इस बार जब मैं मायके गई तब अजीब सा सुखद एहसास हुआ मुझे. मेरे बीमार पिता के पास मेरी इकलौती मौसी बैठी थीं. वह मुझे देख कर खुश हुईं और मैं उन्हें देख कर हैरान.
यह मेरे लिए एक सुखद एहसास था क्योंकि पिछले 18 साल से हमारा उन से अबोला चल रहा था. किन्हीं कारणों से कुछ अहं खड़े कर लिए थे हमारे परिवार वालों ने और चुप होतेहोते बस चुप ही हो गए थे.
जीवन में ऐसे सुखद पल जो अनमोल होते हैं, हम ने अकेले रह कर भोगे थे. उन के बेटों की शादियों में हम नहीं गए थे और मेरे भाइयों की शादी में वे नहीं आए थे. मौसा की मौत का समाचार मिला तो मैं आई थी. पराए लोगों की तरह बैठी रही थी, सांत्वना के दो शब्द मेरे मुंह से भी नहीं निकले थे और मौसी ने भी मेरे साथ कोई बात नहीं की थी.
मौसी से मुझे बहुत प्यार था. अपनी मां से ज्यादा प्रिय थीं मौसी मुझे. पता नहीं स्नेह के तार क्यों और कैसे टूट गए थे जिन्हें जोड़ने का प्रयास यदि एक ने किया तब दूसरे ने स्वीकार नहीं किया था और यदि दूसरे ने किया तो पहले की प्रतिक्रिया ठंडी रही थी.
‘‘कैसी हो, संध्या? बच्चे साथ नहीं आए?’’ मौसी के स्वर में मिठास थी और बालों में सफेदी. 18 सालों में कितनी बदल गई थीं मौसी. सफेद साड़ी और उन का सूना माथा मेरे मन को चुभा था.
‘‘दिनेशजी साथ नहीं आए, अकेली आई हो?’’ मेरे पति के बारे में पूछा था मौसी ने. लगातार एक के बाद एक सवाल करती जा रही थीं मौसी. मेरी आवाज नहीं निकल रही थी. हलक में 18 साल के वियोग का गोला जो अटक गया था. एकाएक मौसी से लिपट कर मैं चीखचीख कर रो पड़ी थी.
‘‘पगली, रोते नहीं. देख, चुप हो जा संध्या,’’ इस तरह बड़े स्नेह से मौसी दुलारती रही थीं मुझे.
कितने ही अधिकार, जो कभी मुझे मौसी और मौसी के परिवार पर थे, अपना सिर उठाने लगे थे, मानो पूछना चाह रहे हों कि क्यों उचित समय पर हमारा सम्मान नहीं किया गया पर यह भी तो एक कड़वा सच है न कि प्यार तथा अधिकार कोई वस्तु नहीं हैं जिन्हें हाथ बढ़ा कर किसी के हाथ से छीन लिया जाए. यह तो एक सहज भावना है जिसे बस महसूस किया जा सकता है.
‘‘बच्चे साथ नहीं आए, किस के पास छोड़ आई है उन्हें?’’ मौसी के इस प्रश्न पर मैं रोतेरोते हंस पड़ी थी.
‘‘वे अब मेरी उंगली पकड़ कर नहीं चलते, मौसी. होस्टल में रह कर पढ़ते हैं.’’
‘‘अच्छा, इतने बड़े हो गए.’’
‘‘आप भी तो बूढ़ी हो गईं, और मेरे भी बाल देखो, अब सफेद हो रहे हैं.’’
‘‘हां,’’ कह कर मेरा गाल थपक दिया मौसी ने.
‘‘जीवन ही बीत गया अब तो…चल, आ, बैठ…मैं तेरे लिए चायनाश्ता लाती हूं. दीदी दवा लेने बाजार गई हैं.’’
‘‘छोटी भाभी कहां हैं?’’ मैं ने आगेपीछे नजरें दौड़ाई थीं.
‘‘आज उस के मायके में कोई फंक्शन था, इसलिए वह वहां गई है. घर में अकेले थे सो मैं भी चली आई. चल, हाथमुंह धो ले…मैं देखती हूं, क्या है फ्रिज में,’’ यह कह कर मौसी चली गईं.
5-7 मिनट में ही मौसी मेरे लिए चाय और नाश्ता ले कर आईर्ं.
‘‘ले, डबलरोटी के पकौड़े तुझे बहुत पसंद हैं न, मुझे याद है…साथ है यह मीठी डबलरोटी…यह भी तेरी पसंद की ही है.’’
मौसी का उत्साह वही वर्षों पुराने वाला ही था, यह देख कर आंखें भर आई थीं मेरी. मुसकरा पड़ी थी मैं.
‘‘बहुएं कैसी हैं, मौसी?’’ खातेखाते मैं ने पूछा था, ‘‘अब तो आप दादी भी बन गई हैं. कैसा लगता है दादी बनना?’’
‘‘अरे, आज की दादी बनी हूं मैं… 10 साल की पोती है मेरी. अब तो वह 5वीं में पढ़ती है. पोता भी 8 साल का है. नरेश की बेटी भी इस साल स्कूल जाएगी.’’
‘‘नरेश की भी बेटी है?’’ मैं आश्चर्य से बोली, ‘‘वह जरा सा था जब देखा था उसे.’’
‘‘हां, कल आना घर पर, देख लेना सब को. तुझे बहुत याद करते हैं लड़के. राखी पर सब का मन दुखी हो जाता है. तेरे बाद कभी किसी से उन लोगों ने राखी नहीं बंधवाई.’’
खातेखाते कौर मेरे गले में ही अटक गया. मुझे याद है, 18 साल पहले जब मैं मौसी के घर उन के बेटों को राखी बांधने गई थी तब मौसा ने कितना अनाप- शनाप कहा था.
आपसी संबंधोें की कटुता उस के मुंह पर इस तरह दे मारी थी मानो भविष्य में कभी उस की जरूरत ही नहीं पड़ेगी. कैसी विडंबना है न हमारे जीवन की. जब हम जवान होते हैं, हाथों में ताकत होती है तब कभी नहीं सोचते कि धीरेधीरे यह शक्ति घटनी है. हमें भी किसी पर एक दिन आश्रित होना पड़ सकता है. अपने स्वाभिमान को हम इतनी ऊंचाई पर ले जाते हैं कि वह अभिमान बन कर सामने वाले के स्वाभिमान को चोट पहुंचाने लगता है. अपनी सीमा समाप्त हो कर कब दूसरे की सीमा शुरू हो गई पता ही नहीं चलता.
राखी बांधना छोड़ दिया था तब मैं ने. उस के बाद मौसी की दहलीज ही नहीं लांघी थी. आज मौसी उसी के बारे में बात कर रही थीं. पूछना चाहा था मैं ने कि अगर मैं राखी बांधने नहीं आई तो तीनों लड़कों में से कोई भी राखी बंधवाने क्यों नहीं आया था? क्यों नहीं किसी ने उस से मिलना चाहा? मैं तो सदा दोनों बहनों में पुल का ही काम करती रही थी. पर एक दिन जब मैं पुल की ही भांति दोनों तरफ से प्रताडि़त होने लगी तब मैं ने बीच में से हट जाना ही ठीक समझा था.
‘‘मौसी, आप भी चाय लें न,’’ मैं ने उन की बात को उड़ा देना ही ठीक समझा था.
‘‘अभी तेरे आने से पहले मैं ने और जीजाजी ने चाय पी थी.’’
मौसी मेरे पिता की पीठ सहला रही थीं. 2 बूढ़ों में एक की सेवा दूसरा कर रहा था. देखने में अच्छा भी लग रहा था और विचित्र भी.
‘‘आप का जूस ले आऊं न अब…6 बज गए हैं,’’ मौसी ने पूछा और साथ ही जा कर जूस ले भी आईं.
पिताजी जूस पी ही रहे थे कि अम्मां भी आ गईं. वह मुझे देख कर खुश थीं और मैं दोनों बहनों को साथसाथ देख कर.
शाम गहरी हुई तो मौसी अपने घर चली गईं. दूसरी शाम आईं तो मेरे लिए पूरा दिन अपने साथ बिताने का न्योता था उन के होंठों पर.
‘‘भाभियों से नहीं मिलेगी क्या? सब तुझे देखना चाहती हैं…कल सुबह नरेश तुझे लेने आ जाएगा.’’
मौन स्वीकृति थी मेरे होंठों पर.
सुबह नरेश लेने चला आया. सुंदर, सजीला निकला था नरेश. इस से पहले जब देखा था तब बीमार रहने वाला, कमजोर सा लड़का था वह.
‘‘चरण स्पर्श, दीदी, पहचाना कि नहीं. मैं हूं तुम्हारा सींकिया पहलवान… नरेश…याद आया कि नहीं.’’
याद आया, अकसर सब उसे सींकिया पहलवान कह कर चिढ़ाते थे. वह सब को मारने दौड़ता था, सिवा मेरे.
आज भी उसे मेरा संबोधन याद था. आत्मग्लानि होने लगी मुझे. मैं सोचने लगी कि कैसी बहन हूं, यही सुंदर सा प्यारा सा युवक आज यदि मुझे कहीं बाजार में मिल जाता तो शायद मैं पहचान भी न पाती.
‘‘जीते रहो,’’ सस्नेह मैं ने उस का सिर थपथपाया था.
‘‘चलो, दीदी, वहां बड़ी बेसब्री से आप का इंतजार हो रहा है.’’
‘‘अच्छा, अम्मां, मैं चलती हूं,’’ मां से विदा ली थी मैं ने.
मौसी के घर मेरा भरपूर स्वागत हुआ था. तीनों बहुएं मेरे आगेपीछे सिमट आई थीं. बारीबारी से सभी चरण स्पर्श करने लगीं. बच्चों को मेरे पास बैठाया और कहा, ‘‘यह बूआ हैं, बेटे. इन्हें नमस्ते करो.’’
कितने चेहरे थे जो मेरे अपने थे, मगर मुझ से अनजान थे. जिन से आज तक मैं भी अनजान थी. बीते 18 सालों में कितना कुछ बीत गया, कितना कुछ ऐसा बीत गया जिसे साथसाथ रह कर भी भोगा जा सकता था, साथसाथ रह कर भी जिया जा सकता था.
पूरा दिन एक उत्सव सा बीत गया. बीते 18 साल मानो किसी कोने में सिमट गए हों, मानो वह बनवास, वह एकदूसरे से अलग रहने की पीड़ा कभी सही ही नहीं थी.
कड़वे पल न उन्होंने याद दिलाए न मैं ने, मगर आपस की बातों से मैं यह सहज ही जान गई थी कि मुझे वह भूले कभी भी नहीं थे. बारबार मेरे मन में एक ही प्रश्न उठ रहा था, जब दोनों तरफ प्यार बराबर था तो क्यों झूठे अहं खड़े किए थे दोनों परिवारों ने? क्यों अपनेअपने अहंकार संबंधों के बीच ले आए थे? समझ में नहीं आ रहा था, आखिर क्या पाया था हम दोनों परिवार वालों ने इतना सुख, इतना प्यार खो कर?
शाम के समय नरेश मुझे वापस घर छोड़ गया. रात में अम्मां और पिताजी मुझ से पूरा हालचाल सुनते रहे. 18 वर्षों के बाद मौसी के घर जो गई थी मैं.
‘‘कैसे लगे सब लोग…बहुएं… बच्चे?’’
‘‘बहुत अच्छे लगे. मेरे आगेपीछे ही पूरा परिवार डोलता रहा. बच्चे बूआबूआ करते रहे और भाभियां दीदीदीदी. लगा ही नहीं, कभी हम अजनबी भी रह चुके हैं,’’ एक पल रुकने के बाद मैं फिर बोली, ‘‘अम्मां, एक बात मेरी समझ में नहीं आई कि अचानक यह सब पुन: जुड़ कैसे गया?’’
‘‘ऐसा ही तो होता है…और यही जीवन है,’’ हंस कर बोले थे पिताजी, ‘‘जब इनसान जवान होता है तब भविष्य की बंद मुट्ठी उसे क्याक्या सपने दिखाती रहती है, तुम खुद भी महसूस करती होगी. भविष्य क्या है उस से अनजान हम तनमन से जुटे रहते हैं, बच्चों की लिखाईपढ़ाई है, बेटी की जिम्मेदारी है, सभी कर्तव्य पूरे करने होते हैं हमें और हम सांस भी लिए बिना कभीकभी निरंतर चलते रहते हैं. हमारी आंखों के सामने बच्चों के साथसाथ अपना भी एक उज्ज्वल भविष्य होता है कि जब बूढ़े हो जाएंगे तो चैन से बैठ कर अपनी मेहनत का फल भोगेंगे, बुढ़ापे में संतान सेवा करेगी, पूरा जीवन इसी आस पर ही तो बिताया होता है न हम ने. उस पल कभीकभी अपने सगे भाईबहनों से भी हम विमुख हो जाते हैं क्योंकि तब हमें अपनी संतान ही नजर आती है…बाकी सब पराए.
‘‘कई बार तो हम अपने मांबाप के साथ भी स्वार्थपूर्ण व्यवहार करने लग जाते हैं, क्योंकि उन के लिए कुछ भी करना हमें अपने बच्चों के अधिकार में कटौती करना लगता है. तब हम यह भूल जाते हैं कि हमारे मातापिता ने भी हमें इसी तरह पाला था. उन का भी चैन से बैठ कर दो रोटी खाने का समय अभी आया है. उन को छोड़ हम अपनी गृहस्थी में डूब जाते हैं और जब हम खुद बूढ़े हो जाते हैं तब पता चलता है कि हम भी अकेले रह गए हैं.
‘‘लगता है, हम तो ठगे गए हैं. मेरामेरा कर जिस बच्चे को पालते रहे वह तो मेरा था ही नहीं. वह तो अपने परिवार का है और हम उस की गृहस्थी के अवांछित सदस्य हैं, बस.’’
बोलतेबोलते थक गए थे पिताजी. कुछ रुक कर हंस पड़े वह. फिर बोले, ‘‘बेटा, ऐसा सभी के साथ होता है. जीवन की संध्या में हर इनसान अकेला ही रह जाता है. पीढ़ी दर पीढ़ी ऐसा ही होता आया है. तब थकाहारा मनुष्य अपने जीवन का लेखाजोखा करता है कि उस ने जीवन में क्या खोया और क्या पाया. भविष्य से तो तब कोई उम्मीद रहती नहीं जिस की तरफ आंख उठा कर देखे, सो अतीत की ओर ही मुड़ जाता है.
‘‘तुम्हारी मौसी भी इसीलिए अतीत को पलटी हैं. शायद भाईबहन ही अपने हों…और मजे की बात बुढ़ापे में पुराने दोस्त और पुराने संबंधी याद भी बहुत आते हैं. सब की पीड़ा एक सी होती है न इसीलिए एकदूसरे को आसानी से समझ भी जाते हैं, जबकि जवानों के पास बूढ़ों को समझने का समय ही नहीं होता.’’
‘‘आप का मतलब है संतान से हुआ मोहभंग उन्हें भाईबहनों की ओर मोड़ देता है?’’
‘‘हां, क्योंकि तब उसे जीने को कुछ तो चाहिए न…भविष्य नहीं, वर्तमान नहीं तो अतीत ही सही.
‘‘तुम्हारी मौसी का भरापूरा परिवार है. वह सुखी हैं. फिर भी अकेलेपन का एहसास तो है न. मौसा रहे नहीं, बच्चों के पास उन के लिए समय नहीं सो एक भावनात्मक संबल तो चाहिए न उन्हें… और हमें भी.’’
पिताजी ने खुद की तरफ भी इशारा किया.
‘‘हम भी अकेले से रह गए हैं. तुम दूर हो, तुम्हारे भाई अपनेअपने जीवन में व्यस्त हैं…एक दिन सहसा तुम्हारी मौसी सामने चली आईं… तब हम हक्केबक्के रह गए, स्नेह का धागा कहीं न कहीं अभी भी हमें बांधे हुए है यह जान हमें बहुत संतोष हुआ. और बुढ़ापे में सोच भी तो परिपक्व हो जाती है न. पुरानी कड़वी बातें न वह छेड़ती हैं न हम. बस, मिलबैठ कर अच्छा समय काट लेते हैं हम सब.
‘‘अब चलाचली के समय चैन चाहिए हमें भी और तुम्हारी मौसी को भी, क्योंकि जीवन का लेखाजोखा तो हो चुका न, अब कैसा मनमुटाव?’’
सारे जीवन का सार पिताजी ने छान कर सामने परोस दिया. जवानी के जोश में भाईबहनों से विमुखता क्या जायज है? जबकि यह एक शाश्वत सत्य है कि आज के युग में संयुक्त परिवारों का चलन न रहने पर हर इनसान का बुढ़ापा एक एकाकी श्राप बनता जा रहा है, क्या यह उचित नहीं कि हम अपनी सोच को थोड़ा सा और बढ़ा कर स्नेह के धागे को बांधे रखें ताकि बुढ़ापे में एकदूसरे के सामने आने पर शरम न आए और अपनी संतान का भी उचित मार्गदर्शन कर सकें… बुढ़ापा तो उन पर भी आएगा न. बुढ़ापे में भाईबहनों में घिर उन्हें भी अच्छा लगेगा क्योंकि तब उन की संतानें भी उन्हें अकेला छोड़ अपनेअपने रास्ते निकल चुकी होंगी.
पीढि़यों का यह चलन पहली बार संध्या को बड़ी गहराई से कचोट गया. क्या वास्तव में उस के साथ भी ऐसा ही होगा? जेठजी के साथ परिवार वालों की खटपट चल रही है, जिस वजह से उन से कोई भी मिलना नहीं चाहता. उस के पति भी नहीं, बात क्या हुई कोई नहीं जानता. बस, जराजरा से अहं उठा लिए और बोलचाल बंद. कोई भी पहल करना नहीं चाहता जबकि सचाई यह है कि घर में हर पल उन्हीं की बात की जाती है.
‘‘आप को भाई साहब से मिलना चाहिए, हमारे बच्चे बड़े हो रहे हैं, हम भला उन के सामने कैसा उदाहरण पेश कर रहे हैं. खून के रिश्तों में अहं नहीं लाना चाहिए, वह हमारे बड़े हैं, हमारे अपने हैं. पहल हम ही कर लेते हैं, कोई छोटे नहीं हो जाएंगे हम…चलिए चलें.’’
संध्या ने घर वापस पहुंच कर सब से पहले अपने घर के टूटे तारों को जोड़ने का प्रयास किया. पति एकटक उस का चेहरा ताकने लगे.
‘‘जहां तक हो सके हमें निभाना सीखना चाहिए, तोड़ने की जगह जोड़ना सिखाना चाहिए अपने बच्चों को…’’
बात को बीच में काटते हुए संध्या के पति बोले, ‘‘और सामने वाला चाहे मनमानी करता रहे.’’
‘‘फिर क्या हो गया… वह आप के बड़े भाई हैं…मैं ने कहा न, व्यर्थ अहं रख कर खून के रिश्ते की बलि नहीं चढ़ानी चाहिए.’’
संध्या ने मौसी की पूरी कहानी पति को सुना दी. चुपचाप सुनते रहे वह, जरा सा तुनके, फिर सहज होने लगे.
‘‘तुम ही पैर छूना, मैं नहीं…’’
‘‘कोई बात नहीं, मैं ही छू लूंगी, वह मेरे ससुर समान जेठ हैं. आप साथ तो चलिए.’’
संध्या मनाती रही, समझाती रही. उम्मीद जाग उठी थी मन में कि पति भी मान जाएंगे. एक सीमा में रह कर रिश्तों को निभाना इतना मुश्किल नहीं, ऐसा उसे विश्वास था. मन में जरा सा संतोष जाग उठा कि हो सकता है कि जब उस का बुढ़ापा आए तो वह अकेली न हो, उस के भाई, उस के रिश्तेदार आसपास हों, एकदूसरे से जुड़े हुए. तब वह यह न सोचे कि उस ने जीवन में अपनों को अपने से काट कर क्या खोया क्या पाया.