उन दोनों का सच: भाग 1- क्या पति के धोखे का बदला ले पाई गौरा

लेखिका- रेणु गुप्ता

“बिब्बो…बिब्बो…” पलाश ने अपने फ्लैट की साइड की बालकनी से अपनी माशूका बिब्बो के बैडरूम से लगी बालकनी में कूद कर उस के बैडरूम के दरवाजे पर दस्तक दी, लेकिन भीतर से कोई जवाब नहीं आया.

उसे उस के दरवाजे को खटखटाते 5 मिनट हो गए कि तभी पलाश ने देखा बिब्बो के फ्लैट के ठीक सामने ड्यूटी पर तैनात उन की सोसाइटी का गार्ड शायद उस की दस्तक की आवाज सुन कर उसी तरफ चला आ रहा था. उसी की वजह से वह बिब्बो के घर मेन दरवाजे से नहीं घुस पाता था. गार्ड को अपनी ओर आता देख कर पलाश के पसीने छूट गए. वह अपनेआप को उस से छिपाने के उद्देश्य से झट से नीचे बैठ गया.

करीब 5 मिनट बाद उस ने धीमे से उचकते हुए देखा, गार्ड जा चुका था. उस ने चैन की सांस ली. तभी उसे खयाल आया वह बिब्बो को फोन ही कर देता. वह उसे फोन लगा कर धीमे से फुसफुसाया “बिब्बो… दरवाजा खोलो भई. कितनी देर से तुम्हारी बालकनी में खड़ा हूं.”

“सौरी जानू, नहा रही थी.”

“अब दरवाजा तो खोलो.”

“अभी आई.”

तभी दरवाजा खुला और पलाश झपट कर भीतर घुस गया और चैन की सांस लेते हुए बोला, “यह कमीना गार्ड, इतनी सी देर में उस ने यहां के 10 चक्कर लगा लिए. कुछ ज्यादा ही चौकीदारी करता है यह.”

“ओ जानू, क्यों अपसेट हो रहे हो. जाने दो, उस का तो काम ही है चौकीदारी करना. अब वह तो करेगा ही न. चलो अब यह बताओ जरा, आज मैं कैसी लग रही हूं?”

“गजब ढा रही हो जानेमन. तुम तो हमेशा ही बिजली गिराती हो स्वीटू. तभी तो मैं तुम पर फिदा हूं. चलो अब दूरदूर रह कर मुझे टौर्चर मत करो,” यह कहते हुए पलाश ने हाथ बढ़ा कर बिब्बो को अपनी ओर खींच लिया और बांहों में भर उसे बेहताशा चूमने लगा.

ये भी पढ़ें- आशा नर्सिंग होम: क्यों आशीष से दूर हो गई रजनी

करीब घंटे भर तक प्रेम सागर में गोते लगा कर एकदूसरे से तृप्त हो कर दोनों प्रेमियों को समय का भान हुआ तो पलाश बोला, “1 बजने आए. मैं चलता हूं. गौरा आ जाएगी.”

“गौरा कहां गई है?”

“उस की मां बीमार है. उन्हें देखने गई है.”

“अच्छा.”

“तो ठीक है जान, कल मिलते हैं.”

“ओके स्वीटहार्ट, बायबाय”, यह कहते हुए पलाश बालकनी में आया. वह बालकनी की नीची दीवार पर पैर रखते हुए नीचे कूदा, लेकिन न जाने कैसे उस का संतुलन बिगड़ गया और वह पलक झपकते ही अपनी बालकनी में उतरने की बजाय उसके बाहर अपनी सोसाइटी के कैंपस में गिर गया.

उसे यों सोसाइटी के कैंपस में गिरते देख अपनी बालकनी में खड़ी बिब्बो आननफानन में लगभग दौड़ती हुए बदहवास उस के पास पहुंची. पलाश को यों अविचल जमीन पर पड़े देख बिब्बो का कलेजा मुंह में आ गया और उस ने उस का हाथ पकड़ कर हिलाया, “पलाश…पलाश… आंखें खोलो,” लेकिन उस के शरीर में कोई हरकत नहीं हुई.

तभी वह दौड़ कर भीतर अपने फ्लैट में गई और एक गिलास में पानी ले आई और उस के चेहरे पर छींटे मारने लगी. 5 मिनट में उसे होश आ गया, लेकिन वह सामान्य नहीं लग रहा था. वह फटीफटी निगाहों से बिब्बो को देख रहा था. उस की शून्य में ताकती दृष्टि से परेशान हो बिब्बो ने उसे झिंझोड़ा और उस से कहा, “पलाश उठो, क्या हुआ? कैसे गिर गए? अपना बैलेंस लूज कर दिया तुम ने,” लेकिन पलाश कुछ नहीं बोला.
इस बार तनिक घबराते हुए उस ने उस के कंधों को थाम उसे उठाने का प्रयास किया, “उठो पलाश, प्लीज उठो. तुम्हें यहां गिरा हुआ देख कर लोग बातें बनाएंगे.”

संयोग से अभी तक पलाश को वहां गिरते हुए किसी ने नहीं देखा था. उस वक्त गार्ड भी अपनी जगह पर नहीं था. उन दोनों को यों साथ देख लेने के खौफ से बिब्बो का घबराहट से बहुत बुरा हाल था. उस ने अपना पूरा दम लगा कर उसे उठाया और अपना सहारा दे उसे उस के फ्लैट में पहुंचा दिया.

पलाश अभी तक सामान्य नहीं था. उसे यों फटीफटी निगाहों से अपने चारों ओर ताकते देख वह बेहद घबरा गई. ‘उसे कोई अंदरूनी चोट तो नहीं लगी’, इस सोच ने उसे बेहद परेशान कर दिया.

ये भी पढ़ें- जिस्म का मुआवजा: क्या हुआ था मगनाबाई के साथ

वह सोचने लगी, ‘पलाश सामान्य बिहेव नहीं कर रहा. उस के ऊंचाई से गिरने की बात उसकी पत्नी गौरा को बिना बताए नहीं चलने वाला, लेकिन उसे वह कैसे बताए कि वह अपनी बालकनी से उस की बालकनी में कूदने की कोशिश में गिरा. यह तो वह बुरी फंसी.’

घबराहट से उस के होश फाख्ता होने लगे कि तभी पलाश की बालकनी में रखे झाड़न और एक ऊंचे स्टूल को देख कर उस ने सोचा, ‘मैं गौरा से कह दूंगी, पलाश अपनी बालकनी में लगे एसी के ऐक्सटर्नल यूनिट को साफ करने के लिए स्टूल पर चढ़ा था और वह उस से गिर गया. उस समय संयोग से वह भी अपनी बालकनी में थी और वह उस के सामने गिरा था.’

तनिक देर तक सोचविचार कर उस ने सोचा, ‘हां यही बहाना ठीक रहेगा,’ इस खयाल से उस की व्यग्रता तनिक कम हुई और उस ने झट से पलाश से कहा, “पलाश, मैं अभी बिब्बो को फोन करने जा रही हूं. वह तुम से पूछे कि तुम कैसे गिरे तो तुम्हें कहना है कि तुम उस स्टूल पर एसी की यूनिट साफ करने के लिए चढ़े थे और वहां से गिर गए. ठीक है न? प्लीज, यही बहाना बनाना ठीक रहेगा. और कुछ मत कहना. ओके पलाश, तुम मुझे सामान्य नहीं लग रहे. तुम्हें चैकअप के लिए अस्पताल ले ही जाना होगा, कहीं कोई अंदरूनी चोट न आई हो,” उस से यह कहते हुए बिब्बो ने गौरा को फोन कर उसे फौरन घर आने की ताकीद की.

10-15 मिनट में तो गौरा अपनी मां के घर से लौट आई. पलाश को गिरे हुए करीब घंटा बीत चला था, लेकिन वह अभी भी सामान्य नहीं हुआ था. उस की यह हालत देख कर गौरा पलाश को घर के निकट एक अस्पताल ले गई. बिब्बो उस के साथ साथ अस्पताल गई. उस के मन में अपराध भावना थी कि पलाश उस की वजह से दुर्घटनाग्रस्त हुआ. उस आड़े वक्त में बिब्बो उस के साथसाथ रही. वह अपने घर से एक बड़ी रकम अपने साथ ले गई.

पलाश की पत्नी गौरा मात्र बीए पास, सीधीसादी घरेलू किस्म की औरत थी जिस की दुनिया महज घरगृहस्थी, पति, बच्चों तक ही सीमित थी. वह पुरुषों से पूरे आत्मविश्वास से बात न कर पाती. यहां जयपुर में उस का ऐसा कोई रिश्तेदार न था जो इस मुश्किल घड़ी में अस्पताल के मसलों में उस की मदद कर पाता.

ये भी पढ़ें- मझधार: हमेशा क्यों चुपचाप रहती थी नेहा ?

गौरा के मायके में मात्र वृद्धा विधवा मां थी जो अपनी किशोरवय की बेटी के साथ रहतीं. वह बड़ी मुश्किल से लोगों के कपड़े सील कर अपना और अपनी बेटी का पेट पालती. उस के ससुराल में भी उस के मात्र वयोवृद्ध ससुर थे, जो जयपुर के पास के एक गांव में अपनी वृद्धा बहन के साथ रहा करते. इसलिए गौरा को दोनों ही पक्षों से किसी तरह के सहारे की कोई उम्मीद न थी .

आगे पढ़ें- उधर पलाश गिरने के बाद पूरी…

घुंघरू: भाग 2- राजा के बारे में क्या जान गई थी मौली

लेखक – पुष्कर पुष्प  

‘‘हमारे लिए भी नहीं?’’ समर सिंह ने अपमान का सा घूंट पीते हुए गुस्से में कहा, तो मौली के पिता बोले, ‘‘आप के लिए नाचेगी हुकुम…जरूर नाचेगी. लेकिन उस के साथ मानू का होना जरूरी है. सारा गांव जानता है, मौली और मानू दो जिस्म एक जान हैं. अलग कर के सिर्फ दो लाशें रह जाएंगी. उन्हें अलग करना सम्भव नहीं है.’’

‘‘तुम्हारे मुंह से बगावत की बू आ रही है. …और हमें बागी बिल्कुल पसंद नहीं.’’ समर सिंह गुस्से में बोले, ‘‘मौली को खुद महल लेकर आते तो हम मालामाल कर देते तुम्हें, लेकिन अब हम खुद उसे साथ लेकर जाएंगे. जाकर तैयार करो उसे, यह हमारा हुक्म है.’’

अच्छा तो किसी को नहीं लगा, लेकिन राजा की जिद के सामने किस की चलती? आखिरकार वही हुआ, जो समर सिंह चाहते थे. रोतीबिलखती मौली को उन के साथ जाने को तैयार कर दिया गया. विदा बेला में मौली ने पहली बार मानू का हाथ थाम कर कहा, ‘‘मौली तेरी है मानू, तेरी ही रहेगी. राजा इस लाश से कुछ हासिल नहीं कर पाएगा.’’

मानू के होंठों से जैसे शब्द रूठ गए थे. वह पलकों में आंसू समेटे चुपचाप देखता रहा. आंसू और भी कई आंखों में थे, लेकिन राजा के भय ने उन्हें पलकों से बाहर नहीं आने दिया. अंतत: मौली राखावास से राजा के साथ विदा हो गई.

राखावास में देवल, राठौर और नाड़ीबट््ट रहते थे. मौली और मानू दोनों ही नट जाति के थे. दोनों साथसाथ खेलतेकूदते बड़े हुए थे. दोनों के परिवारों का एक ही पेशा था, नाचगाना और भेड़बकरियां पालना. मानू के पिता की झील में डूबने से मौत हो गई थी. घर में मां के अलावा कोई न था. जब यह हादसा हुआ, मानू कुल नौ साल का था. पिता की मौत के बाद मां ने कसम खा ली कि वह अब जिंदगी भर न नाचेगी, न गाएगी. घर में 10-12 भेड़बकरियों के अलावा आमदनी का कोई साधन नहीं था. भेड़बकरियां मांबेटे का पेट कैसे भरतीं? फलस्वरूप घर में रोटियों के लाले पड़ने लगे. कभीकभी तो मानू को जंगली झरबेरियों के बेर खा कर दिन भर भेड़बकरियों के पीछे घूमना पड़ता था.

ये भी पढ़ें- सुख की पहचान: कैसे छूटी सतीश की शराब पीने की आदत?

मौली बचपन से मानू के साथ रही थी. वह उस का दर्द समझती थी. उसे मालूम था, मानू कितना चाहता है उसे. कैसे अपने बदन को जख्मी कर के झरबेरियों में से कुर्ते की झोली भरभर लाललाल बेर लाता था उस के लिए… और बकरियों के पीछे भागतेदौड़ते उस के पांव में कांटा भी चुभ जाता था, तो कैसे तड़प उठता था वह. खून और दर्द रोकने के लिए उस के गंदे पांवों के घाव पर मुंह तक रखने से परहेज नहीं करता था वह.

अमीर तो मौली का परिवार भी नहीं था. बस, जैसेतैसे रोजीरोटी चल रही थी. मौली को जो भी घर में खाने को मिलता, उसे वह अकेली कभी नहीं खाती. बहाना बना कर भेड़बकरियों के पीछे साथ ले जाती. फिर किसी बड़े से पत्थर पर बैठ कर अपने हाथों से मानू को खिलाती. मानू कभी कहता, ‘‘मेरे नसीब में भूख लिखी है. मेरे लिए तू क्यों भूखी रहती है?’’ तो मौली उस के कंधे पर हाथ रख कर, उस की आंखों में झांकते हुए कहती, ‘‘मेरी आधी भूख तुझे देख कर भाग जाती है और आधी, रोटी खा कर. मैं भूखी कहां रहती हूं मानू?’’

इसी तरह भेड़बकरियां चराते, पहाड़ी ढलानों पर उछलकूद मचाते मानू चौदह साल का हो गया था और मौली बारह साल की. दुनियादारी को थोड़ाबहुत समझने लगे थे दोनों. इस बीच मानू की मां उस के पिता की मौत के गम को भूल चुकी थी. गांव के ही एक दूसरे आदमी का हाथ थाम कर अपनी दुनिया आबाद कर ली थी उस ने. सौतेला बाप मानू को भी साथ रखने को तैयार था, लेकिन उस ने इनकार कर दिया.

मानू और मौली जानते थे, नाचगाना उन का खानदानी पेशा है. थोड़ा और बड़ा होने पर उन्हें यही पेशा अपनाना पड़ेगा. उन्हें यह भी मालूम था कि उन के यहां जो अच्छे नाचनेगाने वाले होते हैं, उन्हें राजदरबार में जगह मिल जाती है. ऐसे लोगों को धनधान्य की कमी नहीं रहती. हकीकतों से अनभिज्ञ वे दोनों सोचते, बड़े होकर वे भी कोशिश करेंगे कि उन्हें राज दरबार में जगह मिल जाए.

एक दिन बकरियों के पीछे दौड़ते, पत्थर से टकरा कर मौली का पांव बुरी तरह घायल हो गया. मानू ने खून बहते देखा, तो कलेजा धक से रह गया. उस ने झट से अपना कुर्ता उतार कर खून पोंछा. लेकिन खून था कि रुकने का नाम नहीं ले रहा था. मानू का पूरा कुर्ता खून से तर हो गया, पर खून नहीं रुका. चोट मौली के पैर में लगी थी, पर दर्द मानू के चेहरे पर झलक रहा था. उसे परेशान देख मौली बोली, ‘‘कुर्ता खून में रंग दिया, अब पहनेगा क्या?’’

हमेशा की तरह मानू के चेहरे पर दर्दभरी मुस्कान तैर आई. वह खून रोकने का प्रयास करते हुए दुखी स्वर में बोला, ‘‘कुर्ता तेरे पांव से कीमती नहीं है. दसपांच दिन नंगा रह लूंगा, तो मर नहीं जाऊंगा.’’

काफी कोशिशों के बाद भी खून बंद नहीं हुआ, तो मानू मौली को कंधे पर डाल कर झील के किनारे ले गया. मौली को पत्थर पर बैठा कर उस ने झील के जल से उस का पैर धोया. आसपास झील का पानी सुर्ख हो गया. फिर भी खून था कि रुकने का नाम नहीं ले रहा था.

कुछ नहीं सूझा तो मानू ने अपने खून सने कुर्ते को पानी में भिगो कर उसे फाड़ा और पट्टियां बदलबदलकर घाव पर रखने लगा. उस की यह युक्ति कारगर रही. थोड़ी देर में मौली के घाव से खून बहना बंद हो गया. उस दिन मौली को पहली बार पता चला कि मानू उसे कितना चाहता है. मानू मौली का पांव अपनी गोद में रखे धीरेधीरे घाव को सहला रहा था, ताकि दर्द कम हो जाए. तभी मौली ने उसे टोका, ‘‘खून बंद हो चुका है, मानू. दर्द भी कम हो गया. तेरे शरीर पर, धवले (लुंगी) पर खून के दाग लगे हैं. नहा कर साफ कर ले.’’

मौली का पैर थामे बैठा मानू कुछ देर शांत भाव से झील को निहारता रहा. फिर उस की ओर देख कर उद्वेलित स्वर में बोला, ‘‘झील के इस जल में तेरा खून मिला है मौली. मैं इस झील में कभी नहीं नहाऊंगा… कभी नहीं.’’

थोड़ी देर शांत रहने के बाद मानू उसके पैर को सहलाते हुए गम्भीर स्वर में बोला, ‘‘अपने ये पैर जिंदगी भर के लिए मुझे दे दे मौली. मैं इन्हें अपने हाथों से सजाऊंगा, सवारुंगा.’’

ये भी पढ़ें- चौकलेट चाचा: आखिर क्यों फूटा रूपल का गुस्सा?

‘‘मेरा सब कुछ तेरा है मानू’’ मौली उस के कंधे पर हाथ रख कर उस की आंखें में झांकते हुए बोली, ‘‘सब कुछ. अपनी चीज को कोई खुद से मांगता है क्या?’’

पलभर के लिए मानू अवाक रह गया. उसे वही जवाब मिला था, जो वह चाहता था. वह मौली की ओर देख कर बोला, ‘‘मौली, अब हम दोनों बड़े हो चुके हैं, ज्यादा दिन इस तरह साथसाथ नहीं रह पाएंगे. लोग देखेंगे, तो उल्टीसीधी बातें करेंगे. जबकि मैं तेरे बिना नहीं रह सकता. हमें ऐसा कुछ करना होगा, जिस से जिंदगी भर साथ न छूटे.’’

‘‘ऐसा क्या हो सकता है?’’ मौली ने परेशान से स्वर में पूछा, तो मानू सोचते हुए बोला, ‘‘नाचनागाना हमारा खानदानी पेशा है न, हम वही सीखेंगे. तू नाचेगीगाएगी, मैं ढोलक बजाऊंगा. हम दोनों इस काम में ऐसी महारत हासिल करेंगे कि दो जिस्म एक जान बन जाएं. कोई हमें अलग करने की सोच भी न सके.’’

मौली खुद भी यही चाहती थी. वह मानू की बात सुन कर खुश हो गई. मौली का पांव ठीक होने में एक पखवाड़ा लगा और मानू को दूसरा कुर्ता मिलने में भी. इस बीच वह पूरे समय नंगा घूमता रहा. आंधी, धूप या बरसात तक की चिंता नहीं की उस ने. उसे खुशी थी कि उस का कुर्ता मौली के काम तो आया.

मानू के पिता की ढफ घर में सहीसलामत रखी थी. कभी उदासी और एकांत के क्षणों में बजाया करता था वह उसे. मौली का पैर ठीक हो गया, तो एक दिन मानू उसी ढफ को झाड़पोंछ कर ले गया जंगल. मौली अपने घर से घुंघरू ले कर आई थी.

आगे पढ़ें-  समय के साथ मानू और मौली का…

ये भी पढ़ें- देहरी के भीतर: क्या था तीसरी मंजिल का रहस्य?

घुंघरू: भाग 1- राजा के बारे में क्या जान गई थी मौली

लेखक – पुष्कर पुष्प  

मनचाहा शिकार तो मिल गया, लेकिन शिकारी थक कर चूर हो चुका था. एक तो थकान, दूसरे ढलती सांझ और तीसरे सात कोस का सफर. उस में भी दो कोस पहाड़ी चढ़ाई, फिर उतनी ही ढलान. समर सिंह ने पहाड़ी के पीछे डूबते सूरज पर निगाह डाल कर घोड़े की गर्दन पर हाथ फेरा. फिर घोड़े की लगाम थामे खड़े सरदार जुझार सिंह को टोकते हुए थके से स्वर में बोले, ‘‘अंगअंग दुख रहा है, सरदार! …ऊपर से सूरज भी पीठ दिखा गया. धुंधलका घिरने वाला है, अंधेरे में कैसे पार करेंगे इस पहाड़ी को?’’

जुझार सिंह थके योद्धा की तरह सामने सीना ताने खड़ी पहाड़ी पर नजर डालते हुए बोले, ‘‘थक तो हम सभी गए हैं, हुकुम. सफर जारी रखा, तो और भी बुरा हाल हो जाएगा. अंधेरे में रास्ता भटक गए तो अलग मुसीबत. मेरे ख्याल से तो…’’ जुझार सिंह की बात का आशय समझते हुए समर सिंह बोले, ‘‘लेकिन इस बियाबान जंगल में रात कैसे कटेगी? हम लोगों के पास तो कोई साधन भी नहीं है. ऊपर से जंगली जानवारों का अलग डर.’’

पीछे खड़े सैनिक समर सिंह और जुझार सिंह की बातें सुन रहे थे. उन दोनों को चिंतित देख एक सैनिक अपने घोड़े से उतरकर सरदार के पास आया और सिर झुका कर खड़ा हो गया. सरदार समझ गए, सैनिक कुछ कहना चाहता है. उन्होंने पूछा, तो सैनिक उत्साहित स्वर में बोला, ‘‘सरदार, अगर रात इधर ही गुजारनी है, तो सारा बंदोबस्त हो सकता है. आप हुक्म करें.’’

‘‘क्या बंदोबस्त हो सकता है, मोहकम सिंह?’’ जुझार सिंह ने सवाल किया, तो सैनिक दाईं ओर इशारा करते हुए बोला, ‘‘इस छोटी सी पहाड़ी के पार मेरा गांव है. बड़ी खूबसूरत रमणीक जगह है उस पार. इस पहाड़ी को पार करने के लिए हमें सिर्फ एक कोस चलना पड़ेगा. आधे कोस की चढ़ाई और उस ओर की आधे कोस ढलान. रास्ता बिलकुल साफ है. अंधेरा घिरने से पहले हम गांव पहुंच जाएंगे. मेरे गांव में हुकुम को कोई तकलीफ नहीं होगी.’’

ये भी पढ़ें- जब मियांबीवी राजी तो: झूमुर ने क्या किया था

जुझार सिंह ने प्रश्नसूचक नजरों से समर सिंह की ओर देखा. वह शांत भाव से घोड़े की पीठ पर बैठे थे. उन्हें चुप देख सरदार ने कहा, ‘‘सैनिक की सलाह बुरी नहीं है हुकुम. रात भी चैन से बीत जाएगी और इस बहाने आप अपनी प्रजा से मिल भी लेंगे. जो लोग आप के दर्शन को तरसते हैं, आप को सामने देख पलकें बिछा देंगे.’’

…और ऐसा ही हुआ था. मोहकम सिंह का प्रस्ताव स्वीकार करके जब समर सिंह अपने साथियों के साथ उसके गांव पहुंचे, तो गांव वालों ने उनके आगे सचमुच पलकें बिछा दीं.

छोटा सा पहाड़ी गांव था, राखावास. साधन विहीन. फिर भी वहां के लोगों ने अपने राजा के लिए ऐसेऐसे इंतजाम किए, जिन की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी. हुकुम के आने से मोहकम सिंह को तो जैसे पर लग गए थे. उस ने गांव के युवकों को एकत्र कर के सूखी मुलायम घास का आरामदेह आसन लगवाया. उस पर सफेद चादर बिछवाई. सरदार के लिए अलग आसन का प्रबंध किया और सैनिकों के लिए अलग. चांदनी रात थी, फिर भी लकडि़यां जला कर रोशनी की गई.

आननफानन में सारा इंतजाम कराने के बाद गांव के कुछ जिम्मेदार लोगों को शिकार भूनने और बनाने की जिम्मेदारी सौंप कर मोहकम सिंह घोड़ा दौड़ाता हुआ दो कोस दूर समलखा गांव गया और वहां से वीरन देवल से चार बोतल संतूरी ले आया. राजस्थान की बेहतरीन शराब, जो केवल राजामहाराजाओं के लिए बनाई जाती थी.

उन का अदना सा एक सिपाही कितने काम का साबित हो सकता है, यह बात समर सिंह को तब पता चली, जब उस के अपने हाथों मारे गए शिकार का जायकेदार गोश्त परोसा गया, भोजन के साथ संतूरी का लुत्फ लेते हुए उन की नजर घुंघरू छनका कर मस्त अदाओं के साथ नाचती मौली पर पड़ी. ऐसा रूपलावण्य, ऐसा अछूता सौंदर्य, ऐसा मदमाता यौवन और अंगअंग में ऐसी लोच, समर सिंह ने पहली बार देखी थी. उन के महल तक में नहीं थी, ऐसी अनिंद्य सुंदरी. ऊपर से फिजाओं में रंग बिखेरती मौली का सधा हुआ स्वर और एक ही ताल पर बजते घुंघरूओं की झंकार. रहीसही कसर मानू की ढोलक की थाप पूरी कर रही थी. घुंघरूओं की रुनझुन और ढोलक की थाप को सुन लगता था, जैसे दोनों एक दूसरे के पूरक हों.

पूरक थे भी. मौली का सधा स्वर, घुंघरूओं की रुनझुन और मानू की ढोलक की थाप ही नहीं, बल्कि वे दोनों भी. यह अलग बात थी कि इस बात को गांव वाले तो जानते थे, पर समर सिंह और उन के साथी नहीं.

मौली और मानू खूब खुश थे. उन्हें यह सोच कर खुशी हो रही थी कि अपने राजा का मनोरंजन कर रहे हैं. इस के लिए उन दोनों ने अपनी ओर से भरपूर कोशिश भी की. लेकिन उन की सोच, उनके उत्साह, उन के समर्पण भाव और कला पर पहली बिजली तब गिरी, जब शराब के नशे में झूमते राजा समर सिंह ने मौली को पास बुला कर उस का हाथ पकड़ते हुए कहा, ‘‘आज हम ने अपने जीवन में सब से बड़ा शिकार किया है. हमारी शिकार यात्रा सफल रही. ये रात कभी नहीं भूलेगी.’’

ये भी पढ़ें- बबूल का माली: क्यों उस लड़के को देख चुप थी मालकिन

इस तरह मौली का हाथ कभी किसी ने नहीं पकड़ा था. मानू ने भी नहीं. उसे मानू के हाथों का स्पर्श अच्छा लगता था. लेकिन उस ने उस के पैरों के अलावा कभी किसी अंग को नहीं छुआ था. मौली के पैरों में भी उस के हाथों का स्पर्श तब होता था, जब वह अपने हाथों से उस के पैरों में घुंघरू बांधता था.

मौली को राजा द्वारा यूं हाथ पकड़ना अच्छा नहीं लगा. उस ने हाथ छुड़ाने की कोशिश की, तो समर सिंह उस की कलाई पर दबाव बढ़ाते हुए बोले, ‘‘आज के बाद तुम सिर्फ हमारे लिए नाचोगी, हमारे महलों में. हम मालामाल कर देंगे, तुम्हें और तुम्हारे घरवालों को ही नहीं, इस गांव को भी.’’

घुंघरूओं की झनकार भी थम चुकी थी और ढोलक की थाप भी. सब लोग विस्मय से राजा की ओर देख रहे थे. कुछ कहने की हिम्मत किसी में नहीं थी. मानू भी अवाक बैठा था. मौली राजा से हाथ छुड़ाने की कोशिश करते हुए बोली, ‘‘मौली रास्ते की धूल है हुकुम… और धूल उन्हीं रास्तों पर अच्छी लगती है, जो उस की गगनचुंबी उड़ानों के बाद भी उसे अपने सीने में समेट लेते हैं. इस खयाल को मन से निकाल दीजिए हुकुम. मैं इस काबिल नहीं हूं.’’

समर सिंह ने लोकलाज की वजह से मौली का हाथ तो छोड़ दिया, लेकिन उन्हें मौली की यह बात अच्छी नहीं लगी.

रात बड़े ऐश ओ आराम से गुजरी. मोहकम सिंह और गांव वालों ने हुकुम तथा उन के साथियों की खातिरतवज्जो में कोई कसर न उठा रखी थी. सुबह जब सूरज की किरणों ने पहाड़ से उतर कर राखावास की मिट्टी को छुआ, तो वहां का कणकण निखर गया. राजा समर सिंह ने उस गांव का प्राकृतिक सौंदर्य देखा तो लगा, जैसे स्वर्ग के मुहाने पर बैठे हों. मौली की तरह ही खूबसूरत था उस का गांव. चारों ओर खूबसूरत पहाडि़यों से घिरा, नीलमणि से जलवाली आधा कोस लंबी झील के किनारे स्थित. पहाड़ों से उतर कर आने वाले बरसाती पानी का करिश्मा थी वह झील.

रवाना होने से पहले समर सिंह ने मौली के मांबाप को तलब किया. दोनों हाथ जोड़े आ खड़े हुए, तो समर सिंह बोले, ‘‘तुम्हारी बेटी महल की शोभा बनेगी. उसे ले कर महल आ जाना. हम तुम्हें मालामाल कर देंगे.’’

‘‘मौली को हम महल ले आएंगे हुकुम.’’ मौली के मांबाप डरतेसहमते बोले, ‘‘नाचनागाना हमारा पेशा है, पर मौली के साथ मानू को भी आप को अपनी शरण में लेना पड़ेगा. उस के बिना तो मौली का पैर तक नहीं उठ सकता.’’

‘‘हम समझे नहीं.’’ समर सिंह ने आश्चर्य मिश्रित स्वर में पूछा, तो मौली के पिता बोले, ‘‘मौली और मानू बचपन के साथी हैं. नाचगाना भी दोनों ने साथसाथ सीखा. बहुत प्यार है दोनों में. मौली तभी नाचती है, जब मानू खुद अपने हाथों उस के पांव में घुंघरू बांध कर ढोलक पर थाप देता है. आप लाख साजिंदे बैठा दें, मौली नहीं नाचेगी हुकुम… इस बात को सारा इलाका जानता है.’’

आगे पढ़ें- अच्छा तो किसी को नहीं लगा, लेकिन राजा की…

ये भी पढ़ें- सुहानी गुड़िया: सलोनी से क्यों मांगी उसने माफी

घर का न घाट का: भाग 4- सुरेश ने कौनसा धोखा दिया था

सुदेश की मां ने अपने पति को आड़े हाथों लिया, ‘‘मुझे तो दाल में काला पहले ही नजर आया था, पर तब कैसे ठसक कर बोले थे कि तुझे तो चांद में भी दाग नजर आता है.’’ सुदेश के पिता ने माथा पीट लिया, ‘‘वाकई मेरी आंखें चुंधियां गई थीं. हमें अपनी हैसियत देखनी चाहिए थी. हमारे लिए तो सतवंत जैसा सीधासादा आदमी ही ठीक रहता.’’ अगले दिन सतवंत ने सुदेश के पिता से अकेले में बातचीत की. क्लीवलैंड में जो कुछ हुआ, उस के बारे में बतलाया और वकील दोस्त द्वारा दिए गए जरूरी कागज संभलवाए. इन में सुरेश और सूजेन की क्लीवलैंड में 6 साल पहले हुई शादी की रजिस्ट्री की नकल भी थी. वहां के एक साप्ताहिक में प्रकाशित नवदंपती का चित्र और शादी के प्रकाशित समाचार की कतरनें भी थीं.

सतवंत ने कहा, ‘‘आप पूरे मामले पर ठंडे दिमाग से सोच लें. दोस्तों और रिश्तेदारों से सलाह ले लें, फिर जैसा उचित समझें, करें. यहां की अदालत में धोखाधड़ी का मुकदमा चलाया जा सकता है. सुरेश को दिन में तारे नजर आ जाएंगे. यहां आ कर पैरवी करने में नानी याद आ जाएगी. अखबारों में भी खबरें छपेंगी. खानदान की शान की सब ठसक निकल जाएगी. इस से विदेशों में बसे उन भारतीयों को भी सबक मिलेगा, जो इस तरह की हरकतें करते हैं.’’ अंतिम वाक्य कहतेकहते उस का गला भर आया. आंखों से आंसू झरने लगे. तब उस ने अपनी इकलौती बहन का किस्सा सुनाया. सुदेश के पिता ने उसे छाती से लगा लिया. आंसू पोंछे. अपनी गरीबी, साधनहीनता का दुखड़ा रोया. मुकदमे की भागदौड़, परेशानी उठाने में असमर्थता प्रकट की. सतवंत ने यह कह कर विदा ली, ‘‘मेरे लायक सेवा हो तो बता देना. अमृतसर का मेरा यह पता है. मुझे तो टैक्सी चलानी है. वहां नहीं, यहीं चला लूंगा. जैसा ठीक समझें, तय कर लें.’’

ये भी पढ़ें- दूसरा भगवान : डाक्टर रंजन पर कौनसी आई मुसीबत

सुदेश के पिता ने अपनी पत्नी से बात की. दोनों ने सुदेश के दिल की थाह ली. वह सुरेश के साथ किसी कीमत पर रहने को तैयार नहीं थी. सगेसबंधियों से राय ली. 15 दिनों बाद अदालत में मुकदमा दायर किया गया. सुरेश ने सूजेन से समझौते की बहुत कोशिश की पर वह तलाक पर अडिग थी. करोड़पति बाप की उस बेटी को पतियों की क्या कमी थी? उसे सब से बड़ा मलाल यह था कि सुरेश ने उस से झूठ क्यों बोला. सुदेश को नौकरानी बतलाया. अनजाने में सुदेश के प्रति किए गए अपने व्यवहार के लिए वह बहुत लज्जित थी. वह सुदेश को खोज कर उस से माफी मांगने को आतुर थी. सुदेश के प्रति किए गए अपमानजनक व्यवहार का उसे एक ही प्रायश्चित्त नजर आ रहा था, सुरेश से तलाक.

तलाक का मतलब सुरेश के लिए अपने अस्तित्व पर ही कुठाराघात था. यह नौकरी तो हाथ से जा ही रही थी, अन्य कहीं पर भी ढंग की नौकरी मिलने की उम्मीद नहीं थी. जहां भी जाएगा, पुरानी कंपनी में किए गए अच्छे काम का प्रमाणपत्र देना होगा. झूठ बोल कर तिकड़मबाजी कर के नौकरी मिल भी गई तो देरसवेर नई कंपनी वाले पुरानी कंपनी से रिपोर्ट अवश्य मांगेंगे. उस का भविष्य बालू की तरह बह जाने वाला था. तभी भारत से, अंबाला की अदालत से, कचहरी में पेश होने का सम्मन पहुंचा. कोढ़ में खाज. सुरेश ने सिर पीट लिया. उस ने घर वालों को लिखा कि सुदेश को गलतफहमी हो गई है. समझाबुझा कर, मामला रफादफा करा दें. सुरेश के पिता अंबाला जा कर सुदेश के पिता से मिले और सब जान कर स्वयं विस्मित रह गए. उन्होंने सुदेश के पिता को मुकदमा वापस लेने के लिए बहुत मिन्नतखुशामद की. लेदे कर मामला खत्म करने की बात की. बिचौलियों द्वारा 50 लाख रुपए तक की पेशकश की. उन से कहा, ‘‘इस रकम से वे सुदेश की कहीं दूसरी जगह शादी कर दें.’’

सुदेश किसी कीमत पर समझौता करने को तैयार नहीं थी. नारी के प्रतिशोध की अग्नि सहज ही ठंडी नहीं होती. सूजेन ने भी सुरेश को नहीं स्वीकारा, नौकरी भी गई और पत्नी भी. इधर मुकदमा शुरू हो गया था. उसे भारत आना पड़ा. वह कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रह गया था. अंबाला आ कर उस ने सुदेश के घर वालों से माफी मांगी, सुदेश के सामने गिड़गिड़ाया. किसी समय किए अपने प्यार की दुहाई दी, पर सुदेश ने अपने दिल की स्लेट पर से उस का नाम सदासदा के लिए मिटा दिया था. मुकदमे की हर तारीख से सुरेश के कदम जेल के फाटक की तरफ बढ़ते गए. उस के नामीगरामी वकील द्वारा फैलाया गया गलतफहमी का कुहरा सचाई की किरणें सहन नहीं कर पाता था और जब सुदेश के वकील ने क्लीवलैंड से आया सूजेन का वह पत्र अदालत में पढ़ कर सुनाया, जिस में उस ने सुदेश से अपने व्यवहार के लिए माफी मांगने के अतिरिक्त यह भी लिख रखा था कि यदि जरूरत पड़े तो वह भारत आ कर गवाही देने को भी तैयार है, तो सुरेश की पैरवी में कोई दम ही नहीं रह गया था.

अगली तारीख पर निर्णय सुना दिया गया. सुरेश को 3 साल के कठोर कारावास का दंड दिया गया. हरजाने के तौर पर 50 हजार रुपया सुदेश को दिए जाने का भी आदेश था अन्यथा कारावास की अवधि 2 वर्ष और बढ़ा दी जानी थी.

ये भी पढ़ें- डायन : केशव ने कैसे की गेंदा की मदद

न्यायाधीश ने अपने निर्णय में टिप्पणी देते हुए प्रवासी भारतीयों के साथ अपनी पुत्रियों का विवाह करने वाले अभिभावकों को चेतावनी दी कि उस देश में स्थित भारतीय दूतावास के माध्यम से उन्हें संबंधित व्यक्ति के संबंध में पहले पूरी जानकारी कर लेनी चाहिए, तभी रिश्ता पक्का करना चाहिए. आंख ओझल पहाड़ ओझल. वहां उन के साथ क्या बीतती है, कौन जाने? कितनी लड़कियां अदालत का द्वार खटखटाती हैं? साहसिक कदम उठाने के लिए सुदेश की भूरिभूरि सराहना की गई. उसे अपने मनपसंद व्यक्ति से विवाह करने की छूट दे दी गई.

सैकड़ों आंखों का केंद्र बनी सुदेश जब अदालत के कमरे से बाहर निकली तो सतवंत अपनी टैक्सी के पास टहल रहा था. सुदेश की आंखों से खुशी के, विजय के आंसू निकल पड़े. वह सतवंत की तरफ बढ़ी, एक क्षण ठिठकी और फिर उस के कंधे पर हाथ रख कर उस की छाती पर अपना सिर टिका दिया.

अगले रविवार को एक साधारण से समारोह में सुदेश और सतवंत का विवाह हो गया.

सुरेश कहीं का नहीं रह गया था. न घर का, न घाट का.

घर का न घाट का: भाग 3- सुरेश ने कौनसा धोखा दिया था

रात के 12 बज रहे थे. रास्ता ठीक तरह मालूम नहीं था, फिर भी वह झील की तरफ चली जा रही थी. तभी एक टैक्सी पास से निकली और आगे जा कर रुक गई. सुदेश के प्राण सूख गए. आकाश से गिरी, खजूर में अटकी. जाने अब क्या हो. कौन हो? कहीं सुरेश ही तो नहीं? सुरेश नहीं था. पर जो अजनबी था वह बहुत अपना सा लग रहा था. चेहरा दाढ़ीमूंछ में छिपा था, पर ईमानदारी, भोलापन, सच्चरित्रता आंखों से छलकी पड़ रही थी. वह सरदार सतवंत सिंह टैक्सी ड्राइवर था. सुदेश ने परदेश में पहली बार किसी सरदार को देखा था. उसे लगा जैसे वह पंजाब में कहीं अपने गांव में खड़ी है. भारतीय स्त्री को देख कर सतवंत सिंह भी चौंका. वह उसे बेहद डरी हुई दिख रही थी.

सतवंत ने अनुमान लगाया कि वह झील में डूब कर आत्महत्या करने जा रही है. उस ने अधिक पूछताछ न कर के टैक्सी का पीछे का द्वार खोल कर एक प्रकार से जबरन सुदेश को भीतर ढकेल दिया. अपने डेरे पर पहुंच कर सुदेश को सब तरह से तसल्ली दे कर उस की आपबीती सुनी. सुदेश ने जब कहना बंद किया तो सतवंत सिंह की आंखें नम हो चुकी थीं. 3 साल पहले उस की अपनी सगी बहन सुरेंद्र कौर को भी कोई डाक्टर इसी प्रकार ब्याह कर ले आया था. बहुत दिनों बाद बहन ने जैसेतैसे किसी प्रकार फोन किया थी. पर जब तक सतवंत यहां तक पहुंचने का जुगाड़ कर पाया, वह जीवन से तंग आ कर आत्महत्या कर चुकी थी. उस ने ऐसे कितने ही किस्से सुनाए कि किस प्रकार प्रवासी भारतीय छुट्टियों में देश जाने पर विवाहित होते हुए भी दूसरी शादी कर लेते हैं. कोईकोई तो मोटा दहेज भी समेट लेते हैं. उस लड़की को फिर रखैल की तरह रख लेते हैं. पतिव्रता भारतीय स्त्री पति को सबकुछ मानने वाली, रोधो कर जिंदगी से समझौता कर लेती है. जिस हाल में पति रखे, उसी में खुश रहने की कोशिश करती है. कुछ तो इतने नीच होते हैं कि अपनी पत्नी को बेच तक डालते हैं.

ये भी पढ़ें- 10 साल: नानी से क्यों परेशान थे सभी ?

अकसर ऐसी शादियां चटपट हो जाती हैं. लड़के की सामाजिक और आर्थिक स्थिति का स्वदेश में किसी को पता नहीं रहता. जैसा कह दिया वैसा मान लिया. लड़कियों को भी विदेश घूमने का चाव रहता है. इस से अभिभावक का बोझ सहज ही हलका हो जाता है. कन्या के साथ क्या बीत रही है, कौन देखने आता है, किस को खबर मिलती है? सतवंत ने सुदेश के आंसू पोंछे. वह सतवंत से भारत पहुंचा दिए जाने की जल्दी कर रही थी, पर सतवंत ने कहा कि अपराधी को भी तो कुछ दंड मिलना चाहिए. उस ने अपने जानपहचान के एक वकील से सलाह की. तदानुसार उस ने सुदेश के घर फोन कर शादी पर छपे निमंत्रणपत्र की तथा शादी में खिंचे सभी फोटोग्राफों की प्रतियां मंगाईं. वकील के माध्यम से ये सब चीजें सूजेन के पिता को दिखाई गईं. वह करोड़पति एकदम भड़क गया.

सुरेश से बात करने से पहले उस ने सुरेश और सुदेश के कुछ युगल चित्र सूजेन को दिखाए. शादी के फोटो सूजेन गंभीरता से देखती रही. शायद वह उसे कोई धार्मिक रीतिरिवाज समझ रही थी. वरवधू के वेश में सुरेश व सुदेश ठीक से पहचाने भी नहीं जा रहे थे. पर नैनीताल के फोटो देख कर तो सूजेन एकदम बिदक गई. कहीं झील में नाव पर, कहीं पहाड़ी की चोटी पर, कहीं जुल्फें संवारते हुए, कहीं शरारत से मुसकराते हुए, चित्रों से दिलों की धड़कनें साफ सुनाई पड़ रही थीं. इन चित्रों में सुदेश को सूजेन ने पहचान लिया. घर पहुंचते ही उस ने सुरेश की खबर ली, ‘‘तुम तो उसे नौकरानी बताते थे. क्या तुम ने उस से शादी नहीं की है? तुम ने ऐसा क्यों किया? आखिर मुझ में क्या कमी थी? क्या मैं सुंदर नहीं थी? क्या मुझे सलीका नहीं आता था? क्या मैं कम पढ़ीलिखी थी? क्या नहीं था मुझ में? तुम्हें नौकरी दिलाई. फ्लैट का मालिक बनवाया. गाड़ी दिलाई. क्या नहीं दिया? लेकिन तुम…तुम…’’ और उस ने गुस्से में गालियां बकनी आरंभ कर दीं.

सुरेश ने समझाने की बहुत कोशिश की, पर उस रात सूजेन ने शयनकक्ष के दरवाजे नहीं खोले. स्टोर में जहां सुदेश रात काटती थी, वहीं उसे भी करवटें बदलनी पड़ीं. वह बहुत परेशान था. सुदेश गायब हो चुकी थी. वह अब कहां है, उसे इस बारे में कोई पता नहीं. हवाईअड्डे पर उस ने हुलिया लिखा दिया. यह तो वह जान चुका था कि अभी वह वहीं अमेरिका में है. वैसे उस का जाना भी मुश्किल था. उस के पास किराए के पैसे कहां थे. न ही वह कुछ तौरतरीका जानती है. पर आखिर सूजेन को किस ने भड़का दिया? वह कुछ तालमेल नहीं बैठा पा रहा था. सुदेश के गायब हो जाने की उसे इतनी चिंता नहीं थी जितनी सूजेन के ऐंठ जाने की. सोने का अंडा देने वाली मुरगी यदि किनारा कर गई तो? सुदेश के बारे में उसे लगता था कि वह रेल या ट्रक से कहीं मरकट गई होगी या उस ने किसी प्रकार से आत्महत्या कर ली होगी. उसे तो सूजेन की चिंता थी. अगले दिन कंपनी के डायरैक्टर और सूजेन के पिता ने उसे अपने कक्ष में बुलाया और स्पष्टीकरण देने के लिए कहा. सुरेश के चिंतित चेहरे को देख कर कोई भी सचाई का सहज अनुमान लगा सकता था. उस ने अपनी सफाई देते हुए कहा कि इस सारे कांड के पीछे कोई ऐसा आदमी है जो डराधमका कर अपना काम निकालना चाहता है. व्यवहारकुशल डायरैक्टर ने सुरेश को एक सप्ताह का समय दिया.

सुदेश का मन अमेरिका में बिलकुल नहीं लग रहा था. पर प्रश्न यह था कि वह घर जाने का साधन कैसे जुटाए. किस के साथ जाए? सहमतेसहमते उस ने सतवंत से अपना मंतव्य प्रकट किया. सतवंत को कोई आपत्ति नहीं थी. यहां का काम तो उस का वकील संभाल लेगा. उस की कोई विशेष आवश्यकता भी नहीं थी. केवल ठीक से पलीता लगाने की बात थी. वह काम हो ही चुका था. अब तो विस्फोट की प्रतीक्षा थी. पर सवाल यह था कि वह स्वदेश लौटे तो कैसे. सतवंत भी कोई धन्ना सेठ नहीं था. 3 साल में टैक्सी चला कर यहां जो कमाया था उस से टैक्सी खरीद ली थी. फक्कड़ आदमी था, मस्त रहता था. सुदेश ने जब अपने जेवर उस के सामने रखे तो वह उस की समझदारी का कायल हो गया, बोला, ‘‘देशी, तू ने तो पढ़ेलिखों के भी कान काट दिए.’’ वह सुदेश को ‘देशी’ कह कर पुकारता था. उसी प्रकार जैसे सूजेन सुरेश को ‘रेशी’ कह कर पुकारती थी. वहां ऐसी ही प्रथा थी. अधिक लाड़ में किसी को संबोधित करना होता था तो अंतिम 2 शब्दों पर ‘ई’ की मात्रा लगा दी जाती थी. सतवंत ने भी वतन लौटने का प्रोग्राम बना लिया. न्यूयौर्क में उस के कुछ जानकार लोग थे. टैक्सी और जेवर का ठीकठाक सौदा हो गया.

ये भी पढ़ें- झूठ बोले कौआ काटे: क्या रितु को बचा पाया प्रेम नेगी ?

बिना पूर्वसूचना के एक शाम सुदेश सतवंत के साथ सात समंदर पार कर अंबाला में अपने घर के द्वार पर खड़ी थी. घर वाले हैरान थे. उस से भी बड़ी हैरानी की बात थी सतवंत का साथ होना. सुदेश के छोटे भाईबहन खुसुरफुसुर कर रहे थे, ‘‘शादी पर तो जीजाजी की दाढ़ीमूछ नहीं थी?’’ सब से छोटी बेबी बोली, ‘‘मैं बताऊं, नकली होगी.’’ बच्चों के सो जाने के बाद सुदेश ने अपनी करुण कहानी घर वालों को सुनाई. पीठ उघाड़ कर मार के निशान दिखाए. उन्हें बताया कि घर से भागते समय उसे यह आशा नहीं थी कि अब वह कभी मातापिता से मिल भी सकेगी. सतवंत का वह लाखलाख शुक्रिया कर रही थी. वह नहीं मिलता तो पता नहीं आज वह कहां होती.

आगे पढ़ें- सुदेश के पिता ने अपनी पत्नी से बात की…

घर का न घाट का: भाग 2- सुरेश ने कौनसा धोखा दिया था

लौन पार कर के दरवाजे पर सुरेश ने घंटी दबा दी. सुदेश की समझ में नहीं आया कि जब वह यहां था नहीं, तो घर में कौन होगा. जरा देर में दरवाजा खुला. भूरे बालों और नीली आंखों वाली एक युवती दरवाजे पर खड़ी थी. सुरेश को देखते ही उस की आंखों में समुद्र हिलोरें लेने लगा. वह तपाक से बोली, ‘‘ओह, रेशी,’’ और उस ने आगे बढ़ कर सुरेश का मुंह चूम लिया. फिर बोली, ‘‘फोन क्यों नहीं किया?’’

सुदेश मन के कोर तक कांप गई.

सुरेश बोला, ‘‘तुम्हें आश्चर्य में डालने के लिए.’’

तभी उस युवती की निगाह सुदेश पर पड़ी, ‘‘यह कौन है?’’ वह विस्मित होती हुई बोली.

सुरेश एक क्षण रुक कर बोला, ‘‘एक और आश्चर्य.’’

तीनों ने भीतर प्रवेश किया. आंतरिक ताप व्यवस्था के कारण भीतर कमरा गरम था. सुरेश टाई की गांठ ढीली करने लगा. सुदेश सोफे में धंस गई. युवती कौफी बनाने रसोई में चली गई. सुरेश ने अर्थपूर्ण दृष्टि से सुदेश की ओर देखा. सुदेश के मुख पर सैकड़ों प्रश्न उभर रहे थे. सुरेश सीटी बजाता हुआ रसोई में चला गया. थोड़ी देर में वह 3 प्याले कौफी ले कर लौटा. पीछेपीछे वह युवती भी थी. कांपते हाथों से सुदेश ने प्याला पकड़ लिया. युवती और सुरेश सामने सोफे पर अगलबगल बैठ गए. वे अंगरेजी में बात कर रहे थे. सुदेश के पल्ले कुछ नहीं पड़ रहा था. पर बातचीत करने में जिस बेतकल्लुफी से वह युवती सुरेश पर झुकी पड़ रही थी, उस से सुदेश के कलेजे की कोमल रग में टीस उठने लगी. वह सोफे पर ही एक ओर लुढ़क गई. सुरेश उठा. सुदेश की नब्ज देखी. पैर उठा कर सोफे पर फैला दिया. फिर उस ने एक गिलास में थोड़ी ब्रांडी डाली, पानी मिलाया, सुदेश का सिर, हाथ नीचे डाल कर ऊपर उठाया और गिलास मुंह से लगा दिया. अधखुली आंखों से सुदेश ने सुरेश को देखा. वह बोला, ‘‘थक गई हो. दवा है, फायदा करेगी.’’

दवा पी कर सुदेश निढाल हो कर लेट गई. सुरेश ने एक मोटा कंबल ला कर उसे ओढ़ा दिया. सुबह सुदेश की आंख काफी देर से खुली. उस ने इधरउधर देखा. वह रात को सोफे पर ही सोती रही थी. सुरेश का कहीं पता नहीं था. न ही कमरे में कोई अन्य बिस्तर था. वह रात की बात सोचने लगी. तभी सुरेश उस के लिए चाय ले कर आया. चाय की चुस्की ले कर सुदेश बोली, ‘‘वह लड़की कौन थी?’’

ये भी पढ़ें- एक हसीना एक दीवाना: क्या रंग लाया प्रभात और कामिनी का इश्क ?

सुरेश बोला, ‘‘सूजेन.’’

सुदेश ने पूछा, ‘‘कहां गई?’’

सुरेश ने सहज ही उत्तर दे दिया, ‘‘काम पर.’’

सुदेश ने पूछा, ‘‘यहीं रहती है, तुम्हारे साथ?’’

सुरेश ने स्वीकारात्मक सिर हिला दिया.

सुदेश बोली, ‘‘कब से?’’

सुरेश कुछ सोच कर बोला, ‘‘पिछले 6 साल से.’’

सुदेश ने चौंकते हुए पूछा, ‘‘क्यों?’’

सुरेश बोला, ‘‘हम दोनों ने शादी कर ली थी.’’

सुदेश के हाथ से चाय का प्याला छूट गया. आश्चर्यचकित स्वर में मानो अपने कानों को झुठलाते हुए वह निराशा के पहाड़ को पलभर के लिए एक ओर सरका कर सारी जीवनशक्ति संचित कर के बोली, ‘‘शादी?’’ पत्थर बने सुरेश ने फिर स्वीकृति में सिर हिला दिया. सुदेश पर जैसे गाज गिर पड़ी हो. सपनों का ताजमहल टुकड़ेटुकड़े हो गया था. हंसती, गाती, नाचती हुई परी के जैसे किसी ने पंख काट दिए हों और वह पाताल की किसी कठोर चट्टान पर पड़ी छटपटा रही हो. षणभर ठगी सी रह जाने के बाद उस ने माथा पीट लिया. वह रोती जा रही थी और बिना उत्तर की प्रतीक्षा किए शून्य में सवाल फेंके जा रही थी, ‘‘फिर तुम ने मुझ से शादी क्यों की? मेरे घर वालों को क्यों धोखा दिया? मेरी जिंदगी क्यों खराब की? मुझे यहां क्यों लाए? मुझे रंगीन सपने क्यों दिखाए? मैं तुम्हें क्या समझती थी पर तुम तो कुछ और ही निकले, झूठे, बेईमान.’’

उस की मुद्रा से लग रहा था कि वह सुरेश का मुंह नोच डालेगी. सुरेश उस के पास आ कर अपनी मजबूरी बताने लगा, ‘‘सूजेन के कारण ही मुझे अच्छी नौकरी मिली है. उस का बाप इस कंपनी का मालिक है. सूजेन उस की इकलौती बेटी है. वह सुंदर है, पढ़ीलिखी है. स्वयं भी उसी कंपनी में काम करती है. उसे तो मेरे जैसे कितने ही मिल जाते. परदेश में कौन किसे पूछता है?’’

सुदेश ने अपने पास आते हाथों को एक ओर झटक दिया और फुफकारती हुई बोली, ‘‘फिर दूसरा ब्याह रचने की क्या जरूरत थी? बीवी के बिना पलभर भी नहीं रहा जाता था तो इसे साथ ही देश ले जाते. वहां यह सब नाटक रचने की क्या जरूरत थी?’’ सुरेश ने समझाने की कोशिश की, ‘‘मैं ने इस शादी की किसी को खबर नहीं दी थी. घर वाले न जाने क्या सोचते? फिर वहां छोटे भाईबहनों के रिश्ते होने में दिक्कत आती. मांबाप की, खानदान की शान में बट्टा लगता. सूजेन को वहां कौन स्वीकार करता?’’ सुदेश भभक उठी, ‘‘अपने खानदान की इज्जत के लिए दूसरे की इज्जत पर डाका डालना कहां की भलमनसाहत है? छिपाए रखना था तो वहां कह देते कि मुझे शादी नहीं करनी. कोई जबरदस्ती तो तुम्हारे गले में अपनी लड़की बांध नहीं देता? तब तो अखबार में छपवाया था, दुनियाभर के सब्जबाग दिखाए थे…’’

सुरेश बोला, ‘‘मांबाप का दिल भी तो नहीं तोड़ा जा सकता था. वे हर मेल में एक ही रट लगाए रहते थे. इसीलिए मैं ने अधिक पढ़ीलिखी या ऊंचे परिवार की लड़की नहीं देखी.’’ सुदेश रोते हुए बोली, ‘‘पढ़ीलिखी होती तो कोर्टकचहरी जा कर ऐसीतैसी कर देती. अलग रह कर कमाखा तो सकती थी. ऊंचे खानदान की होती तो घर वाले जरा सी भनक पड़ते ही नाक में नकेल डाल देते. भोलेभाले गरीब लोगों को जाल में फंसा लिया.’’ सुरेश अपनी सफलता पर मंदमंद मुसकरा रहा था.

सुदेश फिर भड़की, ‘‘मेरी मां का माथा तो बारबार ठनकता था कि  इतने पढ़ेलिखे और कमाऊ लड़के को और कोई लड़की क्यों नहीं जंची. मां ने तो पिताजी से अमेरिका में किसी अपने के जरिए से तुम्हारी जांचपड़ताल कराने को भी कहा था. पर वे मामूली आदमी कहां से पता लगाते? कोई बड़ा आदमी होता तो घर बैठे सारी असलियत मालूम कर लेता.’’ सुरेश ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘जो हो गया सो हो गया. अब गुस्सा छोड़ो. जब देश चला करेंगे तब तुम मेरे साथ पत्नी के रूप में चला करोगी. यहां सूजेन मेरी पत्नी रहेगी.’’ सुदेश ने बौखला कर कहा, ‘‘फिर मुझे यहां किस लिए लाए हो? सचाई पता नहीं चलती तो मैं वहीं तुम्हारे नाम की माला जपती रहती. यहां तो पलपल तड़पती रहूंगी और करूंगी भी क्या?’’

सुरेश आपे से बाहर होता हुआ बोला, ‘‘तुम मकान की सफाई करोगी, खाना पकाओगी, बरतन धोओगी, कपड़े साफ करोगी, प्रैस करोगी. सभी काम करोगी.’’

ये भी पढे़ं- राहें जुदा जुदा : निशा और मयंक की कहानी ने कौनसा लिया नया मोड़

सुदेश बोली, ‘‘तब तो देश से एक नौकरानी ले आते. तुम ने मेरे साथ शादी का ढोंग क्यों रचा?’’

सुरेश कड़वा सा मुंह बना कर बोला, ‘‘वास्तव में नौकर की ही जरूरत थी. यहां नौकर मिलते नहीं. मिलते हैं तो बहुत महंगे. फिर भरोसे के भी नहीं होते. हम दोनों काम करते हैं, घर की देखभाल कौन करे?’’ सुदेश फफकफफक कर रोने लगी, ‘‘मुझे मेरे घर वापस पहुंचा दो. मेरा टिकट कटा दो. मैं यहां नहीं रहूंगी.’’

सुरेश मुसकराता हुआ बोला, ‘‘अब तुम कभी नहीं लौट पाओगी. टिकट कटाना इतना आसान नहीं. हजारों रुपया किराया लगता है. कम पढ़ीलिखी, साधारण पर स्वस्थ लड़की मैं ने इसीलिए तो छांटी थी. फिर तुम्हें तकलीफ क्या है? अच्छा खाओ, अच्छा पिओ. सूजेन की अनुपस्थिति में तो तुम ही मेरी बीवी रहोगी.’’ सुदेश स्वयं को बहुत मजबूर महसूस कर रही थी. झल्ला कर बोली, ‘‘तुम सूजेन को छोड़ नहीं सकते? उसे तलाक दे दो.’’

सुरेश बोला, ‘‘अपनी औकात में रहो. सूजेन को छोड़ कर यहां क्या घास खोदूंगा. उसी के बूते पर तो सब ठाटबाट हैं.’’

सुदेश सिर थाम कर बैठ गई. अगले दिन से उसे घर के कामधंधे में जुटना पड़ा. सुरेश और सूजेन सुबह 8 बजे काम पर निकल जाते. सुदेश को घर में ताले में बंद कर जाते. शाम को लौटते. सुरेश ने सूजेन को सुदेश के संबंध में बताया था कि कामकाज के लिए नौकरानी लाया हूं. वह उसी लहजे में सुदेश से बात करती. बातबात पर गाली दे कर डांटती. रात को वे दोनों शयनकक्ष में रंगरेलियां मनाते और सुदेश रसोई के बराबर वाले स्टोर में सिकुड़ी, सिमटी आंसू बहाती हुई पड़ी रहती. एक बार उस ने घर से निकल भागने की कोशिश की, पर पकड़ी गई. सुरेश ने मारतेमारते अधमरा कर दिया. मुक्ति की कोई राह नहीं दिखती थी. किसी तरह घर से निकल भी पड़े तो जाए कहां? वैसे वह हरदम तैयार रहती थी. गरम कपड़ों के नीचे अपने सारे जेवर हर समय पहने रहती थी. अंत में एक दिन अवसर हाथ आ ही गया. सुरेश और सूजेन के विवाह की वर्षगांठ थी. 10 दंपती आमंत्रित थे. काफी रात तक खानापीना, नाचगाना, शोरशराबा चलता रहा. ऐसे में सुदेश का किस को ध्यान रहता. खिलानेपिलाने का काम निबटा कर वह चुपचाप निकल पड़ी.

आगे पढ़ें- सतवंत ने अनुमान लगाया कि वह…

ये भी पढ़ें- ऊंच नीच की दीवार: क्या हो पाई दिनेश की शादी

घर का न घाट का: भाग 1- सुरेश ने कौनसा धोखा दिया था

सुरेश क्लीवलैंड की एक एयरकंडीशनिंग फर्म में इंजीनियर था. अमेरिका में रहते उसे करीब 7 साल हो गए थे. वेतन अच्छा था. जल्दी ही उस ने जीवन की सभी सुविधाएं जुटा लीं. घर वालों को पैसे भी भेजने लगा. आनेजाने वालों के साथ घर वालों के लिए अनेक उपहार जबतब भेजता रहता.

लेकिन न वह स्वदेश आ कर घर वालों से मिलने का नाम लेता और न ही शादी के लिए हामी भरता. उस के पिता अकसर हर ईमेल में किसी न किसी कन्या के संबंध में लिखते, उस की राय मांगते, पर वह टाल जाता. बहुत पूछे जाने पर उस ने साफ लिख दिया कि मुझे अभी शादी नहीं करनी. 8वें साल जब उस के पिता ने बारबार लिखा कि उस की मां बीमार रहती है और वह कुछ दिन की छुट्टी ले कर घर आ जाए तो वह 6 माह की छुट्टी ले कर स्वदेश की ओर चल पड़ा.

घर वालों की खुशी का ठिकाना न रहा. कई रिश्तेदार हवाईअड्डे पर उसे लेने पहुंचे. मातापिता की आंखें खुशी से चमक उठीं. सुरेश लंबा तो पहले ही था, अब उस का बदन भी भर गया था और रंग निखर आया था. घर वालों व रिश्तेदारों के लिए वह बहुत से उपहार लाया था. सब ने उसे सिरआंखों पर बिठाया. सुरेश की मां की बहुत इच्छा थी कि इस अवधि में उस की शादी कर दे. सुरेश ने तरहतरह से टाला, ‘‘बीवी को तो मैं अपने साथ ले जाऊंगा. फिर तुझे क्या सुख मिलेगा? क्लीवलैंड में मकान बहुत महंगे मिलते हैं. मैं तो सुबह 8 बजे का घर से निकला रात 10 बजे काम से लौट पाता हूं. वह बैठीबैठी मक्खियां मारेगी.’’ पर मां ने उस की एक नहीं सुनी. छोटे भाईबहन भी थे. आगे का मलबा हटे तो उन के लिए रास्ता साफ हो.

ये भी पढ़ें- एक और बलात्कारी : रूपा के बारे में क्या सोच रहा था सुमेर सिंह

सुंदर कमाऊ लड़का देख कर कुंआरी कन्याओं के पिता ने पहले ही चक्कर काटने आरंभ कर दिए थे. जगहजगह से रिश्तेदारों की सिफारिशें आने लगीं. दबाव बढ़ने लगा, खाने की मेज पर शादी के लिए आए प्रस्तावों पर विचारविमर्श होता रहता. सुरेश को न कोई लड़की पसंद आती थी, न कोई रिश्ता. हार कर उस के पिता ने समाचारपत्र में विज्ञापन और इंटरनैट में एक मैट्रीमोनियल साइट पर सुरेश का प्रोफाइल डाल दिया. चट मंगनी, पट ब्याह वाली बात थी. दूसरे ही दिन ढेर सारे फोन और ईमेल आने लगे. उन बहुत सारे ईमेल और फोन में सुरेश ने 3 ईमेल को शौर्टलिस्ट किया. इन तीनों लड़कियों के पास शिक्षा की कोई डिगरी नहीं थी. वे बहुत अधिक संपन्न घराने की भी नहीं थीं. इन के परिवार निम्नमध्यवर्ग से थे.

घर वाले हैरान थे कि इतना पढ़ालिखा, काबिल लड़का और इस ने बिना पढ़ीलिखी लड़कियां पसंद कीं. फिर कोई ख्यातिप्राप्त परिवार भी नहीं कि दहेज अच्छा मिले या वे लोग आगे कुछ काम आ सकें. पर क्या करते? मजबूरी थी, शादी तो सुरेश की होनी थी. तीनों लड़कियों को देखने का प्रोग्राम बनाया गया. एक लड़की बहुत सुंदर थी, पर छरहरे बदन की थी. दूसरी लड़की का रंग सांवला था, पर नैननक्श बहुत अच्छे थे. स्वास्थ्य सामान्य था, तीसरी लड़की का रंगरूप और स्वास्थ्य भी बहुत अच्छा था.

सुरेश ने तीसरी लड़की को ही पसंद किया. घर वालों को उस की पसंद पर बड़ा आश्चर्य हुआ. शिक्षादीक्षा के संबंध में सुरेश ने दोटूक उत्तर दे दिया, ‘‘मुझे बीवी से नौकरी तो करानी नहीं. मैं स्वयं ही बहुत कमा लेता हूं.’’ रंगरूप के संबंध में उस की दलील थी, ‘‘मुझे फैशनपरस्त, सौंदर्य प्रतियोगिताओं में भाग लेने वाली गुडि़या नहीं चाहिए. मुझे तो गृहस्थी चलाने के लिए औरत चाहिए.’’ सुनने वालों की आंखें फैल गईं. कितना सुंदर, पढ़ालिखा, ऊंचा वेतन पाने वाला लड़का और कैसा सादा मिजाज. दोचार हमजोलियों ने मजाक में अवश्य कहा कि यह तो चावल में उड़द या गिलट में हीरा जड़ने वाली बात हुई. पर जिसे पिया चाहे  ही सुहागिन.

लड़की वालों की तो जैसे लौटरी खुल गई थी. घर बैठे कल्पना से परे दामाद जो मिल गया था. वरना कहां सुदेश जैसी मिडिल पास, साधारण लड़की और कहां सुरेश जैसा सुंदर व सुसंपन्न वर. शादी धूमधाम से हुई. सुरेश और सुदेश हनीमून के लिए नैनीताल गए. एक होटल में जब पहली रात आमोदप्रमोद के बाद सुरेश सो गया तो सुदेश कितनी ही देर तक खिड़की के किनारे बैठी कभी झील में उठती लहरों की ओर, कभी आसमान के तारों को निहारती रही. उस के हृदय में खुशी की लहरें उठ रही थीं और उसे लग रहा था कि जैसे आसमान के सारे सितारे किसी ने उस के आंचल में भर दिए हैं. फिर वह लिहाफ उठा कर सुरेश के पैरों की तरफ लेट गई. सुरेश के पैरों को छाती से लगा कर वह सो गई.

15दिन जैसे पलक झपकते बीत गए. सुबह नाश्ता कर के हाथ में हाथ डाले नवदंपती घूमने निकल जाते. शाम को वे अकसर नौकाविहार करने या पिक्चर देखने चले जाते. सोने के दिन थे और चांदी की रातें. सुदेश को कभीकभी लगता कि यह सब एक सुंदर सपना है. वह आंखें फाड़फाड़ कर सुरेश को घूरने लगती. उस की यह दृष्टि सुरेश के मर्मस्थल को बेध देती. वह गुदगुदी कर के या चिकोटी काट कर उसे वर्तमान में ले आता. सुदेश उस की गोद में लेट जाती. सुरेश की गरदन में दोनों बांहें डाल कर दबे स्वर में पूछती, ‘‘जिंदगीभर मुझे ऐसे ही प्यार करते रहोगे न?’’ और सुरेश अपने अधर झुका कर उस का मुंह बंद कर देता, ‘‘धत पगली,’’ कह कर उस के आंसू पोंछ देता.

नैनीताल से लौटी तो सुदेश के चेहरे पर नूर बरस रहा था. तृप्ति का भी अपना अनोखा सुख होता है. सुरेश की छुट्टियां खत्म होने वाली थीं. सुदेश को वह अपने साथ विदेश ले जाना चाहता था. उस की मां ने दबी जबान से कहा, ‘‘बहू को साल 2 साल यहीं रहने दे. सालभर तक रस्मरिवाज चलते हैं. फिर हम को भी कुछ लगेगा कि हां, सुरेश की बहू आ गई,’’ पर सुरेश ने एक न मानी. उस का कहना था कि क्लीवलैंड में भारतीय खाना तो किसी होटल में मिलता नहीं. घर पर बनाने का उस के पास समय नहीं. पहले वह डबलरोटी, अंडे आदि से किसी प्रकार काम चला लेता था. पर जब सुदेश को अमेरिका में ही रहना है तो बाद में जाने से क्या फायदा? वहां के माहौल में वह जितनी जल्दी घुलमिल जाए उतना ही अच्छा.

ये भी पढ़ें- आज का सच : कौनसा सच छिपा रहा था राम सिंह

वह सुदेश को साथ ले कर अमेरिका रवाना हो गया. जहाज जब बादलों में विचरने लगा तो सुदेश भी खयालों की दुनिया में खो गई. शादी के बाद वह जिस दुनिया में रह रही थी उस की उस ने कभी कल्पना भी नहीं की थी. उस ने तो कभी जहाज में बैठने की भी कल्पना नहीं की थी. उस के परिवार में भी शायद ही कोई कभी जहाज में बैठा हो. नैनीताल का भी उस ने नाम ही सुना था. पहाड़ों को काट कर बनाए गए प्रकृति के उस नीरभरे कटोरे को उस ने आंखभर देखने के बारे में भी नहीं सोचा था. पर वहां उस ने जीवन छक कर जिया. वहां बिताए दिनों को क्या वह जीवनभर भूल पाएगी. पूरी यात्रा में वह तरहतरह की कल्पनाओं में खोई रही. वह स्वयं को धरती से ऊपर उठता हुआ महसूस कर रही थी.

सुरेश इस पूरी यात्रा में गंभीर बना रहा. सुदेश का मन करता कि वह उस का हाथ अपने हाथ में ले कर प्रेम प्रदर्शित करे, पर तमाम लोगों की उपस्थिति में उसे लाज लगती थी. यह नैनीताल के होटल का कमरा तो था नहीं. पर थोड़ी देर बाद ही उस का जी घबराने लगता था. उसे सुरेश अजनबी सा लगने लगता था. जहाज के बाद टैक्सी की यात्रा कर के अगली संध्या जब वे गंतव्य स्थान पर पहुंचे तो सुदेश का मन कर रहा था क वह सुरेश के कंधे पर सिर टेक दे और वह उसे बांहों का सहारा दे कर धीरेधीरे फ्लैट में ले चले. कड़ाके की सर्दी थी. सुदेश को कंपकंपी महसूस हो रही थी. पर सुरेश विचारों में खोया गुमसुम, सूटकेस लिए आगेआगे चला जा रहा था.

आगे पढ़ें- आंतरिक ताप व्यवस्था के कारण भीतर कमरा गरम था….

ये भी पढ़ें- नेवी ब्लू सूट: क्यों आदर्श की जिम्मेदारी के आगे हार गया आरती का प्रेम

हवाई जहाज दुर्घटना: भाग 1- क्या हुआ था आकृति के साथ

लेखक-डा. भारत खुशालानी,

आकृति अपने टीवी सेट से गढ़ी हुई थी. खबर थी, लाहौर से कराची जाने वाला विमान दुर्घटनाग्रस्त हो गया.

उसी की खबर को हर चैनल पर दिखाया जा रहा था.

अलविदा जुम्मा… ईद से पहले का जुम्मा… उस पर ऐसा कहर बरपा था कुदरत ने… जैसे वायरस का प्रकोप कम पड़ गया हो प्रकृति को कहर ढाने के लिए.

कराची हवाईअड्डे के पास ही में एक कालोनी पर दुर्घटनाग्रस्त हो कर विमान गिर गया था. काले धुएं का भयंकर गुबार उठ रहा था. कोरोना वायरस के कारण लौकडाउन होने के बावजूद लोग ईद मनाने के लिए अपने रिश्तेदारों के घर आजा रहे थे.

हवाईअड्डे के पास की छोटी तंग गलियों के इलाके में मकानों के ऊपर यह हवाईजहाज गिर गया था. एंबुलेंस वहां आ रही थीं. अग्निशामक दस्ते पानी के बड़े फव्वारों को टूटे हुए विमान के जलते हुए टुकड़ों पर डाल कर ठंडा कर रहे थे.

वहां लोगों की भारी भीड़ खडी हो कर अविश्वसनीय आंखों से यह दृश्य देख रही थी. बहुत से लोग मलबे से लाशों को निकालने में जुटे हुए थे.

एक चैनल पर विमान चालक के साधारण से शब्द सुनाए जा रहे थे, “मे डे, मे डे, मे डे … पकिस्तान 8303.” इस का मतलब था कि पाकिस्तान की हवाई उड़ान पी-आई-ए संख्या 8303 इतनी खतरे में पहुंच गई थी कि उस का बच पाना लगभग नामुमकिन था.

हवाईजहाज के दोनों इंजनों में आग लग गई थी. 3 बार रनवे का चक्कर काटने के बावजूद हवाईजहाज रनवे पर उतर ही नहीं सका, जबकि टावर से उस के विमान तल पर उतरने के लिए दोनों रनवे खाली करवा दिए गए थे.

2 यात्री घायल हो गए, मगर उन की जान बच गई. विमान में मौजूद बाकी सारे यात्री, विमान के स्टाफ समेत सभी मौत की नींद सो गए.

आकृति बेहद विचलित थी. पिछले महीने ही उस ने गर्भपात कराया था, अपने कैरियर को ध्यान में रखते हुए. पहले से ही वह तनावपूर्ण अवस्था में थी. उस पर यह विमान दुर्घटना.

ये भी पढ़ें- अंतत: क्या भाई के जुल्मों का जवाब दे पाई माधवी

आकृति ने अपने माथे को जोर से पकड़ लिया. सोमवार 25 मई, 2020 को उड़ान भरने वाले चालकों की सूची में उस का भी नाम था. 2 महीने लौकडाउन में रहने के बाद घरेलू उड़ानें उड़ने के लिए तैयार हो रही थीं. दिल्ली से नागपुर जाने वाली उड़ान में उस का नाम चालिका के रूप में था. उस की सहचालिका इंदरजीत कौर थी.

आकृति बेहद तनाव में आ गई. रातभर उसे नींद नहीं आई. हर बार आंख लगने पर उसी दुर्घटनाग्रस्त विमान का उन 10 बिल्डिंगों पर गिर कर उन को नष्ट कर देने की तसवीरें. मलबे में दबे हुए लोगों की निकाली जा रही लाशें. रिश्तेदारों के रोनेबिलखने की तसवीरें. हवाईजहाज की धीमी उतराव की तसवीरें और उस के बाद सब खत्म.

कुछ लोगों का यह मानना है कि हमारी सोच ही हमारा निर्माण करती है. हमारे व्यक्तित्व का तो वो निर्माण करती ही है, लेकिन हमारे आसपास की परिस्थितियों का भी वो निर्माण करती है. हमारी सोच ही हमारे आसपास ऐसी परिस्थितियां बना देती है, जो हमारी सोच के अनुकूल हो. जरूरी नहीं कि हमारी सोच सकारात्मक हो. नकारात्मक सोच नकारात्मक परिस्थितियों का निर्माण करने में सक्षम होती है. ऐसी धारणा है.

पता नहीं, यह कहां तक सच है. अगर किसी के मन में किसी बीमारी को ले कर डर बना हुआ है और वो लगातार इस बीमारी के बारे में सोचता जा रहा है, जो मनोविज्ञान के जटिल सिद्धांतों के अनुसार, उस व्यक्ति के इसी बीमारी से रोगी होने के पूरेपूरे आसार हैं.

कराची विमान दुर्घटना ने भी ऐसी ही बीमारी का रूप आकृति के मन में धर लिया. वैसे तो हादसे हजारों होते हैं. विमान से संबंधित हादसे भी कई होते हैं, लेकिन मन में डर तब बैठ जाता है, जब मन में चोर छिपा हो.

नियम के अनुसार, आकृति को अपने गर्भपात के बारे में विमान कंपनी को बता देना चाहिए था. लेकिन इतना समय यों ही घर में बैठे रहने या वापस अपने काम पर जाने की चाह से, आकृति ने किसी को कुछ भी बताना उचित नहीं समझा. कंपनी नियम के इस उल्लंघन ने उस के मन में चोर की भावना पैदा कर दी.

जाहिर है, गर्भपात के बाद कंपनी आकृति को 2-3 महीने और घर में बिठा कर रखती, और आकृति किसी भी दृष्टि से अपनेआप को हवाईजहाज उड़ाने में नाकाबिल नहीं समझ रही थी. गर्भपात कोई इतनी बड़ी बात नहीं थी. लेकिन कंपनी वालों के लिए यह मनोवैज्ञानिक असंतुलन की बात थी. हवाई यात्रियों की सुरक्षा, कंपनी वालों की हर सूची में सब से ऊपर थी.

उड़ान के दिन, मास्क और ग्लब्स पहने हुए यात्रियों के जनसमुदाय ने दिल्ली से नागपुर जाने वाले आकृति के विमान में अपनीअपनी जगहें लीं. निश्चित समय पर विमान अपने गंतव्य स्थान की ओर उड़ चला.

उड़ान के दौरान आकृति की नजरों के आगे दुर्घटनाग्रस्त विमान के हजारों टुकड़े रहरह कर आ रहे थे.

एक बात से आकृति और भी ज्यादा व्यथित हो गई थी. उस का विमान भी एयरबस 320 था. ठीक वही विमान, जो कराची में दुर्घटनाग्रस्त हुआ था.

वैसे तो एयरबस 320 का खुद का सुरक्षा रिकार्ड बहुत ही उम्दा था, लेकिन मस्तिष्क पर भय के हौवे के आगे बड़ी से बड़ी सुरक्षा में भी भेद ढूंढ़ पाना आसान था.

आकृति के दिमाग में रहरह कर यही बात आ रही थी कि 2 दिन पहले की दुर्घटना में हवाईजहाज में मौजूद सभी स्टाफ की मौत हो गई थी. चालक, सहचालक और कर्मी दल मिला कर 8 स्टाफ के लोग थे. आठों की मृत्यु हो गई थी. और उस से भी बड़ा इत्तिफाक यह था कि दुर्घटनाग्रस्त विमान भी लाहौर से एक बजे निकल कर कराची ढाई बजे पहुंचने वाला था, और आकृति की उड़ान भी दिल्ली से एक बजे निकल कर पौने 3 बजे नागपुर पहुंचने वाली थी. इतने बड़े संयोग एकसाथ हो रहे थे. इन्हीं के चलते आकृति के दिल की धडकनें तेज हो गई थीं.

ये भी पढ़ें- उन दोनों का सच: क्या पति के धोखे का बदला ले पाई गौरा

पता नहीं, वह कैसा संयोग था या आकृति के मस्तिष्क की किरणों से उत्पन्न नकारात्मक परिस्थिति कि जब आकृति अपने विमान को नागपुर के बाबासाहेब अंबेडकर अंतर्राष्ट्रीय हवाईअड्डे के एकदम पास ले कर आ गई तो विमान के बाईं ओर के इंजन में आग लग गई.

विमान 7,000 फुट की ऊंचाई पर उड़ रहा था, दौड़पथ बिलकुल सामने था, शहर की इमारतें कुछ दूरी पर टिमटिमा रही थीं. कुछ ही सैकंडों में वायुयान के चालक स्थान में घंटियां बजने लगीं.

ये घंटियां विमान की अलगअलग प्रणालियों की विफलताओं की चेतावनी दे रही थीं. चालक स्थान लाल बत्तियों से चमक उठा था. हर लाल बत्ती किसी न किसी प्रणाली के खराब होने का संकेत था.

दुर्भाग्यवश, जिस समय विमान के इंजन को आग लगी और विमान को तेज झटका लगा, ठीक उसी समय विमान में आकृति की सहचालिका इंदरजीत कौर अपनी सहचालक की सीट से उठी, शायद टायलेट जाने के लिए. जैसे ही वह उठी, विमान को जोर का झटका लगा. इंदरजीत अपना संतुलन खो बैठी और अपनी ऊंचाई की वजह से उस का सिर कौकपिट की एकदम कम ऊंचाई वाली छत से टकरा गया. उस के सिर पर चोट आ गई और इंदरजीत वहीं बेहोश हो गई.

 

पहल: भाग 3- शीला के सामने क्या था विकल्प

शीला ने डब्बे में बैठे यात्रियों का सिंहावलोकन किया. लगभग सभी यात्री अवाक् और हतप्रभ थे. किसी ने सोचा भी न था कि ऊंट इस तरह करवट ले बैठेगा.

‘‘अरे भैया, लड़की का पार्टी के लिए मन नहीं है तो काहे जबरदस्ती कर रहे ससुर?’’ नेताजी ने बीचबचाव की पहल की तो पिंटू तुनक कर खड़ा हो गया, ‘‘ओ बादशाहो, तुसी वड्डे मजाकिया हो जी. त्वाडे दिल विच्च इस कुड़ी के लिए एन्नी हमदर्दी क्यों फड़फड़ा रेहंदी है, अयं?’’

नेताजी की ओर कड़ी दृष्टि से देखते हुए अतुल शीला से मुखातिब हो कर बोला, ‘‘आइए, गेट के पास चलते हैं.’’

‘‘नहींनहीं, मैं नहीं जाऊंगी,’’ शीला की आंखों में भय उतर आया, ‘‘प्लीज…’’

‘‘अब नखरे मत दिखा,’’ यादव और अतुल भी खडे़ हो गए. यादव ने शीला की कलाई थाम ली तो शीला ने झटके से छुड़ाते हुए विनम्र भाव से कहा, ‘‘प्लीज, छोड़ दें मुझे. पार्टी फिर कभी,’’ फिर सहायता के लिए प्रोफैसर से गुहार लगाते हुए चीख पड़ी, ‘‘देखिए न, सर…’’

‘‘आप लोग छात्र हैं या आतंकवादी, अयं? इस तरह जबरदस्ती नहीं कर सकते,’’ प्रतिरोध करने की उत्तेजना में प्रोफैसर सीट से खड़े हो गए.

‘‘शटअप,’’ यादव ने चीखते हुए प्रोफैसर को इतनी जोर से धक्का दिया कि वे लड़खड़ाते हुए धप्प से सीट पर लुढ़क गए.

तभी जीआरपी के 2 जवान गश्त लगाते हुए उधर से गुजरे. शीला को जैसे नई जान मिल गई हो, वह चीख पड़ी, ‘जीआरपी अंकल.’

शिवानंद के आगे बढ़ते कदम ठिठक गए. पीछे मुड़ कर बर्थ के भीतर तक झांका तो दृष्टि सब से पहले अतुल से टकराई. वे खिल उठे, ‘‘अरे, अतुल बाबू, आप? नत्थूराम, ई अतुल बाबू हैं, आईजी रेल, तिवाड़ी साहब के सुपुत्र.’’

‘‘अंकल, आप इस टे्रन में?’’ अतुल शिवानंद से हाथ मिलाते हुए मुसकराया.

ये भी पढ़ें- आखिर दोषी कौन है: क्या हुआ था रश्मि के साथ

‘‘जनता को भी न सरकार और पुलिस विभाग को बदनाम करने में बड़ा मजा मिलता है एकरा माय के. शिकायत किहिस है जे टे्रन में लूटडकैती, छेड़छाड़, किडनैपिंग बढ़ रहा है. बस… आ गया ऊपर से और्डर लोकलवा सब में गश्त लगाने का, हंह. लेकिन अभी तक एक्को केस ऐसा नय मिल सका है.’’

‘‘जनता की बात छोडि़ए,’’ अतुल ने लापरवाही से कंधे झटके. शिवानंद ने युवती की ओर देख कर संकेत से पूछा, ‘‘ई आप के साथ हैं?’’

‘‘जी हां, क्लासफ्रैंड हैं हमारी,’’ अतुल मुसकराया तो शीला का मन हुआ, सारी बात बता दे पर जबान से बोल नहीं फूटे.

‘‘मैडम, अतुल बाबू बड़े सज्जन और सुशील नौजवान हैं. इन की दोस्ती से आप फायदे में ही रहेंगी. अच्छा, अतुल बाबू, सर को हमारा परनाम कहिएगा.’’

शीला की आंखों के आगे सारी स्थिति आईने की तरह साफ हो गई. अतुल आईजी रेल का लड़का है. पावर और पैसा, जब दोनों ही चीजें हों जेब में तो यादव और पिंटू जैसे वफादार चमचे वैसे ही दौड़े आएंगे जैसे गुड़ को देख कर चींटियां. सिपाहियों के जाते ही तीनों एक बार फिर जोरों से हंस पड़े. पिंटू ने आगे बढ़ कर शीला की कलाई थाम ली और खींच कर उसे उठाने का प्रयास करने लगा. शीला की इच्छा हुई, एक झन्नाटेदार तमाचा उस के गाल पर जड़ दे. बड़ी मुश्किल से ही उस ने क्रोध को जज्ब किया. इस तरह रिऐक्ट करने से बात ज्यादा बिगड़ सकती है.

तभी न जाने किस जेब से निकल कर अतुल की हथेली में छोटा सा रिवौल्वर चमक उठा.

‘‘किसी ने भी चूंचपड़ की तो…’’ रिवौल्वर यात्रियों की ओर तानते हुए वह गुर्रा उठा, ‘‘मनीष मिश्रा केस के बारे में तो सुना होगा न?’’

मनीष मिश्रा, वही जिस के तार स्वयं पीएम साहब से जुड़े हुए थे. बदमाशों ने चलती टे्रन से बाहर फेंक दिया था उसे. अपराध? सफर कर रही एक लड़की से छेड़खानी का मुखर विरोध. यात्रियों के बदन भय से कंपकंपाने लगे और रोंगटे खड़े हो गए.

सब से पहले नेताजी उठे, ‘‘थानापुलिस में तो एतना पहचान है कि का कहें ससुर. पर ई छात्र लोग का आपसी मामला न है. पुलिस हस्तक्षेप नहीं कर सकती.’’

फिर प्रोफैसर साहब भी अटैची संभालते हुए उठ खड़े हुए, ‘‘जब इतने प्यार से पार्टी दे रहे हैं ये लोग तो क्या हर्ज है स्वीकारने में? पर घर लौट कर मेरा आलेख पढि़एगा जरूर.’’

धीरेधीरे शकीला के अलावा सभी यात्री डब्बे के दूसरे हिस्सों में चले गए. शकीला वहीं बैठी रही. हिजड़ा होते हुए भी इतना तो समझ चुकी थी कि अकेली लड़की मुसीबत में पड़ गई है. ये लोग इसे जबरदस्ती अगवा करने पर उतारू हैं. पर इस हाल में वह करे भी तो क्या?

‘‘तेरे यार सब तो भाग गए.’’ पिंटू चुटकी बजाते हुए व्यंग्य से बोला, ‘‘तू कौन सा तीर मार लेगी, अयं?’’

‘‘किन्नरों को मामूली न समझियो,’’ शकीला ताली पीटती हुई अदा से खिलखिलाई, ‘‘हमारे 2 किन्नरों ने तो महाभारत का किस्सा ही बदल डाला

था. एक थे शिखंडी महाराज, दूसरे बिरहनला (बृहन्नला).’’

ये नोंकझोंक चल ही रही थी कि तभी उस हिस्से में बूटपौलिश वाला एक लड़का हवा के झौंके की तरह आ पहुंचा. दसेक साल की उम्र. काला स्याह बदन. बाईं कलाई में पौलिश वाला बक्सा झुलाए, दाएं हाथ से ठोस ब्रश को बक्से पर ठकठकाता, ‘‘पौलिश साब.’’

ये भी पढ़ें- नजरिया: क्यों पुरुषों से नफरत करती थी सुरभि

‘‘तू कहां से आ टपका रे? चल फूट यहां से,’’ अतुल ने रिवौल्वर उस की ओर तान दिया. लड़का तनिक भी न घबराया. पूरा माजरा भांपते एक पल भी नहीं लगा उसे. खीखी करता खीसें निपोर बैठा, ‘‘समझा साब, कोई शूटिंग चल रहेला इधर. अपुन डिस्टप नहीं करेगा साब. थोड़ा शूटिंग देखने को मांगता. बिंदास…’’

‘‘इस को रहने दो बड़े भाई,’’ पिंटू ने मसका लगाया, ‘‘तुम लगते ही हीरो जैसे हो.’’

शकीला के रसीले बतरस और पौलिश वाले लड़के के आगमन से तीनों का ध्यान शीला की ओर से कुछ देर के लिए हट गया. शीला के भीतर एक बवंडर जन्म लेने लगा. कैसा हादसा होने जा रहा है यह? इन की नीयत गंदी है, यह तो स्पष्ट हो चुका है, पार्टी के नाम पर अगवा करने की कुत्सित योजना. उफ.

इस तरह की विषम परिस्थितियों में अकेली लड़की के लिए बचाव के क्या विकल्प हो सकते हैं भला? सहायता के लिए ‘बचाओ, बचाओ’ की गुहार लगाने पर सचमुच कोई दौड़ा चला आएगा? डब्बे में बैठे यात्रियों का पलायन तो देख ही रही है वह. फिर? इन निर्मम, नृशंस और संवेदनहीन युवकों के आगे हाथ जोड़ कर गिड़गिड़ाने से भी कोई लाभ होने वाला नहीं. इन के लिए तो हर स्त्री सिर्फ मादा भर ही है. हर रिश्तेनाते से परे. सिर्फ मादा.

शीला सतर्क नजरों से पूरी स्थिति का जायजा लेती है. डब्बे में शकीला और पौलिश वाला लड़का ही रह गए थे. भावावेश में शकीला की ओर देखती है वह. तभी आंखों के आगे धुंध छाने लगती है, ‘अरे, बृहन्नला के भीतर से यह किस की आकृति फूट रही है? अर्जुन, हां, अर्जुन ही हैं जो कह रहे हैं, नारी सशक्तीकरण की सारी बातें पाखंड हैं री. पुरुषवादी समाज नारियों को कभी भी सशक्त नहीं होने देगा. सशक्त होना है तो नारियों को बिना किसी की उंगली थामे स्वयं ही पहल करनी होगी.’

शीला अजीब से रोमांच से सिहर उठती है. नजरें वहां से हट कर पौलिश वाले लड़के पर टिक जाती हैं. पौलिश वाले लड़के का चेहरा भी एक नई आकृति में ढलने लगता है, ‘बचपन में लौटा शम्बूक. होंठों पर आत्मविश्वास भरी निश्छल हंसी, ‘ब्राह्मणवादी, पुरुषवर्चस्ववादी व्यवस्था’ ने नारियों व दलितों को कभी भी सम्मान नहीं दिया. अपने सम्मान की रक्षा के लिए तुम्हारे पास एक ही विकल्प है, पहल. एक बार मजबूत पहल कर लो, पूरा रुख बदल जाएगा.’

शीला असाधारण रूप से शांत हो गई. भीतर का झंझावात थम गया. आसानी से तो हार नहीं मानने वाली वह. मन ही मन एक निर्णय लिया. तीनों युवक शकीला के किसी मादक चुटकुले पर होहो कर के हंस रहे थे कि अचानक जैसे वह पल ठहर गया हो. एकदम स्थिर. शीला ने दाहिनी हथेली को मजबूत मुट्ठी की शक्ल में बांधा और भीतर की सारी ताकत लगा कर मुट्ठी को पास खड़े यादव की दोनों जांघों के संधिस्थल पर दे मारा.

ये भी पढ़ें- रावण अब भी जिंदा है : क्या मीना उस रात अपनी इज्जत बचा पाई

उसी ठहरे हुए स्थिर पल में शकीला के भीतर छिपे अर्जुन ने ढोलक को लंबे रूप में थामा और पूरी शक्ति लगा कर चमड़े के हिस्से वाले भाग से पिंटू के माथे पर इतनी जोर से प्रहार किया कि ढोलक चमड़े को फाड़ती उस की गरदन में फंस गई. और उसी ठहरे हुए स्थिर पल में पौलिश वाले लड़के के भीतर छिपे शंबूक ने दांतों पर दांत जमा कर हाथ के सख्त ब्रश को अतुल की कलाई पर फेंक मारा. इतना सटीक निशाना कि रिवौल्वर छिटक कर न जाने कहां बिला गया और ओहआह करता वह फर्श पर लुढ़क कर तड़पने लगा.

पलक झपकते आसपास के डब्बों से आए यात्रियों की खासी भीड़ जुट गई वहां और लोग तीनों पर लातघूंसे बरसाते हुए फनफना रहे थे, ‘‘हम लोगों के रहते एक मासूम कोमल लड़की से छेड़खानी करने का साहस कैसे हुआ रे?’’

पहल: भाग 2- शीला के सामने क्या था विकल्प

प्रोफैसर भड़क उठे, ‘‘आप छात्र हैं न? मुझे नहीं पहचान रहे? मैं प्रोफैसर शुभंकर सान्याल. नारी सशक्तीकरण पर उसी परचे का प्रख्यात लेखक जिस की चर्चा आज हर बुद्धिजीवी और हर छात्र की जबान पर है.’’

‘‘प्रोफैसर हैं? चलिए, एगो पहेली बुझिए तो…’’ पिंटू बोली बदलबदल कर बोलने में माहिर था, खालिस बिहारी अंदाज में प्रोफैसर की ओर मुंह कर के हुंकार भर उठा, ‘‘एगो है जो रोटी बेलता है, दूसरा एगो है जो रोटी खाता है. एगो तीसरा अऊर है ससुर जो न बेलता है, न खाता है, बल्कि रोटी से कबड्डी खेलता है. ई तीसरका को कोई भी नय जानत. हमारी संसद भी नहीं. आप जानत हैं?’’

प्रोफैसर चुप. अन्य यात्रीगण भी चुप. युवती मन ही मन खुश हुई. प्रश्न क्लासरूम में किया गया होता तो वह हाथ अवश्य उठा देती. यादव दोनों ओर की बर्थ के भीतर तक चला आया और खिड़की की ओर इशारा कर के प्रोफैसर से बोला, ‘‘यहां बैठने दीजिए तो.’’

प्रोफैसर इन लोगों के व्यंग्य से खिन्न तो थे ही, चीखते हुए फट पड़े, ‘‘कपार पर बैठोगे? जगह दिख रही है कहीं? और ये बोली कैसी है?’’

यादव ने लैक्चर खत्म होने का इंतजार नहीं किया. वह प्रोफैसर को ठेलठाल कर ऐन युवती के सामने बैठ ही गया.

पिंटू बोली में ‘खंडाला’ स्टाइल का बघार डालते हुए नेताजी की ओर मुड़ा, ‘‘ऐ, क्या बोलता तू? बड़े भाई को यहां बैठने को मांगता, क्या? बोले तो थोड़ा सरकने को,’’ पिंटू की आवाज में कड़क ही ऐसी थी कि नेताजी अंदर ही अंदर सकपका गए. लेकिन फिर सोचा, इस तरह भय खाने से काम नहीं चलेगा. यही तो मौका है युवती पर रौब गांठने का.

‘‘तुम सब स्टुडैंट हो या मवाली? जानते हो हम कौन हैं? धनबाद विधानसभा क्षेत्र के भावी विधायक. विधायक से इसी तरह बतियाया जाता है?’’

ये भी पढ़ें- थोड़ा सा इंतजार: क्या वापस मिल पाया तनुश्री और वेंकटेश को परिवार का प्यार

‘‘विधायक हो या एमपी, स्टुडैंट फर्स्ट,’’ अतुल के बदन पर कपड़े नए स्टाइल के थे. कीमती भी. संपन्नता के रौब से चमचमा रहा था चेहरा. पिंटू ने उसे ‘बडे़ भाई’ का संबोधन यों ही नहीं दिया था. वह इन दोनों का नायक था. अतुल ने आगे बढ़ कर नेताजी की बगलों में हाथ डाला और उन्हें खींच कर खड़ा करते हुए खाली जगह पर धम्म से बैठ गया. नेताजी ‘अरे अरे’ करते ही रह गए. अंदर ही अंदर सभी लोग आतंकित हो उठे थे. ये लड़के ढीठ ही नहीं बदतमीज व उच्छृंखल भी हैं. इन से पंगा लेना बेकार है. शकीला स्वयं ही अपनी सीट से खड़ी हो गई और पिंटू से बोली, ‘‘अरे भाई, प्यार से बोलने का था न कि हम कालेज वाले एकसाथ बैठेंगे. आप यहां बैठो, मैं उधर बैठ जाती.’’

फिर जैसे सबकुछ सामान्य हो गया. तीनों युवती के इर्दगिर्द बैठने में सफल हो गए. गाड़ी अपनी रफ्तार से दौड़ती रही.

‘‘आप का नाम जान सकते हैं? कहां रहती हैं आप?’’ थोड़ी देर बाद अतुल ने युवती को भरपूर नजरों से निहारते हुए सवाल किया. उस का लहजा विनम्रता की चाशनी से सराबोर था.

‘‘जी शीला मुर्मू. काशीपुर डंगाल में रहती हूं. धनबाद से 60 किलोमीटर दूर.’’

‘‘वाह,’’ तीनों लड़के चौंक पड़े.

‘‘कोई उपाय भी तो नहीं. हमारे कसबे में इंटर तक की ही पढ़ाई है.’’

‘‘बहुत खूब. मोगैम्बो खुश हुआ,’’ पिंटू ने नई बोली का नमूना पेश किया.

एक क्षण का मौन.

‘‘जाहिर है, कोई पसंदीदा सपना भी जरूर होगा ही?’’ अतुल उस की आंखों में भीतर तक झांक रहा था, ‘‘ऐसा सपना जो अकसर रात की नींदों में आ कर परेशान करता रहता हो.’’

‘‘बेशक है न,’’ मजाक में पूछे प्रश्न का शीला ने सीधा और सच्चा जवाब दे दिया, ‘‘परिस्थितियों ने साथ दिया तो… तो डाक्टर बनूं.’’

‘‘ऐक्सीलैंट,’’ शीला के उत्तर पर तीनों ने एकदूसरे की ओर देखा. इस देखने में व्यंग्य का पुट घुला था, यह मुंह और मसूर की दाल. फिर तीनों के ठहाके फूट उठे.

फिर कुछ क्षणों का मौन.

तीनों ने देखा, शीला स्मृतियों की धुंध में खोई बाहर के दृश्यों को देख रही है. तीनों की नजरें परस्पर गुंथ गईं. आंखों ही आंखों में मौन संकेत हुए. फिर आननफानन एक मादक गुदगुदा देने वाली योजना की रूपरेखा तीनों के जेहन में आकृति लेने लगी.

‘‘कहां खो गईं आप?’’

‘‘जी?’’ शीला हौले से मुसकरा दी.

‘‘आज पहला दिन था. रैगिंग तो हुई होगी?’’ अतुल ने प्रश्न किया तो शीला एक पल के लिए सकपका गई. दिमाग में आज हुई रैगिंग का एकएक कोलाज मेढक की तरह फुदकने लगा. 3 सीनियरों का उसे घेर कर द्वितीय तल के एक क्लासरूम में ले जाना फिर ऊलजलूल द्विअर्थी यक्ष प्रश्नों का सिलसिला. शीला मन ही मन घबरा रही थी. पर रैगिंग का स्तर खूब नीचे नहीं उतरा था और तीनों छात्र मर्यादा के भीतर ही रहे थे.

‘‘आप न भी बताएंगी तो भी अनुमान लगाना कठिन नहीं कि रैगिंग के नाम पर बेहद घटिया हरकत की गई होगी आप के साथ,’’ अतुल फुफकारा, ‘‘बीसी कालेज के छात्रों को हम अच्छी तरह जानते हैं. इस शहर के सब से ज्यादा बदतमीज और लफंगे छात्र, हंह.’’

शीला मौन रही. क्या कहती भला?

‘‘एकदम ठीक बोल रहा दादा,’’ पिंटू इस बार अपने लहजे में बंगाली टोन का छौंक डालते हुए हिनहिनाया, ‘‘माइरी, अइसा अभद्रो व्यवहार से ही तो हमारा छात्र समुदाय बदनाम हो रहा. इस बदनामी को साफ करने का एक उपाय है, दोस्तो,’’ इसी बीच मादक योजना की रूपरेखा मुकम्मल आकार ले चुकी थी, ‘‘क्यों न हम इस नए दोस्त को नए प्रवेश की मुबारकबाद देने के लिए छोटी सी पार्टी दे दें?’’

‘‘गजब, क्या लाजवाब आइडिया है, अतुल,’’ यादव समर्थन में चहक उठा, ‘‘मुबारकबाद का मुबारकबाद और बदनामी का परिमार्जन भी.’’

ये भी पढ़ें- दरिंदे: बलात्कार के आरोप में क्यों नहीं मिली राजेश को सजा

‘‘पर बड़े भाई, पार्टी होगी कहां और कब?’’

‘‘पार्टी आज ही होगी यार और अभी कुछ देर बाद,’’ अतुल हंसा. दरअसल, योजना बनी ही इतनी मादक थी कि भीतर का रोमांच लहजे के संग बह कर बाहर टपकना चाह रहा था, ‘‘अगले स्टेशन पर हम उतर जाएंगे. स्टेशन के पास ही बढि़या होटल है, ‘होटल शहनाई.’ वहीं पार्टी दे देंगे. ओके.’’

शीला अतुल के अजूबे और अप्रासंगिक प्रस्ताव पर चकित रह गई. किसी अन्य कालेज के अपरिचित छात्र. अचानक इतनी उदारता.

‘‘नो, नो, थैंक्स मित्रो, मेरे सीनियर्स ने वैसा कुछ भी नहीं किया है अभद्र, जैसा आप सब समझ रहे हैं.’’

‘‘चलिए ठीक है. माना कि आप के सीनियर्स शरीफ हैं पर पार्टी तो हमारी ओर से तोहफा होगी आप को. परिचय और अंतरंगता इसी तरह तो बनती है. हम छात्र किसी भी कालेज के हों, हैं तो एक ही बिरादरी के.’’

‘‘आप ठीक कह रहे हैं. अब तो मिलना होता ही रहेगा न. पार्टी फिर कभी,’’ शीला ने दृढ़ता से इनकार कर दिया.

‘‘उफ, 12 बजे हैं अभी. 3:25 बजे की लोकल पकड़वा देंगे. देर नहीं होगी.’’

‘‘सौरी…मैं ने कहा न, मैं पार्टी स्वीकार नहीं कर सकती,’’ शीला ने चेहरा खिड़की की ओर फेर लिया.

कुछ क्षणों का बेचैनी भरा मौन.

‘‘इधर देखिए दोस्त,’’ अतुल की तर्जनी शीला की ठोढ़ी तक जा पहुंची, ‘‘जब मैं ने कह दिया कि पार्टी होगी, तो फिर पार्टी होगी ही. हम अगले स्टेशन पर उतर रहे हैं.’’

अतुल के लहजे में छिपी धमकी की तासीर से शीला भीतर तक कांप उठी.

‘‘आखिर हम भी तो आप के सीनियर्स ही हुए न,’’ तीनों बोले.

आगे पढ़ें- नेताजी की ओर कड़ी दृष्टि से देखते हुए…

ये भी पढ़ें- सुजाता: क्यों अतुल ने पत्नी से मांगा तलाक?

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें