोफिया से प्यार का इजहार करने से नहीं रोक पाए थे.

उन दिनों मां ने अपने एक पत्र में लिखा था कि आजकल तुम्हारे विवाह के लिए बहुत से लड़की वालों के पत्र आ रहे हैं, यदि छुट्टी ले कर तुम 2-4 दिन के लिए घर आ जाओ तो फैसला करने में आसानी रहेगी. तब उन्होंने सोचा था कि जब घर पहुंच कर मां को बतलाएंगे कि मुंबई में ही उन्होंने एक लड़की सोफिया को पसंद कर लिया है तो मां पर जो गुजरेगी और घर में जो भूचाल उठेगा, क्या वह उसे शांत कर पाएंगे पर कुछ न बतलाने पर समस्या क्या और भी जटिल नहीं हो जाएगी…

तब छोटी बहन चारू ने फोन किया था, ‘भैया, सच कह रही हूं, कुछ लड़कियों की फोटो तो बहुत सुंदर हैं. मां तो उन्हें देख कर फूली नहीं समातीं. मां ने कुछ से तो यह भी कह दिया कि मुझे दानदहेज की दरकार नहीं है, बस, घरपरिवार अच्छा हो और लड़की उन के बेटे को पसंद आ जाए…’

बहन की इन चुहल भरी बातों को सुन कर जब उन्होंने कहा कि चल, अब रहने दे, फोन के बिल की भी तो कुछ चिंता कर, तो चहकते हुए कहने लगी थी, ‘उस के लिए तो मम्मीपापा और आप हैं न.’

मां को अपने आने की सूचना दी तो कहने लगीं, ‘जिन लोगों के प्रस्ताव यहां सब को अच्छे लग रहे हैं उन्हें तुम्हारे सामने ही बुला लेंगे, जिस से वे लोग भी तुम से मिल कर अपना मन बना लें और फिर हमें आगे बढ़ने में सुविधा रहे.’

‘नहीं मां, अभी किसी को बुलाने की जरूरत नहीं है. अब घर तो आ ही रहा हूं इसलिए जो भी करना होगा वहीं आ कर निश्चित करेंगे…’

‘जैसी तेरी मरजी, पर आ रहा है तो कुछ निर्णय कर के ही जाना. लड़की वालों का स्वागत करतेकरते मैं परेशान हो गई हूं.’

घर पहुंचा तो चारू चहकती हुई लिफाफों का पुलिंदा उठा लाई थी, ‘देखो भैया, ये इतने प्रपोजल तो मैं ने ही रिजेक्ट कर दिए हैं…शेष को देख कर निर्णय कर लो…किनकिन से आगे बात करनी है.’

उन्होंने उन में कोई रुचि नहीं दिखाई, तो रूठने के अंदाज में चारू बोली, ‘क्या भैया, आप मेरा जरा भी ध्यान नहीं रखते. मैं ने कितनी मेहनत से इन्हें छांट कर अलग किया है, और आप हैं कि इस ओर देख ही नहीं रहे. ज्यादा भाव खाने की कोशिश न करो, जल्दी देखो, मुझे और भी काम करने हैं.’

जब वह उन के पीछे ही पड़ गई तो वह यह कहते उठ गए थे कि चलो, पहले स्नान कर भोजन कर लें…मां भी फ्री हो जाएंगी…फिर सब आराम से बैठ कर देखेंगे. मां ने भी उन का समर्थन करते हुए चारू को डपट दिया, ‘भाई ठीक ही तो कह रहा है, छोड़ो अभी इन सब को, आया नहीं कि चिट्ठियों को ले कर बैठ गई.’

दोपहर में चारू तो अपनी सहेली के साथ बाजार चली गई, मां को फुरसत में देख, वह उन के पास जा कर बैठ गए और बोले, ‘मां, आप से कुछ बात करनी है.’

‘ऐसी कौन सी बात है जिसे मां से कहने में तू इतना परेशान दिख रहा है?’

‘मां…दरअसल, बात यह है कि मुझे मुंबई में एक लड़की पसंद आ गई है.’

मां कुछ चौंकीं तो पर खुश होते हुए बोलीं, ‘अरे, तो अब तक क्यों नहीं बताया? कैसी लगती है वह? बहुत सुंदर होगी. फोटो लाया है? क्या नाम है? उस के मांबाप भी क्या मुंबई में ही रहते हैं? क्या करते हैं वे?’

मां की उत्सुकता और उन के सवालों को सुन कर वह तब मौन हो गए थे. उन्हें इस तरह खामोश देख कर मां बोली थीं, ‘अरे, चुप क्यों हो गया? बतला तो, कौन है, कैसी है?’

‘मां, वह एक जरमन लड़की है, जो रिसर्च के सिलसिले में मुंबई आई हुई है और मेरे होस्टल के पास ही होटल में रहती है. हमारी मुलाकात अचानक ही एक यात्रा के दौरान हो गई थी. मां, कहने को तो सोफिया जरमन है पर देखने में उस का नाकनक्श सब भारतीयों जैसा ही है.’

अपने बेटे की बात सुन कर मां एकदम सकते में आ गई थीं. कहने लगीं, ‘बेटा, तुम्हारी यह पसंद मेरी समझ में नहीं आई. तुम्हें अपने परिवार में सब संस्कार भारतीय ही मिले पर यह कैसी बात कि शादी एक विदेशी लड़की से करना चाहते हो? क्या मुंबई जा कर लोग अपनी परंपराओं और संस्कृति को भूल कर महानगर के मायाजाल में इतनी जल्दी खो जाते हैं कि जिस लड़की से शादी करनी है उस के घरपरिवार के बारे में जानने की जरूरत भी महसूस नहीं करते? क्या अपने देश में सुंदर लड़कियों की कोई कमी है, जो एक विदेशी लड़की को हमारे घर की बहू बनाना चाहते हो?’

फिर यह कहते हुए मां उठ कर वहां से चली गईं कि एक विदेशी बहू को वह स्वीकार नहीं कर पाएंगी.

शाम को चाय पर फिर एकसाथ बैठे तो मां ने समझाते हुए बात शुरू की, ‘देखो बेटा, शादीविवाह के फैसले भावावेश में लेना ठीक नहीं होता. तुम जरा ठंडे दिमाग से सोचो कि जिस परिवेश में तुम पढ़लिख कर बड़े हुए और तुम्हारे जो आचारविचार हैं, क्या कोई यूरोपीय संस्कृति में पलीबढ़ी लड़की उन के साथ सामंजस्य बिठा पाएगी? माना कि तुम्हें मुंबई में रहना है और वहां यह सब चलता है पर हमें तो यहां समाज के बीच ही रहना है. जब हमारे बारे में लोग तरहतरह की बातें करेंगे तब हमारा तो लोगों के बीच उठनाबैठना ही मुश्किल हो जाएगा. फिर चारू की शादी भी परेशानी का सबब बन जाएगी.’

‘मां, आप चारू की शादी की चिंता न करें,’ वह बोले थे, ‘वह मेरी जिम्मेदारी है और मैं ही उसे पूरी करूंगा. लोगों का क्या? वे तो सभी के बारे में कुछ न कुछ कहते ही रहते हैं. रही बात सोफिया के विदेशी होने की तो वह एक समझदार और सुलझेविचारों वाली लड़की है. वह जल्दी ही अपने को हमारे परिवार के अनुरूप ढाल लेगी. मां, आप एक बार उसे देख तो लें, वह आप को भी अच्छी लगेगी.’

बेटे की बातों से मां भड़कते हुए बोलीं, ‘तेरे ऊपर तो उस विदेशी लड़की का ऐसा रंग चढ़ा हुआ है कि तुझ से कुछ और कहना ही अब बेकार है. तुझे जो अच्छा लगे सो कर, मैं बीच में नहीं बोलूंगी.’

पापा के आफिस से लौटने पर जब उन के कानों तक सब बातें पहुंचीं, तो पहले वह भी विचलित हुए थे फिर कुछ सोच कर बोले, ‘बेटे, मुझे तुम्हारी समझदारी पर पूरा विश्वास है कि तुम अपना तथा परिवार का सब तरह से भला सोच कर ही कोई निर्णय करोगे. यदि तुम्हें लगता है कि सोफिया के साथ विवाह कर के ही तुम सुखी रह सकते हो, तो हम आपत्ति नहीं करेंगे. हां, इतना जरूर है कि विवाह से पहले एक बार हम सोफिया और उस के मातापिता से मिलना अवश्य चाहेंगे.’

पापा की बातों से उन के मन को तब बहुत राहत मिली थी पर वह यह समझ नहीं पाए थे कि उन की बातों से आहत हुई मां को वह कैसे समझाएं?

उन के मुंबई लौटने पर जब सोफिया ने उन से घर वालों की राय के बारे में जानना चाहा तो उन्होंने कहा था, ‘मैं ने तुम्हारे बारे में मम्मीपापा को बताया तो उन्होंने यही कहा यदि तुम खुश हो तो उन की भी सहमति है और तुम्हारे मम्मीपापा के भारत आने पर उन से मिलने वे मुंबई आएंगे.’

सोफिया से यह सब कहते हुए उन्हें अचानक ऐसा लगा था कि सोफिया के साथ विवाह का निर्णय कर कहीं उन्होंने कोई गलत कदम तो नहीं उठा लिया? लेकिन सोफिया के सौंदर्य और प्यार से अभिभूत हो जल्दी ही उन्होंने अपने इस विचार को झटक दिया था.

उन के मुंबई लौटने के बाद घर में एक अजीब सी खामोशी छा गई थी. मां और चारू दोनों ही अब घर से बाहर कम ही निकलतीं. उन्हें लगता कि यदि किसी ने बेटे की शादी का जिक्र छेड़ दिया तो वे उसे  क्या उत्तर देंगी?

पापा यह कह कर मां को समझाते, ‘मैं तुम्हारी मनोस्थिति को समझ रहा हूं, पर जरा सोचो कि मेरे अधिक जोर देने पर यदि वह सोफिया की जगह किसी और लड़की से विवाह के लिए सहमत हो भी जाता है और बाद में अपने वैवाहिक जीवन से असंतुष्ट रहता है तो न वह ही सुखी रह पाएगा और न हम सभी. इसलिए विवाह का फैसला उस के स्वयं के विवेक पर ही छोड़ देना हम सब के हित में है.’

कुछ दिन बाद उन के फोन करने पर पापा, मां और चारू को ले कर मुंबई आ गए थे क्योंकि सोफिया के मम्मीपापा भी भारत आ गए थे.

मुंबई पहुंचने पर निश्चित हुआ कि अगले दिन लंच सब लोग एक ही होटल में करेंगे और दोनों परिवार वहीं एकदूसरे से मिल कर विवाह की संक्षिप्त रूपरेखा तय कर लेंगे. दोनों परिवार जब मिले तो सामान्य शिष्टाचार के बाद पापा ने ही बात शुरू की थी, ‘आप को मालूम ही है कि आप की बेटी और मेरा बेटा एकदूसरे को पसंद करते हैं. हम लोगों ने उन की पसंद को अपनी सहमति दे दी है. इसलिए आप अपनी सुविधा से कोई तारीख निश्चित कर लें जिस से दोनों विवाह सूत्र में बंध सकें.

पापा के इस सुझाव के उत्तर में सोफिया के पापा ने कहा था, ‘पर इस के लिए मेरी एक शर्त है कि शादी के बाद आप के बेटे को हमारे साथ जरमनी में ही रहना होगा और इन की जो संतान होगी वह भी जरमन नागरिक ही कहलाएगी. आप अपने बेटे से पूछ लें, उसे मेरी शर्त स्वीकार होने पर ही इस शादी के लिए मेरी अनुमति हो सकेगी.’

उन की शर्त सुन कर सभी चौंक गए थे. सोफिया को भी अपने पापा की यह शर्त अच्छी नहीं लगी थी. उधर वह सोच रहे थे कि नहीं, इस शर्त के लिए वह हरगिज सहमत नहीं हो सकते. वह क्या इतने खुदगर्ज हैं जो अपनी खुशी के लिए अपने मांबाप और बहन को छोड़ कर विदेश में रहने चले जाएं? पढ़ते समय वह सोचा करते थे कि जिस तरह मम्मीपापा ने उन के जीवन को संवारने में कभी अपनी सुखसुविधा की ओर ध्यान नहीं दिया, उसी तरह वह भी उन के जीवन के सांध्यकाल को सुखमय बनाने में कभी अपने सुखों को बीच में नहीं आने देंगे.

उन्होंने दूर खड़ी उदास सोफिया से कहा, ‘तुम्हारे पापा की शर्त के अनुसार मुझे अपने परिवार और देश को छोड़ कर जाना कतई स्वीकार नहीं है, इसलिए अब आज से हमारे रास्ते अलग हो रहे हैं, पर मेरी शुभकामनाएं हमेशा तुम्हारे साथ हैं.’

दरवाजे की घंटी बजी तो अपने अतीत में खोए पंकज अचानक वर्तमान में लौट आए. देखा, पोस्टमैन था. पत्नी की कुछ पुस्तकें डाक से आई थीं. पुस्तकें प्राप्त कर, अधूरे पत्र को जल्द पूरा किया और पोस्ट करने चल दिए.

कुछ दिनों बाद, देर रात्रि में टेलीफोन की घंटी बजी. उठाया तो दूसरी ओर से सोफिया की आवाज थी. कह रही थी कि पत्र मिलने पर बहुत खुशी हुई. अगले मंडे को बेटी के साथ वह मुंबई पहुंच रही है. उसी पुराने होटल में कमरा बुक करा लिया है, पर व्यस्तता के कारण केवल एक सप्ताह का समय ही निकाल पाई है. उम्मीद है आप का परिवार भी घूमने में हमारे साथ रहेगा.

टेलीफोन पर हुई पूरी बात, सुबह पत्नी और बेटे को बतलाई. वे दोनों भी घूमने के लिए सहमत हो गए. सोफिया के साथ घूमते हुए पत्नी को भी अच्छा लगा. अभिषेक और जूली ने भी बहुत मौजमस्ती की. अंतिम दिन मुंबई घूमने का प्रोग्राम था. पर सब लोगों ने जब कोई रुचि नहीं दिखाई तो अभिषेक व जूली ने मिल कर ही प्रोग्राम बना लिया.

रात्रि में दोनों देर से लौटे. सोते समय सोफिया ने अपनी बेटी से पूछा, ‘‘आज अभिषेक के साथ तुम दिन भर, अकेले ही घूमती रहीं. तुम्हारे बीच बहुत सी बातें हुई होंगी? क्या सोचती हो तुम उस के बारे में? कैसा लड़का है वह?’’

‘‘मम्मी, अभि सचमुच बहुत अच्छा और होशियार है. एम.बी.ए. के पिछले सत्र में उस ने टाप किया है. आगे बढ़ने की उस में बहुत लगन है.’’

‘‘इतनी प्रशंसा? कहीं तुम्हें प्यार तो नहीं हो गया?’’

‘‘हां, मम्मी, आप का अनुमान सही है.’’

‘‘और वह?’’

‘‘वह भी.’’

‘‘तो क्या अभि के पापा से तुम दोनों के विवाह के बारे में बात करूं?’’

‘‘हां, मम्मी, अभि भी ऐसा ही करने को कह रहा था.’’

‘‘पर जूली, तुम्हारे पापा को तो ऐसा लड़का पसंद है, जो उन के साथ रह कर बिजनेस में उन की मदद कर सके. क्या अभि इस के लिए तैयार होगा.’’

‘‘क्यों नहीं, यह तो आगे बढ़ने की उस की इच्छा के अनुकूल ही है. फिर वह क्यों मना करने लगा?’’

‘‘भारत छोड़ देने पर, क्या उस के मम्मीपापा अकेले नहीं रह जाएंगे?’’

‘‘तो क्या हुआ? भारत में इतने वृद्धाश्रम किस लिए हैं?’’

‘‘क्या इस बारे में तुम ने अभि के विचारों को जानने का भी प्रयत्न किया?’’

‘‘हां, वह इस के लिए खुशी से तैयार है. कह भी रहा था कि यहां भारत में रह कर तो उस की तमन्ना कभी पूरी नहीं हो सकती. लेकिन मम्मी, अभि की इस बात पर आप इतना संदेह क्यों कर रही हैं?’’

‘‘कुछ नहीं, यों ही.’’

‘‘नहीं मम्मी, इतना सब पूछने का कुछ तो कारण होगा? बतलाइए.’’

‘‘इसलिए कि बिलकुल ठीक ऐसी ही परिस्थितियों में अभि के पापा ने भारत छोड़ने से मना कर दिया था.’’

‘‘पर तब आप ने उन्हें समझाया नहीं?’’

‘‘नहीं, शायद इसलिए कि मुझे भी उन का मना करना गलत नहीं लगा था.’’

‘‘ओह मम्मी, आप और अभि के पापा दोनों की बातें और सोच, मेरी समझ के तो बाहर की हैं. मैं तो सो रही हूं. सुबह जल्दी उठना है. अभि कह रहा था, वह सुबह मिलने आएगा. उसे आप से भी कुछ बातें करनी हैं.’’

बेटी की सोच और उस की बातों के अंदाज को देख, सोफिया को लग रहा था कि पीढ़ी के ‘अंतराल’ ने तो हवा का रुख ही बदल दिया है.

Father’s day 2023: पिता और पुत्र के रिश्तों में पनपती दोस्ती

‘‘हाय डैड, क्या हो रहा है? यू आर एंजौइंग लाइफ, गुड. एनीवे डैड, आज मैं फ्रैंड्स के साथ पार्टी कर रहा हूं. रात को देर हो जाएगी. आई होप आप मौम को कन्विंस कर लेंगे,’’ हाथ हिलाता सन्नी घर से निकल गया.

‘‘डौंट वरी सन, आई विल मैनेज ऐवरीथिंग, यू हैव फन,’’ पीछे से डैड ने बेटे से कहा. आज पितापुत्र के रिश्ते के बीच कुछ ऐसा ही खुलापन आ गया है. किसी जमाने में उन के बीच डर की जो अभेद दीवार होती थी वह समय के साथ गिर गई है और उस की जगह ले ली है एक सहजता ने, दोस्ताना व्यवहार ने. पहले मां अकसर पितापुत्र के बीच की कड़ी होती थीं और उन की बातें एकदूसरे तक पहुंचाती थीं, पर अब उन दोनों के बीच संवाद बहुत स्वाभाविक हो गया है. देखा जाए तो वे दोनों अब एक फ्रैंडली रिलेशनशिप मैंटेन करने लगे हैं. 3-4 दशकों पहले नजर डालें तो पता चलता है कि पिता की भूमिका किसी तानाशाह से कम नहीं होती थी. पीढि़यों से ऐसा ही होता चला आ रहा था. तब पिता का हर शब्द सर्वोपरि होता था और उस की बात टालने की हिम्मत किसी में नहीं थी. वह अपने पुत्र की इच्छाअनिच्छा से बेखबर अपनी उम्मीदें और सपने उस को धरोहर की तरह सौंपता था. पिता का सामंतवादी एटीट्यूड कभी बेटे को उस के नजदीक आने ही नहीं देता था. एक डरासहमा सा बचपन जीने के बाद जब बेटा बड़ा होता था तो विद्रोही तेवर अपना लेता था और उस की बगावत मुखर हो जाती थी.

असल में पिता सदा एक हौवा बन बेटे के अधिकारों को छीनता रहा. प्रतिक्रिया करने का उफान मन में उबलने के बावजूद पुत्र अंदर ही अंदर घुटता रहा. जब समय ने करवट बदली और उस की प्रतिक्रिया विरोध के रूप में सामने आई तो पिता सजग हुआ कि कहीं बागडोर और सत्ता बनाए रखने का लालच उन के रिश्ते के बीच ऐसी खाई न बना दे जिसे पाटना ही मुश्किल हो जाए. लेकिन बदलते समय के साथ नींव पड़ी एक ऐसे नए रिश्ते की जिस में भय नहीं था, थी तो केवल स्वीकृति. इस तरह पितापुत्र के बीच दूरियों की दीवारें ढह गईं और अब आपसी संबंधों से एक सोंधी सी महक उठने लगी है, जिस ने उन के रिश्ते को दोस्ती में बदल दिया है.

पितापुत्र संबंधों में एक व्यापक परिवर्तन आया है और यह उचित व स्वस्थ है. पिता के व्यक्तित्व से सामंतवाद थोड़ा कम हुआ है. थोड़ा इसलिए क्योंकि अगर हम गांवों और कसबों में देखें तो वहां आज भी स्थितियों में ज्यादा परिवर्तन नहीं आया है. बस, दमन उतना नहीं रहा है जितना पहले था. आज पिता की हिस्सेदारी है और दोतरफा बातचीत भी होती है जो उपयोगी है. मीडिया ने रिश्तों को जोड़ने में अहम भूमिका निभाई है. टैलीविजन पर प्रदर्शित विज्ञापनों ने पितापुत्री और पितापुत्र दोनों के बीच निकटता का इजाफा किया है. समाजशास्त्री श्यामा सिंह का कहना है कि आज अगर पितापुत्र में विचारों में भेद हैं तो वे सांस्कृतिक भेद हैं. अब मतभेद बहुत तीव्र गति से होते हैं. पहले पीढि़यों का परिवर्तन 20 साल का होता था पर अब वह परिवर्तन 5 साल में हो जाता है. आज के बच्चे समय से पहले मैच्योर हो जाते हैं और अपने निर्णय लेने लगते हैं. जहां पिता इस बात को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं वहां दिक्कतें आ रही हैं. पितापुत्र के रिश्ते में जो पारदर्शिता होनी चाहिए वह अब दिखने लगी है. नतीजतन बेटा अपने पिता के साथ अपनी बातें शेयर करने लगा है.

खत्म हो गई संवादहीनता

आज पितापुत्र संबंधों में जो खुलापन आया है उस से यह रिश्ता मजबूत हुआ है. मनोवैज्ञानिक समीर मल्होत्रा के अनुसार, अगर पिता अपने पुत्र के साथ एक निश्चित दूरी बना कर चलता है तो संवादहीनता उन के बीच सब से पहले कायम होती है. पहले जौइंट फैमिली होती थी और शर्म पिता से पुत्र को दूर रखती थी. बच्चे को जो भी कहना होता था, वह मां के माध्यम से पिता तक पहुंचाता था. लेकिन आज बातचीत का जो पुल उन के बीच बन गया है, उस ने इतना खुलापन भर दिया है कि पितापुत्र साथ बैठ कर डिं्रक्स भी लेने लगे हैं. आज बेटा अपनी गर्लफ्रैंड के बारे में बात करते हुए सकुचाता नहीं है.

करने लगा सपने साकार

महान रूसी उपन्यासकार तुरगेनेव की बैस्ट सेलर किताब ‘फादर ऐंड सन’ पीढि़यों के संघर्ष की महागाथा है. वे लिखते हैं कि पिता हमेशा चाहता है कि पुत्र उस की परछाईं हो, उस के सपनों को पूरा करे. जाहिर है, इस उम्मीद की पूर्ति होने की चाह कभी पुत्र को आजादी नहीं देगी. पिता चाहता है कि उस के आदेशों का पालन हो और उस का पुत्र उस की छाया हो. टकराहट तभी होती है जब पिता अपने सपनों को पुत्र पर लादने की कोशिश करता है. पर आज पिता, पुत्र के सपनों को साकार करने में जुट गया है. प्रख्यात कुच्चिपुड़ी नर्तक जयराम राव कहते हैं कि जमाना बहुत बदल गया है. बच्चों की खुशी किस में है और वे क्या चाहते हैं, इस बात का बहुत ध्यान रखना पड़ता है. यही वजह है कि मैं अपने बेटे की हर बात मानता हूं. मैं अपने पिता से बहुत डरता था, पर आज समय बदल गया है. कोई बात पसंद न आने पर मेरे पिता मुझे मारते थे पर मैं अपने बेटे को मारने की बात सोच भी नहीं सकता. आज वह अपनी दिशा चुनने के लिए स्वतंत्र है. मैं उस के सपने साकार करने में उस का पूरा साथ दूंगा. बहरहाल, अब पितापुत्र के सपने, संघर्ष और सोच अलग नहीं रही है. यह मात्र भ्रम है कि आजादी पुत्र को बिगाड़ देती है. सच तो ?यह है कि यह आजादी उसे संबंधों से और मजबूती से जुड़ने और मजबूती से पिता के विश्वास को थामे रहने के काबिल बनाती है.

Father’s day 2023: जिंदगी फिर मुस्कुराएगी- पिता ने बेटे को कैसे रखा जिंदा

रात के 3 बजे थे. इमरजैंसी में एक नया केस आया था. इमरजैंसी में तैनात डाक्टरों और नर्सों ने मुस्तैदी से बच्चे की जांच की. बिना देरी किए उसे पीडियाट्रिक आई.सी.यू. में ऐडमिट कराने के लिए स्ट्रेचर पर लिटा कर नर्स व वार्ड- बौय तेजी से चल पड़े. पीछेपीछे बच्चे के मातापिता बदहवास से चल रहे थे.

पीडियाट्रिक आई.सी.यू. में भी अफरातफरी मच गई. बच्चे को बैड पर लिटा कर 4-5 डाक्टरों की टीम उस की चिकित्सा में लग गई.

‘‘टैल मी द हिस्ट्री,’’ डा. सिद्धार्थ ने कहा.

‘‘बच्चा 3 साल का है. यूरिनरी इन्फैक्शन हुआ था. डायग्नोसिस में बहुत देर हो गई. बच्चे को बहुत तेज बुखार की शिकायत है. इन्फैक्शन पूरे शरीर में फैल गया है पर इस से महत्त्वपूर्ण यह है कि 8 दिन पहले गिरने के कारण बच्चे को सिर में गहरी चोट लगी थी. ब्लड सर्कुलेशन के साथ इन्फैक्शन दिमाग में चला गया है. कल सुबह इन्फैक्शन के कारण ब्रेन हैमरेज भी हो गया,’’ पीडियाट्रिक्स इमरजैंसी के डा. शांतनु ने संक्षेप में बताया.

‘‘माई गुडनैस,’’ डा. सिद्धार्थ ने कहा, ‘‘मुझे सीटी स्कैन दिखाओ.’’

एक नर्स बच्चे के मातापिता के पास सीटी स्कैन लेने दौड़ी. बच्चे के पिता ने तुरंत सीटी स्कैन और रिपोर्ट नर्स को दे दी और पूछा, ‘‘बच्चा कैसा है सिस्टर. क्या कर रहे हैं अंदर. हम उसे देख सकते हैं क्या?’’

‘‘डाक्टर जांच कर रहे हैं. इलाज चल रहा है. एक बार बच्चे की हालत स्थिर हो जाए फिर आप को बुला लेंगे,’’ कह कर नर्स अंदर चली गई.

बच्चे के मातापिता बेबस से बाहर खड़े रह गए. बच्चे की मां मीनल के तो आंसू नहीं थम रहे थे. बच्चे की चोट वाली जगह से खून की एक लकीर पीछे तक गई थी.

‘‘सर, बच्चे के हाथ में लगा कैनूला ब्लौक हो गया है,’’ नर्स बोली, ‘‘चेंज करना पड़ेगा.’’

‘‘चेंज करो और फौरन आई.वी. ऐंटीबायोटिक और सलाइन शुरू करो. बच्चे का टैंपरेचर अभी कितना है?’’ डा. सिद्धार्थ ने पूछा.

नर्स ने तुरंत थर्मामीटर लगा कर बच्चे का बुखार देखा और कांपते स्वर में बोली, ‘‘सर, 106 से ऊपर है.’’

‘‘दिमाग के इन्फैक्शन में तो यह होना ही था. बच्चे को तुरंत कोल्ड वाटर स्पंज दो. हथेलियों, बगल में, पैर के तलवों और घुटनों के नीचे कोल्ड गौज या कौटन रखो और लगातार उन्हें बदलती रहना. ए.सी. के अलावा एक और पंखा ला कर बच्चे की ओर लगाओ ताकि बुखार आगे न जाने पाए,’’ डा. सिद्धार्थ ने हिदायत दी.

डेढ़ घंटे की जद्दोजहद के बाद कहीं बच्चे का बुखार 103 डिगरी तक आया, तब डा. सिद्धार्थ ने चैन की सांस ली. 2 नर्सों को बच्चों के पास छोड़ कर और इलाज के बारे में समझा कर डा. सिद्धार्थ ने बच्चे के मातापिता को बुला लाने को कहा. पीडियाट्रिक आई.सी.यू. के डाक्टर और नर्सें वापस अपनीअपनी ड्यूटी पर चले गए.

प्रशांत और मीनल दौड़ेदौड़े अंदर आए तो डा. सिद्धार्थ ने कहा, ‘‘हम ने बच्चे का इलाज शुरू कर दिया है. बुखार भी अब कम हो गया है. लेकिन बच्चे के दिमाग में जो इन्फैक्शन हो गया है उस के लिए न्यूरोलौजिस्ट को बुला कर चैकअप करवाना पड़ेगा.’’

‘‘हमारा बच्चा ठीक तो हो जाएगा न?’’ मीनल ने कांपते स्वर में पूछा.

‘‘हम अपनी ओर से पूरी कोशिश करेंगे. कल सुबह डा. बनर्जी दिमाग का उपचार शुरू कर देंगे तो उम्मीद है बुखार कंट्रोल में आ जाएगा. और हां, आप दोनों में से कोई एक ही आई.सी.यू. में बच्चे के पास बैठ सकता है.’’

मीनल ने बच्चे की ओर देख कर उसे पुकारा. थोड़ी देर बाद सोनू ने कमजोर स्वर में ‘हूं’ कहा. बुखार से सोनू बेदम हो रहा था. बीचबीच में अचानक कांप उठता और अजीब से स्वर में कराहने लगता. मीनल बच्चे की यह दशा देख कर रोने लगी.

प्रशांत ने पत्नी के कंधे पर हाथ रख कर उसे तसल्ली दी और अपने आंसू पोंछ कर बोला, ‘‘अपनेआप को संभालो मीनल. हमें उस का पूरा ध्यान रखना है. उसे ठीक करना है. अगर तुम ही टूट जाओगी तो सोनू की देखभाल कौन करेगा?’’

मीनल ने हामी भरते हुए अपने आंसू पोंछे और सोनू का हाथ थाम लिया. सोनू की कमजोर उंगलियों ने मीनल की उंगलियां थाम लीं तो मीनल का दिल भर आया. मस्तिष्क में संक्रमण से सोनू खुल कर रो नहीं पा रहा था और बोल भी नहीं पा रहा था. बस, रहरह कर उस का शरीर कांपता और वह घुटेघुटे स्वर में कराहने लगता.

सोनू का हाथ सहलाते हुए मीनल के सामने बेटे के जन्म से ले कर अब तक की घटनाएं चलचित्र की भांति घूमने लगीं. कितनी खुश थी वह मां बन कर. सोनू के जन्म के बाद उस के पालनपोषण में कब दिन गुजर जाता पता ही नहीं चलता. प्रकृति ने सारे जहां की खुशियां मीनल की झोली में डाल दी थीं. जीवन में खुशियां ही खुशियां थीं. सोनू था भी बहुत प्यारा बच्चा. सारा दिन ‘मांमां’ कहता मीनल का आंचल थामे उस के आगेपीछे घूमता रहता. पर अचानक उन के सुखी संसार में न जाने कहां से दुख के बादल घिर आए.

6 महीने पहले सोनू को बुखार आना शुरू हुआ. प्रशांत उसे डाक्टर के पास ले गया. दवाइयों से 5 दिनों में सोनू ठीक हो गया. मीनल और प्रशांत निश्चिंत हो गए. पर 15 दिन बाद ही सोनू को फिर बुखार आया तो उन्हें चिंता हुई और डाक्टर ने दवा दे कर कहा कि चिंता की कोई बात नहीं है, सभी बच्चों को बदलते मौसम से यह परेशानी हो रही है.

इसी तरह 5 महीने गुजर गए. सोनू को महीने भर तक जब लगातार बुखार के साथ पेट में दर्द, पेशाब में जलन की शिकायत होने लगी तब कसबे के डाक्टर ने उसे बड़े शहर में जा कर चाइल्ड स्पैशलिस्ट को दिखाने को कहा.

मीनल और प्रशांत तुरंत सोनू को शहर ले आए. वहां चाइल्ड स्पैशलिस्ट ने सोनू की खून और यूरिन की सभी जरूरी जांच करवाईं और कल्चर करवाया. कल्चर ड्रग सैंसेटिविटी जांच से पता चला कि अब तक जो ऐंटीबायोटिक सोनू को दी जा रही थीं उन दवाइयों ने सोनू पर कुछ असर ही नहीं किया था और संक्रमण बढ़तेबढ़ते गुर्दों तक फैल गया.

डाक्टर ने उसे तुरंत ऐडमिट कर लिया. 7 दिन तक उसे आई.वी. ऐंटीबायोटिक का कोर्स देने के बाद जब उस का बुखार सामान्य तक आ गया तो उसे जरूरी निर्देश दे कर डिस्चार्ज दे दिया.

मीनल और प्रशांत सोनू को ले कर घर आ गए. 2-3 दिन ठीक रहने के बाद सोनू को फिर से हलकाहलका बुखार रहने लगा. एक दिन घर के सामने पड़ोस के बच्चे खेल रहे थे. सोनू की जिद पर मीनल ने उसे खेलने भेज दिया.

मीनल आंगन में खड़ी हो कर बेटे को देख रही थी कि अचानक एक बच्चे को पकड़ने के लिए दौड़ने की कोशिश करता सोनू लड़खड़ा कर गिर गया. उस का सिर तेजी से एक नुकीले पत्थर से टकराया. खून की धार फूट पड़ी. मीनल घबरा कर जल्दी से उसे डाक्टर के यहां ले कर दौड़ी. डाक्टर ने दवा लगा कर पट्टी बांध दी.

घटना के 5वें दिन अचानक सोनू बेचैन हो कर हाथपैर पटकने लगा, अजीब तरह से कराहने लगा. मीनल ने उस का बदन छुआ तो उसे तेज बुखार था. मीनल ने तुरंत प्रशांत को फोन लगाया. प्रशांत औफिस से उसी समय घर आया और वे सोनू को शहर के चाइल्ड स्पैशलिस्ट के पास ले गए. उन्होंने तुरंत उसे ऐडमिट करवाया. उस का सीटी स्कैन करवाया तो पता चला कि चोट से शरीर में मौजूद संक्रमण मस्तिष्क तक चला गया है और तेज बुखार व संक्रमण के चलते सोनू को ब्रेन हैमरेज हो गया है.

मीनल तो यह सुन कर होश ही खो बैठी. कुछ दिनों तक वे लोग अपने शहर में इलाज कराते रहे लेकिन सोनू की स्थिति में सुधार न होता देख डाक्टर ने प्रशांत से सोनू को दिल्ली ले जाने के लिए कहा. मीनल और प्रशांत तुरंत सोनू को दिल्ली ले आए.

सोनू का हाथ थामे मीनल ने गहरी सांस ली. सोनू अब भी बेचैनी और दर्द से हाथपैर पटक रहा था और एक मां बेबस सी बैठी थी. सच, कुदरत के आगे इंसान कितना लाचार है.

सुबह 8 बजे डा. बनर्जी अपनी टीम सहित सोनू का निरीक्षण करने आ पहुंचे. उन्होंने सोनू को देखा और उस की रिपोर्ट की जांच की. डाक्टर व नर्सों को कुछ नई दवाइयों के बारे में बताया और फिर प्रशांत को बुलवाया.

‘‘देखिए, हम ने मस्तिष्क के संक्रमण के लिए एक नई दवा स्टार्ट कर दी है. जरूरत पड़ी तो एकदो दिन में एक सीटी स्कैन करवा लेंगे,’’ डा. बनर्जी ने प्रशांत और मीनल से कहा.

‘‘सोनू कब तक ठीक हो जाएगा डाक्टर साहब?’’ प्रशांत ने पूछा.

‘‘हम ने मस्तिष्क के संक्रमण के लिए जो नई ऐंटीबायोटिक शुरू की है, 2-3 दिन इस को देखते हैं, क्या असर होता है फिर आगे के इलाज की योजना बनाएंगे,’’ कह कर डा. बनर्जी वहां से दूसरे मरीज के पास चले गए.

अगले 2 दिनों तक सोनू की स्थिति में कोई सुधार नहीं दिखा तो डा. बनर्जी ने फिर से सोनू का सीटी स्कैन करवाया. संक्रमण फैलने की वजह से अब की बार उस के मस्तिष्क के पिछले हिस्से भी क्षतिग्रस्त नजर आए.

दूसरे दिन मीनल और प्रशांत हताश से बैठे थे कि रात में 8 बजे अचानक सोनू तेज आवाज में खींचखींच कर सांस लेने लगा. मीनल उस के सीने पर हाथ फेरने लगी. सिस्टर जल्दी से डाक्टर को बुला लाई. डाक्टर ने सोनू की स्थिति को देखते ही सिस्टर से कहा, ‘‘पेशेंट को तुरंत वैंटीलेटर पर शिफ्ट करना पड़ेगा. सिस्टर, डा. यतिन को फौरन बुलाओ और जब तक यतिन आते हैं तब तक बाकी सब तैयारी हो जानी चाहिए.’’

डा. यतिन ने पहुंचते ही मीनल से कहा, ‘‘आप प्लीज बाहर वेट करिए. हमें सोनू को वैंटीलेटर पर शिफ्ट करना पड़ेगा. बाद में हम आप को बुलवा लेंगे.’’

मीनल चुपचाप बाहर आ गई. उस ने प्रशांत को सबकुछ बताया. दोनों धीरज रख कर बाहर बैठे रहे.

करीब 2 घंटे बाद डा. यतिन ने प्रशांत और मीनल को बुलवाया और बताया, ‘‘सोनू खींचखींच कर सांस ले रहा था. इस का अर्थ है कि उस के दिमाग में ब्रीदिंग कंट्रोल करने वाला भाग डैमेज हो गया है. मस्तिष्क के किसी भी भाग की क्षति स्थायी होती है. आई एम सौरी. देखते हैं,’’ डा. यतिन ने प्रशांत का कंधा थपथपाया और चले गए.

अगले 2 दिनों में डा. बनर्जी ने फिर से सोनू का सीटी स्कैन करवाया और रिपोर्ट देख कर प्रशांत से बोले, ‘‘कल रात में इस का एक और बार ब्रेन हैमरेज हो चुका है. संक्रमण की वजह से मस्तिष्क के ज्यादातर हिस्से क्षतिग्रस्त हो कर काम करना बंद कर चुके हैं. हमें अफसोस है, हम सोनू के लिए कुछ नहीं कर पाए.’’

स्तब्ध सी मीनल धड़ाम से कुरसी पर गिर पड़ी. प्रशांत ने उस के कंधे पर अपना कांपता हुआ हाथ रख दिया. उन के घर का चिराग बस बुझने को ही है और वे नियति के हाथों कितने मजबूर हैं, लाचार हैं.

तीसरे दिन सुबह डा. लतिका ने प्रशांत और मीनल को अपने कैबिन में बुलवाया. डा. लतिका भी डा. यतिन की तरह ही पीडियाट्रिक्स की सीनियर डाक्टर थीं. उन्होंने पहले तो मीनल और प्रशांत को पानी पिलाया और फिर कहना प्रारंभ किया :

‘‘देखिए, आप सोनू की हालत तो जानते ही हैं. संक्रमण की वजह से उस के ब्रेन के ज्यादातर हिस्सों ने काम करना बंद कर दिया था. आज सुबह न्यूरोलौजिस्ट ने उस की जांच की तो पता चला कि उस के पूरे मस्तिष्क की क्रियाशीलता खत्म हो चुकी है. डाक्टरी भाषा में कहें तो सोनू की ब्रेन डैथ हो चुकी है.’’

‘‘नहीं…’’ मीनल चीत्कार कर उठी. प्रशांत भी सुबक उठा. करीब 15 मिनट बाद मीनल और प्रशांत के दुख का ज्वार कुछ कम हुआ तो प्रशांत ने पूछा, ‘‘सोनू की सांस और धड़कन तो चल रही है, डाक्टर.’’

‘‘जी, वह बस वैंटीलेटर (सिस्टोलिक ब्लडप्रैशर) के कारण चल रही है. अगर हम अभी वैंटीलेटर हटा लेते हैं तो उस की सांस और धड़कन बंद हो जाएगी. ब्रेन डैथ के मामले में हम 12 घंटे बाद दोबारा सारी जांच कर के यह तय करते हैं कि कहीं जीवन का लक्षण बाकी है या नहीं. तभी हम वैंटीलेटर हटाते हैं,’’ डा. लतिका ने समझाया, ‘‘लेकिन अगर आप चाहें तो सोनू का दिल हमेशा धड़कता रह सकता है.’’

‘‘जी? वह कैसे?’’ मीनल और प्रशांत ने एकसाथ अचरज से पूछा.

‘‘बात यह है कि हमारे अस्पताल में एकदो मरीज हैं जिन्हें तुरंत हार्ट ट्रांसप्लांट की जरूरत है. यदि आप सोनू का हार्ट डोनेट कर सकें तो उन में से जिस के साथ भी क्रास मैचिंग हो जाए उस में सोनू का हार्ट ट्रांसप्लांट किया जा सकता है. इस तरह से आप के बच्चे के जाने के बाद भी उस का दिल इस दुनिया में धड़कता रहेगा,’’ डा. लतिका ने कहा.

‘‘नहींनहीं. आप यह कैसी बातें कर रही हैं,’’ मीनल तड़प कर बोली, ‘‘आप मेरे सोनू के शरीर से…आप को एक मां के दर्द का जरा सा भी एहसास नहीं है.’’

डा. लतिका ने मीनल के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, ‘‘मैं भी एक मां हूं, मुझे तुम्हारे दर्द का पूरा एहसास है, मीनल.

‘‘तुम्हारे सोनू की जगह उस दिन मेरा ही बेटा था. हां, मीनल यह घटना 6 साल पहले की है. मेरे 18 बरस के बेटे का जन्मदिवस था. वह अपने दोस्तों के साथ एक रैस्टोरैंट में गया था. लौटते समय उस की बाइक का ऐक्सीडैंट हो गया. सिर में लगी गंभीर चोट की वजह से उस की ब्रेन डैथ हो चुकी थी. मैं उस के दिल की धड़कन को हमेशा के लिए बरकरार रखना चाहती थी पर देश में उस समय हार्ट ट्रांसप्लांट के लिए मरीज उपलब्ध नहीं था.’’

डा. लतिका ने अपने आंसू पोंछ कर फिर कहना शुरू किया, ‘‘मेरे बेटे की धड़कन तो मैं नहीं बचा पाई लेकिन हम ने उस की दोनों किडनी और आंखें डोनेट कर दीं. आज कहीं न कहीं उस की आंखें यह दुनिया देख रही हैं. उस के गुर्दों ने तब मौत के मुंह में जाते 2 लोगों को बचा लिया था.’’

कुछ देर के मौन के बाद प्रशांत ने हिम्मत कर के पूछा, ‘‘आप हार्ट किस को डोनेट करेंगे?’’

‘‘क्षमा कीजिएगा, कुछ नियमों के कारण हम आप को यह जानकारी तो नहीं दे सकते. यह बात दोनों ही परिवारों से गुप्त रखी जाती है. मुझे भी अपने बेटे के समय ट्रांसप्लांट सर्जन ने यह जानकारी नहीं दी थी. लेकिन ट्रांसप्लांट सफल हुआ है या नहीं, वह सूचना हम आप को अवश्य देंगे,’’ डा. लतिका ने स्पष्ट किया.

प्रशांत और मीनल डा. लतिका से विदा ले कर आई.सी.यू. में आ कर सोनू के पास बैठ गए. वैंटीलेटर के मौनिटर पर सोनू की धड़कनों का रिकौर्ड आ रहा था. उसे देखते ही प्रशांत बिलख कर बोले, ‘‘हां कह दो मीनल. अपने सोनू की धड़कनों के सिलसिले को रुकने मत दो. डाक्टर की बात मान लो.’’

मीनल हैरानी से पति को देख कर बोली, ‘‘तुम भी यही कह रहे हो, प्रशांत? बताओ, मैं कैसे अपने मासूम बच्चे की चीराफाड़ी…’’ आगे के शब्द मीनल के आंसुओं से बह गए.

‘‘जरा सोचो मीनल, कुछ घंटे बाद ब्रेन डैथ कन्फर्म होने के बाद यों भी ये लोग वैंटीलेटर हटा देंगे. तब तो सोनू की सांस और धड़कन सबकुछ खत्म हो जाएगा. हम भी उसे श्मशान ले जा कर जला देंगे. सबकुछ राख हो जाएगा. आज डाक्टर ने हमें कितना बड़ा मौका दिया है कि हम उस की धड़कन को, उस की आंखों की रोशनी को हमेशा के लिए बरकरार रख सकते हैं. हमारा सोनू किसी न किसी रूप में आगे भी जीवित रहेगा.’’

प्रशांत की नजरें अभी भी सोनू की धड़कनों पर थीं.

‘‘मुझे क्या करना है दुनिया से,’’ मीनल बोली, ‘‘मैं अपने मासूम बच्चे के साथ ऐसा नहीं कर सकती.’’

‘‘ऐसा न कहो मीनल,’’ प्रशांत ने उस के कंधे पर हाथ रख कर समझाया, ‘‘डा. लतिका ने कहा न सोनू जल्द ही तुम्हारे पास आ जाएगा. सोनू को बचाने में हम ने कोई कसर बाकी नहीं रखी. परंतु सोनू के जाने के बाद भी उस की धड़कन और आंखों की रोशनी को बरकरार रख कर हमें मानवता की इतनी बड़ी सेवा करने का मौका मिला है.’’

मीनल चुपचाप सुबकती रही. प्रशांत फिर बोले, ‘‘देश और देशवासियों की रक्षा के लिए मांएं अपने जवान बेटों को सीमा पर हंसतेहंसते कुरबान कर देती हैं. क्या उन्हें अपने बेटों को खोने का गम नहीं होता होगा? पर देश, समाज और इंसानियत की रक्षा के लिए वे हंस कर यह दर्द, यह तकलीफ सह लेती हैं. उन का ध्यान करो. अपने बच्चों को खोते समय वे भी तो नहीं जानतीं कि किन लोगों के लिए उन्हें कुरबान कर रही हैं. जिन की रक्षा में उन के बच्चे अपने प्राण गंवाते हैं उन को सैनिकों की मांएं कहां पहचानती हैं.

‘‘तुम भी यह मत सोचो कि सोनू का दिल या आंखें किस में ट्रांसप्लांट होंगी. बस, मानवता के प्रति अपना कर्तव्य समझ कर हां कर दो,’’ प्रशांत ने उस के सिर पर हाथ फेरते हुए उसे समझाने की आखिरी कोशिश की.

मीनल ने अपना हाथ सोनू के सीने पर रखा. उस का दिल अपनी लय में धड़क रहा था. उस की धड़कन महसूस करते ही मीनल फफक पड़ी और रोते हुए बोली, ‘‘आप ठीक कहते हैं. मैं मां हूं. अपने बच्चे की धड़कन को भला कैसे रुकने दे सकती हूं. नहींनहीं, आप डा. लतिका से कह दीजिए कि मेरे सोनू के दिल की धड़कन हमेशा चलती रहेगी. उस की आंखें भी यह दुनिया देखती रहेंगी.’’

मीनल को गले लगाते हुए प्रशांत खुद फफक कर रो दिया.

प्रशांत के फैसले पर उस का हाथ पकड़ कर डा. लतिका ने आंखों में आंसू भर कर रुंधे गले से कहा, ‘‘तुम ने अपने बच्चे को अंधेरे में खो जाने से बचा लिया. तुम नहीं जानती हो कि तुम ने कितना बड़ा काम किया है. मानवता की कितनी बड़ी सेवा की है. कितने घरों के चिराग रोशन कर दिए. मैं तुम्हें दिल से दुआ देती हूं, तुम्हारा सोनू जल्द ही तुम्हारे पास वापस आएगा,’’ डा. लतिका ने मीनल को गले लगा लिया.

अगले दिन प्रशांत और मीनल अपने घर में रिश्तेदारों से घिरे बैठे थे. तभी प्रशांत को डा. लतिका का फोन आया. सोनू का हार्ट उपलब्ध मरीजों में से एक के साथ मैच कर गया तथा उस बच्चे में प्रत्यारोपित कर दिया गया. प्रत्यारोपण सफल रहा है.

इस के एक माह बाद डा. लतिका का फिर से फोन आया. सोनू का हार्ट जिस बच्चे में प्रत्यारोपित किया गया था उस के शरीर ने सोनू के दिल को स्वीकार कर लिया है. बच्चा अब पूरी तरह से स्वस्थ हो कर अपने घर जा रहा है. आप के सोनू का दिल सफलतापूर्वक धड़क रहा है और आगे भी धड़कता रहेगा. सोनू की आंखें भी 2 लोगों को लगाई जा चुकी हैं.

प्रशांत और मीनल ने एकदूसरे की ओर देखा. दोनों के मन ने एक अजीब सा संतोष महसूस किया. उन का सोनू आज भी जीवित है, उन्होंने सोनू को राख बन कर बिखर जाने से बचा लिया. उन का सोनू अमर हो गया.

इतने दिनों की भागादौड़ी और दुख में मीनल ने अपनी ओर ध्यान ही नहीं दिया था. उस का सोनू तो कभी कहीं गया ही नहीं था. वह तो रूप बदल कर पहले से चुपचाप मीनल की कोख में छिप कर बैठा था. डा. लतिका की दुआ सच हुई. जिंदगी फिर मुसकरा रही थी.

Father’s day 2023: पिता बदल गए हैं तो कोई हैरानी नहीं, बदलते वक्त के साथ ही था बदलना

आइंस्टीन की बिग बैंग थ्योरी को लेकर भले संदेह हो कि ब्रह्मांड निरंतर फ़ैल रहा है या नहीं.लेकिन इस बात को लेकर कोई संदेह नहीं है कि दुनिया हर पल बदल रही है.कारण कुछ भी हो.ऐसे में भले किसी की पहचान हमेशा एक सी कैसे रह सकती है.पिता नाम का,समाज का सबसे महत्वपूर्ण शख्स भी इस बदलाव से अछूता नहीं है तो इसमें किसी आश्चर्य की बात नहीं है.आज जब पिछली सदी के जैसा कुछ नहीं रहा,न खानपान,न पहनावा,शिक्षा,न रोजगार,न संपर्क के साधन तो भला पिता कैसे वैसे के वैसे ही बने रहते,जैसे बीसवीं सदी के मध्यार्ध या उत्तरार्ध में थे.पिता भी बदल गए हैं.क्योंकि अब वो घर में अकेले कमाने वाले शख्स नहीं हैं.क्योंकि अब वो अपने बच्चों से ज्यादा नहीं जानते,ज्यादा स्मार्ट भी नहीं हैं.

यही वजह है कि आज पिता घर की अकेली और निर्णायक आवाज भी नहीं हैं. आज के पिता परिवार की कई आवाजों में से एक हैं और यह भी जरूरी नहीं कि घर में उनकी  आवाज सबसे वजनदार आवाज हो.इसमें कुछ बुरा भी नहीं है और न ही इसके लिए पिताओं के प्रति अतिरिक्त सहानुभूति होनी चाहिए.क्योंकि अकेली निर्णायक आवाज न घर के लिए और न ही समाज के लिए,किसी भी के लिए बहुत अच्छी नहीं होती.अकेली आवाज के हमेशा तानाशाह आवाज में बदल जाने की आशंका रहती है.

बहरहाल पहले के पिता ख़ास होने के भाव से अकड़ में रहते थे, इस कारण वह अपने बच्चों के प्रति अपने प्यार और फिक्रमंदी की भावनाएं भी सार्वजनिक तौरपर प्रदर्शित नहीं कर पाते थे.यहां तक कि पहले पिता सबके सामने अपने बच्चों को अपनी जुबान से प्यार भी नहीं कर पाते थे.वही सामाजिक दबाव, क्या कहेंगे लोग.ढाई-तीन दशक पहले जिनका बचपन गुजरा है,उन्हें मालूम है कि कैसे बचपन में ज्यादातर समय उन्हें अपने पिताओं से नकारात्मक व्यवहार ही मिलता रहा है, लेकिन आज ऐसा नहीं है.आज के पिता बच्चों के साथ किसी हद तक दोस्ताना भाव रखते हैं. आज के पिता में वह दंबगई नहीं है, जो पहले हुआ करती थी? आज के बच्चे अपने पापा  से डरते नहीं है?

क्योंकि तकनीक ने,जीवनशैली ने पारिवारिक ताकत और प्रभाव का विकेंद्रीकरण किया है.पहले की तरह सारी पारिवारिक ताकत और प्रभाव का अब कोई अकेला केंद्र नहीं रहा.इस कारण आज का पिता बदल गया है.यह बदलाव कदम कदम पर दिखता है.आज का पिता घर के काम बिल्कुल न करता या कर पाता हो, ऐसा नहीं है.आज का पिता न सिर्फ घर के कई काम बड़ी सहजता से करता है बल्कि रसोई में भी अब वह अनाड़ी नहीं है.पहले जिन कामों को हम सिर्फ घर की महिलाओं को करते देखते थे, जैसे घर की सफाई, बच्चों को उठाना, स्कूल के लिए तैयार करना, उनके लिए नाश्ता और लंच बनाना आदि, आज ये तमाम काम पिता भी सहजता से करते दिखते हैं.

क्योंकि आज की तारीख में विभिन्न कामों के साथ जुड़ी अनिवार्य लैंगिगकता खत्म हो गई है या धीरे धीरे खत्म हो रही है.हम चाहें तो इसे इस तरह कह सकते हैं कि आज के पिता बहुत कूल हैं, हर काम कर लेते हैं.कई बार तो ऐसा इसलिए भी होता है; क्योंकि पिता एकल पालक होते हैं.आज बहुत नहीं पर काफी पिता ऐसे हैं,जिन्होंने सिंगल पैरेंट के रूप में बच्चा गोद लिया हुआ है.सौतेले पिता भी आज अजूबा नहीं हैं. आज के पिता बड़ी सहजता से अपनी बेटियों के हर काम और हर तरह के संवाद का जरिया बन सकते हैं.हम आमतौर पर ऐसा होने को पश्चिमी संस्कृति का असर मान लेते हैं.लेकिन यह महज पश्चिमी संस्कृति का असर भर नहीं है,यह एक स्वाभाविक बदलाव है.जो दुनिया में हर जगह आधुनिक जीवनशैली और शिक्षा से आया है.

इसके कारण आज के पिता बच्चों के लिए ज्यादा रीचेबल हो गये हैं,बच्चे बड़ी सहजता से उन तक पहुँच रखते हैं,वह पिताओं से हर तरह की बातचीत कर लेते हैं.उनमें एक किस्म का धैर्य आया है.आज के पिता बच्चों के रोल मॉडल हैं या नहीं हैं.ज्यादातर लड़कियां अपने ब्वाॅयफ्रेंड या हसबैंड में पिता की छाया तलाशती हैं.जाहिर है आज का पिता भावनात्मक रूप से ज्यादा सम्पन्न, संयमी, मददगार और केयर करने वाला है.यहां तक कि आज के पिता ने अपने बच्चों और परिवार को अपनी आलोचना की भी भरपूर छूट दी है.नहीं दी तो परिवार द्वारा ले ली गयी है,चाहे उसे पसंद हो या न हो. यही वजह है कि आज परिवार नामक संस्था ज्यादा प्रोग्रेसिव है.

इस सबके पीछे कारण बड़े ठोस हैं.आज का पिता घर का अकेला रोजी रोटी कमाने वाला नहीं रहा.मां भी बड़े पैमाने पर ब्रेड बटर अर्नर है.बच्चे भी पहले के मुकाबले कहीं जल्दी कमाने लगते हैं. इस वजह से घर में अब पिता का पहले के जमाने की तरह का दबदबा नहीं रहा,जब वह परिवार की रोजी रोटी कमाने वाले अकेले शख्स हुआ करते थे.

यूं शुरू हुआ फादर्स डे मनाने का सिलसिला

हर साल जून के तीसरे रविवार को फादर्स डे मनाया जाता है. इसका सबसे पहले विचार एक अमरीकी लड़की सोनोरा स्मार्ट डोड को साल 1909 में आया था.पहला फादर्स डे 19 जून 1910 को वाशिगंटन में मनाया गया. 1966 में अमरीका के राष्ट्रपति लिंडन बेन जॉनसन ने जून के तीसरे रविवार को हर साल फादर्स डे मनाने की औपचारिक घोषणा की. तब से यह न केवल अमरीका में नियमित रूप से मनाया जाता है बल्कि दुनिया के दूसरे देशों में भी इसने धीरे धीरे अपना विस्तार किया है.पिता दिवस के मनाये जाने के इस औपचारिक सिलसिले के बाद से दुनिया में पिता और पितृत्व की भूमिका लगातार चर्चा होती रही है.

Father’s day 2023: त्रिकोण का चौथा कोण- भाग 2

एक तरफ निरुपमा उस की प्रेमिका, उस के सुखदुख की सच्ची साथी, हमदर्द, जिस ने उस के लिए अपना सब कुछ समर्पित कर दिया और बदले में कुछ नहीं चाहा था. समाज भले ही उसे मोहित की रखैल कह कर पुकारे पर मोहित स्वयं जानता था कि यह सत्य से परे है. रखैल शब्द में तो कई अधिकार निहित होते हैं. उसे रखने के लिए तो एक संपूर्ण व्यवस्था की आवश्यकता होती है. रोटी, कपड़ा, मकान सभी कुछ जुटाना होता है. बस एक वैधता का सर्टिफिकेट ही तो नहीं होता, लेकिन क्या इतना आसान होता है रखैल रखना?

पर मोहित के लिए आसान था सब कुछ. उस के पास धनदौलत की कमी नहीं थी. वह चाहता तो निरुपमा जैसी 10 रख सकता था. पर निरुपमा स्वाभिमानी, आत्मनिर्भर स्त्री थी. वह स्वयं के बलबूते पर जीवनयापन करने का माद्दा रखती थी. वर्षों से सिंचित इस संबंध को एक ही झटके में नकारना मोहित के लिए आसान नहीं था.

दूसरी तरफ थी दीप्ति, जो विधिविधान से मोहित की पत्नी बन उस के जीवन में आई थी. पति के सुख में सुख और दुख में दुख मानने वाली दीप्ति ने कभी अपने ‘स्व’ को अस्तित्व में लाने की कोशिश ही नहीं की. जब परस्त्री की पीड़ा दीप्ति के चेहरे पर आंसुओं के रूप में हावी हो जाती, तो मोहित तमाम ऊंचीनीची विवशताओं का हवाला दे कर उसे शांत कर देता.

वर्षों से निरुपमा और दीप्ति के बीच खुद को रख दोनों में बखूबी संतुलन कायम किया था मोहित ने. स्वयं को दोनों की साझी संपत्ति साबित कर दोनों का विश्वास हासिल करने में सफल रहा था वह. नीति को हाशिए पर रख नियति का हवाला दे कर मोहित स्वयं के अपराधबोध को भी मन ही मन साफ करता रहा था.

इस वक्त मोहित औफिस की चेयर पर आगे की ओर फिसल कर, पैर पसारे, आंखें मूंदे विचारों में खोया था… काश ऐसा होता… काश वैसा होता.

कालेज में पढ़ने वाला उत्साही, जोशीला, गठीला, सजीला मोहित सब को अपनी ओर आकर्षित करने का सामर्थ्य रखता था. उन दिनों बरसात का मौसम था. कालेज की शुरुआत के दिन थे वे, जब कालेज में पढ़ाई कम मस्ती ज्यादा होती है. एक दिन मोहित अपने मित्र रोहन के साथ कालेज से दोपहर 2 बजे निकला, तो बारिश की तेज झड़ी शुरू हो गई. अपनी मोटरसाइकिल को किसी पेड़ की ओट के नीचे रोकने से पहले ही मोहित और उस का मित्र दोनों ही पूरी तरह भीग गए. अब रुकने से क्या फायदा, हम भीग तो चुके हैं सोच कर मोहित ने रोहन को उस के स्टौप पर छोड़ा व अपने घर का रुख किया.

वह अगले बस स्टौप से ज्योंही आगे निकला. अचानक उस की नजरें बस स्टौप पर खड़ी एक छुईमुई सी लड़की पर पड़ीं. उसे लगा, जैसे इसे कहीं देखा है. उस ने तुरंत ब्रेक लगा कर मोटरसाइकिल मोड़ी व पलट कर बस स्टौप तक आ गया. छुईमुई सी लड़की घबरा कर उसे ही देख रही थी. पुराने टूटे बस स्टाप से टपकते पानी और हवा के झोंकों के कारण पानी की बौछारें उसे बुरी तरह भिगो चुकी थीं. तेज बारिश और बस स्टौप का सन्नाटा उस के अंदर भय पैदा कर रहा था. अपने पर्स को

दोनों हाथों से सीने से चिपकाए वह सहमी हुई खड़ी थी.

मोहित ने पास आते ही पहचान लिया कि यह लड़की तो उसी के कालेज की है. 2-4 दिन से उस ने यह नया चेहरा कालेज में देखा था.

‘‘ऐक्सक्यूज मी… मे आई हैल्प यू?’’ मोहित ने अदब से पूछा.

पर सहमी सी आवाज में प्रत्युत्तर मिला, ‘‘नो थैंक्स… मेरी 12 नंबर की बस आने ही वाली है…’’

नए शहर में अनजान व्यक्ति से दूर रहने की मम्मी की हिदायतें उसे याद आ गईं. फिर ये तो लड़का है, पता नहीं इस के मन में क्या हो. आजकल चेहरे से तो सभी शरीफ नजर आते हैं… मन ही मन वह सोचने लगी.

‘‘12 नंबर बस यानी संचार नगर? मैं

वहीं जा रहा हूं… चलिए, आप को छोड़ दूं… इतनी बारिश में अकेली कब तक खड़ी

रहेंगी आप?’’

मोहित का उद्देश्य केवल मदद करने का ही था, पर शायद अब भी विश्वास नहीं जम पाया तो लड़की ‘न’ में गरदन हिला कर दूसरी ओर देखने लगी.

लड़की की मासूमियत पर मोहित को तरस आ रहा था और हंसी भी. मैं क्या इतना लोफर, आवारा नजर आता हूं… उस ने मन ही मन सोचा और मुसकरा कर अपनी मोटरसाइकिल वहीं खड़ी कर दी व स्वयं भी बस स्टौप के नीचे खड़ा हो गया.

लड़की को संशय भरी निगाहों से अपनी ओर देखते ही वह बोल पड़ा, ‘‘12 नंबर बस आने तक तो खड़ा हो सकता हूं? पूरी सड़क सुनसान है, आप मुसीबत में पड़

सकती हैं यहां पर. चिल्लाने पर एक परिंदा भी नहीं आएगा.’’

सुन कर लड़की ने कोई भाव व्यक्त नहीं किया व चुप्पी साधे बस आने की दिशा की ओर टकटकी लगाए देखती रही. ज्यादा प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी उसे. 5 मिनट में ही 12 नंबर बस आ गई और वह बस में चढ़ गई. बस में चढ़ते ही उस ने पलट कर मुसकरा कर धन्यवाद भरे भाव से मोहित की ओर ऐसे देखा, जैसे क्षण भर पूर्व मोहित के साथ शुष्क व्यवहार के लिए माफी चाहती हो. बस के गति पकड़ते ही मोहित ने भी प्रत्युत्तर में अविलंब अपना हाथ लहरा दिया.

यही थी मोहित और निरुपमा की पहली भेंट, जिस में दोनों एकदूसरे का नाम भी नहीं जान पाए थे. 2 दिन बाद ही अपार्टमैंट के छठे माले से मोहित लिफ्ट से जैसे ही नीचे उतरा, तो सामने की सीढि़यों से नीचे उतरती उस अनजान लड़की को देख कर सुखद आश्चर्य से भर गया.

‘‘अरे, आप यहां?’’ लड़की ने मुसकरा कर पूछा. आज उस के चेहरे पर उस दिन वाले डर और असुरक्षा के भाव नहीं थे.

‘‘हां, मैं इसी अपार्टमैंट के छठवें माले पर रहता हूं. मेरा नाम मोहित है… मोहित साहनी. मैं बी.कौम. फाइनल ईयर का स्टूडैंट हूं आप के ही कालेज में. पर आप यहां कैसे?’’

‘‘मैं भी इसी अपार्टमैंट के दूसरे माले पर रहती हूं… निरुपमा दास… बी.एससी. प्रथम वर्ष में इसी साल प्रवेश लिया है. दरअसल, हमें यहां आए अभी 2 ही हफ्ते हुए हैं.’’

‘‘ओह… मतलब इस शहर में आप लोग नए हैं. उस दिन ठीक से पहुंच गई थीं आप?’’ मोहित ने पूछा तो निरुपमा ने मुसकरा कर हामी भर दी.

‘‘दरअसल, उस दिन आप अपरिचित थे… फिर नए शहर में अनजान व्यक्ति पर इतनी जल्दी भरोसा नहीं किया जा सकता न…’’ निरुपमा ने सफाई देते हुए कहा.

‘‘हां ये तो है… वैसे अब तो हम अपरिचित नहीं हैं… आप यदि कालेज जा रही हैं, तो मेरे साथ चल सकती हैं.’’

‘‘आज तो नहीं, बस स्टौप पर मेरी सहेली मेरा इंतजार कर रही होगी,’’ निरुपमा ने घड़ी देखते हुए मुसकरा कर कहा और निकल गई.

अपार्टमैंट में होने वाले कार्यक्रमों के दौरान मोहित और निरुपमा का परिवार निकट आ गया. दोनों का एकदूसरे के घर आनाजाना भी शुरू हो गया. मोहित और निरुपमा की मित्रता धीरेधीरे तब और अधिक परवान चढ़ी, जब दोनों के पिताओं में दोस्ती प्रगाढ़ हो गई. दरअसल, दोनों के पिताओं के बीच एक कौमन फैक्टर था शतरंज, जो दोनों को निकट ले आया था. अकसर किसी न किसी एक के घर शतरंज की बाजी लग जाती थी और एकसाथ मिलबैठ कर खातेपीते और मौजमस्ती करते.

दास दंपती की 2 बेटियां थीं, निरुपमा और उस से 5 वर्ष छोटी अनुपमा. मोहित अपने मांबाप का इकलौता बेटा था. दोनों परिवार के बीच संबंध गहराते जा रहे थे. पारिवारिक निकटता, उम्र का प्रभाव, अधिक सान्निध्य जैसी परिस्थितियां अनुकूल थीं. नतीजतन मोहित और निरुपमा के बीच प्रेमांकुर तो फूटने ही थे. दोनों परिवारों के बीच के ये संबंध तब अचानक टूट गए, जब मोहित के पिता ने उस का रिश्ता कहीं और तय कर दिया.

निरुपमा ने सुना तो वह चुप हो गई, पर उसे विश्वास था मोहित पर कि वह इस रिश्ते से इनकार कर देगा. मोहित ने भरसक प्रयास किया पर पिताजी अड़े रहे.

‘‘मैं मेहराजी से वादा कर चुका हूं. इसी भरोसे पर वे अपना अगला कौंट्रैक्ट अपनी कंपनी को सौंप चुके हैं. अब बिना वजह मना नहीं किया जा सकता. मेहराजी की बेटी दीप्ति पढ़ीलिखी, सुंदर और समझदार लड़की है. फिर मना करने के लिए कोई जायज वजह भी तो हो.’’

निरुपमा वजह तो थी पर मोहित के पिता के लिए विशेष वजह नहीं बन सकी.

‘‘प्यारव्यार इस उम्र में उठने वाला ज्वारभाटा है. यह जीवन का आधार नहीं बन सकता. प्यार तुम्हारा पेट नहीं भरेगा मोहित. थोड़ा व्यावहारिक बन कर सोचना और जीना सीखो. तुम्हें मेरे साथ काम शुरू किए अभी केवल 6 माह हुए हैं. बिजनैस के गुर अभी तुम ने सीखे ही कितने हैं? मेहरा से मिला कौंट्रैक्ट कोई ऐसावैसा नहीं है, बल्कि लाखों का प्रोजैक्ट है. तुम खुद सोचो इस बारे में. निरुपमा से शादी करोगे तो तुम्हें मेरे बिजनैस में से एक कौड़ी भी नहीं मिलेगी. तुम्हें मुझ से अलग हो कर कमानाखाना और जीना होगा. अगर दम है तो अपना रास्ता नाप सकते हो और यदि समझदार हो तो मेरे खयाल से अपने पैर पर खुद कुल्हाड़ी मारने का काम नहीं करोगे.’’

न जाने मोहित पर पिताजी की उन बातों का क्या प्रभाव रहा कि उस ने उसी दिन से निरुपमा से कन्नी काट ली.

निरुपमा के लिए यह सदमा बरदाश्त से बाहर था. रोरो कर बेहाल हो गई वह. बेटी की खुशियों की खातिर दास दंपती अपने स्वाभिमान को ताक पर रख कर मोहित के घर अपनी झोली फैलाए पर सिवा दुख और जिल्लत के उन्हें कुछ हासिल नहीं हुआ.

निरुपमा ने स्वयं को कमरे में बंद कर लिया. बाहर आनाजाना, मिलनाजुलना, हंसनाबोलना सब बंद. कुछ दिनों में दुख से उबर जाएगी, यही सोचा था दास दंपती ने. पर दुख और सदमे से निरुपमा अपना मानसिक संतुलन खो बैठी फिर शुरू हुआ मानसिक चिकित्सालयों के चक्कर काटने का सिलसिला. पूरे 2 साल बाद निरुपमा की दिमागी हालत में सुधार हो पाया था. धीरेधीरे सामान्य स्थिति की ओर लौट रही थी वह. उस के होंठों पर लगी चुप्पी धीरेधीरे खुलने लगी और उस ने पुन: स्वयं को कालेज की गतिविधियों में व्यस्त कर लिया.

दास दंपती ने चैन की सांस ली. बेटी दुख से उबर गई, यही उन के लिए बहुत था. अब जल्द से जल्द वे निरुपमा का विवाह कर देना चाहते थे. पर इस संबंध में चर्चा छिड़ते ही फिर से घर में कर्फ्यू जैसा लग गया. निरुपमा ने एलान कर दिया कि वह विवाह नहीं करेगी, सारी उम्र कुंआरी रहेगी. आत्मनिर्भर बनेगी, कमाएगी और मांबाप का सहारा बनेगी.

मां ने सुना तो वे बौखला गईं, ‘‘पागल मत बनो नीरू, ऐसा भी कहीं होता है. शादी तो करनी होगी बेटी. फिर जब तक तुम्हारी शादी नहीं होती, तब तक हम अनु की शादी के बारे में भी नहीं सोच सकेंगे. आखिर उस की भी तो शादी करनी है हमें.’’

‘‘तो मैं कहां रोक रही हूं? बेहतर होगा कि आप लोग मेरे भविष्य के बारे में सोचना छोड़ दें. अनु की शादी कर दें…’’ निरुपमा क्रोध और तनाव से तमतमा उठी.

‘‘पर नीरू ऐसे कब तक चलेगा… हमारे बाद कोई सहारा तो होना चाहिए न…’’

‘‘नहीं मां, मुझे नहीं चाहिए किसी का सहारा. मैं अकेली ही काफी हूं खुद के लिए…’’

निरुपमा जिद पर अड़ी रही. पूरे 6 वर्षों तक मांबाप उसे मनाने का भरसक प्रयास

करते रहे पर उस ने अपनी जिद नहीं छोड़ी. अंतत: अनु की शादी निरुपमा से पहले ही कर देनी पड़ी.

Father’s day 2023: वह कौन थी- भाग 2

अमरनाथ को अमेरिका में अपने लड़के के घर में रहते हुए 1 वर्ष होने को आया था और इस 1 वर्ष में उन्होंने क्या कुछ काम नहीं किया. वह व्यक्ति जिस ने कभी भारत में रहते हुए एक गिलास पानी खुद ले कर नहीं पिया अब वह अपनों के आदेश पर खाना बनाने और उन्हें पानी पिलाने पर विवश था. जिस ने अपने घर में रहते हुए कभी अपना एक रूमाल तक नहीं धोया था वह अमेरिका आ कर बेटे के घर में नौकरों की तरह सारे घर के कपड़े धोया करता. इस के अलावा मीतेश के दोनों बच्चों की देखभाल, उन का कमरा ठीक करना, उन्हें खानापानी देना, उन के स्कूल जाने के समय उन्हें स्कूल बस तक छोड़ने जाना और स्कूल से वापस आने के समय उन्हें घर लाने के लिए अपना अतिरिक्त समय देना, अब अमर के लिए हरेक दिन की साधारण सी बात हो चुकी थी.

इस बीच जरूरत से अधिक काम करने तथा बढ़ती हुई उम्र के हिसाब से शरीर पर अधिक भार पड़ने से अमरनाथ एक दिन बीमार हो गए. साधारण दवाओं से ठीक नहीं हुए तो मजबूर हो कर उन्हें डाक्टर को दिखाना पड़ा. डाक्टर की सलाह पर उन्हें अस्पताल मेें कुछ दिनों तक रखना पड़ा. इस से एक अतिरिक्त आर्थिक भार और अपना अतिरिक्त समय भी देने की परेशानी मीतेश व उस की पत्नी के ऊपर आ गई.

अमरनाथ का कोई अलग से चिकित्सा बीमा तो था नहीं, इसलिए उन की आर्थिक सहायता के लिए जब मीतेश ने अमेरिकी सरकार के सोशल सिक्यूरिटी कार्यालय में अर्जी दायर की तो वहां से भी यह कह कर मना कर दिया गया कि यह सुविधा अब केवल उन प्रवासियों को ही उपलब्ध है जिन्होंने अमेरिका में अपने सोशल सिक्यूरिटी नंबर के साथ बाकायदा लगभग 3 वर्ष तक कार्य किया होगा.

यह पता चलने के बाद मीतेश और उस की पत्नी दोनों के ही सोचे हुए मनसूबों पर पानी फिर गया क्योंकि उन्होंने सोचा था कि अमरनाथ को अपने पास बुला कर रखने पर 2 प्रकार की सुविधाएं उन्हें स्वत: ही मिल जाएंगी. एक तो उन के दोनों बच्चों को देखने के लिए निशुल्क बेबी सिटर का प्रबंध हो जाएगा, जिस से लगभग 400 डालर उन के प्रतिसप्ताह बचा करेंगे और साथ ही अमरनाथ को सरकार के द्वारा मिलने वाली प्रतिमाह कम से कम 500 डालर की सोशल सिक्यूरिटी की आर्थिक सहायता भी मिलती रहेगी. इस बात का पिता को तो कुछ पता नहीं चल पाएगा, सो एक पंथ दो काज वाली कहावत भी ठीक काम करती रहेगी.

अमरनाथ के लिए मीतेश जब सोशल सिक्यूरिटी का लाभ न ले सका और साथ ही उन के बीमार हो जाने पर उन की चिकित्सा का एक अतिरिक्त खर्च भी उस पर आ पड़ा तो उस के व उस की पत्नी के बदले स्वभाव को अमरनाथ की बूढ़ी अनुभवी आंखों ने पहचानने में देर नहीं लगाई. वह समझ गए कि अब उन का अपने बेटे और बहू के घर में रहना उन दोनों के लिए बोझ बन चुका है.

इस के साथ ही अमरनाथ को यह समझते देर नहीं लगी कि मीतेश का अचानक  से भारत आना और उन को अपने साथ अमेरिका ले जाना मात्र उस का उन के प्रति प्रेम और अपनत्व का एक झूठा लगाव ही था. सच तो यह था कि मीतेश और उस की पत्नी को केवल अपने दोनों बच्चों की देखभाल के लिए उन की जरूरत थी और अब उन के बच्चे बड़े हो गए हैं तो बूढ़ा लाचार बाप, बेटे व बहू के लिए बोझ हो चुका है.

एक दिन अमरनाथ ने मीतेश से कहा, ‘मेरा यहां रहने से कोई मतलब तो निकलता नहीं है, बेहतर होगा कि मुझे भारत भेजने का प्रबंध कर दो.’

यह सुनते ही मीतेश का पारा सातवें आसमान पर चढ़ गया. वह चिल्ला कर बोला था, ‘क्या समझ रखा है आप ने हमें. कुबेर का खजाना तो नहीं मिल गया है कि जिसे जब चाहे जितना खर्च कर लो. पूरे 1,500 डालर से कम का हवाई जहाज का टिकट तो आएगा नहीं. कहां से आएगा इतना पैसा? हम अपने को बेच तो नहीं देंगे. यहां घर में आराम के साथ चुपचाप पड़ेपड़े रोटियां तोड़ने में भी कोई तकलीफ होने लगी है क्या?’

‘तो फिर मुझे नीतेश या रीतेश के पास ही भेज दो. कम से कम आबोहवा तो बदलेगी,’ अमरनाथ ने साहस कर के आगे कहा तो मीतेश पहले से भी अधिक झुंझलाता हुआ उन से बोला था, ‘मैं ने उन दोनों को फोन किया था. उन दोनों में से कोई भी आप को रखने के लिए तैयार नहीं है. उन का कहना है कि मैं ही आप को ले कर आया हूं, सो इस मुसीबत को केवल मैं ही जानूं और भुगतूं.’

मीतेश के  मुंह से यह अनहोनी बात सुन कर अमरनाथ ने अपना माथा एक बार फिर से पीट लिया. वह समझ गए कि किसी से कुछ भी कहना और सुनना बेकार ही साबित होगा. वह उस घड़ी को कोसने लगे जब बेटे की बातों में आ कर उन्होंने अपना देश और अपनों का साथ छोड़ा था. एक आह भर कर उन्होंने अपने को पूरी तरह हालात के हवाले छोड़ दिया.

एक दिन बहू अमरनाथ को बड़े ही भोलेपन से अपने साथ स्टोर घुमाने यह कह कर ले गई कि उन का भी मन बहल जाएगा. वैसे भी घर में सदा बैठे रहने से इनसान का मन खराब होने लगता है. स्टोर में खरीदारी करते समय बहू उन से यह कह कर बाहर आ गई कि वह अपना मोबाइल फोन घर पर भूल आई है और उस को मीतेश को फोन कर के यह बताना है कि वह बच्चों को स्कूल से ले आएं.

इतना कह कर मीतेश की पत्नी स्टोर से बाहर निकल कर जो गई तो फिर वह कभी भी उन के पास वापस नहीं आई. बेचारे अमरनाथ अकेले स्टोर का एकएक कोना घूमघूम कर थक गए. फिर जब उन से कुछ भी नहीं बन सका तो थकहार कर स्टोर के बाहरी दरवाजे के पास पड़ी एक बैंच पर बैठ कर अपनी बहू के वापस आने की प्रतीक्षा करने लगे.

इस प्रकार प्रतीक्षा करतेकरते, भूखे- प्यासे उन को शाम हो गई. अंगरेजी आती नहीं थी कि वह अपना दुख किसी को बताते और जो 1-2 भारतीय वहां दिख जाते तो वे केवल उन की ओर मुसकरा कर देखते और आगे बढ़ जाते. उन की जेब में मात्र 2 डालर पडे़ थे, सोचा कि फोन कर लें मगर उन्हें फोन नंबर भी याद नहीं था. कभी भूले से भी उन्होंने नहीं सोचा था कि एक दिन उन की यह नौबत आ जाएगी.

बैठेबैठे परेशान से जब रात घिर आई और स्टोर भी बंद होने को आया तो अमरनाथ की समझ में आया कि वह यहां संयोग से अकेले नहीं छूटे हैं बल्कि उन्हें जानबूझ कर छोड़ा गया है. सो इस प्रकार की मनोवृत्ति को अपनी ही संतान के रक्त में महसूस कर अमरनाथ फफकफफक कर रो पडे़. उन की दशा और उन को रोते हुए कुछेक लोगों ने देखा मगर किसी ने भी उन से रोने का कारण नहीं पूछा.

ऐसे समय में स्टैसी नामक महिला स्टोर से बाहर निकली और अमरनाथ को यों रोते, आंसू बहाते देख उन के पास आ गई. बड़ी देर तक वह एक अनजान, भारतीय बूढ़े की परेशानी जानने का प्रयत्न करती रही. जब उस से नहीं रहा गया तो वह अमरनाथ को संबोधित करते हुए बोली, ‘ऐ मैन, व्हाई आर यू क्राइंग?’

स्टैसी के यों हमदर्दी दिखाने पर अमरनाथ पहले से और भी अधिक जोरों के साथ रोने लगे. स्टैसी समझ गई कि इस आदमी को अंगरेजी नहीं आती है अत: वह तुरंत वापस स्टोर में गई और वहां से एक लड़की, जो भारतीय दिखती थी और उसी स्टोर में क्लर्क का काम कर रही थी, को अपने साथ बुला कर बाहर लाई. बाद में उस लड़की के द्वारा बातचीत से स्टैसी को अमरनाथ के सामने आई हुई समस्त परिस्थिति की जानकारी हो सकी. चूंकि अमरनाथ को अपने लड़के और बहू के घर का न तो कोई पता मालूम था औैर न ही कोई फोन नंबर याद था, इस कारण स्टैसी ने नियमानुसार पहले तो स्थानीय पुलिस को फोन किया, फिर बाद में आवश्यक पुलिस काररवाई के बाद वह अमरनाथ को अपनी निगरानी में अपने घर ले आई. घर आ कर सब से पहले उस ने दिन भर के भूखेप्यासे अमरनाथ को खाना खिलाया. इस के बाद उस ने उन से उन की टूटीफूटी अंगरेजी में अतिरिक्त जानकरी भी प्राप्त कर ली.

अब अमरनाथ अमेरिकी स्त्री स्टैसी के साथ रहने लगे. स्टैसी की भी कहानी कुछकुछ उन्हीं के समान थी. उस के भी बच्चे और पति सब थे मगर जैसे उन में से किसी को भी किसी से कुछ भी सरोकार नहीं था. स्टैसी का पति किसी दूसरी स्त्री के साथ रहता था और बच्चे भी अमेरिकी जीवन के तौरतरीकों के अनुसार रहते थे, जो अपनी मां से भूलेभटके किसी त्योहार आदि पर मिल गए तो ‘हैलो’ हो गई.

Father’s day 2023: वह कौन थी- भाग 1

अमरनाथ ने अपने हाथ में पकड़े पत्र को एक बार फिर से पढ़ लेना चाहा. उन की बूढ़ी आंखों से आंसुओं की 2 बूंदें अपनेआप टपक कर पत्र पर फैल गईं.

पत्र में भेजे संदेश ने अमरनाथ को उन के भोगे हुए दिनों में बहुत पीछे तक ऐसा धकेल कर रख दिया था कि उन्हें लगा जैसे पत्र में लिखे हुए सारे के सारे अक्षर उन के जिस्म के चप्पेचप्पे से चिपक गए हों. अमरनाथ के लिए सब से अधिक तकलीफदेह जो बात थी वह यह कि पत्र लिखने वाली ने अपने जीवन में पत्र लिखा तो था, लेकिन उस को डाक में डालने का आदेश नर्सिंग होम की निदेशिका को अपने मरने के बाद ही दिया था. जब तक यह पत्र अमरनाथ को मिला इसे लिखने वाली इस संसार को अंतिम नमस्कार कर के जा चुकी थी.

खुद को किसी प्रकार संभालते हुए अमरनाथ ने एक बार फिर से पत्र को पढ़ा. पत्र के शुरू में उन का नाम लिखा था, ‘एमर.’

स्टैसी अमरनाथ को ‘अमर’ के स्थान पर ‘एमर’ नाम से ही संबोधित किया करती थी.

मैं जानती हूं कि मेरा यह अंतिम पत्र न केवल तुम्हारे लिए मेरा अंतिम नमस्कार होगा बल्कि शायद तुम को बहुत ज्यादा तकलीफ भी दे. जब चलते- चलते थक गई और दूर कब्रिस्तान की तनहाइयों में सोए लोगों की तरफ से मुझ को बुलाने की आवाजें सुनाई देने लगीं तो सोचा कि चलने से पहले तुम से भी एक बार मिल लूं. आमनेसामने न सही, पत्र के द्वारा ही.

तुम्हारे भारत लौट जाने के बाद मैं कितनी अधिक अकेली हो चुकी थी, यह शायद तुम नहीं समझ सकोगे. तुम क्या गए कि जैसे मेरा घर, मेरा बगीचा और घर की समस्त वस्तुएं तक वीरान हो गईं. ऐसा भी नहीं था कि मैं जैसे तुम्हारे वियोग में वैरागन हो गई थी अथवा तुम को प्यार करती थी. हां, तुम्हारी कमी अवश्य मुझ को परेशान कर देती थी. वह भी शायद इसलिए कि मैं ने तुम्हारे साथ अपने जीवन के पूरे 8 वर्ष एक ही छत के नीचे गुजारे थे.

जीवन के इतने ढेर सारे दिन हम दोनों ने किस रिश्ते से एकसाथ जिए थे? मैं आज तक इस रिश्ते को कोई भी नाम नहीं दे सकी हूं. अकसर सोचा करती थी कि हमारा आपस में कोई भी शारीरिक संबंध नहीं था. एक ही देश में जन्म लेने का भी कोई नाता नहीं था. मन और भावनाओं से भी प्रेमीयुगल की अनुभूति जैसा भी कोई रिश्ता हम नहीं बना सके थे. मैं कहां और तुम कहां, लेकिन फिर भी हम एकदूसरे के काम आए. आपस में साथसाथ बैठ कर हम ने अपनाअपना दुख बांटा, एक- दूसरे को जाना, समझा और परस्पर सहायता की. शायद इतना सबकुछ ही काफी होगा अपने परस्पर बनाए हुए उन बेनाम संबंधों के लिए, जिस के स्नेहबंधन की डोर का एक सिरा तुम थामे रहे और एक मैं पकड़े रही.

दुनिया का रिवाज है कि किसी एक को एक दिन डोर का एक सिरा छोड़ना ही पड़ता है. तुम अपनत्व की इस डोर का एक छोर पकड़े अपने वतन चले गए और मैं अपना सिरा थामे यहां बैठी रही. पर अब मैं इस स्नेह बंधन की डोर का एक छोर छोड़ कर जा रही हूं, इस विश्वास के साथ कि इनसान के स्नेहबंधन का सच्चा नाता तो उस डोर से जुड़ता है जो विश्वास, अपनत्व और निस्वार्थ इनसानियत के धागों से बुनी गई होती है.

कितनी अजीब बात है कि हम दोनों का जीवन एक सा लगता है. आपबीती भी एक जैसी है. हम दोनों के अपनेअपने खून के वे रिश्ते जो अपने कहलाते थे, वे भी अपने न बन सके और जिसे हम दोनों जानते भी न थे, जिस के बारे में कभी सोचा भी नहीं, उसी के साथ अपनी खोई और बिखरी हुई खुशियां बटोर कर हम ने अपना जीवन सहज कर लिया था.

पत्र पढ़तेपढ़ते अमरनाथ की आंखें फिर से भर आईं. जीवन से थके शरीर की बूढ़ी और उदास आंखों को अमरनाथ ने अपने हाथ से साफ किया और फिर सोचने लगे अपने जीवन के उस पिछले सफर के बारे में, जिस में वह कभी हालात के मारे हुए एक दिन स्टैसी के साथसाथ कुछ कदम चले थे.

अमरनाथ उस दिन कितने खुश थे जब उन का सब से बड़ा लड़का नीतेश अमेरिका जाने के लिए हवाई जहाज में बैठा था. नीतेश ने इंजीनियरिंग की थी सो उस को केवल थोड़ी सी अतिरिक्त पढ़ाई अमेरिका में और करनी पड़ी थी. और एक दिन अमेरिका की मशहूर कोक कंपनी में इंजीनियर का पद पा कर वहां हमेशा रहने के लिए अपना स्थान पक्का कर लिया. 2 साल के बाद नीतेश भारत से शादी कर के अपनी पत्नी नीता को भी साथ ले गया.

नीतेश के अमेरिका में व्यवस्थित होतेहोते उस के दोनों छोटे भाई रितेश और मीतेश भी वहां आ गए. उन्होंने भी भारत में आ कर शादी की और फिर अमेरिका में अपनी- अपनी घरगृहस्थी में व्यस्त हो गए.

अब अमरनाथ के पास केवल उन की एक लड़की रिनी बची थी. एक दिन उस का भी विवाह हुआ और वह भी अपने पति के घर चली गई. इस तरह घर में बच गए अमरनाथ और उन की पत्नी. वह किसी प्रकार जीवन की इस नाव की पतवार को संभाले हुए थे.

आराम और सहारे की तलाश करता अमरनाथ का बूढ़ा शरीर जब और भी अधिक थकने लगा तो उन्हें एक दिन एहसास हुआ कि लड़कों को विदेश भेज कर कहीं उन्होंने कोई भूल तो नहीं कर दी है.

एक दिन उन की पत्नी रात को सोने गईं और फिर कभी नहीं जाग सकीं. सोते हुए ही दिल का दौरा पड़ने से वह सदा के लिए चल बसी थीं. पत्नी के चले जाने के बाद अब अमरनाथ नितांत अकेले ही नहीं बल्कि पूरी तरह से असहाय भी हो चुके थे.

अपने अकेलेपन से तंग आ कर एक दिन अमरनाथ ने बच्चों को वापस भारत आने का आग्रह किया. तब आग्रह पर उन के लड़कों ने उन्हें जो जवाब दिया उस में विदेशी रहनसहन और पाश्चात्य रीति- रिवाजों की बू थी. जिस देश और समाज के वे अब बाशिंदे बन चुके थे उस में विवेक कम और झूठी प्रशंसा के तर्क अधिक थे. बच्चों की दलीलों को सुन कर अमरनाथ ने अपने किसी भी लड़के से दोबारा वापस भारत आने के लिए न तो कोई आग्रह किया और न ही कोई जिद.

अपने बच्चों की दलीलें और बातें सुन कर अमरनाथ ने चुप्पी साध लेना ही उचित समझा था. वह चुप हो गए थे और अपने तीनों लड़कों से बात तक करनी बंद कर दी. ऐसे में लड़कों का कोई पत्र आता तो वह उत्तर ही नहीं देते. फोन आता तो या तो उठाते ही नहीं और यदि कभी भूलेभटके उठा भी लिया तो ‘व्यस्त हूं, बाद में फोन करूंगा’ कह कर वह बात ही नहीं करते थे. अंत में उन के लड़कों को जब एहसास हो गया कि पिताजी उन के रवैए से नाराज हैं तो उन की कभीकभार आने वाली टेलीफोन की घंटियां भी सुनाई देनी बंद हो गईं.

यह सिलसिला बंद हुआ तो अमरनाथ की जिंदगी के कटु अनुभवों के गुबारों में स्वार्थी संतान की यादों और स्मृतियों की कसक अपनेआप ही धूमिल पड़ने लगी. उन्होंने हालात से समझौता कर के स्वयं को अपने ही हाल पर छोड़ दिया.

एक दिन अचानक ही उन का सब से छोटा लड़का मीतेश बगैर अपने आने की सूचना दिए घर आया तो वर्षों बाद संतान का मुख देखते ही अमरनाथ का सारा गुस्सा पलक झपकते ही हवा हो गया. उन्होंने सारे गिलेशिकवे भूल कर मीतेश को अपने सीने से लगा लिया. फिर जब मीतेश ने अपना भारत आने का सबब बताते हुए यह कहा कि वह उन को अमेरिका ले जाने के लिए भारत आया है, उन्हें बाकी जीवन के दिन अपने बच्चों के साथ व्यतीत करने चाहिए तो अमरनाथ ने अपने स्वाभिमान और जिद के सारे हथियार डाल दिए. और एक दिन मीतेश की सलाह पर उन्होंने अपनी कपड़े की दुकान और पुश्तैनी मकान बेच दिया. इस से जो पैसा मिला उसे बैंक में जमा कर दिया. इस तरह अमरनाथ एक दिन विदेश की उस भूमि पर सदा के लिए बसने आ गए जिस का बखान उन्होंने अब तक किताबों और टेलीविजन में देखा और पढ़ा था.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें