Stories : कर्मफल – क्या हुआ था मुनीम के साथ

Stories :  गांव की एक कच्ची सड़क पर धूल उड़ाती सूरज की गाड़ी ईंटभट्ठे पर पहुंची. मुनीम उसे दफ्तर में ले आया. कुछ समय तक सूरज ने फाइलें देखीं, फिर मुनीम उसे भट्ठे का मुआयना कराने लगा, ताकि वह भट्ठे के काम को समझ सके और सभी मजदूर भी अपने छोटे ठाकुर से परिचित हो जाएं.

चलतेचलते सूरज और मुनीम एक ओर गए, जहां कई औरतें मिट्टी गूंधने में मसरूफ थीं. सूरज की नजर खूबसूरत चेहरे, गदराए जिस्म, नशीली आंखों और संतरे की फांकों जैसे होंठों वाली एक लड़की पर जा टिकी.

‘‘मुनीमजी, हम पहली बार मिट्टी में गुलाब खिला हुआ देख रहे हैं,’’ सूरज ने उस लड़की के बदन का बारीकी से मुआयना करते हुए कहा.

‘‘हुजूर, यहां हर रोज आप को ऐसे ही गुलाब खिले मिलेंगे…’’ मुनीम ने भी चुटकी ली.

‘‘मुनीमजी, उस लड़की को कितनी तनख्वाह मिलती है?’’ सूरज ने पूछा.

‘‘हुजूर, वह तनख्वाह पर नहीं,

60 रुपए की दिहाड़ी पर काम करती है,’’ मुनीम ने बताया.

‘‘बस, 60 रुपए हर रोज… आप इतनी कम दिहाड़ी दे कर उस के हुस्न की तौहीन कर रहे हैं,’’ सूरज ने शिकायती अंदाज में कहा.

‘‘सभी मजदूरों की दिहाड़ी दीवाली पर बढ़ाई जाती है. पिछली दीवाली पर उस की दिहाड़ी 50 रुपए से 60 रुपए हो गई थी. अगली दीवाली पर 70 रुपए कर देंगे,’’ मुनीम ने कहा.

‘‘वह लड़की कितने दिनों से यहां काम कर रही है?’’ सूरज ने पूछा.

‘‘हुजूर, तकरीबन 3 साल से,’’ मुनीम ने जवाब दिया.

‘‘3 साल में हर मजदूर को तरक्की मिल जाती है, पर अब तक उस लड़की की तरक्की क्यों नहीं हुई?’’ सूरज ने नाराजगी जताई.

‘‘हुजूर, दीवाली पर उस का प्रमोशन कर देंगे,’’ मुनीम तुरंत बोला.

अगले पड़ाव पर काम में मसरूफ दूसरी लड़कियों पर नजर डालते हुए सूरज बोला, ‘‘मुनीमजी, ईंटों का यह बगीचा खूबसूरत फूलों से भरा पड़ा है.’’

‘‘हुजूर, यह बगीचा आप का ही है. मैं तो सिर्फ माली हूं. इस बगीचे का जो फूल आप के मन को भाया करे, तो गुलाम को हुक्म कर दें. उसे आप की सेवा के लिए हाजिर कर दिया जाएगा,’’ मुनीम बेहिचक बोला.

पहले तो सूरज ने तीखी नजरों से मुनीम को देखा, फिर एक आजाद कहकहा मार कर बोला, ‘‘आप का बड़ा पारखी दिमाग है. इतनी सी देर में आप हमारी इच्छाओं से वाकिफ हो गए.’’

सूरज के मुंह से अपनी तारीफ सुन कर मुनीम के चेहरे पर मुसकान उभर आई.

सूरज बोला, ‘‘मुनीमजी, हम सब से पहले उस लड़की का प्रमोशन करना चाहते हैं, जिस की मदमस्त जवानी ने हमारे अंदर हलचल सी मचा दी है.’’

अगले दिन मुनीम ने उस लड़की को सूरज की हवेली में पहुंचा दिया.

‘‘तुम्हारा नाम क्या है?’’ सूरज ने मुसकराते हुए पूछा.

‘‘सुमन…’’ उस लड़की ने शरमाते हुए अपना नाम बताया.

‘‘सुमन का मतलब जानती हो?’’ सूरज ने उस की तरफ बारीकी से नजर डालते हुए पूछा.

‘‘फूल…’’ सुमन बोली.

‘‘तुम भी फूल जैसी कोमल, खूबसूरत और महक वाली हो. तुम्हारे रूप के मुताबिक ही तुम्हारा काम होना चाहिए, इसीलिए तुम्हारे काम में बदलाव कर के तुम्हें तरक्की दे दी है. अब तुम भट्ठे पर काम करने के बजाय यहां का काम देखोगी,’’ सूरज ने उस को बताया.

सुमन अपने काम में मसरूफ हो गई और कुछ ही देर में सूरज के लिए कौफी बना लाई. कौफी का प्याला मेज पर रखने के लिए वह झुकी, तो उस के उभार बाहर झांकने लगे.

सुमन जैसे ही सीधी हुई, सूरज ने आ कर उसे अपनी बांहों के घेरे में ले लिया.

‘‘छोटे ठाकुर, यह क्या कर रहे हैं आप? मैं गांव की लड़की हूं और यह सब नहीं करती,’’ सुमन सूरज की पकड़ से निकलने की कोशिश करने लगी.

सूरज ने बांहों का घेरा कस लिया और बोला, ‘‘शहर में यह सब आम बात है. तुम्हारी जवानी उफनती नदी की तरह है. मैं तुम्हारी जवानी के समंदर में डूब जाना चाहता हूं.’’

अगले ही पल सूरज की उंगलियां सुमन की छाती पर रेंगने लगीं.

‘‘ऐसा मत करो. गुदगुदी होती है,’’ सुमन ने एक अनोखी सी आह भरी. जब सूरज की छुअन से सुमन को मजा आने लगा, तो उस ने खुद को सूरज के हवाले कर दिया.

सूरज सुमन को बिस्तर पर ले गया. अगले ही पल एकएक कर के सुमन की देह से सारे कपड़े अलग होते चले गए. 2 जवान देहों के टकराने से उठा तूफान तब थमा, जब दोनों जिस्म थक कर निढाल पड़ गए.

मुनीम की मदद से सूरज की इन हरकतों को बढ़ावा मिलता रहा.

एक दिन मुनीम के पैरों के नीचे की जमीन ही खिसक गई, जब सूरज की नजर उस की जवान बेटी पर रुकी. वह किसी काम के सिलसिले में मुनीम के पास आई थी.

‘‘मुनीमजी, इस भट्ठे पर हम पहली बार इस लड़की को देख रहे हैं. अब तक उसे कहां छिपा कर रखा था?’’ सूरज ने बेहिचक पूछा.

‘‘छोटे ठाकुर, यह मेरी बेटी पुष्पा है,’’ मुनीम के चेहरे का रंग उतर गया.

‘‘मुनीमजी, पुष्पा हो या सुमन, एक ही बात है. दोनों का मतलब एक ही होता है… फूल. और तुम यह बात अच्छी तरह जानते हो कि हम खूबसूरत फूलों के बहुत शौकीन हैं. जो फूल हमें अच्छा लगता है, उसे सूंघते जरूर हैं,’’ सूरज ने कहा.

मुनीम का दिल धक से रह गया. उस ने एक बार फिर से याद कराया, ‘‘छोटे ठाकुर, पुष्पा मेरी बेटी है.’’

‘‘सुमन भी किसी की बेटी थी,’’ सूरज ने ताना कसा.

मुनीम को वहां से खिसकने में देर न लगी. लेकिन उस के कानों में सूरज के बोलने की आवाज आती रही, ‘‘मुनीमजी, मेरी बातों की टैंशन मत लेना. आज मुझे शराब कुछ ज्यादा चढ़ गई है, इसलिए जबान काबू में नहीं है.’’

मुनीम तेज कदमों से अपनी बेटी के साथ दफ्तर से बाहर निकल आया.

एक दिन अनहोनी घटना घट गई. उस दिन मुनीम ईंटभट्ठे से घर लौटा, तो चौंक पड़ा. मुनीम ने सूरज को घर से बाहर निकलते देखा.

मुनीम के चेहरे पर चिंता के भाव उभर आए. उस के कदम घर में घुसने के लिए तेजी से बढ़े.

पुष्पा दीवार से टेक लगाए बैठी सुबक रही थी. यह नागवार नजारा देख कर मुनीम गश खा कर कटे पेड़ की तरह धड़ाम से फर्श पर गिर पड़ा.

लेखक- अंसारी एम. जाकिर

Hindi Story : चुनौती – नीता क्यों बेहोश हो गई?

Hindi Story : स्टाफरूम से आती आवाजों ने नीता के कदम बाहर ही रोक दिए. तेजतेज उभरते स्वर कानों में हथौड़े की तरह बज रहे थे, ‘‘अरे, इतनी चालाक हो गई है आजकल की लड़कियां कि दोनों हाथों में लड्डू चाहिए उन्हें. बराबरी भी करेंगी और आरक्षण भी चाहिए. जहां लंबी लाइन देखी वहीं अपनी लाइन अलग बना लेंगी और यदि ऐक्स्ट्रा पीरियड लेने की बात आए तो लड़कियां शाम को ज्यादा देर नहीं रुक सकती कह कर पल्लू झाड़ लेंगी. फिर जैसे ही विभागाध्यक्ष बनाने की बात आई पुरुषमहिला सब बराबर. सब को समान अवसर मिलने चाहिए, इसलिए हमारे नाम पर भी गहराई से विचार किया जाए.’’

मुकुल की तेज आवाज में व्यंग्य के पुट से नीता की कनपटियों में दर्द सा उठने लगा. उस के लिए अब और खड़े रहना मुश्किल हो गया तो वह धीरे से अंदर दाखिल हुई और एक कुरसी खींच कर बैठ गई.

जैसाकि नीता को उम्मीद थी उस के अंदर घुसते ही कमरे में पूर्णतया शांति छा गई. उस ने चुपचाप कापियां जांचना आरंभ कर दिया मानो कुछ सुना ही न हो. चपरासी चाय ले आया था और इस के साथ  ही वातावरण सामान्य होने लगा था. नीता ने राहत की सांस ली. स्कूलकालेज के दिनों से ही उसे बहस, वादविवाद आदि से घबराहट सी होने लगती थी. इसीलिए निबंध प्रतियोगिता में सदैव अव्वल आने वाली लड़की वादविवाद प्रतियोगिता में भाग लेना तो दूर हौल में बैठ कर सुनना भी गवारा नहीं समझती थी.

वैसे देखा जाए तो मुकुल के आक्षेप गलत भी नहीं थे. हमेशा से ही किसी भी वर्ग के कुछ प्रतिष्ठित लोगों की वजह से ही वह पूरा वर्ग बदनाम होता है. लेकिन कुछ प्रतिष्ठित लोगों के प्रयास ही उस वर्ग को रसातल से ऊपर भी खींच ले आते हैं नीता. मन में उठ रहा विचारों का अंतर्द्वंद्व फिर गंभीर वादविवाद में तबदील न हो जाए इस आश से घबरा कर नीता ने फटाफट चाय की चुसकियां लेनी आरंभ कर दीं.

तभी साथी अध्यापक विनय अपनी शादी का कार्ड ले आया, ‘‘लीजिए, आप ही बची थीं. बाकी सब को तो दे चुका हूं.’’

‘‘विनय, तुम्हारी सगाई हुए तो काफी अरसा हो गया न?’’ अपने हाथ के कार्ड को उलटपुलट कर देखते हुए मुकुल ने राय जाहिर की.

‘‘हां, सालभर से ज्यादा ही हो गया है. विनीता भी सरकारी स्कूल में सीनियर टीचर है तो इसलिए उस के यहां तबादले का प्रयास कर रहे थे पर नहीं हो पाया.’’

‘‘फिर अब?’’

‘‘अब उस ने रिजाइन कर दिया है. यहीं कहीं प्राइवेट में कर लेगी.’’

‘‘उफ, खैर किसी एक को तो एडजस्ट करना ही था,’’ मुकुल ने गहरी सांस भरी तो नीता की चुभती नजरें उस पर टिक गईं जैसे कहना चाह रही हो किसी एक को नहीं मुकुल, लड़की को ही एडजस्ट करना था. इसी से तो आप पुरुषों का ईगो तुष्ट होता है. हुंह, स्त्रियों पर दोगला होने का आरोप लगाते हैं. पहले अपने गरीबान में तो ?ांक कर देख लें. मन में कुछ और ऊपर से कुछ.

विद्यालय का वार्षिकोत्सव समीप था. तैयारी कराने वाली समिति में नीता और मुकुल का भी नाम था. नीता जितना जल्दीजल्दी काम कर शाम को जल्दी फारिग होने का प्रयास करती मुकुल उतनी ही देर लगाता. नीता उस का मंतव्य समझ रही थी. मगर उस ने भी ठान लिया था कि वह बहसबाजी में नहीं पड़ेगी बल्कि कुछ कर के दिखाएगी. वह परेशानियां झेलती रही. लेकिन एक बार भी अपनी स्त्रीसुलभ मजबूरियां बखान कर उस ने किसी की सहानुभूति उपार्जित करने का प्रयास नहीं किया.

वार्षिकोत्सव सफलतापूर्वक संपन्न हुआ तो नीता ने संतोष की सांस ली. साथी अध्यापिकाओं की प्रशंसा के बीच मुकुल के चेहरे के असंतोष को वह आसानी से पढ़ पा रही थी.

‘‘कितना मुश्किल होता है इन पुरुषों के लिए हमारी प्रशंसा को पचाना. हम इन से सहायता की गुहार किए बिना कोई कार्य कर लें, वह इन के अहं को इतना नागवार क्यों गुजरता है?’’ नीता मन ही मन सोच रही थी. पहली ही जीत ने नीता में गजब का उत्साह भर दिया था. उसे इस लड़ाई में एक आनंद सा आने लगा था.

विद्यालय की ओर से लड़केलड़कियों का एक गु्रप शैक्षणिक भ्रमण के लिए भेजा जा रहा था, जिस में नेतृत्व की कमान 3 अध्यापकों को सौंपी जानी थी. इसी संदर्भ में प्रिंसिपल ने मीटिंग बुलाई थी. टूर काफी लंबा और कठिनाइयों भरा था, इसलिए प्रिंसिपल को आशंका थी कि कोई भी अध्यापिका इस के लिए सहर्ष तैयार नहीं होगी. मगर चूंकि लड़कियां भी टूर में शामिल थीं इसलिए एक अध्यापिका को तो भेजना ही था. दुविधा में फंसे प्रिंसीपल ने अभी अपनी इस मजबूरी की भूमिका बांधना आरंभ ही किया था कि नीता ने हाथ उठा कर उन्हें हैरत में डाल दिया.

‘‘मैं टूर की कमान संभालने को तैयार हूं. आप 2 असिस्टैंट टीचर नियुक्त कर दें.’’

नीता की हिमाकत पर वैसे ही मुकुल का खून खौल रहा था और जब प्रिंसिपल ने 2 असिस्टैंट टीचर्स में एक नाम मुकुल का लिया तो मानो आग में घी पड़ गया.

मुकुल ने तुरंत किसी व्यक्तिगत मजबूरी का बहाना बना कर पीछे हटना चाहा तो प्रिंसिपल ने उसे आड़े हाथों लिया, ‘‘नीता मैडम से सीखिए कुछ. वे महिला हो कर अपनी जिम्मेदारियों से नहीं भागतीं और आप…’’

नीता ने एक कुटिल मुसकान मुकुल की ओर फेंकी तो मुकुल तिलमिला उठा.

हालांकि मन ही मन नीता जानती थी कि यह मुसकान उसे बहुत भारी पड़ने वाली है पर इस शह और मात के खेल में पीछे हटना अब उसे मंजूर नहीं था.

जैसाकि नीता को उम्मीद थी मुकुल ने साथी अध्यापक के साथ मिल कर उस की राह में पलपल परेशानियां खड़ी करने का प्रयास किया. यह तो विद्यार्थी लड़कों और लड़कियों का सहयोग था कि नीता हर बाधा लांघ कर सकुशल टूर लौटा लाई. मगर इस चूहादौड़ से अब वह पूरी तरह ऊब और थक चुकी थी.

कुछकुछ ऐसी ही प्रतिक्रिया उसे अब मुकुल की ओर से भी अनुभव होने लगी थी. पहले वह बातबात में उसे काटने और नीचा दिखाने का प्रयास करता था लेकिन इधर काफी समय से वह गौर कर रही थी कि वह अब न केवल मूक दर्शक बना उसे देखता और सुनता रहता बल्कि कई अवसरों पर तो उस ने मुकुल की आंखों में अपने लिए प्रशंसा के भाव भी देखे. नीता के लिए यह एहसास सर्वथा नया और चौंकाने वाला था.

जब दूसरी ओर से कोई प्रतिप्रहार न करे तो भला इंसान इकतरफा लड़ाई कब तक जारी रख सकता है? नीता सम?ा नहीं पा रही थी कि मुकुल किसी उपयुक्त अवसर की तलाश में है या उस की मानसिकता बदल गई है? वह इस परिवर्तन को अपनी जीत के रूप में ले या हार के रूप में?

इसी दौरान विद्यालय में प्रातकालीन योग कक्षाएं आरंभ हो गईं, जिन में नियम से 2-2 अध्यापकों को ड्यूटी देनी थी. इसे संयोग कहें या दुर्योग लेकिन नीता की ड्यूटी फिर मुकुल के संग ही लगी. सवेरे जल्दी उठ कर तैयार हो कर टिफिन पैक कर निकलना नीता के लिए बेहद सिरदर्दी साबित हो रहा था. घर से स्कूल इतना दूर था कि वह बीच में समय मिलने पर आराम के लिए भी नहीं लौट सकती थी. लौटते में बाजार से सब्जी, आवश्यक सामान आदि खरीदने में अकसर शाम हो आती थी. नीता में अपने लिए खाना बनाने की ताकत भी शेष नहीं रहती थी. 2 दिनों से तो वह दूधब्रैड खा कर ही बिस्तर पर पड़ जाती थी. वापस सवेरे अलार्म से ही आंख खुल पाती.

इसी दौरान माहवारी आरंभ हो जाने से उस की हालत और भी पस्त हो गई. मगर नीता ने ठान रखी थी कि वह स्त्री होने का कोई भी लाभ उठा कर मुकुल को जबान खोलने का अवसर नहीं देगी. हकीकत तो यह थी कि मुकुल के छोड़े व्यंग्यबाणों से वह इतनी आहत हुई थी कि उन्हें उस ने एक चुनौती के रूप में ले लिया था. मगर समय के अंतराल के साथ यह चुनौती एक जिद में तबदील होती जा रही थी. नीता को मानो हर वह काम कर के दिखाना था जिसे सामान्यतया एक स्त्री करना टालती है. अपनी जिद और जनून के आगे न तो उसे अपने स्वास्थ्य की परवाह रह गई थी और न ही किसी खतरे की आशंका. चाहे भोर का धुंधलका हो या स्याह रात की वीरानगी, वह अपनी स्कूटी ले कर कभी भी, कहीं भी निकल पड़ती.

नीता महसूस कर रही थी कि उस के गिरते स्वास्थ्य ने मुकुल को उस के प्रति अनायास ही बहुत मृदु और सहृदय बना दिया है. उस के चेहरे से झलकता अपराधबोध दर्शाता कि उसे विगत के अपने व्यवहार पर शर्मिंदगी है. मुकुल के चेहरे के ये सब भाव तो नीता को सुकून प्रदान कर रहे थे. लेकिन इधर कुछ दिनों से वह उस के व्यवहार में, मनोभावों में जो कुछ परिवर्तन महसूस कर रही थी उसे स्वीकारने में उसे बेहद हिचकिचाहट महसूस हो रही थी. पर हकीकत से कब तक भागा जा सकता था?

हां, निसंदेह यह प्यार ही था और कुछ नहीं. मुकुल यानी जिस शख्स की उसे शक्ल देखना भी गवारा नहीं था, जो शख्स उस पर छींटाकशी का कोई मौका हाथ से नहीं जाने देता था वही शख्स उस से प्यार करने लगा है? वह कैसे विश्वास करे इस शख्स का? प्यार का इजहार करना तो दूर की बात है, उस ने तो आज तक कभी उस से खुल कर अपने गलत व्यवहार के लिए शर्मिंदगी भी व्यक्त नहीं की है.

विचारों में उलझन नीता स्कूल पहुंच कर योगा तो करवाने लग गई लेकिन कमजोरी और थकान के मारे उस का बुरा हाल हो रहा था. मुकुल ने 1-2 बार उस से यह कह कर आराम करने का आग्रह किया कि वह अकेला दोनों गु्रप संभाल लेगा लेकिन नीता पर इस आग्रह का विपरीत असर हुआ. मुकुल के प्रस्ताव को सिरे से नकार कर वह और भी जोश से हाथपांव चलाने लगी. कुछ ही देर में उस की आंखों के आगे अंधेरा छाने लगा और फिर उसे कुछ होश न रहा.

जब होश आया तो नीता अस्पताल में थी और उसे ग्लूकोस चढ़ रहा था. मुकुल पास ही टकटकी बांधे उसे देख रहा था. पूछा, ‘‘अब कैसी तबीयत है आप की?’’

नीता ने ठीक है में सिर हिला दिया.

‘क्यों अपने स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ कर रही हैं आप?’’ मुझ पर गुस्सा है तो चिल्लाइए न मुझ पर, गालियां दीजिए, हाथ उठाइए पर प्लीजप्लीज, अपनेआप पर अब और जुल्म मत कीजिए. मैं अपनी गलती मानता हूं. 1-2 महिलाओं के व्यवहार से ही पूरी नारी जाति का आंकलन कर बैठा था. नारी हमेशा से ही सम्माननीय थी, है और रहेगी. उस की शारीरिक दुर्बलताएं उस की कमजोरियां नहीं वरन शक्तियां हैं. जो उस सहित पूरे परिवार को एक संबल प्रदान करती हैं. उस के त्याग, ममता और सहानुभूति के गुण न केवल उस में वरन हम पुरुषों में भी एक नई ऊर्जा का संचार करते हैं. कुदरत की यह अनुपम कृति उपहास उड़ाने योग्य नहीं वरन सहेजने योग्य है. अपनी अल्पबुद्धि के कारण मैं उन के महत्त्व को कमतर आंक बैठा, इस के लिए मैं शर्मिंदा हूं. बहस में शायद मैं आप से पराजित नहीं होता, मगर आप के स्वयंसिद्धा रूप ने मुझे घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया है.’’

‘‘नहींनहीं. गलती मेरी भी है. जिन आक्षेपों को चुनौती की तरह ले कर संघर्ष आरंभ किया था वह संघर्ष धीरेधीरे कब जिद का रूप ले बैठा ध्यान ही नहीं रहा. मगर आप ने तो खुद को झुक कर मुझे मौका दिया है.’’

अपनीअपनी हार को स्वीकार करते हुए भी दोनों के मन में जीत का उन्माद हिलोरें ले रहा था.

Best Stories : आलू वड़ा

Best Stories : ‘‘बाबू, तुम इस बार दरभंगा आओगे तो हम तुम्हें आलू वड़ा खिलाएंगे,’’ छोटी मामी की यह बात दीपक के दिल को छू गई.

पटना से बीएससी की पढ़ाई पूरी होते ही दीपक की पोस्टिंग भारतीय स्टेट बैंक की सकरी ब्रांच में कर दी गई. मातापिता का लाड़ला और 2 बहनों का एकलौता भाई दीपक पढ़ने में तेज था. जब मां ने मामा के घर दरभंगा में रहने की बात की तो वह मान गया.

इधर मामा के घर त्योहार का सा माहौल था. बड़े मामा की 3 बेटियां थीं, मझले मामा की 2 बेटियां जबकि छोटे मामा के कोई औलाद नहीं थी.

18-19 साल की उम्र में दीपक बैंक में क्लर्क बन गया तो मामा की खुशी का ठिकाना नहीं रहा. वहीं दूसरी ओर दीपक की छोटी मामी, जिन की शादी को महज 4-5 साल हुए थे, की गोद सूनी थी.

छोटे मामा प्राइवेट नौकरी करते थे. वे सुबह नहाधो कर 8 बजे निकलते और शाम के 6-7 बजे तक लौटते. वे बड़ी मुश्किल से घर का खर्च चला पाते थे. ऐसी सूरत में जब दीपक की सकरी ब्रांच में नौकरी लगी तो सब खुशी से भर उठे.

‘‘बाबू को तुम्हारे पास भेज रहे हैं. कमरा दिलवा देना,’’ दीपक की मां ने अपने छोटे भाई से गुजारिश की थी.

‘‘कमरे की क्या जरूरत है दीदी, मेरे घर में 2 कमरे हैं. वह यहीं रह लेगा,’’ भाई के इस जवाब में बहन बोलीं, ‘‘ठीक है, इसी बहाने दोनों वक्त घर का बना खाना खा लेगा और तुम्हारी निगरानी में भी रहेगा.’’

दोनों भाईबहनों की बातें सुन कर दीपक खुश हो गया. मां का दिया सामान और जरूरत की चीजें ले कर दोपहर 3 बजे का चला दीपक शाम 8 बजे तक मामा के यहां पहुंच गया.

‘‘यहां से बस, टैक्सी, ट्रेन सारी सुविधाएं हैं. मुश्किल से एक घंटा लगता है. कल सुबह चल कर तुम्हारी जौइनिंग करवा देंगे,’’ छोटे मामा खुशी से चहकते हुए बोले.

‘‘आप का काम…’’ दीपक ने अटकते हुए पूछा.

‘‘अरे, एक दिन छुट्टी कर लेते हैं. सकरी बाजार देख लेंगे,’’ छोटे मामा दीपक की समस्या का समाधान करते हुए बोल उठे.

2-3 दिन में सबकुछ सामान्य हो गया. सुबह साढ़े 8 बजे घर छोड़ता तो दीपक की मामी हलका नाश्ता करा कर उसे टिफिन दे देतीं. वह शाम के 7 बजे तक लौट आता था.

उस दिन रविवार था. दीपक की छुट्टी थी. पर मामा रोज की तरह काम पर गए हुए थे. सुबह का निकला दीपक दोपहर 11 बजे घर लौटा था. मामी खाना बना चुकी थीं और दीपक के आने का इंतजार कर रही थीं.

‘‘आओ लाला, जल्दी खाना खा लो. फेरे बाद में लेना,’’ मामी के कहने में भी मजाक था.

‘‘बस, अभी आया,’’ कहता हुआ दीपक कपड़े बदल कर और हाथपैर धो कर तौलिया तलाशने लगा.

‘‘तुम्हारे सारे गंदे कपड़े धो कर सूखने के लिए डाल दिए हैं,’’ मामी खाना परोसते हुए बोलीं.

दीपक बैठा ही था कि उस की मामी पर निगाह गई. वह चौंक गया. साड़ी और ब्लाउज में मामी का पूरा जिस्म झांक रहा था, खासकर दोनों उभार.

मामी ने बजाय शरमाने के चोट कर दी, ‘‘क्यों रे, क्या देख रहा है? देखना है तो ठीक से देख न.’’

अब दीपक को अजीब सा महसूस होने लगा. उस ने किसी तरह खाना खाया और बाहर निकल गया. उसे मामी का बरताव समझ में नहीं आ रहा था.

उस दिन दीपक देर रात घर आया और खाना खा कर सो गया.

अगली सुबह उठा तो मामा उसे बीमार बता रहे थे, ‘‘शायद बुखार है, सुस्त दिख रहा है.’’

‘‘रात बाहर गया था न, थक गया होगा,’’ यह मामी की आवाज थी.

‘आखिर माजरा क्या है? मामी क्यों इस तरह का बरताव कर रही हैं,’ दीपक जितना सोचता उतना उलझ रहा था.

रात खाना खाने के बाद दीपक बिस्तर पर लेटा तो मामी ने आवाज दी. वह उठ कर गया तो चौंक गया. मामी पेटीकोट पहने नहा रही थीं.

‘‘उस दिन चोरीछिपे देख रहा था. अब आ, देख ले,’’ कहते हुए दोनों हाथों से पकड़ उसे अपने सामने कर दिया.

‘‘अरे मामी, क्या कर रही हो आप,’’ कहते हुए दीपक ने बाहर भागना चाहा मगर मामी ने उसे नीचे गिरा दिया.

थोड़ी ही देर में मामीभांजे का रिश्ता तारतार हो गया. दीपक उस दिन पहली बार किसी औरत के पास आया था. वह शर्मिंदा था मगर मामी ने एक झटके में इस संकट को दूर कर दिया, ‘‘देख बाबू, मुझे बच्चा चाहिए और तेरे मामा नहीं दे सकते. तू मुझे दे सकता है.’’

‘‘मगर ऐसा करना गलत होगा,’’ दीपक बोला.

‘‘मुझे खानदान चलाने के लिए औलाद चाहिए, तेरे मामा तो बस रोटीकपड़ा, मकान देते हैं. इस के अलावा भी कुछ चाहिए, वह तुम दोगे,’’ इतना कह कर मामी ने दीपक को बाहर भेज दिया.

उस के बाद से तो जब भी मौका मिलता मामी दीपक से काम चला लेतीं. या यों कहें कि उस का इस्तेमाल करतीं. मामा चुप थे या जानबूझ कर अनजान थे, कहा नहीं जा सकता, मगर हालात ने उन्हें एक बेटी का पिता बना दिया.

इस दौरान दीपक ने अपना तबादला पटना के पास करा लिया. पटना में रहने पर घर से आनाजाना होता था. छोटे मामा के यहां जाने में उसे नफरत सी हो रही थी. दूसरी ओर मामी एकदम सामान्य थीं पहले की तरह हंसमुख और बिंदास.

एक दिन दीपक की मां को मामी ने फोन किया. मामी ने जब दीपक के बारे में पूछा तो मां ने झट से उसे फोन पकड़ा दिया.

‘‘हां मामी प्रणाम. कैसी हो?’’ दीपक ने पूछा तो वे बोलीं, ‘‘मुझे भूल गए क्या लाला?’’

‘‘छोटी ठीक है?’’ दीपक ने पूछा तो मामी बोलीं, ‘‘बिलकुल ठीक है वह. अब की बार आओगे तो उसे भी देख लेना. अब की बार तुम्हें आलू वड़ा खिलाएंगे. तुम्हें खूब पसंद है न.’’

दीपक ने ‘हां’ कहते हुए फोन काट दिया. इधर दीपक की मां जब छोटी मामी का बखान कर रही थीं तो वह मामी को याद कर रहा था जिन्होंने उस का आलू वड़ा की तरह इस्तेमाल किया, और फिर कचरे की तरह कूड़ेदान में फेंक दिया.

औरत का यह रूप उसे अंदर ही अंदर कचोट रहा था.

‘मामी को बच्चा चाहिए था तो गोद ले सकती थीं या सरोगेट… मगर इस तरह…’ इस से आगे वह सोच न सका.

मां चाय ले कर आईं तो वह चाय पीने लगा. मगर उस का ध्यान मामी के घिनौने काम पर था. उसे चाय का स्वाद कसैला लग रहा था.

Family Drama 2025 : अम्मी कहां – कहां खो गईं थी अम्मी

Family Drama 2025 :  ‘‘अम्मीजान, आप यहीं खड़ी रहना, मैं टिकट ले कर अभी आता हूं,’’ कह कर मोहिन खान अपनी मां को रेलवे प्लेटफार्म की तरफ जाने वाली सीढ़ी के पास छोड़ कर टिकट लेने चला गया.

टिकट खिड़की पर लाइन लंबी थी, जो बस स्टौप तक पहुंच गई. उसे इतनी भीड़ होने का अंदाजा न था. उस ने सोचा, ‘टिकट ही तो लेनी है. उस में कौन सी बड़ी बात है.’

पर जब वह टिकट लेने पहुंचा, तो सब ने उसे ‘लाइन से आओ’ कह कर पीछे भेज दिया. वह सब से पीछे जा कर खड़ा हो गया और लाइन आगे बढ़ने का इंतजार करता रहा. पर कहां? लाइन वहीं की वहीं, धीरेधीरे चींटी की तरह आगे बढ़ रही थी.

मोहिन खान को अपनी मां को ले कर भिंडी बाजार जाना था. कल उस के भतीजे का पहला जन्मदिन था.

चूंकि उस की मां की उम्र हो चुकी थी. उस ने सोचा कि आज मां को वहां छोड़ कर कल शाम अपनी बीवी और बच्चे को साथ ले जाएगा, इसलिए मां को भाई के घर छोड़ कर उसे किसी भी हाल में वापस लौटना था, क्योंकि नौकरों के भरोसे वह दुकान छोड़ नहीं सकता था, इसलिए उसे जल्दी थी.

वहां उस की अम्मी इंतजार कर के थक गईं. मन ही मन कुढ़ते हुए वे सोचने लगीं कि पता नहीं कहां चला गया. कह कर गया था कि टिकट लाने जा रहा हूं, पर इतनी देर हो गई और अब तक नहीं लौटा.

उन्होंने गुस्से में आव देखा न ताव धीरेधीरे सीढ़ी चढ़ कर 2 नंबर के प्लेटफार्म पर आ गईं. यह सोच कर कि उन का बेटा पीछेपीछे आ जाएगा.

जो ट्रेन आई, वे उस में चढ़ गईं.

उन्हें अपनी सहेली की बेटी सुलताना मिली. उसे भी भिंडी बाजार जाना था. वे कई सालों बाद उस से मिलीं, तो बतियाने लगीं.

इधर मोहिन खान टिकट ले कर सीढि़यों के पास पहुंचा. वहां अपनी अम्मी को न देख कर वह घबरा गया. उस ने टिकटघर के आसपास का सारा इलाका छान मारा, पर उसे उस की अम्मी कहीं नहीं नजर आईं.

शाम ढल चुकी थी. अंधेरा भी हो गया. सड़कें, दुकान, मकान, होटल यहां तक कि टिकटघर के साथ प्लेटफार्म भी बिजली की रोशनी से जगमगाने लगे थे.

उस ने सभी प्लेटफार्म देख लिए, पर अम्मी का कहीं पता नहीं चला. पूछताछ करे भी तो किस से? उसे कुछ भी सूझ नहीं रहा था कि वह क्या करे.

मोहिन खान ने बारीबारी से सब को फोन कर के पूछ लिया, पर कहीं से भी उस की अम्मी के पहुंचने की खबर नहीं मिली. अब तो वह और भी डर गया. उस के परिवार वाले भी परेशान थे. भिंडी बाजार में फोन करने पर उस के भाईजान और भाभीजान दोनों परेशान हो गए. कुर्ला से भायखाला का आधे घंटे का सफर है, फिर वे कहां रह गईं.

भिवंडी में मझले भाई असलम को पता चला, तो वह भी परेशान हो गया. गोवंडी में मोहिन खान की आपा को जब यह बात पता चली, तो वे बहुत गुस्से में बिफर कर फोन पर ही चिल्लाईं, ‘कितने लापरवाह हो तुम लोग? अभी कल ही तो छोड़ आई थी मैं उन्हें, कहीं कोई झगड़ा तो नहीं कर लिया किसी ने?’ कह कर गुस्से से फोन रख दिया.

मझला भाई भी अपने परिवार के साथ अम्मी को ढूंढ़ता हुआ पहुंच गया. फिर सब ने मिल कर अंदाजा लगाया कि कहीं वे वापस मोहिन खान के घर तो नहीं चली गईं?

यह सोच कर मझले भाई ने उसे फोन लगा कर कहा, ‘‘देखो मोहिन, तुम घबराना मत. तुम एक काम करो, एक बार घर जा कर देख लो. कहीं वे वापस न चली गई हों. अगर वे घर पर न हों, तो भी फिक्र मत करो. तुम दुकान बंद कर के बीवीबच्चों के साथ यहां चले आओ. हम सब मिल कर ढूंढ़ते हैं.’’

‘‘अच्छा भाईजान,’’ कह कर मोहिन खान सीधा घर गया. वहां अम्मी को न पा कर दोनों मियांबीवी कुछ देर बाद भिंडी बाजार पहुंच जाते हैं.

सब कितने खुश थे कि कल असलम के बच्चे का पहला जन्मदिन मनाया जाने वाला था. सब सोच रहे थे कि बड़े धूमधाम से जन्मदिन मनाएंगे कि अचानक यह खबर मिली. जहां कल के जश्न की तैयारियां होनी थीं, आज वहां एक अजीब सी खामोशी छाई थी.

जैसेजैसे रात होती गई, सब की फिक्र भी बढ़ती जा रही थी. सब के चेहरे मायूस थे. फिर सब ने तय किया कि अगर कल शाम तक कोई खबर नहीं मिली या अम्मी नहीं लौटीं, तो पुलिस में शिकायत दर्ज करेंगे. रात के साढ़े 11 बजे थे. सब थक चुके थे, पर किसी को भी न भूख थी, न आंखों में नींद.

अचानक दरवाजे की घंटी बजी. दरवाजा खुलते ही सामने अम्मी को एक अजनबी के साथ देख कर सब को हैरानी हुई. सब के चेहरे खुशी से चमक उठे.

अम्मी ने उस अजनबी को भीतर बुलाया और सोफे पर बैठाया. बहू से कहा, ‘‘शबनम, जरा पानी तो लाना.’’

‘‘जी अम्मीजान,’’ कह कर वह रसोईघर में गई और एक ट्रे में एक जग पानी भर कर और कुछ खाली गिलास भी ले आई.

तब तक अम्मी भी बैठ चुकी थीं. उन को पानी पिला कर वह जाने लगी, तो अम्मी ने कहा, ‘‘बहू, ये हमारे मेहमान हैं, आज रात यहीं रुकेंगे. इन के खानेपीने का इंतजाम करो.’’

‘‘जी अम्मीजान,’’ कह कर वह वापस रसोईघर में चली गई.

अब अम्मी बेटों और दामाद की ओर मुड़ कर बोलीं, ‘‘यह मेरी सहेली का बेटा है, जो मुझे छोड़ने आया है. हुआ यों कि मैं मोहिन खान के इंतजार में खड़ीखड़ी थक कर यह सोच कर धीरेधीरे चल पड़ी कि मेरे पीछे चला आएगा, पर वह नजर ही नहीं आया…

‘‘मैं यह सोच कर गाड़ी में भी चढ़ गई कि वह पीछे ही होगा, पर इस का तो पता ही नहीं था.

‘‘फिर मुझे मेरी सहेली की बेटी सुलताना मिली. उस से पता चला कि उस की मां की तबीयत आजकल खराब चल रही है, इसलिए मैं उसे देखने चली गई थी. वह भिंडी बाजार में ही रहती है.’’

यह सुन कर सब खामोश हो गए. कुछ ही देर में शबनम ने आ कर अम्मी के कान में कहा, ‘‘अम्मीजान, खाना लग चुका है.’’

‘‘चलो, खाना लग चुका है,’’ अम्मी ने कहा.

बाद में अम्मी अपनी सहेली के बेटे अजीज को मेहमानों के कमरे में पहुंचा कर खुद भी आराम करने अपने कमरे में चली गईं. बाकी सब भी सोने के लिए जाने की तैयारी में थे कि ऐसे में असलम के मोबाइल फोन की घंटी बजी. सामने से पूछा गया… ‘अम्मी कहां…’

इस से पहले कि उस की बात पूरी होती, असलम ने कहा, ‘‘अम्मी यहां…’’ और इस से आगे वह खुशी के मारे कुछ भी नहीं कह पाया.

लेखिका- रश्मि नायर

Stories In Hindi : खुद ही – नरेन और रेखा के बीच क्या संबंंध था

Stories In Hindi : रात के साढ़े 10 बजे थे. नरेन के आने का कोई अतापता नहीं था. हालांकि उस ने विभा को फोन कर दिया था कि उसे आने में देर हो जाएगी, सो वह खाना खा कर, दरवाजा बंद कर सो जाए, उस का इंतजार न करे. चाबी उस के पास है ही. वह आ कर दरवाजा खोल कर जोकुछ खाने को रखा है, खा कर सो जाएगा. यह जानते हुए भी विभा नरेन के आने के इंतजार में करवटें बदल रही थी. वह देखना चाहती थी कि आखिर उस के आने में कितनी देर होती है, जबकि बेटी अंशिता सो चुकी थी.

समय काटने के लिए विभा ने रेडियो पर पुराने गाने लगा दिए थे, जिन्हें सुनतेसुनते उसे कब नींद आ गई, पता ही नहीं चला. एकाएक विभा की नींद टूटी. उस ने चालू रेडियो को बंद करना चाहा कि उस गाने को सुन कर उस के हाथ रेडियो बंद करतेकरते रुक गए. गाने के बोल थे, ‘अपने जीवन की उलझन को कैसे मैं सुलझाऊं. बीच भंवर में नाव है मेरी कैसे पार लगाऊं…’ गाने ने जैसे मन की बात कह दी. गाने जैसी खींचातानी उस की जिंदगी में भी हो रही थी.

‘कोई कामधाम नहीं है, यह सब बहानेबाजी है,’ विभा ने मन ही मन कहा. दरअसल, नरेन उस रेखा के चक्कर में है जिस से वह उस से एक बार मिलवा भी चुका था. विभा से वह घड़ी आज भी भुलाए नहीं भूलती. कितना जोश में आ कर उस ने परिचय कराया था. ‘इन से मिलो विभा, ये मेरे औफिस में ही हैं, हमारे साथ काम करने वाली रेखा. बहुत अच्छा स्वभाव है इन का… और रेखा, ये हैं मेरी पत्नी विभा…’

विभा को शक हो गया था. एक पराई औरत के प्रति ऐसा खिंचाव. और तो और बाद में वह उसे छोड़ने भी गया था. चाहता तो किसी बस में बिठा कर विदा भी कर सकता था, पर नहीं. गाना खत्म हुआ तो विभा ने रेडियो बंद कर दिया और सोने की कोशिश करने लगी. आखिरकार नींद लग ही गई.

पता नहीं, कितना समय हुआ कि उस ने अपने शरीर पर किसी का हाथ महसूस किया. उसे लग गया था कि यह नरेन ही है. उस ने उस के हाथ को अपने पर से हटाया और उनींदी में कहने लगी, ‘‘सोने दो. नींद आ रही है. कहां थे इतनी देर से. समय से आना चाहिए न.’’ ‘‘क्या करूं डार्लिंग, कोशिश तो जल्दी आने की ही करता हूं,’’ नरेन ने विभा को अपनी ओर खींचते हुए कहा.

‘‘आप रेखा से मिल कर आ रहे हैं न…’’ विभा ने अपनेआप को छुड़ाते हुए ताना सा कसा, ‘‘इतनी अच्छी है तो मुझ से शादी क्यों की? कर लेते उसी से…’’ ‘‘विभा, छोड़ो भी न. यह भी कोई समय है ऐसी बातों का. आज अच्छा मूड है, आओ न.’’

‘‘तुम्हारा तो अच्छा मूड है, पर मेरा तो मूड नहीं है न. चलो, सो जाओ प्लीज,’’ विभा दूसरी ओर मुंह कर के सोने की कोशिश करने लगी. ‘‘तुम पत्नियां भी न… कब समझोगी अपने पति को,’’ नरेन ने निराश हो कर कहा.

‘‘पहले तुम मेरे हो जाओ.’’ ‘‘तुम्हारा ही तो हूं बाबा. पिछले

15 सालों से तुम्हारा ही हूं विभा. मेरा यकीन मानो.’’ ‘‘तो सच बताओ, इतनी देर तक उस रेखा के साथ ही थे न?’’

‘‘देखो, जब तक मैं उस कंपनी में था, उस के पास था. जब मैं वहां से जौब छोड़ कर अपनी खुद की कौस्मैटिक की मार्केटिंग का काम कर रहा हूं तो अब वह यहां भी कहां से आ गई?’’ ‘‘मुझे तो यकीन नहीं होता. अच्छा बताओ कि तुम ने नहीं कहा था कि अब जब मैं अपना काम कर रहा हूं तब तो मैं समय से आ जाया करूंगा. तुम तो अब भी ऐसे ही आ रहे हो जैसे उसी कंपनी में काम करते हो.’’

‘‘अपना काम है न. सैट करने में समय तो लगता ही है. धीरेधीरे सब ठीक हो जाएगा. मेरी बात मानो. अब सब तुम्हारे हिसाब से चलने लगेगा. ठीक है, अच्छा अब तो मान जाओ.’’ ‘‘नहीं, बिलकुल नहीं. मुझे तो बिलकुल यकीन नहीं होता. तुम एक नंबर के झूठे हो. मैं कई बार तुम्हारा झूठ पकड़ चुकी हूं.’’

‘‘तो तुम नहीं मानोगी?’’ ‘‘जब तक मुझे पक्का यकीन नहीं हो जाता,’’ निशा ने कहा.

‘‘तो तुम्हें यकीन कैसे होगा?’’ ‘‘बस, सच बोलना शुरू कर दो और समय से घर आना शुरू कर दो.’’

‘‘अच्छी बात है. कोशिश करता हूं,’’ रंग में भंग पड़ता देख नरेन ने अपने कदम पीछे खींच लेने में ही भलाई समझी. वह नहीं चाहता था कि बात आगे बढ़े. वह भी करवट बदल कर सोने की कोशिश करने लगा. विभा का शक नरेन के प्रति यों ही नहीं था. दरअसल, कुछ महीने पहले की बात है. वह और विभा बच्ची अंशिता के साथ शहर के एक बड़े गार्डन में घूमने गए थे जहां वह रेखा के साथ भी घूमने जाता रहा था. वहां से वे अपने एक परिचित भेल वाले के यहां नाश्ते के लिए चले गए.

भेल वाले ने सहज ही पूछ लिया था कि आज आप के साथ वे बौबकट बालों वाली मैडमजी नहीं हैं? बस, यह सुनते ही विभा के तनबदन में आग लग गई थी और घर लौट कर उस ने नरेन की अच्छे से खबर ली थी.

नरेन ने लाख सफाई दी, पर विभा नहीं मानी थी. जैसेतैसे आगे न मिलने की कसम खा कर नरेन ने अपना पिंड छुड़ाया था. विभा की बातों में सचाई थी इसलिए नरेन कमजोर पड़ता था. नरेन रेखा के चक्कर में इस कदर पड़ा था कि वह चाह कर भी खुद को रेखा से अलग नहीं कर पा रहा था.

रेखा का खूबसूरत बदन और कटार जैसे तीखे नैन. नरेन फिदा था उस पर. अब एक ही रास्ता था कि रेखा शादी कर ले और अपना घर बसा ले, पर एक तरह से रेखा यह जानते हुए कि नरेन शादीशुदा है, वह खुद को उसे सौंप चुकी थी. नरेन में उसे पता नहीं क्या नजर आता था. यहां तक कि जब विभा गांव में कुछ दिनों के लिए अपनी मां के यहां जाती तो रेखा नरेन के यहां आ जाती और फिर दोनों मजे करते.

पर विभा को किसी तरह इस बात की भनक लग गई थी, इसलिए उस ने अब मां के यहां जाना कम कर दिया था. विभा संबंधों की असलियत को समझ नहीं पा रही थी क्योंकि जहां एक ओर वह मां बनने के बाद नरेन से प्यार में कम दिलचस्पी लेती थी या लेती ही नहीं थी, वहीं दूसरी ओर नरेन अब भी विभा से पहले वाले प्यार की उम्मीद रखता था. उस की तो इच्छा होती थी कि हर रात सुहागरात हो. पर जब विभा से उस की मांग पूरी नहीं होती तो वह रेखा की तरफ मुड़ जाता था. इस तरह नरेन का रेखा से जुड़ाव एक मजबूरी था जिसे विभा समझ नहीं पा रही थी.

विभा ने रेखा वाली सारी बातें अपने तक ही सीमित रखी थीं. अगर वह नरेन के रेखा से प्रेम संबंध वाली बात अपने मां या बाबूजी को बताती तो उन्हें बहुत दुख पहुंचता, जो वह नहीं चाहती थी. विभा के सामने यह जो रेखा वाली उलझन है वह इसे खुद ही सुलझा लेना चाहती थी.

2 बच्चों में से एक बच्चा यानी अंशिता से बड़ा लड़का अर्पित तो अपने ननिहाल में पढ़ रहा है, क्योंकि यहां पैसे की समस्या है. अभी मकान हो जाएगा, तो हो जाएगा, फिर बच्चों का कैरियर, उन की शादी का काम आ पड़ेगा. ऐसे में खुद का मकान तो होने से रहा. नरेन के प्यार के इस तेज बहाव को ले कर विभा एक बार डाक्टर से मिलने की कोशिश भी कर चुकी थी कि प्यार में अति का भूत उस पर से किसी तरह उतरे. ऐसा होने पर वह रेखा से भी दूर हो सकेगा. उस ने यह भी जानने की कोशिश की थी कि कहीं वह कुछ करता तो नहीं है, पर ऐसी कोई बात नहीं थी. अब वह अंशिता को ज्यादातर अपने आसपास ही रखती थी ताकि नरेन को भूल कर भी एकांत न मिले.

अगले दिन नरेन ने काम पर जाते हुए विभा के हाथ में 200 रुपए रखे और मुसकराते हुए उस की कलाई सहलाई. विभा ने आंखें तरेरीं. नरेन सहमते हुए बोला, ‘‘जानू, आज साप्ताहिक हाट है. सब्जी के लिए पैसे दे रहा हूं. भूलना मत वरना फिर रोज आलू खाने पड़ेंगे,’’ कहते हुए टीवी देख रही अंशिता को प्यार से अपने पास बुलाते हुए उस से शाम को आइसक्रीम खिलाने का वादा करते हुए अपने बैग को थामते हुए बाहर निकल गया. विभा दरवाजा बंद कर अपने काम में जुट गई. उसे तो याद ही नहीं था कि सचमुच आज तो हाट का दिन है और उसे हफ्तेभर की सब्जी भी लानी है. वह अंशिता की मदद ले कर फटाफट काम पूरा करने में जुट गई.

कामकाज खत्म कर अंशिता को पढ़ाई की हिदायत दे कर बड़ा सा झोला उठाए विभा दरवाजा लौक कर बाजार की ओर निकल गई. उसे अंशिता के चलते घर जल्दी लौटने की फिक्र थी. अभी विभा कुछ सब्जियां ही ले पाई थी और एक सब्जी का मोलभाव कर रही थी कि किसी ने पीछे से कंधे पर हाथ रखा. विभा पलटी तो एक अजनबी औरत को देख कर अचरज करने लगी.

‘‘तुम विभा ही हो न,’’ उस अजनबी औरत ने विभा को हैरानी में देखा तो पूछा, ‘‘जी. पर, आप कौन हैं? ‘‘अरे, तारा दीदी आप… दरअसल, आप को जूड़े में देखा तो…’’ झटपट विभा ने तारा टीचर के पैर छू लिए.

‘‘सही पहचाना तुम ने. कितनी कमजोर थी तुम पढ़ने में, जब तुम मेरे घर ट्यूशन लेने आती थी. इसी से तुम मुझे याद हो वरना एक टीचर के पास से कितने स्टूडैंट पढ़ कर निकलते हैं. कितनों को याद रख पाते हैं हम लोग,’’ आशीर्वाद देते हुए तारा दीदी ने कहा. ‘‘मेरा घर यहां नजदीक ही है. आइए न. घर चलिए,’’ विभा ने कहा.

‘‘नहींनहीं, फिर कभी. अब मैं रिटायर हो चुकी हूं और पास की कालोनी में रहती हूं. लो, यह है मेरा विजिटिंग कार्ड. घर आना. खूब बातें करेंगे. अभी इस वक्त थोड़ा जल्दी है वरना रुकती. अच्छा चलती हूं विभा.’’ विभा ने कार्ड पर लिखा पता पढ़ा और अपने पर्स में रख कर सब्जी के लिए आगे बढ़ गई.

विभा ने तय किया कि वह अगले दिन तारा दीदी से मिलने उन के घर जरूर जाएगी. उसे लगा कि तारा दीदी उस की उलझन को सुलझाने में मदद कर सकती हैं. अगले दिन सारा काम निबटा कर वह अंशिता को पड़ोस में रहने वाली उस की हमउम्र सहेली के पास छोड़ कर तारा दीदी के घर की ओर चल पड़ी. उसे घर ढूंढ़ने में जरा भी परेशानी नहीं हुई. उस ने डोर बेल बजाई तो दरवाजा खोलने वाली तारा दीदी ही थीं.

‘‘आओ विभा,’’ कह कर अपने साथ अंदर ड्राइंगरूम में ले जा कर बिठाया. सबकुछ करीने से सजा हुआ था. शरबत वगैरह पीने के बाद तारा दीदी ने विभा का हाथ अपने हाथ में लेते हुए पूछा, ‘‘कहो, क्या बात है विभा. सबकुछ ठीकठाक है. जिंदगी किस तरह चल रही है? तुम्हारे मिस्टर, तुम्हारे बच्चे…’’ विभा फिर जो शुरू हुई तो बोलती चली गई. तारा दीदी बड़े गौर से सारी बातें सुन रही थीं. उन्हें लगा कि विभा की मुश्किल हल करने में अभी भी एक टीचर की जरूरत है. स्कूल में विभा सवाल ले कर जाती थी, आज वह अपनी उलझन ले कर आई है.

अपनी उलझन बता देने से विभा काफी हलका महसूस हो रही थी जैसे कोई सिर पर से बोझ उतर गया हो. तारा दीदी ने गहरी सांस ली. उन्होंने कहा, ‘‘मुझे गर्व है कि तुम मेरी स्टूडैंट हो. अपना यह सब्र बनाए रखना. ऐसा कोई गलत कदम मत उठाना जिस से घर बरबाद हो जाए. आखिर ये 2 बच्चों के भविष्य का भी सवाल है.’’

‘‘तो बताओ न दीदी, मुझे क्या करना चाहिए?’’ विभा ने पूछा. ‘‘देखो विभा, समस्या होती तो छोटी है, केवल हमारी सोच उसे बड़ा बना देती है. एक तो तुम अपनी तरफ से किसी तरह से नरेन की अनदेखी मत करो. उसे सहयोग करो. आखिर तुम बीवी हो उस की. अगर वह तुम से प्यार चाहता है तो उसे दो. धीरेधीरे सब ठीक हो जाएगा. रहा सवाल रेखा का तो इतना समझ लो इस मामले में जो भी मुझ से हो सकेगा मैं करूंगी.’’

‘‘मैं अब आप के भरोसे हूं दीदी. अच्छा चलती हूं क्योंकि घर पर अंशिता अकेली है.’’ ‘‘बिलकुल जाओ, अपना फर्ज, अपनी जिम्मेदारी ठीक से निभाओ.’’

विभा अब ठीक थी. उसे लगा नरेन पर से अब रेखा का साया उठ जाएगा और उस की जिंदगी में खुशहाली छा जाएगी. शाम को जब नरेन घर लौटा तो उन के साथ एक साहब भी थे. नरेन ने विभा से उन का परिचय कराया और बताया, ‘‘आज जब मैं एक बड़े मौल में मार्केटिंग के काम से गया था तो एक शौप पर इन से मुलाकात हुई.

‘‘दरअसल, इन का वडोदरा में कौस्मैटिक का कारोबार है और इन्हें वहां एक मैनेजर की सख्त जरूरत है. जब इन्होंने उस दुकानदार से मेरा बातचीत का लहजा और स्टाइल देखी तो ये बहुत प्रभावित हुए. मुझ से मेरा सारा जौब ऐक्सपीरियंस सुना. मेरी लाइफ के बारे में जाना और कहने लगे कि तुम में मुझे मैनेजर की सारी खूबियां दिखती हैं. मैं तुम्हें अपने यहां मैनेजर की पोस्ट औफर करता हूं. अच्छी तनख्वाह, फ्लेट, गाड़ी, सब सहूलियतें मिलेंगी. ‘‘मैं ने इन से कहा कि अपनी पत्नी से बात किए बिना मैं कोई फैसला नहीं ले सकता, इसलिए इन्हें यहां ले आया हूं. क्या कहती हो. क्या मैं इन का प्रस्ताव स्वीकार कर लूं?’’

‘‘पहले तुम कुछ दिनों के लिए वहां जा कर सारा कामकाज देख लो, समझ लो. अच्छा लगे तो स्वीकार कर लो,’’ विभा ने खुश होते हुए कहा. विभा को यह अच्छा लगा कि नरेन कितनी तवज्जुह देते हैं उसे. आज पहली बार उसे लगा कि वह अब तक नरेन से बुरा बरताव करती रही है, वह भी सिर्फ एक रेखा के पीछे. और यह उलझन भी अब उसे सुलझती नजर आ रही थी.

नरेन वडोदरा की ओर निकल पड़ा था. रोज रात को विभा से बात करने का नियम था उस का. विभा भी बातचीत में पूरी दिलचस्पी लेती. प्रतिदिन के कामकाज के बारे में, मालिक के बरताव के बारे में वह सबकुछ बताता. नए मिलने वाले फ्लैट जो वह देख भी आया था, के बारे में बताया और कहा कि अब वडोदरा शिफ्ट होने में फायदा ही है. विभा ने झटपट तारा दीदी के घर की ओर रुख किया. उन्हें नरेन के वडोदरा की जौब और वहीं शिफ्ट होने के बारे में बताया.

तारा दीदी के मुंह से निकला, ‘‘तब तो तुम्हारी सारी उलझनें अपनेआप ही सुलझ रही हैं विभा. जब तुम लोग शहर ही बदल रहे हो तो रेखा इतनी दूर तो वहां आने से रही.’’ सबकुछ इतना जल्दी तय हुआ कि विभा का इस पहलू की ओर ध्यान ही नहीं गया. तारा दीदी की इस बात में दम था. एक तीर से दो शिकार हो रहे थे. अब इस के पहले कि रेखा के पीछे नरेन का मन पलट जाए, उस ने वडोदरा जाना ही सही समझा.

रात को नरेन का फोन आया तो उस ने झटपट यह काम कर लेने को कहा. अभी छुट्टियां भी चल रही हैं. नए सैक्शन में बच्चों के एडमिशन में भी दिक्कत नहीं होगी. लगे हाथ अर्पित को भी मां के यहां से बुलवा लिया जाएगा. अब वह उस के पास ही रह कर आगे की पढ़ाईलिखाई करेगा. आननफानन यह काम कर लिया जाने लगा. पूरी गृहस्थी के साथ नरेन ने शिफ्ट कर लिया. विभा नए शहर में नया घर देख कर अवाक थी. ऐसे ही घर का तो उस ने कभी सपना देखा था. दोनों बच्चे तो यह सब देख कर चहक उठे.

नरेन में शुरूशुरू में उदासी जरूर नजर आई. विभा समझ गई थी कि ऐसा क्यों है. पर उस ने अब अपना प्यार नरेन पर उड़लेना शुरू कर दिया था. एक शाम जब नरेन काम से घर लौटा तो बुझाबुझा सा था. यह कामकाज की वजह से नहीं हो सकता था. उसे कुछ खटका हुआ जिसे उस ने जाहिर नहीं होने दिया. बालों में उंगलियां घुमाते हुए विभा ने बस इतना ही कहा, ‘‘क्यों न एकएक कप कौफी हो जाए.’’

नरेन ने हामी भरी. विभा कुछ सोचते हुए किचन में दाखिल हो गई. अगले ही दिन दोपहर में कामकाज से फुरसते पाते ही उस ने तारा दीदी को फोन घुमा दिया.

तब तारा दीदी ने उसे यह सूचना सुनाई कि रेखा की शादी हो गई है. सुन कर विभा उछल पड़ी, ‘‘थैंक्यू,’’ बस इतना ही कह पाई विभा और फोन बंद कर बिस्तर पर बिछ गई.

अब उसे नरेन के बुझे चेहरे की वजह भी समझ में आ गई थी. लेकिन अब सबकुछ ठीक भी हो गया था. गृहस्थी की गाड़ी बिना रुकावट एक बार फिर पटरी पर सरपट दौड़ने के लिए तैयार थी.

लेखक- दिलीप रामचंद्र नीमा

Valentine’s Special : पनाह – कौनसा गुनाह कर बैठी थी अनामिका

Valentine’s Special :  अलसाई हुई सी धूप लान की घास पर से उतरती हुई समुद्र किनारे की रेत पर आ बैठी थी. अनामिका आर्म चेयर पर आँखें मूँदे लेटी थी. इतने में एक तेज़ हवा के झोंके ने उसे कंपकँपा दिया और उसने अपना गुलाबी सिल्क का स्कार्फ़ कंधे पर से उतारकर अपने बदन पर लपेटकर उसे चूम लिया. अभी तक उसके वार्डरोब में इन शोख़ रंगो के लिए कोई जगह नहीं थी. बिलकुल उसके दिल की तरह जिसमें सिर्फ़ उदासी, एकाकीपन के सफ़ेद काले रंगों का ही साम्राज्य था . पर आर्यन नाम के रंगरेज ने उसकी ज़िंदगी को, उसके दिल को चटक रंगो से सरोबार कर दिया था.

उसने घड़ी की तरफ़ नज़र डाली और बेचैनी से आर्यन का इंतज़ार करने लगी. आर्यन बैंकाक से लौटने वाला था. अँधेरा गहराने पर वह आर्म चेयर पर से उठ खड़ी हुई और पैरों में स्लीपर डाले अपने कमरे में लगे बड़े आइने तक आयी. आर्यन के प्यार की मख़मली छींट ने उसके गुलाब से चेहरे की रंगत को और भी बढ़ा दिया था जिसे देखकर वह स्वयं मुग्ध हो गई. उसने नीले रंग का गाउन निकालकर पहन लिया. नीला रंग आर्यन को बेहद पसंद था. उसे मालूम था आर्यन उसे टीशर्ट और ट्रैकपैंट में देखते ही कहेगा,’क्यों अपने साथ इतनी नाइंसाफ़ी करती हो, कायनात ने दिल खोलकर नूर बरसाया है आप पर और आप हैं कि आपको इसकी बिल्कूल क़द्र ही नहीं है. मॉडर्न कपड़ों में आप नाज़ुक सी कॉलेज गोइंग गर्ल लगती हैं.’ सोचते ही अनामिका के लबों पर मुस्कान दौड़ गई .

आर्यन के ना पहुँचने पर अनामिका ने उसे फ़ोन लगाया .

” तुम अभी तक आए नहीं ? गाड़ी ड्राइवर तो तुम्हें एरपोर्ट पर मिल गए होंगे ना ?”

” हाई स्वीट हार्ट ! शिट! आई ऐम सो सॉरी! मैं आपको मैसेज करना ही भूल गया । जब आपका काल आया मैं मार्केट में था. वहाँ पर नेटवर्क इश्यू होने से आप से बात ही नहीं हो पाई. अच्छा एक गुड न्यूज़ है, डील पक्की हो गई है. वो लोग हर हफ़्ते माल इम्पोर्ट के लिए तैयार हो गए हैं.”

” ओके, बाई ! कल मिलते हैं. मिसिंग यू !” उसकी ख़ुशी उसकी आवाज़ में झलक रही थी.

” बच्चा है बिलकुल . जल्दी आ जाओ .. आई ऐम मिसिंग यू टू ” फ़ोन रख उसने साइड टेबल पर रखे फ़ोटो फ़्रेम में लगी आर्यन की फ़ोटो को चूमते हुए कहा. आज बहुत अरसे बाद उसने अपना ब्लॉग खोला था जिसमें वह अपनी भावनाओं को , ज़िंदगी के प्रति अपने दृष्टिकोण को बयां करती थी. उसके डैड कहा करते थे उसमें ये आदत उसकी माँ से आई है वह भी वक़्त निकालकर रोज़ एक कविता ज़रूर लिखती थी .माँ को उसने बचपन में ही खो दिया था .

उसके डैड प्रशासनिक सेवा में उच्च अधिकारी थे . उन्होंने उसे माँ बाप दोनों का प्यार देने की भरसक कोशिश की . वह बचपन से ही गम्भीर स्वभाव की थी . दो साल पहले पिता की अकस्मात् मृत्यु ने तो उसे बिलकुल ही ख़ामोश बना दिया था. एक गम्भीरता , रूखापन उसके वजूद का हिस्सा बन गए थे . इस अबेधी आवरण को तोड़कर उसके दिल तक पहुँचना किसी के लिए भी आसान नहीं था.

वह मुंबई की प्रसिद्ध मैनज्मेंट कॉलेज में बिज़्नेस प्लानिंग की प्रोफ़ेसर थी . बात क़रीब दो साल पहले की है . एमबीए की फ़र्स्ट ईयर की क्लास में पहला पिरीयड अनामिका का ही था . आर्यन अक्सर आधा पिरीयड निकल जाने पर क्लास में आ ता था. कईदिनों तक तो अनामिका कुछ नहीं बोली , पर उस दिन उसे वार्न कर दिया,

” आज का दिन आप क्लास के बाहर ही रहिए , कल अपने आप समय से क्लास में हाज़िर हो जाएँगे .” वह बिना किसी बहस के सिर झुकाता हुआ क्लास से बाहर निकल गया . बाद में स्टाफ़ रूम में उसकी इकलौती सहेली पल्लवी से उसे पता चला की वह किस मजबूरी के चलते लेट आ रहा था .

” आज तेरी क्लास के समय आर्यन लॉन में क्यों था ?”

“इन जैसे लड़कों को पढ़ने से कोई लेना – देना नहीं है ये अपने पिता की पावर के दम पर सिर्फ़ डिग्री हासिल करने कॉलेज चले आते हैं .”

” तू आर्यन के बारे में ग़लत सोच रही है . उसके तो पिता ही नहीं है . वह बोरिवली में एक एनजीओ द्वारा संचालित बॉय्ज़ होम में रहकर पला – बढ़ा है . उसे यहाँ तक पहुँचने में दो ट्रेन बदलनी पड़ती है . बहुत ही अच्छा लड़का है , दूसरों से बिलकुल हटकर . तू एक काम कर सकती है . उसे अपने बंगले पर पेइंग गेस्ट की तरह रख ले . इससे अंकल के जाने के बाद तेरी ज़िंदगी में आया सूनापन भी भर जाएगा .”

उस समय तो उसने पल्लवी की बात को हवा में उड़ा दिया था . पर साल भर में अनामिका ने भी परख लिया था कि आर्यन पढ़ाई के प्रति कितना गम्भीर है . वह अपना अतिरिक्त समय और लड़कों की तरह कैंटीन में ना बिता लाइब्रेरी में बिताता था और शाम के समय स्कूली बच्चों के ट्यूशन्स ले अपना ख़र्चा ख़ुद निकालता था .

बहुत सोच – विचार के बाद अनामिका ने पल्लवी का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया था . उसका ज़ूहु पर सी फ़ेसिंग बंगलो था जिससे कॉलेज दस मिनीट की ही दूरी पर था . अब आर्यन, अनामिका के साथ उसकी गाड़ी में ही कॉलेज जानेआने लगा था . आर्यन के सानिध्य से अनामिका के आँसू हँसी में और उदासी शोख़ी में बदल गई थी . दोनों साथ में बैठ कर पढ़ा करते थे . अनामिका अपनी थिसिस लिखती और आर्यन इग्ज़ाम की तैयारी करता . कुछ लिखते – पढ़ते समय उसके हाथ से आर्यन का हाथ छू जाए तो उसके मन के तार झन्कृत होने लगते थे . दोनों के दरमियान एक अजीब सी मादकता और तन्मयता पसरी रहती . एक दिन ऐसे ही अवसर पर आर्यन ने अनामिका का हाथ पकड़ लिया .

“मैम आपको नहीं लगता अब हमारे रिश्ते को एक नाम मिल जाना चाहिए ?” कहते हुए आर्यन कुर्सी पर से उठकर उसके पैरों के पास घास पर ही बैठ गया .

“विल यू मैरी मी ?”उसके स्वर में भावुक सी याचना थी . पल भर को वह सिर से पैर तक काँप उठी .

” पागल मत बनो आर्यन .. एक बार ये सोचने से पहले हम दोनों के बीच का उम्र का फ़ासला तो देख लेते . ”

” मैंने आपसे प्यार करते वक़्त आपकी उम्र को नही आपकी रूह को परखा था .”और उसने अनामिका के लिए एक शायरी कह डाली .

“पनाह मिल जाए रूह को

जिसका हाथ छूकर

उसी की हथेली को घर बना लो ”

” अच्छा तो आप शायरी भी कर लेते हैं ?”

” कॉपी पेस्ट है .” आर्यन ने शरारत से कहा .

. आर्यन , अनामिका की ज़िन्दगी में ताजे हवा के झोंके की तरह था . उसका ऐसा साथी जिसका साहचर्य उसे ख़ुशी देता था पर उसे वह बच्चा ही मानती थी . उनके बीच कभी प्रणय का फूल भी खिल सकता है इसकी तो अनामिका ने कभी कल्पना भी नहीं की थी .बड़ी देर तक इसी उधेड़बुन में डूबे जाने कब उसे गहरी नींद ने घेर लिया .

◦ सवेरे उसके कमरे की खिड़की पर बैठे कबूतर की गुटर गु ने उसे नींद से जगा दिया नहीं तो जाने वह कितनी देर तक सोती रहती . आज उसे मौसम और दिनों से अलग लग रहा था . आसमान में तैर रहे गुलाबी बादलों की आभा में उसकी खिड़की पर लटक कर आ रही रंगून क्रीपर भी गुलाबी लग रही थी क्योंकि आज उसके मन का मौसम गुलाबी हो रहा था .एक नई ज़िंदगी उसे बाँहें फैलाकर अपनी गोद में बुला रहे थे .

◦ आर्यन की फ़ाइनल इग्ज़ैम्ज़ हो जाने पर दोनों ने कोर्ट मैरिज कर ली और बैंकॉक के लिए निकल गए . बैंकॉक चुनने के पीछे एक और कारण था , आर्यन वहाँ से इम्पोर्ट का बिज़्नेस शुरू करना चाहता था . उन्होंने चाओ फ्राया रिवर के पास की होटेल में रूम ले लिया था . दोनों के लिए सबकुछ स्वप्न की तरह था . एक ख़ुमारी , एक अनकही सी अनुभूति भरे वह लम्हे जिसे हर दिल हमेशा के लिए संजो लेना चाहता हो . आर्यन , अनामिका को रिवर फ़्रंट पर बिठाकर ख़ुद पास ही स्थित परत्युमन मार्केट केलिए निकल जाता था. अनामिका घंटों बैठी हुई दूर – दूर तक फैले हुए उस नदी के विस्तार को , उसके दामन में विहार करती नौकाओं को निहारती रहती . उसकी छुट्टियाँ ख़त्म होने को थी . पंद्रह दिन बाद वो फिर से मुंबई आ गई और आर्यन दो दिन बाद लौटने वाला था .

सबकुछ बहुत अच्छा चल रहा था एक हसीन ख़्वाब की तरह .महीने भर बाद ही अनामिका को नन्हें क़दमों की आहट हुई थी . उस दिन उसने डिनर मेपुडिंग के तीन बोल डाइनिंग टेबल पर रखे . एक बोल उसने आर्यन के आगे कर दिया और दो बोल ख़ुद लेकर बैठ गई .

आप ग़लती से दो बोल ले आई है .”

” ग़लती से नहीं , एक मेरा और एक ..”उसने अपने पेट पर हाथ रख लिया .

“आई नो , आपको पुडिंग बहुत पसंद है . एक से आपका जी ही नहीं भरता है .” कहकर आर्यन खिलखिलाने लगा .

” बुद्धू तुम डैड बनने वाले हो .”

सुनकर आर्यन ख़ुश नहीं असमंजस में था. उसे समझ नहीं आया वह क्या प्रतिक्रिया दे . इसके लिए शायद वो मानसिक रूप से तैयार ही नहीं था .

एक महीने बाद अनामिका की डिलिवरी होने वाली थी . इधर आर्यन की व्यस्तता बढ़ती जा रही थी . उसका एक पैर बैंकॉक और एक मुंबई में रहता था . पर जितना समय वह अनामिका के पास रहता उसे पलकों पर बिठाकर रखता था .

” बस अब पंद्रह दिन अपने सारे टूर कैन्सल कर दो . मुझे अकेले डर लगता है . डॉक्टर कह रही थी अब बेबी कभी भी इस दुनिया में क़दम रख सकता है . मैं चाहती हूँ अब तुम पूरा समय मेरे साथ रहो . मुझे लेबर पेन के नाम से ही डर लगता है . “सुनते ही उसने अनामिका का चेहरा हाथ में ले लिया .

” मैं हूँ ना .. मैं अपनी अनामिका को कुछ नहीं होने दूँगा . ”

कहते हुए उसने अनामिका के हाथ की छोटी – छोटी अंगुलिया अपनी अंगुलियों के बीच फँसा ली .

“कहते है माँ के सामने जिसका चेहरा होता है बेबी में उसकी छवि आती है . ” आर्यन कभी भी अनामिका की बात नहीं टालता था . वह उसे हर हाल में ख़ुश देखना चाहता था . यही नहीं उसने लेबर रूम की विडीओ ग्राफ़ीकर उनके जीवन में आए उन अनमोल पलों को भी सदा के लिए क़ैद कर लिया .

उन्होंने उस नन्ही परी का नाम आर्या रखा . वह बिलकुल अपने पिता की शक्ल लिए थी . गोरा चिट्टा रंग , सुनहरे बाल और भोले चेहरे के बीच भूरी चमकीली आँखें . अब अनामिका की ज़िंदगी आर्या तक ही सिमट कर रह गई थी .

इधर कई दिनों से अनामिका ,आर्यन में बदलाव सा महसूस कर रही थी . अब वह जब तब आवेश में आकर उसे गोद में उठाने की , बाँहों में भरने की या बात बात पर उसे चूमने की चेष्टा नहीं करता था . हाँ वह आर्या से बहुत प्यार करता था . पर उसके प्रेम में पिता वाला बड़प्पन , दुलार या चिंता नहीं थी बल्कि एक बेफ़िक्री और आकर्षण था जो एक बच्चे को अपने प्रिय खिलौने के प्रति होता है . वह समझ गई थी उसे अपनी ज़िम्मेदारियों को समझने के लिए थोड़ा वक़्त देने की ज़रूरत है . अब आर्या एक महीने की हो गई थी . उस दिन वो पिंक नैट की फ़्रॉक में थी .

“वाउ ! माई स्वीट प्रीटी डॉल .. लेट्स टेक अ सेल्फ़ी ”

” ग्रेट आइडिया ! वैसे भी हमारी एक भी फ़ैमिली पिक नहीं है .” उस फ़ोटो को अनामिका ने अपने मोबाइल पर प्रोफ़ायल पिक की तरह सेट कर दिया और फिर आर्यन के फ़ोन को लेकर उस पर भी सेट करने लगी . इतने में स्क्रीन पर एक मैसेज पॉप अप हुआ . अनामिका ने उस मैसेज को खोला जिस पर लिखा था ” मिसिंग यू “.

अनामिका ने फ़ोन आर्यन की तरफ़ बढ़ा दिया . उसकी मासूम आँखों में प्रश्न थे .

” अनामिका मैं आपसे इस बारे में बात करने ही वाला था . ये चिमलिन है . आप ही की तरह बहुत प्यारी और मासूम है . मैं आप दोनों से बहुत प्यार करता हूँ पर इसे भी नहीं छोड़ सकता . ये मजबूरी के चलते सेक्स वर्कर की तरह काम कर रही थी . पर दिल की बहुत अच्छी है .इसकी वहाँ के होलसेल मार्केट्स में बहुत पहचान है . अनामिका आज मैं जो भी हूँ इसी की बदौलत हूँ . वर्ना मैं इतना बड़ा बिज़्नेस खड़ा नहीं कर पाता . उसे मेरी ज़रूरत है . और उसने मुझसे वादा किया है कि वह जल्दी ही उस दुनिया से बाहर आ जाएगी . आप उसे अपनी छोटी बहन की तरह नहीं अपना सकती ? मैं आपको यक़ीन दिलाता हूँ कि उसके आने से हमारे रिश्ते पर कोई आँच नहीं आएगी .”

अनामिका निशब्द सी सब सुन रही थी उसे लगा कोई उसके कानो में पिघला हुआ शीशा उँडेल रहा हो . कहते हुए आर्यन उसके कंधे पर अपना सिर रखने लगा . अनामिका धीरे से उसका सिर हटा देती है .

” आई ऐम सॉरी ! नाराज़ हो क्या ? “आर्यन केपूछने पर अनामिका चीख़ – चीख़ कर कहना चाहती थी उसे तुम्हारी ज़रूरत है और हम दोनों ? आज तुम जो भी हो उसकी बदौलत हो . मेरे प्यार का, समर्पण का क्या ? मैंने तुम्हें अपने दिल में पनाह दी अपने घर में जगह दी .” पर नहीं कह पाई जैसे उसकी आवाज़ गले में ही घुट गई थी . उसकी तरफ़ से कोई भी जवाब ना मिलने पर आर्यन वहाँ से उठकर चला गया . वह उसे तब तक देखती रहती है जब तक वह उसकी आँखों से ओझल नहीं हो गया . उसे लगता है वह उन लोगों से बहुत दूर चला गया है .

,उस दिन के बाद से घर में एक ख़ामोशी , एक सूनापन सा पसर गया . आर्यन हफ़्ते भर से बैंकॉक में था . अनामिका निरुद्देश्य सी लॉन में बैठी हुई थी . शाम का धुँधलका उसके मन को और भी विचलित कर रहा था .लॉन पर रखी टेबल पर , बग़ीचे के मुस्कुराते फूलो पर उसे आर्यन का ही वजूद नज़र आ रहा था . उसकी नज़र सामने खड़े गुलमोहर के पेड़ के तने पर ख़ुदेदिल में लिखे दोनों के नाम पर जाती है और वह आँखें मूँद कर बैठ जाती है . ” तो क्या आर्यन का प्यार मात्र मेरा भ्रम था . एक छलावा था . नहीं वह स्पर्श जिसने उसके मेरे तन – मन को भिगो दिया था , उसकी आँखों से छलकता मौन प्रेम जो उसके हृदय को परत दर परत खोल कर रख देता है . भ्रम नहीं हो सकता . “वह आर्यन को फ़ोन लगाती है . तीन चार बार फ़ोन लगाने पर आर्यन फ़ोन नहीं उठाता है तो उसे लगता है आर्यन उनसे रूठ कर बहुत दूर चला गया है .

अनामिका की सारी रात करवटें बदलने में ही निकल गई . सुबह होने को है पर आसमान अभी भी अंधेरे की गिरफ़्त में है . उसे लगता है यह अंधकार धीरे – धीरे उस पर भी हावी हो रहा है . वह सहमकर बैठ जाती है . वह फिर से आर्यन को फ़ोन लगाती है . सामने से लड़की की आवाज़ सुनकर फ़ोन रखने ही वाली होती है कि , ” आई ऐम फ्रॉम सिटी हॉस्पिटल बैंकॉक .”

हॉस्पिटल का नाम सुनते ही फ़ोन पर से उसकी पकड़ ढीली होने लगती है पर वह अपने आप को संभाल लेती है . उसे बताया जाता हैं कि आर्यन में कोरोना वाइरस के प्रारम्भिक लक्षण दिख रहे हैं इसलिए उसे आइसोलेटेड वार्ड में रखा गया है . बहुत गुज़ारिश करने पर वो आर्यन की बात करवाने को तैयार हो जाते हैं .

” हेलो , अनामिका .. मुझे ले जाओ यहाँ से .. मैं बेहद अकेला पड़ गया हूँ . मुझे कुछ नहीं हुआ है , सिर्फ़ वाइरल था . मेरे रिपोर्ट्स भी नोर्मल आई है पर ये लोग कुछ भी सुनने को तैयार नहीं है . “इसके बाद आर्यन की आवाज़ सिसकियों में बदल गई .

अनामिका की सांसें थम सी जाती है . उसे अपने शरीर में असीम पीड़ा का अनुभव होता है . तब उसे अहसास होता है आर्यन के प्यार की जड़ें उसके हृदय की कितनी गहराई तक जमी हुई है . वह अपने डैड के सम्पर्क के बल पर आर्यन को भारत लाने के लिए एड़ी – चोटी का ज़ोर लगा देती है .

उसकी भाग – दौड़ का नतीजा है कि आर्यन आज एक महीने बाद लौटने वाला है . पर आज से उसने अपनी कॉलेज भी जॉंइन कर ली है और आर्या के लिए भी वहीं डे केर की व्यवस्था कर दी है .वह आर्यन के लिए अपने बंगले के पास वाला क्वॉर्टर खुलवाँ देती है और आर्यन का सारा सामान भी वहीं शिफ़्ट करवा देती है . क्वार्टर के दरवाज़े पर आर्यन के लिए एक चिट छोड़ दी.

” अपने दिल में पनाह देने के लिए शुक्रिया ! मैं मानती हूँ जीवन के ख़ूबसूरत सफ़र में राही मिल जाया करते है. पर हम हर एक अनजान राही के साथ आशियाना बनाने की भूल तो नहीं करते है . बस मैं यही गुनाह कर बैठी . मेरा सब कुछ तुम्हारा है क्योंकि मैंने प्यार किया है तुमसे . सच्चा प्यार लेना नहीं देना सिखाता है . पर माफ़ करना आर्यन इस बेवफ़ाई के बदले में तुम्हें फिर से अपने दिल में पनाह ना दे पाऊँगी .

तुम्हारी ,

अनामिका मैम

लेखिका- मेहा गुप्ता 

Storytelling : कामयाब

Storytelling :  हमेशा जिंदादिल और खुशमिजाज रमा को अंदर आ कर चुपचाप बैठे देख चित्रा से रहा नहीं गया, पूछ बैठी, ‘‘क्या बात है, रमा…?’’

‘‘अभिनव की वजह से परेशान हूं.’’

‘‘क्या हुआ है अभिनव को?’’

‘‘वह डिपे्रशन का शिकार होता जा रहा है.’’

‘‘पर क्यों और कैसे?’’

‘‘उसे किसी ने बता दिया है कि अगले 2 वर्ष उस के लिए अच्छे नहीं रहेंगे.’’

‘‘भला कोई भी पंडित या ज्योतिषी यह सब इतने विश्वास से कैसे कह सकता है. सब बेकार की बातें हैं, मन का भ्रम है.’’

‘‘यही तो मैं उस से कहती हूं पर वह मानता ही नहीं. कहता है, अगर यह सब सच नहीं होता तो आर्थिक मंदी अभी ही क्यों आती… कहां तो वह सोच रहा था कि कुछ महीने बाद दूसरी कंपनी ज्वाइन कर लेगा, अनुभव के आधार पर अच्छी पोस्ट और पैकेज मिल जाएगा पर अब दूसरी कंपनी ज्वाइन करना तो दूर, इसी कंपनी में सिर पर तलवार लटकी रहती है कि कहीं छटनी न हो जाए.’’

‘‘यह तो जीवन की अस्थायी अवस्था है जिस से कभी न कभी सब को गुजरना पड़ता है, फिर इस में इतनी हताशा और निराशा क्यों? हताश और निराश व्यक्ति कभी सफल नहीं हो सकता. जीवन में सकारात्मक ऊर्जा लाने के लिए सोच भी सकारात्मक होनी चाहिए.’’

‘‘मैं और अभिजीत तो उसे समझासमझा कर हार गए,’’ रमा बोली, ‘‘तेरे पास एक आस ले कर आई हूं, तुझे मानता भी बहुत है…हो सकता है तेरी बात मान कर शायद मन में पाली गं्रथि को निकाल बाहर फेंके.’’

‘‘तू चिंता मत कर,’’ चित्रा बोली, ‘‘सब ठीक हो जाएगा… मैं सोचती हूं कि कैसे क्या कर सकती हूं.’’

घर आने पर रमा द्वारा कही बातें चित्रा ने विकास को बताईं तो वह बोले, ‘‘आजकल के बच्चे जराजरा सी बात को दिल से लगा बैठते हैं. इस में दोष बच्चों का भी नहीं है, दरअसल आजकल मीडिया या पत्रपत्रिकाएं भी इन अंधविश्वासों को बढ़ाने में पीछे नहीं हैं. अगर ऐसा नहीं होता तो विभिन्न चैनलों पर गुरुमंत्र, आप के तारे, तेज तारे, ग्रहनक्षत्र जैसे कार्यक्रम प्रसारित न होते तथा पत्रपत्रिकाओं के कालम ज्योतिषीय घटनाओं तथा उन का विभिन्न राशियों पर प्रभाव से भरे नहीं रहते.’’

विकास तो अपनी बात कह कर अपने काम में लग गए पर चित्रा का किसी काम में मन नहीं लग रहा था. बारबार रमा की बातें उस के दिलोदिमाग में घूम रही थीं. वह सोच नहीं पा रही थी कि अपनी अभिन्न सखी की समस्या का समाधान कैसे करे. बच्चों के दिमाग में एक बात घुस जाती है तो उसे निकालना इतना आसान नहीं होता.

उन की मित्रता आज की नहीं 25 वर्ष पुरानी थी. चित्रा को वह दिन याद आया जब वह इस कालोनी में लिए अपने नए घर में आई थी. एक अच्छे पड़ोसी की तरह रमा ने चायनाश्ते से ले कर खाने तक का इंतजाम कर के उस का काम आसान कर दिया था. उस के मना करने पर बोली, ‘दीदी, अब तो हमें सदा साथसाथ रहना है. यह बात अक्षरश: सही है कि एक अच्छा पड़ोसी सब रिश्तों से बढ़ कर है. मैं तो बस इस नए रिश्ते को एक आकार देने की कोशिश कर रही हूं.’

और सच, रमा के व्यवहार के कारण कुछ ही समय में उस से चित्रा की गहरी आत्मीयता कायम हो गई. उस के बच्चे शिवम और सुहासिनी तो रमा के आगेपीछे घूमते रहते थे और वह भी उन की हर इच्छा पूरी करती. यहां तक कि उस के स्कूल से लौट कर आने तक वह उन्हें अपने पास ही रखती.

रमा के कारण वह बच्चों की तरफ से निश्ंिचत हो गई थी वरना इस घर में शिफ्ट करने से पहले उसे यही लगता था कि कहीं इस नई जगह में उस की नौकरी की वजह से बच्चों को परेशानी न हो.

विवाह के 11 वर्ष बाद जब रमा गर्भवती हुई तो उस की खुशी की सीमा न रही. सब से पहले यह खुशखबरी चित्रा को देते हुए उस की आंखों में आंसू आ गए. बोली, ‘दीदी, न जाने कितने प्रयत्नों के बाद मेरे जीवन में यह खुशनुमा पल आया है. हर तरह का इलाज करा लिया, डाक्टर भी कुछ समझ नहीं पा रहे थे क्योंकि हर जांच सामान्य ही निकलती… हम निराश हो गए थे. मेरी सास तो इन पर दूसरे विवाह के लिए जोर डालने लगी थीं पर इन्होंने किसी की बात नहीं मानी. इन का कहना था कि अगर बच्चे का सुख जीवन में लिखा है तो हो जाएगा, नहीं तो हम दोनों ऐसे ही ठीक हैं. वह जो नाराज हो कर गईं, तो दोबारा लौट कर नहीं आईं.’

आंख के आंसू पोंछ कर वह दोबारा बोली, ‘दीदी, आप विश्वास नहीं करेंगी, कहने को तो यह पढ़ेलिखे लोगों की कालोनी है पर मैं इन सब के लिए अशुभ हो चली थी. किसी के घर बच्चा होता या कोई शुभ काम होता तो मुझे बुलाते ही नहीं थे. एक आप ही हैं जिन्होंने अपने बच्चों के साथ मुझे समय गुजारने दिया. मैं कृतज्ञ हूं आप की. शायद शिवम और सुहासिनी के कारण ही मुझे यह तोहफा मिलने जा रहा है. अगर वे दोनों मेरी जिंदगी में नहीं आते तो शायद मैं इस खुशी से वंचित ही रहती.’

उस के बाद तो रमा का सारा समय अपने बच्चे के बारे में सोचने में ही बीतता. अगर कुछ ऐसावैसा महसूस होता तो वह चित्रा से शेयर करती और डाक्टर की हर सलाह मानती.

धीरेधीरे वह समय भी आ गया जब रमा को लेबर पेन शुरू हुआ तो अभिजीत ने उस का ही दरवाजा खटखटाया था. यहां तक कि पूरे समय साथ रहने के कारण नर्स ने भी सब से पहले अभिनव को चित्रा की ही गोदी में डाला था. वह भी जबतब अभिनव को यह कहते हुए उस की गोद में डाल जाती, ‘दीदी, मुझ से यह संभाला ही नहीं जाता, जब देखो तब रोता रहता है, कहीं इस के पेट में तो दर्द नहीं हो रहा है या बहुत शैतान हो गया है. अब आप ही संभालिए. या तो यह दूध ही नहीं पीता है, थोड़ाबहुत पीता है तो वह भी उलट देता है, अब क्या करूं?’

हर समस्या का समाधान पा कर रमा संतुष्ट हो जाती. शिवम और सुहासिनी को तो मानो कोई खिलौना मिल गया, स्कूल से आ कर जब तक वे उस से मिल नहीं लेते तब तक खाना ही नहीं खाते थे. वह भी उन्हें देखते ही ऐसे उछलता मानो उन का ही इंतजार कर रहा हो. कभी वे अपने हाथों से उसे दूध पिलाते तो कभी उसे प्रैम में बिठा कर पार्क में घुमाने ले जाते. रमा भी शिवम और सुहासिनी के हाथों उसे सौंप कर निश्ंिचत हो जाती.

धीरेधीरे रमा का बेटा चित्रा से इतना हिलमिल गया कि अगर रमा उसे किसी बात पर डांटती तो मौसीमौसी कहते हुए उस के पास आ कर मां की ढेरों शिकायत कर डालता और वह भी उस की मासूमियत पर निहाल हो जाती. उस का यह प्यार और विश्वास अभी तक कायम था. शायद यही कारण था कि अपनी हर छोटीबड़ी खुशी वह उस के साथ शेयर करना नहीं भूलता था.

पर पिछले कुछ महीनों से वह उस में आए परिवर्तन को नोटिस तो कर रही थी पर यह सोच कर ध्यान नहीं दिया कि शायद काम की वजह से वह उस से मिलने नहीं आ पाता होगा. वैसे भी एक निश्चित उम्र के बाद बच्चे अपनी ही दुनिया में रम जाते हैं तथा अपनी समस्याओं के हल स्वयं ही खोजने लगते हैं, इस में कुछ गलत भी नहीं है पर रमा की बातें सुन कर आश्चर्यचकित रह गई. इतने जहीन और मेरीटोरियस स्टूडेंट के दिलोदिमाग में यह फितूर कहां से समा गया?

बेटी सुहासिनी की डिलीवरी के कारण 1 महीने घर से बाहर रहने के चलते ऐसा पहली बार हुआ था कि वह रमा और अभिनव से इतने लंबे समय तक मिल नहीं पाई थी. एक दिन अभिनव से बात करने के इरादे से उस के घर गई पर जो अभिनव उसे देखते ही बातों का पिटारा खोल कर बैठ जाता था, उसे देख कर नमस्ते कर अंदर चला गया, उस के मन की बात मन में ही रह गई.

वह अभिनव में आए इस परिवर्तन को देख कर दंग रह गई. चेहरे पर बेतरतीब बढ़े बालों ने उसे अलग ही लुक दे दिया था. पुराना अभिनव जहां आशाओं से ओतप्रोत जिंदादिल युवक था वहीं यह एक हताश, निराश युवक लग रहा था जिस के लिए जिंदगी बोझ बन चली थी.

समझ में नहीं आ रहा था कि हमेशा हंसता, खिलखिलाता रहने वाला तथा दूसरों को अपनी बातों से हंसाते रहने वाला लड़का अचानक इतना चुप कैसे हो गया. औरों से बात न करे तो ठीक पर उस से, जिसे वह मौसी कह कर न सिर्फ बुलाता था बल्कि मान भी देता था, से भी मुंह चुराना उस के मन में चलती उथलपुथल का अंदेशा तो दे ही गया था. पर वह भी क्या करती. उस की चुप्पी ने उसे विवश कर दिया था. रमा को दिलासा दे कर दुखी मन से वह लौट आई.

उस के बाद के कुछ दिन बेहद व्यस्तता में बीते. स्कूल में समयसमय पर किसी नामी हस्ती को बुला कर विविध विषयों पर व्याख्यान आयोजित होते रहते थे जिस से बच्चों का सर्वांगीण विकास हो सके. इस बार का विषय था ‘व्यक्तित्व को आकर्षक और खूबसूरत कैसे बनाएं.’ विचार व्यक्त करने के लिए एक जानीमानी हस्ती आ रही थी.

आयोजन को सफल बनाने की जिम्मेदारी मुख्याध्यापिका ने चित्रा को सौंप दी. हाल को सुनियोजित करना, नाश्तापानी की व्यवस्था के साथ हर क्लास को इस आयोजन की जानकारी देना, सब उसे ही संभालना था. यह सब वह सदा करती आई थी पर इस बार न जाने क्यों वह असहज महसूस कर रही थी. ज्यादा सोचने की आदत उस की कभी नहीं रही. जिस काम को करना होता था, उसे पूरा करने के लिए पूरे मनोयोग से जुट जाती थी और पूरा कर के ही दम लेती थी पर इस बार स्वयं में वैसी एकाग्रता नहीं ला पा रही थी. शायद अभिनव और रमा उस के दिलोदिमाग में ऐसे छा गए थे कि  वह चाह कर भी न उन की समस्या का समाधान कर पा रही थी और न ही इस बात को दिलोदिमाग से निकाल पा रही थी.

आखिर वह दिन आ ही गया. नीरा कौशल ने अपना व्याख्यान शुरू किया. व्यक्तित्व की खूबसूरती न केवल सुंदरता बल्कि चालढाल, वेशभूषा, वाक्शैली के साथ मानसिक विकास तथा उस की अवस्था पर भी निर्भर होती है. चालढाल, वेशभूषा और वाक्शैली के द्वारा व्यक्ति अपने बाहरी आवरण को खूबसूरत और आकर्षक बना सकता है पर सच कहें तो व्यक्ति के व्यक्तित्व का सौंदर्य उस का मस्तिष्क है. अगर मस्तिष्क स्वस्थ नहीं है, सोच सकारात्मक नहीं है तो ऊपरी विकास सतही ही होगा. ऐसा व्यक्ति सदा कुंठित रहेगा तथा उस की कुंठा बातबात पर निकलेगी. या तो वह जीवन से निराश हो कर बैठ जाएगा या स्वयं को श्रेष्ठ दिखाने के लिए कभी वह किसी का अनादर करेगा तो कभी अपशब्द बोलेगा. ऐसा व्यक्ति चाहे कितने ही आकर्षक शरीर का मालिक क्यों न हो पर कभी खूबसूरत नहीं हो सकता, क्योंकि उस के चेहरे पर संतुष्टि नहीं, सदा असंतुष्टि ही झलकेगी और यह असंतुष्टि उस के अच्छेभले चेहरे को कुरूप बना देगी.

मान लीजिए, किसी व्यक्ति के मन में यह विचार आ गया कि उस का समय ठीक नहीं है तो वह चाहे कितने ही प्रयत्न कर ले सफल नहीं हो पाएगा. वह अपनी सफलता की कामना के लिए कभी मंदिर, मसजिद दौड़ेगा तो कभी किसी पंडित या पुजारी से अपनी जन्मकुंडली जंचवाएगा.

मेरे कहने का अर्थ है कि वह प्रयत्न तो कर रहा है पर उस की ऊर्जा अपने काम के प्रति नहीं, अपने मन के उस भ्रम के लिए है…जिस के तहत उस ने मान रखा है कि वह सफल नहीं हो सकता.

अब इस तसवीर का दूसरा पहलू देखिए. ऐसे समय अगर उसे कोई ग्रहनक्षत्रों का हवाला देते हुए हीरा, पन्ना, पुखराज आदि रत्नों की अंगूठी या लाकेट पहनने के लिए दे दे तथा उसे सफलता मिलने लगे तो स्वाभाविक रूप से उसे लगेगा कि यह सफलता उसे अंगूठी या लाकेट पहनने के कारण मिली पर ऐसा कुछ भी नहीं होता.

वस्तुत: यह सफलता उसे उस अंगूठी या लाकेट पहनने के कारण नहीं मिली बल्कि उस की सोच का नजरिया बदलने के कारण मिली है. वास्तव में उस की जो मानसिक ऊर्जा अन्य कामों में लगती थी अब उस के काम में लगने लगी. उस का एक्शन, उस की परफारमेंस में गुणात्मक परिवर्तन ला देता है. उस की अच्छी परफारमेंस से उसे सफलता मिलने लगती है. सफलता उस के आत्मविश्वास को बढ़ा देती है तथा बढ़ा आत्मविश्वास उस के पूरे व्यक्तित्व को ही बदल डालता है जिस के कारण हमेशा बुझाबुझा रहने वाला उस का चेहरा अब अनोखे आत्मविश्वास से भर जाता है और वह जीवन के हर क्षेत्र में सफल होता जाता है. अगर वह अंगूठी या लाकेट पहनने के बावजूद अपनी सोच में परिवर्तन नहीं ला पाता तो वह कभी सफल नहीं हो पाएगा.

इस के आगे व्याख्याता नीरा कौशल ने क्या कहा, कुछ नहीं पता…एकाएक चित्रा के मन में एक योजना आकार लेने लगी. न जाने उसे ऐसा क्यों लगने लगा कि उसे एक ऐसा सूत्र मिल गया है जिस के सहारे वह अपने मन में चलते द्वंद्व से मुक्ति पा सकती है, एक नई दिशा दे सकती है जो शायद किसी के काम आ जाए.

दूसरे दिन वह रमा के पास गई तथा बिना किसी लागलपेट के उस ने अपने मन की बात कह दी. उस की बात सुन कर वह बोली, ‘‘लेकिन अभिजीत इन बातों को बिलकुल नहीं मानने वाले. वह तो वैसे ही कहते रहते हैं. न जाने क्या फितूर समा गया है इस लड़के के दिमाग में… काम की हर जगह पूछ है, काम अच्छा करेगा तो सफलता तो स्वयं मिलती जाएगी.’’

‘‘मैं भी कहां मानती हूं इन सब बातों को. पर अभिनव के मन का फितूर तो निकालना ही होगा. बस, इसी के लिए एक छोटा सा प्रयास करना चाहती हूं.’’

‘‘तो क्या करना होगा?’’

‘‘मेरी जानपहचान के एक पंडित हैं, मैं उन को बुला लेती हूं. तुम बस अभिनव और उस की कुंडली ले कर आ जाना. बाकी मैं संभाल लूंगी.’’

नियत समय पर रमा अभिनव के साथ आ गई. पंडित ने उस की कुंडली देख कर कहा, ‘‘कुंडली तो बहुत अच्छी है, इस कुंडली का जाचक बहुत यशस्वी तथा उच्चप्रतिष्ठित होगा. हां, मंगल ग्रह अवश्य कुछ रुकावट डाल रहा है पर परेशान होने की बात नहीं है. इस का भी समाधान है. खर्च के रूप में 501 रुपए लगेंगे. सब ठीक हो जाएगा. आप ऐसा करें, इस बच्चे के हाथ से मुझे 501 का दान करा दें.’’

प्रयोग चल निकला. एक दिन रमा बोली, ‘‘चित्रा, तुम्हारी योजना कामयाब रही. अभिनव में आश्चर्यजनक परिवर्तन आ गया. जहां कुछ समय पूर्व हमेशा निराशा में डूबा बुझीबुझी बातें करता रहता था, अब वही संतुष्ट लगने लगा है. अभी कल ही कह रहा था कि ममा, विपिन सर कह रहे थे कि तुम्हें डिवीजन का हैड बना रहा हूं, अगर काम अच्छा किया तो शीघ्र प्रमोशन मिल जाएगा.’’

रमा के चेहरे पर छाई संतुष्टि जहां चित्रा को सुकून पहुंचा रही थी वहीं इस बात का एहसास भी करा रही थी, कि व्यक्ति की खुशी और दुख उस की मानसिक अवस्था पर निर्भर होते हैं. ग्रहनक्षत्रों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता. अब वह उस से कुछ छिपाना नहीं चाहती थी. आखिर मन का बोझ वह कब तक मन में छिपाए रहती.

‘‘रमा, मैं ने तुझ से एक बात छिपाई पर क्या करती, इस के अलावा मेरे पास कोई अन्य उपाय नहीं था,’’ मन कड़ा कर के चित्रा ने कहा.

‘‘क्या कह रही है तू…कौन सी बात छिपाई, मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा है.’’

‘‘दरअसल उस दिन तथाकथित पंडित ने जो तेरे और अभिनव के सामने कहा, वह मेरे निर्देश पर कहा था. वह कुंडली बांचने वाला पंडित नहीं बल्कि मेरे स्कूल का ही एक अध्यापक था, जिसे सारी बातें बता कर, मैं ने मदद मांगी थी तथा वह भी सारी घटना का पता लगने पर मेरा साथ देने को तैयार हो गया था,’’ चित्रा ने रमा को सब सचसच बता कर झूठ के लिए क्षमा मांग ली और अंदर से ला कर उस के दिए 501 रुपए उसे लौटा दिए.

‘‘मैं नहीं जानती झूठसच क्या है. बस, इतना जानती हूं कि तू ने जो किया अभिनव की भलाई के लिए किया. वही किसी की बातों में आ कर भटक गया था. तू ने तो उसे राह दिखाई है फिर यह ग्लानि और दुख कैसा?’’

‘‘जो कार्य एक भूलेभटके इनसान को सही राह दिखा दे वह रास्ता कभी गलत हो ही नहीं सकता. दूसरे चाहे जो भी कहें या मानें पर मैं ऐसा ही मानती हूं और तुझे विश्वास दिलाती हूं कि यह बात एक न एक दिन अभिनव को भी बता दूंगी, जिस से कि वह कभी भविष्य में ऐसे किसी चक्कर में न पड़े,’’ रमा ने उस की बातें सुन कर उसे गले से लगाते हुए कहा.

रमा की बात सुन कर चित्रा के दिल से एक भारी बोझ उठ गया. दुखसुख, सफलताअसफलता तो हर इनसान के हिस्से में आते हैं पर जो जीवन में आए कठिन समय को हिम्मत से झेल लेता है वही सफल हो पाता है. भले ही सही रास्ता दिखाने के लिए उसे झूठ का सहारा लेना पड़ा पर उसे इस बात की संतुष्टि थी कि वह अपने मकसद में कामयाब रही.

Stories : जीत गया भई जीत गया

Stories :  ‘‘आइए स्वामीजी, इधर आसन ग्रहण कीजिए,’’ अशोक ने गेरुए वस्त्रधारी तांत्रिक अवधूतानंद का स्वागतसत्कार करते हुए अपने जीजा की ओर देखा और बोला, ‘‘भाई साहब, यह स्वामीजी हैं और इन को प्रणाम कर आशीर्वाद लीजिए. आप की सभी समस्याओं का समाधान इन की मुट्ठी में कैद है.’’

‘‘प्रणाम, महाराज. अशोक के मुख से आप के चमत्कारों की महिमा सुन कर ही मैं आश्वस्त हो गया था कि आप ही चुनाव रूपी भवसागर में हिचकोले खाती मेरी नैया को पार लगा सकते हैं. आप की जयजयकार हो…आप…’’

‘‘ठीक है, ठीक है,’’ महाराज ने नशे में डूबी सुर्ख आंखों से नेताजी की ओर देखा और बोले, ‘‘बात आगे बढ़ाओ, हमारा समय बहुत कीमती है…’’

‘‘महाराज, कृपा कीजिए, किसी तरह चुनाव जीत जाऊं…मैं आप की झोली मोतियों से भर दूंगा.’’

‘‘देखो, चुनाव के बाद की बात बाद में, पहले अनुष्ठान की बात करो. अशोक ने तुम्हारी जन्मकुंडली हमें दिखाई थी… फिलहाल तुम्हारे सितारे गर्दिश में हैं. संभावना 50 प्रतिशत तक की है, लेकिन अगर तुम 5 लाख खर्च करने को तैयार हो तो हमारी तंत्र विद्या से 50 का आंकड़ा 100 में तबदील हो जाएगा. सारी विरोधी शक्तियां निष्क्रिय एवं शिथिल होती चली जाएंगी और हमारा डंडा और तुम्हारा झंडा आसमान की बुलंदियों को छूता चला जाएगा.’’

‘‘महाराज, मैं धन्य हो गया, लेकिन चुनाव में पहले ही बहुत खर्चा हो रहा है… अभी अगर आप ढाई लाख में कृपा करें तो…’’

‘‘असंभव,’’ महाराज ने सुर्ख नेत्रों से अशोक को घूरा, ‘‘क्यों बच्चा, तुम तो कह रहे थे कि सारी बात तय हो चुकी है, फिर…’’

‘‘आप चिंता न करें महाराज, मेरे जीजाजी थोड़े कंजूस हैं. मुट्ठी खोलते हुए इन्हें घबराहट सी होने लगती है,’’ कहते हुए अशोक ने गुस्से से जीजा की ओर देखा, ‘‘यह तो महाराज की अपार कृपा है कि यहां तक आने को राजी हो गए, वरना कितने नेता, अभिनेता दिनरात इन के डेरे के इर्दगिर्द मंडराते रहते हैं. अब निकालिए 5 लाख की तुच्छ धनराशि…महाराज के चरणों में उसे अर्पित कर चैन की बांसुरी बजाइए…परसों समाधि से उठने के बाद महाराज ने कहा था कि आप सिर्फ चुनाव ही नहीं जीतेंगे, अपितु मंत्रीपद को भी सुशोभित करेेंगे लेकिन उस के लिए अलग से 5 लाख खर्च करने होंगे.’’

‘‘नहीं, अभी नहीं,’’ महाराज ने मंदमंद मुसकराते हुए कहा, ‘‘हम लोभीलालची नहीं, मस्तमौला फकीर हैं, अभी सिर्फ 5 लाख से ही अनुष्ठान आरंभ करेंगे… नेताजी, आप का शुभ नाम?’’

‘‘जी…सूरज प्रकाश.’’

‘‘वाह, खूब…बहुत खूब…पूरब दिशा की लालिमा आप के समूचे व्यक्तित्व की परिक्रमा करती प्रतीत हो रही है. इसी क्षण से चुनाव संपन्न होने तक आप को बस, पूरब दिशा की ओर ही देखते रहना है. प्रात: सूर्योदय के समय सूर्य नमस्कार कर जल अर्पित करें. याद रहे, जब भी घर से बाहर निकलें, सूर्य के दर्शन अवश्य करें…इस के बाद ही कदम आगे बढ़ाएं.’’

‘‘महाराज, सूर्य तो स्थिर नहीं रहते. सुबह सामने वाले दरवाजे की ओर होते हैं तो दोपहर को बगीचे की तरफ नजर आते हैं और शाम को पिछली तरफ चले जाते हैं…वह तो हमेशा घूमते ही रहते हैं, ऐसे में…’’

‘‘अरे, मूर्ख,’’ महाराज तनिक क्रोध में बोले, ‘‘सूर्य एक ही स्थान पर स्थिर हैं. घूम तो हमारी पृथ्वी रही है, इसी कारण लोगों को दिशाभ्रम हो जाता है. अब जैसा हम ने बताया है, बिलकुल वैसा ही कर.’’

फिर उन्होंने खिड़की के बाहर नजरें घुमाते हुए कहा, ‘‘तुम्हारे राजनीतिक भविष्य का सूर्योदय होने का समय क्षणप्रतिक्षण निकट आता जा रहा है. तुम 5 लाख अशोक के हवाले करो और हमारी तंत्र विद्या का चमत्कार देखने की प्रतीक्षा करो,’’ इतना कह कर अशोक को कुछ संकेत कर के महाराज उठ खड़े हुए.

नेताजी ने फौरन 5 लाख रुपए की गड्डियां ला कर अशोक के हवाले कर दीं. महाराज जातेजाते नेताजी की विशाल कोठी पर नजरें डालते हुए बोले, ‘‘वत्स, तुम्हारी विजयपताका दिनरात इस अट्टालिका पर लहराएगी. जाओ, अब तनमनधन से अपनी समस्त शक्ति चुनाव रूपी हवनकुंड में झोंक दो. तुम अपना काम करो, हम अपना अनुष्ठान करेंगे. जिस दिन मंत्रीपद की शपथ ग्रहण करने जाओगे, उस से पहले ही दूसरी किस्त के रूप में 5 लाख रुपए की धनराशि पहले हमें भेंट कर देना, वरना…’’

‘‘अरे, महाराज, बस, आप कृपा कीजिए…मैं बखूबी समझ गया…मंत्रीपद मिलने के बाद मैं 5 क्या 10-15 लाख आप के चरणों पर न्योछावर कर दूंगा.’’

अगले दिन से ही सूरज उर्फ सूरज प्रकाश उर्फ नेताजी की मानो दिनचर्या ही बदल गई. प्रात: उठते ही सूर्य नमस्कार कर जल अर्पित करते. फिर दिन में जितनी बार भी घर से बाहर निकलते, सूर्य के दर्शन कर के ही कदम आगे बढ़ाते. कभी सामने वाले दरवाजे से बाहर निकलते, कभी बगीचे के पेड़ों के बीचोंबीच ताकझांक करते दिखाई देते तो कभी पीछे वाली खिड़की से सूर्य को प्रणाम कर के वहीं से बाहर कूद जाते. इस तरह चुनावी भागदौड़ और व्यस्तता के बीच 15-20 दिन कैसे गुजर गए, पता ही न चला. शहर में डंडों, झंडों, झंडियों और लाउडस्पीकरों की चिल्लपौं का नजारा देखते ही बनता था.

हर रोज रात के समय अशोक नेताजी की मक्खनबाजी करने पहुंच जाता और 5-7 हजार और झटक लेता. एक दिन नेताजी शंकित मन से पूछ ही बैठे, ‘‘क्यों साले साहब, तुम्हें पूरी उम्मीद है न कि हम चुनाव जीत जाएंगे…कहीं ऐसा न हो…’’

‘‘जीजाजी, शुभशुभ बोलिए, महाराज आप की समस्त बाधाएं दूर करने के लिए दिनरात तंत्रमंत्र की समस्त दैवी शक्तियों का आह्वान कर रहे हैं. जब महाराज की सिद्ध शक्तियां अपना चमत्कार दिखाएंगी तो आप स्वयं यकीन नहीं कर पाएंगे कि आप ने निकटतम प्रतिद्वंद्वी को इतने अधिक वोटों से कैसे पराजित किया. फिर आप की पार्टी तो राष्ट्रीय स्तर की है, तमाम छोटेबड़े नेता और कार्यकर्ता गलीगली कूचेकूचे में पूरे जोशोखरोश के साथ चुनावी दंगल की कमान संभाले हुए हैं.’’

जिस दिन चुनावी जंग का परिणाम घोषित होना था, सुबह से ही नेताजी का दिल धकधक कर रहा था. दोपहर को अशोक के कहने पर वह मतगणना स्थल पर गए और पार्टी के छोटेमोटे नेताओं का आश्वासन पा कर लौट आए कि जीत निश्चित है. इस के बाद नेताजी कोठी की ऊपरी मंजिल के अपने कमरे में आराम करने के लिए चले गए. लेटते ही उन की आंख लग गई.

शाम 5 बजे के लगभग ढोलढमाकों का कानफोड़ू शोरशराबा सुन कर नेताजी आंखें मलते हुए उठ बैठे. सहसा उन के कानों में स्वर गूंजे… ‘‘जीत गया भई जीत गया…सूरज वाला…’’

‘वाह, सूरज प्रकाश जीत गया… खूब…बहुत खूब…’ अपनी जीत की खुशी से आश्वस्त नेताजी ने दरवाजा खोल कर जैसे ही सामने सड़क से गुजरते जुलूस को देखा तो सिर चकराने लगा, दिल बैठने लगा. उन्होंने मुश्किल से खुद को संभाला और पास से गुजर रहे नौकर को पुकारा, ‘‘अरे जीतू, यह किस का जुलूस है, कौन जीता है?’’

‘‘बाबूजी, निर्दलीय चंद्र प्रकाश चुनाव जीत गया है, वह भी पूरे 8 हजार वोटों से. उगता सूरज उसी का तो चुनाव चिह्न है. बड़े अफसोस की बात है, आप चुनाव हार गए,’’ जीतू ने हमदर्दी जताई, ‘‘आप की हार के गम में सभी गमगीन हैं, नीचे देखिए, कोठी में मातम सा छाया हुआ है.’’

‘‘अरे, मूर्ख, इतना बड़ा हादसा हो गया और मुझे किसी ने कुछ बताया ही नहीं,’’ हैरानपरेशान नेताजी बुझीबुझी आंखों से जुलूस गुजरने के बाद की उड़ती धूल को सहन नहीं कर पा रहे थे, ऊंची आवाज में बोले, ‘‘अशोक कहां है?’’

तभी उन का मुनीम रामगोपाल बरामदे में आ पहुंचा और बोला, ‘‘सेठजी, वह तो तांत्रिक के संग किसी होटल में गुलछर्रे उड़ा रहा होगा…5 लाख में से बचीखुची रकम का बंटवारा भी तो अभी करना होगा.’’

‘‘ओह, तुम्हें तो सब मालूम है… इस कमीने अशोक पर भरोसा कर के चुनाव पर तो 25-30 लाख खर्च हुए ही, ऊपर से तांत्रिक के चक्कर में 5 लाख की और चपत लग गई.’’

‘‘सेठजी, आप को कितनी बार समझाया कि इस अशोक को ज्यादा मुंह मत लगाइए, लेकिन आप नहीं माने. कहते हैं न कि ‘सारी खुदाई एक तरफ जोरू का भाई एक तरफ’.’’

‘जीत गया भई जीत गया… सूरज वाला जीत गया, जीत गया भई…’ जुलूस अब पिछली सड़क से गुजर रहा था. नेताजी ने थकीहारी आवाज में रामगोपाल से पूछा, ‘‘एक बात समझ में नहीं आई, सूर्य की परिक्रमा हम करते रहे, परंतु जीत गया चंद्र प्रकाश और वह भी ‘सूरज’ चुनाव चिह्न के सहारे…क्या मतगणना अधिकारियों के इस अन्याय के खिलाफ किसी कोर्ट में गुहार लगाई जा सकती है?’’

‘‘किसी योग्य वकील से सलाहमशविरा कर लीजिए,’’ रामगोपाल बुदबुदाया, ‘लगता है, सदमा गहरा है, सेठजी की मति मारी गई है.’

लेखक- मनोज चुग

Sachi Kahaniyan : गंध मादन

Sachi Kahaniyan : हम लोग राजधानी एक्सप्रेस से दिल्ली लगभग 10 बजे सुबह पहुंचे. हम ने सुबह ट्रेन में ही नाश्ता कर लिया था. हम 3 थे, मैं, मेरा दोस्त केयूर और अर्चिता. तीनों को दिल्ली में अलगअलग काम थे. मुझे इंगलैंड जाने के लिए वीजा बनवाना था, केयूर को एक मल्टीनेशनल कंपनी में इंटरव्यू देना था और अर्चिता को जे.एन.यू. में एडमिशन के लिए आवेदन करना था.

अर्चिता के चाचा डाक्टर थे और सफदरजंग इनक्लेव में रहते थे, इसलिए उस का वहीं ठहरने का कार्यक्रम था.

कर्नल के.के. सिंह की पत्नी वहीं एक कालिज में लेक्चरर थीं. कर्नल सिंह मेरे चाचा ब्रिगेडियर सिन्हा के जिगरी दोस्त थे. दोनों ने एकसाथ कालिज की पढ़ाई की थी. मेरे चाचा इस समय लद्दाख में तैनात थे.

मैं कर्नल के.के. सिंह को बचपन से जानता हूं. पटना मेरे चाचा के यहां वह अकसर आते थे और कई दिनों तक ठहरते थे. मैं जब मेडिकल कालिज में पढ़ता था तो अपने चाचा के यहां अकसर जाता था. मेरी छुट्टियां लगभग वहीं बीतती थीं. इसलिए मैं कर्नल साहब को बहुत नजदीक से जानता था. पहले भी दिल्ली आने पर कई बार उन के यहां ठहरा था.

स्टेशन पर उतर कर हम ने प्लान बनाया कि अर्चिता को प्रीपेड टैक्सी में बिठा कर सफदरजंग भेज देंगे और फिर आटोरिकशा पकड़ कर हम कर्नल साहब के यहां चले जाएंगे. उन से फोन पर बात हो चुकी थी.

लेकिन जब हम अपना सामान ले कर गाड़ी से प्लेटफार्म पर उतरे तो देखा कि कर्नल साहब हाथ हिलाते हुए हम लोगों की ओर आ रहे हैं.

हम लोगों ने उन्हें नमस्कार किया फिर मैं ने केयूर और अर्चिता का उन से परिचय कराया और कहा, ‘‘अंकल, हम लोग तो आ ही जाते. आप इतनी दूर क्यों आए?’’

‘‘वौट नानसेंस, आज संडे है, कोई काम नहीं है. केवल दोपहर को क्लब जाना है, मीटिंग है. तब तक एकदम फ्री हूं. इसी बहाने सैर हो गई.’’

कर्नल के.के. सिंह ने केयूर और अर्चिता को गंभीर हो कर गौर से देखा, फिर मुसकराए और बोले, ‘‘एक्सिलेंट, स्मार्ट हैंडसम बौय, ब्यूटीफुल गर्ल.’’

उस के बाद कर्नल सिंह ने आगे बढ़ कर सब इंतजाम टेकओवर कर लिया. तुरंत कुली बुलवाया, अपनी कार में सामान रखवाया, कुली को भुगतान किया. हम लोगों ने जब इस का विरोध किया तो हमें डांटते हुए बोले, ‘‘कम आन, गेट इन. मेरा भतीजा है, पेमेंट करेगा?’’ कौन कहां बैठेगा? इस पर वह बोले, ‘‘शमीक, तुम शादीशुदा हो इसलिए आगे बैठोगे, और तुम दोनों पीछे.’’

जब अर्चिता ने कहा कि उसे नजदीक ही तो जाना है, टैक्सी ले लेगी तो उन्होंने चेहरे पर गंभीर भाव लाते हुए उसे कार के अंदर बैठा कर कार स्टार्ट करते हुए कहा, ‘‘नो, मैं कभी अलाउ नहीं कर सकता, मेरी जिंदगी का सिद्धांत है और मैं उसे कभी तोड़ नहीं सकता.’’

अर्चिता ने पूछा, ‘‘कैसा सिद्धांत सर?’’

कर्नल साहब गाड़ी निकालते हुए हंस कर बोले, ‘‘मैं कभी भी खूबसूरत, स्मार्ट लड़की को अकेले नहीं जाने देता.’’

अर्चिता के चाचा के घर पहुंच कर हम ने बाहर से ही विदा मांगी तो उस ने औपचारिकतावश कहा, ‘‘आइए, चाय पी कर जाइए, चाचाचाची से भी मिल लीजिएगा.’’

मैं ने कहा, ‘‘फिर कभी, अब देर हो गई है.’’

लेकिन तब तक कर्नल साहब गाड़ी से उतर कर, शीशा चढ़ा कर गाड़ी लाक कर के तैयार हो गए थे, ‘‘हांहां, चलो, एक कप चाय हो जाए और तुम्हारे चाचाचाची से भी मिल लेंगे. उन्हें भी तसल्ली हो जाएगी कि हम जैसे भले आदमियों ने उन की इतनी खूबसूरत भतीजी को सही- सलामत घर तक पहुंचा दिया है.’’

मैं तो उन को मुंहबाए खड़ा देखता रह गया. तब तक वे अर्चिता के साथ आगे बढ़ गए. कर्नल साहब, अर्चिता के चाचाचाची से बेहद गरमजोशी से मिले. चाय पीतेपीते उन्होंने उन दोनों पर भी पूरी तरह कब्जा कर लिया था. तरहतरह के किस्से सुनाते रहे और केयूर की तारीफ करते रहे. मैं आश्चर्य से सबकुछ सुनता रहा. जिस शख्स से वह आज पहली बार मिले हैं उस के बारे में यों बात कर रहे थे मानो बचपन से जानते हों. फिर अर्चिता की तारीफ करते हुए उन्होंने चाचाचाची को समझा दिया कि वह उन की भतीजी के लिए एवन लड़का लाएंगे, नो तिलक, नो दहेज, सबकुछ मुझ पर छोड़ दीजिए.

‘‘लेकिन अर्चिता के पिता फौजी से इस की शादी नहीं करना चाहते.’’

‘‘डोंट वरी सर, सिविल में भी फौजी किस्म के बहुत लड़के हैं. मैं सब ठीक कर दूंगा.’’

लगभग 12 बजे हम लोग वहां से निकले तो उन्होंने रास्ते में केयूर से पूछा, ‘‘यार, क्या नाम है तुम्हारा? भूल गया.’’

‘‘केयूर.’’

‘‘हां, केयूर, कहो तो बात करूं? लड़की के बारे में क्या खयाल है?’’

‘‘नहीं अंकल, ऐसी कोई बात नहीं है?’’

‘‘अरे, बेवकूफ, हाथ पकड़ ले, नहीं तो जिंदगी भर मेरी तरह पछताएगा.’’

‘‘आप की तरह?’’

‘‘हां, ऐसी परी जिंदगी में दोबारा नहीं मिलती.’’

केयूर शरमा गया, ‘‘ऐसी कोई बात नहीं है अंकल, केवल मामूली सी जानपहचान है.’’

‘‘मैं आंखें देख कर दिल की आवाज सुन लेता हूं बरखुरदार. जिंदगी भर फौज में लेफ्टराइट किया है और इश्क किया है, इस के अलावा कुछ नहीं,’’ फिर कर्नल सिंह गुनगुनाने लगे, ‘चांदी जैसा रंग है तेरा, सोने जैसे बाल. इक तू ही धनवान है गोरी, बाकी सब कंगाल.’

कर्नल सिंह की बातों और शायरी के बीच रास्ता कैसे कट गया पता ही नहीं चला. पता तो तब चला जब कार अपनी मंजिल पर पहुंच कर रुकी.

कर्नल साहब का घर छोटा था लेकिन बहुत ही आरामदेह और साफ- सुथरा था. घर के आगेपीछे 2 छोटेछोटे लौन थे. अंदर 2 बड़ेबड़े बेडरूम थे. ऊपरी मंजिल में भी कुछ निर्माण हुआ था जो अधूरा पड़ा था. कर्नल साहब की पत्नी बरामदे में बैठी अखबार पढ़ रही थीं. हम लोग भी वहीं बैठ गए.

आंटी चाय ले आईं. चाय पी कर कर्नल साहब ने अपना मकान और लौन हमें दिखाया. आंटी किचन में चली गईं. उन के लौन में मैं ने एक खास बात मार्क की कि वहां फूल का एक भी पौधा नहीं था. सामने वाले छोटे लौन के बीच में गोल्फ के लिए एक ‘होल’ था जिस में वह ‘पट’ की प्रैक्टिस करते थे.

मैं ने उत्सुकतावश पूछा, ‘‘अंकल, जाड़े की शुरुआत है, लेकिन आप के लौन में फूल का एक भी पौधा नहीं है. क्या आप को फूलों का शौक नहीं है?’’

कर्नल साहब ने संक्षिप्त जवाब दिया, ‘‘पहले था, अब नहीं है.’’

मैं ने उत्सुकतावश पूछा कि अंकल, आप ने आर्मी क्यों छोड़ दी? आप तो मेजर जनरल या लेफ्टिनेंट जनरल हो जाते.

कर्नल साहब ने कहा, ‘‘क्या करता? घर के बहुत सारे झंझट थे. मातापिता की मौत हो गई. 2 बेटियों की शादी करनी थी. वाइफ यहां अकेली पड़ गई,’’ फिर उन्होंने सरगोशी के अंदाज से कहा, ‘‘थोड़ा चेस्ट पेन भी होने लगा था. आर्मी में हर साल मेडिकल चेकअप होता है न? वेरी थारो.’’

‘‘अब फ्री हैं. दोनों बेटियों की शादी कर दी. दोनों अमेरिका में हैं. हम दोनों यहां अकेले हैं. नौकरचाकर का भी झंझट नहीं है. केवल सुबह एक पार्टटाइम सरर्वेंट आती है.’’

केयूर ने अचानक पूछा, ‘‘अंकल, फौजी अफसर हो कर आप को शायरी में इतना शौक कैसे है?’’

कर्नल साहब ने जोरदार ठहाका लगाया, ‘‘तुम सिविलियंस को गलतफहमी है कि फौजी केवल लेफ्टराइट करते हैं और दारू पीते हैं. फौजी शेरओशायरी, साहित्य के बहुत शौकीन होते हैं. मैं जब 5वीं बटालियन में तैनात था तो हमारी ब्रिगेड के मेजर पंजाबी थे, जिन्हें शायरी का बहुत शौक था. मेस में शाम को एकदो पैग व्हिस्की अंदर गई नहीं कि उन्होंने शायरी शुरू कर दी. 3-4 पेग पीने के बाद तो वह घंटों, शेर, गजल, नज्म सुनाते रहते थे और अंत में वह एक ही नज्म पढ़ते थे, ‘फिर कब आओगे बीमार हो कर?’

आंटी आईं तो अचानक कर्नल साहब ने कहा, ‘‘जानती हो केतकी, इस की जो गर्लफैं्रड है, शी इज वंडरफुल. इन की शादी करा दो, वरना जे.एन.यू. में एडमिशन हो जाने के बाद उस के पीछे लड़कों की लाइन लग जाएगी. बाद में पछताओगे बरखुरदार,’’ उन्होंने केयूर की ओर इशारा किया.

केयूर शरमा कर बोला, ‘‘नहीं आंटी, ऐसी कोई बात नहीं है, अंकल तो यों ही…’’

आंटी ने मुसकरा कर कर्नल साहब की पीठ पर एक चपत लगाई, ‘‘ये तो रोज पछताते हैं.’’

‘‘अरे, केतकी, तुम अर्चिता को देखना. शी विल बीट आल द फिल्म स्टार्स. अगर 30 साल पहले मुझे मिली होती तो मैं दौड़ कर उस से शादी कर लेता.’’

‘‘30 साल पहले तो वह पैदा ही नहीं हुई थी जनाब,’’ आंटी ने हंसते हुए कहा.

कर्नल साहब ने लंबी सांस ली, ‘‘न जाने खूबसूरत लड़कियां हमेशा देर से क्यों पैदा होती हैं.’’

‘‘अरे, बाबा, तुम लोगों को खाना नहीं खाना है? मैं तो चली, मुझे महिला क्लब की मीटिंग में जाना है. खाना खा कर थोड़ा आराम करूंगी फिर 3 बजे जाऊंगी. 5 बजे तक वापस आ जाऊंगी.’’

‘‘चलिए, हम लोग भी नहा लेते हैं,’’ और आंटी के साथ हम अंदर आ गए.

कर्नल साहब लौन में बैठ कर अखबार पढ़ने लगे. मैं उन के बाथरूम में चला गया. केयूर ड्राइंगरूम से लगे गेस्ट बाथरूम में चला गया. नहा कर हम निकले तो आंटी ने डाइनिंग स्पेस की ओर इशारा किया, ‘‘तुम दोनों बैठो, मैं तुरंत लंच लगाती हूं.’’

लंच खाते समय आंटी ने कर्नल साहब से कहा, ‘‘तुम अपनी चाभी ले लो. हो सकता है मुझे आने में देर हो जाए. तुम्हें भी तो क्लब जाना है न?’’

आंटी ने हम से कहा, ‘‘तुम दोनों बगल वाले मेरे रूम में आराम करो. सब ठीकठाक कर दिया है. कहीं बाहर जाना है तो मैं अपनी ‘स्पेयर की’ दे देती हूं.’’

केयूर ने उठते हुए कहा, ‘‘आंटी, मुझे कनाट प्लेस जाना है. सोचता हूं इंटरव्यू की जगह देख आऊं. दिल्ली दूसरी बार आया हूं, 1-2 परिचितों से मिलना भी है. मैं 7 बजे तक आऊंगा.’’

कर्नल साहब ने ठहाका लगाया, ‘‘अरे, मैडम, अपनी जवानी भूल गई. क्या नाम है उस का? अ…… हां, अर्चिता, उस से भी तो मिलने जाना है. साफसाफ कैसे कहे बेचारा?’’

मैं भी उठते हुए बोला, ‘‘आंटी मैं भी एम्स तक जाऊंगा. कुछ दोस्तों से मिलना है. मैं भी 7 बजे तक आ जाऊंगा.’’

‘‘ओ.के. ब्यौज इंज्वाय योर सेल्फ. लेकिन 7 बजे तक जरूर आ जाना. वी विल हैव ड्रिंक्स टूगेदर, सेलीबे्रट करना है.’’

कर्नल साहब जल्दी लौटने की बात कहते हुए गेट तक आए. मैं ने फिर उत्सुकतावश कैक्टस और क्रोटन के पौधों को देखते हुए पूछा, ‘‘अंकल, क्या आंटी को भी फूलों का शौक नहीं है.’’

कर्नल साहब ने कहा, ‘‘उसे तो फूलों से बहुत प्यार है, लेकिन मैं लगाने नहीं देता.’’

‘‘क्यों अंकल?’’

कर्नल साहब ने आंखों से गोपनीयता का इशारा किया और फिर उन के मुंह से यह शेर फूटा, ‘‘मैं वो गुलशन गजिदा हूं कि तनहाई के मौसम में, नहीं होते अगर कांटे तो डंसती है कली मुझ को.’’

शाम को वापस आतेआते मुझे साढ़े 7 बज गए थे. केयूर भी कुछ देर पहले ही आया था. कर्नल साहब तैयार हो कर ड्राइंगरूम में बैठे थे. उन के सामने मेज पर 3 कट ग्लास, डिकैंटर में व्हिस्की और प्लेट में स्नैक्स थे. केयूर एक ओर बैठा टीवी देख रहा था.

मेरे आते ही उन्होंने केयूर को अपने पास बुलाया और हम दोनों को बैठने को कहा, ‘‘आओ भाई, जल्दी करो. मैं क्लब से कबाब, फिश और चिप्स लाया हूं. मेरे क्लब जैसा कबाब पूरी दिल्ली में कहीं नहीं मिलेगा.’’

आंटी किचेन में एप्रन पहने खाना बना रही थीं, आकर बोलीं, ‘‘चिकन बना रही हूं, 1 घंटे में खाना तैयार हो जाएगा.’’

कर्नल साहब ने इतनी तैयारी की थी, इतना उत्साहित थे और इतना अपनापन था कि मैं उन्हें निराश नहीं कर सका.

आंटी ने प्लेट में कुछ और खाने का सामान ला कर दिया. केयूर ने कहा, ‘‘सर, कल 10 बजे मुझे इंटरव्यू में भी जाना है.’’

कर्नल साहब ने कबाब का एक टुकड़ा उठाते हुए कहा, ‘‘कोई बात नहीं, मैं 5 बजे उठा दूंगा.’’

हमारे खानेपीने के दौरान आंटी हाथ में कोल्ड ड्रिंक ले कर आईं और कुरसी खींच कर बैठ गईं. पसीना पोंछते हुए बोलीं, ‘‘इसीलिए तो हम ने अपनाअपना बेड अलग कर लिया है. मैं गेस्टरूम में शिफ्ट कर गई हूं.’’

कर्नल साहब ने कृत्रिम गंभीर मुद्रा बना कर कहा, ‘‘देखा यारों, बुढ़ापे में बीवी भी साथ छोड़ देती है.’’

आंटी हंस कर बोलीं, ‘‘बात यह है कि ये रोज शाम को 9 बजे तक खाना खा कर कुछ देर टेलीविजन देखते हैं फिर 10 बजतेबजते खर्राटा मारने लगते हैं. मेरा काम 10 बजे के बाद शुरू होता है, क्लास की तैयारी, पेपर्स करेक्ट करना, सवाल सेट करना और इन कामों में ही मुझे 12 बज जाते हैं. फिर यह उठते हैं 5 बजे सुबह. जौगिंग के लिए कपड़े बदलते हैं, खटरपटर करते हैं, बाथरूम जाते हैं, मेरी नींद में खलल पड़ता है.’’

कर्नल साहब बोले, ‘‘कितना कहता हूं कि तुम भी जौगिंग पर चलो, नहीं तो कम से कम सुबह की सैर ही किया करो स्लिमट्रिम हो जाओगी. लेकिन यह मानने वाली नहीं हैं. देखते हो, इन का पेट कितना निकल आया है.’’

आंटी उठ कर बोलीं, ‘‘बेटा, 12 बजे रात तक काम करने के बाद सुबह 5 बजे उठ कर सैर पर जाना क्या संभव है. फिर घुटने में दर्द रहता है इसलिए भी ज्यादा चल नहीं सकती.’’

कर्नल साहब ने कहा, ‘‘मेरे साथ गोल्फ खेलो, सब ठीक हो जाएगा.’’

आंटी बोलीं, ‘‘तुम्हारी तरह फुरसत कहां कि बनठन कर, सेंट लगा कर क्लब जाओ, मौज करो.’’

आंटी कर्नल साहब के बालों में उंगलियां फंसा कर उन्हें बिखराते हुए किचेन की ओर चली गईं.

कर्नल साहब ने कहा, ‘‘देखा, मेरे जैसे ब्रिलियंट हार्ड वर्किंग आफिसर को यह कहती हैं मैं कुछ नहीं करता? अब सेंट कहां यारों, नो सेंट, नो फ्लावर.’’

हमें याद आया, ‘‘हां अंकल, ये फूलों का राज क्या है?’’

‘‘ओह,’’ कर्नल साहब मुसकराए और बोले, ‘‘कम आन यंग मैन, बाटम्स. अब याद आने से बहुत तकलीफ होती है. इसीलिए कहता हूं कि…क्या नाम है उस का?’’

‘‘अर्चिता.’’

‘‘हां, अर्चिता को छोड़ना मत. बिलकुल उसी की तरह, फूलों की सुगंध वाली परी. जवानी याद आ जाती है… इसीलिए अब फूल के पौधे नहीं लगाता हूं, न घर में फूलों के गुलदस्ते रखता हूं.’’

कर्नल साहब कुछ देर अतीत में खोए रहे फिर उन्होंने मुसकरा कर कहा, ‘‘जानते हो, मैं हाकी बहुत अच्छी खेलता था. मैं ने नेशनल टीम रिप्रेजेंट की है. उन दिनों हाकी बहुत लोकप्रिय खेल था और हाकी के खिलाड़ी नेशनल स्टार होते थे, आजकल के क्रिकेटर्स की तरह. लड़कियां फिदा रहती थीं. जहां जाता था लड़कियां, एक से एक खूबसूरत, दौड़ी आती थीं. 3 साल की पीस पोस्टिंग थी. क्या दिन थे. देखो, ये मेरी ट्राफियां हैं और वह मेरी फोटो.’’

उन्होंने मेटल पीस और उस की बगल में शीशे की अलमारी की ओर इशारा किया. उस पर उन की यूनिफार्म में फोटो रखी थी. वाकई कर्नल साहब बहुत ही स्मार्ट और खूबसूरत थे.

‘‘जब भी मेरा मैच होता था, वह जरूर देखने आती थी. वह हसीनों में सब से हसीन थी, बिलकुल किसी परी जैसी चलती थी तो लगता था हवा में तैरती हुई आ रही है. देखती थी तो लगता था बोलने की जरूरत नहीं, आंखें ही सबकुछ कह देंगी. गालिब का वह शेर है न :

‘‘क्या हुस्न का अफसाना महफूज हो लफ्जों में,

आंखें ही कहें उस को, आंखों ने जो देखा है.’’

‘‘उस की पर्सनाल्टी को कोई बयान नहीं कर सकता. देख लिया तो समझो दिमाग पर नकशा बन गया. मरते दम तक याद रहा. वह क्या नाम है, अर्चिता? वह भी कुछ उसी की तरह है. लंबी गरदन के ऊपर चेहरा हमेशा लगता था मानो एक गुलाब है, जो अभीअभी खिला है, ओस की बूंदों के साथ. जब भी उसे देखता था मुझे 2 ही फूल याद आते थे, एक गुलाब और दूसरा सूरजमुखी. हमेशा ताजा गुलाब सा चेहरा और जब किसी की ओर मुड़ कर देखती थी तो लगता था सूरजमुखी का फूल झुक गया है. उसे देखने के बाद दिल में यही खयाल आता था, ‘‘अब तो यह तमन्ना है किसी को भी न देखूं, सूरत जो दिखा दी है तो ले जाओ नजर भी.’’

आंटी हलके से लंगड़ाती हुई आईं और कुरसी खींच कर बैठ गईं.

कर्नल साहब ने कहा, ‘‘मैं इन दोनों को अपनी जवानी के किस्से सुना रहा था, जब मैं हाकी खेलता था.’’

आंटी के चेहरे पर खुशी की आभा फैल गई. वह हंस कर बोलीं, ‘‘जवानी में तो इन्हें हर महीने एक लड़की से इश्क होता था. वह तो मैं ने पकड़ कर इन्हें बांध लिया तब बंद हुआ.’’

तभी किचेन के अंदर से कुकर की सीटी की आवाज आई. आंटी ने कहा, ‘‘खाना लगाती हूं. बस, 15 मिनट.’’

कर्नल साहब ने कहा, ‘‘प्रोफेसर की बेटी थी, पढ़ने में तेज थी. मैं तो हमेशा एवरेज स्टूडेंट रहा. जानते हो, उस की सब से बड़ी खूबी थी कि उस के बदन से हमेशा फूलों की सुगंध आती थी. वह न सेंट लगाती थी न इत्र, हलकी लिपस्टिक के अलावा कोई मेकअप भी नहीं करती थी. पाउडर से उसे नफरत थी, फिर भी हमेशा उस के बदन से सुगंध आती थी.’’

‘‘कैसी सुगंध अंकल?’’

‘‘कौन सा फूल है जो सब से अधिक सुगंध वाला है? हां, याद आया, चंपा.’’

‘‘हांहां, मेरे घर में एक पेड़ है. पूरा कंपाउंड उस के फूलों की सुगंध से भर जाता है, अगलबगल के लोग शाम को आते हैं, उस की महक लेने.’’

‘‘हां, चंपा का फूल पूरी दुनिया में सब से अधिक सुगंध वाला फूल है. उस के बदन से हमेशा चंपा के फूलों की महक आती थी.’’

इतना कह कर कर्नल सिंह खामोश हो गए. हम अपनेअपने खयालों में डूबे रहे. फिर मैं ने पूछा, ‘‘फिर क्या हुआ अंकल?’’

आंटी बगल से प्लेट, ग्लास ले कर गुजरीं. चिकन, प्याज और सब्जी की सुगंध आई. कर्नल साहब बोले, ‘‘बस, खो दिया, पर केयूर, तुम मत खोना. पूरी जिंदगी याद आती रहेगी.’’ वह उठ गए, ‘‘चलो, आंटी की मदद करो, किचेन से खाना ले आओ.’’

खाना खाने के बाद आंटी हम दोनों को अपने बेडरूम में ले गईं. हम लोगों का सामान वहां रखा था. दोनों बेडों पर साफसुथरी चादरें बिछी थीं. हलकी ठंड थी इसलिए खिड़कियां बंद थीं. आंटी ने मुझे बाथरूम दिखाया. सुबह 7 बजे चाय, ओ.के. गुडनाइट.

आंटी चली गईं. हम लोग हाथमुंह धो कर कपड़े बदलने लगे. बगल की मेज पर 1 फोटो रखा था, अति सुंदर तन्वंगी. गौर से देखा, तब पहचाना, वही नाकनक्श और आंखें, आंटी का ही फोटो था, उन की जवानी के दिनों का. हम दोनों ने एकदूसरे को देखा, ‘‘आंटी का फोटो है, विश्वास नहीं होता. इतनी स्मार्ट, खूबसूरत. इनसान उम्र के साथ कितना बदल जाता है?’’

दिन भर के थके हुए हम दोनों अपने बिस्तर में जा कर चादर ओढ़ कर लेटे ही थे कि तकिए पर सिर रखते ही दोनों झटके से उठ कर बैठ गए और आश्चर्य से एकदूसरे की ओर देखने लगे. अरे, यह क्या? अचानक एहसास हुआ कि पूरे कमरे में चंपा के फूलों की सुगंध फैली थी. हम दोनों को ही कर्नल अंकल की चंपा के फूलों की खुशबू वाली लड़की का खयाल आ गया. पर उन्होंने तो अभी कहा था कि बस…खो दिया. नहीं…उन्होंने उसे पा लिया था.

Hindi Kahani : अब क्या करूं मैं

Hindi Kahani : ‘‘भाभी, शीशे पर क्या गुस्सा निकाल रही हो, जो हो रहा है उसे होने दो. मैं तो कई साल पहले से ही जानती थी. आज का यह दिन तुम्हें न देखना पड़े इसीलिए तो सदा टोकती रही हूं कि अपना व्यवहार इतना भी हलका न बनाओ…’’

‘‘मेरा व्यवहार हलका है?’’ सदा की तरह भाभी ने आंखें तरेरीं, ‘‘तू होगी हलकी…तेरा सारा खानदान होगा हलका…’’

भैया और भतीजा पास ही खड़े थे. मेरी आंखें उन से मिलीं. शरम आ रही थी उन्हें अपनी पत्नी और मां के व्यवहार पर. आज बरसों बाद मैं मायके आई हूं. नाराज थी भाभीभाई से, ऐसा कहना उचित नहीं होगा, मैं तो बस, भाभी के व्यवहार से तंग आ कर मायके को त्याग चुकी थी.

भाभी का ओछा व्यवहार और ऊपर से भैया का चुपचाप सब सुनते रहना जब तक सहा गया सहती रही और जब लगा अब नहीं सह सकती, पीठ दिखा दी. उम्र के इस पड़ाव पर, जब मैं भी सास बन चुकी हूं और भाभी भी दादीनानी, बच्चों की तरह उन का लड़ पड़ना अभी गया नहीं है. आज भी उन में परिपक्वता नहीं आई.

‘‘मेरे खानदान को छोड़ो भाभी, तुम्हारामेरा खानदान अलगअलग कहां है, जो खानदान पर उतर आई हो. आधी उम्र मैं इस खानदान की बेटी रही हूं, मेरा खानदान तो यह भी है, जो आज तुम्हारा है. हमारी उम्र इस तरह लड़ने की नहीं रही जो हम ऊलजलूल बकते रहें. आज सवाल हमारे बच्चों का है कि हमारे व्यवहार से उन का अनिष्ट हो, ऐसा नहीं होना चाहिए.’’

‘‘अरे, मेरी बेटी का सर्वनाश तो तेरे कारण हो रहा है चंदा, तेरी ही ससुराल के हैं न उस के ससुराल वाले…तू ही उस का पैर वहां लगने नहीं देती.’’

‘‘मेरी ससुराल में जब बेटी का रिश्ता किया था तब क्या मुझ से पूछा था तुम ने, भाभी? भैया, आप ने भी जरूरी नहीं समझा मुझे बताना कि लड़का कितना पढ़ालिखा है, कोई बुरी आदत तो  नहीं. भला मुझ से बेहतर कौन बताता आप को जिस के सामने वह पलाबढ़ा है… तब तो मैं आप को दुश्मन नजर आती थी कि कहीं रिश्ता ही न तुड़वा दूं.

‘‘मुझे तो पता ही तब चला था जब मेरी चचिया सास ने शादी का कार्ड हाथ में थमा दिया था. क्या कहती मैं तब अपनी ससुराल में कि आने वाली मेरी सगी भतीजी है, जिस की मां और बाप ने मुझे एक बार पूछा तक नहीं.’’

गला भर आया मेरा, ‘‘जानती हो भाभी, मेरी चचिया सास ने भी इसी अनबन का फायदा उठाया और अपना खोटा सिक्का चला लिया. अब जो हो रहा है उस में मेरा दोष क्यों निकाल रही हो. तुम्हारी बच्ची वहां सुखी नहीं है तो उस में मैं क्या करूं? न मैं कल किसी गिनती में थी न ही मैं आज किसी गिनती में हूं.’’

‘‘उसी का बदला ले रही है न चंदा, तू चाहती है कि मेरी बेटी तेरी जूती के नीचे रहे…’’

‘‘मेरा घर तो उस के घर से 50 किलोमीटर दूर है भाभी. भला मेरी जूती के नीचे वह कैसे रह सकती है? सच तो यह है कि जो कलह तुम सदा यहां डालती रही हो उसी को अपनी बच्ची के संस्कारों में गूंथ कर तुम ने साथ बांध दिया है. एक तो सोना उस पर सुहागा. पति अच्छा होता तो पत्नी की आदतों पर परदा डालता रहता…जिस तरह भैया डालते रहे हैं लेकिन वहां वह भी तो सहारा नहीं है… शराबी, चरित्रहीन पति, पत्नी को नंगा करने में लगा रहता है और पत्नी, पति के परदे तारतार करने से नहीं चूकती. उस पर आग में घी का काम तुम करती हो.

‘‘बेटी का घर बसाना चाहती हो तो कम से कम अब तो जागो और बेटी को समझाओ कि समझदारी से काम ले. घर में रुपएपैसे की कमी नहीं है. लड़का अच्छा नहीं, लेकिन सासससुर तो लड़की को सिरआंखों पर रखते हैं. पति को समझाए, उसे सुधारने का प्रयास करे.’’

‘‘कैसे समझाए उसे मेरी बेटी? उस के तो 10-10 हजार चक्कर हैं. कईकई दिन वह घर ही नहीं आता. ऊपर से तू भी उसी को दोष देती है.’’

‘‘तो क्या करूं मैं? कोई बीच का रास्ता निकालना होगा न हमें. कम से कम घर तो संभाल ले तुम्हारी बेटी…सासससुर इज्जतमान देते हैं तो उन्हीं का मान रख कर घर में सुखशांति बनाने की कोशिश करे. मेरे दोष देने या न देने का कोई अर्थ नहीं है भैया, मैं कब उस के घर जाती हूं. तुम ने इतना प्यार ही कहां छोड़ा है कि वह बूआ के घर आना चाहे या मैं ही उसे अपने घर बुलाऊं…तुम्हारे परिवार से दूर ही रहने में मैं अपना भला समझती हूं.’’

मन भर आया मेरा और मैं अतीत में विचरण करने लगी. यही वह घरआंगन है जहां मैं और भैया दिनभर धमाचौकड़ी मचाते थे. अच्छा संस्कारी परिवार था हमारा मगर भाभी के आते ही सब बिखर गया. छोटे दिलोदिमाग की भाभी की जबान गज भर लंबी थी. कुदरत ने शायद लंबी जबान दे कर ही बुद्धि और विवेक की भरपाई करने का प्रयास कर दिया था, जिस का भाभी जम कर इस्तेमाल करती थीं. अवाक् रह जाते थे हम सब. बच्चों की तरह लड़ पड़ती थीं मुझ से. समझ में नहीं आता था कि भाभी का दिमाग इस दिशा में जाता है तो जाता कैसे है.

एक पढ़ालिखा सभ्य इनसान किसी दूसरे पर सीधासीधा आरोप लगाने से पहले हजार बार सोचता है कि बरसों का रिश्ता कहीं टूट ही न जाए, लेकिन भाभी तो अपनी जरा सी चीज आगेपीछे होने पर भी झट से मुझ पर आरोप लगा देती थीं कि मैं ने अपनी आंखों से देखा है.

स्तब्ध रह जाती थी मैं. कैसी बातें करती हैं भाभी. पहलेपहल तो सब मुझे शक से देखते रहे थे फिर धीरेधीरे समझ गए कि यह सब भाभी के ही दिमाग की उपज है.

भैया से 4-5 साल छोटी हूं मैं और मांबाप की लाड़ली, समझदार बेटी जो भाभी के आते ही चोर, चुगलखोर और पता नहीं क्याक्या बन गई थी.

‘यह क्या हो गया है तुम्हें चंदा, तुम भाभी से झगड़ा क्यों करती हो? उस का सामान भी उठा ले जाती हो और पैसे भी निकाल लेती हो. तुम तो ऐसी नहीं थीं. क्या भाभी से तालमेल बिठाना नहीं चाहती हो? तुम्हें भी तो एक दिन ससुराल जाना है और अगर तुम्हारी ननद भी ऐसा ही करे तुम्हारे साथ तो कैसा लगेगा तुम्हें?’ भैया ने अकेले में ले जा कर एक दिन पूछा था.

मेरे तो पैरों के नीचे से जमीन ही निकल गई थी. यह क्या कह रहे हैं भैया. तब समझ में आया भैया के खिंचे- खिंचे रहने का कारण.

‘मैं ने भाभी के पैसे निकाल लिए? नहीं तो भैया, जरूरत होगी तो आप से या पिताजी से मांग लूंगी. भाभी के पैसे चुराऊंगी क्यों मैं?’

‘तुम ने अपनी भाभी के 300 रुपए नहीं निकाल लिए? और वह शिकायत कर रही है कि उस का भारी दुपट्टा और सुनहरी वाली सैंडल भी…’

‘भैया, भारी दुपट्टा मेरे किस काम का और भाभी के पैर का नाप मेरे पैर में कहां आता है? कैसी बेसिरपैर की बातें करते हो तुम, जरा सोचो, दुलहन का सामान मेरे किस काम का?’

‘वह कहती है कि तुम उस का सामान चुरा कर अपने लिए संभाल रही हो.’

असमंजस में पड़ गई थी मैं. क्या हमारे इतने बुरे दिन आ गए हैं कि मैं अपनी भाभी का सामान चुरा कर अपना दहेज सहेजूंगी.

पता नहीं कैसे मां ने भी हमारी बातें सुन लीं और हक्कीबक्की सी भीतर चली आईं.

‘क्या यह सच है, चंदा? तू ने अपनी भाभी का सामान चुराया है?’

काटो तो खून नहीं रहा था मुझ में. क्या मां की भी मति मारी गई है? उस पर भाभी का यह भी कहना कि मैं ने अपनी आंखों से देखा है.

ऐसी खाई खोद दी थी भाभी ने घर के सदस्यों के बीच जिसे पाटना सब के बस से बाहर था.

हर पल वह किसी न किसी पर कोई न कोई लांछन लगाती रहतीं जिस पर हमारा परिवार हर पल अपनी ईमानदारी ही प्रमाणित करने में लगा रहता था. लगता, हम सब चोर हैं जो बस, भाभी के ही सामान पर नजर गड़ाए रहते हैं.

‘कहीं की रानीमहारानी है क्या यह लड़की?’ गुस्से में बोल पड़े थे पिताजी, ‘जब देखो, किसी न किसी को चोर बना देती है. हम भूखेनंगे हैं क्या जो इसी के सामान पर हमारी नजरें रहें. बेटा, इस ने हमारा जीना हराम कर दिया है. क्या करें हम, कहां जाएं, हमारा तो बुढ़ापा ही खराब हो गया है इस के आने से.’

2-3 साल बीततेबीतते मेरी शादी हो गई थी और मांपिताजी ताऊजी के पास रहने चले गए थे. उन्होंने अपने  प्राण भी वहीं छोड़े थे और मेरा मायका भी इसी दुख में छूट गया था.

भाई का घर बसा रहे इस प्रयास में सारे बंधन तोड़ दिए थे मैं ने. भाभी के बच्चे बहुत छोटे थे तब, जब मैं ने आखिरी बार मायका देखा था. भैया कभी शहर से बाहर जाते तो मुझ से मिलते जाते जिस से थोड़ीबहुत खबर मिलती रहती थी वरना मैं ने तो मायके की ओर से कभी के हाथ झाड़ लिए थे.

बेटे की शादी पर भी मैं यह सोच कर नहीं आई कि क्या पता भाभी इस बार कौन सी चोरी का इल्जाम लगा दें. मैं ने अपनी बेटी की शादी में सिर्फ भैया को बुलाया था जिस पर भाभी ने यह आरोप लगाया था कि भैया ने भाभी का सोने का हार ही मुझे दे दिया है.

एक दिन मैं ने भैया से फोन पर पूछा था कि भाभी का कौन सा हार उन्होंने मुझे दिया है तो रो पड़े थे वह, ‘जीवन नर्क हो गया है मेरा चंदा, मैं क्या करूं ऐसी औरत का…न जीती है न जीने देती है…जी चाहता है इसे मार दूं और खुद फांसी पर लटक जाऊं.’

भाई की हालत पर तरस आ रहा था मुझे. रिश्तों के बिना इनसान का कोई अस्तित्व नहीं और जब यही रिश्ते गले की फांस बनने लगें तो कोई कैसे इन रिश्तों का निर्वाह करे. प्रकृति कैसेकैसे जीवों का निर्माण कर देती है जो सदा दूसरों को पीड़ा दे कर ही खुश होते हैं. जब तक 2 घरों में आग न लगा लें उन्हें चैन ही नहीं आता.

‘‘चंदा, तू कभी मेरा भला नहीं होने देगी. अगर मुझे पता होता तो मैं कभी तेरी ससुराल में लड़की न देती.’’

भाभी के ये शब्द कानों में पड़े तो  मेरी तंद्रा टूटी.

भैया और भतीजा मेरे समीप चले आए थे. क्या उत्तर था मेरे पास भाभी के आरोपों का.

‘‘बूआ, आइए, आपऊपर चलिए, सफर की थकावट होगी. हाथमुंह धो कर कुछ खा लीजिए,’’ भतीजे ने मेरी बांह पकड़ी और भैया ने भी इशारे से साथ जाने को कहा. भाभी का विलाप वैसा ही चलता रहा.

अनमनी सी मैं ऊपर चली आई और पीछेपीछे भाभी का रुदन कानों में पड़ता रहा. तभी सिर पर पल्लू लिए सामने चली आई एक प्यारी सी बच्ची.

‘‘यह आप की बहू है, बूआ,’’ भतीजे ने कहा, ‘‘पूजा, बूआ को प्रणाम करो.’’

‘‘जीती रहो,’’ आशीर्वाद दे कर मन भर आया मेरा. रक्त में लहर सी दौड़ने लगी. मेरे भाई का बच्चा है न यह, इस की शादी में आती तो क्या बहू के लिए कोई गहना न लाती.

गले की माला उतार बहू के गले में पहनाने लगी तो भतीजे ने मेरा हाथ रोक दिया, ‘‘बूआ, आप इस घर की बेटी हैं, आप को हम ने दिया ही क्या है जो आप से ले लें.’’

‘‘बेटा, अधिकार तो दे सकते हो न, जिस का हनन बरसों पहले भाभी ने सब को अपमानित कर के किया था. टूटे रिश्तों को तुम जोड़ पाओ तो मैं समझूंगी आज भी कोई घर ऐसा है जिसे मैं अपना मायका कह सकती हूं.’’

यह कह कर मैं रो पड़ी थी तो भतीजे ने अपना हाथ पीछे कर लिया था. माला बहू के गले में पहना कर मैं ने उस का माथा चूम लिया. बड़ी प्यारी लगी मुझे पूजा. झट से मेरे लिए नाश्ता परोस लाई. उसी पल मुझे समझ में आ गया कि भैयाभाभी नीचे अलग रहते हैं और बहूबेटा ऊपर अलग हैं.

‘‘बूआ, पूजा का भी मां ने वही हाल किया था जो आप का हुआ. जो भी मां से छू भर जाता है उसी पर मां कोई न कोई आरोप लगा देती हैं. किसी दूसरे के मानसम्मान की मां को कोई चिंता नहीं. हैरान हूं मैं कि कोई इतना सब कैसे और क्यों करता है. आज कोई भी मां के पास जाना नहीं चाहता है. अपनी ईमानदारी पूजा भी कब तक प्रमाणित करती. इस की मां ने ही इसे 50 तोला सोना दिया है और मां ने इस पर भी अपनी अंगूठी उठा लेने का आरोप लगा दिया…और सब से बड़ी बात जिन चीजों के खो जाने के आरोप मां लगाती हैं वह चीजें वास्तव में होती ही नहीं हैं. मां एक काल्पनिक चीज गढ़ लेती हैं जो न कभी मां के पास मिलती है न ही उस के पास मिलती है जिस पर मां आरोप लगाती हैं.’’

याद आया मुझे, जब पहली बार भाभी ने मुझ पर आरोप लगाया था. भारी दुपट्टा और सुनहरी सैंडल का, ये दोनों चीजें कभी मिली ही नहीं थीं.

‘‘मां का ध्येय मात्र दूसरे को अपमानित करना होता है इसलिए वह अपनी कोई भी चीज खो जाने का बहाना करती रहती हैं… मैं क्या करूं बूआ, वह समझती ही नहीं.

‘‘और यही सब मां ने निशा को भी सिखा दिया है. मैं मानता हूं कि उस का पति पहले थोड़ा बिगड़ा हुआ था, अब शादी के बाद काफी संभल गया है, लेकिन निशा बातबेबात हर पल मां जैसा व्यवहार ससुराल में करती रहती है, जिस पर उस का पति तिलमिलाता रहता है. उस पर, उस की मां पर अपना कोई न कोई सामान चुरा लेने का आरोप निशा लगाती रहती है. अब आप ही बताओ, घर में शांति कैसे रहेगी…अपनी इज्जत तो सब को प्यारी है न बूआ.’’

‘‘अपनी मां को किसी डाक्टर को दिखाओ. कहीं कोई मनोवैज्ञानिक कारण ही न हो.’’

‘‘हर बेटी अपनी मां के चरित्र का आईना होती है. जो मां ने नानी से सीखा वही निशा में रोपा. बीमार होते हैं ऐसे लोग, जो जहां जाते हैं असंतोष और आक्रोश फैलाते हैं. आप ने हमें छोड़ दिया, दादादादी ने भी ताऊजी के पास ही रहना ठीक समझा. धीरेधीरे सब दूर हो गए. पूजा भी साथ नहीं रहना चाहती. निशा का पति भी अब उसे साथ नहीं रखना चाहता.

‘‘बूआ, मैं ने इसीलिए आप को बुलाया था कि इस टूटी डोर का एक सिरा पकड़ कर अपनी मां के किए का कुछ प्रायश्चित्त कर सकूं.’’

मेरी गोद में सिर छिपा कर रोने लगा मेरा भतीजा.

‘‘हर बेटी यही चाहती है कि उस का मायका रसताबसता रहे, फलताफूलता रहे क्योंकि मायका उसे बड़ा प्यारा होता है. वहां से मिले शगुन के 5 रुपए भी बेटी को लाखों के बराबर लगते हैं. चाहे बेटी अपने घर करोड़पति ही क्यों न हो… तुम सब को मेरी उम्र भी लग जाए… मेरे मुंह से हर समय यही निकलता है.’’

उस मर्म को मैं सहज ही महसूस कर सकती हूं जो आज भैया का है, उन के बेटे का है. क्या करते भैया भी. जिस का हाथ पकड़ा था उस का परदा तो रखना ही था. यह अलग बात है कि उसी ने पूरे घर, हर रिश्ते को नंगा कर दिया. हर रिश्ता दोनों तरफ से निभाना पड़ता है. अकेला इनसान कब तक अपने हिस्से का दायित्व निभाता रहेगा. एक रिश्ते का पूर्ण रूप तभी सामने आता है जब दोनों तरफ से निभाया जाए. अकेले की तूती ज्यादा देर तक नहीं बज सकती.

रो रहा था मेरा भतीजा. उस का मन तो हलका हो गया होगा लेकिन मेरे मन का बोझ यह सोच कर बढ़ने लगा था कि कैसे मैं अपनी चचिया सास के घर जा कर भतीजी की वकालत कर पाऊंगी. कैसे उसे समझा पाऊंगी कि वह अपनी बहू को माफ कर दें. सत्य तो यही है न कि आज तक मैं खुद भी अपनी भाभी को क्षमा नहीं कर पाई हूं.

‘‘बूआ, आप सिर्फ एक बार कोशिश कर के देखिए. मैं नहीं चाहता कि निशा का घर उजड़ जाए. मैं हाथ जोड़ता हूं आप के सामने, आप एक बार निशा के पति को समझाइए और मैं भी निशा को समझाऊंगा.’’

‘‘मैं जाऊंगी, बेटा, निशा मेरी भी तो बच्ची है. मैं कोशिश करूंगी पर तुम हाथ मत जोड़ो.’’

घर का माहौल बोझिल था फिर भी भैया ने मुझे नेग दे कर विदा किया.

भाभी सदा की तरह आज भी बाहर नहीं आईं. कुछ लोग अपने कर्मों की जिम्मेदारी कभी लेना ही नहीं चाहते. वापस लौट आई मैं. मेरा परिवार मुझे वापस पा कर बहुत खुश था.

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