निष्कलंक चांद: क्या था सीमा की असलियत

‘‘मुझे ये लड़की पसंद है.’’

राकेश के ये शब्द सुनते ही पूरे घर में खुशी की लहर दौड़ गई. रामस्वरूप को ऐसा भान हुआ जैसे उन के तपते जीवन पर वर्षा की पहली फुहार पड़ गई हो. वह राकेश के दोनों हाथ थाम गदगद कंठ से बोले, ‘‘यकीन रखो बेटा, तुम्हें अपने फैसले पर कभी पछतावा नहीं होगा. मेरी सीमा एक गरीब बाप की बेटी जरूर है लेकिन तन और मन की बड़ी भली है. हम ने खुद आधा पेट खाया है पर उसे इंटर तक पढ़ाया है. घर के सारे कामकाज जानती है. तुम्हारे घर को सुखमय बना देगी.’’

राकेश मुसकरा दिया. वह खुद जानता था कि सीमा का चांदनी सा झरता रूप उस के घर को उजाले से भर देगा. यहां उसे दहेज चाहे न मिल रहा हो लेकिन सोने की मूरत जैसी जीवनसंगिनी तो मिल रही थी.

गरीब घर की बेटी होना राकेश की नजरों में कोई दोष न था. वह जानता था कि गरीब बाप की बेटी खातीपीती ससुराल में पहुंच कर हमेशा सुखी रहेगी. बड़े बाप की घमंडी बेटी के नखरे उठाना उस जैसे स्वाभिमानी युवक के बस के बाहर था. इसीलिए उस ने विवाह के लिए यहां निस्संकोच हां कर दी थी.

इधर विवाह तय हुआ, उधर शहनाई बज उठी. आंखों में सतरंगी सपनों का इंद्रधनुष सजाए सीमा ससुराल पहुंची. ससुराल में सासससुर ने उसे हाथोंहाथ लिया. तीनों ब्याहता ननदें भी उसे देख कर खुशी से फूली न समाईं. आसपड़ोस में धूम मच गई, ‘‘बहू क्या है, चांद का टुकड़ा है. लगता है, कोई अप्सरा धरती पर उतर आई हो.’’

सीमा के कानों तक यह प्रशंसा पहुंची तो वह इठलाते हुए बड़ी ननद से बोली, ‘‘लोग न जाने क्यों मेरे रूप की तारीफ करते हैं. कुछ भी तो खास नहीं है मुझ में. अपने परिवार में सब से गईगुजरी हूं. मेरी मां तक अभी ऐसी खूबसूरत हैं कि हाथ लगाते मैली होती हैं. चारों बहनें ऐसी हैं जिन्हें देख लोग पलक झपकना तक भूल जाते हैं.’’

विस्मय से बड़ी ननद रश्मि की आंखें फैल गईं. रहा न गया तो राकेश से पूछा उस ने, ‘‘क्या सचमुच सीमा का मायका इंद्रलोक की परियों का अखाड़ा है?’’

‘‘मैं समझा नहीं.’’

‘‘वह कहती है कि अपने घर में सब से गईगुजरी वही है. यदि यह सच है तो उस की मां और बहनें कितनी खूबसूरत होंगी, मैं सोच नहीं पा रही हूं.’’

राकेश हंस दिया. अल्हड़ प्रिया की यह अदा उसे बड़ी भायी.

‘पगली कहीं की,’ उस ने सोचा, जानबूझ कर अपनेआप को तुच्छ बता रही है. ऐसा रूप क्या कदमकदम पर बिखरा मिलता है? असाधारण सुंदरी न होती तो क्या मेरे यायावर चित्त को बांध सकती थी? उस घर में ही क्या, पूरे नगर में ऐसा रूप दीया ले कर ढूंढ़ने से नहीं मिलेगा.’

पर 2-4 दिन में ही राकेश समझ गया कि जिसे वह नवेली प्रिया की अल्हड़ अदा समझ रहा था, वह उस का मायके के प्रति अतिशय मोह है. रूप ही क्या, धन, वैभव किसी भी क्षेत्र में वह अपने मायके को छोटा नहीं बताना चाहती थी. लड़कियों में पिता के घर के प्रति कैसा उत्कट मोह होता है, इसे 3 बहनों का भाई राकेश अच्छी तरह जानता था. परंतु इस मोह का यह मतलब तो नहीं कि रात को दिन और स्याह को सफेद घोषित कर दिया जाए?

जल्दी ही सीमा की बढ़चढ़ कर कही जाने वाली बातें उस में खीज उत्पन्न करने लगीं. रिश्तेदारों की भीड़ खत्म होते ही एक दिन वह मां के कहने से सीमा को सिनेमा दिखाने ले गया.

फिल्म अच्छी थी. देख कर पैसे वसूल हो गए. लौटते समय एक रेस्तरां में उस ने सीमा को शीतल पेय भी पिलाया.

उमंग और उत्साह से भरे वे दोनों गली में घुसे ही थे कि पड़ोस की नीता सामने पड़ गई. सजीधजी सीमा को देख, उत्सुक स्वरों में पूछने लगी, ‘‘कहां से आ रही हो, भाभी? शायद सिनेमा देखने गई थीं.’’

उत्तर में स्वीकृति सूचक ‘हां’ कह कर भी काम चलाया जा सकता था लेकिन सीमा बीच रास्ते में ठहर कर कहने लगी, ‘‘सिनेमा देखने ही गए थे, लेकिन भीड़भाड़ में मजा किरकिरा हो गया. हमारे मायके में तो बाबूजी नई फिल्म लगते ही पहले से आरक्षण करवा देते थे. बस, ठाट से गए और फिल्म देख आए. लाइन में लग कर भीड़ के धक्के खाने की कोई मुसीबत नहीं उठानी पड़ती थी.’’

राकेश कोई चुभती बात कहने ही वाला था पर चुप रह गया. इतना ही बोला, ‘‘रास्ते में ही सारी बातें कर लोगी क्या? कुछ घर के लिए भी छोड़ दो.’’

सीमा हंस दी तो स्वर की मधुरता ने राकेश का क्रोध उतार दिया.

पर यह तो रोज की बात बन चुकी थी. दूसरे दिन राकेश दफ्तर जाने की हड़बड़ी में था. वह नहाते ही चीखपुकार मचाने लगा, ‘‘मेरा खाना परोस दो, मां. सवा 9 बज चुके हैं.’’

मां ने रसोई में जा कर खाना बनाती सीमा से पूछा, ‘‘दाल और सब्जी बन चुकी है क्या? तवा चढ़ा कर रोटी सेंक दो.’’

‘‘अभी केवल सब्जी बनी है,’’ सिर उठा कर सीमा ने उत्तर दिया.

मां बाहर निकल कर अपराधी स्वर में बोलीं, ‘‘जाड़े के दिन भी कितने छोटे होते हैं. चायपानी निबटता नहीं कि दफ्तर का समय हो जाता है. इस समय सिर्फ सब्जी तैयार हो पाई है.’’

‘‘कोई बात नहीं,’’ बाल काढ़ते हुए राकेश सहज भाव से बोला.

मां निश्चिंत हो कर थाली लगाने चल दीं. सीमा रोटी बेलतेबेलते हाथ रोक कर कहने लगी, ‘‘हमारे घर में तो कोई एक सब्जी से नहीं खा सकता. जब तक थाली में 4-5 चीजें न हों. खाने वालों के मुंह ही सीधे नहीं होते हैं.’’

राकेश कब आ कर मां के पीछे खड़ा हो गया था, सीमा नहीं जान पाई थी. वह कुछ और बोलने ही जा रही थी कि किंचित रूखे स्वर में राकेश ने डांट दिया, ‘‘तुम्हारे पीहर में छप्पन व्यंजनों का थाल रहता होगा. हम गरीब आदमी एक ही सब्जी से रोटी खा लेते हैं. बातें बंद करो, रोटी सेंको.’’

सीमा संकुचित हो उठी. चुपचाप रोटी बेलने लगी.

पर शाम को दफ्तर से लौटने पर राकेश ने उसे बड़े मनोयोग से बातें करते पाया. वह मां के सिर में तेल डालते हुए बोलती जा रही थी, ‘‘मेरी यह साड़ी ढाई सौ रुपए की है. असल में बाबूजी को साधारण कपड़ा पसंद नहीं आता. घर के कामकाज में भी मां 200 से कम की साड़ी नहीं पहनतीं.’’

‘‘भले ही उस में पचास पैबंद लगे हों,’’ जबान को रोकतेरोकते भी भीतर आते हुए राकेश के मुंह से निकल पड़ा.

सीमा सन्न रह गई. उस की सीप जैसी आंखों में मोती डबडबा आए.

मां ने झिड़का, ‘‘तू कमरे में जा. तुझ से तो कुछ नहीं कह रही है वह. बेकार में सारा दिन बेचारी को रुलाता रहता है.’’

राकेश को भी पछतावा हुआ. सुबह तो डांट कर गया ही था, आते ही फिर ताना दे दिया.

लेकिन मन ने कहा, ‘वह भी इतना झूठ क्यों बोलती है? उसे भी तो सोचसमझ कर बात करनी चाहिए.’

लेकिन सोचसमझ कर बात करना शायद सीमा से हो ही नहीं सकता था. हर बात में वह अपने मायके की श्रेष्ठता सिद्ध करने पर तुल जाती थी. उस की ये बातें राकेश को जहर बुझे तीर जैसी लगती थीं.

उस दिन फिर ऐसा ही मौका उपस्थित हो गया.

मां बेसन के लड्डू बना रही थीं. राकेश को बेसन के लड्डू बड़े पसंद थे, इसलिए मां अकसर इन्हें घर पर बनाती थीं.

सीमा पास बैठी काम में हांथ बंटा रही थी. अचानक मां के मुंह से निकल पड़ा, ‘‘क्यों बहू, लड्डूओं में घी तो कम नहीं है? तुम्हें लड्डू बांधने में दिक्कत तो नहीं हो रही है?’’

सीमा ने माथे पर बिखर आई एक नटखट लट को पीछे झटकते हुए जवाब दिया, ‘‘नहीं, घी तो ठीक है. वैसे घी खाने का भी कुछ लोगों को बेहद शौक होता है. मेरे पिताजी दाल, साग, रोटी सब में इतना घी इस्तेमाल करते हैं कि खाने के बाद थाली, कटोरी में घी ही घी नजर आता है. असल में यह हर एक आदमी के बस की बात नहीं है. खाने को मिल भी जाए तो पचा कितने पाते हैं?’’

राकेश कब कमरे से निकल कर आंगन में आ गया है और इस बात को सुन रहा है, सीमा जान नहीं पाई थी.

परंतु अचानक भूचाल आ गया.

शायद कई महीनों से सुनतेसुनते सब्र का बांध टूट चुका था. शायद कई बार इशारोंइशारों में रोकने पर भी सीमा नहीं मानी थी. शायद इतना बड़ा झूठ सहन करना राकेश के लिए असंभव था.

अचानक न जाने क्या हुआ, वह गरज कर बोला, ‘‘तुम्हारे पीहर में घीदूध की नदियां बह रही हैं न, इस गरीब आदमी के घर में तुम्हारा गुजारा नहीं हो सकता, जाओ, अपने बाप के घर रहो जा कर.’’

मां घबरा उठीं. सीमा के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगी थीं. उस की आंखें भीग आई थीं. लेकिन क्रोध से कांपते राकेश ने हुक्म दिया, ‘‘अभी और इसी समय तुम्हें अपने मायके जाना है. उठो, अपनी अटैची ले कर मेरे साथ चलो.’’

सीमा रो पड़ी. मां की हिम्मत न पड़ी कि बीचबचाव कर सकें.

गुस्से से उफनता राकेश घर से निकला और 10 मिनट में रिकशा ले कर आ पहुंचा, ‘‘तुम उठीं नहीं?’’ आग्नेय दृष्टि से सीमा को घूरते हुए कुछ इस  प्रकार कहा उस ने कि सीमा थरथरा उठी.

यह जलती हुई निगाह तब तक सीमा पर टिकी रही, जब तक वह अटैची में कुछ कपड़े रख कर उस के साथ नहीं चल दी.

6 महीने बीत गए. न राकेश सीमा को लिवाने गया, न उस की खुद आने की हिम्मत पड़ी.

किंतु जैसेजैसे दिन बीत रहे थे, राकेश उद्विग्न होता जा रहा था. भोली प्रिया की चंपई देह उस की रातों की नींद चुराने लगी थी. उसे अपने क्रोध पर क्रोध आता? क्यों इस तरह वह एकदम उसे मायके छोड़ आया? पिता के बंद दरवाजे पर खड़े हो कर अंतिम बार जिस करुण दृष्टि से सीमा ने देखा था उसे वह चाह कर भी भूल नहीं पा रहा था. किंतु अब खुद ही जा कर सीमा को लिवा लाना भी स्वाभिमान के खिलाफ महसूस हो रहा था.

राकेश की मुश्किल आखिर एक दिन मां ने ही हल कर दी.

उसे हुक्म देते हुए वह बोलीं, ‘‘सुनो, राकेश, आज ही जा कर बहू को लिवा लाओ. बेचारी सारा दिन इतनी मीठीमीठी बातें किया करती थी.’’

राकेश ने ऐसा जतलाया जैसे अनिच्छा होते हुए भी वह केवल मां के आदेश का पालन करने के लिए सीमा को लिवाने जा रहा है. उसे अचानक आया देख कर ससुराल में चहलपहल मच गई. 4 छोटी सालियां इर्दगिर्द मंडराने लगीं. मीठी लाजभरी मुसकान लिए सीमा देहरी पर खड़े हो कर अपने पांव के अंगूठे से धरती कुरेदने लगी.

रामस्वरूप घर पर न थे. सीमा की मां चाय का प्याला ला कर थमाते हुए बोलीं, ‘‘तुम्हारी ट्रेनिंग पूरी हो गई, बेटा?’’

राकेश ने अबूझ भाव से निगाह उठाई.

सीमा तुरंत बोल पड़ी, ‘‘तुम्हें 6 महीने के लिए टे्रनिंग पर जाना था न इसीलिए तुम मुझे जल्दीजल्दी में यहां छोड़ गए. रुके तक नहीं थे.’’

‘‘अरे, हां, वह हो गई है,’’ राकेश मुसकरा दिया.

सास हाथ का पंखा ले कर पास बैठते हुए बोलीं, ‘‘तुम ने इस लड़की का दिमाग बिगाड़ दिया है, बेटा. यहां हम गरीब आदमी ठहरे. तुम ने इस में कुछ ही महीनों में शहजादियों जैसी नजाकत भर दी है. अब इसे फ्रिज और कूलर के बिना चैन नहीं पड़ता है.’’

‘‘पर कूलर और फ्रिज तो…’’ राकेश ने कहना चाहा कि सीमा बीच में ही बोल  पड़ी, मां और बाबूजी ने गरमियों की मेरी परेशानी का विचार कर के जाड़े में ही फ्रिज और कूलर खरीद लिया था, वही बात मैं ने इन लोगों को बतला दी है.’’

राकेश के मन में अपनी मासूम दुलहन के लिए ढेर सा प्यार उमड़ आया. मायके की तारीफ यह हमें छोटा दिखाने के लिए नहीं करती थी. ससुराल की प्रशंसा में भी जमीनआसमान एक किए रही है.

उसी दिन सीमा को ले कर राकेश लौट आया. रात के एकांत में कमरे में प्रिया के चिबुक को उठाते हुए हंस कर उस ने पूछा, ‘‘क्यों जी, कहां है तुम्हारा कूलर और फ्रिज? मुझे तो इस कमरे में बिजली का पंखा ही नजर आ रहा है.’’

सीमा की कमजोर आंखों में मोती झिलमिला उठे.

राकेश ने लाड़ से उस का सिर अपने कंधे से टिकाते हुए कहा, ‘‘बस, अब बहुत हो चुकी मायके और ससुराल की तारीफ. ठीक है, दोनों जगह की इज्जत रखना तुम्हें अच्छा लगता है पर इतना बढ़चढ़ कर भी न बोलो जो यदि जाहिर हो जाए तो जगहंसाई हो.’’

सीमा की आंखों से आंसू पोंछ दिए उस ने, ‘‘बस, रोना बंद. अब हंस दो.’’

सीमा मुसकराई, उस के गालों के गड्ढे में राकेश का चित्त जा फंसा.

सुबह सासबहू चाय की तैयारी कर रही थीं. राकेश ने मां को कहते सुना, ‘‘आज चाय के साथ कोई नाश्ता नहीं है. खाली चाय सब को कैसे दी जाए?’’

पहले की सीमा होती तो टेप रिकार्डर की तरह बजने लगती, ‘‘हमारे यहां तो…’’

पर आज वह मधुर स्वर में बोल पड़ी, ‘‘रात की रोटियां बची हैं, मां. उन्हें ही महीन कर के कड़ाही में तले देती हूं. नमक मिलाने से बढि़या सी दालमोठ तैयार हो जाएगी. बासी रोटियों का सदुपयोग भी हो जाएगा.’’

राकेश गुसलखाने में मुंह धोते हुए मुसकरा पड़ा. वह मन ही मन बोला, ‘कल तक तुम चांद थीं, आज निष्कलंक चांद हो’

सारा जहां अपना: मयंक ने अंजलि को कैसे समझाया

मयंक बेचैनी से कमरे में चहल- कदमी कर रहा था. रात के 10 बज चुके थे. वह सोने जा रहा था कि दीप के स्कूल से आए प्रधानाचार्य के फोन ने उसे परेशान कर दिया. प्रधानाचार्य ने कहा था कि दीप बीमार है और आप को याद कर रहा है.

‘‘उसे हुआ क्या है?’’ घबरा कर मयंक ने पूछा.

‘‘वायरल फीवर है.’’

‘‘कब से?’’

‘‘सुस्त तो वह कल शाम से ही था, पर फीवर आज सुबह हुआ है,’’ प्रधानाचार्य ने बताया.

‘‘क्या बेहूदा मजाक है,’’ मयंक के स्वर में सख्ती घुल गई थी, ‘‘तुरंत आप ने चैकअप क्यों नहीं करवाया? बच्चों की ऐसी ही देखभाल करते हैं आप लोग? मेरे बेटे को कुछ हो गया तो…’’

‘‘आप बेवजह नाराज हो रहे हैं,’’ प्रधानाचार्य ने उस की बात बीच में काट कर विनम्रता से कहा था, ‘‘यहां रहने वाले सभी बच्चों का घर की तरह खयाल रखा जाता है, पर उन्हें जब मांबाप की याद आने लगे तो उदास हो जाते हैं. यद्यपि हम पूरी कोशिश करते हैं कि ऐसा न हो, पर नए बच्चों के साथ अकसर ऐसी समस्या आ जाती है.’’

‘‘दीप अब कैसा है?’’ प्रधानाचार्य की विनम्रता से प्रभावित हो कर मयंक सहजता से बोला था.

‘‘चिंता की कोई बात नहीं है. डाक्टर के साथ मैं लगातार उस की देखभाल कर रहा हूं. आप सुबह आ कर उस से मिल लें तो बेहतर रहेगा.’’

वह तो इसी वक्त जाना चाहता था पर पिछले 2 घंटे से तेज बारिश हो रही थी. अब तक तो पूरा शहर टापू बन चुका होगा. रास्ते में कहीं स्कूटर फंस गया तो मुसीबत और बढ़ जाएगी. फिलहाल जाने का विचार छोड़ कर वह सोफे पर पसर गया. सामने फे्रम में जड़ी अंजलि की मुसकराती तसवीर रखी थी. उस के बारे में सोच कर उस के मुंह का स्वाद कसैला हो गया.

अंजलि सिर्फ बौस, आफिस और अपने बारे में ही सोचती थी और किसी विषय में सोचनेसमझने का उस के पास समय ही नहीं था. उस पर तो हर पल काम, तरक्की और अधिक से अधिक पैसा कमाने की धुन सवार थी. मशीनी युग में वह मशीन बन गई थी, शायद इसीलिए उस के दिल में बेटे और पति के लिए कोई संवेदना नहीं थी. अब तो मयंक अकेला रहने का अभ्यस्त हो गया था. कभीकभी न चाहते हुए भी समझौता करना पड़ता है. यही तो जिंदगी है.

अचानक बिजली चली गई. कमरा घने अंधकार के आगोश में सिमट गया. वह यों ही निश्चल और निश्चेष्ट बैठा अपने जीवन के बारे में सोचता रहा. अब उस के भीतर और बाहर फैली स्याही में कोई फर्क नहीं था. कुछ देर बाद गरमी से घुटन होने पर वह उठा और दीवार का सहारा लेते हुए खिड़की खोली. ठंडी हवा के झोंकों से उस के तपते दिमाग को राहत मिली.

बाहर बारिश का तेज शोर शांति भंग कर रहा था. सहसा तेज ध्वनि के साथ बिजली चमक कर कहीं दूर गिरी. उसे लगा कि ऐसी ही बिजली उस के आंगन में भी गिरी है, जिस में उस का सुखचैन, अंजलि का प्रेम और दीप का चुलबुला बचपन राख हो चुका है. उस ने तो सहेजने की बहुत कोशिश की पर सबकुछ बिखरता चला गया.

6 साल का दीप पहले कितना शरारती था. उस के साथ घर का हर कोना खिलखिलाता था पर अब तो वह हंसना ही भूल गया था. उस के और अंजलि के बीच आएदिन होने वाले झगड़ों में दीप का मासूम बचपन खो चुका था. विवाद टालने के लिए वह कितना एडजस्ट करता था और अंजलि थी कि छोटी से छोटी बात पर आसमान सिर पर उठा लेती थी. उस का छोटा सा घर, जिसे उस ने बड़े प्यार से सींचा था, ज्वालामुखी बन चुका था, जिस की आंच में अब वह हर पल सुलगता था. मयंक की आंखों में आंसुओं के साथ बीती यादें चुपके से उतर कर तैरने लगीं.

वह अपने आफिस की ओर से जिस मल्टी नेशनल कंपनी में फाइनेंशियल डील के लिए गया था, अंजलि वहां अकाउंटेंट थी. हायहैलो के साथ शुरू हुई औपचारिक मुलाकात रेस्तरां में चाय की चुस्कियों के साथ दिल की गहराई तक जा पहुंची थी. 1 साल के भीतर दोनों विवाह के बंधन में बंध गए. मयंक हनीमून के लिए किसी हिल स्टेशन पर जाना चाहता था. उस ने आफिस में छुट्टी के लिए अर्जी दे दी थी, पर अंजलि तैयार नहीं हुई.

‘पहले कैरियर सैटल हो जाने दो, हनीमून के लिए तो पूरी जिंदगी पड़ी है.’

‘अच्छीखासी तो नौकरी है,’ मयंक ने उसे समझाने का प्रयास किया, ‘मोटी तनख्वाह मिलती है, और क्या चाहिए?‘

‘जो मिल जाए उसी में संतुष्ट रहने से इनसान कभी तरक्की नहीं कर सकता,’ अंजलि ने परोक्ष रूप से उस पर कटाक्ष किया, ‘मिडिल क्लास की सोच सीमित दायरे में सिमटी रहती है, इसीलिए वह हाई सोसायटी में एडजस्ट नहीं हो पाता.’

मयंक तिलमिला कर रह गया.

‘बड़ा आदमी बनने के लिए बड़े ख्वाब देखने पड़ते हैं और उन्हें साकार करने के लिए कड़ी मेहनत,’ अंजलि बोली, ‘अभी स्टेटस सिंबल के नाम पर हमारे पास क्या है? कार, बंगला, ए.सी. और नौकरचाकर कुछ भी तो नहीं. इस खटारा स्कूटर और 2 कमरे के फ्लैट में कब तक खटते रहेंगे?’

‘तुम्हें तो किसी अरबपति से शादी करनी चाहिए थी,’ मयंक कुढ़ कर बोला, ‘मेरे साथ यह सब नहीं मिल सकेगा.’

मयंक को मन मार कर छुट्टी कैंसिल करानी पड़ी. घर की सफाई और खाना बनाने के लिए बाई थी. कई जगह काम करने के कारण वह शाम को कभीकभार लेट हो जाती थी.

मयंक कभी चाय की फरमाइश करता तो अंजलि टीवी प्रोग्राम पर निगाह जमाए बेरुखी से जवाब देती, ‘तुम आफिस से आए हो तो मैं भी घर में नहीं बैठी थी. 2 कप चाय बनाने में थक नहीं जाओगे.’

‘ये तुम्हारा काम है.’‘मेरा क्यों?’ वह चिढ़ जाती, ‘तुम्हारा क्यों नहीं? तुम से पहले आफिस जाती हूं और काम भी तुम से अधिक टिपिकल करती हूं. अकाउंट संभालना हंसीखेल नहीं है.’

इस के बाद तो मयंक के पास 2 ही रास्ते बचते थे, खुद चाय बनाए या बाई के आने का इंतजार करे. दूसरा विकल्प उसे ज्यादा मुफीद लगता था. वह नारीपुरुष समानता का विरोधी नहीं था. पर अंजलि को भी तो उस के बारे में कुछ सोचना चाहिए. जब वह शांत हो जाता तो अंजलि अपने लिए एक कप चाय बना कर टीवी देखने में मशगूल हो जाती और वह अपमान के घूंट पी कर रह जाता था. उस के वैवाहिक जीवन की नौका डोलने लगी थी.

मयंक ने सदा ऐसी पत्नी की कल्पना की थी जो उस के प्रति समर्पित रहे. केवल अहं की तुष्टि के लिए समानता की बात न करे, बल्कि सुखदुख में बराबर की भागीदार रहे. उस के मन को समझे, हृदय की गहराई से प्यार करे और जिस के आंचल की छांव तले वह दो पल सुखशांति से विश्राम कर सके. बाई के बनाए खाने से पेट तो भर जाता था, पर मन भूखा ही रह जाता था. काश, अंजलि कभी अपने हाथ से एक कौर ही खिला देती तो वह तृप्त हो जाता.

एक सुबह अंजलि आफिस के लिए तैयार हो रही थी कि तेज चक्कर आने लगे. मयंक उसे तुरंत अस्पताल ले गया. चैकअप कर के डाक्टर ने बधाई दी कि वह मां बनने वाली है.

‘मैं अभी बच्चा अफोर्ड नहीं कर सकती.’

‘तो पहले से सेफ्टी करनी थी.’

‘आगे से ध्यान रखूंगी,’ उस ने लापरवाही से कंधे उचकाए, ‘फिलहाल तो इस बच्चे का गर्भपात चाहती हूं.’

‘ये खतरनाक हो सकता है,’ डाक्टर गंभीरता से बोली, ‘संभव है आप भविष्य में फिर कभी मां न बन सकें.’

‘अपना भलाबुरा मैं बेहतर समझती हूं. आप अपनी फीस बताइए.’

‘अंजलिजी,’ वह सख्ती से बोली, ‘डाक्टर के लिए मरीज का हित सर्वोपरि होता है. आप के लिए जो उचित था, मैं ने बता दिया. वैसे भी यहां भू्रणहत्या नहीं की जाती है.’

‘आप नहीं करेंगी तो कोई और कर देगा.’

‘बेशक, शहर में ऐसे डाक्टरों की कमी नहीं है जो रुपयों के लालच में इस घिनौने काम को अंजाम दे देंगे, पर मैं ने कइयों को जिद पूरी होने के बाद औलाद के लिए तड़पते देखा है.’

उस दिन घर में तनाव का माहौल रहा. मयंक चाहता था कि आंगन मासूम किलकारियों से गुलजार हो. हो सकता है मां बनने के बाद अंजलि के स्वभाव में परिवर्तन आ जाए, तब गृहस्थी की बगिया महक उठेगी, पर अंजलि तैयार नहीं थी. उस का तर्क था कि यही तो उम्र है कुछ कर गुजरने की. अभी से बालबच्चों के भंवर में उलझ गई तो लक्ष्य तक कैसे पहुंच सकेगी? सफलता की सीढि़यां चढ़ने के लिए टैलेंट के साथ आकर्षक फिगर भी चाहिए, वरना कौन पूछता है.

मयंक बड़ी मुश्किल और मिन्नतों के बाद उसे राजी कर सका.

अंजलि ने ठीक समय पर स्वस्थ बच्चे को जन्म दिया. अपने प्रतिरूप को देख मयंक निहाल हो गया. बेटे ने उस का उजड़ा मन प्रकाश से भर दिया था इसलिए बड़े प्यार से उस का नाम दीप रखा. दिन में उस की देखभाल करने के लिए मयंक ने एक अच्छी आया का प्रबंध कर लिया था.

बेटे को जन्म तो अंजलि ने दिया था, पर मां की भूमिका मयंक निभा रहा था. दीप सुबहशाम उस की बांहों के झूले में झूल कर बड़ा होने लगा.

वह 4 साल का हो गया था.

रात के 10 बज चुके थे, अंजलि आफिस से नहीं लौटी थी. मयंक उस के मोबाइल पर कई बार फोन कर चुका था. घंटी जा रही थी, पर वह रिसीव नहीं कर रही थी. उस ने आफिस फोन किया, वहां से भी कोई उत्तर नहीं मिला. वैसे भी इस वक्त वहां किसी को नहीं होना था. दीप को सुला कर वह जागता रहा. अंजलि 12 बजे के बाद आई.

‘कहां थी अब तक?’ मयंक ने सवाल दागा, ‘मैं कितना परेशान हो गया था.’

‘मेरा प्रमोशन बौस की प्राइवेट सेके्रटरी के पद पर हो गया,’ उस की चिंता से बेफिक्र वह मुदित मन से बोली, ‘कंपनी की ओर से शानदार बंगला और ए.सी. गाड़ी मिलेगी. प्रमोशन की खुशी में बौस ने पार्टी दी थी, वहीं बिजी थी.’

‘फोन तो रिसीव कर लेती.’

‘शोरशराबे में आवाज नहीं सुनाई दी.’

‘तुम ने ड्रिंक ली है?’ उस के मुंह से आती महक ने उसे आंदोलित कर दिया.

‘कम आन डियर,’ अंजलि ने लापरवाही से कहा, ‘बौस नहीं माने तो थोड़ी सी लेनी पड़ी. उन्हें नाराज तो नहीं कर सकती न, सब का खयाल रखना पड़ता है.’

‘शर्म आती है तुम्हारी बातें सुन कर. मेरी कभी परवा नहीं की और दूसरों की खुशी के लिए मानमर्यादा ताक पर रख दी.’

‘व्हाट नौनसेंस,’ वह बिफर पड़ी, ‘यू आर मेंटली इल. मेरा कद तुम से ऊंचा हो गया तो जलन होने लगी.’

‘तुम सिर्फ अपने बारे में सोचती हो इसलिए ऐसे घटिया विचार तुम्हारे दिमाग में ही आ सकते हैं.’

‘तुम ने मुझे नीच कहा,’ वह क्रोध से कांपने लगी.

‘अभी तुम होश में नहीं हो,’ मयंक ने विस्फोटक होती स्थिति को संभालने की कोशिश की, ‘सुबह बात करेंगे.’

‘तुम्हारा असली रूप देख कर होश में तो आज आई हूं. मुझे आश्चर्य हो रहा है कि तुम जैसे संकीर्ण इनसान के साथ मैं ने इतने दिन कैसे गुजार लिए.’

पानी सिर के ऊपर बहने लगा था. मयंक की इच्छा हुई कि उस का नशा हिरन कर दे, पर इस से बात बिगड़ सकती थी.

दीप जाग गया था और मम्मीपापा को चीखतेचिल्लाते देख सहमा सा खड़ा था. मयंक उसे ले कर दूसरे कमरे में चला गया. अंजलि इस के बाद भी काफी देर तक बड़बड़ाती रही.

अब वह अकसर देर रात को लौटती और कभीकभी अगले दिन. मयंक पूछता तो पार्टी या टूर की बात कह कर बेरुखी से टाल देती. अब तो डिं्रक लेना उस के लिए रोजमर्रा की बात हो गई थी. मयंक समझाने की कोशिश करता तो दंगाफसाद शुरू हो जाता था. इस दमघोंटू माहौल में दीप अंतर्मुखी होता जा रहा था. उस का बचपन जैसे उस के भीतर सिमट चुका था. मयंक ने हर संभव कोशिश की पर उस के होंठों पर मुसकान न ला सका. वह घबरा कर उसे मनोचिकित्सक के पास ले गया.

पूरी बात सुन कर डाक्टर बोले, ‘बच्चों में फूल सी कोमलता और मासूमियत होती है, जिस की खुशबू से घर का उपवन महकता है. वह जिस डाल पर खिलते हैं, उस की जड़ मातापिता होते हैं. जब जड़ को घुन लग जाए तो फूल खिले नहीं रह सकते.’

थोड़ा रुक कर डाक्टर फिर बोले,

‘मि. मयंक आप इस तरह भी समझ सकते हैं कि बच्चा अपने आसपास के वातावरण को बारीकी से महसूस करता है और उसी के अनुरूप ढलता है. मांबाप के झगड़े में वह स्वयं को भावनात्मक रूप से असुरक्षित महसूस करता है, इस स्थिति में उस के भीतर कुंठा या हिंसा की प्रवृत्ति पनपने लगती है. कभीकभी वह विक्षिप्त अथवा कई तरह के मानसिक रोगों का शिकार भी हो जाता है. पतिपत्नी के ईगो में उस का वर्तमान व भविष्य दोनों अंधकारमय हो जाते हैं. मेरी राय में आप घर में शांति स्थापित करें या दीप को इस माहौल से कहीं दूर ले जाएं.’

मयंक ने अंजलि को सबकुछ बताया पर उस के स्वभाव में कोई परिवर्तन नहीं हुआ. उसे बेटे से अधिक अपने कैरियर से लगाव था. मयंक ने बहुत सोचसमझ कर उसे शहर से दूर आवासीय विद्यालय में एडमिशन दिला दिया था. इस के अलावा और कोई चारा भी तो नहीं था.

सफलता का नशा अंजलि के सिर इस कदर चढ़ कर बोल रहा था कि एक दिन मयंक से नाता तोड़ कर नए बंगले में शिफ्ट हो गई. उस ने मयंक को जीवन के उस मोड़ पर छोड़ दिया था जिस के आगे कोई रास्ता नहीं था. बेवफाई से वह टूट चुका था. वह तो दीप के लिए जी रहा था, वरना उस के मन में कोई चाह शेष नहीं थी.

बिजली आ गई थी. खिड़की बंद कर उस ने गालों पर ढुलक आए आंसू पोंछे और वापस सोफे पर आ कर बैठ गया.

वह सुबह स्कूल पहुंचा. बेटे को सहीसलामत देख कर उस की जान में जान आई. दीप भी उस से ऐसे लिपट गया मानो वर्षों बाद मिला हो.

‘‘पापा,’’ उस ने सुबकते हुए कहा, ‘‘आप भी यहीं आ जाओ. मैं आप के बिना नहीं रह सकता.’’

‘‘तुझे लेने ही तो आया हूं, सदा के लिए,’’ उसे प्यार कर के वह बोला, ‘‘मेरा बेटा हमेशा पापा के पास रहेगा.’’

‘‘मैं घर नहीं जाऊंगा,’’ दीप की आंखों में आतंक की परछाइयां तैरने लगीं, ‘‘मम्मी से बहुत डर लगता है.’’

‘‘हम दोनों के अलावा वहां कोई नहीं रहेगा. अब सारा जहां अपना है, खूब खेलेंगे, खाएंगे और मस्ती करेंगे. दीप अपनी मर्जी की जिंदगी जिएगा.’’

‘‘सच, पापा,’’ वह खिल गया. मयंक ने उस का माथा चूम लिया.

मन का बोझ: भाग 3

भाई की यह कलेजा चीरने वाली बात सुन अभिषेक को तो मानो सांप सूंघ गया. वह कुछ देर यों ही बैठा रहा. वह सोचने लगा कि उस की कोई कीमत नहीं. इंजीनियरिंग की डिगरी ले कर भी वह चूडि़यों के डब्बे घर से दुकान और दुकान से घर पर ढोता रहता है. उस से अच्छी तो उस की पत्नी है.

अभिषेक के पापा का आशुतोष से कुछ कहने का तो मन नहीं था लेकिन घर की बात घर में ही रहे, इसलिए उन्होंने आशुतोष से कह कर अभिषेक के लिए 8 हजार मासिक मेहनताना बंधवा दिया. अभिषेक ने डाकखाने और जीवन बीमे के एजेंट का काम भी शुरू कर दिया लेकिन इस काम के लिए वह इतना व्यावहारिक नहीं था. इसी बीच शीतल ने 2 जुड़वां बच्चों को जन्म दिया. एक लड़का, एक लड़की.

अभिषेक को अब एक नया काम मिल गया. वह काम था दोनों बच्चों को पालने का. शीतल कालेज जाती और कोचिंग क्लासेज लेती, बेचारा अभिषेक बच्चों को संभालता और घर के काम भी करता.

मगर धीरेधीरे अभिषेक के मन में यह बात गहराने लगी कि इस दुनिया में उस की कोई कीमत नहीं है. उस की इज्जत न घर में है और न बाहर. उस पर इंजीनियर होने का ठप्पा लगा हुआ था लेकिन वह अपने भाई का नौकर बन कर रह गया था. उधर उस के मन में बैठा पितृसत्तात्मक समाज उसे उलाहना देता कि अभिषेक तू अपने भाई का ही नौकर नहीं, अपनी जोरू का भी गुलाम है. तु?ो धिक्कार है, धिक्कार.

अभिषेक हीनभावना और कुंठा का शिकार होता चला गया. उसे अवसाद घेरने लगा. वह हर किसी से बच कर रहने लगा. उसे लगता जैसे दुनिया में उस का कोई नहीं. वह बिलकुल अकेला है. अभिषेक की मनोदशा को भांप कर एक दिन शीतल ने उस से कहा, ‘‘अभिषेक, तुम इतने उदास क्यों रहते हो? हमारे पास किस चीज की कमी है?’’

‘‘पता नहीं शीतल. लेकिन मेरे मन में एक अजीब सा बो?ा रहता है. मु?ो लगता है मैं इस दुनिया में फालतू का आदमी हूं.’’

‘‘अभिषेक, ऐसा क्यों कहते हो? तुम चाहो तो अपने भाई की दुकान पर जाना छोड़ दो. मैं पर्याप्त कमाती तो हूं. कहो तो अपने पैसे से तुम्हें अलग दुकान खुलवा दूं. वह कर लो.’’

मगर जिस के मन में नकारात्मक सत्ता ने अपना राज्य स्थापित कर लिया हो, उसे सकारात्मक बात कैसे सम?ा में आएगी. अभिषेक ने तुरंत भड़क कर कहा, ‘‘शीतल, दिखा दी न तुम ने मु?ो मेरी औकात. अब मैं दुकान भी खोलूंगा तो अपनी पत्नी के पैसे से. जोरू का गुलाम सम?ा रखा है मु?ा को?’’ शीतल चुप हो गई. वह अभिषेक की मानसिक दशा को और नहीं बिगाड़ना चाहती थी. अभिषेक न जाने क्याक्या बड़बड़ाता रहा.

अब अभिषेक ने अपनी पत्नी और बच्चों से भी किनारा करना शुरू कर दिया. वह बेवजह उन पर भड़क उठता. अपना गुस्सा घर के सामान पर निकालता. उसे उठा कर फेंकता, तोड़फोड़ करता. उस ने शीतल के साथ कहीं भी जाना छोड़ दिया. उसे लगता पूरी दुनिया उसे उस की पत्नी के सामने गिरी हुई नजरों से देखती है.

यह अवसाद, हीनभावना और कुंठा का रोग इस कदर बढ़ गया कि अभिषेक को दुनिया से ही नफरत हो गई. उसे लगा कि इस दुनिया में रहना ही बेकार है. इस दुनिया को अलविदा कह देना चाहिए. शीतल कालेज और बच्चे स्कूल गए हुए थे. वह अपने कमरे में अकेला था. उस ने एक मोटी रस्सी पंखे में डाल कर फांसी का फंदा तैयार किया और बिना कोई देरी किए उस में ?ाल गया. कुछ ही देर में उस की इहलीला समाप्त हो गई.

शीतल की मांग का सिंदूर उजड़ चुका था. लेकिन किसी को अभिषेक की आत्महत्या की बात गले नहीं उतर रही थी. जितने मुंह, उतनी बातें थीं. ऐसे में नकारात्मक बातों का प्रभाव ज्यादा होता है.

बेसिरपैर की बातें करने वाले कह रहे थे, ‘‘अरे कहने की बात ही क्या है? जिस की औरत जवान लौंडों को ट्यूशन पढ़ाती हो, उस का मर्द मरेगा नहीं तो क्या जिंदा रहेगा? भिड़ा लिए होंगे किसी लौंडे से नैन. बेचारा कैसे बरदाश्त करता, ?ाल गया पंखे से लटक कर.’’

अभिषेक का तेहरवीं होते ही आशुतोष ने भी अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया. भाई तो फिर भी अपना था, शीतल कौन सी अपनी है. एक दिन उस ने शीतल से साफसाफ कह दिया, ‘‘शीतल, देखो यह मकान मेरा है. अगर तुम्हें यहां कोचिंग क्लासेज चलानी हैं तो 5 हजार रुपए प्रति माह किराया देना होगा.’’

जेठ की यह बात सुनते ही शीतल भौचक्की रह गई. जब उस ने यह बात अपने ससुर से कही तो वे अपने बेटे का पक्ष लेते हुए बोले, ‘‘शीतल बिटिया, मकान तो यह आशुतोष का ही है. उसी ने बनवाया था. तुम्हारे हिस्से में तो वह पुराना खंडहर है, वह भी आधा. कल अगर वह तुम से नीचे के दोनों कमरों का किराया मांगे या खाली करने को कहे, तो मु?ा से शिकायत मत करना, मैं मजबूर हूं.’’

शीतल सम?ा गई कि अब उस का यहां कोई नहीं है. उस को यहां से जाना ही होगा. इस से पहले कोई मुसीबत मुंह बाए आ खड़ी हो जाए उसे अपना बंदोबस्त कर लेना चाहिए. शीतल ने अपनी परेशानी अपनी बड़ी बहन मीतल को बताई जो चंडीगढ़ के एक डिगरी कालेज में प्रोफैसर थी. मीतल सम?ा गई कि

इन हालात में क्या करना है? उस ने तुरंत पता लगाया कि चंडीगढ़ के किस डिगरी कालेज में फिजिक्स लैक्चरर की पोस्ट खाली है. जल्द ही उसे ऐसे 3 कालेजों का पता चल गया. उन में से एक कालेज की प्रिंसिपल को मीतल व्यक्तिगत रूप से जानती थी.

शीतल का इंटरव्यू हुआ और उसे उस की योग्यता और अनुभव के आधार पर चयनित भी कर लिया गया. मीतल की सिफारिश भी खूब काम आई. अब शीतल ने बच्चों सहित अपनी ससुराल को छोड़ दिया. किसी ने उसे रोकने की

कोशिश तक नहीं की. किसी का कलेजा मोम नहीं था जो पिघलता. किसी ने यह तक नहीं पूछा कि वह कहां जा रही है? आशुतोष तो खुश था कि वह  भाई की इस विधवा बहू के बो?ा को ढोने से बच गया. उसे तो अपनी राह का एक बड़ा कांटा निकलता नजर आया. अब वह पूरी पैतृक संपत्ति का एकमुश्त मालिक था. कुछ वर्षों के बाद शीतल उसी कालेज में सरकारी प्रोफैसर हो गई. उस के बच्चे भी पढ़ने में काबिल निकले. शीतल ने उन्हें पढ़ाने में कोई कसर बाकी न रखी. बेटा रोहन साइंटिस्ट बन गया और बेटी कोकिला चंडीगढ़ में ही डाक्टर हो गई. शीतल ने चंडीगढ़ में ही एक फ्लैट ले लिया. दोनों बच्चों की शादी बड़ी धूमधाम से कर दी. मीतल हर काम में उस के साथ खड़ी होती.

बच्चों की शादी करने के बाद शीतल फ्लैट में अकेली रह गई थी. वह भाई से निवेदन कर के रुड़की से अपनी बूढ़ी मां को अपने साथ ले आई. एक रात जब मांबेटी अपनी पुरानी यादों में खोई थीं, तब बूढ़ी मां ने कहा, ‘‘शीतल बेटी, अब मेरे अंतिम दिन चल रहे हैं. एक बड़ा बो?ा मेरे मन पर है, उसे मरने से पहले उतार देना चाहती हूं.’’

‘‘कौन सा बो?ा मां?’’ शीतल ने बड़ी व्यग्रता से पूछा.

‘‘शीतल, तु?ो याद है न, बचपन में एक दिन पढ़ाई न करने पर मैं ने एक जोरदार थप्पड़ तेरे गाल पर जड़ दिया था. उस थप्पड़ का बो?ा आज भी मेरे मन पर भारी है. मु?ो माफ कर देना बिटिया, मु?ो वह थप्पड़ नहीं मारना चाहिए था. मैं उस थप्पड़ की गुनहगार हूं,’’ कहतेकहते बूढ़ी आंखों में आंसू भर आए.

बूढ़ी मां की आंखों में आंसू देख कर शीतल रोंआसी हो गई. मां की आंखों के आंसू अपने हाथों से पोंछते हुए, शीतल ने कहा, ‘‘हां मां, उस थप्पड़ को मैं कैसे भूल सकती हूं. उस थप्पड़ की गूंज तो आज भी मेरे कानों में गूंजती है. वह थप्पड़ ही इतना निराला था, मां. उस थप्पड़ ने तो मेरी जिंदगी बदल दी.’’

बूढ़ी मां की नजरें उत्सुकता से शीतल को देख रही थीं. शीतल ने अपनी मां के हाथों को अपने हाथों में लेते हुए कहा, ‘‘मां, तुम्हें विश्वास नहीं होगा. उस से पहले तक मेरा पढ़ने में बिलकुल मन नहीं लगता था. मेरा पढ़ने का कोई इरादा ही नहीं था. मैं सोचती थी कि शादी के बाद वह कमा कर लाएगा और मैं घर में बैठ कर मजे करूंगी. लड़कियों को पढ़ने की जरूरत ही क्या है?

‘‘मगर सचमुच मां, उस थप्पड़ ने मेरी जिंदगी बदल दी. उस दिन से मैं ने पढ़लिख कर कुछ बनने की ठान ली. वही पढ़ाई मां आज मेरे काम आई. मैं तो कहती हूं मां न पढ़ने वाली हर लड़की के गाल पर ऐसा थप्पड़ पड़ना चाहिए ताकि वह पढ़ सके. मां, यही सोच कर मैं सिहर उठती हूं कि अगर वह थप्पड़ न पड़ा होता और मैं न पढ़ी होती तो…’’ इस से पहले कि शीतल का वाक्य पूरा होता, बूढ़ी मां की गरदन एक ओर लुढ़क चुकी थी. शायद मां के मन का बो?ा उतर चुका था.

 

सोलमेट: भाग 3- शादी के बाद निकिता का प्रेमी ने उसके साथ क्या किया?

ऋतिक मु झे जीवन का भरपूर सुख दे रहा था. मैं ऋतिक से एक पोस्ट ऊपर थी तो मु झे सैलरी भी उस से ज्यादा मिलती थी. ऋतिक ने बैंक में क्लर्क से जौइन किया था और फिर उस की प्रमोशन हुई थी जबकि मैं डाइरैक्ट औफिसर बन कर बैंक में आई थी. मगर इस बात को ले कर कभी हमारे बीच कोई भेदभाव जैसी बात नहीं होती थी बल्कि मैं खुद आगे बढ़ कर ज्यादा ही खर्च कर दिया करती थी घर में. सबकुछ सही चल रहा था. हमारे जीवन में रोज नएनए रंग भर रहे थे. इस तरह साथ रहते हुए हमें 1 साल हो गया.

एक दिन अचानक ऋतिक की मां की तबीयत खराब हो गई तो वह अपने शहर यूपी चला गया. वहां से उस ने बताया कि उसे अपनी मां के इलाज के लिए कुछ पैसों की जरूरत है तो मैं दे दूं वह बाद में वापस कर देगा. मैं ने बिना कुछ पूछे जाने उसे पैसे भेज दिए और ऐसा उस ने कई बार किया पर एक बार भी ऋतिक ने मु झे मेरे पैसे नहीं लौटाए. बस प्रौब्लम ही बताता रहा कि उस के जीवन में कितनी समस्याएं हैं. मैं ने कभी उस से अपने पैसे नहीं मांगे यह सोच कर कि जब होंगे खुद ही दे देगा. बेचारा वैसे ही परेशान है. इधर मेरे मांपापा ने मेरी शादी के लिए एक लड़के का फोटो भेजा. लड़का सीए था और काफी स्मार्ट भी. लड़के का घरपरिवार भी अच्छा था. लेकिन मेरे दिल में तो ऋतिक बसा था. मैं उसे ही अपना जीवनसाथी बनाना चाहती थी. ऋतिक भी तो कई बार बोल चुका था कि मैं उस की सोलमेट हूं यानी वह भी मु झ से प्यार करता. वैसे जुड़े तो हम एक एकदूसरे के साथ जरूरत के लिए थे, लेकिन साथ रहते हुए हमें एकदूसरे की आदत बन चुकी थी.

इसलिए मैं हर बार मांपापा के सामने शादी न करने का कोई न कोई बहाना रख देती थी और वे मान भी जाते थे. ऋतिक अभी भी अपने गांव में ही था. अपनी को देखने. कहीं न कहीं मु झे उस की मां की सेहत की फिक्र होने लगी थी. मैं अपने एक कुलीग से इसी विषय पर बात करने लगी तो वह जोर से हंसते हुए बोला कि मैं चिंता न करूं क्योंकि ऋतिक की मां की कोई तबीयत खराब नहीं है बल्कि वह अपनी मां की झूठी मैडिकल रिपोर्ट दिखा कर बैंक से हर महीने पैसे लेता है. ‘क्या,’ मैं तो सुन कर हैरान रह गई. लेकिन मु झे उस आदमी की बात पर विश्वास नहीं हुआ क्योंकि कोई भी इंसान इतनी नीच हरकत नहीं कर सकता है और वह भी अपनी मां को ले कर? सब से बड़ी बात यह कि क्या उसे अपनी नौकरी की नहीं पड़ी जो वह ऐसा गलत काम करेगा? लेकिन शक की सूई तो मेरे दिमाग में घुस ही गई थी क्योंकि पहले भी कई बार मैं ने उसे छोटेछोटे ही पर बैंक में गलत बिल रखते देखा था.

उस पर मैं ने उसे टोकते हुए कहा भी था कि वह ठीक नहीं कर रहा है. मेरी दादी कहा करती थीं, ‘‘खीरा चोर और हीरा चोर दोनों बराबर ही होते हैं. लेकिन मेरी बात पर उस ने बेफिक्री से हंसते हुए कहा था कि सब करते हैं, कुछ नहीं होता और कौन सा वह बैंक लूट रहा है. मु झे भी इंस्टीट किया था उस ने ऐसा करने को कहा पर मैं ने तो साफ मना कर दिया. कुछ दिन बाद ऋतिक ने फिर अपनी मां की तबीयत की कह कर मु झ से पैसे की मांग की तो मैं ने पैसे देने में असमर्थता जताई और कहा कि क्या सच में उस की मां की तबीयत खराब है या यों ही वह बहाने बना रहा है? मेरी बात सुन कर वह एकदम से गुस्सा हो गया और कहने लगा कि वह उस से पैसे कर्ज मांग रहा है तो वह इतना सवाल क्यों कर रही है? मुझे लगा मैं ने बेकार में ही उस से पूछ लिया. हो सकता वह आदमी झूठ बोला हो और सच में इस की मां की तबीयत खराब हो.

ऋतिक मु झ से रूठ न जाए इसलिए उसे पैसे भेज दिए और पूछा कि वह कब आएगा? तो ऋतिक ने सिर्फ इतना कह कर फोन रख दिया कि कह नहीं सकता. एक दिन फिर मैं ने उसे फोन लगाया तो फोन किसी महिला ने उठाया. पूछने पर वह बोली कि वह ऋतिक की पत्नी बोल रही है. ‘‘पत्नी,’’ मु झे जोर का झटका लगा. मैं कुछ और पूछती कि तभी एक दूसरी महिला की आवाज आई. वह शायद किसी को आवाज दे रही थी. ऋतिक की पत्नी फोन टेबल पर औन रख कर ही उस महिला की आवाज पर भागी. मु झे ऋतिक की आवाजें साफसाफ सुनाई पड़ रही थीं. वह अपनी पत्नी से कुछ बोल रहा था. फिर कुछ हंसने की आवाजें आई. जब मु झ से सुना नहीं गया तो मैं ने फोन रख दिया. मु झे सारा मामला सम झ में आ गया कि ऋतिक एक झूठा और फरेबी इंसान है. उस ने सिर्फ बैंक के साथ ही फ्रौड नहीं किया बल्कि मेरे साथ भी फ्रौड किया है. वह मेरे शरीर और पैसे के लिए मु झ से प्यार का नाटक करता रहा आज तक.

आज तक वह अपनी मां की झूठी रिपोर्ट बैंक में दिखा कर बैंक को चूना लगता रहा. लेकिन अब नहीं, मैं ने सोच लिया उस की करनी का परदाफास कर के रहूंगी मैं. इसलिए मैं ने बैंक मैनेजर साहब को ऋतिक के बारे में सब कुछ सचसच बता दिया कि वह बैंक के साथ क्या कुछ गलत कर रहा है क्योंकि अगर मैं सबकुछ जानते हुए भी ऐसा न करती तो गलत तो मैं भी होती न. मु झ पर भी ऐक्शन लिया जाता क्योंकि गलत का साथ देने वाला भी उतना ही गलत होता है. जांच बैठाई गई और पाया गया कि ऋतिक ने सच में बैंक के साथ फ्रौड किया है और इसलिए उसे बैंक से सस्पैंड कर दिया गया. इतना ही नहीं, उस डाक्टर को भी, जो कुछ पैसों के लालच में उस की मां की गलत मैडिकल रिपोर्ट बनाता रहा. उस के खिलाफ भी एक्शन लिया गया. बैंक में यह रूल है कि अगर किसी इंप्लोई के मातापिता उसी पर आश्रित हैं, तो बैंक उन का भी मैडिकल खर्चा देती है और ऋतिक इसी बात का फायदा उठा कर हर महीने बैंक से हजारों रुपए ऐंठ रहा था.

मुझे यह भी पता चला कि ऋतिक ने अपने मांपापा के बारे में जो कहानियां बताईं वे सब झूठी थीं. शादीशुदा होने के बावजूद उस ने मु झ से झूठ कहा कि उस का उस की पत्नी के साथ तलाक का केस चल रहा है और मेरे साथ शारीरिक संबंध बनाता रहा. लेकिन बेवकूफ तो मैं ही थी न कि उस की असलियत जाने बिना उस के झांसे में आ गई. लेकिन अब मैं उस के झांसे में नहीं आने वाली थी. मैं ने अपने मन में सोच लिया और तुरंत अपने मांपापा को फोन लगा कर उस रिश्ते के लिए हामी भर दी जहां मेरी शादी की बात चल रही थी पर मैं ही टाल रही थी कब से. गोरा रंग, लंबेसुनहरे बाल, मोटीमोटी आंखें और प्यारी सी गोल नाक में छोटी सी नथनी पहने देख प्रणय मु झ पर लट्टू हो गए और तुरंत शादी के लिए हां बोल दिया. 6 फुट लंबे, सांवले रंग और प्यारे सा हंसमुख चेहरे वाले प्रणय पर मैं भी मोहित हो उठी थी.

मुझे तब यही लगा था कि ऋतिक कहीं से भी प्रणय के बराबर नहीं है और वह पागल थी जो उस के पीछे मर रही थी. खैर, लड़कालड़की और दोनों परिवारों के रजामंदी से जल्द ही हम दोनों की सगाई और फिर शादी हो गई. शादी के बाद मैं अपने पति प्रणय के साथ मुंबई शिफ्ट हो गई. मैं अपना पुराना सारा कुछ भूल कर प्रणय के साथ हंसीखुशी जीवन व्यतीत कर रही थी कि ऋतिक नाम का कांटा जीवन में चुभने लगा. पता नहीं उसे कैसे पता चला गया कि मैं ने ही बैंक मैनेजर साहब को उस के बारे में सबकुछ बता दिया था और जिस के कारण उस की नौकरी चली गई. लेकिन उस की नौकरी तो उस की गलत हरकतों के कारण गई थी यह बात उसे सम झ नहीं आई. ऋतिक मु झे धमकाता और मेरा अतीत मेरे पति के सामने लाने की बात कह कर मेरे पैसे और शरीर की मांग रखता. इसलिए ही तो मैं ने उस का फोन ब्लौक कर दिया था. लेकिन फिर पता नहीं किस नंबर से उस ने मु झे फोन किया और मैं फिर फंस गई लेकिन अब मु झे सम झ नहीं आ रहा है कि मैं क्या करूं?

कैसे ऋतिक जैसे इंसान से निबटूं क्योंकि उस का क्या भरोसा पैसे लेने के बाद भी वह मु झे तंग करे. मु झे बिछावन पर चिंतित करबटें बदलते देख कर प्रणय ने पूछा कि क्या हुआ, इतनी परेशान क्यों लग रही हूं मैं? तो मैं ने फिर वही अपने पीरियड का बहाना बनाया कि इस वजह से मेरी तबीयत ठीक नहीं लग रही है. लेकिन प्रणय को सम झ आ रहा था कि बात कुछ और है और मैं उन से छिपाने की कोशिश कर रही हूं. ‘‘बोलो न कोई बात है जो तुम्हें परेशान कर रही है?’’ मेरे शरीर को हौले से स्पर्श करते हुए प्रणय बोले, ‘‘मैं ने तुम्हें शादी के समय ही कहा था कि हम एकदूसरे के सुखदुख के साथी बनेंगे तो फिर क्यों तुम मु झ से अपना दुख छिपा रही हो. बताओ न क्या बात है? कई महीनों से देख रहा हूं तुम काफी परेशान दिख रही हो. क्या बात है निक्की?’’ प्रणय की बात पर मैं ने कस कर उन्हें पकड़ लिया और फफक कर रोने लगी.

उन्होंने जब प्यार से मेरे बालों को सहलाया तो एकएक कर के शुरू से अंत तक मैं ने सारी बात बता दी. ‘‘ओह, तो यह बात है,’’ प्रणय बोले. ‘‘सौरी प्रणय लेकिन मैं ने तुम्हें कोई धोखा नहीं दिया सच में बल्कि मैं तुम्हें सबकुछ सचसच बताना चाहती थी, लेकिन…’’ ‘‘लेकिन तुम्हें मौका नहीं मिला, यही कहोगी तुम? पहले उठ कर बैठो तुम,’’ मु झे दोनों हाथों से पकड़ कर उठाते हुए प्रणय बोले, ‘‘मेरा भी अतीत था. मैं भी एक लड़की के साथ रिलेशन में था और यह बात शादी के पहले मैं ने तुम्हें बताई थी? यह भी कहा था कि तुम भी अपने अतीत के बारे में बे िझ झक मु झे बता सकती हो.’’ ‘‘हां, लेकिन मु झे लगा मेरा अतीत जानने के बाद कहीं तुम मु झ से शादी करने से इनकार न कर 2 और मेरी मां ने भी मु झे ऐसा ही सम झाया था. ‘‘मां को रहने दो… शादी तुम से हो रही थी मेरी, साथ हमें जीवन बिताना था, तो मां को बीच में क्यों ला रही हो?’’ प्रणय के तेवर देख मैं एकदम डर गई कि पता नहीं अब क्या होगा. मगर वे मेरे करीब आते हुए बोला, ‘‘देखो निकिता शादी जैसे पवित्र बंधन में बंधने से पहले पतिपत्नी को एकदूसरे के प्रति ईमानदार होना जरूरी है. नहीं, मैं ऐसा नहीं कहना चाहता कि तुम गलत हो. नहीं हो गलत तुम क्योंकि वह उम्र ही ऐसी होती है. कोई बुराई नहीं है इस में. लेकिन एकदूसरे से बात छिपाना गलत है. अगर तुम ने मु झे सबकुछ बता दिया होता अपने बारे में तो क्या उस ऋतिक की हिम्मत होती तुम्हें ब्लैकमेल करने की?’’ बात तो प्रणय सही कह रहे थे लेकिन अब क्या किया जा सकत था. इसलिए मु झे रोना आ गया.

मु झे सिसकते देख प्रणय बोले, ‘‘अब रोनाधोना बंद करो और जैसा मैं कहता हूं करो. तुम उस ऋतिक को फोन लगाओ और कहो कि उसे जो करना है कर ले. लेकिन अब तुम भी उस की बीवी को हम दोनों के रिश्ते के बारे में सबकुछ बता दोगी क्योंकि तुम्हारे पास भी तुम दोनों के कुछ फोटो और वीडियो हैं.’’ जब मैं ने ऋतिक को फोन कर के कहा कि उसे जो भी प्रणय को बताना है बता दे लेकिन यह भी याद रखे कि उस के पास भी हम दोनों के कुछ फोटो और वीडियो हैं और अब वह उन्हें उस की बीवी के व्हाट्सऐप पर सैंड करने जा रही है. हालांकि मेरे पास ऐसा कोई फोटो और वीडियो नहीं था, सिर्फ उसे डराने के लिए बोल रही थी. मेरी बात सुनते ही ऋतिक के पसीने छूट गए. शेर की तरह दहाड़ने वाला ऋतिक पल में मेरे सामने भीगी बिल्ली बन गया और गिड़गिड़ाते हुए कहने लगा कि मैं ऐसा न करूं क्योंकि उस का साला पुलिस इंस्पैक्टर हैं.

अगर उसे पता चल गया कि उस ने उन की बहन के साथ धोखा किया है तो वह उसे खड़ेखड़े गोली मार देगा.बड़ी मुश्किल से तो नौकरी मिली है, वह भी हाथ से चली जाएगी. कहीं का नहीं रहेगा वह. इसलिए वह उसे माफ कर दे. वैसे, मैं यह सब करने वाली नहीं थी बल्कि सबूत के तौर पर उस की बातें रिकौर्ड कर रख लीं ताकि वह कभी फिर मु झे परेशान न कर सके. मैं ने उस से सख्त लहजे में कहा कि ध्यान से सुन लो, मेरा सोलमेट सिर्फ मेरा पति है और आज के बाद कभी तुम ने मु झे परेशान करने की सोची भी तो मैं तुम्हें नहीं छोड़ूंगी. प्रणय की सू झबू झ के कारण मैं इस भंवरजाल से निकल पाई.

गाड़ी बुला रही है: क्या हुआ मुक्कू के साथ

आजअकेले कार चलाने का अवसर मिला है. ये औफिस गए हुए हैं, मुक्कू बिटिया कालेज और मैं चली अपनी बचपन की सहेली से मिलने. अकेले ड्राइव पर जाने का आनंद कोई मुझ से पूछे. एसी के सारे वेंट अपने मुंह की ओर मोड़ कर कार के स्पीकर का वौल्यूम बढ़ा कर उस के साथ गाते हुए कार चलाने का मजा ही कुछ और होता है. एक नईर् ऊर्जा का संचार होने लगता है मुझ में. कितनी बार तो मैं ट्रैफिक सिगनल पर खड़ी कार में बैठीबैठी थोड़ा नाच भी लेती हूं. हां, जब पड़ोस की कारों के लोग घूरते हैं तो झेंप जाती हूं.

ड्राइविंग का कीड़ा मेरे अंदर शुरू से कुलबुलाया करता था. कालेज में दाखिला मिलते ही मेरा स्कूटी चलाने को जी मचलने लगा. मम्मीपापा के पास भी अब कोईर् बहाना शेष न था. मैं वयस्क जो हो गई थी. अब तो लाइसैंस बनवाऊंगी और ऐश से स्कूटी दौड़ाती कालेज जाऊंगी.

फिर भी मम्मी कहने लगीं, ‘‘खरीदने से पहले स्कूटी चलाना तो सीख ले.’’

‘‘ओके, इस में क्या परेशानी है. मेरी सहेली गौरी है न. अपनी स्कूटी पर उस ने कितनी बार मुझे पीछे बैठाया है. कई बार कह चुकी है कि एक बार हैंडल पकड़ कर फील तो ले. लेकिन इस बार जब मैं ने उस से मुझे स्कूटी सिखाने की बात कही तो वह बोली, ‘‘पर तुझे तो साइकिल चलानी भी नहीं आती है आकृति?’’

‘‘तो मुझे साइकिल नहीं स्कूटी चलानी है. तू सिखाएगी या नहीं यह बता?’’

‘‘नाराज क्यों होती है? सिखाऊंगी क्यों नहीं. पर पहले तू साइकिल चलाना सीख ले… तेरे लिए स्कूटी चलाना आसान रहेगा.’’

‘‘अब साइकिल कहां से लाऊं?’’

मेरी यह उलझन भी गौरी ने दूर कर दी. तय हुआ कि

पहले मैं उस की छोटी बहन की साइकिल चलाना सीखूं और फिर उस की स्कूटी.

साइकिल चलाना सीखना शुरू तो कर दिया पर हर बार बैलेंस बनाते समय मैं गिर पड़ती थी. एक बार पड़ोसिन रमा आंटी बोल पड़ीं, ‘‘आकृति, तुम्हें साइकिल चलानी नहीं आएगी, रहने दो. बेकार में कहीं लग न जाए, लड़की जात हो, चेहरा बिगड़ना नहीं चाहिए.’’

उन की इस बात ने मेरा मनोबल ही तोड़ दिया. कितना अच्छा होता कि आंटी मेरा हौसला बढ़ातीं, लेकिन उन्होंने मुझे निराश करने में कोई कसर नहीं छोड़ी.

कुछ दिन हतोत्साहित होने के बाद जब मैं ने छोटेछोटे बच्चों को साइकिलें दौड़ाते देखा तो मेरे अंदर पुन: उम्मीद जाग उठी. मैं ने भी साइकिल सीख कर ही दम लिया. पहले साइकिल की सीट नीचे कर के, पांव जमीन पर टिका कर कौन्फिडैंस बनाया. फिर एक बार बैलेंस करना और फिर साइकिल चलाना सीख गई.

अब नंबर था स्कूटी का. मम्मी को मैं अपनी प्रोग्रैस से खबरदार करना न भूलती थी. उन्हीं से स्कूटी जो खरीदवानी थी. लेकिन पापा ने भांजी मार दी. कहने लगे, बिना गीयर का कोई स्कूटर होता है भला. जिद पर अड़ गए कि गीयर वाला स्कूटर ही दिलवाएंगे. लेना है तो लो वरना कालेज जाने के लिए मंथली बस पास बनवा लो. कितनी मिन्नते कीं पर पापा टस से मस न हुए. हर बार एक ही बात कह देते, ‘‘बेटा, मैं तेरे भले के लिए कह रहा हूं. गीयर वाला स्कूटर चलाने की फील ही अलग है. गीयर वाले स्कूटर के बाद कार चलाने में भी आसानी रहेगी…’’ न जाने क्याक्या दलीलें देते, लेकिन मेरी समझ में एक बात आ गई थी वह यह कि स्कूटी का पत्ता कट चुका था.

मैं बड़ी निराश थी, ‘‘अब किस से सीखूंगी मैं? गौरी के पास स्कूटी है, गीयर वाला स्कूटर नहीं.’’

‘‘अरे, तू परेशान क्यों होती है? मैं हूं न, मैं सिखा दूंगा.’’

‘‘नहीं पापा, आप डांटोगे और मेरा कौन्फिडैंस खत्म कर दोगे. याद नहीं मुझे मैथ्स कैसे पढ़ाते थे? इतना डांटते थे कि आज तक मेरे मन से मैथ्स का डर नहीं गया. मुझे किसी और से सीखना है,’’ मेरी भी जिद थी.

मेरी इस जिद के आगे पापा को झुकना पड़ा, ‘‘अच्छा ठीक है, तो फिर जिस शोरूम से स्कूटर लेंगे, वहीं के मैकैनिक से कह कर सिखवा दूंगा तुझे.’’

वह दिन भी आ गया जब मैं और पापा स्कूटर लेने शोरूम पहुंचे. मुझे पिस्तई हरा रंग पसंद आया. स्कूटर लिया और साथ ही मैचिंग हैलमेट भी. पेमैंट करते समय पापा ने शर्त रखी कि कोई मैकेनिक मुझे स्कूटर चलाना सिखा दे. तब तय हुआ कि 2 दिनों में मैकेनिक मुझे स्कूटर चलाने के गुर सिखा देगा, फिर प्रैक्टिस करना मेरा काम.

पहली ट्रेनिंग उसी दिन हुई. मैकेनिक राजू ने मुझे स्कूटर के कलपुरजों से वाकिफ करवाया. फिर शोरूम के सामने वाले मैदान में स्कूटर ले जा कर मुझे ड्राइविंग सीट पर बैठाया और खुद पीछे बैठा. स्कूटर का हैंडल उसी के हाथों में था. उस ने स्कूटर स्टार्ट किया, और फिर मुझे पहला गीयर डाल कर दिखाया. क्लच छोड़ते ही स्कूटर धीरेधीरे चलने लगा. मुझे मजा आने लगा. फिर दूसरा और तीसरा गीयर डाल कर स्पीड बढ़ा कर क्लच छोड़ते ही स्कूटर धीरेधीरे चलने लगा.

मुझे मजा आने लगा. फिर दूसरा और तीसरा गीयर डाल कर स्पीड बढ़ा कर भी दिखा दिया. अब स्कूटर का हैंडल संभालने की मेरी बारी थी. साइकिल से विपरीत स्कूटर का हैंडल एकदम सधा रहता है. डगमगाने का कोई डर ही नहीं, मैं आश्वस्त हो गई. पापा का डिसीजन मुझे सही लगने लगा. पहले दिन मैदान में चक्कर लगा कर हम घर लौट आए.

अगले दिन दूसरी और आखिरी क्लास के लिए शोरूम जाना था. पापा को मेरे उत्साह पर हंसी आ रही थी. आज की ट्रेनिंग राजू भाई सड़क पर लेना चाहता था ताकि मैं ट्रैफिक में भी सीख सकूं. सड़क तक स्कूटर राजू चला कर ले गया और वहां पहुंच कर मेरे हवाले करने लगा.

‘‘प्लीज, आप भी बैठे रहो न,’’ इतना ट्रैफिक और शोरगुल देख मैं थोड़ा डर गई.

मेरी रिक्वैस्ट पर राजू मेरे पीछे बैठ गया परंतु हैंडल से ले कर गीयर तक आज सब काम मुझे ही करने थे. मैं किक मारूं, लेकिन स्कूटर स्टार्ट ही न हो. राजू ने मुझे किक लगाने का सही तरीका बताया. अब की बार मुझ से किक लग गई. स्कूटर स्टार्ट कर मैं ने पहले गीयर में डाला और धीरेधीरे क्लच छोड़ते ही वह चलने लगा. वाह, मैं स्कूटर चला रही थी. लेकिन तभी साइड से जाती एक गाड़ी ने हौर्न बजाया और मैं डर गई. इतना डर गई कि चलते स्कूटर से उतर गई, किंतु उस का हैंडल नहीं छोड़ा. दोनों हाथों से हैंडल पकड़े मैं स्कूटर के संग भागने लगी.

अब डरते की बारी राजू की थी. मेरी इस हरकत पर उस ने फौरन ब्रेक लगाया. बाद में मुझे ऐसा डांटा कि पूछो मत. आज याद करती हूं तो हंसी आती है लेकिन सोचा जाए तो राजू की बात एकदम सही थी. चलती सड़क, पूरा ट्रैफिक, उस पर मैं चलते स्कूटर से उतर गई और संग भागने लगी. बड़ा ऐक्सीडैंट हो सकता था. चूंकि राजू साथ थे तो पापा या शोरूम के मालिक तो उन्हें ही जिम्मेदार ठहराते. राजू ने कानों को हाथ लगा कर मुझ से तोबा कर ली.

खैर, ड्राइविंग तो मुझे सीखनी ही थी पर अब मेरा कोई गौडफादर न था. मुझे आज भी याद है वह वसंत ऋतु की शाम. मौसम कितना खुशगवार था. दिल्ली में फरवरी से अच्छा मौसम शायद ही सालभर में कभी होता है. पर इतने खुशनुमा मौसम में भी मेरे चेहरे पर पसीना आ रहा था.

अपनी गली में हैलमेट लगा कर बहुत डरते हुए मैं ने स्कूटर को थामा. किक लगाई और धीरे से चलाना शुरू किया. 200 मीटर ही चली थी कि सामने से एक बाइक को अपनी ओर आता देख मैं फिर डर गई और सीधे हाथ से रेस कम करने के बजाय गलती से बढ़ा दी. फिर क्या था. स्कूटर उछलता हुआ भागा और सामने खड़ी एक कार से जा टकराया. मैं दर्द से कराह उठी. रोती हुई मैं घर आ गई. स्कूटर को महल्ले के लोगों ने घर पहुंचाया था. बस, वह मैं ने आखिरी बार स्कूटर चलाया था.

मगर ड्राइविंग के मेरे शौक को आराम न मिला. स्कूटर के बाद कार का नंबर लगा. कार चलाना सीखने की कहानी भी बड़ी मजेदार है. सुनेंगे?

कार सीखने तक मैं नौकरी करने लगी थी. मेरे मन में कार चलाने की इतनी तीव्र इच्छा जागने लगी कि मैं सपने में भी कार चलाया करती. जी हां, वह भी हर रात. जब प्रोफैशनल ड्राइविंग स्कूल से कार चलाना सीखना शुरू किया तो पहले दिन ट्रेनर ने मुझ से कहा, ‘‘लगाओ.’’

‘‘मैं ने पूछा, क्या?’’

‘‘गीयर, और क्या?’’

‘‘मुझे क्या पता कैसे लगाते हैं? बताओ तो सही.’’

मेरे उत्तर पर उस ने पुन: प्रश्न किया, ‘‘तो क्या बिलकुल चलानी नहीं आती?’’

‘‘अगर आती तो सीखती क्यों?’’ मेरे इस उत्तर पर वह हंस पड़ा था. फिर उस ने बहुत अच्छी ट्रेनिंग दी. मुझे आज भी याद है कि शुरू में जब कार को रोकना होता था तो मैं स्ट्रैस में आ कर स्टीयरिंग व्हील कस कर पकड़ लेती. एक बार वह बोला, ‘‘कार इसे पकड़ने से नहीं रुकती.’’

आज भी उस की कही इस बात पर हंसी आती है. हां, उस की इस बात से मैं स्ट्रैस फ्री हो कर कार चलाना जरूर सीख गई.

मगर जिंदगी में एक बार ऐसी गलती कर बैठी थी जिस के बाद शायद कोई और होती तो कार को चलाने की हिम्मत फिर कभी न करती. बहुत पुरानी बात है, मुक्कू छोटी सी थी, गोदी में. मुझे आज भी साफसाफ याद है…

‘‘औरतें गाड़ी चलाती ही क्यों हैं?’’

‘‘जब चलानी नहीं आती तो कार ले कर निकलने की क्या जरूरत थी भला?’’

‘‘कैसी मां है… कलयुग है.’’

‘‘हा… हा… हा… अरे भाई यों ही नहीं डरते हम औरतों को ड्राइविंग सीट पर बैठे देख कर.’’

‘‘जरूर फोन में ध्यान होगा. इन फोनों ने तो दुनिया बिगाड़ कर रख दी.’’

जितने मुंह थे, उतनी बातें. दिल तो कर रहा था चीख कर सब की बातों का मुंहतोड़ जवाब दे डालूं. बता दूं सब को कि मैं कितनी अच्छी, सेफ और सधी हुई कार ड्राइव करती हूं. करीब 12 साल हो गए मुझे कार चलाते. इन सालों में 4 कारें बदली मैं ने और आज तक एक खरोंच नहीं आने दी मैं ने अपनी किसी भी कार की बौडी पर वह भी दिल्ली के ट्रैफिक में. लेकिन इस वक्त मेरी प्राथमिकता इन लोगों की बकवास नहीं, अपनी बच्ची थी जो मेरी गलती से कार में लौक हो गई थी.

नन्ही मुक्कू का चेहरा लाल पड़ता जा रहा था. हालांकि वह मुसकरा रही थी… शांत भी थी… उस के चेहरे या हावभाव से नहीं लग रहा था कि उसे कोई परेशानी हो रही है… पर उस का बदलता रंग… मेरी गोरी सी गुडि़या तांबाई होती जा रही थी. उस के पूरे शरीर पर उभर आई पसीने की बूदें उस के भीगे होने का एहसास करा रही थीं… मुक्कू की हालत देख मेरा भी हाल खराब हो रहा था. कितनी बड़ी गलती हो गई मुझ से आज, मेरे आसपास भीड़ जमा हो चुकी थी. हरकोई कार के अंदर झांकता, फिर मेरी ओर देखता. भीड़ खुसफुसा रही थी, आदमीऔरतें सभी.

मैं ने इन्हें फोन किया, ‘‘सुनो, मुझ से बहुत बड़ी गलती हो गई. मुक्कू को ले कर मार्केट के लिए निकली थी. सामान कार की बैक सीट पर रख, मुक्कू को पीलीयन सीट पर रखी उस की कार सीट में एडजस्ट किया और न जाने किस बेध्यानी में मुक्कू से खेलते हुए कार की चाबी उसे खेलने को पकड़ा दी. उस की चेन बहुत पसंद है न मुक्कू को. वह हंस रही थी. मैं ने उस की तरफ का डोर लौक किया और जैसे ही ड्राइवर डोर की ओर पहुंची तो मेरी घंटी बजी कि चाबी तो मैं ने अंदर ही लौक कर दी,’’ मैं एक ही सांस में बोलती चली गई.

‘‘मुक्कू कहां है?’’ इन का पहला रिस्पौंस था. आखिर अपनी 7 महीने की बच्ची के लिए कौन पिता चिंतित नहीं होगा.

‘‘मुक्कू अंदर ही है,’’ मैं रोने लगी, ‘‘इतनी गरमी में न जाने क्या हाल हो रहा होगा मेरी बच्ची का. लाल पड़ती जा रही है… पसीनापसीना हो गई है…’’

‘‘तो कार का शीशा तोड़ो और उसे बाहर निकालो फौरन. मैं अभी औफिस से निकल रहा हूं.’’ इन्होंने हल सुझाया.

मैं ने यही हल वहां खड़ी जनता को बताया, तो कुछ लोग कहने लगे, ‘‘शीशा तोड़ने की कोई जरूरत नहीं है. बेकार नुकसान होगा और अगर बच्चे को शीशे के टुकड़े लग गए तो?’’

‘‘हां, एक स्केल लाओ तो मैं अभी दरवाजा खोले देता हूं.’’

फिर स्केल लाया गया और वह काफी देर तक दरवाजा खोलने की नाकाम कोशिश करता रहा.

‘‘भाई, ऐसा पुरानी गाडि़यों में हो पाता था. नई कारों में यह तरकीब न चलती.’’

‘‘चाबी वाले को बुला लो न कोई… नंबर नहीं है क्या?’’

मैं ने कार के अंदर झांका, मुक्कू अब कुछ कसमसाने लगी थी. उस का चेहरा और सुर्ख पड़ चुका था. मुझ से रहा नहीं गया. एक ईंट का टुकड़ा उठा कर मैं ने कार के शीशे पर दे मारा. लेकिन शीशे को कुछ न हुआ. फिर भीड़ को चीरता हुआ एक लड़का आगे आया और अपने हाथ में लिए हथौड़े से पीछे की सीट के शीशे तो तोड़ डाला. मुक्कू को कांच लगने का खतरा भी टल गया. पीछे का दरवाजा खोल कर वह कार के अंदर गया और मुक्कू वाला दरवाजा अंदर से अनलौक कर दिया.

न जाने मैं कितनी देर मुक्कू को चूमती रही. मेरे आंसू थे कि रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे. कभी उस के मुंह पर फूंक मारती, कभी उस का पसीना पोंछती. वह दिन है और आज का दिन, मैं ने कार की चाबी को उंगली से तभी जाने दिया जब या तो कार स्टार्ट कर ली या फिर अपने हाथ से लौक. प्रण कर लिया कि ऐसी कोई गलती दोबारा कभी नहीं करूंगी.

मैं तो बुढ़ापे तक कार चलाना चाहती हूं. दिल्ली की सर्दी में जब धुंध को चीरती मेरी कार चलती है तब लगता है मानो बादलों में सवारी कर रही हो. क्या आनंद आता है उस समय ड्राइविंग का… मेरी ड्राइविंग सीखने की सारी मेहनत वसूल हो जाती है, होंठ मुसकराने लगते हैं और मैं गुनगुनाने लगती हूं.

सुहाना सफर और ये मौसम हंसी हमें डर है हम खो न जाएं कहीं.

श्रद्धांजलि: क्या था निकिता का फैसला

‘‘निक्की, पापा ने इतने शौक से तुम्हारे लिए पिज्जा भिजवाया है और तुम उसे हाथ भी नहीं लगा रही, क्यों?’’ अमिता ने झल्ला कर पूछा.

‘‘क्योंकि उस में शिमलामिर्च है और आप ने ही कहा था कि जिस चीज में कैपस्किम हो उसे हाथ भी मत लगाना,’’ निकिता के स्वर में व्यंग्य था.

अमिता खिसिया गई.

‘‘ओह, मैं तो भूल ही गई थी कि तुझे शिमलामिर्ची से एलर्जी है. तेरे पापा को यह मालूम नहीं है.’’

‘‘उन्हें मालूम भी कैसे हो सकता है क्योंकि वे मेरे पापा हैं ही नहीं,’’ निकिता ने बात काटी.

अमिता ने सिर पीट लिया.

‘‘निक्की, अब तुम बच्ची नहीं हो, यह क्यों स्वीकार नहीं करतीं कि तुम्हारे अपने पापा मर चुके हैं और अब जगदीश लाल ही तुम्हारे पापा हैं?’’

‘‘मैं उसी दिन बड़ी हो गई थी मां जिस दिन मैं ने ही तुम्हें फोन पर पापा के न रहने की खबर दी थी, मेरी गोद में ही तो घायल पापा ने दम तोड़ा था. रहा सवाल जग्गी अंकल का तो आप उन्हें पति मान सकती हैं लेकिन मैं पापा नहीं मान सकती और मां, इस से आप को तकलीफ भी क्या है? आप की आज्ञानुसार मैं उन्हें पापा कहती हूं, उन की इज्जत करती हूं.’’

‘‘लेकिन उन्हें प्यार नहीं करती. जानती है कितनी तकलीफ होती है मुझे इस से, खासकर तब जब वे तेरा इतना खयाल रखते हैं. इतना पैसा लगा कर हमें यहां टूर पर इसलिए साथ ले कर आए हैं कि तू अपने स्कूल प्रोजैक्ट के लिए यह देखना चाहती थी कि छोटी जगहों में जिंदगी कैसी होती है. आज रास्ते में कहीं पिज्जा मिलता देख कर, ड्राइवर के हाथ तेरे लिए भिजवाया है, जबकि वे कंपनी के ड्राइवर से घर का काम करवाना पसंद नहीं करते.’’

‘‘इस सब के लिए मैं उन की आभारी हूं मां, बहुत इज्जत करती हूं उन की लेकिन पापा की तरह उन्हें प्यार नहीं कर सकती. बेहतर रहे कि आइंदा इस बारे में बात कर के न आप खुद दुखी हों, न मुझे दुखी करें. मैं वादा करती हूं, जग्गी अंकल की भावनाओं को मैं कभी आहत नहीं होने दूंगी,’’ निकिता ने पिज्जा को दोबारा पैक करते हुए कहा, ‘‘शाम को उन के पूछने पर कह दूंगी कि आप के साथ खाएंगे और फिर जब पिज्जा गरम हो कर आएगा तो आप मुझे खाने से रोक देना एलर्जी की वजह से. बात खत्म.’’ यह कह कर निकिता अपने कमरे में चली गई.

लेकिन बात खत्म नहीं हुई. निकिता को रहरह कर अपने पापा की याद आ रही थी. वह और पापा भी कालोनी के दूसरे लोगों की तरह अकसर कालोनी की सडक़ पर बैडमिंटन खेला करते थे. उस रविवार की सुबह मां बाजार गई थीं और निकिता पापा के साथ सडक़ पर बैडमिन्त्न खेल रही थी कि एक लौंग शौट मारने के चक्कर में उछल कर पापा एक नए बनते मकान की नींव के लिए रखे पत्थरों के ढ़ेर पर जा गिरे और उन का सिर फट गया. जब तक शोर सुन कर पड़ोस में रहने वाले डाक्टर चौधरी पहुंचे, पापा अंतिम सांस ले चुके थे.

मोबाइल पर निकिता से खबर मिलते ही मां ने शायद जग्गी अंकल को फोन कर दिया था क्योंकि वे मां से पहले पहुंच गए थे और विह्लïल होने के बावजूद उन्होंने बड़ी कुशलता से सब संभाल लिया था. मां और पापा के परिवार वालों का तो रोरो कर हाल बेहाल था. पापा के अंतिम संस्कार के बाद जग्गी अंकल ने सब से गंभीर स्वर में कहा था, ‘जो चला गया उस के लिए रोने के बजाय जिन्हें वह पीछे छोड़ गया है, उन की जिंदगी फिर से पटरी पर लाने के लिए क्या करना है, उस पर शांति से सोचिए.’

‘सोचना क्या है, इन्हें हम अपने साथ ले जाएंगे,’ अमिता की सास ने कहा.

‘मैं भी यही सोच रही हूं. अब अमिता की मरजी है, जहां चलना चाहे, चले,’ अमिता की मां बोली. ‘मेरा कहीं जाने का सवाल ही नहीं उठता क्योंकि यहां मेरी स्थायी नौकरी है, निक्की का स्कूल है और हमारा अपना घर है. बीमे के पैसे से घर का लोन चुकता हो जाएगा और मेरे वेतन से हम मां बेटी का खर्च चल जाया करेगा,’ अमिता ने संयत स्वर में कहा.

‘फिर भी, छोटी बच्ची के साथ तुझे अकेले कैसे छोड़ सकते हैं?’ मां ने पूछा.

‘लेकिन फिलहाल आप न मिड टर्म में निक्की का स्कूल छुड़वा सकती हैं, न ही इतनी जल्दी अमिताजी की लगीलगाई नौकरी और न इस घर को बिकवा या किराए पर चढ़ा सकती हैं?’ अमिता के बोलने से पहले जग्गी ने पूछा, ‘बेहतर रहेगा कि अभी आप लोगों में से कोई बारीबारी इन के साथ रहे, मैं तो आताजाता रहूंगा ही. इस बीच इत्मीनान से कोई स्थायी हल भी ढूंढ लीजिएगा.’

‘जग्गी का कहना बिलकुल ठीक है,’’ अमिता के ससुर ने कहा. और सब ने भी उन का अनुमोदन किया.

निकिता की दादीनानी बारीबारी से उन के साथ रहने लगीं. जग्गी अंकल तो हमेशा की तरह आते रहते थे. पापा के बीमे, प्रौविडैंट फंड और अन्य विदेशों से पैसा निकलवाने में उन्होंने बहुत दौड़धूप की थी और उस रकम का निकिता के नाम से निवेश करवा दिया था. नानीदादी के रहने से और जग्गी अंकल के आनेजाने से पापा के जाने से कोई दिक्कत तो महसूस नहीं हो रही थी लेकिन जो कमी थी, वह तो थी ही. किसी तरह साल भी गुजर गया.

पापा की बरसी पर फिर सब लोग इकट्ठे हुए और उन्होंने जो फैसला किया उस से निकिता बुरी तरह टूट गई थी.

सब का कहना था कि जगदीश लाल से बढ़ कर अमिता और निकिता का कोई  हितैषी हो ही नहीं सकता. सो, वे मांबेटी को उन्हें ही सौंप रहे हैं यानी दोनों की शादी करवा रहे हैं. जगदीश लाल और अमिता ने जिस नाटकीय ढंग से सब की आज्ञा शिरोधार्य की थी उस से निकिता बुरी तरह बिलबिला उठी थी. वह चीखचीख कर कहना चाहती थी कि बंद करो यह नौटंकी, तुम दोनों तो कब से इस दिन के इंतजार में थे. आंखमिचौली तो पापा के सामने ही शुरू कर चुके थे.

पापा के दोस्त जगदीश लाल एक बहुराष्ट्रीय कंपनी के मार्केटिंग विभाग में काम करते थे. अकसर वे टूर पर उन के शहर में आते थे. पहले तो होटल में ठहरा करते थे, फिर पापा की जिद पर उन के घर पर ही ठहरने लगे. उन के आने से पापा तो खुश होते ही थे, निकिता को भी बहुत अच्छा लगता था क्योंकि अंकल उस के लिए हमेशा कुछ न कुछ ले कर आया करते थे. उस के साथ खेलते थे और होमवर्क भी करवा देते थे. शरारत करने पर डांटते भी थे जो निकिता को बुरा नहीं लगता था. लेकिन जगदीश लाल के आने पर सब से ज्यादा चहकती थीं मां. इंसान अपना गम तो किसी तरह छिपा लेता है मगर खुशी को स्वयं में समेटना शायद आसान नहीं होता, तभी तो मां ने एक दिन शीला आंटी के बगैर कुछ पूछे ही कहा था, ‘न जाने आजकल क्यों मैं बहुत तरोताजा महसूस कर रही हूं खुशी और उत्साह से भरी हुई.’

‘तो खुश रह, वजह ढूंढऩे की क्या जरूरत है?’ शीला आंटी ने लापरवाही से कहा.

लेकिन निकिता ने बताना चाहा था कि उसे वजह पता है, आजकल जगदीश लाल जो आए हुए हैं.

फिर मैनेजर बन कर अंकल की पोस्टिंग उन्हीं के शहर में हो गई थी. पापा के कहने पर कि ‘अब तो शादी कर ले’, अंकल ने कहा था, ‘करूंगा यार, मगर उम्र थोड़ी और बड़ी हो जाने पर ताकि बड़ी उम्र की औरत को अकेले रहते डर न लगे. मार्केटिंग का आदमी हूं, सो, शहर से बाहर जानाआना तो उम्रभर ही चलेगा.’

अंकल के आने के बाद मां का औफिस में देर तक रुकना भी कुछ ज्यादा ही बढ़ गया था. अकसर उन का फोन आता था, ‘मैं तो 8 बजे से पहले नहीं निकल पाऊंगी, आप मुझे लेने मत आओ, निक्की का होमवर्क करवा कर उसे समय पर खाना खिला दो. मैं कैसे भी आ जाऊंगी या ठीक समझो तो जगदीश जी से कह दो.’ जगदीश अंकल भी उन लोगों को दावत पर बुलाते रहते थे और तब मां उस के और पापा के पहुंचने से पहले ही औफिस से सीधे वहां पहुंच चुकी होती थीं. कई बार मां अचानक ही कहीं घूमने जाने का प्रोग्राम बना लेती थीं और वहां घूमते हुए जग्गी अंकल भी मिल जाते थे.

ऐसी छोटीछोटी कई बातें थीं जो तब तो महज इत्तफाक लगती थीं मगर अब सोचो तो लगता है कि पापा की आंखों में धूल झोंकी जा रही थी. जाने वह कब तक इस बारे में सोचती रहती कि मां के पुकारने पर उस की तंद्रा भंग हुई. ‘‘बाहर आओ निक्की, पापा आ गए हैं.’’

‘‘आज अनिता से फोन पर बात हुई थी. कह रही थी कि आधे रास्ते तक तो आए हुए ही हो, फिर मुझ से मिलने भी आ जाओ,’’ अमिता ने बताया.

‘‘बात तो सही है,’’ जगदीश ने कहा, ‘‘मौसी से मिलना है निक्की?’’ निकिता ने खुशी से सहमति में सिर हिलाया.

‘‘आप को छुट्टी मिल जाएगी?’’ अमिता ने पूछा.

‘‘टूर के दौरान छुट्टी लेना नियम के विरुद्ध है, कुछ दिनों बाद तुम्हें लिवाने के लिए छुट्टी ले कर आ सकता हूं. दिन का 7-8 घंटे का सफर है, एसी चेयर में आरक्षण करवा देता हूं, तुम दोनों आराम से चली जाना.’’

मौसी के बच्चे निकिता के समवयस्क थे. सो, उस का समय उन के साथ बड़े मजे में कट रहा था. लेकिन मौसी की आंखों से उस की उदासी छिपी न रह सकी. एक दोपहर जब अमिता सो रही थी, मौका देख कर उन्होंने पूछ ही लिया.

‘‘जग्गी का व्यवहार तेरे साथ कैसा है निक्की?’’

‘‘बहुत अच्छा. वे हमेशा ही मुझे बहुत प्यार करते हैं.’’

‘‘तो फिर तू खुश क्यों नहीं है, इतनी उदास क्यों रहती है?’’

‘‘पापा बहुत याद आते हैं मौसी.’’

‘‘वह तो स्वाभाविक ही है, उन्हें कैसे भुलाया जा सकता है.’’

‘‘लेकिन मां ने तो उन्हें भुला दिया है?’’

‘‘भुलाने का नाटक करती है बेचारी सब के सामने. हरदम रोनी सूरत बना कर कैसे रह सकती है?’’

‘‘रोनी सूरत बनाने का नाटक करती हैं,’’ निक्की फट पड़ी, ‘‘पापा की जिंदगी में ही उन की जग्गी अंकल के साथ लुक्काछिप्पी शुरू हो गई थी…’’ और उस ने धीरेधीरे अनिता को सब बता दिया.

‘‘मगर तेरे पापा की मृत्यु तो दुर्घटना ही थी न?’’

‘‘हां मौसी, वह तो मेरी आंखों के सामने ही हुई थी, उस के लिए तो किसी को दोष नहीं दे सकते लेकिन उस के बाद जो भी हुआ उस के लिए आप सब भी दोषी हैं.

आप सब ने ही तो मां की शादी जग्गी अंकल से करवा कर, पापा का अस्तित्व ही मिटा दिया उन की जिंदगी से.’’

अनिता सुन कर स्तब्ध रह गई. निक्की ने जो भी कहा उसे नकारा नहीं जा सकता था. लेकिन इस के सिवा कोई और चारा भी तो नहीं था. अकेले कैसे पालती अमिता निक्की को और अगर निक्की का जग्गी और अमिता के बारे में कहना सही है, तब तो उन लोगों ने समय रहते उन के रिश्ते पर सामाजिक मोहर लगवा कर परिवार की बदनामी होने को रोक लिया.

‘‘यह क्या कह रही है निक्की? अपने पापा की जीतीजागती धरोहर तू है न अमिता की जिंदगी में. कितने लाड़प्यार से पाल रहे हैं तुझे दोनों. और वैसे भी निक्की, तेरे पापा की यादों के सहारे जीना और तुझे पालना तो बहुत मुश्किल होता अकेली अमिता के लिए. याद है यहां पहुंचने के बाद तूने ही फोन पर जग्गी से कहा था कि तुम लोगों को लेने के लिए तो उसे आना ही पड़ेगा, तू अकेली अमिता के साथ सफर नहीं करेगी.’’

‘‘हां मौसी, हम दोनों को अकेली देख कर कुछ लोगों ने बहुत तंग किया था. रैक पर से सामान उतारने और रखने के बहाने बारबार हमारी सीट से सट कर खड़े हो जाते थे.’’

‘‘जब 7-8 घंटे के सफर में ही लोगों ने तुम्हारे अकेलेपन का फायदा उठाना चाहा तो जिंदगी के लंबे सफर में तो न जाने क्याक्या होता? मैं तुम्हें अपने पापा को भूलने को या उन के अस्तित्व को नकारने को नहीं कह रही निक्की, मन ही मन उन का नमन करो, उन से जीवन में आगे बढऩे की प्रेरणा मांगो, उन से उन की प्रिय अमिता और जिगरी दोस्त जग्गी को खुश करने की शक्ति मांगो. उन दोनों की खुशी के लिए तो तुम्हारे पापा कुछ भी कर सकते थे न?’’ अनिता ने पूछा.

‘‘जी, मौसी.’’

‘‘और उन्हीं दोनों को तू दुखी रखती है उदास रह कर. जानती है निक्की, अपने पापा के लिए तेरी सब से उपयुक्त श्रद्धांजलि क्या होगी?’’

‘‘क्या मौसी?’’ निक्की ने उतावली हो कर पूछा.

‘‘खुश रह कर अमिता और जग्गी को भी खुशी से जीने दे.’’

‘‘जी, मौसी,’’ निकिता ने सिर झुका कर कहा.

बेटा, पिता के मरने के बाद बच्चों से ज्यादा उन की कमी मां को खलती है. तुम तो 5-7 साल में बड़ी हो कर पर लगा कर उड़ जाओगी, पता है तुम्हारी मां अगले 30-40 साल कैसे गुजारेंगी? क्या तुम चाहती हो कि वे अकेले रहें, तुम्हें रातबिरात परेशान करें. हर समय अपनी बीमारियों का रोना रोएं? जग्गी अंकल हैं तो तुम्हें भरोसा है न, कि मां की देखभाल कोई कर रहा है. अपने साथी को खो चुकी मां को यह गिफ्ट तो दे ही सकती है तू.

 प्रमोशन: भाग 1- क्या बॉस ने सीमा का प्रमोशन किया?

सीमा ने औफिस से ही मोबाइल पर अपनी प्रमोशन की खबर अपने पति राजीव को दे दी. उस ने यह बात जब घर वालों को बताई, तो पूरे घर में खुशी और उत्साह की लहर दौड़ गई.

‘‘कितना फर्कपड़ेगा उस की पगार में?’’ राजीव के पिता रमाकांत की आंखों में लालच भरी चमक पैदा हुई.

‘‘मेरे खयाल से क्व30-40 हजार का फर्क पड़ना चाहिए. भाभी आखिर एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में काम करती है,’’ उन के सवाल का जवाब बड़े के बजाय छोटे बेटे संजीव ने उत्साहित अंदाज में दिया.

इस के बाद कुछ देर तक बैठक में खामोशी छाई रही. फिर एकएक कर सब ने अपने मन की इच्छाओं को शब्द देने शुरू किए.

‘‘अब मु?ो कोटा में एडमिशन करा देना, भैया,’’ सविता ने बड़े अपनेपन से राजीव को अपनी इच्छा बताई.

‘‘मेरी मोटरसाइकिल ‘लिस्ट’ में सब से ऊपर रहेगी,’’ संजीव का स्वर ?ागड़ालू सा हो गया, ‘‘मैट्रो में धक्के खातेखाते मैं तंग आ

गया हूं.’’

‘‘ये सब खर्चे बाद में होंगे. पहले छत पर

2 कमरों का सैट बनेगा,’’ रमाकांत की सख्त आवाज ने सविता और संजीव की आंखों में निराशा और नाराजगी के भाव पैदा कर दिए.

‘‘हमें अपनी गांठ में पैसा बचा कर भी रखना चाहिए,’’ राजीव की मां सुचित्रा ने सब को सम?ाया, ‘‘कल को सविता की शादी करनी है हमें. इस के नाम से कुछ पैसा हर महीने बैंक में जरूर जमा होगा.’’

राजीव ने अपने मन की इच्छा मुंह से नहीं निकाली. वह सरकारी स्कूल में रसायनविज्ञान पढ़ाता था कोई छोटीमोटी फैक्टरी लगाने या कोचिंग इंस्टिट्यूट खोलने की चाह मन में वर्षों से मौजूद थी. सीमा की बढ़ी पगार के बल पर अब बैंक से लोन मिल जाएगा. उस पैसे से वह छत पर 2 के बजाय 4 कमरे बनवाना चाहता था. फालतू बने कमरों में पहले कोचिंग सैंटर खोलने की इच्छा मन में पलपल अपनी जड़ें मजबूत करने लगी पर राजीव ने इस की चर्चा सब के समाने नहीं करी.

सिर्फ 4 वर्ष की उम्र वाले सीमा के बेटे रोहित को अपनी मां की बढ़ी पगार में

कोई दिलचस्पी नहीं थी और वह कार्टून चैनल देखने में मस्त रहा.

सीमा शाम को औफिस से घर पहुंची, तो उस का जोरदार स्वागत हुआ. औनलाइन चाइनीज और्डर किया गया. ड्राइंगरूम में घंटेभर तक चली पार्टी के दौरान सभी ने सीमा के सामने अपनेअपने मन की इच्छा व्यक्त कर दी.

घर के सभी सदस्य इतने ज्यादा उत्साहित और प्रसन्न थे कि किसी को भी सीमा की आंखों में तैरते तनाव और चिंता के भाव नजर नहीं आए.

सीमा ने अपने मन की परेशानी कुछ देर बाद अपने शयनकक्ष के एकांत में राजीव को बताई.

‘‘मैं ने प्रमोशन लेना अभी स्वीकार नहीं किया है. परसों सोमवार को मु?ो ‘हां’ या ‘न’ का पक्का जवाब देना है,’’ सीमा थके से अंदाज में पलंग पर बैठ गई.

‘‘आज ही ‘हां’ कहने में तुम्हें क्या परेशानी थी?’’ राजीव ने माथे में बल डाल कर पूछा.

‘‘अगर मैं ‘हां’ कहती हूं, तो मु?ो यह शहर छोड़ कर लखनऊ जाना पड़ेगा. वहां खुल रही नई ब्रांच में भेजा जा रहा है मु?ो.’’

‘‘यह तो गलत बात है,’’ राजीव फौरन गुस्सा हो उठा, ‘‘तुम शादीशुदा और 4 साल के बच्चे की मां हो या इन दोनों तथ्यों की जानकारी नहीं है तुम्हारे आला अफसरों को?’’

‘‘है, पर आजकल ऐसी बातों को महत्त्व नहीं दिया जाता है, राजीव. अगर मु?ो प्रमोशन चाहिए तो लखनऊ जाना पड़ेगा.’’

‘‘अगर तुम अभी प्रमोशन लेने से इनकार कर दो तो क्या कुछ समय बाद तुम्हें यहीं प्रमोशन मिल जाएगी?’’

‘‘मेरे इनकार करने पर प्रमोशन 2 साल को टल जाएगी. उस के बाद भी यही प्रमोशन होगी, इस की कोई गारंटी नहीं है.’’

‘‘यह प्रमोशन तुम्हारे लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है न?’’ कुछ पलों की खामोशी के बाद राजीव ने उस के चेहरे को ध्यान से देखते हुए पूछा.

‘‘यह भी कोई पूछने की बात है,’’ सीमा उत्तेजना का शिकार हो गई, ‘‘पूरी लगन और मेहनत से काम करने का इनाम है मेरे लिए यह प्रमोशन. सोमवार को ‘न’ कहते हुए मु?ा लगता है कि मैं रो ही पड़ूंगी.’’

‘‘और अगर ‘हां’ कहती हो तो बहुत सी परेशानियां फौरन सामने आ खड़ी होंगी,’’ राजीव गंभीर नजर आने लगा.

‘‘सब से बड़ी दिक्कत तो यह आएगी कि आप सरकारी नौकरी छोड़ नहीं सकते और सब से दूर अकेले रहना मेरे बस का बिलकुल नहीं है. नन्हे रोहित में तो मेरी जान बसती है.’’

‘‘और उस के पिता में?’’ राजीव ने शरारती अंदाज में पूछा.

‘‘तुम तो मेरी जान हो ही,’’ भावुक सीमा उठ कर राजीव के गले से आ लगी.

‘‘जो होना है हो जाएगा. तुम टैंशन मत लो,’’ राजीव ने प्यार से उस का माथा चूमा और शयनकक्ष से बाहर निकल आया.

 

स्वस्ति: स्वाति ने स्वस्ति को कौन सा पाठ पढ़ाया

‘‘स्वाति दीदी और नकुल जीजाजी आ रहे हैं. आप उन्हें जा कर ले आना. मेरे औफिस में एक प्रतिनिधि मंडल आ रहा है. मेरा जाना संभव नहीं हो सकेगा,’’ स्वस्ति अपने पति सुकेतु से बोली.

‘‘मैं नहीं जा सकूंगा. फोन कर दो. टैक्सी कर के आ जाएंगे,’’ सुकेतु ने स्वयं में डूबे हुए उत्तर दिया.

‘‘विवाह के बाद पहली बार हमारे घर आ रहे हैं, बुरा मान जाएंगे. आप की दीदी आई थीं, तो आप सप्ताह भर घर से काम करते रहे थे. अब 1 दिन भी नहीं कर सकते?’’

‘‘दीदी हमारी सुखी गृहस्थी देखने आई थीं. हम कितने सुखी दिखे कह नहीं सकता, पर यह अवश्य कह सकता हूं कि वे काफी निराश लग रही थीं. मैं ने तो तभी सोच लिया था जैसे हम अपना कार्य स्वयं करते हैं, अपना पैसा अलग रखते हैं, मित्र अलग हैं, वैसे ही संबंधी भी

अलग ही रहने चाहिए. है कि नहीं?’’ सुकेतु लापरवाही से बोला तो स्वस्ति खून का घूंट पी कर रह गई.

6 वर्षों तक प्रेम की पींगें बढ़ाने के बाद सुकेतु और स्वस्ति का विवाह हुआ था. दोनों के विवाह को 1 वर्ष भी पूरा नहीं हुआ था पर विवाहपूर्व का प्रगाढ़ प्रेम कब का काफूर हो चुका था. दोनों एकदूसरे को नीचा दिखाने का कोई अवसर हाथ से नहीं जाने देते थे. मधुयामिनी के समय ही दोनों में इतना झगड़ा हुआ था कि पांचसितारा होटल के प्रबंधक ने बड़ी शालीनता से दोनों को होटल छोड़ कर जाने की सलाह दे डाली थी.

‘‘हम ने पूरे सप्ताह के लिए अग्रिम किराया दे रखा है,’’ स्वस्ति क्रोधित स्वर में बोली जबकि सुकेतु चुप खड़ा देखता रहा.

‘‘आप ठीक कह रही हैं महोदया. पर हम अपने दूसरे अतिथियों को नाराज करने का खतरा नहीं उठा सकते. रही आप के अग्रिम किराए की बात, तो आप ने हमारे फर्नीचर और कपप्लेटों पर जो कृपा की है उस का हरजाना तो चुकाना ही पड़ेगा. शेष रकम हम लौटा देंगे,’’ उत्तर मिला.

दोनों चुपचाप अपने कक्ष में चले गए थे और अपने आगे के कार्यक्रम पर विचार करना चाहते थे. पर विचार करते तो कैसे, दोनों के बीच अबोला जो पसर गया था.

सुकेतु सोफे पर ही पसर गया था. पर आंखों से नींद कोसों दूर थी. स्वस्ति नर्मगुदगुदे बिस्तर पर भी करवटें बदलती रही थी. दोनों के बीच एक शब्द का भी आदानप्रदान नहीं हुआ था.

अगले दिन हालचाल जानने के लिए दोनों के मातापिता के फोन आए तो दोनों में स्वत: ही बोलचाल हो गई थी. किसी तरह दोनों ने वह समय गुजारा था, क्योंकि वापसी के टिकट पहले से ही बुक थे. अत: पहले जाना संभव नहीं था.

कुछ औपचारिकताओं के लिए उन्हें सुकेतु के मातापिता के यहां रुकना पड़ा था. दोनों के उतरे चेहरे देख कर सुकेतु की मां का माथा ठनका था.

‘‘क्या हुआ? कोई समस्या है क्या? तुम दोनों ही बड़े तनाव में लग रहे हो?’’ थोड़ा सा एकांत मिलते ही उन्होंने पूछ लिया था.

‘‘मां समझ में नहीं आता, क्या कहूं, क्या नहीं? लगता है मैं अपने जीवन की सब से बड़ी भूल कर बैठा हूं. हम दोनों का साथ रहना संभव नहीं लगता.’’

‘‘क्या कह रहे हो? पिछले 6 वर्षों से तो तुम उस के दीवाने बने घूम रहे थे. याद है मैं ने कितना समझाया था कि पहले अपनी छोटी बहन का विवाह हो जाने दो, फिर तुम्हारा विवाह करेंगे पर तब तुम ने एक नहीं सुनी थी.’’

‘‘ठीक कह रही हो मां. सच पूछो तो स्वस्ति की कलई तो अब खुली है. लगता ही नहीं है कि कभी हम दोनों एकदूसरे के प्यार में पागल थे,’’ सुकेतु बुझे स्वर में बोला था.

‘‘क्या सोचा था क्या हो गया. सोचा था तुम दोनों खुश रहोगे तो हम भी आनंदित रहेंगे पर यहां तो सब कुछ उलटपुलट होता दिख रहा है. किसी ने ठीक ही कहा है, सोना जानिए कसे-मनुष्य जानिए बसे. दुख तो इस बात का है कि तुम

6 वर्षों में भी स्वस्ति को नहीं समझ पाए.’’

‘‘इन छोटी बातों को दिल से नहीं लगाया करते, मां. थोड़े दिन और देखते हैं. ऐसा ही रहा तो अलग हो जाएंगे.’’

‘‘खबरदार, जो कभी फिर ऐसी बात मुंह से निकाली. हमारे खानदान में आज तक किसी ने तलाक की बात जबान से नहीं निकाली. इधर तुम्हारी शादी को 4 दिन हुए हैं और तुम लगे अलग होने की बातें करने,’’ मां बिगड़ गई थीं.

‘‘मैं भी तुरंत अलग नहीं होने जा रहा हूं. हमारा प्रेम 6 वर्ष पुराना है. विवाह कम से कम 6 माह तो चलना ही चाहिए. हर परिवार में कोई न कोई कार्य पहली बार अवश्य होता है. यों भी विवाह का अर्थ आजीवन कारावास तो है नहीं कि हर हाल में साथ निभाना ही पड़ेगा,’’ सुकेतु अनमने स्वर में बोल कर चुप हो गया था पर मां के चेहरे की उदासी उसे देर तक झकझोरती रही थी.

आज स्वस्ति से बहस होने के बाद मां से बात करने की तीव्र इच्छा हुई तो उस ने फोन मिला ही लिया.

‘‘क्या बात है सुकेतु, आज मां की याद कैसे आ गई?’’ मां उस का स्वर सुनते ही पहचान गई थीं.

‘‘क्या कह रही हैं मां. याद तो उस की आती है, जिसे भुला दिया गया हो. आप तो हर समय साए की तरह मेरे साथ रहती हैं.’’

‘‘अच्छा लगा सुन कर और सुनाओ क्या चल रहा है?’’

‘‘कल स्वस्ति की दीदी और जीजाजी पधार रहे हैं. काफी खुश लग रही है. मुझ से कहने लगी कि मैं उन्हें जा कर ले आऊं. उसे औफिस में काम है. मैं ने तो साफ कह दिया तुम्हारी दीदी है तुम जानो. मैं भी बहुत व्यस्त हूं,’’ और सुकेतु हंस दिया.

‘‘क्या हो गया है तुम्हें, सुकेतु? तुम तो पड़ोसियों तक की मदद करने को भी तैयार रहते थे… अतिथि हमारेतुम्हारे नहीं होते. वे तो सब के साझे होते हैं,’’ मां ने समझाना चाहा.

‘‘दीदी भी आई थीं न मां? तब स्वस्ति ने ऐसा व्यवहार किया था जैसे वे कोई अजनबी हों. मैं उस बात को चाह कर भी नहीं भुला पाया.’’

‘‘घरगृहस्थी में ईंट का जवाब पत्थर से नहीं देते बेटे. तुम दोनों को जीवन साथ बिताना है. थोड़ी समझदारी दिखाओगे तो राह आसान हो जाएगी.’’

‘‘मां, आप को मेरी ही गलती नजर आ रही है. सही जवाब नहीं देने का अर्थ होगा हार स्वीकार कर लेना. आप तो जानती ही हैं कि हार स्वीकार करना मेरे स्वभाव में है ही नहीं.’’

‘‘मैं ने हारजीत की तरह कभी सोचा ही नहीं. जीवन कोई युद्ध तो है नहीं. फिर भी मैं यह तुम्हारे विवेक पर छोड़ती हूं. और सुनाओ कैसा चल रहा है?’’

‘‘सब ठीकठाक है. आप और पापा कुछ दिनों के लिए यहां आ जाओ न. अच्छा लगेगा.’’

‘‘सोचेंगे, तुम्हारी छोटी बहन नंदिनी का विवाह तय हो गया तो शायद तुम लोगों को ही आना पड़े.’’

स्वस्ति समानांतर फोन पर दोनों का वार्त्तालाप सुन रही थी. उस की आंखों में अपनी मौम की छवि तैर गई, जिन्होंने उस के मनमस्तिष्क में यह कूटकूट कर बैठा दिया था कि अपने हितों की रक्षा के लिए उसे शुरू से ही सजग रहना होगा ताकि वर पक्ष सदा डरासहमा सा रहे. अधिक चूंचपड़ करें तो पुलिस की धमकी देने से भी पीछे मत रहना. दुनिया देखी है मैं ने. तुम दोनों को मैं ने कैसी मुसीबतों में पाला है, यह मैं ही जानती हूं. तुम्हारे पापा और उन के परिवार ने तो मेरा जीवन नर्क बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी. पर बाद में वे भी समझ गए थे कि मैं दूसरी ही मिट्टी की बनी हूं. उन्होंने उसे समझाया था.

स्वस्ति के लिए मां की हर बात अटल सत्य होती थी. सुकेतु से उस का प्रेमप्रसंग भी तभी आगे बढ़ा था जब मौम ने स्वीकृति दी थी.

सुकेतु और उस की मां की बातें सुन कर स्वस्ति कुछ सोचने को विवश अवश्य हुई थी,

पर वह अपनी भूल स्वीकारने को तैयार नहीं थी. अहं जो आड़े आ रहा था. वह केवल मन ही मन सोचती रही कि शायद सुकेतु का हृदय परिवर्तन हो जाए और वह अपनी मां की बात मान ले. पर सुकेतु ने ऐसा कोई मंतव्य प्रकट नहीं किया. हार कर उसे स्वाति को फोन करना ही पड़ा कि दोनों की अतिव्यस्तता के कारण वे उन्हें लेने नहीं आ सकेंगे. अत: वे टैक्सी कर के आ जाएं. उस ने अपनी आया को भी भलीभांति समझा दिया कि मेहमानों का किस प्रकार विशेष ध्यान रखना है. फिर भी दिन भर स्वस्ति चिंता में डूबतीउतराती रही.

पता नहीं स्वाति क्या सोच रही होगी. विवाह के बाद पहली बार आ रही है वह भी नकुल जीजाजी के साथ. वह जब मुंबई में पढ़ रही थी तो हर सप्ताह बड़े अधिकार से स्वाति के यहां पहुंच जाती थी. स्वाति ने भी उस के स्वागतसत्कार में कभी कोई कमी नहीं की. स्वाति को न केवल खाना खिलाने का शौक था, पाक कला में भी उसे दक्षता प्राप्त थी. नित नए पकवान बनाना उसे खूब भाता था. स्वस्ति की विचारधारा अविरल बहती जा रही थी.

उधर स्वस्ति को रसोईघर में घुसने के नाम से ही डर लगता था. फिर भी उस ने फ्रिज को फलों और सब्जियों से भर दिया था. उसे पता था नकुल को बाहर खाने का शौक नहीं है. इसीलिए वह लगभग हर तरह की सामग्री खरीद लाई थी. घर पहुंचते ही समवेत स्वर में खिलखिलाहट के स्वर सुन कर उस के होंठों पर भी मुसकान तैर गई. स्वाति जहां हो वहां मस्ती का साम्राज्य होना स्वाभाविक है.

‘‘क्या बात है? तुम सब इतना खिलखिला कर क्यों हंस रहे हो? मुझे भी तो बताओ. माफ कर दो, दीदीजीजाजी, मैं चाह कर भी छुट्टी नहीं ले सकी. पूरे दिन मन इतना तड़पता रहा कि पूछो मत. मुझे अपने बौस पर बहुत गुस्सा आ रहा था. तुम्हीं बताओ दीदी हम नौकरी क्यों करते हैं? अपना और अपनों का खयाल रखने के लिए ही न?’’

‘‘स्वस्ति इतना दुखी होने की आवश्यकता नहीं है. हम क्या पराए हैं कि तुम्हें क्षमा मांगनी पड़े? वैसे भी सुकेतु ने हमारा इतना स्वागतसत्कार किया कि तुम्हारी याद तक नहीं आई,’’ नकुल ने हंसते हुए कहा.

‘‘रहने दो न. क्यों चिढ़ाते हो बेचारी को. दिन भर खट कर घर लौटी है,’’ स्वाति ने टोका.

‘‘लो भला, मैं क्यों चिढ़ाने लगा तुम्हारी प्यारी बहन को? मैं तो केवल यह कहने का प्रयत्न कर रहा हूं कि हमारे कारण स्वस्ति को किसी अपराधबोध से पीडि़त होने की आवश्यकता नहीं है. हम तो बड़े मजे में हैं.’’

‘‘जानती हूं, मेरी गैरमौजूदगी में सब प्रसन्न ही रहते हैं. शायद मेरा चेहरा ही ऐसा है, जिसे देखते ही सब दुखी हो जाते हैं,’’ स्वस्ति रोंआसे स्वर में बोली.

‘‘इस का उत्तर तो सुकेतु ही दे सकते हैं, क्योंकि हम तो आज ही आए हैं. अत: तुम्हें देखते ही दुखी होने का प्रश्न ही नहीं उठता. वैसे भी हम तुम्हारी गैरमौजूदगी में प्रसन्न क्यों होने लगे भला?’’ नकुल ने ठहाका लगाया.

‘‘मैं ने तो ऐसे प्रश्नों के उत्तर देने कब से बंद कर दिए हैं. ऐसी बातों को तो मैं एक कान से सुन कर दूसरे से निकाल देता हूं,’’ सुकेतु शांत स्वर में बोला.

‘‘वाह, तुम तो यह कला बड़ी जल्दी सीख गए. हम तो अब तक नहीं सीख पाए,’’ नकुल फिर हंस दिया.

‘‘देख लिया न दीदी. जो मेरी बातों को एक कान से सुन कर दूसरे से निकाल देता है उस से कैसा संवाद कायम हो सकता है,’’ स्वस्ति तीखे स्वर में बोली.

‘‘स्वस्ति तुम तो गंभीर हो गईं. ऐसी बातों को सहजता से लेना सीखो. सुकेतु का वह अर्थ नहीं है जो तुम लगा रही हो. वह तो केवल मजाक कर रहा है,’’ स्वाति ने समझाना चाहा.

‘‘मैं ने तो कब का कहनासुनना छोड़ दिया है दीदी. मौम ने मुझे पहले ही सावधान किया था कि हमारे और सुकेतु के परिवारों की संस्कृति में जमीनआसमान का अंतर है पर मैं ने ही ध्यान नहीं दिया था.’’

‘‘समझी, तो आजकल मौम की सलाह पर अमल किया जा रहा है,’’ स्वाति हंसी.

‘‘इस में आश्चर्य की क्या बात है. मां से अधिक मेरा भलाबुरा और कौन सोचेगा? सच पूछो तो वे मेरी मां होने के साथसाथ मेरी मित्र तथा मार्गदर्शक भी हैं.’’

‘‘जान कर प्रसन्नता हुई. हमारा कोई भाई नहीं है न. इसीलिए शायद तुम श्रवण कुमार बनने का प्रयत्न कर रही हो.’’

‘‘मौम के लिए मेरे मन में बहुत सम्मान है, आवश्यकता पड़ने पर मैं उन के लिए कुछ भी कर सकती हूं. पर अभी प्रश्न वह नहीं है. अभी वे मेरी शादी को बचाने में लगी हैं. आप विश्वास नहीं करोगी कि शादी के बाद सुकेतु कितना बदल गया है. हर बात में अपनी ही चलाता है. मैं तो जैसे कुछ हूं ही नहीं. मौम ने समझाया अभी से नकेल कस कर नहीं रखी तो जीवन भर पैर की जूती बना कर रखेगा. अत: अभी से सावधान हो जाओ. सावधानी हटी दुर्घटना घटी.’’

‘‘क्या कह रही है? यह सब तुझ से मौम ने कहा? मुझे तो विश्वास ही नहीं हो रहा. पर तुझे मौम से सुकेतु की शिकायत करने की क्या आवश्यकता थी?’’

‘‘मैं ने शिकायत नहीं की थी. मौम ने ही खोदखोद कर पूछा था… एक मां अपनी बेटी की चिंता नहीं करेगी तो कौन करेगा?’’

‘‘मैं मौम की आलोचना नहीं कर रही. उन की हम दोनों के लिए चिंता स्वाभाविक है, पर पतिपत्नी का संबंध बहुत नाजुक होता है. इस में किसी तीसरे का हस्तक्षेप घातक हो सकता है.

तुम अब छोटी बच्ची नहीं हो. अपने निर्णय स्वयं लेने सीखो.’’

‘‘छोड़ो ये सब दीदी. तुम बताओ घर कैसे पहुंची? घर पहुंच कर कोई परेशानी तो नहीं हुई?’’

‘‘लो भला परेशानी क्यों होने लगी? सुकेतु हमें एअरपोर्ट से घर ले आया. हमारी खूब खातिरदारी की. हमारा दिन तो खूब अच्छा गुजरा. तुम्हारी कमी अवश्य खली. तुम भी आ जातीं, तो चार चांद लग जाते.’’

‘‘1 दिन और दीदी उस के बाद तो पूरे 4 दिन की छुट्टी ली है मैं ने. खूब घूमेंगेफिरेंगे. मैं ने कई अच्छे रेस्तरां ढूंढ़ रखे हैं. कल के बाद घर में खाना बंद. ऐसेऐसे व्यंजन खिलाऊंगी तुम्हें कि मन प्रसन्न हो जाएगा.’’

‘‘क्या कह रही है स्वस्ति. नकुल को तो बाहर का खाना पसंद ही नहीं है. मुझे भी नए पकवान बनाने का बड़ा शौक है. इस संबंध में हम दोनों की खूब पटरी बैठती है.’’

‘‘यही तो समस्या है. अधिकतर पुरुष यही चाहते हैं कि पत्नी दिन भर रसोई में घुसी रहे. मुझे तो मौम ने पहले ही सावधान कर दिया था. वे नहीं चाहतीं कि मैं भी तुम्हारी तरह दिन भर खाना पकाती रहूं. हम दोनों तो अपना नाश्ताखाना सब स्वयं बना लेते हैं.’’

‘‘सुकेतु को भी खाना पकाने का शौक है क्या?’’

‘‘बहुत शौक है दीदी. मैं ही प्रोत्साहित नहीं करती. इस के कई नुकसान हैं. एक तो रोज कुछ न कुछ खरीदना पड़ता है. फिर रसोई गंदी हो जाती है. करते रहो सफाई. इसीलिए तो मौम कहती हैं कि पति की आदत खराब मत करो वरना जीवन भर पछताना पड़ेगा. दीदी एक राज की बात बताऊं?

‘‘बताओ, रोका किस ने है?’’

‘‘पिछले 1 वर्ष से हमारी गैस खत्म नहीं हुई है. गैस एजेंसी वालों ने सोचा कि हम यहां रहते ही नहीं हैं. अत: हमारा कनैक्शन ही हटा दिया था,’’ और फिर दोनों बहनें खिलखिला कर हंस दीं.

‘‘मौम ने यह भी सिखाया है क्या?’’

‘‘यही समझ लो. शादी के बाद जीवन कैसे बिताना है, मुझे तो कुछ पता ही नहीं था. सब कुछ मौम ने ही सिखाया. वे तो यह भी कहती हैं कि पति को चुस्तदुरुस्त रखना है तो किचन से दूर रहना सीखो वरना खूब खाखा कर फूल जाएंगे.’’

‘‘इसीलिए मौम ने पापा को घर और जीवन दोनों से ही निकाल फेंका,’’ स्वाति के स्वर की कड़वाहट से स्वस्ति चौंक गई.

‘‘क्या कह रही हो दीदी? मुझे तो अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा?’’

‘‘नहीं कुछ नहीं, यों ही मेरे मुंह से निकल गया था.’’

‘‘कुछ तो है जिसे तुम मुझ से छिपा रही हो… तुम्हें बताना ही पड़ेगा.’’

‘‘इस में छिपाने जैसा कुछ नहीं है. मौम ने वही किया जो करने की सीख वे तुम्हें दे रही हैं. तुम बहुत छोटी थीं तब. पर मुझे सब अच्छी तरह याद है. पापा अच्छा कमाते थे. कुछ दिनों तक घर में कुक भी था पर मौम न स्वयं कुछ पकाती थीं न उसे पकाने देती थीं. हार कर उसे हटा दिया था पापा ने. मेरा बचपन तो केक, डबलरोटी, पिज्जा तथा बाहर से लाए अन्य खाद्यानों को खाते ही बीता. कभीकभी पापा पकाया करते थे तो मैं भी उन के साथ हो लेती. शायद तभी से मुझे खाना पकाने का शौक लगा.’’

‘‘मुझे तो पापा का चेहरा भी ठीक से याद नहीं है,’’ स्वस्ति सोच में डूब गई.

‘‘तुम्हें कैसे याद होगा, नन्ही बच्ची थीं तुम. मैं भी 10 वर्ष की थी जब मांपापा अलग हो गए थे. मैं कई दिनों तक रोती रही थी. पर किसी को मुझ पर दया नहीं आई थी. मैं तो पापा के साथ रहना चाहती थी पर मां ने अनुमति नहीं दी. कुछ दिनों तक पापा स्कूल में मिलने आते थे, मुझे कुछ पैसे और खिलौने भी दे जाते थे. मां को पता लगा तो स्कूल जा कर उन के मुझे से मिलने पर रोक लगवा दी. उन्हें लगता था कि पापा मुझे उठा कर ले जाएंगे. तब से मन में मां के प्रति ऐसी उदासीनता घर कर गई है कि चाह कर भी मैं उन्हें कभी प्यार नहीं कर सकी. मां भी समझ गई थीं. इसीलिए मुझे होस्टल में डाल कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली थी.’’

‘‘खूब याद है. तुम केवल छुट्टियों में घर आती थीं. तब हम दोनों कितनी मस्ती किया करते थे.’’

‘‘तेरे लिए ही तो आया करती थी मैं. मां के पास तो हमारे लिए समय ही कहां था.’’

‘‘शायद इसीलिए मां ने मुझे भी होस्टल में डाल दिया था. तुम्हारे कालेज जाने से पहले हम दोनों साथ में कितनी मस्ती किया करते थे. पर तुम्हारे जाने के बाद तो न स्कूल में मन लगता था न घर में.’’

‘‘पता है, हम दोनों का बचपन घोर एकाकीपन में बीता. मां को भी क्या मिला. उन के तथाकथित मित्र 1-1 कर के दूर चले गए. अब तो रतन अंकल को छोड़ कर शायद ही कोई उन की खोज खबर लेता हो,’’ स्वाति का स्वर बेहद उदास था.

‘‘नाम मत लो रतन अंकल का. हमारे परिवार की बरबादी में उन का बड़ा हाथ है,’’ स्वस्ति एकाएक क्रोधित हो उठी.

‘‘अपनी समस्याओं के लिए दूसरों को दोषी ठहराना छोड़ दो मेरी प्यारी बहना. अभी तो अपना घर संभालो. तुम्हारा घर टूटा तो मुझे जरा भी अच्छा नहीं लगेगा.’’

‘‘तुम्हें क्या लगता है सारा दोष मेरा ही है?’’

‘‘बहन हूं तुम्हारी, झूठ नहीं बोलूंगी. दोष किस का है यह नहीं कहूंगी, पर अपनी गृहस्थी को केवल तुम ही बचा सकती हो. यह मैं अवश्य कहूंगी.’’

‘‘माना दोनों बहनें बहुत दिन बाद मिली हैं, पर क्या आज रतजगा है?’’ तभी हंसते हुए नकुल ने प्रवेश किया.

‘‘मुझे लगा आप दोनों फिल्म देख रहे हैं. हमारी सुध ही कहां थी आप को,’’ स्वाति हंसी.

‘‘फिल्म तो कब की समाप्त हो गई है. अब तो सोने जा रहे हैं हम.’’

‘‘चलो, हम भी सोते हैं स्वस्ति भी थकी हुई है,’’ कह स्वाति उठ खड़ी हुई.

पर स्वस्ति की आंखों से नींद कोसों दूर थी.

स्वाति और नकुल ठंडी हवा के झोंके की तरह आए थे. 1 सप्ताह घूमफिर कर चले गए. उन के जाते ही घर में पुन: सन्नाटा पसर गया.

एक दिन सुकेतु हमेशा की तरह अपने लैपटौप में डूबा था कि तभी स्वस्ति आ

कर उस के गले में बांहें डाल कर झूल गई. सुकेतु हैरान था. ऐसे प्रेमपूर्ण स्पर्श को तो वह लगभग भूल ही चुका था.

‘‘चलो खाना खा लें. ठंडा हो रहा है.’’

सुकेतु मेज पर रखी सामग्री को देख कर हैरान रह गया. फिर पूछा, ‘‘कहां से मंगाया है ये सब?’’

‘‘मंगाया नहीं है मैं ने खुद बनाया है. ऐसा खाना बाजार में कहां मिलता है?’’ कह स्वस्ति मुसकराई, उस ने लाइट बंद कर के सुगंधित मोमबत्ती जला दी थी, जिस की सुगंध पूरे कक्ष में फैल गई थी.

‘‘काश, स्वाति दीदी और पहले आ जातीं,’’ सुकेतु बोला. स्वस्ति बोली कुछ नहीं थी पर चेहरे के भाव बता रहे थे कि वह भी मन ही मन स्वाति को धन्यवाद दे रही थी.

वह बेमौत नहीं मरता: एक कठोर मां ने कैसे ले ली बेटे की जान

बड़बड़ा रही थीं 80 साल की अम्मां. सुबहसुबह उठ कर बड़बड़ करना उन की रोज की आदत है, ‘‘हमारे घर में नहीं बनती यह दाल वाली रोटी, हमारे घर में यह नहीं चलता, हमारे घर में वह नहीं किया जाता.’’ सुबह 4 बजे उठ जाती हैं अम्मां, पूजापाठ, हवनमंत्र, सब के खाने में रोकटोक, सोनेजागने पर रोकटोक, सब के जीने के स्तर पर रोकटोक. पड़ोस में रहती हूं न मैं, और मेरी खिड़की उन के आंगन में खुलती है, इसलिए न चाहते हुए भी सारी की सारी बातें मेरे कान में पड़ती रहती हैं.

अम्मां की बड़ी बेटी अकसर आती है और महीना भर रह जाती है. घूमती है अम्मां के पीछेपीछे, उन का अनुसरण करती हुई.

आंगन में बेटी की आवाज गूंजी, ‘‘अम्मां, पानी उबल गया है अब पत्ती और चीनी डाल दूं?’’

‘‘नहीं, थोड़ा सा और उबलने दे,’’ अम्मां अखबार पढ़ती हुई बोलीं.

मुझे हंसी आ गई थी कि 60 साल की बेटी मां से चाय बनाना सीख रही थी. अम्मां चाहती हैं कि सभी पूरी उम्र उन के सामने बड़े ही न हों.

‘‘हां, अब चाय डाल दे, चीनी और दूध भी. 2-3 उबाल आने दे. हां, अब ले आ.’’

अम्मां की कमजोरी हर रोज मैं महसूस करती हूं. 80 साल की अम्मां नहीं चाहतीं कि कोई अपनी इच्छा से सांस भी ले. बड़ी बहू कुछ साल साथ रही फिर अलग चली गई.

बेटे के अलग होने पर अम्मां ने जो रोनाधोना शुरू किया उसे देख कर छोटा लड़का डर गया. वह ऐसा घबराया कि उस ने अम्मां को कुछ भी कहना छोड़ दिया.

दुकान के भी एकएक काम में अम्मां का पूरा दखल था. नौकर कितनी तनख्वाह लेता है, इस का पता भी छोटे लड़के को नहीं था. अम्मां ही तनख्वाह बांटतीं.

छोटे बेटे का परिवार हुआ. बड़ी समझदार थी उस की पत्नी. जब आई थी अच्छे खातेपीते घर की लड़की थी लेकिन अब 18 साल में एकदम फूहड़गंवार बन कर रह गई है.

अम्मां बेटी के साथ बैठ कर चुहल करतीं तो मेरा मन उबलने लगता. गुस्सा आता मुझे कि कैसी औरत है यह. कभी उन के घर जा कर देखो तो, रसोई में वही टीन के डब्बे लगे हैं जिन पर तेल और धुएं की मोटी परत चढ़ चुकी है. बहू की क्या मजाल जो नए सुंदर डब्बे ला कर रसोई में सजा ले और उन में दालें, मसाले डाल ले.

मरजी अम्मां की और फूहड़ता का लेबल बहू के माथे पर. बड़ी बेटी जो दिनरात मां का अहम् संतुष्ट करती है, जिस का अपना घर हर सुखसुविधा से भरापूरा है, जो माइक्रोवेव के बिना खाना ही गरम नहीं कर सकती, वह क्या अपनी मां को समझा नहीं सकती? मगर नहीं, पता नहीं कैसा मोह है इस बेटी का कि मां का दिल न दुखे चाहे हजारों दिल दिनरात कुढ़ते रहे.

‘‘मेरे घर में 3 रोटियां खाने का रिवाज नहीं,’’ अम्मां ने बहू के आते ही घर के नियम उस के कान में डाल दिए थे. जब अम्मां ने देखा कि बहू ने चौथी रोटी पर भी हाथ डाल दिया तो बच्चों को नपातुला भोजन परोसने वाली अम्मां कहां सह लेती कि बहू हर रोज 1-1 रोटी ज्यादा खा जाती.

छोटा लड़का मां को खुश करताकरता ही बीमार रहने लगा था. सुबह से शाम तक दुकान पर काम करता और पेट में डलती गिन कर पतलीपतली 5 रोटियां जो उस के पूरे दिन का राशन थीं. बाजार से कुछ खरीद कर इस डर से नहीं खाता कि नौकरों से पता चलने के बाद अम्मां घर में महाभारत मचा देंगी.

‘‘किसी ने जादूटोना कर दिया है हमारे घर पर,’’ बेटा बीमार पड़ा तो अम्मां यह कहते हुए गंडेतावीजों में ऐसी पड़ीं कि अड़ोसीपड़ोसी सभी उन को दुश्मन नजर आने लगे, जिन में सब से ऊपर मेरा नाम आता था.

अम्मां का पूरा दिन हवनमंत्र में बीतता है और जादूटोने पर भी उन का उतना ही विश्वास था. पूरा दिन परिवार का खून जलाने वाली अम्मां को स्वर्ग चाहिए चाहे जीते जी आसपास नरक बन जाए. छोटा बेटा इलाज के चक्कर में कई बार दिल्ली गया था. सांस अधिक फूलने लगी थी इसलिए इन दिनों वह घर पर ही था. एक सुबह वह चल बसा. हम सब भाग कर उन के घर जमा हुए तो मेरी सूरत पर नजर पड़ते ही अम्मां ने चीखना- चिल्लाना शुरू किया, ‘‘हाय, तू मेरा बेटा खा गई, तूने जादूटोने किए, देख, मेरा बच्चा चला गया.’’

अवाक् रह गई मैं. सभी मेरा मुंह देखने लगे. ऐसा दर्दनाक मंजर और उस पर मुझ पर ऐसा आरोप. मुझे भला क्या चाहिए था अम्मां से जो मैं जादूटोना करती.

‘‘अरे, बड़की बहू तेरी बड़ी सगी है न. सारा छोटा न ले जाए इसलिए उस ने तेरे हाथ जादूटोने भेज दिए…’’

मैं कुछ कहती इस से पहले मेरे पति ने मुझे पीछे खींच लिया और बोले, ‘‘शांति, चलो यहां से.’’

मौका ऐसा था कि दया की पात्र अम्मां वास्तव में एक पड़ोसी की दया की हकदार भी नहीं रही थीं.

इनसान बहुत हद तक अपने हालात के लिए खुद ही जिम्मेदार होता है. उस का किया हुआ एकएक कर्म कड़ी दर कड़ी बढ़ता हुआ कितनी दूर तक चला आता है. लंबी दूरी तय कर लेने के बाद भी शुरू की गई कड़ी से वास्ता नहीं टूटता. 80 साल की अम्मां आज भी वैसी की वैसी ही हैं.

बहू दुकान पर जाती है और बड़ी पोती स्कूल के साथसाथ घर भी संभालती है. अम्मां की सारी कड़वाहट अब पोती पर निकलती है. 4 साल हो गए बेटे को गए. इन 4 सालों में अम्मां पर बस, इतना ही असर हुआ है कि उन की जबान की धार पहले से कुछ और भी तेज हो गई है.

‘‘कितनी बार कहा कि सुबहसुबह शोर मत किया करो, अम्मां, मेरे पेपर चल रहे हैं. रात देर तक पढ़ना पड़ता है और सुबह 4 बजे से ही तुम्हारी किटकिट शुरू हो जाती है,’’ एक दिन बड़ी पोती ने चीख कर कहा तो अम्मां सन्न रह गईं.

‘‘रहना है तो तुम हमारे साथ आराम से रहो वरना चली जाओ बूआ के साथ. दाल वाली रोटी पसंद नहीं तो बेशक भूखी रह जाओ, सादी रोटी बना लो मगर मेरा दिमाग मत चाटो, मेरा पेपर है.’’

‘‘हायहाय, मेरा बेटा चला गया तभी तुम्हारी इतनी हिम्मत हो गई…’’

अम्मां की बातें बीच में काटते हुए पोती बोली, ‘‘बेटा चला गया तभी तुम्हारी भी हिम्मत होती है उठतेबैठते हमें घर से निकालने की. पापा जिंदा होते तो तुम्हारी जबान भी इतनी लंबी न होती…’’

खिड़की से आवाजें अंदर आ रही थीं.

‘‘…अपने बेटे को कभी पेट भर कर खिलाया होता तो आज हम भी बाप को न तरसते. अम्मां, इज्जत लेना चाहती हो तो इज्जत करना भी सीखो. मुझे पापा मत समझना अम्मां, मैं नहीं सह पाऊंगी, समझी न तुम.’’

शायद अम्मां का हाथ पोती पर उठ गया था, जिसे पोती ने रोक लिया था.

तरस आता था मुझे बच्ची पर, लेकिन अब थोड़ी खुशी भी हो रही है कि इस बच्ची को विरोध करना भी आता है.

पेपर खत्म हुए और एक दिन फिर से घर में कोहराम मच गया. घबरा कर खिड़की में से देखा. चमचमाते 3 बड़ेछोटे टं्रक आंगन में पड़े थे. जिन पर अम्मां चीख रही थीं. दुकान से पैसे ले कर खर्च जो कर लिए थे.

‘‘घर में इतने ट्रंक हैं फिर इन की क्या जरूरत थी?’’

‘‘होंगे, मगर मेरे पास नहीं हैं और मुझे अपना सामान रखने के लिए चाहिए.’’

अम्मां कुली का हाथ रोक रही थीं तो पोती ने अम्मां का हाथ झटक दिया था और बोली, ‘‘चलो भैया, टं्रक अंदर रखो.’’

छाती पीटपीट कर रोने लगी थी अम्मां, पोती ने लगे हाथ रसोई में जा कर टीन के सभी डब्बे बाहर ला पटके जिन्हें बाद में कबाड़ी वाला ले गया. पोती ने नए सुंदर डब्बे धो कर सामने मेज पर सजा दिए थे. अम्मां ने फिर मुंह खोला तो इस बार पोती शांत स्वर में बोली, ‘‘पापा कमाकमा कर मर गए, मेरी मां भी क्या कमाकमा कर तुम्हारी झोली ही भरती रहेगी? हमें जीने कब दोगी अम्मां? जीतेजी जीने दो अम्मां, हम पर कृपा करो…’’

पोती की इस बगावत से अम्मां सन्न थीं. वे सुधरेंगी या नहीं, मैं नहीं जानती मगर इतना जरूर जानती हूं कि अम्मां के लिए यह सब किसी प्रलय से कम नहीं था. सोचती हूं इतना ही विरोध अगर छोटे बेटे ने भी कर दिखाया होता तो इस तरह का दृश्य नहीं होता जो अब इस घर का है.

कुछ और दिन बीत गए. 20 साल की पोती धीरेधीरे मुंहजोर होती जा रही है. अपने ढंग से काम करती है और अम्मां का जायज मानसम्मान भी नहीं करती. हर रोज घर में तूतू मैंमैं होती है. बच्चों के खानेपीने में अम्मां की सदा की रोकटोक भला पोती सहे भी क्यों. भाई को पेट भर खिलाती है, कई बार थाली में कुछ छूट जाए तो अम्मां चीखने लगती हैं,  ‘‘कम डालती थाली में तो इतना जाया न होता…’’

‘‘तुम मेरे भाई की रोटियां मत गिना करो अम्मां, बढ़ता बच्चा है कभी भूख ज्यादा भी लग जाती है. तुम्हारी तरह मैं पेट नापनाप कर खाना नहीं बना सकती…’’

‘‘मैं पेट नाप कर खाना बनाती हूं?’’ अम्मां चीखीं.

‘‘क्या तुम्हें नहीं पता? घर में तुम्हीं ने 2 रोटी का नियम बना रखा है न और पेट नाप कर बनाना किसे कहते हैं. तुम्हारी वजह से मेरा बाप मर गया, सांस भी नहीं लेने देती थीं तुम उन्हें. घुटघुट कर मर गया मेरा बाप, अब हमें तो जीने दो. इनसान दिनरात रोटी के लिए खटतामरता है, हमें तो भर पेट खाने दो.’’

अम्मां अब पगलाई सी हैं. सारा राजपाट अब पोती ने छीन लिया है. जरा सी बच्ची एक गृहस्वामिनी बन गई.

‘‘रोती रहती हैं अब अम्मां. सभी को दुश्मन बना चुकी हैं. कोई उन से बात करना नहीं चाहता. पोती को कोसना घटता नहीं. अपनी भूल वह आज भी नहीं मानतीं. 80 साल जी चुकने के बाद भी उन्हें बैराग नहीं सूझता. सब से बड़ा नुकसान उन पंडितों को हुआ है जो अब यज्ञ, हवन के बहाने अम्मां से पूरीहलवा उड़ाने नहीं आ पाते. जब कभी कोई भटक कर आ पहुंचे तो पोती झटक देती है, ‘‘जाओ, आगे जाओ, हमें बख्शो.

रिश्तों की डोर: सुनंदा की आंखों पर पड़ी थी पट्टी

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