हमें तो चापलूसी पसंद है

राष्ट्रपति चुनावों की बहस में अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड  ट्रंप ने खुल्लमखुल्ला भारत के फिल्दी और पौल्यूटेड एअर वाला कह कर देश की पोल खोल दी है.

ऐसा नहीं कि हम नहीं जानते कि देश गंदा नहीं, बेहद गंदा है और अगर कहा जाए कि मकानों के अंदर का हिस्सा छोड़ दें तो पूरा देश गंदगी के ढेर पर ही बैठा है तो गलत न होगा.

हमारे यहां हर घरवाली को बाकायदा ट्रेनिंग दी जाती है कि अपने घर का कूड़ा या तो पड़ोसी के दरवाजे पर डालो और अगर पड़ोसी चूंचूं करने वाला हो तो सड़क पर, बाग में, किसी खाली प्लाट पर डाल दो. 500 या 1000 गज के मकानों के पीछे बने सर्वैंट क्वार्टर वालों से कहा जाता है कि अपना कूड़ा पीछे खिड़की से डाल दो. नईनवेली मांओं को कहा जाता है कि डायपर को कूड़ेदान में नहीं किसी बाग में डालो क्योंकि उठाने वाला चूंचूं करता है.

सड़क पर चलते हुए हर भारतीय नागरिक का कर्तव्य है कि वह कहीं भी पेशाब कर ले. थूकने का हक तो इतना अधिक है कि पांचसितारा होटलों के जीनों के कोनों को भी नहीं छोड़ा जाता. पान खाने वाला देश गर्व से कहीं भी थूक सकता है, जहां बैठा काम कर रहा है वहीं से 2-3 फुट दूर पिचकारी मार कर भी जमीन लाल कर सकता है.

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इस देश में भारत अमर रहे, जय हिंद, महान राष्ट्र के नारे सड़कों पर नहीं लिखे जाते, यहां लिखा जाता है कि यहां पेशाब करना मना है, यहां गधे पेशाब करने वाले हैं और वहीं पेशाब की बदबू भरी होती है.

किसी भी दफ्तर, सिनेमाहौल, मीटिंगहौल, अस्पताल, सरकारी कार्यालयों में यदि टौयलेट ढूंढ़ना हो तो सांस लेने की जरूरत नहीं, बस सांस खींचें पता चल जाएगा कि बदबू कहां से आ रही है. जहां पहुंचेंगे वहां यूरिन की जगह बाहर पेशाब ही नहीं पाखाना पड़ा मिलेगा.

सारा देश यहां एक विशाल शौचालय है, देखना है तो रेलयात्रा कर लें. बस्ती आई नहीं कि पटरी के किनारे आराम से तसल्ली से सारा दिन शौच करते आदमीऔरतें व बच्चे आप को रेल की खिड़कियों से दिख जाएंगे. एअरपोर्टों के पास तिरपालों की बस्तियां दिख जाएंगी. शहरों में कूड़े के पहाड़ बन रहे हैं.

डोनाल्ड ट्रंप को जब 24-25 मार्च को अहमदाबाद बुलाया था तो एअरपोर्ट से रास्ते भर 7 फुट की दीवार बनाई गई थी ताकि गंद न दिखे पर होटल व्यवसायी ट्रंप सम झता था कि नई बनी दीवार के पीछे क्या है?

खरीखरी कहने वाला खप्ति कैंडीडेट भूल गया कि वह उस महान भारत की बात कर रहा है, जिस के प्रधानमंत्री ने कोविड-19 की चिंता किए बिना उसे ‘फिर एक बार ट्रंप सरकार’ के नारे के लिए बुलाया था. जगदगुरु के मुखिया के देश को फिल्दी कह कर ट्रंप ने वैसे तो अपना ज्ञान वघारा है पर हमारी आदत है कि हम सच न कह सकते हैं, न देख सकते हैं, न सुन सकते हैं.

हमारी तारीफ करो, हमें महान बताओ, हमारी कमियों की बात न करो वरना हम नाराज हो जाएंगे तो… तो हम तुम्हें भारत का दुश्मन कह देंगे. न… न हम अपनेआप को नहीं सुधारेंगे, कभी नहीं यह संकल्प हमारे हर देशवासी, हर गृहिणी, हर बच्चेबड़े का है.

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आज भी अंधविश्वास में फंसे हैं लोग

लेखक- धीरज कुमार

यात्री से भरी बस झारखंड से बिहार की तरफ आ रही थी. अचानक सुनसान सड़क के दूसरी तरफ से सियार पार कर गया. ड्राइवर ने तेज ब्रेक लगाया. झटका खाए यात्रियों ने पूछा,”भाई बस क्यों रोक दी गई?”
बस के खलासी ने जवाब दिया,”सड़क के दूसरी तरफ सियार पार कर गया है इसलिए बस कुछ देर के लिए रोक दी गई है.”
सभी यात्रीगण भुनभुनाने लगे. कुछ लोग ड्राइवर की होशियारी की चर्चा करने लगे. उस अंधेरी रात में दूसरी गाड़ी सड़क पर पार नहीं कर गई, तब तक वह बस खड़ी रही. लेकिन किसी ने यह नहीं कहा कि यह अंधविश्वास है. इससे कुछ होता जाता नहीं है .सड़क है तो दूसरी तरफ से कोई भी जीव जंतु इधर से उधर पार कर सकता है. यह सामान्य बात है. इसमें बस रोकने जैसी कोई बात नहीं है. जबकि कई लोग मन ही मन अनहोनी होने से डरने लगे थे. रास्ते के इस पार से उस पार कुत्ता, बिल्ली, सियार जैसे जानवर आ जा सकते हैं. इसे अंधविश्वास से जोड़ा जाना उचित नहीं है. इसके लिए मन में किसी अनहोनी होने का डर आदि पालना भी बिल्कुल गलत है.

बिहार के रोहतास जिला के डेहरी में बाल काटने वाले सैलून तो सातों दिन खुला रहते हैं. लेकिन सोनू हेयर कट सैलून के मालिक से पूछे जाने पर यह बताते हैं,” ग्राहकों की भीड़ पूरे सप्ताह में सिर्फ 4 दिन ही होते हैं. तीन दिन तो हम लोग खाली खाली बैठे रहते हैं. यहां के अधिकतर हिन्दू लोग मंगलवार, गुरुवार और शनिवार को बाल नहीं कटवाते हैं. इन तीन दिनों में इक्का-दुक्का लोग बाल कटवाने आते हैं. जिनका ताल्लुक दूसरे धर्म से रहता है.”

भले ही हम लोग 21वीं सदी के विज्ञान युग में जी रहे हैं. लेकिन आज भी हमारी सोच 18 वीं सदी वाली ही है. यहीं के रहने वाले विनोद कुमार पेशे से कोयला व्यापारी हैं. उनका एक बेटा है. इसलिए सोमवार को बाल दाढ़ी नहीं कटवाते हैं. पूछे जाने पर हंसते हुए कहते हैं,” ऐसी मान्यता है कि जिनके एक पुत्र होते हैं. उनके पिता सोमवार को दाढ़ी बाल नहीं कटवाते हैं.इसके पीछे कोई खास वजह नहीं है. गांव घर में पहले के ढोंगी ब्राह्मणों ने यह फैला दिया है तो आज भी अंधविश्वास जारी है. दरअसल लोगों के मन में सदियों से इस प्रकार की फालतू बातें बैठा दी गई है इसीलिए आज भी चलन में है. पहले के लोग सीधे-सादे लोग होते थे.इस तरह के पाखंडी ब्राह्मणों ने जो चाहा, वह सुविधा अनुसार अपने फायदे के लिए समाज में फैला दिया.”

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आज भी गांव में भूत, प्रेत, ओझा, डायन के बारे में लोग खूब बातें करते है. आज भी लोगों को विश्वास है कि गांव में डायन जादू टोना करती है. औरंगाबाद के गांव के रहने वाले रणजीत का कहना है कि उनकी पत्नी 2 सालों से बीमार रह रही है.उनकीपत्नी की बीमारी की वजह कुछ और नहीं, बल्कि डायन के जादू टोने के कारण है. इसीलिए वे किसी डॉक्टर के दिखाने के बजाय कई सालों से ओझा के पास दिखा रहे हैं. कई सालों से वे मजार पर जाते हैं और चादर चढ़ाते रहें हैं.

रोहतास जिले के एक गांव में एक लड़की को जहरीले सांप ने काट लिया था. उसके परिजन बहुत देर तक झाड़ फूंक करवाते रहें. झाड़-फूंक के बाद मामला जब बिगड़ गया तो उसे अस्पताल ले जाया गया, जहां उसे बचाया नहीं जा सका. जबकि अखबार में भी इसके बारे में प्रचार प्रसार किया जाता रहा है कि किसी व्यक्ति को सांप काटने पर झाड़-फूंक नहीं बल्कि अस्पताल ले जाएं.अगर समय रहते उस लड़की को अस्पताल ले जाया गया होता तो बचाया जा सकता था. किंतु आज भी लोग अंधविश्वास के कारण झाड़-फूंक में ज्यादा विश्वास करते हैं अभी भी लोग इलाज कराने के बजाय सांप काटने पर झाड़ फूंक करवाना ही उचित समझते हैं.

आज भी लोग झाड़-फूंक, मंत्र, टोना, जादू पर विश्वास करने के कारण अपनी जान गवा रहे हैं वे यह नहीं समझ पा रहे हैं कि झाड़-फूंक करवाने से कुछ नहीं होता है. इससे कोई फायदा होने वाला नहीं है. अगर समय रहते सांप काटने वाले व्यक्ति की इलाज कराया जाए तो उसकी जान बचाई जा सकती थी.

बिहार के कई शहरों में अधिकतर दुकानदार शनिवार को अपने दुकान के आगे नींबू मिर्च लटकाते हैं. प्रत्येक शनिवार की सुबह कुछ लोग नींबू मिर्च को एक साथ धागे में पिरोकर दुकान दुकान बेचते वाले भी मिल जाते हैं. लगभग सभी दुकानदार खरीदते हैं.पुरानी लटकी हुई नींबू और मिर्च को सड़क पर फेंक देते हैं. लोगों ‌के पांव उस पर न पड़ जाए, इसलिए लोग बचकर चलते हैं. कई बार तो दोपहिया वाहन वाले भी अपने गाड़ी के पहिए के नीचे आने से बचाते हैं. कभी-कभी दुर्घटना होने से बाल-बाल बचते हैं. कुछ लोगों का मानना है कि पांव के नीचे या वाहन के नीचे अगर फेका हुआ नींबू और मिर्च आ जाए तो जीवन में परेशानी बढ़ सकती है. कुछ दुकानदारों का मानना है कि नींबू मिर्च लटकाने से बुरी नजर से बचाव होता है. दुकान में बिक्री खूब होती है. इस प्रकार देखा जाए तो फालतू में नींबू और मिर्च आज भी बर्बाद किए जा रहे हैं जबकि इस तरह के नींबू मिर्च लटकाने का कोई फायदा नहीं है. आज भी बहुत से गरीब लोग हैं जो पैसे के अभाव में नींबू मिर्च खरीदने के लिए सोचते हैं. अतः इस प्रकार से नींबू और मिर्च की बर्बादी है. ऐसा कहने वाला कोई भी धर्मगुरु, पंडित, पुजारी, मौलवी नहीं होता है. दरअसल यह देखा देखी अंधविश्वास आज भी ज्यों का त्यों बना हुआ है. ऐसी बातें बहुत पहले से ही पाखंडी ब्राम्हणों, पंडे, पुजारियों ने आम लोगों ने फैला रखी है. इसीलिए ऐसा अंधविश्वास आज भी जारी है. विज्ञान के युग में भी ऐसी फालतू बातों को कोई रोकने टोकने वाला नहीं है.

औरंगाबाद के रहने वाली मंजू कुमारी एक शिक्षिका है. उनका कहना है,” वे एक बार पैदल परीक्षा देने जा रही थी. उन्होंने परीक्षा स्थल तक जाने के लिए शॉर्टकट रास्ता चुना था. अभी परीक्षा केंद्र काफी दूर था कि एक बिल्ली उनका रास्ता काट गई. काफी देर तक इंतजार की लेकिन उस रास्ते से कोई गुजरा नहीं.उन्हें ऐसा लगा कि उनकी परीक्षा छूट जाएगी. इसलिए जल्दी-जल्दी उस रास्ते से होकर परीक्षा केंद्र तक पहुंची. उनके मन में आशंका हो रही थी कि आज परीक्षा में कुछ न कुछ गड़बड़ होगी. लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. बल्कि उनका परीक्षा उस दिन बहुत अच्छा हुआ. बाद में उस विषय में अच्छे नंबर भी मिले थे.उस दिन से वे इस तरह के अंधविश्वासों से बहुत दूर रहती हैं. वे स्वीकार करती हैं कि अगर मैं अंधविश्वास में रहती तो मेरा परीक्षा छूटना निश्चित था.‌”

दरअसल बचपन से ही घर के लोगों के द्वारा यह सीख दी जाती है कि ब्रह्मणों, पोंगा पंडितों, साधुओं, पाखंडियों, धर्मगुरुओं के द्वारा दी गई सीख जो सदियों से चली आ रही है तुम्हें भी इसी रूप में मानना है. बचपन से लड़के लड़कियों को यह सब धर्म से जोड़कर बताया जाता है. उन्हें विज्ञान से ज्यादा अंधविश्वास के प्रति विश्वास को मजबूत कर दिया जाता है. यही कारण है कि पीढ़ी दर पीढ़ी आज भी अंधविश्वासों को लोग ढोते आ रहे हैं. विज्ञान यहां विकसित नहीं है. लेकिन अंधविश्वास खूब फल फूल रहा है. इसकी जड़े इतनी मजबूत है कि कोई काट ही नहीं सकता है. यहां के लोग पर्यावरण, पेड़ पौधे की रक्षा करने के बजाए अंधविश्वास की रक्षा करते हैं. लोग उसी को विकसित होने देते हैं तो स्वाभाविक है फल, फूल भी इसी के मिलेंगे.

जब देश में रफाल आता है और रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह नारियल फोड़कर पूजा करते हुए मीडिया के माध्यम से दिखाया जाता है तो देश में एक संदेश जाता है कि आम लोग ही नहीं अंधविश्वास में पड़े हुए हैं बल्कि यहां के खास लोग भी अंधविश्वास को बढ़ावा देना चाहते हैं. जबकि वही करोना काल में देशभर के मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे सभी बंद थे. लोगों को भगवान के अस्तित्व के बारे में समझ आने लगा था. लोगों को विश्वास हो गया है ,देवी देवताओं के दया से यह बीमारी ठीक होने वाला नहीं है, बल्कि वैज्ञानिकों के द्वारा जब दवा बनाया जाएगा तभी यह बीमारी जाएगी.

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लोगों में ईश्वर,भगवान ,अल्लाह के प्रति आस्था कम हुई है तो दूसरी ओर भारत के प्रधानमंत्री राम मंदिर में सीधे लोट जाते हैं और यह संदेश देने की कोशिश करते हैं सब कुछ भगवान ही हैं. मीडिया का एक वर्ग उस समय यही सब कुछ दिखाने की कोशिश कर रहा था. प्रधानमंत्री कितने देर तक लोटपोट होते रहे. कितनी बार सांसे लिए, उस समय उनकी दाढ़ी की लंबाई कितनी थी. एक टीवी चैनल वाला तो प्रमुखता से दिखाया कि उस समय उन्होंने ‘राम’ का नाम कितनी बार लिया. इसीलिए देश के कुछ हिस्सों में कोरोना जैसे महामारी को बीमारी कम समझा गया. इसे दैविक प्रकोप समझने की भूल ही गई. और इतना ही नहीं देश के कुछ हिस्सों में पूजा पाठ से दूर करने का प्रयास किया गया.

देश में कोरोना कहर बरपा रहा था तो बिहार के कुछ भागों में कोरोना माता की पूजा की जा रही थी. रोहतास जिला के डेहरी ऑन सोन में सोन नदी किनारे कई दिन तक महिलाओं ने आकर पूजा-पाठ किया. नदियों किनारे महिलाएं झुंड में पहुंचकर 11 लड्डू 11 फूल चढ़ाकर पूजा कर रही थी. घर के पुरुषों द्वारा महिलाओं को मना करने के बजाय उन्हें प्रोत्साहन दिया जा रहा था. तभी तो वे अपनी गाड़ी में बैठा कर उन्हें नदियों किनारे पहुंचा रहे थे. ऐसी परिस्थिति में भी यहां के मंदिरों में पूजा करने वाले स्थानीय पाखंडिओं, धर्मगुरुओं, पुजारियों के द्वारा लोगों को मना नहीं किया गया.बल्कि उनके द्वारा मौन समर्थन किया गया ताकि उनका धंधा लॉकडाउन में फलफूल सके. इस तरह के अंधविश्वास मोबाइल के कारण ग्रामीण क्षेत्रों में तेजी से फैलता है.

अतः जरूरी है कि अभिभावकों के द्वारा अपने बच्चों को विज्ञान के प्रति जागरूक करने की आवश्यकता है. उन्हें शुरू से ही यह बताने की आवश्यकता है कि विज्ञान से बदलाव किया जा सकता है. विज्ञान हमारी जरूरतें पूरा कर रहा है. इस प्रकार के अंधविश्वास से हम सभी पिछड़ जाएंगे. देश को आगे बढ़ाना है तो विज्ञान के महत्व को स्वीकारना होगा. तभी अंधविश्वास भी दूर होंगे.

औरतें सजावटी गुड़िया नहीं

औरतों के बारे में मर्दों की खीज किस तरह की और कितनी गहरी है यह आधुनिक, तकनीक में सब से आगे, सब से अमीर देश अमेरिका के राष्ट्रपति के महान बोल से साबित होता है. डैमोक्रेटिक पार्टी के जो बायडन द्वारा कमला हैरिस को उपराष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार चुनने पर ट्रंप जनाब ने बोला है कि कुछ पुरु ष इसे अपमानजनक मानेंगे. अमेरिका के व्हाइट हाउस में औरतें सिर्फ  सजावटी बनी रहें यह सोच आज भी अमेरिका में खूब फै ली हुई है और 2016 में हिलेरी क्लिंटन की हार के पीछे उन का एक औरत होना ही था.

कमला हैरिस एक दक्षिण भारतीय मां और जमैका के मूल अफ्र ीकी वंश के पिता की बेटी हैं और पहले खुद राष्ट्रपति पद की दौड़ में शामिल थीं पर जब लगा कि यह हो नहीं पाएगा तो जो बायडन के पक्ष में बैठ गई थीं. कैलीफ ोर्निया में कई सालों तक अटौर्नी जनरल और कई सालों तक सीनेटर रहीं कमला हैरिस को अमेरिकी गोरे कट्टरपंथी ऐसी ही पसंद नहीं करेंगे जैसे हमारे यहां 2013 में सुषमा स्वराज को योग्य होते हुए भी भारतीय जनता पार्टी ने प्रधानमंत्री का उम्मीदवार नहीं बनाया.

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हमारा देश और डोनाल्ड ट्रंप का अमेरिका फि लहाल एक ही से रास्ते पर चल रहे हैं और तभी इसी साल भारत के अहमदाबाद में डोनाल्ड ट्रंप का भारी भीड़ ने स्वागत करते हए नारे लगाए थे कि एक बार फि र ट्रंप सरकार. कमला हैरिस में भारतीय खून है पर फि र भी अपने को भारतीयों में श्रेष्ठ समझने वाले शायद इसी कारण एक बार फि र गोरे कट्टरपंथियों के साथ डोनाल्ड ट्रंप को वोट दें. वहां भारतीय मूल के अमेरिकी चाहे गुणगान भारतीय कट्टरपंथी रीतिरिवाजों का करते रहें, वे दोयम दरजे नागरिक होते हुए भी  ऊंचों, अमीरों, गोरों की चरणवंदना करते रहते हैं और उन्हें अमेरिका के बराबरी की मांग करने वाले कालों, लैटिनों, औरतों के ग्रुप नहीं भाते.

कमला हैरिस अपना भारतीयन बहुत कम दिखाती हैं और खुद का विशुद्ध अमेरिकी ही मानती हैं पर फिर भी कुछ लगाव तो उस देश से होता ही है जहां की मिट्टी से कुछ संबंध हो. नरेंद्र मोदी के लिए जो बायडन के जीतने पर कुछ दिक्कत होगी क्योंकि वे खुल्लमखुल्ला रिपब्लिकन ऐजेंडे का समर्थन कर चुके हैं, जिस में चीन से 2-2 हाथ भी करने हैं.

अमेरिका की यह खासीयत है कि उस ने हाल में ही अमेरिका में आए योग्य लोगों को भी खुले दिल से अपनाया है. वहां रेसिज्म है, बहुत है, पर फि र भी उदार लोगों की भी कमी नहीं है जो गोरों, कालों, भूरों, पीलों के मर्दों को निरर्थक मानते हैं और जो जैंडर से ऊ पर हैं.

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अगर डैमोक्रेटिक उम्मीदवार 3 नवंबर को होने वाले चुनाव में जीतते हैं तो पटाखे भारत में भी फूटने चाहिए कि एक संपूर्ण देशी मां की बेटी उपराष्ट्रपति बन गई हैं. देश को चाहे आर्थिक या व्यावसायिक लाभ न हो पर फि र भी थोड़ी इज्जत तो बढ़ेगी और इस का असर हमारी कट्टरपंथी राजनीति पर भी पड़ेगी.

शराफत की भाषा है कहां

हमारे घरों में जब भी सासबहू में झगड़ा या तूतू, मैंमैं हो तो तुरंत शादी के समय की बातें ही नहीं, बहू के मायके के किस्से भी सास की जबान से ऐसे फिसलते हैं मानो शब्दों के नीचे ग्रीस लगी हो.

‘‘मांजी, यह भगोना तो खराब हो गया है,’’ बहू के यह कहते ही सास अगर कह दे, ‘‘शादी के समय देखा था कैसे जगों में पानी पिलाया था… और अपने चाचा के घर में देखा है, एक भी बरतन ढंग का नहीं है और यहां नए भगोने की मांग कर रही है महारानीजी.’’

यह भाषा भारतीय जनता पार्टी के नेताओं की जवान पर चढ़ी रहती है और वे रोज सारी सासों को बताते हैं कि यही भाषा इस महान देश की संस्कृति का हिस्सा है. आप पूछें कि समाचारपत्रों की स्वतंत्रता का बुरा हाल है तो तुरंत कहा जाएगा याद है न आपातकाल, जब सारे अखबारों पर सैंसरशिप लगा रखी थी.

आप कहें कि पैट्रोलडीजल के दाम बढ़ गए तो उस पर कहेंगे 1973 को याद करो जब इंदिरा गांधी ने 4 गुना दाम बढ़ाए थे. आप कहेंगे कि श्रमिकों की ट्रेनों में पैसा वसूला गया तो तुरंत कहेंगे कि ये सब नेहरुइंदिरा की वजह से है कि ये श्रमिक अपने गांव छोड़ कर बाहर गए थे और कांग्रेस ने तो 70 साल देश को लूटा था और अब किस मुंह से श्रमिकों के हिमायती बन रही है?

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भाजपा के प्रवक्ता संबित पात्रा बड़ी डींगें हांक रहे थे कि देश 5 ट्रिलियन डौलर की अर्थव्यवस्था बनेगी. कांग्रेसी नुमाइंदे ने भरी सभा में पूछ डाला कि संबितजी, बताइए कि ट्रिलियन में कितने शून्य होते हैं? पता है क्या जवाब मिला? ‘‘आप पहले राहुल गांधी से पूछें, फिर मैं बताऊंगा. मुझे मालूम है पर राहुल गांधी जवाब दें तो मैं बता सकूंगा.’’

वाह क्या कला है. भगोना खराब हुआ पति के घर पर आसमान पर उठा लिया गया पत्नी का मायका. यह संस्कृति हमारी मुंह बंद करने के लिए बड़ी कारगर है. आप कहें कि हिंदू औरतों को विधवा बना कर आज भी सामाजिक अलगाव सहना क्यों पड़ता है? तो जवाब मिलेगा कि लो मुसलमानों से पूछो न जहां जब चाहे मरजी तलाक दे दो. अब आप हिंदू रोना छोड़ कर मुसलिमों को भी गाली देना शुरू कर दें और असली मुद्दा भूल जाएं.

रेलमंत्री पीयूष गोयल अकेले नहीं हैं. संबित पात्रा अकेले नहीं हैं. अमित शाह, नरेंद्र मोदी, शिवराज सिंह चौहान, राजनाथ सिंह वगैरह सब यही भाषा बोलते हैं. और भाषा उन्हें समझ ही नहीं आती. वे तर्क और तथ्य की भाषा नहीं समझते. यही गुण आम जनता में आ जाता है. वह भी तर्क और तथ्य की बातें नहीं समझती. हमारे बहुत से विवाद होते ही इसलिए हैं कि हम तर्कों को अधार्मिक मानते हैं.

यह दोष औरतों को ज्यादा परेशान करता है. उन की आधी जिंदगी अपने मायके वालों के पुराण सुन कर चली जाती है और बाकी आधी में वे अपने घर आई बेटे की पत्नी के मायके के गुणगान करती रहती हैं. सुख और शांति कहां है मालूम ही नहीं.

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जब सैंया भए कोतवाल

यदि राजघराने का युवा खौलता खून एक राजा के मुख्यमंत्री के हैलीकौप्टर में जीप से टक्कर मार दे तो उस देश में क्या होता है? उस युवक को पकड़ा नहीं जाएगा, उस की भी हत्या ही कर दी जाएगी.

1985 में राजस्थान के मुख्यमंत्री शिवचरण माथुर के हैलीकौप्टर को भरतपुर के राजा किशन सिंह के बेटे मान सिंह ने अपने 2 साथियों के साथ किसी विवाद में टक्कर मार दी तो मुख्यमंत्री ने राजाओं की तरह उसे सजा के तौर पर मारने का हुक्म दे दिया.

एक पुलिस एनकाउंटर में पुलिसकर्मियों ने मान सिंह व उस के 2 साथियों को ऐसे ही मार डाला जैसे कानपुर के विकास दुबे को मारा गया था. दिखावे के लिए पुलिस पर मुकदमा चला पर पहली अदालत का फैसला 35 साल बाद आया है. तब के डिप्टी पुलिस सुपरिंटैंडैंट कान सिंह भाटी को आजीवन कैद की सजा सुनाई गई है. 10 और को भी सजा मिली है.

तो क्या ये अब जेल जाएंगे? हरगिज नहीं, अभी तो उच्च न्यायालय बाकी है. वह 5-7 साल लेगा. फिर सुप्रीम कोर्ट है. वह8-10 साल लेगा. कान सिंह भाटी अब 82 साल के हैं. जब तक मामला अंतिम चरण में पहुंचेगा लगभग सभी गुनहगार बिना सजा काटे मर चुके होंगे. न्याय कहां है, यह आप ढूंढ़ते रहें.

अगर देश में गुंडों का राज चलता है तो इसलिए कि वे गुंडे असल में पुलिस की वरदी के बिना जैसा व्यवहार करते हैं. वे जानते हैं कि पुलिस उन का कुछ नहीं बिगाड़ेगी जैसेकि कानून पुलिस का कुछ नहीं बिगाड़ पाता.

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साधारण नागरिकों को जेलों ठूंस देने वाली अदालतें जमानतें देने में भी ढेरों आनाकानियां करती हैं. आमतौर पर हमारे यहां मजिस्ट्रेट की पहली अदालत पुलिस विभाग का काम करती है. पुलिस ने कहा कि जमानत न दो तो जमानत नहीं मिलेगी. यदाकदा उच्च न्यायालयव सर्वोच्च न्यायालय यह उपदेशदेते रहते हैं कि बेल नौट जेल भारत के कानून का मूल तत्त्व है पर सैकड़ों औरतें जो बहू प्रताड़ता से कर वेश्यावृत्ति के नाम पर जेलों में बंद हैं और 3-4 सालों तक उन के मुकदमे तक शुरू नहीं होते, गवाह हैं कि यहां तो राजा का हुक्म चलता है, प्रजा या कानून का नहीं.

शिवचरण माथुर मुख्यमंत्री के हैलीकौप्टर में टक्कर मार देना कोई हंसीठट्ठा नहीं है पर फिल्मी तर्ज पर उस अपराधी को गोलियोंसे भून देना भी सही नहीं है. जनता आमतौर पर भय के कारण इस तरह के पुलिस एनकाउंटरों में चुप रहती है तो काफी लोग पुलिस को सही मानते हैं. वे हर बात पर कहते हैं कि अपराधी को तो देखते ही गोली मार देनी चाहिए बिना यह सोचेसमझे कि कौन अपराधी है. यह भी तो अदालत ही तय करेगी न. जब आप पुलिस पर ही सबकुछ छोड़ दोगे तो विकास दुबे जैसे कांड होंगे ही.ये रोज होते हैं, हर जगह होते हैं और देश को अराजकता की देते हैं. इसी का शिकार औरतेंलड़कियां होती हैं, क्योंकि जिन गुंडों के सैंया कोतवाल होते हैं उन का कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता.

गाजियाबाद में एक पत्रकार विकास जोशी की एनकाउंटर की तरह ही गोली मार कर बेटी के सामने हत्या कर दी गई, क्योंकि ने अपनी भतीजी को छेड़े जाने पर पुलिस में एफआईआर दर्ज कराने की कोशिश की थी. गुंडों और पुलिस की मिलीभगत ऐसी ही थी जैसी मुख्यमंत्री शिवचरण माथुर और डिप्टी सुपरिंटैंडैंट भाटी की 1985 में. हम से जो टकराएगा हम उसे चूरचूर कर देंगे. भारतपुलिस, शासक और गुंडे यह साफ संदेश दे रहे हैं. अगर आप भजनकीर्तन में यह संदेश सुनाई नहीं दे रहा है तो गलती आप की ही है.

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जैसे लोग वैसा शासक

चीन और कोरोना दोनों अगले कुछ सालों में देश की अर्थव्यवस्था को चकनाचूर कर देंगे. हर घर को इस की पूरी तैयारी करनी होगी. कोरोना की वजह से बारबार लौकडाउन तो लगेगा ही, लोग खुद ही डर के मारे काम पर नहीं जाएंगे और जाएंगे तो उन्हें कोविड-19 का भय रहेगा.

चीन की वजह से देश का सारा पैसा अब हिमालय के पत्थरों पर लगेगा जहां सड़कें बनेंगी, हवाईअड्डे बनेंगे, बैरक बनेंगे, खाने का सामान मुहैया कराया जाएगा.

दोनों ही उद्योगों और व्यापारों को बुरी तरह चोट मारेंगे और उस की सजा घरों को मिलेगी. अब पहले से अच्छा घर, पहले से अच्छी नौकरी, पहले से अच्छा ड्राइंगरूम, पहले से अच्छा वाहन, पहले से अच्छी सैर के सपने भूल जाएं. जैसे पैट्रोल और डीजल के दाम बढ़े हैं, हर चीज के बढ़ेंगे.

मांग भी कम होगी तो सप्लाई भी कम होगी. सब से बड़ी बात है कि हर घर को काफी पैसा बीमारी या बेकारी के लिए रखना होगा और इस का मतलब है कि सभी खर्चों में बेहद कमी. वैसे भी गनीमत है कि अब दिखावे की जरूरत नहीं है, क्योंकि अब न तो शादियों में जाना है, न पार्टी में, न रेस्तरां या सिनेमाहौल में. अब तो घर से निकलना ही कम हो जाएगा.

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पर इस का मतलब है कि हजारों धंधे बंद हो जाएंगे. फिल्म उद्योग पुरानी तरह का नहीं होगा. रेस्तरां, सिनेमा, मौल अब सालों तक पुराने रंग में नहीं आएंगे और जब तक सब ठीक होगा तब तक उन के रंग पुरानी हवेलियों की तरह उड़ चुके होंगे. घरों के मनोरंजन या कहिए काम की ऊब निकालने के तरीके पहले कोरोना ने बंद किए, अब चीनी ड्रैगन बंद कर रहा है.

दोनों जिस तरह से फैले हैं, उस से पहले जैसे अर्थव्यवस्था को चौपट किया गया है, उस से साफ है कि अंधेर नगरी चौपट राजा वाला युग चल रहा है. दिक्कत यह है कि दूसरे बहुत से देशों में यही हो रहा है.

अमेरिका सब से बड़ा उदाहरण है. यहां के खप्ती राजा डोनाल्ड ट्रंप भी अपने अलग कानून लिख रहे हैं. टर्की के सुलतान रिसेप तैइप इदोगान भी इसी तर्ज पर हैं, जिन्होंने इस्तांबूल की छठी शताब्दी की इमारत सोफिया को संग्रहालय से मसजिद बना कर मसजिद को तोड़ कर मंदिर बनाने जैसा काम किया है.

इस सब का दोषी जनता भी है, आप भी हैं. यथा राजा तथा राज्य. ए पीपल डिजर्व द किंग व्हाट दे आर. लोग जैसे होते हैं वैसा ही शासक मिलता है. जो लोग व्हाट्सऐपों, फेसबुकों, फौरवर्ड किए ज्ञान पर जिंदा रहते हैं उन से और क्या उम्मीद की जा सकती है. चीन, कोरोना, जीएसटी, नोटबंदी हमारी अपनी देन है. इसे ऐंजौय करें. तालियांथालियां बजाएं. सब दुख ऐसे ही दूर हो जाएंगे जैसे मंदिरमसजिद में जाने से दूर हो जाते हैं.

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चीन को पछाड़ देगा भारत लेकिन…

विश्व में सब से ज्यादा आबादी वाले देश चीन और विश्व के सब से बड़े लोकतंत्र भारत के मध्य बौर्डर पर हुई हालिया हिंसक झड़प व मौजूदा गंभीर तनाव के बीच भारत एक माने में प्रतिद्वंद्वी चीन को पछाड़ने वाला है. बढ़ती आबादी से चिंतित दुनिया के देशों के लिए अच्छी खबर यह है कि इस का बढ़ना तो रुकेगा ही, घटना भी शुरू हो जाएगा.

थमेगा बढ़ने का सिलसिला :

दुनिया की आबादी के बढ़ने का सिलसिला अब से 44 वर्षों बाद थम जाएगा. तब यानी वर्ष 2064 में 9.7 अरब के साथ दुनिया की आबादी चरम पर होगी. उस के बाद उस के घटने का सिलसिला शुरू हो जाएगा और इस सदी (21वीं) के आखिर तक यह घट कर 8.8 अरब रह जाएगी.

पीछे रह जाएगा चीन :

वर्ष 2100 तक 1.09 अरब की जनसंख्या के साथ भारत सब से ज्यादा आबादी वाला देश होगा. फिलहाल विश्व की कुल आबादी 7.8 अरब है. इस में भारत की आबादी 1.38 अरब है जबकि चीन की 1.40 अरब है. वर्ष 2030 तक भारत की आबादी 1.65 अरब हो जाएगी, तब ही भारत प्रतिद्वंद्वी चीन को पछाड़ कर आबादी में नंबर वन हो जाएगा. तब तक दुनिया की आबादी 8.14 अरब हो चुकी होगी. मौजूदा समय में चीन की आबादी के बढ़ने की रफ़्तार भारत की आबादी के बढ़ने की रफ़्तार से धीमी है.

बढ़ते रहेंगे नाइजीरियाई : 

द लैंसेट जरनल में प्रकाशित यूनिवर्सिटी औफ वाशिंगटन के इंस्टिट्यूट फौर हैल्थ मैट्रिक्स ऐंड इवोल्यूशन (आईएचएमई) के शोध के अनुसार, वर्ष 2100 में आबादी के मामले में भारत के बाद दूसरा स्थान नाइजीरिया (79.1 करोड़), तीसरा चीन (73.2 करोड़), चौथा अमेरिका (33.6 करोड़) और 5वां पाकिस्तान (24.8 करोड़) का होगा. विश्लेषणात्मक शोध में यह अनुमान भी लगाया गया है कि भारत और चीन जैसे देशों में कामकाज करने योग्य आबादी में कमी आएगी.

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आधी रह जाएगी आबादी :

दिलचस्प यह है कि वर्ष 2100 तक इटली, जापान, पोलैंड, पुर्तगाल, दक्षिण कोरिया, स्पेन और थाईलैंड समेत दुनिया के 20 से ज़्यादा देशों की जनसंख्या आधी से भी कम रह जाएगी. इस समय दुनिया में सब से ज़्यादा आबादी वाले देश चीन की आबादी 1.40 अरब है, जो अगले 80 वर्षों में घट कर 73 करोड़ रह जाएगी.

द लैंसेट में प्रकाशित शोधकर्ताओं की एक अंतर्राष्ट्रीय टीम के अध्ययन में कहा गया है कि वर्ष 2100 में ज़मीन पर 8.8 अरब लोग होंगे, यानी, संयुक्त राष्ट्र संघ के ताज़ा अनुमानों से 2 अरब कम. हालांकि, अफ़्रीक़ी देशों की आबादी तीनगुना बढ़ जाएगी. अफ़्रीकी देश नाइजीरिया की आबादी बढ़ कर 80 करोड़ हो जाएगी. वह भारत (1 अरब 10 करोड़) के बाद दूसरा सब से ज्यादा आबादी वाला देश होगा.

संतुलनअसंतुलन :

विश्व की आबादी का घटना पर्यावरण के लिए अच्छी ख़बर है. वहीं, इस के नतीजे में ज़मीन पर खाने के लिए उगाई जाने वाली सामग्री का बोझ कम हो जाएगा. दूसरी तरफ, ग़ैरअफ़्रीक़ी देशों में आबादी घटने के कारण श्रमबल में कमी आएगी, जिस का उन की अर्थव्यवस्था पर असर पड़ेगा.

शोध के मुताबिक, 5 से कम उम्र के बच्चों की संख्या 40 फीसदी से ज्यादा घटने का अनुमान है. इन बच्चों की आज की आबादी 681 मिलियन से वर्ष 2100 में 401 मिलियन रह जाएगी. दूसरी ओर, वैश्विक आबादी का एकचौथाई से ज्यादा, यानी 2.37 अरब लोग, 65 वर्ष से अधिक उम्र के होंगे. 80 वर्ष से ज्यादा उम्र वाले लोगों की संख्या, जो आज लगभग 14 करोड़ है, बढ़ कर 86.6 करोड़ तक हो जाएगी. वहीँ, काम करने वालों की संख्या में भारी गिरावट से कई देशों को गंभीर चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है.

कोविड-19 से 50 फीसदी तक घटेगी जन्मदर :

कोरोना के शुरुआती दौर मार्चअप्रैल में लौकडाउन के साथ यूनिसेफ समेत तमाम एजेंसियों ने अनुमान लगाया था कि दुनिया में जन्मदर तेजी से बढ़ेगी और अगले साल आबादी पर इस का असर दिखेगा. हालांकि, मई, जून और जुलाई में कोरोना के बढ़ते कहर के साथ अब अमेरिका, यूरोप और तमाम एशियाई देशों में जन्मदर में 30 से 50 फीसदी तक की कमी का अनुमान जताया गया है.

लंदन स्कूल औफ इकोनौमिक्स के सर्वे के अनुसार, कोरोनाकाल विश्व की आबादी में उछाल के बजाय गिरावट का कारण बनेगा. यूरोपीय देश इटली, जरमनी, फ्रांस, स्पेन और ब्रिटेन की बात करें तो 18-34 साल की उम्र के 50 से 60 फीसदी युवाओं ने परिवार आगे बढ़ाने की योजना को एक साल तक के लिए टाल दिया है.

सर्वे के मुताबिक, सोशल डिस्टेंसिंग औऱ अन्य पाबंदियों के बीच बेबी बूम (भारी तादाद में बच्चे पैदा होने) की कोई संभावना नहीं है. सर्वे में फ्रांस और जरमनी में 50 फीसदी युवा दंपतियों ने कहा कि वे महामारी के कारण बच्चे की योजना को टाल रहे हैं. ब्रिटेन में 58 फीसदी ने कहा कि वे परिवार आगे बढ़ाने के बारे में फिलहाल सोचेंगे भी नहीं.

सिर्फ 23 फीसदी दंपतियों ने इस से कोई फर्क न पड़ने की बात कही. इटली में 38 फीसदी और स्पेन में 50 फीसदी से ज्यादा युवाओं ने कहा कि उन की आर्थिक और मानसिक स्थिति अभी ऐसी नहीं है कि वे बच्चे का खयाल रख भी पाएंगे. दंपतियों ने बेरोजगारी को देखते हुए भी परिवार का बोझ न बढ़ाने का समर्थन किया. यह भी आशंका जताई कि अगर अभी वे बच्चा करते हैं तो शायद उन्हें बेहतर इलाज की सुविधाएं भी नहीं मिल पाएंगी. डेनमार्क, स्वीडन, फिनलैंड, नौर्वे और आइसलैंड में भी यही ट्रैंड दिख रहा है.

भारत में भी दिखेगा असर :

यूनिसेफ ने भारत में मार्चदिसंबर के बीच सर्वाधिक 2 करोड़ और चीन में 1.3 करोड़ बच्चे जन्म लेने का अनुमान लगाया था, हालांकि बदले हालात में इस में कमी का अनुमान है. भारत के 13 राज्यों में प्रजनन दर पहले ही काफी नीचे आ चुकी है.

सेव द चिल्ड्रेन के प्रोग्राम एवं पौलिसी इंपैक्ट के निदेशक अनिंदित रौय चौधुरी का कहना है कि भारत के शहरी और ग्रामीण परिवेश में कोविड-19 का प्रभाव जन्मदर पर अलगअलग दिख सकता है. कुपोषण, टीकाकरण, शिक्षा व स्वास्थ्य को लें, तो कोविड का सब से ज्यादा प्रभाव बच्चों पर ही पड़ा है. ऐसे में युवा परिवार बढ़ाने या न बढ़ाने को ले कर क्या कदम उठाते हैं, यह आने वाले समय में पता चलेगा.

आबादी से जुड़े दिलचस्प संकेत :

*  संयुक्त राष्ट्र संघ यानी यूएनओ का अनुमान है कि पूरी दुनिया की आबादी 2023 तक 8 अरब और 2056 तक 10 अरब को पार कर देगी. बता दें कि यूएनओ के अनुमान और द लैंसेट जर्नल में प्रकाशित शोध में फर्क है.

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*  वर्ष 2025-30 तक भारत की जनसंख्‍या 1 अरब 65 करोड़ हो जाएगी. तब भारत पड़ोसी चीन को पछाड़ कर आबादी में नंबर वन हो जाएगा. तब तक दुनिया की आबादी 8 अरब 14 करोड़ हो चुकी होगी.

*  विश्व की आधी आबादी 9 देशों में रहती है. 2017 से 2050 तक भारत, नाइजीरिया, कांगो का लोकतांत्रिक गणराज्य, पाकिस्तान, इथियोपिया, संयुक्त राज्य अमेरिका, तंजानिया, युगांडा और इंडोनेशिया जनसंख्या वृद्धि में सब से ज्यादा योगदान देंगे. इस का मतलब है कि अफ्रीका की आबादी अब और 2050 के बीच लगभग दोगुना हो जाएगी.

*  आबादी के मामले में नाइजीरिया  2050 से पहले अमेरिका को पीछे छोड़ कर तीसरे स्थान पर पहुंच जाएगा. आज के दौर में सब से तेजी से आबादी में वृद्धि करने वाला देश नाइजीरिया ही है.

* इस समय विश्‍व की कुल आबादी 7.7 बिलियन यानी कि 7.77 अरब है. विश्व में सब से ज्यादा आबादी वाला देश चीन है, इस की कुल आबादी 1.41 अरब है. आबादी के मामले में चीन पहले स्थान पर है और दूसरे नंबर पर भारत जबकि अमेरिका तीसरे नंबर पर है.

*  संयुक्त राष्ट्र के जनसंख्या विभाग के डायरैक्टर जौन विल्मोथ ने हाल ही में कहा कि ताजा अध्ययन में पाया गया कि  अगले 30 वर्षों में भारत की आबादी में 27.3  अरब की वृद्धि हो सकती है. इस हिसाब से 2050 तक भारत की कुल आबादी 1.64 अरब होने का अनुमान है.

बहरहाल, यह सब अनुमानित शोध के मुताबिक है लेकिन गौर करने लायक जो बात है वह यह है कि यदि भारत अपनी स्वास्थ्य और शिक्षा प्रणाली को सुधार कर विश्वस्तर पर ले आए तो इस का विशाल जनसमूह न केवल देश, बल्कि संसारभर में प्रभावशाली स्थान और रूप में रह सकेगा.

सरकार मालामाल जनता बेहाल

कोविड-19 के आंकड़ों के साथसाथ इस समय पैट्रोलडीजल के दामों के आंकड़े भी बेहद बुरी तरह बढ़ रहे हैं. सरकार तीनों फ्रंटों पर बुरी तरह फेल हुई, वास्तविक देश के फ्रंट की तो बात ही न करें.

देश में डीजल और पैट्रोल के दाम विदेशों में इन के दाम बढ़ने से ऊपर नहीं जा रहे, ये सरकारी करों के कारण ऊपर जा रहे हैं. जैसे अंगरेज और जमींदार अकाल में भी लगान वसूल करते रहे हैं, हमारी लोकप्रिय सरकार भी हर बात को मुमकिन करते हुए डीजल और पैट्रोल के माध्यम से खाली हुई जेबों से आखिरी पैसे भी झटक रही है. घरेलू गैस के दाम भी बढ़ रहे हैं.

सरकार कोशिश कर रही है कि राम मंदिर, धारा 370 और नागरिक संशोधन कानून से जो मालामाल उस ने आम जनता को किया है,

उस का एक हिस्सा तो वह वसूल ले. पैट्रोल व डीजल के दामों में बढ़ोतरी किस तरह आम आदमी की जेब पर भारी पड़ती है यह बताना जरूरी नहीं. ये अब विलासिता की वस्तुएं नहीं, आवश्यकताएं हैं, जिन से बचना संभव ही नहीं है. यह पूरे घर को हिला कर रख देने वाली वृद्धि है.

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कोविड-19 की वजह से वैसे ही लोगों को अपने छोटेबड़े घरों में दुबक कर रहना पड़ रहा है. अब न मित्रों से मिलना हो रहा है

न रिश्तेदारों से और न ही पड़ोस के बागों में घूमना. अपने वाहन पर थोड़ा टहलना काफी सुरक्षित है

पर सरकार इस पर भारी टैक्स लगा कर इस सुख को भी छीन रही है.

सरकारी खजाने में पैसे की कमी है तो सरकारी बरबादी को बंद करना चाहिए. राजनीति और सरकारी नौकरी में लोग जाते ही इसलिए हैं कि वहां सरकार जनता का पैसा जम कर लुटाती है. सरकार की हिम्मत नहीं है कि वह अपने लोगों पर कोई अंकुश लगा सके. उसे तो वह जनता मिली हुई है, जो विरोध करनाभूल चुकी है. उसे धर्म का झुनझुना दे कर चुप कराना अब एकदम आसान है.

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क्या भारत तीन मोर्चों पर जंग लड़ सकता है?,‘मोदी डाक्ट्रिन’ की यह अग्निपरीक्षा है

 साल 2014 में जब नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने अविश्वसनीय जीत हासिल करके अपने सहयोगियों के साथ केंद्र में सरकार बनाया था, उस सरकार का शपथ ग्रहण समारोह भारत की विदेशनीति के लिहाज से एक नया अध्याय था. यह पहला ऐसा मौका था, जब भारत के किसी प्रधानमंत्री ने अपने शपथ ग्रहण समारोह में भारतीय उपमहाद्वीप के सभी देशों के प्रमुखों को आमंत्रित किया था और सभी इस समारोह में आये थे. विदेशनीति के जानकार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इस मास्टर स्ट्रोक से दंग रह गये थे. क्योंकि सरकार बनने के पहले तक सबको यही लगता था कि अगर भाजपा सरकार बनाती है और नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बनते हैं तो भारत की विदेशनीति कैसी होगी? लेकिन मोदी सरकार ने इस सवाल का ऐसा जवाब दिया जिसका किसी के पास पहले से कोई अंदाजा ही नहीं था.

साल 2014 में चुनाव के पहले संभावित भाजपा सरकार की जिस विदेशनीति को लेकर सबसे ज्यादा सवाल उठ रहे थे, बाद में पांच सालों तक सबसे ज्यादा सरकार को उसी मोर्चे में सफल होते देखा गया. लगा जैसे सरकार ने आने के पहले कई सालों तक खास तौरपर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विदेशनीति का कुछ खास ही होमवर्क किया है. जिस कारण वह सत्ता में आते ही तमाम बड़े देशों की यात्राएं कीं और सबने गर्मजोशी के साथ भारत को रिश्तों की एक नयी मंजिल के रूप में लिया. लेकिन लगता है जो आशंकाएं 2014 में तमाम जानकारों को थीं, वे आशंकाएं अब 2020 में फिर से पैदा हो गई हैं या यूं कहें वही आशंकाएं अब हकीकत का रूप लेती दिख रही हैं. निश्चित रूप से भारत की विदेशनीति के लिए अचानक एक बड़ी कठिन परीक्षा आ गई है. आजादी के बाद से यह पहला ऐसा मौका है, जब न केवल भारत अपने तीन पड़ोसियों के साथ सरहदी तनाव में उलझा हुआ है बल्कि दो और पड़ोसियों के साथ भी रिश्ते अगर खराब नहीं हैं तो गर्मजोशी वाले भी नहीं है.

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कहते हैं सन 1971 के भारत-पाक युद्ध के दौरान भारत की सेना को यह आशंका हो गई थी कि कहीं भारत को एक साथ दो मोर्चे पर युद्ध न लड़ना पड़े, लेकिन ऐसा हुआ नहीं. शीतयुद्ध के कारण तनाव का भूमंडलीय शिवरीकरण हो गया और इस तरह न तो दांत पीसता अमरीका और न ही मौके की तलाश में चीन को भारत से टकराने का कोई मौका मिला. सोवियत संघ की धमक और कूटनीतिक मोर्चों में उसकी चुस्ती फुर्ती के कारण भारत ने 1971 में ऐतिहासिक जीत के साथ इतिहास में अपना नाम दर्ज कराया. लेकिन आज 2020 में पहली बार यह स्थिति पैदा हो गई है कि क्या भारत एक साथ तीन मोर्चों पर जंग लड़ सकता है. जी, हां! लद्दाख में स्थित गलवान घाटी में जिस तरह से भारत और चीन के सैनिक आमने सामने आये और खूनी संघर्ष में 20 भारतीय सैनिक मारे गये, उसके बाद से दोनो ही देश चरम तनाव के मुहाने पर खड़े हैं.

पाकिस्तान के साथ हमारा तनाव मौजूदा भारत की शुरुआत से ही यानी 1947 के विभाजन के साथ ही रहा है. पिछले साल जम्मू कश्मीर से जिस तरह भारत ने अनुच्छेद 370 को खत्म किया, उसके बाद से लगातार पाकिस्तान भारत के साथ कटु से कटु मुद्रा इख्तियार किये हुए है. लेकिन सबसे आश्चर्यजनक बात यह है कि पहली बार भारत और नेपाल के बीच भी न केवल इस हद तक सीमा विवाद उभरकर सामने आये हैं कि भारत के तीन इलाकों नेपाल की सरकार ने अपने राजनीतिक नक्शे में शामिल कर लिया है बल्कि लगभग कूटनीतिक ललकार के अंदाज में उस विवादित नक्शे को अपनी संसद में पारित भी करा लिया है, जो इस बात का संकेत है कि पूरा नेपाल सरकार के साथ खड़ा है. यही नहीं इस समय जबकि भारत और चीन के रिश्ते 1962 के बाद सबसे ज्यादा विस्फोटक हैं, कई सैन्य विशेषज्ञों को तो इस बात की भी आशंका है कि दोनो परमाणु शक्ति सम्पन्न देश जंग में भी उतर सकते हैं. ठीक उसी समय नेपाल भी भारत के साथ चीन और पाकिस्तान के अंदाज में ही व्यवहार कर रहा है.

यह पहला ऐसा मौका है कि भारत और नेपाल की सीमा में जबरदस्त तनाव व्याप्त है. इसी तनाव के बीच नेपाल ने भारत की सीमा में पहली बार हथियारबंद सैन्य जवानों को तैनात किया है. नेपाल ने काला पानी के पास चांगरू में अपनी सीमा चैकी को उन्नत भी बनाया है. सबसे आश्चर्यजनक बात तो यह है कि नेपाली सेना के प्रमुख पूर्णचंद्र थापा इस चैकी के निरीक्षण के लिए आये, जो एक किस्म से भारत के लिए संदेश था कि अब पाकिस्तान और चीन की तरह नेपाल की सरहद में भी जंग वाले हालात रहा करेंगे. सवाल है क्या जरूरत पड़ने पर भारत अपने तीन-तीन पड़ोसियों से एक साथ जंग लड़ सकता है? जब जार्ज फर्नांडिस रक्षा मंत्री थे तो उन्होंने सेना को युद्ध के समय दो मोर्चों पर तैयारी के लिए कहा करते थे.

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अगर वास्तव में कभी यह खौफनाक आशंका सच हो गई और भारत को चीन, पाकिस्तान और नेपाल के साथ एक ही समय पर युद्ध लड़ना पड़े तो निश्चित रूप से यह बहुत ही खराब स्थिति होगी. क्योंकि तब भारत को लगभग 4000 किलोमीटर की लंबी जमीनी सरहद पर हर जगह नजर रखनी पड़ेगी और हर जगह मोर्चाबंदी करनी पड़ेगी. यही नहीं आकाश और समुद्र में भी दोहरे मोर्चे का सामना करना पड़ेगा. यह कहने की जरूरत नहीं है कि पाकिस्तान और चीन हमेशा एक ही पलड़े में, एक ही पाले में रहा करते हैं. वैसे भी दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है. इसलिए पाकिस्तान और चीन भारत के संबंध में हमेशा दोस्त होते हैं. पाकिस्तान हमेशा कूटनीतिक स्तर पर चीन का इस्तेमाल करता रहा है, लेकिन यह भी हकीकत है कि अब तक भारत और पाकिस्तान के बीच जितने भी युद्ध हुए हैं, भारत की प्रभावशाली विदेशनीति और सतर्क कूटनीति के चलते कभी भी पाकिस्तान को चीन का सक्रिय साथ नहीं मिल सका.

लेकिन यह पहला ऐसा मौका है जब चीन और भारत के साथ युद्ध छिड़ता है तो पाकिस्तान बिना किसी बात के भी भारत के साथ मोर्चा खोल सकता है बशर्ते उसे चीन इसके लिए मना न करे और भला चीन क्यों मना करेगा? हालांकि अगर वाकई इस तरह की स्थिति आयी और पाकिस्तान ने बेवकूफी की तो पाकिस्तान को इसका खामियाजा बहुत ज्यादा भुगतना पड़ सकता है. दरअसल भारत एक साथ अगर तीन पड़ोसियों के साथ वाॅर फ्रंट पर आ खड़ा हुआ है और दो पड़ोसी, बांग्लादेश तथा श्रीलंका के साथ हमारे रिश्ते अगर मनमुटाव वाले नहीं हैं तो उनमें गर्मजोशी भी नहीं है. इस स्थिति के लिए सेना जिम्मेदार नहीं है और न ही यह कहा जा सकता है कि भारत की सैन्यशक्ति में किसी तरह की कमी है. वास्तव में इस स्थिति के लिए भारत की विदेशनीति और उसे सहयोग करने वाली कूटनीति पूरी तरह से जिम्मेदार हैं. इसलिए यह स्थिति मोदी की विदेशनीति या ‘मोदी डाॅक्ट्रिन’ की अग्निपरीक्षा है.

गलवान घाटी पर लार

चीन व भारत के सैनिकों के बीच ताजा खूनी झड़प का स्थल गलवान घाटी. झड़प की वजह और घाटी की अहमियत को समझने से पहले संक्षिप्त तौर पर इस के इतिहास व भूगोल को जानना होगा.

लद्दाख में पैंगोंग झील है. इस झील के लगभग तीनचौथाई पर चीन का नियंत्रण है. उस के लगभग एकचौथाई इलाक़े पर भारत का कब्जा है. ये दोनों ही इलाक़े इन दोनों ही देशों के लिए रणनीतिक रूप से महत्त्वपूर्ण हैं.

एट फिंगर्स :

पैंगोंग झील इलाके की भौगोलिक संरचना 8 उंगलियों जैसी है. इस पूरे क्षेत्र को ‘एट फिंगर्स’ यानी ‘आठ उंगलियां’ कहते हैं. भारत का मानना है कि फिंगर सिक्स से वास्तविक नियंत्रणरेखा गुजरती है, यानी फिंगर वन से ले कर फिंगर सिक्स तक उस का इलाक़ा है. पर चीन का मानना है कि वास्तविक नियंत्रणरेखा फिंगर फोर के पास है, यानी, भारत का इलाक़ा फिंगर फोर तक है. भारत की ओर से अंतिम चौकी इंडो-तिब्बतन बौर्डर पुलिस की है जो फिंगर फोर के पास है.

इस पूरे एट फिंगर्स पर भारत और चीन दोनों की सेनाएं गश्त करती रहती हैं. फिंगर वन से फिंगर फोर तक सड़क है. वहां से फिंगर सिक्स तक पगडंडी है जिस पर पैदल चला जा सकता है या अधिक से अधिक खच्चर का इस्तेमाल किया जा सकता है. वहां से फिंगर एट तक चीन ने सड़क बना रखी है.

फिंगर फोर से ले कर फिंगर सिक्स तक का इलाक़ा ऐसा है जहां कई बार चीनी और भारतीय सेनाएं आमनेसामने होती हैं, पर मोटेतौर पर कोई अप्रिय घटना नहीं घटती. इस बार चीनी सैनिकों ने फिंगर सिक्स के पास कैंप लगा लिए हैं. वे वहां से पीछे हटने को तैयार नहीं हैं. लेकिन ताज़ा मारपीट वहां नहीं हुई . मारपीट हुई है गलवान घाटी में.

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भारत व चीन के बीच 4 दशकों से ज़्यादा समय तक ताक़त के प्रदर्शन और छोटीमोटी धक्कामुक्की के बाद  सीमा विवाद ने इस बार घातक रूप ले लिया. 15 जून को भारतीय और चीनी फ़ौजियों के बीच ख़ूनी झड़प में कम से कम 20 भारतीय फ़ौजी मारे गए.

अक्साई चिन और गलवान घाटी :

गलवान घाटी विवादित क्षेत्र अक्साई चिन में है. गलवान घाटी, दरअसल, लद्दाख़ और अक्साई चिन के बीच भारत-चीन सीमा से गुजरती है. यहां पर वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) अक्साई चिन को भारत से अलग करती है. अक्साई चिन पर भारत और चीन दोनों अपना दावा करते हैं. फिलहाल, अक्साई चिन पर चीन का कब्जा है जिस पर भारत अपनी सम्प्रभुता मानता है. गलवान नदी चीन के दक्षिणी शिनजियांग और भारत के लद्दाख़ तक फैली है.

इस बीच, भारत ने 18 जून को गलवान घाटी पर चीन के दावे को खारिज कर दिया है. भारत सरकार ने कहा है कि गलवान घाटी पर ‘चीनी संप्रुभता’ का दावा बढ़चढ़ा कर किया जा रहा है और यह पूरी तरह अस्वीकार्य है. भारत ने यह तब कहा जब चीनी सेना ने 16 जून को कहा कि गलवान घाटी का इलाका हमेशा ही चीन का हिस्सा रहा है. भारत के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अनुराग श्रीवास्तव ने एक बयान में कहा, ‘बढ़ाचढ़ा कर और अस्वीकार्य दावा करना आम सहमति के उलट है.’

उधर, ब्रिटिश इतिहासकार नेविल मैक्सवेल ने इस इलाक़े के बारे में अपनी किताब में इसे ऐसा इलाक़ा कहा है जो किसी का न हो क्योंकि वहां न तो कुछ उगता है और न ही कोई रहता है.

यह इलाक़ा दोनों के लिए अहम क्यों :

अक्साई चिन, दरअसल, ग्रेटर कश्मीर का हिस्सा है, लेकिन 1947 में भारत-पाकिस्तान के बीच भीषण लड़ाई के नतीजे में इस क्षेत्र का बंटवारा तो हुआ लेकिन भारत-चीन के बीच बौर्डर की परिभाषा अस्पष्ट रही.

भारत कथित ‘मैकमोहन लाइन’ को मानता है जो उसे ब्रिटेन के उपनिवेशिक दौर की विरासत में मिली थी. चीन ने आधिकारिक रूप में इसे कभी नहीं माना, बल्कि उस ने ‘बौर्डर औफ़ हैबिट’ को माना जो दोनों ओर के लोगों के बीच दशकों से मौजूद था. इस बात ने बेचैन करने वाले स्टेटस-को को जन्म दिया जो आज भी मौजूद है कि दोनों ही पक्ष सीमा के विषय पर सहमत नहीं हैं. दोनों ही एकदूसरे पर एकदूसरे की भूमि में क़दम रखने या अपना क्षेत्र बढ़ाने का इलजाम लगाते हैं जिस के नतीजे में आसानी से टकराव का बहाना वजूद में आ जाता है.

किंग्स कालेज लंदन में अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के प्रोफ़ैसर हर्ष वी पंत के मुताबिक़, “मौजूदा संकट की जड़ पिछले साल भारत द्वारा जम्मूकश्मीर के विशेष स्टेटस का ख़त्म किया जाना है. उस के बाद से चीन को इस बात की चिंता है कि भारत उस को आगे बढ़ने के रास्ते में रुकावट खड़ी करेगा.”  वे कहते हैं, “यह क्षेत्र चीन को पाकिस्तान से जोड़ता है जहां उन का आर्थिक कोरिडोर है.”

इलाके का रणनीतिक महत्त्व :

जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी के पूर्व प्रोफ़ैसर और अंतर्राष्ट्रीय मामलों के जानकार एस डी मुनि का कहना है कि यह क्षेत्र भारत के लिए सामरिक रूप से बेहद महत्त्वपूर्ण हैं क्योंकि यह पाकिस्तान, चीन के शिनजियांग और लद्दाख़ की सीमा के साथ लगा हुआ है. 1962 की जंग के दौरान भी गलवान घाटी का यह क्षेत्र जंग का प्रमुख केंद्र रहा था.

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चीनी सत्तारूढ़ पार्टी का माउथ माने जाने वाले न्यूज़पेपर ग्लोबल टाइम्स ने एक रिसर्च फेलो के हवाले से लिखा है कि गलवान घाटी में डोकलाम जैसी स्थिति नहीं है. अक्साई चिन में चीनी सेना मज़बूत है और तनाव बढ़ाने पर भारतीय सेना को इस की भारी क़ीमत चुकानी पड़ सकती है.

इस संबंध में जानकारों का मानना है कि चीन की स्थिति वहां पर मज़बूत तो है जिस का भारत को नुक़सान हो सकता है. लेकिन, कोरोना वायरस के चलते चीन अभी कूटनीतिक तौर पर कमज़ोर हो गया है. यूरोपीय संघ और अमेरिका उस पर खुल कर आरोप लगा रहे हैं जबकि भारत ने अभी तक चीन के लिए प्रत्यक्षतौर पर कुछ ख़ास नहीं कहा है. ऐसे में भारत इस मोरचे पर चीन से मोलतोल करने की स्थिति में है.

टकराव की गुंजाइश नहीं :

भारत व चीन दोनों पक्षों के लिए फ़ौजियों की संभावित रूप से आवाजाही ही चिंता का विषय है, इस क्षेत्र में टकराव बहुत ही मुश्किल होगा.

एमआईटी में प्रोफ़ैसर मिलिफ़ का कहना है, “4 हजार मीटर से ज़्यादा ऊंची जगह पर लड़ने से जंग का हर पहलू बदल जाएगा जिसे भारतीय और चीनी सेना दोनों ही अच्छी तरह समझती हैं.”

प्रोफ़ैसर मिलिफ़ के शब्दों मे, “2,400 मीटर से ज़्यादा ऊंचाई वाले इलाक़े में फ़ौजियों को मौसम के आदी होने में कई दिन लगते हैं. इतनी ऊंचाई पर हर चीज़ प्रभावित होती है. डीज़ल इंजन को चलने में मुश्किल होती है,  हैलिकौप्टरों को भार कम उठाना होता है. जबकि, इतनी ऊंचाई पर फ़ौजियों को सेहतमंद रखने के लिए रसद की मांग बहुत ज़्यादा होती है.

अब जबकि दोनों ओर की फ़ौजें अपनेअपने घाव की पट्टी कर रही और तनाव कम करने की औपचारिकताएं शुरू कर रही हैं, सारा ध्यान दिल्ली और बीजिंग के नेताओं की ओर है कि वे क़ाबू से बाहर हो रहे मौजूदा झगड़े को नज़रअंदाज़ करेंगे या उसे बहुत ही मुश्किल व महंगे टकराव का रूप देंगे. फिलहाल जो दृश्य सामने है, उस से तो लगता है कि चीन पीछे हटने को तैयार नहीं, जबकि, भारत ने भी, शायद, न झुकने की रणनीति बना ली है.

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