अपनापन: भाग 2-मोनिका को विनय की सेक्रेटरी क्यों पसंद नहीं थी?

आजकल तो मुझे सपने भी बहुत अजीबअजीब आने लगे हैं. मैं विनय को पुकारती हुई उन के पीछेपीछे भागती हूं पर वे मेरी आवाज ही नहीं सुनते. वे किसी लड़की का हाथ थामे मुझ से आगे तेजतेज कदमों से चलते चले जाते हैं.

कई बार मेरा मन हुआ कि मैं मोनिका के बारे में इन से पूछूं लेकिन कभी कुछ पूछ नहीं पाई. शायद अंदर का डर कुछ कहने और पूछने से रोकता है. डरती हूं, अगर पूछने पर विनय ने वह सब कह दिया, जो मैं सुनना नहीं चाहती तो क्या होगा? तब मैं क्या करूंगी? कहां जाऊंगी? क्या होगा अंकित का? इसलिए सोचती हूं जैसा चल रहा है चलने दूं. पतिपत्नी का रिश्ता तो कांच के बरतन समान होता है. कहीं उस की मजबूती जांचने के चक्कर में उसे स्वयं ही चकनाचूर न कर बैठूं. इसलिए गुस्सा या शिकायत करने की अपेक्षा पहले से कहीं विनय का ध्यान रखने लगी हूं. उन पर ज्यादा प्यार लुटाने लगी हूं ताकि उन के दिल में मोनिका अपनी जगह न बना सके.

मेरा ध्यान भले ही फोन पर मोनिका की आवाज सुन कर भटक गया था, लेकिन मैं निरंतर बेटे को हिम्मत बंधाने और उस के बहते खून को रोकने की कोशिश में लगी थी. अंकित इतना नुकसान हो जाने के डर से सहमा बिना आवाज निकाले दर्द सह रहा था और आंसू बहा रहा था.

अब कोई और रास्ता नजर नहीं आ रहा था तो मैं ने फौरन साथ बन रही कोठी के बाहर खड़े ठेकेदार को आवाज दे कर जल्दी से कोई औटो या टैक्सी ले आने के लिए कहा. मेरी घबराहट देख कर उस ने परेशानी का कारण पूछा तो मैं जल्दी से उसे सब बता कर मदद की गुहार लगाई. वह फौरन वाहन का इंतजाम करने के लिए दौड़ गया.

इस बीच मैं ने घर में रखे पैसे उठा कर बाहर के ताले की चाबियां उठाई ही थीं कि दरवाजे की घंटी बज उठी. घंटी की आवाज सुनते ही धैर्य हुआ कि जल्दी ही अस्पताल जाने का इंतजाम हो गया. बाहर का दरवाजा खुला ही था. मुझे एक खूबसूरत, स्मार्ट नौजवान तेज कदमों से अंदर आता दिखाई दिया.

यह टैक्सी या औटो चालक तो नहीं हो सकता यह सोच कर ही मैं घबरा गई. यह कौन सी नई मुसीबत आ गई? मुझे दरवाजा खुला नहीं छोड़ना चाहिए था. इसी तरह सफेदपोश बन कर ही तो आजकल लुटेरे घरों में घुसते हैं. लेकिन इस से पहले कि मैं उस से कुछ कहती या पूछती, उस युवक ने प्रश्न किया, ‘‘आप मिसेज शर्मा हैं न? क्या हुआ अंकित को?’’

यह सुन कर मेरी तो पूरी देह कांप गई. यह तो सब कुछ जानता है, पूरी तैयारी के साथ आया है.

मुझ इतना परेशान देख कर वह बोला, ‘‘घबराइए नहीं, मैं जय हूं, मोनिका का हसबैंड. मेरा औफिस यहां पास ही है, उसी ने मुझे फोन कर के यहां भेजा है.’’

तभी उस की नजर अंकित पर पड़ी, जिस के सारे कपड़े खून से लथपथ थे. जगहजगह चोटें लगी हुई थीं. फर्श पर भी यहांवहां खून के छींटे और खून से सनी रुई बिखरी पड़ी थी. डिटौल की गंध से पूरा घर भरा था. यह सब देख कर वह भी घबरा गया. अब तक अंकित भी लगभग बेहोशी की हालत में आ गया था.

‘‘ओहो, इसे तो बहुत चोट आई है. मैं इसे बाहर गाड़ी में बैठाता हूं. आप जल्दी से ताला बंद कर के आ जाइए,’’ इतना कहते हुए उस ने अंकित को पकड़ कर ले जाना चाहा, लेकिन अंकित खड़ा होते ही उस की बांहों में झूल गया. उस ने तुरंत 10 साल के अंकित को गोद में उठाया और गाड़ी की तरफ दौड़ पड़ा.

जय को सब पता था. वह तुरंत ही पास के नर्सिंग होम के इमरजैंसी वार्ड में हमें ले गया. वहां पहुंचते ही डाक्टरों ने अंकित का तुरंत इलाज शुरू कर दिया. एक डाक्टर का कहना था कि खून बहुत बह गया है फिर भी घबराने की बात नहीं, जल्दी सब ठीक हो जाएगा.

अंदर डाक्टर अंकित का इलाज कर रहे थे और जय भागभाग कर उन के कहे अनुसार जरूरी कार्यवाही पूरी कर रहा था. मेरे पास उस के धन्यवाद के लिए शब्द ही नहीं थे. मुझे पता ही नहीं लगा कब एक युवती मेरे पास आ कर मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए बोली, ‘‘अब अंकित कैसा है?’’  मेरे उत्तर देने से पहले ही कमरे से बाहर आते हुए जय ने बताया, ‘‘अंकित अब

ठीक है. ट्रीटमैंट शुरू हो गया है. घबराने की कोई बात नहीं.’’

मुझे समझते देर नहीं लगी कि युवती मोनिका है. इतना सौम्य रूप, इतना सादा पहनावा,

इतना आकर्षक व्यक्तित्व, इतनी मधुरवाणी, मैं तो उसे देखती ही रह गई. पासपास खड़े जय और मोनिका की जोड़ी इतनी अच्छी लग रही थी मानों बने ही एक दूसरे के लिए हों.

‘‘सर की बहुत ही महत्त्वपूर्ण मीटिंग चल रही थी, इसलिए मैं ने उन्हें कुछ नहीं बताया. मीटिंग से जुड़ी जरूरी जानकारियां और पेपर अपनी साथी को दे कर ही मैं यहां आ पाई हूं. लेकिन इस सब में मुझे समय तो लगना ही था, इसलिए मैं ने जय को फोन पर बता कर आप के पास भेज दिया था,’’ मोनिका मुझे बता रही थी.

आशा है सब सुखद होगा

बहुतसमय बाद दीदी के घर जाना हुआ. सोम का केरल तबादला हो गया था इसलिए इतनी दूर से जम्मू आना आसान नहीं था. जब दीदी के बेटे की शादी हुई थी तब बच्चों की सालाना परीक्षा चल रही थी. मैं तब नहीं आ पाई थी और फिर सोम को भी छुट्टी नहीं थी. मौसी के बिना ही उस के भानजे की शादी हो गई थी. मैं इस बार बहुत सारा चाव मन में लिए मायके, ससुराल और दीदी के घर आई. मन में नई बहू से मिलने की चाह सब से ज्यादा थी.

हम ने बड़े जोश और उत्साह से दीदी के घर में पैर रखा. सुना था बड़ी प्यारी है दीदी की बहूरानी. मांबाप की लाडली और एक ही भाई की अकेली बहन. दीदी सास बन कर कैसी लगती होंगी, यह देखने की भी मन में बड़ी चाह थी.

अकसर ऐसा होता है कि सास बन कर

एक नारी सहज नहीं रह पाती. कहींकहीं कुछ सख्त हो जाती है मानो अपनी सास के प्रति दबीघुटी कड़वाहट बहू से बदला ले कर निकालना चाहती हो.

बड़ा लाड़प्यार किया दीदी ने, सिरआंखों पर बैठाया. मगर बहू कहीं नहीं नजर आई मुझे.

‘‘अरे दीदी बहुत हो गई आवभगत… यह बताओ हमारी बहू कहां है?’’

मु?ो दीदी आंखें चुराती सी लगीं. मेरा और सोम का चेहरा देख कर भी अनदेखा करती हुई सी दीदी पुन: इधरउधर की ही बातें करने लगीं, तो सोम से न रहा गया. उन्होंने कहा, ‘‘दीदी, आप कुछ छिपा तो नहीं रहीं… कहां हैं बहू और राजू?’’

‘‘वे हमारे साथ नहीं रहते… बड़े घर की लड़की का हमारे घर में मन नहीं लगा.’’

यह सुन कर हम दोनों अवाक रह गए.

‘‘बड़े घर की लड़की है, मतलब?’’ मैं ने कहा, ‘‘रिश्ता बराबर वालों के साथ नहीं किया

था क्या?’’

दीदी चुप थीं. जीजाजी की नजरों में दीदी के लिए नाराजगी साफ नजर आने लगी थी मुझे

अफसोस हुआ सब जान कर. मध्यवर्गीय

परिवार है जीजाजी का जहां 1-1 पैसा सोचसम?ा कर खर्च किया जाता है.

जिस लड़की ने कभी पानी का गिलास उठा कर खुद नहीं पीया, दीदी उस से सुबह 4 बजे उठ कर सारा घर संभालने की उम्मीद कर रही थीं.

‘‘हम भी तो करते थे,’’ की तर्ज पर दीदी का तुनकना जीजाजी को और भड़का गया.

‘‘तुम टाटाबिरला की बेटी नहीं थीं, जिस के घर में नौकरों की फौज होती है. तुम्हारी मां भी दिन चढ़ते ही घर की चक्की में पिसना शुरू करती थीं और मेरी मां भी. नौकरानी के नाम पर दोनों घरों में एक बरतन मांजने वाली होती थी. तुम्हारा जीवनस्तर हम से मेल खाता था. पाईपाई बचा कर खर्च करना दोनों ही घरों की आदत भी थी और जरूरत भी. इसीलिए तुम ने निभा लिया.

‘‘और वह बच्ची भी तो किसी तरह निभा ही रही थी. दबी आवाज में उस ने मुझ से कहा भी था कि पापा मुझे रसोई के काम की आदत नहीं है… रसोइया और फुलटाइम नौकर रख लीजिए.’’

‘‘क्व4-5 हजार हर महीने मैं कहां से लाती?’’

‘‘तो उस घर की लड़की इस घर में क्यों लाईं जहां नौकरों के नाम पर क्व20-25 हजार हर महीने खर्च किए जाते हैं. रिश्ता और दोस्ती सदा बराबर वालों में करनी चाहिए. मैं सदा समझता रहा, मगर तब तुम्हें लालच था अमीर घर का.’’

‘‘तो लड़की न देते हमारे घर में… वही पड़ताल कर लेते हमारे

घर की.’’

‘‘उन्हें लायक समझदार लड़का मिल रहा था, जिस ने शादी के

6 महीने बाद ही उन का कारोबार संभाल लिया था. उन की पड़ताल तो सही थी. उन की इच्छा पूर्ण हो गई. वे खुश हैं. दुखी तुम हो,’’ कह दनदनाते हुए जीजाजी उठ कर घर से बाहर चले गए.

पता चला शादी के 2-3 महीने बाद ही राजू मेधा को ले कर अलग घर में चला गया था. क्या करता वह? पहले ही दिन से दीदी की बहू से इतनी अपेक्षाएं हो गई थीं. जराजरा बात पर अपमानित होना उसे नागवार गुजर रहा था.

राजू ने समझाया था मां को, ‘‘क्या बात है मां अपनी पसंद की बहू लाईं और अब वही तुम्हें पसंद नहीं… इस तरह क्यों बात करती हो उस से जैसे वह नासमझ बच्ची हो. 26-27 साल की एमबीए लड़की बहू बना कर लाई हो और उस से उम्मीद करती हो 4-5 साल बच्ची की तरह जराजरा बात तुम से पूछ कर करे… अब तुम्हारा जमाना नहीं रहा जब घर वाले जहां बैठा देते थे बेबस बहू वहीं बैठ जाती थी.’’

‘‘नहीं बेटा, बेबस वह क्यों होने लगी. बेबस तो मैं हूं, जिस ने बेटा पालपोस कर किसी को सौंप दिया.’’

‘‘मां, कैसी बेसिरपैर की बातें कर रही हो?’’

जीजाजी पलपल जलती में पानी डालने का अथक प्रयास करते रहे थे, मगर आग दिनप्रतिदिन प्रचंड होती चली गई.

‘‘तुम पीछे की ओर देख कर आगे नहीं बढ़ सकती हो दीदी. जिस काम की उम्मीद तुम बहू से करती रही हो वही तो तुम कम पढ़ीलिखी भी करती रही हो न. उस का एमबीए करना किस काम आया जरा सोचो न? बच्चे कमाते हैं. अगर क्व5 हजार का नौकर अपनी जेब से रख सकते हैं तो तुम्हें क्या एतराज है?’’

दीदी चुपचाप सुनतीं मुंह फुलाए बैठी रहीं.

‘‘राजू और बहू को फोन करो. हम उन से मिलना चाहते हैं. या तो वे यहां चले आएं या फिर हमें

अपना पता बता दें हम उन के घर चले जाते हैं,’’ सोम ने अपना निर्णय सुना दिया.

यह सुनते ही दीदी का पारा सातवें आसमान जा पहुंचा. बोलीं, ‘‘कोई नहीं जाएगा उन के घर और न ही वह लड़की यहां आएगी.’’

‘‘देखा शोभा इस का रवैया? राजू बेचारा 2 पाटों में पिस रहा है. अरे, जैसा घर, जैसी लड़की तुम ने पसंद की राजू ने हां कर दी… अब चाहती हो बच्चे साथसाथ भी न रहें… यह कैसे संभव है? जीना हराम कर दिया है तुम ने सब का… न मुझे उन से मिलने देती हो न उन्हें यहां आने देती हो.’’

जीजाजी इकलौती संतान के वियोग में पागल से होते जा रहे थे. सदा अपनी ही चलाने वाली दीदी सम?ा नहीं पा रही थीं कि वे बबूल की फसल बो कर आम नहीं खा सकतीं. पिछले 7-8 महीने से लगातार इस तनाव ने जीजाजी की सेहत पर भी बुरा असर डाला था. मेज पर दवाओं का ढेर लगा था.

‘‘मैं अपने घर की समस्या किसकिस के पास ले जाऊं? कौन समझएगा इस औरत को जब मैं ही न सम?ा सका? मेधा हर रोज फोन कर के हमारा हालचाल पूछती है. राजू ने तो अपना घर भी ले लिया है.’’

दीदी का तमतमाया चेहरा देख सोम और मैं सम?ा नहीं पा रहे थे कि क्या करें. आज के परिवेश में इतनी सहनशीलता किसी में नहीं रही जो तनाव को पी जाए.

तभी सोम ने इशारा कर के मुझे बाहर बुलाया और कुछ सम?ाया. फिर जीजाजी को भी बाहर बुला लिया.

दीदी अंदर बरतन समेट रही थीं.

10 मिनट के बाद मैं अंदर चली आई और सोम जीजाजी के साथ राजू के घर चले गए.

‘‘कहां गए दोनों?’’ विचित्र सा भाव था दीदी की आंखों में.

‘‘जीजाजी की छाती में दर्द होने लगा है… कितना परेशान हो गए हैं राजू की वजह से. सोम उन्हें डाक्टर के पास ले गए हैं,’’ मैं ने झूठ बोला.

सुन कर दीदी घबरा गईं. मगर बोली कुछ भी नहीं.

‘‘हर वक्त कलहक्लेश हो घर में तो ऐसा होता ही है. इस में नया क्या है… सहने की भी एक हद होती है. तुम तो रोपीट लेती हो, जीजाजी तो रो भी नहीं सकते फिर बीमार नहीं होंगे तो क्या होगा? अगर कुछ ऊंचनीच हो गई तो क्या होगा, जानती हो? जवानी में भी आजकल लोगों में सहनशीलता नहीं रही और तुम 60 साल के आदमी से यह आस लगाए बैठी. क्या तुम्हारी जिद पर अपना बुढ़ापा खराब कर लें वे?’’

‘‘क्या मतलब है तुम्हारा?’’

‘‘मतलब यह है कि बेकार की जिद छोड़ो और बच्चों से मिलनाजुलना शुरू करो. तुम नहीं मिलना चाहतीं तो जीजाजी को तो मत रोको. अगर दिल का रोग लग गया तो हाथ मलती रह जाओगी दीदी… अकेली रह जाओगी. तब पछतावे के सिवा कुछ हाथ नहीं लगेगा. बहू अमीर घर की है उस का रहनसहन वैसा है तो क्या यह उस का दोष हो गया? अपने जैसे घर की कोई क्यों नहीं ले आईं, जिस का जीवनस्तर तुम से मिलताजुलता होता और तुम्हारे मन में भी कोई हीनभावना न आती.

‘‘दीदी, क्या यही सच नहीं है कि तुम बड़े घर की बच्ची को पचा नहीं पाई हो. जो लड़की अपने पिता के काम में सहयोग कर के इतना कमा रही थी उस ने तुम जैसे मध्यवर्गीय परिवार में शादी को हां कर दी सिर्फ इसलिए कि इस घर की सादगी और संस्कार उसे पसंद आ गए थे. राजू उसे अच्छा लगा था और…’’

‘‘बस करो शुभा… तुम भी राजू की बोली मत बोलो,’’ दीदी बीच ही में बोल पड़ीं.

‘‘इस का मतलब मैं ने भी वही समझ है, जो राजू को समझ में आया है… मेधा एक अच्छी लड़की है… वह तो तुम्हें अपनाना चाहती है. बस, तुम्हीं उस की नहीं बनना चाहती हो.’’

दीदी कुछ बोलीं नहीं.

‘‘तुम दोनों अब बूढ़े हो रहे हो… शरीर कमजोर होगा तब बच्चों का सहारा चाहिए… बच्चे न बुलाएं तो भी समझ में आता है. तुम्हारे बच्चे सिरआंखों पर बैठाते हैं.’’

आधा घंटा चुप्पी छाई रही. सोम का फोन आया. उन्होंने कुछ और समझाया मुझे.

‘‘जीजाजी की छाती में बहुत दर्द हो रहा है क्या? राजू को बुला लिया क्या आप ने? अच्छा किया. हम भला इस शहर में किसे जानते हैं,’’ मेरा स्वर कुछ ऊंचा हो गया तो दीदी के भी कान खड़े हो गए.

‘‘राजू को बुला लिया… क्या मतलब? उसे बुलाने की क्या जरूरत थी,’’ दीदी ने पूछा.

मैं अवाक रह गई कि दीदी को जीजाजी की तबीयत की चिंता नहीं. राजू को क्यों बुला लिया बस यही प्रश्न किया. मैं हैरान थी कि एक औरत इतनी भी जिद कर सकती है. बहू से नफरत इतनी ज्यादा कि पति जाए तो जाए बेटा घर न आए. मैं ने उसी पल यह निर्णय ले लिया कि दीदी की जिद को खादपानी डाल कर एक विशालकाय पेड़ नहीं बनने देना. एक स्त्री का त्रियाहठ इतना नहीं बढ़ने देना कि घर ही तबाह हो जाए.

दीदी को जीजाजी की पीड़ा समझ में नहीं आ रही तो वही भाषा बोलनी पड़ेगी जिसे दीदी समझे. 2 घंटे बाद स्थिति बदल चुकी थी. राजू और मेधा हमारे सामने थे. आते ही उस ने मेरे और दीदी के पांव छुए.

‘‘पापा को हलका दिल का दौरा पड़ा है मम्मी… मौसाजी और डाक्टर साहब उधर हैं… चलिए, आप भी वहां.’’

दीदी को हम पर शक था तभी तो वे यह सुन कर भी इतनी परेशान नहीं हुई थीं.

‘‘हांहां, चलो दीदी राजू के घर,’’ मैं ने झट से कहा.

राजू और मेधा अंदर कमरे में चले गए और जब बाहर आए तब उन के हाथ दीदी और जीजाजी के अटैची थे.

‘‘चलिए मम्मी… पापा को पूरा आराम चाहिए और पूरी देखभाल… जो आप अकेली नहीं कर पाएंगी… चलिए उठिए न मम्मी क्या सोच रही हैं पापा को आप की जरूरत है… जल्दी उठिए.’’

राजू ने हाथ पकड़ कर उठाया और फिर हम सब बाहर खड़ी गाड़ी में आ बैठे. लगभग आधे घंटे के बाद हम राजू के घर के बाहर खड़े थे. खुशी के अतिरेक में मेरी आंखें भर आईं कि राजू इतना बड़ा हो गया है कि अपने घर के बाहर खड़ा हमारा गृहप्रवेश करा रहा है. बड़े स्नेह और सम्मान से मेधा दीदी को उन के कमरे में ले गई.

‘‘मम्मी, यह रहा आप का कमरा,’’ मेधा का चेहरा संतोष से दमक रहा था, ‘‘यह आप की अलमारी, यह बाथरूम, सामने दीवार पर टीवी… और भी आप जो चाहेंगी आ जाएगा.’’

‘‘तेरे पापा कहां हैं?’’ दीदी का स्वर कड़वा ही था.

‘‘वह उधर कमरे में लेटे हैं… डाक्टर और मौसाजी भी वहीं हैं.’’

तनिक सी चिंता उभर आई दीदी के माथे पर. फिर तुरंत वह उन के पास पहुंच गईं. वास्तव में जीजाजी लेटे हुए थे.

डाक्टर उन्हें समझ रहे थे, ‘‘तनाव से बचिए आप. खुश रहने की कोशिश कीजिए… क्या परेशानी है आप को जरा बताइए न? आप का बेटा होनहार है. बहू भी इतनी अच्छी है. आप की कोई जिम्मेदारी भी नहीं है तो फिर क्यों दिल का रोग लगाने जा रहे हैं आप?’’

जीजाजी चुप थे. दीदी की आंखें भर आई थीं. शायद अब दीदी को बीमारी का विश्वास हो गया था. सोम मुझे देख कर मंदमंद मुसकराए. मेधा सब के लिए चाय और नाश्ता ले आई. जीजाजी के लिए सूप और ब्रैड. चैन दिख रहा था अब जीजाजी के चेहरे पर… आंखें मूंदे चुपचाप लेटे थे. शुरुआत हो चुकी थी. आशा है, परिणाम भी सुखद ही होगा.

विमोहिता: कैसे बदल गई अनिता की जिंदगी

उसकी गली में- भाग 2 : आखिर क्या हुआ उस दिन

इस की वजह यह थी कि केस मेरे पास आने से उस की बेइज्जती हुई थी. थाने में 4-5 सिपाही उस के पक्के चमचे थे. मैं ने विलायत को लौकअप के बजाय अलग कमरे में सुलाया था. जाहिर है, उस के फरार होने से मेरी ही बदनामी होनी थी. मुलजिम तो दीवार तोड़ कर जा नहीं सकता था. मुझे यकीन हो गया कि उसे भगाने में बलराज की ही साजिश थी. मैं विलायत अली के घर पहुंचा. उस के बूढ़े बाप ने दरवाजा खोला. मुझे देख कर वह कांपने लगा. मांबहन भी बाहर आ गईं. सभी बुरी तरह से डरे हुए थे. मां ने पूछा, ‘‘थानेदार साहब, मेरा पुत्तर तो अच्छा है न?’’

उस की बात का जवाब दिए बिना मैं ने फौरन घर की तलाशी ली. पर विलायत अली वहां नहीं था. मैं ने उस की मां से कहा, ‘‘तेरे पुत्तर को मेरी मेहरबानी रास नहीं आई. वह थाने से फरार हो गया है. सचसच बता दे कि वह कहां छिप सकता है? इसी में उस की खैर है.’’ ‘‘मुझे नहीं मालूम वह कहां है. पर मैं तुम से कुछ नहीं छिपाऊंगी. उस की पूरी कहानी बताए देती हूं. साहब मेरा बेटा विलायत स्कूल के सामने ठेली लगा कर कुल्फी बेचता था. पता नहीं कैसे स्कूल की एक मास्टरनी सुलेखा का दिल उस पर आ गया. कुछ दिन तो यह सब चला, फिर उस मास्टरनी ने सब कुछ भुला कर किसी और से शादी कर ली.

‘‘इस से मेरे बेटे को इतनी ठेस पहुंची कि वह फकीरों की तरह मारामारा फिरने लगा. उस ने अपना कामधंधा सब छोड़ दिया. सुबह को घर से जाता तो शाम को ही घर आता. 4-5 दिन पहले पुलिस उसे चोरी के आरोप में पकड़ ले गई. साहब, मैं दावे से कह सकती हूं कि मेरा बेटा चोरी हरगिज नहीं कर सकता. मुझे तो इस में उस मास्टरनी की ही साजिश लगती है.’’

उस की बात सुन कर मैं बाहर आ गया. मेरा इरादा मास्टरनी के घर जाने का था. मास्टरनी की गली में नुक्कड़ पर पान की दुकान थी. वहीं पर मैं ने जीप रुकवा ली. पान वाला मुझे जानता था. मैं ने उस से विलायत अली और मास्टरनी के बारे में पूछा तो उस ने मास्टरनी के बारे में मुझे ढेर सारी जानकारी दी. मैं पान वाले की दुकान पर खड़ा था, तभी मास्टरनी के घर से एक आदमी साइकिल ले कर निकला. पता चला कि वह उस मास्टरनी का पति नजीर था, जो इनकम टैक्स विभाग में चपरासी था. उस के पीछेपीछे मास्टरनी भी दरवाजे तक आ गई. मैं देख कर हैरान रह गया कि अदने और साधारण से आदमी से खूबसूरती की मल्लिका मास्टरनी ने शादी कैसे कर ली?

और तो और, वह उम्र में भी उस से काफी बड़ा था. उस की पहली बीवी मर चुकी थी. यह मकान उस ने 4-5 महीने पहले ही लिया था. इस से पहले वह एक कमरे में किराए पर रहता था. चपरासी की नौकरी में उस ने इतना आलीशान मकान कैसे खरीद लिया, इस बात की मुझे हैरानी हो रही थी. अभी मैं सोच ही रहा था कि गनपतलाल लपक कर मेरे पास आया. मैं उसे अच्छी तरह से जानता था. उस का अपनी पार्टी में अच्छा रसूख था. हाथ मिला कर वह मुझ से घर चलने का अनुरोध करने लगा. मैं ने उस से कहा कि मैं नजीर के बारे में मालूम करने आया था. इस पर उस ने कहा, ‘‘फिर तो आप मेरे साथ चलिए. उस के बारे में मुझ से ज्यादा कौन बता सकता है.’’

मेरा मकसद विलायत तक पहुंचना था. सोचा कि शायद गनपतलाल से ही उस के बारे में कोई जानकारी मिल जाए, इसलिए मैं उस के साथ उस की कोठी में चला गया. मेरे पूछने पर उस ने बताया, ‘‘नजीर काफी तेज बंदा है. वह मेरे पास अकसर आताजाता रहता है. इनकम टैक्स में चपरासी है, पर उस की काफी पैठ है. शायद उस ने अभी कोई लंबा हाथ मारा है, जो कोठी खरीद ली है. खान साहब, इस की बीवी बड़ी खूबसूरत है. पता नहीं इस ने क्या चक्कर चलाया कि उस ने इस से शादी कर ली.’’ मैं ने पूछा, ‘‘आप इस की बीवी के बारे में कुछ जानते हों तो बताएं.’’

वह कुछ सोचते हुए बोला, ‘‘खान साहब, मैं उस की मां को ही बुलवा लेता हूं. आप जो चाहें, उसी से पूछ लेना.’’ कह कर उस ने अपने एक आदमी को कुछ कह कर भेज दिया. करीब 10 मिनट में उस का आदमी एक बूढ़ी औरत को बुला लाया. वह औरत डरीसहमी थी. उस के माथे पर पट्टी बंधी थी. मैं ने पूछा, ‘‘अम्मा, कल रात एक मुलजिम थाने से फरार हुआ है. मैं ने सुना है कि तुम्हारी बेटी का उस से नाम जोड़ा जाता रहा है.’’

मेरी इस बात से उस का चेहरा उतर गया, वह दुखी हो कर बोली, ‘‘साहब, मेरी बेटी का उस से कोई ताल्लुक नहीं था, वह लड़का ही उस के पीछे पड़ा था. अब शादी के बाद वह बात भी खत्म हो गई,’’

उस की बात से मैं संतुष्ट नहीं था. इसलिए वहां से 12 बजे के करीब मैं थाने आ गया. थाने में सब के मुंह पर हवाइयां उड़ रही थीं. मैं डीएसपी साहब के कमरे में पहुंचा. बलराज मुंह फुलाए एक कोने में खड़ा था. डीएसपी साहब काफी गुस्से में थे. मेरे सैल्यूट के जवाब में बोले, ‘‘क्या रिपोर्ट है नवाज?’’

मैं ने कहा, ‘‘सर, सुबह से उसी कोशिश में लगा हुआ हूं, पर अभी कुछ पता नहीं चला.’’

‘‘नवाज खां, कोशिश नहीं, मुझे रिजल्ट चाहिए और मुलजिम मिलना चाहिए. तुम्हें पता नहीं कि यहां क्या हुआ? आधे घंटे पहले थाने के सामने 2 हजार आदमी जमा हो गए थे. वे मांग कर रहे थे कि पुलिस के जुल्म से जो आदमी मरा है, उस की मौत की जिम्मेदार पुलिस है. मरने वाले की लाश हमें दो.’’ डीएसपी साहब ने गुस्से में कहा.

बलराज तीखे स्वर में बोला, ‘‘यह सब नवाज खान की नरमी की वजह से हुआ.’’

‘‘खामोश रहो,’’ मैं डीएसपी साहब की मौजूदगी में चिल्ला पड़ा, ‘‘यह मेरी नरमी की वजह से नहीं, तुम्हारी सख्ती का नतीजा है. तुम ने उसे जानवरों की तरह मारा. तुम ने उस से पैसे वसूल किए. तुम्हारे मातहत ने उस की मांबहन को तंग किया. सिर्फ तुम्हारी वजह से वह छत से कूद कर खुदकुशी कर रहा था. गनीमत समझो कि टाहम पर पहुंच कर मैं ने उसे बचा लिया, वरना तुम्हारी तो बेल्ट उतर चुकी होती.’’ मेरा गुस्सा देख कर बलराज चुप हो गया. इस बार डीएसपी साहब नरमी से बोले, ‘‘देखो, आपस में अंगुलियां उठाने से कोई फायदा नहीं. यह हमारी इज्जत का सवाल बन गया है. कुछ सियासी लोग मामले को हवा दे रहे हैं. इस वक्त साढ़े 12 बजे हैं. कल सुबह साढ़े 10 बजे तक मुलजिम मिल जाना चाहिए. हमारे पास 22 घंटे हैं. उसे ढूंढ़ कर लाना तुम दोनों की जिम्मेदारी है. इस बारे में जो मदद चाहिए, वह मिलेगी. एसपी साहब भी कौन्टैक्ट में हैं.’’

मैं अपने कमरे में गया. एएसआई विलायत अली के 4 दोस्तों को पकड़ लाया था, पर उन से कोई खास बात मालूम नहीं हो सकी थी. बस यही पता चला कि विलायत स्कूल के सामने कुल्फी बेचता था. मास्टरनी जुलेखा उसी स्कूल में पढ़ाती थी. एक दिन वह स्कूल से निकल कर तांगे में बैठी तो घोड़ा बिदक कर भागा. विलायत अली फौरन तांगे के पीछे भागा. कुछ दूर दौड़ कर वह उस पर चढ़ गया. तांगा एक पुलिया से टकराया और नहर में गिर गया. जुलेखा पानी के तेज बहाव में बहने लगी. बड़ी मुश्किल से विलायत ने उसे बचा कर बाहर निकाला.

अपनापन: भाग 1-मोनिका को विनय की सेक्रेटरी क्यों पसंद नहीं थी?

हम ने अभी 2 माह पहले ही अपने इस नए घर में शिफ्ट किया है. विनय के औफिस में उन दिनों काम बहुत था. कुछ विदेशी क्लाइंट आए हुए थे, इसलिए वे सुबह जल्दी ही घर से निकल जाते और उन के वापस आने का भी कोई समय तय नहीं रहता था.

अंकित के स्कूल की छुट्टियां चल रही थीं, इसलिए मैं पूरा दिन घर को सजानेसंवारने और सामान को सैट करने में जुटी रहती. दिन कब बीत जाता कुछ पता ही नहीं लगता. अभी यहां कोई कामवाली बाई भी नहीं मिली, जो मेरी कुछ मदद ही कर देती.

भीड़भाड़ वाले शहर से दूर यह नया बस रहा सैक्टर है. इक्कादुक्का कोठियों में ही लोग रह रहे हैं. ज्यादातर घर अभी बन ही रहे हैं. आसपड़ोस में कोई है ही नहीं. दूरदूर जो इक्कादुक्का कोठियां आबाद भी हैं, उन में रहने वालों से जानपहचान करने का अभी समय ही नहीं मिला.

वैसे हम भी इतनी जल्दी इस सुनसान सी जगह में शिफ्ट नहीं करना चाहते थे, लेकिन एक तो अपने नए बने घर का शौक दूसरा हम जिस किराए के घर में रह रहे थे उस का लीज टाइम खत्म हो चुका था, इसलिए हम ने यहीं आना तय कर लिया.

उस दिन मैं किचन में क्रौकरी, बरतन, दालों के डब्बे आदि लगाने में व्यस्त थी, तभी बैडरूम से आई जोरदार धमाके की आवाज ने मुझे चौंका दिया. घबराई हुई जब मैं बैडरूम में पहुंची तो वहां का मंजर देख कर मुझे चक्कर सा आ गया. मैं ने तुरंत स्वयं को संभाला क्योंकि यह घबराने का नहीं बल्कि अंकित को संभालने का समय था.

मुझे समझते देर नहीं लगी कि अंकित शायद मेरी मदद करने के खयाल से अपने खिलौनों और किताबों के डब्बों का सामान अलमारी के ऊपर रख रहा था कि स्टूल से उस का पैर फिसल गया. वह जहां गिरा था वहां कांच के फूलदान और शोपीस रखे हुए थे. उस के उन पर गिरने से वे टूट गए और कांच के टुकड़े उस के हाथपैरों में कई जगह चुभ गए. इस से उस को कई जगह से खून बहने लगा.

उसे प्यार से ‘कुछ नहीं हुआ घबराओ नहीं,’ कहते हुए मैं ने उसे वहां से उठाया और उस के जख्मों को डिटौल से साफ करने लगी. एक जगह पर गहरा घुसा कांच का टुकड़ा बाहर निकाला तो वहां से खून की तेज धार बह निकली, जिसे देख कर मैं घबरा गई.

इस नई जगह पर आसपास डाक्टर कहां मिलेगा? औटो या टैक्सी

भी कैसे और कहां आएगी? अंकित का चेहरा दर्द से पीला पड़ता जा रहा था. ऐसे में मुझे कुछ सूझ ही नहीं रहा था. अब तक सारे घरेलू उपचार मैं आजमा चुकी थी, लेकिन हालत बिगड़ती ही जा रही थी. मैं ने घबरा कर विनय को फोन मिला ही दिया, यह जानते हुए भी कि वे इस समय बहुत जरूरी मीटिंग में होंगे.

उन के फोन उठाते ही मैं एक ही सांस में सब कुछ कह गई. मुझ पर एकएक पल भारी पड़ रहा था. भूमिका बांधने का तो समय ही नहीं था. मेरी बात पूरी होते ही उधर से आवाज आई ‘‘ओह, सर तो बहुत जरूरी मीटिंग में हैं. मैं देखती हूं क्या कर सकती हूं, आप घबराएं नहीं.’’

इतना सुनते ही मैं जैसे आसमान से जमीन पर आ गिरी. यह तो विनय की सेके्रटरी मोनिका की आवाज थी. जब से यह विनय के औफिस में आई है, मेरे और विनय के बीच एक अदृश्य दीवार बन कर खड़ी हो गई है.

जबजब विनय उस की बात करते हैं, उस के काम के तरीके की तारीफ करते हैं, उस से फोन पर बात करते हैं, तो उस अदृश्य दीवार की चौड़ाई बढ़ती जाती है. मैं अपने भीतर एक अजीब सी घुटन महसूस करने लगती हूं. इसलिए जब कभी भी विनय औफिस के बारे में बातें करते हैं, मेरी निगाहें उन के चेहरे पर, उन के कपड़ों पर, उन के शरीर पर जैसे कुछ ढूंढ़ने सी लगती हैं. मैं एकटक उन के चेहरे के भावों को पढ़ने लगती हूं. बातोंबातों में उन्होंने कितनी बार मोनिका का नाम लिया, मन ही मन गिनने लगती हूं. ऐसे में उन की बातों में मेरा ध्यान ही नहीं रहता.

अपनी बसीबसाई गृहस्थी और अंकित के भविष्य की चिंता मुझे घेरे रहती है. बातचीत के दौरान विनय कभी कुछ पूछ बैठें, तो मेरे पास उन के सवाल का ठीक उत्तर नहीं होता. वे शुरूशुरू में तो ‘तुम कहां खोई हो’ कह कर रह जाते थे, लेकिन अब धीरेधीरे मेरे इस व्यवहार से खीजने लगे हैं. मेरे इस बरताव से तंग आ कर मेरी निगाहों की भाषा पढ़ने लग गए हैं, इसलिए अब वे पहले की तरह मुझ से घंटों औफिस की बातें नहीं करते. भले ही काम के बढ़ जाने का बहाना कर के देरेदेर तक औफिस में रहते हैं, लेकिन मुझे पूरा यकीन है कि वे मुझ से दूर इसी मोनिका के साथ अपना ज्यादा समय बिताना चाहते हैं.

मेरा मन हर पल अजीब सी ऊहापोह में उलझ रहता है. कभी मन कहता है, विनय ऐसे नहीं हैं. वे मुझे धोखा नहीं दे सकते. वे भला अपनी सुखी गृहस्थी और इकलौते बेटे को क्यों छोडेंगे? लेकिन दूसरे ही पल खयाल आता है कि आजकल आए दिन कैसाकैसा तो देखने और सुनने को मिलता है. एक पत्नी के रहते आदमी दूसरी शादी रचा रहे हैं.

अपने से छोटी उम्र की लड़कियों से रोमांस करते फिर रहे हैं. आजकल हवा ही ऐसी चल रही है. क्या पता विनय घर से बाहर क्या करते हैं. कहीं बातोंबातों में मोनिका का नाम ले कर मेरी प्रतिक्रिया तो जानना नहीं चाहते?

उसकी गली में- भाग 1 : आखिर क्या हुआ उस दिन

बगल वाले कमरे में इंसपेक्टर बलराज एक मुलजिम की जम कर पिटाई कर रहा था. उस की पिटाई से मुलजिम जोरजोर चीख रहा था, ‘‘साहब, मैं ने कुछ नहीं किया. मुझे माफ कर दो, मैं बेकसूर हूं.’’

वह एक शहरी थाना था. वहां मेरे अलावा दूसरा इंसपेक्टर बलराज था. थाने में ही डीएसपी का भी औफिस था. इंसपेक्टर बलराज बेहद सख्त था. गाली उस के मुंह से बातबात में निकलती थी. कई मुलजिम तो डर के मारे झूठे इलाजम को भी अपने  सिर ले लेते थे. लेकिन मुझे वह ‘बाऊजी थानेदार’ कह कर पुकारता था, लेकिन पीठ पीछे मेरा मजाक उड़ाता था.

जिस मुलजिम की वह पिटाई कर रहा था, उस की आवाज आई, ‘‘साहब, बहुत जोर से पेशाब लगा है. मुझे जाने दीजिए.’’ पता नहीं क्यों मुलजिम की आवाज में मुझे एक अजीब सा दर्द महसूस हुआ. सर्दियों के दिन थे, शाम भी होने वाली थी. मैं ने खिड़की पर पड़ी चिक से देखा, 2 सिपाही सहारा दे कर उस मुलजिम को छत पर बने पेशाबखाने ले जा रहे थे. उस की हालत देख कर ही लग रहा था कि उस की जम कर खातिरदारी की गई थी.

पुलिस भाषा में पिटाई को खातिरदारी कहते हैं. मैं खाली बैठा था, टहलता हुआ बाहर चला गया. अचानक मुझे छत पर धमाचौकड़ी की आवाज आती महसूस हुई. ऊपर कौन भाग रहा है, जानने के लिए मैं छत पर चला गया. छत कोई 20 फुट ऊंची थी. ऊपर पहुंच कर मैं ने मुलजिम को मुंडेर की ओर भागते देखा. उसे पकड़ने के चक्कर में एक सिपाही गिर पड़ा था. मैं समझ गया कि मुलजिम पुलिस से छूट कर छत से नीचे छलांग लगाना चाहता है.

मैं तेजी से उस की तरफ दौड़ा. तब तक वह मुंडेर पर पांव रख चुका था, वह छलांग लगाता, उस के पहले ही मैं ने पीछे से उसे पकड़ लिया. नीचे सड़क पर लोगों का आनाजाना चालू था. मैं उसे घसीटता हुआ पीछे ले आया. सड़क के लोग घबरा कर ऊपर देख रहे थे. वह जोरों से चीख रहा था, ‘‘मुझे छोड़ दो, मुझे मर जाने दो.’’

वह जैसे पागल हो रहा था. दोनों सिपाहियों ने मुश्किल से उसे काबू में किया. देखतेदेखते छत और सड़क पर मजमा लग गया. जैसे ही उसे नीचे लाया गया, गुस्से से पागल हो कर इंसपेक्टर बलराज उस पर टूट पड़ा. मुलजिम की मां और बहन थाने में बैठी थीं. वे रोने लगीं. पिटतेपिटते मुलजिम बेहोश हो गया, पर बलराज के हाथ नहीं रुक रहे थे. मैं ने किसी तरह बलराज को रोका.

मुलजिम का नाम विलायत अली था. वह शहर का ही रहने वाला था. उस की मां और बहन हाथ जोड़ कर रोते हुए मुझ से कह रही थीं कि विलायत बेकसूर है. दोनों लोगों के घरों में काम कर के गुजारा करती हैं. बलराज ने उन से 5 सौ रुपए मांगे थे. घर के जेवर, बरतन आदि बेच कर उन्होंने रुपए दे दिए थे. इस के बावजूद भी वह विलायत को नहीं छोड़ रहे. अब वह और पैसे मांग रहे हैं. वे और पैसे कहां से लाएं.

बलराज विलायत अली के खिलाफ फरारी का नया मामला दर्ज कर रहा था, जबकि 20 फुट ऊंची उस बिल्डिंग से किसी मरेकुचे आदमी का कूदना असंभव लगता था. सही में तो जुल्म से घबरा कर खुदकुशी का मामला बनना चाहिए था. मैं सबकुछ देख और समझ रहा था. अगर मैं कुछ कहता तो बलराज और नाराज हो जाता. इसलिए मैं चुप रहा.

विलायत की मां और बहन ने जो बातें बताई थीं, उस से साफ लग रहा था कि उसे जबरदस्ती फंसाया जा रहा था. मुझे यहां आए अभी एक महीना ही हुआ था.

मैं अपने कमरे में पहुंचा तो वहां विलायत की मां बेहोश पड़ी थी, बहन रो रही थी. बहन हाथ जोड़ कर बोली, ‘‘थानेदार साहब, मेरी मां और भाई को उस जालिम से बचा लीजिए. आप जहां कहेंगे, जिस के पास कहेंगे, मैं चली जाऊंगी. बस मेरे भाई पर रहम करें.’’

उस की बात सुन कर मैं चौंका. उस की बातों से लगा, उसे कोई कहीं भेजना चाहता था? वजह साफ थी, लड़की जवान थी. देखने में भी अच्छी थी. मैं ने पूछा, ‘‘किसी ने तुम से कहीं चलने को कहा था क्या?’’

‘‘हां, कल एक सिपाही ने थानेदार के घर जा कर भाई की जमानत की बात करने को कहा था.’’

‘‘क्या तुम उस के यहां गई थी, फिर क्या हुआ?’’

‘‘हां, मैं गई थी उस सिपाही के साथ. मेरी मां भी साथ थी. उस ने हमें बहुत डरायाधमकाया. इस के बाद उस सिपाही की नीयत खराब हो गई. उस ने मां को कोई फार्म लाने के लिए बाहर जाने को कहा तो मैं उस की मंशा समझ कर मां के साथ बाहर चली गई.’’ उस की बात सुन कर मुझे उस पुलिस वाले पर बहुत गुस्सा आया. अब तक उस की बूढ़ी मां होश में आ चुकी थी. मैं ने उन दोनों को तसल्ली दी. इस के बाद मैं एक निर्णय ले कर डीएसपी साहब के पास जा कर बोला, ‘‘जनाब, विलायत का केस मैं हैंडल करना चाहता हूं. बलराज के पास वक्त नहीं है, जिस की वजह से वह इस केस पर ठीक से ध्यान नहीं दे पा रहे हैं.’’

‘‘नवाज, यह कोई खास मामला नहीं है. उसी के पास रहने दो. ऐसा करने से आपस में खटास पैदा हो सकती है.’’

मुझे उन से इस जवाब की उम्मीद नहीं थी. मैं समझ गया कि बलराज मुझ से पहले डीएसपी साहब से मिल कर गया है. मैं कुरसी से उठ ही रहा था कि डीएसपी साहब के फोन की घंटी बज उठी. बीच में उठ कर जाना ठीक नहीं था, इसलिए मैं बैठ गया. करीब 10 मिनट बात होती रही. डीएसपी साहब फोन पर बड़े अदब से बात कर रहे थे. बातचीत से लग रहा था कि फोन शायद एसपी या डीआईजी का था. फोन पर बात खत्म होते ही डीएसपी साहब ने चेहरे का पसीना पोंछने के बाद कहा, ‘‘नवाज खां, यह केस तुम हैंडल करो. बलराज से सारा रिकौर्ड ले लो.’’ उन्होंने कहा कि थाने की छत पर जो तमाशा हुआ, उसे देखने के लिए सड़क पर चल रहे लोग जमा हो गए थे. ट्रैफिक जाम हो गया था. उस भीड़ में किसी मंत्री की गाड़ी थी. उस के पीछे एक जीप में प्रैस वाले थे. उन लोगों ने उस हाथापाई की फोटो खींच ली थी.

इस घटना से मंत्रीजी बेहद नाराज हो गए. उन्होंने सारा मामला खुद देखा था. इस थाने के मारपीट के पहले भी 1-2 मामले उछले थे. उन्होंने ही डीआईजी साहब से कहा है कि इस केस की सख्ती से जांच की जाए और जिस की वजह से यह सब हुआ है, उस के खिलाफ सख्ती से काररवाई की जाए. मैं चलने लगा तो उन्होंने मुझ से इसंपेक्टर बलराज को भेजने को कहा. मैं ने बलराज को उन का मैसेज दे दिया. विलायत अली की हालत काफी खराब थी. मैं ने करीब के क्लीनिक से डाक्टर बुला कर उसे दवा दिलवाई और हल्दी मिला दूध दे कर उसे लौकअप के बजाय कमरे में सुला कर क्वार्टर पर चला आया. उस की निगरानी के लिए एक सिपाही की ड्यूटी लगा दी थी.

अगले दिन सवेरेसवेरे एक सिपाही ने मेरा दरवाजा खटखटाया और खबर दी कि मुलजिम विलायत अली जेल से फरार हो गया है. मैं सोच में पड़ गया. उस की हालत ऐसी नहीं थी कि वह भाग जाता. उसे काफी अंदरूनी चोटें लगी थीं.

यह मामला बड़े अफसरों तक पहुंच चुका था. मैं फटाफट थाने पहुंच गया. मैं सीधे उस कमरे में पहुंचा, जहां विलायत अली को सुलाया गया था. मैं ने देखा, कंबल, बिस्तर सब वैसा ही पड़ा था. कमरे की दीवार में करीब डेढ़ फुट का सुराख था.

जो सिपाही ड्यूटी पर था, उस से बात की तो उस ने बताया कि किसी वक्त उस की आंख लग गई और वह फरार हो गया. एकदम से मुझे खयाल आया कि कहीं बलराज ने ही तो नहीं मुलजिम को फरार करा दिया.

सोने की सास: भाग 1- क्यों बदल गई सास की प्रशंसा करने वाली चंद्रा

मेरी नवविवाहिता पुत्री चंद्रा जब पहली बार अपनी ससुराल में कुछ दिन बिता कर लौटी, तो अपनी सास की प्रशंसा करते नहीं थकती थी. उस की जिन 2 सहेलियों को अपनीअपनी सासों से शिकायत थी, उन के बारे में वह कहा करती थी, ‘‘नीता और गुड्डो की सासुओं को तो मेरी सास से मिला देना चाहिए, तब उन्हें पता चलेगा कि सास क्या होती है.’’

लेकिन दूसरी बार जब चंद्रा कुछ अधिक दिन बिता कर ससुराल से लौटी, तो प्रशंसा का स्थान निंदा ने ले लिया था. मैं आहत सी हो गई. सोचने लगी, इस की सास अपर्णाजी ऊपर से तो बड़ी भली लगती हैं, पर इस की बातों से तो लगता है कि अंदर से वे महाखोटी हैं.

मैं कुछ पूछूं या न पूछूं, बिटिया दिन भर उन की शिकायत करती रहती. कभीकभी मुझे लगता, चंद्रा कुछ ज्यादा ही बोल रही है. एक दिन वह बोली, ‘‘मैं तो वहां भरपेट खाना भी नहीं खाती.’’

‘‘क्यों? क्या वहां कोई तुम्हें खाने से रोकता है? तुम ने तो पहले बतलाया था कि वहां खाने की मेज पर तुम लोग सब अपने हाथ से अपने मन का ले कर खाते हो.’’

‘‘मन का कुछ बने, तब न कोई मन का खाए. मेरी पसंद का कुछ रहता ही नहीं.’’

‘‘बातबात में तुम बता दिया करो कि तुम्हें क्या पसंद है और क्या नापसंद. वैसे घरपरिवार में सब की पसंद का तो रोज एक साथ बन नहीं सकता. कुछ औरों की पसंद की चीजें भी खाना सीखो.’’

वह बिगड़ उठी, ‘‘तुम भी उन्हीं की तरह बोलने लगीं. जो चीज नहीं भाए, उसे कैसे खाए आदमी?’’

केवल खाने की ही बात नहीं, बिटिया रानी किसी न किसी बात को ले कर दिन भर सास की बुराई करती ही रहती.

एक दिन मैं ने पूछा, ‘‘पहलेपहल क्या हुआ था? तुम्हें उन की बात पहली बार कब चुभी थी?’’

वह ठंडी सांस भर कर बोली, ‘‘क्या बताऊं पहलेपहल की बात. उन का तो रोज ही यही हाल रहता है. बातबात में मेरी तुलना ननद से करती रहती हैं. सांभवी तो यह काम ऐसे करती है, सांभवी तो यह काम वैसे करती है या फिर अपना उदाहरण देती रहती हैं कि यह काम मैं ऐसे करती हूं, वह काम मैं वैसे करती हूं. ऐसा लगता है, जैसे वे मांबेटी ही सब कुछ जानती हैं. मैं तो जैसे कुछ जानती ही नहीं.’’

‘‘कौन सा काम?’’

‘‘क्या बताऊं, यदि मुझ से दाल में पानी कम या ज्यादा हो जाता है, तो बड़ी मिठास से कहती हैं कि चंद्रा बिटिया, दाल में पानी नाप कर दिया करो, तब कमबेसी नहीं होगा. मैं और सांभवी तो हमेशा नाप कर पानी देते हैं.

‘‘अच्छा मां बतलाओ, इस से क्या फर्क पड़ता है? अगर कभी पानी ज्यादा हो जाता है, तो दाल बनने के बाद मैं ऊपरऊपर का कुछ पानी निकाल कर फेंक देती हूं और यदि दाल गाढ़ी लगती है, तो थोड़ा पानी और डाल देती हूं.’’

मैं धीरे से बोली, ‘‘लेकिन ऊपर से पानी डाली हुई दाल में वह स्वाद नहीं आता बेटी, हां यदि कभी गलती से दाल अधिक देर चढ़ी हुई रह गई और गाढ़ी हो गई, तो ऊपर से पानी डालना ही पड़ता है. यह भी है कि किसी घर में दाल गाढ़ी खाई जाती है, तो किसी घर के लोग पतली दाल पसंद करते हैं. तुम्हारी सास ठीक ही तो कहती हैं. आखिर दाल के अनुसार नाप कर पानी देने में हरज ही क्या है?’’

सुनते ही चंद्रा बिगड़ उठी. गुस्से में भर कर बोली, ‘‘तुम्हें तो उन्हीं की बात ठीक लगती है. तुम तो उन्हीं का पक्ष लिए जा रही हो,’’ कह कर चंद्रा ने रोना शुरू कर दिया.

मुझे लगा, यह बात का बतंगड़ बना रही है. पर ससुराल से आई बिटिया को रुलाना भी तो अच्छा नहीं लगता. उसे खुश रखने के लिए मैं उस की हां में हां मिलाने लगी. लेकिन जब भी ऐसी कोई बात सुनती, तो मुझे लगता कि यह तिल का ताड़ बना रही है, फिर भी चुपचाप सुनते रहने की कोशिश करती.

एक दिन उस ने कहा, ‘‘जानती हो मां, मेरी सास दूध की सारी मलाई निकाल कर जमा करती रहती हैं.’’

‘‘हां तो, मलाई खाना तो ठीक नहीं होता. उस से वजन ही बढ़ता है. इसलिए तो हम यहां बिना मलाई वाला दूध खरीदते हैं.’’

‘‘पर सुनो तो मां, कुछ मलाई इकट्ठी हो जाने पर वे उसे आंच पर चढ़ा कर उस का घी बना लेती हैं और फिर उस घी को दाल छौंकने के काम में लाती हैं.’’

‘‘ठीक तो है, उतना घी खाना भी चाहिए.’’

चंद्रा के चेहरे पर एक बार फिर पराजय मिश्रित क्रोध का भाव आया. फिर अपने को कुछ संयत कर के बोली, ‘‘मां तुम उन्हें नहीं जानतीं, वे खाना बनातेबनाते उसे जूठा भी कर देती हैं.’’

‘‘मतलब?’’

‘‘वहां मेरी ससुराल में शाम के नाश्ते में अकसर गरम पकौडि़यां बनती हैं.’’

‘‘क्या तुम बनाती हो?’’

‘‘नहींनहीं, मेरी सास ही बनाती हैं. पर बनातेबनाते सब को देतेदेते बीच में कुछ पकौडि़यां तोड़ कर ठंडी कर लेती हैं और जब कड़ाही में दूसरी पकौडि़यां, सिंकती रहती हैं, तब वे तोड़ कर ठंडी की हुई उन पकौडि़यों को मुंह में उछालउछाल कर डालती हैं और चबातीखाती रहती हैं.’’

‘‘बेटा, मुंह से हाथ सटा कर खाने से हाथ जूठा होता है और उस जूठे हाथ से छूने से कोई चीज जूठी होती है. उछालउछाल कर खाने से न तो हाथ ही जूठा हुआ और न ही सारी पकौडि़यां.’’

‘‘लेकिन मां, मिठाई वगैरह वे एक ही प्लेट में सब के लिए टेबल पर रख देती हैं. उसी में से सब 1-1 उठा लेते हैं और फिर उसी में से 1 नौकरानी को भी दे देती हैं. यह क्या जूठा खिलाना नहीं हुआ?’’

‘‘नहीं रे, ऐसे भी क्या कभी कुछ जूठा होता है.’’

जब तक वह रही तब तक शिकायतों का सिलसिला चलता रहा और मैं उसे समझाने की कोशिश में लगी रही.

दामाद श्रीकांतजी एम.बी.ए. हैं, लेकिन नौकरी नहीं मिलने के कारण वे पिता के व्यवसाय में ही सहयोग कर रहे थे. अभी हाल में उन्हें कोलकाता में एक अच्छी नौकरी मिल गई. उन्होंने वहां एक किराए का घर खोज लिया, तो चंद्रा को भी वहीं ले गए.

जल्दी ही चंद्रा के देवर की शादी तय हो गई. शादी में अपर्णाजी ने हम दोनों से भी आने का आग्रह किया. उधर चंद्रा और दामादजी का भी अनुरोध था. हम चले गए.

शादी के घर में चंद्रा ने अपनी कर्मठता का खूब परिचय दिया. अपर्णाजी भी मौका मिलने पर चंद्रा की तारीफ करतीं. बचपन से ही उस में यह गुण था कि जो भी काम सीखती, चाहे वह खाना बनाना हो या बुनाईकढ़ाई, पूरी लगन से सीखती और फिर उसे सही ढंग से करने का प्रयास करती. अपर्णाजी कहतीं, ‘‘कपड़ोंगहनों में भी चंद्रा की पसंद कितनी अच्छी है. छोटी बहू को देने के लिए सारे कपड़ेगहने इसी की पसंद से आए हैं.’’

अपनी प्रशंसा सुन कर बिटिया रानी एक बार तो खुश हो जाती, पर फिर सास की कोई न कोई शिकायत मेरे कान में आ कर कह जाती. खैर, विवाह अच्छी तरह संपन्न हो गया. सारे मेहमान चले गए, पर अपर्णाजी ने हमें 2 दिन और रोक लिया.

एक दिन मैं ने देखा चंद्रा नई बहू के पास बैठी सासूमां के विरुद्ध उस के कान भर रही है. बिटिया के डर से उस के सामने तो मैं कुछ नहीं बोल पाई, पर वह उठ कर चली गई तो मैं उस की देवरानी सुष्मिता से बोली, ‘‘देखो बिटिया, तुम्हारी सास एक अच्छी महिला हैं. तुम किसी और की बातों में मत आओ. जब उन के साथ रहोगी, तो खुद ही उन्हें समझ जाओगी.’’

विमोहिता: भाग 3-कैसे बदल गई अनिता की जिंदगी

बहुत देर उस के पास मैं चुप बैठा रहा. वह इसे समझ रही थी. बाद में शायद दूसरी बार उस के हाथों को अपने हाथों में ले कर मैं ने कहा, ‘नहीं, कुछ ऐसा मत सोचो. सब ठीक हो जाएगा.’

पर वह फिर फफकफफक कर रोने लगी. मैं उसे देखता रहा और मैं कुछ कह नहीं सका. इस तरह बैठेबैठे जब बहुत रात हो गई तो उस ने ही कहा, ‘जाओ. घर पर रमा चिंता कर रही होगी. बहुत रात हो गई है.’

और जब घर आया तो रात के 2 बज रहे थे. रमा इंतजार कर रही थी. उस ने कहा, ‘बहुत देर कर दी. सब ठीक तो है न?’

मैं ने कहा, ‘अनिता से मिल कर आने में देरी हो गई.’

और फिर रमा को मैं ने अनिता के बारे में सब कुछ बताया. उस रात हम दोनों बिना कुछ खाए ही लेट गए. रात भर हमें नींद नहीं आई. मैं अनिता के बारे में ही सोचता रहा. उस के जीवन का अंत इस तरह होगा, इस की कभी मैं ने कल्पना तक नहीं की थी.

2 दिन बाद कुछ मित्रों की सहायता से उसे निर्मला अस्पताल में ऐडमिट करा जब चलने को हुआ तो उस ने मेरी ओर बड़ी करुणा से देखा. बहुत दर्द था उस में. मैं ने कहा, ‘इस ऐडवांस स्टेज में तुम जानती हो कुछ नहीं हो सकता. यहां रहोगी तो कोई पास तो होगा, कम से कम छोटीमोटी जरूरतों के लिए.’

उस ने कुछ नहीं कहा. धीरे से उस ने अपनी पलकें उठाईं. पलकें उठाते ही वहां से आंसू ढलकते देख मेरी आंखें भर आईं. मैं कुछ देर बैठा रहा. चलने को हुआ तो उस ने कहा, ‘अमित कैसा है?’

‘अच्छा है, बहुत चाहती हो उसे? अगली बार आऊंगा तो उसे लेता आऊंगा,’ मैं ने कहा.

‘नहीं, उसे मत लाना. वह बहुत छोटा है. यहां लाना ठीक नहीं होगा,’ कह कर उस ने अपनी आंखें दूसरी तरफ कर लीं.

‘ठीक है. अपना खयाल रखना. 1-2 दिन के अंतर पर मैं आता रहूंगा,’ कह कर मैं चलने के लिए दरवाजे की ओर बढ़ा. उस ने कुछ नहीं कहा.

वह मुझे ही देख रही थी. वह नजर बहुत कातर थी. मैं आगे नहीं बढ़ सका. लौट कर कुछ देर उस के हाथों को अपने हाथों में ले सहलाता रहा और फिर बिना कुछ कहे चला आया.

और आज जब हम आए तो वह जा चुकी थी सदा के लिए. सब कुछ छोड़ कर. नर्स ने कहा, ‘‘रात में वह आप लोगों के बारे में बारबार पूछ रही थी. ऐसा लगता है जैसे वह अपने जाने के बारे में जानती थी.’’

उस का सामने पड़ा चेहरा सरल था. वहां कोई विषाद या तनाव का चिह्न नहीं था और अपने हाथों में उस ने लाल चूडि़यां पहन रखी थीं. उसे देखते हुए मैं ने नर्स की ओर देखा.

उस ने कहा, ‘‘ये लाल चूडि़यां रोज पर्स से निकाल कर वह घंटों देखा करती थी और फिर पर्स में रख लेती थी. कल उस के आग्रह करने पर मैं ने इसे उस के हाथों में पहनाया था. रात मेरे कहने पर उस ने निकालने से मना कर दिया और कहा, ‘नहीं, आज की रात इसे पहन कर सोऊंगी.’’’

दाह संस्कार कर घर लौटने पर परेशान देख रमा ने कहा, ‘‘चलो, सो जाओ. वह चली गई अच्छा हुआ. वह बहुत दुख में थी.’’

मैं मौन रहा. वह कुछ देर सामने खड़ी रही और बाद मेरी ओर देखते हुए कहा, ‘‘उन चूडि़यों से तुम्हारा क्या संबंध था?’’

मैं ने कहा, ‘‘उस दिन जब हम हिल्टन के करीब बांद्रा में घूम रहे थे, उसे वे लाल चूडि़यां पसंद आ गई थीं. उस ने मुझ से कहा था, ‘अखिल, ये चूडि़यां तुम मुझे खरीद दो. आई प्रौमिस यू, उस रात इसे पहन कर तुम्हारा इंतजार करूंगी.’’’

‘‘और?’’

‘‘और कुछ नहीं. जीवन के अंतिम पलों में कदाचित वह अपनी व्यथा में भावुक हो गई थी हमारे उन संबंधों को ले कर.’’

दूसरे दिन एक रजिस्टर्ड पत्र मिला. पत्र अनिता के सौलिसिटर का था. वह अपनी सारी संपत्ति, जिस में 3 रूम का उस का कार्टर रोड का फ्लैट और करीब 1 करोड़ रुपए बैंक डिपौजिट था, अमित के नाम कर गई थी. साथ में उस का एक पत्र था. पत्र में उस ने लिखा था-

अखिल,

दुख के गहरे पलों से गुजर रही हूं इन दिनों और यह दुख समय के साथ कम नहीं हो रहा. बढ़ता ही जा रहा है.

मेरा किया हुआ सदा मेरे सामने होता है. मैं सदा उसे अपलक देखती रहती हूं. उस किए हुए में तुम भी होते हो और जब वहां तुम होते हो, तुम्हें पाने के लिए मन बेचैन हो उठता है. ये सब कुछ मैं ने कभी नहीं कहा तुम से. किस मुंह से कहती?

उस दिन तुम ने पूछा था, क्या मैं अमित को बहुत चाहती हूं? सच, बहुत चाहती हूं. जब भी मैं ने उस के बारे में सोचा है इस अवस्था में भी मेरी छाती में दूध उमड़ने लगा है. आज सोचती हूं, काश तुम्हारी दुलहन बनती. तुम्हारे लिए घंटों सजती और अमित मेरी छाती पर खेलता. पर ऐसा कुछ नहीं हुआ. और देखो, कहां जा फंसी. कहीं की नहीं रही और जाने का समय भी आ गया. असहनीय पीड़ा होती है आखिल. मन में, सब सोच कर.

वह मेरा जीवन के प्रति अज्ञान था. उस के नियमों के प्रति कोई विद्रोह नहीं. आज सोचती हूं हरसिंगार बन यों न फैलती और तुम्हारी निर्दोष दृष्टि को समझ पाती तो यह दुख तो आज नहीं भोगती.

तुम्हें दुख पहुंचाया है मैं ने, उस के लिए मेरा स्वयं मुझे कोसता रहता है. पर ऐसा कहना आज अर्थहीन होगा. जिंदगी का एक पल भी तुम्हें नहीं दे सकी और देखो आज लाश ढोने के लिए कह रही हूं.

इस जन्म में तो नहीं, मगर अगले जन्म में मुझे अवश्य साथ ले लेना. तुम जो भी कहोगे आई प्रौमिस यू, वही करूंगी. उस के सिवा कुछ नहीं करूंगी.

– तुम्हारी अनिता

और आज सुबह रमा को तैयार होते देख मैं ने कहा, ‘‘कहां जा रही हो सुबह सुबह?’’

‘‘मैं अनिता के सौलिसिटर के पास जा रही हूं. मैं सब कुछ निर्मला अस्पताल को गिफ्ट कर देना चाहती हूं.’’

और उस दिन निर्मला को गिफ्ट कर जब मैं घर लौट रहा था तो लगा, रमा नहीं अनिता साथ में है लौंग ड्राइव पर.

आशीर्वाद: क्यों टूट गए मेनका के सारे सपने

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