गुड़िया: सुंबुल ने कौन सा राज छुपा रखा था?

‘‘सरबिरयानी तो बहुत जबरदस्त है. भाभीजी के हाथों में तो जादू है. इतनी लजीज बिरयानी मैं ने आज तक नहीं खाई,’’ बिलाल ने बिरयानी खाते हुए फरहान से कहा.

‘‘यह तो सच है तुम्हारी भाभी के हाथों में जादू है, लेकिन आज यह जादू भाभी का नहीं तुम्हारे भाई के हाथों का है,’’ फरहान ने हंसते हुए कहा.

‘‘मैं कुछ सम?ा नहीं? क्या यह बिरयानी भाभीजी ने नहीं बनाई?’’ बिलाल ने हैरत से पूछा.

‘‘नहीं मैं ने बनाई है. क्या है कि कल तुम्हारी भाभी के औफिस में एक जरूरी मीटिंग थी और वे आतेआते लेट हो गई थीं तो मैं ने सोचा चलो आज मैं भी अपना जादू दिखाऊं,’’ फरहान ने खाना खत्म करते हुए कहा.

‘‘अरे वाह सर आप भी इतना अच्छा खाना बनाते हैं. वैसे भाभी जौब करती हैं तो घर के काम कौन करता है? आप लोगों को तो बड़ी दिक्कत होती होगी? यहां दुबई में कोई मेड मिलना भी तो आसान नहीं है,’’ बिलाल ने उत्सुकता से पूछा.

‘‘हां मेड मिलना तो बहुत मुश्किल है, लेकिन हम दोनों मिल कर मैनेज कर ही लेते हैं. थोड़ेबहुत काम मैं भी कर लेता हूं,’’ फरहान ने मुसकराते हुए कहा.

‘इतने बड़े मैनेजर हो कर घर के काम खुद करते हैं और बीवी औफिस जाती है,’ बिलाल मन ही मन हंसा, पर कुछ कह नहीं पाया, आखिर फरहान उस का सीनियर जो था.

8 महीने पहले ही बिलाल लखनऊ से दुबई आया था. एक बड़े बैंक में उसे अच्छी जौब मिल गई थी. उस का सीनियर फरहान दिल्ली से था और बहुत ही हंसमुख व मिलनसार. दोनों में खासी दोस्ती हो गई थी. अकसर लंच दोनों साथ करते थे. फरहान के लंच में हमेशा ही लजीज खाने होते थे तो बिलाल ने सोचा शायद उस की बीवी घर पर ही रहती होगी. उसे यह जान कर बड़ी हैरानी हुई कि वे भी कहीं जौब करती हैं. वैसे बिलाल की खुद की बीवी उज्मा भी खाना अच्छा ही बना लेती थी, लेकिन इतना अच्छा नहीं जितना फरहान के घर से आता था.

 

कुछ दिनों बाद बातों ही बातों में फरहान ने बताया कि उस की बीवी सुंबुल कुछ

दिनों के लिए भारत गई हुई हैं. ऐसे में बिलाल ने एक दिन फरहान को अपने घर खाने की दावत दे डाली.  फरहान ने उज्मा के बनाए खाने की बहुत तारीफ की और सुंबुल के वापस आने पर दोनों को अपने घर बुलाने की दावत भी दे डाली.

कुछ दिनों बाद सुंबुल भारत से वापस आ गई तो एक दिन फरहान ने बिलाल को घर पर दावत दे दी. छुट्टी के दिन बिलाल और उज्मा फरहान के घर पहुंच गए.

‘‘आइएआइए भाभीजी,’’ फरहान ने दोनों का स्वागत करते हुए कहा.

‘‘सुनिए मेहमान लोग आ गए हैं,’’ फरहान ने दोनों को ड्राइंगरूम में बैठाया और किचन में काम कर रही अपनी बीवी को आवाज दी.

ड्राइंगरूम काफी करीने से सजा था.  बिलाल और उज्मा दोनों ही प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके.

जैसे ही सुंबुल किचन से बाहर आई, बिलाल को एक जोर का ?ाटका लगा. उसे यकीन ही नहीं हुआ कि उस के सामने सुंबुल खड़ी है, उस की पुरानी मंगेतर. बिलाल को देख कर सुंबुल भी एक पल के लिए ठिठक गई, लेकिन फिर जल्दी ही सामान्य हो गई.

सुंबुल और उज्मा जल्द ही घुलमिल गईं और उज्मा भी सुंबुल की मदद करने के लिए किचन में चली गई. टीवी पर आईपीएल का मैच चल रहा था और फरहान विराट कोहली की बैटिंग की तारीफ कर रहा था, लेकिन बिलाल का दिमाग तो जैसे एकदम ही शून्य हो गया था. उसे उम्मीद नहीं थी कि एक दिन सुंबुल इस तरह उस के सामने आ जाएगी.

खाने की टेबल पर उज्मा सुंबुल के बनाये खाने की खूब तारीफें कर रही थी.

‘‘अरे बिलाल तुम्हें पता है हमारी ससुराल भी तुम्हारे पड़ोस में ही है. तुम लखनऊ से हो और सुंबुल कानपुर से,’’ बातों ही बातों में लखनऊ का जिक्र आया तो फरहान ने बिलाल से कहा.

‘‘अच्छा. अगली बार कानपुर आएंगे तो लखनऊ भी तशरीफ लाइएगा,’’ बिलाल बस इतना ही कह पाया. सुंबुल के सामने ज्यादा बोलने में वह बहुत ?ि?ाक रहा था.

घर वापस पहुंच कर उज्मा तो जल्दी सो गई, लेकिन बिलाल की आंखों से नींद कोसों दूर थी. गुजरा हुआ कल एक फिल्म की तरह उस के जेहन में चलने लगा…

बिलाल के पिताजी और सुंबुल के पिताजी की आपस में जानपहचान थी. 1-2 बार बिलाल के पिताजी जब कानपुर गए तो उन्होंने वहां सुंबुल को देखा और उस को बिलाल के लिए पसंद कर लिया. लड़का पढ़ालिखा और अच्छा था और फिर घरबार भी देखाभाला हुआ तो सुंबुल के पिताजी को भी इस रिश्ते में कोई हरज नहीं दिखाई दिया. फिर कुछ दिनों बाद दोनों की मंगनी हो गई और शादी लगभग 1 साल बाद होनी तय की गई. फिर अकसर दोनों एकदूसरे से बातें करने लगे.

मगर शादी से कुछ ही दिन पहले एक दिन अचानक बिलाल के पिताजी ने सुंबुल के पिताजी को फोन कर के शादी के लिए मना कर दिया.  वजह पूछने पर उन्होंने सिर्फ इतना ही कहा कि उन्हें लगता है कि सुंबुल उन के घर में एडजस्ट नहीं हो पाएगी.

थोड़ी देर बाद ही सुंबुल ने बिलाल से मैसेज कर के इस फैसले की वजह जाननी चाही.

‘‘आई एम सौरी सुंबुल, लेकिन मु?ो और घर वालों को लगता है कि तुम हमारे घर के माहौल में एडजस्ट नहीं हो पाओगी. बाद में मुश्किलें हों इस से अच्छा है कि हम अभी अपने रास्ते अलग कर लें,’’ बिलाल ने जवाब दिया. वैसे दिल ही दिल में उसे भी अच्छा नहीं लग रहा था.  इतने दिनों तक मंगनी होने और सुंबुल से बातें करने के बाद वह भी मन ही मन उसे चाहने लगा था.

‘‘मगर अचानक ऐसा क्या हो गया जिस से आप को लगा मैं वहां एडजस्ट नहीं हो पाऊंगी?’’ सुंबुल ने फिर सवाल किया. उस की सम?ा नहीं आ रहा था कि आखिर उस ने ऐसा क्या कर दिया जिस से बिलाल और उस के घर वाले उस से रिश्ता खत्म करने पर आमादा हो गए. अभी 2 दिन पहले ही तो बिलाल के पिताजी किसी काम से कानपुर आए थे और उन के घर भी आए. उसे याद नहीं आ रहा था कि उस ने ऐसा क्या किया जिस से बात यहां तक पहुंची.

‘‘अभी 2 दिन पहले अब्बू आप के घर गए थे. उन्होंने आ कर बताया कि जब तक वे आप के घर में रहे आप ने किसी काम को हाथ नहीं लगाया. खाना बनाना या घर के बाकी काम सिर्फ आप की अम्मी ही करती रहीं और आप बस अपने लैपटौप पर बैठी रहीं या नेलपौलिश लगाती रहीं. अब्बू का मानना है कि हमें अपने घर के लिए एक सजावटी गुडि़या नहीं चाहिए बल्कि ऐसी लड़की चाहिए जो घर संभाल सके और जो तेरी अम्मी को आराम दे सके,’’ बिलाल ने एक लंबाचौड़ा मैसेज भेजा.

‘‘आप को एक बार मु?ा से बात तो कर लेनी चाहिए थी.  बिना पूरी बात जाने आप लोग इतना बड़ा फैसला कैसे कर सकते हैं?’’ काफी देर बाद सुंबुल ने जवाब दिया.

‘‘बात करने लायक कुछ है ही नहीं.  वैसे भी अब हमें एहसास हो गया है कि जौब करने वाली लड़की घर नहीं चला सकती. अगर आप नौकरी छोड़ कर घर की सारी जिम्मेदारियां संभालने के लिए तैयार हैं तो मैं अब्बू से एक बार बात कर सकता हूं.  वैसे जहां तक मु?ो लगता है आप अपनी जौब छोड़ने के लिए भी तैयार नहीं होंगी, इसलिए बेहतर यही रहेगा कि हम अपनी राहें अलग कर लें,’’ बिलाल ने बात खत्म करने की नीयत से लिखा.

और फिर सुंबुल का कोई जवाब नहीं आया. जल्द ही उस की शादी उज्मा से हो गई.  कुछ दिनों बाद ही उज्मा पर घर की सारी

जिम्मेदारियां आ गईं. शुरूशुरू में तो सब ठीक रहा, लेकिन कुछ दिनों बाद ही घर में कलह होने लगी. बिलाल के 3 और छोटे भाईबहन थे और सब के लिए खाना बनाना और दूसरे काम करना उज्मा को पसंद नहीं था. बिलाल की अम्मी भी बहू के आने के बाद घर के कामों से बिलकुल बेफिक्र हो गई थीं और घर के सारे काम उज्मा को अकेले ही करने पड़ते थे.

फिर तो रोजरोज घर में कलह होने लगी.  बिलाल औफिस से आता तो अम्मी उस के सामने उज्मा की शिकायतें ले कर बैठ जातीं. उज्मा के पास जाता तो वह सब की शिकायतें ले कर बैठ जाती.  तंग आ कर बिलाल ने दुबई के एक बैंक में नौकरी के लिए अर्जी दे दी और दुबई आ गया.  रोजरोज की चिकचिक से तो उस को आजादी मिल गई लेकिन दुबई आ कर भी उज्मा खुश नहीं थी. उसे लगता था कि बिलाल घर के कामों में उस की जरा भी मदद नहीं करता. वहीं बिलाल घर के काम करने को अपनी शान के खिलाफ सम?ाता था. बचपन से ले कर आज तक उस ने घर के किसी काम को हाथ तक नहीं लगाया था. उस का मानना था कि घर के काम सिर्फ औरतों को ही करने चाहिए और मर्दों को सिर्फ कमाने के लिए काम करना चाहिए.

सुंबुल और उज्मा अकसर मिलने लगीं.  दोनों परिवार छुट्टी के दिन एकदूसरे के घर चले जाते या दुबई के खूबसूरत समुद्र तट पर साथसाथ घूमते. हालांकि बिलाल हमेशा सुंबुल के सामने असहज सा रहता था.

उस दिन उज्मा कुछ उदास सी थी तो सुंबुल ने उस से उस की उदासी की वजह पूछी.

‘‘मेरी बहन की मंगनी टूट गई. लड़का किसी और से शादी करना चाहता है, जबकि घर वाले जबरदस्ती उस की शादी मेरी बहन से कर रहे थे.  कल उन दोनों ने कोर्ट में शादी कर ली,’’ उज्मा ने बड़ी उदासी के साथ कहा.

फरहान और सुंबुल को सुन कर बड़ा दुख हुआ.

‘‘जल्द ही शादी होने वाली थी. अब कितनी दिक्कत आएगी मेरी बहन की शादी में, कितनी बदनामी होगी उस की,’’ उज्मा ने ठंडी सांस लेते हुए कहा.

‘‘इस में उस का क्या कुसूर है, रिश्ता तो लड़के ने खत्म किया है, तो बदनामी आप की बहन की क्यों होगी?’’ फरहान ने उज्मा को दिलासा देते हुए कहा.

‘‘भाई साहब, लड़के का कुसूर कौन मानता है. सभी लड़की पर ही उंगली उठाते हैं,’’ उज्मा की आंखें नम हो उठी थीं.

‘‘जमाना बदल गया है. आप की बहन की कोई गलती नहीं है इसलिए आप फिक्र मत कीजिए. हो सकता है उस के लिए इस से कुछ अच्छा ही लिखा हो,’’ फरहान ने कहा.

‘‘वैसे आप को पता है, सुंबुल की भी मंगनी एक बार टूट चुकी थी. फिर देखिए न कितनी अच्छी लड़की मु?ो मिल गई,’’ कह कुछ देर की खामोशी के बाद फरहान ने प्यार भरी नजरों से सुंबुल को देखा.

‘‘भला इस जैसी इतनी प्यारी लड़की से कौन शादी नहीं करना चाहेगा,’’ उज्मा ने सुंबुल की तरफ देख कर कहा.

सुंबुल थोड़ी असहज हो गई थी खासतौर पर जब तब बिलाल भी वहां मौजूद था. उधर बिलाल भी एकदम चुप बैठा था.

‘‘क्या वह लड़का भी किसी और को चाहता था?’’ उज्मा सुंबुल की कहानी जानने के लिए उतावली हो उठी.

‘‘नहीं ऐसी कोई बात नहीं थी. असल में उन के घर वालों को लगा कि मैं जौब करती हूं तो घर के काम नहीं करूंगी. उन को अपने घर के लिए कोई सजावटी गुडि़या नहीं चाहिए थी,’’ थोड़ी देर चुप रहने के बाद सुंबुल ने धीमी आवाज में कहा.

‘‘अरे आप तो जौब के साथसाथ अपने घर का भी कितना खयाल रखती हैं. इतना अच्छा खाना भी बनाती हैं, घर भी इतना अच्छा रखती हैं, क्या उन लोगों ने कभी आप का घर नहीं देखा था?’’ उज्मा को यकीन नहीं हो रहा था कि सुंबुल जैसी खूबसूरत और इतने सलीके वाली लड़की को कोई कैसे छोड़ सकता है.

‘‘असल में एक बार उन के अब्बू हमारे घर आए थे. उस दिन संडे था. आमतौर पर अपने घर पर सारा काम मैं और अम्मी मिल कर ही करते थे. शादी में कुछ ही दिन रह गए थे तो अम्मी ने मु?ो जबरदस्ती घर के काम करने से मना कर रखा था. फिर मैं भी जौब छोड़ने वाली थी तो अपना काम हैंडओवर कर रही थी और इसलिए लैपटौप पर काम कर रही थी. लेकिन उन के अब्बू को लगा कि शायद मैं कभी घर के काम नहीं करती और इसलिए उन लोगों ने यह रिश्ता तोड़ दिया,’’ सुंबुल ने पूरी बात बताई.

‘‘और उस लड़के ने भी कुछ नहीं कहा?’’ उज्मा ने हैरत से पूछा.

‘‘नहीं, उस ने भी बिना मेरी बात सुने अपने घर वालों की बात मान ली. मु?ो अपनी सफाई देने का मौका ही नहीं मिल,’’ सुंबुल ने एक उदास मुसकान के साथ कहा और फिर उस ने एक उचटती हुई नजर बिलाल पर डाली तो वह शर्म से पानीपानी हो गया.

‘‘वैसे देखा जाए तो अच्छा ही हुआ. ये सब नहीं होता तो मु?ो इतने अच्छे पति कहां मिलते,’’ सुंबुल ने मुहब्बत भरी नजरों से फरहान की तरफ देखते हुए कहा.

‘‘यह तो कुदरत का कमाल है,’’ फरहान ने अदब से सिर ?ाकाते हुए कहा तो सुंबुल और उज्मा दोनों ही हंस पड़ीं.

‘‘वैसे भी अब जमाना बदल गया है. आज लड़कियां जौब के साथसाथ घर भी अच्छी तरह संभाल रही हैं और अगर ऐसे में हम हस्बैंड लोग घर के कामों में थोड़ी मदद कर दें तो इस में बुराई ही क्या है? आखिर घर भी तो दोनों का ही होता है,’’ फरहान ने थोड़ा गंभीर होते हुए कहा.

‘‘भाभी आप बेफिक्र रहें. आप की बहन के लिए अच्छा लड़का हम भी ढूंढे़ंगे,’’ फरहान ने उज्मा को दिलासा दिया.

थोड़ी देर बाद फरहान सब के लिए आइसक्रीम लेने चला गया और उज्मा वाशरूम चली गई.

‘‘आई एम सौरी सुंबुलजी… आज मैं अपने किए पर बहुत शर्मिंदा हूं. मैं ने बिना सच जाने आप को इतनी तकलीफ पहुंचाई. मु?ो माफ कर दीजिएगा,’’ सुंबुल को अकेला देख कर बिलाल उस के पास आया सिर ?ाका सुंबुल से माफी मांगने लगा.

‘‘इस की कोई जरूरत नहीं है. मु?ो आप से कोई शिकायत नहीं है. शायद हमारे हिस्से में यही लिखा था,’’ सुंबुल को उस के चेहरे पर शर्मिंदगी के भाव साफ नजर आ रहे थे. उस के दिल में बिलाल के लिए कोई मलाल नहीं था.

‘‘आप का बहुत बहुत शुक्रिया,’’ बिलाल के मन से बड़ा बो?ा उतर गया था.

शाम को बिलाल और उज्मा जब घर लौटे तो उज्मा के सिर में दर्द हो रहा था. वह आंखें बंद कर थोड़ी देर के लिए लेट गई.

‘‘तुम बहुत थक गई होंगी. तुम आराम करो आज कौफी मैं बनाता हूं,’’ घर पहुंच कर बिलाल ने उज्मा से कहा तो उज्मा की हैरत की इंतहा न रही, ‘‘अरे आज आप को यह क्या हो गया. आप तो घर के काम करने को बिलकुल अच्छा नहीं मानते,’’ उज्मा को बिलाल का यह रूप देख कर हैरानी भी हो रही थी और खुशी भी.

‘‘फरहान भाई सही कहते हैं.  घर तो शौहर और बीवी दोनों का ही होता है तो क्यों न घर के काम भी दोनों मिलजुल कर करें?’’ बिलाल ने मुसकराते हुए कहा.

‘‘अरे यह कैसी कौफी बनी है,’’ बिलाल ने कौफी का पहला घूंट लेते ही बुरा सा मुंह बनाया.

‘‘हां चीनी थोड़ी ज्यादा है, दूध थोड़ा कम है और कौफी भी थोड़ी ज्यादा है, लेकिन यह दुनिया की सब से अच्छी कौफी है,’’ उज्मा ने बिलाल की तरफ प्यारभरी नजरों से देखते हुए कहा तो बिलाल को भी चारों तरफ रंगबिरंगे फूल दिखाई देने लगे. दोनों के रिश्ते का एक नया अध्याय शुरू हो चुका था.

सिरफिरी: क्या निहारिका अपने शादीशुदा जीवन को तबाह होने से बचा पाई

निहारिका मानसिक द्वंद्व से जू?ाती हुई अपने कमरे में निश्चेत सी पड़ी थी. अपना मोबाइल भी औफ कर रखा था. वह प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष किसी भी रूप में डाक्टर विवेक का सामना नहीं करना चाहती थी. हालांकि वह यह भी बहुत अच्छी तरह जानती थी कि एक ही यूनिट में रहते हुए यह मुमकिन नहीं है, मगर वह ऐसी किसी भी स्थिति से बचना चाह रही थी, जिस में डाक्टर विवेक से उस का एकांत में सामना हो, क्योेंकि उस के किसी भी सवाल का जवाब उस के पास नहीं था.

तभी होस्टल के चौकीदार ने दरवाजा खटखटाया, ‘‘मैडम, डाक्टर विवेक विजिटर रूम में आप का वेट कर रहे हैं.’’

‘‘उन से कहिए कि मैं रूम में नहीं हूं,’’ निहारिका ने आमनासामना होने की सिचुएशन को टालने की कोशिश की.

‘‘जी, मैडम,’’ कह कर चौकीदार चला गया.

निहारिका का मन कर रहा था कि वह जोरजोर से रोए, चीखेचिल्लाए, सब कुछ तोड़ दे… किस चक्रव्यूह में फंस गई वह जिस से निकलते ही नहीं बन रहा. एक वह अभिमन्यु था जो अपनों से घिरा था… वह भी तो घिरी है अपनेआप से… शायद उस की नियति भी अभिमन्यु जैसी ही होने वाली है… निहारिका कटे वृक्ष सी बिस्तर पर गिर गई.

2 साल पहले कितनी सुखी जिंदगी थी उस की. प्यार करने वाला पति देव, लाड़ करने वाली सासूमां और अपनी भोली मुसकान से दिन भर की थकान उतार देने वाली 4 साल की बिटिया पलक…

देव जोधपुर के आईआईटी इंस्टिट्यूट में प्रोफैसर था और वह खुद भी वहीं एक हौस्पिटल में डाक्टर थी. निहारिका अपने पेशे में और अधिक महारथ हासिल करने के लिए ऐनेस्थीसिया में पीजी करना चाहती थी. 2 साल के अथक प्रयासों के बाद आखिर उस का पोस्ट ग्रैजुएशन करने के लिए सलैक्शन हो ही गया. उसे बीकानेर के सरदार पटेल मैडिकल कालेज में सीट आवंटित हुई.

परिवार खासतौर पर पलक से दूर होने की कल्पना रहरह कर निहारिका की पलकों के कोर नम कर रही थी. मगर सासूमां पर उसे पूरा भरोसा था कि वे पलक की देखभाल उस से भी बेहतर करेंगी. फिर देव ने भी उस का हाथ अपने हाथ में लेते हुए उसे आश्वस्त किया था. मगर वही उन के भरोसे पर खरी नहीं उतर पाई… वही न जाने किस फिसलन भरी ढलान पर उतर गई थी. एक बार फिसली तो फिर फिसलती चली गई.

हालांकि मैडिकल की पढ़ाई के दौरान भी वह होस्टल में ही रही थी और उस पीरियड को खूब ऐंजौय भी किया था उस ने, मगर इस बार बात कुछ और थी. अकसर शाम को पलक और देव को याद कर के उदास हो जाती थी.

उसे मैडिकल कालेज से संबद्ध पीबीएम हौस्पिटल में रैजिडैंट डाक्टर की हैसियत से अपनी सेवाएं देनी पड़ती थीं. जब उस की ड्यूटी दिन या फिर शाम की होती थी तब तो इतने मरीज आते कि उसे सिर उठाने की भी फुरसत नहीं मिलती थी. मगर रात की ड्यूटी में जब सारे मरीज और उन के रिश्तेदार गहरी नींद में होते तब उस की आंखों से नींद कोसों दूर होती. वह देर तक देव से बात करती, मगर फिर भी उस का अकेलापन दूर नहीं होता था. उसे यों रात भर जागते देख साथी डाक्टर उसे उल्लू कह कर चिढ़ाया करते थे. वे उसे वार्ड की जिम्मेदारी सौंप रैस्ट भी कर लिया करते थे.

बीचबीच में निहारिका जोधपुर का चक्कर भी लगा लेती थी. 1-2 बार देव भी आया था पलक को ले कर बीकानेर. मगर दूरियां तो आखिर दूरियां ही होती हैं… इन्हें मोबाइल और चैटिंग से नहीं पाटा जा सकता.

इसी तरह देखते ही देखते 1 साल गुजर गया. हौस्पिटल में नए पीजी डाक्टर्स आ गए. उन्हीं में से एक था विवेक, जो उसी की फैकल्टी में पीजी करने एक छोटे कसबे से आया था. दिखने में बहुत ही सीधेसादे और मितभाषी विवेक का व्यक्तित्व बहुत ही आकर्षक था. चूंकि निहारिका उस की सीनियर थी, इस नाते वह उस की बहुत इज्जत करता था. उस की मासूमियत निहारिका के दिल में उतरने लगी. शुरुआती दिनों में विवेक बहुत शरमीला था. मगर धीरेधीरे निहारिका से खुलने लगा. घरपरिवार और कालेज के पुराने किस्से सुना कर उसे खूब हंसाता, उस का मन बहलाने की कोशिश करता. जब भी दोनों नाइट ड्यूटी में साथ होते, वह उस के लिए कौफी बना कर लाता. विवेक निहारिका से उम्र में छोटा था, मगर उस के साथ होते ही निहारिका खुद एक नटखट बच्ची बन जाती थी.

विवेक की आंखें उस के व्यक्तित्व का सबसे प्रभावशाली हिस्सा थीं. न जाने क्या था उन गहराइयों में कि निहारिका उन में डूबती चली गई. एक चुंबक था जैसे उन के भीतर… निहारिका जितना अवौइड करने की कोशिश करती उतनी ही खिंचती चली जाती उस की तरफ… जैसे धरती चाहे या न चाहे उसे सूर्य की परिक्रमा करनी पड़ती है. कुछ ऐसे ही गुरुत्त्वाकर्षण से बंधती जा रही थी निहारिका भी. विवेक उस के भीतर पसरे खालीपन को भरने लगा था. जब वह उस के साथ होती तो देव को फोन करना भी भूल जाती थी.

एक दिन नाइट ड्यूटी के बाद जब निहारिका होस्टल लौट रही थी, तो विवेक पीछे से अपनी बाइक ले कर आया. निहारिका को लिफ्ट देने की पेशकश की तो वह सम्मोहित सी पीछे बैठ गई. विवेक उसे चाय पिलाने अपने कमरे पर ले गया.

वह रसोई में जाने लगा तो निहारिका ने कहा, ‘‘तुम बैठो, मैं चाय बनाती हूं.’’

विवेक भी उस की मदद करने के लिए पीछेपीछे आ गया. छोटी सी किचन में विवेक का इतना पास होना निहारिका के शरीर में कंपन पैदा कर रहा था.

हौस्पिटल में तो कितने ही ऐसे मौके आते हैं जब हम बहुत पास होते हैं. यहां तक कि एकदूसरे को छू भी जाते हैं, मगर तब ऐसी फीलिंग क्यों नहीं आती, निहारिका सोच रही थी.

चाय के लिए कप लेने को मुड़ी निहारिका विवेक से टकरा गई. विवेक ने बांहों में थाम लिया तो निहारिका से कुछ भी कहते नहीं बना. बस सौरी कह कर रह गई.

अब अकसर ही जब दोनों नाइट ड्यूटी कर के जाते तो विवेक उसे कमरे पर ले जाता. दुनियाजहान से बेखबर दोनों देर तक साथ रहते, खूब मस्ती करते. निहारिका उस की बचकानी हरकतों पर पेट पकड़पकड़ कर हंसती. उस की मासूम अदाओं पर रीझ कर निहारिका ने उसे नाम दिया सिरफिरा. अब वह उसे इसी नाम से बुलाती थी. उस का दिल कहता था जैसे उसे बरसों से ऐसे ही साथी की तलाश थी. हालांकि देव भी उसे कम प्यार नहीं करता था. मगर न जाने क्यों विवेक को जी भर कर

प्यार करने की ललक उस के भीतर सिर उठाने लगी थी.

2 दिन बाद विवेक का जन्मदिन आने वाला था. निहारिका ने मन ही मन प्लान तैयार कर लिया. संयोग से विवेक के जन्मदिन वाले दिन दोनों ड्यूटी के बाद विवेक के कमरे पर चले गए. निहारिका ने अपना स्टेथ टेबल पर रखा और ऐप्रन कुरसी के पीछे टांग कर आराम से बैठ गई. विवेक किचन में चाय बनाने चला गया.

विवेक ने चाय के कप टेबल पर रख दिए.

निहारिका बोली, ‘‘आज तुम्हारा जन्मदिन है न?’’

‘‘हां. तो?’’

‘‘तो क्या गिफ्ट नहीं मांगोगे?’’

‘‘जब बिना मांगे ही इतना कुछ मिल गया है, तो और क्या मांगूं?’’

‘‘मगर हम तो फिर भी देंगे,’’ निहारिका ने इतराते हुए कहा.

‘‘तो लाइए.’’

‘‘ऐसे नहीं… आंखें बंद करो.’’

विवेक ने अपनी आंखें बंद कर लीं. निहारिका धीरे से उस के पास आई और उस के होंठों पर अपने होंठ रख कर एक गहरा चुंबन जड़ दिया.

विवेक ने तो इस सरप्राइज की कल्पना भी नहीं की थी. यंत्रचालित सी उस की बांहों ने निहारिका को घेर लिया. वह भी सब कुछ भूल कर उस में खोती चली गई. जब होश आया तो चाय ठंडी हो चुकी थी.

निहारिका ने अपने कपड़े ठीक करते हुए कहा, ‘‘तुम बैठो, मैं चाय बना कर लाती हूं.’’

मगर विवेक नहीं माना और किचन में चला गया.

निहारिका ने मजाक में कहा, ‘‘तुम चाय बहुत अच्छी बनाते हो… एक काम करो डाक्टरी छोड़ कर चाय की दुकान खोल लो. मैं तो तुम्हारी परमानैंट ग्राहक बन जाऊंगी.’’

‘‘मंजूर है, मगर वादा करो कि तुम रोज चाय पीने आओगी.’’

‘‘वादा,’’ निहारिका ने उस का हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा.

‘‘जोधपुर तो नहीं चली जाओगी?’’ विवेक ने उस की आंखों में ?ांकते हुए पूछा.

निहारिका सकपका गई. कुछ जवाब देते नहीं बना तो चुपचाप चाय का कप ले कर कुरसी पर बैठ गई.

निहारिका तो शादीशुदा थी. उस के लिए अंतरंग संबंध नई बात नहीं थी. मगर अविवाहित विवेक ने जब से यह वर्जित फल चखा था, उस की हालत दीवानों सी हो गई. वह हर वक्त निहारिका के आगेपीछे घूमने लगा. क्लास हो, वार्ड हो या फिर औपरेशन थिएटर, हर जगह वह उसे छूने के अवसर तलाशता रहता. कभी ऐनेस्थीसिया देते वक्त हाथ पकड़ लेता तो कभी मरीज देखते समय टेबल के नीचे पांव पर पांव रख कर सहलाने लगता. रोज अकेले में मिलने की जिद करता. उस का दीवानापन निहारिका के लिए परेशानी का कारण बनने लगा.

कहते हैं कि इश्क और मुश्क छिपाए नहीं छिपते… होस्टल, मैडिकल कालेज,

हौस्पिटल हर जगह दोनों के अफेयर की चर्चा होने लगी. लोग दबी जबान निहारिका को ही दोषी ठहराते. पिछली बार जब देव आया था तो विवेक को उस का आना फूटी आंख नहीं सुहाया था. उस के जाने के बाद भी निहारिका से 2 दिन रूठारूठा रहा था.

‘‘देव मेरी सचाई है विवेक इस बात को तुम जितनी जल्दी सम?ा लो उतना ही हम दोनों के लिए बेहतर है,’’ निहारिका ने उसे सम?ाते हुए कहा.

‘‘मैं तुम्हारे साथ किसी और की कल्पना भी नहीं कर सकता अब… वे 2 रातें जो तुम ने उस के साथ बिताई हैं, मु?ा पर कैसी गुजरी हैं तुम क्या जानो,’’ विवेक ने जैसे न सम?ाने का प्रण कर रखा था.

‘‘तुम देव से तलाक ले लो,’’ विवेक ने निहारिका को कस कर बांहों में जकड़ते हुए कहा.

‘‘यह संभव नहीं है.’’

‘‘मेरे साथ इस रास्ते पर चलने से पहले क्यों नहीं सोचा कि इस की मंजिल क्या होगी?’’ विवेक आज आर या पार की बहस के मूड में था.

‘‘मु?ा से गलती हो गई. शायद देव से दूरियों ने मेरे मन को डिगा दिया… मु?ो माफ कर दो… मैं तुम्हारी गुनहगार हूं, तुम जो चाहे सजा दो. अब इस नाजायज रिश्ते की आंच मेरे घर को जलाने लगी है… मैं इस रास्ते पर आगे नहीं जा सकती,’’ कह निहारिका ने अपनी बात खत्म कर दी. मगर वह जानती थी कि दिलों के संबंध इतनी आसानी से नहीं टूटते.

निहारिका ने अपने एचओडी से रिक्वैस्ट कर के अपनी यूनिट चेंज करवा ली. अब उस की ड्यूटी विवेक के साथ नहीं लगेगी. विवेक ने शायद वह ड्यूटी चार्ट देख लिया है. इसीलिए वह उस से मिलने की जिद कर रहा है.

ड्यूटी पर तो जाना ही पड़ेगा, सोचते हुए निहारिका ने उठ कर मुंह धोया. अपनेआप को संयत करते हुए होस्टल से बाहर निकली. सामने पेड़ के नीचे खड़ा विवेक उसी की राह देख रहा था. निहारिका को उस पर दया उमड़ आई. वह अपनेआप को कोसने लगी कि क्यों उस ने

विवेक की शांत जिंदगी में प्यार फेंक कर हलचल मचा दी. वह अनजान बनने का नाटक करती हुई आगे बढ़ी तो विवेक ने सामने आ कर रास्ता रोक लिया.

‘‘?ाठ क्यों कहा कि तुम रूम में नहीं हो?’’ विवेक ने पूछा.

‘‘मैं ने किस से कहा?’’ निहारिका ने भी प्रतिप्रश्न किया.

‘‘वाचमैन ने तो कुछ देर पहले यही कहा था.’’

‘‘शायद मैं उस वक्त बाथरूम में थी,’’ निहारिका ने टालने की गरज से कहा.

‘‘क्या मु?ा से इतनी नफरत हो गई कि मेरे साथ ड्यूटी भी नहीं कर सकतीं?’’ विवेक ने शिकायत की.

‘‘ऐसी कोई बात नहीं है. यह तो मैनेजमैंट का डिसीजन है.’’

‘‘मैं इतना नादान भी नहीं हूं, सब सम?ाता हूं.’’

‘‘तुम सम?ा ही तो नहीं रहे हो विवेक… यह हम दोनों के लिए बहुत जरूरी है. हमें इस मोड़ से लौटना ही होगा.’’

‘‘तुम बेशक लौट जाओ, मगर मैं यहीं इसी मोड़ पर खड़ा तुम्हारा इंतजार करूंगा,’’ विवेक ने आंखें नम करते हुए कहा.

विवेक के लिए तो वह पहला प्यार ही थी और पहले प्यार को खोना सब कुछ लुट जाने जैसा ही होता है.

मगर निहारिका ने अपने मन को कड़ा किया और विवेक से दूरियां बना लीं. वह उन सभी हालात से बचने की कोशिश करती जहां विवेक से सामना होने का अंदेशा होता.

निहारिका के कोर्स का अंतिम वर्ष था. वह सब कुछ भूल कर अपनी परीक्षा की तैयारी में जुट गई. उस ने अपनी स्टडी टेबल पर अपनी फैमिली की तसवीर रख ली ताकि अगर उस का मन बगावत पर उतर आए तो वह कंट्रोल कर सके. रोज रात को पलक के सोने से पहले उस से 10-15 मिनट बात जरूर करती और अपने परिवार के लगाव को भीतर तक महसूस करती. देव से भी पहले की तरह ही नियमित बात करती. कुछ दिन तो उसे ये सब करना अपनेआप को छलने जैसा ही लगा, मगर धीरेधीरे लगने लगा कि स्नेह की जो डोर कमजोर पड़ रही थी वह फिर से मजबूत हो रही है. उसे अब पहले की तरह ही घर की याद सताने लगी थी.

आज आखिरी परीक्षा थी. उसे रात की ट्रेन से जोधपुर जाना था. उस ने अपना जरूरी सामान पैक किया और विवेक के कमरे की तरफ चल दी.

निहारिका को यों अचानक आया देख विवेक आश्चर्य से भर गया.

निहारिका ने कहा, ‘‘मैं वापस जा रही हूं… मैं ने जो कुछ भी किया वह माफी के लायक तो नहीं है, मगर फिर भी मेरे लिए अपने मन में मैल मत रखना. प्यार सच्चा या ?ाठा नहीं होता, वह बस प्यार होता है. तुम्हारा प्यार भी मेरे दिल के एक कोने में सदा सुरक्षित रहेगा.’’

‘‘तुम ने मु?ो प्यार के एहसास से परिचित करवाया, उस के लिए शुक्रिया. अच्छे दोस्तों की तरह संपर्क बनाए रखना,’’ विवेक अब तक काफी सामान्य हो चुका था.

निहारिका ने जाने से पहले विवेक को प्यार से गले लगाया और फिर उस रास्ते की तरफ बढ़ गई जहां उस का परिवार उस के इंतजार में आंखें बिछाए खड़ा था.

सोलमेट: भाग 2- शादी के बाद निकिता का प्रेमी ने उसके साथ क्या किया?

मेरी सोचनेसम झने की शक्ति खत्म हो चुकी थी. बस एक डर लगा हुआ था कि कहीं प्रणय को मेरे अतीत के बारे में सब पता न चल जाए. ‘‘क्या हुआ, तुम ठीक तो हो?’’ मु झे सुस्त देख बाथरूम से निकलते हुए प्रणय ने पूछा, ‘‘देख रहा हूं कुछ सुस्त नजर आ रही हो. खाना भी ठीक से नहीं खाया तुम ने,’’ प्रणय को लगा कि घूमने जाने की बात को ले कर शायद मैं नाराज हो गई. ‘‘अरे, नहीं ऐसी कोई बात नहीं है. वह मेरे पीरियड की डेट नजदीक आ रही है न तो मूड स्विंग हो रहा है. पेट व कमर में दर्द हो रहा है तो लेट गई जरा,’’ मैं ने प्रणय की शंका निवारण हेतु कहा लेकिन बात तो कुछ और ही थी. जब से ऋतिक ने फोन कर मु झे धमकाया था कि अगर मैं ने उस की बात नहीं मानी तो वह प्रणय को हमारे बारे में सबकुछ बता देगा, तब से मेरे दिल में धुकधुकी लगी थी. ‘‘अच्छा, ठीक है आराम करो तुम,’’ बोल कर प्रणय मोबाइल देखने लगे और मैं ऊपर छत निहारने लगी. मोबाइल देखतेदेखते प्रणय तो सो गए लेकिन मेरी आंखों में नींद की जगह डर समाया हुआ था. बारबार वही बातें मेरे दिल को दहला रही थीं कि अगर प्रणय को मेरे अतीत के बारे में सब पता चल गया तो क्या होगा.

आज मन खींच कर मु झे 4 साल पीछे ले गया. उन दिनों की 1-1 बात चलचित्र की तरह मेरी आंखों के आगे तैरने लगी… मैं लखनऊ में अपने मांपापा और छोटी बहन नव्या के साथ रह रही थी. मेरे पापा कालेज में प्रोफैसर हैं और मां स्कूल टीचर हैं. घर में ज्यादातर पढ़ने का ही माहौल होता था. 12वीं कक्षा से ही मेरा सपना डिफैंस में जाने का था मगर मेरे मांपापा चाहते थे कि मैं बैंक सैक्टर में जाऊं. उन का सोचना था कि बैंक सैक्टर लड़कियों के लिए सेफ है और सब से बड़ी बात कि वहां मेल और फीमेल वर्कर में भेदभाव नहीं होता. एक अच्छी बेटी की तरह मैं ने भी अपने मांपापा का कहना माना और ग्रैजुएशन करने के बाद पहली बार में ही बैंक पीओ ऐग्जाम क्रैक कर लिया. हैदराबाद में 15 दिनों की ट्रेनिंग के बाद मेरी पहली पोस्टिंग गुजरात के अहमदाबाद की एक ब्रांच में मिली तो मेरे मांपापा के खुशी का ठिकाना नहीं रहा. लेकिन एक फिक्र भी होने लगी कि मैं वहां इतने बड़े और अनजान शहर में अकेली कैसे रहूंगी.

मगर जौइन तो करना ही था सो मेरी मां कुछ समय यहां मेरे साथ रहीं पर उन का भी अपनी टीचिंग की जौब थी, ज्यादा छुट्टी ले कर मेरे साथ नहीं रह सकती थीं और सब से बड़ी बात कि वहां नव्या भी तो अकेली थी इसलिए वे लखनऊ लौट गईं लेकिन दिन में कई बार फोन कर मेरा हालचाल लेना नहीं भूलती थीं. पता नहीं मातापिता अपनी बेटियों को ले कर इतने फिक्रमंद क्यों रहते हैं? क्या उन्हें अपनी बेटी पर भरोसा नहीं है कि वह भी बाहर अकेले अच्छे से रह सकती है. लेकिन मैं ने उन्हें विश्वास दिलाया कि मैं ठीक हूं और आप लोग मेरी चिंता न करें. इस तरह बैंक में मेरा प्रोबेशन पीरियड भी खत्म हो गया और अब मैं बैंक में परमानैंट इंप्लोई हो गई थी. मांपापा ने बहुत चाहा कि मैं अपना तबादला अपने होम टाउन लखनऊ में करवा लूं ताकि वे लोग चैन की सांस ले सकें पर यह मुमकिन न था.

उन्हें हमेशा यही डर लगा रहता था कि मैं यहां ठीक तो हूं न? इसलिए फोन कर मु झे हिदायत देते रहते थे कि मैं देर रात तक घर से बाहर न रहूं. औफिस से जल्दी घर आ जाया करूं वगैरहवगैरह. लेकिन अब उन की बातों से मु झे चिढ़ होने लगी थी कि मैं कोई छोटी बच्ची थोड़े ही हूं कि जब देखो मु झे सम झाते रहते हैं कि यहां मत जाओ, वहां मत जाओ और यह यूपीबिहार नहीं हैं, गुजरात है, यहां लड़कियां सेफ हैं. मगर उन्हें कहां मेरी बात सम झ आने लगी. सो उन्होंने अब दूसरा राग अलापना शुरु कर दिया कि मैं शादी कर लूं ताकि वे अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो सकें. मातापिता अपनी बेटियों को उड़ने के लिए पंख तो देते हैं पर उन के लिए एक दायरा भी तय कर देते हैं कि उन्हें उड़ना कहां तक है और कितनी देर. वैसे गलती उन की भी नहीं है क्योंकि सरकार बेशक मिशन शक्ति अभियान चला कर संपूर्ण महिला सुरक्षा की बात करती हो, लेकिन हकीकत तो यह है कि आज भी लड़कियों के साथ छेड़खानी और रेप जैसी वारदातें हो रही हैं. बैड कमैंट और मिस बिहेव का खतरा लड़कियों के साथसाथ उन के पेरैंट्स को भी सताता रहता है.

इसलिए वे बेटियों को खुद की नजरों से दूर नहीं भेजना चाहते हैं और मेरे मांपापा भी कुछ हद तक अपनी जगह सही थे. लेकिन इस डर से मैं शादी कर लूं, यह सही नहीं था. वैसे भी अभी 2-3 साल मैं शादी के बारे में सोच भी नहीं सकती थी इसलिए मैं भी जिद पर अड़ गई कि आप लोग कुछ भी कर लो मैं अभी शादी नहीं करूंगी. लेकिन मांपापा मेरी बात सुनने को तैयार ही नहीं थे. बस शादी कर लो, शादी कर लो की रट लगाए हुए थे. ‘‘अभी तो मैं 25 की भी नहीं हुई फिर क्यों आप लोग मेरी शादी करवाने के पीछे पड़े हो?’’ मैं ने कहा. मां ने मु झे घूर कर देखा. बोली, ‘‘25 की नहीं हुई से क्या मतलब है? अरे, इस उम्र में तुम मेरी गोद में खेल रही थी और नव्या मेरे पेट में थी,’’ मां ने सफाई दी. ‘‘आप का जमाना अलग था मां. अब ऐसा नहीं है,’’ मैं ने सम झाना चाहा, ‘‘मु झे अभी और आगे जाना है इसलिए आप लोग शादी के लिए मजबूर न करें.

क्या इतनी बड़ी बो झ हो गई हूं आप लोगों पर कि जल्द से जल्द आप दोनों मु झे अपनी जिंदगी से निकाल देना चाहते हैं?’’ बोलतेबोलते मेरी आवाज भर्रा गई, तो पापा ने मु झे अपने सीने से लगा लिया और कहा कि अब वे तब ही मेरी शादी की बात करेंगे जब मैं चाहूंगी. ‘‘थैंक यू पापा. मां मैं वादा करती हूं आप से मैं कभी भी आप दोनों का सिर लोगों के सामने नीचा नहीं होने दूंगी,’’ मैं ने कहा. मां कहने लगीं, ‘‘मुझे अपनी बेटी पर खुद से भी ज्यादा भरोसा है पर दुनिया पर नहीं. न जाने कैसेकैसे लोग हैं दुनिया में. डर लगता है. ‘‘मत डरो मां,’’ मां के गले लगते हुए मैं ने उन्हें विश्वास दिलाया कि मैं अपना ध्यान रख सकती हूं, तो मां रो पड़ी थीं. यहां अहमदाबाद में आने के बाद मैं कुछ महीने बैंक के गैस्टहाउस में ही रही. फिर अपने लिए 2 कमरे का घर ले लिया और उसी में रहने लगी.

घर बैंक के पास ही था तो मु झे कोई तकलीफ नहीं होती थी आनेजाने में. लेकिन फिर मेरा तबादला किसी दूसरी ब्रांच में कर दिया गया जहां बैंक मेरे घर से करीब 2 घंटे की दूरी पर पड़ता था. मुझे बैंक जाने के लिए अपने घर से दोढाई घंटे पहले निकलना पड़ता है क्योंकि यहां अहमदाबाद में ट्रैफिक ज्यादा होता है और थोड़ा लेट पहुंचने पर बैंक मैनेजर गुस्सा हो जाते थे इसलिए मैं सुबह 8 बजे ही घर से निकल जाती थी बैंक जाने के लिए. घर पहुंचतेपहुंचते मु झे शाम के 7 कभीकभी तो 8 भी बज जाते थे. मैं इतनी ज्यादा थक चुकी होती थी कि उठ कर एक गिलास पानी पीने का भी मन नहीं होता था मेरा. उस समय मु झे मां की बहुत याद आती थी. रोज बाहर से कितना खाना मंगवाती. इसलिए कैसेकैसे कर कुछ भी खा कर मेरा गुजारा हो रहा था. पैसे तो थे मेरे पास पर समय नहीं था कि अपने बारे में कुछ सोचूं, करूं.

मां को कुछ कहती, तो बस यही कहती कि शादी कर लूं सब ठीक हो जाएगा. बताओ, अब शादी से सब का भला होता तो देश में इतने तलाक ही क्यों होते? बीवी कमाऊ हो या गृहिणी, पति तो यही चाहता कि वही उस के लिए खाना पकाए, कपड़े धोए, चायपानी ले कर खड़ी रहे. माई फुट. मैं तो किसी के लिए भी इतना सबकुछ नहीं करने वाली. मैं अपने मन में सोचती कि शादी तो बराबरी का रिश्ता होता है तो फिर एक ही क्यों दूसरे के लिए करता रहे? मु झे तो लगता है आज देश में तलाक के मामले इसलिए ही बढ़ रहे हैं क्योंकि लोगों को अपने पार्टनर से ऐक्सपैक्टेशन बहुत है. इसलिए ही तो मैं शादी से भागती हूं. पर मां सम झती ही नहीं हैं. कुछ बोलो, तो शादी पर आ जाती हैं. इसलिए उन से बोलना ही छोड़ दिया. पापा से इसलिए कुछ नहीं कहती कि वे बेकार में चिंतित हो जाते हैं. मैं यहीं बैंक के आसपास ही कोई एक कमरे का घर ढूंढ़ रही थी, लेकिन मिल नहीं रहा था.

वैसे भी बैचलर को जल्दी कोई किराए पर घर नहीं देना चाहता है पता नहीं क्यों? ऋतिक भी इसी बैंक में मेरे साथ ही काम करता था. वह यूपी का ही रहने वाला था पर उस का घर बिजनौर में था. साथ काम करते हुए जल्द ही हमारी दोस्ती हो गई थी. ऋतिक, इस ब्रांच में दो सालों से काम कर रहा था इसलिए उसे यहां का सारा कुछ पता था. वह अकसर मेरे काम में मेरी हैल्प कर दिया करता था. यहां तक कि कभी घर जाने में देर हो जाती, तो वह अपनी बाइक से मु झे मेरे घर तक छोड़ भी देता था. इस अनजान शहर में जब कोई आप का इतना केयर करे तो मन अपनेआप उस के प्रति शुक्रगुजार हो उठता है. ऋतिक के अच्छे व्यवहार के कारण मैं उस के करीब होने लगी थी. हम दोनों औफिस के बाद या छुट्टियों में अकसर कौफी पीने या कहीं घूमने निकल जाते थे. एक दिन जब मैं ने अपनी परेशानी ऋतिक को बताई तो बोला कि वह जल्द ही कुछ करता है. ऋतिक की कोशिश से जल्द ही मु झे बैंक के नजदीक ही रहने के लिए एक बढि़या घर मिल गया. अब मु झे कोई परेशानी नहीं थी. जिंदगी में आराम हो गया था.

अब बैंक से आने के बाद हमें इतना समय मिल जाता था कि हम दोनों कुछ देर साथ कहीं घूमने निकल सकते थे. धीरेधीरे हमारे बीच की दूरियां कम होती जा रही थीं. अब हम दोनों अपनी पर्सनल बातें भी एकदूसरे से बे िझ झक शेयर करने लगे थे. बातोंबातों में ही हम दोनों ने एक दिन एकदूसरे को अपनेअपने बारे में सबकुछ बता दिया कि हमारे घर में कौनकौन हैं और क्या करते हैं. मेरे परिवार के बारे में जानने के बाद ऋतिक अपने बारे में बताने लगा कि उस के घर में उस के सिवा सिर्फ उस की मां ही हैं. एक बड़ी बहन है जिस की शादी हो चुकी है. उस के पापा तो हैं, पर वे इन के साथ नहीं रहते हैं. ‘‘पर क्यों?’’ ‘‘क्योंकि मेरी मां उन की दूसरी पत्नी हैं,’’ ऋतिक बताने लगा कि उस के पापा, उस के नाना के घर में किराए पर रहते थे तभी उस की मां से उन्हें प्यार हो गया और दोनों ने शादी कर ली.

3 साल साथ रहने के बाद उन्हें 2 बच्चे हुए. लेकिन उस के पापा पहले से शादीशुदा हैं यह बात उन्होंने उस की मां से छिपा कर रखी थी. एक दिन अचानक उस के पापा उन्हें छोड़ कर अपनी पहली पत्नी और बच्चे के पास राजस्थान रहने चले गए.’’ मेरे पूछने पर कि उन्होंने ऐसा क्यों किया? वह कहने लगा कि उस के पिताजी ने उन्हें अपनी संपत्ति से बेदखल करने की बात करी और उन की पहली पत्नी ने उन्हें जेल भेजने की धमकी दी तो वे उन्हें छोड़ कर पहली पत्नी के पास रहने चले गए. ऋतिक फिर बताने लगा कि सदमे में उस के नानाजी भी गुजर गए तो उस की मां ने बड़े कष्ट से उसे और उस की बहन को बड़ा किया और पढ़ायालिखाया. लेकिन अब वे डिप्रैशन में रहने लगी हैं. ‘‘ओह,’’ उस की दुख भरी कहानी सुन कर मु झे बड़ा अफसोस हुआ कि बेचारे ने पिता के होते हुए बिना पिता का जीवन जीया.

अब ऋतिक को ले कर मेरे दिल में और इज्जत बढ़ गई थी. ऋतिक का मेरा इतना ध्यान रखना इस अजनबी शहर में मु झे एक संबल देता था. ऋतिक का पुष्ट हाथ जब मेरे हाथ में होता, तो मु झे लगता मैं बहुत सुरक्षित हाथों में हूं. अब ऋतिक के बिना मेरा एक पल भी मन नहीं लगता था. ऋतिक का भी यही हाल था. सच बात तो यह थी कि हम दोनों इस रिश्त में काफी दूर निकल चुके थे. इसलिए हम ने यह फैसला किया कि हम एक साथ एक ही घर में रहेंगे यानी लिव इन में. सब कोई रहता है, कोई नई बात नहीं है इस में और मांपापा को इस बारे में कुछ बताने की जरूरत ही क्या है. जल्द ही 2 कमरे का घर ले कर हम दोनों उस में शिफ्ट हो गए. इस फ्लैट में जरूरत का सारा सामान मौजूद था. हम सिर्फ अपने कपड़े और जरूरी सामान ही ले कर यहां रहने आए थे. जल्द ही एक मेड भी मिल गई हमें तो हमारा काम और भी आसान हो गया. मेड रोज सुबह झाड़ूपोंछा, कपड़े और खाना बना कर चली जाती थी. साथ रहते हुए हम दोनों के बीच की सारी मर्यादाएं खत्म हो चुकी थीं. एक दिन भी ऋतिक बैड पर मेरे साथ नहीं होता तो मु झे ठीक से नींद नहीं आती.

हृदय परिवर्तन: वाणी के मन में कौन-सी गलत यादें थीं

लेखिका-रेणु दीप

भावना की ट्रेन तेज रफ्तार से आगे बढ़ती जा रही थी. पीछे छूटते जा रहे थे खेतखलिहान, नदीनाले और तालतलैया. मन अंदर से गुदगुदा रहा था, क्योंकि वह बच्चों के साथ 2 बरसों के बाद अपने मायके जा रही है अपने भाईर् अक्षत की कलाई पर राखी बांधने. गाड़ी की रफ्तार के साथसाथ उस का मन भी पिछली यादों में उल झ गया.

एक समय था जब वह महीनों पहले से रक्षाबंधन की प्रतीक्षा बहुत बेकरारी से किया करती थी. वे 5 बहनें और एक भाईर् था. भाई के जन्म के पहले न जाने कितने रक्षाबंधन बिना किसी की कलाई पर राखी बांधे ही बीते थे उस के. 5 बहनों के जन्म के बाद भाई अक्षत का जन्म हुआ था. सब से बड़ी बहन होने के नाते उस ने अक्षत को बेटे की तरह ही गोद में खिलाया था. सो, शादी के बाद शुरू के 4-5 वर्षों तक, जब तक उस के बच्चे छोटे रहे, वह बहुत ही चाव से हर रक्षाबंधन पर मांबाबूजी के निमंत्रण पर मायके जाती रही थी.

उसे आज तक भाई के विवाह के बाद पड़ा पहला रक्षाबंधन अच्छी तरह याद है. पति दिवाकर ने कितना मना किया था कि देखो, अब अक्षत का विवाह हो गया है, एक बहू के आने के बाद तुम्हारा वह पुराना राजपाट गया सम झो. अब किसी के ऊपर तुम्हारा पुराना दबदबा नहीं चलने वाला. अब तो बस, सालभर में महज एक मेहमान की तरह कुछ दिन ही मायके के हिसाब में रखा करो वह भी तब, जब भाभी तुम्हें खुद निमंत्रण भेजे आने का. लेकिन काश, तब उस ने पति की बात को खिल्ली में न उड़ा कर गंभीरता से लिया होता तो ननद व भाईभाभी के नाजुक रिश्ते में दिल को छलनी कर देने वाली वह दरार तो न पड़ती.

हर वर्ष की भांति उस वर्ष भी मांबाबूजी का दुलारभरा खत आया था, जिस में उन्होंने उसे रक्षाबंधन पर बुलाया था. भाभी के सामने पहले रक्षाबंधन पर जा रही हूं, यह सोच कर उस ने अपने बजट से कहीं ज्यादा खर्च कर भाई के लिए काफी महंगी पैंटशर्ट और भाभी के लिए बहुत बढि़या खालिस सिल्क की साड़ी व मोतियों का सुंदर जड़ाऊ सैट खरीदे थे.

मायके पहुंचते ही मांबाबूजी व भाई ने हमेशा की तरह ही पुलकित मन से भावना और दोनों बच्चों का सत्कार किया था. लेकिन जिस चेहरे को अपने स्नेहदुलार, ममता के रेशमी जाल में हमेशा के लिए जकड़ने आई थी, ननदभाभी के रिश्ते को नया रूप देने आईर् थी, घर पहुंचने के घंटेभर बाद तक भावना को वह चेहरा नजर नहीं आ पाया था. वह अपनी उत्सुकता को और न दबा पाते हुए  झट से भाई से बोल पड़ी थी, ‘अरे अक्षत, तेरी बहू नहीं दिखाई दे रही. इस बार तो मैं उसी से मिलने और दोस्ती करने आई हूं. वरना तेरे जीजा तो मु झे आने ही नहीं दे रहे थे,’ ड्राइंगरूम में बैठे लोग बातें कर रहे थे कि भावना अपनी आदत के अनुसार धड़धड़ाती हुई नई बहू के शयनकक्ष में बिना खटखटाए ही घुस गई थी. बहू के खूबसूरत चेहरे को देखते ही भावना ने  झट से उसे बांहों में भर लेने के लिए हाथ आगे बढ़ाए पर भाभी के चेहरे पर भावों को देख कर अपना हाथ पीछे खींच लिया. वह यह कह कर कमरे से बाहर आ गई थी, ‘वाणी, जल्दी से बाहर आ जाओ, मैं तो तुम से बातें करने को बुरी तरह से  झटपटा रही हूं.’

वापस आ कर भावना यात्रा से पैदा हो आईर् थकान को अपनों के बीच बैठ, मां के हाथों की बनी मसाले वाली, सौंधीसौंधी महक वाली चाय के घूंटों से मिटाने का प्रयत्न कर रही थी. साथ ही साथ, उस की नजरें नई बहू से मिलने व बतियाने की ख्वाहिश में बारबार दरवाजे पर  झूलते परदे की ओर खिंच जाती थीं. लेकिन पौना घंटा बीतने पर भी वाणी कमरे से बाहर नहीं आई थी. अक्षत भी बीच में उठ कर शायद वाणी को ही बुलाने चला गया था, लेकिन वह भी इस बार तनिक असहज मुद्रा में ही वापस लौटा था.

तकरीबन एक घंटे बाद वाणी अपने कमरे से बाहर आईर् थी पूरी तरह से सजधज के साथ. साड़ी से मेल खाती चूडि़यां, बिंदी, यहां तक कि गले और कान के गहने भी उस की साड़ी से मेल खा रहे थे, जिन्हें देख कर बिना सोचेसम झे वह यह पूछने की गलती कर बैठी थी, ‘यह क्या वाणी, कहीं जा रही हो क्या, जो इस तरह तैयार हो कर आई हो?’

इतनी देर तक प्रतीक्षा करवा कर बाहर आने की प्रतिक्रियास्वरूप कुछ खिन्न मन से भाई भी बोल पड़ा था, ‘अरे दीदी, इस की कुछ न पूछो, आधा दिन तो इस का मेकअप करने में ड्रैसिंग टेबल के सामने ही गुजर जाता है.’

उस ने साफ देखा था, भाई के यों बोलने से वाणी का चेहरा गुस्से से तन गया था और किंचित रोष से भर कर उस ने अत्यंत तल्ख, व्यंग्यात्मक लहजे में जवाब दिया था, ‘बचपन से हमारी मां ने हम में यही आदत डाली है कि ड्राइंगरूम में बिना सलीके से तैयार हुए कभी कदम तक नहीं रखना है. हमारे यहां तो काफी ऊंचे तबके के लोगों का उठनाबैठना रहता है. कभी जिला जज आए होते हैं तो कभी पुलिस अधीक्षक. रोजाना एकाध मंत्री भी आए ही रहते हैं. अब इतनी ऊंचीऊंची हस्तियों के सामने यों लल्लुओं की तरह तो नहीं जा सकते न.’

यह कहते हुए बरबस ही उस की निगाह भावना के रेल सफर के दौरान हुए धूलधूसरित कपड़ों पर पड़ गईर् थी और भावना शायद पहली बार कपड़ों के प्रति अपनी लापरवाहीभरे व्यवहार से असहज हो उठी थी.

उसे आज तक याद है, पहुंचने के अगले ही दिन भाई के औफिस जाने के बाद वह भाभी से बातचीत करने के उद्देश्य से उस के कमरे में जा कर बैठी थी. वाणी अपने शोध प्रबंध लिखने के लिए पढ़ने में तल्लीन थी. उस ने भाभी से बातचीत शुरू करने का प्रयास किया था. लेकिन वाणी की उदासीन हांहूं ने उसे आखिरकार लौट आने को विवश कर दिया था.

दिन ढले तकरीबन 4 बजे वाणी के सो कर उठने के बाद वह फिर बोली थी, ‘वाणी, फ्रैश हो कर बाहर ही आ जाओ’, पर वाणी की रोबीली और दोटूक बातें सुन कर मांबेटी के चेहरों का रंग ही उड़ गया था. भावना को पहली बार एहसास हुआ कि वाणी की बात से उस के उच्च अभिजात्य परिवार के होने के दंभ की  झलक आ रही है. वह तो खैर ननद है उस की, भविष्य में गिनती के दिनों के लिए गाहेबगाहे महज एक मेहमान की हैसियत से ही वाणी से मिलने की संभावना थी, लेकिन मां के अत्यंत लाड़दुलार के बावजूद वाणी उन्हें एक बड़े बुजुर्ग का मान नहीं दे रही थी.

विवाह के इतने महीने गुजर जाने के बाद तक उस ने रसोई में कदम नहीं रखा था. मां ने ही भावना को बताया था कि उस की रसोई के प्रति इस उदासीनता को देखते हुए घर के किसी भी सदस्य ने उसे आज तक एक शब्द भी नहीं कहा था, बल्कि तीनों वक्त मां उन सब को एकसाथ खाने की मेज पर बैठा कर बहुत लाड़ से गरम खाना खिलाया करती थीं और अपनी एकलौती बहू को तो खिलाते वक्त उस के चेहरे से लाड़ टपकता था.

वाणी की रसोई में जाने की अनिच्छा भांप कर मां खुद ही अपने लिए फुलके सेंक लिया करती थीं, पर फिर भी वाणी के प्रति उन के लाड़दुलार में कोई कमी नहीं आई थी. उन सभी का यह मानना था कि नितांत अनजाने घर, अनजाने परिवेश से आई एक लड़की को ससुराल के नए परिवेश के रहनसहन, आचारविचार अपनाने में बहुत वक्त लगा करता है.इसलिए वे सब, यानी कि भावना और मां अत्यंत धैर्य से वाणी के मन को अपने निश्च्छल, निस्वार्थ प्रेम से अपने परिवार का एक अंतरंग सदस्य बनाने की कोशिश में जुटे हुए थे. लेकिन अपनी तमाम कोशिशों के बाद भी वे वाणी को उस के मौन कवच से बाहर निकाल पाने में स्वयं को असमर्थ पा रहे थे.उन्हीं दिनों घर की आया कुछ दिनों तक नहीं आई थी. उस ने और मां ने ही मिल कर घर के सभी काम किए थे, वाणी के कमरे का  झाड़ूपोंछा व सफाई भी वह करती आ रही थी, वाणी और भाई के कपड़े भी घरभर के कपड़ों के साथ उस ने ही धोए थे. सुबहशाम की चाय वाणी के कमरे तक पहुंचाना भी उस ने अपने काम में शुमार कर लिया था.

सारा वक्त उसे गंभीरतापूर्वक अपना शोध प्रबंध लिखने में व्यस्त देख भावना करीने से उस की थाली सजा उस के कमरे में ही उसे गरमागरम फुलका खिलाया करती थी. लेकिन न जाने वह लड़की किस मिट्टी की बनी हुई थी, इन सब अपनत्व, ममताभरे हावभावों के बावजूद वाणी इस लगाव की भाषा को सम झ नहीं पा रही थी.

एक दिन वाणी के कमरे की सफाई करते समय भावना की नजर उस के गले में पड़ी एक सुंदर नाजुक चेन पर पड़ गई. और वह बोल उठी थी, ‘वाणी, यह चेन कब बनवाई तुम ने? इस की गठन तो बहुत बारीक और सुंदर है,’ वह  झट बोल उठी थी, ‘यह चेन तो मेरी मौसी का उपहार है, जिसे देते समय उन्होंने कहा था कि यह चेन तुम्हें मेरी याद दिलाती रहेगी.’

वाणी ने किसी काम से अपनी अलमारी खोली और भावना की नजर उस की एक बहुमूल्य आकर्षक साड़ी पर पड़ गई. उस के मुंह से हठात ही निकल पड़ा, ‘यह साड़ी भी तुम्हारी विदेशी लगती है. यहां न तो यह कपड़ा मिलने वाला है और न ही यह अद्भुत रंग संयोजन.’

भावना की इस टिप्पणी पर वाणी ने कहा था, ‘दीदी, यह विशुद्ध मलमल सिल्क की है. यह मेरी भाभी ने शादी के तोहफे के रूप में दी है. यह कहते हुए कि इन्हें मैं किसी भी हालत में किसी को भेंट में न दूं. कोई मांगे, तो भी नहीं.’

वाणी की बातों को सुन कर इस बार भावना के जेहन में जोरों की घंटी बज उठी थी, ‘यह क्या, कहीं वाणी अपनी चीजों की प्रशंसा को मेरी अप्रत्यक्ष फरमाइश तो नहीं रही.’

वाणी की इन टिप्पणियों को सुन कर भावना दिनभर इसी उधेड़बुन में खोई रही. वह अपने उच्च जहीन परिवार की उच्चशिक्षित लड़की और इतनी रुग्ण मानसिकता. इसीलिए तो बड़ेबुजुर्गों द्वारा तय किए हुए विवाहों को जुआ कहा जाता है. अच्छे स्वभाव का जीवनसाथी मिल गया तो अच्छी बात, वरना जिंदगीभर सिर पकड़े बैठे रहिए और जीवनसाथी के बेमेल अभाव से तालमेल बैठाते रहने की कोशिश में एक असहज जीवन जीने का अभिशाप ढोते रहिए. भाई के लिए मन पीड़ा से भर आया था कि वह जीवन को ताउम्र कैसे निभा पाएगा?

इन कुछ ही दिनों में भावना ने वाणी का स्वभाव अच्छी तरह से परख लिया था और कहा था कि वाणी के साथ निभाने की भरसक कोशिश उसे ही करनी होगी और अत्यधिक धैर्य व सहिष्णुता के साथ उसे उस का मन जीतने के प्रयास करने होंगे. मां को भी उस ने यह बात भलीभांति सम झा दी थी.

आखिर रक्षाबंधन का दिन आ ही गया. बड़े लाड़ से उस ने भाई की कलाई पर सुंदर राखी बांध असीम स्नेहभाव से उस के माथे को चूम लिया था. वाणी की चूड़ी में भी सुंदर सा रेशमी जरी के काम वाला लुंबा बांध उस के माथे पर भी उस ने सहजस्नेह भाव से अपना स्नेह अंकित कर दिया था.

सदा की ही भांति भाई ने राखी बंधवाई थी. एक सुंदर सी बहुमूल्य साड़ी उसे भेंट में दी थी और भावना ने भी भैयाभाभी को अपने तोहफे देने का यही सही मौका सम झ अपने लाए उपहार दोनों को थमा दिए थे. भाई

तो खैर सदा से ही उस के तोहफे बड़ी खुशीखुशी स्वीकार करता आया था.

शादी से पहले तो वह बहन से अपनी मनपसंद चीजों को मांग लिया करता था. लेकिन न जाने क्यों, मोतियों का इतना सुंदर जड़ाऊ सैट पा कर भी वाणी खुश होने के बदले, न जाने किस सोच में डूब गईर् थी. उस को खुश न देख कर भावना पूछ बैठी थी, ‘क्या हुआ वाणी, क्या यह सैट पसंद नहीं आया? आजकल तो इस का बहुत फैशन है.’

वाणी के जवाब ने उन सभी को अचंभित कर दिया था, ‘दीदी, रक्षाबंधन पर तो हमारा आप को उपहार देना जंचता है. यों मु झे इतना कीमती तोहफा दे कर तो आप भाई के सिर पर अपना बो झ लाद रही हो. अब आप हुईं हमारी ननद. आप के उपहार के बदले में भी तो अब हमें कुछ देना ही पड़ेगा न. आप हमारे लिए इतने महंगे तोहफे, उपहार न ही लाया करो तो अच्छा रहेगा.’ और फिर अक्षत की ओर मुखातिब हो कर वह बोली थी, ‘देखो जी, ननदजी को देने में जरा भी कोताही मत बरतना, क्योंकि मैं नहीं चाहती कि कोई यह कहे कि भाभी ने आ कर भाई को पट्टी पढ़ा दी.

‘मेरी तरफ से तुम्हें खुली छूट है, अपनी बहनों को जो चाहे दो. मैं कभी तुम्हारे आड़े आने वाली नहीं, बहनों का तो बस एक ही रिश्ता होता है भाइयों से और वह है लेने का. तुम्हारे माथे तो 5 बहनें हैं. अब निबाहना तो होगा ही उन्हें, चाहे जी कर, चाहे मर कर.’

सहज स्नेह के प्रतीक उन उपहारों के बदले इतनी कड़ी आलोचना सुननी पड़ेगी, भावना ने यह कभी सपने में भी नहीं सोचा था. इसीलिए वहां खड़े मां, बाबूजी, भाई सभी के सभी हतप्रभ हो उठे थे.

उसी दिन शाम को घर वापस लौटने के लिए उस ने अपना सामान बांधना शुरू कर दिया था. भाई के कमरे के सामने से गुजरते हुए अनायास ही वाणी के कठोर शब्द कानों में पड़े थे, ‘क्यों जी, यह दीदी क्या हमेशा यों ही इतने महंगे उपहार देदे कर जाती हैं? फिर तो वापसी में इन्हें भी इतने महंगे उपहार देने की आफत आती होगी. देखोजी, एक बात ध्यान से सुन लेना, मैं अपने मायके से लाईर् चीजों में से एक तिनका भी नहीं देने वाली. इन लोगों को जो कुछ भी लेनादेना हो, उसे तुम्हें अपनी तनख्वाह से ही देना होगा.’

तभी अक्षत के तीखे स्वर कानों में पड़े थे, ‘यह क्या, तुम दीदी के लाड़प्यार को लेनदेन के तराजू पर तोलने लगीं? इस घर में आज तक तो हम ने दीदी के इतने प्यारभरे तोहफों को कभी इस दृष्टिकोण से नहीं सोचा कि इन्हें दे कर दीदी ने अपना बो झ हम पर लाद दिया. स्नेहभरे इन तोहफों में लिपटी अपनत्व और प्यार की खुशबू भी पहचानना सीखो, इन से जुड़ी उन के निश्च्छल प्यार की अनमोल भावनाओं को पहचानना सीखो. लेनदेन में मिलने वाली बेहिसाब खुशियों की सुखद अनुभूति की पहचान करना सीखो, नहीं तो जीवनभर बस, उस की कीमत के जोड़घटाव में ही अपना समय जाया कर बैठोगी.’

भाई के मुंह से अपनी ममता का सही मोल आंके जाने के सुखद एहसास ने भाभी के कड़वे स्वरों से उमड़ आए आंखों के आंसुओं को भीतर ही भीतर सुखा डाला था.

भाई के विवाह के बाद पड़े पहले रक्षाबंधन की कटु यादें उस की स्मृति में हमेशा जीवन के कड़वे अनुभवों में शायद सदैव सब से ऊपर दर्ज रहेंगी. इस बार करीब 2 वर्षों की लंबी अवधि बीत जाने पर भाई के साथ भाभी के न्योते का भी मनुहारभरा खत पा उस का मन रक्षाबंधन का त्योहार वहीं मनाने के लिए मचल उठा था. सो, 2 दिनों के संक्षिप्त प्रवास की तैयारी कर वह भाई के घर पहुंच गईर् थी.

वे 2 दिन कितनी जल्दी बीत गए थे, वाणी को पता भी न चला था. हां, इस बार यह जरूर गनीमत रही थी कि संक्षिप्त मायके प्रवास से वह किसी खास अप्रिय कड़वे अनुभव की सौगात साथ नहीं लाई थी. हमेशा की तरह भाई के लिए उस ने एक बहुत सुंदर सा स्वेटर खरीदा था. लेकिन पिछली बार के कटु अनुभव से सबक सीख उस ने वाणी के लिए कोई भी उपहार, महंगा या सस्ता, नहीं खरीदा था.

भाई का उपहार तो उस ने मौका देख अकेले में उसे थमा दिया था. रक्षाबंधन वाले दिन भाई और भाभी को राखी बांध भाभी को उपहारस्वरूप उस ने एक सुंदर और काफी कम कीमत का हलका सा चांदी का सैट उपहार में दिया था. मां इस बार घर पर नहीं थीं. सो, चलते वक्त भाभी ने उसे एक सोने की गिन्नी थमाई थी यह कहते हुए, ‘‘इस बार आप 2 साल बाद आई हो. जाते वक्त मांजी यह गिन्नी मु झे आप को देने के लिए कह गई थीं.’’

वाणी से विदा लेते वक्त उस के द्वारा भेंटस्वरूप दी गई गिन्नी उस ने वाणी की मुट्ठी में हौले से सरका दी थी यह कहते हुए, ‘‘भाभी, आजकल हम जरा तंगी में चल रहे हैं, तो कोई खास उपहार आप के लिए नहीं जुटा पाई. मेरी तरफ से यही रखो, मेरी प्यारभरी सौगात सम झ कर.’’

2 दिनों के संक्षिप्त प्रवास की यादों में डूबतउतराते वापसी की यात्रा आंखों ही आंखों में कट गई थी. घर पहुंच पति का खुशनुमा सान्निध्य भी पिछले दिनों की यादों को अवचेतन में धकेल पाने में असमर्थ रहा था. तभी शाम को फोन की घंटी घनघनाई थी और फोन पर वाणी की आवाज ने भावना को आश्चर्य के सुखद एहसास से चौंका दिया था, ‘‘दीदी, ठीकठाक पहुंच गईं न. इस बार तो आप का आना न आना बराबर ही रहा. कहीं मायके में भी बस 2 दिनों के लिए आया जाता है? अब दशहरे पर आप को जीजाजी के साथ यहां आना है, पूरे महीनेभर के लिए, जिस से कि फुरसत से आप के साथ का आनंद उठा सकूं. दीदी, प्लीज, वादा कीजिए कि आप जरूर आएंगी. बोलो न दीदी, आओगी न?’’

वाणी के सरस मिश्री से घुले स्वर कानों में मधुर घंटी से घनघना उठे. भर्राए स्वरों से भावना बस यही कह सकी थी, ‘‘हां री, तू इतने प्यार से बुलाए और मैं न आऊं, यह भी कभी हो सकता है? दशहरे की छुट्टियों में हम जरूर आएंगे.’’ ठूंठ से सूखे एक नए रिश्ते को अपनी ममता के धूपपानी से सींच और बदले में उसे अपनत्व की हरियाली से हराभरा देख भावना का खोया विश्वास एक बार फिर से निस्वार्थ प्यार की तिलिस्मी गुणात्मक ताकत में पुख्ता हो उठा था.

सहारा: क्या बेटे के लिए पति के पास लौट पाई वंदना

औफिससे निकल कर वंदना उस शुक्रवार की शाम को करीब 6 बजे क्रेच पहुंची तो पाया कि उस का 5 वर्षीय बेटा राहुल तेज बुखार से तप रहा था.

अपने फ्लैट पर जाने के बजाय वह उसे ले कर सीधे बाल रोग विशेषज्ञ डाक्टर नमन के क्लीनिक पहुंची. वहां की भीड़ देख कर उस का मन खिन्न हो उठा. उसे एहसास हो गया कि

8 बजे से पहले घर नहीं पहुंच पाएगी. डाक्टरों के यहां अब फिर कोरोना के बाद भीड़ बढ़ने लगी थी.

कुछ देर बाद बेचैन राहुल उस की गोद में छाती से लग कर सो गया. एक बार को उस का दिल किया कि अपनी मां को फोन कर के बुला ले, लेकिन वह ऐसा कर नहीं पाई. उन का लैक्चर सुन कर वह अपने मन की परेशानी बढ़ाने के मूड में बिलकुल नहीं थी.

वंदना की बड़ी बहन विनिता का फोन 7 बजे के करीब आया. राहुल के बीमार होने की बात सुन कर वह चिंतित हो उठी. बोली, ‘‘तुम खाने की फिक्र न करना, वंदना. मैं तुम मांबेटे का खाना ले आऊंगी.’’

विनिता की इस पेशकश को सुन वंदना ने राहत महसूस करी.

डाक्टर नमन ने राहुल को मौसमी बुखार बताया और सलाह दी, ‘‘बुखार से जल्दी छुटकारा दिलाने के लिए राहुल को पूरा आराम कराओ और हलकाफुलका खाना प्यार से खिलाती रहना. जरूरत पड़े तो मुझे फोन कर लेना. और हां एहतियातन कोविड टैस्ट करा लो ताकि कोई शक न रहे.’’

कैमिस्ट के यहां से दवाइयां ले कर

फ्लैट पर पहुंचतेपहुंचते उसे

8 बज ही  गए. उस ने पहले राहुल को दवा पिलाई. फिर उसे पलंग पर आराम से लिटाने के बाद अपने लिए चाय बनाने के लिए रसोई में चली आई. अपने तेज सिरदर्द से छुटकारा पाने

के लिए चाय के साथ दर्दनिवारक गोली खाना चाहती थी.

चाय उस ने बना तो ली, पर उसे पूरी न

पी सकी क्योंकि ढंग से पीना उसे नसीब नहीं हुआ. राहुल ने उलटी कर दी थी. जब तक

उस ने उस के पकड़े बदलवाए और फर्श साफ किया, तब तक चाय पूरी तरह से ठंडी हो

चुकी थी.

उसे लगा कि वह अचानक रो पड़ेगी, लेकिन आंखों से आंसू बहें उस से पहले ही विनिता अपने पति सौरभ के साथ वहां आ

पहुंची.

‘‘तुम अब राहुल के पास बैठो. मैं खाना गरम कर के लाती हूं,’’ कह तेजतर्रार स्वभाव वाली विनिता ने फौरन कमान संभाली और काम में जुट गई.

करीब 10 मिनट बाद वंदना की मां कांता भी अपने बेटे विकास और बहू अंजलि के साथ वहां आ गईं.

कांता ने फौरन राहुल को अपनी गोद में उठा कर छाती से लगाया तो वह अपनी नानी को देख कर खुश हो गया.

‘‘आप रात को मेरे पास ही रुकना और मैं खाना भी आप के हाथ से ही खाऊंगा. दादी की तरह आप भी खाना खिलाते हुए मुझे अच्छी सी कहानी सुनाना.’’

टिंडों की तरी वाली सब्जी के साथसाथ

1 फुलका खा कर राहुल अपनी नानी की

बगल में सो गया. वंदना अपने भैयाभाभी, बहन

व जीजा के साथ ड्राइंगरूम में आ बैठी.

हमेशा की तरह विकास और विनिता वंदना के ससुराल छोड़ कर अकेले फ्लैट में रहने की

बात को ले कर 10 मिनट के अंदर ही आपस में भिड़ गए. होने वाली इस बहस में सौरभ अपनी पत्नी का और अंजलि अपने पति का साथ दे

रही थी.

अपने सिरदर्द की तेजी से परेशान वंदना चाहती थी कि वे चारों चुप हो जाएं, पर वह इन बड़ों को चुप करने की हिम्मत अपने अंदर पैदा नहीं कर पाई.

‘‘किसी भी तकरार को जरूरत से ज्यादा लंबा खींचना अच्छा नहीं होता है, वंदना. तुम्हें अपना घर छोड़ कर इस फ्लैट में राहुल के साथ रहते हुए करीबकरीब 2 महीने हो चुके हैं. अरुण तुझे बुलाबुला कर थक गए हैं. अब तू सम?ादारी दिखा और वापस लौट जा.’’

विकास की वंदना को दी गई ऐसी सलाह को सुनते ही विनिता भड़क उठी, ‘‘बेकार की सलाह दे कर उस के सब किएकराए पर पानी मत फिरवाओ भैया,’’ विनिता फौरन उस से उल?ाने को तैयार हो गई, ‘‘वंदना ने ससुराल के नर्क में वापस लौटने को अलग रहने का कदम नहीं उठाया था. रातदिन की टोकाटाकी… रोजरोज

का अपमान… अरे, 7 साल बहुत लंबा समय होता है यों मन मारमार कर जीने के लिए. अगर अरुण को अपनी पत्नी व बेटे के साथ रहना है, तो उसे अब अलग होने का निर्णय लेना ही होगा. वंदना किसी कीमत पर वापस लौटने की मूर्खता नहीं दिखाएगी.’’

‘‘तुम ने ही इसे भड़काभड़का कर इस का दिमाग न खराब किया होता, तो आज यह अपने पति से यों दूर न रह रही होती,’’ विकास का स्वर शिकायती कड़वाहट से भर उठा.

‘‘भैया, विनिता पर गलत आरोप मत लगाइए,’’ सौरभ ने फौरन अपनी पत्नी का पक्ष फौरन लिया, ‘‘हम दोनों वंदना का साथ दे रहे हैं. अलग फ्लैट में रहने का फैसला उस का अपना

है और देख लेना वह जल्दी ही अपने मकसद को पा लेगी.’’

‘‘तुम्हें लगता है कि अरुण दबाव में आ कर अपने घर से अलग होने को तैयार हो जाएगा?’’

‘‘बिलकुल. अरे, अपने बीवीबच्चे से दूर रहना आसान नहीं होता है.’’

‘‘मैं आप से सहमत नहीं हूं, जीजाजी,’’ अंजलि ने अपना मत व्यक्त किया, ‘‘अरुण जीजाजी अपने घर वालों के साथ बड़ी मजबूती से जुड़े हुए हैं. उन की छोटी बहन कुंआरी घर में बैठी है. जब तक उस की शादी नहीं हो जाती, तब तक उन के अलग होने का सवाल ही नहीं उठता है.’’

‘‘अपने घर वालों के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को वह घर से अलग रहते हुए क्या पूरी नहीं कर सकता है? और क्या वंदना को खुश और सुखी रखना उस की सब से पहली जिम्मेदारी नहीं होनी चाहिए?’’

विनिता के इस सवाल के जवाब में विकास और अंजलि को खामोश रहना पड़ा.

अरुण और वंदना के बीच बिगड़े रिश्ते के विभिन्न पहलुओं की चर्चा उन चारों के बीच चलती रही थी. वंदना ने कठिनाई से 1 फुलका खाया और अपने सिरदर्द से लड़ते हुए मजबूरन उन सब के बीच बैठी रही. रहरह कर उस का मन अतीत की यादों में घूम आता था. इन सब लोगों के बीच चल रही बहस में उस की ज्यादा रुचि नहीं थी क्योंकि वह इन की दलीलें पहले भी कई बार सुन कर पक चुकी थी.

जब वे चारों घंटेभर बाद भी चुप होने को तैयार नहीं हुए, तो हार कर वंदना ने थके

स्वर में हस्तक्षेप किया, ‘‘ससुराल छोड़ कर यहां अलग रहने का मेरा फैसला गलत था या ठीक, इस विषय पर अब बहस करने का क्या फायदा है? किसी को भी परेशान होने की जरूरत नहीं है. भविष्य में मेरे इस कदम के कारण जो भी नतीजा निकलेगा उस की जिम्मेदार मैं सिर्फ खुद को मानूंगी किसी और को नहीं.’’

‘‘तू अकेली नहीं हैं, हम तेरे साथ है,’’ उस का कंधा हौसला बढ़ाने वाले अंदाज में दबा कर विनिता अपने घर जाने को उठ खड़ी हुई.

‘‘अरुण को राहुल की बीमारीकी खबर दे देना,’’ ऐसी सलाह दे कर विकास भी जाने को उठ खड़ा हुआ.

‘‘मां को सुबह यहां छोड़ जाना. मेरे

औफिस में क्लोजिंग चल रही है. कल शनिवार को भी मुझे औफिस जाना है,’’ वंदना की इस बात को सुन कर विकास के माथे पर बल

पड़ गए.

‘‘कल तो अंजलि के मम्मीडैडी के यहां हमारा लंच है. मां भी हमारे साथ जाएंगी,’’ विकास ने जानकारी दी.

‘‘तू राहुल को मेरे पास छोड़ जाना,’’  विनिता ने समस्या का समाधान बताया.

‘‘नहीं, यह ठीक नहीं रहेगा. अगर कहीं कोविड हुआ तो बुखार अमित और सुमित को भी पकड़ लेगा. मम्मी को ही अंजलि के घर जाना कैंसिल कर के यहां रहने आना चाहिए,’’ सौरभ ने कुछ ऐसे कठोर, शुष्क लहजे में अपनी बात कही कि विनिता अपने पति की बात का आगे विरोध नहीं कर सकी.

‘‘मैं तो रात को भी रुक जाती, पर न मैं अपनी दवाइयां लाई हूं और न कहीं और मुझे

ढंग से नींद आती है. राहुल का बुखार अब

कम है. मेरे खयाल से वह सुबह सोता रहेगा. सुबह मैं जल्दी आ जाऊंगी,’’ कांता भी अपने बहूबेटे के साथ लौट जाने को तैयार नजर आईं. तब वंदना ने उन्हें रुक जाने को एक बार भी

नहीं कहा.

उन सब के जाने के बाद वह राहुल के

पास उस का हाथ पकड़ कर बैठ गई. अपने

बेटे के चेहरे को निहारतेनिहारते अचानक उस

के सब्र का बांध टूट गया और वह सुबकसुबक कर रोने लगी.

काफी देर तक बहे आंसू उसे अंदर तक खाली कर गए. खुद को बहुत थकी और निढाल सा महसूस करती हुई वह राहुल की बगल में लेटी और फिर कब उस की आंख लग गई उसे पता ही नहीं चला.

सुबह उस के मोबाइल पर कोविड की नैगेटिव रिपोर्ट आ गई तो चैन की सांस ली.

वह जब 7 बजे के  करीब उठी तो खुद को

काफी फिट महसूस कर रही थी. राहुल का

बुखार कम देख कर भी उस ने काफी राहत महसूस करी.

वंदना 8 बजे औफिस जाने को निकलती थी, पर उस की मां इस वक्त तक उस के घर नहीं पहुंचीं. उस के 2-3 बार फोन करने के बाद वे विकास के साथ 9 बजे के करीब आईं.

देर से आने को ले कर वंदना अपने भाई और मां से लड़ पड़ी. जवाब में कांता ने तो

नाराजगी भरी चुप्पी साध ली, पर विकास ने उसे खरीखोटी सुना दी, ‘‘अरे, अगर आज छुट्टी के दिन घंटाभर देर से पहुंच जाएगी, तो कोई मुसीबत का पहाड़ नहीं टूट पड़ेगा तेरे औफिस पर. नौकरी करने वाली औरतों का दिमाग हमेशा खराब ही रहता है. तुम सब यह क्यों सोचतीं कि तुम्हारा नौकरी करना सब पर बहुत बड़ा एहसान है और अब हर आदमी को तुम्हारे आगेपीछे जीहजूरी करते हुए घूमना चाहिए?’’

विकास का ऐसा जवाब सुन कर वंदना को भी गुस्सा आ गया और फिर दोनों के बीच अच्छीखासी कहासुनी हो गई.

वंदना औफिस घंटाभर देर से पहुंची, तो उसे अपने बौस से भी लैक्चर सुनने को मिला. ज्यादातर लोग वर्क फ्रौम होम कर रहे थे पर कुछ कामों के लिए खुद दफ्तर में मौजूद रहना होता है. उस वजह से काम का बो?ा बहुत बढ़ जाने के कारण उसे अपनी परेशानियों पर ज्यादा सोचविचार करने का वक्त तो नहीं मिला, लेकिन मन खिन्न ही बना रहा.

दिनभर में वह 2 बार ही अपनी मां से बातें कर के राहुल का हाल पूछ पाई. उस का बुखार दवाइयों के कारण ज्यादा नहीं बढ़ा था. राहुल से उस की बात नहीं हुई क्योंकि वह दोनों बार सो रहा था.

लंच में उस के मोबाइल पर अरुण का फोन आया. जब से वह अलग फ्लैट में रहने लगी थी तब से उन दोनों के बीच बड़ा खिंचाव सा पैदा हो गया था. दोनों ने खुल कर एकदूसरे से दिल की बातें करना बंद सा कर दिया था.

राहुल के बीमार पड़ने की बात सुन कर अरुण चिंतित हो उठा.

‘‘उस की फिक्र न करो. मां मु?ा से ज्यादा अच्छे ढंग से उस का ध्यान रख रही हैं?’’ वंदना ने यों रुखा सा जवाब दे कर राहुल की बीमारी की चर्चा को ?ाटके से बंद कर दिया.

चाह कर भी वह औफिस से जल्दी नहीं निकल पाई. शाम को 6 बजे जब वह घर पहुंची, तो अरुण को राहुल के साथ ड्राइंगरूम में खेलते देख मन ही मन चौंक पड़ी.

अरुण ने तो इस फ्लैट में कभी कदम न रखने का प्रण कर रखा था. यहां अलग रहने के उस के फैसले से वह सख्त नाराज जो हुआ था.

राहुल उसे देखते ही उस से लिपट गया. फिर बड़े जोशीले अंदाज में अपने पापा द्वारा लाई रिमोट से चलने वाली कार उसे दिखाने लगा.

कांता 3 कप चाय बना लाई थीं. सभी आपस में बातें न कर के राहुल से वार्त्तालाप कर रहे थे. उन तीनों के ध्यान का केंद्र बन कर राहुल खूब हंसबोल रहा था.

चाय पीने के बाद वंदना बैडरूम में कपड़े बदलने चली गई. नहाधो कर वह तरोताजा महसूस करती जब ड्राइंगरूम में लौटी, तो अरुण विदा लेने को उठ खड़ा हुआ.

‘‘पापा, आप मत जाओ, प्लीज,’’ राहुल अपने पापा के गले में बांहें डाल कर रोआंसा सा हो उठा.

‘‘मैं फिर आ जाऊंगा, मेरे शेर. तुम टाइम से दवा खा लेना और मम्मी व नानी को तंग मत करना. तुम ठीक हो गए, तो कल मैं तुम्हें बाजार घुमाने भी ले चलूंगा,’’ राहुल का माथा चूम कर अरुण ने उसे प्यार से सम?ाया.

‘‘आप कुछ देर बाद चले जाना. मैं किचन का चक्कर लगा कर आती हूं,’’ वंदना के इस आग्रह में इतना आत्मविश्वास और अपनापन भरा था कि अरुण से कुछ कहते नहीं बना और वह खामोशी से वापस सोफे पर बैठ गया.

कांता अपने घर से खाना बना लाने को तैयार थीं, पर वंदना ने उन्हें मना

कर दिया. वे अपनी बेटी के व्यवहार को समझ नहीं पा रही थी. वंदना का शांत, गंभीर चेहरा

उस के मनोभावों को पूरी कुशलता से छिपा

रहा था.

‘‘आज अरुण ठीक मूड में लग रहा है. तू प्यार और शांति से उसे अलग घर में रहने को राजी करने की कोशिश दिल से करेगी, तो वह जरूर मान जाएगा,’’ बारबार इस सलाह को दोहरा कर कांता गाड़ी मंगा कर अपने घर 7 बजे के करीब पहुंच गईं.

राहुल और अरुण एकदूसरे के साथ खेलने में मग्न थे. वंदना अधिकतर समय रसोई में रही. उस ने सब्जी और रायता तैयार कर चपातियां बनाईं और खाना मेज पर लगा दिया.

उस दिन वह बड़े हलकेफुलके अंदाज में अरुण से बोल रही थी. शिकवेशिकायतें

एक बार भी उस की जबान पर नहीं आईं.

अरुण भी कुछ देर बाद सहज हो गया.

उस ने अपनी छोटी बहन अंजु के रिश्ते की

बात कहांकहां चल रही थी, उस की जानकारी वंदना को दी. दोनों ने अपनेअपने औफिस से जुड़ी जानकारी का आदानप्रदान किया. दोस्तों

व रिश्तेदारों के साथ घटी घटनाओं की चर्चा करी. कुल मिला कर उन के बीच लंबे समय के बाद 2 घंटे का समय बिना तकरार और झगड़े के बीता. भोजन हो जाने के बाद बरतन समेट कर वंदना रसोई में चली गई.

राहुल और अरुण फिर से कार के साथ खेलने लगे. दोनों इतने खुश थे कि उन्हें वंदना

की अनुपस्थिति का डेढ़ घंटे तक एहसास ही

नहीं हुआ.

अरुण के ऊंची आवाज में पुकारने पर वंदना शयनकक्ष से निकल कर ड्राइंगरूम में आ गई.

‘‘अब मैं चलता हूं. 9 बज चुके हैं,’’ राहुल को गोद से उतार कर अरुण खड़ा हो गया.

कोई जवाब न दे कर वंदना वापस बैडरूम में चली गई, तो अरुण की आंखों में हैरानी और उलझन के मिलेजुले भाव उभर आए.

वंदना 1 बड़े सूटकेस को पहियों पर चलाती जब फौरन लौटी, तो अरुण चौंक पड़ा.

‘‘चलो,’’ वंदना ने सूटकेस को मुख्य द्वार की तरफ धकेलना जारी रखा.

‘‘तुम साथ चल रही हो?’’

‘‘हां.’’

वंदना का जवाब सुन कर राहुल खुशी से तालियां बजाता अपने पिता की गोद में चढ़ कर उछलने लगा.

‘‘यों अचानक… मैं बहुत हैरान भी हूं और बेहद खुश भी,’’ अरुण ने प्यार से राहुल का माथा चूम लिया.

वंदना अरुण का हाथ अपने हाथों में ले कर भावुक लहज में कहने लगी, ‘‘अपना घर छोड़ कर इस तरह लौट आने पर दोनों नहीं तीनों ही खुश थे.’’

तुम्हारी सास: भाग 3- क्या वह अपने बच्चे की परवरिश अकेले कर पाई?

यह सुन मांजी को भी हंसी आ गई और कहा, ‘‘अरे बेटा हर मां अपने बच्चों के अच्छे के लिए सीख देती है. लाओ ब्लाउज मु?ो दे दो, हुक मैं लगा देती हूं. तुम्हें देर हो रही है… बबलू की बस निकल गई तो फिर तुम्हें ही स्कूल तक छोड़ना पड़ेगा.’’ इसी बीच बबलू स्कूल के लिए तैयार हो गया था. मांजी ने उसे नाश्ता दे दिया और पूछा, ‘‘बेटा, आज किस सब्जैक्ट का टैस्ट है?

‘‘अंगरेजी का दादी.’’

रेखा ने तैयार हो कर बबलू को आवाज लगाई, ‘‘चलो बेटा. मांजी आप नाश्ता कर लेना, मैं निकलती हूं.’’

‘‘बहू, तुम ने अपना लंच नहीं लिया?’’

‘‘नहीं मांजी आज बहुत देर हो गई… औफिस में ले कर कुछ खा लूंगी. बस तो निकल गई होगी मम्मी. घड़ी देखो, अब आप को ही छोड़ना पड़ेगा,’’ बबलू बोला.

‘‘उफ,’’ रेखा के मुंह से निकला.

मांजी बोली, ‘‘कल से मु?ो ही ध्यान करना पड़ेगा, लंच मैं पैक कर दिया करूंगी.’’

‘‘नहीं मांजी, ऐसा मत करना, मैं खुद ही पैक कर लिया करूंगी, आज थोड़ी देर हो गई, कल से सबकुछ समय से मैनेज कर लूंगी.’’

‘‘बेटा, मैं भी तो तुम्हारी मां जैसी हूं, अगर वे अपनी बेटी को इधरउधर दौड़तेभागते देखतीं तो वे भी ऐसे ही करती… सुबह के समय 50 काम होते हैं.’’

‘‘मांजी आप तो मेरी मां से भी बढ़ कर हैं. मेरी मां तो मु?ो 4 बातें सुना देतीं, कहतीं यहां तो बनाबनाया मिल रहा है बेटी. ससुराल में खुद ही बनाना होगा और खुद ही पैक करना होगा, अभी से आदत सुधार लो वरना ससुराल में कौन करेगा, तुम्हारी सास?’’ यह कह रेखा के चेहरे पर फिर मुसकान तैर गई और फिर आगे बोली, ‘‘हर काम में मेरी मां मु?ो सास का पहाड़ा याद करवा देती थीं.’’

‘‘अरे बेटा, पुरानी कहावत है कि सास तो मिट्टी की भी बुरी.’’

‘‘मांजी, इस रिलेशन में तो मैं बहुत खुश हूं.’’

‘‘बेटी, तुम दोनों ही मेरी दुनिया हो. मेरा बेटा, बहू  और बेटी तुम हो.’’

तभी बबलू ने दादी को चूमा, ‘‘ठीक है दादी, हम आ कर मिलते हैं.’’ दोपहर बाद बबलू स्कूल से आ गया. बहुत खुश था. दादी ने कहा, ‘‘बेटा बहुत खुश हो क्या बात है?’’

‘‘अरे, दादी भूल गईं, आज मम्मी का जन्मदिन है… उन्हें सरप्राइज देना है.’’ बबलू ने खाना खा लिया था. हाथ धो कर दादीपोते में मीटिंग हुई. बबलू ने कहा, ‘‘दादी, मम्मी सोच रही होंगी कि किसी को मेरा जन्मदिन याद नहीं रहा… हम उन्हें सरप्राइज देंगे.’’ ‘‘हां बेटा, डिनर बाहर करेंगे, तुम्हें भी अच्छा लगेगा. अब तुम घर डैकोरेट करो, मु?ा से चढ़ाउतरा नहीं जाएगा, यह काम आप का.’’

‘‘ठीक है.’’

‘‘मम्मी को पिंक रंग बहुत पसंद है. मैं

पिंक रंग की साड़ी पैक कर देती हूं… मम्मी को अच्छा लगेगा और उस के लिए सूजी का शीरा बना देती हूं.’’

‘‘ठीक है दादी, मैं मम्मी के लिए ग्रिटिंग लिखता हूं, दादी क्या लिखूं ग्रिटिंग में?’’ लिखो बेटा…

‘‘फूल में जिस तरह खुशबू अच्छी लगती है,

मु?ो उसी तरह अपनी मां अच्छी लगती है,

जन्मदिन मुबारक हो मेरी प्यारी मां…’’

‘‘अरे, वाह दादी यू आर ग्रेट. अब मजा आएगा… याहू.’’ बर्थडे म्यूजिक भी लगा दो बेटा, मम्मी आज जल्दी औफिस से आ जाएंगी. गेट खुलते ही म्यूजिक चला देना.

‘‘उधर रेखा औफिस से जल्दी उठ गई. सोचने लगी आज के दिन क्या ले कर जाया जाए, फिर सोचा चलो घर से और्डर कर मंगा लेंगे, यही सोचतेसोचते घर पहुंच गई. जैसे ही घंटी बजी, गेट खुला, रेखा की आंखें फटी और मुंह खुला का खुला रह गया कि तो यह बात थी, मैं तो सारा दिन सोचती रही कि किसी ने मु?ो विश नहीं किया तो यह सब प्रीप्लान था.’’

‘‘इसी को कहते हैं सरप्राइज मम्मी,’’ मांजी और बबलू ने विश किया. पिंक रंग की साड़ी पा कर रेखा खुश हो गई. दुख था कि विपुल साथ में नहीं थे.

बहू को उदास होते देख मांजी ने कहा, ‘‘बेटा, घाव जितना कुरेदोगी उतना और उभर कर आएगा, हर अगला दिन नई उम्मीद ले कर आता है बेटी. मन का क्या है वह तो खाली डब्बा है, जैसा हम बनाएंगे वैसा ही बन जाएगा. चलो, बी हैप्पी… आज डिनर बाहर करेंगे, हम सब का मन बहल जाएगा, बबलू भी खुश हो जाएगा.’’ फिर वे डिनर के लिए एक अच्छे रैस्टोरैंट में गए, बबलू बहुत खुश था. रेखा खाने का और्डर कर रही थी तो पीछे से आवाज आई, ‘‘हाय रेखा.’’ रेखा ने घूम कर देखा, उस का कालेज का फ्रैंड सुमित था.

सुमित को देख रेखा के चेहरे पर एक चमक सी आ गई. सुमित रेखा का अच्छा दोस्त हुआ करता था. वह अपने मन की हर बात उस से शेयर कर लिया करती थी. विपुल के गुजर जाने के बाद ऐसा कोई नजर नहीं आया जिस के आगे अपने आंसू बहाए. मांजी देखने लगीं कि कौन हो सकता है?

‘‘मांजी, यह मेरा कालेज का फ्रैंड सुमित.’’

फिर उन्हें रेखा ने खड़े हो कर पूछा, ‘‘सुमित, तुम यहां कैसे? व्हाट ए सरप्राइज?’’

‘‘वह मैं डिनर पर आया हूं.’’

‘‘कितने सालों बाद हम आज मिल रहे हैं. अचानक कहां गायब हो गए थे सुमित? न कोई फोन… न मिलना.’’

‘‘वह एक ट्रैजेडी हो गई मेरे साथ.’’

‘‘ट्रैजडी? क्या हुआ?

‘बताऊंगा, तुम ऐंजौय करो और तुम यहां कैसे रेखा?

‘‘हम डिनर पर आए हैं.’’

तभी बबलू बोल पड़ा, ‘‘आज मेरी प्यारी मम्मी का जन्मदिन है.’’

‘‘अच्छा जी, ‘हैप्पीबर्थ डे’ रेखा.’’

‘‘थैंक्स, आओ बैठो सुमित.’’

‘‘नहीं, फिर कभी.’’

‘‘बेटा कभीकभी मिलने घर आ जाया करो, अच्छा लगेगा. सुमित को मांजी जानती नहीं थीं, लेकिन फिर भी मांजी बोल पड़ीं. मांजी के दिमाग में बस एक ही बात रहती कोई अच्छा मैच मिल जाए तो रेखा का हाथ उस के हाथ में सौंप दूं.

सुमित ने कहा, ‘‘जी मांजी जरूर… मैं सम?ा सकता हूं… बस मैं भी परेशान था, इस बीच मिलना नहीं हो पाया,’’ इतना कह सुमित चला गया इसी बीच और्डर आ चुका था. रेखा प्लेट में सब्जी डाल ही रही थी कि मांजी बोल पड़ीं, ‘‘बहू, सुमित की शादी हो गई?’’ रेखा चौंकते हुए बोली, ‘‘यह कैसा सवाल है मांजी? क्या सोचने लगीं आप?  आप के दिमाग में क्या चल रहा है ? मैं जानना चाहती हूं.’’

‘‘कुछ नहीं बेटा, क्या करूं, इस बूढ़ी को बस तेरा खयाल रहता है.’’

‘‘इतना भी खयाल ठीक नहीं मांजी, पता नहीं क्याक्या सोचने लगती हैं आप? इन सब खयालों में कहीं ऐसा न हो एक नई चोट उभर आए.’’

‘‘घने अंधेरे के बाद ही सूरज की किरण आती है बेटा. समय की मांग यही है, समय सदा एक सा नहीं रहता. जब जीवन में किसी कारण से संतुष्टि मिलती है तो अंदर के घाव भरने लगते हैं… समय के साथसाथ बदलाव लाना जरूरी है. सही वक्त पर लिया फैसला सही होता है.’’

मांजी का हाथ अपने हाथ में थामते हुए रेखा बोली, ‘‘मांजी मैं ठीक हूं.’’

‘‘बेटी, मेरी जिंदगी का भी क्या भरोसा, मैं तुम्हें सुखी देखना चाहती हूं.’’

‘‘मांजी अगर मेरे हिस्से में सुख लिखा होता तो इस समय विपुल मेरे साथ होते.’’

‘‘बेटा कुदरत कभी किसी को कष्ट दे कर कमजोर नहीं करती बल्कि मजबूत करती है. सम?ा मेरी बात, अकेली औरत को यह समाज चैन से जीने नहीं देता.’’

‘‘मम्मी, आइस्क्रीम खानी है,’’ तभी बबलू बोला तो बात अधूरी रह गई.

‘‘मांजी आप आइस्क्रीम का कौन सा

फ्लेवर लेंगी?’’

‘‘नहीं बेटा, मेरे लिए नहीं.’’

रेखा बबलू को आइस्क्रीम वाले के पास ले गई. वहीं सुमित भी एक बच्चे के साथ खड़ा था. बातोंबातों में पता चला वह सुमित का बेटा है. सुमित ने बताया कि एक ऐक्सीडैंट में उस की पत्नी और मातापिता का देहांत हो गया. वह और बेटा बच गए. इसी वजह से वह हमारे दुख में शामिल नहीं हो पाया.

‘‘कैसे मैनेज किया होगा तुम ने सुमित? बहुत बुरा हुआ तुम्हारे साथ… मैं तो पति के बिना जीवन गुजार ही रही थी लेकिन तुम्हारे साथ इतना सबकुछ… मु?ो लगा कि मेरा दुख सब से बड़ा है, किंतु ऐसा नहीं, अगर हम दुनिया पर नजर डालेंगे तो देखेंगे दुनिया में कितने गम हैं.’’

सौतेली: क्या धोखे से उभर पाई शेफाली

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मन का बोझ: भाग 2

आशुतोष दुनियादारी का आदमी था. कुछ दिनों तक उस ने अभिषेक को कोलकाता में रोक कर रखा और उसे खर्चे के पैसे भेजता रहा. जैसे ही शीतल मायके में अपनी कोचिंग क्लासेज पूरी कर के ससुराल में आई तो वह जल्दी ही अभिषेक के पास कोलकाता जाने का सपना देखने लगी.

मगर ससुराल वालों ने तरकीब से उसे मना कर उस का बायोडाटा महिला महाविद्यालय में लगवा दिया. वहां फिजिक्स लैक्चरर की पोस्ट खाली थी. शीतल की योग्यता और अनुभव के आधार पर उस का चयन भी हो गया. अब तो शीतल को नौकरी की बेड़ी पड़ गई. कोचिंग क्लासेज के लिए आशुतोष ने नए मकान का ऊपर का कमरा खाली कर दिया. शीतल की कोचिंग क्लासेज रुड़की की तरह यहां भी बढि़या चल निकलीं. यह उस के पैरों में डाली गई दूसरी बेड़ी थी.

तब एक दिन शीतल की सासूमां ने बड़ी चालाकी से उस से कहा, ‘‘शीतल बिटिया, अब तो तेरा काम बढि़या चल निकला है. अब तो तु?ो कहीं और जाने की भी नहीं सोचनी चाहिए. मैं तो कहती हूं अभिषेक को भी यहीं बुला ले. तू यहां वह वहां. अकेलापन तो तु?ो काटता ही होगा.’’ सासूमां की बात ने शीतल के मन पर गहरा असर छोड़ा. वह भी सोचने लगी पता नहीं कोलकाता में ऐसी जौब मिले या नहीं. अभिषेक वहां की जौब छोड़ने को तैयार हो या नहीं.

शीतल ने जब इस संबंध में अभिषेक से बात की तो वह तुरंत घर वापस आने के लिए तैयार हो गया. इस तरह शीतल के ससुराल वालों की युक्ति काम कर गई. अभिषेक की घर वापसी हो गई. यहां ऐसी कोई बड़ी कंपनी या फर्म नहीं थी जो अभिषेक को इंजीनियरिंग का काम दे सकती. शीतल भी अब अभिषेक को अपने से दूर नहीं भेजना चाहती थी और सच बात तो यह थी अभिषेक खुद बाहर नहीं जाना चाहता था. वह जानता था जिस इंजीनियरिंग की डिगरी का ठुनठुना वह लिए बैठा है, वह रद्दी के टुकड़े से ज्यादा कुछ नहीं.

अपने शहर में अपनी पत्नी से छोटी नौकरी करना वह अपनी तौहीन सम?ाता था. आखिरकार वह आशुतोष के काम में ही हाथ बंटाने लगा. लेकिन महीने 2 महीने गुजरने पर भी आशुतोष ने उस की हथेली पर एक धेला तक नहीं रखा. ऐसा कब तक चलता.

एक दिन जब अभिषेक ने इस बारे में अपने पापा से कहा, ‘‘पापा मैं कब तक आप की दुकान पर नौकरों की तरह काम करता रहूंगा? आखिर उस दुकान पर मेरा भी तो कोई हक बनता है.’’ पापा ने अपना पल्ला ?ाड़ते हुए मजबूरी जता दी, ‘‘बेटा, तू तो जनता ही है कि मैं आशुतोष के सामने अपना मुंह नहीं खोलता. दुकान का

कोई हिसाबकिताब भी मेरे पास नहीं, सब आशुतोष ही देखता है. मैं तो पहले भी चूडि़यां पहनाने का काम करता था और आज भी. आशुतोष कब मालिक बन बैठा, मु?ो पता ही नहीं चला. बस इस के बदले आशुतोष मेरी और तेरी मां की 2 रोटी में कोई कमी नहीं रखता. बुढ़ापे में उस के सामने मुंह खोलूं तो शायद चैन से मिलने वाली रोटी भी छिन जाए.’’

‘‘तो पापा मैं क्या करूं? कानूनी लड़ाई लड़ूं?’’

‘‘बेटा, तू पढ़ालिखा है, अपने भाई से बैठ कर बात कर. सलाह देता हूं कानूनी लड़ाई के पचड़े में मत पड़ना. जिंदगीभर तारीख पर तारीख ही लगती रहेगी. छोटे शहर के वकील आपस में मिले होते हैं, फैसला होने नहीं देंगे और हर तारीख पर फीस वसूलेंगे. भाई से संबंध खराब होंगे वे अलग.’’ पापा की बात मान कर अभिषेक ने आशुतोष से बात की, ‘‘भैया, मैं दुकान पर आप का हाथ बंटाता हूं.’’

‘‘तो क्या हुआ? साफसाफ बोल.’’

‘‘तो भैया मु?ो भी कुछ…’’

‘‘देख अभिषेक, हम ने तेरी शादी का पूरा खर्च उठाया.’’

‘‘हां.’’

‘‘तेरी घर वाली की नौकरी लगवाई.’’

‘‘हां.’’

‘‘शीतल की कोचिंग क्लासेज के लिए ऊपर का बड़ा कमरा खाली कर दिया और तुम्हें रहने के लिए 2 कमरे भी दिए.’’

‘‘हां.’’

‘‘ये नए मकान के सब कमरे किस ने बनवाए?’’

‘‘आप ने भैया.’’

‘‘कोलकाता में तेरी नौकरी छूटने की बात छिपा कर रखी और तेरा खर्चा उठाता रहा, यह सब किस ने किया?’’

‘‘आप ने.’’

‘‘अभिषेक तु?ो शर्म आनी चाहिए. मैं ने तेरे लिए इतना कुछ किया, अब दुकान पर जरा सा सहयोग क्या करने लगा, अपना हिस्सा मांगने पर उतर आया.’’

‘‘लेकिन भैया खर्चा तो मेरा भी है.’’

‘‘अरे शीतल की आमदनी देख कितनी

है? नौकरी भी करती है और कितनी ट्यूशन पढ़ाती है.’’

‘‘लेकिन भैया वह तो उस की आमदनी है. आप क्या चाहते हो, मैं अपनी औरत के सामने हाथ फैलाऊं?’’ तब आशुतोष ने बात खत्म करते हुए कहा, ‘‘तो अभिषेक एक काम कर. दुकान तो देख मेरी है. नया मकान भी मेरा है. तू कोई और कामधंधा ढूंढ़ ले और ठिकाना भी. पुराना मकान जो खंडहर हो चुका है उस में तेरा हिस्सा है, उस में जा कर रह ले. मेरा पीछा छोड़.’’

 

एक प्रश्न लगातार: क्या कमला कर देगी खुलासा?

रजाई में मुंह लपेटे केतकी फोन की घंटी सुन तो रही थी पर रिसीवर उठाना नहीं चाहती थी सो नींद का बहाना कर के पड़ी रही. बाथरूम का नल बंद कर रोहिणी ने फोन उठाया रिसीवर रखने की आवाज सुनते ही जैसे केतकी की नींद खुल गई हो, ‘‘किस का फोन था, ममा?’’

‘‘कमला मौसी का.’’

यह नाम सुनते ही केतकी की मुख- मुद्रा बिगड़ गई.

रोहिणी जानती है कि कमला का फोन करना, घर आना बेटी को पसंद नहीं. उस की स्वतंत्रता पर अंकुश जो लग जाता है.

‘‘आने की खबर दी होगी मौसी ने?’’

‘‘कालिज 15 तारीख से बंद हो रहे हैं, एक बार तो हम सब से मिलने आएगी ही.’’

‘‘ममा, 10 तारीख को हम लोग पिकनिक पर जा रहे हैं. मौसी को मत बताना, नहीं तो वह पहले ही आ धमकेंगी.’’

‘‘केतकी, मौसी के लिए इतनी कड़वाहट क्यों?’’

‘‘मेरी जिंदगी में दखल क्यों देती हैं?’’

‘‘तुम्हारी भलाई के लिए.’’

‘‘ममा, मेरे बारे में उन्हें कुछ भी मत बताना,’’ और वह मां के गले में बांहें डाल कर झूल गई.

‘‘तुम जानती हो केतकी, तुम्हारी मौसी कालिज की प्रिंसिपल है. उड़ती चिडि़या के पंख पहचानती है.’’

‘अजीब समस्या है, जो काम ये लोग खुद नहीं कर पाते मौसी को आगे कर देते हैं. इस बार मैं भी देख लूंगी. होंगी ममा की लाडली बहन. मेरे लिए तो मुसीबत ही हैं और जब मुसीबत घर में ही हो तो क्या किया जाए, केतकी मन ही मन बुदबुदा उठी, ‘पापा भी साली साहिबा का कितना ध्यान रखते हैं. वैसे जब भी आती हैं मेरी खुशामदों में ही लगी रहती हैं. मुझे लुभाने के लिए क्या बढि़याबढि़या उपहार लाती हैं,’ और मुंह टेढ़ा कर के केतकी हंस दी.

‘‘अकेले क्या भुनभुना रही हो, बिटिया?’’

‘‘मैं तो गुनगुना रही थी, ममा.’’

मातापिता के स्नेह तले पलतीबढ़ती केतकी ने कभी किसी अभाव का अनुभव नहीं किया था. मां ने उस की आजादी पर कोई रोक नहीं लगाई थी. पिता अधिकाधिक छूट देने में ही विश्वास करते थे, ऐसे में क्या बिसात थी मौसी की जो केतकी की ओर तिरछी आंख से देख भी सकें.

इस बार गरमियों की छुट्टियों में वह मां के साथ लखनऊ जाएंगी. मौसी ने नैनीताल घूमने का कार्यक्रम बना रखा था. कालिज में अवकाश होते ही तीनों रोमांचक यात्रा पर निकल गईं. रोहिणी और कमला के जीवन का केंद्र यह चंचल बाला ही थी.

नैनी के रोमांचक पर्वतीय स्थल और वहां के मनोहारी दृश्य सभी कुछ केतकी को अपूर्व लग रहे थे.

‘‘ममा, आज मौसी बिलकुल आप जैसी लग रही हैं.’’

‘‘मेरी बहन है, मुझ जैसी नहीं लगेगी क्या?’’

इस बीच कमला भी आ बैठी. और बोली, ‘‘क्या गुफ्तगू चल रही है मांबेटी में?’’

‘‘केतकी तुम्हारी ही बात कर रही थी.’’

‘‘क्या कह रही हो बिटिया, मुझ से कहो न?’’ कमला केतकी की ओर देख कर बोली.

‘‘मौसी, यहां आ कर आप प्रिंसिपल तो लगती ही नहीं हो.’’

सुन कर दोनों बहनें हंस दीं.

‘‘इस लबादे को उतार सकूं इसीलिए तो तुम्हें ले कर यहां आई हूं.’’

‘‘आप हमेशा ऐसे ही रहा करें न मौसी.’’

‘‘कोशिश करूंगी, बिटिया.’’

खामोश कमला सोचने लगी कि यह लड़की कितनी उन्मुक्त है. केतकी की कही गई भोली बातें बारबार मुझे अतीत की ओर खींच रही थीं. कैसा स्वच्छंद जीवन था मेरा. सब को उंगलियों पर नचाने की कला मैं जानती थी. फिर ऐसा क्या हुआ कि शस्त्र सी मजबूत मेरे जैसी युवती कचनार की कली सी नाजुक बन गई.

सच, कैसी है यह जिंदगी. रेलगाड़ी की तरह तेज रफ्तार से आगे बढ़ती रहती है. संयोगवियोग, घटनाएंदुर्घटनाएं घटती रहती हैं, पर जीवन कभी नहीं ठहरता. चाहेअनचाहे कुछ घटनाएं ऐसी भी घट जाती हैं जो अंतिम सांस तक पीछा करती हैं, भुलाए नहीं भूलतीं और कभीकभी तो जीवन की बलि भी ले लेती हैं.

अच्छा घरवर देख कर कमला के  मातापिता उस का विवाह कर देना चाहते थे पर एम.ए. में सर्वाधिक अंक प्राप्त करने पर स्कालरशिप क्या मिली, उस के तो मानो पंख ही निकल आए. पीएच.डी. करने की बलवती इच्छा कमला को लखनऊ खींच लाई. यूनिवर्सिटी के एक प्रोफेसर मुकेश वर्मा के निर्देशन में रिसर्च का काम शुरू किया. 2 साल तक गुरु और शिष्या खूब मेहनत से काम करते रहे. तीसरे साल में दोनों ही काम समाप्त कर थीसिस सबमिट कर देना चाहते थे.

‘कमला, इस बार गरमियों की छुट्टियों में मैं कोलकाता नहीं जा रहा हूं. चाहता हूं, कुछ अधिक समय लगा कर तुम्हारी थीसिस पूरी करवा दूं.’

‘सर, अंधा क्या चाहे दो आंखें. मैं भी यही चाहती हूं.’

थीसिस पूरी करने की धुन में कमला सुबह से शाम तक लगी रहती. कभीकभी काम में इतनी मग्न हो जाती कि उसे समय का एहसास ही नहीं होता और रात हो जाती. साथ खाते तो दोनों में हंसीमजाक की बातें भी चलती रहतीं. रिश्तों की परिभाषा धीरेधीरे नया रूप लेने लगी थी. प्रो. वर्मा अविवाहित थे. कमला को विवाह का आश्वासन दे उन्होंने उसे भविष्य की आशाओं से बांध लिया. धीरेधीरे संकोच की सीमाएं टूटने लगीं.

‘कितना मधुर रहा हमारा यह ग्रीष्मावकाश, समय कब बीत गया पता ही नहीं चला.’

‘अवकाश समाप्त होते ही मैं अपनी थीसिस प्रस्तुत करने की स्थिति में हूं.’

‘हां, कमला, ऐसा ही होगा. मेरे विभाग में स्थान रिक्त होते ही तुम्हारी नियुक्ति मैं यहीं करवा लूंगा, फिर अब तो तुम्हें रहना भी मेरे साथ ही है.’

इन बातों से मन के एकांतिक कोनों में रोमांस के फूल खिल उठते थे. जीवन का सर्वथा नया अध्याय लिखा जा रहा था.

‘तुम्हारी थीसिस सबमिट हो जाए तो मैं कुछ दिन के लिए कोलकाता जाना चाहता हूं.’

‘नहीं, मुकेश, अब मैं तुम्हें कहीं जाने नहीं दूंगी.’

‘अरी पगली, परिवार में तुम्हारे शुभागमन की सूचना तो मुझे देनी होगी न.’

‘सच कह रहे हो?’

‘क्यों नहीं कहूंगा?’

‘मुकेश, किस जन्म के पुण्यों का प्रतिफल है तुम्हारा साथ.’

‘तुम भी कुछ दिन के लिए घर हो आओ, ठीक रहेगा.’

परिवार में कमला का स्वागत गर्मजोशी से हुआ. पहले दिन वह दिन भर सोई. मां ने सोचा बेटी थकान उतार रही है. फिर भी उन्हें कुछ ठीक नहीं लग रहा था. अनुभवी आंखें बेटी की स्थिति ताड़ रही थीं. एक सप्ताह बीता, मां ने डाक्टर को दिखाने की बात उठाई तो कमला ने खुद ही खुलासा कर दिया.

‘विवाह से पहले शारीरिक संबंध… बेटी, समाज क्या सोचेगा?’

‘मां, आप चिंता न करें. हम दोनों शीघ्र ही विवाह करने वाले हैं. वैसे मुझे लखनऊ यूनिवर्सिटी में लेक्चररशिप भी मिल गई है. मुकेश भी वहीं प्रोफेसर हैं. मैं आज ही फोन से बात करूंगी.’

‘जरूर करना बेटी. समय पर विवाह हो जाए तो लोकलाज बच जाएगी.’

कमला ने 1 नहीं, 2 नहीं कम से कम 10 बार नंबर डायल किए, पर हर बार रांग नंबर ही सुनना पड़ा. वह बहुत दिनों तक आशा से बंधी रही. समय बीतता जा रहा था. उस की घबराहट बढ़ती जा रही थी. बड़ी बहन रोहिणी भी चिंतित थी. वह उसे अपने साथ पटना ले आई. नर्सिंग होम में भरती करने के दूसरे दिन ही उस ने एक कन्या को जन्म दिया. पर वह कमला की नहीं रोहिणी की बेटी कहलाई. सब ने यही जाना, यही समझा. इस तरह समस्या का निराकरण हो गया था. मन और शरीर से टूटी विवश कमला ड्यूटी पर लौट आई.

निसंतान रोहिणी को विवाह के 15 वर्ष बाद संतान सुख प्राप्त हुआ था. उस का आंगन खुशियों से महक उठा. बहुत प्रसन्न थी वह. कमला की पीड़ा भी वह समझती थी. सबकुछ भूल कर वह विवाह कर ले, अपनी दुनिया नए सिरे से बसा ले, यही चाहती थी वह. सभी ने बहुत प्रयत्न किए पर सफल नहीं हो पाए.

अवकाश समाप्त होने के कई महीनों बाद भी मुकेश नहीं लौटा था. बाद में उस के नेपाल में सेटिल होने की बात कमला ने सुनी थी. उस दिन वह बहुत रोई थी, पछताई थी अपनी भावुकता पर. आवेश में पुरुष मानसिकता को लांछित करती तो स्वयं भी लांछित होती. अत: जीवन को पुस्तकालय ही हंसतीबोलती दुनिया में तिरोहित कर दिया.

कभी अवकाश में दीदी के पास चली जाती, पर केतकी ज्योंज्यों बड़ी हो रही थी उसे मौसी का आना अखरने लगा था. वह देखती, समाज की वर्जनाओं की परवा न कर के जीजाजीजी ने बिटिया को पूरी छूट दे रखी है. आधुनिक पोशाकें डिस्को, ब्यूटीपार्लर, सिनेमा, थियेटर कहीं कोई रोकटोक नहीं थी. इतना सब होने पर भी वे बेटी का मुंह जोहते, कहीं किसी बात से राजकुमारी नाराज तो नहीं.

‘‘इस बार जन्मदिन पर मुझे कार चाहिए, पापा,’’ बेटी के साहस पर चकित थी रोहिणी. मन ही मन वह जानती थी कि जिस शक्ति का यह अंश है, संसार को उंगली पर नचाने की ऐसी ही क्षमता उस में भी थी. युवा होती केतकी के व्यवहार में रोहिणी को कमला की झलक दिखाई देती.

ऐसी ही हठी थी वह भी. मनमाना करने को छटपटाती रहती. हठ कर के लखनऊ चली आई. बेटी को त्यागने का निश्चय एक बार कर लिया तो कर ही लिया. पर आंख से ही दूर किया है, मन से कैसे हटा सकती है. अभी इस के एम.बी.बी.एस. पूरा करने में 2 वर्ष बाकी हैं. पर अभी से अच्छे जीवनसाथी की तलाश में जुटी हुई है. कैसे समझाऊं कमला को? कब तक छिपाए रखेंगे हम यह सबकुछ. एक न एक दिन तो वह जान ही जाएगी सब. सहसा केतकी के आगमन से उस के विचारों की शृंखला टूटी.

‘‘ममा, आप मेरे बारे में हर बात की राय मौसी से क्यों लेती हैं? माना वह कालिज में पढ़ाती हैं पर मैं जानती हूं कि वह आप से ज्यादा समझदार नहीं हैं.’’

‘‘मां को फुसलाने का यह बढि़या तरीका है.’’

‘‘नहीं, ममा, मैं सच कहती हूं. वह आप जैसी हो ही नहीं सकतीं. आप के साथ कितना अच्छा लगता है. और मौसी तो आते ही मुझे डिस्पिलिन की रस्सियों से बांधने की चेष्टा करने लगती हैं.’’

‘‘केतकी, कमला मुझे तुम्हारे समान ही प्रिय है. मेरी छोटी बहन है वह.’’

‘‘आप की बहन हैं, ठीक है पर मेरी जिंदगी के पीछे क्यों पड़ी रहती हैं?’’

‘‘बिटिया सोचसमझ कर बोला कर. मौसी का अर्थ होता है मां सी.’’

‘‘सौरी, ममा, इस बार आप की बहन को मैं भी खुश रखूंगी.’’

वातावरण हलका हो गया था.

आज मौसम बहुत सुहाना था. लौन की हरी घास कुछ ज्यादा ही गहरी हरी लग रही थी. सफेद मोतियों से चमकते मोगरे के फूल चारों ओर हलकीहलकी मादक सुगंध बिखेर रहे थे. सड़क को आच्छादित कर गुलमोहर के पेड़ फूलों की वर्षा से अपनी मस्ती का इजहार कर रहे थे. प्रकृति का शीतल सान्निध्य पा कर कमला की मानसिक बेचैनी समाप्त हो गई थी. चाय की प्यालियां लिए रोहिणी पास आ बैठी.

‘‘क्या सोच रही हो, कमला?’’

‘‘कुछ नहीं, दीदी, ऊपर देखो, सफेद बगलों का जोड़ा कितनी तेजी से भागा जा रहा है.’’

‘‘अपने गंतव्य तक पहुंचने की जल्दी है इन को. क्या तुम नहीं जानतीं कि संध्या ढल रही है और शिशु नीड़ों से झांक रहे होंगे,’’ इतना कह कर रोहिणी खिलखिला दी.

‘‘जानती हूं दीदी, लेकिन जिस का कोई गंतव्य ही न हो वह कहां जाए? किनारे के लिए भटकती लहरों की तरह मंझधार में ही मिट जाना उस की नियति होती होगी.’’

‘‘ऐसा क्यों सोचती हो, कमला. तुम्हारा वर्तमान तुम्हारा गंतव्य है. चाहो तो अब भी बदल सकती हो इस नियति को.’’

‘‘नहीं, दीदी, मुक्त आकाश ही मेरा गंतव्य है, अब तो यही अच्छा लगता है मुझे.’’

कमला एकदम सावधान हो गई. पिछले कई महीनों से जीजाजी विवाह के लिए जोर डाल रहे हैं. मस्तिष्क में विचार गड्डमड्ड होने लगे. जीजी, आज फिर उस बैंक मैनेजर का किस्सा ले बैठेंगी. जीवन के सुनिश्चित मोड़ पर मिला साथी जब छल कर जाए तो कैसा कसैला हो जाता है संपूर्ण अस्तित्व.

‘‘केतकी को देखती हूं तो अविश्वास का अंधकार मेरे चारों ओर लिपट जाता है. इस मासूम का क्या अपराध? जीजी, तुम्हारा दिल कितना बड़ा है. मेरे जीवन की आशंका को तुम ने अपनी आशा बना लिया. मुकेश की सशक्त बांहों के आश्रय में कितना कुछ सहेज लिया था मैं ने, पर मुट्ठी से झरती रेत की तरह सब बह गया.’’

रात की कालिमा पंख फैलाने लगी थी. कमला के जेहन में बीती घटनाएं केंचुओं की तरह जिस्म को काटती हुई रेंग रही थीं. कैसेकैसे आश्वासन दिए थे मुकेश ने. प्रगतिशील पुरुष का प्रतिबिंब उस का व्यक्तित्व जैसे ‘डिसीव’ शब्द ही नहीं जानता था. मेरी आशंकाओं को निर्मल करने के लिए अपने स्तर पर वह इस शब्द का अस्तित्व ही मिटा देना चाहता था. अंत में क्या हुआ. दोहरे व्यक्तित्व का नकाबपोश. बहुत देर तक रोती रही कमला.

कभी अनजाने में ही मुकेश की उपस्थिति कमला के आसपास मंडराने लगती. तब वह बहुत बेचैन हो जाती, जैसे कोई खूनी शेर तीखे पंजों से उस के कोमल शरीर को नोच रहा हो. सबकुछ बोझिल और उदास लगने लगता. दुनिया को पैनी निगाहों से परखने वाली कमला सोचती, इस संसार में चारों ओर कितना सुख बिखरा है पर दुख की भी तो कमी नहीं है. ऐसे में कवि पंत की ये पंक्तियां वह अकसर गुनगुनाने लगती : ‘जग पीडि़त है अति सुख से जग पीडि़त है अति दुख से.

मानव जग में बंट जाए सुख दुख से, दुख सुख से.’

अंधकार बढ़ रहा था, वातावरण पूरी तरह से नीरव था. कमला बुदबुदा रही थी, अपने ही शब्द सुन रही थी. केतकी को क्या समझूं एक दिन के लिए भी मैं इसे अपना न कह सकी. दीदी सहारा न देतीं तो इस उपेक्षित बाला का भविष्य क्या होता? कितनी खुश है यहां. यह तो उन्हें ही वास्तविक मातापिता समझती है.

एम.बी.बी.एस. की परीक्षा केतकी ने स्वर्णपदक के साथ उत्तीर्ण की. हर बात की टोह रखने वाली कमला अगले ही दिन पटना पहुंच गई. केतकी हैरान रह गई.

‘‘ममा, यह आप ने क्या किया? कल रिजल्ट आया और आज आप ने मौसी को बुला भी लिया.’’

‘‘तुम्हारी पीठ ठोकने चली आई. उसे कैसे रोकती मैं.’’

कमला ने केतकी को हृदय से लगा लिया. मौसी की आंखों में अपने लिए आंसू देख कर वह चकित थी.

‘‘यह क्या? आप रो रही हैं?’’

‘‘पगली, खुशी के भी आंसू होते हैं. होते हैं न?’’ गाल को उंगली से छू कर कहा कमला ने, ‘‘मैं तुम्हें ताज में पार्टी दूंगी बिटिया. तुम अपने दोस्तों को भी खबर कर दो. मैं उन सब से मिलना चाहती हूं.’’

‘‘सच मौसी, आप को अच्छा लगेगा?’’

‘‘क्यों नहीं? मेरी लाडली अब डाक्टर है, अबोध बच्ची नहीं.’’

कमला बहुत खुश थी. पार्टी चल रही थी. बहुत से जोडे़ हंस रहे थे. आपस में बतिया रहे थे. उसी दिन कमला ने देखा केतकी और कुणाल के हावभाव में झलकता निच्छल अनुराग.’’

‘‘कमला, केतकी और कुणाल के संबंधों की बात मैं खुद ही तुम्हें बताना चाहती थी पर कह न पाई,’’ रोहिणी बोली, अब तुम ने सब देख लिया है. अच्छा हो इस बार यह संबंध तय कर के जाओ.

‘‘जीजी, यह अधिकार आप का है.’’

‘‘तुम्हारी स्वीकृति आवश्यक है.’’

‘‘दीदी, कुणाल को मैं जानती हूं. मेरी क्लासमेट अनुराधा का बेटा है वह, बहुत भला और संस्कारी परिवार है. आप कहें तो कल अनु को बुला लूं.’’

‘‘क्यों नहीं, मैं तुम्हारे चेहरे पर खुशी की रेखा देखना चाहती हूं.’’

कमला ने कालिज से एक माह का अवकाश ले लिया था. विवाह खूब धूमधाम से संपन्न हुआ. कमला लखनऊ लौट गई. अपने कमरे के एकांत में वर्षों बाद उस ने मुकेश का नाम लिया था पर लगा जैसे चारों ओर कड़वाहट फैल गई हो. चाहत में डुबो कर तुम ने मुझे छला मुकेश और तुम्हारे राज को मैं ने 24 वर्ष तक हृदय की कंदरा में छिपाए रखा. मैं केतकी को तुम्हारी बेटी कभी नहीं कहूंगी. तुम इस योग्य हो भी नहीं. पता नहीं रिसर्च और सर्विस का झांसा दे कर तुम ने मेरे जैसी कितनी अबोध युवतियों के साथ यह खेल खेला होगा. बेटी के सुखी भविष्य के लिए मैं उसे तुम्हारा नाम नहीं बताऊंगी.

‘‘ममा, मौसी का फोन है.’’

‘‘दीदी, मैं कल ही कालिज का ट्रिप ले कर कुल्लूमनाली जा रही हूं. 10 दिन का टूर है. हां, केतकी कैसी है?’’

‘‘दोनों बहुत खुश हैं. तुम अपना ध्यान रखना.’’

‘‘ठीक है, जीजी,’’ कह कर कमला फोन पर खिलखिला कर हंसी थी. रोहिणी को लगा कि बेटी का घर बस जाने की खुशी थी यह.

नियत तिथि पर टूर समाप्त हुआ. केतकी के लिए ढेरों उपहार देख रोहिणी चकित थी कि हर समय इस के दिल में केतकी बसी रहती है.

अवकाश समाप्त होने में अभी 10 दिन शेष थे. कमला दीदी और केतकी के साथ घर पर रहने के मूड में थी. पर आने के 2 दिन बाद ही कमला को ज्वर हो आया. डा. केतकी ने दिनरात परिचर्या की. कोई सुधार होता न देख कर दूसरे डाक्टर साथियों से भी सहायता ली उस ने.

‘‘जीजी, लगता है अब यह ज्वर नहीं जाएगा. मेरा अंत आ पहुंचा है.’’

‘‘ऐसा मत कहो, कमला. अभी तुम्हें केतकी के लिए बहुत कुछ करना है.’’

‘‘समय क्या किसी के रोके रुका है, जो मैं उसे रोक लूंगी. दीदी, केतकी को बुला दीजिए.’’

‘‘वह तो यहीं बैठी है तुम्हारे पास.’’

‘‘बेटी, यह जरूरी कागज हैं तुम्हारे और कुणाल के लिए. इन्हें संभाल कर रख लेना.’’

‘‘यह क्या हो रहा है ममा? मेरी तो कुछ भी समझ में नहीं आ रहा.’’

‘‘कमला, केतकी कुछ जानना चाहती है.’’

‘‘जीजी, आप सब जानती हैं, जितना ठीक समझो बता देना. मेरे पास अब समय नहीं है.’’

कमला ने अंतिम सांस ली. तड़प उठी केतकी. पहली बार रोई थी वह उस अभागी मां के लिए, जो जीवन रहते बेटी को बेटी कह कर छाती से न लगा सकी.

सबकुछ है पर कुछ नहीं: राधिका को किस चीज की कमी थी

‘‘दीदी,जीजाजी कहा हैं? फोन भी औफ कर रखा है.’’

‘‘बिजी होंगे किसी मीटिंग में, तुम बैठो तो सही, क्या लोगे?’’

‘‘जीजाजी के साथ ही बैठूंगा अब दीदी. मां ने जीजाजी के लिए ये कुछ चीजें भेजी हैं. अच्छा मैं आता हूं अभी,’’ कह कर दिनेश अपनी बड़ी बहन राधिका, जो एक बड़े मंत्री की पत्नी थी, को बैग पकड़ा कर विशालकाय कोठी से बाहर निकल गया.

राधिका ने उत्साह से बैग खोल कर मां की भेजी हुई चीजों पर नजर डाली. सब चीजें उस के पति अमित की पसंद की थीं, उस की खुद की पसंद की एक भी चीज नहीं थी. मां ने सबकुछ अपने मंत्री दामाद के लिए भेजा था, अपनी बेटी के लिए कुछ भी नहीं.

अजीब सा मन हुआ राधिका का. ठंडी सांस लेते हुए बैग एक किनारे रख वहीं सोफे पर बैठ कर अमित के पीए को फोन मिलाया तो उस ने अमित को बता दिया.

‘‘हां बोलो, राधिका, क्या हुआ?’’ अमित

ने पूछा.

‘‘बस, यही याद दिलाना था कि कल सुजाता के स्कूल जाना है, कोई प्रोग्राम मत रखना और हां, दिनेश भी आया है.’’

‘‘हांहां, चलेंगे कल. अभी बिजी हूं बाद में बात करता हूं,’’ कह कर अमित ने फोन रख दिया.

बेटी सुजाता के स्कूल का वार्षिकोत्सव है कल. अमित को याद दिला दिया. वे चलेंगे यह बड़ी बात है नहीं तो अमित इतने व्यस्त रहते हैं कि राधिका ने उन से कोई उम्मीद रखनी छोड़ ही चुकी है… पता नहीं कल कैसे समय निकाल पाएंगे. हो सकता है सुजाता की लगातार जिद का असर हो… वैसे तो उसे आजकल यही लगता है कि कहने के लिए उस के पास सबकुछ है पर हकीकत में नहीं है.

राधिका के सारे रिश्तेदार, दोस्त, परिचित, पड़ोसी सब के लिए वह बस राज्य सरकार के एक मंत्री की पत्नी है. वह तरसती रहती है कि काश, किसी के दिल में उस के लिए, राधिका के लिए, कोई स्थान हो. वह हर तरफ  से अमित से काम निकलवाने वाले लोगों से घिरी रहती है. उस के अपने मायके वाले बस अमित की की ही जीवनशैली, पद, अधिकार में रुचि रखते हैं, उस की तथाकथित दोस्त, परिचित सिर्फ अमित की ही बात करना पसंद करते हैं.

उस के युवा बच्चे सुजाता और सुयश भी पिता के पद के अहंकार में डूबे मां की ममता को व्यर्थ की चीज समझते हैं. वह जब भी अपने बच्चों से उन के स्कूल, दोस्तों की बातें करना चाहती है तो बच्चों के अहं और दर्दभरे स्वर से उसे लगता ही नहीं कि वह अपने बच्चों से बात कर रही है. लगता है किसी मंत्री के घमंडी बच्चों से बात कर रही है. आजकल वह ज्यादातर चुप ही रहती है. किस से बात करें और क्या बात करे. सब की तो उस के मंत्री पति में ही रुचि है, उस का अपना तो कहीं कोई है ही नहीं… वह अपने विचारों में गुम थी. अमित और दिनेश अंदर आते दिखे. दिनेश ने आते हुए कहा, ‘‘देखो दीदी, जीजाजी को जबरदस्ती पकड़ कर ले आया हूं, अब साथ में लंच करेंगे,’’

आकर्षक व्यक्तित्व के स्वामी अमित मुसकराते हुए बोले, ‘‘देख लो राधिका, तुम्हारा भाई मुझे औफिस से जबरदस्ती उठा लाया है. बोला आप से मिलने ही तो आया हूं.’’

‘‘हां जीजाजी, मैं आप से ही मिलने आया था. दीदी का क्या है, उन से तो कभी भी मिल सकते हैं. दीदी, अब लंच लगवा दो.’’

अमित जब तक  फ्रैश हो कर आए खाना लग चुका था. तीनों खाने बैठे तो दिनेश ने कहा, ‘‘जीजाजी, मैं आज ही वापस चला जाऊंगा. बस आप याद रखना आप को मेरे दोस्त का काम करवाना ही पड़ेगा.’’

राधिका ने पूछा, ‘‘कौन सा काम दिनेश?’’

‘‘आप रहने दो दीदी, यह जीजाजी के बस का ही है, मैं ने उन्हें रास्ते में समझा दिया है सब.’’

अमित मुसकराते हुए खाना खाते रहे. थोड़ी देर में बच्चे भी आ गए, वे भी खाना खा कर सब के साथ बैठ गए.

सुजाता अगले दिन होने वाले स्कूल के प्रोग्राम के बारे में उत्साह से बताने लगी, ‘‘कल मेरे दोस्त भी तो देखें मेरे डैड क्या चीज हैं. एक मंत्री के जलवे मेरी टीचर्स भी तो देखें.’’

सुजाता खिलखिला रही थी, सुयश भी दिनेश से बातों में व्यस्त था. राधिका चुपचाप सब की बातें सुन रही थी.

दिनेश ने कहा, ‘‘जीजाजी, आप के लिए मां ने कुछ चीजें भेजी हैं, जरूर खाना.’’

अभी कुछ दिन पहले तक ऊंची जातियों के जो साथी बच्चों से कन्नी सी काटते थे, अमित के मंत्री बनते ही उन से दोस्ती बढ़ाने लगे थे.

‘‘अच्छा? उन्हें मेरा धन्यवाद कहना.’’

अमित की आकर्षक हंसी को निहारती रह गई राधिका कि अमित का संपूर्ण व्यक्तित्व कितना आकर्षक व प्रभावशाली है. हालांकि उन में थोड़ा सा गांव का टच आता है पर फिर भी कीमतों कपड़ों में वह छिप जाता है. कितनी मेहनत से पहुंचे हैं यहां तक और अब जब

जीवन में हर सुखसुविधा है तो उसे क्यों लगता

है उस के पास कुछ नहीं है. उस से अच्छी तो वह तब थी जब छोटे से घर में रहती थी और अमित उस के चारों और मंडराता थे. उस ने अपनी सोच को झटक दिया. अमित उठ खड़े हुए थे, ‘‘राधिका, आने में देर होगी, डिनर शायद घर न करूं.’’

उन के उठते ही दिनेश भी जाने के लिए खड़ा हो गया, तो राधिका बोल पड़ी, ‘‘दिनेश, तुम तो रुको… तुम तो बैठे ही नहीं मेरे पास.’’

‘‘नहीं दीदी, मैं भी निकलता हूं,’’ कह वह अमित के साथ ही निकल गया. बच्चे अपनेअपने रूम में चल गए, वह अकेली खड़ी रह गई, फिर वह भी अपने बैडरूम में चली गई.

अगले दिन सुजाता अमित और राधिका के साथ उस के स्कूल पहुंची. स्कूल के

गेट पर ही अमित का भव्य स्वागत हुआ. राधिका भी मुसकरा कर सब के अभिवादन का जवाब देती रही. ऐसे में उसे हमेशा महसूस होता था जैसे

वह कोई मशीन है या कठपुतली है अथवा

रोबोट, मन में कोई उमंग नहीं. बस, सब अमित को घेरने की कोशिश करते रहते थे और वह सजीधजी अपनी नकली मुसकराहट बिखरेती,

उन के साथ खड़े रहने की कोशिश करती रह जाती थी.

स्कूल में पता नहीं कितने बच्चों ने, कितनी टीचर्स ने अमित के साथ फोटो खिंचवाए. वहां सब उन के आसपास पहुंचने की कोशिश करते रहे. अमित का सुरक्षा घेरा आज अमित के कहने पर कुछ दूरी पर ही रहा. समारोह में आने के लिए उन्हें विशेष रूप से धन्यवाद कहा गया.

प्रोग्राम खत्म होने पर राधिका रोबोट की तरह उन के साथ चलती घर आ गई. घर आ कर देखा अमित की 2 चचेरी बहनें आई हुई थीं. राधिका उन की आवभगत में व्यस्त हो गई.

बड़े मंत्री की पत्नी बनना भी कांटों का ताज पहनना है यह वह भलीभांति समझ गई थी पर कुशल पत्नी की भांति वह बिना मीनमेख निकाले जानबूझ कर भी मक्खी निगल लेती थी. दिनरात के मेहमानों ने उस की नाक में दम कर रखा था. पहले भी लोग आते थे पर कम और उन के अपने स्तर के. अब तरहतरह के लोग आतेजाते थे.

कभी कोई आत्मीय इंटरव्यू के लिए चला आ रहा है तो कभी कोई अपना

ट्रांसफर रुकवाने. कभीकभी उस के जी में आता सब को निकाल बाहर करे पर भारतीय नारी और वह भी जिस के पुरखों ने कभी ऐश नहीं देखी हो, कभी ऐसा दुस्साहस कर सकती है खूब हंसहंस कर वह मेहमानों की आवभगत करती रहती है.

दोनों बहनें रेखा और मंजू अपनी सुसराल के किसी रिश्तेदार की फैक्टरी लगाने में आई अड़चनें दूर करवाने की बात कर रही थीं. अमित ने उन की बात सुन कर मदद करने का आश्वासन दिया.

रेखा और मंजू बहुत दिनों बाद आईर् थीं. राधिका ने सोचा आज कुछ देर बैठ कर उन से बातें करेगी पर अमित के उठते ही वे दोनों भी जल्दीजल्दी चाय समाप्त कर अमित के साथ ही निकलने के लिए उठ खड़ी हुईं. उन्हें भी सिर्फ अमित से ही मतलब था. राधिका का दिल फिर डूब गया. उसे लगने लगा उस के पास कोई बात करने वाला नहीं है जो कुछ उस की सुने, कुछ अपनी कहे. किसी आम औरत की तरह वह पासपड़ोस में बैठ कर गप्पें नहीं मार सकती थी.

एक बार किट्टी पार्टी जौइन की तो वहां भी हर सदस्य किसी न किसी काम की सिफारिश करता रहा तो राधिका ने वहां जाना भी बंद कर दिया. किसी समाजसेवा संस्था से जुड़ना चाहा तो वहां भी अमित की पुकार होती रहती. अब राधिका ने धीरेधीरे सब जगह जाना छोड़ दिया था.

मंत्री की पत्नी होने के सुखदुख पर वह मन ही मन गौर करती और किसी से शेयर न कर पाने की स्थिति में मन ही  मन अकेलेपन से घिरी रहती. कभी दिनबदिन व्यस्त होते अमित से मिले कभीकभार कुछ अंतगरंग पल उस की झोली में आ गिरते तो वह कई दिनों तक उन्हें सहेजे रहती.

एक दिन जब उस के बचपन की प्रिय सखी का फोन आया कि  वह किसी काम से लखनऊ आ रही है तो राधिका खिल उठी.

कामिनी ने छेड़ा, ‘‘मंत्री की पत्नी बन कर मिलेगी या सहेली बन कर?’’

हंस पड़ी राधिका, ‘‘तू आ कर खुद ही

देख लेना.’’

कामिनी आई तो राधिका के ठाटबाट देख कर हैरान रह गई. राधिका के गले लगते हुए बोली, ‘‘वाह, कभी सोचा था ऐसा वैभव देखेगी? चल, पूरा घर दिखा पहले.’’

घर था तो सरकारी बंगला. अमित के

कहने पर कई ठेकेदारों ने मुफ्त में उस का काया पलट कर दिया था. वह देखती रह गई कि कैसे

2 महीनों में रातदिन लगा कर खंडहर को महल बना दिया गया. बाहर काले ग्रेमइट पर खुदा था

-अमित कुमार मंत्री, राज्य सरकार.

राधिका ने उसे पूरा घर दिखाया. कामिनी ने खुले दिल से कोठी की भव्यता की प्रशंसा की. कामिनी किसी विवाह में शामिल होने आई थी और सीधी राधिका के पास ही आ गई थी. कामिनी और राधिका का बचपन रुड़की में एक ही गली में आमनेसामने के घरों में बीता था. दोनों के पिताओं के पास पैसा न था. छोटीछोटी नौकरियां ही तो करते थे. कामिनी फ्रैश होने चली गई तो राधिका को बीते समय की बहुत सी बातें याद आने लगी.

राधिका और कामिनी की कालेज की पढ़ाई भी साथ हुई थी, उसी कालेज में अमित उसे पसंद आ गया था. उस के पिता भी साधारण थे पर पिता और पुत्र दोनों राजनीति में सक्रिय थे.

राधिका और दोनों का साधारण सा विवाह हो गया था. स्टूडैंट राजनीति से शुरू कर मेन राजनीति में अपनी पकड़ बनाते चले गए थे अमित. पिछड़े वर्ग का होने के कारण हर पार्टीको उनकी जरूरत थी. वे मेधावी भी थे. एक मंत्री की पत्नी बन कर वह कभी गर्व से इतराती तो कभी अकेलेपन में अकुलाती, पति की व्यस्त दिनचर्या, नपीतुली बातचीत और संतुलित व्यवहार के साथ खुद को परिवेश में डालने की कोशिश में जीवन बीतता चला गया था.

कामिनी राधिका के ऐशोआराम पर मुग्ध थी. कामिनी का पति एक ऊंची

जाति का था. एमबीए में कामिनी से मिला था. राधिका जो बहुत कुछ बांटना चाहती थी अपनी बालसखी से, कुछ भी नहीं कह पाई. कामिनी खूब उत्साह से उस की घरगृहस्थी की तारीफ करने में ही व्यस्त रही.

खाने की टेबल पर शानदार लंच देख कर, नौकरों को इधर से उधर काम करते देख कामिनी ने चहकते हुए खाना शुरू किया, बोली, ‘‘राधिका, इतना वैभव, ऐशोआराम का हर साधन, योग्य पति, बच्चे, वाह, सबकुछ है न आज तेरे पास?’’ राधिका ने फीकी सी हंसी हंसते हुए मन ही मन कहा कि हां, सबकुछ है पर कुछ नहीं.’’

कामिनी ने उस के हाथ पर हाथ रखते हुए कहा, ‘‘राधिका मैं समझ सकती हूं कि तुम पर क्या बीत रही होगी. साधारण घरों में बड़े हुए हम लोगों को प्यार चाहिए. यह वैभव, पैसा कचोटता है. मयंक के पास पैसा भी है और ऊंची जाति होने का गरूर भी. मैं भी कमाती हूं पर वह खुशी नहीं मिलती. मयंक ने कितनी बार कहा कि तुम से कह कर कोई काम करा दूं पैसा भी मिल जाएगा. पर मैं जानती हूं कि तुझे प्यारी सहेली चाहिए, पैसा नहीं. इतने साल में इसीलिए आने से कतराती रही कि न जाने तू कहीं बदल नहीं गई हो पर उस दिन स्कूल में हुए कार्यक्रम की रिपोर्ट टीवी में देखी तो तेरे चेहरे की बनावटी मुसकान के पीछे का दर्द में देख सकती थी. अब तो तू भंवरजाल में फस चुकी है… खुश रह.’’

राधिका ने कहा, ‘‘तू सही कहती है, कामिनी. इसी कुछ नहीं के साथ जीना पडे़गा वरना न वे बच्चे साथ रहेंगे, न भाई, न मांबाप.’’

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