टैडी बियर: भाग 3- क्या था अदिति का राज

 

फिर वह नीलांजना के पास आ कर बोला, ‘‘तुम यहां कैसे? मतलब यहां किसलिए?’’

अर्णव के हैरानपरेशान चेहरे को देख नीलांजना की हंसी छूटने लगी. वह कुछ समझता उस से पहले ही धु्रव अर्णव के कंधे पर हाथ रखते हुए नीलांजना से बोला, ‘‘यह मेरा साला यानी अदिति का भाई है और अर्णव यह मेरी कजिन.’’

‘‘ओह नो…’’

‘‘अर्णव के हावभाव देख कर आदिति सहसा बोली, ‘‘नीलांजना यह तुम लाई हो… क्या तुम ही इस की….’’

‘‘हां भाभी मैं ही इस की ऐक्स गर्लफ्रैंड हूं… सौरी भाभी, प्रोग्राम तो अर्णव को परेशान करने का था, पर आप गेहूं के साथ घुन सी पिस गईं.’’

‘‘ओहो नीलांजना, बस अब बहुत हुआ… तेरे और अर्णव के चक्कर में मेरी प्यारी बीवी परेशान हो रही है. बस अब खोल दे सस्पैंस,’’ धु्रव ने कहा.

नीलांजना अर्णव और अदिति की बेचारी सी सूरत देख अपनी हंसी रोकते हुए बोली, ‘‘हुआ यों कि जब आप का और धु्रव भैया का फोटो सोशल साइट पर वायरल हुआ था तब मुझे इस टैडी को देख कर कुछ शक हुआ था, क्योंकि इस टैडीबियर को मैं ने अपने हाथ से बनाया था, इसलिए आसानी से पहचान लिया. और तो और इस के गले में मेरा वही रैड स्कार्फ बंधा था जो अर्णव को बहुत पसंद था. पोल्का डौट वाला रैड स्कार्फ… याद है अर्णव तुम उस स्कार्फ में देख कर मुझ पर कैसे लट्टू हो जाते थे,’’ कह वह जोर से हंसी तो अर्णव का चेहरा शर्म से लाल हो गया.

अर्णव किसी तरह अपनी झेंप मिटाते हुए बोला, ‘‘दीदी, कम से कम स्कार्फ तो हटा देतीं.’’

यह सुन कर अदिति शर्म से दुहरी होती हुई बोली, ‘‘तुम दोनों के सामने मेरी और अर्णव की करामात यों सामने आएगी, सोचा नहीं था.’’

‘‘भाभी प्लीज… ये सब मजाक था. आप दोनों को शर्मिंदा करना हमारा कोई मकसद थोड़े ही था… आप भाईबहन की क्यूट बौंडिंग पर हम भाईबहन थोड़ी मस्ती करना चाहते थे. पहले भैया राजी नहीं थे. मुझ पर नाराज भी हुए कि मैं ने अर्णव को तंग करने के लिए टैडी क्यों मांगा… भैया आप से बहुत प्यार करते हैं भाभी… आप की शादी को पूरा 1 साल हो गया है. मैं इंडिया आती आप से मिलती अर्णव भी मिलता तो सब सामने आता ही… ऐसे में फन के लिए मैं ने अपने ध्रुव भैया को पटाया कि चलो थोड़ी मौजमस्ती के साथ यह बात खुले… मेरी ऐंट्री धमाके के साथ हो तो मजा आ जाए…’’ नीलांजना ने अदिति का हाथ पकड़ कर कहा.

अदिति कुछ शर्मिंदगी से बोली, ‘‘जो भी कहो, पर मेरी चोरी धु्रव के सामने इस तरह आएगी मैं सोच भी नहीं सकती थी.’’

यह सुन कर धु्रव ने उसे गले से लगाते हुए कहा, ‘‘दिल तो तुम ने मेरा कभी का चुरा लिया था मेरी जान और हां हमारे प्यार के प्रूफ के लिए किसी टैडीवैडी की जरूरत नहीं… हां बाय द वे नीलांजना ने हमारी शादी के पहले ही मुझे सब बता दिया था. पहले जाहिर करता तो पता नहीं तुम कैसे रिएक्ट करतीं. अब 1 साल में तुम्हें अपने प्रेम में पूरी तरह गिरफ्त में लेने के बाद मैं ने मस्ती करने की गुस्ताखी की है,’’ धु्रव कानों को पकड़ते हुए बोला.

अदिति को अब भी मायूस खड़े देख कर नीलांजना बोली, ‘‘भाभी प्लीज, आप ऐसे सैड ऐक्सप्रैशन मत दो. ऐसे ऐक्सप्रैशन तो मैं अर्णव के चेहरे पर देखना चाहती थी, पर क्या बताऊं, अब उस में भी मजा नहीं, क्योंकि अभीअभी आते समय प्लेन में एक इंडियन से मेरी मुलाकात हो गई. खूब बातें भी हुईं… लगता है वह मुझ में रुचि ले रहा है. फोन नंबर दिया है… देखते हैं क्या होता है?’’ कह कर वह बिंदास हंस दी.

‘‘अदिति सच कहूं तो आज से कुछ साल बाद हम यह किस्सा सुनेंगे, सुनाएंगे और हंसेंगे…’’ धु्रव बोला.

नीलांजना भी कहने लगी, ‘‘भाभी, आप और भैया तथा इस टैडी का फोटो वायरन होने के बाद ही मैं ने अर्णव के प्रति पाली नाराजगी और कुछ आप को तंग करने की गुस्ताखी में अर्णव से टैडी मांगा था. अर्णव कुछ समझ नहीं पाया पर मेरे इस व्यवहार पर इतना नाराज हुआ कि उस ने मुझे दिए सारे गिफ्ट मांग लिए. आस्ट्रेलिया में होने के कारण शादी में मैं नहीं आई, पर कभी न कभी तो मैं अर्णव से मिलती ही, तब सब जान ही जाते… भैया शादी के पहले से ही सब जानते थे. हम ने तय किया था कि किसी ऐसे ही मजेदार मौके पर इस बात का खुलासा करेंगे.’’

‘‘ओह,’’ कह कर अदिति ने अपना सिर पकड़ लिया. फिर अर्णव को धौल जमाती हुए कहने लगी, ‘‘सब तेरी वजह से हुआ है.’’

अर्णव को अपनी पीठ सहलाते देख कर धु्रव हंसते हुए बोला, ‘‘अरे सुनो अदिति, जब टैडी वाली बात सामने आई है तो अब मैं भी कन्फेस कर लूं…’’

‘‘क्या…अब क्या रह गया है,’’ हैरानी से अदिति ने पूछा.

धु्रव हंस कर बोला, ‘‘तुम्हें पहली बार मैं ने जो ड्रैस दी थी. अरे वही पिंक वाली

ड्रैस जो तुम्हारे ऊपर बड़ी फबती दिखती है, जिसे पहन कर टैडी और मेरे साथ तुम ने फोटो खचवाया था, जो वायरल हुआ था सोशल साइट पर…’’

‘‘हांहां, समझ गई तो?’’

उस का मुंह आश्चर्य से खुला देख नीलांजना हंसते हुए बोली, ‘‘भाभी, वह ड्रैस मैं ने अपने लिए औनलाइन मंगवाई थी, पर टाइट पड़ गई… रिटर्न औप्शन भी नहीं था. भैया आप को गिफ्ट देना चाहते थे तो मैं ने कहा इसे दे दो. पैसे बच जाएंगे और ड्रैस भी काम आ जाएगी.’’

‘‘ओह, नो,’’ अदिति सिर थामते हुए बोली. फिर सहसा हंसते हुए कहने लगी, ‘‘फिर तो नीलांजना, हम दोनों तुम्हारे कर्जदार हैं. ये ड्रैस के लिए और मैं टैडीबियर के लिए,’’ फिर सहसा धीमेधीमे हंसते हुए धु्रव को देख नकली गुस्से से बोली, ‘‘और हां, तुम ने उस ड्रैस के लिए कैसेकैसे स्वांग रचे थे… क्या कहा था कि यह ड्रैस देखते ही मैं फिदा हो गया और यह भी कि ड्रैस तुम्हारे लिए बनी हुई लगती है.’’

‘‘हां, तो सही तो कहा था… तभी तो नीलांजना को टाइट पड़ गई…’’ धु्रव की बात सुन कर सब जोर से हंस पड़े. अदिति भी.

तभी अर्णव की आवाज आई, ‘‘दीदी,

10 बजे गए हैं, कुछ खाने को दो. और

हां नीलांजना काफी देर हो गई तुम्हारा कोई फोन नहीं आया. शायद जहाज में बैठे सहयात्री ने तुम्हारे साथ टाइम पास किया होगा. तभी फोन नहीं किया… देख लो, औप्शन अभी भी तुम्हारे सामने है,’’ अर्णव ने शरारत से कहा.

यह सुन ‘‘अर्णव के बच्चे,’’ कहते हुए नीलांजना ने टैडी उस पर दे मारा.

घर की इस गहमागहमी में धु्रव कुछ रूठी हुई अदिति को मनाते हुए कह रहा था,, ‘‘बड़ा शोर है यहां… अगले साल इन हड्डियों से बचने के लिए हम हनीमून पर कहीं बाहर चले जाएंगे…’’

‘‘सच?’’ अदिति ने नकली गुस्सा फेंक कर मुसकराते हुए उसे बाहों में भर लिया.

एकदूसरे से छिपाए गए बड़े झूठ यहां खुले थे, पर जो सच इन के दिलों में बंद था वह यह कि दोनों एकदूसरे से बेइंतहा प्यार करते थे. तभी तो एक के बाद एक हुए खुलासे पर दोनों को हंसी आ रही थी. शादी की पहली सालगिरह की दूसरी सुबह यकीनन यादगार थी.

गुलाबी कागज: हरा भरा जीवन हुआ बदरंग

विनती एक एटीएम से दूसरे एटीएम बदहवास सी भागी जा रही थी. कहीं कैश नहीं था. मां नारायणी और बड़ी बहन माया अस्पताल में बेचैनी से उस की प्रतीक्षा कर रही थीं. बाबूजी की तबीयत लगातार बिगड़ती जा रही थी पर डाक्टर 500 व 1,000 रुपए के पुराने नोट लेने को तैयार न थे. कल ही तो माया का इन पुराने नोटों की खातिर एक रिश्ता टूटा था. कहां तो आज माया डोली में बैठ कर विदा होने को थी और कहां बाबूजी ने सल्फास की गोलियां खा कर खुद अपनी विदाई का प्रबंध कर लिया था.

विनती के आगे लाइन में 30-40 लोग, बड़ी मुश्किल से मिले कैश वाले एटीएम के सामने खड़े थे. ‘जब तक उस का नंबर आए, कहीं कैश ही न खत्म हो जाए,’ वह यही सोच रही थी. आगे खड़े लोगों से आगे जाने के लिए उस की मिन्नतें कोई सुनसमझ नहीं रहा था. समझता भी कैसे, सब की अपनीअपनी विकराल जरूरतें मुंहबाए जो खड़ी थीं. तभी शोर मचा कि सुबह 5 बजे से लाइन में लगी घुटनों के बल जमीन पर बैठी वह वृद्ध, गरीब अम्मा चल बसी, भूखीप्यासी. वह किसी बड़े आदमी की मां तो न थी जो भरपेट पकवान खा कर 5-6 सेवकों के सहारे से नोट बदलवाने आती. कलेजा उछल कर मानो हलक में अटक गया. ‘ऐसे ही बाबूजी के साथ कहीं कुछ बुरा न हो गया हो,’ विनती इस आशंका से कांप उठी. उस ने माया दीदी को फिर फोन लगाया था.

कौल लगते ही पहले उधर से आवाज आई थी, ‘‘विनती, पैसे मिल गए क्या?’’

‘‘नहीं दीदी, अभी 30-40 लोग आगे हैं बस, हमारी बारी तक कैश खत्म नहीं होना चाहिए. बाबा को देखना…भैया के नोट बदले? फोन आया क्या?’’

‘‘कुछ जतन कर जल्दी, अनिल भी अभी तक हजार के उन नोटों में 2 भी कहीं नहीं बदल पाया. मां फिर बेहोश हो गई थीं. किसी तरह पानी के छींटे मारे तब होश आया. बहुत घबराहट हो रही है उन्हें. बाबूजी के पास ही लिटा दिया है. क्या करूं, कुछ समझ नहीं आ रहा.’’

‘‘बैंक खुल गया है, अभीअभी 10 लोग अंदर गए हैं. देखो, शायद अब जल्दी नंबर आ जाए.’’

‘‘तू कोशिश करती रह,’’ फोन कट गया था.

उधर, अनिल धक्कामुक्की में लाइन में चौथे नंबर पर पहुंच चुका था. तभी 4 लोग लंबी सी गाड़ी से उतरे और बिना रोकटोक के बैंक में घुस गए. ‘‘बैंक के अफसर तो नहीं लगते,’’ अनिल ने बाहर चौकीदारी पर तैनात बैंककर्मी को टोका था.

‘‘अंदर क्यों जाने दिया इन्हें, हम इतनी देर से लाइन में लग कर बड़ी मुश्किल से यहां पहुंचे हैं. यह तो गलत बात है.’’ सभी क्रोध और विरोध में धक्का दे कर  बैंक के अंदर घुसना चाह रहे थे. भगदड़ सी मच गई. पुलिस और बैंककर्मी के सहयोग से वे 4 लोग अंदर हो लिए तो गेट बंद कर पुलिस वालों ने लगभग सवा सौ आदमियों पर लाठियां भाजनीं शुरू कर दीं. अनिल जो आगे ही खड़ा था, उसे भी लाठी लगी. उस का माथा फूट गया. वह बैंक की सीढि़यों पर ही गिर गया. रूमाल बांध कर किसी तरह उस ने खून के रिसाव को रोका और वहीं डट कर बैठ गया, कुछ भी हो नोट बदल कर ही जाऊंगा. डंडे खा कर बाकी लोग लाचारगी में शांत हो गए थे. तभी गेट खुला, वे चारों लोग बाहर हो लिए थे. गेटकीपर ने फिर गेट बंद कर दिया और कैश खत्म की तख्ती लटकाने लगा.

‘‘यह क्या, अभी तो बताया था आप ने लंच तक काफी लोग निबट जाएंगे आज इतना कैश है, फिर…?’’

‘‘भाई मेरे, उन्होंने नंबर पहले किसी से लगवा रखे थे. 2 लाख रुपए बचे थे.

50-50 हजार रुपए के 4 चैक से उन्होंने नोट निकाल लिए. हम मना तो नहीं कर सकते ऐसे में किसी को.’’

‘‘यह बेईमानी है.’’

‘‘जनता के साथ सरासर धोखा है.’’

‘‘रोजरोज के बदलते नियमोंफैसलों से थक कर परेशान हैं हम. क्यों नहीं सभी सही नोटों पर एक्सपाइरी छाप देते और आरबीआई की स्टैंप लगाते जाते, इस तरह का कोई आसान हल ढूंढ़ते पहले.’’

‘‘हम सब भी देश की प्रगति चाहते हैं, कालाधन बंद हो, पर उचित व्यवस्था तो पहले कर लेनी चाहिए थी.’’

‘‘न पर्याप्त नए नोट ही छपे, न एटीएम ही काम कर रहे.’’

‘‘पर नकली नोट बड़ी तेजी से छप कर मार्केट में आ जाते हैं, कमाल है, कालेधन पर ऐसे नियंत्रण होगा?’’

‘‘उस पर से, कमीशन पर पैसे बदलने के नएनए खुलते जा रहे धंधोंहथकंडों का क्या?’’

चारों ओर मचे शोर में अनिल की आवाज भी कहीं शामिल हो कर खो रही थी. उस का सिर घूमने लगा. वह सिर पकड़ कर थोड़ी देर को बैठना चाहता था, पर नहीं, उसे किसी भी हालत में नोट बदल कर बाबा के पास पहुंचना ही होगा, यों बैठ नहीं सकता. वह निकल पड़ा दूसरी ब्रांच, दूसरे एटीएम की ओर. उस की बाइक की तरह उस का सिर भी तेजी से घूम रहा था. परेशानियों के साथ घाव अपना शिकंजा कसता ही जा रहा था. बैलेंस बिगड़ा, अचानक वह डिवाइडर से टकराया और फिर बाइक कहीं, हैलमेट कहीं, वह सड़क पर गिर पड़ा. पीछे से आ रही तेज रफ्तार किसी अमीरजादे की, बीएमडब्लू उसे बेफिक्री से हिट कर सरपट जा चुकी थी. वह औंधेमुंह अचेतन सड़क पर पड़ा था. कुछ लोग इकट्ठे हो गए. पुलिस ने आ कर काम शुरू कर दिया, तो एटीएम कार्ड के साथ एक हजार रुपए के 5 नोट और आधारकार्ड मिल गए थे.

इधर, विनती लाइन में लगी 10वें नंबर पर आ गई थी. ‘इस बार 10 लोगों को अंदर किया तो मुझे भी पैसे मिल जाएंगे,’ यह सोच कर उसे थोड़ी आस बंधी.

‘‘चलिएचलिए, 10-12 लोग अंदर आ जाइए.’’ बैंककर्मी की आवाज आते ही रेले के साथ विनती भी अंदर हो ली. जब तक उसे पैसे मिल नहीं गए, धुकधुक लगी रही. चैक से मिल गए थे उसे 2 गुलाबी कागज यानी 2 हजार रुपए. ‘2 पिंक नोट, कितने कीमती, बाबा की जान बचा सकेंगे.’ उस ने राहत की सांस ली.’ ‘जल्दी पहुंचना होगा. दीदी को बता दूं पैसे मिल गए,’ पर मोबाइल डिस्चार्ज हो चुका था. वह तेजी से भागी. परेशान मन उस से तेज भाग रहा था. ‘क्या पता भैया ही नोट बदलवा कर पहले पहुंच गए हों और बाबा का उपचार हो रहा हो. काश, ऐसा ही हुआ हो’, रास्तेभर ऐसा ही सोचतेसोचते वह अस्पताल में लगभग भागती हुई घुसी.

गुलाबी कागज हाथ में भींचे हुए वह कैश काउंटर पर पहुंची थी. पीछे से किसी ने उस के कंधे पर हाथ रखा था. उस की माया दीदी थी, ‘‘बाबा, हमें छोड़ कर चले गए दुनिया से, विनती.’’ वह विनती से लिपट कर फफक कर रो पड़ी. हृदयविदारक चीख निकली थी दोनों बहनों की. बाबूजी की छाती पर सिर रखे अम्मा उन्हें बारबार उठ जाने के लिए कह रही थीं.

‘‘तैयार नहीं हुए? माया की बरात आने वाली है. देखो, सब बाहर तुम्हारा इंतजार कर रहे हैं, जल्दी करो.’’ सदमे का उन के दिमाग पर असर हो गया था. वे बकझक करने लगी थीं.

इधर, माया का मोबाइल बजा था. ‘‘कहां था? कब से फोन लगा रही तुझे. सब ख़त्म हो गया, बाबूजी नहीं रहे. अन्नू, आ जा बहुत हो गई नोट बदली. सरकार ने तो हम सब की जिंदगी बदल कर रख दी.’’ एक सांस में बोल कर माया रोए जा रही थी तो विनती ने फोन ले कर अपने कानों से लगाया तो आवाज सुनाई दी, ‘‘मैडम, बात सुनिए, मैं पुलिस इंस्पैक्टर यादव, सफदर जंग अस्पताल से बोल रहा हूं. अनिल के सिर पर गंभीर चोटें आई हैं, यहां इमरजैंसी में भरती है, इलाज चल रहा है, फौरन पहुंचें.’’

हृदय चीत्कार उठा. सुनते ही विनती ने उन पिंक नोटों को मुट्ठी में भींच लिया जैसे वे अब केवल कागज हों…गुलाबी कागज, जिन का कुछ रंग उतर कर उस की हथेली पर आ गया था, जिस ने उन के हरेभरे जीवन को बदरंग कर दिया. आंसुओं में भीगे शून्य में ताकते कई चेहरे इसी तरह स्याह, सफेद व बेरंग होते रहे, फिर चाहे अस्पताल हो, बैंक एटीएम हो या और कोई जगह. पर फर्क किसे पड़ा? किसे पड़ना चाहिए था? कौन देखता है? बस, जनता के सेवकों की तानाशाही राजनीति जारी है, वह बखूबी चलनी चाहिए. विनती की मुट्ठी का मुड़ातुड़ा नोट जैसे यही बयान किए जा रहा था.

टैडी बियर: भाग 2- क्या था अदिति का राज

 

देवांशी परेशान अदिति के कंधे पर हाथ रखती हुई बोली, ‘‘क्या वाकई, तुम्हारा प्यार छलावा था?’’

‘‘कैसी बात कर रही है? मेरी जान है धु्रव… प्यार करती हूं तभी तो उस के लिए ये सब कर रही हूं. हाय एक टैडीबियर हमारे प्यार को साबित करेगा… ये सब कितनी बेवकूफी है.’’

अदिति के मुंह से ये सब सुन कर देवांशी को पहले तो हंसी आई पर फिर गंभीर हो कर बोली, ‘‘सब जानती है तो क्यों ये सब धु्रव से छिपा रही है? वहां अर्णव परेशान है और यहां तुम.’’

‘‘फिर क्या करूं बता?’’ अदिति मायूसी

से बोली.

देवांशी कुछ सोचते हुए कहने लगी, ‘‘चलो, अब इतने झूठ बोले हैं तो एक और बोल दो. कह दो कि टैडी कोई बच्चा उठा ले गया या फिर तुम्हारी मम्मी ने किसी को दे दिया अथवा गुम हो गया.’’

अदिति चहकी, ‘‘हां देवांशी, यह गुम होने वाला आइडिया सब से अच्छा है, क्योंकि लेनेदेने वाले आइडिया में पाने की कोई न कोई गुंजाइश होती है पर गुम हुआ यानी मिलने की न के बराबर उम्मीद है,’’ यह कहते ही उत्साहित अदिति के चेहरे पर सुकून छा गया. जैसे कोई बहुत बड़ा निबटारा हो गया हो.

दूसरे दिन देवांशी को अदिति ने फोन पर सूचित किया कि उन की तरकीब काम

कर गई है. अर्णव ने अपने जीजू से माफी मांगते हुए टैडी के गुम होने की बात कह दी. धु्रव एक बार फिर बहकावे में आ गया… उस से झूठ बोलना अच्छा नहीं लगा. फिर भी अदिति खुश थी कि इस टैडी वाले प्रसंग से हमेशा के लिए पीछा छूटा…

इस बात को हफ्ता बीत गया. उन की शादी की सालगिरह आ गई. शादी की सालगिरह पर घरबाहर के बहुत सारे मेहमान आए. बड़ों के आशीर्वाद और संगीसाथियों की ढेर सारी बधाइयों के बीच दोनों यानी धु्रवअदिति सब के आकर्षण के केंद्र बने थे.

इस फंक्शन में अर्णव भी आया था. फंक्शन के बाद मौका पा कर अदिति ने अपने भाई को आड़े हाथों लिया.

तब उस ने भी इस बेवजह के अवांछित प्रसंग को ले कर और अपनी गर्लफ्रैंड के साथ

उस अपरिपक्व हरकत पर अफसोस जाहिर करते हुए इतने दिनों बाद उठी बात पर खुलासा किया, ‘‘दीदी, मेरी और अंजना की लड़ाई के बीच आप फंस गईं. हुआ यों कि ब्रेकअप के बाद… कुछ महीने सब ठीक रहा पर अचानक एक दिन उस ने मुझे से टैडी मांग लिया. मुझे भी बहुत अजीब लगा.

‘‘शुरू में मैं ने टाला आप की वजह से. पर वह जिद करने लगी कि उसे अपना टैडी चाहिए ही चाहिए. ऐसे में मैं ने सोचा कि कहीं उसे यह न लगने लगे कि मैं अब भी उस में रुचि रखता हूं… फिर एक दिन मेरा और आप का झगड़ा हो गया. बस उसी का फायदा उठा कर मैं ने तुम से जबरदस्ती टैडी मांग कर उस के हवाले कर के मुसीबत से पीछा छुड़ा लिया.’’

‘‘और मेरी मुसीबत बढ़ा दी पागल…’’

‘‘पर दीदी मैं ने भी उसे दिए सारे गिफ्ट मांग लिए थे.’’

‘‘पर उस से क्या अर्णव… ऐसा भी क्या टैडी से मोह जो उस के बगैर नहीं रह पाई… उस टैडी में कहीं तू तो नहीं दिखता था उसे?’’

‘‘अरे नहीं दीदी,’’ वह खिसिया कर बोला.

अदिति तुरंत उसे चिढ़ाती हुई कहने लगी, ‘‘फिर पक्का उस ने अपने दूसरे बौयफ्रैंड को टिका कर अपने पैसे बचाए होंगे… पर सच, तुम दोनों की बेवकूफी में मैं अच्छा फंसी.’’

‘‘अरे अब माफ भी कर दे न,’’ अर्णव प्यार से बोला.

‘‘किस बात की माफी मांगी जा रही है साले साहब?’’ अचानक ध्रुव की आवाज कानों में पड़ी. धु्रव को अचानक कमरे में आता देख दोनों संभल कर बैठ गए. अर्णव उठते हुए बोला, ‘‘कुछ नहीं जीजू, आज शाम को मैं देर से क्यों आया इस बात को ले कर आप की बीवी मुझे डांट रही है… अच्छा दीदीजीजू अब बाकी बातें कल करेंगे. थक गया हूं.’’ कह वह सोने चला गया.

दूसरे दिन सुबह सब सो रहे थे. लगातार बजती कौलबैल से अदिति की नींद खुली तो देखा दरवाजे पर अटैची के साथ खड़ी एक लड़की भाभी कहते हुए उस के गले लग गई. अदिति  को हैरानी से ताकते देख कर वह मुसकराई और फिर भीतर आते हुए बोली, ‘‘अरे भाभी, मैं नीलांजना… धु्रव भैया कहां हैं…?’’

अदिति को याद आई धु्रव की कजिन, जो शादी के एन मौके पर एमबीए करने के लिए आस्ट्रेलिया चली गई थी. अदिति से बात करते वह इधरउधर देखते हुए बड़े इत्मिनान और हक से भीतर आते बोली, ‘‘देखो भाभी, मुझ पर कबाब में हड्डी होने का आरोप न लगे, इसलिए मैं कल नहीं आई…’’

नीलांजना की बात पर अदिति कुछ कहती उस से पहले ही धु्रव की आवाज आ गई, ‘‘कबाब में हड्डी तो कल आ ही गई थी हमारे बीच तुम भी आ जाती तो कोई फर्क नहीं पड़ता.’’

धु्रव का इशारा अर्णव की तरफ है, यह समझ कर अदिति ने उसे घूरा तो गुस्ताखी माफ कहते हुए उस ने धीरे से कान पकड़ लिए.

‘‘क्या हुआ कोई और भी आया

है क्या?’’

नीला के पूछने पर अदिति ने कहा, ‘‘मेरा छोटा भाई आया है.’’

‘‘ओह, ग्रेट…’’ कहते हुए उस की नजर मेज पर बिखरे ढेर सारे गिफ्टों पर चली गई, ‘‘वाऊ, कितने सारे गिफ्ट हैं. अभी तक खोले नहीं… मेरा इंतजार कर रहे थे क्या? जानती हैं भाभी कि गिफ्ट खोलना मुझे बहुत अच्छा लगता है…’’ कहते हुए वह उत्साह से मेज की ओर बढ़ी तो अदिति ने उसे हैरानी से देखा. लगा ही नहीं कि वह नीलांजना से पहली बार मिल रही है.

धु्रव ने भी एक बार को उसे टोका, ‘‘अरे रुक जा…पहले कुछ खापी ले…’’

‘‘हांहां बस, चायबिस्कुट लूंगी. भाभी अगर आप बुरा न मानें तो क्या मैं गिफ्ट खोलू?’’ वह मेज के ऊपर रखे गिफ्ट उत्साह से देखती हुई बोली.

‘‘हांहां क्यों नहीं,’’ कहते हुए अदिति कुछ अजीब नजरों से उसे देख कर किचन में आ गई. चाय बना कर लाई तो देखा धु्रव के साथ बैठी नीला गिफ्ट देख कर उत्साहित हो रही थी. लगभग सभी गिफ्ट खुल चुके थे. सिर्फ एक बाकी था.

उसे अदिति की ओर बढ़ाते हुए नीला कहने लगी, ‘‘भाभी, इसे आप खोलो.’’

चाय की ट्रे रख कर अदिति ने उस गिफ्ट को चारों ओर से घुमा कर

देखा. उस पर किसी का नाम नहीं था. ‘‘किस का है, यह… कुछ पता ही नहीं चल रहा है,’’ कहते हुए अदिति ने उसे खोला तो हैरान रह गई. हूबहू वैसा ही टैडीबियर, जिसे वह इतने दिनों से ढूंढ़ती फिर रही थी…

धु्रव मुसकराते हुए बोल रहा था, ‘‘अच्छा तो यह अर्णव का सरप्राइज है,’’ धु्रव अदिति की तरफ देखते हुए बोला.

‘‘मुझे नहीं पता कहां से आया है यह… हाय, यह तो बिलकुल वैसा है,’’ अटपटाते हुए वह बोली. तभी अर्णव की आवाज आई, ‘‘वैसा ही नहीं, वही है दीदी,’’ कमरे में आते हुए अर्णव बोला. फिर वह हैरानी से कभी नीलांजना को तो कभी टैडी को देख रहा था.

टैडी बियर: भाग 1- क्या था अदिति का राज

 

‘‘सुनिए,मुझे टैडीबियर चाहिए, बिलकुल ऐसा…’’ मोबाइल पर एक फोटो दिखाते हुए अदिति ने एक बार फिर उम्मीदभरी नजर दुकानदार पर गड़ाई. मगर उस ने सरसरी नजर मोबाइल पर डालते हुए इनकार में सिर हिला दिया.

मायूस चेहरा लिए अदिति सौफ्ट टाएज की दुकान से बाहर निकली तो उस की कालेज की पुरानी सहेली देवांशी खीज कर बोली, ‘‘क्या हुआ है तुझे… मुझे सुबहसुबह फोन कर के बुला लिया कि जरूरी शौपिंग करनी है… 2 घंटे से कम से कम 6 दुकानों में टैडीबियर पूछ चुकी है… हम क्या टैडीबियर खरीदने आए है यहां?’’

देवांशी के खीजने पर अदिति ने मासूमियत से मुंह बनाते हुए हां कहा. तो देवांशी उसे हैरानी से देखती हुई बोली, ‘‘अच्छा दिखा मुझे कैसा टैडीबियर चाहिए तुझे,’’ कहते हुए उस के हाथ से मोबाइल छीन लिया. फिर ध्यान से वह फोटो देखा जिस में अदिति पिंक कलर की खूबसूरत ड्रैस में धु्रव और एक टैडीबियर के साथ दिखाई दे रही थी.

शादी से पहले खिंचाई इस तसवीर में टैडी को अदिति ने एक खास अंदाज में

पकड़ा था और अदिति को उसी पोज में धु्रव ने. यह फोटो सोशल साइट पर खूब वायरल हुआ था.

देवांशी जानती थी कि यह टैडीबियर अदिति का धु्रव को दिया पहला उपहार था और वह पिंक ड्रैस धु्रव का अदिति को दिया पहला उपहार. इस फोटो के साथ ही अदिति ने अपने सिंगल स्टेटस को इंगेज्ड में बदल दिया था. फोटो में दिखाई देने वाले टैडी जैसा एक और टैडीबियर खरीदने आई अदिति उस की समझ से परे थी.

देवांशी के चेहरे पर सवाल देख कर अदिति बोली, ‘‘उफ, बड़ी गलती हो गई… मुझे धु्रव से यह टैडी मांगना ही नहीं चाहिए था.’’

‘‘मांग लिया मतलब? तूने अपना दिया गिफ्ट वापस मांग लिया? क्या कह कर गिफ्ट वापस मांगा और क्यों?’’ देवांशी ने हैरानी से पूछा.

अदिति बोली, ‘‘यार मजबूरी में मांगना पड़ा. लंबी कहानी है तू नहीं समझेगी. सारा पेंच इसी में तो है. मैं तो शादी के बाद इस टैडी को भूल भी गई थी पर धु्रव नहीं भूला. अगले हफ्ते हमारी शादी की सालगिरह है. मेरा भाई अर्णव आ रहा है. बेवकूफ अर्णव ने धु्रव से पूछ लिया कि जीजू आप को दिल्ली से कुछ मंगवाना तो नहीं है. यह सुन कर धु्रव ने कह दिया कि वह टैडीबियर लेता आए जिसे मैं मायके में छोड़ आई हूं. अब अर्णव परेशान है कि जो टैडी अब घर में है ही नहीं, उसे कहां से लाए… मैं ने सोचा उस जैसा दूसरा ढूंढ़ कर उस की परेशानी हल कर दूं.’’

‘‘उस जैसा दूसरा… मतलब कि यह फोटोवाला टैडी तुम्हारे मायके से गुम हो गया है?’’ देवांशी ने अपनी समझ से अंदाजा लगाया.

तब अदिति ने खुलासा किया, ‘‘अरे यार हुआ यों कि धु्रव को दिया यह टैडीबियर अर्णव का ही था. अर्णव का भी नहीं था, बल्कि अर्णव को वह अपनी गर्लफ्रैंड से मिला था.  बाद में दोनों के बीच ब्रेकअप हो गया. उन दिनों मेरे और धु्रव के बीच में चक्कर चल रहा था सो उस खूबसूरत टैडी को मैं ने अर्णव से मिन्नतें कर के मांग लिया. और धु्रव को दे दिया.

‘‘एक दिन अर्णव का मूड खराब था. उस का मेरा झगड़ा हो गया… अब क्या जानती थी कि बेवकूफ अर्णव से मेरा झगड़ा इतना महंगा पड़ेगा कि वह गुस्से में भर कर अपना टैडीबियर मुझ से वापस मांग लेगा… तू तो मुझे जानती है कि मैं किसी की धौंस सहन नहीं करती हूं… मैं ने भी प्रैस्टिज इशू बना कर किसी तरह जोड़तोड़ कर के उस का टैडी धु्रव से वापस मांग कर उस के मुंह पर मार दिया…’’

‘‘हांहां, पर धु्रव से क्या कह कर वापस मांगा… मतलब टैडी मांगने के लिए क्या

जोड़तोड़ की?’’

देवांशी ने उत्सुकता से पूछा तो अदिति सीने पर हाथ रख कर स्वांग भरती कहने लगी, ‘‘अरे, उस समय तो धु्रव को यह कह कर बहला लिया कि इस टैडी में मुझे तुम दिखते हो. तुम तो हमेशा मेरे पास रहते नहीं हो, इसलिए इस टैडी को मैं सदा अपने पास रखना चाहती हूं ताकि तुम्हें मिस न करूं… धु्रव भावुक हो गया. ये सब सुन कर उस ने टैडी मुझे सौंप दिया और मैं ने उस ईडियट अर्णव को… और अर्णव ने अपनी बेवकूफ ऐक्स गर्लफ्रैंड को वापस कर दिया.’’

‘‘कैसा भाई है तेरा… और तू भी न… धु्रव को पहला गिफ्ट दिया वह भी भाई की गर्लफ्रैंड का जो उस ने तेरे भाई को दिया था.’’

‘‘अरे मैं ने सोचा फालतू पड़ा है… मतलब टैडी बड़ा क्यूट था… उन का तो ब्रेकअप हो ही चुका था. क्या करता अर्णव उस का सो दे दिया.’’

‘‘दे दिया नहीं ठिकाने लगा दिया.’’

देवांशी के यह कहने पर अदिति धीमे से बोली, ‘‘हां यार, यही गलती हो गई… पर अर्णव, जैसा भी है, है तो आखिर मेरा भाई… हालांकि उस ने झगड़े के बाद परेशान बहुत किया. जानती है, मैं तो तब डर ही गई थी, जब वह चिढ़ कर कहने लगा था कि मैं धु्रव को बता दूंगा कि जो टैडी तुम्हें अदिति ने दिया है दरअसल वह मेरी गर्लफ्रैंड ने मुझे दिया था. अब सोच, वह मुझे शर्मिंदा करे उस से पहले ही मैं ने तिकड़म कर मामला सुलटा लिया वरना पता नहीं क्या होता… अब क्या जानती थी कि धु्रव को अपनी पहली शादी की सालगिरह आतेआते पहली डेट की वह निशानी याद आ जाएगी…’’

अदिति की बात सुन कर देवांशी ने सिर पकड़ लिया. कुछ देर चुप रहने के बाद वह बोली, ‘‘तू ऐसा कर, ऐसा टैडी औनलाइन सर्च कर…’’

‘‘वह भी कर लिया नहीं मिला,’’

अदिति बोली.

देवांशी कुछ देर मौन रहने के बाद बोली, ‘‘अब एक ही रास्ता है… जैसे तुम ने मुझे सारी बात बताई वैसे ही उस की ब्रेकअप वाली फ्रैंड को बता दे. शायद वह तुम्हारी बेवकूफी को समझे और तरस खा कर वह टैडी वापस कर दे.’’

‘‘अर्णव ने यह भी सोचा था, पर पता चला अब वह इंडिया में नहीं है. उस से कोई कौंटैक्ट ही नहीं हो पा रहा है…’’

‘‘बेचारे अर्णव ने मेरी शादी से पहले अपनी इस हरकत के लिए मुझ से माफी मांग ली थी. मैं भी उस की इस बेवकूफी को भाईबहन की बेवकूफियां समझ कर भुला चुकी थी पर अब बता क्या करूं?’’

‘‘तू पागल है अदिति, बिलकुल पागल… शादी के पहले हम बहुत सी बेवकूफियां करते हैं, पर वे बेवकूफियां शादी के बाद भी जारी रहें यह सही नहीं है. सुन, मैं धु्रव को सब बता देती हूं,’’ देवांशी ने मोबाइल उठा लिया.

अदिति ने उस के हाथ से मोबाइल छीनते हुए कहा, ‘‘क्या कर रही है तू… किस मुंह से कहूंगी कि जानूं, मैं ने तुम्हें बेवकूफ बनाया… तुम्हें दिया हुआ पहला गिफ्ट मांगा हुआ था. और तो और, मैं ने तुम्हें बेवकूफ बना कर उसे तुम से वापस हासिल कर के अपने भाई को दे दिया और भाई ने अपनी ब्रेकअप वाली गर्लफ्रैंड को… देख देवांशी, मैं धु्रव को बहुत प्यार करती हूं और ऐसा कोई कदम नहीं उठाना चाहती हूं, जिस से उसे मेरा वह प्यार, वे सारी फीलिंग्स छलावा लगें… वह मुझे तो क्या मेरी पूरी फैमिली को चालू समझेगा.’’

पीले पत्ते: अनुभा का क्या था डा. प्रवीण के लिए फैसला

अनुभा ने डा. प्रवीण की ओर देखा. वे शांत और अनिर्विकार भाव से व्हीलचेयर पर पड़े हुए थे. किसी वृक्ष का पीला पत्ता कब उस से अलग हो जाएगा, कहा नहीं जा सकता, वैसे ही प्रवीण का जीवन भी पीला होता जा रहा था. वह अपने प्यार से बड़ी मुश्किल से थोड़ी सी हरीतिमा ला पाती थी. इन निष्क्रिय हाथपैरों में कब हलचल होगी? कब इन पथराई आंखों में चेतना जागेगी… ये विचार अनुभा के मन से एक पल को भी नहीं जा पाते थे.

‘‘मम्मी, मैं गिर पला,’’ तभी वेदांत रोते हुए वहां आया और अपनी छिली कुहनी दिखाने लगा.

‘‘अरे बेटा, तुझे तो सचमुच चोट लग गई है. ला, मैं दवाई लगा देती हूं,’’ अनुभा ने उसे पुचकारते हुए कहा.

अनुभा फर्स्टएड किट उठा लाई और डेटौल से नन्हें वेदांत की कुहनी का घाव साफ करने लगी.

‘‘मम्मी, आप डाक्तर हैं?’’ वेदांत अपनी तोतली जबान में पूछ रहा था.

वेदांत का सवाल अनुभा के हृदय को छू गया, बोली, ‘‘मैं नहीं बेटा, तेरे पापा डाक्टर हैं, बहुत बड़े डाक्टर.’’

‘‘डाक्तर हैं तो फिल बात क्यों नहीं कलते, मेला इलाज क्यों नहीं कलते.’’

‘‘बेटा, पापा की तबीयत अभी ठीक नहीं है. जैसे ही ठीक होगी, वे हम से बहुत सारी बातें करेंगे और तुम्हारी चोट का इलाज भी कर देंगे.’’

अस्पताल के लिए देर हो रही थी. वेदांत को नाश्ता करवा कर उसे आया को सौंपा और खुद डा. प्रवीण को फ्रैश कराने के लिए बाथरूम में ले गई. आज वह उन के पसंद के कपड़े स्काईब्लू शर्ट और ग्रे पैंट पहना रही थी. कभी जब वह ये कपड़े प्रवीण के हाथ में देती थी तो वे मुसकरा कर कहते थे,  ‘अनु, आज कौन सा खास दिन है, मेरे मनपसंद कपड़े निकाले हैं.’ पर अब तो होंठों पर स्पंदन भी नहीं आ रहे थे. डा. प्रवीण को तैयार करने के बाद उसे खुद भी तैयार होना था. वह विचारों पर रोक लगाते हुए हाथ शीघ्रता से चलाने लगी. यदि अस्पताल जाने में देर हो गईर् तो बड़ी अव्यवस्था हो जाएगी. डा. प्रवीण को तो उस ने कभी भी अस्पताल देरी से जाते नहीं देखा था, यहां तक कि वे कई बार जल्दी में टेबल पर रखा नाश्ता छोड़ कर भी चले जाते.

आज अस्पताल में ठीक 11 बजे हार्ट सर्जरी थी. डा. मोदी, सिंघानिया अस्पताल से इस विशेष सर्जरी को करने आने वाले थे. अनुभा डा. प्रवीण को ले कर अस्पताल रवाना हो गई. आज भी पहले मरीज को डा. प्रवीण ही हाथ लगाते हैं. यह अनुभा के मन की अंधश्रद्धा है या प्रवीण के प्रति मन में छिपा अथाह प्रेम, किसी भी कार्य का प्रारंभ करते हुए प्रवीण का हाथ जरूर लगवाती है. इस से उस के मन को समाधान मिलता है. आज भी डा. प्रवीण ने पेशेंट को छुआ और फिर वह औपरेशन थिएटर में दाखिल हुआ. अनुभा ने प्रबंधन से अस्पताल की अन्य व्यवस्थाओं के बारे में पूछा. सारा काम सही रीति से चल रहा था. अस्पताल के व्यवस्थापन में अनुभा ने कोई कसर नहीं छोड़ी थी.

डा. प्रवीण के केबिन में बैठीबैठी अनुभा खयालों के गहरे अंधकार में डूबउतरा रही थी. गले में स्टेथोस्कोप डाले हुए डा. प्रवीण रहरह कर अनुभा की आंखों के सामने आ रहे थे. एक ऐक्सिडैंट मनुष्य के जीवन में क्याक्या परिवर्तन ला देता है, उस के जीवन की चौखट ही बदल कर रख देता है. आज भी अनुभा के समक्ष से वह दृश्य नहीं हटता जब उन की कार का ऐक्सिडैंट ट्रक से हुआ था. एक मैडिकल सैमिनार में भाग लेने के लिए डा. प्रवीण पुणे जा रहे थे. वह भी अपनी मौसी से मिल लेगी, यह सोच साथ हो ली थी. पर किसे पता था कि वह यात्रा उन पर बिजली बन कर टूट कर गिरने वाली थी. तेजी से आते हुए ट्रक ने उन की कार को जोरदार टक्कर मारी थी. नन्हा वेदांत छिटक कर दूर गिर गया था. अनुभा के हाथ और पैर दोनों में फ्रैक्चर हुए थे. डा. प्रवीण के सिर पर गहरी चोट लगी थी. करीब एक घंटे तक उन्हें कोई मदद नहीं मिल पाई थी. डा. प्रवीण बेहोश हो गए थे. कराहती पड़ी हुई अनुभा में इतनी हिम्मत न थी कि वह रोते हुए वेदांत को उठा सके. बस, पड़ेपड़े ही वह मदद के लिए पुकार रही थी.

2-3 वाहन तो उस की पुकार बिना सुने निकल गए. वह तो भला हो कालेज के उन विद्यार्थियों का जो बस से पिकनिक के लिए जा रहे थे, उन्होंने अनुभा और प्रवीण को उठाया और अपनी बस में ले जा कर अस्पताल में भरती करवाया. आज भी यह घटना अनुभा के मस्तिष्क में गुंजित हो, उसे शून्य कर देती है. अस्पताल में अनुभा स्वयं की चोटों की परवा न करते हुए बारबार प्रवीण का नाम ले रही थी. पर डा. प्रवीण तो संवेदनाशून्य हो गए थे. अनुभा की चीखें सुन कर भी वे सिर उठा कर भी नहीं देख रहे थे. डाक्टरों ने कहा था कि मस्तिष्क से शरीर को सूचना मिलनी ही बंद हो गई है, इसलिए पूरे शरीर में कोई हरकत हो ही नहीं सकती.

अनुभा प्रवीण को बड़े से बड़े डाक्टर के पास ले गई पर कोई फायदा नहीं हुआ. आज इस घटना को पूरे 2 वर्ष बीत गए हैं. डा. प्रवीण जिंदा लाश की तरह हैं. पर अनुभा के लिए तो उन का जीवित रहना ही सबकुछ है. डा. प्रवीण के मातापिता डाक्टर बेटे के लिए डाक्टर बहू ही चाहते थे. किंतु अनुभा के पिता का इलाज करतेकरते दोनों के मध्य प्रेमांकुर फूट गए थे और यही बाद में गहन प्रेम में परिवर्तित हो गया. कितने ही डाक्टर लड़कियों के रिश्ते उन्होंने ठुकरा दिए और एक दिन डा. प्रवीण अनुभा को पत्नी बना कर सीधे घर ले आए थे. शुरुआत में मांबाप का विरोध हुआ, किंतु धीरेधीरे सब ठीक हो ही रहा था कि यह ऐक्सिडैंट हो गया. डा. प्रवीण के मातापिता को एक बार फिर कहने का मौका मिल गया कि यदि डाक्टर लड़की से विवाह हुआ होता तो आज वह अस्पताल संभाल लेती.

इस घटना के करीब 6 महीने बाद तक वह इस तरह खोईखोई रहने लगी थी मानो डाक्टर प्रवीण के साथ वह भी संवेदनाशून्य हो गई हो. इस संसार में रह कर भी वह सब से दूर किसी अलग ही दुनिया में रहने लगी थी.  डा. प्रवीण का जीवनधारा प्राइवेट अस्पताल बंद हो चुका था. अनुभा के मातापिता ने उसे संभालने की बहुत कोशिश की पर सब व्यर्थ. इसी समय डा. प्रवीण के खास दोस्त डा. विनीत ने अनुभा का मार्गदर्शन किया. दर्द से खोखले पड़ गए उस के मनमस्तिष्क में आत्मविश्वासभरा, उसे समझाया कि वह अस्पताल अच्छे से चला सकती है.

अनुभा ने निराश स्वर में उत्तर दिया था, ‘पर मैं डाक्टर नहीं हूं.’ डा. विनीत ने उसे समझाया था कि वह डाक्टर नहीं है तो क्या हुआ, अच्छी व्यवस्थापक तो है. कुछ डाक्टरों को वेतन दे कर काम पर रखा जा सकता है और कुछ विशेषज्ञ डाक्टरों को समयसमय पर बुलाया जा सकता है. शुरूशुरू में उसे यह सब बड़ा कठिन लग रहा था, पर बाद में उसे लगा कि वह यह आसानी से कर सकती हैं. डा. प्रवीण के द्वारा की गई बचत इस समय काम आई. डा. विनीत ने जीजान से सहयोग दिया और बंद पड़े हुए जीवनधारा अस्पताल में नया जीवन आ गया.

अब तो अस्पताल में 4 डाक्टर, 8 नर्स और 8 वार्डबौय का अच्छाखासा समूह है और रोज ही अलगअलग क्षेत्रों के विशेषज्ञ डाक्टर आ कर अपनी सेवा देते हैं. वहां मरीजों की पीड़ा देख कर अनुभा अपने दुख भूलने लगी. जब व्यक्ति अपने से बढ़ कर दुख देख लेता है तो उसे अपना खुद का दुख कम लगने लगता है. डा. प्रवीण को भी इसी अस्पताल में नली के द्वारा तरल भोजन दिया जाने लगा. अनुभा ने प्रवीण की सेवा में कोई कसर नहीं छोड़ी थी. यहां तक कि हर दिन उन की  शेविंग भी की जाती, व्हीलचेयर पर बैठे डाक्टर प्रवीण इतने तरोताजा लगते कि अजनबी व्यक्ति आ कर उन से बात करने लगते थे. डा. प्रवीण आज भी अपने केबिन में अपनी कुरसी पर बैठते थे. अनुभा डा. प्रवीण के सम्मान में कहीं कोई कमी नहीं चाहती थी.

अनुभा की मेहनत और लगन देख कर उस के सासससुर भी उस क लोहा मान गए थे और अनुभा तो इसे अपना पुनर्जन्म मानती है. कहां पहले की सहमीसकुचाई सीधीसादी अनुभा और अब कहां आत्मविश्वास से भरी सुलझे विचारों वाली अनुभा. जिंदगी के कड़वे अनुभव इंसान को प्रौढ़ बना देते हैं, दुख इंसान को मांझ कर रख देता है और वक्त द्वारा ली गई परीक्षाओं में जो खरा उतरता है वह इंसान दूसरों के लिए आदर्श बन जाता है. आज अनुभा इसी दौर से गुजर रही थी. अब वह सबकुछ ठीक तरह से संभालने लगी थी. डा. प्रवीण जो सब की नजरों में संवेदनाशून्य हो गए थे, उस की नजरों में सुखदुख के साथी थे. कोई भी बात वह उन्हें ऐसे बताती जैसे वे सभीकुछ सुन रहे हों और अभी जवाब देंगे. निर्णय तो वह स्वयं लेती पर इस बात की तसल्ली होती कि उस ने डा. प्रवीण की राय ली.

सबकुछ ठीक चल रहा था पर आजकल अनुभा को कुछ परेशान कर रहा था, वह था डा. विनीत की आंखों का बदलता हुआ भाव. औरत को पुरुष की आंखों में बदलते भाव को पहचानने में देर नहीं लगती. जितनी आसानी से वह प्रेम की भावना पहचान लेती है, उतनी ही आसानी से आसक्ति और वासना की भी. पुरुषगंध से ही वह उस के भीतर छिपी भावना को पहचानने में समर्थ होती है. यह प्रकृति की दी हुई शक्ति है उस के पास और इसी शक्ति के जोर पर अनुभा ने डा. विनीत के मन की भावना पहचान ली. आतेजाते हुए डा. विनीत का मुसकरा कर उसे देखना, देर तक डा. प्रवीण के केबिन में आ कर  बैठना, उस से कुछ अधिक ही आत्मीयता जताना, वह सबकुछ समझ रही थी.

डा. विनीत के इस व्यवहार से वह अस्वस्थ हो रही थी. वह तो डा. विनीत को प्रवीण का सब से अच्छा दोस्त मानती थी, क्या मित्रता भी कीमत मांगती है? क्या व्यक्ति अपने एहसानों का मूल्य चाहता है? क्या मार्गदर्शक ही राह पर धुंध फैला देता है? वह इन सवालों में उलझ कर रह जाती थी. एक दिन अनुभा जब वेदांत को छोड़ने प्ले स्कूल जा रही थी, डा. विनीत ने उसे रोक लिया और कहा, ‘‘कब तक अपनी जिम्मेदारियों का बोझ अकेले उठाती रहोगी. अनुभा, अपना हाथ बंटाने को किसी को साथ क्यों नहीं ले लेती?’’ ‘‘ये सारी जिम्मेदारियां मेरी अपनी हैं और मुझे अकेले ही इन्हें उठाना है. फिर भी मैं अकेली नहीं हूं, मेरे साथ प्रवीण और वेदांत हैं,’’ अनुभा ने कुछ सख्ती से जवाब दिया.

किंचित उपहासनात्मक स्वर में डा. विनीत बोले, ‘‘प्रवीण और वेदांत, एक छोटा बच्चा जिस के बड़े होने तक तुम न जाने अपने कितने अरमान कुचल दोगी और दूसरी ओर एक ऐसी निष्चेतन देह से मोह जिस में प्राण नाममात्र के लिए अटके पड़े हैं.’’‘‘डा. विनीत, आप प्रवीण के लिए ऐसा कुछ भी नहीं कह सकते. वे जैसे भी हैं, मैं उन के अलावा किसी और के बारे में सोच भी नहीं सकती. जब तक उन का सहारा है, मैं हर मुश्किल पार कर लूंगी.’’

‘‘तुम निष्प्राण देह से सहारे की बात कर रही हो. अनुभा, तुम्हें अच्छी तरह मालूम है कि किस के सहारे तुम यहां तक आई हो,’’ डा. विनीत तल्खी से बोले.

अनुभा को यह बात गहरे तक चुभ गई, छटपटा कर बोली, ‘‘उपकार कर के जो व्यक्ति उस के बदले में कुछ मांगने लगे, उस का उपकार उपकार नहीं रह जाता, बल्कि बोझ बन जाता है. और मैं आप का यह बोझ जल्द ही उतार दूंगी,’’ भरे गले से किंतु दृढ़ निश्चय के साथ अनुभा ने कहा और वेदांत को ले कर आगे बढ़ गई. डा. विनीत मन मसोस कर रह गए.

इतनी समतल सी दिखने वाली जिंदगी ऐसे ऊबड़खाबड़ रास्तों पर ले जाएगी, अनुभा ने कभी सोचा भी न था. जिस जीवनयात्रा में प्रवीण और उसे साथसाथ चलना था, उस में प्रवीण बीच में ही थक कर उस से आज्ञा मांग रहे थे, नहीं, नहीं, वह इतनी सहजता से प्रवीण को जाने नहीं देगी. वह कुछ करेगी. मुंबई के तो सारे डाक्टरों ने जवाब दे दिया, क्या दुनिया के किसी कोने में कोई डाक्टर होगा जो उस के प्रवीण का इलाज कर देगा. वह अस्पताल में मैडिकल साइंस पर आधारित वैबसाइट पर सर्च करती हुई कंप्यूटर पर घंटों बैठी रहती, कहीं कोई तो सुराग मिले.

वह इन विषयों पर मैडिकल और रिसर्च से जुड़ी विभिन्न पत्रिकाएं मंगाने लगी. वह किसी भी हाल में डा. प्रवीण का इलाज कराना चाहती थी. एक दिन उस ने एक पत्रिका में अमेरिका के उच्च कोटि के न्यूरोसर्जन डा. पीटर एडबर्ग के बारे में पढ़ा. अच्छा यह रहा कि वे अगले महीने कुछ दिनों के लिए भारत आने वाले थे. अनुभा यह अवसर किसी हाल में हाथ से जाने नहीं देना चाहती थी. वह प्रवीण को उन के पास ले कर गई. डाक्टर पीटर ने प्रवीण की अच्छी तरह जांच की, कुछ टैस्ट करवाए और आखिर में इस निर्णय पर पहुंचे कि यदि दिमाग की एक नस, जो पूरी तरह बंद हो गई है, औपरेशन के द्वारा खोल दी जाए तो रक्त का संचालन ठीक तरह से फिर प्रारंभ होगा और शायद मस्तिष्क अपने कार्य करने फिर प्रारंभ कर दे. पर अभी निश्चितरूप से कुछ कहा नहीं जा सकता.

औपरेशन यदि सफल नहीं हुआ तो डाक्टर प्रवीण की जान भी जा सकती थी. डाक्टर पीटर की एक शर्त और थी कि यह औपरेशन सिर्फ अमेरिका में हो सकता है, इसलिए पेशेंट को वहीं लाना पड़ेगा. अनुभा एक बार फिर पसोपेश में पड़ गई थी कि डा. प्रवीण का औपरेशन करवाए कि नहीं. यदि औपरेशन असफल हुआ तो वह उन की देह भी खो देगी. लेकिन निर्णय भी उस ने स्वयं लिया. वह डा. प्रवीण का विवश और पराश्रित रूप और नहीं देख सकती थी, धड़कते हृदय से उस ने औपरेशन के लिए हां कर दी. समय बहुत कम था और उसे ज्यादा से ज्यादा पैसे इकट्ठे करने थे. अपनी सारी जमापूंजी इकट्ठा करने के बाद भी इतना पैसा जमा नहीं हो पाया था कि अमेरिका में औपरेशन हो सके. अचानक अनुभा के ससुर को ये बातें किसी रिश्तेदार के द्वारा पता चलीं और अब तक उस का विरोध करने वाले ससुर उस की मदद करने को तत्पर हो गए. रुपयों का प्रबंध भी उन्होंने ही किया. अनुभा की प्रवीण को बचाने की इच्छा में वे भी सहयोग देना चाहते थे. वे अनुभा के साथ अमेरिका आ गए. वेदांत को अनुभा की मां के पास छोड़ दिया था.

अमेरिका पहुंचते ही डा. प्रवीण को अस्पताल में भरती करवा दिया जहां उस के कई प्रकार के टैस्ट हो रहे थे. डा. पीटर खासतौर से उन का खयाल रख रहे  थे. उन की टीम के अन्य डाक्टरों से भी अनुभा की पहचान हो गई थी. सभी पूरी मदद कर रहे थे. अस्पताल की व्यवस्थाओं में पेशेंट से घर के लोगों का मिलना मुश्किल था, सिर्फ औपरेशन थिएटर ले जाने के पहले 2 मिनट के लिए डा. प्रवीण से मुलाकात करवाई. उस समय अनुभा टकटकी लगाए उन्हें देख रही थी. यह चेहरा फिर मुसकराएगा या हमेशा के लिए खो जाएगा, सबकुछ अनिश्चित था.

करीब 7 घंटे तक औपरेशन चलने वाला था. अनुभा सुन्न सी बैठी अस्पताल की सफेद दीवारों को देख रही थी. इन दीवारों पर उस के जीवन से जुड़ी हुई न जाने कितनी मीठीकड़वी यादें चित्र बन कर सामने आ रही थीं, तभी अनुभा के ससुर ने उस की पीठ पर हाथ रखते हुए कहा, ‘‘धीरज रखो, बेटी, सब ठीक होगा.’’ निश्चित समय के बाद डा. पीटर ने बाहर आ कर कहा, ‘‘औपरेशन हो चुका है. अब हमें पेशेंट के होश में आने का इंतजार करना पड़ेगा.’’

अनुभा जानती थी कि यदि प्रवीण को होश नहीं आया तो वह उसे हमेशा के लिए खो देगी. वह मन ही मन सब को याद कर रही थी. उस की झोली दुखों के कांटों से तारतार है, फिर भी उस ने इतनी जगह सुरक्षित बचाई है जिस में वह प्रवीण के जीवनरूपी फूल को सहेज सके. लगभग 2 दिनों तक डा. प्रवीण की हालत नाजुक थी. उन्हें सांस देने के लिए औक्सीजन का इस्तेमाल करना पड़ रहा था. 2 दिनों के बाद जब उन की हालत कुछ स्थिर हुई तो अनुभा और उस के ससुर को उन से मिलने की अनुमति दी गई.

प्रवीण का सिर पट्टियों से बंधा हुआ था, होंठ और आंखें वैसे ही स्पंदनहीन थीं. अनुभा हिचकियों को रोक कर उसे देख रही थी. तभी नर्स ने उन्हें बाहर जाने का इशारा किया. ससुर बाहर निकल गए, अनुभा के पांव तो मानो जम गए थे, बाहर निकलना ही नहीं चाहते थे. नर्स ने फिर उसे आवाज दी. अनुभा मुड़ने को हुई, तभी उस का ध्यान गया कंबल में से बाहर निकले प्रवीण के दाहिने हाथ पर गया जिस में हरकत हुई थी. अनुभा आंसू पोंछ कर देखने लगी कि प्रवीण के हाथ का हिलना उस का भ्रम है या सच? पर यह सच था. सचमुच प्रवीण का हाथ हिला था. अचानक अस्पताल के सारे नियम भूल कर उस ने प्रवीण के हाथ पर अपना हाथ रख दिया और यह क्या, प्रवीण ने उस का हाथ कस कर पकड़ लिया और जैसे अंधेरी गुफा से आवाज आती है, वैसे ही प्रवीण के मुख से आवाज आई, अनुभा.

हां, यह प्रवीण की ही आवाज थी. कहीं कुछ अस्पष्ट नहीं था. सबकुछ स्वच्छ हो गया था. मार्ग पर छाई धुंध को हटा कर मानो सूरज की किरणें झिलमिला कर अनुभा की बरसती आंखों पर पड़ रही थीं. वह इस प्रकाश की अभ्यस्त न थी. सारे पीले पत्ते झर गए थे, नई कोंपले जीवन की उम्मीद ले कर जो आई थीं.

नास्तिक बहू: नैंसी के प्रति क्या बदली लोगों की सोच

family story in hindi

मां: क्या बच्चों के लिए ममता का सुख जान पाई गुड्डी

story in hindi

Diwali Special: अंतस के दीप- दीवाली में कैसे बदली पूजा और रागिनी की जिंदगी

‘‘अरे रागिनी, 2 बज गए, घर नहीं चलना क्या? 5 बजे वापस भी तो आना है स्पैशल ड्यूटी के लिए.’’ सहकर्मी नेहा की आवाज से रागिनी की तंद्रा टूटी. दीवाली पर स्पैशल ड्यूटी लगने का औफिस और्डर हाथ में दबाए रागिनी पिछली दीवाली की काली रात के अंधेरों में भटक रही थी जो उस के मन के भीतर के अंधेरे को और भी गहरा कर रहे थे. नफरत का एक काला साया उस के भीतर पसर गया जो देखते ही देखते त्योहार की सारी खुशी, सारा उत्साह लील गया. रागिनी बुझे मन से नेहा के साथ चैंबर से बाहर निकल आई.

ऐसा नहीं है कि उसे रोशनी से नफरत है. एक वक्त था जब उसे भी दीपों का यह त्योहार बेहद पसंद था. घर में सब से छोटी और लाड़ली रागिनी नवरात्र शुरू होने के साथ ही मां के साथ दीवाली की तैयारियों में जुट जाती थी. सारे घर में साफसफाई करना, पुराना कबाड़, सालभर से इस्तेमाल नहीं हुआ सामान, छोटे पड़ चुके कपड़े और रद्दी आदि की छंटाई करना व उस के बाद घर की सजावट का नया सामान खरीदना उस का शौक था. इन सारे कामों में तुलसीबाई और पूजा भी उस का हाथ बंटाती थीं और सारा काम मजेमजे में हो जाता था.

दीवाली के सफाई प्रोजैक्ट में कई बार स्टोर में से पुराने खिलौने और कपड़े ?निकलते थे जिन्हें रागिनी और पूजा पहनपहन कर देखतीं व मां को दिखातीं, कभी टूटे हुए खिलौनों से खेल कर बीते हुए दिनों को फिर से जीतीं…मां कभी खीझतीं, कभी मुसकरातीं. कुल मिला कर हंसीखुशी के साथ घर में दीवाली के स्वागत की तैयारियां की जाती थीं.

पूजा उन की घरेलू सहायिका तुलसीबाई की एकलौती बेटी थी और दोनों मांबेटी उन के घर में ही छत पर बने छोटे से कमरे में रहती थीं. पूजा के पिता की जहरीली शराब पीने से मौत हो गई थी. पति की मृत्यु के बाद जवान विधवा तुलसीबाई पर उन की झुग्गी बस्ती का हर पुरुष बुरी नजर रखने लगा तो उस ने रागिनी की मां शीला से उन के घर में रहने की इजाजत मांगी. शीला को वैसे भी एक फुलटाइम सहायक की जरूरत थी, सो, उन्होंने खुशीखुशी हामी भर दी. तब से इस पूरी दुनिया में रागिनी का परिवार ही उन का अपना था. पूजा रागिनी से लगभग 10 वर्ष छोटी थी. खूबसूरत गोलमटोल पूजा उसे गुडि़या सी लगती थी और गुडि़या की तरह ही सजाती, उस के बाल बनाती और उस के साथ खेला करती थी.

समय के साथ दोनों लड़कियां बड़ी हो रही थीं. रागिनी ने इलैक्ट्रिकल इंजीनियरिंग में बीटैक की डिगरी ली और एक कंपीटिशन एग्जाम पास कर बिजली विभाग की राजकीय सेवा में आ गई. रागिनी को पहली पोस्ंिटग जैसलमेर के पास एक छोटे से कसबे फलौदी में मिली. रागिनी के मम्मीपापा उसे अपने शहर जोधपुर से इतनी दूर अकेली भेजने में संकोच कर रहे थे. तभी तुलसीबाई ने उन की मुश्किल यह कह कर आसान कर दी कि दीदी, बुरा न मानें तो छोटे मुंह बड़ी बात कहूं? आप पूजा को रागिनी बेबी के साथ भेज दीजिए. यह उन का छोटामोटा काम कर देगी, दोनों का मन भी लगा रहेगा और आप बेफिक्र भी हो जाएंगी.

हालांकि यह खयाल शीला के दिल में भी आया था मगर वह यह सोच कर चुप रह गई कि पराई बेटी की सौ जिम्मेदारियां होती हैं, कल को कोई ऊंचनीच हो गई तो क्या जवाब दूंगी तुलसी को?

और फिर रागिनी जब अपने पूरे परिवार यानी मम्मीपापा, तुलसीबाई और पूजा के साथ अपनी नौकरी जौइन करने आई तो सब को एकसाथ देख कर रागिनी के अधिकारी मुसकरा उठे. 4 दिन रैस्टहाउस में रह कर स्टाफ की मदद से औफिस के पास ही 2 कमरों का एक छोटा सा फ्लैट किराए पर ले कर रागिनी और पूजा को वहां शिफ्ट कर दिया गया. अब मम्मीपापा रागिनी की तरफ से पूरी तरह बेफिक्र थे.

रागिनी की फील्ड की जौब थी. अकसर उसे साइट्स पर दूरदूर जाना पड़ता था. कई बार तो वापसी में रात भी हो जाती थी. मगर उस के अधिकारी और स्टाफ सभी अच्छे स्वभाव के थे, इसलिए उसे कोई परेशानी नहीं होती थी. घर आते ही पूजा गरमागरम खाना बना कर उस के इंतजार में बैठी मिलती. दोनों साथसाथ खाना खातीं, रागिनी दिनभर का हाल पूजा को सुनाती, उसे दिनभर में मिलने वाले तरहतरह के लोगों के बारे में बताती और दोनों खूब हंसतीं. कुल मिला कर सबकुछ ठीकठाक चल रहा था.

4 महीने बाद रागिनी का खास त्योहार दीवाली आया. वह त्योहार पर अपने घर नहीं जा सकती थी. जिस तरह पुलिस वालों की होली पर और पोस्टमैन की रक्षाबंधन पर स्पैशल ड्यूटी लगती है उसी तरह बिजली विभाग के इंजीनियर्स की दीवाली पर स्पैशल ड्यूटी लगाई जाती है, ताकि बिजली की व्यवस्था सुचारु बनी रहे और लोग बिना व्यवधान के यह त्योहार मना सकें.

रागिनी की धनतेरस से दीवाली तक 3 दिन शाम 5 बजे से रात 12 बजे तक स्पैशल ड्यूटी लगाई गई. पहले 2 दिनों की ड्यूटी आराम से निबट गई. रागिनी की असली परीक्षा तो आज यानी दीवाली के मुख्य त्योहार के दिन ही होनी थी. वह तय समय पर अपने सबस्टेशन पहुंच गई. शाम लगभग 7 बजे फीडरों पर बिजली का लोड बढ़ने लगा. 8 बजे तक लोड स्थिर हो गया और इस बीच किसी तरह की कोई ट्रिपिंग भी नहीं आई यानी सबकुछ सामान्य था.

‘अब लोड और नहीं बढ़ेगा, मुझे एरिया का एक राउंड ले लेना चाहिए,’ यह सोचते हुए रागिनी गाड़ी ले कर राउंड पर निकली. अपनी गली के पास से गुजरते हुए अचानक पूजा का खयाल आ गया तो सोचा, ‘आ ही गई हूं तो घर में दीयाबाती करती चलूं वरना पूजा रात 12 बजे तक घर में अंधेरा किए बैठी रहेगी.’

उसे देखते ही पूजा खुश हो गई. पहली बार दोनों ने घर में दीये जलाए और थोड़ा सा कुछ खा कर रागिनी फिर से निकल पड़ी अपनी ड्यूटी पर.

अब बस, इसी तरह का शेड्यूल बन गया था हर दीवाली पर रागिनी 5 बजे ड्यूटी पर जाती और 8 बजे फिर से ड्यूटी पर चली जाती, फिर दीवाली के दूसरे दिन सप्ताहभर की छुट्टी ले कर दोनों बहनें मम्मीपापा के पास जोधपुर चली जातीं त्योहार मनाने और सालभर की थकान उतारने…

पिछले 3 सालों में काफीकुछ बदल गया था रागिनी और पूजा की लाइफ में. 2 साल पहले अचानक हार्टअटैक से तुलसीबाई की मृत्यु हो गई. पूजा अनाथ हो गई. रागिनी के मम्मीपापा ने उसे विधिवत गोद ले कर अपनी बेटी बना लिया. रागिनी तो उसे हमेशा से ही अपनी छोटी बहन सा प्यार करती थी, अब इस रिश्ते पर सामाजिक मुहर भी लग गई.

सालभर पहले रागिनी की शादी विवेक से हो गई. विवेक भी उसी की तरह विद्युत विभाग में अधिकारी था. उस की पोस्टिंग जैसलमेर में थी. शादी के बाद यह उन की पहली दीवाली थी. मगर हमेशा की तरह दोनों की ही ड्यूटी अपनेअपने सबस्टेशन पर लगी थी. इसलिए दोनों को ही अपनी पहली दीवाली साथ नहीं मना पाने का दुख था. दीवाली के अगले दिन रागिनी विवेक के पास जैसलमेर और पूजा मांपापा के पास जोधपुर चली गई. पहली बार दोनों बहनें अलगअलग बसों में सवार हो कर गई थीं.

रागिनी और उस के घर वाले सभी अब चाह रहे थे कि विवेक और उस का ट्रांसफर एक ही जगह हो जाए तो वे रागिनी की चिंता से मुक्त हो कर पूजा की शादी के बारे में सोचें. दोनों परिवारों ने बहुत कोशिश की, कई नेताओं की सिफारिश लगवाई, सरकारी नियमों का हवाला दिया और लगभग सालभर की मेहनत के बाद आखिरकार रागिनी का ट्रांसफर फलौदी से जैसलमेर हो गया. रागिनी बहुत खुश थी. अब उसे विवेक की जुदाई नहीं सहनी पड़ेगी. अब उस का परिवार पूरा हो सकेगा और पूजा की भी शादी हो जाएगी. कई तरह के सपने देखने लगी थी रागिनी.

ट्रांसफर के बाद पूजा भी रागिनी के साथ जैसलमेर आ गई. यहां विवेक को बड़ा सा सरकारी क्वार्टर मिला हुआ था. एक सहायक भी था घर के काम में मदद करने के लिए, मगर वह सिर्फ बाहर के काम ही देखता था. घर के अंदर की सारी व्यवस्था पूजा ने संभाल ली थी.

अब रागिनी यही कोशिश करती थी कि उसे देर तक घर से बाहर न रहना पड़े. वह औफिस से जल्दी घर आ कर ज्यादा से ज्यादा टाइम विवेक के साथ बिताना चाहती थी. अकसर दोनों शाम को घूमने निकल जाते थे और देररात को लौटते थे. मगर चाहे कितनी भी देर हो जाए, रात का खाना वे पूजा के साथ ही खाते थे. छुट्टी के दिन रागिनी पूजा को भी अपने साथ ले कर जाती थी. कभी पटवों की हवेली, कभी सोनार किला, कभी गढ़ीसर लेक और कभी सम के धोरों पर. तीनों खूब मस्ती करते थे. पूजा भी अधिकार से विवेक को जीजूजीजू कह कर उस से मजाक करती रहती थी. पूरा घर तीनों की हंसी से गुलजार रहता था.

देखते ही देखते फिर से दीवाली आ गई. इस बार रागिनी पूरे उल्लास से यह त्योहार मनाने वाली थी. हमेशा की तरह दोनों बहनों ने मिल कर घर की साफसफाई की, कई तरह के नए सजावटी सामान खरीद कर घर को सजाया. 2 दिन पहले दोनों ने मिल कर कई तरह की मिठाइयां व नमकीन बनाईं. नए कपड़े खरीदे गए. पूरे घर पर रंगीन रोशनी की झालरें लगाई गईं. घर के मुख्यद्वार पर इस बार पूजा ने सुंदर सी रंगोली भी बनाई थी.

हमेशा की तरह शाम 5 बजे रागिनी अपनी ड्यूटी पर निकल गई और विवेक अपनी पर. धनतेरस और छोटी दीवाली बिना किसी अड़ंगे के निकल गई. आज दीवाली का मुख्य त्योहार था. रागिनी विवेक को सरप्राइज देना चाहती थी. वह लगभग 8 बजे औफिस से निकली और सीधे मार्केट गई. ज्वैलरी के शोरूम से विवेक के लिए सोने की चेन ली जो उस ने धनतेरस पर बुक करवाई थी और घर की तरफ गाड़ी घुमा ली.

घर पहुंचने से पहले ही न जाने क्यों किसी अनहोनी की आशंका से उस का दिल बैठने लगा. घर के बाहर शगुन का एक भी दीया नहीं जलाया था आज पूजा ने. घर का दरवाजा भी अंदर से बंद है. दीवाली के दिन तो पूजा घर का दरवाजा एक मिनट के लिए भी बंद नहीं करने देती थी. कहीं उसे कुछ हो तो नहीं गया…घबराई हुई रागिनी जोरजोर से दरवाजा पीटने लगी. दरवाजा कुछ देर में खुला. खुलते ही पूजा रोती हुई रागिनी से लिपट गई.

पूजा के आंसू और विवेक का हड़बड़ाहट में अपनी पैंट पहनते हुए घर से बाहर निकलना, वहां हुए हादसे को बयान करने के लिए काफी था. पत्थर हो गई रागिनी. उस ने तुरंत पूजा का हाथ थामा और निकल गई घर से. रात दोनों ने रोतेरोते विभाग के गैस्टहाउस में बिताई और सुबह होते ही दोनों जोधपुर के लिए निकल गईं.

पीछेपीछे विवेक भी आया था माफी मांगने, मगर रागिनी को अब ऐसे व्यक्ति का साथ कतई स्वीकार नहीं था जिस ने अपनी बहन जैसी साली पर बुरी नियत रखी. मम्मीपापा ने भी उस का ही साथ दिया और दोनों का रिश्ता बनने से पहले ही टूट गया.

आज उसे विशाल बहुत याद आ रहा था जो कालेज के समय से ही उसे बेहद पसंद करता था, उस से शादी करना चाहता था. धर्म के ठेकेदारों के हिसाब से वह छोटी जाति का था, इसलिए रागिनी की हिम्मत नहीं हुई थी उस का जिक्र अपने मम्मीपापा के सामने करने की. हां, पूजा जरूर सबकुछ जानती थी, विवेक से रिश्ता जुड़ने के बाद रागिनी अपने अनकहे प्यार को दिल के एक कोने में दफन कर के सिर्फ विवेक की हो कर रह गई थी.

एक ही विभाग और एक ही शहर होने के कारण रागिनी का विवेक से सामना होना लाजिमी था. उस ने फिर से कोशिश कर के अपना ट्रांसफर फलौदी करवा लिया. पूजा ने सारा कुसूर अपना मानते हुए कभी शादी न करने का रागिनी के साथ रहने की जिद पकड़ ली. मगर रागिनी नहीं चाहती थी कि उस की बहन की जिंदगी बरबाद हो. पिछले दिनों ही एक अच्छा सा लड़का देख मांपापा ने पूजा की शादी करवा दी.

इस दीवाली रागिनी बिलकुल अकेली थी. तन से भी और मन से भी…आज दीवाली का मुख्य त्योहार है. वह बुझे मन से अपनी ड्यूटी कर रही थी. हर बार की तरह आज भी रात 8 बजे वह एरिया के राउंड पर निकली तो अभ्यस्त सी गाड़ी खुदबखुद घर की तरफ मुड़ गई. यह क्या? घर के बाहर दीये किस ने जला दिए. घर का दरवाजा भी खुला हुआ था. दरवाजे पर खड़ी रागिनी पसोपेश में थी, तभी किसी ने पीछे से आ कर उसे बाहों में भर लिया, ‘‘दीवाली मुबारक हो, दीदी.’’

‘‘अरे, पूजा, तुम यहां? आने की खबर तो दी होती. मैं स्टेशन पर गाड़ी भेज देती.’’

‘‘तब यह खुशी कहां देखने को मिलती हमें, दीदी जो अभी आप के चेहरे पर दिखी है,’’ पूजा ने उस का चेहरा अपनी हथेलियों में थामते हुए कहा. पूजा के पति ने झुक कर रागिनी के पांव छू लिए.

‘‘और हां, हम सब ने तय किया है कि अब से आने वाली हर दीवाली हम सब साथसाथ मनाएंगे हमेशा की तरह, पूजा फिर से अपनी बहन से लिपट गई.’’

‘‘अरे भई, और भी बहुत से लोग आए हैं.’’ पीछे से मांपापा की आवाज आई तो रागिनी ने मुड़ कर देखा. मां के पीछे खड़ा विशाल शरारत से मुसकरा रहा था. मां ने रागिनी का हाथ विशाल के हाथ में थमाते हुए कहा, ‘‘हमें पूजा ने सबकुछ बता दिया है. तुम दोनों को दीवाली बहुतबहुत मुबारक हो.’’ यह सुन कर रागिनी की पलकें शर्म से झुक गईं.

घरों की मुंडेरों और छज्जों पर जगमगाते दीपकों के साथ रागिनी के भीतर भी खुशी की लौ झिलमिलाने लगी.

‘‘चलो, चलो, जल्दी से खाना लगा लें, फिर आतिशबाजी करेंगे. दीदी को वापस ड्यूटी पर भी तो जाना है,’’ पूजा ने कहा तो सब मुसकरा उठे. रागिनी मां के कंधे पर सिर टिकाए घर के भीतर चल दी. सब से पीछे चल रहे पापा ने सब की नजर बचा कर अपने आंसू पोंछ लिए.

नशा: क्या रेखा अपना जीवन संवार पाई

family story in hindi

नास्तिक बहू: भाग 3- नैंसी के प्रति क्या बदली लोगों की सोच

नैंसी का बस इतना कहना था कि नलिनी ने प्रचंड रूप धारण कर लिया और कहने लगी,”प्रौब्लम यह है कि तुम चाहती ही नहीं हो कि हम तुम्हारे साथ रहें, मैं तुम्हें किसी बात पर रोकटोक करूं, तुम्हें साड़ी पहनने को कहूं, तुम्हें अपने संग भजनकीर्तन में भाग लेने को कहूं, तुम्हें कालोनी की दूसरी बहुओं की तरह संस्कारी बनाने की कोशिश करूं.”

नैंसी आवाक नलिनी को सुनती रही फिर बीच में ही उसे रोकती हुई बोली,”मम्मीजी, यह सब बेबुनियाद बेकार की बातें आप क्यों कह रही हैं?”

“अच्छा… बेबुनियाद बेकार की बातें? तुम कुछ दिन पहले ओल्ड‌ऐज होम ग‌ई थी और वहां से फौर्म भी ले कर आई हो, तुम हमें वृद्धाश्राम भेजना चाहती हो लेकिन मैं ऐसा नहीं होने दूंगी. हम अपने पुराने मकान में शिफ्ट हो जाएंगे. मैं ने किराएदार से मकान भी खाली करवा लिया है. हम वहीं जा रहे हैं यह उसी की तैयारी है,” नलिनी तमतमाती हुई बोली.

इतना सब सुनने के बाद नलिनी के पति सौरभ चिढ़ते हुए बोले,”यह क्या बकवास कर रही हो. नैंसी ओल्ड‌ऐज होम जरूर गई थी, वहां से वह फौर्म भी ले कर आई है लेकिन हमें ओल्ड‌ऐज होम भेजने के लिए नहीं. नैंसी हर महीने कुछ सेविंग करती है और जब उस के पास अच्छीखासी सेविंग हो जाती है तो वह उन रूपयों से जरूरतमंदों की मदद करती है. कभी किसी गरीब मजदूर बच्चे के स्कूल का फीस भर देती है तो कभी किसी अनाथालय में जा कर उन की सहायता करती है.

“इस बार मैं ने ही उस से कहा कि मेरे दोस्त को सहायता की जरूरत है. मेरे दोस्त के बच्चे उसे वृद्धाश्रम में छोड़ कर, उस से सारे नाते तोड़ कर चले ग‌ए हैं. वह बहुत बीमार है. उस के इलाज के लिए पर्याप्त पैसे नहीं हैं इसलिए नैंसी वृद्धाश्रम गई थी और किसी संस्था में रूपए जमा करने के लिए उन की अपनी कुछ औपचारिकताएं होती हैं, उसी का फौर्म ले कर आई है नैंसी, जो तुम ने देखा होगा.”

यह सुनते ही नलिनी गुस्से में बोली,”अगर ऐसी ही बात है तो आप सब ने मुझे क्यों नहीं बताया?”

नलिनी के इस सवाल का जबाव नैंसी ने बड़े प्यार दिया, वह बोली,”मम्मीजी, क्योंकि मैं यह जानती थी कि अगर मैं आप से कहूंगी कि मेरे पास कुछ रूपए हैं और मैं उन्हें किसी अच्छे कामों में लगाना चाहती हूं तो आप कहतीं कि उसे हम मंदिर के किसी ट्रस्ट को दान दे देते हैं, भव्य भजन संध्या का आयोजन करते हैं या किसी मंदिर में अनुष्ठान करा लेते हैं लेकिन मैं ऐसा कुछ भी नहीं करना चाहती थी, क्योंकि मैं उन पैसों से केवल जरूरतमंदों की सहायता करना चाहती थी और आगे भी यही करना चाहूंगी. और रही बात आप लोगों को वृद्धाश्रम भेजने की तो मैं यह अपने सपने में भी कभी नहीं सोच सकती. आप और पापाजी तो इस घर की शान हैं, इस घर की रौनक हैं. छोटों के सिर पर अपने बड़ों का हाथ होना ही दुनिया की सब से बड़ी दौलत होती है जिसे मैं किसी भी हाल में खोना नहीं चाहती हूं.”

तभी नलिनी का मोबाइल बजा और उस के फोन उठाते ही उस के चेहरे का उड़ता रंग इस बात की पुष्टि कर रहा था कि अवश्य कोई गंभीर बात है. नलिनी के फोन रखते ही सभी ने एक स्वर में कहा,”क्या हुआ?”

नलिनी ने कोई उत्तर नहीं दिया, बस वह नैंसी का हाथ पकड़ कर खींचती हुई बोली,”तू चल मेरे साथ मैं सब बताती हूं,” कहती हुई नलिनी अपनी सहेली सुषमा के घर नैंसी को ले कर पहुंची.

वहां पहुंच कर नैंसी ने जो दृश्य देखा उसे देख कर वह स्तब्ध रह गई. सुषमा और उस के पति का कुछ सामान जमीन पर बिखरे हुए थे. सुषमा रो रही थी, उन के पति खिड़की से बाहर की ओर देखते हुए मौन खड़े थे. बेटा हाथ में हाथ धरे यह सब देख रहा था और सुषमा की सुसंस्कारी बहू उन पर जोरजोर से चिल्ला रही थी.

नलिनी को देखते ही सुषमा भाग कर उस के पास आ गई और उसे गले लगा कर रोती हुई बोली,”नलिनी, देख न रमा क्या कह रही है. यह कह रही है कि हम इस घर को छोड़ कर कहीं और चले जाएं क्योंकि यह घर उस के पति के नाम पर है. इस घर को बनाने के लिए उस के पति ने लोन लिया है. अब तुम ही बताओ इस उम्र में हम अपना घर छोड़ कर कहां जाएंगे?”

यह सुन कर नलिनी ने रमा को बहुत समझाने की कोशिश की कि सासससुर मातापिता के समान होते हैं. यह घर जरूर तुम्हारे पति के नाम पर है लेकिन तुम्हारा पति इन का इकलौता बेटा है. लोन जरूर तुम्हारे पति ने ली है लेकिन इन्होंने भी अपना पुराना घर बेच कर कर इस घर में पैसे लगाया है. अपनी जमापूंजी भी इस घर में लगाई है लेकिन रमा कुछ भी सुनने को तैयार नहीं थी, उलटा वह नलिनी से बदतमीजी पर उतर आई. यह देख नैंसी की आंखें लाल हो गईं और वह रमा पर तनती हुई बोली,”तुम्हें बड़ों से बात करने की तमीज नहीं है यही है तुम्हारे संस्कार.”

नैंसी का इतना कहना था रमा अकड़ती हुई बोली,”तुम संस्कारों के बारे में कुछ जानती भी हो, तुम तो खुद अपने सासससुर को वृद्धाश्रम भेज रही हो और यहां मुझे संस्कारों के पाठ पढ़ाने आई हो.”

“तुम से किस ने कहा कि मैं अपने मम्मीपापा को वृद्धाश्रम भेज रही हूं. तुम जैसी छोटी सोच वाले ही ऐसा सोच सकते हैं और ऐसा कर सकते हैं. मातापिता तो बच्चों के लिए सुरक्षा कवच की तरह होते हैं और अपने सुरक्षा कवच को अपने से अलग नहीं किया जाता, लेकिन तुम्हें यह बात कहां से समझ आएगी, तुम्हारी आंखों पर तो पट्टी बंधी है. तुम एक बात अच्छी तरह से समझ लो कि तुम अंकलआंटी को इस घर से नहीं निकाल सकतीं,” नैंसी ने जोर डालते हुए कहा.

“क्यों? क्यों नहीं निकाल सकती और तुम कौन होती हो मुझे रोकने वाली…” रमा गुर्राती हुई बोली.

“मैं कोई नहीं होती तुम्हें रोकने वाली लेकिन कानून तुम्हें रोक सकता है. बस, एक पुलिस कंप्लैंट की जरूरत है, बेहतर होगा कि तुम अंकलआंटी को ऊपर वाले हिस्से में आराम से रहने दो और तुम अलग रहना चाहती हो तो नीचे के हिस्से में सुकून से रहो और इन्हें भी रहने दो,” नैंसी रमा की ओर उंगली दिखाती हुई बोली.

पुलिस कंप्लैंट की बात सुन कर रमा डर गई और सुषमा और उस के पति का मकान के ऊपरी हिस्से में रहने के लिए मान गई. रमा के मानते ही नैंसी जमीन पर बिखरे सुषमा और उस के पति का सामान उठा कर जमाने लगी. यह देख नलिनी और सुषमा को अपनी सोच पर आज पछतावा हो रहा था. नलिनी को हमेशा इस बात का मलाल था कि उस की बहू नैंसी संस्कारी नहीं है और न तो वह किसी पूजापाठ या भजनकीर्तन में शरीक होती और न ही कोई धर्मकर्म या पुण्य का कार्य करती है लेकिन आज वह समझ गई थी कि असली धर्मकर्म और पुण्य क्या होता है.

सुषमा नलिनी को गले लगाती हुई बोली,”तेरी बहू सच में सुसंस्कारी है, उसे समझने में भूल हम से ही हुई है.”

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें