लड़कियों के बचकानेपन का लाभ

मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय ने एक बलात्कार के अभियुक्त के प्रति नरमी बरतते हुए उसे जमानत पर रिहा कर दिया है क्योंकि अदालत के अनुसार वह लडक़ी अपनी इच्छा से नवंबर 2018 में उस के साथ मंदसौर से सूरत चली गर्ई जहां उसे एक बच्चा भी दोनों के प्रेम से हुआ.

आमतौर पर अदालतों का ऐसे मामलों में भी रुख बहुत ही संख्त होता है और 18 साल से कम की लडक़ी के साथ किसी भी तरह का यौन संबंध बलात्कार ही माना जाता है चाहे लडक़ी के  उकसाने और सहमति पर ही क्यों न यौन संबंध बने हो, कानून मानता है 18 वर्ष से पहले लडक़ी को रत्ती भर अक्ल नहीं होती और उस के बचकानेपन का लाभ उठाने का हक किसी को नहीं. जब लडक़ी भागी थी तो वह 15 साल की थी और लडक़ा 19 साल का.

अदालतों के सामने अब ये समस्या आनी शुरू होगी जब लडक़ालडक़ी स्पष्ट रूप से सहमती से संबंध बनाएंगे और बाद में मुकर जाएंगे. इस आयु में लडक़ी के पिता का खून खौल जाता है और वह ही पुलिस के दरवाजे खटखटा कर अपनी भड़ास निकालता है. इस तरह के स्पष्ट मामले में लडक़ों को दोषी ठहराना या लंबे समय तक जेल में बंद कर देना एक तरह से लडक़ीलडक़े का पूरा जीवन खराब कर देना होगा.

‘मेरी बेटी को मेरी नाक के नीचे से भगा ले गया’ वाली भावना बहुत सा रोष पैदा करती है और मातापिता अक्सर कानूनों का हवाला देकर भागे युगल को पकड़ ही नहीं लाते, पुलिस अदालत की शरण में जा कर अपने वर्षों और बड़ा पैसा खराब कर डालते हैं. अदालतें तो शिकायत होने पर लडक़े को गिरफ्तार करने का आदेश देंगी ही पर कम अदालतें ही समझती हैं कि किशोरावस्था के प्रेम परिपक्व न हों पर गहराई पूरी होती है, यह प्राकृतिक जरूरत है.

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या तो हम लोग लड़कियों को बंद तालों, बुरकों, घूंघटों, परदों में रखें या फिर उन्हें पूरी छूट दें, आगे बढऩे की, अपने सहीगलत फैसलों की, यौन स्वतंत्रता की. वे घर का संबल भी बनें अैर संस्कृति व धर्म के नाम पर अपने पर कंट्रोल भी रखें, संभव नहीं है.

मातापिता का फर्ज है कि वे विवेक से काम लें, आवेश से नहीं. लडक़ी ने बेवकूफी की है तो वे भी उस से बढ़ कर बेवकूफ बन कर लडक़ी पर दुश्चरित्र होने का ठप्पा न लगाएं. समाज तो क्या कोई और उदार युवक भी उन के इस बेकार के पब्लिसिटी वाले काम को माफ नहीं करेगा. वे लडक़ी का पूरा भविष्य भी खराब करेंगे, लडक़े का भी.

हमेशा ही किशोर मांऐ होती रही हैं और पहले जहां उन्हें कूएं में कूद जाने का या चक्ले पर बैठ जाने को बाध्य किया जाता था, आज अकेली मां का वजूद बनता जा रहा है. बेटी 18 साल से कम हो तो भी उसे बलात्कार का मामला दर्ज कराने को उकसाने से उतना ही नुकसान होगा जितना उसके प्रेमी के साथ भागने से हुआ था.

15 साल की उम्र में जो लडक़ी 3 साल युवक के साथ रही. कैसे कह सकती है कि उस के साथ जबरदस्ती हुई या उसे बहकाया गया. अदालत ने वैसे तो सही संदेश दिया है कि उन्हें अपने हाल पर छोड़ दो पर पुलिस और मातापिता इसे मानेंगे, इस में शक है.

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तालिबानी ऐसा क्यों कर रहे हैं?

जैसा की डर था, अफगानिस्तान में तालिबानियों के लौटते ही औरतों की आजादी छिनने लगी है. अफगान औरतों का दफ्तरों में प्रवेश बंद किया जा रहा है और जिन औरतों ने 20 सालों की ‘आजादी’ में पढ़लिख कर सरकारी व निजी सेक्टर में जगह बनाई थीं, उन्हें अब घरों में बैठने को कहा जा रहा है. महिलाओं का मंत्रालय अब इबादल और सही रास्ता दिखाने वाला दफ्तर बन गया है जहां सिर्फ मर्द है.

तालिबानी ऐसा क्यों कर रहे हैं? इसलिए कि उन का धर्म यह कहता है. पर दुनिया का कौन सा धर्म है जो औरतों को आजादी देता है? ईसाई धर्म मानने वाले आज अफगान औरतों के लिए आंसू बहा रहे हैं पर अभी 200 साल पहले तक वे बाइबल से औरतों को पाठ पढ़ाकर कमरों और घरों में बंद ही कर रहे थे.

हिंदू धर्म की हालत कौन सी अच्छी रही है. राजाराम मोहन राय जैसों के आंदोलन आखिर क्यों हुए थीं. शिव पुराण के पूर्वाद्र्ध में प्रथम खंड का पहला ही अध्याय लें. उस में कुछ मुनियों की सूतजी से भेंट का जिक्र है. ये मुनि शिकायत करते हैं. पुराने धर्म का नाश होने वाला है, उन के भविष्य के वर्णन के अनुसार क्षत्रिय सत्यधर्म से विमुख हो कर स्त्रियों के आधीन हो जाएंगे. स्त्रियां पति से सेवा विमुख हो जाएंगी, अन्य पुरुषों से हंसने बोलने लगेंगी. यह भाव क्या आज छिपे तौर पर मौजूद नहीं है.’

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इस्लामी सिरफरे अगर कट्टर शरिया कानून को थोप पा रहे हैं तो इसलिए कि इन कट्टरों को अपने घरों में अपनी मांओं, पत्नियों या बेटियों से विरोध नहीं सहना पड़ता. धर्म का डर सभी औरतों में गहरे बैठा है. काबुल व कुछ शहरों की औरतों को छोड़ दें तो आम अफगान औरतें दुनिया के अन्य हिस्सों की औरतों की तरह धर्म भीरू हैं. अमेरिका में डोनेल्ड ट्रंप की पार्टी अगर औरतों को गर्भपात का अधिकार नहीं देना चाहती तो इसीलिए कि बाइबल में इस का निषेध है. वहां के रिपब्लिक पार्टी के बहुमत वाले कैलिफोॢनया राज्य ने कानून बनाया है कि गर्भपात पहले 6 सप्ताह में ही कराया जा सकता है और इस कानून पर देश की सुप्रीम कोर्ट ने भी मोहर लगा दी है. यह कौन से तालिबानी फैसले से कम है?

दुनियाभर में धर्मों के नाम पर औरतों पर अत्याचार आज भी हो रहे हैं और जिस पर अत्याचार होता है उस से हमदर्दी तो दूसरी औरतें जताती हैं पर उस के साथ बचाव में साथ खड़ी नहीं होतीं, वे धर्म के ईशारे पर मूक समर्थन करती हैं.

जब तक धर्म को छूट मिलती रहेगी, औरतों को धर्म 100 नहीं 1000 साल पहले के माहौल में ले जाने की कोशिश करता रहेगा. यह डर सब देशों में है. सभी देशों में तालिबानी सोच वालों की कमी नहीं है. अफगानिस्तान में शासक धर्म की नाव पर चढक़र आए है पर कहां धर्म का बोलबाला नहीं है, कहां चर्च, मंदिर, मसजिद, मठ चमचमा नहीं रहे. जहां धर्म की चमक होगी वहां औरतों की आजादी की राख पड़ी होगी.

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‘मैं एक फिल्म स्टार नहीं, टेनिस प्लेयर हूं’, जानें क्या कहना चाह रहे हैं महेश भूपति

डबल्स वर्ल्ड नंबर वन टेनिस खिलाडी महेश भूपति से कोई अपरिचित नहीं. उन्होंने टेनिस खिलाडी लिएंडर पेस के साथ मिलकर साल 1997 में पहली बार भारत के लिए अमेरिकी ओपन डबल्स का ख़िताब जीता. उन दोनों की जोड़ी साल 1991 में पहली बार, वर्ष 1952 के बाद जीतने वाली जोड़ी बनी. इसके बाद उन दोनों ने मिलकर तीन डबल्स ख़िताब जीते.उन दोनों की जोड़ी को विश्व रेंकिंग में पहली भारतीय टीम बनने का गौरव हासिल हुआ, लेकिन कुछ वजहों से दोनों के बीच मनमुटाव होने से साथ खेलना बंद कर दिया. पुन: साल 2008 में बीजिंग ओलंपिक के बाद से उन दोनों ने फिर से साथ खेलना शुरू कर दिया. साल 2001 में महेश को पद्मश्री से भी नवाज़ा गया है.

महेश भूपति का खेल जीवन जितना कामयाब था. उतना उनका निजी जीवन नहीं था.उन्हें फ़िल्मी सितारों के करीब रहने के लिए भी जाना जाता है. उनकी पहली पत्नी श्वेता जयशंकर एक मॉडल, उद्यमी, ऑथर और ब्यूटी पेजेंट टाइटल विनर थी, जिससे साल 2002 में महेश ने शादी की, पर ये विवाह अधिक दिनों तक न टिकने की वजह महेश का अभिनेत्री लारा दत्ता से नजदीकियों के बढ़ने से है, जिसे श्वेता ने स्पष्ट एक इंटरव्यू में कहा है. साल 2009 में महेश ने श्वेता से तलाक लिया और वर्ष 2011 को उन्होंने अभिनेत्री लारा दत्ता से शादी की और एक बेटी की पिता बने.

महेश भूपति और लिएंडर पेस की जोड़ी वेब सीरीज ‘ब्रेक पॉइंट’ की 7 एपिसोड कोलाने के लिए निर्माता निर्देशक अश्विनी अय्यर तिवारी और नितेश तिवारी ने कई साल मेहनत किये. हालाँकि बहुत लोगों ने उन्हें इस डोक्यु- ड्रामा करने से मना किया, क्योंकि इंडिया में इसके लिए दर्शक नहीं है, पर लिएंडर पेस और मैं ट्रेंड सैटर बनना चाहता था, फोलोवर्स नहीं.  महेश भूपति अपनी इस उपलब्धि से बहुत खुश है और ज़ूम कॉल पर बात की. पेश है कुछ खास अंश.

सवाल-लिएंडर पेस के खेल की किस खूबी को आप अच्छा मानते है?

मैंने उसकी खेल में हमेशा खेल को आगे ले जाने और देश के लिए एक अच्छा स्कोर करने का रहा है. ये खूबी किसी भी प्लेयर को आगे ले जाने से कोई रोक नहीं सकता.

सवाल-हर व्यक्ति सफलता और असफलता से जीवन में कुछ न कुछ सीखते है, आपने क्या सीखा ?

मैं अपने खेल जीवन से बहुत गर्व महसूस करता हूं, जब मैं टेनिस प्लेयर बना, तो पता नहीं था कि ग्रैंड स्लैम के साथ मेरा नाम जुड़ेगा, जो मेरा सपना था. जब मुझे सफलता सिंगल्स और डबल्स में मिला, तो मुझे अच्छा महसूस हुआ.

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सवाल-यंग प्लेयर्स को आगे बढ़ने के लिए क्या सुझावदेना चाहते है?

हर खिलाडी के खेलने का एक अलग स्टाइल होता है, उसके हिसाब से उन्हें सुझाव देना पड़ता है. खिलाडी अक्सर मुझे खेल के बारें में पूछते रहते है. तब मैं उन्हें सलाह देता हूं.

सवाल-फील्ड में आपको लोगों की उम्मीदों की एक प्रेशर के साथ खेलना पड़ता है, जबकि फिल्म में किसी प्रकार का प्रेशर नहीं होता, अगर कही कुछ गलती होती है, तो रिटेक ले सकते है, आपने दोनों में अंतर क्या महसूस किया है?

मैं एक टेनिस प्लेयर हूं, फिल्म स्टार नहीं और मेरा पूरा कैरियर खेल में बीता है. ये डॉक्यूमेंट्री ड्रामा मैंने काफी दिनों की बातचीत के बाद किया है. दोनों में कोई तुलना नहीं कर सकते, क्योंकि दोनों एक दूसरे से बहुत अलग होता है.

सवाल-क्या ये वेब सीरीज आपके जीवन से जुडी ब्रेक अप को दिखाएगी?

हर किसी के जीवन में कुछ न कुछ निगेटिव चीजे घटती है और उससे निकल कर आगे बढ़ना पड़ता है. मुझे बहुत अच्छा लगेगा, जब मुझे हजारों लोग फिल्म में देखेंगे और उसका एहसास मेरे लिए बहुत अच्छा होगा.

सवाल-क्या लारा दत्ता ने इस फिल्म को देखा है? उनका रिएक्शन क्या रहा?

लारा दत्ता ने इस फिल्म को देखा है और बहुत खुश है, क्योंकि वह इस प्रोजेक्ट की पहले दिन से जुडी है. रिलीज होने का इंतजार कर रही है.

सवाल-पहली बार ग्रैंड स्लैम के जीतने पर परिवार और आपके रिएक्शन क्या थे?

ये वेब सीरीज 7 एपिसोड में सबको दिखाई जाएगी, इसलिए बहुत सारे तथ्य इसमें दिखाए जायेंगे, जिसमें परिवार और मेरी रिएक्शन को भी दिखाया जाएगा. मेरी टेनिस की जर्नी से लेकर वर्ष 2006 की सारी घटनाओं को लिया गया है, जो दर्शकों को भी पसंद आयेगा.

सवाल-बचपन में कब आपको लगा कि आपको टेनिस प्लेयर बनना है ?

मैंने 3 साल की उम्र में टेनिस खेलना शुरू कर दिया था, लेकिन मैं हाई लेवल गेम विमिल्डन में भी खेलूँगा, ये पता नहीं था. विमिल्डन में हम दोनों का खेलना और जीत हासिल करना, ये आज की यूथ के लिए एक प्रेरणा है. इसके अलावा हमारी स्टोरी एक एपिसोड में कहना मुश्किल था, इसलिए 7 एपिसोड का बनाना पड़ा, ताकि कहानी पूरी कही जाय.

सवाल-देश के लिए एक बड़ी ख़िताब लाना, एक खिलाडी के लिए कितना महत्वपूर्ण होता है? आपके अनुभव क्या थे?

इस अनुभव को शब्दों में बयान करना बहुत मुश्किल है, क्योंकि जब कोई खिलाडी खेल के मैदान में जीत हासिल करता है और वहां मेडल सेरेमनी में जब देश का राष्ट्रगान बजता है, तो मन में एक अलग ख़ुशी रहती है और ये हर खिलाडी के साथ होता है. हर खिलाडी के रोंगटें खड़े हो जाते है. इसके अनुभव को किसी भी भाषा में बताया जाना संभव नहीं.

सवाल-पहले की खेल और आज की खेल में काफी परिवर्तन हो चुका है, आज खेल की तकनीक बदल चुकी है, क्या आपने कभी इसे महसूस किया ?

20 साल बाद खेल में परिवर्तन होना लाजमी है, क्योंकि अभी सभी खेलों की तकनीक काफी बदल चुकी है. न्यूट्रिशन से लेकर टेक्नोलॉजी, मिडिया, रिकवरी आदि सब होने से खेल में भी परिवर्तन आया है. आज लोग समय के साथ चल सकते है.

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सवाल-इस वेब में अभिनय करते वक्त आपके बेस्ट मोमेंट क्या थे?

बेस्ट मोमेंट पूरी वेब सीरीज को करते हुए ही था, क्योंकि मैने फिर उस पल को जिया है, जो मैंने आज से सालों पहले प्राप्त किया था.

सवाल-पिछले डेढ़ साल से पेंड़ेमिक चल रहा है, ऐसे में आपने ओटीटी प्लेटफॉर्म पर क्या-क्या देखा है?

हर दिन मैं ओटीटी प्लेटफॉर्म पर नहीं गया, पर बीच-बीच में मैंने कुछ वेब सीरीज देखा है, जिसमें मुंबई डायरी, बेलबॉटम जैसी कई फिल्में है.

सैनिक जोड़े और विवाद

सेना में नौकरी करने पर देश सेवा का अवसर भी मिलता है और अपनी बहादुरी दिखाने का भी पर विवाह में बहुत कठिनाइयां आती हैं. सैनिकों को लंबे समय तक घरों में दूर रहना पड़ता है और कई बार जब उन्हें शहरी पोङ्क्षस्टग भी मिले तो भी जरूरी वहीं मिले जहां उन्होंने या पत्नी ने घर बसाया हो. जहां सैनिक अफसरों को बहुत सी सुविधाएं मिलती हैं, वही पत्नी और बच्चों के साथ सुख से न रहने का गम भी रहता है.

सैनिक जोड़ों में अकसर विवाद इसीलिए खड़े हो जाते हैं कि पतिपत्नी एक साथ नहीं रह पाते और दोनों को एकदूसरे पर शक होने लगता है. जब पति और पत्नी अलग जगहों पर रह रहे हो तो डरा सी भनक पडऩे पर मामला तूल पकड़ सकता है. इस डर से सैनिकों को अब सही पत्नी के चयन में कठिनाइयां होने लगी हैं. जहां प्रेम भी हो रहा हो वहां भी प्रेमिकाएं अकसर लंबे समय तक अकेली रहने के डर से कारण बिदक जाती हैं.

वैसे भारत ने हाल में कोर्ई भी लंबी लड़ाई नहीं लड़ी पर फिर भी असुरक्षित पाकिस्तान व चीन के साथ की सीमा का डर तो रहता ही है. इन इलाकों में बिना लड़ाई की दुर्घटनाएं भी होती रहती हैं. वह भी एक बड़ा डर रहता है और देशभक्ति का नारा लगाने वालों में भी अपनी बेटियों को सैनिकों को खुशीखुशी देने वाले कम ही हैं. सैनिक सेवा का अपना आकर्षण पतिपत्नी विवादों में दब सा जाता है.

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सेना किसी भी देश व समक्ष के लिए एक अनिवार्यता है और उस का हिस्सा होना एक गौरब की बात है और यदि इस के लिए पत्नियों के कोई कुरबानी देनी पड़ती है तो समाज को उसे सहज स्वीकारना चाहिए. बिडंबना यह है कि हमारे धर्म में सैंकड़ों व्रत व अनुष्ठान ऐसे बना रखे हैं जिन में पतिपत्नी दोनों का साथ आवश्यक है. पति चाहे देश सेवा में लगा हो या शहीद हो गया हो, ये व्रत अनुष्ठान अपने जिद नहीं छोड़ते.

करवा चौथ जैसे दिन जब शहरी सेवाओं में रत लोगों की पत्नियां मजे में पति के साथ होती हैं, सैनिक पत्नियों को अकेलापन खाता है. शहीद की पत्नी को हिंदू धर्म विधवा ही मानता है. उस दिन उसे भी एक किनारे कर दिया जाता है.

सैनिकों में अब औरतें भी शामिल होने लगी हैं और सरकार उन्हें बराबर का रोल देने लगे है. जो स्थिति आज पत्नियों की है, कल पतियों की भी हो सकती है. केवल सामाजिक कारणों से सैनिक सेवा पर कोई धब्बा लगे यह बड़े अफसोस की बात होगी.

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खेद है लोकतंत्र नहीं रहा

धर्म व राजसत्ता का गठजोड़ फासीवाद व अंधवाद पैदा करता है. धर्म को सत्ता से दूर करने के लिए ही लोकतंत्र का उद्भव हुआ था. रोम को धराशायी करने में सब से बड़ा योगदान समानता, संप्रभुता व बंधुत्व का नारा ले कर निकले लोगों का था. ये लोग धर्म के दुरूपयोग से सत्ता पर कब्ज़ा कर के बैठे लोगों को उखाड़ कर फेंकने को मैदान में उतरे थे व राजशाही को एक महल तक समेट कर ब्रिटेन में लोकतंत्र की और आगे बढे.

बहुत सारे यूरोपीय देश इस से भी आगे निकल कर राजतन्त्र को दफन करते हुए लोकतंत्र की और बढे और धर्म को सत्ता के गलियारों से हटा कर एक चारदीवारी तक समेट दिया, जिसे नाम दिया गया वेटिकन सिटी.

आज किसी भी यूरोपीय देश में धर्मगुरु सत्ता के गलियारों में घुसते नजर नहीं आएंगे. ये तमाम बदलाव 16वीं शताब्दी के बाद नजर आने लगे, जिसे पुनर्जागरण काल कहा जाने लगा अर्थात पहले लोग सही राह पर थे फिर धार्मिक उन्माद फैला कर लोगों का शोषण किया गया और अब लोग धर्म के पाखंड को छोड़ कर उच्चता की और दुबारा अग्रसर हो चुके है.

आज यूरोपीय समाज वैज्ञानिक शिक्षा व तर्कशीलता के बूते दुनियां का अग्रणी समाज है. मानव सभ्यता की दौड़ में कहीं ठहराव आता है तो कहीं विरोधाभास पनपता है, लेकिन उस का तोड़ व नई ऊर्जा वैज्ञानिकता के बूते हासिल तकनीक से हासिल कर ली जाती है.

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आज हमारे देश में सत्ता पर कब्ज़ा किये बैठे लोगों की सोच 14वीं शताब्दी में व्याप्त यूरोपीय सत्ताधारी लोगों से ज्यादा जुदा नहीं है. मेहनतकश लोगों व वैज्ञानिकों के एकाकी जीवन व उच्च सोच के कारण कुछ बदलाव नजर तो आ रहे है, लेकिन धर्मवाद व पाखंडवाद में लिप्त नेताओं ने उन को इस बात का कभी क्रेडिट नहीं दिया.

जब किसी मंच पर आधुनिकता की बात करने की मज़बूरी होती है तो इन लोगों की मेहनत व सोच को अपनी उपलब्धि बताने की कोशिश करने लगते है. ये ही लोग दूसरे मंच पर जाते है तो रूढ़िवाद व पाखंडवाद में डूबे इतिहास का रंगरोगन करने लग जाते है.

धर्मगुरुओं का चोला पहन कर इन बौद्धिक व नैतिक भ्रष्ट नेताओं के सहयोगी पहले तो लोगों के बीच भय व उन्माद का माहौल पैदा करते है और फिर सत्ता मिलते ही अप्रत्यक्ष रूप से सत्ता के केंद्र बन बैठते है.

सरकारे किसी भी दल की हो, यह कारनामा करने से कोई नहीं हिचकता. पंडित नेहरू से ले कर नरेंद्र मोदी तक हर प्रधानमंत्री की तस्वीरें धर्मगुरुओं के चरणों में नतमस्तक होते हुए नजर आ जायेगी.

गौरतलब है कि जब धर्मगुरु जनता द्वारा चुने गए प्रधानमंत्री से ऊपर होते है तो लोकतंत्र सिर्फ दिखावे से ज्यादा कुछ नहीं होता और बेईमान लोग इसी लोकतंत्र नाम की दुहाई दे कर मख़ौल उड़ाते नजर आते है.

इसी रोगग्रस्त लोकतंत्र की चौपाई का जाप करतेकरते अपराधी संसद में बैठने लगते है तो धर्मगुरु लोकतंत्र के संस्थानों को मंदिर बता कर पाखंड के प्रवचन पेलने लग जाते है और नागरिकों का दिमाग चक्करगिन्नी की तरह घूमने लग जाता है. नागरिक भ्रमित होकर संविधान भूल जाते है और टुकड़ों में बंटी सत्ता के टीलों के इर्दगिर्द भटकने लग जाते है.जहाँ जाने के दरवाजे तो बड़े चमकीले होते है लेकिन लौटने के मार्ग मरणासन्न तक पहुंचा देते है.

इस प्रकार लोकतंत्र समर्थक होने का दावा करने वाले लोग प्राचीनकालीन कबायली जीवन जीने लग जाते है, जहांं हर 5-7 परिवारों का मुखिया महाराज अधिराज कहलाता था. आजकल लोकतंत्र में यह उपाधि वार्डपंच, निगमपार्षद व लगभग हर सरकारी कर्मचारी ने हासिल कर ली है.जिनको नहीं मिली वो कोई निजी संगठन का मनगढ़त निर्माण कर के हासिल कर लेता है. इस प्रकार मानव सभ्यता वापिस पुरातनकाल की ओर चलने लग गई व लोकतंत्र अपने पतन की ओर.

जहां सत्ता धर्म से सहारे की उम्मीद करने लगे व धर्म सत्ता के सहारे की तो लोकतंत्र का पतन नजदीक होता है, क्योंकि लोकतंत्र का निर्माण ही इन उम्मीदों पर पानी फेरने के लिए ही हुआ है.

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आज ये दोनों ताकत के केंद्र आपस में मिल गए है तो लोकतंत्र असल में अपना वजूद खो चुका है. अब हर अपराधी, भ्रष्ट, बेईमान, धर्मगुरु, लुटेरे आदि हर कोई अपनेअपने हिसाब से लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं का इस्तेमाल करने लग गया है.

जब सत्ता में इन लोगों का बोलबाला होने लग गया तो लोकतंत्र आम नागरिकों से दूर हो चूका है. संवैधानिक प्रावधान चमत्कार का रूप ले चुके है, जिस को सुना जाए तो बहुत ही सुहावने लगते है लेकिन कभी हकीकत में नहीं बदल सकते.

किसान आंदोलन के प्रति राजनैतिक व धार्मिक दोनों सत्ता के केंद्रों का रवैया दुश्मनों जैसा है. अपने ही देश के नागरिकों व अपने ही धर्म के अनुयायियों के प्रति यह निर्लज्ज क्रूरता देख कर प्रतीत होता है कि अब लोकतंत्र नहीं रहा.

समलैंगिकता और मिथक

कुछ दिनों पहले एक फ़िल्म आई थी शुभ मंगल ज़्यादा सावधान उसमें के समलैंगिक जोड़े को अपनी शादी के लिए परिवार समाज और माता पिता से संघर्ष करते हुए दिखाया था वो कहीं न कहीं हमारे समाज की सच्चाई और समलैंगिकों के प्रति होने वाले व्यवहार के बहुत करीब थी.

अब जबकि समलैंगिकता गैरकानूनी नहीं रही है ऐसे में समलैंगिक लोग खुलकर सामने आ रहे हैं . पहले अपने रिश्तों को स्वीकारने में ऐसे जोड़ों को जो झिझक होती थी अब वो कम हुई है. कानून कुछ भी कहे पर समाज में अभी भी ऐसे जोड़ों को स्वीकृति नहीं मिली है. लोग ऐसे जोड़ों को स्वीकारने में संकोच करते हैं क्योंकि उनके मन मे इन लोगों को लेकर कई प्रकार की धारणाएँ और पूर्वाग्रह हैं. कुछ ऐसे ही मिथकों के बारे में हम बता रहे हैं.

मिथक-ये वंशानुगत है

सच-समलैंगिकता वंशानुगत नहीं होती है इसके लिए कई कारक जिम्मेदार हो सकते हैं. कई लोग बचपन से ही अपने माँ या पिता या भाई बहन पर भावनात्मक रूप से निर्भर रहते हैं इसके कारण उनकी रुचि पुरुष या महिलाओं में हो सकती है और वो समलैंगिकता अपना सकते हैं. जेंडर आइडेन्टिटी डिसऑर्डर भी इसकी एक वाजिब वजह है. ये एक ऐसी बीमारी है जो समलैंगिकता के लिए जिम्मेदार है. इस बारे में कई थ्योरी हैं जिनके आधार पर बात की जाती है. अभी सही सही कारणों का पता तो नहीं लग पाया है फिर भी ये मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि समान सेक्स के लिए शारीरिक आकर्षण अप्राकृतिक तो नहीं है.  वैसे भी स्वभाव से मनुष्य बाइसेक्सुअल होता है ऐसे में उसकी रुचि किसी मेभी हो सकती है. डॉ रीना ने बताया कि मेरे पास आने वाले जोड़ों में किसी के घर मे कोई समलैंगिक नही था. उनके अनुसार किसी को समलैंगिक बनाया नहीं जा सकता है . समलैंगिक होना भी उतना ही स्वाभाविक है जितना एक स्त्री और पुरुष के बीच का रिश्ता़ें.

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मिथक-ये लोग असामान्य होते हैं

सच-मनोचिकित्सकों की मानें तो ये लोग आपकी और हमारी तरह ही सामान्य बुद्धि के होते हैं बस अंतर है सेक्स की रुचि का. बाकी अगर देखा जाए तो बुद्धि इनकी भी सामान्य ही होती है. भावनाओं की बात करें तो ये बहुत अधिक भावुक होते हैं क्योंकि हर वक़्त इन्हें अपने स्वीकार्य को लेकर चिंता बनी रहती है. इनके लिए विरोध की पहली शुरुवात घर से ही हो जाती है क्योंकि माता पिता और परिवार समलैंगिकता को सामाजिक प्रतिष्ठा से जोड़ के देखते हैं. हर एक के लिए सामान्य होने की अलग परिभाषा होती है पर समलैंगिकों की बात करें तो चूँकि इनके रिश्ते में संतानोत्पत्ति सामान्य तरीके से संभव नहीं इसलिए इस रिश्ते को समाज सामान्य नहीं मानता. वंश को आगे बढ़ना हमारी सामाजिक सोच का हिस्सा है जिसकी पूर्ति इस से संभव नहीं . पर मनोचिकित्सकों की माने तो यहाँ बात सामान्य होने की नहीं बल्कि सेक्स में उनकी रुचि की है. यदि कोई व्यक्ति समान सेक्स के प्रति आकर्षण महसूस करता है तो ये पूरी तरह सामान्य बात है. मुम्बई के हीरानंदानी अस्पताल के मनोचिकित्सक डॉ हरीश शेट्टी के अनुसार अपने ही सेक्स के व्यक्ति के रुचि रखना एक सामान्य बात है क्योंकि ऐसे लोगों को विपरीत सेक्स के प्रति कोई आकर्षण नहीं होता. मनोचिकित्सक कहते हैं कि एक समलैंगिकता स्वाभाविक तौर पर होती है जो खुद की चुनी हुई होती है और एक परिस्थितिजन्य होती है जिसमे किसी अनजान भय जैसे कि मैं विपरीत सेक्स वाले के साथ होने पर उसे संतुष्टि दे सकूँगा /सकूँगी या नहीं ये छद्म समलैंगिकता है.

मिथक- इन्हें यौन संक्रमण ज्यादा होता है

सच-कुछ लोगों का मत है कि सेक्स वर्कर्स , किन्नरों नशे के इंजेक्शन लेने वाले नशेड़ियों और समलैंगिकों में एड्स और अन्य यौन जनित रोग होने की संभावना अधिक होती है. अभी कुछ समय पहले हमारे यहाँ समलैंगिकता को कानूनी रुप से मान्यता न होने से एक ही साथी के साथ घर  बसा के नहीं रह पाते थे ऐसे में शारीरिक आवश्यकताओ के कारण एक से अधिक लोगों के साथ संबंध बन जाना भी इसका मुख्य कारण है. हालाँकि ऐसा नहीं है कि एस टी डी केवल समलैंगिकों को होती है ये तो हेट्रोसेक्सुअल लोगों में भी होती है. यौन संबंधों में सुरक्षा का खयाल न रखा जाए तो भी ऐसे रोगों का खतरा होता है. इसलिए ये एक मिथक ही है कि समलैंगिकों में सेक्सुअल ट्रांसमिटेड डिसीज़ ज्यादा होती हैं.

मिथक- शादी इसका हल है

सच-समलैंगिकों से जुड़ा सबसे बड़ा मिथक ये है कि इनकी शादी करा दी जाए तो सब ठीक हो जाएगा जबकि ऐसा बिल्कुल भी नही है. कई बार माता पिता दबाव डाल कर शादी कर देते हैं ऐसे में जिस से शादी होती है उसका जीवन तो खराब होता ही है बल्कि दूसरे का जीवन खडाब करने का अपराधबोध उनके बच्चे को भी अवसादग्रस्त कर देता है सब मिला कर शादी इसका हल नहीं है. यदि आपके बच्चे ने आपको अपनी सेक्सुअल वरीयता के बारे में बता रखा है तो ऐसे में उस पर दबाव डालकर शादी करने की भूल कभी न करें क्योंकि इस से दो जीवन खराब होंगे. ऐसी शादियाँ सिवाय असंतुष्टि के कुछ नहीं देतीं क्योंकि ऐसे लोगों में विपरीत सेक्स के प्रति कोई भावना नहीं पनप पाती ऐसे में वो अपने साथी के साथ रिश्ते बनाने में असमर्थ होता है नतीजतन शादी टूट जाती है.

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मिथक-ये वंश वृद्धि में असमर्थ होते हैं

सच-लोग कहते हैं कि अगर ऐसी शादी होगी तो वंश का क्या होगा क्योंकि प्राकृतिक तरीके से संतानोत्पत्ति संभव नहीं होगी. पर सच ये है कि यदि बच्चे की इच्छा है तो आजकल आई वी एफ के द्वारा ये किया जा सकता है . बच्चा गोद लेना भी एक अच्छा विकल्प है. यदि ऐसा व्यक्ति जो विपरीत सेक्स के प्रति झुकाव महसूस नहीं करता वो अपने साथी के साथ रहता है और अपना जैविक बच्चा चाहता है तो एग डोनेशन या स्पर्म डोनेशन और सरोगेसी इसका अच्छा उपाय है. मनोचिकित्सकों के अनुसार सेक्स सिर्फ़ बच्चा पैदा करने का जरिया नहीं है बल्कि ये भावनात्मक लगाव दर्शाने का और अपने साथी का प्यार पाने का तरीका भी है .

और बाइज्जत बरी…

17जनवरी, 2014 को सुनंदा पुष्कर नई दिल्ली के 7 स्टार होटल लीला पैलेस के सुइट नंबर 345 में मृत पाई गईं. प्रथम दृष्टया यह सभी को आत्महत्या का मामला लगा.

19 जनवरी, 2014 को सुनंदा पुष्कर का पोस्ट मार्टम हुआ. डाक्टरों ने कहा कि यह अचानक अप्राकृतिक मौत का मामला लगता है. उन के शरीर में ऐंटी ऐंग्जाइटी दवा अल्प्राजोलम के नाममात्र के संकेत मिले हैं. सुनंदा के हाथों पर एक दर्जन से ज्यादा चोट के निशान थे. उन के गाल पर घर्षण का एक निशान था और उन की बाईं हथेली के किनारे पर दांत से काटे का निशान था.

सुनंदा पुष्कर की मौत की जांच दिल्ली पुलिस की क्राइम ब्रांच को सौंपी गई. लेकिन मामला 2 दिन बाद वापस दिल्ली पुलिस को ट्रांसफर कर दिया गया.

जुलाई, 2014 में सुनंदा पुष्कर का पोस्ट मार्टम करने वाले पैनल के लीडर एम्स के डाक्टर सुधीर गुप्ता ने दावा किया कि उन पर औटोप्सी  रिपोर्ट में हेरफेर करने के लिए दबाव बनाया गया था. सुधीर गुप्ता ने केट यानी केंद्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण में एक हलफनामा दायर कर आरोप लगाया कि उन पर मामले को छिपाने और क्वाटर मैडिकल रिपोर्ट देने के लिए दबाव बनाया गया. सुधीर ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि सुनंदा के शरीर पर चोट के 15 निशान थे जिन में से अधिकांश ने मौत में योगदान नहीं दिया. बकौल डाक्टर सुधीर गुप्ता सुनंदा के पेट में अल्प्राजोलम दवा की अधिक मात्रा मौजूद थी.

जनवरी, 2015 में दिल्ली के तत्कालीन पुलिस आयुक्त बीएस बस्सी ने कहा कि सुनंदा पुष्कर ने आत्महत्या नहीं की बल्कि उन की हत्या की गई है. इस के बाद दिल्ली पुलिस ने अज्ञात लोगों के खिलाफ हत्या का मामला दर्ज कर लिया.

फरवरी, 2016 में दिल्ली पुलिस के विशेष जांच दल ने शशि थरूर से पूछताछ की जिस में उन्होंने कहा कि सुनंदा की मौत दवा की ओवर डोज के कारण हुई.

जुलाई, 2017 में भाजपा के वरिष्ठ नेता सुब्रमण्यम स्वामी ने दिल्ली हाई कोर्ट से मांग की कि इस मामले की जांच सीबीआई के नेतृत्व वाले विशेष जांच दल से अदालत की निगरानी में करवाई जाए.

2018 में दिल्ली पुलिस ने शशि थरूर पर अपनी पत्नी सुनंदा पुष्कर को आत्महत्या के लिए उकसाने (आईपीसी की धारा 306) और क्रूरता (धारा 498ए) का आरोप लगाया. दिल्ली के पटियाला हाउस कोर्ट ने उन्हें इस मामले में मुजरिम माना.

15 मई, 2018 को पुलिस ने शशि थरूर के खिलाफ आरोप पत्र दायर किया.

जुलाई, 2018 में एक सैसन कोर्ट ने शशि थरूर को इस मामले में अग्रिम जमानत दी, जिसे बाद में नियमित जमानत में बदल दिया गया.

12 अप्रैल, 2021 को अदालत ने फैसला सुरक्षित रखा.

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18 अगस्त, 2021 को एक वर्चुवल सुनवाई में अदालत ने शशि थरूर को बरी कर दिया. अपना फैसले में अदालत ने कहा कि शशि थरूर के खिलाफ उन्हें ऐसा कोई साक्ष्य नजर नहीं आया जिस के आधार पर उन के खिलाफ मुकदमा चलाने की मंजूरी दी जा सके. कोई भी जांच या रिपोर्ट सीधे तौर पर उन्हें कठघरे में खड़ा नहीं कर रही है इसलिए शशि थरूर को आरोपमुक्त किया जाता है.

यह हाई प्रोफाइल मामला जो बाद में टांयटांय फिस्स साबित हुआ पूरे साढ़े 7 साल चला लेकिन इस का जिम्मेदार शनि नाम का वह काल्पनिक क्रूर ग्रह नहीं है जो ज्योतिषियों की आमदनी का बड़ा जरीया है, जिस का खौफ भारतीयों के दिलोदिमाग में इस तरह बैठा दिया गया है कि वे इस से छुटकारा पाने के लिए मुहमांगी दानदक्षिणा देने को तैयार रहते हैं.

शशि थरूर पर कानूनी प्रक्रिया का शनि था जिस ने उन्हें साढ़े 7 साल चैन से न तो खानेपीने और न ही सोने दिया, लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और सामान्य जिंदगी जीते हुए पूरे आत्मविश्वास से लड़े और जीते भी.

ऐसी थी इन की लव स्टोरी

सुनंदा पुष्कर उतनी ही सुंदर थीं जितना कि कश्मीर के बोमाई इलाके में जन्मी एक कश्मीरी पंडित परिवार की लड़की को होना चाहिए. सुनंदा के पिता पुष्कर नाथ दास सेना में लैफ्टिनैंट कर्नल थे. सुनंदा जितनी खुबसूरत थीं उतनी ही मेहनती, हिम्मती और महत्त्वाकांक्षी भी थीं. स्कूली और कालेज की पढ़ाई सुनंदा ने श्रीनगर के गवर्नमैंट ‘कालेज फौर वूमन’ से की और बतौर कैरियर बजाय नौकरी के बिजनैस को चुना. सुनंदा की पहली शादी कश्मीर के ही संजय रैना से हुई थी लेकिन दोनों में 3 साल में ही खटपट होने लगी जिस के चलते तलाक हो गया.

3 साल बाद ही 1991 में सुनंदा ने सुजीत मेनन नाम के व्यापारी से दूसरी शादी कर ली और दोनों व्यापार के लिए दुबई चले गए. व्यापार शुरू में तो ठीक चला पर बाद में जब घाटा होने लगा तो सुजीत भारत आ गए. इन दोनों को तब तक एक बेटा हो चुका था जिस का नाम इन्होंने शिव मेनन रखा.

सुजीत की 1997 में एक ऐक्सीडैंट में मौत हो गई तो सुनंदा टूट गईं. लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और अपने दम पर बेटे की परवरिश करती रहीं. दुबई में उन्होंने ‘ऐक्सप्रैस’ नाम की इवेंट कंपनी शुरू की थी जो तरहतरह के इवेंट आयोजित करती थी. जिंदगी चलाने और पैसा कमाने के लिए सुनंदा ने कई नौकरियां भी कीं और आर्टिफिशियल ज्वैलरी का काम भी किया.

पैसा कमाने पर ज्यादा फोकस

बेटे शिव की एक बीमारी के इलाज के लिए सुनंदा लंबे वक्त तक कनाडा में रहीं और वहां की नागरिकता भी उन्होंने ले ली. दुबई वापस आने के बाद उन्होंने कई कंपनियों के साथ काम किया और खासा पैसा बनाया इतना कि दुबई के पौश इलाकों में उन्होंने 3 मकान ले लिए. पहले पति से तलाक और दूसरे की मौत का दुख सुनंदा भूलने लगीं क्योंकि उन्होंने लगातार खुद को व्यस्त रखा और ज्यादा से ज्यादा फोकस पैसा कमाने पर किया जो उन के लिए बहुत जरूरी थी.

सदमों से उबर चुकी सुनंदा को फिर सहारे की जरूरत महसूस हुई जो पूरी शशि थरूर जैसी नामी हस्ती से हुई. इन दोनों की पहली मुलाकात 2008 में दिल्ली में इंपीरियल अवार्ड समारोह में हुई थी. यहीं दोनों में दोस्ती हो गई. 1 साल दोनों एकदूसरे को डेट करते रहे. तब सुनंदा 46 साल की थीं और शशि थरूर 52 साल के थे. फिर दोनों दुबई में मिले तब सुनंदा वहीं रहती थीं.

दोनों परिपक्व थे, लिहाजा उन्होंने रोमांस के साथसाथ दुनियाजहान की भी बातें कीं और आने वाली जिंदगी की भी प्लानिंग की. शशि थरूर तब केंद्रीय मंत्रिमंडल में थे इसलिए उन्हें काफी संभल कर रहना पड़ता था.

छिपा नहीं प्यार

मगर यह प्यार छिपा नहीं रह सका लिहाजा सस्पेंस खत्म करते हुए दोनों ने न केवल शादी की घोषणा कर दी बल्कि 22 अगस्त, 2010 को शादी कर भी ली.

यह शादी शशि थरूर के पैतृक गांव पल्लल्कड में समारोहपूर्वक हुई जिस की चर्चा सिर्फ केरल में ही नहीं बल्कि पूरे देश और विदेशों में भी हुई थी. तिरुअनंतपुरम में भी प्रीतिभोज हुआ था और उस के बाद शशिसुनंदा हनीमून मनाने स्पेन के लिए उड़ लिए थे. दिलचस्प बात यह थी कि दुलहन की तरह दूल्हे की भी तीसरी शादी थी.

सब से आकर्षक और सोशल मीडिया पर सैक्सी व रोमांटिक सांसद के खिताब से नवाज दिए गए शशि थरूर की पहली शादी मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री और नेहरु मंत्रिमंडल में शामिल रहे कैलाश नाथ काटजू की पोती तिलोत्तमा मुखर्जी से 1981 में हुई थी.

तिलोत्तमा भी कालेज में बेहद लोकप्रिय थीं उस पर बेमिसाल खूबसूरत भी तो शशि उम्र में अपने से बड़ी इस लड़की पर मर मिटे. दोनों आधुनिक और अमीर परिवारों से थे, इसलिए कोई अड़चन उन की लव मैरिज में नहीं आई. शादी के बाद तिलोत्तमा नागपुर के एक कालेज में पढ़ाने लगीं और शशि संयुक्त राष्ट्र से जुड़ गए. शादी के बाद दूसरे साल ही इस कपल को जुड़वां बेटे हुए. नामालूम वजहों के चलते दोनों 2007 में अलग हो गए. तिलोत्तमा न्यूयौर्क यूनिवर्सिटी में प्रोफैसर हो गईं.

जाग उठी महत्त्वाकांक्षाएं

इस शादी के टूटने के बाद अफवाह यह उड़ी थी कि शशि का अफेयर संयुक्त राष्ट्र के एक विभाग की डिप्टी सैक्रेटी चेरिस्टा गिल से चल रहा था जो तिलोत्तमा को नागवार गुजरा था. इन दोनों के रोमांस के चर्चे भी संयुक्त राष्ट्र के गलियारे में होने लगे थे. सच क्या है यह तो शशि थरूर ही बेहतर बता सकते हैं, लेकिन अफवाहें निराधार नहीं थीं. उन्होंने 2007 में चेरिस्टा से शादी कर ली. अब तक वे संयुक्त राष्ट्र में डिप्टी सैक्रेटरी बन चुके थे जो पूरे देश के लिए गर्व की बात थी.

2008 में शशि थरूर देश वापस आ गए और कांग्रेस जौइन कर ली और 2009 का चुनाव जीत कर लोक सभा भी पहुंचे. इस खूबसूरत नेता को लोगों ने हाथोंहाथ लिया तो उन की महत्त्वाकांक्षाएं और भी सिर उठाने लगीं. लेकिन चेरिस्टा को भारतीय आवोहवा रास नहीं आई और एक तलाक और हो गया. हालांकि इस तलाक की वजह सुनंदा पुष्कर से उन की बढ़ती नजदीकियां भी आंकी गई थीं.

फिर आई मेहर

लगता ऐसा है कि शशि थरूर को पहले शादी फिर किसी और से रोमांस और फिर पत्नी को तलाक देने की लत सी पड़ती जा रही थी. सुनंदा ने उन के इस स्वभाव के बारे में शायद ज्यादा नहीं सोचा था या फिर ज्यादा ही सोच लिया होगा इसलिए वे डिप्रैशन की शिकार रहने लगीं. अब चर्चा उड़ी शशि थरूर और पाकिस्तानी पत्रकार मेहर तरार के अफेयर की जो शशि की जिंदगी में घोषित तौर पर आई तीनों महिलाओं से कम सुंदर और कम प्रतिभाशाली नहीं थीं.

जैसे ही एक दिन अपनेआप में घुट रहीं सुनंदा ने ट्विटर पर अपने पति के नए प्यार का अनावरण कर डाला तो फिर हल्ला मचा जो विवाद में उस वक्त बदला जब मेहर ने सोशल मीडिया पर इस पर प्रतिक्रिया दी. लगा ऐसा था मानों झग्गीझेंपड़ी की 2 औरतें साड़ी कमर में खोंसे एकदूसरे से कह रही हों कि संभाल कर क्यों नहीं रखती अपने खसम को और जबाव में दूसरी उसी टोन में कह रही है कि संभाल कर तो तू अपनेआप को रख… यहांवहां कमर मटकाती घूमती रहती है.

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मीडिया ने इस बार भी खूब चटखारे लिए तो शशिसुनंदा को संयुक्त बयान जारी कर अपनी निजी जिंदगी और गृहस्थी की दुहाई देनी पड़ी. लेकिन सुनंदा की मौत के कुछ दिन बाद ही ये अटकलें लगाई जाने लगी थीं कि शशि अब मेहर से निकाह कर लेंगे उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता पर मुकदमा चला तो शशि थरूर को पहली दफा कानून के माने समझ आए और अपना दर्द उन्होंने जताया भी जो आमतौर पर हर उस पति का है जिस पर घरेलू हिंसा का केस दर्ज है या फिर तलाक का मुकदमा चल रहा है.

बेनाम भी हैं परेशान

यह दर्द वही महसूस और बयान कर सकता है जिस ने झठे आरोपों से छुटकारा पाने के लिए सालोंसाल अदालत की चौखट पर एडि़यां रगड़ी हों. इस यंत्रणा को भोपाल के एक पत्रकार योगेश तिवारी के मामले से सहज समझ जा सकता है जिन के तलाक के मुकदमे का निबटारा 14 साल बाद भी नहीं हो पा रहा.

निचली अदालत ने तलाक की डिक्री दी तो पत्नी हाई कोर्ट पहुंच गई जो 11 साल में तय नहीं कर पा रहा कि तलाक का निचली अदालत का फैसला सही था या नहीं. हां उस ने पत्नी को स्थगन आदेश जरूर दे दिया.

अब मैं यह तय नहीं कर पा रहा कि मैं शादीशुदा हूं, अविवाहित हूं या फिर तलाकशुदा हूं. योगेश कहते हैं कि मेरी वैवाहिक स्थिति कानूनन क्या है यह बताने को कोई तैयार नहीं. मैं अब अधेड़ हो चला हूं, लेकिन जब तक हाई कोर्ट अपना फैसला नहीं देता तब तक मैं दूसरी शादी भी नहीं कर सकता. 14 साल से मैं कानूनी ज्यादतियों का शिकार हो रहा हूं. मैं किस से अपना दुखड़ा रोऊं. समाज और रिश्तेदारी में खूब बदनामी हो चुकी है.

क्या शादी करना और पटरी न बैठने पर तलाक के लिए अदालत जाना अपराध है? अदालतें और कानून क्यों पतिपत्नी की परेशानियां नहीं समझते?

कोर्ट की चिंता

ये परेशानियां हर वे पति और पत्नी भुगत  रहे हैं जिन्होंने अदालत का रुख किया. लेकिन चूंकि अदालत के बाहर शादी तो की जा सकती

है पर तलाक नहीं दिया जा सकता इसलिए  लोग इस और इस से जुड़े कानूनों को कोसते नजर आते हैं तो वे गलत कहीं से नहीं हैं.

अकेले जबलपुर हाई कोर्ट में तलाक के करीब  10 हजार योगेश जैसे मामले निबटारे की बाट  देख रहे हैं.

फिर देशभर के दूसरे हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के अलावा निचली अदालतों का क्या हाल होगा सहज अंदाजा लगाया जा सकता है. बुढ़ाते कई पतिपत्नी अब नई जिंदगी की आस छोड़ने लगे हैं तो दोषी कानून नहीं तो और कौन है?

घरेलू हिंसा के कानून पर अब अदालतें खुद चिंता जताने लगी हैं कि इस का दुरुपयोग ज्यादा होने लगा है तो इस मासूमियत और अदा पर हंसी भी आती है और रोना भी कि कानून इस तरह बनाए ही क्यों जाते हैं जिन का दुरुपयोग होना संभव हो. योगेश जैसे पीडि़तों और भुक्तभोगियों से कोई सबक क्यों नहीं लिया जाता. कोई तलाक चाहता है चाहे वह पति हो या फिर  पत्नी उसे शादी के बंधन से जल्दी छुटकारा क्यों नहीं मिलता?

क्रूरता नहीं है तलाक

तलाक कोई क्रूरता नहीं है बल्कि क्रूरता से बचने का सब से आसान रास्ता है. जब पतिपत्नी का एक छत के नीचे रहना वजहें कुछ भी हों दूभर हो जाए तो उन्हें साथ रहने की नसीहत क्यों दी जाती है इस सवाल का जबाव ही फसाद और परेशानियों की असल जड़ है. कोई पत्नी या पति अदालत तलाक के लिए जाता है तो परिवार और समाज की निगाह में तो गुनहगार हो ही जाता है लेकिन कानून भी उसे बख्शता नहीं.

अदालत परिवार परामर्श केंद्र और दूसरी सरकारी एजेंसियां सुलह के लिए दबाव क्यों बनाती हैं? यहां से शुरू होती है परिक्रमा जिस से पीडि़तों को मिलता तो कुछ नहीं उलटे काफी कुछ छिन जाता है. मसलन, मानसिक शांति, प्रतिष्ठा, पैसा और सामाजिक स्थिरता जो सामान्य जिंदगी जीने के लिए हवा, पानी और भोजन की तरह जरूरी हैं.

फसाद की एक बड़ी जड़ तलाक से जड़े दूसरे कानून भी हैं. विदिशा की एक वकील उषा विक्रोल बताती हैं कि जल्दी तलाक के लिए अकसर महिलाएं पति और ससुराल बालों के खिलाफ दहेज मांगने और प्रताड़ना की झठी शिकायत दर्ज करा देती हैं और तुरंत ही भरणपोषण का भी दावा कर देती हैं जिस से एकसाथ 3 मुकदमे एक ही मंशा और मामले के चलने लगते हैं.

इन में अलगअलग तारीखें पड़ती रहती हैं और धीरेधीरे सुलह की गुंजाइश भी खत्म होती जाती है. पत्नी सोचती है कि पति तलाक देने में आनाकानी कर रहा है और पति सोचता है कि जिस औरत ने झठे आरोप लगा दिए अब तो उस के साथ सुलह व गुजर और भी मुश्किल है.

पतिपत्नी में से किस की कितनी गलती इस बात के कोई माने नहीं. उषा कहती हैं कि तलाक कानून और प्रक्रिया को नल या बिजली के कनैक्शन की तरह होना चाहिए कि एक आवेदन से वे कट जाएं. इस से मुमकिन है तलाक की दर बढ़ जाए पर उस में हरज क्या है. कानूनी अड़चनों और देरी के डर से हैरानपरेशान लोग अदालत ही न आएं यह कौन सा न्याय होगा और आने के बाद लोगों की हालत देख तरस आए यह भी न्याय नहीं कहा जा सकता. कुछ नहीं बल्कि कई मुवक्किलों की हालत देख कर तो लगता है कि पंचायत का जमाना ही ठीक था जब एक चबूतरे पर बैठे 4-5 लोग तलाक का फैसला सुना देते थे. अब तो फैसला ही मुश्किल हो चला है.

यह दर्द वही महसूस और बयान कर सकता है जिस ने झूठे आरोपों से छुटकारा पाने के लिए सालोंसाल अदालत की चौखट पर एडि़यां रगड़ी हों.

कानून के फ्रेम में थरूर

कानून की वेवजह की देर जो अंधेर से कम नहीं के फ्रेम में शशि थरूर भी फिट होते हैं जो मुमकिन है राजनीतिक प्रतिशोध का शिकार हुए हों. लेकिन लाख टके का सवाल यही है कि सुनवाई और फैसलों में गैरजरूरी देरी क्यों? अदालत से बरी होने के बाद उन की प्रतिक्रिया से पता चलता है कि यह अकेले उन की नहीं बल्कि लाखोंकरोड़ों लोगों की व्यथा है.

उन का 2 बार आसानी से तलाक हुआ क्योंकि दोनों ही पक्ष पर्याप्त शिक्षित, आधुनिक और परिपक्व होने के अलावा समझदार भी थे. लेकिन सुनंदा की मौत के बाद उन्हें कानूनी कू्ररता का एहसास हुआ तो उन्होंने फैसला देने वाली न्यायाधीश गीतांजलि गोयल का आभार व्यक्त करने के बाद कहा-

यह साढ़े 7 साल की पूर्ण यातना थी. यह उस डरावने सपने का अंत है जिस ने मेरी दिवंगत पत्नी सुनंदा के दुखद निधन के बाद मुझे घेर लिया था.

? मैं ने भारतीय न्यायपालिका में अपने विश्वास की वजह से दर्जनों निराधार आरोपों और मीडिया में की गई बदनामी को

धैर्यपूर्वक झेला है और न्यायपालिका में आज मेरा विश्वास सही साबित हुआ है.

? हमारी न्यायप्रणाली में अकसर सजा ही  होती है.

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न्याय मिलने के बाद मैं और मेरा परिवार सुनंदा का शोक शांति से मना पाएंगे. लेकिन सब से ज्यादा अहम शशि थरूर के वकील विकास पाहवा का यह कहना उल्लेखनीय रहा कि पुलिस ने जो आत्महत्या के लिए उकसाने और क्रूरता के आरोप थरूर पर लगाए थे वे बेतुके थे. यह बात अदालत में साबित भी हो चुकी है जिस के चलते जो यंत्रणाएं शशि थरूर ने भुगतीं और जो दूसरे लोग भुगत रहे हैं उन्हें राहत देने के लिए कोई राह क्यों नहीं तलाशी जा रही? पुलिस और सीबीआई जैसी संस्थाओं को सरकार का तोता कहा जाने लगा है तो इसमें गलत क्या है? किसी आत्महत्या के 4 साल बाद किसी को अभियुक्त बनाया जाना और आत्महत्या को हत्या का मामला बनाए जाने की कोशिश करना कानून की हत्या नहीं तो क्या है जिसे करता कोई और है और सजा बेगुनाहों को भुगतना पड़ती है?

जनसंख्या नियंत्रण और समाज

जनसंख्या नियंत्रण कानून बनाने वाली कट्टरपंथी हिंदू सोच की सरकारों को असल में औरतों के दुख की चिंता ही नहीं है. जनसंख्या नियंत्रण के नाम पर वे न केवल औरतों का यौन सुख का हक छीन रही हैं, अगर गर्भ ठहर जाए तो उन्हें अपराधी की सी श्रेणी में डाल रही हैं. तीसरा बच्चा नाजायज है, अपराधी है, समाज विरोधी है, राज्य पर बोझ है जैसे शब्दों से चाहे जनसंख्या नियंत्रण कानून न भर हों, पर ये शब्द हैं जो केवल उन्हें दिखेंगे जो भुगतेंगी, सचिवालयों और मंत्रालयों में बैठने वालों को नहीं.

फ्रांस का उदाहरण लें. उस की प्रति व्यक्ति आय भारत की महज 2000 डौलर प्रतिवर्ष के मुकाबले 60,000 डौलर प्रति वर्ष है यानि वहां के लोग 30 गुना अमीर हैं. फिर भी वहां बहुत गर्भ ठहर जाते हैं क्योंकि लड़कियां गर्भनिरोधक नहीं खरीद पातीं. अब फ्रांस सरकार ने 25 वर्ष की आयु तक डाक्टर की फीस, दवाएं व गर्भपात सब फ्री कर दिया है. फ्रांस सरकार का मानना है कि यह मामला लडक़ी की इच्छा का है कि वह कब सेक्स सुख ले और कब बच्चा पैदा करे. सरकार को लडक़ी की इच्छा का आदर करना चाहिए.

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हमारे यहां लडक़ी को पहले ही दिन से बोझ माना जाता है. उस के सारे हक बनावटी हैं. दिखाऊ हैं. उसे धर्मकर्म में अकेला जाता है जहां और कुछ नहीं तो सेक्स सुख अवश्य मिल जाता है चाहे पति हो या न हो औरतें घरों में सेक्स सुख से वंचित रहें इसलिए ङ्क्षहदूमुसलिम के नाम पर उन के जननांग और कोख पर आदेशों के ताले लगाए गए हैं, उन्हें कहां गया है कि 2 बच्चों के बाद या तो ताला या सरकारी समाज से बाहर, न नौकरी मिलेगी न राशन, न चुनाव लडऩे की सुविधा. कहने को यह बढ़ती जनसंख्या को रोकने के लिए पर असल में यह भ्रामक सोच पर आधारित है जो नरेंद्र मोदी ने जम कर गुजरात विधानसभा चुनावों में कही थी कि एक समाज 5 से 25 होता है और दूसरा 2 पर संतोष करता है.

मुसलमानों और दलितों के लिए गर्भ नियंत्रण कठिन है, मंहगा है यह इस कानून में सुलझाना नहीं गया है, सुविधाएं छीनने का खौफ दर्शाया गया है. आज यदि गर्भ निरोधक सस्ते या मुफ्त हो और गर्भपात्र जब चाहों जहां चाहो मुफ्त में करा लो तो नैतिकता नहीं खत्म होगी औरतों के अधिकारों की स्थापना होगी. हर युवती, चाहे विवाहित हो या अविवाहित अपने शरीर का कैसे इस्तेमाल करे, उस का अपना मामला है और वह खुद बेकार का गर्भ नहीं चाहती. आज की कामकाजी औरत बच्चों को चाहती है पर सीमा में. इस के लिए कानून चाहिए तो सुविधाएं देने वाले पर उस में खर्च होता है. सरकार तो ऐसा आदेश देना जानती है जिस से नागरिकों के हाथ पैर बंंधे, अब जननांग भी बांध रहे हैं.

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मनमाफिक मकान मिलना है मुश्किल

आज देशभर में किसी युवा जोड़े के लिए अपनी कमाई से अपना घर खरीदना लगभग असंभव हो गया है. जिनका पैकेज लाखों में है वे भी अपने मातापिता का पैसा जोड़ कर ही कुछ खरीद पाते हैं और जो मिलता है वह जरूरत से कम होता है. न मनमाफिक मकान होता है, न सुविधाएं, न साइज और न पड़ोस. सबको छोटे फ्लैटों या मकानों से काम चलाना पड़ रहा है और युवा जोड़ों को सुबून से 2 पल भी इन में अपने नहीं मिलते.

इसलिए जरूरी है कि पब्लिक प्लेसों को और खूबसूरत और ज्यादा बनाया जाए. इन में जोड़े, विवाहित हो या अविवाहित कम से कम हाथ पकड़ कर बतिया तो सकें. आमतौर पर शहरों के बागबगीचों मैलेकुचैले रहते हैं. बैच नहीं होते. पत्ते बिखरे रहते हैं. नशेड़ी कोनों में जम रहते हैं. बदबू आती है.

दिल्ली के लोधी गार्डन, रोशनारा गार्डन, या मुंबई की मेरिन ड्राइव जैसी जगह कई शहरों में हैं ही नहीं. दिल्ली में भी 2 करोड़ की आबादी के लायक सांस लेने की जगह काफी नहीं है और इसीलिए कुछ महिनों पहले तक इंडिया गेट पर हर इतवार को ऐसा लगता था कोई कुंभ का मेला हो. दिल्ली की घनी बस्तियों से उसे लोग सांस लेने के लिए पूरा इंडिया गेट व राजपथ भर देते थे. मोदी जी ने यह भी बंद कर दिया है. एक तरफ समर स्मारक बना दिया है जहां केवल वे ही किसी स्मारक में आते है. बाकी का सारा खुदा पड़ा है. उस का पुननिर्माण हो रहा है पर न जाने कैसा होगा.

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मुंबई और कई शहरों के मुकाबले के दिल्ली में बागबगीचे ज्यादा हैं पर इन में हिजड़ों और पुलिस वालों का मजमा रहता है. लोगों को खाने की जरूरत तो होती है पर जिस तरह से खोमचे और रेहड़ी वाले अच्छे बने बाग का सत्यानाश करते हैं वह हर घरवाली के लिए आफत है.

एक जमाने में लोग अपना खाना खुद लाते थे पर आज बाहर के खाने की संस्कृति इतनी है कि बच्चे बाहर आते ही खाना मांगते हैं और फिर जो गंद बागों में फैलता है वह इनका पर्पज ही खत्म कर देता है.

युवा जोड़ों को अपनी स्पेस मिले, यह बहुत जरूरी है. बन बैडरूम हाल में 4 जने रहते हो तो सब के साथ पूरा आकाश तो बांटने की इजाजत दो. उस पर यह मंदिर, वह स्मारक, यह मूॢत, वह फ्रूड कोर्ट तो न बनाओ.

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मुंबई हर मानसून में पानी-पानी हो जाती है और ये धीरे-धीरे हर साल बढती जा रही है, कितना भी कोशिश प्रसाशन कर ले, इसे रोक नहीं पाती. कई लो लाइंग एरिया को ऊपर किया गया, रास्ते और सीवर लाइन बदले गए, लेकिन मानसून में पानी जमा होने को रोक नहीं पाये, जिससे हर साल यहाँ के निवासियों को बाढ़ जैसे हालात का सामना मानसून में करना पड़ता है. असल में इस महानगरका तापमान पिछले एक दशक में काफी बढ़ी है. एक दशक पहले 35 डिग्री सेल्सियस तक,अक्तूबर और नवम्बर में रहने वाला तापमान अब 35 से 40 डिग्री तक होने लगा है. इसकी वजह जंगल काटकर शहरीकरण करना, पर्यावरण पर अधिक दबाव का पड़ना है,जिससे ग्रीन जोन लगातार कम हो रहा है. यहाँ की जनसँख्या भी अधिक है, जिससे गाड़ियों की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है. मुंबई में रहनेवालों के पास भले ही 350 स्कवायर फीट का घर हो, पर गाड़ी वे बड़ी खरीदते है, ऐसे कई विषम परिस्थितियों की वजह से पूरे विश्व में पर्यावरण प्रदूषण बहुतबढ़ चुकी है, जिससे जलवायु में परिवर्तन भी जल्दी दिख रहा है और ये समस्या जनसंख्या विस्फोट से भी अधिक भयावह हो गयी है, लेकिन विश्व इसे अनसुना कर रही है, ऐसे में अगर इसे रोकने की व्यवस्था नही की गई, तो आने वाली कुछ सालों में मुंबई और समुद्र के पास स्थित बड़ी-बड़ी शहरों को डूबने से कोई बचा नहीं सकेगा.

बदल रही है जलवायु

जलवायु परिवर्तन की समस्या से पूरा विश्व गुजर रहा है, जिसमें आर्कटिक में तीसरी बड़ी ग्लेसियर के पिघलने की वजह से इस साल वहां और कनाडा में भयंकर गर्मी पड़ना,जर्मनी में अचानक बाढ़ आना,अमेरिका की जंगलों में बिना मौसम के आग लगना, आदि न जाने कितने ही आपदा इस जलवायु परिवर्तन की वजह से हो रहा है, इसे गिन पाना संभव नहीं. एक नए शोध में यह बात सामने आई है कि आने वाली कुछ सालों में भारतीय मानसून और अधिकतीव्र हो जायेगा, इसकी वजह पिघलती बर्फ और बढ़ते कार्बन डाई आक्साइड है, जिससे समुद्र के निकवर्ती एरिया डूब जाने की आशंका है.

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किया अनदेखा क्लाइमेट चेंज को

इस बारें में एनवायरनमेंटलिस्ट भारती चतुर्वेदी कहती है कि क्लाइमेट चेंज का प्रभाव काफी सालों से दिख रहा था पर अमीर बड़े-बड़े देशों में नहीं दिख रहा था, सिर्फ हमारे देश में दिख रहा था. हमारे देश में इसका प्रभाव बहुत अधिक दिख रहा है, मसलन तापमान का बढ़ना, बारिश कम होना, सूखा पड़ना, भयंकर बाढ़ आना, अकाल पड़ना आदि कई समस्याएं दिखाई पड़ रही है. विश्व इस पर अधिक ध्यान भी नहीं देती थी, न इसे सच मानती थी. अब अमेरिका में हरिकेन तो कनाडा की वेस्ट कोस्ट में भीषण गर्मी होने और ग्रीनलैंड में तीसरी ग्लेसियर के पिघलने के बाद अब वे इस दिशा में सोच रहे है, जबकि क्लाइमेट चेंज पूरे विश्व के लिए बहुत बड़ा खतरा, सेहत और लाइफ के लिए है. जलवायु परिवर्तन से कई जानवर और पक्षी के समूह आज विलुप्त हो चुके है. ये बहुत ही खतरनाक है, इसलिए इसे अब समझना चाहिए.

चल रहा है आरोप-प्रत्यारोप

इसके लिए हर एक देश एक दूसरे पर आरोप लगाती है कि ये किसी देश की वजह से हुआ है, जबकि देखा जाय तो सारे अमीर देशों का अमीर होने में इंडस्ट्रियलाइजेशन और कोलोनियालिज्म खास महत्व रखता है.इंग्लॅण्ड और अमेरिका ने व्यवसाय की वजह से इतने पैसे कमाए और अमीर बने. इसमें बहुत सारे कोयला जलाया, पेट्रोल जलाया, क्योंकि कैलिफोर्निया जैसे शहर में किसी को भी कही जाने में गाडी लेनी पड़ती है, नहीं तोकहीं नहीं जा सकते, जबकि हमारे देश में बस, ट्रेन, मेट्रो को बहुत अच्छी सुविधा है. गाड़ी, कोयले और इंडस्ट्रियलाइजेशन का कल्चर होने की वजह से इनकी खपत बहुत अधिक है,इससे इन देशों ने अपनी इकॉनमी बढाई है. इसी से क्लाइमेट चेंज हुआ है और मेरा मानना है कि अमीर देशों ने गरीब देशों को इसका गिफ्ट दिया है. गरीब देश जिसमें भारत, बांग्लादेश, श्रीलंका, मालद्वीप आदि है, उन्हें भुगतना पड़ रहा है. अम्फान तूफान भी इस दिशा में बहुत भयंकर साइक्लोन था, इससे जो आर्थिक नुकसान हुआ, उसकी भरपाई इन अमीर देशों ने नहीं की. इतना ही नहीं हमारे देश में भी रहने वाले अमीर भी जलवायु परिवर्तन में अपना योगदान देने में पीछे नहीं है. मोटेतौर पर देखने से ये पता चलता है कि अमीरों के दिए गए इस भेंट को पाकर सारे गरीब देश और अधिक गरीब हो रहे है.

नहीं समझते जलवायु प्रभाव के दुष्परिणाम 

असल में ये बताना मुश्किल है कि कितने साल पहले से लोगों ने पर्यावरण पर ध्यान देना छोड़ चुके है, लेकिन कई ऐसे देश यहाँ और बाहर है, जो प्रकृति के साथ रहते है. आदिवासी और हिमालय की पहाड़ियों में रहने वाले गाँवों में रहने वाले लोग, जो वहां प्रकृति के साथ रहते है. उन्हें अपने भरण-पोषण के लिए जरुरत की सारी चीजें जैसे खान-पान, दवाई, आग जलाना आदि सब उन्हें उन जंगलों में मिलती है, इसलिए वे जंगल, नदी, पर्वत को अपना जीवन मान उसकी रखवाली करते है. देखा जाय तो पता चलता है कि विश्व में कुछ लोग ऐसे है, जबकि कुछ को ये तक पता नहीं होता है कि उनकी मोबाइल को बनाने में कितने खानों की खुदाई, पेड़ों की कटाई की जाती है और उससे पर्यावरण का प्रदूषणकितना होता है, क्योंकि इससे उन्हें कुछ लेना देना नहीं होता. इस प्रकार कुछ लोगों ने प्रकृति की संरक्षण को नहीं छोड़ा, जबकि उनकी नई पीढ़ी पर्यावरण पर ध्यान देना छोड़ रही है. दूसरे लोग जो पर्यावरण के बारें में कभी सोचा ही नहीं.

डूबने लगेंगे कई देश

डॉ भारती आगे कहती है कि उत्तरपूर्वी ग्रीनलैंड की हिमखंड जल्दी-जल्दी पिघल रही है. अगर ये ग्लेसियर पूरी तरह पिघल जाती है, तो पूरे फ्लोरिडा में 2 इंच पानी आने का खतरा होता. मेरा इसमें ये कहना है कि अब क्लाइमेट चेंज का प्रभाव धीरे-धीरे नहीं जल्दी-जल्दी हो रहा है. साल 2020 में पूरे विश्व में टिड्डियों का आक्रमण अफ्रीका, मिडिल ईस्ट, राजस्थान, दिल्ली, कोलकाता आदि कई शहरों में हुई. इसके अलावा जलवायु परिवर्तन की वजह से राजस्थान, पश्चिमी बंगाल उत्तराखंड, महाराष्ट्र आदि कई शहरों में बिजली कड़कने की संख्या और इसकी घनत्व बढ़ रही है, जिससे लोगों की मृत्यु होने का आंकड़ा भी पहले से काफी बढ़ चुका है. ये परिवर्तन अचानक कुछ सालों से हो रही है. हालाँकि ग्रीनलैंड हमसे काफी दूर है, लेकिन बंगाल, राजस्थान, महाराष्ट्र आदि जगहों पर बिजली केकड़कने को हल्के में नहीं लेना चाहिए.

जनसंख्या विस्फोट से अधिक खतरनाक, जलवायु परिवर्तन

जलवायु परिवर्तन से जनजीवन पर प्रभाव कितना पड़ेगा? पूछने पर भारती कहती है कि हर देश पर इसका अलग-अलग प्रभाव होगा. मसलन इस साल कनाडा की वेस्ट कोस्ट में 49 डीग्री तापमान हो गयी थी. जबकि दिल्ली में 46 डीग्री तापमान होने पर लोग बीमार पड़ने लगते है, लेकिन इसमें अंतर इतना है कि यहाँ के लोग गर्मी की वजह से मरे है, आग लग गयी और एक शहर पूरा आग से भस्म हो गया, पर वे धीरे-धीरे सामान्य हो गए. इसका अर्थ यह है कि अमीर देशों के पास पैसे है, वे क्षतिग्रस्त लोगों को पैसा मुवावजे के रूप में दे सकते है, फिर से उस जले हुए शहर को बसा सकते है, लेकिन गरीब देश जैसे द्वीपों का समूह, जहाँ काफी लोग निवास करते है. जैसे-जैसे बर्फ पिघलेगा समुद्र का जल स्तर बढेगा और ये द्वीप समूह सागर में डूब जायेंगे, फिर ऐसे लोगों को किसी दूसरे स्थान पर ले जाना पड़ेगा, लेकिन वे जायेंगे कहाँ, फिर से कैसे अपना जीवन शुरू करेंगे? विद्रोह और रोष वहां के लोगों में होगा. उन्हें इस कठिन परिस्थिति में जीवन निर्वाह करना पड़ेगा, ऐसे देश मालद्वीप, श्रीलंका जैसेकई है. वेस्टर्न कंट्रीज में पैसा अधिक होने की वजह से वे फिर से सब पा लेते है और कुछ दिनों में नार्मल जिंदगी बिताना शुरू कर देते है, पर गरीब देशों के लिए संभव नहीं.यहाँ ये भी समझना आवश्यक है कि धनी देशों में भी सबके साथ वर्ताव एक जैसा नहीं होता. ब्लैक लोगों के साथ व्हाइट की तरह अच्छा व्यवहार नहीं किया जाता. उन्हें हर तरह की सुविधाएं नहीं मिलती, समाज उनके लिए इतना प्रेम नहीं रखती, जितना रखना चाहिए. इसलिए उन्हें बहुत अधिक दुःख पहुँचता है, क्योंकि जब अमेरिका में कुछ साल पहले कैटरीना चक्रवात आया था, तो इन गरीबों के पास  न तो पैसे होते है और न ही इनके लिए पैसे कहीं से आये थे.

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है क्या समाधान

समाधान के बारें में पर्यावरणविद भारती कहती है कि पैरिस अग्रीमेंट एक अच्छी समझौता है, जिसमें विश्व की सभी सरकार की प्रतिनिधियों ने मिलकर जलवायु परिवर्तन पर चर्चा की थी. इसके बाद अब नवम्बर में क्लाइमेट चेंज के बारें में बातचीत होगी और ये निर्णय लिया जाएगा कि इस बिंदु से क्या करना जरुरी होगा, एक तरफ लोग ग्रीन एनवायरनमेंट के साथ या इको-फ्रेंडली के साथ जीना सीखे, लेकिन आबादी यहाँ बहुत अधिक होने की वजह से हम इकोफ्रेंडली तरीके से नहीं जी सकते. इसके लिए देश की जनता को अपनी खपत कम करनी होगी. सोलर पैनल से बिजली मिलने पर भी बिजली की उपयोगिता कम करना पड़ेगा. इसके अलावा खदानों की खुदाई को इको-फ्रेंडली बनाने की जरुरत है, जो मेरे अंदाज से ऐसी खुदाई कभी नहीं हो सकती,  ऐसे में सभी को अपनी जरूरतों को थोडा कम करना है. फॉसिल फ्यूल और कोयले के जलने से कार्बनडाईआक्साइड निकलता है, जो बहुत घातक तरीके से क्लाइमेट चेंज को बढ़ा रहे है. फॉसिल फ्यूल में पेट्रोलियम आता है, इसकी खपत को विकसित और अमीर देशों में कम करने की आवश्यकता है,ताकि इसके कार्बन एमिशन्स को धरती सह सकें. तभी क्लाइमेट इक्विटी हो सकती है और विकासशील देशों को विकसित होने का न्याय मिलेगा और वे आगे बढ़ पायेगे, क्योंकि विकास के लिए थोड़े कोयले और पेट्रोलियम की जरुरत होती है. विकसित देशों का प्रदूषण पोस्ट डेवलपमेंट है, जो वे एंजोयमेंट के लिए करते है,जबकि विकासशील देशों का प्री डेवलपमेंट प्रदूषण है.

इस प्रकार विकसित देशों को फिजूल की शौक को कम करने से ही क्लाइमेट चेंज को रोका जा सकेगा, नहीं तो वो दिनदूर नहीं जब जलवायु परिवर्तन से दुनिया भर की झीलों के ऑक्सीजन लेवल में व्यापक गिरावट का कारण बन जायेगी,जिससे वन्यजीवों का दम घुटने लगेगा और पीने के पानी की आपूर्ति का खतरा पैदा हो जायेगा. महासागर में ऑक्सीजन के गिरते लेवल की पहले ही पहचान हो चुकी है,लेकिन नई रिसर्च के मुताबिक, झीलों में इसकी गिरावट पिछले 40 वर्षों में तीन और नौ गुना के बीच तेजी से बढ़ी है,जो आगे और अधिक बढ़ने की संभावना है.

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