उस के शब्द सुन कर गायत्री भी रो पड़ी. स्वयं को छुड़ा नहीं पाई बल्कि धीरे से अपने हाथों से उस का चेहरा थपथपा दिया.
‘‘ऐसा लगता है, आज तक जितना जिया सब झूठ था. किसी ने मेरी छाती में से दिल ही खींच लिया है.’’
‘‘ऐसा मत सोचो, रवि. तुम्हारी मां जिंदा हैं. वे बीमार हैं. तुम कुछ नहीं खाते तो उन्होंने भी खानापीना छोड़ रखा है. उन के पास क्यों नहीं जाते? उन में तो तुम्हारे प्राण अटके हैं न? फिर क्यों उन्हें इस तरह सता रहे हो?’’
‘‘वे मेरी मां नहीं हैं, पिताजी ने बताया.’’
‘‘बताया, तो क्या जुर्म हो गया? एक सच बता देने से सारा जीवन मिथ्या कैसे हो गया?’’
‘‘क्या?’’ रवि टुकुरटुकुर उस का मुंह देखने लगा. क्षणभर को हाथों का दबाव गायत्री के शरीर पर कम हो गया.
‘‘वे मुझ बिन मां के बच्चे पर दया करती रहीं, अपने बचों के मुंह से छीन मुझे खिलाती रहीं, इतने साल मेरी परछाईं बनी रहीं. क्यों? दयावश ही न. वे मेरी सौतेली मां हैं.’’
‘‘दया इतने वर्षों तक नहीं निभाई जाती रवि, 2-4 दिन उन के साथ रहे हो क्या, जो ऐसा सोच रहे हो? वे बहुत प्यार करती हैं तुम से. अपने बच्चों से बढ़ कर हमेशा तुम्हें प्यार करती रहीं. क्या उस का मोल इस तरह सौतेला शब्द कह कर चुकाओगे? कैसे इंसान हो तुम?’’ एकाएक उसे परे हटा दिया गायत्री ने. बोली, ‘‘उन्हें सौतेला जान जो पीड़ा पहुंची थी, उस का इलाज उन्हीं की गोद में है रवि, जिन्होंने तुम्हें पालपोस कर बड़ा किया. मेरी गोद में नहीं जिस से तुम्हारी जानपहचान कुछ ही महीनों की है. तुम अपनी मां के नहीं हो पाए तो मेरे क्या होगे, कैसे निभाओगे मेरे साथ?’’
लपक कर उस का हाथ पकड़ लिया रवि ने, ‘‘मैं अपनी मां का नहीं हूं, तुम ने यह कैसे सोच लिया?’’
‘‘तो उन से बात क्यों नहीं करते? क्यों इतना रुला रहे हो उन्हें?’’
ये भी पढ़ें- एक से बढ़कर एक: दामाद सुदेश ने कैसे बदली ससुरजी की सोच
‘‘हिम्मत नहीं होती. उन्हें या भाईबहन को देखते ही कानों में सौतेला शब्द गूंजने लगता है. ऐसा लगता है मैं दया का पात्र हूं.’’
‘‘दया के पात्र तो वे सब बने पड़े हैं तुम्हारी वजह से. मन से यह वहम निकालो और मां के पास चलो. आओ मेरे साथ.’’
‘‘न,’’ रवि ने गरदन हिला दी इनकार में, ‘‘मां के पास नहीं जाऊंगा. मां के पास तो कभी नहीं…’’
‘‘इस की वजह क्या है, मुझे समझाओ? क्यों नहीं जाओगे उन के पास? क्या महसूस होता है उन के पास जाने से?’’ एकाएक स्वयं ही उस की बांह सहला दी गायत्री ने. निरीह, असहाय बालक सा वह अवरुद्ध कंठ और डबडबाए नेत्रों से उसे निहारने लगा.
‘‘तुम्हें 2 महीने का छोड़ा था तुम्हारी मां ने. उस के बाद इन्होंने ही पाला है न. तुम तो इन्हें अपना सर्वस्व मानते रहे हो. तुम ही कहते थे न, तुम्हारी मां जैसी मां किसी की भी नहीं हैं. जब वह सच सामने आ ही गया तो उस से मुंह छिपाने का क्या अर्थ? वर्तमान को भूत में क्यों मिला रहे हो? ‘‘अब तुम्हारा कर्तव्य शुरू होता है रवि, उन्हें अपनी सेवा से अभिभूत करना होगा. कल उन्होंने तुम्हें तनमन से चाहा, आज तुम चाहो. जब तुम निसहाय थे, उन्होंने तुम्हें गोद में ले लिया था. आज तुम यह प्रमाणित करो कि सौतेला शब्द गाली नहीं है. यह सदा गाली जैसा नहीं होता. बीमार मां को अपना सहारा दो रवि. सच को उस के स्वाभाविक रूप में स्वीकार करना सीखो, उस से मुंह मत छिपाओ.’’
‘‘मां मुझे इतना अधिक क्यों चाहती रहीं, गायत्री? मेरे मन में सदा यही भाव जागता रहा कि वे सिर्फ मेरी हैं. छोटे भाईबहन को भी उन के समीप नहीं फटकने दिया. मां ने कभी विरोध नहीं किया, ऐसा क्यों, गायत्री? कभी तो मुझे परे धकेलतीं, कभी तो कहतीं कुछ,’’ रवि फिर भावुक होने लगा.
‘‘हो सकता है वे स्वाभाविक रूप में ही तुम्हें ज्यादा स्नेह देती रही हों. तुम सदा से शांत रहने वाले इंसान रहे हो. उद्दंड होते तो जरूर डांटतीं किंतु बिना वजह तुम्हें परे क्यों धकेल देतीं.’’
‘‘गायत्री, मैं इतना बड़ा सच सह नहीं पा रहा हूं. मैं सोच भी नहीं सकता. ऐ लगता है, पैरों के नीचे से जमीन ही सरक गई हो.’’
‘‘क्या हो गया है तुम्हें, इतने कमजोर क्यों होते जा रहे हो?’’कुछ ऐसी स्थिति चली आई. शायद उस का यही इलाज भी था. स्नेह से गायत्री ने स्वयं ही अपने समीप खींच लिया रवि को. कोमल बाहुपाश में बांध लिया.भर्राए स्वर में गिला भी किया रवि ने, यही सब सुनाने तुम्हारे पास भी तो गया था. सोचा था, तुम से अच्छी कोई और मित्र कहां होगी, तुम ने सुना नहीं. मैं कितने दिन इधरउधर भटकता रहा. मैं कहां जाऊं, कुछ समझ नहीं पाता?’’
‘‘मां के पास चलो, आओ मेरे साथ. मैं जानती हूं, उन्हीं के पास जाने को छटपटा रहे हो. चलो, उठो.’’
रवि चुप रहा. भावी पत्नी की आंखों में कुछ ढूंढ़ने लगा.
गायत्री तनिक गुस्से से बोली, ‘‘जीवन में बहुतकुछ सहना पड़ता है. यह जरा सा सच नहीं सह पा रहे तो बड़ेबड़े सच कैसे सहोगे? आओ, मेरे साथ चलो?’’ रवि खामोशी से उसे घूरता रहा.
‘‘देखो, आज तुम्हारी मां इतनी मजबूर हो गई हैं कि मेरे सामने हाथ जोड़े हैं उन्होंने. तुम्हें समझाने के लिए मुझे बुला भेजा है. तुम तो जानते हो, हम लोगों में शादी से पहले एकदूसरे के घर नहीं जाते. परंतु मुझे बुलाया है उन्होंने, तुम्हें समझाने के लिए. अपनी मां का और मेरा मान रखना होगा तुम्हें. मेरे साथ अपनी मां और भाईबहन से मिलना होगा और बड़ा भाई बन कर उन से बात करनी होगी. उठो रवि, चलो, चलो न.’’ अपने अस्तित्व में समाए बालक समान सुबकते भावी पति को कितनी देर सहलाती रही गायत्री. आंचल से कई बार चेहरा भी पोंछा.
ये भी पढ़ें- Short Story: क्यों का प्रश्न नहीं
रवि उधेड़बुन में था, बोला, ‘‘मां मेरे पास क्यों नहीं आतीं, क्यों नहीं मुझे बुलातीं?’’
‘‘वे तुम्हारी मां हैं. तुम उन के बेटे हो. वे क्यों आएं तुम्हारे पास. तुम स्वयं ही रूठे हो, स्वयं ही मानना होगा तुम्हें.’’
‘‘पिताजी मां को मेरे कमरे में नहीं आने देना चाहते, मुझे पता है. मैं ने उन्हें मां को रोकते सुना है.’’
‘‘ठीक ही तो कर रहे हैं. उन की भी पत्नी के मानसम्मान का प्रश्न है. तुम उन के बच्चे हो तो बच्चे ही क्यों नहीं बनते. क्या यह जरूरी है कि सदा तुम ही अपना अधिकार प्रमाणित करते रहो? क्या उन्हें हक नहीं है?’’
बड़ी मुश्किल से गायत्री ने उसे अपने शरीर से अलग किया. प्रथम स्पर्श की मधुर अनुभूतियां एक अलग ही वातावरण और उलझे हुए वार्त्तालाप की भेंट चढ़ चुकी थीं. ऐसा लगा ही नहीं कि पहली बार उसे छुआ है. साधिकार उस का मस्तक चूम लिया गायत्री ने. गायत्री पर पूरी तरह आश्रित हो वह धीरे से उठा, ‘‘तुम भी साथ चलोगी न?’’
‘‘हां,’’ वह तनिक मुसकरा दी.
फिर उस का हाथ पकड़ सचमुच वह बीमार मां के समीप चला आया. अस्वस्थ और कमजोर मां को बांहों में बांध जोरजोर से रोने लगा.
‘‘मैं ने तुम से कितनी बार कहा है, तुम मुझे छोड़ कर कहीं मत जाया करो,’’ उसे गोद में ले कर चूमते हुए मां रोने लगीं. छोटी बहन और भाई शायद इस नई कहानी से पूरी तरह टूट से गए थे. परंतु अब फिर जुड़ गए थे. बडे़ भाई ने मां पर सदा से ही ज्यादा अधिकार रखा था, इस की उन्हें आदत थी. अब सभी प्रसन्न दिखाई दे रहे थे.
‘‘तुम कहीं खो सी गई थीं, मां. कहां चली गई थीं, बोलो?’’
पुत्र के प्रश्न पर मां धीरे से समझाने लगीं, ‘‘देखो रवि, सामने गायत्री खड़ी है, क्या सोचेगी? अब तुम बड़े हो गए हो.’’
‘‘तुम्हारे लिए भी बड़ा हो गया हूं क्या?’’
‘‘नहीं रे,’’ स्नेह से मां उस का माथा चूमने लगीं.
‘‘आजा बेटी, मेरे पास आजा,’’ मां ने गायत्री को पास बुलाया और स्नेह से गले लगा लिया. छोटा बेटा और बेटी भी मां की गोद में सिमट आए. पिताजी चश्मा उतार कर आंखें पोंछने लगे.गायत्री बारीबारी से सब का मुंह देखने लगी. वह सोच रही थी, ‘क्या शादी के बाद वह इस मां के स्नेह के प्रति कभी उदासीन हो पाएगी? क्या पति का स्नेह बंटते देख ईर्ष्या का भाव मन में लाएगी? शायद नहीं, कभी नहीं.’