‘वि देश’ शब्द पढ़ते ही आंखों के आगे सुख, आराम, अमीरी, आजादी और खुलेपन आदि को चित्र उभर आते हैं. इस आकर्षक शब्द के मोहजाल में विश्व का कोई एक देश नहीं बल्कि समूचा विश्व और वहां के हर वर्ग के लोग आकर्षित हैं. दूसरा देश कैसा है, वहां की चीजें कैसी हैं, वहां का वातावरण कैसा है, उस देश का इतिहास क्या रहा है और उस ने कितनी आधुनिक प्रगति की है आदि बातों को जानने, देखने के
लिए इनसान अपने मन में एक खिंचाव सा महसूस करता है.
नरेंद्र मोदी और कनाडा के प्रधानमंत्री जास्टिन ट्रूडो का खालिस्तान समर्थक कनाडा नागरिकों को ले कर पैदा हुआ विवाद वहां बसे 14-15 लाख भारतीय मूल के लोगों के लिए एक खतरा है क्योंकि वे अब न तो अपने रिश्तेदारों को बुला पा रहे हैं न भारत जाने का रिस्क ले रहे हैं.
अक्तूबर, 2023 में दोनों देशों ने वीजा देना बंद कर दिया था. अपनों से न मिल पाना दूसरे देश में रह रहे लोगों के लिए एक मानसिक जेल बन जाता है. जीवनसाथी के रूप में विदेशी औरत और पुरुष का आकर्षण कोई आधुनिक समय की देन नहीं है बल्कि यह आदिकाल में भी था. तभी तो किस्सेकहानियों में कहा जाता है कि अमुक देश के राजकुमार ने अमुक देश की राजकुमारी से विवाह रचाया था. वह दूसरे देश को देखने और सम?ाने का कुतूहल ही था जिस ने कोलंबस और वास्कोडिगामा को सागर में उतरने को मजबूर किया. दरअसल, नए की खोज और कुछ नया जानने की कल्पना करना इनसान की प्रकृति है.
क्यों जाते हैं विदेश
यह ‘विदेश’ का मोह अलगअलग लोगों को अलगअलग तरह का होता है. जहां विकसित देशों के लोग चमकदमक से दूर शांत प्रकृति की गोद में कुछ समय गुजारना चाहते हैं वहीं विकासशील देशों के लोग चमकदमक वाले देशों की चकाचौंध को नजदीक से देखना चाहते हैं. गरीब और पिछड़े देशों के लोग अपने आर्थिक स्तर को बढ़ाने के लिए विदेश जाते हैं.
इसे सीधेसीधे शब्दों में कहें तो अमेरिका, इंगलैंड, कनाडा और फ्रांस के लोग वातावरण व स्थान बदली के लिए विश्वपर्यटन पर निकलते हैं तो चीन, जापान व दक्षिण पूर्वी एशिया के देशों के लोग यूरोप व अमेरिका के देशों को देखने के लिए जाते हैं जो वहां कुछ सप्ताह घूम कर वहां की ढेरों यादें और आनंद समेटे वापस घर लौट आते हैं.
गरीब देशों के लोग अपने आसपास की परिस्थितियों से भाग कर रोजीरोटी कमाने के लिए विदेश का रास्ता अपनाते हैं और वहीं बस जाते हैं. ऐसे लोगों को आप्रवासी कहा जाता है. कुछ लोग इन्हें रिफ्यूजी भी कहते हैं. इन में कुछ ऐसे लोगों की भी संख्या होती है जो समाज के बंधनों से घबरा कर विदेश भागते हैं.
भारत से विदेश गए लोगों का मुख्य ध्येय विदेशों में रह कर आर्थिक रूप से विकसित होना है. कुछ समय पहले एक सर्वे में यह भी पता चला है कि आप्रवासी भारतीयों को यदि अपने देश में वे सारी सुविधाएं मसलन अच्छी नौकरी, अच्छी डाक्टरी सुविधा, बच्चों के लिए उच्च शिक्षा, साफ शुद्ध खानेपीने की वस्तुएं मिलें तो ये लोग अपने देश में ही रहना ज्यादा पसंद करेंगे.
एक सच यह भी इसी के साथ एक सच यह भी है कि जब आज समूचा विश्व सिमट कर एक शहर के रूप में बदल गया है तो क्यों न ऐसे लोग उन का लाभ उठाएं जिन में संकल्प है, लगन, साधना करने की क्षमता है और वे महत्त्वाकांक्षी भी हैं पर भारतीय तो अपने देश में रह कर ‘विदेश’ की कल्पना सोनेचांदी के ढेर से या अति आधुनिक वस्तुओं से सजा जीवनस्तर से करता है.
दरअसल, विदेशी लड्डू उसे बड़ा मीठा और खत्म न होने वाला लगता है पर जो इस लड्डू का स्वाद ले रहा है उस के दिल से पूछिए कि उस लड्डू तक पहुंचने के लिए उसे क्याक्या करना पड़ा. कितने ऐसे लोगों को मैं ने देखा है कि घर को सही ढंग से चलाने और बच्चों को पढ़ाने के लिए उन्हें अपनी तमाम व्यक्तिगत खुशी को दांव पर लगाना पड़ा है.
आज भारतीय आप्रवासी विश्व के कोनेकोने में हैं. मेहनतकश मजदूर के रूप में खाड़ी के
देशों में जहां आप्रवासी भारतीयों की भरमार है वहीं उच्च शिक्षिति लोगों ने इंगलैंड, अमेरिका और कनाडा में अपनी अच्छीखांसा पहचान बना रखी है.
पैसा कमाना मुख्य ध्येय
सालों से यह सिलसिला चल रहा है कि जो छात्र अमेरिका पढ़ने जाते हैं, उच्च शिक्षा पाने के बाद वे वहीं के हो कर रह जाते हैं. आज इंगलैंड और अमेरिका में तो कुछ शहर ऐसे हैं जिन्हें छोटा भारत के रूप में देखा जाता है.
कुछ अपवादों को छोड़ दें तो आम भारतीय विदेशों में जाने से पहले यही सोचता है कि वह पैसा कमा कर अपने देश वापस आ जाएगा पर जब वहां जाने के बाद तमाम स्थानीय परिस्थितियों से संघर्ष करते हुए वह अपने पैर जमा लेता है तब सोचता है कि जमेजमाए धंधे को छोड़ कर अब क्यों जाए. इन्हीं में ऐसे लोग जो नियम कानून, भाषा, वातावरण से घबरा जाते हैं वापस भी आ जाते हैं. पर एक बात तो जरूरी है कि
आप किसी भी देश में रोजगार की नीयत से जाएं, वहां के बारे में संपूर्ण जानकारी अवश्य रखें.
यदि भारतीय अंगरेजी भाषा वाले देश में आते हैं तो उन के लिए काम व परिस्थितियां दोनों आसान हो जातीं लेकिन विश्व में कुछ देश ऐसे भी हैं जहां अंगरेजी में कामकाज नहीं होता क्योंकि वे अपनी भाषा में इतने प्रगतिशील हैं कि उसी में सब काम करना चाहते हैं. ऐसे देशों में जाने से पहले वहां की भाषा का अच्छी तरह ज्ञान होना चाहिए. आप चाहें कि वहां पहुंच कर भाषा सीख कर सफलता पा लेंगे तो यह सोच गलत है
और सफलता पाने के लिए भारी संघर्ष करना पड़ सकता है.
भारत में वह बात नहीं विदेशों में हर शिक्षित को उस की शिक्षा के अनुसार काम नहीं मिलता. ऐसे आप्रवासी भारतीयों की हालत अलगअलग देशों में अलगअलग तरह की होती है. कई लोग तो नए देश और नए वातावरण में तालमेल न बैठा पाने के कारण उदास, चिड़चिड़े हो जाते हैं, कुछ खुद को कोसते हुए
देखे जा सकते हैं तो कुछ गलत जगह पर गलत बात करते हैं, उन्हें खुद ही सम?ा में नहीं आता कि ऐसे समय में क्या करना चाहिए.
इंगलैंड में आप्रवासियों और उन के बच्चों की स्थिति क्या है यह अब किसी से छिपा नहीं है. रंगभेद के शिकार बच्चे अपने भविष्य के लिए मातापिता को दोषी मानते हैं कि वे क्यों इंगलैंड आए थे. हां, अमेरिका और कनाडा का हाल इंगलैंड से बेहतर है जहां रंगभेद नहीं है और स्थानीय लोग खुले विचारों वाले और उच्च शिक्षित हैं.
यद्यपि मैं यह नहीं कह सकता कि वहां कर आप्रवासी सुखी है. इस धनी देश में भी विशाल मध्यवर्ग है, जो भारत की तरह ही चक्की के दो पाटों के बीच फंस कर गेहूं की तरह पिस रहा है. यहां के लोगों में जो खास बात देखने को मिलती है वह दिखावा है. वे बैंक से मोटी रकम उधार ले कर आलिशान घर, मोटर और तमाम दूसरी शानशौकत की चीजें बटोर तो लेते हैं, अपने को इतने कर्ज में डुबो लेते हैं कि मेहनत से
कमाई पूंजी का एक बड़ा हिस्सा कर्ज चुकाने में ही खर्च करना पड़ता है. पीड़ा यह है कि इस दिखावे की जिंदगी के लिए उन्हें लगातार अधिक काम करना पड़ता है.
अब तो उन के पास इतना भी समय नहीं है कि वे अपने बच्चों की देखभाल कर सकें. लिहाजा, भारत से अपने माता या पिता को बुला कर उन पर बच्चों की जिम्मेदारी सौंप कर कुछ निश्चिंत होना चाहते हैं. चूंकि उन की आर्थिक हैसियत ऐसी नहीं है कि वे नौकरानी रख सकें. अत: अपने बुजुर्गों से वे यह उम्मीद भी रखते हैं कि वे घर का सारा काम जैसे खाना बनाना, बाजार जा कर सब्जी लाना, बच्चो को स्कूल बस तक
छोड़ना और लाना आदि सभी काम करें.
रंगभेद व असमानता का सामना मातापिता को यह कह कर बुलाया जाता है कि आप यहां आएं और आराम करें पर जब धीरेधीरे उन पर जिम्मेदारियां थोपी जाती हैं तो वे अंदर ही अंदर घुटने लगते हैं और फिर जल्द ही इस फिराक में लग जाते हैं कि कैसे वापस भारत जाया जाए.
आप्रवासी भारतीयों के जवान बच्चे कभी घर तो कभी बाहर के माहौल के बीच टकराते रहते हैं. परंपरागत जीवन का बहिष्कार करने पर उन्हें बिगड़ैल और उद्दंड कहा जाता है. यदि बच्चे अपने संस्कारों के साथ जुड़ कर चलते हैं तो उन्हें आजाद खयाल अपने दोस्तों के बीच नीचा देखना पड़ता है. कई बच्चे आज्ञाकारी हो कर अपने अरमानों का खून कर देते हैं और कई अंतर्मुखी हो जाते हैं. घर का माहौल संघर्षमय है तो
कुछ बच्चे दूसरों के मुकाबले जीवन में संभावनाओं को न पा कर उदास हो जाते हैं.
आप्रवासियों के बच्चे शिक्षा ले कर काम की तलाश में निकलते हैं, यहां तक तो ठीक है पर जब उन्हें काम की तलाश में रंगभेद व असमानता का सामना करना पड़ता है तब वे तिलमिला उठते हैं क्योंकि वे अपने को किसी भी तरह आप्रवासी मानने को तैयार नहीं होते. वे अपने को उस देश का नागरिक मानते हैं
और इस से उन के अंदर जो विद्रोह पनपता है वह उन के बाकी के समूचे जीवन को प्रभावित करता है.