REVIEW: नकली प्यार और बेवफाई के साथ सेक्स दृश्यों की भरमार है Gehraiyaan

रेटिंगः दो स्टार

निर्माताः धर्मा प्रोडक्शंस,वायकाम 18 और जोउस्का फिल्मस

निर्देशनः शकुन बत्रा

लेखनःआयशा देवित्रे , सुमित रॉय , यश सहाय और शकुन बत्रा

कलाकारः दीपिका पादुकोण,अनन्या पांडे,सिद्धांत चतुर्वेदी,धैर्य करवा ,नसिरूद्दीन शाह व अन्य.

अवधिः दो घंटे 28 मिनट

ओटीटी प्लेटफार्मः अमजान प्राइम वीडियो

शहरों में रह रही अंग्रेजीदां युवा वर्ग जिस तरह से अपनी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए रिश्तें के हर मापदंड को दरकिनार करती जा रही है,वह जिस तरह बचपन की दोस्ती,प्यार के रिश्ते व संबंधों को पैसे व महत्वाकांक्षा की तराजू पर तौलने लगी है,उसी का चित्रण करने वाली,अति बोल्ड दृश्यों की भरमार व अति धीमी गति वाली फिल्म ‘‘गहराइयां’’ लेकर फिल्मकार शकुन बत्रा आए हैं,जो कि ग्यारह फरवरी से अमेजान प्राइम पर स्ट्रीम हो रही है.

कहानीः

कहानी के केंद्र में दो चचेरी बहने आलिशा(दीपिका पादुकोण ) और टिया(अनन्या पांडे ) हैं. इनके पिता सगे भाई व व्यापार में भागीदार थे. इनका अलीबाग में भी बंगला है. मगर जब टिया व आलिशा छोटी थीं,तभी कुछ रिश्तें में आयी एक जटिलता के चलते आलिशा के पिता(नसिरूद्दीन शाह) सब कुछ छोड़कर पूरे परिवार के साथ नाशिक रहने चले गए थे तथा वह की आलिशा मां को दोषी मानते रहे. अंततः घुटघुटकर जिंदगी जीने की बजाय एक दिन आलिशा की मां ने खुदकुशी कर ली थी. इसका आलिशा के मनमस्तिक पर गहरा असर पड़ा. बादा में टिया पढ़ाई करने अमरीका चली जाती है. जहां उसकी मुलकात अतिमहत्वाकांक्षी जेन से होती है और दोनो रिश्ते में बंध जाते हैं. इधर महत्वाकांक्षी आलिशा योगा शिक्षक है और अपने प्रेमी करण के साथ मुंबई में रहती है. उसकी तमन्ना अपना योगा का ऐप शुरू करने का है. करण एक एड एजंसी की नौकरी छोड़कर किताब लिख रहा है. उस पर लेखक बनने का भूत सवार है.

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फिल्म वहां से शुरू होती है, जब अलीशा खन्ना खुद को जीवन में एक चैराहे पर पाती हैं. उसे लग रहा है कि उसका छह वर्ष का करण के साथ लंबा रिश्ता नीरस हो गया है. उसके करियर में काफी बाधाएं आयीं और अब उसने इस वास्तविकता को अपरिवर्तनीय मान लिया है. तभी उसकी चचेरी बहन बहन टिया अपने मंगेतर जेन के साथ मंुबई वापस आती है और आलीशा व करण को अपने साथ अलीबाग चलने के लिए कहती हैं. यहीं से इन चारों के बीच के रिश्ते में काफी उथल पुथल मचने लगती है. अतीत के घटनाक्रम भी सामने आते हैं. रिश्तों का बांध टूटता है. आलीशा व जेन के बीच एक रिश्ता विकसित होता है,जिसका दुःखद अंत सामने आता है. कई घटनाक्रम तेजी से बदलते हैं.  दो वर्ष के अंतराल के बाद आलिशा व टिया पुनः मंुबई में तब मिलते हैं,जब करण,अनिका से सगाई कर रहा होता है.

लेखन व निर्देशनः

पूरे छह वर्ष बाद फिल्म सर्जक शकुन बत्रा ने फिल्म ‘‘गहराइयां’’ से वापसी की है. लेकिन कहानी में कुछ भी नया नही है. सब कुछ वही बौलीवुड फिल्मो की घिसी पिटी व हवा हवाई बातें.  जी हॉ! अति धीमी गति से आगे बढ़ने वाली इस फिल्म में मनोरंजन व रोमांच का घोर है. फिल्मकार ने रिश्तों में बनावटी जटिलता,बनावटी प्यार,बनावटी बेवफाई के साथ ही अविश्वसनीय घटनाक्रमों का मुरब्बा परोसा है. नकली-बनावटी किरदार, दिखावे की यॉट से लेकर फाइव स्टार होटल, महंगी शराब, चिकने बाथटब, गद्देदार बिस्तर, करोड़ों-करोड़ की हाई-फाई बातें फिल्म को उठाने की बजाय गहराईयों में डुबाने का ही काम करती हैं. लेखक व निर्देशक ने दर्शकों को मूर्ख बनाने का ही काम किया है. इसीलिए कहानी मुंबई व अलीबाग में चलती है. सभी जानते हैं कि मुंबई में किसी भी इंसान को मूर्ख कहने के लिए कहा जाता है-‘अलीबाग से आया है क्या?’

फिल्म हिंदी भाषा में है,मगर ठेठ हिंदी भाषी दर्शकों के सिर के उपर से यह गुजरती है. क्योंकि मोबाइल से आदान प्रदान किए जाने वाले संदेशों के अलावा काफी संवाद अंग्रेजी भाषा में हैं. लेखक व निर्देशक यह कैसे भूल जाते हैं कि उनका असली दर्शक आज भी हिंदी भाषी ही है,जो कि अच्छी बौलीवुड फिल्मों के अभाव में हिंदी में डब की गयी दक्षिण भारत की अच्छी मनोरंजक फिल्में देखता हुआ पाया जाता है. वैसे शकुन बत्रा से यह उम्मीद करना कि वह भारतीयों और हिंदी भाषियों के लिए कहानी लिखेंगे या फिल्म बनाएंगे,बेमानी है. क्योंकि उन्हें तो हिंदी भाषी पत्रकारों से बात करना भी गवारा नही होता. वह तो चाहते हैं कि पत्रकार उनसे वही बात करे,जो वह चाहते हैं.

माना कि लेखक व निर्देशक ने फिल्म में इस बात का सटीक चित्रण किया है कि वर्तमान समय में शहरी मध्यमवर्गीय अंग्रेजीदां युवा पीढ़ी किस तरह अपनी महत्वाकांक्षा की पूर्ति के साथ-साथ पैसा कमाने के लिए रिश्तांे का दुरुपयोग करती है. आज की युवा पीढ़ी अपनी महत्वाकांक्षा व स्वार्थपूर्ति के लिए प्यार के रिश्ते को भी कपड़े की तरह बदलती है,इसका भी चित्रण बहुत ही उपरी सतह पर किया गया है. क्या वर्तमान शहरी मध्यमवर्गीय युवा पीढ़ी महज बिना किसी रोक-टोक के शारीरिक संबंधों @इंटीमसी में यकीन करती हैं? रिश्तों की जटिलता को लेकर फिल्मकार एक परिपक्व व गंभीर फिल्म लेकर आए हैं,मगर इसमें कहीं भी परिपक्वता नजर नही आती.  शकुन बत्रा यह भी भूल गए कि उन्होेने फिल्म हिंदी में हिंदी भाषियों  के लिए बनाया है. फिल्म का क्लामेक्स भी काफी गड़बड़ है. फिल्मसर्जक ने सेक्सी बोल्ड दृश्यों को परोसने में कोई कंजूसी नही दिखायी. शायद सही वजह है कि फिल्म का प्रचार भी इस तरह किया गया, जैसे कि ‘कामसूत्र’ का विज्ञापन किया जा रहा हो. वास्तव में शकुन बत्रा ने एडल्ट फिल्म बना डाली,मगर उनके अंदर इस तरह के विषय व परिपक्वता का घोर अभाव है.

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इंसान का अतीत किस तरह उसका पीछा करता है, इसका कुछ हद तक सही चित्रण है. फिल्म में एक जगह अंग्रेजी में नसिरूद्दीन शाह का संवाद है- ‘‘अतीत से भागने की जरुरत नहीं,उसे स्वीकार करो. ’

इस फिल्म में दो चरित्र विभाजित परिवार यानी कि डिस्फंक्ंशनल परिवार से हैं. मगर फिल्मकार इस बात को सही ढंग से रेखांकित करने में असफल रहे है कि माता पिता के बीच के संबंधो व डिस्फंक्शनल परिवार के बच्चांे पर  कैसा असर पड़ता है.

निर्देशक ‘शकुन बत्रा ने इसफिल्म के माध्यम से इस बात की ओर भी इशारा किया है कि भले ही 21वीं सदी की युवा पीढ़ी रिश्तों में किसी भी तरह के मापदंडों में यकीन न करती हो,मगर वह रिश्ते में स्थायित्व व भरोसे की तलाश में भटकती रहती है.

अभिनयः

‘गहराइयां’की सबसे बड़ी कमजोर कड़ी अनन्या पंाडे ही हैं. अनन्या पंाडे को अभी अपने अभिनय में निखार लाने के लए काफी मेहनत करने की जरुरत है. उनके चेहरे पर एक्सप्रेशन भाव नजर ही नही आते. आलीशा के किरदार के माध्यम से इंसानी मन की द्विविधा व असमंजसता  को काफी बेहतर तरीके से दीपिका पादुकोण ने अपने अभिनय से उकेरा है. आलीशा के दिमाग मे बचपन की घटना के चलते बनी ग्रंथी,आलीशा के चरित्र की जटिलता,उसके मनोभावों,रिश्तें में भरोसेे की तलाश आदि को दीपिका पादुकोण ने अपने अभिनय से जीवंतता प्रदान की है. मगर फिल्मों का चयन करते समय दीपिका को सावधान रहने की जरुरत है. ‘गहराइयां’ जैसी फिल्म को उनका बेहतरीन अभिनय भी दर्शक नही दिला सकता. अनन्या पांडे के बाद महत्वाकांक्षी जेन के किरदार में सिद्धांत चतुर्वेदी भी कमेजार कड़ी हं. उनका अभिनय निराश ही करता है. वह अपने हाव भाव या बौडी लैंगवेज या अभिनय से दर्शक को आकर्षित करने में विफल रहे हैं. धैर्य करवा व नसिरूददीन शाह के हिस्से करने को कुछ खास आया ही नही.

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तब्बरः परिवार के अस्तित्व को बचाने के लिए आप किस हद तक जा सकते हैं…

रेटिंगः चार स्टार

निर्माताः जार पिक्चर्स

निर्देशकः अजीत पाल सिंह

कलाकारः पवन मल्होत्रा, सुप्रिया पाठक, गगन अरोड़ा, रणवीर शोरी,  साहिल मेहता, परमवीर सिंह चीमा,  अली मुगल, बाबला कोचर , कंवलजीत सिंह, नुपुर नागपाल,  आकाशदीप साहिर,  तरन बजाज,  निशांत सिंह, लवली सिंह,  मेहताब विर्क, रोहित खुराना, रचित बहल व अन्य

अवधिः पांच घंटे 15 मिनटः 30 से 47 मिनट के आठ एपीसोड

ओटीटी प्लेटफार्मः सोनी लिव

हर इंसान के लिए सबसे पहले अपना परिवार होता है. इंसान अपने परिवार के अस्तित्व को बरकरार रखने के लिए किस हद तक जा सकता है, इसी को चित्रित करते हुए कई अंतरराष्ट्ीय पुरस्कार हासिल कर चुके फिल्मकार अजीत पाल सिंह क्राइम थ्रिलर वेब सीरीज ‘‘ टब्बर’’ लेकर आए हैं, जो कि 15 अक्टूबर से ओटीटी प्लेटफार्म सोनी लिव पर स्ट्रीम हो रही है. पंजाबी में परिवर को टब्बर कहते हैं. इसी के साथ अजीत पाल सिंह ने इस सीरीज में एक ऐसे द्वंद का चित्रण किया है, जो अक्सर घर व हर इंसान के अंदर चलता रहता है. इस सीरीज में पत्नी सरगुन भगवान यानी कि रब पर पूरा भरोसा करती है. मगर पति ओंकार भगवान यानी कि ईश्वर यानी कि रब से नाराज है. ओंकार तय करता है कि परिवार पर आयी आफत को वह ख्ुाद ही ठीक करेगा. वह तय करता है कि मैं खुद ही अपने परिवार को बचाउंगा. मैं खुद ही तय करुॅंगा कि मेरे व मेरे परिवार के साथ क्या हो. रब कुछ नही करने वाला है.

कहानीः

कहानी का केंद्र बिंदु जालंधर,  पंजाब में रह रहा ओंकार(पवन मल्होत्रा) और उसका परिवार है. ओंकार के परिवार में उसकी पत्नी सरगुन(सुप्रिया पाठक), बड़ा बेटा हरप्रीत सिंह उर्फ हैप्पी(गगन अरोड़ा) व छोटा बेटा तेगी(साहिल मेहता) है. 12 वर्ष तक पुलिस की नौकरी करने के बाद एक हादसे के चलते पुलिस की नौकरी छोड़कर ओंकार ने अपनी किराने की दुकान खोल ली थी. अपने दोनों बेटों को बेहतर इंसान बनाने व उच्च शिक्षा देने में वह अपना सब कुछ न्योछावर करते रहते हैं. मगर तकदीर अपना खेल ख्ेालती रहती है. ओंकार ने अपने बड़े बेटे हैपी को आई पीएस अफसर बनाने के लिए उसे कोचिंग में पढ़ने के लिए दिल्ली भेजता है. जहां घर का बड़ा बेटा होने की जिम्मेदारी का अहसास कर हैप्प्ी दो माह बादकोचिंग छेाड़कर एक इंसान से कुछ कर्ज लेकर अपना व्यापार श्ुारू करता है. पर घाटा होता है और कर्ज तले दब जाता है , तब वह जालंधर वापस आता है. रास्ते में कर्ज के बोझ से छुटकारा पाने के लिए वह महीप सोढ़ी(रचित बहल ) के बैग से अपना बैग बदल लेता है. क्योंकि उसे पता चल जाता है कि महीप के बैग में पीला ड्ग्स है. मगर हैप्पी के पीछे पीछे महीप अपना बैग लेेने हैप्पी के घर आ जाता है. हालात कुछ ऐसे बनते हैं कि हैप्पी के हाथों महीप का कत्ल हो जाता है. महीप का भाई अजीत सोढ़ी (रणवीर शोरी ) बहुत बड़ा उद्योगपति है, जो कि चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहा है. अब अपने बेटे हैप्पी व परिवार को सुरक्षित रखने का निर्णय लेते हुए ओंकार ऐसा निर्णय लेते हैं कि कहानी कई मोड़ों से होकर गुजरती है.

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लेखन व निर्देशनः

‘कर बहियां बल आपनी, छांड़ बिरानी आस. . . ’’ का संदेश देने वाली वेब सीरीज है- ‘‘टब्बर’’. जिसमें ‘‘रम्मत गम्मत’’ और ‘‘फायर  इन द माउंटेंस’’ के लिए कई अंतरराष्ट्ीय पुरस्कार हासिल कर चुके  निर्देशक अजीत पाल सिंह ने अपनी संवेदन शीलता को एक बार फिर उजागर किया है. फिल्मकारों के लिए अब तक पंजाब यानी कि ‘सरसों के खेत’’ही रहा है, मगर अजीत पाल सिंह ने इस वेब सीरीज में न सिर्फ   पंजाब के परिवार बल्कि पंजाब के सामाजिक व राजनीतिक परिदृश्य को भी यथार्थ परक तरीके से उकेरा है. इतना ही नही फिल्मकार ने बड़ी खूबसूरती से यह संदेश भी दे दिया है कि इंसान ‘रब’ की बजाय ख्ुाद पर भरोसा कर हर मुसीबत का मुकाबला ज्यादा बेहतर ढंग से कर सकता है. निर्देशक ने सारे दृश्य इस तरह से गढ़े है कि वह कहानी व लेखक के लिखे शब्दों को बल देता है. अजीत पाल सिंह का उत्कृष्ट संवेदनशील निर्देशन इस सीरियल को उत्कृष्टता की उंचाई प्रदान करता है. यॅॅंू तो यह क्राइम थ्रिलर है, मगर फिल्मकार व लेखक ने इसमें पंजाब की जमीनी सच्चाई को पूरी इमानदारी के साथ पेश किया है. इसमें पारिवारिक रिश्ते, प्यार,  दोस्ती, तनाव,  ड्ग्स,  ड्ग्स के चलते बर्बाद होती होनहार युवा पीढ़ी, गलत समझे जाने वाला पॉप कल्चर, पूरे संसार को जीतने की ललक के साथ ही राजनीति की बिसातों का भी चित्रण है. वेब सीरीज का अंत यानी कि आठवंे एपीसोड का अंतिम अति मार्मिक दृश्य दर्शकांे की आॅंखांे से आंसू छलका देता है. इसके बावजूद लेखक व निर्देशक ने किसी भी किरदार को सही या गलत नही ठहराया है, बल्कि दिखाया है कि आप चाहे जितना मासूम हो, पर गलती हुई है, तो उसकी सजा मिलनी ही है.

लेखक हरमन वडाला ने इसमें परिवार के अंदर भावनात्मक संघर्ष, आथर््िाक हालात के साथ प्यार को साधने के संघर्ष,  का भी बाखूबी चित्रण किया है. सीमावर्ती प्रदेश पंजाब की भौगोलिक स्थिति को कहानी के एक किरदार के रूप में उकेरा है, तो वहीं कौवा और कौवे की आवाज का भी संुदर उपयोग किया गया है, जिससे कहानी समृद्ध हो जाती है.

लेकिन शुरूआत के दो एपीसोड काफी ढीले ढाले हैं. इसके अलावा कुछ दृश्य तार्किक नही लगते. इतना ही नही पलक व हैप्पी की प्रेम कहानी को अंत में लेखक व निर्देशक भूल गए.

अभिनयः

एक पिता, परिवार का मुखिया और अपने दो मासूम बेटो को हर तूफान से सुरक्षित रखने के लिए बिना ‘रब’@‘भगवान’ पर भरोसा किए अकेले ही सबसे लड़ने व नई पई योजना बनाने वाले ओंकार के अति जटिल किरदार को जीवंतता प्रदान कर अभिनेता पवन मल्होत्रा ने अपने कुशल व उत्कृष्ट अभिनय का एक बार फिर लोहा मनवाया है. पूरी वेब सीरीज को पवन मल्होत्रा अकेले अपने कंधे पर लेकर चलते हैं. पति का साथ देने व भावनात्मक स्वाद बढ़ाते हुए सरगुन के किरदार में एक बार फिर सुप्रिया पाठक ने खुद को एक बार फिर मंजी हुई अदाकारा  के रूप में पेश किया है. बड़े बटेे हैप्पी के संजीदा किरदार में अभिनेता गगन अरोड़ा अपने अभिनय के चलते न सिर्फ लोगों का ध्यान अपनी तरफ आकर्षित करते हैं, बल्कि साबित करते है कि उनके अंदर लंबी रेस का घोड़ा बनने की क्षमता है.

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खुद को साबित करने के जुनून में जल रहे पुलिस वाले मासूम लक्की के किरदार में अभिनेता परमवीर सिंह चीमा भी प्रशंसा बटोर लेते हैं. कंवलजीत की प्रतिभा को जाया किया गया है. कंवलजीत ने इसमें क्यों अभिनय किया, यह समझ से परे है. तेगी के किरदार में नवोदित अभिनेता साहिल मेहता ने काफी उम्मीदें जगाई हैं.

अजीत सोढ़ी के किरदार में   रणवीर शोरी ने भी अच्छा अभिनय किया है, वैसे उनके किरदार को उतनी अहमियत नही मिल पायी, जितनी मिलनी चाहिए थी. हैप्पी की प्रेमिका पलक के किरदार में नुपुर नागपाल ने भी ठीक ठाक अभिनय किया है.

REVIEW: साधारण लेखन व निर्देशन ‘सुमेरू’

रेटिंगः डेढ़ स्टार

निर्माताः पद्मसिद्ध फिल्मस

निर्देशकः अविनाश ध्यानी

कलाकारः अविनाश ध्यानी, संस्कृति भट्ट, शगुफ्ता अली, अभिषेक मंडोला,  सुरूचि सकलानी, प्रशिल रावत, सतीश शर्मा, माधवेंद्र सिंह रावत

अवधिः एक घंटा 58 मिनट

फिल्मों में अलग अलग परिवेश में प्रेम के कई रंग पेश किए जाते रहे हैं. इस बार अभिनेता, लेखक व निर्देशक अविनाश ध्यानी अपनी नई फिल्म ‘‘सुमेरू’’ में पहाड़ों में हिमस्खलन व भीषण ठंड के बीच एक अलग तरह की प्रेम कहानी के साथ पिता व पुत्र के बीच भावनात्मक संबंधो को उकेरा है. फिल्म एक अक्टूबर को महाराष्ट् और केरला के अलावा देश के अन्य हिस्सों के सिनेमाघरों में प्रदर्शित हुई है.

कहानीः

सूरत के उद्योगपति मल्होत्रा की बेटी सावी मल्होत्रा (संस्कृति भट्ट) की सगाई रोमी(प्रशिल रावत) से हो चुकी है. लेकिन अंदर से सावी, रोमी की हरकतों से खुश नही है. दोनों डेस्टीनेशन वेडिंग के लिए उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्र हर्षिल में लोकेशन देखने जाते हैं. हर्ष िाल की बाजार पहुंचने पर रोमी को जगह पसंद नही आती, पर सावी को अपने मंगेतर का उस जगह फाइव स्टार होटल की तलाश की बात पसंद नहीं आती और वह रोमी को कार के पास अकेला छोड़कर पैदल चल देती है. सावी नीरस और अनपेक्षित जीवन शैली से तंग आ चुकी है और इससे मुक्त होना चाहती है. घने जंगल से गुजरते हुए सावी एक जंगली जानवर के कराहने की आवाज से डरती है और गाना गाते हुए दौड़ने लगती है, क्योंकि उसकी माँ ने उसे सिखाया था कि डर लगन पर गाना गाने से डीर दूर हो जाता है. अचानक सावी की मुलाकात एक हरियाणवी लड़के भांवर प्रताप सिंह (अविनाश ध्यानी) से होती है, जो अपने पिता के  अवशेषों की तलाश में सुमेरु नामक पर्वत की तरफ जा रहा है.

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भांवर प्रताप सिंह के पिता मांउटेरियन रहे हैं और वह हर वर्ष पहाड़ों पर ट्ैकिंग करने जाते थे. उसे उनकी अंतिम लाकेशन सुमेरू पर्वत की ही मिली है, जहां हिमस्खलन में मृत्यु हो गई थी. भांवर प्रताप सिंह , सावी को जंगल में गाना गाते हुए देख उसे भूतनी समझता है. पर दोनोें मिलते हैं और दोनों के बीच  तीखी नोकझोंक होती है. उसके बाद सावी रात भर के लिए मदद मांगती है और दोनों साथ चलने लगते हैं. सुमेरू पर्वत तक पहुॅचने तक दोनों एक दूसरे की खोज करते हैं. सावी खुद की भी तलाश कर रही है. राह में दोनों ठंड व हिमस्खलन में एक-दूसरे का भावनात्मक सहारा बनते हैं. अंततः दोनों एक दूसरे को पसंद करने लगते हैं, पर इस बात को कोई स्वीकार नही करता. पिता   अवशेषों को पाने के बाद उनका वहीं अंतिम संस्कार कर दोनों वहां से वापसी करते हैं. सावी सूरत और भांवर प्रताप सिंह हरियाणा रवाना होते हैं. पर प्यार अपना रंग दिखाएगा ही.

समीक्षाः

लेखक, निर्देशक व अभिनेता अविनाश ध्यानी का लेखन व निर्देशन अति साधारण है. इस कहानी को मंुबई या दिल्ली किसी जगह की पृष्ठभूमि पर कहा जा सकता था. लेकिन उत्तराखंड का निवासी होते हुए भी अविनाश ध्यानी पहाड़,  हिस्खलन, जंगल और वहां के निवासी इन सभी को फिल्म की कहानी के साथ सही अर्थों में जोड़ नहीं पाए. जबकि गुजरात की लड़की व हरियाणा के लड़के का उन पहाडो व जंगलो में एक साथ होना जहां लगातार बर्फबारी हो रही हो, तो उनके साथ आने वाली समस्याओं, उस क्षेत्र में रहने वालों के साथ इन दो किरदारों के व्यवहार व रिश्ते सहित कहानी में कई रोचक घटनाक्रम जोड़ जा सकते थे. मगर लेखक व निर्देशक यह सब करने में चूक गए. यहां तक कि भांवर प्रातप सिंह का अपने पिता के साथ के संबधों को चित्रित करने की बजाय  महज संवादों में बयंा कर दिया गया. यह भी लेख व निर्देशक की कमजोरी है. फिल्म की गति भी काफी धीमी है. एडीटिंग टेबल पर इसे कसे जाने की जरुरत थी. फिल्म में एकरसता है. दो तीन संवादों को छोड़कर एक भी संवाद दर्शक को अपनी तरफ आकर्षित नही करते.

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अभिनयः

भांवर प्रताप सिंह के किरदार में अविनाश ध्यानी अपना प्रभाव छोड़ने में विफल रहे हैं. सावी के किरदार में  संस्कृति भट्ट खूबसूरत जरुर लगी हैं, मगर अभिनय के मसले पर उन्हें काफी मेहनत करने की जरुरत है. उनमें अभिनेत्री वाले गुण नही है. उनके चेहरे पर कोई भाव ही नही आते. केवल हंसती रहती हैं. शमैरा के छोटे किरदार में शगुफ्ता अली अपनी उपस्थिति दर्ज करा जाती हैं. अन्य सह कलाकार ठीक ठाक हैं.

REVIEW: महिला किरदारों की उपेक्षा है ‘पॉटलक’

रेटिंगः ढाई स्टार

निर्माताः कुणालदास गुपत,  पवनीत गखल, गौरव लुल्ला और विवेक गुप्ता

निर्देशकः राजश्री ओझा

कलाकारः किट्टू गिडवाणी,  जतिन सियाल, ईरा दुबे, सायरस सहुकार, हरमन सिंघा सलोनी खन्ना, सिद्धांत कार्णिक, शिखा तलसानिया, औरव राणा, आरवी राणा, आराध्य अजाना व अन्य.

अवधिः बीस से पच्चीस मिनट के आठ एपीसोड, लगभग तीन घंटे आठ मिनट

ओटीटी प्लेटफार्मः सोनी लिव

किसी भी इंसान के हाथ की पांचों उंगलियां एक समान नही होती. मगर यह पांचो उंगलियां एक साथ आकर मुक्का अथवा चांटे के रूप में बहुत बड़ी ताकत होती हैं. इसी तरह हर परिवार में उसके सभी सदस्यों का कद, व्यवहार, सोच, समझ,  इच्छाएं अलग अलग होती हैं. इसी के चलते अक्सर परिवार का हर सदस्य एक दूसरे से प्यार करते हुए भी विखरा और अलग थलग नजर आता है. ऐसे ही विखरे परिवार के सदस्यों को एकजुट करने के लिए निर्देशक राजश्री ओझा और लेखकद्वय अश्विन लक्ष्मीनारायण व गौरव लुल्ला वेब सीरीज ‘‘पॉटलक’’लेकर आए है. दस सितंबर से ओटीटी प्लेटफार्म ‘‘सोनी लिव’’ पर स्ट्रीम हो रही वेब सीरीज ‘पॉटलक’ में हास्य के साथ परिवार के सदस्यों के बीच की नोकझोक,  प्यार, समस्याओं, उलझनों व रिश्तों के नवीनीकरण का हास्यप्रदा चित्रण है.

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कहानीः

पॉटलक अंग्रेजी का शब्द है,  जिसका मतलब है कुछ परिवारों द्वारा अपनी -अपनी रसोई में खाना पकाना और फिर सभी का एक जगह पर इकट्ठा होकर मिल-जुल कर भोजन का आनंद उठाना. इतना ही नही अंग्रेजी में कहावत है -‘‘द फैमिल हू इ्ट्स टुगेदर, स्टे टुगेदर. ’’अर्थात जो परिवार साथ में बैठ कर भोजन करता है, वह(सदैव) इकट्ठा रहता है. लेकिन यह कहानी उस शास्त्री परिवार की है, जो इकट्ठा नही रहता. अवकाश प्राप्त गोविंद शास्त्री (जतिन सयाल) अपनी पत्नी प्रमिला (किटू गिडवानी) के साथ एक बड़े से घर में रहते हैं. उनके  दो बेटों की शादी हो चुकी है. बड़े बेटा विक्रांत (साइरस साहुकार) अपनी पत्नी आकांक्षा (इरा दुबे) व तीन बच्चों  नक्श, साइशा व जिया के अलग घर में रहता है. गोविंद शास्त्री का छोटा बेटा ध्रुव (हरमन सिंघा) अपनी पत्नी  निधि (सलोनी खन्ना पटेल) के साथ अलग रहता है. निधि को भोजन पकाना नही आता. उसे बच्चे पसंद नहीं और वह नौकरीपेशा है. ध्रुव की नौकरी अमेरिका में लग गई है. ध्रुव व निधि अमेरिका जाने की तैयारी कर रहे हैं. गोविंद शास्त्री की बेटी प्रेरणा (शिखा तलसानिया)कोलकाता में नौकरी करती थी, मगर अब घर आ गई है.  वह लगातार लड़कों को डेट करती रहती है. कोई पसंद नहीं आता.  माता-पिता चाहते हैं कि वह सैटल हो जाए. मगर अवकाश प्राप्त करने के बाद गोविंद शास्त्री को अहसास होता है कि जब उनके बच्चे स्कूल में पढ़ते थे,  तब बच्चों के लिए उनके पास वक्त नहीं था. अब जब उनके पास वक्त है, तो उनके लिए उनके बच्चों के पास वक्त नही है कि सभी एक छत के नीचे कुछ समय एक साथ बिता सके. तभी अचानक एक दिन गोविंद शास्त्री हार्टअटैक की बीमारी की बात बताते हैं,  जिसके चलते ध्रुव अपना अमेरिका जाने का इरादा बदल देता है. उसके बाद हर सप्ताहांत पर किसी न किसी के घर पर गोविंद की राय के अनुसार पॉटलक के लिए सभी इकट्ठा होते हैं. उनके बीच पारिवारिक संबंध प्रगाढ़ होते हैं. परिणामतः छोटा भाई अपने बड़े भाई की मदद भी करता है. मगर अंततः यह धागा टूटता है और फिर. . . .

लेखन व निर्देशनः

लेखकद्वय ने सास ससुर के व्यवहार से बहू को होने वाली दिक्कतें,  बेटी की शादी की चिंता, माता-पिता की कुछ आदतों से बच्चों का खीझना, भाई-बहन की नोकझोंक सहित कई मुद्दें बिना उपदेशात्मक भाषण के रचे गए है. किरदारों की बातें पल-पल गुदगुदाती हैं. मगर यह परिवार व इसके किरदार साधारण मध्यम वर्गीय परिवार की बजाय उच्च वर्गीय परिवार यानी कि अभिजात वर्ग के हैं. जहां नया घर करोड़ में खरीदा जा सकता है. दस साल पहले निर्देशक राजश्री ओझा ने उच्च वर्ग की कहानी को फिल्म ‘‘आएशा’में पेश किया था. फिर वह अमरीका चली गयी थी. अमरीका से वापस आने पर उन्हें अभिजात वर्ग की कहानी पेश करना सहज लगा. लेकिन शुरूआती चार एपीसोड काफी ढीले ढाले हैं. इन्हें कसे जाने की जरुरत थीं. सातवां व आठवां एपीसोड जबरदस्त है, और दर्शकों को जकड़कर रख देता है. लेखक व निर्देशक ने इसमें बेवजह हिंदू मुस्लिम व उर्दू भाषा का एंगल जोड़ा है. प्रेरणा शास्त्री का किरदार अधपका सा लगता है. लेखक व निर्देशक ने महिला किरदारों की पूरी तरह से अनदेखी की है.

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अभिनयः

गोंविंद शास्त्री के किरदार में जतिन सियाल और प्रमिला शास्त्री के किरदार में किट्टू गिडवाणी अपने अभिनय का जलवा दिखाने में सफल रही हैं. आकांक्षा शास्त्री के किरदार में ईरा दुबे अपने अभिनय की छाप छोड़ती हैं. शिखा तलसानिया को अभी अपने अभिनय में निखार लाने की आवश्यकता है. आलिम के किरदार में सिद्धांत कार्णिक का अभिनय काफी सहज है. अन्य कलाकार ठीक ठाक हैं.

REVIEW: जानें कैसी हैं रिचा चड्ढा और रोनित रौय की वेब सीरीज ‘Candy’

रेटिंगः साढ़े तीन स्टार

निर्माताः विपुल डी शाह, अश्विन वर्दे व राजेश बहल

निर्देशकः अशीश आर शुक्ला

कलाकारः रिचा चड्ढा, रोनित रॉय, मनु रिषि चड्ढा, गोपाल दत्त तिवारी, नकुल रोशन सहदेव, रिद्धि कुमार, अंजू अलवा नायक, विजयंत कोहली, अब्बास अली गजनवी,  आदित्य राजेंद्र नंदा, बोधिसत्व शर्मा, मिहिर आहुजा, प्रसन्ना बिस्ट,  आएशा प्रदीप कदुसकर,  राजकुमार शर्मा,  मिखाइल कंटू,  आदित्य सियाल व अन्य

अवधिः तीन घंटे दस मिनट,  35 से 44 मिनट के आठ एपीसोड

ओटीटी प्लेटफार्मः वूट सेलेक्ट

कई डाक्यूमेंट्री व एड फिल्में का निर्देशन करने के बाद फिल्म ‘‘बहुत हुआ सम्मान’’ और चर्चित वेब सीरीज ‘‘अनदेखी’’के निर्देशक अशीश आर शुक्ला इस बार ड्रग्स,  हत्या,  रहस्य,  आशा,  भय,  राजनीति से भरपूर रहस्यप्रधान रोमांचक वेब सीरीज ‘‘कैंडी’’ का पहला सीजन लेकर आए हैं, जो कि आठ सितंबर से ‘‘वूट सेलेक्ट’’पर स्ट्रीम होगी.

कहानीः

वेब सीरीज ‘‘कैंडी’’की कहानी है हिमालय की ठंड सर्दियों जैसे एक काल्पनिक शहर रूद्रकुंड की. कहानी के केंद्र में रूद्रकुंड शहर स्थित रूद्र वैली हाई स्कूल के एक छात्र मेहुल अवस्थी(मिहिर आहुजा  )की भयानक हत्या से जुड़ा रहस्य है. रूद्र कंुड की डीएसपी रत्ना संखवार (रिचा चड्ढा), हवलदार आत्मानाथ (राजकुमार शर्मा )व दूसरे पुलिस कर्मियों के साथ मेहुल की हत्या की खबर मिलने पर जंगल  में पहुॅचती है, जहां घने जंगल के बीच एक पेड़ से लटकी हुई मेहुल अवस्थी की लाश मिलती है. पुलिस अपनी जांच की कार्यवाही शुरू करती है, तभी उसी जगह दूसरे पुलिसकर्मी के साथ स्कूल में अंग्रेजी पढ़ाने वाले शिक्षक जयंत पारिख (रोनित रॉय बसु )पहुॅच जाते हैं. जयंत पारिख की बेटी बिन्नी ड्ग्स की लत के चलते आग लगाकर मर चुकी है,  जिसके सदमें से उनकी पत्नी सोनालिखा पारिख(अंजु अल्वा नाइक)आज तक उबर नही पायी है. जयंत पारिख भी अपनी बेटी को बहुत चाहते थे. इसलिए मोहित की हत्या को लेकर जयंत पारिख कुछ ज्यादा ही दिलचस्पी लेने लगते हैं. इधर डीएसपी अपनी जांच करते हुए स्कूल पहुंचकर चर्च के फादर मारकस (विजयंत कोहली), स्कूल के प्रिंसिपल थॉमस (गोपाल दत्त तिवारी)के अलावा लड़कांे व लड़कियों से बात करती है. मेहुल अवस्थी को परेशान करने वाले तीन लड़कों इमरान अहमद(बोधिसत्व शर्मा ) , संजय सोनोवाल (आदित्य राजेंद्र नंदा)व जॉन(अब्बास अली)से पूछ ताछ करती है. मेहुल के स्कूल के लॉकर से कैंडी का पैकेट लेकर जाती है और यह पैकेट वह वायु राणावत(नकुल रोशन सहदेव )को दे देती है. अंततः चर्चा शुरू हो जाती है कि मसान ने हत्या की है. पुलिस अफसर रत्ना संखावर और वायु के बीच गहरे संबंध हैं. पता चलता है कि ड्ग्स युक्त कैंडी बनाने व बेचने का काम वायु राणावत कर रहा है, जो कि स्थानीय विधायक मणि राणावत (मनु रिषि चड्ढा )का बेटा है. विधायक होने के साथ साथ मणि शहर के सबसे शक्तिशाली व्यवसायी हंै. वह चाहते हैं कि रूद्रकंुड उनकी उंगलियों के इशारे पर चले. अपनी सत्ता को काबिज रखने के लिए उन्होने बहुत पाप भी किए हैं.

तो वहीं मेहुल अवस्थी की खास दोस्त कलकी रावत(रिद्धि कुमार )भी गायब है. कलकी रात के अंधेरे में रोते हुए बदहवाश सी जयंत पारिख के पास पहॅुंचती है. कलकी को जयंत अपने घर मे छिपाकर रखता है. पता चलता है कि वायु द्वारा जंगल में आयोजित एक पार्टी में छिपकर मेहुल व कलकी, वायु के खिलाफ ड्ग्स से जुड़े होने के सबूत जमा कर रहे थे, जब वहां से बाहर निकलने लगते हैं, तो एक लड़की जबरन कलकी को कैंडी चटा देती है. मेहुल व कलकी जंगल में लेट कर बातें करते हैं और उनके बीच शारीरिक संबंध बनते हैं. उसके बाद किसी ने मेहुल की हत्या कर दी. सच जानने के लिए प्रयासरत जयंत की वायु व उसके गुंडे पिटायी कर देते हैं. जयंत को वायु के खिलाफ सबूत मिल जाता है. पर रत्ना को जयंत के सबूतों में रूचि नही है. इधर मेहुल की हत्या के लिए कलकी के पिता नरेश रावत (पवन कुमार सिंह) के खिलाफ सबूत मिलते हैं, वायु ही नरेश को पकड़कर रत्ना के हवाले करता है. जयंत की जंाच के अनुसार नरेश निर्दोष है. इसलिए जयंत सारे सबूत गुस्से मंे पुलिस स्टेशन आकर रत्ना शंखवार को दे देता है. रत्नी शंखवार वह सबूत आत्मानाथ को रखने के लिए देती है. मणि राणावत पुलिस स्टेशन में बंद नरेश रावत से मिलने आते हैं. रात में रूद्र कंुड के लोग ‘खून का बदला खून’के नारे के साथ पुलिस स्टेशन पर हमलाकर सबूत के साथ ही नरेश को ले जाकर पुल के उपर बांधकर जिंदा जला देते हैं. यह सब जयंत व कलकी देखकर भी कुछ नही कर पाते. इसके बाद मणि राणावत अपनी राजनीतिक चाल चलता है.  रत्ना को सस्पंेड कर उनके खिलाफ जांच बैठायी जाती है. तब रत्ना को अहसास होता है कि वह गलत लोगांेे के हाथ बिकी हुई थी और अब उसका जमीर जागता है. अब जयंत व रत्ना मिलकर सच की तलाश शुरू करते हैं. तो वहीं नए नए रहस्य सामने आते हैं. हत्याओं का सिलसिला बढ़ जाता है.  जयंत की चर्च के फादर मार्केस से भी बहस होती है. प्रिंसिपल से भी होती है. इधर जिन जिन लोगों पर दर्शक को शक होता है, वह मारे जाने लगते हैं. कहानी में कई मोड़ आते हैं. कई चेहरो ंपर से मुखौटा उतरता है. रहस्य,  डर,  उम्मीद, राजनीति,  इंसानी महत्वाकांक्षा, ड्ग्स का कारोबार,  किशोर वय लड़कियो संग सेक्स करने के अपराध सहित बहुत कुछ सामने आता जाता है.

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लेखन व निर्देशनः

पटकथा लेखकद्वय अग्रिम जोशी और देबोजीत दास पुरकायस्थ साधुवाद के पात्र है. लेखकों ने लोककथा और आधुनिक अपराध कथ का बेहतरीन संमिश्रण किया है. इस वेब सीरीज में काल्पनिक शहर रूद्रकंुड के माध्यम से लेखक ने राजनीतिक गंध,  हत्या, राजनीति का अपराधीकरण, उम्मीद, डर, अपनी महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए इंसान किस हद तक जा सकता है, रिश्तों की हत्या से लेकर धर्म की आड़ मेंं होने वाले गंभीर आपराध जैसे सारे मुद्दों को बाखूबी पेश करते हुए रहस्य व रोमांच को बरकरार रखा है. इसमें इस बात का भी बाखूबी चित्रण है कि ड्ग्स माफिया किस तरह स्कूली बच्चों को ड्ग्स की लत का शिकार बनाकर बर्बाद कर रहा है. वेब सीरीज ‘कैंडी’ की कहानी के केंद्र में आवासीय विद्यालय,  किशोरवय बच्चे व ड्रग्स है. लेकिन निर्देशक आशीश आर शुक्ला ने कहीं भी ड्ग्स के दुष्प्रभावों के बारे में शिक्षित करने के लिए उपदेशात्मक भाषणबाजी का सहारा नही लिया है.

कहानी की शुरूआत धीमी गति से होती है, मगर दर्शक बोरनही होता. उसका दिमाग सच जानने की  उत्सुकतावश वेब सीरीज ‘कैंडी’ के साथ जुड़ा रहता है. आठवें एपीसोड तक दर्शक असली हत्यारे तक नही पहुंच पाता और जब आठवें एपीसोड के अंत में सच सामने आता है, तो दर्शक हैरान रह जाता है. यह कुशल लेखन व अशीश आर शुक्ला के उत्कृष्ट निर्देशन के ही चलते संभव हो पाया है. लेखक व निर्देशक ने हर चरित्र को कई परतों में लपेट कर रहस्य को गहराने का काम किया है. निर्देशक ने कथानक के उपयुक्त तथा रहस्य को गहराने के लिए लोकेशन का भी बेहतरीन उपयोग किया है. घने और अंधेरे जंगल,  घुमावदार सड़कें,  सुरम्य पहाड़ियाँ और नैनीताल की भव्य जमी हुई झील का निर्देशक ने अपनी कथा को बयंा करने के लिए बेहतर तरीके से उपयोग किया है.  इमोशंस भी कमाल का पिरोया गया है. काल्पनिक कहानी होते हुए भी वास्तविकता का आभास कराती है. जयंत पारिख व उनकी पत्नी सोनालिखा के बीच के पारिवारिक रिश्तों को ठीक से नही गढ़ा गया है. जबकि लेखक व निर्देशक ने इसमें स्वाभाविक तरीके से अपरंपरागत संबंधों को उकेरा है. इस वेब सीरीज को देखकर दर्शक यह कहे बिना नही रह सकता कि रूद्रकुंड  शहर में जो दिखता है, वह होता नहीं. .

नैनीताल में फिल्मायी गयी इस वेब सीरीज के कैमरामैन बधाई के पात्र हैं, उन्होने यहां की प्राकृतिक सुंदरता को इस तरह से कैमरे के माध्यम से पकड़ा है कि दर्शक इस जगह जाने के लिए लालायित हो उठता है.

 

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अभिनयः

कुटिल व सशक्त पुलिस अफसर तथा सिंगल मदर रत्ना शंखावर के किरदार को अपने शानदार अभिनय से रिचा चड्ढा ने जीवंतता प्रदान की है. कई दृश्यों में रिचा अपने चेहरे के भावों से बहुत कुछ कह जाती हैं. रिचा ने पुलिस अफसर के कर्तव्य को निभाने वक्त अपने रोमांस की कमजोरी के चलते अपराधी को नजरंदाज करने के दृश्यों को काफी वास्तविकता प्रदान की है. सच को सामने लाने और स्कूली बच्चों को ड्ग्स के चंगुल से छुड़ाने के लिए तड़पते शिक्षक जयंत के किरदार में रोनित रॉय ने एक बार फिर अपनी अपनी उत्कृष्ट अभिनय क्षमता का परिचय दिया है. कलकी के किरदार में रिद्धि कुमार अपने अभिनय से आश्चर्य चकित करती हैं. कई दृश्यों में वह बिना कुछ कहें बहुत कुछ कह जाती हैं. ड्ग्स व सिगरेट में डूबे रहने वाले वायु राणावत के किरदार के साथ नकुल रोशन सहदेव ने पूरा न्याय किया है. नकुल ने अपने दांतों, बॉडी लैंगवेज ,  बार-बार आँख झपकना और किसी की परवाह न करना आदि के माध्यम से अपने किरदार वायु को एक  अपराधी के रूप में पेश करने में सफल रहे हैं. कई दृश्यों में वह अपने अभिनय से रहस्य को गहराई प्रदान करते हैं. मनु ऋषि चड्ढा अपने अभिनय की छाप छोड़ने में सफल रहे हैं. अन्य सह कलाकार भी अपनी अपनी जगह सही हैं.

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REVIEW: जानें कैसी है अजय देवगन की ‘भुजः द  प्राइड आफ इंडिया’

रेटिंगः एक स्टार

निर्माताः अजय देवगन फिल्मस, पैनोरमा स्टूडियो, सेलेक्ट मीडिया

निर्देशकः अभिषेक दुधैया

कलाकारः अजय देवगन, सजय दत्त,  सोनाक्षी सिन्हा, नोरा फतेही, शरद केलकर, अमी विर्क, अनुराग त्रिपाठी व अन्य.

अवधिः एक घंटा 53 मिनट 

ओटीटी प्लेटफार्मः हॉटस्टार डिजनी

1971 के भारत पाकिस्तान युद्ध के वक्त गुजरात के भुज हवाई अड्डे के एअरबेस को पाकिस्तानी वायुसेना ने बमबारी से ध्वस्त कर दिया था. तब भुज हवाई अड्डे के तत्कालीन प्रभारी आईएएफ स्क्वाड्रन लीडर विजय कर्णिक और उनकी टीम ने मधापर व उसके आसपास के गांव की 300 महिलाओं की मदद से वायुसेना के एयरबेस का पुनः निर्माण किया था. उसी सत्य ऐतिहासिक घटनाक्रम पर सिनेमाई स्वतंत्रता के साथ फिल्मकार अभिषेक दुधैया फिल्म‘‘भुजः द प्राइड आफ इंडिया’’लेकर आए हैं. जो कि तेरह अगस्त की शाम साढ़े बजे से ‘‘हॉट स्टार डिजनी’पर स्ट्रीम हो रही है.

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कहानीः

15 अगस्त 1947 को आजादी के समय हिंदुस्तान का विभाजन होने पर पाकिस्तान व पूर्वी पाकिस्तान बना था. पाकिस्तान के प्रधान मंत्री याहया खान ने पूर्वी पाकिस्तान में जुल्म ढाते हुए चालिस लोगों को मौत के घाट उतार दिया था. जिसके चलते वहां के लोगों व शांतिवाहिनी ने विद्रोह किया था और फिर पाकिस्तान ने पूर्वी पाकिस्तान पर सैनिक आक्रमण किया था, तब भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने भारतीय सेना को पाकिस्तान के खिलाफ भेजकर काफी हिस्से पर कब्जा कर लिया था और पूर्वी पाकिस्तान को बांगला देश बनाने में मदद की थी. इससे बौखलाए याहया खान ने भारत के पश्चिमी हिस्से में कच्छ से घुसकर भुज पर आक्रमण किया था. उस वक्त भुज एअरबेस के प्रभारी आईएएफ स्क्वार्डन लीडर विजय श्रीनिवास कार्णिक(अजय देवगन )थे. जबकि उनके कमंाडर आर के नायर(शरद केलकर)हैं. आर के नायर ने एक अपंग मुस्लिम महिला से शादी की है. तीन दिसंबर 1971 को विजय कार्णिक और उनकी पत्नी उषा (प्रणिता सुभाष )  की शादी की दसवीं सालगिरह मनायी जाती है. उसी वक्त भुज पर पाक सेना की तरफ से बमबारी की खबर आती है. विजय कार्णिक परेशान होते हैं. उधर पाक में मौजूद भारतीय जासूस हीना रहमानी  पाक सेना के अगले कदमो की जानकारी पहुॅचती रहती है, जिसने पाक से सेना के उच्च अधिकारी से विवाह किया है. तो वहीं ‘रॉ अधिकारी रणछोड़दास पागी(संजय दत्त)हैं, जिन्हे मरूस्थल की अच्छी जानकारी है. वह रेगिस्तान की रेत कदमों के निशान देखकर बता देते हैं कि वह भारतीय सैनिक या पाक सैनिक के निशान हैं. रणछोड़ दास पागी चतुर चालाक है. वह पाक सेना को मूर्ख बनाकर आर के नायर को युद्ध जीतने की रणनीति बताता रहता है.  पाक वायुसेना ने भुज एअरबेस को तहस नहस कर दिया है. अब कोई हवाई जहाज न इस एअरबेस पर उतर सकता है और न ही उड़ान भर सकता है. उधर पाक अपने 150 टैंक व 1800 सैनिको  के साथ भुज पर कब्जा करने भेजता है. पाक जानता है कि अब भुज एअरबेस ठीक होने तक भारतीय सेना नही आ कसती. ऐसे में नियम के विपरीत जाकर स्वकार्डन लीडर विजय कार्णिक मधापुर गांव की 300 औरतों की मदद से भुज एअरबेस को ठीक कराने में सफल होते हैं. और पांच सौ सैनिक भुज एअरबेस पर उतरने में सफल हो जाते हैं.

लेखन व निर्देशनः

एक बेहतरीन व प्रेरणा दायक कहानी का लेखक, निर्देशक, एडीटर व वीएफएक्स ने बंटाधार कर दिया. पटकथा काफी कमजोर व भटकी हुई सी है. फिल्मकार ने फिल्म में एक साथ छह कहानियों और कई घटनाक्रम को पिरोने का प्रयास किया, जिन्हे दो घंटे के अंदर सही ढंग से पिरोना संभव नही. इसलिए किसी भी कहानी के साथ सही न्याय नही हो पाया. सिनेमाई स्वतंत्रता के नाम पर कुछ गाने व कुछ अतार्किक दृश्य भी जोड़े गए हैं. अफसोस की बात यह है कि फिल्म के ट्रेलर व प्रचार में दिखाए जा चुके गाने के हिस्से और कुछ संवाद गायब हैं. फिर भी एडीटर फिल्म में कसावट न ला पाए. क्योकि पटकथा ही हिचकोले लेते हुए ही आगे बढ़ती है. यह हालत तब है, जब इसे तीन लेखक और अतिरिक्त संवाद लेखक ने गढ़ा है. कई बार ऐसा लगा कि हम किसी टीवी सीरियल के अलग अलग हिस्से जोड़कर देख रहे हैं.

फिल्म में बेवजह धर्म, मंदिर व भगवान की मूर्तियों से जुड़े दृश्य पिरोए गए हैं. राष्ट्वाद को लेकर जिस तरह से बात की गयी है, वह भी प्रभावशाली नही है. जब जल्द से जल्द एअरबेस बनाने का संकट हो, उस वक्त एअर बेस बनाने जा रही औरतें अपनी नेता संुदर बेन के साथ ढोल नगारे के साथ भजन गाती हैं, यह अजीब सा लगता है. वर्तमान सरकार की विचारधारा के अनुरूप राष्ट्वाद  को ठॅंूसने के चक्कर में ही फिल्म सही ढंग से नहीं बन पायी.

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वीएफएक्स भी बहुत घटिया है. एअरफोर्स को एअरबेस पर लेंड करने के लिए अजय देवगन ट्क का सहारा देने जा रहे है, उस वक्त जिस तरह से ट्क हिलता है, उससे एक नौसीखिया भी समझ जाएगा कि वीएफएक्स बहुत घटिया है. दुश्मन के एअर प्लेन को मार गिराने वाले दृश्य हों या गन फायरिंग के दृश्य हों, सभी वीडियो गेम जैसे ही हैं.

फिल्म की मूल कहानी ‘नारी सशक्तिकरण’ की है. किस तरह रातों रात एअरबेस को बनाने के लिए गांव की तीन सौ औरतें आती हैं और देश के लिए अपने घर की दीवारें तोड़कर वह ईंट वगैरह एअरबेस बनाने में लगा देती हैं. पर इस फिल्म में इन तीन सौ वीरांगनाओं को महत्व ही नही दिया गया. सोनाक्षी सिन्हा का फिल्म में आगमन लगभग सवा घंटे बाद होता है, पर उसके किरदार संुदर बेन का कोई असर नही दिखता. फिल्म में दो चार मिनट के दृश्य में एअरबेस को तीन सौ औरतों को जिस तरीके से बनाते हुए दिखाया है, वह भी अति बचकाना है. जब फिल्मकार कहानी की आत्मा की ही हत्या कर देता है, तो सब कुछ विखर जाता है.

संवाद भी प्रभावशाली नही है. ज्यादातर संवाद लोग वर्षों से सुनते आ रहे हैं. कुछ संवाद तो काफी विरोधाभासी हैं.

अभिनयः

विजय कार्णिक फिल्म के हीरो हैं, मगर विजय कार्णिक का किरदार निभाने वाले अजय देवगन ने साधारण अभिनय किया है. एक आर्मी आफिसर का जो ‘औरा’होना चाहिए, वह कहीं नजर ही नही आता. संजय दत्त भी नही जमे. जबकि अजय देवगन इससे पहले फिल्म‘तान्हाजीःद अनसंग वॉरियर’में कमाल का अभिनय कर चुके हैं. शरद केलकर ने ठीक ठाक अभिनय किया है. सोनाक्षी सिन्हा केवल खूबसूरत लगी हैं. नोरा फतेही ने एक्शन दृश्य अच्छे किए हैं, मगर उनके किरदार को ज्यादा जगह नही मिली. प्रणिता सुभाष का किरदार जबरन ठॅूंसा हुआ लगता है. संजय दत्त एक बार फिर चूक गए.

REVIEW: जानें कैसी है सिद्धार्थ मलहोत्रा और कियारा अडवाणी की फिल्म Shershah

रेटिंगः चार स्टार

निर्माताः काश इंटरटेनमेंट और धर्मा प्रोडक्शन

निर्देशकः विष्णु वर्धन

कलाकारः सिद्धार्थ मलहोत्रा, कियारा अडवाणी, शिव पंडित, जावेद जाफरी, निकितन धीर, हिमांशु मल्होत्रा, साहिल वैद्य, राज अर्जुन, कृष्णय बत्रा, मीर सरवर व अन्य.

अवधिः दो घंटा 17 मिनट

ओटीटी प्लेटफार्मः अमेजॉन प्राइम

1999 में पाकिस्तान ने कारगिल की पहाड़ियों पर कबजा कर लिया था, मगर बाद में भारतीय  जवानों ने 16 हजार फिट की उंचाई पर बर्फीली पहाड़ी पर बैठे पाक सैनिको को अपने शौर्य के बल पर खत्म कर पुनः कारगिल पर कब्जा जमाया था. उसी कारगिल युद्ध के परमवीर चक्र विजेता शहीद विक्रम बत्रा पर फिल्म ‘शेरशाह’आयी है. उसी कारगिल युद्ध पर  एलओसी,  लक्ष्य,  स्टंप्ड,  धूप,  टैंगो चार्ली और मौसम से लेकर गुंजन सक्सेना जैसी फिल्में बनी हैं.  मगर शेरशाह इनसे अलग है.

कहानीः

कहानी जम्मू कश्मीर राइफल की 13 बटाइलन की है, जो कि रिजर्ब फोर्स है. मगर कारगिल युद्ध में इसे ही कैप्टन विक्रम बत्रा के नेतृत्व में पाक सेना द्वारा कब्जा की गयी कारगिल की जमीन को वापस लाने की जिम्मेदारी सौंपी गयी थी, जिसे कैप्टन विक्रम बत्रा व उनके साथियों ने अपनी जान गंवाकर पूरी करते हुए पाकिस्तानी सेना का सफाया कर दिया था.

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फिल्म की शुरूआत विक्रम बत्रा के बचपन से होती है, और टीवी कार्यक्रम देखकर वह सैनिक बनने का निर्णय लेते हैं. कालेज में पढ़ाई करते हुए डिंपल(कियारा अडवाणी) से उनका प्यार हो जाता है. डिंपल का परिवार सिख है और विक्रम बत्रा(सिद्धार्थ मल्होत्रा) पंजाबी खत्री हैं. इस वजह से डिंपल के पिता इस व्याह के लिए तैयार नही होते. तब विक्रम मर्चेंट नेवी मंे जाने की बात करता है. इसी आधार पर डिंपल अपने पिता से लड़कर विक्रम से ही शादी करने का फैसला सुना देती है. लेकिन विक्रम का दोस्त सनी उसे समझाता है कि महज शादी करने के लिए वह अपने सैनिक बनने के सपने को छोड़कर गलती कर रहा है. तब फिर से विक्रम सेना में जाने का फैसला करता है, इससे डिंपल को तकलीफ होती है. पर वह विक्रम के साथ खड़ी नजर आती है. ट्रेनिंग लेकर विक्रम बत्रा जम्मू कश्मीर राइफल की तेरहवीं बटालियन में पहुंचकर अपने सहयोगियों के साथ ही कश्मीर की जनता के बीच घुल मिल जाते हैं. पहले वह आतंकवादी गिरोह के अयातुल्ला को पकड़ता है,  फिर वह आतंकवादियों का सफाया करते हुए हैदर का सफाया करता है. इससे उसके वरिष्ठों को उस पर नाज होता है. वह छुट्टी लेकर पालमपुर आता है और गुरूद्वारा में डिंपल की चुनरी पकड़कर फेरे लेने के बाद कहता है कि अब वह मिसेस बत्रा बन गयी. अपने आतंकियों के सफाए से बौखलाया पाकिस्तान कारगिल की पहाड़ियों पर कब्जा कर लेता है. तब विक्रम मल्होत्रा को वापस जाना पड़ता है. जब विक्रम ड्यूटी पर लौटने लगता है, तो जब उनका दोस्त सनी उससे कहता है कि जल्दी लौटना. तो विक्रम का जवाब होता हैः तिरंगा लहरा कर आऊंगा,  नहीं तो उसमें लिपट कर आऊंगा. इस बार उसकी बटालियन को विक्रम बत्रा के नेतृत्व में कारगिल की पहाड़ी पर पुनः कब्जा करने की जिम्मेदारी दी जाती है. तथा विक्रम बत्रा को कोडनेम ‘‘शेरशाह’’दिया जाता है. विक्रम बत्रा के नेतृत्व में  सेना के जांबाजों ने 16 हजार से 18 हजार फीट ऊंची ठंडी-बर्फीली चोटियों पर चढ़ते-बढ़ते हुए दुश्मन पाकिस्तानी फौज को परास्त कर कारगिल की पहाड़ी पर पुनः भारत का कब्जा हो जाता है, मगर विक्रम बत्रा सहित कई सैनिक शहीद हो जाते हैं. मगर उनके शौर्य को पूरा देश याद रखता है.

लेखन व निर्देशनः

बेहतरीन पटकथा वाली युद्ध पर बनी एक बेहतरीन फिल्म है. पूरी फिल्म यथार्थपरक है. तमिल में बतौर निर्देशक आठ फिल्में बना चुके विष्णुवधन की यह पहली हिंदी में हैं. विष्णु वर्धन ने हर बारीक से बारीक बात को पूरी इमानदारी के साथ उकेरा है. अमूूमन सत्य घटनाक्रम पर आधारित फिल्म बनाते समय फिल्मकार वास्तविक किरदारों के नाम बदल देते हैं. लेकिन निर्देशक विष्णु वर्धन ने फिल्म ‘शेरशाह’ में सभी किरदारों,  घटनाक्रम और जगह आदि के नाम हूबहू वही रखे हंै, जो कि यथार्थ में हैं.

फिल्म के संवाद कमजोर है. संवाद वीरोचित व भावपूर्ण नही है.

फिल्म में विक्रम बत्रा और डिंपल के बीच रोमांस को पूरी तरह  से फिल्मी कर दिया है. फिल्म में कारगिल की पहाड़ी पर एक पाक सैनिक, विक्रम बत्रा से कहता है कि  ‘हमें माधुरी दीक्षित दे दो, हम कारगिल छोड़ देंगे. ’’यह संदर्भ कितना सच है, यह तो निर्माता व निर्देशक ही बता सकते हैं. मगर बॉलीवुड के फिल्मकार अक्सर सत्यघटनाक्रम पर फिल्म बनाते समय इस तरह की चीजें परोसते ही हैं.

फिल्म का क्लायमेक्स कमाल का है. यह फिल्म कैप्टन विक्रम बत्रा और कारगिल युद्ध में अपने शौर्य का प्रदर्शन करते हुए अपनी जान गंवाने वाले वीर जवानों को सच्ची श्रृद्धांजली हैं. पटकथा अच्छी ढंग से लिखी गयी है।फिल्म की खासियत यह है कि इसमें देशभक्ति के नारे नही है. निर्देशक ने विक्रम बत्रा के सेना में पहुंचने के बाद उनकी निडरता, वीरता और नेतृत्व की खूबी को ही उभारा है. निर्देशक विष्णु वर्धन बधाई के पात्र हैं कि उन्होने भारतीय सिनेमा और विक्रम बत्रा के शौर्य को पूरे सम्मान के साथ उकेरा है. फिल्म यह संदेश देने में पूरी तरह से कामयाब रहती है कि फौजी के रुतबे से बड़ा कोई रुतबा नहीं होता.  वर्दी की शान से बड़ी कोई शान नहीं होती.  देश प्रेम से बड़ा कोई धर्म नहीं होता.

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मगर युद्ध के दृश्य काफी कमजोर हैं.

इस फिल्म की सबसे बड़ी खूबी यह है कि फिल्म के अंत में कारगिल के योद्धाओं की निजी तस्वीरें, उनके संबंध में जानकारी और फिल्म में उनके किरदार को निभाने वाले कलाकार की तस्वीरों के साथ पेश किया गया है.

वीएफएक्स भी कमाल का है.

कैमरामैन कलजीत नेगी ने कमाल का काम किया है. उन्होेने लोकेशन को सही अंदाज में पेश किया है.

अभिनयः

विक्रम बत्रा के किरदार में अभिनेता सिद्धार्थ मल्होत्रा नही जमते. जो वीरोचित भाव और वीरोचित छवि उभरनी चाहिए थी, वह नहीं उभरती. रोमांस व कालेज के दृश्यों में वह जरुर जमे हैं. कियारा अडवाणी ने संजीदा अभिनय किया है. वैसे उनके हिस्से करने को कुछ खास रहा नही. अन्य सभी कलाकारों ने अपने अपने किरदार को बेहतर तरीके से जिया है.

REVIEW: एक मार्मिक व साहसी Short फिल्म ‘ट्रांजिस्टर’

रेटिंगः तीन स्टार

निर्माताः विनय बरिगिदाद, विनुता बरिगिदाद और धीरज जिंदल

लेखक व निर्देशकः प्रेम सिंह

कलाकारः अहसास चानना,  मोहम्मद समद, अलका विवेक,  अजय प्रताप सिंह, संजीव भट्टाचार्य व अन्य

अवधिः 25 मिनट

ओटीटी प्लेटफार्मः अमेजॉन मिनी टीवी

1975 से 1977 के बीच जब पूरे देश में राष्ट्रीय आपातकाल लगा हुआ था, उसी दौर में सरकार के आदेश पर जनसंख्या वृद्धि पर रोक लगाने के लिए नसबंदी मुहीम लागू हुई थी. जिसके चलते उस दौर में लगभग छह करोड़ से अधिक 14 से 70 वर्ष के पुरूषों की नसबंदी कर दी गयी थी. उसी पृष्ठभूमि में फिल्मकार प्रेम सिंह एक किशोर वय के लड़के व लड़की की प्रेम कहानी को लघु फिल्म‘‘ट्रांजिस्टर’’में लेकर आए हैं. कैसे राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा और एक ट्रांजिस्टर ने उनके रिश्ते में सब कुछ बदल दिया था. इस लघु फिल्म को तीस जुलाई से ‘‘अमेजॉन मिनी टीवी’पर देखा जा सकता है.

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कहानीः

यह कहानी 1975 की पृष् ठभूमि में ग्रामीण भारत की है. जब पूरे देश में पुरूषों की जबरन नसबंदी की जा रही थी. एक गांव की किशोर वय लड़की उमा (अहसास चानना) अपने ट्रांजिस्टर के साथ बकरी चराने खेतों में आती है. वह एक पेड़ के नीचे बैठकर ट्रांजिस्टर पर जयामाला कार्यक्रम में पेश किए जाने वाले गीत सुना करती थी. नदी पार के गांव से एक किशोर वय लड़का पवन (मोहम्मद समद) नाव से नदी पारकर दूसरे पेड़ की ओट से उमा को देखता रहता है. उमा को भी इस बात का अहसास है. पवन बड़ी बेशर्मी से एक पेड़ के पीछे छिप जाता है,  लेकिन उसके लिए उसकी निगाहों को महसूस करने के लिए बस इतना ही काफी है. उमा एक पेड़ के नीचे बैठती है, जबकि उसका रेडियो उसे नवीनतम हिंदी फिल्मी गीतों से रूबरू कराता है.  यह उनकी दिनचर्या है. एक दिन उमा के पिता को बाजार में पकड़ कर उनकी जबरन नसबंदी करके उन्हे उपहार में ट्रांजिस्टर दिया जाता है. यह बात पवन भी जान जाता है. अब उमा के माता पिता उमा की शादी में दहेज में वही ट्रांजिस्टर देने का फैसला करते हैं. पवन व उमा हर दिन एक ही जगह आते हैं, एक दूसरे को देखते हैं, पर मन ही मन प्यार करने लगते हैं, मगर करीब नही आते. एक दिन पवन उसी पेड़ के उपर चढ़कर बैठ जाता है, जिसके नीचे उमा आकर बैठती है और पेड़ की डाली टूटने से डाली के साथ पवन भी ट्रांजिस्टर के उपर गिरता है, जिससे ट्रांजिस्टर टूट जाता है. इससे उमा को दुख होता है. पवन अपनी जबरन नसबंदी कराकर उमा को ट्रांजिस्टर लाकर देता है. ट्रांजिस्टर पाकर उमा खुश हो जाती है. दोनो पास बैठकर बातें करते हैं. दूसरे दिन उमा, पवन से पूछती है कि वह ट्रांजिस्टर कहां से लाया. पवन की खामोशी से उमा को जवाब मिल जाता है. और फिर उमा की शादी दूसरे युवक से कर दी जाती है, जिससे उसका परिवार व वंश बढ़ सके. अब पवन क्या करेगा, यह तो फिल्म देखने पर पता चलेगा.

लेखन व निर्देशनः

फिल्मकार प्रेम सिंह अपनी इस लघु फिल्म को उस वक्त लेकर आए हैं, जब उत्तर प्रदेश सरकार जनसंख्या नियंत्रण के लिए कानून बनाने जा रही है. फिल्मकार ने किशोर वय की प्रेम कहानी के माध्यम से नसबंदी और जनसंख्या नियंत्रण कानून पर कटाक्ष करते हुए जोरदार तमाचा जड़ा है. फिल्मकार ने आशा,  प्रेम,  भय,  खुशी और सहित इंसान की हर भावनाओं का सटीक निरूपण किया है. इतना ही नही फिल्मसर्जक ने प्रजनन क्षमता व नसबंदी इन दोहरे विषयों को मार्मिकता के साथ उठाया है।फिल्मकार ने फिल्म की लंबाइ बढ़ाने की बजाय कई रूपको का उपयोग किया है. फिल्म के मुख्य किरदारो के बीच विना संवाद के मौन प्यार की अभिव्यक्ति को काफी अच्छे ढंग से उकेरा गया है. फिल्मकार ने 1975 के माहौल को भी ठीक से गढ़ने मे सफल रहे हैं. मगर 25 मिनट की इस लघु फिल्म की गति काफी धीमी है. फिल्म में कुछ घटनाक्रम होने चाहिए थे.

अभिनयः   

किशोर वय ग्रामीण लड़की उमा के किरदार को ‘हॉस्टल डेज’ व ‘ गर्ल्स हॉस्टल’ फेम अहसास चानना ने अपने शानदार अभिनय से जीवंतता प्रदान की है. ट्रांजिस्टर के टूटने पर दुख, नया ट्रांजिस्टर मिलने पर खुशी, लेकिन दूसरे युवक से शादी होते समय उसकी आंखो से बहने वाले आंसू हो, हर जगह वह अपने चेहरे के भावो से विना संवाद काफी कुछ बयां कर जाती हैं. तो वहीं बचकानी नम्रता वाले पवन के किरदार में ‘छिछोरे’ व ‘तुम्बाड’ फेम अभिनेता मेाहम्मद समद का अभिनय भी कमाल का है. दोनो कलाकार अपनी बॉडी लैंगवेज के माध्यम से बहुत कुछ कह जाते हैं.

REVIEW: दिल को छू लेने वाली कहानी है ईशा देओल की ‘एक दुआ’

रेटिंगः साढ़े तीन स्टार

निर्माताः वेंकीस, भारत तख्तानी,  ईशा देओल तख्तानी और अरित्रा दास

निर्देशकः राम कमल मुखर्जी

लेखकः अविनाश मुखर्जी

कलाकारः ईशा देओल, राजवीर अंकुर सिंह, बॉर्बी शर्मा , निक शर्मा व अन्य

अवधिः लगभग एक घंटा

ओटीटी प्लेटफार्मः वूट सेलेक्ट

पुरूष प्रधान भारतीय समाज में आज भी बेटे व बेटी के बीच भेदभाव किया जाता है. अत्याधुनिक युग में भी भ्रूण हत्या की खबरें आती रहती हैं. सरकार इस दिशा में अपने हिसाब से कदम उठा रही है. पर इसके सार्थक परिणाम नही मिल रहे हैं. इसी महत्वपूर्ण मुद्दे पर फिल्म सर्जक राम कमल मुखर्जी और कहानीकार अविनाश मुखर्जी एक फिल्म‘‘एक दुआ’’लेकर आए हैं,  जिसका निर्माण ईशा देओल तख्तानी व उनके पति  तख्तानी ने  किया है. जो कि 26 जुलाई से ओटीटी प्लेटफार्म ‘वूट ’’पर स्ट्रीम हो रही है.

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कहानीः

फिल्म की कहानी टैक्सी ड्रायवर सुलेमान(राजवीर अंकुर सिंह)के परिवार के इर्द गिर्द घूमती है. सुलमान के परिवार में उनकी मां, पत्नी आबिदा(ईशा देओल तख्तानी),  बेटा फैज(निक शर्मा ) व बेटी दुआ(बार्बी शर्मा )हंै. बेटी दुआ के जन्म से सुलेमान की मॉं खुश नही है और सुलेमान भी अपनी बेटी से कटा कटा सा रहता है. सुलेमान के आर्थिक हालात अच्छे नही है, मगर वह अपने बेटे को स्कूल ख्ुाद छोड़ने जाता है. बेटे के लिए उपहार भी लाता है. सुलेमान बेटी दुआ को पढ़ाना नहीं चाहता. हर जगह उसकी उपेक्षा करता रहता है. लेकिन आबिदा हमेशा अपनी बेटी दुआ का खास ख्याल रखती है. वह बेटी को स्कूल भी भेजती है और बेटेे के साथ ही बेटी को भी बर्फ के गोले भी खिलाती है. ईद आने से पहले वह चुपचाप अपनी बेटी दुआ के लिए उपहार भी खरीद लाती है. जबकि ईद के दिन सुलेमान पूरे परिवार के साथ मस्जिद व दरगाह पर जाता है. सुलेमान ईद के अवसर पर अपनी मॉं के अलावा पत्नी व बेटे को ईदी यानी कि उपहार देता है. मगर वह बेटी दुआ के लिए कुछ नही लाता. यह देख दुआ की आॅंखों से आंसू बहते हैं, पर वह चुप रहती है. लेकिन आबिदा उसे उसकी पंसदीदा फ्राक ईदी यानी कि उपहार में देकर उसके चेहरे पर मुस्कान ले आती है. इस बीच दुआ की दादी सुलेमान से कहती है कि वह दूसरा बेटा पैदा करे. जबकि घर के बदतर आर्थिक हालात को देखते हुए आबिदा ऐसा नही चाहती. मगर मां की इच्छा के लिए सुलेमान पत्नी आबिदा को धोखा देकर उसे गर्भवती कर देता है. दुआ की दादी गभर्वती आबिदा के पेट की सोनोग्राफी के साथ ही लिंग परीक्षण भी करवा देती है, जिससे पता चलता है कि आबिदा बेटी को ही जन्म देने वाली है. अब दुआ की दादी चाहती हैं कि डाक्टर, आबिदा गर्भपात कर दे. मगर डाक्टर ऐसा करने की बजाय सुलेमान व उनकी मॉं को ही फटकार लगाती है. मगर सुलेमान की मां कहां चुप बैठने वाली. वह एक दूसरी औरत की मदद से ऐसा खेल खेलती है कि दूसरी दुआ नहीं आ पाती.

लेखन व निर्देशनः

अविनाश मुखर्जी ने अपनी कहानी में एक ज्वलंत व अत्यावश्क मुद्दे को उठाया है. लेकिन इसे जिस मनोरंजक तरीके से निर्देशक राम कमल मुखर्जी ने फिल्माया है, उसके लिए वह बधाई के पात्र हैं. राम कमल मुखर्जी ने इस फिल्म में लंैगिक समानता, भ्रूण हत्या, नारी स्वतंत्रता व नारी सशक्तिकरण के मुद्दों को बिना किसी तरह की भाषण बाजी या उपेदशात्मक जुमलों के मनोरंजन के साथ प्रभावशली ढंग से उकेरा है. इस फिल्म की सबसे बड़ी खासियत यह है कि कम संवादों के साथ बहुत गहरी बात कही गयी है. इसमें लिंग भेद व ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’की बात इस तरह से कही गयी है कि उन पर यह आरोप नहीं लग सकता कि इसी मुद्दे के लिए फिल्म बनायी गयी. इतना ही राम कमल मुखर्जी ने अपनी पिछली फिल्मों की ही तरह इस फिल्म में भी रिश्तों को उकेरा है.  इसमें मां बेटी के बीच के रिश्ते की गहराई को उकेरा गया है. तो वही फिल्मकार ने बदलते युग में किस तरह से ‘ओला’ व ‘उबर’की एसी वाली गाड़ियों के चलते दशकों से काली पीली टैक्सी वालों के सामने दो वक्त की रोटी का संकट पैदा होता जा रहा है, उसे भी बड़ी खूबसूरती से उकेरा है. एक गरीब मुस्लिम परिवार हो या बाजार या स्कूल के सामने का माहौल या दरगाह व उसके अंदर हो रही कव्वाली हो, फिल्मकार ने हर बारीक से बारीक बात को जीवंतता प्रदान करने में कोई कसर नही छोड़ी है. मगर कहीं न कहीं इसे कम बजट में बनाने का दबाव भी नजर आता है. फिल्म की गति थोड़ी धीमी है. फिर भी हर इंसान को सेाचे पर मजबूर करती है.

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गीत संगीत पर थोड़ी सी मेहनत की जाती, तो बेहतर होता.

कैमरामैन मोधुरा पालित बधाई की पात्र हं. उन्होने अपने कैमरे से मंुबई शहर को एक नए किरदार में पेश किया है.

अभिनयः

आबिदा के किरदार में ईशा देओल तख्तानी ने शानदार अभिनय किया है. एक बार फिर उन्होने साबित कर दिखाया कि ग्रहस्थ जीवन या दो बेटियों की मां बनने के बावजूद उनकी अभिनय क्षमता में निखार ही आया है. तो वहीं टैक्सी ड्रायवर सुलेमान के किरदार को जीवंतता प्रदान करने में राजवीर कंुवर सिंह सफल रहे हैं. राजवीर,  मां व पत्नी के बीच पिसते युवक के साथ ही आर्थिक हालात से जूझते इंसान के दर्द को बयां करने में सफल रहे हैं. दुआ के किरदार में बॉर्बी शर्मा बरबस  लोगों का ध्यान अपनी तरफ खींचती हैं. वह बिना संवाद के महज अपने चेहरे के भाव व आंखों से ही दर्द, खुशी सब कुछ जितनी खूबसूरती से बयां करती है, वह बिरले बाल कलाकारों के ही वश की बात है. बेटे फैज के किरदार में निक शर्मा ठीक ठाक हैं.

 

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REVIEW: जानें कैसी है हुमा कुरेशी की वेब सीरीज ‘महारानी’

रेटिंगः ढाई स्टार

निर्माताः नरेन कुमार और डिंपल खरबंदा

क्रिएटिव निर्देशकः सुभाष कपूर

निर्देशकः करण शर्मा

कलाकारः हुमा कुरेशी, सोहम शाह, अमित सियाल, प्रमोद पाठक व अन्य.

अवधिः लगभग सात घंटे, 45 से 52 मिनट की अवधि के दस एपीसोड

ओटीटी प्लेटफार्मः सोनी लिव

भारत में बिहार राज्य की गिनती सर्वाधिक पिछड़े राज्य के रूप में होती है. बिहार में गरीबी,  अशिक्षा, गुंडागर्दी, हिंसा, भ्रष्टाचार आदि का बोलबाला है. जातिगत हिंसा,  भेदभाव, वीर सेना व लाल सेना यानी कि नक्सलवाद के साथ ही राजनीति के जिस कुत्सित चेहरे के बारे में लोग सुनते रहे हैं, उसकी एक झलक  वेब सीरीज ‘महारानी’का हिस्सा है. देश की युवा पीढ़ी शायद 1997 से 1999 तक की राजनीति से पूरी तरह वाकिफ नही है. मगर उसी काल में पशुचारा घोटाले में नौ सौ अट्ठावन करोड़ के घोटाले के आरोप के बाद बिहार के मुख्यमंत्री लालूप्रसाद यादव ने त्यागपत्र दिया था, मगर नए मुख्यमंत्री के रूप में उन्होंने अपनी अशिक्षित पत्नी व पूरी तरह से घरेलू महिला राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठा दिया था. सुभाष कपूर ने ‘‘बिहार के इतिहास में दर्ज इसी तरह की राजनीति के एक स्याह अध्याय’’ से प्रेरित होकर एक काल्पनिक राजनीतिक घटनाक्रम वाली वेब सीरीज ‘‘महारानी’’लेकर आए हैं, . इस वेब सीरीज के क्रिएटिब डायरेक्टर होने के साथ ही सुभाष कपूर मुख्य लेखक भी हैं.

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कहानीः

कहानी की शुरूआत बिहार के मोरैना गॉंव में निचले तबके के दिलीप( हिमांशु मेहता)द्वारा उच्च जाति के घर पर अपनी पत्नी के काम करने से इंकार करने से होती है. दिलीप कहता है कि अब उंची जाति वालों को याद रखना चाहिए कि प्रदेश के मुख्यमंत्री भीमा भारती(सोहम शाह )हैं. दिलीप जिस भाषा में बातें करते हैं, उसी वजह से दिलीप को गोली से भून दिया जाता है. इधर अपने लाव लश्कर के साथ मुख्यमंत्री अपने पैतृक गांव मनुपुर, गोपालगंज पत्नी रानी (हुमा कुरेशी ) व बेटो तथा बेटी रोशनी(सिद्धि मालवीय ) से मिलने पहॅुचते हैं. वह बामुश्किल अपनी पत्नी का गुस्सा ठंडा कर पाते हैं. इसी बीच लालसेना के शंकर महतो (हरीश खन्ना ) अपने गैंग के साथ मुरैना गांव में सामूहिक नरसंहार को अंजाम देते हैं. तब मुख्यमंत्री बनने से वंचित रह गए व स्वास्थ्यमंत्री नवीन कुमार (अमित सियाल )अपनी ही सरकार के खिलाफ धरने पर बैठकर मुख्यमंत्री से इस्तीफा मांगते हैं. उन्हे अपनी पार्टी यानी कि राष्ट्रीय जन पार्टी के राज्य अध्यक्ष गौरी शंकर पांडे (विनीत कुमार)  का वरदहस्त हासिल है. तभी छठ का पर्व आ जाता है और छठ पर्व के दिन जब मुख्यमंत्री भीमा भारती अपनी पत्नी रानी का व्रत पूर्ण करवाने की क्रिया के लिए गांव की ही नदी पर पहुंचते हैं, तब उन पर दो हमलावर गोली चला देते हैं. घायल अवस्था में उन्हे पटना मेडीकल कालेज में भर्ती कराया जाता है. अब रानी बच्चो के साथ पटना स्थित मुख्यमंत्री आवास पहुंच जाती हैं. इस घटनाक्रम से गौरीशंकर पांडे,  नवीन कुमार व प्रेम कुमार (मोहम्मद आशिक हुसेन )खुश हैं. पर भीमा के के निजी सहायक मिश्रा जी(प्रमोद पाठक)राजनीति को भांपते हुए अस्पताल के सीएमओ डा. डी डी शर्मा (रिजु बजाज)पर भीमा भारती को मुख्यमंत्री आवास में ही भेजने के लिए कहते हैं और उनसे कहते हैं कि वह मेडिकल बुलेटीन जारी कर कह दें कि अब मुख्यमंत्री खतरे से बाहर हैं, इसलिए उन्हे घर भेज दिया गया. ऐसा ही किया जाता है. मगर डॉ. शर्मा सारा सच नवीन कुमार को बता देते हैं कि अभी छह सात माह तक मुख्यमंत्री ठीक नही हो पाएंगे. नवीन कुमार, प्रेम कुमार व गौरीशंकर पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष रामजीवन बोरा (सुधनवा देशपांडे )को बुलाकर मुख्यमंत्री आवास पहुंच जाते हैं, जहंा बोरा, भीमा भारती त्यागपत्र देने का दबाव बनाते हैं. भीमा दावा करते हैं कि बहुमत उनके साथ हैं, इसलिए उनकी पसंद का व्यक्ति ही मुख्यमंत्री बनेगा. बोरा पार्टी के अंदर जांच करने का ऐलान कर देते है कि बहुमत किसके साथ हैं. नवीन कुमार को भरोसा हो जाता है कि अब वही मुख्यमंत्री बनेंगें, मगर अंतिम समय में भीमा के पक्ष में अधिक विधायक जुटते हैं और भीमा भारती अपनी पत्नी रानी भारती(हुमा कुरेशी)को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठा देते है, जो कि अनपढ़ हैं, अपना नाम तक नहीं लिख सकती. कुछ पढ़ नही सकती. नवीन कुमार अपने विधायको के साथ विपक्षी दल में शामिल हो जाते हैं. राज्यपाल गोवर्धनदास (अतुल तिवारी)उन्हे बामुश्किल शपथ दिलाते हैं. अब नवीन कुमारअपने मौसा व महामहिम राज्यपाल से कहते हैं कि वह रानी भारती को सदन में विश्वासमत हासिल करने के लिए कहें. विश्वासमत के दौरान अपने संबंध में नवीन कुमार के मुंह से कड़वा सच सुनकर रानी भारती तिलमिला जाती हैं. उसके बाद वह ऐसा जवाब देती है कि विश्वासमत हासिल करने में सफल हो जाती हैं. उसके बाद धीरे धीरे मुख्यमंत्री रानी भारती अपनी देहाती समझ के अनुसार ऐसे कदम उठाती हैं कि बहुत कुछ गडमड हो जाता है.

उधर शंकर महतो और वीर सेना के रामेश्वर मुखिया(आलोक चटर्जी ) अपने अंदाज में नरसंहार करते रहते हैं, धीरे धीरे लोगं की समझ में आता है कि इनसे राज्य के मंत्री मिले हुए हैं. तो वहीं मचान बाबा(तरूण कुमार) का अपना खेल चलता रहता है.

मुख्यमंत्री के आदेश पर वित्त सचिव परवेज आलम(इनामुल हक)जांचकर पशुपालन विभाग में 958 करोड़ की चोरी पकड़ते हैं. मुख्यमंत्री रानी , पशुपालन मंत्री प्रेम कुमार को बर्खास्त कर देती हैं. उसके बाद काफी राजनीतिक उठापटक होती है.

लेखनः

सुभाष कपूर ने बिहार की राजनीति के नब्बे के दशक के स्याह अध्याय को काल्पनिक कथा के नाम पर गढ़ने का असफल प्रयास किया है. उनके लेखन में काफी खोखलापन है. कई दृश्यों को देखकर इस बात का अहसास होता है कि सुभाष कपूर इसकी कथा पटकथा लिखते हुए काफी डरे हुए थे और उनकी पूरी कोशिश रही है कि हर पक्ष को खुश किया जाए. बिहार राज्य के अंदर सामाजिक स्तर पर जातिगत भेदभाव को भी बहुत उथला ही पेश किया गया है. वेब सीरीज में कुछ जटिलताएं जरुर रोमांचित करती हैं, मगर दृश्य नही करते, यह लेखन की कमजोर कड़ी है. वेब सीरीज की शुरूआत ही  जातिगत भेदभाव की तरफ इशारा करते हुए होती है, लेकिन बहुत जल्द सुभाष कपूर के लेखन की गाड़ी पटरी से उतर जाती है. सुभाष कपूर ने ‘महारानी’ की कहानी का केंद्र मुख्यमंत्री रानी भारती के इर्द गिर्द रखते हुए एक अंगूठा छाप अशिक्षित मुख्यमंत्री को भ्रष्टाचार के सागर में पवित्रता की मूर्ति बताकर पूरी बिहार की राजनीतिक सत्यता को ही उलट पुलट कर एक नए सत्य को लोगों से कबूल करवाने का असफल प्रयास किया है. एक संवाद है, जब रानी भारती अपने पति भीमा भारती व मिश्राजी से कहती हैं-‘‘हम सच जानना चाहते हैं और आप सरकार बचाना चाहते हैं?’’लेकिन लेखक इस बात के लिए बधाई के पात्र है कि उन्होेने रानी को एक ऐसी महिला के रूप में पेश किया है, जो मानती है कि अशिक्षित होने के कारण वह पढ़लिख नही सकती, मगर अपने जीवन के अनुभवांे के आधार पर उसकी जो समझ है, वह उसके लिए काफी मायने रखती है.

लेखक की सबसे बड़ी कमजोर कड़ी यह है कि मुख्यमंत्री भीमा भारती क्यों अपनी पत्नी रानी भारती को अपने साथ रखने की बजाय गांव में ही रखते हैं, इस पर उनकी कलम चुप रह गयी?क्या भीमा अपनी अशिक्षित पत्नी की वजह से ख्ुाद को हीन ग्रंथि का शिकार समझते हैं. गॉंव की रहने वाली, पति की सेवा, अपने बच्चों व अपनी गाय की देखभाल के प्रति समर्पित रानी भारती मुख्यमंत्री बनते ही दो एपीसोड के अंदर ही जिस कुटिल राजनेता की तरह आदेश देना शुरू करती हैं, उसका यह परिवर्तन भी अविश्वसनीय लगता है. रानी को इंसान के तौर पर विकसित करने के लिए मुख्यमंत्री बनते ही उनके समक्ष बाधाओं का अंबार लगा दिया जाता है, मगर वह बिना पति व राजनीतिज्ञ भीमा भारती की सलाह के सारे निर्णय लेती रहती है. यह सब कहीं न कहीं लेखकीय कमजोरी है, भले ही इसके पीछे लेखक की मंशा नारी शक्ति का चित्रण करना ही क्यों न रहा हो,  मगर उसका आधार तो सशक्त होना चाहिए. पर लेखक बुरी तरह से मात खा गए हैं. कई जगह बेवजह अश्लील गालियों का समावेश है.  राजनीति में धर्म गुरूओं के प्रभाव की लेखक ने हल्की झलक ही पेश की है, जबकि राजनीति व धर्म का मिलाप कई निराले खेल करता रहा है और आज भी कर रहा है. वेब सीरीज में धर्म को बेचने का भी प्रयास है.

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इसमें चरित्रगत विसंगतियां भी हैंं. मसलन एक दृश्य में मुख्यमंत्री रानी भारती पुरूष विधायको व मंत्रियो द्वारा विवाहित महिला यानी कि उन्हें फूल मालाएं देने का विरोध करती हैं,  तो कुछ एपीसोड के बाद एक दृश्य में वह बड़ी सहजता से स्वीकार करती हैं. यह चरित्र में बदलाव? इतना ही नही एक दृश्य में मिश्राजी जब उसकी बांह पकड़कर बरामदे में उनके पति के पास ले जाते हैं, तो यह वह कैसे स्वीकार कर लेती है?

लेखक ने लाल सेना (नक्सलवाद)और वीर सेना के संग राजनेताओं के गठबंधन का भी चित्रण किया है. मगर नक्सलवाद या वीर सेना क्यो पूरे गॉंव के गॉंव का नरसंहार करते हैं, इसकी वजह व इन दोनो के वजूद को लेकर कोई बात नही करती. शुरूआती एपीसोडों में यह संवाद जरुर है-‘‘पिछड़ो ने अपने सम्मान की रक्षा के लिए एक हाथ में लाल झंडा और दूसरे हाथ में बंदूक उठा ली है. ’’पर अहम सवाल यह है कि क्या वीर सेना या नक्सलवाद के पीछे महज जातिगत समीकरण ही हैं?ऐसे में नरंसहार?

बिहार के स्याह इतिहास में1995 की बिहार बाढ़,  बड़ा नरसंहार जहां माओवादियों ने भूमिहारों को मार गिराया था,  और लक्ष्मणपुर बाथे नरसंहार जहां एक भूमिहार उग्रवादी समूह ने अनुसूचित जाति के लोगों को गोली मार दी थीआदि का भी समावेश है, मगर इसे फिल्मकार सही ढंग से चित्रित नही कर पाए. जो कुछ दिखाया, वह प्रभाव नही डालता.

लेखक व क्रिएटिब निर्देशक सुभाष कपूर तथा निर्देशक करण शर्मा इस बात के लिए बधाई के पात्र हैं कि बिना अश्लील दृश्यों के भी वह राजनीति के अंदर व्याप्त ‘सेक्स’व नारी शोषण का चित्रण करने में सफल रहे हैं.

 

निर्देशनः

बतौर निर्देशक करण शर्मा  भी इस राजनीतिक घटनाक्रम वाली ‘महारानी’के साथ पूरा न्याय नही कर पाए. वेब सीरीज में अचानक  कहीं भी सामूहिक नरसंहार होने लगता है, तो अचानक बाबाजी का प्रवचन शुरू हो जाता है. अचानक भोजपुरिया आइटम सॉंग आ जाता है. दृश्यों के बीच सही तालमेल ही नही है. इतना ही नही लेखक के साथ साथ निर्देशक को भी नही पता है कि 1998 में मोबाइल नही था. मगर चैथे एपीसोड में रॉंची के डीएम माणिक गुप्ता(राजीव रंजन) से जब परवेज आलम कहते है कि छोटे लाल(मुरारी कुमार )को फोन कीजिए, तो डीएम साहब अपनी जेब से मोबाइल निकालकर छोटे लाल(मुरारी कुमार) को फोन करते हैं.

इतना ही नही कुछ दृश्यों में संवाद और किरदारो के चलते ओंठ मेल नही खाते हैं. यह तकनीकी गड़बड़ी है.

कैमरामैन अनूप सिंह बधाई के पात्र हैं. उन्होने कई दृश्यों को अपने कैमरे से इस तरह से कैद किया है कि सब कुछ जीवंत हो जाता है.

अभिनयः

सोहम शाह ने एक चतुर व कुटिल राजनीतिज्ञ भीमा भारती को जिस तरह से अपने अभिनय से उकेरा है, उसके लिए वह प्रशंसा बटोर ले जाते हैं. अपनी पत्नी रानी के मुख्यमंत्री बनने के बाद उसकी हरकतो से भीमा को अपनी ही चाल पर संदेह होता है, इस बात को सोहम ने बड़ी सहजता से निभाया है. एक दृश्य में भीमा अपनी पत्नी व मुख्यमंत्री रानी से धीरे से कहते हैं-‘‘मुझे नहीं पता कि मुझे किसने अधिक चोट पहुंचाई है।‘‘ ‘‘हत्यारे ने या आप . . ?‘‘ उस वक्त उनकी भाव भंगिमाएं कमाल की हैं. रानी भारती के किरदार में हुमा कुरेशी ने अपनी तरफ से बेहतरीन अभिनय किया है. गॉंव में रह रही घरेलू रानी के किरदार में दर्शक पहचान ही नही पाता कि यह हुमा कुरेशी हैं. मगर कई जगह उन्हे पटकथा से आपेक्षित मदद नही मिली, तो कई जगह निर्देशक की अपनी गलतियों की वजह से वह मात खा गयी हैं. एक ही संवाद में हुमा कुरेशी ‘स्कूल’और‘इस्कूल’कहती है. यह कलाकार की नहीं, निर्देशक की कमजोरी का प्रतीक है. मिश्राजी के किरदार को प्रमोद पाठक ने अपने उत्कृष्ट अभिनय से जीवंतता प्रदान करने मे सफल रहे हैं. नवीन कुमार का किरदार काफी हद तक बिहार के वर्तमान मुख्यमंत्री नितीश कुमार से प्रेरित नजर आता है. नवीन कुमार के किरदार में अभिनेता अमित सियाल का अभिनय बहुत सहज है. वैसे उन्हे अपनी प्रतिभा को निखारने के कई अवसर मिले हैं. सदन में विश्वासमत के दौरान विपक्ष के नेता के तौर पर उन्ळे काफी अच्छे संवाद भी मिले, पर उन संवादों के साथ वह ठीक से खेल नही पाए. वित्त सचिव  परवेज आलम के किरदार में अभिनेता इनामुल हक अपने अभिनय से छाप छोड़ जाते हैं. विनीत कुमार, कानन अरूणाचलम, कनि कुश्रुति, , ज्योति दुबे, अतुल तिवारी,  सुशील पांड ने भी ठीक ठाक अभिनय किया है.

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