अनाम रिश्ता: भाग 4- क्या मानसी को मिला नीरस का साथ

जितनी देर दादी रहतीं बकुल बहुत खुश रहता. वे अपने साथ उसे ले जातीं कभी आइस्क्रीम पार्लर तो कभी डिनर या लंच पर धीरेधीरे उन्होंने उन के साथ भी नजदीकियां बढ़ा लीं. वे बोलीं कि यहां अकेले रहती हो. वहां इस के बाबा तो तुम लोगों को देखने के लिए तरस रहे हैं… आदि वहां अपना बुटीक चला ही रहा है, उसी में काम बढ़ा लेना.

अनिश्चित सी धारा में जीवन बहे जा रहा था. बकुल भी बड़ा हो रहा था. वह उद्दंड और जिद्दी होता जा रहा था. उन के लिए उसे अकेले संभालना मुश्किल होता जा रहा था. वह उन्हें ही दोषी मानता था कि दादी का घर आप ने क्यों छोड़ा. वह कहता कि किसी दिन बाबा के पास अकेले ही चला जाएगा.

वह स्कूल नहीं जाना चाहता था, ट्यूशन

नहीं पढ़ना चाहता. बस मोबाइल या लैपटौप पर गेम खेलने में मशगूल रहता. वे तरहतरह से समझया करतीं.

मम्मी कभी किसी गुरु से ताबीज ला कर पहनातीं तो कभी उन की भभूत या जल उद्दंड बकुल उन्हीं के सामने उठा कर फेंक देता. उन्हें भी इन चीजों पर कोई विश्वास नहीं था.

पापा का पैसे का दिखावा बंद ही नहीं होता था. आज ये गुरुजी आ रहे हैं तो कल अखंड रामायण हो रही है. बेटी तुम इस मंत्र का जाप करते हुए 11 माला किया करो. बिटिया तुम्हारा मंगल भारी है इसीलिए वैवाहिक जीवन में संकट आ जाता है. मंगल का व्रत किया करो. बाबूजी मैं ऐसी पूजा करूंगा कि बिटिया के जीवन में खुशियां लौट आएंगी.

वे क्रोध में धधक पड़ी थीं, ‘‘पापा आप मेरी चिंता बिलकुल छोड़ दें. यदि ये गुरुजी मेरे जीवन में खुशियों की गारंटी लेते हैं तो ये अपना जीवन क्यों नहीं सुधार लेते? पाखंडी ठग कहीं के. बस लोगों को मूर्ख बना कर पैसा ऐंठना ही इन का धंधा है.’’

पापा भी उस दिन उन से नाराज हो गए कि यह जनम तो बिगड़ ही रखा है अगला भी बिगाड़ रही है. जो मन आए वह करो. कह कर चले गए.

मांपापा से उन्हें चिढ़ हो गई थी. पापा की जल्दबाजी में ही उन का जीवन बरबाद हुआ था. यदि पढ़लिख कर अपने पैरों पर खड़ी होतीं तो भला उन के साथ यह सब होता.

स्वप्निल को दुनिया से विदा हुए 10 वर्ष पूरे हो चुके थे. पापाजी ने उन

की याद में एक मंदिर बनवाया था, जिस का उद्घाटन वे बकुल और उन के हाथों से करवाना चाहते थे, इसलिए पापाजी खुद उन्हें बुलाने के लिए आए थे. बकुल तो उन को देखते ही उन से लिपट गया और उन के साथ ही लखनऊ जाने के लिए मचल उठा. वहां चलने की जिद्द करता हुआ खानापीना छोड़ कर बैठ गया.

वे बकुल की बढ़ती उद्दंडता, उस का मोटापा, उस की बद्तमीजी के कारण परेशान हो चुकी थीं. मम्मीपापा उन को लखनऊ भेजने के लिए बिलकुल भी राजी नहीं थे, परंतु जब वन्या दी गाड़ी ले कर खुद आईं तो वे उन को देख कर भावुक हो गईं और उन के साथ लखनऊ पहुंच गई थी. वहां सब का लाड़प्यार पा कर उन्हें खुशी महसूस हुई थी.

एक बार उन्होंने स्त्रीधन और बकुल की परवरिश व खर्च की बात उठाई तो पापाजी ने उन के सामने सारे कागजात चाहे ऐक्सीडैंट का क्लेम, एफडी, प्रौपर्टी, लौकर से उन के गहने ला कर रख दिए. जब उन्होंने महीने के खर्च की बात करी तो फिर से माहौल गरम हो गया, लेकिन इस बार मम्मीजी ने बीचबचाव कर के यह कह दिया कि यदि यहां नहीं रहना चाहती तो गोमती नगर वाले फ्लैट में रह सकती हो. तुम मेरी बेटी हो, मेरी आंखों के सामने रहोगी और बकुल भी यहां रहेगा तो हम लोगों को खुशी होगी.

पापाजी भावुक हो कर बोले, ‘‘स्वप्निल तो  हम लोगों को छोड़ गया. अब उस की निशानी हम लोगों से मत दूर करो. जितना कुछ है सब बकुल के बालिग होने पर उसे मिलने वाला है. तब तक वे बकुल की कस्टोडियन बनी रहेंगी.’’

मम्मीजी का बुटीक था वे उसे उन्हें सौंपने को तैयार थीं.

एक तरह से सब उन के मनमाफिक हो रहा था. सब से खास बात तो यह थी कि बकुल उन लोगों के बीच बहुत खुश था और वहीं रहने की जिद कर रहा था.

उन्होंने अपनेआप फैसला किया कि बकुल की खुशी के लिए वे यहां रुकने को तैयार हैं. सब के चेहरे पर खुशी छा गई. बकुल दादीबाबा के पास आ कर बहुत ही खुश था.

बकुल का एडमिशन सिटी मौंटेसरी स्कूल में पापा ने करवा दिया. घर के कामों के लिए मम्मीजी ने सुरेखा को भेज दिया. सबकुछ उन के अनुकूल ही हो रहा था. बकुल की ट्यूशन के लिए पापाजी ने नीरज को भेज दिया.

लगभग 35-40 का नीरज गेहुएं रंग का सुदर्शन सा युवक था. वह सहमासहमा सा रहता, लेकिन पहली नजर में ही उन्हें वह अपनाअपना सा लगा. वह बकुल को पढ़ाने के साथसाथ इतना लाड़दुलार करता कि वह उन की बातों को बहुत ध्यान से सुनता और उन का कहना मानता. उस के स्वभाव में जल्द ही परिवर्तन दिखने लगा. वह अपने सर का इंतजार करता और उन का दिया होमवर्क पूरा कर के रखता.

धीरेधीरे नीरज उन से भी खुलने लगे थे. उन की पत्नी भी अपने बेटे को

ले कर उन्हें छोड़ कर अपने आशिक के साथ चली गई थी, इसलिए बकुल में उन्हें अपना बेटा सा नजर आता था.

वे स्वयं भी अपनी परित्यक्ता मां के इकलौते चिराग थे. अपनी मां के संघर्षों को, उन के अकेलेपन को, उन की मुसीबतों को बहुत नजदीक से देखा और महसूस किया था और अब किसी तरह से पोस्ट ग्रैजुएट हो कर एक कालेज में लैक्चरर बन गए थे, जहां क्व12 हजार दे कर क्व40 हजार पर साइन करवाते थे. अखिल अंकल उन के पापा के पुराने दोस्त थे और उन पर उन के बहुत एहसान भी थे. उन्हें पैसे की जरूरत भी थी. बस वे इस ट्यूशन के लिए तैयार हो गए थे.

बकुल को देख उन्हें अपने बचपन की दुश्वारियां और अकेलापन याद आने लगता था, इसलिए उन्हें अपना खाली समय उस के साथ बिताना अच्छा लगता था. वे छुट्टी वाले दिन बकुल को ले कर कभी अंबेडकर पार्क, कभी जू तो कभी इमामबाड़ा ले कर जाते और दोनों साथ में मस्ती कर के खुश होते. शायद बकुल को नीरज के अंदर अपने पापा की प्रतिमूर्ति दिखने लगी थी. बकुल के सुधरने की वजह से वे उन की बहुत एहसानमंद थी.

कभी नीरज अपनी दुख की कहानी सुनाते तो कभी वे अपने जीवन की व्यथा सुनातीं. बस दोनों को एकदूसरे से बातें करना अच्छा लगता. वे मन ही मन उन्हें प्यार करने लगी थीं. नीरज के लिए नाश्ता बनातीं, उन के आने से पहले तैयार हो जातीं और उन का इंतजार करतीं. जब नीरज के चेहरे पर मुसकराहट आती तो उन्हें बहुत अच्छा लगता था. जब वहे उन की बनाई चाय या खाने की तारीफ करते तो वे खुश हो जातीं.

चाहे उन की इच्छा हो या बकुल को पूरा करने के लिए वे हर समय तैयार रहते.

उन का बुटीक भी अच्छा चल रहा था. बकुल को हाई स्कूल में 98% मार्क्स मिले उन के तो पैर ही जमीं पर नहीं पड़ रहे थे.

मम्मीजीपापाजी उन की और नीरज की नजदीकियों से नाराज हो गए थे, लेकिन अब उन्हें किसी की परवाह नहीं थी. बकुल अपने दोस्तों और कोचिंग में बिजी हो गया था, परंतु नीरज के साथ वह अपनी सारी बातें शेयर करता.

नीरज के बिना अब उन्हें अपनी जिंदगी अधूरी लगने लगी थी. बकुल बड़ा हो

चुका था. वहीं लखनऊ से ही इंजीनियरिंग कर रहा था. उन्हें अपनी जिंदगी से कोई शिकायत नहीं थी और न ही अब कोई परवाह थी कि कौन क्या कह रहा है. जिसे मन हो रिश्ता जोड़ें न मन हो तो तोड़ दे. वे अपनी दुनिया में खुश थीं, नीरज को पहली नजर में देखते ही उन्हें एहसास हुआ था कि हां यही प्यार है. प्यार में कोई ऐक्सपैक्टेशन नहीं होती. बस बिना किसी चाहत के किसी को दिलोजान से चाहो. शायद इसे ही प्यार में डूब जाना कहते हैं.

नीरज ने हर कदम पर उन का साथ दिया था यद्यपि दोनों ने ही इस रिश्ते को कोई नाम नहीं दिया था, लेकिन इस अनाम रिश्ते ने उन के जीवन में पूर्णता ला दी थी.

घंटी की आवाज से उन की तंद्रा टूटी.

नीरज तैयार हो कर आए तो वे अपने पर कंट्रोल नहीं कर सकीं और बच्चे की तरह उन की बांहों में झल गईं.

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अनाम रिश्ता: भाग 3- क्या मानसी को मिला नीरस का साथ

5 साल का अबोध बकुल भला क्या निर्णय लेता पापा 7-8 लोगों को ले कर आए. लंबी बैठक होती रही. जिन के भविष्य का फैसला होना था, उन की इच्छाअनिच्छा से किसी को कोई मतलब नहीं था. वे सब आपस में बुरी तरह उलझे हुए थे. जोरजोर से कहासुनी हो रही थी. पापा का कहना था कि उन्होंने मानसी को एक किलोग्राम सोने के जवर दिए थे. वह उस का स्त्रीधन है. आप को देना पड़ेगा. शादी में क्व4 करोड़ खर्च हुए थे, उस की भरपाई कैसे होगी?

अखिल पापाजी कह रहे थे, ‘‘यहां पर हम लोग उसे बेटी को तरह रख रहे हैं और इसे कोई बिजनैस करवा देंगे आखिर में वह मेरे वारिस की मां है, इसलिए इन लोगों को यहीं रहना होगा. जैसे पहले रहती थी वैसे रहे… जैसे मेरी ईशा वैसे यह मेरी तीसरी बेटी है.’’

नौबत यहां तक आ गई कि गालीगलौज और हाथापाई की स्थिति बन गई थी और मेरे पापा घमंड में बोले, ‘‘अखिल, कमीने, तेरा पाला जैसे रईस से पड़ा है, तेरे मुंह पर मैं मारता हूं सारा पैसा, सोना. तू पहले भी भिखमंगा था. शादी के नाम पर कहता रहा मुझे गाड़ी दो, सोना दो, कैश दो… नीच कहीं का.’’

पापा को अपने पैसे का गुरूर था और उन का अपना बचपना… बकुल को पापा ने अपनी गोद में उठाया और उन की उंगली पकड़ कर मैं बाहर गाड़ी में बैठ कर आगरा आ गई.

आगरा रहते भी 2 साल बीत गए थे. पापा ने एक साधारण परिवार के लड़के को पैसे का लालच दे कर उन के साथ शादी करने को राजी कर लिया. उस का नाम पीयूष था. वह भरतपुर में रहता था और वह इंश्योरैंस का काम करता था. इसी सिलसिले में वह पापा के पास आया करता और अपने को बैंक में कैशियर हूं, बताया करता. बकुल के लिए कभी चौकलेट तो कभी गेम वगैरह दे कर जाता. फिर धीरेधीरे उन के साथ भी मिलनाजुलना होने लगा. वह उन्हें भी लंच पर ले जाता. भविष्य को ले कर बातें करता. प्यार भरी बातें फोन पर भी होतीं. उस की आकर्षक पर्सनैलिटी की वे दीवानी होती जा रही थीं. उस के प्यार में वे अंधी हो रही थीं.

पीयूष ने कहा कि उन की मां बैड पर हैं, इसलिए वे चाहती हैं कि जल्दी से शादी कर ले, तो वे बहू को देख लें और उन्हें तो साथ में पोता भी मिल रहा है. पीयूष और बकुल के बीच जो ट्यूनिंग थी उस से वे आश्वस्त हो गई थी कि बकुल को पापा मिल जाएगा और उन के जीवन में फिर से खुशियां दस्तक दे देगी… उन के जीवन का अधूरापन भी समाप्त हो जाएगा. वे सादे ढंग से मंदिर शादी करना चाहती थीं, परंतु पीयूष की मां अपने बेटे को दूल्हे के वेष में देखने का सपना पूरा करना चाहती थीं.

फिर से वही धूमधाम हुई और वे पीयूष की दुलहनिया बन कर उस के घर पहुंच गईं. कुछ महीनों तक तो सबकुछ ठीकठाक रहा, लेकिन वे समझ गई थीं कि वह ठगी जा चुकी हैं. उन्हें बाद में मालूम हुआ कि पापा ने क्व20 लाख का लालच दिया था, इसलिए उस ने शादी की थी.

कुछ दिनों के बाद ही पीयूष दारू के नशे में रात में देर से आने लगा. नशे में बोलता कि तू तो जूठन है. तुझे छूने में घिन आती है. रोज रात को गालीगलौज करता. सुबह उठ कर झड़ू बरतन, नाश्ता, खाना बनाना, उन के लिए बहुत मुश्किल था. सबकुछ करने के बाद भी पीयूष की मां चिल्लातीं, ‘‘अपशकुनी एक को तो खा गई अब क्या मेरे लाल को भी खाएगी क्या.’’

पीयूष अपने साथ उन्हें मां के घर ले कर जाता और थोड़ी देर में लौटा लाता. पापा से कह कर उन्होंने एक नौकरानी बुलवाई, तो पीयूष के आत्मसम्मान को चोट पहुंची और वह नाराज हो उठा क्योंकि उस के मन में चोर था कि यहां की सब बातें नौकरानी के द्वारा मानसी के मातापिता तक पहुंच जाएंगी. इसीलिए पीयूष ने उसे तुरंत भगा दिया.

पीयूष की मां पैरालाइज्ड थीं. उन्हें नहलाना, गंदगी साफ करना जैसे काम उन के लिए बहुत कष्टदाई थे, परंतु 1 साल तक उस नर्क में गुजर करने की कोशिश करती रही थीं.

पीयूष ने झठ बोला था. वह बैंक में नौकरी नहीं करता था. उस ने पापा से दौलत ऐंठने के लिए शादी का ड्रामा रचा था. नन्हा बकुल पीयूष को देखते ही सहम जाता था, एक दिन वे बकुल को पढ़ा रही थीं कि नशे में झमता हुआ वह आ गया और बकुल को गाली दे कर उस की किताब उठा कर हवा में उछाल दी. फिर उसे जोर से धक्का देते हुए गालियों की बौछार कर दी. वे तेजी से उठीं और पीयूष के समने खड़ी हो कर बोली, ‘‘खबरदार यदि मेरे बेटे के साथ बदतमीजी की या उस पर हाथ उठाया तो मुझ से बुरा कोई नहीं होगा.’’

वह न जाने किस नशे में डूबा हुआ था सो उस ने उन्हें भी जोर का धक्का दे दिया, ‘‘मुझ से मुंहजोरी करेगी… तेरी ऐसी दशा करूंगा कि सारा घमंड चूर हो जाएगा.’’

उन्होंने दीवार का सहारा ले कर अपने को गिरने से बचा लिया, परंतु उस दिन पीयूष की बदतमीजी और गालियां उन के लिए सहना मुश्किल हो गया.

बकुल उन की बांहों के घेरे में देर घंटों तक सिसकता रहा. वे भी कमरा बंद कर के आंसू बहाती रहीं.

सुबह हमेशा की तरह पीयूष उन के पैर पकड़ कर माफी मांगता रहा. लेकिन अब उन्होंने फैसला कर लिया था इस नर्कभरी जिंदगी से मुक्त होने का. अगले दिन मुंह अंधेरे बकुल का सामान एक बैग में रख कर वे भरतपुर से आगरा आने वाली बस में बैठ गई.

उस दिन एक नई मानसी ने जन्म लिया था. उन्होंने तय कर लिया था कि अब वे

अपने जीवन के निर्णय स्वयं किया करेंगी.

वे क्रोध में धधकती हुई अपने घर पहुंचीं और अपने पापा पर बरस पड़ी, ‘‘पापा, आप ने अपने पैसे के घमंड में मेरी जिंदगी को तमाशा बना कर रख दिया है. एक लालची को आप ने क्व20 लाख दे कर मेरे जीवन का सौदा कर दिया. अब किसी दूसरे ने आप से ज्यादा मोटी नोटों की गड्डी उस के मुंह पर मार दी और बस वह उन के सामने कुत्ते की तरह दुम हिलाने लगा. पापा आप ने न ही पीयूष के बारे में कुछ ठीक से पता लगाया और न ही ढंग से उस का घर देखा. उस की चिकनीचुपड़ी बातों में आप फंस गए. उस ने दूसरे के घर को अपना घर बताया. बस आप ने झटपट अपनी बेटी उसे सौंप दी. आप ने अपने पैसे के बलबूते बेटी को उस के हवाले कर के उस की जिंदगी को तमाशा बना कर रख दिया.’’

‘‘बस बहुत हुआ. अब आगे कोई तमाशा नहीं होगा. मैं पीयूष के बच्चे को जेल की हवा खिलाऊंगा देखती जाओ… कमीना कहीं का.’’

‘‘पापा भैया की शादी होने वाली है , इसलिए मैं कमला नगर वाले फ्लैट में अकेली

रहा करूंगी.’’

उन की बात सुन कर मम्मीपापा कसमसाए थे लेकिन अब उन की हिम्मत नहीं थी कि वह बोलें. उन की सहायता के लिए सेविका लक्ष्मी भी आ गई थी.

बकुल 5वीं कक्षा में आ गया था. उसे पढ़ालिखा कर अच्छा इंसान बनाना ही उन्होंने अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया था, परंतु अभी तो नियति को उन के हिस्से के बहुत सारे पन्ने लिखने बाकी थे.

उन्होंने एक बुटीक खोल लिया और उस में मन लगाने लगी थीं. बुटीक चल नहीं पा रहा था. अत: उन का बुटीक से भी मन उचटता जा रहा था.

मालती मम्मीजी का मायका आगरा में ही था. वे अकसर अपनी मां से मिलने आती रहती थीं और उन के जीवन के हर उतारचढ़ाव की जानकारी रखती थीं क्योंकि वे अपने मायके में पहले भी महीनों रहा करती थीं. वे पहले कई बार उन्हें फोन किया करतीं, लेकिन वे कभी फोन उठाया करतीं और न ही कभी मिलने गईं, जबकि वे बारबार उन से मिलने के लिए आग्रह करती रहती थीं.

एक दिन वे बकुल के लिए ढेरों सामान ले कर उन के घर आ गईं. बकुल उन से चिपट गया और दादी मैं आप के साथ चलूं कहने लगा. दादीपोते का मिलन देख उन की आंखें भी भर आईं. वे महसूस कर रही थीं कि उन की वजह से बच्चे का मासूम बचपन छिन गया है. उस के मन में अपनी दादीबाबा और बूआ लोगों के प्रति प्यार था, कहीं कोने में एक सौफ्ट सा कार्नर था.

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अनाम रिश्ता: भाग 2- क्या मानसी को मिला नीरस का साथ

6 महीने के बाद उन्हें पापा अपने साथ आगरा ले आए. यहां पर सब उन के बुरे दिनों को कोसते. मां के घर में तो बिलकुल भी चैन नहीं था. दादी, ताई, चाची, बूआ आदि का जमावड़ा और बस एक ही बात कि हायहाय 25 साल की छोरी. कैसे काटेगी पूरी जिंदगी और फिर जबरदस्ती रोने का नाटक करते हुए बातों में मशगूल हो जाना. पिछले जन्म के कर्म हैं, वे तो भुगतने ही पड़ेंगे.

ताई बोलीं, ‘‘मानसी तुम एकादशी का व्रत किया करो, मेरे साथ कल से मंदिर दर्शन करने चला करो. वहां गुरुजी बहुत बढि़या सत्संग करवाते हैं,’’

मम्मीपापा को यह विश्वास था कि पूजापाठ से कष्ट दूर हो जाएंगे.

‘‘यह क्या तुम ने लाल चूडि़यां पहन लीं?’’ बूआ ने घर में हंगामा मचा दिया. मम्मी उन के सामने जबान नहीं हिला सकती थीं.

‘‘मानसी अभी तक सो रही हो. उठो आज अमावस्या है. स्वप्निल की आत्मा की शांति के लिए ब्राह्मण भोजन और हवन है,’’ ताई ने उन्हें जगाते हुए जोर से कहा.

वे उठीं और भुनभना कर बोलीं, ‘‘स्वप्निल ने तो मुझे जिंदा ही मरणतुल्य कर दिया है. ऐसी जिंदगी से तो उसी दिन मर जाती तो ये सब न देखना पड़ता,’’ उन का चेहरा गुस्से से लाल हो रहा था.

उन की बड़बड़ाहट को बूआ ने सुन लिया, ‘‘वाह रे छोकरी, मरे आदमी को कोस रही है. जाने कौन से पाप किए थे जो भरी जवानी  में  विधवा हो गई. अब तो चेत जाओ कम से कम अगला जन्म तो सुधार लो.’’

वे अपने को अनाथ सा महसूस कर रही थीं, तभी पापा आ गए और जोर से बोले, ‘‘मेरी लाडो को मत परेशान किया करो,’’ और वे पापा से लिपट कर सिसक पड़ीं.’’

अगले दिन सुबह विमला नहीं आई थी. बकुल भूखा था. वे किचन में बगैर नहाए चली गईं. मम्मी आ गईं और उन्हें किचन में देखते ही चिल्ला कर बोलीं, ‘‘मानसी तुम्हें जरा सा सबर नहीं था… मैं नहा कर आ तो रही थी?’’

‘‘बकुल जोर से रो रहा था.’’

‘‘आज पूर्णिमा है तुम ने बगैर नहाए सब छू लिया… अब फिर से किचन धोनी पड़ेगी.’’

‘‘उफ, मां कब तक इन कर्मकांड भरे ढकोसलों में पड़ी रहोगी. आप ने तो मेरा जीना हराम कर दिया है,’’ वे पैर पटकते हुए अपने कमरे में जा कर सिसक पड़ीं, ‘‘यहां से अच्छा तो मेरे ससुराल वाले मुझे रखते हैं. आगरा रहते हुए 6 महीने हो चुके थे. मालती मम्मीजी का फोन लगभग रोज आ जाता और वे बकुल को याद करती रहतीं.

उन्होंने नाराज हो कर लखनऊ जाने का निश्चय कर लिया था. शायद मम्मी भी उन से परेशान हो चुकी थीं. उन्होंने बकुल से फोन पर कहला दिया, ‘‘दादी मुझे आना है.’’

अगली सुबह मम्मीजी ने गाड़ी भेज दी और वे लखनऊ पहुंच गईं. इस बीच पापा ने ईशा दी को अपने घर में बुला लिया. वे लोग सब अब यहीं रहने वाले हैं, यह बात तो उन्हें बहुत बाद में पता चली थी. उन का जीवन तो बोझ बन चुका था क्योंकि मम्मीजी का झकाव बेटियों की तरफ ज्यादा हो गया था. वे अब एक फालतू चीज बन कर रह गई थीं, जिस की कहीं कोई उपयोगिता नहीं थी. उन के पापा और ससुरजी के बीच जेवर, इंश्योरैंस के पैसे, बैंक लौकर के जेवर और एफडी आदि के लिए मनमुटाव शुरू हो गया था. पापा का कहना था कि उन की बेटी के नाम सब होना चाहिए. अकसर मीटिंग होती. दोनों तरफ के कुछ लोग बैठते. बहसा होती. लेकिन कुछ तय नहीं हो पाता क्योंकि पापाजी कुछ भी देना ही नहीं चाहते थे. लौकर के गहने, और इंश्योरैंस के रुपए, उन का स्त्री धन और कुछ प्रौपर्टी कुछ भी उन के नाम करने को तैयार नहीं हो रहे थे. 2 साल तक वे कभी ससुराल तो कभी मायके अपने दिन गुजारती रहीं.

वन्या दी, ईशा दी और मम्मीजी का एक ग्रुप बन गया था. वे उन्हें अपनी बातों में कम शामिल करतीं. खूब शौपिंग पर जातीं. लेकिन अपना सामान बहुत कम ही उन्हें दिखाया करतीं. वे अपने कमरे में टीवी और मोबाइल में सिर फोड़ती रहतीं.

ईशा दी की बेटी लवी और बकुल में दिनभर लड़ाईझगड़ा तो रोज की बात थी. लवी बड़ी थी, वह चुपचाप उस के चुटकी काट लिया करती. कभी बकुल रोते हुए उन के पास आता कि लवी ने मेरा खिलौना छीन लिया. दिनभर यही सब चलता रहता. वे लवी को कुछ नहीं कह सकती थीं. बकुल ही दिनभर डांट खाता. कभी वे नन्हे से बकुल को थप्पड़ लगा कर रो पड़ती थीं. मम्मीजी उस को अपनी गोद में बैठा कर प्यार तो करतीं, लेकिन लवी को कुछ न कहतीं.

एक दिन दोनों बच्चे लड़ रहे थे तो बकुल ने लवी को धक्का दे दिया. वह गिर गई

और होंठ में दांत चुभ गया. दी ने आव देखा न ताव बकुल के गाल पर जोर का थप्पड़ लगा दिया और जोरजोर चीखने लगी तो वे सह नहीं सकीं. गुस्से में बोलीं, ‘‘दी आपने नन्हे से बकुल को इतनी जोर से मारा कि देखिए उस के गाल पर आप की सारी उंगलियां छप गई हैं.’’

‘‘यह नहीं दिखता कि बकुल ने लवी को कितनी जोर से धक्का दिया है. कभी अपने बेटे को भी समझया करो. अब तुम बहुत बोलने लगी हो. भैया तो हैं नहीं जो तुम्हें कंट्रोल करें. अब तो बिना लगाम की घोड़ी बन गई हो,’’ वे बहुत देर तक बकबक करती रही थीं. मम्मीजी मूकदर्शक बनी सब सुनती रही थीं.’’

वे घंटों तक अपने कमरे में सिसकती रही थीं. मासूम बकुल उन के आंसू पोछता रहा.

वन्या दी भी आती रहतीं. ईशा दी तो रहती ही थीं. घर कभी खाली न रहता. वे बहू का फर्ज निभातेनिभाते दुखी हो जाती थीं. इस के बावजूद रोज की चिखचिख. खाना कैसा बना है. सलाद नहीं कटा, सब्जी बेकार है. दाल पतली है.

‘‘मानसी, तुम क्या करती रहती हो? रसोइए से ढंग से खाना भी नहीं बनवा सकतीं? जब खाने बैठो, तो इतना बेकार खाना,’’ कहते हुए पापाजी डाइनिंग टेबल से उठ गए थे. फिर तो हंगामा होना स्वाभाविक ही था.

ईशा दी के पति विनय उन के कमरे में आ कर उन्हें ज्ञान देने लगे, ‘‘भाभी, आप अकेली हो. भैया तो हैं नहीं. छोटा सा बच्चा भी साथ में है. इसलिए आप चुप रहा करिए और घर के कामों पर अपना ध्यान दिया करिए.’’

अब तो जबतब जीजू मौका देख कर उन से बात करते और उन के नजदीक भी आने की कोशिश करने लगे थे. अब वे उन के सामने जाने से कतराया करती थीं. वे उन की ललचाई निगाहों से झलस कर रह जाया करती थीं.

एक दिन तो हद हो गई जब अकेला पाते ही उन्होंने उन्हें अपने आगोश में जकड़ लिया. उन्होंने गुस्से में आव देखा न ताव एक थप्पड़ उन के गाल पर जड़ दिया.

वे उलटे चीखचीख कर कहने लगे कि यह तो उन्हें कब से परेशान कर रही थी. आज मौका लगते ही गले ही पड़ गई. मैं इसे धक्का न देता तो यह न जाने क्या करती.

सब लोग सबकुछ जानसमझ रहे थे, लेकिन वहां पर उन की तरफ से बोलने वाला तो कोई था ही नहीं क्योंकि उन का पति तो उन्हें मझधार में छोड़ कर जा चुका था. उन का जीवन तो बिना नाविक की नाव की तरह हो गया था जो भंवर में डूबउतरा रही थी. काश, पापा ने उन्हें पढ़लिखा कर अपने पैरों पर खड़ा किया होता तो वे इस तरह से मायके और ससुराल की ठोकरें न खातीं.

अपनी बेबसी पर वे रो पड़ी थीं. अब उन्होंने निश्चय कर लिया था कि वे

अब यहां एक दिन भी नहीं रहेंगी. उन्होंने पापा को फोन कर दिया था. वे सुबह आ गए, फिर तो जोर का झगड़ा शुरू हो गया. बकुल के लिए खींचातानी. बकुल स्वप्निल की निशानी है, इसलिए वह यहां पर उन लोगों के साथ ही रहेगा.

आगे पढ़ें- अखिल पापाजी कह रहे थे…

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स्नेह की डोर: कौनसी उड़ी थी अफवाह

संजय  से हमारी मुलाकात बड़ी ही दर्दनाक परिस्थितियों में हुई थी. दीवाली आने वाली थी. बाजार की सजावट और खरीदारों की गहमागहमी देखते ही बनती थी. मैं भी दीवाली से संबंधित सामान खरीदने के लिए बाजार गई थी लेकिन जब होश आया तो मैं ने स्वयं को अस्पताल के बिस्तर पर पाया. मेरे आसपास कई घायल बुरी तरह कराह रहे थे. चारों तरफ अफरातफरी मची थी. मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था. क्या हुआ, कैसे हुआ, मैं वहां कैसे पहुंची, कुछ भी याद नहीं आ रहा था.

मेरे शरीर पर कई जगह चोट के निशान थे लेकिन वे ज्यादा गहरी नहीं लग रही थीं. मुझे होश में आया देख कर एक नौजवान मेरे पास आया और बड़ी ही आत्मीयता से बोला, ‘‘आप कैसी हैं? शुक्र है आप को होश आ गया.’’

अजनबियों की भीड़ में एक अजनबी को अपने लिए इतना परेशान देख कर अच्छा तो लगा, हैरानी भी हुई.

‘‘मैं यहां कैसे पहुंची? क्या हुआ था?’’ मैं ने पूछा.

‘‘बाजार में बम फटा है, कई लोग…’’ वह बहुत कुछ बता रहा था और मैं जैसे कुछ सुन ही नहीं पा रही थी. मेरे दिलोदिमाग पर फिर, बेहोशी छाने लगी. मैं अपनी पूरी ताकत लगा कर अपने को होश में रखने की कोशिश करने लगी. घर में निखिल को खबर करने या अपने इलाज के बारे में जानने के लिए मेरा होश में आना जरूरी था.

उस युवक ने मेरे करीब आ कर कहा, ‘‘आप संभालिए अपनेआप को. आप उस धमाके वाली जगह से काफी दूर थीं. शायद धमाके की जोरदार आवाज सुन कर बेहोश हो कर गिर गई थीं. इसी से ये चोटें आई हैं.’’

शायद वह ठीक कह रहा था. मेरे साथ ऐसा ही हुआ होगा, तभी तो मैं दूसरे घायलों की तरह गंभीर रूप से जख्मी और खून से लथपथ नहीं थी.

‘‘मैं यहां कैसे पहुंची?’’

उस ने बताया कि वह पास ही रहता है. धमाके के बाद पूरे बाजार में कोहराम मच गया था. इस से पहले कि पुलिस या ऐंबुलैंस आती, लोग घायलों की मदद के लिए दौड़ पड़े थे. उसी ने मुझे अस्पताल पहुंचाया था.

‘‘मेरा नाम संजय है,’’ कहते हुए उस ने तकिए के नीचे से मेरा पर्स निकाल कर दिया और फिर बोला, ‘‘यह आप का पर्स, वहीं आप के पास ही मिला था. इस में मोबाइल देख कर मैं ने आखिरी डायल्ड कौल मिलाई तो वह चांस से आप के पति का ही नंबर था, वे आते ही होंगे.’’

उस के इतना कहते ही मैं ने सामने दरवाजे से निखिल को अंदर आते देखा. वे बहुत घबराए हुए थे. आते ही उन्होंने मेरे माथे और हाथपैरों पर लगी चोटों का जायजा लिया. मैं ने उन्हें संजय से मिलवाया. उन्होंने संजय का धन्यवाद किया जो मैं ने अब तक नहीं किया था.

इतने में डाक्टरों की टीम वहां आ पहुंची. अभी भी अस्पताल में घायलों और उन के अपनों का आनाजाना जारी था. चारों तरफ चीखपुकार, शोर, आहेंकराहें सुनाई दे रही थीं. उस माहौल को देख कर मैं ने घर जाने की इच्छा व्यक्त की. डाक्टरों ने भी देखा कि मुझे कोई ऐसी गंभीर चोटें नहीं हैं, तो उन्होंने मुझे साथ वाले वार्ड में जा कर मरहमपट्टी करवा कर घर जाने की आज्ञा दे दी.

मैं निखिल का सहारा ले कर साथ वाले वार्ड में पहुंची. संजय हमारे साथ ही था. लेकिन मुझे उस से बात करने का कोई अवसर ही नहीं मिला. मैं अपना दर्द उस के चेहरे पर साफ देख रही थी. निखिल ने वहां से लौटते हुए उस का एक बार फिर से धन्यवाद किया और उसे दीवाली के दिन घर आने का न्योता दे दिया.

दीवाली वाले दिन संजय हमारे घर आया. मिठाई के डब्बे के साथ बहुत ही सुंदर दीयों का उपहार भी था. मेरे दरवाजा खोलते ही उस ने आगे बढ़ कर मेरे पैर छुए और दीवाली की शुभकामनाएं भी दीं. मैं ठिठकी सी खड़ी रह गई, तभी वह निखिल के पैर छूने के लिए आगे बढ़ गया. उन्होंने उसे दोनों हाथों से थाम कर गले लगा लिया, ‘‘अरे यार, ऐसे नहीं, गले मिल कर दीवाली की शुभकामनाएं देते हैं. हम अभी इतने भी बुजुर्ग नहीं हुए हैं.’’

हमारा बेटा, सारांश उस से ज्यादा देर तक दूर नहीं रह पाया. दोनों में झट से दोस्ती हो गई. थोड़ी ही देर में दोनों बमपटाखों, फुलझडि़यों को चलाने में खो गए. निखिल उन दोनों का साथ देते रहे लेकिन मैं तो कभी रसोई तो कभी फोन पर शुभकामनाएं देने वालों और घरबाहर दीए जलाने में ही उलझी रही. हालांकि वह रात का खाना खा कर गया लेकिन मुझे उस से उस दिन भी बात करने का अवसर नहीं मिला.

निखिल ने मुझे बताया कि वह मथुरा का रहने वाला है और यहां रह कर इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहा है. यहां पास ही ए ब्लौक में दोस्तों के साथ कमरा किराए पर ले कर रहता है. ऐसे में दूसरों की मदद करने के लिए इस तरह आगे आना यह बताता है कि वह जरूर अच्छे संस्कारी परिवार का बच्चा है. निखिल ने तो उसे यहां तक कह दिया था कि जब कभी किसी चीज की जरूरत हो तो वह बेझिझक हम से कह सकता है.

संजय अब अकसर हमारे घर आने लगा था. हर बार आने का वह बड़ा ही मासूम सा कारण बता देता. कभी कहता इधर से निकल रहा था, सोचा आप का हालचाल पूछता चलूं. कभी कहता, सारांश की बहुत याद आ रही थी, सोचा थोड़ी देर उस के साथ खेल कर फ्रैश हो जाऊंगा तो पढ़ूंगा. कभी कहता, सभी दोस्त घर चले गए हैं, मैं अकेला बैठा बोर हो रहा था, सोचा आप सब को मिल आता हूं.

वह जब भी आता, घंटों चुपचाप बैठा रहता. बोलता बहुत कम. पूछने पर भी सवालों का जवाब टाल जाता. बहुत आग्रह करने पर ही वह कुछ खाने को तैयार होता. बहुत ही भावुक स्वभाव का था, बातबात पर उस की आंखें भीग जातीं. मुझे लगता, वह अपने परिवार से बहुत जुड़ाव रखता होगा. तभी अनजान शहर में अपनों से दूर उसे अपनत्व महसूस होता है इसलिए यहां आ जाता है.

सारांश को तो संजय के रूप में एक बड़ा भाई, एक अच्छा दोस्त मिल गया था. हालांकि दोनों की उम्र में लगभग 10 साल का अंतर था फिर भी दोनों की खूब पटती. पढ़ाईलिखाई की या खेलकूद की, कोई भी चीज चाहिए हो वह संजय के साथ बाजार जा कर ले आता. अब उस की छोटीछोटी जरूरतों के लिए मुझे बाजार नहीं भागना पड़ता. इतना ही नहीं, संजय पढ़ाई में भी सारांश की मदद करने लगा था. सारांश भी अब पढ़ाई की समस्याएं ले कर मेरे पास नहीं आता बल्कि संजय के आने का इंतजार करता.

संजय का आना हम सब को अच्छा लगता. उस का व्यवहार, उस की शालीनता, उस का अपनापन हम सब के दिल में उतर गया था. उस एक दिन की घटना में कोई अजनबी इतना करीब आ जाएगा, सोचा न था. फिर भी उस को ले कर एक प्रश्न मन को निरंतर परेशान करता कि उस दिन मुझे घायल देख कर वह इतना परेशान क्यों था? वह मुझे इतना सम्मान क्यों देता है?

दीवाली वाले दिन भी उस ने आदर से मेरे पांव छू कर मुझे शुभकामनाएं दी थीं. अब भी वह जब मिलता है मेरे पैरों की तरफ ही बढ़ता है, वह तो मैं ही उसे हर बार रोक देती हूं. मैं ने तय कर लिया कि एक दिन इस बारे में उस से विस्तार से बात करूंगी.

जल्दी ही वह अवसर भी मिल गया. एक दिन वह घर आया तो बहुत ही उदास था. सुबह 11 बजे का समय था. निखिल औफिस जा चुके थे और सारांश भी स्कूल में था. आज तक संजय जब कभी भी आया, शाम को ही आया था. निखिल भले औफिस से नहीं लौटे होते थे लेकिन सारांश घर पर ही होता था.

उसे इतना उदास देख कर मैं ने पूछा, ‘‘क्या हुआ, तबीयत तो ठीक है न, आज कालेज नहीं गए?’’

वह कुछ नहीं बोला, बस चुपचाप अंदर आ कर बैठ गया.

‘‘नाश्ता किया है कि नहीं?’’

‘‘भूख नहीं है,’’ कहते हुए उस की आंखें भीग गईं.

‘‘घर पर सब ठीक है न? कोई दिक्कत हो तो कहो,’’ मैं सवाल पर सवाल किए जा रही थी लेकिन वह खामोश बैठा टुकुरटुकुर मुझे देख रहा था. शायद वह कुछ कहना चाहता था लेकिन शब्द नहीं जुटा पा रहा था. मुझे लगा उसे पैसों की जरूरत है जो वह कहने से झिझक रहा है. घर से पैसे आने में देर हो गई है, इसीलिए कुछ खायापिया भी नहीं है और परेशान है. उस का मुरझाया चेहरा देख कर मैं अंदर से कुछ खाने की चीजें ले कर आई. मेरे बारबार आग्रह करने पर वह रोंआसे स्वर में बोला, ‘‘आज मेरी मां की बरसी है.’’

‘‘क्या?’’ सुनते ही मैं एकदम चौंक उठी. लेकिन उस का अगला वाक्य मुझे और भी चौंका गया. वह बोला, ‘‘आप की शक्ल एकदम मेरी मां से मिलती है. उस दिन पहली बार आप को देखते ही मैं स्वयं को रोक नहीं पाया था.’’

यह सब जान कर मेरे मुंह से एक शब्द भी नहीं निकला. मैं एकटक उसे देखती रह गई. थोड़ी देर यों ही खामोश बैठे रहने के बाद उस ने बताया कि उस की मां को गुजरे कई साल हो गए हैं. तब वह 7वीं में पढ़ता था. उस की मां उसे बहुत प्यार करती थी. वह मां को याद कर के अकसर अकेले में रोया करता था. बड़ी बहन ने उसे मां का प्यार दिया, उस के आंसू पोंछे, कभी मां की कमी महसूस नहीं होने दी लेकिन 2 साल हो गए, बहन की भी शादी हो गई और वह भी ससुराल चली गई.

मेरे मन में उस बिन मां के बच्चे के लिए ममता तो बहुत उमड़ी लेकिन वह मुझे मां कह सकता है, ऐसा मैं उसे नहीं कह पाई.

संजय में अब मुझे अपना बेटा ही नजर आने लगा था. सारांश का बड़ा भाई नजर आने लगा था. घर में कुछ भी विशेष बनाती तो चाहती कि वह भी आ जाए. बाजार जाती तो सारांश के साथसाथ उस के लिए भी कुछ न कुछ खरीदने को मन चाहता. हम दोनों के बीच स्नेह के तार जुड़ गए थे. मैं सारांश की ही भांति उस के भी खाने का खयाल रखने लगी थी, उस की फिक्र करने लगी थी.

संजय भी हम सब से बहुत घुलमिल गया था. अपनी हर छोटीबड़ी बात, अपनी हर समस्या मुझे ऐसे ही बताता जैसे वह अपनी मां से बात कर रहा हो. यह बात अलग है कि उम्र में इतने कम अंतर के कारण वह भी मुझे मां कहने से झिझकता था.

कुछ दिनों से मैं महसूस कर रही हूं कि जैसेजैसे संजय के साथ जुड़ा रिश्ता मजबूत होता जा रहा था वैसेवैसे निखिल और सारांश का रवैया कुछ बदलता जा रहा था. सारांश अब पहले की तरह उसे घर आया देख कर खुश नहीं होता और निखिल के चेहरे पर भी कोई ज्यादा खुशी के भाव अब नजर नहीं आते. अब वे उस से न ज्यादा बात करते हैं न ही उस से बैठने या कुछ खाने आदि के लिए आग्रह ही करते हैं.

सारांश तो बच्चा है. उस के व्यवहार, उस की बेवजह की जिद और शिकायतों से मुझे अंदाजा होने लगा था कि वह मेरा प्यार बंटता हुआ नहीं देख पा रहा है. मेरे समय, मेरे प्यार, मेरे दुलार, सब पर सिर्फ उसी का अधिकार है. इस सब का अंश मात्र भी वह किसी से बांटना नहीं चाहता. लेकिन निखिल को क्या हुआ है?

मैं कुछ समय से नोट कर रही हूं कि संजय को घर पर आया देख कर निखिल बेवजह छोटीछोटी बात पर चिल्लाने लगते हैं. अलग से बैडरूम में जा कर बैठ जाते हैं. बातोंबातों में संजय का जिक्र आते ही या तो उसे अनसुना कर देते हैं या झट से बातचीत का विषय ही बदल देते हैं. उन के ऐसे व्यवहार से मैं बहुत आहत हो जाती, तनाव में आ जाती.

एक दिन मैं ने निखिल से पूछ ही लिया कि आखिर बात क्या है? उन्हें संजय की कौन सी बात बुरी लग गई है? उन का व्यवहार संजय के प्रति इतना बदल क्यों गया है? निखिल ने भी कुछ नहीं छिपाया. उन्होंने जो कुछ कहा, सुन कर मैं सन्न रह गई.

निखिल का कहना था कि मुझे इस तरह संजय की बातों में आ कर भावनाओं में नहीं बहना चाहिए. इतने बड़े नौजवान को इस उम्र में मां के प्यार की नहीं, एक अच्छे दोस्त की जरूरत होती है. वह यदि अपनी भावनाओं को ठीक से समझ नहीं पा रहा है तो मुझे तो समझदारी से काम लेना चाहिए. संजय का इस तरह अकसर घर आना अफवाहों को हवा दे रहा है. बाहर दुनिया न जाने क्याक्या बातें बना रही होगी.

यह सब सुन कर मैं ने कई दिनों तक इस विषय पर बहुत मंथन किया. निखिल ऐसे नहीं हैं, न ही उन की सोच इतनी कुंठित है. ऐसा होता तो वह पहले ही दिन से संजय के साथ इतने घुलमिल न गए होते. वे मेरे बारे में भी कोई शकशुबहा नहीं रखते हैं. जरूर आसपड़ोस से ही उन्होंने कुछ ऐसावैसा सुना होगा जो उन्हें अच्छा नहीं लगा.

अब कहने वालों का मुंह तो बंद किया नहीं जा सकता, स्वयं को ही सुधारा जा सकता है कि किसी को कुछ कहने का अवसर ही न मिले. लोगों का क्या है, वे तो धुएं की लकीर देखते ही चिनगारियां ढूंढ़ने निकल पड़ते हैं. मैं ने निखिल को कोई सफाई नहीं दी. न ही मैं उन्हें यह बता पाई कि मैं तो संजय में अपने सारांश का भविष्य देखने लग गई हूं. संजय को देखती हूं तो सोचती हूं कि एक दिन हमारा सारांश भी इसी तरह बड़ा होगा. पढ़लिख कर इंजीनियर बनेगा. उसी तरह हमारा सम्मान करेगा, हमारा खयाल रखेगा.

मैं ने महसूस किया है कि अपने इस बदले हुए व्यवहार से निखिल भी सहज नहीं हैं. वे संजय से नाराज भी नहीं हैं. अगर उन्हें संजय का घर आना बुरा लगता होता तो वे उसे साफ शब्दों में मना कर देते. वे बहुत ही स्पष्टवादी हैं, मैं जानती हूं.

लेकिन मैं क्या करूं? संजय से क्या कहूं? उसे घर आने से कैसे रोकूं? वह तो टूट ही जाएगा. जब से उस ने घर आना शुरू किया है वह कितना खुश रहता है.

पढ़ाई में भी बहुत अच्छा कर रहा है. उस का इंजीनियरिंग का यह अंतिम वर्ष है. क्या दुनिया के डर से मैं उस का सुनहरा भविष्य चौपट कर दूं? उस ने तो कितने पवित्र रिश्ते की डोर थाम कर मेरी तरफ अपना हाथ बढ़ाया है. मैं एक औरत, एक मां हो कर उस बिन मां के बच्चे का हाथ झटक दूं?

अभी पिछले दिनों ही तो मदर्स डे के दिन कितने मन से मेरे लिए फूल, कार्ड और मेरी पसंद की मिठाई लाया था. कह रहा था, जिस दिन उस की नौकरी लग जाएगी वह मेरे लिए एक अच्छी सी साड़ी लाएगा. उस की इस पवित्र भावना को मैं दुनिया की बुरी नजर से कैसे बचाऊं?

मैं ने संजय के व्यवहार को बहुत बारीकी से जांचापरखा है लेकिन कहीं कुछ गलत नहीं पाया. उस की भावनाओं में कहीं कोई खोट नहीं है. फिर भी अब न चाहते हुए भी उस के घर आने पर मेरा व्यवहार बड़ा ही असहज हो उठता. पता नहीं आसपड़ोस वालों की गलत सोच मुझ पर हावी हो जाती या निखिल का व्यवहार या सारांश की बिना कारण चिड़चिड़ाहट और जिद मुझ से यह सब करवाती.

इधर संजय ने भी घर आना कम कर दिया है. पता नहीं हम सब के व्यवहार को देख कर यह फैसला किया है या उस ने भी लोगों की बातें सुन लीं या वास्तव में वह परीक्षा की तैयारी में व्यस्त था, जैसा कि उस ने बताया था. मुझे उस की बहुत याद आती. उस की चिंता भी रहती लेकिन मैं किसी से कुछ न कहती, न ही उसे बुलाती.

निखिल औफिस के काम से 10 दिनों के लिए ताइवान गए हुए थे. कल सुबह उन की वापसी थी. मैं और सारांश बहुत बेसब्री से उन के लौटने की राह देख रहे थे. सुबह से मेरी तबीयत भी कुछ ठीक नहीं लग रही थी. शाम होतेहोते अचानक जोरदार कंपकंपाहट के साथ मुझे तेज बुखार आ गया. घर में रखी बुखार की गोली खा ली है. लिहाफकंबल सभी कुछ ओढ़ने के बाद भी मैं कांपती ही जा रही थी. बुखार बढ़ता ही जा रहा था. मैं कब बेहोश हो गई, मुझे कुछ पता ही नहीं लगा.

अगले दिन सुबह जब ठीक से होश आया तो परेशान, दुखी, घबराया हुआ संजय मेरे सामने खड़ा था. उस की उंगली थामे साथ में सारांश भी खड़ा था. मुझे होश में आया देख कर सारांश आंखों में आंसू भर कर मम्मीमम्मी कहता हुआ मुझ से लिपट गया. भाव तो संजय के भी कुछ ऐसे ही थे. आंखें उस की भी सजल हो उठी थीं लेकिन वह अपनी जगह स्थिर खड़ा रहा. तभी निखिल भी आ पहुंचे.

तब हम ने जाना कि मेरी हालत देख कर सारांश पड़ोस की वीना आंटी को बुलाने दौड़ा तो वे लोग घर पर ही नहीं थे. तभी उस ने घबरा कर संजय को फोन कर दिया था. संजय डाक्टर को ले कर पहुंच गया. डाक्टर ने तुरंत मलेरिया का इलाज शुरू कर दिया और खून की जांच करवाने के लिए कहा. उस समय 104 डिगरी बुखार था. डाक्टर के कहे अनुसार संजय रात भर मेरे सिर पर पानी की पट्टियां रखता रहा और दवा देता रहा था. इतना ही नहीं, उस ने सारांश की भी देखभाल की थी.

‘‘तुम ने दूसरी बार मेरी पत्नी की जान बचाई है. मेरी गृहस्थी उजड़ने से बचाई है. मैं तुम्हारा बहुत आभारी हूं,’’ कहते हुए निखिल ने संजय को गले से लगा लिया. निखिल बहुत भावुक हो उठे थे. मैं जानती हूं, वे मुझ से बहुत प्यार करते हैं. मेरी जरा सी परेशानी उन्हें झकझोर देती है.

‘‘यह तो मेरा फर्ज था. मैं एक बार अपनी मां को खो चुका हूं, दोबारा…’’ संजय के जो आंसू अभी तक पलकों में छिपे हुए थे, बह निकले. आंसू तो निखिल की भी आंखों में थे, पता नहीं मेरे ठीक होने की खुशी के थे या संजय के प्रति अपने व्यवहार के पश्चात्ताप के लिए थे.

‘‘तुम दोनों बैठो अपनी मां के पास, मैं नाश्ते का प्रबंध करता हूं. मैं भी रातभर सफर में था और लगता है तुम लोगों ने भी कल रात से कुछ नहीं खाया है,’’ कहते हुए निखिल जल्दी से बाहर चले गए.

मैं जान गई हूं कि अब निखिल को दुनिया की कोई परवा नहीं, उन्होंने मेरे और संजय के रिश्ते की पवित्रता को दिल से स्वीकार कर लिया था.

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अहसास: डांसर भाग्यवती को क्या मिला रामनाथ का साथ

लेखक- डा. राम सिंह यादव

31 दिसंबर की रात को प्रेम पैलेस लौज का बीयर बार लोगों से खचाखच भरा हुआ था. गीत ‘कांटा लगा….’ के रीमिक्स पर बारबाला डांसर भाग्यवती ने जैसे ही लहरा कर डांस शुरू किया, तो वहां बैठे लोगों की वाहवाही व तालियों की गड़गड़ाहट से सारा हाल गूंज उठा. लोग अपनीअपनी कुरसी पर बैठे अलगअलग ब्रांड की महंगी से महंगी शराब पीने का लुत्फ उठा रहे थे और लहरातीबलखाती हसीनाओं का आंखों से मजा ले रहे थे. पूरा बीयरबार रंगबिरंगी हलकी रोशनी में डूबा हुआ था. रामनाथ पुलिसिया अंदाज में उस बार में दबंगता से दाखिल हुए. उन्होंने एक निगाह खुफिया तौर पर पूरे बार व वहां बैठे लोगों पर दौड़ाई. उन्हें सूचना मिली थी कि वहां आतंकवादियों को आना है, लेकिन उन्हें कोई नजर नहीं आया.

रामनाथ सीआईडी इंस्पैक्टर थे. किसी ने उन्हें पहचाना नहीं था, क्योंकि वे सादा कपड़ों में थे. जब कोई संदिग्ध नजर नहीं आया, तो रामनाथ बेफिक्र हो कर एक ओर कोने में रखी खाली कुरसी पर बैठ गए और बैरे को एक ठंडी बीयर लाने का और्डर दिया. वे भी औरों की तरह बार डांसर भाग्यवती को घूर कर देखने लगे. बार डांसर भाग्यवती खूबसूरत तो यकीनन थी, तभी तो सभी उस की देह पर लट्टू थे. एक मंत्री, जो बार में आला जगह पर बैठे थे, टकटकी लगाए भाग्यवती के बदन के साथ ऐश करना चाहते थे. वह भी चंद नोटों के बदले आसानी से मुहैया थी. मंत्री महोदय भाग्यवती की जवानी और लचकती कमर पर पागल हुए जा रहे थे, मगर वहां एक सच्चा मर्द ऐसा भी था, जिसे भाग्यवती की यह बेहूदगी पसंद नहीं थी.

रामनाथ का न जाने क्यों जी चाह रहा था कि वह उसे 2 तमाचे जड़ कर कह दे कि बंद करो यह गंदा नाच. पर वे ऐसा नहीं कर सकते थे. आखिर किस हक से उसे डांटते? वे तो अपने केस के सिलसिले में यहां आए थे. शायद यह सवाल उन के दिमाग में दौड़ गया और वे गंभीरता से सोचने लगे कि जिस लड़की के सैक्सी डांस व अदाओं पर पूरा बार झूम रहा है, उस की अदाएं उन्हें क्यों इतनी बुरी लग रही थीं? तभी बैरा रामनाथ के और्डर के मुताबिक चीजें ले आया. उन्होंने बीयर का एक घूंट लिया और फिर भाग्यवती को ताकने लगे.

भाग्यवती का मासूम चेहरा रामनाथ के दिलोदिमाग में उतरता जा रहा था. उन्होंने कयास लगाया कि हो न हो, यह लड़की मुसीबत की मारी है. बार डांसर रेखा रामनाथ को बहुत देर से देख रही थी. कूल्हे मटका कर उस ने रामनाथ की ओर इशारा करते हुए भाग्यवती से कहा, ‘‘देख, तेरा नया मजनू आ गया. वह जाम पी रहा है. तुझ पर उस की निगाहें काफी देर से टिकी हैं. कहीं ले न उड़े… दाम अच्छे लेना, नया बकरा है.’’

‘‘पता है…’’ मुसकरा कर भाग्यवती ने कहा.

भाग्यवती थिरकथिरक कर रामनाथ की ओर कनखियों से देखे जा रही थी कि तभी रामनाथ के सामने वाले आदमी ने कुछ नोटों को हाथ में निकाल कर भाग्यवती की ओर इशारा किया. भाग्यवती इठलातेइतराते हुए उस कालेकलूटे मोटे आदमी के करीब जा कर खड़ी हो गई और मुसकरा कर नोट लेने लगी.

इस दौरान रामनाथ ने कई बार भाग्यवती को देखा. दोनों की निगाहें टकराईं, फिर रामनाथ ने भाग्यवती की बेशर्मी को देख कर सिर झुका लिया. वह मोटा भद्दी शक्लसूरत वाला आदमी सफेदपोश नेता था. वह नई जवां लड़कियों का शौकीन था. उस के आसपास ही उस का पीए, 2-4 चमचे जीहुजूरी में वहां हाजिर थे. मंत्री धीरेधीरे भाग्यवती को नोट थमाता रहा. जब वह अपने हाथ का आखिरी नोट उसे पकड़ाने लगा, तो शराब के नशे में उस का हाथ भी पकड़ कर अपनी ओर खींच लिया. उस की छातियों पर हाथ फेरा, गालों को चूमा और बोला, ‘‘तुझे मेरे प्राइवेट बंगले पर आना है. बाहर सरकारी गाड़ी खड़ी है. उस में बैठ कर आ जाना. मेरे आदमी सारा इंतजाम कर देंगे. मगर हां, एक बात का ध्यान रखना कि इस बात का पता किसी को न लगे.’’

भाग्यवती मंत्री को हां बोल कर वहां से हट गई. यह देख कर रामनाथ के तनबदन में आग लग गई और वे अपने घर आ गए. उन की आंखों में भाग्यवती का मासूम चेहरा छा गया और वे तरहतरह के खयालों में डूब गए. दूसरे दिन डांस शुरू होने के पहले कमरे में बैठी रेखा भाग्यवती से बोली, ‘‘तेरा मजनू तो एकदम भिखारी निकला. उस की जेब से एक रुपया भी नहीं निकला.’’ भाग्यवती ने हंसते हुए कहा, ‘‘मैं तो बस उसी का चेहरा देख रही थी. जब वह मंत्री मुझे नोट दे रहा था, तब वह एकदम सिटपिटा सा गया था.’’

बार डांसर रेखा बोली, ‘‘शायद तू ने एक चीज नहीं देखी. जब तू उस मंत्री की गोद में बैठी थी और वह तेरी छातियों की नापतोल कर रहा था, तब उस के चेहरे का रंग ही बदल गया था. देखना, आज फिर वह आएगा. हमें तो सिर्फ पैसा चाहिए, अपने खूबसूरत बदन को नुचवाने का.’’ तभी डांस का समय हो गया. वे दोनों बीयर बार में आ कर गीत ‘अंगूर का दाना हूं….’ पर थिरकने लगी थीं.

रामनाथ अभी तक बार में नहीं आए थे. भाग्यवती की निगाहें बेताबी से उन्हें ढूंढ़ रही थीं. नए ग्राहक जो थे, उन से मोटी रकम लेनी थी. कुछ देर बाद जब रामनाथ आए, तो उन्हें देख कर भाग्यवती को अजीब सी खुशी का अहसास हुआ, पर जब वे खापी कर चलते बने, तो वह सोच में पड़ गई कि यह तो बड़ा अजीब आदमी है… आज भी एक रुपया नहीं लुटाया उस पर. भाग्यवती का दिमाग रामनाथ के बारे में सोचतेसोचते दुखने लगा. वह उन्हें जाननेसमझने के लिए बेचैन हो उठी. जब वे तीसरेचौथे दिन नहीं आए, तो परेशान हो गई.

एक दिन अचानक ही एक पैट्रोल पंप के पास वाली गली के कोने पर खड़ी भाग्यवती पर रामनाथ की नजर पड़ी. कार में बैठा एक आदमी भाग्यवती से कह रहा था, ‘‘चल. जल्दी चल. मंत्रीजी के पास भोपाल. ये ले 10 हजार रुपए. कार में जल्दी से बैठ जा.’’ भाग्यवती ने पूछा, ‘‘मुझे वहां कितने दिन तक रहना पड़ेगा?’’

‘‘कम से कम 4-5 दिन.’’

‘‘मुझे उस के पास मत भेज. वह मेरे साथ जानवरों जैसा सुलूक करता है,’’ गिड़गिड़ाते हुए भाग्यवती बोली. इस पर वह आदमी एकदम भड़क कर कहने लगा, ‘‘तो क्या हुआ, पैसा भी तो अच्छा देता है,’’ और वह डांट कर वहां से चलता बना. इस भरोसे पर कि मंत्री को खुश करने वह भोपाल जरूर जाएगी. यह सारा तमाशा रामनाथ चुपचाप खड़े देख रहे थे. वे जल्दी से भाग्यवती के पीछे लपक कर गए और बोले ‘‘सुनो, रुकना तो…’’ भाग्यवती ने पीछे मुड़ कर देखा और रामनाथ को पहचानते हुए बोली, ‘‘अरे आप… आप तो बार में आए ही नहीं…’’

‘‘वह आदमी कौन था?’’ रामनाथ ने भाग्यवती के सवाल को अनसुना करते हुए सवाल किया.

‘‘क्या बताऊं साहब, मंत्री का खास आदमी था. बार मालिक का हुक्म था कि मैं भोपाल में मंत्रीजी के प्राइवेट बंगले पर जाऊं,’’ भाग्यवती ने रामनाथ से कहा.

‘‘तुम छोड़ क्यों नहीं देती हो ऐसे धंधे को?’’ रामनाथ ने सवाल किया.

‘‘छोड़ने को मैं छोड़ देती साहब… उन को मेरे जैसी और लड़कियां मिल जाएंगी, पर मुझे सहारा कौन देगा? मुझ जैसी बदनाम औरत के बदन से खेलने वाले तो बहुत हैं साहब, पर अपनाने वाला कोई नहीं,’’ कह कर वह रामनाथ के चेहरे की तरफ देखने लगी. रामनाथ पलभर को न जाने क्या सोचते रहे. समाज में उन के काम से कैसा संदेश जाएगा. एक कालगर्ल ही मिली उन को? लेकिन पुलिस महकमा तो तारीफ करेगा. समाज के लोग एक मिसाल मानेंगे. भाग्यवती थी तो एक मजबूर गरीब लड़की. उस को सामाजिक इज्जत देना एक महान काम है. रामनाथ ने भाग्यवती से गंभीरता से पूछा, ‘‘तुम्हें सहारा चाहिए? चलो, मेरे साथ. मैं तुम्हें सहारा दूंगा.’’ भाग्यवती हां में सिर हिला कर रामनाथ के साथ ऐसे चल पड़ी, जैसे वह इस बात के लिए पहले से ही तैयार थी. वह रामनाथ के साथ उन की मोटरसाइकिल की पिछली सीट पर चुपचाप जा कर बैठ गई.

रामनाथ के घर वालों ने भाग्यवती का स्वागत किया. खुशीखुशी गृह प्रवेश कराया. उस का अलग कमरा दिखाया. इसी बीच भाग्यवती पर मानो वज्रपात हुआ. टेबल पर रखी रामनाथ की एक तसवीर देख कर वह घबरा गई, ‘‘साहब, आप पुलिस वाले हैं? मैं ने तो सोचा भी नहीं था.’’ ‘‘हां, मैं सीबीआई इंस्पैक्टर रामनाथ हूं,’’ उन्होंने गंभीरता से जवाब दिया, ‘‘क्यों, क्या हुआ? पुलिस वाले इनसान नहीं होते हैं क्या?’’ ‘‘जी, कुछ नहीं, ऐसा तो नहीं है,’’ वह बोल कर चुप हो गई और सोचने लगी कि पता नहीं अब क्या होगा?

‘‘भाग्यवती, तुम कुछ सोचो मत. आज से यह घर तुम्हारा है और तुम मेरी पत्नी हो.’’

‘‘क्या,’’ हैरान हो कर अपने खयालों से जागते हुए भाग्यवती हैरत से बोली.

‘‘हां भाग्यवती, क्या तुम्हें मैं पसंद नहीं हूं?’’ उसे हैरान देख कर रामनाथ ने पूछा.

‘‘नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है. आप मुझे बहुत पसंद हैं. मैं सोच रही थी कि हमारी शादी… न कोई रस्मोरिवाज…’’ भाग्यवती बोली. ‘‘देखो भाग्यवती, मैं नहीं मानता ऐसे ढकोसलों को. जब लोग शादी के बाद अपनी बीवी को छोड़ सकते हैं, जला सकते हैं, मार सकते हैं, उस से गिरा हुआ काम करा सकते हैं, तो फिर ऐसे रिवाजों का क्या फायदा? ‘‘मैं ने तुम्हें तुम्हारी सारी बुराइयों को दरकिनार करते हुए सच्चे मन से अपनी पत्नी माना है. तुम चाहो तो मुझे अपना पति मान कर मेरे साथ इज्जत की जिंदगी गुजार सकती हो,’’ रामनाथ ने जज्बाती होते हुए कहा. यह सुन कर भाग्यवती खुशी से हैरान रह गई. उस ने सपने में भी नहीं सोचा था कि इस जिंदगी में उसे सामाजिक इज्जत मिलेगी. अगले दिन जब रामनाथ के आला पुलिस अफसरों ने आ कर भाग्यवती को शादी की बधाइयां दीं व भेंट दीं, तो उस की खुशियों का ठिकाना नहीं रहा. भाग्यवती को उस नरक जैसी जिंदगी से बाहर निकाल कर रामनाथ ने उसे दूसरी जिंदगी दी थी. प्यार के इस खूबसूरत अहसास से वे दोनों बहुत खुश थे.

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एक अच्छा दोस्त: सतीश ने कैसे की राधा की मदद

लेखक- नरेंद्र सिंह ‘नीहार’

सतीश लंबा, गोरा और छरहरे बदन का नौजवान था. जब वह सीनियर क्लर्क बन कर टैलीफोन महकमे में पहुंचा, तो राधा उसे देखती ही रह गई. शायद वह उस के सपनों के राजकुमार सरीखा था.

कुछ देर बाद बड़े बाबू ने पूरे स्टाफ को अपने केबिन में बुला कर सतीश से मिलवाया.

राधा को सतीश से मिलवाते हुए बड़े बाबू ने कहा, ‘‘सतीश, ये हैं हमारी स्टैनो राधा. और राधा ये हैं हमारे औफिस के नए क्लर्क सतीश.’’

राधा ने एक बार फिर सतीश को ऊपर से नीचे तक देखा और मुसकरा दी.

औफिस में सतीश का आना राधा की जिंदगी में भूचाल लाने जैसा था. वह घर जा कर सतीश के सपनों में खो गई. दिन में हुई मुलाकात को भूलना उस के बस में नहीं था.

सतीश और राधा हमउम्र थे. राधा के मन में उधेड़बुन चल रही थी. उसे लग रहा था कि काश, सतीश उस की जिंदगी में 2 साल पहले आया होता.

राधा की शादी 2 साल पहले मोहन के साथ हुई थी. वह एक प्राइवेट कंपनी में असिस्टैंट मैनेजर था. घर में किसी चीज की कमी नहीं थी, मगर मोहन को कंपनी के काम से अकसर बाहर ही रहना पड़ता था. घर में रहते हुए भी वह राधा पर कम ही ध्यान दे पाता था.

यों तो राधा एक अच्छी बीवी थी, पर मोहन का बारबार शहर से बाहर जाना उसे पसंद नहीं था. मोहन का सपाट रवैया उसे अच्छा नहीं लगता था. वह तो एक ऐसे पति का सपना ले कर आई थी, जो उस के इर्दगिर्द चक्कर काटता रहे. लेकिन मोहन हमेशा अपने काम में लगा रहता था.

अगले दिन सतीश समय से पहले औफिस पहुंच गया. वह अपनी सीट पर बैठा कुछ सोच रहा था कि तभी राधा ने अंदर कदम रखा.

सतीश को सामने देख राधा ने उस से पूछा, ‘‘कैसे हैं आप? इस शहर में पहला दिन कैसा रहा?’’

सतीश ने सहज हो कर जवाब दिया, ‘‘मैं ठीक हूं. पहला दिन तो अच्छा ही रहा. आप कैसी हैं?’’

राधा ने चहकते हुए कहा, ‘‘खुद ही देख लो, एकदम ठीक हूं.’’

इस के बाद राधा लगातार सतीश के करीब आने की कोशिश करने लगी. धीरेधीरे सतीश भी खुलने लगा. दोनों औफिस में हंसतेबतियाते रहते थे.

हालांकि औफिस के दूसरे लोग उन की इस बढ़ती दोस्ती से अंदर ही अंदर जलते थे. वे पीठ पीछे जलीकटी बातें भी करने लगे थे.

राधा के जन्मदिन पर सतीश ने उसे एक बढि़या सा तोहफा दिया और कैंटीन में ले जा कर लंच भी कराया.

राधा एक नई कशिश का एहसास कर रही थी. समय पंख लगा कर उड़ता गया. सतीश और राधा की दोस्ती गहराती चली गई.

राधा शादीशुदा है, सतीश यह बात बखूबी जानता था. वह अपनी सीमाओं को भी जानता था. उसे तो एक अजनबी शहर में कोई अपना मिल गया था, जिस के साथ वह अपने सुखदुख की बातें कर सकता था.

सतीश की मां ने कई अच्छे रिश्तों की बात अपने खत में लिखी थी, मगर वह जल्दी शादी करने के मूड में नहीं था. अभी तो उस की नौकरी लगे केवल 8 महीने ही हुए थे. वह राधा के साथ पक्की दोस्ती निभा रहा था, लेकिन राधा इस दोस्ती का कुछ और ही मतलब लगा रही थी.

राधा को लगने लगा था कि सतीश उस से प्यार करने लगा है. वह पहले से ज्यादा खुश रहने लगी थी. वह अपने मेकअप और कपड़ों पर भी ज्यादा ध्यान देने लगी थी. उस पर सतीश का नशा छाने लगा था. वह मोहन का वजूद भूलती जा रही थी.

सतीश हमेशा राधा की पसंदनापसंद का खयाल रखता था. वह उस की हर बात की तारीफ किए बिना नहीं रहता था. यही तो राधा चाहती थी. उसे अपना सपना सच होता दिखाई दे रहा था.

एक दिन राधा ने सतीश को डिनर पर अपने घर बुलाया. सतीश सही समय पर राधा के घर पहुंच गया.

नीली जींस व सफेद शर्ट में वह बेहद सजीला जवान लग रहा था. उधर राधा भी किसी परी से कम नहीं लग रही थी. उस ने नीले रंग की बनारसी साड़ी बांध रखी थी, जो उस के गोरे व हसीन बदन पर खूब फब रही थी.

सतीश के दरवाजे की घंटी बजाते ही राधा की बांछें खिल उठीं. उस ने मीठी मुसकान बिखेरते हुए दरवाजा खोला और उसे भीतर बुलाया.

ड्राइंगरूम में बैठा सतीश इधरउधर देख रहा था कि तभी राधा चाय ले कर आ गई.

‘‘मैडम, मोहनजी कहां हैं? वे कहीं दिखाई नहीं दे रहे,’’ सतीश ने पूछा.

राधा खीज कर बोली, ‘‘वे कंपनी के काम से हफ्तेभर के लिए हैदराबाद गए हैं. उन्हें मेरी जरा भी फिक्र नहीं रहती है. मैं अकेली दीवारों से बातें करती रहती हूं. खैर छोड़ो, चाय ठंडी हो रही है.’’

सतीश को लगा कि उस ने राधा की किसी दुखती रग पर हाथ रख दिया है. बातोंबातों में चाय कब खत्म हो गई, पता ही नहीं चला.

राधा को लग रहा था कि सतीश ने आ कर कुछ हद तक उस की तनहाई दूर की है. सतीश कितना अच्छा है. बातबात पर हंसतामुसकराता है. उस का कितना खयाल रखता है.

तभी सतीश ने टोकते हुए पूछा, ‘‘राधा, कहां खो गई तुम?’’

‘‘अरे, कहीं नहीं. सोच रही थी कि तुम्हें खाने में क्याक्या पसंद हैं?’’

सतीश ने चुटकी लेते हुए जवाब दिया, ‘‘बस यही राजमा, पुलाव, रायता, पूरीपरांठे और मूंग का हलवा. बाकी जो आप खिलाएंगी, वही खा लेंगे.’’

‘‘क्या बात है. आज तो मेरी पसंद हम दोनों की पसंद बन गई,’’ राधा ने खुश होते हुए कहा.

राधा सतीश को डाइनिंग टेबल पर ले गई. दोनों आमनेसामने जा बैठे. वहां काफी पकवान रखे थे.

खाते हुए बीचबीच में सतीश कोई चुटकुला सुना देता, तो राधा खुल कर ठहाका लगा देती. माहौल खुशनुमा हो गया था.

‘काश, सब दिन ऐसे ही होते,’ राधा सोच रही थी.

सतीश ने खाने की तारीफ करते हुए कहा, ‘‘वाह, क्या खाना बनाया?है, मैं तो उंगली चाटता रह गया. तुम इसी तरह खिलाती रही तो मैं जरूर मोटा हो जाऊंगा.’’

‘‘शुक्रिया जनाब, और मेरे बारे में आप का क्या खयाल है?’’ कहते हुए राधा ने सतीश पर सवालिया निगाह डाली.

‘‘अरे, आप तो कयामत हैं, कयामत. कहीं मेरी नजर न लग जाए आप को,’’ सतीश ने मुसकरा कर जवाब दिया.

सतीश की बात सुन कर राधा झूम उठी. उस की आंखों के डोरे लाल होने लगे थे. वह रोमांटिक अंदाज में अपनी कुरसी से उठी और सतीश के पास जा कर स्टाइल से कहने लगी, ‘‘सतीश, आज मौसम कितना हसीन है. बाहर बूंदों की रिमझिम हो रही?है और यहां हमारी बातोें की. चलो, एक कदम और आगे बढ़ाएं. क्यों न प्यारमुहब्बत की बातें करें…’’

इतना कह कर राधा ने अपनी गोरीगोरी बांहें सतीश के गले में डाल दीं. सतीश राधा का इरादा समझ गया. एक बार तो उस के कदम लड़खड़ाए, मगर जल्दी ही उस ने खुद पर काबू पा लिया और राधा को अपने से अलग करता हुआ बोला, ‘‘राधाजी, आप यह क्या कर रही?हैं? क्यों अपनी जिंदगी पर दाग लगाने पर तुली हैं? पलभर की मौजमस्ती आप को तबाह कर देगी.

‘‘अपने जज्बातों पर काबू कीजिए. मैं आप का दोस्त हूं, अंधी राहों पर धकेलने वाला हवस का गुलाम नहीं.

‘‘आप अपनी खुशियां मोहनजी में तलाशिए. आप के इस रूप पर उन्हीं का हक है. उन्हें अपनाने की कोशिश कीजिए,’’ इतना कह कर सतीश तेज कदमों से बाहर निकल गया.

राधा ठगी सी उसे देखती रह गई. उसे अपने किए पर अफसोस हो रहा था. वह सोचने लगी, ‘मैं क्यों इतनी कमजोर हो गई? क्यों सतीश को अपना सबकुछ मान बैठी? क्यों इस कदर उतावली हो गई?

‘अगर सतीश ने मुझे न रोका होता तो आज मैं कहीं की न रहती. बाद में वह मुझे ब्लैकमेल भी कर सकता था. मगर वह ऐसा नहीं है. उस ने मुझे भटकने से रोक लिया. कितना महान है सतीश. मुझे उस की दोस्ती पर नाज है.’

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मुसकान : भाग 3- क्यों टूट गए उनके सपने

लेखिका- निर्मला कपिला

वार्ड में पहुंचते ही उस का सामना

डा. परमिंदर से हो गया, ‘‘गुडमार्निंग, सर.’’

‘‘गुडमार्निंग, बेटा. कैसी हो?’’

‘‘फाइन, सर.’’

‘‘अच्छा, 10 मिनट बाद मेरे आफिस में आना,’’ कह कर डाक्टर परमिंदर सिंह चले गए.

10 मिनट बाद वह डा. परमिंदर के सामने थी.

‘‘बैठो बेटा. सुनील कहां है?’’

‘‘सर, वह कमरे में सो रहे हैं. उन की तबीयत ठीक नहीं. मैं ने सोचा कुछ सो लें तो मैं इधर आ गई. पता नहीं क्यों खामोश से, परेशान से हैं.’’

‘‘तुम ने पूछा नहीं?’’

‘‘पूछा था. कहते हैं, कुछ नहीं…पर कुछ अजीब सी दहशत में कोई सपना देखा है, बता रहे थे.’’

‘‘बेटा, तुम सुनील से कितना प्यार करती हो?’’

‘‘अपनी जान से बढ़ कर. सर, आप तो जानते हैं कि हम बचपन से ही एकदूसरे को कितना चाहते हैं.’’

‘‘कल हम यही बातें कर रहे थे. कल उस ने एक अपाहिज को देखा. एक्सीडेंट की वजह से उस की दोनों टांगें काटनी पड़ीं. उस की पत्नी का रुदन देखा नहीं जा रहा था, तभी एकदम वह बोल उठा था कि कल को अगर उसे ऐसा कुछ हो जाए तो मुसकान कैसे जी पाएगी. बेटी, वह तुम्हें दुखी नहीं देख सकता.’’

‘‘सर, इस का मतलब वह मुझे प्यार नहीं करते या वह मुसकान को जान ही नहीं पाए. अगर कल मैं अपाहिज हो जाऊं तो वह क्या करेंगे? जब हम किसी से प्यार करते हैं तो उस का एक ही अर्थ होता है कि हम उस को मन और आत्मा से प्यार करते हैं. उस की हर अच्छाईबुराई अपनाते हैं.’’

‘‘पर मन और आत्मा की भी कई जरूरतें होती हैं जिन का संबंध इस शरीर से होता है,’’ डा. परमिंदर ने टोका.

‘‘सर, मैं सोचती हूं कि प्यार ही दुनिया में एक ऐसी शक्ति है जो मन और आत्मा को सही दिशा देती है. इसी शक्ति से हम जरूरतों के अधीन नहीं रहते बल्कि जरूरतों को अपने अधीन कर सकते हैं.’’

‘‘वाह बेटा, मुझे नहीं पता था कि मुसकान इतनी समझदार और साहसी है. मुझे लगता है तुम मेरे बेटे को जीवन दान दे सकती हो.’’

‘‘मैं समझी नहीं सर, आप किस की बात कर रहे हैं?’’

कुछ देर के लिए वहां खामोशी छा गई. फिर डा. परमिंदर इस खामोशी को तोड़ते हुए बोले, ‘‘आजकल तुम्हें पता है, डाक्टर लोग ही नहीं सारा मेडिकल स्टाफ जिन हालात में काम कर रहा है ऐसे में हम कभी भी किसी खतरनाक बीमारी का शिकार हो सकते हैं. आज सुनील के साथ ऐसी ही अनहोनी हो गई है. मुझ से वादा करो तुम सब की खातिर जो कदम उठाओगी सोचसमझ कर उठाओगी. कल सुनील का खून तुम्हारे पापा से मैच करने के लिए लिया तो वह एच.आई.वी. पाजिटिव है.’’

‘‘सर…’’ वह जोर से चीख उठी.

‘‘बेटे, हौसला रखो. अगर तुम से उस की शादी न हुई होती तो उस के पास कई विकल्प थे. वह कहीं भी कैसे भी जी लेता. मगर आज वह तुम्हें क्या जवाब दे. इसलिए मुझे डर है कहीं वह कुछ ऐसावैसा कदम न उठा ले. वह तुम्हारी जिंदगी बरबाद नहीं होने देगा.’’

‘‘सर, मैं उस के बचपन से ले कर अब तक के हर पल की गवाह हूं. उस ने कभी कोई गलत काम नहीं किया. फिर उस के साथ ऐसा क्यों हुआ?’’ मुसकान का दिल फटने को था.

‘‘तुम्हें पता है, हमारे पेशे में किसी के साथ भी ऐसा हो सकता है. मैं यह नहीं कहता कि तुम उस के साथ अपनी जिंदगी बरबाद करो. मगर यह सोच कर कि अगर तुम्हारे साथ ऐसा हुआ होता तो सुनील को क्या करना चाहिए था. फिर तुम लोग डाक्टर हो, जानते हो क्याक्या परहेज कर के एक आम आदमी जैसा जीवन जीया जा सकता है. अब तुम चलो. उस ने अभी तुम्हें बताने के लिए मना किया था पर मुझे दोनों की चिंता है इसलिए तुम्हें बताना जरूरी था.’’

वह उठी पर उस के कदम आगे बढ़ने से इनकार कर रहे थे. यह क्या हो गया सुनील? अकेले इतना बड़ा दुख सह रहे हो? वह लालपरी वाला सपना नहीं बल्कि उस के दिल की बात थी, तभी तो मुझ से दूरदूर था. क्या बीत रही होगी उस के दिल पर. वह मुझ से प्यार करता है तभी तो मुझे छूने से डरता है…कहीं मुसकान को भी एड्स न हो जाए. कितना संघर्ष करना पड़ा होगा दिल से…अपने अरमानों का खून करते हुए पर वह मुसकान को नहीं जानता…मैं उसे टूटने नहीं दूंगी…उसे ध्यान आया वह अकेला है…उसे अब अकेला नहीं छोड़ना चाहिए. उस के कदमों में कुछ तेजी आ गई.

मुसकान ने धीरे से दरवाजा खोला. सुनील सो रहा था. वह कितनी देर उसे सोता हुआ देखती रही. फिर चुपके से पास बैठ गई और उस के माथे को चूमा तो आंखों से आंसू टपक कर सुनील के माथे पर पड़े. वह हड़बड़ा कर उठा, ‘‘मुसकान, क्या हुआ? पापा ठीक हैं न?’’

‘‘हां.’’

‘‘अच्छा चलो, पापा के पास चलते हैं,’’ उस ने उठने की कोशिश की पर मुसकान ने उसे जबरदस्ती लिटा दिया.

‘‘सुनील, बताओ तुम मुझे कितना प्यार करते हो?’’

‘‘अपनी जान से भी ज्यादा.’’

‘‘झूठ, अच्छा मान लो मैं अपाहिज हो जाऊं, तुम्हारे काम की न रहूं तो?’’

‘‘मुसकान,’’ वह चीख सा पड़ा, ‘‘ऐसी बात भूल कर भी न कहना. मैं तुम से प्यार करता हूं तुम्हारे शरीर से नहीं.’’

‘‘झूठ.’’ वह रो पड़ी, ‘‘अगर मुझ से प्यार करते होते तो मुझे अपने दुख में शरीक न करते? क्या मुझे इतना स्वार्थी समझ लिया कि मैं तुम से घृणा करने लगूंगी? क्या सोच कर तुम अकेले इतना बड़ा बोझ लिए अपने से लड़ रहे हो?’’

‘‘मुसकान, यह क्या तुम बहकी- बहकी बातें कर रही हो?’’

‘‘अभीअभी मैं डा. परमिंदर सिंह से मिल कर आ रही हूं. मेरे होते, मांबाप के होते, तुम ने कैसे सोच लिया कि अपनी जिंदगी का फैसला तुम्हें अकेले करना है.’’

‘‘अब जब तुम जान ही गई हो तो मुझे समझने की कोशिश करो, मुसकान. यह ठीक है मैं तुम्हें जान से भी अधिक चाहता हूं मगर इतना भी स्वार्थी नहीं कि तुम्हारा जीवन बरबाद करूं,’’ सुनील ने समझाने की कोशिश की.

‘‘मैं सोचसमझ कर ही कह रही हूं. देखो, जो मुसीबत हम पर आई है उस में न तुम्हारा दोष है न मेरा, न ही हमारे मांबाप का. यह मुसीबत तो हम सब पर आई है और तुम्हें यह हक कदापि नहीं है कि तुम अकेले कोई फैसला करो. अगर तुम मुझ से प्यार करते हो, मांबाप को प्यार करते हो तो हम दोनों मिल कर सोचेंगे. मैं तुम्हारी पत्नी हूं. मेरा भी हर फैसले पर उतना ही हक है जितना तुम्हारा. फिर अगर हमें अभी पता न चलता तो क्या करते.’’

‘‘मैं क्या फैसला ले सकता हूं? मेरे पास बचा ही क्या है? मुसकान, मैं बरबाद हो गया,’’ सुनील के आंसू नहीं थम रहे थे.

‘‘अच्छा, अगर मुझे एड्स हो गया होता तो तुम क्या करते? क्या मुझे छोड़ देते या मरने देते?’’

‘‘नहीं…नहीं, ऐसा मत कहो. मैं कैसे तुम्हें छोड़ सकता था?’’

‘‘हम दोनों डाक्टर हैं, सुनील. इस बीमारी के बारे में हम जानते हैं और यह भी जानते हैं कि क्या परहेज कर के हम आम इनसान की तरह जी सकते हैं. हम अपना बच्चा ही पैदा नहीं कर सकते न और तो कुछ समस्या नहीं है…तो देश में कितने अनाथ बच्चे हैं, कोई भी गोद ले लेंगे. साथसाथ दुखसुख बांट लेंगे, मेरे लिए नहीं तो कम से कम दोनों के मांबाप की तो सोचो. वह सह सकेंगे? मुझ से वादा करो कि मुझ से दूर जाने की नहीं सोचोगे. मैं जी नहीं पाऊंगी,’’ यह कहते समय मुसकान सुनील की छाती पर सिर रख कर रोए जा रही थी.

‘‘मुसकान, मैं तो यों ही टूट रहा था, तड़प रहा था अपनी लालपरी को छूने के लिए, मुझे पता ही नहीं चला वह तो मेरे दिल में बैठी है… उस परी ने मुझे नई जिंदगी दी है,’’

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दिल के रिश्ते- भाग 2: कैसा था पुष्पा और किशोर का प्यार

जल्दीजल्दी वह भीड़ से निकल कर मेले के बाहर बरगद के पेड़ की आड़ में खड़ी हो गई और अपने रूमाल से चेहरा छिपा कर रो पड़ी. 2 मिनट बाद रूमाल हटा कर उसी से अपना चेहरा साफ करने लगी. पूरा चेहरा आंसुओं से भीग चुका था. दिल दर्द से भरा हुआ था. किसी तरह से उस ने अपने ऊपर काबू किया और जैसे ही वह मुड़ी, सामने किशोर मुसकराता हुआ खड़ा था. अब भला पुष्पा अपने ऊपर काबू कैसे रख पाती. किशोर के प्रेम को पूरे एक साल तक उस ने दिल में ही दबा कर रखा था. इस समय वह अपने को रोक नहीं पाई.

किशोर को सामने पा वह सब भूल कर उस के सीने से लग कर फिर से सिसक पड़ी. ‘ओ किशोर, कहां थे अभी तक, कब से तुम्हें ढूंढ़ रही थी? अब तो निराश हो गई थी. तुम से मिलने की आशा भी छोड़ चुकी थी,’ रोते हुए पुष्पा बोली.

‘मैं भी सुबह से तुम्हें मेले में ढूंढ़ रहा हूं. मुझे लगा तुम सब भूल गई हो और मैं निराश हो कर मेले से बाहर निकल आया. यहां आ कर मैं ने तुम्हें रोते हुए देखा तो सब समझ गया और तुम्हारे पीछे खड़ा हो गया.’

किशोर की बांहें भी पुष्पा की पीठ पर कस गईर् थीं. थोड़ी देर तक दोनों दीनदुनिया से बेखबर एकदूसरे की बांहों में समाए हुए एकदूसरे की धड़कनें गिनते रहे. बरगद की शाखों पर बैठे पक्षी उन के प्रेम के साक्षी थे. उन के सामने के वृक्ष पर पत्तों के झुरमुट से एक कबूतर का जोड़ा आपस में लिपटे हुए उन्हीं दोनों को निहार रहा था. उन को मेले से कुछ लेनादेना नहीं था. दोनों वहीं बैठ गए और एकदूसरे के बारे में जानने की कोशिश करने लगे.

किशोर ने बताया, ‘मेरा इंग्लिश से एमए पूरा हो चुका है और अब नौकरी की तलाश में हूं. ‘तुम क्या कर रही हो?’

‘मेरा इंटर पूरा हो चुका है और घर में शादी की बात चल रही है,’ पुष्पा ने सिर झुका कर जवाब दिया.

बातें करतेकरते कितना समय बीत गया, दोनों को पता नहीं चला. बरगद के पेड़ पर पक्षियों का कलरव सुन कर जैसे वे होश में आ गए. फिर से एक बार बिछड़ने का समय आ गया था. जुदा होने के एहसास से ही पुष्पा की आंखें फिर से भीग गईं. तब किशोर ने उस के आंसू पोंछते हुए समझाया, ‘पुष्पा, अगर समय ने चाहा तो हम फिर मिलेंगे. हम एकदूसरे की जिंदगी में तो शामिल नहीं हो सकते पर एकदूसरे के दिल में हमेशा रहेंगे. मैं जिंदगीभर तुम्हें भूल नहीं पाऊंगा, शायद तुम भी.’

किशोर चला गया और पुष्पा भी भारी कदमों से अपने को घसीटती हुई घर आ गई थी. उस समय लड़का या लड़की किसी को भी इतनी इजाजत नहीं थी कि वह अपने दिल की बात अपने घर वालों को बता सके, न ही इतनी छूट थी कि वे एकदूसरे से मिल सकें. किशोर दूर के गांव में ठाकुर के घर का बेटा था और पुष्पा ब्राह्मण की बेटी, इसलिए ये दोनों कुछ सोच भी नहीं सकते थे.

कुछ दिनों बाद ही अच्छा लड़का देख कर पुष्पा की शादी कर दी गई. वह अपनी घरगृहस्थी में लग गई. धीरेधीरे किशोर की यादें उस के दिल के कोने में परतदरपरत दबती चली गईं.

अब की बार पुष्पा मायके आई तो मेला चल रहा था. आज 25 सालोें बाद वह फिर उसी मेले में आई. दिन भी वही. पति से बच्चों को घुमाने को बोल कर पुष्पा सिरदर्द का बहाना कर मेले के बाहर उसी बरगद के पेड़ के नीचे आ कर घास पर बैठ गई.

इस समय वह सब भूल कर किशोर की याद में डूब गईर् और अपने आंसुओं को रोक नहीं पाई. दिल पर लिखा हुआ किशोर का नाम जो वक्त के साथ धुंधला पड़ गया था, आज अचानक वह फिर से उभर गया था. वह अपने पर्स से रूमाल निकाल कर अपने आंसू पोंछने लगी पर आंसू थे कि रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे. थोड़ी देर बाद ही सामने कुछ दूर एक गाड़ी आ कर रुकी. पुष्पा अपने आंसू पोंछने में लगी रही, सोचा, होगा कोई, उसे क्या.

गाड़ी ठीक उस के सामने ही रुकी थी. सो, न चाहते हुए भी उस की नजर उस पर पड़ रही थी. उस ने देखा गाड़ी में से एक लंबा सा आदमी फ्रैंचकट दाढ़ी में आंखों पर काला चश्मा लगाए हुए निकल कर उसी की ओर बढ़ा आ रहा है. उसे इस समय किसी का ध्यान नहीं है. वह यह भी भूल गई थी कि उस के पति व बच्चे मेले में हैं. इस समय वह खुद को भी भूल कर सिर्फ किशोर के खयालों में डूबी थी.

बरसों बाद उस की भावनाएं आज सारी परतें खोल कर बाहर आ गई थीं. वह आदमी उस के करीब आता जा रहा था. पुष्पा को लगा वह इसी रास्ते से मेले में जा रहा है. पुष्पा धीरेधीरे सिसकती हुई अपने पर काबू पाने की कोशिश भी करती जा रही थी. इतने में उस के कानों में धीरे से एक आवाज टकराई, ‘‘पुष्पा.’’

वह चौंक पड़ी, नजर उठा कर देखा वही आदमी उस के सामने खड़ा था. पुष्पा हड़बड़ा कर उठ खड़ी हुई. जल्दीजल्दी आंखें साफ कर के बोली, ‘‘जी, कहिए?’’

तब तक उस आदमी ने अपना चश्मा उतार लिया. अब पुष्पा उसे देख कर सिहर उठी, ‘‘कि…शो…र.’’ इस के आगे वह कुछ भी नहीं बोल पाई. आंखें फिर से बरस पड़ीं.

‘‘नहीं पुष्पा, रोना नहीं है. बस, थोड़ी देर मेरी बात सुनो. मैं कभी तुम्हें भूला नहीं. हर साल मैं इसी दिन मेले में आता रहा कि शायद कभी तुम से मुलाकात हो जाए और पूरा यकीन था कि एक न एक दिन तुम जरूर मिलोगी. मैं ने तो तुम्हें पहले ही बोला था कि मैं तुम्हारी जिंदगी में शामिल नहीं हो सकता पर तुम को कभी भी भूल नहीं पाऊंगा और देखो, मैं आज तक भूल नहीं पाया. पर आज के बाद अब कभी मेले में नहीं आऊंगा. एक बार तुम से मिलने की इच्छा थी जो आज पूरी हो गई. अब कोई इच्छा शेष नहीं,’’ कहते हुए किशोर भावुक हो गया.

‘‘कि…शो…र’’ पुष्पा के आंसू नहीं रुक रहे थे.

‘‘हां पुष्पा, तुम से मिलने की चाह मुझे मेले में खींच लाती थी हर साल.’’

इतनी देर में पुष्पा अपने को कुछ संभाल चुकी थी और उसे अपनी हालत का भान हो चुका था. वह धीरे से बोली, ‘‘अकेले आए हो? शादी की या नहीं? बच्चों को क्यों नहीं लाए?’’ पुष्पा ने एकसाथ कई सवाल कर दिए.

‘‘बच्चे होते, तो लाता न. तुम दिल से कभी गई ही नहीं. तो फिर कैसे किसी को अपना बनाता? मैं ने शादी नहीं की. अब इस उम्र में तो सवाल ही नहीं उठता. पर मैं बहुत खुश हूं कि तुम्हारी यादों के सहारे जिंदगी आराम से कट रही है. बस, एक बार तुम्हें देखने की इच्छा थी जो पूरी हो गई. अब कभी तुम्हारे सामने नहीं पडं़ूगा, चलता हूं. तुम्हारे पति आते होंगे.’’ इतना कह कर किशोर पलट कर चल पड़ा.

पुष्पा जैसे नींद से जागी, किशोर के मुंह से पति का नाम सुन कर वह पूरी तरह यथार्थ के धरातल पर आ चुकी थी.

किशोर चला जा रहा था और वह चाह कर भी उसे रोक नहीं पा रही थी. वह उसे पुकारना चाहती थी, कुछ कहना चाहती थी पर कोई अदृश्य शक्ति उसे ऐसा करने से रोक रही थी. वह अपनी जगह से हिल न सकी, न ही उस के कोई बोल फूटे, पर दिल में एक टीस सी उठी और आंखों से न चाहते हुए भी दो बूंद आंसू लुढ़क कर उस के गालों पर लकीर खींचते हुए उस के आंचल में समा गए हमेशा के लिए. वह किशोर को तब तक देखती रही जब तक वह गाड़ी में बैठ कर उस की नजरों से ओझल नहीं हो गया. एक छोटी सी प्रेम कहानी मेले से शुरू हो कर मेल में ही खत्म हो गई थी.

पुष्पा ने अपने दिल के किवाड़ बंद किए और सामान्य दिखने की कोशिश करने लगी. उस ने वहीं पास के हैंडपंप से पानी खींच कर मुंह धोया और अपनी गाड़ी में आ कर बैठ गई. अतीत से वर्तमान में आ चुकी थी पुष्पा. किशोर की यादों को उस ने अपने दिल की पेटी में सब से नीचे दबा दिया फिर कभी न खोलने के लिए. थोड़ी देर बाद ही सब मेले से वापस घर आ गए और 2 दिनों बाद ही सब शहर के लिए रवाना हो गए.

इस बात को लगभग 2 महीने बीत चुके थे. कभीकभी वह अपराधबोध से ग्रस्त हो जाती थी किशोर के लिए. वह खुद तो एक बेहद प्यार करने वाले पति और बच्चों के साथ सुखद गृहस्थ जीवन जी रही थी पर किशोर उस के कारण अकेलेपन को गले लगा कर बैठा था. पर करे क्या वह, कुछ समझ नहीं पा रही थी. यों तो पुष्पा ने अपने दिल के भीतर किशोर की यादों को दबा कर किवाड़ बंद कर दिया था, पर कभीकभी पुष्पा को अकेली पा कर वे यादें किवाड़ खटखटा दिया करती थीं. अचानक फोन की घंटी बजी, फोन उठा लिया पुष्पा ने.

‘‘हैलो.’’

‘‘अच्छा…’’

‘‘वही ना जिन की शादी के एक महीने बाद ही…’’

‘‘ठीक…’’

‘‘अच्छी बात है…’’

‘‘कर देती हूं.’’

आगे पढ़ें- अशोक हमेशा उस के बारे में…

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दिल के रिश्ते- भाग 3: कैसा था पुष्पा और किशोर का प्यार

अशोक (उस के पति) का फोन था. उन की दूर की बहन आरती आ रही थी. वह प्राइमरी टीचर थी और उस का स्थानांतरण पुष्पा के शहर में हुआ था. कुछ दिन साथ रह कर फिर वह अपने लिए कोई ढंग का कमरा देख लेगी. इस शहर में अशोक और पुष्पा के सिवा और कोईर् भी नहीं था उस का.

अशोक हमेशा उस के बारे में पुष्पा से बातें करते रहते थे. आरती की शादी के एक महीने बाद ही होली के दिन उस के पति की डूब कर मृत्यु हो गई थी. होली खेलने के बाद वे नदी में स्नान करने के लिए गए थे, फिर वापस नहीं आए. उस दिन से आरती कभी ससुराल नहीं गई. कई बार उस ने जाने की जिद की, पर उस के मायके वालों ने जाने नहीं दिया. सभी इस कोशिश में थे कि कोई अच्छा लड़का मिल जाए तो आरती की दोबारा शादी कर दी जाए. चूंकि  वह एक महीने की सुहागिन विधवा थी, इसलिए विवाह में समस्या आ रही थी. दूसरे, वह भी इस के लिए राजी नहीं हो रही थी. अशोक भी उस की शादी के लिए कोशिश कर रहे थे.

पुष्पा ने बच्चों के कमरे में आरती के रहने का इंतजाम कर दिया. आरती लंबी सी भरेपूरे शरीर की खूबसूरत, हिम्मती, हौसलेमंद, स्वभाव की नेक और बच्चों में घुलमिल कर रहने वाली खुशदिल युवती थी. उस के आने से घर में रौनक हो गई थी. बच्चे भी खुश थे.

पता ही नहीं चला कि आरती के आए हुए एक सप्ताह हो गया था. उस दिन शाम को आरती और बच्चे आराम से बालकनी में बैठ कर कैरम खेल रहे थे. इतने में अशोक की गाड़ी की आवाज सुन कर पुष्पा चौंक पड़ी. उस ने सवालिया निगाहों से आरती की तरफ देखा और बोली, ‘‘आज, इतनी जल्दी कैसे?’’

जल्दी से नीचे आ कर उस ने गेट खोला और फिर से वही बात अशोक से बोली, ‘‘आज इतनी जल्दी कैसे?’’

अशोक गाड़ी से नाश्ते का समान निकालते हुए बोले, ‘‘मेरे एक मित्र अभी आ रहे हैं, इसलिए आज जल्दी आना पड़ा. वे जर्नलिस्ट हैं, कल ही उन्हें वापस दिल्ली जाना है, इसीलिए उन्हें आज ही घर पर बुलाना पड़ा. तुम से बताने का समय भी नहीं मिला. जल्दी से आरती के साथ मिल कर तैयारी कर लो. बस, वे आते ही होंगे.’’ बात करते हुए दोनों भीतर आ गए थे.

पुष्पा ने जल्दी से आरती को आवाज दी और खुद ड्राइंगरूम सही करने में जुट गई. इतने में अशोक ने पुष्पा को इशारे से बैडरूम में बुला कर धीरे से कहा, ‘‘ध्यान से देख लेना, मैं चाहता हूं कि किसी तरह आरती का विवाह इस से करा सकूं. वरना इस उम्र में आरती के लिए कोई भी अविवाहित लड़का मिलना बहुत मुश्किल है.’’

‘‘अच्छा, तो यह बात है,’’ पुष्पा खुशी से चहक उठी. अशोक ने मुंह पर उंगली रख कर उसे चुप रहने को कहा और गेट की तरफ बढ़ गया.

पुष्पा की खुशी का ठिकाना नहीं था. वह इन 6-7 दिनों में ही आरती से बहुत घुलमिल गईर् थी. लग ही नहीं रहा था कि वे दोनों पहली बार मिली थीं. एक दोस्ती का रिश्ता बन गया था दोनों में. दोनों ने मिल कर तैयारी कर ली थी.

थोड़ी देर बाद ही सफेद रंग की लंबी सी गाड़ी दरवाजे पर आ कर रुकी. पुष्पा समझ गई, वे आ गए थे जिन की प्रतीक्षा हो रही थी. पुष्पा ने आरती को कोल्डड्रिंक ले कर जाने की जिम्मेदारी सौंप दी थी और खुद कौफी बनाने की तैयारी में लग गई. वह चाहती थी कि ज्यादा से ज्यादा आरती को मौका मिले उसे देखने का ताकि उसे विवाह के लिए राजी किया जा सके.

थोड़ी देर बाद अशोक ने पुष्पा को आवाज दिया. पुष्पा ने कौफी की ट्रे आरती को दी और खुद दूसरी ट्रे में नमकीन ले कर उस के पीछे चल दी. और जैसे ही पुष्पा ने ट्रे मेज पर रख कर दोनों हाथ जोड़ कर अभिवादन के लिए सामने बैठे व्यक्ति के ऊपर नजर डाली, उस के दिमाग को एक झटका लगा. कुछ यही हाल उस व्यक्ति का भी था. वह भी उसे देख कर सन्न रह गया था. दोनों हाथ जोड़े हैरान से खड़े थे. पर उन के मुंह से एक शब्द भी नहीं निकला. उन दोनों को यों खड़े देख कर अशोक ने दोनों का परिचय कराया, ‘‘ये पुष्पा, मेरी पत्नी और ये मेरे मित्र किशोर राजवंशी.’’

पुष्पा का दिल जोरजोर से धड़क रहा

था. समय ने फिर से उन दोनों को

एकदूसरे के सामने ला खड़ा किया था. उस ने तो दिल के दरवाजे किशोर के लिए सदा के लिए बंद कर दिए थे, फिर कुदरत ने दोबारा उसे मेरे सामने ला कर क्यों खड़ा कर दिया. मन में एक बेचैनी और उलझन लिए पुष्पा किशोर की आवभगत में लगी रही.

यही हाल किशोर का भी था. जिसे भुलाने की लाख कोशिशों के बाद भी वह उसे भुला नहीं सका था वह फिर से एक बार उस के सामने थी. थोड़ी देर बार किशोर ‘किसी काम के लिए जल्दी जाना है,’ कह कर चला गया. अशोक उसे बाहर तक छोड़ने गए.

पुष्पा के मन में भी हजारों विचार आ रहे थे. अभी 2 महीने पहले ही तो अचानक किशोर से मुलाकात हुई थी तब उस ने सोचा था कि यह आखिरी मुलाकात होगी. पर दोबारा यों अपने ही घर में…उस ने सोचा भी नहीं था. किसी तरह उस ने काम समेटा. उस के सिर में दर्द होने लगा था. वह आ कर अपने कमरे में लेट गईर्. जैसे ही उस ने अपनी आंखें बंद कीं उस के सामने वर्षों पहले की सारी यादें फिर से चलचित्र की भांति घूमने लगीं.

सोचतेसोचते अचानक ही पुष्पा की आंखें चमक उठीं. वह कुछ सोच कर बहुत खुश हो गई.

दोनों ने मिल कर आरती को किशोर से विवाह करने के लिए राजी कर लिया था. उस के घर में भी सब को बता दिया गया था. सभी लोग बहुत खुश थे इस रिश्ते से.

किशोर की बात अब हमेशा घर में होने लगी थी. कई बार पुष्पा ने सोचा कि वह अशोक को सब बता दे, पर न जाने क्या सोच कर हर बार चुप रह जाती. अब जबतब किशोर का फोन भी आने लगा था.

एक दिन अशोक, आरती और बच्चे सभी मिल कर लौन में बैडमिंटन खेल रहे थे. पुष्पा सब्जी काटते हुए टीवी पर सीरियल देख रही थी. इतने में अशोक का मोबाइल बज उठा. पुष्पा ने मोबाइल उठा कर देखा. किशोर का फोन था. उस ने कुछ सोचा, फिर फोन उठा लिया, कहा, ‘‘हैलो.’’

‘‘कैसी हो?’’ उधर से किशोर की गंभीर आवाज आई.

एक बार फिर से पुष्पा का दिल

धड़का पर वह अच्छी तरह से

जानती थी अपनी हालत. उस ने अपनी आवाज को संभाल कर जवाब दिया, ‘‘मैं अच्छी हूं, तुम कैसे हो?’’

‘‘मैं भी ठीक हूं पुष्पा, मैं इस जीवन में किसी और से विवाह की सोच भी नहीं सकता. कैसे मना करूं मैं अशोक को? मैं तो सपने में भी नहीं सोच सकता था कि तुम से इस तरह से कभी जीवन में फिर से मुलाकात होगी.’’

‘‘किशोर, हम दोनों जीवन में बहुत आगे बढ़ चुके हैं. और तुम ने ही तो कहा था कि हम एकदूसरे के जीवन में हों या न हों, पर एकदूसरे के दिल में हमेशा रहेंगे, तो अब पीछे क्यों हट रहे हो. मैं अपने पति से बहुत प्रेम करती हूं और अपनी गृहस्थी में बहुत खुश हूं तो तुम क्यों खुद को सजा दे रहे हो. हमारा प्रेम सच्चा था. हम ने एकदूसरे से कुछ नहीं मांगा था, न ही कुछ चाहा था. कुदरत ने एक मौका दिया है, तो हम एक अच्छे मित्र बन कर क्यों नहीं रह सकते. और अब तो हमारा एक रिश्ता भी बनने जा रहा है. क्या तुम्हें आरती में कोई कमी दिख रही है या वह तुम्हारे लायक नहीं?’’ पुष्पा ने कहा.

‘‘नहीं पुष्पा, आरती बहुत अच्छी लड़की है. मैं कैसे कह दूं कि वह मेरे लायक नहीं है. शायद, मैं ही नहीं उस के लायक,’’ कुछ मायूस स्वर में किशोर ने कहा.

‘‘नहीं किशोर, ऐसा मत कहो. तुम से बहुत कम समय के लिए मिली हूं. पर इतना तो समझ ही गई हूं कि तुम एक अच्छे और नेकदिल इंसान हो. आरती भी बहुत अच्छी लड़की है. किशोर, हम इस नए रिश्ते को कुदरत की मरजी मान कर पूरे सम्मान से अपना लेते हैं,’’ पुष्पा ने किशोर को समझाते हुए कहा.

‘‘ठीक है, जैसी तुम्हारी इच्छा. मुझे कोई एतराज नहीं इस रिश्ते से,’’ किशोर ने कहा.

यह सुन कर पुष्पा खुश हो गई, बोली, ‘‘किशोर, मैं बहुत खुश हूं. मेरे दिल पर एक बोझ था, वह आज उतर गया. मैं बहुत खुश हूं, किशोर. बहुत खुश. और हां, अब हम कभी एकदूसरे से अलग नहीं होंगे क्योंकि अब हम रिश्तेदार के साथसाथ अच्छे मित्र भी हैं. वादा करो किशोर कि अब तुम इस मित्र का हाथ कभी नहीं छोड़ोंगे. वादा करो किशोर, वादा करो.’’ यह सब बोलते हुए पुष्पा की आवाज कांप गई, आंखों से दो बूंद आंसू उस के गालों पर लुढ़क पड़े.

‘‘वादा रहा, पुष्पा, वादा रहा,’’ कहते हुए किशोर का गला भर्रा गया.

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प्रेम का दूसरा नाम: क्या हो पायी उन दोनों की शादी

लेखक- ज्योति गजभिये

दियाबाती कर अभी उठी ही थी कि सांझ के धुंधलके में दरवाजे पर एक छाया दिखी. इस वक्त कौन आया है यह सोच कर मैं ने जोर से आवाज दी, ‘‘कौन है?’’

‘‘मैं, रोहित, आंटी,’’ कुछ गहरे स्वर में जवाब आया.

रोहित और इस वक्त? अच्छा है जो पूर्वा के पापा घर पर नहीं हैं, यदि होते तो भारी मुश्किल हो जाती, क्योंकि रोहित को देख कर तो उन की त्यौरियां ही चढ़ जाती हैं.

‘‘हां, भीतर आ जाओ बेटा. कहो, कैसे आना हुआ?’’

‘‘कुछ नहीं, आंटी, सिर्फ यह शादी का कार्ड देने आया था.’’

‘‘किस की शादी है?’’

‘‘मेरी ही है,’’ कुछ शरमाते हुए वह बोला, ‘‘अगले रविवार को शादी और सोमवार को रिसेप्शन है, आप और अंकल जरूर आना.’’

आज तक हमेशा उसे शादी के लिए उत्साहित करने वाली मैं शादी का कार्ड हाथ में थामे मुंहबाए खड़ी थी.

‘‘चलूं, आंटी, देर हो रही है,’’ रोहित बोला, ‘‘कई जगह कार्ड बांटने हैं.’’

‘‘हां बेटा, बधाई हो. तुम शादी कर रहे हो, आएंगे हम, जरूर आएंगे…’’ मैं जैसे सपने से जागती हुई बोली.

बहुत खुश हो कर कहा था यह सब पर ऐसा लगा कि रोहित मेरा अपना दामाद, मेरा अपना बेटा किसी और का हो रहा है. उस पर अब मेरा कोई हक नहीं रह जाएगा.

रोहित हमारी ही गली का लड़का है और मेरी बेटी पूर्वा के साथ बचपन से स्कूल में पढ़ता था. पूर्वा की छोटीछोटी जरूरतों का खयाल करता था. पेंसिल की नोंक टूटने से ले कर उसे रास्ता पार कराने और उस का होमवर्क पूरा कराने तक. बचपन से ही रोहित का हमारे घर आनाजाना था. बच्चों के बचपन की दोस्ती ?पर पूर्वा के पापा ने कभी कोई ध्यान नहीं दिया लेकिन जैसे ही दोनों बच्चे जवानी की ओर कदम बढ़ाने लगे वह रोहित को देखते ही नाकभौं चढ़ा लेते थे. रोहित और पूर्वा दोनों ही पापा की इस अचानक उपजी नाराजगी का कारण समझ नहीं पाते थे.

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पापा का व्यवहार पहले जैसा क्यों नहीं रहा, यह बात 12वीं तक जातेजाते वे अच्छी तरह से समझ गए थे क्योंकि उन के दिल में फूटा हुआ प्रेम का नन्हा सा अंकुर अब विशाल वृक्ष बन चुका था. पापा को उन का साथ रहना क्यों नहीं अच्छा लगता है, इस का कारण वे समझ गए थे. छिप कर पूर्वा रोहित के घर जा कर नोट्स लाती थी और रोहित का तो घर के दरवाजे पर आना भी मना था.

रोहित और पूर्वा ने एकदूसरे को इतना चाहा था कि सपने में भी किसी और की कल्पना करना उन के लिए मुमकिन न था. मेरे सामने ही दोनों का प्रेम फलाफूला था. अब इस पर यों बिजली गिरते देख कर वह मन मसोस कर रह जाती थी.

एक और कारण से पूर्वा के पापा को रोहित पसंद नहीं था. वह कारण उस की गरीबी थी. पिता साधारण सी प्राइवेट कंपनी में क्लर्क थे. घर में उस के एक छोटा भाई और एक बहन थी. 3 बच्चों का भरणपोषण, शिक्षा आदि कम आय में बड़ी मुश्किल से हो पाता था. इस कारण रोहित की मां भी साड़ी में पीकोफाल जैसे छोटेछोटे काम कर के घर खर्चे में पति का हाथ बंटाती थीं. हमारी कपड़ों की 2 बड़ीबड़ी दुकानें थीं. शहर के प्रतिष्ठित व्यापारी परिवार की इकलौती बेटी पूर्वा राजकुमारी की तरह रहती थी.

रुई की तरह हलके बादलों के नरम प्यार पर जब हकीकत की बिजली कड़कड़ाती है तो क्या होता है? आसमान का दिल फट जाता है और आंसुओं की बरसात शुरू हो जाती है. मैं कभी यह समझ नहीं पाई कि दुनिया बनाने वाले ने दुनिया बनाई और इस में रहने वालों ने समाज बना दिया, जिस के नियमानुसार पूर्वा रोहित के लिए नहीं बनी थी.

तभी फोन की घंटी बजी. लंदन से पूर्वा का फोन था. फोन पर पूछ रही थी, मम्मी, कैसी हो? यहां विवेक का काम ठीक चल रहा है, सोहम अब स्कूल जाने लगा है. तुम कब आओगी? पापा की तबीयत कैसी है? और भी जाने क्याक्या.

मैं कहना चाह रही थी कि रोहित के बारे में नहीं पूछोगी, उस की शादी है, बचपन की दोस्ती क्या कांच के खिलौने से भी कच्ची थी जो पल में झनझना कर टूट गई…पर कुछ न कह सकी और न ही रोहित की शादी होने वाली है यह खुशखबरी उसे सुना सकी.

दामाद विवेक के साथ बेटी पूर्वा खुश है, मुझे खुश होना चाहिए पर रोहित की आंखों में जब भी गीलापन देखती थी, खुश नहीं हो पाती थी. विवेक लंदन की एक बड़ी फर्म में इंजीनियर है. अच्छी कदकाठी, गोरा रंग, उच्च कुल के साथसाथ उच्च शिक्षित, क्या नहीं है उस के पास. पहले पूर्वा जिद पर अड़ी थी कि शादी करेगी तो रोहित से वरना कुंआरी ही रह जाएगी. पर दुनिया की ऊंचनीच के जानकार पूर्वा के पापा ने खुद की बहन के घर बेटी को ले जा कर उस को कुछ ऐसी पट्टी पढ़ाई कि वह सोचने को मजबूर हो गई कि रोहित के छोटे से घर में रहने से बेहतर है विवेक के साथ लंदन में ऐशोआराम से रहना.

बूआ के घर से वापस आ कर जब पूर्वा ने शरमाते हुए मुझ से कहा कि मुझे विवेक पसंद है, तब मेरा दिल धक् कर रह गया था. मैं अपना दिल पत्थर का करना चाहूं तो भी नहीं कर पाती और यह लड़की…मेरी अपनी लड़की सबकु छ भूल गई. लेकिन यह मेरी भूल थी.

लंदन में सबकुछ होते हुए भी वह रोहित के बेतहाशा प्यार को अभी भी भूल नहीं पाई थी.

पूर्वा के पापा आ गए थे. बोले, ‘‘क्या हुआ, आज बड़ी अनमनी सी लग रही हो?’’

‘‘कुछ नहीं,’’ उन के हाथ से बैग लेते हुए मैं बोली, ‘‘पूर्वा की याद आ रही है.’’

‘‘तो फोन कर लो.’’

‘‘अभी थोड़ी देर पहले ही तो उस का फोन आया था, आप को याद कर रही थी.’’

‘‘हां, सोचता हूं, अगले माह तक हम लंदन जा कर पूर्वा से मिल आते हैं. और यह किस की शादी का कार्ड रखा है?’’

‘‘रोहित की.’’

‘‘चलो, अच्छा हुआ जो वह शादी कर रहा है. हां, लड़की कौन है?’’

‘‘फैजाबाद की किसी मिडिल क्लास परिवार की लगती है.’’

‘‘अच्छा है, जितनी चादर हो उतने ही पांव पसारने चाहिए.’’

मैं रसोई में जा कर उन के लिए थाली लगाने लगी. वह जाने क्याक्या बोल रहे थे. मेरा ध्यान रोहित की ओर गया, जिसे मैं बेटे से बढ़ कर मानती हूं. उस के खिलाफ एक शब्द भी नहीं सुन सकती.

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पूर्वा के विवाह वाले दिन वह कैसे सुन्न खड़ा था. मैं ने देखा था और देख कर आंखें भर आई थीं. कुछ और तो न कर सकी, बस, पीठ पर हाथ फेर कर मैं ने मूक दिलासा दिया था उसे.

उस का यह उदास रूप देख कर हाथ में रखी द्वाराचार के लिए सजी थाली मनों भारी हो गई थी, पैर दरवाजे की ओर उठ नहीं रहे थे. मैं पूर्वा की मां हूं, बेटी की शादी पर मुझे बहुत खुश होना चाहिए था पर भीतर से ऐसा लग रहा था कि जो कुछ हो रहा है, गलत हो रहा है. शादी के लिए जिस पूर्वा को जोरजबरदस्ती से तैयार किया था, वह जयमाला से पहले फूटफूट कर रो पड़ी थी. तब मैं ने उसे कलेजे से लगा लिया था.

बिदाई के समय पीछे मुड़मुड़ कर पूर्वा की आंखें किसे ढूंढ़ रही थीं वह भी मुझे मालूम था. उस समय दिल से आवाजें आ रही थीं :  पूर्वा, रूपरंग और दौलत ही सबकुछ नहीं होते, इस प्यार के सागर को ठुकराएगी तो उम्रभर प्यासी रह जाएगी.

पता नहीं ये आवाजें उस तक पहुंचीं कि नहीं, पर उस के जाने के बाद मानो सारा घरआंगन चीखचीख कर कह रहा था, मन के रिश्ते कोई और होते हैं, जो किसी को दिखाए नहीं जाते और निभाने के रिश्ते कोई और होते हैं जो सिर्फ निभाए जाते हैं. तब से जब भी रोहित को देखती हूं दिल फट जाता है.

पूर्वा की शादी को अब पूरे 7 बरस हो गए हैं और रोहित इन 7 वर्षों तक उस की याद में तिलतिल जलने के बाद अब ब्याह कर रहा है. कितने दिनों से उसे समझा रही थी कि अब नौकरी लग गई है. बेटा, तू भी शादी कर ले तो वह हंस कर टाल जाता था. पिता के रिटायर होने पर उन की जगह ही उसे काम मिला था और घर में बच्चों को ट्यूशन पढ़ाता है. उस से अच्छीखासी कमाई हो जाती है. 2 साल हुए उस ने छोटी बहन की अच्छे घर में शादी कर दी है और भाई को इंजीनियरिंग करवा रहा है. मां का काम उस ने छुड़वा दिया है और मुझे लगता है कि मां को आराम मिले इस के लिए ही उस ने शादी की सोची है.

रोहित जैसा गुणी और आज्ञाकारी पुत्र इस जमाने में मिलना कठिन है. मेरे तो बेटा ही नहीं है, उसे ही बेटे के समान मानती थी. उस की शादी फैजाबाद में थी. वहां जाना नहीं हो सकता था इसलिए बहू की मुंहदिखाई और स्वागत समारोह में जाना मैं ने उचित समझा.

रोहित के लिए सुंदर रिस्टवाच और बहू के लिए साड़ी और झुमके खरीदे थे. बहुत खुशी थी अब मन में. इन 7 वर्षों के अंतराल में रिश्ते उलटपुलट गए थे. रोहित, जिसे मैं दामाद मानती थी, बेटा बन चुका था. अब मेरी बहू आ रही थी. पता नहीं कैसी होगी बहू…पगले ने फोटो तक नहीं दिखाई.

स्वागत समारोह के उस भीड़- भड़क्के में रोहित ने पांव छू कर मुझे नमस्कार किया. उस की देखादेखी अर्चना भी नीचे झुकने लगी तो मैं ने उसे बांहों में भर झुकने से मना किया.

अर्चना सांवली थी पर तीखे नैननक्श के कारण भली लग रही थी. उपहार देते हुए मैं चंद पलों को उन्हें निहारती रह गई. परिचय कराते वक्त रोहित ने अर्चना से धीरे से कहा, ‘‘ये पूर्वा के मम्मीपापा हैं.

उस लड़की ने नमस्कार के लिए एक बार और हाथ जोड़ दिए. जेहन में फौरन सवाल उभरा, ‘क्या पूर्वा के बारे में सबकुछ रोहित ने इसे बता दिया है.’ मैं असमंजस में पड़ी खड़ी थी. तभी रोहित की मां हाथ पकड़ कर खाना खिलाने के लिए लिवा ले गईं.

अर्चना ने रोहित का घर खूब अच्छे से संभाल लिया था. अपनी सास को तो वह किसी काम को हाथ नहीं लगाने देती थी. कभीकभी मेरे पास आती तो पूर्वा के बारे में ही बातें करती रहती थी. न जाने कितने प्रकार के व्यंजन बनाने की विधियां मुझ से सीख कर गई और बड़े प्रयत्नपूर्वक कोई नया व्यंजन बना कर कटोरा भर मेरे लिए ले आती थी.

पूर्वा के पापा का ब्लडप्रेशर पिछले दिनों कुछ ज्यादा ही बढ़ गया था, अत: हमारा लंदन जाने का कार्यक्रम स्थगित हो चुका था. अब की सितंबर में पूर्वा आ रही थी. विवेक को छुट्टी नहीं थी. पूर्वा और सोहम दोनों ही आ रहे थे. जिस रोहित से पूर्वा लड़तीझगड़ती रहती थी, जिस पर अपना पूरा हक समझती थी, अब उसे किसी दूसरी लड़की के साथ देख कर उस पर क्या बीतेगी, मैं यही सोच रही थी.

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रोहित की शादी के बारे में मैं ने उसे फोन पर बताया था. सुन कर उस ने सिर्फ इतना कहा था कि चलो, अच्छा हुआ शादी कर ली और कितने दिन अकेले रहता.

अभी पूर्वा को आए एक दिन ही बीता था. रोहित और अर्चना तैयार हो कर कहीं जा रहे थे. मैं ने पूर्वा को खिड़की पर बुलाया तो रोहित के बाजू में अर्चना को चलते देख मानो उस के दिल पर सांप लोट रहा था. मैं ने कहा, ‘‘वह देख, रोहित की पत्नी अर्चना.’’

अर्चना को देख कर पूर्वा ने मुंह बना कर कहा, ‘‘ऊंह, इस कालीकलूटी से ब्याह रचाया है.’’

‘‘ऐसा नहीं बोलते, अर्चना बहुत गुणी लड़की है,’’ मैं ने उसे समझाते हुए कहा.

‘‘हूं, जब रूप नहीं मिलता तभी गुण के चर्चे किए जाते हैं,’’ उपेक्षित स्वर में पूर्वा बोली.

‘‘छोड़ यह सब, चल, सोहम को नहला कर खाना खिलाना है,’’ मैं ने उस का ध्यान इन सब बातों से हटाने के लिए कहा.

पर अर्चना को देखने के बाद पूर्वा अनमनी सी हो गई थी. दोपहर को बोली, ‘‘मम्मी, मुझे रोहित से मिलना है.’’

‘‘शाम 6 बजे के बाद जाना, तब तक वह आफिस से आ जाता है. हां, पर भूल कर भी अर्चना के सामने कुछ उलटासीधा न कहना.’’

‘‘नहीं, मम्मी,’’ पूर्वा मेरे गले में हाथ डाल कर बोली, ‘‘पागल समझा है मुझे.’’

मैं, सोहम और पूर्वा शाम को रोहित के घर गए. गले में फंसी हुई आवाज के साथ पूर्वा उसे विवाह की बधाई दे पाई. रोहित ने कुछ देर को उस के और विवेक के बारे में पूछा फिर सोहम के साथ खेलने लगा. इतने में अर्चना चायनाश्ता बना लाई. मैं, अर्चना और रोहित की मां बातें करने लगे.

खेलखेल में सोहम ने रोहित की जेब से पर्स निकाल कर जब हवा में उछाल दिया तो नोटों के साथ कुछ गिरा था. वह रोहित और पूर्वा के बचपन की तसवीर थी जिस में दोनों साथसाथ खडे़ थे.

तसवीर देख कर हम मांबेटी भौचक्के रह गए पर अर्चना ने पैसों के साथ वह तसवीर भी वापस पर्स में रख दी और हंस कर कहा, ‘‘पूर्वा दीदी, बचपन में कटे बालों में आप बहुत सुंदर दिखती थीं. रोहित को देख कर तो मैं बहुत हंसती हूं…इस ढीलेढाले हाफ पैंट में जोकर नजर आते हैं.’’

बात आईगई हो गई पर हम समझ चुके थे कि अर्चना पूर्वा के बारे में सब जानती है. पूर्वा जिस दिन लंदन वापस जा रही थी, अर्चना उपहार ले कर आई थी.

‘‘लो, दीदी, मेरी ओर से यह रखो. आप रोहित का पहला प्यार हैं, मैं जानती हूं, वह अभी तक आप को नहीं भूले हैं. वह आप को बहुत चाहते हैं और मैं उन्हें बहुत चाहती हूं. इसलिए वह जिसे चाहते हैं मैं भी उसे बहुत चाहती हूं.’’

उस की यह सोच पूर्वा की समझ से बाहर की थी. पूर्वा ने धीरे से ‘थैंक्यू’ कहा.

आज तक रोहित पर अपना एकाधिकार जताने वाली पूर्वा समझ चुकी थी कि प्रेम का दूसरा नाम त्याग है. आज अर्चना के प्रेम के समक्ष उसे अपना प्रेम बौना लग रहा था.

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