महिला कमांडो का कमाल

छत्तीसगढ़ में कम्यूनिटी या सामुदायिक पुलिस के तहत महिला कमाण्डो या संगवारी पुलिस का अभिनव प्रयोग किया जा रहा है. संगवारी पुलिस केन्द्र सरकार की एक योजना है जिसमे महिलाओं की समिति बनाई गई है और पुलिस  अपना पूरा सहयोग दे रही है . इस योजना में महिलाओं की सौ प्रतिशत भागीदारी है. यहां यह बताना लाजिमी होगा कि संगवारी पुलिस का मुख्य उद्देश्य गैर कानूनी, अपराधिक, असामाजिक कृत्य नशाखोरी इत्यादि पर रोकथाम करना है . यह योजना छत्तीसगढ़ के हर गांव, शहर, नगर, कस्बों, वार्ड, पन्चायत में चल रही है .

महिला संगवारी छत्तीसगढ़ पुलिस का महिला जागरुकता की ओर एक सुनहरा और सराहनीय कदम कहां जा सकता है. पुलिस और जनता के बीच आज भी बहुत दूरी है उस दूरी को कम करने के लिए ही केन्द्र सरकार के निर्देशन में कम्यूनिटी पुलिस के या सामुदायिक पुलिस महिला संगवारी पुलिस का गठन किया है.

महिला संगवारी पुलिस नीली साड़ी पहन कर, हाथ मे डण्डा और सीटी लेकर रात को अपने क्षेत्र के सभी गलियों और मुहल्ले मे घूम रही हैं . इसका सबसे बड़ा लाभ यह मिल रहा है कि पुलिस के पास जो रोजाना छोटी-छोटी जन शिकायतें थाने या चौकी मेँ होती हैं उसके लिए अब पुलिस को वहां जाकर शिकायत का समाधान नहीं करना पड़ रहा है. ऐसे मामलों को संगवारी पुलिस टीम स्वयं ही निपटारा कर रही है बिना पुलिस की सहायता लिये. बड़े वारदातों और शिकायतों पर ही पुलिस की सहायता ली जा रहा है.

महिलाओं के माध्यम से शराब खोरी पर रोक

वैसे तो संगवारी पुलिस संगठन सभी अपराधिक, गैर कानूनी कार्य व असमाजिक कृत्य की रोकथाम के लिए बनाया गया है किन्तु इस योजना का सबसे बड़ा केन्द्र बिंदू है शराब सेवन और शराब सेवन से हो रहे अपराध हैं . जिला रायपुर के  तिल्दा थाना में पदस्थ  पुलिस अधिकारी  शरद चंद्रा बताते हैं इस कार्य की शुरुआत महिला कमाण्डो स्वयं अपने घर से कर रही हैं.क्योंकि यदि वे अपने घर को सुधार नहीं पायेंगी तो समाज को कैसे सुधार पायेंगी. महिला रात्रि में 3 घंटे रोजाना अपने आसपास के गली, कुचे और मोहल्ले में पुलिस की भान्ति गश्त कर रही हैं . जबकि यह कार्य बिल्कुल निशुल्क है, जी हां इस कार्य के लिए संगवारी पुलिस महिलाओं को किसी भी प्रकार का कोई पारिश्रमिक या मानदेय नही दिया जाता. बावजूद इसके संगवारी पुलिस महिलायें बड़े उत्साह और तत्परता से अपना कर्तव्य निर्वहन कर रही हैं.

पुलिस  प्रशिक्षण भी दे रही

इस योजना के शुरुआत में ही केन्द्र सरकार के निर्देशन पर प्रदेश के सभी जिलों में  पुलिस कर्मियों द्वारा महिलाओं को सशक्त और जागरूक बनाने के लिये 10 दिवसीय प्रशिक्षण भी दिया गया. इस प्रशिक्षण में कराटे के गुण, मार्शल आर्ट, साधारण बचाव के तरीके, व्यायाम, अभ्यास इत्यादि शामिल हैं . प्रशिक्षण में हर गांव, शहर, पंचायत वार्ड के महिला समूहों ने जमकर हिस्सा लिया. प्रशिक्षित महिलाओं ने नाटक अभिनय के माध्यम से अन्य महिलाओं को भी सिखाया .

स्वयं महिला कमाण्डो का कार्य को देखने के लिए संगवारी पुलिस की गश्त में शामिल हुई और  देखा कि महिला कमाण्डो रोजाना कई मामले सुलझा रहे हैं जैसे नशा कर पति द्वारा पत्नि को प्रताड़ित करना, देर रात तक आवारागर्दी करते लड़कों का हुल्लड़बाजी और मारपीट, झगड़े व लडकियों के साथ छेड़छाड़ करना. संगवारी पुलिस की सीटी की आवाज सुनते ही बाहर घूम रहे युवक और पुरूषवर्ग घर के भीतर चले जाते हैं . लोगों का महिला कमाण्डो प्रति भय प्रत्यक्ष दिख रहा है . संगवारी पुलिस के संदर्भ में पुलिस अधिकारी जितेंद्र सिंह मीणा (आईपीएस) बताते हैं कि यह एक ऐसा प्रयोग है जिसमें आम जनता और पुलिस मिलकर अपराध पर रोक लगाने का एक अभिनव प्रयोग कर रहे हैं इससे लोगों में पुलिस के प्रति भय खत्म हो रहा है और कानून के प्रति सम्मान की भावना जागृत हो रही है.

संगवारी पुलिस की आंखों देखी

एक रात, कुछ लड़को द्वारा ट्रक चालकों के साथ कर रहे झगड़े और मारपीट को महिला कमाण्डो टीम ने समझाईश देकर सुलझाया. एक मामले में चार-पांच छात्र युवक खुले मैदान में बैठकर शराब व बोन्फिक्स से नशा कर रहे थे जिसे संगवारी पुलिस ने समझाईश दी. महिलाओं द्वारा समझाने पर भी युवक काबू मे नही आये तब पुलिस कर्मियों की सहायता से उन्हे चौकी भेजा गया. ऐसे ही एक और मामले मे एक पति द्वारा  शराब पीकर अपनी पत्नी के साथ गाली गलौच और मार पीट किये जाने पर महिला ने संगवारी पुलिस के पास इसकी शिकायत की . कमाण्डो पुलिस टीम ने उस महिला घर मे ही जाकर  पुरुष पर कार्यवाही की जिसके दौरान उसे जेल भी भेजा गया.

संगवारी पुलिस के इस संगठित कार्य से पुलिस विभाग को भी लाभ हो रहा है. बीच-बीच में पुलिस भी जाँच करने आती है की महिलाये अपना कर्तव्य ठीक से निभा रही हैं या नहीं. सबसे अच्छी बात तो यह है कि इस कार्य में संगवारी पुलिस के परिवार वाले भी पूरी तरह से सहयोग दे रहे हैं एवं रात्रि में गश्त करने के लिए कोई मनाही  नही कर रहे . 9 बजे रात्रि में इनकी ड्यूटी शुरू हो जाती है और लगभग 1बजे रात तक चलती है. मोहल्लो के अलावा उनकी कोशिश यही रहती है कि वे उस अपराधिक क्षेत्रों में भी गश्त करें जहां अपराध होने की संभावना अधिक है जैसे तालाब-नदी के किनारे, खुले मैदानों, अधूरे बने बन्द सुने मकान इत्यादि .

संगवारी पुलिस सच में सरकार की बहुत अच्छी पहल है जो महिलाओ को सशक्तीकरण और जागरूकता के लिए एक नया आत्मविश्वास प्रदान कर रही है. ऐसे महिलाओं के उत्साह को नमन है जो निशुल्क इस काम को पूरे मन से कर रही है. भविष्य में महिला कमाण्डो संगवारी पुलिस और अधिक सफल हो और महिलाओं का उत्साह ऐसे ही बना रहे यही कामना करती हैं.

भीड़ में अकेली होती औरत

अवंतिका को शुरू से ही नौकरी करने का शौक था. ग्रैजुएशन के बाद ही उस ने एक औफिस में काम शुरू कर दिया था. वह बहुत क्रिएटिव भी थी. पेंटिंग बनाना, डांस, गाना, मिमिक्री, बागबानी करना उस के शौक थे और इन खूबियों के चलते उस का एक बड़ा फ्रैंड्स गु्रप भी था. छुट्टी वाले दिन पूरा ग्रुप कहीं घूमने निकल जाता था. फिल्म देखता, पिकनिक मनाता या किसी एक सहेली के घर इकट्ठा हो कर दुनियाजहान की बातों में मशगूल रहता था.

मगर शादी के 4 साल के अंदर ही अवंतिका बेहद अकेली, उदास और चिड़चिड़ी हो गई है. अब वह सुबह 9 बजे औफिस के लिए निकलती है, शाम को 7 बजे घर पहुंचती है और लौट कर उस के आगे ढेरों काम मुंह बाए खड़े रहते हैं.

अवंतिका के पास समय ही नहीं होता है किसी से कोई बात करने का. अगर होता भी है तो सोचती है कि किस से क्या बोले, क्या बताए? इतने सालों में भी कोई उस को पूरी तरह जान नहीं पाया है. पति भी नहीं.

अवंतिका अपने छोटे से शहर से महानगर में ब्याह कर आई थी. उस का नौकरी करना उस की ससुराल वालों को खूब भाया था, क्योंकि बड़े शहर में पतिपत्नी दोनों कमाएं तभी घरगृहस्थी ठीक से चल पाती है. इसलिए पहली बार में ही रिश्ते के लिए ‘हां’ हो गई थी. वह जिस औफिस में काम करती थी, उस की ब्रांच यहां भी थी, इसलिए उस का ट्रांसफर भी आसानी से हो गया. मगर शादी के बाद उस पर दोहरी जिम्मेदारी आन पड़ी थी. ससुराल में सिर्फ उस की कमाई ही माने रखती थी, उस के गुणों के बारे में तो कभी किसी ने जानने की कोशिश भी नहीं की. यहां आ कर उस की सहेलियां भी छूट गईं. सारे शौक जैसे किसी गहरी कब्र में दफन हो गए.

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घरऔफिस के काम के बीच वह कब चकरघिन्नी बन कर रह गई, पता ही नहीं चला. शादी से पहले हर वक्त हंसतीखिलखिलाती, चहकती रहने वाली अवंतिका अब एक चलतीफिरती लाश बन कर रह गई है. घड़ी की सूईयों पर भागती जिंदगी, अकेली और उदास.

यह कहानी अकेली अवंतिका की नहीं है, यह कहानी देश की उन तमाम महिलाओं की है, जो घरऔफिस की दोहरी जिम्मेदारी उठाते हुए भीड़ के बीच अकेली पड़ गई हैं. मन की बातें किसी से साझा न कर पाने के कारण वे लगातार तनाव में रहती हैं. यही वजह है कि कामकाजी औरतों में स्ट्रैस, हार्ट अटैक, ब्लडप्रैशर, डायबिटीज, थायराइड जैसी बीमारियां उन औरतों के मुकाबले ज्यादा दिख रही हैं, जो अनब्याही हैं, घर पर रहती हैं, जिन के पास अपने शौक पूरे करने के लिए पैसा भी है, समय भी और सहेलियां भी.

दूसरों की कमाई पर नहीं जीना चाहती औरतें

ऐसा नहीं है कि औरतें आदमियों की कमाई पर जीना चाहती हैं या उन की कमाई उड़ाने का उन्हें शौक होता है. ऐसा कतई नहीं है. आज ज्यादातर पढ़ीलिखी महिलाएं अपनी शैक्षिक योग्यताओं को बरबाद नहीं होने देना चाहती हैं. वे अच्छी से अच्छी नौकरी पाना चाहती हैं ताकि जहां एक ओर वे अपने ज्ञान और क्षमताओं का उपयोग समाज के हित में कर सकें, वहीं आर्थिक रूप से सक्षम हो कर अपने पारिवारिक स्टेटस में भी बढ़ोतरी करें.

आज कोई भी नौकरीपेशा औरत अपनी नौकरी छोड़ कर घर नहीं बैठना चाहती है. लेकिन नौकरी के साथसाथ घर, बच्चों और परिवार की जिम्मेदारी जो सिर्फ उसी के कंधों पर डाली जाती है, उस ने उसे बिलकुल अकेला कर दिया है. उस से उस का वक्तछीन कर उस की जिंदगी में सूनापन भर दिया है. दोहरी जिम्मेदारी ढोतेढोते वह कब बुढ़ापे की सीढि़यां चढ़ जाती है, उसे पता ही नहीं चलता.

अवंतिका का ही उदाहरण देखें तो औफिस से घर लौटने के बाद वह रिलैक्स होने के बजाय बच्चे की जरूरतें पूरी करने में लग जाती है. पति को समय पर चाय देनी है, सासससुर को खाना देना है, बरतन मांजने हैं, सुबह के लिए कपड़े प्रैस करने हैं, ऐसे न जाने कितने काम वह रात के बारह बजे तक तेजी से निबटाती है और उस के बाद थकान से भरी जब बिस्तर पर जाती है तो पति की शारीरिक जरूरत पूरी करना भी उस की ही जिम्मेदारी है, जिस के लिए वह मना नहीं कर पाती है.

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वहीं उस का पति जो लगभग उसी के साथसाथ घर लौटता है, घर लौट कर रिलैक्स फील करता है, क्योंकि बाथरूम से हाथमुंह धो कर जब बाहर निकलता है तो मेज पर उसे गरमगरम चाय का कप मिलता है और साथ में नाश्ता भी. इस के बाद वह आराम से ड्राइंगरूम में बैठ कर अपने मातापिता के साथ गप्पें मारता है, टीवी देखता है, दोस्तों के साथ फोन पर बातें करता है या अपने बच्चे के साथ खेलता है. यह सब कर के वह अपनी थकान दूर कर रहा होता है. अगले दिन के लिए खुद को तरोताजा कर रहा होता है. उसे बनाबनाया खाना मिलता है. सुबह की बैड टी मिलती है. प्रैस किए कपड़े मिलते हैं. करीने से पैक किया लंच बौक्स मिलता है. इन में से किसी भी काम में उस की कोई भागीदारी नहीं होती.

और अवंतिका? वह घर आ कर रिलैक्स होने के बजाय घर के कामों में खप कर अपनी थकान बढ़ा रही होती है. घरऔफिस की दोहरी भूमिका निभातेनिभाते वह लगातार तनाव में रहती है. यही तनाव और थकान दोनों आगे चल कर गंभीर बीमारियों में बदल जाता है.

घरेलू औरत भी अकेली है

ऐसा नहीं है कि घरऔफिस की दोहरी भूमिका निभाने वाली महिलाएं ही अकेली हैं, घर में रहने वाली महिलाएं भी आज अकेलेपन का दंश झेल रही हैं. पहले संयुक्त परिवार होते थे. घर में सास, ननद, जेठानी, देवरानी और ढेर सारे बच्चों के बीच हंसीठिठोली करते हुए औरतें खुश रहती थीं. घर का काम भी मिलबांट कर हो जाता था. मगर अब ज्यादातर परिवार एकल हो रहे हैं. ज्यादा से ज्यादा लड़के के मातापिता ही साथ रहते हैं. ऐसे में बूढ़ी होती सास से घर का काम करवाना ज्यादातर बहुओं को ठीक नहीं लगता. वे खुद ही सारा काम निबटा लेती हैं.

मध्यवर्गीय परिवार की बहुओं पर पारिवारिक और सामाजिक बंधन भी खूब होते हैं. ऐसे परिवारों में बहुओं का अकेले घर से बाहर निकलना, पड़ोसियों के साथ हिलनामिलना अथवा सहेलियों के साथ सैरसपाटा निषेध होता है. जिन घरों में सासबहू के संबंध ठीक नहीं होते, वहां तो दोनों ही महिलाएं समस्याएं झेलती हैं. आपसी तनाव के चलते दोनों के बीच बातचीत भी ज्यादातर बंद रहती है. ऐसे घरों में तो सास भी अकेली है और बहू भी अकेली.

कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि जो लड़की शादी से पहले पूरी आजादी से घूमतीफिरती थी, अपनी सहेलियों में बैठ कर मन की बातें करती थी, वह शादी के बाद चारदीवारी में घिर कर अकेली रह जाती है. पति और सासससुर की सेवा करना ही उस का एकमात्र काम रह जाता है. शादी के बाद लड़कों के दोस्त तो वैसे ही बने रहते हैं. आएदिन घर में भी धमक पड़ते हैं, लेकिन लड़की की सहेलियां छूट जाती हैं. उस की मांबहनें सबकुछ छूट जाता है. सास के साथ तो हिंदुस्तानी बहुओं की बातचीत सिर्फ ‘हां मांजी’ और ‘नहीं मांजी’ तक ही सीमित रहती है, तो फिर कहां और किस से कहे घरेलू औरत भी अपने मन की बात?

अकेलेपन का दंश सहने को क्यों मजबूर

स्त्री शिक्षा में बढ़ोतरी होना और महिलाओं का अपने पैरों पर खड़ा होना किसी भी देश और समाज की प्रगति का सूचक है. मगर इस के साथसाथ परिवार और समाज में कुछ चीजों और नियमों में बदलाव आना भी बहुत जरूरी है, जो भारतीय समाज और परिवारों में कतई नहीं आया है. यही कारण है कि आज पढ़ीलिखी महिला जहां दोहरी भूमिका में पिस रही हैं, वहीं वे दुनिया की इस भीड़ में बिलकुल तनहा भी हो गई हैं.

पश्चिमी देशों में जहां औरतमर्द शिक्षा का स्तर एक है. दोनों ही शिक्षा प्राप्ति के बाद नौकरी करते हैं, वहीं शादी के बाद लड़का और लड़की दोनों ही अपनेअपने मातापिता का घर छोड़ कर अपना अलग घर बसाते हैं, जहां वे दोनों ही घर के समस्त कार्यों में बराबर की भूमिका अदा करते हैं. मगर भारतीय परिवारों में कामकाजी औरत की कमाई तो सब ऐंजौय करते हैं, मगर उस के साथ घर के कामों में हाथ कोई भी नहीं बंटाता. पतियों को तो घर का काम करना जैसे उन की इज्जत गंवाना हो जाता है. हाय, लोग क्या कहेंगे?

सासससुर की मानसिकता भी यही होती है कि औफिस से आ कर किचन में काम करना बहू का काम है, उन के बेटे का नहीं. ऐसे में बहू के अंदर खीज, तनाव और नफरत के भाव ही पैदा हो सकते हैं, खुशी के तो कतई नहीं.

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आज जरूरत है लड़कों की परवरिश के तरीके बदलने की और यह काम भी औरत ही कर सकती है. अगर वह चाहती है कि उस की आने वाली पीढि़यां खुश रहें, उस की बेटियांबहुएं खुश रहें तो अपनी बेटियों को किचन का काम सिखाने से पहले अपने बेटों को घर का सारा काम सिखाएं.

आप की एक छोटी सी पहल आधी आबादी के लिए मुक्ति का द्वार खोलेगी. यही एकमात्र तरीका है जिस से औरत को अकेलेपन के दंश से मुक्ति मिल सकेगी.

मैं चीज नहीं हूं मस्त-मस्त…

‘कभीकभी मेरे दिल में खयाल आता है कि ये बदन ये निगाहें मेरी अमानत हैं, ये गेसुओं की घनी छांव है मेरी खातिर, ये होंठ और ये बांहें मेरी अमानत हैं…’ गाने की इन पंक्तियों को सुन कर जो पहला खयाल जेहन में आता है वह यह है कि पुरुष को यह अधिकार किस ने दिया कि वह किसी भी महिला को यह कह सके कि तुम्हारा शरीर, तुम्हारी खूबसूरती और तुम्हारा वजूद मेरे लिए है या मेरी अमानत है? हां, प्यार और उस में लिप्त प्रेमी के लिए यह कहना भावों में बहने समान है, परंतु क्या यह समाज को आईना दिखाने जैसा नहीं है? क्या यह लोगों की सोच को उजागर करने जैसा नहीं है? क्या यह सोच हर लड़की के जीवन को प्रभावित नहीं करती?

हर साल 13 अक्तूबर के दिन ‘वर्ल्ड नो ब्रा डे’ मनाया जाता है. इसे मनाने के पीछे मुख्य कारण कैंसर अवेयरनैस को बढ़ाना है. लेकिन इस नो ब्रा डे में भाग लेने वाली अधिकतर महिलाओं का मत है कि वे इस में भाग केवल इसलिए लेती हैं, क्योंकि उन्हें बिना ब्रा के जो कंफर्ट मिलता है वह ब्रा पहनने पर नहीं मिलता.

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यकीनन इस से बहुत सी महिलाएं और लड़कियां सहमति रखती होंगी. ब्रा के विषय में लोगों की पहली प्रतिक्रिया यही होती है कि यह स्तनों को सपोर्ट देती है, जिस से उन का भार कंधों पर नहीं आता और हिलनेडुलने पर होने वाली परेशानी भी खत्म हो जाती है.

अगर भारत की बात करें तो लड़कियों को 12-13 साल की उम्र से ही ब्रा पहनने की हिदायतें दी जाने लगती हैं, जबकि उन्हें उस समय ब्रा के सपोर्ट की कोई जरूरत ही नहीं होती है. कारण पूछे जाने पर जवाब मिलता है कि यह जरूरी है. पर जरूरी क्यों है? लड़कों की नजर से खुद को बचाने के लिए? यदि देखा जाए तो ब्रा पहनने के बाद स्तनों का आकार ज्यादा उभर कर आता है और लोगों की नजरें भी ज्यादा पड़ती हैं तो ये हिदायतें लड़कियों को छोटी सी उम्र से इसलिए देनी शुरू कर दी जाती हैं ताकि वे उन लड़कों की नजरों को पढ़ सकें जिन से वे बचना चाहती हैं.

लिंगभेद ने अपने पांव इतनी मजबूती से पसार रखे हैं कि उन्हें उखाड़ फेंकने के बजाय लोगों ने उन के साथ जीना स्वीकार लिया है. लड़कियों को छोटी उम्र से ही लिंगभेद का शिकार बना दिया जाता है. उन्हें समझा दिया जाता है कि तुम्हारी दूसरी प्राथमिकता तुम खुद हो और पहली पुरुष. उसे तुम अच्छी लगनी चाहिए, उस की आंखों को भानी चाहिए, उस के बनाए नियमों पर चलो और सवाल मत करो, क्योंकि जवाब में खुद महिलाएं ही इन पुरुषों की ढाल बन कर तुम्हारे सामने खड़ी हो जाएंगी.

तुम चीज हो, सामान हो

एक वह समय था जब लड़कियों को पैर की जूती कहा जाता था और अब यह समय है जब उन्हें बस, ट्रेन, पर्स, हलवा और न जाने क्याक्या कह कर पुकारा जा रहा है. हैरानी की बात तो यह है कि खुद लड़कियां ही ऐसे गानों की ताल पर नाचतीठुमकती नजर आती हैं, खुद वही ‘लड़की बस जैसी होती है एक जाएगी तो दूसरी आएगी’ जैसे डायलौग पर ठहाके मारती नजर आती हैं.

‘बदनाम है तू भी मदमस्त मस्त, तू चीज बड़ी है मस्तमस्त, तू चीज बड़ी है मस्त…,’ यह गाना एक बार नहीं, बल्कि 2 बार, दशकों के अंतराल में फिल्मों में दोहराया गया है. अर्थ क्या है इस का? नारी सशक्तीकरण की बात करने वाले, नारी के सम्मान के दावे करने वाले और बौडीशेमिंग जैसी धारणाओं से खुद को परे बताने वाले लोग ही ऐसे गाने बना रहे हैं, उन्हें गा रहे हैं, सुन रहे हैं और यहां तक कि नाच भी रहे हैं.

‘लक 28 कुड़ी दा 47 वेट कुड़ी दा…..मोटी दा ब्याह हो गया तू रह गई कुंवारी’, ‘चिकनी चमेली छुपके अकेली पउआ चढ़ा के आई’, ‘मैं तो तंदूरी मुरगी हूं यार गटका ले सैयां अलकोहल से…’, ‘पल्लू के नीचे दबा के रखा है उठा दूं तो हंगामा हो,’ कुछ ऐसे ही गानों के उदाहरण हैं जो लड़की के अंगों, उस की बनावट और उस के वजूद को कितनी सफाई से बदल कर रख देते हैं. इन सब गानों का उद्देश्य क्या है? मनोरंजन? किस का मनोरंजन?

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हर गाने में पुरुष को गुंडा, पति या बौयफ्रैंड के रूप में दिखाया गया है जहां उस के सामने एक लड़की आइटम नंबर करती नजर आती है. मतलब साफसीधे तौर पर पुरुष का मनोरंजन ही एक औरत का पहला धर्म बताया जा रहा है.

शुद्ध उन्मुक्त विचार

लड़कियों को ले कर विचार तो समाज में इतने शुद्ध हैं कि समझ नहीं आता इतनी शुद्धता संभाली कैसे जाए. नेताअभिनेता तो अकसर अपने उन्मुक्त विचार लोगों तक पहुंचाते रहते हैं, जिन में वे लड़कियों को बौडीशेम से ले कर उन के वजूद को पुरुषप्रधानकारी तक बोल उठते हैं. संजय लीला भंसाली ने कुछ ऐसा ही कमैंट किया था, ‘‘महिलाओं को पुरुष से ज्यादा इंट्रैस्टिंग होना ही चाहिए, यही हैं जो आप को चारा देती हैं, अट्रैक्ट करती हैं और सीड्यूस करती हैं.’’

इस लिंगभेद और लड़कियों को चीज समझने वाली धारणा के अनुयायी क्रिकेट खिलाड़ी भी हैं.

‘कौफी विद करण’ के एक ऐपिसोड में आए हार्दिक पंड्या से जब यह पूछा गया कि लड़की में आप सब से पहले क्या देखते हैं और उस का नाम कैसे याद रखते हैं, तो इस पर हार्दिक ने उत्तर दिया, ‘‘यह तो डिपैंड करता है कि वह आ रही है या जा रही है… यार, मैं सब का नाम कैसे याद रखूंगा, बहुत मुश्किल है.’’

वैसे हम बात भी किस शो की कर रहे हैं, जहां हर दूसरे सैलिब्रिटी से यह कहा जाता है कि अन्य अभिनेत्रियों को उन की सैक्स अपील पर रैंक करो.

राजनेता भी इन विचारों की दौड़ में पीछे नहीं हैं. खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हिमाचल में एक रैली के दौरान शशि थरूर और सुनंदा पर कटाक्ष करते हुए कहा था कि वाह क्या गर्लफ्रैंड है? आप ने कभी देखा है 50 करोड़ की गर्लफ्रैंड को? इसी तरह मुलायम सिंह ने अपने एक भाषण में कहा था कि सिर्फ शहर की लड़कियां ही इस योजना से आगे बढ़ सकती हैं क्योंकि ग्रामीण क्षेत्रों की महिलाएं अट्रैक्टिव नहीं होतीं. यही नहीं उन्होंने तो बलात्कार के विषय में भी कहा था कि लड़के हैं, गलती हो जाती है.

ये तो कुछ जानेमाने लोग हैं. समाज के बाकी लड़कों की सोच भी कोई अलग नहीं है. चाहे प्रियंका हो या मिथाली राज, तापसी हो या सोनम कपूर, किसी को प्रधानमंत्री के सामने टांगें दिखाने पर, किसी को उन के पसीने के लिए, किसी को उन के बिकिनी पहने जाने पर न जाने क्याक्या सुनना पड़ा. आखिर पुरुष होते कौन हैं किसी भी लड़की को यह सिखानेपढ़ाने वाले कि उसे क्या पहनना चाहिए, कैसा दिखना चाहिए, क्या करना चाहिए और क्या नहीं.

बात साफ है, पुरुष यह स्वीकार कर ही नहीं सकते कि एक औरत या एक लड़की अपने लिए कुछ करे. उन की नजर में पहले वह भोगविलास की चीज है और बाद में एक इंसान. सुनने में कठोर लगता है, लोग इस के वादविवाद में भी खड़े होंगे पर असल में बात है तो यही.

लड़कियों की छवि बिगाड़ते यूट्यूबर्स

युवावर्ग में यूट्यूब का कितना क्रेज है यह तो उस पर मिलियंस में ऐक्टिव यूजर्स की गिनती से ही पता चल जाता है. चाहे गाने, फिल्मों के ट्रेलर, शौर्ट फिल्म, टिप्स एंड ट्रिक्स, सौंग कवर्स, इंटरव्यूज या मूवी लौंच हों, यूट्यूब पर सब उपलब्ध है. बड़ी से बड़ी और छोटी से छोटी बीमारी का लेखाजोखा भी अब यूट्यूब रखता है. हजारों साल पुराने रहस्यों का पता लगाना हो या वैज्ञानिक खोजों की जानकारी चाहिए हो, यहां आइए. अब यूट्यूब है तो इसे चलाने वाले चैनल्स और उन चैनल्स को चलाने वाले लोग भी हैं.

यूट्यूब पर 2 करोड़ से ज्यादा यूट्यूब चैनल्स हैं, जिन में भारतीय यूट्यूबर्स की गिनती भी कुछ कम नहीं. इंडियन यूट्यूबर्स की बात करें तो भुवन बाम, आशीष चंचलानी, लिली सिंह, संदीप महेश्वरी, कैरी मिनाती जैसे नामों ने यूट्यूब से अपनी अलग ही पहचान बनाई है. इन यूट्यूबर्स की गिनती में वे यूट्यूब चैनल्स भी हैं, जिन के मिलियंस में सब्सक्राइबर्स हैं. इन में हर्ष बेनीवाल, रियल शिट जैसे नाम भी मशहूर हैं. लेकिन जिस तरह का कंटैंट ये बताते हैं वह बेहद चिंतनीय है.

14 वर्षीय नमित अपने मातापिता और बड़ी बहन के साथ दिल्ली के राजेंद्र प्लेस में रहता है. उस की बड़ी बहन नीलिमा की उम्र 19 वर्ष है. दोनों भाईबहन के पास अपना-अपना मोबाइल फोन है और घर पर वाईफाई भी लगा है. 1 सप्ताह पहले की ही बता है जब नमित के दोस्त उस के घर आए हुए थे. वे सभी आपस में कुछ बातचीत कर रहे थे. नीलिमा मम्मी के कहने पर उन सभी के लिए चायनाश्ता ले कर कमरे में दाखिल हो ही रही थी कि उस ने नमित को कहते सुना कि इतनी क्या टैंशन लेनी यार, वह थी ही ऐसी. तभी तो काट गई.

यह वाक्य सुन कर नीलिमा को थोड़ा झटका लगा. उस ने यह वाक्य कई यूट्यूब चैनल्स पर सुना था. अकसर उस के दोस्त भी ऐसे वाक्य इस्तेमाल किया करते थे पर उसे तब ये सब कैजुअल लगा था. मगर आज खुद के भाई के मुंह से यह सुनना उसे अच्छा नहीं लगा.

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शाम को सभी के जाने के बाद नीलिमा ने नमित को एक वीडियो देखते हुए देखा. वीडियो में उस के औफिस की एक लड़की चाहे चपरासी हो या दूसरे कर्मचारी, सभी के कंधे पर प्यार से हाथ रख कर अपना काम निकलवा रही थी. यह देखते ही नीलिमा ने नमित के हाथ से उस का फोन छीन लिया, तो नमित ने हैरानी से पूछा, ‘‘क्या हुआ दीदी, फोन क्यों छीन रही हो?’’

‘‘तू यह कैसी वीडियो देख रहा है, ये सब बकवास है. इन वीडियोज का ही नतीजा है जो तेरी सोच इतनी खराब होती जा रही है,’’ नीलिमा ने गुस्से से कहा.

‘‘अगर ऐसा है तो आप खुद क्यों ऐसे वीडियोज देखती हो? मैं ने भी आप को बीबी की वाइंस देखते हुए पकड़ा था. यह वीडियो तो फिर भी उस से बेहतर है. गालियां तो नहीं हैं इस में?’’

‘‘चाहे गालियां न हों, मगर इस में लड़कियों की जो छवि दिखाई जा रही है असल में ऐसा कुछ नहीं होता.’’

‘‘होता है. लड़कियां ऐसी ही होती हैं,’’ नमित ने कहा.

अपने भाई के मुंह से लड़कियों के बारे में यह विचार सुन कर नीलिमा स्तब्ध रह गई. आखिर इस यूट्यूब का कीड़ा उसे भी तो है. लेकिन ये वीडियोज किस तरह एक व्यक्ति के विचारों को आकार देते हैं, यह उस ने पहली बार जाना था.

स्क्रिप्ट का चक्कर बाबूभैया

यूट्यूब युवाओं और समाज पर कितना असर डालता है यह तो दिनप्रतिदिन युवाओं में यूट्यूबर बनने की ललक देख कर भी पता चलता है. जहां यूट्यूब के फैंस शहर क्या गांवगांव हों वहां अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं कि यूट्यूब पर दिखाई जाने वाली सामग्री किस प्रकार जंगल में लगी आग की तरह फैलती है और लोग इसे बारबार देख कर अपने जीवन में उतारते हैं. नएपुराने यूट्यूबर्स जिन वीडियोज को बनाते हैं, उन की शूटिंग से पहले स्क्रिप्ट तैयार की जाती है. कभी स्क्रिप्ट कागज पर लिखी हुई होती है तो कभी बस आमनेसामने बैठ कर आधे घंटे में तैयार की जाती है.

यह स्क्रिप्ट आखिर लिखता कौन है? बुद्धिजीवी? बड़े महान लेखक? विद्वान? नहीं. ये केवल आम लोग हैं जो अपने तर्कहीन विचारों को वीडियो के माध्यम से लोगों तक पहुंचाते हैं और अगले ही दिन से लोग इन दबेकुचले विचारों का डंका बजाना शुरू कर देते हैं, घटिया डायलौग्स दोहराते फिरते हैं, सब से ऊपर इस विकृत मानसिकता के शिकार होते जाते हैं, जिस के अनुसार लड़की लड़कों से फायदा उठाना चाहती है, धोखा देना उस की फितरत है, हर समय बेबीशोना कहना ही उस का काम है, पैसों का तो इतना लालच है उस में कि सच्चा प्यार तक ठुकरा कर भाग जाती है. इस विकृत मानसिकता और लड़कियों की छवि को बिगाड़ने वाले वीडियोज का यूट्यूब पर जमावड़ा है, जिन पर लाखों की संख्या में व्यूज आते हैं.

ठुकरा के मेरा प्यार, मेरा इंतकाम देखेगी

राजकुमार राव की फिल्म का गाना इस तरह इस्तेमाल होगा इस की कल्पना तो खुद राजकुमार राव या सौंग राइटर ने भी नहीं की होगी. फिल्म की कहानी ही कुछ ऐसी थी कि लड़की सरकारी नौकरी के लिए खुद की ही शादी से भाग निकलती है, क्लर्क की नौकरी कर रहा हीरो हैरान रह जाता है और फिर अपने दुख को कम करने के लिए वह आईएएस की परीक्षा पास कर कलैक्टर बन जाता है, उस के अंडर वही लड़की काम कर रही होती है जो उसे छोड़ कर भागी थी. तो यह था उस का बदला और उस का इंतकाम. इस कहानी की पृष्ठभूमि पर जाने कितनी ही यूट्यूब वीडियोज आधारित हैं.

इस पर आधारित लगभग हर वीडियो की कहानी एक सी है, लड़कालड़की प्यार में हैं, लड़की पैसों के चलते लड़के का प्यार ठुकरा देती है, लड़का कुछ समय बाद अमीर हो कर लड़की के पास आता है और बस लड़की मुंह बिचकाए उसे देखती रह जाती है. यही था लड़के का रिवेंज. और हां, बैकग्राउंड में तेजी से बजते ‘ठुकरा के मेरा प्यार… मेरा इंतकाम देखेगी…’ गाने को कैसे भूल सकते हैं, आखिर वही तो इन वीडियोज में चार चांद लगाता है.

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तो बस एक घिसीपिटी कहानी को आधार बना लोग एक से एक वीडियोज निकाल रहे हैं, जिन का निष्कर्ष है तो बस यह कि लड़की है तो पैसों के पीछे ही भागेगी और उस का धोखा लड़के के जीवन में मकसद देने का काम करता है. इन सभी वीडियोज में एक और सामान्य बात जो देखने को मिलती है वह यह है कि लड़का तो इस में निहायत गरीब या कहें देहाती जैसा और लड़की मानो हूर की परी. दोनों का न कोई मेल ही बैठता है न जोड़ी, फिर भी 2 मिनट अपने प्रेमालाप में निकाल देते हैं. फिर वही सब पैसों का लालच और एक अच्छी शक्लसूरत वाले लड़के के लिए उस लड़की ने देहाती बौयफ्रैंड जो उसे बेहद चाहता था, को छोड़ दिया.

अरे भई, यह भी तो देखो कि सांवली शक्लसूरत वाले उस यूट्यूबर ने भी तो गोरीचिट्टी, छोटे मौडर्न कपड़े पहनने वाली लड़की को वीडियो में लिया है, वह भी सिर्फ इसलिए ताकि वीडियो में ग्लैमर आ सके. मतलब लड़के को पूरा हक है अपनी औकात से बाहर की लड़की के सपने देखने का, मगर वहीं लड़की अपनी बराबरी के लड़के की इच्छा जताए तो वह बेवफा है, बदचलन है, वाह. अब इसे दोगलापन न कहें तो क्या कहें?

सोच पर हावी

ये वीडियोज चाहे मजाक के नाम पर ही बनाए जाएं लेकिन करते तो ये लोगों की सोच को प्रभावित ही हैं न. अभी कुछ समय पहले इस विषय पर यूट्यूब फैन से राय मांगी तो उस के विचार कुछ इस तरह के थे, ‘‘हां, तो इन वीडियोज में गलत क्या है? सच तो यही है कि लड़कियां ऐसी ही होती हैं. वह अलग बात है कि सब लड़के ऐसे नहीं होते जो बदला लेने की मंशा रखें.’’

यह सुन कर पहले तो मुझे अचंभा हुआ और फिर एक सवाल मन में कौंधा कि एक व्यक्ति किस तरह अपने फैवरेट यूट्यूबर्स की कही बातों को अपने जीवन और आसपास के माहौल से कनैक्ट करता है कि उस के लिए लड़कियों की छवि धोखा देने वाली, बेवफा की हो जाती है.

बीज की तरह दिमाग के धरातल पर जब यह सोच उपजती है तो व्यक्ति की बातें तो हिंसक होती ही हैं, उस के आपसी रिश्ते और अपने आसपास की लड़कियों के प्रति उस का व्यवहार भी बदल जाता है. फिर होता यही है कि मैट्रो में पुरुष द्वारा छेड़खानी पर हल्ला मचाने वाली लड़की वहां खड़े हर पुरुष को तेजतर्रार और सो काल्ड फैमिनिस्ट नजर आती है. छोटे कपड़े पहनने वाली अमीर लड़कियां लड़कों को गोल्ड डिगर दिखती हैं और लड़के से ब्रेकअप होते ही ‘क्यों भाई काट गई’ जैसी बातें कही जाती हैं.

लड़कियां परोस रहीं खुद को

बात जब सैक्सिज्म की हो ही रही है तो उन वीडियोज को कैसे पीछे रखा जाए जो सैक्सुअल कंटैंट या कहें फीमेल सैक्सुअल औरिएंटेड कंटैंट पर जोर दे रहे हैं. जी हां, बात टिकटौक, लाइक और कवाई जैसी ऐप्स की ही की जा रही है. ये युवाओं को तो अपनी चपेट में ले ही चुके हैं, साथ ही किशोर और अधिक उम्र के लोग भी इन से अछूते नहीं हैं.

कुछ दिन पहले की ही बात है जब मेरी यूट्यूब रिकमैंडेशन में एक वीडियो पौपअप हुआ. इस वीडियो का टाइटल था, ‘‘वैरी हौट टिकटौक म्यूजिकली वीडियो कंपाइलेशन.’’ मैं ने इस वीडियो को देखने के लिए बटन प्रैस ही किया था कि इस की शुरुआत के 15 सैकंड्स में ही मुझे यह ‘किड्स फ्रैंडली’ कहे जाने वाले ऐप का ‘पोर्न फ्रैंडली’ रूप देखने को मिल गया. इस वीडियो की शुरुआत में ही फिल्म ‘ग्रेट ग्रैंड मस्ती’ का डायलौग था जिसे एक लड़की डीपनैक का टौप पहने लिप सिंक कर रही थी. वह डायलौग कुछ इस प्रकार है, ‘‘जो आप कहोगे वह करूंगी, जैसे आप कहोगे वैसे करूंगी.’’

उस के बाद विवेक ओबेराय की आवाज में डायलौग आता है, ‘‘बस कर पगली जौइनिंग के ही दिन प्रमोशन लेगी क्या?’’

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यह कहने की जरूरत नहीं है कि यह कितनी विकृत और भद्दी सोच को उजागर करने वाली बात है. आखिर ऐसे डायलौग किड्स फ्रैंडली कही जाने वाली इस ऐप में क्या कर रहे हैं? हैरानी तो इस बात की भी है कि लड़कियां बड़ी खुशी से ऐसे डायलौग्स पर ऐक्टिंग कर भी रही हैं.

प्रतिदिन 1 करोड़ से ज्यादा वीडियोज केवल टिकटौक पर अपलोड होते हैं. मतलब साफ है कि देश की 1 करोड़ आबादी के पास इतना समय है कि वह नाचगा कर वीडियो बना सकती है, वह भी किसलिए? लाइक्स, पैसे और फेम के लिए. फेम कमाने के सब से अच्छे तरीकों में तो झटकमटक डांस करने, छोटे और कभीकभी अश्लील कपड़े पहन कर नाचना और डबल मीनिंग डायलौग्स दोहराना शुमार है.

इन सब क्रियाओं में जो एक सामान्य चीज है वह यह है कि सब के सब सैक्सिज्म अर्थात लिंगभेद से जुड़े हैं. ‘तू लटका के मटका के झटका के चलती है चैन मेरा…’, ‘अब करूंगा तेरे साथ गंदी बात, गंदी बात…’, ‘तू है डिलाइट मेरा, है तुझ पे राइट मेरा’, ‘तेरा रास्ता जो रोकूं टोकने का नहीं…’ मतलब छिछोरापंती की हदें पार करने वाली सामग्री को जहां बिलकुल नैगलैक्ट किया जाना चाहिए उस पर वीडियो बनाबना कर उन्हें वायरल किया जा रहा है. इन पर बच्चों से ले कर बड़े तक थिरक रहे हैं.

क्या यह एक कला है? शायद. इस से कुछ सीखने को मिल रहा है? शायद. क्या यह प्रोडक्टिव काम है? बिलकुल भी नहीं. इस तरह के प्लेटफौर्म्स किसी टैलेंट को बढ़ावा नहीं दे रहे, बल्कि लिंगभेद को बढ़ावा दे रहे हैं और इन लड़कियों के नाचगाने का मजा भी उन लड़कों को मिल रहा है, जिन से दूर रहने की हिदायतें यही समाज देता फिरता है.

लड़कियों के अधिकारों की, उन की मानमर्यादा की बड़ीबड़ी बातें करने से आखिर होने वाला क्या है जब सिरपैर वाले इन लिंगभेदी वीडियोज और सोच को 12-13 साल के बच्चों तक को एटरटेनमैंट के रूप में परोसा जा रहा है?

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गुड अर्थ गुड जौब

दिल्ली के छतरपुर में एक फार्महाउस में बनी ‘गुड अर्थ’ कंपनी की वर्कशौप को देख कर मैं दंग रह गई. यह कंपनी आज किसी परिचय की मुहताज नहीं है. इस में तैयार होने वाला सामान अपनी खूबसूरती, कलात्मकता और ऊंचे दाम की वजह से अमीर वर्ग में काफी लोकप्रिय है.

‘गुड अर्थ’ की मालकिन अनीता लाल उन बड़े उद्योगपतियों में से एक हैं, जिन्होंने अपने शौक को अपना व्यवसाय बना कर न सिर्फ अपनी रचनात्मकता को नए आयाम दिए, बल्कि सैकड़ों महिलाओं के लिए रोजगार के रास्ते भी तैयार कर दिए. उन की लगन, हिम्मत, जिद, कुछ नया करने का शौक और प्रतिभा ने ‘गुड अर्थ’ जैसी कंपनी की नींव डाली.

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आज देशभर में ‘गुड अर्थ’ के तमाम शोरूम्स में विभिन्न प्रकार की कलात्मक वस्तुओं, वस्त्र, ज्वैलरी आदि की बिक्री होती है. इन वस्तुओं पर जो कलाकारी, नक्काशी, रंगरोगन, बेलबूटे दिखाई पड़ते हैं, वे अद्भुत होते हैं और उन्हें बनाने वाली महिलाओं की उच्च रचनात्मकता का परिचय देते हैं.

‘गुड अर्थ’ की वस्तुओं पर मुगलकालीन चित्रकारी, राजस्थानी लोककला के नमूने, लखनवी और कश्मीरी कढ़ाई के जो बेहद खूबसूरत बेलबूटे नजर आते हैं, उस की वजह है स्वयं अनीता लाल का देश की कला के प्रति गहरा लगाव. भारत की कलात्मक विरासत को जीवित रखने और उसे नए रंग में ढाल कर आगे ले जाने वाली अनीता लाल ने 20 साल पहले अपना व्यवसाय तब शुरू किया था, जब अपने बच्चों को उन्होंने सैटल कर दिया था, क्योंकि उन की पहली वरीयता उन का परिवार और उन के बच्चे थे.

वे शुरू से ही आजाद खयाल की थीं उन की अपनी सोच थी, क्षमता और प्रतिभा थी. मातापिता का सहयोग उन्हें प्राप्त था. घर में इस बात की आजादी थी कि अपनी शिक्षा, क्षमता और प्रतिभा का प्रयोग वे जहां और जैसे करना चाहें, कर सकती हैं.

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वे कहती हैं, ‘‘चूंकि घर में कोई दकियानूसी खयालों का नहीं था और लड़कियों को भी लड़कों की तरह शिक्षा, प्यार और पालनपोषण मिला, लिहाजा मेरे काम में कभी कोई व्यवधान नहीं आया. आज मैं एक सफल व्यवसायी हूं

तो अपने परिवार के प्यार और सहयोग के कारण ही.’’

अनीता लाल की शादी एक धनी व्यवसायी परिवार में हुई, जहां पैसे की कोई कमी नहीं थी. वे चाहतीं तो आराम से घर में बैठ कर अपना जीवन व्यतीत कर सकती थीं, लेकिन उन्होंने हाथ पर हाथ धरे घर में बैठे रहने या हाइप्रोफाइल पार्टियां ऐंजौय करने के बजाय एक ऐसे व्यवसाय को शुरू करने की सोची, जिस में वे ज्यादा से ज्यादा महिलाओं को जोड़ कर उन्हें अपने पैरों पर खड़ा कर सकें. उन का लक्ष्य पैसा कमाना नहीं था, वरन हिंदुस्तान की कला और कारीगरों को नए आयाम देना, महिलाओं को रोजगार से जोड़ना और लीक से हट कर कुछ नया और बेहतर करना था.

अनीता कहती हैं, ‘‘हम ने अपनी महिला कर्मियों के लिए कभी कोई सख्त नियम नहीं रखे. वे अपनी सुविधानुसार अपने काम के घंटे खुद तय करती हैं. यहां उन्हें हर तरह की सुविधा और आजादी है. मेरा मानना है कि औरत की पहली जिम्मेदारी उस का घर और बच्चे हैं. मैं ने भी अपने बच्चों के बड़े होने के बाद ही अपना व्यवसाय शुरू किया था. इसलिए ‘गुड अर्थ’ में कार्यरत किसी भी महिला के लिए उस का घर प्रथम है.

‘‘मेरा मानना है कि जिंदगी भी अच्छी तरह चले और काम भी. इस के लिए जरूरी है कि महिलाएं मानसिक रूप से तनावमुक्त रहें. तनावमुक्त वे तभी रहेंगी जब हम उन की परेशानियों को समझें और उन्हें मिल कर दूर करें.

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‘‘हमारे देश में महिलाएं लगातार हिंसा, बलात्कार, भेदभाव का शिकार हो रही हैं. यदि उन्हें सिर्फ 2 चीजें- पहली शिक्षा और दूसरी रोजगार हासिल हो जाए तो उन पर होने वाले अपराधों पर विराम लग जाए. शिक्षा से समझ बढ़ेगी और रोजगार से पैसा आएगा.’’

सरन कौन, अनीता लाल जैसी महिलाओं को देख कर कहा जा सकता है कि मजबूत और सकारात्मक सोच रखने वाली महिलाएं न सिर्फ खुद सशक्त हो रही हैं, बल्कि दूसरों को भी सशक्त बना रही हैं.

व्यावहारिकता, अनुभव और कौशल विपरीत से विपरीत स्थिति में भी जीवनयापन में सहायता करता है. ऐसा नहीं है कि अशिक्षित महिलाओं में कौशल एवं हुनर कम है. कृषि, कुटीर उद्योग, पारंपरिक व्यवसाय, पशुपालन, दुग्ध व्यवसाय जैसे कार्यों की तरफ महिलाएं तेजी से बढ़ रही हैं.

औरत के सशक्त होने से एक परिवार ही नहीं, बल्कि समाज और राष्ट्र भी सशक्त होता है. महानगरों में एकल परिवार की कितनी ही महिलाएं हैं, जिन के पास खूब खाली वक्त है, जिस का सदुपयोग कर के वे अपनी शिक्षा, शौक और क्षमता को नष्ट होने से बचा सकती हैं और परिवार, समाज और देश को कुछ अद्भुत दे सकती हैं.

Edited by Rosy

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दिल्ली, मुंबई, बैंगलुरु जैसे महानगरों में बसने वाले मध्यम और उच्चवर्गीय एकल परिवारों की संख्या निरंतर बढ़ती जा रही है. ऐसे परिवारों की महिलाओं के पास शिक्षा, समय और पैसे की कमी नहीं है. पति के काम पर और बच्चों के स्कूल चले जाने के बाद उन के पास काफी खाली वक्त होता है. आज इसी खाली वक्त, शिक्षा और क्षमता का प्रयोग कर के बहुत सी महिलाओं ने बड़े-बड़े व्यवसाय खड़े कर लिए हैं. इस तरह उन्होंने न सिर्फ पैसा कमाने में पति का सहयोग किया, बल्कि घर में रहते हुए, घर को, कामों को नजरअंदाज किए बगैर पारिवारिक जिम्मेदारियों को निभाते हुए अपने समय का बेहतरीन उपयोग किया है.

खाने ने दिया रोजगार

दिल्ली की कैलाश कालोनी में रहने वाली सरन कौर की उम्र करीब 60 साल है. उनके 3 बेटे हैं. तीनों ही अब सैटल हो चुके हैं. उन की पढ़ाई-लिखाई, शादियां और नौकरी में सैटल होने में सरन कौर की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है. वे पंजाब से ब्याह कर दिल्ली आई थीं. पति के पास नौकरी नहीं थी. घर में ही आगे के कमरे में उन्होंने एक किराने की दुकान खोल रखी थी. परिवार में तब सरन कौर के पति, सास, देवर और देवरानी थे.

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सरन कौर के बच्चे हुए, परिवार बढ़ा तो किराने की दुकान से घर का खर्चा निकालना मुश्किल होने लगा. तब सरन कौर ने पति के काम में सहयोग करने की ठानी. उन्हें खाना बनाने का शौक था. पंजाबी खाना बनाने में तो उन्हें महारत हासिल थी. अत: उन्होंने कैलाश कालोनी के थाने में जा कर अपने महल्ले के सीनियर सिटिजन की लिस्ट हासिल कर ली. फिर उन्होंने घरघर जा कर उन बूढ़े लोगों से मुलाकात की, जो अपने बच्चों की नौकरी के सिलसिले में दूसरे शहर या विदेश में बसने के कारण अकेले पड़ गए थे और जिन से चूल्हाचौका अब नहीं हो पाता था.

बहुत से बुजुर्ग होटल से खाना मंगवाते थे या नौकरों के हाथ से बने कच्चे- पक्के खाने पर जी रहे थे. सरन कौर ने उन्हें बहुत कम रेट पर अपने घर से खाना भिजवाने की बात कही. धीरे-धीरे महल्ले के कई घरों में बुजुर्गों को घर का बना ताजा और गरम खाना सरन कौर पहुंचाने लगीं. उन के बनाए खाने की प्रशंसा होने लगी तो जल्द ही उन के ग्राहकों की संख्या बढ़ने लगी. सरन कौर का टिफिन सिस्टम चल निकला. पैसा बरसने लगा.

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आज सरन कौर के पास एक बड़ी किचन है, जिस में 10-12 नौकर हैं, जो रोजाना करीब 300 टिफिन तैयार करते हैं. डिलिवरी बौय समय से टिफिन ग्राहकों तक पहुंचाते हैं. आज सरन कौर के ग्राहकों में सिर्फ बुजुर्ग लोग ही नहीं, बल्कि पेइंगगैस्ट के तौर पर दूसरे शहरों से आ कर रहने वाले लोग और औफिस में काम करने वाले लोग भी शामिल हैं. होटल या रेहड़ी के मसालेदार और अस्वस्थकर खाने की जगह मात्र 100 रुपए में घर की बनी दाल, चावल, सब्जी, रोटी, सलाद, दही उन्हें ज्यादा स्वादिष्ठ और सेहतमंद लगता है. सरन ने अपनी मेहनत और लगन से न सिर्फ परिवार को संभाला, बल्कि कई अन्य लोगों को भी रोजगार उपलब्ध कराया.

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‘‘संघर्ष और प्रतिद्वंद्विता तो हमेशा रहेगी, इन्हें हमेशा सकारात्मक नजर से देखें.’’

तान्या रस्तोगी ज्वैलरी ऐक्सपर्ट और क्यूरेटर हैं. उन्हें सुंदर और आकर्षक ज्वैलरी मास्टरपीस बनाने के लिए जाना जाता है. इन का संबंध नवाबों के परिवार ‘लाला जुगल किशोर ज्वैलर्स’ से है, जो सदियों से अवध के नवाबों के ज्वैलर रहे हैं. तान्या रस्तोगी को ‘लाइफटाइम अचीवमैंट अवार्ड’ और ‘रिटेल ज्वैलर इंडिया अवार्ड’ से सम्मानित भी किया जा चुका है. ‘गोल्ड ज्वैलरी औफ द ईयर’ में नौमिनेशन के लिए भी वे पहचानी जाती हैं. उन्होंने अपना खुद का इनहाउस प्रोडक्शन भी स्थापित किया है, जो डिजाइन कौन्सैप्ट पर आधारित है. पेश हैं, तान्या रस्तोगी से हुई गुफ्तगू के कुछ अंश:

इस फील्ड में आने की प्रेरणा कैसे मिली?

मेरा झुकाव शुरू से ही डिजाइनिंग और कला की ओर रहा है. ज्वैलरी पहनावे की कला का एक रूप है और इस की यही बात मुझे हमेशा आकर्षित करती है. मैं ने दिल्ली के एक संस्थान से जैमोलौजी और डिजाइनिंग का कोर्स किया है. मेरे पिता का वाराणसी में बनारसी साडि़यों का व्यापार था और यह संयोग की बात है कि मेरी शादी भी ज्वैलर्स के घर हुई.

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ऐसी कौन सी बात है, जो आप को ये सब करने को प्रेरित करती है?

मैं अपनी ऐग्जिबिशन कर्णफूल के लिए ज्वैलरी डिजाइन कर रही थी. मुझे हमेशा अलग डिजाइनें बनाना पसंद रहा है. इसी दौरान पता चला कि मुझे 150 साल पुरानी खानदानी अवधी नवाबों की विंटेज ज्वैलरी पर काम करने की अनुमति मिली है. मैं ने इसे नई जैसा बनाया और इस तरह ‘ज्वैल्स औफ अवध’ का पहला लिमिटेड ऐडिशन तैयार किया. इसे मिली जबरदस्त प्रतिक्रिया से ‘ज्वैल्स औफ अवध’ का नाम बना जो अब लखनऊ स्थित लाला जुगल किशोर ज्वैलर्स के आउटलेट में एक लाउंज है, जहां मैं दुलहनों की सजावट पर काम करती हूं.

इस फील्ड में महिलाओं के लिए कितना स्कोप है?

यह एक कलात्मक क्षेत्र है. फिर भी कुछ मूल बातों की जानकारी होनी आवश्यक है. डिजाइनिंग कैरियर का एक अहम हिस्सा है, लेकिन अपनी धातुओं और रत्नों की समझ ही कैनवास को वास्तविकता में बदलने में अहम भूमिका निभाती है. इस क्षेत्र में आने की उत्सुक सभी महिलाओं को मेरी सलाह है कि वे बुनियादी बातें सीखने पर ध्यान दें. किसी मैंटोर के साथ काम करने से आप को कलाकारी के बेहतरीन तरीके सीखने में मदद मिलेगी.

यहां तक पहुंचने के क्रम में किन संघर्षों का सामना करना पड़ा?

मैं एक प्रगतिशील परिवार से हूं, जो मुझे इस बिजनैस में देखना चाहता था. मुझे ज्वैलरी डिजाइनिंग व जैमोलौजी में डिग्री लेने के लिए प्रोत्साहित किया गया. लेकिन यह तब तक आसान नहीं था जब तक कि मैं उन के भरोसे पर खरी नहीं उतरती. दिनप्रतिदिन बाजार बदल रहा है. एक महिला के तौर पर आप को अपनी जगह बनानी होती है. इंडस्ट्री के अन्य लोगों के बीच खुद को स्थापित करना होता है. यह सुनिश्चित करने के लिए मैं लगातार पढ़ती रही और खुद को अपडेट रखा. आज मैं इंडस्ट्री फोरम और बिजनैस चैनल में इस इंडस्ट्री का प्रतिनिधित्व करती हूं. मुझे इंडस्ट्री को यह समझाने में काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ा कि मैं एक साधारण ज्वैलरी डिजाइनर से कहीं बढ़ कर हूं.

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अपना मैंटोर किसे मानती हैं?

अपने ससुर अंबुज रस्तोगीजी को. उन्होंने ही मुझे ज्वैलरी और रत्नों की पेचीदगियां सिखाईं.

सकारात्मक दृष्टिकोण बनाए रखने के लिए किन बातों पर ध्यान देना आवश्यक है?

मुझे लगता है कि सकारात्मकता बनाए रखना एक निरंतर प्रयास है. जीवन में कई उतारचढ़ाव आते हैं. आप को बुरे समय में भी अपना उत्साह बनाए रखना चाहिए. संघर्ष और प्रतिद्वंद्विता तो हमेशा रहेगी. इन्हें सकारात्मक नजर से देखें. इन की वजह से खुद का मनोबल न गिरने दें.

समाज में स्त्रियों के प्रति लगातार हो रहे अपराधों के संदर्भ में क्या कहेंगी?

यह काफी दुखद है. इस से भी बुरा यह है कि महिलाएं अपने लिए लड़ने से डरती हैं और किसी भी तरह की मदद लेने से मना कर देती हैं. हालांकि मीडिया जिस तरह से विभिन्न अभियानों के माध्यम से उन्हें उन के अधिकारों के बारे में शिक्षित और प्रोत्साहित कर रहा है उस की मैं तारीफ करती हूं. मेरी निजी सोच यह है कि जब तक आप स्वयं की मदद नहीं करेंगी, कोई अन्य आप की मदद नहीं कर पाएगा.

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‘‘मैं खुश हूं कि मेरी पहल के बाद कई महिलाओं ने अपने शोषण की बात कहने की हिम्मत जुटाई.’’

मिस इंडिया यूनिवर्स का खिताब जीत कर मौडलिंग और फिल्मों में काम करने वाली अभिनेत्री तनुश्री दत्ता झारखंड के जमशेदपुर की हैं. हिंदी फिल्म ‘आशिक बनाया आप ने’ उन की पहली फिल्म थी. तनुश्री बेहद साहसी हैं. हर बात को खुल कर कहती हैं. 2008 में फिल्म ‘हौर्न ओके प्लीज’ के दौरान उन्होंने नाना पाटेकर के खिलाफ आवाज उठाई थी, क्योंकि नाना पाटेकर का गलत तरीके से छूना और फिल्म में इंटिमेट सीन की मांग करना उन्हें खराब लगा था. वे फिल्म को बीच में ही छोड़ कर अमेरिका चली गई थीं, क्योंकि उन की बात को न सुना जाना उन के लिए डिप्रैशन का कारण बना था. ‘मीटू मूवमैंट’ में उन्होंने अपनी बात एक बार फिर से सब के सामने रखी, जिसे ले कर बहुत हंगामा हुआ. पिछले दिनों जब तनुश्री से मिलना हुआ, तो वे शांत, सौम्य और धैर्यवान दिखीं. पेश हैं, उन से हुए कुछ सवाल-जवाब:

फिल्म इंडस्ट्री में अच्छी तरह तालमेल बैठाने के बाद आप विदेश क्यों चली गईं और वहां क्या कर रही हैं?

‘हौर्न ओके प्लीज’ फिल्म की इस घटना ने मुझे हिला दिया था. अभिनेता नाना पाटेकर, निर्माता समीर सिद्दीकी, निर्देशक राकेश सारंग और कोरियोग्राफर गणेश आचार्य ने मिल कर मुझे परेशान किया था. इस के बाद मेरी इच्छा बौलीवुड में काम करने की नहीं रही थी. मैं ने जो फिल्में साइन की थीं, उन्हें पूरा किया. कुछ नई फिल्में भी साइन की थीं पर बाद में उन्हें करने की इच्छा नहीं हुई. हालांकि मैं उस समय अच्छा अभिनय कर रही थी. मैं ने फिल्मों का चयन करना भी सीख लिया था, लेकिन इस घटना से मैं डर गई थी. मुझे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि मेरे साथ ऐसा कुछ हो सकता है. हैरसमैंट के अलावा महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के गुंडे बुला कर मेरी गाड़ी भी तुड़वा दी. उस से मुझे बहुत धक्का लगा. उस समय मेरे साथ मेरे मातापिता भी थे. वे मुझे उस माहौल से निकालने के लिए आए थे. इस के बाद मुझे इस माहौल में नहीं रहना था.

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आज से 10 साल पहले जब ये सारी बातें कहीं गई थीं, तो इन्हें न सुनने की वजह क्या थी?

मैंने उस समय पूरे साहस के साथ सारी बातें कही थीं. टीवी पर कई दिनों तक मेरा इंटरव्यू चलता रहा. उस समय मेरी उम्र कम थी, जोश बहुत था, लेकिन मीडिया और लोग बहुत अलग थे. सोशल मीडिया इतना ताकतवर नहीं था. लोगों में जागरूकता कम थी. हैरसमैंट को लोग सीरियसली नहीं लेते थे. उन का कहना था कि थोड़ा परेशान कर दिया तो क्या हुआ, रेप तो नहीं किया? भूल जाओ. ‘मीटू कैंपेन’ का शुरुआती दौर बहुत मजबूत था, लेकिन अब यह कुछ धीमा पड़ने लगा है.

क्या आप को नहीं लगता कि इस के अंजाम तक पहुंचने की जरूरत है?

इस का अंजाम हो चुका है, क्योंकि लोगों में जागरूकता बढ़ी है, जो मैं चाहती थी. पहले ये सारी बातें यों ही बातोंबातों में कही गई थीं. अब यह एक अभियान बन चुका है. मुझे जो कहना था वह मैं ने कह दिया है. यह कोई फिल्म नहीं जिस का प्रमोशन हो रहा है और बाद में लोग हाल में जा कर इसे देखेंगे. पहले भी मैं ने अपनी बातें कहने की कोशिश की थी, लेकिन अब अधिक सुनी गईं और इस की वजह लोगों में जागरूकता बढ़ना है.

क्या इस मुहिम से पुरुषों की मानसिकता में कुछ बदलाव आएगा?

आना तो चाहिए, क्योंकि महिलाओं को सम्मान देने की काफी बातें धर्मग्रंथों में कही गई हैं, जिन्हें कोई नहीं सुनता. जब सीधी उंगली से घी नहीं निकलता है, तो उंगली टेढ़ी करनी ही पड़ती है. अगर मुझे पता होता कि इतनी परेशानी और लांछन इतने सालों बाद भी झेलने पड़ेंगे, तो शायद मैं इस चक्कर में नहीं पड़ती, लेकिन मैं खुश हूं कि मेरे कहने के बाद कई महिलाओं ने अपनी बात कहने की हिम्मत जुटाई.

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इस दौरान परिवार ने कैसा सहयोग दिया?

मेरे मातापिता बहुत परेशान थे, क्योंकि पहले भी जब मैं ने कहने की कोशिश की थी तो किसी ने नहीं सुना था. मेरे मातापिता खुश थे कि मैं अमेरिका चली गई हूं. उन्होंने मुझे तनाव में देखा है और नहीं चाहते थे कि मैं फिर से इस से जुडूं. मैं यहां छुट्टियां बिताने आई थी. यहां पर अपने उतारचढ़ाव के बारे में मैं ने थोड़े इंटरव्यू दिए थे, जिन के द्वारा मैं मानसिक तनाव को ठीक करना चाहती थी और हो भी रहा था. ऐसे में ऐसी घटना हुई. पहले तो वे परेशान हुए, पर इस मुहिम को देख कर वे खुश हैं.

‘‘बचपन से आयुर्वेद के बारे में सुना था, इसलिए इस लाइन में आई.’’

वेदिका ने लंदन की रीजैंट यूनिवर्सिटी से ग्लोबल मार्केटिंग मैनेजमैंट में डिग्री लेने के बाद यूनिवर्सिटी औफ वैस्टमिंस्टर से मार्केटिंग कम्यूनिकेशन में मास्टर डिग्री हासिल की. अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद पारिवारिक व्यवसाय में जुड़ने से पहले उन्होंने भारत में मार्केटिंग के क्षेत्र में अनुभव हासिल करने के लिए टाइम्स गु्रप, कोका कोला और बिग एफएम जौइन किया. अपने अनुभव और काबिलीयत का इस्तेमाल अपने व्यवासाय को आगे बढ़ाने के मकसद से हाल ही में वेदिका शर्मा ने मंत्रा हर्बल की कमान संभाली है, जो लोगों को हेयर, स्किन केयर व स्पा के बेहतरीन व नैचुरल प्रोडक्ट्स उपलब्ध करवा रही है. ये नैचुरल होने के साथसाथ मौडर्न टैक्नोलौजी पर आधारित हैं, साथ ही पूरी तरह से सेफ भी हैं. आइए, जानते हैं उन के सफर के बारे में:

क्वालिटी आयुर्वेद सौल्यूशन से आप का क्या मानना है?

यह पूरी तरह से सरकार द्वारा स्वीकृत टै्रडिशनल तरीका है. इस में आयुर्वेद सार समिता होती है, जो बताती है कि कैसे दवाइयां बनेंगी. यहां तक कि प्रौपर तरीका फौलो होता है जैसे कौन से ट्री का स्टेम, छाल, पत्तियों, फल आदि का इस्तेमाल किया जाएगा और वह भी निर्धारित तरीकों के अनुसार. यह पूरी तरह प्राकृतिक होता है. इस में किसी तरह के पेस्टीसाइड्स या कैमिकल्स का यूज नहीं किया जाता.

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ये किस तरह से मार्केट में आने वाले अन्य प्रोडक्ट्स से अलग हैं और लोग इन्हें क्यों खरीदें?

इस बात से लोग परिचित हैं कि आयुर्वेद प्रोडक्ट्स कैमिकल फ्री होते हैं और उन का कोई साइड इफैक्ट भी नहीं होता. हमारा बैद्यनाथ रिसर्च फाउंडेशन है, जो पूरा साल रिसर्च करता है. इन प्रोडक्ट्स की खासीयत यह भी है कि इन्हें लंबे समय तक बिना डरे इस्तेमाल किया जा सकता है.

अपने उत्पादों के बारे में बताएं?

हमारे प्रोडक्ट्स पैराबीन, पैराफिन व कैमिकल फ्री होते हैं. 12 तरह के कैमिकल्स होते हैं, जिन्हें हम अपने प्रोडक्ट्स में नहीं डालते हैं और फिर जो खुशबू और कलर यूज किया जाता है वह भी 100% नैचुरल होता है. बिना डरे बच्चों पर भी इन प्रोडक्ट्स को यूज कर सकते हैं. हमारे प्रोडक्ट्स जैसे रोजवाटर, आमंड औयल काफी बेहतरीन हैं. आमंड औयल को तो आप स्किन, बालों में अप्लाई करने के साथसाथ दूध में मिला कर पी भी सकते हैं.

आयुर्वेद से क्या हर बीमारी का ट्रीटमैंट संभव है?

ट्रीटमैंट में भले ही वक्त लगता है, लेकिन सही लाइफस्टाइल के साथ ज्यादातर बीमारियां ठीक हो जाती हैं. वैसे भी लोग आजकल ऐसी दवाओं या ट्रीटमैंट्स को प्राथमिकता दे रहे हैं जिन का कोई साइडइफैक्ट नहीं होता है. आयुर्वेदा प्रीवैंशन में विश्वास करता है अगर शुरू से आयुर्वेदिक दवाइयां किसी आयुर्वेद प्रोफैशनल की देखरेख में ली जाएं तो बीमारियां ठीक हो जाती हैं, क्योंकि रिसर्च हर साल हर बीमारी, हर दवाई पर होती है.

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अपनी प्रोडक्ट रेंज के विस्तार के लिए आगे का क्या प्लान है?

हम लगातार नए प्रोडक्ट्स लौंच करते रहते हैं. हम 2 महीनों में 2-3 प्रोडक्ट्स और मार्केट में लौंच करेंगे, जिन में फैशियल किट, स्क्रब, टोनर आदि शामिल हैं. भविष्य में हम अपने स्टोर्स की संख्या भी और बढ़ाने वाले हैं. ये मार्केट में मिलने वाले बाकी प्रोडक्ट्स से सस्ते हैं या महंगे? मध्यवर्गीय लोग इन का इस्तेमाल कैसे करेंगे?? हमारे मिड लैवल प्रोडक्ट्स हैं. सभी प्रोडक्ट्स के अलगअलग साइज उपलब्ध हैं. हर वर्ग के उपभोक्ता अपनी जरूरत और बजट के हिसाब से छोटा या बड़ा पैक खरीद सकते हैं.

इस लाइन में आने के बारे में कैसे सोचा?

मेरे पिता बैद्यनाथ आयुर्वेदा चलाते हैं. मैं ने बचपन से आयुर्वेदा के बारे में सुना और देखा है. मैंने हमेशा आयुर्वेदिक दवाइयां ही खाई हैं, तो कह सकते हैं कि यह मेरे घर से ही मुझ में आया. भारत में आयुर्वेद के प्रति जागरूकता पिछले कुछ ही सालों में बढ़ी है जबकि विदेशों में काफी समय से आयुर्वेद के प्रति के्रज है. मैं काफी साल लंदन में रही. वहां आयुर्वेद का क्रेज काफी है. लोग आयुर्वेद प्रोडक्ट्स खरीदना और उन्हें इस्तेमाल करना बहुत पसंद करते हैं. मगर भारत में अभी इस बारे में क्रेज कम है, जिस के लिए और जानकारी देने की जरूरत है.

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‘‘घर-परिवार और बच्चों को संभालते हुए यहां तक पहुंचना काफी मुश्किल रहा.’’

सुमन न सिर्फ न्यूट्रिशन इंडस्ट्री की जानीमानी हस्ती हैं, बल्कि एक सफल व्यवसायी, लेखिका, गायिका के साथसाथ नृत्य कला में भी महारत हासिल कर चुकी हैं. वेट लौस, वेट मैंटेन, वेट गेन, डाइट फौर बूस्टिंग इम्यूनिटी, चिल्ड्रन न ्यूट्रिशन जैसी सर्विसेज अपने जरीए लोगों तक पहुंचाने के लिए 2001 में उन्होंने मुंबई और कोलकाता में सैल्फ केयर सैंटर की शुरुआत की. स्वास्थ्य के प्रति लोगों को जागरूक करने के लिए उन्होंने 3 किताबें- ‘द डौंट डाइट डाइट कुकबुक,’ ‘अनजंक्ड हैल्दी ईटिंग फौर वेट लौस’ व ‘सुपर किड हैल्दी ईटिंग फौर किड्स ऐंड टीन’ भी लिखीं. मां बनने के बाद कैरियर की शुरुआत और सफलता पाने वाली सुमन की जिंदगी को आइए और करीब से जानें:

कैसा रहा आप का सफर?

मैं 12-13 साल की उम्र से हैल्थ और बीमारियों से जुड़ी किताबें पढ़ती आ रही थी, लेकिन मेरी शादी 20 साल की उम्र में ही हो गई और फिर बच्चे हो गए, इसलिए इस ओर बढ़ने का मौका नहीं मिला. अपनी तीसरी बेटी को जन्म देने के बाद मैं ने 1 साल का फूड ऐंड न्यूट्रिशन डिप्लोमा किया. मुझे हमेशा लगता था कि कुछ खाने से अगर बीमारी हो सकती है, तो खाने के जरीए ठीक भी हो सकती है. मैं सही थी. कोर्स के दौरान मुझे इन्हीं बातों की जानकारी मिली. जब मेरी छोटी बेटी 3 साल की हो गई तब मैं ने औफिस जौइन किया. धीरेधीरे मेरे पास क्लाइंट आने लगे और मेरा व्यवसाय बढ़ता गया.

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पुरुषप्रधान समाज में अपने लिए स्थान बनाना कितना मुश्किल रहा?

मैं खुश हूं कि इन क्षेत्रों में पुरुषों के मुकाबले महिलाओं की संख्या अधिक है, इसलिए मुझे बतौर प्रतिस्पर्धी बहुत कम पुरुषों का सामना करना पड़ा. हां, लेकिन शुरुआती दौर में मेरे साथ ऐसा बहुत होता था कि जब मेरे पुरुष दोस्त किसी पुरुष से मेरी तारीफ करते और उसे मेरे पास ट्रीटमैंट के लिए जाने को कहते तो वे यह कह कर टाल देते कि एक महिला पुरुष को कैसे ठीक कर सकती है. उन की यह प्रतिक्रिया मुझे थोड़ी देर के लिए निराश कर देती थी, पर मैं सारी चीजों को नजरअंदाज कर अपना पूरा ध्यान काम पर लगाती और आज परिणाम यह है कि मेरे पास जितनी महिला क्लाइंट हैं उतने ही पुरुष भी हैं.

बचपन से ही न्यूट्रिशनिस्ट बनना चाहती थीं या किसी ने आप को प्रेरित किया?

सच कहूं तो मेरे अंदर न्यूट्रिशनिस्ट का बीज बोने वाले मेरे पिता ही थे. दरअसल, वे बहुत ज्यादा हैल्थ कौंशस थे. हमारा पूरा परिवार यानी 6 लोग, 4 भाईबहन और मांपापा एकसाथ ब्रेकफास्ट करते थे, जो 1 घंटा चलता था. उस दौरान मेरे पापा इसी विषय पर बात करते कि क्या हैल्दी है और क्या नहीं. हमें क्या खाना चाहिए क्या नहीं. हालांकि वे इस क्षेत्र से नहीं थे, लेकिन उन की रुचि बहुत थी. वे स्वास्थ्य से जुड़ी ढेरों किताबें घर ले आते थे, जिन्हें मैं पढ़ती थी और इस तरह मेरी रुचि इस क्षेत्र में बढ़ती गई. मेरे पापा बहुत ही सपोर्टिव फादर रहे हैं. उन्होंने हम चारों भाईबहनों को फ्रीडम दे रखी थी. कभी हम पर बेमतलब की पाबंदी नहीं लगाई. सच कहूं तो लड़का हो या लड़की, आगे बढ़ने और जीवन के सही मूल्यों को समझने के लिए परिवार का सकारात्मक सहयोग बेहद जरूरी है. मुझे मेरी पहचान दिलाने में मेरे पिता की जो भूमिका रही उसे मैं कभी भूल नहीं सकती.

किस तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ा?

मेरे लिए घरपरिवार और बच्चों को संभालते हुए यहां तक पहुंचना काफी मुश्किल रहा है. मैं ने काफी स्ट्रगल किया है. बहुत कुछ गिव अप किया है. मैं ने कभी टीवी नहीं देखा, कभी कोई किट्टी पार्टी जौइन नहीं की. मेरा फोकस मेरा परिवार और काम रहा है.

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2004 में आप ने ब्रेन सर्जरी भी करवाई थी. उस दौर से किस तरह उबरीं?

हां, मैंने 2004 में ब्रेन सर्जरी करवाई थी. दरअसल, मेरे चेहरे के बाईं ओर के हिस्से पर मेरा कंट्रोल नहीं था. वह लगातार हिलता रहता था, जिस की वजह से मैं स्माइल भी नहीं कर पाती थी. नतीजतन मैं बहुत टौर्चर होती थी. डिप्रैशन भी मुझ पर हावी होने लगा था. लेकिन मैं ने हिम्मत नहीं हारी. अपनी रिपोर्ट्स देशविदेश भेजीं. आखिरकार जरमनी में जा कर सर्जरी करवाई जो कामयाब रही. किसी भी बीमारी से जूझने के लिए दवा और सही इलाज तो जरूरी है ही, साथ ही अपने अंदर मजबूती की लौ भी जलाए रखना बेहद जरूरी है.

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‘‘मुझे समाज को दिखाना था कि हम जैसे लोग भी बहुत कुछ कर सकते हैं.’’

दीपा शौटपुटर के अलावा स्विमर, बाइकर, जैवलिन व डिस्कस थ्रोअर हैं. पैरालिंपिक खेलों में उन की उल्लेखनीय उपलब्धियों के कारण उन्हें भारत सरकार ने अर्जुन पुरस्कार प्रदान किया था और इस वर्ष उन्हें पद्मश्री से भी नवाजा गया. बेचारी जैसे शब्दों का प्रयोग करने वाले समाज की इस सोच को अपनी हिम्मत और इच्छाशक्ति के बल बूते बदलने वाली देश की पहली महिला पैरालिंपिक मैडलिस्ट दीपा मलिक का जीवन चुनौतियों से भरा रहा. उन्होंने इतिहास तब रचा जब रियो में गोला फेंक स्पर्धा में रजत पदक जीत कर पैरालिंपिक में पदक हासिल करने वाली देश की पहली महिला खिलाड़ी बनीं. दीपा ने स्पाइन ट्यूमर से जंग जीती और फिर खेलों में मैडलों का अंबार लगा डाला. पेश हैं, दीपा से हुई बातचीत के कुछ अंश:

खुद के साथ बेटियों को संभालने और अपनी अलग पहचान बनाने की ताकत कहां से मिली?

मुझे कुछ करने की ताकत 3 चीजों से मिली- पहली मुझे समाज की उस नकारात्मक सोच को बदलना था जिस में मेरे लिए बेचारी और लाचार जैसे शब्दों का प्रयोग लोग करने लगे थे. इस अपंगता में जब मेरा दोष नहीं था तो मैं क्यों खुद को लाचार महसूस कराऊं? मुझे समाज को दिखाना था कि हम जैसे लोग भी बहुत कुछ कर सकते हैं. हिम्मत और जज्बे के आगे शारीरिक कमी कभी बाधा नहीं बनती. दूसरी ताकत मेरी बेटियां बनीं, जिन्हें मैं संभाल र ही थी. मैं नहीं चाहती थी कि बड़ी हो कर मेरी बेटियां मुझे लाचार मां के रूप में देखें. तीसरी ताकत खेलों के प्रति मेरा शौक बना, जिस ने इस स्थिति से लड़ने में मेरी बहुत सहायता की.

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पेरैंट्स का कैसा सहयोग रहा?

मैं आज उन्हीं की बदौलत यहां हूं. मैं जब ढाई साल की थी तब पहली बार मुझे ट्यूमर हुआ था. इस का पता भी पापा ने ही लगाया. जब मैं घर में गुमसुम रहने लगी तो पापा ने मुझे चाइल्ड मनोवैज्ञानिक को दिखाया. जब मेरी बीमारी का पता चला तब पुणे आर्मी कमांड हौस्पिटल में मेरा इलाज हुआ. मैं जब तक बैड पर रही, पापा हमेशा मेरे साथ रहे. मेरे पापा बीके नागपाल आर्मी में कर्नल थे. मां भी अपने जमाने की राइफल शूटर थीं. शादी के बाद जब 1999 में दूसरी बार मेरा स्पाइनल कोर्ड के ट्यूमर का औपरेशन हुआ तब भी मुझे पापा ने ही संभाला.

आप ने परिवार को कैसे संभाला?

मेरे पति भी आर्मी में थे. पहली बेटी देविका जब डेढ़ साल की थी तो उस का ऐक्सीडैंट हो गया. हैड इंजरी थी जिस से उस के शरीर का एक हिस्सा पैरालाइज हो गया. यह देख कर मैं बिलकुल नहीं घबराई. मैं ने खुद उस की देखभाल की, फिजियोथेरैपी की. आज वह बिलकुल स्वस्थ है और लंदन में साइकोलौजी से पीएचडी कर रही है. दूसरी बेटी भी पैरालाइज थी. उसे भी ठीक किया. आज वह भी पूरी दुनिया घूम चुकी है. म ैं तो मानती हूं कि मैं ने बेटी पढ़ा भी ली और बचा भी ली. लेकिन तीसरी सर्जरी के बाद मैं व्हीलचेयर पर आ गई, लेकिन तब भी हिम्मत नहीं हारी. मेरे लिए इन सब मुश्किलों से निबटना आसान नहीं था, मगर मुझे खुद पर यकीन था कि मैं इन से निबट भी लूंगी और जीवन को सामान्य धारा में भी ले आऊंगी.

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खेलों की शुरुआत कैसे हुई?

बचपन से ही मेरा लगाव खेलों की तरफ था. मैं स्पोर्ट में हिस्सा लेना और उन्हें देखना पसंद करती थी. लेकिन 2006 के बाद मैं ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा. जब स्पोर्ट में आगे बढ़ने की बारी आई तो सरकार से अपने अधिकारों के लिए लड़ी भी. कुछ नए नियम भी बनवाए. मैं पहले महाराष्ट्र की तरफ से खेलती थी. 2006 में एक तैराक के रूप में मुझे पहला मैडल मिला. उस समय मैं पूरे भारत में अकेली दिव्यांग तैराक थी.

आप ने यमुना नदी भी पार की है?

मैं जब बर्लिन से लौटी तब घर नहीं गई और यह तय किया कि मैं यमुना को पार करूंगी और विश्व में सब को बताऊंगी कि मैं असल तैराक हूं. किसी स्विमिंग पूल की तैराक नहीं हूं. इलाहाबाद के एक कोच से कहा कि आप कैसे भी हो मुझे यमुना पार कराओ. पहले तो उन्होंने मना किया पर फिर मेरे जज्बे को देख कर प्रैक्टिस कराने लगे. फिर 2009 में मैं ने यमुना नदी पार कर विश्व रिकौर्ड बनाया, जो ‘लिम्का बुक औफ वर्ल्ड रिकौर्ड्स’ में दर्ज हुआ. मेरे पास ‘गिनीज वर्ल्ड रिकौर्ड्स’ बुक वालों को बुलाने के लिए पैसे नहीं थे वरना यह रिकौर्ड गिनीज बुक में दर्ज होता.

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