उत्तर प्रदेश चुनाव: बिकिनी के बहाने महिलाओं पर निशाना

हस्तिनापुर की जब बात होती है तो महाभारत की याद आ जाती है. महाभारत के युद्ध की बुनियाद में द्रौपदी का अपमान बड़ी वजह थी. महाभारत को धर्मयुद्ध कहा जाता है. उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में पुराणवादी लोगों के द्वारा हस्तिनापुर से विधानसभा का चुनाव लड़ रही कांग्रेस की अर्चना गौतम को सोशल मीडिया पर ट्रोल कर के उन का अपमान किया जा रहा है. उत्तर प्रदेश के योगी राज में महिलाओं का अपमान पुराणों की कहानियों जैसा ही है. पौराणिक कहानियों में बताया गया है कि औरत का अपमान सत्ता के विनाश का कारण बनता है.

कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए जिन उम्मीदवारों के नाम चुनें उन में एक नाम मेरठ जिले की हस्तिनापुर सीट से अर्चना गौतम का है. अर्चना गौतम का नाम पता चलते ही उन्हें सोशल मीडिया पर ट्रोल किया जाने लगा. कट्टरवादी संगठनों और नेताओं ने तो यहां तक कह दिया कि अगर अर्चना गौतम चुनाव जीत गईं तो वे घंटाघर पर अपनी गरदन कटा लेंगे.

यह साजिश क्यों

अर्चना गौतम को ले कर तमाम तरह की अभद्र भाषा का इस्तेमाल किया जाने लगा. इस की वजह यह है कि अर्चना गौतम मौडलिंग करती हैं. उन्होंने ब्यूटी कौंटैस्ट में हिस्सा लिया. ‘बिकिनी गर्ल’ के रूप में उन की अलग पहचान है. कट्टरवादी लोगों को अर्चना गौतम की ‘बिकिनी गर्ल’ वाली पहचान से ही एतराज है. इसे ले कर ही उन के नाम की घोषणा होते ही उन्हें ट्रोल किया जा रहा है. भारतीय जनता पार्टी, अखिल भारतीय हिंदू महासभा और संत महासभा से जुड़े लोग अर्चना गौतम का विरोध कर रहे हैं.

अर्चना गौतम पेशे से मौडल और अभिनेत्री हैं. उन्होंने कई बौलीवुड फिल्मों में काम किया है. 2021 में छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने उन्हें कांग्रेस पार्टी में शामिल किया था. इसी बीच उत्तर प्रदेश में विधानसभा के चुनाव के लिए कांग्रेस प्रत्याशियों का चुनाव कर रही थी.

कांग्रेस ने इस चुनाव में 40 फीसदी टिकट महिलाओं को देने का फैसला किया. कांग्रेस ने महिला राजनीति को मुद्दा बनाने के लिए ‘लड़की हूं लड़ सकती हूं’ का नारा दिया. ऐसे में कांग्रेस में शामिल होने के 2 माह के अंदर ही अर्चना गौतम को हस्तिनापुर विधानसभा सीट से चुनाव लड़ने के लिए टिकट दे दिया गया.

अर्चना गौतम का जन्म पहली सितंबर, 1995 को हुआ था. वे मूल रूप से उत्तर प्रदेश के मेरठ की रहने वाली हैं. अर्चना ने पत्रकारिता की पढ़ाई की है. अपने मौडलिंग के कैरियर को आगे बढ़ाने के लिए वे मुंबई में रहती हैं. 2014 में अर्चना ने मिस यूपी का खिताब जीता था.

इस के बाद वे मौडलिंग और ऐक्टिंग के कैरियर में आगे बढ़ीं. कई मशूहर फिल्मों में अर्चना ने काम किया. इन में ‘ग्रैंड मस्ती,’ ‘हसीना पार्कर,’ ‘बैंड बाजा बारात’ और ‘वाराणसी जंक्शन’ प्रमुख हैं. छोटे रोल्स के सहारे अर्चना अपनी अलग पहचान बना रही थीं. उन्होंने हिंदी के साथसाथ तमिल फिल्मों में भी काम किया.

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अर्चना बनीं बिकिनी गर्ल

अर्चना गौतम की चर्चा तब शुरू हुई जब 2018 में उन्होंने ‘बिकिनी इंडिया 2018’ का खिताब जीता. इसी साल अर्चना गौतम ने ‘कास्मो वर्ल्ड 2018’ में भी हिस्सा लिया और अपनी अलग पहचान बनाई. अब अर्चना राजनीति में अपनी पहचान बनाना चाहती हैं. कांग्रेस के टिकट पर वे मेरठ की हस्तिनापुर विधानसभा सीट से चुनाव लड़ रही हैं. बिकिनी गर्ल होने के कारण ही उन को विरोधी लोग ट्रोल कर रहे हैं.

इन आलोचनाओं से दूर अर्चना गौतम कहती हैं, ‘‘मुझे इस बात की खुशी है कि हस्तिनापुर से टिकट दिया गया है. यह एक पर्यटन स्थल है. यहां बहुत सारे प्राचीन मंदिर हैं. इस के बाद भी लोग यहां उतना नहीं आ रहे जितने आने चाहिए. अगर मैं यहां से चुनाव जीत गई तो सब से पहले यहां आनेजाने की सुविधा बढ़े इस का प्रयास करूंगी.

‘‘यहां एक अच्छा बस स्टौप और रेलवे स्टेशन बनवाने का काम करूंगी ताकि पर्यटक यहां आसानी से आ जा सकें. इस के साथसाथ मुझे किसानों के भी लिए काम करना है. सड़कें सही न होने के कारण खेती की पैदावार सही तरह से मंडियों तक नहीं पहुंच पाती. फसलों का नुकसान न हो, इस का प्रयास करूंगी. यहां केवल एक चीनी मिल है जबकि किसानों को ज्यादा चीनी मिलों की जरूरत है.’’

अपनी फिल्मी दुनिया की छवि को राजनीति से जोड़े जाने को ले कर अर्चना गौतम कहती हैं, ‘‘मेरे फिल्मी कैरियर को राजनीति से जोड़ कर न देखा जाए. सभी को पता है कि मैं ने कई ब्यूटी कौंटैस्टों में हिस्सा लिया है. वहां की तसवीरों को ले कर ट्रोल करना विरोधियों का काम है. मुझे पूरा भरोसा है कि हस्तिनापुर की जनता मेरा साथ देगी और वह मेरी बात को समझ रही होगी.

जब मुझे कांग्रेस में टिकट दिया गया तो हमारी नेता प्रियंका गांधी ने कहा था कि आधेअधूरे मन से राजनीति में कदम मत रखना. तुम्हें तुम्हारे फोटोज को ले कर ट्रोल किया जाएगा. तुम हिम्मत मत हारना. प्रियंका दीदी के हिम्मत देने के बाद मेरा साहस और बढ़ गया है. उन के शब्दों से मुझे ताकत मिली है.’’

निशाना तो औरतों को बनाना है

अर्चना गौतम कहती हैं, ‘‘हस्तिनापुर की पहचान से द्रौपदी भी जुड़ी हैं. हस्तिनापुर में उन का अपमान हुआ था, जिस के बाद महाभारत हुआ और द्रौपदी जीती थीं. अपमान करने वालों के पूरे वंश का नाश हो गया था. मैं द्रौपदी के उसी कथानक को फिर लिखना चाहती हूं. मेरे लिए अब यह चुनाव विधानसभा के चुनाव से अलग धर्मयुद्ध हो गया है. जहां औरत का अपमान किया जा रहा है.

महाभारत की सभा की ही तरह कुछ लोग सोशल मीडिया पर बुराभला लिख कर मेरा अपमान कर रहे हैं. लोग कहते हैं कि हस्तिनापुर को द्रौपदी का श्राप लगा है इस कारण यहां खुशहाली नहीं है. हस्तिनापुर को इस श्राप से मुक्ति दिलाने के लिए मैं यहां आई हूं. मैं इसी शहर में पैदा हुई हूं. यहां मेरा घर है. यहीं पलीबढ़ी हूं. मैं उन लोगों में नहीं जो मुंबई से उड़ कर चुनाव लड़ने उत्तर प्रदेश आते हैं.

‘‘भाजपा के लोग कहते हैं कि कांग्रेस के पास कोई उम्मीदवार नहीं था इसलिए मुझे सस्ती लोकप्रियता के लिए यहां से टिकट दिया गया है. यह उन के दिमाग का दिवालियापन है. ये लोग महिलाओं को सम्मान देना ही नहीं जानते. इन्हें कांग्रेस से और महिलाओं के साथ उस के जुड़ाव से डर लग गया है. महिला विरोधी होने के कारण मुझे निशाना बना रहे हैं. भाजपा में फिल्मों में तमाम महिलाएं आई हैं.

लेकिन उन पर कोई सवाल नहीं खड़ा कर रहा. मेरे मामले में बिकिनी तो एक बहाना है. महिला विरोधी लोग महिलाओं के विरोध के लिए मुझे निशाना बना रहे हैं. मैं डरने वाली नहीं हूं.’’

पौराणिक सोच में है महिला विरोध

धर्म की सोच हमेशा से महिला विरोध की रही है. पौराणिक और धार्मिक कहानियों में हमेशा यही बताया गया कि महिलाओं को अपना जीवन अपनी मरजी से जीने का हक नहीं है. इसी कारण कदमकदम पर पुरुषों के खराब कामों का दंड भी महिलाओं को भोगना पड़ा. सीता, द्रौपदी और अहिल्या जैसी कहानियों के पौराणिक ग्रंथ भरे पड़े हैं. इन महिलाओं के साथ जो कुछ घटा उस में इन का दोष नहीं था. दोष पुरुष मानसिकता का था. दंड महिलाओं को भुगतना पड़ा.

आज के दौर में भी महिलाओं को ही निशाना बनाया जाता है. हस्तिनापुर में चुनाव कांग्रेस लड़ रही है. महिला उम्मीदवार के ‘बिकिनी गर्ल’ होने के नाते उस को निशाना बनाया जा रहा है. जिस समाज में अपराध करने वाला, भ्रष्टाचार करने वाला, दंगे कराने वाले को टिकट दिया जा रहा हो उस पर किसी को एतराज नहीं होता है.

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‘बिकिनी गर्ल’ से समाज के बिगड़ने का खतरा दिख रहा है. भारत ऐसा देश है जहां वात्स्यायन ने ‘कामसूत्र’ लिखा, जिस में सैक्स को परिभाषित किया गया. खजुराहो के मंदिरों में सैक्सरत मूर्तियां उकेरी गई हैं. वहां बिकिनी के नाम पर बदनाम किया जा रहा है. ‘बिकिनी गर्ल’ एक प्रतियोगिता थी, जिस में तमाम लड़कियों ने हिस्सा लिया था. इस में जीतना हरकोई चाहता था. यह किस संविधान में लिखा है कि ‘बिकिनी गर्ल’ चुनाव नहीं लड़ सकती.

हमारा समाज उदार है. यहां पोर्न फिल्मों में काम करने वाली सनी लियोनी तक को स्वीकार किया गया है. कलाकार के जीवन का आकलन उस के कला क्षेत्र में किए गए काम से नहीं करना चाहिए. औरतों की आजादी को दबाने के लिए उन को मुख्यधारा से दूर रखने का काम किया जाता है. औरत को बिकिनी में देखना भले गुनाह न हो पर उस के चुनाव को गुनाह समझ जा रहा है.

महिला आरक्षण का विरोध

महिला विरोधी इसी सोच के कारण महिला आरक्षण बिल संसद में पास नहीं हो पाया. 2014 और 2019 में भारतीय जनता पार्टी की बहुमत वाली सरकार केंद्र में बनी. बहुत सारे क्रांतिकारी काम करने का दावा इस दौरान किया गया. इस के बाद एक भी बार महिला आरक्षण बिल को पास करने पर विचार नहीं हुआ. 2022 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने महिलाओं को राजनीति में आगे बढ़ाने के लिए ‘लड़की हूं लड़ सकती हूं. अभियान की शुरुआत की, जिस का समाज की महिलाओं ने स्वागत किया. कांग्रेस ने ज्यादा से ज्यादा टिकट महिलाओं को देने का काम किया.

देश के इतिहास में पहली बार 40 फीसदी टिकट कोई दल महिलाओं को दे रहा है. कांग्रेस का यह दांव बाकी दलों के लिए भारी पड़ रहा है. कांग्रेस की पहल के चलते ही बाकी दलों ने भी अधिक से अधिक सीटें महिलाओं को देने की पहल की. ये सीटें पहले पुरुष उम्मीदवारों को मिलती थीं.

ऐसे में कांग्रेस की यह शुरुआत पुरुषवादी मानसिकता के लोगों को पसंद नहीं आ रही. वे इस के विरोध में हैं. पुरुषवादी मानसिकता के लोग मानते हैं कि अगर महिलाएं राजनीति में ज्यादा से ज्यादा आ गईं तो वे अपने लिए कानून बनाएंगी, अपने अधिकारों को पहचान लेगीं, जिस से पुरुषवादी मानसिकता के लोगों को डर लग रहा है.

आसान नहीं महिलाओं के मुद्दों को दबाना

लखनऊ मध्य विधानसभा सीट से उम्मीदवार सदफ जफर कहती हैं, ‘‘समाज में आधी आबादी को हर तरह से दबाने की कोशिश होती है. उसे आंदोलन करने से रोका जाता है. उसे राजनीति में आने से रोका जाता है. उस के लिए घर और समाज में तमाम तरह की बंदिशें लगाई जाती हैं. कोशिश यह होती है कि महिला नेता केवल तमाशाई बन कर रहे. पार्टी में शो पीस बनी रहे. यह भी देश जानता है कि कांग्रेस ने हमेशा महिलाओं को और अधिकार देने में सब से अधिक काम किया है.

‘‘पंचायती राज चुनाव के जरीए महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण देने का काम कांग्रेस ने किया. कांग्रेस की सरकार में ही लड़कियों को अपने पिता की संपत्ति में अधिकार का कानून बना. महिला आरक्षण बिल कांग्रेस लाई. दूसरे दलों ने उसे पास नहीं होने दिया. अब विधानसभा चुनाव में महिलाओं को 40 फीसदी टिकट देना मील का नया पत्थर कांग्रेस ने लगाया है.

‘‘विधानसभा चुनावों की मुहिम आगे रंग लाएगी. अब इस कदम से पीछे हटना आसान नहीं है. हर चुनाव में यह मुद्दा बनेगा. 2024 के लोकसभा चुनाव में भी महिलाओं की यह गूंज दिखेगी.’’

हर वर्ग को होगा लाभ

लखनऊ की मोहनलालगंज विधानसभा सीट से कांग्रेस ने ममता चौधरी को अपना प्रत्याषी बनाया है. मोहनलालगंज सुरक्षित सीट है. ममता चौधरी कहती हैं, ‘‘कांग्रेस में हर जाति और वर्ग की महिलाओं को सम्मानजनक स्थान दिया जाता है. कुछ दलों में केवल ऊंची जाति की महिलाओं को ही टिकट दिया जाता है. राजारजवाड़ों के साथ कांग्रेस ने गरीब कमजोर वर्ग की महिलाओं को भी टिकट दिया है. पंचायती राज चुनाव में महिलाओं को आरक्षण देने से पहले कोई कल्पना नहीं कर सकता था कि गरीब, कमजोर वर्ग की महिलाएं राजनीति में आ सकती हैं. पंचायती राज अधिनियम लागू होने के बाद कमजोर वर्ग की महिलाएं केवल प्रधान ही नहीं ब्लौक प्रमुख और जिला पंचायत अध्यक्ष तक के पदों पर पहुंचीं.

‘‘अगर लोकसभा और विधानसभा चुनाव में महिला आरक्षण लागू होता तो संसद और विधानसभा में महिलाएं अपने हितों और अधिकारों के कानून बनाने में हिस्सेदारी कर रही होती. वैसे तो हर दल का नेता ‘जिस की जितनी हिस्सेदारी, उस की उतनी भागीदारी’ की बात करता है. लेकिन जब आधी आबादी की महिलाओं को उस की हिस्सेदारी देने का वक्त आता है तो वे पीछे हो जाते हैं. कांग्रेस की यह पहल महिलाओं के अधिकार के लिए है. यह रंग जरूर लाएगी. जो लोग यह समझ रहे हैं कि महिलाएं कमजोर प्रत्याशी होती हैं, वे महिलाओं की ताकत का सही आकलन नहीं कर पा रहे हैं.’’

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कांग्रेस की महिला राजनीति के दूरगामी परिणाम सामने आएंगे. दूसरे दलों की महिलाएं भी यह मान रही हैं कि उन के दलों को भी 40 फीसदी टिकट महिलाओं को देने चाहिए. 2022 की यह सोच धीरेधीरे बड़ी होगी और आने वाले चुनावों में अब यह मुद्दा बनेगी. अब महिलाएं खामोश रह कर ही सही पर कांग्रेस की इस पहल के साथ खड़ी नजर आ रही हैं.

समाजवादी पार्टी के नेता मुलायम सिंह यादव की छोटी बहू अपर्णा यादव का कहना है, ‘‘मैं पूरी तरह से महिला आरक्षण के समर्थन में हूं. महिलाओं को अधिक से अधिक संख्या में संसद और विधानसभा में पहुंचना चाहिए. यह केवल राजनीतिक दलों की ही नहीं हम महिलाओं की भी जिम्मेदारी है.’’

हंगामा है क्यों बरपा

किसी महिला डिगरी कालेज के 2-3 साल पुराने बैच की लड़कियों की आज की स्थिति का जायजा लिया जाए तो 100 छात्राओं के बैच की मात्र 3-4 लड़कियां वर्तमान में किसी अच्छी नौकरी में होंगी, 4-5 साधारण नौकरी में होंगी और अन्य सभी शादी कर के गृहस्थी का बोझ ढो रही होंगी.

भारत में लड़कियों को ग्रैजुएशन कराई ही इसलिए जाती है ताकि अच्छा घरवर मिल सके. नौकरी, बिजनैस या अन्य क्षेत्रों में बढि़या कैरियर के नजरिए से पढ़ाई करने वाली लड़कियों की तादाद मात्र 5 फीसदी है.

पितृसत्तात्मक समाज की मानसिकता पहले यह थी कि लड़की को पढ़ालिखा कर क्या करना है, आखिर ससुराल जा कर तो उसे रोटियां ही बनानी हैं, इसलिए चूल्हेचौके, सिलाईबुनाई का काम ठीक से सिखाया जाए. मगर आजकल इस मानसिकता में थोड़ा सा बदलाव यह आया है कि लड़की अगर कम पढ़ीलिखी होगी तो उस की शादी में दिक्कत आएगी. ठीक घरवर चाहिए तो लड़की को कम से कम ग्रैजुएशन करा दो. अगर वह परास्नातक हो, इंजीनियर हो, उस के पास एमबीए या एलएलबी जैसी बड़ी डिगरी हो तो और भी अच्छी नौकरी में लगे लड़के से शादी के चांसेज बढ़ जाते हैं.

साजिश नहीं तो और क्या

अब लड़की अनपढ़ हो या परास्नातक, शादी कर के उसे बाई का काम ही करना है- रोटी पकानी है, घर साफसुथरा रखना है, पति को शारीरिक सुख देना है, बच्चे पैदा करने हैं, घर के बुजुर्गों की सेवा करनी है और ऐसे ही और तमाम कार्य करने हैं. यह भारतीय समाज में अधिकांश महिलाओं की स्थिति है और इस में कोई झूठ नहीं है. आप अपने घर में देख लें या किसी भी पड़ोसी के घर में ?ांक लें, कमोबेश सब जगह एक ही सूरत है.

मांबाप का खूब पैसा खर्च करवा कर और कई साल रातों को जागजाग कर खूब कड़ी मेहनत से पढ़ कर बड़ीबड़ी डिगरियां हासिल करने वाली लड़कियां चूल्हेचौके तक सिमट कर रह जाती हैं. पति हर महीने उन के हाथ पर पैसे रखते हैं और वे उन्हीं में अपनी गृहस्थी चला कर खुशी महसूस करती हैं. फिर जीवनभर उन का ध्यान कभी अपनी क्षमता, अपने ज्ञान और अपनी काबिलीयत पर नहीं जाता है.

बात करते हैं मध्य प्रदेश के मंत्री बिसाहूलाल सिंह द्वारा महिलाओं के संबंध में की गई टिप्पणी की, जिस के लिए उन की खूब भर्त्सना हुई और उन्हें लिखित में माफी मांगनी पड़ी. बिसाहूलाल ने अनूपपुर की एक सभा में कह दिया कि जितने बड़ेबड़े लोग हैं, वे अपने घर की औरतों को कोठरी में बंद कर के रखते हैं. बाहर निकलने ही नहीं देते. धान काटने का, आंगन लीपने का, गोबर फेंकने का का ऐसे तमाम काम हमारे गांव की महिलाएं करती हैं.

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गलत क्या है

जब महिलाओं और पुरुषों का बराबर अधिकार है तो दोनों को बराबरी से काम भी करना चाहिए. सब अपने अधिकारों को पहचानो और पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिला कर काम करो. बड़े लोगों की महिलाएं बाहर न निकलें तो उन्हें पकड़पकड़ कर बाहर निकालो, तभी तो महिलाएं आगे बढ़ेंगी.

बिसाहूलाल ने इस में क्या गलत कहा? सच बोलने पर भी उन्हें क्यों माफी मांगनी पड़ी? बिसाहूलाल ने तो समाज के सच को सामने रखा था. पढ़ीलिखी महिलाओं को गृहस्थी के चूल्हे में अपने सपने, अपनी काबिलीयत, अपने ज्ञान और अपनी डिगरियां जलाने के बजाय बाहर निकल कर अपनी क्षमताओं को समाज व देश हित में लगाने का आह्वान किया बिसाहूलाल ने. तो इस में गलत क्या था?

दरअसल, पितृसत्तात्मक समाज को सच सुनना बरदाश्त ही नहीं है. वह औरत को आजादी और आर्थिक मजबूती तो हरगिज नहीं देना चाहता है. वह औरत को बस अपने रहमोंकरम और अपने टुकड़ों पर पलने के लिए मजबूर कर के रखना चाहता है.

बिसाहूलाल ने बड़े घरों की औरतों की बात उठाई. आमतौर पर भारत में बड़े और आर्थिक रूप से संपन्न घर सवर्ण जातियों के ही ज्यादा हैं. आर्थिक रूप से संपन्न होने के नाते महिलाओं की शिक्षादीक्षा भी अच्छी होती है. आमतौर पर ज्यादातर सवर्ण महिलाएं उच्च शिक्षा प्राप्त मिलेंगी, लेकिन उस शिक्षा का कोई प्रयोग वे समाज हित में नहीं करती हैं. समाज में अपनी बड़ी इज्जत का ढोल पीटने वाले सवर्ण पुरुष अकसर अपनी बहूबेटियों से नौकरी करवाना पसंद नहीं करते हैं. कुछ फीसदी ही हैं जो औरतों की शिक्षा और नौकरी को महत्त्व देते हैं और उन के घरों की महिलाएं ऊंचे पदों पर भी पहुंचती हैं.

थोथली दलील

आमतौर पर ऊंचे और सम्मानित घरों के पुरुषों की दलील यह होती है कि जब घर में पैसे की कमी नहीं है तो घर की औरतों को बाहर निकल कर सड़कों पर धक्के खाने और पैसा कमाने की क्या जरूरत है? तो फिर उन की औरतों द्वारा ली गई उच्च शिक्षा का औचित्य क्या था? वह सीट किसी गरीब और निम्न जाति की महिला को दे दी जाती तो वह नौकरी कर के अपने घर की आर्थिक स्थिति बेहतर कर सकती थी.

बिसाहूलाल ने बिलकुल ठीक कहा कि जितने धान काटने, आंगन लीपने, गोबर फेंकने के काम हैं वे हमारे गांव की महिलाएं करती हैं. उन के कहने का अर्थ यह कि छोटी जाति की महिलाएं शिक्षित नहीं होते हुए भी घर से बाहर निकल कर काम करती हैं और अपनी क्षमतानुसार पैसा कमाती हैं. बारीक नजर इन गरीब तबके की और उच्चवर्ग की महिलाओं पर डालें तो आप पाएंगे कि गरीब घर की जो महिला घर से बाहर निकल कर काम कर रही है वह खुद को ज्यादा आजाद पाती है. वह किसी पर निर्भर नहीं है. अपने पैरों पर खड़ी है और सब से बड़ी बात यह कि घर के फैसलों में उस का भी मत शामिल होता है.

मंत्री बिसाहूलाल ने अगली बात यह कही कि  जब महिलाओं और पुरुषों का बराबर अधिकार है तो दोनों को काम भी बराबरी से करना चाहिए. सब अपने अधिकारों को पहचानो और पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिला कर काम करो. बड़े लोगों की महिलाएं बाहर न निकलें तो उन्हें पकड़पकड़ कर बाहर निकालो. तभी तो महिलाएं आगे बढ़ेंगी.

दूरदर्शी सोच

इस वक्तव्य से बिसाहूलाल की देश की महिलाओं के प्रति विस्तृत और दूरदर्शी सोच का पता चलता है. देश के संविधान ने महिला और पुरुष दोनों को समान अधिकार दिए हैं. फिर क्यों एक पुरुष शिक्षा प्राप्त कर के बढि़या नौकरी करता है, बढि़या और ऊंची तनख्वाह वाली नौकरी की तलाश में अन्य शहरों तक और विदेशों तक बेखटके चला जाता है, जबकि एक महिला शिक्षा प्राप्त करने के बाद गृहस्थी के बंधन में जकड़ी घर की किचन तक सिमट कर रह जाती है.

वह लड़?ागड़ कर नौकरी कर भी ले तो उसे घर के पास ही किसी स्कूल या औफिस में काम करने की इजाजत मिलती है. वह अपनी शिक्षा और क्षमता के अनुसार दूसरे शहर या विदेश में नौकरी के लिए अप्लाई नहीं कर सकती है. यह उस की आजादी पर बहुत बड़ी रोक है. बिसाहूलाल इस रोक को हटाने का आह्वान कर रहे थे तो उस में गलत क्या था?

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आजादी चाहिए या धनदौलत

फिल्में समाज का आईना होती हैं. समाज जैसा है वही परदे पर आता है. भिन्नभिन्न समयकाल में भारतीय महिला की स्थितियां अनेक फिल्मों में दिखाई गई हैं. एक महिला को उस की आजादी प्रिय है या धनदौलत, इसे बहुत सुंदर तरीके से फिल्म ‘रौकस्टार’ के एक गाने में दर्शाया गया है. इस फिल्म के गीत ‘हवाहवा को जरा ध्यान से सुनिए- चकरी सी पैरों में… रुके न फिर पांव पांव पांव… पांव रुके न किसी के रोके… ये तो चलेंगे… नाच लेंगे…’

चिढ़ कर गुस्से में बोला राजा, ‘ओ रानी, क्यों फटकी मेरी पोछी, ओ नाक कटाई, वाट लगाई, तूने तलवाई मेरी इज्जत की भाजियां, आज से तेरा बंद बाहर है जाना…’

यह सुन कर रानी मुसकराई बोली, ‘सोने की दीवारें मु?ो खुशी न यह दे पाईं, आजादी दे दे मु?ो, मेरे खुदा… ले ले तू दौलत और कर दे रिहा… हवा हवा…’

इस गीत ने आर्थिक रूप से संपन्न घर में कैद औरत की छटपटाहट को बखूबी सामने रखा है. सोनेचांदी की बेडि़यां वह खुशी कभी दे ही नहीं सकतीं, जो आजाद हवा में सांस लेने पर मिलती है. इसलिए रानी कहती है, ‘ले ले तू दौलत और कर दे रिहा…’

यदि आर्थिक रूप से संपन्न औरत को अपने मनमुताबिक काम करने की आजादी न हो तो वह संपन्नता उस के लिए रोग बन जाती है.

देश की आजादी के 7 दशक बाद भी देश की आर्थिक आजादी और विकास में महिलाओं की भूमिका अब भी वैसी नहीं है जैसी होनी चाहिए. इस मामले में देश ने 70 सालों में भी कोई खास प्रगति नहीं की है. देश में हो रहे आर्थिक विकास के परिपेक्ष्य में इन्वैस्ट इंडिया इनकम ऐंड सेविंग सर्वे में जो आंकड़े निकल कर आए हैं वे बेहद निराशाजनक हैं.

गांवों में ज्यादा काम करती हैं महिलाएं

टीवी पर आधुनिक भारत की महिलाओं की तसवीर देख कर कोई विदेशी भ्रम में पड़ सकता है कि आधुनिक भारत के शहरों में रहने वाली महिलाएं घर से निकल कर बाहर काम करने के लिए कितनी उत्साहित हैं, परंतु वस्तुस्थिति बिलकुल भिन्न है. गांव में महिलाएं घर के बाहर जा कर ज्यादा काम करती हैं, शहरी आबादी की तुलना में. गांव में 45% से ज्यादा महिलाएं खेतों में काम करती हैं. इन में से 55% महिलाएं वर्ष भर में 50 हजार रुपए भी नहीं कमा पाती हैं.

शिक्षित न होने के कारण और अपने अधिकारों के प्रति जागरूक न होने के कारण लोग उन का शोषण करते हैं. यह शोषण कार्यस्थल पर भी होता है और घर में भी. इन में से मात्र 15% महिलाएं ही ऐसी होंगी जो अपनी कमाई को अपनी इच्छानुसार खर्च कर पाती हैं वरना अधिकतर अपनी कमाई अपने पति के हाथ में रखने के लिए मजबूर होती हैं. उन का अपनी कमाई पर कोई अधिकार नहीं होता. पति जैसे चाहे उस का पैसा खर्च करता है.

शहरी क्षेत्रों में 2 से 5 लाख रुपए सालाना आय वाले परिवारों की मात्र 13% महिलाएं ही नौकरी करने के लिए घर से बाहर जाती हैं जबकि 5 लाख से ऊपर वाले आय वर्ग में काम करने वाली महिलाओं का प्रतिशत मात्र 9 है.

सपनों को उड़ान

जिन राज्यों की आर्थिक स्थिति अच्छी है वहां महिलाओं के नौकरी या घर से बाहर निकल कर काम करने का प्रतिशत कम है. पंजाब में 4.7% महिलाएं घर के बाहर काम करती हैं जबकि हरियाणा में 3.6%, दिल्ली में 4.3%, उत्तर प्रदेश में 5.4% महिलाएं काम के लिए घर से बाहर जाती हैं. वहीं बिहार में 16.3% और उड़ीसा में 26% महिलाएं घर से बाहर निकल कर मजदूरी या नौकरी करती हैं.

एक तथ्य जो गौर करने लायक है वह यह कि दक्षिण के राज्यों में जहां साक्षरता का प्रतिशत ज्यादा है वहां पर राज्यों की आर्थिक स्थिति अच्छी होने के बावजूद महिलाएं घर से निकल कर बाहर काम के लिए जाती हैं. तमिलनाडु में यह प्रतिशत 39 है, जबकि आंध्र प्रदेश में 30.5, कर्नाटक में 23.7 है यानी शिक्षित महिला जो निम्न या मध्यवर्ग की है, अपनी आजादी का आनंद लेने के साथसाथ आर्थिक रूप से भी मजबूत है.

मगर बाकी देश में सामाजिक बंधनों और धार्मिक कट्टरता के चलते महिलाएं चाह कर भी अपना योगदान खुद और देश के आर्थिक

विकास में नहीं दे पा रही हैं. हम चाहे कितनी भी आर्थिक आजादी की बात कर लें, पर जब तक महिलाओं के विकास और आजादी की बात

नहीं होगी, जब तक धर्म की बेडि़यां नहीं कटेंगी, औरत की इच्छाओं पर पड़े समाज के बंधन नहीं टूटेंगे, तब तक आर्थिक आजादी अधूरी नजर आएगी.

13% महिलाएं ही काम करती हैं

सामाजिक रूप से अब भी हम इस मामले में काफी पिछड़े हैं. घर की महिलाएं काम करने के लिए जाएं यह वहीं हो रहा है जहां परिवार काफी गरीब हैं और घर के मुखिया के मेहनताने पर घर नहीं चल पा रहा है यानी महिलाओं के घर से बाहर निकल कर काम करने को सीधे रूप से गरीबी से जोड़ कर ही देखा जाना चाहिए.

आंकड़े भी यही कहते हैं कि औरतों की जनसंख्या का मात्र 13 फीसदी ही बाहर काम करने के लिए जाता है. उन में से भी प्रति 10 महिलाओं में से 9 महिलाएं असंगठित क्षेत्रों में काम करती हैं. असंगठित क्षेत्रों में काम करने के कारण इन महिलाओं को सुविधाएं तो दूर, काम करने के लिए अच्छा माहौल तक नहीं मिल पाता है. अगर निम्न जाति की महिलाओं को अच्छी शिक्षा प्राप्त हो जाए तो यही महिलाएं देश और समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन कर सकती हैं.

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आजादी, भीख : कंगना रनौत का सरंक्षण और विकृति

-“देश को आजादी भीख में मिली है.” ऐसा दुस्साहस पुर्ण वक्तव्य देकर फिल्मी दुनिया में अपना एक वजूद बनाने के बाद कंगना राणावत क्या इतनी बड़ी शक्ति हो चुकी है कि देश का प्रधानमंत्री कार्यालय अर्थात पीएमओ, केंद्र सरकार और कानून, उच्चतम न्यायालय असहाय हो गया है?

क्या कंगना राणावत को कोई अदृश्य संरक्षण मिला हुआ है? साफ साफ ये कहना कि 1947 में मिली हुई आजादी हमें भीख में मिली है और इसके बाद यह कहना कि आजादी तो 2014 के बाद मिली है यानी नरेंद्र दामोदरदास मोदी की सरकार आने के बाद.
इस कथन में यह साफ दिखाई देता है कि इस सोच के पीछे कौन सी शक्ति काम कर रही है और देश को कहां ले जाना चाहती है.

दरअसल, कंगना राणावत को जिस तरीके से “पद्मश्री” मिला है जिस तरीके से उसकी हर गलत नाजायज बातों को हवा दी जा रही है वह देश हित में तो नहीं है. मगर एक विशेष विचारधारा और राजनीतिक दल को यह सब सुखद लगता है. परिणाम स्वरूप कंगना राणावत देश में आज चर्चा का विषय बन गई है और कानून के लिए एक चुनौती भी.

आज देश की आम जनता को यह सोचने समझने का गंभीर समय है. जब ऐसे समय में देश की महान विभूतियां स्वतंत्रता सेनानियों पर कोई एक महिला प्रश्न खड़ा कर रही है, जब किसी एक महिला कि यह हिमाकत हो सकती है कि आजादी को भीख कह दे, तो यह समय चिंता करने का है और अपनी धरोहर को समझने का और संभालने का भी है.

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क्योंकि एक प्रवक्ता की तरह जिस तरह कंगना राणावत ने मोर्चा संभाला है, यह जगजाहिर कर चुका है कि आने वाले समय में कंगना कन्हैया कुमार की तरह जेल नहीं जाएंगी. बल्कि उनके पक्ष में हो सकता है कुछ और बड़े नामचीन लोग आकर खड़े हो जाएं और बातों को ट्विस्ट करने लगें. आज का समय ऐसा ही है आजकल पुराने ऐतिहासिक तथ्यों को समाप्त करने का और एक नए युग का निर्माण का भ्रम पालने वाले लोगों का है.

शायद यही कारण है कि रातों-रात यह निश्चय कर लिया गया कि एक नया संसद भवन बनाना चाहिए गांधी जी की, और नेहरू के इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के उन ऐतिहासिक चिन्हों को नष्ट कर दिया जाना चाहिए क्योंकि वहां पर हमें अच्छा करना है!
यह अच्छा करने का भ्रम पैदा करके महत्वपूर्ण ऐतिहासिक तथ्य और स्थानों को नष्ट करने का प्रयास जारी है.

 

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इसी क्रम में हमने देखी है नोटबंदी,ताकि नोट से गांधी जी को हटा दिया जाए. हालांकि यह हो नहीं सका. मगर लोगों के दिलों दिमाग से देश के महान विभूतियों, स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को खत्म करने कि यह जो सोच है यह अपना काम आज तेजी से कर रही है. क्योंकि वह आज पावरफुल है. ऐसे में यही कहा जा सकता है कि यह देश यह धरोहर आज की पीढ़ी की हाथों में है वह इसे कैसे संभाल पाएगी या फिर नष्ट होने देगी यह उन्हीं के कांधे पर है.

जैल भेजें, कानून के रखवाले

छोटी-छोटी बातों पर देश की बात करने वाले, देशभक्ति की बात करने वाले आज कसौटी पर हैं. क्योंकि आज कंगना राणावत ने देश की आजादी को भी हमें भीख में मिलने का कथन कह कर इन सारे देश भक्ति की हिमायत करने वालों को कटघरे में खड़ा कर दिया है.सवाल है अगर कोई अपना गलत बोलता है तो उसे छूट मिल सकती है क्या? यह प्रश्न भी आज उन लोगों के सामने खड़ा है जो देश और देश भक्ति का राग अक्सर बिला वजह अलापते रहते हैं, और जब आज समय कुछ करने का है, तो मौन है.
आज महाभारत के पात्र समय के उद्घोष का है यानी “समय” चेहरे देखने का है और चेहरे से नकाब उतरते हुए देखने का भी.
सचमुच सत्ता के शीर्ष पर बैठे हुए दोहरे चरित्र के लोगों का सच आज धीरे-धीरे देश की जनता के सामने आता चला जा रहा है.

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लोकतांत्रिक सरकारों को समझना होगा

उपचुनावों में राजस्थान, महाराष्ट्र, हिमाचल प्रदेश और पश्चिमी बंगाल में पिटाई होने के बाद भारतीय जनता पार्टी सरकार को समझ आया है कि घरों को लूटना महंगा पड़ सकता है और परिणामों के अगले दिन ही पैट्रोल व डीजल के दाम घटा दिए गए हैं. यह कटौती कोई संतोषजनक नहीं है पर साबित करती है कि सरकार को अब भरोसा हो गया है कि राममंदिर और ङ्क्षहदूमुस्लिम कर के वे ज्यादा दिन तक घरों को बहलफुसला नहीं सकते.

धर्म के नाम पर लूट तो सदियों से चली आ रही है पर पहले राजा पहले अपने पराक्रम से शासन शुरू करता था और फिर अपना मनचाहा धर्म जनता पर थोपता था. आज धम्र का नाम लेकर शासन हथियाना जा रहा है और समझा जा रहा है कि मूर्ख जनता को सिर्फ पाखंड, पूजापाठ, मंदिर और विधर्मी का भय दिखाना ही सरकार का काम है. सरकार बड़ेबड़े मंदिर और भवन बना ले जिन में चाहे काल्पनिक देवीदेवता बैठें या हाड़मांस के चुनकर आए नेता, जनता खुश रहेगी.

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आम घरों से निकला छीनने की पूरी तैयारी हो रही है. नोटबंदी के दिनों से जो देश की अर्थव्यवस्था का सत्यानाथ किया जाना शुरू किया है, वह आज भी चल रहा है और बेरहमी से जैसे ईस्ट इंडिया कंपनी सरकार ने अकाल के दिनों में लगाम वसूला था, आज की सरकार कोविड की मार खाए व्यापार को पैट्रोल व डीजल के दाम हर दूसरे दिन बढ़ा कर कर रही है. चुनावों में मार खाए पर समझ आया कि यह भारी पड़ सकता है.

लोकतांत्रिक सरकारों को समझना होगा कि वे अपनी मनमानी ज्यादा दिन नहीं थोप सकते. जनता का गुस्सा आज जरूरी नहीं सडक़ों पर उतरे. जनता के पास वोट का हक भी है. भारतीय जनता पार्टी जनता को बहकाने में दक्ष है क्योंकि वह लाखों की भीड़ को कुंभ, धारधाम, मेलों, मंदिरों, तीर्थों में ले जाना जानती है जहां उन को जम कर धर्म के नाम पर लूटा जाता है पर यह नहीं भूलना चाहिए कि यही भीड़ वोट देने भी पहुंचती है जहां सरकार से जवाब वसूली की जाती है.

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उपचुनावों में टूटीफूटी कांग्रेस ने हिमाचल प्रदेश और राजस्थान में व अंदर तक मजबूत तृणमूल कांग्रेस ने पश्चिमी बंगाल में भारतीय जनता पार्टी को हिला दिया और पहले कदम में उन को पैट्रोल डीजल के दाम कुछ करने पड़े है.

अब यह जनता पर निर्भर है कि वह धर्म के झूठ की रोटी खाने में संतुष्ट रहना चाहती है या एक कुशल सरकार चाहती है.

धब्बा तो औरत पर ही लगता है

हर देश को अपनी सेना पर गर्व होता है और उस के लिए देश न केवल सम्मान में खड़ा होता है वरन उसे खासा पैसे की सुविधा भी दे दी जाती है. एक सुविधा दुनियाभर के सैनिक खुद ले लेते हैं, जबरन रेप करनी की. आमतौर पर हमेशा से राजाओं ने सेनाओं में भरती यही कह कर की होती है कि तुम मेरे साथ लड़ो, तुम्हें लूट में माल भी मिलेगा, औरतें भी. युगों से दुनियाभर में हो रहा है.

कोएंबटूर के एअरफोर्स एडमिनिस्ट्रेटिव कालेज में एक कोर्स में एक आईएएस फ्लाइट लैफ्टीनैंट और एक 26 वर्षीय युवती साथ में पढ़ रहे थे. एक शाम ड्रिंक्स लेते समय युवती को बेहोशी छाने लगी तो उसे उस के होस्टल के कमरे में ले जाया गया और युवती का कहना है कि वहां उस युवा अफसर ने उस के साथ रेप किया.

आमतौर पर इस तरह के रेप का फैसला सामान्य अदालतें करती हैं और इस मामले में सेना अड़ गई कि यह केस कोर्टमार्शल होगा यानी सैनिक अदालत में चलेगा. युवती को इस पर आपत्ति है कि उसे न्याय नहीं मिलेगा. कठिनाई यह है कि सेना पर निर्भर देश और कानून सैनिकों को नाराज करने का जोखिम नहीं लेता.

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कोर्टमार्शल में सेना के अफसर ही जज का काम करते हैं और वे सैनिकों की प्रवृत्ति को अच्छी तरह समझते ही नहीं, उस

पर मूक स्वीकृति की मुहर भी लगाते हैं. वे जानते हैं कि बेहद तनाव में रह रहे सैनिकों को कुछ राहत की जरूरत होती है और इस तरह के मामलों को अनदेखा करते हैं. सैनिकों को घरों से दूर रहना पड़ता है और वे सैक्स भूखे हो जाते हैं. इसलिए हर कैंटोनमैंट के आसपास सैक्स वर्करों के अड्डे बन जाते हैं.

ऐसे हालात में रेप विक्टिम को सैनिक अदालत से पूरा न्याय मिलेगा, यह कुछ पक्का नहीं है पर असल में तो सिविल कोर्टों में भी रेप के दोषी आमतौर पर छूट ही जाते हैं. हां, उन्हें जमानत नहीं मिलती और चाहे अदालतें बरी कर देती हों, वे लंबी कैद अंडर ट्रायल के रूप में काट आते हैं और रेप विक्टिम के लिए यही काफी होता है.

सिविल कोर्टों में अकसर पीडि़ता अपना बयान वापस ले लेती है, चाहे लंबे खिंचते मामले, वकीलों की जिरह के कारण या लेदे कर फैसले के कारण. यह पक्का है कि जो धब्बा औरत पर लगता है वह टैटू की तरह गहरा होता है और रेपिस्ट पर लगा निशान चुनाव आयोग की स्याही जैसा.

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आखिर भारत चीन से पीछे क्यों है

भारत की औरतों को चीन से ज्यादा चीनी के दामों की चिंता रहती है पर चीन का खतरा और उस से कंपीटिशन हम सब के सिर पर हर समय सवार है. वैसे तो चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने अपना कार्यकाल रूसी राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन की तरह असीमित करा लिया है पर अभी

वे अपने देश और दुनिया की नजरों में खलनायक नहीं बने हैं, जबकि तुर्की के रजब तैयब एर्दोगन और रूसी राष्ट्रपति पुतिन इसी तरह के बदलाव पर लोकतंत्र के हत्यारे और दुनिया के लिए खतरा घोषित कर दिए गए हैं.

पुतिन के विपरीत शी जिनपिंग की छवि एक बेहद सौम्य व सरल से नेता की है जो संरक्षक ज्यादा लगता है, मालिक कम. चीनी नीतियां भी ऐसी ही हैं. शी जिनपिंग के रोड और बैस्ट योजना का लक्ष्य सारे देशों को एक मार्ग से जोड़ना, बहुत देशों को पसंद आया है क्योंकि बहुत से अलगथलग पड़े देश व बड़े देशों के दूर वाले इलाकों से यह मार्ग गुजरने लगा है. यह पिछले 7-8 सालों से बन रहा है और बहुत जगह असर दिख रहा है.

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चीन की प्रगति इन सालों में बेहद अच्छी रही है और चीन चाहे सैनिक तेवर दिखा रहा हो, उस की सेनाओं ने भारत के अलावा कहीं पैर नहीं पसारे हैं. साउथ सी में वह अपना प्रभुत्व जमा रहा है पर अभी तक शांतिपूर्वक है.

अब शी जिनपिंग ने पिछले 3 दशकों में सरकारी छूटों का लाभ उठा कर धन्ना सेठ बने चीनियों पर नकेल कसनी शुरू की है. चीन में भी अंबानियों और अदानियों की कमी नहीं है, जिन्होंने सिर्फपहुंच और खातों के हेरफेर से पैसा कमाया है और कम्युनिस्ट देश में कैपिटलिस्ट मौज मना रहे हैं. अलीबाबा कंपनी के जैक मा का उदाहरण सब से बड़ा है जिस के पर हाल में कुतरे गए. एक भवन निर्माण कंपनी को भी डूबने से नहीं रोका गया क्योंकि उस ने बेहद घपला कर हजारों मकान बना डाले थे. हम तो पुरानी परंपराओं को खोदखोद कर निकाल कर सिर पर मुकुट में लगा रहे हैं.

चीनी नेता अब फिर से पार्टी राज ला रहे हैं जो अच्छा साबित होगा या नहीं अभी नहीं कह सकते पर यह पक्का है कि सिरफिरे ही सही कट्टरवादी माओत्सेतुंग ने ही चीन को पुरानी परंपराओं से निकालने के लिए हर पुरानी चीज को ध्वस्त कर डाला था. जो चीन तैयार हुआ वह दुनियाभर के लिए चुनौती बन गया है.

चीन अपनी सेना को भी मजबूत कर रहा है और अपने विमानों, पनडुब्बियों, एअरक्राफ्ट कैरियरों के बेड़े तैयार कर रहा है. भारत को डराए रखने के लिए चीन भारत सीमा के निकट हवाईअड्डे और सड़कें बना रहा है बिना विदेशी यानी पश्चिमी देशों की सहायता से.

अमेरिका शी जिनपिंग के चीन से भयभीत है और इसलिए आस्ट्रेलिया, जापान और भारत के साथ एक क्वैड संधि की गई है ताकि चारों देश मिल कर चीन का सामना कर सकें. इन चारों को यह तो पक्का भरोसा है कि वे चीन को अपनी तकनीक, बाहुबल या चालबाजी से बहका नहीं सकेंगे. जापान को मालूम है कि वह अब चीन पर कब्जा नहीं कर सकता जैसा उस ने 100 साल पहले किया था.

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शी जिनपिंग का लैफ्ट टर्न वही टर्न है जो कांग्रेस अब राहुल गांधी की पहल में कर रही है. जब तक किसी देश का आम आदमी भरपेट खाना नहीं खाएगा और उसे बराबरी का एहसास नहीं होगा, वह उन्नति में सहायक नहीं होगा, अलीबाबा या अदानी या अंबानी किसी देश की उन्नति की नींव नहीं बन सकते हैं, ये परजीवी हैं जो आम जनता की रगों से खून चूसते हैं. हमारी मंदिर, हिंदूमुसलिम नीति भी वही है. शी जिनपिंग अलग दिख रहे हैं, कितने हैं, पता नहीं. हां, एक मजबूत चीन भारत के लिए लगातार खतरा रहेगा जब तक हम भी उतने ही मजबूत न हों. हमारी पूंजी तो फिलहाल प्रधानमंत्री के सपनों के संसद परिसर और राममंदिर में लग रही है.

भारतीय जनता परिवार में पुरोहिताई को जोर

हर संयुक्त परिवार की तरह कांग्रेस परिवार में सब कुछ अच्छा नहीं है. कभी कोई बहू नखरे दिखा कर अपना घर अलग बसा लेती है तो कभी कोई बेटीबेटा विधर्मी, विजातीय से शादी कर के प्यार का संबंध तोड़ देता है. कभी तो भाई अलग दुकान खोल कर संयुक्त परिवार को ही चुनौती देने लगता है. संयुक्त परिवार चलाना उतना ही कठिन है जितना एक राजनीतिक पार्टी खासतौर पर कांग्रेस की तरह जो हवेलियों का एक समूह है और जिस के पांव तरहतरह से फैले पड़े हैं और जर्जर हालत में हैं पर नाम अभी भी है.

पंजाब में अमरींद्र ङ्क्षसह को मुख्यमंत्री पद से निकालना या गोवा में पूर्व मुख्यमंत्री का जाना या उत्तर भारत के व्यापार पर भारतीय जनता पार्टी को कब्जा हो जाना इस संयुक्त परिवार के लिए चुनौती है पर अगर मैं इस में कुछ गोंद लगी है तो वह है कि यह संयुक्त परिवार बाजार को हर समय आश्वस्त करता है कि जब तक वह है कुछ न कुछ होगा और नए लोग बाजार पर कब्जा नहीं कर पाएंगे. इस संयुक्त परिवार में जाति और धर्म के भेदभाव भी नहीं है.

आजकल कांग्रेस का भविष्य इतना खराब नहीं लग रहा है क्योंकि दूसरे संयुक्त परिवार जिस ने मंदिर बनवा कर बाजार लूटा है, आगे है पर मंदिर तो पैसा खाता है, देता नहीं.

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भारतीय जनता परिवार में पुरोहिताई का इतना जोर है कि वहां या तो महापुरोहित की चलती या उस के 2, केवल 2 महाशिष्यों की. बाकी सब परिवार के व्यापार के मुनाफे का फायदा उठा सकते हैं पर यूं की नहीं कि उन्हें मेनका गांधी की तरह बाहर वाले कमरे में बैठा दिया जाएगा.

इस भारतीय जनता परिवार की देन भी कुछ नहीं है. यह चिट फंड कंपनियों की तरह मोटे ब्याज के सपने दिखाती रहती है और उस के  बल पर कहीं हवाई जहाज, कहीं, ऊंचे भवन बनवा लिए पर पीछे से घर की जमीनें जायदाद बेच रही है. इस दुकान के ग्राहक ज्यादा है पर अच्छी पैङ्क्षकग में उन्हें बासी, खराब या न चलने वाला माल मिल रहा है और किसी को भी व्यापार चलाना आता नहीं, सब सिर्फ भजन पूजन में लगे रहते हैं.

चूंकि भारतीय जनता परिवार ने खूब पाॢटयां दीं, खूब रंग रोगन करा कर मकान चमकाया, नाम तो हुआ पर कांग्रेसी हवेली की तरह दरारें वाली ही सहीं, मोटी दीवारें नहीं बन पाईं. 1707 के बाद जब मुगल साम्राज्य का पतन हुआ तो भी लालकिला 1857 देश की धुरी बना रहा, कोलकाता, मुंबई में वह दम नहीं रहा.

कांग्रेसी परिवार और भारतीय जनता परिवार में दोनों में आज नेतृत्व की कमी है. एक में पढ़ेलिखे है और दूसरे में अमीर अंधभक्त. बाजार में दोनों की दुकानें हैं, व्यापार है, पर ग्राहक दोनों से संतुष्ट नहीं है.

कांग्रेसी परिवार आजकल अपने पुनॢनर्माण में लग रहा है पर उस परिवार से छिटके ही इसे बड़ा प्रतियोगिता दे रहे हैं. इस के मुखिया सोनिया गांधी समझदार, उदार, अनुभवी है और संभल कर चलने वालों में से है पर बिमार है. बच्चे प्रियंका और राहुल अब हाथपैर मार रहे हैं.

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भारतीय जनता परिवार की अंदरूनी हालत और बुरी है, वहां पुरोहित जी तो दूर बैठे हुक्म देते रहते है और मुखियां को बोलना ही बोलना आता है. दूसरे नंबर के मुखियां रौबिले हैं, लखीमपुर खीरी के सांसद और उन के बेटे की तरह उग्र.

आप भी अगर संयुक्त परिवार में हैं और उस में दरारे दिख रही हैं तो इन पाॢटयों पर नजर डाल लें. इन से बहुत कुछ सीखने को मिल जाएगा जो न तो तिलकधारी बता पाएंगे न काले कोर्ट वाले. नजर छोटी दुकानों पर भी डाल लें कि अलग घर में रहना सही है या भरे पूरे घर में जहां अंत तक कोई साथ बना रहता है.

तालिबानी ऐसा क्यों कर रहे हैं?

जैसा की डर था, अफगानिस्तान में तालिबानियों के लौटते ही औरतों की आजादी छिनने लगी है. अफगान औरतों का दफ्तरों में प्रवेश बंद किया जा रहा है और जिन औरतों ने 20 सालों की ‘आजादी’ में पढ़लिख कर सरकारी व निजी सेक्टर में जगह बनाई थीं, उन्हें अब घरों में बैठने को कहा जा रहा है. महिलाओं का मंत्रालय अब इबादल और सही रास्ता दिखाने वाला दफ्तर बन गया है जहां सिर्फ मर्द है.

तालिबानी ऐसा क्यों कर रहे हैं? इसलिए कि उन का धर्म यह कहता है. पर दुनिया का कौन सा धर्म है जो औरतों को आजादी देता है? ईसाई धर्म मानने वाले आज अफगान औरतों के लिए आंसू बहा रहे हैं पर अभी 200 साल पहले तक वे बाइबल से औरतों को पाठ पढ़ाकर कमरों और घरों में बंद ही कर रहे थे.

हिंदू धर्म की हालत कौन सी अच्छी रही है. राजाराम मोहन राय जैसों के आंदोलन आखिर क्यों हुए थीं. शिव पुराण के पूर्वाद्र्ध में प्रथम खंड का पहला ही अध्याय लें. उस में कुछ मुनियों की सूतजी से भेंट का जिक्र है. ये मुनि शिकायत करते हैं. पुराने धर्म का नाश होने वाला है, उन के भविष्य के वर्णन के अनुसार क्षत्रिय सत्यधर्म से विमुख हो कर स्त्रियों के आधीन हो जाएंगे. स्त्रियां पति से सेवा विमुख हो जाएंगी, अन्य पुरुषों से हंसने बोलने लगेंगी. यह भाव क्या आज छिपे तौर पर मौजूद नहीं है.’

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इस्लामी सिरफरे अगर कट्टर शरिया कानून को थोप पा रहे हैं तो इसलिए कि इन कट्टरों को अपने घरों में अपनी मांओं, पत्नियों या बेटियों से विरोध नहीं सहना पड़ता. धर्म का डर सभी औरतों में गहरे बैठा है. काबुल व कुछ शहरों की औरतों को छोड़ दें तो आम अफगान औरतें दुनिया के अन्य हिस्सों की औरतों की तरह धर्म भीरू हैं. अमेरिका में डोनेल्ड ट्रंप की पार्टी अगर औरतों को गर्भपात का अधिकार नहीं देना चाहती तो इसीलिए कि बाइबल में इस का निषेध है. वहां के रिपब्लिक पार्टी के बहुमत वाले कैलिफोॢनया राज्य ने कानून बनाया है कि गर्भपात पहले 6 सप्ताह में ही कराया जा सकता है और इस कानून पर देश की सुप्रीम कोर्ट ने भी मोहर लगा दी है. यह कौन से तालिबानी फैसले से कम है?

दुनियाभर में धर्मों के नाम पर औरतों पर अत्याचार आज भी हो रहे हैं और जिस पर अत्याचार होता है उस से हमदर्दी तो दूसरी औरतें जताती हैं पर उस के साथ बचाव में साथ खड़ी नहीं होतीं, वे धर्म के ईशारे पर मूक समर्थन करती हैं.

जब तक धर्म को छूट मिलती रहेगी, औरतों को धर्म 100 नहीं 1000 साल पहले के माहौल में ले जाने की कोशिश करता रहेगा. यह डर सब देशों में है. सभी देशों में तालिबानी सोच वालों की कमी नहीं है. अफगानिस्तान में शासक धर्म की नाव पर चढक़र आए है पर कहां धर्म का बोलबाला नहीं है, कहां चर्च, मंदिर, मसजिद, मठ चमचमा नहीं रहे. जहां धर्म की चमक होगी वहां औरतों की आजादी की राख पड़ी होगी.

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खेद है लोकतंत्र नहीं रहा

धर्म व राजसत्ता का गठजोड़ फासीवाद व अंधवाद पैदा करता है. धर्म को सत्ता से दूर करने के लिए ही लोकतंत्र का उद्भव हुआ था. रोम को धराशायी करने में सब से बड़ा योगदान समानता, संप्रभुता व बंधुत्व का नारा ले कर निकले लोगों का था. ये लोग धर्म के दुरूपयोग से सत्ता पर कब्ज़ा कर के बैठे लोगों को उखाड़ कर फेंकने को मैदान में उतरे थे व राजशाही को एक महल तक समेट कर ब्रिटेन में लोकतंत्र की और आगे बढे.

बहुत सारे यूरोपीय देश इस से भी आगे निकल कर राजतन्त्र को दफन करते हुए लोकतंत्र की और बढे और धर्म को सत्ता के गलियारों से हटा कर एक चारदीवारी तक समेट दिया, जिसे नाम दिया गया वेटिकन सिटी.

आज किसी भी यूरोपीय देश में धर्मगुरु सत्ता के गलियारों में घुसते नजर नहीं आएंगे. ये तमाम बदलाव 16वीं शताब्दी के बाद नजर आने लगे, जिसे पुनर्जागरण काल कहा जाने लगा अर्थात पहले लोग सही राह पर थे फिर धार्मिक उन्माद फैला कर लोगों का शोषण किया गया और अब लोग धर्म के पाखंड को छोड़ कर उच्चता की और दुबारा अग्रसर हो चुके है.

आज यूरोपीय समाज वैज्ञानिक शिक्षा व तर्कशीलता के बूते दुनियां का अग्रणी समाज है. मानव सभ्यता की दौड़ में कहीं ठहराव आता है तो कहीं विरोधाभास पनपता है, लेकिन उस का तोड़ व नई ऊर्जा वैज्ञानिकता के बूते हासिल तकनीक से हासिल कर ली जाती है.

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आज हमारे देश में सत्ता पर कब्ज़ा किये बैठे लोगों की सोच 14वीं शताब्दी में व्याप्त यूरोपीय सत्ताधारी लोगों से ज्यादा जुदा नहीं है. मेहनतकश लोगों व वैज्ञानिकों के एकाकी जीवन व उच्च सोच के कारण कुछ बदलाव नजर तो आ रहे है, लेकिन धर्मवाद व पाखंडवाद में लिप्त नेताओं ने उन को इस बात का कभी क्रेडिट नहीं दिया.

जब किसी मंच पर आधुनिकता की बात करने की मज़बूरी होती है तो इन लोगों की मेहनत व सोच को अपनी उपलब्धि बताने की कोशिश करने लगते है. ये ही लोग दूसरे मंच पर जाते है तो रूढ़िवाद व पाखंडवाद में डूबे इतिहास का रंगरोगन करने लग जाते है.

धर्मगुरुओं का चोला पहन कर इन बौद्धिक व नैतिक भ्रष्ट नेताओं के सहयोगी पहले तो लोगों के बीच भय व उन्माद का माहौल पैदा करते है और फिर सत्ता मिलते ही अप्रत्यक्ष रूप से सत्ता के केंद्र बन बैठते है.

सरकारे किसी भी दल की हो, यह कारनामा करने से कोई नहीं हिचकता. पंडित नेहरू से ले कर नरेंद्र मोदी तक हर प्रधानमंत्री की तस्वीरें धर्मगुरुओं के चरणों में नतमस्तक होते हुए नजर आ जायेगी.

गौरतलब है कि जब धर्मगुरु जनता द्वारा चुने गए प्रधानमंत्री से ऊपर होते है तो लोकतंत्र सिर्फ दिखावे से ज्यादा कुछ नहीं होता और बेईमान लोग इसी लोकतंत्र नाम की दुहाई दे कर मख़ौल उड़ाते नजर आते है.

इसी रोगग्रस्त लोकतंत्र की चौपाई का जाप करतेकरते अपराधी संसद में बैठने लगते है तो धर्मगुरु लोकतंत्र के संस्थानों को मंदिर बता कर पाखंड के प्रवचन पेलने लग जाते है और नागरिकों का दिमाग चक्करगिन्नी की तरह घूमने लग जाता है. नागरिक भ्रमित होकर संविधान भूल जाते है और टुकड़ों में बंटी सत्ता के टीलों के इर्दगिर्द भटकने लग जाते है.जहाँ जाने के दरवाजे तो बड़े चमकीले होते है लेकिन लौटने के मार्ग मरणासन्न तक पहुंचा देते है.

इस प्रकार लोकतंत्र समर्थक होने का दावा करने वाले लोग प्राचीनकालीन कबायली जीवन जीने लग जाते है, जहांं हर 5-7 परिवारों का मुखिया महाराज अधिराज कहलाता था. आजकल लोकतंत्र में यह उपाधि वार्डपंच, निगमपार्षद व लगभग हर सरकारी कर्मचारी ने हासिल कर ली है.जिनको नहीं मिली वो कोई निजी संगठन का मनगढ़त निर्माण कर के हासिल कर लेता है. इस प्रकार मानव सभ्यता वापिस पुरातनकाल की ओर चलने लग गई व लोकतंत्र अपने पतन की ओर.

जहां सत्ता धर्म से सहारे की उम्मीद करने लगे व धर्म सत्ता के सहारे की तो लोकतंत्र का पतन नजदीक होता है, क्योंकि लोकतंत्र का निर्माण ही इन उम्मीदों पर पानी फेरने के लिए ही हुआ है.

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आज ये दोनों ताकत के केंद्र आपस में मिल गए है तो लोकतंत्र असल में अपना वजूद खो चुका है. अब हर अपराधी, भ्रष्ट, बेईमान, धर्मगुरु, लुटेरे आदि हर कोई अपनेअपने हिसाब से लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं का इस्तेमाल करने लग गया है.

जब सत्ता में इन लोगों का बोलबाला होने लग गया तो लोकतंत्र आम नागरिकों से दूर हो चूका है. संवैधानिक प्रावधान चमत्कार का रूप ले चुके है, जिस को सुना जाए तो बहुत ही सुहावने लगते है लेकिन कभी हकीकत में नहीं बदल सकते.

किसान आंदोलन के प्रति राजनैतिक व धार्मिक दोनों सत्ता के केंद्रों का रवैया दुश्मनों जैसा है. अपने ही देश के नागरिकों व अपने ही धर्म के अनुयायियों के प्रति यह निर्लज्ज क्रूरता देख कर प्रतीत होता है कि अब लोकतंत्र नहीं रहा.

और बाइज्जत बरी…

17जनवरी, 2014 को सुनंदा पुष्कर नई दिल्ली के 7 स्टार होटल लीला पैलेस के सुइट नंबर 345 में मृत पाई गईं. प्रथम दृष्टया यह सभी को आत्महत्या का मामला लगा.

19 जनवरी, 2014 को सुनंदा पुष्कर का पोस्ट मार्टम हुआ. डाक्टरों ने कहा कि यह अचानक अप्राकृतिक मौत का मामला लगता है. उन के शरीर में ऐंटी ऐंग्जाइटी दवा अल्प्राजोलम के नाममात्र के संकेत मिले हैं. सुनंदा के हाथों पर एक दर्जन से ज्यादा चोट के निशान थे. उन के गाल पर घर्षण का एक निशान था और उन की बाईं हथेली के किनारे पर दांत से काटे का निशान था.

सुनंदा पुष्कर की मौत की जांच दिल्ली पुलिस की क्राइम ब्रांच को सौंपी गई. लेकिन मामला 2 दिन बाद वापस दिल्ली पुलिस को ट्रांसफर कर दिया गया.

जुलाई, 2014 में सुनंदा पुष्कर का पोस्ट मार्टम करने वाले पैनल के लीडर एम्स के डाक्टर सुधीर गुप्ता ने दावा किया कि उन पर औटोप्सी  रिपोर्ट में हेरफेर करने के लिए दबाव बनाया गया था. सुधीर गुप्ता ने केट यानी केंद्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण में एक हलफनामा दायर कर आरोप लगाया कि उन पर मामले को छिपाने और क्वाटर मैडिकल रिपोर्ट देने के लिए दबाव बनाया गया. सुधीर ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि सुनंदा के शरीर पर चोट के 15 निशान थे जिन में से अधिकांश ने मौत में योगदान नहीं दिया. बकौल डाक्टर सुधीर गुप्ता सुनंदा के पेट में अल्प्राजोलम दवा की अधिक मात्रा मौजूद थी.

जनवरी, 2015 में दिल्ली के तत्कालीन पुलिस आयुक्त बीएस बस्सी ने कहा कि सुनंदा पुष्कर ने आत्महत्या नहीं की बल्कि उन की हत्या की गई है. इस के बाद दिल्ली पुलिस ने अज्ञात लोगों के खिलाफ हत्या का मामला दर्ज कर लिया.

फरवरी, 2016 में दिल्ली पुलिस के विशेष जांच दल ने शशि थरूर से पूछताछ की जिस में उन्होंने कहा कि सुनंदा की मौत दवा की ओवर डोज के कारण हुई.

जुलाई, 2017 में भाजपा के वरिष्ठ नेता सुब्रमण्यम स्वामी ने दिल्ली हाई कोर्ट से मांग की कि इस मामले की जांच सीबीआई के नेतृत्व वाले विशेष जांच दल से अदालत की निगरानी में करवाई जाए.

2018 में दिल्ली पुलिस ने शशि थरूर पर अपनी पत्नी सुनंदा पुष्कर को आत्महत्या के लिए उकसाने (आईपीसी की धारा 306) और क्रूरता (धारा 498ए) का आरोप लगाया. दिल्ली के पटियाला हाउस कोर्ट ने उन्हें इस मामले में मुजरिम माना.

15 मई, 2018 को पुलिस ने शशि थरूर के खिलाफ आरोप पत्र दायर किया.

जुलाई, 2018 में एक सैसन कोर्ट ने शशि थरूर को इस मामले में अग्रिम जमानत दी, जिसे बाद में नियमित जमानत में बदल दिया गया.

12 अप्रैल, 2021 को अदालत ने फैसला सुरक्षित रखा.

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18 अगस्त, 2021 को एक वर्चुवल सुनवाई में अदालत ने शशि थरूर को बरी कर दिया. अपना फैसले में अदालत ने कहा कि शशि थरूर के खिलाफ उन्हें ऐसा कोई साक्ष्य नजर नहीं आया जिस के आधार पर उन के खिलाफ मुकदमा चलाने की मंजूरी दी जा सके. कोई भी जांच या रिपोर्ट सीधे तौर पर उन्हें कठघरे में खड़ा नहीं कर रही है इसलिए शशि थरूर को आरोपमुक्त किया जाता है.

यह हाई प्रोफाइल मामला जो बाद में टांयटांय फिस्स साबित हुआ पूरे साढ़े 7 साल चला लेकिन इस का जिम्मेदार शनि नाम का वह काल्पनिक क्रूर ग्रह नहीं है जो ज्योतिषियों की आमदनी का बड़ा जरीया है, जिस का खौफ भारतीयों के दिलोदिमाग में इस तरह बैठा दिया गया है कि वे इस से छुटकारा पाने के लिए मुहमांगी दानदक्षिणा देने को तैयार रहते हैं.

शशि थरूर पर कानूनी प्रक्रिया का शनि था जिस ने उन्हें साढ़े 7 साल चैन से न तो खानेपीने और न ही सोने दिया, लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और सामान्य जिंदगी जीते हुए पूरे आत्मविश्वास से लड़े और जीते भी.

ऐसी थी इन की लव स्टोरी

सुनंदा पुष्कर उतनी ही सुंदर थीं जितना कि कश्मीर के बोमाई इलाके में जन्मी एक कश्मीरी पंडित परिवार की लड़की को होना चाहिए. सुनंदा के पिता पुष्कर नाथ दास सेना में लैफ्टिनैंट कर्नल थे. सुनंदा जितनी खुबसूरत थीं उतनी ही मेहनती, हिम्मती और महत्त्वाकांक्षी भी थीं. स्कूली और कालेज की पढ़ाई सुनंदा ने श्रीनगर के गवर्नमैंट ‘कालेज फौर वूमन’ से की और बतौर कैरियर बजाय नौकरी के बिजनैस को चुना. सुनंदा की पहली शादी कश्मीर के ही संजय रैना से हुई थी लेकिन दोनों में 3 साल में ही खटपट होने लगी जिस के चलते तलाक हो गया.

3 साल बाद ही 1991 में सुनंदा ने सुजीत मेनन नाम के व्यापारी से दूसरी शादी कर ली और दोनों व्यापार के लिए दुबई चले गए. व्यापार शुरू में तो ठीक चला पर बाद में जब घाटा होने लगा तो सुजीत भारत आ गए. इन दोनों को तब तक एक बेटा हो चुका था जिस का नाम इन्होंने शिव मेनन रखा.

सुजीत की 1997 में एक ऐक्सीडैंट में मौत हो गई तो सुनंदा टूट गईं. लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और अपने दम पर बेटे की परवरिश करती रहीं. दुबई में उन्होंने ‘ऐक्सप्रैस’ नाम की इवेंट कंपनी शुरू की थी जो तरहतरह के इवेंट आयोजित करती थी. जिंदगी चलाने और पैसा कमाने के लिए सुनंदा ने कई नौकरियां भी कीं और आर्टिफिशियल ज्वैलरी का काम भी किया.

पैसा कमाने पर ज्यादा फोकस

बेटे शिव की एक बीमारी के इलाज के लिए सुनंदा लंबे वक्त तक कनाडा में रहीं और वहां की नागरिकता भी उन्होंने ले ली. दुबई वापस आने के बाद उन्होंने कई कंपनियों के साथ काम किया और खासा पैसा बनाया इतना कि दुबई के पौश इलाकों में उन्होंने 3 मकान ले लिए. पहले पति से तलाक और दूसरे की मौत का दुख सुनंदा भूलने लगीं क्योंकि उन्होंने लगातार खुद को व्यस्त रखा और ज्यादा से ज्यादा फोकस पैसा कमाने पर किया जो उन के लिए बहुत जरूरी थी.

सदमों से उबर चुकी सुनंदा को फिर सहारे की जरूरत महसूस हुई जो पूरी शशि थरूर जैसी नामी हस्ती से हुई. इन दोनों की पहली मुलाकात 2008 में दिल्ली में इंपीरियल अवार्ड समारोह में हुई थी. यहीं दोनों में दोस्ती हो गई. 1 साल दोनों एकदूसरे को डेट करते रहे. तब सुनंदा 46 साल की थीं और शशि थरूर 52 साल के थे. फिर दोनों दुबई में मिले तब सुनंदा वहीं रहती थीं.

दोनों परिपक्व थे, लिहाजा उन्होंने रोमांस के साथसाथ दुनियाजहान की भी बातें कीं और आने वाली जिंदगी की भी प्लानिंग की. शशि थरूर तब केंद्रीय मंत्रिमंडल में थे इसलिए उन्हें काफी संभल कर रहना पड़ता था.

छिपा नहीं प्यार

मगर यह प्यार छिपा नहीं रह सका लिहाजा सस्पेंस खत्म करते हुए दोनों ने न केवल शादी की घोषणा कर दी बल्कि 22 अगस्त, 2010 को शादी कर भी ली.

यह शादी शशि थरूर के पैतृक गांव पल्लल्कड में समारोहपूर्वक हुई जिस की चर्चा सिर्फ केरल में ही नहीं बल्कि पूरे देश और विदेशों में भी हुई थी. तिरुअनंतपुरम में भी प्रीतिभोज हुआ था और उस के बाद शशिसुनंदा हनीमून मनाने स्पेन के लिए उड़ लिए थे. दिलचस्प बात यह थी कि दुलहन की तरह दूल्हे की भी तीसरी शादी थी.

सब से आकर्षक और सोशल मीडिया पर सैक्सी व रोमांटिक सांसद के खिताब से नवाज दिए गए शशि थरूर की पहली शादी मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री और नेहरु मंत्रिमंडल में शामिल रहे कैलाश नाथ काटजू की पोती तिलोत्तमा मुखर्जी से 1981 में हुई थी.

तिलोत्तमा भी कालेज में बेहद लोकप्रिय थीं उस पर बेमिसाल खूबसूरत भी तो शशि उम्र में अपने से बड़ी इस लड़की पर मर मिटे. दोनों आधुनिक और अमीर परिवारों से थे, इसलिए कोई अड़चन उन की लव मैरिज में नहीं आई. शादी के बाद तिलोत्तमा नागपुर के एक कालेज में पढ़ाने लगीं और शशि संयुक्त राष्ट्र से जुड़ गए. शादी के बाद दूसरे साल ही इस कपल को जुड़वां बेटे हुए. नामालूम वजहों के चलते दोनों 2007 में अलग हो गए. तिलोत्तमा न्यूयौर्क यूनिवर्सिटी में प्रोफैसर हो गईं.

जाग उठी महत्त्वाकांक्षाएं

इस शादी के टूटने के बाद अफवाह यह उड़ी थी कि शशि का अफेयर संयुक्त राष्ट्र के एक विभाग की डिप्टी सैक्रेटी चेरिस्टा गिल से चल रहा था जो तिलोत्तमा को नागवार गुजरा था. इन दोनों के रोमांस के चर्चे भी संयुक्त राष्ट्र के गलियारे में होने लगे थे. सच क्या है यह तो शशि थरूर ही बेहतर बता सकते हैं, लेकिन अफवाहें निराधार नहीं थीं. उन्होंने 2007 में चेरिस्टा से शादी कर ली. अब तक वे संयुक्त राष्ट्र में डिप्टी सैक्रेटरी बन चुके थे जो पूरे देश के लिए गर्व की बात थी.

2008 में शशि थरूर देश वापस आ गए और कांग्रेस जौइन कर ली और 2009 का चुनाव जीत कर लोक सभा भी पहुंचे. इस खूबसूरत नेता को लोगों ने हाथोंहाथ लिया तो उन की महत्त्वाकांक्षाएं और भी सिर उठाने लगीं. लेकिन चेरिस्टा को भारतीय आवोहवा रास नहीं आई और एक तलाक और हो गया. हालांकि इस तलाक की वजह सुनंदा पुष्कर से उन की बढ़ती नजदीकियां भी आंकी गई थीं.

फिर आई मेहर

लगता ऐसा है कि शशि थरूर को पहले शादी फिर किसी और से रोमांस और फिर पत्नी को तलाक देने की लत सी पड़ती जा रही थी. सुनंदा ने उन के इस स्वभाव के बारे में शायद ज्यादा नहीं सोचा था या फिर ज्यादा ही सोच लिया होगा इसलिए वे डिप्रैशन की शिकार रहने लगीं. अब चर्चा उड़ी शशि थरूर और पाकिस्तानी पत्रकार मेहर तरार के अफेयर की जो शशि की जिंदगी में घोषित तौर पर आई तीनों महिलाओं से कम सुंदर और कम प्रतिभाशाली नहीं थीं.

जैसे ही एक दिन अपनेआप में घुट रहीं सुनंदा ने ट्विटर पर अपने पति के नए प्यार का अनावरण कर डाला तो फिर हल्ला मचा जो विवाद में उस वक्त बदला जब मेहर ने सोशल मीडिया पर इस पर प्रतिक्रिया दी. लगा ऐसा था मानों झग्गीझेंपड़ी की 2 औरतें साड़ी कमर में खोंसे एकदूसरे से कह रही हों कि संभाल कर क्यों नहीं रखती अपने खसम को और जबाव में दूसरी उसी टोन में कह रही है कि संभाल कर तो तू अपनेआप को रख… यहांवहां कमर मटकाती घूमती रहती है.

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मीडिया ने इस बार भी खूब चटखारे लिए तो शशिसुनंदा को संयुक्त बयान जारी कर अपनी निजी जिंदगी और गृहस्थी की दुहाई देनी पड़ी. लेकिन सुनंदा की मौत के कुछ दिन बाद ही ये अटकलें लगाई जाने लगी थीं कि शशि अब मेहर से निकाह कर लेंगे उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता पर मुकदमा चला तो शशि थरूर को पहली दफा कानून के माने समझ आए और अपना दर्द उन्होंने जताया भी जो आमतौर पर हर उस पति का है जिस पर घरेलू हिंसा का केस दर्ज है या फिर तलाक का मुकदमा चल रहा है.

बेनाम भी हैं परेशान

यह दर्द वही महसूस और बयान कर सकता है जिस ने झठे आरोपों से छुटकारा पाने के लिए सालोंसाल अदालत की चौखट पर एडि़यां रगड़ी हों. इस यंत्रणा को भोपाल के एक पत्रकार योगेश तिवारी के मामले से सहज समझ जा सकता है जिन के तलाक के मुकदमे का निबटारा 14 साल बाद भी नहीं हो पा रहा.

निचली अदालत ने तलाक की डिक्री दी तो पत्नी हाई कोर्ट पहुंच गई जो 11 साल में तय नहीं कर पा रहा कि तलाक का निचली अदालत का फैसला सही था या नहीं. हां उस ने पत्नी को स्थगन आदेश जरूर दे दिया.

अब मैं यह तय नहीं कर पा रहा कि मैं शादीशुदा हूं, अविवाहित हूं या फिर तलाकशुदा हूं. योगेश कहते हैं कि मेरी वैवाहिक स्थिति कानूनन क्या है यह बताने को कोई तैयार नहीं. मैं अब अधेड़ हो चला हूं, लेकिन जब तक हाई कोर्ट अपना फैसला नहीं देता तब तक मैं दूसरी शादी भी नहीं कर सकता. 14 साल से मैं कानूनी ज्यादतियों का शिकार हो रहा हूं. मैं किस से अपना दुखड़ा रोऊं. समाज और रिश्तेदारी में खूब बदनामी हो चुकी है.

क्या शादी करना और पटरी न बैठने पर तलाक के लिए अदालत जाना अपराध है? अदालतें और कानून क्यों पतिपत्नी की परेशानियां नहीं समझते?

कोर्ट की चिंता

ये परेशानियां हर वे पति और पत्नी भुगत  रहे हैं जिन्होंने अदालत का रुख किया. लेकिन चूंकि अदालत के बाहर शादी तो की जा सकती

है पर तलाक नहीं दिया जा सकता इसलिए  लोग इस और इस से जुड़े कानूनों को कोसते नजर आते हैं तो वे गलत कहीं से नहीं हैं.

अकेले जबलपुर हाई कोर्ट में तलाक के करीब  10 हजार योगेश जैसे मामले निबटारे की बाट  देख रहे हैं.

फिर देशभर के दूसरे हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के अलावा निचली अदालतों का क्या हाल होगा सहज अंदाजा लगाया जा सकता है. बुढ़ाते कई पतिपत्नी अब नई जिंदगी की आस छोड़ने लगे हैं तो दोषी कानून नहीं तो और कौन है?

घरेलू हिंसा के कानून पर अब अदालतें खुद चिंता जताने लगी हैं कि इस का दुरुपयोग ज्यादा होने लगा है तो इस मासूमियत और अदा पर हंसी भी आती है और रोना भी कि कानून इस तरह बनाए ही क्यों जाते हैं जिन का दुरुपयोग होना संभव हो. योगेश जैसे पीडि़तों और भुक्तभोगियों से कोई सबक क्यों नहीं लिया जाता. कोई तलाक चाहता है चाहे वह पति हो या फिर  पत्नी उसे शादी के बंधन से जल्दी छुटकारा क्यों नहीं मिलता?

क्रूरता नहीं है तलाक

तलाक कोई क्रूरता नहीं है बल्कि क्रूरता से बचने का सब से आसान रास्ता है. जब पतिपत्नी का एक छत के नीचे रहना वजहें कुछ भी हों दूभर हो जाए तो उन्हें साथ रहने की नसीहत क्यों दी जाती है इस सवाल का जबाव ही फसाद और परेशानियों की असल जड़ है. कोई पत्नी या पति अदालत तलाक के लिए जाता है तो परिवार और समाज की निगाह में तो गुनहगार हो ही जाता है लेकिन कानून भी उसे बख्शता नहीं.

अदालत परिवार परामर्श केंद्र और दूसरी सरकारी एजेंसियां सुलह के लिए दबाव क्यों बनाती हैं? यहां से शुरू होती है परिक्रमा जिस से पीडि़तों को मिलता तो कुछ नहीं उलटे काफी कुछ छिन जाता है. मसलन, मानसिक शांति, प्रतिष्ठा, पैसा और सामाजिक स्थिरता जो सामान्य जिंदगी जीने के लिए हवा, पानी और भोजन की तरह जरूरी हैं.

फसाद की एक बड़ी जड़ तलाक से जड़े दूसरे कानून भी हैं. विदिशा की एक वकील उषा विक्रोल बताती हैं कि जल्दी तलाक के लिए अकसर महिलाएं पति और ससुराल बालों के खिलाफ दहेज मांगने और प्रताड़ना की झठी शिकायत दर्ज करा देती हैं और तुरंत ही भरणपोषण का भी दावा कर देती हैं जिस से एकसाथ 3 मुकदमे एक ही मंशा और मामले के चलने लगते हैं.

इन में अलगअलग तारीखें पड़ती रहती हैं और धीरेधीरे सुलह की गुंजाइश भी खत्म होती जाती है. पत्नी सोचती है कि पति तलाक देने में आनाकानी कर रहा है और पति सोचता है कि जिस औरत ने झठे आरोप लगा दिए अब तो उस के साथ सुलह व गुजर और भी मुश्किल है.

पतिपत्नी में से किस की कितनी गलती इस बात के कोई माने नहीं. उषा कहती हैं कि तलाक कानून और प्रक्रिया को नल या बिजली के कनैक्शन की तरह होना चाहिए कि एक आवेदन से वे कट जाएं. इस से मुमकिन है तलाक की दर बढ़ जाए पर उस में हरज क्या है. कानूनी अड़चनों और देरी के डर से हैरानपरेशान लोग अदालत ही न आएं यह कौन सा न्याय होगा और आने के बाद लोगों की हालत देख तरस आए यह भी न्याय नहीं कहा जा सकता. कुछ नहीं बल्कि कई मुवक्किलों की हालत देख कर तो लगता है कि पंचायत का जमाना ही ठीक था जब एक चबूतरे पर बैठे 4-5 लोग तलाक का फैसला सुना देते थे. अब तो फैसला ही मुश्किल हो चला है.

यह दर्द वही महसूस और बयान कर सकता है जिस ने झूठे आरोपों से छुटकारा पाने के लिए सालोंसाल अदालत की चौखट पर एडि़यां रगड़ी हों.

कानून के फ्रेम में थरूर

कानून की वेवजह की देर जो अंधेर से कम नहीं के फ्रेम में शशि थरूर भी फिट होते हैं जो मुमकिन है राजनीतिक प्रतिशोध का शिकार हुए हों. लेकिन लाख टके का सवाल यही है कि सुनवाई और फैसलों में गैरजरूरी देरी क्यों? अदालत से बरी होने के बाद उन की प्रतिक्रिया से पता चलता है कि यह अकेले उन की नहीं बल्कि लाखोंकरोड़ों लोगों की व्यथा है.

उन का 2 बार आसानी से तलाक हुआ क्योंकि दोनों ही पक्ष पर्याप्त शिक्षित, आधुनिक और परिपक्व होने के अलावा समझदार भी थे. लेकिन सुनंदा की मौत के बाद उन्हें कानूनी कू्ररता का एहसास हुआ तो उन्होंने फैसला देने वाली न्यायाधीश गीतांजलि गोयल का आभार व्यक्त करने के बाद कहा-

यह साढ़े 7 साल की पूर्ण यातना थी. यह उस डरावने सपने का अंत है जिस ने मेरी दिवंगत पत्नी सुनंदा के दुखद निधन के बाद मुझे घेर लिया था.

? मैं ने भारतीय न्यायपालिका में अपने विश्वास की वजह से दर्जनों निराधार आरोपों और मीडिया में की गई बदनामी को

धैर्यपूर्वक झेला है और न्यायपालिका में आज मेरा विश्वास सही साबित हुआ है.

? हमारी न्यायप्रणाली में अकसर सजा ही  होती है.

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न्याय मिलने के बाद मैं और मेरा परिवार सुनंदा का शोक शांति से मना पाएंगे. लेकिन सब से ज्यादा अहम शशि थरूर के वकील विकास पाहवा का यह कहना उल्लेखनीय रहा कि पुलिस ने जो आत्महत्या के लिए उकसाने और क्रूरता के आरोप थरूर पर लगाए थे वे बेतुके थे. यह बात अदालत में साबित भी हो चुकी है जिस के चलते जो यंत्रणाएं शशि थरूर ने भुगतीं और जो दूसरे लोग भुगत रहे हैं उन्हें राहत देने के लिए कोई राह क्यों नहीं तलाशी जा रही? पुलिस और सीबीआई जैसी संस्थाओं को सरकार का तोता कहा जाने लगा है तो इसमें गलत क्या है? किसी आत्महत्या के 4 साल बाद किसी को अभियुक्त बनाया जाना और आत्महत्या को हत्या का मामला बनाए जाने की कोशिश करना कानून की हत्या नहीं तो क्या है जिसे करता कोई और है और सजा बेगुनाहों को भुगतना पड़ती है?

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