जिंदगी: भाग 2- क्यों अभिनव से नफरत करने लगी सुनैना

अचानक एक मोड़ पार करते ही सामने से आती कार की वजह से अनुभव का बैलेंस बिगड़ा और बाइक तेजी से फिसलती हुई रोड के किनारे घिसटती चली गई. अनुभव ने तो किसी तरह खुद को नीचे गिरने से बचा लिया, मगर मैं घाटी में नीचे गिरने लगी. तभी मेरे हाथ एक पेड़ का तना लग गया और पैर के नीचे चट्टान का कोई कोना आ गया. मैं ने किसी तरह खुद को गहरी घाटी में गिरने से बचाया और बीच में लटकी हुई हैल्प के लिए अनुभव को आवाज देने लगी.

अनुभव ने नीचे  झांका और सहायता करने का वादा करता हुआ पीछे की

तरफ हो गया. मु झे लगा वह मेरी मदद के लिए कोई रस्सी या कुछ और ढूंढ़ने की कोशिश कर रहा होगा. मु झे उम्मीद थी कि वह जरूर किसी जाने वाली गाड़ी को भी रोक लेगा और मदद करने को कहेगा. मगर इस बात को काफी समय बीत गया और वह नहीं आया. मैं चिल्लाती रही. अब पेड़ का तना मेरे हाथ से छूटने वाला था. डर से मेरा पूरा शरीर कांप रहा था. हाथ छूटते ही मैं हजारों फुट गहरी खाई में गिर जाती. अनुभव ने दोबारा एक बार भी नहीं  झांका. शायद वह वहां से जा चुका था.

तभी एक बच्चे ने चिल्ला कर मु झे पुकारा. फिर वह अपने पापा को पुकारने लगा. मु झे नई आस बंधी कि शायद मैं बच जाऊं. तभी बच्चे के पिता ने नीचे  झांका और 2-3 मिनट के अंदर दुपट्टों और कमीजों को जोड़ कर बनाई गई रस्सी नीचे लटकने लगी. मैं ने रस्सी पकड़ ली और उन लोगों ने तेजी से मु झे ऊपर खींच लिया. ऊपर पहुंच कर मेरी जान में जान आई. अभी भी मैं डर कर कांप रही थी. मौत मु झे बिलकुल करीब से छू कर निकली थी.

मैं ने बच्चे को प्यार से चूमा और सब को धन्यवाद कहा. वे करीब 8-10 लोग थे जो सपरिवार घूमने निकले थे. बच्चे को सूसू कराने के लिए उन्होंने गाड़ी रोकी थी. तभी बच्चे ने मु झे देख लिया. मेरे हाथपैर जगहजगह से छिल गए थे. मु झे अनुभव कहीं भी नजर नहीं आ रहा था. मैं सम झ गई थी कि वह मु झे परेशानी में अकेला छोड़ कर भाग चुका.

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तभी उन लोगों ने मु झे गाड़ी में बैठने को कहा. वे मु झे अस्पताल पहुंचा कर चले गए. मैं ने अपने घर वालों को फोन किया. अगली सुबह मेरी मां और पापा आ कर मु झे घर ले गए.

इस घटना ने मेरी जिंदगी और मेरी सोच को पूरी तरह बदल कर रख दिया. मैं सम झ गई कि जिंदगी बहुत छोटी है और इस का अंत कभी भी हो सकता है. इस छोटी सी जिंदगी में अपनों को कभी दर्द नहीं पहुंचाना चाहिए, साथ ही मु झे महसूस हो चुका था कि अब अनुभव की मेरी जिंदगी में कोई जगह नहीं. अब मैं उस से बात भी करना नहीं चाहती थी. मैं ने उसे अपनी अपनी जिंदगी से निकाल दिया था. वैसे भी मेरा फोन घाटी में गिर चुका था. नए मोबाइल के साथ मैं ने सिम भी नई ले ली थी.

अनुभव मेरे घर का पता नहीं जानता था. उसे केवल मेरे इंस्टिट्यूट का पता मालूम था.

मेरे लिए यह राहत की बात थी कि मेरी पढ़ाई

भी 1 महीने में खत्म होने वाली थी. छुट्टियों के बाद हमें केवल ऐग्जाम के लिए इंस्टिट्यूट जाना था. इधर हमारी प्लेसमैंट भी होने वाली थी. मैं ने तय कर लिया था कि अब मैं अनुभव से कभी नहीं मिलूंगी.

उस घटना को गुजरे हुए आज 5 -6 साल बीत चुके हैं. 2 साल जौब करने के बाद

मैं ने शादी कर ली और घर पर ही अपना व्यवसाय शुरू कर लिया. मैं ने एक बुटीक खोला था. उस दिन मैं अपने बुटीक से जल्दी आ गई थी. चाय पी कर आराम से सोफे पर पसर कर नौवेल पढ़ने लगी थी. किताबें पढ़ने का शौक मु झे शुरू से था. मार्केट में कोई भी नया नौवेल आता तो सब से पहले मैं पढ़ती थी. अनुभव से दोस्ती गहरी होने की एक वजह यह भी थी कि वह एक लेखक था.

किसी समय अनुभव को अपनी जान से ज्यादा चाहने वाली मैं आज उस के नाम से भी नफरत करती. वह मेरी जिंदगी का ऐसा काला पन्ना बन गया था जिसे मैं कभी पलट कर देखना भी नहीं चाहती थी.

‘‘क्या बात है भाभी आप क्या सोच रही हैं? लगता है भैया की यादें ज्यादा परेशान कर रही हैं. भैया 2 दिन के लिए आउट औफ स्टेशन क्या गए आप तो सैड हुए बैठी हैं, नीरू ने मु झ से हंसते हुए कहा.

‘‘ऐसी कोई बात नहीं है नीरू. आ बैठ न,’’ मैं ने अपनी ननद को बैठने को कहा और पूछा, ‘‘क्या लाऊं तेरे लिए?’’

‘‘आप को नौवेल पढ़ना बहुत पसंद है न. यह देखो आज का सब से ज्यादा ट्रैंडिंग नौवेल ले कर आई हूं. बहुत अच्छे रिव्यूज हैं इस के. क्रिटिक्स भी अनुभव कुमार के इस नौवेल की तारीफ किए बिना नहीं रह सके.’’

अनुभव कुमार नाम सुनते ही मैं चौंक पड़ी.

‘‘दिखा तो जरा,’’ मैं ने लपक कर किताब नीरू के हाथों से ले ली. वाकई यह अनुभव की किताब थी. दूसरे पन्ने पर उस के हाथों से लिखी लाइन थी, ‘‘प्यार… मेरी जिंदगी को समर्पित.’’

मु झे याद था वह हमेशा मु झे जिंदगी कहा करता था. उस ने मेरा निकनेम ही जिंदगी रख दिया था. तो क्या यह नौवेल  उस ने मेरे लिए लिखा है? मैं सोच में पड़ गई. मगर तुरंत पिछले कुछ समय की नफरत चेहरे पर सिमट आई. सामने बैठी नीरू लगातार मु झे देख रही थी.

उस ने पूछा, ‘‘क्या हुआ भाभी सब ठीक

तो है?’’

‘‘हां नीरू मैं ठीक हूं. तू बता,’’ मैं ने बात बदलनी चाही.

‘‘चलो फिर ठीक है.  मैं तो यह नौवेल देने आई थी. सोचा, भैया नहीं हैं तो भाभी का मन लगाने का इंतजाम किया जाए.’’

‘‘नीरू आजकल नौवेल पढ़ने की इच्छा

ही नहीं होती,’’ मैं ने नौवेल को किनारे रखते

हुए कहा.

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उस ने मेरा मन टटोला, ‘‘कोई तो बात है भाभी. एनी वे यदि आप को नहीं पढ़ना तो मैं ले जाती हूं.’’

‘‘मैं ने कब कहा कि नहीं पढ़ना है. देखती

हूं समय मिला तो पढ़ लूंगी. वैसे काम भी ज्यादा है आजकल बुटीक में पर समय मिला तो पढ़

भी लूंगी,’’ कह कर मैं ने नौवेल उस के हाथों से छीन ली.

वह हंसती हुई चली गई और मैं ने नौवेल  के पन्ने पलटने शुरू

किए. पहली लाइन पर ही रुक गई. लिखा था कि कुछ रिश्ते कभी नहीं टूटते, कितनी भी कोशिश कर लो. कोई न कोई तार जुड़ा ही रह जाता है. ऐसा ही एक रिश्ता जुड़ा है मेरी जिंदगी का मेरे साथ.

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जिंदगी: भाग 1- क्यों अभिनव से नफरत करने लगी सुनैना

‘‘लाइफ,ओ मेरी लाइफ,’’ कहता हुआ अनुभव मेरे पीछे दौड़ता आ रहा था.

मैं ने उसे आंखें दिखाईं तो उस ने कान पकड़ने का दिखावा करते हुए कहा, ‘‘ओके बाबा, लाइफ नहीं जिंदगी. अब तो ठीक है न?’’

‘‘ठीक क्या है? भला कोई किसी को लाइफ या जिंदगी जैसे नामों से पुकारता है क्या? मेरा इतना खूबसूरत सा नाम है सुनैना. फिर जिंदगी क्यों कहते हो?’’

‘‘क्योंकि तुम मेरी जिंदगी हो. जब मैं जिंदगी बोलता हूं न तब महसूस होता है जैसे तुम सिर्फ मेरी हो. सुनैना तो सब के लिए हो पर जिंदगी सिर्फ मेरे लिए,’’ मेरी आंखों में एकटक देखते हुए अनुभव ने कहा तो मैं शरमा गई. मु झे एहसास हो गया कि अनुभव मु झे बहुत चाहता है.

वैसे अनुभव से मिले हुए मु झे ज्यादा समय नहीं हुआ था. जब मैं ने बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी में एडमिशन लिया था और फर्स्ट डे कालेज आई तब पहली दफा मैं ने उसे सीनियर्स को रैगिंग देते देखा था. वह सीनियर्स के आगे अलगअलग जानवरों के ऐक्सप्रैशंस दे रहा था. उसे देख कर मु झे भी हंसी आ गई थी. तब उन सीनियर लड़कों में से एक ने मु झे देख लिया और तुरंत बुला भेजा.

मु झे अनुभव के सामने खड़ा किया गया और फिर उन में से एक दादा टाइप लड़के ने मु झ से कहा, ‘‘बहुत हंसी आ रही है न, चलो इस लड़के को हमारे सामने प्रोपोज करो. लेकिन प्रोपोजल एक अलग अंदाज में होना चाहिए,’’

मैं घबरा गई थी. मैं ने सवालिया नजरों से उस की तरफ देखा तो उस ने कहा, ‘‘बिना कुछ बोले बस डांस करते हुए उसे प्रोपोज करो.’’

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मैं अकसर डांस करती रहती थी. इसलिए बहुत सहजता से डांस की मुद्राओं द्वारा मैं ने उसे प्रोपोज किया. इस तरह अपनी जिंदगी में पहली बार मैं ने किसी को प्रोपोज किया था और वह भी इतने लोगों के बीच और इतने अलग अंदाज में. अनुभव तो मु झे देखता ही रह गया था. उस दिन के बाद से हमारी बातचीत होने लगी और हम अच्छे दोस्त बन गए.

रैगिंग पीरियड गुजरने के बाद एक दिन अनुभव मेरे पास आया और कहने

लगा, ‘‘यार, उस दिन तुम ने मु झे प्रोपोज किया पर मैं ने कोई जवाब नहीं दिया. इस बात को

भी 2 महीने बीत गए हैं. मु झे लगता है कि खूबसूरत लड़कियों से ज्यादा इंतजार नहीं कराना चाहिए. इसलिए आज मैं भी अपने प्यार का इजहार करता हूं.’’

‘‘सुनो, ज्यादा ड्रामेबाजी मु झे पसंद नहीं है,’’ मैं ने उसे  िझड़कते हुए कहा.

तब उस ने मेरा हाथ पकड़ लिया और एकदम से सीरियस हो कर बोला, ‘‘ड्रामेबाजी नहीं हकीकत है. तुम ही मेरी जिंदगी हो. मेरी हर धड़कन अब तुम्हारे नाम है. तुम भले ही कभी मु झे भूल भी जाओ, मगर मैं सारी उम्र तुम से ही प्यार करूंगा. भला अपनी जिंदगी से जुदा हो कर भी कोई जी पाता है?’’

उस की आंखों में सचाई थी. बस उस

दिन से हम दोनों एकदूसरे के हो गए और मैं उस की जिंदगी बन गई. उस ने मेरा नाम ही जिंदगी रख दिया.

अनुभव अकसर मु झ से कहता कि मैं उसे आई लव यू कहूं, पर मैं ऐसा नहीं करती. एक दिन उस के बहुत जिद करने पर मैं ने कहा था, ‘‘देखो अनुभव मेरी नजर में जब 2 इंसान एकदूसरे के करीब होते हैं और उन के दिल में प्यार होता है तो अपने एहसासों को सम झाने के लिए लफ्जों की जरूरत नहीं पड़ती. लफ्जों की जरूरत तब पड़ती है जब वे मजबूर हों और एकदूसरे से दूर हों, चाह कर भी वे पास नहीं आ सकते हों, पर याद आ रही हो, ऐसे में लफ्जों से काम चलाना जरूरी हो जाता है.’’

‘‘फिर तो मैं यही चाहूंगा कि तुम मु झे कभी भी आई लव यू न बोलो यानी तुम कभी भी मु झ से दूर रहने को मजबूर न रहो,’’ कह कर वह

हंस पड़ा.

कालेज के दिन पंख लगा कर उड़ने लगे. मु झे अनुभव के साथ वक्त बिताना बहुत पसंद था. इस बीच मेरा निफ्ट में चयन हो गया. मैं आगे की पढ़ाई के लिए दिल्ली चली गई. निफ्ट से फैशन डिजाइनिंग का कोर्स करना मेरा सपना था और अनुभव मेरे सपने को हकीकत बनते देखना चाहता था. अब हम दूर जरूर हो गए थे, मगर दिल से बहुत गरीब थे. कभी वह दिल्ली आ जाता और कभी छुट्टियों में मैं बनारस पहुंच जाती.

इधर अनुभव ने बनारस में बीएचयू से ही पढ़ाई जारी रखी थी. मैं उसे अपने

इंस्टिट्यूट की मजेदार घटनाएं सुनाती थी और वह मु झे अपने कालेज की बातें बताया करता था.

एक दिन मैं ने अनुभव को सरप्राइज देते हुए बताया, ‘‘इन गरमी की छुट्टियों में हमें संस्था की तरफ से मनाली ले जाया जा रहा है.’’

मैं जानती थी कि मनाली से 2 घंटे की दूरी पर अनुभव का गांव था. वह खुद छुट्टियों में अकसर मनाली में रहता था.

‘‘क्या बात है यार, तब तो हमारा मिलना कन्फर्म है,’’ खुश हो कर अनुभव ने कहा.

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‘‘मगर हमारा प्रोग्राम 2 दिन बाद का ही है जबकि तुम तो अभी बनारस में ही हो.’’

‘‘तो क्या हुआ, मैं 1 सप्ताह की छुट्टी

ले कर अभी निकलता हूं,’’ अनुभव ने सहजता

से कहा.

‘‘ज्यादा मजनू न बनो. पहले देखो कि तुम्हारी पढ़ाई में हरज तो नहीं होगा?’’ मैं ने टोका.

‘‘बिलकुल नहीं यार. ऐग्जाम खत्म हो चुके हैं. वैसे भी घर ही जा रहा था और फिर अपनी जिंदगी से मिलने का मौका मिल रहा हो तब तो मैं 7 समंदर पार कर के भी पहुंच जाऊं.’’

‘‘इतने उतावले भी न बनो. कभी मेरे बगैर जीना पड़ जाए तो क्या करोगे?’’ मैं ने गंभीर स्वर में कहा.

‘‘सांसें चल रही होंगी, मगर तुम्हारे बिना जिंदगी का कोई अर्थ नहीं होगा.’’

‘‘हाय इतनी इमोशनल बातें मत किया करो. चलो फिर मिलते हैं,’’ मैं ने उस से मिलने का वादा किया.

मनाली में बिताए उन दिनों को मैं कभी नहीं भूल सकती. कालेज की सहेलियों के ग्रुप को छोड़ मैं अनुभव के पास आ जाती और फिर अनुभव मु झे अपनी बाइक पर बैठा कर पूरी मनाली की सैर कराता. हम हवाओं के साथ बहते, नएनए सपने बुनते. लगता जैसे मेरे और अनुभव के सिवा दुनिया में कोई नहीं.

एक दिन शाम में हम यों ही खुली वादियों में घूम रहे थे. एक तरफ ऊंचीऊंची पहाडि़यां थीं तो दूसरी तरफ हरियाली के साए में छिपी गहरी घाटियां. अनुभव उस वक्त अपनी बाइक बहुत तेज चला रहा था. उस पर एक अलग ही नशा छाया हुआ था. बारबार मना करने के बावजूद वह उस खतरनाक रास्ते पर बाइक तेज रफ्तार से भगाता रहा.

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दूसरी पारी: भाग 3- क्यों स्वार्थी हो गए मानव के बच्चे

लेखिका- मृदुला नरुला

महीने के इन 2 दिनों में पिता से मिलना बेटे के लिए ‘मूल्यवान भीख’ के समान लगती है. दीपा को अब समझ आ रहा है कि वह… कहीं तो गलत थी. लोगों ने बहुत समझाया था, ‘दीपा, सोच ले. जिस सुरंग में बेटे को ले कर सफ़र पर जा रही है उस के दूसरे छोर पर ख़ुशी का सूरज है भी या नहीं, कौन जाने…’

पर उस ने किसी की न सुनी. सिर पर जनून सवार था, ‘अलग रहूंगी.’

आज 2 साल बाद इस तरह एक छत के नीचे क़ानून के दायरे में रहना, संभवतया मजबूरी है. यह कब तक चलेगा, नहीं जानती? वह मर्द, जिसे वह पति कहती थी, से बात करते झिझकती है, सामना करते घबराती है. बेटा, दोनों के बीच पहले की तरह बातचीत हो, मन से चाहता है.

ये बातें सोमू भी समझता है. दोनों के बीच संभवतया समझौतों की दीवार है. तलाक़ के बाद उसे यह नया जीवन जरा भी रास नहीं आ रहा. रोहिणी में 2 कमरों के फ्लैट में निपट अकेला रहता है.

शराब बिलकुल छोड़ दी थी. घर में चाय तक नहीं बनती. अब खाना होटल से आता है. घर में सफ़ाई हफ्ते में एक बार होती थी. कुरसी पर कपड़ों का ढेर लगा होता है. कामवाली कपड़े धो व सुखा कर प्रैस भी करा लाती. कई बार टोक भी देती, ‘साब जी, प्रैस किए कपड़े तो संभाल लिया करो. और अपने को भी संभालो.’ फिर हंस पड़ती, ‘बहू जी को ले आओ. क्यों अकेले रहते हो?’

सोमू क्या कहता? चुपचाप बाथरूम में जा कर रो लेता. वह क्या करे? सबकुछ उस के हाथ से निकल चुका है.

आज 2 महीने से लौकडाउन के कारण सोमू यहां अटका है, अनवान्टेड गेस्ट की तरह.

घर में सारा दिन टीवी चलता है. पहले कभी कनक टीवी चलाता था, तो मम्मी घूर कर बेटे को देखती थी. वह घबरा कर टीवी ही बंद कर देता था. लेकिन अब ऐसा बिलकुल नहीं होता. टीवी का वौल्यूम फ़ुल होता है. कनक हैरान है, मम्मी अब चिल्लाती नहीं है. पर क्यों? कनक ने अनुभव किया है मां अब पहले की तरह बातबात पर ग़ुस्सा नहीं करती. मम्मी बदल रही है. अब पापा की तरफ़ देख कर हंसती भी है. माहौल सहज होता जा रहा है. जिसे सभी ने अनुभव किया है. यह बात अलग है कि पहले की तरह दोनों खुल कर बहस नहीं करते.

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एक दिन सुमित्रा बोली, “बाई सा, लगता है साब ने दारू छोड़ दी है.”

“लगता तो है. चलो, अच्छा है,” दीपा से ऐसा सुनना सुमित्रा को भा गया. भूली नहीं है वह वो सब…

यह दारू ही तो थी जिस ने दोनों के बीच दीवार खींच दी थी.

पिछले 2 महीने से कनक हर रात पापा से चिपट कर सोता है पर दीपा आधी रात में अपने बिस्तर पर ले आती है. एक रात जब सोते कनक को ले जाने आई तो सोमू ने उसे ऐसा करने से मना किया, ‘आज इसे यहीं सोने दें. सुबह देखिएगा क्या होता है?’

वह चुप चाप वापस अपने कमरे में आ कर सो गई.

सोमू ने जो कहा था वही हुआ. बिस्तर से उठते ही कनक ख़ुशी से चिल्लाया, “ये…मैं पूरी रात कल पापा के पास सोया था. वाह, मुझे रोज़ाना मम्मी आधी रात में अपने बिस्तर पर शिफ़्ट कर देती थी, कल ऐसा नहीं हुआ. माय स्वीट मम्मी, थैंक्यू. मैं पापा के पास ही सोना चाहता हूं.”

“देखिए, मैं ने यही तो कहा था, कितना ख़ुश है,” सोमू उस की तरफ़ देख कर मुसकरा पड़ा, बोला, “थैंक्यू.” दीपा को भी अच्छा लगा था.

औपचारिकता की इसी दीवार को ढाने के लिए सोमू एड़ी से चोटी तक का जोर लगा चुका है. वह दिल से चाहता है सब पहले सा हो जाए. पर ‘अहं’ है जो दोनों को रोकता है.

फिर भी उम्मीद का दामन उस ने नहीं छोड़ा है. पानी को लकड़ी मार कर 2 टुकड़ों में बांटा नहीं जा सकता.

पानी तो पानी में ही मिलेगा, यह वह जानता है.

एक रात, सोतेसोते सोमू चौंक पड़ा. कनक का तन गरम था. नहीं… हो सकता है, वैसे ही मेरा भ्रम है.

कुछ देर बाद लगा तेज़ बुखार से कनक का तन तप रहा है. घबरा गया था सोमू. कहीं…करोना…?

बारबार सांस की गति पर ध्यान जा रहा था. दीपा को उठाऊं? पर कैसे? वह तो अंदर से दरवाज़ा बंद कर के सोती है. फ़ोन किया. “कनक को तेज़ बुखार है,” उस की आवाज़ में घबराहट थी.

कुछ पल में दीपा कनक के पास थी. बेटे को देख वह भी घबरा गई. निढाल पड़े बेटे को देख अपने को रोक न पाई. सब भूल कर सोमू के क़रीब आ कर रोने लगी, “प्लीज़ सोमू, किसी डाक्टर को जल्दी से फ़ोन कर के बुलाओ.”

और न चाहते हुए भी भावुक हो उस ने सोमू को कस कर पकड़ लिया.

सोमू भी अपने को न संभाल सका. हाथपैर उस के भी कांप रहे थे. “ठहरो, मेरा एक डाक्टर मित्र यहीं पास में रहता है. उस से फ़ोन पर बात करता हूं. इस वक्त कहीं किसी हौस्पिटल में हमें कोई भी तवज्जुह नहीं देगा. यह मेरा बचपन का यार है. जरूर सहायता करेगा.” डाक्टर सुरेश को हाल बताया तो उस ने दवा बता कर कहा, “माथे पर ठंडे पानी की पट्टी रखो जब तक बुखार 100 पर न आ जाए. यह सीजनल है. दवा से कम न हो, तो मुझे बताना. सुबह कोरोना टैस्ट करा लेना.”

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“दीपा, तुम कनक के माथे पर ठंडे पानी की पट्टी रखो. मैं फ़ार्मेसी से दवा ले कर आता हूं.”

दवा देने के साथ माथे पर ठंडी पट्टी से कनक का बुखार कम हो गया. वह सो गया था. पर दीपा अभी भी अपने पल्लू से आंसू पोंछ रही थी.

सामने बैठे सोमू को देख कर सोच रही थी- आज यह न होता तो क्या करती.

पूरी रात दोनों बेटे के सिरहाने से नहीं हटे थे. “आप थक गए होंगे, कुछ देर सो लें. सुबह इसे ले कर कोविड टैस्ट के लिए जाना है.”

“नहीं, मैं यहीं ठीक हूं. मेरी चिंता न करो.”

कुछ देर बाद दीपा ने देखा, सोमू कुरसी पर सिर टिका कर सो गया था. कितने बरसों बाद यों, बच्चे की तरह सोते देखा था. कितना प्यारा दिखता है. आज उसे वह पल याद आ रहा था जब कनक का जन्म हुआ था. सोमू ने बड़े प्यार से कहा था, ‘यह कनक है. हमें कुदरत ने हमारे जीवन का सब से क़ीमती तोहफ़ा दिया है. हमें जीवनभर इस की क़द्र करनी है. वादा करो, हम कोई ऐसा काम नहीं करेंगे जिस से इसे दुख हो.’

आज की इस घटना ने बहुतकुछ सोचने को मजबूर कर दिया है. क्या दोनों ही उस वादे को भूल गए…?

बाई सा, अपना न सही, इस बच्चे का तो ख़याल करो. बेटा, साब को कितना प्यार करता है. और आप उन से बच्चे को दूर कर रही हो? यह बच्चे के साथ अन्याय नहीं है? न बाई सा, आप सही नहीं कर रहे हो. तब उस ने सुमित्रा को ‘अनपढ़गंवार’ कहा था. आज लगता है वही सही थी, दीपा गलत!

कनक का करोना टैस्ट नैगेटिव आया. सब ख़ुश हैं. इस खुशी में सोमू की मनपसंद मखाने की खीर दीपा ने बनाई है. कनक बोला, ‘पापा ने तो 2 कटोरी भर कर खाई और मां की प्रशंसा भी की.

अब कई बार दोनों साथ बैठ कर बातें भी करते हैं. बातों में कभी कुछ सीरियस भी होता है.

पर सब से अहम बात है, बच्चे के लिए मम्मीपापा दोनों की उपस्थिति ज़रूरी है. यह सच दोनों ने मान लिया है. परंतु इस सच को मुंह से कहने से पता नहीं क्यों दोनों झिझकते हैं. आसमान में उड़ते परिंदों को उड़ते देख सोचते हैं, इन्हें भी तो देखो… बच्चा जब तक उड़ना सीख नहीं जाता, साथ उड़ते हैं. उसे आसमान की राह दिखाने में दोनों की बेजोड़ मेहनत होती है.

लेकिन, मनुष्य कितना स्वार्थी है. अपने अहं और स्वार्थ के वश अपनी असली ज़िम्मेदारी से मुंह मोड़ लेता है. लानत है हम पर. कनक की बीमारी के बाद से सोमू और दीपा दोनों के बीच की दीवार हौलेहौले ढहने लगी है.

लौकडाउन ख़त्म हो रहा है. क़ानून के तहत सोमू को वापस जाना पड़ेगा. उस का औफ़िस खुल गया है.

“मुझे अब जाना होगा.”

“पापा, कहां जा रहे हो? मैं भी आप के साथ चलूंगा.”

“नहीं बेटा, मिलूंगा एक हफ्ते बाद,” कहते हुए कनक के गाल पर चुम्मी दी.

“नहीं, पापा रहो हमारे साथ ही रहो,” पापा से लिपट कर कनक सिसकी भरने लगा.

सुमित्रा सामने खड़ी मार्मिक दृष्य से अविभूत है. दीपा भी. वह तो मुंह फेर कर खड़ी हो गई थी. इस दृष्य का सामना करने की हिम्मत न थी उस में. अचानक किसी निर्णय के साथ पलटी, “बेटा, पापा को जाने दो. वैसे, पापा हमें माफ़ कर दें तो हम उन के साथ रोहिणी चल सकते हैं, पर शर्त है, उन्हें हमारे साथ वापस आना होगा.”

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“मम्मी, क्या कहा?” हैरान कनक मां को विस्फारित नेत्रों से देख रहा था.

सोमू को भी कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था.

यानी, मम्मी ने भी हमे माफ़ कर दिया.

दीपा ने मुसकरा कर उस को हाथों से पकड़ा. दीपा की आंखों से दो आंसू ढलक कर उस के गालों पर आ गए थे.

कनक ख़ुशी से- “ये…” कहता हुआ गाड़ी में बैठ गया था.

बालकनी में खड़ी सुमित्रा बाई सा, जो बड़ी देर से सब का हिस्सा बनी हुई थी, हाथ जोड़ कर मन ही मन कह रही थी, ‘हे माताजी महाराज, बहुतबहुत शुक्रिया. यह लौकडाउन ने दुख तो बड़े दिए पर ऐसे अंत के वास्ते हज़ार बार लौकडाउन लगे, तो भी कोई दुख नाहिं.

दूसरी पारी: भाग 2- क्यों स्वार्थी हो गए मानव के बच्चे

लेखिका- मृदुला नरुला

सोमू की गाड़ी लगभग एक फ़र्लांग ही चली थी कि आगे से होमगार्ड वाले ने गाड़ी रोकने का सिगनल दिया.

..”कहॉ जाना है साब?”

“रोहिणी.”

“लौट जाइए. पूरे दिल्ली में आवाजाही बंद है. मैं जाने दूंगा तो आप को आगे रोक दिया जाएगा. बेहतर है वापस चले जाएं.”

समझ गया है, आगे सारे रास्ते बंद ही मिलेंगे. टीवी पर भी यही कह रहे थे- ‘कृपया घर में रहें, सुरक्षित रहें.’ अब जाना पड़ेगा वापस. दीपा के पास जाना तो बिलकुल नहीं चाहता, उस को बापबेटे का यों मिलना जरा भी नहीं भाता. वह तो कोर्ट की परमीशन ले कर मिलने आता है. दीपा कुछ कर नहीं सकती.

सोमू यहां आसपास काफ़ी लोगों को जानता तो है पर वह किसी के घर जाना नहीं चाहता. सब को सारी कहानी बतानी पड़ेगी. इधरउधर गाड़ी घुमाना बेकार है. चलता हूं वापस, वहीं.

कैसा अजीब सा लगेगा उस घर में दोबारा पहुंच कर. जबकि कभी यह घर उस का अपना घर था. जैसे शाम ढलते ही चिड़िया अपने घोंसले में लौटने को उतावली होती है, कभी वह भी उड़ान भरता था. गाड़ी औफ़िस से उड़ाता हुआ लाता था. आज गाड़ी उधर मोड़ना भी अच्छा नहीं लग रहा था. इस के सिवा कुछ और विकल्प है भी तो नहीं.

गाड़ी मोड़ ली.

“अरे पापा, वाह, आप वापस आ गए!” कनक को हैरानी हो रही थी. दीपा को कोई हैरानी न थी. शायद, उसे पता था, यही होगा.

सोमू को वापस आया देख सब से ज्यादा ख़ुश था कनक, मन की मुराद पूरी जो हो गई थी.

और दोंनों बड़ी रात तक लीगों टौयज जोड़ते रहे थे. ‘पापा-पापा’ की गूंज बहुत देर तक घर में गूंजती रही थी.

उस रात दोनों बापबेटे साथ में चिपक कर सोए थे.

आधी रात को सोमू को लगा, कोई बैड के पास खड़ा है.

“दीपा, आप?”

“हां, कनक के साथ सोने में आप को दिक़्क़त हो रही होगी,” दीपा ने सीधेसीधे कह दिया.

सोमू ने कहना चाहा, ‘नहीं रहने दो,’ पर कुछ न बोला. पूरा दिन बीत गया, दीपा ने सोमू से कोई बात नहीं की.

इस वक्त जी चाहा पूछे, कैसी हो दीपा.

नहीं, कुछ भी नहीं पूछेगा. क्या दीपा को नहीं पूछना चाहिए था- सोमू, कैसे जीवन कट रहा है?

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तलाक़ हुए 2 साल बीत गए हैं. कभी फ़ोन करना तो दूर, कनक से मिलने आता हूं तो मेरे यहां पहुंचने से पहले ही निकल जाती है.

कनक की पढ़ाईलिखाई व स्कूल से जुड़े सवालों का हमेशा एक ही जवाब मिलता- ‘ठीक है,’ बस. कितना जी करता है, कुछ कहे, कुछ पूछे. मकान का पिछला हिस्सा कमज़ोर हो गया है, ठीक कराना है. कौन खड़ा हो कर सब देखेगा… मैं यहां आ कर, चला जाता हूं. जैसे एक विज़िटर हूं. यह घर सोमू के नाम था. अब दीपा के नाम है. ये सब किन हालात में हुआ, यह एक अलग कहानी है.

दीपा सोए बेटे को कंधे पर उठा कर ले जा चुकी है. वह बिस्तर पर लेटा कड़ियां गिन रहा है. नींद आंखों से कोसों दूर हो गई है.

एक हफ्ते के लिए लौकडाउन लगा है. एक दोस्त बता रहा था, औफ़िस भी बंद है. हो सकता है एक हफ्ते बाद हमें घर से काम करने को कहा जाए. कैसे, क्या होगा… सोमू परेशान है.

लौकडाउन चालू है. 4 दिन बीत गए हैं. कपड़ों को ले कर परेशान है सोमू. कुछ अंदर के कपड़े पुरानी अलमारी में पड़े हैं, उसे याद है. सुमित्रा बाई सा को जरूर याद होगा. उस से पूछा तो हंस कर बोली, “साब, मुझे याद है. कुछ कपड़े तो अभी भी रखे हैं पर कपड़े छोटे न हो गए होंगे? 2 साल में आप की तोंद निकल आई है.”

बाई सा की बात पर कनक खिलखिला कर हंसा. मुह फेर कर दीपा भी मुसकरा दी थी. और सोमू शरमा कर कमरे में चला गया था.

पुराने कपड़ों का बक्सा खोला तो अंदर से एक नाइट सूट और 2 पैंटें भी निकल आईं. “साब, इन पैंटों की टांगें काट कर बरमूडा बना देती हूं. आप को कहीं जाना तो है नहीं. घर में सब चलेगा.”

लो जी, बाई सा ने बरमूडा बना डाला. पापा को बरमूडा में देख कनक ने खूब एंजौय किया.

बाथरूम में जा कर दीपा भी हंसी थी.

सोमू का ज्यादातर समय कनक के साथ बीतता है. वर्क फ्रौम होम शुरू होने से नए तरीक़े से हर कोई बिजी हो गया है.

बाई सा सुबह 8 बजे ही नाश्ता मेज पर पहुंचा देती है. सोमू, दीपा और कनक नाश्ता कर के अपनेअपने काम में लग जाते हैं. कनक की औनलाइन क्लास हो रही है.

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सोमू और दीपा अपनेअपने कमरे में लैपटौप खोल कर काम में लग जाते हैं. उस के आधे घंटे बाद कनक की क्लास शुरू हो जाती है. शुरू में कनक को औनलाइन पढ़ाई करने में बहुत दिक़्क़त आती थी. बहुत जल्दी खीझ जाता था. दीपा को भी समझ नहीं आता पढ़ाई के इस नए तरीक़े से कैसे बेटे को अवगत कराए. एक रोज सोमू ने कनक से कहा, “बेटा, मैं आप की हैल्प करूं?”

“यस पापा.”

पता नहीं कौन सा मंत्र उस ने कान में फूंका कि वह हैरान रह गई.

“अब तो होम वर्क भी पापा ही कराएंगे.” यह सुन कर दीपा मन ही मन ख़ुशी महसूस करती है.

एक दिन सोमू बोला, ” बाई सा, मैं घर का राशन ले आऊंगा. सुबह ब्रैड, बटर, सब्ज़ी और जरूरत का सामान लाने की ज़िम्मेदारी मुझ पर है. लौकडाउन जल्दी खुलने वाला नहीं है. मेम सा से उन की दवाइयों की लिस्ट ले कर मुझे पकड़ा दो. एक ही बार में सब ले आऊंगा.”

दीपा को सुन कर अच्छा लगा था. ‘बहुत ज़िम्मेदार हो गए हो सोमू.’ घर का सामान लाने पर दोनों की हमेशा लड़ाई होती थी. यह बात उस ने कोर्ट में जज साहब के सामने भी कही थी. चलो, कुछ बदलाव तो आया.

घर की छोटी से छोटी ज़िम्मेदारी को ले कर सोमू अब सजग है. बाई सा का भी हाथ बंटा देता है. बग़ैर पूछे बहुत से काम अपनेआप करते देख बाई सा मन ही मन मातारानी को धन्यवाद देती. यह जिम्मेदारी क्या सदा के लिए साब के कंधों पर नहीं आ सकती… कोई नहीं, वक्त का इतंजार करना चाहिए. ख़ुश है बाई सा इस नए माहौल से. पर सब से ज्यादा ख़ुश कनक है. शनिवार व इतवार रिलैक्स डेज हैं पूरे घर के लिए. कनक का शिड्यूल तय है. सुबह जल्दी नाश्ता कर के पापा के साथ खुले आसमान में पतंग उड़ाई जाती है. ढेरों परिंदों को ख़ूबसूरती से उड़ते देख सोमू को भी बहुत अच्छा लगता है.

परिंदों के झुंडों को बेख़ौफ़ उड़ते सभी ने पहली बार देखा था इस लौकडाउन में. कभी छत पर न आने वाली दीपा भी इस जादू से खिंची चली आती है. यहां छत से सामने के फ्लैटों की छतों पर भी लोग पतंगों का आनंद ले रहे हैं. यह अनुभव बचपन को उस के सामने ला कर खड़ा कर देता है.

दीपा को याद आता है, जब सोमू और वह छत पर छिपछिप कर मिलते थे. तब दीपा व सोमू इसी बिल्डिंग में ऊपरनीचे के फ्लैट में रहते थे. स्कूल अलग था पर क्लास एक ही थी. आज वह बीते कल को याद कर रही है.

प्यार को किसी रितु का इतंजार नहीं होता. फिर भी हर दिन दोनों को उसी प्यारे चेहरे का इतंजार रहता है जिसे वे बेहद चाहते हैं. दोनों मिले, हर दिन मिले और फिर लगने लगा कि दोनों एकदूसरे के बिना रह नहीं सकते.

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सो, दोनों ने शादी कर ली. उन की मुहब्बत पर समाज ने मुहर लगा दी. और अब छत की जरूरत न थी.

एक साल बाद कनक का जन्म हुआ. दीपा सबकुछ भूल कर बेटे में खो गई. पति को कनक से बेपनाह प्यार था. पर न जानें क्यों उसे लगा, जैसे सोमू घर और बच्चे की ज़िम्मेदारी से दूर जाता जा रहा है. वह चिड़चिड़ा होता जा रहा था. अकसर सब्ज़ी की कटोरी से दीवार पर चित्रकारी होती उस के ग़ुस्से का. या दारू के गिलासों से दीवारों पर निशाना लगाया जाता. छोटीछोटी बात पर दोनों झगड़ पड़ते.

सोमू की शराब बढ़ती जा रही थी तो, झगड़े भी.

…और फिर जो न होना था, हो गया- तलाक़! एक भयानक हादसा. शुरू में दोनों को लगा, यही ठीक है, कहीं शांति तो है. पर कैलेंडर पर तारीख़ बदल जाने से कुछ नहीं होता है. कल क्या होगा, यह चिंता वक्त के साथ उसे खा रही थी. नई जिदगी में बच्चे का उतरा चेहरा देख समझ जाती, पिता से दूर रह कर बेटा ख़ुश नहीं है.

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दूसरी पारी: भाग 1- क्यों स्वार्थी हो गए मानव के बच्चे

लेखिका- मृदुला नरुला

“कितनी अजीब बात है, मुझे औफ़िस जाना है और सोमू अभी तक नहीं पहुंचा. आज रोड पर भीड़ भी खास नहीं है.”

“बाई साब आते ही होंगे. आप को औफ़िस के लिए लेट हो रहा है, तो चली जाओ. घर पर कनक के साथ मैं तो हूं.”

“ठीक है, मैं जा रही हूं. और सुनो, हमेशा की तरह लंच वही बनाना जो दोनों को पसंद है. मैं शाम तक आऊंगी.”

दीपा के घर से जाते ही सुमित्रा ने घर का दरवाज़ा बंद कर लिया. कनक अपने खेल में व्यस्त है. 8 साल का कनक आज बहुत उत्साहित है. खेल छोड़ कर बारबार खिड़की के बाहर झांक लेता है.

आज उस के पापा उस से मिलने आ रहे हैं. महीने में सिर्फ 2 बार आते हैं. कनक को बेसब्री से पापा का इतंजार रहता है. पर मां को क़तई भी सोमू का इतंजार नहीं होता. यह बात उसे अच्छी नहीं लगती. आज भी उस ने गाड़ी की चाबी उठाती मां को टोका था.

“मम्मी, रुक जातीं. पापा से मिलने के बाद भी तो औफिस जा सकती हो,” बड़ी हिम्मत की थी कनक ने, जानता था, क्या जबाब मिलेगा.

“वह बेटा, स्पैशल मीटिंग है औफ़िस में. सो, फिर कभी,” कहती हुई दीपा ने उस के गाल पर किस किया और निकल ली थी. मां को बेटे ने ऐसे देखा जैसे कुछ गलत कर बैठी है.

कनक ने गाल को कस कर रगड़ा और मुंह मोड़ कर खेल में अपने को व्यस्त करने का प्रयत्न करने लगा. सुमित्रा से कुछ भी छिपा नहीं है. पिछले 10 वर्षों से इस घर में काम कर रही है वह. उस का पति राघव सोमू साब का ड्राइवर था. 6 वर्षों पहले उस की एक कार दुर्घटना में मौत हो गई थी. तब से सुमित्रा यहीं, इन लोगों के बीच घर के सदस्य की तरह रहती है. राघव के जाने के बाद सोमू साब ने ही उस से कहा था, “किसी के जाने से दुनिया ख़त्म नहीं हो जाती. जब तक चाहो यहां रहो, यह घर पहले भी तुम ने संभाला था, अब भी तुम को ही संभालो. कनक की ज़िम्मेदारी अब तुम पर है.”

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इस बीच, बहुतकुछ बदल गया. सांब और दीपा बाई सा के बीच तनाव बढ़ता जा रहा था. बात बढ़ते बढ़ते तलाक़ तक पहुंच गई.

कनक की कस्टडी मां दीपा को मिली. सुमित्रा ने बहुतकुछ देखा है. पर सब से ज्यादा दुख उसे इस मासूम को ले कर है. आज तक वह दिन नहीं भूली जब पापा से अलग होने के बाद कनक बुरी तरह रोया था. मां के साथ कोर्ट से बाहर निकलते हुए सहम गया था वह. ‘….मम्मा, पापा को भी साथ ले चलो. हम पापा और आप सब साथ रहेंगे. सुमित्रा बाई सा, आप ही पापा को ले आओ. आप के बुलाने से जरूर आ जाएंगे, मम्मी से तो नाराज़ हैं वे.’

बच्चे को इस तरह बिलखते और लोगों ने भी देखा था. सब की आंखें नम थीं. उस रोज कोर्ट से लौट कर किसी ने भी खाना नहीं खाया था. एक लंबी चुप्पी कई हफ्ते तक घर में पसरी रही थी. कनक की इतंजार करती आंखें सुमित्रा को आज भी याद है.

तब से सोमू साब महीने में दोबार कनक से मिलने आते हैं. जिस दिन पापा आते हैं उस दिन वह ख़ुश रहता है. जितनी देर सोमू बेटे के साथ रहते हैं, लगता है उस हर क्षण को जी लेना चाहता है वह. सुमित्रा भी साब व बेटे को हंसता, खिलखिलाता देख ख़ुश हो जाती है. पर वह जानती है कि यह खुशी मात्र 5 घंटे की है. फिर घर मे लंबा सन्नाटा पसर जाएगा जैसे टीवी पर चलतेचलते लाइट औफ़ हो जाती है.

“बाई सा, पापा की पसंद के सूखे आलू बनाए हैं न. देखना, 10 मिनट में पापा आ जाएंगे, फिर हम खूब खेलेंगे.”

कि तभी किर्रकिर्र घंटी बज उठी.

दरवाज़ा सुमित्रा ने खोला, “अरे, बाई सा, आप!”

दीपा को सामने देख हैरान थी. “मम्मा, आप? और पापा नहीं आए?” कनक मां को देख ख़ुश तो था पर सोच रहा था, ‘पापा भी आते ही होंगे.’

आज तो मम्मीपापा दोनों घर पर होंगे. ऐसा अवसर इतने सालों में कभी नहीं आया. हां, कई बार पापा घर में एंट्री लेते हैं, तो पापामम्मी आपस में हैलो का आदानप्रदान कर एकदूसरे को अवौइड कर के निकल जाते हैं.

कनक अब छोटा नहीं है. वक्त व हालात ने उसे बहुतकुछ सिखा दिया है तथा बहुत बड़ा बना दिया है.

मम्मी व पापा का एकदूसरे को ‘पहचानने से इनकार करना’ उसे बेहद चुभता है.

सुमित्रा बाई सा भी सब समझती है. लेकिन आज पापामम्मी दोनों घर पर होंगे. कनक कई बार सोचता है- मम्मीपापा पहले तो साथ रहते थे, पता नहीं अब पापा किसी और जगह रहते हैं. लेकिन ऐसा क्यों? दोनों आपस में बात भी नहीं करते. कभी सोचता है, मम्मी से पूछे, पर डरता है कहीं ऐसा न हो कि महीने में 2 बार पापा आते हैं वह अवसर भी उस से छिन जाए. नहीं, वह किसी से कुछ नहीं पूछेगा.

“मम्मी, आप लौट आईं, क्या हुआ?” वैसे, मम्मी की उपस्थित उसे भा रही है.

“मीटिंग कैंसिल हो गई. चौराहे तक पहुंची थी कि पुलिस वाले ने गाड़ी रोक कर कहा, ‘मेम सा, वापस जाएं, आज सभी औफ़िस बंद हैं.” मम्मी यह बता ही रही थी कि तभी डोरबैल बजी.

“ये तो पापा ही हैं. हमेशा, किर्र…किर्र 2 बार बैल बजाते हैं. पापा आ गए, पापा आ गए.”

स्टूल पर चढ़ कर दरवाज़ा खोला और हमेशा की तरह, ‘मेरे पापा’ कहता सोमू से लिपट गया वह.

रसोई की खिड़की के पार से बेटेबाप का मधुर मिलन दीपा ने देखा और मुह फेर लिया. जानती है, दोनों एकदूसरे से मिलने को कितने बेसब्र होते हैं. पर क्या करे. अब सबकुछ उस के हाथ से निकल चुका है. बेटा किसी भी हाल में पिता से दूर होना नहीं चाहता. इधर सुमित्रा से सोमू बता रहा था, “आज मुझे चौराहे पर पुलिस वाले ने रोक कर कहा, ‘बाबू जी, आगे आप नहीं जा सकते. शहर पूरा बंद है. जहां से आए हैं वहीं वापस चले जाएं.’ मैं ने कहा, मैं अपनी मां की दवा ले कर वापस घर ही जा रहा हूं. बाई सा, आज झूठ न बोलता तो यहां न पहुंच पाता. फिर हम अपने बेटे से कैसे मिलते?” और मुसकरा कर साथ लाया गिफ़्टपैक कनक को पकड़ा दिया.

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“हां पापा, लौट जाते तो मैं ग़ुस्सा हो जाता.” वह गिफ़्ट खोल कर बड़ी देर तक खेलता रहा.

उस दिन कनक को बहुत अच्छा लगा क्योंकि खाने की टेबल पर मम्मी पापा दोनों थे.

तीनों जन खाना खाते हुए 3 दिशाओं में अलगअलग सोच रहे थे.

5 बजे पापा चले जाएंगे. काश, पापा आज रुक जाते तो हम दोनों पूरी रात खूब मस्ती करते. खाना खाने के बाद छत पर हम पतंग उड़ाएंगे. पापा को अपनी नई वाली पेंटिंग भी दिखाऊंगा. पिछली बार पापा जो लीगों टौयज लाए थे, मैं ने अभी खोला भी नहीं है. आज हम दोनों मिल कर इसे जोड़ेंगे. मैं अकेला तो बना ही नहीं पाऊंगा. पापा मेरी हैल्प करेंगे.

दूसरी तरफ़, सोमू सोच रहा है- टीवी में दिखा रहे हैं करोना बीमारी के कारण शहर में लौकडाउन है. सड़कें खाली हैं. लोगों को घर से बाहर न आने की हिदायत दी जा रही है. जो घर से बाहर आ रहा है उसे पुलिस वाले वापस घर भेज रहे हैं. ये सब कब तक चलेगा? कहीं शाम को भी ऐसा रहा तो वह क्या करेगा? यहां आते वक्त तो झूठ बोल कर आ गया था लेकिन वापसी में नहीं चलेगा. यहीं रात बितानी पड़ी तो…? कहीं ऐसा न हो दीपा कुछ गलतसलत समझे. क़रार के मुताबिक़, कनक के साथ वह सिर्फ 5 घंटे बिता सकता है. जानता है, हमेशा की तरह उस की एंट्री के समय आज भी समय नोट किया गया होगा. खाने की टेबल पर बैठी दीपा उस को कनखियों से देख रही है. मेरे मन में क्या चल रहा है, जानने की पूरी कोशिश कर रही है.

और, जैसेजैसे घड़ी की सूई आगे बढ़ रही है, दीपा की बेसब्री बढ़ती जा रही है. कनक और सोमू ने पूरे दिन खूब मस्ती की. घड़ी में 5 बजते ही सोमू ने अपना बैग समेटा और बेटे को बाय कर के बाहर आ गया. नीचे गाड़ी चलाने से पहले कनक का उतरा चेहरा बालकनी से झांक रहा है. कनक का आख़िरी प्रयास- ‘पापा, प्लीज़ मत जाओ,’ सोमू के कानों को छू रहा है.

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जानता है, जैसे ही मेरी गाड़ी स्टार्ट होगी…कनक का रोना शुरू हो जाएगा. दीपा लंबी सांस खींच कर मन ही मन कहेगी, हे प्रकृति, शुक्र है दिन निकल गया. सोमू का मन भारी था.

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सिद्धार्थ की वापसी -भाग 1 : सुमित और तृप्ति शादी के बाद भी खुश क्यों नहीं थे

सुमित और तृप्ति का वैवाहिक जीवन सुचारु रूप से चल रहा था. फिर भी एक अनकही दूरी दोनों के बीच बनी हुई थी. इस का कारण था सिद्धार्थ. आखिर, कौन था यह सिद्धार्थ? ‘‘क्या बात है, सुमित. बड़ी गंभीर मुद्रा में बैठे हो, कुछ चाहिए क्या?’’ तृप्ति ने सुमित को कहीं शून्य में ताकते देख प्रश्न किया, मगर सुमित स्वयं में ही डूबा बैठा रहा. ‘‘सुमित…? कहां खो गए तुम?’’ तृप्ति ने अपना स्वर ऊंचा कर फिर कहा तो मानो सुमित की तंद्रा टूटी. ‘‘कुछ कहा क्या तुम ने?’’ सुमित ने प्रश्न किया. ‘‘तुम्हारी तबीयत तो ठीक है, सुमित? आजकल देखती हूं तुम बात करतेकरते बीच में ही कहीं खो जाते हो?’’ ‘‘मैं क्या छोटा बच्चा हूं जो कहीं खो जाऊंगा,’’ सुमित बोला.

‘‘बड़े भी खो जाते हैं, सुमित, और मैं तुम्हें खोना नहीं चाहती,’’ तृप्ति गंभीर स्वर में बोली, ‘‘मैं कई दिनों से तुम्हारी आंखों में अजीब सी तड़प देख रही हूं. मैं जब भी पूछती हूं, तुम टाल जाते हो. आज मैं तुम से जान कर ही रहूंगी.’’ ‘‘अगर मैं कहूं कि मैं भी तुम्हें खोना नहीं चाहता तो?’’ ‘‘विवाह के 7 वर्षों बाद भी यदि तुम्हें इतना विश्वास नहीं है तो हमारा दांपत्य अर्थहीन है, सुमित,’’ तृप्ति बोली. उस के स्वर की वेदना को सुमित ने साफ अनुभव किया था. ‘‘तो सुनो, तृप्ति, तुम्हें नहीं बताऊंगा तो और किसे बताऊंगा? जब से सिद्धार्थ से मिल कर लौटा हूं, मन बहुत उदास है.’’ ‘‘सिद्धार्थ यानी गौतम बुद्ध. वे कहां मिल गए तुम्हें?’’ तृप्ति हंसी. ‘‘यह उपहास का विषय नहीं है, तृप्ति,’’ सुमित के स्वर में तीव्र वेदना थी. ‘‘तुम्हें दुख पहुंचाने का मेरा विचार नहीं था, पर मैं सचमुच कुछ नहीं समझी,’’ कहते हुए तृप्ति ने नजरें नीची कर ली थीं.

‘‘मैं अपने पुत्र सिद्धार्थ की बात कर रहा था.’’ ‘‘ओह, सिद्धू,’’ तृप्ति ने गहरी सांस छोड़ते हुए कहा. ‘‘हां, उस का पूरा नाम सिद्धार्थ ही है, तृप्ति.’’ तृप्ति के सिर पर मानो किसी ने जोर से प्रहार किया था और अनेक चेहरे उस की आंखों के सामने गड्डमड्ड होते चले गए थे. पता नहीं, वह यह कैसे भूल जाती है कि वह सुमित की दूसरी पत्नी है. पहली पत्नी का पुत्र सिद्धू है और उस का अस्तित्व वह चाह कर भी नकार नहीं पाती है. सुमित से उस का पहला परिचय बड़ी ही नाटकीय परिस्थितियों में हुआ था. दोनों के कार्यालय एक ही भवन में थे और एक दिन अचानक वह बातों में इस तरह खो गई थी कि उसे समय का ध्यान ही नहीं रहा था. वह जब तक कार्यालय भवन के नीचे पहुंची थी, बस जा चुकी थी. दिसंबर के महीने में 5 बजते ही अंधेरा घिरने लगता है और उस दिन हलकी बूंदाबांदी भी हो रही थी. ‘कहां जाना है, आप को?’ तभी सुमित का स्कूटर उस के पास आ कर रुका था कि वह घबरा गई थी.

‘आप को चिंता करने की जरूरत नहीं है. मैं अगली बस से चली जाऊंगी,’ तुरंत जवाब दे तृप्ति ने बेरुखी दिखाई थी. ‘मैं चिंता नहीं कर रहा हूं, पर आज बस चालकों ने अचानक हड़ताल कर दी है. इसीलिए मानवता के नाते पूछ लिया कि शायद आप को सहायता की जरूरत हो,’ सुमित ने भी दोटूक उत्तर दिया था. ‘हड़ताल? क्यों, क्या हुआ?’ तृप्ति चौंकी थी. ‘पता नहीं, सुना है, यात्रियों की किसी बस चालक से हाथापाई हो गई थी, इसीलिए जनता को इस आकस्मिक हड़ताल का सामना करना पड़ा है.’ ‘ओह, मुझे तो पता ही नहीं था. अभी तो कोई औटो भी नजर नहीं आ रहा है. क्या आप मुझे मलकपेट तक छोड़ देंगे?’ अचानक तृप्ति अब नरम हुई थी. ‘इसीलिए मैं ने आप से पूछा था. वैसे मेरा घर भी उधर ही है. आप चाहें तो मेरे साथ आ सकती हैं. मैं इसी भवन में ‘मौडल सौफ्टवेयर’ में कार्यरत हूं. पता नहीं आप ने कभी मुझे देखा है या नहीं, पर मैं तो प्रतिदिन आप को बस का इंतजार करते यहीं खड़ी देखता हूं,’ सुमित ने अपना परिचय देते हुए कहा था. तृप्ति को घर जो पहुंचना था, सो वह लपक कर सुमित के स्कूटर की पिछली सीट पर बैठ गई थी, पर वह रास्तेभर स्वयं को कोसती रही थी कि इस तरह दीनदुनिया से वह बेखबर क्यों रहती है? ये महाशय तो प्रतिदिन मुझे निहारते रहे और मैं इन के अस्तित्व से सर्वथा अनभिज्ञ हूं. उस के बाद तो यह रोज की ही बात हो गई. यद्यपि सुमित का घर दूसरी ओर पड़ता था, पर तृप्ति से घनिष्ठता बढ़ाने के लिए ही उस ने हड़ताल वाले दिन झूठ बोल दिया था.

जब एक दिन सुमित उसे अपने घर ले गया था और सुमित ने हकीकत बयान की थी तब वह यह जान कर खूब हंसी थी. धीरेधीरे सुमित का मनमोहक व्यक्तित्व उस के अस्तित्व पर छाता चला गया था. उस दिन सुमित ने उसे खुद ही भोजन बना कर खिलाया था. भोजन ठीकठाक ही बना था, पर सुमित के प्रेमपूर्ण व्यवहार से ही वह तृप्त हो गई थी. यों तो सुमित उसे घर तक छोड़ने आया था, पर खापी कर लौटने में काफी देर हो गई थी. तृप्ति के पिता अर्जुन राव दरवाजे पर ही खड़े बेचैनी से उस का इंतजार कर रहे थे. ‘क्या बात है, पिताजी? आप दरवाजे पर ही खड़े हैं? यह समय तो आप के पसंदीदा टीवी कार्यक्रम का है,’ कहते हुए तृप्ति पिता को देखते ही मुसकराई थी. ‘जब जवान बेटी के कदम भटक रहे हों तो दरवाजे पर खड़े रहना ही तो पिता की नियति बन जाती है,’ पिता का क्रोधित स्वर सुन कर वह सहम गई थी. उस के पिता ने उस से कभी भी इस तरह बात नहीं की थी. ‘पूछिए न, अब पूछते क्यों नहीं? इतनी देर से तो घर सिर पर उठा रखा था,’ अंदर पहुंचते ही उस की मां, जो भरी बैठी थीं, कहते हुए बिफर पड़ी. ‘हांहां, पूछूंगा क्यों नहीं, मैं क्या डरता हूं? आजकल तुम किस के साथ घूमतीफिरती हो?’ पिता का पारा फिर चढ़ने लगा था.

‘‘शायद आप सुमित की बात रहे हैं. मैं उस के साथ केवल घूमफिर नहीं रही हूं, हम दोनों एक ही भवन के कार्यालयों में काम कर रहे हैं और बहुत अच्छे मित्र हैं,’ तृप्ति बोली थी. ‘और केवल मित्रता के नाते ही वह तुम्हें प्रतिदिन घर छोड़ने आता है?’ उस की मां ने प्रश्न किया था. ‘और तुम 9 बजे तक उस के साथ घूमती रहती हो? यह शरीफ लड़कियों के घर लौटने का समय है? तुम तो शायद अत्याधुनिक हो गई हो, पर हमें इसी समाज में रहना है,’ अर्जुन राव बोले थे. ‘आप वेंकट बाबू के बेटे के संबंध में बात चलाओ ताकि जल्दी से जल्दी इस के विवाह का प्रबंध किया जा सके, नहीं तो यह मित्रता तो हमारी नाक ही कटवा कर रहेगी,’ तृप्ति की मां बोली थीं. ‘नहीं मां, ऐसी गलती मत करना. मैं सुमित के अलावा और किसी से विवाह नहीं करूंगी,’ तृप्ति घबरा कर बोली थी.

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