आत्मसम्मान का हक बहू को भी है

युवा पतिपत्नी को पति के मातापिता ने अलग से रहने का मकान दिलाया और उस को सुधारने में सारा खर्चा युवा पतिपत्नी ने अपनी दोनों की कमाई से उठाया. फिर पति की मां बीचबीच में आ कर टांग अड़ाने लगी कि यह सोफा साइड में रखो, परदों का रंग बदलो, घरेलू आया को घर से निकाल दो क्योंकि उस ने घंटी बजने पर दरवाजा खोलने में देर कर दी या फिर चाय दूधशक्कर वाली की जगह ग्रीन टी दे दी तो इस पति की मां को क्या कहेंगे?

यही न कि वह बेटेबहू का घर जोड़ नहीं रही, संभाल नहीं रही, तोड़ रही है. यह काम हमारे केंद्र सरकार के नियुक्त गवर्नर उन राज्यों में कर रहे हैं जहां भारतीय जनता पार्टी की सरकारें नहीं हैं.

दिल्ली में तो यह भयंकर रूप से एक के बाद एक राज्यपाल कर रहे हैं. भाजपा चाहे 7 की 7 संसद सीटें जीत जाए, पहले 2 बार वह विधानसभा में और इस बार दिल्ली नगर निगम चुनावों में अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी से बुरी तरह हारी. अब वह उस सास की तरह व्यवहार कर रही है जिस के बेटे ने अपनी मरजी से शादी की और मां की ढूंढ़ी लड़कियों को रिजैक्ट कर दिया.

यह तंग करने का अधिकार भारतीय जनता पार्टी के डीएनए में है क्योंकि पुराणों में बारबार जिक्र है कि ऋषिमुनि राजा के दरबार में घुस कर जबरन राजा से काम कराते थे.

नरसिंह अवतार बन कर विष्णु ने हिरण्यकश्यप का अकारण वध किया. कृष्ण ने बिना वजह कौरवों व पांडवों के बीच मतभेद खड़े किए और इस कुरूवंश को समाप्त करा दिया. विश्वामित्र राम और लक्ष्मण को जबरन राक्षसों को मारने ले गए और सारी रामायण में उन की तरह के ऋषिमुनि अयोध्या के राजकाज में विघ्न डालते रहे.

जो कथा इन ऋषिमुनियों ने गढ़ी उन में तो राजा का काम उसी तरह ऋषियों की बेमतलब की बातों को थोपना था जैसा केंद्र सरकार के गवर्नर पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, केरल, दिल्ली, छत्तीसगढ़, झारखंड में कर रहे हैं.

पौराणिक ऋषियों की दखलअंदाजी से पौराणिक कथाओं के राजा हर समय ऋषिमुनियों के आदेश पर लड़ने को मजबूर रहते थे और यही ऋषिमुनि आज घरों में युवा पत्नियों को परेशान करते हैं. आमतौर पर सासें किसी न किसी स्वामी महाराज, गुरु की भक्त होती हैं और रातदिन उन की सेवा में लगी रहती हैं. वे ही सासों को उकसाते हैं कि बहुओं को नकेल में डाल कर रखो.

जो सोचते हैं कि सरकार तो अपने कामकाज से सिर्फ गृहस्थी चलाने वालियों या गृहस्थी की आर्थिक स्थिति मजबूत करने में लगी है, वे गलत हैं क्योंकि हर जिंदगी का फैसला आज उसी तरह के पौराणिक सोच वाले लोगों के हाथों में आ चुका है. गवर्नरों की दखलअंदाजी, सरकारों की धौंस, बुलडोजरों से राज, हिंदूमुसलिम विवाद सब की काली छाया हर घर पर पड़ती है, सीधे या परोक्ष में.

अफसोस यह है कि औरतें बराबर की वोटर होते हुए भी पुरातनपंथी सोच को वरीयता देने में लगी हैं कि हमें क्या मतलब, जो पति कहेंगे वही कर लेंगे. यह दकियानूसीपन स्वतंत्रता को दान में देना है. यही औरतों को बेचारी बनाता है.

गवर्नरों का काम करने का तरीका है कि या तो हमारी मानो वरना हम नाक में दम कर के रखेंगे, यह सोच प्रधानमंत्री कार्यालय से शुरू होती है और छनछना कर हर घर तक पहुंच जाती है. क्या विद्रोह करने का, विरोध करने का, अपना आत्मसम्मान व आत्मविश्वास रखने का हक हर बहू को है या नहीं? क्या लोकतंत्र में विपक्ष की सरकारों को चलने का हक है या नहीं?

भांडा तो फूटा है मगर होगा क्या

लड़कियां मजबूत होंगी तो वे सैक्सुअल हैरेसमैंट से बच सकती हैं और उन्हें सैल्फ डिफेंस सीखना चाहिए. कुश्ती संघ के उधड़े जख्मों से अब साफ है कि वह बेकार है. जरूरत लड़कियों को शारीरिक रूप से मजबूत होने की नहीं है, उस सामाजिक ढांचे को पटकनी देने की है जो औरतों को एक पूरी जमात के तौर पर दबा कर रखता है.

भाजपा के ऊंची जाति के सांसद ब्रज भूषण सिंह खुद कुश्ती खेलना न जानते हों, वे ‘रैसलिंग फैडरेशन औफ इंडिया’ के प्रैसिडैंट हैं और उन के शैडो में सैकड़ों रैसलर सैक्सुअल हैरेसमैंट की शिकायतें ले कर उठ खड़ी हुई हैं.

रैसलिंग कैंपों, विदेशी टूरों, सिलैक्शन में कोचों और न जाने किनकिन को खुश करना पड़ता है तब महिला रैसलर विदेश व देश में मैडल पाने का मौका पाती हैं. हर महिला रैसलर की कहानी शायद मैडल के पीछे लगी पुरुष वीर्य की बदबू से भरी है. कदकाठी और ताकत में मजबूत होने के बाद रैसलरों को न जाने किसकिस को ‘खुश’ करना पड़ता है. रैसलर महिलाओं के साथ जो बरताव होता है उस के पीछे एक कारण है कि वे पिछड़ी जातियों से ज्यादा आती हैं जिन के बारे में हमारे धर्मग्रंथ चीखचीख कर कहते हैं कि वे तो जन्म ही सिर्फ सेवा करने के लिए लेती हैं. देश के देह व्यापार में यही लड़कियां छाई हुई हैं. जाति और समाज के बंधन रैसलर लड़कियों को सैक्सुअल हैरेसमैंट से मुक्ति नहीं दिला सकते. ऐसा बहुत से क्षेत्रों में होता है जहां औरतें अकेली रह जाती हैं. एक युग में जब काशी और वृंदावन हिंदू ब्राह्मण विधवाओं से भरे थे, जिन के घर वालों ने उन्हें त्याग दिया था. वहीं के पंडित संरक्षकों ने उन्हें विदेश ले जाए जा रहे गिरमिटिया मजदूरों के साथ भिजवाया था.

एक तरह से वे जापानी सेना की कंफर्ट वूमंस की तरह थीं जिन्हें कोरियाई सेना के साथ सैनिकों को सुख देने के लिए पकड़ कर रखा था. यह द्वितीय विश्वयुद्ध में हुआ था जब जापान ने कोरिया पर कब्जा कर लिया था. कोरियाई लड़कियां शारीरिक रूप से कमजोर थीं और जब देश ही हार गया हो तो वे क्या करें? अफसोस यह है कि बड़ीबड़ी बातें करने वाला समाज तुलसीदास का कथन औरतों को ताड़न का अधिकारी ही मानता है और सरकार समर्थक अपनी बात पर अड़े रहने के लिए ताड़ना शब्द का नयानया अर्थ रोज निकालते हैं. यही रैसलिंग फैडरेशन में होता है, सभी खेलों में होता है जहां चलती पुरुषों की है पर खेलती लड़कियां हैं. गांवों से आने वाली कम पढ़ीलिखी लड़कियां केवल कपड़े न उतारने की जिद के कारण चमकदमक, विदेशी दौरों, बढि़या रिहाइश का मौका नहीं खोना चाहतीं.

उन्हें बचपन से सिखाया गया है कि पिता, भाई, पति, ससुर के हर हुक्म को सिरआंखों पर रख कर मान लो. अब यह भांड़ा फूटा है पर होगा क्या? होगा यह कि विद्रोह करने वाली लड़कियों को शहद की बूंदों पर मंडराने वाली घरेलू मक्खियों की तरह मार दिया जाएगा. सरकारी आदेशों की हिट उन पर छिड़क दी जाएगी. अगले दौर में उन लड़कियों को लिया जाएगा जो पहले दिन से सर्वस्व देने को तैयार हों. न समाज बदलने वाला, न पुरुषों की लोलुपता और कामुकता. ऊपर से रामायण, महाभारत के किस्से स्पष्ट करते रहेंगे कि औरतो, तुम तो बनी ही यातनाएं सहने को, तुम्हें लक्ष्मण रेखाओं में रहना है, तुम्हें अग्नि में जलना है या भूमि में समाना है, तुम्हें एक नहीं कई पतियों को खुश रखना है, वंश चलाने के लिए व नपुंसक पतियों की इज्जत बचाने के लिए तुम्हें दूसरे पुरुषों के हवाले किया जा सकता है. वह स्वर्ण पौराणिक युग फिर लौट आया है. राम और कृष्ण की जन्मभूमियों को नमन करो और फैडरेशन के अफसरों को खुश करो वरना न पैसा मिलेगा, न 2 वक्त की कुछ दिन अच्छी रोटी मिलेगी.

मिलेट्स से बने हेल्दी फूड के बारें में क्या कहती है महिला उद्यमी विद्या जोशी, जानें यहां

अगर जीवन में कुछ करने को ठान लिया हो तो समस्या कितनी भी आये व्यक्ति उसे कर गुजरता है. कुछ ऐसी ही कर दिखाई है, औरंगाबाद की महिला उद्यमी विद्या जोशी. उनकी कंपनी न्यूट्री मिलेट्स महाराष्ट्र में मिलेट्स के ग्लूटेन और प्रिजर्वेटिव फ्री प्रोडक्ट को मार्किट में उतारा है, सालों की मेहनत और टेस्टिंग के बाद उन्होंने इसे लोगों तक परिचय करवाया है, जिसे सभी पसंद कर रहे है. उनके इस काम के लिए चरक के मोहा ने 10 लाख रुपये से सम्मानित किया है. उनके इस काम में उनका पूरा परिवार सहयोग देता है.

किये रिसर्च मिलेट्स पर

विद्या कहती है कि साल 2020 में मैंने मिलेट्स का व्यवसाय शुरू किया था. शादी से पहले मैंने बहुत सारे व्यवसाय किये है, मसलन बेकिंग, ज्वेलरी आदि करती गई, लेकिन किसी काम से भी मैं पूरी तरह संतुष्ट नहीं हो पा रही थी. मुझे हमेशा से कुछ अलग और बड़ा करना था, लेकिन क्या करना था, वह पता नहीं था. उसी दौरान एक फॅमिली फ्रेंड डॉक्टर के साथ चर्चा की, क्योंकि फ़ूड पर मुझे हमेशा से रूचि थी, उन्होंने मुझे मिलेट्स पर काम करने के लिए कहा. मैंने उसके बारें में रिसर्च किया, पढ़ा और मिलेट्स के बारें में जानने की कोशिश की. फिर उससे क्या-क्या बना सकती हूँ इस बारें में सोचा, क्योंकि मुझे ऐसे प्रोडक्ट बनाने की इच्छा थी, जिसे सभी खा सके और सबके लिए रुचिकर हो. किसी को परिचय न करवानी पड़े. आम इडली, डोसा जैसे ही टेस्ट हो. इसके लिए मैंने एक न्यूट्रीशनिस्ट का सहारा लिया, एक साल उस पर काम किया. टेस्ट किया, सबको खिलाया उनके फीड बेक लिए और फीडबेक सही होने पर मार्किट में लांच करने के बारें में सोचा.

मिलेट्स है पौष्टिक

विद्या आगे कहती है कि असल में मेरे डॉक्टर फ्रेंड को नैचुरल फ़ूड पर अधिक विशवास था. उनके कुछ मरीज ऐसे आते थे, जो रोटी नहीं खा सकते थे, ऐसे में उन्हें ज्वार, बाजरी, खाने के लिए कहा जाता था, जिसे वे खाने में असमर्थ होते थे. कुछ नया फॉर्म इन चीजो को लेकर बनाना था, जिसे लोग खा सकें. मसलन इडली लोग खा सकते है, मुझे भी इडली की स्वाद पसंद है. उसी सोच के साथ मैंने एक प्रोडक्ट लिस्ट बनाई और रेडी टू कुक को पहले बनाना शुरू किया, इसमें इडली का आटा, दही बड़ा, अप्पे, थालपीठ आदि बनाने शुरू किये. ये ग्लूटेन और राइस फ्री है. उसमे प्रीजरवेटिव नहीं है और सफ़ेद चीनी का प्रयोग नहीं किया जाता है. इसमें अधिकतर असली घी और गुड से लड्डू, कुकीज बनाया जाता है. इन सबको बनाकर लोगों को खिलाने पर उन्हें जब पसंद आया, तब मैंने व्यवसाय शुरू किया. इसमें मैंने बैंक से मुद्रा लोन लिया है. मैंने ये लोन मशीन खरीदने के लिए लिया था. सामान बनाने से लेकर पैकिंग और अधिक आयल को प्रोडक्ट से निकालने तक की मशीन मेरे पास है.

हूँ किसान की बेटी

विद्या कहती है कि नए फॉर्म में मैंने मिलेट्स का परिचय करवाया. इसमें सरकार ने वर्ष 2023 को मिलेट्स इयर शुरू किया जो मेरे लिए प्लस पॉइंट था. मैं रियल में एक किसान की बेटी हूँ, बचपन से मैंने किसानी को देखा है, आधा बचपन वहीँ पर बीता है. मेरे पिता खेती करते थे, नांदेड के गुंटूर गांव में मैं रहती थी. 11 साल तक मैं वही पर थी. कॉलेज मैंने नांदेड में पूरा किया. मैंने बचपन से ज्वार की रोटी खाई है. शहर आकर गेहूँ की रोटी खाने लगी थी. मेरे परिवार में शादी के बाद मैंने देखा है कि उन्हें ज्वार, बाजरी की रोटी पसंद नहीं, पर आब खाने लगे. बच्चे भी अब मिलेट्स की सभी चीजे खा लेते है. ज्वार, बाजरा, नाचनी, रागी, चेना, सावा आदि से प्रोडक्ट बनाते है.

मुश्किल था मार्केटिंग

विद्या को मार्किट में मिलेट्स से बने प्रोडक्ट से परिचय करवाना आसान नहीं था. विद्या कहती है कि मैंने व्यवसाय शुरू किया और कोविड की एंट्री हो चुकी थी. मेरा सब सेटअप तैयार था, लेकिन कोविड की वजह से पहला लॉकडाउन लग गया, मुझे बहुत टेंशन हो गयी. बहुत कठिन समय था, सभी लोग मुझे व्यवसाय शुरू करने को गलत कह रहे थे, क्योंकि ये नया व्यवसाय है, लोग खायेंगे नहीं. लोगों में मिलेट्स खाने को लेकर जागरूकता भी नहीं थी, जो आज है. इसमें भी मुझे फायदा यह हुआ है कि कोविड की एंट्री से लोगों में स्वास्थ्य को लेकर जागरूकता बढ़ी है. हालाँकि दो महीने मेरा यूनिट बंद था, क्योंकि मैं लॉकडाउन की वजह से कही जा नहीं सकती थी, लेकिन लोग थोडा समझने लगे थे. बैंक का लोन था, लेकिन उस समय मेरे पति ने बहुत सहयोग दिया, उन्होंने खुद से लोन भरने का दिलासा दिया था. इसके बाद भी बहुत समस्या आई, कोई नया ट्राई करने से लोग डर रहे थे. शॉप में भी नया प्रोडक्ट रखने को कोई तैयार नहीं था, फिर मैंने सोशल मीडिया का सहारा लिया. तब पुणे से बहुत अच्छा रेस्पोंस मिला. वह से आर्डर भी मिले. इसके अलावा शॉप के बाहर भी सुबह शाम खड़ी होकर मिलेट्स खाने के फायदे बताती थी. बहुत कठिन समय था. अब सभी जानते है. आगे भी कई शहरों में इसे भेजने की इच्छा है.

मिलेट्स होती है सस्ती

विद्या का कहना है कि ये अनाज महंगा नहीं होता, पानी की जरुरत कम होती है. जमीन उपजाऊं अधिक होने की जरुरत नहीं होती. इसमें पेस्टीसाइड के प्रयोग की आवश्यकता नहीं होती. इसलिए इसके बने उत्पाद अधिक महंगे नहीं होते. मैं बाजार से कच्चे सामान लेती हूँ. आगे मैं औरंगाबाद के एग्रीकल्चर ऑफिस से सामान लेने वाली हूँ. किसान उनके साथ जुड़े होते है. वहां गुणवत्ता की जांच भी की जाती है. अच्छी क्वालिटी की प्रोडक्ट ली जाती है. सामान बनने के बाद भी जांच की जाती है. हमारे प्रोडक्ट में भी प्रिजेर्वेटिव नहीं होते. कई प्रकार के आटा, थालपीठ, ज्वार के पोहे, लड्डू आदि बनाती हूँ. मैं औरंगाबाद में रहती हूँ. गोवा, पुणे, चेन्नई और व्हार्ट्स एप ग्रुप और औरंगाबाद के दुकानों में भेजती हूँ. इसके अलावा मैं जिम के बाहर भी स्टाल लगाती हूँ.

मिला सहयोग परिवार का

परिवार का सहयोग के बारें में विद्या बताती है कि मैं हर दिन 10 से 12 घंटे काम करती हूँ, इसमें किसी त्यौहार या विवाह पर गिफ्ट पैकिंग का आर्डर भी मैं बनाती हूँ. सबसे अधिक सहयोग मेरे पति सचिन जोशी करते है, जो एक एनजीओ के लिए काम करते है. मेरे 3 बच्चे है, एक बड़ी बेटी स्नेहा जोशी 17 वर्ष और जुड़वाँ दो बच्चे बेदांत और वैभवी 13 वर्ष के है. बच्चे अब बड़े हो गए है, वे खुद सब काम कर लेते है. मेरी सास है, वह भी जितना कर सकें सहायता करती है. सहायता सरकार से नहीं मिला, लेकिन चरक के मोहा से मुझे 10 लाख का ग्रांट मिला है, जिससे मैं आगे मैं कुछ और मशीनरी के साथ इंडस्ट्रियल एरिया में जाने की कोशिश कर रही हूँ. अभी मैं मिलेट्स की मैगी पर काम कर रही हूँ. जो ग्लूटेन फ्री होगा और इसका ट्रायल जारी है. 5 लोगों की मेरे पास टीम है. प्रोडक्ट बनने के बाद न्यूट्रशनिस्ट के पास भेजा जाता है, फिर ट्रायल होती है. इसके बाद उसका टेस्ट और ड्यूरेबिलिटी देखी जाती है. फिर लैब में इसकी गुणवत्ता की जांच की जाती है.

सस्टेनेबल है मिलेट्स

स्लम एरिया में प्रेग्नेंट महिलाओं को मैं मिलेट्स के लड्डू देती हूँ, ताकि उनके बच्चे स्वस्थ पैदा हो. अधिकतर महिलायें मेरे साथ काम करती है. इसके अलावा तरुण भारत संस्था के द्वारा महिलाओं को जरुरत के अनुसार ट्रेनिंग देकर काम पर रखती हूँ. उन्हें जॉब देती हूँ, इससे उन्हें रोजगार मिल जाता है.

मिलेट्स से प्रोडक्ट बनाने के बाद निकले वेस्ट प्रोडक्ट को दूध वाले को देती हूँ, जो दुधारू जानवरों को खिलाता है. इस तरह से कुछ भी ख़राब नहीं होता. सब कंज्यूम हो जाता है.

विकास के आधार को लेकर क्या कहती है पत्रकार और टीवी एंकर बरखा दत्त

पत्रकार और राइटर बरखा दत्त का जन्म नई दिल्ली में एयर इंडिया के अधिकारी एस पी दत्त और प्रभा दत्त, के घर हुआ था. दत्त को पत्रकारिता की स्किल मां से मिला है. महिला पत्रकारों के बीच बरखा का नाम लोकप्रिय है. उनकी छोटी बहन बहार दत्त भी टीवी पत्रकार हैं. बचपन से ही क्रिएटिव परिवार में जन्मी बरखा ने पहले वकील या फिल्म प्रोड्यूस करने के बारें में सोचा, लेकिन बाद में उन्होंने पत्रकारिता को ही अपना कैरियर बनाया.

चैलेंजेस लेना है पसंद

वर्ष 1999 में कारगिल युद्ध के समय कैप्टेन बिक्रम बत्रा का इंटरव्यू लेने के बाद बरखा दत्त काफी पॉपुलर हुई थी. वर्ष 2004 में भूकंप और सुनामी के समय भी रिपोर्टिंग की थी. उन्हें चुनौतीपूर्ण काम करना बहुत पसंद था, इसके लिए उन्हें काफी कंट्रोवर्सी का सामना करना पड़ा. वर्ष 2008 में बरखा को बिना डरे साहसिक कवरेज के लिए पदम् श्री पुरस्कार भी मिला है. इसके अलावा उन्हें बेस्ट टीवी न्यूज एंकर का ख़िताब भी मिल चुका है. बरखा के चुनौतीपूर्ण काम में कोविड 19 के समय उत्तर से दक्षिण तक अकेले कवरेज करना भी शामिल है, जब उन्होंने बहुत कम मिडिया पर्सन को ग्राउंड लेवल पर मजदूरों की दशा को कवर करते हुए पाया. उनकी इस जर्नी में सबसे कठिन समय कोविड से आक्रांत उनकी पिता की मृत्यु को मानती है, जब वह कुछ कर नहीं पाई.

 

 

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बरखा दत्त ने मोजो स्टोरी पर ‘वी द वीमेन’ की 6 एडिशन प्रस्तुत किया है, जहाँ महिलाओं ने अपने जीवन की कठिन परिस्थितियों से गुजरते हुए कैसे आगे बढ़ी है, उनके जर्नी की बात कही गयी है, जिसे सभी पसंद कर रहे है. वह कहती है कि वुमन एम्पावरमेंट पर कई कार्यक्रम हर साल होते है, जिसमे कुछ तो एकेडमिक तो कुछ ग्लैमर से जुड़े शो होते है, जिससे आम महिलाएं जुड़ नहीं पाती. मैंने ग्रासरूट से लेकर सभी से बात की है. ग्राउंड से लेकर एडल्ट सभी को शामिल किया गया है, इसमें केवल महिलाएं ही नहीं, पुरुषों, गाँव और कम्युनिटी की औरतों को भी शामिल किया गया है. इसमें गे राईट से लेकर मेनोपोज सभी के बारें में बात की गई है, ताकि दर्शकों के पसंद के अनुसार कुछ न कुछ देखने और सीखने को मिले.

इक्विटी ऑफ़ वर्क है जरुरी

बरखा आगे कहती है कि मुझे लगता है, चुनौती हर इंसान का अपने अपने अंदर होता है, इसमें हमारे संस्कार, एक माहौल में बड़े होना शामिल होती है. घरों में क्वालिटी की बात नहीं होती, लेकिन महिलाएं काम और ड्रीम शुरू करती है, लेकिन आगे जाकर छोड़ देती है, इसे क्यों छोड़ दिया, या क्या समस्या था, पूछने पर वे परिवार और बच्चे की समस्या को खुद ही उजागर कर संतुष्टि पा लेती है. मैं हमेशा कहती हूँ कि ‘इक्वलिटी ऑफ़ वर्क’ अधूरी रहेगी, अगर महिला ने घर पर इक्वलिटी की बात न की हो, क्योंकि एक सर्वे में पता चला है कि कोविड के दौरान काफी महिलाओं ने काम करना छोड़ दिया है. देखा जाय तो महिलाएं हर बाधाओं को पार कर काम कर रही है. फाइटर जेट से लेकर फ़ौज और स्पेस में भी चली गई है, लेकिन आकड़ों को देखे तो इंडिया में काम करने वाली महिलाओं की संख्या में कमी आई है, बढ़ी नहीं है. भागीदारी काम में कम हो रही है. पढ़ी लिखी औरतों के लिए मेरा कहना है कि पढ़े लिखे होने की वजह से हमेशा जागरूक होनी चाहिए. हमें मौका गवाना नहीं चाहिए, क्योंकि कई महिलाओं को ये मौका नहीं मिल पाता है.

 

 

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करना पड़ा, खुद को प्रूव

बरखा कहती है कि मैंने कई बार अपनी बातों को जोर देकर सामने रखा है. वर्ष 1999 में जब मैंने कारगिल वार को कवर करने गई थी, मुझे अपनी ऑर्गनाइजेशन को बहुत मनाना पड़ा. वार फ्रंट में जाने का मौका नहीं मिल रहा था, आज तो महिलाएं फ़ौज में है, तब बहुत कम थी. उन्होंने कहा कि खाने , रहने औए बाथरूम के लिए जगह नहीं होगी, मैंने कहा कि मैं सबकुछ सम्हालने के लिए तैयार हूँ, क्योंकि मैं एक वार ज़ोन में जा रही हूँ. मैंने देखा है कि आप जितना ही चुनौतीपूर्ण काम करें और अचीव कर लें, उतनी ही आपको बहुत अधिक मेहनत करने की जरुरत आगे चलकर होती है और उस पोस्ट पर पहुँच कर 10 गुना अधिक काम, कंट्रोवर्सी और जजमेंट की शिकार होना पड़ता है. एक महिला को पूरी जिंदगी संघर्ष करनी पड़ती है, वह ख़त्म कभी नहीं होती.

खुले मन से किया काम

बरखा ने हमेशा ही चुनौतीपूर्ण काम किया है और ग्राउंड लेवल से जुड़े रहना उन्हें पसंद है. वह कहती है कि कोविड के समय में मैंने दिल्ली से केरल गाडी में गयी थी और पूरे देश का कवरेज दिया था. किसी बड़ी मिडिया को मैंने रास्ते पर नहीं देखा. माइग्रेंट्स रास्ते पर पैदल जा रहे थे, केवल दो चार लोकल प्रेस दिखाई पड़ी थी. बड़े-बड़े टीवी चैनल कोई भी नहीं दिखा. रिपोर्टर के रूप मैं मुझे लोगों तक ग्राउंड लेवल तक पहुंचना मेरा पैशन रहा है. इसके अलावा मुझे ऑथेंटिक रहने की इच्छा हमेशा रही है, क्योंकि मैंने बहुतों को देखा है कि वे खुले मन से काम नहीं करते. फॉर्मल रहते है और अगर कोई व्यक्ति फॉर्मल रहता है, तो अगला भी कुछ कहने से हिचकिचाएगा. मैने हमेशा एक आम इंसान बनकर ही लोगों से बातचीत की है.

 

 

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था कठिन समय

उदास स्वर में बरखा कहती है कि जीवन का कठिन समय मेरे पिता का कोविड में गुजर जाना रहा. दो साल से मैंने कोविड को कवर किया और बहुत सारे ऐसे स्टोरी को कवर किया जिसमे लोगों को ऑक्सीजन, बेड और प्रॉपर चिकित्सा नहीं मिल रही थी. मेरे लिए अच्छी बात ये रही कि मैने फ़ोन कर पिता को एक हॉस्पिटल मुहैय्या करवाया था. मैं उस समय बहुत सारे हॉस्पिटल गई, लेकिन मेरे पिता जिस हॉस्पिटल में थे, वहां नहीं जा पाई. जबतक मैं पहुंची, बहुत देर हो चुकी थी. वही मेरे लिए जीवन का सबसे कठिन समय था.

मिली प्रेरणा

बरखा आगे कहती है कि मेरा प्लान वकील बनने का था, फिर फिल्म बनाने की सोची, लेकिन जब मैंने मास्टर की पढाई पूरी की, तो कोई प्राइवेट प्रोडक्शन हाउस इंडिया में नहीं थी. केवल दूरदर्शन के पास प्रोडक्शन हाउस था. मैंने एन डी टीवी में ज्वाइन किया और मुझे एक स्टोरी करने के लिए भेजा दिया गया, उन्हें मेरा काम पसंद आया और मैं रिपोर्टर बन गई

विकास का आधार

विकास का आधार हर इंसान का हक बराबर होने से है. मेरी राय में घर्म, जाति, क्लास आदि से किये गए आइडेंटिटी कई बार लोगों को डिसाइड करती है तो कई बार डीवाईड करती है. विकास मेरे लिए एक्रोस आइडेंटिटी, केटेगोरी, डिवीज़न आदि सबके अधिकार एक जैसे होने चाहिए, तभी विकास संभव हो सकेगा.

भारत में दलितों के प्रति भेदभाव

अमेरिका के एक शहर सीएटल में एक भारतीय मूल की नगर पार्षद की मेहनत से जाति के नाम पर भेदभाव को धर्म, रंग, रेस, सैक्स, शिक्षा, पैसे के साथ जोड़ दिया गया है. हालांकि अमेरिका में भारतीय मूल के लोग ही कम हैं और सिएटल में तो और भी कम पर इस से भी भारतीय मूल के ऊंची जातियों के भारतीय बहुत खफा हैं.

भारतीय मूल के ऊंची जातियों वाले बड़ी कंपनियों में अक्सर दिखते हैं. तमिल ब्राह्मïणों की एक बड़ी लौवी वहां टैक कंपनियों में है जहां रटतुपीरों की बहुत जरूरत होती है और ब्राह्मïणों के मंत्रों की याद रखने की सदियों की आदत है. इन्होंने इस सिएटल के कानून को भारत और भारतीयता के खिलाफ होने की जंग छेड़ी हुई है.

भारत सरकार दलितों के प्रति भेदभाव को हमेशा से छिपाती रही है पर असल में हमारी समस्या वही नहीं है, हमारी एक बड़ी समस्या सवर्ण औरतों के प्रति देश और विदेश में हो रहे भेदभाव है. सती प्रथा क्या थी. सती महिला क्या है. दहेज प्रथा क्या है. भोगलिक होने का दोष क्या है. 16 शुक्रवारों के व्रत अच्छे पति को पाने के लिए क्या हैं. करवाचौथ क्या है. विधवाओं की मांगलिक कामों में अलग रखना क्या है. यह सवर्ण औरतों के साथ होने वाला भेदभाव है जो आज भी औरतें सह रही हैं. सासससुर की सेवा, पति का आदरसम्मान करना, कामकाजी हैं तो सारा वेतन पति के पास में रख देना, केवल पत्नी ही रसोई में जाए, यह सोचना, ये सब स्वर्ण औरतों के प्रति भेदभाव हैं.

जब औरतों के नाम पर जाति व्यवस्था आज खुलेआम पनप रही है तो देशभर में फैली हुई जाति व्यवस्था का एक्सपोर्ट नहीं हुआ होगा. यह कैसा तर्क है. हर भारतीय जब एयरक्राफ्ट में बैठना ही उस के सिर पर एक अदृश्य गठरी होती है जिस में अंधविश्वास, रीतिरिवाज, पूजापाठ, दानपुण्य के साथ जातिगत अहम अहंकार या जातिगत दयनीयता साथ होती है. अमेरिका में भारतीय मजदूर कम गए हैं पर जो गए हैं वे ऊंची जातियों के शिक्षिकों के साथ उठतेबैठते नहीं हैं. उन के घर मोहल्ले अलगथलक हैं.

अमेरिका में रह कर कुछ बदलाव आया है पर यह तो भारत के शहरों में भी हुआ है पर जोरजबरदस्ती, सरकारी फ्लैटों में हर जाति के लोगों को अगलबगल रहना पड़ता है पर जल्दी ही औरतों का लेनदेन जाति के अनुसार हो जाता है. यही आदत औरत होने की जाति व्यवस्था में बदल जाती है. लगभग सभी ग्रंथों ने औरतों को निम्य स्तर दिया है तो भारतीय धर्म ग्रंथ क्यों पीछे रहते. औरतों की इस देश में जब बात होती है तो वह दलितों की औरतों की क्या, ओबीसी की औरतों की कम, स्वर्ण औरतों की ज्यादा होती है कि आज भी वे अत्याचार व अत्याचार घरों की 4 दीवारो में सह रही हैं. अफसोस यह है कि देश की पढ़ीलिखी, सक्षम, एक्टीविस्ट औरतें भी इस जातिगत व्यवस्था पर चुप हैं. पितृ….समाज का अर्थ यही है कि औरत जाति को दबा कर रखा जाए. तेजाब फैकने की घटनाएं हो या भ्रूण हत्या की या दहेज हत्या की, यह ङ्क्षहदू स्वर्ण औरतों के साथ ज्यादा होता है जहां तकनीक भी मालूम है और जरूरत भी.

किट्टी पाॢटयां और लंबे घंटों या दिनों चलने वाले धाॢमक अनुष्ठïान एक तरह से सवर्ण ङ्क्षहदू औरतों को उलझाए रखने के लिए गढ़े गए हैं ताकि वे इन में बिजी रहें. घरों में ओबीसी जाति की मेड्र्स होने से जो औरतें खाली हो गई उन्हें काम पर जाने की छूट कम दी गई, उधरउधर फंसा दिया गया. बच्चों को, घर को, बूढ़े होते मांबाप को कौन संभालेगा कह कर सवर्ण औरतों पर जाति व्यवस्था को सीखा पाठ थोपा गया है. पहले वहीं सती होती थीं भी या विधवाओं के शहरों वृंदावन या काशी में झोंक दी जाती थीं. आज यह मानसिकता दूसरे रूप में पनप रही है. यह कम दिखे पर दिलों पर उतनी ही गहरी चोट करती है जितनी अमेरिका के दलितों के दिल पर जिन्होंने यह कानून बनवाया है.

मार्केट मे डूबे गौतम अदानी

अमेरिका की ङ्क्षहडनबर्ग रिसर्च की रिपोर्ट के बाद जिस तरह से दुनिया भर के इनवैस्टरों ने अदानी गु्रप की कंपनियों में लगाया पैसा खींचा है, उस से साफ है कि इस रिपोर्ट में दम तो बहुत है चाहे गौतम अदानी कितनी ही कोर्ट केसों की धमकियां देते रहें. अदानी के नए 20000 करोड़ रुपए के शेयर बेचने की पेशकश भी पहले दिन औंधे मुंह गिरी क्योंकि जब शेयर 3,117 से 3,276 रुपए प्रति 100 रुपए के शेयर के भाव से बेचा जा रहा था, बाजार में वह 2,762 का रुपए था.

एक उद्योग के जीनेमरने से देश को कोई लंबाचौड़ा फर्क नहीं पडऩा चाहिए पर दिक्कत यह है कि अदानी समूह में आम जनता का पैसा लाइफ इंश्योरेंस कौपेरिशन, स्टेट बैंक औफ इंडिया आदि का भी लगा है. म्यूचुअल फंडों ने भी बहुत पैसा लगा रखा है. पैसा कर्ज पर देने वाले आमतौर पर शेयरों के बाजार भाव से गिरवी रख कर पैसा देते हैं और अदानी समूह में लगभग 1 लाख करोड़ (1,00,000,000,0000) लगा है.

आम लोगों ने अपनी गाड़ी कमाई 26 बैंकों या म्यूचअल फंडों में लगाई हुई है और कोर्ट उस से बुढ़ापा काटना चाहता था. कोई बेटी की शादी के सपने देख रहा था, कोई बच्चों की पढ़ाई का खर्च जमा कर रहा था तो किसी को अचानक आई बीमारी का डर था. अदानी गु्रप के शेयरों का भाव जब बढ़ता चला गया तो हजारों ने उस से पैसा बनाया और समय रहते शेयर बेच कर मकान, महल बना लिए.हीरों के जेवर खरीद लिए. उन्हें आज फर्क नहीं पड़ता कि अदानी का क्या होगा.

अमीरों में से कुछ को हानि भी होगी पर यह उस लाभ में से होगी जो उन्होंने अदानी जैसी कंपनियों से ही कमाया था. असली नुकसान तो आम लोगों को होगा जिन्होंने मेहनत से 10-20 हजार या 2-4 लाख जमा किए थे. दूसरा नुकसान उन बीसियों प्रोजेक्टों को होगा जो नरेंद्र मोदी सरकार ने गौतम अदानी को बुलाबुला कर 2014 के चुनावों में पैसा, हवाई जहाज मुहैय्या कराने के बदले में सौंपे थे. कितने ही हवाई अड्डे, पोर्ट, रेलवे स्टेशन, एयरपोर्ट खतरे में आ जाएंगे.

ङ्क्षहडन वर्ग रिपोर्ट ने अभी अदानी समूह के सतही तौर पर हुआ है. अब दुनिया भर के अखबारों के फाइनैंशियल एक्सपर्ट खोजबीन करने में लग गए है क्योंकि अदानी ने कितने ही देशों में पैर फैलाए थे जहां भारत सरकार के न तो ङ्क्षहदू एजेंडे का कोई मतलब है न इडी का डर है, ङ्क्षहडन वर्ग ने यह खासतौर पर बताया है कि भारत में तो अदानी की पोल खोलने वाले एंजौय गु्रप ठाकुरता और गुजरात के एक यूट्यूब के अदालतों में घसीट कर जेलों की धमकी दी थी.

विदेशी जर्नलिस्ट आडिटर शाह ढंढारिया जैसे नहीं होते जिन के पास कुल 11 लोग काम करते हों, 32000 रुपए का किराया देते हों और अदानी टोटल गैस को क्लीन चिट दे देते हों जिस कंपनी की मार्केट वेल्यू 42,75,56,70,00,000 में हो. ये रुपए इस रिपोर्ट के बाद खतरे में है. इस रकम का मतलब है कि या तो सरकारी बैंकों का या आम जनता की बचत का पैसा कहीं लगा है. यह डूबा तो कहांकहां कौन डूबोए पता नहीं पर जो पानी में से पहले से ही मोदी निकाल कर ले आए हैं उन्हें ङ्क्षचता करने की जरूरत नहीं. जिन का पैसा डूबा है, उन्हें वैसे ज्यादा ङ्क्षचता करने की जरूरत नहीं. देश भर में मंदिर बन रहे हैं जहां से पैसों की बरसात होगी. काला धन वापिस आएगा ही.

मुसलमानों की हेकड़ी ठीक कर दी जाएगी. फिर गम क्या है. लक्ष्मी तो चलायमान होती है. धर्म, जाति, दानदक्षिणा, सेवा, रीतिरिवाज, तीर्थयात्राएं चारधाम, धाॢमक कैरीडोर हैं न, वे सब कल्याण करेंगे और अदानी से आई आंधी को शांत करेंगे.

भारतीय प्रधानमंत्री का विदेशी दौरा

भारतीय मूल के और भारतीय ससुर के दामाम होने के बावजूद ब्रिटेन के प्रधानमंत्री रिषी सुनक भी भारतीयों के इंग्लैंड में प्रवेश पर पाबंदियां लगाने लगे हैं. इंग्लैंड के कट्टरपंथी अब रेस रिलिज्य व कलर को लेकर उसी तरह बेचैन होने लगे हैं जैसे भारतीय प्रधानमंत्री, गृहमंत्री से ले कर आप की गली के नुक्कड़ के मंदिर के पुरोहित हैं. उन्हें लगता है कि ग्रेट ब्रिटेन में जल्दी ही गोरे मूल निवासी बन रह जाएंगे. उन्हें भी गोरों की कम जन्मदर और भूरों, कालों की जन्मदर के बारे में व्हाट्सएप ज्ञान उसी तरह बांटा जा रहा है जैसा भारत में बांटा जा रहा है.

भारतीय प्रधानमंत्री इस बार में बात करने के अलावा कुछ कर भी नहीं सकते. अमेरिका की भारतीय रक्त वाली कमला हैरिस और गृह ब्रिटेन के पूरे भारतीय रक्त वाले रिषी सुनक को ले कर भारतीय जनता पार्टी ने न तो देश भर में घी के दिए जला कर न देश में ढोल में पीटे कि यह कारनामा पार्टी की उपलब्धि है क्योंकि इन दोनों विश्व नेताओं ने भारत के प्रधानमंत्री से कोई ज्यादा लाड नहीं जताया.

भारतीयों का वीसा ले कर ग्रेट ब्रिटेन में प्रवेश करने के लिए कतारों में खड़ा रहना तो चालू है ही, हजारों जोखिम भरी इंग्लिश चैनल छोटीछोटी बातों में यूरोपीय मेनलैंड से चल कर प्यार पा रहे हैं ताकि वहां जा कर कह सकें कि उन्हें अपने देश की सरकार से खतरा है. दुनिया भर में जो भारतीय गैरकानूनी ढंग से फैले हुए हैं उन में से बहुतों ने यही कहा है कि वे अपने मूल देश में भेदभाव, जुल्मों सरकारी तानाशाही के शिकार हैं और उन्हें राजनीतिक शरणार्थी के तौर पर शरण दी जाए. इस तरह वे कानून बहुत से यूरोपीय देश में हैं कि वे किसी भी शरण मांगने वाले को बिना सुनवाई के भगाएंगे नहीं. इस सुनवाई के दौरान भारतीय शरण मांगने वाले अपने घर हो रहे जुल्मों की झूठी अच्छी कहानियां अदालत को सुनाते हैं.

यह अफसोस है कि ङ्क्षहदू होते हुए भी रिषी सुनक ने अपने धर्म भाईयों की नहीं सुनी. उन्हें धर्म भाईयों और रक्त भाइयों की नहीं, अपने नए देश के नागरिकों की वोटों की ङ्क्षचता है. रिषी सुनक जैसे भारतीय मूल के लोग ग्रेट ब्रिटेन और अमेरिका में ही नहीं और बहुत से देशों में हैं जो अपने देश को एक बुरा सपना मान कर त्याग चुके हैं. वे भारतीय मूल के हो कर भी भारत सरकार की हां में हां नहीं मिलाते.

उस से अच्छे थे तो पिछले एक अमेरिकी राष्ट्रपति डोनेल्ड ट्रंप थे जो दिल्ली, मुंबई में टं्रप टौवर बनवाने के लिए अमेरिका के हाउसटन में नरेंद्र मोदी की भारतीय मूल के लोगों की सभा में खड़े हुए थे और फिर भारत भी ऐन कोविड से पहले आए थे जब अहमदाबाद में वे नरेंद्र मोदी की मौजूदगी में ‘एक बार फिर ट्रंप सरकार’ के नारे से गदगद हुए थे. रिषी सुनक और कमला हैरिस जो यहाकदा पूजापाठ करने भारत आते हैं को धर्म विद्रोही क्यों नहीं घोषित किया जाए.

डेटिंग ऐप

श्रद्धा और पूनावाला कांड में एक ???…..??? वह समाज है जो आज भी हर घर को, हर यूथ को, हर दिल को जातिधर्म, इकौनोमिक स्टेट्स, भाषा, स्किल, कलर से बांटता है. हमारे यहां सदियों पुरानी ट्रेडिशनों को बुरी तरह अपनाया ही नहीं जाता, पैदा होते ही बच्चों को उन का गुलाम भी बना दिया जाता है. जब दिलों में उमंगे उठने लगें, जब किसी की ओर अट्रैक्शन होने लगे, जब लगे कि साथ में एक बौयफ्रैंड, गर्लफ्रैंड होना यूथ की निशानी है लेकिन घर वाले हर चौइस पर पहरा देते हों तो सिवा रिबेल बनने के कोई ठोस रास्ता नहीं है.

श्रद्धा और पूनावाला जैसे मामले हर जगह हो रहे हैं क्योंकि स्कूलों में, सडक़ों पर, बसस्टैंडों पर, पड़ोस में, वर्कप्लेस में अब हर जाति, रंग, धर्म के लोग मिल रहे हैं. मांबाप को यह गवारा नहीं होता कि उन की लाड़ली या लाड़ला किसी ऐसे से पक्का मेलजोल बढ़ाए जो उन के समाज को मंजूर न हो. धर्म के दुकानदार इस कदर चारों ओर फैले हुए हैं और इस कदर उन के एजेंट बिखरे हैं कि कहीं भी जरा भी भनक लगी नहीं कि घरों में हंगामा हो जाता है. लड़कियां और लडक़े ज्यादातर मामलों में अपने फ्रैंड के बारे में सीक्रेसी बरतते हैं और यह कोशिश करते हैं कि उन का संबंध पता न चले.

यह आसान नहीं होता. बारबार फोन की रिंग बजना, देररात तक फोन पर फुसफुसाहट, फोन आते ही एकांत ढूंढऩा, घंटों गायब रहना और पूछने पर टेढ़ेमेढ़े जवाब देना आम है. पर मांबाप, बहनभाई भांप लेते हैं. उन से ज्यादा वे भांप लेते हैं जो सडक़ों के चौराहों पर भगवा दुपट्टा डाले खाली खड़े हरेक को धमकाते रहते हैं. उन से बच पाना बहुत मुश्किल होता है. इसलिए लडक़ेलड़कियां घर छोड़ कर भागते हैं. उन्हें दीनदुनिया की खबर नहीं होती. उन्हें रहने की जगह नहीं मिलती. उन की जेबों में पैसे सीमित होते हैं. गुस्साय मांबाप पुलिस में शिकायत करने की धमकियां देने लगते हैं.

देश में मौजूदा सरकार तो उन लोगों की है जो चाहते हैं कि हर शादी अपने धर्म के दुकानदार के कहने पर सैकड़ों साल पुराने रीतिरिवाजों से हो और शादी से पहले लडक़ालडक़ी एकदूसरे का मुंह तक न देखें. वे भला अपनी मरजी से चल रहे लडक़ीलडक़े को कोई प्रोटैक्शन देंगे. वे तो लडक़े पर किडनैपिंग, रेप, लूट का चार्ज लगा कर ऐसा करने की अदालत के फैसले से पहले ही सजा दे देते हैं.

पूनावाला और श्रद्धा किसी डेटिंग ऐप पर पहले मिले थे. हालांकि 4 साल साथ रहने के बाद श्रद्धा का ब्रूटल मर्डर हुआ पर उन लोगों की कमी नहीं है जो डेटिंग ऐपों को ही दोषी ठहरा रहे हैं. उन का कहना है कि अगर ऐप न होती तो हादसा न होता. वे यह क्यों नहीं कहते कि अगर समाज खुला होता, जाति, धर्म, भाषा, रंग की दीवारें न होतीं तो क्या युवा दिलों को खुल कर मिलने के ज्यादा मौके न मिलते.

कुनीतियों के चलते पिछड़ता देश

भारत जैसे देश अपनी सरकारों की गलत नीतियों के कारण वर्ल्ड लेबर सप्लायर बनने जा रहे हैं. आज भारत के ही सब से अधपढ़े या अच्छे पढ़े युवा विदेशों में जा रहे हैं और हर देश इन के लिए दरवाजे खोल रहा है क्योंकि उन की अपनी जनता बढऩी बंद हो गई है, वहां बच्चे कम हो रहे हैं, लेबर फोर्स सिकुड़ कर रही है. भारत में इस बात को कई बार प्राइड से कहा जाता है, पर है शर्म की बात. भारत के युवाओं को विदेशों में लगभग दोगुने पैसे मिलते हैं. किसीकिसी देश में 3-4 गुना भी हो जाते हैं. ठीक है कि वहां खाना, ट्रांसपोर्ट महंगा है पर लाइफस्टाइल अच्छी है, महंगा किराया है पर कई ऐसी फैसिलिटीज हैं जो उन के सपनों में भी नहीं आतीं.
कनाडा ने अब स्टूडैंट्स को एक छूट दी है जिसे वरदान माना जा रहा है. अब तक स्टूडैंट वीसा पर आने वाले सप्ताह में 20 घंटे काम कर के पैसे का जुगाड़ कर सकते थे. अब 31 दिसंबर, 2023 तक छूट दी गई है कि वे जितना भी चाहें काम कर लें. इन-डायरैकक्टली समझें कि यूथ अपनी पढ़ाई का खर्च पार्टटाइम काम कर के निकाल सकते हैं. इन स्टूडैंट्स में ज्यादातर भारत के ही हैं.
यह वह टेलैंट है जिस का एक्सपोर्ट हम लगातार कर रहे हैं क्योंकि हमारे यहां का सोशल व एडमिनिस्ट्रेटिव स्ट्रक्चर ही ऐसा है कि हर काम हर जना नहीं कर सकता. वहां स्टूडैंट्स अपना बैकग्राउंड भूल कर सैनिटरिंग, ???… लीडर…???,

डिलीवरी पर्सन का काम ऐक्सैप्ट कर रहे हैं. यहां भारत में उन के मांबाप नहीं जानते पर यदि वे वहां कहीं भूलेभटके चले जाएं तो मिलने वाले डौलरों की वजह से मुंह बंद कर लेते हैं.

ह्यूमन कैपिटल आज भी किसी देश की सब से बड़ी कैपिटल है पर हमारी सोसायटी पौपुलेशन को बोझ मानती है. कनाडा, अमेरिका, यूरोप, जापान और यहां तक कि चीन भी अब समझने लगे हैं कि लाइफस्टाइल बनाए रखने के लिए, जीडीपी ग्रोथ के लिए वर्कर चाहिए ही. भारत उन वर्कर्स का एक अच्छा सोर्स है क्योंकि अफ्रीका के बाद भारत ही ऐसा देश है जहां अनएंपलौयमैंट सब से ज्यादा है. वैसे भी, यूरोपियन व अमेरिकी रंगभेद की वजह से ब्लैक की जगह ब्राउन्स को प्रैफर किया जाता है. हमारा लौस, उन का गेन है. पर क्या करें? इस देश का यूथ इस देश में नारे तो लगाता है पर काम की अपौर्चुनिटी उस के पास नहीं है.

बच्चे गोद लेने की प्रक्रिया

जब बच्चे न हो रहे हों तो आसपास के लोग कहने लगते है कि किसी को गोद ले लो. गोद लेने की सलाह देेने वाले नहीं जानते कि यह प्रोसीजर बहुत पेचीदा और सरकारी उलजुलूल नियमों वाला है जिस में आमतौर पर गोद लेने वाले मांबाप थक जाते हैं. कुछ ही महीनों, सालों की मेहनत के बाद एक बच्चा पाते हैं और उस में भी चुनने की गुंजाइश नहीं होती क्योंकि कानून समझता है, जो सही भी है, कि छोटे बच्चे कोई खिलौने नहीं है कि उन्हें पसंद किया जाए.

इस से ज्यादा मुश्किल गोद हुए बच्चे की होती है. वह नए घर में कैसे फिट बैठता है, यह पता करना असंभव सा है. अमेरिका की अनुप्रिया पांडेय ने कुछ बच्चों से बात की जिन्हें बचपन में भारत से गोद लिया गया था और वे अमेरिका में गोरोंकालों के बीच बड़े हुए. इन में से एक है लीला ब्लैक अब 41 साल की है. 1982 में उसे अकेली अमेरिकी नर्स ने एडोप्ट किया था. लीला ने अपना बचपन एक कौन पिताक्ट में गुजारा पर उसे खुशी थी कि जिस तरह उस की 2 माह की उम्र में हालत थी, वह बचती ही नहीं. अब अमेरिकी प्यार भी मिला, सुखसुविधाएं और हीयङ्क्षरग लौस व सेरीब्रल प्लासी रोग का ट्रीटमैंट भी.

2 बच्चों की एक अमेरिकी गोरे युवक से शादी के बाद लीला ने अपनी जड़ें खोजने की कोशिश की. उस ने भारतीय खाना बनाया, खाया, भारत की सैर 2-3 बार की, होलीदीवाली मनाई, अपने डीएनए टैस्ट से अपने जैसे 3-4 कङ्क्षजस को ढूंढा (न जाने वे चचेरे भाईबहन थे या नहीं पर भारतीय खून उन में है). अमेरिका में हर साल 200 से ज्यादा बच्चे भारत से एडोप्ट किए जाते हैं और उन की एक बिरादरी सी बन गई है. भारत में गोद लिए गए बच्चों के सामने मांबाप से मिलतेजुलते रंग, भाषा, कदकाठी के अलावा जाति का सवाल भी आ खड़ा होता है. कुंडलियों में आज भी विश्वास रखने वाला ङ्क्षहदू समाज यहां किसी भी गोद लिए बच्चो को आसानी से अपने में मिलाता है. पिछले जन्म के कर्मों का फल सोच कर हमेशा भारी रहता है.

अमेरिका यूरोप उदार देश हैं वहां जो भी कहीं से भी आएं. उन्हें खुले मन से स्वीकार किया जाता है पर फिर भी इशूस होते है. नैटफ्लिक्स पर चल रही ‘रौंग साइड औफ ट्रैक’ में एक स्पेनिश परिवार द्वारा नियटनामी लडक़ी को गोद लेना जो बड़ी हो कर विद्रोही हो जाते है, बहुत अच्छी तरह से दिखाया गया है. इस सीरीज में मुख्य पात्र दादा होता है जो इस वियटनामी लडक़ी के चीनी फीचर्स का मजाक उड़ाता है पर जब वह ड्रग टे्रडर्स के चुंगल में फंसने लगती है तो अपनी जान की बाजी लगा कर, पुलिस की आंखों में धूल डाल कर, पोती को बचा कर निकलता है जबकि उस को गोद लेने कभी उस की बेटी उस से तंग आ कर उसे किसी मंहगे होस्टल में भेजना चाह रही थी.

अब जब अकेलों की संख्या बढ़ रहे है. अनाथ कम हो रहे हैं, भारत में गर्भपात की सुविधाएं हैं, गोद लिए जा सकने वाले बच्चे कम मिलेंगे पर जो मिलेंगे उन्हें सही वातावरण मिलेगा, संदेह है. हम मूलत: कट्टरपंथी हैं और गोद लेने में मरने के बाद, मरने की रीतिरिवाजों की फिक्र ज्यादा रहती है, बजाए ङ्क्षजदगी के खालीपन को भरने की.

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