देर आए दुरुस्त आए

रात का 1 बज रहा था. स्नेहा अभी तक घर नहीं लौटी थी. सविता घर के अंदर बाहर बेचैनी से घूम रही थी. उन के पति विनय अपने स्टडीरूम में कुछ काम कर रहे थे, पर ध्यान सविता की बेचैनी पर ही था. विनय एक बड़ी कंपनी में सीए थे. वे उठ कर बाहर आए. सविता के चिंतित चेहरे पर नजर डाली. कहा, ‘‘तुम सो जाओ, मैं जाग रहा हूं, मैं देख लूंगा.’’

‘‘कहां नींद आती है ऐसे. समझासमझा कर थक गई हूं. स्नेहा के कानों पर जूं तक नहीं रेंगती. क्या करूं?’’

तभी कार रुकने की आवाज सुनाई दी. स्नेहा कार से निकली. ड्राइविंग सीट पर जो लड़का बैठा था, उसे झुक कर कुछ कहा, खिलखिलाई और अंदर आ गई. सविता और विनय को देखते ही बोली, ‘‘ओह, मौम, डैड, आप लोग फिर जाग रहे हैं?’’

‘‘तुम्हारे जैसी बेटी हो तो माता पिता ऐसे ही जागते हैं, स्नेहा. तुम्हें हमारी हैल्थ की भी परवाह नहीं है.’’

‘‘तो क्या मैं लाइफ ऐंजौय करना छोड़ दूं? मौम, आप लोग जमाने के साथ क्यों नहीं चलते? अब शाम को 5 बजे घर आने का जमाना नहीं है.’’

‘‘जानती हूं, जमाना रात के 1 बजे घर आने का भी नहीं है.’’

‘‘मुझे तो लगता है पेरैंट्स को चिंता करने का शौक होता है. अब गुडनाइट, आप का लैक्चर तो रोज चलता है,’’ कहते हुए स्नेहा गुनगुनाती हुई अपने बैडरूम की तरफ बढ़ गई.

सविता और विनय ने एकदूसरे को चिंतित और उदास नजरों से देखा. विनय ने कहा, ‘‘चलो, बहुत रात हो गई. मैं भी काम बंद कर के आता हूं, सोते हैं.’’

सविता की आंखों में नींद नहीं थी. आंसू भी बहने लगे थे, क्या करे, इकलौती लाडली बेटी को कैसे समझाए, हर तरह से समझा कर देख लिया था. सविता ठाणे की खुद एक मशहूर वकील थीं.

उन के ससुर सुरेश रिटायर्ड सरकारी अधिकारी थे. घर में 4 लोग थे. स्नेहा को घर में हमेशा लाड़प्यार ही मिला था. अच्छी बातें ही सिखाई गई थीं पर समय के साथ स्नेहा का लाइफस्टाइल चिंताजनक होता गया था. रिश्तों की उसे कोई कद्र नहीं थी. बस लाइफ ऐंजौय करते हुए तेजी से आगे बढ़ते जाना ही उस की आदत थी. कई लड़कों से उस के संबंध रह चुके थे. एक से ब्रेकअप होता, तो दूसरे से अफेयर शुरू हो जाता. उस से नहीं बनती तो तीसरे से दोस्ती हो जाती. खूब पार्टियों में जाना, डांसमस्ती करना, सैक्स में भी पीछे न हटने वाली स्नेहा को जबजब सविता समझाने बैठीं दोनों में जम कर बहस हुई. सुरेश स्नेहा पर जान छिड़कते थे. उन्होंने ही लंदन बिजनैस स्कूल औफ कौमर्स से उसे शिक्षा दिलवाई. अब वह एक लौ फर्म में ऐनालिस्ट थी. सविता और विनय के अच्छे पारिवारिक मित्र अभय और नीता भी सीए थे और उन का इकलौता बेटा राहुल एक वकील.

एक जैसा व्यवसाय, शौक और स्वभाव ने दोनों परिवारों में बहुत अच्छे संबंध स्थापित कर दिए थे. राहुल बहुत ही अच्छा इनसान था. वह मन ही मन स्नेहा को बहुत प्यार करता था पर स्नेहा को राहुल की याद तभी आती थी जब उसे कोई काम होता था या उसे कोई परेशानी खड़ी हो जाती थी. स्नेहा के एक फोन पर सब काम छोड़ कर राहुल उस के पास होता था.

सविता और विनय की दिली इच्छा थी कि स्नेहा और राहुल का विवाह हो जाए पर अपनी बेटी की ये हरकतें देख कर उन की कभी हिम्मत ही नहीं हुई कि वे इस बारे में राहुल से बात भी करें, क्योंकि स्नेहा के रंगढंग राहुल से छिपे नहीं थे. पर वह स्नेहा को इतना प्यार करता था कि उस की हर गलती को मन ही मन माफ करता रहता था. उस के लिए प्यार, केयर, मानवीय संवेदनाएं बहुत महत्त्व रखती थीं पर स्नेहा तो इन शब्दों का अर्थ भी नहीं जानती थी.

समय अपनी रफ्तार से चल रहा था. स्नेहा अपनी मरजी से ही घर आतीजाती.  विनय और सविता के समझाने का उस पर कोई असर नहीं था. जब भी दोनों कुछ डांटते, सुरेश स्नेहा को लाड़प्यार कर बच्ची है समझ जाएगी कह कर बात खत्म करवा देते. वे अब बीमार चल रहे थे. स्नेहा में उन की जान अटकी रहती थी. अपना अंतिम समय निकट जान उन्होंने अपना अच्छा खासा बैंक बैलेंस सब स्नेहा के नाम कर दिया.

एक रात सुरेश सोए तो फिर नहीं जागे. तीनों बहुत रोए, बहुत उदास हुए, कई दिनों तक रिश्तेदारों और परिचितों का आनाजाना लगा रहा. फिर धीरेधीरे सब का जीवन सामान्य होता गया. स्नेहा अपने पुराने ढर्रे पर लौट आई. वैसे भी किसी भी बात को, किसी भी रिश्ते को गंभीरतापूर्वक लेने का उस का स्वभाव था ही नहीं. अब तो वह दादा के मोटे बैंक बैलेंस की मालकिन थी. इतना खुला पैसा हाथ में आते ही अब वह और आसमान में उड़ रही थी. सब से पहले उस ने मातापिता को बिना बताए एक कार खरीद ली.

सविता ने कहा, ‘‘अभी से क्यों खरीद ली? हमें बताया भी नहीं?’’

‘‘मौम, मुझे मेरी मरजी से जीने दो. मैं लाइफ ऐंजौय करना चाहती हूं. रात में मुझे कभी कोई छोड़ता है, कभी कोई. अब मैं किसी पर डिपैंड नहीं करूंगी. दादाजी मेरे लिए इतना पैसा छोड़ गए हैं, मैं क्यों अपनी मरजी से न जीऊं?’’

विनय ने कहा, ‘‘बेटा, अभी तुम्हें ड्राइविंग सीखने में टाइम लगेगा, पहले मेरे साथ कुछ प्रैक्टिस कर लेती.’’

‘‘अब खरीद भी ली है तो प्रैक्टिस भी हो जाएगी. ड्राइविंग लाइसैंस भी बन गया है. आप लोग रिलैक्स करना सीख लें, प्लीज.’’

अब तो रात में लौटने का स्नेहा का टाइम ही नहीं था. कभी भी आती, कभी भी जाती. सविता ने देखा था वह गाड़ी बहुत तेज चलाती है. उसे टोका, ‘‘गाड़ी की स्पीड कम रखा करो. मुंबई का ट्रैफिक और तुम्हारी स्पीड… बहुत ध्यान रखना चाहिए.’’

‘‘मौम, आई लव स्पीड, मैं यंग हूं, तेजी से आगे बढ़ने में मुझे मजा आता है.’’

‘‘पर तुम मना करने के बाद भी पार्टीज में ड्रिंक करने लगी हो, मैं तुम्हें समझा कर थक चुकी हूं, ड्रिंक कर के ड्राइविंग करना कहां की समझदारी है? किसी दिन…’’

‘‘मौम, मैं भी थक गई हूं आप की बातें सुनतेसुनते, जब कुछ होगा, देखा जाएगा,’’ पैर पटकते हुए स्नेहा कार की चाबी उठा कर घर से निकल गई.

सविता सिर पकड़ कर बैठ गईं. बेटी की हरकतें देख वे बहुत तनाव में रहने लगी थीं. समझ नहीं आ रहा था बेटी को कैसे सही रास्ते पर लाएं.

एक दिन फिर स्नेहा ने किसी पार्टी में खूब शराब पी. अपने नए बौयफ्रैंड विक्की के साथ खूब डांस किया, फिर विक्की को उस के घर छोड़ने के लिए लड़खड़ाते हुए ड्राइविंग सीट पर बैठी तो विक्की ने पूछा, ‘‘तुम कार चला पाओगी या मैं चलाऊं?’’

‘‘डोंट वरी, मुझे आदत है,’’ स्नेहा नशे में डूबी गाड़ी भगाने लगी, न कोई चिंता, न कोई डर.

अचानक उस ने गाड़ी गलत दिशा में मोड़ ली और सामने से आती कार को भयंकर टक्कर मार दी. तेज चीखों के साथ दोनों कारें रुकीं. दूसरी कार में पति ड्राइविंग सीट पर था, पत्नी बराबर में और बच्चा पीछे. चोटें स्नेहा को भी लगी थीं. विक्की हकबकाया सा कार से नीचे उतरा. उस ने स्नेहा को सहारा दे कर उतारा. स्नेहा के सिर से खून बह रहा था. दोनों किसी तरह दूसरी कार के पास पहुंचे तो स्नेहा की चीख से वातावरण गूंज उठा. विक्की ने भी ध्यान से देखा तो तीनों खून से लथपथ थे. पुरुष शायद जीवित ही नहीं था.

विक्की चिल्लाया, ‘‘स्नेहा, शायद कोई नहीं बचा है. उफ, पुलिस केस हो जाएगा.’’

स्नेहा का सारा नशा उतर चुका था. रोने लगी, ‘‘विक्की, प्लीज, हैल्प मी, क्या करें?’’

‘‘सौरी स्नेहा, मैं कुछ नहीं कर पाऊंगा. प्लीज, कोशिश करना मेरा नाम ही न आए. मेरे डैड बहुत नाराज होंगे, सौरी, मैं जा रहा हूं.’’

‘‘क्या?’’ स्नेहा को जैसे तेज झटका लगा, ‘‘तुम रात में इस तरह मुझे छोड़ कर जा रहे हो?’’

विक्की बिना जवाब दिए एक ओर भागता चला गया. सुनसान रात में अकेली, घायल खड़ी स्नेहा को हमेशा की तरह एक ही नाम याद आया, राहुल. उस ने फौरन राहुत को फोन मिलाया. हमेशा की तरह राहुल कुछ ही देर में उस के पास था. स्नेहा राहुल को देखते ही जोरजोर से रो पड़ी. स्नेहा डरी हुई, घबराई हुई चुप ही नहीं हो रही थी.

राहुल ने उसे गले लगा कर तसल्ली दी, ‘‘मैं कुछ करता हूं, मैं हूं न, तुम पहले हौस्पिटल चलो, तुम्हें काफी चोट लगी है, लेकिन उस से पहले भी कुछ जरूरी फोन कर लूं,’’ कह उस ने अपने एक पुलिस इंस्पैक्टर दोस्त राजीव और एक डाक्टर दोस्त अनिल को फोन कर तुरंत आने के लिए कहा.

अनिल ने आकर उन 3 लोगों का मुआयना किया. तीनों की मृत्यु हो चुकी थी. सब सिर पकड़ कर बैठ गए. स्नेहा सदमें में थी. उस पर केस तो दर्ज हो ही चुका था. उसे काफी चोटें थीं तो पहले तो उसे ऐडमिट किया गया.

सरिता और विनय भी पहुंच चुके थे. स्नेहा मातापिता से नजरें ही नहीं मिला पा रही थी. कई दिन पुलिस, कोर्टकचहरी, मानसिक और शारीरिक तनाव से स्नेहा बिलकुल टूट चुकी थी. उस की जिंदगी जैसे एक पल में ही बदल गई थी. हर समय सोच में डूबी रहती. उस के लाइफस्टाइल के कारण 3 लोग असमय ही दुनिया से जा चुके थे. वह शर्मिंदगी और अपराधबोध की शिकार थी. 1-1 गलती याद कर, बारबार अपने मातापिता और राहुल से माफी मांग रही थी. राहुल और सविता ने ही उस का केस लड़ा. रातदिन एक कर दिया. भारी जुर्माने के साथ स्नेहा को थोड़ी आजादी की सांस लेने की आशा दिखाई दी. रातदिन मानसिक दबाव के कारण स्नेहा की तबीयत बहुत खराब हो गई. उसे हौस्पिटल में ऐडमिट किया गया. अभी तो ऐक्सिडैंट की चोटें भी ठीक नहीं हुई थीं. उस की जौब भी छूट चुकी थी. पार्टियों के सब संगीसाथी गायब थे. बस राहुल रातदिन साए की तरह साथ था. हौस्पिटल के बैड पर लेटेलेटे स्नेहा अपने बिखरे जीवन के बारे में सोचती रहती. कार में 3 मृत लोगों का खयाल उसे नींद में भी घबराहट से भर देता. कोर्टकचहरी से भले ही सविता और राहुल ने उसे जल्दी बचा लिया था पर अपने मन की अदालत से वह अपने गुनाहों से मुक्त नहीं हो पा रही थी.

विनय, सविता, राहुल और उस के मम्मीपापा अभय और नीता भी अपने स्नेह से उसे सामान्य जीवन की तरफ लाने की कोशिश कर रहे थे. अब उसे सहीगलत का, अच्छेबुरे रिश्तों का, भावनाओं का, अपने मातापिता के स्नेह का, राहुल की दोस्ती और प्यार का एहसास हो चुका था.

एक दिन जब विनय, सविता, अभय और नीता चारों उस के पास थे, बहुत सोचसमझ कर उस ने अचानक सविता से अपना फोन मांग कर राहुल को फोन किया और आने के लिए कहा.

हमेशा की तरह राहुल कुछ ही देर में उस के पास था. स्नेहा ने उठ कर बैठते हुए राहुल का हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा, ‘‘इस बार तुम्हें किसी काम से नहीं, सब के सामने बस इतना कहने के लिए बुलाया है, आई एम सौरी फौर ऐवरीथिंग, आप सब मुझे माफ कर दें और राहुल, तुम कितने अच्छे हो,’’ कह कर रोतेरोते स्नेहा ने राहुल के गले में बांहें डाल दीं तो राहुल वहां उपस्थित चारों लोगों को देख कर पहले तो शरमा गया, फिर हंस कर स्नेहा को अपनी बांहों के सुरक्षित घेरे में ले कर अपने मातापिता, फिर विनय और सविता को देखा तो बहुत दिनों बाद सब के चेहरे पर एक मुसकान दिखाई दी, सब की आंखों में अपनी इच्छा पूरी होने की खुशी साफसाफ दिखाई दे रही थी.

विमोहिता:भाग 2- कैसे बदल गई अनिता की जिंदगी

अभी उस ने अपनी बात पूरी नहीं की थी कि वह अचानक उठ खड़ी हुई, जैसा वह शुरू के दिनों में करती थी और कहा, ‘कुछ जरूरी काम याद आ गया है. अखिल, माफ करना मुझे जाना होगा,’ और अपना कार्ड मेरी ओर बढ़ाते हुए फोन करने के लिए कह कर चली गई.

अनिता से मैं सब से पहले नम्रता के घर पर मिला था. वह पिलानी से नई नई मुंबई आई थी. गोरीचिट्टी, छरहरी और बड़ीबड़ी काली आंखें. वैस्टर्न ड्रैस में, विशेषकर जींस और टौप में वह बहुत स्मार्ट लगती थी.

उस दिन जब मैं पहली बार उस से मिला तो अपलक अपने को मुझे देखते हुए उस ने कहा था, ‘क्या देख रहे हो? बहुत सुंदर लगती हूं?’

मैं ने हंसते हुए कहा था ‘हां, बहुत सुंदर लग रही हो. रंभा से भी अधिक सुंदर.’

‘झूठ.’

‘नहीं, यह सच है.’

और उस के बाद 1-2 बार मिलने पर मन में उस के पति प्रेम का भाव अंकुरित हो उठा. वह अस्वाभाविक नहीं था. वह सुंदर तो थी ही, पढ़ीलिखी भी थी. पिलानी से ग्रैजुएट थी और एक मल्टीनैशनल कंपनी में काम करती थी.

उस दिन घर आई तो मैं ने कहा, ‘चलो, आज कहीं बाहर घूमने चलते हैं. वहीं कहीं खाना खा लेंगे और तुम्हें घर भी छोड़ दूंगा.’

‘ठीक है, पर हम पहले लौंग ड्राइव पर जाएंगे और उस के बाद तुम जहां चाहो मुझे ले चल सकते हो.’

उस के बाद हम पहले लौंग ड्राइव पर गए. रास्ते में 1-2 जगह रुके. और बाद में बांद्रा के बैंड स्टैंड पर आ गए. वहां बहुत देर तक इधरउधर घूमते रहे. वह दिन रविवार था. बैंड वाला कोई मराठी धुन बजा रहा था.

कुछ समय घूमने के बाद हम समुद्र के किनारे एक पत्थर पर आ कर बैठ गए. वह समुद्र की लहरों की ओर देखने लगी. हवा तेज थी और लहरें बहुत ऊंची उठ रही थीं. पर दिन का उजाला सिमटने लगा था.

मैं ने कहा, ‘क्या देख रही हो? कुछ बातें करो अपने मन की.’

उस ने मेरी ओर देखते हुए कहा, ‘नहीं, आज तुम्हारे मन की बात सुनने के मूड में हूं.’

मेरे लिए यह अच्छा अवसर था. मैं कुछ कहने के लिए सोच ही रहा था कि बीच में डाभ वाला आ गया और बिना कुछ कहे एक डाभ और दो स्ट्रा रख कर चला गया.

एक स्ट्रा उसे देते हुए मैं ने पाया कि वह अपनी बड़ीबड़ी आंखों से मुझे देख रही थी और उस के होंठों पर मुसकराहट थी. बाद में हम स्ट्रा बदलबदल कर साथसाथ डाभ पीते रहे. डाभ खत्म होने पर स्ट्रा को पर्स में रखते हुए उस ने कहा, ‘इसे अपने पास रखूंगी. यह अधिकार मैं ने पहली बार किसी को दिया है.’

हम वहां बहुत देर बैठे रहे. उस के बाएं हाथ को अपने हाथों में ले उस की उंगलियों को सहलाते हुए मैं ने कहा, ‘कुछ कहो न.’

‘नहीं, आज और कुछ नहीं. तुम भी कुछ न कहना,’ कहती हुई वह मेरे कंधे से आ लगी और मेरी उंगलियों से खेलती रही. हम बीच खाली होने तक वहां ऐसे ही बैठे रहे. कोई बात नहीं हुई. मैं सिर्फ अपलक उसे देखता रहा और वह आंखें बंद किए मेरे कंधे से लगी रही.

उस के बाद हम एक रैस्टोरैंट में आ गए. खाने के समय हमारी कोई बात नहीं हुई. बस, एकदूसरे को देखते रहे और एकदूसरे के बारे में सोचते रहे. उसे घर छोड़ जब चलने को हुआ तो उस ने पास आ कर कहा, ‘पहुंच कर फोन करना.’

मैं उस दिन बहुत खुश था. खुशी संभल नहीं रही थी मुझ से. उस के कुछ दिनों के बाद वह दिल्ली चली गई. हमारा संपर्क शुरू के दिनों में रोज का था पर बाद में धीरेधीरे वह कम होने लगा और एक दिन उस ने फोन रिसीव करना बंद कर दिया. मन बेचैन हो उठा पर उन दिनों कंपनी के काम से मलयेशिया में था, इसलिए चाह कर भी उस से मिलने दिल्ली नहीं जा सका.

उधर मां की तबीयत ठीक नहीं चल रही थी. बहू देखने की उन की बहुत इच्छा थी. उन की बात मान ली और रमा से मेरी शादी हो गई. रमा बहुत सुंदर थी. उस की सुंदरता के आगे मैं अनीता को भूल गया.

2 महीने पहले एक दिन उस का फोन आया. कहने लगी, ‘तुम से मिलना चाहती हूं. कुछ जरूरी काम है. नहीं, न कहना.’

‘अभी तो मैं औफिस जा रहा हूं. कुछ जरूरी काम है आज. शाम को औफिस से लौटते वक्त अवश्य मिलने आऊंगा.’

उस दिन औफिस जाते हुए रमा से मैं ने कहा, ‘शाम लौटते हुए अनिता से मिलने की सोच रहा हूं. उस का फोन आया था. कह रही थी कुछ जरूरी काम है. आने में देरी हो सकती है, खाना खा लेना.’

औफिस से लौटते हुए उस दिन जब अनिता के फ्लैट पर पहुंचा तो अंधेरा छा चुका था. कौरीडोर में बहुत कम लाइट थी. किसी तरह उस के फ्लैट के दरवाजे तक पहुंच कर मैं ने बैल बजाई तो उस ने कहा, ‘भीतर आ जाओ. दरवाजा खुला है.’

भीतर गया तो देखा वह खिड़की के सामने खड़ी बाहर की ओर देख रही थी. मैं ने पूछा, ‘क्या देख रही हो?’

‘अंधेरे को.’

‘मैं समझा नहीं.’

उसी समय वह मेरी ओर मुड़ी. उस का शरीर गल कर आधा हो चुका था. मैं ने कहा, ‘क्या हुआ? तबीयत तो ठीक है न?’

‘नहीं ठीक नहीं है,’ उस ने कहा और कह कर सामने सोफे पर बैठ गई और कुछ देर बाद दुपट्टे को मुंह पर रख कर फफकफफक कर रोने लगी.

मैं ने कहा, ‘क्या हुआ? किसी फ्लैट वाले से झगड़ा हुआ है या और कुछ?’

‘कुछ दिनों से तबीयत ठीक नहीं चल रही थी,’ उस ने कहा, ‘डाक्टर बाखला के कहने पर एचआईवी टैस्ट के लिए गई थी. उस की रिपोर्ट आ गई है. वह पौजिटिव निकली है. डाक्टर कह रहा था, बहुत ऐडवांस स्टेज है, अब कुछ नहीं हो सकता. वैसे तकलीफ कम करने के लिए उस ने कुछ दवाएं दी हैं.’

उस समय मेरे पैरों के नीचे से जमीन खिसकती सी लगी. समझ नहीं आ रहा था उस से क्या कहूं? सब कुछ इतना दुखद था कि मैं कुछ कह नहीं पा रहा था.

मौका: पुरूषवादी सोच वाले सुरेश को बीवी ने कैसे समझाया?

दिन के 11 बज चुके थे और सुरेश अभी भी गहरी नींद में सोया था. आजकल उस की शाम की शिफ्ट चल रही है इसलिए सुबह जल्दी उठने की परवाह नहीं होती. वैसे भी बीवी सुजाता 2 दिन पहले ही मायके गई है. अभी कम से कम 15-20 दिन तो वह बीवी की चिकचिक से भी आजाद था.

सुजाता घर में होती है तो उसे जल्दी उठ कर व्यायाम के लिए जाने की जिद करती है. वैसे सुरेश कभी उस की सुनता नहीं. सुरेश हमेशा से अपनी मरजी का मालिक रहा है. उस की मां ने भी बचपन से उसे यही सिखाया था. कितनी दफा वह सुजाता को मां की बात कह चुका है कि मर्द घर का मालिक होता है और औरत उस की गुलाम. घर कैसे चलाना है इस का फैसला मर्द करता है. औरत कभी भी मर्द को आज्ञा नहीं दे सकती मगर उसे मर्द की आज्ञा माननी जरूर चाहिए. ऐसी बातें सुन कर सुजाता चुप रह जाती और वह हंसता हुआ अपने मन की करने लगता.

दरवाजे पर दस्तक हुई तो सुरेश को उठना पड़ा. दरवाजा खोला तो सामने कुरियर वाला खड़ा था,” सर आप का कुरियर.”

उस के हाथ में एक लिफाफा था. सुरेश ने लिफाफा खोला तो भौंचक्का रह गया. यह तो वकील का नोटिस था जिसे सुजाता द्वारा भिजवाया गया था.

हड़बड़ाते हुए सुरेश ने नोटिस पढ़नी शुरू की. यह तलाक का नोटिस था जिस में लिखा हुआ था,’ श्रीमान सुरेश महाजन, यह नोटिस आप के नाम हमारी मुवक्किल सुजाता कपूर द्वारा भेजा गया है.

हमारी मुवक्किल सुजाता निम्न बातों पर आप को गौर कराना चाहती हैं. उन्होंने क्रम से कुछ घटनाओं का विवरण लिखा है कि आप की ज्यादतियों ने उन के अधिकार छीने और वे घरेलू हिंसा का शिकार हुईं. ऐसी तमाम घटनाओं के मद्देनजर वे आप से आजिज आ चुकी हैं और छुटकारा पाना चाहती हैं.

नोटिस में विस्तार से कुछ घटनाओं का वर्णन था. ये घटनाएं सुरेश के पुरुषवादी रवैये की पोल खोल रही थीं. सुजाता ने क्रम से ये घटनाएं लिखी थीं :

14 फरवरी, 2020 : मिस्टर सुरेश महाजन यानी माननीय पति महोदय आप को हमारी शादी के करीब 1 सप्ताह बाद की वह रात तो याद ही होगी. लौकडाउन से 1 महीने पहले वैलेंटाइन डे के दिन जब हम हनीमून पर मनाली गए थे तो उस दिन मैं ने अपनी बहन द्वारा दिए गए तोहफे को खोला था. बहन ने चुपके से मेरे बैग में एक ड्रैस रख दी थी और मैं उसे पहन कर तैयार हो गई. ड्रैस कहीं से भी बेकार नहीं लग रही थी. स्लीवलैस जरूर थी मगर भद्दी नहीं थी. उस ड्रैस को पहन कर खुशीखुशी मैं अपने कमरे से बाहर निकली. आप ने बुरा सा मुंह बनाया. अपने हाथ में पकड़ा हुआ अखबार नीचे फेंका और झकझोरते हुए मुझे यह कहते हुए वापस बाथरूम में धकेल दिया कि ऐसी ड्रैस पहन कर साथ चलने की बात सोचना भी मत.

उस वक्त मुझे ऐसा लगा था जैसे मेरे वजूद पर ही सवाल खड़ा किया गया हो. क्या मुझे अपनी पसंद के कपड़े पहनने का हक भी नहीं मिलना चाहिए? क्या अपने हनीमून पर अपने पति के साथ भी मैं वैस्टर्न ड्रैस नहीं पहन सकती?

नोटिस में एक और घटना का विवरण था. सुजाता ने हिंसा का आरोप लगाते हुए एक दिन क्या हुआ था, इस बारे में विस्तार से लिखा था :

23 मार्च, 2020 : उस दिन मेरी तबीयत ठीक नहीं थी. मुझे उठने में देर हो गई. आप तो मेरे उठाने पर ही उठते हो. इस वजह से आप को औफिस जाने में देर हो गई. मैं ने तबीयत खराब में भी जल्दीजल्दी नाश्ता बनाया मगर आप झल्लाते हुए औफिस गए. शाम तक मुझे 102 डिग्री बुखार हो चुका था. मैं ने फोन करने की सोची फिर रुक गई कि आप का मूड सही नहीं. मैं दवा खा कर पूरे दिन सोई रही. शाम को दरवाजे की घंटी लगातार तेज आवाज में बजती सुन मैं हड़बड़ा कर उठी और चक्कर खा कर गिर पड़ी. किसी तरह लड़खड़ाते हुए मैं ने दरवाजा खोला.

मेरी तरफ एक पल को भी देखे बगैर आप ने मुझे धक्का दिया और चिल्लाते हुए घर में घुसे. अपना बैग बिस्तर पर पटकते हुए चीखने लगे,” दरवाजा खोलने में इतनी देर लगती है? पता नहीं क्यों पूरे दिन बिस्तर तोड़ती रहती है. मैं थकहार कर औफिस से लौटता हूं और एक तुम हो कि दरवाजा भी नहीं खुलता. अब मुंह क्या देख रही हो? पानी लाओ. ”

उस वक्त मुझे खुद पर कितना तरस आया यह केवल मैं ही जानती हूं. तुम ने एक नजर भी मेरे मलिन पड़े चेहरे की तरफ नहीं डाली. मेरी तकलीफ तुम्हें दिखाई ही नहीं दी. तुम ने यह सोचने की कोशिश भी नहीं की कि मैं आज इतनी सुस्त क्यों हो रही हूं. तुम्हारे लिए मैं ने चाय बनाई मगर खाना बनाने की हिम्मत नहीं हुई. तुम्हें कुछ कहने का भी दिल नहीं किया. मैं जा कर सो गई और तुम ने रात में खाना न मिलने पर फिर से हंगामा कर दिया. मेरा हाथ पकड़ कर खींचते हुए तुम थप्पड़ लगाने ही वाले थे मगर हाथ गरम देख कर रुक गए.

यह कैसा रिश्ता है हमारा, जहां पति को अपनी पत्नी की तकलीफ भी नहीं दिखती? यह बात अलग है कि अगले दिन से ही लौकडाउन हो गया और तुम मुझे चायब्रैड खिलाने के लिए घर में थे. मगर आज सोचती हूं कि यदि उस समय मुझे वायरल बुखार के बजाय कोरोना हुआ होता तो तुम मेरी क्या हालत करते.

3 अप्रैल 2020 : इस दिन मैं ने तुम से बिना पूछे घर के परदे बदल दिए थे जिन्हें कुछ दिन पहले ही खरीदे थे. तुम ने उन पर सरसरी नजर डाली और कोने में पटक दिया. मुझ पर चिल्लाते हुए तुम ने कहा था,” इतने चटकीले रंग के परदे मेरे घर में नहीं लगेंगे.”

उस दिन मैं पूछना चाहती थी कि क्या यह घर केवल तुम्हारा है? मैं यहां मेहमान हूं? यह मेरा घर नहीं? मगर हमेशा की तरह मुझे तुम से कुछ भी पूछने या बताने की इच्छा नहीं हुई. मैं अपने कमरे में जा कर बैठ गई. मेरी आंखें छलछला आईं थीं मगर तुम अपने अहम के नशे में गुम थे.

26 अप्रैल 2020 : याद करो उस दिन शाम 7 बजे मैं हंसतीमुसकराती अपनी सहेली से बातें कर के मुड़ी और तुम ने मेरे गाल पर एक थप्पड़ जड़ दिया. चीख पड़े थे तुम. मेरी गलती इतनी सी थी कि मैं ने अपनी सहेली से उस के पति की तारीफ कर दी थी. तुम्हारे अंदर जलन की आग ऐसी भड़की कि तुम ने आगेपीछे सोचे बगैर मुझ पर हाथ उठा दिया.

तुम्हें लगता है कि मैं तुम्हारी तारीफ करती रहूं जबकि तुम मेरी खुशी की कोई कदर नहीं करते. मेरी सहेली विभा का पति हमेशा विभा की पसंद और उस की खुशी को तवज्जो देता है. ऐसे में मैं ने उस की तारीफ कर के क्या गलत कर दिया था?

2 मई 2020 : इस दिन अपनी मां की शह पर तुम ने मेरी बांह मरोड़ दी. कई दिनों तक मैं इस दर्द से परेशान रही. वजह सिर्फ इतनी ही थी कि मैं तुम्हारे शर्ट की बटन टांकना भूल गई जबकि उस दिन तुम्हारी जूम मीटिंग थी. पर क्या इतनी सी बात पर तुम मेरे साथ इतना दुर्व्यवहार करोगे? लौकडाउन में तुम भी तो पूरे दिन घर में बैठे रहते हो. औफिस का काम तो मुश्किल से 3-4 घंटे करते हो बाकी समय कभी दोस्त, कभी टीवी तो क्या कभी बीवी का हाथ बंटाना जरूरी नहीं?

सच तो यह है कि तुम्हारे लिए दूसरी सभी चीजें महत्त्वपूर्ण हैं सिवाए हमारे रिश्ते के. तो फिर इस रिश्ते को ढोते रहने की मजबूरी कैसी? खत्म करते हैं न इस रिश्ते को.

5 मई 2020 : इस दिन आप ने मेरी औकात समझाई थी. आप ने बताया था कि मुझे औरत होने का धर्म निभाना है. आप को एक बेटा देना है बेटी नहीं. बेटी की तो आप के जीवन में कोई अहमियत ही नहीं है. बेटा पैदा करना बस मेरे ही हाथ में तो है. कभीकभी तो मुझे शक होता है कि क्या वाकई आप पढ़ेलिखे हो? आप से बेहतर तो अनपढ़ हैं जो अपनी बिटिया को कंधों पर बैठाए दुनियाजहान घूम आते हैं. पर आप के लिए बेटी बोझ है. आप को तो सिर्फ बेटा चाहिए. जाने कैसी रूढ़िवादी मानसिकता में जकड़े हुए हो आप कि जब साथ चलती हूं तो एक अजीब सी जकड़न का एहसास होता है. अब आजादी चाहती हूं मैं आप से. आप की धौंस भरी बातों से, आप के पुरुषवादी व्यवहार से.

14 मई 2020 : उस दिन शाम को सब्जी काटते हुए मेरा हाथ कट गया था. मेरे दाहिने हाथ में पट्टी बंधी थी मगर आप को कोई परवाह नहीं हुई कि मैं खाना कैसे बनाऊंगी. पिछले 2 महीने से मैं आप को पसंद की चीजें बनाबना कर खिला रही हूं न. फिर क्या आप एक दिन मेरे लिए कुछ बना नहीं सकते थे? बेशर्म हो कर मैं ने आप को कहा भी कि हैल्प कर दो तो आप ने कैसा धौंस भरा जवाब दिया था,” खाना बनाना औरतों का काम है. बता दो तुम से नहीं होता तो किसी और को रख लेता हूं.”

आप का जवाब सुन कर मैं बिलकुल चुप रह गई थी. आगे कुछ कहने को बचा ही नहीं था मेरे पास

मैं ने सोचा था कि लौकडाउन के इस समय में आप के साथ ज्यादा वक्त बिता पाऊंगी. ज्यादा बेहतर ढंग से समझ सकूंगी आप को. ज्यादा करीब आ पाऊंगी. मगर अफसोस, करीब आने के बजाय हमेशा के लिए दूर हो जाना चाहती हूं. क्योंकि लौकडाउन के इन दिनों में बेहतर ढंग से समझ लिया है.

मैं ऐसे शख्स के साथ कतई नहीं रह सकती जिस के लिए रिश्तों का कोई अर्थ नहीं. जो अपने जीवनसाथी की तकलीफ न समझ सके, उसे बराबरी का दरजा न दे सके उस की खुशियों का खयाल न कर सके, उस पर विश्वास भी न करे और न ही उसे अपनी जिंदगी में कोई अहमियत ही दे सके.

सुरेश बिस्तर पर लुढ़क गया. कागज छूट कर नीचे जा गिरा. उसे आज रोशनी भी चुभने लगी थी. उस ने जल्दी से अपने चेहरे को तकिए से ढंक लिया. आज पहली दफा किसी ने उसे आईना दिखाया था और अपनी सूरत देख कर उसे शर्म आ रही थी.

उसे सुजाता के साथ बिताए एकएक पल याद आने लगे थे. वे पल जब सुजाता को जीभर कर प्यार किया था उस ने. वे पल जब सुजाता के साथ ने जीवन आनंद से भर दिया था. उसे याद आ रहा था कैसे सुबह से शाम तक सुजाता उस के और घर के कामों में लगी रहती थी. सुजाता को तो हमेशा मुसकराने की आदत थी. तो क्या वाकई वह इतना स्वार्थी और घमंडी था जिस ने सुजाता की हंसी छीन ली?

सुरेश बारबार उस कागज में लिखी बातें पढ़ने लगा. उस में लिखी हर घटना उस की आंखों के आगे सजीव हो उठीं. वाकई सुजाता ने जो भी लिखा था वह 100% सही था. मगर जब घटनाएं हो रही थीं उस वक्त सुरेश ने कभी भी सुजाता की नजरों से नहीं सोचा था. सुजाता जो उस की जीवनसाथी है, कितनी दुखी थी और सुरेश को इस बात का अहसास भी नहीं था. उस ने कभी यह सोचा ही नहीं था कि सुजाता इस तरह सब कुछ छोड़ कर भी जा सकती है.

उसे तो सुजाता की आदत हो गई थी. उस के बिना घर में कितना अकेला हो जाएगा. एक छोड़ा हुआ पति कहलाएगा. दोस्त पीठ पीछे उस का मजाक उड़ाएंगे. ऐसी कितनी ही बातें सुरेश के जेहन में घूमने लगीं.

सुजाता के यों मुंह मोड़ने से उस की जिंदगी कितनी बदल जाएगी. पहले तलाक की भागदौड़ और परेशानियां और फिर सुजाता संपत्ति में से भी तो हिस्सा मांगेगी. उसे गुजाराभत्ता भी देना पड़ेगा. तलाक के बाद दूसरी शादी की टैंशन भी रहेगी.

सुरेश को अपना कुलीग विजय याद आया. तलाक के बाद बहुत मुश्किलों से उसे दूसरी दफा कोई ढंग की दुलहन मिल पाई थी. मगर वह भी फ्रौड निकली.

सुरेश सोफे के कोने में बैठ गया. एक सीधीसादी व पढ़ीलिखी पत्नी को गंवाने के बाद कहीं वह भी परेशानियों के भंवर में न फंस जाए. सुजाता में कोई कमी नहीं. यह तो सचमुच उस का खोखला घमंड था, पुरुषवादी रवैआ था जिस की वजह से उस की शादीशुदा जिंदगी बरबाद होने वाली थी.

सुरेश रातभर करवटें बदलता रहा. वह लगातार यही सोचता रहा कि सुजाता को तलाक न लेने के लिए कैसे राजी किया जाए.

अगले दिन सुबह उठते ही उस ने सुजाता को फोन लगाया और एक दफा मिलने की इच्छा जाहिर की. किसी तरह सुजाता तैयार हो गई. सुजाता का मायका आगरा में था. सुरेश ने सुबहसुबह बस ली और इलाहाबाद से आगरा के लिए रवाना हो गया. सुजाता ने उसे माल में मिलने बुलाया.

सुजाता का हाथ थाम कर सुरेश ने कहा,”बस एक मौका दे दो मुझे सुजाता. तुम्हारी हर शिकायत दूर कर दूंगा. तुम्हें खोने के एहसास ने ही मुझे मेरी औकात समझा दी है. सुजाता बस एक मौका दे दो अपने पति को. फिर जो चाहे कर लेना. तुम ने मुझे आईना दिखा दिया है. यकीन रखो मैं चेहरा बदल लूंगा. बस तुम्हारा साथ नहीं खो सकता.”

सुजाता ने सोचा भी नहीं था कि सुरेश इस तरह उस से माफी मांगेगा.
“एक मौका तो हर अपराधी को दिया जाता है. आप को भी दे दूंगी. पर ध्यान रखना, मौके बारबार नहीं मिलते.” मुसकराते हुए सुजाता ने कहा तो सुरेश ने बढ़ कर उसे गले से लगा लिया. सुजाता के द्वारा भेजे गए नोटिस ने उस की जिंदगी की दिशा ही बदल दी थी. सुरेश को सबक मिल चुका था कि वह तुलसीदास की रामचरित मानस की चौपाइयों पर भरोसा करके सुखी जिंदगी नहीं जी सकता. सुजाता उन में से नहीं है जो सिर पर पल्लू ढांक कर प्रवचनकर्ताओं की ऊलजलूल बातें मान ले. वह एक बराबरी का हक रखने वाली पत्नी है, ताड़न की अधिकारी नहीं.

करीपत्ता: भाग 3-आखिर पुष्कर ने ईशिता के साथ क्या किया

प्रेम ओ झल हो चुका है मात्र 2-3 सप्ताह में ही.जिस ओर से रस फुहार बरसती थी अब नग्न लालसाएं लपलपाती हुई चीखती हैं. ईशिता के मन की पीड़ा सुनने की उस की आग्रहपूर्ण मुद्रा, धैर्य खो गया था. ‘जैसा तुम चाहो,’ ‘एज यू विश’ कहने वाला पुष्कर अब उसे अपने हिसाब से सोचने को विवश कर रहा था. उस के संस्कारों का उपहास करता उसे सींखचों में जकड़ रहा था.

उकसा रहा था उसे बंधन तोड़ने, सीमाएं तोड़ने को, ‘‘बेकार की टैबूज हैं. तुम तो पढ़ीलिखी हो. तुम सोचती बहुत हो.’’हां, वह सोचती बहुत है. एक ओर मन की वल्गा हाथ से छूटती जा रही है, दूसरी ओर वह नैतिकअनैतिक, उत्थानपतन, पवित्रतामर्यादा के बारे में सोचती है.

मस्तिष्क किसी सजग प्रहरी सा उसे कोंचता है, गलत राह पर आगे बढ़ने से रोकता है.तनी हुई शिराएं, दूभर जीवन. सोचती, हां, सुखी जीवन की अधिकारिणी वह भी है. यह जीवन एक बार ही तो मिलता है, मन मार कर, दबा कर अंकुश लगा कर कब तक जिया जाए, पर सुख है कहां? कुल मिला कर सबकुछ एक बड़ा शून्य है. बिग जीरो है.

इधर पुष्कर को अखर रहा था, वह हाथ में आतेआते निकली जा रही थी. बोला, ‘‘तुम इतना क्यों सोचती हो?’’‘‘अच्छा, तुम्हारे घर में इतने सारे करीपत्ते के पौधे हैं तुम से कब से मांग रही हूं. लाए क्या?’’‘‘नहीं भूल गया.’’उसे याद आया, पति देव इस तरह से कुछ भूलें तो पानीपत का युद्ध छिड़ जाता है.‘‘तुम ने कहा था कि…’’‘‘अरे यार, छोड़ो करीपत्ता, कहीं भी मिल जाएगा 5 रुपये का.

चलो कहीं होटल में चलते हैं जहां बस हम और तुम हों.’’‘‘क्या बकवास कर रहे हो? अगर कोई तुम्हारी पत्नी से ऐसा कहे तो?’’‘‘मेरी पत्नी तो बहुत सीधी है. किसी परपुरुष की ओर देखती तक नहीं. मु झ से कहती है कि मेरी आंखें समंदर जैसी हैं, वह बस इन्हीं में डूबी रहती है, बेचारी. देखो तो मेरी आंखें क्या सच में इन में समंदर जैसी गहराई है?’’ईशिता ने नजर  झुका ली. वह कहता रहा, ‘‘मेरी पत्नी तो मु झे लेडी किलर कहती है.

चलो न आज कहीं बैठ कर आराम से बातें करते हैं. आज किसी होटल में… यों दूरदूर अब रहा नहीं जाता. वहीं आराम से बातें करेंगे. होटल के खर्च के पैसे भी आधेआधे शेयर कर लेंगे. अब ऐंजौय तो तुम भी करोगी न?’’ईशिता के कानों में जाने कोई एसिड डाल रहा हो. कितना नीच हो सकता है कोई. छि:, यह कहां आ गई वह. उस ने तो एक सहज मैत्री, अपनत्व भरा साथ चाहा था.

किसी से बात कर लेने की इतनी बड़ी सजा. चल निकल ले यहां से. बड़े आए लेडी किलर कहीं के. यह तो सपने दिखा कर सौदागरी करने वाले सौदागर हैं. महीन जाल फैलाने वाले जालक हैं. कैसी मधुर विद्वतापूर्ण बातें, अपनत्व. री झ गई जिन बातों पर वह रैपर थीं, आवरण था, मूल में तो वही ढाक के तीन पात. यहां ताल में जाल डाले बैठे हुए लोग हैं.

किसी का जाल दिखता है, किसी का इतना महीन और सौफिस्टिकेटेड कि वह शीघ्र दिखता नहीं. कैसा सुखद भ्रम पाल लिया. मन नहीं देखा, देखा तन. भावनाओं से खिलवाड़ कर उस तक पहुंचने का हथियार बनाया. इसे प्यार नहीं कहते.

अचानक वह चैतन्य हो जाग गई. प्लैटोनिक लव के, देहातीत संबंध के जो प्रतिमान मन में गढे़ थे वे किर्चकिर्च हो बिखर गए, मन में चुभ गए. यथार्थ यही, सच यही मात्र देह ही सच मन, हृदय सब व्यर्थ की बातें. छि:, वह भी कहां के मल कुंड में गिरने को उद्यत हो उठी.दिग्दिगंत तक उस अनंत की कृपा महसूसती ईशिता को स्वयं पर लज्जा हुई.

समझ आई सब से अहम बात वह यह है कि शक्ति और सांत्वना स्वयं में ही खोजो, बाहर इसे ढूंढ़ना व्यर्थ है-‘तू ही सागर है तू ही किनाराढूंढ़ता है तू किस का सहारा.’ईशिता अपने मूल रूप में लौट आई. कभीकभी उसे अतीव आश्चर्य होता कि वहकैसे किसी के प्रभाव में आ कर स्वयं का प्रभामंडल दूषित करने चली थी. वह पौधों की नर्सरी से करीपत्ते के कई पौधे ले आई.

एक पौध तो उस ने बोन्साई बना कर अपनी औफिस टेबल पर सजा रखा है. अब वह कहीं नहीं उल झती. किसी की प्रशंसा भरी मीठी बातें लुभाती नहीं, शिखर पुरुष भी आकर्षित करते नहीं. मन में कहीं कोई रीतापन नहीं.

विमोहिता: भाग 1- कैसे बदल गई अनिता की जिंदगी

अभी भी हम बिस्तर पर ही थे और यही कोई 6 बजे का समय होगा जब फोन की घंटी बज उठी. फोन रमा ने उठाया और मेरी ओर देखते हुए कहा, ‘‘निर्मला, अस्पताल से नर्स बोल रही है. कह रही है कोई जरूरी मैसेज तुम्हें देना है.’’

निर्मला का नाम सुनते ही नींद गायब हो गई और मन अनिता के बारे में सोच कर चिंतित हो उठा. नर्स ने वही कुछ कहा जो मैं सोच रहा था. वह रात को कोमा में चली गई थी.

मुझे चिंतित देख रमा ने पूछा, ‘‘क्या बात है? सब ठीक तो है न?’’

‘‘नहीं, सब ठीक नहीं है,’’ मैं ने कहा, ‘‘कल रात से वह कोमा में चली गई है. नर्स कह रही थी अब वह कुछ ही घंटों की मेहमान है.’’

वह मौन हो गई. उसे मौन देख कर मैं ने कहा, ‘‘क्या सोचने लगीं?’’

‘‘क्या यहां उस का कोई अपना नहीं है? लोग कह रहे थे कि उस की बड़ी बहन और जीजाजी यहां रहते हैं.’’

‘‘हां,’’ मैं ने कहा, ‘‘हम जब पहली बार मिले थे उस समय वह अपने जीजाजी और बड़ी बहन के साथ ही रह रही थी. पर इधर कुछ दिन हुए, उन लोगों के बारे में जब मैं ने जिक्र किया तो कह रही थी कि उस की बड़ी बहन नम्रता अब इस दुनिया में नहीं रही और उस के जीजाजी दूसरी शादी कर मौरिशस चले गए हैं. नम्रता को कोई बच्चा वगैरह नहीं था, इसलिए उस का अपने जीजाजी से अब कोई संबंध नहीं रहा है.’’

‘‘क्या सोचते हो?’’

‘‘सोचना क्या है? यहां उस का और कोई रिश्तेदार या जानने वाला है नहीं, इसलिए उस का अंतिम संस्कार हम लोगों को ही करना पड़ेगा, ऐसा लगता है,’’ कह कर मैं उस की ओर देखने लगा.

उस ने इस पर कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की.

कई वर्षों के बाद अनिता 6 महीने पहले गोरेगांव के ओबेराय मौल में मिली थी. लेकिन वह पहले वाली अनिता नहीं थी. पहले से बिलकुल अलग. उलझे सफेद बाल, सूखा चेहरा और धंसी हुई आंखें. मैं तो पहचान ही नहीं सका था उसे पर वह हैलो कह कर मेरे सामने आ कर खड़ी हो गई थी.

‘कैसी हो?’ मैं ने पूछा.

‘ठीक हूं, तुम कैसे हो?’

‘कुछ विशेष नहीं, कह सकती हो सब ठीक है,’ मैं ने कहा.

‘और बच्चे?’

‘एक 4 साल का लड़का है. अमित नाम है उस का. बहुत सुंदर है. बिलकुल अपनी मां पर गया है.’

सुन कर वह कुछ असहज हो गई. उसे असहज होते देख मैं दूसरी बातें करने लगा. थोड़ी देर बाद कौफी के लिए उस के ‘हां’ कहने पर उसे ले कर कैफेटेरिया में आ गया.

मैं ने पूछा, ‘साथ में कुछ लोगी?’

‘नहीं, और कुछ नहीं. सिर्फ कौफी.’

‘अभी भी चाय नहीं पीती हो?’

उस ने इस पर कुछ नहीं कहा. बस हलकी सी मुसकराहट उस के चेहरे पर आई.

वहां बैठते हुए मैं ने पूछा, ‘तुम तो आजकल दिल्ली में हो. यहां किसी काम से आई हो या किसी से मिलने?’

‘दिल्ली में थी, अब नहीं हूं. यही कोई 6 महीने पहले मुंबई लौट आई हूं,’ उस ने कहा.

‘वहां दिल नहीं लगा?’

‘नहीं, ऐसी कोई बात नहीं थी. तुम तो जानते हो पिलानी से जब मुंबई आई तो जीजाजी और दीदी के आग्रह को ठुकरा नहीं सकी और उन के साथ ही रहने लगी. तुम से पहली बार मैं दीदी के घर ही तो मिली थी,’ कह कर उस ने मेरी ओर देखा.

‘हां, तुम्हारी दीदी इंटर में मेरे साथ थी, इसलिए कभीकभार उस के पास चला जाया करता था. लेकिन घर आने के लिए उस ने कभी आग्रह नहीं किया, क्योंकि शायद तुम्हारे जीजाजी वैसा नहीं चाहते थे. पर बाद के दिनों में तुम से मिलने की इच्छा से आने लगा था,’ मैं ने मुसकराते हुए कहा.

उस ने एक पल के लिए मेरी ओर देखा फिर अपनी पलकें नीची कर कौफी के

कप की ओर देखने लगी. फिर बोली, ‘दीदी पढ़ीलिखी, सुंदर और अच्छे नाकनक्श की थीं. उन का रंग भी गोरा था. पर जीजाजी शायद दीदी के थुलथुले बदन से ऊब चुके थे और उन्होंने जब मुझे इतना करीब पाया तो मुझे आंखों में पालने लगे. कुछ दिन मैं देखती रही उन्हें और जब मेरे लिए उन्हें मैनेज करना मुश्किल हो गया तो अपना ट्रांसफर करा कर दिल्ली चली गई.

‘दिल्ली में अंजलि के कहने पर मैं उस के साथ रहने लगी. पिलानी के दिनों में वह मेरे साथ थी और हम बहुत अच्छे दोस्त भी थे. दिल्ली में वह किसी मल्टीनैशनल कंपनी में काम करती थी.

‘अंजलि खुले स्वभाव की और स्वतंत्र विचारों वाली थी और अपने मित्रों से, जिन में पुरुष अधिक थे वह सदा घिरी रहती थी. रात में वह बाहर ही रहती अथवा देर से आती. उस के जाने के बाद शुरू के दिनों में मैं अपने कमरे में बंद हो जाती.

‘वैसे उस ने कभी अपने साथ चलने के लिए मुझ से नहीं कहा पर मैं ही एक दिन अपने अकेलेपन से ऊब गई तो उस के साथ जाने लगी.

‘वहां की दुनिया बड़ी ही रंगीन थी. कुछ दिनों में ही मैं उस रंग में रंग गई. अच्छा खाना, बढि़या ड्रिंक और रोज एक नया चेहरा. फिर मेरे कब पंख निकल आए पता ही न चला. मैं खुले आसमान में उड़ने लगी. लेकिन शरीर पर जब कुछ चरबी चढ़ी तो कल तक मेरी मुसकराहट पर बिछने वाले मुझ से कतराने लगे. उस में कुछ अस्वाभाविक नहीं था. नए चेहरों की वहां कमी नहीं थी और हमारे संबंध कोई भावनात्मक तो थे नहीं, जो कोई किसी के बारे में सोचता या उस के लिए दुखी होती.

‘ये सब तब मेरी जरूरत बन चुकी थी. ऐसे में क्या करती? खरीदफरोख्त पर उतर आई. बाद में वह भी मुश्किल हो गया. शादी के बारे में सोच भी नहीं सकती थी. प्रौलैप्स की सर्जरी में सब पहले ही रिमूव करवा चुकी थी.

‘और कोई तो वहां था नहीं. अंजलि अपने बौयफ्रैंड के साथ आस्ट्रेलिया सैटल कर गई थी और जो वहां थे वे मुझे अच्छी नजरों से नहीं देखते थे. क्या करती और किसी जगह को जानती नहीं थी, इसलिए मुंबई लौट कर आ गई…’

करीपत्ता: भाग 2-आखिर पुष्कर ने ईशिता के साथ क्या किया

उस दिन ईशिता के मन में फूल ही फूल खिल आए. बरतन धोती, खाना बनाती ईशिता को कुछ व्याप नहीं रहा था. फटकारें, उलाहने भी उसे कष्ट नहीं पहुंचा रहे थे. वह तो जैसे किसी और ग्रह पर पहुंच गई थी जहां सुंदर फूल थे, कलकल करते  झरने थे, मधुर कलरव करते पक्षी थे.

वह खुश थी. ढेरों काम कर के भी तरोताजा थी. उस के अंगअंग से उल्लास झलक रहा था.पुष्कर उस से जब तब परामर्श लेते, महत्त्व देते तो उस का खोया गौरव बोध लौटने लगा. वह गोल्ड मैडलिस्ट थी इस की प्रशंसा करते हुए उस के तौरतरीकों और पुरातनपंथी सोच पर चोट करना न भूलते.

जिस अपनेपन की, 2 मीठे बोलों की भूखी थी वह मिले. धीरेधीरे प्रशंसाभरी नजर और मीठे बोल उसे रोमांच से भरने लगे. पूरा दिन एक मीठी सिहरन रहती. लगता जैसे वह भी कुछ है, कोई उसे भी सराह सकता है, उस की भी चाहनाकामना कर सकता है.

अब उसे सब अच्छा लगता, अपनेआप मुग्ध करता, खुशी के अंगराग से वह दमकती रहती. ईशिता का मन करता कहीं घने वृक्षों के मध्य छोटी संकरी पगडंडी पर वह पुष्कर के साथ चले, कहीं  झील के किनारे बैठ कर बातें करे. खूब सारी बातें.

मन की बातें. बस बातें करते जाएं ढेर सारी बातें… बातें ही बातें.ईशिता के इस रूपांतरण पर पति सजग हुए. उन का ध्यान उस की ओर बढ़ा. पर अब वह अपने में खुश रहती.अपेक्षाओं से मुक्त और प्रतिपल की कचकच से उदासीन हो मन में छिपे आनंद को महसूसती उमंगों से भरी खुश रहती.

उमंगें जाग रही थीं. पति सतर्क हो रहे थे. संस्कारों में बंधी, मूल्यों में जकड़ी ईशिता के मन में पति के लिए अगाध प्यार था. हां, आहत अवश्य थी वह उन की उपेक्षा से, उन की अवहेलना से, पर वह न उन्हें धोखा देना चाहती थी, न उन का सिर  झुकाना चाहती थी पर कितना अंतर था पुष्कर में और उस के पति में. वह कहता, ‘‘जैसा तुम चाहो, एज यू विश’’ और पति उस के हर इशू को स्वयं ही निर्णीत करना चाहते.

उसे तिनके के समान सम झते.मगर इतने प्रगतिशील, सुसंस्कृत, सम झदार और धैर्यवान दिखते पुष्कर क्या सचमुच ऐसे ही थे या वास्तविकता कुछ और थी? फिलहाल ईशिता धीरेधीरे एक शिकंजे में कसती जा रही थी.

दोनों परिवारों को इस घनिष्ठता की आहट मिल गई थी- इस बात ने उन्हें और बेपरवाह कर दिया. पति यह सोच कर चुप रहते कि कोई दकियानूस न कह दे. पुष्कर की पत्नी मौन साध जाती कि पुरुष हो कर वह अपनी पत्नी को नहीं कह रहा तो मैं क्या बोलूं.

मगर मन ही मन सुलग रहे थे सब. इस की आंच उन दोनो तक पहुंचती, पर वह ताप न दे कर शीतल चांदनी सी होती. उस दिन एकांत की तलाश में वे शहर के एक प्रसिद्ध पार्क में आए. स्कूली छात्रछात्राओं की भरमार थी वहां.

वे दोनों भी घने वृक्ष की ओट में एकदूसरे का हाथ थामे, एकदूसरे के होने के मीठे घनीभूत एहसास में डूबे बैठे थे.पुष्कर ने कहा, ‘‘मु झे आजन्म इस बात का दुख रहेगा कि ऐसा संवेदनशील साथ मैं न पा सका.’’‘‘अच्छा, यदि हम साथ होते, तो क्या होता?’’‘‘तो हमारा एक सुंदर सा घर होता, जहां लौन में नारियल के वृक्ष होते जो हमारे बैडरूम की बड़ी सी खिड़की के कांच से दिखते.

बैडरूम की खिड़की में श्वेत रंग के रेशमी जाली के लेसदार परदे होते, अखरोट की लकड़ी का डबलबैड होता, साइड में लैंप. कितना सुंदर जीवन होता. अब तक तो हम ने लग्जरी कार भी ले ली होती. उसी से साथ आतेजाते.’’वह बातों के समंदर में डूबती जा रही थी, उगे नारियल के पेड़ बड़े हो गए थे, उन के मध्य से पूर्णिमा का चंद्रमा  झांक रहा था.

वह खो गई थी उन स्वप्नों में. याद आया पति तो उसे पसंद की कोई वस्तु नहीं खरीदने देते, यहां तक कि नई चादर भी बिछाने नहीं देते. उन्हें तो गाढ़े चटकीले रंग पसंद हैं. पेड़पौधों का तो चाव ही नहीं. वे तो इस तरह से कभी सोचते ही नहीं.

तभी भूरी आंखों और लंबे बालों वाली एक गोरी लड़की वहां से निकली, तो पुष्कर टकटकी लगाए उसे देखते ही रह गए.उस ने टोक दिया, ‘‘क्या देख रहे हो पुष्कर?’’‘‘तुम भी, कितना छोटा सोचती हो. अरे सुंदरता तो देखने की वस्तु है भई.

मेरी पत्नी तो नहीं चिढ़ती मैं चाहे किसी ओर भी देखूं.’’ रास्ते भर पुष्कर बारबार ऐसी बेसिरपैर की बातें करता रहा. इस से पहले किसी का साहस न हुआ उस से ऐसी बातें करने का. वह अपदस्थ हो उठी. अकेली, नितांत अकेली यादों के प्रेतों से घिरी बैठी सोच रही है पुष्कर के बदले रंगों को देख कर. उस के विचित्र व्यवहार को सम झना चाह रही है.

वह क्या से क्या हो गया. कैसे किसी को उस से इतनी ऊटपटांग बातें करने का दुस्साहस हो गया? निश्चय ही उसी ने ही दिया होगा यह दुस्साहस. अब अपने पर दया करे या रोष?मन में प्रश्नों की बारात है. उत्तर एक काभी नहीं उस के पास.

किसी से बोलनेबतियानेका मन नहीं करता. कभी लगता एक मधुर भावसंबंध का देहातीत प्रेम का स्वाद चख रही है तो कभी नितांत अर्थहीन और विनाशकारी लगता उस ओर पग बढ़ाना और आज जो रूप देखा पुष्कर का तो जैसे आकाश में उड़ती ईशिता धरती पर धड़ाम से आ गिरी.

निदा फाजली की पंक्तियां याद आईं-हर आदमी में होते हैं 10-20 आदमी,जिस को भी देखना हो कई बार देखना.ईशिता अत्यंत दुखी है मानो कोई बुरा सपना देख लिया हो. उस का मनमस्तिष्क सुन्न हो उठा है. कितना नीच हो सकता है कोई. हृदय में सर्वत्र हाहाकार मचा है. दुखताप की भीषण ज्वाला में जलती परिपक्व हो रही हैवह. जग के आवांमें तप रही है.

वो कमजोर पल: सीमा ने क्या चुना प्यार या परिवार?

वही हुआ जिस का सीमा को डर था. उस के पति को पता चल ही गया कि उस का किसी और के साथ अफेयर चल रहा है. अब क्या होगा? वह सोच रही थी, क्या कहेगा पति? क्यों किया तुम ने मेरे साथ इतना बड़ा धोखा? क्या कमी थी मेरे प्यार में? क्या नहीं दिया मैं ने तुम्हें? घरपरिवार, सुखी संसार, पैसा, इज्जत, प्यार किस चीज की कमी रह गई थी जो तुम्हें बदचलन होना पड़ा? क्या कारण था कि तुम्हें चरित्रहीन होना पड़ा? मैं ने तुम से प्यार किया. शादी की. हमारे प्यार की निशानी हमारा एक प्यारा बेटा. अब क्या था बाकी? सिवा तुम्हारी शारीरिक भूख के. तुम पत्नी नहीं वेश्या हो, वेश्या.

हां, मैं ने धोखा दिया है अपने पति को, अपने शादीशुदा जीवन के साथ छल किया है मैं ने. मैं एक गिरी हुई औरत हूं. मुझे कोई अधिकार नहीं किसी के नाम का सिंदूर भर कर किसी और के साथ बिस्तर सजाने का. यह बेईमानी है, धोखा है. लेकिन जिस्म के इस इंद्रजाल में फंस ही गई आखिर.

मैं खुश थी अपनी दुनिया में, अपने पति, अपने घर व अपने बच्चे के साथ. फिर क्यों, कब, कैसे राज मेरे अस्तित्व पर छाता गया और मैं उस के प्रेमजाल में उलझती चली गई. हां, मैं एक साधारण नारी, मुझ पर भी किसी का जादू चल सकता है. मैं भी किसी के मोहपाश में बंध सकती हूं, ठीक वैसे ही जैसे कोई बच्चा नया खिलौना देख कर अपने पास के खिलौने को फेंक कर नए खिलौने की तरफ हाथ बढ़ाने लगता है.

नहीं…मैं कोई बच्ची नहीं. पति कोई खिलौना नहीं. घरपरिवार, शादीशुदा जीवन कोई मजाक नहीं कि कल दूसरा मिला तो पहला छोड़ दिया. यदि अहल्या को अपने भ्रष्ट होने पर पत्थर की शिला बनना पड़ा तो मैं क्या चीज हूं. मैं भी एक औरत हूं, मेरे भी कुछ अरमान हैं. इच्छाएं हैं. यदि कोई अच्छा लगने लगे तो इस में मैं क्या कर सकती हूं. मैं मजबूर थी अपने दिल के चलते. राज चमकते सूरज की तरह आया और मुझ पर छा गया.

उन दिनों मेरे पति अकाउंट की ट्रेनिंग पर 9 माह के लिए राजधानी गए हुए थे. फोन पर अकसर बातें होती रहती थीं. बीच में आना संभव नहीं था. हर रात पति के आलिंगन की आदी मैं अपने को रोकती, संभालती रही. अपने को जीवन के अन्य कामों में व्यस्त रखते हुए समझाती रही कि यह तन, यह मन पति के लिए है. किसी की छाया पड़ना, किसी के बारे में सोचना भी गुनाह है. लेकिन यह गुनाह कर गई मैं.

मैं अपनी सहेली रीता के घर बैठने जाती. पति घर पर थे नहीं. बेटा नानानानी के घर गया हुआ था गरमियों की छुट्टी में. रीता के घर कभी पार्टी होती, कभी शेरोशायरी, कभी गीतसंगीत की महफिल सजती, कभी पत्ते खेलते. ऐसी ही पार्टी में एक दिन राज आया. और्केस्ट्रा में गाता था. रीता का चचेरा भाई था. रात का खाना वह अपनी चचेरी बहन के यहां खाता और दिनभर स्ट्रगल करता. एक दिन रीता के कहने पर उस ने कुछ प्रेमभरे, कुछ दर्दभरे गीत सुनाए. खूबसूरत बांका जवान, गोरा रंग, 6 फुट के लगभग हाइट. उस की आंखें जबजब मुझ से टकरातीं, मेरे दिल में तूफान सा उठने लगता.

राज अकसर मुझ से हंसीमजाक करता. मुझे छेड़ता और यही हंसीमजाक, छेड़छाड़ एक दिन मुझे राज के बहुत करीब ले आई. मैं रीता के घर पहुंची. रीता कहीं गई हुई थी काम से. राज मिला. ढेर सारी बातें हुईं और बातों ही बातों में राज ने कह दिया, ‘मैं तुम से प्यार करता हूं.’

मुझे उसे डांटना चाहिए था, मना करना चाहिए था. लेकिन नहीं, मैं भी जैसे बिछने के लिए तैयार बैठी थी. मैं ने कहा, ‘राज, मैं शादीशुदा हूं.’

राज ने तुरंत कहा, ‘क्या शादीशुदा औरत किसी से प्यार नहीं कर सकती? ऐसा कहीं लिखा है? क्या तुम मुझ से प्यार करती हो?’

मैं ने कहा, ‘हां.’ और उस ने मुझे अपनी बांहों में समेट लिया. फिर मैं भूल गई कि मैं एक बच्चे की मां हूं. मैं किसी की ब्याहता हूं. जिस के साथ जीनेमरने की मैं ने अग्नि के समक्ष सौगंध खाई थी. लेकिन यह दिल का बहकना, राज की बांहों में खो जाना, इस ने मुझे सबकुछ भुला कर रख दिया.

मैं और राज अकसर मिलते. प्यारभरी बातें करते. राज ने एक कमरा किराए पर लिया हुआ था. जब रीता ने पूछताछ करनी शुरू की तो मैं राज के साथ बाहर मिलने लगी. कभी उस के घर पर, कभी किसी होटल में तो कभी कहीं हिल स्टेशन पर. और सच कहूं तो मैं उसे अपने घर पर भी ले कर आई थी. यह गुनाह इतना खूबसूरत लग रहा था कि मैं भूल गई कि जिस बिस्तर पर मेरे पति आनंद का हक था, उसी बिस्तर पर मैं ने बेशर्मी के साथ राज के साथ कई रातें गुजारीं. राज की बांहों की कशिश ही ऐसी थी कि आनंद के साथ बंधे विवाह के पवित्र बंधन मुझे बेडि़यों की तरह लगने लगे.

मैं ने एक दिन राज से कहा भी कि क्या वह मुझ से शादी करेगा? उस ने हंस कर कहा, ‘मतलब यह कि तुम मेरे लिए अपने पति को छोड़ सकती हो. इस का मतलब यह भी हुआ कि कल किसी और के लिए मुझे भी.’

मुझे अपने बेवफा होने का एहसास राज ने हंसीहंसी में करा दिया था. एक रात राज के आगोश में मैं ने शादी का जिक्र फिर छेड़ा. उस ने मुझे चूमते हुए कहा, ‘शादी तो तुम्हारी हो चुकी है. दोबारा शादी क्यों? बिना किसी बंधन में बंधे सिर्फ प्यार नहीं कर सकतीं.’

‘मैं एक स्त्री हूं. प्यार के साथ सुरक्षा भी चाहिए और शादी किसी भी स्त्री के लिए सब से सुरक्षित संस्था है.’

राज ने हंसते हुए कहा, ‘क्या तुम अपने पति का सामना कर सकोगी? उस से तलाक मांग सकोगी? कहीं ऐसा तो नहीं कि उस के वापस आते ही प्यार टूट जाए और शादी जीत जाए?’

मुझ पर तो राज का नशा हावी था. मैं ने कहा, ‘तुम हां तो कहो. मैं सबकुछ छोड़ने को तैयार हूं.’

‘अपना बच्चा भी,’ राज ने मुझे घूरते हुए कहा. उफ यह तो मैं ने सोचा ही नहीं था.

‘राज, क्या ऐसा नहीं हो सकता कि हम बच्चे को अपने साथ रख लें?’

राज ने हंसते हुए कहा, ‘क्या तुम्हारा बेटा, मुझे अपना पिता मानेगा? कभी नहीं. क्या मैं उसे उस के बाप जैसा प्यार दे सकूंगा? कभी नहीं. क्या तलाक लेने के बाद अदालत बच्चा तुम्हें सौंपेगी? कभी नहीं. क्या वह बच्चा मुझे हर घड़ी इस बात का एहसास नहीं दिलाएगा कि तुम पहले किसी और के साथ…किसी और की निशानी…क्या उस बच्चे में तुम्हें अपने पति की यादें…देखो सीमा, मैं तुम से प्यार करता हूं. लेकिन शादी करना तुम्हारे लिए तब तक संभव नहीं जब तक तुम अपना अतीत पूरी तरह नहीं भूल जातीं.

‘अपने मातापिता, भाईबहन, सासससुर, देवरननद अपनी शादी, अपनी सुहागरात, अपने पति के साथ बिताए पलपल. यहां तक कि अपना बच्चा भी क्योंकि यह बच्चा सिर्फ तुम्हारा नहीं है. इतना सब भूलना तुम्हारे लिए संभव नहीं है.

‘कल जब तुम्हें मुझ में कोई कमी दिखेगी तो तुम अपने पति के साथ मेरी तुलना करने लगोगी, इसलिए शादी करना संभव नहीं है. प्यार एक अलग बात है. किसी पल में कमजोर हो कर किसी और में खो जाना, उसे अपना सबकुछ मान लेना और बात है लेकिन शादी बहुत बड़ा फैसला है. तुम्हारे प्यार में मैं भी भूल गया कि तुम किसी की पत्नी हो. किसी की मां हो. किसी के साथ कई रातें पत्नी बन कर गुजारी हैं तुम ने. यह मेरा प्यार था जो मैं ने इन बातों की परवा नहीं की. यह भी मेरा प्यार है कि तुम सब छोड़ने को राजी हो जाओ तो मैं तुम से शादी करने को तैयार हूं. लेकिन क्या तुम सबकुछ छोड़ने को, भूलने को राजी हो? कर पाओगी इतना सबकुछ?’ राज कहता रहा और मैं अवाक खड़ी सुनती रही.

‘यह भी ध्यान रखना कि मुझ से शादी के बाद जब तुम कभी अपने पति के बारे में सोचोगी तो वह मुझ से बेवफाई होगी. क्या तुम तैयार हो?’

‘तुम ने मुझे पहले क्यों नहीं समझाया ये सब?’

‘मैं शादीशुदा नहीं हूं, कुंआरा हूं. तुम्हें देख कर दिल मचला. फिसला और सीधा तुम्हारी बांहों में पनाह मिल गई. मैं अब भी तैयार हूं. तुम शादीशुदा हो, तुम्हें सोचना है. तुम सोचो. मेरा प्यार सच्चा है. मुझे नहीं सोचना क्योंकि मैं अकेला हूं. मैं तुम्हारे साथ सारा जीवन गुजारने को तैयार हूं लेकिन वफा के वादे के साथ.’

मैं रो पड़ी. मैं ने राज से कहा, ‘तुम ने पहले ये सब क्यों नहीं कहा.’

‘तुम ने पूछा नहीं.’

‘लेकिन जो जिस्मानी संबंध बने थे?’

‘वह एक कमजोर पल था. वह वह समय था जब तुम कमजोर पड़ गई थीं. मैं कमजोर पड़ गया था. वह पल अब गुजर चुका है. उस कमजोर पल में हम प्यार कर बैठे. इस में न तुम्हारी खता है न मेरी. दिल पर किस का जोर चला है. लेकिन अब बात शादी की है.’

राज की बातों में सचाई थी. वह मुझ से प्यार करता था या मेरे जिस्म से बंध चुका था. जो भी हो, वह कुंआरा था. तनहा था. उसे हमसफर के रूप में कोई और न मिला, मैं मिल गई. मुझे भी उन कमजोर पलों को भूलना चाहिए था जिन में मैं ने अपने विवाह को अपवित्र कर दिया. मैं परपुरुष के साथ सैक्स करने के सुख में, देह की तृप्ति में ऐसी उलझी कि सबकुछ भूल गई. अब एक और सब से बड़ा कदम या सब से बड़ी बेवकूफी कि मैं अपने पति से तलाक ले कर राज से शादी कर लूं. क्या करूं मैं, मेरी कुछ समझ में नहीं आ रहा था.  मैं ने राज से पूछा, ‘मेरी जगह तुम होते तो क्या करते?’

राज हंस कर बोला, ‘ये तो दिल की बातें हैं. तुम्हारी तुम जानो. यदि तुम्हारी जगह मैं होता तो शायद मैं तुम्हारे प्यार में ही न पड़ता या अपने कमजोर पड़ने वाले क्षणों के लिए अपनेआप से माफी मांगता. पता नहीं, मैं क्या करता?’

राज ये सब कहीं इसलिए तो नहीं कह रहा कि मैं अपनी गलती मान कर वापस चली जाऊं, सब भूल कर. फिर जो इतना समय इतनी रातें राज की बांहों में बिताईं. वह क्या था? प्यार नहीं मात्र वासना थी? दलदल था शरीर की भूख का? कहीं ऐसा तो नहीं कि राज का दिल भर गया हो मुझ से, अपनी हवस की प्यास बुझा ली और अब विवाह की रीतिनीति समझा रहा हो? यदि ऐसी बात थी तो जब मैं ने कहा था कि मैं ब्याहता हूं तो फिर क्यों कहा था कि किस किताब में लिखा है कि शादीशुदा प्यार नहीं कर सकते?

राज ने आगे कहा, ‘किसी स्त्री के आगोश में किसी कुंआरे पुरुष का पहला संपर्क उस के जीवन का सब से बड़ा रोमांच होता है. मैं न होता कोई और होता तब भी यही होता. हां, यदि लड़की कुंआरी होती, अकेली होती तो इतनी बातें ही न होतीं. तुम उन क्षणों में कमजोर पड़ीं या बहकीं, यह तो मैं नहीं जानता लेकिन जब तुम्हारे साथ का साया पड़ा मन पर, तो प्यार हो गया और जिसे प्यार कहते हैं उसे गलत रास्ता नहीं दिखा सकते.’

मैं रोने लगी, ‘मैं ने तो अपने हाथों अपना सबकुछ बरबाद कर लिया. तुम्हें सौंप दिया. अब तुम मुझे दिल की दुनिया से दूर हकीकत पर ला कर छोड़ रहे हो.’

‘तुम चाहो तो अब भी मैं शादी करने को तैयार हूं. क्या तुम मेरे साथ मेरी वफादार बन कर रह सकती हो, सबकुछ छोड़ कर, सबकुछ भूल कर?’ राज ने फिर दोहराया.

इधर, आनंद, मेरे पति वापस आ गए. मैं अजीब से चक्रव्यूह में फंसी हुई थी. मैं क्या करूं? क्या न करूं? आनंद के आते ही घर के काम की जिम्मेदारी. एक पत्नी बन कर रहना. मेरा बेटा भी वापस आ चुका था. मुझे मां और पत्नी दोनों का फर्ज निभाना था. मैं निभा भी रही थी. और ये निभाना किसी पर कोई एहसान नहीं था. ये तो वे काम थे जो सहज ही हो जाते थे. लेकिन आनंद के दफ्तर और बेटे के स्कूल जाते ही राज आ जाता या मैं उस से मिलने चल पड़ती, दिल के हाथों मजबूर हो कर.

मैं ने राज से कहा, ‘‘मैं तुम्हें भूल नहीं पा रही हूं.’’

‘‘तो छोड़ दो सबकुछ.’’

‘‘मैं ऐसा भी नहीं कर सकती.’’

‘‘यह तो दोतरफा बेवफाई होगी और तुम्हारी इस बेवफाई से होगा यह कि मेरा प्रेम किसी अपराधकथा की पत्रिका में अवैध संबंध की कहानी के रूप में छप जाएगा. तुम्हारा पति तुम्हारी या मेरी हत्या कर के जेल चला जाएगा. हमारा प्रेम पुलिस केस बन जाएगा,’’ राज ने गंभीर होते हुए कहा.

मैं भी डर गई और बात सच भी कही थी राज ने. फिर वह मुझ से क्यों मिलता है? यदि मैं पूछूंगी तो हंस कर कहेगा कि तुम आती हो, मैं इनकार कैसे कर दूं. मैं भंवर में फंस चुकी थी. एक तरफ मेरा हंसताखेलता परिवार, मेरी सुखी विवाहित जिंदगी, मेरा पति, मेरा बेटा और दूसरी तरफ उन कमजोर पलों का साथी राज जो आज भी मेरी कमजोरी है.

इश्क और मुश्क छिपाए नहीं छिपते. पति को भनक लगी. उन्होंने दोटूक कहा, ‘‘रहना है तो तरीके से रहो वरना तलाक लो और जहां मुंह काला करना हो करो. दो में से कोई एक चुन लो, प्रेमी या पति. दो नावों की सवारी तुम्हें डुबो देगी और हमें भी.’’

मैं शर्मिंदा थी. मैं गुनाहगार थी. मैं चुप रही. मैं सुनती रही. रोती रही.

मैं फिर राज के पास पहुंची. वह कलाकार था. गायक था. उसे मैं ने बताया कि मेरे पति ने मुझ से क्याक्या कहा है और अपने शर्मसार होने के विषय में भी. उस ने कहा, ‘‘यदि तुम्हें शर्मिंदगी है तो तुम अब तक गुनाह कर रही थीं. तुम्हारा पति सज्जन है. यदि हिंसक होता तो तुम नहीं आतीं, तुम्हारे मरने की खबर आती. अब मेरा निर्णय सुनो. मैं तुम से शादी नहीं कर सकता. मैं एक ऐसी औरत से शादी करने की सोच भी नहीं सकता जो दोहरा जीवन जीए. तुम मेरे लायक नहीं हो. आज के बाद मुझ से मिलने की कोशिश मत करना. वे कमजोर पल मेरी पूरी जिंदगी को कमजोर बना कर गिरा देंगे. आज के बाद आईं तो बेवफा कहलाओगी दोनों तरफ से. उन कमजोर पलों को भूलने में ही भलाई है.’’

मैं चली आई. उस के बाद कभी नहीं मिली राज से. रीता ने ही एक बार बताया कि वह शहर छोड़ कर चला गया है. हां, अपनी बेवफाई, चरित्रहीनता पर अकसर मैं शर्मिंदगी महसूस करती रहती हूं. खासकर तब जब कोई वफा का किस्सा निकले और मैं उस किस्से पर गर्व करने लगूं तो पति की नजरों में कुछ हिकारत सी दिखने लगती है. मानो कह रहे हों, तुम और वफा. पति सभ्य थे, सुशिक्षित थे और परिवार के प्रति समर्पित.

कभी कुलटा, चरित्रहीन, वेश्या नहीं कहा. लेकिन अब शायद उन की नजरों में मेरे लिए वह सम्मान, प्यार न रहा हो. लेकिन उन्होंने कभी एहसास नहीं दिलाया. न ही कभी अपनी जिम्मेदारियों से मुंह छिपाया.

मैं सचमुच आज भी जब उन कमजोर पलों को सोचती हूं तो अपनेआप को कोसती हूं. काश, उस क्षण, जब मैं कमजोर पड़ गई थी, कमजोर न पड़ती तो आज पूरे गर्व से तन कर जीती. लेकिन क्या करूं, हर गुनाह सजा ले कर आता है. मैं यह सजा आत्मग्लानि के रूप में भोग रही थी. राज जैसे पुरुष बहका देते हैं लेकिन बरबाद होने से बचा भी लेते हैं.

स्त्री के लिए सब से महत्त्वपूर्ण होती है घर की दहलीज, अपनी शादी, अपना पति, अपना परिवार, अपने बच्चे. शादीशुदा औरत की जिंदगी में ऐसे मोड़ आते हैं कभीकभी. उन में फंस कर सबकुछ बरबाद करने से अच्छा है कि कमजोर न पड़े और जो भी सुख तलाशना हो, अपने घरपरिवार, पति, बच्चों में ही तलाशे. यही हकीकत है, यही रिवाज, यही उचित भी है.

उपाय: आखिर क्या थी नीला के बदले व्यवहार की वजह?

‘‘सुनिए, इस बार दशहरे की छुट्टियां 4-5 दिन की हो रही हैं,’’ नीला ने चाय का कप पकड़ाते हुए बड़ी शोखी से कहा.

‘‘तो क्या?’’ रणवीर तल्खी से बोला.

‘‘दशहरा में मुझे झांसी जाना है,’’ नीला बोली.

‘‘फिर तो मम्मी से पूछ लो न,’’ रणवीर लापरवाही से बोला.

‘‘पूछना है तो तुम्हीं पूछो, मुझे उलटेसीधे बहाने नहीं सुनने हैं,’’ झुंझलाते हुए नीला बोली.

रणवीर जानता है कि सासबहू की पटती नहीं है. दोनों को एकदूसरे के विचार पसंद नहीं हैं. नीला बहुत तेज स्वभाव वाली है. उसे अपने कामों में किसी की दखलंदाजी पसंद नहीं है. यदि किसी ने जरा सा भी किसी बात के लिए टोका तो वह बड़ाछोटा नहीं देखती और ऐसीऐसी बातें सुनाती है कि फिर बोलने वाला आगे बोलने की हिम्मत न करे. उस के दिमाग में यह बात अच्छी तरह बैठी है कि ससुराल में सब को दबा कर रखो. सासससुर का वह बिलकुल लिहाज नहीं करती. मामूली सी बात पर भी खूब खरीखोटी सुना देती है. इसीलिए सब उस से थोड़ा अलग रहते हैं और इसी वजह से घर का वातावरण बड़ा बोझिल हो चला है, क्योंकि यहां न अनुशासन है और न बड़ों का आदरसम्मान.

‘‘ठीक है, मैं ही पूछ लेता हूं,’’ रणवीर ने रुख बदल कर कहा. फिर बोला, ‘‘चलो, अब की बार मैं भी वहीं अपनी छुट्टियां बिताऊंगा.’’

नीला कुछ चकित सी हुई, ‘‘क्यों, अब की बार क्या बात है? हर बार तो मुझे पहुंचा कर चले आते थे.’’

‘‘बस मन हो गया. फोन कर दो कि दामादजी भी इस बार वहीं दशहरा मनाने की सोच रहे हैं.’’

‘‘नहीं नहीं, तुम मुझे पहुंचा कर चले आना. नहीं तो तुम्हारी मां मुझे ताना देंगी.’’

‘‘अब छोड़ो भी, मैं भी चल रहा हूं, बस,’’ गंभीर स्वर में रणवीर बोला.

रणवीर के वहीं छुट्टी बिताने की बात सुन जैसे कि आशा थी, मां खुश नहीं हुईं. उन्हें बिना मतलब ससुराल में रहना पसंद नहीं था. उन्होंने समझाने की कोशिश की पर रणवीर अड़ा रहा, बोला, ‘‘मां, तुम चिंता न करो, सब ठीक रहेगा.’’

नीला जब भी मायके से लौट कर आती थी, तकरार के नएनए नुसखे सीख कर आती थी. यह बात रणवीर भी जानता था और मां भी. इसीलिए नीला के मायके जाने को ले कर मां हमेशा अप्रसन्नता जताती थीं.

रणवीर के आने की खबर मिलते ही ससुराल में सभी स्वागतसत्कार के लिए तत्पर हो उठे. टैक्सी दरवाजे पर रुकी तो छोटा साला अरविंद, जो बाहर क्रिकेट खेलने जाने के लिए किसी साथी का इंतजार कर रहा था, लपक कर आया और सभी को नमस्ते कर सामान उठा कर अंदर ले गया. सास रसोईघर में कुछ बनाने में व्यस्त थीं और ससुरजी कुरसी पर बैठे अखबार पढ़ रहे थे.

ससुरजी को नमस्ते कर उन का आशीर्वाद ले कर रणवीर रसोईघर में चला गया और अपनी सासूमां को नमस्कार कर बोला, ‘‘अरे, क्या बना रही हैं, मांजी, बड़ी अच्छी सुगंध आ रही है. आप के बनाए नाश्ते का मजा ही कुछ और है.’’

सासूमां अपनी प्रशंसा सुन कर मुसकरा दीं. बोलीं, ‘‘बैठो बेटा, मैं अभी नाश्ता ले कर आती हूं.’’

रणवीर ससुरजी के पास बैठ गया. थोड़ी देर में नाश्ता आ गया. चाय पीते हुए वह सब का हालचाल पूछता रहा. फिर वह अपना बैग उठा लाया और उस में से कुरतापाजामा का एक सैट जोकि चिकन का था, निकाल कर ससुरजी को दिखाया और बोला, ‘‘बताइए पापा, यह सैट कैसा है?’’

ससुरजी ने हाथ में ले कर कहा, ‘‘बढि़या है. इस की कढ़ाई, डिजाइन सोबर और महीन है.’’

‘‘यह आप के लिए है,’’ रणवीर ने हंस कर कहा, ‘‘इस बार लखनऊ गया था, तो 2 सैट लाया था, एक आप के लिए और एक पिताजी के लिए.’’

‘‘अरे भाई, मेरे लिए तुम्हें लाने की क्या जरूरत थी,’’ और पत्नी शारदा की तरफ मुखातिब होते हुए बोले, ‘‘देखो, रणवीर मेरे लिए क्या लाए हैं.’’

सासूमां चहक कर बोलीं, ‘‘इस का रंग और डिजाइन तो बहुत अच्छा है. क्या दाम है?’’

‘‘अब आप दाम वाम की बात मत करिए. मुझे अच्छा लगा तो मैं ने ले लिया, बस.’’

फिर रणवीर ने बैग से चिकन की एक साड़ी निकालते हुए कहा, ‘‘यह आप के लिए.’’

सासूमां पुलकित हो उठीं, ‘‘अरे बेटा, इतना खर्च करने की क्यों तकलीफ की.’’

‘‘मम्मीजी, फिर वही बात. मैं भी तो आप का बेटा ही हूं.’’

‘‘अरे बेटा, यह बात नहीं. तुम्हारे व्यवहार और विचार से हम वैसे ही प्रसन्न हैं.’’

रणवीर ने सालेसालियों को भी कुछ न कुछ दिया.

नीला यह सब चकित सी देख रही थी. उस से रहा न गया. जैसे ही एकांत मिला, उस ने रूठे अंदाज में रणवीर से कहा, ‘‘तुम ने यह सब कब खरीदा? मुझे बताया नहीं.’’

‘‘कोई जरूरी नहीं कि सब कुछ तुम्हें बताया ही जाए.’’

नीला मुंह बना कर चुप हो गई.

रणवीर ने खाना खाते समय खाने की खूब तारीफ की. बीचबीच में हंसी की फुलझडि़यां भी छोड़ रहा था वह. सभी लोग बड़े खुश लग रहे थे.

खाना खाने के बाद रणवीर साले व सालियों के साथ गपशप करने लगा और नीला मां के पास बैठ गई.

रणवीर ने अरविंद को पास बुला कर बैठा लिया और उस की पढ़ाई आदि के बारे में काफी दिलचस्पी दिखाई.

‘‘बातें तो बहुत हो गईं

अब ये बताओ तुम लोग कभी पिकनिक के लिए जाते हो?’’ रणवीर ने अरविंद से मुसकरा कर पूछा.

‘‘हम 1-2 बार कालेज से ही गए हैं, पर वैसा मजा नहीं आया, जो अपने परिवार के साथ आता है,’’ अरविंद और रिंकी मुंह बनाते हुए बोले.

‘‘ठीक है, कल पिकनिक का प्रोग्राम रहेगा,’’ रणवीर बड़े दोस्ताने ढंग से बोला.

अरविंद व रिंकी को जैसे मुंहमांगी मुराद मिल गई. उन्होंने सारी प्लानिंग झटपट कर डाली. दामाद के इस मिलनसार व्यवहार से पूरा घर बहुत खुश था.

दूसरे दिन किराए की टैक्सी कर ली गई. सभी लोग बैठ कर चल दिए. शहर से बाहर एक झील थी और पास में ही अमराई थी. नीला ने मां के साथ मिल कर पूरियां आदि बना ली थीं. रणवीर पास की दुकान से कुछ मीठा ले आया.

पिकनिक में बड़ा आनंद आया. बच्चों ने खूब खेलकूद किया. खानेपीने के बाद सब ने खूब चुटकुले सुनाए. सभी हंसहंस कर लोटपोट हो रहे थे.

ऐसे ही मौजमस्ती करते छुट्टी के 4-5 दिन कैसे बीत गए, कुछ पता ही नहीं चला. रणवीर घर लौटने का मन बना रहा था. उस दिन शाम को सभी चाय पी रहे थे, तभी रणवीर ने टेप रिकौर्डर निकाला और सब से बोला, ‘‘आप लो यह आवाज पहचानिए तो जरा किस की है?’’

टेप चालू हो गया, सभी लोग ध्यान से सुनने लगे.

अचानक अरविंद चिल्लाया, ‘‘अरे यह तो नीला दीदी की आवाज है. दीदी, तुम किस से डांटडांट कर बोल रही हो? अरे हां, दूसरी आवाज तो तुम्हारी सासूमां की लग रही है. वे धीरेधीरे कुछ कह रही हैं.’’

रिंकी बोली, ‘‘क्यों दीदी, ससुराल में तुम ऐसे ही बोलती हो? यहां हम लोगों से तो तुम कुछ और ही बताया करती हो.’’

नीला के मम्मीपापा हतप्रभ हो नीला का मुंह ताकने लगे. रणवीर मंदमंद मुसकरा रहा था.

रणवीर ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘आप की बेटी छोटीछोटी बातों को सुन कर चिल्लाना शुरू कर देती है और सब पर दोष लगाया करती है. ऐसी बात नहीं कि मैं कुछ कहता या समझाता नहीं पर यह माने तब न. इस के दिमाग में यह है कि ससुराल में सब को दबा कर रखना चाहिए.

‘‘मैं तो आए दिन की चिकचिक से परेशान हो गया. फिर मैं ने सोचा आप लोग ऐसे तो समझेंगे नहीं, इसलिए मैं ने यह उपाय अपनाया. अब आप लोग जो समझें…’’

तभी ससुर बोले, ‘‘बेटा, हम इतना नहीं जानते थे. यह तेज तो है, लेकिन यह तो हद हो गई. छोटेबड़े का लिहाज करना ही छोड़ दिया. बेटा, हम बड़े शर्मिंदा हैं.’’

सासूमां ने नीला को डांटा और समझाया. नीला को रणवीर पर रहरह कर क्रोध आ रहा था. मायके आ कर नीला सासससुर की खूब बुराई करती थी. सासूमां ऐसे चिल्लाती हैं, ऐसे बोलती हैं, वगैरहवगैरह. आज पोल खुल गई. वह कुछ शर्मिंदा व क्रोधित भी थी. सासूमां ने रणवीर से माफी मांगी. अकेले में नीला को बड़ी हिदायतें दीं और समझाया. नीला बस रोती रही.

रास्ते भर नीला रणवीर से बोली नहीं. जब वे घर पहुंचे तो मां का मूड कुछ उखड़ा उखड़ा सा था. वे कुछ कहने वाली ही थीं कि नीला ने झुक कर पैर छुए और हालचाल पूछा. सास का मुंह खुला का खुला रह गया. तभी उन्हें ध्यान आया, तो उन्होंने आशीर्वाद दिया. नीला ने ससुर के भी पैर छुए उन्होंने भी आशीर्वाद दिया. जब सास किचन में जाने लगीं तो नीला ने रोक कर कहा, ‘‘आप बैठिए चाय मैं बनाती हूं.’’

स्वर में मिठास व अपनापन था. सास ने अविश्वास से बहू को देखा फिर रणवीर की ओर देखा. वह मंदमंद मुसकरा रहा था. नीला अभी भी मुंह फुलाए थी. बात नहीं कर रही थी, बस अपना काम यंत्रवत करती जा रही थी.

रणवीर बैडरूम में जा कर कपड़े बदल रहा था, तभी नीला ने चाय का प्याला मेज पर रखते हुए कहा, ‘‘यह चाय रखी है.’’

वह जाने के लिए मुड़ी ही थी कि रणवीर ने हाथ पकड़ लिया और बोला, ‘‘तुम भी बैठो, अपनी चाय यहीं ले आओ.’’

‘‘नहीं, मुझे नहीं बैठना है,’’ नीला गुस्से में बोली.

परंतु रणवीर ने जाने नहीं दिया. उसे पास में बैठा लिया. फिर बोला, ‘‘तुम्हारी नाराजगी उचित नहीं. मैं तुम्हें समझाता था मगर तुम मानती नहीं थीं. ऐसे में घर की सुखशांति के लिए कोई उपाय तो करना ही था. मेरे मां पिता ने बहुत संघर्ष किया है. आज जब मैं हर तरह से समर्थ हूं, मेरा फर्ज है सब तरह से उन्हें सुखी रखना. उन को दुखी व अपमानित होते देखना मुझे सहन नहीं होता. जरा सा मीठा बोलो, अच्छा व्यवहार करो तो मां कितनी गद्गद हो जाती हैं. यदि वे अपनी तरह से कुछ चाहती हैं तो कर देने में कौन सी मेहनत करनी पड़ती है,’’ रणवीर ने नीला को समझाते हुए कहा.

नीला कुछ सोचती रही, फिर धीरेधीरे सकुचाते हुए बोली, ‘‘मुझे माफ कर दो रणवीर. आज के बाद मैं कभी तुम्हें शिकायत का मौका नहीं दूंगी.’’

‘‘वैरी गुड,’’ रणवीर ने शरारती अंदाज में कहा, ‘‘अब अपनी चाय ले कर यहीं आओ, हम साथ में चाय पिएंगे.’’

‘‘नहीं, हम चाय सब के साथ पिएंगे, चाय ले कर तुम बाहर आओ,’’ नीला ने भी उसी शरारती अंदाज में नकल उतारते हुए मुसकरा कर कहा और पलट कर बाहर चली गई. रणवीर मन ही मन मुसकराया, उपाय काम कर गया.

करीपत्ता: भाग 1-आखिर पुष्कर ने ईशिता के साथ क्या किया

अब तो ईशिता को लगता है कि जीवन में कुछ भी अपने वश में नहीं है. ये बड़ीबड़ी बातें करते, अपनी करनी बखानते और डींगें हांकते लोग शायद नहीं जानते कि पलभर में विधिना किसी को भी कहां से कहां ला कर पटक देती है.ईशिता तो जीवनभर अपनेआप पर मान करती आई.

संसार के पंक कीचड़ से बचती आई. संयम, नियम से जीना, कामनाओं को मुट्ठी में बंद रखना ही सीखा था उस ने. उस ने कभी नहीं सोचा था कि एक दिन वह अपनी भावनाओं के बहाव में यों बह जाएगी कि संयम की बागडोर उस की मुट्ठी से खिसकती चली जाएगी.कहते हैं कि स्त्री के एक ही जन्म में कई जन्म होते हैं. ईशिता के भी हुए.

जो ईशिता अपने पितृगृह में तितली के पंखों सी सुकुमार सम झी गई, प्यारमनुहार जतन से पलकों की छांव में पालीपोसी गई वही ससुराल की देहरी पर पदार्पण करते ही दायित्वों के पहाड़ के नीचे दबा दी गई. उपालंभ, भर्त्सना और उपेक्षा भरे निर्मम व्यवहार के मध्य उस के कान प्यार भरे दो मीठे बोल सुनने को तरस जाते.

पति भोलेभाले थे. पत्नी के अधिक पढे़लिखे और नौकरी करने से भयत्रस्त थे. उस पर से उन की कंडीशनिंग भी ऐसी की गई थी कि प्रशंसा करना तो दूर वे चाह कर भी उस का पक्ष नहीं ले पाते कि कहीं वह सिर ही पर न चढ़ जाए या कोई उन्हें पत्नी का दास न कह दे.

ईशिता नौकरी करती थी. गृहकार्य पूर्ण होते तो औफिस जाने का समय हो आता. औफिस में कार्य कर वहां से थकहार कर घर लौटती तो ससुर कुल के लोग त्योरियां चढ़ाए दिनभर के कार्यों का अंबार पटकते हुए ऐसा दर्शाते मानो वह कहीं से घूमघाम कर, पिकनिक मना कर लौटी हो.

क्लांत ईशिता एक प्याली गरम चाय और विश्रांत के 2 पलों के लिए तरस जाती पर उसे कहीं चैन नहीं दो घड़ी का भी. रोनेबिसूरने का भी नहीं. स्कूलकालेज की परीक्षाओं में प्रथम आने वाली, अपने में व्यस्त रहने वाली ईशिता को सब की प्रशंसा पाने का ही अभ्यास था.

ससुर कुल के समवेत व्यवहार ने जैसे उस का विवेक ही छीन लिया. उसे लगने लगा कि उस में अपार कमियां हैं. ऐसी आत्महीनता में जीए जा रही थी ईशिता कि तभी एक दिन समय ने करवट ली.‘‘आप के हाथ बड़े सुंदर हैं, कलात्मक हाथ हैं आप के.’’ईशिता चौंक उठी.

संकोच से हाथ फाइल से हटा कर अपने आंचल में छिपा लिए. लगा जैसे कोई उपहास कर रहा हो. नित्य की भांति वह आज भी इन हाथों से जूठे बरतनों का ढेर साफ कर,  झाड़ूपोंछा कर के आई है. आज से पहले तो किसी ने उस के हाथों की प्रशंसा नहीं की.

नजर उठा कर सामने देखा, पुष्कर मुसकरा रहे थे. उन की आंखों में प्रशंसा लहलहा रही थी. वह पलभर के लिए उन आंखों में डूब गई.सचमुच मनुष्य सब से अधिक प्यार अपनेआप को करता है, तभी तो वह आकृष्ट हुई उन आंखों के प्रति जिन में उस के प्रति प्रशंसा छलक रही थी.मैं ने कहा, ‘‘आप की उंगलियां कलाकारों जैसी हैं, तराशी लंबी उंगलियां.

इतने सुंदर हाथ मैं ने सचमुच नहीं देखे.’’ वह इस बार हड़बड़ाई. क्या कहे, सम झ नहीं आया. सकुचाते हुए टेबल से फाइल ली और वापस अपनी सीट पर चली आई. गोद में रखे हाथों का छिप कर निरीक्षण किया. वाशरूम जा कर देखा. क्या सचमुच उस के हाथ सुन्दर हैं.

पर किसी ने कभी कहा क्यों नहीं. उस की हथेलियां पसीने से भीग गईं. दिल नगाड़े बजने जैसा इतना तेज धड़कने लगा कि उसे डर हुआ कि उस की धड़कन कोई बाहर से न सुन ले. घर में कोई सीधे मुंह बात तक नहीं करता उस से.

वह एक ऐसा जंतु है जिस से सारे कार्य कराए जाते हैं और कैसा भी व्यवहार.दूसरे दिन पुष्कर ने बुलाया. चर्चा के दौरान चाहकर भी आंखें नहीं उठतीं. लग रहा है जैसे वह सैकड़ों आंखों उसे ही देखती जा रही हैं. वह हीनभावना से सकुचाई जा रही है. एकाएक उन की आंखों में कौंधा भाव पढ़ कर वह ठगी सी रह गई. ढेरों प्रशंसा भरे नयन.

वह सिहर उठी. कोई उस की भी प्रशंसा कर सकता है, विश्वास न हुआ क्योंकि ससुराल में उसे अब तक जो भी मिला वह उस की कमी ही गिनता दिखा. बाहर औफिस में अब तक उस ने सब से दूरी ही बरती.

पुष्कर मन ही मन मुसकराए. अपनी पीठ ठोंकी उन्होंने. जिस ईशिता को सब लोग अलग प्रकृति का और आकाश के सितारे सा अलभ्य सम झते आए, वही कैसे उन की  झोली में गिरी पड़ रही है. ठिगने कद के, अति सामान्य रंगरूप के पुष्कर का मन खुशी से अट्टहास करने का होने लगा.

21 मार्च को जन्मदिन था ईशिता का. ससुराल में किसी को याद नहीं (या जानबू झ कर भूलने का ढोंग). जिस घर में कुत्तेबिल्ली का जन्मदिन भी धूमधाम से मनता हो, वहां उस के जन्मदिन पर एक नन्हा सा फूल भी नहीं, प्यार शुभकामना आशीष भरे बोल तक नहीं.

वचनों में भी दरिद्रता. पति तो और भी रूखेपन से बोले उस दिन. अंदर कुछ छनाक से टूट कर किर्चों में बिखर गया.‘क्यों जन्मी मैं. न जन्मती तो कितना अच्छा होता,’ ऐसे उदास विचारों में घिरी ईशिता जब औफिस पहुंची तो अपनी टेबल पर एक सुंदर कार्ड और फूलों का गुलदस्ता देख कर अभिभूत रह गई पुष्कर ने भेजा यह जान कर कसक हुई कि क्या पति  झूठमूठ भी उसे विश नहीं कर सकते थे.

यदि यही उपहार उन्होंने दिया होता तो कितना अच्छा होता. कार्ड में हाथ से लिखी कुछ पंक्तियां भी थीं-चांदनी रातों मेंसितारों की बरसातों मेंलगता है जैसे तुम साथ होसूने हृदय की देहरी परदीप जलातीमंदमंद मुसकराती तुममेरे जीवन कीअनमोल निधि हो.

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