अंधविश्वास से आत्मविश्वास तक: भाग 3- क्या नरेन के मन का अंधविश्वास दूर हो पाया

नरेन उस के पास आ गया. लेकिन चेक देख कर चौंक गया, “यह चेक… तुम्हारे पास कहां से आ गया…? ये तो मैं ने स्वामीजी को दिया था.”

“नरेन, बहुत रुपए हैं न तुम्हारे पास… अपने खर्चों में हम कितनी कटौती करते हैं और तुम…” वह गुस्से में बोली. लेकिन नरेन तो किसी और ही उधेड़बुन में था, “यह चेक तो मैं ने सुबह स्वामीजी को ऊपर जा कर दिया था… यहां कैसे आ गया…?”

“ऊपर जा कर दिया था..?” रवीना कुछ सोचते हुए बोली, “शायद, स्वामीजी का चेला रख गया होगा…”

“लेकिन क्यों..?”

”क्योंकि, लगता है स्वामीजी को तुम्हारा चढ़ाया हुआ प्रसाद कुछ कम लग रहा है…” वह व्यंग्य से बोली.

“बेकार की बातें मत करो रवीना… स्वामीजी को रुपएपैसे का लोभ नहीं है… वे तो सारा धन परमार्थ में लगाते हैं… यह उन की कोई युक्ति होगी, जो तुम जैसे मूढ़ मनुष्य की समझ में नहीं आ सकती…”

“मैं मूढ़ हूं, तो तुम तो स्वामीजी के सानिध्य में रह कर बहुत ज्ञानवान हो गए हो न…” रवीना तैश में बोली, “तो जाओ… हाथ जोड़ कर पूछ लो कि स्वामीजी मुझ से कोई
अपराध हुआ है क्या… सच पता चल जाएगा.”

कुछ सोच कर नरेन ऊपर चला गया और रवीना अपने कमरे में चली गई. थोड़ी देर बाद नरेन नीचे आ गया.

“क्या कहा स्वामीजी ने..” रवीना ने पूछा.

नरेन ने कोई जवाब नहीं दिया. उस का चेहरा उतरा हुआ था.

“बोलो नरेन, क्या जवाब दिया स्वामीजी ने…”

“स्वामीजी ने कहा है कि मेरा देय मेरे स्तर के अनुरूप नहीं है…” रवीना का दिल
किया कि ठहाका मार कर हंसे, पर नरेन की मायूसी व मोहभंग जैसी स्थिति देख कर वह चुप रह गई.

“हां, इस बार घर आ कर तुम्हारे स्तर का अनुमान लगा लिया होगा… यह तो नहीं पता होगा कि इस घर को बनाने में हम कितने खाली हो गए हैं…” रवीना चिढ़े स्वर में बोली.

“अब क्या करूं…” नरेन के स्वर में मायूसी थी.

“क्या करोगे…? चुप बैठ जाओ… हमारे पास नहीं है फालतू पैसा… हम अपनी गाढ़ी कमाई लुटाएं और स्वामीजी परमार्थ में लगाएं… तो जब हमारे पास होगा तो हम ही लगा
लेंगे परमार्थ में… स्वामीजी को माघ्यम क्यों बनाएं,” रवीना झल्ला कर बोली.

“दूसरा चेक न काटूं…?” नरेन दुविधा में बोला.

“चाहते क्या हो नरेन…? बीवी घर में रहे या स्वामीजी… क्योंकि अब मैं चुप रहने वाली नहीं हूं…”
नरेन ने कोई जवाब नहीं दिया. वह बहुत ही मायूसी से घिर गया था.

“अच्छा… अभी भूल जाओ सबकुछ…” रवीना कुछ सोचती हुई बोली, “स्वामीजी रात में ही तो कहीं नहीं जा रहे हैं न… अभी मैं खाना लगा रही हूं… खाना ले जाओ.”

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वह कमरे से बाहर निकल गई, “और हां…” एकाएक वह वापस पलटी, “आज
खाना जल्दी निबटा कर हम सपरिवार स्वामीजी के प्रवचन सुनेंगे… पावनी व बच्चे भी… कल छुट्टी है, थोड़ी देर भी हो जाएगी तो कोई बात नहीं…”

लेकिन नरेन के चेहरे पर कुछ खास उत्साह न था. वह नरेन की उदासीनता का कारण समझ रही थी. खाना निबटा कर वह तीनों बच्चों सहित ऊपर जाने के लिए तैयार हो गई.

“चलो नरेन…” लेकिन नरेन बिलकुल भी उत्साहित नहीं था, पर रवीना उसे जबरदस्ती ठेल ठाल कर ऊपर ले गई. उन सब को देख कर, खासकर पावनी को देख कर तो उन दोनों के चेहरे गुलाब की तरह खिल गए.

“आज आप से कुछ ज्ञान प्राप्त करने आए हैं स्वामीजी… इसलिए इन तीनों को भी आज सोने नहीं दिया,” रवीना मीठे स्वर में बोली.

“अति उत्तम देवी… ज्ञान मनुष्य को विवेक देता है… विवेक मोक्ष तक पहुंचाता
है… विराजिए आप लोग,” स्वामीजी बात रवीना से कर रहे थे, लेकिन नजरें पावनी के चेहरे पर जमी थीं. सब बैठ गए. स्वामीजी अपना अमूल्य ज्ञान उन मूढ़ जनों पर उड़ेलने लगे. उन की
बातें तीनों बच्चों के सिर के ऊपर से गुजर रही थी. इसलिए वे आंखों की इशारेबाजी से एकदूसरे के साथ चुहलबाजी करने में व्यस्त थे.

“क्या बात है बालिके, ज्ञान की बातों में चित्त नहीं लग रहा तुम्हारा…” स्वामीजी
अतिरिक्त चाशनी उड़ेल कर पावनी से बोले, तो वह हड़बड़ा गई.

“नहीं… नहीं, ऐसी कोई बात नहीं…” वह सीधी बैठती हुई बोली. रवीना का ध्यान स्वामीजी की बातों में बिलकुल भी नहीं था. वह तो बहुत ध्यान से स्वामीजी व उन के चेले की पावनी पर पड़ने वाली चोर गिद्ध दृष्टि पर अपनी समग्र चेतना गड़ाए हुए थी और चाह रही थी कि नरेन यह सब अपनी आंखों से महसूस करे. इसीलिए वह सब को ऊपर ले कर आई थी. उस ने निगाहें नरेन की तरफ घुमाई. नरेन के चेहरे पर उस की आशा के अनुरूप हैरानी, परेशानी, गुस्सा, क्षोभ साफ झलक रहा था. वह मतिभ्रम जैसी स्थिति में
बैठा था. जैसे बच्चे के हाथ से उस का सब से प्रिय व कीमती खिलौना छीन लिया गया हो.

एकाएक वह बोला, “बच्चो, जाओ तुम लोग सो जाओ अब… पावनी, तुम भी जाओ…”

बच्चे तो कब से भागने को बेचैन हो रहे थे. सुनते ही तीनों तीर की तरह नीचे भागे.

पावनी के चले जाने से स्वामीजी का चेहरा हताश हो गया.

“अब आप लोग भी सो जाइए… बाकी के प्रवचन कल होंगे…” वे दोनों भी उठ गए.

लेकिन नरेन के चेहरे को देख कर रवीना आने वाले तूफान का अंदाजा लगा चुकी थी और वह उस तूफान का इंतजार करने लगी.

रात में सब सो गए. अगले दिन शनिवार था. छुट्टी के दिन वह थोड़ी देर से उठती
थी. लेकिन नरेन की आवाज से नींद खुल गई. वह किसी टैक्सी एजेंसी को फोन कर टैक्सी बुक करवा रहा था.

“टैक्सी… किस के लिए नरेन…?”

“स्वामीजी के लिए… बहुत दिन हो गए हैं… अब उन्हें अपने आश्रम चले जाना
चाहिए…”

“लेकिन,आज शनिवार है… स्वामीजी को शनिवार के दिन कैसे भेज सकते हो तुम…” रवीना झूठमूठ की गभीरता ओढ़ कर बोली.

“कोई फर्क नहीं पड़ता शनिवाररविवार से…” बोलतेबोलते नरेन के स्वर में उस के दिल की कड़वाहट आखिर घुल ही गई थी.

“मैं माफी चाहता हूं तुम से रवीना… बिना सोचेसमझे, बिना किसी औचित्य के मैं
इन निरर्थक आडंबरों के अधीन हो गया था,” उस का स्वर पश्चताप से भरा था.

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रवीना ने चैन की एक लंबी सांस ली, “यही मैं कहना चाहती हूं नरेन… संन्यासी बनने के लिए किसी आडंबर की जरूरत नहीं होती… संन्यासी, स्वामी तो मनुष्य अपने उच्च आचरण से बनता है… एक गृहस्थ भी संन्यासी हो सकता है… यदि आचरण, चरित्र
और विचारों से वह परिष्कृत व उच्च है, और एक स्वामी या संन्यासी भी निकृष्ट और नीच हो सकता है, अगर उस का आचरण उचित नहीं है… आएदिन तथाकथित बाबाओं,
स्वामियों की काली करतूतों का भंडाफोड़ होता रहता है… फिर भी तुम इतने शिक्षित हो कर इन के चंगुल में फंसे रहते हो… जिन की लार एक औरत, एक लड़की को देख कर, आम कुत्सित मानसिकता वाले इनसान की तरह टपक
पड़ती है… पावनी तो कल आई है, पर मैं कितने दिनों से इन की निगाहें और चिकनीचुपड़ी बातों को झेल रही हूं… पर, तुम्हें कहती तो तुम बवंडर खड़ा कर देते… इसलिए आज प्रवचन सुनने का नाटक करना पड़ा… और मुझे खुशी है कि कुछ अनहोनी घटित होने से पहले ही तुम्हें समझ आ गई.”

नरेन ने कोई जवाब नहीं दिया. वह उठा और ऊपर चला गया. रवीना भी उठ कर बाहर लौबी में आ गई. ऊपर से नरेन की आवाज आ रही थी, “स्वामीजी, आप के लिए टैक्सी मंगवा दी है… काफी दिन हो गए हैं आप को अपने आश्रम से निकले… इसलिए प्रस्थान की तैयारी कीजिए…10 मिनट में टैक्सी पहुंचने वाली है…” कह कर बिना उत्तर की प्रतीक्षा किए वह नीचे आ गया. तब तक बाहर टैक्सी का हौर्न बज गया. रवीना के सिर से आज मनों बोझ उतर गया था. आज नरेन ने पूर्णरूप से अपने अंधविश्वास पर विजय पा ली थी और उन बिला वजह के डर व भय से निकल कर आत्मविश्वास से भर गया था.

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गोबिंदा: दीपा की सास लड़की की पहचान क्यों छुपा रही थी

लेखिका- पूजा रानी सिंह

सांवली, सौम्य सूरत, छोटी कदकाठी, दुबली काया, काला सलवारसूट पहने, माथे पर कानों के ऊपर से घुमाती हुई चुन्नी बांधे इस पतली, सूखी सी डाल को दीपा ने जैसे ही अपने घर की ड्योढ़ी पर देखा तो वह किसी अनजाने आने वाले खतरे से जैसे सहम सी गई. घबरा कर बोली, ‘‘यह तो खुद ही बच्ची है, मेरी बच्ची को क्या संभालेगी?’’

यह सुनते ही उस की सास ने तने हुए स्वर में जवाब दिया, ‘‘सब तुम्हारी तरह कामचोर थोड़े ही जने हुए हैं. यह 9 साल की है, अकेले ही अपनी 3 छोटी बहनों को पाल रही है. खिलानापिलाना, नहलानाधोना सब करती है यह और यहां भी करेगी.’’

दीपा अभी कुछ कहने को ही थी, तभी पति की गरजती आवाज सुन कर चुप हो गई. वे कह रहे थे, ‘‘मेरी मां एक तो इतनी दूर से तुम्हारी सुविधा के लिए समझाबुझा कर इसे यहां ले कर आई हैं, ऊपर से तुम्हारे नखरे. अरे, इतने ही बड़े घर की बेटी हो तो जा कर अपने मांबाप से बोलो, एक नौकर भेज दें यहां. चुपचाप नौकरी करो, बेटी को यह संभाल लेगी.’’

दीपा मन मसोस कर बैठ गई. यह सोच कर ही उस का कलेजा मुंह को आ रहा था कि उस की डेढ़ साल की बेटी को इस बच्ची ने गिरा दिया या चोट लगा दी तो? पर वह इन मांबेटे के सामने कभी जबान खोल ही नहीं पाई थी. दीपा ने उस बच्ची से नाम पूछा तो उस की सास ने जवाब दिया, ‘‘इस का बाप इस को गोबिंदा बुलाता था, सो आज भी वही नाम है इस का.’’

दीपा ने उस गोबिंदा के मुंह से कुछ जैबुन्निसा सा शब्द निकलते सुना. समझ गई, सास उस का मुसलिम होना छिपा रही हैं. बड़ी अजीब दुविधा में थी दीपा. कोई उस की सुनने को तैयार ही नहीं था.

उस की सास बोले जा रही थी, ‘‘हजार रुपए कम नहीं होते, खूब काम कराओ इस से, खाएगीपिएगी, कपड़ेलत्ते खरीद देना. जो घर से लाई है 2 सलवारकमीज, उन्हें फेंक देना. एक पुराना बैग दे दो, उस में इस का ब्रुश, पेस्ट, साबुन, तेलकंघी, शीशा सब दे कर अलग कर दो. हां, एक थाली, कटोरी और गिलास भी अलग कर देना.’’

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गोबिंदा को सारा सामान दे दिया दीपा ने, पर मन में डर भरा हुआ था कि पता नहीं क्या होगा? खैर, पति के डर से दीपा ने गोबिंदा के भरोसे अपनी बेटी को छोड़ा और औफिस गई. बेचैनी तो थी पर जब वापस आई तो देखा, बच्ची खेल रही है और गोबिंदा बड़ी खुशी से बखान कर रही थी, ‘‘भाभीजी, हम ने बिटिया को दूध पिला दिया, वो टट्टी करी रहिन, साफ करा हम, फिर वो चक्लेट मांगी तो हम ने सब खिला दिया.’’

दीपा दौड़ कर फ्रिज के पास गई और जैसे ही दरवाजा खोला, मन गुस्से और दुख से भर गया. अमेरिका से मंगवाई थी, डार्क चौकलेट 3 हजार रुपए की. सिर्फ खाना खाने के बाद एक टुकड़ा खाती थी. दीपा यह सोच कर उदास हो गई कि अब एक साल इंतजार करना पड़ेगा और पतिदेव की डांट पड़ेगी सो अलग. दीपा की सास 2 दिनों बाद ही वापस चली गई थी. इधर, गोबिंदा के रहनेसोने का इंतजाम कर दिया था दीपा ने. हर रोज जितना भी खाने का सामान रख कर जाती वह, सब औफिस से लौटने पर खत्म मिलता. गोबिंदा कहती कि बिटिया ने खा लिया है. 1 साल की बेटी कितना खा पाएगी, वह जानती थी कि गोबिंदा झूठ बोल रही है पर आखिर बच्ची थी. कुछ समझ नहीं आ रहा था क्या करे वह. पति से सारी बात छिपाती थी दीपा.

एक दिन पति घर पर रुके थे. उन्होंने बिटिया के लिए दूध बनाया. गोबिंदा से कहा, ‘बिटिया को ले आओ.’ गोबिंदा किचन में गई और आदतन, हौर्लिक्स का डब्बा निकाला और हौर्लिक्स मुंह में भरा, फिर बिटिया के बनाए दूध को पी कर आधा कर दिया. अभी वह दूध पी कर उस में पानी मिलाने ही जा रही थी तभी पति ने देख लिया. वे जोर से गरजे. गोबिंदा सहम कर दरवाजे की तरफ मुड़ी, पति काफी गुस्से में थे. उन्हें क्रोध आया कि रोज गोबिंदा सारा दूध पी कर और बेटी को पानी मिला कर देती है. हौर्लिक्स भी मुंह में चिपका हुआ था.

पति ने फ्रिज खोल कर देखा. सारी चौकलेट, फल सब खत्म थे. कोई नमकीन, बिस्कुट का पैकेट भी नहीं मिला. वे गोबिंदा के बैग में चैक करने लगे. कई चौकलेट के रैपर, नमकीन, बिस्कुट, फल आदि उस ने बैग में छिपा रखे थे. बैग की एक जेब में से बहुत सारे पैसे भी निकले. गोबिंदा सारा सामान चुरा कर बैग में रखती थी, और रात को छिप कर खाती थी. इधर, बिटिया के नाम पर भी सारा दूध और खाना खत्म कर देती थी. दीपा के पति ने गुस्से में गोबिंदा का हाथ पकड़ कर जोर से झटका दिया. गोबिंदा का सिर किचन के स्लैब के कोने से लगा और खून की धारा बह निकली. दीपा के पति घबरा गए. उन्हें कुछ सूझ नहीं रहा था.

तभी दीपा औफिस की गाड़ी से वापस आई. घर का ताला चाबी से खोला और अंदर घुसते ही चारों तरफ खून देख कर डर गई. उधर, गोबिंदा बाथरूम में सिर पकड़ कर पानी का नल खोल कर उस के नीचे बैठी थी. खून बहता जा रहा था. दीपा ने झट से उसे पकड़ कर बाथरूम से बाहर खींचा और उस के सिर में एक पुराना तौलिया जोर से दबा कर बांध दिया. कुछ पूछने और सोचने का समय नहीं था. पति परेशान दिख रहे थे.

दीपा ने झट अपने डाक्टर मित्र, जो कि पास में ही रहते थे, को फोन किया और पति से गाड़ी निकालने को कहा. पति ने गाड़ी निकाली. दीपा गोबिंदा का माथा पकड़ कर बैठ गई और अस्पताल पहुंचते ही डाक्टर ने गोबिंदा के सिर पर टांके लगा कर, सफाई कर के पट्टी बांध दी.

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डाक्टर ने पूछा, ‘‘चोट कैसे लगी?’’

दीपा पति की तरफ देखने लगी. तभी गोबिंदा कहने लगी, ‘‘भाभीजी, हम से गलती हो गई, हम आप से झूठ बोलते रहे कि बिटिया सारी चौकलेट और खाना खात रही, हम खुदही खा जाते थे सबकुछ. आज भइयाजी ने दूध बना कर रखा, हमारा मन कर गया सो हम पी लीहिन, हौर्लिक्स भी खा लीहिन. हम ने आप के परस में से कई ठो रुपया भी लीहिन. भाईजी हम को हाथ पकड़ी कर बाहर खींचे किचन से, हम अंदर भागीं डरकै, हमारा माथा सिलैब पर लग गया और खून निकल रहा बड़ी देर से.’’

पर डाक्टर ने कहा कि इस की माथे की चोट बहुत पुरानी है और खुला घाव है इस के सिर पर. गोबिंदा से डाक्टर ने पूछा कि यह पहले की चोट कैसी है तो वह बोली, ‘‘डागटर साहेब, हमारा भइया 1 हजार रुपया कमा कर लाए रहा, हम ने देख लिया, वो अलमारी मा रुपया रखी रहिन. हम ने रुपया ले लिया और चौकलेट, दालमूठ खरीद लिए. दुकानदार सारा पैसा ले कर हमें बस 2 चौकलेट और 1 दालमूठ का पैकेट दी रहिन. हमरे बप्पा ने देख लिया, सो हम को खूब दौड़ा कर मारे. हम सीढ़ी से गिर गए और कपार फूट गया. पर कोई दवा नहीं दिए हम का. बहुत दिन बाद घाव सूखा. पर चोट लगने पर फिर से घाव खुल जात है.’’

दीपा और डाक्टर चुपचाप बैठे रहे. दीपा ने पैसे देने चाहे पर डाक्टर ने मना कर दिया, बोले, ‘‘रहने दो पैसे. इसे घर भिजवा दो, मुसीबत मोल न लो.’’

दीपा गोबिंदा को ले कर वापस गाड़ी की ओर मुड़ी, अंधेरे में उसे दिखा नहीं और उस का पैर खुले सीवर के गड्ढे में चला गया. बड़े जोर से चीखी वो. डाक्टर क्लीनिक बंद कर के कार में बैठ ही रहे थे, दौड़ कर वापस आए. दीपा का हाथ पकड़ कर जल्दी से ऊपर खींच लिया दीपा के पति और डाक्टर ने. पैर की हड्डी नहीं टूटी थी, पर दोनों घुटने बुरी तरह से छिल गए थे. बड़ी कोफ्त हुई दीपा को, गोबिंदा का इलाज करवाने आई थी, खुद ही घायल हो गई.

किसी तरह से दर्द बरदाश्त किया, घर आ कर दवा ली और औफिस से 3 दिन की छुट्टी. बड़ा थकानभरा दिन था. दवा खाते ही नींद आ गई दीपा को. सुबह जोरजोर से दरवाजा खटखटाने और दरवाजे की घंटी बजाने की आवाज आई. दीपा ने घड़ी की ओर देखा, 5 बज रहे थे. किसी तरह से उठ कर दरवाजा खोला. पड़ोसी की लड़की रमा थी, जोरजोर से बोले जा रही थी, ‘‘भाभी, आप की गोबिंदा एक काले रंग का बैग ले कर बालकनी से कूद कर सुबहसुबह भाग रही थी. हम ने खुद देखा उसे. वह उस तरफ कहीं गई है.’’

बड़ा गुस्सा आया दीपा को. पड़ोसी चुपचाप भागते देख रहे थे. उसे रोक नहीं सकते थे. खबर दे कर एहसान कर रहे हैं और साथ में मजे ले रहे हैं. तुरंत ही पति को जगाया दीपा ने, सब सुन कर पति बाइक ले कर तुरंत ही उसे ढूंढ़ने के लिए भागे. उफ, कितनी परेशानी? जब से गोबिंदा आई थी कुछ न कुछ गलत हो ही रहा था. बस, अब और नहीं. अब किसी तरह से मिल जाए तो इस को इस के मांबाप के पास भेज दें.

दीपा रोए जा रही थी. खैर, 2 घंटे में पति गोबिंदा को पकड़ कर ले आए. उस के बैग में 400 रुपए, दीपा की चांदी की पायल और ढेर सारा खाने का सामान रखा था. दीपा के पति का गुस्सा बढ़ रहा था. किसी तरह पति को शांत किया दीपा ने. फिर गोबिंदा से पूछा कि वह भागी क्यों? वह बोली, ‘‘हमें लगा भाभीजी, आप हमें अम्माअब्बा के पास भिजवा देंगे. वो हमें बहुत मारते हैं. हम उहां नहीं जाएंगे. सो, हम बैग ले कर भाग गए.’’

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यह और नई मुसीबत. गोबिंदा घर जाना नहीं चाहती थी. पर उस की चोरी और झूठ बोलने की आदत जाने वाली नहीं थी. किसी तरह हाथ जोड़ कर दीपा ने पति से एक और मौका देने को कहा गोबिंदा को. पति ने किनारा कर लिया. दीपा ने बहुत समझाया गोबिंदा को. उस ने कहा कि जितना खाना है खाओ, पर जूठा न करो सामान और बरबाद भी न करो.

अब रोज दीपा गोबिंदा को औफिस जाने से पहले अपनी मां की निगरानी में अपने मायके छोड़ कर जाती. दीपा की बेटी को भी मां ही रखती. कुछ दिनों तक सब ठीक रहा. फिर दीपा के भाई ने गोबिंदा को फ्रिज से खाना और मिठाई चुराते देखा. यही नहीं, मां के पैसे भी गायब होने लगे. मां ने गोबिंदा को रखने से मना कर दिया. फिर दीपा ने अपनी बेटी को मां से रखने को कहा और वो गोबिंदा को घर में बंद कर के ताला लगा कर जाने लगी. इधर, गोबिंदा ने घर में गंदगी फैलानी शुरू कर दी. पूरे घर से अजीब सी बदबू आती. काफी सफाई करने पर भी बदबू नहीं जाती थी.

एक दिन शादी में जाना था. दीपा ने सोचा, गोबिंदा को भी ले जाए. खाना खा लेगी और घूम भी लेगी. शादी रात को 2 बजे खत्म हुई. गाड़ी से वापस आते समय किसी ट्रक ने दीपा की कार को पीछे से बहुत जोर से टक्कर मारी. सब की जान को कुछ नहीं हुआ पर पुलिस केस और पति को पूरे परिवार के साथ सारी रात कार में बितानी पड़ी. सुबह तक कुछ मदद मिली, जैसेतैसे घर पहुंचे.

अब दीपा ने पति से साफसाफ कह दिया कि वो घर छोड़ कर जा रही है. जब तक वे गोबिंदा को उस के मांबाप के पास नहीं भेज देंगे, वो वापस नहीं आएगी. दीपा ने सास को भी फोन कर के सारी बात कही. सास सुनने को तैयार ही नहीं थी. वह उलटा दीपा को ही दोष दे रही थी. खैर, दीपा ने किसी तरह पड़ोसियों से कह कर गोबिंदा के मांबाप तक बात पहुंचाई कि वे यहां आ जाएं, उन की नौकरी लगवा देगी दीपा. नौकरी के लालच में अपने सारे बालबच्चों के साथ गोबिंदा के मांबाप आ पहुंचे.

अपनी मां के घर में ही रुकवाया दीपा ने सब को. उधर, गोबिंदा के लिए कपड़े खरीदे, उसे पैसे दिए. तभी दीपा के पड़ोसियों ने गोबिंदा को अपने घर पर पुराने कपड़े देने के लिए बुलाया. दीपा ने भेज दिया. थोड़ी देर के बाद, गोबिंदा ढेर सारे कपड़े और मिठाई ले कर आई. दीपा ने कहा, ‘‘चलो गोबिंदा, तुम्हारे मांबाप आए हैं, मिलवा दूं.’’

दीपा फ्लैट से नीचे उतरी तो पड़ोसी के घर में हल्ला मचा था. उन के 2 साल के पोते के हाथ में पहनाया सोने का कंगन गायब था. वो सब ढूंढ़ने में लगे थे. दीपा ने भी उन की मदद करने की सोची. उस ने गोबिंदा से भी कहा कि वह मदद करे पर वह तो अपनी जगह से हिली भी नहीं. अपना बैग ले कर बाहर जा कर खड़ी हो गई. दीपा के मन में खटका हुआ. कुछ गड़बड़ जरूर है. उस ने पड़ोसिन को बुला कर उस से कहा कि गोबिंदा की तलाशी लें. गोबिंदा भागने लगी. पड़ोसिन ने और उन की बेटी ने दौड़ कर पकड़ा उसे. गोबिंदा की चुन्नी में बंधा कड़ा नीचे गिर गया. पड़ोसिन गोबिंदा को पीटने लगी. पुलिस में देने को कहने लगी. किसी तरह से दीपा ने छुड़ा कर बचाया उसे.

गोबिंदा, जो अब पहले से काफी मोटी हो चुकी थी अच्छा खाना खा कर, पिटाई से उस का मुंह और सूज गया था. किसी तरह से समझाबुझा कर, सब से हाथ जोड़ कर माफी मांगी दीपा ने. वहां से निबट कर अपनी मां के घर आई दीपा गोबिंदा को ले कर. गोबिंदा के मांबाप को सारी बात बताई. उस के मांबाप चुपचाप सुनते रहे. पैसे की मांग की गोबिंदा की मां ने. दीपा ने तुरंत ही पैसे निकाल कर दिए और उन के गांव वापस जाने का टिकट उन के हाथ में थमा दिया. पर उस का बाप तो नौकरी की रट लगा कर बैठा था. दीपा की मां ने बात संभाली और अगले साल बुला कर नौकरी देने का वादा किया.

दीपा ने अपने पति को बुलाया और सब को गाड़ी में बिठा कर रेलवे स्टेशन छोड़ने गई. ट्रेन छूटने तक दीपा वहीं रही. जैसे ही गोबिंदा सब के साथ निकली, दीपा ने सुकून की सांस ली.

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दीपा ने अब नौकरी छोड़ दी. दीपा का मन पुराने घर से उचट चुका था. सो, उस ने वह घर किराए पर दे दिया. वह खुद अपनी मां के घर पर रहने लगी. इधर, पति का तबादला हो गया तो नए शहर में आ कर दीपा सारी बात भूल गई. कुछ दिनों बाद उस की सास का फोन आया कि गोबिंदा के मांबाप कह रहे हैं कि उस के साथ गलत व्यवहार किया है उस ने. वे और पैसा मांग रहे हैं वरना वे केस कर देंगे. दीपा ने सास से कहा कि ठीक है हम पैसा भेज देंगे मगर आप गोबिंदा और उस के परिवार से दूर ही रहेंगी.

दीपा ही जानती थी कि उस बालमजदूर के साथ क्याक्या झेलना पड़ा उसे. अब उस ने पक्का इरादा कर लिया था कि वह सारा काम खुद करेगी. किसी को भी नहीं रखेगी काम करने के लिए. भले, पैसा कम कमाए पर अब सुकून नहीं गंवाएगी वह.

झांसी की रानी: सुप्रतीक ने अपनी बेटी से क्या कहा

‘‘पापा, आप हमेशा झांसी की रानी की तसवीर के साथ दादी का फोटो क्यों रखते हैं?’’ नवेली ने अपने पापा सुप्रतीक से पूछा था.

‘‘तुम्हारी दादी ने भी झांसी की रानी की तरह अपने हकों के लिए तलवार उठाई थी, इसलिए…’’ सुप्रतीक ने कहा. सुप्रतीक का ध्यान मां के फोटो पर ही रहा. चौड़ा सूना माथा, होंठों पर मुसकराहट और भरी हुई पनियल आंखें. मां की आंखों को उस ने हमेशा ऐसे ही डबडबाई हुई ही देखा था. ताउम्र, जो होंठों की मुसकान से हमेशा बेमेल लगती थी. एक बार सुप्रतीक ने देखा था मां की चमकती हुई काजल भरी आंखों को, तब वह 10 साल का रहा होगा. उस दिन वह जब स्कूल से लौटा, तो देखा कि मां अपनी नर्स वाली ड्रेस की जगह चमकती हुई लाल साड़ी पहने हुए थीं और उन के माथे पर थी लाल गोल बिंदी. मां को निहारने में उस ने ध्यान ही नहीं दिया कि कोई आया हुआ है.

‘सुप्रतीक देखो ये तुम्हारे पापा,’ मां ने कहा था.

‘पापा, मेरे पापा,’ कह कर सुप्रतीक ने उन की ओर देखा था. इतने स्मार्ट, सूटबूट पहने हुए उस के पापा. एक पल को उसे अपने सारे दोस्तों के पापा याद आ गए, जिन्हें देख वह कितना तरसा करता था.

‘मेरे पापा तो उन सब से कहीं ज्यादा स्मार्ट दिख रहे हैं…’ कुछ और सोच पाता कि पापा ने उसे बांहों में भींच लिया.

‘ओह, पापा की खुशबू ऐसी होती है…’

सुप्रतीक ने दीवार पर टंगे मांपापा के फोटो की तरफ देखा, जैसे बिना बिंदी मां का चेहरा कुछ और ही दिखता है, वैसे ही शायद मूंछें उगा कर पापा का चेहरा भी बदल गया है. मां जहां फोटो की तुलना में दुबली लगती थीं, वहीं पापा सेहतमंद दिख रहे थे. सुप्रतीक देख रहा था मां की चंचलता, चपलता और वह खिलखिलाहट. हमेशा शांत सी रहने वाली मां का यह रूप देख कर वह खुश हो गया था. कुछ पल को पापा की मौजूदगी भूल कर वह मां को देखने लगा. मां खाना लगाने लगीं. उन्होंने दरी बिछा कर 3 प्लेटें लगाईं.

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‘सुधा, बेटे का क्या नाम रखा है?’ पापा ने पूछा था.‘सुप्रतीक,’ मां ने मुसकराते हुए कहा.

‘यानी अपने नाम ‘सु’ से मिला कर रखा है. मेरे नाम से कुछ नहीं जोड़ा?’ पापा हंसते हुए कह रहे थे.

‘हुं, सुधा और घनश्याम को मिला कर भला क्या नाम बनता?’ सुप्रतीक सोचने लगा.

‘आप यहां होते, तो हम मिल कर नाम सोचते घनश्याम,’ मां ने खाना लगाते हुए कहा था.

‘घनश्याम हा…हा…हा… कितने दिनों के बाद यह नाम सुना. वहां सब मुझे सैम के नाम से जानते हैं. अरे, तुम ने अरवी के पत्ते की सब्जी बनाई है. सालों हो गए हैं बिना खाए,’ पापा ने कहा था. सुप्रतीक ने देखा कि मां के होंठ ‘सैमसैम’ बुदबुदा रहे थे, मानो वे इस नाम की रिहर्सल कर रही हों. सुप्रतीक ने अब तक पापा को फोटो में ही देखा था. मां दिखाती थीं. 2-4 पुराने फोटो. वे बतातीं कि उस के पापा विदेश में रहते हैं. लेकिन कभी पापा की चिट्ठी नहीं आई और न ही वे खुद. फोनतो तब होते ही नहीं थे. मां को उस ने हमेशा बहुत मेहनत करते देखा था. एक अस्पताल में वे नर्स थीं, घरबाहर के सभी काम वे ही करती थीं. जिस दिन मां की रात की ड्यूटी नहीं होती थी, वह देखता कि मां देर रात तक खिड़की के पास खड़ी आसमान को देखती रहती थीं. सुप्रतीक को लगता कि मां शायद रोती भी रहती थीं. उस दिन खाना खाने के बाद देर तक वे तीनों बातें करते रहे थे. सुप्रतीक ने उस पल में मानो जमाने की खुशियां हासिल कर ली थीं. सुबह उठा, तो देखा कि पापा नहीं थे.

‘मां, पापा किधर हैं?’ सुप्रतीक ने हैरानी से पूछा था.

‘तुम्हारे पापा रात में ही होटल चले गए, जहां वे ठहरे हैं.’ मां का चेहरा उतरा हुआ लग रहा था. माथे की लकीरें गहरी दिख रही थीं. आंखों में काजल की जगह फिर पानी था. थोड़ी देर में फिर पापा आ गए, वैसे ही खुशबू से सराबोर और फ्रैश. आते ही उन्होंने सुप्रतीक को सीने से लगा लिया. आज उस ने भी कस कर भींच लिया था उन्हें, कहीं फिर न चले जाएं.

‘पापा, अब आप भी हमारे साथ रहिएगा,’ सुप्रतीक ने कहा था.

‘मैं तुम्हें अपने साथ अमेरिका ले जाऊंगा. हवाईजहाज से. वहीं अच्छे स्कूल में पढ़ाऊंगा. बड़ा आदमी बनाऊंगा…’ पापा बोल रहे थे. सुप्रतीक उस सुख के बारे में सोचसोच कर खुश हुआ जा रहा था.

‘पर, तुम्हारी मम्मी नहीं जा पाएंगी, वे यहीं रहेंगी. तुम्हारी एक मां वहां पहले से हैं, नैंसी… वे होटल में तुम्हारा इंतजार कर रही हैं,’ पापा को ऐसा बोलते सुन सुप्रतीक जल्दी से हट कर सुधा से सट कर खड़ा हो गया था.

‘मैं कल से ही तुम्हारे आने की वजह समझने की कोशिश कर रही थी. एक पल को मैं सच भी समझने लगी थी कि तुम सुबह के भूले शाम को घर लौटे हो. जब तुम्हारी पत्नी है, तो बच्चे भी होंगे. फिर क्यों मेरे बच्चे को ले जाने की बात कर रहे हो?’ सुधा अब चिल्लाने लगी थी, ‘एक दिन अचानक तुम मुझे छोड़ कर चले गए थे, तब मैं पेट से थी. तुम्हें मालूम था न?

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‘एक सुबह अचानक तुम ने मुझ से कहा था कि तुम शाम को अमेरिका जा रहे हो, तुम्हें पढ़ाई करनी है. शादी हुए बमुश्किल कुछ महीने हुए थे. तुम्हारी दहेज की मांग जुटाने में मेरे पिताजी रास्ते पर आ गए थे. लेकिन अमेरिका जाने के बाद तुम ने कभी मुझे चिट्ठी नहीं लिखी. ‘मैं कितना भटकी, कहांकहां नहीं गई कि तुम्हारे बारे में जान सकूं. तुम्हारे परिवार वालों ने मुझे ही गुनाहगार ठहराया. अब क्यों लौटे हो?’ मां अब हांफ रही थीं. सुप्रतीक ने देखा कि पापा घुटनों के बल बैठ कर सिर झुकाए बोलने लगे थे, ‘सुधा, मैं तुम्हारा गुनाहगार हो सकता हूं. सच बात यह है कि मुझे अमेरिका जाने के लिए बहुत सारे रुपयों की जरूरत थी और इसी की खातिर मैं ने शादी की. तुम मुझे जरा भी पसंद नहीं थीं. उस शादी को मैं ने कभी दिल से स्वीकार ही नहीं किया. ‘बाद में मैं ने नैंसी से शादी की और अब तो मैं वहीं का नागरिक हो गया हूं. लेकिन लाख कोशिशों के बावजूद हम मांबाप नहीं बन सके. यह तो मेरा ही खून है. मुझे मेरा बेटा दे दो सुधा…’

अचानक काफी बेचैन लगने लगे थे पापा. ‘देख रहा हूं कि तुम इसे क्या सुख दे रही हो… सीधेसीधे मेरा बेटा मेरे हवाले करो, वरना मुझे उंगली टेढ़ी करनी भी आती है.’ सुप्रतीक देख रहा था उन के बदलते तेवर और गुस्से को. वह सुधा से और चिपट गया. तभी उस के पापा पूरी ताकत से उसे सुधा से अलग कर खींचने लगे. उस की पकड़ ढीली पड़ गई और उस के पापा उसे खींच कर घर से बाहर ले जाने लगे कि अचानक मां रसोई वाली बड़ी सी छुरी हाथ में लिए दौड़ती हुई आईं और पागलों की तरह पापा पर वार करने लगीं. पापा के हाथ से खून की धार निकलने लगी, पर उन्होंने अभी भी सुप्रतीक का हाथ नहीं छोड़ा था. चीखपुकार सुन कर अड़ोसपड़ोस से लोग जुटने लगे थे. किसी ने इस आदमी को देखा नहीं था. लोग गोलबंद होने लगे, पापा की पकड़ जैसे ही ढीली हुई, सुप्रतीक दौड़ कर सुधा से लिपट गया. लाल साड़ी में मां वाकई झांसी की रानी ही लग रही थीं. लाललाल आंखें, गुस्से से फुफकारती सी, बिखरे बाल और मुट्ठी में चाकू. सुप्रतीक ने देखा कि सड़क के उस पार रुकी टैक्सी में एक गोरी सी औरत उस के पापा को सहारा देते हुए बिठा रही थी.

‘‘नवेली, तुम्हारी दादी बहुत बहादुर और हिम्मत वाली थीं,’’ सुप्रतीक ने अपनी बेटी से कहा. सुप्रतीक की निगाहें फिर से मां के फोटो पर टिक गई थीं.

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घर का चिराग: क्या बेटे और बेटी का फर्क समझ पाई नीता

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अपूर्ण: मंदार के आने के बाद क्या हुआ धारिणी की जिंदगी में

लेखिका- अर्चना पाटील

‘‘धारिणीआज पहली बार नौकरी के लिए बाहर निकली थी. रुद्र के गुजरने के बाद वाह बहुत अकेली ही थी. समीरा की जिम्मेदारी निभाते हुए वह थक जाती थी. समीरा के जिंदगी में पिता रुद्र की खाली जगह भी धारिणी को ही पूरी करनी पड़ती थी. नौकरी के कारण धारिणी की समस्याएं और भी बढ़ गईं. मगर घर में ऐसे कितने दिन बीतते? इसलिए नौकरी धारिणी की जरूरत बन गई थी. एक होस्टल में उसे रिसैप्शनिस्ट की नौकरी मिली थी. रोज रेल से आनाजाना सब से बड़ी समस्या थी, क्योंकि उसे इस की आदत नहीं थी. पहले दिन धारिणी का भाई सारंग साथ आया.’’

सारंग ने उस की अपने दोस्तों से पहचान करा दी, ‘‘दीदी, ये सब आप को मदद करेंगे… किसी को भी पुकारो.’’

‘‘जरूर, टैंशन मत लो मैडम,’’ दोस्तों के गु्रप से आवाज आई.

‘‘दीदी, ये मंदार शेटे. ये और आप ट्रेन से साथसाथ ही उतरोगे. शाम को भी यह आप के साथ ही रहेंगे. चलो, मैं अब निकलता हूं.’’

‘‘हां, जाओ,’’ धारिणी थोड़ी नाराजगी

से बोली.

2 मिनट में ट्रेन आई. धारिणी महिलाओं के डब्बे में चढ़ने की कोशिश कर रही थी. सारंग के सभी दोस्त उसी डब्बे में चढ़ गए.

‘‘अरे, यह तो लेडीज डब्बा है… आप लोग इस डब्बे में कैसे?’’

‘‘ओ मैडम, हम यही रहते हैं. अपने गांव की ट्रेन में सबकुछ चलता है. यह मुंबई थोड़ी है,’’ मंदार बोला.

धारिणी चुप हो गई. मन ही मन आज का दिन अच्छा गुजरे ऐसी कामना करने लगी. जैसे

ही सावरगांव आया धारिणी और मंदार ट्रेन से नीचे उतरे, ‘‘चलो मैडम मैं आप को होटल तक छोड़ता हूं.’’

‘‘नहींनहीं, आप को क्यों परेशानी…’’

‘‘अरे, इस में किस बात की परेशानी. आप सारंग की बहन… सारंग मेरा अच्छा दोस्त है… मैं छोड़ता हूं आप को…’’

धारिणी का भी पहला दिन था. वह भी घबरा रही थी. मंदार के कारण उस ने खुद को थोड़ा हलका महसूस किया. इसलिए वह मंदार की गाड़ी में बैठ गई. वैसे दिन अच्छा ही गया. शाम रेलवे में उसे फिर मंदार मिला.

‘‘कैसा गया आज का दिन धारिणी… सौरी मैं जरा जल्द ही नाम से पुकारने लगा.’’

‘‘नहीं इट्स ओके. आप पुकारें नाम से. मैं गुस्सा नहीं होऊंगी.’’

दोनों घर पहुंचे. दूसरे दिन वही किस्सा. धीरेधीरे धारिणी और मंदार अच्छे दोस्त

बने. सुबहशाम मंदार और धारिणी रेल में मिलते थे. कभीकभार मंदार धारिणी को होटल तक छोड़ने के लिए भी आता था, तो कभी लेने के लिए आता था. रातबेरात व्हाट्सऐप पर उन का चैटिंग भी चलता था. धारिणी सभी समस्याएं मंदार के साथ शेयर करती थी.

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‘‘जाने भी दो, कुछ नहीं होगा…’’ इन लफ्जों में मंदार धारिणी को समझता था.

धारिणी के लिए मंदार उस की स्ट्रैस रिलीफ की दवा था, समीरा, मांपिताजी, सारंग ये सभी रुद्र की खाली जगह भरने के लिए असमर्थ थे. लेकिन मंदार रुद्र की तरह मानसिक सहारा देता था. मंदार के कारण धारिणी फिर से संजनेसवरने लगी, हंसने लगी, अच्छे कपड़े पहन के घूमने लगी. उस के लिए वह अच्छा दोस्त था. बाइक पर कभीकभी वह उस के कंधे पर हाथ रखती थी. बोलतेबोलते अनजाने में पीठ पर चपत मारती थी. मगर ये सब एक अच्छा दोस्त होने के नाते ही होता था. 6-7 महीने अच्छे बीत गए. एक दिन सावरगांव उतर दोनों ने चाय पी.

‘‘तुम बहुत बातें करती हो मुझ से. ऐसा क्यों?’’

‘‘तुम अच्छे लगते हो मुझे. मुझे तुम्हारे साथ वक्त बिताना अच्छा लगता है. मुझे तुम्हारी पर्सनैलिटी भी बहुत अच्छी लगती है. रेल में नहीं बोल सकती सब के सामने. इस वक्त हम दोनों ही हैं, इसलिए बता रही हूं.’’

‘‘अरे बाप रे, क्या खा कर निकली हो

घर से?’’

‘‘कुछ नहीं, जो सच है वही बता रही हूं,

तुम से जो लड़की ब्याह करेगी वह सचमुच खुशहाल रहेगी.’’

‘‘हां, यहां से 35 किलीमीटर पर गुफाएं हैं. चलोगी देखने?’’

‘‘पागल हो गए क्या? मैं ने घर पर नहीं बताया. किसी कारण विलंब हुआ तो मांबाबूजी चिंता करेंगे.’’

‘‘नहीं, विलंब नहीं होगा, ट्रेन से तुम रात

9 बजे तक  घर पहुंच जाएगी.’’

‘‘मांबाबूजी क्या कहेंगे?’’

‘‘तुम मेरे साथ गुफा देखने जा रही हो यह मत बताना उन को. एक दिन झठ बोलेगी तो क्या फर्क पड़ने वाला है. पिछले 6 महीनों से मैं ने कुछ मांगा तुम से? थोड़ा घूम के आएंगे… तुम्हें चेंज मिलेगा. तुम्हारे लिए कह रहा हूं… मैं तो हजारों बार गया हूं वहां.’’

‘‘नहीं, मैं काम पर जाती हूं.’’

‘‘हां जाओ. अभी कह रही थी कि तुम्हारे साथ वक्त बिताना अच्छा लगता है. जब वक्त आया तो घबरा रही हो.’’

‘‘अरे, मुझे अच्छा लगता है तो क्या मैं तुम्हारे साथ पूरे गांव में कहीं भी घुमूं क्या?’’

‘‘ठीक है, यहां मेरा और सारंग का एक दोस्त रहता है. शाम को उस के बच्चे को देखने तो चलोगी न?’’

‘‘ट्रेन जाएगी फिर?’’

‘‘मैं छोड़ दूंगा तुम्हें तुम्हारे घर पर मेरी मां… इस बारे में पहले ही सोचा है मैं ने.’’

‘‘ठीक है, हो के आएंगे,’’ धारिणी ने मंदार नाराज न हो, इसलिए हामी भर दी.

‘‘1 घंटा जल्दी निकलना ताकि तुम्हें घर पहुंचने में देर न हो.’’

‘‘हां बाबा, कोशिश करूंगी.’’

शाम को धारिणी हमेशाकी तरह 4 बजे होटल के बाहर आ कर खड़ी हो गई. मंदार उस का ही इंतजार कर रहा था.

धारिणी ने बाइक पर बैठते हुए पूछा, ‘‘कहां रहता है तुम्हारा दोस्त?’’

आखिरकार गाड़ी एक घर के पास रुकी. घर को ताला लगा था. आसपास खेत फैले थे. जगह सुनसान थी. लोगों की बस्ती नहीं थी और चहलपहल भी नहीं थी.

‘‘इस घर को ताला क्यों लगा है मंदार?’’

‘‘चाबी मेरे पास है. आओ अंदर चलते हैं.’’

‘‘मगर क्यों? मुझे घर छोड़ दो.’’

‘‘बावली हो क्या? कभी न मिलने वाला एकांत मिला है हमें. आधा घंटा बैठेंगे, फिर निकलेंगे.’’

‘‘मैं नहीं जाउंगी अंदर.’’

‘‘देखो, तुम पहले आंखें बंद कर के खड़ी रहो. मैं सिर्फ एक जीभर के किस लूंगा और फिर निकलेंगे. तुम्हें मुझ पर विश्वास नहीं है क्या?’’

‘‘देखो मंदार, तुम मुझे दोस्त की हैसीयत से अच्छे लगते हो. लेकिन इस बात के लिए मेरी नजदीकी सिर्फ रुद्र से थी और मरते दम तक उस से ही रहेगी.’’

‘‘लेकिन मुझे भी तुम अच्छी लगती हो और अगर मुझे तुम्हें स्पर्श करने को दिल करता है, तो इस में गलत क्या है?’’

‘‘शायद मेरी ही गलती… मुझे तुम से दूर रहना चाहिए था.’’

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‘‘अरे सुनो तो, खाली 1/2 घंटा है हमारे पास. क्यों वक्त जाया कर रही हो? ऐसी कौन सी धनदौलत मांग रहा हूं तुम से…’’

‘‘माफ करना… मैं अगर अपनी मर्यादा समझती तो शायद तुम्हें गलतफहमी

न होती अपनी रिलेशनशिप पर… अब तो मेरी ट्रेन भी छूट गई होगी… मुझे सहीसलामत घर पहुंचा दो.’’

‘‘ओह मेरी मां. तुम टैंशन मत ले. तुम्हारी रजामंदी के सिवा मैं कुछ नहीं करूंगा,’’ कह मंदार ने जल्दी बाइक को किक लगाई. 8 बजे गाड़ी घर के सामने खड़ी थी. बाइक की स्पीड और मंदार का गुस्सा साथसाथ चल रहे थे. मगर रास्ते में दोनों एकदूसरे से एक लफ्ज तक नहीं बोले. घर आते ही धारिणी जल्दीजल्दी चलने लगी.

‘‘ओ मैडम, आप को बिना स्पर्श किए घर तक छोड़ा है मैं ने. आप जीत गईं, मैं हारा. मैं ही पागल था, जो हर वक्त आगेपीछे घूमता था. मेरी एक इच्छा पूरी करती, तो कौन सा पहाड़ टूट जाता… मैं कुछ सोने के लिए नहीं कह रहा था मेरे साथ. मैं भी अपनी मर्यादा जानता हूं मैडम.’’

‘‘मंदार, प्लीज इस तरह मुझ से बात मत करो. आखिरकार संस्कार भी कोई चीज होती है या नहीं? इस बात के लिए मेरा मन कभी भी राजी नहीं होगा. तुम्हारे कारण रुद्र के जाने के बाद मैं ने फिर से जीना सीखा. मगर तुम्हें अगर सिर्फ मेरा स्पर्श ही चाहिए, तो मुझ से फिर कभी मत मिलना.’’

‘‘यह भी कहती हो कि तुम मुझे अच्छे लगते हो… पगली स्पर्श करने से ही प्यार व्यक्त होता है.’’

‘‘मंदार मेरे तन पर केवल रुद्र का अधिकार था और रहेगा. तुम जो कह रहे हो वह मेरे संस्कार में कभी नहीं बैठेगा… मेरी सोच कुछ ऐसी ही है.’’

‘‘फिर एक बार गौर करना मेरे कहने पर… मैं इंतजार करूंगा तुम्हारा.’’

‘‘मंदार, तुम्हारी इस साल शादी होने वाली है. तुम्हारी पत्नी को क्या मुंह दिखाऊंगी मैं? तुम मेरे दोस्त हो. शायद उस से भी बढ़ कर हो. मगर हर चीज पूरी होनी ही चाहिए ऐसा नहीं होता. मेरे दोस्त, इसलिए आज से मैं तुम्हें कभी भी परेशान नहीं करूंगी… हम दोनों इस के बाद कभी नहीं मिलेंगे. अगर मेरे कारण तुम्हारा दिल टूट गया होगा, तो मुझे माफ कर देना.’’

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ट्रस्ट एक कोशिश: भाग 2- क्या हुआ आलोक के साथ

लेखिका- अर्चना वाधवानी   

उफ, बाऊजी ने मुझे इतनी अच्छी परवरिश दी थी लेकिन लानत है मुझ पर जो आखिरी समय उन की सेवा न कर सकी. वह लाड़ करते  हुए मुझ से कहते थे कि किसी ने सच ही कहा है कि बेटी सारी जिंदगी बेटी ही रहती है. लेकिन मैं ने क्या फर्ज पूरे किए बेटी होने के?

आलोक ने मुझे बहुत समझाया कि इस सब में मेरी कोई गलती नहीं थी. हमें यदि समय पर खबर की जाती और तब भी न पहुंचते तब गलत था. उन की बातें ठीक थीं लेकिन दिल को कैसे समझाती.

बहुत गुस्सा था मन में भाइयों के लिए. बाऊजी की क्रिया थी. पगड़ी की रस्म के बाद आलोक किसी जरूरी काम से चले गए पर मैं वहीं रुकी थी. जब सब लोग चले गए तो मैं जा कर भाइयों के पास बैठ गई.

‘भैया, आप लोगों ने मुझे खबर क्यों नहीं की? बाऊजी आखिरी समय तक मेरी राह देखते रहे.’

‘नैना, जो बात करनी है, हम से करो,’ तीखा स्वर गूंजा तो मैं चौंक पड़ी. सामने दोनों भाभियां लाललाल आंखों से मुझे घूर रही थीं.

मैं थोड़ी सी अचकचा कर बोली, ‘भाभी, क्या बात हो गई. आप सब मुझ से नाराज क्यों हैं?’

‘पूछ रही हो नाराज क्यों हैं? पता नहीं तुम ने बाबूजी को क्या पट्टी पढ़ा दी कि उन्होंने हमारा हक ही छीन लिया,’ जवाब में छोटी भाभी बोलीं तो मैं तिलमिला गई.

बस, फिर क्या था, दोनों भाभियों ने मुझे खूब खरीखोटी सुनाईं और उस का सार था कि बाऊजी ने मेरे बहकावे में आ कर मकान में मेरा भी हिस्सा रखा था. बाऊजी के इलाज पर खर्चा उन लोगों ने किया, सेवा उन लोगों ने की इसीलिए केवल उन लोगों का ही मकान पर हक बनता था.

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मैं ने भाइयों की ओर देखा तो बडे़ भाई विजय मुझ से नजरें चुरा रहे थे. इस का मतलब था कि मकान के गुस्से में आ कर इन लोगों ने मुझे बाऊजी के बीमार होने की खबर नहीं की थी.

मैं ने बाऊजी की तसवीर की ओर देखा, वह मुसकरा रहे थे. इस से पहले कि मैं कुछ बोल पाती, छोटी भाभी ने ऐसी बात कह दी कि मेरे पांव तले की जमीन खिसक गई. उन्होंने कड़वाहट से कहा, ‘पता नहीं बाबूजी को बाहर वालों पर इतना तरस क्यों आता था. न जात का पता न मांबाप का, बस, ले आए उठा कर.’

मुझ से और नहीं सुना गया. मैं उठ खड़ी हुई. मेरे दोनों बडे़ भाई एकदम से मेरे पास आ कर बोले, ‘नैना, दरअसल हम पर बहुत उधार है और मकान बेच कर हम यह उधार चुकाएंगे, इसलिए ये दोनों परेशान हैं. हम ने तो इन से कहा था कि नैना को हम अपनी परेशानी बताएंगे तो वह हमारे साथ रजिस्ट्रार आफिस जा कर ‘रिलीज डीड’ पर साइन कर देगी. ठीक कहा न?’

सच क्या था, मैं अच्छी तरह समझती थी. मैं मरी सी आवाज में केवल यही पूछ पाई कि कब चलना है, और अगले ही दिन हम रजिस्ट्रार आफिस में बैठे हुए थे.

मेरे आगे कई कागज रखे गए. मैं एकएक कर के सब कागजों पर अंगूठा लगाती गई और अपने हस्ताक्षर भी करती गईर्र्र्र्. हर हस्ताक्षर पर भाई का प्यारदुलार, मेरा रूठना उन का मनाना मेरी आंखों के आगे आता चला गया. वहीं बैठे एक आदमी ने जब मुझ से उन कागजों को पढ़ने के लिए कहा, तो मेरा मन भर आया था. क्या कहती उस से कि मेरा तो मायका ही सदा के लिए छिन गया. बाऊजी क्या गए सब ने मुंह ही फेर लिया. भाभियां तो फिर पराई थीं लेकिन भाइयों की क्या कहूं. वे भी पराए हो गए.

भाइयों को जो चाहिए था वह उन्हें मिल गया लेकिन मेरा सबकुछ छिन गया. मेरे बाऊजी, मेरा मायका, मेरा बचपन. लगा, जैसे अनाथ तो मैं आज हुई हूं.

शायद मैं यानी नैना, जिस पर बाऊजी कितना गर्व करते थे, उस रोज टूट गई थी. घर पहुंची तो आलोक कहीं फोन मिला रहे थे.

‘कहां चली गई थीं तुम? पता है कहांकहां फोन नहीं किए?’ वह चिल्ला पडे़ लेकिन मेरी हालत देख कर कुछ नरम पड़ते हुए पूछा, ‘नैना, कहां थीं तुम?’

क्या कहती उन्हें. वह मेरे पास आए और बोले, ‘तुम्हारे वर्मा चाचाजी ने यह पैकेट तुम्हारे लिए भिजवाया था.’

मैं चुपचाप बैठी रही.

वह आगे बोले, ‘लाओ, मैं खोल देता हूं.’

वह जब पैकिट खोल रहे थे तो मैं अंदर कमरे में चली गई.

कुछ देर बाद वह भी मेरे पीछेपीछे कमरे में आ गए और बोले, ‘नैना, आखिर बात क्या हुई. कल से देख रहा हूं तुम हद से ज्यादा परेशान हो.’

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कब तक छिपाती उन से. वैसे छिपाने का फायदा क्या और बताने में नुकसान क्या. रिश्ता तो उन लोगों ने लगभग तोड़ ही दिया था. मैं ने आलोक को एकएक बात बता दी.

वह कुछ देर के लिए सन्न रह गए. कुछ देर बाद बोले, ‘नैना, कितना सहा तुम ने. तुम्हें क्या जरूरत थी उन लोगों के साथ अकेले रजिस्ट्रार आफिस जाने की. मुझे इस लायक भी नहीं समझा. कल रात से मैं तुम से पूछ रहा था लेकिन तुम ने कुछ नहीं बताया. वहां से इतना कुछ सुनना पड़ा फिर भी उन लोगों की हर बात मानती चली गईं. द फैक्ट इज, यू डोंट ट्रस्ट मीं. सचाई तो यह है कि तुम्हें मुझ पर भरोसा ही नहीं है,’ कह कर वह दूसरे कमरे में चले गए.

जेहन में जैसे ही भरोसे की बात आई मुझे लगा जैसे किसी ने झकझोर कर मुझे जगा दिया हो. मैं अतीत से निकल वर्तमान में आ गई.

‘‘आलोक, क्या कह रहे हैं आप. मैं आप पर भरोसा नहीं करती.’’

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बिलखता मौन: भाग 2- क्यों पास होकर भी मां से दूर थी किरण

‘‘मिस हैलन, तुम्हें तो पता है. कभीकभी बच्चे कितने निर्दयी हो जाते हैं. प्लेग्राउंड में मैं सदा ही रंगभेद का निशाना बनती रही. कानों में अकसर सुनाई देता, देखोदेखो, निग्गर (अफ्रीकन), पाकी (पाकिस्तानी), हाफकास्ट, बास्टर्ड वगैरावगैरा नामों से संबोधित किया जाता था. कभी कोई कहता, ‘उस के बाल और होंठ देखे हैं? स्पैनिश लगती है.’ ‘नहींनहीं, वह तो झबरी कुतिया लगती है.’ ‘स्पैनिश भाषा का तो इसे एक अक्षर भी नहीं आता.’ ‘फिर इंडियन होगी, रंग तो मिलताजुलता है.’ पीछे से आवाज आई, ‘जो भी है, है तो हाफकास्ट.’ ‘स्टूपिड कहीं का, आगे से कभी हाफकास्ट मत कहना, आजकल इस शब्द को गाली माना जाता है. मिक्स्ड रेस कहो.’ ‘तुम्हारा मतलब खिचड़ी निग्गर, पाकी, स्पैनिश और इंडियन या फिर स्ट्यू’ और सब जोर से खिलखिला कर हंस पड़े.

‘‘मुझे देखते ही उन के चेहरों पर अनेक सवाल उभरने लगते जैसे पूछ रहे हों- नाम इंडियन, किरण. बाल मधुमक्खी का छत्ता. रंग स्पैनिश जैसा. नाक पिंगपोंग के गेंद जैसी. होंठ जैसे मुंह पर रखे 2 केले. उन से फूटती है अंगरेजी. तुम्हीं बताओ, तुम्हें हाफकास्ट कहें या फोरकास्ट. सब के लिए मैं एक मजाक बन चुकी थी.

‘‘सभी मुझ जैसी उलझन को सुलझाने में लगे रहते. उन की बातें सुन कर अकसर मैं बर्फ सी जम जाती. रात की कालिमा मेरे अंदर अट्टहास करने लगती. उन के प्रश्नों के उत्तर मेरे पास नहीं थे. मैं स्वयं अपने अस्तित्व से अंजान थी. मैं कौन हूं? क्या पहचान है मेरी? मैं बिना चप्पू के 2 कश्तियों में पैर रख कर संतुलन बनाने का प्रयास कर रही थी, जिन का डूबना निश्चित था. ‘‘शुरूशुरू में हर रोज स्कूल जाने से पहले मैं आधा घंटा अपने तंग घुंघराले बालों को स्ट्रेटनर से खींचखींच कर सीधा करने की कोशिश करती. पर कभीकभी प्रकृति भी कितनी क्रूर हो जाती है. बारिश भी ऐनवक्त पर आ कर मेरे बालों का भंडा फोड़ देती. वे फिर घुंघराले हो जाते.’’

‘‘किरण, अब बस करो, पुरानी बातों को कुरेदने से मन भारी होता है,’’ वार्डन ने किरण को समझाते हुए कहा.

‘‘हैलन प्लीज, आज मुझे कह लेने दो. मेरे देखतेदेखते चिल्ड्रंस होम से कई बच्चों को होम मिल गए (फोस्टर होम जहां सामान्य परिवार के लोग इन बच्चों की देखरेख के लिए ले जाते हैं). कुछ बच्चे गोद ले लिए गए. मैं भी आशा की डोर थामे बैठी थी. इसी उम्मीद के साथ कि एक दिन मैं भी किसी सामान्य परिवार का सुख भोग सकूंगी. मेरा चेहरा तथा बाल देखते ही लोग भूलभुलैया में फंस जाते. तब मेरा नंबर एक सीढ़ी और नीचे आ जाता. मेरा होना ही मेरे लिए जहर बन चुका था. मेरी आंखों की मूक याचना कोई नहीं सुन सका. बिक्की को बहुत अच्छे फोस्टर पेरैंट्स मिल गए थे. हम दोनों ने वादा किया कि हर शनिवार को हम एकदूसरे से जरूर मिलेंगे. मुझे उस का जाना बेहद खला. मन ही मन मैं उस के लिए खुश थी कि अब उसे 24 घंटे अनुशासित जीवन नहीं जीना पड़ेगा. घड़ी के चारों ओर परिक्रमा नहीं करनी पड़ेगी.

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‘‘बिक्की तथा मेरा हर शनिवार को मिलना जारी रहा. आज शनिवार था. मैं ने मिलते ही उसे, खुशखबरी दे दी कि फीस्टरिंग बाजार में मेरा नंबर भी आ गया है. आज फोस्टर पेरैंट ने वार्डन से कौंटैक्ट किया था, अब वे मुझे गोद ले लेंगे. ‘‘हैलन, मेरे नए परिवार में जाने के इंतजार में दिन रेंग रहे थे. मानो वक्त की सुई वहीं थम गई हो. कुछ दिनों बाद वह दिन आ ही गया. फैसला मेरे हित में हुआ.

‘‘मेरे वनवास की अवधि पूरी होने वाली थी. वीकेंड में अपना सामान बांधे सहमेसहमे कदमों से मैं अपने नए सफर की ओर चल दी. पिछले 7 वर्षों से जो अपना घर था, उसे छोड़ते वक्त इस जीवन ने मुझे सुखदुख के अर्थ बहुत गहराई से समझा दिए थे. बिक्की का घर एडवर्ड के घर के पास ही था.

‘‘बिक्की और मेरा घर पास होने के कारण अब तो हम होमवर्क भी एकसाथ बैठ कर करते थे. मिसेज एडवर्ड पहले तो बहुत अच्छी थीं लेकिन धीरेधीरे उन्होंने घर के सभी कामों का उत्तरदायित्व मेरे कंधों पर डाल दिया. घर के कामकाज मेरी पढ़ाई में दखलंदाजी करने लगे. जिस का प्रभाव मेरी परीक्षा के परिणामों पर पड़ा. मुझे महसूस होने लगा कि मैं उन की बेटी कम, नौकरानी अधिक थी. हमारा स्कूल बहुत बड़ा था. जिस में नर्सरी, प्राइमरी, जूनियर तथा सैकंडरी सभी स्कूल शामिल थे. उन के प्लेग्राउंड अलगअलग थे. क्रिसमस की छुट्टियों से पहले स्कूल में क्रिसमस का समारोह था. सभी बच्चों को जिम्मेदारियां बांटी गई थीं. मेरी ड्यूटी अतिथियों को बैठाने की थी. अचानक मैं ने देखा, मैं जोर से चिल्लाई, ‘बिक्की, बिक्की, इधर आओ, इधर आओ, वो, वो देखो मां, मेरी मां, असली मां.’ मेरी आवाज भर्राई. टांगें कांपने लगीं. बिक्की ने मुझे कुरसी पर बिठाया. ‘मां’ मेरे मुंह से निकलते ही मेरा मन मां के प्रति प्रेम से ओतप्रोत हो गया. आंखों का सैलाब रुक न पाया.

‘‘‘शांत हो जाओ किरण, तुम्हें शायद गलतफहमी हो.’

‘‘‘वो देखो, नीले सूट में,’ मेरा मन छटपटाने लगा.

‘‘‘क्या तुम्हें पूरा यकीन है. उन्हें देखे तो तुम्हें 7-8 वर्ष हो गए हैं.’

‘‘‘क्या कभी कोई अपनी ‘मां’ को भूल सकता है?’

‘‘‘उन के साथ यह बच्चा कौन है?’

‘‘‘मैं नहीं जानती. इस का पता तुम्हें लगाना होगा, बिक्की.’

‘‘समारोह के बाद बिक्की से पता चला कि वह मेरा छोटा भाई सूरज है.’’

‘‘किरण, ध्यान से सुनो, जिंदगी एक नाम और एक रिश्ते से तो नहीं रुक जाती,’’ वार्डन हैलन ने समझाते हुए कहा.

‘‘मिस हैलन, आप नहीं जानतीं, मां की एक झलक ने मुझे कई वर्ष पीछे धकेल दिया. अपनी कल्पना में मैं आज भी उन पलों में लौट जाती हूं जब मैं बहुत छोटी थी और मेरे पास मां थी. तब सबकुछ था. कैसे वह मेरी उंगली पकड़ स्कूल ले जाती. वापसी में आइसक्रीम, चौकलेट ले कर देती. कैसे रास्ते में मैं उन के साथ लुकाछिपी खेलती. कभी कार के पीछे छिप जाती, कभी पेड़ के पीछे. अपनी जिद पूरी करवाने के लिए वहीं सड़क पर पैर पटकतीपटकती बैठ जाती. आज भी उन दिनों को याद कर शिथिल, निढाल हो जाती हूं मैं. जब दुखी होती हूं तो दृश्य आंखों के सामने रीप्ले होने लगता है. 15 दिसंबर, 1995 को जब ‘सोशल सर्विसेज’ वाले मुझे यहां लाए थे, उस दिन मेरी मां के दुपट्टे का छोर मेरे हाथों से खिसकतेखिसकते सदा के लिए छूट गया था. ‘‘क्रिसमस की छुट्टियों के समाप्त होने का इंतजार मुझे बड़ी ब्रेसब्री से रहता. मन में मां की झलक पाने की लालसा, भाई को देखने की उमंग उमड़ने लगी. इसी धुन में अकसर मैं स्कूल के किसी छिपे हुए कोने से मां और भाई को निहारती रहती. छोटा भाई सूरज पैर पटकने में मुझ पर गया था, मेरा भाई जो ठहरा. सूरज के प्ले टाइम में मैं अपनी कक्षा में न जा कर उस से बातें करती, उसे छूने की कोशिश करती. यही सोच कर कि मां ने इसे छुआ होगा. उस में मां की खुशबू ढूंढ़ती. जब बिक्की कहती कि सूरज की आंखें बिलकुल तुम जैसी हैं, मुझे बहुत अच्छा लगता था. मां यह नहीं जानती थीं कि मैं भी इसी स्कूल में हूं. यह सिलसिला चलता रहा. धीरेधीरे मां से मेरी नाराजगी प्यार में बदल गई. मां से भी भला कोई कब तक नाराज रह सकता है. उन्हें बिना देखे मन उदास हो जाता. इतने बड़े संसार में एक वही तो थीं, मेरी बिलकुल अपनी. एक दिन अचानक मां और मेरी नजरें टकराईं. मां बड़ी बेरुखी से मुझे अनदेखा कर आगे बढ़ गईं.

‘‘उस रात मन में अनेक गूंगे प्रश्न उठे, जो मेरे रोंआसे मुख से सूखे तिनके की भांति मन के तालाब में डूबने लगे. सभी दिशाओं से नकारात्मक बहिष्कृति की भावनाएं मेरी पढ़ाई पर हावी होती गईं. स्कूल से मन उचाट रहने लगा. घर के कामकाजों की थकावट के कारण स्कूल का काम करना नामुमकिन सा हो गया. होम स्कूल लाएजन अध्यापिका (घर स्कूल संपर्क अधिकारी) तथा सोशलवर्कर को बुलाया गया. मिसेज एडवर्ड ने सारा दोष मुझ पर उडे़ल दिया. उन के आरोप सुनतेसुनते मैं भी गुस्से में बोली, ‘घर के कामों से फुरसत मिले तो न? मेरी तो नींद तक भी पूरी नहीं होती. मैं यहां नहीं रहना चाहती.’ इतना सुनते ही सोशलवर्कर के शक की पुष्टि हो गई. कुछ ही दिनों में मैं फिर रैजिडैंशियल होम में थी.

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‘‘एक दिन बिक्की से मिलते ही उस का प्रवचन शुरू हो गया, ‘किरण, तुम्हें जीवन में आगे बढ़ना है. पीछे देखती रहोगी तो पीछे ही रह जाओगी. संभालो खुद को. केवल पढ़ाई ही काम आएगी.’

‘‘‘तुम ठीक कहती हो, बिक्की.’ उस दिन हम ने अगलीपिछली मन की सब बातें दोहराईं. बिक्की के जाने के बाद मेरे प्रश्नों के उत्तर मेरे भीतर उभरने लगे. नकारात्मक प्रश्नों को मैं ने चिंदीचिंदी कर कूड़े के ढोल में फेंक डाला. पढ़ाई में मन लगाना आरंभ कर दिया.

‘‘छोटे भाई सूरज से मिलने का क्रम चलता रहा. कभी मैं सूरज से मिलती और कभी बिक्की. एक शनिवार को मैं और बिक्की दोनों पिज्जा हट में पिज्जा खा रहे थे. ‘किरण, एक बुरी खबर है,’ बिक्की ने कहा.

‘‘‘क्या है, जल्दी से बता?’

‘‘‘सूरज से पता चला है, इस वर्ष के आखिर में वह किसी और स्कूल में भरती होने वाला है.’

‘‘‘कहां? फिर मैं सूरज और मां को कैसे देखूंगी?’

‘‘‘उदास मत हो, किरण. इस का हल भी मैं ने ढूंढ़ लिया है. मैं ने सूरज से उन के घर का पता ले लिया है. साथ ही, सूरज ने बताया कि शनिवार को शौपिंग के बाद वह और मां माथा टेकने के लिए सोहोरोड गुरुद्वारे जाते हैं. वहां लंगर भी चखते हैं.’

‘‘‘यह तो बहुत अच्छा किया.’

‘‘पिज्जा खाने के बाद हम दोनों अपनेअपने घर चले गए. परीक्षा नजदीक आ रही थी. बिक्की की डांट तो खा चुकी थी. मेरा मां को देखने का लुकाछिपी का क्रम चलता रहा. चौकलेट ने हमारी सूरज से अच्छी दोस्ती करवा दी थी.

‘‘‘चाइल्ड प्रोटैक्शन ऐक्ट’ के अंतर्गत वे मुझे अपने साथ ले गए. मां के चेहरे पर पछतावे के कोई चिह्न न थे. न ही उन्होंने मुझे रोकने का ही प्रयास किया. पिता का पता नहीं था. मां भी छूट गई. मानो, मुझे एक मिट्टी की गुडि़या समझ कर कहीं रख कर भूल गई हों. चिल्ड्रंस होम में एक और अनाथ की भरती हो गई.

‘‘वहां में सब ने मेरा खुली बांहों से स्वागत किया. एक तसल्ली थी, वहां मेरे जैसे और भी कई बच्चे थे. मेरे देखतेदेखते कितने बच्चे आए और चले गए. बिक्की और मेरा कमरा सांझा था. बिक्की और मेरा स्कूल भी एक ही था. वीकेंड में सभी बच्चों के फोन आते तो मेरे कानों का एंटीना (एरियल) भी खड़ा हो जाता. लेकिन मां का फोन कभी नहीं आया. लगता था मां मुझे हमेशा के लिए भूल गई थीं. अब बिक्की ही मेरी लाइफलाइन थी. हम दोनों की बहुत पटती थी. पढ़ाई में भी होड़ लगा करती थी. बिक्की के प्यार तथा चिल्ड्रंस होम के सदस्यों के सहयोग से धीरेधीरे मैं ने स्वयं को समेटना आरंभ कर दिया.

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अंधविश्वास से आत्मविश्वास तक: भाग 2- क्या नरेन के मन का अंधविश्वास दूर हो पाया

अभी तक तो नरेन स्वयं जा कर स्वामीजी के निवास पर ही मिल आता था, पर उसे नहीं मालूम था कि इस बार नरेन इन को सीधे घर ही ले आएगा.

वह लेटी हुई मन ही मन स्वामीजी को जल्दी से जल्दी घर से भगाने की योजना बना रही थी कि तभी डोरबेल बज उठी. ‘लगता है बच्चे आ गए‘ उस ने चैन की सांस ली. उस से घर में सहज नहीं रहा
जा रहा था. उस ने उठ कर दरवाजा खोला. दोनों बच्चे शोर मचाते घर में घुस गए. थोड़ी देर के लिए वह सबकुछ भूल गई.

शाम को नरेन औफिस से लगभग 7 बजे घर आया. वह चाय बनाने किचन में चली गई, तभी नरेन भी किचन में आ गया और पूछने लगा, “स्वामीजी को चाय दे दी थी…?”

“किसी ने कहा ही नहीं चाय बनाने के लिए… फिर स्वामी लोग चाय भी पीते हैं क्या..?” वह व्यंग्य से बोली.

“पूछ तो लेती… ना कहते तो कुछ अनार, मौसमी वगैरह का जूस निकाल कर दे
देती…”

रवीना का दिल किया फट जाए, पर खुद पर काबू रख वह बोली, “मैं ऊपर जा कर कुछ नहीं पूछूंगी नरेन… नीचे आ कर कोई बता देगा तो ठीक है.”

नरेन बिना जवाब दिए भन्नाता हुआ ऊपर चला गया और 5 मिनट में नीचे आ गया, “कुछ फलाहार का प्रबंध कर दो.”

“फलाहार…? घर में तो सिर्फ एक सेब है और 2 ही संतरे हैं… वही ले जाओ…”

“तुम भी न रवीना… पता है, स्वामीजी घर में हैं… सुबह से ला नहीं सकती थी..?”

“तो क्या… तुम्हारे स्वामीजी को ताले में बंद कर के चली जाती… तुम्हारे स्वामीजी हैं,
तुम्हीं जानो… फल लाओ, जल लाओ… चाहते हो उन को खाना मिल जाए तो मुझे मत भड़काओ…”

नरेन प्लेट में छुरी व सेब, संतरा रख उसे घूरता हुआ चला गया.

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“अपनी चाय तो लेते जाओ…” रवीना पीछे से आवाज देती रह गई. उस ने बेटे के हाथ चाय ऊपर भेज दी और रात के खाने की तैयारी में जुट गई. थोड़ी देर में नरेन नीचे उतरा.

“रवीना खाना लगा दो… स्वामीजी का भी… और तुम व बच्चे भी खा लो…” वह
प्रसन्नचित्त मुद्रा में बोला, “खाने के बाद स्वामीजी के मधुर वचन सुनने को मिलेंगे… तुम ने कभी उन के प्रवचन नहीं सुने हैं न… इसलिए तुम्हें श्रद्धा नहीं है… आज सुनो और देखो… तुम खुद समझ जाओगी कि स्वामीजी कितने ज्ञानी, ध्यानी व पहुंचे हुए हैं…”

“हां, पहुंचे हुए तो लगते हैं…” रवीना होंठों ही होंठों में बुदबुदाई. उस ने थालियों में खाना लगाया. नरेन दोनों का खाना ऊपर ले गया. इतनी देर में रवीना ने बच्चों को फटाफट खाना खिला कर सुला दिया और उन के कमरे की लाइट भी बंद कर दी.

स्वामीजी का खाना खत्म हुआ, तो नरेन उन की छलकती थाली नीचे ले आया. रवीना ने अपना व
नरेन का खाना भी लगा दिया. खाना खा कर नरेन स्वामीजी को देखने ऊपर चला गया. इतनी देर में रवीना किचन को जल्दीजल्दी समेट कर चादर मुंह तक तान कर सो गई. थोड़ी देर में नरेन उसे बुलाने आ गया.

“रवीना, चलो तुम्हें व बच्चों को स्वामीजी बुला रहे हैं…” पहले तो रवीना ने सुनाअनसुना कर दिया. लेकिन जब नरेन ने झिंझोड़ कर जगाया तो वह उठ बैठी.

“नरेन, बच्चों को तो छेड़ना भी मत… बच्चों ने सुबह स्कूल जाना है… और मेरे सिर में दर्द हो रहा है… स्वामीजी के प्रवचन सुनने में मेरी वैसे भी कोई रुचि नहीं है… तुम्हें है, तुम्हीं सुन लो..” वह पलट कर चादर तान कर फिर सो गई.

नरेन गुस्से में दांत पीसता हुआ चला गया. स्वामीजी को रहते हुए एक हफ्ता हो
गया था. रवीना को एकएक दिन बिताना भारी पड़ रहा था. वह समझ नहीं पा रही थी, कैसे मोह भंग करे नरेन का.

रवीना का दिल करता,
कहे कि स्वामीजी अगर इतने महान हैं तो जाएं किसी गरीब के घर… जमीन पर सोएं, साधारण खाना खाएं, गरीबों की मदद करें, यहां क्या कर रहे हैं… उन्हें गाड़ियां, आलिशान घर, सुखसाधन संपन्न भक्त की भक्ति ही क्यों प्रभावित करती है… स्वामीजी हैं तो
सांसारिक मोहमाया का त्याग क्यों नहीं कर देते. लेकिन मन मसोस कर रह जाती.

दूसरे दिन वह घर के काम से निबट, नहाधो कर निकली ही थी कि उस की 18 साला भतीजी पावनी का फोन आया कि उस की 2-3 दिन की छुट्टी है और वह उस के पास रहने
आ रही है. एक घंटे बाद पावनी पहुंच गई. वह तो दोनों बच्चों के साथ मिल कर घर का कोनाकोना हिला देती थी.

चचंल हिरनी जैसी बेहद खूबसूरत पावनी बरसाती नदी जैसी हर वक्त उफनतीबहती रहती थी. आज भी उस के आने से घर में एकदम शोरशराबे का
बवंडर उठ गया, “अरे, जरा धीरे पावनी,” रवीना उस के होंठों पर हाथ रखती हुई बोली.

“पर, क्यों बुआ… कर्फ्यू लगा है क्या…?”

“हां दी… स्वामीजी आए हैं…” रवीना के बेटे शमिक ने अपनी तरफ से बहुत धीरे से जानकारी दी, पर शायद पड़ोसियों ने भी सुन ली हो.
“अरे वाह, स्वामीजी…” पावनी खुशी से चीखी, “कहां है…बुआ, मैं ने कभी सचमुच के स्वामीजी नहीं देखे… टीवी पर ही देखे हैं,” सुन कर रवीना की हंसी छूट गई.

“मैं देख कर आती हूं… ऊपर हैं न? ” रवीना जब तक कुछ कहती, तब तक चीखतेचिल्लाते तीनों बच्चे ऊपर भाग गए.

रवीना सिर पकड़ कर बैठ गई. ‘अब हो गई स्वामीजी के स्वामित्व की छुट्टी…‘ पर
तीनों बच्चे जिस तेजी से गए, उसी तेजी से दनदनाते हुए वापस आ गए.

“बुआ, वहां तो आम से 2 नंगधड़ंग आदमी, भगवा तहमद लपेटे बिस्तर पर लेटे
हैं… उन में स्वामीजी जैसा तो कुछ भी नहीं लग रहा…”

“आम आदमी के दाढ़ी नहीं होती दी… उन की दाढ़ी है..” शमिक ने अपना ज्ञान बघारा.

“हां, दाढ़ी तो थी…” पावनी कुछ सोचती हुई बोली, “स्वामीजी क्या ऐसे ही होते हैं…”

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पावनी ने बात अधूरी छोड़ दी. रवीना समझ गई, “तुझे कहा किस ने था इस तरह ऊपर जाने को… आखिर पुरुष तो पुरुष ही होता है न… और स्वामी लोग भी पुरुष ही होते हैं..”

“तो फिर वे स्वामी क्यों कहलाते हैं?”

इस बात पर रवीना चुप हो गई. तभी उस की नजर ऊपर उठी. स्वामीजी का चेला ऊपर खड़ा नीचे उन्हीं लोगों को घूर रहा था, कपड़े पहन कर..

“चल पावनी, अंदर चल कर बात करते हैं…” रवीना को समझ नहीं आ रहा था क्या
करे. घर में बच्चे, जवान लड़की, तथाकथित स्वामी लोग… उन की नजरें, भाव भंगिमाएं, जो एक स्त्री की तीसरी आंख ही समझ सकती है. पर नरेन को नहीं समझा सकती.

ऐसा कुछ कहते ही नरेन तो घर की छत उखाड़ कर रख देगा. स्वामीजी का चेला अब हर बात के लिए नीचे मंडराने लगा था.

रवीना को अब बहुत उकताहट हो रही थी. उस से अब यहां स्वामीजी का रहना किसी भी तरह से बरदाश्त नहीं हो पा रहा था.

दूसरे दिन वह रात को किचन में खाना बना रही थी. नरेन औफिस से आ कर वाशरूम में फ्रेश होने चला गया था. इसी बीच रवीना बाहर लौबी में आई, तो उस की नजर डाइनिंग टेबल पर रखे चेक पर पड़ी.
उस ने चेक उठा कर देखा. स्वामीजी के आश्रम के नाम 10,000 रुपए का चेक था.

यह देख रवीना के तनबदन में आग लग गई. घर के खर्चों व बच्चों के लिए नरेन हमेशा कजूंसी करता रहता है. लेकिन स्वामीजी को देने के लिए 10,000 रुपए निकल गए… ऊपर से इतने दिन से जो खर्चा हो रहा है वो अलग. तभी नरेन बाहर आ गया.

“यह क्या है नरेन…?”

“क्या है मतलब…?”

“यह चेक…?”

“कौन सा चेक..?”

आगे पढ़ें- कुछ सोच कर नरेन ऊपर…

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अंधविश्वास से आत्मविश्वास तक: भाग 1- क्या नरेन के मन का अंधविश्वास दूर हो पाया

“देवी, स्वामीजी को गरमागरम फुल्का चाहिए,” स्वामीजी के साथ आए चेले ने कहा.

रोटी सेंकती रवीना का दिल किया, चिमटा उठा कर स्वामीजी के चेले के सिर पर दे मारे. जिस की निगाहें वह कई बार अपने बदन पर फिसलते महसूस कर जाती थी.

“ला रही हूं….” न चाहते हुए भी उस की आवाज में तल्खी घुल गई.

तवे की रोटी पलट, गरम रोटी की प्लेट ले कर वह सीढ़ी चढ़ कर ऊपर चली गई.

आखिरी सीढ़ी पर खड़ी हो उस ने एकाएक पीछे मुड़ कर देखा तो स्वामीजी का चेला मुग्ध भाव से उसे ही देख रहा था. लेकिन जब अपना ही सिक्का खोटा हो, तो कोई क्या करे.

वह अंदर स्वामीजी के कमरे में चली गई.

स्वामीजी ने खाना खत्म कर दिया था और तृप्त भाव से बैठे थे. उसे देख कर वे भी लगभग उसी मुग्ध भाव से मुसकराए, “मेरा भोजन तो खत्म हो गया देवी… फुल्का लाने में तनिक देर हो गई… अब नहीं खाया जाएगा…”

‘उफ्फ… सत्तर नौकर लगे हैं न यहां… स्वामीजी के तेवर तो देखो,‘ फिर भी वह उन के सामने बोली, “एक फुल्का और ले लीजिए, स्वामीजी…”

“नहीं देवी, बस… तनिक हाथ धुलवा दें…” रवीना ने वाशरूम की तरफ नजर दौड़ाई.

वाशबेसिन के इस जमाने में भी जब हाथ धुलाने के लिए कोई कोमलांगी उपलब्ध हो तो ‘कोई वो क्यों चाहे… ये न चाहे‘ रवीना ने बिना कुछ कहे पानी का लोटा उठा लिया, “कहां हाथ धोएंगे स्वामीजी…”

“यहीं, थाली में ही धुलवा दें…” स्वामीजी ने वहीं थाली में हाथ धोया और कुल्ला भी कर दिया.

यह देख रवीना का दिल अंदर तक कसमसा गया. पर किसी तरह छलकती
थाली उठा कर वह नीचे ले आई.

स्वामीजी के चेले को वहीं डाइनिंग टेबल पर खाना दे कर उस ने बेडरूम में घुस कर दरवाजा बंद कर दिया. अब कोई बुलाएगा भी तो वह जाएगी नहीं, जब तक बच्चे स्कूल से आ नहीं जाते.

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40 वर्षीया रवीना खूबसूरत, शिक्षित, स्मार्ट, उच्च पदस्थ अधिकारी की पत्नी,
अंधविश्वास से कोसों दूर, आधुनिक विचारों से लवरेज महिला थी, पर पति नरेन का क्या करे, जो उच्च शिक्षित व उच्च पद पर तो था, पर घर से मिले संस्कारों की वजह से घोर अंधविश्वासी था. इस वजह से रवीना व नरेन में जबतब ठन जाती थी.

इस बार नरेन जब कल टूर से लौटा तो स्वामीजी और उन का चेला भी साथ थे. उन्हें देख कर वह मन ही मन तनावग्रस्त गई. समझ गई, अब यह 1-2 दिन का किस्सा नहीं है.

कुछ दिन तक तो उसे इन तथाकथित स्वामीजी की बेतुकी बातें, बेहूदी निगाहें व उपस्थिति झेलनी ही पड़ेगी.

स्वामीजी को सोफे पर बैठा कर नरेन जब कमरे में कपड़े बदलने गया तो वह पीछेपीछे चली आई.

“नरेन, कौन हैं ये दोनों… कहां से पकड़ लाए हो इन को?”

“तमीज से बात करो रवीना… ऐसे महान लोगों का अपमान करना तुम्हें शोभा नहीं देता…

“लौटते हुए स्वामीजी के आश्रम में चला गया था… स्वामीजी की सेहत कुछ ठीक नहीं चल रही है… इसलिए पहाड़ी स्थान पर हवा बदलने के लिए आ गए… उन की सेवा में कोई
कोताही नहीं होनी चाहिए…”

यह सुन कर रवीना पसीनापसीना हो गई, “कुछ दिन का क्या मतलब है… तुम औफिस चले जाओगे और बच्चे स्कूल… और मैं इन दो मुस्टंडों के साथ घर पर अकेली रहूंगी… मुझे
डर लगता है ऐसे बाबाओं से… इन के रहने का बंदोबस्त कहीं घर से बाहर करो…” रवीना गुस्से में बोली.

“वे यहीं रहेंगे घर पर…” नरेन रवीना के गुस्से को दरकिनार कर तैश में बोला, “औरतों की तो आदत ही होती है हर बात पर शिकायत करने की… मुझ में दूसरा कोई व्यसन नहीं… लेकिन, तुम्हें मेरी ये सात्विक आदतें भी बरदाश्त नहीं होतीं… आखिर यह मेरा भी घर है…”

“घर तो मेरा भी है…” रवीना तल्खी से बोली, “जब मैं तुम से बिना पूछे कुछ नहीं करती… तो तुम क्यों करते हो…?”

“ऐसा क्या कर दिया मैं ने…” नरेन का क्रोधित स्वर ऊंचा होने लगा, “हर बात पर तुम्हारी टोकाटाकी मुझे पसंद नहीं… जा कर स्वामीजी के लिए खानपान व स्वागतसत्कार का इंतजाम करो,” कह कर नरेन बातचीत पर पूर्णविराम लगा बाहर निकल गया. रवीना के सामने कोई चारा नहीं था, वह भी किचन में चली गई.

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नरेन का दिमाग अनेकों अंधविश्वासों व विषमताओं से भरा था. वह अकसर ही ऐसे लोगों के संपर्क में रहता और उन के बताए टोटके घर में आजमाता रहता, साथ ही घर में सब को ऐसा करने के लिए मजबूर करता.

यह देख रवीना परेशान हो जाती. उसे अपने बच्चे इन सब बातों से दूर रखने मुश्किल हो रहे थे.

घर का नजारा तब और भी दर्शनीय हो जाता, जब उस की सास उन के साथ रहने
आती. सासू मां सुबह पूजा करते समय टीवी पर आरती लगवा देतीं और अपनी पूजा खत्म कर, टीवी पर रोज टीका लगा कर अक्षत चिपका कर, टीवी के सामने जमीन पर लंबा लेट कर शीश नवातीं.

कई बार तो रोकतेरोकते भी रवीना की हंसी छूट जाती. ऐसे वक्तबेवक्त के आडंबर उसे उकता देते थे और जब माताजी मीलों दूर अमेरिका में बैठी अपनी बेटी की मुश्किल से पैदा हुई संतान की नजर यहां भारत में वीडियो काल करते समय उतारती तो उस के लिए पचाना मुश्किल हो जाता.

नरेन को शहर से कहीं बाहर जाना होता तो मंगलवार व शनिवार के दिन बिलकुल नहीं जाना चाहता. उस का कहना था कि ये दोनों दिन शुभ नहीं होते. बिल्ली का
रास्ता काटना, चलते समय किसी का छींकना तो नरेन का मूड ही खराब देता.

घर गंदा देख कर शाम को यदि वह गलती से झाड़ू हाथ में उठा लेती तो नरेन
जमीनआसमान एक कर देता है, ‘कब अक्ल आएगी तुम्हें… शाम को व रात को घर में झाड़ू नहीं लगाया जाता… अशुभ होता है..‘ वह सिर पीट लेती, “ऐसा करो नरेन…एक दिन
बैठ कर शुभअशुभ की लिस्ट बना दो..”

शादी के बाद जब उस ने नरेन को सुबहशाम एक एक घंटे की लंबी पूजा करते देखा तो वह हैरान रह गई. इतनी कम उम्र से ही नरेन इतना अधिक धर्मभीरू कैसे और क्यों हो गया.

पर, जब नरेन ने स्वामी व बाबाओं के चक्कर में आना शुरू कर दिया, तो वह
सतर्क हो गई. उस ने सारे साम, दाम, दंड, भेद अपनाए, नरेन को बाबाओं के चंगुल से बाहर निकालने के लिए, पर सफल न हो पाई और इन स्वामी सदानंद के चक्कर में तो वह नरेन को पिछले कुछ सालों से पूरी तरह से उलझते देख रही थी.

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थोड़ा सा इंतजार: क्या वापस मिल पाया तनुश्री और वेंकटेश को परिवार का प्यार

लेेखक- संतोष झांझी

बरसों बाद अभय को उसी जगह खड़ा देख कर तनुश्री कोई गलती नहीं दोहराना चाहती थी. कई दिनों से तनुश्री अपने बेटे अभय को कुछ बेचैन सा देख रही थी. वह समझ नहीं पा रही थी कि अपनी छोटी से छोटी बात मां को बताने वाला अभय अपनी परेशानी के बारे में कुछ बता क्यों नहीं रहा है. उसे खुद बेटे से पूछना कुछ ठीक नहीं लगा.

आजकल बच्चे कुछ अजीब मूड़ हो गए हैं, अधिक पूछताछ या दखलंदाजी से चिढ़ जाते हैं. वह चुप रही. तनुश्री को किचन संभालते हुए रात के 11 बज चुके थे. वह मुंहहाथ धोने के लिए बाथरूम में घुस गई. वापसी में मुंह पोंछतेपोंछते तनुश्री ने अभय के कमरे के सामने से गुजरते हुए अंदर झांक कर देखा तो वह किसी से फोन पर बात कर रहा था. वह एक पल को रुक कर फोन पर हो रहे वार्तालाप को सुनने लगी. ‘‘तुम अगर तैयार हो तो हम कोर्ट मैरिज कर सकते हैं…नहीं मानते न सही…नहीं, अभी मैं ने अपने मम्मीपापा से बात नहीं की…उन को अभी से बता कर क्या करूं? पहले तुम्हारे घर वाले तो मानें…रोना बंद करो. यार…उपाय सोचो…मेरे पास तो उपाय है, तुम्हें पहले ही बता चुका हूं…’’ तनुश्री यह सब सुनने के बाद दबेपांव अपने कमरे की ओर बढ़ गई. पूरी रात बिस्तर पर करवटें बदलते गुजरी.

अभय की बेचैनी का कारण उस की समझ में आ चुका था. इतिहास अपने आप को एक बार फिर दोहराना चाहता है, पर वह कोशिश जरूर करेगी कि ऐसा न हो, क्योंकि जो गलती उस ने की थी वह नहीं चाहती थी कि वही गलती उस के बच्चे करें. तनुश्री अतीत की यादों में डूब गई. सामने उस का पूरा जीवन था. कहने को भरापूरा सुखी जीवन. अफसर पति, जो उसे बेहद चाहते हैं. 2 बेटे, एक इंजीनियर, दूसरा डाक्टर. पर इन सब के बावजूद मन का एक कोना हमेशा खाली और सूनासूना सा रहा. क्यों? मांबाप का आशीर्वाद क्या सचमुच इतना जरूरी होता है? उस समय वह क्यों नहीं सोच पाई यह सब? प्रेमी को पति के रूप में पाने के लिए उस ने कितने ही रिश्ते खो दिए. प्रेम इतना क्षणभंगुर होता है कि उसे जीवन के आधार के रूप में लेना खुद को धोखा देने जैसा है. बच्चों को भी कितने रिश्तों से जीवन भर वंचित रहना पड़ा.

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कैसा होता है नानानानी, मामामामी, मौसी का लाड़प्यार? वे कुछ भी तो नहीं जानते. उसी की राह पर चलने वाली उस की सहेली कमला और पति वेंकटेश ने भी यही कहा था, ‘प्रेम विवाह के बाद थोड़े दिनों तक तो सब नाराज रहते हैं लेकिन बाद में सब मान जाते हैं.’ और इस के बहुत से उदाहरण भी दिए थे, पर कोई माना? पिछले साल पिताजी के गुजरने पर उस ने इस दुख की घड़ी में सोचा कि मां से मिल आती हूं. वेंकटेश ने एक बार उसे समझाने की कोशिश की, ‘तनु, अपमानित होना चाहती हो तो जाओ. अगर उन्हें माफ करना होता तो अब तक कर चुके होते. 26 साल पहले अभय के जन्म के समय भी तुम कोशिश कर के देख चुकी हो.’ ‘पर अब तो बाबा नहीं हैं,’ तनुश्री ने कहा था.

‘पहले फोन कर लो तब जाना, मैं तुम्हें रोकूंगा नहीं.’ तनुश्री ने फोन किया. किसी पुरुष की आवाज थी. उस ने कांपती आवाज में पूछा, ‘आप कौन बोल रहे हैं?’ ‘मैं तपन सरकार बोल रहा हूं और आप?’ तपन का नाम और उस की आवाज सुनते ही तनुश्री घबरा सी गई, ‘तपन… तपन, हमारे खोकोन, मेरे प्यारे भाई, तुम कैसे हो. मैं तुम्हारी बड़ी दीदी तनुश्री बोल रही हूं?’ कहतेकहते उस की आवाज भर्रा सी गई थी. ‘मेरी तनु दीदी तो बहुत साल पहले ही मर गई थीं,’ इतना कह कर तपन ने फोन पटक दिया था. वह तड़पती रही, रोती रही, फिर गंभीर रूप से बीमार पड़ गई. पति और बच्चों ने दिनरात उस की सेवा की. सामाजिक नियमों के खिलाफ फैसले लेने वालों को मुआवजा तो भुगतना ही पड़ता है. तनुश्री ने भी भुगता. शादी के बाद वेंकटेश के मांबाप भी बहुत दिनों तक उन दोनों से नाराज रहे. वेंकटेश की मां का रिश्ता अपने भाई के घर से एकदम टूट गया.

कारण, उन्होंने अपने बेटे के लिए अपने भाई की बेटी का रिश्ता तय कर रखा था. फिर धीरेधीरे वेंकटेश के मांबाप ने थोड़ाबहुत आना- जाना शुरू कर दिया. अपने इकलौते बेटे से आखिर कब तक वह दूर रहते पर तनुश्री से वे जीवन भर ख्ंिचेख्ंिचे ही रहे. जिस तरह तनुश्री ने प्रेमविवाह किया था उसी तरह उस की सहेली कमला ने भी प्रेमविवाह किया था. तनुश्री की कोर्ट मैरिज के 4 दिन पहले कमला और रमेश ने भी कोर्ट मैरिज कर ली थी. उन चारों ने जो कुछ सोचा था, नहीं हुआ. दिनों से महीने, महीनों से साल दर साल गुजरते गए. दोनों के मांबाप टस से मस नहीं हुए. उस तनाव में कमला चिड़चिड़ी हो गई. रमेश से उस के आएदिन झगड़े होने लगे. कई बार तनुश्री और वेंकटेश ने भी उन्हें समझाबुझा कर सामान्य किया था. रमेश पांडे परिवार का था और कमला अग्रवाल परिवार की. उस के पिताजी कपड़े के थोक व्यापारी थे. समाज और बाजार में उन की बहुत इज्जत थी. परिवार पुरातनपंथी था. उस हिसाब से कमला कुछ ज्यादा ही आजाद किस्म की थी.

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एक दिन प्रेमांध कमला रायगढ़ से गाड़ी पकड़ कर चुपचाप नागपुर रमेश के पास पहुंच गई. रमेश की अभी नागपुर में नईनई नौकरी लगी थी. वह कमला को इस तरह वहां आया देख कर हैरान रह गया. रमेश बहुत समझदार लड़का था. वह ऐसा कोई कदम उठाना नहीं चाहता था, पर कमला घर से बाहर पांव निकाल कर एक भूल कर चुकी थी. अब अगर वह साथ न देता तो बेईमान कहलाता और कमला का जीवन बरबाद हो जाता. अनिच्छा से ही सही, रमेश को कमला से शादी करनी पड़ी. फिर जीवन भर कमला के मांबाप ने बेटी का मुंह नहीं देखा. इस के लिए भी कमला अपनी गलती न मान कर हमेशा रमेश को ही ताने मारती रहती. इन्हीं सब कारणों से दोनों के बीच दूरी बढ़ती जा रही थी. तनुश्री के बाबा की भी बहुत बड़ी फैक्टरी थी. वहां वेंकटेश आगे की पढ़ाई करते हुए काम सीख रहा था. भिलाई में जब कारखाना बनना शुरू हुआ, वेंकटेश ने भी नौकरी के लिए आवेदन कर दिया. नौकरी लगते ही दोनों ने भाग कर शादी कर ली और भिलाई चले आए. बस, उस के बाद वहां का दानापानी तनुश्री के भाग्य में नहीं रहा.

सालोंसाल मांबाप से मिलने की उम्मीद लगाए वह अवसाद से घिरती गई. जीवन जैसे एक मशीन बन कर रह गया. वह हमेशा कुछ न कर पाने की व्यथा के साथ जीती रही. शादी के बाद कुछ महीने इस उम्मीद में गुजरे कि आज नहीं तो कल सब ठीक हो जाएगा. जब अभय पेट में आया तो 9 महीने वह हर दूसरे दिन मां को पत्र लिखती रही. अभय के पैदा होने पर उस ने क्षमा मांगते हुए मां के पास आने की इजाजत मांगी. तनुश्री ने सोचा था कि बच्चे के मोह में उस के मांबाप उसे अवश्य माफ कर देंगे. कुछ ही दिन बाद उस के भेजे सारे पत्र ज्यों के त्यों बंद उस के पास वापस आ गए.

वेंकटेश अपने पुराने दोस्तों से वहां का हालचाल पूछ कर तनुश्री को बताता रहता. एकएक कर दोनों भाइयों और बहन की शादी हुई पर उसे किसी ने याद नहीं किया. बड़े भाई की नई फैक्टरी का उद्घाटन हुआ. बाबा ने वहीं हिंद मोटर कसबे में तीनों बच्चों को बंगले बनवा कर गिफ्ट किए, तब भी किसी को तनु याद नहीं आई. वह दूर भिलाई में बैठी हुई उन सारे सुखों को कल्पना में देखती रहती और सोचती कि क्या मिला इस प्यार से उसे? इस प्यार की उसे कितनी बड़ी कीमत अदा करनी पड़ी. एक वेंकटेश को पाने के लिए कितने प्यारे रिश्ते छूट गए. कितने ही सुखों से वह वंचित रह गई.

बाबा ने छोटी अपूर्वा की शादी कितने अच्छे परिवार में और कितने सुदर्शन लड़के के साथ की. बहन को भी लड़का दिखा कर उस की रजामंदी ली थी. कितनी सुखी है अपूर्वा…कितना प्यार करता है उस का पति…ऐसा ही कुछ उस के साथ भी हुआ होता. प्यार…प्यार तो शादी के बाद अपने आप हो जाता है. जब शादी की बात चलती है…एकदूसरे को देख कर, मिल कर अपनेआप वह आकर्षण पैदा हो जाता है जिसे प्यार कहते हैं. प्यार करने के बाद शादी की हो या शादी के बाद प्यार किया हो, एक समय बाद वह एक बंधाबंधाया रुटीन, नमक, तेल, लकड़ी का चक्कर ही तो बन कर रह जाता है. कच्ची उम्र में देखा गया फिल्मी प्यार कुछ ही दिनों बाद हकीकत की जमीन पर फिस्स हो जाता है पर अपने असाध्य से लगते प्रेम के अधूरेपन से हम उबर नहीं पाते. हर चीज दुहराई जाती है. संपूर्ण होने की संभावना ले कर पर सब असंपूर्ण, अतृप्त ही रह जाता है. अगले दिन सुबह तनुश्री उठी तो उस के चेहरे पर वह भाव था जिस में साफ झलकता है कि जैसे कोई फैसला सोच- समझ कर लिया गया है. तनुश्री ने उस लड़की से मिलने का फैसला कर लिया था. उसे अभय की इस शादी पर कोई एतराज नहीं था. उसे पता है कि अभय बहुत समझदार है. उस का चुनाव गलत नहीं होगा. अभय भी वेंकटेश की तरह परिपक्व समझ रखता है.

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पर कहीं वह लड़की उस की तरह फिल्मों के रोमानी संसार में न उड़ रही हो. वह नहीं चाहती थी कि जो कुछ जीवन में उस ने खोया, उस की बहू भी जीवन भर उस तनाव में जीए. अभय ने मां से काव्या को मिलवा दिया. किसी निश्चय पर पहुंचने के लिए दिल और दिमाग का एकसाथ खड़े रहना जरूरी होता है. तनुश्री काव्या को देख सोच रही थी क्या यह चेहरा मेरा अपना है? किस क्षण से हमारे बदलने की शुरुआत होती है, हम कभी समझ नहीं पाते. तनुश्री ने अभय को आफिस जाने के लिए कह दिया. वह काव्या के साथ कुछ घंटे अकेले रहना चाहती थी. दिन भर दोनों साथसाथ रहीं.

काव्या के विचार तनुश्री से काफी मिलतेजुलते थे. तनु ने अपने जीवन के सारे पृष्ठ एकएक कर अपनी होने वाली बहू के समक्ष खोल दिए. कई बार दोनों की आंखें भी भर आईं. दोनों एकमत थीं, प्रेम के साथसाथ सारे रिश्तों को साथ ले कर चलना है. एक सप्ताह बाद उदास अभय मां के घुटनों पर सिर रखे बता रहा था, ‘‘काव्या के मांबाप इस शादी के खिलाफ हैं. मां, काव्या कहती है कि हमें उन के हां करने का इंतजार करना होगा. उस का कहना है कि वह कभी न कभी तो मान ही जाएंगे.’’ ‘‘हां, तुम दोनों का प्यार अगर सच्चा है तो आज नहीं तो कल उन्हें मानना ही होगा. इस से तुम दोनों को भी तो अपने प्रेम को परखने का मौका मिलेगा,’’ तनुश्री ने बेटे के बालों में उंगलियां फेरते हुए कहा, ‘‘मैं भी काव्या के मांबाप को समझाने का प्रयास करूंगी.’’ ‘‘मेरी समझ में कुछ नहीं आता, मैं क्या करूं, मां,’’ अभय ने पहलू बदलते हुए कहा. ‘‘बस, तू थोड़ा सा इंतजार कर,’’ तनुश्री बोली. ‘‘इंतजार…कब तक…’’ अभय बेचैनी से बोला.

‘‘सभी का आशीर्वाद पाने तक का इंतजार,’’ तनुश्री ने कहा. वह सोचने लगी कि आज के बच्चे बहुत समझदार हैं. वे इंतजार कर लेंगे. आपस में मिलबैठ कर एकदूसरे को समझाने और समझने का समय है उन के पास. हमारे पास वह समय ही तो नहीं था, न टेलीफोन और न मोबाइल ताकि एकदूसरे से लंबी बातचीत कर कोई हल निकाल सकते. आज बच्चे कोई भी कदम उठाने से पहले एकदूसरे से बात कर सकते हैं…एकदूसरे को समझा सकते हैं. समय बदल गया है तो सुविधा और सोच भी बदल गई है. जीवन कितना रहस्यमय होता है. कच्चे दिखने वाले तार भी जाने कहांकहां मजबूती से जुड़े रहते हैं, यह कौन जानता है.

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