वजह: प्रिया का कौन सा राज लड़के वाले जान गए?

‘‘अरे,संभल कर बेटा,’’ मैट्रो में तेजी से चढ़ती प्रिया के धक्के से आहत बुजुर्ग महिला बोलीं. प्रिया जल्दी में आगे बढ़ गई. बुजुर्ग महिला को यह बात अखर गई. वे उस के करीब जा कर बोलीं, ‘‘बेटा, चाहे कितनी भी जल्दी हो पर कभी शिष्टाचार नहीं भूलने चाहिए. तुम ने एक तो मुझे धक्का मार कर मेरा चश्मा गिरा दिया उस पर मेरे कहने के बावजूद मुझ से माफी मांगने के बजाय आंखें दिखा रही हो.’’

अब तो प्रिया ने उन्हें और भी ज्यादा गुस्से से देखा. मैं जानती हूं, प्रिया को गुस्सा बहुत जल्दी आता है. इस में उस की कोई गलती नहीं. वह घर की इकलौती लाडली बेटी है.

गजब की खूबसूरत और होशियार भी. वह जल्दी नाराज होती है तो सामान्य भी तुरंत हो जाती है. उसे किसी की टोकाटाकी या जोर से बोलना पसंद नहीं. इस के अलावा उसे किसी से हारना या पीछे रहना भी नहीं भाता.

जो चाहती उसे पा कर रहती. मैं उसे अच्छी तरह समझती हूं. इसीलिए सदैव उस के पीछे रहती हूं. आगे चलने या रास्ते में आने का प्रयास नहीं करती.

मुझे जिंदगी ने भी कुछ ऐसा ही बनाया है. बचपन में अपनी मां को खो दिया था. पिता ने दूसरी शादी कर ली. सौतेली मां को मैं बिलकुल नहीं भाती थी. मैं दिखने में भी खूबसूरत नहीं. एक ही उम्र की होने के बावजूद मुझ में और प्रिया में दिनरात का अंतर है. वह दूध सी सफेद, खूबसूरत, नाजुक, बड़ीबड़ी आंखों वाली और मैं साधारण सी हर चीज में औसत हूं. जाहिर है, पापा की लाडली भी प्रिया ही थी. मेरे प्रति तो वे केवल अपनी जिम्मेदारी ही निभा रहे थे. पर मैं ने बचपन से ही अपनी परिस्थितियों से समझौता करना सीख लिया था. मुझे किसी की कोई बात बुरी नहीं लगती. सब की परवाह करती पर इस बात की परवाह कभी नहीं करती कि मेरे साथ कौन कैसा व्यवहार कर रहा है. जिंदगी जीने का एक अलग ही तरीका था मेरा. शायद यही वजह थी कि प्रिया मुझ से बहुत खुश रहती. मैं अकसर उस की सुरक्षाकवच बन कर खड़ी रहती.

आज भी ऐसा ही हुआ. प्रिया को बचाने के लिए मैं सामने आ गई, ‘‘नहींनहीं आंटीजी, आप प्लीज उसे कुछ मत कहिए. प्रिया ने आप को देखा नहीं था. वह जल्दी में थी. उस की तरफ से मैं आप से माफी मांगती हूं, प्लीज, माफ कर दीजिए.’’ ‘‘बेटा जब गलती तूने की ही नहीं तो माफी क्यों मांग रही है? तूने तो उलटा मुझे मेरा गिरा चश्मा उठा कर दिया. तेरे जैसी बच्चियों की वजह से ही दुनिया में बुजुर्गों के प्रति सम्मान बाकी है वरना इस के जैसी लड़कियां तो…’’

‘‘मेरे जैसी से क्या मतलब है आप का? ओल्ड लेडी, गले ही पड़ गई हो,’’ बुजुर्ग महिला को झिड़कती हुई प्रिया आगे बढ़ गई. मुझे प्रिया की यह बात बहुत बुरी लगी. मैं ने बुजुर्ग महिला को सहारा देते हुए खाली पड़ी सीट पर बैठाया और उन्हें चश्मा पहना कर प्रिया के पास लौट आई.

हम दोनों जल्दीजल्दी घर पहुंचे. प्रिया का मूड औफ हो गया था. पर मैं उसे लगातार चियरअप करने का प्रयास करती रही. मैं सिर्फ प्रिया की रक्षक या पीछे चलने वाली सहायिका ही नहीं थी वरन उस की सहेली और सब से बड़ी राजदार भी थी. वह अपने दिल की हर बात सब से पहले मुझ से ही शेयर करती. मैं उस के प्रेम संबंधों की एकमात्र गवाह थी. उसे बौयफ्रैंड से मिलने कब जाना है, कैसे इस बात को घर में सब से छिपाना है और आनेजाने का कैसे प्रबंध करना है, इन सब बातों का खयाल मुझे ही रखना होता था.

प्रिया का पहला बौयफ्रैंड 8वीं क्लास में उस के साथ पढ़ने वाला प्रिंस था. उसी ने पीछे पड़ कर प्रिया को प्रोपोज किया था. उस की कहानी करीब 4 सालों तक चली. फिर प्रिया ने उसे डिच कर दिया. दूसरा बौयफ्रैंड वर्तमान में भी प्रिया के साथ था. अमीर घर का इकलौता चिराग वैभव नाम के अनुरूप ही वैभवशाली था. प्रिया की खूबसूरती से आकर्षित वैभव ने जब प्रोपोज किया तो प्रिया मना नहीं कर सकी. आज भी प्रिया उस के साथ रिश्ता निभा रही है पर दिल से उस से जुड़ नहीं सकी है. बस दोनों के बीच टाइमपास रिलेशनशिप ही है. प्रिया की नजरें किसी और को ही तलाशती रहती हैं.

उस दिन हमें अपनी कजिन की शादी में नोएडा जाना था. मम्मी ने पहले ही ताकीद कर दी थी कि दोनों बहनें समय पर तैयार हो जाएं. प्रिया के लिए पापा बेहद खूबसूरत नीले रंग का गाउन ले आए थे जबकि मैं ने अपनी पुरानी मैरून ड्रैस निकाल ली. नई ड्रैस प्रिया की कमजोरी है. इसी वजह से जब भी पापा प्रिया को पार्टी में ले जाना चाहते तो इसी तरह एक नई ड्रैस उस के बैड पर चुपके से रख आते.

आज भी प्रिया ने नई डै्रस देखी तो खुशी से उछल पड़ी. जल्दी से तैयार हो कर निकली तो सब दंग रह गए. बहुत खूबसूरत लग रही थी. ‘‘आज तो तू बहुतों का कत्ल कर के आएगी,’’ मैं ने प्यार से उसे छेड़ा तो वह मुझे बांहों में भर कर बोली, ‘‘बहुतों का कत्ल कर के क्या करना है, मुझे तो बस अपने उसी सपनों के राजकुमार की ख्वाहिश है जिसे देखते ही मेरी नजरें झपकना भूल जाएं.’’

‘‘जरूर मिलेगा मैडम, मगर अभी सपनों की दुनिया से जरा बाहर निकलिए और पार्टी में चलिए. क्या पता वहीं कोई आप का इंतजार कर रहा हो,’’ मैं ने उसे छेड़ते हुए कहा तो वह हंस पड़ी. पार्टी में पहुंच कर हम मस्ती करने लगे. करीब 1 घंटा बीत चुका था. अचानक प्रिया मेरी बांह पकड़ कर खींचती हुई मुझे अलग ले गई और कानों में फुसफुसा कर बोली, ‘‘प्रज्ञा वह देखो सामने. ब्लू सूट पहने मेरे सपनों का राजकुमार खड़ा है. मुझे तो बस इसी से शादी करनी है.’’

मैं खुशी से उछल पड़ी, ‘‘सच प्रिया? तो क्या तेरी तलाश पूरी हुई?’’ ‘‘हां,’’ प्रिया ने शरमाते हुए कहा.

सामने खड़ा नौजवान वाकई बहुत हैंडसम और खुशमिजाज लग रहा था. मैं ने कहा, ‘‘मुझे तेरी पसंद पर नाज है प्रिया, मैं पता लगाती हूं कि यह है कौन? वैसे तब तक तुझे उस से दोस्ती करने का प्रयास करना चाहिए.’’ वह रोंआसी हो कर बोली, ‘‘यार यही तो समस्या है. वह पहला लड़का है जो मुझे भाव नहीं दे रहा. मैं ने 1-2 बार प्रयास किया पर वह अपने घर वालों में ही व्यस्त है.’’

‘‘यार कुछ लड़के शर्मीले होते हैं. हो सकता है वह दूसरे लड़कों की तरह बोल्ड न हो जो पहली मुलाकात में ही दोस्ती के लिए उतावले हो उठते हैं.’’ ‘‘यार तभी तो यह लड़का मुझे और भी ज्यादा पसंद आ रहा है. दिल कर रहा है कि किसी भी तरह यह मेरा बन जाए.’’

‘‘तू फिक्र मत कर. मैं इस के बारे में सारी बात पता करती हूं. सारी कुंडली निकलवा लूंगी,’’ मैं ने उस लड़के की तरफ देखते हुए कहा. जल्द ही कोशिश कर के मैं ने उस लड़के से जुड़ी काफी जानकारी इकट्ठी कर ली. वह हमारी कजिन के फ्रैंड का भाई था. उस का नाम मयूर था.

वह कहां काम करता है, कहां रहता है, क्या पसंद है, घर में कौनकौन हैं जैसी बातें मैं ने प्रिया को बता दीं. प्रिया ने फेसबुक, लिंक्डइन जैसी सोशल मीडिया साइट्स पर जा कर उस लड़के के बारे में और भी जानकारी ले ली. प्रिया ने फेसबुक पर मयूर को फ्रैंड रिक्वैस्ट भी भेजी पर उस ने स्वीकार नहीं की. अब तो मैं अकसर देखती कि प्रिया उस लड़के के ही खयालों में खोई रहती है. उसी की तसवीरें देखती रहती है या उस की डिटेल्स ढूंढ़ रही होती है. मुझे समझ में आ गया कि प्रिया को उस लड़के से वास्तव में प्यार हो गया है.

एक दिन मैं ने यह बात पापा को बता दी और आग्रह किया कि वे उस लड़के के घर प्रिया का रिश्ता ले कर जाएं. पापा ने उस के परिवार वालों से बात चलाई तो पता चला कि वे लोग भी मयूर के लिए लड़की ढूंढ़ रहे हैं. पापा ने अपनी तरफ से प्रिया के लिए उन्हें प्रपोजल दिया.

रविवार के दिन मयूर और उस के परिवार वाले प्रिया को देखने आने वाले थे. प्रिया बहुत खुश थी. अपनी सब से अच्छी ड्रैस पहन कर वह तैयार हुई. मैं ने बहुत जतन से उस का मेकअप किया. मेकअप कर के बालों को खुला छोड़ दिया. वह बेहद खूबसूरत लग रही थी.

मगर आज पहली दफा प्रिया मुझे नर्वस दिखाई दे रही थी. जब प्रिया को उन के सामने लाया गया तो मयूर और उस की मां एकटक उसे देखते रह गए. मैं भी पास ही खड़ी थी. मयूर ने तो कुछ नहीं कहा पर उस की मां ने बगैर किसी औपचारिक बातचीत के जो कहा उसे सुन कर हम सब सकते में आ गए. लड़के की मां ने कहा, ‘‘खूबसूरती और आकर्षण तो लड़की में कूटकूट कर भरा है, मगर आगे कोई बात की जाए उस से पहले ही क्षमा मांगते हुए मैं यह रिश्ता अस्वीकार करती हूं.’’

प्रिया का चेहरा उतर गया. पापा भी इस अप्रत्याशित इनकार से हैरान थे. अजीब मुझे भी बहुत लग रहा था. आखिर प्रिया जैसी खूबसूरत और पढ़ीलिखी बड़े घर की लड़की को पाना किसी के लिए भी हार्दिक प्रसन्नता की बात होती और फिर प्रिया भी तो इस रिश्ते के लिए कितनी उत्साहित थी. पापा ने हाथ जोड़ते हुए धीरे से पूछा, ‘‘इस इनकार की वजह तो बता दीजिए. आखिर मेरी बच्ची में कमी क्या है?’’

लड़के की मां ने बात बदली और मेरी तरफ इशारा करते हुए कहा, ‘‘मुझे यह लड़की पसंद है. यदि आप चाहें तो मैं इसे अपनी बहू बनाना पसंद करूंगी. आप घर में बात कर के जब चाहें अपना जवाब दे देना.’’ पापा ने उम्मीद के साथ मयूर की ओर देखा तो वह भी हाथ जोड़ता हुआ बोला, ‘‘अंकल, जैसा मम्मी कह रही हैं मेरा जवाब भी वही है. मैं भी चाहूंगा कि प्रज्ञा जैसी लड़की ही मेरी जीवनसाथी बने.’’

प्रिया रोती हुई अंदर भाग गई. मैं भी उस के पीछेपीछे अंदर चली गई. उन्हें बिदा कर मम्मीपापा भी जल्दी से प्रिया के कमरे में आ गए. मगर प्रिया किसी से भी बात करने को तैयार नहीं थी. रोती हुई बोली, ‘‘प्लीज, आप लोग बाहर जाएं, मैं अभी अकेली रहना चाहती हूं.’’

हम सब बाहर आ गए. इस समय मेरी स्थिति अजीब हो रही थी. समझ में नहीं आ रहा था कि मैं क्या कहूं. कुसूरवार न होते हुए भी आज मैं सब की आंखों में चुभ रही थी. मम्मी मुझे खा जाने वाली नजरों से देख रही थीं तो प्रिया भी नजरें चुरा रही थी. मुझे रात भर नींद नहीं आई.

अगली सुबह भी प्रिया बहुत उदास दिखी. उस की नजरों में दोषी मैं ही थी और यह बात सहन करना मेरे लिए बहुत कठिन था. मैं ने तय किया कि मैं मयूर के घर वालों के इनकार की वजह जान कर रहूंगी. प्रिया को छोड़ कर उन्होंने मुझे क्यों चुना जबकि प्रिया मुझ से लाख गुना ज्यादा खूबसूरत और स्मार्ट है, होशियार है. मैं तो कुछ भी नहीं. बात की तह तक पहुंचने का फैसला कर मैं मयूर के घर पहुंच गई. बहुत आलीशान और खूबसूरत घर था उन का. महरी ने दरवाजा खोला और मुझे अंदर आने को कहा. घर बहुत करीने से सजा था. मैं ड्राइंगरूम का जायजा ले रही थी कि तभी बगल के कमरे से चश्मा पोंछती बुजुर्ग महिला निकलीं.

मुझे उन्हें पहचानने में एक पल भी नहीं लगा. यह तो मैट्रो वाली वही बुजुर्ग महिला थीं जिन का चश्मा कुछ दिन पहले प्रिया ने गिरा दिया था. मैं ने उन्हें चश्मा उठा कर दिया था. मुझे सहसा सारी बात समझ में आने लगी कि क्यों प्रिया को रिजैक्ट कर उन्होंने मुझे चुना. सामने से मयूर की मां निकलीं. मुसकराती हुई बोलीं, ‘‘बेटा, मैं समझ सकती हूं कि तू क्या पूछने आई है. शायद तुझे अपने सवाल का जवाब मिल भी गया होगा. दरअसल, उस दिन मैट्रो में

मैं भी वहीं थी और सब कुछ अपनी नजरों से देखा था. खूबसूरती, रंगरूप, धन, इन सब से ऊपर एक चीज होती है और वह है संस्कार. हमें एक सभ्य और व्यवहारकुशल बहू चाहिए बिलकुल तुम्हारे जैसी.’’ मैं ने आगे बढ़ कर दोनों के पांव छूने चाहे पर अम्मांजी ने मुझे गले से लगा लिया.

घर पहुंची तो प्रिया ने पहले की तरह रूखेपन से मेरी तरफ देखा और फिर अपने काम में लग गई. मैं उस के पास जा कर धीरे से बोली, ‘‘कल के इनकार की वजह जानने मैं मयूर के घर गई थी. तुझे याद हैं वे बुजुर्ग महिला, जिन का चश्मा मैट्रो में तेरी टक्कर से नीचे गिर गया था? दरअसल, वे बुजुर्ग महिला मयूर की दादी हैं और इसी वजह से उन्होंने तुझे न कह दिया. पर तू परेशान मत हो प्रिया. तेरी पसंद के लड़के को मैं कभी अपना नहीं बनाऊंगी. मैं न कह कर आई हूं.’’

प्रिया खामोशी से मेरी तरफ देखती रही. उस की आंखों में रूखेपन की जगह बेचारगी और अफसोस ने ले ली थी. थोड़ी देर चुप बैठने के बाद वह धीरे से उठी और मुझे गले लगाती हुई बोली, ‘‘पागल है क्या? इतने अच्छे रिश्ते के लिए कभी न नहीं करते. मैं करवाऊंगी मयूर से तेरी शादी.’’

मैं आश्चर्य से उसे देखने लगी तो वह मुसकराती हुई बोली, ‘‘आज तक तू मेरे लिए जीती रही है. आज समय है कि मैं भी तेरे लिए कुछ अच्छा करूं. खबरदार जो न कहा.’’ मेरे दिल पर पड़ा बोझ हट गया था. मैं ने आगे बढ़ कर उसे गले से लगा लिया.

बड़ा चोर: प्रवेश ने अपने व्यवहार से कैसे जीता मां का दिल?

मौल की सीढि़यां उतरते वक्त मैं बेहद थक गई थी. अंतिम सीढ़ी उतर कर खड़ेखड़े ही थोड़ा सुस्ताने लगी. तभी पीछे से एक मोटरसाइकिल तेजी से आई. उस पर पीछे बैठे नवयुवक ने झपट्टा मार कर एक झटके से मेरे गले से सोने की चेन तोड़ ली और पलक झपकते ही मोटरसाइकिल गायब हो गई.

मेरे मुंह से कोई बोल फूट पाते, इस से पहले ही एकदो प्रत्यक्षदर्शी ‘चोरचोर’ कहते मोटरसाइकिल के पीछे भागे पर 5 मिनट बाद ही मुंह लटकाए वापस लौट आए. चिडि़या उड़ चुकी थी. मेरे चारों ओर भीड़ जमा होने लगी. कोलाहल बढ़ता ही जा रहा था. थकान और घुटन के मारे मुझे चक्कर से आने लगे थे. इस से पहले कि मैं होश खो कर जमीन पर गिरती, 2 मजबूत बांहों ने मुझे थाम लिया.

‘‘हवा आने दीजिए आप लोग…पानी लाओ,’’ बेहोश होने से पहले मुझे ये ही शब्द सुनाई दिए. मैं ने पलकें झपकाते हुए जब फिर से आंखें खोलीं तो भीड़ छंट चुकी थी. एकदो लोग कानाफूसी करते खड़े थे. मैं मौल की अंतिम सीढ़ी पर लेटी थी और मेरा सिर एक युवक की गोद में था. हौलेहौले एक फाइल से वह मुझ पर हवा कर रहा था.

‘‘कैसी तबीयत है, मांजी?’’ उस ने पूछा.

‘‘मैं ठीक हूं,’’ कहते हुए मैं ने उठने का प्रयास किया तो उस ने सहारा दे कर मुझे बिठा दिया.

‘‘माताजी, चेन पहन कर मत निकला कीजिए. अब तो पुलिस में रिपोर्ट लिखाने से भी कुछ नहीं होना…वह तो शुक्र मनाइए कि चेन ही गई, गरदन बच गई…’’ आसपास खड़े लोग राय दे रहे थे. मेरे पास चुप रहने के सिवा कोई चारा न था, जबकि मन में आक्रोश फूटा पड़ रहा था. ‘यही है आज की जेनरेशन…देश का भविष्य. हट्टेकट्टे नौजवान बुजुर्गों का सहारा बनने के बजाय उन्हें लूट रहे हैं? भारतीय संस्कृति का मखौल उड़ा रहे हैं.’

‘‘कहां रहती हैं आप? मैं छोड़ देता हूं,’’ युवक अब तक खड़ा हो गया था.

‘‘यहीं मौल के पीछे वाली गली में.’’

‘‘बाइक पर बैठ जाइए आप? मुझे पीछे से मजबूती से पकड़ लीजिएगा.’’

मैं ने कहना तो चाहा कि मैं पैदल चली जाऊंगी पर चंद कदमों का फासला मीलों का सफर लगने लगा था. इसलिए मैं ने उस युवक की बात मान लेने में ही भलाई समझी. बाइक चली तो ठंडी हवा के झोंके से तबीयत और भी संभल गई. पुराने दिनों की यादें ताजा हो उठीं जब रीना और लीना को ले कर उन के पापा के संग स्कूटर पर पिक्चर देखने और खरीदारी करने जाती थी. रीना आगे खड़ी हो जाती थी और लीना मेरी गोद में. स्कूटर के स्पीड पकड़ते ही संयुक्त परिवार की सारी जिम्मेदारियां, चिंताएं पीछे छूट जाती थीं और खुली हवा में मन एकदम हल्का हो जाता था. कभीकभी तो बिना किसी विशेष काम के ही मैं दोनों बच्चियों को लाद कर इन के संग निकल पड़ती थी. जिंदगी की उन छोटीछोटी खुशियों का मोल अब समझ में आता है.

‘‘बस, यहीं नीले गेट के बाहर,’’ मिनटों का फासला सैकंडों में ही तय हो गया था.

‘‘अरे, यहां तो ताला लगा है?’’ युवक ने चौंक कर पूछा.

मैं ने हंसते हुए चाबी निकाल ली. चेन जाने का गम काफी हद तक अब कम हो गया था.

‘‘वह इसलिए कि मैं अकेली ही रहती हूं. आओ, अंदर आओ,’’ ताला खोल कर मैं उसे अंदर ले गई. फ्रिज से पानी की बोतल निकाली. खुद भी पिया और उसे भी पिलाया. युवक बैठक में सजी तसवीरें देख रहा था, ‘‘ये मेरे पति हैं, जो अब नहीं रहे. और ये दोनों बेटियां और उन का परिवार. दोनों यूरोप में सैटल हैं. 2 बार मुझे भी वहां ले जा चुकी हैं पर मैं महीने भर से ज्यादा वहां नहीं रह पाती.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘बस, ऐसे ही…मन ही नहीं लगता. दामाद मां जैसा ही स्नेह और सम्मान देते हैं, पर मेरा मन तो यहां इंडिया में ही अटका रहता है. पता नहीं ये मेरे अंदर छिपे दकियानूसी भारतीय संस्कार हैं या कुछ और…वैसे यहां मेरा वक्त बहुत अच्छे से गुजर जाता है. पूजापाठ, आसपास की औरतों, बहूबेटियों से गपशप…कभी वे आ जाती हैं, कभी मुझे बुला लेती हैं… लो, मैं भी क्या अपनी ही गाथा ले कर बैठ गई. चाय पिओगे या शरबत?’’

‘‘बस, कुछ नहीं. अस्पताल जा रहा…’’

‘‘अस्पताल क्यों? कोई बीमार है?’’ मैं बीच में ही बोल पड़ी.

‘‘अरे, नहीं. मैं डाक्टर हूं. ड्यूटी पर जा रहा था. यहां से तीसरी गली में नालंदा स्कूल के पास रहता हूं. कभी फुरसत में आऊंगा आप की चाय पीने.’’

‘‘अच्छा बेटा, मदद के लिए बहुतबहुत धन्यवाद.’’

‘‘क्या मांजी, आप भी बेटा कहती हैं और धन्यवाद देती हैं,’’ वह मुसकराया और किक लगा कर चलता बना.

अंदर आ कर चाय के कप समेटते मुझे खयाल आया कि मैं ने उस का नाम तो पूछा ही नहीं. अजीब भुलक्कड़ हूं. अपनी सारी रामायण बांच दी और भले आदमी का नाम तक नहीं पूछा. इसीलिए तो रीना व लीना को हमेशा मेरी चिंता लगी रहती है. मैं अपने ही खयालों की दुनिया में खोई सोचने लगी, ‘मां, आप बहुत सीधी और सरल हैं. ठीक है, आसपड़ोस अच्छा है, रिश्तेदार भी संभालते रहते हैं. पर आप हमारे पास आ कर रह जाएं तो हम निश्ंिचत हो जाएं.’

‘मैं यहां बहुत खुश और मजे से हूं मेरी बच्चियों. मुझे अपनी जड़ों से मत उखाड़ो वरना मैं मुरझा जाऊंगी. जब तुम मेरी उम्र की होओगी तभी मेरी भावनाओं को समझ पाओगी,’’ दोनों बेचारी मायूसी में विदा हो जातीं.

दोनों दामादों के साथ दोनों बेटियां भी अच्छी नौकरी में हैं. किसी चीज की कमी नहीं है. मैं जब भी कुछ देना चाहती हूं, वे नम्रता से अस्वीकार कर देते हैं. बस, नातीनातिनों को ही दे कर मन को संतुष्ट कर लेती हूं. पिछली बार जब दोनों आईं तो मैं बैंक से अपने सारे गहने निकाल लाई.

‘तुम दोनों ये बराबरबराबर बांट लो. मुझ पके आम का क्या भरोसा? कब टपक जाऊं?’ दोनों ने पिटारी समेटी और फिर से मेरी झोली में रख दी.

‘हमारे तो शादी वाले गहने भी यहां इंडिया में ही पड़े हैं, मां. वहां इन सब का कोई काम नहीं है आप ही इन्हें बदलबदल कर पहना करें. थोड़ी हवा तो लगेगी इन्हें.’ मेरी पिटारी ज्यों की त्यों वापस लौकर में पहुंचा दी गई थी. दोनों दामाद भी मेरी बराबर परवा करते थे. अभी कल ही छोटे दामाद ने याद दिलाया था, ‘मम्मी, आप के रुटीन चैकअप का वक्त हो गया है. कल करवा आइएगा. मलिक को बोल दिया है न?’ मलिक हमारा विश्वासपात्र आटो वाला है. कभी भी, कहीं भी फोन कर के बुला लो, मिनटों में हाजिर हो जाएगा. यही नहीं, पूरे वक्त बराबर साथ भी बना रहेगा. घर का ताला खोल कर, सामान सहित अंदर पहुंचा कर ही वह लौटेगा.

अगले दिन वह वक्त पर आ गया था लेकिन ड्यूटी पर डाक्टर नदारद था. मुझे बैंच पर बैठा कर वह डाक्टर का पता करने गया. तभी सफेद कोट पहने, गले में स्टेथेस्कोप लटकाए वही युवक मुझे नजर आ गया.

‘‘अरे, मांजी? आप यहां? सब ठीक तो है?’’

‘‘हां, रुटीन चैकअप के लिए आई थी. लेकिन डाक्टर सीट पर नहीं है.’’

‘‘कौन? खुरानाजी? वे तो आज छुट्टी पर हैं. दिखाइए, कौनकौन से टैस्ट, चैकअप आदि हैं?’’

वह कुछ देर परची पढ़ता रहा था, ‘‘हूं, इन में से 2 तो मैं ही कर दूंगा और बाकी भी करवा दूंगा. चलिए, आप मेरे साथ…’’

तभी मलिक भी डाक्टर के छुट्टी पर होने की खबर ले कर लौट आया था. मैं ने मलिक को पूरी बात बताई और बोली, ‘‘बेटे, तुम्हारा नाम क्या है?’’

‘‘प्रवेश शर्मा.’’

‘‘तो प्रवेश, इसे कितनी देर बाद बुलाऊं?’’

‘‘आप इसे रवाना कर दीजिए. टैस्ट होने तक लंच टाइम हो जाएगा. मैं घर जाऊंगा तो आप को भी छोड़ दूंगा.’’

घर लौट कर खाना खा कर मैं लेटी तो देर तक प्रवेश के ही बारे में सोचती रही. ‘कितना अच्छा लड़का है. दिल का जितना अच्छा है, उतना ही प्रोफेशनली साउंड भी है. पूरे वक्त मांजीमांजी ही पुकारता रहा. अस्पताल में तो सब मुझे उस की सगी मां ही समझ कर ट्रीट कर रहे थे…पर अब तक भी मैं ने उस के घरपरिवार के बारे में नहीं पूछा. शादीशुदा तो क्या होगा, कुंआरा ही लगता है. चलो, कल उस के घर हो कर आती हूं. पता बताया तो था उस ने.’

अगले दिन ही मैं ढूंढ़तेढूंढ़ते उस के घर पहुंच गई. वह अस्पताल से लौटा ही था.

‘‘अरे, मांजी आप? मैं तो अभी आप के पास ही आ रहा था. ये आप की 2 रिपोर्टें तो आ गई हैं. ठीक हैं. एक कल आएगी, मैं पहुंचा दूंगा. आप बैठिए न,’’ उस ने कुरसी पर फैले कपड़े समेटते हुए जगह बनाई.

‘‘अकेला हूं तो घर ऐसे ही फैला रहता है.’’

‘‘क्यों? घर वाले कहां गए?’’

‘‘मम्मीपापा और बड़े भैया, बस ये 3 ही लोग हैं परिवार के नाम पर. बड़े भैया एक दुस्साध्य बीमारी से पीडि़त हैं. मेडिकल टर्म में आप समझ नहीं पाएंगी. साधारण भाषा में अपने दैनिक कार्यों के लिए भी वे मम्मीपापा पर आश्रित हैं. पापा रिटायर हो चुके हैं. बड़ी उम्मीदों से वे मकान बेच कर, पैसा जुटा कर भैया को इलाज के लिए विदेश ले गए हैं. वे तो चाहते हैं कि मैं भी वहीं सैटल हो जाऊं. जितना पैसा मैं वहां कमा सकता हूं उतना यहां जिंदगी भर नहीं कमा पाऊंगा, लेकिन मैं अपनी प्रतिभा का लाभ अपने ही देश के लिए करना चाहता हूं. जहां पैदा हुआ, पलाबढ़ा, शिक्षा पाई, उसे जब कुछ देने का वक्त आया तो छोड़ कर चला जाऊं?…पर मांबाप और बड़े भैया के प्रति भी मेरा कर्तव्य बनता है. मैं यहां एक किराए के कमरे में गुजारा कर रहा हूं. अस्पताल के अलावा प्राइवेट क्लीनिक में भी काम कर के पैसा जुटाता हूं और उन्हें भेजता हूं. मैं किसी पर कोई एहसान नहीं कर रहा. बस, देश और बड़ों के प्रति अपना फर्ज पूरा कर रहा हूं.’’

प्रवेश ने मेरा विश्वास जीत लिया था. यदि मेरे कोई बेटा होता तो निश्चित रूप से प्रवेश जैसा ही होता. वही सोचने का अंदाज, वही संस्कार मानो मुझ से घुट्टी पी कर बड़ा हुआ हो. मैं अकसर कुछ न कुछ खास बना कर उसे फोन कर देती. उस के उधड़े कपड़े मरम्मत कर देती. कभी जा कर उस का कमरा ठीक कर आती. वह भी बेटे की तरह मेरा खयाल रखता था. मेरे बुखार में वह पूरी रात मेरे सिरहाने बैठा पानी की पट्टियां बदलता रहा. 2-3 दिन प्रवेश नहीं आया तो मैं व्याकुल हो गई. खीर बना कर मैं ने उसे फोन किया. फोन उस के दोस्त सकल ने उठाया. उस ने बताया कि प्रवेश आपरेशन थियेटर में है.

‘‘वह काफी दिनों से आया नहीं, उस की तबीयत तो ठीक है?’’ मैं अपनी व्यग्रता छिपा नहीं पा रही थी.

‘‘हां, ठीक ही है. वह तो मोना वाले कांड को ले कर अपसेट चल रहा है.’’

‘‘मोना? कौन मोना?’’

‘‘उस ने आप को बताया नहीं? मुझ से तो कह रहा था हम एकदूसरे से सब बातें शेयर करते हैं. तो फिर रहने दीजिए. वह मुझ पर गुस्सा होगा.’’

‘‘नहीं, तुम्हें मेरी कसम. मुझे पूरी बात बताओ.’’

‘‘मोना हमारे बौस की बेटी है. बौस उस की शादी प्रवेश से कर के प्रवेश को आगे की पढ़ाई के लिए विदेश भेजना चाहते हैं. पर वह अपने आदर्शों पर अड़ा है. न तो वह मोना जैसी आधुनिका से शादी के लिए तैयार है और न विदेश में बसने के लिए.’’

‘‘फिर…’’ मेरी सांस अटकने लगी थी.

‘‘बौस ने उसे किसी बिगड़े हुए केस में फंसा दिया. एकाध दिन में उस के सस्पैंशन के आर्डर आने वाले हैं. हम लोग तो समझा रहे हैं कि बदनाम होने से अच्छा है पहले ही रिजाइन कर दो और अपना एक छोटा सा नर्सिंगहोम खोल लो.’’

‘‘सही है,’’ मैं सकल की बातों से सहमत थी.

‘‘पर आंटी, पैसे की समस्या है. प्रवेश जैसा खुद्दार लड़का किसी के आगे हाथ भी तो नहीं फैलाएगा.’’

‘‘अच्छा, उसे शाम को घर भेज देना. मैं ने उस के लिए खीर बनाई है.’’

शाम को उदास चेहरे और पपड़ाए होंठों के साथ प्रवेश कमरे में प्रविष्ट हुआ तो मैं समझ गई, वह रिजाइन कर के आ रहा है. मैं ने उस के हाथमुंह धुलाए और खीर की कटोरी पेश कर दी. वह चुपचाप खाने लगा. मुझे उस पर बेहद लाड़ आ रहा था. उस के बालों में उंगलियां फिराते हुए मैं ने कहा, ‘‘तुम रिजाइन कर आए?’’

‘‘हूं…आप को किस ने बताया?’’ वह बेतरह चौंक उठा.

‘‘परेशान होने की जरूरत नहीं है. अपनी इतनी बड़ी परेशानी तुम ने मुझ से, अपनी मां से छिपाई? तुम अपना नर्सिंगहोम खोलो. पैसा मैं दूंगी. कैश कम होगा तो गहने दूंगी.’’

‘‘नहीं, मांजी, नहीं मैं आप से पैसे…’’

‘‘क्यों? क्या मुझे अपनी मां नहीं मानते? यह मांजीमांजी की पुकार ढोंग है? वह रातरात भर पलक झपकाए बिना मेरे सिरहाने बैठना, दवाइयां लाना, देना, बुखार नापना दलिया खिलाना…’’

‘‘पर मैं यह सब…कैसे चुका पाऊंगा?’’

‘‘चुकाने की जरूरत भी नहीं…’’

‘‘नहींनहीं, फिर मैं यह सब नहीं लूंगा.’’

‘‘अच्छा, उधार समझ कर ले लो. धीरेधीरे चुकता कर देना. तुम जैसा खुद्दार आदमी कभी नहीं झुकेगा, मुझे मालूम था. मैं कल ही बैंक से सारा रुपया निकलवाती हूं. अब मुसकराओ और एक कटोरी खीर और लो.’’

अगले दिन प्रसन्नचित्त मन से बैंक से गहनों की पिटारी और ढेर सारा कैश ले कर मैं बाहर निकली. प्रवेश आएगा तो कितना खुश होगा. अगले ही पल मुझे खयाल आया, प्रवेश तो रिजाइन कर चुका है. फिर तो वह घर पर ही होगा. मैं ने मलिक से आटो उधर मोड़ने को कहा. दरवाजा खुला था. बैग लिए दरवाजे के समीप पहुंचते ही मेरे कदम ठिठक गए. प्रवेश और सकल का वार्तालाप साफ सुनाई दे रहा था :

‘क्या फांसा है तू ने बुढि़या को, कल सारा पैसा, गहने ले कर तू विदेश रफूचक्कर हो जाएगा और वहां माइकल के साथ नर्सिंगहोम की पार्टनरशिप में करोड़ों कमाएगा. क्याक्या कहानियां गढ़ी और कैसेकैसे नाटक किए तुम ने बुढि़या को इमोशनली ब्लैकमेल करने के लिए. मेरे लिए भी कोई ऐसी बुढि़या फांस दे तो मैं भी वहां आ कर तुझे ज्वाइन कर लूं. आखिर तुम्हारे कहे अनुसार मोना वाली कहानी सुना कर मैं ने भी तुम्हारी हैल्प की है.’

‘श्योर, श्योर व्हाइ नौट,’ प्रवेश की खुशी में डूबी लड़खड़ाती आवाज उभरी. शायद उस ने पी रखी थी, ‘वैसे यही मुरगी क्या बुरी है? मेरे भाग जाने के बाद तुम इस के आंसू पोंछना. मुझे खूब गालियां देना कि वह तो भेड़ की खाल में भेडि़या निकला…बुढि़या के पास खजाना है. बेटियों के भी गहने रखे हैं. बहुत जल्दी भावनाओं में बह जाती है. तुझे थोड़ा वक्त लग सकता है, क्योंकि दूध का जला छाछ को भी फूंकफूंक कर पीता है…’ दोनों का सम्मिलित ठहाका मेरे कानों को बरछी की तरह बींध गया. मेरे कदम जो मुड़े तो फिर आटो तक आ कर ही रुके.

‘‘मलिक, वापस बैंक चलो,’’ बैग को मजबूती से थामे हुए मैं ने दृढ़ता से कहा. मेरा सबकुछ लुटतेलुटते बालबाल बच गया था. मुझे खूब खुश होना चाहिए था लेकिन मेरी आंखों से निशब्द अनवरत आंसू टपक रहे थे. इतना दुख तो मुझे सोने की चेन छिन जाने पर भी नहीं हुआ था.

कबाड़: विजय ने कैसे बदली सोच

इस बार दीवाली पर जब घर का सारा सामान धूप लगा कर समेटा तब विजय के होंठों पर एक फीकी सी हंसी चली आई थी. मैं जानती हूं कि वह क्यों मुसकरा रहे हैं.

‘‘तो इस बार दीवाली पर भाई के घर जाओगी? वहां जा कर कितने दिन रहोगी? तुम जानती हो न कि तुम्हारी सूरत देखे बिना मेरी सांस नहीं चलती. जल्दी वापस आना.’’

बस स्टैंड तक छोड़ने आए विजय बारबार मेरे बैग को तोलते हुए बोले, ‘‘कितने कपड़े ले कर जा रही हो? भारी है तुम्हारा बैग. क्या ज्यादा दिन रहने वाली हो?’’

चुप हूं मैं. चुप ही तो हूं मैं, न जाने कब से. अच्छा समय बीता भाई के पास मगर जो नया सा लगा वह था मेरी भतीजी का व्यवहार.

डाक्टरी की पढ़ाई पूरी कर चुकी मिनी के पास नया सामान रखने को जगह ही न थी सो उस ने बचपन का संजोया अपनी जान से भी प्यारा सामान यों खुद से अलग कर दिया मानो वास्तव में उसे संभाल कर रखे रखना कोई मूर्खता हो. खिलौने महरी को उस के बच्चों के लिए थमा दिए थे.

और भी विचित्र तब लगा जब मिनी ने अपने ही प्रिय सामान का मजाक उड़ाना शुरू कर दिया था.

‘‘देखो न बूआ, याद है यह बार्बी डौल, इस के लिए कितना झगड़ा किया था मैं ने भैया से. और यह लकड़ी के खिलौने, यह डब्बा देखो तो…’’

सामने सारा सामान बिखरा पड़ा था.

‘‘बच्चे थे तो कितने बुद्धू थे न हम. जराजरा सी बात पर रोते थे. यह बचकाना सामान हटा दिया. देखो, अब पूरी अलमारी खाली हो गई है…सच्ची, कितनी पागल थी न मैं जो इस कबाड़ से ही जगह भर रखी थी.’’

अच्छा नहीं लगा था मुझे उस का यह व्यवहार. आखिर हमारे जीवन में संवेदना भी तो कोई स्थान रखती है. जो कभी प्यारा था वह सदा प्यारा ही तो रहता है न, चाहे बचपन हो या जवानी. फिर जवानी में बचपन की सारी धरोहर कचरा कह कर कूड़े के डब्बे में फेंकना क्या क्रूरता नहीं है?

‘‘पुरानी चीजें जाएंगी नहीं तो नई चीजों को स्थान कैसे मिलेगा, जया. यह संसार भी तो इसी नियम पर चल रहा है न. यह तो प्रकृति का नियम है. जरा सोचो हमारे पुरखे अगर आज भी जिंदा होते तो क्या होता. कैसी हालत होती उन की?’’

‘‘कैसी निर्दयता भरी बात करते हैं विजय, अपने मांबाप के विषय में ऐसा कहते आप को शरम नहीं आती…’’

‘‘मेरी मां को कैंसर था. दिनरात पीड़ा से तड़पती थीं. मैं बेटा हूं फिर भी अपनी मां की मृत्यु चाहता था क्योंकि उन के लिए मौत वरदान थी. मुझे अपनी मां से प्यार था पर उन की मौत चाही थी मैं ने. जया, न ही जीवन सदा वरदान की श्रेणी में आता है और न ही मौत सदा श्राप होती है.’’

विजय की बातें मेरे गले में फांस जैसी ही अटक गई थीं.

‘‘जया, जीवन टिक कर रहने का नाम नहीं है. जीवन तो पलपल बदलता है, जो आज है वह कल नहीं भी हो सकता है और जीवन हम सब के चाहने से कभी मुड़ता भी नहीं. यह तो हम ही हैं जिन्हें खुद को जीवन की गति के अनुरूप ढालना पड़ता है.’’

मैं उठ कर अपनी क्लास लेने चली गई थी. जीवन का फलसफा सभी की नजर में एक कहां होता है जो मेरा और विजय का भी एक हो जाता.

एक बार विजय ने मेरे जमा किए पीतल के फूलदान, किताबों के ट्रंक, टेपरिकार्डर को कबाड़ कहा था. माना कि आज अगर पति और बेटे इस संसार में नहीं हैं तो उन का सामान क्या सामान नहीं रहा?

‘‘जब इनसान ही नहीं रहा तब उस के सामान को सहेजा क्यों जाए. जो चले गए वे आने वाले तो नहीं, तुम तो दिवंगत नहीं हो न.’’

कैसी कड़वी होती हैं न विजय की बातें, कभी भी कुछ भी कह देते हैं. मैं मानती हूं कि इतनी कड़वी बात सिर्फ वही कर सकता है जिस का मन ज्यादा साफ हो और जो खुद भी उसी हालात से गुजर चुका हो.

मैं उस दुविधा से उबर नहीं पा रही हूं जिस में मेरा खोया परिवार मुझे अकेला छोड़ कर चला गया है. अपने किसी प्रिय की मौत से क्या कोई उबर सकता है?

‘‘क्यों नहीं उबर सकता? क्या मैं उबर कर बाहर नहीं आया तुम्हारे सामने. मेरे पिता तब चले गए थे जब मैं कालिज में पढ़ता था. मां का हाल तुम ने देख ही लिया. पत्नी को मैं ही रास नहीं आया… कोई जीतेजी छोड़ गया और कोई मर कर. तो क्या करूं मैं? मर तो नहीं सकता न. क्योंकि जितनी सांसें मुझे प्रकृति ने दी हैं कम से कम उन पर तो मेरा हक है न. कभी आओ मेरे घर, देखो तो, क्या मेरा घर भी तुम्हारे घर जैसा चिडि़याघर या अजायबघर है जिस में ज्ंिदा लोगों का सामान कम और मरे लोगों का सामान ज्यादा है…’’

विजय की कड़वी बातें ही बहुत थीं मेरी संवेदना को झकझोरने के लिए, उस पर मिनी का व्यवहार भी बहुतकुछ हिलाडुला गया था मेरे अंतर में.

‘‘देखो न बूआ, अलमारी खोलो तो कितना अच्छा लग रहा है. लगता है सांस आ रही है. कैसा बचकाना सामान था न, जिसे इतने साल सहेज कर रखा…’’ मिनी चहकी.

जवानी आतेआते मिनी में नई चेतना, नई सोच चली आई थी जिस ने उस के प्रिय सामान को बचकाने की श्रेणी में ला खड़ा किया था. पता नहीं क्यों यह सब भी विजय के साथ बांट लिया मैं ने. जानती हूं वह मेरा उपहास ही उड़ाएंगे, ऐसा भी कह दिया तो सहसा आंखें भर आईं विजय की.

‘‘मैं इतना भी कू्रर नहीं हूं, जया. पगली, मैं भी तो उसी हालात का मारा हूं जिन की मारी तुम हो. आज 5 साल हो गए दोनों को गए… जया, वे दोनों सदा तुम्हारी यादों में हैं, तुम्हारे मन में हैं… उन्हें इतना तो सस्ता न बनाओ कि उन्हें उन के सामान में ही खोजती रहो. जो मन की गहराई में छिपा है, सुरक्षित है, वह कचरे में क्योंकर होगा…’’ मेरे सिर पर हाथ रखा विजय ने, ‘‘तुम्हारी शादी तुम्हारे पति के साथ हुई थी, इस सामान के साथ तो नहीं. लोग तो ज्ंिदा जीवनसाथी तक बदल लेते हैं, मेरी पत्नी तो मुझ ज्ंिदा को छोड़ गई और तुम यह बेजान सामान भी नहीं बदल सकतीं.’’

सहसा लगा कि विजय की बातों में कुछ गहराई है. उसी पल निश्चय किया, शायद शुरुआत हो पाए.

लौटते ही दूसरे दिन पूरे घर का मुआयना किया. पीतल का कितना ही सामान था जिस का उपयोग मुमकिन न था. उसे एकत्र कर एक बोरी में डाल दिया. महरी को कबाड़ी की दुकान पर भेजा, थोड़ी ही देर में कबाड़ी वाले की गाड़ी आ गई.

शाम को महरी पुराने कपड़ों से बरतन बदलने वाली को पकड़ लाई. मैं ने कभी कपड़ा दे कर बरतन नहीं लिए थे. अच्छा नहीं लगता मुझे.

‘‘बीबीजी, इन की भी तो रोजीरोटी है न. इस में बुरा क्या है जो आप को भी चार बरतन मिल जाएं.’’

‘‘मैं अकेली जान क्या करूंगी बरतन ले कर?’’

‘‘मेरी बेटी की शादी है, मुझे दे देना. इसी तरह साहब का आशीर्वाद मुझे भी मिल जाएगा. कपड़ों का सही उपयोग हो जाएगा न बीबीजी.’’

गरदन हिला दी मैं ने.

2 ही दिन में मेरा घर खाली हो गया. ढेर सारे नए बरतन मेज पर सज गए, जिन्हें महरी ने दुआएं देते हुए उठा लिया.

‘‘बच्ची की गृहस्थी के पूरे बरतन निकल आए साहब के कपड़ों से. बरसों इस्तेमाल करेगी और आप को दुआएं देगी, बीबीजी.’’

पुरानी पीतल और किताबें बेच कर कुछ हजार रुपए हाथ में आ गए.

कालिज आतेजाते अकसर कालीन की दुकान पर बिछे व टंगे सुंदर कालीन नजर आ जाते थे. बहुत इच्छा होती थी कि मेरे घर में भी कालीन हो. पति की भी बहुत इच्छा थी, जब वह ज्ंिदा थे.

शाम होतेहोते मेरे 2 कमरों के घर में नरम कालीन बिछ गए. पूरा घर खुलाखुला, स्वच्छ हो कर नयानया लगने लगा. अलमारी खोलती तो वह भी खुलीखुली लगती. रसोई में जाती तो वहां भी सांस न घुटती.

‘‘जया, क्या बात है 2 दिन से कालिज नहीं आई?’’ सहसा चौंका दिया विजय ने.

मैं घर की सफाई में व्यस्त थी. कालिज से छुट्टी जो ले ली थी.

‘‘अरे वाह, इतना सुंदर हो गया तुम्हारा घर. वह सारा कबाड़ कहां गया? क्या सब निकाल दिया?’’

विजय झट से पूरा घर देख भी आए. भीग उठी थीं विजय की आंखें. कितनी ही देर मेरा चेहरा निहारते रहे फिर मेरे सिर पर हाथ रखा और बोले, ‘‘उम्मीद मरने लगी थी मेरी. लगता था ज्यादा दिन जी नहीं पाओगी इस कबाड़ में. लेकिन अब लगता है अवसाद की काई साफ हो जाएगी. तुम भी मेरी तरह जी लोगी.’’

पहली बार लगा, विजय भी संवेदनशील हैं. उन का दिल भी नरम है. कुछ सोच कर कहने लगे, ‘‘मैं भी तुम जैसा ही था, जया. मां की दर्दनाक मौत का नजारा आंखों से हटता ही नहीं था. जरा सोचो, जिस मां ने मुझे जीवन दिया उसे एक आसान मौत दे पाना भी मेरे हाथ में नहीं था. क्या करता मैं? पत्नी भी ज्यादा दिन साथ नहीं रही. मैं जानता हूं कि इन परिस्थितियों में जीवन ठहर सा जाता है. फिर भी सब भूल कर आगे देखना ही जीवन है.’’

विजय की आंखें झिलमिलाने लगी थीं. मेरे सिर पर अभी भी उन का हाथ था. हाथ उठा कर मैं ने विजय का हाथ पकड़ लिया. हजार अवसर आए थे जब विजय ने सहारा दिया था. सौसौ बार बहलाना भी चाहा था.

यह पहला अवसर था जब वह खुद मेरे सामने कमजोर पड़े थे. सस्नेह थाम लिया मैं ने विजय का हाथ.

‘‘मेरे पति की बड़ी इच्छा थी कि नरम कालीन हों घर में. बस, कभी मौका ही नहीं मिला था…कभी मौका मिला भी तो इतने रुपए नहीं थे हाथ में. बेकार पड़े सामान को निकाला तो उन की इच्छा पूरी हो गई. मैं ने कुछ गलत तो नहीं किया न?’’

जरा सी आत्मग्लानि सिर उठाने लगी तो फिर से उबार लिया विजय ने, यह कह कर कि नहीं तो, जया, सुंदर कालीन में भी तो तुम अपने पति की ही इच्छा देख रही हो  न. सच तो यह है कि जो जीवन की ओर मोड़ पाए वह भला गलत कैसे हो सकता है.

रोतेरोते मुसकराना कैसा लगता है. मैं अकसर रोतीरोती मुसकरा देती हूं तो विजय हाथ हिला दिया करते हैं.

‘‘इस तरह तो तुम जाने वालों को दुख दे रही हो. उन का रास्ता आसान बनाओ, पीछे को मत खींचो उन्हें. जो चले गए उन्हें जाने दो, पगली. खुश रहना सीखो. इस से उन्हें भी खुशी होगी. वह भी तुम्हें खुश ही देखना चाहते हैं न.’’

सहसा हाथ बढ़ा कर विजय ने पास खींच लिया और कहने लगे, ‘‘जीवन के अंतिम छोर तक तुम ने अपने पति का साथ दिया है. तुम किसी के साथ विश्वासघात नहीं कर रही. न अपने पति के साथ, न बेटे के साथ और न ही मेरे साथ. हम सब साथसाथ रह सकते हैं, जया.’’

विजय के हाथों को पिछले 3 साल से हटाने का प्रयास कर रही हूं मैं. विजय ने सदा मेरी इच्छा का सम्मान किया है.

लेकिन इस पल मैं ने जरा सा भी प्रयास नहीं किया. विजय स्तब्ध रह गए. उन की भावनाओं का सम्मान कर मैं पति का अपमान नहीं कर रही. धीरेधीरे विश्वास होने लगा मुझे. अविश्वास आंखों में लिए विजय ने मेरा चेहरा सामने किया. हैरान तो होना ही था उन्हें.

न जाने क्याक्या था जिस के नीचे दबी पड़ी थी मैं. कुछ यादों का बोझ, कुछ अपराधबोध का बोझ और कुछ अनिश्चय का बोझ. पता नहीं कल क्या हो.

शब्दों की आवश्यकता तो कभी नहीं रही मेरे और विजय के बीच. सदा मेरा चेहरा देख कर ही वह सब भांपते रहे हैं. भीगी आंखों में सब था. सम्मान सहित आजीवन साथ निभाने का आश्वासन. मुसकरा पड़े विजय. झुक कर मेरे माथे पर एक प्रगाढ़ चुंबन जड़ दिया. खुश थे विजय. मैं कबाड़ से बाहर जो चली आई थी.

उसकी गली में- भाग 4 : आखिर क्या हुआ उस दिन

जुलेखा बोली, ‘‘साहब, मैं नादान बच्ची नहीं, पढ़ीलिखी समझदार हूं. विलायत से मैं ने कभी शादी के बारे में सोचा तक नहीं था, पर अब मुझे लग रहा है कि वह गनपतलाल व नजीर से बेहतर इंसान था. उस ने जान पर खेल कर मेरी जिंदगी बचाई थी. उस का यह एहसान मैं कभी नहीं भूल सकती. उसे झूठे चोरी के केस में फंसाया गया है. जरूर इस के पीछे इन्हीं लोगों का हाथ होगा.’’ यह एक खास बात थी, जो मैं ने दिमाग में रख ली. विलायत अली के बारे में उसे कुछ खबर नहीं थी. मैं ने नजीर को गिरफ्तार किया और एक सिपाही को जुलेखा की हिफाजत के लिए छोड़ा. जुलेखा के भाई को भी हौस्टल से निकाल कर बहन के पास पहुंचा दिया.

नजीर को ले कर मैं थाने पहुंचा. थाने के गेट पर बहुत से सिपाही खड़े थे. सभी परेशान थे. पूछने पर एक सिपाही ने कहा, ‘‘साहब, बलराज साहब की किसी ने गोली मार कर हत्या कर दी है.’’

एक पल को मेरा दिमाग सुन्न हो गया. नजीर को 2 सिपाहियों के हवाले किया और 2 सिपाहियों के साथ मौकाएवारदात के लिए रवाना हो गया. सिपाही ने मुझे बताया था कि बलराज की लाश एक बोरी में दरिया के किनारे मिली थी. जब मैं वहां पहुंचा तो पुलिस वाले काररवाई कर रहे थे. डीएसपी साहब भी वहीं मौजूद थे. गोली बलराज के हलक में लगी थी. जिस्म पर वर्दी मौजूद थी, पर उस की हालत से लगता था कि उस की किसी से जम कर हाथापाई हुई थी. अचानक मेरे दिमाग में एक खयाल आया. बलराज चंद घंटे पहले जब थाने से निकला था तो वह ऐसे निकला था, जैसे मुलजिम को ले कर ही आएगा. पर उस का तो कत्ल हो गया था.

डीएसपी समेत तमाम अमला ड्यूटी पर था. जैसेजैसे रात बीत रही थी, सब की बेचैनी बढ़ती जा रही थी. विलायत की तलाश में भेजी गई सारी टीमें मुस्तैदी से अपने काम में लगी थीं. बलराज के कत्ल ने मामले को और संगीन बना दिया था. हमारे पास सुबह साढ़े 10 बजे तक का वक्त था.

एसपी साहब की इत्तला के मुताबिक हालात बहुत खराब थे. शहर में काफी तनाव था. खबर मिली कि सुबह को हजारों लोग जुलूस की शक्ल में थाने तक पहुंचेंगे और धरना देंगे. डर यह था कि कहीं भीड़ थाने पर हमला न कर दे. इस खतरे को टालना जरूरी था और उस के लिए एक ही रास्ता था, विलायत अली की बरामदगी. उस वक्त रात के ढाई बजे थे. डीएसपी साहब ने मुझे अपने कमरे में बुलाया. मैं उस वक्त नजीर से पूछताछ कर रहा था.

सख्ती करने के बाद उस ने बताया कि उसी के कहने पर ही गनपतलाल और सेठ अहद ने विलायत अली को चोरी के झूठे केस में फंसाया था, लेकिन उसे उस के फरार होने के बारे में कुछ पता नहीं था. जब मैं डीएसपी साहब के कमरे में पहुंचा तो वहां वह सिपाही भी मौजूद था, जिसे मैं ने सेठ अहद की कोठी पर लगाया था. डीएसपी के कहने पर उस ने मेरे सामने अपनी रिपोर्ट दोहराई. उस ने बताया कि शाम 4 बजे बलराज सेठ अहद के घर गया था. फिर दोनों एक कार में बैठ कर कहीं चले गए थे. उस के डेढ़ घंटे बाद बलराज की लाश मिली थी. इस रिपोर्ट में खास बात यह थी कि बलराज ने ही विलायत को फरार कराया था और उस में सेठ अहद भी शामिल था.

डीएसपी से सलाह ले कर मैं सीधा सेठ अहद को गिरफ्तार करने पहुंचा. उस वक्त सुबह हो रही थी. सेठ अहद ने अपनी गिरफ्तारी पर बहुत हंगामा किया, धमकियां भी दीं. उस की कोठी की भी तलाशी ली गई, लेकिन वहां कुछ नहीं मिला. सेठ अहद के थाने पहुंचते ही गनपतलाल और अन्य लोगों के सिफारिशी फोन आने लगे. इतना ही नहीं, 3-4 कारों से कुछ रसूख वाले लोग भी आए.

एसपी साहब भी थाने पहुंच गए. रसूखदार लोग सेठ अहद को जमानत पर छोड़ने की सिफारिश कर रहे थे. एसपी साहब ने उन की बात नहीं मानी. सेठ अहद से पूछताछ जारी थी. सुबह साढ़े 8 बज रहे थे, पर उस ने कुछ नहीं बताया था. एकाएक मेरे जेहन में बिजली कौंधी, मैं उछल पड़ा. मैं भागता हुआ एसपी साहब के पास पहुंचा. मैं ने पूछा, ‘‘सर, इस जुलूस का सरगना कौन है? इस विरोध के पीछे कौन है?’’

एसपी साहब बोले, ‘‘वैसे तो 2-4 लोग हैं, पर खास नाम नेता गनपतलाल का है.’’

मैं तुरंत 5-6 सिपाहियों व एक एएसआई को ले कर डीएसपी साहब की जीप से फौरन रवाना हो गया. मैं सीधा गनपतलाल की कोठी पर पहुंचा. उस समय गनपतलाल वहां नहीं था. कोठी की तलाशी लेने पर एक अंधेरे कमरे में विलायत मिल गया. तुरंत उसे कब्जे में ले कर कोठी से निकल आया. ठीक डेढ़ घंटे बाद जब मैं थाने वाली सड़क पर मुड़ा तो ट्रैफिक पुलिस वाले ने बताया कि आगे रास्ता बंद है. एक बड़ा जुलूस थाने की तरफ गया है. मैं ने घड़ी देखी, 11 बजने वाले थे.

मुलजिम विलायत अली मेरी जीप में 2 सिपाहियों के बीच पिछली सीट पर बैठा था. रास्ता बदल कर मैं थाने पहुंचा. मैं ने देखा 3-4 हजार लोगों का एक बड़ा हुजूम थाने की तरफ आ रहा था. लेकिन पुलिस ने भीड़ को थाने से करीब 50 गज दूर रोक रखा था. मैं जीप ले कर भीड़ के पास पहुंच गया. भीड़ में सब से आगे मुझे गनपतलाल नजर आया. उस के आसपास नौजवानों ने घेरा बना रखा था. वे जोरजोर से नारे लगा रहे थे. मैं ने डीएसपी साहब से मेगाफोन मांगा. उन दिनों यह नयानया आया था.

मैं ने मेगाफोन पर गनपतलाल का नाम पुकारा. एकदम शांति छा गई. मैं ने पूछा, ‘‘गनपतलाल, आप की डिमांड क्या है?’’

गनपतलाल भड़क कर 2 कदम आगे आया. वह चीख कर बोला, ‘‘आग लगाना चाहते हैं हम इस जुल्म के गढ़ को, जहां विलायत अली जैसे बेगुनाह लोगों की जान ली जाती है.’’ मैं ने एएसआई को इशारा किया. उस ने विलायत अली को थाम कर सारे हुजूम के सामने खड़ा कर दिया. विलायत को जीवित देख कर गनपतलाल का चेहरा एकदम सफेद पड़ा गया. उस की आंखें फटी की फटी रह गईं. भीड़ में कुछ विलायत अली के रिश्तेदार भी थे. उन्होंने आगे बढ़ कर उसे गले लगा लिया और जोर से पूछा, ‘‘विलायत अली, तुम किस की कैद में थे?’’ विलायत के एक रिश्तेदार ने मुझ से मेगाफोन ले कर जोश में कहा, ‘‘इस में पुलिस का कुसूर नहीं है. यह सारा दोष गनपतलाल का है.’’

भीड़ में मौजूद लोग आपस में खुसुरफुसुर करने लगे. मेरी नजर गनपतलाल पर ही जमी थी. अचानक वह लड़खड़ा कर गिर पड़ा. पुलिस वाले तेजी से उस की ओर बढ़े. उसे पुलिस की गाड़ी से अस्पताल भेजा गया, जहां पता चला कि उसे दिल का दौरा पड़ा था. अस्पताल में जब उसे होश आया तो उस से पूछताछ की गई. पता चला कि बलराज ने सेठ अहद और गनपतलाल के साथ मिल कर ही विलायत अली को थाने से फरार कराया था. बलराज के साथ उन दोनों के गहरे संबंध थे. इस तरह उन लोगों ने एक तीर से 2 शिकार किए थे. बलराज को मुझ से बदला लेना था और गनपतलाल को वह आदमी मिल गया था, जिस का वह कत्ल करना चाहता था.

वह उस का कत्ल कर के नजीर की इच्छा पूरी करना चाहता था, ताकि नजीर पर उस की पकड़ मजबूत हो जाए. लेकिन हालात कुछ इस तरह बने कि लोग पुलिस का विरोध करने पर उतर आए. गनपतलाल पुलिस को बदनाम करने का मौका खोना नहीं चाहता था. वह अपनी राजनीति की दुकान चमकाना चाहता था. उसी ने लोगों को भड़काया था कि पुलिस के जुल्म से विलायत मर गया है. विभागीय दबाव बढ़ने पर बलराज ने गनपतलाल से विलायत को छोड़ने के लिए कहा. उस ने उस की बात नहीं मानी. इसी बात पर दोनों में कहासुनी हुई, जो हाथापाई तक जा पहुंची. उसी दौरान बलराज ने रिवौल्वर निकाला. हाथापाई में बलराज से गोली चल गई, जो उसी को लगी.

जुलूस के सामने अगर विलायत को पेश नहीं किया जाता तो हालात बिगड़ सकते थे. जांच में नजीर मुलजिमों का साथी साबित हुआ. उस पर गबन का भी केस बना. अदालत में मामला चला तो उसे 7 सालों की सजा हुई.

सेठ अहद और गनपतलाल को मौत की सजा हुई. बाद में हाईकोर्ट ने उन की सजा को उम्रकैद में बदल दिया. जुलेखा ने केस लड़ कर पति से तलाक ले लिया. बाद में उस ने विलायत अली से निकाह कर लिया. विलायत ने 2 सालों में बहुत तरक्की की. वह बर्फ के एक कारखाने में हिस्सेदार है. जुलेखा उस के साथ खुश है.

अपनापन: भाग 3-मोनिका को विनय की सेक्रेटरी क्यों पसंद नहीं थी?

लेकिन मेरी तो आंखें आत्मग्लानि के कारण ऊपर नहीं उठ रही थीं. बिना किसी को ठीक से जानेपहचाने हम कैसे उस के बारे में ऐसीवैसी धारणा बना लेते हैं? मोनिका के काम करने के तरीके, उस की झट से सही निर्णय लेने की योग्यता और उस के व्यवहार ने एक ही नजर में जब मुझे इतना प्रभावित कर दिया है, तो अगर दिन भर इस के साथ काम करने वाले विनय इस की तारीफ करते हैं तो उस में गलत क्या है? मैं तो बस मूरत बनी उसे सुन रही थी और देख रही थी.

मैं अंकित के पास जाने के लिए उठी ही थी कि जय बोला, ‘‘अब घबराने की कोई बात नहीं. बच्चों को तो चोटें लगती ही रहती हैं. थोड़ी देर बाद हम उसे घर ले जाएंगे. 2-4 दिन आराम करेगा, आप की देखरेख में रहेगा तो जल्दी ही भलाचंगा हो कर दौड़ने लगेगा.’’

कितना अपनापन, कितना माधुर्य, कितनी सांत्वना थी उस के शब्दों में.

‘‘आप की तो सारी शर्ट ही खराब हो गई है,’’ जय की शर्ट पर लगे अंकित के खून के धब्बे देख कर मैं ने कहा.

‘‘कोई बात नहीं, अंकित के सामने शर्ट क्या महत्त्व रखती है? वैसे भी मैं इसे बहुत पहन चुका हूं. अब अलमारी से बाहर करने ही वाला था,’’ वह कितने अपनत्व से बात टाल गया था जबकि साफ नजर आ रहा था कि शर्ट नई भले ही नहीं थी, लेकिन बहुत अच्छी हालत में थी.

तभी नर्स ने बाहर आ कर हमें पुकारा. मैं जय के साथ अंदर गई. डाक्टर ने कुछ जरूरी दवाएं लिखीं और अंकित को कुछ दिन आराम करने की हिदायत दे कर उसे ले जाने के लिए कह दिया.

घर पहुंचते ही अंकित को बिस्तर पर ठीक से लेटा कर मैं ने उस को धन्यवाद करते हुए उसे 1 कप चाय के लिए रोकने की बहुत कोशिश की लेकिन वह नहीं रुका.

अंकित नीम बेहोशी की हालत में सो रहा था. सारा घर बिखरा पड़ा था. यहां तक की बैडरूम में टूटे कांच के बहुत से टुकड़े भी बिखरे पड़े थे. लेकिन मेरा किसी काम में मन ही नहीं लग रहा था. रहरह कर एक ही विचार मन में आ रहा था कि आज जय समय पर न आता या मोनिका पल भर में हमारी मदद के लिए इतना सब न सोचती तो कितना बड़ा अनर्थ हो सकता था. फोन अगर विनय भी उठाते तो भी वे इतनी जल्दी घर नहीं पहुंच सकते थे, क्योंकि उन का औफिस घर से दूर है.

कांच के उन टुकड़ों को उठाते हुए मुझे ऐसा लग रहा था जैसे वे मोनिका के कारण मेरे और विनय के बीच खिंची दीवार के टुकडे़ हैं, जो मोनिका से मिलने के बाद टूट कर बिखर गई है. उन टुकड़ों को बीनते हुए 1-1 टुकड़े में मुझे अपना बड़ा ही भद्दा अक्स दिखाई दे रहा था. मैं ने जल्दी से उन्हें इकट्ठा कर के घर से दूर फेंक दिया, लेकिन यह नहीं समझ पा रही थी कि मैं विनय का सामना कैसे करूंगी?

अंकित अब ठीक हो गया है. मैं ने घर पूरी तरह से सैट कर लिया है. मेरे विशेष आग्रह पर जय और मोनिका आज हमारे घर डिनर पर आ रहे हैं. मैं ने अपने हाथों से तरहतरह के व्यंजन तैयार किए हैं. अब मोनिका के बारे में मेरी सोच बिलकुल बदल गई है. दूसरे शब्दों में कहूं तो मोनिका ने ही अपने व्यवहार से मुझे ऐसा करने पर मजबूर कर दिया है. औरत हूं न, ईर्ष्या होना स्वाभाविक है.

लेकिन सच कहूं तो किसी से बिना मिले, बिना जाने हमें किसी के बारे में कोई राय नहीं बनानी चाहिए. मैं कितनी गलत थी, यह सोचसोच कर मन आत्मग्लानि से भर जाता है. उस दिन की घटना ने मेरी समझ पर पड़ा नासमझ का परदा हटा कर मुझे एक नई सोच दी है. एक ऐसी नजर दी है जिस से व्यक्ति की सही पहचान कर सकूं.

मैं यह सब सोच ही रही थी कि दरवाजे की घंटी बज उठी. दरवाजा खोला तो जय और मोनिका हाथों में फूलों का बहुत ही सुंदर गुलदस्ता और अंकित के लिए गिफ्ट लिए मुसकराते हुए खड़े थे. वे हम सब से बड़े प्यार से मिले.

दोनों की शादी को अभी 2 वर्ष ही हुए हैं, लेकिन दोनों में आपसी प्यार और समझबूझ देखते ही बनती है. थोड़ी देर बाद जय और विनय ड्राइंगरूम में बैठ गए. मोनिका मेरे पास किचन में आ गई. हालांकि सब कुछ तैयार था फिर भी क्रौकरी सैट करने और खाना लगाने में मेरे बारबार मना करने पर भी वह मेरा हाथ बंटाती रही और बातचीत भी करती रही.

देर तक घुलमिल कर बातें करते हुए वह एकाएक बोली, ‘‘अगर आप को बुरा न लगे तो क्या मैं आप को भाभी कह सकती हूं?’’

इस से पहले कि मैं कुछ बोलती वह झेंपते हुए बोली, ‘‘यह तो मैं ऐसे ही कह रही थी, क्योंकि मेरा कोई भाई नहीं है न…फिर भी अगर आप को…’’ कहतेकहते वह रुक गई.

‘‘मुझे भला क्यों बुरा लगेगा? तुम बिलकुल मुझे भाभी कह सकती हो. विनय तो इकलौते हैं न, इसलिए मेरी ससुराल मेरे सिर्फ बूढ़े सासससुर हैं. वे भी गांव में रहते हैं. इसी बहाने कोई अपना यहां भी होगा,’’ कहते हुए मैं ने उसे गले से लगा लिया. सचमुच एक जादू सा था उस के व्यक्तित्व में.

बिन सजनी घर: मौली के मायके जाने के बाद समीर का क्या हुआ

टिंगटौंग, टिंगटौंग…लगातार बजती दरवाजे की घंटी से समीर हड़बड़ा कर उठ बैठा. रात पत्नी मौली को मुंबई के लिए रवाना कर एयरपोर्ट से लौटा तो घोड़े बेच कर सोया था. आज दूसरा शनिवार था, औफिस की छुट्टी जो थी, देर तक सोने का प्लान किस कमबख्त ने भंग कर दिया. वह अनमनाया सा स्लीपर के लिए नीचे झुका, तो रात में उतार फेंके बेतरतीब पड़े जूतेमोजे ही नजर आए. घंटी बजे जा रही थी, साथ ही मेड की आवाज-

‘‘अब जा रही हूं मैं, साहब, 2 बार पहले भी लौट चुकी हूं.’’ समीर ने घड़ी देखी, उफ, 10 बज गए, मर गया, ‘‘अरे रुको, रुको, आता हूं.’’ वह नंगेपांव ही भागा. मोजे के नीचे बोतल का ढक्कन, जो कल पानी पी कर बेफिक्री से फेंक दिया था, पांव के नीचे आया और वह घिसटता हुआ सीधा दरवाजे से जा टकराया. माथा सहलाते हुए दरवाजा खोला, तो मेड ने गमले के पास पड़ी दूध की थैली और अखबार उसे थमा दिए.

‘‘क्या साहब, चोट लगी क्या?’’ खिसियाया सा ‘कोई नहीं’ के अंदाज में उस ने सिर हिलाया था. ‘‘मैं तो अब वापस घर को जाने वाली थी,’’ कह कर रामकली ने दांत निपोरे, ‘‘घर पर बच्चे खाने के लिए बैठे होंगे.’’

‘‘अरे मुझे क्यों थमा रही है, बाकी काम बाद में करना, पहले मुझे चाय बना दे और यह दूध भी उबाल दे. बाकी मैं कर लूंगा,’’ समीर माथा सहलाते स्लीपर ढूंढ़ता बाथरूम की ओर बढ़ गया. चाय तैयार थी. उस ने टीवी औन किया, न्यूज चैनल लगा, चाय की चुस्कियों के साथ पेपर पढ़ने लगा.

साहब, ‘‘मोटर सुबह नहीं चलाया क्या आप ने, पानी बहुत कम कम आ रहा, ऐसे तो काम करते घंटों लग जाएंगे, साहब.’’ समीर की जबान दांतों के बीच आ गई. शाम को मौली ने मेरे कपड़े धोए थे, बोला भी था कि सुबह मोटर याद से चला लेना वरना पानी नहीं मिलेगा?

‘‘मैं भूल गया, खाली किचेनकिचेन कर लो और जाओ. वैसे भी घर कोई गंदा नहीं रहता. मौली फुजूल में करवाती रहती है सफाई, कुछ ज्यादा ही शौक है उसे.’’ काम खत्म कर मेड जाने को हुई, ‘‘बाहर बालकनी से कपड़े याद से उतार लेना, साहब, अभी सूखे नहीं. बारिश वाला मौसम हो रहा है. दरवाजा बंद कर लो, साहब.’’ वह चली गई.

‘‘ठीक है, ठीक है, जाओ.’’ चलो बला टली. अब आराम से जैसे चाहे रहूंगा. वह सोफे पर कुशन पर कुशन लगा टांगें फैला कर लेट गया. कितना आराम है. वाह, 2 बजे मैच शुरू होने वाला है, अब मजे से देखूंगा. वरना मौली सोफे पर कहां लेटने देती. उस के दिमाग में अचानक आया कि रोहित, जतिन, सैम को भी साथ मैच देखने के लिए बुला लेता हूं, कुछ दिन तो पहले सी आजादी एंजौय करूं.

उस ने कौल किया तो एक के साथ दोदो और आ गए. ‘‘अरे वाह, यार रितेश, विवेक, मोहित तुम भी. अरे वाह, कमाल हो गया, यार, कितने दिनों बाद हम मिले.’’

‘‘तेरी तो शादी क्या हुई, दोस्तों को पराया ही कर दिया, और आज बुलाया है वह भी जब भाभी घर पर नहीं.’’ ‘‘तभी तो हिम्मत पड़ी बेचारे की,’’ सभी हंसने लगे.

‘‘यार, कहां भेज दिया भाभी को?’’ ‘‘और कहां, मुंबई यार, हफ्तेदस दिनों के लिए. मायका भी है और उस की सहेली की शादी भी.’’

‘‘तब तो आजादी, बेटा समीर, 10 दिन मजे कर.’’ ‘‘अच्छा, बोल, चाय या कौफी पीनी है तुम सब को? हां, तो किचेन उधर है और फ्रिज इधर. बना लो मेरे लिए भी.’’ समीर हंसा था.

फिर तो जिस का मन जो आया, जब आया, बनाया, खायापिया. खाना समीर ने बाजार से मंगवा लिया. डायनिंग टेबल तक कोई न गया, वहीं सोफे के पास सैंटर टेबल घसीट कर सब ने खापी लिया. मैच खत्म हुआ तो जीत का जश्न मनाने के लिए पिज्जापेस्ट्री की पार्टी हुई. सारे घर में हर प्रकार के जूठे बरतनों की नुमाइश सी लग गई. खानेपीने के सामान भी मनमरजी से बिखरे पड़े थे जैसे. उन के जाने के बाद समीर का ध्यान घर के बिगड़े नक्शे की ओर गया, शुक्र मनाया कि मौली घर पर नहीं है, वरना इतना एंजौय न कर पाता. वह अभी ही बिखरा हुआ सब सही करवाती. कोई नहीं, कल छुट्टी है. कौन सा औफिस जाना है, मिनटों में सब अस्तव्यस्त ठीक कर लूंगा कल.

तभी बिजली कड़की और घर की लाइट गुल हो गई. घुप अंधेरा. कोई सामान तो ठिकाने पर था नहीं. पौकेट में हाथ डाला तो मोबाइल भी नहीं था, जो टौर्च यूज कर लेता. शायद किचेन में रखी थी. वह तेजी से किचेन की ओर लपका तो टेबल से टकराया और नीचे गिर गया. उस ने उठने के लिए टेबल का सहारा लिया तो फैले रायते में हाथ सन गया. कटोरे का रायता टेबल से नीचे गिर कर कपड़ेजूते पर से होता कारपेट पर फैल गया था. ‘क्या मुसीबत है…चल कोई नहीं, 10 मिनट तो लगेंगे, हो जाएगा सब साफ,’ सोचते हुए सोफा कवर से हाथ साफ कर डाले. फिर ध्यान आया, अरे यार, एक और काम बढ़ा लिया. कोई नहीं, मेड को ऐक्स्ट्रा पैसे दे दूंगा, ऐसी क्या आफत है?

आखिरकार माचिसमोमबत्ती टटोलते हुए सही जगह पहुंच गया. ‘शुक्र है, मिल गई अपनी जगह,’ उस ने राहत की सांस ली, मोमबत्ती जलाई तो उस के चेहरे की मुसकराहट के साथ रोशनी चारों ओर फैल गई.

‘अब साले मेरा खून पी रहा था…’ उस ने पटाक से हाथ पर खून पीते मच्छर को मारा था. मौली 10 दिनों से सचेत कर रही थी समीर को. ‘इन्वर्टर का पानी कब से खत्म है, डाल दो वरना किसी दिन लाइट जाएगी तब पता चलेगा, मोटेमोटे मच्छर काटेंगे, पानी ला कर भी रख दिया.’ याद आया था समीर को. कैंडल एक ओर जमा कर, उस ने पानी डाल कर इन्वर्टर चालू किया, तो लाइट आ गई. कमरा प्रकाश से नहा गया. ‘जय हो मौली श्री की, यार तुम ने बौटल ला कर न रखी होती तो आज ये मच्छर मेरा कचूमर निकाल देते. डेंगू, चिकनगुनिया करवा ही डालते. उफ, नहीं … थैंक्यू मौली डियर.’

प्रकाश में कमरे में बिखरी गंदगी चमकने लगी और कारपेट पर फैला रायता भी. उस का ध्यान अपने कपड़ों की ओर गया. पहले तो इन्हें बदलता हूं…कहां गया वो स्लीपिंग सूट, नाहक ही वह खूंटी पर ढूंढ़ रहा था. वह बैड पर तो सिकुड़ा सा एक ओर पड़ा था जहां सुबह उतार कर फेंका था. मौली थोड़े ही यहां है जो झाड़ कर टांग देती. वह मुसकराया. मौली को याद करते हुए बिस्तर पर औंधा लेट गया.

बादल जोर से कड़के और मूसलाधार बारिश शुरू हो गई. ‘उफ, भूल गया’, हड़बड़ा कर खड़ा हो गया, ‘बालकनी से कपड़े ही नहीं उतारे.’

वह भागा, सारे कपड़े पानी से सराबोर थे. सुबह से कई बार बूंदाबांदी पहले ही झेल चुके थे. थोड़ी गंध सी आने लगी थी कपड़ों में. उस ने नाक सिकोड़ी, ‘उंह, कैसी अजीब गंध है. क्या दिमाग पाया है बेटा समीर, उतारने से फायदा क्या. और धुलने दे इन्हें बारिश के साफ पानी में. चल, सो जा.’ वह कमरे में आ कर वाशरूम गया. वहां तो और सड़ी सी गंध व्याप्त थी. ‘छिछि दिनभर यारों ने जाजा कर यह हाल किया है. शिट…’ फ्लश किया, तो हुआ ही नहीं, पानी ही नहीं था. सुबह

5 बजे मोटर औन करनी ही है बेटा समीर याद से, वरना तो गया काम से…’ वह अलार्म लगा बेफिक्री से सो गया. ‘‘साहब, कितनी गंदगी मचा दी एक दिन में, क्या हाल बना दिया घर का, सारे के सारे बरतन ही निकाल डाले. मुझ से तो न हो पाएगा, साहब. किसी और को बुला लो,’’ रामकली की किटकिट शुरू हो गई थी.

‘‘कोई नहीं, तू कर, हो जाएगा. आज पानी भरा हुआ है, तेजतेज आएगा. मैं सौ रुपए अलग से भी दे दूंगा.’’

रामकली एक घंटे तक काम करते हुए बड़बड़ाती ही रही. ‘जमादार को कूड़ा भी क्यों नहीं दिया, गंध मार रहा है.’ ‘कैसे काम कराती है मौली ऐसी गंवारों से, उफ,’ समीर पेपर ले कर बैठ गया.

‘‘साहब, कारपेट पकड़ लो, आज तो धूप खिली है, बाहर ही साफ कर दूंगी, सूख भी जाएगी. यहां नीचे का फर्श भी साफ हो जाएगा.’’ ‘‘क्या मुसीबत है, चलो जल्दी करो,’’ वह मुंह बनाते हुए उठने लगा.

‘‘साहब, कल के बरतन भी आप ने नहीं समेटे थे, आज के धुले बरतनों से तो पूरा पलेटफौर्म ही भर गया. अच्छे से सहेज लेना, साहब, बहुत संभाल कर धोए हैं, कांच ही कांच, रे बाबा.’’ दोनों कारपेट उठाए हुए धूप में आ गए थे. ‘‘ओ तेरी की, साहब, आप ने तो कपड़े भी नहीं उतारे तार पर से. क्या साहब? सब गंध मारने लगे, फिर से धोने पड़ेंगे, साहबजी.’’

‘‘6 पैंट, 6 शर्टें, स्लीपिंग सूट, चादरें, मौली को अभी ही सब धो कर जाना था, क्या करूंगा, कल तो औफिस है…शिट.’’ ‘‘सब ले जा कर मशीन में ही तो घुमाना है, साहब, ये पकड़ो,’’ उस ने कपड़े उतार कर समीर को पकड़ा दिए और अंदर काम निबटाने चली गई. समीर ने वाश्ंिग मशीन का ढक्कन खोला और सारे कपड़े उस में पटक दिए. पानी व साबुन डाला और मशीन सैट कर चालू कर दी. फोन पर ब्रैड, बटर, अंडे, मैगी और्डर कर के मंगा लिए. रामकली चली गई तो उस ने चल रहा हलका म्यूजिक लाउड कर लिया और अपना नाश्ता बनाने साफ किचेन में एक शेफ के अंदाज में घुसा.

‘आज बनाऊंगा अपना पहले वाला जिंजरगार्लिक औमलेट, करारे बटर टोस्ट और बेहतरीन कौफी. यार, इतने बरतन… मौली ही आ कर रखेगी, पर मैं पैन और चाय के लिए भगौना कहां से ढूंढ़ूं, मिल गया.’ उसे हैंडल दिखा, पकड़ कर जो खींचा, कई सारे बरतन धड़धड़ा कर नीचे गिर गए, जो कांच के थे, टूट गए थे. उस की जबान दांतों के बीच आ गई थी, मौली के मायके के महंगे वाले इंपौर्टेड सैट के 3 कप 2 गिलास एक प्लेट धराशायी पड़े थे. ‘अजब आफत है, कैसे बेतुके रख गई बेवकूफ मेड,’ उस ने पैर से टुकड़े एक ओर किए, बड़े टुकड़े डस्टबिन में डाले और मनोयोग से नाश्ता बनाने जुट गया.

‘वाह, क्या खुशबू है, क्या स्वाद.’ तभी मोबाइल बज उठा. उधर से मौली थी, बोली, ‘‘क्या चल रहा है?’’ ‘‘अभी अपना बढि़या सा ब्रैकफास्ट तैयार किया है, बाद में वेज तड़का मैगी का लंच.’’

‘‘इतनी लेट ब्रैकफास्ट, क्या बनाया शेफ साहब ने, जरा मैं भी तो सुनूं,’’ वह हंसी. ‘‘तुम होती तो हैरान होती, तुम होती तो खुश होती, तुम होती तो ये खाती, तुम होती तो वो…’’ वह अमिताभ बच्चन के डायलौग के अंदाज में बोलते हुए मुसकरा रहा था.

‘‘अच्छाअच्छा, बस. कल की तैयारी कर ली? कपड़े कल प्रैस होने के लिए दे दिए थे न?’’ वह हंसते हुए बोली. उसे ध्यान आया कपड़े, मशीन में कब से पड़े रह गए, भूल ही गया था, मरा…

‘‘हांहां डियर, बस, आता ही होगा चंदू. शायद वही आया, मैं बाद में बात करता हूं.’’ सच बोल कर मरता क्या, उस ने झट से झूठ बोल कर मौली के आगे अपनी साख बना ली. वाश्ंिग मशीन की ओर लपका. पानी ड्रेन आउट होने पर जो देखा, खाना बनाते वक्त लाउड म्यूजिक के शौक ने मार डाला था, कपड़ों पर नजर पड़ी तो सारा मूड खराब हो गया.

उस की नई गुलाबी शर्ट इतरा कर कई कपड़ों पे अपना रंग जमा चुकी थी. उस ने सिर पकड़ लिया. साफ पानी में 2 बार निकाला पर रंग न गया. उस के चेहरे का रंग अलबत्ता उड़ गया. मौली तो बेहद गुस्सा करेगी, बर्थडे पर उस की दी पैंटशर्ट दोनों ही खराब हो गईं. सारे कपड़े जल्दीजल्दी तार पर फैला डाले. इन में से तो कोई कल पहन के जाने लायक नहीं होंगी. कोई पहले की शर्टपैंट ही उस ने छांट कर प्रैस करवा ली. पर इस काम में पूरी अलमारी, पूरे कमरे की ऐसीतैसी हो गई थी. पर वह खुश था, चलो काम तो बन गया. उस ने पास बिखरे कपड़ों में से थोड़ेबहुत उठा कर अलमारी में ठूंस दिए.

शाम को दोस्तों का फिर जमघट लगना था. फिर नाइटशो, किसी इंग्लिश मूवी का प्रोग्राम था. लेकिन उस से पहले उन्हें, वादे अनुसार, अपने हाथों की बनी स्पैशल चिकनबिरयानी खिलानी थी. उस ने सोचा, शान में हांक दिया कि बड़ी अच्छी बनाता हूं. अब फंस गया बेटा समीर. तैयारी कर ले, वरना हो नहीं पाएगा. लगभग 2 घंटे बाद सारा घर ही उस की भीषण तैयारी से बन रही बिरयानी की गवाही दे रहा था. हौल में प्याजलहसुन के छिलके पौलिथीन में पड़े थे. अदरक के छिलके चेस की गोटियां बने टेबल पर चिपके पड़े थे. मौली के संजोए सारे मसाले कैबिनेट से बाहर आ कर गैसस्टोव के अगलबगल पूरे प्लेटफौर्म पर जैसे मार्चपास्ट करने निकले थे.

फ्रिज तो ऐसे मुंहबाए खड़ा था मानो डकैती पड़ गई हो, उस में इक्कादुक्का सामान ही नजर आ रहा था. कई प्रकार के बरतन और टूल्स, यूटेंसिल्स, गजेट इस्तेमाल करने में कोई कोताही नहीं बरती गई थी, जो उन की बेकाबू भीड़ बता रही थी. समीर ने गूंधे आटे का सांप बना बिरयानी के पतीले का मुंह बंद किया तो उस ने कार्य पूरा कर लेने की खुशी में गर्व से चौड़ी मुसकान चेहरे पर फैला ली. घड़ी में 7 बज रहे थे. वह बिरयानी दम पर कर नहाने के लिए बाथरूम में जा घुसा. शावर के नीचे 2 मिनट ही हुए होंगे, दरवाजे की घंटी बजी थी.

तौलिया लपेट कर उस ने दरवाजा खोला था. ‘‘बन गई तेरी बिरयानी? सामान तो खूब फैला रखा है,’’ दोस्तों ने कहा.

‘‘क्यों, लाजवाब खुशबू आ नहीं रही,’’ एक ने चुटकी ली तो सब हंस पड़े. ‘‘बस यार, आने ही वाली है खुशबू. थोड़ा सब्र करो. यार, तुम सब कोल्डडिं्रक निकालो. मैं बस अपने बदन की खुशबू का इंतजाम कर अभी आया,’’ समीर जोरों से हंसा.

पतीले का आटा मुंह खोल चुका था. बिरयानी की खुशबू आने लगी थी. समीर पतीला उठा कर डाइनिंग टेबल पर ही ले आया, ‘‘है न जोरदार खुशबू,’’ वह मुसकराया. किसी ने खीरा, किसी ने प्याज, किसी ने गाजर तो किसी ने टमाटर ढूंढ़ कर काटे, सलाद भी बन गया. सब ने अपनी प्लेटों में चाव से परोसा और खाने बैठ गए.

‘‘कैसी लगी?’’ समीर ने कौलर ऊंचा कर पूछा. ‘‘अबे नमक तो डाला ही नहीं, खुद खा कर देख, मिस्टर लाजवाब,’’ सब हंस पड़े.

‘‘ला भई, नमक ले आ,’’ ऊपर से डालडाल कर सब ने किसी तरह बिरयानी खाई और मूवी के लिए भागे. मूवी से लौट कर समीर ने जूतेमोजे उतारे और वैसे ही कपड़ों में बिस्तर पर पड़े गीले टौवेल के ऊपर ही सो गया. सुबह रामकली आई तो चारों ओर कूड़ा व फैला सामान देख कर उस की किटकिट शुरू हो गई.

‘‘साहब, ऐसे तो मैं काम नहीं कर पाऊंगी, रोजरोज इतना काम, मेमसाहब आ जाएं, तो बुला लेना. मैं जाती हूं.’’ ‘‘अरे, कहां जाती है, मैं दे दूंगा न फालतू पैसे. वो दोस्त आ गए तो क्या करूं, जल्दी निबटाओ, मुझे औफिस भी जाना है.’’

‘‘नहीं साहब, मुझे गांव जाना है, 8 बजे की ट्रेन पकड़नी है. मां की तबीयत खराब है, सोचा था काम जल्दी कर के बोल दूंगी. पर न हो पाएगा, साहब.’’ वह केवल सिंक के बरतन धो कर चली गई थी.

‘तू और तेरी मेमसाहब, चलो छुट्टी…’ मन में बुदबुदाते हुए उस ने दरवाजा बंद किया.

कोई सामान अपनी जगह नहीं था. पानी पीने को फ्रिज खोला तो एक बोतल भी नहीं मिली. बड़ी मुश्किल से वह तैयार हुआ. बाहर ही ब्रैकफास्ट कर लूंगा, कोई नहीं. वह औफिस के लिए निकल गया. औफिस में फोन आया था मौली का. मेरी बड़ी बूआ अपनी बेटी रिंकू को परीक्षा दिलाने के लिए रात की गाड़ी से दिल्ली पहुंच रही हैं. 4 दिन घर पर ही रुकेंगी, मैनेज कर लोगे न, बाद में मैं भी पहुंच ही जाऊंगी.’’ ‘‘हांहां, डोंट वरी,’’ नईनई शादी है यह नहीं बोलता तो मरता क्या.

‘‘थैंक्यू डियर, तुम्हारी पाककला शौक के बारे में सुन कर तुम से बहुत खुश हैं, बूआ, मैं ने उन्हें बताया था.’’ घर लौट कर उस ने अपनी समझ से घर को काफी दुरुस्त किया और लललाला करते हुए बूआजी को स्टेशन लेने चला गया.

चौथे दिन जब मौली ने घर में प्रवेश किया तो उस की चीख निकलतेनिकलते बची, मुंह खुला रह गया. वह फटीफटी आंखों से अपने प्यारे घर को पहचानने की कोशिश कर रही थी. क्या हौल, क्या किचेन, क्या बैडरूम, बाथरूम, देखे नहीं जा रहे थे उस से. अजीब सी गंध से जल्दी ही उस का मुंह क्या, नाक भी सिकुड़ चुकी थी. सुना ही था लोगों से आज देख भी लिया, बिन सजनी घर. ‘बाप रे, कैसे सफाईपसंद बूआ और रिंकू ने यहां 3 दिन गुजारे होंगे. यह क्या किया समीर ने.’

‘‘समीर, दिस इज टू मच, यार,’’ उस ने घर का बिगड़ा नक्शा दिखा कर पूछना चाहा था. ‘‘क्या करता, बदमाश मेड तुम ने रखी थी, छुट्टी ले कर चली गई. मैं क्या करता?’’ खैर, ये सब छोड़ो, बूआजी और रिंकू मार्केट से आती होंगी. तुम फ्रैश हो कर जल्दी आओ और खाना लगाओ, आज तुम्हारी पसंद का सब बाहर से ले आया हूं,’’ वह मुसकराया. मौली के आ जाने से आज वह बेहद खुश, बहुत चैन की सांस ले रहा था. ललललाला करते हुए उस ने लाउड म्यूजिक लगा दिया.

फ्रैश…ऐसे कबाड़ में? फ्रैश होने से पहले तो दसियों काम करने को दिख रहे हैं, समीर.’’ पर समीर को लाउड म्यूजिक में कुछ न सुनाई दिया. मौली ने सैंडल एक ओर कर चुन्नी कमर में बांधी और सब से पहले मेड का नंबर मिला दिया..

एक बार फिर: नवीन से दुखी विनीता आशीष से मिलते ही क्यों मचल उठी?

शाम ढलने लगी थी. तालाब के हिलते पानी में पेड़ों की लंबी छाया भी नाचने लगी थी. तालाब के किनारे बैठी विनीता अपनी सोच में गुम थी. वह 2 दिन पहले ही लखनऊ से वाराणसी अपनी मां से मिलने आई थी, तो आज शाम होते ही अपनी इस प्रिय जगह की ओर पैर अपनेआप बढ़ गए थे.

‘‘अरे, वीनू…’’ इस आवाज को विनीता पीछे मुड़ कर देखे बिना पहचान सकती थी कि कौन है. वह एक झटके से उठ खड़ी हुई. पलटी तो सामने आशीष ही था.

आशीष बोला, ‘‘कैसी हो? कब आईं?’’

‘‘2 दिन पहले,’’ वह स्वयं को संभालती हुई बोली, ‘‘तुम कैसे हो?’’

आशीष ने अपनी चिरपरिचित मुसकराहट के साथ पूछा, ‘‘कैसा दिख रहा हूं?’’

विनीता मुसकरा दी.

‘‘अभी रहोगी न?’’

‘‘परसों जाना है, अब चलती हूं.’’

‘‘थोड़ा रुको.’’

‘‘मां इंतजार कर रही होंगी.’’

‘‘कल इसी समय आओगी यहां?’’

‘‘हां, आऊंगी.’’

‘‘तो फिर कल मिलेंगे.’’

‘‘ठीक है,’’ कह कर विनीता घर चल दी.

घर आते समय विनीता का मन उत्साह से भर उठा. वही एहसास, वही चाहत, वही आकर्षण… यह सब सालों बाद महसूस किया था उस ने. रात को सोने लेटी तो पहला प्यार, जो आशीष के रूप में जीवन में आया था,

याद आ गया. याद आया वह दिन जिस दिन आशीष के दहेजलोभी पिता के कारण उन का पहला प्यार खो गया था. इस के बिना विनीता ने एक लंबा सफर तय कर लिया था. कैसे जी लिया जाता है पहले प्यार के बिना भी, यह वही जान सकता है, जिस ने यह सब झेला हो.

विनीता का मन अतीत में कुलांचें भरने लगा… आशीष के पिता ने एक धनी परिवार की एकमात्र संतान दिव्या से आशीष का विवाह करा कर अपनी जिद पूरी कर ली थी और फिर अपने मातापिता की इच्छा के आगे विनीता ने भी एक आज्ञाकारी बेटी की तरह सिर झुका दिया था.

विवाह की रात विनीता ने जितने आंसू थे आशीष की याद में बहा दिए थे, फिर वह पूरी ईमानदारी के साथ पति नवीन के जीवन में शामिल हो गई थी और आज विवाह के 8 सालों के बाद भी पूरी तरह नवीन और बेटी सिद्धि के साथ गृहस्थी के लिए समर्पित थी. इतने सालों में मायके आने पर 1-2 बार ही आशीष से सामना हुआ था और बात बस औपचारिक हालचाल पर ही खत्म हो गई थी.

कई दिनों से विनीता बहुत उदास थी. घर, पति, बेटी, रिश्तेनाते इन सब में उलझी खुद समय के किस फंदे में उलझी, जान नहीं सकी. अब जान सकी है कि दिलदिमाग के स्तर में समानता न हो तो प्यार की बेल जल्दी सूख जाती है… उसे लगता है दिन ब दिन तरक्की की सीढि़यां चढ़ता नवीन घर में भी अपने को अधिकारी समझने लगा है और पत्नी को अधीनस्थ कर्मचारी… उस की हर बात आदेशात्मक लहजा लिए होती है, फिर चाहे वे अंतरंग पल ही क्यों न हों. आज तक उस के और नवीन के बीच भावनात्मक तालमेल नहीं बैठा था.

नवीन के साथ तो तसल्ली से बैठ कर 2 बातें करने के लिए भी तरस जाती है वह. उसे लगता है जैसे उन का ढीला पड़ गया प्रेमसूत्र बस औपचारिकताओं पर ही टिका रह गया है. नवीन मन की कोमल भावनाओं को व्यक्त करना नहीं जानता. पत्नी की तारीफ करना शायद उस के अहं को चोट पहुंचाता है. विनीता को अब नवीन की हृदयहीनता की आदत सी हो गई थी. अतीत और वर्तमान में विचरते हुए विनीता की कब आंख लग गई, पता ही न चला.

कुछ दिन पहले विनीता के पिता का देहांत हो गया था. अगले दिन सिद्धि को मां के पास छोड़ कर विनीता ‘थोड़ी देर में आती हूं’ कह कर तालाब के किनारे पहुंच गई. आशीष वहां पहले से ही उस की प्रतीक्षा कर रहा था. उस के हाथ में विनीता का मनपसंद नाश्ता था.

विनीता हैरान रह गई, पूछ बैठी, ‘‘तुम्हें आज भी याद है?’’

आशीष कुछ नहीं बोला, बस मुसकरा कर रह गया.

विनीता चुपचाप गंभीर मुद्रा में एक पत्थर पर बैठ गई. आशीष ने विनीता को गंभीर मुद्रा में देखा, तो सोच में पड़ गया कि वह तो हर समय, हर जगह हंसी की फुहार में भीगती रहती थी, सपनों की तितलियां, चाहतों के जुगनू उस के साथ होते थे, फिर आज वह इतनी गंभीर क्यों लग रही है? क्या इन सालों में उस की हंसी, वे सपने, वे तितलियां, सब कहीं उड़ गए हैं? फिर आशीष ने उसे नाश्ता पकड़ाते हुए पूछा, ‘‘लाइफ कैसी चल रही है?’’

‘‘ठीक ही है,’’ कह कर विनीता ने गहरी सांस ली.

‘‘ठीक ही है या ठीक है? दोनों में फर्क होता है, जानती हो न? उदास क्यों लग रही हो?’’

विनीता ने आशीष की आंखों में झांका, कितनी सचाई है, कोई छल नहीं, कितनी सहजता से वह उस के मन के भावों को पढ़ उस की उदासी को समझ कर बांटने की कोशिश कर रहा है. अचानक विनीता को लगा कि वह एक घने, मजबूत बरगद के साए में निश्चिंत और सुरक्षित बैठी है.

‘‘तुम बताओ, तुम्हारी पत्नी और बच्चे कैसे हैं?’’

‘‘दिव्या ठीक है, क्लब, पार्टियों में व्यस्त रहती है, बेटा सार्थक 6 साल का है. तुम्हारे पति और बच्चे नहीं आए?’’

‘‘नवीन को काम से छुट्टी लेना अच्छा नहीं लगता और सिद्धि को मां के पास छोड़ कर आई हूं.’’

‘‘तो क्या नवीन बहुत व्यस्त रहते हैं?’’

विनीता ने कोई जवाब नहीं दिया.

‘‘क्या सोच रही हो वीनू?’’

विनीता को आशीष के मुंह से ‘वीनू’ सुन कर अच्छा लगा. फिर बोली, ‘‘यही, बंद मुट्ठी की फिसलती रेत की तरह तुम जीवन से निकल गए थे और फिर न जाने कैसे आज हम दोनों यों बैठे हैं.’’

‘‘तुम खुश तो हो न वीनू?’’

‘‘जिस के साथ मन जुड़ा होता है उस का साथ हमेशा के लिए क्यों नहीं मिलता आशू?’’ कहतेकहते विनीता ने आशीष को अपलक देखा, अभी भी कुछ था, जो उसे अतीत से जोड़ रहा था… वही सम्मोहक मुसकराहट, आंखों में वही स्नेहिल, विश्वसनीय भाव.

‘‘तुम आज भी बहुत भावुक हो वीनू.’’

‘‘हम कितनी ही ईमानदार कोशिश क्यों न करें पर फिर भी कभीकभी बहुत गहरी चोट लग ही जाती है.’’

‘‘लेकिन तुम्हारा और नवीन का रिश्ता दुनिया का सब से मजबूत रिश्ता है, यह क्यों भूल रही हो?’’

‘‘रिश्ते मन के होते हैं पर नवीन के मामले में न जाने कहां सब चुक सा रहा है,’’ आज विनीता आशीष से मिल कर स्वयं पर नियंत्रण न रख सकी. उस ने अपने मन की पीड़ा आशीष के सामने व्यक्त कर ही दी, ‘‘आशू, नवीन बहुत प्रैक्टिकल इंसान है. हमारे घर में सुखसुविधाओं का कोई अभाव नहीं है, लेकिन नवीन भावनाओं के प्रदर्शन में एकदम अनुदार है… एक रूटीन सा नीरस जीवन है हमारा.

‘‘हम दोनों के साथ बैठे होने पर भी कभीकभी दोनों के बीच कोई बात नहीं होती. वैसे जीवन में साथ रहना, सोना, खाना पारिवारिक कार्यक्रमों में जाना सब कुछ है पर हमारे रिश्ते की गरमी न जाने कहां खो गई है. मैं नवीन को अपने मन से बहुत दूर महसूस करती हूं. अब तो लगता है नवीन और मैं नदी के 2 किनारे हैं, जो अपने बीच के फासले को समेट नहीं पाएंगे… आज पता नहीं क्यों तुम से कुछ छिपा नहीं पाई.’’

‘‘पर हमें फिर भी उस फासले को पाट कर उन के पास जाने की कोशिश करनी होगी वीनू. मुझे अब तकलीफ नहीं होती, क्योंकि दिव्या के अहं के आगे मैं ने हथियार डाल दिए हैं. उसे अपने पिता के पैसों का बहुत घमंड है और उस की नजरों में मेरी कोई हैसियत नहीं है, लेकिन इस में मैं कुछ नहीं कर सकता. इन स्थितियों को बदला नहीं जा सकता. हमारा विवाह, जिस से हुआ है, इस सच को हम नकार नहीं सकते… नवीन और दिव्या जैसे हैं हमें उन्हें वैसे ही स्वीकार करना होगा. उन्हें बदलने की कोशिश करना मूर्खता है… बेहतर होगा कि हम उन के अनुसार स्वयं को ढाल लें वरना सारा जीवन कुढ़ते, खीजते और बहस में ही गुजर जाएगा.’’

‘‘लेकिन क्या यह समझौता करने जैसा नहीं हुआ? समझौते में खुशी व प्यार कहां होता है?’’

आशीष से विनीता की उदासी देखी नहीं जा रही थी. अत: उसे समझाते हुए बोला, ‘‘समझौता हम कहां नहीं करते वीनू? औफिस से ले कर अपने मित्रों, पड़ोसियों, रिश्तेदारों के साथ हर जगह, हर मोड़ पर हम ऐडजस्ट करने के लिए तैयार रहते हैं और वह भी खुशीखुशी, तो फिर इस रिश्ते में समझौता करने में कैसी तकलीफ जिसे जीवन भर जीना है?’’

आशीष की बात सुनतेसुनते विनीता इसी सोच में डूब गई कि सुना था पहला प्यार ऐसी महक लिए आता है, जो संजीवनी और विष दोनों का काम करता है, मगर उन्हें अमृत नहीं विष मिला जिस के घूंट वे आज तक पी रहे हैं. निर्मल प्रेम का सागर दोनों के दिलों में हिलोरें ले रहा था. आशीष भी शायद ऐसी ही मनोस्थिति से गुजर रहा था.

विनीता ने आशीष को अपनी तरफ देखते पाया तो मुसकराने का भरसक प्रयत्न करती हुई बोली, ‘‘क्या हुआ, एकदम चुप्पी क्यों साध ली? क्या तुम भी ऐडजस्ट करतेकरते मानसिक रूप से थक चुके हो?’’

‘‘नहींनहीं, मैं आज भी यही सोचता हूं कि विवाह जीवन का बेहद खूबसूरत मोड़ है, जहां संयम और धैर्य बनाए रखने की जरूरत होती है. केवल समझौतावादी स्वभाव से ही इस मोड़ के सुंदर दृश्यों का आनंद लिया जा सकता है. मेरी बात पर यकीन कर के देखो वीनू, जीना कुछ आसान हो जाएगा… तुम स्वयं को संभालो, हम दोनों कहीं भी रहें, मन से हमेशा साथ रहेंगे. भला मन से जुड़े रिश्ते को कौन तोड़ सकता है? हमें तो एकदूसरे को विश्वास का वह आधार देना है, जिस से हमारे वैवाहिक जीवन की नींव खोखली न हो. हम अगली बार मिलें तो तुम्हारे चेहरे पर वही हंसी हो, जिसे इस बार तुम लखनऊ में छोड़ आई हो,’’ कहतेकहते आशीष के होंठों पर हंसी फैल गई, तो विनीता भी मुसकरा दी.

‘‘अब चलें, तुम्हारी बेटी इंतजार कर रही होगी? अगली बार आओ तो बिना मिले मत जाना,’’ आशीष हंसा.

दोनों अपनेअपने घर लौट गए. आशीष के निश्छल, निर्मल प्रेम के प्रति विनीता का मन श्रद्धा से भर उठा.

घर लौटते विनीता ने फैसला कर लिया कि वह नए सिरे से नवीन को अपनाएगी, वह जैसा है वैसा ही. प्रेम करने, समर्पण करने से कोई छोटा नहीं हो जाता. वह एक बार फिर से अप?ने बिखरे सपनों को इकट्ठा करने की कोशिश करेगी… मन में नवीन के प्रति जो रोष था, वह अब खत्म हो गया था.

अरेबियन दूल्हा : नसीबन और शकील के दिलों पर क्या बीती

दीवान का भतीजा शकील 5-6 साल की उम्र से ही दीवान के साथ बंगले पर रोज हाजिरी देता. मैडम उसे कुछ अच्छा खाने के लिए या कभीकभी अठन्नी दे देती थीं जिस के लालच में वह अपने नन्हेमुन्हे हाथों से मैडम के पैर दबाने का काम बड़ी मुस्तैदी से करता था.

दीवान के जिम्मे फैक्टरी पर ड्यूटी देने के अलावा कई घरेलू काम भी थे जैसे मैडम के आदेश पर किसी महिला को बुलवाना या कोई सामान लाना आदि. जिस के बदले में वे दीवान को हर महीने फैक्टरी की तनख्वाह के अलावा 1 हजार रुपए किसी बहाने से पकड़ा देतीं. चूंकि वह मैडम का करीबी था इसलिए फैक्टरी के कर्मचारियों में उस की इज्जत थी. वह फैक्टरी के लोगों के छोटेमोटे काम साहब से करवाने में अकसर कामयाब हो जाता था.

दीवान के रास्ते पर चलतेचलते शकील भी जब 18 साल का हुआ तो मैडम ने खाली जगह पर उसे दिहाड़ी मजदूर के रूप में रखवा दिया. गांव वालों में वह भी अब हैसियत वाला माना जाने लगा. पहली वजह फैक्टरी में 2,500 रुपए का मुलाजिम, दूसरी, बड़े साहब के बंगले तक पहुंच. हर किसी को पक्का विश्वास था कि जल्द ही उसे पक्की नौकरी मिल जाएगी.

करीमन की इकलौती बेटी नसीबन 10वीं पास थी. 16 वसंत पार करतेकरते उस का झुकाव शकील की तरफ होने लगा. दोनों की जाति एक थी और उन में 2 साल का फर्क था. बिना कुछ लिएदिए काम चल जाए तो क्या हर्ज. उस की मां ने तो उसे उल्टे ढील दे रखी थी. हालांकि दीवान कभीकभी शकील को दिखावे के लिए डांटता.

नसीबन बड़ी समझदार थी. लड़के गांव में बहुत थे. झुकी तो सोचसमझ कर, हमउम्र, फैक्टरी का मुलाजिम, बचपन से मैडम का मुंहचढ़ा, गजब की कदकाठी. शकील का चौड़ा सीना…जब देखो, दिल सटने को चाहे. ताकत इतनी कि दीवान का एक बैल मर गया तो दूसरे का तब तक हल में साथ दिया जब तक कि उस ने दूसरा बैल खरीद न लिया. नसीबन को इस बात से कुछ लेना न था कि शकील सिर्फ चौथी तक पढ़ा है.

नसीबन के पिता कभी फरीदाबाद में राजमिस्त्री का काम कर के अच्छा पैसा कमा लेते थे. इकलौती बेटी को अच्छा पढ़ाते व पहनाते थे. फालिज की मार ऐसी पड़ी की वे चल बसे. आमदनी का जरिया जाता रहा तो मजबूर हो कर नसीबन की मां को खेतों में काम कर के गुजारा करना पड़ा.

एक दिन शकील के घर के सामने वाले आम के पेड़ से कईकई बार कूद कर भी नसीबन सिर्फ 2 कच्चे आम तोड़ पाई थी कि शकील ने उस की कलाई पकड़ कर कहा, ‘‘मांग के आम नहीं ले सकती थी. सिर्फ 2 आम के लिए अपनी प्यारीप्यारी टांगें तुड़वाती. ला, दबा दूं… चोट तो नहीं लगी.’’

नसीबन ने हाथ छुड़ाना जरूरी नहीं समझा. उसे शकील के पकड़ते ही करंट लग चुका था. फटी कमीज में यों ही नसीबन की जवानी फूट रही थी. धीरे से बोली, ‘‘टांगें दबानी हैं तो पहले निकाह पढ़.’’

उपयुक्त वातावरण देख कर शकील ने अंधेरे का फायदा उठा कर कहा, ‘‘आम क्या चीज है तू मेरी जान मांग के तो देख.’’

‘‘देख शकील, आगे न बढ़ना,’’ नसीबन के इतना कहते ही शकील ने पकड़ ढीली कर दी. फिर बोला, ‘‘किसी से कहना नहीं, मैं तेरे लिए आम लाता हूं. 2 मिनट चैन से यहीं बैठ कर दिल की बातें करेंगे,’’ उस के बाद शकील ने उसे गोद में लिटा कर एक आम खुद खाया और एक उसे अपने हाथ से खिलाया.

काफी देर दोनों अंधेरे में एकदूसरे में खोए रहे. वह शकील के बालों में उंगलियां फिराती बोली, ‘‘चचा से कहो न, मां से मेरा हाथ मांगें.’’

‘‘जल्दी क्या पड़ी है. देख, पहली पगार से तेरे लिए सोने की अंगूठी लाया हूं,’’ अंगूठी पहना कर शकील ने उस का गाल चूमा तो उस ने फटी कमीज की तरफ इशारा कर के कहा, ‘‘यहां.’’

शकील ने अपने होंठ उस के सीने के उभार पर रख दिए.

तभी नसीबन की मां की आवाज आई, ‘‘नसीबन? कहां है?’’

कपड़े ठीक कर के वह बोली, ‘‘मां, अभी आई.’’

सुबह बेटी की उंगली में सोने की अंगूठी देख कर मां बोलीं. ‘‘यह तुझे किस ने दी.’’

‘‘शकील ने,’’ खुश हो कर वह बोली.

‘‘4-5 हजार से कम की नहीं होगी. बेटी, लेकिन निकाह के पहले कमर के नीचे न छूने देना.’’

‘‘मां,’’ कह कर वह करीमन से लिपट गई.

शकील के प्रस्ताव पर दीवान ने भतीजे को समझा दिया कि वह करीमन से कहेगा कि वह बेटी की अभी कहीं जबान न दे. तुम्हारी पक्की नौकरी हो जाए. 1-2 कमरे बन जाएं तो निकाह पढ़वा लेंगे. शकील तब खुश हो गया.

दीवान ने अगले ही दिन करीमन से बात की, ‘‘करीमन, 4-6 महीने अपनी लौंडिया नहीं रोक सकती. शकील की पक्की नौकरी होने दे. 1-2 कमरे पक्के बनवा दूं. आखिर कहां रखेंगे. क्या शकील को घरदामाद बनाने का इरादा है और साफसाफ सुन ले, रात में बेटी को बगीचे में भेजेगी तो तू समझना, जवान लड़का है, मैं नहीं रोक पाऊंगा. कुछ ऊंचनीच हो गई तो, मुझे मत कहना.’’

‘‘दीवान भाई, मैं क्यों घरदामाद बनाती. मेरे बाद तो यह घर उसी का है. बात पक्की समझूं.’’

‘‘हां, पक्की.’’

एक बार किसी जरूरी काम से शकील को बुलाने के लिए मैडम  गाड़ी से खुद आई. गाड़ी की आवाज सुन कर नसीबन भी दरवाजे से बाहर निकल आई. शकील को मोटर की तरफ जाते देख कर नसीबन जोर से बोली, ‘‘शकील, सुन तो जरा, इधर आ.’’

वह गर्व से गरदन उठाए अपनी प्रेमिका के पास आया जैसे मोटर उसी की हो, ‘‘क्या है?’’

‘‘क्या मुझे भी अपने साहब का बंगला दिखाएगा?’’ नसीबन बोली.

‘‘आ चल,’’ इतना कह कर शकील ने बांह को इतने ऊपर से पकड़ा कि उस के हाथ नसीबन के वक्षों से छू गए.

‘‘हाथ छोड़, सीधा चल. मैं कोई अंधीलंगड़ी हूं.’’

‘‘मेम साहब, यह करीमन की बेटी नसीबन है. 10वीं पास है. कहने लगी तेरे साहब का बंगला देखूंगी तो साथ ले आया. मैडम ने मुसकराकर नसीबन के सिर पर हाथ रखा और बोली, ‘‘जा घुमा दे.’’

‘‘यह फ्रिज है,’’ खोल कर शकील ने उसे रसगुल्ला खिलाया और ठंडा पानी पिलाया.

‘‘यह ए.सी. है,’’ बैडरूम में ले गया. पलंग के गद्दे पर नसीबन बैठी तो धंस गई और कूद कर बोली, ‘‘शकील, तेरी मैडम तो रोज यहां धंस जाती होंगी.’’ नसीबन को बागबगीचा दिखा कर शकील वापस लाया तो मैडम ने उसे 500 रुपए कपड़े सिलवाने को दिए और बोलीं, ‘‘नसीबन भी खजूरी की?’’

‘‘जी मैडम, हम दोनों के घर पासपास हैं.’’

‘‘कभीकभी आ जाया कर,’’ मैडम बोलीं.

अब नसीबन का भी बंगले पर आनाजाना शुरू हो गया. मैडम के पांव दबाना और बाल सेट करना उस की खास ड्यूटी थी. उसे भी 1 हजार रुपए महीने के मिलने लगे थे. मां खुश थीं कि शकील ने बड़े घर की शरीफ औरत के पास काम दिला दिया, जहां किसी तरह का कोई खतरा न था.

साहब ने एक बार मैडम से कहा भी, ‘‘तुम अजीबअजीब हरकतें करती हो. यह आग और घी एकसाथ क्यों इकट्ठे कर लिए हैं?’’

‘‘शकील की हिम्मत है कि मेरी बिटिया की तरफ आंख भी उठा सके,’’ यह सच है कि सब पर मैडम का खौफ था.

एक दिन नसीबन ने लौन से गुलाब का फूल तोड़ लिया तो माली नातीराम ने डांटा, ‘‘मैडम, पता नहीं कहां से जंगली चिडि़या पकड़ लाई हैं.’’

नसीबन ड्राइंगरूम के सोफे पर बैठी तो नौकरानी ने हाथ पकड़ कर उठा दिया. मैडम के लिए तेल लगे हाथ से गाड़ी का दरवाजा खोला तो ड्राइवर ने डांटा, ‘‘हाथ धो कर गाड़ी छू.’’ वह कुछ ही दिन में बंगले के तौरतरीकों से वाकिफ हो गई.

मैडम की सख्त हिदायत थी कि उसे सूरज डूबने से पहले कार से रोज घर पहुंचवा दिया जाए और यह कि शकील को अगर जाना है तो साइकिल से जाए, साथ न बैठे.

वक्त गुजरता गया मैडम ने नसीबन को प्राइवेट इंटर और बी.ए. करवा कर कालोनी के प्राइमरी स्कूल में टीचर रखवा दिया. शकील की भी पक्की नौकरी हो गई. उसे ग्रेड भी मिलने लगा था. दोनों ही मैडम के कृतज्ञ थे और हमेशा की तरह उन की खिदमत में लगे रहते.

नसीबन पर जवानी क्या चढ़ी कि आईने के सामने अंगड़ाई लेते समय हाथ उठाते ही वह शर्मा जाती. उस का दिल चाहता कि वह शकील के पेड़ से आम चुराए और वह सजा के तौर पर उसे अपनी बाजुओं में भींच ले. शकील पढ़ालिखा न होने की वजह से हीनभावना में रहता और नसीबन से कटाकटा रहता.

मैडम ने बंगले पर रहने के लिए उसे अलग कमरा दिया था. बेचारा रातदिन मेहनत कर के खुद को नसीबन के योग्य बनाने की कोशिश करता उस ने भी हाई- स्कूल पास कर लिया था.

एक शाम मां ने यह कह कर नसीबन का चैन छीन लिया कि अरब से शमीम आया है. मुझ से भी मिलने यहां आया था. 50-60 हजार महीना कमाता है. तुझे देख कर मुझ से बोला कि नसीबन जवान हो गई है. जबरदस्ती 1 लाख की गड्डी आंचल में डाल गया और बोला 3 दिन में जाना है निकाह जल्दी पढ़वा दो.

‘‘मां, उन्हें शायद यह मालूम नहीं होगा कि हमारे ऊपर मैडम का हाथ है.’’

‘‘बेटी क्या हर्ज है. ऐश करेगी और यों भी ज्यादा उम्र के मर्द कम उम्र लड़कियों को सिर पर बिठाते हैं.’’

‘‘मां, साफ सुन लो, जितनी लड़कियां अरेबियन दूल्हों के साथ गईं, सब कैसे अपनी रात गुजारती हैं तुम्हें बताने की जरूरत नहीं. तुम उस के रुपए वापस कर दो वरना मैं जहर खा लूंगी. मैं शकील के अलावा किसी मर्द को अपना बदन नहीं छूने दूंगी. अगर तुम ने रुपए वापस नहीं किए तो मैं नोटों की इस गड्डी में आग लगा दूंगी.’’

मां समझ गईं कि बेटी के सिर पर शकील के इश्क का जनून सवार है. शमीम को 4 आदमियों के साथ तीसरे दिन उस ने नसीबन को ले जाने की इजाजत दे दी.

आधी पैंट और आधी शर्ट में शकील को अपने कमरे की ओर जाता देख कर नसीबन बोली, ‘‘शकील, मैडम से इजाजत ले कर अभी आती हूं. कुछ जरूरी बातें करनी हैं. प्लीज, कमरे ही में कुछ देर रहना.’’

‘‘आओ बेटी, बैठो,’’ मैडम बोलीं.

‘‘मैडम, गुस्ताखी माफ हो तो कुछ अर्ज करूं.’’ नसीबन बोली, ‘‘मैं बहुत सालों से आप के साथ हूं, आप मुझे अच्छी तरह जानती और मानती हैं. जब से मैं जवान हुई मुझे शकील से लगाव है. मेरी मां मुझ से 20 साल बड़े मर्द से, जो अरब में काम करता है, मेरी शादी के नाम पर 1 लाख रुपए ले चुकी हैं. जो लड़कियां इस तरह के लोगों से ब्याही गई हैं उन की हालत आप को मालूम है. मेरी मां रुपए देख कर अंधी हो गई हैं. मेरी जवानी का सौदा करना चाहती हैं. मेरी मदद कीजिए वरना मेरी जिंदगी खराब हो जाएगी. आप शकील के साथ मेरी शादी करवा दीजिए.’’

बेटी, अच्छा किया बता दिया. मैं खुद भी तुझ से यही कहना चाहती थी. हरगिज अरब की मुलाजमत देख कर शादी पर राजी न होना. ये लोग अकसर ऐयाश होते हैं. औरतों को इस्तेमाल कर के बेच देते हैं. यों भी 5-6 साल में लड़कियों की दिमागी और जिस्मानी हालत बदल जाती है. बेटी, मैं तेरी हर मुमकिन मदद करूंगी. जा तू खुल के शकील से बात कर ले.

अब नसीबन शकील के कमरे में गई और अंदर से दरवाजा बंद कर लिया. वह अभी भी फैक्टरी के कपड़ों  में उस के इंतजार में बैठा हुआ था.

वह पलंग पर उस से सट कर बैठ गई. अपना एक हाथ उस के हाथ पर रख कर बोली, ‘‘मैं जब से जवान हुई, तुम्हारे सिवा किसी मर्द का हाथ अपने बदन को नहीं लगने दिया. तुम्हारी ही मेहरबानी से यह दरवाजा देखा. मुझ से ख्ंिचेख्ंिचे क्यों रहते हो. आज भी मेरा दिल होता है कि तुम मेरे बाल खींचो, मुझे मारो, अपनी बांहों में कैद कर के मुझे सीने से सटाओ.’’

‘‘नसीबन, वह और वक्त था.’’ शकील बोला, ‘‘उस वक्त तुम्हें 2 आम दरकार थे, आज तुम पढ़ीलिखी हैसियतदार औरत हो. 50-60 हजार कमाने वाले अरेबियन दूल्हे का रिश्ता आ रहा है. सुना है शमीन तुम्हें लाखों के जेवर दे रहा है. 6,500 रुपए प्रतिमाह पाने वाला मैं कहां? क्या मैं तुम्हारी मां को रातोंरात दौलतमंद बनाने योग्य हूं.’’

‘‘शकील, आज मैं कल से ज्यादा गरीब हूं. अपना प्यार मुझे भीख में दे दो मैं तुम्हारे बगैर जिंदा नहीं रह सकती. पढ़ाईलिखाई अगर मेरेतुम्हारे बीच दीवार है तो मैं अपने प्रमाणपत्र अभी जलाने को तैयार हूं,’’ कह कर नसीबन उस के सीने पर सिर रख कर काफी देर तक रोती रही.

शकील ने उस के चेहरे को अपनी हथेलियों के बीच में ले कर पहली बार उस के होंठों को चूमा तो वह आंखें बंद कर के उस से लिपट गई और तेजतेज सांसें लेने लगी. शकील को पहली बार उस के बदन की गरमी का एहसास हुआ और उस के हाथ नसीबन के अंगों को आजाद करने में व्यस्त हो गए. नसीबन के सीने में मुंह धंसा कर शकील बोला कि तू मेरे दिल पर राज करेगी.

इस बीच नसीबन ने अपनेआप को पूरी तरह उसे सौंप दिया और जल्द ही नसीबन को यह एहसास हो गया कि क्यों औरत मर्द पर अपनी जान तक निछावर करने के लिए तैयार रहती है. शकील उस के लिए जो था वह वही जानती थी. वह सारी रात शकील को सीने से चिपटाए रही.

नसीबन के बालों में उंगलियां फिरा कर शकील बोला, ‘‘नसीबन, यह हम क्या कर बैठे.’’

वह मदहोश थी. गरदन में बाहें डाल कर बोली, ‘‘जानी, तौबा कर लेंगे और निकाह पढ़ लेंगे. मेरी जान, तू तो पूरा लोहा निकला. मुझे कहीं ले चल शकील जहां तू और मैं हों. मुझे सिर्फ तेरी नौकरी करनी है.’’

शारीरिक संबंध के बाद नसीबन को जाने शकील ने ऐसा क्या दे दिया, एक ही रात में वह उस की गुलाम और दीवानी हो गई.

‘‘मां, शमीम से मेरी शादी को साफ मना कर दो,’’ नसीबन बोली, ‘‘1 लाख रुपए शकील देने को तैयार है.’’

‘‘क्या कहीं डकैती डाल आया.’

‘‘उस ने कुछ भी किया हो पर कान खोल कर सुन लो मां, मैं रात भर शकील के साथ रह कर आ रही हूं.’’

मां बोलीं, ‘‘क्या शकील की जूठन शमीम 1 लाख रुपए में लेगा.’’

उत्तेजना के चलते नसीबन अपने आपे से बाहर थी. सामने किस से क्या बात कर रही थी उसे कुछ पता नहीं था. उस के दिमाग में 42 वर्षीय शमीम का थुलथुल शरीर घूम रहा था.

‘‘परसों निकाह है और आज गैर मर्द के साथ मुंह काला कर के आ रही है. किस बेशरमी से उस का बयान कर रही है. हाय, यह सब करने से पहले तू मर क्यों न गई?’’ मां बोली.

‘‘जिंदा रहने के लिए यह काम किया है,’’ नसीबन बोली.

‘‘आखिर तुम भी तो इसी काम के लिए 42 साल के अरबी दूल्हे से लाख रुपए लेने को मचल रही हो.’’

अब मां कुछ धीमी पड़ीं. ‘‘बेटा, और किसी को न बतलाना. चल डाक्टर को दिखा दूं. बेटी, मैं उसे राजी कर लूंगी. वह तुझे ले जाएगा.’’

‘‘और किसी अरब शेख को 10 लाख में बेच कर 9 लाख कमा लेगा फिर कोई दूसरी कुंआरी 2 लाख में खोजेगा जिस की मां घर पक्का कराने और लड़की को जेवर पहनाने की गरज से अरब के शेखों की खिदमत के लिए भेजने को तैयार हो जाएगी.’’

गुंडे जैसे 4-5 लोगों को साथ ले कर किराए की गाड़ी से शमीम आया. उन में से एक टोपी वाला काजी भी था. नसीबन ने शमीम को निकाह से पहले अंदर बुलाया और बोली, ‘‘आप मुझ से निकाह करने जा रहे हैं. मैं आप को धोखे में नहीं रखना चाहती. साफ कह दूं तो बेहतर है. मैं शकील के साथ रातभर सो चुकी हूं. अगर आप को यह गुमान हो कि आप का निकाह किसी कुंआरी लड़की से हो रहा है तो मेहरबानी कर के पैसा वापस ले सकते हैं.’’

‘‘बेगम आप कैसी बातें करती हैं,’’ उस ने बेहयायी से उस के गाल चूमे और जो होना था वही हुआ. नसीबन उस की दुलहन बनी मगर उस रात वह लाश की तरह पड़ी रही. उस का खयाल था कि लड़की की मां ने धोखा दिया. लड़की ठंडी है. यों शमीम भी उसे बीवी बनाने योग्य साबित न हो सका था.

शकील ने नसीबन से शादी का इरादा छोड़ दिया था. वह अपने काम में मगन था. कमरे में नसीबन की तसवीर लगी थी मगर उस ने उस पर परदा डाल दिया था. नसीबन से बहुत कम बात करता और मिसेज शमीम कह कर उस से मुखातिब होता.

नसीबन ने मां को सही हालात बतला दिए थे और यह कि अगले 6 महीने में पासपोर्ट बनाने की जिद होगी और वही हुआ. सबकुछ बताए अनुसार होता देख मां रास्ते पर आ गईं. मां की भी आंखें खुलीं, जब उन्हें सचाई पता चली.

‘‘बेटी, ‘खुला’ ले ले. जमीर भाई के 3 बेटे सऊदी में हैं. उन्होंने बताया कि शमीम के साथ दरभंगा की एक औरत भी रहती है. अरब शेख के बरतन धोने के लिए शौहर व 4 बच्चों को छोड़ कर आई थी. बाद में उस की रखैल बन गई. हुकूमत ने वीजा खत्म होने पर निकालना चाहा तो शमीम से निकाह पढ़ कर वहीं की हो ली.’’

शमीम के बारे में सबकुछ सुन कर नसीबन बोली, ‘‘तुम ने मुझे किस दलदल में फेंक दिया. मेरी और शकील दोनों की जिंदगी खराब कर दी. सच बतलाओ मां, मैं तुम्हारे पेट से हूं भी या नहीं.’’

मां के आंसू निकल पड़े. गले लगा कर बोली, ‘‘बेटी, माफ कर दे.’’

मां जी.एम. साहब के पास ‘तलाक’ दिलाने में मदद के लिए गई थीं. बेटी को कहा कि किसी तरह शकील को राजी कर ले.

नसीबन तड़प कर बोली, ‘‘मां तुम्हारी ख्वाहिश के लिए मेरी जवानी का सौदा हुआ था. अगर दोबारा शकील से शादी के लिए मुझे मजबूर किया गया तो मैं जहर खा लूंगी.’’

उसे रोज उदास देख कर साहब ने नसीबन के मना करने के बावजूद सऊदी अरब दूतावास के प्रथम सेके्रटरी से मुलाकात की और हालात बतला कर शमीम का सऊदी से देश निकाला करवा के ‘खुला’ लिखवाया. जिस पर सब से ज्यादा शकील खुश था. बंगले के खास लोगों को छिप कर उस ने मिठाई भी बांटी थी. नसीबन को घर जा कर दी तो वह बोली, ‘‘इतने दिनों बाद खुशीखुशी  लड्डू खिला रहे हो, किस बात के हैं? क्या कहीं शादी तय हो गई?’’

‘‘यों ही समझ लो.’’

उस ने लड्डू खा तो लिया मगर चेहरा उदास हो गया.

मांसिर पर हाथ फिरा कर कमरे से यह कह कर चली गईं, ‘‘शकील बेटा, रात का खाना खा कर जाना. बहुत दिनों के बाद आए हो.’’

‘‘बोलो न, आज बड़े खुश हो, कोई खास बात हो गई?’’ नसीबन ने उत्सुकता के चलते पूछा.

‘‘पहले एक लड्डू मेरे हाथ से खाने का वादा करो तो बताऊंगा.’’

नसीबन समझ तो गई मगर अनजान बन कर बोली, ‘‘बहुत खुश हो तो तुम्हारी खुशी में शरीक होना भी जरूरी है, आखिर जिंदगी के बेहतरीन क्षण तुम्हारे साथ ही तो गुजारे थे.’’

शकील एक हाथ से नसीबन के बालों में उंगलियां फिरा रहा था दूसरे से लड्डू खिला रहा था. नसीबन के आंसू जारी थे फिर भी उस के हाथ का लड्डू शौक से खा रही थी.

नसीबन को पलंग पर लिटा कर अपना सीना उस के सीने पर रख कर शकील बोला, ‘‘अच्छा, एक बात बतलाओ कि तुम्हारे साथ मेरी शादी हो गई होती और कोई डाकू तुम्हारी इज्जत जबरदस्ती लूट लेता तो क्या तुम मेरे योग्य न रहतीं?’’

वह उत्तर न दे सकी.

‘‘जान, खामोशी को रजामंदी समझूं और कल बरात ले कर आऊं.’’

नसीबन ने शकील के गले में बांहें डाल कर उसे सख्ती से भींच लिया. लिपट कर दिल से दिल मिला और सारे शिकवे- शिकायतें गायब.

‘‘मां, शकील का खाना.’’

यह आवाज नसीबन के मुंह से रात के 3 बजे निकली. वह अब भी उस के ऊपर लेटी, उसे प्यार भरी नजरों से देखे जा रही थी.

‘‘बेटी, 4 बार गरम कर चुकी हूं.’’

दोनों ने एकदूसरे को निवाले खिलाए. सुबह मसजिद के इमाम साहब ने निकाह पढ़ा दिया.

गांव के लोगों ने करीमन के दरवाजे पर जम कर बकरे के मांस की दावत की.

…रात हसीन थी.

‘‘अब हटो, मेरी हड्डीपसली तोड़ दी. कौन सी दुश्मनी निकाल रहे हो. सुबह हो गई, अब तो पीछा छोड़ो.’’

सुन कर शकील ने हटना चाहा तो नसीबन ने फिर उसे सीने से लिपटा लिया.

सोने की सास: भाग 3- क्यों बदल गई सास की प्रशंसा करने वाली चंद्रा

मुझे लगा, अब उस का सास शिकायतनामा भी धीरेधीरे बंद हो जाएगा, लेकिन इस बार बड़े दिनों की छुट्टियों में वह ससुराल जा कर लौटी, तो शिकायत का एक नया सूत्र मिल गया था. फोन उठाते ही बोली, ‘‘जानती हो मम्मी, मेरी देवरानी भी पढ़ीलिखी है. चाहे तो वह भी घर से बाहर कहीं कोई काम कर सकती है. पर उसे कोई घर से बाहर कुछ नहीं करने देगा. वह बाहर जाएगी, तो मम्मीजी की गृहस्थी का बोझ भला कौन ढोएगा.’’

मैं ने हांहूं कर के फोन रख दिया. सोचा, अब तो उस गृहस्थी में देवरदेवरानी के बच्चों का ही अधिक काम रहता है, जिस में अपर्णाजी भी दिन भर छोटी बहू के साथ घर के कामों में लगी रहती हैं. चंद्रा के ससुरजी बच्चों का होमवर्क ही नहीं करवाते, अपितु उन्हें स्कूल बस तक पहुंचाने और वापस लाने का काम भी वे ही करते हैं. साथ ही, सब्जी, राशन आदि लाने का बाहरी काम भी तो वे ही किया करते हैं. लेकिन मेरी बिटिया रानी कहां कुछ सुननेसमझने के लिए तैयार थी?

अचानक मेरे पति का तबादला चंद्रा की ससुराल के शहर में ही हो गया. अब तो उन के घर आनाजाना लगा ही रहता. एक दिन मैं ने सुष्मिता से पूछा, ‘‘तुम भी तो पढ़ीलिखी हो, क्या तुम्हारा घर से बाहर कोई काम करने का मन नहीं करता?’’

वह हंसी, ‘‘मौसीजी, अभी तो मेरे बच्चे बहुत छोटे हैं, नौकरी करने से ज्यादा जरूरी है उन की देखभाल करना. फिर अभी इन्हें जितना वेतन मिल रहा है, वह काफी है. उस से अधिक की तो अभी दरकार नहीं और फिर ये शाम को अपनी छुट्टी के बाद पापाजी के बिजनैस में भी उन की मदद करते हैं. बच्चों को तो एकदम समय नहीं दे पाते. मैं भी यदि नौकरी में व्यस्त हो जाऊं, तो बच्चों का खयाल कौन रखेगा? यों तो मांजी भी मुझ से कहती रहती हैं कि यदि मेरा भी नौकरी करने का मन हो, तो मैं कर सकती हूं, वे घर और बच्चों को संभाल लेंगी, पर सच कहूं मौसीजी, अभी तो घर से बाहर कुछ करने का मेरा जरा भी मन नहीं है. हां, जब बच्चे बड़े हो जाएंगे, तब अगर मन होगा, तो देखा जाएगा.’’

चंद्रा को मैं ने सुष्मिता की ये बातें बतलाईं, तो वह कुछ मानने को तैयार ही नहीं हुई. बस अपना ही राग अलापती रही. वह तो बस अपनी सास के पीछे पड़ी हुई थी. अपने पति के कान भी उन की मां के विरुद्ध भरने में लगी हुई थी.

धीरेधीरे उसे कामयाबी मिलती गई. श्रीकांतजी उस की झूठी बातों को भी सच्ची समझने लगे और इस संबंध में अपनी मां से भी सवालजवाब करने लगे. चंद्रा की बात पर विश्वास कर के वे यह समझने लगे कि उन की मां बहुओं पर जुल्म ढाया करती है. बिटिया के फोन से मुझे सारी खबरें मिलती रहती थीं, पर मैं चाह कर भी कुछ नहीं कर पाती थी.

अपर्णाजी के पेट में दर्द रहता था. जांच के लिए वे अपने पति के साथ कोलकाता गईं. डाक्टर ने पेट दर्द का कारण बतलाया पेट में वायु या गैस बनना. उन्हें कुछ दवा देने के साथ यह निर्देश भी दिया गया कि वे भूखी न रहें और सुबह का नाश्ता तो जितनी जल्दी हो सके कर लिया करें. उन की बात मान कर उन्होंने दूसरे दिन जल्दी नाश्ता कर लिया, तो ठीक रहीं. यह सब उन्होंने मुझे फोन पर बतलाया.

पोतेपोती की जिद के कारण उन्हें वहां कुछ दिन रुकना पड़ा. वे घर के काम में भी चंद्रा की मदद करने लगीं. जो भी विशेष व्यंजन उन्हें बनाने आते थे, वे उन्हें बना कर सब को खिलाना चाहती थीं. एक दिन उन्हें याद आया कि बेटे श्रीकांत को कटहल की सब्जी बचपन से ही बहुत पसंद है. कटहल का मौसम खत्म होने को था, पर दिनेशजी कहीं से कटहल खोज ही लाए. अपर्णाजी ने बड़े मनोयोग से कटहल काटा और सब्जी बना ली. अपने पति को टिफिन देने का काम चंद्रा स्वयं ही करना चाहती थी. 1-2 बार मां ने बेटे के लिए टिफिन तैयार कर दिया, तो चंद्रा नाराज सी लगी, अत: इस काम से दूर ही रहती थीं. उस दिन जब चंद्रा टिफिन तैयार कर रही थी, तो अपर्णाजी ने पास जा कर कहा, ‘‘श्रीकांत को कटहल की सब्जी बचपन से ही बहुत पसंद है, इसे टिफिन में दे देना.’’

चंद्रा बोली, ‘‘पहले की सब्जी भी तो फ्रिज में रखी है. पहले उसे खत्म होने दीजिए,’’ और उस ने श्रीकांत के टिफिन में पहले वाली सब्जी ही डाल दी.

अपर्णाजी ने सोचा, ठीक ही तो कह रही है, पहले की बनी सब्जी पहले खत्म होनी चाहिए. कटहल की सब्जी शाम को खा लेगा, इस में क्या हर्ज है.

शाम को चंद्रा ने दफ्तर से लौट कर कुछ और सब्जियां बना लीं और श्रीकांत को वे ही परोसीं. बाद में उस ने कटहल की सब्जी औरों की थालियों में डाली, पर श्रीकांत को नहीं दी. रोटियां बनाती हुईं अपर्णाजी सब कुछ देख रही थीं, पर बोलीं कुछ नहीं. उन्होंने सोचा, कल टिफिन में दे देगी, इस में क्या है.

दूसरे दिन अपर्णाजी जब रसोई में आईं, तब तक श्रीकांत का टिफिन भरा जा चुका था. उन्होंने दिनेशजी के लिए नाश्ता लगाने के लिए फ्रिज खोला, तो देखा रात वाली सब्जी समाप्त है और कटहल की सब्जी उतनी की उतनी फ्रिज में रखी है. उन्होंने सोचा, हड़बड़ी में शायद बहू श्रीकांत को कटहल की सब्जी देना भूल गई हो. कोई बात नहीं, वे सब्जी बदल देती हैं.

उन्होंने डब्बा खोला ही था कि चंद्रा आ गई और जोर से बोली, ‘‘यह आप क्या कर रही हैं मम्मीजी? मेरी जासूसी कर रही हैं? क्या मैं आप के बेटे को अच्छा खाना नहीं देती? आप सब्जी बदलने की कोशिश कर रही हैं,’’ बोलतेबोलते वह रोने लगी.

शोर सुन कर श्रीकांत आ खड़ा हुआ. बोला, ‘‘चंद्रा ने टिफिन दे तो दिया था, फिर तुम उसे खोल कर क्या देख रही हो? वह मेरी पत्नी है, कोई मेरी दुश्मन नहीं, जो मुझे खराब खाना देगी.’’

अपर्णाजी हैरान सी खड़ी थीं. वे किस से क्या कहें? इतना तो वे समझ चुकी थीं कि बहू को ईर्ष्यारूपी नागिन ने डस लिया है. उसे डर लग रहा है बेटे के प्रति मां के स्नेह से. इसीलिए उस ने श्रीकांत के कान भी मां के विरुद्ध भर दिए हैं, तभी तो वह मां से इस लहजे में बात कर रहा है.

आधे झूठ की चाशनी में डुबो कर चंद्रा ने मुझे यह वाकेआ सुनाया, तो भी सच मेरे सामने आ गया. मैं ने सोचा, अगर चंद्रा की सास शुद्ध सोने की बनी होतीं, तो भी मेरी बेटी उन में कोई न कोई खोट निकाल ही देती.

अब युग उलट गया है. महान वैज्ञानिक न्यूट्रन ने सच ही कहा था कि हर क्रिया की समान और विरोधी प्रतिक्रिया हुआ करती है. पहले बहुओं को उन की सास दबा कर रखती थी, अब बहुएं वही अपनी सास के साथ करना चाहती हैं. पहले मां करती थी कन्यादान, अब चाहेअनचाहे करना होता है उसे पुत्रदान. कल बेटी पराया धन थी और आज बेटा है.

उसकी गली में- भाग 3 : आखिर क्या हुआ उस दिन

इस कोशिश में उसे चोटें भी लगीं. उसे अस्पताल में भरती करना पड़ा. जुलेखा उस की देखरेख के लिए रोज अस्पताल जाती थी. वहीं से यह मुहब्बत शुरू हुई. इस के 4-5 महीने बाद अचानक जुलेखा ने शादी कर ली. शादी के बाद विलायत अली पागल सा हो गया. यह भी पता चला था कि चोरी वाले दिन सेठ अहद का एक नौकर विलायत को उस के घर से बुला कर ले गया था. सेठ अहद ने ही उस पर चोरी का इलजाम लगाया था. थाने में लिखाई गई रिपोर्ट में सेठ अहद ने लिखवाया था कि विलायत उस के घर काम मांगने आया था. सेठ ने चोरी का जो टाइम रिपोर्ट में लिखाया था, उस वक्त वह अपने दोस्तों के साथ पान की दुकान पर था. उस वक्त सुबह के 10 बजे थे.

वक्त बहुत कम था. डीएसपी साहब के दिए टाइम में 2 घंटे बीत चुके थे. मैं ने सेठ अहद और मास्टरनी के पति नजीर से मिलने का फैसला किया. रवाना होते समय मैं ने बलराज से पूछा, ‘‘अगर तुम्हारे दिमाग में कोई प्लान हो तो बताओ, मिल कर काम करते हैं.’’ उस ने तीखे लहजे में कहा, ‘‘नवाज खां, मेरे और तुम्हारे रास्ते अलगअलग हैं. इसलिए तुम अपनी राह जाओ.’’

मैं ने पहले ही 3-4 टीमें बना कर विलायत की तलाश में भेज दी थीं. सेठ अहद की लोहे के सामान बेचने की दुकान थी. 40-45 साल का दुबलापतला आदमी था. पता चला कि वह रंगीनमिजाज था. उस ने दुकान पर एक जवान खूबसूरत लड़की रख रखी थी. मैं ने अहद से पूछताछ की तो उस ने वही बातें बताईं, जो मुझे पहले से पता थीं. कोई काम की बात पता न चलने पर मैं ने उसे शहर न छोड़ने की हिदायत दी. उस पर नजर रखने के लिए मैं ने सादा लिबास में एक सिपाही की ड्यूटी लगा दी. इस के बाद मैं चपरासी नजीर के यहां पहुंचा. दरवाजा उस की खूबसूरत बीवी जुलेखा ने खोला. मुझे देख कर वह सहम गई. मैं ने तेज लहजे में पूछा, ‘‘तेरा शौहर कहां है?’’

‘‘जी…जी, वह अभी औफिस से नहीं आए हैं.’’ मैं ने उसे धमकाते हुए कहा, ‘‘देख लड़की, अगर अपनी खैर चाहती है तो विलायत अली के बारे में सब कुछ सचसच बता दे, वरना तेरा अंजाम बहुत बुरा होगा.’’ मेरी डांट से उस का चेहरा पीला पड़ गया. वह डर गई और चेहरा हाथों से छिपा कर फूटफूट कर रो पड़ी. रोतेरोते ही बोली, ‘‘थानेदार साहब, अगर मैं ने कुछ भी बोल दिया तो वह मुझे जिंदा नहीं छोड़ेगा. जान से मार देगा.’’

मैं गरजा, ‘‘कोई तुझे हाथ नहीं लगा सकता. यह कानूनी मामला है. हम तेरी पूरी मदद करेंगे.’’ मेरी बात पर उस के अंदर जैसे कुछ हिम्मत आई. अपनी बात कहने के लिए मुंह खोलने ही वाली थी कि तभी बाहरी दरवाजे से साइकिल का अगला पहिया अंदर आया और तेज आवाज आई, ‘‘ले साइकिल पकड़, कहां मर गई कमीनी?’’

इस आवाज पर वह डर गई. वह दरवाजे की तरफ जाने को हुई, लेकिन उस के उठने से पहले ही एक सिपाही ने आगे बढ़ कर साइकिल पकड़ ली. यह उस का पति नजीर था. अंदर का हाल देख कर वह हैरान रह गया. मुझे सलाम कर के बोला, ‘‘साहब, यह क्या हो रहा है?’’

मैं ने उस से तेज लहजे में पूछा, ‘‘कितनी तनख्वाह है तेरी?’’

‘‘जी 20 हजार रुपए.’’

‘‘क्या स्मगलिंग करता है, कहां से पैसा कमा कर इतना अच्छा घर खरीदा?’’

‘‘नहीं जनाब, कैसी बातें कर रहे हैं? मैं ईमानदार, शरीफ आदमी हूं.’’

उस ने इतना ही कहा था कि मैं ने एक जोरदार थप्पड़ उस के गाल पर मारा. वह उछल कर साइकिल पर गिरा. उस की कमीज पकड़ कर मैं उसी कमरे में ले गया, जहां उस की बीवी बैठी थी. बीवी के सामने हुई बेइज्जती से वह गुस्से से पगला सा गया. उस ने लपक कर सब्जी काटने वाली छुरी उठा ली और तेजी से घुमा कर मुझ पर वार कर दिया. लेकिन छुरी मेरे पेट से 2 इंच फासले से निकल गई. मैं बच गया. मैं ने लपक कर उस की कलाई थाम ली और एक लात उस के पेट पर मारी. वह धड़ाम से गिरा. इस के बाद एएसआई ने उस पर लातघूंसों की बारिश कर दी. मुझे लगा कि जुलेखा के सिर से शौहर के डर का भूत उतर गया है तो मैं ने कहा, ‘‘देख लड़की, अब किसी से डरने की जरूरत नहीं है. बिना डर के सब कुछ बता दे.’’

‘‘इंसपेक्टर साहब, मुझे और मेरी मां को तो कोई नुकसान नहीं पहुंचेगा?’’

मैं ने उसे भरोसा दिया और मदद का वायदा किया. मैं उसे दूसरे कमरे में ले गया.

वहां उस ने बताया, ‘‘साहब, मुझ पर बड़ा जुल्म हुआ है, मुझे बुरी तरह लूटा गया है. मैं ने यह जुल्म अपनी मां की खातिर बरदाश्त किया. आज से कोई 9 महीने पहले की बात है. मैं स्कूल में पढ़ाती थी. उसी स्कूल का एक कलर्क पता नहीं मुझ से क्यों दुश्मनी रखता था. उस की वजह से मेरी 4-5 माह की तनख्वाह रुकी हुई थी. मेरी एक सहेली ने मुझे नेताजी गनपतलाल से मिलने की सलाह दी. ‘‘मैं उस से मिलने गई. मैं ने सारी विपदा कही. वह मुझ से बहुत अच्छे से मिला और उस ने मेरा काम करवाने का वायदा किया. इसी सिलसिले में मैं उस से मिलती रही. उसी बीच उस की नीयत मुझ पर खराब हो गई. उस ने मुझे इस तरह अपने जाल में फंसाया कि मुझे अपनी बरबादी साफ नजर आने लगी. मैं होशियार हो गई. जब उसे अंदाजा हुआ कि मैं उस के हाथ नहीं आऊंगी तो उस ने पैंतरा बदला. एक दिन उस ने कहा, ‘जुलेखा, मैं तुम से ब्याह करना चाहता हूं.’

‘‘मैं ने तुरंत इनकार कर दिया. उसे ताज्जुब हुआ कि इतने मशहूर और रईस आदमी से मैं ने शादी से इनकार कर दिया. वह गुस्से में पागल हो गया. मुझे धमकी देने लगा कि वह मुझे ऐसी सजा देगा कि मैं उम्र भर तड़पती रहूंगी. शादी से पहले नजीर उस के यहां चमचागिरी करता था. एक बार उस ने मुझ से बेहूदा मजाक किया तो मैं ने उसी समय उसे एक थप्पड़ जड़ दिया. ‘‘इस घटना के कुछ दिनों बाद नजीर मेरी मां के पास मेरा रिश्ता मांगने पहुंचा. मां ने मेरी शादी उस के साथ करने से मना कर दिया. इस के बाद एक औरत मेरी मां के पास नजीर के लिए मेरा रिश्ता मांगने आई. मां ने फिर इनकार कर दिया. इस के बाद दूसरी औरत रिश्ता मांगने आई. मां ने उसे भी डांट कर भगा दिया.

‘‘दूसरे दिन मेरे छोटे भाई को उस के हौस्टल से किसी ने अगवा कर लिया. जब हमें पता चला कि इस के पीछे गनपतलाल का हाथ है तो हम रिपोर्ट दर्ज कराने थाने पहुंचे. लेकिन उस के खिलाफ रिपोर्ट नहीं लिखी गई. हमें डराधमका कर थाने से भगा दिया गया. उसी रात गनपतलाल की तरफ से एक खत मिला, जिस में लिखा था, ‘तुम्हारा भाई वापस हौस्टल पहुंच गया है. ध्यान रखो, अगली बार गायब होगा तो हौस्टल में नहीं, मुरदाखाने में मिलेगा.’

‘‘उस रात मैं और मेरी मां बहुत रोईं. इस के बाद बेबस और मजबूर हो कर मुझे नजीर से शादी करनी पड़ी. तब से मैं बड़ी जिल्लत के साथ जी रही हूं. मेरी मां से भी नजीर बड़ा बुरा व्यवहार करता है. पिछले दिनों उस ने उन्हें कांच का गिलास फेंक कर मारा था.’’ इतना कह कर वह सिसकने लगी. उस की दुखभरी दास्तान सुन कर मेरा भी दिल भर आया. मैं ने पूछा, ‘‘यह कुल्फी वाले विलायत का क्या किस्सा है?’’

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